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॥ ॐ श्रीवर्धमानाय नमः॥
॥ साधु साध्वी योग्य प्रतिक्रमाण कियानां सूत्रो. ॥
(मूलसाचे विस्तारश्री अर्थ सहित नेट आपवासारं ) मुनिमहाराज श्री सुमतिसागरजी तथा मणिसागरजी महाराजना उपदेशश्री.
उपावी मसि करनार. (खानदेश ) सीरसालानी जैनपाठशाला.
टीका उपरथी सार लेइ सरल नाषांतर करनार. जामनगर निवासि पंमित श्रावक होरालाल हंसराज. वीरसंवत्-२४३३ विक्रम संवत्-१९६४
किंमत अमूल्य. विना माकखर्च मोकलवी.
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जामनगर श्रीजैनन्नास्करोदय ठापखानामां ठाणु
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॥ प्रस्तावना.॥
+00:00
ॐ
२
॥
॥ श्रीईष्टदेवाय नमः ॥
मंगलाचरणम्. अईतो जगवंत इंश्महिताः सिज्ञाश्च सिडिस्थिताः ।
प्राचार्या जिनशासनोन्नतिकराः पूज्या नपाध्यायकाः ॥ श्रीसिझंतसुपाठका मुनिवरा रखत्रयाराधकाः ।
___ पंचैते परमेष्टिनः प्रतिदिनं कुर्वतु वो मंगलम् ॥१॥ सर्वे मुनिमहाराजोने तथा गुरुणीजी महाराजाने निवेदन थायके श्री साधु साधीनने प्रतिक्रमण क्रिया करवानी विधि. ना मूलपान पुस्तक श्री जावनगर जैनधर्म प्रसारक सता तरफथो प्रथम उपाश्ने बहार पलु डे. परंतु ते मूळ पाठनो | अर्थ ? ते जाणवानी सर्वने घणीज जरूर ले. अने तेथ) अमोए आ पुस्तक मुनिमहाराज श्री सुमनिसागरजी तथा मणिसागरजी महाराजना उपदेशथी तेना अर्थ सहित उपावी प्रमिल कयुडे, माटे ते सर्व मुनिमहाराजाने तथा गुरुणोजी महाराजोने घणुं उपयोगी यह पम्शे, एवी अमो आशा राखीये बीये.
आ पुस्तकमा साधुी साधी योग्य प्रतिक्रमणनी विधिना पाठसाये पाबळना जागमा साधु साधीनने लगती बीजी पण ॥३ केटलीक क्रियाना विधिना पागे उपयोगी जाणीने अमोए दाखल कर्या ले.
सारबाद मां श्रीनवांगीतिकारक श्रोअनयदेवमूरिजी महाराजे रचेलुं जयतिहुअणस्तोत्र तेना अर्थसहित दाखल कर्यु
बाय.
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___
अर्थ
श्री अजयदेशन रिजी महाराज जिनेश्वरमरिजोना शिष्य हता तया ते श्रीजिनेश्वरमरि तथा अन्नयदेवमूरिजीन टुंक वृ. || मत्र || शांत नीचमुजब दे.
॥ जिनेश्वर सूरिनो इतिहास.॥ या महान आचार्य नद्यतनमरिना शिष्य वर्धमानमूरिना शिष्य हता, तया वांगो टीकाकार श्री अजयदेवमूरिना गुरु हना खरतरगड या आचार्ययी चाल्यो बे. ते विक्रम संवत २०७० मा विद्यमान दना. नेम जावालपुरमा रहीने हरिजश्नरिजोना अटकपर टीका रचेली बे. तेमने गुजरातना राजा दुर्ल नसेन तरफची स्वरतरतुं विरुद मस्युं हतुं. वळी तेमणे पंचलि. गीप्रकरण, वोरचरित्र, लीलावतीकया,कथारनकोप विगरे अनेक प्रयो रचेला . तेमने माटे प्रमाविकचरित्रमा मनाचंसरिए नोचे प्रमाले वृत्तांत आपटु दे.
माळया देशमां आवेला धारा नमरीमां ज्यार नोज राजा राज्य करता डना सारे सां लक्ष्मीपति नामनो एक महा धनाढ्य व्यापारी रहेको दतो. एक दहामो सां महा विज्ञान श्रीधर अने श्रीपति नामना ब्राह्मणना पुत्र देशो जोवानी इलाथीआची चड्या, तया निता माटे ते लक्ष्मीपतिने घर आवायी देगे तेनने जक्तिपूर्वक निदा पापी. त शेठना घरनीजीतपर हमेशां लख लखाना हता. त लेखने आ बुद्धिवान बन्ने ब्राह्मणो हमेशां जोता, अन तेमनी अपूर्व यादशक्तिथी ते लेख तेन ने कंठे य गयो. एक ददामो ते नगरमां भाग लागवाथी ते शन घर धनमाल सहित नष्ट ययु. ने दिवमे ज्यारे ते बन्ने ब्रह्म णपुत्रात शेग्नघरमाव्या. सारे ते पण ते शेठने शोकमां निमन यएलो जो असं दिलगीर थया. शेठे तेन ने कह्यु के. दे ब्रह्मपुत्र! मने मारा व्यादिकनी हानियी शोक यतो नथी, पण मारा लेखनी हानिथी मने घगुं दुःख थाय ब. सारे ते ब्राह्मणपुत्रोए कडं के, हे यजमान! अयो गरीब निलुको आपन बोजो उपकार करवाने तो असमर्थ बये, तो पण माने तमारा ते लेखनी जो इबा होशे तो अमो ते आपने यथास्थित लखी आपी). ते सांनळो असंत दर्पित यएला ते लक्ष्मीपति शंवे तेमने नंचा आसनगर बसामी असंत मरमान आयु. पनी तेनए नियिवार पूर्वक ते समस्त लेख शेठने लखी आप्यो, ते जोडशेठे विचार्य के, अहो! या तो मारा पूर्वनाग्यना पवळयी कोश्क माग गोत्रदेवोज मने प्राप्त थया !! पीते शंठे |
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साधु पति
तेमने उत्तम जोजन तथा वस्त्रादिकयी सन्मान आपीने पोताने घेर चाकर राख्या. बाद तेन वन्नने जितेंघिय अन शांतस्वना. वी जोश्न शेठे विचार्यु के, आमने जो मारा आचार्य शिष्य करे, तो खरेखर जैनशासनने दीपावनारा तन थाय. एटलामां सां श्रीवर्धमानमूरि पधारवायी ते समीपति शेठ ते बन्ने ब्राह्मणपुत्रोने साये लेइ तेमने वांदवामाटे तेमनी पासे गयो. तेननां हस्तरेखा आदिक चिन्हो जोइने गुरुए तेमने दिदायोग्य जाणीने समीपतिनी अनुज्ञापूर्वक दीदा आपी. दीदाबाद तेन योगवहनपूर्वक सर्व सिद्धांतोनो अज्यास करीने पंच महाव्रतो निरतिचारे पाळया लाग्या. ठेवटे तेनने योग्य जाणीने गुरुमहाराजे आचार्यपद आपी तेननां अनुक्रमे जिनेश्वरमूरि तथा बुझिसागरमरि नाम पाड्यां. पन श्रीवर्धमानमूरिजीए तेनने कडं के आजकाल अणहिलपुरपाटणमां चैसवासोनन घगुं जोर होवायी खां शुभ मुनिराजाने रहेवाने स्यानक मळतुं नयी, माटे ते उपश्चने तमे बन्ने तमारी शक्ति अने बुझियी सां जा निवारण करो केमके, आ सांप्रतकाळमां तमारा सरखा वीजा किचरणो नथी. गुरुमहाराननी ते आझाने मुकुटरूप करीने तेन बन्ने सांयी विहार करीने अनुक्रमे पोताना चरणन्यासोथी पृथ्वीने पवित्र करता थका गुर्जर देशमा आवेला अणहिलपुरपाटणमां पधार्या. ते समये ते नगरमा महा विज्ञान तथा नीतिशास्त्रमा विचरण दुर्लनसेन नामे राजा राज्य करतो हतो. सां एक सोमेश्वर नामनो पुरोहित वसतो हतो. तेने घेर आ बन्ने जैनाचार्यों गया. तथा वेदपाठोच्चार करवा लाग्या. ते सांजळी पुरोहिते तेनने असंत आदरसत्कार आप्यो सारे तेनुए पण ते ने आशिष आपी के, “अपाणिपादो जवानो गृहीता । पश्यसचछुः स श्रुणोसकर्णः ॥ स वेत्ति विश्वं न च तस्य वेत्ता। शिवोहरूपी स जिनोमवताः ॥ १॥" - पड़ी ते पुरोहिते तेनने आदरपूर्वक पूढयु के, तमोए अहीं कई जगोपर निवास कर्यो बे? सारे तेनुए कह्यु के, अहीं चैखवासि यतिनन जोर होवाथी अमोने रहेवाने स्थानक मत्यु नथी, ते सांजळी निर्मळ मनवाळा पुरोहिते तेनने रहेवामाटे पोतानी चंऽशाळा आप्यायी सां परिवारसहित तेनए निवास कर्यो. सां तेन लोलतारहित निरवद्य आहारपाणी लेता थका विद्या विनोदी पोतानो समय निर्गमन करवा लाग्या. एटलामां सां चैसवासिनना नोकरी आवीने तेनने कहेवा लाग्या के, || अरे! साधुन !! तमे तुरत आ नगरनी बहार निकळी जान? केमके, अहीं चैनवासी शिवाय वीजा श्वेतांवर मुनिनने रहे. वानो हुकम नथी ते सांजळी पुरोहिते कह्यु के, आ बावतनो मारे राजापासे जइ राजसजामां निर्णय करवो ने, एम कही ते
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अर्थः
दुर्लजगजा पासे गयो. अने सां ने चैव पासी, पण याच्या. पठी पुरोहित राजाने विनंति करो के, हे राजन! या नमरमां वे उत्तम जैनमुनि पानाने स्थानक नहीं मळनाथी मारे घर पधार्या डे, तेन महागुणी होवायी में तेनने रहेकाने स्थानक
आप्युबे, पण आ खवाली यतिनए पोताना माणसो मारे घर मोकली तेन ने नगरनी बहार नीकळी जवान कहेराव्युं ने. ते सांजळी तुत्यष्टिवाळा दुर्लनराजाए जरा हसीन कामु के, मारा नगरमा जे गुणी माणमो देशांतरयी अवीने वसे , तेनने कोइ पण निवारी शक्तुं नयी, नो यात्रा महात्माउने बहीं नहीं वसवा देवा माटे सुं प्रयोजन डे सारे चैयवासी, बोली नख्या के, हे महीपनि पूर्वे श्रीवनराज नामना ने महापराक्रमी राजा अहीं थएला , तेमने बाल्यपणामां चैववासी देवचंमूरिए (बीजा मत प्रमाणे शिलगुगा मूरिए ) आश्रय आपा पोष्या हना, अने ते नपकारना बदलामा बनराजे संप्रदाय वि रोधना जपथी आ नगरमा फक्त चैत्यवामीनएज रहेयु, अने वीजा श्वेतांवर जैन स.धुनए अहीं रहे बुं नहीं, एवो लेख करी आप्यो ठे, अने तेयी आयो तमने अहीं वनवामाटे मना करीश बीए, आपे पण यायना ते पूर्वजोनी आज्ञा पाळची जोश. सारे राजाए को के, अमारा पूर्वजोन पाइा अमारे पाळन जोएं ते व्याजबीज बे, केमके, आप जेवा मुनिननी आशिपोथी अमारा जेया राजान शधित थाय डे, अने ढुंकामां कही तो आ राज्यज आएन डे, तेषां कंइ पाग संदेह नथी. वळी तमो पण जैन मुनिनो , तो सुनिननो आचार शुं ते सांगळवानी मने इसाबे, अने ते आचारमा जो मा बन्ने म. निननुं विरोधपणुं मालुम प. तो तेन आ नगरयां रहेवू नहीं, एम कही ते दुर्लक राजाए पोताना सरस्वती मारमा रहेखें जैन मुनिना आचारना स्वरूपवाळ इशकालिक मूत्र मगाव्यु, अने मां कडेला आचार प्रमाणे या बन्ने आचार्योंन प्रवर्तता जोक्ने तेमने खरतर बिरुद पाप) रदेवामाटे सां निवास आप्पो, अने चैयामीन ऊं वाणा याने पोताने स्थानके गया, तथा सारय ते अणहितपुरमांशु जैन मुनिनने निवास मळवा लाग्यो, अन चरवासीनन जोर धीमे धीरे कमी यतुं चाप्यू, खां बुद्धिमागराचार्य बुद्धिसागर नामर्नु सात हजार श्लोकनु नवु व्याकरण रपयु. एवी रोने आ खरतरगहाला स्थापना रा श्री जिनेश्वमूरि आचार्य महामनाविक यएला डे.
॥ अन्नयदेवमूरिनो इतिहास ॥ धारापुरी नामनी नगरीमा बसनारा महीधर नामना एक शाहुकारनी धनदेवी नामनी जीनो कुदिा अन्यकुमार नामा
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अर्थः
एक पुत्रनो जन्म थयो. एक दहामो श्रीवर्धमानमरिना शिष्य श्रीजिनेश्वरमूरिए पाताना चरणान्यामाथी ते नगरोने पवित्र करी. अजयकुमारे वैराग्य थ। तेमनी पाने जैनदिक्षा ग्रहण करी. पनी श्री वर्धमानमरिनी अनुमति पूर्वक तेमने फक्त सोल वर्षनीज उमरे विक्रम संवत 2000 मां प्राचार्यपद प्रापयामां आव्यं. हवे ते समयमां दुकाळ आदिना मबत्रयी आगमोनी टी. कानो बिच्छेद थयो हतो. एक दहामो श्री अजयदेवमूरिजी मध्यरात्रि ज्यारे ध्यानमा लीन यया हता, ने समये शासनदेवीए आवीने तेमने कहा के, पूर्वना आचार्योए अग्यार अंगोनी टीका बनावी हती, पण काळसंबंधि दुपणोयी फक्त बे अंगो शिवाय बाकीना अंगोनी टीकामनो विच्छेद थयो । माटे आप ते अंगोनी टीका रचीने संघपर कृपा करो? सारे आचार्यजीए कहां के, हे शासनमाना! आQ गहन कार्य करवाने हैं अल्पबुध्धिान शी रोते समर्थ थान केमके ते कार्यमा जो कदाच उत्सूत्र याय, तो महा आपदारूप समुश्मा निमम यवं पर; तेम आपनी आझर्नु नखंघा पण थर्बु जाइए नहीं. सारे शासनदेवीए कह्यु के, हे आचार्यजी? आपने ते कार्य मांटे समर्य जाणीनेज में को बे. तेष ते टीकानी रचनापा तमोने जे संदेह होशे, ते ९ श्री मंधरस्वामीने पूतीने तमारा ते संदेहर्नु निवारण करीश. नेम फक्त माझं स्मरण करवायीज हुं तमारी पा.
से हाजर यश. ते साजळी अजयदचमूरिए उत्साहपूर्वक ते कार्यनो भारंन कयों तथा ते कार्य संपूर्ण यता सुधि तेमणे आं. || बेलनो तप कर्यो. तथा पोनानी कयुतानमुजय शासनदेवीए पण नेमने ते कार्यमा मदद आपी. पण ते आंबेलतपथी तथा राविना जागरणना प्रयासयी शरीरमाना रूधिरमां रिगाम यवायी आचार्यजीपर कुट नामना दुष्ट रोगे हुमलो कर्यो सारे अ. न्यदर्शनी आदिक पर्षालु लोकोने तेमनी निंदा करवानुं कारण मन्यु के, टीकामी रचनामां यएला नत्मूत्रमाणधी का चार्यपर गुस्ने थएला शासनदेवोए, शिक्षा करवाना हेतुयी तेमने या दशाए पहोंचाड्या दे. ते अपवाद मांजळी आचार्यमहाराज दिलगिर थया. पली रात्रिए घरावीन तेमना संगन निवारण करें तथा कह्यु के, तंजन नामना गायनी पासे सेदिका नायनी नदिने किनारे भूमिनो अंदर श्री पार्श्वनाथजोनो प्रतिमा के, के जे प्रतिमाना प्रजावयी पूर्व नागार्जुने रनसिक साघेल ; ते प्रतिमान तमो प्रगट करीने सां महातीर्य प्रवीदो के जेथतमारी अपकीर्तिना नाशनीसाथ जनशासननी प्रना बना यशे. पढी या श्री अजयदेवमूरीश्वरजीए 'जयतिहुअण' नामना वत्रीस गाथा वाला स्तवनपूर्वक ते श्री स्तननपार्श्वनाथजीनी मतिमा संघ मक प्रगट करी. ते यी तेमनी घणी कीर्ति यत्रा साय जनशासननी उन्नति यइ. पडी धरणोंना वचनधी
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सूत्र
आचार्यजीह ते स्तोत्रनी बे गायाने गोपवी राखी, के जेयी अद्यापिपर्यंत ते स्तोत्र त्रीश गायानन विद्यगन बे. ते श्री स्तंज || प्रति || नपार्श्वनाथजीनी प्रतिमा हाल पण खंजातमा विद्यमान बे. ते प्रतिमाना आसननी पाबळ एवी रीतनो लेख कोतरवामां आ-||
व्यो बे के, आ प्रतिमा गोम नामना श्रावके श्री नमिनाथपभुजीना शासनमां श्श्श्श् में वर्षे करावी बे. एवी रीते श्री जैनशासननी प्रजावना करीने श्री अजयदेवमूरिजी विक्रम संवत ११३५ मां (बीजा मत प्रमाणे विक्रम संवत ११३ मां) गुजरा. तमां आवेला कपमवंज नामना गाममा देवलोक पाम्या. तेमणे नवे अंगोनी टीका नपरांत हरिजमूरिजीना बनावेला पंचासकपर संवत ११२५ मां धोळकायां रहीने टीका बनावी; तेम जयतिहुअण स्तोत्र, जिनचं गणिए बनावेला नवतत्व प्रकरणनी टीका, निगोदनिशिका, पंचनिग्रंथविचारसंग्रहणी, पुलपति शका, जननगणना विशेषावश्यक जाष्यप इमरिजोना पोमशकपर टीका, तथा देवेंऽमूरिए करेला शतारी प्रकरणपर गायाबंध टीका विगरे अनेक शाखो रचेला बे.
आ पुस्तकमाटे श्रयेलु खरच. रू. १५० फारम सामीबेतालीसनी नपामणी, कागळो तया ज्ञापांतरना. रू. ७५ पाटीचं, वधारानुं खरच, तथा इनाम. रू. ५ खलेची मंग एकहजारना पटी सहित. रू. १०१ टपालखर्च, रेलखर्च विगेरेना.
कुल रु. १००१
न
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माधु
॥ श्री परमात्मने नमः ॥
प्रति
अर्थः
॥१॥
॥ साधुसाध्वी योग्य प्रतिक्रमण क्रियाना सूत्रो. ॥
(अर्थ सहित) ॥ ननमःसिई ॥ नमो अरिहंताणं । नमो सिक्षाणं । नमो आयरियाणं । नमो नवजायाणं । नमो लोए सबसाइणं । एसो पंच नमुक्कारो । सबपावप्पणासणो । मंगलाणं च सवर्सि। पढमं हवा मंगलं ॥
अर्थः- (अरिहंता के ) अरिहंतप्रते एटले कर्मोरूपी शत्रुनने जीतनारा एवा श्री अरिहंतप्रभुप्रते ( नमो के0) नमः, एटले नमस्कार थान ? वळी (सिहाणं के ) सिझोपते एटले आठ गुणोयें करी विराजमान सिह महाराजोपते ( नमो के०) नमः, एटले नमस्कार थान ? वळी (आयरियाणं के0) आचार्य महाराजोमते एटले बत्रीस गुणोयें करी विराजमान एवा श्री आचार्य महाराजोप्रते ( नमो के0 ) नमः, एटले नमस्कार थान ? वळी (नवडायाणं के0 ) नपाध्यायोमते एटले प. चीस गुणोने धरनारा एवा श्री नपाध्यायजी महाराजोप्रते (नमो के०) नमः, एटले नमस्कार थान ? बळी (लोए के०) लोके, एटले आ लोकमां रहेला ( सवसाहणं के०) सर्व साधुनने एटले सत्तावीस गुणोयें करी शोजता एवा सर्व साधुमहाराजो प्रते ( नमो के0 ) नमः, एटले नमस्कार थान ? ( एसो के ) एषः, एटले ए (पंच के ) पांचे ( नमुक्कारो के0 ) नमस्कारो डे ते, (सबपावप्पणासणो के०) सर्व पापोने नाश करनारा ले (च के० ) वळी ते (सन्वेसि के०) सर्वेषां, एटले सर्व (मंगलाणं के ) मंगलानां, एटले मंगलिकोमा (पढम के) प्रथम, एटले प्रथम (मंगलं के०) मंगल एटले मंगलरूप ( हवा के०) || जवति, एटले ले. अर्थात् ए नवकारमंत्र सर्व मंगलोमां पेहेलुं मंगलरूप ले.॥
॥१॥ श्री करेमिन्नते ॥
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प्रति
साधु || ॥ करेमिन्नंते सामाश्यं । सवं सावऊं जोगं पञ्चकामि । जावजीवाए । तिविहं तिविहेणं । मणेणं । ॥ वायाए काएणं । न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समगुजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि
निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ अर्थः-(नंते के) हे जगवन् ! (सामाश्यं के ) सामायिक, एटले सामायिकपते अर्थात् समताना परिणामरूप सा मायिकप्रते ( करेमि के0 ) हुं करूं छ. अने तेमकरीने ( सवं सावऊं जोगं के ) सर्व सावा योगं, एटले पापसहित मन, वचन अने कायाना सर्व योगने हूं ( पच्चरकामि के० ) प्रसाख्यामि, पटले हु पच्चखं छु. ते केवीरीते हुं पच्चलूँ छ ? तो के, (जावजीवाए के0 ) यावज्जीवं एटले बेक जीवितपर्यंत (तिविहं तिविहेणं के0) त्रिविधं त्रिविधेन, एटले त्रिविधं त्रिविधे करीने अर्थात् ( मणेणं के ) मनसा, एटले मनवमेकरीने, तया ( वायाए के ) वचसा, एटले वचन वमेकरीने, तथा ( कारणं के0 ) कायेन, एटले कायावके करीने, (न करेमि के0 ) हं पापयुक्त कार्य करूं नही, तेमज (न कारवेमि के0) अन्यपामें करावू नही, तेमज ( करंपि अन्नं के0 ) कुवैतं अपि अन्यं, एटले करता एवा पण अन्यने (न समाणुजाणामि के0) न समनुकापयामि, एटले हूं अनुझा आपुं नही, अने एवीरीते (जंते के ) हे जगवन् ! (तस्त के0) तस्य, एटले ते सावध व्यापारना संबंधमां (पमिक्कमामि के0 ) प्रतिक्रमामि, एटले हुं पमिक, छ. तया ( निंदामि के0) आत्मसादिए हुं निहुँ छु (गरिहामि के) गर्दा मि. एटले परनी मानिए हूं तेनी गर्दा कर छ. तेमज ( अप्पाणं के ) आत्मानं, एटले मारा आत्माने हूं ( वोसिरामि के0 ) व्युत्सृजामि, एटले ते सपाप क्रियायकी वोसराबु छ. ॥
॥॥ श्री श्वामि गमि ॥ ॥श्चामि ठामि कानुस्सग्गं । जो मे देवतिन अश्यारो कन। काश्न वान माणसिन । नस्सुनो। । नम्मग्गो । अकप्पो । अकरणिको । उझान । विचिंतिन । अणायारो । अगिछियो । असमण पानग्गो | नागे दंसणे चरिते । सुए सामाइए । तिएहं गुत्तीणं । चनएई कसायाणं । पंच
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सूत्र
साधु प्रति
अर्थः
एहं महत्वयाणं । उएवं जीवनिकायाणं । सत्तएहं पिमेसणाणं । अठएवं पवयणमानणं । नवण्हं बनचेरगुत्तीणं दस विहे समण धम्मे । समणाणं जोगाणं । जं खंमियं जं विराहियं । तस्स मि
बामि उक्कम ॥ अर्थ:-(इच्छामि के०) है इच्छं छं, तथा ( कानस्सग्गं के) कायोन्सर्ग, एटले कानस्सग्गने ( गमि के0 ) स्थापन करूं छु. (जो के0 ) यः, एटले जे (मे के ) मया, एटले महारे जीवे (देवसिन के ) देवसिकः, एटले दिवससंबंधि ( अश्यारो के0 ) अतिचारः, एटले अतिचार (कन के0) कृतः. एटले को होय; ते अतिचार केवो तो के, ( काश्न के0 ) कायिकः, एटले कायासंबंधि, तथा (वा के०) वाचिकः, एटले वचनसंबंधि, तथा (माणसिन के०) मानसिकः, एटले मनसंवधि, तेमज (नस्सुत्तो के0) उत्सुत्रसंबंधि, नथा (नम्मग्गो के) नन्मार्गकः, एटले नन्मार्गसंबंधि, अर्थात् अवळा मार्गसंबंधि, तथा ( अकप्पो के ) अकल्पः, एटले जे कंई अविधियी करेलुं होय ते संबंधि, तथा ( अकरणि जो के0) अकरणीयः, एटले नही करवालायक जे कंई करेलुं होय, ते संबंधि तथा (दुकान के0) दुातः, एटले जे कंई हुर्ध्यान ध्यायु होय, ते संबंधि, तथा ( दुविचिंति के ) दुर्विचिंतितः, एटले मातुं कार्य चिंतव्यु होय, ते संबंधि, (अणायारो के0) अनाचारः, एटले अनाचार सेव्यो होय, ते संबंधि, वळी ( अणिच्छियो के0 ) अनिच्छितव्यः, नही इच्छवायोग्य कार्य इच्छयुं होय, ते तथा (असमण पानग्गो के0 ) अश्रमण प्रायोग्य, एटले साधुने नही आचरवा योग्य कार्य आचर्यु होय, ते संबंधिः हवे ते अतिचार शाने शानेविषे लाग्या होय ? तो के, (नाणे के ) छाने, एटले छाननेविषे, तथा (दसणे के) दर्शने, एटले दर्शननेविषे, तथा ( चरित्ते के ) चारित्रे, एटले चारित्रनेविषे, तथा (सुए के0) श्रुते, एटले सिद्धांतनेविषे, तथा (सामाइए के०) सामायिके, एटले सामायिक विषे, तेमज (तिएहं गुत्तीणं के ) त्रण गुप्तिनने नही पालवाथकी जे को अतिचार लाग्यो होय, तथा ( चनएहं कमायाणं के० ) चार कषायोने अंगीकार करवायी, तथा (पंचएहं महत्वयाणं के0 ) पांच महाव्रतोने सम्यकप्रकारे नही पाळबाथी, तथा (बएहं जीवनिकायाणं के0 ) बकायजीवोनी रहा नही करवावमेकरीने, तथा ( सत्तएहं पिमेसणाणं के) सातप्रकारनी पिसेपणाने सम्यकप्रकारे नही धारण करवावके करीने, नया (अठएहं पवयणमानणं के)
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साधु
प्रति
॥४॥
आठपकारनी प्रवचन मातानने सारीरीते नही पाळवावमेकरीने, तथा (नवएहं बंजचेरगुत्तीणं के0) नवप्रकारनो ब्रह्मचर्यनी ॥ सूत्र गुप्तिनने नही धारण करवावमे करीने, तथा ( दस बिहे समण धम्ने के0) दशनकारना श्रमणधर्यने सारीरीते नही परिपालन
अर्थः करवावमे करीने, एवीरीते (समणाणं जोगाणं के) श्रमणानां योगानां, एटले साधुनना योगोनी अंदरथी (जं खंमियं के०) यत् खंमितं, एटले जे कंई में खंमित कयु होय, तेमज (जं विराहियं के0 ) यत् विराधितं, एटले जे कंई विराध्यु होय, (तस्स के0 ) तस्य, एटले ते सर्व अतिचारसंबंधि ( मे के0 ) मम, एटले मारुं ( दक्कम के0) दुष्कृतं, एटले दुष्कृत ( मिला के0) मिथ्या, एटले मिथ्या थान? अर्थात् निष्फल थान ? ॥ ॥श्चाकारेण संदिसह नगवन् देवसियं आलोनं । जो मे देवसिन अश्यारो कन। बाकी नपरप्रमाणे ॥
अर्थः-(इच्छाकारेण के0 ) पोतानी इच्छावके करीने (जगवन् के) हे जगवन् ! (संदिसह के०) संदिशत, एटले मने आदेश आपो शुं करवा माटे? तो के (देवसिय आलोन के०) दैवसिक एटले दिवस संबंधि अतिचार आलोववामाहमने आदेश आपो?
॥ श्छामि पमिक्कमित्रं । जो मे देवसिन अश्यारो कन ॥ बाकी नपर प्रमाणे. ॥
॥३॥ देवसिक अतिचार.॥ ॥ गणे कमणे चंकमणे । ग्राऊत्ते अगाऊत्ने । दरियकाय संघहे । बीयकाय संघटे । बलकाय संघट्टे । थावरकाय संघहे । उप्प संघटे । गणान गणं संकामीया । देहरे गोचरी बाहीरनूमि जातां आवतां स्त्री तिर्यंचतणा संघट्ट परिताप नपञ्च दुआ, दिवसमांहि चारवार सजाय सातवार चैत्यवंदन कीयां नही, प्रतिलेखणा प्राधी पाठी नणावी, अस्तोव्यस्त कीधी, प्राध्यान रौश्ध्यान ध्यायां, धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्यायां नहीं, गौचरीतला दोष नपजता जोया नहीं, पांच दोष मंझ
॥
४
॥
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साधु
प्रतिo
॥ ५ ॥
farer टाया नही, मात्रं प्रापुंजे लीधुं प्रापुंजी भूमिकाए परवव्युं, देहरा नृपाश्रयमांहि पेसतां निसरतां निसिही आवस्सही कहेवी विसारी, जिननुवने चोरासी आशातना, गुरुप्रतें त्रिस आशातना, अनेरुं जे कांई दिवस संबंधिकं पापदोष लाग्यं होय, ते सवि हुं मने वचने कायाएं करीने तस्स मिचामि मं ॥
अर्थः–( ठाणे कमणे चंक्रमले के० ) वेसवाउठवामां तथा हालवा चालवामां, तेमज (आनत्ते अणाऊत्ते के० ) उपयोगी वा योगयी ( हरियकाय संघट्टे के० ) वनस्पतिकायनुं मर्दन होतेउते, (वीयकाय संघट्टे के० ) बीजोनुं मद्दन होते, ( सकाय संघट्टे के० ) सकायनुं मर्दन होनेबते, ( यावर काय संघट्टे के० ) स्थावरकायनुं मद्दन होतेबते, ( उप्परसं ho) मकादिकनुं मर्दन होतेबते, तथा ( ठाणानुवाणं संकामीया के० ) जीवाने एक स्थानकेथी बीजेस्थानके खसेमतेबते, जे कोइ व्यतिचार लाग्यो होय, तेने हुं पमिकमुं छं. * वाकीनो अर्थ स्पष्ट बे.*
॥ ४ ॥ रात्रिक अतिचार ॥
॥संयाराजहराकी । परियट्टा की। प्राऊट सकी । पसारणकी। पिय संघट्टणकी। संथारोकतरपट्टो टाली अधिकुं नपगरणवावर्युं, अणप मिले हलाव्यं, मात्रं प्राप किले धुं ली धुं, प्रापुंजी भूमिए परव्यं, परवतां प्रजाह जस्स गो की धोनही, परठव्या पूढे वार त्रण वोसिरे वो सिरे की धुनही, संथारा पोरसी जगवा विसारी, पोरसी जणाव्याविना सुता, कुस्वप्न लाधुं, सुपनांतरमांहि शिळनी विराधना दुइ, या दो चिंतव्युं, संकल्प विकल्प कीधो, रात्रिसंबंधिन जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते सवी मने वचने कायाए करी तस्स मिचामि डुकरं ॥
॥ ५ ॥
अर्थ:- ( संयारा नट्टकी के० ) संथारापर सुताबाद एकबाजुनुं पमखु पोंज्याविना फेरववाथी ( परियट्टाकी के० ) वीजी बाजुनुं पासुं पोंज्याविना फेरववाथी (आऊट्टणकी के० ) पोंज्याविना शरीर संकोचवाथी ( पसारणकी के० ) पांज्या
सूत्र
अर्थः
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साधु
अर्थः
| विना शरीरने प्रसारवाथी, तथा (बप्पिय संघट्टणकी के ) पगोवाळा मांकम, जुआदिकनु नपमईन यवाथी जे कोइ अप्रति तिचार मने लाग्यो होय, ते हुं पमिकमुं छु. * बाकीनो अर्थ स्पष्ट ले. *
॥५॥ श्री श्रमणसूत्र ॥ ॥ नमो अरिहंताणं ( एक अथवा त्रण ) ॥ करेमिन्नते सामा० (एक अथवा त्रण)॥
॥ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं ॥ अर्थः-(चतारि के०) चत्वारः एटले चार ( मंगलं के0 ) मंगलरूपडे ते चार क्या क्या ने तो के (अरिहंता के)|| अरहंतप्रभुन ( मंगलं के) मंगलरूप ले. वळी (सिक्षा के०) सिझमहाराजो ( मंगलं के) मंगल रूप ले. वळी (साहू के) साधुमुनिराजो ( मंगलं के0) मंगलरूप ले. वळी ( केवलिपन्नत्तो के0 ) केवलिप्रइत्पः ऐटले केवलिमकाराज कहेलो (धम्मो के ) धर्मः ऐटले धर्म ने ते, ( मंगलं के० ) मंगल रूप ले.॥॥ ॥ चत्तारि सरणं पवजामि । अरिहंते सरणं पवजामि । सिहे सरणं पवजामि । साढूसरणं पव
जामि । केवलिपन्न धम्म सरणं पवजामि ॥२॥ अर्थः-(चत्तारि के०) चतुरः, एटले चारने (सरणं के) शरणे ( पवजामि के ) प्रव्रजामि, एटले हुं जानं छु. कोने कोने शरणे जावं ? तो के, ( अरिहंते के0 ) अरिहंतप्रभुने ( सरणंपवजामि के ) दुं शरणे जानं छु. वळी (सिज्ञ के ) सिह महाराजोने (सरण पवजामि के० ) हुं शरणे जाळं छ. वळी ( साहू के ) साधु महाराजोने ( सरणं पवज्जामि के ) हुं शरणे जालं छ. वळी (केवलिपन्नत्तं के0) केवलि महाराजे प्ररूपेला ( धम्मं के० ) धर्म प्रते ( सरणं पवजामि के०) हुं शरणे जानं छै ॥२॥ ॥ चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिश लोगुत्तमा, साढू लोगुत्तमा, केवलि पन्नत्तो धम्मो
लोगुत्तमो॥ अर्थः-( चत्तारि के0 ) चत्वारः एटले चार ( लोगुत्तमा के0 ) लोकोत्तमाः एटले आ लोकमां नत्तम बे; ते चार क्या
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प्रति०
॥५
॥
माधु । क्या बे? तो के (अरिहंता के० ) अरिहंतप्रजुन (लोगुत्तमा के0 ) आ लोकमां नत्तम ले. वळी ( सिझा के ) सिझमहारा- || सूत्र जो ( लोगुत्तमा के0 ) आ लोकमां नत्तम डे बळी (साहू के०) साधुमहाराजो ( लोगुत्तमा के०) आ लोकमां नत्तम डे
अर्थः वळी ( केवलीपन्नतो के) केवलिप्राप्तः एटले केवलिमहाराजे प्ररूपेलो (धम्मो के0) धर्म (लोगुत्तमो के ) आ लोकमां उत्तम बे. ॥ ३ ॥
॥श्चामि पमिक्कमिनं जो मे देवसिन । श्यामि पमिक्कमि । इरियावहिआए॥ ॥श्चामि पक्किमिनं, पगामसिकाए निगामसिकाए, संथारा नवदृणाए, परियट्टणाए, आनट्टणाए॥
अर्थः -(पमिक्कमिनं के० ) प्रतिक्रमितुं, एटले पमिक्कमवाने, अर्थात् लागेला एवा दोपोने निवर्तन करवाने, एटले समस्त प्रकारनां दोषोने टालवाने, (इच्छामि के0 ) इच्छामि, एटले हुँ इच्छं हूं. अथार्त ते दोषोने दृरकरवानी हुं अनिलाषा करूं छ. हवे ते दोषो श्या संबंधि ? तो के, ( पगाम सिकाए के0 ) प्रकामशय्यायाः, एटले प्रकामशय्यासंबंधि दोषोने प. मिकमवाने हूं इच्छं छु. अर्थात् रात्रिना चारे पहोरमां, अथवा मागमां करेला विहारादिकथा लागला थाकनेलीधे दिवसे पण प्रककरीने गयेन , काम, एटले सजायध्यानसंबंधि अन्जिलाप जेनी अंदर, एवी जे शय्या, ते प्रकामशय्या कहेवाय. एवी रीतनी प्रकामशय्यासंबंधि लागेला दोषोने हुँ पमिकमवान इच्छं छ. वली (निगामसिकाए के) निकामशय्यायाः एटले निकामसंबंधि दोषाने पमिकमवाने इच्छं छु. अर्थात् निकाम, एटले असंत दीर्घनिशनी अंदर चेतनरहित एवी जे शय्या, एटले शयन अवस्था, ते निकामशय्या कहेवाय. एवीरीतनी निकामशय्यासंबंघि जे अतिचार मने लागेला होय, ते अतिचारोने हुं पमिकमु छ. वली (संथारा नवट्टणाए के0 ) संस्तारकोदतनया, एटले संयाराना नदर्तनसंबंधि जे अतिचारो लागेला होय, तेने पमिकमवाने हुं इच्छाकरूं छु. अर्थात् प्रमाणने मुताबाद, पाउलया निशनेलीधे अचेतनपणाथी पासानी नूमिने न पोंजवावमे करीने, संथाराथी बीजेपमखे पामु फेरव्यु होय. ते न इतना कहेवाय. एवीरीतनी नदर्शना करतांयकां, एटले प्रमार्जन कर्याविना पम फेरवतांयकां जे अतिचार लाग्या होय, तेने पनिकमवाने हुँ इच्छं छु. वली ( परियट्टणाए के0 ) परिवर्तनया, एटले परिवर्त्तना करवावमेकरीने जे अतिचार लाग्या होय, ते पमिकमवाने हुं इच्छु छु. अर्थात् पूर्वे कहेली रीति मुजब बीजं पासुं फेरववावमे करीने जे दोषो एटले अतिचारो लाग्या होय, तेने पमिकमवाने हूं इच्छाकरुळु. वजी
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साधु
प्रति०
॥ ८ ॥
( आट्टणा के० ) आकुंचनया, एटले आकुंचन करवावके करीने लागेला प्रतिचारोने पमिकमवाने हुं इच्छु छु. अर्थात् शरीरने प्रमार्जित कर्याविना, एटले शरीरने पोंज्याविना संकोचवा यदिकनी क्रिया करतायकां जे कई अतिचार लांगेलो होय, तेने पकिमवाने हुं इच्छा करूं बुं. वली.
॥ पसारणाए, उप्पइया संघट्टणाए, कुइए, कक्कराइए, बीए, जंजाइए, आमोसे, ॥
अर्थ :- ( सारणाए के० ) प्रसारणया, एटले अंग प्रसारण करवाव करीने जे कई अतिचार लाग्यो होय, ते परिकमवाने हुं इच्तुं बुं. अर्थात् प्रमार्जन कर्याविना, एटले पोंज्याविना, में मारां अंगो विस्तार्थी होय, नेते संबंध मने जेविचार लाग्या होय, ते हुं पमिकमुं बुं. वली (बप्पश्या संघटणाए के० ) पट्पदानां संघट्टनया, एटले पटूपदानां संघट्टनवमेकरीने जे कई प्रतिचग्र लाग्यो होय, तेने पमिकमुं डं. अर्थात् पटूपद एटले व बे पगो जेनने, एवा जु मांकमयादिक जीवोनुं शरीर तथा मस्तकमादिक खंजवालती वेलाए, प्रमार्जन कर्याविना एटले पोंज्याविना शरीर, नख प्रथवा हाथना मर्दनवमे क रीने जे संघट्टन युं होय, अने ते संबंधि जे प्रतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पमिकमुं बुं. वली ( कुए के० ) कूजिते, एटले कूजित करते ते जे कई अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पमिकमुं तुं. अर्थात् कूजित एटले खांसी ध्यावती वेळाए मुहपत्तिने मुखन या घरी न होय अने ते संबंधि जे अतिचार लाग्यो होय ते अतिचारने पकिमवाने हुं हुं हुं वली हुं शुं पकिमवाने इछु छु? तो के, ( कक्कराइए के० ) कर्करायित. एटले कर्करायित शय्या होतेखते जे कई प्रतिचार लागेलो होय, ते तिचारने हुं पमिकमुं लुं. अर्थात् मारुं बिठानुं सारीरीते कोमलतापूर्वक विठालुं नथी, अथवा खमवचहुं बे इत्यादिक विकल्पोथी मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं लुं. वली (बीए के० ) क्रुते, पटले कुत होते अर्थात् ढीक यावते नाशिका आमी मुहपत्ति घरी न होय, अने ते संबंधि जे अतिचार लागेली होय, ते अ तिचारने हुं पमिकमुं छं. वली (जंजाइए के० ) जंजिते, एटले जंजा होतेटते, अर्थात् बगासुं यावतीबेलाए, मुख मुहपत्ती घरी न होय, नेते संबंधि जे अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छं. वली ( आमोसे के० ) आमर्षे एटले आमर्ष करतां थकां जे कई प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने परिक्रमुं लुं. अर्थात् खमर्प एटले पासेनी भूमिने प्रमार्जन कर्याविना स्पर्श कर्यो होय, अने तेम करवायी जे अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने परिक्रमुं लुं.
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सूत्र
अर्थः
॥ ८ ॥
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माधु
प्रतिण
॥ ससरस्कामोसे, आनलमानलाए, सोअणवत्तिआए, इत्थीविपरित्रासिाए, दिठ्ठीविप्परिआसियाए॥
सूत्र __ अर्थः–वली ( ससररकामोसे के० ) सरजस्कामर्षे, एटले रजवाली पृथ्वीनो आमर्ष करते बते, अर्थात् जे भूमीपर रज || अर्थः पमेली होय, तेवी मूमिनो स्पर्श करतेजते, जे कई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमुं हूं. वली (आनल मानलाए के0 ) आकुल आकुल पणावमे करीने स्त्री आदिकनी चितवना करी होय, अने ते संबंधि जे अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छ. वली ( सोअणवत्तिाए के0) स्वप्लवर्तिकया, एटले स्वप्ननी अंदर खी संबंधि जोगविलासने जे चितववो, अने ते संबंधि जे अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमुं हुं. वली (श्त्यी विप्परिआसिआए के0 ) स्त्री विपर्या सिक्या, एग्ले स्त्री विपर्यासिकामे करीने जे कंई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने , पमिकमुंछ. अर्थात् साधुए स्त्रीन सेवन नही करतुं जोए, अने ते थकी जे विपर्यास ते स्त्रीसेवा कहेवाय. अने तेवा प्रकारनी स्त्रीसेवाबमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुटुं. वली (दिक विपरिआसिआए के0) दृष्टिविपर्या सिक्या, एठले दृष्टिविपर्यासबमे करीने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. अर्थात् साधुए दृष्टिविपर्यास करवो जोए नही, एटले साधुए स्त्रीप्रते अनुरागवाली दधिकरवी जोइए नही, अने तेवीरीतनी स्त्रीप्रते अनुरागवाली दृष्टि करवावमे करीने जे कंई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छु. वली॥ मणविप्परिआलिआए, पाणनोअणविप्परिासियाए, जो मे देवसिन अश्वारो कन, तस्स
मिठामि जम्॥ अर्थ-( मणविपरिआसिआए के० ) मनोवैपर्या सिक्या, एटले मारा मनसंबंधि विपर्यासपणुं होतेलते जे कंई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु, अर्थात् साधुए स्त्रीनेविषे मन नही कर जोइए, अने तेवीरोते स्वीना लोगविलाससंबंधि मननीअंदर जे कंचितवेलुं होय, ते संबंधि जे कंई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. वली (पाणलोअणविप्परिआसिआए के0 ) पानजोजनवैपर्यासिक्या, एटले पाननोजनना विपर्यासपणायें करीने जेको अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छु. अर्थात् रात्रिए अथवा दिवसे चारप्रकारना आहारनी अंदर नही नपनो
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साधु प्रति
॥१०॥
गमां आवे, एवा आहारपाणीसंबंधि जे कंई विपर्यास चितवेलो होय, अथवा जे कंई विपर्यास करेलो होय. अने ते संबंधि || सूत्र जे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हूं पमिक, छ. एवोरीते ( जो के) यः, एटले जे कोइ, अर्थात् पूर्वे व- || अर्थ: र्णवेला अतिचारोमांथी जे कोइ अनिचार (मे के0 ) मे, एटले मम, अर्थात् मने लागलो होय; हवे ते अतिचार केवो? तो के, (देवसिन के० ) दैवसिकः, एटले दिवससंबंधि अर्थात् आजनादिवसे ( अारो के0 ) अतिचार, एटले जे को अतिचार, अर्थात् जे कोई दोष, ( कन के ) कृतः, एटले करेलो होय, अर्थात् जे को दोप, एटले अतिचार में आचरेलो होय, ( तस्स के ) तस्य, एटले ते अतिचारसंबंधि (मिठामि उक्क के) मिथ्या मे पुष्कृतं, एटले मारुं दुष्कार्य मिथ्या थाहै? अर्थात् ते पूर्वे वर्णवेला सघलीजातना अतिचारोसंबंधि, आजे जे कोई दोष में करेलो होय, ते दोपसंबंधि मने लागेला अतिचारनी हुं सम्यकप्रकारे माफी मागु छु.॥ ॥ पमिक्कमामि गोअरचरिआए, जिस्कायरिआए, नग्घामकवामनग्धामणाए, साणावछदारासंघट्टणाए॥
अर्थः-हवे गोचरीसंबंधिना अतिचारोनं प्रतिक्रमण कहे . (पमिकमामि के) प्रतिक्रमामि, एटले ह प्रतिक्रमण करूं छु, अर्थात् अतिचारोने हुं आलो छ. हवे शा संबंधि अतिचारोने आलोवु छ ? तो के, (गोअरचरिआए के०) गोचरचर्यायाः, एटले गोचरचर्यासंबंधि जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमवाबमे करीने हुं आलोबुं छु. अ. र्थात् जे भूमिपर गायो तृणादिक चरे , ते गोचर कदेवाय. अने एवीरीते गोचररूप भूमिनागपर जेम गायो चरे ले, तेवीरीते जिदा निमित्तें मुनिन्न जे जमवू, ते गोचरचर्या कहेवाय. अने जवीरीते गोचरनेविषे गायो चानीचा स्थानमा रसवाला अयवा नीरस एटले रसविनाना तृणादिकने निर्दोपपणावके करीने चरे ले, तेम साधु पण तुंचा अथवा नीचा घरोनेविषे स्निग्ध अथवा सुखा, तथा आधाकर्मादिक दोषोयें करीने रहित एवो जे को आहारपाणी मले, तेने बास्ते चमण करे , अने तेवीरीते चमण करतांयकां मने जे अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. वली (जिस्कायरिआए के0) निकाचर्यया, एटले जिक्षाचर्यावके करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचार पण हुं पमिकमुछु. अर्थात् आ
॥१०॥ हारपाणी आदिक लेतांथकां जे कोइ यतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिकमु छ. बली (नग्धामकवामनग्यामणाए) नद्घातकपाटोद्घाटनया, एटले वासेला कमामाने उधास्वाथकी जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचार
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साधु || ने हुं पमिकमुं छ. अर्थात् जे कमामोने आगलीयायी या सांकलथी जोमीने बंध करेला होय, तेवां कमाम्बालां घरने नि- || भूत्र प्रति दामाटे खोलतांथकां जे कोइ अतिचार मने तारणे होय, ते अतिचारने हूँ पमिकमुंई. बली (साणावदारासंघट्टणाए के०)||
अर्थः श्वानवत्सदारकसंघवनया, एटले कुतरो, वामो अने बालकना संघट्टनवालाना हायनी जिदा लेवावमेकरीने जे कंई अतिचार ॥११॥
मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. अर्थात् कुतरो, वानरमो या बालक जेनी संघाते रहेला डे, तेवो मनुष्य जिदा आपवामाटे जो सन्मुख आवे, तो ते कुतराआदिको तेनी पाउल जाय , अने तेयो करीने तेन्ना आत्माने विराधना पहोंचे बे. अने तेथी निदा ग्रहण करनार साधुने अतिचार लागे . अने तेवो जे कंई अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. वली
॥ मंमीपादुमित्राए, बलिपादुनियाए, उवणापादुझिाए, संकिए सहसागारिए ॥ _ अर्थः- ममीपाहुमित्राए के0 ) ममीमाभृतिकया, एटले मंमीप्रानृतिका वझेकरीने जे को दोप लागेलो होय. ते संबं. घि अतिचारने पमिकमु छ अर्थात् प्रथम व आदिकनी तरने ममीकामां, एटले मुख्य नाजनमाथी ढांकण आदिकमां काढीने अथवा बीजा को पात्रमा काढीने पठीयी जे जीक्षा आपे, ते ममोपाभूतिका कहेवाय; अने तेवी निवाग्रहण करवायी साधुने प्रत्तिदोष नामनो अतिचार लागे ले. एवी रीतनो जे कोइ अतिचार में कर्यो होय, एटले जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमु छं. बली (बलिपाहमिआए के०) बलिप्राभूतिकया, एटले बलिमान्नतिकावमेकरीने जे को
अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिकमु छ तेमज निकाचरोनेमाटे जे आहारपाणी इलायदो करीने राखी मेलेलो होय, अने तेवीरीतना निकाचरोनेमाटे जूदा कहामीराखेला आहारपाणीमाथी साधुने आहारपाणी लेवां कल्पे नही अने एवीरीतना आहारपाणी लेवाथी मने जे कंई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. वली (उवणापाहुमिआए के) स्थापना प्राभृतिकया, एटले स्थापनाप्राभृतिकावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं . वली (संकिए के) शंकिते, एटले शंकावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचा| रने हुँ पमिक, छ. अर्थात् आधाकर्मादिक दृषणनी शंका प्राप्त होतेबते जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंडूं. वली (सहस्सागारिए के0) सहसाकारे, एटले सहसाकारपूर्वक जे कंई आहारपाणी ग्रहण करेलुं होय, अने
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साधु
मूत्र
प्रति
अर्थः
॥१
॥
ते थकी जे अनिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंछं. अर्थात् नतावलपणाथी विचार कर्याविना अशुभ आहारपाणी ग्रहण करतेउते जेको अतिचार लाग्यो होय, ते हुं पमिकमु छु. एटले एवीरीते सहसाकारे गोचरीयी आहारपा- || णी लेतांथकां जे अतिचार मने लागेलो होय, तेनी हुं आलोयणा लेलं छु. वली
॥असणाए, पारोसणाए, पाणलोअगाए, बीअन्नोप्रणाए, हरिअनोअगाए ॥ अर्थः-(अणेसणाए के) अनेषणाए, एटले अनेषणाव करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. अर्थात् अनेषणा एटले गवेषणा कर्याविना प्रमादथी जेकंई आहारपाणी में ग्रहण करेलो होय, अने तेम करसांथका जे कंई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने ९ पमिक, छ. वली (पाणेसणाए के) प्राणेषणया, एटले प्राणेषणावमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिकमुंछ. अर्थात् प्राणेषणा एटले सर्वथाप्रकारे विचार कर्याविना अनेषणा करवी ते, एटले प्राण कहेतां रसथी नत्पन थनारा एवा वैश्मिादिक जीवो जाणवा. तेवा बेइश्यि जीवो चलितरसथयेला एवा दहीं तथा जातआदिकमां, तेमज चलितरसवाला एवा केला, तथा प्रांवाआदिकमां उत्पन्न याय , तेमज घणा कालनी खांस, खजूर तथा स्वारेकादिकमां पण नत्पन्न थाय . एवीरीतना जीवोवाला आहारपादिकने सर्वथाप्रकारे विचार कर्याविना ग्रहण करतांथकांजे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हं पमिक, ९. वली (पाणलोमणाए के0 ) प्राणजोजनया, एटले प्राणोजनकरवावमे करीने जे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. अर्थात् नपर वर्णवेला डिआदिक रसथी नत्पन्न ययेला जोबोवाला लोजन करवावमे,करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली ( वीअनोअणाए के0 ) वीजनोजनया, एटले बीजोना जोजनवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, वे अतिचारने हुँ पमिकमुं हूं. अर्थात् बीज एटले तल, तथा घनादिकना अखंझ कणो जे जोजननी अंदर रहीगयेला होय, सेवां बीजवाला जोजनादिकनो आहार करवावमे करीने जेको अतिचार लागेलो होय, ने असिचारने इं पमिकमुंटुं, बली (हरिअनोपणाए के) हरितनोजनया, एटले हरिआलीना
॥१२॥ जोबनवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागला होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. अर्थात् मग, चणा, मठ तथा नमद, आदिकने जलमां जीजववाथी तेनने जे फणगा फूटे ले, ते हरियाली कहेवाय अने तेवी हरियालीवाला आहारआदिकनुं
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साधु
जोजन करवावकरीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारोने हुं परिक्रमुं छं. बलीप्रति० ॥ पच्छाकम्मिश्राए, पुराकम्मित्राए, यदिदमाए, दगसंसदमाए, रयसंसहमाए, पारिसामप्रिए ||
॥ १३ ॥
अर्थः- ( पच्छाकम्मित्र्याए के० ) पश्चात्कर्मिकया, एटले पश्चात् कर्मिका करवावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागे - लो होय. ते अतिचारने हुं पमिकमुंलुं. अर्थात साधुजी महाराजने आहार व्यादिक प्रतिलाच्या पछी गृहस्थी काचांपालीथी हाथ प्रादिक धुए, अने तेथी पूकायना जीवोनी विराधना याय. अने एवीरीते आहार आदिक लेतांकां जे दाप लागे ते पश्चात् कर्म नामनो दोष कहेवाय, ते दोष संबंधि जे कोइ प्रतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छं. वली ( पुराकमा ho) पुरः कर्मिकया, एटले पूराकर्मिकाव करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंलुं. अर्थात् पुराकर्म एटले साधुजी महाराजने प्रतिलाजवा पहेला काचापाणीथी जे हाथयादिक धोत्रा, ते पुराकर्म कहेवाय, यने तेम करतांकां पण अपूकायनी विराधना याय, माटे एवीरीते आहारव्यादिक लेतांकां जे दोष लागे, ते पुराकर्म नामनो दोष कहेवाय. ते दोपसंबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं परिमुं लुं. वली (दि हा के) हृतायाः, एटले दृष्टाहृतवमे करीने जे कोइ दोष मने लागेलो होय, ते दोपसंबंधि प्रतिचारोने हुं परिमुं कुं. अर्थात् दृष्ट आहत एटले रसोमानी अंदर, आहार लेनार साधुनी दृष्टि न पकती होय, अने तेवीरीतनो हार ग्रहण करेलो होय, अथवा आहार आपनारे पोते अंधकारने लीधे नजरे जोयाविनाज आहार लावीने वोराव्यो होय, तो तेथी पण दोष वाडे, केमके तेवीरीतनो आहार ग्रहण करवायी कुंथुआ, कीमी तथा कणीआदिको उपमर्दन थवानो संजवडे, माटे एवीरीतनो व्याहार करवावमे करीने जे कोइ दोष मने लाग्यो होय, ते दोषसंबंधि प्रतिचारोने हुं पमिकमुं छं. वली ( दग सहमाए के० ) दकसंस्पृष्टाहृतायाः, एटले जलवमेकरीने स्पर्शवाला थयेल एवा आहारत्र्यादिकने लेतांक | मने जे कां प्रतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारोने हुं पमिकमुं लुं. अर्थात् आहार आपनार मनुष्य, साधुजी महाराजने आहार
-
॥ १३ ॥
पती वखते जे हारने उपामे, ते आहारने जो काचापाणीनो स्पर्श थयो होय, तो ते आहार ग्रहण करतांथकां दोष लागे, केमके तेथी अप्कायना जीवोनी विराधना थाय. माटे एवीरीतनो आहार ग्रहण करवायी मने जे कोइ प्रतिचार लाहोय, ते तिचार हुं पमिकमुं छं. वली (रयसंसगृहमाए के० ) रजः संस्पृष्टप्राहृतायाः, एटले रजयी स्पर्शवाळा यता
सूत्र
अर्थः
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साधु
प्रति
अर्थः
॥१
॥
एवा आहारआदिकने वोरतांथकां मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुंछ. अर्थात् आहारआपनार मनुष्य, साधुजी महाराजने आहार आपती वेळाए जे आहारआदिक नपामे ते आहारने जो रजनो एटले माटीआदिकनो स्पर्श थयो होय, तो तेवो आहार ग्रहण करतांथकां दोष याय, अने तेम करवायी पृथ्वीकायना जीवोनी विराधना थाय. माटे एवीरीतनो आहार ग्रहण करवाथी मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. वली पारिसामणिआए के) पारिशाटनिकया, एटले पारिशाटनिकी जिदाथकी मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंछ. अर्थात् निक्षा ग्रहण करती वेलाए अनाजना कणो अथवा घृतआदिकना टबकां जो नीचे पमी जाय, तो तेथी पण दोष लागे, माटे एवीरीतनी निदा लेतांथकां मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते हुं पमिकमुं छ. वली॥पारिगवणिआए,नहासणनिस्काए, जं नग्गमेणं, नुप्पायरोसणाए, अपसुिरई पमिग्गहिरं
वा, जं न परविरं, तस्स मिछामि उक्तम्॥ अर्थः-(पारिठावणिआए के0 ) परिस्थापनीकया, एटले पारिष्टापनिकी जिदाथकी मने जे अतिचार थयो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छु. केमके तवी निदाथी बकायना जीवो संबंधि विराधना थाय ; माटे तेवीरीतनी निदा गृहण करवा थकी मने जे को अतिचार थयो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. वली (नहासणजिस्काए के) अवनाषणनिदया, एटले अवनाषण पूर्वक निदा ग्रहण करवा यकी मने जे को अतिचार थयो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छ. वली अवजाषण एटले आहार ग्रहण करनार साधु, आहार यापनार गृहस्थीने एम कहे जे मने अमुक प्रकारनी अमुक नत्तम वस्तु
आपो. एवी रीते जे कहेवू, ते अवजापण कहेवाय. परंतु कारण विना साधु जो एवी रीते मागणी करे, तो अतिचार लागे, माटे एवी रीतनी अवनाषण पूर्वक निदा लेतांयकां मने जे कोई अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ, वली (जं नग्गमेणं के० ) यत् नगमेन नाम नामना दोषवमे करीने जे कंज्ञ आहारआदिक में ग्रहण करेलो होय, अने ते संबंधि मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. वली (नप्पायणसणाए के०) नत्पादनएषणया, एटले नत्पादनएषणावमे करीने जे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंछ. अर्थात् साधुजी महाराज गृहस्थी ने एम न कहे के, अमुकप्रकारनो आहार मारेमाटे तैयार करजो? केमके तेवा प्रकारनो आहार ग्रहणकरवाथी अतिचार
॥२४॥
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साधु प्रति
अथः
॥१५॥
लागे, माटे तेवो आहार ग्रहण करतांयकां मने ज कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हं पमिकमुंछ. एवीरीते (अप- || सूत्र रिमुवं के०) अपरिशुई, एटले शुभ नही एवो आहारादिक, अर्थात् वाणवालो एवो जे आहारादिक (पमिग्गहिअं के०) प्रतिग्रहितं, एटले में ग्रहण करेलुं होय, तेमज (परिभुत्तं के) परिभुक्तं, एटले परिभुक्तेलु होय, अर्थात् वापरेलुं होय, एटले में खाधेलुं होय, ( वा के०) वा, एटले अथवा (जं के0) यत्, एटले जे कंई में (न परठविय के0) न परिष्टापितं, एटले परठव्युं न होय, एटले जोजन करतांयकां जे याहारआदिक वधेलुं होय, ते आहारादिकने विधिपूर्वक में परठव्युं न हो. य, इत्यादिक गोचरीसंबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, (तस्स के ) तस्य, एटले ते संबंधि, (मिछामि दुक्कम के०) मिथ्या मे दुष्कृतं, एटले मारूं दुष्कृत मिथ्या थान? अर्थात् नपर वर्णवेला गोचरीसंबंधि अतिचारोमांथी जे कोइ अतिचार मने लाग्यो दोय, अने ते अतिचाररूप जे कोइ अपराध में करेलो होय, ते अपराधनी हुं माफी मागु छ. ॥ ॥ पमिक्कमामि चानक्कालं सकायस्स अकरणयाए, नन्ननकालं नंमोवगरणस्स अप्पमिलेहणाए ॥
अर्थः-(चानक्कालं के) चतुः कालं, एटले चार समयतक, अर्थात् रात्रि अने दिवसना पेहेला बेला चार पहोरमुधिमा (सिकायस्स के ) स्वाध्यायस्य, एटले सजायध्यानने, अर्थात् मूत्र पौरुषीरूप सजाय ध्यानने (अकरणयाए के) अकरणतया, एटले नही करवावमे करीने, अर्थात् प्रमादने लोधे नपर कहेला चारे पहोरो सुधिमां मूत्रपौरुषीरूप सहाय ध्यान न करवाथी जे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. अर्थात् ते अतिचारसंबंधि (पमिक्कमामि के०) प्रतिक्रमामि, एटले हूं अतिक्रमण करुं छं. अर्थात् ते अतिचारने हूं पमिकमणपूर्वक आलोवु छ. वली (नजकालं के० ) नजयकालं, एटले वन्हे कालपर्यंत, अर्थात् बन्ने वखते एटले प्रजातमां अने त्रीजे पहोरे, एवीरीते बन्ने कालपर्यंत (नां. मोवगरणस्स के नामोपकरणस्य, पात्र तथा वस्त्रादिकना (अप्पमिलेरणाए के) अप्रतिलेखनया, एटले प्रतिलेखन नही करवाथकी, अर्थात् बन्ने पखत पात्र तथा वस्त्रादिको, पमिलेहण नही करवाथी जे कोई अतिचार मने लाग्यो होय,
I n ते अतिचारने हूँ परिकसुंब. अर्थात् ते अतिचारसंबंधि पमिकमणपूर्वक हं आलोयणा लेनं छ. वली
॥ दुप्पमिलेहणाए, अप्पमजणाए, दुप्पमजणाए, अश्क्कमे, वश्क्कमे, अश्वारे, अणायारे, जो मे
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साधु प्रति
॥१६॥
देवसिन अश्वारो कन, तस्स मित्रामि दुक्कम् ॥
सूत्र अर्थः-(दुप्पमिलेहणाए के० ) दुःप्रतिलेखनया, एटले दुःमतिलेखनवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते || अर्थः अतिचारने हुं पमिकमु छ. अर्थात् पात्र तथा वस्त्रादिकार्नु पमिलेहण करतांथकां श्रम आदिकने लीधे मने शारीरिक अथवा मानसिक जे कई दुःख लाग्युं होय, अने ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ परिकमु छ. वली (अप्पमज्जणाए के) अप्रमार्जनया, एटले अप्रमार्जनथकी जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छ. अर्थात् नपाश्रय, पीठ तथा फलकादिकनुं प्रमार्जन करवाथकी मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छ. अर्थात् नपाश्रय, पीठ तथा फलकादिकनुं प्रमार्जन करती वेळाए श्रमादिकथी शरीरने, अथवा मनने जे दुःख नत्पन्न थयु होय, अने ते संबंधि मने जे अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पमिकमुलु. वली ( अश्कमे के0 ) अतिक्रये, एटले अतिक्रम करते बते, अर्थात् अकृत्य एटले नही करवा लायक एबुं कार्य करवानो स्वीकार करते बते, मने जे को अ तिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छ. वली ( वश्कमे के ) व्यतिक्रमे, एटले व्यतिक्रम करतेठते, मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पमिक, छ. अर्थात् व्यतिक्रम एटले नही करवा लायक कार्य करवाने जे उद्यमवंतथq ते व्यतिक्रम कहेवाय, अने तेवीरीतनो व्यतिक्रम करतेठते, मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने पझिक मुंछ. वली (अश्यारे के ) अतिचारे, एटले अतिचार करतेबते, जे को दोप मने लाग्यो होय, ते दोपने पमिक मुंछ, अर्थात् नही करवा लायक काम करवाने तैयार यतांयकां अतिचार लागले, अने तेवो अतिचार होतेउते, जे कंइंदूपण मने लाग्युं होय, ते दृषणने पमिक, छ. वली (अणायारे ) के ) अनाचारे, एटले अनाचार करतांयकां जे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हं पमिकमु छ. अर्यात् नही करवा लायक जे कार्य करवू, ते अनाचार कहेवाय, अने तेवीरीतनो अनाचार करतेबते मने जे को अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हूँ पमिक, छ. एवीरीते (देवसिन के0) देवसिकः, एटले दिवससंबंधि, अर्थात् दिवसनी अंदर (जो के ) यः एटले जे कोइ (अश्यारो के ) अतिचारः, एटले अतिचार; (मे के0 ) मया, एटले में (कन के) कृतः, एटले करेलो होय, (तस्स के ) तस्य, एटले तेनो, अर्थात् ते अतिचारसंबंधि (मिठामि दुक्कम के) मिथ्या से दुष्कृतं, एटले मारुं दुष्कृत मिण्या था? अर्थात् नपर कहेला अतिचारोमांथी मने जेको
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साधु || अतिचार लाग्यो होय, तेनी हुं माफी मागुं .॥ प्रति ॥परिकमामि एगविहे असंजमे, पमिकमामि दोहिं बंधणेहिं, रागबंधणेणं, दोसबंधणेणं ॥
अर्थः-हवे एकविधादिक नेदोएं करीने प्रतिक्रमण कहे . ( एगविहे के ) एकविधे, एटले एकप्रकारना ( असंजमे ॥१५॥|| के0 ) असंयमे, एटले असंयमनेविषे मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छ. अर्थात् विरतिरूप सं
यम न पालवावमे करीने कर्मबंधनरूप जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. एवीरीतना अविरतिरूप अतिचारने (पमिकमामि के०) प्रतिक्रमामि, एटले हुँ पमिकमु छ. अर्थात् ते अतिचारनी हुं आलोयणा लेलं छु. वली (दोहिं के०) हाज्यां, एटले बे एवा (बंधणेहिं के०) बंधनाज्यां, एटले बंधनोवमेकरीने अर्थात् बे एवा कर्मबंधना हेतुनबमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. हवे ते बेप्रकारनां बंधनो कयां कयां ? तो के, एकनो ( रागबंधणेणं के०) रागबंधेन, एटले रागरूप बंधनवमे करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ने अतिचारने हं प. मिकमुं छु. वली बीजा (दोसबंधणेणं के०) देपबंधनेन, एटले देषरूप बंधनवमेकरीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. एवीरीते बन्ने प्रकारनां बंधनोसंबंधि अतिचारोने हूं पमिकमु छ. वली
॥पमिकमामि तिहिंदंहिं, मणदंमेणं, वयदंमेणं, कायदंमेणं ॥ अर्थः-(तिहिं के) त्रिनिः, एटले त्रण एवा, अर्थात् त्रणप्रकारना (दंमेहिं के0) दमः, एटले दमोवझकरीने जेको अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंछु. अर्थात् चारित्ररूपी धननी चोरी करवावमे करीने अपराधी थयेला एवा आत्मानो जेनवमे करीने दंग करवामां आवे , तेन दंम कहेवाय बे, एवा दंमोवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं . हवे ते त्रणे प्रकारना दंमो कया कया डे? तोके, एकतो ( मणदंमेणं के0) मनोदं| मेन, एटले मनदंमबमे करीने, अर्थात् मनदंम्वमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने ई पमिकमु छ वली ( वयदंमेणं के ) वचनदमेन, एटले वचनदंम्बके करीने, अर्थात् वचनो बोलवावके करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. वली ( कायदंणं के ) कायदंमेन, एटले कायदंसबमे करोने, अर्थात् आ शरीरवके करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिक, छ. एवीरीते त्रणे दंमोवमे करीने जेको अतिचार म
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सत्र
प्रति
अर्थः
|| ने लागेलो होय, ते हुं पमिकमु छु. वली
॥पमिकमामि तिहिं गुत्तीहिं मणगुत्तीए, वयगुत्तीए, कायगुत्तीए ॥ अर्थः-(तिहिं के) त्रिनिः, एटले त्रण एवी ((गुत्तीहिं ) गुप्तितिः, एटले गुप्तिनवमे करीने जे कोइ अतिचार मने ॥८॥|| लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमु छ. हवे ते त्रणे गुप्तिनने (पमिकमामि के०) प्रतिक्रमामि, एटले हुं प्रतिक्रमु छु. अ.
र्थात् ते गुप्ति-संबंधि मने लागेला अतिचारनी हुं आलोयणा लेनं छु. हवे ते त्रणे गुप्ति कर का? ते कहे . (मणगुत्तिए के) मनोगुप्तया, एटले मनगुप्तिवमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंढुं. अर्थात् मनने जे गोपवीने राख, ते मनोगुप्ति कहेवाय, अने तेवी मनोगुप्तिसंबंधिजे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमु छु. वली ( वयगुत्तिए के) वचनगुप्तया, एटले वचनने गोएक्वावमे करीने, जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. वली (कायगुत्तिए के ) कायगुप्तया, एटले कायगुप्तिवमे करीने, अर्थात् कायाने सम्यकप्रकारे न गोपववाथी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. वली
॥पमिकमामि तिहिं सल्लेहि, मायासलेसं, नीयाणसल्लेणं, मित्यादसणसल्लेणं ॥ अर्थः-(तिाह के) त्रिनिः एटले त्रण एवा (सक्षेहिं के०) शल्यैः, एटले शख्यो वमेकरीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचार (पमिकमामि के) प्रतिक्रमामि, एटले ई पमिकमुंछ. हवे ते त्रणे शल्यो कयांकयां (मायासल्लेणं के)मायाशल्येन, एटले मायाशल्यवमेकरीने, जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुंछु. अर्थात् कोइ पण अपराध करीने लज्जाने लीधे कुटिलताथी तेनुं जे आलोचन न करवू, अथवा ते अपराधD जे निवेदन न करवु, ते मायाशल्य कहेवाय, अने तेवी रीतना मायाशल्यवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छु. वली (नियाणसल्लेणं के०) निदानशख्येन, एटले नियाणाशस्यवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. अर्थात् मारा तपना प्रजावथी हुं राजा यानं, अथवा इव्यवान् थालं एवीरीतनो जे अनिलाप चिंतववो, ते निदान कहेवाय, अने तेवीरीतना करेला एवा अजिलाषने पश्चातापपूर्वक जे नही आलोचवो, ते निदानशख्यरूप कहेवाय. अने ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. वली (मित्यादंसणसल्ले
॥१८॥
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|| अर्थः
साधु || णं के) मिथ्यादर्शनशख्येन, एटले मिथ्यादर्शन नामना शस्यवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने || म.|| ई पमिकमु छ. अर्थात् मिथ्यात्वना प्रवेशरूप शल्यवमे करीने जे को अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने हे पमिकमवाने
इच्छं हूं. वली॥१॥
॥पमिकमामि तिहिं गारवेहि, श्ट्ठीगारवेणं, रसगारवेणं, सायागारवेणं ॥ ___ अर्थः-(तिहिं के ) त्रिनिः, एटले त्रण एवा, अर्थात् त्रण प्रकारना ( गारवेहिं के ) गौरवैः. एटले गौरवोवझे करीने लागेला अतिचारने (पनिकमामि के) प्रतिक्रमामि, एटले हुं पमिकमु ढुं. हवे ते त्रणे प्रकारना गौरवो कया कया? तो के, (डीगारवेणं के०) कहिगारवेन, एटले झिगौरवको करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने है पमिक, छ. अर्थात् हुँ राजावमे करीने पूजनिक छु, मारीपासे सिनि ले, हुं आचार्य छ, इसादिक इन्नुि अजिमान करवाथी जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छु. वली ( रसगारवेणं के0 ) रसगौरवण, एटले रसगौरववमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. अर्थात् मने खावापीबामाटे अति स्वादिष्ट मनोहर रसादिक मले , अने तेथी मने सर्वथी अधिक सुख मले डे, इसादिक अनिमान करवायी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंछ. वली (सायागारवेणं के ) सातागौरवेण, एटले सातागौरववमे करीने जेकोश्यतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. अर्थात् माझं शरीर निरोगी डे, श्सादिक अनिमान करवाथी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. वला
॥पमिक्वमामि तिहिंविराहणाहि, नाणविराहणाए, दंसगविराहणाए, चरितविराहगाए, ॥ अर्थः-(तिहिं के0 ) त्रिनिः, एटले त्रण एवी, अर्थात् त्रण प्रकारनी (विराहणाहिं के ) विराधनानिः, एटले विराधनावमे करीने लागेला अतिचारने हुँ (पमिक्कमामि के० ) प्रतिक्रमामि, एटले हुँ पमिकमुं छ. हवे ते त्रणेप्रकारनी विराधना कर कर ले? तो के, ( नाणविराहणाए के0 ) छानविराधनया, एटले छाननी विराधनावमे करीने, मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. अर्थात् शानसंबंधि अंतरायआदिक करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पकिमु छ. वली (दसणविराहणाए के0) दर्शनविराधनया, एटले दर्शनसंबंधि |
॥१
॥
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साधु
प्रति
॥३०॥
विराधनावमे करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने इं पमिकमु छ. अर्थात् दर्शन एटले समकीत, अने !| सूत्र ते समकीतसंबंधि जेको अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिक मुंछ. वली (चरित्तविराहणार के0) चारित्रवि- || राधनया, एटले चारित्रनी विराधनावमे करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हु पमिकमुं छु. अर्थात् पचमहाव्रतने धारण करवारूप चारित्र पालतांथकां जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छु. वली॥ पमिक्कमामि चनहिं कलाएहिं, कोहकसाएणं, माणकसाएणं, मायाकसाएग, लोहकसाएणं ॥
अर्थः-(चनहिं के०) चतुर्तिः, एटले चार अर्थात् चार प्रकारना एवा ( कसाएहिं के) कपायैः, एटल कपायावर करीने मने लागेला अतिचारोने ( पमिकमामि के0 ) प्रतिक्रमामि एटले हुं पमिकमुंछु. हवे ते चारे प्रकारना कपायो कया कया ? तो के, ( कोहकसाएणं के ) क्रोधकषायण, एटले क्रोधरूप कषायत्रमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुटुं. अर्थात् उदय आवेला, एवा क्रोधरूपी कवायने नही निष्फल करवाथी, तथा उदयमां नही आ
वेला एवा क्रोधरूपी कषायना नदयने नही रोकवाथी जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हु पस्किमु छ. ब| ली (माणकसाएणं के0 ) मानकषायेण, एटले मानरूपी कषायवम करीने जे कोई अतिचार मन लागेलो होय. त अतिचारने हुँ पमिकमु छ. अर्थात् नदयमां आवेला एवा मानरूपी कपायने न निष्फल करवावमे करीने, तथा उदयमां नही आ. वेला एवा मानरूपी कपायना नदयने नही रोकवावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हु पमिकमु छु. वली (मायाकसारणं के०) मायाकषायण, एटले मायारूपी कपायवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. अर्थात् नदयमां आवेला एवा मायारूपी कषायने नही निष्फल करवावके करीने, तथा उदयमां नही आवेला एवा मायारूपी कषायना नदयने नही रोकवावमे करीने जेको अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. वली (लोहकसाएणं के ) लोनकषायेणा, एटले लोनरूपी कपायवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. अर्थात् उदयमां आवेला एवा लोजरूपी कपायने नही निष्फल करवावके करीने, तथा
॥३०॥ नदयमां नही आवेला एवा लोनरूपी कषायना नदयने नही रोकवावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिक, छ. वली
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साधु || ॥पमिकमामि चनहिं समाहिं, आहारसमाए, जयसमाए, मेदुगसमाए, परिग्गहसमाए, ॥ || मूत्र । प्रतिण
___ अर्थः-(चनहिं के ) चतुलिः, एटले चार एवी अर्थात् चार प्रकारनी ( सलाहिं के ) संझानिः, एटले संज्ञानबके अर्थ
करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. अर्यात् (पमिकमामि के0 ) प्रतिक्रमामि एटले ते ॥३॥
अतिचारोनुं हुं प्रतिक्रमण करुं छु. हवे ते चारे संझा कर कठे? तो के, (आहारसणाए के) आहारसंझ्या, एटले आ हारनंझावझे करीने जे को अतिचार मने लागलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुंहूं. अर्थात् आहार ग्रहण करवाना परिणामना संबंधमां जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. वली (जयसवाए के) जयसंख्या, एटले जयसंझावके करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छ. अर्यात् जीपणारूपी जीवनो जे परिणाम, ते जयसंझा कहेवाय, अने तेवी जयसंझासंबंधि जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. वली ( मेहुणसालाए के ) मैथुनसंझ्या, एटले मैथुनसंझावझे करीने, जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. अर्थात् जीवने शब्दादिक विषयोना पत्नोगनो जे परिणाम, ते मैथुनसंझा कहेवाय, अने तेवी मैथुनसंझाव करीने मने जे को अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, . वली (परिग्गहसलाए के) परिग्रहसंझया, एटले परिग्रहसंझावमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय ते अतिचारने हुं पमिक मुंछ: अर्थात् धनादिकने विपे जीवने अतिममत होवावमे करीने, ते धनादिकने गोपववानो जे परिणाम, ते, परिप्रहसंज्ञा कहेवाय, अने तेवी परिग्रहसंझाबमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिकमुं हूं. बली हूं शुं पमिकमुं हुं तोके,
॥पमिकमामि चनहिं विगहाहिं, इथिकहाए, जनकहाए, देसकहाए, रायकहाए, ॥ अर्यः– (चनहिं के०) चतुतिः, एटले चार एवी, अर्थात् चार प्रकारनी ( विगहाहि के0) विकयातिः, एटले विकथान करवावके करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने (पमिकमामि के0 ) प्रतिक्रमामि, एटले हुँ पमिकमुं छु; हवे ते चार प्रकारनी विकथा कर कर ले? तो के, (इत्यिकहाए के) स्त्रीकथया, एटले स्त्री संबंधि कथावमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं हुं. अर्थात् स्त्रीना विचित्र प्रकारना अंगनपांग आदिकना वर्णनवके करीने, अयवा स्त्री संबंधि जोगविलास आदिकनी कथानवो करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अ.
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अथा
साधु | तिवारने हुं पक्षिक मुं छु. वली हुं शुं पमिकमु छ! तो के, (जतकहाए के0 ) जक्तकथया, एटले लोजन संबंधि कथाबसे करीगतिने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिक, छ. अर्थात् विविध प्रकारनां रसवाला स्वादिष्ट नोजनो
नयंधि विकथा करवावके करीने मने जे कोइ अतिचार लागे तो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. बली हुँ शुं पमिक मुं छ? 1170 तो के, (देसकहाए के0 ) देशकथया, एटले देश संबंधि वार्तालाप करवावमे करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते
अनिवारन हुँ पमिक, छ. अर्यात विविध प्रकारता देशो संबंधि सारी अथवा माठी वातो करवावमे करीने जे कोइ अतिच र मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक मुं छु! वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, ( रायकहाए के0 ) राजकयया, एटले रानसंबंधि कया आलाप करवावमे करीने मने ज कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. अर्थात् अमुक राजानुं राज्य सारं . तया अमुक राजार्नु राज्यमातूं बे, श्सादिक राज संबंधि सर्व प्रकारनी कथान करतांथका जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिक, छ. वली हूं शुं पमिकमुं छ! तो के,
॥ पमिकमामि चनहिंकाणो, अटेणंजाणेणं, रुद्देशंकाणेणं, धम्मेणंमाणेणं, सुक्केणंमाणेणं ॥
अर्थः- (चनहिं के०) चतुर्तिः, एटले चार एवा, अर्थात् चार प्रकारनां (काणेहिं के0 ) ध्यानः, एटले ध्यानोवो करीने, जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिवारने (पमिकमामि के0 ) प्रतिक्रमामि, एटले हुँ पमिकमुं छ. हवे ते चारे प्रकारनां ध्यानो कयां कयां बे तोके, ( अहेणं जाणोणं के ) आतेन ध्यानेन, एटले आर्तध्याननामना ध्यानवके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक हूं. अर्थात् जीवने दुःखसहित खेदनी अवस्थानु जे चितवन थर्बु, ते आर्तध्यान कहेवाय, अने तेवां आध्यानवझे कराने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छु. वली हुं शुं पमिकमु छ! तोके, (रुदेणं जाणेणं के ) रौणध्यानेन, एटले रौनामना ध्यानयो करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने १ पमिकमुंहूं. अर्थात् जीवने, कोई पण पाणीने मारी नाखवार्नु, अथवा तेने जयंकर नुकशान पहोंचामवानुं जे चितवन याय, ते रौइध्यान कहेवाय अने तेवा प्रकारना रौश्थ्यान संबंधि चितवन करवावके करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छे. रली हुँशु पमिकमुटुं? तो के, (धम्मेणं जाणेणं के0) धर्मेण ध्यानेन, एटले धर्मसंबंधि ध्यानवके करीने मने जे कोई अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने ह पमिक . अर्थात् धर्मसंवं.
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माधु || वि जे ध्यान, एटले चितवन, अने तेवू धर्मसंबंधि चितवन न करवावो करीने मने जे कोइ अतिचार लागेला होय, ते अतिप्रति चारने हुं पमिक, ढुं. वली हुं शुं पमिक, छ. तो के, (मुक्केणं जाणेणं के0 ) शुक्न ध्यानेन, एटले शुक्लनामना ध्यानवमे क
रीने मने ज को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिक, छ. अर्थात् शुक्लनामना ध्याननुं चितवन न करवायमेक१३॥ रीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, से अतिचारने हूं पमिक छ. बली हु | पमिकमु छ! तो के, ॥ पमिकमामि पंचहिं किरिबाहिं, काश्याए, अहिगरणियाए, पानसियाए,
पारित्तावणिआए, पाणावायकिरिश्राए.॥ अर्थः-(पंचाई के0 ) पंचनिः, एटले पांच एवी. अर्यात् पांच प्रकारनी (किरिआदि के) क्रियान्निः, एटले क्रियाउबमे करोने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छु. अर्थात् ( पमिकमामि के0 ) प्रनिक्रमामि, एटले ते अतिचारो संबंधि हु आलोचना ग्रहण करूं छु. हवे ते पांचे प्रकारनी क्रियान कर ? तोके, (काश्याए के0) कायिक्या, एटले कायिक क्रियावके करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छ. अर्थात् वचन अने मनना व्यापारवमे करीने रहित, एटले तेन्ना नपयोगविनानी जे क्रिया, ते कायिकी क्रिया कहेवाय. अने तेवा प्रकारनी क्रिया करवावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. बली हुं शुं पमिकमु छु? तो के, (अदिगरणियाए के) आधिकरणिक्या, एटले अधिकरणसंबंधि क्रिया करवायमे करोनेजे कोइ अतिचार मने लागेलो होय,
ते अतिचारने हुँ पमिक, मु. अर्थात् मूत्र प्ररूपवावके करीने लोकोने धर्मयकी विपरीत, एवा खोटा मार्गमा जे स्थापन क|| रवा, अने ते वझे करीने निवृत्त एवी जे क्रिया, ते आधिकरणिकी नामनी किया कदेवाय; अने तेवी आधिकरणिको नामनी क्रिया करवायके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकछु. बली हुं शुं पमिक मुंटुं ? तो के, (पानसिाए के0 ) प्रापिक्या, एटले प्रादेषिकी नामनी क्रिया करवायके करीने मने ज कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिवारने हुं पमिक, छ. अर्थात् प्रादेषिकी क्रिया, एटले प्रक्षेप कहेतां मत्सर, अने ते मत्सरवमे करीने निवृत्त एवी जे क्रि
||॥२३ या, ते प्रापिकी क्रिया कहेवाय. अने तेवा प्रकारनी प्रापिकी क्रियावझे करीने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हु पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमु छ! तो के, ( पारितावणिआए के) पारितापनिक्या, एटले परितापनसंबंधि क्रि
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साधु
मूत्र अर्थ
मानिस
।
॥३॥
या करवावझे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं . अर्थात् परितापन एटले पोतानी आ | स्माना घातसंबंधि हृदयनीअंदर जे चितवन करवू, ते परिताप कहेवाय, अने तेवा प्रकारना परितापसंबंधि जे क्रिया, ते पारितापनिकी क्रिया कहेवाय; अने तेवी क्रिया करतांयकां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने १ पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं हुं. तो के, (पाणावायकिरिआए के0 ) प्राणातिपातक्रियया, एटले प्राणातिपात नामनी क्रिया करवावो करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिकमु छ. अर्थात् प्राणातिपात, एटले जीवोनी हिंसा, अने तेवीरीतनी जीवहिंसासंबंधि जे क्रिया करवी, ते प्राणातिपातक्रिया कहेवाय. तेवीरीतनी प्राणातिपातरूप क्रिया करवाबसे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. बली हुँ शुं पमिकयुं हुं. तो के,
॥पमिकमामि पंचहिं कामगुणेहिं, सद्देणं, रूवेणं, रसेणं, गंधेणं फासेणं ॥ अर्थः- (पंचहिं के ) पंचनिः, एटले पांच एवां, अर्थात् पांच प्रकारना (कामगुणेहिं के ) कामगुणैः, एटले कामगुणोवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ (पमिकमामि के० ) प्रतिक्रमामि,एटले पमिकमुं छ.हवे ते पांच प्रकारना कामगुणो कया कया ? तो के, ( सद्देणं के ) शब्देन, एटले शब्दरूप विपयवमे करने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. अर्थात् शुन्न शब्द सांजलवावमे करीने तेपर अनुराग मने ययेलो होय तथा अशुज शब्द सांजलवावमे करीने तेपर मने जे विराग अवस्या ययेली होय, अने एबी रीते करतांथकां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. बली हुं शुं पमिकमुंछ? तो के (रूवेणं के० ) रूपेण, एटले रूपनामना विपयवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छ. अर्थात् नत्तमप्रकारचें रूप दृष्टीवमे जोबाथी मने जे कांई आनंद थयो होय, तथा कुरूपरूप जोवावके करीने मारा अंतःकरणमा मने जे खेद उत्पन्न थयेलो होय, अने तेसंबंधि रूपविषयवालो जे कोई अतिचार मने लागेलो हो य, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. बली हुं शुं पमिकमु छ ? तो के, ( रसेणं के ) रसेन, एटले रस नामना विषयवमे करीने मने जे कोई अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने ई पभिकर छ. अर्थात् उत्तम प्रकारना स्वादिष्ट रसादिकनी प्राप्तिबके करीने मारा मनने जे प्रमोद उपज्यो होय, तया तेमज खराब प्रकारना रसनी प्राप्तिबके करीने जीवने ग्लानी नपजेली होय, अने एवीरीतनो अनुलव लेतांयका रस विषयसंबंधि जे को अति
। ॥३४
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साधु
.
प्रति
.
चार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुं छु. बली हुँ शुं पमिकमुंछु? तो के, (गंधेणं के०) गंधेन एटले गंध नामना विषयको करीने ते संबंधि जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंछ. अर्थात् अत्तर आदिक शुन सुगंधिनी प्राप्तिके करीने मारा माने जे आह्लाद नत्पन्न थयो होय, तया तेमन विष्टा आदिकनी उंगधिनी प्राप्तिवमे करीने मारा अंतःकरणानां जे खेद नमन ययेतो होय, अओ तेन करतांयकां गंवना विषय संबंधि जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिवारने हुं पमिमुं छु. वस) हुं शुं पकिक मुं छु, तो के, (फासे गं के ) स्पर्शन, एटले स्पर्श नामना विषयको क रीने मन जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिमुं छु. अर्यात् कोमल आदिक, मनने अनुकुल एवा स्पर्शनी प्राप्तिवमे करीने मने जे सुखलाता नत्पन्न थयेलो होय, तया तेमज खरसट आदिक खराब प्रकारना अने चित्तने प्रतिकुल लागे एवा स्पर्शको करोने, अंतःकरणनी अंदर जे खतो प्रगटलाव थयेलो होय, अने तेम करतांथका स्पर्श विषय संबंधि जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिक मुं छ! तो के, ॥पमिकमामि पंचहिं महत्वएहि, पाणाश्वाया वेरमगं, मुसावायान वेरमगं, अदिनादा
णान वेरमणं, मेदुणान वेरमणं, परिग्गहान वेरमणं, ॥ । अर्यः–(पंचहि के ) पंचलिः, एटले पांच एवां, अर्थात् पांच प्रकारनां ( महत्वएहिं के) महाव्रतैः, एटले महाव्रतो
वो करीने, अर्यात् पांचे प्रकारनां महाव्रतोतुं विराधन करवावमे करीने मने जे को अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने, (पमिकमामि के0 ) प्रतिकमामि, एटले हुँ पमिकमुं छ. हवे ते पांचे प्रकारनां महाव्रतो कयां कयां ? तो के, (पाणावायान के) पाणातिपाततः, एटले प्राणातिपातनामना महावतथी, अर्थात् प्राणातिपात एटले जीवहिंसा करवी ते, अने तेवा प्र. कारनी जीवहिं नाथकी (वेरमणं के) विरमणं, एटले मने विरति , अने तेवी रीतना प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महाव्रतने सम्यकाकारे नही पालन करवायी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, (मुलावायान के०) मृपावादतः, एटले मृपावादयी, अर्थात् जूठे बोलवू, ते मृषावाद कहेवाय, अने तेषा प्रकारना मृपावाद यी (वेरमणं के) विरमणं, एटले मने विरति डे, अने तेव रीतना मृपावादविरमाण नामना बीजा महाव्रतने सम्यक्प्रकारे नही पालन करवाथी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिक, छ. बली हूं शुं पमिकमुं
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साधु
अर्थ
टुं. तो के, (अदिन्नादाणा के0) अदत्तादानतः, एटले अदत्तादानथी, अर्थात् चोरी करीने पारकी वस्तुन्नु जे ग्रहण क-|| रघु, ते अदत्तादान कहेवाय; अने तेवा प्रकारना अदत्तादानथकी (वेरमणं के0), विरमणं, एटले मने विरति बे, अने तेवी
रीतना अदत्तादान विरमण नामना त्रीजा महाव्रतने सम्यक्प्रकारे नही पालनकरवायी मने जे को अतिचार लागेलो होय, ॥२६॥
ते अतिचारने हूं पमिकमुं छ. वली हूं शुं पमिकमुंछ! तो के, (मेहुणा के ) मैथुनतः, एटले मैथुन यकी अर्थात् स्त्रीसाये जे जोगविलास जोगववो, ते मैथुन कहेवाय, अने तेवाप्रकारना मैथुनथी मने ( वेरमणं के ) विरमणं, एटले विरति बे, अने तेवी रीतना मैथुन विरमण नामना चोथा महाव्रतने सम्यक् प्रकारे नही पालनकरवायी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छं. वली हुं शुं पमिकमुं ! तो के, (परिग्गहान के0) परिग्रहतः एटले परिग्रहथक। अर्थात् धन, || घर, वामी, घोमा, बलद आदिक वस्तुननी जे मालीकी धराववी, ते परिग्रह कहेवाय, अने तेवी रीतना परिग्रहथी (वेरम
एणं के) विरमणं, एटले मारे विरति ले. अने तेवा प्रकारना परिग्रहविरमण नामना पांचमामहावतने सम्यक् प्रकारे नही प रिपालन करवाथी मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं हुं. तो के,
॥ पमिकमामि पंचहिं समईएहि, इरियासमिईए, नासासमिईए, एलणासमिईए, आया
गगंम्मत्त निखेवणासमिईए, चारपासवण खेलजल्लसंघाण पारिगवणिया समिईए, ॥ अर्थः-(पंचहिं के पंचनिः एटले पांच एवी, अर्थात् पांच प्रकारनी (समयहिं के० ) समितिलः एटले समिति वके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने (पक्किमामि के) प्रतिक्रमामि, एटले हं पमिक ;. हवे ते पांचे समिति कऽ कऽ डे! तो के, (इरियासमिईए के0) र्यासमिसा, एटले र्यासमिति नामनी पेहेली समितियेंकरीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमु छ. अर्थात् रस्ते चालतांयकां त्रसकायना जीवोनी जे रका करवी, ते ईर्यासमिति कहेवाय. अने तेवीरीतनी ईर्यासमितिने सम्यक्प्रकारे नही पालन करवायमे करीने मने जे को
॥२६॥ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, . बली हुँ शुं पमिकमुं हूं? तो के, (जासासामाईक एटले नापासमितिबके करीने, अर्थात् नापासमितिना संबंधमां जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारन हुँ पमिकमु छु. वचनो बोलतीवखते विचार करीने जे शुल अने हितकारी वचनो बोलवां, ते नापासमिति कहेवाय. अने तेवीरीतनी नापास
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साधु
अर्थ
मितिने सम्यक्झकारे नही परिपालन करवावमे करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक . व- || सूत्र प्रति ली हुं शुं पमिकमुं छ? तो के, ( एसणा समिईए के) एषणासमिया, एटले एषणासमितिबके करीने, अर्थात् एषणासमिति
|| ना संबंधमां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिक, छ. अर्थात् एपणासमिति एटले बेंतालीस प्रका॥३॥
रना दोषोयें करीने रहित एवा आहारपाणी- जे ग्रहण करवू, ते एपणासमिति कहेवाय, अने एवीरीतनी एपणासमिनिने सम्यकप्रकारे नही परिपालन करवायी जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. बली हुं पमिकमुं छु? तो के, (आयाणनंम्मत्तनिखेवणासमिईए के०) आदाननंम्मत्त निक्षेपणासमिसा, एटले आदानमनिखेवणा नामनी समितिबके करीने, अर्थात् आदानमनिखेरणा नामनी समितिना संबंधमां मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. अर्थात् नामाप्रमुखने लेती मुकती वेलायें जीवदयार्नु प्रतिपालन करवामां ते समितिने सम्यक्झकारे नही प्रतिपालन करवायी मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. बली हुं शुं पमिकमुं ?? तो के, (नच्चारपासवणखेलजलसंघाण पारिवावणियासमिईए के0) पारिस्थापनिकीस मिसा, एटले पारिगवणीआ समितिवमे करीने, अर्थात् ते पारिगवणिए नामनी समितिना संबंधमां मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिकमुं एं. अर्थात् मायु, श्लेष्मादिकने परम्वतोवेलाये जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, ते आदानमनिखेवणा नामनी समिति कहेवाय, अने ते आदानमनिखेवणा नामनी समितिने सम्यकप्रकारे परिपालन नही करवाथी मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, " ॥पमिकमामि नहिं जीवनिकाएहिं, पुढवीकाएणं, आनकाएणं, तेनकाएणं वानकाएणं,
वणस्सश्काएणं, तस्सकाएणं, ॥ अर्थः-(बहिं के) पत्रिः, एटले उ एवा, अर्थात् ठ प्रकारना (जीवनिकाएहिं के०) जीवनिकायैः, एटले जीवनिका. योवमे करोने, अर्थात् प्रकारनां जिवनिकायोना संबंधयां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने (पमिकमामि के० ) प्रतिक्रमामि. एटले हुं पमिक, छ. हवे ते ब प्रकारना जीवनिकायो कया कया ठे! तो के, (पुढवीकाए के०) पृथ्वीकायेन, एटले पृथ्वीकायसंबंधी जे को अतिचार मने लागेला होय, ते अतिचारने हूँ पमिकमु छं. अर्थात् सचित्त एवां
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साधु
प्रति
॥ २८ ॥
पत्रादिकाकथंचित् रुपमर्दनयी मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं परुिकयुं छं. वली हुं शुं
मुं हुं तो के, (आनकारणं के० ) अपूकायेन, एटले अकायनी कथंचित् विराधनावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, अर्थात् हरेक प्रकारना जलना उपमर्द्दनवमे करीने ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने लांगेलो होय, ते प्र तिचारने हुं परिमुं हुं वली हूं शुं पमिकमुं छु? तो के, ( तेनकायेणं के० तेजस्कायेन, एटले तेनकायवमे करीने जे कोइ - तिचार मने लागेलो होय, अर्थात् हरेक प्रकारनी सचित्त अशिना संसर्गवमे करीने ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. बल। हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, ( वाठकाएां के० ) वायुकायेन, एटले वायुकायवमे क रीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं कुं. अर्थात् सचित्त एवा कोई पण प्रकारना वायुकायना उपमर्दनयकी, ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं परिकभुं छं. बली हुं शुं पमिकमुं हुं ? तो के, (masकाणं के० ) वनस्पतिकायेन, एटले वनस्पतिकायवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते तिचा रने हुं परिमुं लुं. अर्थात् हरेक प्रकारनी लीलोतरी सचित्त वनस्पतिने उपमर्दन करवायकी, ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते प्रतिचारने हुं पमिकमुं छं. वली हुं शुं पमिकमुं हुं? तो के, (तसकायेणं के० ) त्रसकायेन, एटले सका यवकरीने जे कोइ प्रतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं लुं. अर्थात् कोइ पण जातना त्रसकायनुं नृपमईन करवा करीने ते संबंधि जे कोइ अतिचार मनें लागेलो होय, ते प्रतिचारने हुं पमिकमुं लुं. वली हुं शुं पमिकमुंलुं ? तोके, ॥ परिकमामि वहिं लेसाहिं, किन्हलेसाए, नीललेसाए, कानलेसाए, तेनलेसाए, पनमलेसाए, सुक्कलेसाए, ॥
अर्थ :- (बहिं के० ) पत्रि:, एंटले व एवी, अर्थात् उ प्रकारनी (लेसाहिं के० ) लेश्याजिः, एटले लेश्यानवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, अर्थात् ते उए प्रकारनी लेश्यानुना संबंधमां जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने (पमिकमामि के० ) प्रतिक्रमामि एटले हुं पमिकमुं छं. हवे ते व प्रकारनी लेश्यान कर कर बे? तो के, ( किन्ह साए के० ) कृष्णले श्यया, एटले कृष्णलेश्याव करीने जे कोइ प्रतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं कि लुं. अर्थात् कृष्णलेश्या नामनी अशुन लेश्याना संबंधां जे कोइ यतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक लुं. वली
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सूत्र
अर्थ:
1190
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सूत्र अर्थः
साधु | हुं शुं पमिकमुं हूं? तो के, (नीललेसाए के) नीललेश्यया, एटले नीललेश्यामे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होप्रति
|| य, ते अतिचारने है पमिक छ. अर्थात् नीललेल्या नामनी अशुज लेश्याना संबंधमां जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ||
ते अतिचारने हुं पमिकमुं हुं. वली हुं शुं पमिक, छ! तो के. (कानलेसाए के ) कापोतले श्यया, एटले कापोत नामनी ले ॥३ ॥
श्यावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक मुं छु. अर्थात् कापोत नामनी अशुज लेश्यानो परिणाम चितववादमे करीने सने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. बली हुँ शुं पमिकमुं ? तो के, (तेनलेसाए के ) तेजोलेश्यया, एटले तेजोलेश्यावमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. अर्थात् तेजोलेश्याना संबंधमां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमु छ. बली हुं शुं पमिकमुं ? तो के, (पजमलेसाए के0 ) पद्मलेश्यया, एटले पद्मलेश्यावमे करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. अर्थात् ते पालेश्या संबंधि शुज परिणामने नहीं चितवन करवाबमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं ? तो के, ( मुक्कलसाए के0 ) शुक्ललेश्यया, एटले शुक्ललेश्या नामनी लेश्यावझे करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुं छे. अर्थात् शुक्ललेश्या नामनी शुज परिणामवाली लेश्याने नहीं चितववादमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिक, टुं. वली हूं शुं पमिकमुं छ? तो के,
॥परिकमामि सत्तहिं जयगणेहिं ॥ अर्थ:-( सत्ताह के ) सप्ततिः, एटले सात एवा, अर्थत् सात प्रकारना (जयठाणेहिं के0) जयस्यानैः, एटले जयस्थानकोवमे करीने, अर्थात् जयसंबंधि स्थानकोवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुं छु. हवे ते साते जयस्यानको कयां कयां ? तो के, पेहेलु इहलोकलय, एटले आलोकसंबंधि जय, अने ते आलोकसंबंधि जयवमे करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं हुं. बीजो परलोकसंबंधि जय, अने तेवा पर
॥श्॥ लोकसंबंधि जयबमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. त्रीजो आदानजय, अने तेवा आदान जयवमे करीने तेसंबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं हूं. चोथो अकस्मात जय ना.
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गति
अर्थः
1300
मनो जय जाणवो, अने तेवा अकस्मात जय नामना जय संबंधिजे कोइ जय मने लागेलो होय, यने ते संबंधि जे कोइअ- || सूत्र तिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. पांचमो बाजीविका जय नामनो जय जाणयो, अने तेवा आजीवि-।। का जय नामना जयवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. हो मरण जय नामनो। जय जाणवो, अने तेवा मरण लय नामना जयवके करीने पने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, हुं. सातमो शोक जय नामनो जय जाए.यो, अने तेवा शोक जय नामना जयबके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते ॥ अविचारने हुँ पमिक, छ. वली हुँ शुं पमिक छु तो के,
॥अहिं मयगरोहिं॥ ' अर्थ:-(अहद केए) अष्टन्तिः, एटले आठ एवां, अर्थात् आठ प्रकारनां (मयगणेहिं के) मदस्थानः, एटले मदनां स्थानकोबसे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंडूं. हवे ते आठे मदनां स्यानको क यां कयां! तो के, पेहेलु जातिमदस्थानक, एटले ब्राह्मण आदिक नंच जातिनो छ, इसादिक जातिसंबंधि मद धारण करगावके करीने मने जे अभिचार लागलो होय, ते अतिचारने हे पकिक मुंछ. बीजं कुलमदस्यानक जाणवू, एटले ग आदिक कुलमां जन्मलो छ, श्यादिक पोताना उंच कुलंसंबंधि मद धारण करवावमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. त्रीजें ऐश्वर्यमदस्थानक जाणवू, एटले मारी पासे लाखो करोमो गने इच्य डे, श्यादिक पोताना ऐश्वर्यसंबंध मदने धारण करवावके करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकम छु. चोथु लाजमदस्यानक जाणवू, एटले कोपण वस्तुनो लाज यदाधी, आवी उमदी वस्तु मने मली, श्सादि मदने जे धारण करवो, ते लाज नामनो मद कहेवाय, अने एवी रीते लाल मदने धारण करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अनिचारने हुं पमिकमुं छ. बली हुं शुं पलिकमुं छु. तो के, पांचमु बलमद नामनुं स्थानक जाणवू, एटले मारा शरीरमां एणु बल , इसादिक पोताना बलसंबंधि जे मदने धारण करतो, ते बलमद कहेवाय; एवी रीतना बलमदने धारण करवावके करीने जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं हुं. बहो रूपमद नामनो मद जाणवो, एटले हुँ घणोज गौरवर्णवालो महारूपवान् छं, इसादिक पोताना रूपन जे अजिमान करवू, ते रूपमद कहेवाय, अने एवीरीतनो रूप
3पाककमुलुकमाउच कुलमुहूं. बीज
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साधु
प्रति
1132 11
पद करवावके करीने ते संबंधि जे कोइ प्रतिचार मने लागेतो होय, ते अतिचारने हुं पलिकडे कुं. सातपुं तपयदस्यानक जाएवं एटले हुं बह, हम, मासक्षमण यादिक तपस्या करूं हूं, माटे हुं गोटो तपस्वी हूं. इलादिक जे गर्व करतो, ते तपपद कहवाय, ने तेवा प्रकारनो तपमद करवावमे करीने ते संबंधि जे कोइ अतिचार मने बागेवी होय. ते विचारने प hi लुं. यावसुं श्रुतमद नामनुं मदस्थानक जाणवु, एटले हुं घणा शास्त्रोनो जानार, गान शालबंध वे इ सादिक जे अहंकार करवो ते श्रुतमद नामनो मद जावो; अने एवी रीतनो श्रुतमद करवाने करीने मने जे कोइ व्यतिचार लागेलो होय. ते अतिचारने हुं पमिकमुं हुं. एवी रीतनां आठे प्रकारनां मदस्यानको मिने बागेला प्रतिचाराने
हुं पकि.
॥ नवहिं बैजचेरगुत्तोहिं, दस विदेसमणधम्मे !!
अर्थः- वली हुं थुं पमिकमुं छु? तो के, ( नवदि के० ) नवनिः, एटले नव एवी, अर्थात् नव मकारनी (वंजचेर गुत्तीहिं के० ) ब्रह्मचर्यगुलिनिः, एटले ब्रह्मचर्यगुप्तिवमे करीने, प्रथात् प्रसिएवी वहिं यदिक नव प्रकारनी ब्रह्मचर्य गुक्षिनंदमे करीने, तेनुंना संबंधां जे कोइ व्यतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं परिकभुं हुं बसी हुं शुं परिक हुँ तो के, (दसवसमम्मे he) दशविधे श्रमण धर्मे, एटले दश प्रकाना श्रमण धर्मव करीने, अर्थात् संति आदिक दश प्रकाररना श्रमण धर्मना संबंधां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते तिचारने हुं पमिकमुं कुं. हवे ते दश प्रकारको श्रमाघर्म कयो कयो डे? तो के, पेहेलो शांति धर्म, एटले हमाधारण करवी ते रूप कांतिधर्म जाणवो. बीजो मार्दव, एटले मृदुता थी जे कोमलता धारण करवी ते, बोजो मार्दव नामको श्रमधर्म जावो. बीजो आर्जव धर्म, एटले जे सरलता धारण करवी, ते रूप व्यार्जव नामनो श्रमणधर्म जाणवो. चोथो मुत्तीधर्म, एटले जे लागजावने धारण करतो, ते रूप चोथो मुत्ती नामनो श्रमणधर्म जावो. पांचमो तवधर्म, एटले तपस्या करवारूप पांचमो तप नामनो यतिधर्म जाणवो. उो संयमधर्म, एटले पांचे महाव्रताने सम्यक्प्रकारे पालवारूप बो संयम नामनो श्रमणधर्म जाणवो. सातमो सञ्चधर्म, एटले ससबोलवारूप सातो सस नामनो श्रमणधर्म जाणवो. आठमो सोयंधर्म, एटले शौचधर्म, अर्थात् पवित्रपणारूप आत्माना निर्मलजाववाळो शौचधर्म नामनो आठमो श्रमणधर्म जाणवो. नवमो आकिंचनधर्म, एटले इन्यादिक परिग्रहने नही धारण करवारूप नवमो याकिं
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सूत्र
चार्थः
॥३१॥
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सायु प्रति
चन नामनो श्रमणधर्म जाणवो. दशमो बंजधर्म, एटले ब्रह्मचर्यने धारण करवारूप दशमो बंजधर्म नामनो यतिधर्म जाणवो. ए.
मूत्र वीरीतना दशे प्रकारना श्रमणधर्मने सम्यकप्रकारे परिपालन नही करवाथी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अति- अर्थः चारने हुं पझिकमुं छु. वली हुं शुं पमिकमुं छ? तो के,
॥ एगारसहिं नवासगपमिमाहिं, बारसहिं निख्खुपमिमाहिं ॥ अर्थः-( एगारसहिं के० ) एकादशतिः, एटले अग्यार एवी, अर्थात् अग्यार प्रकारनी (नवासगपमिमाहिं के ) न-1 पासकमतिमानिः, एटले उपासक प्रतिमाळवमे करोने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमु छ. अर्थात् श्रावकसंबंधि अग्यार प्रतिमाना संबंधयां मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु . हवे ते श्रावकसंबंधि अग्यार प्रतिमान कर कर बे? तो के, पहेली दसपमिमा, बीजी व्रतपनिमा, त्रीजी सामायिकपर्मिया, इसादिक अनिद्रहरूप सिद्धांतमां कहेली श्रावकसंबंधि अग्यार पमिमा जाणवी. अने तेवीरीतनी अग्यारे पमिमाठने सम्यकमकारे अनुष्ठित नही करवावके करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छु. वली हुं शुं पमिकमुं ढुं! तो के, (बारसहिं के० ) हादशन्निः, एटले वार एवी, अर्थात् बार प्रकारनी (जिलखुपमिमाहिं के) निकुप्रतिमानिः, एटले साधुसंबंधि प्रतिमानबमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंएं. अर्थात् साधुसंबंधि चार प्रकारनो पमिमान्ने सम्यक्मकारे नही वहन करवाबसे करीने एटले ते पम्मिानपर श्रज्ञ नही करवावके करीने, तथा ते पमिमा असस डे, एम प्ररूपण करवावमे करीने सने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिक, छ. हो ते बार प्रकारनी पम्मिान का का? तो के, पहेली एकमासिकी, बीजी बेमासनी, त्रीजीत्रणमासनी, चोथी चार मासनी. पांचमी पांच मासनी, वही उमासनी, सातमी सात मासनी, आठमी पेहेला सात रात्रिदिवसनी, नवमी बीजा सात रात्रिदिवसोनी, दशमी त्रीजा सात रात्रिदिवसोनी, अग्यारमी अहोरात्रिनी, अने बारमी एक रात्रिनी; एवीरीतनी बार प्रकारन साधुसंबंधि पमिमा जाणवी. ए बार प्रकारनी साधुसंबंधि पमियाना संबंधमां श्रधा नही करवायी अथवा ए पूर्वोक्त बारे प्रकारनी पभिमान अतख , एवी प्ररूपणा करवाथी मने तेसंबंधि जे अतिचार लागलो होय, ते ९ पमिकमुटुं. रली हुं शुंप मिकमुं हुं. तो के,
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साधु
प्रति
॥ ३३ ॥
|| तेरसहि किरियागणेहिं ॥
अर्थः- ( तेरसहिं के० ) त्रयोदशनिः, एटले तेर एवां, अर्थात् तेर प्रकारनां (किरियाठाणेहिं के० ) क्रियास्थानैः, एटले क्रियास्यानोव करीने, अर्थात् क्रियासंबंधि स्थानोवमे करीने, तेन्ना संबंधमां जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते तिचारने हुं पमिकमुं छं. हव ते तेर क्रियास्थानो कयां कयां बे? तो के, पेहेलुं अर्थक्रियानामनुं क्रियास्थानक जावं. एटले रोग आदिका कारणथी संथारो नही करवावमे करीने, अथवा असूजता आहारपाणीनुं ग्रहण करवुं ते, अर्थक्रिया नामनुं पेहेलुं स्थानक जाणवु. बीजुं अनर्थक्रिया नामनुं स्थानक ते एटले रोगव्यादिक न होता बतां पण सूजता आहारपाणी आदिकनुं जे प्रहण करयुं, ते अनर्थक्रिया नामनुं बीजं स्थानक जाणवुं. त्रीजुं हिंसाक्रिया नामनुं स्थानक डे. एटले देव, गुरु तथा संघनं नुकशान करनाराचनी हिंसा करवामाटे जे क्रिया करवी, ते हिंसाक्रिया नामनुं त्रीजुं क्रियास्थानक जाणवुं. चोथुं कस्मात् क्रिया नामनुं क्रियास्थानक ठे; एटले पाटाच्यादिकने पहिलेहीने मुकतांकां सहसात्कारे नीचे वीजता कामादिकने जे विपत्ति थाय, तेने अकस्मात् क्रिया नामनुं चोथं क्रियास्थानक जाणवु. पांचमुं दृष्टिविपर्यासक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जाणवु; एटले निरपराधी जीवने पण अपराधना चमयी जे तामनकर, ते दृष्टिविपर्यासक्रिया नामनुं पांच मुं क्रियास्थानक जाणवुं. बतुं मृषाक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जावं. एटले मृषावादरूप क्रिया, तेने मृपाक्रिया नामनुं बतुं क्रियास्थानक जाणवुं. सातमुं अध्यात्मक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जाणवु; एटले जो आ समये मारा पुत्रो खेतरमा रहेलां कांखरां वालीनांखे तो तेननी खेती सारी नीपजे, एवी रीतना चितवनरूप सातमुं अध्यात्मक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जाणवुं. आठ अदत्तादानक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जाणवु; एटले मालिक जीव गुरु ने तीर्थकर प्रभूनी आज्ञाविना जे ग्रहण करवुं, ते रूप आठमुं दत्तादानक्रियारूप क्रियास्थानक जाणवुं नघमुं मानक्रिया नामनुं क्रियास्यानक जाणवु; एटले जाति दिक नाम करीने परिहीलनरूप नवमुं मानक्रिया नामनुं कियास्यानक जाणवु. दशमुं मित्रदेषक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जाणवु; एटले चंमरुप आचार्ये, पोताना शिष्ये अल्प अपराध कर्यातां पण जेमतेने प्रचंक दंमरूप शिक्षा आपी हती, ते तनुं मित्रदेष क्रिया नामनुं इशमुं क्रियास्थानकावं. ग्यारमुं मायाक्रिया नामनुं क्रियास्थानक जाए; एटले कुटिलता करीने नश्तरेहनुं विचारीने तेथी विपरीतपणे जे आचरण करयुं, तेने मायाक्रिया नामनुं ग्यारमुं क्रियास्थानक
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सूत्र
अर्थ
॥३३॥
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साधु जाणवू. पारडं लोजक्रिया नामर्नु क्रियास्थानक जाणवू; एटले जाणतांडतां पण लोनवमे करीने अशुभ आहारपाणीने ग्रहमति ण करवायके करीने वारमुं लोलक्रिया नामर्नु क्रियास्थानक जाणवं. तथा तेरमुं ऐर्यापथिकी क्रिया नामर्नु क्रियास्थानक जा.
अर्थः पण एटले यथाख्यातचारित्रवाला सयोगी केवलीने साताबंध वेदनरूप जे दणिकक्रिया करवी पसे दे, तेरूप तेरमुं ऐर्याप
थिकी क्रिया नामर्नु क्रियास्थानक जाणवू. एवी रीतनां पापकर्माश्रयरूप तेर प्रकारनां क्रियास्यानकोवमे करीने जे कोई अ॥३॥ तिचार तेना संबंधमां मने लागेलो होच, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छु. वली हुं शुं पमिक, ढुं? तो के,
॥ चनदरहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं ॥ यर्थः-( चन्दसहिं के ) चतुर्दशनिः, एटले चौद एवा, अर्यात् चौद प्रकारना ( भूयगामेहिं के) भूतग्रामैः, एटले भूतग्रामोरमे करीने, अर्थात् चौद प्रकारना जीवोना समूहसंबंधि जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हं पकिकमुटुं. ते चौद प्रकारनां भूतग्रामो, एटले जीवोना समूहो कया कया ले तो के, एकैपि, मूक्ष्म अने बादर, सन्नी अने असश्री पंचेंझि३डि.शि, चनरिडि, पर्याप्ता अने अपर्याप्ता, एरीते चौद प्रकारना भूतग्रामो जाणवा. ते भूतग्रामोने विराधना प. होंचामयाथी मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं हूं. वल। हुं शुं पमिकमुं छ? तो के, (पन्नरसाई के0 ) पंचदशतिः, एटले पंदर एवा, अर्थात् पंदर प्रकारना (परमाहम्मिराह के0) परमाधामितिः, एटले परमाधामिळवमे करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छ. अर्थात् पंदर प्रकारना जे धरमाधामिन बे, तेन्नां |जे पापकर्मो, ते पापकर्मोनी अनुमोदना में करी होय, अने तेवी अनुमोदना करवावमे करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो
होय, ते अतिचारने हुं परुिकछं. ते पंदर परमाथामिनन स्वरूप नीचे मुजब बे. __मूलम्-(अंबे अंबरी सोचे। सामेया सबलेश्यं ॥ रुशंव रुकालेय, महाकालेतिआवरे १ असिपचे धणू कुंनो, बालूबेयरणीश्य ॥ खरस्सरे महाघोसे, पन्नरसपरमाहमिआ ॥२॥
अर्थः-अंब आदेदेने पन्नर परमाधामिकनां नामले; ते क्रियाने अनुसारे जाणवां. आवीरीते पहेलो अंब ते नारकीन. ||॥३४ ने हो, नीचा पामे, नंचा आकाशे नख्लाले. ए अंब कहिये. बीजो जे नारकीने हणीने कातरणी संमासी प्रमुखनी साये ककमा करी, जठीमां पकववा योग्य करे ते, अंबरीख, इहां अंबरीख ते नठी कहीये; तेना संयोग थकी एनुं नाम पण अं
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साधु মন
॥३५॥
बरीख ले. त्रीजो, जे राद प्रमुखने प्रहारेकरी सातन पातनादिक करे, अने ते वणे श्याम बे. ते माटे एर्नु नाम पण श्याम ने. माटे ए श्याम परमाधामी बे. चोथो जे आंतरमू काढे, हैया अने कलेजानुं विदारण करे, अने व सबल काबरो थाय, ते सबल नामे जाणवो. पांचमो जे शक्ति कुंत अने तोमर तेणेकरी नारकीनने परोवे, ते रोपणाना योगे तेनुं नाम पण रोड़ जाणाई. बने जे नारकीनना अंगोपांग नांगी नाखे ते वली असंत रौपणायकी, एनुं नाम नपरौए जाण. सातमुंजे कमाइमा तावमी प्रसुखमां पकावे, तेमज एनो वर्ण पण कालो होय, तेयी एनुं नाम पण काल कहियें. आठमुं अपर के वीजा नारकीना न्हाना खंझ करी खवरावे, अने वर्णे पण महा काला होय, ते माटे एनुं नाम पण महाकाल जाणवू. नवमो अप्ति शब्दे खक, तेना आकारे पत्र, तेने वन के विकुर्खे, पडी तेनेविषे रह्या जे नारकी, तेने ते असिपत्रने पातेकरी तिलतिल जेटला खंक करे, ते माटे एनुं नाम पण असिपत्र ले. दशमुं जे धनुष्यसाये मूकी, अईचंशदिक वाणेकरी नारकीना कान नाक प्रमुखनुं बेदन करे, तेथी एनुं नाम पण धनुष्य बे. शहां श्री जगवतीमांहे महाकाल पडी असिपत्र पठी कुंज कह्यो बे. तेमां जे खोकरी ते ने बेदे, ते असि, अने जे कुंजादिकमां पकवे, ते कुंन, बारमो जे कदंब, फूलने आकारे अने वज्रना आकारना जाजनो तेमां वैक्रिय तप्तवेतुनेविषे चणानीपरे नारकीने शेके, माटे एनुं नाम पण कालुक ले. तेरमुं जे विरूप के मातुं चे वरण जेनुं, ते त्रांबु जेवू तपाव्यु होय, ते यकी पण महाकलकलती रक्त लोहिये नरेली नदी विकूर्षि, तेमां नारकीनने जे कदर्थना करे, तेथी एनुं नाम पण वेतरणा बे. चौदमुंजे वज्रकंटके व्याप्त शाल्मली वृत, त्यां नारकीनने आरोपी पुराणा वखनीपरे महाखर स्वरे आरमताने खेंचे, तेथी एनुं नाम खरस्वर. पञ्चरमुंजे लय यकी बीहता, नासता, आरमता नारकीने पशुनीपरे वामामां घाले, तेनुं नाम महाघोप बे.
ए रोते ए पन्नर जातना परमाधामिक, ते पूर्व जन्मने विषे जे महाक्रुर कर्मना करनार, पापनेविपे रक्ततां पंचाग्नि साधनरूप मिथ्यात्व कष्ट तप करी, रौइ असुर संबंधिनी गतिने विषे नत्पन्न थाय बे, तेथी एनो एवोज स्वन्नाव होय बे के ते धुरनी त्रा नरक पृथ्वीनेविषे नत्पत्र ययेला नारकीनने यां यावीने अनेक प्रकारनी वेदना नदीरे ले, अने जेम इहां मेष महिष कू-| कमादिकने झुकावता जोश देखनारने हर्प थाय; तेम तनपण सां नारकीनने कदर्थना यती देख। हर्षितथया चेलोत्देष अट्टहासादिक करे. घणुशुं? पण जे ते परमाधामिकोने नारकीनने संतापकरतां प्रीति थाय ते मनोहर नाटकना जोवाथकी तथा अं.
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साधु प्रति०
॥ ३६ ॥
गनाना संगमादिकथी पण न थाय. इतिगाथायार्थः ॥ १ ॥ २ ॥
वली हुं शुं पकिमुं छु? तो के,
॥ सोलसएहिं गाहासोलसएहिं, सत्तर विहे असंजमे, अगरसविहे अवने ॥
अर्थ:- ( सोलसएहिं के० ) पोमशनिः, एटले शोल एवी, अर्थात् शोल प्रकारनी ( गाहासोलसएहिं के० ) गायापोशकैः, एटले गाथापोरूपकवमे करीने जे कोइ प्रतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं लुं. अर्थात् सूयगकांग नामना सूचना पेहेला श्रुतस्कंधना अध्ययनोनो विधिपूर्वक पाठ नही करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, तेतिचारने हूं पकिमुं लुं. वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, ( मतरसविहे के० ) सप्तदशविधे, एटले सतर प्रकारना ( असंजमे के० ) संयमे, एटले असंयमवमे करीने मने जे कोइ प्रतिचार लांगेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं लुं. अर्थात् सतर प्रकारना संयममार्गी विपरितपणे चालवावमे करीने मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. ते सत्तर प्रकारना संयमगुणो नीचेप्रमाणे बे.
