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________________ - - शुज क्रियामां आ प्रकारे आवत जावावं. जगाया जीतमान रमता या रहे, रमणा यसपा पला रागपि न थाय, आटलेसुधी चेतन चो, सारे आत्मचिंता पण मुकबो. एटले नेमांन मियर यवंएटमविकत्यसमाधि की अर्थः निर्षिकरूपममाधिमा आत्ला दाखल थशे एन यता थोमाज नवमां कानमय दर्शनमय, आनंदमय, चारित्रमय, वायप, अर। पी, अगुरूलघु सादिअनंत एवा यात्वा पोताना सस्वरूपे थइरहेशे. परंतु आपरम स्थिति पामची पोताना मामा हो वा उतां मन, वचन, काया-ने नपरप्रमाणे न ववनारने तो एजजवनमण के वखने मेरुपर्वत जेटता नपानामत पण या य. पाटे यथाशक्ति त्रणे करणे आ प्रयोग करी तनो परम आस्वाद लइ जावो के जेयी दुःखपय जड आनंदमय यवाय.-सा.क. हवे आत्मानंद केम चाखवा ने कहे ने.॥ पराधीनसुखास्वाद निर्वेदविशदत्य ते । श्रात्मैवामृतता गछन्नविछिन्नं तमिप्यते ।। १०० ॥ अर्थः-परवस्तुना स्वादमा विरागवान व एटले प्रात्या पानेज पोतानामा रहेला अमृतनो स्वाद हळवे हलंब लेनोज ने पत्री ते स्वादनो अंतज नदि आवे. ॥ १०० ।। योगोए बरतमा दुःवयी पण तत्पने जाणवू.॥ यदत्यस्तसुखाझानं तदविनापसर्पति । पुःखैकशरणस्तस्माद् योगो तत्वं निरूपयेत् ।। १0? || अर्थ:-जे सुखी अवस्यामा छान आधु होय. ते कंइदाख आवतां चाप्यु जाय ठे, माटे आत्माज्यामी चांगोदाव पामवा तां पण आत्मतत्वन शोधन करवू. ॥ १० ॥ ॥ हवे नपसंहाररूप शुक्ष प्रात्यस्वरूप कथन करी ग्रंय समान कर ले. ॥ निखिलनुवनतत्त्वोनासनकप्रदोप-निरुपममधिरूढं निन्नरानंदकन्दम् । पण परममुनिमनोयोनेदपर्यंतनूतं-परिकलय विशु स्वात्मनात्मानमेव ॥ १० ॥ अर्थः-या अनजता केतु के के आखा विश्वनां नमाने तो जाण जासनरूप कर देतु होगनी ? एवा प्रदीपना नरसु । - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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