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________________ साधु प्रति० २५॥ जिन के जे बाह्यशत्रुने तथा रागादि आत्यंतर शत्रने जिते ते जिन कहीए. । अयवा । जे बाह्य रोगने तया संसारनुं कारण एवा आत्यंतर रोगने जिते ते जिन कहीए. एटले सामान्य केवली प्रमुख, तेमने विष धन्वंतरि के० धन्वंतरिनामे महा वै- अर्थः द्य समान एवा. आ विशेषण कहेवामां ए तात्पर्य जणाय डे के, स्तुति करनार पुरुषना शरीरमां नत्पन्न ययेली व्याधिनी शां. ति करवा पूर्वक आगल स्तुति करवानुं सामर्थ्य प्राप्त थवायी संसाररूप रोगने शांत करो!!! एवं स्वानिप्रायगर्जित कयन. अथवा दे जिन के हे वीतराग! हे धन्वंतरे के हे सर्व व्याधि मटामवाने धन्वंतरिनामे वैद्य विशेष समान एवा श्-हे तिहुअणकल्लाणकोस ( हे त्रिनुवनकल्याणकोश !) त्रिभुवन के0 त्रण जगतमा रहेला कल्याण के श्रेयमात्र तेमने रहेबानो कोश के लांमागर के लांमागार समान एवा, एटले त्रण जगतमा रहेला कल्याणमात्र तेमने रदेवानुं एक स्थानरूप एवा. अथवा त्रण जगतमा रहेला प्राणिमात्रने कल्याण के सुवर्ण, एटले इव्यथी सोनू, रू, मणि, मोती, प्रमुख तेजस्वी पदार्थ अने नावथी समग्र झान सुख ते बन्नेने तमो आपो बो माटे, तेमने रहेवाना कोश केतां इव्य नंमार समग्न एवा. आ विशेष ण कहेवामां ए तात्पर्य जणाय ने के, तमारी सेवा प्रार्थना करनार संघर्नु सघळु दुःख दारिश नाश करवाने प्रगट यश् शीघ्र दर्शन आपो. आ वृत्तमांत्रण जगोए जय शद्ध मुक्यो , तेनुं कारण ए जणाय ने के, अतिशय जक्तिना नदययी आदर करवामां वारंवार एक शद्भर्नु नच्चारण कर तेमां बाध नयी. अथवा तमो जगत्मां पण त्रण काले त्रण प्रकारे सदा जयवंता वर्होबो. एम सूचना करवा माटे त्रण वखत जय शब्द कह्यो. ३-हे रिअक्करिकेसरि ( हे दुरितकरिकेसरिन् !) दुरित के पाप अथवा नपश्व ते रूप करि के हस्ति, तेने नाश करवामां केसरी केतां सिंहसमान एवा. एटले जेम सिंहनी गर्जनाथी वनना हा. थी पलायन करे . तेम जेनां नामोच्चारण मात्रयी पाप तथा उपश्व नाश पामे बे.-हे तिहणजणअविलंघियाण (हे त्रिभुवनजनाविलकिता!) त्रिनुवन के0 त्रण जगत् तेमां रहेला जन के लोक, तेमणे अविलंघिता के० नयी नलंघन करी के नथी खमन करी आझा के शासन ते जेनुं एवा. एटले त्रण जगत्मा एवो कोई समर्थ नथी के, जेना शासननुं खंमन करे. | ॥२५॥ अर्थात् देव मनुष्यादिक सर्वे जेनी आझाने मस्तके चमावे ले एवा. वली हे नुवणत्तयसामि ( हे जुवनत्रयस्वामिन् !) भुवनत्रय केए त्रण जगत् तेना स्वामी केतां अधिपति. एटले स्वं केतां प्रताप, ऐश्वर्य, अथवा चोत्रीश अतिशय ते जेने बे, ते स्वामि क. Jain Educatch International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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