मूलं - पंचासवाविरमणं पंचिदिय निग्गहो कसायजन; दंत्तयस्स विरइ, सत्तरसहा संयमी होई. ॥ १ ॥
अर्थः- प्रायते के० जेणकेरी कर्मोनुं उपार्जन थाय छे, तेने कहियें प्राश्रव. ते नवां कर्मो बांधवाना देतुन ते १ माणातिपात, २ मृषावाद, ३ प्रदत्तादान, ४ मैथुन अने ५ परिग्रह ए पांच दे जावो. ए पांचथकी जे विरम, एटले नवन ते पंचाश्रव विरमण कहियें. इंजिन ते स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्कु, तथा श्रोत्र लक्षण पांच जाणवां तेनुनो निग्रह,
नियममां राख अर्थात् स्पर्शादि विषयोनेविषे लंपटताना परिहारे करी वर्त्ततुं तेने पंचेंडिनिग्रह कहियें. कपाय ते कोध, मान, माया तथा लोन लक्षण चार जाणवा. तेनुनो जय, एटले जे न्दय थया होय, तेने विफल करवा जे अनुदित होय, तेने अनुत्पादने करी रोकी राखवा. ते क्रोधादि चारनो साग जाणवो हवे दंम ऋण ते चारित्ररूप ऐश्वर्यना अपहारे करी आत्माने मात्र अथवा प्रसारपणे करिये. ते प्रयुक्त मन वचन ने काय तेनी जे त्रिक ते दंस्त्रय. तेनी जे विरति एटले प्रवृत्ति निरोध ते दंस्त्रय विरति एवीरीते सत्तर प्रकारेकरी संयम थाय छे. ॥ १ ॥
॥ ३६ ॥
वली
| हुं धुं परिक्रमुं छु. तो के, (अठारसविहे के० ) अष्टादशविधे, एटले मदार प्रकारना (अवंजे 0 कें) ब्रह्मे, एटले
सूत्र
अर्थ:
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अर्थः
॥३॥
साधु
अब्रह्मसंबंधि मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने ई पमिर में अर्थात् अढार प्रकारे ब्रह्मचर्य व्रतने न पालवा___ प्रति वझे करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमु छ. हंव ते ब्रह्मचर्यना अढार नेदो कया कया ? ||
तोके, काम वे प्रकारको बे, एक दिव्यकाम, अने वीजा औदारिककाम. ए बन्नना करवां कराववां अने अनुमोदवांवके करीने बलदो थया; अने ए लेदोना मन, वचन अने कायावमे करीने अढार जेदो थया. एवी रीतना अढार प्रकारनां ब्रह्मचर्य व्रतने सम्यक्षकारे नही पालन करवावमें करीन ज को अतिचार मने लागलो होय, ते अनिचारने हुं पमिकमु छ. बली हूं शुं पमिकमु छु? तो के,
॥ गुणवीसाए नायज्झयणेहिं, वोसाए असमाहिगरोहिं ॥ ___ अर्य:-(इगुणवीसाएनायज्छयणाई के0 ) एकोनविंशतिहाताध्ययनैः एटले गणीस एवां. अर्थात् नगणीस प्रकारनां झाता मूत्रना अध्ययनोवमे करीने जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छ. अर्थात् दाताधर्मकथाग नामना मूत्रना पेहेला श्रुतस्कंधमां रहेलां अध्ययनोनु अविधिय पठन आदिक करवायमे करीने जेको अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने ह पमिक, छ. वली हं शुं पमिकमु छु? तो के, (वीसाएसमाहिगणेहिं के0 ) विंशतिअर स्थानकैः, एटले वीस एवां अर्थात् वीस प्रकारनां असमाधिस्थानकोवमे करीने जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अ. तिचारने हुँ पमिक, छ. अर्थात् वीस प्रकारनां चित्तनी अशांतिने नत्पन्न करनारां एवां जे असमाधिस्थानको, तेनना संबंधमां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिक, छ. हवे ते वीस प्रकारनां असमाधिस्थानको कयां कयां बे तो के, पेहेलु अतिदरुतचारित्व नामर्नु असमाधि स्थानक जाए. अर्थात् मार्गमा चालवामां घणीज नतावल करवी, ते अतिदूतचारित्व कहेवाय. बीजं अप्रमार्जितेवस्यानं नामर्नु असमाधिस्यानक जाणवू.अर्थात् नही प्रमार्जन करेला स्थानकमां जे निवास करवो, ते अप्रमार्जितेवस्थान नामर्नु बीजं असमाधिस्थानक जाणवं. त्रीज प्रमार्जितेवस्थानं नामर्नु असमाधि. स्यानक जाधवं. एटले सारी रीते नही प्रमार्जन करेला एवां स्थानमा जे रहे, ते दुःममार्जितवस्थान नामर्नु बीजं असमाघिस्यानक जाणवू. चोयु संथारा अने उत्तरपट शिवाय, एक बे आदिक वधार कामलो बिबावेली शय्यापर जे सुबुं, ते चो || | असमाधिस्थानक जाणवं. चांचमुं एकथी वधारे पाटपाटा आदिकने जे नपयोगमा लेवां, तेने पांचमुं असमाधिस्थानक जा
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अथ
||ावं. नवं पोताथी विशेष ज्ञान आदिक धरावनारने जे पराजय पहोंचाम्बो, तेने तुं असमाधि स्यानक जाणवू.. सातम। प्रतिय
स्यविर, एटले घरपण अवस्थावाला साधु यादिकोने जे परानव पहोंचाम्बो, तेने सातमु अस्माधिस्थानक जाणवू. आठमुं: प्रमादवके करीने पाणीनी जे हिंसा करवी, तेने आठमुं असमाधिस्यानक जाणवू. नवमुं तत्क्षणसंज्वलनकोपकरणं, एटले
एकदम संज्वलन क्रोधनुं जे करवं, ते रूप नवमुं असमाधिस्यानक जाणवु. दशमुं सुदीर्घकोपकरणं, एटले एवा प्रकारनो क्रोध ॥३॥
करवो, के जे घणा लांबा काल सुधि रहे, तेने दशमुं असमाधिस्थानक जाणवू. अग्यारk परावर्णवादकरणं, एटले परना जे अवर्णवाद बोलवा, ते रूप अग्यारमुं असमाधिस्यानक जाणवू. बारमुं चोरने मोहोमे 'तुं चोर ' इत्यादिक जे कहेवू, तेने बारडं असमाधिस्थानक जाणवू. तेरमुं अधिकरणकरवारूप असमाधिस्थानक जाणवू. चौदमुं 'अकालस्वाध्यायकरणं' एटले अकाले सूत्रादिकनुं जे पठन पाठन का, तेने चौदसुं असमाधिस्थानक जाणवू. पंदरभु सचित्त एवां पृथ्वी काय आदिकवझे करीने हाथ पगोनो स्पर्श करवो, अने तेरूप पंदरमुं असमाधिस्थानक जाणवू. सोलमुं शब्दकरणं, एटले शब्द करवारूप सोलमुं असमाधिस्थानक जाणवं. सतरमुं कलहकरणं, एटले कोश्नीसाथे पण क्लेश करवारूप सत्तरमुं कलहकरण नामर्नु अस. माधिस्यानक जाण. अढारमुं ऊंझा एटले गणनेद, अने ते करवारूप अढारमुं असमाधिस्थानक जाणवू. नगणीसमुं मुरममादलोजीपणुं, एटले प्रमादवमे करीने ज देवसंबंधि आहारपाणी ग्रहण करवो, तेरूप गणीसमुं असमाधिस्थानक जाणवू वीसमुं अनेपणासमितिरूप असमाधिस्थानक जाणवू. एवीरीतना वीस प्रकारनां असमाधिस्थानकोबके करीने मने जे को अपराध लागेलो होय, तेसंबंधि अतिचारने हूं पमिकमुं छु. वली हुँ शुं पमिकमुं छ? तो के, ॥ इगवीसाए सबलेहिं, बावीसाए परीसहेहिं, तेवीसाए सुअगमऊयणेहिं, चनवीसाए
___अरिहंतेहिं ॥ अर्थः-(इगवीसाएसरलेहिं के) एकविंशत्याशवलैः, एटले एकवीस प्रकारना शवलोकमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने इं पमिक, छ. हवे ते एकवीस प्रकारना शवलो कया कया ? तो के, हस्तकर्म कर ले पेहेलु, बीजं अतिक्रमव्यतिक्रम अतिचारोवमे करीने मैथुन सेवबुं ते, त्रीजु रात्रीए ग्रहण करेलुं विदसे खावं, अने दिवसे ग्र. हण करेलुं रात्रिए खावू, एम बे नांगावमे करीने जे रात्रिलोजन करवू ते, चौथं हमेशां वे त्रणवार अथवा आधार्मिक
॥७॥
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साधु মনিট
॥
आहारपाणी वापरवां ते, पांचमुं राजसंबंधि पिझग्रहण करवो ते, बतुं पेंचाथी लेश पिमग्रहण करवो ते. सातमुं प्रामित्य ना-|| मनु शवल जाणवु. आठमुं अनिहतपिम ग्रहण करवारूप जाण. नवमुं अवेद्य, एटले नही देली वस्तुना पिमने ग्रहण क अर्थः रवारूप जाणवू. दशमुं पञ्चखाण करेलां इव्यने नोजन करवारूप जाणवू. अग्यारमुंठ मासनी अंदरअंदर एक गणमांयी बी. जा गणमा संक्रमण करवारूप जाणवू. वारमुं एक मासनीअंदर त्रणवार पाणीवाली नदी उतरवारूप जाणवू. अथवा नही आचरवालायक कार्य आचरीने, पनी लज्जाना वशथी मायाकमे करीने तेने गोपववारूप मातृस्थान नामर्नु कार्य एक म.सन। अंदर त्रणवार करवारूप जाणवं. तेरमुं कुटीवमे करीने एकीवखते बेत्रणवार लीलाकुराआदिकने तोमवावके करीने प्राणातिपात करवारूप जाणवू. चौदमुं एवीजरीते मृषावाद बोलवारूप जाणवू. पंदर एवीजरीते अदत्तादान ग्रहण करवारूप जाण. सोलमं एवीजरीत काचापाणीना बिंदुनयी नरेला ने हाथ जेना, एवा दान आपनारपासेयी आहारपाण आदिक लेश्ने जोजनकरवारूप जाणवू. सतरमुं एवीजरीत कंद, मूल, फल, पुष्प, बीज तथा लीलोतरीना जोजन करवारूप जाणवू. अहारमुं एवीजरीते जीनासवालां, जंतुवालां, बीजवालां, करोमीयानाजालाबाळां स्यानकोमां निवास करवारूप जाणवू. नंगणीसआजादन कर्याविनानी पृथ्वी पर निवास, बेठक तथा शयनआदिक करवारूप जाणवू. वासमुं वर्षनी अंदर, एटले संवत्सरीनी अंदरअंदर दश इकलेप तथा दश मातृस्यान करवारूप जाणवू. तथा एकवीसमुं चिकणा तथा रजवाला पत्थरआदिकपर अयवा सचित एवा घूणआदिक कीमाथी नरेला पाटाआदिकपर मुवाबेसवारूप जाणवू. एवीरीतनां एकवीस प्रकारनां सबलोवमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, ( बावीसाए परिसहेहिं के०) क्षाविंशसापरिसहैः, एटले बावीस प्रकारना परिसहोवमे करीने मने ज को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. अर्थात् 'अलालरोगतणफासा' आदिक सिझतमां कहेला वावीसे प्रकारना परिसहोने सम्यकप्रकारे न सहन करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय. ते अतिचारने हुं पमिक, छ. बली हुं शुं पमिकर्नु छ! तो के, ( तेवीसाए सुअगमऊयणेहिं के0 ) त्रयोविंशसासूत्रकृताऽध्ययनैः, एटले त्रेवीस एवां अर्थात् बीस प्रकारना || ॥३॥ सूयगमांग नामना मूत्रना अध्ययनोव करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छु. अर्थात् ते वीस एवां मूयगमांग मूत्रना अध्ययनोनुं अकाले पठनपाठन आदिक करवावके करीने, मने जे कोई अतिचार लागेलो हो
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साधु
प, ते अतिचारने हुं परिमुं लुं. वली हुं थं पमिक छु. तो के. ( चवीसाए अरिहंतेहिं के० ) चतुर्विंशसा अद्रिः, एटले चोवीस तीर्थकर प्रभुना संबंधां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. अर्थात् जे प्रकारना गुपोवाला श्री अरिहंत प्रभु ने सिद्धांतोमां वर्णवेला छे, ते पर श्रद्धा नही करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो ॥ ४० ॥ होय, ते अतिचारने हुं पमिकयुं छं. अथवा दश प्रकारना भुवनपति, आठ प्रकारना व्यंतरी, पांच प्रकारना ज्योतिष्को, अने एक मकारना वैमानिको एम चोवीस प्रकारना देवो, जे सिद्धांतमां वर्णवेला बे, तेनपर श्रद्धा न करवावमे करीने मने कोइ तिचार लागेलो होय, ते व्यतिचारने हुं परिकमुं लुं. वली हुं शुं पमिकयुं छु? तो के,
|| पंचवीसाए जावगाहिं ॥
प्रति०
अर्थ:- (पचवीसाए जावाहि के० ) पंचविंशसाजावना जिः एटले पचीस एवी, अर्थात् पचीस प्रकारनी जावनानवमे करीने मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते व्यतिचारने हुं पमिकमुं लुं. पचीस प्रकारनी जागनाटने सम्यक प्रकारे नही जाववावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. हवे ते पचीस जावनान कर कइ बे? तो के, पेहेला महाव्रतनी पांच जावनाच नीचे मुजब वे पेहेली इर्यासमितिपणारूप जावना जाणवी बीजं । एषणासमिति पारूप जावना जाणवी. त्रीजी आदानमनिक्षेपणासमिति पलारूप जावना जाणवी. चोथी मनोगुप्तिरूप जावना जाणवी. तथा पांचमी चक्रुव जोएलां व्याहारपाणीने ग्रहण करवारूप जावना जाणवी, एवी रीते पेहेला महाव्रतनी पांच जानान जाणवी. बोजा महाव्रतनी पण पांच जवान नीचे मुजव जाणवी पेहेली लोजने साग करंवारूप जावना जाणवी. बीजी जयने याग करवारूप जावना जाणवी. त्रीजी क्रोधने साग करवारूप जाणवी. चोथी हास्यने याग करवारूप जावना जाएबी तथा पांचमी विचार करीने बोलवारूप जावना जाए.वी. एवी रीते बीजां महाव्रतनी पांच जावना जाणवी. त्रीजा महातनी पांच जावना पण नीचे सुजब जाणवी. पेहेली स्वामी पासेथी, अथवा स्वामिए हुकम करेला नोकरादिक पा सेयी उपाश्रय तया अवग्रहनी याचना करवारूप जावना जाणवी. बीजी, पूर्वे मेलवेला प्रवग्रहने विषे रोग व्यादिक कारणश्री वामात्र च्यादिक पठवा माटे, तथा आवेला एवाई प्राहुगाना हाथ पर प्रकालन करवा माटे उपाश्रय व्यापार मा लीना मननी दुःखनी निवृत्ति करवा माटे वारंवार याचना करना पूर्वक अवग्रहने उपयोगमा लेवारूप जावना जावी. श्री
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सूत्र
अर्थः
॥ ४० ॥
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साधु
मूत्र
पतिक
अर्थः
॥४१॥
जो, तथा चोथी नावना नीचे मुजब जाणवी. उपाश्रय आदिक याचती वखतेज, आटली जगोह मारा नपयोगनी डे, एवी रीतनी मर्यादा करवी; जेमके आटली जग्यामां अमो बेसीशु. बाटली जग्यामां अमो नन्ना रहीशु, आटली जग्यामां अमो शयन करीशुं, एवी रीते अवग्रह याचतो वखते पेहेलेथीज जग्या मुकरर करेली होय बे, अने सारवाद कोइ नवा आवेला साधु माटे अवग्रह याचीने स्थानादिक करवारूप लावना जागावी. पांचमी गुरुनी अनुझा लीधाबाद आहारपाणी ग्रहण करवारूप नावना जाणवी. केमके तेम नही करवायी चोरी करी कहेवाय. एवी रीते वोजा महाव्रतनी पांच नावना जाणवी. हवे चोया महाव्रतनी पांच नावना पण नीचे मुजव जाणवी. पेहेली जे मकानमा स्वी, नपुंसक अथवा पशुन रहेता होय, तेम कानयी नीतना अंतरवाला मकानमां निवास करवारूप लावना जाणवी. बीजी केवल स्त्रीनपासे कथा आदिक नही कखारूप नावना जाणवी. त्रीजी पेहेलां गृहस्यावासमां करेला जोगविलासोना स्मरणने वर्जवारूप जाणवो. चोथी असंत घ्रत आदिकवाला पुष्टिकारक नोजनना साग करवारूप नावना जाणवी. पांचमी स्त्रीना स्तनआदिक मनोहर अंगनपांगोने जोबाना सागरूप तथा पोताना अंगना संस्कारने वर्जन करवारूप जावना जाणवी. एवी रीते चोथा महाव्रतनी पण पांच नावनान नीचे मुजब जाणवी. शुन्न रसने विप रागनो साग करवो, अने अशुन रसमां विरागनो साग करवो, एरुप पेहेली जावना जाणवी. शुन शब्दने विषे रागनो साग करवो, अने अशुज शब्दने विष विरागनो साग करवो, एरुप बीजी नावना जा णवी. शुज रुपने विषे रागनो साग करवो, अने अशुन रुपने विष विरागनो साग करवो. एरुप त्रीजी नावना जाणवी. शुज गंधने विषे रागनो साग करवो, अने अशुज गंधने विषे विरागनो साग करवा, एरुप चोथी जावना जाणवी. शुन्न स्पर्शने विषे रागनो साग करवो, अने अशुन स्पर्शने विषे विरागनो खाग करवो, एरुप पांचमी नावना जाणवी. ए रीते पांचमा महाव्रतनी पांच जावना जाणवी. ए रीते सघली मलीने पांचे महाव्रतोनी पचीस जावना जाणवी. अने एवा प्रकारनी पचोसे जावनानने सम्यक् प्रकारे नही जावतांथकां जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं छ! तो के,
॥ विसाए दसाकप्पववहाराणं नद्देसणकालहिं सत्ताविसाए अणगारगुणेहिं ॥ अर्थः-(बविसाए के ) षट्विंशया, एटले बबीस एवा, अर्थात् बबीस प्रकारना (दसाकप्पववहारणं नद्दसणकाले
॥
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सूत्र
તિ
अर्थ
॥४
हिं के ) दशाकल्पव्यवहाराणां नद्देशनकालैः, एटले दशाश्रुत स्कंध नामना सूत्रना दशनद्देशा, तया कल्पना बनद्देशा, तथा व्यवहार मूत्रना दशदेशा, एम सघता बताने उबल नदेना यया, ए बबीसे प्रकारना नद्देशाने विधि पूर्वक नही ग्रहण
करवावके करोने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिवारने हुं पझिक, टुं. वली हुं शुं पमिकमुं हुं! तो के. ( सत्ता॥
दोसाए अणगारगुणहिं के0) सप्तविंशया अनगारगुणैः, एटले सत्तावोस एवा, अर्थात् सत्तावीस प्रकारना अणगारसंबंधि गुणोवमे करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. अर्थात् सत्तावीस प्रकारना साधु संबंधि गुणोने सम्यक् प्रकारेन परिपालन करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंछु. ते सत्तावीस प्रकारना अणगारसंबंधि गुणो नीचे मुजव . न प्रकारनां व्रतो, इंनिनो जय, नावसस एटले परमार्थ सस, करण सस एटले यथोक्त पमिलहण आदिकनी क्रिया करवी ते, दमा, निर्लोजीपणुं, अकुशल एवां मन, वचन अने कायानो नि रोध, बकायनी रदा, संयम-योगर्नु युक्तपणुं, शीत आदिक वेदनानुं सहन कर, तथा मरणांतिक उपसगोंने सहन करवा ते; एवी रीतना सतावोस प्रकारना अणगार संबंधि गुणोने सम्यक् प्रकारे परिपालन न करवावके करीने मने जेको अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुं छं. वली हं शुं पमिक, छं? तो के,
॥ अठावीसाए आयारपकप्पेहिं, एगुणतीसाए पावसुअप्पसंगेहिं । अर्थः-(अठ्ठावीसाए के) अष्टाविंशया, एटले अठ्ठावीस एवा, अर्थात् अठ्ठावीस प्रकारना (आयारपकप्पेहिं के०) याचारप्रकल्पैः, एटले आचार प्रकल्पावके करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिकमुं छं. अर्थात् आचारांग मूत्रना शास्त्रपरिका आदिक चोवीस अध्ययनो, तेमज दशवकालिक मूत्रनुं बतुं अध्ययन, तेमज नदघात, अनुदघात अने आरोपण नामना त्रण प्रकारनां निशीथ मूत्रनां अध्ययनो, एम सर्व मल) अहावीस प्रकारनां अध्ययनोने विधि | पूर्वक पठन पाठन नही करवावके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिकमु छु. वली हूँ गुंपमिकमु ! तो के, (श्गुणतिसाए के) एकोनत्रिंशसा, एटले गणत्रीस एवा, अर्थात् गणत्रीस प्रकारना ( पावमुझप्प- ॥४॥ गेहिं के ) पापश्रुतमसंगैः, एटले पाप करवावाला एवां श्रुतीनां सेवनबके करीने, तेनना संबंधमां मने जे कोइ अतिचार ला गेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छु. हवे ते गणत्रीस प्रकारनां पाप करवावालां श्रुतो कयां कयां ने तो के, आठ प्र
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साधु प्रति
॥४३॥
कारनां निमित्त शास्त्रो नीचे मुजब जाणवां. पेहेलं दिव्यानिमित्त शास्त्र, एटले व्यंतरोना अट्टहासादिकना विषषवालुं जाणवू. बीजु नत्पात निमित्त शास्त्र. एटले रुधिरनी वृष्टी आदिकना विषयवालुं जाणवू. बीजं आंतरिक्षनिमित्तशास्त्र, एटले ग्रहोना
अर्थः नेद आदिकना विषयवालुं जाणवू. चोथु नौमनिमत्त शास्त्र, एटले भूमिकंप आदिकना विषयवातुं जाणवू. पांचमुं अंगनिमित्तशास्त्र, एटले अंगसंबंधि विषयपालुं जाणवं. बठं स्वरनिमित्तशास्त्र, एटले स्वरनाविषयवालुं जाण. सातमुं व्यंजननिमित्तशा स्त्र, एटले मशातिलक आदिकना निमित्तवालं जाणवं. आठमुलतणनिमित्तशास्त्र, एटले हाथ तथा पगनी रेखा आदिकना विषयबालु जाणवू. एनपर वार्णवेलां सघलां आठे प्रकारनां निमित्तशास्त्रोने सूत्र, टोका अने वार्तिक एम त्रण प्रकारना नेदोबसे करीने चोवीस प्रकारना लेदो जाणघा. तेमज संगीतशास्त्र, नाट्यशास्त्र, वास्तुविद्याशाश्र, बैदकशास्त्र अने धनुर्वेदशास्त्रः एवी रीते गणत्रीस प्रकारनां पाप श्रुतोना सेवनबमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, ढुं. वली हुँ शुं पमिक मुं छु? तो के,
॥तीसाए मोहमीगणेहिं ॥ अर्थः-(तीसाए के) त्रिंशता, एटले त्रीस एवां, अर्थात् त्रीसं प्रकारनां ( मोहपीठाणेहिं के0) मोहनीयस्थानः, एटले मोहनीयस्थानोवो करीने, अर्थात् मोहनीय स्थानोना संबंधमां मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पनिक, छ. हवे ते, त्रीसे प्रकारनां मोहनीय स्यानको कयां कयां बे? तो के, जलनी अंदर क्रीमा करीने त्रस जीवोने हणवारूप प्रथम स्थानक जाणवू. हाथवमे करीने मोहोडं ढांकीने कलकलारव करवारूप वीजें मोहनीय स्थानक जाणवू. उपद्वारके करीने फांसो आपी क्लेश पूर्वक मारवारूप त्रीजं मोहनीय स्यानक जाणq. मस्तकपर घाव करी दुष्ट रीते मारवारूप चोयुं मोहनीय स्यानक जाणवू. घणा माणसोना नायकने मारखारूप पांच, मोहनीय स्थानक जाणवू. प्राणीनने दीपकनी पेठे उपकार करनारा मनुष्यने मारवारूप उतुं मोहनीय स्यानक जाणवू. समर्यउतां रोगीनो रोग न मटावारूप सातमुं मो. हनीय स्यानक जाणवू. बहुश्रुत होवाजतां साधुने धर्म मार्गयी पावारूप आठमुं मोहनीय स्थानक जाणवू. जिनेश्वर प्रभुनना
॥ ॥४३॥ अवर्णवाद बोलवारूप नवमुं मोहनीयस्थानक जाणवू. आचार्यमहाराज तथा नपाध्यायजी महाराजनी निंदा करवारूप दशमुं मोहनीयस्थानक जाणवू. ते आचार्यमहाराज तथा नपाध्यायजी महाराजनी वैयावच्छ न करवारूप अग्यारमुं मोहनीय
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मूत्र
साधु
स्यानक जाणवू. वारंवार अधिकरण उत्पन्न करवारूप बारभु मोहनीयस्थानक जाणवू. तीर्थजेद करवारूप तेर, मोहनीयप्रति स्थानक जाणवू. जाणतांडतां वारंवार आधाकर्मिक योगोने जोमवारूप चौदमुं मोहनीयस्यानक जाणवू. कामने सज्यावाद
फरीने आ लोकसंबंधि तथा परलोकसंबंधि कामविलासनी इच्छा करवारूप पंदरमुं मोहनीयस्थानक जाणवू. बहुश्रुत न होmeanll वाढतां पण हूं बहुश्रुत छ, एम कहेवू; तेमज तपस्वी न होवाउतां पण हं तपस्वी छ, एम कहेवारूप सोलमुं मोहनीयस्यानक
जाणवू, अग्नि सलगावीने अंदर रहेला माणसने धुवामाथी मारवारूप सतरमुं मोहनीयस्थानक जाणवू. पोते अकृस करीने अमुके ते अकृस कहुँ बे, एम बोलवारूप अढारमुं मोहनीयस्थानक जाणतुं. कपट करीने पोतानी नपधि, पात्रआदिकनुं निन्हव न करवारूप नगणीसमुं मोहनीयस्थानक जाणवू. अशुन योगवसे करीने युक्त ययायका मृषावाद बोलवारूप वीसमुं मोहनीयस्यानक जाणवू. हमेशां अक्षीणऊंगाकरूप एकवीसमुं मोहनीयस्थानक जाणवू माणसने देशावर जतां रस्तामा लुंटवारूप बावीसमुं मोहनीयस्यानक जाणवू. उपायपूर्वक मनुष्यने विश्वास पमामीने, तेनी स्त्रीमते लुब्धयवारूप वीसमुं मोहनी. यस्थानक जाणवू. कुमार नही बता पण हुं कुमार छ, एम वोलवारूप चोवीसमुं मोहनीयस्यानक जाणवू. ब्रह्मचारी नही बतां पण हुं ब्रह्मचारी छ, एम बोलवारूप पचीस माहनीयस्थानक आणवं. जेनी मारफते धनआदिकनी प्राप्ति यह होय, तेनाज धनादिक मेलववानी लालच करवारूप बबीसमुं मोहनीयस्थानक जाणतुं. जेना प्रजावथी अज्युदय थयेलो होय, तेनोज अंतराय करखारूप सतावीसपु मोहनीयस्यानक जाणवू. सेनापतिने, पूज्यने, शेउने, राजाने अयवा नगरना महाजन नगरशेठआदिकने हणवारूप असावीस मोहनीयस्थानक जाणयु. नही देखतां उतां पण देखु छ, एम कहेवारूप, अथवा हुं तो देव छ, एम कहेवारूप गणत्रीसमें मोहनीयस्थानक जाण. तया देवोना अवर्णवाद करवारूप त्रीसमुं मोहनीयस्यानक जाणवू. एवीरीतनां त्रीस प्रकारनां महा मोहनीयस्यानकोमांथी, केटलांकीने करवावके करीने, तथा केटलाकोने करवानी इच्छा करवावमे करीने, तया केरलाकोने मनवमे करीने चिंतकवायके करीने मने जे को अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने हुं पझिकमुं छ. वली हुं शुं पमिकमुंछ. तो के,
॥ गतिसाए सिहागुणेहिं बत्तीसाए जोगसंगहेहिं ॥ अर्थः--(इगतीसाए के) एकत्रिशता, एटले एकत्रीस एवा, अर्थात् एकत्रीस प्रकारना (सिहागुणेहिं के) सिश
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साधु
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118211
दिगुणैः, एटले सदगुणोवमे करीने, अर्थात् एकत्रीस प्रकारना सिह व्यादिक गुणाना संबंधमां मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पकिमुंलुं. सि एटले आठे प्रकारना कर्मोवमे करीने रहित थयेला, तथा शुषिर एटले पोलाने पूरवा माटे, गयेल वे त्रिनागऊन समचोरस संस्थानवालां शरीरनो आकार जेमनो, तथा ज्योति परमाणुरूप सिना जीवो बे, ते सिझना जीवाने प्रथमयीज समकाले गुणोनी प्राप्ति थाय छे, परंतु कर्म सहित जीवोनी पेठे तेनने अनुक्रमे गुलोनी प्राप्ति यती नये; हवे सिना ते एकत्रीस गुणो नीचे मुजब डे. पांच संस्थानो, पांच वर्णो पांच रसो, लवण रस स र्व रसोमां व्यापक होवाथी अंदर यावी जाय बे, तेयी तेनी जूदी गणना करी नथी. वे जातना गंधो, आठ प्रकारना स्पर्शो, त्रण प्रकारना वेदो, एटला जावरूप करीने सिने विषे सिद्ध एवा अठ्ठावीस गुणो थया. उगात्रीसमो गुण मूर्त्तपणारूप जाणवो. त्रीसमो गुण असंगपणारूप जाणवो. अने एकत्रीसमो अजन्मपणारूप गुण जाणवो. एनी रीतना संबंधि एकत्रीस गुणोमते श्रश नही करवावमे करीने मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं परिक लुं. वली हुं शुं पकिमुंलुं. तो के, (बत्तीसाए के० ) त्रिंशता, एटले बत्रीस एवा, अर्थात् बत्रीस प्रकारना ( जोगसंग देहि ho) योगसंग्रहैः, एटले योगसंग्रहांवमे करीने, अर्थात् मनयोगना व्यापारोवमे करीने, तथा वचनयोगना व्यापारोवमे करीने, तथा कायायोगना व्यापारोवमे करीने मने जे कोई प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छं. हवे ते मन, वचन तथा कायाना योगो शिष्य, आचार्यो संबंधि जाणवा. अने ते आलोचना आदिक योगो नीचे मुजब जाणवा. शिष्यने - चार्य पासेथी शब्य रहित आलोचना प्रहण कराववारूप पेहेलो योग संग्रह जाणवो. आचार्य महाराजे शिष्यने आलोचना देने ते बावत अन्यपासे प्रकाश नहीं करवारूप बीजो योगसंग्रह जाणवो. आपत्ति वखते पण दृढ धर्मने धारण करवारूप
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सूत्र
॥ ४५
जो योगसंग्रह जावो. लोकसंबंधि कोइ पण प्रकारना फलनी अपेक्षा राख्याविनाज तपस्या करवारूप चोयो योगसंग्रह जावो. ग्रहण, आसेवन, अने प्रसिक्षाव्य सेवावापणारूप पांचमो योगसंग्रह जाणवो. प्रतिकर्मे करीने रहित एवा शरीर पणारूप बट्टो योगसंग्रह जाएणवो. तपस्याना प्रजावथी परमनुष्यनी आख्यापनतारूप सातमो योगसंग्रह जावो. तपस्या करती बेला र निर्लेपणारूप आठमो योगसंग्रह जावो. यावता एवा हरेक प्रकारना परिसहोयकी जय पाम्याविना तेdai जय करवरूप नवमो योगसंग्रह जावो. कपटक्रिया आदिकना सागपूर्वक यार्जवता, एटले सरलपणाने धारण कर
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अर्थ
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साधु
सूत्र
प्रतिभा
अर्थ
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वारूप दशमो योगसंग्रह जाणवो. सर्व प्रकारना संयम पालवामा शुचिता, एटले पवित्रपणाने धारण करवारूप अग्यारमो यो- । गसंग्रह जाणवो. सुदेव, मुगुरु अने सूधर्मने धारण करतारूप, तया कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मको साग करवारूप जे समकीत, तेनी शुरूप बारमो योगसंग्रह जाणवो. समता जावमा रहेवावमे करीने चित्तनी समाधि धारण करवारूप तेरमो योगसंग्रह
जाणवो. हरेक प्रकारना शुज आचारो प्रते नपरतता एटले प्राप्ति होनारूप चौदमा योगसंग्रह जाणवो. विनयपरता, एटले 1१६॥
गुरु आदिक वकीलोनो विनय करवामां तत्परपणुं धारण करवारूप पदरमो योगसंग्रह जाणवो. धृतिप्रधानता, एटले दरेक कार्यमां धैर्यतुं प्रधानपणुं धारण करवारूप सोलमो योगसंग्रह जाणवो. संरेगपरता, एटले संसारिक पदार्थोपरथी मोहनावना साग करावनारो जे सेवेग एटले वैराग्य, तेने विषे तत्पर थदारूप सतरमो योगसंग्रह जाणवो. निर्मायता, एटले कपरहितपणे पंच महाव्रतोने धारण करदारूप अहारमो योगसंग्रह जाणवो. सुविधिकारिता, एटले दरेक कार्यने शुन्न विधि पूर्वक करवा पणारूप नगणीसमो योगसंग्रह जाणवो. आत्मदोर अपसंहारिता, एटले पोताना दोपोनो अपसंहार करवो, एटले ते दोषोने दूर करवारूप एकत्रीसमो योगसंग्रह जाणवो. सर्वकामविरक्तत्वजावना, एटले सघला प्रकारना कामाथी विरक्तपणानी नावनारूप बावीसमो योगसंग्रह जाणवो. मूलगुणप्रत्याख्यानं, एटले मूलगुणोनु प्रसाख्यान करवारूप त्रेवीसमो योगसंग्रह जाणवो. नत्तरगुण प्रसाख्यानं, एटले उत्तरगुणानुं प्रसाख्यान करवारूप चोवीसमो योगसंग्रह जाणवो. इव्यजातविषयोव्युत्सर्गः, एटले इव्यजावना विषयवाला व्युत्सर्गरूप पचीसमो योगसंग्रह जाणवो. अप्रमत्तता, एटले प्रमादिपणानो साकरवारूप ठवीसमो योगसंग्रह जाणवो. दाणेदाणे सामाचार्यनुष्ठानं, एटले क्षणक्षणमते सामाचारीना अनुष्ठानरुप सतावीसमो योगसंग्रह जाणवो. ध्यानसंवृत्तता, एटले ध्याननी अंदर सम्यक् प्रकारे वृत्ति धारण करयारूप सठावीसमो योगसंग्रह जाणो. मरणांतिक वेदनोदयेप्योलता, एटले लेक मृत्यु पर्यंतनी बेदनानो उदय होतेठते, पण नही गजरावारुप गणत्रीसमो योगसंग्रह जाणवो. संगानां प्रसाख्यानं, एटले कोइपण प्रकारनी सांसारिक वस्तुना संगर्नु जे प्रसाख्यान करवू, तेरुप त्रीसमो योगसंग्रह जाणवो. प्रायश्चित्तकारिता, एटले कोइ पण तरेहनो अपराध कीधावाद, ते अपराधना निवारण माटे गुरु आदिकनी समद जे प्रायश्चित्त ग्रहण करवू, ते रुप एकत्रीसमो योगसंग्रह बे. मरणांत आराधना, एटले मरा समये आगामीजवमां सुगति मेलबवा माटे जीवराशिनी दमा याचना पूर्वक जे पर्यंत आराधना करवी ते रुप बत्रीसमो योगसंग्रह . एवीरीते नपर वर्ण वेला
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सूत्र
अर्थः
साधु
बत्रास प्रकारना योगसंग्रहोबके करीने, अर्थात् ते योगसंग्रहोने सम्यक् प्रकारे नहीं अनुशीलन करवावके करीने मने जे
कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पलिकमुं छं. वली हुं शुं पमिकमुं हूं? तो के, प्रति
॥ तिनीसाए आसायगाए, अरिहंता आसायगाए, सिक्षणं आसायणाए,॥
अर्थः-(तित्तीसाए के) त्रयस्त्रिंशता, एटले त्रीस एवी, अर्थात् ते त्रोस प्रकारनी (आसायणाए के0) आशातना॥४ ॥
निः, एटले आशातनाबमे करीने, अर्थाद हवे आगल जेनुं वर्णन करवामां आवसे, तेवी तेत्रीस प्रकारनी आशातना करवावमे करीने मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. हवे ते, तेत्रीस आसातना कह का ? तो के, (अरिहंताणं के0 ) अर्हतां, एटले अरिहंत प्रभुचनी, अर्थात् कर्मोरूपी अरिनने एटले शत्रुनने जेए हणेला , एवा श्री अरिहंत प्रभुनी (आसायणाए के0) आशातनया, एटले आशातनावके करीने, अर्थात् श्री अरिहंत प्रभुनुनी अवहीलना करवावके करीने कर्मबंधरूप जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु . एटले ते अतिचा| रथी हुँ निवर्तुं छं. वली हुं शुं पमिकमुं छु! तो के, (सिहाणं के ) सिशनां, एटले सिह प्रभुनी, अर्थात् कमाथी मुक्त य
इने जेन सिमशिलापते पहोंचेला डे, एवा सिइ प्रभुननी (आसायणाए के) आशातनया, एटले आशातना करवावमे करीने, अर्थात् तेसंबंधि कोई पण प्रकारनी अवहीलना करवावमे करीने कर्मवंधरूप जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिक, छ. बली हूं शुं पक्किमु छ! तो के, ॥ आय रियाणं आसायणाए, नवज्कायाणं आसायणाए, साइणं आसायणाए, सादुणीणं
आसायणाए॥ अर्थः-(आयरियाणंके0) आचार्याणां, एटले आचार्य महाराजोनी, अर्थात् पांचे प्रकारना आचारोने सम्यक् प्रकारे पालन करवावाला, एवा श्री आचार्य महाराजनी (आसायणाए के0) याशातनया, एटले आसातना करवावके करीने, अर्थात् तेवा प्रकारना श्री आचार्य महाराज संबंधि कोइ पण प्रकारनी अवहीलना करवावके करीने कर्मबंधरूप जे कोश अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकाँ छुवली हुं शुं पमिक, छ! तो के, (नवमायाणं के0 ) नपाध्यायानां,
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॥3॥
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सूत्र
সনি
अर्थ
साधु || एटले नपाध्यायजी महाराजोनी, अर्थात् ादशांगीने सूत्र अर्थ सहीत जाणवावाला, एवा श्री नपाध्यायजी महाराजानी
(आसायणाए के0) आशातनया, एटले आशातना करपावके करीने, अर्थात् तेवा गुणोवाला श्री उपाध्यायजी महारा
जोनी कोई पण प्रकारनी अवहीलना करवावके करीने मने जे कोइ अतिचार कर्मबंधरूप लागेलो होय, ते अतिचारने हूं mah
पमिक, मु. वली हुं शुं पमिकमुंहुँ? तो के, (साहणं के ) साधूनां, एटले साधुननी, अर्थात् प्राणातिपात विरमा आदिक पांचे प्रकारनां महाव्रतोने सम्यक् प्रकारे पालनारा, एवा पंच महाव्रतधारी साधु महाराजोनी (आसायणाए के0 ) आशातनया, एटले आशातना करवावके करीने, अर्थात् तेवा प्रकारना गुणोने धारण करनारा, एवा साधु मुनिराजोनी को पण प्रकारे अवहीलना करवावमे करीने कर्मबंधरूप जे कोई अतिचार मने लागलो होय, ते अतिचारने हूं पस्किमुं छ. वली हुं शुं पकिमु छु? तो के, (साहुणोणं के0 ) साध्वीनां, एटले साध्वीनी, अर्थात् पंच महाव्रतनुं सम्यक् प्रकारे परिपालन करवावाली साधवीजी महाराजानी (आसायणाए के ) आशातनया, एटले आशातनावके करीने, अर्थात् तेवा तेवा प्रकारना शुन गुणोने धारण करनारी एवी साध्वीजी महाराजोनी कोई पण प्रकारनी अवहीलना करवावमे करीने जे कोअतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पनिकमुं छं. वली हुं शुं पमिकमुं छु! तो के, ॥ सावयाणं आसायगाए, सावियाणं आसायणाए, देवाणं आसायगाए, देवीणं आसा
यणाए॥ अर्थः-(सावयाणं के) श्रावकाणां, एटले श्रावकोनी, अर्थात् बारे प्रकरना अणवतोने धारण करीने तेनने सम्यक प्रकारे परिपालन करनारा, एवा श्रावकोनी (आसायणाए के) आशातनया, एटले आशातना करवावके करीने, अर्थात् तेवी रीतना शुज गुणोने धारण करनारा समकीत धारी श्रावकोनी कोइ पण प्रकारे अवहीलना करवावके करीने मने ज कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ. बली हुं शुं पमिकमुं छतो के, (साबियाणं के ) श्राविकाणां एटले श्राविकाननी, अर्यात वारे प्रकारना अणुव्रतोने धारण करनारी एवी शुक्ष श्राविकाननी (आसायणाए के) आशातनया, एटले आशातना करवावमे करीने, अर्यात पूर्वे कहेला एवा शुन गुणोने धारण करवावाली एव। श्राविकानी कोइ पण प्रकारनी आशातना, एटले अबहीलना करावके करीने कर्मोना बंधनरूप जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते
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प्रति
अर्थः
साधु । अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हं शु पमिकमुंछु. तो के, (देवाणं के०) देवानां, एटले देवोनी, अर्थात सर्व प्रकारना सम
कीतरूप रत्नने धारण करवावाला एवा देवतानी (आसायणाए के ) आशातनया, एटले आशातना करवावसे करीने अर्थात् समकीती देवोसंबंधि कोपण प्रकारनी अवहीलना करवावमे करीने मने जेको अतिचार लागेलो होय ते अतिचारने
हुँ पमिकमु छ वली हुं शुं पमिकमुं छ? तो के, (देवीण के0) देवीनां, एटले देवीननी, अर्थात् समकीतरूप उत्तमप्रकारनां ॥ ए
त्रणे रत्नोने धारण करनारी एवी शासन अधिष्टायिका आदिक देवीनी (आसायणाए के) आशातनया, एटले आसातना करवावमे करीने, अर्थात् तेवा प्रकारना गुणोने धारण करनारी, एवी देवी-संबंधि कोइ पण प्रकारनी अवहीलना करवावके करीने मने जे कोइ अतिचार कर्मोनो बंधनथवारूप लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं . वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, ॥ इहलोगस्स आसायणाए, परलोगस्स आलायणाए, केवलिपन्नत्तस्त धम्मस्स आसा
यणाए॥ अर्थ:-(इहलोगस्स के ) इहलोकस्य, एटले आलोकनी, अर्थात् आलोकसंबंधि (आसायणाए के0) आशातनया, एटले आशातनावके करीने, अर्थात् आ लोकसंधि कोइ पण जातनी अवहीलना करवावमे करीने कर्मोनो बंधन थवारूप मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुंछु! तो के, (परलोगस्स के ) परलोकरय, एटले परलोकनी, अर्थात् परलोकसंबंधि (आसायणाए के) आशातनया, एटले आशातनावके करीने, अर्थात् परलोकसंबंधि कोश्पण जातनी आशातनाबमे करीने, एटले अवहीलना करवावके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छं. बली हुं शुं पमिकमुंछ! तो के (केवलिपन्नत्तस्स के ) केवलिप्रणितस्य, एटले केवलज्ञानेकरीने युक्त थयेला एवा श्री तीर्थंकरप्रभुए उपदेशेला एवा (धम्मस्स के०) धर्मस्य, एटले धर्मनी, अर्थात् श्रीजिनेश्वरप्रभुए प्ररूपेला एवा दयामय धर्मनी (आसायणाए के) आशातनया, एटले आशातना करवावके करीने, अर्थात् ते धर्मसंबंधि कोपए प्रकारनी अवहीलना करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार कर्मोनो बंधनयवारूप लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंछं. वली हुं शुं पमिक, छु! तो के,
॥४ए
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माधु प्रति
॥५०॥
॥ सदेवमणुासुरस लोगस्त पासायणाए, सबपाणमजीवसत्ताणं आसायणाए॥ अर्थः-(सदेवमाणुयामुरस्स के ) सदेवम् नाऽसुरस्य, एटले देव, मनुष्य अने असुरोना, अर्थात् समस्त प्रकारना देवोसंबंधि, तथा समस्त भकारना मनुष्योसंबंधि, तेज समस्त नकारना असुरोसंबंधि (लोगस्स के ) लोकस्य, एटले लोकनी, अर्थात् देवलोक, मनुष्यलोक अने सुरलोकबंधि (यासायणाए के) आशातनया, एटले आशातना करवाके करीने, अर्थात् तेसंबंधि कोई पण प्रकारनी अबही बना करवायमे करीने, जे थकी कर्मोनो बंधपमे, एवा प्रकारनो जे कोई अतिचार मने लानेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकj छ. वली हुं शुं पमिकमुं हुं. तो के, (सबपाणभुअजीवसत्ताणं आसायणाए के ) सर्वमाणभूनजीवसत्वानां आशातनया. एटले सर्व प्रकारना प्राण, भूत, जीव अने सत्वोनी आसातना करवावमे करीने, अर्थात् सर्व जातिना जीवो संबंधि को पता भकारनी अवहीलना करवावमे करीने कर्मोनो बंधन थवारूप जे को अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमु छ. बली हुं शुं पमिकमुं छुतो के, ॥ कालस्स आसायगाए, सूअस्स आसायणाए, सुअदेवियाणं आसायणाए, वायणारिअस्स
थासायणाए॥ अर्यः-( कालस्स के ) कालस्य, एटले कालनी अर्थात् कालसंबंधि (यासायणाए के) आशातनया, एटले आशातनाबमे करीने, अर्थात् कालनासंबंधमां को प्रकारती अवहीलना करवावमे करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुटुं. वली हूं शुं पमिकमु हुँ. तो के, (मूअस्त के0 ) श्रुतस्य, एटले श्रुतनी, अर्थात् श्रीतीर्थकरमजुए उपदेशेला श्रुतझननी (आसायणाए के0) आशातनया, टले आसातना करवावमे करीने, अर्थात् श्रुतझानसंबंधि कोपण प्रकारनी अवहीलना करवावकरीने मने जे कोश् कर्मोना बंधपमवारूप अतिचार लागेलो होय, ते अतिचा. रने हुं पमिक{ छ. अर्थात् ते अतिचारयी हुं निवर्तुं हुं. बली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, ( सुअदेवियाणं के0 ) श्रुतदेवतानां, एटले श्रुतदेवीनी, अर्थात् शासन- रदण करनारी जे श्रुतदेवी, ते संबंधि (आसायणाए के०) याशातनया, एटले आशातना करवायके करीने, अर्थात् श्रुतदेवीसंबंधि कोपण प्रकारनी बहीलना करवावके करीने कर्मोनो जैथकी मने बंध पसे.
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साधु
सूत्र
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अर्थः
एवो कोइपण जातनो मने जो अतिचार लागेलो होय, तो ते अतिचारने हुं पमिकमुंडूं. वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, (वायणारिअस के0 ) वाचनाचार्यस्य, एटले वाचनाचार्यनी, अर्थात् पोताने अभ्यास करावनारा गुरुआदिकनी (आसायणाए के) आशातनया, एटले सातना करवावके करीने, अर्थात् वाचनाचार्यजी महाराजनी कोपण प्रकारनी अवहीलना करवायके करीने मने जे कोई अतिचार कर्मोना बंधपम्वारूप लागेलो होय, ते अतिचारने हं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं ? तो के,
॥जंवाई, वज्ञामेलिनं, हीणस्करिअं, अच्चरकरिअं, पयहीणं, विशयहीणं॥ अर्थः-(जं के0 ) यत्, एटले जे, अर्थात् जे कोइ मूत्र, (वाई के०) व्यावई, एटले नुलटपालट करेलुं होय, अर्थात् जे कोई मूत्रना जागने अगामीनू पाउल करेल होय, अने पाउलनु अगामी करेल होय, अने एवीरीते श्रुतसंबंधि आसातना करवायके करीने मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं हूं. वली हुं शुं पमिकमु छ! तो के, (वचामेलियं के0) व्यानेमित, एटले श्रुतना कोइ पण नागने च्यामित कर्यु होय, अर्थात् श्रुतना कोइ पण नागने बे वार च. थवा त्रण वार बोलीने, एवीरीते श्रुतसंबंधि आमातना करवावके करीने मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं छ. बली हुं शुं पमिकमु छ! तो के, (हीणरकरि के०) हीनादर, एटले श्रुतना कोई पण नागनो पाठ करतां थकां अकरोने तजी दीधा होय, अने तेम करवावके करीने श्रुतसंबंधि जे को आसातना में करेली होय, अने तेयी जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुटुं. वली हुं शुं पमिकमुं हुं. तो के (अच्चरकरिअं के ) असदरं, एटले अधिक अक्रोवालु, अर्थात् कोइ पण श्रुतनो पाठ करतां थकां तेमां अधिका अदरोनो पाठ करेलो होय, अने तेम करीने एवी रीते श्रुतनी आशातना करवावके करीने मजे जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं हूं. वली हुं शुं पमिक मुं छु? तो के, (पयहीणं के ) पदहीनं, एटले पदवमे करीने रहित एवो कोइ पण श्रुतनो पाउ करेलो होय, अर्थात् श्रुतनो पाठ करतांयकां ते संबंधि कोइ पण पदने तजी दीवेलु होय, अने तेम करवावमे करीने एवी रीते जे कोई अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुटुं. बली हुं शुं पमिक, ढुं? तो के, (विणयहीणं के) विनयहीनं, एटले विनयबके करीने रहित एवो श्रुतनो पाठ कर्यो होय, अर्यात् कोइ पण श्रुतनो पाठ आदिक करतांयकां, ते सं
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सूत्र अर्थ
साधु बंधि नचित एवो विनय साचव्यो न होय, अने तेम करीने एवीरीते श्रुतसंबंधि आशातना करवाथी कर्मोनो बंध थवारूप जे प्रति
कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पकिमुं छं. बली हुं शुं पमिकमुं हु. तो के,
॥जोगहीणं, घोसहीगं, सुषुदिन्नं कुछपमिछिअं, अकाले कन सझान, काले न कन सजान॥ ॥५॥
अर्थः-(जोगहीणं के०) योगहीन, एटले योगयी रहित होवाजतां कोई पण श्रुतनो अज्यास आदिक करेलो होय, अर्थात् योगरूप तपस्या विशेष कर्या विनाज श्रुतसंबंधि अज्यास आदिक कर्यो होय, अने तेम करवायमे करीने, एवीरीते आसातना करवाथी कोना धरूप जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पस्किमु झु. वली हुं शुं पमिकमुं हुँ? तो के, (घोसहीणं के) घोपहीनं, एटले घोषवमे करीने रहित एवो श्रुतसंबंधि पाठ करवावके करीने, अर्थात् उदात्त आदिक घोपपूर्वक श्रुतनो पाठ नही करवावके करीने, एवीरीते श्रुतसंबंधि आशातना करवायो मने जे कोइ अतिचार कमोनो बंध थवारूप लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं छु? तो के, (मुनुदिन्नं उत्पमिडि के०) मुष्टुदत्तं ऽष्टुप्रतीप्सितं, एटले सारी रीते श्रुतसंबंधि पाठ दीधेलो होय, तो पण दुःखें करीने ग्रहण करेलो होय, अर्थात् गुरु आदिके अन्यास करावती वेलाए सम्यक् प्रकारे पाठ दीधेलो होय, परंतु ते पाउने ग्रहण करतांयकां मारा मननो परिणाम क्लेशयुक्त, एटले खेदवालो थयेलो होय, अने तेम थवाथी श्रुतसंबंधि आशातना करवावमे करीने कर्मोनो बंध थवारूप जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छु. बली हुं शुं पमिकमुं छु. तो के, (अकालेकन्स
ज्मा के0) अकालेकृतः स्वाध्यायः, एटले अकाले श्रुतसंबंधि स्वाध्याय करवावके करीने, अर्थात् श्रुतने जणवा आदिक || माटे जे काल आगममां मुकरर करेलो ठे, ते काले श्रुतसंबंधि अत्यास आदिक न करवावझे करीने, एवी रीते जे श्रुतसंबंधि
में आशातना करेली होय, अने तेम करतांयकां कर्मोंना बंधनरूप जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते अतिचारने हैं - किकमुंछु. वली हुं शुं पमिकमु छ! तोके, (काले न क सऊान के०) काले न कृतः स्वाध्यायः, एटले काल समये श्रुतसंबंधि अत्यास आदिक स्वाध्याय न करवावमे करीने अर्थात् जे समये जे श्रुतनुं पठन पाठन आदिक करवान सिद्धांतोमां कहेतुं डे, ते समये ते श्रुतर्नु पठनपाठन आदिक न करेलुं होय, अने तेम करवावके करीने, एवीरीते श्रुतसंबंषि आशातना करवाथी मने कर्मोनो बंध थवारूप जे कोइ अतिचार लागलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं हुं. वली हुं शुं पमिकमु छै? तो के,
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साधु
प्रति
अर्थः
॥ असजाए सजाश्रं, सजाए न सजाइयं, तस्स मिलामि उक्कम ॥ अर्थः-(असकाए के) अस्वाध्याये, एटले अस्वाध्याय वखते, अर्थात् श्रुतमा वर्ण वेला अनध्याय समये (सहा. अं के ) स्वाध्यायितं, एटले स्वाध्याय करेलो होय, अर्यात् ते अनध्याय वखते श्रुतसंबंधि पठनपाठन आदिकनी क्रिया करवावमे करीने, एवी रीते कोइ पण प्रकारनी श्रुतसंबंधि आशातना करवायी मने जे कोई कर्मोनो बंध पम्वारूप अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिक, छ. वली हुं शुं पमिकमुं हुं तो के, (सकाए के) स्वाध्याये, एटले स्वध्याय समये, अर्थात् श्रुतमा वर्ण वेला स्वाध्याय वखते ( न सजाइयं के ) न स्वाध्यायितं, एटले स्वाध्याय न करेलो होय, अर्थात् ते स्वाध्याय समये श्रुतसंबंधि पठनपाठन आदिकनी क्रिया न करवावमे करीने, अने एवी रीते कोइ पण प्रकारनी श्रुतसंबंघि आशातना करवाथी मने कर्मोनो बंध थवारूप जे कोइ अतिचार लागेलो होय, (तस्स के० ) तस्य, एटले ते अतिचारसंबंधि ( मिलामि दुक के ) मिथ्या मे पुष्कृतं, एटले मारूं जे दुष्कृत, ते मिथ्या थान. एवी रीते आ मूत्रमा एकथी मांझीने तेंत्रीस मुधिनां स्थानकोसंबंधि अतिचारानुं प्रतिक्रमण कहेलुं . परंतु तेथी बीजां अधिकस्थानो पण जे. जेमके चोंत्रीस प्रकारना श्री अरिहंत जगवानना अतिशयो, पांत्रीस प्रकारनां श्रीअरिहंत नगवाननी वाणीना गुणो, बत्रीस प्रकारना श्री नत्तराध्ययन नामना मूत्रना अध्ययनो, अथवा बत्रीस प्रकारना श्री आचार्यजी महाराजना गुणो वर्णवेला ले, एवी रीते नेक शततार अने शतत्नीपग् नत्र पर्यंत स्थानको कहेलां बे; तेम तेलयी पण अधिक श्रोसमवायांग नामना मूत्रमा कथन करेला बे. तेमज एकयी मामीने बेक दश मुधिनां अनेक प्रकारनां स्थानको स्थानांग नामना सूत्रमा वर्णवेलां बे. परंतु ते सघलां स्थानकोसंबंधि अतिचारोना प्रतिक्रमण नो पाठ हमेशां बंन्ने वखत यशके नही, तेटला माटे अहीं कह्यां नथी. फक्त 'केवलि महाराजे प्रइतेला धर्मन! आशातनावमे करीने' ए पद कहेबावके करीने सर्व स्थानोनुं ग्रहण करेलुं बे, एम जणाय बे, केमके ते सघलां स्यानको केवली महाराजनां प्रझोला ले. एवीरीते पूर्वोक्त रीतिथी अतिचारसंबंधि शुदि कर्यावाद हवे श्री अरिहंत प्रभुने नमस्कार करवा पूर्वक श्रुतन वर्णन करे .
॥णमो चनवासाए तित्यराण, नसलाइ महावीर पज्जवसाणाणं ।।
॥५३।
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मूत्र
अर्थ
साधु अर्थः-(पामो के0) नमः, एटले नमस्कार थान? कोनापते नमस्कार थान? तो के, (तित्ययराणं के0) तीर्थकरेज्यः । प्रति || एटले श्री तीर्थंकर प्रभुनमते नमस्कार यान? हवे ते श्री तीर्थंकर प्रभु केवा ? तो के, ( नसजाइ महावीर पज्जवसाणाणं
के ) पनादिमहावीरपर्यवसानेन्यः, एटले श्री पनदेव प्रभुथी लेने, अर्थात् प्रथम तीर्थंकर प्रजुयी लेख्ने बेक श्रीम-||
हावीर स्वामी प्रनु सुधीना चोवीसे अरिहंत प्रभुन प्रते नमस्कार था. एवी रीते नमस्कार करीने धर्मनुं माहात्म्य कहे बे. ए४॥
॥णमेव निग्गंथं पावयणं, सच्चं, अणुत्तरं, केवलियं, पमिपुन्नं, ॥ __ अर्थः-( इणमेव के0 ) इदंएव, एटले आ ( निग्गयं के७) नैथं, एटले निग्रंथो संबंधि, अर्थात् ग्रंथ एटले बाह्य अने || अत्यंतर एवा परिग्रह कषायरूपथी रहित थयेला जे मुनिन, तेवा निग्रंथो संबंधि जे (पावयणं के०) प्रावचनं, एटले हादशागीरूप श्रुतने हुं सदई छ. अर्थात् प्रकर्षे करीने, एटले समस्त प्रकारे करीने जीव अजीव आदिक पदार्थोन जेमा वर्णन करवामां आवेलुं बे, तेवु सामायिकथी लेश्ने बेक बिंदुसार मुधिनुं शदशांगीरूप जे श्रुत, ते पावचन कहेवाय; एवां ते प्रावचनने हुं सद्दहुं . हवे ते प्रावचन केबुंलेतो के, ( सच्चं के0) सत्य, एटले सत्य बे,अर्थात् संतजनोने ते हित करनारूं. वलीते पावचन केवू ? तो के, (अणुत्तरं के० ) अनुत्तरं, एटले अनुत्तर दे, अर्थात् जेना सरीखं बीजुं न होय, ते अनुत्तर कहेवाय; अर्थात् सर्वथी उत्तम प्रकारनुं बे. वली ते वादशांगीरूप श्रुत केबुं ! तो के, (केवलियं के०) कैवलिकं, एटले केवलिसंबंधि बेअर्यात् केवलिमहाराजे नपदेशेलुं बे. वली ते वादशांगीरूप श्रुत केबु बे? तो के, (पमिपुन्नं के0) मतिपूर्ण, एटले संपूर्ण ले, अर्थात् कोइ पण प्रकारना अर्थवमे करीने न्युन नथी. एटले सर्व बाबतोवमे करीने संपूर्ण जे. वली ते श्रुत केले? तो के,
- ॥नेपानयं, संसुई, सल्लगत्तणं, सिध्मिग्गं, मुत्तिमग्गं, निजाणमग्गं ॥ अर्य-( नेआनयं के0 ) नैयायिकं, एटले न्यायवमे करीने युक्त जे. अर्थात् हमेशां जेमां तत्वोर्नु परिच्छेदन करवामां
|| आये, ते न्याय कहेवाय; तेवा प्रकारना न्यायवो करीने निवृत्त ययेलुं जे श्रुत, ते नैयायिक श्रुत कहेवाय; अर्थात् विचारपूर्वक गुंथेलु . वली ते शदशांगीरूप श्रुत केबु ? तोके, (संसुई के0 ) संशुक्ष, एटले शुक्ष बे, अर्थात् कोइ पण प्रकारना
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साधु प्रतिय
॥५॥
कलंकवझे करीने रहित थयेटु दे. वली ते वादशांगीरूप श्रुत केवं बे? तो के, (सलगत्तणं के ) शल्यकर्त्तनं, एटले शल्याने कापवावालुं बे, अर्थात् माया आदिक जे शल्यो, तेनने कापवावालुं बे. वली ते हादशांगीरूप श्रुत केवु ने तो के, (सिदि. मग्गं के०) सिद्धिमार्ग, एटले सिधिमार्गरूप अर्थात् सिदि एटले इष्ट अर्योनीमाप्ति, तेना मार्गरूप में; वली ते वादशांगोरूप श्रुत के ले? तो के, ( मुत्तिमग्गं के) मुक्तिमार्ग, एटले मुक्तिमां जवाने मार्गरूप ले. अर्थात् सर्व कर्मोथकी जे मूकावं, ते मुक्ति कवाय, तेवी मुक्तिमां जवारूप बे. वली ते हादशांगीरूप श्रुत केवु ले तो के, (निङाणमग्गं के ) निर्माणमार्ग, एटले निर्याना मार्गरूप ले. अर्थात् निर्याण एटले मोद, तेना मार्गरूप बे. वली ते ज्ञादशांगीरूप श्रुत के बे? तो के,
॥ निवाणमग्गं, अवितहमविसंधि, सबपुरकपदीमग्गं ॥ अर्थ:-(निवाणमग्गं के ) निर्वाणमार्ग, एटले निर्वाणना मार्गरूप ने, अर्थात् निर्वाण, एटले जे प्रासंतिक सुख, तेना मार्गरूप ले. वली ते हादशांगीरूप श्रुत केवु ले तो के, (अवितह के0) अवितथं, एटले अवितथ बे, अर्थात् ते श्रुत विसंवादेंकरीने रहित होवाथी अवितथ एटले सस बे. वली ते हादशांगीरूप श्रुत केबुं बे? तो के, (अविसंधि के0) अव्यवलिनं एटले व्यवउदविनानुं बे; अर्थात् महाविदेह क्षेत्रोमां हमेशां अस्तिपणारूप होवाथी ते श्रुत अव्यवचिन्न एटले शाश्वतुं . वलो ते श्रुत केवु ! तो के. ( सव्वदुरकपहीणमग्गं के०) सर्वदुःरकमहीणमार्ग, एटले सर्व प्रकारनां दुःखोविनाना मार्गरूप ले. अर्थात् जेनी अंदरथी सर्व प्रकारनां दुःखो नाश पामेला बे, एवो जे मोक्ष, तेना मार्गरूप . वली ते ज्ञादशांगीरूप श्रुत केईं ! तो के,
॥ इत्यािजीवा सिङति, बुऊंति, मुजेति, परिनिवायंति, सब उरकारामंतं करंति ॥ __अर्थः- ( इत्यध्यिा के0 ) अत्रस्थिताः, एटले तेनी अंदर रहेला, अर्थात् ते निग्रंथसंबंधि प्रवचननी अंदर रहेला (जीवा के) जोवाः, एटले जीवो, अर्थात् सम्यकप्रकारे चारित्रने न पालनारा जीवो (सिङति के ) सिचंति, एटले सिदिने प्राप्त थाय ले. अर्थात् अणिमा, गरिमाआदिक आठ प्रकारनी सिदिच्यते प्राप्त थाय . वली ते चारित्र पालनारा जीवो केवा थाय बे? तो के, ( बुङति के०) बुध्यंति, एटले बोधने प्राप्त याय बे अर्थात् केवलझान नामना उत्तम प्रकारना बोधने
॥॥एप
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साथ
एटले कानन प्राप्त थाय ले. वली ते चारित्र पालनारा जीवो केवा थाय ? तो के, (मुञ्चति के० ) मुच्यते, एटले मूकाय डे, प्रति अर्थात् नवोपनाही, एवा पण जे कर्मो, तेनथकी सर्वथा प्रकारे मूकाय , एटले नित थाय जे. वली ते चारित्रपालनारा
जीवो केवा थाय ते! तो के, ( परिनिव्वायंति के०) परिनिर्वाति,एटले समस्त प्रकारे परिनिर्वर्त्तन पामे . वली ते चारित्र HVER! पालनारा केवा थाय ? तो के, ( सचदुरकाणमंतं करंति के ) सर्व उखानां अंतं कुर्वति, एटले सर्व प्रकारनां खोनो ना.
श करे , अर्थात् समस्त प्रकारनां शरीर संबंधि दुःखोनो, तथा समस्त प्रकारनां मनसबंधि दुःखोनो विनाश करे ले. हवे एवीरीतनां नपर वर्णवेला निग्रंथ प्रावचनरूप श्रुतने है शुं करूंछ तो के,
॥तं धम्म सड़हामि, पत्तियामि, रोएमि, फासेमि पालेमि, अणुपालेमि ॥ अर्थः- (तं धम्म के0) तं धर्म, एटले ते धर्मने, अर्थात् ते नैथिक मावचनरूप श्रुत धर्मने (सदहामि के०) श्रद्दधामि, एटले तेने हूं सद्दहं छ; अर्थात् ते केवलीजाषित श्रुतधर्मप्रते हुं श्रझा धारण करूं छ. वली ते धादशांगीरूप श्रुतधर्मप्रते हैं शुं करूं ? तो के, (पत्तियामि के0 ) प्रसेमि, एटले ते श्रुतपर हुं प्रतीति करूं टु; अर्थात् आ श्रुतज इष्ट अर्थोनो हेतु बे, | एवीरीतनी उत्कृष्टी श्रधापूर्वक ते श्रुतनो हुँ निश्चय करूं छु. वली ते ज्ञादशांगीरूप श्रुतधर्मप्रते हुं शुं करूं छतो के, (रोएमि के ) रोचयामि, एटले ते श्रुतप्रते हुं मारी रुचिने धारण करूं छु; अर्थात् बीजां मिथ्यात्वी आदिक श्रुतोनो परिहार करीने, आ शदशांगीरूप श्रुतप्रतेज हुं मारी रुचि नत्पन्न करूं टुं. वली ते शादशांगीरूप श्रुतधर्मप्रते हुं शुं क र्छ? तो के, ( फासेमि के) स्मृशामि, एटले ते श्रुतप्रते हुं स्पर्श करूं छ; अर्थात् ते हादशांगीरूप श्रुतधर्मनी हुँ सेवना करूंछु, एटले ते श्रुतयां वर्णवेला सर्व प्रकारना उपदेशने हुं आचरुं छु. वली ते हादशांगीरूप श्रुतधर्मप्रते हुं शुं करूं छतो के, (पालेमि के0) पालयामि, एटले तेनुं हुं परिपालन करूं टुं; अर्थात् तेश्रुतमा वर्णरेला नपदेशनुं हुं नवंघन करतो नथी. वली ते हादशांगीरूप श्रुतप्रते हं शुं करूंछ. तो के, (अणुपालेमि के ) अनुपालयामि, एटले ते श्रुतनुं हुं अनुपालन करंछ; अर्थात् पूर्वपुरुपोए जे- | म ते श्रुतनुं अनुपालन करेलु दे, ते मुजब हुं पण ते ज्ञादशांगीरूप श्रुतनुं अनुपालन करुं छु, परंतु केवल मारी मति कल्पना पूर्वक हुं ते श्रुतप्रते आचरण कोइ पण प्रकारचें करतो नयी.
॥ तं धम्मं सद्दहतो, पनिरंतो, रोअंतो, फासंतो, पालंतो, अणुपाखेतो, ॥
॥५६।
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सूत्र
साधु प्रति
अर्थः
॥५
॥
__ अर्थः-(तं धम्मं के0) तं धर्भ, एटले ते धर्मने, अर्थात् ते हादशांगीरूप श्रुतधर्मने ( सदहंतो के0 ) श्रद्दधानः, एटले स- | दहतो एवो हुँ, अर्थात् ते पर अशा करतो एवो हुँ, वली (पत्तिअतो के0) प्रतीयन, एटले ते संबंधि प्रतीति करतो एवो हुं, अर्थात् ते श्रुतसंबंधि जेने खातरी थयेली , एवो हुँ; वली शुं करतो एवो हुँ? तो के, ( रोअंतो के0) रोचयन् एटले रुचि धारण करतो एवो हुँ, अर्थात् ते श्रुतपर रुचिवंत यतो एवो हुँः वली शुं करतो एवो हुँ? तो के, (फासंतो के0 ) स्पृशन्, एटले ते श्रुतपर स्पर्श करतो एवो हूं, अर्थात् ते श्रुतनुं आसेवन करतो एवो . वली शुं करतो एवो हुँ? तो के, ( पालतो के) पालयन्, एटले ते श्रुतनुं परिपालन करतो एवो हुँ, अर्थात् ते श्रुतनुं रक्षण करतो एवो हूं. वली शुं करतो एवो हुँ? तो के, (अणुपालंतो के ) अनुपालयन्, एटले ते श्रुतधर्मनुं अनुपालन करतो एवो हुं, अर्थात् ते शदशांगीरूप श्रुतर्नु पूर्वपुरुषोए करेला अनुक्रम प्रमाणे अनुपालन करतोयको हुं हुं करूं छु? तो के,
॥ तस्स धम्मस्स केवलीपन्नत्तस्स, अनुष्ठिनमि आराहणाए, विरिनमि विराहणाए ॥ __ अर्थः-(तस्स के0 ) तस्य, एटले तेने, तेने, एटले कोने तो के, (धम्मस्स के ) धर्मस्य, एटले धर्मने, हवे ते धर्म केवो बे? तो के, ( केवलिपन्नत्तस्स के ) केवलिप्राप्तस्य, एटले श्री केवलि महाराजे भइलो बे, अर्थात् केवल झाने करीने युक्त एवा श्री केवली प्रभुए नपदेशेलो . एवा ते श्री केवलिप्रणीत धर्मनी (आराहणाए के ) आराधनाय, एटले आराधना करवा माटे, अर्थात् ते धर्मनी सम्यक् प्रकारे सेवा करवा माटे ( अगुन्निमि के ) अच्युत्यितोऽस्मि, एटले हुं ग्लो छु अर्थात् ते केवलि जापित धर्मनी सम्यक् प्रकारे आराधना करवा माटे हं तैयार थयेलो छ. वली ते धर्म माटे हुं शुं करूं हूं? तो के, (विराहणाए के) विराधनायाः, एटले विराधनाथी, अर्थात् ते धर्मसंबंधि विराधनाथी (विरिनमि के) विरतोऽस्मि, एटले हुं विरमेलो छ; अर्थात् ते केवलिनापित धर्मयकी विरु६ प्रकारचें कोइ पण आचरण आचरवाने हुं बिलकुल इ. बा धारण करतो नयी; एटले ते धर्मने विराधना पहोंचाम्वाथी हुं अटकेलो छ. सारे हवे शुं करूं हूं? तो के,
॥असंजमं परियाणामि, संजमं नवसंपज्जामि, अबंनं परिआणामि, बंनं नवसंपज्जामि ॥
अर्थ:-( असंजमं के0) असंयमं, एटले असंयमने, अर्थात् पांचे प्रकारना महाव्रतोने सम्यक् प्रकारे पालवारूप जे सं| यम, तेथकी जे विरु६ प्रकार, आचरण करवू, ते असंयम कहेवाय, तेवी रीतना असंयमने (परिआणामि के०) परिजा
॥५॥
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सूत्र
अर्थः
साधु । नामि, एटले हूं पच्चसु छ; अर्थात् तेवा प्रकारना असंयमनुं हुं प्रसाख्यान करूं छ; एटले तेवा प्रकारना असंयमनो हुँ खाग प्रति
करुं हुं. वली हुं शुं करुं हुं. तो के, (संजमं केट) संयम, एटले संयमने, एटले पंचमहाव्रतोने सम्यक् प्रकारे पालवारूप शुभ चारित्रने (नवसंपज्जामि के०) उपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्त थानं ढुं. अर्थात् तेवी रीतना शुइ चारित्ररूपी अमूल्य रत्ननो
हुँ सम्यक् प्रकारे स्वीकार करुं छु. वली हुं शुं करुं छु? तो के, (अनं के) अब्रह्म, एटले अब्रह्मने, अर्थात् ब्रह्मचर्यपणा॥५॥
थी विरुइ प्रकारनां आचरणरूप अब्रह्मचर्यने (परिआणामि के) परिजानामि, एटले हुं पच्चखं छु. अर्थात् मैथुन सेववारूप अब्रह्मचर्यना हुँ पञ्चखाण करुं छु. वली हुं शुं करूं छ? तो के, (बंनं के) ब्रह्मचर्य, एटले ब्रह्मचर्यने, अर्थात् चतुर्थ महाव्रतरूप ब्रह्मचर्यव्रतने ( नवसंपन्जामि के०) नपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्त थानं छं. अर्थात् ब्रह्मचर्यरुप महाबतनो हुं सम्यक् प्रकारे स्वीकार करुं छ. वली ई शुं करूं छ! तो के,
॥अकप्पं परिआगामि, कप्पं उवसंपज्जामि, अन्नाणं परित्राणामि, नाणं नवसंपजामि ॥
अर्थः-(अकप्पं के ) अकल्पं, एटले न कल्पे एवा अर्थात् मुनिपणाने न कल्पे एवा आहार पाणी,वस्त्र, पात्र आदिकने ( परिआणामि के० ) परिजानामि, एटले हुं पच्च छ; अर्थात् साधुपणामां नही ग्रहण करवा लायक एवा आहार पाणी आदिकना हुँ पञ्चरकाण कर छ; अर्थात् तेननो हुं सागकरूं छु. वली हुं शुं करुं छु! तो के, ( कप्प के0 ) कल्पं, एटले कल्पे एवा, अर्थात् मुनिपणामां नपयोगमां आवे एवा आहार पाणी, वस्त्र पात्र आदिकने (नवसंपज्जामि के) नपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्तयावं छ; अर्थात् कल्पे एवां आहारपाणी आदिकनो स्वीकार करवानी हूं इच्छा धारण करूंछ. वली हं शुं करूंछु! तोके (अन्नाणं के७) अशानं एटले अझानने, अर्थात् मिथ्यात्वादिक अझानदशाने (परिणामि के0) परिजानामि, एटले हुं पच्चखुर्छ, अर्थात् ते मिथ्यात्वपणाआदिकरूप अझान दशाना हुँ पञ्चरकाण करुंछु, एटले तेनो हुँ साग करूं छ. वली हुं शुं करूं छु! तो के, (नाणं के0 ) छान, एटले छानने, अर्थात् समकीतनी प्राप्तिरूप झान दशाने ( नवसंपज्जामि के ) उपसंपद्यामि, एटले हुँ प्राप्त थानं र्छ, अर्थात् नपर वर्णवेली एवी शानदशाने हुं स्वीकारुं छ. बली हुं शुं करूं छु। तो के,
॥ अकिरिगं परिआयामि, किरिअं उपसंपज्जामि, मित्रतं परियाणामि, समत्तं नवसंपज्जामि ॥
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साधु
प्रति०
॥ एए ॥
अर्थ:- (करि के० ) प्रकार्य, एटले कार्यने, अर्थात् जेथी करीने मुनिपणाने कलंक लागे, तेवा प्रकारां - कार्य (परिणाम के० ) परिजानामि, एटले हुं पञ्चखं छं अर्थात् कोइ पण प्रकारनं प्रकार्य करवा माटे हुं प्राख्यान करूं छं, एटले कार्य करवानो हुं साग करूं हूं. वली हूं शुं करूं छु? तो के. ( किरियां के० ) कार्य, एटले करवा लायक काने, अर्थात् साधुपणाने उचित एवां करवायोग्य कार्यने ( नवसंपज्जामि के० ) उपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्त थानं कुं, अतू मुनिपणाने उचित लागे, एवा प्रकारनां कार्य करवामाटे हुं तत्पर याचं हूं. वली हुं शुं करूं हूं? तो के, ( मित्तं के० ) मय्यावं, एटले मिथ्यात्वने, अर्थात् कुदेव, कुगुरु प्रने कुधर्मने, सुदेव, सुगुरु ने सुधर्मरूप मानवा, तथा सुदेव, सुगुरु - ने सुधर्मने, कुदेव, कुगुरु ने कुधर्मरूप मानवा, ते मिथ्यात्व कहेवाय; एवी रीतना मिथ्यात्वने (परिमाणामि के० ) परिजानामि, एटले हुं याग करूं ; अर्थात् तेवा प्रकारनां मिथ्यात्वने धारण करवानुं हुं पच्चखाण करूं कुं. वली हुं शुं करूं छु ? तो के ( समत्तं के० ) सम्यक्त्वं, एटले सम्यक्त्वने, अर्थात् शुद्ध देव, शुद्ध गुरु, मने शुद्ध धर्मने शुरूरूपे मानवा, तथा कुदेव, कुगुरु ने कुधर्मने कुरुपे मानवा, ते सम्यक्तव कहेवाय, एवा प्रकारना समत्वने ( नवसंपज्जामि के० ) उपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्त थानं कुं; अर्थात् पूर्वे वर्ण वेला गुणोयें करीने युक्त एवां सम्यक्त्वने हुं स्वीकारूं छं. वलीहुँ शुं करूं हुँ? तो के,
॥ बोहिं परित्राणामि, बोहिं नवसंपजामि, श्रमग्गं परिश्राणामि, मग्गं नवसंपज्जामि ॥
अर्थ :- (वाहिके० ) वोधि, एटले प्रबोधिने, अर्थात् अज्ञान दशाने ( परिमाणामि के० ) परिजानामि, एटले डुं पञ्चखं हूं, अर्थात् ज्ञान दशासंबंधि हुं प्रयाख्यान करूं कुं; एटले ज्ञान दशानो हुं याग करूं हूं. बजी हुं शुं करुं छु ? तो के, (बोहिं के० ) बोधि, एटले बोधि बीजने, अर्थात् समकीतनी प्राप्तिरूप ज्ञान दशाने ( उवसंपणामि के० ) उपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्त यानं ; अर्थात् ते बोधि बीजरूप ज्ञान दशानो हुं स्वीकार करूं लुं. वली हुं शुं करूं छु? तो के, (के(०) मार्ग, एटले मार्गने अर्थात् धर्मयी विरुद्ध एवा कुमार्गने, अथवा चरणकरणानुयोगरूप शुरू चारित्रयां विपरीत मार्ग (परिणामि के० ) परिजानामि, एटले हुं पञ्चखं कुं, अर्थात् कुमानां स्वीकार करवानां हुं मयाख्यान करूं ; एटले कुमार्गय हुं टकुं छं. वली हुं शुं करु छु? तो के, (मग्गं के० ) मार्ग, एटले मार्गने, अर्थात् चरणकरणानुयोगरूप शुरू चारित्रने पालवारूप शुज मार्गने (नवसंपज्जामि के० ) उपसंपद्यामि, एटले हुं प्राप्त यानं हूं अर्थात् शुद्ध चारित्ररूपी मार्ग
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सूत्र
अर्थः
HUNI
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सूत्र
साधु प्रति
अर्थ
नो हुं स्वीकार करुं छं. वली हुं शुं करुं छ! तो के, ॥जं संजरामि, जं च न सनरामि, जं पमिकमामि, जं च न पमिकमामि, तस्स सबस्स
देवसिअस्त ॥ अर्थः-(जं के0 ) यत्, एटले जे. अर्थात् जे कोइ अतिचार मने लागेलो होय, ते ( सनरामि के0 ) स्मरामि, एटले जे कोइपण प्रकारनो अतिचार, के जेतुं मने स्मरण रहेलुं बे, तेमज ( च के ) च, एटले वली (जं के0 ) यत्, एटले जे अर्थात् जे कोई अतिचारने (न संजरामि) एटले स्मरण रहेलु नयी, अर्यात् जे कोइ पण प्रकारनो अतिचार, के जेनुं मने स्मरण रहेलुं नथी, तेमज (जं के0 ) यत्, एटले जे, अर्थात् कोषण प्रकारनो अतिचार, के जे (पमिकमामि के0) प्रतिक्रमामि, एटले में पमिकमेलो बे, जे कोइपण जातनो अतिचार, के जे अतिचारनुं में प्रतिक्रमण करेलु डे, तेमज ( च के० ) च, एटले वली (जं के0 ) यत्, एटले जे, अर्थात् जे कोइपण प्रकारनो अतिचार, के जे अतिचारनुं (न पमिक्कमामि के0) न प्रतिक्रमामि, एटले में प्रतिक्रमण करेलु नथी, अर्थात् जे कोइ अतिचारने में पमिकम्या नथी, एटले जे अतिचारोनी में आलोचना लीधेली नथी, ( तस्स के ) तस्य, एटले ते ( सबस्स के ) सर्वस्य, एटले सघला, अर्थात् समस्तप्रकारना (देवसिअस्स के ) दैव सिकस्य, एटले दिवसनी, अर्थात् दिवससंबंधि,
॥अश्यारस्स पमिकमामि ॥ अर्थः-(अश्वारस्स के ) अतिचारस्य, एटले अतिचारने, अर्थात् दिवससंबंधि समस्तप्रकारना अतिचारोने, एटले अपराधाने (पमिकमामि के० ) प्रतिक्रमामि,एटले हूं पमिकमु छ अर्थात् ते सघला प्रकारना अतिचारोनुं हुं प्रतिक्रमण कर छ; एटले ते सघला प्रकारना अतिचारोथी हूं निवर्ग छ.
॥ समयोहं, संजय विरय पहिय पञ्चरकाय पावकम्मो, अनियाणो ॥ अर्थः-(समणो के0 ) श्रमणोहं, एटले हं श्रमण छ अर्थात् पांचे प्रकारना महाबताने धारण करवावालो एवो हंसाधु छ. वली हुं केवो छु? तो के, (संजय के0 ) संयत, एटले संयत छु, एटले नियंत्रित करेल डे, अर्थात् बंध करेल पाप क.
॥६०।
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साधु
মনি
॥१॥
मों जेणे एवो हूंछ. वली हं केवो छ? तो के, (पमिहय के ) प्रतिहत, एटले हणेलां ने सर्व प्रकारनां पापकों जेणे एवो | हुँ छ. वली हुं केवो छ! तो के, (पच्चरकाय पावकम्मो के०) प्रसाख्यातपापकर्मः, एटले पञ्चखेलां ने पापको जेणे एवो ह || अर्थः छु, अर्थात् पापकमाने साग करनारो हुँ छ. बली हु केवो छ! तो के ( अनियाणो के ) अनिदानः, एटले निदानवके करीने रहित छ. अर्थात् कोइ पण प्रकारना नियाणावमे करीने ९ रहित थयेलो छ. वली हुँ केवा प्रकारनो छ! तो के,
॥दिठिसंपन्नो, मायामोस विवजिन॥ अर्थः-(दिठिसंपन्नो के०) दृष्टिसंपन्नः, एटले दृष्टिवके करीने ९ संयुक्त ययेलो . अर्थात् शुदेव शुइगुरू अने शुक्ष धर्मने धारण करवारूप जे सम्यक्त्व, तेवके करीने हुं संयुक्त थयेलो छ. वली हुं केवो थयेलो छ! तो के, (मायामोस विवङिन के) मायामोस विवर्जितः, एटले मायामोसबके करीने हुं विवर्जित थयेलो छ. अर्थात् समस्त प्रकारनी जे कपट क्रिया, के जे मारां चारित्ररूपी आभुषणने मलीन करनारी बे, तेथकी हुँ रहित थयेलो छ. हवे हुं शुं करूं हूं? तो के,
॥ अहाश्जेसु दीवलमुद्देमु, पनरसकम्मनमीसु, जावंति के विसाद, रयहरणगुलपमिग्गहधारा ॥ __ अर्थः-( अट्ठाइजेसु के) तृतीपाबु, एटले अढीएवा, (दीवसमुद्देसु के०) दीपसमुषु, एटले होपो अने समुशेने विषे, तेमज ( पन्नरसकम्मभूमीसु के0 ) पंचदशकर्मभूमीपु, एटले पंदर एवी कर्मभूमोनने विषे (जावंति के वि के0) यावंतः केऽपि, एटले जेटला होय, तेटला ( साहू के0) साधून, एटले साधुनने हुं नमस्कार करूंछ. हवे ते साधुजी महाराजो केवा ? तो के, (रयहरणगुलपकिन्गहधारा के० ) रजोहरणगुचपतद्ग्रहधाराः, एटले रजोहरणना गुन्चकने, तथा पतद्ग्रह एटले पातरांनने धारण करनारा बे; वली ते साधुजी महाराजो केवा बे? तो के, ॥ पंचमहत्वयधारा, अगरसहस्स सीलंगधारा, अस्कयायारचरित्ता, ते सधे सिरसा मणसा मन्बएण वंदामि ॥
॥६१ अर्थ:-(पंचमहत्वयधारा के०) पंचमहाव्रतधाराः, एटले पांच प्रकारनां महाव्रतोने धारण करनारा डे, अर्थात् प्राणानिपातविरमण, मृपावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, तथा परिग्रहविरमण, एवीरीतनां पांच प्रकारनां महाव्रतोने
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धारण करनारा बे; वली ते साधुजी महाराजो केवा ? तो के, (अठारसहस्ससीलंगधारा के ) अष्टादशसहस्त्रशीलांगधाराः, || || एटले अढारहजार शीलांगरथोने धारण करनारा ले. वली ते साधुजी महाराजो केवा बे? तो के, (अरकयायारचरित्ता के०)||
अकोदाचारचारित्राः, एटले अदोद आचारवालु डे चारित्र जेमनुं एवा, (ते सत्वे के0) तान् सर्वान्, एटले ते सघला साधुजी महाराजोने (शिरसा के) शीर्षण, एटले मस्तकवके करीने, तेमज (मासा के०) मनसा, एटले मनवमे करीने ( मत्थएण वंदामि के०) मस्तकेन बंदामि, एटले मस्तकवमे करीने हूं वंदन करुं छ. हवे अनादि एवा संसाररूपी समुनी अंदर रहेला एवा प्राणीनने परस्पर वैर होवानो संजव बे, तेथी तेनने दमाववामाटे कहे बे. ॥ खामेमि सब जीवे, सब्वे जीवा खमंतु मे ॥ मित्ती मे सत्व नूएसु, वेरं मऊ न केण ॥१॥
अर्थः-(सक्वजीवे के०) सर्वान् जीवान्, एटले सर्व जीवोने, अर्थात् आ संसारमा रहेला सर्व प्रकारना जीवोने (खामेमि के०) मयामि, एटले हुँ खमाबु छ. अर्थात् अझान अने मोहना वशवमे करीने ते जीवोने में जे कंई पीमा नपजावी होय, ते माटे हुँ माफी मागु ढुं. तेमज (सवे जीवा के ) सर्वे जीवाः, एटले सर्व प्रकारना जीवो (मे के०) मां, एटले मारामते (खमंतु के०) दाम्यंतु, एटले मारा अपराधमाटे, अर्थात् में करेला अपराधनी मारामते कमा करो! वली (मे के०) मम, एटले मने ( सव्वलूएमु के ) सर्व नूतेषु, एटले सर्व पाणीप्रते (मिती के०) मैत्री, एटले मित्रता बे; वली (मज्क के०) मम, एटले मने (केण के) केनचित्, एटले कोश्नी पण साये (वेरं न के० ) वैरं न, एटले वैरविरोध नथा. हवे प्रतिक्रमण अध्ययनने उपसंहरतायका अवसानमंगल माटे कहे . ॥ एवमहं आलोय, निंदिन, गरहिअ, गंविधं सम्मं ॥तिविहेण पमिक्कतो, वंदामि जिणे चनवीसं॥ ___ अर्थः-( एवं के 0 ) एवं, एटले एवीरीते ( सम्मंदुग्गंडिअं के ) सर्व दुग्गैडिकं, एटले सघला निंदनीक अतिचारने (आलोय के) आलोच्य, एटले आलोचीने, तया (निदिअ के) निंदयित्वा, एटले नींदीने, तथा (गरहिब के) गर्दित्वा, एटले तेनी गर्दाकरीने, (तिविहेण पमिक्कतो के ) त्रिविधेन प्रतिक्रामन्, एटले त्रिविधं त्रिविधं प्रतिक्रमण करतो एवो |
||॥६॥ ( अहं के0 ) अहं, एटले हुं ( जिणेचनव्वीसं के0 ) चतुर्विंशतिजिनान्, एटले चोवीसे जिनेश्वरोने ( बंदामि के0 ) वंदामि एटले १ वंदन करूं छु. ॥ इति श्री श्रमणमूत्रं सनापांतरं समाप्तं ॥
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प्रति
अर्थ
॥ अथ पाहिकअतिचार ॥ ॥नाणंमि दसणमि अ।चरणं मि तवम्मि तहय विरियंमि। आयरणं आयारो।श्य एसोपं
चहा नगिन ॥१॥ अर्थः-( नाणंमि के0 ) छान, दर्शन, चारित्र, तप अने वीर्य ए पांचने विषे आचरव॒ तेने आचार कहीए. एम ते आचार पांच प्रकारे झानीए कह्यो ले. एटले झानाचार. दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार.॥ १ ॥
झानाचार । दर्शनाचार । चारित्राचार । तपाचार । वीर्याचार । ए पंचविध आचार मांहे जे कोई अतिचार पद दिवस मांहिं सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुन होय ते सबिहुँ मन वचन काया करी। मिलामि उक्कम ॥१॥
तत्र ज्ञानाचारे आठ अतिचार ॥ काले विणये बहुमाणे । वहाणे तहय निन्हवणे ॥ वंजण अब तउनए । अविहो
नाणमायारो ॥॥ अर्थः-(काले विणए के) जे अवसरे जे जणवानुं होय तेज लणवू तेने काल कहीए, विनय पूर्वक ज्ञान जणQ, झा न तथा ज्ञानीने विषे अंतरंग प्रेम करवो तेने बहुमान कहीए, नवकारादिसूत्रोना तपो विशेष नपधान योगर्नु वेहेवु तेने नपधान कहीए, तेमज जणावनार गुरुने उलववो नहीं; सूत्रनो अदर शुक्ष जणवो, खोटुं न जणवं, शुरू नच्चार करवो, अर्थ शुरू जणवो, सूत्र अने अर्थ ए बने शुक्ष जणवां, ए आठ प्रकारे झानना आचार जेम कह्या जे तेमज करीए, तेने झानाचार कहीए. अने सेथी विपरीत कहीए तेवारे अतिचार लागे.
॥
३॥
शान कासवेलामांहें पढयो गुएयो परावयों नहीं । अकाले पढ्यो । विनयहीन बहुमानहीन योगोपधानहीन । अनेरा कन्हे पढ्यो अनेरो गुरु कह्यो । देववंदण बांदणे । पमिकमणे सद्याय करतां । पढतां गुणतां कूमो अकर कानें मात्र । आग
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सूत्र
अर्थ
साधु
लो नतो लण्यो गुण्यो । सूत्रार्थ तज्जय कूमां कह्यां । काजो अणजधयाँ । मामा अणपमिलेह्यां वस्ति अणसोध्यां अणपप्रतिण
वेयां । असचाइ अणोया कालला मांहिं श्री दशवैकालिक प्रमुख सिक्षांत पढयो गुण्यो परावयों । अविधे योगोपधान
कीधा कराव्या । झानोपकरण । पाटी पोथी वणी । कवली । नोकारवाली । सांपमा । सांपमी । दस्त्री वही। कागलिआ ६३॥लियाप्रसें । पग लाग्यो थूक लाग्यो । थूकें अदर लांज्यो । ज्ञानवंतपते प्रक्षेष मउर वह्यो । अंतराय अवज्ञा आशातना की
धी। कुणहिमतें तोतलो बोवमो देखी हस्यो वितयों । मतिझान । श्रुतझान । अवधिझान । मनपर्यवझान । केवलझान । ए पांच छानतणी आशातना कीधी। ज्ञानाचार विषश्च । अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवसमांहिं सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुन होय, ते सचिहुं यन पचन काया करी मिहामि उक्कम ॥ ३ ॥
॥ दर्शनाचारे आठ अतिचार ॥ ॥ निस्तंकिय निकंखिअ । निधिनिगियाअमूढदिछीअ ॥ नववूहथिरीकरणे । वचल्ल पन्ना
वणे अठ॥३॥ अर्थः-(निस्संकिय के ) जगवते कहेवां जे तत्व तेने विषे शंका करवी नहीं, एकांते साचुं मानवू ते पहेलो निःशंकित गुण. बीजो बीजा दर्शननी बांडा करवी नहीं, लगारे तप दमादिकनो गुण देखी पर दर्शननो अजिलाप करवो नहीं,
ए निकांदित गुण. जिनधर्मने विषे क्रियानुष्टानादिकना फलनेविषे. संदेह करवो नहिं, अथवा साधु साधवीना मल मलीन || शरीर तया वस्त्र देखी निंदा करवी नहीं, ए बीजो निर्विनी गुप्ता गुण कहीए. चोयो अमूढ दृष्टिपणुं एटले मिथ्यात्वीना ध
मनो पन्नाव देखीने आज धर्म साचो हशे एबुं मनमा चितवन करवू नहीं, एटले एवा मूढ दृष्टि न य. पांचमोनपटहणा ए. टले सम्यक्त्व धारी गुणवतना थोमा पण गुणनी प्रशंसा करवी. बठो स्थिरिकरण एटले जिनधर्मयी पमता प्राणीने सहाय आपी धर्मनेविष स्थिर करखो ते. सातमो वात्सल्य एटले साधर्मीनी नपर एकांतपणे हित अने नक्ति करवी ते. आठमो जेणे करी जिनशासन दोपे एवां काम करवाथी घणा लोको वोधिवीज पामे, तेम करवू, जे देखीने मिथ्यात्वी पण पुण्य उपार्जे तेने प्रजावना कहीए. ए आठ प्रकारे दर्शनाचार जाणवो. तेथीविपरीत चाले तो दर्शनाचारना अतिचार लागे.
| ॥६॥
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साधु पति
६५॥
॥ देवगुरु धर्मतणे विषे निस्संकपणो न कीधो । तथा एकांत निश्चय धयों नही । धर्म संबंधिआ फलपणे विषे निस्संदेह बुद्धि धरी नही । साधु साध्वीतणी निंद्या जुगुप्सा कीधी। मिथ्यात्वीतणी पूजा मनावना देखी । संघमांहिं गुणवंततणी अनुपटहणा । अस्थिरीकरण अवात्सल्य अनीति अन्तक्ति निपजावी । तथा देवव्य गुरुच्य । जदित उपेक्षित । प्रापराधे विणास्यो । विसंतो वेख्यो । उतीशक्ति सारसंजाल न कीधी उवणायरिय हाथथकी पाड्यो । पमिलेहवो विसार्यो। जिनभुवतणी चोरासी आशातना । गुरुप्रतें तेत्रीस शातना कीधी । दर्शनाचार विषश्च । अनेरो जे को अतिचार पड़ दिवस मांहिं सूइम बादर जाणतां अजाणता हुन होय ते सविहं मन वचन काया करी मिहामि उक्कम । ३ ।
चारित्राचारे आठ अतिचार ॥ पणिहाणजोगजुत्तो ! पंचहिं समिहिं तिहिं गुत्तिहिं । एस चरित्तायारो । अध्विदो
होइ नायवो ॥४॥ अर्थः-(पणिहाण के0) एकाग्र सावधानपणे करी,मन वचन तथा कायाना योगयुक्त एवो, पांच समिति अने त्रणगुलिए करी आठ प्रकारे ए चारित्राचार थाय डे, एम जाणवू. ए आठ बोले प्रवर्ते सारे चारित्राचारना अतिचार न लागे, अने तेथी विपरीत करे तो लागे. ते माटे साधुने निरंतर अने श्रावकने सामायक पोसह लीधे अवश्य पांच समिति अने त्रण गुप्ति पालवी. ॥ ४॥ - र्यासमिति, नापासमिति, एपणासमिति, आदानमगत निक्षेपणासमिति, पारिटापनिकासमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति ए अष्ट प्रवचनमाता रूमीपरे पालो नही, साधुतणे धर्मे सदैव, श्रावकतणेधर्मे सामायिक पोसह लीधे, जे कांश खंमन विराधना कोधी होय चारित्राचार विपश्न अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवस मांहिं सूक्ष्म बादर जाणता अजाणतां हुन होय ते सविहुं मन वचन काया करी मिठामि उकसं ॥४॥
॥विशेषतश्चारित्राचारे तपोधनतो धर्म : ॥ वयनकं कायकं । अकप्पो गिहि नायरा ॥ पलिअंक निसिकाए । सिणाणं सोनवऊणं ॥
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सूत्र
साधु अर्थः-(वयनक्कं के०) व्रतषट्कं, एटले नव्रत, तथा कायमकं केए) कायषट्कं एटले काय, तथा (अकप्पो मतिका अकस्यः, एटले न कल्पे एवा आहारादिक संबंधि, तथा (गिहिनायाणं के ) गृहिजाजनं एटले गृहस्यीन जाजन रापर्यु || आई
| होय, तया (पलिअंकनिसिजाए के० ) पलंगविगेरे पर बिहानु कयु होय, तथा ( सिणाणं के ) स्नानं, एटले स्नान कयु ॥६६॥
|| होय, तेटला सर्व अतिचारोने हुँ पनिकमुं छु. तेमज (सोजवडणं के०) साधुर शरीर संस्कार आदिकनी शोना पण वर्जवी
नोइये.
व्रत पट्के, पहिले महावतें प्राणातिपात, सूक्ष्म बादर, बस यावर जीवतणी विराधना हुई, बीजे महावतें क्रोध लोन जय हास्य लगें जूठो बोल्यो, तीजे अदत्तादानविरमण महावतें ॥ - सामिजीवादत्तं, तिचयरतं तहेवय गुरुहि ॥ एवमदत्तं चहा । पणत्तं वीयराएहिं ॥१॥
अर्थः-(सामिजीवादत्तं के०) स्वामीए नही दीधेलु, जीवे नही दीधेलु, तथा (तित्ययरत्तं के ) श्रीतीर्थंकर प्रभुनए नही दीधेलु, ( तहेवय के ) तथैव, एटले तेवीजरीते (गुरुहि के0) गुरुतिः , एटले गुरुए नही दीधेलु, ( एवं के0) एवीरीते (चनदा के) चतुर्धा, एटले चार प्रकार- ( अदत्तं के ) अदत्तादान (वीयराएहिं के० ) वीतरागैः, एटले वीतगग प्रभुनए (पणतं के0) प्रइन, एटले प्रझतेj , अर्थात् कहेलं .
स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थकर अदत्त, गुरु अदत्त, ए चतुर्विध अदत्तादानमांहि कांश अदत्त परिजोगव्यो॥ चो थे महाव्रते ॥ वसहीकहनिसिडिंदिय, कुमिंत्तरपुरकीलिएपणिए । अश्मायाहारविभूसणाई, नववंजचेरगुत्तिन ॥१ए नववामी सुधी पाली नही, मुहणे स्वप्नांतरे दृष्टि विपर्यास हुन॥ पंचमे महाव्रते, धर्मोपगरणने विषे श्वा मूळ गृहिआसक्ति धरी अधिको नपगरण यावर्यो, पर्व तिथि पमिलेहवो विसार्यो । बठे रात्री जोजन विरमण व्रतें, अमूरो पाणी कीधो, बारोद्गार आव्यो, पात्रे पात्राबंधे तक्रादिकनो बांटो लाग्यो, खरड्यो रयो, लेप तेल उषधादिकतणो संनिधिरह्यो, अतियात्रायें आहार लीधो ए
॥६६।
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साधु प्रति
॥६॥
बए व्रत विषश्न अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष दिवस मांहिं मूइम बादर जाणतां अजाणता हुन होय ते सविडं मन वचन || काया करी मिचामि कम ॥
अर्थः ॥ कायपट्के । गामतणे पइसारे नीसारे पग पमिलेहवा विसार्या, माटी मीत खमी धावमी अरणेटो, पाषाणतणी चातली उपर पग आव्यो, अप्पकाय वाघारी फूसणा हुवा, विहरवा गया, ऊलखो हाल्यो लोटो ढोल्यो, काचा पाणीतणाबां. टा लाग्या, तेनकाय वीज दीवातही नही हु, वानकाय, नघामें मुखें वोल्या, महावाय वाजतां कपमा कांबली तणा - मा साचव्या नहीं, फूंक दीधी ॥ वनस्पतिकाय, नीलफूल सेवाल थुम फूम फल फूल वृद्ध शाखा प्रशाखातगा। संघट्टपरंपर निरंतर हुवा ॥ त्रसकाय, बेरिंडी तेरिंडी चनरिंडी पंचेंडी काग बग नमाव्या ढोर त्रासव्या, बालक बीहाव्यां षट्काय विषय अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवस मांहि सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुन होय ते सवि हूं मन वचन कायायें करीमिबामि ॥७॥
॥अकल्पनीय सहा वस्त्र पात्र पिंक परिजोगव्यो, सिकातरतणो पिंक परिजोगव्यो, उपयोग कीधा पाखे विहयों, धात्री दोष, त्रस बीजसंसक्त पूर्वकर्म पश्चात्कर्म नाम उत्पादना दोष चितव्या नहीं, गृहस्थतणो नाजन नांज्यो, फोड्यो, वली पालो आप्यो नहीं, मृतां संथारिया नत्तरपट्टा टलतो अधिको नपगरण वाक्यों देशातः स्नान मुखें नीनो हाथ लगाड्यो, सर्वतः स्नानतणी वांबा कीधी, शरीरतणो मल फेज्यो, केश रोम नख समार्या, अनेरी कांश राढा विभुपा कीघो, अकल्पनीप पिमादि विषश्च अनेरो जे को अतिचार पद दिवस मांहिं सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुन होय ते सवि हूं मन वचन काया कर मिलामि कम् ॥ ७॥ ॥ श्रावस्सयसचाए, पमिलेहणधाण निरक अन्नत्त । आगमणे नीगमणे । गणे निसी
अणे तु अट्टे ॥१॥ अर्थः-(आवस्सय के0) आवश्यक एटले प्रतिक्रमणना संबंधमां, (सहाए के0 ) स्वाध्याये, एटले स्वाध्यायना संबंधमां, तथा (पमिलेक्षण के ) प्रतिलेखन, एटले पमिलेहण करतां थकां, तया (डाण के0) ध्यान, एटले ध्याननासंबंधमां, तथा (जिरुख के ) जिदा, एटले गोचरीना संबंधमां, तथा (अजत के०) उपवासादिक तपस्याना संबंधमां, तथा (आ
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प्रति
॥६॥
गमणे निगमणे के0) आववा जवामां तथा (गणेनिसिअणेतुअट्टे के0) स्थानमते बेरवाना फरवाना संबंधमां मने जे को || सूत्र
ग्यो होय, ते हुं पमिकमुं हूं. आवश्यक जयकाल व्याक्षिप्त चित्तपणे पमिकमणो कीधो, पमिकमाणामांहि घ आवी, बेठां पमिकमणुं कीg, दिवस प्रतें चार वार सद्याय, सात वार चैसवंदन न कीधां, पमिलेहणा आधी पानी जणावी, अस्तो व्यस्त कीधी, आर्च रोड ध्यान ध्यायां, धर्मध्यान शुल्लध्यान ध्यायां नहीं, गोचरी गयां बेतालीश दोष उपजता चिंतव्या नहि, बती शक्तिए पर्व तिथे नपवासादिक कीयो नदि, नपासरा देहरामांहि पेखतां निसिही नीसरतां आवस्यही कहेवी शिसारी, श्वामिडादिक दशधिध चक्रकाल समाचारी साचवी नहि, गुरु तणो वचन तहत्ति करी पमिवज्यो नहि, अपराध आव्यां मिहामि उक्कम दीधा नहि, स्यानके रहेतां हरियकाय बीयकाय, कीमी तणां नगरां शोध्यां नही, उघो मुदपति चोलपट्टो संघट्या, स्त्री तीयेचतणा संघट्ट अनंतर परंपर हवा, वमा प्रतें पसा करी, लहुमां प्रतें श्वाकार श्सादिक विनय साचव्यो नदि, एवंकारे साधुताणे धर्मे एकसो चाळीस अतिचारमांहें साधु समाचारी विषयो अनेरो जे कोइ अतिचार पद दिवसमांहे सूक्ष्म यादर जाणतां अजाणतां हुन होय, ते सविहु मन वचन कायायें करी मिलामि उक्कम. ॥ ए॥ ते एकसो चाळीस अतिचार नीचे मुजब जे. ॥ वयसमणधम्मसंयम । वेयावच्चं चवनगुत्ती ॥ नाणातियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥१॥
अर्थः-(वय के0) पांच महाव्रतो, ( समणधम्म के० ) श्रमणधर्मः, एटले दश प्रकारनो यतिधर्म, ( संयम के0 ) सत्तर प्रकारनो संयम, (वेयावच्चं के) दश प्रकारनुं वैयावल, (च के0 ) अने (बंजगुत्ती के0) नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्तिa (नाणातियं के) ज्ञान आदिक त्रण ( तव के0 ) बार प्रकारनो तप तथा ( कोहनिग्गहाई के0) क्रोधादिक चार नो निग्रह ( एयं के ) एवी रीते ( चरणं के0) चरणसित्तेरी जाणवी. ॥पिंमविसोही सम ।नावण पमिमाय इंदियनिरोहो॥पमिलेहणगुत्तीन अन्निग्गहो चेव करणंतु ।। अर्थः-(पिमविसोह। के0 ) चार प्रकारन। मिविशुद्धि, ( समई के0) पांच समिति, (नावण के ) बार नवना ( प.
॥६० मिमाय के) बार प्रकारनी पतिमा, (इंदियनिराहो के० ) पांचे इंडियोनो निरोध, (पमिलेहण के०) पच्चीस प्रकारनी पमिलेहणा (गुत्तिन के0) त्रगुप्त (चेव के०) वली (अनिग्गहो के०) चार अजिग्रह (करणंतु के०) ए करण सित्तेरी जे.
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साधु
प्रति
॥६
॥
॥ अथ पाक्षिकसूत्रं ॥ ॥ तिबंकरे य तिजे । अतिबसिहे य तिबसिझे य ॥ सिझे य जिणे रिसि । महरिसि नाणं
च वंदामि ॥१॥ अर्थः-(तित्थंकरे तित्थे के ) अतीत काल अनागत काल अने वर्तमान कालनेविषे जे तीर्थंकरोयें पोतानुं शासन प्रव व्युं बे, अने तेमनी पड़ी जेन सिह थया ने, तेन, (अतित्य सिक्ष्य के ) तीर्थ प्रवर्या पेहेलां जेन सिह थया ले. ते एटले जेम मरुदेवा माताजी तीर्थ प्रवर्या पेहेलां मोहें गया ले, तथा श्रीसुविधिनाथजीनी वच्चे ज्यारे शासननो विच्छेद थयो हतो सारे जेन सि-पदने पाम्या डे तेनने, तथा ( तित्यसिक्ष्य के ) जैन तीर्थंकर महाराज, शासन प्रवर्त्ततुं होय ते समये सिह थया होय तेनने, तथा (सिक्ष्य के ) बाकीना तेर लेदोथी जेल सिह थया ले तेनने, तथा ( जिणे के ) संसारमा रहेला सामान्य केवलीने, तथा (रिसि के०) सामान्य प्रकारना साधुनने, तथा (महरिसि के) मोटा लब्धिवंत मुनिराजोने, तथा ( नाणं के० ) पांच प्रकारना छानने ( च के0 ) वली (वंदामि के० ) हुं वांदु छ. ॥१॥ ॥ जे इमं गुणरयणसायर । मविराहिकण तिल संसारे ॥ ते मंगलं करित्ता । अहमवि
आराहणानिमुहो ॥२॥ अर्थः-(जे के०) जे मुनिराजो (गुणरयणसायरं के) मूलगुण अने नत्तरगुणरूपी रनोना समुह सरखा, एवा (श्मं के) आ चारित्रने (अविराहिमण के0) अविराधिने एटले विराध्याविना, (संसारे के०) आ संसाररूपी समुश्थी (तिम के ) तरीने पारने पाम्या डे, (ते के ) ते मुनिराजो, ( मंगलं करित्ता के0 ) मने मोक्षरूपी मंगलना करनारा थान. (अहमवि के0 ) हुं पण, (आराहणालिमुहा के० ) मोक्षरूपी मंगलनुं आराधन करवाने अनिमुख एटले सन्मुख अथवा तत्पर थयो छु. ॥३॥ ॥ मम मंगलमरिहंता । सिश साढू सुयं च धम्मो य ॥ खंति गुत्ति मुत्ति । अजव य म
हवं चेव ॥३॥
॥६ए
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साधु अर्थः-(अरिहंता के०) चोंत्रीस अतिशयोयें करीने सहित तथा आठ प्रकारना कर्मोथी रहित थयेला एवा श्री अ. प्रति
रिहंत प्रनु, तया (सिक्षा के ) सिह जगवान्, तथा ( साहू के ) आचार्य, उपाध्याय अने सर्व साधु. अहीं जोके एक साधुज शद्ध आपेलो , पण नपलक्षणथी आचार्य, नपाध्याय, पण ग्रहण कर. (सुयं के०) श्रुतझान, तथा (धम्मो
के) वीतराग प्रजुये कहेलो अहिंसामय धर्म, ( य के ) वली (चेव के ) तेवीज रीतें ( मद्दवं के ) मायाने दूर करवारू॥५०॥ | पजे विनयपणुं ते. एवी रीतना नवे पदो ( मम के ) माराप्रसें, ( मंगलं के) मंगलना करनारा था. ॥३॥ ॥ लोगंमि संजया जं । करंति परमरिसिदेसिय महारं ॥ अहमविनवहितं । महव्वय न
___ चारणं कानं ॥४॥ अर्थ:-लोगंमि के)त्रणे लोकने विषे ( संजया के संयम धारी महामनिन (के) जे पांच महाव्रतोने. (करं ति के) आदरे , अने ( परमरिसिदेसिय के) महान् पीश्वर सरखा मुनिए जेने कहेला ले, तथा (मुहारं के०) नदार बे, (तं महत्वयनच्चारणं के0 ) ते पंच महातार्नु नच्चारण (कानं के0 ) करवाने ( अहमवि के0 ) हुं पण, ( नवहिन के ) उठ्यो छु, अर्थात् तत्पर ययो छु. एटले हुं पण ते मोटां पंच महावृत्तो नच्चारवाने तत्सर थयो ढुं. ___अथ चतुर्णामपि गाथानां समुच्चयार्थः-अतिचार लाग्या न होय तो पण पाक्षिकादि प्रतिक्रमण करवू युक्तजले. कोनी पेठे तो के त्रीजा वैद्यना औषधनी पेठे. ते अतिचाररूपी ययेला रोगोने नाश करनारुं तथा अगामि कालमा थनारा रोगोने अटकाबनारुं बे. अहीं जे च शद्ध मूक्यो डे, ते अतीत कालमां थयेला तथा अनागत कालमा थनारा तीर्थंकरोनो लेद देखामवा माटे डे. सिझना पंदर लेदो नीचे प्रमाणे जाणवा. तीर्थंकररूपे जे सिह याय तेनने जिनसिझः कहीयें ॥१॥ सामान्य केवलीपणे रह्याथका जेन सिह थाय ले, तेने अजिनसि कहीये. ॥३॥ तीर्थ प्रवर्तेयके जेन सिह थाय तेमने तीर्थसिम कहीये. ॥ ३ ॥ तीर्थ प्रवर्ततुं न होय, अने ते वखते जेन सिह थाय, तेनने अतोर्थ सिह कहीये. ॥ ४ ॥ मरुदेवा माता आदिकनी पेठे जेन सिइ याय, तेनने ग्रहीलिंगे सि कहीये. ॥५॥ चरक तथा परिव्राजकादिकना लिंगथी जेन सिह याय, वेन्ने अन्य लिंगे सिम कहीये. केमके अन्यलींगीनने पण जावथी केवलझान नत्पन्न याय डे, केमके तेनने पण सम्यक्त्व उत्पन्न थाय ले. अने केवलझान उत्पन्न थया पड़ी तेज समये तेन मोहें जाय ले. अने कैवल्यनी प्राप्ति समये जो तेन पोता
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स्त्र अर्यः
साधु नुं लांचं आयुष्य जुए बे, तो तेन साधुलिंगने धारण करी लीए बे. ॥६॥ इव्यलिंगनी प्रतीतिथी जेन रजोहरणादिकने धार
|ण करे , तेनने स्वलिंगे सि कहीये. ॥ ७ ॥ प्रसेक बुझ्ने वर्जीने केटलाको जे स्त्रीलिंगथी सिह थाय ने, तेनने स्त्रीलिंगप्रति०
| सिम कहीये. ॥ ७॥ जे पुरुषना लिंगे करी सिह थाय बे, तेनने पुरुपलिंगसि कहीये. ॥ ए ॥ तीर्थंकर अने प्रयेक बुझ
ने वर्जीने जेठ नपुंसक लिंगथी सिह थाय बे, तेनने नपुंसक लिंगे सि६ कहीयें. ॥ २० ॥ अनियता आदिक नावना कार॥१॥ | णरूप एवी वृषनादिक एकज वस्तुनी प्रतीतिथी जेन सिह थाय बे, तेउने प्रयेकबुझ सिप कहीयें. ॥ ११ ॥ पोतानी मेले
जेन सिह थाय तेजने स्वयंबु सिह कहीये. ॥ १२ ॥ प्रसेक बुशेने बाह्य लिंगथी बोधिबीज उत्पन्न थाय बे. अने स्वयंबुझ सिशेने ते बाह्यनिमित्तविना पण बोधिबीज नत्पन्न थाय ले. प्रसेकबुशेने जघन्यथी रजोहरण अने मुहपत्तिरूप बे प्रकारनो उपधि होय . अने स्वयंबु सिशेने तो पात्रादिकरूप बार प्रकारनो उपधि होय . प्रसेक बुशेने जघन्यथी अग्यार अंगोनुं ज्ञान होय जे. अने उत्कृष्टयी दशपूर्वोमां कंज्ञक न्यून छान होय डे. अने स्वयंबुझेन ते होय अथवा न पण होय. प्रसेकबुशेने देवोज लिंग आपे बे. आचार्यादिकना उपदेशथी जेन सिह थाय बे, तेनने बोधिसिम कहीये. ॥ १३ ॥ एक समये एक जीव सिध्येि जवाथी एक सिम कहेवाय जे. ॥१४॥ एक समये बेथी मामीने अष्टशत सुधि सिध्येि जवाथी अनेक सिह कहेवाय . ॥ १५ ॥ इति सि मेदाः ॥ जिन एटले रागादिक शत्रुनने जीतनारा लवस्थ केवली जाणवा. लब्धिनने प्राप्त थनारा मुनिने महर्षि जाणवा. अहीं च शब्दयकी नाना प्रकारनी लब्धिनवाला, अने चौदपूर्वना धारक गणधरो जाणवा. त्रीजी गाथामां कहेला साधु शब्दथकी आचार्य अने नपाध्याय जीने पण ग्रहण करवा. ॥ ४ ॥ ॥ से कित्तं महत्वय नच्चारणं ॥ महत्वय नचारणा पंचविहा परमत्ता ॥ राईनोयणवेरमण
उठा ॥ तं जहा ॥ अर्थ:-अहीं शिष्य एवो प्रश्न करेले के, हे गुरुमहाराज! (से के०) ते ( महत्वय नच्चारणं के0) महावृत्तोनुं उच्चारण (कित्तं के ) केटला प्रकारचें बे? ते सांजली गुरु नत्तर आपे के, हे शिष्य! ( महत्वय नच्चारणा के०) महारत्तोर्नु नच्चारण (पंचविहा के ) पांच प्रकारोनुं (पामत्ता के) कहेलुं बे. अने (राईलोयण वेरमण के0) दिवस अस्त थया पडी जे जमवू तेने रात्रिलोजन कहीये. एवां रात्रिनोजनथी जे विरमवं, एटलें रात्रिनोजननो जे साग करवो, तेने (बहा के०) तुम
॥७॥
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साधु || हावृत्त कहीये. ( तंजहा के० ) ते आए महावृत्तो नीचे प्रमाणे जाणवा. प्रति
॥सवान पाणावायान वेरमणं ॥ सबान मूतावाया वेरमणं ॥ सबान अदिनादाणान
वेरमणं ॥ सवान मेहुणान वेरमणं ॥ सधान परिग्गहाळ वेरमणं ॥ सवान राश्नोयणा॥७३॥
नवेरमणं ॥ अर्थः-(सबा के०) सर्व थकी (पाणावाया के०) प्राणातिपात थकी एटले जीवहिंसा थकी (वेरमणं के ) मारा आत्माने हुँ निवर्ताबु छ. ए पहेलुं प्राणातिपात विरमण नामर्नु वृत्त जाणवू. (सवान के) सर्वथकी (मूसावायान के०) मृषावाद एटले जे जूतुं बोलवू, ते थकी (चेरमणं के० ) हुँ मारा आत्माने विरमाई छ. एने बीजुं मृषावाद विरमण नामर्नु म. हावृत्त जाणवू. ( सबान के0 ) सर्वथकी ( अदिन्नादाणा के ) अदत्तादान एटले पारकीवस्तुने जे चोरी जवी, तेनायी (वेरमणं के ) हुं मारा आत्माने विरमाबु छ. एने त्रीजु अदत्तादान विरमण नामनु महावृत्त जाणवू. ( सहा के) सर्वथको ( मेहुणान के ) मैथुन थको एटलें स्त्री आदिकना लोगथकी (वेरमणं के०) हुं मारा आत्माने विरमार्बु छु. एने चोथु मैथुनविरमणं नामर्नु महावृत्त जाणवं. (सबान के ) सर्वथकी (परिग्गहा के ) परिग्रहतः, एटलें धनधान्यादिक नव प्रकारना बाह्य परिग्रहथकी अने राग देषरूपी अत्यंतर परिप्रहथी (वेरमणं के ) हुं मारा आत्माने विरमाई छ. एने पांचमुं परिग्रह विरमण नामनुं महाव्रत्त जाणवू. (सबाट के०) सर्वथकी (राईलोयणान के) रात्रिनोजनथकी एटले सूर्यास्त पड़ी जे जोजन करवू, तेनाथी ( वेरमणं के० ) हुं मारा आत्माने विरमा छु. एने उतुं रात्रिनोजन विरमण नामनुं बतुं महावृत्त जाणवू.
॥ तब खलु पढमे नंते महत्वए पाणाश्वायान वेरमणं ॥ सव्वं नंते पाणाश्वायं पञ्चरकामि से सुदुमं वा बायरं वा ॥ तसं वा श्रावरं वा ॥ नेव सयं पाणे अश्वाजा ॥ नेवन्नहिं पाणे
अश्वायाविजा ॥ अर्थः-(तब के0 ) तिहांकने ( खलु के) निश्चयें करीने हे (नंते के०)लगवन् ! ( महत्वए के०) ते सर्व बए महाव्रत्तोमांथी ( पढमे के०) पहेलु महावृत्त जे (पाणाश्चाया वेरमणं के०) प्राणातिपात विरमण नामर्नु , (पाणावार्य के०)
| ॥७॥
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ते पाणातिपातने एटले जीवहिंसाने (ते के0 ) हे जगवन् ! एवीरीते शिप्य वली गुरुमने एय कहे वे के. हे जगवन् ! (स-|| प्रतिक
वं के०)सर्वथकी अथवा सर्व प्रकारनी हिंसाने ( पच्चरकामि के०) प्रसाख्यामि एटले तनुं हुं. अर्थात सर्व प्रकारना जीवनी अर्थः
| हिंसाने हुं वोसराबु छु. ( से के० ) ते जीवो केवा बे? तो के, (मुहुमं के0) मूदम एटले जे जीवो चमचहुथी देखाय नही ते ॥७ ॥
(वा के ) अथवा ( वायरं के० ) वादर एटले चर्मचकृयो देखाय तवा (वा के0 ) अथवा ( तसं के0 ) त्रसं एटले ज हाली चाली शके राह तमकादिकथी त्रास पामेले तेवा जीवो (वा के0) अथवा (यावरं के) स्यावर एटले जे जीवी एकज स्थानके रहे, अने हाली चाली शके नही तेवा पृथ्वी, अप, तेल, वान अने वनस्पति ए पांच प्रकारना यावर जीवो, (वा के०) अथवा एवीरीतना चार प्रकारना जीवोने हं ( सयं के०) माहारी पोतानी मेले (नेव पाणे अश्वाला के0) पाणयकी बोमाबुज नही, अर्थात ए चारे प्रकारना जावानी हूं मारी पोतानी मेलें हिंसा करुं नही. तेमज ( छान्नेहिं के) बीजा पासे (नेव पाणे अश्वायाविड़ा के0) ए चारे प्रकारना जीवोने तमना माणोयकी बगेमायुं नही, अर्यात वीजापासे ए जीवो. नी हिंसा करावु नही.॥
॥ पाणे अश्वायंते वि अन्ने न समगुजाणामि ॥ जावज्जीवाए तिविहं तिविदेणं मणणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं वि अनं न समगुजाणामि, तस्स नंते पक्किमा
मि, निंदामि गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥ अर्थः-(पाणे के0) जीवोने (अश्वायंते के) पाणयकी बोमावता अर्यात् जीवोनी हिंसा करता एवा (अन्नेवि के0 ) बीजां माणसोने पण ( न समाजाणामि के0 ) हुँ आशा आपुं नही. ते क्या सुधि ? तो के ( जावजीचाए केc ) बेक मारी जींदगी रहे सांसुधि अर्थात् हुँ जीवू सांसुधि (तिविहं तिविहेणं के0 ) त्रिवि त्रिविधे करीने (मणेणं के ) मनें करीने, (वायाए के) बचनें करीने, ( कारणं के०) कायायें करीने ( न करेमि के ) हुं जीवोनी हिंसा करुं नही, (न का
|| ३|| खेमि के ) हुं जोवोनी हिंसा कराएँ नही, ( करतंपि अन्नं के0 ) जीवहिंसा करता एवा वीजा माणसने पण ( न समाणुजा| णामि के० ) हुं मारा मुखथी आशा आपुं नही, अर्थात् जीवाहिंसा करनार माणसनी हुं अनुमोदना करूं नही. वली (जेते
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अर्थः
__ साधु || के) ) दे नगवन् ! (तस्म के0 ) पूर्वकालमां करेलां एवां ते हिंसासंबंधि पापोने ( पमिक्कमाम के० ) प्रतिक्रमु ई. एटले आ-| सूत्र
को छ. (निंदामि के०) ते पापोनी मारा आत्मानी साखें हूं निंदा करूं छु. (गरिहामि के०) ते सघलां पापोनी है गर्दा क
|| रुंहूं. ( अप्पाणं के0) मारा आत्माने (वोसिरामि के0 ) गुरुनी माहीयें वोमरायुं छ. । 119४॥
॥ से पाणाश्वाए चनविदे परमने । तं जहा । दवन । खिनन । कालन । नावन । दवनणं पाणाश्चाए । उसु जीवनिकाएसु । खित्ननणं पाणाश्वाए सब लोए । कालनणं पाणाश्वाए
दिया वा रानवा । नावनणं पाणाश्वाए रागेण वा दोसेण वा ॥ अर्थः-(से के0 ) ते (पाणाश्वाए के0 ) प्राणातिपात नामर्नु पहेलुं महावृत्त ( चनविहे के) चार प्रकारचें (पालते के ) कहेतुं डे. कोणे? तो के श्रीवीतराग मनुयें. (तं जहा के0 , प्राणातिपातना ते चार प्रकारो नीचे प्रमाणे दे. ( द. वन के0 ) इव्ये करीने, (खित्तन के ) क्षेत्रे करीने, ( कालन के ) कालें करीने. (जावन के0) जायें करीने; तमांयी (द. व्यनणं के0) इव्ये करीने (पाणाश्चाए के० ) प्राणातिपात संबंधि (बनु के0) पृथ्वीकाय ॥ १ ॥ अप्काय ॥ २ ॥ तेनकाय ॥३॥ वानकाय ॥४॥ वनस्पतिकाय ॥ एतया त्रमकाय ए नए (जीवनिकाएमु के० ) जीवोनी निकायोमां, तया (खित्तनणं के०) त्रे करीने, (पाणावाए के0 ) प्राणातिपात तटले जोदिला (सबलाए के0) चौदराज प्रमाण सर्व लोकने विषे, तया ( कालनणं के ) कालें करीने. ( पाणावाए के0 ) जीवोनी झिारूप प्राणातिपात (दिया के0) दिवसने विषे ( वा के) अथवा (रान के०) रात्रिने विष (वा के ) अथवा (जावन के0) जावें करीने. (पाणावाए के) पाणीनी हिंसारूप प्राणातिपात ( रागण के0) रागें करीने, कोई पण प्रकारनी लाल, करीने जे जीवहिंमा करवी सेने रागयकी करेली जीवहिंसा करवी कहली . तया आदिकथी जे जीवोनी हिंमा करवी तेने इषयको करेली जीवहिमा कहीयें ( वा के० ) अथवा (दोमेण के0) करीने (वा के0) अयवा.
॥ ४॥ ॥ अंपिअ मए इम्मस्स धम्मस्स । केवलि पन्नत्तल । अहिंसा लरकणस्त । सञ्चादिष्अिस्स
। विणयमूलस्स ॥
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बाधु
प्रति०
#9211
अर्थः -- ( पिए के० ) जे कई में ( इमस्स के० ) या (धम्मस्त के० ) धर्मनो हवे ते धर्म केवो? तो के. ( केवलि पत्तस के० ) जेमने केवलज्ञान उत्पन्न ययुं वे एत्रा केवली जगवाने प्ररूपेलो वली ते धर्म केवो? तो के. (अहिंसा लरकएसके ) हिंसा एटले जीवदयारूप के लक्षण जेनुं, अर्थात् जीवोनी दयाथी करीने जरपूर एवो, वली ते धर्म के वो बे ? तोके (साहिaियस के० ) स वचनरूपी रहेलुं के हित जेनी अंदर एवो. वली ते धर्म केवो ठे? तो के. ( विषयमूलरूस के० ) विनयरूप वे मूल जेनुं एवो. अर्थात् जे धर्मनो मूलपायो विनय बे, एवो, बली से धर्म केवी ठे? तो के.
॥ खंतिपदाणस्स । अहिर सुवस्मियस्स । नवसमप्पजवस्स । नव बंजधेर गुत्तस्स प्रपयमाणस्त ||
अर्थ:- (रतिपहाणस्स के० ) दमादिक गुणोयें करीने प्रधान केतां उत्तम है. इसी से धर्म केवो बे! ती के. ( अहिरसि के० ) हिरएध एटले कायुं सुवर्ण अर्थात् हजु जेना घाट घड्यां नथी तेवुं सुवर्ण, प्रने सुवर्ण एटले जे सुवर्णना अलंकार विगेरे घालां बे, एवं सुवर्ण एत्री रतिना बन्ने प्रकारनां सुवर्णीय रहित, एटले श्रीवीतराग प्रभुनो धर्म - किंचन बे. वली ते धर्म केवो बे ? तो के, (नवसमपजवरून के० ) उपशम एटलें समतारूप रसें करीने ते धर्म प्रधान ठे? वली ते धर्म के वो बे? तो के, (नववंजरगुत्तस्स के० ) नव प्रकार में ब्रह्मचर्य वृत्त तेनी गुप्तिने धारण करनारी है. वली ते धर्म केवो बे? तो के, (पयमाणस्स के० ) रांधवा पकाववाच्यादिक उक्काय जीवोनी हिमानों जेमां आरंज नयी, एवो बे. बली ते धर्म कत्रो बे ? तो के.
॥ निरकावत्तियस्स कुरिकसंबस्स निरग्गिसरणस्स संपरका लियस्स ॥ चत्तदोसस्स ॥ गुerratra || निaियारस्स || निवित्ति लस्करास्स || पंचमहवयजुत्तस्स ||
॥ ७५ ॥
अर्थ:- (जिरका चियस्सके० ) जे धर्मनी अंदर बेतालीस प्रकारना दुपलोथी रहित ययेली एवी अहारपाणीनी जिका लेवानी साधुमहाराजोनी वृत्तिडे वली ते धर्म केवो ठे? तोके, ( कुरिकसंबलम्स के० ) जेटला आहारथी उदर जराय तेटला प्राहाररूपीज साधुनने जातुं लेवानुंडे जेमां. अर्थात जे धर्मनी अंदर वासी जोजन राखवानी मनाइ बे एवो धर्म ठे. वली ते धर्म केबो छे? तो के, (निरग्गिसरणस्स के० ) मरणादिक कष्ट आव्ये ते, जे धर्मविना बीजुं कोइ पण मालीन
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सूत्र
अर्यः
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॥ मूत्र
अर्थः
साधु
|| ने शरणुं नथी, एवो ते धर्मले. वली ते धर्म केवो! तो के, (संपरकालियस्स के0) पापोरूप कर्मोरूप अने मेलने जे धर्म पखाले प्रदिप
बे; अर्थात् जे धर्मना आराधनथी पापोनो अने कर्मोनोविनाश थाय बे, एयो ते धर्म ने वली ते धर्म केवो बे? तो के, (च।
त्तदोसस्स के ) नष्ट थयां ने सर्वप्रकारना दोषो जेमांथी एवो ते धर्म जे. वली ते धर्म केवो ? तो के, (गुणगहियस्स के0) ॥ १६॥
जे धर्मनी अंदर विविध प्रकारना गुणोनुं ग्रहण करेलुं ने, अर्थात् जेनी अंदरथी सर्व प्रकारना दोषो नष्ट थया ले, एवो ते ध म. वली ते केवो ले ? तो के, (निबियारस्स के0 ) जे धर्मनी अंदरथी कामदेवादिकना विकारो नष्ट थया बे, अर्थात् जेमा निर्विकारपणुं रहेतुं बे, एवो ते धर्म . वली ते धर्म केवो ! तो के, (निवित्ति लरकणस्स के0) निवृत्ति एटले मोदरूपी ले लक्षण जेनु, अथवा सर्व प्रकारना जे दोषो, तेनायी जे नित्ति एटले पानाहग्वापणुं तेरूप ले लक्षण जेनुं एवो ते धर्म बे. वली ते धर्म केवो ? तो के, (पंचमहत्वयजुत्तस्स के) पांच जे महावृत्तो ते करीने युक्त एवो साधुणगारनो ते धर्म बे. वली ते धर्म केवो ? तो के, ॥ असंनिहि संचयस्स । अविसंवाश्यत्स । संसारपारगामियस्त । निवागमण पन्जवसा
एगफलस्त॥ ___अर्थः-( असं निहि संचयस्स के0 ) असन्निधि मंचयस्य एटले पोतानीपासे साधुनए कशा प्रकारनो पण संचय राखवो नदि, अर्थात् चारप्रकारना औपधो अने आहार, तेमान कंपण माधुएं पासे राखवू नहि, एम ते धर्ममां को ठे, वो धर्म. वली ते धर्म को तोके, ( अविसंवाश्यस्स के ) जे धर्मनी अंदर कशाप्रकारको पण विसंवाद एटले हकदाबह नयो, एवो धर्म. वली ते धर्म केवो ने तो के, (संसारपारगामियम के0) आसंसाररूपि समुश्यो जे पारपहोंचा बे. बली ते धर्म केको बे? तो के, (निबाणगमण पज्जवसाणफलस्त के0) निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्य एटले निवार्ण केतां जे मोद ने रूपडे, - र्यवमान एटले बेलामांजेल्लु फल जेनुं एवो तेधर्म ले. वली ते धर्म केवो ठे? तो के, ॥ पुट्विं अन्नाणयाए । असवणयाए । अबोहियाए । अगनिगमेगं । अनिगमेण वा । पमा
एणं रागदोसपमित्राच्याए ।
॥१६।
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साधु ||
मूत्र
अर्थः
॥33॥
अर्थ:-(पुदि के0) नपर वाविलो धर्म माप्त थया पहेला (अन्नाणयाए के) अहानपणायें करीने, तथा (अमवणयाए के०) अश्रवणतया एटले अणमांजलवें करीने, तया (अबोदियाए के ) अबोध एटले सम्यक्त्वना अनावें करीन. तथा (अणजिगमेणं के0 ) अननिगमने करीने एटले सम्यक्त्व प्रमाणे नही वर्तीने, तथा ( अनिगमेणं के0) अनिगमें करीने एटले सम्यक्त्वनो अंगीकारनही करवामें करीने. ( वा के0) अथवा (पमाएणं के०) विविध प्रकारना प्रमादें करीने. तथा (रागदोसपम्बियाए के०) प्रमादरूप जे राग तथा अप्रेमरूप जेषतेनो जे विशेष प्रतिबंध एटले व्याकुलपj, तेणें करीने. ॥ बालयाए । मोहयाए । मंदयाए । किन्याए । तिगारवगुरुयाए । चनक्कसानवगएणं । पं.
चंदियवसणं॥ बालयाए के0 ) बाल्यपणाथी. अहीं बालशने करीने वयथी बालकपणं समजवं नही. पण झाननी अप्राप्तियी बालपणुं समजवू. (मोहयाए के0) महामोहने वश पम्वायकरीने. (मंदयाए कं0) बुझिना मंदपणायेंकरीने तया (किमयाए के) विविध प्रकारनी क्रीमा एटले रमतें करीने, तथा ( तिगारवगुरुयाए के0 ) त्रणप्रकारना गर्व, एटले अधिगर्व, रसगर्व तथा सालागर्व, एत्रण प्रकारना गर्वेकरीने थएली जे गुरुता एटो नारीप तेणे करीने तथा ( चनकमान्यगएणां के० ) क्रोध, मान,
ने लोजरूपी जे चारकपायो तेनी माप्तिवमें करीने. तथा ( पंचेंदियवमटेणं के ) चरि, रसेंदि, घ्राणोंदि. श्रोतेंडि तथा पशैङ्निा वीस प्रकारना विपयोने वश थवावमें करीने.
॥ पमिपुर्ण नारियाए । सायासुरकमणुपालयंतणं । इदं वा नवे । अनेसु वा नवग्गहणेसु ॥
अर्यः-(पमिपुर नारियाए के0 ) आठ प्रकारना कर्मोरूपी जे परिपूर्ण केतां संपूर्ण नार एटले बोजो तेणे करीने, तथा ( सायामुरकं के0 ) शातावेदनीय नामना कर्मना नदयथी प्राप्त ययेलुं जे मुख, तेने ( अणुपालयंतेणं के0) सारी रीतें जोगवतो यको ( वाजवे के ) आ चालता जवने विपे, तया ( अन्नेसु के ) आजवथको बीजा (जबगहणेसु के०) गहन एटले जन्म, जरा अने मृत्युआदिक कटें करीने असंत जयंकर एवा नवोने विषे.
॥ पाणाश्वान कन वा, कराविन वा, कीरंतो वा परेहिं समणुन्नान । तें निंदामि गरिहामि ॥
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माधु
मति
अर्थ
196॥
| अर्थः-(पाणाश्वान के0) जीवोनी हिंसारूप प्राणातिपात. वली फक्त जीवोनी हिंसानेज कंई प्राणातिपात कहवाय नही. पण हरको जीवने जेयी महादुःख नत्पन्न याय, तेने पण पाहातपात कहीयें एवो प्राणातिपात (कन के०) जोमें कों होय, (वा के0) अथवा ( करावि के ) जो में कराव्यो होय. (वा के0 ) अथवा, (कीरंतो के0) जीवहिंसा करतो एवो जे (वा के ) अथवा (परेहिं के०) बीजो कोइ माणस, तेने ( समज्जाणान के0 ) में सारी राते आशा आपी होय, अयवा तेनी जो में आत्म सादियें अनुमोदना करी होय, एवी रीते जे कंई पाप मने लाग्युं होय, तेने हुँ (निंदामि के0 ) गुरुमहाराजनी साहीयें निहुँ छु, तथा ( गरिहामि के० ) तेनी हुं गर्दा करूं छु.
॥तिविहं तिविहेणं । मणेणं वायाए काएणं । अश्यं निंदामि । पमुप्पन्नं संवरेमि ॥ अर्थः- (तिविहंतिविहेणं के) त्रिविधेत्रिविधे करीने (मणेणं के0) मारां मने करीने, तथा ( वायाए के0) मारी वाचा एटलें वाणीयें करीने, तया ( कारणं के0) मारी काया एटले शरीरें करीने (अईयं के) अतीतकालमा एटले भूनकालमा में जे कोइ जीवोनी हिंसा करीनेविराधना करी होय, ते सघलां पापाने ( निंदामि कं० ) हुं निंदुछु. तथा ( पम्पन्नं के) प्रत्युत्पन्न एटलें वर्तमानकालमा में जे कोजीवोनी हिंसा करीने पापो नपार्जन कयाँ होय, ते सघलां पापाने हूँ (संवरे मि के0) संवरूं छु, एटले ते सर्व पापोने हुं दूर करूंछु.॥ ॥ अणागयं पञ्चरकामि । सवं पाणाश्वायं । जावजीवाए । अणिस्सिन्हं । नेव सयं पाणे
अश्वाजा ॥ अर्यः-(अणाग के0) आगामिक एटले अनागत कालमां अर्थात नविष्यकालमा जेकोजीवानां प्राणाने विराधि ने में पापोनपार्जन कयाँ होय, ते सर्व पापाने हुं (पच्चखामि के0) प्रसाख्यामि एटलें ते सर्व प्रकारना पापोने हुँ पञ्चखं हूं.
HI90 वली हुं शुं पच्चखं छु! तोके ( सत्वं के0) सर्व प्रकारना ( पाणावायं के) प्राणातिपातने एटले सर्व प्रकारनी जीवहिंसाने अथवा सर्वयकी प्राणातिपातने एटले सर्वथकी जीवहिंसाने हु५श्वसु छं. क्यांमुधि ते जीवहींसाने हुंपञ्चखु छ? तोके ( जावजी वाए के) बेक ज्यांसुधिहूं जीसांमुधि मर्वयकी हुँ पाणानिपातने पञ्च छ. हवे हूं केवो टुं. तोके, (अणिस्मिन्हं के0),
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माधु प्रतिष
आलोकसंबंधि अने परलोक संबंधि सर्व प्रकारनी इच्छा एटले वतामयी हुं रहित ययेलो छ. अर्यात् हवे मने कशाप्रकारनी। पण आ संसारसंबंधि अजिलापा नथी. वली (सयं के0) पोते मन, वचन अने कायायें करीने (पाणे के०) सर्व प्रकारना जीवोने (नेव अश्वाइका के ) हुं जीवथकी बोमा मदी. अर्थात हुं पोते कशा प्रकारनी पण जीवहिंसा करूं नही. ॥
॥ नेवन्नेहिं पाणे अश्वाया विजा । पाणे अश्वायतेवि अन्ने न समगुजारिखको । तं जहा ॥
अर्थ:-(अन्नेहिं के) बोजा कोश्नी पासे (पाणे के0) प्राणीनने, तेनना प्राणोयकी (नेय अवायाविड़ा के0) बोलकुल बगेमाववा नही. अर्थात् बीजा कोश्नी पासे जीवहिंसा बीलकुल कराववी नदी. (पाणे के०) प्राणीने ते ना मापोयको ( अश्वार्यतेवि के मावता एटले जीवोनी हिंसा करता एवा (अन्ने के0 ) बीजानने पण ( न समाणुजाणिका के०) आइा आपली नहीं; अर्थात् जीवहिमा करनारा एवा कोई पण माणसनी अनुमोदना करवी नही. (तं जहा के०) ते नीचेममाणे जाणवु.॥
॥अरिहंत सस्कियं । सिह सस्कियं । साहु सस्कियं । देवसस्कियं । अप्प सस्कियं ।। अर्यः-(अरिहंत संस्कियं के० ) अढार कारना जे दोपो तेणे करीने रहित थएला एवा जे श्रीअरिहंत नगवान्. अथवा रागषरूपी अथवा कर्मोरूपी जे अरि कहेतां शत्रुन तेनने हगानार एवा वीतराग प्रभुनी साहीये, वली (सिझ सरिकयं के ) पंदर नेदें करीने प्रसिद एवा मे श्रीसि लगवान तेननी माती, वली ( साहु सास्कयं के०) साधु जे महा मुनिन, तेननी सादीये. अहीं साधु शब्दें करीने नपलदणथी आचार्य महाराज तया नपाध्याय जी महाराज, पण ग्रहण करवू. अर्थात् आचार्यमहाराज नपाध्यायजीमहाराज अने साधुजीमहाराज, तेननी साहीयें, वली (देव सस्कियं के०) सम्यक्त्व दृष्टिवाला भुवनपतियादिक जे देवो, तेनुनी सादयें, वली (अप सरिकयं के०) मारो पोतानो जे आत्मा तेनी साहीयें करीने. एवी रीतें पांच साखोएं करीने. ॥ ॥ एवं नव निख्खु वा । निख्खुणी वा । संजय विरय पमिहय पञ्चरकाय पावकम्मे दि
या वा । रान वा । एगन वा परिसागन वा ॥
॥
ए
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मूत्र
साधु अर्थ-( एवं के०) पूर्वे का तेवी रीतें (जवर के) होय , कोण होय ठे? तो के ( निख्खु के०) पंच माहात्तोप्रति || ने धारण करनारा साधुन, तया ( वा के ) अथवा (निख्खुणी के0) पंच महावृत्तोने धारण करनारी साधवी, (वा के०)
अथवा (संजय विरय पमिहय पच्चरकाय पावकम्मे के०) सत्तर लेदेयी पलातुं तया पंच महावृत्तरूप एवं जे संयम, ते अंगीकार कर्या पली बार प्रकारना दायें करीने सर्व पाप कर्मोन पञ्चखीने (दिया के0) दिवसे (वा के ) अथवा (रान के) रात्रिने विषे ( वा के०) अथवा ( एगन के०) बीलकुल एकाकीज (वा के0) अथवा (परिसागन के) घणा माणसोनी पर्षदानी अंदर. ॥ सुने वा जागरमाणे वा । एस खलु पाणाश्वायस्स वेरमणे दिए सुए खम्मे निससिए
अणुगामीए॥ अर्थः-(मुत्ते के ) सुनायकां एटले निशमा होयें तेवारे, तया ( जागरमाणे वा के ) ज्यारे जागता दोशएं तेवारे (एम के0 ) पूर्वे जेनुं वर्णन करवामां आव्यु ले एचा (पाणावायस्म के0) प्राणातिपात एटलें जीवहिंसा, तेथकी ( वेरमणे के) निवृत्त यइने एटलें जीवहिंसा यकी दर याने. हवे ते जीवहिं साथकी जे दर यवु, ते केवु ब तो के, (हिए के) आ जब अने पर जवमां पण आत्माने हितकारी एटले हितनुं करनारूं ली ते केवु! तोके, (मुए के0) जीवने सर्वप्रकारथ आ जवसंबंधि अने परजवसंबंधि अत्यंत मुखD करनारु ने वली ते के ? तो के. ( खम्मे के0 ) सर्व प्रकारथ) आत्माने हम एटले कल्याणनी परंपरा करना बे वलीते केले तोके. (निस्लेमिए के0) मोक्दरूपी पारंपर्य फलनुं आपनारुं . वली ते केवू ले तोके. ( अणुगामिए के0) अनुगामिक एटले ते प्राणातिपात विरमण नामनु महावृत्त आगामिक कालमां पण फलरूपें यईने हमेशां जवांतरोमां पण अनुगामिक भुखने आपना बे. वली ते केवु ने तो के,
॥ पारगामिए । सबोसे पाणाणं । सवेसिं नाणं । सव्वेसि जीवाणं । सवेसिं सत्ताणं ॥ अर्थ:-(पारगामिए के0) आ संसाररूपी ममुश्य पार पहोंचामनाएं. दवे ते महावृत्त पालवामांट चितवना करखी? तोके, (सोसि के०) सर्व जाला (पाणाणं के०) बयि आदिक जीवाने, तथा ( संवाम के०) सर्व प्रकारना (भू
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साधु आणं के० ) जलचर अने थलचर आदिक पंचेंहि जीवाने, तथा ( संवनि के0 ) सबै (मत्तागण के0) देवादिक पंडिजीवोने. प्रति० || || अउरकणयाए । असोवणयाए । अजुरणयाए। अतिप्पणयाए । अपीमरायाए । अपरियावणियाए ।
____ अर्थः-(अदुरकणयाए के0 ) पर वणवेला पृथ्वीकाय आदिक जीवोने कोइ पण प्रकाग्नु दुख देवु नदी. तया ( असोवणयाए के) अशोजनपणुं एटलें कोपण प्रकारना जीवोने जेथी मातुं थाय तेन करवू नही. तया ( अजुरणायाए के) कोइ पण प्रकारना आ जगत्ना रुघला जीवोने जेयी कोइ पण जालना शोकनी उत्पत्ति याय तेवा पक रनुकशुं पण आचरण करवू नही. तथा ( अतिप्पणयाए के) आहारपाणी आदिक अणदेखें कराने एटले भूख्या अने तृपातुरगवी ने कोइपण प्रकारना जीवाने हूं किलामणा नपजायु नही. तथा (अपीमण्याए के0 ) जेथीजावाने अत्यंत दुःख नत्पन्न थइ आंखोमांयी दुःखना अश्रुननी धारा पके. एवी रीतर्नु दुःख कोइ पण पकारना जीवाने हूं उपजावूनही. तया ( अपरियावणीयाए के० ) परितापना एटल असंन आतापना अर्यात् पीना को पा प्रकारचा जीवाने उपजाववी नही. ॥ अगुवणियाए । महल्थे । महागुणे । महागुन्नावे । महापुरिमाणुशियो । परमरिलिदे
सियपसन्ये ।। अर्यः-(अणुदवयाए के0 ) अनुपश्य एदले कोइ पण भकारना जीवाने कशाभकारनो पा उपश्य करवो नही. के. मके जीवोने जो कं; पण नपश्व करवामां आवे, तो ते प्राणातिपातज कहेवाय वे. हवे ते पाणातिपातविरमहा नामनु महावत के ले. तो के, ( मदत्ये के0) महान एटले मोटो ले अर्य एटले फलरूपी मजाय जेनो एयु ते महावृत्त है. वली ते वृत्त केबुं तो के ( महागुणे के0 ) महान् एटले मोटा ले दमा आदिक गुणो जेमा एचं ते महावृत्त . वली ते महावृत्त के ने? तो के, ( महाणुनावे के0) महान् एटले मोटो ने अनुनाव एटले महिमा जेनो एबुं बे. केमके ते महारत्त पालवायी मोकरूपी महान् फलमसे डे. वली ते महावृत्त कंबुं ? तो के, (महापुरिमाणुचिणे के0) मोटा जे तीर्थंकरादिक पुरुपो. तेननायी जनो आदर ययेलो ने, एवं ते महावृत्त बेवली ते महावृत्त केबु ! तो के. (परमरिसिदेसियपसत्थे के०) पंच महाचोने धारण करनारा जे महान् पीश्वरो अयवा गणधर महाराजो, तेन्नी तुलना करनारा महान मुनिराजोएं ते प्राणालि
mammar
॥१॥
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साधु
प्रति
अर्थः
...
पात विरमण नामना महावृत्तने प्रशंस्यु ठे, अर्यात ते महावृत्तना तेनी वखाण करेला . हवे ते महारत्तने शामाटे अंगीकार करवू? ते कहे .
॥ तं उस्करकयाए । कम्मरकयाए । मुख्खयाए । वोहिलानाए । संसारुत्तारणाए । तिकटु ॥
अर्थः -(के) जेनु नपर विस्तार सहित वर्णन करवामां आवेलु दे. एवां प्राणातिपातने (दुरकरकयाए के0) जन्म, जरा अने मरणसंबंधि दुःखोना दयमाटें एटले ते दुखोनाक्ष्यमा एटले ते दुःखोना नाशमाटे हुं पोने अंगीकार कर टुं. वली शानेमाटे हुं ते अंगीकारकर छ. नोके, (कम्नरकयाए के0) झानावरणीय आदिक या प्रकारना कर्माना नाशमाटे हुं ते महावृत्तने अंगीकार करूं छु. बी शा माटे हुं ते अंगीकार कर लु लो के, (मुरकयाए के0) सर्व प्रकारना कर्मोयी रहित | यवायी यती जे मुक्ति एटले शाश्वतुं अने अव्यावाध जे मोदरूपी मुख तेनी प्राप्ति मेलयवामाटे हुँ ते महावृत्तने अंगीकार करुंछ. बली शाने माटे हुं ते अंगीकार कर हु तो कं ( वाहिलानाए के) बोधि वीज एटले जे सम्यक्त्व तेनी प्राप्तिमाटे, केयके, जो मने सम्यक्त्वनी प्राप्ति याय तो निश्चित्त थाय के आगाम) कालमा मो मोहनी प्राप्ति यशे. सम्यक्त्व एटले के, शुदेव शुगुरु तथा शुभ धर्मने, एटले रागषयो रहित ययेला देवने, कंचन कामिनीने साग) बैठेला अने पंच महारत्ताने पालनारा एवा गुरु महाराजने, तथा श्रीवीतराग प्रमुए कहला अहिमामय धर्मने सस करी मानवा, तथा कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मने एटले राग, क्षेप तथा कामादिक अंतरंग शत्रुनथी हणारला मिथ्यात्वी देवने, गया कंचन कामिनीना नोगी, एवा कुगुरुने, अने हिंसामय धर्मने असस करी मानवां तेने सम्यतन अथवा बोधिवीज कहीये. एवा बोधिवीजनी प्राप्तिमाटे हैं ने महावृत्तने अंगीकार करुं छु. बली शामाटे हुं ते अंगीकार करुं छ! तोके, ( संसारुतारणाए के0) विविध प्रकारना दुःखोयी जरपूर एवो जे संसाररूपी समुश् तेथको पार नतरवामाटे (त्तिकट के) एवीरीत करीन.
॥ नवसंपजत्ताणं । विहरामि । पढमे नंते महवए नवठिनमि । सधान पाणावाया बेरमणं ॥ - अर्थः-(नवसंपज्जत्ताणं के0) आगमोमां अणगारोने माट कहला जे मासकल्पादिक विहार, ते विहारने समस्तपणे अंगीकार करीने (विहरामि के.) बिहार की छं. एवीरीते (ते के०) हे जगवन् ! (पढमे के0) पांच मकारना महा
७॥
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माधु
सूत्र अर्यः
मतिमा
७३॥
वृत्तो मांहेंथी पेहेला (महत्वए के0) महात्तमाटे एटले पाणातिपात नानना पेहेला महासत्तमाटे (नयहिनामि के०) हं तत्पर थयो छ. तथा (सवान के0 ) सर्व प्रकारना अथवा सर्वयकी (पाणावाया के ) माणातिपातयकी ( वेरमण के ) मो विरति बे.॥
॥ इति पढमालावो.॥ ॥ अहावरे उचे तंते महबए । मुसावाया वेरमणं । सदं ते मुलावायं पञ्चरकाभि ॥ अर्थ:-(अह के) अथ एटले प्राणातिपात विरमण नामना पेहेला वृत्त पनी (अवरे के) अपर एटले ते पहेला महावृत्तथकी अपर (दुच्चे के0 ) बीजु एQ जे ( महचए के0) महात्त मृपावादविरमण नामर्नु (जंते के ) हे जगवन एव। रीते शिष्य गुरुमतें कहे डे. (मुमावायान के0 ) बाजु महावृत्त जे मृपावाद एटले जूतुं बोलवू ते, तेथकी हूं (बेरमणं के०) विरमुंछ, निवतु छ. एटले मारे हवे सृपावाद एटले जूतं वोलवू नहीं. (ते के0) शिष्य वली गुरुपते एम कहे डे के हेलगवन् ! ( सत्वं के ) सर्वथकी अयवा सर्व प्रकारना ( मुसावायं के0 ) मृपावादन एटले जूठापणाने (पचरकामि के० ) हुँ पञ्चखु छ. एटले सर्व प्रकारना मृपावादने हुं वोसरावु छु. हवे ते मृपावाद केवी कवी रीतें बोलाय ? ते कहे . ॥ से कोहा वा लोहा वा । जया वा । हासा वा । नेव सयं मुसं वायिजा । नेवन्नेहिं मुसं
वायाविजा ॥ अर्थः- हवे ( से के0 ) ते पूर्व कहेलु मृपावाद एटले जूतुं बोलवापj (कोहा के0 ) आत्माने अमिनी पेठे बालनारा एवा क्रोधे करीने याय डे (वा के ) अथवा, ( लोहा के ) लालसा वे स्वजाव जेनो एवा लोग्ने करीने मृपावाद एटले जूतुं वोलवापणुं थाय डे. (वा के ) अथवा (जया के) अधिपति एटले राजानो जय अथवा मृत्यु संबंधि जे जय, श्यादिक जयें करीने मृषावाद एटले जूतुं वोलापणुं थाय ने. (वा के0 ) अथवा ( हासा के) चेष्टारूप हांसी करीने जीवने मृषावाद एटले जूतुं बोलवा, थाय बे. ( वा के0) अयवा ते चार प्रकारचें मृपावाद एटले जूतुं बोलवापणुं (सयं के०) स्वयमेव एटले माहारी पोतानी मेले ( मुमं के) मृपावाद (नेव वायिज्जा के) बिलकुल बोलवू नही. अर्थात् ए चारे प्रकार
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माधु
प्रति
अर्थः
॥G४
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ना मृषावादने हुं मारी पोतानी मेले जू तुं नही बोलुं. तेमज ( अन्नेहिं के0 ) बीजा कोनी पासे ( मुसं के0 ) ते मृपावाद (ने- || व वायाविङा के ) बोलावq नही. ॥ ॥ मुसं वायतेवि अन्ने न समणुज्जाणामि । जावजीवाए । तिविहं तिविदेणं । मणेणं वा
याए काएणं । न करेमि । न कारवेमि ॥ अर्थः-(मुस के0 ) मृषावाद एटले जूतुं तेने (वायतेवि के0 ) बोलता एवा ( अन्ने के0 ) वीजा माणसोने ( न समाज्जाणामि के०) सम्यकप्रकारे हूं अनुहा आपुं नही. एटले जूतुं बोलनारा एवा अन्य माणसोनी हुँ अनुमोदना करुं नही. हवे ते मृपावाद हुँ क्यां मुधि न बोलु तोके, ( जावजीवाए के) ज्यांसुधि हुँ ज. सांमुधि हुँ जू तुं बोलुं नही, बोलावू नही अने बोलता प्रसें अनुमोउं नही. केवीरीत? तो के. (तिविहं तिबिहणं के ) त्रिविधं त्रिविधं करीने. केवीरीते त्रिविधं त्रिविधे करोने? तो के, (मणेणं के0) मारा पोताना मनें करीने, तथा ( वायाए के0) वाचा एटले मारां वचने करीने, तथा (काएणं के0) कायया एटले मारा पोतानां शरीरवमें करीने, (न करेमि के) हूं पोते तो करूं नही. (न कारवेमि के0) नीजा पासे जू तुं बोलवायूँ करावू नही. ॥ ॥करतं वि अन्नं न समगुजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि निंदामि । गरिहामि । अ
प्पागं वोसिरामि ॥ अर्थः-(करंत वि के0) जू तं बोलता एवा ( अन्नं के०) वीजाने (न मयाजाणामि के० ) हूं अनुहा आपुं नही. त स के0 ) ते मृपावादसंबंधि जे कं पाप मन लाग्युं होय. ते सर्व पापाने (नंत के0 ) हे जगवन् ! (पमिक्षयामि के ) प्रतिक्रमामि एटले हूं पानां हाबु छ. तया (निंदामि के0 ) हं निंदं छ. आत्मानी माहीयें निंदा कदेवाय. (गरिहामि के० ) हूं
|| गहुँ छु. गुरुवादिकनी सादीयें गहां कहेवाय. (अप्पाणं के0) मारा आलाने (वोमिरामि के0) पूर्व कोलां गृपावादयी हु वोसरावं छ. हवे ते पृषावादना केटला नेदो ने? ते कहे .
॥ से मुसावाए चनविहे परमत्ते । तं जहा । दवन । खित्तन । कालन् । नावन ॥
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अर्थ :- ( से के० ) पूर्वेकहेलं ते मृपाबाद (बउवि के० ) चार प्रकारनुं कहेलुं छे. (पण ते के० ) श्रीवीतराग प्रनुये कलुं बे. ( तं जहा के० ) ते चार प्रकारनं घृपावाद नीचेप्रमाणे ते. (दन के० ) पेहेलुं इव्ययकी मृपावाद जाणवु. ( खि ho) बीजं क्षेत्र की मृपावाद जाणवु तथा ( कालन के० ) कालयकी श्रीजुं मृपाबाद जाएयुं तथा ( जावन के० ) चोयुं जावयकी मृषावाद जाणधुं ॥
11 GQ 11
साधु
प्रति०
॥ दवणं मुसावाए सबदवेसु । खितां मुसावाए लोए वा अलोए वा । कालच मुसावाए दिया वा रानु वा । भावनां मुसाबाए रागेल वा दोसेल वा ॥
अर्थः- ( दवणं के० ) इच्यें करीने (मुसावाए के० ) मृपाबाद एटले जूनुं बोलवा ( सहदद्देसु के० ) धर्मास्तिकायदि इन्यो विषे जावं. प्रत् धर्मास्तिकायादिक उए इव्य संबंधि हुं जूनुं बोलु नही. तथा ( खित्तनां के० ) क्षेत्रे करीने (मुसावाए के० ) पूर्वोक्त मृपाबाद ( लोए के० ) लोकाकाशमां (वा के० ) अथवा (अलोए के० ) लोकाकाशमां जाल. एटले क्षेत्रयकी हुं लोक तथा अलोक ए बन्नेमा हुं जुनं बोलूं नही. ( कालन के० ) काले करीने ( मुसावाए ho) मृषावाद एवं बोलवाणुं ( दिया के० ) दिवसने विषे ( वा के० ) अथवा ( रा के० ) रात्रि विषे ( वा के० ) अथवा अथवा कालें करीने दिवस अथवा रात्रिये हुं मृगवाद बोलुं नही. (जावनां के०) जानें करीने ( मुसावाए के० ) मृपावाद एटले जूनुं बोलवाएं ( रागेण के० ) रागें करीने उपलक्षणथी लोजें करीने पण जाए. ( वा के० ) अथवा ( दोसेल के० ) देषें करने, उपलक्षणयी क्रोधें करीने पण जाणवु अर्थात् जावें करीने रागथी, लोजयी, देपथी तथा क्रोधथी हुं मृपावाद बोलूं नही. ॥
|| जंपियमए । इमस्त धम्मस्स । केवलिपन्नत्तस्स | अहिंसावरकरास्स | सच्चादिध्यिस्स
fareमूलस्स ||
अर्थ: - ( जंपियम के० ) जे कई में (इमस्त धम्मस्स के०) या धर्म संबंधि हवे ते धर्म केवी तोके. ( केवलिपन्नत्तस्त ho) केवलज्ञानरूपी दीपकें करीने दीपता एवा श्रीकेवलि जगवाने प्ररूपेलो बली ते धर्म केवो? तोके, (अहिंसाजरका स्स
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सूत्र
अर्थ
॥ न्य
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अर्थ
साधु || के०) प्रार्हसा एटले जीवदया. ते ले लदा जेनुं एवो ते धर्मले. वली ने धर्प केवो ने तो के (सच्चाहिहि यस्स के0) सत्सएসনি, टले जे साचुं बोलवू, सेज ने हितकारी अर्थ एटले प्रयोजन जेनु, एको त धर्म दे. वली ते धर्म केवो ने तो के. (विणयमूल-||
रस के ) विनयरूपी ने मूल जेनु एवो ते धर्म दे. वली ते धर्म केबो ! तोके ( ॥६॥ ॥ खंतिपहागस्त । अहिरामसुवलियस्त । नवसमपन्नवस्त । नववंनचेरगुत्तस्स ॥
अर्थ:-(खंतिपहाणस्स के0) खंति एडले क्षमा, ते ले प्रधान जेमा एवो, अथवा क्षमा आदिक गुणोयें करीने प्रधान, एवी ते धर्म , वली ते धर्म केवो बे. तो के, (अहिरमसुवलियस्स के ) हिरण्य एटलें काचु सोनुं अने मुवर्ण एटले मुत्र
ना घमेला अलंकारादिक तेणे करीने रहित एटले अकिंचन धर्म . यहीं नपलक्षणायी रू', प्रांबु विगरे सर्व धातुननु ग्रहण करवं. वली ते धर्म केवो ? लो के. (नवसमपनवस्त के0) नपशम एटलें जे समतारूपी रस, तेणें करीनरेलो. वली ते धर्म केवो तो के. (नवनवेरगुत्तस्स के०) नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्तिने धारण करनारो ते धर्म ने. वली ते धर्म केवो ने तो के,
॥ अपञ्चयमाणस । निरकावनियस्स । कुरिकसंबलस्स । निरगिसरणस्न ॥ अर्थः-(अपच्चयमाणस के0 ) ते श्रीवीतराग मनुये कहेला यतिधर्ममां रांधवा तथा पकाचवा आदिक कायना आरंजरूपी पापो करवानी मुनिनने मना करेली . वली ते धर्म केवो ! तो के, (निरकावत्तियस्स के0 ) ते पूर्वोक्त यनिधर्ममां तालीस प्रकारना दोषोएं करी रहित ययेता एवा निर्दोष आहारपाणी निदाष्टत्तिथी लेयाना कहेला ले. ते जिदा केवी होवो जोएं ? तो के, चमर जम पुष्पोमांथी मकरंद रसने थोमो योमो घुमतो जाय, पण तेथी पुष्पन कशा प्रकारनी पण इजा थाय नही, तेवीरीते मुनि पण गृहस्यीनने घेरथी थोमो थोमो याहारपाणी अंगीकार करे, के यो गृहस्यीनने पण कशा प्रकारनी किलामणा नपजे नही. ते माटे श्रीहरिजइमूरिजी महाराज पण पोताना ग्रंथमां कह ले के-"चमरोपमयाटतः" एटले वमरनी पेठे निझामाटे जमतो एवो मुनि, वली ते मुनिननो धर्म केवो ! तो के, (कुरिकसंचलस्स के0) जटला आहारथी पोतानुं नदर जराय, तेटलोज आदार करवानी अन लेवानी मुनिमार्गमा नटी . अर्थात तेथी नपरांत
६
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माधु
अर्थ
आहार वासी राखवो मुनिने कल्पे नही. अहीं पेट नराय तेटलो आहार मुनियें लेवो, एम जे कहा, तेथी एम नही जाणवू प्रता के मुनियें वधारे बेक कंठसुधि पेट नराय तेटलुंबई जोजन करवू. केमके मुनियें ननोदरी तप तो हमेशां करवो, एम आगमो
मां कहेलुं डे. अहीं तो फक्त वासी भोजन मुनियें नही राखवु, एम कहेवा माटे पेट लराय तेटलुं जोजन राखबा कहेतुं बे. 59॥
वली ते मुनिमार्ग केवो ? तो के, निरग्गिसरणस्म के ) दुःख आदिक जयनी ज्यारे प्राप्ति थाय, सारे ते धर्म शिवाय वीजें कोइ पण शरण नथी. वली ते पूर्वे कहेलो यतिधर्म केवो ! तो के,
॥ संपस्कालियस्स । चत्तदोसस्स । गुणगहियस्स । निविभारत ॥ अर्थ:-(संपरकालियस्त के०) कर्मोरूपी आत्माने लागेली जे मलीनता अथवा पापोरूपी आत्माने लागेली जे मलीनता, तेनुं जे प्रदालन एटले धोश्ने साफ करवू, ते माटे आ यतिधर्म समान बीजो कोइ पण धर्म नयी. वली ते धर्म केवो ? तो के, (चत्तदोसस्स के ) नष्ट ययेला सर्व प्रकारना दोषो जमायी एवो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ? तो के, (गुणगहियस्स के) विविध प्रकारना जे दमा आदिक गुणो, ते गुणोनुं ले ग्रहण जेमां एवो ते यतिधर्म बे. अहीं गुणोनुं ग्रहण करवाथी नपलदणथी दोषोनुं टालबापणुं पण जाणी लेवु. वली ते यतिधर्म केवो ! तो के, (निविषारस्स के) निर्विकारस्य एटले कशा प्रकारनो पण विकार जमां नथी एवो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ? तो के,
॥ निविचिलरकणस्स । पंचमहत्वयजुत्तस्स । असंनिहिसंचयस्स । अविसंवाश्यस्त ॥ अर्थः-(निवित्तिलरकणस्स के) निवृत्तिलकृणम्य एटले निवृत्ति केतां सर्व प्रकारना संसारी व्यापारथी जे निवर्तवू, एटलें पाला हठवू, अर्थात् मोदनी जे माप्ति, तेरूपी ले लक्षण जेनु, एवो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (पंचमहत्वयजुत्तस्स के ) पंचमहावृत्तयुक्तस्य एटले पाणातिपातविरमण ॥१॥ मृषावादविरमण ॥ १॥ अदत्तादानविरमण । मैथुनविरमण ॥ ४ ॥ तथा परिग्रहविरमण ॥५॥ ए नामना पांच जे महावृत्तो, तेणें करी युक्त ययेलो डे. वली ते यतिधर्म केवो ? तो के, (असंनिहिसंचयस्स के०) असंनिधिसंचयस्य एटलें चार प्रकारना असन, पान, खादिम अने स्वादिम नामना आहारो तथा सर्व प्रकारना जे औषधो इसादिक कई पण वस्तुनो संचय राखवानी जेमां मना करेली , एवो ते यति
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अर्थ
साधु
धर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के, ( अविसंवाश्यस्स के0) अविसंवादितस्य एटले जेनी अंदर कोई पण प्रकारनुं वि. प्रति || संवादपणुं नथी; अर्थात् जेनी अंदर कोई पण जातनो हठ अथवा कदाग्रह नथी. अथवा कंइं पण जातनुं अस्थव्यस्थपणं
नथी. वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के, ॥७॥
॥ संसारपारगामियस्स । निवाणगमणपज्जवसाणफलस्स ॥ अर्थः-(संसारपारगामियस्स के) चार गतिरूप जे संसाररूपी असंत जयंकर महासागर तेथकी सर्व प्राणीनने पार पहोंचामनारो, एवो ते यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो ? तो के, (निबाणगमणपज्जवसाणफलस्स के०) निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्य एटले निर्वाण केतां सकल कर्मोथको मूकावारूप जे मोक्षस्थान, तेरूपी पर्यवसान एटले बेलामा बेल्लु ले फल जेनुं एवो ते यतिधर्म ले. अर्थात् पूर्व वर्णवेला यतिधर्मथी जेनो अंत आवतो नथी, तथा ज्यां कोइ पण प्रकारनी वाधा नथी एवं अनंत अने अव्यावाध मुख प्राप्त थाय.
॥ पुचिं अन्नाणयाए । असवणयाए । अवोहियाए । अणनिगमेणं ॥ अर्य:-पूर्वे विस्तारसहित वर्णवेलो एवो जे यतिधर्म, ते मल्या पेदेला ( अन्नाणयाए के) अज्ञानतया एटले अझानें करीने, तथा ( असवणयाए के ) अश्रवणतया एटले अणसांनल करीने, एटले ते यतिधर्मनुं स्वरूप पूर्वकालमा न सांजल्यु होय तेणें करीने, तथा ( अवोहियाए के0) अबोधितया एटले ते पूर्वोक्त यतिधर्मने सारीरीतें नही जाणवायें करीने, तथा (अणनिगमेणं के०) अनलिगमेन एटलें सम्यक्त्वपणाने अंगीकार न करवायें करीने.
॥अन्निगमेण वा पमाएणं । रागदोसपमिवश्याए । वाजयाए । मोहयाए । मंदयाए ॥ अर्थः-(अनिगमेण वा के0 ) अथवा सम्यक्त्वने अंगीकार करीने पण (पमाएणं के7) प्रमादेन एटले प्रमादने वश पवायें करीने, तथा ( रागदोषपमिवक्ष्याए के0) रागदेषमतिबंधननया एटले राग केतां जे प्रेमनो प्रतिबंध तेणे करीने. अहीं उपलक्षणथी लोलने पण अंगीकार करवो. अर्थात् राग अने लोजना प्रतिबंधे करीने, तथा इंप केतां ज अमोतिनो प्रतिबंध
न. अही ६षन। साथ नपलण्यं काधन पण अंगाकार करवा. अयात् प अन लानना प्रतिबंध करीन, तया (वा
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साधु
मूत्र
प्रति
अर्थः
॥जए॥
लयाए के0 ) बाख्यतया एटलें बाल्यपणायें करीने अर्थात् सूर्खपणा करीने, तथा ( मोहयाए के) मोहतया एटलें महा मोहपणाने वशंकरीने. केमके आजीव अनादिपणाथी महामोहदशाने वश यलो . तया (मंदयाए के0) मंदतया एटले मंदतायें करीने, अर्थात् आलसें करीने, तया
॥कियाए । तिगारवगुरुयाए । चनकसानबगएणं । पंचिंदियवसछेणं ॥ अर्थ:-(किमयाए के) क्रीम्या एटलें विविध प्रकारनी वालकीमायें करीने. तथा (तिगारवगुरुयाए के0) त्रिगारवगुरुतया एटले ऋण प्रकारनो जे गर्व तेना गुरुपणायें करीने एटलें जारिपणायें करीने अर्यात त्रण प्रकारनो जे गर्व, तेना दयें करीने तथा ( चनुकसानवगएणं के0 ) चतुः कपायोपगतेन एटले क्रोध, मान, माया अने लोनरूपी चारे कपायोने प्राप्त थवावमें करीने, अर्यात् चारे प्रकारना कपायोना वश पवायें करीने, तथा (पंचिदियवसाढेश के०) पंचिश्यिवशस्येन एटले र सेंशि. प्राणेंदि, चरिदिश्रोत्रेडि. तया रसेंदि, एम पांच प्रकारनी जे इंनि अने तेना जे वीस विपयो, तेने वश पवायें करीने, तथा--
॥ पमिपुस्मनारियाए । सायासुखमणुपालयतेणं । इदं वा नये । अन्नेसु वा नवगहणेसु ॥ अर्थः-(पमिपुर्ण नारियाए के० ) परिपूर्ण नारतया एटलें आठ मकारना जे कर्मो, अने तेनुनो जे संपूर्ण नार तेणें करीने, तया (सायासुखमणुपालयतेणं के0 ) शातामुखंअनुपालनेन एटले शातावेदनीय कर्मना नदयथी मलेखं जे शातासुख, तेनुं जे अनुपालन एटल जोगवबु, तेणे करीने ( इहं वा जब के०) आ जवने विपे (अन्नेमु के०) अन्येषु एटले वीजा (वा के०) अयवा (जवगहणेमु के ) अनेक प्रकारना जन्म, जरा तथा मरणादिकना जे दुःखो, तेथी गहन एटले असंत जय उपजाये तेवा जे जवांतरो केतां आजवयकी वीजा जबो, तेने विषे
मुसावान नासिन वा । नासाविन वा । नासिजंतो वा परेहि समशुन्ना ।। अर्थ-( मुसावान के ) मृपावाद एटले जून बोलवू ते, ( नासिन के० ) हुँ योख्यो हो- (वा के0) अथवा (जासाविन के०) वीजापासे में मृपावाद बोलाव्यु होय, (वा के0) अथवा (जासिनो के०) वोलतो एवो (वा के0) अथवा प.
॥जए:
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साधु
प्रति०
॥ ५० ॥
रेहि के० ) जेवी जो माणस, तेने ( समन्नान के० ) सारीरीतें खाझा प्रापी होय, अथवा घृपावाद बोलनारा जे अन्य मा मोनी में गृपावाद संबंधि जो अनुमोदना करी होय, तो,
॥ तंनिंदामि । गरिहामि । तिविदं तिविदेणं । मणेयं । वायाए । कारणं । श्रयं निंदामि ॥
अर्थ:-( तं के० ) ते नृपावाद संबंधि पापने ( निंदामि के० ) मारा छात्मानी साहीयें हुं निदु लुं, तथा ( गिरिहामि के० ) परनी साहीयें तेनीहुँ गर्दा करुल्छु, वली ते निंदा अने गर्दा हुं केवीरीतें करूं? तोके, (तिवितिविहां के ८) त्रिविधेत्रिविधें करीने, केवीरीतें तोके, (मणेषां कं०) मारां पोताना सर्वे करीने, तथा (वायाए के० ) बाचया एटले वचनें करीने, तथा (काएho) कायेन एटले शरीरें करी ( छाईयं के० ) छातीतं एटने व्यतितकालमा अर्थात् पाउला जवोमां पूर्वे वर्णवेलां मृपावाद संबंधि जे कंइ पापो में कर्या होय. ते लृपावाद संबंधि समस्त पापोने (निद्यपि के० ) मारा पोताना आत्मानी साहीयें हूं निदु छु. तथा
॥ पपन्नं संवरेमि । प्रयागयं पञ्चरका भि । सवं सुसावायें । जावजीवाए । सिसिहं ॥ अर्थ :-- ( पपन्नं के० ) प्रतिपन्नं एटलें वर्तमान कालमा मृपावाद संबंधि मने लागेलुं जे पाप ते पापने (संमि के० ) हुंब. एटले ते पापोनी प्रालोचना पूर्वक हुं तेनुनो साग करूं कुं. तथा ( अणायं के० ) अनागतं एटलें जविष्यकालमां थनाशं मृषावाद संबंधि पापोनी पण ( पञ्चरकामि के० ) प्रत्याख्यामि एटले छालोचना करीने तेटने हुं दूर करुं छे. थं दूर क रुंछु? तो के, ( सवं के० ) सर्वयकी अथवा सर्व प्रकारना ( मुसावायं के० ) मृषावाद एटलें मृपावचनो; केटल) मुदतमुधि ते मृषावादने पञ्च? तोके, ( जावजीवाएके० ) यावज्जीवितं एटले ज्यां युधि मारी जींदगी हैयान रहे, यांमुधि हुं ते नृपावादने पचखुं छं. हवे हुं केवोछु? तोके, (मणिसिन्दं के० ) अनिच्छको एटले कशा प्रकारनी पण आजवसंबंधि अथवा परजव संबंधि वांडाविनानो . अर्थात् कोई मकारना पण मृपावादनी बांधाविनानो हुं हुं. ॥ नेव सयं मुर्स वाइजा । नेवन्नेहिं मुर्स वायाविज्जा । मुलं वार्यतेवि अन्ने । न समगुजा
शिज्जा । तं जहा ॥
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सूत्र
अर्थ:
॥ ५० ॥
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माधु
मूत्र अर्थः
ए
॥
॥ अर्थः-वली (सयं के०) स्वयं एटले ई पोते ( मुमं के7) मृपावादं एटले जूतुं बोलवू तेने (नेव वायिजा के0) वील. प्रतिण
| कुल बोलुं नही, तथा (अन्नेहिं के०) अन्येच्योऽपि एटले बीजा माणसोपासे (मुमं के) पूर्वोक्त मृपावादने (नेव वायाविज्जा के०) हुं बोलावू नही. तथा (मुसं के० ) मृषावादने एटले जूनापणाने (बायतेवि के) वदतोऽपि एटलें पोताने मुखथी वोलता एवा पण ( अन्ने के० ) वीजानने (न समाजाणिज्जा के०) हूं पोते याझा करूं नही, अर्थात् नीजाने (हं पोते एवो उपदेश आपुं नही के तुं जूतुं बोल अथवा मृषावाद बोलतो एवोजे अन्य माणस तेनी हुं अनुमोदना करूं नही. हवे ते जूतुं हं केवी रोते बोलुं, बोलावु तथा अनुमोदूं नही? तोके, ॥ अरिहंत सस्कियं । सिह सस्कियं । देव सस्कियं । अप्प सस्कियं । एवं लव जिहा या
निख्खुणि वा । संजय विरय पमिहय ॥ अर्थः-(अरिहंत सरिकयं के0 ) वार गुणोयें करीने सहित, तथा रागषरूपी शत्रुन्ने हणारा, एवा श्रीवीतराग प्र जुनी सादीयें, तथा ( सिम सारकयं के०) आठ प्रकारना गुणोयें करीने सहित एवा पन्नर नेदें सिह ययेला सिवनगवाननी साहीयें, तया ( देव सस्कियं के०) सम्यक्त्वने धारण करनारा जे देवतान, तेनुनी सादिये. तथा ( अप्पसस्कियं के0) आत्मानी साहीये, (एवं के) एवीरीते (जब के0 ) जयति एटले होय जे. कोण होय ! तो के, (निख्खु के ) सत्तरत्नेदें संयम पालनारा लि जैन साधुन (वा के) अयवा (निख्खुणी ) साधवी (वा के०) अथवा ( संजय विरय पमिहय के०) महावृत्तोने अंगीकार करीने तथा.
॥ पञ्चरस्काय पावकम्मे । दिया वा । रान वा । एगन वा । परिसागन वा || अर्थः-(पच्चरकाय के ) प्रसाख्याय एरले पञ्चरकाण करीने, कोने पच्चरकीने तो के, (पावकम्मे के0 ) पापकर्माणः एटले पापकार्योने अर्थात् मृषावादथी थनारां पापोने. (दिया के0) दिवसने समये (वा के ) अथवा ( रा के०) रात्रिने समये (वा के0) अथवा ( एगन के) एकाकी (वा के) अथवा ( परिसागन के) घणा माणसोनी पर्षदानी अंदर (वा के) अथवा.
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सूत्र
अर्थः
साधु || ॥ सुत्ने वा जागरमाणे वा । एस खलु मुसावायस्स । वेरमणे । हिए । सुहे खमे निस्सेसिए॥ | प्रति
अर्थः-(सुत्ते के0) मुतांथकां (वा के) अथवा (जागरमाणे के) जागतांयकां (वा के) अथवा ( एस के)
जेनु नपर वर्णन करवामां आव्युं , एवं जे ( खलु के ) निश्चयें करीने ( मुसावायस्स के ) मृपावादस्य एटले जे जूतुं बो॥ए ॥ लवू ते, अने तेथकी (वेरमणे के) विरमवू वे. हवे ते मृषावाद विरमण केबुं बे? तोके, (हिए के) हितनुं करनार .
वली ते केवू ? तोके, (मुहे के0) मुखोजें करनालं. वली ते केवु ले तोके, (निस्सेसिए के0) मोदन आपनारुं . वली ते केवू डे? तोके, ॥ अणुगामिए । पारगामिए । सवेसिं पाणाणं । सवेसिं भूयाणं । स्वेसिं जीवाणं । सन्वेसिं सत्ताणं ॥
अर्थः-(अणुगामिए केट) अनुगामिके एटले परनवमां पण ते मृपावादविरमण मुखन करनाऊंडे. वली ते केवु ने तो के, (पारगाभिए के0 ) आ संसाररूपी समुश्यकी पार उतारलारु . ( सल्वेनि के० ) सर्वेपां एटले सर्व (पाणाणं के०) प्रा. णिनां एटले प्राणी-ने, ते सघला विकलेंडिय जीवोने, तथा ( सद्देसि के0 ) सर्वेषां एटले सबला ( भूयाणं के0 ) भूतानां एटले
देक एकेंदि जीवोने, तथा ( संबसि के0 ) सर्वेषां एटले सघला (जीवाणं के0) जीवानां एटले मनुष्य आदिक सर्व पंचेंहि जीबोने, तथा ( सवेसि के0 ) सर्वेषां एटले सघला (सत्ताणं के0 ) सत्वानां एटले सघला देवाने. ॥ अनुस्करणयाए । असोवणयाए । अजुरणयाए । अतिप्पणयाए। अपीमणयाए । अपरि
यावणयाए॥ अर्थः-( अदुरकणयाए के0) अदुःखनतया एटलें उपर वर्गवेला सर्व प्रकारना जीवोने दुःख नही यापवावमें क. रोने, तथा ( असोवणयाए के0 ) अशोजनतया एटले ते जीवोने कोइ पण प्रकारनो शोक नही नपजाववावमें करीने. तया (अजुरणयाए के ) अजाणतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोने तेनना शरीर संबंधि कशी पण जाणीवस्या नही करयावमें करीने, तथा (अतिप्पणयाए के0) अतर्पणतया एटले ते पूर्वे कहेला जीवाने तृप्तिनुं रहितपणुं नही करवावमें करीने, तथा (अपीम णयाए के० ) अपीमनतया एटले ते जीवोने कोई प्रकारनी पीमा नही नपजाववावमें करीने, तथा ( अपरियावणयाए के0)
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साधु
प्रति
| अपरितापनिकया एटले ते पूर्व कहेला जीवोने असत परिताप एटले खेद नही उपजाववावमें करीने तया. ॥ अणुद्दवणयाए । महत्थे । महागुणे । महाणुनावे । महापुरिसाणुचिन्ने । परमरिसिदे
सीयपसत्ये ॥ अर्थ:-(अणुद्दवणयाए के0 ) अनुपश्वतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवोने मृपावादथी कशी पण पश्व नही करवावमें करीने तेथी ते मृपावादविरमण नामनु महावृत्त केबु! तोके, (महत्ये महागुणे के0 ) मोटा कमादिक ले गुगलोजेना एवं ते महावृत्त बे. वली ते महावृत्त केले! तोके. (महाणुजावे के0) महानुजावे एटले मोटो ले अनुनाव अर्थात् स्वर्ग तथा मो. दने देनारोले प्रजा जेनो एवं ते महावृत्त डे. वली ते महावृत्त केबु ब. तोके. (महापुरिसाणुचिन्ने के0) महापुरुषानुचीणे एटले तीर्थंकर चक्रवर्ती विगरे महान पुरुषो जे महावृत्तने अनुसया जे. एवं ते महावृत्त ले. वली त महावृत्त केले? तोके, परमरिसिदेसियपसत्ये के0) परमपि देशीय प्रशस्ते एटले गणधरमहाराज आदिक नत्कृष्ट जे पी अने करनारा जे मुनिन, तेन जे महावृत्तनी प्रशंसा करती ने, ए से महावृत्त जे. हवे ते महावृत्तने हं शामा अगीकार करूं छु?
तो के,
|| तं पुस्करकयाए । कम्मरकयाए । मुस्कयाए । बोदिलान्नाए । संसारुतारणयाए ।। अर्थ:-(तं के ) ते मृषावाद विरमण नामना महावृत्तने (दुरकरकयाए के ) दुःखदयाय एटले दुःखोना क्ष्यमाटे. दुःख एटले जन्मजरा तथा मरणादिक जाणवां. ते दुःखोना नाशमाटे हुं ते महावृत्तने अंगीकार करूं छ. वली शाने माटे अंगीकार | करुं हुं तो के, ( कम्मरकयाए के० ) कर्मयाय एटले विविध प्रकारना कर्मोना तयमारे हुं अंगीकार करूं छु. वली शामाटे हुँ
अंगीकार करुंछु! तोके, (मुरकयाए के0 ) मोदाय एटले सर्व प्रकारना कोना क्यथको मलतुं जे मोक्षरूप सिधिपद तेनी प्रा. प्तिमाटे हुँ अंगीकार कर छु. वली शामाटे हुं अंगीकार करुंछु! तो के, (बोहिलालाए के) बोधिलाजाय एटले शुइ सम्यक्त्वनी प्राप्तिमाटे हूँ ते अंगीकार कर छु. बली ते हूं शानेमाटे अंगीकार करुंछ? तोके । संसारुत्तारणयाए के०) संसारोत्तारणाय एटले आ संसाररूपी समुश्यकी पारनतरवामाटे १ ते अंगीकार करूं छ.
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साधु
प्रति
tan
॥ तिकडु नवसंपन्जनाणं । विहरामि । उच्चे ते महत्वए । उवन्निमि सवान मूसावाया
वेरमणं ॥३॥ अर्थः-(त्तिकटु के0) इतिकृत्या एटले एवीरीते करीने, (नवसंपज्जताण के0) नपसंप्राप्तं एटले सारीरीते प्राप्त ययेला एवा मासकल्पादिक विहारने समस्तपणे अंगीकार करीने (विहरामि के0) विचरामि एटले हूं विचरु छु. अथवा विहार करूं छु. वली (जने के०) हे जगवन् ! (दुचे के0) दितीये एटले वीजा एवा ( महत्वए के०) महावृत्ताय एटले मृषावाद वि रमण नामना महावृत्त माटे, (नवहिमि के०) नत्तिष्ठितोऽस्मि एटल कलो छ, अर्यात् ते वीजा महावृत्त माटे हुं तैयार ययेलो छु. अने ते हेतुयें करीने ( सधान के0 ) सर्वतः एटले सर्वयकी ( मुसावायान के० ) वृपावादतः एटले मृपावाद थकी ( वेरमणं के) विरमण एटल मने निवृत्ति ले. अर्थात् प्रपावाद एटले मृपावाद वोलवाना मन सर्वयकी प्रसाख्यान दे. ॥२॥
॥ इति क्षितीयमहावृत्तालापकः संपूर्णो जातः ॥ ॥ अहावरे तच्चे नंते महत्वए । अदिनादाणान वेरमणं । सधं ते अविनादाणं पञ्चरकामि ॥
अर्थः -- अह के0 ) अय एटले हवे (ते के0 ) हे लगवन्! ( अवरे के0) अपरे एटले मृपावादविरमण नामना बीजां महामृत्त परी (तचे के0) तृतीये एटले त्रीजा (महवए के0) महावृत्त एटले महारत्तने विवे ( अदिन्नादाणान के0 ) अदत्तादानतः एटले पारको अणआपली वस्तुन जे ग्रहण करवू. तेथी (वेरमण के०) मने विरति ले. अर्थात् अणदीधली एवी पारकी वस्तु ग्रहण करवानु मने पञ्चखाण बे. डाने ते देतुयकी (नंते के0 ) दे लगवन्! (सव के० ) मर्वयकी अथ वा सर्व प्रकारना (अदिन्नादाणं के ) अदत्तादानं एटले अदतादानने अर्यात चोरीने ( पच वामि के0) प्रसाण्यामि एटले हुं पञ्चखु छु. अर्थात् सर्व प्रकारनी चोरोनी हुं साग कर छु.
॥ से गामे वा । नगरे वा । रस्मे वा । अप्पं वा । बहुँ वा । अगुं वा । युलं वा चित्तमंतं वा ।। अर्थः-( से के ) ते अदत्तादान ( गाये के0 ) ग्रामे एटले गामने विप तया ( या के ) अथवा ( नगरे के0 ) नगरने
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साधु
प्रति०
एए॥
विषे ( वा के० ) अथवा ( रमे के० ) अरण्ये एटले वनने विषे ( वा के० ) अथवा (अध्यं के० ) पं एटले थोरुं एटले मूयें करीने हलको वस्तु ( वा के० ) अथवा ( बहुं के० ) मूल्यें करीने कीमती वस्तु अर्थात् वधारे किमतनी वस्तु ( वा के० ) अथवा (अणु के ) मापें करीने नानी वस्तु, अथवा वजनें करीने नानी वस्तु ( वा के० ) अथवा ( शूलं के० ) मापें करीने महोटी वस्तु, प्रथवा वजने करोने महोटी वस्तु. ( वा के० ) अथवा ( चित्तमंत के० ) चेतनावतं एटले चैतन्यशक्तिवाली सजीव वस्तु ( वा के० ) अथवा
॥ चित्तमं वा । नेव सयं दिनं गिरिजा । नेवन्नहिं दिनं गिरहाविज्जा ।।
अर्थः- (चित्तमत के० ) अचेतनावतं एटले चैतन्यथी रहित एटले जीवें करीने रहित थयेली वस्तुने. ( वा के० ) - थवा ( सयं के० ) स्वयं एटले हुं पोते ( अदिन्नं के० ) अदत्तं एटले दीघेली एवी पारकी वस्तु (नेव गिल्हिज्जा के० ) नेत्र गृह्णीयात् एटले बीलकुल ग्रहण करूं नही. तेम वली ( अदिन्नं के० ) अदत्तं एटले दोघेली एवी पारकी वस्तुने (अनेहिं के० ) अन्येज्यः एटले बोजा कोइ पराया मनुष्य पासे (नेव गिरहाविजा के० ) बीलकुन ग्रहण करावं नहीं. अर्थात् पराइ वस्तुनी वीजा कोइ पण माणसपास चोरी हुं करावं नही.
॥ दन्नं गिते व अन्ने न समगुज्जाणामि । जावजीवाए । तिविदं तिविहे । मणं ॥
अर्थ : - ( अदिन्नं के० ) अदत्तं एटले नहीं दीघेली एवी पराइ वस्तुने (गिएते व के० ) गृह्णतोऽपि एटले ग्रहण क रता एवा (ने के० ) अन्यान्टले वीजा माणसाने पण (न समगुज्जाणामि के० ) न समनुज्ञापयामि एटले हुं सम्यकप्रकारे अनुशा आपुं नहीं. अर्थात् चोरी करनारा एवा वीजा कोइ पण माणसनी हुं अनुमोदना करूं नही. ते केटली मुदत सुधि ? तो, (जावजीवा० ) यावज्जीवितं एटले ज्यांसुधि हुं जीवं सांसुधि. केवी रीते? तो के, (तिविद्धं तिविहेां के० ) त्रिवि त्रिविधें करीने (मणेां के० ) मनसा एटले मारा पोताना मनें करीने, अहीं मने करीने एटले माराशुद्ध अंतःकरणथी. ॥ वायाए । काएं । न करेमि । न कारवेमि । करंतंपि अन्नं न समगुज्जाणामि । तस्स नंते । पक्किमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पा
वोसिरामि ॥
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सूत्र
अर्थः
एएए।
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साधु
प्रति
अर्थ
॥
६॥
अर्थः-तथा ( वायाए के) वाचया एटले वचनें करीने, तथा ( कारणं के०) कायेन एटले कायायें करीने अर्थात् श- || रीवमें करीने (नकरेमि के0 ) हुंपोते करुनही. एटले हुँ पोते बिलकुल चोरी करूं नही, तेम (न कारवेमि के०) न कारया. मि एटले हुं बिजापासे चोरी करावं नही. तेमज ( करतंपिअन्नं के० ) कुवैतमप्यन्यं एटले चोरी करता एवा को बीजामाणसने ( न समणुज्जाणामि के) न समनु झापयामि एटले हुं सम्यकप्रकारे आझाआपुं नही. अर्थात् चोरी करनारा एवा को
पण बीजा माणसनीहुं अनुमोदनाकलं नही. वली (नंते के0 ) हे जगवन् ! ( तम्स के0 ) तस्य एटले ते मृषावाद संबंधि जे कंई पाप के अतिचार लाग्यो होय, ते पाप अथवा ते अतिचारने (पमिकमामि के) प्रतिक्रमामि एटले हं पमिक्कमुळं. अर्थात् ते पाप अथवा ते अतिचार संबंधि हुँ आलोचना करूं छु, तथा (निंदामि के० ) ते अदत्तादान संबंधि पापोनी हुं मारा आत्मानी साहीयें निंदा करूं छु. तथा (गरिहामि के० ) ते अदत्तादान संबंधि अतिचारोनी है परनी एटले गुरु आदिकनी साहीयें गर्हाकरुंर्छ. तथा (अप्पाणं के0) आत्मानं एटले मारा पोताना आत्मानी साहीयें मारा आत्माने हु (वोसिरामि के0) वोसरावु छु. अर्थात् ते अदत्तादांन संबंधि लागेला सर्व प्रकारना पापीने अयवा अतिचारोने मनमां याद लावीने हुं मारा आत्माने वोसरावु छ.
॥से अदिन्नादाणे चनविहे परमत्ते । तं जहा । दवन । खित्तन । कालन । नावन ॥ अर्थः-(से के ) ते अदत्तादान (चनविहे के० ) चतुर्विधे एटले चार प्रकारर्नु बे. (पन्नत्ते के0) प्राप्ते एटलें श्रीजिनेश्वर प्रभुये कहेलु . ( तंजहा के0) तद्यथा, ते पूर्वोक्त अदात्तादान नीचे प्रमाणे बे. ( दवन के0) इव्यतः एटलें व्यथकी, तथा (खित्तन के0) केत्रयकी, तथा (कालन के0) कालतः एटले कालयकी, अने (जावन के०)जावतः एटले जावयकी. हवे ते चारे प्रकाराने वर्णवे . ॥ दवनणं अदिन्नादाणे गहाणधारणिकेमु । दवेसु । खित्तनणं अदिन्नादाणे गामे वा।
नगरे वा । रस्मे वा । कासनणं अदिन्नादाणे ॥ अर्थः-(दबनणं के ) व्यतः एटलें इव्ये करीने (अदिन्नादारों के०) अदत्ता दानं एटले अदत्तादान अर्थात् अण
॥ए६
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साधु
মনি
॥ए॥
-
दिधेली पारकी वस्तु (गहणीधारणीजेसु के०) गृहिणीधारिएयादिपु एटले स्त्री तथा पृथ्वी आदिक (दवेसु के0) इव्योने
भूत्र विपे, तथा (खित्तनणं के0 ) देवतः एटले क्षेत्रथकी (अदिनादाण के0) अदत्तादानं एटले पारकी वस्तुनी जे चोरी ते, अर्थः (गामे के०) ग्रामे एटले कोइ पण गामने विषे, (वा के0) अथवा ( नगरे के0) नगरे एटले नगरने विषे (वा के) अथवा (रले के०) अरण्ये एटले बनने विषे (वा के ) अथवा (कालणं के० ) कालें करीने ( अदिन्नादा के०) अदतादानं एटले पारकी वस्तुनी जे चोरी,
॥ दिया वा रा वा । नावनणं अदिन्नादाणे । रामेण वा दोसण वा । जंपियमए ॥ अर्थः-(दिया के0 ) दिवसे एटले दिवमने विष ( वा के0 ) अथवा (गन के0 ) रात्रौ एटले रात्रिने विषे ( वा के0) अथवा (जावण के०) लावतः एटले नावे करोने (अदिनादाणे के0) अदत्तादानं एटले परवस्तुनी जे चोरी, ते (रागेण के0 ) रोग करीने, एटले प्रेमरूप सनावे करीने, (वा के0) अथवा (दोसेण के०) हेपेन एटले पे करीने, अर्थात् अप्रीति के लक्षण जेन एवा पें करीने, अहीं नपलक्षणथी लोनने पण रागना पेटामा गणी लेवो. तथा क्रोधने पण नपलक्षागयी देषना पेटामां गणीलेवो. (वा के0) अथवा (जंपियमए के ) यदीप च मया पटेल जे कंश में
॥श्मस्स धम्मस्ल । केवलिपन्नतस्स । अहिंसा लरकणस्त । सञ्चाहिठियस्त ॥ अर्थः-(श्मस्स के० ) श्मस्य एटले आ (धम्मस्म के ) धर्मस्य एटले धर्मने. धर्म केवो.. ताके, (केवलिपन्नत्तस्स के०) केवलि प्रणीतस्य केवलझानरूपी दीपके करीने दीपता एवा श्री केवली लगवाने प्ररूपलो. वली ते धर्म केवो? तोके, (अहिसालरकणस्स के0 ) अहिंसालक्षणस्य एटले अहिंसा कहेतां सर्व प्राणी मात्रनी जे दया, ते ने लक्षण जेनु एवो ते धर्म. अर्थात् कोइ पण प्रकारना प्राणीने कशा प्रकार- पण दुःख उपजावयु नहि, ते रूपी ले लक्षण जेनुं एवो ते यति धर्म बे. वली ते यति धर्म केवो ने तोके, (सच्चा हिटियस्स के ) सत्वहितार्थस्य एटले सत्य कहेता साचो अने सर्व कालमा आत्माने अ- || एs त्यंत हितकारी ने अर्थ कहेता फल जेनु, एवो ते यति धर्म बे. वली ते यति धर्म केवो तोके,
॥ विषयमूलस्स । खंतिपदाणस्स । अहिरासुवस्मियस्स । नवसमपन्नवस्स ।।
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माधु
प्रति
अर्थ
ए॥
अर्थः-(विण यमूलस्म के०) विनयमूलस्य एटले विनय के मूल पायो जेनो एवो त यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो || ब? तो के, (खंतिपहाणस्त के0 ) दांतिप्रधानस्य एटले दांति जे कमागुण, ते ले प्रधान कहेतां मुख्य जेमां एवो ते यतिम के. अथवा कांति एटले कमारूपी गुणें करीने प्रधान एटले मनोहर, एवो ते यतिधर्म . वली ते यतिधर्म केवो ! तोके, (अहिरणमुलियस्म के0) अहिरण्यसुवर्णस्य एटले हिरण्य कहेतां जे काचु सुवर्ण अर्यात् घाट घड्याविनानुं सुवर्ण तथा सुवर्ण एटले जे सोनाना अलंकार शादिक बनाववामां आयेला ले तेवू मुवर्ण. एवीरीतनां बन्ने प्रकारना सुवर्णयकी रहित एवो ते यतिधर्म . अर्थात् जैन मुनिननो मार्ग अकिंचन जे. वली ते यतिधर्म केवो! तो के, (नवसमपनवस्म के०) नपशमप्रत्नावस्य एटले उपशम कदेता ज शांतरस तेना ने मनाय एटले महिमा जने विष एवो ते यतिधर्म ने. वली ते यतिधर्म केवो है तो के,
॥ नवबंनचेरगुत्तस्त । अप्पयमाणस्त । निरकावत्तियस्त । कुरिकसंबलस्स ॥ अर्थ:-( नवबंजचेरगुत्तल के०) नवब्रह्मचर्यगुप्तस्य एटले नव प्रकारचें जे ब्रह्मचर्य महावृत्त अने तेनी जे नव गुप्ति. ते ने जेनी अंदर एवो ते यतिधर्मले. वली ते यतिधर्म केवो ! तो के. (अप्पयमाणम्म के0 ) अपच्यमानस्य एटले जेनी अंदर रांधवा तथा पकाववा आदिकनी अपागारोनेमाटे अधिकार नथी, एवो ते यतिधर्म . वली ते यतिधर्म कयो ने तोके. (निरकावत्तियस्म के0) जिहात्तिकस्य एटले बेंतालीस प्रकारना जे दोपो. ते दोपायें करीने रहित एवी जे निहात्ति एटले आहारपाणी लेवानी जे वृत्ति, ते ने जनी अंदर एवो ते यतिधर्म बे. बली ते यतिधर्म केवो में तो के. (कुरिक बलस्त के0) कुक्तिसंबलस्य एटले पूर्वे कहेला ते यतिधर्मने विप जटला आहारथी कुदी अर्थात् पेट जराय, तेटलोज याहार लेवानी छुट ले, पण वासी जोजन राखी शकाय नही, एवो ते यतिधर्म ब. वल ते यतिधर्म केवो. तो के. ॥ निरग्गिसरणस्स, संपरकानियस्ल, चत्तदोसस्स, गुणगहियस्त ॥
॥ अर्थ:-(निरगिसरवास के०) निरग्रयशरणस्य एटले ते यतिधर्म समान अग्रेसरी शरारा बीज को पण नया एवो ते यतिधर्म जे. वली ते यनिधर्म केवो! तो के. (परकालियस्त के0) संप्रदालितस्य एदले पापोरूपीआ येलने तथा को-।
७॥
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माधु प्रति
अर्थ:
एए॥
रूप मेलने धोने साफ करवामाटे ते श्रीवीतरागप्रभुए प्ररूपेला पूर्वोक्त यतिधर्म शिवाय वीजो कोइ पण समर्थ नयी एवो ते मूत्र यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो ले! तो के, ( चत्तदोसस्स के ) च्युतदोपरूप एटले दूर थयेला ने सर्व प्रकारना दोपो जेमांथी एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवी ! तो के. ( गुणगहियस्म के0 ) गुणगृहितस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर न्यायादिक गुणोनुं ग्रहण करेलु ले. अने अन्यायमादिक दोषाने तजेला ले. एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ने तोके.
॥ निवियारस्स । निवित्तिलखणस्त । पंचमहत्वयजुत्तस्त । असं निहिसंचयस्स ॥ अर्थः-(निवियारस्स के ) निर्विकारस्य एटले जे यतिधर्मने विषे कामादिक कशा प्रकारनो पण विकार नयी, एवोते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो बे? तोके, ( निवित्तिलखणस्स के0) निवृत्तिलदाणस्य. नित्ति एटले आ सं सर्व प्रकारना जोगो तथा जे कर्मो तेथकी जे मूकावु, एटले मोक्षपदने पामवं. ते ने लक्षण जेनुं एवो ते यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो ? तो के. ( पंचमहत्वयजत्तस्स के0) पंचमहात्तयुक्तस्य एटले प्राणातिपात विरमण ॥१॥ मृपावाद विरमण ॥॥ अदत्तादानविरमणा ॥ ३ ॥ मैथुनविरमाण ॥४॥ तथा परिग्रहविरमण ॥५॥ ए नामना जे पांच महावृत्तो तेणे करीने युक्त एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (असंनिहिसंचयस्स के0) असंनिधिसंचयस्स एटले जे यतिधर्मने विषे चार प्रकारनो आहार तथा औषध प्रमुख वासी राखवानी मनाई करेली बे; तथा नपलका यी कोइ पण प्रकारना परिग्रहनो संचय राखवानी मनाई करेली बे, एवो ते यतिधर्म . वली ते यतिधर्म केवो ? तो के.
॥अविसंवाश्यस्स, संसारपारगामियस्य, निवाणगमणपज्जवसाणफलस्स ॥ अर्यः-(अविसंवाश्यस्स के0 ) अविसंवादितस्य एटले जे यतिधर्मने विषे कोइ पण प्रकारनुं विसंवादपणुं नयी, एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केरो ? तो के, (संसारपारगामियस्स के0 ) संसारपारगामिकस्य एटले आ संसाररूपी समुइथकी पारने पहोंचामनारो ले. वली ते धर्म केवो ! तो के, (निबाणगमणपज्जवसाणफलस्स के) निर्वाणगमनपर्यवसान- ॥॥एए फलस्य एटले निर्वाण कहेतां सघला संसारिक व्यवहारोथी मूकावारूप जे मोद तेरूपी डे पर्यवसान कहेतां बेखामां डेब्लु फल जेर्नु एवो ते यतिधर्म डे. वली ते केवो बे? तो के,
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साधु
प्रति
१०॥
॥ पुत्विं अन्नाणयाए, असवणयाए, अबोहियाए, अणनिगमेणं ॥ अर्थः- पूर्व वर्णवेलो एवो ते यतीधर्म ( पुत्विं के०) पूर्वे एटले आगल जेनुं वर्णन करवामां आवेलु डे एवो ते यति ध- || अर्थ म पाम्या पेहेलां (अन्नाणयाए के0) अज्ञानतया एटले अझानपणायें करीने, (असण्याए के) अश्रवणतया एटले अ| णसांजलवें करीने, एटले ते पूर्वोक्त यतिधर्मनुं श्रवण कर्याविना, तथा (अबोहियाएके ) अबोधितया एटले बोधिबीज कहेतां जे सम्यक्त्व तेनी अप्राप्तियें करीने अर्थात् सम्यक्त्वने अंगीकार न करवायें करीने, तथा,
॥ अनिगमग वा , पमाएणं . रागदोसपमिवध्याए, बालयाए॥ | अर्थः-(अलिगमण के0 ) अनिगमेन एटले सम्यक्त्वनी प्राप्तिवमें करीने (वा के0) अथवा (पमाएणं के0 ) प्रमा
देन एटले विविधप्रकारना प्रमादें कराने, तथा (रागदोसपमिवश्याए के०) रागषप्रतिवश्तया एटले राग अने देषना प्रतिबंधे करीने, अहीं नपलक्षणयी रागनी साथे लोलने पण ग्रहण करवो. तथा पनी साये क्रोधने पण ग्रहण करवो. अर्थात् रा.
सोज अने क्रोधना प्रतिबंधे करीने, तथा (बालथाए के.) बालतया एटले बालनावें करीने, अर्थात् मूर्खपणायें करीने, तथा.
॥ मोहयाए, मंदयाए, किम्याए, तिगारवगुरुयाए, चनक्कसायोवग्गहेणं ॥ अर्थः-(मोहयाए के) मोहतया एटले मोहपणायें करीने, अर्थात् मोहना आवेशें करीने, तथा ( मंदयाए के) मंदतया एटले मंदपणायें करीने अर्थात् बुझिना मंदना करीने, तथा ( कियाए के0 ) क्रीमया एटले क्रीमायें करीने, अर्थात् विविध प्रकारनी क्रीमाना नावें करीने, तथा ( तिगारवगुरुयाए के) त्रिगारवगुरुतया एटले त्रण मकारनो जे गर्व, तेना गुरुपणायें करीने अर्थात् त्रण प्रकारना गर्वना प्रजावें करीने, तथा ( चनुकसायोवग्गहेणं के0 ) चतुःकपायोपग्रहेण, एटले क्रोध, मान, माया अने लोन ए नामना चार कपायोनी प्राप्तिवमें करीने, तया
॥१०० ॥ पंचिंदियवसठेणं । पमिपुतं नारियाए । सायासुखमणुपालयंतेशं । इहं वा नवे । अन्ने
वा । नवग्गहणेसु ॥
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मति
__ अर्थः-(पंचिदियवसहण के0 ) पंचिंपियवशस्थेन एटले हि, घ्राणेंडि, चारैदि. श्रीहि, तया स्पर्शशि, ए पांच ई-|| | निना जे वीस वियो तेने वश थवायें करीने, तथा, (पमिपुजारियाए के) परिपूर्ण जारतया एटले संपूर्ण एवो जे
विविध प्रकारना कर्मोनो नार तेणे करीने, तथा, (सायामुखमणुपालयंतेणं के०) शातामुखमनुपालनतया एटले शातावेद११॥ | नीय कर्मना नदयथा मलेलं जे विविध प्रकार, मुख, तेने पालवावमें करीने अर्थात् शातावेदनीय मुख जोगबवावमें करीने.
( इहवालवे के0 ) अस्मिन् वा नये एटले आ नबने विषे ( वा के0) अयवा ( अन्नेसु के0 ) अन्येषु एटले बीजा (नवग्गहणेसु के0 ) नवगहनेषु एटले जन्म जरा तया मरणादिक ना दुःखें करीने असंत गहन एटले जयंकर एया जबाने विषे.
॥ अदिनादाणं गहियं वा । गाहावियं वा । धिप्पंति वा परेहिं समगुन्नान ॥ . अर्थः--(अदिन्नादाणं के0 ) अदत्तादानं एटले पारकी वस्तुने तेना मालिकनी रजा शिवाय जे ग्रहण करवी, तेने अदत्तादान कहीये. एवं जे अदत्तादान ते ( गहियं के० ) ग्रहितं एटले में ग्रहण कर्यु (वा के0) अथवा (गाहावियं के) ग्राहावितं एटले बीजापासे जो ग्रहण कराव्युं होय, अर्थात् वीजा कोइ माणसपासे जो में चोरी करावी होय, ( वा के0) अयवा धिप्पंति के0 ) पराइ वस्तुने ग्रहण करता एवा अथवा परवस्तुनी चोरी करता एवा (परेहिं के0) परेज्यः एटले बीजानुमते ( समणुनान के0) समनुझातः एटले जो में आया आप। होय, अयवा चोरी करनारा एवा बोजा माणसोनी जो में अनुमोदना करी होय तो,
॥तं निंदामि । गरिहामि । तिविहंतिविहेणं । मणेणं । वायाए कारणं । अश्यं निंदामि ॥ __ अर्थः-(तं के ) ते अदत्तादान संबंधि पापने (निंदामि के0 ) हुं निंदु छ. एटले मारा आत्मानी सादीयें हुं निंदा कसंई. तथा (गरिहामि के ) गुरुग्रादिक परनी सादी हूं तेनी गर्दा करूं टुं. हवे ते केवोरीते? तो के, (तिविहं तिविहेणं | के ) त्रिविधं त्रिविधेन एटले त्रिविधं त्रिविधं करीने. ते केवीरीतें त्रिविधं त्रिविधं करीन. तो के, (मणेणं के० ) मनसा एटले
॥१०१ मारा पोताना मनवमें करीने, तथा (वायाए के०) वाचया-एटले मारां पोतानां वचनें करीने, तथा (काएणं के) कायेन, एटले मारा पोतानां शरीरवमें करीने, (अश्यं के०) अतीतं एटले पूर्वकालनी अवस्थामां करेलां पापोने (निंदामि के०)
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मूत्र
अर्थः
साधु || हुं निंदु छु.॥ प्रति
॥पमिपुरम संवरेमि । अगागयं पञ्चरकामि । सबं अदिन्नादाणं । जावजीवाए ॥
अर्थ:-(पमिपुमं के० ) परिपूर्ण एटले आ वर्तमान कालमा अदत्तादान संबंधि करेलां पापने (संवरेमि के0 ) संव।।१०२॥|| रामि एटले ९ संवरुं . अर्यात् वर्तमानकालमां पण अदत्तादान संबंधि लागेला पापने हुँ नि, छ. तथा (अणागयं के०)
अनागतं एटले लविष्यकालमां यनारां अदत्तादान संबंधि पापने ( पचरकामि के० ) प्रसाख्यामि एटले हुँ पञ्चरुखं छं. अर्थात् नविष्यकाल संबंधि पापोनां पण हुं पञ्चरकाण करुं छ. हुं शार्नु पञ्चरकाण करु छ! तो के, ( सवं के0 ) सर्वयकी अयवा सर्व प्रकारना (अदिनादाणं के० ) अदत्तादानं एटले पराइ वस्तुनी चोरीने. केटली मुदतनुधि हूं पञ्चख्खु छ! तो के, (जावजीवाए के0 ) यावज्जीवितं पटले ज्यांमुधि मारी जीदगी रहे सामुधि. ॥ अणिसिन्हं । नेवसयं अदिन्नं गिहिज्जा । नेवन्नेहि अदिन्नं गिएहाविजा । अदिन्नंगि .
एहतेवि अन्ने न समजाणिज्जा । अर्थः-हवे हुँ केवो छु? तो के, (अणिसिन्हं के0 ) अनिवकोऽह एदले हवे मने कोई पण प्रकारनी संसारिक लोगो नोगववानी वा नथो, अथवा हवे मने अदत्तादान लेवानी कशी श्डा नथी.( सयं के) हुँ, जेर्नु पूर्व वर्णन करवामां आव्यु डे, एवा ते (अदिन्नं के० ) अदत्तं एटले नही आपेली एवी पराइ बस्तुने ( नेवगिएिहजा के0) हुं वीलकुल अंगीकार करूं नही. तेमज ( अन्नेहि के', अन्यैः एटले बीजा माणसपासे ( अदिन्नं के0 ) अदत्तं एटले अणदीधेली एवी परनी वस्तुने (नेव गिएहाविजा के0% हूं बीलकुल ग्रहण करावु नही. अर्थात् वीजा माणसपासे हूं वीलकुल चोरी करावु नही. तेमज (अदिन्ने के0 ) अदत्तं एटले पारकी अणदीधेली वस्तुने (गिएहतेवि के0) गृहृतोऽपि एटले ग्रहण करता एवा अर्थात् चोरी करता एवा (अन्ने के0) अन्यान् एटले बीजा माणसोने पण (न समणुजाणिजा के ) न समनुज्ञापयेत् एटले सम्यक् १९०२ प्रकारे हुं अनुझा आपुं नही. अर्यात् चोरी करनारा एवा बीजा माणासनो हुँ अनुमोदना करूं नही.
॥ तं जहा । अरिहंत सस्कियं । सिह सस्कियं । साहु सस्कियं । देव सस्कियं । अप्प सस्कियं ॥
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साधु
प्रति०
॥१०३॥
अर्थ:- ( तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते नीचेप्रमाणे जाए. हवे ते हुं कोनी साहीयें चोरी न करूं? तो के, ( अरिहंत सरिकयं के० ) अरिहंतसाक्षिकं एटले श्री अरिहंत मनु के जेन बार गुणोयें करीने सहित बे. तथा जेनए कर्मोरूपी शत्रु दण्या बे, एवा श्री अरिहंत प्रजुनी साहियें. वली कोनी साहीयें तो के, ( सिद्ध सरिकयं के० ) सिसादिकं एटले आ कारना गुणोयें करीने बीराजमान एवा पंदर जेद संयुक्त श्रीसिद्ध जगवाननी साक्षीयें. वली कोनी साहीयें? तो के, (साहुaai ho) साधुसादिकं एटले कंचन ने कामिनीयें करीने रहित एवा साधु महाराजोनी साहीयें. अहीं उपलक्षणथी आचार्य महाराज तथा उपाध्यायजीनुं पण ग्रहण करवुं वली कोनी साक्षियें? ता के, ( देवसरिकयं के० ) देवसादिकं एटले सम्यक्त्वने धरनारा एवा देवतान्नी साहीयें. वली कोनी साक्षियें? तो के, ( अप्पमरिकयं के० ) ध्यात्मसादिक, एटले मारा पोताना आत्मानी साक्षी यें.
|| एवं नव निरखू वा । निख्खूली वा । संजय विरय पदिय । पञ्चस्काय पावकम्मे ||
अर्थ : - ( एवं के० ) एवीरीतें ( जवइ के० ) जवति एटले होय ते. कोण होय बे? तोके, ( जिखु के० ) निक्कु एटले साधु (वा के० ) अथवा ( निखुणी के० ) जिकुली एटले साधवी (वा के० ) अथवा ( संजजय विरय पहिय के० ) संतर प्रकारनं संयम, वारजेदे तप ने पांच प्रकारनुं महावृत्त तेने अंगीकार करीने, तथा ( पच्चखाय पावकम्मे के० ) प्रसा रूपाय पापकर्माणि एटले सर्व प्रकारनां पापकर्मोने पञ्चरकीने अर्थात् सर्व पापकर्मोंने दूर करीने.
॥ दिया वा रानु वा । एगर्नु वा । परिसागर्नु वा । सुते वा । जागरमाले वा ॥
अर्थ :- ( दिया के० ) दिवसें एटलें दिवसने विषे ( वा के० ) अथवा (रान के० ) रात्रौ एटले सूर्य अस्त थया पढीरात्रिने विषे ( वा ho) अथवा ( एगन के० ) एकाकी ( वा के० ) अथवा ( परिसागन के० ) पर्षदानी अंदर (वा के० ) अयवा (सुत्ते कं०) सुप्ते एटले निशवश ययायकां (वा के० ) अथवा ( जागरमाले के० ) जागृते एटले जागतां थकां (वा के० ) अथवा.
॥ एस कलु अदिन्नादाणस्स । वेरमणं । दिए । मुहे । खम्मे । निसेसिए । अगामि ॥
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मूत्र
अर्थ
॥१०३
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साधु
सूत्र अर्थः
प्रति
॥१०॥
अर्थः-(एस के) एषः एटले आ (रकलु के ) निश्चयें करीने (अदिनादाणस्स के०) अदत्तादानस्य एटले पारकी | वस्तुनी जे चोरी करवी तेथकी (वेरमणं के०) जे विरमवू ते. हवे ते अदत्तादानविरमण केले? तोके, (हिए के)हिते एटले
आत्माने असंत हितकारी वली ते केवु ? तो के० (सुहे के० ) मुखे एटले आत्माने असंत सुखकारी ले. बली ते केवु ? तो के, (खम्मे के0 ) हमे एटले आत्माने असंत केम करनार जे. वली ते केवु ? तो के, (निस्सेसिए के) निःशेशिके एटले निःशेष केतां जे मोक्ष तेने आपनारंबे. वली ते केवु ! तो के, (अागामिए के) अनुगामिक एटले आगामी कालमां परजवने विषे पण सुरकनुं करनाहं . वली ते केवु ? तो के,
॥ पारगामिए । सवेसिं पाणाणं । सवेसिं नूयाणं । सन्वेसि जीवाणं । सवेसिं सत्ताणं ॥ अर्थः-(पारगामिए के0) पारगामिके एटले आ संसाररूपी समुश्यकी पार नतारनारुं . केवीरीते तो के, (सबसि के ) सर्वेषां एटले सघला (पाणाणं के) प्राणीनां एटले स्मिादिक विकलेंक्षिप्राणीनने, तथा (सोसि के0) सर्वेषां, एटले सघला (भूयाणं के0 ) भूतानां एटले सर्व प्रकारनी वनस्पति आदिकना जीवोने, तथा ( सवेसि के ) सर्वेषां एटले सघला (जीवाणं के०) जीवानां एटले तिर्यंचादिक पंचेंदि जीवोने, तथा ( सवेसि के० ) सर्वेषां एटले सघला ( सत्ताणं के) सत्वानां एटले सर्व प्रकारना देवो आदिकने.
॥ अउरकणयाए । असोवणयाए । अजुरणयाए । अतिप्पणयाए ॥ अर्थः-(अदुरकणयाए के ) अदुःखनतया एटले पूर्व वर्णवेला सर्व प्रकारना जीवोने दुःख नही आपवावमें करीने, तथा ( असोवणयाए के0 ) अशोजनतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोनुं मातुं नही करवावमें करीने, तथा (अजुरणयाए के0) अजीर्णतया एटले ते पूर्व कहेला जीवोने जीर्णावस्था नहीं करवावमें करीने, तथा (अतिप्पणयाए के0) अतर्पणतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोने भुखआदिकनी असंत पीमा नही करवायें करीने, तथा
॥ अपीमणयाए । अपरियावणियाए । अणुइवणयाए । महत्रे महागुणे ॥ अर्थ-(अपीमणयाए के) अपीलणतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोने नही पीलवाएं करीने, तथा (अपरियावणियाए
॥॥१०४
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साधु
प्रति
के0) अपरितापनतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोने परिताप नही नपजाववायें करीने, तथा (अणुदवणयाए के0 ) अनुपश्यतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोने नपश्व नही नपजाववावर्स करीने. हवे ते अदत्तादानविरमण केबु बे! तोके.( महत्ये क )महाथ ए-|| अर्थ: टले मोहोटो के अर्थ केदेतां फल जेन एयु ते अदत्तादानविरमण जे. वली ते के ताके ( महागुणे के0) मायादिक मोटामोटा गुणो जनी यंदर बे, एबुं ते महावत्त . बली ते अदत्तादानविरमण नामनु महावृत्त केले. तो के.
॥ महागुन्नावे । महापुरिलाणुचिन्ने । परमरिसिदेसियपसत्थे तं पुस्करकयाए । अर्थ:-(महाणुजावे के ) महानुनाव एटले स्वर्ग तथा मोक्षादिकना मनावरूपी ले मोटो महिमा जेनो एबुं ते महा वृत्त बे. वली ते के जे? तो के, (महापुरिमाण चिन्ने के0) महापुरुषानुचीणे एटले तीर्थंकरआदिक जे महान पुरुषो तेनए जे महासने स्वीकार्य बे, एवं ते महावृत्त डे, बली ते महावृत्त के बे! तो के. ( परमरिसिदेसियपसत्ये के0) परमपिदेशीयप्रशस्ते एटले गणधर महाराजआदिक नत्कृष्टा जे महान् इपिन, तेन्नी तुलना करनारा एवा जे महामुनिराजो, तेनए जे महावृत्तनी प्रशंसा करेली, एबुं ते महारत्त दे. हवे ते अदत्तादानविरमण नामना महात्तने हुँ शामाटे अंगीकार करुठं? ते कहे . ( तं के0 ) ते महात्तने हुं (दुरकरकयाए के) आ संसारमा रहेला जे जन्म, जरा तया मरणादिक दुःखो, तेनना क्यमाटे एटले ते दुःखोनो नाशथवामाटे हूं ते महावृत्तने अंगीकार करूं छु. बली ते महावृत्तने हुँ शामांट अंगीकार करूं छु? तो के. ॥ कम्मरकयाए । मुख्खयाए । बोहिलानाए । संसारुत्तारणाए । तिकट्ठ नवसंपजताणं विरामि ।। ____ अर्थः-( कम्मरकयाए के0 ) कर्मक्ष्याय एटले आठ प्रकारना जे कर्मों तेलना दयमाटे एटले ते कर्मो नष्ट थवा माटे. व. सी शामाटे ते महात्तने हूं अंगीकार करूंछु! सोके, ( मुरकयाए के0 ) मोदाय एटले संसार संबंधी सर्व व्यापारथी मुकावारू
॥१०८ प जे मोद, तेनी प्राप्तिमाटे अर्थात् मोक्ष मेलववा माटे. वली शामाटे हूं ते महावृत्तने अगीकार करुंटुं. तोके, (बोहितानाए के०) बोधिलानाय एटले शुइ सम्यक्त्वनी प्राप्तिमाटे. वली शामाटे हूं ते महावृत्तने अंगीकार कछु! तोके, ए के0 ) संसारोत्तारणाय एटले नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगती तया देवगति रूपी संसारसमुश्थकी पारन्तरतामाटे. वली
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साधु प्रति
१११७॥
शामाटे हूँ ते महावृत्तने अंगीकार करु ! तोके ( तिकटु के0) इतिकृत्वा एटले ते पूर्व कहला सर्व प्रकारना लाजो माटे || (उपसंपज्जताणं के) नपसंप्राप्य एटले मासकस्पादिक शास्त्रोक्त विहारने समस्तपणायें करीने प्राप्तयश्ने (विहरामि |
अर्थः के ) विहारं करोमि एटले हुं विचरूं छु.
॥ तचे नंते महबए नवठिनमि । सबान अदिनादाणान । वेरमणं ॥ अर्यः-(नंते के0) देजगवन् एवीरीते ( तच्चे के0 ) तृतीये एटले अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृत्तमाटे (नवहिनमि के0) उत्तिष्टितोऽस्त्रिएटले हं तैयार थयो हं. अने एवीरीते ( सबान के0) सर्वतः एटले सर्वथकी अर रना (अदिनादाणा के० ) अदत्तादानतः एटले पारकी वस्तुने चोरवारूप जे अदत्तादान तेथकी (बेरम के०) मने विर तिले.
॥ इति तृतियालापकः समातः॥ ॥अहावरे चनत्ये नंते महावए । मेहुणान वेरमणं । लवंनंते मेदुणं पञ्चरकामि ॥ अर्थ:-( अहके0 ) अथ एटले त्रीजा अदत्तादानविरमण नामना महावृत्तनुवर्णन कर्यापली ( अवरे के0 ) अपरे एटले ते पडीना ( चनत्ये के०) चतुर्ये एटले चोथा (नंते के0 ) नदंत एटले हे जगवन्! ( यहाए के ) महासत्ताय एटले सहात्त माटे ( मेहुणा के ) मैथुनतः एटले मैथुन थकी अर्थात् स्त्रीसंबंधि नोगविलासोयकी (वैरमणं के०) मने वितिने. अर्थात् ते सर्व प्रकारना मैयुनथकी है विरमुंछ. वली (नंते के०) जदंत, एटले हे जगवन्! (सवं केर)मवंएटले गर्व प्रकारना अथवा सर्व थकी ( मेहुणं के0) मैथुनं एटले मैथुनने अर्थात सर्व प्रकारना स्त्रीमंबंधि जोगविलासोने ( पचवाय के० ) प्रसाख्यामि एटले हुँ पञ्चखं हूं. अर्यात् ते लोगविलासोनो हुं सर्वया प्रकारे साग करंर्छ. ॥से दिवं वा । माणुसं वा । तिरिरक जोणियं वा । नेव मयं मेहुणं सेविजा । नेवन्नेहिं
मेहुणं सेवाविना ॥ अर्थ-( से के0 ) ते मैथुन (दिवं के0) दिव्यं एटले विविध प्रकारना देयो संबंधि जाण. ( वा के0 ) अयवा ( माणुसं के)।
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साधु
सूत्र
|| मानुष्यं एटले मनुष्य संबंधि विविध प्रकारना स्त्री संबंधी जोगविज्ञासो जाणवा. ( वा के0 ) अथवा (तिरिवजोणिय के0) प्रति | तिर्यंचयोनिकं एटले तिर्यंच संबंधि विविधप्रकारना जागो जाणवा. (वा के0) अथवा ( सयं के0 ) हूं. जेनु नपर वर्णन कर
अर्थः वामां आव्युं ने एवा ( मेहगां के0) मैथुनं एटले स्त्रीसंबंधि जोगविलासोने (नेवसे विजा के0 ) नैवमेवामि एटले हवीलकुल !!१७॥
सेवू नही. तेमज (अन्नहिं के0) अन्येच्यः एटले बीजा माणसोपासे ( मेहुणं नेव सेवाविजा के0) मैथुनं नैव सेवयामि एटले हुँ मैथुन सेवावु नही. अर्थात् बीजा माणसो पासे हुं विविध प्रकारर्नु पूर्व वर्णवेलु मैथुन बीलकुल सेवरावू नही.
॥मेदुणं सेवंतेवि अन्ने न समणुकाणामि । जावजीवाए । तिविहं तिविहेणं ॥ अर्थः-वली ( मेहुणं के0 ) मैथुनं एटले पूर्व कहेला स्त्रीसंबंधि विविधमकारना लोगविलासोने ( सेवतेवि के ) सेतोऽपि सेवता अर्थात् जोगवता एवा (अन्ने के ) अन्यान् एटले वीजा माणसाने पण (नसमणु जाणामि के0) नसमनुझापयामि एटले हुं सम्यक् प्रकारें बीलकुल अनुमोदना करुनही. हवे ते केटली मुदतमुधि? तोके. ( जावजीवाए के०) यावजीवितं एटले हुं ज्यांसुधि जीवं सांसुधि. हवे ते पूर्वाक्त मैथुनना हुं फेवीरीते प्रसाख्यान करूं छु. तो के, (तिविहं तिविहेणं के) त्रिविधं त्रिविधन एटले त्रिविधं त्रिविधं करीने मैथुनना हुं प्रत्याख्यान करूंछ.
॥ मणणं । वायाए । काएणं । नकरेमि । नकारवेमि । करंतंविअन्नं । न समगुजाणामि ॥
अर्थः- ( मणेणं के0 ) मनसा एटले मारां पोताना मनें करीने हुं मैथुन सेवू नही. वली शाने करीने हुं मैथुन सेवू नहीं? तोके, (वायाए के) वाचया एटले मारी पातानी वाणी करीने अर्थात् बचनें करीने हुँ मैथुन सेवू नही. बली शाने करीने हुँ मैथुन से नही? तोके, ( कारणं के ) कायेन एटले मारी पोतानी कायायें करीने अर्थात् शरीरें करीने हुँ मैथुन सेवु नही. ( न करेमि के० ) हुँ जोगविलास करूं नही. तथा (न कारवेमि के0) बीजापासे करावु नही. तथा (करंतंवि के0 ) जोगविलास करता एवा (अन्नं के०) बीजाने (नसमणु जाणामि के) नसमनुशापयामि एटले सम्यक प्रकारें हूं अनुझा आपुं न-|| ॥१०॥ हि. अर्थात् मैथुन सेवनारा एवा बीजा माणसनी हुं अनुमोदना करुं नही, ॥ तस्सनंते पमिकमामि । निंदामि । गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से मेहुणे चनविहे पालते ॥
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साधु
प्रति
अर्थ
॥१०॥
अर्थः-तस्स के०) ते मैथुन संबंधि सर्व अतिचाराने ते के0) जदंत एटले हे जगवन् ! (पमिकमामि के0 ) प्रतिक्रमामि एटले हुं पमिक्कमुं छ. अर्थात् ते मैथुन संबंधि पापोने हुं दूर करूं छु. तया (निंदामि के०) ते मैथुन संबंधि पापोनी हुँ मारा आत्मानी सादियें निंदा करूं छु. तथा (गरिहामि के0 ) ते मैथुन संबंधि पापोनी हुं गुरु आदिकनी सादिये गर्दा करूं छ. तेमज ( अप्पाणं के0) आत्मानं एटले मारा पोताना आत्माने ते पापोथकी हुँ ( वोसिरामि के0 ) वोसराईं छु. अर्थात् ते पापोथकी मारा आत्माने हूं मुक्त करूं छ. (से के)मः एटले ते पूर्वोक्त (' 20) मैथुन एटले स्त्री संबंधि जोगरूप मैथुन ( चनविहे के०) चतुर्विषं एटले चार प्रकारी जना एबुं (पलत्ते के0) टले श्रीवीतराग प्रभुए प्रकाशेलु बे.
॥ तंजहा दवन । खिनन । कालना नावन । वनणं मेदुणे रूवेसु वा । रूवसहगेसु वा ॥
अर्थः-(तंजहा के0) तद्यया ते पूर्व कहेलुं चार प्रकारचें मैयुन आत्रमाणे जाणवू. (दवन के०) इव्यतः एटले इव्ये करीने, तथा (खित्तन के0 ) देवतः एटले त्रे करोने, तथा (कालने के0 ) कालतः एटले कालें करीने, तथा (जावन के0) जावतः एटले नावे करीने ( दबनणं के0) इव्ये करीन ( मेहुणे के0) मैथुनं एटले पूर्वे जेनुं वर्णन करवामां आव्यु ब एबुं ते मथुन ( रूवेमु के0) रूपेषु एटले मनुष्य, देव, तया तीर्यच संबंधि विविध प्रकारना मनने मोह पमामनारां रूपो संबंधि (वा के ) अथवा (रूवसहगसु के०) रूपसौजाग्येपु एटले पूर्वोक्त मनुष्यादिकना रुप संबंधि सौलाग्योन विपे ( वा के0) अथवा ॥ खित्तनणं मेदुणे नहलोए वा । अहोलाए वा । तिरियलोए वा । कालनगं मेहुणे दियावा । रानवा ॥
अर्थः-(खित्तनणं के०) देवतः एटले हरें करीने ( मेहुणे 0) मैथुन एटले स्त्रीसंबंधि जोगविलास ( नढलोए के) क लोके एटले कर्ध्व लोकमां (चा के०) अथवा (अहोलोए के0) अधोलोके एटले अधोलोकमां (वा कं0) अथवा (तिरियलोए के) तिर्यक लोक एटले तीळ लोकमां (वा के0) अथवा ( कालनणं के0) कालतः एटले कालेंकरीने ( मेहुणे के0) मैथुन एटले पूर्ववर्णवेला चतुर्गतिना स्त्रोसंबंधि लोगावलासो (दिया के0) दिवसे एटले दिवसने विष (वा के०) अथ- वा ( रान के) रात्री एटले रात्रिने विप (वा के०) अथवा
॥नावनणं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा । जंपियमए । इमस्स धम्मस्स । केवलिपन्नत्तस्स ॥
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॥
साधु
अर्थः-(जावणं के0)जावतः एटले जावे करीने (अणे के0) मैयुनं एटले पूर्व वर्गविला मनुष्यादिकनी खीसंबंधि प्रतिमा जोगविलासो ( रागेण के0 ) रागें करीने एटले मननी मीतिवमें करीने. अहीं से रागनो साथे लोज- पण उपलक्षणायी ग्रह
ण कर. अर्थात् रागें करीने अने लोनें करीने (बा के) प्रयथा (दोसेण के) पेण एटले हे करीने अर्यात मनना अग्रीतियी जरेला आवेशें करीने. अहीं नपलक्षणाची क्रोधने पण अंगीकार करवो.अर्थात् राग, हेप, लोन अने कोर्षे करीने हुँ मैथुन से नही. (जंपियमए के0) जे कंई में (इम्मस्त धम्मस्त के0 ) इमस्य धर्मस्य मा यतिधर्म मेलच्या एटले आ यतिधर्मने पाम्या पेहेला. दवे ते यतिधर्म केवो? तो के, (केवक्षिपन्नत्तस्स के०) केवतिषण तस्य एटले कैवच्य इाने करीने दीपायमान एवा केवली लगवाने प्ररूपेलो विविध प्रकारनो.
|| अहिंसाजरकणस्त । सञ्चाहिहियरस । विरापमूलस्त । खंतिप्पहारास्स ।। अर्य:-( वली ते यतिधर्म के तोके ( अहिंसालरणाम के ) अहिंसालक्षाणस्य एटले कोपा जीवोनी हिंसा विलकुल करवी नही ते रूप ले लक्षण जनुं एवो ते दयामय यतिधर्म प्रभु को ठे. वली यतिधर्म केवो तोके ( सच्चा हिडियस्त के0 ) सत्यदितार्थस्य एटले सत्य अने अत्यंत हितकारी अर्थात् प्रात्माने आजव संबंधि अने परजव संबंधि अत्यंत मुखकारी ले फल जेनुं एवो यतिधर्म बे. वजी ते यतिधर्म कंवा वे तोके, (विणयमुलस्त के0) बिनयमूलस्य एटले नन्ननारूपी विनय मूज पायो जेनो एवो त यतिधर्म . बक्षी ते यतिधर्म केवो ने तोके, (खानपहाणत के० ) शांति प्रधानस्य एटले कपारूपी जे अत्यंत नत्कृष्ट गुण तेणे करी प्रधान एटले नत्तम एवो ते यतिधर्म ले. अथवा खंति एटले मारूपी जे गुण ते ने प्रधान एटले मुख्य जेमां एवो ते यतिधर्म . वली ते यतिधर्म केवो ? ताके.
. ॥ अदिरमसुवनियस्त । नवसमपन्नवस्त । नवनचेरगुत्तस्स । अध्ययमाणस्त ||
अर्यः-( अहिरम मुवन्नियस्त के0 ) माहिरण्यसुवर्णकस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर हिरण्य एटले अलंकार आदिक | घड्याविनानुं काचुं मुवर्ण अने मुवर्ण एटले जेना आपण विगरे घावामां आवलां ने एबुं सुवर्ण. एवी रीतना बन्ने प्रकारों नां सुवर्णो राखद्यानो अणगारी मुनिराजो माटे अधिकार नयी, एवो ते यतिठे. वली ते यतिधर्म केवो ने तोके, (नव
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साधु समपनवस्म के0) नपशममजवस्य एटले नपशमरस अर्थात् समतारूप जे रम लेनो मनाव कहेतां महिमा जेनी अंदर एवो মনির || ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ले तोके ( नववंचचेरगुत्तस्स के ) नवब्रह्मचर्यगुप्तस्य एटले शीलनी नव वामरूप जे नव
अर्थः || प्रकार, ब्रह्मचर्यवृत्त तेणे करी गुप्त ययेलो अर्थात् नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुलिवालो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ॥११॥
बे! तोके, ( अप्पयमाणस्स के0) अपच्यमानस्य एटले जेनी अंदर रांधवा पकावया विगेरे भारंजसहित सर्व प्रकारना कार्योनो अणगारी मुनिराजोने अधिकार नयी एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो बे! तोके,
॥निरकावत्तियत्ल । कुरिक बलस्स । निरग्गिसरगस्त । संपखालियस्त ॥ अर्थ:-(जिरकावत्तियस्स के ) जिकात्तिकस्य एटले बैंतालीस प्रकारना माहारपाणी संबंधि जे दोपो तेनएं करीने रहित एवी चमरसमान जे निदावृत्ति. एटले गृहस्थीनने जेयी कीलामण कशा प्रकारनी पण नपज नही एवो निदावृत्ति जे यतिधर्मनी अंदर ले. एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (कुरिकतंबलस्त के0) कुदिसंबलस्य एटले जेटता आहारपाणीथी पोतानी नदरपूर्ती थाय, तेटलोज आहारपाणी लेवानी जेनी अंदर छुट बे, अर्थात् रातवासी आहार विगरे लेवानी के राखो मेलवानी जेनी अंदर छुट नयी एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ते! तो के, (निरगिसरस्म के0) निरन्यशरणस्य एटले वीजु ते शिवाय एटले श्रीवितरागमणीत यतिधर्म शिवाय वीजु को पश मंसारना जन्म जरा मरणरूप जयथी बोकावनारूं नयी. एवो ते यतिधर्म बे. वसीले यतिधर्म केवो बे? तो के, (संपरकालियरस के) संपक्षालितस्य एदले विविध प्रकारना कर्मोरूपी जे मेल, तया पापारूपी जे मेल ते पखालनारो एटले ते मेलने धोक्ने साफ करनारो एवो ते यतिधर्म . वली ते यतिधर्म केवो ने तोके,
॥ चत्तदोसस्त । गुणगहियस्त । निबियास्स । निवित्तिलरकणस्त ॥ अर्थ:-(चत्तदोसस्स के) च्यूनदापस्य एटले नष्ट ययेला सर्व प्रकारना देोपोजमायी एवो ते यतिधर्म डे. वली ते ।। ॥१०॥ यतिधर्म केवो बे? तोके (गुणगदियस्त के0) गुणग्रहितस्य एटले न्याय संबंधि सर्व प्रकारना कमायादिक गुणोने ग्रहण करनारोडे, अने उपलक्षणयी अन्याय आदिक अवगुणोने तजनारो एवो ते यतिधर्म बे. बली ते यानिधर्म केवो. नोके, (नि
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onal
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माधु प्रति
अर्थः
॥११॥
वियारस्स के) निर्विकारस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर कामदेवादिकनो विलकुल विकार नथी. एवो ने यतिधर्म बे. वली मुत्र ते यतिधर्म केवो ने तोके, (निवित्तिलखणस्त के ) निवृत्ति लक्षणस्य एटले मोक्ष अर्थात् सर्वपकारना संसारिक कार्यायकी अने सर्व प्रकारनां कर्मोथको मुकावारूप जे मोक्ष ते लक्षण जेनुं एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो बे तोके, ॥ पंचमहत्वयजुत्तस्स । असंनिहिसंचयस्त । अविसंवाश्यस्त । संसारपारगामियस्त । नि
बागमणपज्जवसाणफलस्स ॥ अर्थः-(पंचमहत्वयजुत्तस्स के0 ) पंचमहावृत्तयुक्तस्य एटले प्राणातिपातविरमण ॥१॥ मृपावादविरमा ॥॥ अदत्तादानविरमण ॥३॥ मैथुनविरमण ४॥ अने परिग्रह विरमण ॥ ५॥ए पांच प्रकारना जे महावृत्तो, तेनए करीने युक्त थयेलो एवो ते यतिधर्म जे. वली ते यतिधर्म केवो ने तोके, (असंनिहिसंचयस्त के) असंनिधिसंचयस्य एटले जे यतिधर्मने विषे चारप्रकारनो आहार तथा औषध प्रमुख राखवानी एटले वासी राखवानी अणगारी मुनीराजोने माटे मनाई करेली डे, एवो ते यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो बे! तोके, (अविसंवाश्यस्स के0) अविसंवादितस्य एटले जे यतिधर्मनेविष कोइपण प्रकारर्नु विसंवादीपणुं एटले असमंजसपणु नयी अर्थात् जेनी अंदर कशा प्रकारनो पण पूर्वापर विरोध नय। एवो ते यतिधम ले. वली ते यतिधर्म केवो ने तोके, (संसारपारगामियस्त के0 ) संसारपारगामिकस्य एटले विविध प्रकारना दुःखोयीलयंकर बनेलो एवो जे संसाररूपी महासमु ते यकी जीवोने पारपहोंचामनारो . वली ते यतिधर्म केवो जे! तोके (निहायगमणपज्जवसाणफलस्त के) निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्य एटले सर्व प्रकारनां कर्मोथीमुकावारूप जे निर्वाण कहेतां मोक्ष ते रूपी डे, बेलामां डेलु फल जेनुं एवो ते यतिधर्म ले.
॥ पुच्विंअन्नाणयाए । असवणयाए । अबोहियाए । अणनिगमेणं ।। अर्थः-(पुदि के० ) पूर्वे एटले आगल जेनुं विस्तारथी वर्णन करवामां आवेल , एवो ते यतिधर्म मेलव्या पेढा || ॥१९१६ ( अन्नाणयाए के0) अज्ञानतया एटले अझानपणायें करीने अर्थात् अझानपणाने वश थयांथकां (असवणयाए के0 ) अ. श्रवणतया एटले अणसांजलवें करीने अर्थात् ते यतिधर्मने सांजल्याविना तथा (अबोहियाए के) अबोधितया एटले अ
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सूत्र
प्रति निगम
प्रथः
॥११॥
बोधिपणायें करीने अर्थात् सम्बक्त्यने पाम्याविना, एटले सुगुरु, सुदेव, सथा भुधर्मने संपूर्णरीते उसख्याविना, तथा (अणनिगमेणं के ) अननिगमेन एटले ते पूर्वोक्त सम्यक्त्वने प्राप्त थयाविना एटले ते सम्यक्त्वने मेलव्याविना, तया,
.. ॥ अनिगमेणवा । पमाएणं । रागदोसपबिध्याए । बालयाए । मोहयाए ॥ | अर्थः-( अनिगमेण के0 ) अनिगमेन एटले ते सम्यक्त्वने अंगीकार करीने (वा के0) अयवा (पमाएणं के० ) प्रमादने एटले प्रमादने वश ययायकां अर्यात आलस्यना नावें करीने, तया (रागदोसपमिवक्ष्याए के०) रागप्रतिबंधतया एटले प्रीतीना गुणरूप जे राग तथा उपलदाणथी तेनी साथे लोजने पण ग्रहण करवो, एटले राग अने लोनना प्रतिबंधे करीने तथा क्षेप एटले अप्रीतीना गुणरूप जे ष ते, अने अहीं उपलक्षणथी तेनी साथे क्रोधने पण ग्रहण करवो. अर्थात् तेम कर, एटले देष अने क्रांधना प्रतिबंधे करीने, तथा ( बालयाए के ) वाल्यतया एटले बालपणायें करीने. अहीं वालपणुं छाने करीने जाणवू. एटले झानना बालपणायें करीने अर्थात् अज्ञानपणायें करीन, तया ( मोहयाए के०) मोहतया एदले मोहपपायें करीने अर्थात् महामोहने वशयवावमें करीने,
॥ मंदयाए । किम्याए । तिगारवगुरूयाए । चनक्कसानवगएणं । पंचिंदियवसठेणं ॥ अर्थ:-(मंदयाए के० ) मंदतया एटले मंदपणायें करीने, तथा (किम्याए के0) क्रीम्या एटले विविध प्रकारनी क्रीमायें करीने, तथा (निगारवगुरुयाए के) त्रिगारवगुरुतया एटले शातागारवआदिक त्रा प्रकारना अहंकारवमें करीने, तथा (चनकतावगएण के0 ) चतुःकपायोपगतेन एटले चार भकारना अर्थात क्रोध, मान, माया, अन लोज नामना जे चार कपायो तेनने माप्तथवावमें करीन, तथा (पंचिदियवसष्टेणं के) पंचिंश्यियशस्वेन एटले रमेह, घ्राणेंडि. चक्र, श्रोत्रंडितया स्पर्शतिनामनी जे पांचे इंडियो अने तेनना जे विस विषयो तेनने वशयवावमें करीने, एटले इंजिना विकारना बहुलपणायी, तथा,
॥ पमिपुरमन्नारियाए । सायासुखमणुपालयंतेणं । इहवानवे । अन्नसुवा । नवगहणेसु ॥ अर्थः-(पमिपुणेनारियाए के0 ) परिपूर्ण नारतया एटले संपूर्णजारपणायें करीने अर्थात आठ प्रकारना कौनो जे
॥११॥
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सूत्र
____ साधु |
प्रति
अर्थः
॥११॥
संपूर्णजार तेणें करीने, ( सायासुखमणुपालयंतेणं के0) शातामुखमनुपालनेन एटले शातावेदनीय नामना कर्मना नदययी प्राप्त ययेनुं जे विशेष सुख तेने अनुपालवायें करीने एटले लोगववावमें करीने, ते सघल क्या तोके, (इवानवे के0) अस्मिन् वा नवे एटले आ जवने विपे ( वा के0 ) अयवा (अन्नेमु के0 ) अन्येषु एटले बोजा (जवगहणेसु के0) नवगहनेषु एटले जन्मजरा तया मरण आदिक जे अत्यंत दुःखो तेथी गहन एटले अतिशय जयंकर बनेला एवा बीजा नवोने विषे
॥ मेहुणंसेवियंवा । सेवावियंवा । सेविजतंवा । परेहिंसमगुन्ना । तंनिंदामि । गरिहामि ॥
अर्थ:-( मेहणं के0) मैयुनं एटले स्त्री संबंधि जोगविलासोने ( मेवियं के0) मेवितं एटले जो में मेव्या होय, अर्थात् जोगव्या होय ( वा के0 ) अथवा (सेवावियं के0 ) सेवापितं .टले वीजा माणस पामे जो में मैथुन सेवराव्युं होय, (वा के ) अथवा ( से विजंतं के0) मैथुनने सेवता एवा (परेहिं के0 ) परेच्यः एटले बीजानने ( समणुन्नान के0 ) समनुझाताः एटले सम्यक प्रकारे जो में आया आपी होय, अर्थात् मैथुन सेवनारा एवा अन्य माणसोनी जो में अनुमोदना कर होय, तो (तं के0 ) तेने ( निंदामि के0 ) हुं निंदं छ अर्थात् मारा आत्मानी साहीयें ते मैथुन संबंधि पापोनी निंदा करूंछु. तथा (गरिहामि के0 ) गुरुआदिक अन्य माणसोनी सादीयें हुं मैथुन संबंधि पापोनी गर्दा करूंछं.
॥ तिविहं तिविदेणं । मगणं । वायाए । काएणं । अश्यं निंदामि । पझिपुग्नं संवरेमि ।। अर्थः-हवे ते मैथुन संबंधि पापोनी हुं केवीरीते निंदाआदिक कमंटुं? तोके, (तिविदंतिविहेणं के7) त्रिविधं त्रिविधेन एटले त्रिविधेत्रिविधं करीने (मणेणं के0 ) मनसा एटले मारां पोतानां मनवमें करीने, तथा ( वायाए के0 ) वाचया एटले मारां पोतानां वचनें करीने, तथा (काएणं के0) कायेन एटले मारां पोतानां शरीरवमें करीने, (अईयं केए) अतीतं एटले अतीत कालमा अर्थात् भूतकालमा मैथुन संबंधि जे कंश पापो में प्राचया होय, ते सद्यला पापोने (निंदामि के० ) हुं मारा पोताना आत्मानी साहीये निदुर्छ. तथा ( पमिपुन्नं के) प्रतिपन्नं एटले आ वर्तमान कालमा मैथुन संबंधि जे में कई पापोने आचर्या होय, ते रुघलां पापोने हुं (संवरेमि के0) संवरूं र्छ एटले ते सघलां पापोने हुं मारा आत्मानी साहीयें वोसरावं छु तया,
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साधु प्रति
॥११॥
. ॥ अणागयंपञ्चखामि । सबमेदुणे । जावजीवाए । अणिस्सिन्दं । नेवसय मेदुणे सेविजा ॥ || मूत्र
अर्थः-(अणागय के0 ) अनागतं एटले जविष्य काल संबंधि अर्थात् आवता काल संबंधि मैथुन संबंधि पापोने (प. || अर्थः चखामि के०) प्रत्याख्यामि एटले ९ पच्चखु छ. अर्थात् ते पापोनां हूं पच्चखाण करूं छु .वली (सई के०) सबै एटले सर्व प्र. कारना मैयुनने अथवा सर्वथकी मैथुनने (मेहणे के0) मैथुनं एटले मैथुनने हूं दूर करूं छु. हवे कई मुदलमुधी हुं ते मैथुनने दूर करूं छु! ताके ( जावजीवाए के) यावज्जीवितं एटले जेटली मुदतमुधी मारी जींदगानी रहे, तेटली मुदामुधी हुँ मैथुन संबंधी पापोने पच छ. हवे हुँ केवो छु! तोके, (अणिस्सिन के0 ) अनिच्छकोहं एटले हवें मने आ संसार संबंधों कोपण प्रकारना लोगोनो इच्छा नथी. वली ( सयं के0 ) है ( मेहणे के0) मैथुनं एटले संसार संबंधी जागाने ( नेवसे विज्जा के) हुँ बीलकुल सेवू नहि. अर्थात् स्रो संबंधी जोगविलासोने हुं लोगयु नहि.
॥ नेवन्नेहि मेहुणं सेवाविजा । मेहुणं सेवंतेवि अन्ने न समगुजाणिजा । तं जहा ॥ अर्थः- तेम ( अन्नेहिं के0) अन्येच्या एटले बीजा माणसो पासे (मेहण के0) मैधनं एटले खी संबंधी जोगविल सोने ( नेवसेवा विज्जा के0 ) हुं बीलकुल सेवरा, नहि. अर्यात् स्त्री संबंधि जोगविलासो हुँ वीजा माणसोपासे जोगवावु नहो. तेमज ( मेहुणं के ) मैथुनं एटले स्त्री संबंधि जोगविलासोने ( सेवतेवि के0 ) सेवता एवा पण एटले जोगवता एवा पण (अ. ने के0 ) अन्यान् वीजा माणमोने (न समणुजाणिज्जा के0) न समनुजानीयात् एटले हुं सम्यक् प्रकारें अनुझा आपुं नही. अर्थात् मैथुन सेवता एटले स्त्री संबंधि जोगविलासोने लोगवता एवा अन्य माणसोनो हुँ सम्यकप्रकारे अनुमोदना करूं नही. (तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते नीचेप्रमाणे.
॥ अरिहंत सस्कियं । सिह सस्कियं । साहु सस्कियं । देव सस्कियं । अप्प सस्कियं ॥ अर्य:-हवे हुं ते मैथुन कोनी कोनी सादी न सेवु! विगेरे. तो के, (अरिदंत सस्कियं के० ) कर्मोरूपी अरि कहेतां || " शत्रुनने अथवा कषायोरूपी शत्रुनने जीतनारा तया दणनारा एवा जे श्रीअरिहंत जगवान् तेमनी सादीये, तया (सिसस्कियं के) सिम सादिकं एटले आठ प्रकारना गुणोयें करी विराजमान तथा पंदर प्रकारना नेदोयें करीने युक्त ययेला ए
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साधु प्रति
॥११५॥
वा जे श्रीसिलगवान् तेन्नी साहीये, तथा (साह सस्कियं के0) साधुसाक्षिक एटले बत्रीस गुगोयें करी विराजमान ययेला ॥ मूत्र अने कंचन कामिनीना सागो एवा साधुमहाराजोनी सादीयें; अहीं नपलक्षणथी आचार्यमहाराज तथा नपाध्यायजी महारा
अर्थः जनुं पण ग्रहण कर. एटले आचार्य महाराज, नपाध्यायजी महाराज, तथा साधुजी महाराजनी सादिये. तया ( देवमरिकयं के०) देवसादिकं एटले शुइ सम्यक्त्वने धरनारा एवा विविधप्रकारना जे देवो तेननी सादिये. तया (अप्प सस्कियं के०) आत्मसादिकं एटले मारा पोताना आत्मानी साक्षियें करीने.
॥ एवं नव । निख्खु वा । निख्खुणी वा । संजय विरय पमिहय पञ्चरकाय पावकम्मे ।।
अर्थ-( एवं के०) एवीरीते (जवा के०) जवति एटले होय . कोण होय ! तोके (जिखु के0 )जिक्रुः एटले पांच महावृत्तोने सम्यक् प्रकारे धारण करीने शुक्ष रीतीथी पालनारा साधु ( वा के0) अथवा (जिखुणी के०) जितणी ए. टले पांच प्रकारना महावृत्ताने पालनारी साधवीन, ते ( संजय विरय पामहय के०) सत्तर प्रकारवालुं संयम एटले चारित्र, तथा बार प्रकारनो तप एटले ब प्रकारनो अत्यंतर तप नया ब प्रकारनो बाह्यतप अने पांच प्रकारनां महावृत्तीने अंगीकार करीने, तथा हणीने (पावकम्मे के०) पापकर्माणी एटले पापकायेंने ( पच्चरकाय के0) प्रसाख्याय एटले पचरकीने अर्थात् सर्व प्रकारनां पापकार्योंने दूर करीने. हवे ते कये कये समय? ते कह डे.
॥ दिया वा रान वा । एगन वा । परिसागन वा । सुत्ने वा । जागरमाणे वा । एस खलु ।। __अर्यः-(दिया के0 ) दिवसे एटले दिवसने विषे अर्थात् सूर्योदय ययापडी ( वा के0 ) अथवा ( राम के0) रात्री एटले रात्रिने विषे ( वा के० ) अथवा ( एग के0) एकः एटल फक्त एकाकी (वा के0 ) अथवा (परिसागन के०) घणां माणसोनी पर्षदा एटले सजाने विषे ( वा के0) अथवा (मुत्ते के) मुप्ते एटले मूताथकां अर्थात् निशने वश थयायकां (वा के ) अथवा ( जागरमाणे के0) जागृतावस्थायां एटले जागृत अवस्याने विषे अर्थात् जागतांयका ( वा के) अथ- || ॥११॥ वा (एस के०) जेर्नु पूर्वे विस्तारथी वर्णन करवामां आव्यु डे, एबुं मैथुन, (खलु के) निश्चयें करीने
॥ मेहुणस्स वेरमणे । हिए। सुहे । खम्मे । निस्सेसिए । अणुगामिए । पारगामिए ।
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साधु
মনি
अर्थः
अर्थः- ( मेहुणस्स के0 ) मैथुनस्य एटले स्त्री संबंधी नोगविलासोनुं (वेरमणे के०) जे विरमण एटले मैथुननो जे सर्व-| था प्रकारे त्याग करवो ते हवे ते मैंथुननो सर्वथा प्रकारनो साग केवो ? तोके (हिए के) हिते एटले आत्माने आज-॥ वमा अनें परजवमां, एम बन्ने नबोमा अत्यंत हितकारी जे. वली ते मैथुननो सर्वथा प्रकारे त्याग केवो बे? तोके, (मुहे के) मुखे एटले आत्माने आ जब अने परजवमां, एम बन्ने नवोमां अत्यंत सुखकारी बे. वली ते मैथुननो सर्वथा प्रकारनो त्याग केवो बे? तोके, (खम्मे के०) हमे एटले सर्वथा प्रकारे आत्माने चारे वाजुयी देम एटले कल्याणनो करनारो बे. वली ते मैथुननो सर्वथा प्रकारनो त्याग केवो तोके, (निस्सेसिए के) निःशेशिके एटले सर्व प्रकारनां कर्मोयी मूकावारूप जे मो६ तेने हमेशां आपनारो ले. वला ते सर्वथा प्रकारें मैथुनना न्याग केवो ले तोके, ( अणुगामिए के0) अनुगामिके एटले परजवमां पण आत्माने अत्यंत सुखनो करनारो ले. वली ते सर्वथा प्रकारे करेलो मैथुननो त्याग केवो ! तोके, (पारगामिए के0) पारगामिके एटले आ जयंकर एवा संसाररूपी समुश्यकी सर्व जीवाने पार पहोचामनारो दे. हवे केवीरीते ते नत्तम ले तोके,
॥ सव्वेसिं पाणाणं । सोर्सि जीवाणं । सोर्सि नूत्राणं । सधेप्सिं सत्ताणं । अउरकणयाए ।
अर्थः-( मवेसि के0 ) सर्वेषां एटले सघला ( पाशाणं के0 ) प्राणिनां, एटले सघला वेंशि. हि तया चतुरिहि प्राणीनने , तथा ( सन्वेसि के0) सर्वेषां एटले सघला ( जीवाणं के०) जीवानां एटले सर्व प्रकारना नियंचादिक पंचेंहि प्राणीनने, तथा (सवेसि के0 ) सर्वेषां एटले सघला ( भूनाणं के ) भूतानां एटले सर्व प्रकारना वनस्पति आदिक एकें प्राणीनने, तथा (सक्वेसि के ) सर्वेषां एटले सघला ( सत्ताणं के0 ) सत्वानां एटले विविध प्रकारना सर्व जातिना देवतानन (अदुरकणयाए के0) अदुःखनतया एटले दुःख नही देवावमें करीने. तथा.
॥ असोवणयाए । अजू गयाए । अतिप्पणयाए । अपीमणयाए ॥ अर्यः-(असोवणयाए के0) अशोजनतया एटले ते पूर्वे वर्णवेता जीवाने अशोजनपणं करवावमें करने, पटले ते जीवोने जेथी अप्रीति नत्पन्न याय एवू कार्य न करवावमें करीन, तथा (अजूरणयाए के0) अजीर्णतया एटले ते पूर्वोक्त जीवोने |
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साधु || जीर्ण अवस्था नहीं करवावमे करीने, अर्थात् ते जीवाने जथी जर्जरीतपा प्राप्त थाय से कार्य नही करवाया करीने, तथा ! मूत्र प्रति (अतिप्पणयाए के0 ) अतर्पणतया एटले ते पूर्वे कहेला जीवाने आहरपाणी जे न दे, तेने अतर्षण कहीये, अने तेवू अ- || अर्थः
तर्पण नही करवावमें करीने, अर्थात ते पूर्वोक्त जीवोने अध। अने तृपाथी व्याकुल नही करवावमें कराने, तथा ( अपीमण१.११॥ याए के0) अपीमनतया एटले ते पूर्व वर्णवेला जीवोन चरणादिकयी नही चांपवावमें करीने तथा.
॥अपरियावणियाए । अणुद्दवणयाए । महत्थे । महागुणे । महागुन्नावे ॥ अर्थः-(अपरियावणियाए के0) अपरितापनतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवाने असंत परिताप केदेतां कीलामणानही उपजाववावमें करोने. तथा ( अणुइवणयाए के0 ) अनुपश्वतया एटले ते पूर्व वर्णवेला सघला प्रकारना जीवोने को प. ण रीतथी नपच नही करवायें कराने. हवे ते मैथुन संबंधि करेलो सर्वथाप्रकारे साग केवो ! तो के (महत्ये के0) महा. थै एटले आ आत्माने महान् केहेतां मोटो जे अर्थ एटले फल तेने आपनारले वली ते मैथननो सर्वयाप्रकारे साग केवो ? तो के, (महागुणे के0 ) महान् गुणे एटले दमादिक असंत नत्तम प्रकारना जे गुणो, तेनएं करीने युक्त ययेलो बली ते मैथुननो सर्वयामकारनो साग केवो न तो के. ( महाणु नावे के० ) महानुलावे एटले जेनी अंदर मोदादिकनी परंपराथी यती प्राप्तिरूपी असंत नस्कृष्ट महिमा रहेलो वली ते मैथुननो सर्वथामकारनो साग केयो ? तो के,
॥ महापुरिसाणुचिन्ने । परमरिलिदेसियपसत्ये । तं उस्करकयाए । कम्मरक्याए । मुरकयाए ।
अर्थः-(महापुरिमाणु चिन्ने के० ) पहापुरुषानुचीf एटले तीर्थंकरादिक जे महान पुरुपो तेनए जेनुं अनुचीर्ण केहेतां अनुसरण करेलुं बे. अर्थात् तोयकरादिकोए जेनी अनुमोदना करेली , एवो ते मैथुननो साग बे, वली ते मैथुननो साग के. वो बे! तो के. ( परमरिसिदेसियपसत्ये के० ) परमपिदेशीयप्रशस्ते एटले नत्कृष्ट एवा ने गणधर महाराज आदिक परम इ.
॥११७1 पिन, तेननी तुलना करनारा पंचमहाताने धरनारा जे महामुनिराजो, तेनए जेनी प्रशंसा करेल) ले, एवो ते मैथुन संबंधि सर्वथा प्रकारनो त्याग . हवे ते मैथुनसंबंधि सर्वथामकारनो साग शामाटे करुं? तोके, (तं के0) ते मैथुनना त्यागने ( दुखरकयाए के0) दुःखयाय पटले जन्म, जरा तथा मरणादिकरूप जे आ संसारका नयंकर खो. नेननो क्वय थवामाटे एटलें ते
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साधु प्रति
११॥
दुःखोनो नाश थवामाटे हुं ते मैथुननो सर्वया प्रकारे त्याग करूं छु. वली शामाटे हुं ते मैथुननो सर्वया प्रकारे त्याग करूं छु? तो || सूत्र । के, ( कम्मरकयाए के ) कर्मयाय एटले झानावरणीआदिक आठे प्रकारना कमाना दय कहेतां नाशमाटे हुं ते मैयुननो स- || भी र्वया प्रकारे त्याग करूं छु. वली ते मैथुननो सर्वथाप्रकारे त्याग हुं शामाटे करूं छु! तोके, ( मुरकयाए के० ) मोहाय एटले सर्वथा प्रकारे जव चमणयकी मुक्त थवाने अर्थे एटले सिधिमुख मेलववामाटे हैं ते मैथुननो सर्वया प्रकारे त्याग करूं छ. बली शामाटे. हुं तेनो त्याग करूंछ! तोके,
॥ बोहिलानाए । संसारुत्तारणाए । तिकटु । नवसंपजताणं विहरामि ॥ अर्थः-(बोहिलालाए के0) बोधिलाजाय एटले वोधिबीजनी प्राप्तिमाटे अर्थात् मुगुरु सुधर्म अने सुदेवने प्राप्तकरवा रूप अने कुदेव, कुर्म अने कुगुरुने साग करवारूप जे सम्यक्ता तेनो लान थवामाटे हं ते मैथुननो साग करूंछु वली शामाटे हुं ते मैथुननो साग करूंछु! तोके, ( संस.रुत्तारणाए के0 ) संसारोत्तारणाय एटले मनुष्यगति तिर्यंचगति, नरकगति तय देवगति रूप जे चतुर्विध संसार, ते रूपी असंत जयंकर एवो जे महासमु तेथकी पारनतरवामाटे हुं ते मैथुननो सागकरूं छु. (ति कटु के०) इतिकृत्वा एटले एवीरीते करीने (नवसंपज्जताणं के0) मासकल्पादिक शास्त्रोमां श्रीवीतराग प्रभुए नुपदेशेला मासकल्पादिक विहारने सम्यकप्रकारे अंगीकार करीने (विहरामि के0) हुं विहारकरुं ..
॥ चनत्ये नंते महचए नवष्ठिनमि । सबान मेहुणान वेरमणं ॥ अर्थः-(जते के0 ) हे नदंत? एटले हे जगवन्! ( चनत्थे के0 ) चतुर्थे एटले चोथा मैथुनविरमण नामना (मदवए के0) महावृत्ताय, महावृत्तमाटे (नवनिमि के0 ) नत्तिष्टितोऽस्मि एटले १ कठेलो छं. अर्थात् मैथुन विरमण एटले स्त्रीसंवधि सर्व प्रकारना लोगोनो त्याग करवामाटे हुं तैयार थयेलो छ. अने एवोरीत हे नगवन् ! (सवान के0 ) सर्वनः एटले सर्वया प्रकारे अथवा सर्व प्रकारना ( मेहुणान के० ) मैथुनतः एटले स्त्री संजोग संबंधि मैथुनयको ( वेरमण के0 ) मने विरति . एटले सर्व ॥ ॥११७ प्रकारना मैथुनने हुं मारा पोताना आत्मान। मादीयें वोसरायु छु.
॥ इति मैथुनविरमणनामा चतुर्थालापकः संपूर्णः ॥
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मूत्र
माधु प्रति ।
अर्थः
१
||
॥अहावरे पंचमे नंते महबए । परिग्गहान वेरमणं । सचं नंते ॥ अर्थः-(अह के0) अथ एटले मैथुनविरमण नामना चोथा महावृत्तनुं विस्तारथी वर्णन कर्यावाद दवे ( अवरे के | अपरे, ते चोथा महावृत्त पनी बोजा (पंचमे के० ) पांचमा ( महत्वएं के0) महासत्ते, महात्त जे परिग्गहा के०) परिग्रहथकी (नंते के० ) हेलदंत! एटले हे जगवन् (वेरमणं के०) मने विरति . परिग्रह नामना पांचमा महासत्तने दिपे राग अने पिने अत्यंतरपरिग्रहरूप जाणवा, अने कंचन तथा कामिनीरूप जे बाह्यपरिग्रह तेथकी हे जगवन् मने विरतिवे. अर्थात् बन्ने प्रकारना परिग्रहनो इं साग करूं ई. अने (नंते के ) जदंत एटले हे जगवन् ! ( मई के ) सर्व एटले नपर जेनुं वर्णन करवामां आवेलुं बे, एवा सर्व प्रकारना (परिग्गरं के ) परिग्रहं एटले वाद्य अने अत्यंतर परिग्रहने (पञ्चरकामि के0 ) प्रसाख्यामि एटले हुं पचरुखं छु.
॥ से अप्पं वा बहुं वा । अणुं वा । श्रूतं वा । चित्तमंतं वा । अचिनमंतं वा ।। अर्थः-(से के०) ते पूर्व वर्णवेलो परिग्रह (अप्पं के० ) अल्पं एटले थोमो (वा के ) अथवा ( कई के0) वगरे (वा के0) अथवा (अj के० ) अणु एटले सूक्ष्म प्रकारनी वस्तु संबंधि (वा के0) अथवा (थूलं के) स्थूलं एटले स्थूल प्रकारनी वस्तु संबंधि (वा के0) अथवा ( चित्तमंत के0) चेतनावंतं एटले चेतना कहेता जे प्राण, ते ले जेने एवीसजीव वस्तु संबंधि परिग्रह, तथा (वा के0) अथवा ( अचित्तमंत के0) अचेतनावतं एटले चैतन्य यकी रहीत एवी वस्तुनो परिग्रह अर्थात् निर्जीव पदार्थो संबंधि परिग्रह ते ( वा के0) अथवा. ॥ नेव सयं परिग्गरं परिगिएिहजा । नेवन्नेहिं परिग्गरं परिगिएहाविजा। परिग्गरं परि
गिएदंतेवि अन्ने न समणुजाणामि ॥ अर्थः-(सयं के0) जेनुं पूर्वे वर्णन करवामां आव्यु बे, एवा ते (परिग्गहं के ) परिग्रहं एटले राग अने देषरूपी अ-|| ज्यंतर परिग्रहने अने कंचन तथा कामिनीरूपी बहारना सर्व प्रकारना परिग्रहने (नेव परिगिएिहज्जा नैव परिग्रहामि के हुँ परिसमंतात् एटले चारे बाजुयी बीलकुल ते परिग्रहने ग्रहण करुं नही. वली हुं शुं करूं? तोके, (अन्नहिं के०) अन्यच्यः
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मूत्र
अर्थः
साधु || एटले वीजा माणसोपासे (परिग्गरं के0) परिग्रहं एटले बाह्य तथा अत्यंतर परिग्रहने (नेवपरिगिएहाविजा के0) नैव प-|| प्रति
परिग्राहयामि एटले हूं बीलकुल ग्रहण करावू नही. अर्थात् बीजापासे हं परिग्रह रखावू नही. वली इंशुंकलं? तोके, (परिग्ग-|| हं के०) परिग्रहं एटले बाह्य अने अत्यंतर परिग्रहने (परिगिएहंतेवि के०) परिग्रहृतोऽपि एटले परिसमंतात् एटले चार
बाजुयी ते पूर्वोक्त परिग्रहने ग्रहण करता एवा (अन्ने के० ) अन्यान् एटले वीजा अपर माणसोने पण ( नसमणुजाणामि १२०॥
के) नसमनुझापयामि एटले सम्यकप्रकारे हूं अनुझा आपुं नही. अर्थात् परिग्रहने ग्रहण करनारा एवा बीजा अपर माणसोनी हुं अनुमोदना करूं नही. हवे ते परिग्रहने हुँ केटली मुदतमुधी न ग्रहण करूं? इयादि, तो के,
|| जावजीवाए । तिविहं तिविहेणं । मणेणं । वायाए । कारणं । नकरेमि । नकारवेमि ॥
अर्थः-(जावजीवाए के0 ) यावजीवितं एटले ज्यांमुधि हं जीवं सांसुधि अर्थात ज्यांमुधि मारी आ जींदगानी हैयात रहे सांसुधि हूं परिग्रह ग्रहण करूं नही, ग्रहण करावु नही, तम ग्रहण करनारनी अनुमोदना पण कर नही. हवे ते केवीरीते. तो के. (तिविहं निविदेणं के0) त्रिविधं त्रिविधेन एटले त्रिविध विविधं करीने ( महोणं कं०) मनमा एटले मनें करीने, अर्यात मारा पोताना अंतःकरण करीने, तथा ( वायाए कं० ) वाचया एटल मारा पोतानां बचनें करीन. तया (काएणं के०) कायेन एटले मारा पोताना शरीरबमें करीने ( न करेयि के0 ) न करोमि एटल हुं करूं नही, नया (न कामि के० ) हुं वीजा माणसपासे करावु नही. एटले बोजा माणसपासे हु परिग्रह रखाधु नदी. वली हुं शुं कम नो के. ॥ करतंपि अन्नं न समणुकाणामि । तस्स नंते पमिकमामि । निंदामि । गरिहामि । अ
प्पाणं वोमिरामि ॥ अर्थः-( करतपि के ) कुर्वनमपि एटले करता एवा पण अर्थात् ते पूर्वोक्त परिग्रहने राखता एवा पण ( अन्नं के0) अन्यं एटले वीजा अपर माणसने ( न समणुजाणामि के0 ) न समनुज्ञापयामि एटले सम्यकप्रकार हुं अनुहा आपुं नही, अ. र्थात् परिग्रहराखता एवा अन्य माणसांनी हुं अनुमोदना करूं नही. तया (नते के0) जदंत एटले द नगवन् ! (तस्स के0) तस्य एटले ते परिग्रह संबंधियाजदनमुधिमां लागला तमाम अतिचारांने (पमिकमायि के0 ) प्रतिक्रमामि एटल हं पमिक्कम
॥१०॥
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32.
साधु छं. अर्थात् ते परिग्रह संबंधि समस्तनकारना अतिचारोनी हु आलोचना करूं छु. तथा (निंदामि के0) ते सर्व अतिचारोनी मा- ||
मूत्र प्रति || रा आत्मानी सानिये हूं निंदा कर छ. तथा ( गरिहामि के0 ) गर्हामि एटले ते समस्तप्रकारना अतिचारोनी गुरु आदिक व- || अर्थ:
मीलोनी साक्षियें गर्दा करूंछ. तथा ( अप्पाणं के0) आत्मानं एटले मारा पोताना आत्माने (बोसिरामि के0) परिग्रह __॥११॥ || संबंधि सर्व प्रकारना पापोथी हूं वोसरावु ई. अर्थात् मारा आत्माने तथकी हुँ मुक्त करूंछ. ॥से परिग्गहे चनविहे पल्मने । तंजहा । दवा खिनन ।
कानावन॥ अर्थ:-( से के0) सः एटले ते ( परिग्गः के0 ) परिग्रहः एटले राग अने ३५ रूपी अत्यंतर परिग्रह अने कंचन का मिनी आदिक बाह्य परिग्रह ( चन विहे के0 ) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनो ( पलत्ते के0 ) प्रप्तः एटले केवलझानरूपी दीपके करीने दीपता एवा श्री केवलीनगवाने प्ररूपेलो बे. एटले उपदेशेलो . ( तंजहा के0) तघया एटले ते बन्ने प्रकारनो परिग्रह नीचेप्रमाणे ले. (दवन के0 ) इव्यतः एटले इव्ये करीने, तथा (खितन के0 ) देवतः एटले देवेंकरीने, तथा ( कालन के० ) कालतः एटले काले करीने, तथा (जावन के0 ) जावें करीने
॥ दवनगं परिग्गरे । सचित्ताचित्तमीसेसु दवेसु । खित्तनणं परिग्गहे सवलोए ।। अर्थः-(दवनणं के0 ) इव्यतः एटले इव्ये करीने (परिग्गहे के0 ) परिग्रहले ते, (सचित्ताचित्तामसेमु के०) सचित्ताचित्तमिश्रेषु एटले सचित्त केहेता जेनी अंदर जीव रहेलो एवी सचीत्त एटले सजीव वस्तु तथा अचित्त एटले जेनी अंदर जीवरदेलो नथी एवी निर्जीव वस्तु तथामिश्र एटले जेनीअंदर जीवरहलो होय एवी सचीत्त वस्तु अने जेनीअंदर जीव न रहेलो होय एवी अचीत्त वस्तु एम बन्ने प्रकारनी सचित्त अने अचित्त वस्तुन जेमा एकन। मलेलीहोय एवी मिश्र वस्तुनने विषे ते पूर्वोक्त परिग्रह जाणवो. ( दवेमु के0 ) इव्येषु एटले ते पूर्वोक्त व्योनेविप (खित्तनणं के०) क्षेत्रतः एटले देवेंकरीने (परिग्गहे के0 ) परिग्रहः एटले वाहा अने अत्यंतर एम बन्ने प्रकारनो परिग्रह ( सबलोए के०) सर्वलोके एटले सघला लो- || ॥११ कमां जाणवो. तथा,
॥ कालनणं परिग्गदे । दियावा । रान वा । नादनल परिग्गदे । अप्पग्घे वा महग्घे वा ॥
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साधु
प्रति०
॥१२२॥
अर्थ - (कालनं के० ) कालतः एटले कालें करीने ( परिग्गदे के० ) परिग्रहः एटसे बाह्य परिग्रह माने अभ्यंतर परिग्रह, एम ए बने मकारनो परिग्रह ( दिया के० ) दिवसे एटले दिवसनेविषे ( वा के० ) ध्यथवा (रान के० ) रात्रौ एटले रा(वि (वा के० ) अथवा, तथा ( जावनणं के० ) जावतः एटले जावें करीने ( परिग्गहे के० ) पूर्व जेनुं वर्णन करवामां jai परिग्रह अपने अभ्यंतर परिग्रह एम बने प्रकारनो परिग्रह ( छाप के० ) पाध्ये एटले जेनुं थो मूल्य याय एव वस्तुनेत्रिषे ( वा के० ) अथवा (महस्ये के० ) महा एटले मोदी जेनी किमत याय एत्री वस्तुनेविषे ते पू af परिग्रह जावो तथा,
॥ रागेण वा । दोसेल वा । जंपियमए । इम्मस्स धम्मस्स । केवलिपन्नत्तस्स || प्रर्यः - ( रागेण के० ) मोती के स्वरूप जेनुं एवा रागे करीने (वा दोनेल के० ) अथवा प एटले ती स्वरूप जेनुं एवा देवें करीने. अहीं उपलक्षणाश्री रागनी साये लोजने पण ग्रहण करवो तथा पनी साये क्रोधने पण ग्रहण करवो. अर्थात जावक परिग्रह क्रोध, छेप ने लोजयकी जाएगी. ( जंपियमए के० ) यदपिमया एटले जे कई में (इम्म के० ) एटले (धम्मस्त्र के० ) धर्मस्य पटले हवे जेतुं विस्तारयी वर्णन करवामां आवशे एवां निधर्म हवे ते यतिधर्म के वो तो के, (केवलिपन्नत्तस्य के० ) केवलिमणीतस्य एटले केवलज्ञानरूपी दीपकें करीने दीपना एवा श्रीकेवलिमहाराजे कलो बे, अर्थात् वा केवलिगवाने प्ररूपेलो बे. वली ते यतिधर्म केवों ने तो के,
॥ श्रहिंसालस्कणस्स | सच्चा हिडियस्स । विलयमूलस्स । खंतिपदागस्त ॥ अर्थः- (अहिंसालरकणास्म के० ) हिमालचणस्य एटले दिसा कंडेनां सर्व जातिना जीवांनी जे दिसा न करवी. कोइ पण जीवोने तेमना प्राणयकी कावा नही. एटले सर्व प्राणी पर दया राखी ने रूप ते लक्षण जनुं एवो त यतिधर्म ठेवली ते यतिधर्म कंवा ठे तो के. ( साहितियस्स के० ) मसहितार्थस्य एटले साची ने आत्माने या जब त या परजव एम बन्ने जवोमां संत हिनकारी के अर्थ कहता फल जेतुं एवो ने पति व वली ते पतिधर्म केवो तो के. (वियमूलस्त के० ) विनयमूलस्य एटले विनयरूपी ते मूल पायो जेना एवां ते यतिधर्म छे. वली ते यतिधने वा तो के,
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सूत्र
अर्थः
॥१२२
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साधु মনি
॥१२३॥
(खंतिपदाणस्म के) कांतिमयानस्य एटले कमा नामनो गुण ले प्रधान एटले मुख्य जेसं एपोते यतिधर्मठे. अर्यात कमा नामनो जे अति नत्तम गुण तेणें करीने प्रधान एटले अत्यंत ननम एगो ने यनिधर्म . एवो पण विकल्प करोने अर्य जाणवो. वली ते यतिधर्म केवो ने तोके.
॥अहिरमसुवनियस्त । नवसमपन्नवस्स । नववनचेरगुत्तस्स । अपयमागत्स ॥ अर्थः-(अहिरल मुवन्नियस्त 20 ) अदिरण्य मुवर्णकस्य एटले हिरण्य कहेतां जगं आपण आदिक यात्रामा आव्यां नयी एवं काचु सुवर्ण तया सुवर्ण एटले जेनां आभूषण आदिक धम्वामां आवेलां वे एवं घाट घाल मोनु. एवोरीनना बन्ने प्रकारनां सुवर्णयकी रहिन एवो ते यनिधर्म ने. वली ते यनिधर्म केवो ने तो के, (नवमयपनवस्त के0 ) नपशममतावस्य एटले नपशम केहेता जे शांतरस अथवा ममतानो समूह नेरूपी ने प्रत्नाव केहेतां महिमा जेनो एवो ते यनिधर्म ब. वली ते यतिधर्म केवो ले तोके, ( नववंचरगुत्तस्त के0 ) नवब्रह्मचर्यगुप्तस्य एटले नव प्रकारनो शीयलनी वामरूपी जे ब्रह्मवर्य महात्त तेणे करीने गुप्त ययेलो एवो ते यतिधर्म उ. अर्थात् जे यतिधर्मनी अंदर नव प्रकारथी ब्रह्मचर्य पालवान कहेलुं ले. वली ते यतिधर्म केवो ले तोके, (अपयमाणस्ल के0 ) अपच्यमानस्य एटले जे यनिधर्मन। अंदर रांचवा पकाववा विगरे आरं जवाला कार्योनो अणगारी मुनीराजाने बिलकुल अधिकार नथी, एवो ते यतिधर्म ने. बली ते यतिधर्म केवो . तोके,
॥लिखावनियस्स । कुखिसंबलस्स । निरग्गिसरणस्स । संपखालियस्स ॥ अर्य:-(लिखावत्तियस्त के०) निकात्तिकस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर तालोसप्रकारना दापोयें करीने रहित एवी निकात्तियी अणगारी मुनिराजोने निर्वाह चलाववान कहेलु डे, एवो ते यतिधर्म ले. अने ते निदात्त पण चमरनोपेठे कहेली , एटले चमर जेम पुष्पोने जरापण वाधा पहोंचाड्याविना मकरंदनो रस थोमोथोमो ग्रहण करडे, तेम अणगा। मुनिराजो पण गृहस्यीने जरापण बाधा पहोंचाड्याविना आहारपाणी योमायोमा ग्रहण करे ले. वली ते यतिधर्म केवो ! तोके,( कुखिसंबलस्स के०) कुदिसंबलस्य एटले जेटला आहारथी पेट जराय तेटलोज आहार लेवानी जे यतिधर्मनी अंदर लूट ठे, अने वासी आहार राखवानी ने यतिधर्मनी अंदर श्री वीतराग प्रजुए मना करेली छे, एवो ते यतिधर्म ठे. वली ते
॥११३
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मूत्र
साधु
यतिधर्म केवो! तोके (निरगिसरणस्स के निरयशरणस्य एटले जन्म, जरा तया मृत्यु आदिकना जयंकर कप्टोथी जे अ-|| पतिः | त्यंत जयजीत ययेलो ले, एवो जे आ संसाररूपी समुह तेथकी तारवामाटे ते यतिधर्म शिवाय बीजु कोइपण प्राणीनने शर
एं नयी एवो ते यतिधर्म . वली ते यतिधर्म केवोले तोके. ( संपरकालियस्स के0 ) संप्रदालितस्य एटले अनादिकालयी जी
वोने लागेलो जे विविध प्रकारना कापी मेल, अयवा पापारूपी जे मेल, तेने धोइने साफ करनारो एवो ते यतिधर्म . व११ ॥ ली ते यतिधर्म केवो ने तोके,
॥ चत्तदोसस्स । गुणगहियस्त । निधियारस्त । निविनिलकणस्त । अर्थः-(चचदासस्स के0) च्युत्तदोपस्य एटले जे यतिधर्मनी अदरथी सर्व प्रकारना दोपो नष्ट यया ले, एवो ते यतिधम अर्थात् मघला दोपोयें करीने जे यतिधर्म रहित ययेलो ने, एवो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म कबो ! तोके ( गुणगहियस्स के0) गुणग्रहितस्य एटले ज यतिधमनी अंदर न्याय आदिक विविध प्रकारना गुणोनुं ग्रहण करेलुं बे, अने अन्याय आदिक गुणो जेमांयी नष्ट ययेला डे, एवो ते यतिधर्म ठे. वली ते यतिधर्म केवो ! तोके (निवियारस्स के ) निर्विकारस्य एटले जे यतिधमन) अंदर कामदेवना विकार आदिक कोइपण प्रकाग्नो विकार नथी, एवो ते यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो ! तोके, (निहित्तिलरकणस्त के0 ) निवृत्तिलक्षणस्य एटले सर्वप्रकारनां जे कर्यो, संमार संबंधि सर्व प्रकारनां जे कार्यो, तेयकी मूकावारूप जे निवृत्ति एटले मोक्ष, ते ले लक्षण जनुं एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के,
॥ पंचमहत्वयजुत्तस्स । असंनिहिसंचयस्स । अविसंवाश्यस्स । संसारपारगामियस्स ॥ अर्थः-(पंचमहत्वयजुत्तस्स के0 ) पंचमहावृत्तयुक्तस्य एटले प्राणातिपातविरमण नामर्नु जे पहेलु महावृत्त, वृपावादविरमण नामनुं जे बीजं महावृत्त, अदत्तादान विरमण नामर्नु जे त्रीजु महावृत्त, मैथुन विरमण नामनुज चोथु महावृत्त, तथा परिग्रह विरमण नामनुं जे पांचमु महावृत्त, एवीरीतना पांचे प्रकारना महावृत्तोयी जे यतिधर्म युक्त ययेलो ले. एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ठे! तो के. (असंनिहिसंचयस्म के0) असंनिधिसंचयस्य एटल जे यतिधर्मनी अंदर चार प्रकारनो आहार तथा विविध प्रकारना औषध प्रमुख वामी राखबानो अणगारी मुनिराजो माटे बिलकुल अधिकार नथी, एवो
॥१२॥
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पय
साधु | ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (अविसंवाझ्यस्त के0 ) अविसंवादितस्य एटले ते श्रीवीतराग मनुए प्ररूपेला | प्रति यतिधर्मनी अंदर कोई पण प्रकारनो विसंवाद एटले असमंजसपणं नथी. अर्थात् एक जगोए शास्त्रमा जेने मारे कंई कहेलुं
होय, अने बोजी जगोए तेनेज माटे शास्त्रमा जे जूदाज प्रकारचें कहेलु होह. तेने विसंगदपणुं अथवा असमंजसपणुं कहीयें
एवी रीतेनो विसंवाद अथवा असमंजसपणुं जेनी अंदर नथी एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो बेतो के, (संसारपा॥१२॥
रगामियस्स के ) संसारपारगामिकस्य एटले, मनुष्यगति, तियेचगति, तथा नरकगति एम चार प्रकारनी गतिरूप जे आ संसाररूपी समुश् तेथकी पाणीनने पार पहोंचामनारो बे. अर्थात् मोदरूपी स्थानकने आपनारो एवो ते यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो बे! तो के.
॥ निवाणगमणपज्जवसाणफलस्स । पुविं अन्नाणयाए । असोवणयाए । । अर्थः-(निवागमणपजवसाणफलस्स के0) निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्य एटले निर्वाण कहेतां सकलकर्मोथकी मूकावारूप जे मोद, ते रूपी ने पर्यवसान कहेता बेलामा बेल्लु फल कहेता लाल जेनो एवो ते यतिधर्म बे; वली ते यशिधर्म केवो बे. तो के, पूर्वे जेनुं विस्तारथी वर्णन करवामां आव्यु ले एवो ते यतिधर्म ले. हवे (पुचि के0 ) पूर्वे एटले ते पूर्वोक्त यतिधर्म मेलव्या पेहेला ( अन्नाणयाए के0) अज्ञानतया एटले छाननी जे प्राप्ति ते ययाविना एटले ते पूर्वोक्त यतिधर्म संबंबि संपूर्ण छाननी प्राप्ति ययाविना, तया (असोवणयाए के0) अश्रवणतया एटले ते पूर्वोक्त यतिधर्म संबंधि कं; पण व्याख्यान असांजलवें करीने, अर्यात ते यतिधर्मने नही सांजलवावमें करीने, तथा,
॥ अबोहियाए । अणनिगमेणं । अनिगमेण वा । पमाएणं ।। अर्थः-( अवोहियाए के0 ) अबोधितया एटले बोधिवीज केहेतां जे सम्यक्त्व तेनी अप्राप्तिवमें करीने, अर्थात् ते यतिधर्म मेलव्या पेहेलां जो सम्यक्त्व न मेलव्यु होय तो तेथी. सम्यक्त्व एटले मुदेव, सुगुरु, तथा सुधर्मने रुमी रीते आदरवा, अ
| ॥१२॥ कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्मने तनवा. एवी रीतनुं सम्यक्त्व मेलव्याविना, तथा (अणजिगमेणं के0) अननिगमेन एटले ते पू. र्वोक्त सम्यक्त्वने प्राप्त न थवावमें करीने, (वा के०) अथवा (अलिगमेण के) अनिगमेन एटले ते पूर्वे कहेला सम्यक्त्व
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मूत्र
अर्थ:
साधु || ने, प्राप्त यइने, तथा (पमाएणं के० ) प्रमादेन एटले प्रमादवमें करोने, सया. সনি
॥रागदोप्तपझिवाझ्याए । बालयाए । मोहयाए । मंदयाए । किन्याए ॥
अर्थ:-( रागदोसपबिझ्याए के० ) रागषप्रतिबंधतया एटले मनने प्रीति नपजाववा रूप जे राग, तेना प्रतिबंधवमे क॥१२६॥ || रीनें, एटले रागना नबगलामे करीने, अहीं उपलक्षाणयी रागनी साये लोनने पण ग्रहण करवो. अर्थात् राग अने लोजना
प्रतिबंधे करीने, तया देषना प्रतिबंधे करीने, एटले पिना नबगलावमें करीने, अहीं उपलक्षणथी पनी साये क्रोधने पण ग्रहण करवो. अर्थात् ष अने क्रोधना, एम बन्नेना बालावमें करीने, तथा (वालयाए के०) वाल्यतया पटले हानसंबंधि वालनाववमें करीने, अर्थात् अझानपणाने वशपमवावमें करीने, तथा ( मोदयाए के0) मोहतया एटले जीवने अनादिकालथी लागी रहेलो जे मोह, तेना परिणामें करीने, तया ( मंदयाए के०) मंदतया एटल बुझिना मंदपणायें करीने, अर्यात मूर्खपणायें करीने, तथा (किम्याए के0) क्रोम्या पटले विविधप्रकारनी वालजावसंबंधि क्रीमायें करीने, अर्यात् जूद'जूदा मकारनी वालचेष्टायें करीने, तया
॥ तिगारवगुरुयाए । चनकमानवगएणं । पंचिंदियवसठेणं । पमिपुर नारियाए ॥ ___ अर्यः-(तिगारवगुरुयाए के0) त्रिगारवगुरुतया एटले त्रण प्रकारनो जे गर्व केदेता अहंकार, तेना गुरुपणायें करने एटले गर्व संबंधि जारपणायें करीने, तया ( चनुकसानवगएणं के ) चतुःकपायोपगतेन एटले क्रोध, मान, माया, तथा लोन संबंधि चार प्रकारना जे कषायो तेनने नपगत एटले प्राप्त वामें करीने, तथा (पचिदियवसट्टेणं के0 ) पचेंघियवशस्येन एटले रसेंशि. प्रा0डि, चरिशि, श्रोत्रंडि तया स्पर्शेडि, एवी रीतनी जे पांचकि , तथा तना जत्रेवीस विपयो, तेने वशयवावमें करीने, तथा (पमिपुजारयाए के0 ) प्रतिपूर्णजारतया एटले ज्ञानावरणी आदिक आठ प्रकारनां कर्मो, तेना संपूर्ण जारवमें करीने, एटले कर्मोना जारीपणाएं करीने तया,
॥ सायासुखमणुपालयंतेणं । इदं वा नवे, अन्नेसु वा नवगहणेसु ॥ अर्थ:-(सायामुखमापालयंतेणं के०) शातामुखानुपासनेन एतले शातावेदनीय नाना कर्मना नदययी मललं जे मुख,
॥११६।
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साधु
प्रति
२२॥
अने तेनुं जे अनुपालन कहेता जोगव, तेवमें करीने, अर्थात् शातासुख जोगववावमें करीने (हंवानवे के0) अस्मिन्वा || मुत्र जवे एटले आ चालता एवा वर्तमान काल संबंधि जवनेविषे अर्थात् मारी आ चालती एवी जींदगानी अंदर ( वा के0) अ
अर्थः थवा (अन्नसु के0 ) अन्येषु एटले वीजा (जवगहणेमु के ) नवगहनेषु एटले जन्न, जरा तथा मरण आदिक विविध प्रकारनां जे अत्यंत जयंकर कष्टो, अथवा आठ कर्मोंनी विटंबनारूप विविध प्रकारनी जे आपदान, तेयी पापीनने अत्यंत जय नपजावनारा एवा अन्य नवोनेविषे एटले जवांतरोनेविपे.
॥ परिग्गहो गहिन वा । गाहाविन वा । धिप्पंतो वा परोहिं समगुन्नान ॥ अर्थः-(परिग्गहो के० ) परिग्रहः एटले कंचन तथा कामिनीरूप वाह्यपरिग्रह अने रागपिरूप अत्यंतर परिग्रह, एम बन्ने प्रकारनो परिग्रह (गहिन के0 ) ग्रहितः एटले पूर्वोक्तरीते जो में ग्रहण कर्यो होय (वा के0) अथवा (गादाविन के0) ग्राहीतः एटले कोइपण बोजा माणस पासे ते बन्ने प्रकारनो परिग्रह जो में ग्रहण कराव्यो होय, ( वा के0 ) अथवा ( परेहि के) परेज्यः एटले बीजा माणसो के जेन (विप्पंतो के0 ) ते पूर्वोक्त बन्ने प्रकारना परिग्रहने ग्रहण करता होय. नेनने (वा के०) अथवा (समणुन्ना के0) समनुझातः एटले जो में सम्यकप्रकारे अनुदा आपी होय, अर्थात् जो में परिग्रहने राखनारा एवा अन्य माणसोनी सम्यक् प्रकारे अनुमोदना करी होय, तो .
॥ तं निंदामि । गरिहामि । तिविहं तिविहेणं । मणेणं । वायाए । काएणं । अश्यं निंदामि ॥ ॥ अर्थः-(तं के0) ते पूर्वोक्त बन्ने प्रकारना परिग्रह संबंधि अतिचारोने (निंदामि के0 ) हुं मारा आत्मानी सादी निदं छ. तथा ( गरिहामि के०) गर्हामि एटले गुरुआदिक परिजनोनी सादिये हुँ ते तमाम अतिचारोने गहुँ छ. हवे ते केवी रीते? तो के, (तिविहं तिविहेणं के0 ) विविधं त्रिविधेन एटले त्रिविधं त्रिविधं करीने, ( मणेणं के० ) मनसा एटले मारा पो ताना मनवमें करीने, तथा ( वायाए के0) वाचया एटले मारा पोताना वचनवमें करीने, तथा ( कारणं के०) कायेन एटले || ॥११॥ मारा पोतानां शरीरवमें करीने, (अश्यं के0) अतीतं एटले भूतकाल संबंधि परिग्रहना जे अतिचारो मने लागेला होय ते सर्व प्रकारना अतिचारोने ( निंदामि के0) मारा पोताना आत्मानी साहीयें हुं निएं छु. एटले ते अतिचारोनी हुं मारा पोताना
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साधु
सूत्र
द्रात
अर्थः
॥१३॥
आत्मानी साहियें निंदा करुं छु तथा,
॥ पमिपुन्नं संवरेमि । अणागयं पञ्चरकामि । सवं परिग्गरं । जावजीवाए । अणिसिन्हं ॥ ।
अर्थः-(पमिपुन्नं के० ) प्रतिपन्नं एटले आ वर्तमान काल संबंधि ते बने प्रकारना परिग्रहना लागेला जे अतिचारो तेनने (संवरेमि के) संवरामि एटले हुं संवरु छ, अर्थात् ते अतिचारोने हुं समेटी लेनं छु, एटले दूर करूं छ. तेमज (अणागयं के0 ) अनागतं एटले नविष्यकालसंबंधि ते बन्ने प्रकारना परिग्रह संबंधि लागेला सर्व प्रकारना अतिचारोने (पच्चरकामि के०) प्रसाख्यामि एटले हं पच्चख छ. अर्थात् ते सर्व प्रकारना अतिचारोने हुं दूर करूं छु. ( सवं के0 ) सर्व एटले बाह्य ततथा अज्यतर एम सर्व प्रकारना ( परिग्गरं के0) परिग्रहं एटले रागपरूप तथा कंचन कामिनीरूप परिग्रहने हुं दूर करूं छु. हवे ते परिग्रहने हूं क्यांसुधि दूर करूं छ? तो के, ( जावजीवाए के) यावज्जीवितं एटले ज्यांभुधि हूं जीवं सांसुधि, अर्थात् ज्यांसुधि मारी आ जींदगानी हैयात रहे खांसुधि हूं ते बन्ने प्रकारना एटले वाह्य अने अत्यंतर एम बन्ने प्रकारना परिग्रहनो हुँ साग करूं छु. वली हुं केवो छु. तो के, (अणिसिन्हं के0) अनिलकोऽहं एटले हवे मने आ संसार संबंधि कोइ पण प्रकारना जोगोनी इला नथी, अथवा ते बन्ने प्रकारना परिग्रहमांथी कोइ पण परिग्रहनी मने इला नथी. ॥ नेव सयं परिग्गरं परिगिहिज्जा । नेवन्नेहिं परिग्गरं परिगिएहाविज्जा । परिग्गरं परि
गिएहंतेवि अन्ने न समगुजाणिज्जा ॥ अर्थ:-( सयं के ) जेनुं पूर्व विस्तार पूर्वक वर्णन करवामां आवेलुंडे एवा ( परिग्गरं के ) कंचन कामिनी रूप बाह्य परिग्रहने अने रागरेपरूपी अत्यंतर परिग्रहने एम बन्न प्रकारना परिग्रहने (नेव पारगिएिहजा के0 ) हुं वोलकुल ग्रहण करूं नही. तेमज ( अन्नहिं के ) अन्येच्यः एटले बोजामाणसोपासे (परिग्गरं के0 ) परिग्रहं एटले ते पूर्व कहेला बन्ने प्रकारना परिग्रहने ( नेवपरिगिएहाविजा के0 ) नैव पग्ग्रिाहामि एटले हु बीलगुल ग्रहण करावु नही. अर्थात् ९ वीजा माणसो पासे ते पूर्वोक्त बन्ने प्रकारनो परिग्रह रखावू नही. तेमज (परिग्गरं के० ) परिग्रहं एटले ते वाह्य अने अज्यंतर एवा वन्ने प्रकारना परिग्रहने ( परिगिएहतेवि के०) परिगृहंतोऽपि एटले चारेबाजुयी ग्रहण करता एवा ( अन्ने के0) अन्यान् एटले
॥१२॥
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साधु
। सूत्र
अर्थः
बीजामाणसोने पण (नसमा जाणिजा के0 ) नसमनुज्ञापयेत्. हैं सम्यक् प्रकारे बीलकुल अनुझा आपुं नही, अर्थात् परिग्रप्रतिक॥ हने ग्रहण करनारा एवा अन्य माणसोनी है बिलकुल अनुमोदना करूं नही.
॥ तंजहा । अरिहंतसस्कियं । सिइल रिकयं । साहुसस्कियं । देवसस्कियं । अप्पसस्कियं ॥ ॥१२
__ अर्थः-(तंजहा के0 ) तद्यथा एटले ते नीचप्रमाणे जाणवू. हवे हुं ते परिग्रहने कोनी कोनी साहीयें तनुं छ? तो के, (अरिहंतसस्कियं के0 ) अरिहंतसादिकं एटले श्री अरिहंत प्रभुनी साक्षीय अर्थात् कमारूंपी शत्रुनने जेणे हएचा बे एवा श्री अरिहंत प्रभुनी सादीय बली कोनी साहीयें? तोके, (सिमस्कियं के0 ) सिसादिकं एटले पंदर लेदें करीने जेन सिह थयेला बे, तथा जे आठ प्रकारना गुणोयें कर। विराजमान थयेला बे, एवा श्री सिनगवाननी सानियें. वली कोनी साकिये? तोके, ( साहुसरिकयं के0 ) साधुसादिकं एटले जेन सत्तावीस प्रकारना गुणोयें करी विराजमान थयेला , तथा जेन पंच महावृत्तोने धारण करी रहेला डे, एवा श्री साधुजी महाराजनी साहीये. अहीं नपलक्षण थी नपाध्यायजी महाराजने तथा आचार्यजी महाराजने पण ग्रहण करवां. अर्थात् अरिहंत सिझ आचार्य नपाध्याय तथा साधुजी महाराज एम पांचे परमेष्टीनी माहियें हुं ते वन्ने मकारना परिग्रहनो त्याग करूं छु. वली कोनी साहीये? तोके, (देवमरिकयं के०) देवसादिकं ए टले शुक्ष सम्यक्त्वने धरनारा एवा जे भुवनपति आदिक देवो, तेननी साहीये हुं ते पन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग करूं टुं. वली कोनी सादीयें हुं ते परिग्रहनो त्याग करूं छ. तोके, ( अप्पस रिकयं के ) आत्मसादिक एटले मारा पोताना आत्मानी सादायें हुं ते बाह्य अने अत्यंतर एम बन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग करूं छु.
॥ एवं नव निख्खु वा । निख्खुणी वा । संजय विरय पमिहय पञ्चखाय पावकम्मे ॥
अर्यः-(एवं के०) पूर्व विस्तार सहित वर्णन करवाप्रमाणे (जव के0 ) जवति एटले होय ? कोण होय ! तो के, (निख्खु के) निक्रु एटले पांचे महारत्तोने धरनारा साधु मुनिराज (वा के0) अथवा (निख्खुणी के०) निणी एटले पां|| चे महावृत्ताने घरनारी एवी जैन साधवी (वा के०) अथवा (संजय विरयपमिहय के0 ) श्रीकवलीमहाराजे जैन आगमोमांक
हेला सत्तर प्रकारना मंजम, तथा वार प्रकारना तपो एटले नकारना अत्यंतर तप अने उपकारनो बाह्य तप, तथा पांच प्र.
॥१२ए
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1230॥
साधु || कारना महावृत्तीने अंगीकार करीने, तया वली शुकरीन? तोके, (पावकम्मे के0) पावकर्माणि एटले संजयने विराधना प. मूत्र अनि होंचामनारां एवां पाप कार्योने ( पञ्चरकाय के०) प्रसाख्याय एटले पण कोने अर्थात् दर करीने.
अर्थः ॥ दिया वा । रान वा । एगनवा । परिसागन वा । सुत्ने वा । जागरमाणे वा ॥ अर्यः- हवे ते कये वखते! तोके, (दिया के) दिवसे एटले दिवसने विपे अर्यात् मूर्यनो उदय थया पजी (वा के०) अयवा (रान के ) रात्री एटले रात्रिने विवे अर्थात् मूर्यनो अस्त यया पठी (वा के0 ) अथवा ( एग के0) एकः एटले कोश्नी पण सोबत विनानो एकाकी (वा के0) अथवा ( परिक्षागन के० ) पर्पदागः एटले जे जगोए घणां माणसो एक गं थयेलां होय, एवी पर्षदाने विपे अर्थात् घणा माणसोनी सजामांहो (वा के0 ) अयवा (सुत्ते के0 ) सुसे एटले मुतां थकां अर्थात् निशने वश ययांयकां (वा के०) अथवा (जागरमाणे के0 ) जागर्यमाणे एटले जागतां यकां अर्थात् निशरहित ययां यकां (वा के0) अयवा.
॥ एसखलु परिग्गहस्त वेरमणे दिए । सुदे । खम्मे । निस्सेलिए । अगुगामिए । अर्थः-(एस के0) एपः एटले पहेला जेनें विस्तार सहित वर्णन करवामां आवेने एवा (खल के0) निश्चयें करीने (परिग्गहस्त के) परिग्रहस्य एटले कंचनकामिनी रूप बाह्य परिग्रह तया रागपरूप अत्यंतर परिग्रह, एम बन्ने प्रकारनो जे परिग्रह, तेथकी (वेरमणे के० ) विरमणं एटले जे निवर्तवं, अर्थात् पाठा दव्युं एटले ते वन्ने प्रकारका पग्रिहनोन्याग करखो. हवे ते वन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग केवो ! तोके, (हिए के) हिते एटले आत्माने आ लव अने परजव एम बन्ने जवामां हितकारी अर्थात् यात्माने सर्वदा शुन परिणामनो नपजावनारो. वली ते वाद्य अने अन्यतर एवो ते वन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग केवो ? तोके, (सुहे के0 ) सुखे एटले या जब अने परजव एम बन्ने नबोमा अात्माने अत्यंत सुखनो करनारोले. अर्थात् परंपराए ते मोक्ष मुखने आपनारो ने. वली ते बन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग केवो ? तोके, (खम्भे के०) || ॥१३॥ देमे एटले आत्तानो घणा घणा प्रकारना कल्याणोनी परंपराननो करनार ले. वली ते बन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग के वो ? तोके, (निस्सेसिए के) निशेपिके एटले सर्व प्रकारना सांसारिक व्यापारोयको मूकावारूप अथवा सर्व प्रकारनां
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onal
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मृत्र
अर्थः
साधु | कर्मायकी मूकावारूप जे मोक्ष, तेने आपनारी. वली ते बन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग केवो ने तोके, (अणुगामिए के0) मति०
अनुगामिके एटले ते परिग्रहना त्यागर्नु फल दरेक जयोनेविषे पण प्राणीननी साये गमन करनारूं . हवे ते शुं करवाथको
तेवो बे! ते कहेले. ..१३१॥
॥सवेसि पाणाणं । सवेसि नूयाणं । सवेसि जीवाणं । सवेसि सत्तागं ॥ अर्थः-(ससि के०) सर्वेषां एटले समस्त अर्यात् सघला ( पाणाणं के ) प्राणीनां एटले पिजीवो. त्रा इंदिनवाला जीवो तथा चार इंनिवाला जीवो, एवीते विकलेंशिय जातीना जीवो. तेनने. वल। कोने ताके, (सत्वति के०) सर्वेषां एटले समस्त अर्यात् सघला (नुयाणं के०) नुतानां एटले वनस्पति आदिक एक निवाला जे जीवो, तेनने. बली कोने? तो के, ( सन्वेसि के०) सर्वेषां एटले सघला ( जीवाणं के0) जीवानां एटले तिर्यंच तया मनुष्य के जेनने पांच इंजिन होय , एवा मनुष्यादिक जीवोने, तथा बली कोने? तोके. ( सवेनि के0 ) सर्वेषां एटले सघलां (मत्ताणं के ) सत्यानां एटले भुवनपति आदिक सर्व प्रकारना दवाने. हवे ते सघला प्राणीनने शुं करवावमें करीने! तोके,
॥अउरकणयाए । असोवणयाए । अजुरणयाए । अतिपणयाए । अर्थः-(अदुरकणयाए के0 ) अदुःखनतया एटले ते पूर्व कहेला जीवाने कोइ पण प्रकारचें कंपण दुःख न नपजाकवावमें करीने अर्यात् ते जीवोने कंई पण कष्ट न नपजाववावमें करीने वली शुं करीने! तो के, ( असोवणयाए के० ) अशोकमतया एटले ते पूर्वे वणवेला जीगेने कोइ पण प्रकारनो शोक न नपजावबावमें करीने. एटले ते जीवोने जरा पण दिलगिरि न करवावमें करीने वली शुं करीने? तो के, (अजुरणयाए के0) अजीर्णतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवाने जीर्णावस्था न नपजाववावमें करीने, अर्थात् जेणे करीने जीवोने जरायें करीने जर्जरितपणुं प्राप्त याय, एबुं कार्य न करवावमें करीने; वली शुं करीमे? तो के, (अतिपणयाए के ) अतिपीमनतया एटले पूर्वे जेनुं वर्णन करवामां आवेलं बे, एवा ते चारे प्र. कारना जीवोने असंत पीमा एटले घणा प्रकारर्नु दुःख नही नत्पन्न करवावमें करीने, वली शुं करीने तो के,
॥ अपीमणयाए । अपरियावणियाए । अणुदवणयाए । महत्थे । महागुणे ॥
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मूत्र अर्थः
___ साधु ||
अर्थः-(अपोमणयाए के0) अपीलनतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला चारे प्रकारना जीवोने यंत्रादिकें करी नही पीलवा. वमें करीने; वली शुं करीने? तो के, (अपरियावणियाए के0) अपरितापनिकया एटले ते पूर्वे वर्णवेला चारे प्रकारना जीवो
ने कोइ पण प्रकारनो परिताप एटले खेद नही नत्पन्न करवावमें करीने; वली शुं करवावमें करीने! तो के, ( अणुद्दवणयाए ॥१३॥
के ) अनुपश्वतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवोने कोई पण प्रकारनो नपश्व एटले दुःख न उपजाववावमें करीने अर्थात जीवोने नपश्व रहितपणु करवावमें करीने; वली शुं करवावमें करीने तो के, कोइ पण प्रकारनु दुःख ते जीवोने नही नपजाववावमें करीने. हवे ते पूर्व वर्णवेला जीवोने पूर्वे वर्णवेलुं दुःख न नपजाववाथी शुं लान थाय ब? तो के, (महत्ये के०) महार्थे एटले ते पूर्वोक्त जीवोने दुःख न देवावमें करीने मोटो अर्थ एटले आत्माने आ नब अने परजब एम बन्ने लबोमा मोटुं फल प्राप्त थाय बे. वली ते जीवोने पूर्व वर्णवेलु उःख न नपजायवायी शुं लान थाय ने तो के, ( महागुणे के0 ) दमादिक मोटा मोटा गुणोनी आत्मान प्राप्ति याय ठे. बली शुं लाल थाय ने तो के,
॥ महाणुनावे । महापुरिसागुच्चिन्ने । परमरिसिदेसीयपसत् ॥ अर्थः-(महाणुनाबे के0 ) ते पूर्व वर्णवेला जीवोने पूर्वोक्त :ख न आपवावमें करीने मोक्षादिकना नत्कृष्ट महिपावातुं सुख परंपरायें करीने आत्माने तुरत प्राप्तयाय ले. हवे ते पूर्व विस्तार सहित वर्णवेली यतिधर्म केयो ! तो के. ( महापुरिसाणु चिन्ने के०) महापुरुषानुचीर्ण एटले केवलज्ञानरूपी दीपकें करीने प्रकाशवंत थयेला एवा श्री अरिहंत मनु आदिक महान पुरुषोयें जेनुं अनुकरण करेलु ठे, एवो ते यतिधर्म दे. वलीते यनिधर्म केवो ने तो के. ( परमसिदेसीयपसत्ये के०) परमऋषिदेशीयप्रशस्ते एटले गणधर महाराज आदिक असंत उत्कृष्ट जे इपिश्वरो, तेननी तुलना करनारा जे महान मुनीराजो, तेनए जे यतिधर्मनी घणोज प्रशंसा करेली बे, एवो ते यातधर्म ले. वली ते यतिधर्मने एटले परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृत्तने हुं शामाटे अंगोकार करुंछु? तो के,
॥ तंदुरकरक्याए । कम्मरकयाए । मुकयाए । बोहिलानाए । संसारुत्तारणाए । अर्थ:-(तं के०) ते पूर्वे वर्णमेला कंचन कामिनीरूप वाह्य परिग्रहने अने राग देपरूप अत्यंतर परिग्रहने, एवीरीतना
H॥१३॥
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सूत्र
साधु . সনি
अर्थः
ते बन्ने प्रकारना परिहाने (दुरकरकयाए के0) दुःखदयाय एटले जन्म, जरा, तथा मरणादिक संसारमा रहेला जे तीव्र प्र-|| कारनां दुखो, तेन्ना दयमाट अर्थात् ते सर्व प्रकारना दुःखोनो नाशयवामाटे हुं ते परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृत्तने अंगीकार करूं छु. वलोशामाटे हुं ते पांचमा महावृत्तने अंगीकार करूं छु? तो के, ( कमरकयाए के0 ) कर्मक्षयाय एटले ज्ञानावरणी आदिक आठ प्रकारनां जे कर्मो, तनना क्यमाटे एटले ते पूर्वोक्त सर्व प्रकारना कर्मोनो नाश थवामाटे हुँ ते पांचमा महात्तने अंगीकार करूंछ. बली शामाटे हूं ते महावृत्तने अंगीकार करूंछ. तो के, (मुरकयाए के0) मोदाय एटले सर्व प्र कारना कर्मोयको मूकावारूप जे मोद, तेनो प्राप्तिमाटे. अर्यात् मोदमुख मेलबवामाटे हुं ते पांचमा महावृत्तने अंगीकार करूं छ. वली शामाटे हूं ते महावृत्तने अंगीकार करूं ठु! तो के, ( बोहिलानाए के) बोधिलाजाय एटले बोधियीजनी प्राप्तिमाटे हुं ते महात्तने अंगीकार करूं छु. बोधिबीज एटले शुदेव, गुरु तथा धर्मने आदग्वारूप अने कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मने तजवारूप जे सम्यक्त्व, तेनी प्राप्तिमाटे हुं ते महावृत्तने अंगीकार करूं छं. वली शामाटे हुं ते महासत्तने अंगीकार करुं छु! तो के, (संसारुत्तारणाए के0 ) संसारोत्तारणाय एटले देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति, तया नरकगतिरूप जे चतुर्विध संसार, तेरूपी अत्यंत लयंकर एषो जे ससुइ, तेथकी पार नतरवामाटे हूं ते परिग्रह विरमण नामना महावृत्तने अंगीकार करूंछ. ॥ तिकटु । नवतंपजिनाणं विहरामि । पचमे ते महत्वए नवठिनमि । सबान परिग्ग
हान वेरमणं ॥ अर्थः-( तिकटु के0 ) इति कृत्वा एटले पूर्वे कहेलां विस्तार सहित वर्णनप्रमाणे ( नवसंपजित्ताणं के0 ) श्रीजिनेश्वरप्रजुए आगमोमां वर्णवेला मासकस्पादिक विहारोने सम्यकप्रकारे अंगीकार करीने (विहरामि के०) विचरामि एटले हं विचरूं छ. अर्थात् विहार करूं छु. वली एवी रीते (नंते के0 ) हे जदंत! एटले हे जगवन् ! (पंचमे के0 ) पांचमा ( महत्वए के0) महावृत्ताय एटले परिग्रह विरमण नामना महावृत्त माटे अर्थात् ते पांच, महात्त ग्रहण करवा माटे (नवहिनाम के) नत्तिष्टितोऽस्मि एटले हुं कनो ययेलो छ. अर्यात हुं तैयार थयेलो छ. अने तेयो ( सबान के0) सर्वतः एटले सर्वथकी अथवा बाह्य अने अत्यंतर एम सर्व प्रकारना (परिगहान के०) परिग्रहतः एटले परिग्रहयकी (वेरमणं के0) मने विरति ले.
