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साधु
মনি
॥१॥
मों जेणे एवो हूंछ. वली हं केवो छ? तो के, (पमिहय के ) प्रतिहत, एटले हणेलां ने सर्व प्रकारनां पापकों जेणे एवो | हुँ छ. वली हुं केवो छ! तो के, (पच्चरकाय पावकम्मो के०) प्रसाख्यातपापकर्मः, एटले पञ्चखेलां ने पापको जेणे एवो ह || अर्थः छु, अर्थात् पापकमाने साग करनारो हुँ छ. बली हु केवो छ! तो के ( अनियाणो के ) अनिदानः, एटले निदानवके करीने रहित छ. अर्थात् कोइ पण प्रकारना नियाणावमे करीने ९ रहित थयेलो छ. वली हुँ केवा प्रकारनो छ! तो के,
॥दिठिसंपन्नो, मायामोस विवजिन॥ अर्थः-(दिठिसंपन्नो के०) दृष्टिसंपन्नः, एटले दृष्टिवके करीने ९ संयुक्त ययेलो . अर्थात् शुदेव शुइगुरू अने शुक्ष धर्मने धारण करवारूप जे सम्यक्त्व, तेवके करीने हुं संयुक्त थयेलो छ. वली हुं केवो थयेलो छ! तो के, (मायामोस विवङिन के) मायामोस विवर्जितः, एटले मायामोसबके करीने हुं विवर्जित थयेलो छ. अर्थात् समस्त प्रकारनी जे कपट क्रिया, के जे मारां चारित्ररूपी आभुषणने मलीन करनारी बे, तेथकी हुँ रहित थयेलो छ. हवे हुं शुं करूं हूं? तो के,
॥ अहाश्जेसु दीवलमुद्देमु, पनरसकम्मनमीसु, जावंति के विसाद, रयहरणगुलपमिग्गहधारा ॥ __ अर्थः-( अट्ठाइजेसु के) तृतीपाबु, एटले अढीएवा, (दीवसमुद्देसु के०) दीपसमुषु, एटले होपो अने समुशेने विषे, तेमज ( पन्नरसकम्मभूमीसु के0 ) पंचदशकर्मभूमीपु, एटले पंदर एवी कर्मभूमोनने विषे (जावंति के वि के0) यावंतः केऽपि, एटले जेटला होय, तेटला ( साहू के0) साधून, एटले साधुनने हुं नमस्कार करूंछ. हवे ते साधुजी महाराजो केवा ? तो के, (रयहरणगुलपकिन्गहधारा के० ) रजोहरणगुचपतद्ग्रहधाराः, एटले रजोहरणना गुन्चकने, तथा पतद्ग्रह एटले पातरांनने धारण करनारा बे; वली ते साधुजी महाराजो केवा बे? तो के, ॥ पंचमहत्वयधारा, अगरसहस्स सीलंगधारा, अस्कयायारचरित्ता, ते सधे सिरसा मणसा मन्बएण वंदामि ॥
॥६१ अर्थ:-(पंचमहत्वयधारा के०) पंचमहाव्रतधाराः, एटले पांच प्रकारनां महाव्रतोने धारण करनारा डे, अर्थात् प्राणानिपातविरमण, मृपावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, तथा परिग्रहविरमण, एवीरीतनां पांच प्रकारनां महाव्रतोने
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