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साधु
तेने देखा नथी. हवे जो अंतरात्म यर इंडियाररूपी बिमाथी निकल जल, ने कुंरुमां नरेलु जल ए उजय देखाइ र प्रसि० है, तो सकल शक्तिरूप जलमां एकात्मता थइ रहे. अर्थात अंतरात्मा परमात्मारूप यह जाय. वहिरात्मा, अंतरात्मा ने प रमात्मा, एमां बहिर, अंतर, अने परम ए तो उपाधिरूपे ते. परंतु श्रेष्ठतम तत्वतो आत्मतत्व ( सितत्व) ले के मां को उपाधि लागी शके नहि. जा. क.
॥ वे निर्विकल्प होवा छतां आत्मस्वरूप देखावा प्रयत्न करे हैं. ॥
॥३२८॥
यः स्वमेव समादत्ते नादते यः स्वतोऽपरम् । निर्विकल्पः स विज्ञानी स्वसंवेद्योऽस्मि केवलः ॥ २६ ॥ अर्थः- जे पोते पोतानेज एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्रनेज ग्रहण करी रह्यो ठे, अने जे पोतायी जुदा एवा परपदार्थने ए टले जम पदार्थने ग्रहण करतोज नयी तेज स्वसंवेद्य, ज्ञानी, परवस्तुनी साये नहि मलवाथी केवल एटले एकज. तेमज निर्वि कल्प एवो हुं छु. ॥ २६ ॥
॥ हवे आम निश्चय यया पहेला हुं केवो जगातो हतो ते कहे छे. ॥ जात सर्पमतेर्यच्छृंखलायां क्रियामः । तथैव मे क्रियाः पूर्वास्तन्वादौ स्वमिति मात् ॥ २७ ॥ अर्थ:-जेने सांकळमां' सर्प एवी बुद्धि यइ बे, ते जेम सांकळने दृष्टिचमयी के नजर चूकयो सर्प मानी जाय ते. तेमज हुं सारधि शरीरादि तेज हुं आत्मा एम जाली खरेखर वधी क्रियान करतो हतो. ॥ २१ ॥
॥ परंतु हवे आत्मज्ञान यत्रा पढी मारुं वर्तन केयुं ने ? ॥
शृंखलायां यथा वृत्तिर्विनष्टे भुजगत्रमे । तन्दादौ मे तथा वृत्तिर्नष्टात्मविभ्रमस्य वै ॥ २८ ॥ अर्थ – सर्पविचम जवाथी कंइ लोको सांकळने सर्प माने नहि, तेम दबे शरीरादिमांयी आत्मविचम जायी हवे क शरीरादिने आत्मा मानेज नहि: तेम आत्मानेज आत्मा मानवारूपी हवे मारी वृत्ति थइ ते । ३८ ॥
१ दोरमामां, एवं पण उदाहरण घणी जगोए वे बे.
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सूत्र
अर्थ:
॥३२८
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