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________________ साधु मृत्र মনি अर्थः २१॥ ॥ कम्मरकयाए, मोहरकयाए, बोहिलानाए, संसारुनारणाए, तिकटु नवसंपजित्तःणं विरामि ॥ अर्थ:-( कम्मरकयाए के0 ) कर्मयाय, एटले कर्मोना तय माटे ले. अर्थात् झानावरणीय श्रादिक आठे प्रकारनां कमोना क्य माटे ले. बली ते शानेमाटे बे? तो के, ( मोहरकयाए के० ) मोहदयाय. एटले मोहना हय माटे ले. अर्थात् संसारि क मोहनावनो नाशकरवा माटे ले. बली ते शानेमाटे ! तो के, (बोहिलालाए के) बोधिलाजाय, एटले कोधिलाजने माटे बे. अर्थात् बोधिवीजनोप्राप्ति थवामाटे ले. वली ते शानेमाटे ने तो के, संसारुत्तारणाए के) संसारोचारणाय, एटले संसारने नतरवा माटे ले. अर्थात् आ संसाररूपी समुश्यी पार नतरवा माटे . ( तिकटु के0) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, अर्थात् एवीरीतनी संपदानो अंगीकार करीने ( नवसंपन्ज ताणं के) नपसंपद्य, एटले ते प्रकारनी संपत्तिने ताप्न थने (विहरामि के0 ) विहरामि, एटले हुँ विहार करूं छु. अर्थात् मासकल्पादिक साधु विहार पूर्वक हुं वत्तुं छु. ॥ अंतोपरकस्स जं न वाश्यं, न पढियं, न परियट्टियं न पुत्रिय, नाणुपेहियं ॥ अर्थः-(अंतोपरकस्स के0) अंतःपक्षस्य, एटले पक्षनी अंदर, अर्थात् पंदर दिवसोनी अंदर, (जं के०) यत् , एटले जे अर्थात् जे कं (न वाश्यं के ) न वाचितं, एटले न वांचलुं होय, अर्थात् परमते जे कंई न वांची संजलाव्युं होय, तेमज (नपढियं के० ) नपठितं, एटले न पढेलं होय, अर्थात् जे कंई पोते वांचीने न पढेलुं होय या अन्यपासे वंचावीने न पढेलुं होय; तेमज (नपरियट्टियं के0 ) नपरिवर्तितं, एटले जे कंइ परार्वतन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई में सूत्रपूर्वक गणेलु न होय, एटले सूत्रपूर्वक पाठ करेलो न होय. तेमज (न पुच्छियं के0) न पृष्टं, एटले पूजेतुं न होय, अर्थात् पूर्वे नणेला मूत्रादिकमां शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतेजते ते गुरु आदिकप्रते पूलुं न होय. तेमज (नाणुपेहियं के ) नानुप्रेक्षितं, एटले अनुदा करेली न होय, अर्थात् अर्यने नूलीजवाना जय आदिकथी जे कंई चिंतवेलुं न होय. तेमज ॥ नाणुपालियं, संतेवले, संतेवीरिए, संतेपुरसकारपरक्कमे तस्स आलोएमो । अर्थः-(नाणुपालियं के0) नानुपालितं, एटले जे कंई अनुपालन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपास्युं न होय. हवे शुंदोतेबते ते कई कयु न होय? तो के, (संवले के०) सलिवले, एटले बल होतेठते, अर्थात् शरीर संबंधि शक्ति होतेठ ॥२२ ३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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