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साधु
प्रति
अर्थः
॥३१॥
आणंद ॥ १७० ॥ तास शिष्य मुनिसर धणी, श्री विजय दान सूरीश ॥ प्रगट महिम तस जागतो, पाय नमे नर ईश ॥१७॥ !! उपशम रसनो कूपलो, तास पट्टधर हीर ।। सकल मूरि शिरोमणि, सायर जिम गंजीर । १५शा हीरविजय गुरु हीरलो, प्रति-|| बोध्यो अकबर नूप ॥ राय राणा सेवा करे, जेहन अकल सरूप ॥ १७३ ॥ म्लेचराय जिणे वश कर्यो, जग वी/द अमार ॥ विमलाचल मुक्तो कियो, शासन शोलाकार ॥ १७४ ।। कुमारपाल प्रतिबोधियो, श्री श्रीहेम मुरिंद ॥ तिम अकबर गुरु हीरजी, मनधरि अति आणंद ।। १७५ ॥ ध्यानवशे निज पद दियो, निज मन हर्ष अपार ॥ विजयसेनमुरि नामधी. नित होय जय जयकार ॥ १५६ ॥ कामकुंल चिंतामणि, कल्पतरू अवतार ॥ ते सविथी जेह सिझिनी, अधिक ए जवि विचार ॥ १५७ ॥ विजयसेन गुरुराय वर, विजयदेव मूरिंद ॥ विजयमान गुरु वंदियें, जिम सूरज नर चंद ॥ १५० ॥ तपगढ वाचकमें वरू, विमल हर्ष शिरताज ।। नामें नवनिधि संपजे, दरिसण सीके काज ॥ १७ ॥ आतमशिदा नावना, तास शिष्य मनरंग ॥ प्रेमविजय प्रेमें करी, ऊलट आणी अंग ॥ १० ॥ श्रीरबहर्ष विबुध मुफ, बंधू तास पसाय ॥ तासु सानिध ग्रंथ में कर्यो, मन धरि हर्ष अपार ॥ ११ ॥ मूढ मती ले माहारी, कवि मत करजा हास ॥ कृपा करी मुझ नपरें, शोधी करजो खास ॥ १२ ॥ संवत शोल बाशहिए, वैशाख पूनम जोय ॥ वार गुरु सहि दिन जलो, एह संवत्सर होय ॥ १३ ॥ नयर नके. णीमां वली, आतमशिदा नाम ॥ मन नाव धरीने तिहां करी, सीधां वंबित काम ॥ १४ ॥ एक शत एंशी पांच ए, दोहा अति अजिराम ॥जणे गुणे जे सांजले, तेह लहे शिवठाम ॥ १५ ॥
॥ इति आत्मशिदा नावना समाप्ता. ।।
॥३१॥
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