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________________ साधु प्रति 1129011 इके (इति) एटले ए हेतुमाटे, तिहुणवणसोह के० ( हे त्रिभुवनवनसिंहः ) एटले जगरूप बनने विषे सिंह समान, एटले जेम सिंहथी बननां पशुमात्र त्रास पामी दूर थाय छे, तेम प्रथम कदेला सर्व हुए देवादिक, नमने उपव करी शकता नयी एटलुंज नही, परंतु तमारी स्तुति करनारने पण नृपश्व करें। शकता नथी, एवा पास के० हे पार्श्वनाथ स्वामिन्! पावाइ के० ( पापानि ) पापमात्रने, पलासहि के० ( प्रणाशयतु ) नाश करो. ॥ १६ ॥ ॥ फलि - फल - फार-फुरंत - रयलकर - रंजिय-नइयल फलिली - कंदल-दल - तमाल - निलुप्पल सामल ॥ Jain Education International कमासुर - नवसग्ग-वग्ग-संसग्ग- अगंजिय । जय पच्चरक - जिस पास जणय- पुरयि ॥ १७ ॥ अर्थ :- हे फणिफणफारफुरंतरयणकर के० ( हे फणिफणस्फारस्फुरनकर) फणी कहेतां प्रस्तावयी धरणें तेनी जे फणा तेने विषे. स्फार के० व्यतिशे विस्तार पामता एवा जे, रत्नकर के० रत्नना किरणो तेो करीने रंजियनहयल के० ( र तिनस्तल ) एटले रंग्यु एवं जे व्याकाशतल तेने विषे, फलिलीकंदलद्दलतमाल निलुप्पलसामल के० ( फलिनी कन्दलदलतमा - निलोत्पलश्यामल ! ) फलिनी एटले प्रियंगुलता "वाघाटाची बेल " तेना. कंदल के० नवा अंकुरा तथा पनिकां तथा तमालहनां पानमां, तथा कालुं कमल, ते जेवा श्यामल कहतां श्याममूर्ति एवों ने हे कमठासुरनवसग्गग्ग संसग्गागंजिय के० ( हे कमठासुरोपसर्गवर्ग संसर्गागञ्जित ! ) एटले कमठ नामे जे असुर तेनो जे उपसर्ग तेनो जे समूह सेना संसर्गयी एटले संबंधी, गंजित के० न पराजव पामेला एवा, हे पञ्चरक जिणेस के० ( हे प्रसवजिनेश ! ) एटले मारी दृष्टिगोचर थया माटे एवा है जिनेश्वर, थंजणयपुरठिय के० ( हे स्तंजनकपुर स्थित ) एटले स्तंजनकपुरमा रहेला एवा, पास के० ( दे पा र्श्व ! ) एटले हे श्री पार्श्वनाथजो ! तमो जय के० जयवंता वर्त्तो. या काव्यमां प्रयक्ष पद मूक्युं तेदो एवो अभिप्राय से के, सोल काव्यवमे सोन नमस्कार कर्या, सारपठी सत्तरमा काव्यमां मसक्ष थया. एम वृदवाणी बे ॥ १७ ॥ For Personal & Private Use Only सूत्र अर्थः 1199011 www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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