________________
१६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ७) शब्देन्दुशेखरव्याख्या-श्री म० म० सुब्बरायाचार्याः । ८) शेखरद्वयव्याख्या मद्विहिता सत्यप्रमोदिन्याख्या । ६) लघुशेखरव्याख्या-एलमेलिविठ्ठलाचार्याः। ,
भावत्कं मित्रम् पद्मनाभाचार्यः
श्री नाथूराम प्रेमी का पत्र मैंने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ की प्रेस कापी लिखते समय प्राचार्य देवेनन्दीकृत जैनेन्द्र व्याकरण के सम्बन्ध में डा० काशीलाथ बापू
जी और डा० बेल्वल्कर के वार्षगण्यः पदसंबन्धी लेखों को देखा था। उसी १० समय श्री नाथूराम जी प्रेमी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ
भी देखा । उसमें श्री प्रेमी जी ने श्री बापू जी एवं डा० बेल्वल्कर द्वारा निर्दिष्ट उद्धरणों एवं उन से निष्कासित परिणामों को स्वीकार किया है। इन सभी के लेखों में ३-४ भयङ्कर भूलें थीं । इन भूलों की ओर श्री प्रेमी जी का
ध्यान आकृष्ट करने के लिये मैंने ८ अगस्त १९४८ को एक पत्र लिखा था। . १५ उसके उत्तर में श्री प्रेमीजी ने निरभिमनता एवं सहृदयता पूर्ण २१ अगस्त
१९४८ को जो पत्र लिखा था, उसका प्रारम्भिक अंश 'सं० व्या इतिहास' के देवनन्दी के प्रकरण में प्रथम संस्करण (सन् १९५०) में पृष्ठ ३२८° पर छाप दिया था। यहां उनका समग्र पत्र छापा जा रहा है। हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय
होराबाग गिरगांव
बम्बई
२६-८-४८ प्रिय महाशय
आपका ता० ७ का कृपापत्र यथासमय मिल गया था। परन्तु २५ अस्थस्थता के कारण अभी तक उत्तर न दे सका इसके लिये क्षमा करेंगे।
आपने मेरे जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी लेख में जो दो न्यूनतायें १. प्रस्तुत संस्करण में यह अंश पृष्ठ ४६७ पर छपा है।