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________________ সনি २६॥ एवां, रजाई के0 (राज्यानि ) राज्यने नुंज के0 (झुंजने)जोगवे . जो पण सोनं, रू, प्रमुख व्यथी धान्यनी प्राप्ति थाय ले तो पण, मुख्यपणे धान्य शब्दने प्रयम गरायो, तेनुं तात्पर्य ए के, महा मोटी राज्यादि समृद्धिमली होय तोपण, अर्थः मेघवृष्टि प्रमुख कारणयी नत्पन्न ययेला केवल धान्यवमेज शरीरनी स्थिति रहे . अने ते शरीरवमे तमारी जक्ति याय जे. माटे नक्ति करवानुं असाधारण कारण शरीर , अने ते शरीर धान्यमय डे, तेथी ते मुख्यपणे गणेलुं . तथा धान्य विनाना राज्यादिक अकिंचिकर जे एम पण मूचना करी ए नाव ले. हे पास के० (हे पार्श्वनाथ !) तुह के० ( तब ) तमारा, पसाशण के ( प्रसादेन ) प्रसाद करीने, असंरकसुरक (असंख्य सौख्यं ) असंख्यातुं बे, अर्थात् अनंतुं डे सुख जेने विष एवो, मोरक के ( मोद ) एटले मोदने, पिरका ( पश्यंति ) एटले देखे डे, अर्थात् अनुनय करे डे. तमारा प्रसादे करीने आ लो. क संबंधि तया देवलोक संबंधि नाशवंत मुख मले डे एटलुंज नही, परंतु जेनो नाश नयी एवं मोदमुख पण मले बे, ए लाव जाणवो. ॥ श्य के० ( इति हेतोः) ए हेतुमाटे, हे तिहुणवरकप्परक के0 (हे त्रिभुवनवरकल्पद !) एटले त्रण नुवनने विषे श्रेष्ट कल्पवृत समान एवा, हे जिण के० (हे जिन परमात्मन् !) मह के (मम ) एटले मारां, सुरकर के० (सौख्यानि) एटले सुखना समूढने, कुण के० ( कुरु ) एटले करो. सर्वे सुख आपवाने तमो समर्थ हो, तथा सर्वे सुख मागनार नपर तमो क्रोधादि करता नथी, माटे हे जिन! एवं संबोधन करी कहुं छै के, वर्तमानकालमा उपस्थित थयेला. कष्टने कापी वांडित मुख आपो ए नाव ले. ॥२॥ ॥ जर जऊर परिजुस्म, कस्म-जा सुकुष्णि । चख्खु-स्कीण खएण, खुम नर सल्लिय सूलिण ॥ तुह जिण सरणरसाय-गण लदु दुति पुणराव । जय--धनंतरि पास, महवि तुह रोगहरो नव ।। ३ ।। 117६१|| अर्थः-हे जगवन् ! जरजऊर के0 ( ज्वरजर्जराः ) जर के ताववझे जीर्ण थयेला. एटले काइ पण करवाने न समर्थ ।। एवा. मुकुठिण के0 ( सुकुष्टेन ) गलत् कोढना रोगवमे, परिजुल्मकामना ( परिजर्णकर्णनष्टौष्टाः ) परिजुल के (परिजू ः) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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