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साधु प्रति०
१३॥
॥ इति परकीसूत्रे पंचमालापकः सपूर्णः ॥
मूत्र ॥ अहावरे । उढे नंते वए । राश्नोयणान वेरमणं । सवं नंते राश्नोयणं पञ्चरकामि ॥ अर्थः अर्थः-(अह के0) अथ एटले हवे ( अवरे के०) अपरे एटले पांचमा परिग्रह परिमाणविरमण नामना महावृत्तनं विस्तार पूर्वक वर्णन कर्यावाद (बढे के0 ) बहा एवा ( राश्लोयणानबए के0 ) रात्रि जोजन नामना वृत्तयकी (नंते के0 ) हे नदंत एटले दे जगवन् (वेरमण के0 ) मने विरति बे. अर्थात् मूर्यनो अस्त ययापली रात्रिलोजन करवानो हं साग कर छु. अने एवी रीते (नंते के० ) है जदंत ! एटले हे जगवन्! ( सच के0) सर्व एटले सर्वप्रकारना राषिलोजनने अथवा स
थकी रात्रिनोजनने ( पच्चरकामि के0) प्रसाख्यामि एटले हुँ पञ्चख्खु छु, अर्थात् हुं सर्वथकी रात्रिनोजननो साग करूं टुं हवे ते रात्रिनोजन केटला प्रकारनु, ते कहे .
॥सेअसणं वा । पाणं वा । खाश्मं वा । साश्मं वा । नेवसयं राश्नुजिजा ॥ अर्यः-(से के) ते पूर्व कहेलु राबिनोजन (असणं के0 ) अशनं एटले लातदाल आदिकनुं जोजन जाणवू. अ. र्थात् सूर्यनो अस्त थयापली जात, दाल आदिकन लोजन करवाना मने पञ्चरकाण. (वा के0) अथवा (पाणं के) पानीयं एटले जल आदिक दीवाना सर्व पदार्थो जाणवा. अर्थात् सूर्यनो अस्त ययावाद जलादिक पीवानापण मने पञ्चरकाणबे. ( वा के0 ) अथवा (खाश्मं के0) खादिम एटले सुखमीप्रमुख खादिम पदार्थो जाणवा. अर्थात् मूर्यनो अस्त यया पली मुखमीनो अहार करवाना मने पञ्चखाण. ( वा के० ) अथवा ( साइमं के0 ) स्वादिम एटले सोपारी प्रमुख स्वादिम वस्तुन जाणवी. अर्थात् मूर्यनो अस्त ययापठी सोपारी प्रमुख स्वादिमनी वस्तुननो आहार करवानां मने पञ्चखाण . ( वा के0) अथवा (सेव के०) पूर्वे जेनुं वर्णन करवामां आवेलु ठे, एवा ( रा के०) सूर्यास्त पनीना रात्रिनोजनने ( नेव जिज्जा के) नैव जदयामि एटले ई वीलकुल जक्षण करूं नही अर्थात् पर्व वर्णवेली चारे प्रकारनी वस्तुननो राभिए हं शिलकुल ॥१३॥ आहार करु नही. तेमज,
॥ नेवन्नेहिं रायं तुंजाविजा । राई लुजंतेवि अन्ने न समणुजाणामि ॥
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माधु प्रविण
१३५॥
अर्यः-( अन्नेहिं के० ) अन्येच्या एटले बीजापासे ( रायं के० ) पूर्व वर्णवेला चारे प्रकारना आहारोने सूर्यास्त यया- || मूत्र पडी (झुंजाविजा के0 ) हूं जहाण करावु नही. अर्थात् बीजापासे हुं रात्रि नोजन करावू नही. ( राई के) मूर्यास्त पसीना
अर्थः पूर्वे वर्णवेला रात्रि जोजनने (भुंजतेवि के) भुजतोऽपि एटले नदण करता एवा ( अन्ने के ) अन्यान् एटले वीजा माणसोने पण (नसमणुजाणामि के0 ) नसमनुझापयामि एटले सम्यक प्रकारें हैं अनुझा आपुं नही. अर्थात् रात्रि जोजा करनारा एवा अन्य माणसोनी हुं सम्यक् प्रकारे अनुमोदना करूं नही. हवे ते सघलुं हूं केटली मुदतमुधि न करूं. तो के,
॥ जावजीवाए । तिविहं तिविदेणं । मणणं । वायाए । कारणं । न करेमि ॥ अर्थ:-( जावजीवाए के0) यावज्जीवितं एटले ज्यांमुधि मारी आ जींदगानी हयात रहे त्यांमुधि हुँ मूर्यास्त पनीना रात्रि जोजननो त्याग करुं हुं. हवे केवीरीते हूं ते रात्रिनोजननो त्याग करूं छै! तो के, (तिविदंतिविहेणं के०) त्रिविधं त्रिवि धेन एटले त्रिविधं त्रिविधे करीने (मणेणं के०) मनसा एटले मारां पोतानां मनें करीने, तया (वायाए के0) वायया एटले मारां पोतानां वचनें करीने, तथा (काए के) कोयन एटले मारां पोतानां शरीरवमें करोने, (नकरेमि के0) एटले पूर्व जेनु विस्तारथी वर्णन करवामां आवेलुं डे, एवा अशन, पान, खादिम, स्वादिम, एम चारे प्रकारना आहारोनुं मृर्यास्तपनी हैं जहाण करूं नही. ॥ न कारवेमि । करंतंपि अन्नं न समगुजाणामि । तस्स नंते परिकमामि । निंदामि ।
गरिहामि ॥ अर्थः -(नकारवेमि के0) नकारयामि एटले पूर्वे कहेला ते चारे प्रकारचें जोजन मूर्यास्त ययापडी बीजा कोइ पण | माणसपासे हूं कराई नहीअर्थात् वीजा कोइ पण माणसपासे हूं रात्रि जोजन करावू नही. वली हूं शुं न करूं? तो के, (करं तंपि के0) कुर्वतमपि एटले रात्रिनोजन करता एवा पण अर्थात् पूर्वे कहेला अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे || ॥१३५ प्रकारना आहारोनुं मूर्यनो अस्तययापनी रात्रिए लोजन करता एवा ( अन्नं के० ) अन्यं एटले बीजा माणसने ( नसमणुजाणामि के0) नसमनुज्ञापयामि एटले सम्यक प्रकार हूं अनुझा आपुं नही. अर्थात् मूर्यनो अस्तययापटी रात्रिए पूर्वोक्त
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साधु
सूत्र अर्थः
प्रति
चारे प्रकारना अहारोनुं लोजन करता एवा अन्य माणसानी हुं अनुमोदना करुनही. वलीते रात्रिनोजन संबंधि जे कांस्य. | तिचारो लागेला होय, ते सर्व प्रकारना अतिचारोने (नंते के०) हे जगवन् ( तस्स के ) तस्य एटले तेने (पमिकमामि के०) प्रतिक्रमामि एटले हु पमिक्कमुं छं. अर्थात् ते संबंधि सर्व अतिचारोने हुं दूर करुंछं. वलीशुं करूं छु? तो के, (निंदामि के ) निंदे एटले ते सूर्यास्त पनी करेला चारे प्रकारनां अतिचारोने हं माराआत्मानी साहीयें निंदुछु. वली हुं शुं करुंछ? तोके, (गरिहामि के ) गर्हामि एटले ते सूर्यास्त पड़ी करेला चारे प्रकारना रात्रिनोजन संबंधि अतिचारोने हुं गुरु आदिक अन्यनी सादिये गहुँ छ. अर्थात् ते अतिचागेनी हुँ गर्दा करुंटुं. वली हुं शुं करूंछं तो के,
॥ अप्पाणं वोलिरामि । से राश्नोयणे । चनविहे पप्मने । तंजहा । दवन ॥ अर्थः-(अप्पाणं वोसिरामि के०) आत्मानं वो सिरामि एटले सूर्यास्तपजीना चारे प्रकारना रात्रि जोजन संबंधि सर्व प्रकारना अतिचरो माटे हुं मारा आत्माने बोसरा, छं. अर्थात् ते अतिचारोया हुं मारा आ आत्माने मुक्त करूं. हवे ते रात्रिलोजन श्री वीतराग प्राए जैन आगमामा केटला प्रकारचें कहेलु ले ते कहे जे. (से के०) सः एटले पूर्व जनुं विस्तार सहित वर्णन करवामां आव्यु बे, एवं ते सूर्यास्त पनीनु रात्रि जोजन (चनविद के0 ) चतुर्विधः एटले चार प्रकारो जेना, अर्यात् चार प्रकारचें (पपत्ते के ) प्रप्तः एटले केवलझानरूपी दीपकें करीने दीपता एबा श्री कंवलज्ञानी प्रभुयें जैन सिहांतोमा प्ररूप्यु ने. ( त जहा के0 ) तद्यया एटले ते रात्रि जोजन नीचे प्रमाणे चार प्रकारानुं बे. हवं ते चारे प्रकारो कहे . ( दवन के0 ) इव्यतः एटले पहेलुं व्ययकी रात्रि जोजन जाणवू.
॥ खित्तन । कालन । नावन । दवळणं । राइनोयणे । असणे । वा पाणे वा ॥ __ अर्थ:-(खित्तन के0 ) देवतः एटले देवयकी वीजं रात्रिनोजन जाणवू. तथा (कालने के0 ) कालतः एटले कालें क रीने त्रीजु रात्रि जोजन जाणवू. तथा (नाव के) लावतः एटले नावें करीन चा, रात्रिनोजन जाण. हवे ते चारे मकारना रात्रिनोजननुं विस्तार सहित वर्णन करे ले. (दवन के ) व्येन एटले इव्ये करीने ( राइलोयणे के0) रात्रिलोजनं एटले सूर्यास्त पनीनु ते पूर्वोक्त रात्रिनोजन ( असण के०) अशने एटले दालनात प्रमुखनु रात्रिनोजन जाण. (वा
१३६॥
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साधु
के० ) अथवा (पाणे के0 ) पानीयं एटले पाणी संबंधि रात्रिनोजन जाणवू. अहीं नपलक्षाणथी पीवाना सर्व प्रकारना पदा-! মনি। | योनुं ग्रहण कर. अर्थात् पीवाना सर्व प्रकारना पदार्थो मारे पीवा नहीं ( वा के0) अथवा.
अर्थः ॥खाइमे वा । साश्मे वा । खित्तनणं । राश्नोयणे । समयखित्ते ॥ ॥१३॥|| अर्थः--( खाश्मे के ) खादिम एटले मुखमा प्रमुख खादिम पदार्थोनुं रात्रिनोजन जाणवू. (वा के0) अथवा (साइ
मे के0 ) स्वादियं एटले सोपारी प्रमुख स्वादिम पदार्थोनुं रात्रि लोजन जाण. (वा के0) अथवा (खित्तनणं के०) दे। ण एटले क्षेत्रथकी (राश्नोयणे के7) रात्रि नोजनं एटले सूर्यास्तपनीनु अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम, एम चारे प्र. कारोनुं रात्रि जोजन ( समपखित्ते के0 ) समयक्षेत्रे एटले, ते जोजन करती वेलायें जे कोइ जग्या होय, ते जग्याएं सूर्यास्त पडी, रात्रि जोजन जाणवू. अर्थात् कोइ पण जगोएं रात्रि जोजन करूं नही. ए देवयकी रात्रिलोजन जाणवू.
॥ कालनणं । रायन्नोयणे । दिया वा । रानवा नावनणं । राइनोयणे ॥ अर्थः-(कालनणं के0) कालेन एटले कालें करीने ( राइनोयणे के0 ) रात्रिलोजनं एटले मूर्यना अस्तथया पलीन रात्रि जोजन ( दिया के) दिवसे एटले मूर्यनो नदयथया पबीना दिवसमा जागमा (वा के0) अथवा (रान के० ) रात्री एटले रात्रिनेविषे, अर्थात् मूर्यनो अस्तथयापली (वा के० ) अथवा (जावनणं के ) जावन एटले जावें करीने (राइनो यणे के० ) रात्रि भोजनं एटले मूर्यनो अस्तयया पलीन अशन, पान, खादिम संबंधि, एम चारे प्रकारचें रात्रि जोजन.
॥ तिने वा । ककुए वा । कसायले वा | अंबिले वा । महुरे वा । लवणे वा ।। अर्थः-(तित्ते के0 ) तिक्ते एटले जेनो तिखासवालो स्वाद होय ते, रात्रि संबंधि लोजन जाणवू. ( वा के० ) अथवा कमुए के0) कटुके एटले जेनो कम्वासवालो स्वाद होय तेवं रात्रि संबंधि नोजन जाणवु. ( वा के0 ) अथवा ( कसायले के) कषायले एटले गेनो कपायेलो स्वाद होय तेवू रात्रि संबंधि जोजन जाण. (वा के) अथवा ( अंबिले के0) आम्ले
| ॥१३७ एटले जे वस्तुनो आम्ल एटले खटाशवालो स्वाद होय तेवु रात्रि संबंधि जोजन जाणवु. ( वा के0 ) अथवा ( महुरे के०) म. धुरे एटले जे वस्तुनो मधुरो स्वाद होय तेवा प्रकारचें रात्रि संबंधि लोजन जाणवु (वा के0) अथवा (लवणे के०) लवने
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मूत्र अर्थः
प्रति
माधु || एटले जे वस्तुनो लवण एटले खारो स्वाद होय तेवु रात्रि संबंधि नोजन जाणाडे. ( वा के) अयवा
॥ रागेण वा दोसेण वा । जंपियमए । इम्मस्त धम्मस्त । केवलिपन्नत्तस्स ॥
अर्थः-(रागण के०) रागें करीने रात्रि संबंधि जे जोजनकयु होय ते. अहीं तेनी साथे उपलक्षणयो लोजने पण ग्र११३०॥ || हण करवो. एटले रागें करीने अने लोनें करीने. (वा के0) अथवा ( दोसेण के0) पेण एटले ३ करीने रात्रि संबंधि जे
जोजन कयु होय ते जाणवू. अहीं तेनी साये पण नपलक्षणथी क्रोधने ग्रहण करवो. एटले हेपें करीने तथा क्रोधे करीने. (वा के०) अयवा (जंपियमए के० ) यदपिम या एटले जे कंई में ( इम्मस्स के ) श्मस्य एटले हव जेनु विसतारथी वर्णन करवामां आवशे ते (धम्मस्स के ) धर्मस्य एटले यतिधर्म. ते यतिधर्म केवो बे? तो के, (केवलिपन्नत्तस्त के) केवलिमगीतस्य एटले केवलज्ञानरूपी दीपकें करीने दीपता एवा श्री केवलि जगवाने प्ररूपेलो, एवो ते यतिधर्म के वली ते यतिधर्म केवो बे! तो के,
॥ अहिंसातकणस्त । सञ्चादिठियस्स । विणयमूलस्स । खंतिपदाणस्स ॥ अर्थ;-(अहिंसालरकणस्स के) अहिंसालक्षणस्य एटले अहिंसा केतां सर्व प्रकारना जीवाने बंधनवध आदिकन जे दुःख नदेवू, तेने अहिंसा कहीये. अर्थात् तेवा प्रकारनी अहिंसारूप जे जीवदया, ते ले लक्षण जेनुं एवो ते यतिधर्म ले. बली ते यतिधर्म केवो बे? तो के, (सच्चा हिटियस्स के ) ससहितार्थस्य एटले आ जब अने परजव एम वन्ने नवोमां सस अने
आपणा आ आत्माने अत्यंत हितकारी एटले लाल करनारोले अर्थ केतां फल जेनुं एवो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (विणयमूलस के०) विनयमूलस्य एटले विनय कहेतां जे नम्रता ते ने मूल एटले मूलपायो जेनो, एवो ते यतिधर्म ले. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (खतिपदाणस्त के०) दांतिप्रधानम्य पटले दांति ए नायनो गुण ने प्रधान एटले अत्यंत उत्तम जेमां, एवो ते यतिधर्म बे. अथवा दांति एटले क्षमा नामनो जे गुण, तेणे करीने प्रधान एटले अत्यंत नु- त्तम एवो ते यतिधर्म ले वली ते यतिधर्म केवो ? नो के,
॥ अहिरमसुवनियस्स । नवसमपत्नवस्त । नववनचेरगुत्तस्स ॥
१३।
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साधु
प्रति
॥१३॥
अर्थ:- (अहिरावन्नयस्त के० ) हिरण्यसुवर्णकस्य एटले हिरण्य कहतां जे काचुं सुवर्णा अने सुवर्ण एटले जेना अलंकारादिक वामां आवेलां बे. एवं सुवर्ण जाणवु अर्थात् ए पूर्व कहेला बन्ने प्रकारना सुवयकी रहित एटले विनरूप एव ते यतिधर्म ठे वली ते यतिधर्म केवो है? तो के, (नवसमपनवस्स के० ) उपशममात्रस्य एटले उपशम केदेतां शांतता अथवा शांतरस नामनो जे उत्तम रस, तेनो जे प्रजाव एटले ममिमा, ते बे, जेनी अंदर एवो ते यतिधर्म ठे वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के ( नववंजचेरगुत्तस्स के० ) नवब्रह्मचर्य गुप्तस्य एटले नव प्रकारनी शीयलनी वारुरूप नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यवृत्तनीगुप्ति तेणें करीने युक्त थयेलो, एवो ते पूर्व वर्णवेो यतिधर्म ठे वली ते यतिधर्म केवो है? तो के,
॥ श्रप्यमाणस्स । निरकावत्तियस्स । कुरिकसंबलस्स । निरग्गिसरणस्स ॥
अर्थः- (अप्पयमाणस्स के ) प्रपच्यमानस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर पंच महावृत्तने धरनारा एवा अणगारी साधुमुनिराजोने वा पकाववा विगेरे जे आरंज सहित कार्यों, ते करवाना अधिकार नयी एवोते यतिधर्म ठे वली ते यतिधर्म वो बे? तोके, (निखावत्तियस्त के० ) जिकावृत्तिकस्य एटले बेंतालीस प्रकारना में निकासंबंधि दोषो तेथकी रहित एवा आहारपाणी लेवानो जे यतिधर्मनी अंदर पंच महावृत्तधारी अणगारी साधुमुनिराजोने अधिकार ते, एवो ते यतिधर्म छे. वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के, ( कुरिकसंबलस्स के० ) कुद्दिसंवलस्य एटले जेटला आहारथी उणोदरीतप सचवाय तेटलोज आहार लेवानो जे यतिधर्मनी अंदर साघुमुनिराजोने अधिकार के एवो ते यतिधर्म छे. अर्थात जे यतिधर्मनी अंदर वासी आ हार राखवानो मुनिराजोने अधिकार नयी एवो ते यतिधर्म ठे वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के, ( निरग्गिसरणस्स के० ) (नशरणस्य एटले जे यतिधर्मनी तुलना करनारुं या जयंकर एवा संसाररूपी समु यकी जय पामता एवा प्राणन्ने तारनारुं बीजुं को शरणुं एटले आधार नयी, एवो ते यतिधर्म छे. वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के,
|| संपरका लियस्स । चत्तदोसस्स । गुणगहियस्स । निचियारस्स ||
अर्थः- (संपरका लियस के० ) संप्रहालितस्य एटले अनादि कालना पर्यटनथी जीवोने लागी रहेलो, एत्रो विविध म कारना कर्मोरूपी जे मेल, तेने धोइने साफ करवामां समर्थ, एवो ते यतिधर्म ठे वली ते यतिधर्म केवो ठे? तो के, ( चचदोस
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सूत्र
अर्थः
४.१.३
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साधु ।
प्रतिष
॥२४॥
म्स के च्युतदोषस्य एटले नाश पामेला जे दोषो जेनी अंदरथी एवो ते यतिम ले. अर्थात् सर्व प्रकारना दोषोयकी ते यतिधर्म रहित थयेलो . वलो ते यतिधर्म केवो ने तो के, (गुणगहियस्स के0 ) गुणगृहितस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर क-|| अर्थ: मा आदिक गुणोनुं ग्रहण करलुं बे, तया विविध प्रकारना दोषोनो जेनी अदरथी त्याग करेलो डे, एवो ते यतिधर्म डे. वली ते यतिधर्म केवो बे! तो के, (निवियारस्स के ) निर्विकारस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर कामदवेआदिक कोइपण प्रकारनो विकार रहेलो नथी, एवो ते यतिधर्म ले. अर्थात् ते यतिधर्मनी अंदर कोपण प्रकारनो विकार नथी.वली ते यतिधर्म केवो डे! तो के,
॥ निविनिलकणस्त । पंचमहत्वयजुतस्स । असंनिहिसंचयस्स ॥ अर्थः-(निवित्तिलरकणस्स के0) निवृत्तिलक्षणस्य एटले संसारना सर्व प्रकारना व्यवहारिक कार्योथी जे निवृत्त थबुं, अथवा सर्व प्रकारना कर्मोरूपी बंधनोयी सर्वथा प्रकारे जे निवृत्त यq. अर्थात् कर्मोथकी मूकावारूप जे निवृत्ति एटले मोक्ष ते लक्षण जेनु, एवो ते यतिमर्ध . वली ते यतिधर्म केवो ने तो के, (पंचमहत्वयजुतस्स के0) पंचमहावृत्तयुक्तस्य एटले माणातिपातविरमण नामर्नु पहेलुं महावृत्त, मृपावादविरमण नामनुं वीजें महावृत्त, अदत्तादानविरमण नामर्नु त्रीजु महात्त, तथा मैथुनविरमण नामर्नु जे चोयुं महावृत्त अने परिग्रहविरमण नामनुं जे पांचमुं महावृत्त. एवी रीतना पांच प्रकारना जे महावृत्तो, तेणे करीने युक्त थयेलो एवो ते यतिधर्म ब. वली ते यतिधर्म केवो ! तो के, ( असंनिहिमंचयस्म के0) असं निधिसंचयस्य एटले जे यतिधर्मनी अंदर चार प्रकारनो आहार तथा औषध प्रमुख वासी पंचमहावृत्तधारी अणगारी मु. निराजो माटे राखवनो अधिकार नयी एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ने तो के. ॥ अविसंवाश्यस्त । संसारपारगामियस्स । निवाणगमणपज्जवसागफलस्स ॥
॥१० अर्यः-(अविसंवाश्यस्म के0) अविसंवादितस्य एटले जे यतिधर्मन। अंदर कशा प्रकारनी पण विसंवाद एटले अममंजसपणुं नथी, अर्थात् कोइ पण प्रकारनो पूर्वापर जेमां विरोध नथी, एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ? तो के, ( संसारपारगामियस्स के0 ) संसारपारगामिकस्य एटले नरकगति, तीर्यचगति, मनुष्यगति तथा देवगतिरूप चार प्रकारनो जे
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साधु
प्रतिण
॥२४॥
संसार, तेरूपी जे समुश्, तेयको सर्व प्राणीनने पार पहोंचामनारो अर्थात् मोक्षरूपी शाश्चतुं सुख आपनागे एवो ते यतिधर्म बे. वली ते यतिधर्म केवो ! तो के. ( निवाणगमणपज्जवसाणफलस्त के) निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्य एटले सर्व प्रकारना अर्थ: कर्मोयको मूकावारूप जे मोक्ष, ते प्रते जे गमन करवू, रूपी ले, पर्यवसान एटले बेलामा बेलुं फल जेनुं एवो ते यतिधर्म बे. बली ते यतिधर्म केबो ? तो के,पूर्वोक्त प्रमाणे बे.
॥ पुविं अन्नाणयाए । असोवणयाए । अवोहियाए। अगनिगमेणं ॥ अर्थः - ( पुर्वि के० ) पूर्वे एटले पेदेला जेनुं वर्णन करवमा आवेलं . एवो ते यतिधर्म प्राप्त यथा पेहेला ( अन्नाणयाए के0 ) अज्ञानतया एटले अझानपणा करीने, अर्थात् सम्यक् प्रझाननीमाप्तिना अनावबमें करीने. वली शुं वमें करीने? तो के. (असोवणयाए के0 ) अश्रवणतया एटले ते पूर्वोक्त यतिधर्मसंबंधि को प्रकारना झाननुं वर्णन अणसांजलवें करीने. बली शावमें करीने ? तो के. (अबोहियाए के0 ) अबोधितया एटले वोधिबीज कहेतां मुदेव, सुगुरु, तया सुधर्मने आदरवारूप अने कुदेव, कुगुरू, कुबर्मने तजवारूप जे बोधिवीज एटले सम्यक्त्व, तेनी प्राप्तिना अनाववमें करीने, अर्थात् सम्यक्त्वनी अप्राप्तिवमें करीने, (अणजिगमेणं के० ) अननिगमेन एटले पूर्व कहेला बोधिवीजने अर्थात् सम्यक्त्वने अंगीकार नकरीने, अर्थात् सन्यक्त्वनी प्राप्ति नथवावमें करीन.
॥अनिगमेण वा । पमाएणं । रागदोसपबिध्याए । बालयाए । अर्थः-(अजिगमेण के0 ) अनिगमेन एटले ते पूर्वे वर्णवेला सम्यक्त्वने प्राप्त थवावमें करीने ( वा के0 ) अयवा (प. माएणं के) प्रमादेन एटले प्रमादवमें करीने, तया ( रागदोसपमिवश्याए कं0 ) रागपप्रतिवश्तया एटले राग कहेता जेथी यात्माना स्वजावने प्रेमनी प्राप्ती याय, ते राग कहेवाय. एवी रीतना रागना प्रतिबंधवमें करोने अहीं नपलक्षणय। तेनी सा
| ॥१५१ थे लोजने पण ग्रहण करवो. अर्यात् रागना प्रतिबंधवमें करीने अने लोजना पण प्रतिबंधवमें करीने. वली क्षेप एटले जे थकी आत्माना वनावने अमोतिपणानी परिणति उपजे, एवा पिवमें करीने, एटले एवा हेपना प्रतिबंधवमें करीने. अहीं नपलक्षणयी तेनीमाये क्रोधने ग्रहण करयो. अर्थात् क्षेप अने क्रोधना मतिचे करीने. वजी शावमें करीने? तो के, (बालयाए
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साधु
सूत्र अर्थः
प्रति
१४॥
के ) वाख्यतया एटले बालनायवमें करीने, अर्थात् छाननी अप्राप्तिकमे करीने. वलो शायमें करीन तो के,
॥ मोहयाए । मंदयाए । किनुयाए । तिगारवगुरुयाए । चनकसानवगएणं ॥ अर्थः-( मोहयाए के0 ) मोहतया एटले महामोहपणाने वश थवावमें करीने वली शावमें करीने! तो के, ( मंदयाए के0 ) मंदता एटले मंदपणायें करीने अर्यात् बधि बलना मंदपणायें करीने वली शावमें करीने! तो के. (किमयाए के) क्रीमया एटले विविध प्रकारन) क्रीमानबमें करीने, अर्थात् आत्माने विविध प्रकारनी क्रीमानमां गुंयवावमें करीने. बली शावमें करीने! तोके, (तिगारवगुरुयाए के) त्रिगारवगुरुतया एटले शातागारवआदिक त्रणकारना जे गारव कहेता अहंकारो, तेननु जे गुरुपणुं एटले जारीपणुं तेयी, बली शावमें करीन? तोके, (चनकसानवगएणं के0) चतुःकपायोपगतेन एटले क्रोध, मान, माया तया लोज नामना चार प्रकारना जे कपायो, तेनने नपगत एटले प्राप्त थवावमें करीने, अर्यात् ते पूर्वोक्त चारे कपायोने वश थवावमें करीने. वली शावमें करीने ते कहे .
॥ पंचिंदियवसठेणं । परिपुमन्नारयाए । सायासुखमगुपालयंतेणं । इवानवे ॥ अर्थः-(पंचिंदियवसहेणं के० ) पंचेंघियशवथेन एटले रसेंहि, घ्राणेहि, चरिंघि, श्रोत्रंदि, तया स्पर्शेडि, नामनी जे पांचे इंदिन, तेनेने वश थवावमें करीने. अर्यात् ते पूर्व कहेली पांचे इंदिनना जे जे वीस प्रकारना विपायो. तेनने वश य वावमें करीने. वली शावमें करीन! तो के, (पमिपुर्ण नारयाए के०) परिपूर्ण नारतया एटले संपूर्ण जारपणायें करीने. अर्थात् ज्ञानावरणी आदिक आठ प्रकारना जे को. तेनना अखत संपूर्ण एवा जारपणायें करीने. वली शावमें करीने तो के. (सायासुखमणुपालयंतेणं के0 ) शातामुखमनुपालनेन एटले शातावेदनीय नामना कर्मना नदययी प्राप्त थयेलं जे भुख, तेना अनुपालनन एटले जोगववावमें करीने. अर्यात् शातामुख जोगवावमें करीने. हवे ते कये वखते! तो के, (इहवानावे के०) अस्मिनवाजवे एटले आ जवने विष तथा ॥ अनेसु वा नवगहणेसु । राश्नोयणं । तुंजियं वा । तुजावियं वा लुतं वा । परेहिं
समणुन्नान । तं निंदामि ॥
रश
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साधु प्रति
११४३॥
अर्थः-(अन्नसु के0) अन्येषु एटले वीजा (वा के0) अथवा (जवगहणेमु के०) जवगहनेषु एटले जन्म, जरा तथा सूत्र मरणादिकरूप अत्यंत जयंकर जे आपदान, तेथी जयंकर थयला एवा जवांतरोनेविपे एटले नवोनेविषे (राश्नोया) के0)|| सी रात्रिनोजनं एटले सूर्यनो अस्त थयापलीन अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारप्रकारोनुं रात्रिनोजन (लुजियं के ) सुंजितं एटले जोमें जोगव्यु अर्थात् ते चारे प्रकारना आहारोनुं रात्रिये जोमें नोजन कर्यु होय, (वा के0 ) अथवा (नुजावियं के0) जुजापितं एटले ते पूर्व कहेला चारे प्रकारना अशन, पान, आदिक आहारोनुं जोजन रात्रियें जोमें बीजा को पण माणस पासे कराव्यु होय, (वा के0) अथवा (भुजंतं के०) ते पूर्वे वर्णविला चारे प्रकारना आहारानुं र त्रि जोजन करता एवा (वा के०) अथवा (परेहिं के0 ) परेज्यः एटले वीजा माणसोने ( समन्नान के0 ) समनुझातः एटले सम्यक् प्रकारे जो में आशा आपी होय. अर्थात् रात्रिए चारे प्रकारना आहारोनुं नोजन करनारा एवा अन्य माणसोनी जो में सम्यकप्रकारे अनुमोदना करी होय, (तं निंदामि के0 ) तन्निदामि एटले ते पूर्व कला रात्रिनोजन संबंधि अतिचारोने हुं मारा आत्मानी साहिये निहुँ छु. अर्थात् हुं तेनी निंदा करूं छु. वल। हुं शुं करूं छु? तो के,
॥ गरिहामि । तिविहं तिविहेणं । मणेणं । वायाए । काएणं । अश्यं निंदामि ॥ . अर्थः-(गरिहामि के०) गहामि एटले ते पूर्व वर्णवेला रात्रिनोजन संबंधि सर्व प्रकारना अतिचारोने हूं गुरु आदिक वमिलोनी सातियें हं गहुँ छ. अर्थात् ते अतिचारोनी है गर्दा करूं छु. हवे ते निंदा आदिक हूं केवारीते करूं छ! तोके, (तिविहं तिविहेणं के०) त्रिविधं त्रिविधेन एटले त्रिविधं त्रिविधं करीने हुं ते रात्रिनोजन संबंधि अतिचारोन निदा आदिक करूं छु. वली (मणेणं के०) मनसा एटले मारां पोतानां मनवमें करीने हुं ते अतिचारोनी निंदा करूं छु, वली शावमें करीने हुं ले अतिचारोनी निंदादिक करूं हूं? तो के, (वायाए के) वाचया एटले मारां पोतानां वचनवमें करीने हुं ते अतिचारोनी निंदादिक करूं छु. वली शाव करीने हुं ते अतिचारोनी निंदादिक करूं छु? तो के, (काएणं के ) कायेन एटले मारां पोतानां शरीरवमें करीने हुँ ते अतिचारोनी निंदादिक करुं छ. हवे ते कया अतिचारोनी हं निंदादिक करुं छं! तो के, (अश्यं || ॥१३॥ के.) अतीतं एदले भूतकालमा अर्थात् गयेला कालमां लागला रात्रिलोजन संबंधि अतिचारोन (निंदामि. के0) हुं मारा पोताना आत्मानी सादिये निहुँ छु. अर्थात् हुं तेनी निंदा करूं छु. वली हुँ शुं करूं छु? तो. के,
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अर्थः
साधु
॥ पमिपुरमं संवरेमि । अणागयं । पञ्चरकामि । सवं राइ नोयणं ॥ प्रति अर्थः-(पमिपुर के) प्रतिपन्नं एटले वर्तमान कालमां अंगीकार करेलां ते पूर्वे कहेलां रात्रिलोजन संबंधि सर्व प्रका
रना अतिचारोने ( संवरेमि के0 ) संवरामि एटले हुं संवरूं हूं. अर्थात तेवां रात्रिनोजनना अतिचारोने हुँ दूर करूं छु. वली १. हुं शुं करुं छ! तो के, (अणागयं के०) अनागतं एटले नविष्य कालमां अंगीकार करेलां ते पूर्वे कहेलां रात्रिजोजन संबंधि
सर्व प्रकारना अतिचारोने (पञ्चरकामि के0 ) प्रसाख्यामि एटले हुं पचरुखं छु. अर्थात् तेवा अतिचारोनां हुं प्रयाख्यान करूं हूं. वली ( सत्वं के0 ) सर्व एटले सर्व प्रकारना अथवा सर्वथकी (गश्नोयणं के ) रात्रिनोजनं एटले सूर्यनो अस्त थयापबीन अशन, पान. खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना रात्रिसंबंधि लोजननो हं साग करूंछं. अर्थात् राबिनोजनने हूं सर्वयकी तर्जु . हवे ते सूर्यास्त पबीना रात्रिनोजनने हुं केटली मुदतमुधि तजु छु! तो के,
॥ जावजीवाए । अणिस्सिनुह। नेव सयं राश्यं मुंजिजा ॥ अर्थः-(जावजीवाए के०) यावज्जीवितं एटले ज्यांसुधि ह जीबुं त्यांसुधि बेक रात्रिनोजननो त्याग करु छ . अर्थात् ज्यांसुधि मारी आ जदिंगानी हयात रहे. त्यांमुधि हुँ रात्रिनोजनना पञ्चरकाण करुं छ. हवे है केवो छ? तो के, (अणिस्सिउहं के0 ) अनिकोऽहं एटले हवे मने सूर्यास्त पसीना अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना आहारोनी रात्रिनोजन संबंधि कशी पण इच्छा नथी. अने नपलक्षणयकी आ संसार संबंधि कशा प्रकारना लोगविलासोनी हवे मने इ. हा नयी. तेमज ( सयं के0 ) हूं, ते पूर्व जेनु विस्तारपूर्वक वर्णन करवामां आव्यु उ, एवा ( राश्यं के0 ) रात्रिकं एटले मूर्यनो अस्त ययापलीना अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना रात्रिनोजनने (नेव भुजिज्जा के0) नैव मुंजयामि एटले हुं जोगवू नही. अर्थात् तेवा रात्रिनोजननो हुं आहार करुं नहीज. वली हुं शुं करु नहो! तो के,
॥ नेवन्नेहिं राश्यं नुंजाविजा । राश्यं तुंजतेवि अन्ने न समगुजाणिज्जा ॥ अर्थः-( अन्नेहिं के0 ) अन्येच्या एटले व.जा कोइ पण माणसो पासे ( राश्यं के0 ) रात्रिकं एटले सूर्यास्त पनीनु अ. शन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारचें रात्रिसंबंधि लोजन ( नेव भुंजाविज्जा के0 ) नैव भुंजयामि एटले हुं लोग
॥१४४
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साधु
वावु नही. अर्थात् वीजा माणसोने पण रात्रिय है जोजन करावु नही. वली है शुं करूं? तो के, (राश्यं के०) रात्रिकं एटले মনি
सूर्यनो अस्त यया पलीन अशन, पानखादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना रात्रिसंबंधि जोजनने (भुंजतेवि के0) जंतो- अर्थः पि एटले लोगवता एवा पण अर्थात् रात्रिनोजन करता एवा (अन्ने केप) अन्यान् एटले बीजा माणसोने पण (न समणु
जाणिज्जा के0) न समनुशापयामि एटले ई सम्यकप्रकारे अनुझा आपुं नही. अर्थात् रात्रिए एटले मूर्यनो अस्त ययापली ११॥ | जोजन करनारा एवा वीजा कोइ पण माणसनी हुं सम्यक्प्रकारें अनुमोदना करूं नही. अर्थात् तेने हुँ अनुमोदुं नही.
॥ तंजहा । अरिहंतसस्कियं । सिइसस्कियं । साहुसस्कियं । देवसस्कियं । अप्पसस्कियं ॥ अर्थः-(तंजहा के०) तद्यथा एटले ते नीचेप्रमाणे जाणवू. हवे ते रात्रिनोजननो साग हूं कोनी कोनी सातिय करूं छु? तो के, (अरिहंत सस्कियं के0) अरिहंतसादिकं एटले रागदेषरूपी जे अरि कहेतां शत्रुन तनने हणनारा एटले तेनो नाश करनारा एवा जे श्री तीर्थंकर प्रभुन, तेननी सादिये हुं ते अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना आहारोनो रात्रिये लोजन करवानो साग करुं छ. वली कोनी साक्तियें हूं ते रात्रिनोजननो साग करूं छु? तो के, (सि-६ सरिकयं के०) सि-सादिकं एटले आठ प्रकारना गुणोयें करीने युक्त ययेला, तथा पंदर प्रकारना दोया सिह थयेला एवा सि. ६ जगवानोनी सादिये हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं छु. वली कोनी सादिये हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं छु! तोके, (साहुसस्कियं के०) साधुसादिकं एटले पांच प्रकारना महावृत्ताने धरनारा अने सत्तर प्रकारना लेदोथी संयम पालनारा एका साघुमुनिराजोनी सादिये हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं छु. अहीं नपलक्षणयी नपाध्यायजी महाराज तथा आचार्यजी म. हाराजनुं पण ग्रहण करवू. अर्थात् आचार्यजी महाराज नपाध्यायजी महाराज तथा साधुजी महाराज एम चारेनी सादिये हुं ते पूर्वे कहेला चारे प्रकारना आहारना रात्रिभोजननो साग करूं छु. वली कोनी सादिये हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं ९. तो के, (देवसस्कियं के०) देवसाक्षिकं एटले शुरु देव गुरुने तथा शुभ धर्मने धारण करनारा अने कुदेव, कुगुरु तथा कु
| ॥१५५ धर्मने तजनारा एवा शुझ सम्यक्त्वने धरनारा देवोनी सादिये हुं ते पूर्वे कहेला चारे प्रकारना आहारना रात्रिनोजननो साग करूं छु. वली कोनी सादिये हुं ते रात्रिनोजननो साग करुं हुं. तो के, ( अप्पस रिकयं के0) आत्मसादिकं एटले मारा पोताना आत्मानी सादियें अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना आहारोना मूर्यनो अस्त ययापलीना रात्रि
१ए
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अर्थ
साधु !! जोजननो साग करुं हुं.
|| मूत्र प्रतिक
॥ एवं नव निख्खु वा । निख्खुणी वा । संजय विरय पहिय पञ्चरकाय पावकम्मे ।। ___ अर्थ:-( एवं के० ) एवी रीते एटले पूर्वे विस्तार पूर्वक वर्णन कर्या प्रमाणे (जव के0 ) लवति एटले होय ले. कोण ॥२४॥|| होय ! तो के, (निख्खु के) जित: एटले पांच प्रकारना महावृत्ताने धरनारा एवा जैन मुनिराज (वा के0) अथवा
(नरूखुणी के0) जिनुणी एटले पांच प्रकारना महावृत्तीने धारण करनारी जैन साधवी होय ठे (वा के अथवा (संजयविरयपमिहय के ) सत्तर प्रकारना संयमने प्रकारनो वाह्य तप अने उ प्रकारनो अत्यंतर तप एम बार प्रकारना तपने तथा प्राणातिपातविरमण मृपावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण तथा परिग्रहविरमण एम पांच भकारनामहाचोने अंगीकार करीने, वली शुं करीने! तोके, (पावकम्मे के० ) पापकर्माणि एटले पापकार्योने अर्थात् हिमादिक पापकर्मोने (पच्चरकाय के0 ) प्रसारख्याय एटले पच्चरकीने अर्थात् पापकार्योनो साग करीने. हवे ते कये वखते तो के,
॥ दिया वा । रान वा । एगन वा । परिसागन वा । सुत्ने वा । जागरमाणे वा ॥ अर्थः-(दिया के0 ) दिवसे एटले जिवसने विषे अर्थात् सूर्यनो उदय थयापनी ( वा के0 ) अथवा ( राम के0 ) रा. त्रौ एटले रात्रिने विपे अर्थात् सूर्यनो अस्त ययापनी ( वा के0) अथवा. हवे हुं केवो! तोके, (एगन के0) एकः एटले एकाकी अर्थात् कोश्ना पण संगथकी रहित (वा के ) अथवा (परिसागन के ) पर्पदागतः एटले ज्यां घणां माणसो एकठां थयेला होय, एवी पर्षदानी अंदर रहेलो अर्थात् सन्नानी अंदर रहेलो ( वा के0) अथवा वली हुं केवो तो के, ( सुते के0) मुप्ते एटले सुतो थको अर्थात् निशने वश थयो थको ( वा के0 ) अथवा ( जागरमाणे के0 ) जागृमाणे एटले जागता यकां अर्थात् निशने वश नही थया थकां (वा के0 ) अथवा.. ॥ एसखलु राश्नोयणस्स वेरमणे । दिए । सुहे । खम्मे । निस्सेसिए ॥
॥१५६ अर्यः-(एस के० ) एषः एटले पूर्वे जेनुं विस्तारसहित वर्णनकरवामां आवेलुं ठे, एवा ते ( खलु के0 ) निश्रयें करीने रानोयणस्स के०) रात्रिजोजनस्य एटले मूर्यनो अस्त थयापडीतुं अशन, पान, खादिम, अने स्वादिम एम चारे प्रकारना
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साधु
सूत्र अर्थः
प्रति
॥१४॥
आहारोन जे रात्रिनाजेन, तेनुं ( वेरमणे के0 ) विरमणं एटले विरति ले. अर्थात् ने चारे प्रकारना रात्रियें जोजन करवाना मने पच्चरकाण . हवे ते चारे प्रकारना रात्रिनोजननो साग केवो ले तो के, (हिए के0) हित एटले आत्माने आजव अने परजव एम बन्ने जवोमां हितकारी बे. वली ते रात्रिनोजननो साग केवो ! तो के, (मुहे के0 ) मुखे एटले आत्माने असंत सुखकारी ले. अर्थात् आ जवमा आत्माने विविध प्रकारचं मुख, तया डेवटे परंपराए ते मोक्षरूपी अनंत सुखने आपना5 . वली ते रात्रिनोजननो साग केवो ! तो के, (खम्मे के०) केमे एटले आत्माने आ नव अने परजव एम बन्ने जवामां हम एटले कल्याणनी श्रेणिने परंपरायी करनारो बे. वली ते यतिधर्म केवो बे? तो के, (निस्सेसिए के) निःशेपिके एटले सर्व प्रकारना कर्मोथकी मूकावारूप जे मोद नामर्नु असंत निराबाध अने अनंतुं मुख तेने आपनारो एवो पूर्वोक्त रात्रिनोजननो साग ले. वली ते रात्रिलोजननी साग केवो ब? तो के,
॥अणुगामिए । पारगामिए । सन्वेसिं पाणाणं । सव्वेसिं नूयाणं ॥ ___ अर्थः-(अणुगामिए के० ) अनुगामिक एटले नवांतरमां कहेतां अन्य नवोमां पण ते रात्रिनोजनको साग असंत सुखने करनारोले. वली ते रात्रिजोजननो साग केवो ! तो के, (पारगामिए के०) पारगामिके एटले जन्म, जरा तथा मरणादिकना जयथी असंत जयंकर थयेलो एवो जे आ संसाररूपी समु५ तेथकी पार नतारनारो . हवे ते शुं करवायकी? तो के, ( सन्वेसि के) सर्वेषां एटले सघला ( पाणाणं के) प्राणीनां एटले बे इंग्निवाला, त्रण इश्निवाला तथा चार इंदिनवाला सघला जीवोनुं रक्षण करवाथकी ते रात्रिनोजननो साग आ संसाररूपी समुश्थकी पार नतारनारोडे, वली शुं करवायकी? तो के, ( सवेसि के0 ) सर्वेषां एटले सघला (भूयाणं के0) जूतानां एटले पृथ्वीकायना जीवोनु, अप्पकायना जीवोनू, तेनकायना जीवोनु, वानकायना जीवोनु तथा वनस्पतिकायना जीवोनुं रक्षण करवाथकी ते रात्रिनोजननो खाग आ जयंकर संसाररूपी समुश्यकी तारनारोडे. वली ते रात्रिनोजननो साग केवो ! तो के, .
॥ सवेसि जीवाणं । सन्वेसिं सत्ताणं । अउरकणयाए । असोवणयाए । अर्थ:--(सवेसि के०) सर्वषां एटले सघला (जीवाणं के०) जीवानां एटले जलचर थलचरादिक के, जेनने पांच
| ॥१४७
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साधु प्रति
अर्थ
॥१४॥
होय डे, एवा जीवोने रक्षण करवायी ते रात्रिलोजननो साग आ जयंकर एवा संसाररूपी समुश्थकी तारनारोडे. वली ते रात्रिभोजननो साग केवो ? तो के (सदेसि के0 ) सर्वेषां एटले सघला ( सत्ताणं के०) सत्त्वानां एटले सर्वजातिना मनुप्यो, अने भुवनपति आदिक सर्व प्रकारना देवोन रक्षण करवायकी ते रात्रिनोजननो साग आ संसाररू रनारो . हवे ते पूर्वे वर्णवेला जीवोने ( अदुरकणयाए के ) अदुःखनतया एटले कोइ पण प्रकारनु दुःख न उपजापवावमें करीने, अर्थात् ते जीवोने दुःखनी प्राप्ति न करवावमें करीने; वली शुं करवायमें करीने! तो के, (असोवणयाए के) अशोकनतया एटले पूर्व वर्णवेला ते चारे प्रकारना जीवोने कोई पण जातनो शोक एटले दिलगिरि न उपजाववावमें करीने, अर्थात् कोइ पण जीवाने शोकातुर न करवावमें करीने. वली शुं करवावमें करीने! तो के,
॥ अजूरणयाए । अतिप्पणयाए । अपीमणयाए । अपरियावणियाए । अर्थः-(अजूरणयाए के० ) अजीर्णतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवोने जीर्णावस्था नपजाववावमें करीने. अर्थात् ते पूर्वे कहेला जीवोने जराथी जर्जरितपणुं न करवावमें करीने. वली शुं करवाकमें करीन? तो के, (अतिप्पणयाए के) अतर्पतया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवोने असंत पीमा एटले असंत परिताप न नपजाववावमें करीने. वली शुं करवावमें करीने? तो के, (अपीमणयाए के) अपीलनतया एटले ते पूर्व वर्णवेला जीवोने पगादिकथा अथवा यंत्रपीलणादिकथी न पीलवा| वमें करीने, अर्थात् न चांपवावमें करीने. वली शुं करवावमें करीने तो के, (अपरियावणियाए के0) अपरितापनिकया एट ले ते पूर्व वर्णवेला जोवोने कोपण प्रकारनो परिताप न नपजाववावमें करीने अर्थात् ते चारे प्रकारना जोवोमांथी कोपण कारना जीवोने कोपण प्रकारनो खेद न नपजाववावमें करीने. वली शुं करवावमें करीने? तो के,
॥ अणुदवणयाए । महत्ये । महागुणे । महाणुनावे ॥ - अर्थः-(अहवाणयाए के0) अनुपश्चनया एटले ते पूर्वे वर्णवेला जीवोने कोइ पण प्रकारको नपश्च न करवावमें
सागर | ॥१धन करीने. अर्थात ते चारे प्रकारना जीवोने कंई पण दुःख न उपजाववावमें करीने. हवे ते जीवोने कशा प्रकारनु पण दुःख न उपजावq ए के बेतो के, (महत्ये के० ) महार्ये एटले मोटो डे अर्थ कहेतां फल जेनुं एवं बे. अर्थात् महान् फलने आ.
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साधु
पति ||
॥२४
| पनारूं दे. वली ते केवु ले ? तो के, ( महागुणे के० ) महान एटले मोटी दमादिक गुण जे जेनी अंदर एबुं ते ठे. वली ते के- || सूत्र बुं ? तो के, (मदाणुलावे के० ) महानुनावे एटले मोटो ले अनुनाव कहेतां मनाव जेनो एवं ते ले. वली ते रात्रिजोजननो
अर्थः साग को ? तो के.
॥ महापुरिसाणुचिने ।। परमरिसिदेसियपसत्थे ।। तं उरकरकयाए । अर्थः-(महापुरिसाणु चिन्ने के० ) महापुरुषानुचीणे एटले तीर्थकर तथा चक्रवर्ती आदिक जे महान पुरुषो तेनए जेनुअनुसरण करेलुं जे. एवो ते रात्रिनोजननो साग ले. वली ते रात्रिनोजननो याग केवो! तोके. ( परमरिसिदेसीयपसत्ये के0 ) परमपिदेशीयप्रशस्ते एटले परम कहेतांनत्कृष्ट जे मुनि एटले गणधर आदिको, अने तेनन। तुलना करनारा जे महान् मुनिराजो, तेनए जे रात्रिनोजनना सागनप्रशंसा करेली , एवो ते रात्रिनोजननो साग बे. वली ते रात्रिनोजननो साग के. वो ? तो के, पूर्व जनुं विस्तारथी वर्णन करेलुं बे, तेवो . हवे ते रात्रिनोजननो याग हुं शामाटे करूं छु! तो के, (ते के0) ते अशन, पान, खादिम अने स्वादिम एम चारे प्रकारना रात्रिनाजनना सागने (दुरकरकयाए के0) दुःस्कदयाय एटले दुःखोना दयमाटे अर्थात् आ संसारमा रदेला जन्म, जरा तथा मरणादिक विविध प्रकारना जयंकर दुःखोना दयमाटे हूं ते रात्रि संबंधि चारे प्रकारना नौजननो साग करु छं. वली शामाटे हूं ते रात्रिनोजननां साग करूं ??
॥ कम्मरकयाए । मुस्कयाए । वोहिलानाए । संसारुत्तारणाए । अर्थ:-(कम्मरकयाए के) कर्मवयाय एटले ज्ञानावरणी आदिक विविध प्रकारना जे को. तेमना कयमाटे एटले ते कर्मोनो विनाश थवामाटे हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं हूं. वली शामाटे हुँ ते रात्रिनोजननो याग करूं छु? तो के, (मुरकयाए के0 ) मोहाय एटले सर्व प्रकारना कर्मोनो हय यवायी यनारो जे मोद अथवा मुक्ति ते मेलथवा माटे हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं टु. वली शामाटे हुं ते रात्रिनोजननो साग करूं छु! तो के, (बोहिलालाए के0 ) बोधिलाजाय एटले बोधिवीजनी प्राप्ति थवा माटे हूं ते रात्रिनोजननो साग करूं छु. अर्थात् मुदेव, मुगुरु अने सुधर्मने आदरवारूप अने कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मने तजवारूप जे बोधिखोज एटले सम्यक्त्व तेनी प्राप्ति थवा माटे हूं ते रात्रिनोजननो साग करूं टुं. बली शामाटे हुँ से रा
॥१४॥
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मत्र
साधु त्रिनोजननो साग करूं ईतो के. ( संसारुवारणाए के) देवगति, मनुष्यगति, नियंचगति तथा नरकगतिरूप चार प्रकारनो पति || जे संसाररूपी असंत जयंकर समुझ तेयको पार नतरवा माटे हुं ते अशन, पान, खादिम अने स्वादिमरूप चारे प्रकारना रा- || अर्थ:
विजोजन संबंधि आहारनो साग करूं छु. ॥१५॥ || || तिकडु । नवसंपजिताणं विहरामि । उठे नंते महत्वए नवनिमि । सबान राश्नोयणान वेरमणं ॥
अर्थः-(तिकट्टु के०) इतिकृत्वा एटले पूर्वे जेरीते वर्णन करलु डे तेवीरीते करीने (नवसंपज्जित्ताणं के०) नपसंप्राप्त 'एटले केवलज्ञानरूपी दीपकें करीने जगंतूनीअंदर दीपता एवा केवली लगवाने जैनागमोमां विस्तारथी वर्णवेला मासकल्पादिक विहारोने समस्तपणाप अंगीकार करीने, अर्थात् मासकलदिक विहार प्रमाणे ( विदरामि के0 ) हुं विचरुं छ. अने एवीरीते एटले पूर्व विस्तारथी वर्णन करवा प्रमाणे (ते के० ) हेनदंत एटले हेनगवन् ! (बहे के०) बहा ( महब्बए के0) पहावृत्ताय एटले रात्रिजाजनविरमण नामना महावृत्तमाटे (नवहिनमि के०) नपस्थितोऽस्मि एटले हूं उन्नो थयलो छु. अ. र्थात् रात्रिनोजन विरमण नामना बहा महावृत्तने अंगीकार करवामाटे हुँ तैयार थयलो छु. अने तेयी करीने (सवान के०) सर्वतः एटले सघला प्रकारना अर्थात् प्रशन पान खादिम अने स्वादिम संबंधि एम चारे प्रकारना अथवा सर्वथकी ( राइजोयणान के) रात्रिनोजनतः एटले मूर्यनोअस्त ययापली ना रात्रिसंबंधि जोजनयकी (वेरमणं के) विरमणं एटले मने विरति ने. अर्यात सर्व प्रकारना रात्रिनोजननो हुं साग करूं छु.
- - ॥ इति परकीसूत्रे षष्ठालापकः संपूर्णः ॥ ॥ श्वेश्याई पंचमहत्वयाई । राश्नोयण वेरमण उठाई । अत्तहियठाया । नवसंपज्जित्ताणं
विहरामि ॥१॥
अर्थः-(इञ्चेश्याई के0) इसादीनि एटले पूर्व जनुं विस्तारथी वर्णन करवामां आवेलुं ने, इसादि (पंचमहत्वयाई के०)। ॥१५॥ पंचमहावृत्तानि एटले प्राणातिपातविरमण महात्तने, मृपावादविरमण मदात्तन, अदत्तादानविरमण महावृत्तने, मैथुनविरमण नामना चोथा महावृत्तने तथा परिग्रहविरमण नामना पांचमा महात्तने, अर्थात् ते पूर्वोक्त पांचे गहात्तने, तया ( राइनो
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साधु
प्रतिय
॥१५२॥
रमाई ) रात्रि जोजनविरमणं एटले बठ्ठा रात्रि जोजनविरमण नामना महावृत्तने, अर्थात् सूर्यनो प्रस्त ययापीना रात्रिजाजन नामना बठ्ठा महावृत्तने धारण करूं छं. हवे ते उपमहावृत्तने हुं शामा अंगीकार करूं? तो के, (तहsho) आत्महितार्थाय एटले जेथी करीने आत्मानुं या जब अन परजव एम वन्नेजवोमां हित थाय, तेटलामाटे हुं ते कारना महावृत्तीने धारण करुछु. दवे (नवसंप जिताएं के० ) उपसंप्राप्तं एटले पूर्वोक्तरीते धारण करेला ते उए मकारना महावृत्तोने सम्यकप्रकारे अंगीकार करीने ( विहरामि के० ) हुं विहार करूं छं. अर्थात् हुं या पृथ्वीपर विच . ॥ अपसत्थाय जे जोगा, परिणामाय दारुला; पालाश्वायस्स वेरमणे । एस वृत्ते प्रकम्मे ॥ २ ॥
अर्थः- (असत्या के० ) प्रशस्ता: एटले आत्माने आ जाने परजव एम वन्ने जवोमां जे प्रशस्त एटले - हितनाकरनारा छे. अर्थात् जे की आत्माने अशुभ परिणामनी प्राप्ति थाय बे, एवा (य के० ) च एटले वली ( जे के० ) जे एटले जे ( जोगा के० ) योगाः एटले मन संबंधि योगो, वचन संबंधि योगो तथा काया संबंधि योगो, अर्थात् एवरीते मन, वचन ने काया संबंधि त्रणे प्रकारना जे जे गो आत्माने बन्ने जवोमां अदितना करनारा ठे वली ते योगो केवा ठे? तो के, ( परिणामाय दारुणा के० ) परिणामे च दारुणाः एटले परिणामे कहेतां बेबटनी वेलाए जे दारुणा एटले जयंकर बे. अर्थात जे योगोनुं परिणाम आत्माने अत्यंत अहितनुं करनारुं वे एटले जे मन, वचन अने कायाना जोगोनुं फल अत्यंत ज यंकर बे. ( एस के० ) एपः एटले तेने ( पाणाश्वायस्त के० ) प्राणातिपातस्य एटले जीवोने तेमना प्राणोथकी बोमाववा, अर्थात् सर्व प्रकारना जीवोनी जे हिंसा करवी तेने प्राणातिपात कहीयें. अने तेवा प्राणातिपातयकी एटले जीवहिंसायकी ( वेरमणे ho ) विरमरूप एटले निवर्त्तवारूप ( बुत्ते के० ) वृत्ते एटले महावृत्तने विषे अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृत्तनेविषे ( अक्कम्मे के० ) अतिक्रमान् एटले. अतिक्रमोने जावा.
॥ तिवरागा य जा जाता । तिवदोसा तदेव य मुसावायस्स वेरमणे । एस वृत्ते इक्कम्मे ॥ २ ॥ अर्थ:- ( तिरागा के० ) तीव्ररागा, अत्यंत राग जेनी अंदर जरलो बे एवी, अर्थात् तीव्र प्रकारना रागें करीने युक्त येली एवी (य के० ) च एटले वली (जा के०) या एटले जे (जासा के० ) जाषा एटले मुखमांथी बोलाता शब्दो ( तदेव
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सूत्र
अर्थः
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साधु
|| के0 ) तथैव एटले तेवीजीते ( य के0 ) च एटले वली ( मुसावायस्स के० ) मृपावादस्य एटले मृषावादना (वेरमाणे के ) | प्रति || विरमणे एटले विरमणरूप अर्थात् सर्व प्रकारना मृपावादयकी विरमवारूप ( वुत्ते के० ) वृत्ते एटले वृत्तने विषे, अर्थात् मृषा
वादविरमण नामना वीजा महावृत्तने विषे ( तिवदोसा के0 ) तीव्रपा एटले तीव्र प्रकारनोबे ष जेनी अंदर अर्थात् असंत ११५शा|| प जेनी अंदर रहेलो डे, एवी नापाथकी जे वचनो बोलावां, ( एस के ) एषः एटले, तेने, अर्थात् पूर्वे कां तेवी रीते ती
व प्रकारना रागदेष सहित जे वचनो बोलवां, तेने (अक्कमे के० ) अतिक्रमाः एटले अतिक्रमो जाणवा. अर्थात् तेने मृषावादविरमण नायना बीजा महारत्त संबंधि अतिक्रमो जाणवा. ॥ नग्गहं से य जाश्त्ता । अविदिने य नग्गहे । अदिनादाणस्सवेरमणे । एस वुत्ने अश्क्कमे ॥ ३ ॥
अर्थः-( नग्गहं से य जाइत्ता के0 ) नपाश्रयनो जे स्वामि एटले शय्यातर, अर्थात् वसति प्रमुखनो जे स्वामी तेनी आझा लोधाविना एटले तेनो आदेश मेलव्याविना ( च के0 ) वली ( अविदिन्ने के0 ) अविदिते एटले ते वसति प्रमुखना स्वामीने कंज्ञ पण वात जाणाव्याविना ( य के0 ) वल) ( नग्गहे के0 ) ग्रहित एटले कोइ पण प्रकारनी वस्तुनुं जे ग्रहण कर ते, (अदिनादाणस्मेवरमणे के0 ) अदत्तादानस्य विरमणे एटले अदत्तादान कहेतां अणदीधली वस्तुनुं जे ग्रहण करवु तेने अदत्तादान कहीये. अने तेयकी जे विरमवु एटले पाबा हवं, तेरूप (वुत्ते के०) वृत्ते एटले अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृत्तने विष (अश्क्कमे के ) अतिक्रमाः एटले अतिक्रमो जाणवा. अर्यात् तेने त्रीजा महावृत्तना अतिक्रमो जाणवा.
॥ सद्दारूवारसागंधा । फासाणं पवियारणा ॥ मेदुणस्स वेरमणे । एस वुत्ते अश्क्कमे ॥४॥ । अर्थ:-( सद्दारूवारसागंधाफासाणं के० ) शदरूपरसगंधस्पर्शानां एटले शद्ध कहेता कर्णथकी जे सांजली शकाय, त था आकाश ने विषय जेनो एवो शद्ध.॥१॥ रूप एटले चक्कु नामनी इंडियकी जने जोशकाय एवू सारूं नरमुंजे रूप ते. ॥॥ तथा रस एटले जीहा नामनी इंथिकी जेनी कटुआदिक नए प्रकारना रसोने स्वाद लेइ शकाय ने एवो रम जाण वो. ॥ ३ ॥ तथा गंध एटले नाशिका नामनी इंयिक सुगंध अने दुर्गध एमबन्ने जातिना लेवाता गंधजाणवा. ॥ ४॥ स्पर्श एटले स्पर्शधि नामनी इंथिकी करातो स्पर्श जाणवो. एवीरीतना पांच इंडिनना जे चेविस प्रकारना विषयो. तेनो जे (प.
| ॥१५॥
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साधु प्रति
1॥२५॥
वियारणा के0 ) प्रतिचारणा एटले ते विषयोने जे इंडिचनी लोलतापणायें करीने लोगवा ( एस के0 ) एपः एटले सेने ( मे- || सूत्र हुणस्स के0 ) मैथुनम्य एटले स्त्रीसंबंधि जे जोगविलासो जोगववा, तेने मैथुन कहीये. तेना (वेरमणे के0) विरमणे एटले विर- अर्थः मवारूप अर्थात् त पूर्वोक्त मैथुनने तजवा रूप एवा ( वुत्ते के० ) वृत्ते एटले मैयुनविरमण नामना चोथा महावृत्तनी अंदर ( अश्कम्मे के0) अतिक्रमाः एटले अतिक्रमो जाणवा. अर्थात् शादिक पिपयोने लोगवा रूप विकारोने चोथा महावृत्तना अतिक्रमो जाणवा. ॥ इच्छा मुच्छा यगेहीय । कस्का लोनय दारुणे ॥ परिग्गहस्स बेरमणे । एस वुत्ते अश्कम्मे ॥ ५ ॥ ___ अर्थः-(इच्छा के० ) मननीइच्छायें करीने परिग्रह संबंधि जे अनिलापा करीहोय, ते. अर्थात् मननी इच्छाथकी परिग्रह राखवानी मनोवृत्ति जे करोहोय ते. (मुच्छा के0 ) मूर्छा एटले मूर्छायें करीने परिग्रह राखवानी जे मनोवृत्ति करी होय. अर्थात् कोइ पण वस्तुपर ममत्व जाव राखी अथवा ते पर तन्नीनपणुं राखी तेने ग्रहण करवानी जे अभिलाषा करवी, तेने मूळ कहेवाय. ( य के0 ) च एटले बली (गेहिय के०) गृहित्वा एटले ग्रहण करीने. अर्थात् श्वा अनेमूळ ए बन्नेने ग्रहण करीने (य के०) च एटले वली (कंखा के०) कांदा एटले मननी आकांक्षायें करीने अर्थात् चित्तना अजिमायें करीने, तेमज ( दारुणे के0 ) असंत जयंकर एवा एटले आ जब अने परजब एम बन्ने लवामां आत्माने असंत अहित करनारा. अर्थात् जेनुं परिणाम आत्माने असंत जयनी प्राप्ति निपजावनाएं बे, एवा (लोने के० ) लोनतः एटले लोग्नें करीने परिग्रहनी जे ममता करी होय, ( एस के ) एपः एटले ते सघलाने अर्थात् श्वायें करीने, मूळये करीने, आकांक्षायें करीने तथा लोनें करीने बन्ने प्रकारना परिग्रहनी जे ममता करते होय तेने (पारग्गहस्स के ) परिग्रहस्य एटले रागदेषरूप कषायोसंबंधि अत्यंतर परिग्रह अने स्त्री आदिकरूप बाह्य परिग्रह, एम बन्ने प्रकारनो जे परिग्रह, तेथकी (वेरमणे के0) विरमणे एटले जे विरमवू अर्थात् निवर्तवु. एटले बाह्य अने अत्यंतर एम वन्ने प्रकारना परिग्रहनो साग करवारूप जे (बुत्ते के0 ) वृ
| ॥१५॥ ते एटले पांचमा परिग्रहविरमण नामना महावृत्तने विषे (अश्कम्मे के०) अतिक्रमाः एटले अतिक्रमो जाणवा. अर्थात् इवा, मूळ, आकांदा अने लोलयकी परिग्रहनी जे ममता राखवी, तेने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृत्तना अतिक्रमो जाणवा.
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साधु
मति
॥१५॥
॥ अश्मत्तेय आहारे । सूरखित्तंमिसंकिए । राश्नोयणस्त वेरमणे । एस वुत्ते अश्क्कम्मे ॥ ३ ।
सूत्र अर्थः-(य के०) च एटले वली (अश्मत्ते के ) अतिमात्र एटले विगय आदिके करीने असंत रस गुक्त तथा स्नि- अर्थ: ग्य आहारर्नु अतिमात्रायें करीने जे लोजन करयुं ते. अतिमात्र कहेवाय. एवीरीतना (पाहारे के) आहारने विष अर्थात् एवा प्रकारना नोजननी अंदर. हवे ते लोजन कहे तो के, (मूरखित्तमिसंकिए के0) सूर्यत्रिशंकित एटले श्रा समयने विपे हुँ जे जगोए वसुंछ , ते क्षेत्रनी अंदर आ वर्तमान समये सूर्यनीहजु हयाति ? अथवा नथी? अर्थात् आ वर्तमान स. मयनी अंदर मूर्यनो अस्त थयो ले के नही? एवी मननी अंदर शंका होतेबते. अर्थात् मूर्यास्त संबंधि हजु शंका होय त्यारे लगलग वेलायें जे नोजन करवू ( एस के0) एषः एटले तेने अर्थात् लगनग वेलायें जे नोजन करघु ते (राश्नोयाणस्स के०) रात्रिनोजनस्य, सूर्यनो अस्त ययापनी करेलां रात्रि जोजनना (वेरमणे के0) विरमणे एटले विरमणरूप अर्यात् रात्रिनोजनयको निवर्त्तवारूप (बुत्ते के0 ) हत्ते एटले रात्रिनोजनविरमण नामना बहा वृत्तनी अंदर (अश्कमे के0) अतिक्रमाः एटले अतिक्रमो जाणवा. अर्यात मूर्यास्त संबंधि शंका होतेबते जे जोजन करवू तेने बहा रात्रिनोजनविरमण नामना वृत्तना अतिचार जाणवा. ॥ दसण नाण चरिने । अविरादित्ता छिन समण धम्मे । पढमं वयमगुरस्के । विरयामो पा
पाश्वायान ॥शा ____ अर्थ:-(दसण के० ) दर्शनं एटले सुगुरु सुदेव अने मुधर्मने आदरवारूप तथा कुगुरु कुदेव अने कुधर्मने तजवारूप जे सम्यक्त्व ते दर्शन कहेवाय. तथा (नाण के० ) ज्ञान एटले मतिज्ञान, श्रुतझान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा केवलझान एम पांच प्रकारनुं जे ज्ञान ते नाण कहेवाय, तथा (चरित्ते के०) चारित्रं एटले पांच प्रकारनु चारित्रं. एवीरीते ज्ञान दर्शन अने चारित्र एम त्रणेने ( अविराहिता के ) अविराधयित्वा एटले कोइपण प्रकारनी विराधना न नपजावीने अर्थात्
॥१५॥ झान दर्शन अने चारित्रने कोपण प्रकारे विराध्याविना (समणधम्मे के० ) श्रमणधर्म एटले साधु धर्मनी अंदर अर्थात् यनिर्णन विषे (हिन के) स्थितः एटले रहेलो एवो हुँ, अर्यात् पंच महारत्तोने धारण करवारूप जे सयंम तेने अंगीकार क
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साधु प्रति०
॥१५॥
रीने रदलो एवो जे हुँ, ते ( पढम के० ) प्रथम एटले पेहेला ( वयं के० ) वृत्तं एटले महात्तने अर्थात् माणातिपातविरमणरूप पेहेला महावृत्तने (अणुररके के0 ) अनुरक्षयामि एटले हं रक्षण करूंछं. अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृत्तनुं हुं सम्यक् प्रकारे रक्षण करुं छु. एटले ते महावृत्तने कंपण विराधना लगाड्याविना हुँ पालुं छ. अने तेथी करीने (पा. णावायान के०) माणातिपाततः एटले जोबोने तेमना अत्यंत वहाला एका माणोथकी जे मूकाववा, अर्थात् जीवोन) जे हिं. सा करवी, तेने प्राणातिपात कहीये. एवा प्राणातिपातथकी एटले जीवहिंसाथकी (विरयामो के०) विरमामः एटले अमो विरमीये बोये. अर्थात् जीवहिंसायकी अमो एटले हुं दूर रहुं छु. अने एवीरीते हुं पेहेला वृत्तनु रक्षण करुं छ. ॥ दंसण नाण चिरित्ते । अविरादित्ता ठिन समण धम्मे । बीयवयमणुरस्के । विरयामो
मुसावायान ॥॥ अर्थः-(दसण के ) दर्शनं एटले सुदेव सुगुरु अने सुधर्मने आदरवारूप तथा कुदेव कुगुरु अने कुधर्मने तजवारूप जे सम्यक्त्व ते दर्शन कहेवाय. (नाण के) झानं, एटले मतिझान, श्रुतझान, अवधिज्ञान, तथा मनःपर्यवज्ञान, अने केवलझान एम पांच प्रकारचं जे झान ते नाण कहेवाय. तथा ( चरित्ते के) चारित्रं एटले यथाख्यातादिक पांच प्रकारचें चारित्र. एवीरीते झान, दर्शन अने चारित्रने, एम ए त्रणेने ( अविरा हित्ता के०) अविराधयित्वा एटले कोइपण प्रकारनी विराधना न नपजावीने अर्थात् ज्ञान दर्शन अने चारित्रने कोपणप्रकारे विराध्याविना (समणधम्मे के०) श्रमणधर्म एटले साघुधर्मनी अंदर अर्थात् यतिधर्मने विषे (ग्नि के) स्थितः एटले रहेलो एवो हुँ अर्थात् पंचमहावृत्तीने धारण करवारूप जे संयम तेने अंगीकार करीने रहलो एवोजे हुं ते (बीय के) दितीयं एटले बीजा (वयं के०) वृत्तं एटले महावृत्तने अर्थात् मृषावादविरमण नामना बीजा महावृत्तने (अणुररके के0 ) अनुरक्ष्यामि एटले हुं रक्षणकरुंर्छ. अर्थात् मृषावादविरमण नामना वी. जा महावृत्तनुं हूं सम्यकप्रकारे रक्षण करुंछु. एटले ते महावृत्तने हुं कंपण विराधना लगाड्याविना पालुं छु. अने तेथी करी- |॥१५॥ ने (मुसावायान के0) मृषावादतः एटले मृषावादयकी अर्थात् कोपण प्रकानुं पोताना मुखथकी जे जूतुंबोलवू तेने मृषावाद कहीयें तेवी रीतना एटले तेवा प्रकारना मृषावादयकी ( विरयामो के ) विरमामः एटले अमोविरमीयें बीयें. अर्थात मृषा
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साधु
|| वादथकी हुं दूर रहुंछु अने एवीरीते हुं बीजा महावृत्तनुं सम्यक् प्रकारे रहण करुंछु. प्रतिक ॥ दंसण नाण चरित्ते । अविरादित्ता दिन समणधम्मे तश्यं । वयमणुरस्के । विरयामो
अदिनादाणान ॥ ३ ॥ ॥१५॥
अर्थ:-(दसण के ) दर्शनं एटले मुदेव मुगुरु अने सुधर्मने अदरवारूप तथा कुदेव कुगुरु अने कुधर्मने तजवारूप जे सम्यक्त्व ते दर्शन कहेवाय. तथा ( नाण के ) झानं एटले मतिझान, आदिक पांच जे झान ते नाण कहेवाय. तया (चरिचे के0 ) चारित्रं एटले ययाख्यातादिक पांच प्रकारचें चरित्र. एवीरीते झान दर्शन अने चारित्रने, एम त्रणेने ( अविराहित्ता के० ) अविराधयित्वा एटले कोपण प्रकारनी विराधना न नपजावीने अर्थात् झान र्दशन अने चारित्रने कोइपण प्रकारे विराध्याविना ( समणधम्मे के०) श्रमणधर्मे एटले साधुधर्मनीअंदर अर्यात् यतिधर्मने विषे (ठिन के )स्थितः एटले रहेलो एवोहं, अर्थात् एवीरीते हवे ( तश्यं के ) तृतीयं, एटले त्रीजा (वयं के0) वृत्तं एटले महात्तने अर्थात् अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृत्तने (अणुरखे के ) अनुरक्ष्यामि एटले हुं रक्षण करुं छ. अर्थात् अदत्तादान नामना वृत्तने हुँ सम्यक् प्रकारे रक्षण करुंर्छ. एटले ते महात्तने हुं कंज्ञपण विराधना लगाड्याविना पालुढुं. अने तेथी करीने ( अदिन्नादाणा के०) अदत्वादानतः एटले अदत्चादानयकी, अर्थात् कोश्नी पण अणदीधेली वस्तुनुं जे ग्रहण करवू, तेने अदत्तादान कहीये. एटले पारकी वस्तुनुं चोरीयी जे ग्रहण करवू ते अदत्तादान कहेवाय. अने तेवी रीतना एटले तेवा प्रकारना अदत्तादानथकी (विरयामो के० ) विरमामः एटले अमो विरमीये बीये. अर्थात् अदत्तादानथकी हुंदर रहूं छु. अने एवीरते हूं त्रीजा महावृत्तनुं रक्षण करुं छ. ॥ दसण नाण चरित्ने । अविरादित्ता ठिन समणधम्मे । चोत्यं वयमगुररके। विरयामो
मेहुणा ॥४॥ अर्थः-(दसण के0) दर्शनं एंटले सुदेव सुगुरु अने सुधर्मने आदरवारूप तथा कुदेव कुगुरु अने कुधर्मने तजवारूप जे सम्यक्त्व ते दर्शन कहेवाय. तथा (नाण के0 ) झानं एटले मतियान, श्रुत्रान अवधिझान, मनःपर्यवदान अने केवलझान ए
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साधु म पांचे प्रकारनुं जे ज्ञान ते ना कहेवाय. तथा ( चरिते क० ) चारित्रं एटले ययाख्यातादिक पांच प्रकारनं चारित्र जाण प्रति बुं. एवीरीते ज्ञान दर्शन अने चारित्रने, एम त्रोने ( अविराहित्ता के० ) अविराधयिला एटले कोइ प्रकारनी विराधना न उपजावीने, अर्थात् ज्ञान दर्शन अने चारित्रने कोइ प्रकारे विराध्याविना ( समणधम्मे के० ) श्रमधर्मे, साधुधर्मनी अं दर वर्मा (नि के०) स्थितः एटले रहेलो एवो हूं, अर्थात् पंचमहावृत्ताने धारण करवारूप जे सयंम, तेने अंगीका र करीने रहेलो एवो जे हुं ते ( चोत्यं के० ) चतुर्थ एटले चोथा ( वयं के० ) वृत्तं एटले महावृत्तने अर्थात् मैथुनविरमण नामना चोया महावृत्तने (अणुररके के० ) अनुरक्षयामि एटले हुं रक्षण करूं लुं. अर्थात् मैथुनविरमण नामना चाया महावृत्तनुं हुं सम्यक् प्रकारें रक्षण करुं हुं एटले ते महावृत्तने हुं कईपण विराधना लगाच्या विना पालुं हुं न तेथी करीने (मेहुणा ho) मैथुनतः एटले स्त्री संबंधि जोगविलासोने मनना तीव्र अनिलापथी सेववानी जे इच्छा करवी. ते मैथुन कहेवाय. एवा नव प्रकारा मैथुन सेवा संबंधि अतिचार्य (विरयामो के० ) विरमामः एटले मो विरमीय बीये. अर्थात् मैथुन सेववा की हुं दूर रहुं हुं न पूर्वे कनुं तवीरीते हुं ते चाया महावृत्तनुं रक्षण करूं हूं.
॥१५॥
॥ दंसण नाग चरिते । श्रविराहित्ता विन समाधम्मे । पंचम वयमगुररके । विरयामो परिग्गदान || ५ |
अर्थ :- ( दंसण के० ) दर्शनं एटले सुदेव सुगुरु ने सुधर्मने आदरवारूप तथा कुदेव कुगुरु ने कुधर्मने तजत्रारूप जे सम्यत्तव ते दर्शन कहेवाय. तया ( नाल के० ) झानं एटले मतिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान ने केवलज्ञान, एम पांचे प्रकारनं जे ज्ञान ते ना कहेवाय तथा (चरित्ते के० ) चारित्रं एटले यथाख्यातादिक पांच प्रकारनं चारित्र जावं. एवोरीते ज्ञान दर्शन अने चारित्रने, एम त्रणेने (अविराहित्ता के० ) अविराधयित्वा एटले कोण प्रकारनी विराधना - पजावीने अर्थात ज्ञान, दर्शनाने चारित्रने काईपण प्रकारे विराध्या विना ( समधम्मे के० ) श्रमधर्मेटले धुर्म दरद यतिधर्मने विषे (विन के० ) स्थितः एटले रहेलो एवो हूं, अर्थात् पंच महावृत्तोने धारण करवारूप जे संयम, तेने गोकार करीने रहेलो एवो जे हुं ते (पंचम के० ) पांचमा (वयं के० ) वृत्तं एटले महावृत्तने अर्थात् परिग्रहविरमण ना
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सूत्र
अर्थः
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साधु মনি
॥१५॥
| मना पांचमा महावृत्तने ( अणुररके के0) अनुरक्ष्यामि एटले हुँ रक्षण करुं ई अर्थात् परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृ. || सूत्र त्तनुं हुं सम्यक् प्रकारे रक्षण करुं छु. एटले ते महावृत्तने हुँ कंपण जातनी विराधना सगाड्या विना पालुं छु. अने तेथी क-|| रीने (परिग्गहान के0 ) परिहग्रहतः एटले परिग्रहथकी अर्थात् राग अने देषरूप जे अज्यतर परिग्रह, ते अत्यंतर परिग्रह कहेवाय; अने स्त्री तथा धनदोलतरूप जे बाह्य परिग्रह, ते बाह्य परिग्रह कहेवाय. एवोरीतनो बन्ने प्रकारनो जे परिग्रह तेथकी (विरयामो के) विरमामः एटले अमो विरमीये बीये. अर्थात् पूर्वे वर्णवेला परिग्रहने धारण करवाथकी हुंदर रहुं हुं. अने जेम पूर्वे वर्णन विस्तारथी कर्य, तेवी रीते हुं ते पांचमा महावृत्तनुं रहण करुं छं. ॥ दसणनाण चरिते । अविराहित्ता दिन समणधम्मे । उठं वयमणुरस्के । विरयामो राइ
नोयणान ॥६॥ अर्थः-(दसण के०) दर्शनं एटले सुदेव सुगुरु तथा सुधर्मने आदरवारूप अने कुदेव कुगुरु तया कुधर्मने तजवारूप जे सम्यक्त्व ते दर्शन कहेवाय. तया ( नाण के0) झानं एटले मतियान, श्रुतझान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलझान, एम पांचे प्रकारनुं जे झान, ते नाण कहेवाय. तथा (चरित्ते के) चारित्रं एटले ययाख्यातादिक पांच प्रकारचें एटले जेना ययाख्यात आदिक पांच लेदो श्री जिनेश्वर प्रभुयें शास्त्रमा वर्णवेला बे, एवं चारित्र जाणवू. एवीरीते झान दर्शनअने चारित्रने, एम त्रणेने (अविराहित्ता के ) अविराधयित्वा एटले कोइ पण प्रकारनी विराधना न नपजावीने, अर्थात् झान, दर्शन अने चारित्रने कोइपण प्रकारे विराध्याविना (समणधम्मे के0 ) श्रमणधर्मे एटले साधुधमनी अंदर अर्यात् यतिधर्मनेविषे (ठिन के ) स्थितः एटले रहेलो एवो हुं. अर्यात् पंच महावृत्तीने धारण करवारूप जे संयम, तेने अंगीकार करीने रहेलो एवो जे हुं, ते (बई के) षष्ठं एटले बहा (वयं के ) वृत्तं एटले महावृत्तने अर्थात् रात्रिनोजनविरमण नामना बहा महावृत्तने (अणुररके के० ) अनुरदयामि एटले रक्षण करूं छु. अर्यात् रात्रिनोजन विरमण नामना बहा महात्त- ॥२५॥ नुं हुं सम्यक्प्रकारे रक्षण करूं छु. एटले ते महावृत्तनी हुं कई पण जातनी विराधना लगड्याविना पालु छु. अने तेथी करीने (राश्नोयणा के ) रात्रिनोजनतः एटले सूर्यनो अस्त यया पडोना रात्रिनोजनयको, अर्थात् अशन, पान, खादिम अने
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ধন
साधु || स्वादिमरूप चारे प्रकारना रात्रिजोजनथकी(विरयामो के०) विरमामः एटले अमो विरमीये बीये. अर्थात् पूर्व वर्णवेला रात्रिनोजनथकी हुं दूर रहुं छु. अने पूर्वे जेम विस्तारथी वर्णन कर्य ने तेम हुँ ते उहा महावृत्तनुं रक्षण करुं छु.
अर्थः ॥ आलय विहार समिन । जुत्तो गुत्तो छिन समणधम्मे । पढमं वयमणुरस्के । विरयामो रएखा
पाणाश्वायान ॥१॥ अर्थः-(आलय के0 ) उपाश्रयनो अंदर रहेलो एटले उपाश्रयनी अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो हुँ. बली हुं केवो? तो के, (विहार के) श्री जिनेश्वर प्रभुए जैन आगमोमां कहेला मासकल्पादिक विहारनी अंदर रहेलो एवो हुँ, वली हुँ केवो? तो के, ( समिजुत्तो के0 ) समितियुक्तः एटले सुमति कहेतां मार्गने विष जतोआवती वेलायें जीवदयार्नु प्रतिपालन करवू, ते झामुमति कहेवाय. तथा जापासुमति एटले जे वचनथी जीवोने कोपण प्रकारनी कीलामणा नपजे नहीं, एवां वचनो जे मुखयकी बोलवां, तेने नापासुमति कहेवाय. तथा एपणासुमति एटले बेंतालीस प्रकारना दोषोयें करीने रहित एवां आहारपाणोनुं जे ग्रहण करवू, तेने एषणासुमति कहेवाय, आदानमनिरकेपणासुमति एटले नामाप्रमुखने लेतीमुकती वेलायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, तेने आदानमनिरकेपणामुमति कहेवाय. तथा पारीठावणीयासुमति एटले मात्रुप्रमुखने परम्वती वेलायें जे जीवदया पालवी, तेने पारीगवणीयामुमति कहीये. एवी रीतनी पांचे सुमतियें करीने युक्त ययेलो एवो हुं. वली हुं केवो? तो के, ( गुत्तो के0) मनगुप्ति एटले मनने वश राखवू; अर्थात् मनने जे गोपवयु, ते मनगुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपवची, तेने कायगुप्ति कहेवाय. एवी रीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हुं. अर्थातू पांच सुमति अने त्रण गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवो हुं. बली हुं केवो? तो के, (समणधम्मे के0) श्रमणधर्मे एटले साधु धर्मनो अंदर अर्थात् यतिधर्मने विष (ठिन के) स्थितः एटले रहेलो एवो हुँ, अर्थात् पंच महावृत्तीने धारण करवारूप जे | ॥१५॥ संयम, तेने अंगीकार करवारूप यतिधमने विषे रहेलो एवो जे हुं. ते ( पढमं के0 ) पेहेला (वृत्तं के0 ) वृत्तने एटले महावृत्तने अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला महावृत्तने (अाररके के0) अनुरक्ष्यामि एटले ई रक्षण करुं छ. अर्थात् प्राणा
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साधु
प्रति
अर्थ:
॥१६॥
। तिपातविरमण नामना पहला महावृत्तनुं है सम्यकप्रकारे रक्षण करूंछ. एटले ते महावृत्तने हुँ कई पण जातनी विराधना सगाड्याविना पालुं छ. अने तेथी करीने (पाणावायान के०) प्राणातिपातः एटले प्राणातिपातयकी अर्यात् जीवहिंसाथकी (विरयामो के) विरमामः एटले अमो विस्मीये डोये. अर्थात् पूर्वे वर्णवेलां प्राणातिपातयकी हुँ दूर रहुं छु. अने एवं रीते हुं प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृत्तनुं रक्षण करूं छु. ॥ श्रालय विहार समिन । जुत्तो गुत्तो ग्नि समणधम्मे । बीयं वयमगुररके । विरयामो
मुसावायान ॥॥ अर्थः-(आलय के) नपाश्रयनी अंदर रहेलो, एटले चतुर्मासादिकमां उपाश्रयनो अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो हूं. बली हुं केवो! तो के, (विहार के0 ) श्री केवलीलगवाने जैन आगमोमां कहेला मासकल्पादिक विहारने विपे रहेसो छवो हुं. वली हुं केवो! तो के, ( समिनजुत्तो के० ) समितियुक्तः एटले र्यासुमति कहेतां मार्गने विषे जती आवती वेलायें जीवदयानुं जे प्रतिपालन करवू, तेने र्यासुमबि कहेवाय. तया नापासुमति एटले जे बचनथी जीवोने कोइ पण प्रकारनी कीलामणा नपजे नही, एवां वचनो जे मुखयकी बोलवां तेने नापासुमति कहेवाय. नया एपणासुमति एटले बेंतालीस प्रकारना दोपोयें करीने रहित एवां आहारपाणी- जे ग्रहण करवू, तेने एपणामुमति कहेवाय. आदानमनिखपणामुपति एटले जां. मा प्रमुखने लेती मुकती वेलायें जीवदयान ने प्रतिपालन करचु, तेने आदानमनिवेपणामुमति कहेवाय. तथा पारिठावणियामुमति एरले मात्रु प्रमुखने परम्वती वेलायें जोवदयार्नु जे प्रतिपालन कर, तेने पारिवावणिया नामनी मुमति कहेवाय. एवीरीतनी पांचे प्रकारनी सुमतियें करीने युक्त ययेलो एगे है. वली हूं केवो तो के, ( गुत्तो के0) मनगुप्ति एटले मनने वश करीने राखg, अर्थात् मनने जे गोपवयु, ते मनगुप्ति कदेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् नापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीन जे गोपववी. तेने कायगुप्ति कदेवाय. एवीरीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हुँ. अर्थात् पांच सुमति अने त्रण गुप्तियें करीने युक्त एवो हूं. बली हुँ केवो तो के, (समणधम्मे के0) श्रमणधर्म एटले साधुधर्मनी अंदर अर्थात् यतिधर्मने विष (विन के) स्थितः एटले रहेलो
॥ ॥१६०
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साधु
एवो हूं, अर्थात् पंचमहात्तोने धारण करवारूप जे संयम, तेने अंगीकार करवारूप यतिधर्मने विपे रदेलो एवो जे हूं ते (बीসনি यं के0) वितीय एटले बीजा (वयं के0 ) वृत्तं एटले वृत्तने अर्थात् मृपावादविरमण नामना बीजा महावृत्तने (अणुररके के०) ||
अनुरक्ष्यामि एटले हुं रक्षण करुं . अर्थात् मृषावादविरमण नामना बीजा महावृत्तनुं हुं सम्यकप्रकारे रक्षण करुं छु. एटले १६शा ते महावृत्तने हुं कं पण जातनी विराधना लगाड्याविना पालुं छ. अने तेथी करीने (मुसाबायान के0 ) मृपावादतः एटले मृ
पावादथकी अर्थात् मृपावाद एटले जे जूतं बोलवू, तेथकी (विरयामो के) विरमामः एटले अमो विरमीये बीये. अर्थात् पूर्वे वर्णवेला मृषावादथकी हुँ दूर रहुं छ. अने एवी रीते हुं मृपावादविरमण नामना वीजा महावृत्तनुं रक्षण करुं छु. ॥ आलय विहार समिन । जुत्तो गुत्तो छिन समणधम्मे । तश्यं वयमणुरस्के । विरयामो
अदिन्नादाणा ॥ ३॥ अर्थः-(आलय के0) नपाश्रयनी अंदर रहेलो, एटले चतुर्मासादिकमां नपाश्रयनी अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो हुँ वली हुं केवो? तो के, (विहार के) श्री केवली जगवाने जैन आगमोमां कहेला मासकल्पादिक विहारने विषे रहेलो एवो हु. वली हुं केवो! तो के, (समिनजुत्तो के ) समितियुक्तः एटले र्यामुमति कहेतां मार्गने विपे जतीआवती वेलाये जीवदयानुं जे प्रतिपालन करवू, तेने र्यामुमति कहेवाय. तथा लापासुमति एटले जे वचनयी जीवोने कोपण प्रकारनी कीलामणा उपजे नही, एवां वचनो जे मुखथकी बोलवां, तेने जाषामुमति कहेवाय. तथा एपणामुमति एटले बेंतालीस प्रकारना दोषोयें करीने रहित एवा आहारपाणीनु जे ग्रहण कर, तेने एषणासुमति कहेवाय. आदानमनिखेपणामुमति एटले नामाप्रमुखने लेतीमूकती वेलायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, तेने आदाननंमनिखेपणासुमति कहेवाय. तथा पारिगवणियासुमति एटले मात्रु प्रमुखने परम्वती वेलायें जीवदयानुं जे प्रतिपालन करवं तेने पारीठावणोया नामनी सुमति कहेवाय. एवी रीतनी पांचे प्रकारनी मुमतियें करीने युक्त थयेलो एवो हूं. वली हूं केवो तो के, ( गुत्तो के0) मनगुप्ति एटले मनने गुप्त करीने राखg. अर्यात् मनने जे गोपवधू, ते मनगुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वशराखीने जे गोपववी, तेने कायगुप्ति कहेवाय, एवी रीतनी त्रणे प्रकारनी
॥१६॥
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साधु
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अर्थः
॥१६॥
गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हुँ अर्यात् पांच सुमति अने त्रण गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवा हूं. बली हुं केवो! तो के, (समणधम्मे के0) श्रमणधर्मे एटले साधुवर्मनी अंदर अर्यात् यतिधर्मने विष (विन के) स्थितः एटले रहेलो एवो हूं, अथात् पंच महावृत्तोने धारण करवारूप ने संयम, तेने अंगीकार करवारूप यतिधर्मने विपे रहेलो एवो जे हुँ. ते (तश्यं के०) तृतीयं एटले त्रीजा ( वयं के० ) वृत्तं एटले वृत्तने अर्थात् अदत्तानविरमण नामना त्रीजा महावृत्तने ( अणुररके के0 ) अनुरदयामि एटले हुँ रक्षण करुं छु. अर्थात् अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृत्तनुं हुं सम्यक् प्रकारे रक्षण करुं छु. एटले ते महावृत्तने हुं कंपण जातनी विराधना लगाड्या विना पालुं छु. अने तेथी करीने, (अदिन्नादाणा के० ) अदत्तादानतः एटले अदत्तादानथकी अर्थात् अदत्तादान एटले पारको वस्तुननु चोरीयकी जे ग्रहण कर तेने अदत्तादान कहीये. एवीरीतना अदत्तादानथकी (चिरयामो के0) विरमामः एटले अमो विरमोये बीये. अर्थात् पूर्व वर्णवेला अदत्तादानथकी दर रहुं छु. अने एवीरीते हुं अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृत्तनुं रहण करूं छु. ॥ आलय विहार समिन । जुत्तो गुत्तो ठिन समणधम्मे । चनत्यं वयमणुरस्के विरयामो
मेहुणान ॥४॥ __ अर्थः-(आलय के०) नपाश्रयनी अंदर रहेलो एटले चतुर्मासकल्पादिकमां नपाश्रयनी अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो हूं. वली हुं केवो? तो के, (विहार के०) श्री केवलीलगवाने जैन आगमोमां कहेला मासकल्पादिक विहारने विष रहेलो एवो हुं वली हुं केवो तो के, ( समिजुत्तो के0 ) समितियुक्तः एटले र्यासुमति कहेतां मार्गने विषे जनी आवती वेलायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, तेने र्यामुमति कहेवाय. तथा नापामुमति एटले जे वचनय। जीवोने कोपण प्रकारनी कीलामणा नपजे नही, एवां वचनो जे मुखयको बोलवां, तेने जापासुमति कहेवाय. तथा एपणामुमति एटले बेंतालीस प्रकारना दोपोयें करीने रहित एवां आहारपाणी- जे ग्रहण करवू, तेने एषणामुमति नामनी मुमति कहेवाय. आदानमनिरकेपणासुमति एटले जांमाप्रमुखने लेतीमूकती वेलायें जीवदयानुं जे प्रतिपालन करवू, तेने आदानमनिरकेपणामुमति कहेवाय. तया पारिगवणीयामुमति एटले मात्रु प्रमुखने परमवती वेलायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, तेने पारितावणीया नामनी सुमति क.
॥१६॥
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साधु
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अर्थः
११६३॥
हेवाय. एवी रीतनी पांचे प्रकारनी मुमतियें करीने युक्त थयेलो एवो हुं. वली हुं केवो? तो के, (गुत्तो के०) मनगुप्ति एटले मनने गुप्त करी राख. अर्थात् मनने जे गोपवधू, ते मनगुप्ति कहेवाय. तया वचनति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तया कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपववी तेने कायगुप्ति कवाय. एवीरीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवो हूं. अर्थात् पांच सुमति अने त्रण गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हुं. वली हुं केवो? तो के, (समणधम्मे के०) श्रमणधर्मे एटले साधुधर्मनी अंदर अर्यात् यतिधर्मने विष (विन के0 ) स्थितः एटले रहेलो एवो हुँ अर्थात् पंच महावृत्तीने धारण करवारूप जे संयम तेने अंगीकार करवारूप यतिधर्मने विपे रहेलो एवो जे हुं ते (चनत्यं के०) चतुर्थं एटले चोथा (वयं के0) वृत्तं एटले वृत्तने अर्थात् मैयुनविरमण नामना चोथा महावृत्तने (अणुररके के०) अनुरक्तयामि एटले हुं रक्षण करूं छु. अर्थात् मैथुनविरमण नामना चोथा महावृत्तनुं हुं सम्यकप्रकारे रक्षण करूंछ. एटले ते महावृत्तने हूं कंज्ञपण जातनी विराधना लगाड्याविना पालुं छु. अने तेथी करीने ( मेहूणा के0) मैथुनतः एटले मैथुनथकी. अर्थात् स्त्री संबंधि जोगविलासोथकी (विरयामो के0) विरमामः एटले अमो विरमीये बी अर्थात् पूर्व वर्णवला मैथुनथकी इंदर रहे छ. अने एवी रीते मैथुनविरमण नामना चोथा महात्तनुं हुं रक्षण करूं छ. ॥ पालय विहार समिळ । जुत्तो गुत्तो ठिन समणधम्मे । पंचम वयमणुरस्के । विरयामो
परिग्गहान ॥५॥ अर्थः-(आलय के0) नपाश्रयन) अंदर रहेलो एटले नपाश्रयनी अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो हुं. वली हुं केवो? तो के, (विहार के0) श्री जिनेश्वर प्रभुए जैन आगमोमां कहेला मासकस्पादिक विहारनी अंदर रहेलो एवो हुँ, बली हं केवोतो के, ( समिनजुत्तो के ) समितियुक्तः एटले यामुमति कहेतां मार्गने विषे जतीआवती वेलायें जीवदयार्नु प्रतिपालन करवू, ते र्यामुमति कहेवाय. तथा नापासुमति एटले जे वचनयी जीवोने कोइपण प्रकारनी कीलामणा नपजे नहीं, एवां वचनो जे मुखयकी बोलवां, तेने जापामुमति कहेवाय. तथा एषणामुमति एटले बेंतालीस प्रकारना दोषोयें करीने रहित एवां आहारपाणी- जे ग्रहण करवू, तेने एपणामुमति कहेवाय, आदानमनिरकेपणासुमति एटलेजांमाप्रमुखने लेतीमुकतीवे.
॥१६॥
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अर्थः
साधु
लायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, तेने आदानमनिरकेपणामुमति कहवाय. तथा पारीठावणीयासुमति एटले मात्रुप्रमुप्रति|| खने परम्वती वेलायें जे जीवदया पालवी, तेने पारी ठावणीयासमति कहीयें, एवीरीतनी पांचे समतियें करीने युक्त थयेलो
एवो हुँ. वली हूं केवो तो के, (गुत्तो के ) मनगुप्ति एटले मनने वश राख अर्थात् मनने जे गोपवयु, ते मनगुप्ति कहेवाय. --॥१६॥ तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो वोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले का
| याने वश राखीने जे गोपववी, तेने कायगुप्ति कहेवाय. एवी रीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हुं. अर्था। त् पांच मुमति अने त्रण गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवो हूं. वली हुं केवो. तो के, (समणधम्मे के0 ) श्रमणधर्म एटले साधु
धर्मनी अंदर अर्थात् यतिधर्मने विष (ठिन के) स्थितः एटले रहेलो एवो है, अर्थात पंच महासत्तोने धारण करवारूप जे || संयम, तेने अंगीकार करवारूप यतिधर्मने विपे रहेली एवो जे हुं. ते ( पंचम के0) पांचमा ( वयं के0 ) वृत्तने एटले महावृत्तने । अर्थात् परिग्रह चिरमण नामना पांचमा महावृत्तने (अणुररके के0) अनुरक्ष्यामि एटले १ रक्षण करुं छ. अर्थात् परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृत्तनुं हूं सम्यकप्रकारे रक्षण करूंछ. एटले ते महात्तने हूँ कं पण जातनी विराधना लगाड्याविना पालुं छु. अने तेथी करीने (परिग्गहा के) परिग्रहतः एटले परिग्रहथकी अर्थात् रागपिरूप अत्यंतर परिग्रहथकी अने स्त्रीआदिकरूप बाह्य परिग्रहथकी ( विरयामो के ) विरमामः एटले अमो विरमीये जीये. अर्थात् पूर्वे वर्ण वेला परिग्रहयकी हुँ दूर रहुं छु. अने एवी रीते परिग्रहविरमण नामनां पांचमा महावृत्तनुं हुं सम्मकप्रकारे रक्षण करुं छु. ॥ आलयविहारसमिन । जुत्तो गुत्तो ठिन समणधम्मे । उठं वयमणुरके । विरयामो राइ
नोयणा ॥६॥ अर्थः-(आलय के०) नपाश्रयनी अंदर रहेलो एटले चतुर्मासादिकमां नपाश्रयनी अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो हुँ. वली हुं केवो? तो के, ( विहार के0 ) श्री केवली नगवाने जैन आगमोमां कदला मासकल्पादिक विहारने विष रहेलो है एवो हूं. वली हूं केवो तो के, (समिन जुत्तो के0) समितियुक्तः एटले र्या सुमति कहेतां मार्गने विष जती आवती वेलायें ||जीवदयानुं जे प्रतिपालन करयु, तने र्यासुमति कहेवाय. तथा नापासुमति एटले जे वचनयो जीवाने कोइ पण प्रकारनी की.
॥१६॥
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साधु
सूत्र
पर्य
लामणा नपजे नही, एवां वचनो जे मुखथको बोलवां, तेने नापामुमति कहेवाय. तथा एपणामुमति एटले बेंतालीस प्रकारप्रति || ना दोपोयें करीने राहत एवां आहारपाणीनु जे ग्रहण करवं. तेने एपणासुमति कडेवाय. आदानमनिखेपणामुमति एटले
जांमाममुखने लेती मूकती वेलायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन करवू, तेने आदनमनिखेपणासुमति कहेवाय. तथा पारिगव॥१६॥
णीयासुमति एटले मात्रु प्रमुखने परठवती वेलायें जीवदयार्नु जे प्रतिपालन कर. तेने पारोठावणीया नामनी मुमति कहेवाय. एवी रीतनी पांचे प्रकारनी सुमतियें करीने युक्त थयेलो एवो ह. वली ई केवा! तोके, ( गुत्तो के०) मनगुप्ति एटले मनने गुप्त करीने राख. अर्थात् मनने जे गोपत्र ते मनगुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपत्रवी, तेने कायगुप्ति कहेवाय. एवी रीतनी पणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हूं. अर्थात् पांच मुमति अने त्रण गुप्तिये करीने युक्त ययेलो एवो हूं. बली हुँ केवो तो के, (समणधम्मे के0 ) श्रमणधर्मे एटले साधुधर्मनी अंदर. अर्थात् यतिधर्मने विष (ठिन के0) स्थितः एटले रहेलो एवो हूं. अर्थात् पंचमहावृत्तीने धारण करवारूप जे संयम, तेने अंगीकार करवारूप यतिधर्मने विपे रहेलो एवो जे हुं, ते (बई के०) षष्ठं एटले बहा (वयं के0) वृत्तं एटले वृत्तने अर्थात् रात्रिजोजनविरमण नामना बहा महावृत्तने (अणुररके के०) अनुरक्ष्यामि एटले हुं रक्षण करूं हूं. अर्थात् रात्रिलोजनविरमण नामना बहा महापत्तनुं हुं सम्यक्प्रकारे रक्षण करूं छु. एटले ते वृत्तने हुं कई पण जातनी विराधना लगाड्या विना पालुं छु. अने तेथी करीन (राश्नायणान के0) रात्रिनोजनतः एटले रात्रिनोजनथकी अर्थात् मूर्यनो अस्त ययापली अशन, पान, खादिम अने स्वादिमरूप चारे प्रकारना रात्रिलोजनयकी (विरयामो के) विरमामः एटले अमो विरमीये जीये. अर्थात् पूर्वे वर्णवेला रात्रिजोजनथकी हुंदर रहे छु. अने एवीरीते रात्रिनोजनविरमण नामना बहा वृत्तनुं हुं सम्यकप्रकारे रक्षण करूं छु. ॥ पालयविहारसमिन । जुनो गुत्नो ठिन समणधम्मे । तिविहेण अपमत्तो । रस्कामि म-
हबए पंच ॥७॥ अर्थ:-(आलय के०) नपाश्रयनी अंदर रहेलो, एटले चतुर्मासादिकमां नपाश्रयनी अंदर स्थिति करीने रहेलो एवो
naan
॥
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साधु
प्रति०
॥१६६॥
5.
वली हुं के वो? तो के, (विहार के० ) श्रीकेवली जगवाने जैन आगमोमा कहेला मासकल्पादिक विहारने विषे रहेलो एवो हूं. वली हुं केवो? तो के, ( समिनजुत्तो के० ) समितियुक्तः एट ईर्यासुमति कहेतां मार्गने विषे जती आवती वेलायें जीवयानुं जे प्रतिपालन करवुं तेने ईर्यासुमति कहेवाय. तथा जापासुमति एटले जे वचनयी जीवोने कोइपण प्रकारनी कीलामला उपजे नही, एवां वचनो मुखयकी बोलवां, तेने जापासुमति कहेवाय. तथा एपासुमति एटले बेंतालीस प्रकारना दोपोथें करोने रहित एवां आहारपाणीनुं जे ग्रहण करवुं तेने एपासुमति कहेवाय. आदाननंमनिखेपासुमति एटलेजांमा प्रमुख लेती मूकती वेलायें जोवदयानुं जे प्रतिपालन करखुं, तेने आदानजं निखेपणा सुमति कहेवाय. तथा पारिठावणीयासुटले मात्र प्रमुखने परठवतं वेलायें जीवदयानुं जे प्रतिपालन करवुं तेने पारिठावणीया नामनी सुमति कहेवाय. एवी रीतनी पांचे प्रकारनं सुमतियें करीने युक्त थयेलो एवो हूं. वली हुं केवो! तो के, ( गुत्तो के० ) मनगुप्ति एटले मनने गुप्त करीने राख. अर्थात् मनने जे गोपवधुं ते मनगुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले ववनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां तेने वचनगुप्तिकहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वशराखीने जे गोपवची, तेने कायगुप्ति कहवाय. एवी रीतनी
प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवो हुं अर्थात् पांच सुमति ने ऋण गुप्तियें कराने युक्त थयेलो एवो हूं. वली हुं केवो? तो के, ( समाधम्मे के० ) श्रमधर्मे एटले साधुवनी अंदर अर्थात् यतिधर्मविषे (ठिन के० ) स्थितः एटले रहेलो एवो हूं. अर्थात पंच महावृत्तीने धारण करवारूप जे संयम, तेने अंगीकार करवारूप यतिधर्मने विषे रहेलो एवो जे हुं ते (तिवि के० ) त्रिबंधन एटले मने करीने, वचने करीने ने कायायें करीने (अपमत्तो के० ) प्रमत्तः एटले प्रमादें करीने रहित अर्थात् प्रमाद अवस्थानो साग करीने, ( पंचमहवए के० ) पंचमहाव्रतान् एटले पांच महावृतोने, अर्थात माणातिपात नामना पहेला महाव्रतने, तथा मृषावाद नामना बीजा महाव्रतने, तथा प्रदत्तादान नामना बोजा महाव्रतने, तथा मैथुन नामना चोथा महाव्रतने, पने परिग्रह नामना पांचमा महाव्रतने, अर्थात् ते उपर कहेलां पांच महाव्रतोनुं ( रस्कामि के० ) रकामि एटले हुं रक्षण करुं छं. अर्थात् ए पांचे महात्रतोने हुं सम्यकप्रकारे पालुं हुं.
॥ सावज्जजोगमेगं । मित्रतं एगमेव अन्नाणं || परिवज्जंतो गुत्तो । रस्कामि महवए पंच ॥ ८ ॥ अर्थ : - ( एगं के० ) एकं एटले एक एवा, ( सावज्जजोगं के० ) सावद्ययोगं एटले सावद्ययोगने, अर्थात् जे कार्य कर
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सूत्र
अर्य
॥१६६॥
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साधु |
वायी कं; पण पाप लागे तेवा कार्यने साग करतोयको, तेमज ( एगमेव के० ) एकएव एटले एक एवा. ( मिव के) मि.|| प्रति थ्यात्वं एटले मिथ्यात्वने, अर्थात् कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मने मानवारूप मिथ्यात्वनो साग करतोयको. सेमज वली (अन्ना ! अर्थः
के०) अशानं एटले अझानने, अर्थात् अनादिकालनी मोहदशाथी थपेला विपरीत ज्ञानने (परिवजेतो के०) परिवतो, ॥१६॥
एटले परियाग करतोयको, अर्थात् सावधयोगोनो एटले पापकार्योनो, मिथ्यात्वनी अने अडाननो साग करतोयको, तेम्ज (गुत्तो के० ) गुप्तः एटले मनगुप्ति, ते मनने गुप्त करीने राखवं, अर्थात् मनने जे गोपवधुं. ते मनप्ति कहेवाय, तया बनति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीन जे वचनो वालवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तया कायगुप्ति एटले कायाने वश राखाने जे गोपववी, तेने कायगुप्ति कवाय. एवीरीतनी त्रणे प्रकारनी गप्तिये करीने युक्त ययेनो एवो हुँ, (पंचमहत्वए के० ) पंचम हावतान् एटले पांच महावताने, अर्थात् प्राणातिपात नामना पहला महाव्रतने, तया मृपावादविरमण ना मना बीना महावृतने, तया अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महाव्रतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महादतने अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महाव्रतने, अर्थात ते नपर कहेला पाचे महाव्रतोनी (ररकामि के) रक्षामि एटले हं रक्षा कर छ. अर्यात ए पांचे महारगोने हुं सम्यकप्रकारे पाळु छ. ॥ अथवजजोगमेगं । सम्मतं एगमेव सन्नाणं ॥ नवसंपन्नो जुत्तो । ररकामि महबए पंच ।। |
अर्थः-(एगं के0) एक एटले एक एवा (प्रणवजजोगं के०) अनवय योगं एटले अनवघयोगने, अर्थात जे कार्य करवामां कंज्ञपण पाप न लागे, तेवां अनुष्ठानने पाप थयोथको. तेमज ( एगमव के0 ) एकमेव एटले एक एवा, (रूम्मत्तं के0) सम्यक् एटले सम्मक्त्वने, अर्यात शुज देव, शुज गुरु, अने शुक्न धर्मने स्वीकारवारूप, अने कुदव कुगुरु अने कुधर्मने सागवारूप समकोतने सार ययोयको तेमज वली (सन्नाणं के०) सझानं एटले सम्मगुडानने, अर्थात् जिनेश्वर प्रभुए नापेला आगमोना वचनोने तहत्ति करी मानवारूप शुक्ष ज्ञानने, ( नवसंपन्नो के०) उपसंपन्नः एटले प्राप्त ययोथको, अर्थात् अनव
| ॥१६७ द्ययोगोनो एटले पापरहित कार्योनो, समकीतनो अने सम्यगाननो संग करतोयको, तेमज (जुत्तो के०) युक्तः एटले नपयोगवमें करीने युक्त थयोयको (पंचमहवए के०) पंचमहावतान् एटले पांच महातोने अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पे. हेला महावृतने, तथा मृपावादविरमण नामना बीना महायतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना बोजा महावृतने, तथा मैथु
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साधु
प्रति
॥२६॥
नविरमण नामना चोथा महावृतने, तथा परिग्रहविरमण नामना पाचमा महावृतने, अर्थात् ते नपर वर्णवेला पांच महातोनी ( ररकामि के ) रहामि एदले हु रहा करूं छु. अर्थात् ए पांचे प्रकारनां महामृताने हुं सम्यकप्रकारे पाळु छु. ॥ दो चेव रागदोसे । उन्नियकाणाई अट्टरुदाई । परिवर्जतो गुत्तो । रकामि महत्वए पंच ॥१०॥
अर्थः-(चैत्र के0 ) चैव, एटले वस्ती (दो के० )ौ पटले वे प्रकारना दोषो . ते दोपो कया ले तो के, ( रागदोमे के०) रागषौ पटले एक राग अने बीजो क्षेप, अर्यात को पण पदार्थ नपरे, अथवा कोई पण जीव नपरे जे मोति नपजवी, ते राग कहेवाय. तथा क्षेप एटले कोइ पण पदार्थ नपरे, अथवा कोइ पण जोव नपरे जे अप्रीति नपजवी, ते देष कहेवाय. पवा राग अने शेषरूप मोदा शत्रुनने तजतायको अर्थात ते बन्ने महा शत्रुननो साग करीने हुं मारां पांचे महारतो नो रदा करीश. बली हुं शुं करीश तो के, (अदृरुदाइंदनियमाणाई केप.) आतध्यान, एटले आध्यान नामना दु.
ानने, तया रश्श्यान नामना दृानने तमीन, अर्थात् आर्तध्यान एटले धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, शरीर आदिकना मोहथीमांसारिक सुख दुःखनु चितवन कर ते. अने रुझ्थ्यान एटले पोताना शत्रु विगेरेने मारवानी इच्छा करवी. एवीरीतना आर्त अने रौ नामनां बन्ने दानांने तजीने हमारी पांचे महावतोनी रक्षा कराश, . हवे ते रागरेप अने बन्ने दुर्थ्यानोने शुं करतोयको तो के, (परिवजंतो के० ) परिवर्जतो एटले तेननो साग करतोयको अर्थात् ते रागदेषरूप शत्रुनने, तथा आध्यान अन रोपध्यानरूप वन्ने दुर्थानोने तजीने हं मारां पांचे महावृतोतुं रक्षण करीश. वली हुं केवो तो के, (गुत्तो के0 ) गुप्तः एरले मनगुप्ति. ते मनने गुप्त करीने राखवू, अर्थात् मनने जे गोपवयु, ते म. नगुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपीने जे वचनो बोलधा, तेने वचन गुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपत्रव), ते कायगुप्ति कहेवाय. एवीरीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हुँ. (पंचमहत्वए के ) पंच महावृतान् एटले पांचे महाताने, अर्गत् प्राणातिपासविरमण नामना पहेला महानने, तथा मृपावादविरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना बोजा पहावृतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोथा महावृतने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, अर्थात् ते नपर काहेला पांचे महावृतोने ( ररकामि के ) रदामि एटले हुं रदा करूं छु. अर्थात् ए पांचे महावृत्तीने ९ सम्यकप्रकारे पाळु छु.
॥१६॥
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सूत्र
साधु | ॥ विहं नरित्त धम्मं । उनियाणाई धम्मसुक्काई । नवसंपन्नो जुत्तो । रकामि महबएपंच ।। ११ ।। प्रति __अर्थः-(हुविहं के० ) विविधं, एटले वे ले प्रकारो जेना एवो, अर्थात् पेहेलो देशविरतिरूप चातित्रधर्म, अने बीजो
अर्थः सर्व विरतिरूप एवो ने ( चरित्त धम्मं के0 ) चारित्रधर्म एटले चारित्रधर्मने, अर्थात् जिनेश्वर प्रभुए कहेला चरणकरणरूप चा॥१६॥ रित्र धर्मने, एटले देशविरति अने सर्व विरतिरूप बन्ने प्रकारना चारित्र धर्मने प्राप्त थइने हुं मारां पांचे महावृतोतुं रक्षण करूंछु.
वली हुं शाने प्राप्त थयोयको मारां पांचे महावृतोर्नु रक्षण करूं छु! तो के, (दुनियाणाई के0 ) देथ्याने एटले वे प्रकारना ध्यानोने प्राप्त थयोयको ९ मारां पांचे महावृतानुं रक्षण करूं छु. हवे ते बे प्रकारनां ध्यानो कयां ! तो के, (धम्ममुकाई के०) धर्मशुक्ले, एटले एक तो धर्मध्यान अने वीजु शुक्लध्यान, एवीरीतनां वे ध्यानोने प्राप्त करीने ( नवसंपन्नो के०) नपसंपन्नः एटले देशविरति अने सर्व विरतिरूप चारित्रधर्मने, तथा धर्मभ्यान अने शुक्लध्यानरूप बन्ने ध्यानोने प्राप्त थयोयको, तया (जु. त्तो के० ) युक्तः एटले ते बन्ने प्रकारनां चारित्रधर्म तथा ते बन्ने प्रकारना शुलथ्यानोने योगें युक्त थयो थको हुं शंकरूंछु? तो के, (पंचमहबए के0 ) पंच महावृतान् एटले पांचे महावृतीने अर्थात् प्राणातिपात विरमण नामना पहेला महावृतने, तथा मृपावाद विरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदलादान विरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुन विरमण नामना चोथा महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतने एवी रीतनां नपरवर्णलां पांचे महावृतानी (रस्कामि के०) रहामि, एटले हुँ रक्षा करुं छे. अर्थात् ते पांचे महावृतोने हुं सम्यक प्रकारे पालुं छु. ॥ किन्दानीलाकान । तिनियक्षेसान अप्पसत्यान । परिवज्जतो गुत्तो । ररकामि महबए
पंच॥१२॥ अर्थ:-(किन्हा के0 ) कृष्णा, एटले एकतो कृष्णा नामनी लेश्या, तथा ( नीला के० ) नीला, एटले बीमा नील ना- |
॥१६॥ मनी लेश्या, ( कान के0) कापोत, एटले त्रीजी कापोत नामनी लेश्या, एत्रणे लेश्या जाणवी. एवी रीतनी (तिन्नियलसाठ के०) त्रिलेश्याः एटले कृष्ण, नील अने कापोत नामनी त्रणे लेश्यानो साग करतो थको हुँ मारां पांचे महातनुं रक्षण करुछु. हवे ते प्रणे लेश्यान केवीले तोके, (अप्पमत्यान के० ) अप्रशस्ताः, एटले अप्रशस्त जे. अर्थात् एत्रणे प्रकारनी उर्ले
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श्याने अंगीकार करवायी पाणीने नरक आदिक ऊर्गतिनां अपार वा सहन करवां प . माटे त्रण लेश्यानने अपशप्रतिः |स्त कहेली ले. अर्थात् ते त्रगो दुर्लेश्या प्राणीने साग करवा लायक डे. माटे एची रीतनी ते त्रणेलेश्यानो (परिवज्जंतो के०)
अर्थः परिवर्जतो, एटले साग करतो यको, अर्थात् एत्रणेलेश्याने तजीने हुं मारांपांचे महावृतोनुं रक्षण करुंछ. बली हुं केवो? तो
के, (गुत्तो के) गुप्तः एटले मनगुनि ते मनने गुप्तकरीने राखवू, अर्थात् मनने जे गोपवq ते मनगुप्ति कहेवाय, तथा वचनगु॥१७॥
प्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तया कायगुप्ति एटले कायाने वशराखीने जे गोपववी, ते कायगुप्ति कदेवाय. एवी रीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तिय करीने युक्त ययेलो एवो हुँ, (पंचमहत्वए के0 ) पंचमहावृतान् एटले पांचे महावृतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृतने, तथा मृपावाद विरमण नामना वीजा महावृतने, तया अदनादान विरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुन विरमण नामना चोथा महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतने, एवी रीतना नपर वर्णवेला पांच महावृतानी (रकामि के0) रदामि, एटले हुं रहा करूं. छ. अर्थात् ए पांचे महावृतोने हुं सम्यक् प्रकारे पालुं छु. ॥ तेनपनमासुक्क । तिन्नीलेसान सुप्पसत्यान । नवसंपन्नो जुत्तो । ररकामि महबए पंच ॥ १३ ॥
अर्थ:-(वेन के0 ) तेजः, एटले तेजोलेश्या नामनी एक लेश्या, तया ( पन के) पद्म एटले पद्मलेश्या नामनी वीजा लेश्या, तथा (सुका के0) शुक्ला, एटले शुक्ललेश्या नामनी त्रीजी लेश्या, एवीरीतनी (तिनिलेसान के) त्रिलेश्याः, एटले तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या, ए मामनी त्रणे लेश्यानने प्राप्त ययोयको हुँ मारां पांचे महावृतानुं रहाण करूं ९. हवे ते त्रणे लेश्यान केवी ने तो के, ( सुपसत्यान के0 ) सुप्रश लाः एटले सुप्रशस्त ले. अर्थात् एत्रणे प्रकारनी शुजले. श्यानने अंगीकार करनारी पाणी मुगतिनां अपारमुखाने जोगवनारो थाय ने. माटे ते त्रणे लेश्याने प्रशस्त कहेली ने. अर्थात् ते त्रणे लेश्या प्राणीने स्वीकार करवा लायक बे. माटे एवी त्रणे लेश्यानने (नवसंपन्ना के0 ) नपसंपन्नः एटले स्वीकार करतोयको, अर्थात् एत्रणे लेश्यानने अंगीकार करीने हुं मारां पांचे महावृतानुं रक्षण करूं छु. बली हुं केवो छ! तो
॥॥१७॥ के, (जुत्तो के०) युक्तः एटले ते त्रणे प्रकारनी शुज लेश्या वो करीने युक्त ययोयको, (पंचमहत्वए के) पंचमहावतान् | एटले पांच महावृतोने, अर्थात् भाणातिपात नामना पहेला महाव्रतने, तया मृपावाद नामना वीजा महावतने, तथा अदत्ता
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साधु दान नामना त्रीजा महाव्रतने, तया मैथुन नामना चोथा महावतने, अने परिग्रह नामना पांचमा महाव्रतने, अर्थात् ते नपर।
मूत्र प्रति कहेलां पांचे महाव्रतोर्नु ( ररकामि के0) रदामि एटले ई रक्षण करूंछ. अर्यात् ए पांचे महावतोने हूँ सम्यकप्रकारे पाळुछ. || अर्थः
॥ मणसा मणसच्चविक । वायासच्चेण करणसच्चेण । तिविदेणविसञ्चविक । ररकामि मह॥११॥
___वए पंच ॥ १५ ॥ अर्थः-(मणसा के0). मनसा, एटले मनें करीने (मणसच्चविन के) मननी अंदर ससने धारण करतोयको, अर्थात् मने करीने शुक्ष्ससने धारणकरतो यको, ते हूं मारां पांचे महावृतोतुं रक्षण करूंछ. वली शुं करतोयको! तोके, (वायासचण के०) वाचःससेन, एटले वचन सवें करीने, अर्यात् मुखयी सय वचना प्रकाशवावझ करीने हुँ मारां पांचे महानृतोर्नु रक्षण करूं छं. वली (करणसचेण के) करणससेन, एटले करणसमें करीने, अर्थात कायायी पटले शरीरथी सस कार्य करवाव करीने हुं मारां पांचे महावृतोर्नु रक्षण करूं छु. एवीरीते (तिविहेण विसञ्चविक के0) त्रिविधन ससेन, एटले प्रणों प्रकारनां ससोएं करीने, अर्थात् मनसस नामना पेहेलां ससे करीने, तथा वचनसस नामना बीजा स से करीने, अने करणसस नामना त्री जा ससें करीने, एवी रीतनां त्रणे प्रकारनां ससे करीने (पंचमहत्वए के) पंचमहात्रतान, एटले पांच महावृतने अर्थात् प्रा. तिपातविरमण नामना पेहेला महातने, तथा मृपावादविरमण नामना बीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महातने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महाव्रतने, एवीरोरनां नपर वर्णवेलां पांचे महाव्रतोनी (रकामि के0 ) रक्षामि, एटले हं रक्षा करूं छु. अर्थात् ए त्रों प्रकारनां ससोने अंगीकार करवा पूर्वक उपर वर्णवेलां पांचे महावृतोनी हुं सम्यकप्रकारे पालना करुं छु. ॥ चत्तारि य हसया । चनरो सन्ना तहा कसायाय । परिवजंतो गुत्तो । ररकामि महबए पंच ॥१५॥
॥१५॥ अर्थः-(य के0 ) च एटले वली (चत्तारि के०) चत्वारि एटले चार एवी, (दुहसया के०) स्वाध्यायाः एटले दुः-- || खदाइ सजायोनो खाग करतोयको हूं मारां पांचे महाव्रतोनी रक्षा करूं छु. वली हूं शुं करतोयको महाव्रतोनी रक्षा करूं छु
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माधु
सूत्र
तो के, (चनरो सना के०) चतुरः संज्ञाः एटले आहारसंज्ञा आदिक चारे संझाननो परिसाग करतोथको हुं मारां पांचे म-|| प्रति हाव्रतोनी रक्षा करूं छु. वली हुं हुं करतोयको महावृत्तोनी रक्षा करूं छु! तो के, (तहा के ) तथा एटले वली ( कसायाय अर्थः
के0 ) कषायाश्च एटले क्रोध, मान, माया अने लोन, ए नामना चारे कषायोने (परिवजंतो के०) परिवतो, एढले साग ॥१५॥
करतोयको, अर्थात् चारे दुःस्वाध्यायोने, तथा आहार आदिक चारे संझाने, तथा क्रोध आदिक चारे कपायोने तजतो थको हुँ मारां पांचे महावृतोनी रक्षा करूं टुं. बली हुँ केयो! तोके, (गुत्तो के ) गुप्तः एटले मनगुप्ति ते मनने गुप्त करीने राखवू. अर्थात् मनने जे गोपवq ते मनगुप्ति कहेवाय. तण वचनगुप्ति एदले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपवी, तेने कायगुप्ति कहेवाय. एवी रीतनी त्रणे प्र. कारनी गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवो हुं. (पंचमहत्वए के0) पंचमहातान् एटले पांच महावृतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला महाटनने, तथा मृपावादविरमाण नामना वीजा महानने, तथा अदत्तादानविरमण नामना वीजा ममहावृतने, तया मैथुनविरमण नामना चोया महावृतने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, अर्थात् ते उपर कहेलां पांचे महावृतोने ( ररकामि के0 ) रामि एटले हं रक्षा करूंछ. अर्थात् ए पांचे महावृत्ताने हं सम्यकप्रकारे पालु छु. ॥ चत्तारि य सुदसिज्जा । चनविहं संवरं समाहिंच । नवसंपन्नो जुत्तो । रकामि महत्वए पंच ॥१६॥
अर्थः-(य के०) च. एटले बली, (चात्तारि के0) चत्वारि, एटले चार, एव (मुहासज्जा के0) मुखस्वाध्यायाः, एटलेमुखड़ायोनो स्वीकार करतो यको हूं मारां पांचे महावृतोतुं रक्षण करु छ. वली ( चनविहंसंवरं के0) चतुर्विधसंवरं एट||ले चार प्रकारनां संवरने अंगीकार करतोयको हूं मागं पांचे महावृतान रक्षण करूंछं. बली हुं शुं करतोयको मारां महातो
नुं रक्षण करुं हुं. तो के, (समाहि च कं०) समाधि च, एटले समाधिने ग्रहण करतोयको १ मारां पांचे महातानुं रहाण करूं छु. अर्थात् मारा आत्माने समतानावमांगखवारूप समाधि ग्रहण करचे करीने हुं मारां पांचे महातार्नु रक्षण करुं छं.
॥१७॥ एवीरीते चार प्रकारनी मुखसझायो, तथा चार प्रकारनां संवरो अने समाधिवमे करीन ( नवसंपन्नो के0) नपसंपन्नः एटले स्वीकार करतोयको, अर्थात् ए सपलाननो आदर करतोयको हुं मारां पांचे महातार्नु रक्षण करु छ. कली हुं केवो छु! तो के (जुत्तो के०) युक्तः एटले ए सघलानबमे करी युक्त ययोथको, (पंचमहबए के0) पंचमहारत्तान्, एटले पांच महारतो
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साधु
|| ने, अर्थात् प्राणातिणात विस्मण नामना पहेला महावृतने, तथा मृपावादविरमग नामना बीजा महातने, तथा अदत्तादानप्रति विरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैयुनविरमण नामना चोथा महातने, तथा परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतने, अर्थः
अर्थात् ते नपर वर्णवेजांपांचे महातोनी ( ररकामि के०) रक्षामि एटले हं रक्षा करूं छ. अर्थात् पांचे प्रकारनां महावृतोने ॥१३॥ हुं सम्यक्प्रकारे पाळु छु.
॥ पंचेव य कामगुणे । पंचेव य अन्हवे महादोसे । परिवजंतो गुत्तो । ररकामि महत्वए पंच ॥१७॥
अर्थः-(य के० ) च, एटले बली (पंचेच के0 ) पंचैव, एटले पांच एवा ( कामगुणे के0) कामगुणान् एटले कामदेव संबंधि गुणो कहेला बे, से कामगुणोने तजतो थको हुं मारां पांचे महातार्नु रक्षण करु छ. बली हुं शुं करतोयको मारां महावृतोतुं रहाण करु छै? तो के, (य के0) च एटले वली (पंचेच अन्हवे के0 ) पांचे प्रकारनां आश्रव संबंधिारोनो परियाग करतोयको हुँ मारा पांजे महावृतार्नु रक्षण करुं हुं. दवे ते पांचे आश्रव संबंधि दोषो केवा ? तो के, (महादोसे के0) महादोषे, एटले महान् दोषोवाला बे. अर्थात् ते आश्रव रोने अंगीकार करवाथी घणा प्रकारनां दोषोनी नत्पत्ति यायले. माटे ते बांच मकारना कामगुणोने, तथा पांचे प्रकारनां आश्रवक्षारोने (परिवजंतो के०) परिवर्जतो एटलेसाग करतोथको हुँ मारा पांचे महावृतोनी रक्षा करूं छु. बली हुं केवो तो के, (गुत्तो के० ) गुप्तः एटले मनगुप्ति, ते मनने गुप्त करीने राखg, अर्थात् मनने जे गोपवयु, ते मनगुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपववो, ते कायगुप्ति कहेवाय. एवीरीतनी त्रणे प्रकारनी गुनियें करीने युक्त ययेलो एवो हुं. (पंचमहत्वए के) पंचमहावृतान्, एटले पांचे महाव्रतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृत्तने, तथा मृषावादविरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण वामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोथा महाव्रतने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीतना उपर वर्णवेलां पांचे म- || ॥१७॥ हाब्रतानी ( ररकामि के0 ) रहामि एटले हुं रहा करूं छु, अर्थात् ते उपर वर्णवेला पांचे महावृतोनी हुं सम्यकमकारे पालना करूं छु.॥
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साधु
॥ पंचिंदियसंवरणं । तदेव पंचविहमेवसळायं । नवसंपन्नो जुत्तो । ररकामि महत्वए पंच ॥ १७॥ | सूत्र । সনি अर्थः-(पंचिंदियसंवरणं के0 ) पंचेश्यि संवरणं, एटले पांचे प्रकारनी इनिना संवरने, अर्थात् रसेंश्यिना विषयोने, अर्थः
तया घ्राणेंश्यिना विषयने, तया चरिंपियना विषयने तथा श्रोत्रंघियना विषयने तथा स्पर्शेडियना विषयने, एवीरीतनां पां१५॥ || चे इंदिनना विषयोने रोकतोयको हुं मारां पांघे महावृतोनी रक्षा करूं छं. वली (तहेव के0 ) तथैव, एटले तेमज (पंच बिह
मेवसायं के0) पंचविधमेवस्वाध्याय, एटले पांचे प्रकारनां स्वाध्यायोने, अर्थात् वाचना पृडानाआदिक पांचे प्रकारनां स्वाध्यायोने (नवसंपन्नो के0 ) उपसंपन्नः, पटले प्राप्त ययोयको, अर्थात् पांचे इनिना विषयोने रोकीने वाचनाआदिक पांचे प्रकारनी सकायोने अंगीकार करतोथ को हुं मारां पांचे महावतोनी रक्षा करूं टुं. वल) हुं केवो छु! तो के, (जुत्तो के0) युक्तः, एटले पांचे इंडिनना संवरवमे करीने तेमज पांचे प्रकारनी स्वाध्यायोवमे करीने युक्त ययेलो छ. एवो थयोयको हुँ शुं करूं छु? तो के, (पंचमहत्वए के० ) पंच महाव्रतान् एटले पांचे महावृताने, अर्थात् प्राणातिप्रातविरमण नायना पेहेला महावृतने, वेथा मृपावादविरमण नामना बीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महाव्रतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महाव्रतने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरोतनां नपर वर्ण वेलां पांचे महाव्रतोनी ( ररकामि के0 ) रदामि, एटले हुं रहा करूं छु. अर्थात् ए पांचे महावृतोने हुं सम्यप्रकारे पालु छ. ॥ जीवनिकायवदं । उप्पिय नासान अपसत्यान । परिवजंतो गुत्तो । ररकामि महत्वए पंच ॥१५॥ . अर्थः-(जीवनिकायहं के ) पम्जीवनिकायवधं एटले बकायना जीवोनी हिंसानो सागकरतोयको, अर्थात् पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय त्रम्काय, आदिक बकायोना जीवोनी हिंसानो साग करतोयको हुं मारां पांचे महावृतोनी रक्षा करुं छ. वली हुं शुं करतोयको मारां महावृतोनी रक्षा करूं छु? तो के, ( अपसस्यान के0) अप्रशस्ताः एटले अप्रशस्त एवी, अर्थात् जे जापा बोलवायी जीवने कर्मोनो बंधपो, तेवी( बप्पियजासान के0) पविधनापाः, एटले उ प्रकारनी जापाननो साग करतोयको हूं मारां पांचे महाव्रतोतुं रक्षण करूं छु. अर्यात् बकायनी हिंसानो, तथा न प्रकारनी अप्रशस्त जापाननो साग करतोयको अर्थात् परिवज्जतो के) परिवजतो, एटले पनने तजतोयको हुं मारां पांचे महावृतोनी रक्षा करूं .
॥ ॥१७॥
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साधु
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|| वली हुँ केवो छु? तो के, ( गुत्तो के0 ) गुप्तः एटले मगगुप्ति, ते मनने गुप्त करोने राखवू, अर्थात् मनने जे गोपवयु, वे मनगुप्ति ।। सूत्र ননি
कहेवाय. तया वनचगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति ए-|| टले कायाने वश राखीने जे गोपववी ते कायगुप्ति कहेवाय. एवी रीननीत्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने गुक्त ययेलो एवो हुँ. (पं.
चमहत्वए के०) पंचमहावृतान् एटले पांचे महाव्रतने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला महावृतने, तथा मृपावादवि19॥
रमण नामना वीजा महावृतने, तया अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतने, तया मैमुनविरमण ननमना चोया महावृतेने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीतनां नपर वर्णवेला पांचे महावृतोनी ( ररकामि के0) रक्षामि एटले हुँ रक्षा करुं छ. अर्थात् ए पांचे प्रकारनां महावृताने हुं सम्यक प्रकारे पालुं छ. ॥ विहमप्रितरियं । बङपि उब्विहं तवोकम्मं । नवसंपन्नो जुत्तो । ररकामि महव्वए
पंच ॥ ३०॥ अर्थः-(बविहं के ) पविधं, एटले उ प्रकारना ( भिंतरियं के ) अत्यंतरितं, एटले अत्यंतर तपने, अर्थात् प्रा. यश्चित्त, विनय, वेयावच, सहाय, ध्यान अने कायोत्सर्ग, एन प्रकारना अत्यंतर तपने प्राप्त थयोथको हूं मारां पांचे महावृतो, रक्षण करुं छ. बली हुं शुं करतोयको मारां महाव्रतोरक्षण करुं तो के, (बविहं के ) पाविधं, एटले उ प्रकारना, एवां (बडंपितवोकम्मं के०) बाह्यमापतपः कर्म, एटले वाद्य एवां तपने पण स्वीकारतोयको हुं मागं पांचे महावृतोर्नु रदण करुं छ. अर्थात् अणसण, कनोदरी, वृत्तिसंदेप, रससाग, कायकिलेस, तथा संलीनता एब प्रकारनां बाह्य तपन अंगीकार करतोथको हूं मारां पांचे महावृतोनी रहा करूं छु. एटले पूर्वे कहेला प्रकारना अत्यंतर तपें करीने, तया उ प्रकारना बाह्यतमें करीने (नवसंपन्नो के०) नपसंपन्नः, एटले संपत्तिवालो थयोयको, तथा (जुत्तो के) युक्तः, एटले तेवमे करीने युक्त ययोयको (पंचमहत्वए के0) पंचमहाव्रतान् एटले पांचे महाव्रतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला म- || ॥१॥ हावृतने, तथा मृषावादविरमण नामना बीजा महाव्रतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुनविरमण नामता चोथा महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीते नपर वर्णवेलां पांचे महावृतोनी ( ररकामि
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अर्थः
साधु
के० ) रक्षामि, एटले हुं रक्षा करुं छं. अर्थात् ए पांचे महावृतोनी हुं सम्यक्मकारे पालना करूं छु. पतिः
॥ सत्तन्नयवाणा । सत्तविहं चेवनाण विप्रंग ॥ परिवज्जतो गुत्तो । ररकामि महबए पंच १॥
अर्थ – ( सत्तजयठाणाई के0 ) सप्तजयस्थानानि, वटले जयनां सात प्रकारनां स्थानोनो साग करतोयको हुं मारां पां॥१६॥ चे महावृतोतुं रक्षण करुं हुं. (चेत्र के ) चैत्र,एटले वली हुँ शुंकरुं छ! तो के, ( सत्तविहं के0) सप्तविधं, एटले सात प्रकार
नां, अर्थात् सात प्रकारो जेनां, एवां ( नाणविप्रंगं के०) विलंगानं, एटले विलंग नामना झानने, अर्थात् साते प्रकारनां विनंगझानने पण तजतोयको हुं मारा पांचे महावृत्तानुं रक्षण करूं टुं. एवीरीते सात प्रकारनां जयस्थानोने, तथा सात प्रकारनां विनंगझानोने ( परिवजंतो के0 ) परिवर्नतो, एटले तजतोयको हुं मारां पांचे महावृतोनुं रक्षण करूं छु. वली हुं केवो हूं? तो के, (गुत्तो के0 ) गुप्तः, एटले मनगुप्ति, ते मनने गुप्त करीने राखवू. अर्थात् मनने जे गांपवq, ते मनगुप्ति कहेवाय. तथा व चनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपववी, ते कायगुप्ति कहेवाय. अर्थात् कायगुप्ति एटले कायाने वशराखीने जे गोपववी, ते कायगुप्ति कहेवाय. एवी रोतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो है (पंचमहत्वग के0) पंच महावृतान्. एटले पांचे महाव्रतोने, अर्थात् प्राणातिपात विरमण नामना पेहेला महावृतने, तथा मृपाबाद विरमण नामना वीजा महावृनने, तथा अत्तादान विरमण नामना बीजा महाव्रतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोथा महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृनने, एवी रीत नां नपर वर्णवेला पांचे महाव्रतोनो ( ररकामि के0 ) रदाराम एटले हुँ रक्षा करुं छ. अर्थात् ए उपर वर्णबला पांचे महाव्रतोनी हुँ सम्यकमकारे पालनां करूंछ. ॥ पिंमेसण पाणेसण । नग्गह सत्तिकया महऊयणा ॥ नवसंपन्नो जुत्तो । रख्खामि म.
॥॥२६॥ हवए पंच ॥ ॥ अर्थः-(पिसण के0) पिपण, एटले सिझतमां कहेली सात प्रकारनी पिपणाने प्राप्त थयोयको ,तेमज हुं मारां | पांचे महाव्रतोतुं रक्षण करुं छु. बाली हुं केवो ने तो के, (पाणेसण के) पानेपणा, टटले सात प्रकारनी पानेपणाने पण मा
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माधु
प्रति
1129911
तययोगको हुं मारां पांचे महाव्रतोनुं रक्षण करू छु, बली केबो छु? तो के, ( उग्गह के० ) सात प्रकारना अवग्रहोने तू वसति संबंधि सात प्रकारना अवग्रहाने अंगीकार करतोयको हुं मारां पांचे महावृतोनुं रक्षण करूं छं. वली हुं केवो छु ! तो के, ( सत्तिका ho) सप्तसप्तककाः, एटले आचारांगसूत्रना वीजा श्रुतस्कथंनी वीजी चूमारूप ठाण, निसीह। यादिक साते अध्ययनोने स्वीकारतोयको हुँ मारां पांचे महावृतोनी रक्षा करूं छं. वली हुं केवो छु? तो के, ( महऊपणा के० ) महाध्यानानि एटले सूपगमांगमूत्रना वीजा स्कंधना पुंमरीकाध्ययन यादिक सांते अध्ययनोनो स्वीकार करतोयको हुँ मारां पांचे महाव्रतोनुं रक्षण करूं छं. अर्थात् सात प्रकारन) पिंपणा, सात प्रकारनी पापला, सात प्रकारना अवग्रह, सात आ चारांगनृत्रना अध्ययनां, तथा सात सूयगमांगना अध्ययनोवमे करीने (नवसंपन्न के० ) उपसंपन्नः एटले परिपूर्ण ययोको तथा ( जुत्तो के० ) युक्तः एटले तेनवमे करीने युक्त ययोयको, ( पंचमहलए के० ) पंचमहाव्रतान् एटले पांच महावृतोने, अर्थात प्राणातिपात विरमण नामना पहेला महाव्रतने, तथा मृपावाद विरमण नामना वीजा महाव्रतने तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महाव्रतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महाव्रतने, अन परिग्रहविरमण नामना पांचमा महाव्रतने, अर्थात् ते उपर कहेलां पांचे महाव्रतोनुं ( ररकामि के० ) रक्षामि एटले हुं रक्षण करूं छं. अर्थात् ए पांचे महाव्रताने हुं सम्यकप्रकारे पाळु छ.
॥ ग्रह मयालाई । ग्रह य कम्माई तेसिं बंधं च । परिवजंतो गुत्तो । रस्कामि मदए
पंच ॥ २३ ॥
अर्थः- (म के० ) अष्ट, एटले आठ एव (मयठालाई के० ) मदस्यानानि, एटले मदनांस्यानो, अर्थात् जातिआदिक पाठ प्रकारां मदनास्थानाने परिहरतोयको हुं मारां पांचे महात्रतोनुं रक्षण करूं छं. वली हुं धुं करतोयको मारा महावृतोनुं रक्षण करूं छु? तो के, ( य के० ) च, एटले वली, (कम्माई के० ) अष्टकर्माणि, एटले ज्ञानावरणीय आदिक ठे कर्मोनो साग करतोयको हुं मारा पांचे महावृतोनुं रक्षण करूं . बली शुं करतोयको मारा महावृतोनुं रक्षण करूं लु? तो के, ( च के० ) बजी ( तेसिं के० ) तेषां एटले तेनां, ( बंधं के० ) वर्ष, एटले बंधने, अर्थात् ते ज्ञानावरणीय आदि
२३
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सूत्र
अर्थ
॥११
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साधु
अर्थ
क कर्मोनां बंधने तजतोयको हुं मारां पांचे महाटतोर्नु रक्षण करुं छु. एवोरोते आठ प्रकारनां मदस्यानोने, तया आठ प्रकाप्रतिव रना छानावरणीय आदिक कर्मोने, अने ते कर्मोनां बंधने (परिवज्जंतो के०) परिवज्जतो, एटले साग करतोयको हुँ मारा
पांये महावृतोनी रक्षा करुं हुं. वली हुं केवो ढुं? तो के, (गुत्तो के०) गुप्तः, एटले मनगुप्ति, ते मनने गुप्त करीने रा॥१७॥
ख. अर्यात् मनने जे गोपवq ते मनगुप्ति कहेवाय. तया वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपववी. तेने कायगुप्ति कहेवाय. एवी रीतनी त्रणे प्र. कारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हूं. (पंचमहत्वए के) पंचमहावृतान् एटले पांचे महावृतोने, अर्थत् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला महारतने, तया मृषावादविरमण नामना बीजा महातने, तथा अदत्तादानविरमण नामना वीजाममहावृतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महावृतने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, अर्थात् ते उपर कहेलां पांचे महावृतोने ( ररकामि के० ) रहामि एटले हुं रहा करूं छु. अर्थात् ए पांचे महावृत्तोने हुं सम्यकप्रकारे पाळु छु. ॥ अठपवयणमाया । दिछा अठविहनिछिअठहिं । नवसंपन्नो जुत्तो । ररकामि महत्वए पंच ॥ २॥
अर्थः-(अविहनिष्ठियडेहि के0) अष्टविधनिष्ठि ताथैः, एटले आठ प्रकारे दय पाम्या डे झानावरणी आदिक पदार्थो जेमना, एवा श्री जिनेश्वर प्रभुनए (दिन के) दृष्टाः, एटले उपलब्ध करेली, अर्यात् केवलदर्शनयी जोएली, एवी (अकृपययणमाया के0) अष्टप्रवचनमातृः, एटले आठ प्रवचनमाता अर्थात् र्यामुमति, जापासुमति, एपाणा सुमति, पारि ठावणीया सुमति, अने आदानमनिखेपणा सुमति, ए पांचे मुमति, तया मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति, एत्रण गुप्तिमलीने, आठ प्रवचन माता कहेवाय. रे. एवीरीतनीआठे प्रकारनी प्रवचन माताबमे करीने (नवसंपन्नो के0) नवसंपनः एटले प्राप्त थयोयको हुँ मारां पांचे महावृतोरक्षण करु झु. वली हुं केवो छु? तो के, (जुत्तो के०) युक्तः एटले एटले ते पूर्वोक्त अष्टप्रवचनभातानबमे करीने युक्त थ योयको (पंचमहवए के ) पंच महावृतान् एटले पांचे मह णातिपातविरमण नामना पहेला महावृतने, तया मृषावादविरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुन विरमण नामना चोथा महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतने, एवी रीतनां उपर वर्णवेलां पांचे महावृतोनी (रकामि के०) रक्षामि, एटले हूं रक्षा करुं हुं. अर्थात् ते पांचे महावृतोनी हूं सम्यकप्रकारे
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यर्थ
साधु । | पालना करूं छु. प्रतिक ॥ नवपावनियाणाई । संसारत्या य नवविहाजीवा । परिवजंतो गुत्तो । रस्कामि महत्वए
पंच ॥ २५॥ २१
अर्थः-(नवपावनियाणाई के0) नवपापनिदानानि, एटले नव प्रकारनां पापनियाणानने, अर्थात् जोगादिक प्रार्थनारूप, निवासिठ्ठी आदिक नवे प्रकारनां नियाणानने तजतोयको हुं मारां पांचे महावृतो, रक्षण करूं हूं. (य के0) च, एटले वली हुं शुं करूं छु! तो के, (संसारत्या के ) संसारस्याः , एटले संसारमा रहेला एवा (नवविहाजीया के०) नवविधजीवान्, एटले नव प्रकारना जीवोने अर्यात् पृथ्वीकाय, अप्काय, तेनकाय, वानकाय, वनस्पतिकाय, बेंझिय, यि, चनरिदिय तथा पंचेंहिय, एम नव प्रकारना जीवोने (परिवजंतो के०) परिवज्जतो एटले तजतोयको, अर्थात् नव प्रकारनां पापनियाणानने, तथा नव प्रकारतां संसारी जीवोने तजतोयको हुं मारां पांचे महावतो, रक्षण करूं छु. वली हुं केवो छ ? तो के, ( गुत्तो के०) गुप्तः एटले मनगुप्ति, ते मनने गुप्तकरीने राखg, अर्थात् मनने जे गोपवयु ते मनगुप्ति कहेवाय, तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपनीने जे वचनो बोलवां, तेने बचनगुप्ति कहेवाय. तया कायगुप्ति एटले कायाने वशराखीने जे गोपववी, ते कायगति कहेवाय. एवी रीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तये करीने युक्त थयेलो एवा हूं, (पंचमहत्वए के०) पंच महावृतान् एटले पांचे महावृतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृतने, तथा मृषावाद विरमण नामना बीजा महावृतने, तथा अदत्तादान विरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुन विरमण नामना चोथा महावृतने, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतने, एवी रीतना नपर वर्णवेला पांचे महावृतानी (रकामि के०) रक्षामि, एटले हुं रक्षा करूंछु. अर्थात् ए पांचे महावृतोने हुं सम्यक् प्रकारे पालुं छु. ॥ नवबंजरगुत्तिं । उनवविदं बंनचेरपरिसुई ॥ नवसंपन्नो जुनो । रस्कामि महत्वए पंच ॥ २६ ॥
अर्थः-( नववंजचेरगुत्ति के० ) नवब्रह्मचर्यगुप्ति, एटले नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यसंबंधि गुप्तिने अंगीकार करतोयको हुं मा ॥ रांपांचे महावृतोतुं रक्षण करुं छ. अर्थात शील संबंधि नवे वामाने अंगीकार करीने हुं मारां पांचे महाव्रतो पाळु छ. वली
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साधु प्रतिण
॥१०॥
हुँ शुं करतोयको मारां पांचे महावृतोर्नु रक्षण करुंटुं? तो के, (दुनव विहं के) दिनव विध, एटले अढार प्रकारनी, अर्थात् अहार लेदो जेना, एवी (बजचेरपरिमुई के०) ब्रह्मचर्यपरिशुरू, एटले ब्रह्मचर्य नामना महाव्रतनी परिशुझिने अंगीकार करतोयको हुं मारांपांचे महावृतोनुं रक्षण करूं हूं. एवीरीते नव प्रकारना ब्रह्मचर्यने, तथा अढार प्रकारनी ब्रह्मचर्य परिशुहिने (नवसंपन्नो के0) उपसंपन्नः, एटलें प्राप्त थयोयकों हूं मारां पांचे महानगोनुं रक्षण करूं हूं. बली हूं केवो टु? तो के, (जुत्तो के0 ) युक्तः, एटले ते पूर्वोक्त नव प्रकारना ब्रह्मचर्ये करीने, तथा अढार प्रकारनी ब्रह्मचर्यपरिशुश्विमे करीने युक्त थयोयको, वली (पंचमहत्वए के० ) पंचमहाव्रतान् एटले पांचे महाव्रतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमाण नामना पहेला महावृतने, तया मृषावादविरमण नामना वीजा महाव्रतने, तया अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महावृतने, अने परिप्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीते नपर वर्णवेला पांचे महावृतोनी ( ररकामि के) रदामि, एटले हुँ रक्षा करूं हूं. अर्यात् ए पांच महावृतोनी हुं सम्यकप्रकारे पालना करूं छु. ॥ नवघायंच दस विहं । असंवरं तहय संकीलेसंच । परिवजतो गुत्नो । रकामि महत्वए पंच ॥
अर्थः-(च के०) च, एटले बली ( दसावई के0 ) दशवित्रं, एटले दश प्रकारना ( नबघायं के0 ) नपघातं, एटले नपघातने तजतोयको हुं मारा पांचे महातोर्नु रक्षण करूं टुं. ते दश प्रकारना नपधातो कया कया बे! तोके, पहेवो नजम नामनो नपघात, ते भाषाकर्मादिकथी नत्पन्न यायचे. वीजो नप्तादन नामनो नपघात, ते धात्री आदिकना दोपथी नपन्न याय वे. त्रीजो एपणा नामनो नपघात . ते शंकितादिक दव उत्पन थाय बे. चोथो परिहरणा नामनो नपघात . ते अला. दणिक तथा अकल्प्य एवा नपकराना परिजोगयी नत्पन्न याय ब. पांचमा परिसाम नामनो नपघात . त बस्त्रपात्रादिकनी गोठवणीथी शरीरमे श्रमादिक लागवाथी नत्पन्न याय . हो शान नामनो नपघात , ते श्रुतझाननी अंपदाए प्रमादथी अकाले स्वाध्यायादिक गुणवाथी नत्पन्न याय ले. सातमा दर्शन नामनो नपघात ठे, ते शका आदिकयी नत्पन्न याय ले. आठमो समितिना जंग आदिकयी नपघात थाय ने. नवमो शरीरादिकना विपयोनी मूर्जाथी परिग्रहनी विरतीरूप नप. घात उत्पन्न थाय बे. तया दशमों अप्रीतिबके करीने विनयादिकनो उपघात थाय जे. एवीरीतना नपर वर्णवेला दशे प्रकारना नपघाताने तजतोयको हुँ मार पांचे महावृतोतुं रक्षण करुं छं. वसी हु केवो ? तो के, ( तहय कं0 ) तथैव, एटले ते.
(Ut
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मृत्र
अर्थः
माधु
वीजरीते ( अमंवर के०) असंवरं, एटले दश प्रकारना असंवरनो साग करतोयको हूं मागं पांचे महावृतोर्नु रक्षण करुंछ. प्रति || बली हुं केवो छु. तो के, (च के0) बली (संकलमं के०) संक्लेशं एटले दश प्रकारनां संक्लेशोने तजतोयको हुँ मारां पांचे
महाढतोतुं रहण करूं छु. २७॥
एवीरीते दश प्रकारना नपघातोने, तथा दश असंवरने. तथा दश संक्लेशोने, (परिवजतो के०) परिवर्जतो एटले तजतोयको हुँ मारां पांचे महावृतीनी रक्षा करूं . बली हु केवो! तो के, (गुत्तो के0 ) गुप्तः एटले मनगुप्ति. ते मनने गुप्त करीने राखg, अर्थात् मनने जे गोपवयु, ते मन गुप्ति कहेवाय. तथा वचनगुप्ति एटले वचनने अर्थात् जापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, तेने वचनगुप्ति कहेवाय. तया कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपववो, ते कायगुप्ति कहेवाय. एवीरीतनी त्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त थयेलो एवो हूं. (पंचमहत्वए के० ) पंचमहावृतान्, एटले पांचे महाव्रतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमाए नामना पेहेला महावृत्तने, तथा मृपावादविरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण वामना त्रीन था मैथुनविरमण नामना चोथा महाव्रतने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीतनां नपर वर्णवेलां पांचे म. हाव्रतोनी (रकामि के0 ) रक्षामि एटले हं रक्षा करूंछ, अर्थात् ते नपर वर्णवेला पांचे महावृतोनी हुं सम्पकप्रकारे पालना करूं छु.॥ ॥ दस सञ्च समादिगणा । दस चेव दसान समणधम्मं च । नवसंपन्नो जुत्तो । ररकामि
__ महब्बए पंच ॥ २० ॥ अर्थः-( चेव के0 ) चैव, एटले वली (दस के0) दश, एटले दश के प्रकारो जेना, एवां ससने, तया ( समाहिठाणा के0) समाधिस्थानानि, एटले दश प्रकारनां समाधिस्थानोने प्राप्त थयोथको हुं मार पांचे महाव्रतोतुं रक्षण करु छ. अर्थात् जानपदादिक दश प्रकारनां जे सस तथा दश प्रकारनां समाधिम्यानो सिद्धांतोमा कह्यांबे, तेननो अंगीकार करतोयको हुं मारां पांचे महाव्रतोतुं रक्षण करूंछ. (च के0) च, एटले बली. हं शु करतोथको मारां पांचे महाव्रतोतुं रक्षण कर छु तो के. (दसान के०) दशा एटले कर्मविपाकदशा आदिक दशभकारनां श्रुतस्कंधनो, तथा दश प्रकारनां (समाधम्मं के०) श्रम
॥११
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अथः
|| णधर्म, एटले श्रमणधर्मने अंगीकार करतोयको हुं मारां पांचे महावृतोतुं रक्षण करुं छु. अर्थात खंति आदिक दश प्रकारनां प्रति साधुधर्मने (नवसंपन्नो के0) उपमंपन्नःएटले प्राप्त थयोयको, अर्थात् दश प्रकारनां ससोमे तथा दश प्रकारनां समाधिस्था
नोने, तथा दश प्रकारनां श्रुतस्कंधोने, तया दश प्रकारनां श्रमणधर्मने अंगीकार करतोयको, तेमज ( जुत्तो के ) युक्तः एट॥२०॥
ले तेवके करीने युक्त थयोयको (पंचमहहए के०) पंच महाव्रतान्, एटले पांचे महावृतोने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना महावृतने, तथा मृपावादविरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महाव्रतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोथा मंहावबने, अने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरोतनां नपर वर्णवेलां पांचे महावतोनी ( ररकामि के0 ) रदामि, एटले हुं रदा करूं छ. अर्थात् ए पांचे महावृतोने ९ सम्यकप्रकारे पालुं छं. ॥ आसायणं च सव्वं । तिगुणं शक्कारसं विवजतो ॥ परिवग्जतो गुत्तो । रकामि महबए
पंच ॥ १ ॥
अर्थः-(च के०) च पुनः, एटले वली ( सत्वं के0 ) सर्वाः, एटले सर्व एवी, अर्थात् समुच्चयरूपें सघला प्रकारनी. आसायणं के0) आसातनः, एटले आसातनान, अर्थात् “अरिहंताणं आसायणाए" इसादि, आसातनान सिझतमां कहेलीडे. हवे ते आसातनान केटला प्रकारनी बे? तो के, (तिगुणं इक्कारसं के०) त्रिगुणं एकादशं, एटले अगीयारना आंकने त्र
गणा करीये तेटली बे; अर्यात् तेत्रीस प्रकारनी आसातना सिद्धांतमां कहेली ले. हवे ते आसातनान केव) ले! तो के, (विवजंते के0) विवज्यंते एटले विशेपे करीने वर्जवालायक बे, अर्थात् ते सातना सागकरवा लायकले. माटे ते आसातनानने (परिवज्जतो के0) परिवर्जतो, एटले तजतोयको, अर्थात् ते तेत्रीसप्रकारन) आसातनाननो साग करतोयको हूं पांचे महावृतोतुं रक्षण करुंछ. बली हुं केवो तोके, (गुत्तो के०) गुप्तः एटले मगगुप्ति. ते मनने गुप्त राखg, अर्थात् मनने गोपच, ते मनगुप्ति कहेवाय. तया वचनगुप्ति एटले वचनने वा नापाने गोपवीने जे वचनो बोलवां, ते वचनगुप्ति कवाय. तथा कायगुप्ति एटले कायाने वश राखीने जे गोपववी ते कायगुप्ति कवाय. एवी रीतनीत्रणे प्रकारनी गुप्तियें करीने युक्त ययेलो एवो हूं. (पं. चमहत्वए के० ) पंचमहावृतान् एटले पांचे महाव्रतने, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला महावृनने, तथा मृपावादवि.
| ॥१७॥
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साधु
प्रति
॥१८३॥
रमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैमुनविरमण नामना चोया महावृतने, परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीतनां उपर वर्णवेला पांच महावृतोनी ( रस्कामि के० ) रामि एटले हु रक्षा करुं लुं. अर्थात ए पांचे प्रकारनां महावृतोन हुं सम्यक प्रकारे पालुं लुं.
॥ एवं तिदमविरन । तिगरणसु
तिसल्लनि सल्लो । तिविदेश परितो । रकामि मह
ए पंच ॥ ३० ॥
अर्यः - ( एवं के० ) एवं एटले एवीरीते ( तिरुविरन के० ) त्रिविरतः एटले त्रायें दंमोएं करीने विरति पामेलो, अ र्थात् मन, वचनदं अने कायक एवीरीतनां त्रणे प्रकारनां दंमोथी विरति पामेलो, एत्रो हुं मारां पांचे महावृतीनुं रक्षण करूं हूं. वली हुं केवो हूं? तो के, (तिगरणसुको के० ) त्रिकरणशुद्धः, एटले त्रणे प्रकारनां करणोयें करीने शुद्ध थयेलो, अ र्थात् मन व्यादिक त्रण करणोयें करीने शुद्ध ययेलो, एटले निरवद्ययोगनी अंदर प्रवृत्त ययेजो एवो हुं मारां पांचे महावृतो नुं रक्षण करूं छं. बली हुं केवो हूं? तो के, ( तिसखनिसलो के० ) त्रिशल्य निःशल्यः, एटले त्रणे प्रकारनां राज्योंयें करीने रहित येतो, अर्थात् माया आदिक त्रणे प्रकारनां शल्योयें करीने मुक्त थयेलो एवो हुं मारां पांचे महावृतोनुं रक्षण करु.
हुं शुं करतोयको मारां पांचे महावृतोनुं रक्षण करूं हूं? तो के, (तिविण के० ) त्रिविधेन, एटले त्रिवि करीने, तू मन, वचन, अने कायायें करीने ( परिक्कतो के० ) प्रतिक्रमतः, एटले परिक्रमतोयको, अर्थात् पापोनो पश्चाताप करतोयको ( पंचमहए ho) पंचमहात्रतानू, एटले पांच महावृतने अर्थात् माणातिपात विरमण नामना पहेला महावृतने, तथा मृपावादविरमण नामना वीजा महावृतने, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतने, तथा मैथुनविरमण नामना चोया महातने, ने परिग्रहविरमण नामना पांचमा महावृतने, एवीरीतनां नपर वर्णवेलां पांचे महाव्रतोनी ( ररकामि के० ) रक्षामि, एटले हुं रक्षा करूं कुं. अर्थात् एत्र प्रकारनां ससोने अंगीकार करवापूर्वक उपर वर्णवेलां पांचे महारतोनी हुं सम्यकमकोर पालना करूं छं.
॥ इच्चेयं महन्वयनुच्चारणं रित्तं सब्लु-हरणं विश्वलं ववसान साहाको पावनिवारणं ॥
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सूत्र
अर्थः
॥१८३
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मूत्र
साधु प्रति
अर्थः
॥१७॥
__ अर्यः-(श्चयं के ) श्येवं, एटले एवीरीते, ( महत्वयनञ्चारणं के० ) महावृतोश्चारणं, एटले महावृतोतुं उच्चारण, अर्थात् प्राणातिपातविरमण नामना पहेला महाननुं नचारण, तथा मृषावादविरमण नामना वीजा महावृतनुं नच्चारण तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतनुं नच्चारण, तथा मैथुनविरमण नामना चोथा महावृतनुं नच्चारण, अने परिग्रह विरमण नामना पांचमा महावृतनुं नच्चारण जाणवू. हवे ते महावृतोतुं नच्चारण के ? तो के, (थिरतं के) स्थर्याथ, एटले स्थिरता करना5 बे, अर्थात् महातोनेविपे अथवा धर्मने विषे स्थिरताना हेतुवालुं बे. वली ते महाव्रतोतुं नच्चारण के ? तो के, ( सल्लुधरणं के ) शख्योधरणं, एटले शल्योनो नझार करनारुं ले. अर्थात् माया आदिक त्रणे प्रकारनां शल्योनी नकार करनारं . वली ते महाव्रतोतुं नच्चारण के ? तो के, (विश्वलं के0 ) धृतिबलं, एटले चित्तसमाधिना अवष्टनरूप जे. अयवा विश् एरले धृति, अर्यात् धैर्यना वलने आपवावालुं . अयवा घि एटले जे बुद्धि, तेना बलने आपनाउंडे. वली ते महाव्रतोतुं नचारण के ! तो के, ( वसान के0) व्यवसाय: एटले व्यवसायरूप ले. अर्थात् चरणकरणना अध्यवसा. यरूप ले. बली ते महावृतोर्नु नच्चारण के बे! तो के, (माहणट्ठो के ) साध्यार्थः, एटले साधकतम पदार्थरूप ले. अर्थात् मोद नामना परमपुरुषार्थनी निप्पत्तिना नपायरूप दे. वली ते महाव्रतोतुं नच्चारण केबुं बे? तो के, (पावनिवारणं के0) पा पनिवारणं, एटले अशुन कर्मोनू निवारण करनारुं बे. अर्थात् दूपणवाला कार्योनो अटकाव करनारूं दे. वली ते महातो. नु नच्चारण केवु ले तो के,
॥ निकायणा नावविसोही पमाग्गाहरणं निज्जुहणाराहणा गुणाणं संवरजोगो॥ अर्थः-(निकायणा के) निकाचना, एटले निकाचनारूप ले. अर्थात् पोतानां व्रतोने स्वीकारवामां असंत दृढ निबंधनवालु ने. अथवा शुलकर्मोना निकाचननो देतुभूत दे. वली ते महातार्नु नच्चारण के ले तोके, (जावचिसोही के ) जा वविशुदि. एटले नावोनी विशेष प्रकारे करीने शुक्षि करनारुं ले. अर्थात् निर्मला नोवोना हेतुरूप जे. वली ते महाव्रतोतुं नचारण केबु! तोके, (पमाग्गाहरणं के०) पताकाग्रहणं, एटले पताकानाग्रहणरूप बे. अर्थात् चारित्रना आराधनरूप ज वै. जयंती पताका, तेना ग्रहणरूप बे. जेम लौकिकमां मजयुशदिकन विप वस्त्र, आपण अथवा इव्य, धजाना अग्र नाघपर बांधवामां आवेलुंड अने तेमां जे माणस जीतपामेले, ते अगामी आबीने, ते वस्त्रादिक ग्रहणकरे ः एवीरीत अहीं पण पा.
॥१८
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बाधु
प्रति
Cull
कि आदिको
महावृतना उच्चारणयी थयेल वे चारित्रशुदिनो प्रकर्ष जेते, एवो साधु, नितीनां कहेली एवी चारित्रना आराधन रूप पताकानुं ग्रहणकरे छे. वली ते महाव्रतोनुं उच्चारण के बे? तो के, ( निज्जुहा के० ) निर्यूहना, एटले निष्काशनरूप ठे. अर्थात् पोताना आत्मारूपी नगरमांथी कर्मरूपी शत्रुने निकालवारूप बे. वली ते महावृतोनुं उच्चारण के a. तो के, (राहणागुणाएं के० ) यारानागुणयुक्तं, एटले आराधना गुणयुक्त ते अर्थात् मुक्तिसाधक, एटले मोक्षने साधवावाला जीवोना व्यापाररूप व्याराधनाना अखं गुणोवाळु बे. वली ते महाव्रतोनुं उच्चारण के ? तो के, (संवरजोगो के० ) संवरयोगः, एटले संवरना योगवालुं छे. अर्थात् नवां कर्मोनां आगमनने अटकाववानारुं जे संवर, तद्रूप योगवालुं छे. अथवा संवरें करीने एटले पंचाश्रवना निरोधरूप संवरें करीने सहित छे, संबंध जेनो एवं जे. वली ते महाव्रतोनुं न च्चारण केवुं ठे? तो के,
॥ पसत्यालो वत्तया जुत्तया नाणे परमो नमो ॥
अर्थः- (पसत्यालो के० ) मशतध्यानः, एटले प्रशस्त ध्यानवालुं बे, अर्थात् ए पूर्व कलां महावृतीनां उच्चारणथी उत्तम प्रकारनुं ध्यान प्राप्त थाय छे. वली ते महाव्रतोनुं उच्चारण केनुं वे तो के, (वनुत्तया के० ) उपयुक्तता, एटले संपत्तिमें करीने युक्त थयेलुं छे. वली ते महाव्रतोनुं नचारण केधुं बे? तो के, ( जुत्तया के० ) युक्तता, एटले युक्तियें करीने सहित d. अर्थात ते महाव्रतानुं नच्चारण संपत्तित्रमें करीने, तथा युक्तिनवमे करीने सहित छे. बल। ते महाव्रतोनुं उच्चारण के बे! तो के, (नाणे के० ) झाने, एटले ज्ञानगुणों करीने युक्त बे. अर्थात् सम्यग्ज्ञाननी संपत्तिवालुं बे. वली ते महाव्रतोनुं उच्चारएए के वे तो के, (परमो के० ) परमार्थः, एटले परमार्थरूप बे. अर्थात् मोहने अर्थे बे; एटले सद्भूतार्थरूप डे अर्थात् अकृत्रिम पदार्थरूप बेबी कोइक पदार्थ अने परमार्थ पण परमाणु आदिकनी पेठे उत्तम न पा होय, तेमाटे कहे ठेके, बली ते महाव्रतोनुं उच्चारण के बुं बे? तो के, ( उत्तमट्टो के० ) उत्तमार्यः, एटले उत्तम पदार्थरूप डे अर्थात् सर्व प्रकारनां क करीने रहित एवा मोहरूपी संत नत्कृष्ट, निराबाध ने अक्षय फलने साधनारुं छे. हवे ते उपर वेलां पांच महातनुं उच्चारणं कोणे उपदेश्यं ते? ते कहे बे..
॥१व्या
| एस तित्थंकरेहिं र राग दोसमहोहिं देसिन पवयस्ससारो ॥
२४
सूत्र
अर्यः
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मति
अर्थः-(एस के0) एपः, एटले ते नपर वर्णवलुं पांचे महावृतोर्नु नचारण, (नित्यंकरहिं के0) तीर्थंकरैः, एटले श्री-|| | तीयकर प्रभुनए, अर्थात् केवलझान अने केवलदर्शने करीने युक्त, एवा श्रीवीतराग जिनेश्वर प्रनुनए (देसी के०)देशितः,
अर्थः एटले उपदेशेलु दे. अर्थात् मोक्षमार्गना अन्जिलापिन माटे कहेलुं . हवे ते श्रीतीर्थंकर प्रजुन केवा ? तो के, ( रइरागदो
समहणेहि के० ) रतिरागपरहितैः, एटले रति, राग अने पेंकरीने रहित ने. अर्थात् मोहनीय नामना कर्मना उदययीन॥१६॥
स्पन थनारो, एवो तेवीरीतना आनंदरूप जे चित्तसंबंधि विकार, वे रति कहेवाय. तथा मनने रंजनरूप राग कहेवाय. अने ईपें करीने रहित, एवा श्रीजिनेश्वर प्रजुनएं उपदेशेलु ने. हवे ते महावृतोर्नु नच्चारण केवु ले तो के, (पवयणस्ससारो के0 ) प्रवचनस्यसारः, एटले प्रवचनोना साररूप ले. अर्थात् श्रीजिनेश्वर प्रभुए नापला आगमोना साररूप .
॥जीवनिकायसंजमोवएलियं तिलुक्कसंकयंगणं अनवगया ॥ अर्थः-वली ते महावृतोर्नु नच्चारणा केवु ले तो के, (जीवनिकायसंजमोवएसियं के0) पाजीवनिकायसंयमोपदेशक, एटले बकाय जोवनी रक्षा करवाना, नपदेशरूप ने. अर्यात् पृयोकाय, अपकाय, तेनकाय, वानकाय, वनस्पनिकाय अने त्रसकाय, एम ब प्रकारना जीवोनुं जेयो रदण थायडे, पवा निर्मल उपदेशरूप बे. तथा नपलदायी मृपावाद आदिकना प. रिहारना, एटले ते ना सागना नपदशरूप ठे. एवीरोतनो नपरमुजब नपदेश करीने श्री जिनेश्वर प्रमुन क्यां गयेला बे! तो के (तिलुकसंकयंगणं के०) त्रैलोक्यसंस्कृतस्यानं, एटले त्रणेलोकमां जे स्याननी विशेष प्रकारे मदत्ता ययेली , एवां स्यानप्रते, अर्यात् स्वर्गलोक, मृत्युलोक अने पाताललोक, ए नामना त्रणे लोकोमा जे अति नत्कृष्टस्यान ठे, एवा मोद नामना स्यानप्रते (अमुधगया के ) अत्युपगताः एटले प्राप्त ययेला डे. अर्यात् मोद नामना असंत नत्कृष्ट अने अक्ष्यस्थानमा गयेला ले. हवे मंगलिकने अर्थे श्री वोरजगवाननी स्तुति करे . ॥ नमोत्थु ते सिइ बुछ मुत्त नीरय निस्संग माणमूरण गुणरयण सीलसायर मणंत मप्प- ॥१६
मेय नमोत्यु ते ॥ अर्थः-हे श्रीवीरप्रभु ! ( ते के0 ) तुल्यं, एटले तमाराप्रते, अर्थात् आपनते, ( नमोत्यु के0 ) नमोऽस्तु, एटले नमस्कार
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साधु
मत
| अर्य
॥१०॥
थान. वली हे मनु! आप केवा ठो? तो के, (सिम के०) सिमः, एटले सिद्धिरूपी अव्यावाध स्यानप्रते प्राप्त ययेला दो. अर्थात् कृतार्थ थयेला बो. वली हे प्रभु! आप केवा नो! तो के, (बुझ के0 ) बुझः, एटले बोध पामेला छो. अर्थात् केवलझाने करीने जाणेल डे सर्व पदार्योनां तव जेमणे एवा बो. बली हे अनु! आप केवा बो? तो के, ( मुक्त के0) मुक्तः, एटले मुक्त ययेला बो. अर्थात् पूर्वे बांधेलां कर्मोवमें करीने मुक्त ययेला बो. वली हे प्रभु! आप केवा डा? तो के, (नीरय के०) नीरज, एटले आगामी कालमा बंधानारां कर्मोएं करीने रहित, अथवा नारय, एटले गयेल ले औत्सुक्यपणुं जेमर्नु एवा, वली हे प्रभु! आप केवा बो? तो के, (निःसंग के ) निःसंगः एटले कोश्ना पण संगें करीने रहित बो. वली हे प्रनु! आप केवा बो? तो के, (माणमूरण के0 ) मानमूरण, एटले माननो नाश करनारा बो. अर्यात सर्व प्रकारना गर्वने दलनारा डो. वली हे प्रभु! आप केवा नो? तो के, (गुणरयणसीलसायरं के0) गुणरत्नशीलसागरं, एटले गुणोरूपी रवीना म. हासागर समान बो. वली हे प्रभु! आप केया बो? तो के, (अणतं के०) अनंतं, एटले अनंत बो, अर्थात् अनंत ज्ञानरूप बो. वली हे प्रभु! आप केवा बो? तो के, (अप्पमेय के0 ) अप्रमेय, एटले प्रमेय रहित बो. अर्यात् प्राकृत लोकोनां शानवमें करीने न नाणी शकाय तेवा बो. केमके बदस्यो बे ते शरीरविनाना जीवना स्वरूपने जाणवाने समर्थ थता नथो. एवा हे श्रीमहावीरपत्नु ! (ते के ) तुल्यं, एटले आपप्रते (नमोत्यु के0 ) नमोऽस्तु, एटले नमस्कार थान.
॥ मह महावीर वक्ष्माणसामिस्स नमोत्यु ते अरहन नमोत्यु ते नगवन ॥ अर्थः-(मह के०) महति, एटले मोक्षरूप महास्थान प्रते प्राप्त थयेला एवा (महावीर के०) महावीर, एटले कर्मोंरूपी शत्रुनने विदारवामां महान् वीरसामान, एवा (ब-इमाणसामिस्स नमोत्यु के०) वर्धमानस्वामिने नमस्कारथान. वली ते श्री महावीरप्रनु केवा ! तोके, (अरहन के० ) हे अर्हन, एटले अशोकद आदिक आठ प्रकारनां महामातिहार्योवमे करीने विराजमान, एवा हेअनु! (ते के) तुज्यं, एटले आपप्रते ( नमोत्थु के0 ) नमोस्तु, एटले नमस्कार थान. वली हे मनु! आप केवा बो? तो के, (जगवन के०) जगवतः, एटले नगवान् बो अर्थात् समस्त प्रकारनां ऐश्वर्य आदिक उत्तम प्रकारनां गुणोएं करीने बिराजमान ययेला बो. माटे एवा हे प्रभु! (ते के०) तुल्यं, एटले आपप्रते, (नमोत्यु के०) नमोस्तु, एटले नमस्कार यान.
|॥१०५
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मा মনি
१
॥
॥ तिकट्ठ एसा खलु महत्वयनच्चारणा कया श्छामो सुत्तकित्तणं कान नमो तेसिं खमासमणाणं ॥
अर्थः-(तिकटु के0 ) इतिकृत्वा , एटले एम करीने, अर्थात् पूर्वे कहेवामुजब श्री महावीरप्रभुने नमस्कार करीने ( खलु के० ) खलु, एटले निश्चयें करीने (एमा के0 ) एषा एटले आ, अर्थात् पूर्वे कहेली ( महत्वयउच्चारणा के0) महाव्रतनच्चारणा, एटले महाव्रतोनी नच्चारणा, अर्थात् प्रणातिपातविरमण नामना पेहेला महावृतनीनच्चारणा, तथा मृषावाद विरमण नामना वीजा महावृतनीनच्चारणा, तथा अदत्तादानविरमण नामना त्रीजा महावृतनीनच्चारणा, तथा मैथुनविरमण नामना चोथा महावृतनीनच्चारणा, तथा परिग्रहविरमण नामना पांचमा महातनोनच्चारणा, एवीरीतनी पांचे महावृतानीनच्चारणा, (कया के ) कृता, एटले करी, अर्थात् तेनुपर वर्णवलां पांचे महातोन में उच्चारण कयु. दवे ( सुत्तकित्तणं के ) श्रुतकीतनं, एटले श्रुतर्नु कोत्तैन अर्थात् आवश्यक श्रुत, कीर्तन ( कानं के0) कत्तुं, एटले करवाने (इलामो के0) चामि, एटले हुँ इच्छं छ. अर्थात् हवे हुँ आवश्यकश्रुतर्नुनच्चारण करवाने इच्टुं छ. ( नमी के0 ) नमः एटले नमस्कार थान? कोनापते नमस्कार थान? तो के, (नेमि के0 ) तेच्यः, एटले तनपते, ते कोण? तो के.( खमासमणाणं के०) तमाश्रमणेज्यः, एटले हमाश्रमणोपते, नमस्कार थान अयांत् मारा पोताना गुरुन पते नमस्कार यान? अयवा तीर्थकर मजुनप्रते नमस्कार थान, अयवा गणधर आदिकोपते नमस्कार थान? ॥ जेहिं इमं वाश्यं विहंमावस्सयं नगवंतं, तं जहा, सामाश्य, चनवीसत्यन, वंदणयं,
पमिकमगं, कानसग्गो, पञ्चरकाणं ॥ . अर्य:-हवे ते माश्रमणो केवा ? तो के, (जेहिं के0 ) यैः, एटले जे क्षमाश्रमणोए ( इमं के0) इदं, एटले आ आ. वश्यकरूप श्रत (वाश्यं के0) वाचितं, एटले वांचलु ले. अर्थात् अमारामते जे कमाश्रमणाएं नपदेशेलुं . एवा ते दमाश्रमणोपते नमस्कारथान! हवे ते आवश्यक केटला प्रकारचें ? तेकहे जे (जगवंतं के0 ) जगवंतं, एटले अतिशयसहित समृद्धि | आदिक गुणोयें करीने युक्त ययेलुं . एवं ते आवश्यकश्रुत (बविहं के) पवित्रं, एटले ठ प्रकारच्. अर्यात् उ दे दो जेना, एवं (आवस्मयं के ) आवश्यकं, एटले आवश्यकश्रुत क्षमाश्रमण प्रजुनए कहलं . ( तंजहा के0) तद्यथा, एटले ते
॥ ॥२८॥
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साधु प्रति
शा
श्री क्षमाश्रमण प्रभु कहेला आवश्यको नीचेप्रमाणे ठे . - ( सामाइयं के० ) सामायिक, एटले सामायिक नामनुं पेहेलुं प्राarra डे अर्थात् सामायिक एटले सावद्ययोगोनी विरतीरूप अध्ययन विशेष जावं. एटले पापकार्योयी विरमवानुं जेमां वनिपेतुं दोय ठे, एवं अध्ययनरूप पेहेलुं सामायिक नामनुं आवश्यक जाणवुं तथा ( चडवीसत्यन के० ) चतुर्विंशतिस्तवः, एटले चोवीसे प्रभुनुनुं स्तवन, अर्थात् डेक प्रथम तीर्थंकर श्रीकृषनदेव मनुथी मांमीने बेला तीर्थंकर श्री महावीरस्वामिसुधिना चोवीसे तीर्थंकर मजुननी स्तुतिरूप वीजुं आवश्यक जाणवु तथा ( वेदयं के० ) वंदनकं, एटले वांदणारूप श्रीजुं घ्यावश्यक जाणवु, अर्थात् महान् गुणोरूपी संपत्तिने धारण करनारा, एवा श्री गुरुमहाराजोनी विनयपूर्वक प्रतिपत्तिरूप - दनक नामनुं त्रीजुं यावश्यक जाणवु, तथा ( परिक्कमणं के० ) प्रतिक्रमणं, एटले प्रतिक्रमणरूप, ए नामनुं चोथुं आवश्यक जाणवुं. अर्थात् ममादना वशयी जे कई पापकार्य, मन, वचन अथवा कायावमे करीने यड़ गयुं होय, तेनी निंदापूर्वक जे आलोचना करवी, तेने प्रतिक्रमण नामनुं चोथुं यावश्यक जाणवु. तया (कानुग्गो के० ) कायोत्सर्गः, एटले कायोत्सर्ग नामनुं पांचमुं व्यावश्यक जावं. अर्थात धर्मरूपी कायामों लागेला प्रतिचाररूपी व्रणाने शोधवारूप कायोत्सर्ग नामनुं पांच आवश्यक कहेलुं छे. तथा ( पचरकाल के० ) मसाख्यानं, एटले पच्चरकाण नामनुं वतुं आवश्यक जावं. अर्थात् विरतिरूप पसंत नत्कृष्ट गुणने उपार्जन करनारुं पञ्चरकाण नामनुं वतुं आवश्यक जानुं.
॥ सपिएम हे श्रावस्सए भगवंते ससुते सत्थे सत्थे ॥
अर्थ :- (एयंमि के० ) एतस्मिन्, एटले ते पूर्वे वर्णला (सधेसिपि के० ) सर्वस्मिन्नपि एटले सर्व प्रकारां, अर्थात् पूर्वे कलां सघलां (उद्दिहे के० ) पमूविधे, एटले नए प्रकारनां ( यावस्तए के० ) घ्यावश्यके, एटले आवश्यकनी द रजे जावो वत्रेला बे, ते सबला जावोने हुं सम्यकप्रकारे सहहुं हुं. हवे ते केवा प्रकारना आवश्यकमा रहेला जावोने हुं सदहुँ हुँ? तो के, ( जगवंते के० ) जगवंते एटले जगवंत एवा, अर्थात् समस्तमकारना ऐश्वर्यादिक वाजा आवश्यकमां रहेला जाने हुं सदढुं लुं. बली ते आवश्यक कघुं ठे? तो के, (समुत्ते के० ) समूत्रे, एटले सूत्रमे करीने सहित बे. अर्थात मूलतंत्ररूप जे सूत्र, तेत्रमें करीने सहित ठे. एवा ते व्यवश्यकमां रहेला जावोने हुं सदहुं हुं वली ते आवश्यक केधुं बे? तो के, ( सत्ये के० ) समर्ये, एटले व्यर्थन करीने सहित छे. अर्थात अर्थरूप व्याख्यानवमे करीने सहित बे. एटले टीका आदि
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सूत्र
अर्थः
॥१८
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कवमें करीने सहित ले. एवा ते आवश्यकमां रहेला जावान हूं मदहं ;. वली ते आवश्यक केवुन. तो के. (मगत्ये प्रतिष || सग्रंथे, एटले ग्रंथवमें करीने सहित ने. अर्थात् मूत्रार्थवमें करीने सहित दे. एवा ते आवश्यकमां रहेला जावोने हुं सदई छ. || अर्थः
॥ सनिज्जुत्तीए, ससंगहणीए, जे गुणा वा, नादा वा, अरिहंतेहिं, नगवंतेहिं, पन्नता वा, ॥१०॥
परूविया वा, ते नावे सद्दहामो ॥ अर्थः-वली ते आवश्यक के बे! तो के, (सनिज्जुत्तीए के०) सनियुक्तिके, पटले नियुक्तिवके करीने सहित ने. अर्यात् निरुक्तार्थे करीने सहितले. एवा ते आवश्यकना नवोने ई सद्दहंछ. वली ते प्रावश्यक केले. तो के, ( के0 ) ससंग्रहणीके, एटले संग्रहणीवमें करीने सहित बे. अर्थात् विस्तारसहित अविमें करीने सहित ले. एया ते आवश्यकमां रहेला (जे के ) ये, एटले जे कोइ ( गुणाः के0 ) गुणाः एटले गुणो होय . अर्थात् ते आवश्यक श्रुतनी अंदर विरतिसंबंधि, अयवा जिनेश्वर नगवानना गुणोनी स्तुति आदिकरूप जेगुणो रहेला ले, तेनने हुं सद्दहुं . (वा के0 ) वा, एटले अथवा (जावा के0 ) लावाः, एटले जावो रहेला बे. अर्थात् दायोपशमिकादिक पदार्यो, अयवा जीवादिक जे पदाों ते आवश्यक श्रुतनी अंदर रहेला बे, तेनने हुँ सदई छ. हवे ते गुणो अथवा नावाने कोणे कहेला बे! तो के, (अरिहंतेहिं के0 ) अर्हनिः, एटले श्री अरिहंन प्रजुनए कहेला ले. अर्यात् कपायो अथवा कोरूपी शत्रुननो जेनए नाश करलोठे, एवा श्री तीर्थंकर पनुनए कहेला . वली ते श्री अरिहंत पनुन केवा ! तो के, (जगवतेहिं ) नगवतिः, एटले जगवंत ए वा, अर्थात् ऐश्वर्य आदिक गुणोयें करीने युक्त, एवा श्री जिनेश्वर प्रजुए. ( पन्नत्ता के0 ) इताः, एटले प्राप्तेला ने, अर्थात् ते नावाने सामान्यरूपें करीने कहेला . (वा के० ) वा, एटले अथवा (परुविया के0) प्ररूपिताः एटले प्ररूपेला ले, अर्थात् विशेषरूपें करीने कहेला ने. एवीरीतना (तेजावे के0 ) तान् जावान्, एटले ते जावोने ( महामो कं०) श्रद्दध्महे, एटले अमो सद्दहीये बीये. अर्थात् ते जायोपर अमो श्रमा करोये बीये. वली ते नावोमते अमो सुं करीये बोये तो के,
॥पत्तियामो, रोएमो, फासेमो, पामो, अगुपालेमो, ते नावे सतहिं ॥ अर्थः-(पत्तियामो के0 ) प्रतिपन्नामहे, एटले अमो प्रतिपत्ति करीये ठीय, अर्थात् ने नावाने अमो प्रोनिपूर्वक स्त्री
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साधु प्रति
॥१५॥
कारीये बीये. वली ते नावोने अमो शुं करीये बीये? तो के, (रोएयो के0) रोचयामः, एटले ते जावोपर अमो रुचि चारण करीये जीये. अर्थात् अजिलापाना अतिरेको करीने अमो ते जावोपर रूचिवंत यश्ये बोये. चलो ते जागने अमो शुं | अर्थः करीये जीये! तो के, (फासेमो के ) स्पृशामः, एटले अमो स्पर्श करीये बीये. अर्यान् आसेवनारें करीने अमो तेन्ना स्पर्श करीय बीये. वलो ते नावोने अमो शुं करीये बीये? तो के. (पालमो के ) पालयामः, एटले ते नावोने अमो पालीये बी. ये. वली ते जागेने अमो शुं करीये बीये? तो के, (अणुपालेमो के० ) अनुपालयामः, एटले अमो ते जावोर्नु अनुपालन करीये बीये. अर्थात् पुण्यकरणे करीने ते जावोन अमो रक्षण करीये बीये. अयवा बेक जीवितपर्यंत अमो ते जावोगें पालन करीये बीये. हवे (ते जावे के0 ) तान् जावान्, एटले ते जावोने, अर्थात् ते पूर्व वर्णवेला दायोपशमिकादिक नावाने ( सद्ददंतेहिं के0 ) श्रद्दधानः, एटले सद्दहवावमे करीने, अर्थात् ते नावोपर श्रमा करवाव, करीन, तया
॥ पत्तयंतेहिं, रोयंतेहिं, फासंतेहिं, पालंतेहिं, अणुपालंटिं॥ अर्थः-(पत्तयंतेहिं के0 ) प्रतिपक्षिः, एटले ते नावोनी प्रतिपत्ति करतांयकां, अर्थात् तेजावाने प्रीतिपूर्वक स्वीकारतांथकां, तथा ( रोयतेहिं के0) रोचयंतः, एटले ते जावोपर रूचि करतांयकां, अर्थात् अजिलापाना अतिरेकवमे करीने ते लावोपर रुचिवंत थयायकां, तथा ( फासतेहिं के0) स्पृशभिः, एटले ते नावोनो स्पर्श करतांयकां, अर्थात् आसेवनारें करीने तेननो स्पर्श करतांयकां, तथा (पालतेहिं के ) पालयभिः एटले ते नावोनुं पालन करतांयकां, अर्यात् तेनने सम्यकप्रकारे पालतांथकां, तया ( अणुपालंतेहिं के0 ) अनुपालयनिः, एटले ते नावोनुं अनुपालन करतांयकां, अर्थात् पुण्यकरणें करी ने ते जावोनुं रक्षण करतांथकां. ॥ अंतोपस्कस्त जं वाश्यं, पढियं, परियट्टियं,पुछियं, अणुपेदियं, अणुपालियं, तं पुस्करकयाए ।
अर्थः-(अंतोपरकस्स के०) अंतःपक्षस्य, एटले पकनी अंदर (जं के0) यत्, एटले जे, अर्थात् जे कंई (वाश्यं के०) | ॥१ ॥ वाचितं, एटले वांचेनुं होय, अर्यात् जे कंई परमते वांची संजलाव्युं होय, तेमज (पढियं के०) पठितं, एटले पढेलु होय, अर्थात् जे कंई पोते वांचीने पढेलं होय, अथवा अन्यपासे वंचावीने पढेलं होय, तेमज (परियट्टियं के0) परिवर्तितं, एटले
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साधु
प्रतिष
HI? एशा
परायत्तन करलु होय, अर्थात् सूत्रपूर्वक गणेलं होय, एटले मूत्रपूर्वक पाठ करेलो होय. तेमज ( पुच्छियं के० ) पृष्टं, एटले पूबेलं होय, अर्थात् पूर्वे लणेलां मूत्रादिकमा शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतेबते गुरुआदिकरते पूजेलं होय. तेमज ( प्रापे ||
|| अर्थः दियं के0) अनपेक्तिं, एटले अनुपेक्षा करेली होय, अर्थात् अर्थने भूलीजवाना जय आदिकथी जे कंचितवेलं होय. तेमज (अणुपालियं के0) अनुपालितं, एटले जे कंई अनुपालन करेलुं होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपादयु होय. (ते के0) तत्, एटले ते सघल, अर्गत ते पर्वे कहेला प्रकारोवमे करीने जे कांई अनुष्ठान करेलुं होय, ते सघळु (रकरकयाए के)खदयाय, एटले दुःखोना क्यमाटे डे, अर्थात् आ संसार संबंधि जयंकर दुःखोनो विनाश करवा माटे ले. वली ते शाने माटे ? ते कहे .--
॥ कम्मरकयाए, मोहरकयाए, बोदिलानाए, संसारुत्तारणाए, निकटु नवसंपजित्ताणं विहरामि ॥
अर्थः-(कम्मरकयाए के0) कर्मक्याय. एटले कर्मोना क्य माटे ले. अर्यात् ज्ञानावरणीय आदिक आठे प्रकारनां कमोना तय माटे ले. वली ते शानेमाटे बे? तो के, ( मोहरकयाए के ) मोहदयाय, एटले मोहना तय माटे ले. अर्थात् संसारि क मोहनावनो नाशकरवा माटे बे. वली ते शानेमाटे ! तो के, (बोहिलानाए के0) बोधिलाजाय, एटले बोधिलाजने माटे बे. अर्यात् बोधिवीजनोपाप्ति यवामाटे . वली ते शानेमाटे ने तो के, संसारुत्तारणाए के0 ) संसारोत्तारणाय, एटले संसारने नतरवा माटे बे. अर्थात् या संसारनपी समुश्थी पार नतरवा माटे बे. ( तिकटु के) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, अ
त् एवीरीतनी संपदानो अंगोकार करीने (उपसंपज्जत्ताणं के०) नपसंपद्य, एटले त प्रकारनी संपत्तिने साप्त थइने ( विहरामि के0) विहरामि, एटले हुं बिहार करूं छु. अर्थात् मसकल्पादिक साधु विहार पूर्वक हुं वत्त छ.
॥ अंतोपरकस्स जं न वाश्यं, न पढियं, न परियट्टियं न पुष्ठियं, नागुपेहियं ॥ अर्थः-(अंतोपरकस्म के ) अंतः परस्य, एटले पदनी अंदर, अर्यात् पंदर दिवसोनी अंदर, (जं के0 ) यन् , एटले जे, अर्थात् जे कंई (नवाश्य के0 ) सवाचितं. एटले न वाचलुं होय, अर्थात् परमते जे कंईन वांची संजलाव्यु होय, तेमज ( नपढियं के ) नपतितं, एटले न पढेर्नु होय, अर्थात् जे कई पोते वांचीने न पढेलु होय या अन्यपासे बचावीन न पढेलुं हो
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सूत्र
साधु | य; तेमज ( नपरियष्टियं के0 ) नपरिवर्तितं. एटले जे कंई परार्वतन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई में मूत्रपूर्वक गणेलुं न || ति| होय, एटले मूत्रपूर्वक पाठ करे करेलो न होय. तेमज (न पुच्छियं के०) न पृष्टं, एटले पूजेतुं न होय, अर्थात् पूर्वे नणेलां || अर्थः
सूत्रादिकमा शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतेबते ते गुरु आदिकपते पूजेतुं न होय. तेमज ( नाणुपेदियं के0 ) नानुप्रेरितं, एटले अनुदा करेली न होय, अर्यात अर्थने जूलीजवाना लय आदिकथी जे कंई चिंतवेलुं न होय. तेमज
॥ नागुपालियं, संतेबले, संतेवीरिए, संतेपुरसकारपरकमे तस्स आलोएमो । अर्थः- ( नाणुपालियं के० ) नानुपालितं, एटले जे कंइं अनुपालन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपादयुं न होय. हवे शुंहोतेबते ते कई कयु न होय? तो के, ( मंतेवले के०) सतिवले, एटले बल होते ते, अर्थात् शरीर संबंधि शक्ति होतेबते पण जे वाचनादिक कार्य कयु न होयः वलीशुं होते ते! तो के, (संतेवीरीए के ) सतिवीर्ये एटले वीर्य होतेउते, अर्थात् जीवना मनावरूप प्रमाण होतेबते. बली शुं होतेउते? तो के, (संतेपुरसकारपरकमे के0) सतिपुरुषाकारपराक्रमे, एटले पुरुषाकार पराक्रम होतेउते. अर्थात् पुरुपर्नु पुरुषपणानुं जे अनिमान, तेरूपी निप्यादित फलबालुं 'राक्रम होनेउते, पूर्व वर्णवेलु वाचना आदिक जे जे कई कार्य न कर्यु होय, (तस्स के0 ) तस्य, एटले तेनी (आलोएमो के0) आलोचयामः, एटले अ मो आलोचना करीयें दीये, अर्थात ते संबंधि आलोयणा लहीये लीये. अर्थात् चितवनवक तेनी शुद्धि करीये. बीये. वली तेनु शंकरीयलीये तो के,
॥ पमिकमामो, निंदामो, गरिहमो, विनहेमो, विसोहेमो॥ अर्थः-(पमिछमामो के0 ) प्रतिक्रमामः, एटले अमो तेनन प्रतिक्रमण करीये जीये. अर्थात तेनने पमिक्कमीये जीये. वली तेन्नु अमो शुं करीये बीये! तो के, (निंदामो के) निंदामः, एटले अमो सेननी निंदा करीये बीये. अर्थात् आत्मसम
रए३ द अमो तेन्नु निंदन करीये बोये. वली तेन्नु अमो शुं करोये बीये? तो के, (गरिहामो के०) गर्हामः, एटले अमो तैननी गर्वा करीये बीये. अर्थात् गुरुयादिकनी समक्ष अमो तेननी जुगुप्सा करीये बीये. वली तेन्नु अमो शुं कराये बीये? तो के, (विनट्टेमो के०) व्यतिवर्लयामः, एटले अमो तेन्न व्यतिवर्तन करीये बोये. अथवा वित्रोटयामः, एटले अमो तेननु वित्रोटन
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साधु | करोये बोये. अर्यात वाचनादिकना अनुवंधनो अमो विजेद करोये नोये. अयका वियानः, एटले अमो विकुन करोये बीप्रति
ये. वली नेननु अमो शुं करीये बीये? तो के, (विमोहेमो के) विशोषयामः, एटले अमो तेननी विशुदि करीये ठोये. अ-|| || र्यात करेला गवा दोपोरूपी कादवयी मलीन ययेला आत्मानी अमो निर्मलता करीये बीये. बलो अमोशुं कराये बीये! तोके,
॥ अकरणयाए अनुठेमो, अहारिहं तवोकम्मं, पायश्चित्तं पविजामो, तस्स मिठामि डुक्कम ॥
अर्यः-(अकरणयाए के) अकर्णतया, एटले न करवावझे करीने, अर्थात् हुं फरीने तथा प्रकारनो कोइ पण दोष करीश नही, एवीरीतनो विचार मननी अंदर चितवीने (अजुटेमो के0 ) अत्युत्तिष्ठामः, एटले हुं नशिष्ठित थयेलो छ. अ. र्यात हुं नद्यमवंत थयेलो छ. बली हुं शुं करुं हुं तो के, (अहारिहं के ) ययाई, एटले जेम योग्य लागे तेत्र, अयात अमराधादिकनी अपेक्षावमे करीन जेम नचित लागे, तेवा पकार- ( तवोकम्न के ) तपःकर्म, एटले तपकर्मरूप, अर्थात् विविध प्रकारनी तपस्या करवारूप ( पायच्छितं के0 ) प्रायश्चित्तं, एटले प्रायश्चित्तने, अर्यात् प्रायें करीने जे चित्तनी एटले मननी शुद्धि करे, ते प्रायश्चित्त कहेवाय. तेवा कारनां प्रायश्चित्तने ( पझियजामो के0 ) प्रतिपद्यामहे. एटले अमा प्रतिपन्न करीये बीये. अर्यात् तेवीरीतनां प्रायश्चित्तनो अमो स्वीकार करीये लीये. वली ( तस्त के ) तस्य, एट ले वांच्यं न होय, पढयुं न होय, श्यादिक अपराध संधि ( मिलामि दुक्का के०) मिथ्या मे दुष्कृतं, एटले मारूं ते दुष्कृत मिथ्या घाउ.अर्यात् ते अपराधनी हुं माफी मागु छु,
॥ नमो तेसिं खमासमगाणं जेहिं श्मं वाश्यं अंगवाहिरियं नक्कानिय नगवंतं, तंजहा ॥
अर्यः-( नमो के0) नमः, एटले नमस्कार थान. कोनावते नमस्कार यान? तोके. ( तेनि के० ) तेत्यः, एटसे तेनप्रते, ते कोण? तो के, (खमासमणाग के०) क्षमाश्रयणेच्यः, एटले कमाश्रमणोपते नमस्कार यानी अर्यात मारा पोताना गुरुउपते नमस्कार थान. अथवा तीर्थकर प्रजुनप्रते नमस्कार यान. अथवा गणधर आदिकोपते नमस्कार थान. हो ने कमा
mom श्रमणो केवा जे? तो के, (जेहिं के० ) यैः, एटले जे हमाश्रमणोए ( इमं के0 ) इदं, एटले आ अंगवाह्य रूप श्रुन (वाइयं के०) वाचितं, एटले वांचेलं . अर्यात् अमारामते जे क्षमाश्रमणोयें नपदेशेलु ने. एवा ते दमाश्रमणावते नमस्कार वान. हवे ते न
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साधु प्रति
अर्थः
॥१
॥
पदेशेलं शुं ने तो के, (अंगवाहिरियं के0) अंगवायं, एटले अंगवाद्य श्रुत उपदेशेलं . वली ते श्रुत के ? तो के, (उ- ।। कालियं के0) नत्कालिकं, एटले नत्कालिक ने. अर्थात् कालवेलानी पांच प्रकारनी अस्वाध्यायिकाने वर्जीने जेनुं पठन पाठन करवामां आवे , ते नत्कालिक नामनु श्रुन कदेवाय ने. वली ते श्रुत केबु ? तो के, (जगबन के0) जगवनं, एटले || जगवंतरूप दे. अर्थात् ऐश्वर्य आदिक अनेक प्रकारना गुणोवमे करोने युक्त ययेवं दे. हय ( तंजहा के0 ) तयया, एटले ते नत्कालिक श्रुत नीचेप्रमाणे जाणवू.
॥ दसवेयालियं, कप्पियाकप्पियं, चुल्लकप्पसुयं । महाक पसुयं, नववाश्य, रायप्पलेशियं ।।
अर्थः-(दसवेयालियं के0 ) दशकालिकं एटले पहेलु दशवैकालिक नामनुं श्रुत जाणा. तया (कप्पियाम्पियं केu) कल्पाकल्पं, एटले स्यविर कस्पादिकना विचारवालं कस्पाकल्प नामर्नु श्रुन जाण. तथा (चुलकप्पमुयं के) हुलाकल्पश्रुतं, एटले कुखककल्पश्रुत नामर्नु श्रुन जाणवू. अर्यात अल्पग्रंथरूप अल्पावरवाल हुलकश्रुत जाणवू. तया (महाकपनुयं के०) महाकल्प श्रुतं, एटले महाकल्प श्रुत नामनुं श्रुत जाणवू. अर्यात महान् ग्रंथरूप. अने महान् अदररूप महाकल्प श्रुत जाणवू. तया ( नववाश्यं के0) नपपातिकं, एटले उपपातिक नामनुं श्रुत जाणवू. अर्थात मां देवता नारकी आदिकना जी. वोनी नत्पत्ति संबंधि वर्णन करवामां आवेखं होय , ते नपपातिक नामनुं श्रुत जाणवू. तया (रायप्प सेणियं के0 ) राजप्रश्नयिकं, एटले रायपसेणी नामनुं श्रुत जाणवू अर्यात् जेनी अंदर प्रदेशो नामना राजाना प्रश्नोनो अधिकार वर्णवेलो , ते रायपणी नामनुं श्रुत जाणवू.
॥ जीवानिगमो, पनवणा, महापन्नवणा, नंदी, अणुनगदाराई, देविंदत्यन ॥ अर्थः-( जीवालिगमो के ) जीवानिगमः, एटले जीवानिगम नामनुं श्रुत जाणवू. अर्थात् जीवो संबंधि छान जेमां रहेलं , ते, अने नपलका यी जमां अजीवोसंबंधि पण ज्ञान रहेलुं , ते जीवानिगम नामनुं श्रुत जाणवू. तया (पनवणा
। ॥१ के0 ) प्रज्ञापना, एटले पन्नवणा नामतुं श्रुत जाणवू. अर्यात जेनी अंदर जीवादिकोनुं प्रज्ञापन करेलुं बे, ते प्रज्ञापना नामर्नु श्रुत जाणवू. तया ( महापन्नवणा के0) महामझापना, एटले महापनवणा नामन श्रुत जाणवू. वली ते पन्नवणा तथा महाप
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साधु
সনি।
अर्थः
॥१६॥
नवणा, ए बन्ने समवायांगना नपांगरूप ले. तया (नंदी के०) नंदी, एटले नंदी अध्ययन नामर्नु श्रुत जाणवं, अर्थात् जेवके करीने नव्यप्राणी आनंदन प्राप्त थाय ने, ए पांच प्रकारनां ज्ञानना स्वरूपने प्रतिपादन करनारुं अध्ययन विशेष नंदीश्रु.॥ त जाणवू. तया (अणुनंगदाराई के0 ) अनुयोगशाराणि, एटले अनुयोगक्षार नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर उपक्रमादिक चारे अनुयोगोनुं स्वरूप वर्णवेलुं बे, तेने अनुयोगशार नामर्नु श्रुत जाणवू. तया ( देविंदत्यन के0 ) देवेंइस्तवः, एटले देवेंइस्तव नामनु श्रुत जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर चमरें। तया वैरोचनें आदिक इंच देवोनी स्तुतिननु वर्णन करेलु बे, तया ननी अंदर तेन्ना जुवन, तथा स्थिति आदिकोनुं स्वरूप वर्णवेल बे, तेने देवेंइस्तव नामर्नु श्रुत जाणवू. नया
॥ तंऽलवेयालियं, चंदा विजयं, पमायप्पमायं । पोरसिमंझलं, मंगलप्पवेसो, गणिविजा ॥
अर्थः-( तंदुलवेयालियं के0 ) तंदुलवैचारिकं, एटले तंदुलवेयालिय नामनु श्रुत जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर एकसो वपोन आयुवाला पुरुषने हमेशां नपनोगमा आवता, एवा तंऽल एटले चावलोनी संख्याना विचारवमे करीने उपलदित, एवो जे ग्रंथविशेष, तेने तंदुलक्यालिय नामर्नु श्रुत जाणq. तथा (चंदा विजयं के0 ) चंशवेध्यं, एटले चंदा बिजय नामर्नु श्रुत जाणवू. तया (पमायप्पमायं के ) प्रमादाप्रमादं, अर्थात् प्रमाद अप्रमादना स्वरूप संबंधि नेद, फल अने विपाकने प्रतिपादन करनारूं जे अध्ययन विशेष. ते प्रसादाममाद नामनुं श्रुत जावं. तथा ( पोरसीमंझले के०) पौरुपीममलं, एटले पोरसीमंमल नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् पुरुष, एटले शंकु अथवा शरीर जाणवू. अने तेनी अंदर जे निष्पन्न यश, ते पौरुषी जाणवी. एटले ज्यारे सर्व वस्तुननी पातपोताना प्रमाणवाणी बायायाय, सारे पौरुपीनु प्रमाणयाय दे. इसादिक स्वरूप जेमां वर्णवे. लुं बे, तेनेपोरसीममल नामर्नु श्रुत जाणवू तथा ( मंगलप्पयेसो के0 ) मंगलप्रवेशः एटले मंझलप्रवेश नामनं श्रुत जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर चंयना दक्षिणोत्तरमंगलमते प्रवेश संबंधि वर्णन आपलुं बे. तेने मंगल प्रवेश नामनुं श्रुत जाणवू. तया ( गणिवजा के) गणिविद्या, एटले गणिविद्या नामर्नु श्रुत जाणा. अर्थात् गुणोनोगण, समूह जमनदाय, तेन गणी कहेवाय; एटले आ चार्य, तेमनीविद्या, एटले ज्ञान, जेमां वर्णवेल होय, ते गणिविद्या नामर्नु श्रुत बे. तथा,
॥ विज्जाचरणविणिचन काणविन्नति; आणविन्नति; आयविसोही; मरणवितोही ॥
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सूत्र
मतिक
अर्थः
साधु
___ अर्थः-(विज्जाचरणविपिन के) विद्याचरणविनिश्चयः, एटले विद्याचरण विनिश्चय नामनुं श्रुत जाण. अर्थात् समकीत सहित छान, तथा चरण एटले चारित्र संबंधि ज्ञान जमां वर्णववामां आव्यु ठे, एQ विद्याचरणविनिश्चय नामर्नु
श्रुत जाणवू. तया ( काणविनत्ति के0 ) ध्यानविनक्ति, एटले जे ग्रंयनी अंदर आर्तध्यान आदिक ध्यानोनुं विनंजन करnmen! वामां आवेल ठे, तेने ध्यानविनक्ति नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् जेमा आर्तध्यान, रुश्थ्यान आदिक ध्यानोनुं स्वरूप वर्ण
बवामा आव्युं बे, तेने ध्यानविनक्ति नामर्नु श्रुत कहेवाय. तथा (आणविनत्ति के0) आत्मविज्ञक्ति, एटले आत्मविनक्ति नामनुं श्रुत जाणवू. अर्थात् जे ग्रंयनी अंदर आत्मा, एटले जीवसंबंधि स्वरूपनुं वर्णन आपवामां आव्यु डे, तेने आत्मविनक्ति नामनुं श्रुत कहेवाय. तया (आयविसोही के0 ) आत्मविशुद्धि, एटले आन्मविशुद्धि नामर्नु श्रुत जाए. अर्यात जे ग्रंथनी अंदर आत्मानी आलोचना आदिक प्रायश्चित्तना स्वीकारनी पइतिर्नु स्वरूप वर्णववामां अव्यु ले, तेने आत्मविशुद्धि नामनुं श्रुत कहेवाय. तया ( मरण विसोही के०) मरण विशुझि, एटले मरणविशुद्धि नामनु श्रुन जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर मरण आदिकनुं स्वरूप वर्णववामां आवेलुं दोय, तेने मरण विशुद्धि नामनुं श्रुत जाणयुं. ॥ संलेहणासुयं । वीयरायसुयं । विदारकप्पो । चरणविसोह।। आठरपच्चरकाणं । महा
पच्चरकाणं ॥ अर्थ:-तया (संलेहणासुयं के0 ) संलेखना श्रुतं, एटले संलेखना श्रुत नामर्नु श्रुत जाण. अर्यात् जेनी अंदर ऽव्ययी विगयोना साग आदिकर्नु स्वरूप वर्णवामां आवेलु बे, तथा नावथी जेनी अंदर क्रोधादिकना प्रतिपकनो अभ्यास करवानुं वर्णन करेलु ठे, तेने मलेखना श्रुत नामर्नु श्रुत जाणवू. तथा (वीयरायसुयं के0 ) बोतराग श्रुतं, एटले वीतराग श्रुत एटले वीतराग श्रुत नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् जनी अंदर वीतरागपणानुं शुस्वरूप वर्णववामां आवेलु , तेने वीतराग श्रुत नामर्नु श्रुत जाणवू. तथा ( विहारकप्पो के0) विहारकल्पः, एटले विहारकल्प नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् विहार, एटले वर्तन, तेनो कल्प, एटले व्यवस्था जेमां वर्णवेली , एटले जेनी अंदर स्यविरोनां चारित्र तया व्रतादिकनुं वर्णन आपवामां आवेलुं , तेने विहारकल्प नामर्नु श्रुत जाणवू. तया (चरणविसोही के०) चरण विशुद्धि, एटले जेनी अंदर चरण विशुद्धि
| ॥१
॥
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साधु
नुं वर्णन प्रापेलुं बे, तेने चरणविशुद्धि नामनुं श्रुत जावं. अर्थात् जेमां चारित्र संबंधि विशुदितुं स्वरूप वर्णवे बे, तेने चप्रति रणविशुद्धि नामनुं श्रुत जाणबुं. वया (यानरपच्चरकाणं के० ) प्रातुरमयाख्यानं, एटले यातुरप्रसाख्यान नामनुं श्रुत जालबुं. अर्थात जे ग्रंथनी अंदर यातुर, एटले रोगीसंबंधि प्रयाख्याननुं स्वरूप वर्णववायां व्याव्यं बे, तेने वानरपच्चरकाण नामनुं श्रुत जाए. तथा (महापच्चरकाणं के० ) महाप्रसाख्यानं, एटले महाप्रयाख्यान नामकुं श्रुत जावं.
170611
॥ ससिंपि एयंमि अंगवाहिरिए नक्का लिए नगवंते ससुते सत्थे सग्गंथे ॥
अर्थ:- (सतिपि के० ) सर्वस्मिन्नपि, एटले सर्वे मकारना, अर्थात पूर्वे वर्णवेलां सर्व प्रकारां (एयंमि के० ) एतस्मि नू, एरले ते शास्त्रोने विषे, प्रर्यात् ए पूर्वे वेलां श्रुतोनी अंदर ने गुणो यथवा जावो वर्णवेला ठे, तेनने हुं हुं छे. हवे ते श्रुत केबुं ? तो के, (गंवाहिरिए के० ) अंगवा, एटले अंगवाद्य श्रुत ठे वली ते श्रुत केयुं छे! तो के ( नकालिए के० ) कालिके, एटले तत्कालिक बे. अर्थात् कालवेलानी पांच प्रकारनी अस्वाध्यायिकालने वर्जीने जेनं पठनपाठन करवामां यावे, ते तत्कालिक नामनुं श्रुत कहेवाय बे. वली वे शास्त्र केधुं बे? तो के, ( जगवंते के० ) जगवंते एटले जगवंत एवा - र्थात् समस्त प्रकारना ऐश्वर्य व्यादिक जावो जेमा रहेला बे, एवा ते शास्त्रमां रहेला जावोने हुं सहहुं हुं. वली ते श्रुत केयुं छे! तो के, (समुत्ते के ) समूत्रे, एटले सूत्र मे करीने सहित बे अर्थात् मूलतंत्ररूप जे सूत्र तेवमेकरीने सहित बे. एवा ते श्रुतमां रहेला जावोने हुं सहहुं हुं वली ते श्रुत केधुं ठे? तो के, (सत्ये के० ) समर्थ, एटले अर्थवमे करीने सहित ते. अर्थात् रूप व्याख्यान करीने सहित छे. एटले टीका व्यादिक बमे करीने सहित छे. एवा ते श्रुतमां रहेला जावोने हुं सदहुं छु वली ते श्रुत के छे? तो के, ( सग्गये के० ) ग्रंथे, एटले ग्रंथव से करीने सहित ठे. अर्थात् सूत्रार्थयसे करीने सहित ते, एवा ते श्रुतमां रहेला जावोने हुं सदहुं छं.
॥ सनिज्जुत्तीए, ससंगहणीए, जे गुणा वा, जादा वा अरिहंतेहिं, जगवंतेहिं, पन्नत्ता वा, परुविया वा, ते जावे सहामो ॥
अर्थः- वली ते श्रुत केबुं बे? तो के, (सनिज्जुत्तीए के० ) सनिर्युक्ति के एटले नियुक्तिवमे करीने सहित बे. पर्या
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सूत्र
अर्थः
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मूत्र अर्थः
साधु त् निरुक्तार्थ करीने सहितले. एवा ते श्रुतमा रहेला नावाने हुं सहहुं हूं. वली ते श्रुन केले? तो के, (मसंगहणीए के)
ससंग्रहणीके, एटले संग्रहणीवमें करीने सहित ले. अर्थात् विस्तारसहित अविमें करीने सहित ठे. एवा ते श्रुतमा रहेला সনি।
(जे के0 ) ये, एटले जे कोइ ( गुणा के0 ) गुणाः एटले गुणो होय जे. अर्थात् ते श्रुतनी अंदर विरतिसंबंधि, अथवा जि
नेश्वर जगवानना गुणोनी स्तुति आदिकरूप जे गुणो रहेला , तेनने हुं सदई छ. (वा के० ) वा, एटले अथवा (जावा एए॥
के) नावाः, एटले जावो रदेला ने. अर्थात् ते श्रुतनी अंदर दायोपशमिकादिक जेकोर पदार्थो, अथवा जीवादिक जे कोइ पदार्थो, ते श्रुतनी अंदर रहेला बे, तेलने हुं सद्दहुं छ. हवे ते गुणो अथवा जावोने कोणे कहेला ने तो के, (अरिहंतेहिं के) अर्हतिः, एटले श्री अरिहंन प्रनुए कहेला ले. अर्थात् कपायो अयवा कर्मोरूपी शत्रुनो जेठए नाश करेलो, एवा श्री तीर्थंकर प्रनुनए कहेला बे. वली ते श्री अरिहंत मनु केवा ! तो के, (जगवतेहिं ) नगवतिः, एटले जगवंत एवा, डा. र्थात् ऐश्वर्य आदिक गुणोयें करीने युक्त, एवा श्री जिनेश्वर प्रनुनए, ( पन्नता के ) प्राप्ताः, एटले प्रझलेला , अर्थात् ते जावोने सामान्यरूपें करीने कहेला ले. (वा के० ) वा, एटले अथवा (परूविया के0 ) प्ररूपिताः एटले प्ररूपेला दे, अर्थात् विशेषरूपें करीने कहेला ले. एवीरीतना ( ते जावे के0 ) तान् नावान्, एटले ते नावोने (सदहामो के0) श्रद्दध्महे, एटले अमो सद्दहीये बीये. अर्थात् ते जावोपर अमो अक्षा करीये बीये. वली ते जावोमते अमो सुं करीये बीये? तो के,
॥पत्तियामो, रोएमो, फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो, ते नावे सदहंतेहिं ।। अर्थः-(पत्तियामो के0 ) प्रतिपन्नामहे, एटले अमो प्रतिपत्ति करीये बीये, अर्थात् ते नावाने अमो प्रीतिपूर्वक स्वीकारीये बीये. वली ते जावोने अमो शुं करीये जीये? तो के, (रोएमो के0 ) रोचयामः, एटले ते जावोपर अमो रुचि धारण करीये बीये. अर्थात् अन्जिलापाना अतिरेकवमे करीने अमो ते लावोपर रुचिवंत यश्ये बोये. बली ते जावोने अमो शुं करीये बीये? तो के, (फासेमो के0 ) स्पृशामः, एटले अमो स्पर्श करीये बीये. अर्थात् आसेवनारे करीने अमो तेननो स्पर्श करीये बीये. वली ते नावोने अमो शुं करीये बीये? तो के, (पालेमो के.) पालयामः, एटले ते लावोने अमो पालीये बीये. वली ते जावोने अमो शुं करीये बीये? तो के, (अणुपालेमो के ) अनुपालयामः, एटले अमो ते जावोनुं अनुपालन करीये बीये. अर्थात् पुण्यकरणे करीने ते जावोन अमो रक्षण करीये बीये. अथवा बेक जीवितपर्यत अमो ते जावोनुं
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साधु
मूत्र
अर्थः
पालन करीये बीये. हवे (ते जावे के ) तान् जावान्, एटले ते नावाने, अर्थात् ते पूर्व वर्णवेला कायोपशमिकादिक नावाने प्रति || ( सददंतेहिं के ) श्रद्दधानः, एटले सद्दहवावमे करीने, अर्थात् ते नावोपर श्रक्षा करवावमें करीने, तथा
॥पत्तियंतेहिं, रोयंतेहिं, फासंतेहिं, पालंतेहिं, अणुपालंतेहिं॥ ॥३०॥
अर्थः-(पत्तियंतेहिं के0 ) प्रतिपत्रिः, एटले ते जावोनी प्रतिपत्ति करायको, अर्थात् तेजावोने प्रीतिपूर्वक स्वीकारताथकां, तथा (रोयंतेहिं के) रोचयभिः एटले ते जावोपर रुचि करतांयकां, अर्थात अजिलापाना अतिरेकवमे करीने ते जावोपर रुचित घयायकां, तथा ( फासंतेहिं के) स्पृशतिः, एटले ते लायोनो स्पर्श करताथको, अर्थात् आसेवनारे करीने तेननो स्पर्श करतांयकां, तथा (पालंतेहिं के0 ) पालयतिः एटले ते नावोर्नु पालन करतांथकां, अर्थात तेनने सम्यकप्रकारे पालतांयकां, तया (अणुपालंतेहिं के0 ) अनुपालयभिः, एटले ते जावोनुं अनुपालन करतांयकां, अर्यात् पुण्यकरणें करीने ते नावोनुं रक्षण करतांयकां.
॥ अंतोपरकस्त जं वाश्यं, पढियं, परियट्टियं,पुछिये, अणुपेदियं, अणुपालियं, तं उरकरकयाए ॥ । अर्थः-(अंतोपरकस्ल के0 ) अंत:पदस्य, एटले पदनी अंदर (जं के0 ) यत्, एटले जे, अर्थात् जे कंई (वाश्यं के)। वाचितं, एटले यांच्यु होय, अर्थात् जे कंई परप्रते यांची संनलाव्यु होय, नेमज ( पढियं के0) पठितं, पटले पढेलुं होर, अर्थात् जे कंई पोते यांचीने पढेलु होय, अथवा अन्यपासे वंचाचीने पढेलुं होय, तेमज (परियट्टियं के0 ) परिवर्तितं, एटले परावर्तन करेलु होय, अर्थात् मूत्रपूर्वक गणेलं होय, एटले मूत्रपूर्वक पाठ करेलो होय. तेमज ( पुच्छियं के ) पृष्टं, एटले पूबेलं होय, अर्थात् पूर्व जणेलां मूत्रादिकमां शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतते गुरुआदिकमते पूठेलु होय. तेमज (अपेहियं के ) अनुमेक्षितं, एटले अनुमदा करेली होय, अर्थात् अर्थने भूलीजवाना जय आदिकथी ज कंई चिंतबेतुं होय. तेमज (अपालियं के० ) अनुपालितं, एटले जे कंई अनुपालन करेलुं होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपादयुं होय. (नं के0) तत् , एटले ते सघलु, अर्गत् ते पूर्व कहेला प्रकारोवमे करीने जे कांई अनुष्ठान करेलुं होय, ते सघर्छ ( उरकरकयाए के)ःखक्याय, एटले दुःखाना दयमाटे बे, अर्थात् आ संसार संबंधि जयंकर दुःखोनो विनाश करवा माटे बे. वसी ते शाने माटे ?
॥२०॥
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साधु
मूत्र
प्रतिण |॥
॥का
अर्थः
ते कहे डे.-- ॥ ॥कम्मरकयाए, मोहरकयाए, बोहिलानाए, संसारुत्तारणाए, निकटु नवसंपजित्तःणं विरामि ॥
I अर्थ:-कम्मरकयाए के0) कर्मक्षयाय, एटले कर्मोना कय माटे ले. अर्थात् ज्ञानावरणीय आदिक आठे प्रकारनां क॥२०॥ मोना क्य माटे ले. वली ते शानेमाटे ? तो के, ( मोहरकयाए के0) मोहतयाय, एटले मोहना क्रय माटे ने. अर्यात संसारि
क मोहनावनो नाशकरवा माटे ले. बली ते शानेमाटे . तो के. (बोहिलालाए के0 ) बोधिलाजाय, एटले बोधिलानने माटे ठे. अर्यात् बोधिवीजनोप्राप्ति यवामाटे ले. वली ते शानेमाटे ने तो के, संसारुत्तारणाए के0 ) संसारोचारणाय, एटले संसारने नतरवा माटे ले. अर्थात् या संसाररूपी समुश्यी पार नतरवा माटे जे. ( तिकटु के0) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, अर्थात् एवीरीतनी संपदानो अंगीकार करीने (नवसंपज्जताणं के०) नपसंपद्य, एटले ते प्रकारनी संपत्तिने ताप्त थइने (विहरामि के0) बिहरामि, एटले हुँ विहार करूं छु. अर्थात् मासकल्पादिक साधु विहार पूर्वक हुं वर्तुं छु.
॥ अंतोपरकस्स जं न वाश्यं, न पढियं, न परियट्टियं न पुत्रियं, नागुपेदियं ।। अर्थः-(अंतोपरकस्ल के० ) अंतःपक्षस्य, एटले पनी अंदर, अर्थात् पंदर दिवसोनी अंदर, (जं के0 ) यत्, एटले जे अर्थात् जे कं (न वाश्यं के0) न वाचितं, एटले न वांचेलुं होय, अर्थात् परप्रते जे कंई न वांची संजलाव्यु होय, तेमज ( नपढियं के0 ) नपठितं, एटले न पढेलं होय. अर्यात् जे कंई पोते यांचीने न पढेलु होय या अन्यपासे वंचा य; तेमज (नपरियट्टियं के0 ) नपरिवर्तितं. एटले जे कंइ परार्वतन करेलु न होय, अर्थात् जे कंई में मूत्रपूर्वक गणेलुं न होय, एटले मूत्रपूर्वक पाठ करेलो न होय. तेमज (न पुच्छियं के०) न पृष्टं, एटले पूजेतुं न होय, अर्थात् पूर्वे जणेलां सूत्रादिकमां शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतेउते ते गुरु आदिकपते पूजेतुं न होय. तेमज (नाणुपहियं के0 ) नानुमेक्षितं, एटले अनुप्रेक्षा करेली न होय, अर्थात् अर्थने जूलीजवाना जय आदिकथी जे कंई चिंतवेलुं न होय. तेमज
॥ नाणुपालियं, संतेवले, संतेवीरिए, संतेपुरसकारपरक्कमे तस्स आलोएमो ॥ अर्थः- ( नाणुपालियं के ) नानुपालितं, एटले जे कई अनुपालन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपायुं न होय.
॥२०॥
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साधु ॥
हवे सुंदोतेउले ते कई कयुं न होय? तो के, ( संतैवले के० ) सतिबले, एटले बल होते ते, अर्थात् शरीर संबंधि शक्ति होतेल-|| মনি ते पण जे वाचनादिक कार्य कयु न होय; वलीशुं होते ते तो के, ( संतेवीरीए के ) सतिवीर्ये एटले वीर्य होतेढते, अर्थात् अर्थः
जीवना मनावरूप प्रमाण होतेबते. वली शुं होतेबते! तो के, (संतेपुरसकारपरकमे के०) सतिपुरुषाकारपराक्रने, एटले पुरुपा॥२०॥
कार पराक्रम होतेबते, अर्थात् पुरुपर्नु पुरुषपणानुं जे अनिमान, तेरूपी निप्यादित फलबालुं पराक्रम होतेबते, पूर्वे वर्णवेलु वाचना आदिक जे जे कंई कार्य न कयु होय, (तस्स के०) तस्य, एटले तेनी (आलोएमो के0) आलोचयामः, एटले अमो आलोचना करीयें बीये, अर्थात ते संबंधि आलोयणा लहीये बीये. अर्थात चितवनपूर्वक तेनी शुक्षि करीये. बीये. बली तेनुं शुंकरीयेबीये तो के,
॥ पमिक्कमामो, निंदामो, गरिहमो, विनट्टेमो, विसोहेमो ॥ अर्थः-(पमिक्कमामो के0 ) प्रतिक्रमामः, एटले अमो तेनन प्रतिक्रमण करीये बीये. अर्थात् तेनने पमिक्कमीये बीये. वली तेन्नु अमो शुं करीये बीये? तो के, (निंदामो के0) निंदामः, एटले अमो तेननी निंदा करीये बीये. अर्थात् आत्मसमव अमो तेननु निंदन करीये बोये. वली तेननु अमो शुं करोये बीये? तो के, (गरिदामो के०) गर्दामः, एटले अमो तेनुनी गर्दा करीये बीये. अर्थात् गुरुआदिकनी समक्ष अमो तेननी जुगुप्सा करीये जीये. वली तेनुनु अमो शुं कराये बीये? तो के, ( विनडेमो के० ) व्यतिवर्तयामः, एटले अमो तेननुं व्यतिवर्तन करीये बोये. अथवा वित्रोटयामः, एटले अमो तेननु चित्रोटन कराये बोये. अर्थात् वाचवादिकना अनुबंधनो अमो विन्द करोये बीये. अथवा विकुदृयामः, एटले अमो विकुन करोये वीये. वली तेननु अमो शुं करीये बीये? तो के, (विसोहेमो के0) विशोधयामः, एटले अमो तेननी विशुद्धि करीये बोये. अर्थात् करेला गवा दोपोरूपी कादवयी मलीन ययेला आत्मानी अमो निर्मलता करीये बीये. वली अमोशुं कराये जीये! तोके,
॥ अकरणयाए अनुठेमो, अहारिहं तवोकम्मं, पायचित्तं पविजामो, तस्स मिठामि उक्कळ ॥ ॥२०॥
अर्थः-(अकरणयाए के ) अकर्णतया, एटले न करवावमे करीने, अर्थात् हुं फरीने तथा प्रकारनो कोइ पण दोप करीश नही, एवीरीतनो विचार मननी अंदर चिंतवीने ( अप्जुट्टेमो के0 ) अच्युत्तिष्ठामः, एटले हुं नत्तिष्टित ययेलो छु. अ.
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मूत्र
साधु प्रति
अर्थः
॥
३॥
र्थात् हुं नयमवंत ययेलो छु. वली हुँ शं करूं छु? तो के, (अहारिहं के0 ) ययाहै. एटले जेम योग्य लागे तेम, अयांत अपराधादिकनी अपेदावमे करीने जेम नचित लागे, तेवा प्रकार- (तबोकम्मं के० ) तपःकर्म, एटले तपकर्मरूप, अर्थात् विविध प्रकारनी तपस्या करवारूप ( पायच्छित्तं के0) प्रायश्चित्तं. एटले प्रायश्चित्तने, अर्थात् प्रायें करीने जे चित्तनी एटले मननी शुद्धि करे, ते प्रायश्चित्त कहेवाय. तेवा कारनां प्रायश्चित्तने ( पविजामो के0 ) प्रतिपद्यामहे, एटले अमो प्रतिपन्न करीये बीये. अर्थात् तेवीरीतनां प्रायश्चित्तनो अमो स्वीकार करीये बीये. वली ( तस्स के0 ) तस्य, एटले बांच्यं न होय, पढ़यु न होय, इसादिक अपराध संबंधि ( मिलामि दुक्क के0 ) मिथ्या मे दुष्कृतं, एटले मारूं ते दुष्कृत मिथ्या यान. अर्यात् ते अपराधनी हुं माफी मागु छ.
॥ नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाश्यं अंगवाहिरियं कालियं नगवंतं, तंजहा ॥ अर्थ:-( नमो के0) नमः, एटले नमस्कार थान. कोनामते नमस्कार थान? तोके, ( तसि के0 ) तेज्यः, एटले तेनप्रते. तेन कोण? तो के, (खमासमणाणं के0 ) दमाश्रयणेज्यः, एटले दमाश्रमणोपते नमस्कार थान? अर्यान् मारा पोताना गुरुउपते नमस्कार थान. अथवा तीर्थंकर प्रनुमते नमस्कार थान. अथवा गणधर आदिकोपते नमस्कार थान. हवे ने कमाश्रमणो केवा ? तो के, (जेहि के० ) यैः, एटले जे माश्रमणोए (इमं के0 ) इदं, एटले आ अंगवाह्य रूप श्रुत (वाइयं के0) वाचितं, एटले वांचेलुं बे. अर्थात् अमारामते जे कमाश्रमणोयें उपदेशेलुं बे, एवा ते क्रमाश्रमणोपते नमस्कार थान. हवे ते नपदेशेलुं शुं छे! तो के, (अंगबाहिरियं के0 ) अंगवाह्य, एटले अंगबाह्य श्रुत नपदेशेलु दे. ते श्रुत केबुं बे? तो के, ( कालियं के० ) कालिकं, एटले दिवस अथवा रात्रिनी पहेली अने पाळली पोरसीवेलाए, स्वाध्यायनो अनाव होतेबते, जे जणवामां आवे ठे, ते कालिक मामनुं श्रुत कहेवाय ले. वली ते श्रुत केबुं ! तो के, (जगवंत के) जगवंतं, एटले जगवंतरूप ले. अर्थात ऐश्वर्य आदिक अनेक प्रकारना गुणोयें करीने युक्त थयेनुं बे. हवे (तंजहा के0 ) तद्यथा, एटले ते कालिक नामनुं श्रुत नीचप्रमाणे जाणवू.
॥ नत्तरजालाई । दसानकप्पो । ववदारो । इसिन्नासियाई । निसीदियं । महानिसीहियं ।।
॥२३॥
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साधु
प्रति
॥२०४॥
अर्थ:-( उत्तरकालाई के० ) उत्तराध्ययनानि, एटले उत्तराध्ययन नामनुं श्रुत जाणवु. अर्थात उत्तर एटले प्रधान, एविनयश्रुतादिक बे, अध्ययनो जेमां, एवं उत्तराध्ययन नामनुं श्रुत जाणवुं. बली ( दसान के० ) दशाश्रुतस्कंधः, एटले दशाश्रुतस्कंध नामनुं श्रुत जाणवुं. पने (कप्पो के० ) कल्पः, एटले साधुन संबंधि आचार, अर्थात स्यविरकल्पादिक साधु संबंधि आचार, जेमां वर्णवामां आवेलो बे, एवं कल्प नामनुं श्रुन जाणवुं तथा (ववहारो के० ) व्यवहारः, एटले व्यवहार श्रुत नामनुं श्रुत जावं. अर्थात् प्रायश्चित्त संबंधिव्यवहारने प्रतिपादनकरनारुं जे अध्ययनविशेष, तेनेव्यवहारश्रुत जाण. ( इतिजा सियाई के० ) रुपिनापितानि, एटले रुपिनापित नामनुं श्रुत जाणवुं. अर्थात् रुपिन एटलेप्रसेको, अने तेवा श्रीनारदादिकवीस प्रबुद्धो के जे या वर्तमान चोवीसीमां बावीसमा श्री नेमिनाथ तीर्थकर प्रजुना शासनमां वर्त्तता हता. तथा तेवा पंदर प्रत्येकबुको श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकर प्रजुना शासनमां वर्त्तता हता. तथा सेवा दश प्रसेकबुको श्रीमहा वीरस्वामी तीर्थकर प्रजुना शासनमां वर्त्तता हता. एवा ते श्री प्रत्येक बुद्धरूप रुपिनए जापेला जे पस्तालीस अध्ययनो, तेनने पापित नाम शास्त्र आणवं बली (निप्तीहियं के० ) निशीयकं, एटले निशीथ नामनुं शास्त्र जाणवुं अर्थात् निशीय एटले मध्यरात्रि, नेतेनीपेठे गुप्त रहेल जे अध्ययन, तेने निशीथ नामनुं शास्त्र जाणवु वली ( महानिसीहियं के० ) महानिशीथक, एटले महानिशीय नामनुं शास्त्र जावं. अर्थात ते पूर्वे वर्णवेला निशीथ शास्त्रयी ग्रंथ अपने अर्थव के करीने जे वि शेप विस्तारवाळु बे, तेने महानिशीय नामनुं शास्त्र जाणवुं. तया
॥ जंबूदीवपन्नत्ती । सूरपन्नत्ती | चंदपन्नत्ती । दीवसागरपन्नत्ती । खुशिया विमाणपविजत्ती ॥
अर्यः -- (जंबूदीपन्नत्ती के० ) जंबूदीपप्रज्ञप्ति, एटले जंबूदीपपन्नत्ती नामनुं शास्त्र माण. अर्थात् जेनी अंदर जंबूदीप संधि वर्णन आपवामां आव्युं बे, तेने जंबूदीपपन्नत्ती नामनुं शास्त्र जाणवु तथा ( सूरपन्नत्ती के० ) सूर्यमइति एटले सूर्यपन्नत्त) नामनं शास्त्र जाणवुं. अर्थात् जेनी अंदर सूर्य संबंधि चालनुं वर्णन आपवामां आव्युं ने तेने सूर्यपन्नत्तीनामनुं शास्त्र जाण. तथा (चंदपन्नत्ती के० ) इति एटले चंपन्नत्ती नामनुं शास्त्र जाए. अर्थात चं संबंधि चालना विचाराने जणावनारुं जे शास्त्र, तेने चंपन्नत्ती नामनुं शास्त्र कहेवाय. तथा ( दीवसागरपन्नत्ति के० ) छीपसागर प्रकृति, पटले दीपसागरप्रकृति नामनु शास्त्र जावं. अर्थात ६ पोसंबंधि तथा समुझे संबंधि वर्णन जेनी अंदर आपवामां आव्युं वे, तेने दीवसागर
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सूत्र
अर्थः
॥२०४॥
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मूत्र अर्थः
साधु पन्नत्ती नामर्नु शास्त्र जाणवू. तथा (खुमिया विमाणपवितत्ति के0 ) क्रुतिका विमानप्रविनक्ति, एटले हतिकाविमानप्रविनक्ति प्रति०
नामनुं श्रुत जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर अस्पग्रंय रूपं विमानोनी श्रेणीनन स्वरूप वर्णवावां आवेलु ठे, तने कुलिकाविमान- |
प्रविजक्ति नामनुं श्रुत जाणवू. तथा॥२०॥
॥ महल्लियाविमाणपविनती, अंगचूलियाए, वंगचूलीयाए, विवाहचूलीयाए, ॥ अर्थः-( महलियाविमाणपरिजत्ती के0) मदनिका विमानप्रविनक्ति, एटले जेनी अंदर महाग्रंथरूपें विमानोनी श्रेणिनन स्वरूप वर्णववामां आव्यु , तेने महल्लिकाविमानप्रविन्नक्ति नामर्नु श्रत जाणवू. वली (अंगचूलियाए के0) अंगचूलिका, एटले अंगचूलिका नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् आचारांगादिकनी चूलिकारूप अंगचूलिया नामर्नु श्रुत जाणवू. तया (बंगचूलीयाए के0 ) वंगचूलिका, एटले वंगचूलिया नामर्नु श्रुत जाण. तथा (विवाहचूलीयाए के0) विवाहचूलिका, एट. ले व्याख्याचूलिका, अर्थात् जगवतीमूत्रनी चूलिकारूप विवाहचूलिका नाममुं श्रुत जाणवू.
॥ अरुणोववाए, वरुणोववाए, गरुलोववाए, वेसमगोववाए, वेलंधरोववाए, देविंदोववाए, ॥ | अर्थ:-(अरुणोववाए के० ) अरुणोपपातः, एटले अरुणोपपात नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् अरुणनामा देव होय जे. ते स्वममयमां निवःम होबाथी, आसन चलायमान होतेउते, अवधिझानथी जाणीने, सां आवीने जक्तिना समूहथी नम्र ययोयको पुष्पोनो दृष्टि वरसावतोयको नीचे आवे . पठी साधुनी आगल नन्नो रहीने हाय जोमीने सांजलतोयको रहे डे. व्याख्यान समाप्त होते ते ते देव साधुप्रत कहे जे के, वरदान मागो! सारे साधु महाराज तो निस्पृही थयाथका तेने कहे डे के. अमोने वरदान- कांई पण प्रयोजन नथी. ते सांजलीने अधिक थयेल ने संवेग जेने, एवो ते देव, साधुनी प्रदक्षिणा देइने तथा बांदीने पोताना स्थानप्रते जाय डे. वरुणोपपातादिकनु पण तेवीजरीते वृत्तांत जाणवू. एवीरीतना वृत्तांतवाला अरुण नामना देवन जेमां वृत्तांत वर्णवेलुं होय, तेने अरुणोपपात नामर्नु श्रुत जाणवू. तया ( वरूणोववाए के0 ) वरुणोपपातः, एटले वरुणोपपात नामर्नु श्रुत जाणवू. तया ( गहलोत्रवाए के) गरुलोपपातः, एटले गरुखोपपात नामर्नु श्रुत जाणवू. तथा (वेसमणोववाए के०) वैश्रमणोपपात्तः, एटले वैश्रमणोपपात नामर्नु श्रुत जाए युं तया (वेलंधरोववाए के०) येलंधरोपपातः,
॥२०॥
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अर्थः
साधु || एटले वेलंधरोपपात नामर्नु श्रुत जाणवू. तया ( देविंदोववाए के0 ) देवेंशेपपातः, एटशे देवेंशेपपात नामनुं श्रुत जाणयुं. সনি
॥ नठाणसुए । समुठाणसुए । नागपरियावलियाणं । निरियावलियाणं । कप्पियान ॥
अर्थः-(नहाणमुए के) नत्यानश्रुतं, एटले नत्यानश्रुत नामर्नु श्रुतं जाणवू. अर्थात् संघादिकना कार्यप्रसंगे जे अध्य॥२०॥ | यननो पाठ करवामां आवे , तेने नत्यान श्रुत नामनुं श्रुत जाणवू. तया (समुठ्ठाणसुए के0) समुत्थानश्रुतं, एटले समुत्यान
श्रुत नामर्नु तश्रु जाणवं. तथा ( नागपरियावलियाणं के0) नागपरिझावलिका, एटले नागपरिझावलिका नामर्नु श्रुत जाणवं. अर्थात् जेनी अंदर नागकुमारी संबंधि अधिकार वर्णवेलो . तेने नागपरिझावलिका नामर्नु श्रुत जाणवू. तथा निरियावलियाणं के) निरयावलिका, एटले निरयावली नामर्नु श्रुत जाणवू. तया (कप्पियान के०) कल्पिका, एटले कल्पिका नामर्नु भुत जाणवू
॥ कप्पवमिंसियान । पुल्फियान । पुप्फचूलियान । वएदीदसान । आसीविसन्नावणान ॥
अर्थः-( कप्पमिसियान के ) कल्पावतंसिका, एटले कल्पावतंसिका नामनु श्रुत जाणवू. तथा ( पुफियान के ) पुष्पिता, एटले पुष्पिता नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्थात् जेनी अंदर नोचेमुजब अधिकार होय . जे ग्रंयनी पत्तिमां ग्रहस्यावासयी व्याकुल थश्ने, तेना साग पूर्वक पाणी, संयमना नावे करीने पुष्पित ययेक्षा होय बे; वली फरीने संयम नावनो साग करीने दुःखित ययायका ग्रहस्यावासनो साग करे ले. अने संयम नावमां पुष्पित थाय डे. एवीरीतना प्राणीननो जेनो अंदर अधिकार वणेलो , तेने पुष्पिताश्रुत नामर्नु श्रुत जाणवू. वली (पुप्फचूलियान के0) पुष्पचूलिका, एटले पुप्प चूलिका नामनुं श्रुत जाणवू. अर्थात् पूर्वं कहेला अर्थविशेपने प्रतिपादन करनारुं जे श्रुत, तेने पुष्प चूलिका नाममुं श्रुत जाणवू. वली ( वलीदसान के0 ) वृष्णिदशा, एटले वृष्णिदशा नामर्नु श्रुत जाणवू. अर्यात् जेनी अंदर अंधकवृष्णि नामना राजानुं वृतांत वर्णवेलुं बे, तेने वृदिशा नामर्नु श्रुत जाणवू. वली (आसीविसजावणान के0) आशीविपनावना, एटले आशीविषजावना नामनु श्रुत जाणवू. अर्थात् आसी, एटले दाढान. अने ते दाढानने विपे बे, विप एटले फेर जेनने, तेन आशीविष कहेवाय . ते संबंधि अधिकार जेमां वर्णवेलो , ते श्रुतने आशीविपजावना श्रुत जाणवू.
॥२०॥
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साधु
सूत्र अर्थः
प्रति
॥३०॥
॥ दिठ्ठीविसनावणान । चारणसमणनावणान । महासुविणजावणान । तेअग्गिनिसग्गाणं ॥ | अर्यः-बली (दिट्टीविस नावणान के) दृष्टिविपनावना. एटले दृष्टिविपनावना नामर्नु श्रुत जाण. अर्यात् जेननी ॥ दृष्टिने विषे विप रहेल , एवा पाणीननो अधिकार जमां वर्णवेलो डे, ते शास्त्रने दृष्टिविषनावना नामर्नु शस्त्र जाणवू. तया (चारणसमजावणा के०) चारणश्रमणलावना, एटले चारणश्रमण जावना नामर्नु शास्त्र जाणवू. अर्थात् चारण एटले अतिशयबमे करीने युक्त एवी गमन आगमननी लब्धिवमे करीने सहित. एवा विद्याचारणो तथा जंघाचारणो जाणवा. अने तेन संबंधि स्वरूप जे शास्त्रमा वर्णव्यु , तेने चारणश्रमणनावना नामर्नु श्रुत कहेवाय. ( महामुविण जावणा- के0) महास्वप्नजाबना, एटले महास्वप्नजावना नामनु शास्त्र जाणवू. अर्थात् महास्वप्नो, एटले गज, पत्न, सिंहादिकरूपी महान् स्वप्नो संबंधि अधिकार जे शास्त्रमा वर्णवेलो बे, तेने महास्वप्न नावना नामनु शास्त्र कहेवाय. तथा (नेअग्गिनिसग्गाणं के0 ) तैजसनिसर्ग, एटले तैजसनिसर्ग नामर्नु शास्त्र जाणवू.
॥ सवेसिपि एयंमि अंगबाहिरए, कालिए, नगवंते, ससुत्ने, सप्रत्ये, सग्गंथे, सन्निज्जुत्तिए ॥
अर्यः-( एयंमि के0 ) एतस्मिन् एटले ते पूर्वे वर्णवेलां ( ससिपि के ) सर्वस्मिन्नपि एटले सर्व प्रकारनां, अर्थात् ते पूर्वे वर्णवेलां सघलां (अंगवाहिरए के0 ) अंगवाह्ये, एटले अंगबाह्य श्रुतोनी अंदर जे कंईनावो वर्णवेला बे, ते सघला जावोने हुं सम्पकमकारे सदई छ. हवे ते श्रुत के? तो के, ( कालिए के0 ) कालिके, एटले कालिक दे. वली ते केवा प्रकारना आवश्यकमा रहेला जावोने हूं सद्दई छ. तो के, (जगवते के ) नगंवते, एटले जगवंत एवा. अर्थात् समस्त प्रकारना ऐश्वर्या आदिक गुणोवाला श्रुतमा रहेला जावोने हूं सरहुं हुं. वलीते श्रुत केवु ? तोके, (समुत्ते के०) समूत्रे, टले मूत्रवमे करीने सहित बे. अर्थात् मूलतंत्ररूप जे मूत्र, तेवमे करीने सहित डे. एवा ते श्रुतमा रहेला जावोने हुं सद्दहुं . वलीते श्रुत केबु बे? तो के, (स प्रत्ये के0) सअर्थे, एटले अर्थवमे करीने सहितले. अर्थात् अर्थरूप व्याख्यानवमे करीने सहितळे, एटले टीका || ॥३०७ दिकवके करीने सहितले. एवा ते श्रुतमा रहेला जावोने हूं सइई छ. वलीते श्रुत केबुं! तोके, (सग्गथे के0 ) सग्रंथे, एटले ग्रंथवके करीने सहित , अर्थात् मूत्रार्थवमे करीने सहितले, एवा ते सास्त्रमा रहेला जावोने ९ सद्दहुं छु. वलीले साल के बे!
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साधु प्रति
॥२०॥
.
...
| तो के, ( मनिज्जुचिए के ) सनियुक्तिके, एटले नियुक्तियें करीने सहित ले. अर्थात् निरुक्तार्थे करीने सहित है. एवा से शा- || सूत्र स्त्रमा रहेला नावाने हुं सदहुं छु.
अर्थः ॥ ससंगहणीए, जे गुणा वा, नावा वा, अरिहंतेहिं, नगवंतेहि, पन्नत्ता वा परूविया वा ॥
अर्थ:-वली ते शास्त्र केवं ने तो के. ( ससंगहणीए के0) ससंग्रहणीके, एटले संग्रहणीवमे करीने सहित ले. अर्थात् विस्तारसहित अर्योक्मे करीने सहित जे. एवा ते शास्त्रमा रहेला (जे के ) ये, एटले जे कोइ (गुणा के0 ) गुणाः, एटले गुणो होय . अर्यात् ते शाखनी अंदर विरति संबंधि, अथवा जिनेश्वर जगवानना गुणोनी स्तुति आदिकरूप जे गुणो रदेला , तेनने हुं सद्दई छ. (वा के ) वा, एटले अथवा (नावा के0) नायाः, एटले जे कोइ नावो रहेला डे, अर्थात् ते शास्वनी अंदर दायोपशमिकादिक ज कोइ पदार्थो रहेला बे, अयवा ते शाखनी अंदर, जे जोवादिक पदार्थो रहेला डे, बेनने हुं सद्दई छ. हवे ते गुणो अथवा जावो कोणे कहेला ? तो के, (अरिहंतेहिं के०) अहतिः, एटले अरिहंत पनुनए कहेला. अर्थात् कपायोरूपो शत्रुनने, अथवा कर्मोरूपी शत्रुनने जेमणे नष्ट करेला बे, एवा श्री तीर्थकर प्रभुनए कहेला डे. हवे ते श्री अरिहंत प्रतुन केवा बे. तो के, (जगवंतेहिं के0) जगवतिः, एटले जगवंत पवा, अर्थात् ऐश्वर्य आदिक गुणोयें करीने युक्त एवा श्रीजिनेश्वर प्रभुनए ( पन्नता के0) प्रताः, एदल प्रशला ने, अर्थात् ते नावाने सामान्यरूपें कहेला दे. (वा के ) वा, एटले अयवा (परुविया के ) प्ररूपिताः, एटले प्ररूपेला डे, अर्थात् विशेषरूपें कहेला ले.
॥ते नावे सहहामो, पत्तियामो, रोएमो, फासेमो, पालेमो, अगुपालेमो ॥ अर्थः-( तेजावे के०) तान् जावान्, एटले ते जावोने ( सहामो के0 ) श्रद्दध्महै, एटले अमो सहीये बीये. अर्थात् ते नावोपर अमो धज्ञ करीये बीये. वली ते जावोमते अमो शुं करीये बीये? तो के, (पत्तियामो के०) प्रतिपन्नामहे, एटले अमो तेनुनी प्रतिपत्ति करीये बीये. अर्थात् ते जावोने अमो प्रीति पूर्वक स्वीकारीये बीये. वली ते नावाने अमो शुं करीये।
॥ बीये? तो के, (रोएमो के0) रोचयामः, एटले ते जावोपर अमो रुचि धारण करीये बीये. अर्गत अनिलापाना अतिरेकवो करीने अमोते जावोपर रुचियंत यश्य बीये. वली ते नावाने प्रमो शुं करोये जीये! तो के, (फासेमो के०) स्पृशामः ।
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प्रतिक
साधु || एटले अमो ते जावोने स्पर्श करीये बीये. अर्थात् आसेवनारे करीने अमो तेननो स्पर्श करीये बीये. वली ते जावोने अमो || सूत्र
शुं करीये डीये? तो के, (पालेमो के0) पालयामः, एटले ते जावोने अमो पालीये बीये. वली ते जावोने अमो सुं करीये || अर्थः बीये? तो के, (अणुपालेमो के0) अनुपालयामः, एटले अमो ते जावोन अनुपालन करीये बीये. अर्थात् पुण्य करणे करी.
ने अमो ते जावोर्नु रक्षण करीये बीये. अथवा बेक जन्म पर्यंत अमो ते जावोनुं सम्यकप्रकारे पालन करीये डीये. वाशा
॥ ते नावे सद्दहंतेहिं पत्तियंतेहिं, रोयंतेहिं, फासंतेहिं, पालंतेहिं, अणुपालंतहिं॥ __ अर्थः-(ते जावे के0 ) तान् नावान, एटले ते जावोने, ( सदहंतेहि के0 ) श्रद्दधानः, एटले ते जावोपर श्रद्धा करवा वमेकरी ने तथा (पत्तियतेहि के०) प्रतिपत्रिः, एटले ते जावोनी प्रतिपत्ति करतांयकां, अर्थात् तेनावाने प्रीतिपूर्वक स्वीकारतांथकां, तया (रोयंतेहिं के) रोचयनिः, एटले ते लावोपर रुचि करतांयकां, अर्थात् अलिलाषाना अतिरेकवमे करीने ते जावोपर रुचिवंत ययायकां, तथा ( फासंतेहिं के०) स्पृशतिः, एटले ते जावोनो स्पर्श करतांयकां, अर्थात् आसेवनारें करीने तेननो स्पर्श करतांयकां, तथा (पालंतेहिं के) पालयन्निः एटले ते जावोनुं पालन करतांयकां, अर्थात तेनने सम्यकप्रकारे पालतांथकां, तथा (अपातेहिं के0) अनुपालयभिः, एटले ते जावोनुं अनुपालन करतांथकां, अर्थात् पुण्यकरणें करीने ते जावोनुं रहाण करतांयकां.
॥ अंतोपरकस्स जं वाश्य, पढियं, परियट्टियं, पुछियं, अणुपहिय, अणुपालियं, तं उस्करकयाए ॥ ' अर्थः-(अंतोपरकस्स के) अंत:पकस्य, एटले पदनी अंदर, अर्थात् पंदरदिवसोनो अंदर (जं के) यत्, एटले जे, | अर्थात् जे कंई, (वाश्यं के0 ) वाचितं, एटले वांचेलु होय, अर्थात् जे कंई परप्रते वांची संनलाव्यु होय, तेमज (पढियं के०) पठितं, एटले जे कंई पढेलुं होय, अर्थात् जे कंई पोते बांचीने पडेलु होय, या अन्यपासे वंचावीने पढेलं होय, तेमज (परियट्टियं के ) परिवर्तितं, एटले परावर्तन करेलुं होय, अर्थात् सूत्र पूर्वक गणेलं होय, एटले मूत्र पूर्वक पाठ करेलो होय, |
|॥o वली पण तेमज (पुचियं के ) पृष्टं एटले पूजेलं होप, अर्थात् पूर्वे लणेलां सूत्रादिकमां शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होते बते गुरु आदिक प्रते पूजेतुं होय, तेमज (अणुपेहियं के0) अनुप्रेतितं, एटले अनुमेदा करेली होय, अर्थात् अर्थने भूली
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साधु
प्रति०
॥१२०॥
जवा व्यादिकना जययी जे कई चितवेलुं होय, तेमज (पालियं के अनुपालितं, एटले जे कई अनुपालन करलुं होय, अर्थात जे कई प्रतिपाज्युं होय, ( तं के० ) तत् एटले ते सधनुं, अर्थात् ते पूर्वे कलेला प्रकारोवमे करीने से कई अनुष्ठान क रेलुं होय, ते सघलुं ( दुरकरकयाए के० ) दुःरकक्ष्याय, एटले 'दुःखोनाकयमाटे ते अर्थात् संसार संबंधि जयंकर हुः खोनो दय करवामां ठे वली ले शाने माटे बे? तो के,
॥ कम्मरक्याए, मोहरखयाए, बोहिलानाए, संसारुतारणाए, चिकट्टु नवसंप जित्ताणं विरामि ॥
अर्थ :- ( कम्मरकयाए के० ) कर्मयाय, एटले कर्मोना दय माटे बे. अर्थात् ज्ञानावरणीय घ्यादिक या प्रकारनां क मना कय माटे है. बली से शानेराटे बे! तो के, ( मोहरकयाए के० ) मोहदयाय. एटले मोहना क्षय माटे ठे. अर्थात संसारि क मोहजावनो नाशकरवा गाटे ढे. वली ते शानेमाटे बे? तो के, ( बोहिलानाए के० ) बोधिलाजाय, एटले बोधिलाजने माटे d. अर्थात् बोधिवीजनीमाप्ति घाटे ठे वली ते शानेमाटे बे? तो के, संसारुत्तारणाए के० ) संसारोचारणाय, एटले संसारने उतरवा माटे बे. अर्थात् संसाररूपी समुयी पार उतरवा माटे बे. ( तिकटु के० ) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, प्रर्थात् एवीरीतनी संपदानो अंगीकार करीने (नवसंपज्जता के०) उपसंपद्य, एटले ते प्रकारनी संपत्तिने प्राप्त थने (विहरामि ho ) विहरामि, एटले हुं विहार करूं कुं. अर्थात् मासकल्पादिक साधु विहार पूर्वक हुं वतु .
॥ अंतोषस्त जं न वाइयं, न पढियं, न परियट्टियं न पुष्ठियं, नासुपेहियं ॥
अर्थ:-( तोपरकस्स के० ) अंतःपक्षस्य, एटले पनी अंदर, अर्थात् पंदर दिवसोनी अंदर, (जं के० ) यत्, एटले जे अर्थात् जे कई (न वाश्यं के ) न वाचितं, एटले न वांचेलुं होय, अर्थात् परमते जे कई न वांची संजलाव्यं होय, तेमज ( नपढियं के० ) नपठितं, एटले न पढेलुं होय, अर्थात् मे कई पोते वांचीने न पढेलुं होय या अन्यपासे वंचावीने न पढेलुं होय; तेमज (नपरियट्टियं के० ) नपरिवर्तितं एटले जे कइ परार्वतन करेलुं न होय, अर्थात जे कई में सूत्रपूर्वक गोलुं न होय, एटले सूत्रपूर्वक पाठ करेलो न होय. तेमज ( न पुच्छियं के० ) न पृष्टं, एटले पूबेलुं न होय, अर्थात पूर्वे जणेलां सूत्रादिकमां शंका व्यादिकनो प्रादुर्भाव होतेते ते गुरु ध्यादिकमते पूबेलुं न होय. तेमज ( नाणुपेहियं के० ) नानुमेदितं, ए
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सूत्र
अर्थः
॥११०॥
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साधु || टले अनुप्रेक्षा करेली न होय, अर्थात् अर्थने जूलीनवाना जय आदिकथी जे कई चितवेलुं न होय. तेमजমনিট ॥ नाणुपालियं, संतेवले, संतेवीरिए, संतेपुरसकारपरक्कमे तस्स आलोएमो ॥
अर्थः अर्थः-(नाणुपालियं के) नानुपालितं, एटले जे कंई अनुपालन करेलुं न होय, अर्थात् जे कई प्रतिपाप्युं न होय. ॥११॥ हवे शुंडोतेलते ते कई कयं न होय? तो के, (संतेवले के०) सतिबले. एटले बल होतेबते. अर्थात् शरीर संबंधि शक्ति होते
ते पण जे वाचनादिक कार्य कयु न होय; वलीशुं होतबते. तो के, (संतेवीरीए के) सतिवीर्ये एटले वीर्य होतेबते, अर्थात् जीवना प्रत्नावरूप प्रमाण होतेढते. वली शुं होतबते. तो के, (संतेपुरसकारपरकमे के0 ) सतिपुरुपाकारपराक्रमे, एटले पुरुषाकार एराक्रम होतेबते, अर्थात् पुरुपर्नु पुरुषपणानुं जे अनिमान, तेरूपी निप्पादित फलवालुं पराक्रम होनेबते, पूर्वे वर्णवेलु वाचना आदिक जे जे कंई कार्य न कयु होय, (तस्स के0 ) तस्य, एटले तेनी (आलोएमो के0 ) आलोचयामः, एटले अ. मो आलोचना करीयें बीये, अर्थात् ते संबंधि आलोयणा लहीये जीये. अर्थात् चितवनपूर्वक तेनी शुक्षि करीये. बीये वली तेनुं शुंकरीयेलीये तो के,
॥पमिकमामो, निंदामो, गरिहमो, विनहेमो, विसोहेमो ।। अर्थः-(पमिछमामो के ) अतिक्रमामः, एटले अमो तेनन प्रतिक्रमण करीये बीये. अर्थात् तेनने पमिकमीये जीये. वली तेनहुँ अमो शुं करीयेटीये! तो के, (निंदामो के०) निंदामः, एटले अमो तेनुनी निंदा करीये बीये. अर्थात् आत्मसमक अमो तेननु निंदन करीये बोये. वली तेननु अमो शुं करोये बीये? तो के, (गरिहामो के०) गर्दामः, एटले अमो तेननी गर्दा करीडीये. अर्थात् गुरुयादिकनी समक्ष अमो तेननी जुगुप्सा करीये जीये. बली तेन्नु अमो शुं कराये जीये? तो के, (विनडेमो केए) व्यतिवर्त्तयामः, एटले अमो तेन्न व्यतिवर्तन करीये बीये. अथवा वित्रोटयामः, एटले अमो तेननु वित्रोटन करोये बोये. अर्थात् वाचनादिकना अनुबंधनो अमो विवेद करोये बीये. अथवा विकुदृयामः, एटले अमो विकुट्टन करोये बी- || ॥२१॥ ये. रली अमो शुं करीये बाये ! तो के, (विसोहेमो के०) विशोधयामः, एटल अमो तेनुनी विशु/६ र्थात् करेला एवा दोषोरूपी कादवथी मलीन थेयला आत्मानी अमो निर्मलता करीये बीये. वली अमोशुं करोये बीये? तोके,
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साधु
प्रतिक
॥२१॥
॥ प्रकरणयाए अनुठेमो, अहारिहं तवोकम्म, पायचित्तं पमिवजामो, तस्स मिलामि उक्कलं ॥
अर्थः-(अकरणयाए के) अकर्णतया, एटले न करवावमे करीने, अर्थात् हुं फरीने तेवा प्रकारनो कोइ पण दोष || अर्थः करीश नही, एवीरीतनो विचार मननी अंदर चितवीने (अप्ठेमो के0) अज्युत्तिष्ठामः, एटले हूं उत्तिष्ठित थयेलो छु. अर्थात् हुँ उद्यमवंत थयेलो छु. वली हुं शुं करूं हूं? तो के, ( अहारिहं के ) यथार्ह, एटले जेम योग्य लागे तेम, अर्थात् अपराधादिकनी अपेक्षावमे करीने जेम नचित्त लागे, तेवा प्रकारर्नु ( तवोकम्मं के ) तपःकर्म, एटले तपकर्मरूप, अर्थात् विविध प्रकारनी तपस्या करवारूप (पायच्छित्तं के०) प्रायश्चित्तं, एटले प्रायश्चित्तने, अर्यात् प्रायें करीने जे चित्त शुद्धि करे, ते प्रायश्चित्त कहेवाय. तेवा प्रकारनां प्रायश्चित्तने ( पमिवज्जामो के ) प्रतिपद्यामहे, एटले अमो प्रतिपन्न करीये बीये. अर्थात् वेवीरीतनां प्रायश्चित्तनो अमो स्वीकार करीये जीये. वली ( तस्स के0 ) तस्य, एटले वांच्यु न होय, पढ्यु न होय, श्यादिक अपराध संबंधि (मिहामि दुक्कम के०) मिय्या मे दुष्कृतं, एटले मारुं ते दुष्कृत मिथ्या थान. अर्यात् ते अपराधनी हुं माफी मागुं छु.
॥ नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाश्यं ज्वालसंगं गणिपिमगं । नगवंतं, तंजहा ॥
अर्थः-( नमो के0 ) नमः, एटले नमस्कार थान. कोनामते नमस्कार थान ? तोके, ( तेसि के ) तेच्यः, एटले तेनुप्रते, ते कोण? तो के, (खमासमणाणं के ) दमाश्रमणेभ्यः, एटले कमाश्रमणोपते नमस्कार थान ? अर्थात् मारा पोताना गुरु
प्रते नमस्कार घान. अथवा तीर्थंकर प्रजुनपते नमस्कार थान. अथवा गणधर आदिकोपते नमस्कार थान. हवे ते कमाश्रमणो केवा ! तो के, (जेहिं के०) यैः, एटले जे रुमाश्रमणोए (इमं के०) इदं, एटले आ ादशांगीरूप श्रुत (वाश्यं के) वाचितं, एटले वांचेलु ले. अर्थात् अमारामते जे क्षमाश्रमणोयें नपदेशेवं बे, एवा ते हमाश्रमणोपते नमस्कार थान. हवे ते नपदेशेलु शुं ने तो के, (दुवालसंगं के) ादशांगं, एटले जेनन वर्णन नीचे आपवामां आवशे, एवू शदशांगीरूप श्रुत नपदेशेलु दे. वली ते वादशांगीरूप श्रुत केबुं ? तो के, (गणिपिगं के ) गणिपिटकं, एटले गणिपिटकरूप डे अर्थात् गणि एटले जे गणधर महाराजो, तेनना अर्थना सारना एक प्रधान एटले असंत उत्तम एवा नाजनरूप ठे. वली ते वादशांगीरूप
| ॥१॥
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साधु
प्रतिo
॥११३॥
श्रुत केबुं बे? तो के, (जगवंतं के० ) जगवंतं, एटले जगवंतरूप ठे. अर्थात ऐश्वर्य आदिक अनेक प्रकारना गुणोयें कराने युक्त यथेलुं बे. हवे ( तंजहा के० ) तथा एटले ते नीचप्रमाणे जाल. अर्थात् पूर्वे वर्णवेलां संत उत्तम प्रकारनां विशेषगोयें करीने युक्त ययेलुं एवं दादशांगीरूप श्रुत नीचेप्रमाणे ठे.
॥ श्रायारो । सूमो । गणांग । समवानुं । विवाहपन्नत्ती । नायाधम्मकदानं ॥
अर्थः- (आयारो के० ) आचारः, एटले या आचारांग नामनुं श्रुत जावं. अर्थात् आचार एटले ज्ञानादिको सेवन करवाना विधि, अने तेवीरीतना विधिने प्रतिपादन करनारो जे ग्रंथविशेष, तेने आचारांग नामनुं श्रुत जावं. तेमज (मूगो के० ) सूत्रकृतः, एटल सूत्रकृतांग नामनुं श्रुत जाणवु अर्थात् स्वसमयसंबंधि ने परसमय संबंधि पदार्थोंना लक्षणोयी सूचना करनारो जे ग्रंथ विशेष, तेने सूयगमांन नामनुं श्रुत जाणवु तेमज (ठाणांग के० ) स्थानांग, एटले स्थानांग नामनुं न जाण. अर्थात् यथास्थित अधेिपणाने करीने रहेला बे, एकत्व आदिक विशेषणवाला आत्मा आदिक पदार्थो जेनी अंदर, तेने स्थानांग नामनुं श्रुत जाणवुं. प्रथवा व्यात्माने लगता एकथी मांमीने दश सुधिनां स्थानोनुं निरूपण करनारुं श्रुत विशेष, तेने स्थानांग नामनुं श्रुत जाणवुं तेमज ( समवान के० ) समवायः, एटले समवायांग नामनुं श्रुत जाए. अ
तू जेनी अंदर जीवादिक पदार्थोंतुं सम्यकप्रकारे व्याख्यान आपवामां यान्युं ले, तेने समवायांग नामनुं श्रुत जाणवुं. तेमज ( विवाह पन्नी के० ) विवाहमप्ति, एटले विवाहमप्ति नामनुं श्रुत जाणवु अर्थात् वि, एटले विशिष्ट प्रकारना वाही, एटले अर्थना वाहो बे, जेमां, एवं जे प्रज्ञापन, तेने विवाहपन्नत्ति नामनुं श्रुत जाणवुं तेमज (नायाधम्मक हान के० ) ज्ञाताधर्मकया, एटले ज्ञाताधर्मकथा नामनुं श्रुत जाणवुं. अर्थात् उदाहरणो वे प्रधान जेमां, एवी विविध प्रकारनी धर्मकयान जे ग्रंयनी अंदर मनाएली बे, तेने झाताधर्मकथा नामनुं श्रुत जाणवु अर्थात् ते श्रुत नाना प्रकारनी धर्मकयानुरूप ठे.
॥ नवालगदसाल, अंतगमदसान, प्रगुत्तरोववाइदसान परदावागरणं, विवागसूत्रं, दिवान ॥ अर्थ:-( नवासगदसान के० ) उपासकदशा, एटले उपासकदशांग नामनुं श्रुत जाए. अर्थात उपासको एटले श्रावको, ते संबंधि क्रियानी व्याख्या जे ग्रंथनी अंदर आपवामां आवेली छे, तेने उपासकदशांग नामनुं श्रुत जाए. तेमज
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सूत्र
त्र्यर्थः
॥११३॥
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साधु
प्रति०
॥२१४॥
(अंगदान के ) अंतगदशा, एटले अंतगमदशाग नामनुं श्रुत जाणवुं तेमज (गुत्तरोववाइसान के० ) अनुत्तरोपपातिकदशा, एटले अनुत्तरोपपातिकदशांग नामनुं श्रुत जाणवुं तेमज ( पढावागरणं के० ) मश्नव्याकरणं, एटले मश्नव्याकर नामनुं श्रुत जावं. तेमज ( विधान के० ) विपाकतं, एटले विपाकसूत्र नामनुं श्रुत जाणवुं. अर्थात् विपाक एटले शुन वा पशु कर्मोंनो परिणाम छाने तेवा प्रकारनां परिणामने प्रतिपादन करनाएं जे श्रुत, तेने विपाकसूत्र नामनुं श्रुत जावं तेमज (दिट्टिवान के० ) दृष्टिवादः, एटले दृष्टिवाद नामनुं श्रुत जाण. अर्थात दृष्टि एटले विविध प्रकारनां दर्श नो
संबंध बाद जेनी अंदर वर्णवेलो बे, तेने दृष्टिवाद नामनुं श्रुत जाए.
॥ सधेसिपि एयंमि बालसंगे गलिपिकगे, जगवंते, ससुते, साल्थे, सगंश्रे, सनिज्जुत्तिए ।
अर्थ :- ( एयंमि के० ) एतस्मिन् एटले ते पूर्ववर्णवेलां (सवेनिपि के ) सर्वस्मिन्नपि एटले सर्व प्रकारां, अर्थात् ते पूर्ववर्णां सघल (दुवालसंगे के० ) दादशांगे, एटले छादशांगीरूप श्रुतनी अंदर जे कई जावो वत्रेलावे, ते जावोने - मो सम्यकप्रकारे सहीये बाये. हवे ते शांतीरूप श्रुत के बे? तो के, ( गणिपिगे के० ) गणिपिटके, एटले गणि पिटके, अर्थात् गणधर महाराजोना पर्यना सारता प्रधान जाजनरूप ले, एवा ते दादशांगोरूप श्रुतनी अंदर रहेला जावोने हुं सद छं. वली ते दादशांगीरूप श्रुत के छे! तो के, ( जगांते के० ) जगंबते, एटले जगवंत एवा. अर्थात समस्त प्रकारना ऐश्वर्य यादिक गुणवाला श्रुतमां रहेला जावोने हुं सहूं छं. वलीते श्रुत केबुं छे? तोके, (समुत्ते के० ) समूत्रे, एटले सूत्रबमे करीने सहित . पर्यात मूलतंत्ररूप जे सूत्र, तेवमे करीने सहित ते. एवा ते श्रुतमां रहेला जावाने हुं सदढुं छु. बलते श्रुत के बे ? तो के, ( स प्रत्ये के० ) सप्रये, एटले पर्यवमे करीने सहित अर्थात् अर्थरूप व्याख्यानवमे करीने रुदितळे, एटले टीका farah करीने सहित. एवा ते श्रुतमां रहेला जावोने हुं सहहुं हुं बलीने श्रुत केबुंबे ! तोके, (सगये के० ) सग्रंथ, एटले - करीने सहित बे, अर्थात् सूत्रार्थयमे करीने सहितबे, एवा ते शास्त्रमा रहेला जावोने हुं सहहुं हुं. बलीने शास्त्र कंबुं ठे? तो, (निज्जुत्तिए के० ) सनिर्युक्ति के, एटले नियुक्तियें करीने सहित ठे. अर्थात् निरुक्तार्थे करीने सहित बे. एवा ते शास्वमां रहेला जावोने हुं सहूं छं.
॥ ससंगहीए, जे गुणा वा, जावा वा, अरिहंतेहिं, जगवंतेहिं, पन्नत्ता वा परुविया वा ॥
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सूत्र
अर्थः
॥२१४
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साधु
प्रति
॥१५॥
॥ अर्थः-वली ते शास्त्र केवं ने तो के, (ससंगहणीए के०) ससंग्रहणीके, एटले संग्रहणीवके करीने सहित ले. अर्थात् !! विस्तारसहित अर्योवमे करीने सहित बे. एवा ते शास्त्रमा रहेला (जे के० ) ये, एटले जे कोइ (गुणा के0 ) गुणाः, एटले गुणो होय छे. अर्थात् ते शास्वनी अंदर विरति संबंधि, अयवा जिनेश्वर लगवानना गुणोनी स्तुति आदिकरूप जे गुणो रहेला बे, तेनने ९ सद्दहुं छु. ( वा के ) वा, एटले अथवा (नावा के0 ) नावाः, एटले जे कोइ नावो रहेला ने, अर्थात् ते शास्त्रनी अंदर दायोपशमिकादिक ज कोइ पदायाँ रहेला बे, अयवा ने शास्त्रनी अंदर. जे जीवादिक पदार्थों रदेला . तेनने हुं सद्दहुं हूं. हवे ते गुणो अथवा लावो कोणे कहेला ? ता के, (अरिहंतेहिं के ) अर्हतिः, एटले अरिहंत पनुनए कहेला दे. अर्थात् कपायोरूपी शत्रुनने, अथवा कर्मोरूपी शत्रुनने जेमणे नष्ट करेला ठे, एवा श्री तीर्थंकर प्रभुनए कहेला डे. हवे ते श्री अरिहंत प्रजुन केवा ने तो के, (जगवतेहिं के ) जगवन्निः, एटले जगवंत एवा, अर्थात् ऐश्वर्य आदिक गुणोयें करीने युक्त एवा श्रीजिनेश्वर प्रभुनए ( पन्नत्ता के0 ) प्राप्ताः, एटले प्राप्तेला बे, अर्थात् ते नावाने सामान्यरूपें कहेला ठे. (वा के०) वा, एटले अथवा (परूविया के०) प्ररूपिताः, एटले प्ररूपेला बे, अर्थात् विशेषरूपें कहेला ले.
॥ते नावे सहामो, पत्तियामो, रोएमो, फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो । अर्थः- (तेजाव के0 ) तान्जावान्, एटले ते नावोने ( सद्दहामो के0 ) श्रद्दध्महे, एटले अमो सदहीये बीये. अर्थात् ते जावोपर अमो श्रक्षा करीये बीये. वली ते जावोपते अमो शुं करीये बीये? तो के, (पत्तियामो के0) प्रतिपन्नामहे, एटले अमो तेननी प्रतिपत्ति करीये बीये. अर्थात् ते नावाने अमो प्रीति पूर्वक स्वीकारीये बीये. वली ते नानोने अमो शुं करीये बीये? तो के, (रोएमो के ) रोचयामः, एटले ते नावोपर अमो रुचि धारण करीये बीये. अर्यात् अजिलापाना अतिरेकयो करीने अमो ते लावोपर रुचिवंत यश्ये बोये. वली ते नावोन अमो शुं करोये बीये! तो के, (फासेमो के०) स्पृशामः, एटले अमो ते नावाने स्पर्श करोये जीये. अर्यात् आसेवनक्षारें करीने अमो तेननो स्पर्श करीये जीये. वली ते जावोने अमो शुं करीये जीये ? तो के, (पालेमो के0 ) पालयामः, एटेल ते नावाने अमो पालीये बीये. वली ते जावोने अमो शुं करीये ॥ ॥१५॥ बीये? तो के, (अणुपालेमो के0 ) अनुपालयामः, एटले अमो ते लावोनुं अनुपालन करीये बीये. अर्थात् पुण्य करणे करी ने अमो ते जावोगें रक्षण करीये बीये. अथवा बेक जन्म पर्यत अमो ते नावोनुं सम्यमकारे पालन करीये बीये.
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सूत्र
मर्थः
साधु
॥ते नावे सद्दहंतेहिं पत्तियंतेहिं, रोयंतेहिं, फासंतेहिं, पालंतेहिं, अणुपालंतेहिं ॥ प्रतिक
अर्थः-(ते नावे के0 ) तान् नावान्, एटले ते जावोने, (सदहंतेहिं के0) श्रद्दधानः, एटले ते नावोपर श्रधा करवा
वमेकरीन तथा (पत्तियंतेहि के०) प्रतिपत्रिः, एटले ते लावोनी मतिपत्ति करतायकां, अर्थात् तेनावाने प्रीतिपूर्वक स्वीकारतां॥१६॥ थकां, तया ( रोयतेहिं के) रोचयनिः, एटले ते लावोपर रुचि करतोयका, अर्थात् अनिलापाना अतिरेकवमे करीने ते ना
वोपर रुचित थयायकां, तथा ( फासंतहि के) स्पृशभिः, एटले ते नावोनो स्पर्श करतांथकां, अर्थात् आसेवनारें करीने तेननो स्पर्श करतांयका, तथा ( पालतेहि के) पालयङ्गिः एटले ते नावोर्नु पालन करतायको, अर्याल तेने सम्यकप्रकारे पालतांथकां, तया (अपातेहि के0) अनुपालयभिः एटले ते नावोनुं अनुपालन करतांयका, अर्थात् पुण्यकरण करी ने ते जावोनुं रक्षण करतांयकां. ॥ अंतोपरकत्त जं वाश्यं, पढियं, परियटिय, पुछियं, अगुषेहियं, अणुपालियं, तं उश्करकयाए ॥
अर्थः-(यंतोपरकस्त के० )अंतःपक्षस्य, एटले पानी अंदर, अर्थात् पंदरदिवसोन। अंदर ( के) यत्, एटले जे, अर्थात् जे कंई, (वाइयं के0 ) वाचितं, एटले वांचेलं होय, अर्यात् ने कई परमत बांची सनलाव्यं दोय, तेमज (पहियं के०) || पठितं, एटले जे कंई पदेनु होय, अर्थात् जे कंई पोते वांचीने पढेलुं होय, या शापासे बंचावीने पढेलु होय, तेमज (परिय
ट्टियं के० ) परिवर्तितं, एटले परावर्तन करेलु होय, अर्थात् मूत्र पूर्वक गणेतुं होय, एटले मूत्र पूर्वक पाठ करेलो होय, वली पण नेमज ( पुचियं के0 ) पृष्टं एटले पूडलं होय, अर्थात् पूर्व जणेला सूत्रादिकमा शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होते बते गुरु आदिक प्रते पूढेलु होय, तेमज (अणुपहियं के0) अनुप्रेक्षितं. एदले अनुमेहा करेली होय, अर्थात् अर्थने भूती जवा आदिकना जययी जे कंई चितवेलुं होय, तेमज (अणुपालियं के ) अनुपालितं, एटले जे कंई अनुपालन करलुं होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपाल्युं होय, (तं के0 ) तत् एटले ते सघनुं, अर्थात् ते पूर्वे कहेला प्रकारोबके करीन जे कंई अनुष्ठान करेलुं होय, ते सघलुं दुरकरकयाए के0 ) दुःरकक्ष्याय, एटले दुःखोनादायमाटे ने अर्थात् आ संसार संबंधि जयंकर हुःखोनो तय करपामाटे छे. बली ते शाने माटे ? तो के,
॥२१६
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साधु
मृत्र
মনি
अर्थः
२१॥
॥ कम्मरकयाए, मोहरकयाए, बोहिलानाए, संसारुनारणाए, तिकटु नवसंपजित्तःणं विरामि ॥
अर्थ:-( कम्मरकयाए के0 ) कर्मयाय, एटले कर्मोना तय माटे ले. अर्थात् झानावरणीय श्रादिक आठे प्रकारनां कमोना क्य माटे ले. बली ते शानेमाटे बे? तो के, ( मोहरकयाए के० ) मोहदयाय. एटले मोहना हय माटे ले. अर्थात् संसारि क मोहनावनो नाशकरवा माटे ले. बली ते शानेमाटे ! तो के, (बोहिलालाए के) बोधिलाजाय, एटले कोधिलाजने माटे बे. अर्थात् बोधिवीजनोप्राप्ति थवामाटे ले. वली ते शानेमाटे ने तो के, संसारुत्तारणाए के) संसारोचारणाय, एटले संसारने नतरवा माटे ले. अर्थात् आ संसाररूपी समुश्यी पार नतरवा माटे . ( तिकटु के0) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, अर्थात् एवीरीतनी संपदानो अंगीकार करीने ( नवसंपन्ज ताणं के) नपसंपद्य, एटले ते प्रकारनी संपत्तिने ताप्न थने (विहरामि के0 ) विहरामि, एटले हुँ विहार करूं छु. अर्थात् मासकल्पादिक साधु विहार पूर्वक हुं वत्तुं छु.
॥ अंतोपरकस्स जं न वाश्यं, न पढियं, न परियट्टियं न पुत्रिय, नाणुपेहियं ॥ अर्थः-(अंतोपरकस्स के0) अंतःपक्षस्य, एटले पक्षनी अंदर, अर्थात् पंदर दिवसोनी अंदर, (जं के०) यत् , एटले जे अर्थात् जे कं (न वाश्यं के ) न वाचितं, एटले न वांचलुं होय, अर्थात् परमते जे कंई न वांची संजलाव्युं होय, तेमज (नपढियं के० ) नपठितं, एटले न पढेलं होय, अर्थात् जे कंई पोते वांचीने न पढेलुं होय या अन्यपासे वंचावीने न पढेलुं होय; तेमज (नपरियट्टियं के0 ) नपरिवर्तितं, एटले जे कंइ परार्वतन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई में सूत्रपूर्वक गणेलु न होय, एटले सूत्रपूर्वक पाठ करेलो न होय. तेमज (न पुच्छियं के0) न पृष्टं, एटले पूजेतुं न होय, अर्थात् पूर्वे नणेला मूत्रादिकमां शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतेजते ते गुरु आदिकप्रते पूलुं न होय. तेमज (नाणुपेहियं के ) नानुप्रेक्षितं, एटले अनुदा करेली न होय, अर्थात् अर्यने नूलीजवाना जय आदिकथी जे कंई चिंतवेलुं न होय. तेमज
॥ नाणुपालियं, संतेवले, संतेवीरिए, संतेपुरसकारपरक्कमे तस्स आलोएमो । अर्थः-(नाणुपालियं के0) नानुपालितं, एटले जे कंई अनुपालन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपास्युं न होय. हवे शुंदोतेबते ते कई कयु न होय? तो के, (संवले के०) सलिवले, एटले बल होतेठते, अर्थात् शरीर संबंधि शक्ति होतेठ
॥२२
३०
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साधु || ते पण जे वाचनादिक कार्य कर्तुं न होप; वलीशुं होते ते! तो के, ( संतवीरीए के ) मतिबीय एटल वार्य होतेबते, अर्थात् | मूत्र । पति जीवना मनावरूप प्रमाण होतेउते. वली शुं होते ते? तो के, (संतेपुरसकारपरकमे के0) सतिपुरुषाकारपराक्रमे, एटले पुरुषा
अर्थः कार पराक्रम होतेबते, अर्थात् पुरुषतुं पुरुषपणानुं जे अनिमान, तेरूपी निप्पादित फलवालुं पराक्रम होतेउते, पूर्व वर्णवेलु
वाचना आदिक जे जे कंई कार्य न कर्यु होय, (तस्स के0 ) तस्य, एटले तेनी (आलोएमो के0) आलोचयामः, एटले अ ॥२१॥
मो आलोचना करीयें बीये, अर्थात ते संबंधि आलोयणा लहीये बीये. अर्थात चितवनर्पूवक तेनी शुद्धिकरीये बीये. वली तेनु शुंकरीयेलीये तो के,
॥ पमिकमामो, निंदामो, गरिहमो, विनमो, विलोहेमो॥ अर्थः-(पमिक्कमामो के ) प्रतिक्रमामः, एटले अमो तेननु प्रतिक्रमण करीये बीये. अर्थात् तेनने पमिक्कमीये लीये. वली तेननु अमो शुं करीये बीये? तो के, (निंदामो के ) निंदामः, एटले अमो तेननी निंदा करीये बीये. अर्यात् आत्मसमव अमो तेननु निंदन करीये बोये. वली तेननु अमो शुं कराये बीये? तो के, (गरिदामो के0) गर्हामः, एटले अमो तेन्नी गर्दा करीये बीये. अर्थात् गुरुआदिकनी समक्ष अमो तेननी जुगुप्सा करीये बीये. वली तेननु अमो शुं कराये बीये? तो के, (विनडेमो के ) व्यतिवर्त्तयामः, एटले अमो तेन्नु व्यतिवर्त्तन करीये बोये. अथवा वित्रोटयामः, एटले अमो तेननु विवोटन करोये बोये. अर्यात् वाचनादिकना अनुबंधनो अमो विद करोये बीये. अयवा विकुयामः, एटले अमो विकुन करोये टीये. वली तेननु अमो शुं करीये बीये? तो के, (विसोहेमो के० ) विशोधयामः, एटले अमो तेननी विशुद्धि करीये बोये. अर्थात् करेला गवा दोपोरूपी कादवयी मलीन ययेला आत्मानी अमो निर्मलता करीये जीये. वली अमोशुं कराये बीये? तोके,
॥ अकरणयाए अनुठेमो, अहारिहं तवोकम्मं, पायश्चित्तं पविजामो, तस्स मिछामि कुकर्म ॥
अर्थः-(अकरणयाए के) अकर्णतया, एटले न करवावमे करीने, अर्थात् है फरीने तथा प्रकारनो कोऽ पण दोप || ॥१०॥ करीश नही, एवीरीतनो विचार मननी अंदर चितवीने (अप्ठेमो के0 ) अच्युत्तिष्ठामः, एटले हं नत्तिति ययेलो छ. अ र्थात् हं नद्यमवंत ययेलो छ. वली हुं शुं करूं टु! तो के, (अहारिहं के० ) ययाह, एटले जेम योग्य लागे तेम, अयात् अप
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साधु || राधादिकनी अपेक्षावमे करीने जेम नचित लागे, सेवा प्रकार- ( तबोकम्मं के० ) तपाकर्म, एटले तपकर्मरूप, अर्थात् विविध प्रतिक
प्रकारनी तपस्या करवारूप ( पायच्छित्तं के0) प्रायश्चितं. एटले प्रायश्चित्तने, अर्थात् प्रायें करीने जे चित्तनी एटले मननी शुद्धि करे, ते प्रायश्चित्त कहेवाय. तेवा प्रकारनां प्रायश्चित्तने ( पमिवजामो के ) प्रतिपद्यामहे, एटले अमो प्रतिपन्न करीये
बीये. अर्थात् तेवीरीतनां प्रायश्चित्तनो अमो स्वीकार करीये बीये. पली (तस्स के0 ) तस्य, एटले वांच्युं न होय, पढयुं न ॥१॥
होय, इसादिक अपराध संबंधि (मिक्षामि दुक्क के0 ) मिथ्या मे दुष्कृतं, एटले मारुं ते दुष्कृत मिथ्या यान. अर्थात् ते अपराधनी हुं माफी मागु छु.
॥ नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं श्मं वाश्यं वातसंगं गणिपिझगं । नगवंतं, सम्मं ।।
अर्थः-( नमो के0 ) नमः, एटल्ले नमस्कार थान. कोनापते नमस्कार थान? तोके, ( तेसि के0 ) तेज्यः, एटले तेनुप्रते, तेन कोण? तो के, (खमासमणा के) क्षमाश्रमणेयः, एटले कमाश्रमणोपते नमस्कार थान? अर्थात् मारा पोताना गुरुउप्रते नमस्कार थान. अथवा तीर्थंकर प्रनुनपते नमस्कार थान. अथवा गणधर आदिकोपते नमस्कार थान. हवे ते दमाश्रमणो केवा बे! तो के, (जेहिं के० ) यैः, एटले जे दमाश्रमणोए (इमं के0) इदं, एटले आ हादशांगीरूप श्रुत (वाश्यं के०) वाचितं, एटले बांचेलु दे. अर्थात् अमारामते जे दमाश्रमणोयें उपदेशेलुं बे, एवा ते दमाश्रमणोपते नमस्कार यान. हवे ते नपदेशेलु शुं बे! तो के, (दुवालसंग के० ) वादशांगं, एटले जेननु वर्णन नीचे आपवामां आवशे, ए, वादशांगीरूप श्रुत नपदेशेलु दे. वली ते वादशांगीरूप श्रुत के ? तो के, (गणिपिगं के ) गणिपिटकं, एटले गणिपिटकरूप ने अर्थात् गणि एटले जे गणधर महाराजो, तेन्ना अर्थना सारना एक प्रधान एटले असंत नत्तम एवा नाजनरूप ले. वली ते हादशांगीरूप श्रुत के डे! तो के, (जगवंत के ) जगवंतं, एटले जगवंतरूप ले. अर्थात् ऐश्वर्य आदिक अनेक प्रकारना गुणोयें करोने यु. क्त थयेलू दे. हवे एवीरीतना ( सम्मं के ) समं, एटले सघला प्रकारना श्रुतोने,
॥काएण फासंति, पालंति, पूरंति, तीरंति, किटंति, सम्म आगाए आरारंति ।। - अर्थः-महात्मा ( कारण के ) कायेन, एटले कायावमे करीने ( फासंति के0 ) स्पृशति, एटले स्पर्श करे बे, अर्था
॥२१
॥
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साधु प्रति
अर्थः
॥३०॥
त् ग्रहण कालसमये विधिपूर्वक तन्तुं ग्रहण करे . तेमज (पातंति के0) पालयंति, एटले तेनन पालन कर ले. अर्थात वा-|| रंवार फरीफरीने तेनना अभ्यासपूर्वक तेननु रक्षण करे जे. वली तेन ! शुं करे ? तो के, ( पूरंति के ) पूरयंति, एटले सं- | पूर्ण करे डे. अर्थात् अभ्यास करनारना दोषयी ते श्रुतनी अंदर कानो मात्रा अथवा बिंदु आदिकना दोषोथी जे अपूर्णता रही होय, तेनी संपूर्णता करे . वली तेननु शुं करे ? तो के, (तीरंति के ) तीरयंति, एटले तरे बे. अर्थात् अविस्मृत श्रु. तने बेक जन्मपर्यंत लेश जाय बे. वली तेन्नुं शुं करे ? तो के, (किति के0) कीर्तयंति, एटले सेनन कीर्तन करे बे. अर्थातू स्वाध्याय आदिक पाठ करवावमे करीने तेन्नु कीर्तन करे जे. अथवा यथावत् झापूर्वक तेननु आराधन करे बे. अथवा श्री जिनेश्वर प्रजुए कहेली क्रियापूर्वक तेने फलदायक करे . बली तेनुं शुं करे ? तो के, (सम्मं आणाए आराहंति के0 ) सम्यक् आइया आराधयंति, एटले सम्यकप्रकारे श्री जिनेश्वर प्रभुए कहेला आापूर्वक तेननु आराधन कर दे. एवा ते महात्मानमते नमस्कार थान.
॥ अहं च नाराहेमि, तस्स मिच्छामि उक्कामं ॥ अर्थ:-(च के०) च, बली (अहं के0) अहं, एटले हूं, (नाराहेमि के0) नाराधयामि, एटले आराधतो नथी. अर्थात् प्रमादने वश पड्योथको हुँ ते पूर्वे वर्णवेलां श्रुतोनुं सम्यक्षकारे अनुपालन करतो नथी, ( तस्स के ) तस्य, एटले ते संबंधि, अर्थात् तेननुं में जे सम्यकप्रकारे अनुपालन करेलुं नथो, ते संबंधि (मिठामि दुका के०) मिथ्या मे दुप्कृतं, एटले मारुं दुष्कृत मिथ्यायान? अर्थात् ते संबंधि थयेला एवा मारा अपराधनहुं माफी मागुं छु. अर्थात् पोते करेलां दुष्कृसोना पश्चातापने सूचवनारी, तथा पोते करेला दोपोना स्वीकारने सूचननारी एवी प्रतिक्रमणरूपी हुं माफी मागु छ.
॥ हवे आ पाक्षिकसूत्रनी समाप्ति करतायका श्रुत देवतानी स्तुति करे .॥ ॥ सुयदेवया नगवई । नाणावरणीयकम्मसंघायं ॥ तेसिं खवेन सययं । जेसिं सुयसायरे
नती॥१॥ अर्थ:-(जगवई के०) जगवती, एटले जगवती एवी, अर्थात् पूज्य एवी, जे (मुयदेवया के0) श्रुतदेवता, एटले श्रुतनी
॥२०॥
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साधु प्रतिक
॥३१॥
अधिष्टाता एवी श्रुतदेवता ( तेर्सि के0 ) तेषां, एटले तेना, अर्थात् ते प्राणीना (नाणावरणीयकम्मसंघायं के0 ) ज्ञानावरणीयकर्मसंघातं, एटले झानावरणीय कर्मोना समूहने ( सययं के0) सततं, एटले हमेशां (खवेन के०) पयतु, एटले नाश करो? कोना ज्ञानावरणीय कर्मोनो नाश करो! तो के, (जेसि के० ) येषां, एटले जेननी, अर्थात् जे प्राणी के०) श्रुतसागरे, एटले श्रुतरूपोआ गंजीर समुनी अंदर (जती के) जक्तिः, एटले जक्ति रहेलीबे, अर्थात् जनन श्रुतसागरने विष बहु मान रहेलं , तेनना कानावरणीय कर्मोनो श्रुतदेवता नाश करो.
॥ इति श्री श्रुतदेवता स्तुतिः ॥ ॥ इति श्रीपातिकसूत्र अर्थसहितं समाप्तं ॥
॥ अथ श्रीपाक्षिकदामणकस्य अर्थः लीख्यते. ॥ ॥ श्वामि खमासमणो, पियं च मे जंन्ने, हठाणं, तुठाणं अप्पाकाणं, अन्नग्गजोगाणं ॥
अर्थः-(खमासमणो के ) दयाश्रमण, एटले हे कमाश्रमण ! अर्थात् हे मारूपी महान् गुणने धारण करनारा गुरु महाराज ! ( श्वामि के0 ) श्वामि, एटले हुँ इच्छं हूं. अर्यात् हुं मारा मनमां एवी रीतनी इला राखं छु. अहीं जेम राजाना खीदमतगारो मंगलिक कार्य होयाबाद राजामते बोले के, अखंमितवलने धारण करनारा एवा आपनो नत्तमकाल निर्गमन थयो बे, अने बीजो पण तेवोज नत्तमकाल प्राप्त ययो बे, एवी रीते दामणक मूत्रवमे करीने बीजा साधुन प्रण श्रीआचायजी महाराजपते पोतानी नम्र विनंति निवेदन करे. हवे एवीरीते श्रीआचार्यजी महाराजमते नम्र विनंति करतायका साधुजी शुं श्छे ? तो के, हे आचार्यजी महाराज! (च के0 ) च एटले वली ( मे के0) मम, एटले मने (पियं के०) प्रियं, एटले प्रिय लागे बे, अर्थात् हवे हुं आपसाहेबने जे नम्र विनंति पूर्वक पूछ छु, ते सघलुं मारां अंतःकरणप्रते मने बहालुं लागे डे. (जं के ) यत्, एटले जे. अर्थात् जे कारण माटे (ले के० ) जवतां, एटले आपनो, अर्थात् आपसाहेबनो काल तो मुखसाता आदिक पूर्वक निर्गमग थाय ? इसिादिक. हवे आपसाहेब केवा बो? तो के, ( हहाणं के0 ) हर्षितानां, एटले हर्षे
| ॥२१॥
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साधु
प्रति०
॥१२२॥
करीने युक्त थयेला, एवा, अर्थात शरीर संबंधि निरोगीपणावमे करीने हर्पित थदेसा एवा, एटले रोग संबंधि कोइ पण प्रका रना पड़वें करीने रहित यथेला एवा.
वली साहेब केवा तो के, ( तुद्वाणं के० ) तुष्टानां, एटले तुष्ट थयेला एवा, अर्थात् सर्व प्रकारथी संतुष्ट थयेला एवा प्रवाह संबंधि प्रतिरेक सूचनाएं ए " तुड्डाणं " पद जाणवुं वली यापसादेव केवा? तो के, (पातका के० ) पातकानां एटले पल्प आतंकवाला एवा, अर्थात् अल्प एटले थोमो बे, आतंक एटले जय जेमने एवा, अथवा अल्प शब्दनो अजाववाचक अर्थ करवावमे करीने रोगरहित एवा, एटले घातिरोगवमे करीने वर्जित थयेला एवा, अथवा सामान्य प्रकारवमे करीने सर्व प्रकारना रोगोवमें करीने रहित एका छावा अल्प एटले थोमो बे, आतंक एटले रोग जेने एवा, केके सर्वप्रकारे रोग रहित होवानी असंजय डे. बली पसादेव केवा हो ? तो के, (अनग्गजोगाणं के० ) अजनयोगानां, एटले नयी नष्ट थयेल के योग जेमनो एवा, अर्थात् ऋण प्रकारना जे योगो, ते जेमना नाश पामेला नयी, एवा. हवे ते
प्रकारना योगो कया कया है? तो के, पहेलो मनयोग, एटले मनने शुद्धरीते जे समाधिमा राखयुं, ते मनयोग कहेवाय. एवीरीतनो मनयोग जेमनो नाश पामेलो नयी, एवा. बीजो वचनयोग, एटले कोइ पण प्रकारनुं पोताने या परने हित कारी याय, एवं वचन मुखमांथी जे नही उच्चारखुं, तया पोतापते अने परप्रते जे हितकारी याय एवं तथ्य नेपथ्य वचन जे मुखदारा नचाखुं, तेने वचनयोग कहेवाय. एवीरीतनो वचनयोग जेमनो जन थयेलो नयी, एवा. बीजो काययोग, एट ले पोताना शरीरने वश राखी, तेत्रके कोई पण प्रकारनं जे दुराचरण नही सेवयुं ते काययोग कहेवाय. एवीरीतना त्रणे प्रकारना योगो जेना नष्ट ययेला नयी, एवा. वली हे गुरुमहाराज ! व्यापसादेव केवा हो तो के,
॥ सुसीलाल, सुबयाणं, प्रायरिय नवज्यायाएं, ॥
अर्थ:- (सुसीलाएं के० ) सुशीलानां, एटले सुशीलावा, अर्थात् उत्तम प्रकारना ब्रह्मचर्येने पालवा के करीने शीलपी अलंकारने धरवावाला एवा, वली है! गुरुजी महाराज! आपसाहेव केवाठी? तो के, (सुवयाणं के० ) सुव्रतानां, एटले नत्तम प्रकारनं पांच महाव्रताने जेमणे अंगीकार करीने, तेन्ने, सम्यक प्रकारे पाल्यां वे, ते पांच प्रकारनां महात्रतो कयां क यां ठे? तो के, पेहेलुं प्राणातिपातविरमण नामनुं महाव्रत जाएायुं, एटले कोइ पण प्रकारना जीवनी हिंसाथी विरमवारूप, ए
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सूत्र
अर्थः
॥२१॥
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सूत्र
| टले जीवहिंसानो खाग करवारूप पेहेलु महाव्रत जाणवू. बीजु मृपावादविरमण नामर्नु महावत जाणवु एटले कोइ पण प्रकाप्रति०] रना असखपणाथी विरमवारूप, अर्थात् असस एटले कोइ पण प्रकारनु जे जूनूनही बोलवू, तेरूप बीजुं महावत जाणवू. त्री-|| अर्थः
जुं अदत्तादानविरमण नामनु महाबत जाणवू; एटले कोइ पण जातनी जे चोरी करवी, ते अदत्तादान कहेवायः अने तेवा ॥३|| प्रकारनी चोरीथी जे विरमवं, ते अदत्तादानविरमण कहेवाय; अर्यात कोइ पण प्रकारनी चोरी नही करवारूप त्रीजु महाव
न जाणवू. चोथु मैथुन विरमण नामनु महाव्रत जाणवू; एटले कोइ पण प्रकारना मैथुनने नहीसेवन करवारूप, अर्यात् स्त्रीसबंधि जोगविलासनो साग करवारूप चोथु महावत जाणवू. पांचमुं परिग्रहविरमण नामनु महाव्रत जाणवू एटले कोइपण प्रकारनो परिग्रह नही धारण करवारूप, अर्थात् श्च्य घर आदिक सघला प्रकारनी मिलकतपरथी ममता नावनो साग करवारूप पांचमुं महावत जाणवू.
एवीरीतना नएरवर्ण वेलां पांचे प्रकारना महाव्रतोने सम्यक् प्रकारे जेमणे धारण करेला ले, एवा (आयरियनवज्कायाणं के ) आचार्यमपाध्यायानां, एटले आचार्यजी महाराज तथा उपाध्यायजी महाराज. शुभरीतें सम्यक् प्रकारे झानाचार
आदिक पांच आचारोने पालवावाला, तथा उत्तमप्रकारना बत्रोसगुणोयें करीने युक्त, पटवारी, गवरूपी मेहेलना यंनसमान, तथा शुभ उपदेशनादेवावाला आचार्यजी महाराज कहेवाय. तथा द्वादशांगोमूत्रने अर्थ सहित जाणनारा, शिप्योने पठनकरानारा छाने उत्तम प्रकारना एवा पचीसगुणोने धारण करनारा नपाध्यायजी महाराज कदेवाय. बली ते श्रीगुरुजी महाराज केवा ! तो के,
॥नाणेणं । दसणेणं ! चरित्नेशं । तवसा । अप्पाणं नावे माणाणं ॥ अर्थः-(नाएं के) ज्ञानेन, एटले हानवमे करीने, अर्थात् सम्यकप्रकारना श्रुतसंबंधि छानवमे करीने पोताना आ. स्माने जावता एत्रा, एटले हमेशां पोताना आत्माने विणे श्रुतझान संबंधि जावनाने धारण करनारा एवा. वली ज केवा! तोके, (ईसणेणं के०) दर्शनेन, एटले सम्यग्दर्शनवमे करीने पोताना आत्माने लावता एवा, अर्थात् पोताना आ-| स्मामां सम्यग्दर्शननी जाना जाबता एवा. हवे ते सम्यग्दर्शन कोने कहीये! तोके, शुभ देवने शुरूपे जाणवा, तथा कुदेवने कुदेवरूपे जाणवा. वली शुज गुरुने शुज गुरुरूपे जाणवा, तथा कुगुरुने कुगुरुरूपे जाणवा. वली शुभ्र धर्मने शुक्ष धर्मरूपे
वा, अथात् पोताना आ-|| ॥२३॥
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॥श्मा
साधु जावो, त्या कुधर्मने कुधर्मरूपे जाणवो. एवा प्रकारना सम्यग्दर्शनवमे करीने पोताना आत्मान लावता एवा. वली ते गुरुमपतिः
|| हाराज केवा ? तो के, (चरित्तेणं के ) चारित्रणा, एटले चारित्रवमे करीने पोताना आत्माने लावता एवा, अर्थात् प्राणा. तिपातविरमण आदिक पांचे प्रकारनां महावृतोने धारण करवारूप जे चारित्र, तेवके करीने पोताना आत्माने लावता एवा, एटले शुधरीते चारित्रने सम्यकप्रकारे पालवारूप ध्यान- पोताना आत्मानी अंदर मनन करता एवा; वली ते श्रीगुरुमहाराज केवा ? तो के, (तवसा के) तपसा, एटले तपवमे करीने, अर्थात् प्रकारना अत्यंतर तपवमे करीने पोताना आत्माने लावता एवा, तथा नकारना बाह्यतपक्के करीने पण पोताना आत्माने जावता एवा.
हो ते उ प्रकारनो अत्यंतर तप कयो कयो ? तथा ब प्रकारनो बाह्यतप कयो कयो ? ते कहे जे.-पेहेलो पायनितं नामनो अत्यंतर तप जाणवो. पायबित एटले कोइ पण प्रकारचें पापाचरण करवाबाद पालथी तेसंबंधि पश्चाताप करीने ने आलोयणा करवी, तेने पायडित नामनो पहेलो अत्यंतर तप जाणवो. बीजो विनय नामनो अत्यंतर तप जाणवो; विनय एटले गुरु आदिक वमीलो प्रते जे नम्रता राखवी, तेरूप विनय नामनो बीजो अत्यंतर तप जाणवो. श्रीजो वैयावह नामनो अत्यंतर तप जाणवो वैयावच एटले गुरु आदिक वमोलोनी तथा ग्लान आदिक साधु मुनिराजनी जे सेवा चाकरी करवी. तेरूप वैयावच्च नामनो त्रीजो अत्यंतर तप जाणवो. चोयो सकाय नामनो अत्यंतर तप जाणवो; सङाय एटले मूत्रसित आगम आदिकोर्नु पठन पाठन करवारूप सजाय नामनो चोयो अत्यंतर तप जाणवो. पांचमो ध्यान नामनो अत्यंतर तप जाणवो; ध्यान एटले वाद्य इनिना विषयोने रोकीने धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान ध्याववारूप पांचमो ध्यान नामनो अध्यंतर तप जाणवो. बहो उत्सर्ग नामनो अत्यंतर तप जाणवो, नत्सर्ग एटले काया आदिकनो मोहनाव तजीने, तेने वासरावी देवा. रूप नत्सर्ग नामनो बहो अत्यंतर तप जाणवो. एवारीने नपरप्रमाणे वर्णवेला बए प्रकारना अच्यंतर तपवर्म करीने पोताना आत्मान जावता एवा गुरुमहाराज. बली केवा? तो के, नीचे वर्णव्याप्रमाणोन प्रकारना वाह्यतपत्रके करीने पोताना आत्माने जावता एवा; ते ब प्रकारनो बाह्य तप कयो कयो ! तो के, पेहेलो तो अनशन नामनो बाद्यतप जाणवो; अनशन एटले को पण प्रकारना आहार, जे लोजन नही करवू. ते अनशन कहेवाय. अने तेरूप पेहेलो अनशन नामनो वाह्यतप जाणवो. वीजो कनोदरिका नामनो बाद्यतप जाणवो कनोदरिका एटले जोजन करतांथका जटती रुचि होय, तेथकी वे चार, अथवा
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साधु
सूत्र
प्रति
अर्थः
अमुक संख्या जेटला बा कवल लेवारूप बीजो कनोदरिका नामनो वाह्यतप जाणवो. त्रीजो वृत्तिसंकेप नामनो बाहतप जाणवो वृत्तिसंक्षेप एटले नोजनना पदार्थोमांथी जेम बने तेम जे बी संख्याना पदार्योर्नु नोजन करयु. अने तेम करवारूप -|
त्तिसंदेप नामनो जीजो बाह्यतप जाणवो. चोथो रसबाग नामनो बाह्य तप जाणवो; रसयाग एटले दूध, दही, घी आदिक र ॥३२॥
सोने अमुक संख्यामां बोम्बा, अने तेम करवाय। विगयप्रसाख्यानरूप चोयो रसयाग नामनो बाह्यतप जाणवो. पांचमो कायक्लेश नामनो बाह्यतप जाणवो कायक्लेश एटले मूर्यनी सामे आतापना लेवी, आसनो बांधवां, श्यादिक करवारूप पांचमो कायक्लेश नामनो बाह्य तप जाणवो. हो संलीनता नामनो बाह्य तप जाणवो; संलीनता एटले पोताना अंगोपांगोने संकोचीने राखवारूप हो संलीनता नामनो वाहतप जाणवो. एवीरीतेन प्रकारना अत्यंतर तपवमे करीने, तया प्रकारना बायतपः वमे करीने पोताना आत्माने लावता एवा. एवीरीते झान, दर्शन, चारित्र अने तपवमे करीने ( अप्पाणं के०) आत्मानं, एटले आत्माने, अर्थात् पोताना आत्माने (जायमाणाणां के) जावमानानां, एटले जावता एवा, अर्थात् पोताना आत्मामां झान, दर्शन, चारित्र अने तप संबंधि नायनाने हमेशा ध्यानगोचर करता एवा. वली हे गुरुमहाराज!
॥वहसुनेण ने दिवसो पोसहो परको वश्कतो अन्नोन्ने कल्लागणं पज्जुबहिन॥ अर्थ:-(नेका) जवतां, एटले आपसावनो (दिवसो के०) दिवसः, एटले दिवस, केवो ले? ते दिवस, तो के, (पोसहो के ) पौषधः एटले पोपधरुप अर्थात् पर्वरुप एवो दिवस, तथा ( परको के0 ) पदः एटले पद, अर्थात् समस्त पखवामी यारुप पद (बहुमुनेण के०) बहुशुजेन, एटले बहुशुनबमे करीने अर्थात् असंत श्रेयवमे करीने, अथवा इषद् एटले योमा अशुन्नें करीने, केमके सर्वयाप्रकारे शुजनो असंजय ; (वश्कतो के ) व्यतिक्रांतः, एटले व्यतिक्रांत ययेलो ने अर्थात हे गुरु महाराज? आपसाहेबनो पौषधरूप दिवस अयवा पद बहु शुजवमे करीने एटले असंत कल्याणकारी पणे निर्गमन यये. लो जे. तेमज (ने के0 ) नवतां, एटले आपनो, अर्थात् हे गुरु महाराज! आपसाहेबनो ( अन्नो के0 ) अन्यः, एटले बीजो, अर्यात् बीजो पर्वरूप दिवस अथवा पद ( कल्लाणेणं के) कल्याणेन, एटले कल्याणवमे कराने सहित, अर्थात् शुनपणा
वमे करीने सहित ( पज्जुबहिन के0) पर्युपस्थितः, एटले उपस्थित थयो । अर्थात् हे श्रीमहाराज? आपने बीजो पद प|| ण हवे शुजवके करीने सहित प्राप्त थयो जे हवे राजाना स्त्रीदमतगारो वली जेम राजापते मांगलिक वाक्यो कह्या बाद प्र
॥३२॥
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साधु
मूत्र
प्रतिः
अर्थः
॥१६॥
णाम करे जे; तेम हवे साधु पण श्रीआचार्य महाराजपते मांगलिक वाक्यो नपर वर्णव्या प्रमाणे कहोने नमस्कार करे बे.
॥तिकद्द सिरसा मणसा मनुएण वंदामि, तुप्नहिं समं, इति गुरुवचनं ॥ १ ॥ अर्थः-(तिकट्टु के०) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, अर्थात् पूर्वोक्त एटले पूर्व वर्णववाप्रमाणे मांगलिक वाक्योन नचारण करीने हये साधुजी महाराज आचार्यजी महाराजने नमस्कार करे ले. केवोरीते नमस्कार करे बे? तो के, (सिरसा के ) शिरसा, एटले मस्तकवझे करीने, अर्थात् पोतानुं मस्तक श्रीआचार्यजी महाराजपते नमावीने, तेमज ( मणसा के0 ) मनसा, एटले मनवमे करीने, अर्थात् फक्त शरीरयी बाह्य रीने नही, पण मारा अंतःकरणवमे करीने पणः अहीं वचसा, एटले वचनवमे करीने पण, हे श्रीआचार्यजी महाराज ! हुं आपसाहेबने वंदन करूं छु, एवी रीतनो अध्याहार जाणवो (मत्यएगा के० ) मस्त केन, एटले मस्तकबमे करोने, अर्यात् हे श्री आचार्यजी महाराज? आपसाहेवना पवित्र चरणोपते हुं माझं मस्तक नमावीने (वंदामि के०) वंदे, एटले हूं वंदन करूंछ, अर्थात् आपसाहेबप्रते हूं मारां शुक्ष एवां मनवचन अने कायावके करीने नमस्कार करुं हुं.
अहीं नमस्कार संबंधि वाक्य आवीजरीते आगमोमां प्रसिह अने तेथी शिरसा एम कहीने पण मत्यएण, गमज वोजीवखत मस्तक शद्धकयो, तेमां पुनरुक्त, एटले फरीने वीजो वखत कहेवारूप दोष जाणवो नही. कोमके दुनियामां पण व्यवहारना संबंधमां एवा केटलाक रूढशद्धो पुनरुक्त जेवा वापरवामां आवे जेपके आ बलदोनो या गोस्वामि ; अहीं " गोस्वाम" ए शद्ध स्वामीना, एटले मालोकना अर्यवालो दुनियामां प्रसि . एवीरोते नपर वर्णववा प्रमाणे शिष्यना मांगलीक तथा नमस्कार संबंधि वचनो सांजलवाबाद नीचे प्रमाणे श्रीआचार्य महाराज पण शिप्यना अंतःकरणमां हर्षनप. जाववामाटे, तथा तेना नक्तिनावनी वृद्धि करवामाटे मधुरवचन बोले . आचार्यजी महाराज केवां प्रकारनां मधुरवचनो वोले ले तो के, हे शिष्य! (तुमेहिंसमं के0 ) तुल्यंसह, एटले तमारीसाथे पण, अर्थात् हे शिप्य! तमारी साथे अमो पण अनुवंदना करीयेडीये; एवोरीतनुं मधुरवचन श्रोआचार्यजी महाराजनुं सांजलवायी शिप्यतुं अंतःकरण हर्षवमे करीने प्रफुल्लित
| ॥२६॥ याय बे, तथा श्रीप्राचार्यजी महाराजातेथी शिष्यनो विशेप नक्तिनावप्रगट याय बे. (इति के0 ) इति, एटले एबोरीन, अर्यात् एवा प्रकारचें (गुरुवचनं के) गुरुवचनं, एटले गुरुवचन जाणवू अर्यात् श्रीगुरुजी महाराज एटले श्रीश्राचार्यजी
॥
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साधु
प्रति०
॥१२७॥
महाराज तरफनुं वचन जारावं. एवीरीत पेहेला पाक्षिक सामगानो अर्थ समाप्त यय. हवे वीजां पाक्षिक संबंध कामलानो अर्थ लखाय ते. हवे चैस संबंधि तथा साधु संबंधि वंदनने निवेदन करवानी इच्छा करतोयको शिष्य श्राचार्यजी महाराज ते विनंति करे बे.
॥ इवामि खमासमणो पुधिं चेश्याई वंदित्ता, नमसित्ता, ॥
अर्यः( खेमासमणो के० ) क्षमाश्रमण, एटल हे क्षमाश्रमण ! अर्थात हे क्षमारूपी महान् गुणने धारण करनारा गुरुमहा(राज ! ( इच्छामि के० ) इहामि, एटले हुं इच्तुं कुं; अर्थात हुं मारामनमां एबीरीतनी जिलापा राखुंडं. केवीरीतनी जिलापाराखुं छु ! तो के, चैख संबंधि वंदना करवाने हुं अजिलापा घरा ; तेमज साधु संबंधि वंदना करवामां पण हुं मारी - जिलापा धरा. एवीरीते निवेदन कराववाने हुं हुं हवे हुं शुं इच्छु? तोके, (पुधिं के० ) पूर्वे एटले पूर्वकालमां, एटले चैखोने, अर्थात् जिनेश्वरमजुनी प्रतिमानने, एटले साधु, साधवी, श्रावक ने श्राविकान्ने वंदन करवालायक, तथा आ सं साररूपी समांथी तारवाने नाव समान श्री अरिहंत प्रजुनी प्रतिमानने ( वंदित्ता के० ) वंदिला, एटले वांदोंने, अर्थात्
श्री अरिहंत जुनां चैसोने, एटले तेमनी प्रतिमानने शुन प्रकारनी विधिपूर्वक वंदन करीने, तेमज (नमंत्रित्ता के 7 ) नमस्कृस, एटले नमीने, अर्थात् श्रीवीतराग प्रजुन प्रतिमाने विधिपूर्वक नमस्कार करीने, एटले श्रीमरिहंत प्रतुती प्रप्रतिमानने वांदीने तथा नमस्कार करीने; हवे ते क्यां वांदीने, तथा नमस्कार करीने? तो के, पायमूजे विहरमागं, जे केइ बहुदसिया साडुलो दिट्ठा
॥ तु
॥
अर्थ:-( तुम के० ) युष्माकं, एंटले तमारा अर्थात् हे श्रीप्राचार्यजी महाराज ! आपसाहेबना ( पायमूले के० ) पादमूले, एटले चरणसमीपे अर्थात् हे श्रीगुरुं महाराज ! आपसाहेबना चरणकमलोनी समीपमा रहने श्री अरिहंतप्रभुननी प्रतिमानने वांदाने, तथा तेनने नमस्कार करीने ( विहरमाणं के० ) विहरमाणेन एटले विहार करतांयकां, अर्थात् मास कल्परूप विहार करतायकां, तथा तेमज वर्षाकालनी अंदर चतुर्मासकल्परूप विहार करतांयकां, एटले प्रभु वर्णवेली विधि प्रमाणे विहार करतांकां ( जे केइ के० ) ये केऽपि, एटले ने कोई, अर्थात् जे पण कोइ ( बहुदिव -
श्री
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सूत्र
अर्यः
||११||
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अर्थ
|| सपज्जया के0 ) बहुदिवसपर्यायाः, एटले वहु दिवस पर्यायो अर्थात् घणा दिवसोरूपी पर्यायोमुधि एटले ४६ अवस्थाने ली. प्रति धे, शरीर संबंधि बल दीण थइ जवाथी, अथवा विहार करवाथी पगोमां शक्ति नही होवावके करीने, जे क्षेत्रमा स्थिरता
करीने रहेला होय, ते देवयकी वहारनां क्षेत्रमा विहार नही करनारा, एवा ( साहुणो के० ) साधवः, एटले साधुन, अर्थात् ॥२ ॥
| एवा वृक्ष मुनिमहाराजो (दिहा के ) दृष्टाः, एटले जोएला होय, अर्थात् जे कोइ मुनिमहाराजोनां में पोते दर्शन करेला होय; तेमज
॥समणा वा, विसमणा वा, गामाणुगामं दुजमाणा वा, रायणिया संपुळंति ॥ अर्थः-(वा के ) वा, एटले अथवा ( समणा के० ) श्रमणाः, एटले श्रमणो अर्थात् श्रमणधर्मने, एटले प्राणातिपातविरमा आदिक पांचे प्रकारनां महाव्रतोने अखंमितरीतें सम्यकप्रकारे पालनारा एवा महामुनिराजो, तेमज (वा के0 ) वा, एटले अथवा (विसमणा के०) रिश्रमणाः, एटले विश्रमणो, अर्थात् विशेष प्रकारे करीने प्राणातिपातविरमण आदिक पांचे प्रकारनां महावृताने अखंमितरते सम्यकप्रकारे पालन करनारा एवा महान् मुनिराजो (गामाणुगामं के0 ) ग्रामानुग्राम, एटले एक गामय वीजे गाम, अर्थात् गाम आदिकोनी अंदर एक राजिनो निवास कर्यावाद, सांयी बीजे गाम (हुज्जमाणा के० ) हिंड्यमानाः, एटले हीमता एवा, अर्थात् विहार करता एवा ( रायणिया के ) रात्रिकाः, एटले रनोवाला, अर्थात् सम्यग्झान, सम्यग्दर्शन, अने सम्यग्चारित्ररूपी जावरननो व्यापारकरता, एवाबृहत पर्यायना दरज्जान धारणकरनारा श्रीआचार्यजी महागजो ( संपुळंति के० ) संप्रश्नयंति, एटले प्रश्न करे डे, अर्थात् सम्यक्मकारे पूजे जे. शुं पूठे ? तो के, ज्यारे हुं तेनने वंदन आदिक क्रिया करीलेलं हूं, सारे शरीरने मुखसाना आदिक पूढे ठे.
॥ नमरायणिया वंदंति, अजोयान वंदंति, सावया वदंति, सावयान वंदति ॥ अर्थः-(नमरायणिया के ) अवमरानिकाः, एटले अवमरनोने धारण करनारा अर्थात् सामान्य प्रकारे सम्यगृहान, सम्यग्दर्शन, अने सम्यग् चारित्ररूपी रत्नोने साधारणरीते धारण करनारा एवा सामान्य साधुनने (वंदांत के) बंदते, एट ले वंदन करवामां आवे ; अर्थात् हं पण तेवा सामान्य प्रकारे महाहतोनुं पालन करनारा सामान्य साधुनने वंदना करुं छं.
॥श्श्॥
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। सूत्र
अर्थः
॥३२॥
तेमज (अजीयान के०) आयिकाः, एटले आर्यान, अर्थात् पांचे प्रकारनां प्राणातिपातविरमण आदिक महाव्रतोने धारण करनारी एवी साधवीन (वंदंति के० ) वंद्यते, एटले वंदाय बे, अर्यात वांदवामां आवे . वली कोने वांदवामां आयेतो . के, सावया के०) श्रावकाः, एटले श्रावकोने, अर्थात् बारे प्रकारना अणुव्रीने धारण करनारा एवा समकीतधारी श्रावकोने वांदवामां आवे ठे, अर्थात् (वदंति के0) बंयंते, एटले वंदाय . वली कोने वांदवामां आवे ने तो के, (साविया के ) श्राविकाः, एटले श्राकिानने, अर्यात शुभरीते श्रीजैन धर्मने अंगीकार करनारीसमकितरूपी अलंकारने, धारण करनारी श्राविकाने ( बंदंति के ) वंद्यते, एटले वांदवामां आवे बे; अर्थात् तेवीश्राविकानने पण वंदन करवामां आवे ; वली पण कोने बंदाय ने अर्थात् कोने कोने वंदन एटले नमस्कार करवामां आवे ? तो के.
पागंतर-(साबगाणं वंदति, साविगावं वंदंति, ) अपि निसल्लो, निकसान ॥ अर्थः-(सावगाणं के0) श्रावकाणां, एटले श्रावकोने, अर्थात् शुभ सम्यक्त्वरूपी रत्नने धारण करनारा श्रावकोने, ( वंदंति के) बंद्यते. एटले चांदवामां आवे बे, अर्थात् तेनने पण नमस्कार करवामां आवे दे. हवे ते शुभ सम्यक्त्व कोने कहे? नो के, शुक्ष देवने शुरूरूपे मानवा, शुज गुरुने शुक्न गुरुरूपे मानवा, तया शुभ दयामय धर्मने शुभ धर्मरूपे मानवो. तेमज कुदेवने कुदेवरूपे मानवा, तया कुगुरुने कुगुरुरूपे मानवा, अने कुधर्मने जे कुधर्मरूपे मानवो, तेनुं नाम समकीत कहेवाय. एवीरीखना शुभ समकीतरूपी रत्नने धारण करी सम्यक्पकारें पालन करनारा एवा श्रावकोने पण वंदन करवामां आवे बे. बली पण कोने बंदन करवामां आवे ने तो के. ( साविगाणं के0) श्राविकाणां, एटले श्राविकाने, अर्थात् पूर्व वर्णववामुजब शुझ समकोतने धारण करनारी श्राविकानने पण (वंदंते के०) वंद्यते, एटले वंदन करवामां आवे ; अर्थात् तेवा प्रकारनी श्रावक धर्मने अंगीकार करनारी हादश व्रतने धारण करनारी शु६ समकीती श्राविकाने पण नमस्कार करवामां
आवे . तेमज (अहंपि के0) अहं अपि, एटले हूं पण, अर्थात् हे श्री आचार्यजी महाराज ! हूं पण नमस्कार करूं हूं. ह. वे हूं केवो छु! तो के, ( निसलो के ) निःशल्यः, एटले शख्यवके करीने रहित , अर्थात् मायाशल्य, तथा मिथ्यावशष्य आदिक शल्योयें करीने रहित ययेलो छ.
बली हूं केवो छ ? तो के, (निक्कसान केनिःकपायः, एटले कपायोवमे करीने रहित छ. अर्यात् जेणे करीने आत्मा
॥३॥
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सूत्र
साधुना निजस्वनावमां फेरफार याय , एवा कपायोवमे करोन रहित ययेलो छ. ते कपायो कया कया तो के, क्रोध, मान, | प्रतिक माया अने लोजरूपी चार कपायो बे; क्रोध एटले कोइ पण अनिए प्रकारना विषयोनो आत्माने योग थवाथी, तेथी जे देष |
अर्थः नाव प्रगट थाय ठे, ते क्रोध कहेवाय बे एवीरीतना क्रोधबके करीने हुँ रहित ययेलो छु. बली हुं केवो टुं? तो के, मानवके
करीने एए रहित येलो छ, मान एटले कोइ एणकारना ऐश्वर्यनी प्राप्तियी आत्माने जे अजिमान दशानो आविर्भाव प्र ॥२३॥
गट थाय डे, ते मान कहेवाय. एवीरीतना माजरूपी कषायवने करीने पण हुं रहित ययेलो छ. वली हुं केवो छु! तो के, मा. याबके करीने हुँ रहित थयेलो छ. माया एटले को पण जात- जे कपट, तेबमे करीने हु रहित ययेलो छ. बली हुं केवो ययेलो छ. तो के, लोलयकी रहित थयेलो ढु लोन एटले कोइ पण प्रकारनी जीवने जे लालच थाय, ते लोन कहेवाय. ए. वीरीतना लोजवके करीने पण हुं रहित थयेलो छ. एवीरीते पूर्व वर्णन करवामां आवेला चारे प्रकारना कषायोवमे करीने हुँ रहित ययेलो छु.
॥त्तिकह सिरसा मणसा मचएल वंदामि ॥ अहमपि वेदामि चेश्या, इति गुरुवचनं ॥ अर्थः-(त्तिकट्टु के) इतिकृत्वा, एटले एवीरीते अर्थात् एम करीने (सिरसा के ) शिरसा, एटले मस्तकदमे करी. ने, अर्थात हूं मारुं मस्तक नमावीने, तेमज (मणसा के ) मनसा, एटले मनवमे करीने, अर्थात् पोतानां चित्तवमे करीने, (मत्यएण के0) मस्तकेन, एटले मस्तकें करीने (वंदामि के) वंदामि, एटले हूं बांदं छ. अर्यात् शिप्य श्रीगुरुमहाजमते विनंति करे ले के, हे श्री आचार्यजी महाराज ! हुं आपसाहेबने चंदना करुं छु. एवीरीतुं शिष्य तरफनुं विनयथी नरेलु वचन सांजलीने हवे श्री आचार्यजी महाराज पण शिष्यना जावनी वृद्धि माटे नीचे प्रमाणे मधुर वचन बोले ; शुं बोले ? तो के, (अहमपि के०) अहंअपि, एटले हूं पण, अर्यात् हे शिष्यजी हूं पण ( चेआई के ) चैसानि, एटले चैखोने, अर्थात् श्री॥ अरिहंत प्रनुनी प्रतिमानने ( वंदामि के ) वेदामि, एटले हुँ वंदन करूं छ; अर्यात् हुँ पण श्री वीतराग अनुनी प्रतिमाने मारा शुभ लावधी नमस्कार करूं छु. ( इति के० ) इति, एटले एवीरीतर्नु, अर्यात् ए पूर्व वर्णक्या प्रमाणे ( गुरुवचनं के०) ||" गुरुवचनं, एटले गुरुर्नु वचन नाणवू; अर्थात् शिष्यप्रतेनुं श्री गुरुजी महाराज तरफनु वचन जाणवू. एवीरीते नीजां परकीखामणानो अर्थ समाप्त थयो.
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साधु प्रति०
॥३१॥
॥ हवे त्रीजा परकीखामणानो अर्थ कहे जे अने ते अर्थ नीचेमुजव जाणवो. ॥
॥श्चामि खमासमणो नवठिनई तुप्रलं संतिअंग्रद.कप्पं वा वयं वा ।। अर्थः-(खमासमणो के ) हे क्षमाश्रमण ! एटले हे कमाश्रमण ! अर्थात् दे कमारूपी महान् गुणने धारण करनारा गुरुमहाराज! एटले हे श्री आचार्यजी महाराज ! (इछामि के० ) श्वामि, एटले १ इच्छु छ, अर्थान हूँ मारा मनमो एवीरीतनी अभिलाषा राखं छु. केवीरीतनी हुँ अजिलापा रामु तु. तो के, मारा आत्माने निवेदन करवामाटे (नवहिनमि के0) नपस्थितोऽस्मि, एटले हुं नपस्थित थयेलो छ; अर्थात् ९ तैयार थयेलो इं. शामाटे तैयार थयेलो छ? तो के, आत्मनिवेदन पाटे हुं तैयार थयेलो छ. हवे हुं क्यां तैयार ययेलो हुँ? तो के, (तुमहं के ) युष्मन्यं, एटले तमारीपासे, अर्थात हे श्रीचार्यजी महाराज! आपसाहेश्नी समीपे आत्मनिवेदन माटे उपस्थित ययेलो छ हवे हं शुं निवेदन करवामाटे उपस्थित थयेलो छ? ते कहे . (संतियं अहाकप्पं के0) इदं सर्व यथाकल्प्यं, एटले आ सघडं ययाकल्प्य, अर्थात् अमारा परिजो. गमा आवे, एव॒ आ सघलुं, के जेनुं वर्णन नीचे आएका आवेलुं बे, एवं स्थविरकल्पी मुनिमहाराजोने वापरवा योग्य न. चित एवं उपकरण आदिक जाणवू. हवे ते उपकरण आदिक शुं शुं होय बे? ते कहे . ( वा के० ) वा, एटले अथवा (व
के0 ) बखं, एटले बख, अर्थात् पहेरवाना कपमा छाने तेवा कपमा, हे गुरुमहाराज! आपसाहेवे तो मारामते प्रीतिय। आपेला होय, परंतु में पंमितपणानुं अनिमान लावीने ते वस्त्रोने अविनयपूर्वक ग्रहण करेला होय, अने तेम करवायी मने जे को अपराध लागेलो होय, ते अपराध संबंधि मारुं सघळु दुष्कृत मिथ्या थान. वली मारुं शुं दुष्कृत मिथ्या थान? ते नीवेत्रमाणे जापावं.
॥ एमिगई वा कंबलं वा पायपुरणं वा रपहरणं वा अस्करं वा पयं वा गाई वा सिलोगं वा ।।
अर्जः-(पझिग्गहं के ) परिग्रह, एटले परिग्रहने, अर्थात् कोइ पण प्रकारना परिग्रहमे ग्रहण करतांयकां जे कोइ || अपराध मने लागेलो होय, तेसंबंधि मारुं दुष्कृत मिथ्या थान? एटले हे श्रीआचार्यजीमहाराज! अापसाहेबे तो पात्रांनानपककारण प्रमुख परिग्रहने मने पोतिथी आपेला होय, परंतु में मारा अंतःकरणमां पंमितपणानुं अजिमान लावीने ते नपकरण
| ॥२३॥
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सूत्र अर्थः
प्रतिक
प्रमुख परिग्रहने वाचनयपणे ग्रहण करेला होय, अने तेम करवायी मने जे कोइ अपराध लागेलो होय, ते अपराध संबंधि माझं दुष्कृत मिथ्या धान? बलो मारु शंदुष्कृत मिथ्या थान? तोके, (वा के० ) वा, एदले अथवा (कंबलं के० ) केवलं, एटले कंबलने, अर्थात् कामल या कामलीने ग्रहण करतांयकां मने जे को अपराध लागेलो होय, ते संबंधि मारुं दुष्कृत मिथ्या थान? एटले हे श्रीआचार्यजी महाराज आपसाहेवेतो ते कामल या कामली मने प्रीतिथी आपेली होय, परंतुं मेंमारा मनमां पंमितपणानुं अनिमान लावीने तेने अविनय पूर्वक ग्रहण करेलुं होय, अने तेम करवायी मने जे कोइ अपराध लागेलो होय, ते अपराध संबंधि मारुं दुप्कृत मिथ्या था?
बलो मारुं शुं दुष्कृत मिय्या था ? तो के, (वा के७) अथवा (पाय पुचणं वा रयहरणं के0 ) पादपोंबनं, एटले पादपोंबनने, तया रयहरणं एटले रजोहरणने अर्थात् पायपुंठणने ग्रहण करतांयकां, अने रजोदरणने पण ग्रहण करतांथकां मने जे को अपराध लागेलो होय, ते संबंधि मार दुष्कृत मिथ्या था ? एटले हे श्री आचार्यजी महाराज! आपसाहेवे तो ते पायपुरण तथा रजोहरणा मने प्रीतियी आपलु होय, परंतु में मारा दिलमां पंमितपणानुं अनिमान लावीने ते पायपुंबणने तया रजोहरणने अविनय पूर्वक ग्रहण करेलुं होय, अने तेम करवायी मने जे कोई अपराध लागेलो होय ते अपराध संबंधि मारुं दुष्कृत मिथ्या था ? वली मारु शुं दुष्कृत मिथ्या थान? तो के, ( वा के०) वा, एटले अथवा (अरकर के0) अदरं, एटले अदरने, अर्यात् श्रुत संबंधि कोइ पण अकरने ग्रहण करतांयकां मने जे कोई अपराध लोगेलो होय, ते संत्रघि माझं दुष्कृत मिथ्या था? पटले द श्री आचार्यजी महाराज! आपसाहेये तो मेने अत्यास करावांयका श्रुत संबंधि अकर प्रीतिथी आपेलो होय, परंतु में मारा अंतःकरणमां पंमितपणानुं अनिमान लावीने ते श्रुत संबंधि अकरने का विनय पू.। र्वक ग्रहण करेलो होय, अने तेम करवायी मने ज कोई अपराध लागलो होय, ते अपराध संबंधि मारुं दुष्कृत मिय्या यान? वली मारूं शुं दुष्कृत मिथ्या थान? तो के, (वा के0 ) वा, एटले अथवा (पयं के0 ) पदं, एटले पदने, अर्थात् श्रुत संबंधि कोई पण प्रकारनां पदने ग्रहण करतांयकां जे कोइ अपराध मने लागलो दोय. ते अपराध संबंधि मारुं दुष्कृत मिथ्या थान? | एटले हे श्री आचार्यजी महाराज ? आपसाहे तो मने अन्यास करावती समये श्रुत संबंधि कोई पण प्रकार- पद प्रीतिथी श्रापेलुं होय, परंतु में मारा मनमा अहंकार लावीने, अयवा पंमितपणाना गर्वने धारण करीने, ते श्रुत संबंधि पदने अवि
॥३॥
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अर्थः
माधु
| नयपूर्वक ग्रहण करेलुं होय, अने तेम करवायी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचार संबंधि मारुं सबलु दुष्कप्रति
त मिथ्या थान.
वली मारूंशु उप्कृत मिथ्या थान? तो के, (वा के0 ) वा. एटले अथवा (गाहं के0) गाथां, एटले गायाने, अर्थात्
श्रुत संबंधि गायाने अज्यास करती बेलायें ग्रहण करतांयकां मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते संबंधि मारुं दुष्कृत मि(१२३३॥
थ्या थान. एटले हे श्री प्राचार्यजी महाराज ! आपसाहेये तो मने अभ्यास करावांथकां श्रुत संबंधि गाथा प्रीतियी आपेली होय, परंतु में मारां अंतःकरणमां पंमितपणा, अजिमान लावीने ते श्रुत संबंधि अकरने अविनय पूर्वक गृहण करेलो होय, अन तेम करवायी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचार संबंधि मारूं उप्कृत मिथ्या थान. वली माझं शुं दुष्कृत मिथ्या थान? तो के, (वा के ) वा, एटले अथवा (सिलोग के0 ) श्लोकं, एटले श्लोकने, अर्थात् कोइ पण प्रकारना श्रुतसंबंधि श्लोकनो अज्यास करती बेलायें ग्रहण करतांयकां मने जे कोई अपराध लागेलो होय, ते संबंधि मारूं सघळु पुष्कृत मिथ्या थान. एटले हे श्री आचार्यजी महाराज! मने अभ्यास करावती वेलाए आपसाहेवे तो अभ्यास करावतांथका कोइ पण प्रकारनो श्रुत संबंधि श्लोक प्रीतियी आपेलो होय, परंतु में मारां अंत:करणमां पंमितपणानुं अनिमान ला. वीने ते श्रुत संबंधि अदरने अविनयपूर्वक ग्रहण करेलो होय, अने तेम करवाधी मने जे को अपराध लागेलो होय, ते अपराधना अतिचार संबंधि मारूं दुष्कृत मिथ्या थान. वली मारुं शुं दृष्कृत मिण्या थान? तो के,
॥ सोगई बा, अठं वा, हेनं वा, पसिणं वा, वागरणं वा, ॥ अर्थः-(सिलोगई के0 ) श्लोकाध, एटले श्लोकना अर्धनागने, अर्थात् अरधा श्लोकने अभ्यास करती वेलाये ग्रहण करतांयकां मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचार संबंधि मारूं सघळु दृष्कृत मिथ्या थान. एटले हे श्री आचार्यजी महाराज ! आपसाहेवे तो अज्यास करावती बेलाये अन्यास करावतांयकां मने कोइ पण मकारना श्रुत संबंधि कोइपण प्रकारनो शास्त्रनो अरघो श्लोक प्रीतिथी आपेलो होय, परंतु में मारां अंतःकरणमा पंमितपणानो अहंकार लानीने, ते श्रुत संबंधि अरधा श्लोकने अविनयपूर्वक ग्रहण करेलो होय, अने तेम करवाथी मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचार संबंधि मारुं सघलु दप्कृत मिथ्या थान.
॥३३॥
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साधु
प्रसिध
॥२३४॥
बलात मिथ्या यान ? तो के, ( वा के० ) वा, एटले अथवा ( अहं के० ) अर्थ, एटले पर्यने, अर्थात् कोइस प्रकारना अर्थ, एका संबंध ज्यास करतांयकां, ते बेलाये ते शास्त्रांना अर्थने ग्रहण करतांकां मने जे कोअतिचार लागेलो होय, ते संबंधि मारुं सघळु दुष्कृत मिथ्या यान. एटले हे श्री आचार्यजी महाराज! व्यापसाहेवे तो अ ज्यास करावती वेलायें अभ्यास करावतांकां मने कोइ पण प्रकारनो श्रुत संबंधि अर्थ प्रीतिपूर्वक शाखावेलो तथा समजाबेलो होय, परंतु में मारां मनमा अथवा अंतःकरणमां पंमितपणानो अहंकार लावीने ते घार्थने अविनयपणे ग्रहण करेलो होय, ते करतांकां मने जे कोइ अपराध लागेलो होय, ते अपराध संबंधि जे कोइ व्यतिचार मने लागेलो होय, ते सचला तिचारोने हुं परिमुं हुं.
बली मारुं शुं दुष्कृत मिथ्या था तो के, ( वा के० ) वा, एटले अथवा ( हेनं के० ) हेतु, एटले हेतुने, अर्थात् शा मां या विविध प्रकारना हेतुवादने ग्रहण करतायकां मने जे कोद अपराध लागेलो होय, अने ते संबंधि मने जे कोप्रतिचार लागेलो होय, ते संबंध मारुं उष्कृत मिथ्या याजी एटले हे श्राचार्यजी महाराज ! मने प्रयास करावती - लाये आपसाहेवेतो मने ज्यास करावतांकां विविधप्रकारना हेतु वादाने संत मीतिपूर्वक शोखवेला तथा समजावेला होय, परंतु में मारा अंतःकरणमां अजिमानपणानो जाव लावीने ते हेतुवादाने विनयपणे ग्रहण करेला होय, अने तेम क रतांथां मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते संबंधि मारुं दुष्कृत मिथ्या थाट. वली मारुं शुं दुष्कृत मिथ्या थाने, तोके, ( वा के० ) वा, एटले अथवा (पसिणं के० ) प्रश्नं एटले प्रश्नने, अर्थात् शाखोमां आवता विविध प्रकारमा विषयों संबंधि प्रश्नोंने ग्रहण करतांकां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुं लुं. एटले हे श्रीक्षमाश्रमण याचाजी महाराज ! आपसाहवें तो अभ्यास करावती बेलायें मने अभ्यास करावतांकां श्रुतज्ञान संबंधि कोइ पण प्रकारको म
संत मीतिपूर्वक शीखावेलो तथा समजावेलो होय, परंतु में मारां अंतःकरणमा पंडितपणाना अजिमानो कोळ घालीने ते प्रश्नने अविनयपणायें करीने ग्रहण करेलो होय, अने तेम करवावसे करीने मने जे कोई अपराध लागेलो होय, ते अपरा ध संबंध अतिचार लागवाव से करीने मने जे कोइ पण प्रकारनो दोष लागेलो होय, ते संबंधि मारुं दुष्कृत निथ्या या व ली मारुं शुं दुष्कृत मिथ्या था? तो के, ( वा के० ) बा, एटले या (वागरणं के० ) व्याकरणं, एटने व्याकरणने अ
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सूत्र
अर्थः
॥२३४॥
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साधु
सूत्र
प्रति०
अर्थ:
॥२३॥
..
.
...
र्थात् कोर पण प्रकारनां व्याकरण संबंधि छानने ग्रहण करतांयकां मने जे कोई अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हूँ पमिकमुंछं. एटले हे श्री क्षमाश्रमण आचार्यजी महाराज! अज्यास करावती वलाए मने अज्यास करावतांयका आपला हेवे तो असंत प्रीतिपूर्वक शास्त्रोमा आवता व्याकरण संबंधि सघला प्रकारना प्रयोगो मने शोखावेला तया समजावेला होय, परंतु में मारां अंतःकरणमा अहंकारपाठानो जाव लावीने ते व्याकरण संबंधि सघला प्रकारना प्रयोगाने अविनयपणाव करीने ग्रहण करेला होय, अने तेम करवायके करीने मने जे कोई अपराध लागेलो होय. ते अपराधना सघना अतिचारोन हुँ पमिक्कमुं छु,
॥तुनहिं चिअनेणं दिलं, मए अविणएणं पमिहि, तस्स मिछामि कम ।। ३ ।। अर्थः- (तुमेहिं के० ) युष्मानिः, एटले हे जगवन् ! श्री आचार्यजी महाराज! अज्यास करावती वेलाये मने विविध प्रकारनां शास्त्रोनो नपरमुजब अत्यास करावतांयकां, एटले श्रुतझान संबंधि विविध प्रकारनो बोध आपतांयकां आपसाहेवे तो (चिअत्तेणं के०) प्रीसा, एटले प्रीतिबके करीने, अर्थात् हे श्री आचार्यजी महाराज ! आ तो मारापर घणा प्रकारनो प्रीतिनाव बतावीने असंत स्नेहपूर्वक (दिहं के०) दत्तं, एटले आपलं वे, अर्थात् शास्त्र संबंधि जूढा यनिहपाना विविध प्रकारना नांगाग्वालु झान, उत्सर्ग तथा अपवादमार्ग सहित शीखावेलु तया प्रतिबोधेनु बे, परंतु (मए के ) मया, एटले में, अर्थात् हुँ तेणे, ( अविणएणं के ) अविनयेन, एटले अविनयबमे करीने, अर्थात् कोइ पण प्रकारनो विनय राख्याविना, एटले हुं घणो विक्षन छ, में घणां शास्त्रोनो अभ्यास करेलो डे, में मारी दृष्टि नीचेयी घणां शास्त्रो कहाड्यांबे, तेमज हुं बहुश्रुत छु, मारा समान शास्त्र संबंधि अनेक प्रकारना रहस्यने जाणनारो आ जगतमां बीजो कोइ नथी, हुँ गोतार्थ छु, श्यादिक रूप अंतःकरणनी अंदर अहंकारपणानो नाव लावीने विनयनो साग करीने (पमिनिअं के ) प्र. तोपिरतं, एटले में ग्रहण करेलुं होय, अर्यात् विनयने बोकीने जो ते सघळु में ग्रहण करेलुं होय, ( तस्स के0 ) तस्य, एटले तेनो, अर्थात् ते संबंधि, एटले जेनुं पर वर्णन करवामां आव्यु ले, तेवा प्रकारना कोई पण अपराध संबंधि मने जे कोइ प्रकारनो अतिचार लागेलो होय, ते संबंधि मारूं (मिडामि हक्क के0) मिय्या मे दुष्कृतं, एटले मारुं दुष्कृत मिथ्या थान. अर्थात् में जे कंई सकार्य कयु होय, अने ते संबंधि अपराध यवायी जे को अतिचार मने लागेलो दोय, ते सघलानी हुं
| ॥१३॥
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मूत्र
____ साधु
प्रतिः
प्रथः
॥३३॥
माफी मागु हुं. एवीरीते क्षमाश्रमण एवा श्री आचार्यजी महाराजप्रतेनुं शिष्य तरफनु बचन जाणq. एवीरीतर्नु शिष्य वि. माली मार नयें करोने युक्त एवं वचन सांजलीने हवे श्री क्रमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज शिष्यना धर्मपरिणामना ज्ञावनी वृद्धि | थवामाटे कहे . शुं कहे . तो के,
॥ आपरियसंतियं, (इतिगुरुवचनं.)॥ अर्थः-(आयरियसंतियं के०) आचार्यसक्तं, एटले ते सघलु आचार्यजी महाराजने आधिन ने, अर्यात् ते श्रुत ज्ञान संबंधि सघलो नाग पूर्वे यगयेला महादानी, तथा भ्रतरूपी सागरना पारगाम अने महागीतार्थ पवा श्री आचार्यजी म राजोए रचेलो बे, तेमां कंई मारा स्वाधिननी वात नयी; आवीरीतर्नु गुरुनु बोलवू शामाटे थयुं? तो के, अहंकार संबंधि पो. ताना जाबने तजवा माटे, तया पोताना गुरु एवा पूर्वाचार्योप्रते नक्ति संबंधि जाव प्रगट करवा माटे गुरु तरफनुं वचन जाण. (इतिगुरुवचनं के0 ) एवीरीते गुरु संबंधि वचन जाणवू. अर्थात् एवीरीतर्नु शिष्यप्रतेनुं गुरु संबंधि वचन जाणवू. हवे एवीरीते जे शिदाने ग्रहण करेली बे, तेमाटे असंत अनुग्रहने धारण करता एवा मुनिमहाराजो कहे जे. एवीरीते बीजां परकीखामणानो अर्थ समाप्त ययो.
॥ हवे चोया परकीखामणानो अर्थ कहे .॥ ॥ इन्चामि खमासमणो अहमपुवाई कयाइं च मे किश्कम्माई॥ अर्यः-(खमासमणो के०) हे क्षमाश्रमण ! एटले हे क्षमाश्रमण ! अर्यात् हे दमारूपी महान् गुणने धारणा करनारा एवा श्री आचार्यजी महाराज! एटले हे श्री गुरुजी महाराज! (वामि के0) चामि, एटले ह इच्छं छ. अर्थात् हूं मारां मनमां एवीरीतमी अजिलापा धरायु टुं. केवीरीतनी हूं मारां मनमो अजिलापा धरावु छ ! तो के. (अहं के0) अहं एटले हुँ अर्थात् आ पाक्षिक संबंधि विनयने मूवनार एवां हामणक करवाने नद्यमबंत थयेलो एवा जे हूं. ते (मे के0 ) मया, ए
| ॥२३६॥ टले में, अर्यात् मारावके करीने, ( अपुवाई के0) अपूर्वाणि, एटले अपूर्व एवां, अर्थात् पूर्वकालमा नही करेला एवां, एट ले जविप्यत कालनो मंबंध धरावनारां, एवां जे कृतिकर्मो, एटले वैयावह विगेरेनां तेरूपज कृतिकमों, ते करवाने इच्छु छु.
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साधु
प्रतिष्
२३७॥
वी हुं वांकृतिक करवाने इच्छु छु? तो के, (च के० ) च, एटले वली ( कयाई किश्कम्माई के० ) कृतानि कृतिकर्माणि एटले करेलां एवां कृतिकर्मों करवाने पण हुं इच्छं छं. अर्थात् पूर्व कालमां करेलां एवां हे आचार्यजी महाराज! आपalteras fart करारूप जे कृतिकर्मी, ते करवाने हुं इच्छं हुं हवे ते कृतिकर्मो केवीरीते करवाने हुं इच्छु छु? तो के,
॥ श्रायारमंतरे, विणयमंतरे ॥
अर्थ:-(आयारमंतरे के० ) याचारांतरे, एटले आ आचारांतरना विषयमा हुं कृतिकम करवाने इच्छु छु. अर्थात् ज्ञानाचार आदिकनी क्रिया नही करते ते मने जे कई अपराध लागेलो होय, ते अपराध संबंधि हुं कमा मागुलुं एटले ज्ञानाचार संबंधि क्रिया न करवाथी मने जे अपराध लागेलो बे, ते अपराध माटे हुं क्षमा याचुं हुं तेमज दर्शनाचार संबंधि क्रिया नही करवा करीने मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो बे, ते अतिचार संबंधि पण माफी मागुं छं. वली तेमज चारित्राचार सं कोण प्रकार क्रिया नही करवावमे करीने मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, तेना संबंधां पण हुं क्षमा या चुं हुं तेमज वीर्याचार संबंधि घणा प्रकारनी क्रिया न करवावमे करीने मारा आत्माने जे कंइ अतिचार लागेलो होय, तेना संबंध पण हुं माफी मागुं कुं. एवीरी झानाचार व्यादिक पांचे मकारना आचारो संबंधि कोइ पण प्रकारनी क्रिया नदी करवा करीने मने जे कोइ प्रतिचार लागेलो होय, ते अतिचार संबंधि हुं दमा मागुं लुं.
(विमंतरे के ) विनयांतरे, एटले विनयांतरना विषयमा पण हुं कृतिकर्म करवाने इच्छं छं. अर्थात् विनयनो विछेद करवाथ, अथवा श्री गुरुमहाराजे बतावेला विनयमार्गने अंगीकार न करवावमे करीने मने जे कोइ अपराध लागेलो होय, अने ते अपराधना संबंधां मने जे कोइ अतिचार लागेलो होय, ते अतिचार संबंधि हुं मारा खरां अंतःकरणपूर्वक माफी मागुं हुं. हवे हे श्री आचार्यजी महाराज ! आपसादेवे मारापर केवा केवा उपकार करेला है? तो के,
॥ सेदिन, सेहाविन, संगहिन, नवग्गहिन, सारिनु, वारिन ॥
अर्थ : - (सेहिन के० ) शिक्षितः, एटले हे श्री क्षमाश्रमण एवा प्राचार्यजी महाराज ! आपसाहेवे तो मने शीखाव्यांठे, ara है श्री गुरुदाराज ! पसाहेवें पोतेज मने सर्व प्रकारनी शिक्षा ग्रहण करावेली ठे. अथवा (सिदिन के० ) सिद्धि
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सूत्र
अर्थः
॥१३७॥
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साधु प्रति
अर्थ:
॥२३॥
तः, एटले मने कुशल करेलो ने, शमां कुशल करेलो ! तो के, आचारविशेप तथा विनयविशेषन विषे हे श्री प्राचार्यजी म. || मूत्र हाराज! आपसाहेवे मने कुशल करेलो . वली हे श्री क्रमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज! आपसाहेबे मने केवो करेलो बे! तो के, (सेहाविन के ) शिदापितः, एटले मने बीजाननी पासे नत्तम नत्तम प्रकारनी शिखामणो अपावेली ले. अर्थात् नपाध्याय आदिकोने कहीने विविध प्रकारनां शास्त्रो संबंधि नत्तम प्रकारचें ज्ञान मने अपविलुं वे. अथवा (सेहाविन के0) सेधापितः, एटले मने शास्त्रो संबंधि ज्ञानमां कुशल करावेलो डे, तेमज सर्व प्रकारनां आचार आदिकना नत्तम बोधने विषे, अने विनय आदिकने विपे पण मने कुशल करावी आप्यो डे.
वली हे श्री क्षमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज! आपसाहेबे मारामते शुं कयु ? तो के, (संगहिन के ) संग्रहितः, एटले मने सम्यक्प्रकारे आपसाहेवे ग्रहण करेलो ; अर्थात् हे श्री गुरुमहाराज! आपसाहेवे मने शिष्यपणावमे करीने ग्रहण करीने मारापर असंत नपकार करवारूप मने घणीज सारीरीते आश्रय आपेलो डे. वली हे श्री क्षमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज! आपसाहेवे मारापर शुं शुं उपकार करेलो ! तो के, (नवग्गहिन के0) नपग्रहीतः, एटले मारापर प्रापसाहेबे असंत प्रीतिनाव बताथीने, मारी घणीजरीतें आसना वासना करेली ने, अर्थात् मने खप पम्तां एवां वस्त्र पात्र आ. दिको संबंधि साधनो पूरां पामीने मारापर असंत प्रीतिनाव देखामतांयकां आपसाहेबे घणोज नपकार करेलो . वली आपसाहेवे मारा उपर केवो केवो उपकार करेलो ! तो के, (सारिन के ) सारितः, एटले मारी सारणा वारणा करेली डे, अर्यात् हे श्री क्षमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज! आपसाहेवें मारी घणोज सारसंजाल करेली बे; एटले जे मार्ग ग्रहण करवावके करीने मारा आत्मा सर्वथाप्रकारे हित थाय, तेवा मार्गमा मारुं प्रवर्तन कराववा माटे आपसाहेवे घणोज प्रयास लीधेलो ले. अयवा (सारित के0 ) स्मारितः, एटले मने आपसाहेधे स्मरण करावेलु डे, हवे शी बाबतनुं आपसाहेवे मने स्मरण करावेलुं . तो के, आ कार्य मारे करवालायक ले के नही, अथवा आ अमु
॥२३॥ क प्रकारचें कार्य करवावमे करीने तेनुं परिणाम सुखदाइ नापनसे ? के दुःखदाइ नीपजसे ? इसादिक बाबतोर्नु स्मरण करा. वीने मने आपसाहेवे हितकारी मार्गमा प्रवत वेला ने. वली हे क्रमाश्रमण एवा श्री आचार्यजी महाराज ! आपसाहेवे मारा पर शुं शुं नपकार करेलो ! तो के, (यारिन के०) वारितः, एटले आपसाहेवे मने निवारण करेलो ने, अर्थात् जेयी क
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अर्थः
॥२३॥
साधु
रीने मारा आत्मानु अहित याय, एवा मार्गमां जो हु प्रवत. तो तेवा अहितकारी मार्गमां मने नही प्रवर्त्तवामाटे घणुं समजा प्रतिक| वीने ते मार्गमा प्रवर्त्तवा माटे मने आपसाहेवे अटकावेलो . अर्यात् अहितकारी मार्ग ठोमावीने मने हितकारी मार्ग देखा.
मीने ते मार्गमा प्रवर्ताववा माटे आपसाहेवे मने समजावधानो घणो प्रयान लीधेलो . वली हे आचार्यजी महाराज! आप. साहेवे मारापर शो शो नपकार करलो बे? ते हं नीचेप्रमाणे आपसाहेवनी पासे निवेदन करु छं.
॥ चोश्न पमिश्न, चिअत्ता मे पमिचोयला, अनुठिनहं ॥ __ अर्थ:-(चोश्न के0) चोदितः, एटले हे श्री क्रमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज! आपसाहेवे मारामते प्रेरणा करेली . अर्थात् नत्तम उत्तम प्रकारनी विविध जातनी मने शिखामणो आपीने आपसादेवे मारामते प्रेरणा करेली . एटले जे जे वखते संयम संबंधि मनवचन अने कायाना योगोमां ज्यारे हुं स्खल ना पामतो, सारे आपसादेव मारापर कृपा लावीने मारा आत्माना हित माटे एवीरीते मने समजावता के, तमोने आवोरीते करवू युक्त नथी, केमके तेवीरीतना आचरणमा प्रव
वावमे करोने तमारां संयमरूपी जीवितव्यनी हानि थाय बे, मोटे दोप रहित एवा श्री अरिहंत प्रभुए प्रवत्तीवेला संयम मार्गमां तमारे प्रवृत्ति करवी लायक डे, श्यादिकरूप मने हितकार शिखामणो आपीने हे श्री गुरुमहाराज! आपसाहेवे शुरू मार्गमा प्रवर्त्तवा माटे माराप्रने प्रेरणा करेली ले. वली आपसाहेवे माराप्रते नपरकार करेलो ? तो के, (पमिचोइन के०) प्रति चोदितः, एटले वारंवार प्रेरणा पण आपसाहेवे माराप्रते करेली ले. अर्थात् ज्यारे संयम मार्गमां हुं स्खलना पामुं सारे फक्त एक वखतज ते माटे शिखामण आपीने श्रापसाहेब अटकी गयेला नधी, परंतु ते माटे मने वारंवार शिखामण आपवारूप प्रेरणा करीने, तया संयमथी पमता एवा मने पोताने बचावीने हे श्री आचार्यजी महाराज! आपसाहेवे मारा नपर परम् नपकार करेलो बे.
वली हे श्री क्षमाश्रमण एवा श्री आचार्यजी महाराज ! (मे के0) मे, एटले मारामते आपसाहेबे करेली जे (पमिचोयणा के) प्रति चोदना, एटले वारंवार प्रेरणा, अर्थात् जेन नपर वर्णन करवामां आवेलं , एवी मने संयमरूपीनारथी पम्तो बचाववामाटे वारंवार प्रेरणा करेली डे, हवे ते प्रेरणा आपसाहेवें माराप्रते केवा प्रकारथो करेली . तो के, (चियत्ता के ) प्रीया एटले प्रीतिबके करीने आपसाहेबे मारावते वारंवार प्रेरणा करेली . अर्यात गुरुपणानुं अनिमान लावीने
| ॥३
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श्रापमाहे मारामते कंई प्रेरणा करेली नयी, परंतु मारामते असंत प्रीतिजाव बतावीने आपसाहेबे मारा प्रात्माना फक्त हि
तमादेज मने वारंवार प्रेरणा करेली . अने एवीरीते नपर वर्णन करवामुजब आपसाहेबे मारापर परमनपकार करेलो ने, अप्रति
ने तेटला माटे ( अहं के') अहं, एटले हूं (अनुहिन के ) अच्युत्यितः, एटले उपस्थित थयेलो हूं. अर्थात् हुँ तैयार थये
| लो हूं. एटले हे श्री माश्रमण एवा श्री आचार्यजी महाराज! आपसाहेवे मारा नपर जे परम उपकार करेला उ, तमाट ॥२०॥
आपसाहेबनो नपकार मानवाने हुँ नद्यमवंत ययेलो छ. बली हे श्री क्षमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज! आपसाहेवनी कृपाथी मने शुं फल मलशे? तो के,
॥ तपहं तव ते अनिरीएइमानचानरंतसंसारकांतारानुसाहट्ट निलरिस्लामि॥ अर्थः- ( तुमहं के ) युग्मन्यं, एटले हे श्री क्षमाश्रमण एवा प्राचार्यजी महाराज! आपसाहेवनी समीपें हुं नद्यमवंत थयेलो छ. वली हे श्री गुरुमहाराज ! (तब के0 ) तब, एटले तमारी, अर्थात् आपसाहेबनी, अथवा ( तवतेअसिरीए के) तपस्तेजः श्रया, एटले आपसाहेबना तपग तेजरूपी सहनीवमे करोने, अर्थात् हेतुलन एवी आपसाहेबनी प्रत्नावरूपी संपदावो करोन, ( इमान के) इतः, एटले आ, अर्थात् आ प्रसद एवा (चानरंतसंसारकांतारान के०) चातुरंतसंसारकांतारतः एटले चार गतिरूप जे संसार, तेरूपी कांतार एटले जे अरण्य, तेयकी. हवे ते संसारनी चार गति कर कई ले ? ते कहे . पेहेली नरकगति, एटले असत घोर पाप करनारा प्राणी जेमा जश्ने नत्पन्न थाय डे, एवी जे गति, तेरूप पेहेली नरकगति जाणवी. बोजा तिर्यंचगति, एटले तेथी कंक बां पापो करवायी प्राणोनने आ संसारमा जे पशुपक्षी रूपे अवतार धारण करवो पो , तेरूप तिर्यंचगति जाणवते. बीजो मनुष्यगतिरूप गति जाणवी. तथा चोयी देवगतिरूप गति जाणवी, एवीरोतनी चार गतिरूप जे संसार, तेरूपी वनमांयी (साहट्टु के0) संहृस, एटले संहरीने, अर्यात् कपायो तथा यिोना योगादिकोवमे करीने विस्तारने प्राप्त ययेला एवा आत्माने संकेपीने (निरिस्तामिक) निस्तारप्यामि, एटले हुँ निस्तार पामीश. अर्गत् जेनुं विस्तारथी नपर वर्णन करवामां आव्यु , एवा दरकगति, नियंचगति, मनुष्यगति, तया देवगतिरूप आ संसाररूपी समुयी हुं पार पामीश. एटले आ संसार संबंधि जन्म, जरा अने मृत्युरूपी अनादि कालनां दुःखोयी मुक्त यश्ने अ यमुख हुँ मेलवीश. अर्थात् मोदरूपी शाश्वतुं सुख पामीश.
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साधु মনি
सूत्र अर्थः
॥२४॥
॥तिकद्द सिरसा मणसा मत्याण वंदामि ॥ अर्थः-(तिकट्टु के0 ) इतिकृत्वा, एटले एम करीने (सिरसा के०) शिरसा, एटले मस्तके करीने, अर्थात् मारां मस्त। कवमे कराने हे श्रीदमाश्रमण एटले एवा श्री आचार्यजी महाराज ! हुं आपसाहेबने वंदन करुं हुं. वली हुं शावके करीने आपसाहेबने वंदन करूं छु? तो के, ( मणसा के० ) मनसा, एटले मनवमे करीने हुँ आपसाहेबने वंदन करूं छु. अर्थात् मारां अंतःकरणवमे करीने हे श्री क्षमाश्रमण एवा श्री आचार्यजी महाराज! आपसाहेबने (मजएण के0 ) मस्तकेन, एटले मारां मस्तकवके करीने ( वंदामि के0 ) वंदामि, एटले हुं वांउं छु. अर्थात् हे श्री दमाश्रमण एवा आचार्यजी महाराज ! हुं आपसाहेबने वंदन करूं छु. एवीरीते असंत विनयथी जरेलुं शिष्यतुं श्री आचार्यजी महाराजप्रतेनुं वचन जाणवू. वली एवीरीन शिष्य तरफनु असंत विनययी युक्त ययेनुं वचन श्रवण करीने कमाश्रमण एवा श्री आचार्यजी महाराज पण शिष्यना मनने असंत प्रफुल्लित करवामाटे तया तेना धर्मप्रसेना नत्तम नावनी वृद्धि यवामाटे कहे . हवे ते श्री आचार्यजी महाराज शें कहे ? ते कदे .
॥ नित्यारगा पारगा होह ॥ इति गुरुवचनं ॥ अर्थः-(नित्यारगा के0 ) निस्तारकाः, एटले हे शिष्य! तमे निस्तारकाथान ? अर्थात् श्रा संसाररूपी समुथी तमो तरनारा यान? वली हे शिष्यो! तमो केवा थान? तो के, (पारगा के0) पारगाः, एटले पारगामी तमो थान? अर्थात् आ चतुर्गतिरूप संसाररूपी समुश्यी पार पहोंचनारा तमो यान? एटले आ दुःखरूपी संसार थकी मुक्त यश्ने मोक्षरूप मुख पामो (होह के0) जवत, एटले तमो थान? अर्थात् पारगामी थान? ( इतिगुरुवचनं के०) एवीरीते गुरुमहाराजन शिष्यप्रतेनुं वचन जाणवू. ॥ इति श्री पाक्षिकक्षामणकानि अर्थसहितानि समाप्तानि ॥
| ॥२४॥
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साधु
॥ साधुने देवसिक अने रात्रिका प्रतिक्रमणमां अतिचारनी आठ गायाने स्थानके गणवानी एक गाया. ॥
मूत्र अर्थः
मतिक
॥२४॥
। सयणासन्न पाणे, चेश्य जश् सिङ काय नञ्चारे । समिर लावणा गुत्ती, वितहायरणे य
अश्यारो ॥ १॥ अर्थः-(सयण के ) मुवाना संथारा. प्रमखनी पमिलेक्षण करवा विषे. ( आसण के0 ) वेसवाना श्रासन, बाजोट प्र मुखनी पमिलेहण करवा विषे. ( अन्नपाणे के0) असन, पान, खादिम, अने स्वादिम प्रमुख गोचरीना शमतालीश दोष टालवा विपे. (चेश्य के0 ) अहोरात्रमा सात चैसवंदन करवा विषे. ( जइ के0 ) गुरु आदिक यतिनी नक्ति वैयावच करवा विपे. ( सिद्य के0) शय्या, वसति, नपाश्रय, प्रमार्जवा विषे. ( काय के ) स्त्री आदिकथी युक्त स्थानने विषे रहेवा वीपे (नचारे के0 ) लघुनीत कमीनीति परउववानी विधिने विषे. ( समिई के0) र्यादिक पांच समिति पालवा विषे. (नावणा के०) अनिसादिक बार जावना तथा पंच महाव्रतनो पच्चोश नावना जाववाने विषे. ( गुत्ती के ) त्रण गुप्ति पालवा अथवा गो. परवाने विषे. ( वितहा के०) विपरितपणे ( यरणेय के ) आचरवाथकी अथवा अंगीकार करवाथकी. ( अईयारो के ) अतिचार होय, एटले छानादिक आत्मगुण मलिन थाय, ते अतिचारथी महारी आत्माना जे झानादिक गुण मलिन यया होय, ते मिथ्या था. ॥१॥ . आ गाया गणतां तेमां कहेल बावतो संबंधि जे कांइ अतिजार लागला होय, ते साधुए संजारीने याद करवा. सामान्य साधु करतां गुरुने अस्प व्यापार होवायी गुरुए वेवार आ गाया अर्थ सहित विचारवी.
॥२४॥
॥ पमिलेदणनी विधि (सवारनी)॥ ॥ इरियावही पमिक्कमी, खमासमण देश, इलाकारेण संदिसह जगवन् पमिलेहण कर ? एम कही आदेश माग 'इहुँ' कही मुहपत्ति ५० बोलयो, नघो १० बोलयी, कटासणुं २५ बोलयो, मूत्रनो कंदोगे १० बोलयी अने चोळपट्टो २५
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साधु प्रति
अर्थः
२४३॥
बोलथी पमिलेहबो. पली इरियावही पक्किमो खमासमण दइ " चकारी जगवन् पताय करी पमिले हणा पमिलेहावोजी" एम कह। स्यापनाचार्यन। पमिलेहणा करे ते आ प्रमाणे
॥प्रयम खनानी कामली पमिलेही संकेलीने तेना नपर स्थापनाचार्य मुके. पो तेने बोमा प्रयम नपरनी एक मुदपत्ति पमिलेहे पनी "शुस्वरुपना धारकगुरु, ज्ञानमयी, दर्शनमयी, चारित्रमयी, शुभकामय. शुक्ष्प्ररुपणामय शुरु स्पर्शनामय पर चार पाले, पलावे, अनुमोदे, मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, ए गुप्ता" या प्रमाणेना तेर बोल बोली रांचे स्थापनाजीनी पृ. थक् पृथक् पमिलेहणा करे. पनी स्थापनाजी संबंधि बीजी मुहपत्तिन पहिलेदे. (सांजनी पमिलेहण वखत पहेला स्थापनाजीनी बधी मुहपत्तिन पमिलेहीने पठी स्यापनाजी पमिलेहे.) पनी स्थापनाजी बांधी ग्वर्ण। नपर पधरावी. खमासमाण देश
वा नपधि मुहपत्ति पमिलेहुं ? कही मुहपत्ति पमिलेही. खमा0 श्वा० नुपधि संदिसाहुं ? श्वं, खमा० श्वा० नपधि पमिलहूं? . कही बाकीना सर्व वस्त्रो पमिलेहवा. बेवटे मामो पमिलेहवो. पनी मासण लेइ, पमिलेही, इरियावही पनि कमी, काजो लेवो. पनी रियावही पमिक्कमी, काजो परम्ववो, पनी इरियावही पमिक्कमी, खमासमा देश, इला सहाय करूं? वं कही एक नवकार गण नीचेमुजब "धम्मोमंगलमुक्किह" नी सहाय कहे.
॥अथ धम्मोमंगलमुकिलुनी सजाय ॥ ॥ धम्मो मंगलमुक्किट, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥
अर्थः-(अहिंसा के0) प्राणातिपातविरनि अर्थात् सर्वे जीवोनी हिंसा न करवी ते, तथा ( संजमो के0) संयमः, एटले आश्रवनिरोध ते पांचे इंडियनो निग्रह, चार कपायनो जय अने त्रण दमयी विरति ए सत्तरप्रकारनो संयम, अने (तवो के) तपः एटले " अणमणमूणोयरिया" श्यादि बे गाथामां कहेलुं वार प्रकारनुं तप ए रूप (धम्मो के ) धर्मः एटले कुगतिने प्राप्त यनाराजीवोने धरोने सन्मार्ग पहोंचामे ते धर्म ते ( मंगलमुक्किठं के) नत्कृष्ट मंगलं, एटले सर्व मंगलमां नत्कृष्ट मंगल ले. ए धर्मने नत्कृष्ट मंगल कहेवानुं कारण कहे ले के, ( जस्स के0 ) यस्य एटले एटले जे पुरुषy ( धम्मे के0 ) धर्मे एटले पूवोक्त वीतरागजाषित धर्मने विप (सया के०) सदा एटले निरंतर (मणो के0) मनः एटले मन जे. ( तं के ) तं एटले ते पु
॥४॥
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ना
saan
रुपने (देवा विके0 ) देवा अपि एटले जवनपति वाणव्यतर ज्योतिपी अने वैमानिक ए चार निकायना देवता पण (न
संति के0) नमस्यंति एटले नमस्कार करे ले, तो रानादिक नमस्कार करे, तेमां तो शीज नवाइ? अर्थात् धर्म जे जे, ते नत्कृष्ट मंगल डे एम सिह थयु. ॥ १॥ !! जहा कुमस्त पुप्फेसु, नमरो आविया रसं ॥ य पुप्फ किलामे, सोअ पीणे अप्पयं ॥२॥
अर्थ:--हवे एना उत्कृष्ट मंगलरूप धर्मने पाते अतिचारपणे पालन करनारा एवा साधुने आहारनी शुदि जोश्ये, माटे ते दृष्टांतपूर्वक कहे . ( जहा के0) यया, एटले जेम (जमरो के० ) चमरः, एटले चमर ( दुमस्स पुप्फेम के0) द्रुमस्य पु. पेतु एटले वृदना फूसोनेविषे, (रसं के0) पुष्पमहिलां मकरंदने (आविय के0) आपिबति, आ एटले मर्यादायें करी यामो योमो पिचति एटले पीये डे, आस्वादे . पण ते चमर (पुर्फ के ) पुष्पं, एटले ते फूलने ( न य किलामे के0) नन क्लामयति, एटले पीमा आपतो नया. अहीं चकार जे बे, ते पादपूरणार्थ . अने वली ( सो य के ) स च, एटले ते चमर, ( अप्पयं के0) आत्मानं, एटले पोताना आत्माने (पीणे के0 ) प्रीणयति, एटले तृप्त करे बे. ॥॥ । एमए समणा मुत्ता, जे लाए संति सादुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणन्नतेसणे रया ॥ ३ ॥
अर्थः- हवे दार्टीतिक कहे . ( एमए के0 ) एवमेते, एटले एवीरीतें ( मुत्ता के0) मुक्ताः एटले धनधान्यादिक नवविव बाह्य परिग्रह, अने चनद प्रकारना अत्यंतर परिग्रह जेमणे मुक्यो डे, एवा ( समणा के0 ) श्रमणाः, एटले अनेरात. तपस्वी पण (जे के0) ये, एटले जे (लोए के) लोके, एटले अढीवीपमां ( साहुणो के0) साधवः, एटले साधु चारित्रिया उ. ते सर्व ( विहंगमाव पुफेसु के) विहंगमा व पुष्पेषु, एटले पुष्पने विषे जेम चमर वर्ते , तेवीरीने (दाणतत्तेसो रया के०) दानजक्तैषणे रताः, एटले दाताए दीधेला अने प्रामुक एवाज आहार आदिकनी गवेषणाने विषे रत एवा दे. अहीं वृदपुष्प सरखा गृहस्य जाणवा. अने चमर सरखा साधु जाणवा. तो पण साधु बे, ते अदत अने अनेपणीय पदार्थ : ॥an लेता नथो. ए चमरथी साधुन विशेषपणं . ॥ ३ ॥
॥ वयं च विनिं लनामो, नय कोश नवहम्म ॥ अहागमेसु रीयंते, पुप्फेसु नमरां जहा ॥४॥
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अर्थः
अर्थः-अहिं कोइ केहशे के, "दाणलत्तेमणेरया" जो एमज ने तो श्रावकलोको जक्तिथी आकृष्टचित्त थने ते सापतिल धुनने आधाकर्मादि दोषयुक्त दान आपे, अने जो साधु लीये तो जीवहिंसा थाय. अने जो न लीये तो स्वदेहy धारण था
य नही, तो सां कहे डे. (वयं च के0 ) अमे अहीं चकार जे , ते पादपूरणार्थ ले. (वित्ति के0 ) वृत्ति गटले आहारादि॥२५॥
क वृत्तिने (लमामो के0 ) लप्स्यामः एटले तेवी रीतें पामध्रु. के जेम ( कोई के० ) कश्चित् एटले बक्काय जीवयोनिमांहे को
पण जीव (णा य नवहम्मइ के0) न च उपहन्यते, एटले विराधित थाय नही, संघट्टनादि पीमा पामे नही. एम साधु चिंतवे. एतावता शुं सिह थयु के, साधु जे जे, ते (पुप्फेसु जमरा जहा के0 ) पुष्पेषु चमरा यथा, एटले पुष्पने विषे जेम ब. मरो वर्ने बे, तेम (अहागमेसु के० ) यथाकृतेषु, एटले ग्रहस्थ लोको पोताने माटे करेला आहारादिकने विपे र्यासमिति आदि पाळतायका (रीयंते के० ) गचंति, एटले जाय बे, अर्थात् विचरे बे. ॥४॥ ॥ मदुगारसमा बुझ । जे नवंति अणिस्सिया ॥ नाणामिरया दंता । तेस वुचंति साहु
यो । निबेमि ॥५॥ il अर्थः-पूर्वोक्तरीते ( महगारसमा के0) मधुकारसमाः, एटले चमर सरखा (बुझा के0) धर्माधर्मादि तत्वना जाण, त
था (जे के०) ये, एटले जे ( अणिस्सिया के ) अनिश्रिताः, एटले कुलादिकना प्रतिबंधयी रहित, अर्थात् साधुए एम नही कहे, के, हुं अमुकनाज घरनो आहार लेश, अथवा एज जालनो आहार लेश्श. तथा ज्ञात कुलने विषे पण आहारलीये नही, अथवा शाख जणावी धर्मोपदेश करी तेने घेर आहार लीये नही. कारण के, एम करे तो ते गृहस्थ उपकारी जाणीने सरस अने मधुर आहार आपे, तेथी अमाशुक, तथा आधाकर्मथी अने उपदेशकपणे आहार लेवानो दोष लागे, माटे जे ठेकाणे पोताने कोजाणे नही, एवा अझात कुलने विषे नीरस निस्तेज, एवो आहार साधु सीए. तथा (नानापिमरया के) नानापिमरताः, एटले माशुक आहार जे लेवानो ते एक ठेकाणेथी न लेतां अनेक घरना जे नानामि ते विविध प्रकारना अन्नना ग्रासो तेने विषे रक्त एटले आसक्त, अने (दंता के0 ) दांताः, एटले जीती जे पांचे इंडियो जेमणे ए. वा साधु हाय डे, (तेण के०) तेन, एटले ते कारणमाटेज ते (साहुणो के0 ) साध्नुषंति मुक्ति अहिंसादिलिने साधवः, ए
॥३५
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साटले अहिंसादि लक्षण धर्मने निरतिचारपणे पालन करीने जे मुक्तिनु साधन करे , तेमने साधु ए प्रकारे ( वुच्चंति के )नप्रकियेते, एटले कहेवाय . ( तिमि के0 ) मामि, एटले एम हूं तार्यकरना उपदेशथी कहुं छु. एम सङानवाचार्य पोता
ना पुत्र मनकने कहे बे.॥५॥ ॥४६॥
॥ इति प्रातः पमिलेहण विधि.॥
। पमिलेहणविधि ( सांजनी )॥ ॥खमासमण देशवा बह पमिना पोरिसि? कही खमासमण देशरियावही पमिक्कमी खमासमण देश हा पमिलेहेण करूं? इथं खमा श्वा वस्ती प्रमाणु ? कही नपवास कर्यो होय तो मुहपत्ति, घोने कटासणुं पमिलेहबु. नहीं नो पूर्ववत्पांचवानां पमिलेहवा. पडी हरियावहीपमिकमीखमासमणदेश, इनकारीनगवन्पसायकरी पमिलेहणा पमिलेहावोजी. हम कही पूर्वोक्त रीते स्थापनाजीनी पमिलेहण करवी. पढी खमा वा उपधि मुहपत्ति पमिलेहूं ? श्वं कही मुहपति पनि सोहि खमाण इला सफाय करूं? श्वं कही एक नवकार गणीने " धम्मो मंगल मुक्किठं" समाय कहे. पनी आदार वापयों होयतो वांदणा देने योग्य पच्चरकाण करे. उपवास कर्यो होयतो खमासमण देश इच्छकारी जगवन् पसाय करी पञ्चरकाणानो आदेश देजोजी, कही पञ्चरकाण करे. पडी खमा इच्छा नपधि संदिसाह इच्छं. खमा० इच्छा0 उपधि पमिलेहूं? इच्छं कही सर्व वस्त्र पमिलेहे. पठी पूर्वोक्तरीतें इरियावही पमिकमी, काजो लेइ, इरियावही पमिक्कमी, काजो परठवे. ॥ इति. ॥
॥पोरिसिविधि.॥ बघमी दिवस चड्या पनी खमासमण श्वा बहू पमिपुन्ना पोरिसि? श्वं कही खमासमण देश इरियावही पमीकमवा, || पडी खमासमण देश हा पहिलेहण करूं? च कही मुहपति पमिलेहवी. इति.
॥४६॥
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साध
॥ पञ्चरकाण पारवानो विधि. ॥ प्रति ॥खमासमण देड, रियावही पमिक्कमी, खमासमण देवश्चा० चैसवंदन करूं? चं कही जगचिंतामणिर्नु चैसवंदन जयवि
जयवि-|| अर्थः | यराय संपुर्ण पर्यः कर. (स्तवन स्थाने नवसग्गहरं कहेवू.) पड़ी खमासमण देश वा सफाय करूं? चं कही एक नव॥३४॥ कार गणी धम्म मुक्किळंनी सकाय कहेवी. पनी खमासमण देश वा मुहपत्ति पमिलेहं? श्वं कहीमुहपत्ति पमिलेहवी.
पली खमा वा सरकाण पारूं?" यथा शक्ति" खमा० इच्छा0 पच्चरकाण पायु. " तहत्ति" कही जमणो हाय मुठी वाली घा नपर: पी एक नवकार गणी आंबिल पर्यंतना पञ्चरकाण नीचे प्रमाणे कहीने पारवां.
"नग्गएरेनमुक्कार सहियं पोरिमि साढपोरिसिं मूरेनग्गए पुरिमढ मुहि सहियं पञ्चरकाण कयु चनविहार ॥ आंबील, नीवी, एकामगुं, वेवासणुं पच्चरकाण कयु तिविहार ॥ पच्चरकाण फासिअं, पालिअं, सोहिरं, तीरिअं, किट्टिअं, आराहिरं जं च न आराहि तस्स मिच्छामि उक्कम. ॥
यामांनुं जे पच्चरकाण कयु होय, सांसुधि बोलवू, आगलनां पञ्चरकाण न बोलवां. तिविहार नपवासवालाए नीचेप्रमाणे कहेवू.
“ मूरे नग्गए पच्चरकाण कयु तिविहार; पाणहार पोरिसि साढपोरिसि पुरिमढ मुति सहिअं पञ्चरकाण कर्यु, पाणहार; पच्चरकाण फासिअं० पूर्ववत्. .
आमां पण पोरिसि विगरे पच्चरकाणना नाम ज्यांसुधिने माटे तिविहार नपवास कयों सां मुधिनां लेवां.
.
॥॥
॥ गोचरीना ७ दोष. ॥ . ॥ साधु साध्वीए आहार पाणी वहोरतां तेना ४५ दोष वर्जवा तथा आहार करतां ममलीना ए दोष वर्जवा, ते आ प्रमाणे-प्रथम नद्गमना एटले आहार नपजवाना संबंधना १६ दोष आ प्रमाणे.- मुनिने मनमां धारीने सचित्तनुं अचित्त करवू, अथवा अचित्तने पकावळ, ते 'आधाकर्मीदोष.' पूर्वे तैयार करेला जात, लामु आदिकने मुनिने नद्देशीने दहीं गो
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साधु সনি
अर्यः
॥४॥
ज विगेरेथी स्वादिष्ट करवा ते उद्देशदोष. १३ शुभ अन्नादिकने आधाकर्मीथी मिश्रित करवू ते 'पूतिकर्मदोष.'४ जे पोताने माटे तथा साधुने माटे प्रथमथीज कस्पीने बनावबुं ते 'मिश्रदोष.' ५ साधुने माटे वीर आदिक जूदां करी पोताना नाजनमा स्थापी राखवां ते ' स्थापितदोष.' ६ विवाहादिकने विलंघ बतां साधुने रहेला जाणी तेमनो लाज मलवा माटे ते वखतांज विवाहादि करवा ते 'पाहुमीदोष' अंधकारमा रहेली वस्तुने दीया आदिकथी शोधी लावी साधुने आपवी ते 'प्रादुःकरण दोप.' साधुने माटे किंमत आपीने खरीद करवु वे 'क्रीत दोष.' ए साधुने माटे उधारे अन्नादिक ले आवीने आपबुं ते 'मामिसक दोप.' १० पोतानी वस्तु बीजा साथे अदला बदली करीने मुनिने आपवी ते 'परावर्तित दोष' ११ साहमुं लावीने आपQ ते 'अन्याहृत दोप.' १२ कुम्लादिकांथी घी आदिक काढवामाटे तेना मुख उपरथी माटी वगेरे दूर करवू ते 'उन्निन्न दोप.' १३ उपली नुमियी, शींकेथी के जोंगरामांथी लइने साधुने आपq ते 'मालोपहृत दोष.' १५ राजा अथवा चोर जोरावरीथी कोश्नी पासेथी आंचकी लश्ने आपे ते 'आच्छेद्य दोष.'२५ आखी मंगळीए नहीं दीधेलु के नहीं रजा आपेलु तेमांनो एक जण साधुने आपे ते 'अनिसृष्ट दोष.'१६ स्वार्थ बतां पण साधुनु आव, सांजली तेने मादे रसवतो प्रमुख वधारे ते ' अध्यवपुरक दोष.' आ सोळ दोष बाहारना देनारथी लागे जे. । हवे साधुयी यता उत्पादनना १६ दोष आ प्रमाणे-गृहस्थना बाळकने दुध पावू. नवराव, शणगार रमामवु तथा खोळामां बेसामवं श्यादि कर्म करवाथो मुनिने 'धात्रीमि' नामे दोष लागे बे. २ दतनी पेठे संदेशो लइ जबाथी साधुने 'दुतिपिंक' नामे दोष लागे . ३ त्रणेकाल संबंधी लाजालान कहेवाथी निमित्तपिंक' नामे दोष लागे . लिका माटे पोताना कुळ, जाति कर्म, शिल्प आदिकना वखाण करवायी 'आजीव पिंक' नामे दोष लागे बे. ब्राह्मण श्रमणादिकना नको पासेथी पोताने पण तेनो नक्त जणावीने निदा लेवी तेथी 'अवनीपिक' नामे दोष लागे . ६ जीक्षामाप्तिमाटे औपधादिक बताववाथो ‘चिकित्सापिस' नामे दोष लागे . ५ निदा माटे पोताना विद्या तप आदिकना प्रत्नाव देखावाथी, पोतार्नु राज्यमानितपणुं जणाववाथी तेमज शोधना फळ बताववाथी 'क्रोपिक' नामे दोष लागे बे. लब्धिनी प्रशंसायी उत्तान ययेला तथा परे अवगणना करेला, गृहस्थानिमानने उत्पन्न करता मुनिने 'मानमि' नामे दोष लागे बे. एनिदामाटे जुदाजुदा वेष तथा जापा बदलवाथो 'मायापिक' नामे दोष लागे बे. १० अतिलोजयो लिदा लेवा माटे घj जटक
|॥४०
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मूत्र
साधु पति
अर्थ
वायी 'लोलपिक' नामे दोष लागे . ११ पहेलां गृहस्थना मावापनी तथा पनी सासु ससरानी प्रशंसा पूर्वक तेमनी साथे पोतानो परिचय जणाव जिदा लेवाथी पूर्वपश्चात् संस्तव ' नामे दोष लागे . १२-१३-१४-१५ लि. माटे विद्या, मंत्र, चूर्ण तथा योगनो नपयोग करवायी विद्यादि पिस' नामे चार दोष लागेले. १६ जिक्षा माटे गर्जनुं स्तजन, गर्जनुं धारण, प्रसव तथा रक्षा बंधनादि कराववाथी' मुळकर्मपिफ' नामे दोष लागे बे.
हवे साधु तथा गृहस्थ बन्नेना संयोगयी नत्पन्न थता एषणाना दश दोष आममाणे.-आधाकर्मादिक दोषनी शंका सहित जे पिंक ग्रहण करवो ते 'शंकितदोष.' सचित्त अथवा अचित्त एवा मधुआदिक निंदनीय पदार्थोना संघट्टवाळो पिक ग्रहण करवो ते 'प्रदिप्त दोष. ' ३ बकायमा स्थापन करेलुं जे अचित्त अन्न पण लेबु ते निक्षिप्त दोष. ' ४ सचित्त फलादिकथी ढंकाएलु जे अन्नादि ग्रहण करवू ते 'पिहित दोप. ' ५ देवाना पात्रमा रहेला पदार्थने बीजा पात्रमा नाखीने ते वासणथी जे देवू ते 'संहृत दोष.' ६ बालक, वृक्ष, नपुंसक, धुजतो, आंधलो, मदोन्मत्त, हाथ पग विनानो, बेमीवाळो, पादुकावाळो, खांसीवाळो अथवा तोमनार, फामनार, कंमक दळनार, गुंजनार, कातरमार, पिंजनार, विगेरे बकायना विराधक, तेमज गर्जिणी, तेमेल बोकरांवाळ), विगेरे पासेथी आहार लेवो ते 'दायफ दोष.' ७ देवालायक जे खांझ आदिक वस्तु तेने सचित्त अनाज आदिकमां मिश्र करीने आपq ते 'नन्मिश्र दोष.' अचित्तपणाने पाम्या विनानुं जे देवु ते 'अपरिणत दोष. ' ए श्लेष्यादिकथी लेपायला वासण के हाथवमे देवु ते लिप्त दोष. १० घी आदिकना जमीन पर बांटा पके तेम वोराव ते 'बार्दत दोष.
हवे ग्रासैषणाचा अर्थात् आहारादि वापरती वखतना पांच दोष आ प्रमाणे.- १ रसना लोनथी पुमला आदिकने अं. दर तथा उपरथी घी खांझ आदिमां ऊबोळवा ते 'संयोजना दोष.' जेटलो आहार करवाथी धीरज, बळ, संयम तथा मन वचन कायाना योगने बाधक न आवे, तेटलो आहार करवो. नपरांत करे तो प्रमाणातिरिक्तता दोष.' ३ स्वादिष्ट अअने अथवा तेना देनारने वखाणतोथको जे जोजन करे ते रागरूपी अमिथी चारित्ररूप काष्टोने बाळीने कोलसारूप करीना| खेडे तेथी ते 'अंगार दोष.' ४ अन्ननी के तेना देनारनी निंदा करतो आहार करे ते पण चारित्ररूप काष्टने बाळे जे तेथी ते 'धूमदोष' ५ मुनिने जोजन करवाना न कारणो बे. १ जुधा वेदना सहन न थबाथी, यहीण साधुनी वैयावच्च माटे, ३
॥श्वर
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साधु
प्रतिष्
॥२५॥
समितिमा ४ संयम पाळवा माटे, ५ जीवितम्यनी रक्षा माटे, तथा ६ ध्यानने स्थिर करवा माटे जोजन करवानी जरुरीयात बे, तेनाजा वे जोजन करे तो ' कारणाजाव' नामे पांचमो दोष लागे.
IT 89 दोष साधु साध्वीए बराबर समजीमे निरंतर ते दोष न लागे, तेम सावधानपणें वर्त
॥ गोचरी आलोववानो विधि ॥
॥ उपर जपावेला दोष टाळी गोचरी लइ यावी, निसिही कहींने उपाश्रयमां प्रवेश करे. गुरुनी सन्मुख यावी " नमो स्वमासमणाणं मला वंदामि " कहे, पछी पग भूमि प्रमार्जी शुद्ध करी गुरु अथवा वकील सन्मुख नजा रही मावा पग नपर मांो राखी जमणा हाथमां मुहपत्ति राखी नजा उजा खमासमा देय. पडी आदेश मार्गी इरियावदी परिक्क्मे, एक लोगस्सनो कानसम्म करे. कानसग्गमां जे क्रमयी गोचरीनी जे ने वस्तुन लीधी होय ते संजारे. तेमां ज्यां ज्यां जे जे दोष लाग्या होय ते पण संजारे. पठी “ नमो अरिहंताणं " कहो काउसग्ग पारी धारी राखेला क्रम प्रमाणे गुरुने कही बतावे. गुरु आहार देखामे. पछी गोचरी आलोवे. ते या प्रमाणे. -
" पक्किमामि गोयरचरित्र्याए " थी मांगी " मिचामि दुक्तमं " पर्यंत ( श्रमणसूत्र ) पगाम सकामां आवे बेते - वो कहे. पी तस्सत्तरी अन्न कही काठसग्गमां नीचेनी माथा जणवार जावे .
॥ अहो जिहिं असावा, वित्ति साहु देसिया | मुरकसाइल हेनस्स, साढु देहस्स धारणा । १ ।
अर्थः- ( अहो के० ) अहो ( जिहिं के० ) जिनैः, एटले श्री जिनेश्वर प्रभुए ( मुस्कसाहण हेनस्स के० ) मोक्षसाधन हेतुकस्य, एटले मोहने साधवा माटे हेतुभूत एवा ( साहुदेहस्स के० ) साघुदेहस्य, एटले मुनिमहाराजना शरीरने ( धारणा ho ) धारण करनारी, एटले आधारभूत एवी (असावा के० ) असावद्या, एटले पापरहितं (वित्ति के० ) वृत्तिः, एटले आजीविका ( साहु के० ) साधूनां, एटले साधुन माठे (देसिया के० ) देशिता. एटले कहेली बे. पी का सग्ग पारीने लोगस्स कहे.
॥ इति. ॥
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सूत्र
अर्थ
॥१२०
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साधु
प्रति०
1942
॥ स्मिल शुद्धिन विधि. ॥
॥ सायंकाले दैवसिक प्रतिक्रमणना प्रारंजमां इरियावही पकिमी, पञ्चरकाण करे पठी मा० इछा स्थंनिल पहिले हु कही मांमला करे ते या प्रमाणे
१ आघामे आसने उच्चारे पासवणे अपाहियासे.
२ आघामे आसने पासवणे, हिया से. ३ आधा म उच्चारे पासवणे अण दियासे.
४ आघामे म पासवणे हिवासे.
५ घामे दूरे उच्चारे पासवणे हियासे.
६ आधा दूरे पासवणे याहियासे.
मला हियासेने बदले ' अहियासे ' कहेवुं. सार पक्षी बीजा बारमां 'आषामे' बदले घामे क हेनुं. बाकी नयर प्रमाणेज कहेतुं. एकंदर २४ मांमला करवा.
पढी इरियाही पकिमी, चैसवंदन करी परिक्कमणुं शरु करे. ॥ इति. ॥
॥ संथारा पोरिसीनी विधि. ॥
रात्रे पहर रात्रि पर्यंत सजाय ध्यान कर्यापठी संथारो करवाने अवसरे स्वमा० इडा० ' बहु परिपुन्ना पोरिसि ' कही मासमा देश इरियाही पक्किमे पढी खमा० इच्छा० " बहु परिपुन्ना पोरिसि राज्य संथाराए ठाउं ? " एम कही चक्कसायनं चैवंदन जयवियराय पर्यंत करे पछी खमा० वा० संथारा विधि जावा मुहपति पहिलेहु ? इवं कही मुहपत्ति प मिलेने 'निसिद्दी निसी नमो खमासमणाएं गोयमाणं महामुणीणं ' आटलो पाठ, नवकार तथा करे मिजंते-एटलुं त्रवार कहे. पी संथारा पोरिसि बोले. ते ( प्रतिक्रमणानी बुकमां उपावेल बे. )
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सूत्र
अर्थः
॥१५॥
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माधु || तेमां चौदमी गाया प्रणवार कहेवी. पड़ी त्रण नवकार गणवा, पनी नेली त्रण गाथा कहेवी. सारवाद निश न आवे, || सूत्र || मांमुधि सफाय ध्यान कर. ॥ इति. ॥
अर्थ
प्रतिक
॥२५॥
॥पातिक प्रतिक्रमणमां कोस्ने क पावेतो करवानो विधि.॥ जो पाक्तिक अतिचार अगान बॉक आवे तो इरियावहीथी मांझीने प्रारंथी सर्व फरीने करवं. सारपडीकृशांति' मुधिमां आवे तो 'उरकरकन 'नो कानसग्ग कर्या अगान रियावही पमिक्कमी लोगस्स कही खमासमण देश् श्वा० शेपश्व उहमावणार्थ कानसग्ग करूं? इच्छं कहो अनत कही चार लोगस्तनो कानसग्ग 'सागरवर गंजिरा' मुधि करवो, ते नी. चेनी गाथा कहीने पारवो.
॥ सर्वे यहांबिकाद्या ये, वैयावृत्यकरा जिने ॥ कुशेपश्ध संघातं, ते द्रुतं शवयंतु नः ॥१॥
अर्थः-(यदांबिकाद्याः के० ) यद अने अंबिकाआदिक के, (ये के0 )जे (जिने के0) जिनशासनमां (वैयावृत्यकराः के0 ) वैयावच्च करनारा बे (ते सर्वे के0 ) ते सघला (नः के0 ) अमारा (सुशेपश्वसंघात के0) कुश नपश्चोना समूहने (द्रुतं के०) तुरत (घावयंतु के0) नाश करो! ॥१॥
वडी प्रगट लोगस्स कहेयो.
॥ मासे कानस्सग्ग करवानो विधि ॥ चैत्र मुदि ११-१२-२३ तथा, आसो मुदि -११-१२-१३ ए त्रण प्रण दिवसोए दररोज देवसिक प्रक्रिमणमा सजकाय | कह्यापली आ कानस्सग्ग करवो. प्रथम खमासमण देव श्वासचित्तचित्त रज रहामावणीणवं कानस्संगावं करेमि काठस्सग्गं अन्ननुकही चार लोगस्सनो सागरवर गंजिरा' मुधि कानस्सग करवो. पारीने लोगस्स कहेवो.
॥३५३
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साधु
॥ लोच करवाना प्रारंनमा कानस्सग्ग करवानो विधि, ।। प्रति लोच करवो होय ते दिवसे लोच कर्या अगान इरियावही पमिक्कमी खमा० श्वा० सचित्तचित्त रज महामावणी अर्थः
कानस्सग करूं? श्वं करेमि कानस्मग्गं अन्नब कही चार लोगस्सनो कानस्सग्ग “सागरवर गंजिरा" मुधी करवो. पारी॥२५॥ ने प्रगट लोगस्स कहेवो.
॥ को साधु काल करे त्यारे साधुने करवानो विधि. ।। जे साधुए काळ को होय तेनी पासे आवी एक साधु आ प्रमाणे कहे.-" कोटिकगण, वज्रोशाखा, चंकुळ, (आचार्य श्री जिननक्तिमूरि) विजयसिंहमूरि, नपाध्यायजी (श्रीकमाकल्याणकजो) सकळचंदजी, स्थवीर श्री गौतम, महत्तरा श्री चंदनबाला, अमुक मुनिना शिष्य (मुनि ) महा पारिगवणीआ करेमि कानस्सगं." अन्नब कही एक नवकारनो कानस्सग्ग करी पारीने प्रगट नवकार कहे. पडीत्रणवार 'बोसिरे' कहे. पनी श्रावक संस्कार करवा लइ जाय. सारपबी जीर्ण काचली प्रमुख लांजीए. जीर्ण वस्त्र परवीए. अबोट अचित्त पाणीए नूमिशुदि हस्तपाद शुक्षि करीए. पनी श्रावक पासे गोमूत्रादि बंटावीने अवळा देव वांदीए. तेनी विधि आ प्रमाणे.
॥ अंतिम देव वांदवानो विधि. ।। काळ करेल साधुना एक शिष्य अथवा तेनाथी लघु पर्यायवाला कोई शिष्य प्रथम अवळो काजो (हारथी आसन तरफ) लेय. वस्त्र अवळा पहेरे. पड़ी काजा संबंधि इरियावही पमिक्कमीने अवन देव वांदवानी शरुआत करे. | प्रथम कहाणकंदनी एक थो, पठी एक नवकारनो कानस्सग्ग, पनी अन्नब अरिहंत चे0 जयवि नवसग्ग नमोऽर्हः || तू जावंति के खमासमण जावंतीचे० नमोत्युणं चैसवंदन लोगस्सा एक लोगस्सनो कानसम्ग अन्न सस्सन० इरि-||
॥५३॥ यावहीन खमासमण देश. अविधि आशातना मिहामि दुक्कम कहे.
पली सवळो काजो लेते संबंधि इरियावही पमिक्कमे. ॥
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साधु पनी प्रनु पधरावी सजा समक्ष सर्व साधु साध्वीन आठ थोए सवळा देव वांदे. तेमां स्तवनने स्यानके अजीसंतो कहे. प्रति|| अने देव पूरा थया पली खमाण श्वा० कुशेपश्व -हामावण कामस्सग्ग करूं? वं करेमि कानस्सगं अन्नडा कही चार
लोगस्सनो कानस्सग्ग 'सागरवर गंजिरा' सुधी करे. स्तुतिने स्थानके शांति कहे. पनी प्रगट लोगस्स कह.. ॥२५॥
बहार गामथी स्वसमाचारीवाला माधु काळधर्म पाम्याना समाचार आवे तो नपर प्रमाणे आव योए सवल्ला देव वांदे, तथा अजीसंतो वृक्षशांति विगेरे उपरप्रमाणे कहे.
साध्वीना समाचार आवे तो साध्वीज देव वांदे,
॥ श्री अहै नमः।
॥ श्री अजयदेवमूरिजी महाराज विरचितं. ॥ ॥ श्री जयतिहुश्रण स्तोत्रं अर्थसहितं प्रारन्यते. ॥
॥ आ स्तोत्रनी नत्पत्ति केम य? तेनुं वर्णन नीचेप्रमाणे . ॥ अजयदेवमूरिजी महाराजे आ स्तोत्र क्यारे रच्यु ते जणातुं नथी. परंतु एमनो स्वर्गवास ययान वर्ष केटलाकना छजीप्राय मुजब विक्रम संवत ११३६ अने केटलाकना अनोप्राय मुजब ११३ए बे; तेथीने पहेलां गमे ते वखते ए स्तोत्र तमणे |॥२५॥ रच्यु हतुं एम नकी याय ..
एमणे केवी रीते आ स्तोत्र रच्यु हतुं ते संसकृत टीकाना नपोधात नपरथी समजाय ने एटले ते वीष अत्रे बोलावानी
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साधु
प्रति०
॥२५५॥
जरूर रहेती नथी.
या स्तोत्रना गुण वीषे मने पंके अनुभव थयो छे अने तेनां जेटलां वखाण करीए तेलां थोमां ठे.
स्थंजण पार्श्वनाथजोनी प्रतिमा आगळ या स्तोत्र प्रथम उच्चारण करवामां आव्यु हतुं ए प्रतिमा हाल संजात शेहेरमां खारवाका नामना मेहेलामां एक सुंदर देहरामां मुळनायकना व्यासने वीराजमान बे. ए प्रतिमानुं कद आशरे वार यांगळ हशे अने तेमनो वर्ण श्याम वे. ए देहरामां गंजारामां पेसतां जमणी बाजुए एक मोटी सामळी प्रतिमा ते, जेनी पीठमां बखोबे. एम कदेवाय बे के ते बखोलमां सलवारे स्यंजण पार्श्वनाथजीनी प्रतिमा राखता हता; अने तेम करवानुं कारण ए के ए प्रतिमाने कोइ प्रजाएयो सख्स लइ जइ शके नही.
श्री मेरुतुंग याचार्यनो संस्कृत भाषामां रचेलो प्रबंध चिंतामणि नामे ग्रंथ डे, ते शास्त्रीजी रामचंड़े गुजराती जाषांतर साथे उपान्यो. मां या स्थंजण पार्श्वनाथजीनी प्रतिमाने लगती हकीकत बे. तेमांथी खप जोग सार हुंअत्रे लखुलुंः-असारिकामां समु विजय राजाए श्री नेमीनाथ तिर्थकरना मूखथी महा प्रतापवाळी श्री पार्श्वनाथजी महाराजनी प्रतिमानुं वर्णन सांजळी पोताना करावेला अनुपम रत्न जमीत प्रासादमां ते स्थापन करेली हती छाने दारिका जळमय थवाथी ते प्रतिमा बुमेली हती. सांथी ए प्रतिमाने कहामी कांतिपुरनो रेहेनारो धनपति ( धनेश्वर ) नामनो शेठ लइगयो हतो ने एक मोटुं देवालय बंधावी तेमां ए प्रतिमा स्थापन करी हती ने ए देवालयमांथी नागार्जुन नामनो योगी ए प्रतिमानुं हरण करी गयो हतो ने खंजात नजीक यावेली शेढी नदिने कांठे नीर्जय स्थानके राखी हती. नागार्जुनना मरणी पछी, काळे करीने ए प्रतिमा, मुख मात्र देखाय एम पृथ्वीमां समायेली हती; ज्यांथी जयदेव सूर।जीए या " जयतिहुण " स्तोत्र बत्रीस गाथानुं करी ते प्रगट करी हती; अने देवतानी आज्ञाथी ए स्तोत्रनी वे गाया तेमणे गुप्त करी दीधी; अने खंजातमां ए प्रतिमानुं स्थापन कर्तुं हतुं; पने उपर कह्या प्रमाणे एज प्रतिमा हाल सां विद्यमान बे.
प्रबंध चिंतामणिमां पाने ३११ मां ए प्रतिमाना वृत्तांतनुं संक्षेपमां एक काव्य बे, ते तथा तेनो अर्थ गुजराती भाषांतरमां ॥१२एम पाने ३१मां बे ते या मुजव:
॥ यन्मार्गेपि चतुः सहस्त्रशरदो देवालये योचितः । स्वामी वासववासुदेव वरुणैः
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सूत्र
अर्थः
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साधु. प्रति०
अर्ज
॥५६॥
स्वावासमध्ये ततः ॥ कान्त्यामिन्यधनेश्वरेण महता नागार्जुनेनार्चितः । पाया
स्तम्ननके पुरे स नवतः श्री पार्श्वनायोजिनः॥१॥ अर्थ:-जे प्रतिमानी इंश तथा वासुदेवे तथा वरुणदेवे पोतपोताना निवासमा राखी पूजा करीने, तथा कांतीपुरमा धनेश्वर शेठ तथा नागार्जुन जोगीए जेनी सेवा करीबे, एवी रीते मार्गमां आवतां जेने चार हजार वर्ष थगयां डे, एवा स्थंजण पार्श्वनाथ तमारी रक्षा करो.
या स्तोत्रनी नत्पत्ति विषे टीकाकार लखे ले के, आ स्तोत्र विषे वृक्षसंप्रदाय ( वृक्ष परंपराधी चाल्यो आवतो इतिहास) या प्रकारनवे ले.
पूर्व महा समर्थ एवा श्री अजयदेवमूरि, गुजरात देशमां संजाणक नामे स्थानमां (पाटण नजीक ) विचरता हता. सां तेमणे पोतानुं शरीर, महा व्याधिवके अतिशे व्याप्त थये सते, जीववानी आशा मुक्ये सते, समीप रहेला नगर तथा गाममां तेथकी पाखी परकमणु करवाने अर्थे श्री अजयदेवमूरि पासे आववाने बतो एवो सर्व श्रावकनो संघ, पातेज बेवटनुं मिलामिडक्कम देवाने विशेषे करीने बोलाव्यो हतो. तेरशनी मध्य रात्र शासन देवताए आवीने, श्री अजयदेवमूरिने कह्यु जे हे प्र
जो! तमो जागो बो के, निशमां बो? ते वाक्य सांजलीने मूरि पोताना शरीरनी घणी अशक्ति थइ , माटे मंदस्वरवमे, एटले धीमे रहीने बोख्या के, जागुं छ. सारे बली देवता बोली के. हे प्रलो? नतावला नगो. ने, आ भूतरनी नव कोकमीयो घुचवाई गई ले तेने नकेलो सारे मूरि बोच्या के, हुँ ए कोकमीयोने नकेलवा समर्थ नयी. सारे वली देवना बोल्यो के, केम समर्य नथा ? हजु तो घणा काल सूधी श्री वीरजगवंतना तीर्थनो न्योत करशो. अने नव अंगनी टीका करशो!! सारे मूरि बोल्या के, आ प्रकारना शरीरवालो एवो हूं, कये प्रकारे नव अंगनी वृत्ति करीश.!!! सारे देवता बोल्यो के, स्तंजनकपुर पासे (खेजातने समीप ) सेढी नदीने कांठे, खाखरनां पानमां मध्ये, एटले खाखरानुं वन डे, तेमां वृदोनां पमेलां पानमांना
| ॥२५६ ढगला डे, तेमां ढंका गयेला एटले घणा काले करीने म्टाइगयेला एवा स्वयंभू ( शलाटे न घमेला) श्री पार्श्वनाथजी म. हाराज बे. तेमनी आगल देववंदन करो. जेणे करीने तमो स्वस्थ शरीरवाला यशो. एम कहीने पन) ते देवता अंतान थ.
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साधु ई. पडी प्रातःकाले नगरनो तथा गाममांनो श्रावक संघ आव्यो. अने मूरिने वंदना करी वांद्या. पड़ी मूरि ते संघप्रसे बोल्या प्रतिक | के, अमो तो स्तजनकपुर पासे रहेला श्री पार्श्वनाथ प्रभुमो वंदना करीशुं. एटले खनात जर देववंदन करीशं. आ प्रकारे मू. ॥ अर्यः
रिनुं वाक्य सांजलीने श्रावक संघे विचायु के, निश्चे को देवादिकनो मूरिमहाराजने उपदेश थयो जणाय दे. जेणे करीने ॥२५॥
आ प्रकारे आपणने कहे . एटले कोई देवादिके आवीने मूरिमहाराजने आश्चर्यकारी कांड पण कां जणाय डे, जेथी आटली बधी अशक्तिमां पाण विहार करवान कहे . सारपड ते श्रावकसंघे कहाँ के, अमो पण आपनी साथे आवीने देववंदन करीशुं. पली वाहनवमे ( मोलीमां बेसीने ) संघ सहित चाल्या. मारगमां जरा जरा शरीरे सारं यवा मांमयु. पड़ी तो धोलकुं मुकी आगल चालतां तो, एटलुं बधुं सारं थयुं के, पगे चालीने बिहार कर्यो. स्तंजनपुर ( खंनात ) समीप आव्या. मूरिमहाराजनी आझाथी श्रावकसंघे श्री पार्श्वनाथ प्रनुने चारे तरफ खोलवा मांड्या. पड़ी गुरुए कहा के, खाखराना वनमां पानमांना समूहतले तपास करो. सारपनी खां केवल गोवालियाना वचनथी श्री पार्श्वनाथ प्रभुनी प्रतिमा दीठी. शी रीते के, श्रावक संघे गोवालियाने प्रतिमा संबंधि वात पुजी, सारे तेमणे का के, एक जगोए एक गाय निस आवीने प्रतिमाना मस्तक उपर उध वरसे बे, रुटले दूधय। नवरावे डे.
ते वात सांजली राजी थयेला श्रावकसंघे गुरुमहाराजना आगल ते वात निवेदन करी. सार पनी श्रीअजयदेवमूरि महाराज, ते जगाए पधार्या. नें, ते स्थान देखवा मात्रमांज तेमणे जयतिहुण श्यादि तत्काल करेला नमस्कारनां बत्रोश काव्य, तेणे करीने स्तुति करवा मांमी. पनी अधिष्टायक देवताए (प्रसद आवीने ) सूरिमहाराजने को के, आ स्तोत्रमाथी ले. खांबे काव्यो काढी नांखो. केमजे ते बे नमस्कार काव्य, देवताने आकर्षण करवानी (परांणे खेंची लाववान) अतिशय शक्तिवालांडे, तेथी अमने कष्टकारी थाय माटे दूर करो. अने स्तोत्रना पाठ करनार, कल्याण तो, त्रीश काव्ये करीने पण करीश. एवीरीते देवताए श्री अजयदेवमूरिनी प्रार्थना करी, आग्रहथी ते बे काव्य दूर कराव्यां. सारपडी अचिंस डे मनाव ते जेमनो एवां ते काव्यथी, पोते श्री पार्श्वनाथ प्रभु प्रसद थये सते, श्रावक संघ सहित गुरुमहाराजे चैसवंदन कयु. सारपडी श्रावक पासे, चंचां ने तोरण ते जेमां एवं मोटुं सां देवालय कराव्यु. सारपली रोगनो नाश थवाथी स्वस्थ थयु डे शरीर ते जेमर्नु एवा श्री अजयदेवमूरिये, ते मंदिरमा श्री पार्श्वनाथजी महाराजनुं स्थापन कयु. तथा तेनी प्रतिष्ठा करी. पली
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सूत्र
अर्थः
साधु || ते महा मोर्ट तीर्य प्रसिप ययु. तेज " आ नमस्कार ज्ञात्रिशिका " एटले " जयतिहुश्रण " नाम ज स्तोत्र, तेनी हुं पोते काई प्रति
...|| क व्याख्या करवा इच्छु छु.॥ ॥२५॥
॥अथ जयतिदुअण स्तोत्रं ॥
रोलावृचम. जय तिहुअण-वर-कप्प-रुरक जय जिण-धनंतरि ।
जय तिदुअण -कल्लाण-कोस पुरिअ-करि-केसरि ॥ तिदुअण-जण-अविलंघि-आण नुवण-तय-तामिश्र ।
कुणसु सुदाइ जिणेस पास धनणय-पुर-ठिन ॥१॥ अर्थ:-हे तिहुअणवरकप्परुरक, ( हे त्रिजुवन वरकल्पद ! ) त्रिनुवन के0 त्रण जगतने विषे वर के0 श्रेष्ठ, कल्पवृक्ष के कल्पवृक्षसमान, एटले त्रण जगतमा रहेनारा प्राणिमात्रना प्रधान कल्पना पेठे सर्व मनोरथ पूरण करनारा एवा हे पार्श्वनाथ महाराज! तमो जय के जयवंता वत्तॊ. अर्थात् सर्वोत्कर्षपणे वतॊ. श्रेष्ट कल्पवृक्ष कहेवार्नु तात्पर्य एबु जणाय ने के, जे पुरुष पोताना शरीरवमे कल्पवृक्ष तले जई मने करीने जे वस्तुनुं जेटलुं चितवन करे लेटलुंज ते आपे. ने आ श्री पार्श्व नाथ महाराज रूप श्रेष्ट कप्पद तो, केवल मनवमे आश्रयमात्र करवाथी वांवित करतां पण अधिक पदार्थ मात्रने आपी शके बे. माटे एमने विष कल्पवृक्षपणु श्रेष्ठ, प्रधान, ने अपूर्व एबुं रघु ने एग स्तुति करनारे जणाव्यु ॥ अथवा त्रण जगतना रहेनारा पुरुषमात्रना वर के0 वांबित अजिलाप ( वरदान ) तेने आपवाने कल्पवृक्षसमान ॥ अथवा । त्रण जगतने विषे के त्रण जगतमा रहेनारा देव मनुष्यादिक तेनेविषे स्वरूप संपत्तिअतिशयवके, वर के श्रेष्ठ, सर्वोपरिएका, में कल्पवृक्ष के आश्रितजनना मनोरथ पूरवामां कल्पवृत समान एवा. १-हे जिणधन्वंतरि (हे जिन धन्वन्तरे!) तमो जय के जयवंता वर्तो.
॥२५
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साधु
प्रति०
२५॥
जिन के जे बाह्यशत्रुने तथा रागादि आत्यंतर शत्रने जिते ते जिन कहीए. । अयवा । जे बाह्य रोगने तया संसारनुं कारण एवा आत्यंतर रोगने जिते ते जिन कहीए. एटले सामान्य केवली प्रमुख, तेमने विष धन्वंतरि के० धन्वंतरिनामे महा वै- अर्थः द्य समान एवा. आ विशेषण कहेवामां ए तात्पर्य जणाय डे के, स्तुति करनार पुरुषना शरीरमां नत्पन्न ययेली व्याधिनी शां. ति करवा पूर्वक आगल स्तुति करवानुं सामर्थ्य प्राप्त थवायी संसाररूप रोगने शांत करो!!! एवं स्वानिप्रायगर्जित कयन.
अथवा दे जिन के हे वीतराग! हे धन्वंतरे के हे सर्व व्याधि मटामवाने धन्वंतरिनामे वैद्य विशेष समान एवा श्-हे तिहुअणकल्लाणकोस ( हे त्रिनुवनकल्याणकोश !) त्रिभुवन के0 त्रण जगतमा रहेला कल्याण के श्रेयमात्र तेमने रहेबानो कोश के लांमागर के लांमागार समान एवा, एटले त्रण जगतमा रहेला कल्याणमात्र तेमने रदेवानुं एक स्थानरूप एवा. अथवा त्रण जगतमा रहेला प्राणिमात्रने कल्याण के सुवर्ण, एटले इव्यथी सोनू, रू, मणि, मोती, प्रमुख तेजस्वी पदार्थ अने नावथी समग्र झान सुख ते बन्नेने तमो आपो बो माटे, तेमने रहेवाना कोश केतां इव्य नंमार समग्न एवा. आ विशेष ण कहेवामां ए तात्पर्य जणाय ने के, तमारी सेवा प्रार्थना करनार संघर्नु सघळु दुःख दारिश नाश करवाने प्रगट यश् शीघ्र दर्शन आपो.
आ वृत्तमांत्रण जगोए जय शद्ध मुक्यो , तेनुं कारण ए जणाय ने के, अतिशय जक्तिना नदययी आदर करवामां वारंवार एक शद्भर्नु नच्चारण कर तेमां बाध नयी. अथवा तमो जगत्मां पण त्रण काले त्रण प्रकारे सदा जयवंता वर्होबो. एम सूचना करवा माटे त्रण वखत जय शब्द कह्यो. ३-हे रिअक्करिकेसरि ( हे दुरितकरिकेसरिन् !) दुरित के पाप अथवा नपश्व ते रूप करि के हस्ति, तेने नाश करवामां केसरी केतां सिंहसमान एवा. एटले जेम सिंहनी गर्जनाथी वनना हा. थी पलायन करे . तेम जेनां नामोच्चारण मात्रयी पाप तथा उपश्व नाश पामे बे.-हे तिहणजणअविलंघियाण (हे त्रिभुवनजनाविलकिता!) त्रिनुवन के0 त्रण जगत् तेमां रहेला जन के लोक, तेमणे अविलंघिता के० नयी नलंघन करी के नथी खमन करी आझा के शासन ते जेनुं एवा. एटले त्रण जगत्मा एवो कोई समर्थ नथी के, जेना शासननुं खंमन करे.
| ॥२५॥ अर्थात् देव मनुष्यादिक सर्वे जेनी आझाने मस्तके चमावे ले एवा. वली हे नुवणत्तयसामि ( हे जुवनत्रयस्वामिन् !) भुवनत्रय केए त्रण जगत् तेना स्वामी केतां अधिपति. एटले स्वं केतां प्रताप, ऐश्वर्य, अथवा चोत्रीश अतिशय ते जेने बे, ते स्वामि क.
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साधु || हीए. त्रण जगत्ने विष स्वामि केतां सकलैश्वर्य संपूर्ण एवा. वली हे यंञणयपुरथि (हे स्तजनकपुरस्थित!) स्तजनक ना
मूत्र प्रति मे पुरन विषे स्थित केतां रहेला एवा हे पास के (हे पार्थ ) हे जिणेस के० (हे जिनेश!) हमारां मुहाइ के० (मुखानि)| अर्थ:
मनोवांडित सुखप्रसे कुणमु के० ( कुरु ) करो. एटले अमने सर्व प्रकारे सुखी करो. सुख शब्दमा बहुवचन कयु डे, तेथी आ ॥२६॥
लोक अने परलोक संबंधि सकल सुखनी प्राप्ति, तमारी स्तुति करनारने अणधारी थाय ने! एम मूचना करी.
शहां त्रण पदमा ब वाक्यवमे ब प्रकारना आगल कहीशुं एवां ार, तेमनी सूचना करी. अने चोथा पादवमे स्वयंभू श्री पार्श्वनाथनां प्रसव दर्शनयी स्तुति करनार सकल संघनां मनोवांबित पूर्ण करवानी प्रार्थना, आ स्तोत्र रचनार श्री अजयदेवमूरिये करी देखामी. ॥१॥
॥ तर समरंत लहंति, ऊत्ति वर-पुत्त-कलत्त ।
धम-सुवाम-हिरम-पुल जण मुंज रजा ॥ पिरकर मुरक असंरक-सुरक तुह पास पसारण ।
अतिदुअण वर-कप्प-रुरक सुरकर कुल मद चिण ॥ २॥ अर्थः-(हे जगवन् ) त के0 ( त्वां ) तमने, समरंत के० ( स्मरन्तः ) संजारता एवा, जण के ( जनाः ) जन जे ते, वरपुत्तकलत्तइ ( वरपुत्रकलत्राणि ) वर के0 श्रेष्ट एवा, पुत्त के पुत्रो, तथा कलत्त के० स्त्रीयो तेमने, जत्ति के (ऊटिति ) शीघ्र, लहंति के० ( लजन्ते ) लाने ले. एटले पांमे ले. पुत्र शब्दमां दुखथी रक्षण करवा वाचक कर्थ रहेलो ले. कलत्र शब्दमां वंध्यपणुं श्यादि दोष रहित, ने पतिव्रतादि गुणे साहितपणुं इसादि अर्थ रहेलो . तोपण वर केतां श्रेष्ट एवां पुत्र त. था कलत्र एम कह्यु, तेणे कराने आ लोक परलोक संबंधि सुख साधन करवामां मदद देनारां जे पुत्र कलत्र मले बे, ते पण
|॥३६० तमारी स्मरणरूप जक्तिनो महिमा डे. एम सूचनाकर ए नाव . वली धन्नमुवलहिरणपुण (धान्यसुवर्णहिरण्यपूर्णानि) ध. न के मांगेर प्रमुख धान्य तया मुवल के सुवर्ण एटले सोनुं तथा हिरण के रूपुं, तेमणे करीने, पुण के संपूर्ण नरेला
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সনি
२६॥
एवां, रजाई के0 (राज्यानि ) राज्यने नुंज के0 (झुंजने)जोगवे . जो पण सोनं, रू, प्रमुख व्यथी धान्यनी प्राप्ति थाय ले तो पण, मुख्यपणे धान्य शब्दने प्रयम गरायो, तेनुं तात्पर्य ए के, महा मोटी राज्यादि समृद्धिमली होय तोपण,
अर्थः मेघवृष्टि प्रमुख कारणयी नत्पन्न ययेला केवल धान्यवमेज शरीरनी स्थिति रहे . अने ते शरीरवमे तमारी जक्ति याय जे. माटे नक्ति करवानुं असाधारण कारण शरीर , अने ते शरीर धान्यमय डे, तेथी ते मुख्यपणे गणेलुं . तथा धान्य विनाना राज्यादिक अकिंचिकर जे एम पण मूचना करी ए नाव ले. हे पास के० (हे पार्श्वनाथ !) तुह के० ( तब ) तमारा, पसाशण के ( प्रसादेन ) प्रसाद करीने, असंरकसुरक (असंख्य सौख्यं ) असंख्यातुं बे, अर्थात् अनंतुं डे सुख जेने विष एवो, मोरक के ( मोद ) एटले मोदने, पिरका ( पश्यंति ) एटले देखे डे, अर्थात् अनुनय करे डे. तमारा प्रसादे करीने आ लो. क संबंधि तया देवलोक संबंधि नाशवंत मुख मले डे एटलुंज नही, परंतु जेनो नाश नयी एवं मोदमुख पण मले बे, ए लाव जाणवो. ॥ श्य के० ( इति हेतोः) ए हेतुमाटे, हे तिहुणवरकप्परक के0 (हे त्रिभुवनवरकल्पद !) एटले त्रण नुवनने विषे श्रेष्ट कल्पवृत समान एवा, हे जिण के० (हे जिन परमात्मन् !) मह के (मम ) एटले मारां, सुरकर के० (सौख्यानि) एटले सुखना समूढने, कुण के० ( कुरु ) एटले करो. सर्वे सुख आपवाने तमो समर्थ हो, तथा सर्वे सुख मागनार नपर तमो क्रोधादि करता नथी, माटे हे जिन! एवं संबोधन करी कहुं छै के, वर्तमानकालमा उपस्थित थयेला. कष्टने कापी वांडित मुख आपो ए नाव ले. ॥२॥
॥ जर जऊर परिजुस्म, कस्म-जा सुकुष्णि ।
चख्खु-स्कीण खएण, खुम नर सल्लिय सूलिण ॥ तुह जिण सरणरसाय-गण लदु दुति पुणराव । जय--धनंतरि पास, महवि तुह रोगहरो नव ।। ३ ।।
117६१|| अर्थः-हे जगवन् ! जरजऊर के0 ( ज्वरजर्जराः ) जर के ताववझे जीर्ण थयेला. एटले काइ पण करवाने न समर्थ ।। एवा. मुकुठिण के0 ( सुकुष्टेन ) गलत् कोढना रोगवमे, परिजुल्मकामना ( परिजर्णकर्णनष्टौष्टाः ) परिजुल के (परिजू ः)
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साप
मूत्र
प्रतिक
मर्य
॥३६॥
| शमी गया के कान ते जेमना एवा. अने न के० ( नाष्टाः) नाश पाम्पाले होठ ते मा एमा. नया चरुखुरकोण के (हीणचक्षुषः ) नाश पाम्यां ने नेत्र ते जेमनां एवा. तथा खएण के (क्येण ) क्षयरोगवके, खुल के० (हुमाः) दुर्बल ययेला एवा. तथा सूतिण के० (शूलेन) शूलरोगे करीने मल्लिय के० (शस्यिनाः) शल्यवाला ययेला एवा, नर के (नराः) पुरुषो जे ते, हे जिण के० (हे जिन परमात्मन् ! ) तुह के० ( तव ) तमारा सरणरसायणेण ( स्मरणरसायनेन ) सरण के स्मरणरूप, रसायणेण के रसायणे करीने अथवा (शरण रसायनेन) तमारु शरणुं करवू ते रूप, रसायणेण के रसायने करीने लहू के० ( लघु ) शीघ्र, पुणलव के० ( पुनर्नवाः ) फरीथी नवा एवा हुंति के (नवंति ) होय . एटले जाणे को दिवस रोग हतोज नही एवा याय बे. माटे हे जयधन्वंतरि के (हे जगइन्वंतरे!) जगत् जीव प्राणिमात्रना संसाररूप रोगने हरवामां धन्वंतरि वैद्य समान एवा हे पास के (हे पार्थ!) हे पार्श्वनाथम नो! महवि के० ( ममापि ) मारो पण, रोगहरो के रोगने हरनार एषा, तुह के (वं) एटले तमो जब के थान. एटले जना आश्रय करवा मात्रयी अयवा जेनुं नाम स्मरण करवा मात्रयी, अथवा तेनु शरणुं करवा मात्रयी पूर्व कहेला एवा महारोग तथा राजरोग, तथा असाध्य रोग पण नाश पाम्या दे, तो महारो साध्यरोग नाश करवो ते तो तमारी गणत्रीमा आवसेज नहो, प नाव ले. ॥ ३ ॥
॥ विळा-जोश्स-मंत, तंत-सिनि अपयतिण ।
नुवणऽन्नुन अविह, सिहि सिनहि तुद नामिण ॥ तुद नामिण अपवित्त-नवि जण हो। पवित्तन ।
तं तिदुअण-कल्लाण-कोस तुह पास निरुत्तन ॥४॥ अर्थः-हे जगवन् तुह के० ( तब ) तमारा, नामिण के० (नाम्न।) नामे करीने एटले नाम स्मरणे करीने, अथवा थ्याने करीने, “ एकाग्रचित्ते तमारं म्मरण करवाथीएटलो नाव जाणवो." विडाजोइसमंतप्तसिदिन ( विद्याज्योतिर्मन्त्रतन्त्रसिहयः) विङा के विद्या जोइस के ज्योतिष मंत. के मंत्र तंत के तंत्र तेमनी सिदिन के (सिक्ष्यः) सिझियो जे ते अर्थात् सफल यजे ते, एटले विद्यासिद्धि, ज्योतिः मिहि, मंत्रसिदि, तंत्रसिद्धि जेते, तया जुवणानुन के ( भुवनाद्भुता) लोकन
॥२६२
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सूत्र
साधु || विपे आश्चर्यकारी एवी, अठविह (अष्टविधाः) आठ प्रकारनी सिदि के (सिक्ष्यः) मिश्यिो जे ते अपयत्तिण के०(अ प्रति प्रयनेन ) प्रयत्न विना सिङहि के (सिश्यंति) सिह थाय ले, एटले प्राप्त थाय . "अणिमाआदिक आठ सिक्ष्यिोनुं
अर्थः स्वरूप" अणिमा ते अणुमात्र शरीर करवू, जेणे करीने कमलना संतु, जे बी३ तेमां पण प्रवेश थाय; एटलुंज नही, परंतु च
क्रवर्ति राजाना लोगने पण सांज रहेलो सतो लोगवो शके. !!! श्यादि सामर्थ्य, अणिमानामे |सध्विालाने प्राप्त याय डे. ॥३६॥
बीजो महिमानामे सिदि, एटले महिमानामे सिक्ष्विाला, मरुपर्वत थकी पण अतिशे महोटुं शरीर करवू दोय तो करी शके इसादि सामर्थ्य महिमासिचिवालाने प्राप्त थाय बे. त्रीजी लघिमानामे सिदि, एटले लघमा सिविालो, वायुथकी पण लघुतर कहेतां अतिशे हलकुं पातानु शरीर कर होय तो कर शके !!! इसादि सामर्थ्य लघिमानामे सिक्ष्विालाने प्राप्त थाय ले. चोथी गरिमानामे दि एटले गरिमानाम निक्ष्विालो. पोताना शरीरने वज्रयकी पण, अतिशे नारे ए, करी शके, के जेणे करीने महा बलवंत एवा इंशदिक देवो पाग सहपणु थाय !: ! श्यादिक सामर्थ्य गरिमानामे सिध्विालाने प्राप्त थाय ने. पांचमी प्राप्तिनामे सिदि, एटले प्रातिनामे सिविालो पृथ्वी नपर वेशीने पोतानी आंगलीना अग्रवझे मेरुपर्वतना अग्रजागमा रहेला मूर्यमम्लादिकने पण स्पर्श करी शके !!! इसादि सामर्थ्य, प्राप्तिनामे सिविालाने प्राप्त थाय नही पाकाम्यनामे सिद्धि, एटले प्राकाम्य सिदिवालो, जेम पृथ्वी नपर चाले, तेम जल उपर चाले. अने जेम जलमां दुबकी मारे अने वली उपर आवे; तेम पृथ्वीमा प्रवेश करी जाय अने वली उपर आवे !!! श्यादि सामर्थ्य प्राकाम्यनामे सिध्विालाने प्राप्त थाय बे. सातमी ईशित्वनामे सिद्धि, एटले ईशित्वनामे सिविालो श्री तीर्थंकर महाराजनी पेठे तथा इंश्नी पेठेत्रण लोकना अधिपतिपणानु श्वर्य विकुर्वी शके.!!! इसादि सामर्थ्य ईशित्व सिध्विालाने प्राप्त थाय बे. आठमी वशित्वनामे सिद्धि, एटले सर्व जीव प्राणि मात्रने वश करवानी लब्धि थाय. श्यादि सामर्थ्य वशित्वनामे सिभिवालाने प्राप्त थाय .
॥नपर प्रमाणे आठ सिक्ष्यिोन स्वरूप जाणवू. ॥ ___ प्रथम कही जे विद्यासिद्धि, ज्योतिषसिद्धि, मंत्रसिदि, अने तंत्रसिदि, ते सिझियो न जाणवी केम जे, सांतो सिदिश- || ॥२६॥ ब्दनो सिम थर्बु एटले निष्पन्न यq एटलो अर्थ डे. तेमां विद्या अने मंत्र ते बेमां आ प्रकारनो विशेष कह्यो .
विद्या, स्त्रो एटले स्त्रीने आकार ले. नें, मंत्र, पुरुषने आकारे. ते बेमां आ प्रकारनो विशेष ले. जे साधनसहित होय ते वि
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साधु
सूत्र
अर्थ:
द्या कहीए. अने जे साधन रहित होय, ते मंत्र कहीए. प्रतिक ___जे भूतन्नविष्यादिक कहे, ते ज्योतिष विद्या कहीए, जे कोइ प्रकारनी वस्तुवमे कामण प्रमुख करवू ते तंत्रविद्या कहीए. ||
एम विवेक करवो. ॥२६॥
॥ वली तुह के ( तव ) तमारा, नामिण के (नाम्ना) नामोच्चारणमात्रे करीने, अपवित्त के0 ( अपवित्रोपि ) अपवित्र
एवो पण, जण के० ( जनः ) लोक जेते, पत्तिन के० (पवित्रः ) पवित्र एवो होइ के० (जवति ) थाय दे. नीच कुलना होय तो पण, तमारा नाम स्मरणे करीने नंचो थाय दे. के० (तत् ) ते कारण माटे, हे पास के (हे पार्थ!) हे पार्श्वनाथप्रजो ! हे तिहुअणकल्लाणकोस के० ( हे त्रिभुवनकल्याण कोश !) त्रण जगतनां जे कल्याण तेमने रवाना कोश नांमागार सामान एवा. तुह के0 (वं ) तमो जेते, निरुत्तन के० (निरुक्तः) कह्या बो. एटले पंमित पुरुषोए तमोने ए प्रकारे निरूपण करेला बे.!॥ ४॥
॥ खुद्द-पनत्त मंत-तंत-जंता विसुत्त ।
चर-थिर-गरल-गहुग्ग-खग्ग-रिन-वग्गु विगंज ॥ उछिय-सब अगल-घच निबार दय करि ।
उरियश् हरन स पास-देन ऽरिय-करि-केसरि. ॥ ५ ॥ अर्थ:-जे पार्श्वदेवमनु जेते, खुद्दपनत्त के० ( कृपयुक्तानि) कुश्पुरुषोए प्रयुंजेलां, एटले परनो अपकार करवाने अर्थे करेलां. अथवा करावेलां एवां, मंततंतजंता के० ( मन्त्रतन्त्रयन्त्राणि) मंत्र तथा तंत्र तथा यत्र ते सर्वेने, विसुत्त के० (वि. सूत्रयति ) निष्फल करे बे. एटले पोताना सेवक नपर शत्रुये मारण, मोहन, नच्चाटन, वशीकरण करवाने अर्थे करेला अथवा करावेला मंत्र प्रयोग, तथा तंत्र प्रयोग, तथा यंत्र प्रयोग, तेमने विपरीत करे ; कहेतां ते शत्रुनां करेलां नच्चाटन मारण विगेरे शत्रु उपरज पसे बे, परंतु जेना सेवकने लागी शकतां नथी एवा, ते तमो श्रीपार्श्वनाथ देव जे ते पापने नाश करो एम आगल संबंध बे. मंत्र तंत्रनुं स्वरूप आगल कहेलु दे. अने एकाशी श्यादि आंक जेमां आवे तेने यंत्र कहीए. एम यंत्रनुं स्व.
। उच्चाटन मारण | ॥२६४
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माधु
प्रति०
วะข
रूप जावं. वली, चरथिरगरल के० ( चरस्थिरगरल - ) जंगम तथा स्थावर एवां फेर जेते तथा गहुग्गखग्गरि के० ( ग्रहो - खरिपु - ) ग्रह एटले मंगलादि नव ग्रह, तथा उग्र एटले जयंकर बे खन पटले तरवार ते जेमने एवा रिपु एटले शत्रु, तेमनो, वग्गु के० (वर्ग) समूह जे तेने, विगंज के० ( विगञ्जयति ) पराजय करे बे. एटले जेना सेवकने, अर्थात् तमारा सेवकजंगम विष एटले सर्पादिकनु फेर तथा स्यावर विष एटले सोमल प्रमुखनुं फेर जे ते पराजय करी शकतुं नथी. तथा मंगलादिक ग्रह पण पराजव करी शकता नथी, तेमज जयंकर तरवारवाला शत्रु जे ते पण पराजव करी शकता नयी.
बली अन्च घछ के० ( अनर्थग्रस्तान ) अनर्थमां मन थयेला एवा, दुलियस के० ( दुःस्थितसार्थान् ) दुःखवाला एवा लोकना जे समूह तेने, दय करि के० (दयां कृत्वा ) दया करीने, निचार ( निस्तारयति ) तारे बे. अर्थात् दुःखनो नाश करीने जे सुखी करे छे; माटे दुरियक्करिकेसरि के० ( दुरितकरिकेसरी ) पापरूप दिस्तनो पराजय करवामां सिंहसमान एवा, स के० ( सः ) ते पासदेन के० (पार्श्वदेवः) पार्श्वनाथमनु जेते, दुरियर के० ( दुरितानि ) पापने, हरन के० ( हरतु ) हरो. अयात पापनो नाश करो! उत्तरार्द्धनी जावार्य ए वे के, हे मनो! संसारी जीव, अनेक प्रकारना अनर्थरूप महा कादवमां मन थयेलो बे; माटे चारे पासयी दुःखना समूहवमे घेराई गयो बे; तेथी तेना उपर दया करिने ते कष्टयकी तारो. अर्थात नज़ार करो. जे हेतु माटे मोटा मोटा पापना ढगलारूप मदोन्मत्त हाथीवमे गजराइ गयेला पुरुषने हाथीनों शत्रु जे सिंह, ते विना बीजों को सुखी करी शकतो नथी; ते हेतु माटे तमो पापनो नाश करी मने सुखी करो. ॥ ५ ॥
॥ तुह आणा यंश, जीम-दपुर- सुरवर
रस्कस - जरक- फणिंद-विंद चोरानल जलहर || जलवर चारि रद्द खुद्द पसु जोइलि जोश्य । इतिदु
विधि - आण जय पास सुसामि य ॥ ६ ॥
अर्थः – हे जगवन् ! तुह के० ( तब ) तमारो, आणा के० आज्ञा जे ते, जीम के जयंकर एवा, तथा दप्पुभ्धुर के० ( दर्पोर ) एटले गर्ने करीने नश्त थयेला एवा. जे, सुरबर के० क्रूर प्रकृतिवाला भूतप्रेतादि देवता जे तेने तथा ररकस के०
३४
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सूत्र
अर्थः
या
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साधु
प्रति
॥श्६६॥
राक्षस, तथा जरक के० यद, तथा फर्णिद के० (फणी) एटले नागें" आठ प्रकारनां नागकुल ग्रहण करवां." अथवा || मूत्र' ( सुरावर-) सुर के महोटा देवता तेमनी अपेक्षाए, अवर के ना, एटले अस्प शक्तिवाला एवा. राइस, यद, फणी,
अर्थः ते सर्वनो, विंद के० (वृंद ) एटले समूह तथा चौर के0 चोरीना करनार तथा अनल के अग्नि, तथा जलहर के ( जलधरान् ) एटले मेघ जे तेमने, वली जलयरचारि के० (जलस्थलचारि ) जलचारी अने स्यलचारी, जलचारी एटले मगर प्रमुख हिंसक जलजंतु तथा स्यलचारी एटले सिंह, व्याघ्र प्रमुख हिंसक जीवो.
वली रनद्द के० (रौ ) एटले दर्शनमात्रयीज जय नपजावनार एवा. अने खुद के (कु) एटले निरपराध हिंसा करनार एवा जे, पसु के० (पशु) एटले तिर्यंच तथा जोणि के० ( योगिनी) एटले पोताना जक्तनो अनुग्रह करवाने अर्थे अने अनक्तनो निग्रह करवाने अर्थे मंत्रतंत्रना योगवमे करीने सिह ययेली खीन ते योगिनी कहेवाय. तथा जोश्य के० ( योगिनः ) एटले तेज प्रकारना सिह ययेला एवा योगि पुरुष जे तेमने, यंने के0 ( स्तनानि ) एटले ते सर्वनी शक्तिनुं स्तंनन करे ले. एटले तमारी आझामा चालनार पुरुषना नपर पूर्वे कहेला देवादिकनुं पण मामर्थ्य चालतुं नथी तो तमारा उपर तो कोर्नु सामर्थ्य चाले.!!! श्य के0 (इतिहेतोः) ए हेतु माटे हे तिहुअणअविलंघियाण के0 (हे त्रिजुवनाविलसिताइ) एटले त्रण जगत्मा रहेनार देवादिकोए नयी नखंघन करी आझा ते जेमनी एवा. य के0 (च) एटले वली, हे सुमामि के (हे मुस्वामिन् ) एटले हे श्रेष्ठ स्वामिन एवा, हे पास के0 (हे पार्थ!) एटले हे श्री पार्श्वनाथ प्रनो! तमो (जय के) जयवंता वत्तों. ॥६॥
॥ पछिय-अच अल-तत्र ननि-नर-निन्नर ।
रोमंचंचिय-चारु-काय किन्नर-नर-तुर-घर ॥ जसु सेवदि कम-कमल-जुयल परकालिय-कलिमलु
॥२६६। सो नुवणतय-सामि, पास मह महन रिन-बलु ॥ ७॥ पबियअन्च के0 (प्रार्थितार्थः) प्रार्थना का अर्थ एटले अनेक प्रकारनां पदार्थ ते जेमणे एवा. अथवा प्रार्थना कयु
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साधु
प्रति
अर्थः
॥२६॥
बे अर्थ एटले वांडित प्रयोजन जेमणे एवा. अथवा प्रकर्षे करोने अथित एटले याचना कर्यु ले अर्थ एटले धन से जेपणे एवा. अर्थात् सघलुं मागवू निषेध करीने केवल धननीज याचना करता एवा. केम जे " सर्व पदं हस्तिपदे निमग्नम् " सघलां पगलां हाथीना पगलामां आवी जाय बे ए न्याये एक धनमात्र मलशे तो लघलां सुख प्राप्त थशे, एम धारोने केवल धननी प्रार्थना करता एवा. अथवा “ सर्वे गुणः कांचनमाश्रयंति" सघला प्रतिष्टादिक गुण सोनानो आश्रय करे . एटले जो धनवंत यईशु तो एनी मेले सघलां संसारिक सुख मलशे. एम धारीने तमारी सेवा करता एवा. तया अणवत के० (अनर्थत्र ताः) ए टले अनर्यथा त्रास पामेला एवा. तया जत्तिनरनिब्जर के० (जक्तिनरनिराः) एटले जक्तिना समूहयी अतिशे नरेला एवा "नधातुनो सेवारूप अर्थ ले में क्तिन् प्रययनो प्रेमरूप अर्थ बे. माटे प्रेमेसहित जे सेवा करवी तेतुं नाम जक्ति ने" त था रोमंचियचारुकाय के० ( रोमाश्चितचारुकायाः ) एटले विकस्वर ययेला रोमे करीने मुंदर ने शरीर ते जेमर्नु एवा. किन्न रनरसुरवर के० (किन्नरनरसुरवराः) किन्नरमा श्रेष्ठ तथा मनुष्यमां श्रेष्ठ तया देवतामा श्रेष्ठ एवा पुरुषो जे ते. अर्थात् कनि ट मध्यम अने नत्तम एत्रण प्रकारना अार्थि पुरुषो जे ते, परकालियफलिमलु के० (प्रदालितकलिमलं ) नाश कर्यो बे कलिकाल संबंधि मल एटले पाप ते जेणे एवं. अथवा नाश कर्या ने कलि एटले कलह अने मल एटले पापरूप मेल ते जेणे ए Q. जसु के० ( यस्य ) एटले जे पार्श्वनाथ प्रभुनु, कमकमलजुयल के0 (क्रमकमलयुगलं ) एटले चरणकमलनुं युगल जे तेने, से वहि के० (सेवते ) एटले सेवे बे. सो के० (सः) एटले ते, नुवणत्तयसामि के0 (जुवनत्रयस्वामी) एटले त्रण जगतना स्वाम) एवा, पास के० (पार्थः) एटले पार्श्वनाथ प्रजु जे ते, मह के० ( मम ) एटले महारु, रिनबलु के0 (पिपुवलं ) एटले शत्रुबल जे तेने, मुद्दन (मईयतु) एटले मईन करो. एटले मारा रागषादिक अनेक प्रकारना शत्रुनु बल शांत करो. अथवा बा. ह्य ना तथा अंतरना शत्रुनर्नु बल एटले लशकर ते प्रये मईन करो. अर्थात् शत्रुमात्रनो नपश्व शांत करो. ॥ ७ ॥
जाए-एवं के0 ए प्रकारे जेम नद्देश को हतो, एटले जेवीरीते अनुक्रमे हार गएयां हता, तेवी रीते ब हार, अनुक्रमे व्याख्यान करीने, वली बीजां ब हार कहेवाने अर्थे, ते हारनां नाम देखामता सता स्तुति करे . ॥
॥ जय जोश्य-मण-कमल-नसल जय-पंजर-कुंजर ।
॥६॥
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साधु ॥
प्रति
अर्थः
तिदुअण-जण-आणंद-चंद नुवण-तय-दिणयर ॥ जय मश्-मणि-वारि-वाह जयजंतु-पियामह ।
नय-व्यि-पास-नाह नाहत्तण कुण मह ॥ ७॥ अर्थ:-हे जोश्यमणकमलजसल (हे योगिमन:कमलचमर!) जोश्य के योगिलोक तेमनु, मण के मन ते रूप, कमलजसल के कमलने विषे अमर समान एवा. एटले जेम कमलने विषे चमर रहे डे., तेम योगि पुरुषना मनरूप कमलमांत्रमरनी पेठे निवास करी रहेता एवा. अथवा कमलनसल कहेता जसलकमल एटले जसल के योगिना मनरूप चमर, तेने रहे. वामे कमल समान । (जसल शब्द अने कमल शब्द ए बेनो प्राकृत व्याकरणना नियमनो विकल्प थवाथी पूर्व निपात थयो बे. एटले नसल शब्द प्रथम आयो अने कमल शब्द आगल थयो) स्पष्टार्थ ए के, योग जेमणे साध्यो ले तेने योगी कहीए. एटले मन वचन अने काया तेमना योग, जेमने सिह थया बे एवा संयमी पुरुषो, तेमना मनरूप जमराने कमलरूप बो. एटले जमराने जेम कमलने विषे घणी प्रीति डे, तेम संयमी पुरुषोना मनरूप जमराने तमारा स्वरूपमां प्रीति ले. अथवा लमरो जेम अन्य रसनो साग करीने कमलना मकरंद रसनो आस्वाद करे , तेम संयमी पुरुषोनुं मन, विषय रसनो आस्वाद साग करीने तमारे विषे रहेला अपार ज्ञानादि गुणोनो आस्वाद करे , माटे ए प्रकार, संबोधन कहां.
वली हे जयपंजरकुंजर ! जय के सात प्रकारना लय (आलोकलय, परलोकलय, आदानलय, अकस्मात्नय, वेदनाजय, मरणजय, अपयशनय.) तेरूप, पंजर के पांजरं तेने विष, कुंजर के हाथी समान. एटले जम हाथी पांजराने अवगणना करी जांगी नाखी स्वतंत्र वर्ते, तेम हे नगवन् ! तमो पण जयरूप पांजरांने तोमी नाख पोताना स्वनावमा वर्तो बो. वली हे तिहुअणजणआणंदचंद ( हे विजुवनजनानंदचं!) तिहुयण के त्रण जगतना, जण के लोक तेपन, आणंद के
आनंदकारी, चंद के० चं समान, एटले जेम चश्मा पोताना शीतलपणादिक गुणोवमे आनंद नपजावे , तेम तमो पण पोताना अलौकिक गुणवत्रण जगत्ना रहेनार माणिमात्रने आनंद नपजावो बो. वली हे भुवणत्तयदिणयर ( हे नुवनत्रयदिनकर !) भुवणत्तय के त्रण जगन्ने विषे, दिणयर के सूर्य समान. एटले जेम सूर्य अंधकारनो नाश करी लोकने मुखी
॥२६॥
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माधु
प्रति०
HER
करे . ते तमो पत्र जगन्ना लोकोनुं अज्ञानरूप अंधकारनो नाश करीने महा सुखी करो हो. एवा तमो जय के० जयवंता वर्त्तो. अर्थात् जयवंता था.
मेवारिवाह ! ( हे मतिमेदिनीवारिवाह ! ) मइ के० चार प्रकारनी बुद्धि, ते चार प्रकारनी बुद्धिनां नाम. (उत्पत्तिको, वैनयिकी, कार्मणकी, पारिणामिकी ) ते रूप. मेइणि के० पृथ्वी तेने, वारिवाह के० मेघ समान. एटले जेम मेघ रवा पृथ्वीमा रहेनार सर्व प्रालीनने आनंद थाय छे, तेम मतिरूप पृथ्वीने प्रफुल्लित करवाने तमो मेघ समान हो. वली हे जयतु पियामह ! ( हे जातु पितामह ! ) जय के० जगत् तेना, जंतु के० प्राणिमात्र तेमना, पियामह के दादा एटले सर्व जगवना लोकोने जेनुं वचन, बहुमानयी आदर करवा योग्य छे, माटे जगज्जीवना पितामह ( बापना वापने पितामह कही - ए) ते पितामह समान मानवा योग्य एवा. वली हे यंजयिपासनाह ( हे स्तंजन स्थिनपार्श्वनाथ !) यंजल के० स्तंजनपुर ( खंजात ) तेने विषे, हिय के० रहेला एवा, पासनाह के० हे पार्श्वनाथमजो ! मह के० ( मम ) एटले महारुं, नाहत्ता के० ( नाथवं ) नाथपणुं एटले स्वामिपएं, कुल के० ( कुरु ) एटले करो. एटले मने साचो जाविक सेवक जालीने मारा स्वामी थान. अर्थात् स्वामी होय ते सेवकनुं दुःख मटाके, माटे ज्यांसुधी मारुं दुःख मटेलुं नथी, सांसुधी तमो मने सेवक मानता नही होय, एम हुं मानुं लुं. ए जाव ठे.
॥ जा० - दवे एज व दारने अनुक्रमे स्पष्ट करी कहे छे. ॥ ॥ बहु-विदु वन्नु प्रवन्तु, सुन्नु वन्निन उप्पन्निदि ।
मुस्क-धम्म - कामच्च - काम नर नियनिय सहिहिं || जं यदि बहु-दर-च बहु-नाम- पसिछन ।
सो जोइय-मण-कमल-जसल सुदु पास पवन ॥ ए ॥
अर्थ : हे जगवन्! मुरकधम्प्रकाम काम के० ( मोकवकामार्थकामाः ) एटले मोह तथा पर्स तथा काम तथा अर्थ,
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सूत्र
अर्थ:
• २६९
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साधु ए चार प्रकारना पुरुषार्थनो कामना एटले इला तेने करे एवा, बहुदरिमण के0 ( बहुदर्शनस्याः ) एटले घणा दर्शनमा रहे
स मारो॥ मूत्र पनि ना एवा, नर के० ( नराः) पुरुप जे ते, नियनियमविहि के (निजनिनशास्त्रेषु, तृतीयास्याने सप्तमी) पोतपोताना दर्शननु
अर्थः प्रतिपादन करनार एवां शास्त्रन विषे, उपनिदि के (पमितः, देशीशब्दत्वात् ) पंमित पुरुषोए, बहुनामपमिशन के० ( बहु
नामसिई) एटले घणां नामे करीने प्रसिह एवा. एन कारण माटे, बहुविहुवन्नु के० (बहुविधयण) एटले घणा प्रकारना ॥२०॥
बे, वर्ण ते जेमना एवा. अने, अवन्नु के० (अवर्ण ) एटले वर्ण रहित एवा. वली, मुन्नु के0 (शून्य ) एटले आकाशनी पेठे शून्य एवा, वनिन के० ( वणितं ) वर्णन करेला एवा, जं के (यं ) जेने. कायदि के० (ध्यायन्ति ) ध्यान करे . मो के सः ) एटले ते, जोश्यमणकमलजसल के ( योगिमनः कमलजमरः ) एटले जोगिना मनरूप कमलमा रहेनार चमर समान एवा. पास के0 (हे पार्थ) एटले हे पार्श्वनाथपत्तो, सुह के० ( मुखं ) एटले सुख जे तेने, पवन के0 ( प्रवईयतु !!) एटले ते मुखन अतिशे वधारो,
जावार्थ एबे के. ज्यारे पुरुषार्थना अन्तिलाषी पुरुपो, बााथी योना व्यापारने रोकीने मनवम् नमने जवे जे. केम जे पोतपोताना शास्त्रमा विज्ञान पुरुपो, अनेक प्रकारना नायव तया अनेक प्रकारना वर्णवमे विचारि जोता तो. तमाळंज प्र. तिपादन करे बे. जेम के, विषाणुना जुदा जुदा अनेक प्रकारना वर्ण ठे माटे तेने वहुवर्ण कहे . तथा महेश्वरने नीरूपपणे ए.
दले अरूपी कहे . तथा केटलाक बौइलोको शून्यरूपपणे कहे . एम विष्णु, महेश्वर, बुक्ष सादि नामवमे हे पार्श्वनाय|| मनो: तमारुंज प्रतिपादन करे . ते श्री मानतुंगाचार्ये जक्तामरस्तोत्रमा कहां बे के.
हे देवपूजित ! बुझिना बोधयी तमेज बुझ बो. वली त्रण जगतनुं मुख करवापणुं तमारे विपे रहुं ले. माटे तमो शंकर (शिव) बो. तथा हे धीर! मोद मार्गना विधिनी रचना तमो करो नो माटे धाता कहेतां सृष्टि करनार ब्रह्मा, तमेज बो. वली हे जगवन् ! पुरुषने विषे नत्तम होय, तेने पुरुषोत्तम कहीए, पुरुषोत्तम (विषाणु ) एवा नो तमो पोतेज बो; ते प्रकट प्र माणे प्रसद देखाय डे.॥
॥३०॥ ____वली ते अन्यदर्शनीने पुनीये बीये के, तमे जेनुं ध्यान करो बो, ते सराग डे के, वीतगग ! जो मराग कहेशो तो, ते || आपणा जेवाज दोपवंत यया, माटे तेमनुं देवपणुज जशे. केमजे, ते वात शास्त्रमा कही ब.
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माधु |
जो सर्वे पण जीवो जे ते मैथुन, आहार, निश. जयादि सहित वर्ते ले, तो सर्वन साधारण चरित्र ययु. तेमां आत्मानो प्रति | हितकारी एवो कोण देव होय? अर्थात् रागादि दोषरहित ज देव होय, ते देव ध्यान करवा लायक कहेवाय. पण वीजो || अर्थः
| न कदेवाय. ॥१॥ ॥29॥ चली ते अन्यदर्यनी एम कहे के, अमाग देवता रागरहित बे. तो जगवत् एवा श्री पार्श्वनाथजी, तेथी त जुदा न थया.
केमजे, ते वात शास्त्रमा (वीतरागस्तोत्रमा श्री देवाचार्य) कह। बे.
हे जगवन् ! तमारो विपद, एटले शत्र, अर्थात् अन्यदर्शनीए मानेलो इष्टदेव जे ते, जो विरक्त डे, एटले रागरहित ने तो ते तमेज बो. तमारायी जुदो नथी. अने हवे ते विपत जे ते रागवालो ने, तो ते तमारा विपक्षज न कंदवाय. केम जे. खद्योत || जे ते (खजुयो जीव विशेष ) मूर्यनो शुं विपद कहेवाय ? अर्थात नज कहेवाय. क्यां खद्योत, अने क्यां मूर्य, तम क्या सराग अने क्यां वीतराग, ए वेनो घणोज अंतर जे. माट अन्यदर्शनीए मानेला निराग देव ते पण तमेज बो. ए॥
॥जय-विब्नल रण-अलिर-दसण घर-हरिय-सरीरय ।
तरलिय-जयण विसुन्न, सुन्न गग्गरगिर करुणय । त सहसति सरंत, हुँति नर नालिय-गुरुदर ।
मह विवि सऊस. पास नय-पंजर कुंजर ।। १० ।। अर्थः हे जगवन्! जयविन्नल के (जयविह्वलाः) एटले लये करीने व्याकुल एवा. तया, रणऊणिरदसण के ( रपकणदशनाः ) रण एटले परम्परसंघट्टन (अफलावईं ) तेणे करीने शब्दायमान थता , ( बोलता डे ) दांत ते जेमना एवा.
॥२७॥ तथा, यरहरियसरीरय के० ( कम्पितशरीरकाः, देशोशब्दत्वात् ) एटले थरथर कंपतु के शरीर ते जेनुं एवा. तथा, तरलियनयण के० (तरलितनयनाः) एटले चंचल थतां नेत्र ते जमनां एवा. तथा, विसुन्न के0 (विषमाः ) खेद पामता एवा. तथा, एन्न के० (शून्याः) एटले चैतन्य शुन्य थयेला एवा. तया, गग्गर गिर के0 ( गादगिरः ) गद्गद वाणी ते जेमनो एवा. त
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सूत्र
पनि
अर्थः
॥२७॥
था, करुणा करवाने योग्य एवा. अर्थात् अतिशे रंक ययेला एवा. नर के० ( नराः) एटले मनुष्य जेते, तइ के0 (ख) एटले नमने, सरंत के० ( स्मरंतः ) एटले संजारता सता, नासियगुरुदर के० ( नाशितगुरुदराः) एटले नाश पाम्यो ले जलोदरनामे रोम ते जेमनो एवा. सहसत्ति के० (सहसेति ) एटले शीध्र, ए रीते रोगी जे ते हंति के० (नवंति ) एटले थायले. माटे, जयपंजरकुंजर के० ( हे जयपञ्जरकुअर ) एटले जयरूप पांजराने लांगवा हाथी समान एवा. पास के० (हे पार्श्वनाथ! ) मह के ( मम) एटले मारा, सज्छस के० (साध्वसानि) एटले जयने, विवि के० (विध्यापय ) नाश करो. पूर्वे कहेला मोटा मोटा रोग पण जेना स्मरणमात्रयी, अथवा जेनुं शरणु ग्रहण करवाथी नाश पामे में तो, तमारे शरणे आवेलो एवो जे हुं ते मारां रोगादिक दुःख नाश करवां, ते तमारे कांप असाध्य नथी. ए नाव . ॥ १० ॥
॥ पइं-पासि-वियसंत-नित्त-पत्नंत, पवित्तिय ।
बाह-पवाह-पवूढ-रूढ-उह-दाह-सुपुलश्य ॥ मन्नइ मन्नु सनन्नु, पुन्नु अप्पाणं सुरनर ।
श्य तिदुअण आणंद-चंद जय पास-जिणे पर ॥ ११ ॥ अर्थः-पई के० (वा) एटले तमने अथवा (पति) एटले स्वामी एवा, तमने पासि के0 ( दृष्ट्रा) देखीन, वियसंत के (विकसत् ) एटले विकस्वर यता एवां अर्थात प्रफुल्लित यतां एवां जे, नित्त के (नेत्र ) एटले चक्रुषु तेरूप, पसंत के० (प त्रान्त ) एटले पत्रना अंतने विषे, अर्थात् नेत्ररूप कमलपत्रना खूणामां, पवित्तिय के0 ( प्रवर्तित ) एटले प्रवर्तेलां एवां. वा. ह के० (बाष्प ) एटले हर्पनां आंसु तेमनो पवाह के० ( प्रवाह ) एटले प्रव.हे करीने, अर्थात् दर्पयी नीकलेला आंसुना पू. रखमे. पबूढ के० ( प्रव्यूह ) एटले वहन थइ गयो , अथवा नाश पाम्यो , रूढ के० ( रूढ ) एटले चिरकालथी आरूढ थयेलो, अर्यात् घणा कालथी प्राप्त ययेलो एवो, दुहदाह के० (दुःखदाहाः) एटले दुःखरूप दाह ते जमनो एवा. जावार्थ एले के, घणा कालथी संसारने विषे चपण करवामां अनेक प्रकारनां :खरूप अग्निना जम्का आ जीवोना अंतरमा लागी
॥३१॥
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साधु
प्रति
॥१७३॥
रह्या छे. तेनी शांति अद्यापि कोई पण प्रकारे थई नथी, परंतु हे प्रनो ! हे जगत्ना पति ! आज तनारी महाशांत मुड़ा जोइने विकस्वर यतां जे नेत्र तेमाथी नीकल्यां, जे हर्षनां प्रांसु तेनी धारान, तेथीज जाणे शुं !!! घणा कालनां दुःखरूप अ गिजेमनो शर्मा गयो बे एवा. एज कारणा माटे. सुपुलश्य (सुपुलकिता: ) एटले सारीपेठे रोमांचित थयेला, एटले घणा आ नंदी रोमरोम विकस्वर थयेला एवा. सुरनर के० (सुरनराः ) एटले देवता तथा मनुष्यो जे ते " देव मनुष्यनुं ग्रहण कर are बीजा पण जाविक प्राणीनंनुं ग्रहण कर. " अप्पाणं के० पोताना आत्माने मन्तु के० ( मान्यं ) एटले पूज्य एवाने, अथवा कृतार्थ एवाने, तथा सचन्नु के० ( सपुएचं ) एटले जाग्यवंत एवाने, तथा पुन्तु के० ( पुण्यं एटले पवित्र एवाने, मनइ के० ( मन्यंते ) एटले माने बे, इय के० ( इति ) एटले ए हेतु माटे, हे तिहुदचंद के० ( हे (त्रिजुवनानंदचंद) एटले त्रण जगत्ने विषे आनंदकारी चं समान एवा. पास जिलेसर के० ( हे पार्श्वजिनेश्वर ! ) एटले हे पार्श्वनाथ तीर्थंकर !
जय के० तमो जयवंता वतों ॥ ११ ॥
जा० - दवे वीजे प्रकारे जगवंतनुं प्रण जगत्ना जनने आनंद करवारूप चंतेने कहे .
॥ तुह कल्वाणमदेसु, घंटटंकारवपिलिय ।
वल्लिर - मल्ल महल - नत्ति सुरवर गंजुल्लिय | इल्लुफ लिय पवन-ति जुवणेवि महूसव |
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इय तिहुअा आणंद चंद जय पास सुडुब्नव ॥ १२ ॥
अर्थ :- हे जगवा! तुह के० ( तत्र ) एटले तमारा, कखाणमहेसु के० ( कल्याणकमहेषु ) एटले कल्याणकना उत्सवने विषे, घंट के० ( घंटा) एटले सुघोषानामे महोत्सवने जलावनारी घंटानो टंकार के० शब्द, तेणे करीने, व्यवपिलिय, के० (अकिता: ) एटले शीघ्र प्रेरणा कर्या एवा. अथवा टंकार के० शब्द विशेष तेणे करीने पिक्षिय के० ( मेरिताः ) एटले मेरा कर्या एवा. रिमन के ( बेमानमान्याः ) एटले जनावल करवाथी हालता ते पुष्पहार ते जेमना एवा. ने महखजति के० ३५
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सूत्र
अर्थ:
R
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साधु
प्रति
||३१॥
गणना.
॥ (महाजक्तयः) एटले मोटी मे नक्ति से अपनी एवा. एज कारण माटे, गंजुलिय के० ( रोमाश्चिमा, देशीशब्दत्वात् ) विकः ॥ स्वर थईने, रोमराज ते जेमनी एवा. सुरवर के० (सुरवराः) एटले चोसठ इंच जेते, हस्लुप्फलिय के (वरिताः, देशीशब्दत्वात् ) एटले उतावला यया सता, एटले पोतानां मोटां मोटां विषय सुखनो साग करोने, भुवणेवि के० (भुवनेपि) एटले आ लोकने विषे पण, महसव के० ( महोत्सवान ) जन्मादि कल्याणक महोत्सवोने, पवत्तयंति के० (प्रवर्तयन्ति ) एटले प्रवर्ना डे. इंशदिक मोटामोटा देवतान, सुघोषानामे देवताना संकेतने जणावना घंटाना शब्दने सांजली, मोटा मोटां वि. षय मुखने तत्काल मुकी, महा मोटी जक्तियो, जेनां कल्याणकादि महोत्सवने करवा सावधान याय बे एवा तमो बो. ए वीरीतनो नाव जाणवो.
श्य के0 (इतिहेतोः) एटले ए हेतु माटे तिहुअणआणंदचंद के० (हे विजुवनानन्दचन्!) एटले हे त्रण जगतने आनंद करवाने च समान ! एवा, तया मुहुन्नव के० (हे सुखोनच !) एटले हे मुखनी खाण ! एवा. एटले जेम रजनी खाणमांथी रन नीकले ले, तेम तमो पण मुखनी खाण बो. माटे सुखनी श्वावालाने तो तमोज प्रार्थना करवा योग्य बो, ए जाव जाणवो. पास के० (हे पार्थ!) हे पार्श्वनाथपनो ! जप के तमो जयवंता वतॊ. ॥ १५ ॥
॥ निम्मल केवल-किरण-नियर-विदुरिय-तम-पहयर ।
दंसिय-सयल-पयच-स विवरिय-पहायर ॥ कलि-कलुसिय-जण-घूय-लोय-लोयणह-अगोयर ।
तिमिर निरु दर पास-नाद नुवणत्तय दिणयर ॥ १३ ॥ अर्थः-निम्मल के0 (निर्मल ) एटले कर्मरूप मलव रहित एवं, केबल के केवलझान एज, किरणनियर के० (किर
॥३१॥ णनिकर ) एटले कांतिनो समूह तेणे करीने, विहुरिय के (विधुरित ) एटले नाश कर्यो , तमपहयर के0 ( तमःप्रकर, देशीशब्दत्वात् ) अज्ञानरूम अंधकारनो समूह ते जेणे, तेना संबोधनने विषे, हे निम्मलकेवल किरणनियरविहरियतमपदयर
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अर्थः
साधु (हे निर्मलकेवलकिरणनिकरविधुरिततमः प्रकर! ) अने दसिय के (दर्शित ) एटले देखाड्यो . सयज के0 (सकल ) एटः । प्रति ॥ ले समस्त एवो. पंयसब के० (पदार्थसार्थ) एटले पदार्थनो समूह ते जेणे तेना संबोवनने विष. हे दसियमयलपयसन (हे
दर्शितसकलपदार्थसार्थ! ) अने हे विवरियपहारय के० (हे विस्तृतमलालर! ) एटले विस्तार पाम्यो कांतिनो समूह ते जे॥२७॥
|| नो तेना संबोधनने विषे, (हे विस्तृतप्रजाजर!) अने कलिकलुसिय के० ( कलिकलुषित ) एटले कलिकाले करीने मलिन य
येला. एटले पापयुक्त थयेला. एवा जे, जणघूयलोय के० (जनघुकलोक ) एटले जन एज घूम तेनो. लोक कहेतां समूह तेना, लोयणहअगोयर के० (लोचनागोचर ) एटले लोचन कहेता नेत्र तेने अगोचर नेना संबोधनने विषे, हे कलिकलुसियजणघूयलोयलोयणहअगोयर (हे कलिकलुषितजनघूकलोचनागोचर!) भुवणत्तयदिणयर के (हे जुवनत्रयदिनकर!) एटले त्रण जगतने प्रकाश करवामां मूर्य समान एवा. पासनाह के (हे पार्श्वनाथ! ) निरु के ( निश्चयेन ) एटले निश्चे, तिमिर के० (तिमिराणि ) अज्ञान अंधकारने. हर के० हरो. एटले नाश करो. ॥ १३ ॥
॥ तुह समरण जल वरिस सित्त माणव मइ मेणि ।
__ अवरावर सुदुम बोह कंदल दल रेहणि ॥ जायर फल जर नरिय, हरिय उद दाह अणोवम ।
श्य मर मेणि वारि वाह दिस पास मई मम ॥ १५ ॥ अर्थः-हे जगवन्! तुह के0 ( तव ) एटले तमारा, समरणजलवरिससित्त के0 ( स्मरणजलवर्षसिक्त) एटले स्मरणरूप जे जलनो बरसात, तेणे करीने सिंचन यएली एवी, माणवमश्मेइणि के0 (मानवमतिमेदिनी) एटले मनुष्यनी बुद्धिरूप पृथ्वी जेते, अवरावरसुहमलबोह के ( अपरापरसूक्ष्मार्थबोध) एटले नवा नवा जे सूक्ष्म अर्थना बोध अर्यात् जीवाजीवादि पदार्थ, झान ते रूप, कंदलदसरहणि के० ( कन्दलदलराजिनी ) नवा अंकुरा तथा पानां तेणे करीने शोजती एवी. तथा, फलनरजरिय के (फलजरजरिता ) फल कहेता छाननुं फल जे देशविरति तथा सर्व विरति श्यादि गुणना स्थान, तेरूप नारे क
॥३
॥
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। उप्र
___ साधु || रीने नरेली एवो ক্ষনিক चलो हरियजदाद के० ( हृतदुःखदाहा) नाश पाम्यो डे दुःखरूप दाह ते जेनो एवी. तथा, अणोक्म के० ( अनुपमा )
उपमा रहित एवी. जायज्ञ के० (जायते ) थाय बे. एटले मनुष्यनी बुद्धिरूप पृथ्वी, तमारा म्मरणरूप जलवमे सिंचन थई, तो २५॥ ते पृथ्वीमा जीवाजीवादि तत्वज्ञानरूप अंकुरा तथा पत्र, नत्पन्न याय बे. नें, ते लताने देशविरति सर्व विरति प्रमुख फल ला
गेले, अने दुःखमात्रने हरनारी, अने अनुपम एवी ते थाय बे. श्य के० ( इतिहेतोः) एटले ए हेतुमाटे, मइमेणिवारिवाह के (हे मतिमेदिनीचा रिवाह !) एटले बुझिरूप पृथ्वीने मेघ समान एवा. पास के० ( हे पार्थ!) एटले हे पार्थनाथपली ! मम के मने, मई के० (मति ) एटले बुद्धि, दिस के(दिश ) एटले आपो. अर्थात् मेघ वरसवाय जेम कंद पत्र सहित एटले प्रफुल्लित एवी अने संपूर्ण फलवाली यने दाह रहित एव। पृथ्वी थायले. तेम मारी बुद्धि, प्रफुल्लित तथा वांदितफल सहित, अने चितारूप तापे रहित एवी करो. ए जाव ले. ॥१४॥
॥ कय अविकल कल्लाल वल्लि नख्खूरिय हवणु ।
दाविय सग्ग पवाग मग्ग पुग्गर गम वारणु ॥ जय जंतुद जगएण, तुल जं जगिय हियावहु ।
रम्मु धम्मु सो जयन पास जय जंतु पियामदु ॥ १५ ॥ अर्थ:-कयअविकलकलाणवल्लि के0 (कृताधिकलकल्याणवलिः) एटले करीने सुंदर, कल्याणनी वल्लि एटले बेल, । अर्थात् श्रेणि ते जेणे एवा. तथा नस्लूरियदुहवाणु के० ( नचिन्नदुःखवनः ) एटले नाश कयु ले दुःखरूप वन ते जेणे एवा. अ
॥१६॥ थवा नाश कर्यों ले दुःखनो समूह ते जेणे एवा. तथा, दावियसग्गपवग्गमग्ग के० (दर्शितस्वर्गापवर्गमार्गः ) एटले देखाड्यो , स्वर्ग अने अपवर्ग कहेता मोक, तेनो मार्ग ते जेणे एवा. तथा, दुग्गगमवारणु के० (दुर्गतिगमनवारणः ) दुर्गतिमा जवानुं निवारण करता, एटले दुर्गतिमा पमतानी रक्षा करनारा एवा. तया, जयजंतुद के० ( जगजंतूनां ) जगतना जीव माणिमात्रना,
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मूत्र
साधु प्रति
अर्यः
॥३१॥
जणएल के (जनकेन)पिनाने, तुल के0 (तुल्यः ) समान एवा. एटले जेम पिता पुत्रनु कल्याण करे, तया दुःखनो नाश करे. तथा सन्मार्गने देखामे. तया असत् मार्गने विषे जे प्रवृत्ति तेनो निषेध करे ले. तेम तमो करो तो, माटे पिता समान एवा. तथा जं के० ( यत्-येन) जेणे, हियावहु के० ( हितावहः) एटले हितकारी एवो अने, रम्मु के० ( रम्य: ) रमणीय एवो. धम्मु के० (धर्मः ) एटले धर्म जेते, जणिय के० ( जनितः ) नत्पन्न कर्यो , एवा. तया, जयजंतुपियामहु के० ( जगङन्तुपि तामहः) जगतोषना पितामह, एटले पिताना पण पिता एवा. सो के सः) ते, पास के० (पार्थः) पार्श्वनाथप जे ते जयन के (जयतु ) जयवंता वत्तों. ॥१५॥
॥ नुवणारस्म निवास-दरिय-परदरिसल-देवय ।
जोणि-पूयण-खित्त-चाल-खुद्दासुर-पसुवय ।। तुह नत्त सुनछ, सुछु अविसंध्लु चिहि ।
. श्य तिहुअण-वण-सीह, पास पावा पणासहि ॥ १६ ।। अर्थः-भुवणारणनिवासदरिय के ( भुवनारायनिवासदृप्त ) एटले जगतरूप अरण्यने विषेने निवास ते जेमनो एवी सती मद सहित एटले अहंकार युक्त एवी, परदरिसणेदवय के० (परदर्शनदेवताः ) अन्यदर्शननी देवता एटले बुझा दिक देव जेते, तथा, जोणिपूयण खित्वाल के ( योगिनीपूतनाक्षेत्रपाल ) योगिनी के सि ले दुष्ट मंत्र ते जेने एवी मनुष्य जाति खियो, तया पूतना के दुष्ट व्यंतरी, तथा क्षेत्रपाल के क्षेत्रना नायक एवा व्यंतर देव, तया खुद्दासुरपमुवय के कुशमुरपशुवजाः, क्रुशसुर एटले दुष्ट एवा जुवनपति प्रमुख असुर, तेज, पशुना समूह जे ते, तुह के (वत्तः) एटले तमारायकी, 7तह के (नत्रस्ताः) एटले अतिशय त्रास पामता एवा, मुन के (मुनष्टाः) एटले अदृश्य यएला सता, सुडु के० (मुष्तु एटले अतिशे करीने, अविसंलु के० (विसंस्थुलं) एटले सावधानपणे, अर्थात् जय सहितपणे, चिहि के० (तिष्ठंति ) ए. टले रहे बे, अर्थात् वर्ते हे.
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साधु
प्रति
1129011
इके (इति) एटले ए हेतुमाटे, तिहुणवणसोह के० ( हे त्रिभुवनवनसिंहः ) एटले
जगरूप बनने विषे सिंह समान, एटले जेम सिंहथी बननां पशुमात्र त्रास पामी दूर थाय छे, तेम प्रथम कदेला सर्व हुए देवादिक, नमने उपव करी शकता नयी एटलुंज नही, परंतु तमारी स्तुति करनारने पण नृपश्व करें। शकता नथी, एवा पास के० हे पार्श्वनाथ स्वामिन्! पावाइ के० ( पापानि ) पापमात्रने, पलासहि के० ( प्रणाशयतु ) नाश करो. ॥ १६ ॥
॥ फलि - फल - फार-फुरंत - रयलकर - रंजिय-नइयल
फलिली - कंदल-दल - तमाल - निलुप्पल सामल ॥
कमासुर - नवसग्ग-वग्ग-संसग्ग- अगंजिय ।
जय पच्चरक - जिस पास जणय- पुरयि ॥ १७ ॥
अर्थ :- हे फणिफणफारफुरंतरयणकर के० ( हे फणिफणस्फारस्फुरनकर) फणी कहेतां प्रस्तावयी धरणें तेनी जे फणा तेने विषे. स्फार के० व्यतिशे विस्तार पामता एवा जे, रत्नकर के० रत्नना किरणो तेो करीने रंजियनहयल के० ( र तिनस्तल ) एटले रंग्यु एवं जे व्याकाशतल तेने विषे, फलिलीकंदलद्दलतमाल निलुप्पलसामल के० ( फलिनी कन्दलदलतमा - निलोत्पलश्यामल ! ) फलिनी एटले प्रियंगुलता "वाघाटाची बेल " तेना. कंदल के० नवा अंकुरा तथा पनिकां तथा तमालहनां पानमां, तथा कालुं कमल, ते जेवा श्यामल कहतां श्याममूर्ति एवों ने हे कमठासुरनवसग्गग्ग संसग्गागंजिय के० ( हे कमठासुरोपसर्गवर्ग संसर्गागञ्जित ! ) एटले कमठ नामे जे असुर तेनो जे उपसर्ग तेनो जे समूह सेना संसर्गयी एटले संबंधी, गंजित के० न पराजव पामेला एवा, हे पञ्चरक जिणेस के० ( हे प्रसवजिनेश ! ) एटले मारी दृष्टिगोचर थया माटे एवा है जिनेश्वर, थंजणयपुरठिय के० ( हे स्तंजनकपुर स्थित ) एटले स्तंजनकपुरमा रहेला एवा, पास के० ( दे पा र्श्व ! ) एटले हे श्री पार्श्वनाथजो ! तमो जय के० जयवंता वर्त्तो. या काव्यमां प्रयक्ष पद मूक्युं तेदो एवो अभिप्राय से के, सोल काव्यवमे सोन नमस्कार कर्या, सारपठी सत्तरमा काव्यमां मसक्ष थया. एम वृदवाणी बे ॥ १७ ॥
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सूत्र
अर्थः
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माधु प्रति०
lips
ना--तारां मन वचन काय शुन्न मते हुं प्रसाद करीश. एम हे लगवन् ! तमारे न विचारवं. एरीते कहे जे.
॥ मह मणु तरलु पमाणु, नेय वायावि विसंधुलु ।
नेय तणुर ऽवि अविणय-सहावु असल-विहलंथलु ॥ तुद माहप्पु पमाणु, देव कारुण-पवित्तन ।
श्य म मा अवहीरि, पास पालिदि विलवंतन ॥ १७ ॥ अर्थ:-हे जगवन् ! मह के ( मम ) एटले मारूं, मगा के० (मनः) एटले मन जे ते प्रसन्न ले तेमां, पमाणु के0 (प्रमाएं) एटले प्रमाण जे ते, नेय के० (नैव ) एटले नथीज. जे हेतु माटे. तरलु के० (तरलं ) एटले चंचल ते हेतु माटे. वली, वायावि के (वाचापि) एटले वाणी पण प्रसन्न . तेमां प्रमाण, नेय के0 (नैव ) एटले नयीज. जे हेतु माटे विसंतुलु के (विसंस्थुला) अव्यवस्थित . तथा तनुरऽवि के ( तनुरपि ) शरीर जे तेपण, अविणयसहावु के० (अविनयस्व नावा) ए. टले अबोनीत , एटले विनय रहित ले स्वजाव ते जेनो एवी बे; जेहेतु माटे. अलसविहलंथलु के0 (अलस विशृंखला एटले आलस्ये करीने वशवर्ति नथी रही. अर्थात् परवश यई बे. माटे तुह के० ( तव ) एटले तमारूं माहप्पु के० ( माहात्म्यं ) एटले महात्म्य जे ते पमाणु के० (प्रमाणं) एटले प्रमाण बे. एटले केवल तमाळं माहात्म्य प्रमाणथी परम शु६ पण मारा मन वचन कायाना योग, शुभ नथी, तोपण तमारुं माहात्म्य घणु महोटुं , माटे मारा नपर कृपा करो एजाव बे. माटे हे देव! कारुपपवित्तन के ( कारुण्यपवित्रः) एटले तमारी घणी करुणाए करीने पवित्र हूं. इय के (इति) एटले ए हेतु मादे, म के ( मां ) मने, मा अवहरि के ( मा अवधीरय ) एटले मां अवगणना करो. माटे, पास के (हे पार्थ! ) हे पा.
र्धनाथमनो! विलवंतन के ( विलपन्तं ) एटले दुःखबमे विलाप करतो, अर्थात् शोक करतो एवो मुनने, पालेहि के० (पालय ) एटले पालन करो. अर्थात् रागादि शत्रु थकी रक्षण करो. ॥ १७॥
जा-" ननु इति वितर्के" अन्य एवा रु प्रमुख देवनी पण प्रार्थना करो. मारीज केवल प्रार्थना करवान शुंकार
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साधु
| ण ! एम पण तमारे न धारयुं. एम स्तुति करें डे.. प्रति
॥ किं-किं कप्पिन नेय-कलुणु किं-किं व न जंपिन ।
किं व न चिनि किछु, देव दीणमय ऽविलंबिन ॥ २०॥
कासु न किय निष्फल्ल, लल्लि अम्हेहि छह तिहि ।
___ तहवि न पत्तन त.णु, किंपि पश् पदु परिचत्तिहि ॥ १ ॥ अर्थः-डे जगवन ! उत्तिति के ( दःखातः) एटले दाखव के करीने पीमाता एवा. अहिर (अम्मानिएटले अमे, किं किं के0 शुं शुं. नेय के० (नैव ) एटले नथीज. कप्पिन के० ( कल्पित) एटले चितवन कयु, अर्थात् दुःख मटामवाने मनवमे सघलुं विचारी जोयु. व के० ( तया) वली, कलुणु के0 (करुण ) एटले दीन एबु. किं किं के शुं शुं, न जपिन के (न जल्पितं ) एटले वाणीवके नथी जाषण कयु! अर्थात् सघलु दोन वचन बोल्या. व के० (तया) एटले वली, कितु के ( क्लिष्टं ) एटले क्लेशसहित एवं. किं के शुं, न चिन्नि के0 (न चेष्टितं ) एटले देहे करीने नथी आचरण कयु. अ. र्थात् सघळु कष्टकारी याचरण कायाये करीने कयु. हे देव ! दीयं के० (दीनतां) एटले दीनपणाने, अर्थात् रंकपणाने, अविलंबित के (अवलंब्य ) एटले अवलंबन करीने, कासु के० (केषु ) एटले कया पुरुषनी आगल, निष्फल के (निष्फला) एटले निष्फल एवी. ललि के० ( ललिः) चाटु नक्तिः , एटले नम्रतापूर्वक प्रिय मधुर वचन बोल ते, न किय के० (न कृता) एटले नथी कयु, अर्थात् सघळु कयु. तहवि के० ( तथापि) एटले तो पण, पह के0 हे प्रत्नो! पऽ के ( त्वया) एटले तमोयें. परिचत्तिहि के0 ( परिसक्तैः ) एटले परियाग करेला एज कारण माटे अमोए, किंपि के0 ( किमपि ) एटले कां३ पण, ताणु के० (त्राणं ) एटले रक्षण अथवा शरण, न पत्तन के0 ( न प्राप्त ) एटले नयो पाम्यु. अथवा मन वचन अने कायाए करीने सर्वनी आगल विनती करी पण तमारी कृपा मारा नपर ययाबिना कोई देवादिक कापण श्रेय करवा सम. र्थ नथी थया. एवा तमों समर्थ हो, माटे आ कष्टनुं निवारण थवा तमारीज प्रार्थना सफल थान. ए नाव ले. ॥१॥
॥on
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साम
अर्थः
% 3D
॥ तुदु सामिन तुहु माय-बप्पु तुहु मित्त पियंकरु । प्रति
___तुदु ग तुदु म तुडुजि, तागु तुदु गुरु से करु ।। 11
हनं उद-नर-नारिन--वरान रान निम्नग्गह ।
लीगन तुह कम-कमल-सरणु जिण पालहि चंगह ॥ २० !! अर्थ:-हे जगवन् ! तुहु के० (वं) एटले तमो, सामिन के0 ( स्वामी) एटले सर्व ऐश्वर्य संपन्न एवा पति गे. तथा तुहु के (वं ) एटले तमो, मायबप्पु के0 ( मातापितरौ ) एटले माता पिता बो. तथा तुहु के० (वं ) एटले तमो, पियंकर के। (प्रियंकरं ) एटले प्रियकारी एवा. मित्त के (मित्रं ) एटले मित्र बो. तुहु के० (वं ) एटले तमो, गइ के0 ( गतिः) एटले गति बो. अर्थात् पामवा योग्य बो. अथवा जे रक्षण, तमारा विना बीजा कोथी पण थइ शकतुं नया; एवा रक्षणनो उपायरूप तमारुंज शरणुं बे ए नाव जाणवो. तथा तुहु के० (त्वं ) एटले तमो, म के ( मतिः ) एटले मानीए. अर्थात् जा णीए, जेणे करीने ते मति कहोए. माटे मतिरूप बो. अर्थात् जे जगोए जेटलुं यथार्थ ज्ञान जणाय , तेलुं तमाराथीज प्रवत्यु . ए नाव जाणवो.
बली तुहु जि के ( त्वमेव ) एटल तमोज, ताण के० (त्राणं) एट ने रक्षणरूप बो. "कार्य कारणनो अनदोपचारथी रणनुं कारण तमो बो. अथवा रूपकालंकारनुं वर्णन जाणQ." तथा तुहु के. (सं) एटले तमो, खेमंकर के० (देमंक रः) एटले कल्याणकारी एवा, गुरु के ( गुरुः ) एटले गुरु बो. अर्थात् " गुकारस्त्वन्धकारोक्ती रुकारस्तन्निरोधकृत् । अंधकारनिरोधित्वाद्गुरुरिसनिधीयते इतिवचनात " गु, एटला अकरनो अंधकाररूप अर्थ . एटले अझानरूप अंधाराने, रु ए टता अकरनो रोकवावाचक अर्थ , माटे रोकनार एटले नाश करनार एवा बो. अने हनं के० (अहं) एटो हुँ जे ते, दुहजरनारिन के (दुःखजरत्नारितः) एटले दुःखरूप नारयो करीने जारवालो, अर्थात् दवायेलो एवो, अयवा दुःखना समूहवझे नारेलो एटले चारे पासथी घेरायलो एज कारण माटे. वरान के० ( वराक:) एटने रांक थयेलो एवो, तथा चंगह के
॥३०॥
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सूत्र
मतिक
॥श्शा
(चङ्गानां ) एटले नत्कृष्ट एवा. निब्जग्गह के0 (निर्जाग्यानां ) नाग्यरहित पुरुषोनो, रान के० (राट् ) एटले चक्रवर्ती रा. जा. अर्थात् निर्जाग्य पुरुपोमां पण जे नत्कृष्टा निर्जाग्य पुरुषो तेनो राजा कहेतां शिरोमणि राजा एवो छु. तो पण, लीण
अर्थः न के (लीनः ) एटले तमारे विषे लीन थयेलो. अर्थात् तमने प्राशरेलो छु, माटे तुह के० ( तब ) तमारां, कमकमलसरणु के० (क्रमकमलशरणं ) चरणकमल एज शरण . माटे जिण केहेतां (हे जिन !) हे जिन परमात्मन् ! पालहि के० (पालय) माझं रक्षण करो. ॥ २० ॥
जा-" ननु इति वितर्के" हे जगवन् ! कदापि तमो एम कहेशो के, नाइह तो वीतराग छु, अने में तो कोश्नो न पकार को नयी, माटे मारी प्रार्थना शुं करवा करे ! एम पण तमारे न कहेवू. एवीरीते तर्क करी तेनो नत्तर मनमांधारीने स्तुति करे ने.--
॥ पश् किवि कय नीरोय, लोय किवि पाविय-सुहसय ।
किवि मश्मंत महंत-केवि किवि साहिय-सिव-पय ।। किवि गंजिय-रिन वग्ग, केवि जसधवलिय-नूयल ।
___ म अवहीरहि केण, पास सरणागयवबल ॥ २१ ॥ अर्थः-हे जगवन् ! पद के0 ( त्वया ) एटले तमाए, किवि के ( केपि ) एटले केटलाएक, लोय के ( लोकाः) एटले लोक जे ते, नीरोय के0 ( नीरोगाः) एटले रोगरहित एवा, कय के0 (कृताः) एटले कर्या . बली किवि के0 ( केपि ) एटले केटलाएक, पावियसुहसय के० ( प्रापितसुखशताः) एटले प्राप्त थयां सेंकमो मुख ते जेमने एवा. तथा किवि के० (केपि) एटले केटलाएक, मश्मंत के ( मतिमन्तः) एटले बुद्धिवंत एवा. तथा केवि के0 (केपि) एटले केटलाएक महंत के0 (म
॥॥ २॥ हान्तः ) एटले महोटा एवा. तया किवि के० ( केपि ) एटले केटलाएक, साहियसिवपय के० (साधितशिवपदाः) एटले साध्यु डे मोक्षपद ते जेमणे एवा. तथा किवि के० ( केपि ) एटले केटलाएक गं जयरिनवग्ग के ( गजितरिपुवर्गाः) परालव प
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माड्यो शत्रुनो समूह ते जेम एवा तथा केत्रि के० ( केपि ) एटले के लाएक, जसधवलियनूयल के० ( यशोधवलितभूतलाः) यशव घोलुं कर्तुं पृथ्वीतल ते जेमणे एवा. एटले सघली पृथ्वीमां जेनुं यश विस्तार पाम्युं डे एवा; माटे सरणागयवचल ho ( हे शरणागतवत्सल ! ) शरणे यावेलाने वत्सल कहेतां प्रिय करनारा एवा. पास के० ( हे पार्श्व ! ) एटले हे पार्श्वनाथमनो! के के ( केन ) एटले श्या कारण माटे, मइ के० ( मां ) एटले मने वहीरहि के० ( अवधीरयसि ) एटले तिरस्कार करो बो. अर्थात् अवगणना करो बो. ॥ २१ ॥
॥ २८३ ॥
॥ हे जगवन् ! मारी अवगणना करवामां तमारे कां पण कारण नयी. ए प्रकारे स्तुति करे बे. -
॥ पच्चुवयार - निरीह, नाह निष्पन्न - पन्यण ।
साधु
प्रति०
तुह जिस पास परोव - यार - करणिक्क - परायण ॥
सत्तु - मित्त- समचित्त - वित्ति नयनिंदय - सममण ।
मा वहीरिय जुग्ग-नवि मई पास निरंजण ॥ २२ ॥
अर्थः – हेजगवन्! पच्चुवचारनिरीह के० ( हे प्रत्युपकारनिरीह ! ) एटले पारको उपकार करवामां आकांक्षा एटले फल प्राप्तिना निमाथी करेली इच्छा तेणे रहित एवा. तथा नाह के० ( हे नाथ! ) एटले हे स्वामिन्! तया निष्पन्नपन्यण ho ( हे निष्पन्नप्रयोजन! ) एटले सिद्ध ययुं वे प्रयोजन कहेतां संसारनो अंत करवारूप प्रयोजन ते जेनुं एवा. जिए के० ( हे जिन ! ) एटले रागदेषने जितनार, एटले समजावे वर्त्तनार एवा. तथा पास के० ( हे पार्श्व ! ) एटले हे पार्श्वनाथ! तथा परोवयारकर किपरायण के० ( हे पारोपकारकरणैकपरायण ! ) एटले पारका उपकार करवाने विषेज एक तानवाला एवा. तया समित्तसमचित्तवित्ति के० ( हे शत्रु मित्रसमचित्तवृते! ) एटले शत्रुने विषे तथा मित्रने विषे समान बे, चित्तनी वृत्ति ते जेमनी एवा तथा नयनिदयसममण के० ( हे नतनिन्दकसममनः ) एटले नत कहेतां नमस्कार करता एवा, अर्थात् जक्त, तथा निंदक 'एटले निंदा करनार, अर्थात् अक्त, ए बेने विषे सामान डे मन ते जेनुं एवा. तुह के० (वं ) एटले तमो अजुग्गनवि के
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सूत्र
अर्यः
॥१८३॥
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साधु
मूत्र
प्रति
अर्थः
॥२०॥
( अयोग्यमपि) एटले अयोग्य एवो, पण मई के ( मां) एटले मने, मा अबहीरिय के० ( मा अवधीरय ) एटने मां अवगएएना करो. केम जे, निरंजण के ( हे निरञ्जन ) एटले पाप कर्मरूप अंजन जेने नथी ते निरंजन कहीए. अर्थात् सर्वथा निदोष एवा तमे, पास के ( पश्य ) एटले मने देखो. अर्थात् मारा उपर कृपा कटाक नाखो तमारी कृपादृष्टिथी हूं निरंजन थतं. पण अवगणना पामवान पात्र न थनं. जेनी दृष्टिमां राग देष रूप अंजन रडं ले तेवा पुरुष मारानपर दृष्टिकरी, तो पण सुं? अने न करी तोपणशुं? माटे हे श्री निरंजन एवा पार्श्वनाथ ! तमो मारा नपर कृपादृष्टि करो; जेथी मारूं सघलुं कार्य सि. ६ थाव. ए नाव बे. ॥ ॥
ला-हेजगवन्! तमो प्रसन्न थान एटलं आ स्तुति करवानुं कारण ले. एटले तमारी प्रसन्नतामांज सर्व कार्यनी सिदि रही है। एम कहे दे.
॥ हन बहुविद-उद-तत्त-गत्तु तुह उह-नासण-परु ।
हन सुयलह करुणिक-ठाणु तुहु निरु करुणापरु ।। इन जिण पास असामि-सालु तुडु तिदुअण-सामिय ।
जं अवहीरहि मई, ऊखत श्य पास न सोहिय ॥ २३ ॥ अर्थ:-हे जगवन् ! हन के0 ( अहं ) एटले हुं जे ते, बहुविधदुहतत्तगत्तु के० (बहुविधदुःखतप्तगात्रः ) एटले घणा प्रका. रना दुःखको तप्यु ले शरीर ते जेनुं एवो, अने तुद के० (वं ) एटले तमो दुहनासापरु के० (दुःखनाशनपर ) एटले दुःखनो नाश करवामां तत्पर एवा. तथा हन के० ( अ ) एटले हुँ जे ते, मुयणह के0 ( मुजनानां ) एटले सङनोनी करुणिक्कठाणु
inta के० ( करुणौकस्थानं ) एटले दया करवान एक कहेतां एबुं बीजें नही माटे अदितीय एवु स्थान रूप एवो. अने, तुह के (वं) एटले तमो निरु के (अव्ययम् ) निश्चे, करुणापरु के० (करुणापर:) एटले दयाने विपे तत्पर एवा. एटले दयामयमूर्ति एवा. अथवा करुणायरु के० ( करुणाकरः) एटले दयानी खनीरूप, अर्थात् जेम रत्ननी खांणमांथी रत्न उत्पन्न याय,
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अर्थः
साधु || तेम दयानी खांणमाथी दयाज नत्पन्न याय. माटे दयानी नत्यत्तिर्नु कारण एका. সনি - बली हन के० ( अहं ) एटले हूं जे ने जिण के हे जिन! पाम के० (हे पार्थ!) हे पार्थनाय ! सामितालु के0 (अ.
स्वामिशालः ) स्वामिपणाए रहित एवी रोते शोजतो. अर्थात् सर्व प्रकारना दारिश्यवके शोजतो एको हूं. अनें, तुह के० (त्वं) न्या
तमो तिदुअणसामि के (त्रिनुवनस्वामिकः)त्रभुवनना स्मामो एवा. अर्थात् सर्व प्रकारमा ऐश्वर्यवके शोजता एवा बो. एम सते पण, जं के० ( यत् ) एटले जे जला के० (विजपंतं ) विलाप करतो एवो, मई के ( मां ) मने, अवहीरहि के (अवधीरयसि) अवगणना करी बगे. इय के० (८) एटले ए, पास के० (हे पार्थ!) हे श्री पार्थनाय ! न सोहिय के (न शोनितं) नथी शोलतुं. अयवा पास के (पश्य ) देखो !! इस के एन लोहिय नथी शोलतुं. माटे हवे तो जे ते प्रकारे शीघ्र प्रसन्न था. ए जाव ले. ॥ २३ ।। जाण्-हे जगवन् ! कदापि अयोग्य धारीने मारी अवगणना करशो तो ते पण युक्त नथी, एम कहे .
॥ जुग्गाऽजुग्ग-विन्नाग, नाह नदु जोयहि तुह-सम ।
नुवणुवयार-सहाव-लाव करुणा-रस-सत्तम । सम-विसमई किं घणु, निया नुधि दाह समंतन ।
. इय उदि-बंधव पास-नाद म पाल शुगंतन ॥ १४ ॥ अर्थ-हे जगवन् ! भुवणुक्यारसहावन्नाव के० (हे नुवनोपकारस्वनावनाव!) एटले जगतने उपकार करनार एवो || बे स्वानाविक अनिमाय ते जेनो एवा. तथा करुणारसप्तत्तम के० (हे करुणारससत्तम!) एटले दयारसबके श्रेष्ठ एवा. नाह in के० ( नाथ!) एटले हे स्वामिन् ! तुदसम के० ( वत्समाः, विनोपः प्राकृतत्वात् ) तमारा जेवा मोटा पुरुषो जे ते, जु.
म.जुग्गविजाग के 7 ( योग्यायोग्यविनागम् ) आ योग्य डे, अने आ अयोग्य बे, ए प्रकारना विजागने. नहु के० (नैव ) नयीज, जोयहि के० ( पश्यति ) एटले जोता. या योग्य पुरुष ने, माटे एना उपर कृपा करूं, अने आ तो अयोग्य , माटे
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प्रति
॥
६॥
एना नपर कृपा न करूं, एवो विचार मोटा पुरुष करता नयी, ए नाव डे.
तेलपर दृष्टांत करे ले. भुविके० ( पृथ्वीन विषे, दाह के० (दाई) दाहने, ममंतन के0 ( शमयन् ) शमावतो एवो, पणु || अर्थ: के ( घनः ) मेघ जेते, समविसमई के० ( समविपमाणि ) सरखां स्यान, ने नचा नीचो स्यान, तेने कि के शुं, निया के (पश्यति ) जुये बे अर्यात जोतो नयी. एटले मेघ वरसात करती वखन विचार करतो नथी. के, या सारूं स्थान बे, माटे इहां वरस. ने, आ सारुं स्थान नयी, माटे यहां न वरसवं एम तमे पण, दुःखित नपर दया करती वखत सार असारनो विचार करता नयी. इय के ( इतिहेतोः) ए हेतुनाटे, अहिवंबध के० (हे दुःखिबान्धव! ) दुःखवाला जनना बंधु समान. ए टले जेम यांधव दुःखनो नाश करे तेम, दुःखित जनना दुःखनो नाश करनार एवा. पासनाद के0 (हे पार्वनाथ! ) थुर्णतन के (स्तुवन्तं ) स्तुति करतो एवो, मइ के० ( मां ) मने, पाल के० (पालय) पालन करो. एटले मारूं रक्षण करो. ॥ ॥
ना-जगवन् ! वली कदाचित आप एम विचारता दशो के, योग्य तया अयोग्य एवो विचार तो अपारे करवो घ. टेले. तो तेवीरीते पण हुं कृपा करवाने योग्य छ. ते प्रकारनी स्तुति करे .--
॥ नय दोगह दीगयुं, मुयवि अन्नुवि किवि जुग्गय ।
जं जोइवि नवयार, करहि नवयार-समुऊय ॥ दीगह दीगु निहीणु, जेण तइ नाहिण चत्तन ।
तो जुग्गन अहमेव, पास पालहि मर चंगन ॥ ५ ॥ अर्यः-हे जगवन् ! नवयारसमुङय के० (तरकारसमुधताः) उपकार करवाने नचमवंत थएला एवा महोटा पुरुष जे तेनं के० ( यां)जे योग्यताने जोशनि के० ( गरेपयित्वा) गवेषणा करीने एटले खोलीने नवयार के0 (उपकारं ) उपकारने
॥ ६॥ करहि के० (नि) कर ले. तेव) जुग्गय के0 (योग्यता) योग्यता जे ते, दीपद के० (दीनानां) रंकपुरुषानी, दी[युं के० (दीनतां) रंकपणानी मुयवि के0 ( मुक्खा) मूकीने अन्नुषि के० (अन्यापि ) एटले बीजी पण, किवि के0 ( काचि
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साथ
सूत्र
अर्थः
॥२०॥
दपि) को पण योग्यता, नय के० (नच ) नथी. एटले रंक पुरुपर्नु रंकपणुं मूकीने बीजी योग्यता दया करवाने अर्ये खो लवी पमती नथी. ए अर्य जे. अने हं दोणह के० (दीनेन्यः) रंकथकी पण, दीण के0 (दोन) एटले रंक छ. अने निही. णु के0 (निःसत्वः ) अतिशे निर्बल छ, एटले लघु छ. जेण के० ( येन ) जे हेतु माटे नाहिण के (नायेन ) स्वामि एवा तइ के० (त्या) तमो जे तेमणे चत्तन के (सक्तः) साग करचो एवो. तो केश (ततः) ते कारण माटे अदमेव के इंज, जुग्गन के० ( योग्यः ) कृपा करवाने योग्य छु. पास के (हे पार्थ! ) दे पार्श्वनाथप्रनो! चंगन के0 ( चङ्गं, यथा स्यात्तमा कल्याण जेम थाय तेवी रीते मइ के0 ( मां) मने पालदि के0 (पालय ) रक्षण करो. ॥ २५ ॥
॥ अह अन्नुवि जुग्गय-विसेसु किवि मन्नहि दीगह ।
जं पासिवि नवयारु, कर तुद नाह समग्गह ॥ सुच्चिय किल कलाणु, जेण जिण तुम्ह पसीयद ।
किं अनिण तं चेव, देव मा म अवहीरह ॥ २६ ॥ अर्थ-हे जगवन् ! अह के० (अथ ) हये, अन्नुवि के० (अन्यदपि ) बीजो पण कोइ, जुग्गय विसेमु के ( योग्यता विशेष) योग्यपणानो विशेष तेने, किवि के० (किमपि ) कांड पण, मन्नहि के ( मन्यसे ) मानो डो. तो हे नाह के० (हे नाया ) हे स्वामिन् ! समग्गह के0 ( समग्राणां ) समस्त एवा, दीणह के० (दीनानां ) रंक पुरुषोनो, जं के ( यं) जे योग्यताविशेषने, पामिवि के० ( दृष्ट्वापि ) देखीने पण, तुह के० (वं) तमो जे ते, नवयारु के० (उपकारं ) नपकारने, कर के ( करोषि ) करो बो. तो, जिण के० (हे जिन ! ) हे जिनपरमात्मन् ! जेण के ( येन ) जेणे करीने, तुम्ह के0 ( यूयं ) तमो, पसीयह केतां (प्रसीदय ) प्रसन्न थान. सुच्चिय के० ( स एव ) तेज योग्यता विशेष जे ते, किल के निश्चे, कवाणु के० ( कच्चाणं ) कल्याणकारी याय . अन्त्रिण के० (अन्येन ) एटले वीजावके किं के शु. एटले शुं प्रयोजन ? माटे देव के हे देव ! तं चेव के० (तमेव ) तेज योग्यताविशेषन करो. पण म के० (मा) मने, मा अवहीरह के (मा अवधीरयत ) मां
॥२७॥
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साधु
मूत्र
अर्थः
न॥
अवगणना करो. ॥१६॥
॥ तुद पत्रण न-दु होइ, विहलु जिण जाणन किं पुण ।
__ हन उस्किय निरु सत्तचत्त उक्कहु नस्सुयमण ॥ तं मन्नन निमिसेण, एन एनवि जइ लन्न ।
सच्चं जं नुस्किय-वसेण किं कंबरु पञ्च ॥ ७ ॥ अर्थ:-हे जगवन् ! तुह के० (तब ) तमारी, पत्रण के० (प्रार्थना ) याचना करवी ते, विहलु के० (विफला)निष्फल एवी, नहु के० (नैव) नज, होर के० (जबति ) होय. ए प्रकारे, जिण के० (हे जिन ) हे जिनपरमात्मन् ! जाणन के (जानामि) हूं जाणु छ. तो पण, पुण के0 (पुनः ) वली, हन के० (अहं) हं जे ते कि के शुं ? दरिकय के० (दुःखितः) दुःखवालो, निरु के० (अव्यय बे.) निश्चे रहीश? अर्थात् दुःखरहितज यईश. एटले तमारी प्रार्थनाथी मारूं दुःख निश्चे जशे एम जाणु छु. केम जे तमारी प्रार्थना को काले निष्फल थतीज नथी; एटलो अर्थ ले. माटे, तं के० ( तत् ) ते, मन्नन के ( मन्ये ) एटले हुँ ते प्रकारे कहेता आगल दृष्टांत कहूं टुं, ए प्रकारे मार्नु छ. सत्तचत्त के० (सत्वसक्तः) सत्व एटले बल, प राक्रम, अने वीर्य तेणे करीने रहित एवो. तथा दुक्कह के० (अरोचकी, देशो शब्दः) अरुचिवालो एटले दुःखे करीने रंजन करवा (रीफाववाने ) योग्य एवो, तथा नस्सुयमण के० ( नत्सुकमनाः) फल प्रसे उत्साहवालुं ने मन ते जेनुं एवो, एटले जेम मांदो होय ते अशक्त होय, तथा तेने अन्नादिकने विषे अरुचि होय, तया ते औषध करतोज वखत जाणे के, एक निमेषमात्रमांज आ रोग मटाम्बारूप फल मले. पण तेवीरीने शहामात्रमा क्याथी मले? एम आतुरताने लीधे जाणे ते तो पण नथी जाणतो तेवो हुँ पण छ. ए नाव जाणवो.
"ते उपर दृष्टांत आ प्रकारे जाणवू." ज के ( यदि) एटले जो, निमिसेण के (निमिषेण ) एटले निमेषमात्रज अल्पकाले करीने, एन एनवि के0 (इदं श्दमपि ) एटले आ फल, आ फल पण, लग्न के (लत्यते) एटले पामीये. अ
॥श्न
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॥ अर्थ:
र्थात् ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी शुक्षता तथा तेथी उत्पन्न थयेलु केवलज्ञान तेणे करीने पामवा योग्य एg मोदरूप फल जे ते, जो पमाय तो, सच के0 ( ससं) एटले पूर्वे कहेलु काणमात्रमा सकस फल प्राप्ति थवारूप ते सस थाय, अर्थात् शु६झान दर्शन अने चारित्रनी तथा मोदारूप फलनी परिपकता अति अल्पकाले थती नथी, तेम हूं पण मारा रुमस्त रोगनी शांतिने विषे मार्नु छ. केम जे. जं के ( यत्, अव्यय दे.) जेम, नुस्कियवसेण के ( बुलवावशेन ) एटले शीघ्र जोजन करवानी इहाए, नंबर के ( औबरं ) एटले नमेझाना वृदनु फल, किं के शु. पञ्च के० (पच्यते ) पाके डे! अर्थात् नथी पाकतुं, लोकमां एयो नखांणो डे के, शुं उतावले उमेमां पाके ? तेम नतावले शुं मारा रोगमात्र नाश पामे? एम ९ जाणुं छु, मतां आ तुरताथी वारंवार दाख मात्र मटामवानुं कई . एवीरीतनो जाव ले. पूर्व कहेला नि:सचादि विशेषण मोक्तनी जलन प्राप्ति नपर पण लेवां ॥३॥
॥ तिदुअण-सामिय पास-नाह मा अप्पु पयासिन ।
किऊन जं निय-रूव-सरिसु न मुणन बहु जंपिन ।। अन्नु न जिण जग्गि तुह, समो-वि दखिन्नु-दयासन ।
__जर अवगनसि तुह-जि अहह कह होसु दयासन ॥ २० ॥ अर्थ:-हे तिहुणसामिय के० ( हे त्रिभुवनस्वामिन् ! ) हे त्र जगतना धणि ! हे पासनाह के ( हे पार्श्वनाय ! ) दे पार्श्वनाथप नो! मई के ( मया ) में, अप्पु के० ( आत्मा ) मारुं स्वरूप जे ते, एटले मारुं जेवू ऽखित स्वरूप हतुं तेवू. अथवा मारुं जेवू मनन वांबित हतुं तेवू, पयासिन के० (प्रकाशितः ) प्रकाश कर्यु. एटले कही देखाम्युं जं के० ( यत्, यस्माकारणात ) जे कारण माटे, बहु के घाणु, पिन के ( जल्पितुं ) कदेवानु, न मुणन के० ( न जानामि ) नयी जाणतो. ते कारण माटे, नियहवस रिमु के० (निजरूपसदृशं ) पोताना स्वनावने योग्य एवं. एटले तमारा महा दयालु स्वनावने जे नचि. त होयं ते, अर्थात मेम तमने घटतुं दोय तेम. किडन के० (क्रियता) करो. " कदाचित् हे प्रलो! तमो मारुं निवेदन करेलु
Anura
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सत्र
अर्य
मा || कार्य ( कप मटामवारूप ) तैने नही करो तो पण हुं बीजा कोइ पण अभ्य देवनी तो प्रार्थना बिलकुल करवानोम नथी. पति।
| एम जणावे ."
| है जिण के. (हे जिन) हे रागपना जितनार! एटले जण रागप जिया , तेने जगतमा असाध्य कां पण नयी ए-|| ilawal
चा तमो बो, माटे, जग्गि के0 (जगति ) जगतने विषे, दखिन्नुदयासन के० (दाक्षिण्यदयाश्रयः) महापण तथा दया तेमना आश्चयरूप एवा. एटले जगतमां जेटलुं महापां बे, ते सघलुं तमारे विष रघु ले. अने जेटलो जगतमां दया ले. ते करतां अनंतगुणी दया तमारा एकलामां रही बे, एवा, तुह के ( तव ) तमारे, समावि के ( समोपि) तुल्य एवो पण, अन्नु के ( अभ्यः) एटले अन्य पुरुष जे ते, न के0 ( नास्ति ) नयी. एटले जगत्मां तमारा जेवो महापणवालो तथा दयालु कोइपण अभ्य पुरुप नथी. तो अधिक तो क्यांयीज होय ! जेयी मने मूकीने तेनी प्रार्थना करूं? ए नाव जाणवो. जई के० ( यदि) जो, तुहजि के० ( त्वमेव ) तमेज, अवगन्नसि के० (अवगणयसि ) अवगणना करशो तो, अहह के0 ( महाखेदेऽव्ययम् ) आ महा खेदकारक वात यशे; केम जे, हयासन के० ( हताशः) हणाईले कहेतां नाश पामी ने आशा ते जेनी एवो हूं. क. ह के० ( कथं ) कीये प्रकारे, होसु के0 (नविष्यामि ) यश. एटले मारा हाल शा थशे ! अर्थात हुं अनन्य गतिवालो छ. माटे जरूर मार कार्य सिह करशो. ए नाव ले. ॥२०॥
॥ जर तुह रूविण किण-वि पेय पाश्ण वेलवियन ।
तुवि जाणन जिस पास, तुम्हि हनं अंगीकरिन । श्य मद इचिन जं न, दो सा तुह नहावणु ।
ररकंतद निय-किनि णेय जुऊर अवदीरणु ॥ ५ ॥ ला-हवे स्तुति करता करतां घणा प्रेमयी अंतर्दष्टि यइ, तेयी जाणे स्वप्नावस्थामा श्री पार्श्वनाथजीन रूप जोइन नमस्कार करे ले. अने तेना अनुसारे विज्ञापना करे . ।।
ए॥
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सा प्रतिक
मूत्र অম্ব:
॥३५॥
___ अर्थः हे जिण के० ( हेजिन! ) हे जिनपरमात्मन्! पास के0 (हे पार्थ!) हे पार्श्वनाथ प्रलो. नइ के ( यदि ) तुह के० (तव ) तमारा रूविण के0 ( रूपेण ) रूपे करीने पेयपारण के० (प्रेतप्रायेण ) प्रेत सरखा किणवि के० (केनापि ) को पुरुषे एटले पार्थ नामे यदादिके, अथवा कोई व्यंतर देवे वेलवियन के (वश्चितः) उग्यो छ. एटले में आज सादात् पार्श्वनाथजी दीठा ए प्रकारे उगायो. तुवि के० (तयापि ) तोपण तुम्हि के० (युप्मानिः) तमोए हनं के० (अहं) हुं. अंगीकरिन के० (अङ्गीकृतः) अंगीकार को छ. एटले जांणे तमेज मागे अंगीकार कर्यो एवीरीते जाणन के0 (जानामि) जाणुंटुं. इय के० ( इति देतोः) ए हेतु माटे मह के ( मम ) मारूं इनिन के० ( ईप्सितं ) डेलु कार्य, जं के0 ( यत् ) न होइ के० (न जवति ) सिझन होय तो, सा के0 ते तुह के० ( तव ) तमारी, नहावाणु के0 ( अपहापना) अपचाजना एटले लघुताई ले. ते हेतु माटे, निकित्ति के ( निजकत्ति ) पोतानो कीर्तिने रखंतह के0 ( रदतस्तत्र ) रदा करता एवा त मारी अवहीरणु के० (अवधिरणा) अपकीर्तिणेय के नैव ) नही, जुझाइ के० (युज्यते ) घटे. एटले यद्यपि कोइ देवे तमारुं रूप धारण करी मने जुवं स्वप्न आप्यु होय में, तेथी हूं आविने आ प्रकारनी तमारी प्रार्थना करुं छं तो पण माझं वांबित सिझन थाय तो, ते पण तमारीज हेलना बे. केमजे अद्यापि न ययेली अवगणना हवे शुं करवी घटे! अर्थात् नज घटे. माटे शीध्र प्रसन्न थान. ए जाव बे. ॥ ए॥
॥ एह मदारिय जत्त, देव इदु न्हवण-मदुसळ ।
जं अगलिय-गुणगदण, तुम्ह मुणि-जण-अणिसिक ।। एम पसीय सुपास-नाह अंतणय-पुरठिय ।।
श्य मुणिवरु सिरि-अन्नय-देन विनव अणिदिय ॥ ३० ॥ जा-हवे विज्ञापनामां को प्रकारनी अपूर्णता न रहेवा देइने स्तुति करे बे.-~अर्थः-देव के हे देव! प्रसङ्ग थयेला पार्श्वनाथ देवने कहे . एह के० (एषा ) एटले आ, मदारिय के० ( मदीया)
॥शए।
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माधु
महारी, जत्त के (यात्रा) यात्रा जे ते, तया इहु के० (एषः) आ. न्हवणमहुसन के० (स्नानमहोत्सवः) स्नात्रमहोत्सव, तपति था जं के० ( यत् ) जे, तुम्ह के० ( युष्माकं ) एटले तमारूं, मुणिजणअणि सिन के (मुनिजनानिपिई) एटले मुनिजनने
न निषेध करेलु एवं. अणलियगुणग्रहण के0 ( अनलीकगुणग्रहणं) विद्यमान एवा गुणगें ले ग्रहण ते जेने विषे एवं स्तोत्र
कर्यु. एम के0 ( एवं ) ए प्रकारे, एटले आ कह्या प्रमाणे वृत्तांत बे, माटे पसीय के (प्रसीद ) प्रसन्न था. एटले राजादिएशा
कना गुण ग्रहण करवा ते मुनिने निषिदले. केम जे, ते पापी होय, तथा जे गुण तेमां न होय, तेवा गुण कहेवा पके, श्यादिक दोष जे. एटले आ स्तोत्र तो मुनिजनने पण जणवा योग्य ले. तेथी गृहस्ये तो अवश्य पाठ करवो. एम मूचना करी. तथा जे तमारी यात्रा करे, तया जे तमारा आस्तात्रनो पाठ करे, तेना नपर प्रसन्न थान. इसादि मागीलीधुं, एम व्यंग्यार्थनी कल्पना करी शकाय डे.
वली हे सुपासनाह के० ( हे श्री पार्श्वनाय ! ) हे श्री पार्श्वनाथप्रनो! तथा हे थंजणपुरयि के० ( हे स्तंजनपुर स्थित!) हे स्तंजनपुरने विष रह्या एवा, ए विशेषण कहां तेणे करी हे जगवन् ! तमारी स्थापना पुरमां करूंछ, एम निवेदन कयु जा ॥ण. श्य के० ( इति ) ए प्रकारे, अहिंदिय के ( अनिदितः) त्रण लोकना लोकोए मनोवांबित पूरक एवा प्रकार, स्तोत्र
देखीने प्रशंसा करेला एवा. मुणिवरु के0 ( मुनिवरः) मुनिमां श्रेष्ट एवा, रिअजयदेन के० (श्री अजयदेवः ) श्री अन्नयदेवमूरि जे ते, विनवड के० (विश्पयति ) विज्ञापना करे ले ॥30॥
॥ परिशिष्ट.॥ श्रीअजयदेवमूरि, नामना आचार्यो घणा थया ले माटे, आ स्तोत्रना करनार नवांगीवृत्ति करनाराज के एम प्रमाण आपवानी आवश्यकता जाणीने तेज अजयदेवरिना शिष्यश्री प्रसन्नचश्मूरिनी आझाये मंवत् ११३० ना वर्षमा गुरुचंइनामा गणीये मागधी जापामां रचेला श्रीमहावीरचरित्र तेनी प्रशस्ति, महोटी होवाथी, न लखतां तेनुं सारमात्र किंचित् ल छं.
चश्कुलमा संजमना निधिरूप वीवईमानमूरि थया. जेणे घणोज शु६ मुनिमार्ग प्रकाश करयो बे. तेमना घणा शिष्यो मांचे शिष्यो मूर्य चं समान घणा प्रतापी प्रख्यात यया हता. तेमां प्रयम महा प्रनाविक जिनेश्वररि यया. जेथी खरतर
॥श्या
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साधु
प्रति
गबनी नप्तत्ति यईले ते, नथा बोजा पूर्णिमा चं समान वीबुद्धिसागरमूरि थया. जेमणे याकरण, संदःशास्त्र, तया एकांतवादने खमन करनारा घणा ग्रंयो करचा डे. तेना प्रथम शिष्य जिनचं नामे मूरि यया. जेणे संवेगरंगशाला विगेरे घणा ग्रं. थो कर्या ने एटलुंज नही परंतु सर्व जनने आश्चर्यकारीसंयमप्रवृत्ति पण करी. बीजा शिष्य श्रीअजयदेवमूरि यया. जेमणे अलंकार सहित, सारां सक्का (व्याकरण ) सहित, प्रसन्न, अने श्रेष्ट पद पंक्ति सहित, मुंदरी स्वीना रूपनी पेठे विज्ञान पुरुषना चित्तनुं आकर्पण करनारी नवांगीति करी. ते अनयदवमूरिये या स्तोत्र रच्यु दे.
श्री हरिजश्मूरि कृत अष्टकजीनी टीका जिनेश्वरमरिये संवत् १०७० ना वर्षमा करी ले. अने ते टीका श्री अजयदेवमूरिये शोधी जे. एम तेज ग्रंथमा लख्यु ले. कोइ जगोए एमने जिनेश्वरमूरिना शिष्य लखे ले तो पण धनथी. केमजे खरतरगबनी प्रवृत्ति करता पहेला तेमना शिष्य कहेवाता हशे.
॥ इति श्री जयतिअण स्तोत्रं अर्यसहितं समाप्तं ॥
-
॥ अथ प्रस्ताविक हा. ।। अवसर मरण निकटतणों, जब जाणे बुधनीय । तब विशेक साधन करे, सावधान अति होय ॥१॥ धर्म अर्थ अरू काम शिव, साधन जगमें चार । व्यवहारे व्यवहार लख, निश्चे निज गुण धार ।। ३॥मूर्ख कूल आचारथी, जाणे न धर्म स. दीव ॥ वस्तु स्वजाव धर्मसुधी। कहत अनुनयी जीव ॥ ३ ॥ खेह खजानाकुं अरथ । कहत अझान) जेह ॥ कहत इव्य दरसावकुं । अर्थ मुझशनी तेह ॥४॥ दंपती रति क्रोमा प्रसे। कहत दुरमति काम ।। काम चित अजिलाखकुं। कहत सुमति गुण धाम ॥ ५॥ इह लोककुं कहत शिव । जे आगम इगदीण ॥ पंच अनाव अचलगती । नाखत निस प्रवीण ॥६॥ एम अध्यातम पर लखी। करत साधना जेह । चिदानंद जिन धर्मनो । अनुजय पावे तेह ।। ७ ।। समय मात्र प्रमाद तज । धर्म साधनामाय ।। अथिररूप संसार लख रेनर कहीए ज्यांह ॥ ॥ जित निन्न लिन आवखो। अंजली जल ज्यूं मीत ।। कालचक्र माथे जमत । सोवत कहा अजीत ॥ ॥ तन धन जोबन कारमा । संका राम समान ।। सकल पदारय जगत में ।
१५३॥
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साधु
प्रसिद्ध
॥२९४॥
सुपन रूप चित्त जान || १० || मेरा मेरा क्या करे । तेरा है नही कीय || चिदानंद परिवारका | मेला हे दिन दोय ॥ ११ ॥ एसा जाब निहारतां । कीजें ज्ञान विचार || मिटे न ज्ञान विश्वार विा । अंतर राग विकार ॥ १२ ॥ ज्ञान रवि वैराग्य जस हिरदे चंद समान | तास निकट कहो केम रहे । मिथ्या तम दु:ख खाण ॥ १३ ॥ आप आपग रूपमें । माणान ममत मल खोयनिय रहे समता रति । तास बंध नवि कोय ॥ १४ ॥ परपरणति परसंगसुं । उपजत बिनसंत जीव || मिथ्या मोह परजावको । चलयास सदिव ॥ १५ ॥ जेसे कंचुकी यागसें । बिनसत नहीं जुजंग || देह सागयी जीव पण । तेसे रहत - जंग ॥ १६ ॥ जो उपजे सो तुं नहि । निसें ते पण नांहि || छोटा मोटा तु नही । समज देख दिलमांदी ॥ १७ ॥ वरण बांख तोमें नहीं । जात पात कुल रेख || रावरंक तुंही नहीं । नही बाबा नहीं जेख ॥ १७ ॥ तुं सौमें सौयी सदा । न्यारा - लख संरूप ॥ कथ कथा तेरी महा । चिदानंद चिदरूप ॥ १७ ॥ जनम मरण जिहां है नही । ईन जीत लवलेश ॥ नहि शिर या नारदकी । सोही आपणा देश || २० || विनाशिक पुरुलदशा । अविनाशी तुम आप || आप आप विचारतां । मिटे पुन्य रु पाप ॥ २१ ॥ बेमी लोह कनकमयी । पाप पुन्य जग जाता | दोययकी न्यारा जला । निज स्वरूप पहिबान ॥ २२ ॥ जुगलगति शुन पुन्यथी । इतर पापथी जोय ॥ चारो गति निवारीए तब पंचमी गति होय ॥ २३ ॥ पंचमी गति बिन जीवकुं । सुख तिहुं लोक मोकार || चिदानंद नवि जाणजो । एह मोटो निरधार ॥ २४ ॥ एह विचार हिरदे करत । ज्ञान ध्यान रसलीन || निरविकल्प रस अनुजवे । विकलपता होय विन्न || २५ || निरविकल्प उपयोगयें । रहे समाधिरूप ॥ मचल ज्योत फलके तिहां | पावे दर्श अनूप ॥ २६ ॥ देख दर्श प्रभूत महा | काल त्रास मिट जाय ॥ ज्ञान जोग उत्तम द"शा | सद्गुरु एह बताय ॥ २१ ॥ ज्ञानालंबन प्रौढ ग्रही । निरालंबता जाव || चिदानंद निय कीजीये । एहीज मोक्ष उपाय ॥ २८ ॥ थोमानायें जाओ । कारजरूप विचार ॥ कहत सुनत कछु ज्ञानकों क न यावे पार ॥ २७ ॥ में मेरा ए जावथी । बधे राग अरु रोष ॥ राग दोस जोलों हीए । तोंडयो मिटे न दोष ॥ ३० ॥ राग छेप जाऊं नहीं | ताकुं काल न खाय ॥ काल जीत जगमें रह्यो । एहीज मोक्ष उपाय || ३१ ॥ चिदानंद निस कीजीयें। समरण सासोसास ॥ बखत अमोल जा त है | खास खवर नही तास ॥ ३२ ॥
॥ इति प्रस्ताविक हा समाप्तः ॥
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सूत्र
अर्थः
॥२५४॥
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सा
॥ अथ परमातम उत्रीसी प्रारंन्नः ।। प्रति परमदेव परमातमा । परम ज्योति जगदीस ॥ परम नाव नर आनकें । प्रणमत हु नीसदीम ॥ १ ॥ एक ज्युं चेतन इव्य ।। अर्थः
है। तोमें तीन प्रकार ॥ बहिरातम अंतर कह्यो । परमातम पद सार ॥२॥ बहिरातम ताकुं कहै । लेखे ते ब्रह्म स्वरूप ॥ मा॥३ ॥ गन रहे पर इव्य है । मिथ्यावंत अनूप ॥ ३ ॥ अंतर आतमा जीव सों। सम्यक् दृष्टि होय ॥ वे यै अरु फुनि वारमै । गु
णथानकलों सोय ॥ ४ ॥ परमातम पद ब्रह्मकों । प्रगट्यो सुइ स्वजाव ॥ लोकालोक प्रमाण सय । ऊलके तिनिमें प्राय ।.॥ बाहिर आतम नाव तज । अंतर आतमा होय ॥ परमातम जजतु है। परमातम वहे सोय ॥६॥ परमातम मोइ आतमा। अ वर न दुजो कोई॥ परमातमकुं ध्यावते । एह परमातम होय ॥ ॥ परमातम एह ब्रह्म है । परम ज्योती जगदीस ॥ परसु जिन्न निहारोये । जोई अलख सोइ इस ॥ ॥ जे परमातममि में । सोही आतमामांहि ॥ मोद मयल इग लगी रह्यो । तामें मूकत नाही ॥ ए ॥ मोह मयल रागादिके। जा लिनकिजे नास ॥ तानिन एह परमातमा । आपहि लहे प्रकास ॥१०॥
आतम सो परमातमा । परमातम सोई सि ॥ विचकी दुविधा मटगई । प्रगट नईनिज रिच ॥ ११ ॥ मेंहि सिम परमातमा । मेंहि आतमाराम ॥ मेंहि ग्याता गेयको । चेतन मेरो नाम ॥ १२ ॥ मेंहि अनंत सुखको धन । मुखमें मोहि सोहाय ।। अविनासी आणंमदय | सो अहं विजुवनराय ॥ १३ ॥ मुह हमारो रूपहें। शोजित सिम समान ॥ गुण अनंत करी संयुत । चिदानंद जगवान ॥ १४ ॥ जे सो सिव तहि वसे । तेसो या तनमांहि ॥ निश्चयदृष्टि निहारतां । फेर रंच कछु नाहि ॥ २५ ॥ करमनके संजोग । जए तीन प्रकार ॥ एक आतमा इव्यकुं । करम नटावणहार ॥ १६ ॥ कर्मसंघातें अनादिके। जोर कछु बसाय ॥ पाइ कला विवेककी । रागष बिन जाय ॥ १७ ॥ करमनकी जर राग हे । राग जरे जर जाय ॥ परम होत परमातमा । जाइ मुठाम नपाय ॥ १० ॥ काहेकुं लटकत फिरे । सिम होनके काज ॥रागक्षेपकुं खाग दे । जाइ सुगम इलाज ॥ १९ ॥ परमातमपदको धनी। रंक जयो बिल लाय ॥रागक्षेषकी प्रीति सौ । जनम अकारथ जाय ॥ २० ॥ रागषकी मोति तुम । भुले करो जन रंच ॥ परमातम पद ढांकके । तुमहि किये तिरयंच ॥ १॥ जप तप संजम सब
॥श्य ललो । रागष यौ नादि ॥रागप जो जागते । एसब जए कांहि ॥ १२॥ रागषके नासते । परमातम परकास ॥ रागदेष | कैलासते । परमातम पद नास ॥ १३ ॥ जो परमातम पद चहें । तो तुं राग निवार ॥ देखी संजोग सामीको । अपने हिये
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प्रति
ए॥
विचार ॥२॥ लाखबातकी बात ईह। जो कु देई बताय ॥ जो परमातम पद चहो। राग देष तज लाइ ॥२५॥ रा म ऐप सागविनुं । परमातयपद नांहि ॥ कोटी कोटी जपतप करो । सब अकारय जाय, ॥६॥ दोष आतमाकुं ह । राग द्वेषको मंग॥ जेसे पास मजीठमें । वस्त्र र हि रंग ॥१५॥ तेसे आतम इव्यकुं । राग देषके पास ॥ कर्म रंग लागत रहे । कैसे खहे प्रकाश ॥ ॥ ईण करमनको जीतयो । कठिन बातहे वीर ॥ जर खोद विर्नु नहि मिटें दुष्ट जात बेपीर ॥ ॥ लखो यतो के कीयो । ए पिटवेके नाहि ॥ ध्यान अगनि परकाशके होम देहि तेमांहि ॥३०॥ ज्युं दारुके गंजकुं। नर नदि सके नगाय ॥ तनक आग संजोग ते । बिन एकमें नम जाय ॥ ३१ ॥ देह सहित परमातमा। एह अचरिजकी बात ॥ रागषके साग ते । करम शक्ति जरी जात ॥ ३३ ॥ परमातमके नेद क्ष्य । निकल सगल परवान ॥ मुख अनंतमें एकसे । कहेवे के क्ष्य याय ॥ ३३॥ लाई एह परमातमा । सोहं तुममें याहि ॥ अपनि जक्ति संजारके। लिखा बगदेतांहि ॥३४॥ रागदेषकु सागके । धरी परमातम ध्यान ॥ युं पावे सुख शाश्वत जाई म कस्यान ॥ ३५ ॥ परमातम बत्रीसीकों। पदीयो प्रीति संजार ॥ चिदानंद तुमप्रति लखि । आतमके नकार ॥ ३६॥
॥इति परमातम उत्रीसी समाता ॥
।
॥ अथ श्रीचिदानंदजी कृत पुद्गलगीता प्रारंनः॥ ॥ क्या धन में गदाबे. एकदिन माटीमें मिल जाना ॥
॥ए देशी ॥ ॥ संतो देखीयें बे, परगट पुनल जाल तमासा ॥ ए आंकण। ॥ पुल स्वाणो पुजल पीणो, पुरुल हुंयी काया । वर्ण गं ।। ध रस फरस सहु ए, पुलहुकी माया ॥ संतो ॥१॥ खान पान पुल बनावे, नही पुरुल विण काय ॥ वर्णादिक नही जी. | ॥६॥ वमें के दोनो लेद बताय ॥ सं० ॥ ॥ पुल काला नीला राता, पीला पुल होय ॥ धवला युत ए पंचवरणा गुण, पुलहुंका जोय ॥ सं० ॥ ३॥ पुलविण काला नदि बे, नील रक्त अरु पीत ॥ श्वेतवर्ण पुरल बिना वे, चेतनमें नही मोत ॥ सं॥
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__साधु
पतिः
अर्थः
॥शए॥
॥ ३॥ सुरजिगंध दुरबंधता वे, पुलहमें होय || पुलका परसंग विना ते, जीवमांहे नवि होय ॥ सं०॥५॥ पुल तोखा कमवा पुगल, फुनि कसायल कहोवें ॥ खाटा मीठा पुल केरा, रस पांचं सहहीयें ।। सं० ॥६॥ शीत कृष्णा अरु काग कोमल, हलुवा नारी सोय ॥ चिकणा रूखा आठ फरस ए, पुलहुमें होय ॥ सं० ॥ ७ ॥ पुरुलथी न्यारा सदा जे, जाण अफरसी जीव ॥ ताका अनुनब नेद शानयी, गुरुगम करो सदीव । सं० ॥ ॥ क्रोधी मानी मायी लोनी, पुनल रागे होय ॥ पुलसंग बिना चेनन ए, शिवनायक नित जोय ॥ संछ ॥ ॥ नर नारी नपुंसक वेदी, पुलके परसंग ॥ जाण अवेदी सदा जोव ए, पुल विना अनंग ॥ सं० ॥१०॥ बूढा बाला तरुण थया ते, पुरुसका संग धार ॥ त्रिहुं अवस्था नही जीवमें, पुलसंग निवार । सं0 ॥ ११ ॥ जन्म जरा मरणादिक चेतन, नानाविध रख पावे ॥ पुल संग निवारत तिण दिन, अजरामर होय जावे ॥ सं० ॥ १२॥ पुरुल राग करी चेतनकुं, होत कर्मको बंध ॥ पुरुल गग विसारत मनथी, नीरागी निबंध ॥ सं० ॥ १३ ॥ तन मन काय जोग पुलयो, निपजावे नितमेव ॥ पुलसंग विना अयोगी, थाय लही निजत्नेव ॥ २० ॥१॥ पुद्गल पिंक थको निपजावे, जला जयंकर रूप ॥ पुरुलका परिहार कियाथी, होवे आप अरूप ॥ सं० ॥ १५॥ पुरुल रागी थइ धरत निज, देहगेहथी नेह ॥ पुल राग लाव तज दीलथी, जिनमें होत विदेह ॥ सं० ॥ १६ ॥ पुल पिक लोलुपी चे. तन, जगमें रांक कहावे ॥ पुरुस नेह निवार पलकमें, जगपति बिरुद धरावे ॥ सं० ॥ १७ ॥ पुद्गलमोह प्रसंगें चेतन, चारुगतिमें जटके ॥ पुद्गलनेह तजी शिव जाता, समयमात्र नहिं अटके ॥ सं० ॥ १७ ॥ पुद्गलरस रागी जग जटकत, काल अनंत गमायो । काची दोय घमीमें निज गुण, राग तजी प्रगटायो । सं० ॥१७॥ पुद्गल रागें वार अनंती, तात मात मुत थश्या॥ किसका बेटा किसका बाबा । जेद साच जब लहीया ॥ सं० ॥ २०॥
पुद्गलमंग नाटक बहु नटवत, करतां पार न पायो ॥ जवस्थिति परिपक य तब, सहेजें मारग आयो ॥ सं० ॥ १॥ पुदगलरागें देहादिक निज, मान मिथ्याती सोय ॥ देहगेहनो नेह तजीने, सम्यकदृष्ट होय ॥ सं० ॥ ॥ काल अनंत निगोद धाममें, पुद्गल रागें रहियो ॥ कुःख अनंत नरकादिकयी तुं, अधिक बहुविधि सहियो ॥ सं० ॥ १३ ॥ पाय अकाम निडाराको बल, किंचित मुंचो आयो ॥ बादरमा पुद्गल रस वशयी, कान असंखगमायो ॥सं० ॥ २४ ॥ लही योपशम मतिझानको, पंचेश्यि जवलाधी॥ विषयासक्त राग पुदगलथी, धार नरक गति साधी॥सं० ॥ २५॥ वामन मारन ले
३०
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साधु
प्रतिव
115461
दन मेदन, वेदन बहुविध पाई || क्षेत्रवेदना यदि दईने, वेद नेद दरसाई ॥ सं ॥ ० २६ ॥ पुद्गलरांगें नरकबेदना, बारती वेदी ॥ पुण्यसंयोगे नरजव लाभो, अथुन युगलगति जेदी || सं० ॥ २१ ॥ अति दुर्लज देवनकुं नरजव, श्रीजिनदेव वखाणे || श्रवण मृणी ते वचन सुधारस, त्रास केम नंवि आणे ॥ सं० ॥ २८ ॥ विषयासक्त राग पुद्गलको, घरि नर जन्म ग यावे || कांग जमावणकाज वित्र जेम, मारमणि पछतावे || सं० ॥ २०९ ॥ दश दृष्टांते दोहिलो नरजव, जिनवर व्यागम जायो | पण तिकुं किम खबर के जिरा, कनक वीज रस चाख्यो ॥ स्रं ॥ ३० ॥ हारत या अनोपम नरजव, खेल विषय रस जूमा || पीछें पछतावत मनमांहि, जिन निमलका सूया ॥ सं ॥ ३१ ॥ कोइक नर इम वचन सुणीने, धर्मयकी चित्त लावे ॥ पण जे पुद्गल आनंदी तस, स्वर्ग तथा सुख जावे || सं० ॥ ३२ ॥ संजम के फल शिव संपत, अल्पमति नवि जाणे ॥ विन जाणे नियाणां करीने, गज तज रासन आणे ॥ सं० ॥ ३३ ॥ पौलिक सुख रस रसिया नर, देवनिधि सुख देखे ॥ पुचहीन थयां दुर्गति पामे, ते लेखां नवि लेखे || सं० ॥ ३४ ॥ देवतगणां मुख वार छानंती. जीव जगत् में पाया ॥ निज सुख विपुल सुखतो, मन संतोष न आया ॥ सं० ॥ ३५ ॥ पुलिक मुख सेवत प्रहनिश, मन इंडिय धावे ॥ जिम घृत आहूति देतां निशांत नवि थावे ॥ सं० ॥ ३६ ॥ जिम जिम अधिक विषयसुख सेवे, तिम तिम तृष्णा दीपे || जिम पेयजल पान कीयाथी, तृपा कहो किम बीपे ॥ सं० ॥ ३७ ॥ पुद्गलीक सुखना यात्रादी, एह मरण नवि जाणे ॥ जिम जा संघ पुरुष दिनकरनुं, तेज नवि पहिचाणे ॥ सं० ॥ ३८ ॥ इंडिय जनित विषयरस सेवत, वर्त्तमान सुख ठाणे ॥ पण किंपाक त फलनी परे, नविविपाक तस जाणे ॥ सं० ॥ ३९ ॥ फल किपाकथकी एकज जब, प्राण हरण दुःख पावे || इंडिय ज नित विषयरसतेतो, चिंहुंगतिमें जरमावे || सं० ॥ ४० ॥ एह जाणिविषयमुखसेंति, विमुखरूप नित रहीयें, त्रिकरयो में शु 45 जानवर, जेद यथारथ लहीयें ॥ सं० ॥ ४१ ॥ पुण्य पाप दोष सम करी जाणो, द म जाणो कोट || जिम बेमी कंचन लोहानी, बंधनरूपी दोन ॥ सं० ॥ ४५ ॥ नल बल जल जिम देखो संतो. टंचा चढत व्याकाश || पाठा दलि भूमि पफे तिम, जाणो पुए प्रकाश ॥ सं० ॥ ४३ ॥ जिम साहासी लोहनी रें, कृण पाणी आग || पाप पुण्यनो इविष निश्चें, फन जालो गहाजाग || सं० ॥ कंप रोग में वर्त्तमान दुःख, अकरमांहि आगामी || इविध दोन दुःखना कारण, जां रजामी || सं० ॥ ४५ ॥ कोल कूपमें पनि सुत्रे जिम, कोठ गिरि ऊंपा खाय ॥ मरण वे सरिखा जागिये पण, जेद दोन क
४४ ॥
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सूत्र
अर्थः
शा
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| अर्थः
साधु | हेवाय ॥ सं० ॥ ६ ॥ पुण्य पाप पुसदशा इम, जे जाणे सम तुल ॥ शुनकिरिया फल नबि चाहे ए, जाण अध्यातममूल, प्रति ॥ सं०॥७॥ शुजकिरिया आचरण आचरे, धरें न ममता जाव ॥ नुतन बंध होय नही इण विध. प्रथम अरि शिव धाव
॥ सं० ॥४०॥ वार अनंत चूकीया चेतन, श्ण अवसर मत चूक | मार नोशाना मोहरायको, बाती में मत ऊक ॥ सं॥ ॥श्ए
४॥ नदी गोल पाषाण न्याय करी, दुर्लन अवसर पायो॥ चितामणि तज काच सकल सम, पुलथी लोनायो ।सं०ए०॥
परवसता दुःख पावत, चेतन पुद्गलथो लोजाय ॥चम आरोपिन बंध विचारत, मरकट मूठी न्याय ।। सं० ।। ५१ ॥ पु. द्गल राग जावथी चेतन, थिर सरूप नवि होत ॥ चिहुं गतिमां लटकत निशदिन म जिम जमरिबिच पोत ॥ सं० ॥ ५॥ जमलक्षण परगट जे पुद्गल, तास मर्म नवि जाणे ॥ मदिरापान बक्यो जिम मद्यप, स्व र नवि पीडाणे ॥ २० ॥ ५३॥जीव अरूपी रूप धरत ते, परपरणित परसंग ॥ वज्ररत्रमा मंक योग जिम, दर्शित नानारंग ।। सं0 ।। ५४ ॥ निजगुण साग राम परयो थिर, गहत अशुजदल थोक ॥ शुरुधिर तज गंधो लोही, पान करत जिम जोक ॥ सं०॥ ५५ ॥ जम पुद्गल चे तनकुं जगमें, नाना नाच नचावे ॥ बाली खात वाघकुं यारो, ए अचरिज मन आवे ॥२॥ ॥ २६ ॥ ज्ञान अनंत जीवनो निजगुण, ते पुद्गल आवरियो । जे अनंत शक्तिनो नायक, ते ण कायर करियो । सं० ॥ ५५ ॥ चेतनकुं पुद्गल ये निशदिन नानाविध दुःख घाले ॥ पण पिंजरगत नाहरनी परें, जोर कछु नवि चाले ॥ सं० ॥ ५० ॥ इतने परजी जो चेतनकुं, पुजल सं|| ग सोहावे ॥ रोगी नरजिम कुपथी करीने, मनमा हर्षीत थावे ॥ सं० ॥ ॥ जाखपास कुल न्यात न जाकुं, नाम गाम नवि कोई ॥ पुलसंगत नाम धरावत, निजगुण सघलो सोई ॥ संग ॥ ६० ॥ पुलके वस हालत चालत, पुलके वस बोले ।। कहुंक बेठा टकटक जूए कहुंक नयण न खोले ।। सं० ।। ६१ ॥ मनगमता कहुं लोग जोगवे, मुख सज्यामें सोवे ॥ कहुंक नूख्या तरस्या बाहर, पड्या गलीमें रोवे ॥ सं० ॥ ६ ॥ पुलवश एकेंशिक बहु, पंचेंडीपण पावे ।' लेश्यावंत जीव ए जगमें, पु द्गल संघ कहावे ॥ सं० ॥६३ ।। चनदे गुणथानक मारगणा, पुलसंगें जाणो ॥ पुल जाव विना चेतनमें, लेद जाव
॥श्रण नवि आणणे ॥ मं ॥ ६ ॥ पाणीमांहे गले जे वस्तु, जले अगनि संयोग ॥ पुलपिम जाण ते चेतन, खाग हरख अरुसोग । सं० ।। ६५ ॥ बाया आकृति तेज द्युति सहु, पुलकी परजाय ॥ समन पम्न विध्वंस धर्म ए, पुद्गलको कहेवाय ॥ सं॥६॥ मस्या पिक जेहने बंधे बे, कालें विखरी जाय ॥ चरम नयण करी देखीये ते, सहु पुद्गल कहेवाय ॥ सं० ॥ ६॥ चौदेराज
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साए || लोक घृतघट जिम, पुदगलव्ये जरिया ॥ खंध देश परदेश नेद तस, परमाणु जिन करिया ॥ सं॥६॥निस अनिसादिक प्रति || जे अंतर, पद समान विशेष । स्याक्षाद समजणनी शैली, जिनवाणी में देख ॥ सं०॥ ६॥ पूरण गलन धर्मथी पुदगल,
|| नाम जिणंद वखाणे ॥ केवलविण परजाय अनंती चार ज्ञान नवि जाणे ॥२०॥ १० ॥ १३००॥|| शुनथीशुल अशुनथी जे शुन, मूल स्वनावें थाय ॥ धर्मपालटण पुद्गलनो इम, सतगुरु दीयो बताय ॥ सं० ॥शी अष्टवर्ग
णा पुद्गलकेरी, पामी तास संयोग ॥जयो जीवकुं एम अनादी, बंधणरूपी रोग ॥ १२॥ गहत वरगणा शुनपुद्गलकी, शुजपरिणामें जीत्र ॥ अशुन अशुन परिणाम योगयी, जाणो एम सदीव ॥ सं० ॥ १३ ॥ शुजसंयोगे पुण्य संचवे, अशुजयोग
थी पाप ॥ लहत विशुनाव जब चेतन, समजे आपा आप ॥ सं०॥ १४ ॥ तीन नुवनमें देखीये सहु, पुद्गलका विहार ॥ पु॥ द्गलविण कोन सिझरूपमें, दरसत नहि विकार ॥ सं० ॥ ५५ ॥ पुद्गलहूंके महेल मालीये, पुद्गलहुंकी सहेज ॥ पुद्गलपिमनारको तेथी, मुख विलसित धार हेज ॥ सं० ॥६॥ पुद्गलपिम धारके चेतन, जुपति नाम धरावे ॥ पुलवलथी पुरत नपर, अहनिश हुकुम चलावे ॥ सं० ॥ ७ ॥ पुलहुंके वस्त्र आभूषण, तेथी भूपित काया ॥ पुलहुंका चमर डब सिंहासन अजब बनाया ॥ सं० ॥ ७ ॥ पुलहुंका किला कोट अरु, पुलहुंकी खाई॥ पुद्गलकाहुंथो दारुगोला, रचपच तोष वणा॥ सं०॥ 3ए ॥ परपुद्गलरागी या चेतन, करत महासंगराम ॥ बल बल करी एम चिंतवे, राखुं अपणु नाम ॥ सं०॥०॥
क्षिसिविंके गह तोमो, जोमी अगम अपार ॥ पण ते पुद्गलश्व्य स्वनावें, विसत लगे न वार ॥ सं०॥१॥ पुद्गलक संयोग वियोगे, हरख शोक चित्त धारे ॥ अथिरवस्तु थिरहोइ कहो किम, इणिविध नहीय विचारे ॥ सं० ॥७॥ जा तनको मन गर्व धरतहै, बिनबिन रूपनिहार ॥ तैतो पुमलपिम्पलकमें, जल वल होवे बार ॥ सं ॥७३॥ इणविध ज्ञान हीये मेंधारी, गर्व न कीजे मित्त ॥ अथिरखनाव जाण पुलको, तजो अनादो रीत ॥ सं० ॥ ४॥ परमातमथी नेह निरंतर, लावो त्रकरण शुभ ॥ पावो गुरु गम झान मुधारस, पूरवपर अविरुप ॥ सं०॥५॥ छाननान पूरण घट अंतर, थया जिहां पस्मास ॥ मोदनिशाचर तास तेज लख, नाग थई नदास ॥ सं० ॥ ६ ॥ दशान अंतर दृगधारी, परिहर पुजलजाल ॥ खीस्नीरको जिन्नता जिम, जिनमें करत मराल ॥ सं०॥७॥ एहवा लेद सखी पुलका, मन संतोष धरीजें ॥ हाण लाल सु. ख दुःख अवसरमें, हर्ष शोक नवी कोनें ॥ सं० ॥ 6 ॥ जो नपजे सो तुं नह। अरु, विणमे सोतुं नाहि ॥ तुं तो अचल अ
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साधु
प्रति
॥३०॥
कल अविनाशि, समज देख दिलमांहि ॥ सं० ।। ए ॥ तन मन वचन पणे जे पुदगल, वार अनंती धार्या ॥ वम्या आहार मूत्र अझान गहलथी, फिर फिर लागत प्यारा ॥ सं० ॥ ॥ धन्य धन्य जग ते प्राणी, जे नित रहत नदास ।। शुभ विवेकशी हीयेमें धारी, करे न परकी प्राश ॥ सं०॥१॥ धन्य धन्य जगमां ते पाणी, जे घट समता आणे ॥ वाद विवाद हिये नविधारे, परमारथ पंथ जाणे ॥ सं०॥ ए ॥ धन्य धन्य जगमा ते प्राणी, जे गुरु वचन विचारे ॥ अष्टदयाना मर्म लहीने,
आलमकाज सुधारे ॥ सं0 ।। ५३॥ धन्य धन्य जगमां ते पाणी, जेह प्रतिज्ञा धारे ।। प्राण जाय पण धर्म न मूके. शुक्ष वचन अनुसारे ॥ सं० ॥ ए४ ॥ इम विवेक हिरिदेने धारी सपर नाव विचारो ॥ काया जीव झानहग देखत, अहि कंचुकी जिम न्यारो ॥ सं०॥॥ गर्नादिक दुःख वार अनंती, पुद्गलसंगें पाये॥ पुदगलसंग निवार पलकमें, अजरामर कहवाये । सं० । ए६ ॥ राग नाव धारत पुद्गल यो, जे अविवेकी जीव ॥ पाय विवेक राग तजी चेतन, बंधण विगत सदीच ॥ ॥ ॥ ए कर्मबंधनो हेतु जोवकुं, राग ऐप जिन लाखे ॥ तजी राग अरू रोप हियेथी, अनुजवरस कोन चाखे ॥ सं० ॥ एG! पुरलसंग विना चेतनमें, कर्मकलंक न कोय ॥ जिम वायु संयोगविना जल, मांही तरंग न होय ॥ सं०॥ ॥ जीव अजीव तच विनुवनमें, युमल जिनेश्वर लाखे । अपर तत्व जे सप्त रहे ते, संयोगिक जिन दाखे ॥ सं० ॥ १० ॥
गुण पर्याय इन्य दोळके, जुए जुए दरसाये ॥ ए समजा जिएके हिय मतरी. तेतो निजधर आये ।। सं ॥ ११॥ द पंचशत अधिक तिरेशठ. जीव तणा जे कहीयें ॥ ते पुल संयोग थकी सहू, व्यवहार सरदहीये ॥सं ॥ १२ ॥ निदचें नय विद्रुप व्यय, जेदनाव नहि कोय ॥बंध अबंधकता नय पखथी, इण वध जाणो दोय ॥ सं०॥ १०३ ॥जेद पंचशत त्रीश अधिक रूपी पुलके जाणो॥ त्रीश अरूपी इव्यतणे जिनागमथी मन आणी ॥ सं० ॥१७॥ पुलनेद नाव श्म जाणी, परपख राग निवारो ॥ शुक्ष रमणता रूप बोध अंतर्गत सदा विचारो ॥ सं०॥ १०५ ॥ रूप रूप रूपांतर जाणी, आणी अतुल विवेक ।। तद मत लेश लीनता धारे, सो छाता अतिरेक ॥ सं०॥ १०६ ॥धार लीनता लवलव लाई, चपलजाव विसराई। आवागमन नही जिप थानक, रहियें तहां समाई॥ सं०।१०। बाल ख्याल रचियो ए अनुपम, अल्पमति अनुसार 1100 ॥ बाल जीवकुं अति उपग.री, चिदानंद सुखकार ॥ सं० ॥ १० ॥
॥ इति पुद्गलगीता संपूर्णा ।।
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सूत्र
अर्थः
॥ अथ श्रीगौतमपृचानी चोपाइ प्रारंनः ॥ प्रतिक ॥ ॥दोहा॥ सकल मनोरथ पूरवे, चोवीशमो जिणचंद ॥मोवनवान साहे सदा, पेखे परमानंद ॥ १ ॥ समवसरण देवें म.
तम गम ॥ पद्मासन पूरी करी, बेठा विभवन स्वाम ॥२॥ बेठा मुनिवर केवली, गणहर वर अगियार ॥ सु॥३०॥ र नर किन्नर मानवी, बेठी परखद बार ॥ ३ ॥ तव गोयम मन चिंतवे, जीवितनो ए सार ॥जे कां आपणयकी, कीजें पर नपकार ॥ ४॥ गोयम हियमे जाणतो, आणी पर नपकार ॥ मना सहुको सांजले, पूढे इश्यो विचार ॥५॥
॥ढाल ॥ चोपाइ ॥ ॥ पहेला वीरजिणेसर पाय, प्रणमी गोयम गणहर राय ॥ कर जोमीने आगल रहे, मुललित नापा एणी परें कहे ॥ ६ ॥ तुं जिन जक्ति मुक्ति दातार, तुज गुण कोइ न पामे पार ॥ में लेटयो विनुवननो देव, पुण्य पाप फल पृर्छ हेव ॥ ॥ ॥ वलतुं बोले वीर जिणंद, गांयम तुं आणे आणंद ॥ पृठे पृष्ठा जे तुज गमे, तस हूं उत्तर आपीश तिम ॥ ॥ आगे मयगलने मद जरचो, एक पंचायणने पाखों ॥ आगे गोयमनुं जग वान, लाधुं वोर तणुं वली मान ॥ए ॥ नवियण नाव जलेरो धरी, अंग तणी आलस परहरी ॥ मुणजो हर्प हिये नलसी, गोयमपृच्छा पूरे किसी ॥ १० ॥ नगवन् ! जीव नरक शे जाय, तेहज अमर नुवन सुर थाय ॥ तिरियमांहे ते दुःख केम सहे, कशे कर्मे मानव जव लहे ॥१२॥ तेहिज पुरुष प. णे संसार, कीशे कम ते याये नार ॥ कहो जिनवर पूरो मन रली, तेहज किश नपुंसक वली ।। १२ ॥ थोड़ें आयु होय तेह तणु, किशे कमै होये ते घj ॥ जोग रति शे नवि जोगवे, तेहिन लोग जला जोगवे ॥ १३ ॥ किशे कमैं सोजागी होय, किशे कम दोजागी जोय ॥ तेहिज बुद्धि तणो मार. किशे कम नवि बुद्धि लगार ॥२॥ तेहिज पंमितमांहे प्रधान, शे कमें
थाये अज्ञान ॥जी धीरू कोण कमै सोय, विद्या सफल निःफल केम होय ॥ १५ ॥ नासे धन वाधे थिर थाय, जन्म्या पु. || न जीवे कांय ॥ पोहा पुत्र घणा शे स्वामि, बहिरपणुं शे कमें विराम ॥ १६ ॥ जावो नर शें अवतरे, के कमें लोजन नविजरे ॥ किशे करें कोदी कूवमो, दासपणे पामे वापमो ॥ १७॥ किशे कमें दारिमित, किशे कम तेहज धनवंत ॥ रांगें पीड्यो पारीव, रोग रहित शें थाये जीव ॥ १७॥ गोयम पूजे कही जिनवीर, शे कमै होये हीन शरीर ॥ तमु पर जब शुं पमीयो चूक, जे एणे नवें थाये ते मूक ॥ १५ ॥ किशे में तूंठो पांगलो, किशे कमै क आगलो ॥ विकट कर्मन कहा स्व
धीरू कोण कम
सादिरपणुं शे कम
में दारिद
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साधु
प्रति
॥३०३॥
रूप, तेहिज नर केम याये कुरूप ॥२०॥ किशें कमें वेदना अनंत, वेदन विण केम थाये जन ॥ मी तन पंचेंघिय ताणं, के. म पामे एकेंशियपणुं ॥१॥ शीपरें थाये यिर संसार, केम पामे वहेलो जवपार ॥ शे संसार सोहेलो तरी, पुण्यवंत पामे || शिवपुरी ॥ १५ ॥
॥दोहा॥ ॥ जीव सवे जगती तणा, तु तस बंधु समान ॥ जाव मनोगत सव लहे, होय अनंतुं ज्ञान ।। २३॥ पुहवी पदारय जे अडे, ते देख मुनि देव ॥ कृपा करी लगवन् कहो, कर्म फलाफल देव ॥ २४॥ गुण गिरुन गणधर जलो, ह जोमी हाथ ॥ सफल करो मुज विनति, जतिय जणी जगनाथ ॥ २५ ॥ गोयम गणहर वीनव्यो, एणी परें वीरजिणंद ॥ नमे निरंतर पय कमल, जेहना चोशठ इंद ॥ २६ ॥ वीतराग बलतुं वदे, वाणी सरस अपार ॥ मुण गोयम गणधार तु. पूज्य तणो विचा र ॥१०॥
॥ चोपाई॥ ॥ गोयमपृष्ठा पूनी रहे, वलतुं वीर जिनेसर कहे ॥ सावधान सवि परपद इ, निमुणे निज नापा जूजूद ॥ २८ ॥ वरसे स्वामि वचन विलास, पोहोचे जवियण जन मन आश ॥ आषाढो सासाढो मेह, करी गाजीने आव्यो एह ॥३॥ तेणे अवसर नाठी तृष भूख, नाठां दुरिय सरीखां दुःख ॥ मधुरी वाणी सुणी जब कान, मधुरपणुं नहि कहेने मान ॥ ३० ॥ सरस कवण कहीयें मुखमी, जेणे खाधे नांगे भूनमी ॥ जिनवर वाणी निसुणी जाम, ते विपरीत वखाणे ताम ॥ ३१ ॥ जे शेलकी सरस रस घमी, ते पण कहेने चित्तें नविचमी ॥ जाति अने नजाति देखवे, गोल खांस खारी लेखवे ॥३॥ सुधा मुधा सवि कहे मन थाय, साकर कांकर सम तोलाय ॥ नीली शख न गमे सराख, एकज मीठी जिननी जाख ॥ ३३ ॥ इसी वाणी जिन मुखें नच्चरी, गोयम बोलाव्यो हित करी ॥ एकज जीव लहे दुःख घणां, सुण गोयम कारण तेहतणां ॥ ३४ ॥ जीव विणासे जपे अली, जे नर परधन चोरे वली । परनारीशुं रंगें रमे, पाप परिग्रह काको गमे ॥ ३५ ॥ रात्रि दिवस रीसें धमहमे, अनिमाने मानवनें नमे ॥ कोश तणो आणे आकार, नीचा नमणा नहि लगार ॥ ३६॥ मुख मीठो मन माया करे, ||
| ॥३०॥ कहो ते किम जवसागर तरे ॥ हियो निनुरो वयण कठोर, पापी पाप करे अति घोर ॥३७॥ जोवे लिए कुमतिनो धणी, मनमा मूळ धरे अति घणी ॥ जे अधमाधम विण अपराध, गोवें वेठो निदे साध ॥ ३० ॥ जे मानवनें एहवो दाल, प्रायें दी
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साधु
ये अणहुँतां आल ॥ एवी मति जस पोतें बती, गुण कीधो नवि जाणे रति ॥ ३५ ॥ वीर लणे मुण गोयम वात, इस्यो क- || सूत्र प्रति || म जे करे निघात ॥ दोहिला जखमांहे तमामे, ते नर मरी नरके रमवसे ॥ ४५ ॥ तप संयम दाने चौशाल, नावें लश्क अ
ने दयाल ॥ शीषे वहे सद्गुरुनी आण, ते नर पामे अमर विमान ॥४१॥ मानव सरसी मांझे प्रीत, काज आपाणु चाले चिWall
|| त ॥ वांनित काज सयु तत्काल, वेहेली प्रीति करे विसराल ॥ ४२ ॥ जोतां दरिसण क्रूर अपार, कोइ न पामे मननो पार
॥ कीधां कर्म जीवशुं करे, तिहांथी मरी तिरिय अवतरे ॥ ४३ ॥ सरल चित्त सुकुमाल अपार, क्रोध लोन मन गहीय लगार ॥ जीवतणी निस जयणा करे, साते खेजें धन वावरे ॥ ४ ॥ वोहोरे विणजे न्यायें करी, मूके पोतुं पुण्चे जरी ॥ साधु तणा पाय सेवे घणु, लहे जीव ते मानवपण ॥ ४५ ॥ संतोपी विनय गुण वहे, सरल चित्त शीलें दृढ रहे ॥ सस वचन जे बोले नार, थाये पुरुष मरी संसार ॥ ४६॥ चपलपणे धूतारे लोक, मूरख पातक बांधे फोक ॥ कूम कपट मायायें बहु, सगासणीनां वंचे सहु ॥ ७ ॥ मन विश्वास नही केह तणो, वोर जणे गोयम तुमें भुणो ॥ एहवां कर्म करे नर जेह, परजब महिला थाये तेह ॥ ४० ॥ मानव तुरीसमारे ढोर, वीधे नाक परोवे दोर ॥ गल कंबल दे अज्ञान, कौतुक कारण कापे कान ॥ ४ ॥ इस्यां कर्म जे करे नवीन, सविहु माणसमाहे हीन ॥ नवि नारी ते नहि नरमाय, गोयम सोय नपुंसक धाय ॥५॥ जीव विणासे नितुरजपणे, जे परलोक न माने गणे ॥ चित्तमांहे जस घणो कलेश, ते नर आयु लहे सवलेश ॥५१॥ राखे जीवदया नर थई, अजयदान नपर मति रही ॥ का आयु लहे नर तेह, गोयम ए तुं म धर संदेह ।। ५२ ॥ बतुं अन्न देवा मांस व्याप, देश्ने मनें करे संताप ॥ मुजने पमियो बरांसो घणो, आप्यो अर्थ शोक आपणो ॥५३॥ आपणाने मति देवा टली, बीजा देतां वारे वली ॥ गोयम एहवे कम जोय, लोग रहित जब पूरे सोय ॥ ५४॥ वारु वस्त्र पाटो पाटला, जा त पात्रने पाणी जलां ॥ इषिनें दे हियमे गहगहो, परजब लोग लहे ते सदी॥ ५५॥ गुरु गिरुमा तीर्थंकर साध, तेहनो जे न करे अपराध ॥ विनय कहे मूकी अजिमान, दर्शन जेहनुं सोम समान ॥५६॥ वाणी अमीअ समाणी फरे, विरुआं वचपरिहरे ॥ वीर वदे गोयम गुणवंत, ते परजब सोजागी संत ॥ ५॥ गुणविण गर्व घणो मन धरे, तपसीनी जे निंदा
Hoam करें ॥ मानी धर्मविम्बक होय, परजव नर दोलागी सोय ॥ ७ ॥ पढे गुणे चिंते सुविशेष, अवर जणी वली दीये उपदेश ॥ सहगुरु जक्ति करे मन शुरू. परला पामे चोखी बुद्ध ॥ ॥ तपसी झॉनवंत गुणवंत तास अवज्ञा करी हसंत ॥ ए अजा
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साधु
प्रति०
३०॥
एा मुख एली परें कहे, ते नर मरीनें बुद्धि नवि लदे ॥ ६० ॥
माय ताय से मन खरे, व्यवर मानें आदर करे || धर्माधर्मवित जुजुइ, पृबे सावधान जे हुइ ॥ ६१ ॥ आराधे जिनवरनां वयण, जेणे उघमे हियानां नया || देव अने गुरुना गुण गाय, मरी पुरुष ते पंकित थाय ॥ ६१ ॥ मन माने तेम जीव विलास, खानपीनने करो विलास || पढे गुणे धर्मे धुं होय, एम चितवतो मूरख होय ॥ ६३ ॥ कूक्रम तित्तर लावांचमां, सूर हिरण रोऊ वापमां ॥ वन जमतां जे आणे घरी, बीका होये सदा ते मरी ॥ ६४ ॥ जीव सवि ऊपर हित सदा, जय न करेन करावे कदा || पीक पराइ वर्जे जेह, गोयम धीर होवे नर तेह ||६|| लीये वारु विद्या विज्ञान, कूलो विनय करे ज्ञान || विद्यागुरुनें अपमाने बहु, तेहनुं जएयुं निःफल होय महुं ॥ ६६ ॥ विद्यागुरुनी जक्तियें जर्यो, माने विनय गुप विर्यो । एली परें जे जे विद्याजणी सघली सफल होवे तेह तली ॥ ६७ ॥ देई दान हीये न समाइ, मन चिंते में दीधुं कांइ || तस घर लक्ष्मी बहेली मले, गण्या दिवसमांहे पण टले ॥ ६० ॥ योमे धर्ने निस वाघे व्याह, दीये देवरावे जे पर माह ॥ पुण्यथकी परजव रंगरोल, तमु घर कमला करे कहाल || ६ || जे जेहनें मनगमतुं होय, जाव सहित रुपिनें दिये सोय ॥ देई मन उच्चाटन जास, तस घर लक्ष्मी रहे विश्वास || १७ || पशु पंखी माणसनां बाल, जे पापी पीछे विकराल | तस घ र बोरू न होये शिरे, जो होये तो निश्चाय मरे || ११ | जेह तो मन दया प्रधान, गोयम तस घर बहु संतान || पण सांजल्युं सुए कहे जेह, परजत्र बेहेरो याये तेह || १२ || अादीगनें दीतुं जणे, धर्म नवेखे मूरख पणे ॥ कर्म ती गति वि मी जोय, ते परजव जाधो होय || १३ || निखर अन्न ने विरुन वारि ॥ साधुनें दीये जे नर नारि ॥ मन जालि कृपणायें "करे, परजव तस जोजन नवि जरे || १४ || पाके मध जे दव दीये वेम, तेहनी दैव करेशी केम ॥ पाप ती मन नाणे शंक, जे नर जीव सें दिये अंक ॥ १५ ॥ बालां कुलां नीलां हरी, खांतें खुंटे लीलां करी ॥ कीधां कर्म जीवशुं करे, मरी पुरुष कोढी अवतरे ॥ ७६ ॥ ठंड वलद जैसा बालकां, जारें पीमे लोजी थकां ॥ इम पायें पूरा। ये घमो, ते परजव थाये कूबको ॥ 99 || जाति ममात फिरे, जीवनलो जे विक्रय करे ॥ जे कृतघ्न अवगुण आवास, ते नर परजव याये दास | 3G || वि जय हीन वर्जित चारित्र, दान तला गुए नदिय पवित्र || मनसादिक जे नवि संवरे, ए नर दारिणी अवतरे ॥ ७५ ॥ विनयवंत दानें उनसे, चारित्रना गुण वासें बसे || लोकमांदे तम कीर्त्ति घणी, महोटी रुदितणो से चली ॥ ८० ॥ विश्वासी पा
३
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सूत्र
अर्थः
३व्या
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मूत्र
अर्थः
संताप, सूबे मन न आलोवे पाप ॥ गोमय इसे कमें मन नमें, ते नर रोगें पीड्यो रमे ॥ १॥ विश्वासी राखे हित करी, आ. प्रतिलोयण आलोये खरी॥परजव तसु महिमा-ए वमो, रोग न आवे घर दूकमो ॥२॥ करे जे लघु लाघव केटला, हुँ जाणुं नर
नहीं ते जला ।। कूते तोलें करे कुंसाट, अधिक लेने आ घाट ।। ७३ ॥ प्रसद पुरुष न बीहे पाप, वली वरांसे पामे माप ॥३०॥
॥ लो लेश हिमे बहु, नखर क्रियाणु वेचे सहु ॥ ३ ॥ जेह तणे मन अति अनिमान, माने अवरने तृण समान ॥ लेश
आपता करे जे खांच, मुख बोलतां नहिं खल खांच ।। ५॥ __ पाप बहुल यांमे विवसाय, इस्या अबर जे करे नपाय ॥ ते नर परजा दुःखियो दीन, सघतां अंग हुवे तमु होना ॥ ६ ॥ संयम सहित गुणे गहगहे, जे सुसाधु शीलें दृढ रहे ॥ ताप्त पूंठ करवे पम्वमो, ते परनव थाये बोबो ॥ 6 ॥ जेहनें धर्म तणी नही धांख, बेदे पंखी जातिनी पांख ॥ तेहy जब आयुटुं पते, थाये तूगे जब आवते ॥ 1 ॥ दया रहित कहे दिन रात, पशुकुमारां से कुजाति।। गाये घाय करे गजगलो, परजव ते याये पांगुलो ॥ नए सरल स्वन्नाव धर्म अहिठाण, जी व जतन जे करे सुजाण ॥ जिन गुरु पाय लक्तो निस होय, रूपें मदन सरीखो सोय ॥ ए०॥ मन वांकमो करे निस पाप, होशें जीव विराधे आप ॥ जेहनें देवगुरुशुं खेश, रूप न पामे ते लवलेश ॥१॥ यंत्रतंत्रने नामी दार, खमें कुंकर कठोर ॥ जे पापी पीके पर जंत, ते पाये वेदना अनंत ॥ ए३ ॥ प्राणी संकट पट्यो आचैत, बंधन मरणे थयो जयजीत ॥ दया करी मूकावे कोय, तमु शिर वेदन निखर नवि होय ॥ ए३ ॥ हियमे नेहने निवि परिणाम, अति अज्ञान महालय जाम ॥ कर्म अशातावेदनी घj, तव पामे एकेंशियपणुं । ए४ ॥ पुण्य पाप पर लोक न आज, त्रिनुवन को नयी इपिराज ॥ जे नर माने ईश्यो विचार, गोयम तेहनें थिर संसार ॥ ५॥ पुण्य पाप ले लोक मकार, जिन से वित मुगुरु नर नार ॥ महिममल मु. निवर डे सही, माने ते संसारी नहीं ॥ ए६ ॥ निर्मल झान अ चारित्र, दर्शन भूषित देह पवित्र ॥ ते नर मरी तरी संसार, थाये शिवपुर तणो शिणगार ॥ ए॥
। ॥३०॥ दोहा-जं जं गोयम पूनियु, वीर जिणेसर पास ।' त कहियु त्रिनुवन गुमें, गिरुआ वचन विलास ॥ ए॥ नविकी लोक तुमें सांजली, वाणी बहुत विचार ॥ पुण्य पापफल प्रगटवे, पीबो हृदय मोकार ॥९॥ पृता नत्तर बेहु मली, अमचालीश प्रमाण ॥ अरथ बहुल तुमें जाणजो, जग जयवंता जाण ॥१०॥ पन्या गुएचा मीनचा तणो, कवि कहे एहज
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___ साधु || मर्म ॥ दया सहित आदर करी, कीजें जिनवर धर्म ॥ १०१ ॥
मूत्र
प्रतिक
अर्य
॥३०॥
॥ वैराग्योपदेशक परचुरण पदो ॥
॥राग बिहाग ॥ ॥ ॥ पीया पीया पीया, बोल मत पीया पीया पीया ।। पी० ॥ ए आंकी ॥रे चातुक तुम शब्द सुगत मेरा, व्याकुल होत हे जीया ।। फूटत नांहि कठिन अतिघन सग, नितुर जया ए हीया ॥ बो० ॥ १॥ एक शोक्य दुःखदायी कंत जिने, कर कामण वस कीया ॥ दूजे बोल बोल खग पापी, तुं अधिका दुःख दीया ॥ बो० ॥२॥ कर्ण प्रवेश नठी होइ व्याकुल, विरहानल जल तिया ।। चिदानंद प्रभु इन अवसर मिल, अधिक जगत जस लीया ॥ बोले ।।३।। इति पदं ।।
॥हो कुंथु जिन मनहुँ किणही न बाजे ॥ ए देशी॥ ॥ अनुलव अमृतवाणी हो ॥ पास जिन ॥ अ०॥ सुरपति जयो जे नाग श्री मुखथी, ते वाणी चित्त आणी हो ।पा। | ॥१॥ स्यादवाद मुश मुनि शुचि, जिम सुर सरिता पाणी ॥ अंतर मिथ्या लावलता जे. बेदण तास कृपाणी हो पा॥
॥।॥ अहोनिश नाथ असंख्य यल्या तिम, तिरग ले अचरिज एही ॥ लोकालोक प्रकाश अंश जस, तस नपमा कहो केही हो ॥ पा० ॥३॥ विरहवि योगहरणी ए दंती, संधी वेग मिलावे ॥ याकी अनेक अवंचकताथी, आणा विमुख कहावे हा ॥पा॥ ४ ॥ अक्षर एक अनंत अंश जिहां, लेप रहित मुख नांखो ॥ तास क्योपशम जाव बंध्याथी शुभ वचन रस चाखो हो ॥ पा० ॥५॥ चाख्याथी मन तृप्त थयु नवि, शे माटे लोनावो ॥ कर करुणा करुणा रस सागर, पेट जरी ते पावो हो। पा॥६॥ ए लवलेश लह्या विण साहिब, अशुन युगलगति वारी॥चिदानंद वामामुन केरी, वाणीनी बलिहारी हो। पा० ॥
॥राग मालकोश ॥ ॥ पूरव पुण्य नदय करी चेतन, नीका नरजव पायारे ॥ पू० ॥ ए आंकण ॥ दीनानाथ दयाल दयानिधि, दलज अधिक बताया रे ॥ दश दृष्टांत दोहिला नरजव, नत्तराध्ययने गाया रे ॥ पू७ ॥१॥ अवसर पाय विषय रस राचत, ते तो
| ॥३०७
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अर्थः
साधु || मूढ कहाया रे ॥ काग नमावण काज विप्र जिम, मार मणि पडताया रे ॥ पू० ॥२॥ नदी घोल पाखान न्याय कर, अईपति
वाट तो आया रे ॥ अई सुगम आगल रही तिनकं, जिन कछ मोह घटाया रे ॥ पू० ॥३॥ चेतन चार गतिमें निश्चे, मोदक्षार ए काया रे ॥ करत कामना मुर पण याकी, जिनकू अनर्गल माया रे ॥ पू० ॥॥रोहण गिरि जिम रतनखाण ति
म, गुण सहू यामें समाया रे ॥ महिमा मुखथी वरणत जाकी, मुरपति मन शंकाया रे ॥ पू० ॥५॥ कल्पत सम संयम के1300॥
रो, अति शीतल जिहां बाया रे ॥ चरण करण गुण धरण महामुनि, मधुकर मन लोजाया रे ॥ पू० ॥ ६॥ या तन विण तिहुं काल कहो किन, साचा मुख निपजाया रे ।। अवसर पाय न चूक चिदानंद, सद्गुरु यूं दरसाया रे ॥ पू० ॥७॥ इति.
॥राग शोरठ.॥ ॥ निराधार केम मूकी, श्याम मुने निराधार केम मूकी ॥ कोई नही हुं कोणशुं बोलु, सहु आलंबनटूकी ॥ श्या ॥१॥ पाणनाथ तुमें दूर पाख्या, मूकी नेह निराशी ॥ जजणना नित्य प्रति गुण गातां जनमारो किम जामी ॥ श्या० ॥॥ जेह नो पद लहीने बोलुं, ते मनमां सुख आणे ॥ जेहनो पद गूकीने बोलुं, ते जनम लगें चित्त ताणे ॥ श्या० ॥ ३॥ वात तमारी मनमां आवे, काण आगल जई बोलु ॥ ललित खलित खल जो ते देखु, आम माल धन खोलु ॥ श्या० ॥ ४॥ घटें घटें बो अंतरजामी, मुजमा कां नवि देखु । जे देखं ते नजर न आये, गुणकर वस्तु विशेखु ॥ श्या० ॥५॥ अवधे केहनी वाटमी जोनं, विण अवर्षे अति कुरूं। आनंदघन मनु वेगे पधारो, जिम मन आशा पूर्फ ॥ श्या० ॥६॥ इतिपदं ॥
॥राग आशावरी तथा गोमी. ॥ ॥ अवधू निरपत विरला को॥देख्या जग सहु जो अवधू ए आंकणी॥ समरस जाव जला चित जाके, थाप उयाप न हो ॥ अविनाशीके घरको वातां, जानेंगे नर मोई ॥ अव० ॥१॥ राव रंकमें लेद न जाने, कनक नपल सम ले. खे ॥ नारी नागणीको नही परिचय, तो शिवमंदिर देखे ॥ अव ॥ ॥ निंदा स्तुति श्रवण सुणीने, हर्ष शोक नवि आणे ॥ ते जगमें जोगीसर पूरा, निस चढने गुणठाणे ॥ अव०॥३॥ चंइ समान सौम्यता जाकी, सायर जेम गंजीरा ॥ अममतें जारंभ परें निख, सुरगिरि सम युचि धीरा ॥ अव०॥॥ पंकज नाम धराय पंकथु, रहत कमल जिम न्यारा ॥ चिदा
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साधु সনি
अर्थः
Mनंद इस्या जन उत्तम, सो सादेवका प्यारा ॥ अव० ॥ ५ ॥ इति पदं ।।
मूत्र ॥राग आशावरी॥ ॥ अवधू खोलि नयन अब जोवो ॥गि मुक्ति कहा सोवो ॥ अवधू 0॥ ए आंकणी ॥ मोह निंद सोबत तूंखोया, सरवस माल अपाणा !! पांच चोर अजहुं तोय छूटत, तास मरम नहिं जाएया ॥ अवधू 0 ॥१॥ मलीचार चमाल चोककी, मंत्री नाम धराया ॥ पाई केक पीयाला तोहे, सकल मुलक मग खाया ।। अवधू ॥२॥ शत्रुराय महाबल जोहा, निमनिज सेन सजाये ॥ गुणगणेमें वांव मोरचे, घेख्या तुम पुर आये ॥ अवधू ॥ ६॥ परमादी तूं होय पियारे, परवशता दुःख पावे ॥ गया राज पुर सारयोती फिर पागा घर ॥ अवधू० ॥ ४॥ सांजली वचन विवेक मित्तका, जिनमें निजदल जोड्या ॥ चिदानंदएसी रमत रमतां, ब्रह्म वंका गढ़ तोड्या ॥ अवधू ॥५॥ इति पदं ॥
॥राग बिहाग वा टोमो॥ । लघुता मेरे मन मानी, लइ गुरुगम झान निशानी ॥ लघु० ॥ ए आंकणी ॥ मद अष्ट जिनोंने धारे, ते दुर्गति गये बिचारे ॥ देखो जगतमे पानी, ख लहत अधिक अनिमानी ।। लघु० ॥ १॥ शशी मुरज बमे कहावे. ते राहुके बस आवे ॥ तारा गण लघुता धारी, स्वरजानु जीति निवारी ॥ लघु ॥ ३ ॥ बोटी अति जोयणगंधी, लहे खटरस स्वाद सुगंधी ॥ करटी मोटाइ धारे, ते ठार शीष निज मारे । लघु० ॥ ३ ॥ जब बालचंझ होइ आवे, तब सडु जग देखण धावे ॥ पूनमदिन बमा कहावे, तब हीण कसा होय जावे ॥ लघु० ॥४॥ गुरुवाइ मनमे वंदे, नप श्रवण नासिका दे ॥ अंगमाहे लघु कहावे, ते कारण चरण पूजावे ॥ लघु० ॥ ५ ॥ शिशु राजधाममें लावे, सखी हिलमिल गोद खीलावे ॥ होय बझा जाण नवि पावे, जावे तो सीस कटावे ॥ लघु० ॥ ६ ॥ अंतर मद जाव वहावे, तब त्रिजुवन नाथ कहावे ।। श्म चिदानंद ए गावे, रहणी किरला कोन पावे लघु०॥७इति पदं ।।
H120 ॥ राग टोमो. ॥ ॥ कथण कथे सह कोइ, रहणी अति दुर्लन होई ॥ कय० ॥ ए आंकणी । शुक रामको नाम बखाणं, नवि परमारथ
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साधु
अर्थः
॥३१॥
तस जाण ॥पा विध जणी वैद सुणाव, पण अकस कला नवि पवि ॥ कया॥१॥ पत्रीस प्रकारें रसोई, मुख गणतां तृप्ति न हो ॥ शिशु नाम नाही तस लेवे, रस स्वादत मुख अति लेवे ॥ कय० ॥२॥ बंदोजन कमवा गावे, मुणी मूरा सी. स फटावें ॥ जव रुंदममता जासे, सह आगल चारण नाते ॥ कथ० ॥३॥ कहणी तो जगत मजूरी, रहणी हे बंदी हजूरी ॥ कहणी साकर सम मीठी, रहणी अति लागे अनीठी ॥ कय ॥ ४॥ जब रहणीका घर पार्ष, कयणी तब गिणती आ. वे ॥ अब चिदानंद इम जोइ, रहणीकी सेज रहे सोई॥ कथा ॥५॥ इति पदं ॥
॥राग आशावरी॥ अवधू पियो अनुलव रस प्याला, कहत प्रेम मतिवाला ॥ अ० ॥ ए आंकणी ॥ अंतर सप्तवात रस लेदो, परम प्रेम नपजावे ॥ पूरव जाव अपस्या पलटी, अजा रूप दरमावे ॥ अ० ॥१॥ नख शिख रहत खुमारी जाकी, सजल सघन घन जैसी ॥ जिन ए प्याला पिया तिनकू. और केफरति कैसी ॥ अ० ॥ ३॥ अमृत होय हलाहल जाकुं. रोग शोक नविव्यापे ॥रहत सदा गरकाव नमामें, बंधन ममता कापे ॥ अ० ॥ ३॥ सस संतोप दीयामें धारे, आतम काज मुधारे ।। दीन नाव हिरदे नही आणे, आपनो विरुद संजारे ॥ अ० ॥ ४ ॥ लावदया रणधंन रोपके, अनहद तूर वजावे ॥ चिदानंद अतुलीब. त राजा, जीत अरि घर आवे ॥ अ० ॥५॥ इति पदं ॥
॥हो वांसमी वरण यह लागी रे व्रजनी नारने ॥ ए देशी ॥ ॥ हो प्रीतमजी प्रीतकी रीत अनित्य तजी चित्त धारीयें ॥ हो वालमजी वचन तणो अति नमो मरम विचारियें ॥ ए आकणी ॥ तुमें कुमति के घर जावो तो, निज कुलमें खोट लगावोबो, धिक एल जगतनी खाचो हो । हा प्री० ॥ १॥ तमें त्याग अमी विष पीयो बो, कुगतिनो मारग लीयो बो. एतो काज अजुगतो कीयो बो ॥ हो पी० ॥ २ ॥ ए तो मोहरायकी चेटी बे, शिव संपत्ति एदयी बेटी , ए तो साकरतें गल पेटी । हो पी० ॥३॥ एक शंका मेरे मन आवी , किण विध ए तुम चित्त नावी डे, एनो माकण जगमें चाय बे ॥ हो पी० ॥४॥ सहु शदि तुमारी खाई डे, करी कामण मति जरमाई, तुमें पुण्य जोगें ए पाई दे ॥ हो पी० ॥५॥ मत प्रांव काज बावल बोवो, अनुपम जब विरया नवि खोवो, अब खो
२०॥
मन आवी , किण वि.
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साधु
मंति
॥३१९॥
ल नया प्रगट जोवो || हो प्री० || ६ || इविध सुमता बहु समजावे. गुण अवगुण कही सहु सरसावे, मुणि चिदानंद निज घर आवे || हो मी० ॥ ७ ॥
॥ राग सारंग अथवा आशावरी ॥
० ॥ ४ ॥
॥ अत्र हम अमर जये न मरेंगे ॥ ० ॥ या कारन मिथ्यात दीयो तज, क्युं कर देह धरेंगे ॥ ० ॥ १ ॥ राग दोस जग बंध करत है, इनको नास करेंगे ॥ मस्यो अनंत कालतें मानी, सो हम काल हरेंगे ॥ ] ॥ २ ॥ देह विनासी हूं - नासी, अपनी गति करेंगे || नासी जासी हम थिर वासी, चोखे व्है निखरेंगे ॥ ० ॥ ३ ॥ मध्यो अनंत वार बिन समज्यो, अब सुख दुःख विसरेंगे || आनंदघन निपट निकट अक्षर दो, नहीं समरे सो मरेंगे ॥ ॥ राग आशावरी ॥ ॥ याशा औरनकी क्या कीजे, स्थान सुधारस पीजें ॥ आशा ० ॥ ए की ॥ जटके दारदार लोकनके, कूकर - शाधारी ॥ तम अनुजब रसके रसीया, उत्तरे न कबहुं खुमारी || आशा ० || १ || आशा दासीके जे जाये, ते जन जग के दासा ॥ आशा दासी करे जे नायक, लायक अनुभव प्यासा || आशा || १ || मनसा ध्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अनि पर जाली ॥ तन जाठी अवटा पिये कस, जागे अनुज बाली ० ॥ ३ ॥ अगम पीयाला पीयो मत वाला, चिन्ही अध्या तम वासा ॥ आनंदघन चेतन व्है खेले देखे लोक तमासा || आशा ॥ ४ ॥ इति पदं ॥ ॥ इति वैराग्योपदेशक पदानि समाप्तानि ॥
॥ अथ श्री आत्मशिक्षाजावना. ॥
॥ दोहा ॥ -- श्री जिनवर मुखवासिनी, जगमें ज्योति प्रकाश || पदमासन परमेश्वरी, पूरे वंदितः खश ॥ १ ॥ ब्रह्मसुता गुण यागली, कनक कर्मफलु सार ॥ वीणा पुस्तक धारिणी, तुं त्रिभुवन जयकार ॥ २ ॥ श्रीसरसति जिन पाय नमी, मन
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सूत्र
अर्थः
॥ ३११८
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साधु
प्रति
॥३१२॥
रि हर्ष पार ॥ तम शिक्षा जावना, जणुं सुणो नर नार ॥ ३ ॥ रे जिव सुा तुं बापमा, दिये विमासी जोय ॥ आप स्वारथी सहु मन्युं ताहारुं नहि जग कोय ॥ ७ ॥ धर्म विना सुरा जीवमा, तुं जम्यो जब अनंत ॥ मूढपणे जब तें किया, इम बोले जगवंत ॥ ५ ॥ लाख चोराशि योनिमां, फरी लीयो अवतार ॥ एकेकी योनि वली, अनंत अनंती वार ॥ ६ ॥ चउद राज परमाणु, सूई अग्रजाय ठाम ॥ कर्मवशें जिन तुं जम्यो, मूरख चेतन नाम || 9 || निगोद सूक्ष्म बादरें, पुल - नंत अपार ॥ एतो काल तुं तिहां रह्यो, हवे कर हैये विचार ॥ ८ ॥ श्वास श्वासा एकमां, मरण सतर अध कधि ॥ सूदम निगोदमांदे वली, ए जिन वचन प्रसीध ॥ ए ॥ नस्य विगलेंडि तिर्यगति, जब कीया बहु देव ॥ जुवनपति व्यंतर ज्योतिषी, तर विमानक देव ॥ १० ॥ इम जमतां जमतां लियो, मनु जनम अवतार ॥ मिथ्यात्वपणें जब निगम्या, काज न सोध लगार ॥ ११ ॥ जगमां जीव बे बहु, एकथं अनंती वार || विविधप्रकार सगपण कियां, हैया साथ विचार ॥ १२ ॥ तो कुणप पारकुं, कुण बेरी कुण मित्त ॥ राग देष टालो करी, कर समता इक चित्त ॥ १३ ॥ पूर्वं कोमिने नखें, यानी गुरु अपार ॥ उत्पत्ति कहि जिनं ताहरी, कहेतां नावे पार ॥ १४ ॥ पुत्र पिता पण अवतरे, पिता पुत्र पण जोय ॥ माता सगपण नारि मली, नारी माता होय ॥ १५ ॥ सूतो सुपन जंजालमां, पाम्यो जाणे राज | जब जाग्यो तब एकलो, राजन सीके काज ॥ १६ ॥ तिम ए कुटुंब सहू मन्युं खोदी माया जाल ॥ प्रायू पहोंचे आपणे, खिण याये विसराल || ११|| सोदो लेया जा मिले, जिहां जोमी सहि हाट । आाथ सारु विवसाय करी, फरी चाल्या निज बाट ॥ १७ ॥ तिम जमतो सत्रि मख्या, कुटुंब जोमी जो हाट || पुण्य पाप विवसाय करी, जो उतरीयें घाट ॥ १७ ॥ इम कुटुंब मिल्यु कारिमुं माय नेवली ताय ॥ बंधू जगिनी जारजा, को केहनी न कहाय ॥ २० ॥
नव नव नाटक तुंबली, नाच्यो करि बहु रूप ॥ नाटक एकथं नाचियो, जो छुटे जब कूप ॥ २१ ॥ उत्तम कुल नर जब लही, पामि धर्म जिनराय ॥ प्रमाद मूकी कीजिये, खिण लाखीणो जाय ॥ २२ ॥ जिसुं कीजें तिसुं पाइयें करे तैसा फल जोय ॥ सुख दुख प्राप कमाइयें, दोष न दीजें कोय ॥ २३ ॥ दोष दीजें निज कर्मने, जिया नवि कीधो धर्म ॥ धर्म विना सु ख नवि मले, ए जिन शासन सर्म ॥ २४ ॥ वात्री कूरी कोदरी, तो क्युं लुणीयें शाल ॥ पुण्यविना सवि जीवमा, आशा - ल पंपाल ॥ २५ ॥ य पहोती आतमा, कोइ नवि राखण दार ॥ इं चंद जिनवर वली, गया सवी निरधार ॥ २६ ॥
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सूत्र
अर्थः
॥३१॥
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अथः
.
साधु मोहोदा मोढ न कीजियें, न कि माहोटी वात || कोमी अनंत में बेचियो, सारें किहां गई जात ॥ २७ ॥ आपसरूप विचामंतित | रतुं, जो हुइ हियो शान ॥ करणी तेहवी कीजिये, जिम वाधे जग वान ॥ २७॥ वमपा धर्म थाये नही, जोबन एलें जाय
॥ । तरूण पणे धसमस करी. पडे फरी परताय ॥ ३ ॥ जरा आवी जोबन गयु. शिर पलिया ते केश बखता नो बोकीन
हीं, न कर्यो धर्म लवलेश ॥ ३० ।। पश्यि जिहां परवमा, रोग जग नावंत ॥ जोवन चंचल आवे रूदा, कर तुं धर्म महंत ॥ ३१॥ ते हाथ न वावर्यो, संबल न कियो साथ ॥ आयगई मन चेतियो, पछे घरे निज हाथ ॥ ३२ ॥ धन जोवन नर रूपनो, गई करे ते गमार ॥ कृष्णा बलन क्षारिका, जातां न लागो बार ॥ ३३ ॥ आठ पहोर तुं धसममी, धनार्थ देशांतर जाय ॥ सो धन मेच्यु ताहरू, नरज कोई खाय ॥ ३४॥ आंग्न तणे फरकमे, कथल पाथल थाय || इस्युं जाणी जीव बापमा, म करीश ममता पाय ।। ३५॥ माया सुख संसारमां, ते सुख सहिय असार । धर्म पसाये मुख मले. ते सुख नावे पार ॥ ३६ ॥ नयन फरुके जिहां खगें, तिहां तहारुं महु कोय ॥ नयन फरूकत जब रही, तब तहारं नहि होय ॥ ३५ ॥ पाप कि यां जिव ते बहु, धर्म न कियो लगार || नरग पड्यो यम कर चड्यो, तिहां करे पोकार ॥३॥को दिन राणी राजियो, कोई दिन जयो तुं देव ॥ कोइ दिन रांक तुं अवतर्यो, करतो रज सेव ॥ ३५ ॥ कोइ दिन कोमी परिवर्यो, कोइ दिन नहि को पास ।। को दिन घर घर एकलो, जमे सही ज्युं दास ॥४०॥ को दिन सुखासन-पालखी, जेठमची चकमोल || रयपाला आगल चले. नित नित करत कलोल ।। ४ ।। को दिन कूर कपूर तुं, जावत नही लग र ॥ को दिन रोटी कारणे, जमतो घर घर बार ॥ ४२ ।। हीर चीर अंग पहेरियां चुआ चंदन बहु लाय ॥ सो तन जतन करत यौं, क्षिणमांही विघाय ॥ ४३ ॥ सातम गोख तु शोलतो, कामिनि लोग विलास ॥ इक दिन वही आवशे, रदेणोही वनवास ॥॥ रूपें देव कुमार सम, देख मोहे नर नार ॥ सो नर खिण कमां वली, बलि जलि होवे बार ॥ ४५ ॥ जे विन धमिय न जायती, सो बरसां सो जाय ॥ ते वजन विमरी गयो, नरहिंसुं चित्त लाय ॥ ४६॥ दे। खत सब जुग जातुही, थिर न रही सवि कोय ॥ इस्युं जाणीनो कीजियें, हिय विमामी जोय ॥ ४५ ॥ सुरपति सवि से ।। वा करे, राय राणा नर नार ।। आय पहोते आत्मा, जात न लागे वार ॥ ॥ देखत नर अंधा हुआ, जे मोह विंटया बाल ॥जण्या गण्या मूरख वली, नर नारी बाल गोपाल ।। ए ॥ रात दिवस तिज नारिशुं, तुं रमतो मनरंग ॥ जे जोश्य ते
-४०
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॥ ३२४ ॥
पूरतो, जर आणी अंग ॥ ५० ॥ सो रामा जीनं ताहरी, क्षणमांदी विधाय ॥ स्वारय पहोंचत जब रह्यो, तब फरि वैरी या ॥ ५१ ॥ समुदीप सायर सबे, पामे को नर पार || नारी बिए चरित्रनो को नवि पाम्यो पार ॥ ५२ ॥ ब्रह्म नारायण ईश्वर, ई च नर कोम ॥ ललना वचनें लालची, ते रह्या वे कर जोम ॥ ५३ ॥ नारी वंदन सोहामणुं, पण वाघणवतार ॥ जेनर एहने वश पड्या तस लूटयां घरवार || ४ || हसतमुखी दीले जली, करति कारमो नेह ॥ कनकलता बाहिर जेसी, अंतर पित्तल तेह ||२५|| पहेलि प्रति करि रंगथं, मीठा बोली नार ॥ नरने दास करि आपणो, मूके टाकर मार ॥ ५६ ॥ नारी मदन तलावमी, वूड्यो सयल संसार ॥ काढणहारो को नही, बूला बन कर ॥ ५१ ॥ वीश बनाना जे नरा, कोइ नही. तस बैंक || नारी संगति तेहने, निर्थे चढे कलंक ॥ ५८ ॥ मुंज ने चंरुद्योतना, दासीपति पाम्या नाम || अजयकुमार बुधि यागलो, तेह ठग्यो अजिराम || ५ || नारी नहि रे बापका, पण ए विषनी वेल || जो सुख वांबे मुक्तिनां, नार संगति मेल ॥ ६० ॥ नारी जगमां ते जली, जिए जायो पुरुष रतन्न || ते सतिने नित पाय नसुं, जगमां ते धन धन्न ॥ ६१ ॥ तुं पर का मकरी सदा, निज काज न करिय लगार ॥ अत्र नक्षत्र करिय तुं, किस छुटोश जव पार ॥ ६२ ॥ पाप हो पूरण जरी, तें लीन शिर जार ॥ ते किम छुटिश जीवमा, न करी धर्म लगार ॥ ॥ ६३ ॥ इमुं जाणी कूम कपट, बल बि तुंबांम ॥ ते बांकीनें जीवमा, जिन धर्मै चित्त मां ॥ ६४ जिए वचने पर दुख हुए, जिस होय प्राणीघात ॥ क्लेश पके निज आतमा, तज उत्तम ते वात ॥ ६ ॥ जिम तिम पर सुख दीजियें, दुःख न दीजें कोय || दुःख देइ दुख पामियें, सुख देश सुख होय ॥ ६६ ॥ पर तांत निंदा में करे, कूमां देवे आल | मर्म प्रकाशे परतला, तेथी जला चंमाल ॥ ६१ ॥ पटमासीनें पारणे, इक सिलहे आहार ॥ करतो निंदा नवि टले, तस दुर्गति अवतार ॥ ६० ॥ बार उपर जिम लीपणुं, तिम को तप की ॥ तस तप जप संजम मुधा. एके काज न सोध ।। ६९ ।। पूर्व कोमिने यानखे, पार्ली चारित्र सार ॥ सुकृतो सवि तेहनुं.
॥
मां होवे बार || 90 | पर अवगुण सरशव समो, अवगुण निज मेरु समान ॥ कां करे निंदा पारकी, मूरख प्रापण शान || ११ || पर अवगुण जिम देखियें, तिम परगुण तुं जोय ॥ परगुण लेतां जोवमा, प्रखय जरामर होय ॥ १२ ॥ क्रोधी नर सदा, कहिये जे उलटी रीश ॥ ते बोमो दुर आतमा रहे जोय पणवीस ॥ ७३ ॥ गुण कीधा माने नही, अवगुण मांगी मूल ॥ ते नर संगति बांकियें, पग पगमां घासूल ॥ १४ ॥ निंदा करे जे आपणी, ते जीवो जंगमांय ॥ मल मूत्र
साधु
प्रति,
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सूत्र
अर्थ
ር፣ 8
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साधु || धोए परतणां, पडे अयोगति जाय ॥ १५ ॥ जे मल मूत्र धोए सदा. गुणवतना निशदिस ॥ ते दुर्जन जीवो घj, जगमां को।। मूत्र पति
मि वरीस ॥ ५६ ॥ सजन दुर्जन किम जाणिये, जब मुख बोले वाण ॥ सजन मुख अमृत लवे, उर्जन विपनी खाण ॥ 9 ॥ अर्थ नरजब चिंतामणि लही, आले तुं मम हार ॥ धर्म करीने जीवमा, सफल करो अवतार ॥ 9 ॥ सकल सामग्री तेलही, जि
ण तरियें संसार ॥ प्रमाद वशे जव कां गमे, कर निज दिये विचार ॥ १५ ॥ दोनपदेश लागे नही, जो नवि चिते आप ॥३१॥
॥ आप सरूप विचारतां, छुटीमें सवि पाप || 0 |
॥जिण रस पाप कियां तुमें, नि रस तुं कर धर्म । अक्षत्र नक्षत्र जव अनंतना, टीमें मवि कर्म ॥१॥ जिम आनखा दिन गुणी, वरस मास घमी मान ॥ चेति सके तो चेतजे, जो होए हियो शान ॥ ७२ ॥ धन कारण तु फल फले, धम करी थाये मूर ।। अनंत नवनां पाप सवि, दणमा जाये दूर ॥ ३ ॥ जे रचना दिन गती, ते रचना नहि मांऊ ॥ इस्यु जाणी रे जीवमा चेतहि हियमा मांऊ ॥ ३ ॥ आशा अंबर जेवमी, मरवू पगला हेठ ॥ धर्म विना जे दिन गया, तिाण दिन कोधो वेठ ॥ ५॥ रे जिव सुण तुं बापमा, म करिश गर्व गमार ।। मूल स्वरूप देखी करी, जिन जीवशुं तुं विचार ॥६॥ कर्मे को नवि छुटिये, इंश् चं नरदेव ।। राय राणा ममलिक वली, अवर नरज कुण हेव ।। ८५ ॥ वरस दिवस घर घर ज. म्या, आदिनाथ नगवंत ॥ कर्म वशें दुख तिणे लह्यां जे जगमां बलवंत ॥ 6 ॥ पास जिणंद प्रतिमा रहि, नपसर्ग कियो मु. रिंद ॥ ते नपसर्गने टालियो, पद्मावति धरणिंद ॥ ए ॥ काने खीला घातिया, चरणे रांधी खीर ॥ तेहुने कमें नड्यो, चोविशमो श्री वीर ॥ ॥ मन्त्री माया तप करी, पाम्या स्त्री अवतार ॥ सुरपति कोमि सेवा करी, कर्मनो एह प्रकार ॥२॥ पुरुषविषे चूमामणि, नरत नरेसर राय ॥ बाहुबलि हार मनावियो, आज लगें कहेवाय ॥ ए॥ कीधां कर्म न बूटिये, जेहनो विषमो बंध ॥ ब्रह्मदत्त नर चक्कवई, सोल वरस लगें अंध ।। ए३ ॥ आठमो मुभूम चकवी, इक्षितणो नहिं पार ॥ कर्मवशे परिवारशुं, बूमा समुश्मकार ॥ एव ॥ पांच पांमब अतुलो बली, तेह.जम्या वनवास । इस्या पुरुष जगमां वली, दिन पणे फर्या निराश | ए५॥ राम लखमण जगमा वली, जेहन जपे सहु नाम ॥ ते वनवासमाहे रह्या, जे बहु गुणनां धाम ॥ ॥ ए६ ॥ रावण विकट रामें हरायो, कृष्णे हएचो जरासंध ॥ जराकुमर हरिने हरायो, देखो कर्मनो बंध ।। ए ॥ निज पुत्री तातें वरी, तस कूचे मुन हेव । कर्मवशें जब कपनो, त्रिपृष्ट वासूदेव ॥ए । जमतां जमतां अवतर्यो, देवानंदानी कूख ॥
I
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।। अर्थः
___ साधु
ब्यासी रात्रि तिहां रही, कम लहां चली :ख ॥ ॥ इंऽ अहिल्याशुं जुन, लुब्ध हुन सुरदेव ॥ ईश्वर देव नचावियो, पा. || मूत्र __ प्रति रखती पियु हेव ॥ १० ॥
___ मास मखणने पारणे, कुज वालुन आणगार ॥ चित वलगुं संग नारिये चुकत न लागी वार ॥१० १॥ पांचवें रामा । Maran|| तजी, लीधो संयम जार ॥ दश दश नंदिपेवा बूझवी, नर कोश्या दरबार ॥ १०२ ॥ वांधी तांतणा मूत्रना, वीट्यो आईकुमार
॥ मुत माहनी वशें रही, पनी लियो संजम जार ॥ १०३ ॥ पंचसया मुनि नेमना, नर श्री पासना बार ॥ लोग कारण संयम तजी, मांम्यो तिणे घावार ॥ १५ ॥ नवाएं कोमी कंचन तजी, नर तजि आठे नार ॥ ते दुःकर नित बंदियें, श्री जंबू त्रम काल ॥१०॥ एक कन्या कोमी कंचन, तजि जेणे वलि दूर ॥ वहेरस्वामि ते बंदी, नित ऊगमते सूर ॥ १०६ ॥ न. वाणुं पेटी मुरतणी, नित नित होय निर्मात्य ॥ नरजव सुरमुख जोगवे, ते शालिन कुमार ॥ १०॥ रत्नकंबलने कारणे, श्रे. णिक आव्यो बार ॥ गोंखयकी बोली स्यो, लीयो संजमनार ॥ १७ ॥ आठ नारी जेणें राजी, ते धन्नो धन धन्न ॥ नार) हास्य संयम लीयो, राख्यु गम जिणें मन्न ॥ १० ॥ खट नंदन देवकि तणा, नदिलपुर सुलता नार ॥ तास घरे ते नबर्या, रूपं देव कुमार ॥ ११०॥ बत्रीश बत्रीश पदमणी. बत्रीश बत्रीश देम कोक ॥ नेम समीप संयम वरी, ते वदं करजोम ॥११॥ सहस पुरुषशुं संजम लियो, श्रीनेमीसर हाथ ॥ ते यावच्चो वंदियें, मोव कर्यो यदुनाय ॥ ११ ॥ बार वरस 36 आंबिस,
कीधां शिवकुमार ॥ शीयलव्रत सदा धरी, ए पण दरकार ॥११३॥ कोश्या मंदिर चोमा रही, चोराशी चोवीश ॥ ने | युविज मुनि वंदियें, नश्वाहु गुरु शिष्य ॥ १४॥ कपिला संमें नवि चस्यो, शेठ सुदर्शन चंग ॥ शृती सिंहासन थई, मुर ॥ करे मनने रंग ॥ ११५ ॥ शिवरमणीने कारणे, जिण सुख ठंड्यां देह । तिस नाम दोय चार लीजिये, नविजन मुणजो तेह
॥ ११६ ॥ वरस दिवस कानसग किन, बाहूबल अणगार । मानगजेंयी कनयों, तब लियो केवल मार ॥ ११७ ॥ गजमुकमाल शिर शोमलें, देखि धर्या अंगार ॥ समता पसायें ते वसो, पाम्या जानो पार ॥ १७ ॥ मेनारज शिर सोनी, वाधर । वीव्यो धरि खेद ॥ निजमन ठामज राखीयु, कियो संसारनो उद ॥ १५ ॥ मुक्कोमल मुकमाल मुनि, बतुर्यु वाघण अंग ॥
बापनी जामि मा जखी, शिवपुरि वरि मनरंग ॥ १० ॥ . पूर्व जब प्रिया शिवालणी, तिण जख्या अवंति मुकमाल। नलिनीगुरुम विमानमां, पाम्यो मुख ततकाल ॥ ११ ॥
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मति
साधु |! पंचशतशिष्य खंधकतणा, घाणी पीच्या सोय॥ शिवनयरी शिवपामिया, ए समता फल जाय॥१२शा चिलायति पुत्र नारि शिर, !!
बेदीने कर लीध ॥ नपशमतंवर विवेकयी, कृतकर्म दरेंकीध ॥१३॥ दिन प्रति सात हसाकरी, अर्जुनमाली नाम ॥ परिसह दे। खि कमाधरी, पाम्या शिवपुर ठगम ॥१२॥ मुनिपति मुनि कानसगरहे, अगनीदाधीदेह ॥ परिसहसहि पदवी वरी, अमर वधू
धरि नेह ॥१२॥ वंश नपर नाटक करी, एलापुत्र कुमार ॥ जातिसमरण ऊपर्नु, ज्ञान अनंत अपार ॥१६॥ कर्मवशें आषाढ३१७॥
मुनि, जरतनुं नाटक कीध ॥ अनित नावनानावतां, तिणेतिहां केवललीध ॥१२॥ मुशिष्यपंयकजीमुनि, गुरुषमाद कियो दूर ॥ शत्रुजय अणसण करी, ते वदं गुण सूर ॥१२७ ॥ चंरौ गुरु खंवें करी, रजनी कियो विहार ॥ शिष पण केवल पामियो, तिम गुरु केवल धार ॥१२॥ षटमासीने पारणे, ढेवण नाम कुमार ॥ मोदकचूरत पामियो, केवलझान नदार ॥१३० ॥ पटखक राज हेलांतजी, लीधो संजमनार ॥ पटदशरोग इहां सह्या, श्रीश्रोसनतकुमार ॥१३२॥ कुरजखां केवलला, करगमणगार ॥ दमाख हायधरी, जे मुनिमांसिणगार ॥१३॥ पंची प्राणजराखवा, करि खंमोखा देह ॥ मेघरथ रायताणे नवें, प्रसन्नहुन सुर तेह ॥१३३॥ वंदो वीरगुमानगुं, दशान नरसिंह ॥ सुरपति पाय लगामियो, जग राखी निणलीह ।। १३४॥ प्रसन्नचं का नसग्गमा, कोपी यु६ करंन । कोपशम्यो केवल लघु, मोहटो ए गुणवंत ॥१३॥ अश्मंतो मुकुमाल मुनि, वखाए यो वीरजिणंदरियावही पमिक्कमनां, केवललघु आणंद ॥१३६॥ विरजिनवचनें थिर रह्यो, श्रेणिकमुत मेघकुमार ।। जातिसमरण पामियो, करी दो नयणां सार ॥ १३७ ॥ हाट वेचाणी चंदना, सुनश चढ्युं कलंक ।। दमयंती नल विजोग लह्यो, एह कर्मनो वंक ॥ १३० ॥ कलावती कर बेदिया, ौपदी काढ्यां चीर । अनि शितल सीता कर्यो, शील गुणें थयु नीर ॥ १३॥ ॥ चंदना चरण मृगावती, खमात्री निज अपराध ॥ केवल लहि गुरुणी दियो, दोजीव टख्यो विषवाद ॥ १८ ॥ चंद कलंक सायर कयो, खारो नीर किरतार ॥ नवतो नवाणुं नदी तणो, देखो ए जरतार ॥ १४ ॥ हरिचंदराय करम वशे, शिर वयुं हुंब घर नीर ॥ कर्म वशे नर सवि नम्या, जे जग बावन वीर ॥ ४२ ॥ गन ब्राह्मण स्त्री बालका. दृढमहारें हसा कोध ॥ चार पो
"329॥ ल काउलग रही, पम्मास केवल तीध ॥ १४३ ॥ मेरु ढले ने ध्रुव चले, सायर लोपे लीह ॥ कीयां कर्म न छुटियें, जो नगे प. जिनदह ॥ १४ ॥ कोधां कर्म तो छुटिये, जो कीजें जिनधर्म ॥ मन वच कायायें करी, ए जिन शासन मर्म ॥ १४५ ॥ कर्म प्रकाशी आपणां, मन शुध आणंद पूर ॥ सह गुरु पास अ वली. जाय पाप सवि दर ॥१४६॥ बलवंत अनंता जे नरा,
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साधु પ્રતિદ
॥३२८॥
के सुर सुनट जूकार ॥ कर्म सुजट जुन एकले, सवी मनाच्या हार ॥ १४१ ॥ कर्म सुट विषम विकट, ते वश कियो न जा॥ जेनर एहने वश करे, हुं वंदूं तस पाय ॥ १४८ ॥ इम जाणोने की जियें, जिम प्रातम सुख थाय ॥ परजिव दुःख न दीजियें, इम बोल्या जिनराय ॥ १४९ ॥ दान शियल तप जावना, धर्मनां चार ए मूत्र || पर अवगुण बोलत सही, ए सहु याए धूज ॥ १५० ॥ दान सुपात्रें दीजियें, तम पुण्यतो नहि पार ॥ सुख संपति लड़ियें घी, मणि मोती जंकार ॥ १५१ ॥ ध नो साथपती जुनं घृत वोहराच्यं मुनि हाथ ॥ दानम नावें जीवमां, प्रथम हुवो व्यादिनाथ ॥ १५२ ॥ दान दियो धन सारथी, आनंद हर्ष पार ॥ नेमनाथ जिनवर हुवा, यादव कुल सिणगार ॥ १५३ ॥ कलथी केरा रोटला, दीधुं मुनिवर दान ॥ वासुपूज्य जव पाडले, जिनपद लघु निदान ॥ १५४ ॥ मुनि जो एक मारगें, वोहराव्यो तस आहार ॥ साथ मध्यो ते सारथी, ते विर जगदाधार ।। १५५ ॥ सुलता रेवति रंगभुं दान दियो महावीर || तीर्थकर पद पामशे, लहेशे ते जवतीर ॥ १५६ ॥ दानें जोगज पामियें, शियलें होय सोजाग ॥ तप करी कर्मज टालिये जावना शिवसुख माग ॥ १५७ ॥ जावन बे जब नाशिनी, जे आपे जवपार | जावन वमि संसारमां, जत गुणनो नहि पार ॥ १५८ ॥ अरिहंत देव सुसाधु गुरु, केवलि जाति धर्म ॥ इ समकित रायतां, लूटीजें सत्रि कर्म ॥ १५७ ॥ नत्र पड़ जापन कीजियें, चन्द्र पुरवनां सार ॥ इत्या मंत्र गलियें सदा, जे तारे नर नार ॥ १६० ॥ सकल तिरयनो राजियो, कीजें तेहनी यात्र ॥ जब दरिसणें दुर्गति दले, निर्मल थाये गा ॥ १६९ ॥ अष्टापदअर्बुद गिरि, समेतशिखर गिरनार | पंचे तीरथ वंदियें, मन घरी हर्ष पार ॥ १६२ ॥ - पन शांति जग नेमिजिन, पार्श्व ने वईमान ॥ पांचे तीरथ प्रणमतां नित वांधे जिनं वान ॥ १६३ ॥ उत्तम नर नारीतां, नाम कलां मां ॥ नाम निरंतर लीजियें, जिम सहि आणंद याय ॥ १६४ ॥ प्रातम शिक्षा जावना, गुण मणि रयण जंकार || पाप टले सवि तेहना, जेह जो नर नार ॥ १६५ ॥
यातमशिक्षा जावना, जे सुणे दर्प अपार ॥ नवनिधि तस घर संपजे, पुत्र कलत्र परिवार ॥ १६६ ॥ ए सुणतां सुख न जे, गट सबिरीस ॥ समता रसमां जीवको जीले ते निशदीस || १६७ || इस जब परजब जब जवें, जिन मागू हुं हे ॥३२८॥ व ।। मन वच कायायें करी घो तुम चरणनि सेव ॥ १६८ ॥ ए गुण जिहां जावशुं, तिहां रान वेलानल थाय ॥ तम शिका नामयी, सुर नर लागे पाय ॥ १६५ ॥ वीर शासन दीपावतो, आणंद विमल सुरिंद || प्रमाद पंथ दुरें कर्यो, प्रणमुं तेह
सूत्र
अर्थः
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साधु
प्रति
अर्थः
॥३१॥
आणंद ॥ १७० ॥ तास शिष्य मुनिसर धणी, श्री विजय दान सूरीश ॥ प्रगट महिम तस जागतो, पाय नमे नर ईश ॥१७॥ !! उपशम रसनो कूपलो, तास पट्टधर हीर ।। सकल मूरि शिरोमणि, सायर जिम गंजीर । १५शा हीरविजय गुरु हीरलो, प्रति-|| बोध्यो अकबर नूप ॥ राय राणा सेवा करे, जेहन अकल सरूप ॥ १७३ ॥ म्लेचराय जिणे वश कर्यो, जग वी/द अमार ॥ विमलाचल मुक्तो कियो, शासन शोलाकार ॥ १७४ ।। कुमारपाल प्रतिबोधियो, श्री श्रीहेम मुरिंद ॥ तिम अकबर गुरु हीरजी, मनधरि अति आणंद ।। १७५ ॥ ध्यानवशे निज पद दियो, निज मन हर्ष अपार ॥ विजयसेनमुरि नामधी. नित होय जय जयकार ॥ १५६ ॥ कामकुंल चिंतामणि, कल्पतरू अवतार ॥ ते सविथी जेह सिझिनी, अधिक ए जवि विचार ॥ १५७ ॥ विजयसेन गुरुराय वर, विजयदेव मूरिंद ॥ विजयमान गुरु वंदियें, जिम सूरज नर चंद ॥ १५० ॥ तपगढ वाचकमें वरू, विमल हर्ष शिरताज ।। नामें नवनिधि संपजे, दरिसण सीके काज ॥ १७ ॥ आतमशिदा नावना, तास शिष्य मनरंग ॥ प्रेमविजय प्रेमें करी, ऊलट आणी अंग ॥ १० ॥ श्रीरबहर्ष विबुध मुफ, बंधू तास पसाय ॥ तासु सानिध ग्रंथ में कर्यो, मन धरि हर्ष अपार ॥ ११ ॥ मूढ मती ले माहारी, कवि मत करजा हास ॥ कृपा करी मुझ नपरें, शोधी करजो खास ॥ १२ ॥ संवत शोल बाशहिए, वैशाख पूनम जोय ॥ वार गुरु सहि दिन जलो, एह संवत्सर होय ॥ १३ ॥ नयर नके. णीमां वली, आतमशिदा नाम ॥ मन नाव धरीने तिहां करी, सीधां वंबित काम ॥ १४ ॥ एक शत एंशी पांच ए, दोहा अति अजिराम ॥जणे गुणे जे सांजले, तेह लहे शिवठाम ॥ १५ ॥
॥ इति आत्मशिदा नावना समाप्ता. ।।
॥३१॥
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साधु
सूत्र
॥ श्रीपंचपरमेष्टित्यो नमः॥ ॥ शुधोपयोगः ॥
प्रति
अर्थः
॥३०॥
(सहजसमाधिः)
उपोद्घात.
॥ परमात्मानां दर्शन करवानो मार्ग. ॥ ॥ अज्ञातस्वस्वरूपस्य परमात्मा न बुध्यते । आत्मैव प्राग्विनिश्चयो विज्ञातुं पुरुषं परम् ॥१॥
अर्थः-जेने पोताना आत्माना म्वरुपनी नळखाण नथी, ते परमात्माना स्वरुपने जाणी शकतो नथी, माटे परमात्मानुं स्वरुप जाणवानी इच्छा राखनारे प्रथम पोतानु आत्मस्वरुप जाणवा विशेषे करी निश्चय करवो जोशए. ॥१॥ विवेचन-आत्मस्वरुपनी नळखाण एटले, अंतरात्मा, जेनुं स्वरुप श्लोक सातमा दर्शावेलुं दे तेनी नळखाण. आत्मतत्वाननिझस्य न स्यादात्मन्यवस्थितिः । मुह्यतः पृथक् कर्तुं स्वरूपं देहदेहिनोः ॥२॥
जावार्थ-आत्मानुं तत्व नहीं जाणनारने आत्मामां स्थिति थती नयी तेथी देह अने देहमां व्यापी रहेला आत्माने जूदा समजावामां ते पोताना अंतःकरणमां मुंकायाकरे ने.२
॥जेदान, ॥ तयोर्नेदापरिज्ञानानात्मलानः प्रजायते । तदन्नावात् स्वविज्ञानस्फूर्तिः स्वप्नेऽपि उर्घटा ॥ ३॥
अर्थः-ज्यांमुधि देह अने आत्मा जूदा ने एबुं लेदझान नथी यतुं, यांमुधि आत्मस्वरूपनी प्राप्ति नयी यती, अने ज्यांमुधि आत्माना स्वरुपर्नु झन नयी यतुं, सांसुधि परमात्माना छाननी प्राप्ति स्वप्नमां पण थाय, एम नज समजवु.॥३॥
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सा प्रतिक
___॥३२॥
-
॥ अतः प्रागेव निश्चयः सम्यगात्मा मुमुकुन्निः। अशेषपरपर्यायकल्पनाजालवर्जितः ।। ५॥ मूत्र अर्थः-एटला माटे मोदनी इच्छा राखनारानए पेहेलेज विवेकथी समीरने आत्मानो निश्चय करवो. ते सम्यक् आत्मा || प्रथः एवो ले के जेमां मनुष्य, तिर्यंच, नारकीने देवता, एका चांतिथी जागता सघळा परपर्यायनी हैयाती नयी. ॥ ४॥
॥ हवे आत्मानु स्वरूप त्रण प्रकारे वर्णवे . ॥ ॥ त्रिप्रकारः स नूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः । बहिरंतः परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणः ॥५॥
अर्थः-सर्व प्राणीनमा व्यापी रहेलो यात्मा जुदा जुदा त्रण विकल्पोत्रमे वाहिर, आंतर अने पर एम त्रण प्रकारयी कदेवामां आवशे. ॥५॥
॥ हवे वहिरात्मान स्वरूप कह ले. ॥ ।। आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मवित्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोदनिशस्त
चेतनः ॥६॥ अर्थः-या शरीर, मन, अने वाणी विगरेमा जेने आत्मचांतिथी आत्मबुधियाय. ते मोहनिशमा पमीने घोरतो चेतन बहिरात्मा कहेवाय. ॥६॥
॥ हवे अंतरात्मा स्वरूप कहे . ॥ बहिनीवानतिक्रम्य यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । सोऽतरास्मा मतस्तविनमध्वान्तनास्करैः ।। ७ ।।
अर्थः-नपर कहेली शरीरादि बाहेरनी वस्तुनने बोमी जेने पोताना आत्मामाज आत्मनिष्ठा याय, ते अंतरात्मा ए॥३१ म चांतिरूप अंधकारने दूर करनार मूर्य सरखा आत्मज्ञानिए मान्यु ने. ॥9॥ १ छान, दर्शन, अने चारित्र एज सम्यक् आत्मा ने
४१
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प्रति
अर्थः
साधु
॥ हवे परमात्मान स्वरूप वर्णवे ने ॥ निर्लेपो निष्कलः शुशे निष्पन्नोऽत्यंतनिर्वृतः । निर्विकल्पश्च सिक्षात्मा परमात्मेति वर्णितः ॥७॥
लावार्थः-शरीर अने कर्मादिना लेप वगरना होवायी निर्लेप, शरीरादिकथी असंग होवाची निकल, इव्य अने ला. ॥३२॥ व कर्मथी रहित होवाथी परमशुझ, परमपदने पामेल होवाची निष्पन्न, अव्याबाध सुखी होवाथी आनंदमय, विकल्प रहित
होवाथी निर्विकल्प, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनेत चारित्र तथा अनंत वीर्यरूपी लक्ष्मी पामवाथी जे सि कहेवाय, तेज परमात्मा एवा नामधी शास्त्रोमां वर्णवेला ने. ॥७॥
॥खारे हवे परमात्मस्वरूप ओळखवाने शुं करवू ! कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदंबकात् । प्रात्मानमन्यसेद् योगी निर्विकल्पमतीश्यिम् ॥ ५॥
अर्थः-शरीरादि विषयोना समूहथी जूदो करी, इंडियोयी न जणाता एवा निर्विकल्प आत्मानो योगाच्यासीए सारे केवीरीते अभ्यास करवो?॥ए॥
॥ योगना अभ्यासीनने तेनो उपाय बतावे . ॥ - अपास्य बहिरात्मानं सुस्थिरेणांतरात्मना । ध्यायधिशुक्ष्मत्यंतं परमात्मानमव्ययम् ॥१०॥
अर्यः-देहादि बहारना विषयोमा हुं ने मारूं एवी बुद्धि बोमी दइ, एटले बहिरात्माजाव मूकी दइ, रुमीरीते स्थिर यतो अंतरात्मावळे असंत विशु एवा परमात्मानुं ध्यान करवू. ॥ १० ॥
विवेचन-प्रिय वांचनार. आ दशमा श्लोकयां सहज समाधिनुं रहस्य एटले लेद समायेलो होवायी तेनुं कंईक अनुन वगत विशेष विवेचन करवा अहीं प्रयत्न करूं टुं.
आ शरीर, मन, अने वाण ए है नयी, अने तेथी एवणेयो जोगवाता विषयो, ए मारा नयी. एवी बुद्धि यता, शरीरांदि अने विषयोमांयी राग देष छुटतो जशे, कारणके राग देष आ पहारना विषयोपा हुं ने मारूं एवी बुध्थिी उत्पन्न या
श
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साधु ॥ य ले. अने जे जे अंशे रागष आत्मामाथी छुटतो जशे, ते ते अंशे आत्मा स्थिरता अनुजवतो जशे, अने ते एटले मूधी के प्रति०
पोते अगान को दिवसे नदि अनुनवेली शांति पोतामांज अनुनवशे. एवी शांति अने स्थिरता अनु नवनो आत्नाज अंत. रात्मा जणाय ले. अने ए अंतरात्मा बहारना विषयोयी विमुख यश, परमात्नानी सन्मुख यह तेनां दर्शन करवाने योग्य
थाय ले. माटे जेने परमात्माना दर्शननी के परमात्मानी प्राप्तिनी जीझासा होय तेने आ नपाय, कुंवो, के रहस्य कामे लगा. '३३३॥
मवानी हुं प्रार्थना करुं छु. अध्यात्म रसिक श्रीमद् देवचंजी पण आपणने कहे ले के प्रीति अनादिनी परयकी, जे तोके हो, ते जो एह परम पुरुषयी रागता, एकत्वता हो दाखगुणगेह. ॥ ६ ॥
जावार्थः-प्रन्नुमाथे प्रीति केम याय! तेनु नत्तर आपतां आचार्य महाराज आपणने कदे ले के अनादि काळ्यी शरीर, मन, वाणी अने तेना विषयो ए परवस्तु , माटे एनी साथे तमे मीत तोमो, एटले परमात्मानी साये तमारी प्रीति य. वाने तमारामां योग्यता आवशे. एम योग्य यश पड़ी परमपुरुष परमात्मानी साथे जो राग करशो तो गुणना घररूप तमे पोतेज परमात्मा यइ जशो. ना. क.
॥ हवे मूढ पुरुष तथा ज्ञानी पुरुषनी दृष्टि केवो होय छे ते देखामे दे. संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः । बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देदिनम् ॥ ११ ॥
अर्थः-अति मूहबुभिवाळो पुरुष आ ज्ञानमय अत्माने बाह्यदृष्टिवालो होवाथी देहज एम जुए ले. अने हानी पुरुप आ सकल देहमां व्यापी रहेला चित् अने ज्ञानमय आत्माने देहयी जुदो बे एम देखे डे. ॥ ११ ॥
॥ हवे बहिरात्मा देहनेज आत्मा पान ने तेनुं कारण कहे . ॥ अक्षारैर विश्रांतः स्वतत्त्वविमुखैर्नृशम् । व्यावृतो बहिरात्मा यो वपुरात्मेति मन्यते ॥१२ ।।
अर्थः-पोताना आत्मतत्वथी उलटी दिशामाज विशेषे करी जोनारां एवां इंडियोना हारथी घेराएलो आ बहिरात्मा || ॥३३३ शरीरनेज आत्मा ने एम माने ॥ १५ ॥
॥ पनी तेज शरीरने मनुष्यादि पर्यायरूप गणे बे.॥
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साधु
पतिः
||३२॥
॥ सुरं त्रिदशपर्याये नृपर्याये तथा नरम् । तिर्यंचं च तदंगेषु नारकांगे च नारकम् ॥१३॥
वेत्त्य विद्यापरिश्रांतो मूठस्तन पुनस्तथा ॥ जावार्थ:-आ अनादि कालथी अविद्यानाज अत्याममा पम्लो सूद, पोतानुं शरीर तेज आत्मा मानवारूप पेहेली भूल कर्यापबी, ते भूलोनी परंपरामांज पमतो जाय बे. ते आवीरीते के जो ते शरीर देवतार्नु होय, तो पोताने देवता माने, मा.
सनु होय तो माणस गणे, तिर्यंच एटले पशु, पक्षीनु होय तो हुं पशु, पदी छ एम जाणे अने नारकीमा होय तो हुँ नारक र्छ एम कहे; आम शरीरना पर्यायरूप मनुष्यादि ते हुँ एम मानतो चाल्यो जाय बे, अर्थात् एवा पर्यायाने हूं समजवायील. वो-नवमां जदकतो फरे बे. ॥ १३ ॥ १४ ॥
॥ इानी, शरीरना मनुष्यादि पर्याय ने केवा गणे जे.॥ ॥ किन्त्वमूर्तं स्वसंवेद्यं तद्रूपं परिकीर्तितम् ॥ १४ ॥ स्वशरीरमिवान्विष्य परांगं च्युतमन्यु
___तम् । परमात्माश्रितं ज्ञानी परबुद्ध्याध्यवस्यति ॥ १५ ॥ अर्थ:-परंतु अरूपी, स्वसंवेद्य एटले पाताथीज जणाय एवा ज्ञानरूप. विख्यात एवा. स्वशरीर तेमज परशरीरमा व्या पी रदेला अधिकारी परमात्माने आश्रय) हानी पुरुष तो आत्मामांन आत्मबुद्धि करी द्यावे. ॥ १ ॥ १५ ॥
हवे बहिरात्माना कार्य- वर्णन करे . ॥ ॥ स्वात्मेतर विकल्पैस्तैः शरीरेष्ववलंबितम् । प्रवृत्तचितं विश्वमनात्मन्यात्मदर्शिनिः ॥१६॥
अर्थः-जम्नेविषे आत्मबुझिवाळा. मिथ्या दृष्टिनए, ( वहिरात्माए ) पात्मान बोमी बीजा विकल्पो प्रवर्ताची शरीरादिनेविपेज मुंफाइ रही, आ विचारा आखा विश्वने अरेरे गीलीधुंबे.!:॥ १६ ॥
॥ पनी पोताथी असंत जिन्न एवा पुत्रादिने पोताना माने ने.॥
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मायु
ततः सोऽत्यंत निनेषु पशुपुत्रांगनादिषु । आत्मत्वं मनुते इ.श्वद विधाज्वरजल्पितः ।। १७ ।। || सूत्र মনি।
अर्थः-आ शरीरज आत्माथी जिन्न , तो पड़ी पशु, पुत्र, स्त्री एतो आत्मायो अवंत निन्न ययां, ते उतां अनादिका- अर्थ:
लनी अविद्याना तावनी कुममा ने ममां हमेशां एमजबकी रह्यो । के एनो मारां ॥१ ॥ १३३॥
॥पली ते शरीरादिमां जामा पातलापण जोइने ते पोताने माने जे.॥ सादात्स्वानेव निश्चित्य पदाश्चेितनेतरान् । स्वस्यैव मनुते मूढस्तन्नाशोपचयादिकम् ॥१७॥
नावार्थ-प्रयदयी जोतां पोतानी चेतना करतां जदा एवा पदार्थोने पोताना जे एम ते मृढ नक्की समजे ने एटलंज नहि परंतु ते शरीरादि परपदार्थनी हानि-वृदियी पोतानी हानि-वृदि. माने जे. (अर्थात् शरीर पातळ होय तो मुकाइ गयो छु, ते जाउं होय तो हुं जामो छु, एम माने .) ॥ १० ॥
॥ शामाटे शरीरादिने हुं माने ? तेनुं कारण हवे कहे .॥ अनादिप्रनवः सोऽयमविद्याविषमग्रहः । शरीरादीनि पश्यंति येन स्वमिति देदिनः ॥१७॥
अर्थः-अनादि कालयी नुत्पन्न ययेलो. आ अविद्या एटले मिथ्यात्वरूप एक विषमह तेने वेठगेले. तेथीन आ देह वगेरे हुँ एम जोतो आवे . ॥ १५ ॥
॥ हवे शरीरमा आत्पबुदि ने आत्मामा आत्मबुझ्नुि फल कहे जे. ॥ वपुष्यात्मेति विज्ञानं वपुषा घटयत्यमून् । स्वस्मिन्नात्मेति बोधस्तु निनत्यंगानि देहिनाम् ।।२०।।
जावार्थ:-शरीरमां आत्मा एवं दृढ झान देहधारीनने शरीर सायन रहेवा देठे. ( अर्थात नवोनवमां लटकावे ठे.) 10T १ अविद्याविषमग्रह एटले देह हुं एवो निश्चयपूर्वक उलटी आग्रह.
आ श्लोक ११ थी ए मुधिनी नपसंहार एटले साररूप ले.
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मूत्र
पातु प्रति
अर्थः
१३२६॥
अने पालामा छाया एका बाघ, तेने शरीरादिकवी बोम्बी मोद प्राप्ति करावे .. २०॥
॥ हवे बहिरात्मजाव बोमी अंतरात्मा थवानी जलायण करे . ॥ तनावात्मेति यो नावः स स्याहीजं नवस्थितेः । वहिर्वीतादविवेपस्तं त्यक्त्वातर्विोत्नतः ॥ १॥
अर्थः-देहनविणे आत्मजाव एज संसार स्थितिनुं वीज बे, माटे इंश्यिोने बहार न जवा दइ, अंतःप्रवेश करवो. ॥२१॥
विवेचन-संसार स्थिति एटले नवाजवणं रहे. याने ते जवाजवां रदेवानीज एज डे के शरीरनेज आत्मा मानवो. ते; माटे शरीरने आत्मा मानवानी बुद्धि. जो इंडियाने वाहेर व्यापार करतां अटकाव होय तो न यायः अने पनी अंतःप्रवेश सहज थतांज अंतरात्मा थवाय.
॥हवे अंतरात्मावाळो जीव पोतानी पूर्वनी बाह्यत्ति मंजारी खेद करे ने ॥ अवधारैः स्वतच्युत्दा निमनो गोचरेष्यहम् । तानासायामित्येतन दि सम्यगवेदिषम् ॥२२॥
लावार्यः-इंडियारवसे मारा आत्मतत्वमाथी खसी जइ, आ इश्यिोयी जणाना विषयोमा अरे हुं फसा पड्यो हनो, अने ते विषयोनेज असारमुधी अवलंबीने रहेलो होवायी इंडियोथी जणाताते हैं नहि ए मने सम्यकप्रकारे खरेखर, अरे. हमणा सुध! जगायुंज नहि !!! ॥ २५ ॥
॥श्राम अंतरात्मा यथा पनी परमात्मदर्शनी कुंची देखा ने.॥ वाहासालगाग्वैत्रांतरात्मानं ततस्त्यजेत् । प्रकाशयत्ययं योगः स्वरूप परमेष्ठिन. ॥३॥ जानाथ ..नापर कहला बाल विकल्पाने बोमीद, मनमा पण आवता विकल्याने डोमी देवा एटते के हूं सुखी.ई जाखी है चतन, इखादि सघळा विकल्पोनो साग करवो, केवळ अंतरात्मा थपरमात्मानीजावना करवी, आन नावना कर. तां करतां अंतरालाने पण बोमी देवो आयो अन्याम करता करतां योका वखामांन परमालानुं खरूप पोनामा प्रतिमा से ने. ॥२३॥
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साधु
प्रतिष्
१३२७॥
विवेचन-- जे शरीर ने इंडियाना विषयो पोनायी जिन्न, जलाय एटने पोते अंतराला भयो. एम
मूत्र
तुजेन 11 काश मे बहिरात्मा जूदो देखाइ गयो, ते परमप्रकाशमय सूर्यवत् परमात्मा ते. माटे बहिरामा जे वेळा जूड़ो देखा जाय, ते ज वेळा अंतरात्मा तरफ पण नजर करी लेवी. एटले ज्योतिर्दर्शन अंतरात्मायां प्रतिविष देखाइ रहे ते. ॥ वो याग करवानीयुक्ति देखा दे. ||
अर्य
दृश्यमिदं रूपं तत्तदन्यं न चान्यथा । ज्ञानवच व्यतीताकमतः केनात्र वच्यहम् ॥ २४ ॥ जावार्यः – आ जे जे कंइ देखाय ते ते माराय। जू दुं बे ने जे माराय) जू हुं वे ते सरे को बहा दे एवं न अशक्य बे. कारण के आा जे जे कइ देखाय बे ते इंडियाने गोचर वे अने हुं तो इंडियाने गोचर कुंझानवान एटले देखा एवो नयी, सारे मारायी जुदा एवा जम साथ केम बोलुं ! ॥ २४ ॥
विवेचन-लोकनी अनुज करतां, अनुजवरमिक जाषांतर कर्तने, कोइ अलौकिक शांति उत्पन्न य हती. कार के इंडिगोचर सर्व विषयमा मौन रहेवायो, वचन वर्गणाना पुद्गलो फरी फरी, समुड़यां जेम मोजां शांति पामे, तेम - तरां शांत पामतां जातां दतां वातचितत्र्यादि जेटलो व्यवहार थायडे, ते बधो जरु सायेज थायडे कारण के चैतन्य तो देखातुं नयी, बोलतुं नथी, सांजळतुं नयी. मात्र या जे सर्व क्रिया थाय छे, ते तो दीपवत् जुए वे जाणे बे.
॥ वे बाहिर विकल्प तजी आंतर विकल्पो तजवानुं बतावे . ॥
जनेरपि बोध्योऽहं यज्जनान् बोधयाम्यहम् । तत्रिमपदं यस्माददं विध्वस्तकल्पनः ॥ २५ ॥ अर्यः - मारो को बोध करी शके अथवा हुं कोइने बोध करूं के "हुं" आवो लुंए तो मात्र चांति छे, कारण के हुं निर्विकल्प होवाथी एवी कोइ कल्पनाथी ग्रहण या शकुं नहि ॥ २५ ॥
विवेचन - धारो के एक कुंरुमां जळ परिपूर्ण नरेलुठे. तेनी वचमां फुवारोडे, अने फुवाराने मयाले बिशे बे; तेमांयी जळ नमे बे. तेमज आत्मानुं अनंत शक्तिरूपी जल मनरूप फुवारामां थइ इंडियोरूप बिड्यांथी निकली बहार आवतुं जगाय d. एयीज आत्मानी बहार यावेली शक्तिनने, बहिरात्मा पोतानी मानी रहेलो बे; अने कुंरुमां नरेलुं अनंतशक्तिरूपी जळ
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॥३१७
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साधु
तेने देखा नथी. हवे जो अंतरात्म यर इंडियाररूपी बिमाथी निकल जल, ने कुंरुमां नरेलु जल ए उजय देखाइ र प्रसि० है, तो सकल शक्तिरूप जलमां एकात्मता थइ रहे. अर्थात अंतरात्मा परमात्मारूप यह जाय. वहिरात्मा, अंतरात्मा ने प रमात्मा, एमां बहिर, अंतर, अने परम ए तो उपाधिरूपे ते. परंतु श्रेष्ठतम तत्वतो आत्मतत्व ( सितत्व) ले के मां को उपाधि लागी शके नहि. जा. क.
॥ वे निर्विकल्प होवा छतां आत्मस्वरूप देखावा प्रयत्न करे हैं. ॥
॥३२८॥
यः स्वमेव समादत्ते नादते यः स्वतोऽपरम् । निर्विकल्पः स विज्ञानी स्वसंवेद्योऽस्मि केवलः ॥ २६ ॥ अर्थः- जे पोते पोतानेज एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्रनेज ग्रहण करी रह्यो ठे, अने जे पोतायी जुदा एवा परपदार्थने ए टले जम पदार्थने ग्रहण करतोज नयी तेज स्वसंवेद्य, ज्ञानी, परवस्तुनी साये नहि मलवाथी केवल एटले एकज. तेमज निर्वि कल्प एवो हुं छु. ॥ २६ ॥
॥ हवे आम निश्चय यया पहेला हुं केवो जगातो हतो ते कहे छे. ॥ जात सर्पमतेर्यच्छृंखलायां क्रियामः । तथैव मे क्रियाः पूर्वास्तन्वादौ स्वमिति मात् ॥ २७ ॥ अर्थ:-जेने सांकळमां' सर्प एवी बुद्धि यइ बे, ते जेम सांकळने दृष्टिचमयी के नजर चूकयो सर्प मानी जाय ते. तेमज हुं सारधि शरीरादि तेज हुं आत्मा एम जाली खरेखर वधी क्रियान करतो हतो. ॥ २१ ॥
॥ परंतु हवे आत्मज्ञान यत्रा पढी मारुं वर्तन केयुं ने ? ॥
शृंखलायां यथा वृत्तिर्विनष्टे भुजगत्रमे । तन्दादौ मे तथा वृत्तिर्नष्टात्मविभ्रमस्य वै ॥ २८ ॥ अर्थ – सर्पविचम जवाथी कंइ लोको सांकळने सर्प माने नहि, तेम दबे शरीरादिमांयी आत्मविचम जायी हवे क शरीरादिने आत्मा मानेज नहि: तेम आत्मानेज आत्मा मानवारूपी हवे मारी वृत्ति थइ ते । ३८ ॥
१ दोरमामां, एवं पण उदाहरण घणी जगोए वे बे.
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सूत्र
अर्थ:
॥३२८
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साधु
प्रति०
||३५||
विवेचन - समय आत्मानी शक्ति जणाववाने, आम उदाहरण यापी शकाय कोई अचिंत्य वस्तु बे, जे वचनमां यावी शक्ति नथी. परंतु ते त्रण स्वरूपे देखाय है अर्थात् बरफ, पाणी अने वाप्प. ( वराळ ) हवे इंडियारमाथी निकळतु ते बरफ, मनमां जे जगातुं ते जळ, अने मनयी पर जे जलातुं ते बाष्प, परंतु जेम वरफ, जळ, अने वाप्प ए त्रण एकज व स्तुमां स्वरूप छे तेमज इंड़ियोमांथी, मनमांयी, अने आत्मामांची स्फुर्ति शक्ति एकजरूप जे.
॥ आत्माने स्त्री, पुरुषादि वेद नथी ने संख्या नयी ॥
एतदेव एकं बहूनीति धियः पदम् । नाहं यदात्मनात्मानं वेत्त्यात्मनि तदस्म्यहम् || २ || अर्थ:-नर, नारी, के नान्यतर हुं नथी, तेमज एक वे के बहु ए पण हुं नथी. कारण के ए वेद, अने संख्या ए तो देने छे, ते हुं कां देह नथी. सारे हुं तो फक्त आत्माए करी आत्मामांज नळखातो आत्माज छु ॥ १५ ॥
विवेचन - नर नारी ने नान्यतर ए शरीरमां त्रण पर्याय ते. दवे जो शरीरज आत्मा नथी. तो नर नारी अने नान्यतर क्यांथी होय? संख्या, एकवर्गमां आवेली एक चीजना जागो डे. परंतु आत्मा अविभाज्य होवाने सीधे तेनी संख्या केम थइ शके ?
जापान्तरकारथी अमेरिकामां आवेला युनाइटेक स्टेट्सना चिकागो नगरमा मिसीस नोरा पेट्री नामनी एक सहोदर व्हेने, प्रश्न करतां कंशक अनुज गत उत्तर आपायुं हतुं ते आत्मानंदीने उपयुक्त जाणी अत्रे लख्युं छे.
व्हेन मिसीस नोरा पेट्रीए कनुं के, मने मारा पतिमां पतिज्ञाव, मार श्यामां पुत्रीजात्र, अने मारामां नोराजाव, एम होवायी प्रेम वेंचाइ जतो नथी ? ने वेंचाइ जवायी पातलो थइ जतो नथी ? ने तारामां बंधुत्वाव आववायी तो चार जागमी वेंचाइ जाय है; एम एकज प्रेमनी चार संख्या य. हवे सर्व मनुष्यामां ने सर्व जंतुनमां, हुं जो प्रेम राखुं, तो विश्वमां जेटली व्यक्तिन बे, तेटला प्रेमना खं यइ जाय. उत्तर व्यापत जाषांतरकारे कां के एम नहि, ज्यारे व्हेन, हुं तारी सन्मुख जोनं, सारे रूपी यखं प्रेम तारामां जगिनी जात्र पाठे. छाने ज्यारे मारा बनेवी तरफ जोन्छु, सारे तेज रूपि खं प्रेम पोतानुं स्वरूप बदली आखोने
आखा
४२
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मूत्र
अर्थः
|३२|
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सूत्र
पति
॥३३०
आखो बनेपीनाव पामे जे. ज्यारे वा तरफ जान्छ, सारे ते प्रेम आखोने आखो नाणेजोनार पामे . तेमज प्रकळ जंतु.॥ | मां प्रेम राखवो, एटले समय समये प्रत्येक व्यक्तिमां. आखोने आखोज ते प्रेम होय; पण तेना खेम या शके नहि. एटले ते- || नी संख्या पण थायज नहि. जेम प्रेम अविनाज्य बे तेम आत्मा पण अखं बे. नपनिषद पण एम कहे ले-पूर्णमदः, पू. र्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते, ए पूर्ण बे, आ पण पूर्ण ले, पूर्णमांयी पूर्ण आवे बे, पूर्णमांयी पूर्ण लेतां पूर्णज अवशेष रहे ले.
॥ सारे हु आत्मारूप अनुजबाबु छु ते केवो छु । यदबोधे मया सुप्तं यद्बोधे पुनरुत्थितम् । तद्रूपमिदमत्यदं स्वसंवेद्यमदं किल ॥ ३० ॥ अर्यः-जे आत्माना स्वरूपना बोधविना अखारमुधि हुँ मूनो हतो अने जे आत्मस्वरूपना ज्ञानयी हवे जागृत थपो छ, तेज इंडियोथी न जणाय एवं, खरेखर स्वसंवेद्य मारुं स्वरूप दे. ॥ ३०॥
विवेचन-जम एक मनुष्य पासे ५-3 हीरा होय अने खुशी थाय, परंतु तेने होरानी खाण हायमां आवे ने जेवो नंद पामे, तेम स्वसंवेद्य एटले आत्मानुनब करनारने परमानंद प्रगट थाय ले. निगोदनी अंधारी रातमाथी तिर्यंचनी तारावा ली रात्रमा आवतां खुशी यश, अने सांथो मनुष्यनी चांदनीरूप रात्रमा आवतां धारे हर्ष ययो; परंतु अनुजवसूर्य नगवतां तो आनंदज जणाय ले. माटे मारा सगा जाश्न, व्हेनो, अने सगी मासान, जे मनुष्यपणं आव्युं तेने माटे रमो नहि, पण हर्पित थान, एटले आनंदमूर्य नमशे.
॥राग देषनो आ जन्ममाज नाश ने ज्योतिर्मय आत्मानुं प्रगट यवु ॥ ज्योतिर्मयं ममात्मानं पश्यतोऽत्रैव यांत्यमी । कयं रागादयस्तेन नारिः कोऽपि न मे प्रियः॥३१॥
अर्थः-ज्योतिर्मय आत्माने मारामां जोतो एवो हूं, ते मारा रागदेष अहीन य य गया , तेयो हय कोइ मारे न यो शत्रु के नया मित्र. ॥ ३१॥
अनुनव-जरती वट घण समुश्मां जाणाय डे पण भूमध्य समुश्मां नयी जणातो. अमेरिकामा दिवस सारे हिंदुस्ता
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साधु
मति
२३३१॥
नमा रात्रि, ने हिंदुस्तानमां रात्रि,सारे अमेरिकामां दिवस एम जयात्मक रात्रि दिवस पृथ्वी पर जगायले पग मूर्यमां रात्र दिवस नथी. अजवाळु ने तेना अनावरूप अंधारूं नथी. पण सां केवळ प्रकाश दे. तेम आत्मामां, रागदेवरूप जरती न...
अर्थः ट जतां, प्रिय अप्रिय जतां, शत्रु मित्रपा' जतुं रहि, केवळ आनंदरूप, आत्मस्वरूप जणावरदे बेः नेम में सारा नारामां नथी, प्रिय अपियमां नयी तेज आत्मा मध्यमां रहे , तेज ज्योतिर्मय निजस्वरूपदर्शन पामे वे माटे रागी पाने जोइ. सामेपासवाळाने शत्रु केहेवा अने पिने पामे जोइ सामे वाळाने मित्र केहेवा ए अजवाळाने तेनी सामेना अंधाराना पदार्यमां तादा स्म्य जावयी थयु, पण तेथी विलक्षण एव॒ ज्योतिर्मय, सर्व तेजोमयमूर्यसरखं आत्मस्वरूपता आनंदकाका, सर्व नगर समपरिपूर्ण प्रेमवाळु नासे बे-ला क.
॥ आत्मस्वरूप जाणनारने रागादि कीण होवायी को शत्रु के मित्र होता नयी. अदृष्टमत्स्वरूपोऽयं जनो नारिन मे प्रियः । सादात्सुदृष्टरूपोऽपि जनो नारिः सुहृन मे ॥ ३ ॥
अर्थः-रागष, परवस्तुमां हूं के मारापणानी बुद्धिथी थाय बे ने ए परवस्तु बोमी मने ज्यारे मारा आत्मामांज आत्मबुद्धि थडे, सारे लोको मने न देखे तो पण ते मारे शत्रु मित्र नयी अने सादात कदाच सारी रीते देखे तोपण ते मारा शत्रु मित्र नथी, कारण के हवे मारामां रागदेष जणाता नथी. ॥ ३५ ॥
स्पष्टीकरण-अहिं जाषांतरकर्ता पोतानी वीतेली वात, सकळ सृष्टिना जंतुन समक्ष कही दे. ते ए ले के, जेम अजवालानो प्रतिपक्षी अंधारूं, ने अंधारानो प्रतिपकी अजवाळू, एम जे इंडियोथी देखाय ले ते आत्मामां नथी. जेम अजवाळु ने अंधारूं, मूर्यमां देखातुं नयी; पण केवळ प्रकाश देखाय डे. तेम रागनो प्रतिपक्षी ष अने पनो प्रतिपक्षी राग, एम आत्मामां देखातो नथी. पण आत्मामां तो, सकल जंतुपर अखंम समजाव रहे जे.
॥ हवे पूर्वनी क्रिया मने केवो लागे । इतःप्रनृति निःशेषं पूर्वं पूर्वविचेष्टितम् । ममाद्य शाततत्वस्य नाति स्वप्नेन्जालवत् ॥ ३३ ॥ अर्थ:-आज मुधी जे जे मारुं पूर्वे आचरण हतुं ते सघळु आजे तत्व जाण्यापली हवे मने स्वमा सरखं के इंजाल
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साधु
प्रतिष्
॥३३२॥
जाणे न होय, ते लागे बे. !!! ॥ ३३ ॥
॥ एम अंतरात्मा थर परमात्माने जोनं लुं से कहे ठे.
॥ यो विशुद्धः प्रसन्नात्मा परं ज्योतिः सनातनः । सोहं तस्मात्प्रपश्यामि स्वस्मिन्नात्मानमच्युतम् ॥ ३४ ॥
अर्थः- जे संत निर्मल बे, ज्यानंदमय छे, परम ज्योतिर्मय बे, मने जे सनातन बे तेन हुं हुं, एटलामाटे मारामा रहेला अच्युत आत्मा जे परमात्मा ते तेने हवे हुं विशेषे करी जोनुं हुं ॥ ३४ ॥
॥ हवे तेज वृत्तिनो अभ्यास करतो ते कहे बे. ॥
बाह्यात्मानमिति त्यक्त्वा प्रसन्ने चांतरात्मनि । विधूतकल्पनाजालं परमात्मानमन्यसेत् ॥ ३५ ॥ अर्थः- ए प्रकारे बाह्य आत्मानो साग करी प्रसन्न एवा अंतरात्मामा रही सर्व कल्पनाजालथी रहित एका परमात्मानो अभ्यास करवो. ॥ ३५ ॥
सूचना - सर्वकाळे न बने तो, सामायकनी अंदर आत्मानुजवना अनिलापिए, या श्लोकमां जगविली अज्यास करवो ए ठीक बे. ॥
॥ हवे बंध ने मोनुं कारण कहे ते. ॥
मोजावेतौ प्रमेतर निबंधनौ । बंधश्च परसंबंधात्तनेदाभ्यासतः शिवम् || ३६ ||
अर्थः- आत्माने परवस्तुना संबंधयी बंध वे, एमज आत्मा ने परवस्तुना जेदना अभ्यासघी मोक्ष ठेवळी बंधनुं कारण परवस्तुमां प्रात्मत्रांति बे. तेमज मोनुं कारण तेथे विपरीत एटले स्ववस्तुमां स्वपणुं ने परवस्तुमां परपणुं जाबुं. अने तेमज आचरखं एम बे. ॥ ३६ ॥
॥ हवे ज्ञानी ने अज्ञानीनो जेद बतावे ते. ॥
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सूत्र
अर्थः
||३३१
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|| अर्थः
साधु
अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिनः केन वयते । अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते ।। ३७ ॥ ॥ प्रति
अर्थः-अहो कानीना वृत्तनुं अर्थात् आचरणनू कोण वर्णन करी शके एम जे तेतो कोई अलैकिक , कारणके ज्यां अज्ञानी बंधा जाय , सांज ज्ञानी (सम्यकदृष्टि होवाथी) बंधनथी मूकाय !!?॥३॥
विवेचन-छानीने संसार, सारी रीते नच्च गति करवान हवेथा स्थान . अने अझानीने संसार लटकवारूप लागे डे. झानीने सर्व आनंदमय जणाय , अज्ञानीने सर्व दुःखमय ले. ज्ञानीने जवोजव थवा ए रमत ने, अझानीने जवोजव थर्बु ए जटकवारूप अथवा वेठरूप ले. ज्ञानी आनंदघन महाराजने, आ चौद राज लोकमां चोराशी लाख योनिमा फरवू ए चोपटनी रमत जेवू लागे बे. अने अझानीने ते केदखाना जेवू लागे बे. खेले चतुर्गति चोपर चार गतिरूप चोपट जीव खेले ले, कारण हानीनो खेल सर्वमा निर्जरारूपे होय . ___ अनुजवी आंतरदृष्टिथी पूर्ण, अने आंतरदृष्टिपूर्वक बहिरष्टियी खंम एम जोवाधीनजय अरूपी रूपी पदार्थनो आ. स्वाद लइ शके बे.
॥ हवे पोतानी पूर्वनी बाह्यदृष्टि संजारी जरा खेद कर ले. ॥ यजन्मगहने खिन्नं प्राङ्मया दुःखसंकुले । तदात्मेतरयोर्नूनमन्नेदेनावधारणात् ॥ ३० ।।
अर्थः-दुःखोयी आकुल ब्याकुल थइ रहेला आ जन्मरूपी गहन वनमा हुँ पूर्वे लटकी जटकी बहु खेद पाम्यो; कार|| ण के आत्मा अने तेथी जुदी एवी बीजी जम वस्तुननो आत्मासाये, अरे अरे अनेदपणे में निश्चय कर्यो !!॥३०॥
॥ हवे पोताने आत्मनिर्णय थया पड़ी परजीव उपर तेने केटली वधी करुणा आवे डे ते देखामे .. ॥ मयि सत्यपि विज्ञाने प्रदीपे विश्वदर्शिनि । किं निमन्जत्ययं लोको वराके जन्मकर्दमे ॥ ३५॥ ॥३३३॥ __ अर्थ:-हूं आ आखा विश्वने जोनारो ज्ञानरूपी,, ते बतां विचारो आलोकसमुदाय जन्मरूपी कादवमां केम पमी जाय !!! ॥ ३ ॥
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साधु
मुत्र
॥ हवे आत्मज्ञानी पोतानो अनुभव कहे जे. ॥ पति आत्मन्येवात्मनात्मायं स्वयमेवानुन्नूयते । अतोऽन्यत्रैव मां ज्ञातुं प्रयासः कार्यनिष्फलः॥४०॥ | अर्थः
अर्थः-आवा शन, दर्शनमय आत्मानो अनुनब तो आत्मानी अंदर आत्मा पोतेज पोतानी मेळे करी रह्यो , माटे मा..३३॥ई रे तेने बाहेर जाणवाने प्रयत्न करवो ते हवे निष्फल ले. ॥ ४० ॥
॥आत्मानो आम अनुजा यया पडी तेनीज वारंवार लावना करवायी यता फळने देखा ले.॥ स एवाहं स एवाहमित्यन्यसन्ननारतम् । वासनां दृढयन्नेव प्राप्नोत्यात्मन्यवस्थितम् ॥१॥
अर्थः-आ प्रमाणे शानदर्शनमय आत्मानो अनुजव यया पली सोहं “ सोहं " तेज हुं तेज हुँ एवो वगर खांचे अन्यास करता करतां ते शुक्ष चैतन्यमय आत्मानो एवी दृढ वासना थाय डे के जेथी ते आत्मा परमात्मानो स्थितिने पामे ले. ४१.
विवेचन-अर्थसदित प्रथम आ श्लोकोनुं श्रवण अथवा वांचन, पडी तेनुं मनन, सारपडी तेनो निदिध्यास, अर्थात् ते प्रमाणेज वर्तन करतां पोतामांज, आत्माज अनंत चतुष्टयनी कंई बाया देखातां आनंद य रहेशे. अने आ शुक्लध्यानमांज मंड्या रहेवायी परंपराए थोमाज वखतमां परमात्मस्थिति पमाशे. माटे अज्यासीए एटले आत्माना अनु नवनी हा राखनारे, श्रवण, मनन ने निदिध्यास एत्रणे अनुक्रमे साचवां जोए-जा. क.
॥ हवे अज्ञानीनी दशा वर्णवे ने.॥ स्याद्यद्यत्प्रीतयेऽज्ञस्य तत्तदेवापदास्पदम् । बिन्नेत्ययं पुनर्यस्मिंस्तदेवानंदमंदिरम् ॥ ४ ॥
अर्थः–जे जे वस्तुनमां अज्ञानीनी प्रीति याय दे, ते ते वस्तुन खरु जोतां तेने दुःख आपनारीज होय ठे, परंतु जे वस्तु थी ते बीहे , तेज वस्तु तेने आनंदना मंदिरमा दोरी जनारी ले. ॥ ४॥
Hussm हवे परमात्मानुं तत्व नळखबानो प्रयोग कही देखामे ले. ॥ सुसंवृत्नेंशियग्रामे प्रसन्ने चांतरात्मनि । कणं स्फुरति यत्नत्त्वं तद्रूपं परमेष्टिनः ॥ १३ ॥
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माधु
प्रति
अर्थः-इंडियोना समूहने तेन्ना विषयोमा व्यापार करता तदन बंध कर्या पली, प्रसन्न अंतरात्मामां क्षणवार ने तत्व !! मूत्र स्फुरे , जेनो प्रतिजास याय डे, तेज परमात्मानुं तत्व ले. ॥ १३ ॥
विवेचन-अनादि काळथी विषयोमांज प्रीति करतुं आवेल मन इंडियक्षारथी वारंवार बहारज खेंचाया करे . तेने विषयोमांथी खेंची ली, होय तो, इंडियो लोलसां जेवी मालम पमे जे. जेम केटलीएक गायने एक पाउपर हो पग होय , परंतु ते कंश चालवामां काम आवतो नयी, तेम इंडियो स्थिर थर रहे डे अने मन ज्यारे एम विषयमाथी खेंचायु, सारे जरा आराम पामे डे, जरा शांति अनुन बे, अने तेज दणे तेने कंइक अपूर्वनाव पोताना आत्मामांज जाने बे, आम स्थिर मन यतां जे जणाय डे, ते परमात्मानुं तत्व होय एम नासे डे, पनी छानी महाराजे दीतुं हाय ते खरं.-ना. क.
॥ हवे आमतत्वावलंबीने कोनी आराधना करवी? ते कहे रे ॥ ॥ यः सिझमा परः सोऽहं सोऽहं स परमेश्वरः । मदन्यो न मयोपास्यो मदन्येन न चा
प्यहम् ॥ ४ ॥ अर्थः-जेसिज्ञत्मा तेज हुं अने हुं तेज परमात्मा;एटला माटे हुंन मारो नपास्य छ कारण के हुं माराथी जुदो नथी.
विवेचन-उपरना श्लोक मुजब कणवार जोतां जेने पोतानुं तत्व प्रतिज्ञासे बे ते अंतरात्मा ने. सारे हुं एटले अंतरात्मा तेज नपासक छ अने परमात्मा नपास्य डे, हवे अंतरात्मामा स्फुरतुं तव तेज परमात्मा डे, अने तेनी नपासना करतां तेज अंतरात्मा परमात्मा थइ रहेडे, आम अंतरात्मानुं परमात्मा साये एटले नपासकर्नु नपास्य साथे अनेदपणु थरदेडे.-ला. क.
॥ हवे परमात्मानी आराधना केम करवा? ते कहे बे. ॥ आकृष्य गोचरव्याघ्रमुखादात्मानमात्मना । स्वस्मिन्नई स्थिरीनूतश्चिदानंदमये स्वयम् ॥ ४॥
अर्थः-आ मारा अंतरात्माको विषयोरूपी वाघना मुखमाथी मारा आत्माने बोमावीने, आ अंतरात्मावमेज मारामां ||१३३॥ जणाता चिदानंदमय परमात्मामा पोतानी मेळे स्थिर थइने हवे रहे. ॥धर ॥
॥ हवे आत्माने शरीरथी जे जुदो नथी जाणतो, ते प्रति कहे . ।।
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मूत्र
साधु प्रति
॥३३॥
पृथगिळ न मां वेत्ति यस्तनोगतविनमः । कुर्वन्नपि तपस्तीत्रं न स मुच्येत बंधनैः ॥ ६ ॥
अर्थः अर्थः-सघला विचम बोमी दश आ प्रमाणे मने शरीरथी जुदो जे नयी जाणतो, ते महा कवण तप करवा बतां पण बंधनथी मुकातो नथी. ॥ ४६॥
॥ हवे तपथी तो महा क्लेश थाय बे, एम शंका करनारने कहे . ॥ स्वपरांतरविज्ञानसुधास्पंदान्निनंदितः । खिद्यते न तपः कुर्वन्नपि क्लेशैः शरीरजैः॥७॥
अर्थः-जे स्व अने परना विशेष ज्ञानरूपी अमृतनो आस्वाद लइ पोताना स्वरूपना आनंदमां लीन, तेने शरीरादिक कष्टोव थतां अघोर तपथी पण खेद यतोज नथी. (जेमके गजमुकुमारने )॥4॥
॥हये एवो खेद पामनार आत्माने जाणतो नयी पण कोण जाणे नेते कहे ब.॥ रागादिमलविश्लेषाद्यस्य चित्तं सुनिर्मलम् । सम्यक् स्वं स हि जानाति नान्यः केनापि हेतुना ॥
अर्थः-राग ने देषरूपी मेल तदन नीकळी गयायी जनुं चित्त स्फाटिक जेवू असंत स्वह यह गले, तेज यथार्थ रीते पोताना आत्मतत्वने जाणेले. परंतु ते विना बीजो कोइ, कोइ पण नपाये तेने जाण) शकतो नथी. ॥ ४ ॥
विवेचन-प्रिय वांचनार, याद राखजे के रागष परवस्तुने लीधे थाय दे. तो परवस्तु बोमतो जा, एटले रागदेष नंदा यशे अने तेटले अंशे तुं हळवो, स्वब थतो जश्श; अने विशेष सागे आरंजमां विशेष लाल ने, परंतु अंत मध्यस्थ थइ साग ग्रहण बोमी देजे एटले बस तारुं तत्व तारी पासे हाजर ने.-ला. क.
॥ हवे तत्व ते शुं ते टुंकामा जणावी दे. ॥ निर्विकल्पं मनस्तत्त्वं न विकल्पैन्निद्रुतम् । निर्विकल्पमतः कार्य सम्यक् तत्वप्रसिध्ये ॥ ॥ १३.६६६
अर्थ:-निर्विकल्प मन एज आत्मतत्व अने ते नाना प्रकारना विकस्पथी पीमाएलु होय, सारे आत्मचांति, माटे मनने निर्विकल्प करवू, कारण के तेथीज आत्मानुं सम्यक् तत्व प्रगट याय दे. ॥ ४ ॥
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अर्थ:
साधु
| विवेचन,-आत्मा जे नाना प्रकारना विकल्पो करे . ते सघला मनवमेयाय ने. परंतु ज्यारे ते विकल्पो नामी दीए, !! प्रतिः || एटले मन पण लुलुं यह ननुं रमेजे. आम विकल्पो छुव्यापली पोते, तेज पोते, शांत, निष्क्रिय, आनंदमय प्रतिज्ञासेने. जा.क. !!
॥ हवे कोण तत्चने जुए ने अने कोण नथी जोतो ते कहे . ॥ ॥३३॥ अज्ञानविप्लुतं चेतः स्वतत्त्वादपवर्तते । विज्ञानवासितं तहि पश्यत्यंतःपुरे प्रनुम् ॥ ५० ॥
अर्थः-अनादि काळयी अज्ञानमां मुंफाइ गएलुं चित्त आत्मतत्वथी पार्छ हठे ले. परंतु तेज चित्त शानवासनायी घटटमंदिरमा रहेला मनुने जुए . ॥ ५० ॥
॥ कदाच पूर्वना मोहना उदययी राग देववके मन हणाय तो, शुं करवू ते कहे . ॥ मुनेर्यदि मनो मोहाशगाद्यैरनिनूयते । तन्नियोज्यात्मनस्तत्त्वे तानेव दिपति क्षणात् ।। ५१ ॥
अर्थः-कदाच मुनिनुं मन मोहने लीधे रागदेपवझे पराजव पामे, तो तेने आत्मतत्व साथे जोमवं. एटले ते रागपिने तेज कणे गमी देशे. ॥१॥
विवेचन-आ युक्ति बहुज नत्तम ; कारणके आ युक्तियी मोहराज, तेना प्रधान रागप, तेना मुलटो काम, क्रोधादि ए सर्वनो परानव यऽ जाय . कारण के आत्मा परने गेमी पोताना स्वरूपमा पेठो के, प्रिय वांचनार, पहेलांज तेनुं वीर्य स्कुरे . ए वीर्यने जोतांज मोहने खपटी मूक नाम पमे पोवारा गणवा पके डे कारणके ए पोताना स्वरुपमा गयो एटले एने परवस्तुमां रस के मुळ रही नहि एटले बीचारां रांकमां मोहिनीनां कर्म आ वीर्यवानने शुकरी शके ॥ १ ॥
॥ हवे पर वस्तुमांथी रति जवानी मार्ग देखा है.॥ ॥ यत्राऽशात्मा रतः काये तस्माद व्यावर्तितो धिया । चिदानंदमये रूप योजितः प्रोतिमु.
त्सृजेत् ॥ ५॥
४३
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15
मुत्र
13॥
अर्थ:-जे कायामां अइ आत्मा त यया होय, सोयी बुझ्यिा तन बोमावा, अने यो उत्सम काया पोता चि दानंदमय स्वरूप बे, लेनो माये अंतरात्मावके आत्माने जोम्बो. एटले पृतनी पनि छुटी जश. ॥ ५ ॥
| अर्यः ॥ अज्ञानथो नत्पन्न यतुं दुःख कानयी नाश पाम ने.॥ स्ववित्रमोनवं फुःखं खझानेनैव दीयते । तपसाऽपि न तच्छेद्यमात्मविज्ञानवर्जितैः ॥ ५३॥ अर्थः-आत्मविचमयो उत्पन्न यएलं दुःख आत्मझानयी नाश पामे ते. परंतु जने आत्मज्ञाननयो एवा पुरुषो नपयो प- || ण ते हुःखनो नाश करी शकता नयी. ॥ ५३॥
॥तपस्या वगेरे करी अंतरात्मा तण बहिरात्मा छ । रूपायुर्वल वित्तादिसंपत्निं स्वस्य वांवति । बहिरात्माऽथ विज्ञानी साक्षानेन्योऽपि विच्युतिम् ॥
अर्थः--बहिरात्मा तप करी एवु डे डे के, सारं रूप. लांबी आवरदा, घाणं धन, बळ विगरे संपत्नि मन मलो, अने अंतरात्मा एटले हानी एम श्छे बे के हूं एनयी कम मूकानं? ॥ ५॥
॥ हवे अहानी बंधाय ने अने हानी छटे बे, नेवु बतावे । ॥ कृत्वाऽहंमतिमन्यत्र बभ्राति स्वं स्वतश्च्युतः।
आत्मन्यात्ममतिं कृत्वा तस्याऽझानी विमुच्यते ॥ ५५ ॥ अर्थः-परमां अबुद्धि करवाथी पोताना शुभ स्वरूपथी पकी जइ कर्म बंधन याय , अन पोताना आत्मामां आत्यबुद्धि करवायी ज्ञानी परवस्तुयी' खसी जइ, पोतामां आवी कर्मबंधनयी मूकाय . ॥ ५५ ॥
॥ अज्ञानी आत्माने स्त्री, पुरुप, नपुंसक वेदवाळो जाणेने अने हानी तेने शानदर्शनवाळी जाणेन.॥ १ कारण के परने वाजी रदेवायी कर्य धाय दे, अने बोझी देवायी छुटे दे. ॥
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माधु
િ
॥३३९॥
आत्मानं वेत्यविज्ञानी त्रिलिंग-संगतं वपुः । सम्यग्वेदी पुनस्तत्वं लिंगसंगतिवर्जितम् || ६ || अर्थ :- स्त्री, पुरुष, अने नपुंसक एवा ऋण जे जे शरीरने छे, ते अज्ञानीने पोताना ते एम जलाय ते. परंतु ज्ञानादि एज जेने वेद के एवो सम्यक् तत्त्ववेदी ज्ञानी, पोतान ए त्रयी रहित जाणे े. ॥ ५६ ॥ ॥ प्रातुं ज्ञान उतां ज्ञानी कोइ बेला केम भूली जाय ते ! !
समन्यस्तं सुविज्ञातं निपीतमपि तत्वतः । अनादिविन्रमात्तत्वं प्रस्खलत्येव योगिनः || एउ ॥ अर्थ:- ते तत्व सारीरीते जाऐलुं होय, जाएया पछी तेनो रूमी प्रकारे अभ्यास करेला होय. ते प्रम
रे प्रकारे क होय, ते तां अनादि कालना विमयी योगीनुं तत्त्र पण पोताना स्वतत्वी मी जाय ते. अर्थात ने डुं स्त्री छु, पुरुष कुं, एत्री जूल कोइ कोइ बार थर जाय बे ॥ ५१ ॥
॥ सारे तेने शीरीते तजाय ते कहे ते. ॥
चिदृश्यमिदं रूपं न चिद्दृश्यं ततो वृथा । मम रागादयोऽर्येषु स्वरूपं संश्रयाम्यतः || ८ || अर्य:- त्रिलिंग देहादि जम बे. ते दृश्य ने चेतनमय हुने अदृश्य हुं ते कांई दृश्य यतो नयी, ते बतां रा गादिकमने जे थाय छे, ते जम एवा देहादिक पियोमायाय ते. माटे मारा पोताना स्वरूपनेज अवलंबीने रहुं तेज ठीक वे. || हवे अज्ञानीने अने ज्ञानीने ग्रहण करवा जोग तथा साग करवा जोग शुं वे ते कहे ते. ॥ करोत्यो हत्या बहिरंतस्तु तत्त्ववित् । शुद्धात्मा न वहिनतस्तौ विदध्यात्कथंचन ॥ ५० ॥ व्यर्य:- ग्रह विषयोमां मीति याय एटले तेने ग्रहण करे, पठी तेमांज अरुचि यतां तेनोज साग करे; अंतरात्मा जेणे तवने जाएयुंबे, ते रागादिनो ने नानाप्रकारना विकल्पोनो याग करे, अने ते पोतामां रही परमस्वरूप ग्रहण करे अने शु त्मा बाहिर, आंतर, ग्रहण के साग कर करतोज नयी !
|
॥ हवे अंतरात्मा तर साग ने ग्रहण केवी रीते करे ते? 6
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सूत्र
अर्यः
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सायु
मूत्र
নিত
अर्थ:
वाक्कायान्यां पृथकृत्वा मनसात्मानमन्यसेत् ।
वाक्तनुन्यां प्रकुर्वीत कार्यमन्यन्न चेतसा ॥ ६ ॥ अर्थ:-वाणी ने कायायी आत्माने छूटो करी फक्त मन यो आत्मा ध्यान करवू, अने तेज मनवमे वाणीनां अने शरीरनां को पण कामो न करवां.' ॥६॥
आ श्लोकरन आत्मा अत्यासीने वारादरी ( बाराखमी ) रूप ले. माटे प्रिय वांचनार, जो तने आत्पानी खबर न होय तो, आ श्लोकन वारंवार वांच अथवा सांजळ, आना अर्थन वारंवार मनन एटले चिंतन करी मनयां खूब बेसाम, अने सार परी, मन केम वश कर तेनो एक उपाय नाचे प्रमाणे कर.
अनुक्रम एवो डे के, काया, वाणी अने मन. जे को अशुनमा प्रवर्तता होय, तेने शुनमा प्रवर्तायां एटले एवी देव काया, वाणी अने मनने पड्या पली, मन प्रसन्न थशे, अने ते प्रसन्न थयु के मनवमे काया अने वाणीयी आत्माने छुटो करवो. पजी तेज प्रसन्न मनवमे अ.त्माने पोताना घरमां खोळवो. आम ज्यारे बीजा सर्व विचार बोमी दइ केवल पोताना शुभ चैतन्यनोज ते अभ्यास करशे, तो कणवार ज्यारे मन स्थिर थशे के तेने आत्मलान यशे. परंतु मनने ने शुनमांधी का नयी, तेने आ अच्यास व्यर्य ले. परंतु जो शुनमा प्रवर्तावg होय तो काया, वाणी अने मनन। पवित्रता करवो. अने ए पवित्र थवाना अनेक मार्गमा एक मार्ग आने के मैत्री, करुणा, प्रमोद अन मध्यस्य ए चार नावनानना खूब अत्यास कर वो. जेम वारव्रतधारी हमेशा नियम लइ सकेपेले, तेम तेने सांजसवार मकल जंतु पर समान नावरूप मैत्री, ते दिवसे रही के न रही, पोतायी व्ये के विद्याए हिन होय तेना नपर करुणा रही या नहीं, पोतायी व्य वा विद्या धारे होय, तेने जो पोताने आनंद थयो या नहीं, अने असंत अनाचार सेवनार नपर प प नहीं आवतां पाने मध्यस्य यश रहो या न. हीं. आम रोज अत्यास करतां अधर्म जइ धर्म, अशुज जश्शुलमा एटले सामायक, प्रतिक्रमण पूजा, झानास्याम गिरे म वृत्ति करवाने मन सत्वर तैयार थशे. अने शुजक्रियामां गया पनी मनने स्थिर यतां वार नथी. कारण के विशेपे की मन
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साप
।
मूत्र
अर्थः
॥ अंतररात्माने क्या विश्वास ने क्यां आनंद ने, अने वहिरात्माने क्यों ठे ते देखा है. ॥ प्रतिा ॥
विश्वासानंदयोः स्थानं स्याज्जगदचेतसाम् ।
कानंदः क च विश्वालः स्वस्मिन्नेवात्मवेदिनाम् ॥ ६ ॥ १३४॥
नी सघली चंचलता अशुन प्रवर्तनने लीधे होय . माटे अशुनने दुर करी शुजने ग्रहण करवू, अने शुन ग्रहण कर्या पठी असंत शुक्ष एवा आत्मानम बेवटे मनर्थध्याववो. आ सूचना यथार्थ लख इ नथी. परंतु जे वांधवोनी चा दोय तेणे भने मलg, तो हुँ कंक मने खबर ले तेवो मार्ग देखामीश. परंतु तेमां पदेली सरत तो ए के, तेणे मायाने गेमी केवल सरल थ. इजर्बु. जे वांधवो पत्र लखले तेने पण उत्तर बनतां सुध) मारी शक्तिप्रमाणे आपीश. परंतु मारा बांधवोने मारी विनति ए डे के विज्ञााने खातर जो पुवानी जरूर राखता हो, तो फायदानो संभव नबो डे, परंतु परिणति सुधारवा श्छा होय तो सरल घा जवानी असंत आवश्यक्ता बे. उपर जणावेली चार लावनाने मन, वचन अने क्रियाया सेवनारने कषाय तो तीव्रपणे र. हेताज नथी. एम ए नावनानो अज्याम करतां योमाज दहामामां मालम पमी आवशे. अने आज लावनाने विशेष सेवतां पोतानी जानी चुप्रिमाणे पण पोताने अनुक्रम मालम पम्तो जशे के क्रोधनी जगोए दमा, माननी जगोए नम्रता, मायानी जगोर सरलता, अने लोजनी जगोए संतोष, आ चार एटले दमा, नम्रता, सरलता अने संतोष ए प्राप्त थशे. एम थतां थो. मा कालमा सम्यता के प्रांतरात्मपाणु आवशे. अने बदिरात्माजाव के मिथ्यात्वपणुं पलायन करवा मांझशे. उत्तरोत्तर किशेष अच्यासयी, अत्तिपणुं बोमी वृत्ति यशे, वृत्तिपणामांयी तेनोज विशेष अच्यास करतां सर्व वृत्ति अवस्या अनुनवशे. अने पोताने अंतरमा एम देखातुं जशे के हवे तो मात्र मने बहुन पातळा क्यांय देखायडे, अने विशेष नागे तो हमा, नम्रता, सरलता के संतोषज रहे डे, तो पळो तेने घणोज लान आ कालमां थयो एम समजाशे. परंतु आ वखते पण हवे हुँ ठीक छ, एम करी तेनुं पण मान न चमाव, कारण के आ लेखकने कपाय साग करवानो कपाय चमतो हतो, ते आशरे एक महिने खबर पझी, माटे कषायना सागनो कषाय न आवे तेनी पण साथे संजाल राखतां जवी. तो चारित्र जे आत्मा पोतेज डे. ते एने क्योपशम प्रमाणे जगाशे, ने सां एटले पोताना सानावमां रमणताय तेने आनंद थशे.-जा. क.
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ति
मअनेक
अर्थ:---जेणे आत्माने नथी जाएयो तेनेज आ जगत्मां आनंद अने विजान रहेने, परंतु जो पोताने पिन पोताना आलानी खबर दे, तेने आत्मा शिवाय क्या आनंद प्रने क्या विश्वास ! ॥ ६१ ॥
अर्थ: विवेचन-आ जगत् एटले धन, धान्य, बोकरां, कुटुंब विगरे. हवे तेने इव्य, केत्र, काल, अने जावथी अनुक्रमे जरा जअने तमारा आत्माने ऽव्य, क्षेत्र, काल लावयो जुन के क्या विश्वास अने क्यां आनंद ले? एक नदाहरण तरीके जाइए तो पुत्रप्राप्ति वखो वाजां वगमाव) मुख माननारने तेनाज परण वखने दुःख यायढे. तेज वखते प्रयमना सुख करतां पण दुख वधारे जणाशे, तो जेमां सुखनो विश्वास राख्यो हतो, तेज दगो दीघो. एम माणमो बात कहे ले, परंतु पोताना आत्मामां विश्वास राख्यो होत, अने तेने कर्मयी बोमवी, सुख आपवा यांड्यु होत तो केबुवीक थान, कारणाके अनेक जन्म घया, तो पण तमे जुन तो खरा के ताने डोमीने तमाशे आत्मा क्यां गया? तमारी सायनो सायेज ले परंतु तमे तेनी अवगणना करो, तेमा कं विश्वासज न राखो, एतो जाणे घरमां को बेज नहीं, कांइ लेखानोज नदि एम करो तोपण ते एवं। ल के ते तमने बोमो जतो नथी, माटे तेमा विश्वास राखो, तो ते तमने चावशे. जेने मुख मुख कर रहा हो, ते विपाके :ख ने परंतु आ तो तमने दुःखमांयी मुक्त करी आनंदमंदिरमा लइ जशे. तेम वीजी संपारी वस्तुने आत्मा माये चारे रोते तपासतां सहज मा. लम पमशे, के विश्वासस्थान अने आनंदस्यान तो आत्माज ने.
॥ सारे अंतरात्माए आहारादि पण शुं न करवा ।। । स्वबोधादपरं किंचिन्न स्वांते बिनृयात्कणम् । कुर्यात्कार्यवशात्किंचिहाकायान्यामनावृतः ॥ ६ ॥ ___ अर्थ:-चित्तयां आत्मझान शिवाय अर्थात् शुक्ष चैतन्यमा रमाता शिवाय घी कांड पाण कार्य का वार पण न कर
अने कदाच आहार, विहार उपदेशादि कोई कार्य करवां पके, तो ते करवां, पण मनथ जाणे लेपाया विना वाणीने कायायी करवां. ॥ ६॥
|| विवेचन-काया वाणीने प्रभुपूजामा प्रवृत्त करवानी देव पाड्यापली एक वखते पूजा करतां मनः प्रभुना ज्ञानादि गु. णोने जोनां अने तेनेज पोताना शुरू चैतन्य साये मरखावतां देवटे दाणवार अनेद अनुनय थयो. यासपात न नेलां वीना ||
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सा
प्रति
-
-
३४३॥
चने पण तेनी शुन बायाथी गुणो यया होय एम जणायु.जा. क.
॥अंतरात्माए आत्मझाननेज शामाटे धार? ते कहे . ॥ ___ यदद विषयं रूपं मद्रूपानहिलक्षणम् । आनंदनिरं रूपमंतज्योतिर्मयं मम ।। ६३ ।।
अर्थः- इंडियोथी जे जाणाय ते माराथी तदन जुदा लवणवा ले. कारण के ए जम ग्रंने हूं चतन, परंतु मार्ग स्वरूप तो आनंदयी परिपूर्ण नरेलुं, अंतज्योतिमय एटले झानपदीप रूमान ले. ॥६॥
विवेचन- अज्यास वहिर्मुख दृष्टि गइ होय अने अंतर्मुख दृष्टिय होय, तेवा अंतरात्माने करवानी ने, वाकीवीजानए तो अशुन तजी शुजमा प्रवर्ती करवी. पनी एज शुजयी शुइमा प्रवृत्ति करवाने मदद मकश.
॥ हवे इन्श्यिोनो निरोध का उतां आत्मअन्यासीने दुःख केम थाप डे? तेनुं कारण कहे . । अंतर्छःखं बहिःसौख्यं योगान्यासोद्यतात्मनाम् । सुप्रतिष्ठितयोगानां विपर्यस्तमिदं पुनः॥ ६५ ।।
अर्यः-योग एटले आत्मा तेनो अभ्यास करनारने प्रथम तो अंतरमा कंश्क दुःख अने बाह्य सुख मालूम पमशे; परंतु सारी रीते आत्मामा प्रवेश यया पली एयी विपरीत एटले वाहिर दुःख अने अांतर मुख मालूम पमशे. ॥ ६४ ॥
विवेचन-केमके जेने अंतरमुखनी खबर नथी अने बहारनां विषयमुख अनादि काळयी जोगवतो आव्यो ने. तेथी व हारना विषयोने टोमतां, ते दुःख अनुलवे बे. कारण के माहतो तेने पहेलु अंधारु लागे . परंतु सवीर्य यइ बहार वन्तुनो याग करता करतां, अंतरमा विशेष प्रवेश करतां अंतर आनंद अने बहार दुःखज पलीथी तेने नामशे.
॥ हवे आत्यज्ञावना शीरीते करवी ते कहे ठे ॥ ॥ तज्ञेियं तदाख्येयं ताव्यं चिन्त्यमेव वा ।
येन ब्रांतिमपास्योचैः स्यादात्मन्यात्मनः स्थितिः ।। ६५ ।। अर्थः-आत्मानेन जाणवो, आत्मा विषेज चर्चा करवी,तेनीज वात करवी,तेनोज विचार करतो, जेयी सघनी चाति ।
४३
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साधु
प्रति
॥३
॥
जती रहे अने आत्मा पोताना स्वरूपमा स्थिति पामे. ॥६५॥
॥हवे विषयोमा एवं का नथी के जे आत्याने हितकारक होय.॥ विषयेषु न तत्किश्चित्स्याक्तिं यचरीरिणाम् । तथाप्येष्वेव कुर्वन्ति प्रीतिमझानयोगिनः ॥ ६६ ॥ अर्थः-विषयोमा एयु कंई नयी के जे आत्माने हितकारक होय ते बतां अज्ञानी तेमांज प्रीति करी रह्यो बे. ॥६६॥
॥मूहने आ बात कहेवी व्यर्थ बे एम बतायेत. ॥ अनाख्यातमिवाख्यातमपि न प्रतिपद्यते । आत्मानं जमधीस्तेन वैध्यस्तत्र ममोद्यमः॥६॥
अर्थ:-जेनी बुधिज जस थ गले, तेवाने आत्मस्वरूप कहेवाथी ते जाणतो नथी, तेमज न कहेवाथी पण तेने मुके एम नथी, माटे एवा जम्बुझिने खातरी कराववाने महेनत करूं तो एमां मारी महेनतज वांझणी रहे. ॥ ६ ॥
॥ वली तेज विशेपे करी कहे जे.॥ तन्नाहं यन्मया किंचित्प्रज्ञापयितुमिष्यते । योऽहं न स परग्राह्यस्तन्मुधा वोधनोद्यमः ॥ ६॥
अर्थः–जे कइ मने जणावधानी इन्चा थर ले, ते हुं नयी, कारण के जे हुं हुं, ते वीजायी ग्राह्य नयी; पट जामाटे हवे मारे बोध करवानी मेहेनतज व्रया बे. ॥ ६ ॥
विवेचन-आत्मस्वरूप विकल्पोमां आवे नहि, कारण के विकल्पो मनवम थायले अन मन न ते जम. माटे स्वपरनुं विवेचन खूब करतांकरतां ज्यारे मन स्थिर यह जरा अलग रो के स्वरूपनो प्रति नाम पातानेज थाय ने. एटला पादशात्रकारो वारंवार कहे ले के ए स्वसंवेद्य एटले पोताथीज जणाय एवो बे.-ना. क.
॥ वल। तेज वात विस्तारपूर्वक कहे .॥ निरुज्योतिरझोऽतः स्वतोऽन्यत्रैव तुष्यति । तुष्यत्यात्मनि विज्ञानी बहिर्विगतविज्रमः ॥ ६॥
४
॥
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पतिक
॥३४
अर्थ:-मृढने आत्मज्योति घणी आवादित होवायी आत्माने की परवस्तुमांज ते संतोष पाने अने ज्ञानीन आत्म तत्वमांज संतोष रहे बे, कारणके बाहेर वस्तुमां मारापणानो चम दो तेने जतो रह्या दे. ॥ ६ ॥
॥श्रा जवो क्या मुधी ने अने क्यारे मोक्ष ! ते हवे कहे . यावदात्मेन्छयाऽदत्ते वाकचिनवपुषांव्रजम् । जन्म तावदमीशं तु नेदज्ञानानवव्युतिः ।। 3 ।।
अर्थः-ज्यांमुधी मन, वाणी अने कायाने आत्मा इसापूर्वक ग्रहण करे. सांमुधी तेने जन्नमरण उ अने एक तरफ म.. न, वाणी ने काया, अने बोजी तरफ हुं शुरू चैतन्य एवं यथार्थ नेदशन ययुं क माद. ॥ 90 |
विवेचन-कायायी जे क्रिया करे. वचनथी जे बोले, अन मनयी जे विचारे, ते वधामा एम जाणे के हुं करूं छु, हुं बोलुं छु, हुं विचारूं छु, सांसुधी ने संसार ले. अने काया, वाण ने मन, जे क्रिया करे, तनो हूं तो साक्षी (जेम घरमां दीयो सादी होय जे तेम ) मात्र छ आम करी नवा बंधनमां न पम्तां पोताना शुस्वरूपमा रहे, तो परंपराए मोदा. ते एम के का या, वाणी ने मन, तेमज तेननी मददी थतां नर्व कार्यो ए हूं नथी अने मारा ते नर्थ), हुं तो शुरू, निष्क्रिय, चिदानंदमय
आत्मास्वरूप ढुं परंतु तेमां क्रम एवो के, अशुन क्रियामा प्रवर्ततां, काया, वाणी ने मनने शुक्न क्रियामां प्रवर्ताववां अने ज्यारे एत्रणे शुन क्रियामा प्रवर्तवा लाग्या अने अशुन क्रियामां जवानी एत्रणेनी देव नांगी पमी, के रफने रफवे मनाव गणानी सहाययी शुरु स्वरूपy चिंतन करावयु. तेनुं चिंतन करता करतां कणवार मन स्थिर थइ जशे अने ए स्थिर य. युं के आनंदमय, ज्ञानमय' प्रतितास यशे. तथापि अनादिकाळना. अझानना सहचारीपणायो तेनी स्थिति कामो वार ट. कशे नहि, तया ए स्थितिनो वारंवार अज्यास करी, ए ज्ञानसंस्कार वधारवो, अने बेवटे एटले सुधी के, ए ज्ञानमंस्कार जा. गृत तो जारी रहे. पण स्वप्नमां पण जारी रहे. आवो छानसंस्कार दृढ यतां, परंपराए योमाज नवमां के तेज नवमां मो. व थाय. कारणके आवो छानसंस्कार यतांज प्रनीति करावे ले के, आ नवो चालवा मांड्या, आ चाल्या, आम अनादि अज्ञानसंस्कार जइ छानसंस्कार रहे अने ते पण अति तीव्र होय. तो एवा जम जवना शाजार ! जा. क.
॥ हवे शरीरादि नामां होवाथी पोते जामो नयी एम बात कह ले. ॥
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माधु
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॥ जाणे रक्त घने ध्वस्त नात्मा जीर्णादिकः पटे । एवं वपूषि जीर्णादौ नात्मा जीर्णादिकस्तथा ॥ १ ॥
अर्थः अर्थः-शरीरे पेहेरेलु लुगहुं फाटेतुं होय, लाल होय, नाम होय, जुन दोय, तेथी कंई शरीर जाउँ, पातळ कडेवाय नहि, तेमज शरीर, जाउँ, पातळु होय, तेथी कंई आत्मा जामो, पातळो, फाटलो, लाल एम कदेवाय नहि. ॥१॥
॥हवे अंतरात्मामां मुक्तिनी योग्यता आवी के नही तेनी परीक्षा.॥ चलमप्यचलं प्रख्यं जगद्यस्यावन्नसते । ज्ञानयोगक्रियाहीनं स एवास्कंदते शिवम् ॥२॥
अर्थः-आ हालतुं चालतुं चल एवं जगत् पण जेने मेरुना सर अचल लागे ; शानवगरनु, तेमज मन वचन ने कायानी क्रियावगरनुं जम जवु लागे ढे, तेज शिव एटले आनंदमय मोहने पामे दे. ॥ १३ ॥
विवेचन-जेम दोरीसंचाथ चालतां पुतळांने समजु तो एम जाणे के तेमां जीव नयी; तेमज कर्मरूप दोरीसंचाथा चालतुं आ जगत् जम डे, तो जमपति रागष शो! कोई दोरीसंचानुं पुनलु तमंने कदाच लाकमो लगावे, के तमने पंपाळे, ने मुं तमारे पण तेमज करवू! तेमां तो उलटी मूर्खाइ जगाशे. माटे कर्मरूपी दारी संचाथी चालतां आखा जगत् नपर पण कं रागदेष करवा जेवू नयी-ला. क..
विशेष-झानी अने अज्ञानीनी दृष्टिमां फेर मात्र आटलोज डे परंतु आ दृष्टि अवामान कंई परिपूर्ण आनंद मानी लग नहि जेम ए पुतणां जीवांडे, एम भूली जवाय डे, तेमज आ जगत् जम डे एटनुं जगवार रही पाछु पोज दालतुं चालतुं मनाय, तो बंधननो संजव रहे, पण कर्मना दोरीसंचायी हाले चाले डे, ए बात न विसराय, एवुन जो विशेष कालवी जागृतमां, तेमज स्वप्नमां पण बन्युं रहे, तो राग देष थवानो संजव नयी. अने राग देष न यवा एज वितरागा, पनी जे अंश राग देष न होय ते अंशे वीतरागपणुं होय. कारण के कर्म चोटे डे राग षियी अने ज्यारे रागप यता नयो, सारे चाटते ॥४६॥ केम! कर्मने पोतामां कई चीकास नयी, राग एज चीकास डे, अने नेने लीधे कर्म चोटे, जो राग क्षेप गया तो पूर्वना कमने खर पण जोइए. परंतु आ दशा जेटले अंशे होय, तेटले अंशे जुना कर्मनी निर्जरा अने नवांगें रोका जवू यायवे. माटे
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माधु
प्रति
॥३४७॥
रागदेष रहित यवानी स्थिति वधारवी. एटले या जगत्ने कर्मने वश जाणी, दोरीसंचाय हालतुं चालतो जम जएम जागा. कर्मरूपी दोरीयो चालतां जरु पुतळां उपर रागदेष करवो, ए मूर्खाई नहीं तो बीजुं शुं ? माटे तेज प्रमाणें मनमां दृढ समजी राखबुं अने वर्तन पण तमज राख. क. रा. र तथा जा. क.
॥ ये बंधन यांधी मुकातो नय। ते कहे छे. ॥
तनुत्रावृतो देही ज्योतिर्मयवपुः स्वयम् । न वेति यावदात्मानं क्व तावद्वंधविच्युतिः ॥ ७३ ॥ अर्थ:- दारिक, तेजस, छाने कार्मण ए ऋण शरीरथी विटायला पोताना ज्ञानमय आसानो ज्यांधी बोध नथी. कर्मबंधन पोते केम सूकाय ? ।। ७३ ।।
विवेचन- एत्रणे शरीर, ते हुं ज्यांचि मनाय, सांधि बंधनयी न मूकाय छान बंधनयी न मूकाय सांस जवजव जटक मटक ? माटे ए वती यत क्रियायां हुंपणुं नहि राखवुः अने ते वे रीते बने, एक तो पोताने पोताना आत्मस्वरूपनी खबर होय तो ते प्रमाणे वर्तवु, अथवातो जेने पोताना आत्मस्वरूपनी खबर बे, तेने शरणं जड़ पोतानुं वर्तन तेना कला मुजब चला. तो ते प्रमाणे वर्ताय तेमां पण विशेष की कार्मल शरीरनो विचार करवानी छे, एटला मांटे के, तेजस दारिकनुं पण ए कारण बे; अने ज्यांसुधी जीव संसारी छे, सांमुखी तेनायी ते जतुं नयी. तेने पण नपर देखामेला बे मकार ने बीजा या श्लोकयी पेहलाना श्लोकमां तथा तेनाज विस्ताररूपे तेना विवेचनमां जलावेला उपाय पण लागु पावा. उपाय अनेक वे, तथापि जे पोताने पुण्य योगे प्राप्त याय, तेने कामे लगामी आवा अभ्यास विलंब करवो जोइतो नयी. जा. क.
॥ आवा ज्योतिर्मय आत्माने बहिरात्मा नयी जातो तो ते शेन आत्मा जाणे बे ? | गल मिलद गुनातसन्निवेशात्मकं वपुः वेति मूढस्तदात्मानमनायुत्पन्नविभ्रमात् ॥ ७४ ॥ अर्थः- विखरा जता मने वळी पाठा एकठा यता अणु (पुल) ना समूहयी थयेला या शरीरनेज अनादि का ना विमयी मूढ आत्मा मानी रह्यो छे !!! ॥ ७४ ॥
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सूत्र
अर्थः
॥३४७॥
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साधु
।
विवेचन-पूरावं, गळवं एबो जेनो स्वजाव ते पुल, एवां पुनलो केटलांक जेगा ययाथी थपखं आ शरीर ते आत्मा । || मनायों. अरेरे, पातो प्रिय बांचनार, आपणी:सजम जूल थले. परंतु तेनों शोक करी बह रमी रहेवामां मा
अर्थः ॥ ने पण स्पाय करवो. ते एज नपाय के हवे एवी भूल न यत्रा देवी. कर्मना दोरीसंचाथी चालतो पोते इतो सांसुधी एप ययु. ॥३०॥ शुं करे! परवश थइ गएलो बापमोहिशे, परंतु हवे उपयोग शुन्य न थर्बु के फरीथी या शरीर ते आत्मा मनाई जाय, अने झानमय, आत्तातो जाणे जेज नहि, एम य जाय, तेनी संजाळ अवश्य राखवा-ना. क.
॥ हवे निश्चय मोक्ष कोने के अने नथी कोने ते कहे जे.॥ मुक्तिरेव मुनेस्तस्य यस्यात्मन्यचलस्थितिः । न तस्यास्ति ध्रुवं मुक्तिर्न यस्यात्मन्यवस्थितिः ॥ ५ ॥ । अथः-मुक्ति तो ते मुनिनेज ले के जेनी आत्मस्वरूपमां अमोल स्थिति बे परंतु जेनी आत्मस्वरूपमा अमोलवृत्ति नथी, तेने निश्चय मुक्ति नथी. ॥ ५॥
ववचन-नियवांचनार, आपणे सांनळीए बीए के " मेरुपर्वत जेटला या मोमती"थाय, तोपण मुक्ति न थाय. ह. वे विचारो के ज्यारे मेरुपर्वत जेटला थाय, सारे चारित्र केटलां बधां लीयां होय अने ते बता एवा एकला इव्य चारित्रथी में क्ति नहीं. ते बतां जेनने वितरागवचनमा श्रम , अने चारित्र ग्रहण करें, तेनने संसारीनी अपदाथी एमां कर्मबंधन में बी थवानो संजय बे. परंतु आत्मतत्वनी खबरविना तपश्चर्यादिना प्रनारे देवतादिना पुलिक चुंयणां कदाच मळे, परंतु मो. कसुखनी तो प्राप्ति आत्मझानविना मुनिने पण नथी, एम निश्चय लागे ने माटे आत्मज्ञान करवु अवश्य बे-ता. क.
॥ यथार्थ आत्मस्वरूप जाणनारे आत्माने देवयी जदो जावो.। दृढः स्यूलः स्थिरो दीर्घा जीर्णः शीणों लघुर्गुरुः । वयुवमसंबंध त्वं विद्यादिनात्मकम् ॥६॥
Hirol अर्थः-सारे मजबूत, जामो, स्थिर, लांबो, जूनो, दणिक, मोटो भने नानो, ए सघना पर्याय शरीरनी साये जोमवा. । झानात्मक एवा पोताना आत्माना ए पर्याय . एमज न जाणवू. ॥ ६ ॥
॥ माणसोनो सेसर्ग ए स्वसंवेदन आत्मानो अनुनय करवा देना नयी, माटे एकांतमा रहेg एम कहे .॥
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साधु प्रति
जनसंसर्गवाचित्तपरिस्पंदमनोत्रमाः । नत्तरोनरवोजानि ज्ञान। जनमतस्त्यजेत् ॥ ७॥ मृत्र
अर्थ:-माणसना संसर्गयी वाणी अने चिन चंचल थइ मनने चांतिमां रखे माटे छान पुरुष, नत्तरोत्तर एकीयांना तिना बीजरूप मागासनो संसर्ग तजवो. ॥ 99॥
. विवेचन-आश्लोक आत्मझानना नवा अध्यासाने माटे ले, अने जे ध्यानमार्गना नवा अज्यामी नेता लोकांनो संसर्ग वहुज योमो राखयो.
॥ परंतु दृढ अज्यामीन शुं करवू ते हवे कहे ते ॥ नगग्रामादिषु स्वस्य निवासं वेत्त्यनात्मवित् । सर्वावस्थासु विज्ञानी स्वस्मिन्नेवास्तविनमः ॥ ॥ __ अर्थ:-" पर्वत के गाग विगेरेमां मारे वसवू " ए जने आत्मतत्वनी खबर नयी तने ठे, परंतु जेने परवस्तुमा पोतापणा. नो विचम नथी, तेवा कानीए तो सर्व अवस्थामा पोताना आत्मामांज वस. ॥ १० ॥
॥दवे जवन अने जवथी टवानुं कारण। कहे .॥ आत्मेति वपुषि झानं कारणं कायसंततेः । स्वस्मिन् म्वमिति विज्ञानं स्याहारीरांतरच्युते ॥ ७॥
अर्थः-आ शरीर तेज आत्मा एवं ज्ञान तेज नबोलव, कारण ठे, अने पोतानो आत्मा तेज हुं, एबुं विशेषज्ञान ते जवोजवयी बोमनार ले. ॥ १५ ॥
आत्माऽत्मना नवं मोक्षमात्मनः कुरुते यतः । अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः ॥ ७ ॥
अर्थ:-ज्यारे आत्मा पोतेज आत्माने जवाजवमा लइ जाय जे. अने मोके पण तेज पहोंचा ने, एटला माटे आत्माज आत्तानो प्रगटरीते शत्रु पण ले, अने गुरु, मित्र, पण . ॥ ७० ॥
॥ आत्माज आत्मानो गुरु अने शत्रु . ॥ ॥मात्मज्ञानी, मरण पासे आवतुं जोइ | कहे . ।।
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%3
भनि
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13NDI
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।। पृथग्दृष्ट्वाऽऽन्मनः कायं कायदात्मानमात्मचित ।
तथा त्यज्यत्यसंगोंऽगं यथा वस्त्रं घृणास्पदम् ॥ १॥ अर्थः-आत्मज्ञानी आत्माधी कायाने जेम दी जाने. नेम कायायी आत्मा पण जदोज माने ने माटेमा पाने होय, सारे अंगन एवीने नोमीले के जाणे विष्टायो म्यमाएल बस होयनी ॥ १ ॥
॥कोण पोताना मरूपयी पानो पम्ता नयी ने कहे दे.॥ अंतदृष्ट्वात्मनस्तत्वं बहिर्दृष्ट्वा ततस्तनुम् । नन्नयोर्तेदनिष्णातो न खलेदात्मनिश्चये ॥ २ ॥ अर्थ:-जे देद अने आस्मानी जद जापावामां निपुग ने, ने पानाना अंतरमा पात्मतत्वने अन दादिर शरीरने जए ने आवी निपुण जेददृष्टियी ने पीनाना अात्मस्वरूषयी काइ दिको पाठो पम्ती नयी. ।। ७२ ॥
आत्मज्ञानीन आग्नमां अने पढ़ी जगत् केवु लागे न ? तर्कयेज्जगन्मत्तं प्रागुत्पन्नात्मनिश्चयः । पश्चाल्लोप्टमिवाचेष्टं तदुश्टाच्यासवासितः ॥ ॥
अर्थ:-जने आत्मनिश्चय याय दे, तेने प्रथम आ जगत् नन्मत्त जेवु लाग ते परंतु तेज जगत आत्मदर्शननी दृढ वामना यया पठी, माटीनां देकां जे लामे ले. ॥ ३ ॥
॥ आत्मा, शरीरथी जिन्न न मात्र बोलवा के सांजळवायी मोह नयी.॥ ॥ शरीरात्रिनमात्मनं गृण्वन्नपि वदन्नपि । तावन्न मुच्यते यावन्न नेदान्यासनिष्ठितः ॥३॥
अर्थः-या शरीरादियी आत्मा जुदो ते. एQ मात्र बोलवायो के मानल्यायो न बंधनयो मुकाइ मोदर पामती नयी. प insan रंतु ज्यारे वेदशानना अच्यामयी आत्मानो निश्चय गाय ठे. खारेज मोद पाम ते. ॥५॥
मात्मनावना तेणे कवी करवी! ।।
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साधु || व्यतिरिक्तस्तनोस्तनाव्योऽयमात्मनात्मनि । स्वप्नेऽप्ययं यथाऽन्येति पुननांगेन संगतिम् ।। ७५ ॥ मूत्र
अर्थः-या शरीरथी जहा एवा आत्मानी आत्मा विषे एवी दृढ लावना करवी के स्वप्नां पता हुं शरीर ढुं. एवी पाने अर्थ: फरीया अंगसंगति न य जाय. ॥ ५॥
विवेचना ग्रे यर्नु दोहन एटले मार न के पुजलानंदी मटी आत्मानंदी यवु अने पनि जन अंश पुलानंदी . । || तो जशे, तेम तेम ते पोताना जवनमा घटान्तो जशे अने आत्तनिश्चय करी ज्यारे जागृत के स्थानां पण पुतानंद न याय
अने पोताना स्वनावमा ( पठी. अ.जयी. कालथी. १०० वर्ष पलीथी के करो वर्ष पनी पा) रदे, सारे तन अवध नवनो बेमो बहज नजीक आवी परमानंद पद पामशानुं मुजन या जशे.- ना. क.
॥ फल विकल्पों पण नजया.। यतो व्रताव्रते पुंसां शुनाशुनिबंधने । तदनावात्पुन दो मुमुदस्त ततस्त्यजेत् ॥८६॥
अर्थः- अन्नतयो पापनो वंध, अने ब्राधी पुत्यको बंध अने ए, बेनुनो एटले पुण्ययापनो अनाव ए मोर माटे भुमुखए । ए वेननो साग करवो. ॥ ७ ॥
परंतु ते साग केवा क्रमयी करवा? ते हवे कहे ने ॥ प्रागसंयममुत्सृज्य संचमैकरतो नकेत । ततोऽपिविश्लिषेत् प्राध्य सम्यगात्मन्यवस्थितिम् ॥ 01
अर्य:-प्रयमावतिषणा गनी वामां माय लाने ग्यारेनम्यगात्मामा यथार्य स्थिति के पनी ब्राने पण नोकी देवां. ॥ 690
विवेचन--ज्यांची प्रात्मकालन ययुं दोय सांधी इंश्यो वगरे वह चंचळ होय . अन ए ज्ञान यया पनी पण पृ. ३५ वना अत्यासथी परवस्तुमा रागरेप य आये . माटे श्रात्मझानना अज्यामोर आ वात खूब ध्यानमा राखवानी ले के, ज्यांमुधी स्वरूप ज्वाइ तमांज रमणाना न थाय खांमुधी बनने तजवां नही अने जो उतावल करीतजी देश तो, जे लाज
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साबु पनि
113091
स्वरूप स्पर्शयी थयो हशे, ते पण खोइ दइ परुवाइ य जशे. माटे प्रिय वांचनार, व्रतने ठोस्तां बहु विचारजे. ज्यारे तारो आत्मा व्रतविना पण व्रतना साध्यमां रहे. खारेज तुं व्रत लोकजे. यामां उदाहरण, एके जेम आपणे रस्तामां जतां छुटा सिं ही बीहीने घरमा जागे। जइए बीए, परंतु तेने पांजरामां पुरेली होय, तो ते जयंकर होना बतां आपणे घरमां नाशी जचानी जरुर नयी. ते आपण जो हिंसा महाव्रत इव्ययी होय तोपण आपलयी कोइ पण माणीने जय पासवानुं रहे नहि, कारणके आपणे व्रतरूप पांजरामां होवाथी विचारा बोजा जंतुनने अजयदान मळे बे. परंतु ए महाव्रत पाळतां ज्यारे आपणामां एवं शक्ति स्फुरे के, व्यापलायी जय पामता प्राणी आपला खोळामां आवी रमे, एटलुंज नहि परंतु विरुद्ध स्वाववाळा पण पोतानुं वैर बोमवानी बुद्धिवाला, आपणने जोतांज थइ रहे, सारे आपणामां हिंमाजान प्रगट थयो केदेवाय, अने ते वखते व्ययी अहिंसावत आपणे बोमी दइए, तो पण आपणे अहिंसावनमांज बीए. कारण के, जाव अ हिंसा आत्मानो स्वाव ढे. तेथी ते न छुटे पण विज्ञान छुटे, माटे व्रत ठोकता पोताना आत्पानी खूब विचिणाथी परी - का करवी जोइए - जा. क.
॥ जाति अने लिंगना आग्रहथी पण मोक नयी ते कड़े ते. ॥
जातिर्लिङ्ग मिति घमंगमाश्रित्य वर्तते । अंगात्मकश्च संसारस्तस्मादेतव्यं त्यजेत् ॥ ८८ ॥ अर्थः- जाति ने लिंग ए वे देहने आश्रीने रह्यां वे, ने एज देह तेज संसार के मांडे जानिने लिंगतो (परमार्थ दृष्टि वाळाए ) आग्रह करवो नहीं ॥ ८० ॥
विवेचन - जाति एटले ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, श्रावक, वैष्णव, इस. दि. अने लिंग एटले स्त्री पुरुष नपुंकवासाधु संन्यासी, इसाई हवे ए ब्राह्मणादि जाति ने साधुयदि लिंग. ए खरं पूछो तो ते देहने ते आत्मा कई ब्रह्मण नथी, साधु नथी, सन्यासी नय. माटे एवोज आग्रह करीए के फक्त अमुक जाति ने अमुक लिंगवराळा मो जाय, तो ए दु- ॥३२॥ राग्रह डे. परंतु जेने आत्मस्वरूपनी यथार्थ खबर बे, ते गमे त जानना होय, गमे तो स्त्री होय के गये तो पुरुष होय गये तो साधु हांय ने गमे तो श्रावक होय, गर्म तो फकिरी पोशाक पहेरतो होय ने गमे तो जगवां पहरतो होय, तेने पशु मो
सूत्र
अर्थ:
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प्रति
साधु ! यवामां शध नयी. परंतु आत्मस्वरूप ययार्य स्वमवेदन यधुं जोइए. जैनशान जैन या वावगं नदार बुवाळु ले. तेमज प !! मृत्र
रमेश्वरनी वावतमां पण नदार बुझिवाळू . श्रीमद हेमचंशचार्य कहे ते के, आ जीवने जवानवमां जटकावनार राग देप ने, अने ए जब नत्पन्न करनारा रागषनां बीजो जनां बळी गयां ले. ते जोए तो शिव होय. जोए तो वर्षमान होय, जोइए तो विष्णु होय, तेने मारो नमस्कार दे. हवे मात्र जोवान एटलुंज ने के. रागय वीजा देवने दे या नदि, अन जानि. लिंग जेम श्रावक के साधु मुनिराजन बे, तेम बीजाने पण : माटे आत्मस्वरूपने यथार्थ ते नळव ने या नहि, तेन परीक्षा कर. वामां विचरण य, जाइए. परंतु खोटो आग्रह करी परनिंदामां तो नज पमg. अंतरात्माए तो बनतां मुधी बोजा नपर क रुणावुनि दाखवली. ते न रहे तोज नपेक्षा करवी. कारण के एज तेने श्रेयस्कर ले, अने ज अंतर त्या न होय, नांव्य सम्यक्त्ववान होय, तेने पण मारी एज जलामण ने के अन्य दर्शननो परिचय न कम्बो. परंतु तेनी निंदा करी पोताना आत्माने रागषयी काळी न करवो, हा यथार्य समय जोइ बोलवू, वर्त, परंतु नेमां पोते जोवु के मने रागइप याय डे के नहिजो रागपि थता होय तो मध्यस्थन रहेQ. ऽव्य सम्यक्त्ववान मुदेव, मुगुरु, अने सुधर्मने जाणे , तेणे तो पोताना मा
ध्य तरफ दृष्टि राखची के, अमारा देव. गुरु अने धर्म केवा ? ख पृटो तो देव गुरु अने धर्मने अनुमरनारा, धर्मने अर्थे शासन, तामन, तर्जन विगैरे करे, परंतु जेने शासनादि करे, तेना नपरथी. पण तेनी करूणादि न जाय. तेने शासनादि करवामां पण तेन हित दोय. मन तो आम मार। मतिकल्पनाथ मुम्युं . यथार्थ ज्ञानी महाराज के गीतार्य महाराज जाणे. आ संबंधमां तेनुं जे वचन होय ते पने पण प्रमाण .-जा. क. * ॥ जेम जाति अने लिंगनू का तेमज अनात्मदर्शीने देहने विषे बीजो पण के वो विपर्यास थाय ले ते कदे दे. ॥ अन्नेदविद्यया पंगोति चकुरचकुषि । अङ्गेऽपि च तथा वेत्ति संयोगाद् दृश्यमात्मनः ॥ ७॥
अर्थः-जेने दशान नयी, ते जेम पांगळानो दृष्टि आंधळाने आरोपे ले, तेमज आत्मा अने देदना संयोगयी आत्मानी Um दृष्टि देहने विषे आरोपे . ॥ नए विवेचन-कोई पांगळो आंधळाने खने बेसी चाख्यो जाय दे. हवे देख ले तो पांगळो पण एम कहे के आंधळो देखे |
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अयः
बे. तेन जेने आताना स्वरूपनो खवर नथी, ते आत्मानुं जोवु ते शरीरनी कांखने भारोपे डे. आंख तो आ जीर शरीरमां. अनिल
| थी छुट्या पोपण होय जेनां जीव जो शरीरमां न होय तो, ते देखनो नथी. माटे देखना आंख नयी, पण आत्मा बे.
आंख तो एक शर ठे, लेबी आत्मा वखते खेंचाइ परवस्तुने विषे मोह पामे ठे अने सद् विचारवान होय तो, शुन निमित्त
लइ तेज हारथी मोठ्या छटवाने योग्य थाय ने. परतुं यात्मदर्शनने याटे तो अंतरात्मनत्व ने अने ते रूपदनो सादीभूत ज३५ णाय ने.-ना क.
॥ परंतु यात्मदनि तेवो विपर्यास यतो नयी.॥ नेदवित्र या वेति पंगोश्चतुष्यचकुधि । झातात्मा न तथा वेतितत्काये दृश्यमात्मनः ॥ ७ ॥
अर्थः-परंतु जेने आंधळा अन पांगळाना नेदती खबर ले, ते आंधळानी दृष्टि जेम पांगळाने आरोपतो नयी. तेम जेणे आत्माने जाएयो बे, ते आत्मानी दृष्टि शरीरने नहि आरोप. | ॥
विवेचन-कोरपण देखतो मास, आंधळाना खाना नपर बेठेला पांगळाने जातो देखे, ते आंधळो जुर ने. एम कदेशे नहि, तेमज जेने पोतार्नु आत्मतत्व जोवाने दिव्य चक्कु ले, ते जम एवा शरीरने जोनार बे एम नदि माने. ए जम्नो तथा पोता. ना स्वतत्वनो जोनार सादी पोतानो आत्माज डे, एम ज्ञानी तो जी लेशे.-ना क
॥ज्ञानी अने अज्ञानीने जागृत अने समावस्या केवी दे.॥ मत्तोन्मत्नादिचेष्टासु यथाऽज्ञस्य स्वविन्नमः । तथा सर्वास्ववस्थातु न कचित्तत्वदर्शिनः ।। ||
अर्थः-जे अज्ञानी , तेने जागृत ने उन्मत्त आदि अवस्या ए हुएवो विचम याय ते, परंतु जे वादी ले तने म अ. वस्थामां एवं बिलकुल थायज नहि. ॥ १ ॥
॥षणां शास्त्र लणे, पण शरीरने आत्मा माननारने मोद न याय देहात्महगू न मुच्येत चेजागर्ति पठत्यपि । सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्येत स्वस्मिन्नुत्पन्न निश्चयः ॥ ४ ॥
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Euall
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माधु । अर्थः-आ शरीर एज आत्ता एई जोनार माणस जोइए तो जागे. अने जोइए तो शास्त्रांनी अत्यान करे. तो
पान ॥ (साध्यनी खबर न होवाथी) कर्मना बंधनयी मुकाय नाह; अने जेने पोताना साध्य एवा आबानी पोतानामांज विश्वर : || थयो ठे, ते जोइए तो मुना होय, जोइए नो उन्मत्त होय तथापि ते बंधनयी मुकायलेज. ॥ १ ॥
विवेचन-सम्यक्त्व प्राप्ति एटले अंतरात्पत्ति ज्यां सुधी न य होय, सांसुधी घणां शत्र जहानारा जीवनाकोनाका १३५५॥
फ जेबा ले. जेम फोनोग्राफमां जे शब्दो बोलायेला होय, ते पाला तेवाने तेवा कही जाय, तम या मागान पग बोजा शात्रकारोन बोलवु तेवूने तेवु बोली जाय . अने जो सम्यता आधुं दोय ता, वस्तु स्वरूपन नाना प्रकारे कहेनो अाय अर । पनी तेमां शास्त्रसम्मत केम ले ते दाखवतो जाय. कारण के अनुनव जे शानकारन ने तम पोताने पण ययाने.
झानमार नघतां एम मालुम प के, क्योपशम टाण पण अनु नवले, अने ते सिवायना वीजा समयमा कृयोप-|| | शमना दाणाने दृढ स्मृतिमा लावी तेमां श्रःक्षा करवामां आवे तो पगे क्योपशम आवी ननो रहे .
हवे अंतरात्माने परमात्मा यवाना बेनपायमांनी एक कहे . ॥ आत्मानं सिमाराध्य प्राप्नत्यात्माऽपि सिताम् ।
बतिः प्रदीपमासाद्य यथाऽन्येति प्रदीपताम् ॥ ३ ॥ अर्थः-आत्मा पोतायो निन्न एवा मि६ अईदात्नानी आराधना करतो करतो पाने पण मिझ अईदादि यायः जे म बाट दीवाने पामी पोते पण दीवारूप बन जाय . ॥ ३ ॥
॥ हवे अंतरात्मा पोतानुज ध्यान करतां परमाला यायले. ते कद ठे.॥ श्राराध्यात्मानमेवात्मा परमात्मत्वमभुते । यथा नवति वृक्षः स्वं स्वेनोवृष्यहत शनः ।। ए || ॥५॥
अर्थः-अयवा आला अंतरात्मा या परमात्मत्व एटले पोताना शुस्वरूपनी नावना करी, मांज लय लगायी देतो. से परमात्मा यह जाय. जेम लाकडं पोतेज लाकसानो माये धावायी अनि गट याय डे. ॥ ए४ ॥
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साधु
मूत्र
पनि
अर्थ ।
३३५६५
॥ नपसंहाररूप फल कहे जे.॥ नं वाग्गोचरातीतं नावयन् परमेष्ठिनम् । प्रासादयति तयस्मान्न तूयो विनिवर्तते ॥ ५॥ अर्थः- प्रमाणे वाणीथी नहीं वर्णवी शकाय एवी परमात्मनी जावना करता करता पानेज परमात्मरूप बने ते, अ-! यात् माद-लक्ष्मीने पामे डे के ज्यांथी फरी पार्छ जबसमुश्मा पम्वानुं नषो. ॥ ए५॥
॥ आत्मा सर्वदा एकांतमुक्त बे एम माननारा सांख्यमतने निरास्त करे ने. ॥ अयत्नजनित मन्ये झानिनां परमं पदम् । चेदात्मन्यात्मविज्ञानमात्रमेव समीदते ॥१६॥ अर्थ:-आत्मामां आत्मानुं ज्ञान मात्र वस दे. एम जो इला गखे तो हुँ एम मार्नु 8 के झानोन पद अयत्न माध्य दे.
विवचन-मांख्य मत प्रमाणे आत्मा निस मुक्त होय तो पनी मादने माडे प्रयास करवानी जरूर शी परतु ते नियमुक्त नयी. माटे आपण मुक्त थवा प्रयास करवो पमेज, पापड़ी महज आनंदरूप थक रहे बे.
॥ मरणा पत्र परमात्मानो अनाव डे, एम कहेनारने कहे ते. ॥ बन्ने दृष्टविनाशोऽपि यथाऽऽत्मा न विनश्यति । जागरेऽपि तथा नतिरुनयत्राविडोषतः ॥ ४ ॥
अर्थ:-स्पप्लमां देखेली वस्तुना विनाशयी कंइ आत्मानो नाश यता नयी. तेज जागृतमा चनिथ खली वस्तुना नाशयी पण कं आत्मानो नाश नथी थतो. कारण के वेनमा विपर्याम समान ले. ॥ ७ ॥
विवचन-जन्ममरण जागृतमा देखाय ते वेजना नाशयी तेजरीने आत्मानो नाश नयी थनी काराक ने अनुनयरूप जागृत अवस्यामां जन्ममरानो आत्मा, दृष्टश झाता था रहे हैं. अमेरिकामा युनामदेटा मिचिगन नाम एक रलिया. मा संस्थान ने. आ संस्थानन मुख्य शहर मिट्रोइट ले, तेमा माकदर समा न मनां पत्र र द. आ बन्न जे मागं वेन ने बनेवी बे, ते मारा शिष्य वर्गमा हता. तेमने घेर वर्गमा हुं ध्यानो पाठ अपतो हता. हवे अनाव एवा बभ्या के मारां देन मिसीस मेमोन पोताना लग्न वखने नेट मळलु, एक घ[ज सुंदर, पुष्पपात्र एक देवलपर पलं हतुं. ते वर्गमां पापनार एक
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साधु
अर्थः
44
गृहस्यना अथमावाथी फुटी गयु. पुष्पपात्र साठ मालर ( एकसो एंशी रुपीया) नुं इतुं. आफुटी जतां मारां वेन बोलीन पति || ठ्यों के “ मारा हृदयना चूरेचूरा यऽ गया."
सारे जाषांतर कर्ताए तेमने कहां के, बेन! लग्रमां लेट आपलं पुष्पपात्र फुट) गडे. हये विचारो के ते लग्ननी सुखरूप है.
यातीने माटे जे आपेलुं हतुं ते पात्र फुट गयु.पए वेतन कांच फुट गमारा बनेको माक्तर तो तमने वधारे चाहे डे, ॥३५
अने तमाएं पुष्पपात्र फुटी जबाथी तमारापर दया आववाने लीधे, तमारा नपरनो प्रेम सुदृढ यतो जाय उ.माटे ने माटे पु. प्पपात्र मस्युं ते तो उलटुं कायम अने मजबुत थयुं जणाय डे....
वळी दरेक वस्तु जेने लोको चांतियी नाश पामे डे एप कहे , ते नाश नथी पामती पप तेनुं सरूप वधारे सुंदर यवाने दृष्टियी जरा दूर रही बीजी तरफ आवे . तेम तमारुं पुष्पपात्र पण वधारे मुंदर थवाने गयुं ले. बेन मिसीस मेमोए प्र. श्न कयु के, एवी खात्री केम थाय के, ते विशेष सुंदर थवाने गयुं ?
लालने कहां, जुन वेन आपणा अमेरिकामा ५वर्ष नपर जे पुप्पपात्र हतां ते केवां वेमोल हता; अने ते वखते आपणने सुंदर लागतां हतां; ते फुटी गयां तो आजे आवां सारां बन्यां. तेमज हमणां जे पुष्पपात्र फुटी जाय ठे, ते वधारे सारां ने मजबुत थवाने फुटी जाय ले. माटे दिलगीर थवाने बदले हर्ष थवो जोइये.
वळी तमे जेने सां रही स्टेन्योग्राफी (चिन्हावर लेखनविद्या ) ना धंधामां तमारा नपरीने संतोष आपाथी ते तमने नेट मन्यु हतुं. माटे ते पुष्पपात्र तमारी चिन्हावर लेखनविद्याए नत्पन्न कर्यु एम कहेवाय तो ते चिन्हावर लेखनविद्या तो कांई फुटी नयी गइ. एणेतो पुष्पमात्र मल्यापडी पण एवां घणांए पुष्पमात्र मळे, एटला मालर नत्पन्न कर्या अने हजी करेले, अने धीरज राखशो तो ए पुष्पपात्र सुंदर बनी रहे एटलामांज तमारी चिन्हावर लेखन विद्यानी टंकशाळमायो नबुं मुंदर बनेखें पुष्पपात्र लइ शकाय, एटला मालरो नीकली पम्शे.
प्रिय वांचनार! वस्तुन सघली आपणामां नरेला अनंत वीर्यने लीधे, आपणी पामे खेंचाइ आ बे, अने ते ज्यारे चमचकुथी दूर थाय , सारे पण अंतरात्मयी देखाता आत्माना वीर्यथी दूर यती नयी. आत्मा तो जाणे ने, जुए डे अने ए ननयनके आनंद पामे डे.
॥३५)
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माधु
३५न
॥ शुद आत्माने केवो जाणवा ने कई ने.॥
मूत्र अतींऽियमनिदेश्यममून कल्पनाच्युतम् । चिदानंदमयं विहि स्वस्मिनात्मानमात्मना ॥ ए॥ || अर्थः अर्थ:-इंडियोयी अगोचर, यनावी न शकाय एवो अरूपी, कल्पनारदित, चिदानंदमय एवा आत्माने आत्मामांज तुं | जाण. ॥ ॥
॥ आत्माने आत्मरूप जाणनारनेज मोद ने, ते कहे ते ॥ ॥ मुच्येताधीतशास्त्रोऽपि नात्मेति कलयन्वपुः ।
आत्मन्यात्मानमन्विष्यन् श्रुतशून्योऽपि मुच्यते ॥ जय ॥ अर्थः-आ शरीर एज आत्मा ने. एवं जाणनार शास्त्र नणेलो होय, नोपण कर्मबंधन यी मुकाय नहि. परंतु शास्त्र न । जणेलो होय तयापि आत्माने विपे आत्मानी शोध करनारो कर्मबंधनयी मुकाय खरो! ॥ एए॥
विवेवन-परंतु शाख जणेलो होय अने वळो आत्माने विप खोळ करतो होय तो, तने बंधनमुक वामां नपर कहेला वेन करतां विशेष मुलजता याय. ___ “मासतोस मामशेस" नामना इपि अलामांज रहेला नावकर्मरूप रागपने मूकी देतां, केवलान पाम्या. अने नेमना गुरुनाइ घणां शास्त्रो लगोला तां मुक्त न यया, माटे शाख नही जण, एम अहीं कदेवानी पतला नथी, परंतु नगीने पण आत्मार्थना खपी य. यालार्थी यवामां कदाच आ उपाय कंईक लागु पमे. पहेला तो जे सांसारिक वस्तुमां पा ताने लागतुं वळगतुं नथी, तेवी परार्चिता मुकवी आम करवायी अनर्थमनां पाप लागतां हाशे, ते लागतां वंध थशे. सार पली नोनचिंता मुकवी, कारण के लोग दाणनंगुर बे, सारपत्री माहचिंना मुकवी, एटले अरे में आटला वधां कर्य का , हुं तमांयी क्यारे छुटीश? एम करी रोज रोइ रोइ बसी न रहे. परंतु वीर्य बळवान करी मोहने हठात्रो. आ प्रमाणे अयममां अधम एवी कामचिंता, पडी मध्यम एव मोहचिंता मुकाय, पनी मात्र पोताना आत्मस्वरूपनीज चिता करवी, एटले न. मुंज चितवन करवू, तेनीज चर्चा करवी, तने मादेज लगा. प्रथम अशुन क्रियामांयी नित्त २३. शुन क्रिया करवी अरे।।
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शुज क्रियामां आ प्रकारे आवत जावावं. जगाया जीतमान रमता या रहे, रमणा यसपा पला रागपि न थाय, आटलेसुधी चेतन चो, सारे आत्मचिंता पण मुकबो. एटले नेमांन मियर यवंएटमविकत्यसमाधि की
अर्थः निर्षिकरूपममाधिमा आत्ला दाखल थशे एन यता थोमाज नवमां कानमय दर्शनमय, आनंदमय, चारित्रमय, वायप, अर। पी, अगुरूलघु सादिअनंत एवा यात्वा पोताना सस्वरूपे थइरहेशे. परंतु आपरम स्थिति पामची पोताना मामा हो वा उतां मन, वचन, काया-ने नपरप्रमाणे न ववनारने तो एजजवनमण के वखने मेरुपर्वत जेटता नपानामत पण या य. पाटे यथाशक्ति त्रणे करणे आ प्रयोग करी तनो परम आस्वाद लइ जावो के जेयी दुःखपय जड आनंदमय यवाय.-सा.क.
हवे आत्मानंद केम चाखवा ने कहे ने.॥ पराधीनसुखास्वाद निर्वेदविशदत्य ते । श्रात्मैवामृतता गछन्नविछिन्नं तमिप्यते ।। १०० ॥ अर्थः-परवस्तुना स्वादमा विरागवान व एटले प्रात्या पानेज पोतानामा रहेला अमृतनो स्वाद हळवे हलंब लेनोज ने पत्री ते स्वादनो अंतज नदि आवे. ॥ १०० ।।
योगोए बरतमा दुःवयी पण तत्पने जाणवू.॥ यदत्यस्तसुखाझानं तदविनापसर्पति । पुःखैकशरणस्तस्माद् योगो तत्वं निरूपयेत् ।। १0? ||
अर्थ:-जे सुखी अवस्यामा छान आधु होय. ते कंइदाख आवतां चाप्यु जाय ठे, माटे आत्माज्यामी चांगोदाव पामवा तां पण आत्मतत्वन शोधन करवू. ॥ १० ॥
॥ हवे नपसंहाररूप शुक्ष प्रात्यस्वरूप कथन करी ग्रंय समान कर ले. ॥ निखिलनुवनतत्त्वोनासनकप्रदोप-निरुपममधिरूढं निन्नरानंदकन्दम् ।
पण परममुनिमनोयोनेदपर्यंतनूतं-परिकलय विशु स्वात्मनात्मानमेव ॥ १० ॥ अर्थः-या अनजता केतु के के आखा विश्वनां नमाने तो जाण जासनरूप कर देतु होगनी ? एवा प्रदीपना नरसु ।
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साधु
मूत्र
प्रतिय
अर्थ:
1३६०
बे, ए आत्मतत्वने जगतनी कोई वस्तुनो उपमा अपाय नहि तेवू होवाथी निरुपम ने. परमात्मरूप परिपूर्ण नरेला आनंदना समुसरखं परममुनिनी बुद्धिने प्रकाश प्रापनार अने व्यताव कर्मयकी रहित एवं विशुमले. तेने तुं तारा आत्मवसेज न लख. ॥ १०॥
॥ एज धर्मध्यान अने शुक्लथ्याननुं ध्येय एम कदे बे.॥ इति साधारणं ध्येयं ध्यानयोधर्मशुक्लयोः । विशुद्धिः स्वीयन्नेदेन नेदः सूत्रे निरूपितः ॥ १३ ॥
अर्थ:-आ आत्मतत्व धर्मध्यान तमज मुक्तध्यानसमान ध्येय डे परंतु तेनी विशुदि जेवा जवा ध्यानमां होय तेवी तेवी होय बे, प विशुझिनो संपूर्ण लंद सुत्रोनी अंदर कह्यो बे. ॥ इत्याचार्यश्रीशुनचंडविरचिते योगनदीपाधिकारे शुद्धोपयोगविचारप्रकरणं समाप्तम् ॥
॥ शुनं नूयादध्येतुरध्यापकस्य च ॥ १ ज तत्वध्यान करवू ते ध्येय, अहीं शुइ चैतन्यमय आत्मा एन ध्येय ले.
Har---
1.६०
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साधु
प्रतिष्
३६१ ॥
॥ हरिगीत बंदः ॥
॥ किधपमपधुधुमिघोंघों सकिघरघरवं । दोंदों कि दोंदोंदाग्मिदीदा गिदी कि मकिरणवं ॥ ऊजिकि फ्रेंकणार एरए निज कि निजजनरंजनं । सुरशैलशिखरे जवतु सुखदं पार्श्वजिनपतिमनं ॥ १ ॥ कटरें गिनियोंगिनिकिटनिमिय घुघुटपाट | गुणगुणण गुगल र एकिणें गुणगुणमल गौरवं ॥ ऊजिऊँकिफ्रेंकेंड रणरण निज कि निजजनमऊना । कलयंति कमला कलितकलमलमुकलमीशमहे जिना ॥ २ ॥ वक्तेिं कि ठाक पट्टा ताड्यते । तललों किलोंलोंगें पित्रेपिनिकेंपिकेंपिनि वाद्यते || ॐ किन थुगियुगिनियों गिधोंगिनि कलरवे । जिनमतमनंतं महिमतनुता नमति मुरनरमुछवे ॥ ३ ॥ पुकिदांपुपु दिषदांषुपु दिदोदों यंवरे । चाचपटचचपटरा किोहों का मेसेंकेंवरे ॥ तिहां सरगमपधुनि निधपमगरसससससससुरसेवता । जिननाट्यरंगे कुशलमुनिशं दिशतु शासनदेवता ॥ ४ ॥
॥ इति श्री जिनकुशलसूरिजीकृत पार्श्वजिन स्तुतिः ||
॥ अथ श्री चतुर्दशी स्तुतिः ॥
४६
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सूत्र अर्थ
॥३६२
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ति
श्रा पुस्तक उपाववाना खरचमाटे नीचे जणावेला मानवंता सद्ग्रहस्थो तरफथी नीचेमु.
जब रुपीयानी मदद मळी .
सीरसाला. रु. ३०० श्री मन्मुनिमहाराज श्री अमरविजयजी बालविजयजीना नपदेशयी स्थापन यवली सीरसालानी जैनपा
ठशाला तरफथी रु. १०० श्री सीरसालाना संघ तरफथी.
३६
कुल रु. ४००
रु. ५०
सौरपुरवघारी. ज्ञानखाता तरफथी.
अह्मदनगर. शा वीरचंद हरीचंद. शा बादरजा पुरुषोतम. चीलर ( परचुरण गृहस्यो तरफयी.)
रु. ५० रु. २५ रु. ४१
कुल रु. ११६
उमरावती.
रू. १०० शोजागचंद फतेचंद. रु. ३१ मोतीवाला.
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मूत्र
नि
रु. २५ रू. २५ रु. ४
बालचंद मुकदार. जीतमलजी कोचरनी पनी बोटीवार चीलर ( परचुरण गृहस्थो तरफयी
अर्थः
-
-
कुल रु. १२५
पुना. रु. ५० शा मोतीजी जेताजीनी पनी नाजुबाइ.
२५ शा मोतीजी कीशणाजी रु. २५ शा कीशनाजी बालाजी. रु. २५ शा देवीचंद राघोजीनी पत्नी चंचलघाइ.
२५ शा बालचंद लाधाजीनी पनी नाजबाइ. रु. १० चीलर ( परचुरण गृहस्यो तरफथी. ) कुल रु. १६०
हींगनघाट. रु. २५ लखमीचंदजी मुनातनी पत्नी पमीवार
चंपुर
रू. २५
आसकरनजी मुकणचंदजी
कुल रु. २००१
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________________ पनि - जाहेर खबर. // साधु साध्वी योग्य प्रतिक्रमण क्रियानां सूत्रो. // (अर्थ सहित ) श्रा पुस्तक कं पण किम्मत के पालखर्च सीधा बिना नीचेने शिरनाये सखी जणाववायीदरेक साधु माथ्वीने मोकलशामां आवशे. शां. तीलोकचंद रूपचंद. हां. नीखुनाइ. . जैन पाठशाला. मु. सीरसाला. ( देश खानदेश.) जाहेर खवर. सर्वे जैन साधु साध्वीजी महाराजने विनंती करवामां आवे के. पयवा संग्रह जाग 1 सो नामर्नु पुस्तक तपाइने वहा र पड्यु डे. ते मध्ये जत्तपयनो, चकसरणपयनो, महापच्चरकाणपयन्नो, आकरपञ्चरकाणपयनो. आराधनायकरा. आत्मनाकना, तथा परमानंद पचीसीनो बालावबोध पाणो ने अने ते पुस्तक सर्व साधु माध्वीजीने जे स्थल हशे ते स्थल नंट पांचाळ वा नक्की कयु बे ते नीचेन मुरनामथी मंगाववा कृपा करशो. या पुस्तक मसवानुं ठेकाएं. 3.aa. बालानाइककलजा. ते. यांम्वनी पोल, नागजी भूदरनी पोल. मु. अमदावाद. - dain Education Interational For Personal & Private Use Only