SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु मूत्र प्रतिण |॥ ॥का अर्थः ते कहे डे.-- ॥ ॥कम्मरकयाए, मोहरकयाए, बोहिलानाए, संसारुत्तारणाए, निकटु नवसंपजित्तःणं विरामि ॥ I अर्थ:-कम्मरकयाए के0) कर्मक्षयाय, एटले कर्मोना कय माटे ले. अर्थात् ज्ञानावरणीय आदिक आठे प्रकारनां क॥२०॥ मोना क्य माटे ले. वली ते शानेमाटे ? तो के, ( मोहरकयाए के0) मोहतयाय, एटले मोहना क्रय माटे ने. अर्यात संसारि क मोहनावनो नाशकरवा माटे ले. बली ते शानेमाटे . तो के. (बोहिलालाए के0 ) बोधिलाजाय, एटले बोधिलानने माटे ठे. अर्यात् बोधिवीजनोप्राप्ति यवामाटे ले. वली ते शानेमाटे ने तो के, संसारुत्तारणाए के0 ) संसारोचारणाय, एटले संसारने नतरवा माटे ले. अर्थात् या संसाररूपी समुश्यी पार नतरवा माटे जे. ( तिकटु के0) इतिकृत्वा, एटले एम करीने, अर्थात् एवीरीतनी संपदानो अंगीकार करीने (नवसंपज्जताणं के०) नपसंपद्य, एटले ते प्रकारनी संपत्तिने ताप्त थइने (विहरामि के0) बिहरामि, एटले हुँ विहार करूं छु. अर्थात् मासकल्पादिक साधु विहार पूर्वक हुं वर्तुं छु. ॥ अंतोपरकस्स जं न वाश्यं, न पढियं, न परियट्टियं न पुत्रियं, नागुपेदियं ।। अर्थः-(अंतोपरकस्ल के० ) अंतःपक्षस्य, एटले पनी अंदर, अर्थात् पंदर दिवसोनी अंदर, (जं के0 ) यत्, एटले जे अर्थात् जे कं (न वाश्यं के0) न वाचितं, एटले न वांचेलुं होय, अर्थात् परप्रते जे कंई न वांची संजलाव्यु होय, तेमज ( नपढियं के0 ) नपठितं, एटले न पढेलं होय. अर्यात् जे कंई पोते यांचीने न पढेलु होय या अन्यपासे वंचा य; तेमज (नपरियट्टियं के0 ) नपरिवर्तितं. एटले जे कंइ परार्वतन करेलु न होय, अर्थात् जे कंई में मूत्रपूर्वक गणेलुं न होय, एटले मूत्रपूर्वक पाठ करेलो न होय. तेमज (न पुच्छियं के०) न पृष्टं, एटले पूजेतुं न होय, अर्थात् पूर्वे जणेलां सूत्रादिकमां शंका आदिकनो प्रादुर्भाव होतेउते ते गुरु आदिकपते पूजेतुं न होय. तेमज (नाणुपहियं के0 ) नानुमेक्षितं, एटले अनुप्रेक्षा करेली न होय, अर्थात् अर्थने जूलीजवाना जय आदिकथी जे कंई चिंतवेलुं न होय. तेमज ॥ नाणुपालियं, संतेवले, संतेवीरिए, संतेपुरसकारपरक्कमे तस्स आलोएमो ॥ अर्थः- ( नाणुपालियं के ) नानुपालितं, एटले जे कई अनुपालन करेलुं न होय, अर्थात् जे कंई प्रतिपायुं न होय. ॥२०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600204
Book TitleSadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Original Sutra AuthorSirsala Jain Pathshala
Author
PublisherSirsala Jain Pathshala
Publication Year1908
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy