SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३/१५ नौवां परिशिष्ट ११३ १४. (पृ० १५२)-टि०३६ (पृ० ३१९)-यु० मी० (१९६५/ ६ बी) ने उन पाश्चात्य विद्वानों पर कुछ कठोरता से आक्रमण किया है जो काशकृत्स्न धातुपाठ की प्राचीनता को स्वीकार नहीं करते । वे कहते है (१९६५/६ बी : २२)-'पाश्चात्यानां विदुषां " "उक्त्वापत्वपन्ति ।' उन्होंने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि ५ कातन्त्र धातुपाठ काशकृत्स्न धातुपाठ का संक्षेप है; यु० मी० (१६७३ : २ : २६-३२६) भी देखें। १५. (पृ० १५४-टि० ४४ (पृ० ३१९)-यु० मी० (१९७३ : १ : २२०-२२१) का भी मत है कि पाणिनीय व्याकरण के तीन पाठ थे : पूर्व-पाठ जो काशिका वृत्ति का प्राधार था, उत्तर-पाठ जिस पर १० क्षीरस्वामी तथा अन्य कश्मीरियों ने टीका की तथा दक्षिण-पाठ जिस पर कात्यायन ने अपने वात्तिकों की रचना की। वे यह भी मानते हैं कि इन पाठों में से प्रत्येक का वृद्ध एवं लघु पाठ था । १६. (पृ० १५४-१५५)-ये परिवर्तन हैं-योगविभाग, शब्दपरिवर्तन, शब्द-परिवर्धन, सूत्र-परिवर्धन ।' प्रायः विद्वान कीलहान १५ के निष्कर्षों को स्वीकार कर चुके हैं, उदाहरण--स० क० वेल्वाल्कर, रेणु, कपिलदेव । परन्तु यु० मी० (१९७३ : १ : २१६-२०१) यह कहते हुए वैमत्य प्रकट करते हैं कि ये परिवर्तन काशिका के रचयिताओं द्वारा कृत नहीं कहे जा सकते, किन्तु उन बहुत पूर्ववर्ती वैयाकरणों तक जाने चाहियें। उन्होंने चार साक्ष्य (१९७३ : १ : २० जहां समान नामवाले अनेक व्यक्ति होते हैं वहां भेद-परिज्ञान के लिये कोई विशेषण अवश्य लगाया जाता है। यतः वैयाकरण काशकृत्स्न और वेदान्तसूत्रोद्धृत काशकृत्स्न में नाम के साथ कोई भेदक विशेषण नहीं है, अत: दोनों ग्रन्थों में स्मृत एक ही व्यक्ति है । यह निर्विवाद है। . प्रस्तुत सं० पृष्ठ ३०-३३॥ प्रस्तुत सं०, पृष्ठ २३७ २३६ । * यदि किन्हीं विद्वानों ने कीलहान के निकर्षों को विना परीक्षा परप्रत्ययनेय बुद्धि से स्वीकार कर लिया हो, तो अन्यों को भी स्वीकार कर लेना चाहिये, यह कोई हेतु नहीं। प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ २३४-२३७ । २५
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy