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________________ प्रति अर्थः साधु ॥ हवे परमात्मान स्वरूप वर्णवे ने ॥ निर्लेपो निष्कलः शुशे निष्पन्नोऽत्यंतनिर्वृतः । निर्विकल्पश्च सिक्षात्मा परमात्मेति वर्णितः ॥७॥ लावार्थः-शरीर अने कर्मादिना लेप वगरना होवायी निर्लेप, शरीरादिकथी असंग होवाची निकल, इव्य अने ला. ॥३२॥ व कर्मथी रहित होवाथी परमशुझ, परमपदने पामेल होवाची निष्पन्न, अव्याबाध सुखी होवाथी आनंदमय, विकल्प रहित होवाथी निर्विकल्प, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनेत चारित्र तथा अनंत वीर्यरूपी लक्ष्मी पामवाथी जे सि कहेवाय, तेज परमात्मा एवा नामधी शास्त्रोमां वर्णवेला ने. ॥७॥ ॥खारे हवे परमात्मस्वरूप ओळखवाने शुं करवू ! कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदंबकात् । प्रात्मानमन्यसेद् योगी निर्विकल्पमतीश्यिम् ॥ ५॥ अर्थः-शरीरादि विषयोना समूहथी जूदो करी, इंडियोयी न जणाता एवा निर्विकल्प आत्मानो योगाच्यासीए सारे केवीरीते अभ्यास करवो?॥ए॥ ॥ योगना अभ्यासीनने तेनो उपाय बतावे . ॥ - अपास्य बहिरात्मानं सुस्थिरेणांतरात्मना । ध्यायधिशुक्ष्मत्यंतं परमात्मानमव्ययम् ॥१०॥ अर्यः-देहादि बहारना विषयोमा हुं ने मारूं एवी बुद्धि बोमी दइ, एटले बहिरात्माजाव मूकी दइ, रुमीरीते स्थिर यतो अंतरात्मावळे असंत विशु एवा परमात्मानुं ध्यान करवू. ॥ १० ॥ विवेचन-प्रिय वांचनार. आ दशमा श्लोकयां सहज समाधिनुं रहस्य एटले लेद समायेलो होवायी तेनुं कंईक अनुन वगत विशेष विवेचन करवा अहीं प्रयत्न करूं टुं. आ शरीर, मन, अने वाण ए है नयी, अने तेथी एवणेयो जोगवाता विषयो, ए मारा नयी. एवी बुद्धि यता, शरीरांदि अने विषयोमांयी राग देष छुटतो जशे, कारणके राग देष आ पहारना विषयोपा हुं ने मारूं एवी बुध्थिी उत्पन्न या श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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