________________
सूत्र
अर्थः
साधु || ते महा मोर्ट तीर्य प्रसिप ययु. तेज " आ नमस्कार ज्ञात्रिशिका " एटले " जयतिहुश्रण " नाम ज स्तोत्र, तेनी हुं पोते काई प्रति
...|| क व्याख्या करवा इच्छु छु.॥ ॥२५॥
॥अथ जयतिदुअण स्तोत्रं ॥
रोलावृचम. जय तिहुअण-वर-कप्प-रुरक जय जिण-धनंतरि ।
जय तिदुअण -कल्लाण-कोस पुरिअ-करि-केसरि ॥ तिदुअण-जण-अविलंघि-आण नुवण-तय-तामिश्र ।
कुणसु सुदाइ जिणेस पास धनणय-पुर-ठिन ॥१॥ अर्थ:-हे तिहुअणवरकप्परुरक, ( हे त्रिजुवन वरकल्पद ! ) त्रिनुवन के0 त्रण जगतने विषे वर के0 श्रेष्ठ, कल्पवृक्ष के कल्पवृक्षसमान, एटले त्रण जगतमा रहेनारा प्राणिमात्रना प्रधान कल्पना पेठे सर्व मनोरथ पूरण करनारा एवा हे पार्श्वनाथ महाराज! तमो जय के जयवंता वत्तॊ. अर्थात् सर्वोत्कर्षपणे वतॊ. श्रेष्ट कल्पवृक्ष कहेवार्नु तात्पर्य एबु जणाय ने के, जे पुरुष पोताना शरीरवमे कल्पवृक्ष तले जई मने करीने जे वस्तुनुं जेटलुं चितवन करे लेटलुंज ते आपे. ने आ श्री पार्श्व नाथ महाराज रूप श्रेष्ट कप्पद तो, केवल मनवमे आश्रयमात्र करवाथी वांवित करतां पण अधिक पदार्थ मात्रने आपी शके बे. माटे एमने विष कल्पवृक्षपणु श्रेष्ठ, प्रधान, ने अपूर्व एबुं रघु ने एग स्तुति करनारे जणाव्यु ॥ अथवा त्रण जगतना रहेनारा पुरुषमात्रना वर के0 वांबित अजिलाप ( वरदान ) तेने आपवाने कल्पवृक्षसमान ॥ अथवा । त्रण जगतने विषे के त्रण जगतमा रहेनारा देव मनुष्यादिक तेनेविषे स्वरूप संपत्तिअतिशयवके, वर के श्रेष्ठ, सर्वोपरिएका, में कल्पवृक्ष के आश्रितजनना मनोरथ पूरवामां कल्पवृत समान एवा. १-हे जिणधन्वंतरि (हे जिन धन्वन्तरे!) तमो जय के जयवंता वर्तो.
॥२५
dain Educon International
For Personal & Private Use Only
www.jairtebrary.org