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साधु પ્રતિદ
॥३२८॥
के सुर सुनट जूकार ॥ कर्म सुजट जुन एकले, सवी मनाच्या हार ॥ १४१ ॥ कर्म सुट विषम विकट, ते वश कियो न जा॥ जेनर एहने वश करे, हुं वंदूं तस पाय ॥ १४८ ॥ इम जाणोने की जियें, जिम प्रातम सुख थाय ॥ परजिव दुःख न दीजियें, इम बोल्या जिनराय ॥ १४९ ॥ दान शियल तप जावना, धर्मनां चार ए मूत्र || पर अवगुण बोलत सही, ए सहु याए धूज ॥ १५० ॥ दान सुपात्रें दीजियें, तम पुण्यतो नहि पार ॥ सुख संपति लड़ियें घी, मणि मोती जंकार ॥ १५१ ॥ ध नो साथपती जुनं घृत वोहराच्यं मुनि हाथ ॥ दानम नावें जीवमां, प्रथम हुवो व्यादिनाथ ॥ १५२ ॥ दान दियो धन सारथी, आनंद हर्ष पार ॥ नेमनाथ जिनवर हुवा, यादव कुल सिणगार ॥ १५३ ॥ कलथी केरा रोटला, दीधुं मुनिवर दान ॥ वासुपूज्य जव पाडले, जिनपद लघु निदान ॥ १५४ ॥ मुनि जो एक मारगें, वोहराव्यो तस आहार ॥ साथ मध्यो ते सारथी, ते विर जगदाधार ।। १५५ ॥ सुलता रेवति रंगभुं दान दियो महावीर || तीर्थकर पद पामशे, लहेशे ते जवतीर ॥ १५६ ॥ दानें जोगज पामियें, शियलें होय सोजाग ॥ तप करी कर्मज टालिये जावना शिवसुख माग ॥ १५७ ॥ जावन बे जब नाशिनी, जे आपे जवपार | जावन वमि संसारमां, जत गुणनो नहि पार ॥ १५८ ॥ अरिहंत देव सुसाधु गुरु, केवलि जाति धर्म ॥ इ समकित रायतां, लूटीजें सत्रि कर्म ॥ १५७ ॥ नत्र पड़ जापन कीजियें, चन्द्र पुरवनां सार ॥ इत्या मंत्र गलियें सदा, जे तारे नर नार ॥ १६० ॥ सकल तिरयनो राजियो, कीजें तेहनी यात्र ॥ जब दरिसणें दुर्गति दले, निर्मल थाये गा ॥ १६९ ॥ अष्टापदअर्बुद गिरि, समेतशिखर गिरनार | पंचे तीरथ वंदियें, मन घरी हर्ष पार ॥ १६२ ॥ - पन शांति जग नेमिजिन, पार्श्व ने वईमान ॥ पांचे तीरथ प्रणमतां नित वांधे जिनं वान ॥ १६३ ॥ उत्तम नर नारीतां, नाम कलां मां ॥ नाम निरंतर लीजियें, जिम सहि आणंद याय ॥ १६४ ॥ प्रातम शिक्षा जावना, गुण मणि रयण जंकार || पाप टले सवि तेहना, जेह जो नर नार ॥ १६५ ॥
यातमशिक्षा जावना, जे सुणे दर्प अपार ॥ नवनिधि तस घर संपजे, पुत्र कलत्र परिवार ॥ १६६ ॥ ए सुणतां सुख न जे, गट सबिरीस ॥ समता रसमां जीवको जीले ते निशदीस || १६७ || इस जब परजब जब जवें, जिन मागू हुं हे ॥३२८॥ व ।। मन वच कायायें करी घो तुम चरणनि सेव ॥ १६८ ॥ ए गुण जिहां जावशुं, तिहां रान वेलानल थाय ॥ तम शिका नामयी, सुर नर लागे पाय ॥ १६५ ॥ वीर शासन दीपावतो, आणंद विमल सुरिंद || प्रमाद पंथ दुरें कर्यो, प्रणमुं तेह
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सूत्र
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