SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु प्रति अर्थः ॥१ ॥ एवा आहारआदिकने वोरतांथकां मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हूं पमिकमुंछ. अर्थात् आहारआपनार मनुष्य, साधुजी महाराजने आहार आपती वेळाए जे आहारआदिक नपामे ते आहारने जो रजनो एटले माटीआदिकनो स्पर्श थयो होय, तो तेवो आहार ग्रहण करतांथकां दोष याय, अने तेम करवायी पृथ्वीकायना जीवोनी विराधना थाय. माटे एवीरीतनो आहार ग्रहण करवाथी मने जे को अतिचार लागेलो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. वली पारिसामणिआए के) पारिशाटनिकया, एटले पारिशाटनिकी जिदाथकी मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुंछ. अर्थात् निक्षा ग्रहण करती वेलाए अनाजना कणो अथवा घृतआदिकना टबकां जो नीचे पमी जाय, तो तेथी पण दोष लागे, माटे एवीरीतनी निदा लेतांथकां मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते हुं पमिकमुं छ. वली॥पारिगवणिआए,नहासणनिस्काए, जं नग्गमेणं, नुप्पायरोसणाए, अपसुिरई पमिग्गहिरं वा, जं न परविरं, तस्स मिछामि उक्तम्॥ अर्थः-(पारिठावणिआए के0 ) परिस्थापनीकया, एटले पारिष्टापनिकी जिदाथकी मने जे अतिचार थयो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छु. केमके तवी निदाथी बकायना जीवो संबंधि विराधना थाय ; माटे तेवीरीतनी निदा गृहण करवा थकी मने जे को अतिचार थयो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमुं छु. वली (नहासणजिस्काए के) अवनाषणनिदया, एटले अवनाषण पूर्वक निदा ग्रहण करवा यकी मने जे को अतिचार थयो होय, ते अतिचारने पमिकमुं छ. वली अवजाषण एटले आहार ग्रहण करनार साधु, आहार यापनार गृहस्थीने एम कहे जे मने अमुक प्रकारनी अमुक नत्तम वस्तु आपो. एवी रीते जे कहेवू, ते अवजापण कहेवाय. परंतु कारण विना साधु जो एवी रीते मागणी करे, तो अतिचार लागे, माटे एवी रीतनी अवनाषण पूर्वक निदा लेतांयकां मने जे कोई अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिकमु छ, वली (जं नग्गमेणं के० ) यत् नगमेन नाम नामना दोषवमे करीने जे कंज्ञ आहारआदिक में ग्रहण करेलो होय, अने ते संबंधि मने जे कोइ अतिचार लाग्यो होय, ते अतिचारने हुँ पमिक, छ. वली (नप्पायणसणाए के०) नत्पादनएषणया, एटले नत्पादनएषणावमे करीने जे को अतिचार मने लाग्यो होय, ते अतिचारने हुं पमिकमुंछ. अर्थात् साधुजी महाराज गृहस्थी ने एम न कहे के, अमुकप्रकारनो आहार मारेमाटे तैयार करजो? केमके तेवा प्रकारनो आहार ग्रहणकरवाथी अतिचार ॥२४॥ Jain Educati emational For Personal & Private Use Only www.jainarary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy