Book Title: Ayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्द संख्या-१०२५० आयुर्वेदीय-कोष . ( Ayurvediya-Kosha ) प्रथम खण्ड (Volume I) 'अ, से “अज्ञातयक्ष्मा , तक (From-'a' to 'ajnyátayakshmá') For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीहरिहर औषधालय समस्त आयुर्वेदीय औषधियों को बहुत बड़े परिमाण में बना कर स्वल्पमूल्य में देने को संसार प्रसिद्ध For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir WEBSIGIRECOSMEBSIGERSE09oBeeGE6-6055- 600x5064GEGREECEISED5-669DSECSGee आयुर्वेदीयानुसंधान--ग्रन्थमाला का द्वितीय पुष्प आयुर्वेदीय-कोष -6DOGSEEMBERRIAGE-GINGRECESSA56866GNRBSCGENCY 3600000MBERGRearcesECTRESCENCHHETREE + An encyclopædical ST yurvedic Dictionary (with full details of Ayurvedic, Unani and Allopathic terms.) अर्थात् श्रायुर्वेद के प्रत्येक अङ्ग प्रत्यङ्ग सम्बन्धी विश्य यथा-निघण्टु, निदान, रोग-विज्ञान, विकृति-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिकविज्ञान,कीटाणुविज्ञान, इत्यादि प्रायः सभी विषयके शब्दों एवं उनकी अन्य भाषा (देशी, विदेशी, स्थानीय एवं साधारण बोलचाल ) के पर्यायोंका विस्तृत व्याख्या सहित अपूर्व संग्रह । व्याख्या में प्राचीन व अर्वाचीन मतोंका चिकित्साप्रणालो-त्रय के अनुसार तुलनात्मक एवं गवेषणापूर्ण विवेचन किया गया है। इसमें २००० से अधिक वनस्पतियों, समग्र खनिज एवं चिकित्सा कार्य में आने वाली प्रायः सभी आवश्यक प्राणिवर्ग की तथा रासायनिक औषधों के आजतक के शोधों का सार्वाङ्गीन सुन्दर, सुबोध एवम् प्रामाणिक वर्णन है । संक्षेप में श्रायुर्वेद( यूनानी तथा डॉक्टरी ) सम्बन्धी कोई भी विषय ऐसा नहीं चाहे वह प्राचीन हो या नवीन जिसका इसमें समावेश न हुआ हो। लेखक तथा संकलनकर्ताःश्री बाबू रामजीत सिंह जी वैद्य श्री बाबू दलजीत सिंह जी वैद्य रायपुरी, चुनार (यू० पी०) प्रकाशकश्री पं० विश्वेश्वरदयालुजी वैद्यराज सम्पादक-अनुभूत योगमाला, बरालोकपुर-इटावा (यू०पी०) HIG6864GEEEEEEEEE-ce...SSSSIGGCONSEASE + संशोधित तथा परिवर्द्धित [ द्वितीय संस्करण, १००० प्रति] All rights reserved by the writers. (सम्वत् १९६० वि० तथा सन् १९३४ ई.) H ANDBGDRDOS9909apa90199pSOPX995x3Gp999-30arasiassipapa3:5129910ASHMANDSAP* For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम संस्करण ( First Edition ) ... द्वितीय संस्करण (Second Elition ) वंदे मातरम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सन् १९३२ ई० फरवरी सन् १९३४ ई० श्री पं० विश्वेश्वरदयालुजी के प्रबन्ध से हरिहर प्रेस, बरालोकपुर-इटावा में मुद्रित । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना (महामहोपाध्याय कविराज श्रीगणनाथ सेन शर्मा, सरस्वती, विद्यासागर, एम० ए० एल० एम० एस० लिखित) सार परिवर्तनशील है । आज इसका रूप कुछ है, पहिले कुछ था, कल कुछ हो जायगा, इतिहास ऐसा बतलाता है। कल जो शासक था अाज वही शासनाधीन है, जो पद दलित था वह सिर पर उन्नत है । पूज्य आज हेय समझा जाता है और तिरस्कृत अाज अाहत हो रहा है। वही सुजला-सुफला-शस्य-श्यामला पुण्यमयी भारतभूमि है, वही भेषज-पीयूप-वर्षिणी वन्यस्थली है,वही अष्टवर्ग-सोमलतादि-प्रसविनी-हिमाद्रिमाला है, किन्तु अाज हमारे भाग्य दोष से उसीको लोग नीरसा कहते हैं। प्राचीन इतिहास की ओर जब दृष्टि उठाते हैं तो पता चलता है कि मानव-जाति मात्र के कल्याणार्थ इस भारत ने सम्पूर्ण-जगत् को क्या क्या नहीं प्रदान किया है। अविद्य को विद्या, असंस्कृत को संस्कृति, प्रश्रुत को श्रुति, विस्मृत को स्मृति एवं मोहान्ध को दिव्यज्ञान दृष्टि इसने अपने उदार करों से निस्संकोच वितरण किया है। इतना ही नहीं वरन् इसने संसार का वह उपकार किया है कि जिसके प्रभाव होने पर उक्र समस्त साधन काल के गाल में विलीन हो गए होते । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, सभी का आधार जीवन है; जीवन का अवलम्बन शारीरिक एवं मानसिक स्थैर्य है। अतएवं समस्त इहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों के साधनभूत 'अायुर्वेद' का पुण्योपदेश कर इस भारतवाणी ने मनुष्य-जाति का जो कल्याण किया है वह वर्णनातीत है । हन्त ! वही भारत-विश्व-शिरोमणि-भारत-पाज परमुखापेती है; भास्कर का प्रखर-प्रकाश खोकर दीपकों की मलिन - ज्योति का अपेक्षित है। परन्तु नहीं । दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होना अवश्यम्भावी है। कालचक्र का परिक्रमण करता हुआ, सहस्रों वर्ष पश्चात्, महानिशा के अङ्क से निकज कर, 'आयुर्वेद का सूर्य' पुनः प्राची में अपनी संजीवन-किरणे प्रक्षिप्त करते दृष्टिगोचर हो रहा है । उसके स्वागत के लिए कितनी मञ्जरियाँ कलित हो गईं, कितने ही कुसुम विकसित हो गए। इन्हीं में से एक नव-प्रसून "आयुर्वेदीय-कोष" रूप में प्राज मेरे हाथों में पाया है। इसके दलों की मनोहरता, इसके पराग के सौरभ का परिचय आप लोगों की सेवा में उपस्थित करने का भार मुझे सौंपा गया है। ___यद्यपि अायुर्वेदीय-कोष लिखने का यह प्रयत्न सर्वथा नवीन नहीं है, तथापि इसमें कुछ बिलक्षणता अवश्य है । इसके बहुत पूर्व, आयुर्वेद के द्रव्यगुणांश के अर्थ परिचायक कोष, 'राज-निघण्टु', 'मदनपालनिघण्टु' श्रादि प्राचीन एवं 'शालिग्राम-निघण्टु' आदि नवीन ग्रंथ उपस्थित थे, जिनसे आज दिन भी ग्र. समाज बहुत लाभ उठा रहा है, किन्तु इनका क्षेत्र एक प्रकार से परिमित है और इन्हें हम एक सव व्यापक प्राय दीय-कोष के रूप में व्यवहृत नहीं कर सकते । श्रायुर्वेद का कलेवर अाज कितना विशाल है एवं इसके प्रकाश में आज आना क्षेत्र कितना विस्तृत दिखलाई पड़ रहा है, यह वद्य-समाज के प्रत्या अतः हम कह सकते हैं कि हमारे सन्देह मात्र को दूर करने के लिए प्रभा पर्याप्त-सामग्री नहीं प्राप्त हुई है। हमें एक ऐसे आयुर्वेदीय-कोष की आवश्यकता है, जो सर्वथा हमारी शंकाओं का समाधान करने, हमारी जिज्ञासाओं का संतोषजनक उत्तर देने एवं सन्दिग्ध स्थलों पर पथ-प्रदर्शन करने में समर्थ हो । हमारी इसी मॉग की पूर्ति करने के लिए 'कविराज श्री उमेशचंद्र विद्यारत्न' महोदय ने सन् १८१४ ई० में, विशाल "वैद्यक-शब्द-सिंधु" को प्रकाशित किया था। इसमें संदेह नहीं कि वैद्य-समुदाय ने उससे बहुत लाभ उआया है, तथापि जैसा कि हम पहिले कह चुके हैं, हमारी वर्तमान आवश्यकताओं को सम्यक्तया पूरी करने की पूर्ण क्षमता उसमें भी नहीं है । इसी उद्देश्य को लक्ष्य करके आज एक और नवीन "पायर्वेदीय-कोष" हमारे सम्मुख उपस्थित हुआ है, हम हृदय से इसका स्वागत करते हैं। For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदीय - जगत् के धुरन्धर - विद्वानों एवं अनेक - शास्त्र - पारङ्गत पण्डितों को भी यथावसर जिसकी सहायता लेनी पड़े, विविध क्रिया-कुशल वैद्यों को भी आवश्यकता पड़ने पर जिसका आश्रय लेना पड़े, तथा अनेक अकुशल एव' स्वल्पमति वैद्य और छात्र समुदाय को भी जिसके भाण्डार से अपने को पूर्ण बनाने के लिए ज्ञान-याचना करनी पड़े, ऐसे श्रायुर्वेदीय-कोष को कितना सारगर्भित, कितना महान् एव सर्वाङ्गपूर्ण होने की आवश्यकता है, इसकी कल्पना प्रायः सभी विज्ञ वैद्य कर सकते हैं । मेरा अनुभव हैं कि योरोप में जब कभी ऐसे महान् कार्य उपस्थित होते हैं, उस समय उस देश के अनेक सर्वोत्तम विद्वान्, जो कि अपने अपने विषयों के विशेषज्ञ होते हैं, परस्पर सहयोग द्वारा, वर्षों तक दृढ़ परिश्रम एवं प्रचुर धन-व्यय करके, उसे सर्वा बनाने की यथाशक्ति चेष्टा करते हैं। इतना ही नहीं, वरन् नवीन नवीन खोज और सुधार पर विशेष ध्यान रखते हुए, उसने आवश्यक परिवर्तन और सुधार करने के लिए जीवन भर सतर्क रहते हैं और सुवार करते जाते हैं | वास्तव में यह कार्य कितना उत्तरदायित्व - पूर्ण, दुःसाध्य एवं दुरूह है, इसे विज्ञ-जन स्वयं समझ सकते हैं । इस विषय में लेखकों को कितनी गम्भीर गवेषणा एवं पाण्डित्य की आवश्यकता होती है, कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, कितनी बाधाओं का प्रतिक्रमण करना होता है, इस अनुमान एक ग्रंथकार ही कर सकता है। दुर्भाग्यवश, भारतवर्ष के विद्वानोंने इस प्रकारकी सामूहिक सहयोगिता पर अभी तक ध्यान नहीं दिया है; फलतः सच्चे उत्साही लेखकों को एकमात्र अपने परिश्रम एवं अध्यवसाय पर निर्भर रहना पड़ता है । एतदतिरिक्त, भारतवर्ष में, प्रेस के लिए प्रतिलिपि करना, मुद्रण एवं संशोधनादि की कठिनाइयों के साथ ही ग्रार्थिक-क्लिष्टता भी प्रायः रहती ही है । अतः इन सब परिस्थितियों के होते हुए भी इस महान् 'श्रायुर्वेदीय-कोष' कर्ता ग्रंथकारद्वय का उत्साह एवं साहस सराहनीय है । एक आयुर्वेदीय-कोष के प्रस्तुत करने में जो सबसे बड़ी एवं विचारणीय वाधा है वह है पारिभाषिक शब्दों का अर्थ - निर्णय । कितने ही शब्द ऐसे हैं जिनके अर्थ सन्दिग्ध होते हैं और संस्कृत भाषा में नानार्थक शब्द भी अनेक हैं । यह बाधा, आयुर्वेद की प्रायः सभी शाखाओं में किसी न किसी रूप में वर्तमान है, और वेद के साथ लिखना पड़ता है कि इस विषय के एक सर्वमान्य निर्णय पर वैद्य समाज आज तक भी नहीं सभी विशेषतः शारीर-विषयक एवं नानार्थ- प्रकाशक भेषजों की परिभाषा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। यहाँ शारीर-शास्त्र-सम्बन्धी जो कार्य प्रत्यक्ष शारीरम्' द्वारा प्रतिपादित हुआ है उससे वैच समुदाय भली भाँति परिचित है, किन्तु अपज निर्णय का काम अब भी बहुत पीछे है । उदाहरणार्थ प्रष्टवर्ग की औषधियों को ही ले लीजिए । यद्यपि इनके विनिश्वय के लिए काफ़ी प्रयत्न हुए हैं तथापि कोई सर्वमान्य विश्वसनीय निर्णय अभी तक सुप्रसिद्ध नहीं है । रास्ता एवं तगर आदि जैसी सामान्य श्रौषधियों के परिचय में भी बहुत है, क्योंकि देश देश में भिन्न भिन्न प्रकार की चीजें एक ही नाम से प्रसिद्ध हैं । अतः इन सब समस्याओं के समाधान करने के लिए सच्ची लगन के साथ गवेपणा ( Research ) करने की नितान्त आवश्यकता है । घ्रायुर्वेद की सेवा में तन-मन-धन अर्पण करके ही इसका पुनरुत्थान करना है । इसी कार्य की पूर्ति पर युर्वेदीय- कोप की सर्वाङ्गपूर्णता निर्भर करती है । श्रतः इस ओर मैं लेखक महाशयों का ध्यान आकृष्ट करता हूँ कि वे इस कोष को विशेष उपयोगी बनाने के लिए, विविध विषयों के विशेषज्ञों एवम् विद्वानों से कि गवेपणा सिद्ध परामर्श सदैव लेते रहें, ताकि समय समय पर इसमें श्रावश्यक परिवर्तन वम् परिष्कारादि हो सकें । आयुर्वेद, तित्री एवम् ऐलोपैथी यादि प्रायः सभी वर्तमान प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से सम्बन्ध रखने वाले विषयों का इस ग्रंथ में समावेश किया है, जिससे इसका कलेवर अति- विशाल होगया है । इन विषयों को कहाँ तक और किस मात्रा में इस ग्रंथ में सन्निविष्ट करने की श्रावश्यकता थी, इसे विद्वान पाठक स्वयं विचार लें । For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक बात की आवश्यकता हमें पोर प्रतीत होती है। वह यह कि इस ग्रंथकी रचना में जिन जिन अन्यान्य ग्रंथों में सहायता मिली है, उनके लेखको' एवम् प्रकाशकों के प्रति-चाहे वह स्वदेशीय हों या विदेशीय, प्राचीन हो वा अर्वाचीन-उनके नाम समेत धन्यवाद प्रकाश करना अनिवार्य कर्तव्य है। अन्ततः हम योग्य लेखकों के बहुवर्षा के प्रभूत. रिश्रम, अदम्य उत्साह एवम् अायुर्वेद की सेवाकी प्रशंसा करते हुए ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं कि इस महाकोष द्वारा अायुर्वेद के भांडार का एक बड़ा अंश पूर्ण हो तथा वय, छात्र-समुदाय एवम् रुजारी-जनता का इससे कल्याण साधन हो । कल्पतरु-प्रासाद, कलकत्ता। ) विद्वजनों का विधेयपौष, कृष्ण चतुर्दशा, सम्बत् १६६० वि० श्री गगनाथ सेन शर्मा For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकाशक की विज्ञप्ति स कालचक्र का प्रभाव आज तक किसी ने भी नहीं पाया; न कोई यह जान हो सका कि कल क्या होगा । जो श्राज या इस क्षण में है न मालूम उसका इस क्षण के बाद क्या होगा | समय के अनुसार संसार में अनेकानेक परिवर्तन हो चुके, हो रहे हैं, और आगे भी होंगे | इसी चक्र के अनुसार प्रत्येक वस्तु का नाश और विकाश होता थाया है । आज उसी कालचक्र से प्रेरित हुआ मैं आपके समक्ष श्रा रहा हूँ । कोई कुछ भी नहीं कर सकता । समय ही सब कुछ करा लेता है । इसीलिए कहा भी है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिले सहाय । श्राप न श्रावे ताहि पै ताहि तहाँ ले जाय ॥ इसी के अनुसार यह कार्य भी हुआ है। जिस कोष के लिए श्राज कई वर्ष से आयुर्वेदिक - वायु-मंडल अपनी गुआर से समस्त संसार को गुञ्जायमान कर रहा था, उसी वायु-मंडल की प्रेरणा से हमारे मित्रों ( बाबू रामजीतसिंह व बाबू दलजीतसिंह ) को प्रेरणा हुई और वे उससे प्रेरित होकर इस कमी की पूर्ति के लिए तल्लीन होगए और जनता की इच्छा के अनुसार इस श्रायुर्वेदीय-कोष को रच डाला; और मेरे समक्ष, जो ऐसे ही कोष के प्रकाशन के लिए सदैव प्रयत्नशील था, उपस्थित किया । इस कोष को जो देखा तो जनता के अनुरूप ही पाया । फिर क्या था । समय की प्रेरणा से उन्मत्त होकर, अपनी शक्ति का विचार किए बिना मालूम किस आन्तरिक इच्छाशक्ति के बल इस अपार भार को अपने निर्बल कन्धों पर लेकर उद्वहन करने को तैयार होगया । उसी के फल स्वरूप उसका यह पहिला भाग जनता के समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ । अब श्राप देखें कि इस कोष में सम्पूर्ण ज्ञातव्य विषय हैं वा नहीं ? जहाँ तक अपना विचार था और समयकी प्रेरणा जैसी थी, कि बिना परिश्रम किए ही थोड़ा पढ़ा लिखा या एक, भाषाका विद्वान भी सभी श्रायुर्वेदीय संसार की बातें जो पृथक् पृथक् पैथियों (यथा- एलोपैथी डॉक्टरी यूनानी, श्रायुर्वेदीय) में भरी पड़ी हैं, जान जाएँ और जिनमें हमारे वैद्य दूसरी पैथी के मर्मज्ञ के सामने शिर नीचा कर जाते थे; वह दूर हो जाय । वह इस कोष से दूर होगई या नहीं ? विद्वान जन लिखने की दया करें । इस वृहत्काय कोष के प्रकाशित करने के विषय में हमारे कुछ भ्रातृगणों के प्रश्न हो ये कि श्रायुर्वेद-शास्त्र में कई निघण्टु इस समय भी वर्तमान थे, फिर इस नवीन बृहत्काय कोप के निर्माण करने की क्या आवश्यकता थी ? इसके उत्तर में ही प्रकाशक का निवेदन है कि अवश्य कई निघण्टु हैं; परन्तु आप लोगों ने कभी भी उनकी तुलना नहीं की। यदि आप तुलना कर लेते तो उपयुक्त बात कदापि न कहते । कुछ समय से हमारे यहाँ वैद्य-समाज में प्रमाद आगया और उन्होने — " हेतुर्लिगौषध ज्ञानं स्वस्थातुर परायणम् । त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यमायुर्वेद मनु शुश्रुमः ॥ इन सूत्रों को ही भुला दिया और रोग निश्चय तथा उसमें दोष कल्पना और उस अवस्था के लिए औषध विवेचन करना ही छोड़ दिया । सिर्फ रोग का नाम और उसके लिये उस रोग की चिकित्सा में वर्णित कोई सी भी औषध बना कर दे देना ही वैद्यक व्यवसाथ समझ लिया था | यह धारणा बढ़ते २ यहाँ तक बढ़ी कि जिसका अन्त अब तक भी नहीं हुआ। इसी प्रवाह में लिखे हुए चिकित्सा - ग्रंथ तथा निघण्टु (जो केवल मात्र पांडित्य प्रकाश के लिए ही रचे गए थे) ग्रंथों पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। यह दशा जब इधर भारतवर्ष में हो रही थी तब यूनानी लोग " हेतुलिं गोपधज्ञानम्" इस सूत्र पर विचार करते हुए रोगविज्ञान और औषधनिज्ञान को पूर्ण करने में अधिक परिश्रम करने लग गए। उसका प्रतिफल यह हुआ कि आयुर्वेदीय For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mmam ********************************** मालिक श्रीहरिहर औषधालयचिकित्सक पं० विश्वेश्वरदयालु वैद्यराज बरालोकपुर इटावा यू० पी० XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX *XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX सादर समर्पणम् जगजननि जगदम्बे किन शब्दों से तुम्हारी पूजा करे' ! किन शब्दों से तुम्हें धन्यवाद दे। मातः ! तुमने , इस अपने अकिंचन पुत्र को किस चाव से इतना अपनाया है कि जो इच्छा स्वप्न में भी - इसने की तुमने वही पूर्ति कर इसे सुखी किया । इसी के उपलक्ष में यह तुच्छ भेंट तम्हारे चरणों में समर्पित है। इसे अपनाने की दया करना और ऐसी ही कृपा करना कि जिससे यह आयुर्वेद का उद्धार करता हुआ अपना नाम अमर करने में समर्थ हो। समर्पक: तुम्हारा स्नेहा पुत्र विश्वेश्वर XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX********* AN For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पणम् TIPOLOGggg UPANPINE FILIPPINSYPSOTgTp आयुर्वेदमार्तण्ड श्री १०८ शामी लीरामाचार्य जी प्रधानाध्यापक सं० विद्यालय जयपुर अयि गुरुवर्य ! पापकी दर से जो कुछ ज्ञान प्राप्त कर पायर्वेदोद्धार के लिए जो कुछ प्रगति हुई डा है उसका श्रेय आपको हो है । अतः यह कोष आपको इच्छानुरूप ही संकलिन किया डा A हुआ प्रकाशित कर, चरणों में समर्पित करने का साहस किया है, कृपया स्वीकार कर ( लीजिये। विश्वेश्वरः For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा को अपने चमत्कारों से बहुत कुछ दवा डाला। इसके बाद एलोपैथी का सितारा चमका । उन्होंने यूनानियों से भी अधिक गवेषणा की और आयुर्वेदीय चिकित्सा को बिलकुल ही दबाडाला । इस समय जब सज्ञ व द्या ने अपनी अवनति पर विचार करना प्रारम्भ किया तो उनको अपने रोगविज्ञान (निदान) पर ओर निघण्टु ( औषधि-विज्ञान ) पर नज़र डालनी पड़ी, कारण इनके बिना चिकित्सक एक पग भी आगे नहीं बढ़ा सकता । अस्तु तुलनात्मक विवेचन करने पर अांखें खुली और ज्ञात हुआ कि हमतो प्रथम ही अपना मार्ग रुद्र कर चुके हैं तब होश पाया कि हमें अपनी कमी कैसे पूर्ण करनी चाहिए। क्या २ कमी और क्या २ अनर्थ हमारे निघण्टु श्री में है दिग्दर्शनार्थ हम नीचे देते हैं । यथा "रास्नास्तुत्रिविधा प्रोक्ता मूलं पत्रं तृणं तथा" इस प्रकार रास्ना तीन तरह की बता कर ऐसा भ्रम में डाला गया है कि कभी भी यह जटिल समस्या तय न हो । इसी तरह कंकुष्ट, रसक श्रादि पर भी विवाद है। अब देखिए प्रायः नित्यप्रति कार्य में श्राने वाली वस्तुओं के विषय में। धान्यकं तु वरं स्निग्धमवृष्यं मूत्रले लघु । तिक्तं कटष्ण वीयं च दीपनं पाचनं स्मृतम् ॥ भाव० ॥ धनियाँ स्निग्ध, अवृष्य, मूत्रल, हलका, तिक, कटु, उष्णवीर्य वाला दीपन और पाचन है । परन्तु, धान्यकं मधुरं शीतं कषायं पित्त नाशनम् । राजनि० । राजनिघण्टकार धनिये को मीठा,शीतल,कषैला पित्तनाशक मानते हैं। भावप्रकाशकार धनिये को पित्तकारक विशेष मानते हैं और राजनिघण्टुकार ठंडा । अब क्या ठीक है ? वैच किस के मत को स्वीकार कर दे और कैसे सफलता प्राप्त करे ? जब तक यह रद निश्चय हम लोग बैठ कर नहीं कर लेते तब तक हम सफलता से संकड़ों कोस द्र हैं । एक विद्वान वध भी जिसने बड़ी खोज से रोग निश्चय किया हो उसमें दोष विवेचन करके उसकी अंशांश कल्पना भी कर लेने में वह सफल हो गया हो तो भी वह औषध निश्चय में या तो भ्रम में पड़ जायगा कि किसका मत माने । यदि उसने एक के मत को स्वीकार करके भी औषधि दे दी तो वह असफल हुआ और रोग बढ़ कर प्राण नाशक बन गया। इसमें किसका दोष है ? वैद्य का या वैद्यक साहित्य का । अभी तो श्राप यही कहेंगे कि वयक का तो ऐसी भारभूत साहित्य से ही क्या लाभ? मेरी तो धारणा होगई है कि जल्द से जल्द ऐसे साहित्यको नष्ट भ्रष्ट कर देने में ही भलाई है, वर्ना व द्यों को बहुत क्षति का सामना करना पड़ेगा। यूनानी वाले धनिये के विषय में लिखते हैं-धनियां फरहत लाती है, दिल व दिमाग़ को कुव्वत देती है, दिमाग़ पर प्रवरे चढ़ने को रोकती है, ख़फ़्कान व वसवास ( वहम ) को मुफीद, मेदे को कव्वत देती है, दस्तों को बन्द करती है, जरियान मनी को लाभ देती है, नींद लाती है, ताज़ी धनियां रद्दी माद्दे को पकाती है और सारा को तस्कीन करती है। इसकी कुल्ली मुंह के जोश, और गले के दर्द को नफ्रा करती है । अक्सर दिमाग़ी बीमारियो को ना करती है। मात्रा-६ मा0 से १ तोला तक । गैर समी अर्थात् विष नहीं है। कहिए यूनानियों को तस्वीससे क्या विशेष लाभ प्रापको नहीं हो सकता | इसी प्रकार एलोपैथी का वर्णन करके फिर अपना मत निश्चय कर दिया जाय तो क्या चिकित्सकों को सुलभता नहीं हो जायगी? इस कोष में जहाँ तक था सभी साहित्यों से लेकर भर दिया और उसका तुलनात्मक विवेचन कर अपना मत प्रकट कर विषय को साफ कर देने में कोई कसर हो नहीं उठा रक्खी और निघण्टु को 'निघंटना बिना वैद्यो वाणी व्याकरणं बिना' इस कहावत के अनुसार ही इसको ऐसा बनवाया गया कि प्रत्येक वैध का कार्य इसके बिना यथेच्छ सिद्धही न हो सके । विशेष विशेषताए इस कोषके लेखक ने स्वयं अपनी भूमिका में लिख दी हैं, जिनका बताना हमारे लिए केवल मात्र पुनरुक्रि करना ही होगा | अतः हम उस पर मौनावलम्बन करके आगे चलते हैं। आपको यदि अभिप्रेत हो तो 'लेखक के दो शब्दों को पढ़ने की उदारता कीजिए। । यही नहीं कि सिर्फ धनिएं पर ही ऐसा लिखा है। नहीं नहीं प्रायःसभी वनस्पतियों पर ही यही झगड़ा डाला गया है । इसके दो ही कारण हमारी अल्प मति में पाते हैं, -पद्य रचना है, पद्य रचना करते समय पधको पूरा For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ग ] करने के लिए मनमाने शब्दो' को रख देना और ग्रन्थ पूरा करके नाम कमाना ही है। क्योंकि 'निर'कुशा कवयः' कविनिर कुश होते हैं । यह बात अन्य विषय के कवियों के लिए लागू भी हो सकती है; परन्तु अायुर्वेद जैसे जुम्मेदारी के साहित्य पर यह निरंकुशता अाज कितना बुरा प्रभाव डालती हुई हमारे अधःपतनका कारण हुई है यह किसी भी सहृदय से छिपा नहीं है। प्रत्येक आयुर्वेदीय साहित्य पर विद्वानों की सम्मति का अंकुश होना चाहिए और वह साहित्य तभी प्रकाश पा सकता है। जब उसका निरीक्षण विद्वानों द्वारा होकर अाज्ञा प्राप्त करली जाय । मनगढंत अायुर्वेदीय साहित्य से आयुर्वेद का नाश होना संभव है । और भी देखिए पलाण्डुः कफन्नाति पित्तलः । भाव० । पलाण्डुः कफ पित्त हर लघुः । राज० नि० । तगरद्वयमुणं स्यात् । भावः । तगरंशातलं तिक्तम् ॥ रा०नि० ॥ त्वक शुक्रता। भा० । त्वचं शुक्रशमनम् । रा०नि०। कितना अनर्थकारी विरोध है। यही विरोध देख हमने इस ग्रंथ के प्रकाशनका भार अपने निर्बल कंधो • पर लिया है। आशा है हमारे वैद्य बन्धु हमें इसमें मदद देंगे और जहाँ जहाँ हमारा स्खलन हुआ हो अपनी बुद्धि के त करें ताकि संशोधित हो सके और भावी संतानों के हित साधन में यह एक हो सके । . यदि इस ग्रंथ से कुछ भी लाभ पाठको को होगा तो हम अपने व्यय को सार्थक समझो। दूसरे प्रोपधि मात्रा, किस वनस्पति का कौन सा भाग प्रयुक्त किया जाना चाहिए, यदि दी हुई औषध अवगुण करती मालूम हो तो उसका दर्पन कौन सी औषध को देकर शीघ्र ही होने वाली हानि से रोगी को बचा लिया जाय। . इसके सिवाय श्रायुर्वेद में केवल ४०० के करीब और युनानी ग्रंथों में ६०० के करीब वनस्पतियों का वर्णन मिलता है और एलोपैथी में करीब २००० ओषधियों का स्फुट वर्णन मिलता है और करीब २०००० अोपधियों के चित्र लिए जा चुके हैं। आपको इस कोष में अब तक की संसार भर की खोजो' का संग्रह मिलेगा जिसे देख आप गद गद् हो जावेंगे। हस कोष में क्या है ? संक्षेपतः इसमें प्रायः सभी विषयों का समावेश किया गया है। इस कोष को पास रखने पर आपको अंग्रेजी (एलोपैथी, यूनानी, आयुर्वेदीय, रोग-निदान, उनकी चिकित्सा, प्रसिद्ध प्रसिद्ध योग, शारीरिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, वानस्पतिक शास्त्र का पूर्ण विवेचन अकारादि क्रम से मिलेगा । अर्थात् जो जो वर्णन आज तक को प्रकाशित पुस्तकों में इतस्ततः था उनका संग्रह एक स्थान पर इस प्रकार से दिया हुआ है कि देखने वाला उस विषय का तत्क्षण विज्ञ हो जाता है अर्थात् उस विषय का अंत ही निकाल बैठता है । इससे आगे उसके लिए कुछ भी ज्ञातव्य शेष नहीं रहता। तीनों पैथियों के शब्दों को और प्रत्येक प्रांतके शब्दों को जो चिकित्सा शास्त्रसे सम्बन्ध रखते थे अकारादि क्रमसे इस प्रकार संग्रह किया है कि, आपको किसी रोग व वनस्पति, पार्थिव,जान्तव, औषधि का नाम मालूम हो तुरन्त उसका नाम निकाल वणन पद तृप्ति प्राप्त कर लेनी पड़ेगी। इतना सब कुछ करने पर भी शाब्दिक महान् सागर को हम पार न कर सके हो यह सम्भव है; इसलिए प्रत्येक प्रांतीय भाषाविज्ञों से प्रार्थना है कि इस कोष में जो भी शब्द श्रापको न मिले उसकी सूचना हमें अवश्य दे ताकि हम उसे अगले संस्करणों में स्थान दे इस कोष को पूर्ण सफल बनाने में समर्थ हो सके । जो कुछ भी अत्युक्कि, जो कुछ भी कमी, जो कुछ भी सुधार और श्रापको इसमें कराना या निकालना हो उसकी सूचना से सूचित करना और अपने अपने इष्ट मित्रों को इस कोष के देखने की सलाह देना ताकि इसका प्रचार बढ़े और शीघ्र ही इसके सम्पूर्ण भाग प्रापको देखने को मिल सकें। यदि श्राप लोगो ने इसके प्रचार में उत्साह से भाग न लिया तो यह अपनी धीमो धीमी चाल से न जाने कितने वर्षों में सम्पूर्ण निकल सके और आपको जैसा इस कोष से लाभ पहुँचना चाहिए न पहुँचे । कारण बिना कोष के सम्पूर्ण हुए सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होनी असम्भव ही है। आशा है कि सभी वैध बन्धु इससे प्रसन्न हो सहाय देंगे। वैद्यों की उन्नति का इच्छुकः प्रकाशकः - चिकित्सक पं० विश्वेश्वरदयालुजी वैद्यराज For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखक के दो शब्द ! SANTO HAMAN गत में जितना भी कार्य होता है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के किसी भी कार्य का होना असम्भव है. पुनः वह मानव बुद्धि द्वारा अवगत हो हो सके अथवा नहीं। यह एक अटल सिद्धान्त है। जो बात सर्व साधारण के लिए कोई मूल्य नहीं रखती वही बात उस महा पुरुष के लिए जिसके द्वारा कोई महान कार्य सम्पादित होने वाला होता है, अत्यन्त महत्व रखती है। परिपक सेव सदैव ही पृथ्वी तल पर टपका करते हैं। परन्तु सामान्य rai मानव हृदय पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ? पर नहीं इसी एक बात ने सर आइज़क न्यूटन को गम्भीर चिन्ता में डाल दिया और उसके अन्वेषक हृदय तल से गुरुत्व अथवा आकर्षण शक्कि ऐसे महान् उपयोगी सिद्धान्त का आविर्भाव हुआ और आज भी बड़े बड़े वैज्ञानिक उस साधु पुरुष के यश के मीत गाते हैं। अाज से लगभग २० वर्ष की बात है कि हमें एक ऐसा योग बनाना था जिसमें "कालाबाला” शब्द प्रयुक्त हुआ था। समझ में नहीं आया "काला बाला" है क्या बला ? और योग का बनाना जरूरी था । अस्तु हमने. उसकी तलाश में संस्कृत तथा हिन्दी श्रादि कई भाषा के प्रायः सभी कोषों को निचोड़ डाला और काशी के तत्कालीन प्रायः सभी आयुर्वेद शास्त्रियों एवं बड़े बड़े प्रौपच-विक्रेताओं से पूछ ताछ की। पर, सफलता ने मिली । और सफलता मिले भी तो क्यों ? उन शब्द महाराष्ट्री भाषा का था ( हिन्दी में सुगन्धवाला एवं उशीर दोनों के लिए प्रयुक्र होता है)। अन्ततः विवश होकर उस औषध के बिना ही, शेष औषधियों के द्वारा योग प्रस्तुत कर उसका प्रयोग कराया गया और उससे सफलता भी मिली। पर हमें संतोप न हुअा। हमने अपने मन में इस बात को की दृढ़ प्रतिज्ञा करली कि हम एक ऐसे आयर्वेदीय-शब्द-कोष का निर्माण करेंगे जिसमें औषधियों के प्रायः सभी भाषा के नाम अकारादि क्रम से दिये गए हों। उसी समय से हमने शब्दों का संकलन प्रारम्भ कर दिया । वाँ विंध्य एवं हिमवर्ती पर्वत शिखरों एव' संघन भयावह वनों की हवा खाई, जंगली मनुप्यों यथा कोल भील श्रादिकों से मिला, विभिन्न प्रान्त के लोगों से बातचीत की और इस प्रकार क्रियात्मक रूप से औषधियों की खोज एवं शास्त्रीय वनों से तुलना कर निश्चित निर्णय प्रतिपादनार्थ यथेष्ट मसाला एकत्रित करने में संलग्न हो गया। उस समय केवल इतना ही विचार था। * पर उस विचार एवं यत्न का जो विकसित रूप अाज अापके सम्मुख है, उस समय इसका स्वप्नाभाष भी न था। परंतु जिस प्रकार एक नन्हा सा बीज मिट्टी, जल तथा वायु के संपर्क से अंकुरित होकर इसने विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है, उसी प्रकार यह छोटा सा विचार उपयत वायमंडल एवं सहायता द्वारा परिपोषित होकर ऐसे महान कार्य रूप में परिणत हुआ है । "कालोबाला" का न मिलना कोई असाधारण बात न थी; परंतु इसी एक विचार से इस कोषकी रचना का सूत्रपात होता है। तभी से अध्यवसाय एवं कठिन परिश्रम के साथ अपना अध्ययन जारी रहा। बीच बीच में विचार विनिमय एवं प्रत्येक विषय के अनुसंधानपूर्वक अनुशीलन तथा क्रियात्मक प्रयोग जन्य अनुभव द्वारा विचार दृढ़ एवं विकसित होते गए। जिसके परिणाम स्व. रूप आज यह दीर्घ काय ग्रन्थरत्न का एक छोटा सा अंश (प्रथम खण्ड) आपके सम्मुख है । इसकी प्रस्तावना उत्कृष्ट विद्वान, वैद्य शिरोमणि, व चोंके प्राचार्य एवं प्रत्यक्ष शारीर जो अनेक श्रायुर्वेदीय कालेजों एवं विद्यापीठ के पाठ्यक्रममें है और शारीर ग्रंथों में संस्कृतमें अपने विषयका एक अनुपम प्रामाणिक ग्रंथ रत्न है, और जिससे शरीर विषयक शब्दों के लिए हमको भी काफी सहायता मिली है के रचयिता महा महोपाध्याय कविराज For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री गणनाथ सेन शर्मा, सरस्वती, विद्यासागर, एम० ए०, एल० एम० एस० ने लिखी है । आपको प्रस्तावना होते हुए यद्यपि हमको कुछ भी लिखने की आवश्यकता न थी, तो भी पाठकों की विशेष जानकारी के लिए हमें यहाँ कुछ लिखना उचित जान पड़ा । अतः इस कोष में पाए हुए विषयों का श्रांशिक परिचय निम्न पंक्तियों के अवलोकन से हो सकेगा। १-इस कोष में रसायन, भौतिक-विज्ञान, जन्तु-शास्त्र तथा वनस्पति-शास्त्र, शरीर-शास्त्र, द्रव्यगुणशास्त्र, पूवच्छेद,शारीर कार्य-विज्ञान,वाइन्द्रिय व्यापार शास्त्र औषध-निर्माण, प्रसूति शास्त्र, स्त्रीरोग,बालरोग, व्यवहारायुर्वेद एवं अगद-तन्त्र,रोग विज्ञान,चिकित्सा तथा विकृति विज्ञान,जीवाणु शास्त्र,शल्य शास्त्र इत्यादि आयुर्वेद विषयक प्राय: सभी आवश्यक संस्कृत, हिंदी, अरबी, फारसी, उर्दू तथा हिंदी में प्रचलित अंगरेजीके शब्द और प्राणिज,वानस्पतिक, रासायनिक तथा खनिज द्रव्यों के देशी विदेशी एवं स्थानिक व प्रांतीय आदि लगभग सवा सौ भाषा के पर्याय ब्युत्पत्ति एवं व्याख्या सहित अकारादि क्रम से पाए हैं । क्रमागत प्रत्येक शब्द का उच्चारण रोमन में तथा उसका निश्चित अँगरेजी वा लेटिन पर्याय अंगरेजी लिपि में दिया गया है, जिसमें केवल अँगरेज़ी भाषा भाषी पाठक भी इससे लाभ उठा सकें । पुनः उन शब्द के जितने भी अर्थ होते हैं, उनको नम्बरवार साफ़ साफ़ लिख दिया गया है। और उस शब्द को जिसके सामने उसकी विस्तृत व्याख्या करनी है, बड़े अक्षरों में रक्खा गया है और व्याख्या की जाने वाले शब्द के भीतर उसके समग्र भाषा के पर्यायों को भी एकत्रित कर दिया गया है। २-औषधों के प्राय: सभी भाषा के पर्याय अकारादि क्रममें मय अपने मुख्य नाम एवं अँगरेज़ी वा लेटिन पर्याय के साथ आए हैं, किन्तु उनका विस्तृत विवेचन मुख्य नाम के सामने हुआ है। मुख्य नाम से हमारा अभिप्राय (1) श्रौषध के उस नाम से है जिससे प्रायः वह सभी स्थानों में विख्यात है अथवा उसका शास्त्रीय नाम, (२) जिससे उसे पर्वतीय वा अरण्यवासी लोग जानते हैं और (३) वह जिससे किसी स्थान विशेष के मनुष्य परिचित हैं। मुख्य संज्ञानों की चुनाव में उत्तरोत्तर नाम अप्रधान माने गए हैं अर्थात् शाखीय व व्यापक संज्ञात्रों से प्रारण्य वा पर्वतीय पुनः स्थानिक संज्ञाएँ अप्रधान मानी गई हैं। यह तो हुई मारतीय औषधों की बात । इसके अतिरिक वे प्रौषध जो एतद्देशीय लोगों को अज्ञात हैं और उनका ज्ञान एवं प्रचार विदेशियों द्वारा हुआ है, उनका तथा विदेशी औषधों का वर्णन उन्हीं उन्हीं की प्रधान संज्ञाओं के सामने किया गया है। औषध वर्शन में प्रत्येक मुख्य नाम के सामने सर्व प्रथम उसके प्रायः सभी भाषा के पर्यायों को एकत्रित कर दिया गया है। पर्यायो' के देने में उनके लीक होने का विशेष ध्यान रक्खा गया है। विस्तृत अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुसंधान के पश्चात् ही कोई पर्याय निश्चित किया गया है। इस सम्बन्ध में अत्यन्त खोजपूर्ण एवं संदेह परिहारक टिप्पणियाँ मी दी गई हैं । इतने विस्तृत पर्यायों की सूची भी शायद ही किसी ग्रंथ में उपलब्ध हो। पुनः यदि वह औषध वानस्पतिक वा प्राणिज है तो उसका प्राकृतिक वर्ग दिया गया है। यदि वह औषध ब्रिटिश फार्माकोपीमा वा निघण्टु में ऑफिशल वा नौट ऑफिशल है तो उसे लिख दिया गया है एवं उसके रासायनिक होने की दशा में उसका रासायनिक सूत्र दिया गया है । इसके पश्चात् प्रत्येक औषध का उत्पत्ति स्थान वा उद्भवस्थान दिया गया है। फिर संज्ञा-निर्णायक टिप्पणी के अन्तर्गत उसके विभिन्न भाषा के प यो पर अालोचनात्मक विचार प्रगट किए गए एवं संदिग्ध औषधों के निश्चीकरण का काफी प्रयत्न तथा मिथ्या विचारों का खण्डन किया गया है । मुख्य मुख्य संज्ञाओं की व्युत्पत्ति दी गई है और तविषयक विलक्षण बातो' एवम् उनके भेदों का स्पष्टीकरण किया गया है। पुनः इतिहास शीर्षक के अन्तर्गत यह व्यक्त किया गया है कि उन औपध सब प्रथम कब और कहाँ प्रयोग में लाई गई । इसके अन्तर्गत गवेषणापूर्ण नोट लिखे गए हैं, जिसके द्वारा प्राचीन अर्वाचीन वैद्यों के पारस्परिक शंकाओं का निवारण होता है। For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra AAA www.kobatirth.org AAAA श्रायुर्वेदीय- कोपकारद्वय - बाबू रामजीतसिंहजी वैद्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाबू दलजीत सिंहजो वेद्य ( रायपुरी, चुनार, यू०पी० ) For Private and Personal Use Only LA A AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAANANAAAAA AAAAAAS Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 紫去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去去 米 黎去去去去去去去去去去去去去去去去去去去芸芸芸芸类芸芸芸芸父类类委类类类美类类枣类类类类芸芸芸芸芸去去去去, 苏去去去去去去去去去去去芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸芸么类类美类美类美类美类美类美类美类达类的 डॉक्टर मुहम्मदशफी ( चुनार ) बर्गे दरख्ता सब्ज़ दर नज़रे होशियार । हर वर्के दफारेस्त म रफ़ने किर्दगार ॥ ( 有) सुख्न के तलबगार हैं अक्लमंद, सुखन से है नाम निकोयाँ बलंद । सुखन की करें कद्र मर्दाने कार, सुरून नाम उनका रखे बरकरार ॥ (可可) 然 YYYY777777777777YYYYY7777 For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [व] फिर प्रत्येक औषध का वानस्पतिक व रासायनिक वर्णन दिया गया है जो हिंदी में एक विल्कुल नवीन विषय है । पुनः रासायनिक संगठन ( विश्लेषण ), प्रयोगांश, परीक्षा, मिश्रण, विलेयता, संयोग-विरुद्ध, शक्ति, गुरुत्व, प्रकृति, प्रतिनिधि, हानिकारक और दर्पघ्न इत्यादि का श्रावश्यकतानुसार यथास्थान वर्णन किया गया है। पुनः विपोपविष एवम् खनिज की श्रायुर्वेदीय तथा यूनानी मतानुसार शुद्धि एवम् खनिज व धातुओं के भस्मीकरण के परीक्षित एवम् शास्त्रीय नियमों का वर्णन किया गया है । फिर औषध निर्माण तथा मात्रा दी गई है 1 श्रौषध निर्माण में प्रथम श्रमिश्रित फिर मिश्रित श्रायुर्वेदीय, युनानी श्रौषध तथा डॉक्टरी के ऑफिशल योग ( जिसमें प्रत्येक औषध की निर्माण विधि है ) दिए हैं। तत्पश्चात् नाट श्रीफ़िशल योग जिसमें उन औषध से बनाई हुई यूरोप अमरीका की लाभप्रद प्रायः पेटेण्ट औषध का उनके संक्षिप्त इतिहास लक्षण एवं गुणधर्म तथा प्रयोग का वर्णन है, दिया गया है । तदनन्तर गुणधर्म तथा प्रयोग शीर्षक के अन्तर्गत श्रायुर्वेदीय मत से धन्वन्तरीय निवण्टु से लेकर श्राज तक के सभी निघण्टुओं के गुणधर्म इस प्रकार एकत्रित कर दिए गए हैं। जिसमें विषय श्रावश्यकता से अधिक न होने पाए और साथ ही कोई बात छूटे भी नहीं । फिर चरक से लेकर श्राज पर्यन्त के आयुर्वेदीय चिकित्सा शास्त्रों में जहाँ जहाँ उक्त औषध का प्रयोग हुआ है, उसको यथा क्रम सप्रमाण एकत्र संकलित कर दिया गया है, पुनः उन पर अपना वक्तव्य लिखकर बाद में यूनानी मत से प्रायः उनके सभी प्रमाणिक ग्रंथों से उक्त श्रौषध विषयक गुणधर्म तथा प्रयोग को सरल हिंदी में अनूदित कर प्रमाण सहित संगृहीत कर दिया गया है । किसी किसी औषध के पञ्चांग के प्रयोग का विशद विवेचन किया गया है । और यदि उसके किसी श्रंग से किसी धातूपधातु वा रत्नोपरत्न की भस्म प्रस्तुत होती है तो उसके भस्मीकरण की विधि, मात्रा, अनुपान एवं गुणप्रयोग आदि भी दिए गए हैं। फिर डॉक्टरी मतानुसार उक्त औषध का विस्तृत श्रावयविक वाह्यान्तर प्रभाव तथा प्रयोग अर्थात् उक्त औषध का कितनी मात्रा में किस किस शरीरावयव पर क्या क्या प्रभाव होता है, विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। यदि उसका श्रन्तःक्षेप होता है तो उसकी मात्रा एवं उपयोग विधि का भी उल्लेख किया गया है । औषध के गुणधर्म वर्णन के पश्चात् योग-निर्माण-विधि विषयक एवं किसी किसी औषध के सम्बन्ध में आवश्यक आदेश दिए गए हैं। सैन्द्रियक तथा निरैन्द्रियक विषोपविष द्वारा विषालता के लक्षण एवं तत्शामक उपायों तथा श्रगद का विशद वर्णन किया गया है । अन्त में उक औषध के दो चार परीक्षित योग लिख दिए गए हैं । लगभग २५०० वनस्पति प्राणिवर्ग की औषधें का यह केवल शब्द-कोष इस प्रकार इसमें आज कल की ज्ञात अज्ञात एवम् स्वानुसंधानित देशी विदेशी प्रायः सभी खनिज एवम् रासायनिक तथा चिकित्सा कार्य में श्राने वाली प्रायः सभी विशद वर्णन और लगभग एक सहस्र औषधियों का संक्षिप्त वर्णन है । इस विचार से ही नहीं, श्रपितु एक प्रामाणिक एवं अभूतपूर्वं निघण्टु भी है । वर्णन इस प्रकार का है कि इससे श्रायुर्वेद विद्यार्थी, पंडित, हकीम तथा डॉक्टर एवम् सर्व साधारण जनता भली प्रकार लाभान्वित हो सकती है। संक्षेप में इसको रखते हुए फिर अन्य किसी भी निघण्टु की श्रावश्यकता ही नहीं रहती | वनस्पतियों के स्वयं लिए हुए छाया चित्र भी तय्यार किए जा और इसी क्रम से इस ग्रंथ के अंतिम खंड में प्रकाशित किए जाएँगे। जितनी श्रोषधियों का वर्णन इस ग्रंथ में आया है, प्रायः उन सभी के छाया चित्र उक्त खंड में होंगे । इसमें प्राय: औषधि के नामकरण हेतु उनके पर्यायवाची शब्दों के एकीकरण, उनके ऐतिहासिक अनुसंधान तथा स्वरूप परिचय विषयक मत वैभिन्नता के निराकरण एवम् सन्दिग्ध श्रौषधोंके निश्चीकरण के सम्बन्ध में जो हमने गवेषणात्मक एवं अनुसंधान पूर्ण नोट लिखे हैं, उनके अवलोकन करने से हमारे विस्तृत अध्ययन एवं कठिन श्रम तथा अध्यवसाय का प्रांशिक निदर्शन हो सकेगा । ( इतना होते हुए भी किसी विषय में यदि For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ छ ] किसी महान भाव का हमारे साथ मत भेद हो तो वे उसे हमें सूचित करने की अवश्य दया करें जिसमें उस पर हम लोग पुनः विचार कर अपना अन्तिम मत स्थिर कर सकें। इस प्रकार गवेपणा-सिद्ध परामर्श एवम् सहयोगिता द्वारा भेषज निणय में एक सर्वमान्य विश्वासनीय निणय सम्पादित हो सकेगा जिससे अायुर्वेद के पुनरुद्धार में काफ़ी सहायता मिलेगी और वैद्यों एवम् आयुर्वेदीय शास्त्रों के पारस्परिक विरोध सर्वथा के लिए मिट जाएँगे। प्रत्येक प्रांत के वैद्य वन्धुश्रो से हमारी कर वद्ध सविनय प्रार्थना है कि वे इस विषय में हमारी निष्कपट एवम् द्वेश शून्य भाव से सहायता करें । इसके लिए हम उनके सदैव आभारी रहेंगे । उन विषयों' के नाम से ही इसमें स्थान दिया जाएगा ।) इसके अतिरिक्त इसमें समग्र श्रायुर्वेदीय तथा अत्युपयोगी यूनानी योगों का वर्णन है और ब्रिटिश फार्माकोपिया ( अंग्रेजी सम्मत-योगशास्त्र ), ब्रिटिश फार्माकोपिया के परिशिष्ट भाग तथा एक्स्ट्रा फार्माकापिया को समस्त मिश्रित अमिश्रित औषधों के विस्तृत वर्णन के सिवा इसमें भारत, यूर तथा अमरीका के समस्त प्रशस्त एवम् उपयोगी पेटेण्ट श्रोषधों को भी वर्णन है। ३-प्रायुर्वेद में आए हुए सभी रोगों का यूनानी तथा एलोपैथिक रोगों से मिलान कर उनके ठीक अरबी फारसी तथा अंग्रेज़ो प्रभति के पर्याय दिए गए हैं। पुनः इसमें प्रणाली त्रय के अनुसार निदान, पूर्वरूप, रूप, उनका अन्य व्याधियों से तुलना एवं भेद, साध्यासाध्यता, शास्त्रीय एवं अनुभून चिकित्सा, मिश्रित व अमिश्रित औषध, पथ्यापथ्य इत्यादि चिकित्सा विषयक सभी ज्ञातव्य श्रावश्यक बातों का प्रामाणिक विशद वर्णन है। ___ इसके अतिरिक जिन व्याधियों का वर्णन आयुर्वेद में नहीं है अथवा सूत्र रूप में है, उसका भी सविस्तार वर्णन किया गया है अधीन आयुर्वेद में न पार हुए और यूनानो तथा डॉक्टरी ग्रंथों में वर्णित प्रायः सभी श्रावश्यक रोगों का वर्णन पाठको के लाभार्थ कर दिया गया है। अस्तु इसके रहते हुए किसी भी युनानी एव' डॉक्टरी चिकित्सा ग्रंथ की आवश्यकता ही नहीं रह जातो और इस विचार से इसे रोग-विज्ञान एवम् चिकित्सा शास्त्र कहना यथार्थ होगा। ___ इसमें सहस्रों आयुर्वेदीय युनानी तथा डोक्टरी के हर विषय के पारिभाषिक शब्द और समान व्याधियों के पारस्परिक भेदों ( लक्षण भेद, अवस्था भेद, स्थान भेद, नामभेद, दोप भेद एवम् समय भेद आदि) की भो व्याख्या की गई है। __ उपयुक्त व्याधि भेद के अतिरिक्त कतिपय रोग के सम्बन्ध में यदि अमुक विद्वानों में मत भेद है तो उसका भी विवेचन किया है। इसी प्रकार जिस व्याधि वा परिभाषा के सम्बन्ध में प्राचीन, अर्वाचीन चिकित्सकों में मत भेद है उसको भी स्पष्ट कर दिया गया है। ___अखिल रोगों के आयुर्वेदीय, युनानी तथा डाक्टरी संज्ञानों एवम् अायुर्वेद विषयक शेष अन्य परिभाषाओं और कतिपय प्रणाली त्रय के सिद्धान्तों का ऐक्य स्थापित करना अत्यावश्यक एवं अत्यंत कठिन कार्य है। पयोगिता एवं साथ ही कठिनाइयों का अनुमान करसकता है । हम चिरकाल एवं वर्षों के कठिन उद्योग एवं अध्यवसाययुक्त अध्ययन व अनुशीलन तथा अनुसंधान के पश्चात् इस कार्य को सुचारू रूप से सम्मादित करपाए हैं। अस्तु कई सहल आयर्वेदीय, युनानी तथा डॉक्टरी परिभाषाओं का परस्पर यथार्थ ऐक्य स्थापित हो गया है । सर्व प्रथम तो विभिन्न व्याधि विषयक संज्ञाओं का ही ऐक्य स्थापन करना दुःसाध्य है। किन्तु हमने प्रत्येक रोग के विभिन्न भेदापभेद का मा एक्य दिया है। ४-कतिपय नव्य डॉक्टरी या अमरीकीय औषधि एवं परिभाषा के लिए जो नवीन अायुर्वेदीय, अरबी, फारसी तथा उर्दू संज्ञाएँ स्थिर की गई हैं, वे सब फिलोला जी (शब्द रचना ) के नियमों पर अवलबित हैं। अस्तु प्रत्येक नवीन संज्ञा की रचना करते हुए मूल संज्ञा का विशेष ध्यान रखा गया है जो समग्र साहित्यिक भाषाओं में प्रचलित है। For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस प्रकार डॉक्टरी में किसी किसी ओषधि-सत्व का नाम उस उस ओषधि के मूल नाम के सम्बन्ध से रक्खा गया है, उसी प्रकार अोपधि-सत्वों के आयुर्वेदीय तथा तिब्बी संज्ञा-निर्माण में भी उसी खूबी को ध्यान में रख कर किया गया है। ५-विरोधी सिद्धान्त-इस ग्रंथ में प्राचीन चिकित्सा-शास्त्र अर्थात् आयुर्वेदीय तथा युनानी और अर्वाचीन चिकि सा शास्त्र अर्थात् डॉक्टरी के लगभग समग्र विरोधी सिद्धान्तों पर तर्कयुक्त वैज्ञानिक एवं न्यायसंगत मा प्रदान किया गया है और उनको अत्यन्त अनुसन्धान पूर्वक एवं विस्तार से लिखा गया है। पासा है इसले वैद्य, हकीम तथा डाक्टरों के पारस्परिक विरोध का बहुतांश में निराकरण होगा, और ३ परसर एक दूसरे की प्रतिष्ठा और प्रेम भाजन बनेंगे। हमने उन समस्त विरोधी सिद्धान्तों को यथाशक्य अत्यन्त गवेषणा के साथ लिखा है। ६-इतिहास - इसमें ब्रह्मा एवं धन्वन्तरि भगवान् से लेकर आज पर्यन्त प्रायः सभी प्रमुख आयुर्वेदीय, चीनी, बाबिली, मिश्री, युनानी, अरबी और यूरूपीय चिकित्सकों को खोजपूर्ण जीवनी लिखी है । ७-विभिन्न भाषाओं का कैटलॉग-भिन्न भिन्न भाषा के शब्दों को नागरी लिपि द्वारा शुद्ध रूप में प्रगट काने के लिए एक वृहन कैटलाग तैयार किया गया था, किन्तु टाइप के अभाव के कारण उसे यथेष्ट रूप में प्रकाशित न किया जा सका | उसका एक छोटा सा अंश जिसमें तीन भाषा के टाइपों का संक्षिप्त परिचय है, "वर्ण-वोधिनी तालिका" नाम से इस पुस्तक के साथ लगाया गया है। उपय' संक्षिप्त परिचय मात्र का अवलोकन कर पाठकों को वर्तमान ग्रंथ की विशालता का अनुभव तो अवश्य ही हो गया होगा। अब प्रश्न होता है कि इतने भावों से परिपूर्ण ऐसे विशद ग्रंथ का "अायुर्वेदीय कोष" जैसा लघु नाम क्यों रक्खा गया? उत्तर में केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि आयुर्वेद शब्द का जो संकुचित अर्थ आज कल प्रायः लोग लेते हैं, उतने संकुचित अर्थों में उक्त शब्द का प्रयोग किया जाना हमें अभीष्ट नहीं। हम तो इसे उसी ब्यापक अर्थ में प्रयुक्त करना उचित समझते हैं, जिसमें हमारे ऋषि पुरुषों एवं श्रायुर्वेदिक पंडितों ने आज से कई सहत्र वर्ष पूरा किया है । अतु, सुवुन महाराज इसकी निरुकि इस प्रकार लिखते हैं:श्रायुरस्मिन् विद्यते, अनेन वा श्रायुर्विन्दतोत्यायुर्वेद इति । अथवा (सु० सू०१०) आयुर्हिता हितं व्याधेः निदानं शमनं तथा । विद्यते यत्र विद्वद्भिः स श्रायुर्वेद उच्यते ॥ अथवा हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिता हितम् । मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते ॥ च० सू० ॥ अत्र श्राप हो बताएं कि श्रायु संरक्षणार्थ एवं स्वास्थ्य सम्पादनार्थ कौन सा ऐसा विषय है-फिर चाहे वह प्र युदी य, यस्तो तय ड का हो क्यों न हो-जिसका समावेश अायुर्वेद शब्द के अन्तरगत नहीं होता । प्राय: संरक्षण एवं प्रकृत-साम्य-सम्पादन के प्रायः सभी व्यापक प्राकृतिक नियमों का समावेश प्रायवैद के अन्तर्गत हो सकता है । इसी बात को ध्यान में रख कर इसके अंगरेजी नाम (An Encyclopedical Ayurvedic dictionary ) को कल्पना हुई है। __ अब पाठकों को यह भली प्रकार ज्ञात हो गया होगा कि यह कितना भाव गर्मित शब्द है । यही कारण है कि अनेक अन्य बड़े अाडम्बरपूर्ण शब्दों के होते हुए भी इसीको क्यों पसन्द किया? इतनी विशेषताओं के होते हुए भी इसमें प्रकाशन सम्बन्यो एवं अन्य बहुशः त्रुटियां भी रह गई हैं, जो हमको स्वयं असह्य हो रही हैं। परंतु वर्तमान परिस्थिति में उनका निवारण करना हमारी शकिसे बाहर था। For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [झ ] श्रस्तु उनके लिए हम सहृदय एवं विज्ञ पाठकों के समा प्रार्थी हैं और आशा है कि वे हमें उनसे सूचित करने की विशेष दया करेंगे, जिसमें आगामी संस्करण एवं खंड में उन्हें सुधार दिया जाए । अंत में हम पं० विश्वेश्वरदयालु जी वैद्यराज सम्पादक अनुभूत योगमाला के सदैव कृतज्ञ हैं और हृदय से धन्यवाद देते हैं जिन्होंने इस महान् कार्य में हमारे हाथ बटाने में अदम्य उत्साह एवं लोक सेवा का परिचय दिया है । यह आप ही ऐसे देश सेवी एवं महत्वाकांक्षी वीर पुरुष का काम है, जिन्होने लाभालाभ वा सफलता असफलता का अंश मात्र भी विचार न करते हुए निर्भय होकर अपने को कार्यक्षेत्र में डाल दिया | श्रतः परम पिता परमात्मा से हम आपका दोर्घायु एवं सफलता प्रदान करने के लिए हृदय से प्रार्थना करते हैं । इसके पश्चात् हम अपने गुरुवर कविकुल भूत पूज्यपाद श्री पं० महादेव मिश्र ( चुनार ) को हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिनके अनुग्रह से यह कोष सफलता प्राप्त कर सका । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपने स्नेही मित्र डॉक्टर मुहम्मद शफ़ी से इस कोष के संकलन में हमको काफी सहायता मिली है। और समय समय पर उचित परामर्श देकर एवं उत्साहवर्द्धन कर इस महान् कार्य के पूर्ण करने में श्रापने जो मेरी सहायता की है उसके लिए हम आपके हृदय से कृतज्ञ हैं । ओर भी जिन जिन ग्रंथ एवं लेखों से तथा और भी किसी से किसी प्रकार की हमको कुछभी सहायता मिली हो, उसके लिए हम उन उनके लेखक महोदयों के हृदय से कृतज्ञ हैं । श्रायुर्वेदीयानुसंधान भवन रायपुरी, चुनार माघ शुक्र वसन्तपञ्चमी सम्वत् ११३० वि० } { बाबूरामजीतसिंहजी वैद्य, बाबूदलजीतसिंहजी वैद्य For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदीय-कोष के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख विद्वानों की सम्मतियाँ । श्रीश्री गौरकृष्ण शरणम् मन्माध्वसम्प्रदायाचार्य दार्शनिकसार्वभौम साहित्य दर्शनाद्या वायं तकरत्न न्यायरत्न गोस्वामि दामोदर शास्त्री, अष्टाङ्गामेडभाजां सनियमकलितादभ्रवस्तुप्रभाव, प्राद्वोधानेकचेष्टाप्रवरिणतहृदयाभिज्ञ शारीरिकाणाम् । यं.ग्यव्युत्पत्तिचुचुर्गगनशरदल व्योमभूमानजुष्टै, र युवदीयकोषः :मदमकृत नोऽकार पूर्वस्थ शब्दैः। अर्थ-अपने अपने गुणों के साथ बहुत सी ओषधियों के प्रभावों को बतलाने में यथोचित यत्न करनेवाले पण्डित और वैद्यकशास्त्र के अष्टाङ्गों का विशेष परिशीलन करनेवाले वैद्यों की योग्यता को प्रकाशित करने वाले दश हजार ढाई सौ अकारादि शब्दों से युक्त श्रायुर्वेदीय कोष ने हमको हर्षान्वित किया। इह किलेटावाप्रान्तस्थबरालोकपुरतः प्रकाशितायुर्वेदीयकोष प्रथमखण्डमकारादिकाशातयक्ष्मान्त सार्द्धशतद्वयाधिक दशसहस्रशब्द ढयमवलोक्य जिशास्वामयाविजनतासन्तोषाग्रह नामतोऽवधाय विनिर्णीय चागदवार चयसध्रीचीनताम परेषामप्यलकर्मीणतां विनिश्चिन्वन् प्रसासद्यमान मानसोऽ द सोधपरिपूर्णतामनन्तगयां जगीश्वरमभ्यर्थयमानो विरमति मुधाविस्तरादितिशम् । चैत्र शुक्ल तृतीयायां, १६६० वैक्रमादे, काश्याम् । अर्थः -- वर्तमान समय में इटावा जिले के प्रसिद्ध बरालोकपुर से प्रकाशित आयुर्वेदीय कोष के अकारादि अज्ञातयक्ष्मान्त दश हजार ढाई सौ शब्दों से सुशोभित प्रथम खण्ड को देखकर और यह समझ कर कि इससे जिज्ञासु रोगियों को संतोष होगा, वैद्य समूह को सहायता मिलेगी, एवं औरों के प्रति इसकी उपयोगिता का निश्चय करता हुआ और प्रसन्न मन से जगदीश्वर के निकट उक्त कोष की निर्विघ्न पूर्णता की प्रार्थना करता हुआ वृथा विस्तार से विरत होता हूँ। श्री चरकाचार्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालयायुर्वेद कालेजाध्यक्ष श्री धर्मदास कविराजः । नूनमिटावाप्रान्तीय बरालोकपुर पत्तनीय श्री विश्वेश्वर दयालु शर्ममुद्रापितः श्री महलजीतसिंह रामजीतसिंहाभ्याम्विनिर्मित संस्कृताधनेक भाषासमलङ्कृतः कोषश्चिकित्सक जनानाम्परमोपकारकोवरीवर्तिमन्येयंसम्प्रतिनिरुपमस्संवृत्त इति प्रमाणयति । पौष शुक्ल १, गुरौ सं० १६६० । For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org व्याकरण साहित्यशास्त्री आयुर्वेदाचार्य भिषगाचार्यभिषरिशरोमणि विद्यावारिधि श्री सत्यनारायण शास्त्री महोदयस्य सम्मतिः कौवेर कोषइव सर्व गिरोद्गृतोयोऽयंत्रसीति भिषजामुपकार कोवै ॥ श्री रामजीत दलजीतपदाभि धाम्याम् । सश्चन्मुदा विरचिता युगमा विहीनः ॥ १ ॥ यश्चामरप्रभृति कोषकृतस्समग्रान् । सद्भावजुष्ट मदनादिकृतीन जस्रम् ॥ भासास्वकेन परिभाव्यचचा च कास्ति । सोऽयंसदा विजयताद्भवतासुकोषः ॥ २ ॥ वरालाकपुरस्थेन, विश्वेश्वरदयालुना । मुद्रापितान्वयं को पो, भिष जामुपकारकः ॥ ३ ॥ इति प्रमाणी कुरुते, सत्यनारायण भिवः । वाराणस्यामगस्तस्य, पत्तनायश्चिकित्सकः ॥ ४॥ पौष शु० १२ गरी श्री सं० १६६० । For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Bhim Chandra Chatterjee, B. A., B. L., B. Sc., M. I. E. E., M. I. E. (India) PATIALA PROFESSOR & Head of the department of Electrical engineering. ENGINEERING COLLEGE, Benares Hindu University. I have gone through some part of Ayurveda-kosha vol. I. by Babu Ramjit Singh ji Vaidya and Babu Daljit Singh ji Vaidya. It seems to be a very laudable undertaking at this opportune moment. The compilors must have taken great pains for collecting the materials. It will be very useful for the hindi speaking public. I wish the compilors would be more intensive rather than extensive and serve the cause of our country. Dated Benares, the 14 th Jan, 1934. Gopinath Kaviraj principal GOVERNMENT SANSKRIT COLLEGE, Benares. I have glanced through the pages of the so called "Ayurvedic kosha" (Vol. I. ). Dictionary of words used in Ayurvedic, Unani and Allopathic systems of medicine, compiled by Vaidyas Ramjita Sinha and Daljita Sinha. From what I have seen of the work it has impressed me as a very valuable and useful production of an encyclopædic character and there is no doubt that the Hindi literature, in fact the general medical literature of India, has been enriched by this publication. The compilors have drawn upon original and standard works,so far as the Ayurvedic section is concerned, and it is hoped that if they keep themselves uptodate in case of the subsequent volumes and have an eye on accuracy and thoroughness they will be rendering a great service to the cause of medical literature and profession in India. The work involves a tremendous amount of labour and is well worthy of generous patronage from the public. 17/1/1934 For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्येक वैद्यों के देखने योग्य पुस्तकें । (१) सिद्धौषधिप्रकाश-सिर की चोटी से ले- (१४) आत्रेय बचनामृत-इस पुस्तक में पुरुष कर पैर की ऐंडी तक के सम्पूर्ण रोगों के अनुभव क्या है, वह नित्य है या अनित्य, पुनर्जन्म, सद्सिद्ध-प्रयोग । मू० १॥ वृत, सदाचार आदि विषयों को अपूर्व पुस्तक है (२) मधुमेह डायावटीज़-मधुमेह रोग पर सम्पूर्ण मू०॥)। विवेचन तथा चिकित्सा वर्णित है । मू० ॥) | (१५ ) पेटेन्ट औषधे और भारतवर्ष-प्रथम (३) स्त्रीरोगचिकित्सा-स्त्री सम्बंधी सम्पूर्ण रोगों भाग-इसमें पेटेन्ट बाजों की दवाइयों के नुस्खों का खुलाशा निदान तथा चिकित्सा | मू० ॥) की पोल खोली गई है। मू० ॥) (४) प्लीहा-प्लीहा नाश जरने को अचूक एवं सुगम (१६) पेटेन्ट औषधे और भारतवर्ष (द्वितीय उपाय लिखे गये हैं। मू०॥) भाग)-इसमें प्रथम भाग की शेष तथा अन्य सब (५) राजयक्ष्मा-ग्वालियर वैद्य सम्मेलन द्वारा पेटेन्ट दवाइयों के योग वर्णित हैं । मू०१)। पास संपादक अनुभूत योगमाला द्वारा लिखित (१७) भारतीय रसायन शास्त्र-सोना चांदी अपने ढंग की अनोखी पुस्तक है । मु०) बनाने की सरल विधियां वर्णित हैं । मू०॥)। (६) दमा ( श्वास )-दमा, दम से जाने वाली (१८) अंत्र वृद्धि-प्राचीन तथा अर्वाचीन स्वानुकहावत को इस पुस्तक ने जड़ से नष्ट कर दिया | भूत योग हैं । मू०।)। । (१६ ) स्नान चिकित्सा--मस्त स्नानों द्वारा (७) अर्श (बवासीर)-सब प्रकार की बवासीर चिकित्सायें वर्णित हैं । मू०१)। और मस्से दूर करने उपाय लिखे हैं । मू० ॥) | (२०) विन्ध्य माहात्म्य-विन्ध्यवासिनी देवी का (E) हरिधारितग्रंथरत्न-समस्त रोगों के सुलभ सम्पूर्ण इतिहास । भू० १॥)। __ योग भाषा टीका सहित हैं । मू० =) ( २१ ) चिकित्सक व्यवहार विज्ञान-विषय (E)वैद्यक शब्द कोष-अकारादि क्रम से संस्कृत | ___ नाम से ही प्रगट है । मू०।)। दवाइयों के नाम सरल दिही भाषामें वर्णित हैं। (२२) श्रीषधि-विज्ञान-पायुर्वेद विद्यार्थियों एवं म्०1) ___ नवीन वैद्यों की उत्तम पुस्तक । मू. १)। (१०) ब्रणोपचार पद्धति-समस्त शरीर के व्रणों ( २३ ) औषधि-गुण धर्म विवेचन (प्रथम एवं घाव, दाद, खाज, अादि २ पर सुन्दर २ श्र. भाग)-पुस्तक का विषय नाम से ही स्पष्ट है चूक प्रयोग । मू०) ___ मू० )। (११) सिद्धप्रयोग प्रथम भाग-'माला' द्वाराजी | (२४) औषधि-गुण धर्म विवेचन ( द्वितीय गत चार वर्षों से प्रयोग सिद्ध ज्ञात हुए हैं, उन्हीं भाग-मू०)। की श्लोक वद्ध भाषा टीका है । मू. १) (२५) दीर्घ-जीवन-गृहस्थियों के काम की अ. (१२) सिद्धप्रयोग (द्वितीय भाग)-इसमें 'माला' ___नोखी पुस्तक है । मू० ॥) मात्र । १६२७ ई. के परीक्षा किए गए योगों का धण न (२६) सर्प विष विज्ञान-समस्त सो की पहिश्लोक बद्ध भाषा टीकामें लिखे गए हैं । मू०॥) चान एव' चिकित्सा है। मू. १)। (१३) यकृत और प्लीहा के रोग-हर एक मतानु (२७) कोकसार-८४ श्रासनों सहित है, इसकी सार निदान तथा सद्यः फलप्रद चिकित्सा वर्णित शानी का अन्य कोई कोकसार नहीं निकला । है। मू. 1) भात्र मू० ॥) मात्र मिलने का पता दी अनुभूत योगमाला आफिस, बरालोकपुर-इटावा (यू०पी०) For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वर्ण क्रम इस कोष में समस्त भाषा के शब्द देवनागरी भाषा की ध्वनि को हिन्दी वणों द्वारा प्रकट करने वर्णमाला के क्रमानुसार रखे गए हैं। अरबी, में कोई अड़चन उपस्थित नहीं होती । अन्य फारसी श्रादि अन्य भाषाओं के एकही वर्ण के भाषा में जो विशेष ध्वनियाँ आई हैं वे या तो समानोच्चारण वाले कई कई वर्ण यथा हिन्दी के एक ही ध्वनि के भेदोपभेद मात्र हैं अथवा वे केवल एक "ज" के स्थान में फारसी के जीम, इतनी आवश्यक नहीं और उनका समावेश अपनी जाल, जे, ज़, जाद, और जो प्रभृति अनेक मूल ध्वनि में हो सकता है। अतः देवनागरी "ज" के लिए क्रम में कोई भेद स्थिर नहीं किया वर्णक्रम में कोई परिवर्तन करना हमें उचित न गया है; वरन् "ज" मान कर ही उन्हें हिन्दी जान पड़ा : हाँ ! जो एक एक वर्ण के स्थान में वर्णक्रम में स्थान दिया गया है । शेष अन्य कई कई वर्ण पाए हैं उन्हें अथवा उनके किसी समस्त बों के लिए भी इसी भाँति समझ लेना विशेष उच्चारण को स्पष्ट करने के लिए कुछ चाहिए। चूँकि देवनागरी वर्णमाला अन्य किसी चिह्न मान लिए गए हैं। जिसके लिए वर्ण (लिपि भी भाषा की वर्णमाला की अपेक्षा अधिक पूर्ण तथा उच्चारण ) निर्णायक सूची का अवलोकन एवं स्वाभाविक है और उसमें इतनी पर्याप्त करिए । वर्णक्रम निम्न है :ध्वनियों का समावेश है, कि अन्य किसी भी अ आ इ ल ४ ए ऐ ई . ग उ ओ घ ऊ औ ङ ऋ अं च ऋ अः छ क ख ज झ ञ। 5 hrE प फ ब व श भ ष म स य क्ष र त्र ल श ह LIC For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्र० अ० अक० आ० अक० कु० गु० तैल श्रग्निमां० श्र० च०, श्र० श्र० ची० अज० श्रजी० श्र० टी० नी० श्र० टी० भ० श्र० टी० भा० श्र० टी० म० अ० टी० २० अ० टी० रा० अ० टी० रामा० श्र० टी० सा० श्र० टी० सुभूति० स्वा० अ० टी० स्वा० (-मी ) अण्ड० अथ०, अथर्व० अ० दर अनु० अनु० (-पा० ) अनं० श्र० य० श्रनं० २० श्रन्द० श्रन्नद्र० ( ० ) शु० श्रप० अप० (-स्मा० ) श्र० पि० अफ० श्रभि० (-न्या० ) ज्व ० www.kobatirth.org संकेत सूची अध्याय अरबी भाषा अक्सीर आज़म श्रम० अक्सीरी कुश्ताजात | श्रमु० सा० गुर्वादि तैल | अरुण०, श्ररु० ६० श्रग्निमांद्य श्र० (रावण) रोचक | अकं० चि० पची दि० अजमेर श्रर्द्धमा जीर्ण अमरटीका नीलकंठ अमरटीका भरत अमरटीका भानुदत्त 99 श्रमि० निघ० मरटीका मथुरेश | श्र०वृ० श्रव० अव्य० अमरटीका रमानाथ श्रमरटीका रायमुकुट श्रमरटीका रामाश्रम अ० श० अमरटीका सारसुन्दरी | श्रश्म० (-री ) 39 अष्टां० सं० श्र० भे० (श्रद्ध० ) अल० अल्पा० अल्फ० श्र० सुभूति स्वामी क्षीर स्वामी श्रण्डमन अथर्ववेद (अथर्वण ) अत्रि० अनेकार्थ वर्ग अनंग रस ग्रन्दलुसी ( Spanish) अन्नद्रवशूल अपभ्रंश असृग्दर श्रा० अनुकरण शब्द श्राप्ते० सं० इं० डि० अ० ह० श्र० (- श्रुति, - ती ) सा० ग्रनुपान अनेकार्थनाम माला श्र० प्र० श्रभिन्यास ज्वर श्राम० वा०, श्रा० वा० श्रामा=तीसा० श्रा० व०, श्राम्र० व० आरो० वि० श्रा० वि० अपस्मार आसा अम्लपित्त आ० सू० अफ़ग़ानी इं० (-न्द्रिय ) इं० For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिनव निघण्टु (भाग १ व २ ) अमरकोष श्रमृतसागर श्ररुणदत्त अर्क प्रकाश (रावणकृत) अर्क प्रकाश चिकित्सा अर्कादिवर्ग श्रर्द्धमागधी श्रद्धविभेद अलसक अल्पार्थक प्रयोग अल्फ़ाज़ ुलू श्रद्वियह. वृद्धि अवध श्रव्यय अष्टांग शरीरम् श्रश्मरी अष्टांग संग्रह अष्टांग हृदय प्रतीसार श्रत्रि संहिता श्रारवीय श्राप्ते संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी श्रायुर्वेद प्रकाश ग्रामवात ग्रामातीसार श्राम्रवर्ग प्रारोज विधान श्रायुर्वेदविज्ञान आसामी श्रापस्तम्भ सूत्र इन्द्रिय स्थान इंग्लिश (ग्ल अंग्रेज़ी ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ख ] इ० इ० इस्रारुल इतिब्बा एन्स० (हि०) मे० मे० एन्सलीज़ (सर विटला) इख्ति. वा० इख़्तियारात बादी मेटीरिया मेडिका इट. इटेली ( रूमी ) भाषा एलादि० एलादिवर्ग इव० इबरानीभाषा प्रोष्ठ रोग इला० श्र. इलाजुल्यमराज औ० सं० औषधि संग्रह (डॉ० वामनगणेश इ० हि० इसरार हिकमत देशाई कृत् महरठी ग्रंथ) ई० इ० ई० इण्डिजनम डग्स ऑफ इण्डिया औ० वि० औषधि विज्ञान (डॉ० गर्ग कृत् ) .. (भार० एन० चोपरा एम०, प.०; एम० डी० कृत्) अं० अँगरेज़ी भाषा इं० वर्ना इण्डियन वर्नाक्युलर क० कर्णाट, कर्णाटक ई० बाजा. (भा० बा० ) इण्डियन बाजार ) कच्छ कच्छी (भारतीय बाजार) कछ. कछार इं. व्यापा० शा०) इंद्रियव्यापार शास्त्र कटिवा. कटिवात इं० व्या० (सम्बन्धी) कण्ठ० मु० रो० कराठगत मुख रोग ई० मे० प्लां० इण्डियन मेडिसिनल प्लांट्स । कना० कनाड़ी ( कर्नल बी० डी० वसुं० कृत् ) कमा० (कु..) क(कु)मायूँ इं० मे मे० इण्डियन मेटीरिया मेडिका कर करनाटकी (डॉ० के० एम० नदकारणी कृत् ) करा० का० कराबादीन कादरी इं० है. गा० इण्डियन हैंडबुक ऑफ गार्डेनिङ्ग करा०शि० कराबादीन शिफ़ाई उत्तरखंड, उत्तरतन्त्रम्, उदरम् करा०सि० कराबादीन सिकन्दरी उड़ि० उड़िया कर्ण० रो. कर्ण रोग उरणा. उणादि कल्प० कल्पस्थान उत्. उत्कल क०व० कपुर वर्ग उ.दं. उपदंश | कां० काण्ड उदयपुर काङ्काय० गु० काङ्कायन गुटी उद० चन्द= उदयचन्द्र दत्त मेटीरिया मेडिका । काठिया० काठियावाड़ उदा०, उ०व० उदावत का० पुराण कालिका पुराण उदाह उदाहरण काम० कामला उन्मा० उन्माद का०र० काम रत्नम् उपसर्ग काश काशमीरी उ०प० भा० (स०) उत्तरी पश्चिमी भारत | काश० रु० को काशरु मूज़ कीमिया (सूबा ) (N. W. P.) का० स० कामसूत्र ( वात्सायन) उभ. उभयलिंग किता० की किताबुल कीमिया उ० वर्मा उत्तरी वर्मा को. उर० ( उ०) उर्दू क्रि० क्रिया उ० रस०व० उपरसवर्ग कि० ० क्रिया अकर्मक उरुस्तम्भ क्रि० प्र० क्रिया प्रयोग ए०व० एक वचन क्रि०वि० क्रिया विशेषण एकार्थक एकार्थवर्ग क्रि० स० क्रिया सकर्मक ए०को एकाक्षर कोषको क्रीव ( नपुसक) लिङ्ग उप० कोंकड़ उ. स्तं. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ग ] कुर्ग कौ० श्र. को भृ ख० चू० • चूर्ण खंड गण कु. (कुम्भ०) का० कुम्भ कामला चम्द०० चन्दनादि तेल कु० टो०, कुसामा० कुसुमावली टीका च०वि० चरक विमान स्थान कु. नफ़ी० कुल्लियात नफ़ीसी च० सं० चरक संहिता कुमा०तं. कुमारतन्त्र चातु० ज्व० चातुर्थक ज्वर कुश्ता . र. कुश्ताजात रहीमी चाँ० चाँदा कुर्ग० (कु०) चि० चिकित्सा स्थान कुश्ता० फ़ो. कुश्ताजात फ़ीरोज़ी चिक० चिकित्सा कलिका कौटिल्य अर्थशास्त्र चि० क्र. क. (-वल्ली) चिकित्सा क्रम कौमार भृत्य कल्पवल्ली को कोकण देश की भाषा ( कोंकड़ी) चिट. चिटगाँव क० क्वचित् अर्थात् इसका प्रयोग बहुत कम | चि० सा० चिकित्सासारः देखने में आता है। चो० चीनी खसिया खुला० न. ख लास तुन्नकाइस छ.शा. छेदनशास्त्र खं० छो० छोटा По то गलगंड छो० ना० छोटा नागपुर ग० जखो० खा० जखीरहे खारिज्मशाही गढ़ जटाधर गढ़वाल जटा० गज०० गज वैद्यक जन्तु.शा० जन्तु शास्त्र ग०नि० गद निग्रह जय०० जयदत्त ग० मा० गण्ड माला जर० जरमनी जय० जयपुर जा. जावा गियासुल्लुग़ात ( हिन्दुस्तानी जापा० फारसी अरबी लोग़त) जापान गु. जावा. जावा देश की भाषा गुटी (-ड़ी) गुदभ्रं० जं० जंगली गुदभ्रंश गुर्ज०, गु० ( गुज०) ज्योतिष गुर्जरी, गुजराती ज्यो० गु०व० ज्वर गुडूच्यादि वर्ग गो० ज्वराति. ज्वरातिसार गोत्रा गोड़. झेलम गोंडल, गोंडाली भेल. गंगा. परि. गंगाधर परिभाषा | ट्रां ई० ट्रांस इण्डस ग्र० टीका ग्रह डल्वण ग्रहणी ग्रो० (यु.) ग्रीक (युनानी) डल्ल० डल्लन मिश्र घो० मे० मे० घोपेज मेटीरिया मेडिका | डि० मे० ए डिक्शनरी ऑफ़ मेडिसिन रिचार्ड क्वैन चनाब एम. डी., एफ. भार० एस० कृत। चक्र० (च)द. चक्रदत्त (चिकित्सा ), डिंगल भाषा चक्रपाणि दत्त द्रव्यगुण डेकन चल्द ० (सं०) चक्रपाणिदत्त कृत संग्रह इ. डॉक्टर डरी गा. गारो गि० लु ज्व० टो ग्रह च० For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त० न. द्राविणी तश० क.० ता० (तामि०) तालु० मु० रो० ता० श० ति० अ० ति. की. तिब्ब० ति० फा० तिरहुत ना० मु० तिर. तु० तर. तृ० तेल(तेल०) ॥ तो तो० तोड़. तो० मो० तर्जुमा नफ़ीसी द्रावि० ने स.नी इल्मुल अद्विय | द्वि० (-रूप०) द्विरूपकोष तरीह कबीर | ध० धन्वन्तरि तामिद | ध०निघ० धन्वन्तरि निघण्टु तालुगतमुखरोग धर० धरणिः तालीत शरीफ़ी धा० (-न्य )व० धान्यवर्ग तिब्बे अकबरी धा०वि०प्र० धातुविद्या प्रकाश तिब्बे कीमियाई ध्व० सं० ध्वजभंग तिब्बत न० ज० नरपतिजयचर्या तिब्बी फार्माकोपिया नाना नानार्थ (१ व २ भा०) ना०३० नाडीव्रण नासिरुल मुलालजीन ना० रो० नासारोग तुरकी भाषा ना०वि० नाड़ी विज्ञान तृष्णा ना० सं० नावनोतक संहिता तैलङ्ग, तेलगु नि० निदान स्थान तैल निदा० निदान अर्द्ध तोला नि० र० निघण्टु रत्नाकरः तोला ( तोलक) ने० १० रो० नेत्र दृष्टिगत रोग तोड़रानन्द ने रा० नेत्ररोग तोह फ़तुल मोमीन ने० व० रो. नेत्र वर्मगत रोग त्रिलिंग ने० शु० रो० नेत्र शुक्रगत रोग त्रिकाण्ड शेष ने० सन्धि रो० नेत्र संधिगत रोग नेपाल थाना डिस्ट्रिक्ट नेपा० न्याय वैद्यक न्या० व० दाखिनी पं० दखिनी बर्मा पञ्जाब (बी) भाषा, ( गुरुमुखी ) पल; परिच्छेद दखिन भारत पटना 'दन्तरोग पट० दन्तगत मुखरोग पर्याय-निर्णायक नोट प०नि० ना० दधिवर्ग प.प. पथ्यापथ्य परिभाषा प्रदीप परमद दाक्षिणात्य हिन्दी प० म० पर्याय दुग्धवर्ग पर्या० दुर्गादासकर बङ्गला मेटी- पहा. पहाड़ी रिया मेडिका पस्तुः, पश्तु अफ़सानी भाषा देखो | पा० पाली भाषा देशज | पा०जी० पानाजीर्ण द्रव्याभिधान | पा० व: पाकावली त्रि० त्रिका त्रिश० था०डि० त्रिशती प० द० ब० द०भा० दन्त. रो. द० मु० रो० द०व० दशक | प०प्र० दा०हि० दु० ५० दुर्गा० मे० मे० देश. द्रव्याभिः For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पि० ज्व० पित्तज्वर ब. क. बन्ध्या कल्पद्रुम पि० व० पिप्पल्यादिवर्ग बैंगलाभापा या बंगाल (-ली) पी०वो० एम० प्रैक्टिश्नर्स वेडमीकम् । वु० खं० बुदेलखंड की बोली पुल्लिंग बु० मु० बुस्तानुल मुफ़ात पुर्तगालीभाषा बु. का० बुर्हानेकानी पुष्पवर्ग वृ० सं० हत्संहिता ( वराह मिहिर माहिता) पुरानी हिन्दी बृ० यो० त. वृहद्योग तरंगिणी पूर्व खंड, पूर्व भाग बेरा०, बे० बेरार,बेलूची पूर्वीय भारत बोखा. वोखारा पूर्वीय तराई बुन्देल० बुदेलखंड पूर्वी हिन्दी ब्रिटि० फा० (बी० पी०) ब्रिटिश फार्माकोपिया पोरबन्दर ब्या० क. व्याज़ कबीर (१, २, ३ भाग) प्र० प्रत्येक, प्रयोग, प्रसारणी भग० भन्दिर प्रत्य प्रत्यय भ० द्विरूप-को. भरतद्विरूप कोष प्रमे० (हः) प्रमेह भ० रमस० भरतकृत रभस प्रयोगरत्न प्रयोगरत्नाकर भल्ला० गुड़ भल्लातक गुड़ प्रयोगा० प्रयोगामृत भा० भाग, भारत, भावप्रकाश प्र० शा० प्रत्यक्ष शारीरम्( म० म० भावप्रकाश पूर्व भाग क० गणनाथसेन विरचित् ) भावप्रकाश प्रस० तं० प्रसूति तंत्र भाभैर० भारत भैषज्य रत्नाकर प्रसू० शा० प्रसूति शास्त्र भावप्रकाश मध्यमाग प्रह प्रहर मा०र० शा० भारतीय रसायन शास्त्र प्रा० प्राकृत भाषा (डॉ. वामन गणेश देशाईकृत महरठी ग्रंथ ) प्ल. | भू० उन्माद० भूतोन्माद फ० व० फलवर्ग | भूटा० भूटानी फा० फारसी भाषा | भूरि० प्र० भूरिप्रयोग फार्माकोग्राफिया इंडिका (डॉ० भेल संहिता वि० डाइमॉक विरचित् ) १, २, ३, भा० भैष० (भै०र०) भैषज्य रत्नावली फार्बी० फाऊज़ हिंदी अंगरेजी कोष भौतिक विज्ञान ( सम्बन्धी) फिरंगी म०, मह. महाराष्ट्र, मोडी, (महरठी) म. (फ्रां० या फ०) फ्रेन्च(रासीसी म० अ० मरव्ज़नुअद्वियह भाषा) (हकीम मीरमुहम्मद हुसेन विरचित) ब० (बहु ) व. बहुवचन म० अक. मरज़नुल अक्सीर २०, व० (बर०) बरमा ( बरमी) भाषा म० अ० डॉ० मरज़ानुल अद्विया डॉक्टरी बम्ब० मध्य खण्ड मरन्जनुल जवाहर या तिब्बी व ब० ज० बह रूल जवाहिर । अरबी वैद्यक कोप) डॉक्टरी लुग़ात बं० से० सं० बंगसेन तंहिता मद० मदरास वि बम्बई म० खं. बरबरी | म० ज० For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- मधुमेह रक्रिका मालाबार र० खं० मदन निव० मदनपाल निघण्टु शरीफ कृत) मधु० मधुमती टीका मेदिनी मधुमे० (म० मे०) मेमो० मेमोरैण्डम शोइंग मनी मनीपूर प्राइसेज एण्ड अदर पार्टीक्युलर्स म० प्र० मध्यप्रदेश ऑफ़ इण्डियन ऐकोनॉमिक्स | म० मु० मरज़नुल मुफत । मेवा० मेवाड़ मय० मयसूर यम यमनी (पू.) मग० मराठी यु०, यू० यूनानी भाषा मल० मलयाली । योग० र०, यो० योग रत्नाकर मला० (मलायम भाषा) मलायीज़ | यो० चि० योगचिन्तामणि मसू० मसूरिका यो० तरं० योगतरंगिणी मह० महराठी | यार. योगरत्नाकर महा० बा० महाबालेश्वर यौ० यौगिक तथा दो वा अधिक शब्दों के पद मा० मापा यो० (नि०) व्या० रो० योनि व्यापत् मा० अक० मादनुल अक्सीर मा०नि० माधव निदान र० श्रा० रसार्णवः मान० श०र० मानव शरीर रहस्य ( १ व २ भाग) रक्ताति. रक्कातिसार माला रसायन खण्डम् मि० मिश्री भाषा र०चं० रस चण्डांशुः मि० ख० मिफ्ताहुल ख़ज़ाइन दर बयान र०चि० रसेन्द्र चिन्तामणिः (ढए ढकनाथ विरचितः) अक्सीर व रसायन (हकीम करीमबरुशकृत) र० त० रसतरंगिणी मिश्र० मिश्रकाध्याय रत्ना० रत्नावली मुग० र०पि० रक्तपित्त मु० र० प्र० सु. रसप्रकाश सुधाकरः मु० अ० मुहीत अअज़म र० मं०, रस० मं० रसमञ्जरी मु० रो० मुखरोग र० मा० रत्नमाला मुङ्गे० मुङ्ग र र० मा० सं० (-ग्रह ) रत्नमाला संग्रह मुनाफा०क० मुनाफ़ा कबीर र० र० रसरत्नाकरः मुन्त० अ० मुन्तरवुल अद्वियह । | र० (स.) र० स० रसरत्न समुच्चयः मुन्त० ला० मुन्तरब्बुल लोग़ात | र० (रसा०) शा० रसायनशास्त्र (Chemistry) मुफ़. ति० मुफ़दात् दर आलम तिब्ब रस० को० रसकौमुदी मुफ० मो० मुफ़र्दात् मोमीन रस०प्र० रसप्रदीप मुफ० सिकं० मुफ्तर्दात् सिकन्दरी रस० रत्न रसरत्नाकर मुहा० मुहाविरे रस.चिं. रसचिन्तामणिः म० कृ० मूत्रकृच्छ, र० सा० रसायनसार: मूत्राघात रसायना० रसायनाधिकार मूत्ररक र० सा० सं० रसेन्द्रसार संग्रह मेची र० सु० रसराजसुन्दरः मेटीरिया मेडिका ( डॉ मोहीदीन रसे० चिन्ता० रसेन्द्र चिन्तामणि मुगली मुर म० घा० म० र० मे० मे० For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ छ ] वि० रा० रावी रूमी विस० र० यो० सा० रसयोगसागर ( श्रीहरिप्रपन्नजीकृत) वा०पि० ज्व० वात पित्त ज्वर रसे० चिं०, रसेन्द्र चि० रसेन्द्रचिन्तामणि वा०र० ( रक्त) वातरक र० सं० रसेन्द्रसार संग्रह (गोपालकृष्णाविरचितः) वा० व्या० वातव्याधि र० सं० क. रससंकेत कलिका विशेष (विशेषण) र० सा० रससारः वि०वि० विकृतिविज्ञान ( ब्याधिमूल-विज्ञान) र० ह. रसहृदयतन्त्रम् वि०, विमा० विमान स्थान वि०, विश्व० विश्व प्रकाश कोष राज राजवल्लभ विज० र०, विर० राजपु० राजपुताना विजय रक्षित राज० य० राजयक्ष्मा (व्याख्या मधुकोष) रा० तरंग राजतरंगिणी वि० ज्वर० विषमज्वर रा० निघ० राज निघण्टु विदग्धाजी० विदग्धाजीण रा० मा० राजमार्तण्डः (श्रीभोजमहाराज विरचितः) विद्र० विधि रिचार्ड रिचार्डसन्स फ़ारसी अरबी अंग्रेज़ी कोष विल० विलम्बिका रिसा०र० इ० रिसाला रफ़ीकुल इतिब्बा | विल. डा० (डी) विलियम डाइमाक (डीमक) रिसा० हि. रिसाला हिकमत विष० तं० विष तन्त्र रुपू० इ० रुमू जुल इतिब्बा विज्ञा० प्र० विज्ञान प्रवेशिका रू० विसूचिका रूसी. रूसी वृ० चि० वृद्धि चिकित्सा वृ० म० वृन्दमाधवः ( वृन्दनिर्मितः ) लिण्ड लिण्डलेज ( डॉ. एफ़) 'वेजिटिबल वृ० र० रा० सु० वृहत् रसराज सुन्दर किङ्गडम्' लु० कि० ___ लुगात किशोरी (फ़ारसी कोष) वृह. सु० वृहत्सुश्रुतम् लुगातुल् अद्वियह वृ० नि०र० लु० ० वृहन्निघण्टु रत्नाकर '७-८ भाग' वै० क. लु० क० लुगाते कबीर ___वैद्यकल्पद्रुमः ( रघुनाथप्रसाद ले०, लेटि० लेटिन ( Latin ) भाषा संगृहीतः) वै० चन्द्रिका वैद्यक चन्द्रिका लेद० लेदक लेप लेपचा वै० जी० वैद्यजोवनम् (लोलिम्बराज संगृहीतम् ) व० वर्ग वै० निघ० वैद्यक निघण्ट वटा०व० वटादि वर्ग वै० मृ० वैद्यामृतम् ( मोरेश्वर विरचितम् ) वन० द. वनौषधि दर्पण ( राजवैद्य श्री विरजा- वै. र. वैद्यरहस्यम् ( विद्यापति स गृहीतम् ) चरण गुप्त काव्यतीर्थ कविभूषण कृत वैद्यविनोद बंगला पुस्तक |) वै० श. वैद्यक-शब्द सिन्धु बम, बम्ब० बम्बई वर्ना वर्नाक्युलर वै० सं० वैद्यक संग्रह व०वि० वनस्पति-विज्ञान (Botany) व्यव० श्रा० व्यवहार आयुर्वेद वा० वाग्भट्ट व्या० व्याकरण वाजी० क. वाजीकरण वं० से. बंगसेनः (वंगसेन संगृहीतः) वा. ज्व० वातज्वर व्य० अव्यय रो० रोग For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंध ब्याक० व्याकरण सन्या० ज्व0 चिo सन्यास घर चिकित्सा व [ण ] शो० व्रण शोधन | सं० प्र० सयुक्र प्रांत | सर्व0 मु० रो० सर्वगत मुखरोग ॥श० अद्ध शराव सर्व० सर्वनाम श० च० शब्द चन्द्रिका सा० साधारण, सान्निपातिक श० चि० शब्द चिन्तामणि सा० को० सारकौमुदी शब्द कल्प शब्द कल्पद्रुम सा0 मुं० सार सुन्दरी श० मा. शब्दमाला सि० सिलोन (लंका) श०र० शब्द रत्नावली सिक्किा सिक्किम श० शा. शल्य शास्त्रीय | सिउ० सिउनी श० प्र० शरह. अस्वाब सि० भे0 म० सिद्धभेषज मणिमाला श० त० वि० शरीरतत्व-विज्ञान (श्रीकृष्णराम गुम्फिता) शा० शारीर स्थान सिम सिमला शा० ध० (शा.) शार्ङ्गधर सिलह० सिलहट शा०नि० भू. शालिग्राम निघण्टु भूषण सि0 यो० सिद्ध योग शा०व० शाकवर्ग सिं० शाव. शारीर अण सिंगा० सिंगाली शा०सं० शाङ्गधर संहिता सिं० भू० सिंह भमि (शार्ङ्गधर विरचिता) सिरि सिरिया ( शामी) शि० रोक शिरोरोग सि0 स्था० सिद्धिस्थान शिरो० वि. शिरोविरेचनम् सु० ब० सुन्दरबन शोपि० शीतपित्त सुश्रुत शु० सु० टी0 ड० सुश्रुत टीका डल्वण श. दो० शूकदोष सु० नि० सुश्रुत निदान स्थान शेष सु० मि० सुश्रुत मिश्रकाध्याय श्ली० श्लीपद सुर0 सुरयानी (सीरिया या शामी) श्लो० श्लोक सु० सं० सुश्रुत संहिता ( महर्शि सुश्रुत स० सकर्मक विरचिता) सत० सतलज सूत्रस्थान स० फा० ई० सप्लिमेण्ट टु दी फार्माकोपिया सूति० सूतिका ऑफ़ इंडिया (डॉ. मोहीदीन | सूर्यसि० . सूयंसिद्धांत शरीफ कृत) स्त० स्तवक स०७० सद्यो व्रण स्त्रि० स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त सं० संस्कृत स्त्री० स्त्री लिंग संग्र० संग्रह स्था० स्थान सं० ग्रहणी संग्रह ग्रहणी स्पे० स्पेनी भाषा संता० संताल | स्व० भे० (द) स्वरभेद संयो० क्रि० (संयोजक अव्यय,) सयोज्य क्रिया | हo हजारा स०( सन्निपा०) सन्निपात हजा० शे० हजाजी For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [झ ] हला० हली० ह० व. ह० श. र० - हलायुध हिं० श0 साo . हल्लीमक हि० श्वा० हरीतकी वर्ग हरीत० निबं० हमारे शरीर की रचना १, २ भाग (डॉ. त्रिलोकीनाथ वर्मा कृत) हु० का० हारीत | हृदो हा० हा० अत्रि. हारा० हा० सं० हिमां० हिं० हिं० बा० हारीतोत्तरे अत्रि हे० च० हारावलि (वली) हेम० हारीत संहिता हि० मे मे हिन्दी-शब्दसागर . हिक्का श्वास हरीतक्यादि निघंट हुम्मियात कानून हृद्रोग हेमचन्द्र हेमाद्रिः(तत्कृत टीका) सर विलियम् हिटला मेटीरिया मेडिका क्षारपाणि 1. I wilson हिमालय हिन्दी भाषा क्षार) हिन्दू बाजार | wil. नोट-ज्ञात हो कि इस कोष के लिखने में जिन ग्रन्थों से सहायता ली गई है उन सब का समावेश उपयु सूची में नहीं हो पाया है। For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2xplanation of the Initials and Names Attached to the Botanical names and Synonymes.. ACH. Or ACHAR.-E. Acharius, CORR.-J. Correa de serra, au: author of Lichenographia Unive- thor of some botanical paper's. Isalis. DAT. VN DALZ.-NA, Dalzel, one of the ADANS..-M. Adanson, author authors of Bombay Flora. of lIistoire naturella du senegal, D. C.--A. P. De Candolle, authetc. or of numerous botanical works. AIT. OT AITON.-W., author of DEC.-De Candolie, Fil. (Son Hortus kewensis, &c. of De Candolle ). BALFOUR-Dr. J. H., anthor of DELILE.--A, R., author of Flothe Class Book of Botany, &c. Ta de Agyptiacea Illustratis, BENTH.-M. Bentham, author Etc. of Labia torum genera et species, DESV.- N. A. Desvanx, author and Schorophularineæ Indica, of some botanical papers and edi. &c. tor of the 'Journal de Botanique BERK.---Berkeley, a Botanist DON.D., author of the Prod. or Naturalist. Tomus Flora Nepalensis, Etc. BL. Or BLUM.-C. L. Blume, au- DUCH.-A. P. Duchesne, auththor of Flora Javanensis, Etc. or of \Iistoire Naturelle des Frai BR. Or R. BR.-R. Brown, auth- siers, Etc. or of many Botanical works. DUNAL.-M.F., author of MonBURM.--N. L. Burmann, autli ographie de la famille des anona or of a Flora Indica. cees, Etc. CAV.-A. J. Cavanilles, author ENDL.-S. Endlicher, author of of Icones (t descriptiones planta. Genera plantarum secundum orlum. Etc. dines naturales dispositæ, Etc. CHOIS. or CHOISY-A. D. Cho- FABR.-P. C. Fabricus, author isy, a Swiss Botanist who elabo. of Enumeratio Methodica Plantarated several of the Natural Or- rum Horti Medici Helmstadiensis, ders for De Candolle's Prodromus- &c. COLEBR.-H.T. Colebrooke, au- FALC. or FALCONER.-Dr. H., thor of several Memoirs in the author of some botanical papers. Linnean Society's Transactions, FORSK.-P. Forskaol, author of Etc. Flora Ægyptico-Arabica, Etc. COLLA DON-Author of Histoi- FORST.-Forster, author of a le des Cassiæ. Flora, Etc. For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 2 ] GCERTN.-J. Gertner, author LABILL.-J. J. La billardiere, of De Fructe bus et Seminibus.' author of Icones Plantarum Sy G.Don,-Editor of a new Edi- riæ rariorum decades. tion of Miller's Gardner's Dicti- LAM.-J. B. Lamarck, editor of onary. the botanical portion of EncycloGREVILLE.- Dr. Greville. pedia Methodic. GRIS.-G. Grisley, author of Vi- LEHM.-J. G. C. Lehman, autridarium lusitanicum, Etc. hor of Plantire familia asperipoliHAM.Dr. F. Hamiiton (forme. arum nucifera, Etc. Tly Buchanan), anthor of a Jou- LESCH.Leschenault de la Torney to Mysore, and some botani- ur, a Director uf the botanical cal papers. garden at Pondicherry. HAW.-A. H. Haworth, author LINDL. or LINDLFY-Dr. J., of Synopsis Plantarum Succulento author of the Vegetable Kingarum. dom', Etc. H. B. et K.-Humboldt, Bonpla- LINK-H. F., author of Philosnd, and Kunth, authors of Nova ophiæ botanice nove prodromus, genera et species, Etc. Etc. HERBERT.-H. W. Herbert, au LINN.-Carl von Linnæus, the thor of 'Herbert's Amarillide' founder of Botanical Science. Etc. MATON.- Dr. W. E. Maton. H. et T.--Drs. J.D. Hooker and MEISN. Or MEISSNER-Leun FrT. Thompson, author of a Flora ed. Meissner, author of some botaIndica, Etc. nical papers. HEYN. or HEYNE-B. Heyne, a MIERS--J. Miers, author of a Botanist or Naturalist. work. HOOK, or H0OKEI--Dr. W. J. MIQ. Or MIQUEL.-F. A. W., a Hooker, author of Botanical Mis- Botanist. cellany, and of his (Hooker's ) MILL.-P. Millers, author of Journal of Botany. the Gardener's Dictionary. JACK-Dr. W., author of some MOEN.-C. Münch, author of a papers on Penang plants, Etc. few botanical works. JUSS.- Bernard de Jussieu, au- MULL. or MULL.-Otto Fred. thor of Genera Plantarum, Etc. Muller, author of some botanical KOEN., KON. Or KoN.-J.G. Kæ- works. nig, a Danish Botanist. NEES-G. G. Nees von EsenbKTH. OT KUNTH-A, Prussian eck, author of several botanical Botanist. works, For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 3 ] OLIVER.-G. A., author of a bo- SALISB.-R. A. Salisbury, authtanical work. or of the Prodromus Londinensis, PAVON--J., author of a botani. Etc. cal work. SAV. OR SAVI-C., author of sePELL.-Pelletier, author of so- veral botanical works. me botanical papers. SCHOTT-H., author of a few PERS.-C. H. Persoon, author botanical works. of Synopsis plantarum seu enchr- SCHRAD),—I). A. Schrader, autidium botanicum, Etc. hor of many botanical works. PLANCH.-A. Botanist.. SCH. OR SCHULT.-C. F. Schultz POHL-J. J. author of "Brazili- author of Prodromus Floric Stadan plants', Etc. gardiensis, Etc. RETZ.-A. J. Retzius, author SEB.-A. Seba, author of a book. of Fasciculus Observationum Bo. tanicarum, Etc. SER.--N. C. Seringe, who has elaborated several difficult TribRISSO-A.,author of Histoire es in De Candolle's Prodromus. naturelle des Oranger. SM. OR SMITH. Sir J. E. Smith, Rom, or Rom. et schult.-J. J. author of several botanical works. Rømer, and J. A. Schultes, aut. SPR. OR SPRENGEL--K. Sprengel, hors of Linncei systema vegetabili author of systema Vegetabilium, um, Ete. and many other botanical works. ROSC, or Rosco-W.Roscoe, au- STOCKS-author of some botathor of Monandrian plants of nical papers in Hooker's Journal the Order Scitamineæ.' of Botany. ROTH-A. W., author of Nova STOK.-J. Stokes, author of Plantarum, and several other Botanical Materia Medica. works. swt.--R. Sweet, a Botanist. ROTT.--Dr. Rottler, an Indian SWZ. OR SWARTZ--0. Swartz, Botanist. author of Prodromus DescriptioROXB. -- Dr. W. Roxburgh, aut. num Vegetabilium Indicæ Orienhor of Flora Indica, and Plants talis, Ete. of the Coromandel Coast, Etc. THUNB.- C. P. Thunberg, authROY. Or ROYLE- Dr. J. F. Roy- or of Flora Japonica and many or of Flo le, author of the Illustrations of other works. the Botany of the Himalyan Mou- TOURN.–J. P. Tournefornt, auntains, and of a work on the fib- thor of Elements de Botanique, rous plants of India. Etc. For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [4] - VAKL.-M., author of Symbol Tentamen Flora Nepalensis Illubotanicæ, Etc. stratæ. VENT OI VENTN.-E. P. Veute WEDD.-- Weddell, author of Hinat, author of Principes de Bota- stoire naturelle des quinquinas. nique, Etc. W. ELLIOT—Sir, author of FloVILL. or VILLARS-D., authorra Andhrica. of Histoire des Plantes du Daupbi WIGIIT-Dr. R., author of ICOne, Etc. . nes Plantarum Indiie Orientalis, W. et A.-Dr. R. Wright and Mr. Illustrations of Indian Botany, G. A. Walker Arnott, author's of and Contributions to Indian Botthe Prodromus Floräe Peninsula any, Ete. ... Indie Orientalis. WILLD.-C. L. Wildenow, authWALL.-Dr. N. wallich, author or of Species Plantarum, and sevof plantae Asiatica lariores, and eral other works. For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्र श्रा इ • ho उ ऊ 現 現 लय न्य A A श्री श्री श्रं श्रः ! آے i C a á i í 11 ú ri rí lri Irí е ai 0 ou n aha ah www.kobatirth.org वर्ण विवरण अर्थात् बोधिनी-वालिका क क ख ग ग़ घ ऊ छ ज ज़ ज़ ज़ 15: 15: 155 ज़ भ For Private and Personal Use Only G 85 Ny ز ذ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir q kh kh g gh gh ng, ng ch chh j Canada Z Z zh Z** Z .. jh Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1* 5 4 h 4 4 to 2 no tu oto 4 m. to gasa 5 4 dh 4 rh* to. Ent to : sy how my to all + [ 6. it of Et toi to o and f pa f. CM way aus God 5 I A N. B.--Unable to receive the marked English letters in time, the letters marked with an asterisk (*) in the above catalogue have been used without marks all through the book. Therefore the readers are requested to read them according to the corresponding Hindi letters. For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्र www.kobatirth.org श्री धन्वन्तरये नमः आयुर्वेदीय कोष अ अ - संस्कृत और हिंदी वर्णमाला का पहिला | अक्षर । इसका उच्चारण कंड से होता है इससे यह कंवर्ण कहलाता है । व्यञ्जनों का उच्चारण इस अक्षर की सहायता के विना अलग नहीं हो सकता, इसी से वर्णमाला में क, ख, ग श्रादि वर्ण प्रकार संयुक्त लिखे और बोले जाते हैं । अअयून aãayún- अ० मेथी, मेथिका (Trigonella Foænum=Grwccum, Linn.) अवर aĀar-रु० मुर, बोल ( Myrrh ) अन्त्यूतस aãalyutas - यु० श्रभ्रक, भोडर ( Mica.) श्राकुल aāákul-o जवासा, यवास, हिंगुग्रा ( Alhagi Maurorum, Dese. ) श्रश्राइवोत्तो aadaivotti- ता० चिटकी - हिं० । वन ओकरा - बं० । ( Triumfetta Rhomboidea, Jacq.) ३० मे० मे०। मेमो० । अश्रानो aání ते०, ता०, मह०, कना० हाथी fa (Elephant.) श्रश्रारगोस aáragis - रसोत, दारूहल्दी, चित्राहिं० | दारुहरिद्रा - सं० । अंबरबारीस अ० । ( Berberis Aristata, D. C. ) श्रास aaás-o श्रचासिल वरी aaásil barri- अ० } (Myrtus Communis, Linn.) विलायती मेहंदी - हिं० । फा० ई० । अत्र कुत्र aãqab - अ० गोरखर ( एक जंगली जानवर जो गढ़ की तरह होता है । ) अजफ़ aājat - ऋ० दुबला, कृश, एमेशिएटेड ( Emaciated ) - इं० । क्षीण । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अअ जाय् खादिमहुर्रईसह अ ज्ञाश्रू aazaa - ऋ० ( Organs. ) ( व० व० ), उजव ( ए० व० ), बदन के टुकड़े या. हिस्से, अवयव, इन्द्रियाँ - हिं० । वे गाड़ी और स्थूल वस्तुएँ जो प्रथम खिल्तों ( दोषों ) के योग से बनती हैं । अजाश्रू असलिय्यह aāzáa asliyyah - श्र० श्रश्रू जा मुन्विय्यह, असली अश्रू जा अर्थात् शुक्र द्वारा उत्पन्न अवयव, यथा- श्रस्थि, नाड़ी, रग प्रभृति । अन जाय् श्रालयह aāzáa álayah -श्रु० अश्रू जाच् मुरक्कबह, वे अवयव जो कुछ साधारण अवयवों ( धातुओं ) के परस्पर योग से बने हों, संयुक्त अवयव । अजान इस्तहियाइय्यह aāzáa istahiyaiyyah - अ० श्रन्दाम निहानी, अश्रृ ज्ञान तनासुल ज़ाहिरी (प्रधानतः स्त्री के ), स्त्री जननेन्द्रियाँ (बाह्य) - ० । ( Pudendum.) अजा कैलूसियह, aāzaa kailúsiyah - अ० श्रालात कैलूसियह् । For Private and Personal Use Only अ जाय् खादिमिह् aāzaa khádimih-o सेवा करने वाले श्रवयव, वे श्रवयव जो किसी अन्य अवयव की सेवा करें, यथा- श्रामाशय जो यकृत् की सेवा करता है अर्थात् भोजन से शुद्ध आहार -रस ( कैलूस ) तैयार करके यकृत की ओर भेजता है; अथवा शिराएँ जो यकृत् से आहार तथा प्राकृतिक शक्ति को लेजाकर अवयवों में वितरित करती हैं । अजाश्रू खादिमहुर्रईसह aāzáa khadimahurraisah-श्रु० उत्तमाङ्गों की सेवा करने वाले अवयव, यथा-धमनी जो यकृत् की Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जा गिजा सेविका है, और नाड़ी जो मस्तिष्क की सेवा करती है अर्थात् उक्त अवयव की प्रधान शक्तियों को अन्य की ओर पहुँचाती है । अन जाअ गिजा āzáa ghizá - अ० श्राहारेन्द्रियाँ, थाहार सम्बन्धी श्रवयव, श्रथवा श्राहार को ग्रहण करने वाले श्रवयव, यथा-आमाशय, यंत्र और यकृत आदि । अअ जात्र गैर रईसह aazaa ghair raisah-o वे अवयव जो न स्वयं किसी की सेवा करते हैं और न कोई उनकी सेवा करता है । नोट- किसी किसी हकीसका यह विचार है कि शरीर में कुछ ऐसे श्रवयव भी हैं जिनमें जीवन और पोपण की स्वाभाविक शक्ति विद्यमान है । और उत्तमाङ्गों से उनमें कोई शक्ति नहीं श्राती, यथा-अस्थियों । किन्तु स्वतन्त्र हकीमों का यह पंथ नहीं और वास्तविक बात भी यहीं है । शरीर में कोई एक अवयव भी ऐसा नहीं जो अन्योन्याश्रय न हो, अथवा जिसमें स्वामी सेवक भाव विद्यमान न हो । अअ जाश्रू तनफ्फुस aāzáa tanaffus - अ० आलात तनफ्फुस । श्वासोच्छवासेन्द्रियाँ - हिं० । ( Respiratory Organs.) अ जा तनासुल aazaa tanasul श्र० थालात तनासुल | जननेन्द्रियाँ - हिं० । ( Roproductive Organs. ) अन, जाञ् तव्इ.य्यह aãzaa tabāiyyah - अ० प्राकृतिक शक्ति सम्बन्धी अवयव, यथाजननेन्द्रिय वा आहारेन्द्रिय । अअ जाय् तर्क्रियह, aazaa tartiyah - श्र० शाखावयव, वे श्रवयव जो शाखाओं में स्थित हैं, यथा - हस्तपाद आदि । अश्रू जाय् दस्विय्यह, nazaa damviyyah - अ० रक्त से उत्पन्न होने वाले श्रवयव, रक्त जन्य अवयव, यथा-मांस या वसा । अअ जाश्रू नफ़्ज़ aazaa nafz - अ० शारीरिक मल को निकालने वाले अवयव, मल प्रव र्तक अवयव, यथा श्रन्त्र, वृक्क, वस्ति, लिंग, गर्भाय की ग्रीवा और गुढ़ा प्रभृति । एक्स Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजा, मुरिदह क्रीटरी ऑर्ग ( Excretory Organs.) - इं० । अअ जान, बलीतह, aāzáa basitah- अ० अ जाय् मुफ़रिदह । अजाय् बल aāzaa boul ऋ० श्रालात वील, मूत्रेन्द्रियाँ, सूत्रसंस्थान - हिं० । ( Urinary system.) अअ जाय मरऊसह aazáa-maraúsah - अ० उत्तमांगों से लाभ उठाने वाले अवयव । अअ जात्र मुत्शाविहतु श्रज्जा ( aāzáa-mutshàbihtnl aja o त्र जा मुदि अश्र जात्र मुन्विय्यह Aázaa mmmriy yah ) - ऋ० श्रजाश्रू ग्रस लियह । अअ जा मुफ़ रिक्रू Aázaa-mufridah - अ० मुकरिव प्रश्र ज श्रू, थन जाश्रू बसीतह अजा मुसाहिल अश्रू जाय, वह प्रवयव जो स्वयं ग्रथवा उसका कोई भाग नाम और वास्त विकता में श्रभेद हो, अर्थात् यदि उजब मुफ़रि ( मौलिक धातु ) का कोई भाग लेकर कहा जाय कि इसका क्या नाम और परिभाषा है तो उत्तर में ही नाम और परिभाषा बतलाई जाय जो वास्तविक aara के लिए कही जाती है; उदा हरणतया प्रस्थि के एक सूप भागको भी स्थि कहेंगे, एवं मांस के सूचा भाग की मांस । मुफ़दि श्र अ ( मौलिक धातुओं) की संख्या १० है, यथा-अस्थि, उपास्थि या कु ( Cartilage ), नाड़ी, मांस-पेशी, धमनी, शिरा, कला, झिल्ली, संधि बंधन ( बंधनी, स्नायु, रज्जु ) और कण्डरा । ये वीर्य से उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनको - 1 - जाश्रू मुन्दिय्यह (शकावयव ) कहते हैं । इनमें से दसवीं धातु लहम ( मांस, गोश्त ) है । शहन (वसा) तथा समीन (मेद) की गणना भी इसी में होती । ये तीनों शोणित से बनते हैं। राम तथा नख की गणना वस्तुतः शारीरिक मलों में होती है । किन्तु किसी किसी ने इनकी मुरिदह में की है । गणना भी जा For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अथ जाय मुरक 1 टिप्पणी-शू जा मुफ़रिदह की रचना को अरबी में नरज ( ० ० ) और नसाइज ( ० ० ) तथा प्रायुर्वेद में तन्तु ( धातु ) और अंगरेज़ी में विश्शु ( Tissue ) कहते हैं सभी भाँति के तन्तु विशेष प्रकार की सेलों ( कोष, aesi, aसों ) के परस्पर मिलाप द्वारा बनते हैं। अस्तु-स्थि, मांस, रंग तथा नाड़ियों की रचना मुख्य मुख्य भांति की सेलों के पारस्परिक fear द्वारा होती है । इसका विस्तृत वन तन्तु ( धातु ) - शात्र ( Histology ) में होगा । ३ श्रथ जात्रा सुरु aããa-murakka bah - अ० ग्रन्त्रालयह, मुरक्कव् ग्रच्जा । संयुकावयव, वे अवयव जो चन्द्र मुफ़रिट शरीर तन्तु (धातु) के पारस्परिक सेल से बनते हैं । उदाहरणतः दृस्त ग्रस्थियों, रंगों, नाडियों और मांस पेशियों तथा त्वचा के मिलाप द्वारा बनता है । इस भाँति के अवयव का यदि कोई भाग लिया जाय तो वह अपनी परिभाषा तथा नाम से सम्पूर्ण से निन्न होगा, यथा हाथ की अस्थि अथवा मांस हस्त नहीं कहलाएगा । अजाअ रईसह aāzáa raisah - o उत्तमाङ्ग | एक्स्ट्रा Extra ई० । जीवनाधारभूत अवयव, अर्थात् वे अवयव जिन पर जीवन अवलम्बित हो। वे चार हैं, यथा - (१) हृदय, (२) मस्तिष्क, (३) यकृत् और ( ४ ) मुष्क ( पुरुष ), लिंग और शुक्राशय । इनमें से प्रथम तीन मनुष्य जीवन के लिए अत्यन्त श्रावश्यक हैं, क्योंकि यह क्रमशः प्रशणशक्ति ( कुव्वते हयात, कुञ्चते है, वानी ), चेतनाशक्ति ( कुव्वते नफ़्सानी ) और प्राकृतिक शक्ति ( क्रुव्यतेतब ई.) अर्थात् शारीरिक पोपणशक्ति श्रवयवों को प्रदान करते हैं। इनमें श्रन्तिम के जननेन्द्रिय सम्बन्धी अवयव स्वजाति रक्षा के लिए परम आवश्यक हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रत्र नश अश्रू जाय् शरोकड, aāzáa sharifah - अ शरीफ़ श्रजाश्रू, श्राय् मुहिम्मह, श्रहम ज्ञा । वे अवयव जो अपने कार्यकी महत्ता के अनुसार उत्तमाङ्गों की सामीप्य कक्षा का अधिकार रखते हैं । इनकी गणना उन ( उत्तमाङ्गों ) के पीछे होती है, यथा- फुप्फुस, आमाशय और यंत्र इत्यादि । अजा सरिथ्यह ज़ाहिरह् aavaa-sadriyyah-záhirah - अ० वक्षोर्ध्वाङ्ग । वक्ष के ऊपर के त, यथा-वासीय मांसपेशियाँ और स्तन प्रभृति । अजाश्रू सद्दिव्यह् वातिनह aazaa-sadri yyah-bátinah-अ० वदान्तरस्थ श्रवयव, वासे भीतर के श्रवयव, यथा-हृदय और फुफ्फुस यादि । थोरैकिक विसरी ( 'Thoracic Vicor )-इं०। अजा सौत aāzáa-sout-o श्रावाज़ के अजा, शब्देन्द्रियाँ, शब्दोत्पादक यंत्र, यथा— स्वरयन्त्र, टेंटुना ( श्वासपथ ) और फुफ्फुस इत्यादि । ऑर्गअ श्रॉफ वाइस ( Organs of Voice ) - ई० । छात्र जान मुहिम्सह, aazar mrhimmah | श्रत्र जात्र हज़्म aazaa-hazm अ० पाचक - अ० श्रअ जाय् शरोह । यन्त्र, पाकावयव, यथा-आमाशय, यकृत, मासारीक़हू इत्यादि । डायजेस्टिव ऑर्गन ( Digestive Organs ) - इं० 1 अअ जाञ् हर्कत aāzáa harkat अ० श्रालात हर्कत । जात्र हिस्स aāzaa hiss श्र० श्रालात हिस्स । अजा हैवानिय्यह aāzaa haivániyyah - अ० जीवन शक्ति सम्बन्धी अवयव, प्राणिशक्ति से सम्बन्ध रखने वाले श्रवयव, यथा हृदय वा धमनी प्रभृति । श्रनव aānabo जिसकी नासिका बड़ी और लम्बी हो, दीर्घनासा । अअनश aānash - अ० छोंगा, छाँगुर, छः अंगुलियों वाला, लूंगा । For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाक अअमावेशिर्किय्यह. श्रअ नाक aanaq-अ० (व. व.), उ (अ) अन्तःक्षोभ, मनोविकार, प्रात्मा में होने वाली नक (ए. व.) ग्रीवा, गर्दन-हिं० । सर्विक्स दशाएँ-हिं०। ये छः हैं, यथा-(१) शोक, (Cervix), नेक्स (Necks)-इं०। (२) क्रोध, (३) भय, (४) अानन्द, अअ फ़जaafa.j-अ.Corpulentोंबीला,मेदयुक्त, (५) लजा और (६) चिन्ता । मेदावी,स्थूल,वह व्यक्ति जिसकी तोंद निकलीहो। अअशा aasha-अ० ( Nyctalops) शबअफर aafal'-अ. सफ़ेद, मैला सुफ़ेद, धूसर कोर-फा०। नकांध, वह मनुष्य जिसको श्वेत। ( Brownish white ) - रतौंधी का रोग हो। श्रअ फ़ाज Aafaj-अ० ( Intestines, अअसाय āsāb-अ० (Nerves) (व. Entrails.) अान्त्र-हिं० । व०), असब (ए. व.), नाड़ियाँ, बात या श्रमश aamash-अ० जिसके नेत्र से जलस्राव बोधतन्तु( देखो-नाड़ो)-हिं। __ होता हो। अअ.साव उज्ज़िच्यह nasi banjziyyah-अ. अअ.मा aani-अ० ( Blind ) नाबीना, कोर (Sacral I s )। स्कथि नाड़ी, -फा० । अंध, अंधा, नेत्रहीन-हि० । अझ माअ नितंब (त्रिक) नाड़ी,असाब सुरीन । ये बात (व० व०) और अमा (त्री० लिं०)। तन्नु सुषुम्नाक.ण्ड से निकल कर नितम्बास्थि अअ.माले विल्यद् āmāle-bilyal-अ० से बाहर आते हैं। ये संख्या में ५ जोड़े होते हैं। (Operation) हस्तक्रिया, शल्य-हिं०। इनको शाम्बा, उरु, रग, वा पाँवकी नांस पेशियों दस्तकारी-फा० । छेदन विद्या, व्यवच्छेद शास्त्र । तथा वचः में चेट व संज्ञा बहाती हैं। साहब कामिल के वचनानुसार इसके तीन भेद अअसावे उनकि यह aasa b. annuqiyyah हैं-(१) रग एवं (२) मांस को काट छ.ट, जैसे -अ० ( Crical NYON ) अममा बे रक्रमोक्षण, नश्तर देना, पृथक् करना ( काटना गर्दन-फा० । ग्रेव नाड़ियां-हिं० । छौटना ), दाग़ना और टांके लगाना इत्यादि अअसावे कृत निय्यह् nāsābs-jatniyyah और (३) अस्थि को यथा स्थान विधाना, टट्टी: -अ० अमाबे कतर-फा० । कटि नाड़ियाँ अस्थि को जोड़ना, और स्थानच्युत अस्थि की -हिं० । (Limbar Nerves) संधि को बिकाना; इत्यादि। । अअसावे ज़ह रिय्यह, nāsāb.i-mahriyyan श्रअ मिदतुल मिन्खरीन aamidatul-min- -अ०, ( Dorsal Nervs ) अअसाबे पुश्त khariil-अ० ( Nasal Septum ) -फा०। पृष्ट नाड़ियों-हि० । नासामध्य पटल, दोनों नकुत्रों के मध्य का अअ साबे दिमागिय्यह. āsābe-dimash. परदा-हिं० । iyyah - अ० मास्तिक नाड़ियाँ - हिं० । अअ याश्र. aayia-अ० (१) कूटना, थकावट । ' Cranial Norves) (२) हाथ पैर टूटना, शरीर का थक जाना। अअसावे नुखाइयह nāsibe-mukhāaiyah अअयून āyān-अ० प्रसरित चक्षु, वह मनुष्य __ -अ० सौषुम्न नाड़ियाँ-हिं०। ( Spinalजिसके नेत्र की पुतलियाँ फैल गई हों। Nerves.) अअ रज aaraj-अ० ( Lame) लङ्गडा, लुङ्ग असावे मुरकबह, nasib murakkaban -हिं० । -अ. मिश्र नाड़ियाँ-हिं० । मिक्स्ड नई जु अऋगज़ aari7-अ० (व.व.) (Symp- ( Mixed Nerves )-ई०। ___toms ) अर्ज (ए. व. ), रोग के लक्षण । अअसावे शिर्किय्यह, Laasality shirkiyyah अअ.गजे नासानिय्यह ārāze nafsan- -अ० असावे हमदर्दी । पिंगल नाड़ियाँ-हिं । . iyyah-अ० इन्फिालाते नासानियह । (Sympathetic Nerves.) For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन.मात्र हर्कत प्रालि लगाई अअसावे हकेत् aāsābe-hurkat-अ० हर्कती अईल ail-अव०, हिं० सातला। सीकी (के) श्रअमाव । चालक नाड़ियाँ, चेटावहा नाड़ियाँ, काई-द० । को-बं० | Acacia Conciगति सम्बन्धी नाड़ियाँ-हि. । (Motor nna,D.C.)इं० मे०प्लां० । फा००१ भाग। Verves ) अउजा anja-बर० Custard apple अअ.साबे हास्सह aasābe-hassah-१० (Anona squamosa, Linn.) शरीफ़ा, विशेष चेतना सम्बन्धी नाड़ियाँ-हिं०। (Sp... सीताफल, प्रात-हिं० । cial Senses Nerves.) अउनो aunee-क्रां० रासन, जञ्जबील शामी, अअ.सावे हिस्स nāsābe-hiss-अ० हिस्स के __ कुस्ते-शामी । Elecampane (Inula, पुटे-उ० । सांवेदनिक नाड़ियाँ, चेतना सम्बन्धी Helenium, Linm.) फा० इं०२भा० । नाड़ियाँ, बांध अथवा ज्ञान तन्तु-हिं० । ( अउसरक ausarak-पं० छड़ीला-हिं० (Seesory Nerves) Chharila ) । शैलेय, शिलापुष्प- सं० । श्राइग्रिमोईन aigrimoine-फ्रांक शज्र-तुल उश्नह-अ० बरागीर-अ०। (Agriimonia Eupat-अऊ au-बरब० १--अण्डा ((OTim)।२--गर्भ __orium, Lin.) फा० इ० : भा० । (Embroyo ) अइता aitā-गो० श्रावर्तनो, रोड़फली-हिं०। अऊ , -घर० ( ए० व० ) कन्द-६० । (Helecteres Isora, l.inn. ) श्रइदा aila-अ०। हीरादोखी-हिं। दरमुल् u Š(Bulb or Tuber')#0910 do अख्वैन अ०, हिं०, बाजा. Draggon's अमियात्रा aimiyaa | -बर० (व०व०) blood (Dracena cinnabari, giravar umiyáá j -fo (Bul. Balf.) फॉ० इं०३ भा०। bs, Tubel's)। स० फा००। अइया aindha-उ०५० स० हरथ-चल्ला। अज- अऋतुमतो aritumati-सं० खो० (Unm हार-श्रासा०। (Lagel'strumil Flos- enstituating woman) अदृष्टार्तवा, Regina, Rotz. ) रजोलोपा, अनार्तवमती, अनतुमती। अइन in-मह० ) प्रामनवृक्ष, सान, सदरी अएगरवल्ली aegar-valli-सा० धारकरेला अइनो aini-कना० -हिं० । पियासाल-बं. fro (Monordica Dioica, Rorb.) ( Terminalia Tomtosat Beild.). इं० मे० मे०। इं० मे० मे० । मेमो०। अएडकुल. रीतिचे acdakul-riti-Chettu air-foro (Farsetia Ngptiaca, -ते छातिम, सप्तपर्ण, छतिवन-हिं०(AlsTury.) फगेदबूटी । tonia Scholaris, R.Br. )इं०मेलमे० । अइरन airn-बम्ब० श्ररनी, उरिन, पिरुम अपडु aediu-ता०, कना० (Sheep) भेंड, ( Clerodendron Phlomoitles, मेष-हिं० । ई० मे० मे० । मेष-हि० । इ० म० Linm.) ई० मे० मे०।। अएण्डु aendu-ता० चक्रमई, चकवड़, पमा प्रहरन मल airanmul-बम्ब० अरनी. अग्नि- हिं०। (Cassia Tora, Linn.)इं०मेलमे०। Host(Premia Integrifoilä, Linn.) अपरिलम्पाल merilampai-मल० सप्तपर्ण इं० मे० मे०। (Alstonia Scholaris,R.Br.)इं०मे०मे। अाईरसा Jivasi-अ० एकरमल. पद्मपुष्कर अरलि-लप्पालई Acli-leppalai-ता०( A1 -सं०। ईरसा-हिं० । Orris root ( Iris stonia Scholaris, R. Br. ) छतिवन, Florentina. ) छातिम, सप्तपर्ण। For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -अकमक कनना अक अक alaq - अ. मह का पही, यह एक (१) शुकाई (Shukai )। (२) वादावर्द __ प्रसिद्ध पती है ।अस्कर, कानञ्जर-का० । (Volaturella Divaricati, Benth.) अकच:akachah-संत्रिक अकृतमा.aqatamāa-अ.शराब या अंगर का अकंच (akacha)-हिं० वि० केस पून्य, बात - बार:(Bi अकतमारून aatamatun-यु० सूरिझान -इं० । जारमाथा नेड़ा-बं० । Hermodylus (ilermolacty) कच्छ akachha-हं० वि० [सं० अ= रहित अक नालना ajatalani-यु० वादावई (Vo+ कच्छ बा क = धोती, परिधान ] (१) नग्न । Tutarella Divaricata, Benth.) नंगा । (२) व्यनिचारी। परस्त्रीगामी। अकती anati-यु० खुमान कवोर। . अफज aka.j-ज़ अ.रूर और बकोल अनरूत का नाम । अकटाakti-० पू०, कार । ग्रेवल ( 1 अकृतासूसaqatisus-यु० जंगलो मानी. पररय11)-इं० । मूलक ( Th. Wild Radish.) अक्तakta--सं० मालिश । अकड़ kala-हिं० संज्ञा त्रिी० [श्रा = अच्छी __तरह + कड् = का होना ] [कि० अकड़ना ] . अकतो akati-ता०, मल०, अगल्य, अग FETE-TOICAgati (iliandiflora, एं। तनाव जरोड़। बल ।। Des".) ई० मे० मे०।। अकड़ तक akitn taka-हिं० संज्ञा पृ० उन। अतुल मलिक [atial-malik-बम्ब०, अकड़ना akniani - हिं० अ० [श्रा ( Trigonella Cncatat, Boiss.) = अच्छी तरह+कडूड%Dकडापन][संज्ञा अकड़ इक्लोलुल मलिक-ऋ० । नख, नाखूना-हिं०। अकड़ा.सूखका सिकुड़ना श्रार का होना। अकइन afalan-हिं० क्रि० वि० ! दे० कदन । खरा होना। ऐं ना। (२) रना । स्तब्ध श्रादह aqaddah-मिथ० जारिश्क की लकड़ी, होना । मुन्न होना । (३) तननः । दारुहरुधी-हिं० । दोरुहरिद्रा । (Barberis अझड़ बाई akara bai-20 संज्ञा त्रा[ सं० Asiatica, }).C. 'wood of') कड्ड्-कडापन + बायु, हिं० बाई हवा ]. अकनिया aqadduniyi-यु० जौहरी जबाइन, में न । कुइल । शरीर को नसों कः पीड़ा के सहित । किरमाला, असन्तोजुल वहर, दरमनह एक बारगी सिंचना। (Worin seed. ) अकड़ा akari-हि० संज्ञा पुं० [सं० कड् = कडापन ] चौपायों का एक छूत का रोग । जब अकन akan-ह. श्राक, मदार, अकोंद ( calचौपाए तराई की धरती में बहुत दिनों तक otropis Gigantea or Procera, चर कर सहसा किसी जोरदार धरती को R. Br.) स० फॉ० इं०। पा जाते हैं तब यह बीमारी उन्हें हो जाती है।। अकन aman-अ० गंदह-बग़ल-क:० । कक्षाअकड़ाव akarava-f० सं . हिं० शुद्धि, कशदुर्गन्ध-हि। वह व्यक्रि जिसके कक्ष अकड़ ] एन । खिंचाव । से दुर्गन्ध अाती हो। अकतना अकतनस aqatani antanas) अकनक akanak-अ रिजान कडुश्रा अपना भानस aqatanafulas ) ( Herinolactylus 'hittor') -ग्रु० ज़ रूर-वृक्ष (Zaarun )। अकनना Akanana- ० [सं० ग्राअकसन अनाक aqatala1 कर्णन-सुनना कान लगाकर सुनना । चुपचाप अकतना लु को ajatana-luqi ) सुनना, अाहट लेना, सुनना, कर्मयाचर करना । For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रनादि अकरकरा अकनादि akanáñi-बं०, पाडा, अस्वष्टा ( Ci- श्रक्रयाकैलून aqayaqailun - चिरायता ( Chirata ) ssampelos Pereira, Lian.) श्रकुट्स aganús यु० नासपाती Communis, Linn. ) कन्दा akanda-हिं० मदार, श्राक tropis Gigantea L. Br. ) अक् āagai श्रु० मिज़ुलु जिल्द, मिस्मार, ऐ. नुकह कर्न | कदर -सं० । श्रहन, यह एक प्रकार का चर्म रोग है जिसमें साधारणतः पाँव के अँगूठे की संधि अथवा बेंगुली की संधि की कोर और स्थूल हो जाती है और जूता पहन कर चलते समय व्यथा होती है । कोर्न ( Corn ), वस ( Clavus ) - ई० । अ] aaqab o पै, ताँत, नस जिससे धनुष का चिल्ला बनाते हैं । હ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकवर aakabar - o सोम भेद ( Akind of beeswax ) श्रकबरो akabari-fé० संज्ञा० स्त्री० [अ०] ( १ ) एक फलहारी मिठाई, तीखुर और उबाली अरुई को वी के साथ फेंट कर उसकी टिकिया बनाते हैं और वी में तलकर चाशनी में पागते हैं । अकबरी अशरको akabari asharati-हिंο संज्ञा० त्रो० [अ०] ] सोने का एक पुराना सिक्का जिसका मूल्य पहिले ३६ ) था पर व २०) हो गया है । अकबरूस akabarús-० रूमी और हिंदी | केंद्र से यह वृक्ष दो प्रकार का होता है । इनमें से रूमी को रूस अर्थात् गोंद कहरुवा का वृक्ष कहते हैं । अकुस aagan श्र० बन्ध्या अर्थात् बाँझ होना । गर्भ स्थिर न होना ( Sterile ) कुमाउरु म्मान agammäärrmmán-o अनार की छाल या अनार वृक्ष की कली जिसमें फल लगता है | ( Pomegranate bark or bud) श्रकुमाउरु स्माल हिन्दी agamaáurrumánul·hindi- अ० नागकेशर है | (Mosua Ferrea, Linn.) अयान aagayán - अ० शुद्ध स्व ( pure gold ) - ३० । Pyrus ( Calo | अक्र्यास aqayas - यु० इन्दरसा ( ख़ा ) रून । क्यूस aqayus-यु० ( १ ) श्रमरूत ( Guava) । ( २ ) नासपाती ( Pyrus communis, Limn.) अकर akara - हिं० वि० [सं० 11 हस्त रहित । १ प्योर गोल्ड हाथ का, अकर āakar-अ० विलट, तेल, रसोब, खुर्द, गाढ, गजापत, तेल ऋषि की गाड़ | सेडिमेण्ट ( Sediment )-ic ! अकरकरतून aqarqartun यु० गिले श्रकरीत, एक प्रकार की मिट्टी है। करकरमः akarakarabhah-सं० पु० । अकरकरा ( See-Akarakará ) अकरकरादिचूर्ण akarakarabhácichuIna - हिं० संज्ञा पुं० अकरकरा, सोंठ, कंकोल, केरार, पीवर, जायफल, लौंग तथा श्वेत चंदन इन्हें कर्ष कर्ष भरले, चूर्णकर कपड़छान करें, पश्चात् अहिफेन शुद्ध १ पल, मिश्री (सिता ) सर्व तुल्य मिला चूर्ण कर रक्खें । मात्रा - १ रती शहद के साथ रात्रि को कामी पुरुष चाटें तो वीर्य स्तम्भन हो । शा० सं० म० ख० श्र० ६ श्लो० ४५ । अकरकरहा āgargarhá- अ० ( Pyrethri Radix ) अकरकरा - हिं० । For Private and Personal Use Only अकरकरा akarakara - हिं० संज्ञा पुं० [सं० आकर करभः ] यकल करा, अकोलखर, अकलकोरा - ० । श्राकारकरभः, श्र ( - श्रा) कल्लकः, अक्क ल्करः, अक्कोलर, तोच्णमूलः और टीचर कीलकः प्रभृति एवं इसके अनेक अन्य कल्पित संस्कृतनाम हैं । प्रकोरकोश, श्राकरकरा, रोशुनिया - बं०। या ( अ ) क़रह, ऊल्कह-अ० / श्रकलकरा, आकरक़र्हा हस्पानी, श्राक़रक़रह - फा० । पाइथाई रैडिक्स (Pyrethri Radix ) ऐनासाइक्लस पाइरीथूम ( Anacyclus Pyrethrumn, D. C. ), पाइरीथुम Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा अकरकरा ifre ( Pyrothrum Radix ) -ले। पेलिटरी श्राफ स्पेन और पेलिटरी रूट, ( Pellitory of Spain or Pellitory root)-०।सैलिवरी डी एस्पैग्नी (Salivaire tl.' Espagne )-फ्रां० । अक्किरकारम्ता। अकिकरुका, अकिलाकारम्-मल० । अक्कारकारम् , अाकलकर, मराटी-तीगे,मराटी मोग्गा-ते। अकला करे-कना। अक्कलकरा-मह०। प्रकरकरा-गु० । कुकजना या कुकया-बर०। पोकरमूल, पाककरहा-पं०। अकर्का-बरब० । मिश्रवर्ग (N. 0. Composite ) उत्पत्ति स्थान-भारतीय उद्यान, बङ्गदेश, अरब, उत्तरी अफरीका, अल्जीरिया और लीवाण्ट । नोट-अकरकरा के उपयुक्र समस्त पर्याय अकरकरा वृक्ष(Anacyclus Pyrethrum, D. C.) की जड़ के हैं जो वास्तव में बाबूना का एक भेद है, जिसे स्पेनीय बाबूना (Spa. vish Chamomile or Anthemis Pyrethrum) कहते हैं। बाबूना नाम की far ( Compositeæ order ) की निम्न चार श्रोषधियाँ जिनका तिब्बी ग्रंथों में वर्णन पाया है परस्पर वहुत कुछ समानता रखती हैं, इसी कारण इनके ठीक निश्चीकरण में बहुधा भ्रम हो जाया करता है। वे निम्न हैं, यथा-(१) बाबूनज रूमी या तुफाही (Anthemis Nobilis ), (२) बाबूनह बदबू (Anthemis Cotula), (३) बाबूना गावचश्म या उकह वान (Matricaria Parthenium) और (४) स्पेनीय बाबूना या पाकरकरहा (Anthemis Pyrethrum)। इन सब के लिए एन्धेमिस अथवा कैमोमाइल अर्थात् बाबना शब्द का ही प्रयोग होता है (देखो-बाबूना अथवा उसके अन्य भेद)। इनके अतिरिक्र अकरकरा नाम की इसी वर्ग की दो और ओषधियाँ हैं, अर्थात् (१) बोज़ीदान या मधुर अकरकरा और( २) अकलकर (Spilanthus Oleracem) या पिपुलक--मह०, बनमुगली-कना। अकरकरा से बहुत कुछ समानता रखती हुई भी ये बिलकुल भिन्न श्रोषधि हैं। प्रस्तु, इनका वर्णन यथास्थान सविस्तर किया जाएगा। यहाँ पर बाबूना के भेदों में से एक भेद केवल अकरकरा का ही वर्णन होगा। नाम विवरण–पाइरीथम पाइरास(IPyros) से जिसका अर्थ अग्नि है, व्युत्पन्न यूनानी शब्द है। चूं कि: अकरकरा प्रदाहकारक होता है। इस कारण इसका उक्र नाम पड़ा। आकरकरे अकर और तकरीह (क्षत कारक ) से व्युत्पन्न अरबी शब्द है और यूँ कि यह गुण इसमें विद्यमान है अस्तु इसको उक नामसे अभिधानित कियागया है। इसके ऊडुल्कह नाम पड़ने काभी यही उपयुक कारण है। अन्य भाषाओं में भी इसी बात को ध्यान में रख कर नामों की कल्पना हुई है। इतिहास-अकरकराका वर्णन किसी भी प्राचीन श्रायुर्वेदीय ग्रन्थ, यथा-चरक, सुश्रुत, वाग्भट, धन्वन्तरीय व राजनिघंटु और राजवल्लभ प्रभृति में नहीं मिलता। हाँ! पश्चात कालीन लेखकों यथा भावप्रकाश और शाङ्गधर प्रभृति ने अपनी पुस्तकों में इसका वर्णन किया है । ( देखो शाहू. अकारादि चूर्ण ६ अ०; भा०, म०, १ भ० ज्वरघ्नी वटी और वै० निघ०)। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि भारतीयों को इसका ज्ञान इस्लामी हकीमों से हुआ; जिन्होंने स्वयं अपना ज्ञान यूनान वालों से प्राप्त किया। यूनानी हकीम दीसकरोदूस (Dioscoriles)ने पायरीथीन नाम से, जिससे पाइरीथम शब्द व्युत्पन्न है (और जिसको मुहीत अज़ममें फ़रियून लिखा है ), उक श्रीषधि का वर्णन किया है। किन्तु, मजनुल अद्वियह के लेखक हकीम मुहम्मद हुसेन के कथनानुसार इसको अरबी में ऊदुलकह जब्ली कहते हैं और यह सीरिया में बहुतायत से पैदा होता है तथा अकरकरा के बहुशः गुग धर्म रखता है । प्रमाणार्थ वे हकीम अन्ताकी का वचन उद्धृत कर कहते हैं कि-अकरकरा दो प्रकार का होता है, प्रथम सीरियन (शामी) For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अकरकरा www.kobatirth.org जिसका वर्णन दोसकरीदूस ने किया है, और द्वितीय पाश्चात्य जो अफ़रीका और पाश्चात्य देश में उत्पन्न होता है । उक्त वनस्पति की प्रकृति, पत्र, शाखा और पुष्प श्वेतपुष्षीय बाबूना कबीर के समान होते हैं, पर उसके ( अकरकरा के ) पुष पीत वर्ण के होते हैं। इसी की जड़ को अकरकरा और फ़ारसी में पर्वतीय तखूंन कहते हैं । को अाकों का उक्त वर्णन बिल्कुल सत्य है । क्योंकि पश्चिमी अकरकरा वास्तव में स्पेनीय बाबूना की जड़ है जिसका वानस्पतिक नाम एन्थेमस पाइरीश्रम (Anthemis Pyrethrum) श्रर्थात् आग्नेय बाबूना या स्पेनिश केमोमाइल (Spanish Chamomile) अर्थात् स्पेनीय बाबूना है । और इसी की जड़ हमारा उपर्युक्त अकरकरा है जिसका वर्णन हो रहा है । कोई कोई बच को ही अकरकरा कहते हैं । परन्तु अकरकरा और बच वस्तुतः दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं। वानस्पतिक वर्णन - यह अरब और भारतवर्षकी प्रसिद्ध वृटी है ( यह बङ्गाल और मिश्र में भी उत्पन्न होती है ) । इसके छोटे छोटे तुप चातुर्मास की पहिली वर्षा होते ही पर्वती भूमि में उत्पन्न होते हैं । इसकी शाखाएं, पत्र और पुष्प सफ़ेद बाबूने के सदरा होते हैं, परन्तु डण्डल पोली होती है । गुजरात और महाराष्ट्र देश में इसकी डण्डी का प्रचार और साग बनाते हैं। इसमें सोचा के सहरा बीज आते हैं । डाली रोंगटेदार और पृथ्वी पर फैली हुई होती है तथा एक जड़ में से निकल कर कई होजाती है । उस डाली के ऊपर गोल गुच्छेदार छत्री के आकार का, किन्तु बाबूने से विपरीत पीले रंग का फूल होता है । डाली खड़ी खड़ी और पुष्प - पटल ( Petals ) सुद होते हैं। इसकी जड़ श्रौषध कार्य में श्राती है । ये सीधे सीधे टुकड़े, जिन पर कोई रेशा नहीं लगा होता, ३-४ इंच प्रर्थात् एक वालिस्त लम्बे और आधे से पौन इंच मोटे बेलनाकार गोल होते हैं। ऊपर के किनारे पर प्रायः बे रङ्ग रोमों की एक चोटी सी होती है । वारा भाग धूसर व का Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा से तथा झुर्रीदार होता है। इसको जहाँ से तोड़ें वहीं टूट जाती है। गंध-विशेष प्रकारकी । स्वाद-इस जड़के खाने से गरमी मालूम होती है, चरपरी लगती और जिह्वा जलने लगती है, यही इसकी मुख्य परीक्षा है । इसको चबाने से मुँह से लालासाव होने लगता है और सम्पूर्ण मुख एवं कंड में चुनचुनाहट और कांटे से चुभते मालूम होते हैं । इसकी जड़ भारी ( वज़नदार ) और तोड़ने पर भीतर से सफेद होती है। इसमें शीघ्र कीड़े लग जाया करते हैं । परीक्षा-प्रकरकरा अरण्य (जंगली) - कासनी की जड़के सहरा होता है; किन्तु यह ( कासनी) तिक एवं काले रङ्ग की होती है । रसायनिक संगठन - इसमें १-एक स्फटिकवत् अल्कलॉइड ( तारीयसत्व ) श्राकर कर्भीन ( Pyrethrine ), २- एक रेज़िन ( राल ) और ३--दो स्थायी ( Fixed Oils ) तथा उड़नशील तैल होते हैं । प्रभाव -- सशक लालानिस्सारक, प्रदाहजनक और कामोद्दीपक | औषध निर्माण - यौगिक चूर्ण, वटिकाएँ और कल्क । ( १ ) अकरकरा ४ भाग, इन्द्रायन २ भाग, नौसादर ३ भाग, कृष्णजीरक २ भाग, कुटकी ४ भाग और कालीमिर्च ४ भाग; इन सबको मिला चूर्ण प्रस्तुत करें । अपस्मार में इसको नस्य रूप से व्यवहार में लाएँ । ( २ ) अकरकरा ४ भाग, जायफल ३ भाग; लौंग २ भाग, दालचीनी ३ भाग; पिप्पलीमूल; केशर २ भाग; अफीन १ भाग; भंग ४ भाग; मुलेठी ४ भाग; मदार मूल स्वक् ५ भाग ; वायविडङ्ग ३ भाग और शहद २ भाग; सब को चूर्ण कर वटिका प्रस्तुत करें। मात्रा — आधी से २ ॥ रती 1 गुण-बच्चों के चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, सवेदन दंतोद्भेद, प्रतीसार, उदरशूल तथा वमन के लिए गुणदायक है। For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा अकरकरा ऑफिशल प्रिपेयरेशञ्ज (ए० मे० मे०)टिङ्कचूरा पाइरोधाई ( Tinctura Pyrethri)-ले० । टिक्चर ऑफ़ पाइरीथन ( Tincture of Pyrethrum )-01 अकरकरासव-हि। निर्माणविधि-पाइरीथम की जड़का ४०नं० का चूर्ण ४ श्राउन्स अलकुहॉल (७०%) श्रावश्यकतानुसार । चूर्ण को ३ फ्लुइड ग्राउन्स अल्कहॉल में तर करके पकॉलेशन द्वारा एक पाइन्ट टिंक्चर तय्यार कर लें। प्रयोग-लालास्त्राव हेतु इसका स्थानिक उपयोग होता है। यह दाँतके दर्द,गठिया,अपस्मार, पक्षाघात, कफवात, तोतलापन और ज्वर तथा अनेक अन्य रोगों में लाभ पहुंचाता है। मात्रा-३॥ मा० । अहित-फुफ्फुस को। दर्पनाशक-कतीरा और मुनक्का । गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेद को दृष्टि से-अकरकरा उदणवीर्यः | कटुक तथा बलकारक है, तथा प्रतिश्याय शोथ एवं बात का नाश करता है । वृ०नि० र० । वैद्यकीय व्यवहार भावप्रकाश-फिरंग रोग में-विशुद्ध-पारद श्राधा तोला, खदिरचूर्ण आधा तोला, अकरकरा चूर्ण १ तोला, मधु १॥ तोला, इनको एकत्र मर्दन कर वटिका प्रस्तुत करें। इसमें से प्रातःकाल १-१ वटी जल के साथ सेवन करने से फिरंग रोग (Syphilis) नष्ट होता है। यूनानो एवं नव्यमत-अकरकरा को चवाने से प्रथम दाह प्रतीत होता है; तत्पश्चात् शीघ्र झुनझुनाहट एवं सनसनाहट का ज्ञान होता तथा अधिक मात्रा में लाला की उत्पत्ति होती है। क्योंकि मौखिकी धमनी बोधतन्तु तथा लालाग्रंथि पर इसका उत्तेजक प्रभाव होता है। परन्तु थोड़ी देर पश्चात नाड़ियाँ शिथिल होजाती हैं। अस्तु, यह एक सशक लालानिस्सारक ( पावफुल स्यालेगॉग ) तथा किञ्चित् अवसन्नताजनक (अनस्थेटिक) है । उक्त प्रभावों के कारण | इसको दन्तपीड़ा, कच्चा लटकने (रीलैक्स्ड यूवुला) और कण्ठशोथ (सोरथोट) में मंजन गरड्रप प्रभति रूप से व्यवहार में लाते हैं। दन्तपीड़ा में अकरकरा को विकृत दाँत के नीचे रखने तथा चबाने से अथवा इसका टिंकुचर तथा टिंकचर प्रायोडीन दोनों समभाग सम्मिलित कर इसमें जरा सी हई तर करके पीड़ा युक दन्त में रखने से वेदना शमन होती है। २ श्राउंस (१ छं.) जल में एक डाल (३॥। माशा) इसका टिंक्चर मिलाकर इसका गंडूब करते हैं। डॉक्टर रॉय इसको योपापस्मार (ग्लोबस हिस्टैरिकस) में गुणदायी बताते हैं। (ए. से० मे०) । यूनानो ग्रन्थकार-इसे तीसरी कता के अन्त में और चतुर्थ कक्षा तक रूक्ष मानते हैं। परन्तु कोई कोई तीसरी और चतुर्थ कक्षा में शीतल मानते हैं। देह में जो सुहा ( रुधिर अादि को गाँठ) पड़ जाता है उसको खोलता, जस्तक को दुष्ट मल से शुद्ध करता तथा मस्तक के अवयव तथा कफ आदि को निस्संदेह चमक (जिला) देता है। अर्दित (लाघा), पज्ञाघात, कफवात, पीड़ा के साथ गर्दन का जकड़ जाना, जोड़ों का ढीला होना, तोतलापन, छाती, दाँत और संधि वेदना, गृध्रसी, जलंधर, पसीना और ज्वर को दर करता,शीतल प्रकृति वाले की इन्द्री की शक्रि को तथा स्तनों में दृध को बढ़ाता, खुलकर पेशाब लाने को व स्त्रियों के प्राव को पतला तथा गाढ़ा लेप करने से लाभ पहुँचाता है । जनक रंग, संधि के रोग, वाततन्तु ( पुढे) के, मुख के और छाती के रोग में अकरकरा को जैतून तेल में पीसकर मर्दन करने से लाभ होता है और कुबड़ापन, सुलवात, या ढीलेपन को, अवयवों के पुराने रोगों को भी पूर्वाक उपयोग गुणदायक होता है। यदि अकरकरा के क्वाथको गरम गरम मस्तक पर लेप और तालू पर मर्दन करें तो मस्तक को गरम कर नज़ले को नष्ट करता है। यदि इसे मस्तगी या कसैली वस्तु के साथ चटाएँ तो वह मृगी रोग, जो दृषित दोषों से प्रकट हुआ है, For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अकरकरा www.kobatirth.org नष्ट होता है ' शहत के साथ अकरकरा चूर्ण को चाटने से मृगी, अंधकार थाना और पचाघात प्रभते रोग नष्ट होते हैं । ११ करकरे के कपड़छन किए हुए बारीक चूर्ण को सूंघने से नाक रुकना अर्थात् श्वासावरोध दूर होता है 1 यदि इसको सिरके में भिगो दाँत के नीचे रखें तो दन्तशूल नष्ट होता है । चबाने या जिह्वा पर बुरकाने मे जीभ की आर्द्रता दूर होकर तुतलाना मिटता है । इसके क्वाथ को मुख में रखने से हिलते दाँत मजबूत होते हैं । उक्र कााथ में सिरका मिला कर गंडूष करने से गले का फोड़ा, काग का लटक आना तथा जीभ के लटकने ( जो कफ के कारण हो ) को लाभ पहुँचता है । पीस कर मर्दन करने से पसीना लाता है । केवल अकरकरा, या प्रकरकरा और फावानिया दोनों को गले में डोरेसे बाँधकर लटकाएँ तो बच्चे की मुगी दूर होती है । यदि इकरेंगे काले कुत्ते के बाल और अकरकरा दोनों की बालक के बाँध दे तो इन्द्रियों में चैतन्यता होम के रोग और नष्ट हो । अकरकरा के लड़क़ (अवलेह ) में शहद मिला के पीने से देह की कांति बढ़ती है, तथा छाती का दर्द, कक को पुरानी खाँसी एवं सरदी के रोग दूर होते हैं । यह श्रामालय से आँव को निकालता एवं शीतल प्रकृति वाले की मैथुन शक्ति को बढ़ाता है । यदि आधा दिन ( १ || मा० ) घोट के पिएँ तो बलपूर्वक कफ को जुलाब द्वारा निकालता है । ज्वर थाने से प्रथम अकरकरा को जैतून के तेल में पीस सम्पूर्ण शरीर में मालिश करें तो ज्वर, सरदी का लगना दूर होता है और पसीना लाता एवं देह के जोड़ ( संधियों ) की बीमारी दूर करता । अकरकरा के तैल को इन्द्रीपर मलने से इन्द्री हद तथा कामशक्ति प्रबल होती है, और मैन में विशेष आनन्द आता है । विधिपूर्वक शहद में घोल तिला ( पतला लेप ) करने से स्त्री को बहुत जल्दी स्खलित करता है । यदि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा बाकला के थाटे के साथ घोट पोटली में रख इन्द्री और अण्डकोषों में बांधे तो गुण करता है, अर्थात् जिसके फोतों को बहुत सर्दी लगती हो उसे लाभ पहुँचाता है । X सबसे अद्भुत बात इसमें यह है कि इस 'को नौसादर के साथ बारीक पीस तालु और मुख में खूब लगाए अर्थात् रगड़े, तो आाग से मुंह कदापि नहीं जलता । अकरकरा को सिरके के साथ श्रौटाए तो खमीर के सदृश हो जाएगा। इसे कीड़े खाए हुए दांतों के ऊपर रखने से सब कीड़े भर के गिर पड़ेंगे । एक प्रक्रिया शुष्क अकरकरा को कूटे और सेर जल में tere जब एक श्रौक्रिया शेष रहे तब उतार शीतल कर हाथों से मलकर छान ले, फिर दो प्रक्रिया जेतून के तेल के साथ दुहेरी देग में मिलाकर काम में लाए । गुण- इस रोगन के पीने से पसीना निकल कर सर्दी का कर नष्ट होता है । यह सर्दी के यावन्मात्र रोगों को नष्ट करता एवं मैथुनशकि को बढ़ाता है । + For Private and Personal Use Only अकरकरा का सड़त नाक में टपकाने से मस्तक पीड़ा, आधा शीशी तथा मृगी नष्ट होती है एवं यह शीतल व मस्तक को बलिष्ट करने में उत्तम हैं । जिगर के रोगों में अकरकरा की प्रतिनिधि पीपल और शहत है और आमाशय के रोगों में रासना और अगर । यदि समय पर ये दोनों न प्राप्त हों तो उनके स्थान में सोंड श्रौर इससे आधी काली मिरच लेनी चाहिए। गंडुष में पहाड़ी पोदीना डेढ़ गुना, हलक की पीड़ा में इलायची लेनी चाहिए। एवं अकरकरा के उसारे से निर्मित तैल लेना चाहिए । वामक व विरेचक श्रौषध पीने से पहिले यदि करकर खा लें तो फिर कड़वे, चरपरे, पैले रस का कुछ भी ज्ञान न होगा । श्रतएव जिसको काथ श्रादि पीने से घृणा होती है हकीम लोग उसको प्रथम अकरकरा चबाने को देते हैं । जब वह चबाकर थूक देता है तो ऊपर से फिर जो काथ पिलाना हो पिलाते हैं । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरादिचूर्ण अकगस सेपोटा प्रकर अकरकरादिचूर्ण akarkaradi chutna. अकाव व हगे aaqaab bahri- अ० सिंगी - -हं० अकल्लकादि चूर्ण- अमृतप्रभा चूर्ण- (-घी) मछली। यह एक प्रकार की रक्क अकरकरा,सेंधानमक, चित्रक आनला, अजवायन, ग्राभायुक खाकी रंग की वृश्चिक सदृश छोटी हड़ इन्हें समान भागलें और सांड २ भाग लेकर मछली है। (Saccho Bin.cbus.) बारीक पीस कपड़ छान करें। पुनः विजीरे के रस ! अकरबुलमा aaqila billmaa-अ० कर्क, की भावना देकर रक्खें । ___ कर्कट, केकड़ा-हि० । सर्तान-अ०। ( Crab) गुण-मन्दाग्नि, अरुचि, खाँसी, श्वास, गले | अकरयान aaaryain -- इस्कनकन्द'न । के रोग, सरेकमा, पीनस, मृगी, उन्माद तथा (Asplenium alcatim, I .) सन्निपात को नष्ट करता है। अभि.नि. भा. अकरविल्लोसम (a.cel villosun, Mai.) " अकरकराहा akarkarāhā. -हिं०। -ले० केरंडेरा-सिम०। यह चारे के काल में अकरकरोakarkaro -गु० ग्राता है। प्रयोगांश-पत्र । मे० मो०। करा (Pyrethri Radis..) अकरश aakash.-अ० सोल भेद । अकरकेशियम Acer Chesil, Tull. अकर-सोaquas-si-य० दबक, एक फल है -ले० हजल, किलपत्तर। इसका प्रयोग श्रीपध जो चने के दाने के बराबर होता है। किन्तु हेतु अथवा मवेशियों के चारे के लिए होता है। गोल नहीं होता। प्रयोगांश-शाखा और पत्र । मेमे।।फा० अकरा akari-सं० स्त्री० श्रामला का वृन इं०१मा०। -हिं० । ( Phyllanthus Emblica, ‘अकरकाँटा akar kanti. -हि०, वं० ढेरा, lim.)-ले० । श० च० । महँगा, बहुमूल्य । अंकोल (Alangium Discaptahim, mom, अकराकरमः akarakarabhi h.-२० पु. Lam.)इं० मे० मे० । अकरकरा। (Pyrethrum Radis.) .. अकरखना akarakhani -हिं० क्रि० स० शाङ्ग अकारादि चू० ६ अ० । मा०। [सं० अाकर्षण ] (1) खींचना, तानना । (२.) चढ़ना। अकरामातोकान aqali-natijan-यु० ज़रूर, अर्थात् वे शुष्क औषधियां जो पीसकर . अकरपिक्टम् acer pictum, Thunb. -ले० अकर केशियम (Acer Closillm.) व्रण प्रभृति पर छिड़की जाती है। अवचूर्णन-सं०। .: मेनोफा०ई०१भा० । देखो-किलपत्तर । अकराम्भकः .akadam bhakah -सं०पु० अकरफ्स akarafsa -अजमोद,करस प्रसिद्द अकरकरा (Pyrethrum Radix.) - है ( A pitum involucratum.) अकरास ( akarāstu)-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० अकरब aaqalab.-अ० (Scorpion.) अकड़ ] (1) अंगड़ाई, देह टूटना । संज्ञा पुं० , वृश्चिक, बिच्छू-हिं० । कज़ दुम-फा०। [सं० अकर] पालस्य ,सुस्ती,कार्य शिथिलता । अकरब Aakhab-अ० जंगली सरसों का अकरास सेपोटा achras Sapota, Liun. .. एक भेद है जिसका बीज श्वेत और लम्बा | -ले० चिकु-मह चिकलीचिक्कुकवथ-बस्व०। __ होता है। . फल-सपोट-हि, बं० । शिमैं एलुपै-50 अकरव aqara ba-हिं० संज्ञा पुं० [अ०] शिम-इप्प-ले० । कुम्पोले-कना० । चकची जिस घोड़े के मुँह पर सफ़ेद रोएँ हों और उन कोटी-कजहार-द० । सैपोडिल्ला प्लम, सफ़ेद रोओं के बीच बीच में दसरे रंग के भी :: (Sa podillar plum.), बुलीट्री (Buरोएँ हों उसे अकरब कहते हैं। यह ऐबी समझा lly tide)-इं० । सैपोटिलीर ( Sapotiजाता है। lior]-फाँ० । शिमई इल्लु पाई-म० । For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकासुलमलिक अकर्णः मयुक वर्ग पौधा वा माड़ी जो पंजाब, सिंध और अफगा. (N. (). Sepolucer.) निस्तान प्रादि देशों में होती है। पुनीर के बीज उत्पत्ति स्थान-पश्चिमी द्वीप तथा भारत वर्ष के -हिं० । कञ्ची-पं०। प्रालिश-युor it haria अनेक भागों में इसको लगाते हैं। (Puneeria) Coagulans. ई० मे० इतिहास व प्रयोगादि-पश्चिमी किनारों तथा मे० ० इं० २ भा० । स० फा० इं० ।' बंगाल में फल के लिए इसके वृक्ष लगाए जाते अकरोतस-मातस amritas-matas-यु० गुलेहैं और फन बाजारों में विक्रय हेतु लाए जाने ! ऊलीकुल कुद्स। हैं। भारतवर्ष के अन्य प्रान्तों में यह कम अकरुजत aakarlim..ait-अ० तेल या जैतून होता है। पश्चिमी द्वीप एवं अमरीका में इसकी तैल की तलछट । सेडिमेण्ट (Sediment)छाल बल्य तथा चरन प्रभाव के लिए प्रयोग में लाई जाती है। इसका बीज तीन रत्ती की अकरूट akut-बं० अखरोट Malnut(Jugनात्रा ( अधिक परिमाण में यह विषैला प्रभाव lans regia, Linn.) उत्पन्न करता है ) में मूत्रल है। भारतीयों में श्रकरुलबहरakul-bahar-अ० मोथा के इसके फल की बहुत प्रसिद्धि है। उनका कथन है .. सदृश एक जड़ है जिसको लैफूलब हर भी . कहते हैं। कि यदि इसके फल को पिघले हुए मक्खन में रात्रिभर गिो रक्खा जाय और प्रातःकाल अकरूस aqrus-यु० अकसूस, मवेज़ज अस्ली सेवन किया जाय तो यह पित्त एवं ज्वर संबन्धी के नाम से प्रसिद्ध है। अकोट akot-३० अाक्रमणों से सुरक्षित रखता है। (डाइमाक) अखरोट Jug. वानस्पतिक वर्णन-इसको त्वचा रक्रवर्ण की Arie akarottii-710 i lans regia, होती है। ऊपरी भाग धृमर वर्ण का होता है । Linn. ( walnut) स्वाद -निक और अत्यन्त कसेला । अकरोफ़ल aka rofas-य० हौज़ रूमी । फल-बाहरसे खरदरा और अंडाकार भीतर से अकगः aaroh- पु० अखगेट पीतामायुक्र श्वेत, नर्म और गृदादार-और पकने (Juglans regia, Linn. ) पर इसका स्वाद सेव के समान होता है । बीज अकरोहक akalohak-फा अञ्जरूत (Asकाले रंगके चमकीले अंडाकार और लम्बे होते हैं। tragalus Sarcocolla, Dymock.) फा० इ०। रसायनिक संगठन-(१)दो रेजिन (Risins) | अकरीट akaloint-हिं जिनमें से एक ईथर में घुल जाता है, (२)कया अखरोट,अक्षोट यीन (Tanmin.) १३ प्रतिशत, और | अकरीट akaroutu-ते. | Walnut अकरोड akarond-मह० (३) एक ज्ञारीय सन्त्र सैपोटीन(Sa potine) ।। }(Juglans | regia, अकरौडुakaroudu-कना० ) जो ईथर, मद्यसार और सम्मोहिनी (Chloro Linn.) form) में बुल जाता है; तथा एमोनिया द्वारा अकर्कर: akarkaah । सं० पु० अकरकरा अपने लवणों से भिन्न होकर तलस्थायी हो जाता अकलकरः akalkarah ) ( Pyrethrum है । ई० मे० प्ला०; फा० इं० २ भा० । ___Radix ) गुणधर्म-उष्णवीर्य, बलकारक और - कटु तथा प्रतिश्याय शोथ और बात नाशक है। अकरा सुलमलिक flasul-malik-अ० एक हिन्दी बूटी का नाम है। कोई कोई जैनफल को वै० निघ०। कहते हैं। अकर्णः akarnah-सं० त्रि० (3) Devoid अकरा Akali-हिं०, (१) Dumal (seeds of ears, deaf बहरा, बूचा, बधिर-हिं० । .. of-) अँकरी । (२) एक असगंध की जाति का हे०च०। (२ ) कान रहित (Destitute of For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकतनः १४ अकलबेर karna.)। (३) साँप, सर्प (Snake, A serpent )! अकर्तनः akartanah-सं० त्रि० ( Dwarf ish ) वामन । वै० श०सं० । वाँश्रोन-बं०।। अकर्षण akarshana- हिं० संज्ञा पु० दे० आकषण । अकलकरः akalkarah-सं० पु० उकरा, : पोकरमूल (Spilanthus Oleracere) इं० मे० मे० [फा० इं०। अकलकरा akalkara) -फा० अकरकरा अकलकोरा aqalqori ) (Pyrethrum Radix) स० फ० इं०।। अकल akala-हि. वि. [ सं० ] (१) अवयव रहित । जिसके अवयव न हों। (२) जिसके खंड न हों। अखंड । सर्वाङ्गपूर्ण । (Not in parts, without parts. ) (३) [सं० अ-नहीं+हि. कल-चैन ] विकल । व्याकुल । बेचैन। अकलवर akala bar-हिं० संज्ञा पु० दे० अकलवोर। श्रकल बोर a.kalabira-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] करवीर भांग की तरह का एक पौधा जो हिमालय पर काश्मीर से लेकर नेपाल तक होता है । इसकी जड़ रेशम पर पीला रंग चढ़ाने के काम में आती है। ( Datisca cannabina, Linn.) देखो-अकलवार अकलबर्की akalbarki-द० सर्वजया, कामा क्षो-सं० । सवजया-हिं० । देवकली-मह० । कृष्णताम्र-०। कण्डामण्ड-ता०, (Canna, Indica, C. orientalis.) इं०मे० मे। अकलवार akalabar-हिं० (१) सबजया-बं०।। सर्वजया, कामाक्षो-सं० । तेहर्ज-काश। ( Common Indian Shot.) इं० हैं। गा। ई० मे० मे० | फॉ० इ०३ भा०।। अकलबार akalbir ) -हिं० पैर-बञ्ज, अकलबेर akab.l' ) भगजल(फॉ० इ०) -बत्र वंग ( ई० मे० मे० )-पं० ।। वगतोल-तेहज-काश० । इंटिस्का केलाबीना ! (Datisca Cannabina, Linn.)-mol अकलबार जाति (.. (). Datiscea.) उत्पत्ति-स्थान -हिमालय (काश्मीर से नेपाल पर्यन्त ) और सिन्ध । वानस्पतिक विवरण-कागड-२-६ फो०, कोर, शाखी: निम्नपत्र-१ फु०, पताकार । लघुपत्र (पत्रक )-७-११ संख्या में, ६ इं० लम्बा १॥ ई० चौड़ा, पत्रमूल (डंठल )-युक्त, ऊर्ध्व (पत्र) अत्यन्त सूदन तथा कम कटे हुए पुष्पपत्र (पंग्वडी) सामान्य (अनिश्रित) ३ इं० लम्बा तथा । इ० चौड़ा, पुष्पडण्डी में प्रायः पतली बंधनियां होती हैं। पगग-कोष-लम्बा अधिक बड़ा, तन्तु बहुत सूक्ष्म । नारितन्तु-चौथाई इं०, डोडा (छीमी) चौथाई इञ्च लन्या तथा इससे का चौड़ा,एक कोषीय. सिरे परखुला हश्रा: बोज वहसंख्यक धारीदार होते हैं तथा अाधार पर एक जालीनुना आच्छादन लगा रहता है। फ्लो० वि० इं० । प्रयोगांश-त्रुप, मूल, और त्वचा । रसायनिक संगठन ( या संयोगी तत्व )-- पत्र तथा मूल में एक प्रकार का ग्लूकोसाइड अकलबारीन (Datisein) क२१ उद२२ ऊ२, एक राल (Rasin) तथा एक भांति का कटु सत्व पाया जाता है। अकलबारीन ( Datisciin ) वर्णहीन रेशमवत् सूची अथवा छिलके रूप में पाया जाता है। यह शीतल जल में कम तथा उष्ण जल एवं ईथर में अंशतः विलेय होता है। रवे (Neutral) और स्वाद में कटु होते हैं । थे १८०० शतांश के ताप पर पिघल जाते हैं। औषध-निर्माण-पौधे का शीतकषाय (१० भाग में १ भाग ); मात्रा-प्राधे से १ अाउंस ( ता० से २॥ तो०), चूर्ण-मात्रा ५ से १५ ग्रेन (२॥ रत्ती से ७॥ रत्ती)। प्रभाव व उपयोग-अकलबार कटु तथा सारक है और कभी कभी ज्वर, गण्डमाला तथा श्रामाशयिक रोगों में उपयोग किया जाता है। खगान (Khagan ) में इसकी जड़ को For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 अंकलाकरी अकाकिया कुचल कर शामक रूप से शिर में लगाते हैं। अकल्यः akalyah-सं० त्रि० रुग्ण, रोगी। मदन (Malden) के कथनानुसार कर्नूल डिज़ीज़ड ( Diseased.), इल (I11.) ई०। (IKumool) में बज्रबङ्ग नामसे उन औषध को अकल्याण Akalyana-हिं० वि० [सं०] व्यवहार में लाते हैं। (स्टयुवर्ट) ___ अमंगल, अशुभ, अहित । __ यह पौधा ५ से १५ ग्रेन (२॥ से ७॥ रत्ती) अकल्लः akallah-सं० पु० अकरकरा (Pyrकी मात्रा में विषम ज्वरों में उपयोग किया ____ethrum Radix.) अ० टो० वा० । वै० जा सकता है। (डाइमांक) निय०२ मा० वा० व्या० । ___ प्रामवात (गठिया) में औषध रूपसे इसका अकल्लकः akallakah-सं० पु० अकरकरा अवसादक प्रभाव होता है । क्वाशिया (Pyrethrum Radix.) (Qlassia) के समान इसकी छाल में एक अकवारakavai-हिं० पु० कुक्षि, कोख, गोद, तिक सत्य होता बूज़म ( Bosom.)-इं०। पौधे का शीतक याय कंठमाला, छईि सहित । अकश akash-अ० बालोंका उलझना, गुथजाना, विषम ज्वर तथा कंड व वायु प्रणालियों की वरवाले केश । कर्ल्ड हेयर (Curled hair.) श्लैष्मिक कलाग्री के प्रदाह में व्यवहार किया जाता हैं। इ०म० मे०।। अकसा akasi-हिं० पु० अकरा। वायु प्रणालीस्थ प्रदाह में श्लेष्मनिःसारक रूप | अकसीर akasira-हिं० संज्ञा स्त्रो० [अ०] में और दंत रोग में इसका स्थानिक प्रयोग । देखा-अक्सीर।। किया जाता है । ( लन्दन प्रदर्शिनी १८६२) अका aaqqa-अ० ज्वर के कारण मुख का स्वाद अकलाकरो akalakari ) -कना० अकर. बदल जाना, रोग से अन्न जल का बुरा लगना । अक्कलाकरो akkalakati) करा-हिं० । अकारकरभः akākarabhah-सं० पु० ( Pyrethrum Radix.) Filoso! अकरकरा (Pyrethrum Radis, स० फा० ई० । Linn.) अकलंक akalanka-हिं०वि० [सं०] [ संज्ञा अकाकरा akākara-हिं० करैला, काकरा अकलंकता वि. अकलंकित ] दोष रहित । (Momordica Charantia, Linn.) निदोष, बेदाग़। श्रकाका aqaqa-मि० एक मिश्र देशीय वृक्ष अकलंकता akalankatā-हिं० संज्ञा स्त्री० केफल हैं। [सं०] निदोपता, सफाई, कलंकहीनता। अकाकालिस aqaqalis-यु० चाकसू (शू.) अकलंकित akalankita-हिं० वि० [सं०] Cassia absus | फा० इं० १ भा०। निष्कलंक, निदाय, बे दाग़, साफ, शुद्ध । अकाकिया aqaniya-अ० यह यूनानी शब्द अकरक akalka-हिं० वि० ( Free from. अकाकिया (akikia) से अरबी बनाया गया sedin.nt, pure.) नलरहित, स्वच्छ । है। युनानी भापा में अकाकिया कीकर को कहते अकल्का akalki-हिंस्त्रो० (Moon light) हैं; किन्तु प्रामाणिक एवं विश्वस्त अरबी तथा ज्योत्सना, चाँदनी। फारसी तिब्बी ग्रन्थों के मतानुसार यह एक सत्व अकल्पन akulpali-हिं. सचाहट, प्रकृत, सत्य, है जो क़ज़ (यह मिश्र के एक कण्टकयुक्क वृक्ष यथार्थ, वास्तविक । रीअल् ( Real)-इं० । का फल है, जो कीकर का एक भेद है; कीकरकी अकल्मष akalmusha-हिं० वि० [सं०] फलियों से जो सत्व बनाया जाता है उससे भी ये निर्विकार निर्दोष, पाप रहित, बे ऐब । ही प्रभाव प्रगट होते हैं। )के रस से तैयार किया For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाकिया अकाकिया जाता है। निर्माण-विधि-इसके फल और पत्तों को कूट कर रस निचोड़ लें। पुनः इसको छानकर मन्दाग्नि पर यहां तक पकाएँ कि यह गाढा होजाए। विवरण-यह भारी दृढ़ तथा प्रियगंधयुक्त होता है। इसके छोटे टुकड़े प्रकार के सामने देखने से । हरित बोतल के रंग के मालूम होते हैं; किन्तु कोई२ कुछ ललाई लिए हुए होते हैं। इसके बड़े । बड़े टुकड़े काले वर्ण के दीख पड़ते हैं। स्वादमधुर, कसेला और लुपाबदार होता है । शीतल जल में डालने से यह लुभाव रूप में परिणत हो जाता है और इसमें पीताभायुक्र धूसरवर्ण अथवा भूरापन लिए हुए हरे रंग के पदार्थ तैरते हुए। प्रतीत होते हैं । छानने के पश्चात् लुभाब का रंग बबूल गोंद के समान होता है। प्रकृति-३ कक्षा में (अशुद्ध ) ठण्डी और रूस | है । हानिकर्ता-रोध उत्पादक है। दर्पनाशक-रोग़न बादाम । प्रतिनिधि-चन्दन और रसौत । मात्रा-३॥ मा०।। अक़ाकिया-गुणधर्म-यूनानीग्रन्थकारों के जत से अकालिया बालोंको काला करता है। क्योंकि यह बालों की तरी को दूर करता है। सर्दी के फटे हुए हस्तपाद (विपादिका) के लिए गुणदायक | है, क्योंकि अपनी संकोचनीय शक्ति के कारण यह अवयवों से विच्छिन्न भागों को संकुवित एवं एकत्रित करता है, अवयव को बलवान बनाता और इसे फटने से रोकता है। दाखस (अंगुलबेड़ा )। के लिए लाभदायक है, क्योंकि इस में उरडक पैदा करता तथा माहाको लौटाता है। इसी कारण अन्य शोथों कोभी लाभप्रद है । मुह के क्षतों को दूर करता है क्योंकि उन रतूवतों को शुष्क कर देता है जो क्षतको पूरित नही होने देती। अपनी शकताके कारण संधियों की शिथिलता को लाभप्रद है। दृष्टि को बल देता और उसे सूचम एवं तीव बनाता है क्योंकि यह नेत्र की सान्द्र रतूवतों को जो रूहको ग़लीज़, करने वाली हैं, अभिशोषित कर लेता है। अाँव पाने में लाभ व शान्ति प्रदान करता है, क्योंकि यह आँत की ओर मलों के बहाव को रोकना है। और नाखूना (नेत्रस्थ रक विन्दु) को ग्रीयों में डाला जाता है, क्योंकि यह दृष्टि को शक्ति प्रदान करता है, और इसकी चिकित्सा में जो उष्ण तीरण एवं भक (अकाल) अपधिया उपयोग में पाती हैं उनकी पीड़ा से नेत्र को सुरक्षित रखता है। पान, अनुलेपन तथा वस्ति (हु कना) रूप से प्रयुक करनेसे यह कज पैदा करता है। प्रवाहिका रातोसार और रकबाब को गुण करता है। निकली हुई काँच (गुदभ्रंश) को असलो दशा पर लौटाता एवं उसको शिथिलता को दूर करता है, क्योंकि इसमें संकोचक शक्ति तथा रूक्षता विद्यजान होती है। उक्त अभिप्राय हेतु इसको खिलाते हैं अथवा इसे लेष रूप से उपयोग में लाते हैं । ( नको०) अकाक्रिया या प्रकाकिया के प्रभाव तथा प्रयाग-कफ निस्सारक, वक्षःस्थलस्थ वेदना शामक, संकोचक,रस्थापक, म दुताजनक और बल कारक । श्रत प्रण लीस्य कलाओं तथा जननेन्द्रिय वा मूत्र सम्बन्धी अवयवों पर इसका सर्वोत्तम प्रभाव होता है। इसी कारण अतिसार, प्रवाहिका, सूज़ाक(पूयमेह), नासूर और पुरातन वस्तिप्रदाह प्रभति विकारों में यह अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होता है । यद्यपि अफीम तथा इसके कुछ यौगिकों की अपेक्षा यह कम प्रभावजनक होता है, तथापि उस अवस्था में, जब कि यह अकेला उपयोग में लाया जाए, समस्त वानस्पतिक तथा खानेज संकोचक श्रौषधों से अधिकतर प्रभावकारक प्रमाणित होता है। जलोदर के साथ जब अतिसार एवं प्रवाहिका हो तो अफीम और इसके यौगिक प्रायः हानिकर होते हैं। क्योंकि जिस मात्रा में ये अतीसार प्रभति को रोकते हैं उसी अनुपात में ये जलोदर को वृद्धि करते हैं। इसी कारण "अतक्रिया प्रांत्र रोगों में अफीम तथा इसके अन्य यौगिकों को अपेक्षा श्रेष्ठतर तथा लाभदायी औषध है। अक़ाकिया मासूल (धोया हुश्रा)-इसकी विधि इस प्रकार है-अक़ाक़िया को पानी में खरल For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाकिया अकारा,-रः काक ऊपर का पानी निथार कर टपका लें, अकार aajar-अ० शराब, मद्य । वाइन और इसी प्रकार तब तक करते रहें जब तक कि (Wine )-इं०। पानी स्वच्छ न दिखाई देने लगे तथा । अकार अत नोसा-aagaraartanisi-तुर० इसका रंग बदलना बन्द न हो जाय । पश्चात । श्रा ज़रबुआ, चबक, अश्नान-फा०। ('yolaउसकी टिकिया बना लें। उपयोग में लाने से min Persicum, Hiller. पूर्व इसके धो लेने से यह और उत्तम हे।जाता है। अकारयादम-agar-adam-अ० मैदा लकड़ी ज० फा० ई० । ई० मे० सां० । फा० इं०२ -हिं० । मग़ास नग़ासे -हिन्दी-अ० । किल्ज़ मा० । तन। -फा० । Tetrantha Roxburshii, देखो-बबुरः। Vees. ( Wood of-)। मुशैप्पीयेष्टि, मैदा अकाकिया akakiya-फि०, ६०, अ०, हिं०, लक्टि, विशिन पहइ-ता०। नरमामिति मेदा वाज़ा०, अकःकिया-कर्ज का गाढ़ा किया हुश्रा -ते०। कुकुर चिता बं० स० फा०ई०। स्वरस (उसारह ), कीकर का रस, रङ्ग । अकारक मिलाव akāraka-milava-हिं० अकाकोर aajagil:-अ० (व०व०); अक्कार । संज्ञा पु० [सं० प्रकारक+हिं० मिलाव] (१० व०) जड़ी बूटियों, ओषधि । हर्ब ऐसा रसायनिक भिण वा मिलावट जिसमें (Herb)-इं०। मिली हुई वस्तुओं के पृथक् गुण बने रहें और ने अकाचा ॥kahā-सं० स्त्रो० पपोटन, पुनीर अलग की जा सके। (एक भारतीय बूटी है), काक्नज Vithanian ( Panoria ) coagulans, Dunal. अकार कोहान aafar-kohan (१)अकर-ले०। करा (Pyrethri Radix ) अकाम ajam-अ० अकील । बन्ध्या स्त्री वा (२) ऊदे सलीब, फावानिया-फा०, 'अ० । पुरुप । स्टेराइल (Sterill)-०। __ऊदे सालप-हिं० | Peonia officinalis, FTA akáina- ETO ( Free from Linn., 1. Corallina, Linn. desis),-हिं० वि० बिना कामना का । का (Male variety ) मना रहित । इच्छाविहीन । अथ सू०, २, ७, अकारकांटा akar-kānta-हि० पु० ढेरा, का०६ । अंकोल । ( Alangium Decapetaअकामा akānā-हिं० वि० स्त्री० [सं०] । ____lum, Lam.)-ले० । (स्त्री) जिसमें काम का प्रादुर्भाधन हुअा हो। अकारतलन akan-talun-रू. फारस देश में यौवनावस्था के पूर्व की। होने वाले एक जंगली वृत का बीज है। इस संत्रात्रो० काम चेष्टा रहित स्त्री। वृक्ष का पुप्प अत्यन्त लाल तथा नीलगू एवं अकामोkami-हि. वि० [सं० अकामिन् । सुन्दर होता है। स्वाद-मधुर। [स्त्रो० अकामिनी ] जो कामी न हो । जितेन्द्रिय । अकारवा qara,va--करोया, जीरा भेद । अकाय kāya-हिं० वि० [सं०] (१) (A kind of cumin seed.) ( Vithout body, incorportal) अकार सौसीनाई aaai-sousinai सुर; बिना शरीर वाला । देह रहित । कायाशुन्य । पुष्करमूल, पद्मपुष्कर-सं० । (२) अशरीरी। शरीर न धारण करने वाला, (Oris root ( Iris Florentina.) जन्म न लेने वाला । (३) रूपरहित, निराकार । अकारा,-र: akāra,-rah--हिं० अपामागे, अकार akira-हिं० संज्ञा पुं० अक्षर श्र। दे० चिरचिटा ( Achyranthes asperil, श्राकार। Linn.) फा०ई०। For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकाराअरून अकालशयनम् अकाराअरून aaqara-aaron-सिर० अस्. अकालजलदः akāla-jalalah-सं० पु० रारा, एक बारीक चूर्ण है जो कभी कभी प्रांत्र | बेसमय का बादल । द्वारा और कभी खुन्सा को जड़से बनाया जाता है। अकालपुष्पम् akāla-pushpan-सं० क्ली० अकारीकन akaitiqun-जंगली जैतून का बीज ___अकाल कुसुन, बे मौसमका फूल ( A flower (Wild Olive-oil seed) blossoming ont of season.) अकारून ajarān-रु० बज-अ०। बच-हिं० । अकाल भोजनम् ॥kala.bhojitnam-सं० Acorus calamus, Linn. क्ली० असमय भोजन अर्थात् भोजन के समयसे अकाल akāla-हिं० संज्ञा पु० [सं०] (वि० अका- पहिले अथवा समय बिताकर भोजन करना । लिक) (१) दुर्मिन, दुष्काल, महँगी, कहत गुण-इससे शरीर असमर्थ हो जाता है और ( Famine ) । (२) । असमय इस कारण शिर दर्द, विषचिका, अलसक अनुपयुक्र .समय, अनवसर, अनियमित । और विलम्बिका श्रादि रोग उत्पन्न होते हैं । समय । बे ठीक सनय । कुसमय ।। और रोगों की वृद्धि होने पर मृत्यु भी होजाती श्रीक समय से पहिले वा पीछे का समय । है, जैसेप्रिमेचर ( Premature ) अप्राप्तकालेभुजानो हसमर्थतनुर्नरः । अन्टाइम्ली ( Untimely) -इ । तांस्तान्व्याधीनवाप्नोति मरणञ्चाधिगच्छति ॥ (३) घाटा, कमी, न्यूनता । भा० पू० १ भा० १५१ श्लो० । अकालह. akālah-अ० अक्लान, हिक्कह । अकालमृत्यु ukala-imity-हिं० संज्ञा स्त्री० ख़ारिश-फा० । कण्डु, खाज, खुजली, खुजाहट, [सं०] असामयिक मृत्यु ।क समय से पहिले -हिं० । पुराइटिस (Pruritis)-इं० । की मृत्यु । अनायास मृत्यु। थोड़ी अवस्था का अकालकु(कृ)ष्माण्डः akāla-ku-kushman- मरना । अपक्क नृत्यु, कुसजय (समय) में dah-सं०पु०(A puumpkin produced मृत्यु (संस्कृत में मृत्यु पुलिङ्ग है)। अन्टायout of seasom. ) असमय में होने वाला Faiza ( Cntimely death ) कुप्माण्ड, ऋतु के अतिरिक्र होनेवाला कुम्हड़ा । अकालमेघादयः akālameg holayah-सं० अकालकुसुम akāla-kusuma-हिं० संज्ञा पु० qo?--(An inseasonable rise or [सं० अकालकुसुमं] (१) बे समय फूलने gathering of clouds) अकालजलदो वाला, बेसमय का फल । बिना समय वा ऋतु में दय, असमय में बादल होना (imist or फूला हुश्रा फूल । (Aflower blosso fog) कुहिरा, अवश्याय । ming out of season ) (२) वेसमय अकालवृष्टिः kāla-srishtih-सं०हि स्त्री० की चीज । असमय की वर्षा ( Untinely rain) नोट-यह दुर्भिक्ष वा उपद्रव-सूचक समझा अकालवेला kilareli-हि. संज्ञा पु० जाता है। (Uniseasonable or impiorerअकालजम् akalajam-सं० त्रि. ( Unse. time) असमय ।। asonable, Premature, produced अकालशयनम् akala-shayalam-सं० क्ली० out of season) अकाल उत्पन्न, अकाल असमय का सोना, वेसमय को निद्रा । जात, बे समय उत्पन्न हुआ, यथा गुरा---अकाल शयन से कफ कुपित होता है . "अकालजन्तु विरसं न धान्यं गुणवतस्मृतम् ।" और प्रतिस्याय, दीनस, दय, सूजन, शिरोरोग, अर्थात् बे समय उत्पन्न हुश्रा धान्य स्वाद रहित । तथा अग्निमांद्य प्रभृति रोग होते हैं । वा० सू० और गुणहीन होता है। राज। अ.-। हा० । अत्रिः १ स्थान २३ अ०। For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकालिक १६ प्रकाशबेल अकालिक akālika-हिं० वि० [सं०] असाम यिक । बिना समय का । बे मौके का। अकालीम ajalim-अ. (व.व.), इक़लीस (ए० व०) देश, भाग, स्थान-हिं० । कण्ट्री (Country )-इं। अकाव akava-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अर्क] ! Calotropis gigantoa, K. Br. , मदार । अकाशदेवी akashaaleevi-द० एक पौधा विशेष। अकाश (स ) पवन akash,s-pavan-द० अकासबेल, अमरवेल--हिं० । कसूस--फा० । (Cuseita Rf XI, Road.) ई० मे० मे० । प्रकाशववर-akasha, barar,-11-हिं० अकासबेल(Cuseuta Reflesa, Ro.re.) प्रकाशवल्लो nkāsha balli-सं० स्त्री० अकासवेल (Cuscinta Reflexa,Real.) प्रकाश (-स) बेल akasha, -sa-bela -हिं० संज्ञा पु[सं० अाकाशवेलि] अकाशबॅवरी, अमर-वेल,अकाशबेलि, अंबरवेलि, श्राकास बौर, -हिं० । अकाशबल्ली, खवल्ली, अमर वल्ली-सं० । अकाशवेल, आलोकलता, अल्गुसी, हल्दी, अलगुसीलता-बं० । अफ़्तीमूने हिन्दीयु०, अ०। कप से हिन्दी-फ़ा० । कक्स्युटा रिफ्लेक्मा ( Cusuta Reflexa, Romb.) केस्मिथा फिलिफॉर्मिस (Cassytha Filifornuis, Lim. )-cool IST (Dodder) -ई। कोतान, इन्दिरावल्ली, नान्दे -ता० । इन्द्र जाल, पाचीतिगे, पञ्चनिगा-ते०, तेलं० । अकाश वल्ली-मल० । बेल्लुबल्लि,नेलमुदवल्लि, शविगेबल्लि अमरबलि-कना०,कर्ना० । असरबेल, अन्तरबेल, सोनबेल, अलरोइल्ला-मह० । अमरबेल-गु० । कोतन--३० । अल्गजड़ी-सन्ता० । नेदमुदवल्ली-- का० । अन्तरबेल--को० : शियून--तु० । लतावर्ग(N. 0. Convolrulace.) उत्पत्ति स्थान-प्रायः समस्त भारतवर्ष । वानस्पतिक विवरण-अकासबेल सर्वथा एक __ परायी लता है जो डोरे सी कीकर, बेर, अडसे इत्यादि वृक्षों पर जाल की तरह फैली हुई होती है। इसका तना गहरे हरित वर्ण का होता है जिस पर लम्बाई के रुख पीली पीली धारियाँ पड़ी होती हैं। अंकुर से पतली जड़ निकल कर भूमि में प्रविष्ट होजाती है और तना शीघ्र शीघ्र बढ़ने लगता है । इससे चोषक सूत्र (Suckers) निकल कर निकटस्थ वृक्ष की डालियों में निज आहार हेतु मार्ग बनाते हैं और उक वृक्ष से श्राहार सम्बन्धी अावश्यक तत्त्व, जैसे-जल तथा लवण जो वृक्ष में विद्यमान होता है, प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था होजाने पर जड़ सूख जाती है और पुनः लता का भूमि से कोई भी सम्बन्ध नहीं रह जाता । ऐसे भी इसके टुकड़े करके वृक्षों पर डाल देने से यह उस पर बढ़ने लगता है। यदि अंकुर को कोई उपयुक्र आधार न मिले तो भी वह सूख जाता है। सूक्ष्म परतों के अतिरिक्र इसमें पत्ते नहीं होते और नही इनसे उनको कोई लाभ होता है । तने को काट कर देखने पर बाहर मज़बूत नालीदार रेशे और मध्य में मा गूदा दीख पड़ता है। पप श्वेत रंगके पाते हैं,पुष्पवाद्यावरण (Sepals) को हटाने पर भीतरसे मटर के आकार के गोलाकार बीज निकलते हैं। वर्षाकाल में इसकी बेल उगती है तथा एक ही वृक्ष पर प्रतिवर्ष पुनः नवीन होती है। इसी कारण इसको "अमरबेल" (Immortal ) कहते हैं। यह वृक्षों के ऊपर होती है और इसका भूमि से कोई सम्बन्ध नहीं रहता इस कारण इसको आकारावेल अादि नाम से पुकारते हैं। इसका लेटिन नाम कस्क्युटा ( Cuscuta.) कसूस से, जो अफ़्तीमून (श्रकारा बेल विलायती) का अरबी पर्याय है, व्युत्पन्न है । देखो-अफ्तोमून। उपयुके दोनों लेटिन पर्यायों में से प्रथम अर्थात् कस्क्युटा कॉन्वॉल्ल्युलेसीई वर्ग का तथा द्वितीय अर्थात् कैस्सिथा लॉरेसीई ( Laracet') वर्ग का पौधा है। छोटे छोटे भेदों के कारण इसकी बहुत सी जातियाँ होगई हैं। अस्तु, इनमें से किसी के For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशबेल अकित मकित डंठल पीले और किसी के लाल होते हैं; किसी श्रीपथनिर्माण-शीतकपाय, काथ, चूर्ण और के फल बड़े और किसी के छोटे होते हैं। इसी पुलटिस । मात्रा-४ रत्ती से १॥ तंला तक। प्रकार और अनेक भेद प्रभेद को बातें हैं । यूनानी दपजाशकसेव, कतीरा, बादानरोग़न । हकीम जिस ओषध को क.म में लाते हैं वह ' प्रतिनिधि-क.ली निराय या दिसताय! श्रफ्तीमून नामसे फारस प्रभति देशों से भारत अकाशवेल द्वारा सहम प्रस्तुत करनावर्ष में श्राती है। हरी अकाशबेल का पानी १० तो० निकाल कर प्रयोगांश-सम्पूर्ण पौधा,बीत ( तुल मेक सूस) चांदी के पत्र 1 तो डालकर खरल में घटें। और तना। शुक होने पर टिकिया बना कर छोटे शरावों में रसायनिक संगठन-क्वरसेटीन (Quer... बंद करके पांच सेर पल को अचदें। शीतल - tin ) राल पोर एक प्रकार का क्षारीय सत्व होने पर श्यामाभायुक भस्त निकाल लें । मात्राकसूसीन या अपरीन (Cusenting ) जो एक चावल से एक रत्तो तक, उपयुक अनुपान कुछ २तिक एवं ईथर और क्लोरोफार्म में विलेय ।। के साथ सेवन करें। होता है। श्रकास akasa-हि० ० संज्ञा दे० आकाश । गुण धर्म तथा उपयोग अकासकृत akasikrit.-हक संज्ञा पु. श्राका राबेल-ग्राही, तिज, पिच्छिल, नेत्ररोग- [सं० अ.का शक 1 ] बिजलो ! अनेक० । नाराक, अग्निवद्वक, हृद्य और पित्त तथा कफ श्रकासनोम akistmimi-हिं० सजा प. को नारा करने वाली है। भा० पू०१ आ० । [सं० अ.का शनिघ] एक पेड़ जिसको पनियां मद० २०१। बहुत सुन्दर होती है। मधुर, कटुपित्तनाशक, शुक्रवद्धक और रसायन श्रकालवेल विलायतोakasi-bla-vilayati एवं बल्य है । रा०नि० ब०३। -हि० अकाशबेल भेद । अफ्तोमन-श्र० । (Cuscita Riflesil, kol.) यूनानी हकीम आकारावेल को उष्ण व रूक्ष । मानने हैं । हानिकर्ता-मृच्छजिनक, तृष्णाजनक अकारूमुग्रो akasil-mugri-कॉ० सन्ध्याराम, कृष्णकली, गुल-अचास-का०। Foll)' और वात ग्रस्तताजनक है। clock flower (Mira bilis daalit प्रभाव... अकासवेल के जोगुण वैद्यक ग्रन्थों में ppa, Linn.)। ई० मे० मे । वर्णित हैं अफ्तीमून के प्रायः वेही गुण यूनानी अकाहलो akāhuli-हि० श्रो० अंधाहुली, ग्रन्धों में पाए जाते हैं। यही क्यों, प्रसिद्ध युनानी अंधपुप्पी ( Trichodesma Indicum) निघण्टु मज़नुल अदवियह. के लेखक मीर- -ले। मुहम्मदहुसेन ने तो इसके गुण अस्तीमून के अकित agit-अ० उस पनीर को कहते हैं जो दही सदृश ही वर्णन किए हैं। अतः सर्व सम्लत से के पानी टपकाने के पश्चात् शेप रहता है। इसके मुख्य मुख्य गुणधर्न निम्न प्रकार हैं-परि उसमें लवण मिलाकर शुष्क कर लेते हैं। वर्तक, पित्त, कफ, तथा आमना शक अशोध्न, : अकितन ajitall-यु० या यम०मुद्ग, में ग-हि. मस्तिष्कविकार, यथा-उन्माद मूच्र्छा आदि को (Phasoins Mongo, Lin.) लाभदायक, रशोधक, हृदय को हितकारी, शुक्र- अकित मकित akitimakit-अ०, सिर०, वर्धक, नेत्र रोगनाशक, अग्निकारक, पिच्छिल, करजुत्रा, कर जो, क.कर अ-हि० । कुवेरादिग्राही, बलकारक, रसायन और दिव्योषध है। फलम्-सं० खायहे इब्लीस-का0/Cuisalpइसका वाह्य प्रयोग (पुल्टिस रूप में) स्थानीय inia (guilandina ) bonducella, वेदनाशामक तथा कराडुघ्न है। Linn. (Nut of Bonduc-nut. ) . स्वाद---मधुर, कड़वा, कषैला और चरपरा।। स० फा०ई०। फाइं०। For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकिव अकीदून अकिव antib-अ० (१) पाणि, एड़ी-हिं०।- गुण-द्रोग विशेष कर मूर्छा तथा पुरातन पाश्नह -- ( Calcis, Heel. (२) शुष्क कासको अत्यन्त लाभ पहुँचाता है । रुधिरको संधिबंध', स्नायुर-हिं० । रिवात-अ० । बन्द करता है। उचित अनुपानके साथ सेवन करें। ( Ligament) (२)री की छाल १ छटांक, १ तोला अकिलवहार akilnbahāra-ह. संत्रा० पु. अक़ीक़ श्याम, एक बर्तन ने उक्र छाल अकीक अ० अकीकुल बह ] वैजयन्तीका पौधा व दाना । के टुकड़ों के नीचे ऊपर देकर बन्द कर कपड़ अकिल्विष alilvisha-हिं० वि० [सं० ] मिट्टी करके एक नन उपलों की पांच दें। यदि (१) पवित्र (२) निर्मल, शुद्र ।-संडा पु० शुद्ध- फूल न हो तो एक यांच और दें। प्राणी, पारशून्य मनुष्य । . गुरा--प्रामाराय को बलप्रद, कालोद्दीपक, हृदय अकोक ajiq!!-हिं० रन: पु० । अगेट(Agate) : वनस्तिष्क को बलप्रद ( हृद्य व भेष्य), सुधाअकांक aagin-अ० -ई०यह एक प्र वर्धक और पूयमेह का लाभकारी है। कार का खनिज पन्थर है जो कई प्रकारका होता है। (३) शुद्ध उसन रगरहित अकीक को अर्क' इनमें यमनी,पीताभायुक,रक वाय इसके पश्चात | बेदमुष्क और केवड़ा में इतना बुझाएँ कि टुकड़े पीत पुनः श्वेत वय, जाता होता है। किसी दकड़े होजाय फिर उसी अर्क केवड़ा और बेदमुश्क किसी हकील के विचार में यकृत के रंगका अर्थात् से दोपहर खरल करके टिकिया बना लें और लोहित वर्णवाला सर्वोत्तल होता है। यह बंबई, गुलाब के कल्क में लपेट कर शराव सम्पुट कर बांदा और खंभात से आता है। इसकी कई २०-२५ सेर उपलों की प्रांच। एक वादी किम्में यमन और बग़दाद मे भी पाती हैं। . प्रांची में फुल होजाएगा । मात्रा-एक रती तक। गुगधर्म-अकीक हृद्य है और मूर्छा, शोक, . गुण-उनांगों को बल प्रदान करने, विशेष रक्रम्यान, पीहा और यकृतके सुहों तथा अश्मरी को कर मूर्छा, के लिए उत्तन है। " नाट करने वाला है। इसे नेत्र में लगानेसे ज्योति नंट-चूँ कि यह एक अत्यन्त कठोर परथर की वृद्धि होती है। इसकी अस्म-उपयुक है अस्तु इसके भस्मीकरण में ऐसा प्रयत्न करें रोगों के अतिरित उत्तमाङ्गों को बलप्रद, कामो कि जिसमें यह बिल्कुल अाटे की तरह बारीक हीरक और शुक्रको गाढ़ा करने वाली है। उबरों में । पिस जाय और इसमें करकराहट अवशेष न रहे। इसका उपयोग लाभदायी सिद्ध होता है उक्र अभिप्राय हेतु इसको बूटियों के जल में देर तन सूज़ाक तथा व्रणों को पूरित करता है। . तक खरल कर तीरणाग्नि देते रहें। अकीक मम्म बनाने को विधि- अकोकह aaqiqah-अ० नवजात शिशु के शिर (१) अक़ीक १ मो०, कमलगट्टा ॥, कमलगट्टा के बाल । को कूटकर एक टाट पर श्राधा बिछा दें और अकील अकोकलबहार aaiqul bahai- जयाकी समूची डली उसपर रखकर शेष प्राधा पुष्प, जयन्तो (Sesbania aculeata, ऊपर बिछा। टट का गुलला सा बनाकर 1 .) १० सेर उपलों की अांच दें। एक ग्रांच में भस्म ! अकीख akikh-० रोदे, आंत्र, तांत होगी अन्यथा दो तीन पांच और दें। उचित (Intestines) तो यह है कि अक़ीक़ को गुलाबार्क में १०- अकीदुल अनबāaqidul aanab-अ० मद्य१५ बार बुझाव देलें जिससे वह टुकड़े टुकड़े हो भेद-हिं० । मैफ़रुतज-अ०। (A kind of जाय । इसे गलाबार्क या बेदमुश्क में खरल करके urine ) टिकिया बनाकर भाग दें। अत्युत्तम भस्म प्रस्तुत अकीदून akidun-रू० सुम, खुर । हूत होगी। मात्रा-१ मे २ रत्ती तक । (Cloren, A hoof )-३०। पा For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्रोम अकोलिया टर्मिका अक़ीम् aaqim-अ० बन्ध्या, बाँझ चाहे पुरुष हो (ए) कीरैन्थीस एस्परा achyranthes अथवा स्त्री। स्टेराइल (Sterile)-इं०। aspera, Linm.--ले० अपामार्ग, लटजीरा नोट-बाँझ पुरुष वह है जिसके वीर्य में -हिं। स० फा० इ०। इं० मे० मे०।इ गोत्पादक शक्रि न हो और बन्ध्या स्त्री वह है। मे० प्लां० । मेमा० । इहैं.गा० । फा०ई०२ - जिसमें गर्भ न ठहरे। अक्रीम शब्द यद्यपि पुलिङ्ग भा० । वा स्त्रीलिङ्ग दोनों के लिए प्रयोग में लाया जाता अ (ए) कोरन्थोस, क्लाइमिंग achyrantहै, तथापि कभी स्त्रीलिङ्ग के लिए अक़ीमह शब्द hes, climbing)--इं० ( A Seantको उपयोग में लाते हैं। .. ens Rorb.) ई० है. गा। अकोमह aaqimah-अ० बन्ध्या स्त्री । स्टेराइल 'श्र (ए) कोरन्थोस, हिरण्डा achyranth- वुमन (Sterile woman )-इं० । es, triandra, Re...-ले० साँची, अकीमूज़ akimuz-अ०. शालञ्चह.। ई है. गा०। अकोमूस akimus | अ (ए) कोरैन्थोस, थ्री स्टेमेगड achyra. . यह शब्द एकिमोसिस ( Echymosis) से nthes, thie.. staine ned, Reah. - व्युत्पन्न है, जिससे वे चिह्न अभिप्रेत हैं जो चोट . -ई०, साँची, शालुह । ई० है. गा०। प्रभृति के कारण प्रधः त्वचा में रक के जनने से श्र(ए) कोरन्थोस, रफ achyranthi s, -रक अथवा नीलवर्ण के पड़ जाते हैं, जैसे-नेत्र rough.-६० अपामार्ग, अग रा (-री), , का लाल विन्दु । । हलीम, महत । इहे. गा। अकोर āaqiu-अ० तिकतम,अत्यन्त कट (कड़ा)। अ (ए) कीरैन्थोस, लैनेटा acchyranthes - दी मोस्ट बिटर(The most bitter)-इं० _lans ta, Ro...-ल. चाया । ई० हैं. अकोरैन्थस होलो लोढ्ड achyranthus | गा । _holy. leared-० हरकुच काँटा-७० अ (ए) कोरन्थोस लेवेरिया achyrantअ (ए) कोरन्थोस श्राइलिसिफोलिया (a hos Laparia-ले० रकापामार्ग, लाल... chyranthes Ilicifolia)-ले० हकच ओंगा। . काँटा, हरकत । अ (ए. ) कीरैन्यास वला achyranthes, अ () कोरैन्थोस आल्टर्निफोलिया (al wooly-इं०, चाया इं० है० गा०। chyranthes alternifolia ) ले (ए) कीरन्थस स्पिकेटा achyranthees अजाश्रृंगी, गंगाटी (--तियः), उतरन-हिं० । Spicata, Bum.-ले० अपामार्ग Thes इं० हैं गा। prickly chaff flower-Toro अ (प.) कोरन्थोस प्राल्टनेंट लोड achy मे० लां० । ranthe: alternate leaved- Aitrae rat MEES achyranthes गंगाटी, उतरन-हिं०।०हेगा। holyleaved-ई. हर्कुच काँटा-बं० । अ (प.) कीरेन्थोस ऑस्टयुजीफोलिया achy- अकोला aaqila गारह। ranthes obtusifolia, Lamb.-mo Aifaat #fETEzt achillea cuspida( The prickly chaff flower) अपा- ta, D. C.-ले०, बरासिफ़-कछ, हिं० मार्ग-हिं० । ई० मे० प्लां। बाज़ा० । रोज़मरी-बस्व० इ० मे० प्लां०। अ (ए) कोरन्थोस इण्डिका achyran- अकीलिया टर्मिका achillea termica-ले० thes Indica, Rorn.-ले० अपामार्ग कुन्दस-यु० । जुन्दबेदस्तर ( Castore-हिं० । ई० मे० प्लां। um.) For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कालियामास्केटा अकुवायलास अकोलिया मॉस्केटा achillea. moschata पदार्थ जिसमें शहद को हल करके जोश नहीं -ले० यह पाल्पपार्वतीय पौधा है जिसमें कस्तूरी- दिया जाता। हनीवाटर ( Honey watवत् गंध होती है । इसमें उग्र स्वेदजनक तथा | el)- । प्रारोग्यकारक प्रभाव होता है । फा०६०२भा०।। अकरु akuru-सिंगा० गुड़-हि. | कन्द-फा०॥ अकोलिया मिलीफॉलिश्रम् achillea mille. । गूइ-द० । जै गरी (Jaggery of sugal folium, Linn.-ले० परिक्षासिफ, बूये- | eane)-इ० । स० फा० । मादरान-फा० । मोमा-चोपन्दिया-काश० । अकुरु अरक akuru-alak-सिंगा. गुड़ की बरयर-मि०। सयुवर्ट महोदय के कथनानुसार शराब-हिं० । गुड़ की दारू, गुड़की शराब-द०। यह बाजार में बिकने वाला एक पौधा है। इसके (Liquor of Jaggery) स० फा० ई० पुष्प और पन औषध कार्य में आते हैं । इं० मे० अकुलः akulah-सं० त्रि० (१) निरस्थि द्रव्य, ला० । फा० ई०२ भा० । मेमो०। बीजशून्य । च० चि०१०। (२) लम्ब अकोलिया सैन्टोलोना-achillea santo. कर्णहीन मध्यम अश्व, यथा-"लम्बकणोऽजटश्चैव linal, Linn-ले. वरिञासिफ़-फा० । अकुलः परिकीर्तितः। जय०६०। (३) फा० इं०२भा० कुल रहित, परिवार विहीन । जिसके कुल में कोई अकीलीइक एसिड achilleic acid-इं० न हो। (४) बुरे कुल का । अकुलीन । नीच बरिआलिफ़ या विषका तेज़ाब (Aconitica कुल का । acid) फा० इं०२ भा०। अकुलाना akulānā-हिं० क्रि०अ० [सं० श्राकुअकोलोईन achilleine-इं. यह अकीलिया लन ] (१) व्याकुल होना, व्यग्र होना। मॉस्केटा द्वारा निर्मित एक क्षारीय सव है। फा० (२) विह्वल होना, मग्न होना, लीन होना, इं०२ भा०। श्रावेग में प्राना। अकीलोन achill-in-इं० रनाभायुक्न धूसर अकलिनो akulini-हिं० वि० स्त्री० [सं० वर्ण का सत्व जो बरासिफ द्वारा प्राप्त होता __ अकुलीना ] जो कुलवती न हो, कुलटा, व्यभिहै । फा० इं०२भा०। चारिणी । अकीलीस aqilis—यु० रञ्जमिश्क,रामतुलसी, अकलीन akulina-हिं० वि० [सं०] बुरे कुल अम्बल ( Ocimum gratissimum का, नीच कुल का, तुच्छ वंश में उत्पन्न, कमीना, Linn.)-ले० । खुद्र। अकीसून aqisun-यु० एक अप्रसिद्ध करटकमय अकुलबलसाँ aqulla-balasan-अ० रोगने बूटी है जो बादावर्द के सदृश होती है, और बलसाँ-फा० । बलसों का तेल-हिं०, द०। इन्दलुस (Spain ) में उत्पन्न होती है। Balsamum, var.of ( Blasam of अकुजीमडु akuji madu-ते. थूहर, सेंहुड़, Necca or Balm cf Gilead.)-ले०। (Euphorbia Nerifolia, Linn.) aigaie a quvoyalá-samún-zo इं०मे० मे०। दोह नुल बलसाँ, रोग़ने बलसाँ-फा० । बलसाँ अकुप् akup-फा० मुख के भीतर, मुख की नाली का तेल--हिं०, द०। ( Balsamum) . ((Esophagus) नोट-यद्यपि उपयुक्र शब्द वस्तुतः बालसम अकुप्यम् akupyam-सं० क्ला० स्वर्ण, सोना 14 ARI ( Balsam of Mecca ) * gold (Aurum) हला० । पर्याय है, पर वे भारतीय अाइल श्राफ कीपैया अकु (-क.) मालो aqu,-qu-mali-अ० मा- (Oil of Copaiba India) के लिए उल अस्ल । शहदजल, शहद का पानी या अन्य भी प्रयक होते हैं। स० फा०1०।। For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकुशलं अकन्थस इलिसिफोलिया, अस अकुशलं akushalau-सं० क्लो० .. क्लेश शून्य । जिसे किसी प्रकार का अशुभ, अकुशल akushala-हिं० संत्रा पु० ) संकोच व कष्ट न हो (२) अासान । सुगम । अकृत akrita-हिं० वि० [सं०] (१ ) श्रहित, बुराई, ( Evil or misfortunts.) वि०( not clevel or skilful ) जो दक्ष . (Not dol; Or Poultitl..) (२) स्वयंभू (३) प्राकृतिक (४) अन्द, कर्म. न हो, अनिपुण, अनाड़ी। gta (One who had long no अकूटः akutah-सं० पु० फलवृक्ष विशेष, आगई Work.) संज्ञा पुं० (१) कारण, (२) रत्ना०। मोक्ष, (३) स्वभाव । प्रकृति । अनीतून conitil-यु० (१) अतोस, अकृत काल akrita kāla-हिं० वि० [सं०] ufafant ( Aconitum Hoterophyll. जिसके लिए कोई काल नियत न हो। जिसके um, Inll.)। (२) वरूनाभ (Aco लिए कोई समय न बांधा गया हो। बेनियाद। nitum Napejlus,L.inn.)। (३) वत्सनाभ वर्ग। अकृताख्ययूषःnkritik hyii-yushah अकनैतस agunaitas-यु० वानिकुत्रनभिर सं० पु० लवण, स्नेह, कटु अादि पदार्थ व जित यूप, यह लघु होता है। वे० निघ० । -अ०। विष,मीठा जहर, वत्सनाभ (aconituun Napellus, Linn. ) अकृतार्थ kritārtha-वि० [सं०] अकनास्यून aquinosyun-यु० र ईयुलश्रवल ।। अपटु, अकुशल, कार्य में अदक्ष । एक बेटी है जिसके लक्षण में मतभेद है। | अत्रिम akritrina-हिं० वि० [ ] अकृपार akāpāra-हिं० संग पु०) 'बे बनावटी, प्रायसे उन्पन्न, प्राकृतिक, स्वाभाविक, (१)कच्छप, प्रकृतिसिद्ध, नैसर्गिक । अकृपारः akāpārah-सं० पु. 7 (२) अमली, सच्चा, वास्तविक, यथार्थ, (३) HH ( A tortois, in general. ). हार्दिक । अान्तरिक । त्रि० का० (२) बड़ाकछुआ। वह अकृथिन क्षोरम् a.kirithita-kshiram-सं. कच्छप जो पृथ्वी के नीचे माना जाता क्ली० कच्चा दुग्ध । यह कफ कुपिन करता है है। (३) पत्थर वा चट्टान । (४.) समुद्र ।। और भारी होता है। वेनिघ०। . ( The sea.)(५) सूर्य ( The sun.) अकृद्वाह Akriditvāha-हिं०वि० ( Unअक्रमाशू न aqumarshun-यु० जंगली सौंफ marri ) अविवाहित । (Wild anisi.) श्रकृष्टपच्य akrishta pachya अकरून aqurun-यु. वज, वंच (Acoris -हिं० अकृष्ट गेही aakrishta rohi calamus, Linn.) अकल aaqul-अ० (१ ) बुद्धिमान मनुष्य वि० [सं०] [त्रो० अकृष्टपच्या, अकृप्टरोहिन् ] जो बिना जीत पैदा हो,जंगली (Growing (Iden) (२) संकोचक औषध (asti | ingent Medicine. ) exuberant or will.) असालियुन aqusaliyān-य० करफ़्स नन्ती अकेन्थल इलिलिफोलिश्रा, अस acinthus जो कि बाग़ी से बड़ा होता है। Ilicifolius, Lin-ले० हरकृच काँटा अकृच्छ akrichchhra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] __-हिं बं० हरिकपा-सं0मोरन्ना-गो मारण्डी (1) वेश का अभाव (Absence of diffi- -मह । पैना स्कुल्लीभा-मल० (Holly,-ly culty. ) (२) अासानी । सुगमता | असंकोच vavidacanthus.) मेमे० १ . वि० (१) (Trc from difficulty.) हैं. गा०, फा० इ०३ भा ! For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org केन्स होली लीड केन्थस होल्ली लोह्रड acanthus holly leaved - इं० हरकुच काँटा - हिं०, बं० । इं० मे० मे०, इ० हैं० गा०, फॉ० इ०३ भा० । श्रकेन्थेसीई acanthacca - ले० श्रसावर्ग, रूसे के वर्ग की श्रौषधियाँ | The adusa order ( acanthad's ) । स्पे पेपिलांसा acamps papillosa, Lindl. - ले० इसकी जड़ औषध कार्य में श्री है । मेमो० | अलिफ इण्डिकाacalypha Indica-ले० केलिफा इण्डियन acalypha Indian इं० f कुप्पी, श्वेतवसन्त । केलूचाँग गुल akelú-chánggula-ão कुड़ा, कुटज, कोरैया ( Holarrhenaantidysenteric", Wall.)। अकेशा akeshá-सं० स्त्री० जयन्ती, रवासन, जैत -हिं० (Sesbania Agyptiaca, Pers.) अकेशिया acacia - इं० फलीवर्ग ( Leguminasw ) के माइमोसी ( Mimose ) उसवर्ग की औषधियाँ जिनसे समग़अरबी प्राप्त होता है । सुमग़ अरबी 'बबूल का गोंद' (Gum arabic ) नोट- प्राचीन अंगरेजी में इसका उच्चारण अका किया था, किन्तु अर्वाचीन अंगरेजी में अकेशिया 1 अकेशिया – श्ररेविका acacia — arabica, Willd. ले० बबूल (र), कीकर - हिं० (Babool tree ) । मे० प्लां० । स० फॉ० इं० | देखा-बब्बुरः | अकेशिया इन्दसिया acacia Intsia, Willa. ले०, श्रई, श्रढ़ई की बेल - सत० । कर्तारकुमा० । कोंदूजनुम-सन्ता० । कुन्दुरू - कोल० हर्रारी - ने० । पायिरिक, उग्रानिक लेप० । कोरिण्टा, कोरेण्डम्- ते० । चिल्दारी - मह० | माइमोसा इन्ट्सिया ( Mimosa Intsia Linn. Roxb. ) - ले० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शियामाई 44 केशिया र वर्ग । (N. O. Leguminas æ.) उत्पत्ति स्थान-हिमालय के उष्ण प्रदेश, पूर्वी और पश्चिमी प्रायद्वीप । गुणधर्म-संतालों की स्त्रियां अनियमित ऋतु ( Deranged courses ) में इसके पुष्प का उपयोग में लाती हैं । इं० मे० प्लां० । इसकी छाल तथा पत्र रंग के काम में आते हैं। मेमो० । अकेशिया कॉन्सिन्ना acacia Concinna, D. C. ) - ले० सातला, श्रईल, रस्सौल - हिं० अव० । शातला, सप्तला, चर्मकषा-सं० । फली या छीमी के नाम ( The Pods ) - सीकी (के ) काई - ३० । शीका, शीकाकाई - ता० । शीकाय, चीकाय, गोगु ते० । चीनिक्- काय - मल० । शीगे - कायि-कना० । कोचै, बनरीठाबं० । शीका, तेलसेङ्गा - मह० । केन्मोन सी, केन्मोन पेडाङ्, केङ्गोन-ति-बर० । अ० युगेटा ( Acacia Rugata ) - ले० । स० फॉ० इं० | इं० मे० प्रा० । श्रकेशिया कॉर्टेक्स acacia Cortexले० बबूर त्वक्, बबूल की छाल - हिं० । ( acacia bark ) । इ० मे० प्लां० । बी० पी० | देखो -बबुर | अकेशिया के acacia cachou, Willd. - फ्रां० खैर वृक्ष, खदिर वृक्ष, कत्था का पेड़ - हिं० । ( Acacia Catechu, Willd. ) फॉ० इं० १ भा० । For Private and Personal Use Only अकेशिया कैटेश - श्यू acacia Catechu, Willd. -ले० खदिर वृक्ष, खैर का पेड़, खैर, कत्था खैर, खैर बबूल - हिं० । ( Catechu tree, Cutch ) इ० मे० प्रा० । फॉ० इ० १ भा० । स० फॉ० इं० । अकेशिया गम Acacia gum श्रकेशियागम्माई Acaciagummi - ले० सुमगे अरबी, बबूल का गोंद बबु र निर्यास, ( gum acacia ) इं० मे० मे० । बी० पी० देखो वब्बुरः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकेशिया जैकोमाण्टियाइ २६ अकेशिया समा अकेशिया जैक्कीमॉरिटयाइ acacia Jaque- उत्पत्तिस्थान-पश्चिमी और मध्य हिमालय montii, Benth. ले. कीकर, बबुल, बमुल, मूल । बब्बिल-पं० । हज-अफ़ा। रतबौली-गु०। __ प्रयोगांश-गोंद । देखो - बबुर। मे० मो० । देखो-अबुरः। | अकेशियामालिस acacia mollis-ले० अकेशिया डी अरबी acacia d' alabie लाकी (acacia soft) इं० है. गा० । -फ्रां० बबूल, बछर । (acacia arabica, अकेशिया युगेटा acaia rugata-ले० Wild.) फॉ० इं० १ भा० । सातला-हि. | acacia conciuna, अकेशिया डीकरेन्स acacia decurrens, D. C. इं० मे० मे०। Wind.-ले० इसकी छाल रंग के काम ! अकेशिया लेण्टिवयुलेरिस acacia lentiमें आती है। मेमो०। cularis, all.-ले० खिन-वर्ना० कुमा० । मेमो०। अकेशिया नाइलेटिका acacia nilatica, अकेशिया लेटोनम् acacia lationum, Detile.-ले० करज़ वृक्ष । फा०६०१ भा०। Jiud.-ले मेष-हिं० । पाकीतुम्म-ते० । मेमो०। अकेशिया पाइएनेन्था acacia pyenantha, अकेशिया त्युकोफ्लोश्रा acacia leucoph Senth.-ले. पारि विसबूल । इमे०प्लां० । lea, Villd.-ले० रीवा, सुफेद-कीकर-हिं० । अकेशिया पॉलीअफेन्था acacia Polya. श्वेत बबू र वृक्ष-सं० । उज्लो कीकर पट्टे की cantha-ले० खदिर वृक्ष ( Catechu कीकर, शराब की कीकर-द० । सफेद बाबूलtree.) ई० मे० मे। बं० । वेल-वेल, वेल-- वेलम्-ता०, तेल-तुम्ब अकेशिया पिनेटा acacia Pennata, ! -ते० । वेल-वेलम्-मला० । बिलि जालि मरा Willd.-ले० आरि, बिरुबूल-हिं० । -कना० । हेबुरु, पाँढर, पाँढरियो बाबलिचेझाड ' (Mimosa Pennata) इं० मे० प्लां०। -मह० । सफेद चावल-गु० । नन्लौनकियिङअकेशिया फार्नेशियाना acacia Farnasia- श्रफियु, तनोङ्-वर०। अरिङ्ग-राज० । na, Tild.)-ले० (अ) इ रिमेद, दुर्गन्ध उत्पत्ति स्थान–पञ्जाब के मैदान मध्य तथा खैर, गृहकीकर ( Farnesia na Mimo- दक्षिण भारत और राजपूताना । . sa, Linn.) ले०ई० मे० प्लां०। प्रयोगांश--त्वचा । देखो-“बबुर' । अकेशिया फेरुंगीनियाacacia ferruginea, अकेशियावेरा acacia vera; lind.-ले. D. C.-ले० खैर-नेपा०, अनसण्ड, अनचन्द्र करज़ वृक्ष । फॉ० इ०१भा० । शोकुल्स कह और बुनि ते० शीमै-वेलवेल, वेलवीलम-ता० शौकुल-एअरावियह, शौकुल--मिश्रियह-अ० । नोट - तेल गुनाम "बुनि" तामिल "वनि" के नोट-अन्तिम तीन नाम मिश्र तथा अरब साथ मिलाकर प्रायः भ्रम कारक बना दिया जाता में पाए जाने वाले बबूर वृक्ष के कुछ अन्य भेदों - है, जो वस्तुतःसमी(Prosopis spicigera) के लिए भी प्रयोग में लाए जाते हैं। फॉ० ई० का नाम है । देखो-बबुर । स. फॉ० इं०। १ भा० । स० फॉ० इं० । अकेशियाबार्क acacia bark-इं० बबूल का अकेशियावैलीक्याना acacia Wallichiana . छाल, बर्बुर त्वक् ( acacia. cortex. )। -ले० कत्थाका पेड़, खदिर वृक्ष । ई० मे मे । देखो-बर्बुर। अकेशिया समा acacia suma-ले० स (श) अकेशिया मॉडेस्टा acacia modesta, मी, छोकरा । सई-बं० ( Prosopis Vall. ले० पलोस-अफ़० । फुलही-पं० । Spicigera White Mimosa.) फॉ० मेमो०। काण्टोसरियो-गु०। इ.०३ भा०। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकेशिया सॉफ्ट प्रकाश्रा अफेशिया सॉफ्ट acacia soft-ई. लाकी। अकोड: akodah-सं० । अखरोट (Juglans ई० हैं. गा०। ___legia.)। अकेशियासेनेगल acncia senigal, filld. अकोडगन्धः akoragandhah--सं० हींग -ले०, खोर-सिंध । कुम्ना-राजपु० । हिंगु; रामठम् (assafoetida)। उत्पत्तिस्थान-यह एक कंटकमय छोटा वृत है अकोढ़ई akorhai-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अक्रूर] जो सिंध और अजमेर में उत्पन्न होता है। सरल, मुलायम वह भूमि जो सींचने से बहुत नोट-यह अफरीका के सेनेगल प्रांत में जल्द भरजाए। वह भूमि जिसमें पानी ठहरा होने बाला 'बबुर' ही है। रहता हो। प्रयोगांश-निर्यास। अकोंद akonda-हिं० मदार पाक (Calotr - अकेशिया सण्डा acacia sundra D.C. opisgigantea, R. Br.) मदार सं० - ले० नला संडा-ते० । इसका गोंद काम में आता फॉ० ई. है। मेमो०। अकोरकपरायुः akorakaparāyuh-सं० अकेशियास्टेनोकापस acacia stenoca पु० ( chorion Leave)। rpus-ले० बबूर भेद। इसके पत्र द्वारा एक | अकोरा akora-यु० चाँदी रजत (Silver) नया स्पर्शाज्ञता जनक क्षारीय सत्व प्राप्त होता है, जिसको स्टेनोकानि (Stenocarpine) (Argentum)-ले०। अकोरिया akoriya-उ०प० सू०, भलियून । कहते हैं। इसके दो प्रतिशत के घोल में से दो बूद नेत्रों में टपकाने से यह उक्र भाग को अकोरीटोन acoretine-इं० बचीन; बच्चसत्व पूर्णतः अबसन्न कर देता है। इसका उपयोग कोलीन (choline )-ई। यह मधु सदृश करने से ५ मिनट पश्चात् विना कष्ट अनुभव -, तरल ग्ल्युकोसाइड (Glucoside ) है जो किए नेत्र कनीनिका में सूची चुभाई जा सकती। अत्यन्त तिक और सुगन्धित होता है तथा मद्यतथा उसे खुरचा एवं बल दिया जा सकता है। सार ( alcohol ), क्लोरोफॉर्म और ईथर में १० से १५ मिनट अनन्तर कनीनिका विस्तार घुल जाता है, और शर्करा तथा उड़नशील तेल उपस्थित होता है, और करीब करीब बत्तीस घण्टे रूप में पृथक् हो जाता है। ई० मे० मे०। तक स्थिर रहता है। इससे नेत्रपिण्ड का तनाव अकोरीन acorina-इं० यह एक उड़नशील तेल है कम होता है । अस्तु, हरित मोतियाविन्द में लाभ जो बच में वर्तमान होता है। देखो-वच । ई० दायक होता है। इसी भांति त्वचा के किसी भाग मे० मे०। को स्थानिक रूप से अवसन्न किया जा सकता अकोल akola-द०, हिं० काला अकोला, ढेरा है। पी०वी० एम०। भेद (alangium hexapetalum, अकेशिया स्पेसीश्रोज़ा acacia speciosa, Lam.) स० फा० इं० । देखो-अंकोल । Villd.--ले० सिरस का पेड़--हिं० । शिरीषः अकोला akola-हिं० संशा पु० (सं० अंकोल) -सं०। शिरिस का झाड़-द०। (a] bizzia ढेराका पेड़-हिं० । अंकोल, ढेरा (alangium lebbeck) ई. मे० मे०। ___Decapetalum, Lem.)-स०फॉ००। अकोटः akotnh सं० पुं०--सुपारी-गुवाकः, पूग अकोविद akovida-हिं० संशो पु० (सं. प्रन) (गी )--सं०। (areca catechu)। ऊख के सिर पर की पत्ती, अगोला, अगौला, अकोटा akota-कना० कोसम | गौसम्--पं० गेंड़ा। हिं० । ( Schleichera Trijnga, | अकौश्रा akoua-हिं० (१)संशा पु०(सं०पर्क) Tild.) ले। मे०प्लां। मदार, आक (Calotropis gigantea, For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोल श्रकज़म् R. Br.) (२) कौा, लालरी, घंटी, (Pyrethri Radix.) फॉ० इं० । रू० (ivula.) फॉ००। अकौल,-ला akol,-la-हिं०, ढेरा, अंकोल का akka-हिं. संवा स्त्री० [सं०] (A (alangiun Decapetalum Luw.) mother')नाता । मां। नोट-संबोधन में अकोस amous अ० कुबड़ा, कुज, जिसका पृष्; इस शब्द का रूप "श्रहोता है। बाहर निकल आया हो । हञ्चक्ड ( hunch अक्कार aaqqar-अ० (ए० ब०) अकाक़ीर ... backed)-इं० । (व० व०) औषधियाँ जड़ी बूटी-हिं० । हर्ब अकं aam-सं) क्ली) संज्ञा दुःख ( Pain) (Herb.)-२० ! स० फो० इ०। अक्अब akaab-अ० (व०व०), कयूब (प०व०) अक्कारकारम् akkāra-kāram-ते०, ता. ... गुल्फ, टखने-हिं० वह स्थान जहाँ पर पैर सामने अकरकरा-हिं० (Pyrethri Radix.) को और पीछे को मुड़ सकता है (ankles) स० फॉ० इं० । . अकम aqaam-अ० सपाट (चिपटी) नासिका अक्काल akkalअ० इसका शाब्दिक अर्थ भईक ai (Flat-nosed ) अर्थात् खाजाने वाला है, किन्तु प्रायुधेद की अक अस aqaasa-अ. उन्नतोदर वाक्षीय अर्थात परिभाषा में उस श्रौषध को कहते हैं जो अपने वह जिसका वक्षःस्थल बाहर को निकला हो और तीक्ष्ण एवं भक्षक गुण की अधिकता के कारण पृष्ठ भीतर को दबा हो। अवयवों के सार अंशों को नष्ट कर दे। वह श्रोषधि जो तत कारक एवं गलाने वाले गुण के . नोट-अदब और अकअस का भेद अहद्र कारण मांस को खा जाय और उसके सार भाग में देखो। .. को क्षीण कर दे, यथा चना और हड़ताल । श्र (-इ) काद a-i-qaad -अ० लुञापन, करोंसिव (Corrosive), एस्कैरोटिक (Esch- लंगड़ापन अथवा अवयवों का ऐसा विकार जो arotic)-ई । - बैठने को वाध्य करे (Jameness. )। अक़ ऊमा agauma-ऋ० अजमा एक प्रकार का । शक्तिकरुका akkikaraka-मला० चक्षुः क्षत 1 विशेष कर यह कठिनता पूर्वक अच्छा किराकारम् akkirākāram-ता० ।रकरा • होता है । यह १५ड़ी के समान होता तथा भिल्ली अकिलाकारम् akkilakāram-मला० --हिं० ' को खा जाता और नेत्र को विनष्ट कर देता है। (Pyrethri Radix )-स० फो० इं० । अक्कह aaqqah-फा0 अक्अक (महका पदी) . फॉ० इ०। अक्कन्āaqqat-अ० वह उष्ण रात्रि जिसमें अक्की aakki-कना०, चावल (Rice) १० वायु सर्वथा बन्द हो । फा०६०। नोट-सम्म, रम्ज़ा, सफ़रह और इह तिदाम् । अकीसागयि akkisarayi-कना० चादल की - इनमें से अक्कह बायुके रुकने श्रीर उष्णताधिक्य को कहते हैं। ग़म्मका अर्थ कनि गर्मी है और दारु-द० । तण्डुलमद्य, चावल की शराब-हिं० । अरिशशाणायम-ता० । बिथ्यमु सारायि-ते०। ...सफरत तथा इह ति-दामइसके पर्याय हैं। रम्ज़ा अरिचारायम-मल०। लाहकार ऑफ राइस ऐसी कठिन उष्णता एवं उत्ताप को कहते हैं | - जिससे कंकरी श्रादि भी जल उ। (Liquor Of Rice )-ई। स. फॉ० अकलकरा akkala-kala मह०) -हिं० ।। इं०। अकलाकरे akkala-kare कना० अकरकरा- अक्ज़म akzama- अ० ( 1 ) कोताहबीनी,, अकलाकरो akala-kari- कना०) (२) जिसकी नासिका छोटी हो। . For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कूज़ाज www.kobatirth.org अक्रूज़ (ज़ akzáza - अ० कठिन शीत लगना, कम्पन, काँपना | अक़ज़ार aqzára - अ० ( ब० ० ) क़ज़र ( ए० ब०) कस फ़त, निजासत, गंदगी फा० । मैलापन, शुद्धि - हिं० । फिल्थ्ज्ञ ( Filths ) - इं० । अक्रऩअ aktaä - अ० जिसकी अंगुलियाँ हथेली की ओर फिरी हुई हीं । अक्तन aqtaā-अ० छेदित हस्त, कटा हुआ हाथ, विछिन हाथ | अकनुन aqtana o कूतपुश्त फा० कुबड़ा, कुजा हम्म बैक्ड (Hump-backed ) इं० । अकुतम aqama - अ० रकवर्ण, श्यानतायुक श्यामामा युक्र र वर्गीय करुरा ( मूत्र ) व्राउनिरा रेड ( Brownish rod ) - इं० । श्रका akta-सं० स्त्रो० ( night ) रात्रि । श्रकृतात् aqtáta - अ० घुंघराले (लहराए, मुद्दे ) बालों वाला पुरुष । कर्ल हेयर्ड ( Curl haired )-इं०। श्रक्ताद | aktad [ ० ० ] कतिद् [ ० व० ] - अ० स्कन्ध, तथा मध्य स्थल पृष्ठ की दूरी (Shoulder ) । -इ क तरार ai-qtaāra-० हाँपना, हॉफना ('To pant, To be out of breath. ) श्रक akti - हिं० वि० सं० ( Smeared, Anointed) व्याप्त | संयुक्त । सफल । युक्र । रँगा 'हुया । लिप्त । भरा हुआ । नाट—यह प्रत्यक्ष रूप से शब्दों के पीछे | अ अ ) दaaqia - ० ( ए० व० ) गिरह जोड़ा जाता है; जैसे- विषाक्र, रक्क'क्र । लगाना, गां देना, बाँधना, ग्रंथि देना - हिं० तरल पदार्थों का सान्द्र ( गाड़ा ) हो जाना, अँध अक्तद् aktad-अ० उच्च कंधावाला, ऊँचे कंधा जाना, घनीभूत होना । अकूद ( व० व० ) । वाला मनुष्य । अक दह aagdah-o लुनते- जुबान, . जुबान की लुक़नत - फा० । हकलाना, तुतलाना, शुद्ध शब्द का न निकलना । स्टेमरिंग ( Stammering ), बलब्युकीज़ (Balbuties) - ई० । अक्ताफ़ aktafa - अ० ( ० ० ), कतिफ ( ० ० ) - स्कन्ध, कंधे । शोल्डर्स ( Shoul(ders )-३०। अक्कार aqtar - अ० ( ० ० ) कुतर ( ए० व०) शारीरिक दूरियाँ, व्यास, चौड़ाई, अधकट । डायमीटर्स (Diameters ) इं०। २६ चकूनह अक्तार खार्जिय्यह aqtár khárjiyyah० शरीरकी वाह्य दूरियाँ, अंतर (External Diameters.) अक्तारदाख़िलित्र्यह, aqtär-dakki-liyyakअ० शरीर की आभ्यन्तरिक दूरियाँ ( अन्तर, फासले ) ( Internal Diameters. ) अनारस ल.स.ह, aqtar-salásah - अ० शरीर की दूरीत्रय, घना अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई व गहराई | अतियूस aqtiyush-यू० अतीक़स अ० । यह युनानी भाषाका शब्द है, जिसका अर्थ सत्य व स्थिर होता है, किंतु तिब्ब की परिभाषा में तपेदिक ( राजयच्चा, तय ) को कहते हैं। हेक्टिक फीवर ( Hectic Fever' ) - इं'०। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकूदह āakdah - अ० (१) बीख जुवान फा० । जिह्वामूल, जुबान की जड़ - हिं० । ( २ ) हृदय मूल अथवा हृदयाघार, (३) मध्य हृदय । अदीदूस aqdidús - अ० देखो - अगदीस | अक्न agna - अ० चीन, शिकन फु.० । झुरौं. पड़ना, सिकुड़न, वली जो मेदावी होने के कारण बलिः -सं० । रिङ्किल उदर पर पड़ जाय । ( wrinkle ) - इं० । अनफ aquafa - अ० लघुकर्ण बाला, छोटे छोटे कानवाला - हिं० | ( Small eared )। अनह aaknah - अ० सूरिञ्जान ( Hermodactylus ) । स० [फा० ई० । श्रक्नह, aknah-स बूरलब्निय्यह, दुहनिय्य ह और regar - अ० । यौवन पिडिका, कील, For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अक्रनार www.kobatirth.org ३० मुहांसे जो जवानी के आरम्भ में मुख मंडल पर निकलते हैं | मुक्नी ( acne ) - इ० । नोट- जो युवा की पुरुष मध्य मार्ग का अवलम्बन न कर स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का उल्लघन करते हैं उनको सामान्यतः यह विकार हो जाया करता है। | अनार aqnário सुराही में मुंह लगाकर जल पीना श्रथवा मद्यपान करना । अक्फ़अ aqfaa - अ० जिसके पाँव की अंगुलियां फिरी हुई हों । | अक्कुस akfasa-अ० जिसका पैर टेढ़ा हो और वह अपने पैर की छोटी अंगुली पर सहारा देकर चले । श्रृफृह, akfah- अ० श्याम, कालः-हिं० । ब्लैक ( Black ) - इ० अवद akbada - अ० यकृत रोगी, वह रोगी जिसका यकृत बढ़ा हुआ हो, बढ़े हुए यकृत वाला । एनलार्जड लिवर ( Enlarged liver )-इं'० । अक्वस akbasa - अ० जिसके शिर का आगा निकला 'हुग्रा और ललाट सा हुआ हो । अकबाद akbà la अ० ( ब० ब० ), कविद ( ए० ब० ), यकृत, जिगर, कलेजा (Liver ) । श्र बोस aqbisa - अ०, रसूलिया, जिसका शिश्ना ( मणिमुण्ड ) ख़तना से पहिले त्वचा से बाहर निकलता हो । अक्रमन, aqmaa- o जिसके नेत्र से जल स्राव हो । क्रमस akmasa - अ० जो कठिनता पूर्वक देख सके । अक्मह akmah- अ० कोरमादरज़ाद - फा० । जन्मांत्र, सहजांघ - हिं० । बॉर्न ब्लाइण्ड ( Born Blind ) इं० । अक्रमाक akmaka - to वमन, छर्दि, मतली । वॉसिटिङ्ग ( vomiting ), ( Nausea ) - इं० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रकुमाल aqmál - अ० ( व० व० ), क़म्ल (ए) व०), जुनों ( ढीलों ) के अण्डे बच्चे अर्थात् लीख । निट (Nit) 'The 1 egg of a louse -इंο| श्रमास aqmávasa- अ० एक देनिक ज्वर, एक दिन का ज्वर । हुम्नायूम - अ० । तप एक रोज़ह - फा० । फेत्रिक्युला ( Eubricula ) - इं० 1 श्रक्रानीकी नाशि अक्याघालakyághása o अपभ्र० श्रगिया । (lemon grass ) - ई० । स० फॉ० ई० । अक्याघारू का इत्र akyá-ghás-ka-itra - हिं० | देवजग्धक-तैल-सं० । श्रभ्याघास-तैलबं० । ( lemongrass oil ) - इं० | स० फॉ० इं० । 1 अअ agraā- अ० कल्ल, गञ्जा, केराहीन, जिसके शिर के बाल गिर गए हों, चंदला । बाड ( Bald ) - इं० । श्रकन् agran - अ० पैवस्तह् ग्रत्रु - फा० । जिसकी दोनो भौएँ मिली हों । अक्र aqrfa - अ० अत्यन्त रक्रवर्ण, गम्भीर रक्तवर्ण - हिं० । डार्क रेड ( dark-red ) - इं० । श्रकवी āakrabi-फ़ाο दरुनज अबी ( Doronicum Pardalianches, Linn. ) । फॉ० इं० २ भा० । श्रक्रम akrama-हिं० ब० [सं०] सं० पु० क्रम रहित, व्यतिक्रम, विपर्यय, (Irregularity, Confused ) - इं० । अक्राञ् aqráa-अ० ( व० व० ) क्रु ( क ) श्रू ( ए० ० ) रजःकाल, श्रार्तवकाल, मासिक धर्मका समय (Period of the menses ) अक्रानीकी akrániki - यु० ( १ ) शुकाईबाज़ा० ( २ ) बादावर्द ( shukai ) फॉ० इं० ६ भा० । For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रकान्ता अत्रिका अक्रान्ता aki anta-सं० पुं० कटेरी, भटकटाई, समझ-बूझ, सूझ, मनीपा, धी, धिषण, विवेक वृहती, वृहतीचप-सं०। व्या कुड़-बं०। डोरली शनि-हिं० । इण्टेलिजेन्स (Intelligene) पाण्डरी, बनभण्टी-म०, कं० । अक्रान्ति-उत्० -ई. । प्रकृति में यह वह शक्ति अथवा अपार्थिव ब्राकुरु चेटु-ते०। र० मा० । गुणधर्म- उष्ण तत्व है, जिससे बुरे भले में विवेक किया वीर्य, पाचन, संग्राही | चक्र० द०। राज। जाता है। यह उष्ण बीर्य, रस में कटु तिक, लधु, बात अलफ़ aklafa-अ० उन्नाबारंग, श्यामाभायुक्त नाशक, ज्वरनाशक, अरोचक व कास नाशक रक्रवर्ण-हिं । ब्राउनिश् रेड ( Brownish तथा श्वास और हृदरोग नाशक है | रा० नि० red)-६०। व०४। | अक्लफ़ aqlafa-अ०, वह व्यक्ति जिसका ख़तना अकाबाज़ोन aqrābāzina-अ० कराबादीन न हुआ हो। अनसर्कमसाइज़्ड (uncircum. किताबे अद्वियह मुरक्व-फा० । योग संबन्धी cised)-इं०। ग्रन्थ, योग शास्त्र-हिं० वह ग्रन्थ जिसमें यौगिक 'अक्लब aqlaba-अ० जिसके अोष्ट उलटे हुए हों। श्रापध एवं उनके योग लिखे हों, फार्माकोपिया अल-व-शुर्व akla-va-shur ba-अ० खुर्द व ( Phormacopdeea ), डिस्पेन्सेटरी , नोश-का0। भय एवं पेय अर्थात् खाने पीने ( Despansa tory )-इं०। __ के पदार्थ-हिं० । ( edible anb drinka ble)-इं । अक्राबादीन agrābādina-० अक्राबाज़ीन : अकास lāsa-अ० ( ब० व० ), कुस अल्लाह aqlah-अ० कलह (अर्थात् जिसके दाँत (ए० ब०), टिकिया-हिं० । टेब्लाइड्स मैले हों) का रोगी । ( Tabloids )-10 । अक्लह aklah-अ० एक बार खाना । अकोय akiriya-हिं० वि० [सं०] (1) अक्ला aklaa-० अवस्था ( उमर ) की पूर्णता किया रहित ( Imaetive, dull ) तथा अंत तक न पहुँचना । (२) चेष्ठा रहित । निश्चेष्ट । जड़ । व्यापार अक्लाबोतस aqlābotasa-यु० अजुरह-फा० । रहित । जो कर्म करने से रहित हो । स्तब्ध । स्टङ्गन-हिं०। अकर akiraहिं० वि० [सं०] जो क्रूर न हो, नोट अजुरह, उटङ्गन और कजनह प्रभृति शब्द सरल, दयालु, सुशील, कोमल, मृदु, भूल से “केबाँच" के लिए प्रयुक्त होते हैं । वस्तुतः ( not cruel) 1 केबाँच से थे सर्वथा भिन्न हैं । ( Blepharmis अकोध akrodha-सं० हिं० वि० क्रोध राहेत edulis, Per's .) ( Free from anger ) अलारोतस aqlarotasa-यु० झाऊ-हिं० । अकोसाइन achrosine--इं० । अरञ्जक फरास, फरवा-मरले ई-पं०। ( Tamarix (Not colouring )-इं० । फॉ० ई० Gallica, Linn.) १ भा०। अक्लिका aklika-सं० स्त्री० अक्ल akla--अ० व्याधिमूल--विज्ञान की परिभाषा नील, नीलीवृक्ष । The Indigoplnt; में उस ग्रीषध को कहते हैं जो अवयवों के मांस ( Indigofera tinctorii.)। नीलीचेवा त्वचा को खाजाए अर्थात् उसे नष्ट करदे । झाड़-मह० । नीली-कं० । नल्लचेटु गेरिट पेट्ट करोडि ( Corrode)--इं०। नीलिचेटु-ते० । नीली, महानीली भेद से यह अक aaqla-अ० (ए०व० ) अक दो प्रकारकी होतीहै । गुण-यह उष्ण वीर्य, रस (ब० ब०), खिई, दानाई-फा० । बुद्धि, · में तिक और कटु तथा केशवर्द्धक, कफ, कास For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिन्त-वर्त्म प्रशूरीयून और आमनाशक, लबु तथा वात, विष विकार, गुण गुरु और कफ कारक है। 20 निघ0 उदररोग, गुल्ल (बायुगोला) कृमि और ज्वर | अक्कन akvana-हिं० श्राक, श्राख, मदार, अर्क नाशक है । रा०नि०व०४। रेचक, मोह, भ्रम, (Calotropis gigantya, R.Ur.) आमवात तथा उदावर्त को नारा करने वाली है।। अक्कम akvanma-अ० बन का अधोभाग । भा०प्र०१ भा० । मद०१ब० । अक्का akva-हिं० श्राक, मदार, अर्क अक्लिन्त-वर्मaklinta-Vartma-हिं० पु. ) ( Calotropis giganton, .. B.) अक्लिन्न-वत्मaklinn-Vil tma-सं० पु. अक्का acqua-ले० जल । देखो एक्का ।। नेत्रवर्जन रोग विशेष । जिसमें धोए हुए अक्काअ akvaa-अ० (ब० ब० ) कुन अथवा बिना धोए हुए पलक परस्पर बारम्बार (ए० ब०) पहुँचे अर्थात् कलाई की हड्डियाँ चिपक जाँय और कोए पक के पीपसे न चिपकें (Rist bones) । उसे "अक्लिन्न वर्म" नामक रोग कहते हैं। अक्कात aqvata-अ० (ब० व०) कुव्वत (ए. इसीको वाग्भट्टजी "पिल्लाख्य" नान से पुकारते । ब०) भक्ष्य पदार्थ, हिलायें, अरिज़यह हैं। मा० नि। (Edible )-इ. अक्लिष्ट aklishta-हिं० वि० [सं०] (1) विना अक्किलीजिया वगैरिस् aqulegia केश का । कष्ट रहित (disease-less ) Vulgaris, Lin-यह एक रैन्युन्क्यु लेसीई (२) सुगम । सहज । साधारण | सरल सीधा । ( Ranuncula ceo ) वर्ग की एक ( Easy)। औषधि है। अक्लोका aklika-सं० स्त्री. नीलका पेड़, नीली अक्विलेरियाअगेलोका aquilariangallocha वृक्ष ( The Indigo Plant )। 1010.-ले० अगर, गुरु, ऊद। अगरअलोतकसaqlitaqusa ) -रु० अरण्य लाराडु अ०ingle wood-ई. मे. ठ० । मे० अक्लोतून aqlitāna | सं० ( Scilla अक्किलेरिया-श्रीवेटा aquilaria Ovata indica, road) -i.. अग (iigle wood )-ई। अक्लीमिया aqlimiya-पु. कलीमिया,क़ दीमिया | श्रविलेरिया मलाकेन्सिसaquilaria अ० धातुओं का मैलजो उनके पिघलाने केबाद ऊपरनीचे झागौर तिलछट के समान उत्पन्न हो Malaccensis, Lamk:-ले. अगर जाता है । कैले मीन ( calamine )-इ। Bole wood-ई. । अक्लोलुल्जबल akliluljabula-अ० यह एक अक्वज़ान akvezana-रु०मटर भेद । इसे कोई २ बूटी है, जो स्पेन तथा मिटा देश में उत्पन्न होती रईयुल हमाम को कहते हैं। है । ( रोस्मैरिस् Iosmaris)-ले० । रोजमैरी अकशाब aqsha ba-अ० ( ब. ब०) (ए. (Rose Marry )-इ० । रू. फा० ई। बा) विश्व (१) स.िमयात, जहरे, विष अक्लीलुल्मलिक aklilulmalika-. बन ( Deadly poison), घातक । विष मेथी, वन मेथिका-सं० । ( Trjfolium (२) जङ्ग, मुरचा, कीट, ( Rust)। Indicum, Melgiotusparviflora) अकशी aqshi-श्रासा० करकोट -बं० । नाखूना-हिं० । देखो-इक्लीलुल्मलिक । अग्गई-अव०। अक्कथित क्षीरम् akvathiti kshii . im-सं० अक शूरीयून aqsāriyāna-यु. एक प्रसिद्ध विना पकाया हुआ दूध । | औषध है। For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org का शूस. अक्शूस akshúsa - अ० कस.. सु । श्रकाशवेल (Cuscuta reflexa ) -ले० । अक्स aksa हिंo संज्ञा पुं० (च) अक्स ) ( १ ) प्रतिबिम्ब | छाया । परछाई । ( २ ) चित्र, तसवीर | अक्स अ aksaã-अ० वह व्यक्ति जिसके मसूढ़े फूलेहीं । अक्स. म aksama - अ० मेदावी मनुष्य, वह व्यकि जिसका मेद ( तोंद ) बड़ा हो । कायु लेण्ट ( Corpulent ), फैटी (Fatty ) - इ० । अक्सह aksah-- श्रपाहिज, लोथ, जो अपने स्थान से हिल न सके | क्रिप्ल ( Cripple ) -इं०। अक्साव aqsába - अ० ( ब० व० ) क्रुस्त्र ( ए० व० ), अंतड़ियाँ, आंत्र - हिं० । ( Intestines ) ૩૨ अक्हाल अक्सोरी aksiri - फाo माहिर, कीमिया दाँ, कोमियाँ । कीमियागर | रासायनिक | रसायन शाही | ( Alchemist ) श्रावसोरी श्राक aksiri aka - हिं० पु० प्रसिद्ध पौधा विशेष पुं० बूटी बवासीर, एक बूटी है जो पृथ्वी से मिली हुई होती है । चैत मास में प्रायः होती है । गुण-रक्त स्थापक, अतिसार नाशक, हामि० यु० मार्च १६२८ ५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्सी बूटी aksiri- buti - हिं० स्त्री० यह एक रसायनी बूटी है जो लग भग १ फुट ऊंची होती है । टहनी तथा पत्र घने, पत्र- जाल- पत्रवत् परन्तु उससे ग्रर्धलम्बे, गम्भीर, हरित वर्णके होते हैं | इससे लौह ताम्र हो जाता है । हामि यु० जून १६३२ ई० । अक्सियह, aksiyah - का० जौ की शराब, यवमद्य । ( Barley wine ) असिया uqsiyá- फा० सुफ़ेद माज़रियून | राजा श्वेत ( Clitoria ternatea, | Linn. White) अक्सियानूस aksiyanúsa-यु० जुन्दवेदस्तर | अक्सू स. तुम्मे exa जुन्द - ० (Castoreum) - ले० | अक्सीर aksira - हिं० छड़ीला ( Nardostachys Jatamansi, D. C. )-o! अक्सीर aksira - ० ( 1 ) वह रस वा भस्म जो धातु की सोना व चांदी बना दे । रसायन, कोमिया, पारस पत्थर, पारसमणि ( Philo sopher's stone ) ( २ ) वह औषधि जो प्रत्येक रोग को नष्ट करे । वह औषधि जिसके खाने से कभी मनुष्य बीमार न हो । वि० व्यर्थ । अत्यन्त गुणकारी । अत्यन्त लाभ कारी । अक्सीर बवासीर aksira-bavasira-हिंο अ+सुनाफि (फ) न aksunafin, -( phan ) अ० हकीमी माप भेद, यह ६ तोले ११ माशे २ रत्ती अथवा ६ तोले ६ माशे के बराबर होता है । अक्सूफैलस aksútailasa - यु० सहसकोई नाम की एक बूटी है । अक्सूमानस aksumanasa यु० रतनजोत ( Alkanet ) - ई० । श्रवसुमाली aksúmali-यु० सिकञ्जबीन - अ० हिं०, द० सिकवी - फा० ( Oxymel ) aksúsa - [अ०] कासवेल का बीज | कसू सु-फा० Cuscuta Refl(Seeds-of) अहुल akhala - अ० स्याहचश्म, सरमगीं, आँखवाला | ( २ ) छेदनशास्त्र की परिभाषा में राम को कहते हैं । वह रंग कुहनी के मध्य में भीतर की ओर स्थित हैं । और क़ीफ़ाल बाली के मिलाप तथा संयोग द्वारा पैदा होती है । चूंकि इसमें क़ीफ़ाल ( Cephalicvein) और बासलीक दोनों से शोणित ता है इस कारण इसके फ़सद ( रक्तमोक्षण ) से सम्पूर्ण शरीर का रक्त निकलता है। मीडियन कॅलिक (median cephalic ) - इ० । अकूहाल akhála - श्र० ( ० ० ) क ए० ब० ) सुर्मा, अंजन, नेत्र में लगाने को शुष्कश्रौषध | कॉल्लिरियमूज़ (Collyriums ) - इ० । For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखरोट अख ak ha-हिं० संज्ञा पु. बाग़, बगीचा । (Garden)-ई. । अखगरिया akhagriya-हिं० संज्ञा (फा०) वह घोड़ा जिसके मलते समय उसके बदन से चिनगारी निककती हो। ऐसा घोड़ा ऐबी समझा। जाता है । अखट्टः akhattah- सं.पु. चिरौंजी-हिं।। (पियाल वृक्ष), पीलिया, इसके बीजको पीयाल बीज या चारदाना कहते हैं। चारोली-भा. रा. नि० व. ११ । भा० अाम्रादिव० । ( buchanania lati-folia, Ro:1.) अखनी akhani-हि. संज्ञा स्त्री० (अ0 अखनी) ( meat-juice) देखो-अखनो। अखनी akhani-अ० मांस रस । मांस का रसा । शोरबा। अखन्न akhanna-अ० गुन्ना, गुनगुना, भुनभुना, मुनमुना, मिनमिना, नाकके बल से बोलने वाला, नकनका । अखर akhara-सं० ० कर्पास, कपास, बाड़ी (Gossypium Indicum)-mol अखरसाज akharnsaia-फा वृत है जो उष्ण देशों में एवं शुष्क स्थानों में उगता है । मनुष्य के कद के बराबर अथवा कुछ अधिक ऊँचा एवं खुरदरा और अजीर के समान नर्म और खोखला होता है। अखरा ak hari-हिं० वि० ( सं० श्र नहीं +हिं० खरा) जो खरा वा सच्चा न हो | झूटा। बनावटी। कृत्रिम । संज्ञा पु० सं० (अक्षर) भूसी मिला हुया जौ का श्राटा जिसको गरीब लोग खाते हैं। अखरोट ak harota-हिं संज्ञा पु०40, अकाट अाक्रोट,-वं. हिं०, द० । अक्षोट, पील, शैलभवः श्रीर कर्पराल:-अक्षोट:: अनोटकः, श्राखेटः, पर्वतपीलुः, कन्दरालः, श्रादोड़ ( ख० ), प्रास्फोटकः, (शा. र०) गिरिज पीलुः, अक्षोडकः-सं० । जौज़, जौजु लम्वनिफ-अ० । गिर्दगा, चारमरज़, चहार माज़, गौज़, फा। कासलीस,फ़ादस्याह-यु. । कोज़-तु. । जुग्लैश Juglans regia जु० रेजिया (J. legia, 2.)-ले० । वालनट (Walnut) ई० बालनस बांम (Wallmussbaum)-ज० । नायर कल्टिब Voyer Cultive-फ्रां० । अक्रोटु - ता० । अक्रोटु-ते. । अक्रोडु. अखोट-कना० कर्ना० । अक्रोड़-म० । अखरोट, अग्बोड-गु० । सिस-ख्या-सिया तिक्या-जि-वर० । अखोड़को । उव्वकाई-द्रावि० । तगशिङ्ग- भटि० । कक्सिङ्ग-श्रा० | कोवल-लेप० । अाक, प्रखोर, अखोट, अखरोट-उ. प० प्रा० । अखोर, खरोट-कुमा० । अखोर, क्रोट, दून-काश. अखरोट, दून, चारमाज़, थनथान, खोर, कादारग, अखोरी, क्रोट, कबोटङ्ग, स्टार्ग, उगज़ , वरज़ थानक, छाल-डिराडासा-पं० । उज़, वाज़ -अफ। अक्षोट वर्ग (Juglandac.. ) उत्पत्ति स्थान-हिमालय (शीतोपण) पर भूटान से लेकर अफगानिस्तान तथा काशमीर तक होता है। खसिया की पहाड़ियों तथा और और स्थानों में भी यह लगाया जाता है । इसका एक भेद Aleurites Moluccana, Wind.] बंगाल और दक्षिणी भारत में बहु तायत से होता है। पील [ Mustard tree of scripture ] भी कोंकन देशमं उत्पन्न अखरोट जातिका एक प्रकार का वृक्ष है। इनके लिए उन २ नामों के अन्तरर्गत देखिए । श्वेत श्याम भेद से प्रक्षोट २ प्रकार का और होता है। वानस्पतिक विवरण- यह शास्त्री वृक्ष है जो पर्वतों में उत्पन्न होता है । इसके वृक्ष बड़े २ बहुत ऊँचे होते हैं। इनकी उंचाई लगभग ४० से 80 फी0 होती है । पत्त ४ से = ईc लम्बे अंडाकार नुकीले और बरावर या तीन तीन कंगूरे युक्र एक डंठल के दोनों ओर विषमवर्ती लगे होते हैं ।छूने में सख़्त और मोटे मालूम होते हैं । पुष्प सफेद रंग के छोटे छोटे शाख के शिरे पर गुच्छे में कई कई अाते हैं । "कही गुच्छे में सी For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवगंट अखातः पुरुष दोनों प्रकार के पुष्प होते हैं। इनमें परिवर्तक, और संकोचक इसका क्वाथ (१२ में १) पुरुष (Indrecium) की संख्या अत्यधिक कंठ-माला, श्वेतप्रदर प्रभतिकेलिए लाभ जनकहै । होती है । फल देो कोष युक्त मैनफल वा बहेड़े के बीज-इसमें तेल, एल्युमीन या जुग्लैरिक एसिड समान अण्डाकार होते हैं। उनके ऊपर तीन और राल होती है। छिलके होते हैं, इनमें प्रथम हरा और मोटा अपक्वफल कृमिघ्न | पक्वफल या मांगी-"श्र (पकने पर जैतूनी रंग का हे। जाता है) स्वाद क्षोटः कोऽपि वाताद सदृशः कफ पित्त कृत्" भा.) कौनः श्रोर कड़वाई लिए हुए होता है। यह प्र.) फ) व०। स्वादिष्ट, भक्ष्य, पुष्टिकर और फल कचेग्न में नरन परन्तु सुखकर कठोर हे। कानोदीपक ! फलत्वक कृमिघ्न, उपदंश नाशक जाते हैं । द्वितीय छिलका पहिले छिलके के नीचे वृक्षावक संकोचक,कृमिघ्न और दुग्ध नाराक कोर होता है। फिर इसके दो टुकड़े प्रापस (Lactifure) तथा व्रणशोधक | ई0 मे में मिले और सिरा उनका निकला हुअा तथा मे० । ई० मे प्लां०। तीसरे छिलके के भीतर से टेढ़ा मेढ़ा गूदा वा इसकी लकड़ी मेज, कुरसी, बंदूक के कुन्दे, संदृक नीली गिरी निकलती है। मींगी के ऊपर बहुत श्रादि बनाने के काम में पाती है। इसकी छाल बारीक छिलका होता है। भीगी अंडाकार सफेद रंगने और दवाके काममें भी पाती है । डठल कुछ चिपटी और चिकनाई लिए पिस्ते और चिल और पत्तियों को गाय बैल खाते हैं । गोजे की मींगी के समान होती है, इन सबके चार भाग होते हैं | दो दो भाग आपस में मिले । अखरोट-जंगली akharota-jangali-हिं० संज्ञा इनके बीच में बहुत बारीक परदा होता है। फल पु.(१) जायफल (Nut-meg) अरण्याका वृहत्तम व्यास लग भग २॥ इच होता है। क्षोट । जंगली अखरोट । इसकी लकड़ी बहुत ही अच्छी मज़बूत और भरे । अखरोस akharosa-पु. (१) एक बूटी है, रंग की होनी है और उसपर बहुत सुदर धारियाँ ___ जो फ्रांस तथा सर्द दरियाई देशों में उत्पन्न होतो पड़ी होती हैं। है ( २ ) जंगली गेहूं। श्राक्षोट तैल-गुण-अखरोट के गूदे में से अखरोट akharouta-वं. अखरोट, अनोट तेल भी बहुत निकलता है । मूलक तेलवन् । Walnut- (Juglans-regii. )। कृमिना रान हेतु मुख्यतः कद्दाना ( Tape अखर्व ak har ba-हि. वि० [सं०] | बड़ा । worm ) को मारने के लिए मृदुभेदन और लम्बा । (Not dwarfish.)। पित्तनि:स्सारण हेतु इसके तेल का याभ्यन्तरिक अवयंस akharyusa- पु. पहाड़ी गन्दना । और दृष्टि मान्द्य हेतु वाह्य प्रयोग किया जाता है। अखलः akhalah-सं० पु. उत्तम वैद्य । नोट-उपयुक समस्तपर्याय इसी के मांगी अखसत akhasata-हिं० संज्ञा पु. [ अक्षत ] अथवा फलके हैं। लेटिन नाम जुग्लेज रेजिया (juslims trii) इसके वृक्ष के लिए चावल ( Rice) | पाया है। अखा akha हिं. संज्ञा पु० देखो-पाखा । प्रयोगांश-फलत्वक, त्वचा, बीज (मांगी), अखाड़ा का भेद akhdqa--ki-bheda-द. फल और खोपरी (Nut) अपामार्ग भेद। प्रभाव वा उपयोग । गुण-मधुर, बलकारक अखात akhata-हिं. संज्ञा पुं. विना स्निग्ध, उरण, वातपित्तनाशक, रक्रविकारहर, खुदाया हुआ स्वभाविक जलाशय ताल, झील शीतल तथा कफ प्रकोपक है ! ग० नि0 व० ११ खाड़ी (A natural lake.)। मधुर, बल्य, गुरु, उष्ण, विरेचक और वातनाशक | अखातम् akhatam-सं० क्री०). to } देवग्वान-हिं० । मद बीउ अवानः akhatah-सं०प० । For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखाद्य अखण्डल देवखाद-बं० । हेच. का० ४ । पुष्करणी ।।। नेत्र के भीतरी कोये का शोथ । ऑब्सट्रक्शन अम । (A natural lake.)। अॉफ दी पंकटा (Obstruction of the अखाद्य ak hadya-हि. वि० [सं० ] अभय, puncta-ई। खाने के अयोग्य, (uncatable. )-ई। श्रवुविषः Akhil-vishah-सं० पु. विन्दाल, अखाव मियात्रा akhavan-miyia-वर) घगरबेल, देवदाली-हि। (Luffa Echin छाल, त्वक | Barks-ई। स० फा) इ.)। ata., Hor.) फो०-०२भा०।। अखाव akhāva-बर, (ए० व० ) छाल, त्वक अखेटिकः Akhetikah संपु० (१)वृक्ष पेड़। ( Bark)-ई। स० फॉ० ई०। (A tre in general) (२) शिकारी अखियारी akhivari-4) अरण्य गलब, कुत्ता । बन गुलाब (wild 1030.)-इ० । अखेर akheinri -पं) कण्टौच, प्राग्वी, ढेरा | अखिल akhila-हि) वि) [ सं.) ] (१) अखोट ak hoti-को.) अखरोट, Walnut सम्पूर्ण, समग्र, पूरा, बिलकुल, सब (whole)| (Jugans (gia.)। .. (२) अखण्ड, सांग पूर्ण । gat akhoda do Fariz Walnut अखिलिका akhiliki-सं०, पु०, करेली छटो, (Juglans regia ). क्षुत्रकारबेल्ली, उच्छे-बं० A kind of | अखोर akhor:-काश। अखरोट | Walnut gourd ( Momordica charantia, (Juglans regia.) Linn.) | अखोर-मोरनु ak hor-inorani -कना) सिहोर, अखीतहे जोइय्यह Akhita he-zotiyyah- | सहोर-हिं), बम्ब) । शाखोटकः-सं० । अ० ख्यालाते चश्म-फा० चक्षुरोग विशेष | (Streblus Asper, Linn.) इं) मे मे) । जिसमें नेत्र के सामने चिनगारियाँ अथवा तारे | अखोगे akhori-40 कण्टौचा, पाखी, ढेरा-पं)। दृष्टिगोचर होते हैं । मम्मी बॉलिटेण्टीज़ ___-हिं० संज्ञा पु.) अकोला । अंङ्काल । (Musce volitantes-)-ई । | अखोला akhola-अकोल । अस्वीफ Akhifa-अ. जिसका एक नेत्र श्याम और अखोह akhoh हिं0 संज्ञा प० (सं) क्षोभ = दूसरा हरित वा नीलवर्ण युक्र हो । असमानता ) ऊंची नीची भूनि । ऊभड़ - ग्वाबड़ अखोरूस akhirusa-यु० जङ्गली गेहूं के अतिरिक पृथ्वी । असम भूमि । एक बूटी है जो जल के समीप उगती है। अखंड Akhanda हिं0 वि.) [सं.) वि) ] अखील Akhila-अ. अस्थिर, क्षण क्षण में रंग अखंडनीय, अखंडित, ( Unbroken, बदलने वाला (१) गिरगिट केमोलिन wholc, entire.) (१) अट । जिसके (Chameleon)-ई. । (२) एक रूमी टुकड़े न हों। अविच्छिन्न । सम्पूर्ण । समग्र । कपड़ा है जो घंटा घंटा पश्चात रंग बदलता समूचा | पूरा। (uninterruptedly ) है । ( ३ ) एक प्रकार का पतीहै, जिसके पैरों (२) लगातार | जिसका क्रम या सिलसिला के विभिन्न प्रकार के ग होते हैं । न टूटे । जो बीच में न रुके । (३) बेरोक | निर्विघ्न । अखीलम Akhilasa-यु. एक काबिज़। (संकोचक ) और शुष्क बृटी है (An| अखंडनीय Akhandaniya-हि वि) astringent and dry herb.)। [सं०] (१) जिसके टुकड़े न हो सके । अखी (ख) लस akhilus-यु० नानखाह, जिसका खंडन न हो सके । जो काटा न जा सके। अजवाइन । ( Carum ptychotis! अखंडल akhandala-हिं वि० [सं० D. C.)- अ. अन्त:स्थ वन कोण-शोथ, अखंड ] For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखंडित अखीत अखंडित khunditin हिं) वि.) [ सं०] शाख़्ता-वह घोड़ा जिसे जन्म से अंडकोष की (Umbroken) जिसके टुकड़े न हुए हों। कौड़ी न हो। ऐसा घोड़ा ऐवो समझा जाता है। अविच्छिन्न । विभाग रहित । | अख्नस akhanasi- चपटी, सपाट नाक वाला (२) सम्पूर्ण | समूचा । परिपूर्ण । पूरा | (Sn::b-nosed ) (३) निर्विघ्न । वाधा रहित । जिसमें कोई अखनियुस akhniyus-यु) पालक (Spinaरुकावट न हो । (४) लगातार । ce oleracea,Lin.) वा अनमूस | अखंडित-ऋतु nkha ndita-ritin-हिं० वि० अख्नेनूस akhnainusa यु एक अप्रसिद्ध बूटी है जो तर स्थानों तथा नहरों के किनारे पर (Fruit ful.) जो ऋतु पर फल फूल दे। उगती है। श्रख akh अ) खंकार, खांसीका शब्द, वेदना शब्द, श्रखने चूल akhnaimusa-फ़ा० पालक । खांसने का शब्द । कफ (Cough)-ई। अरुफश akhfashi- अ.) ख़फ़्श अर्थात् धुन्धा अव गोर ukh (11-11) अमरूद भेद (Wild (दिवसांध) रोगी ( Dayblind ) poar.)।इ) है। गा)। अफाक akhfak-sto चान्दरेल, इश्कपेचा अम्त जakhz... ) गिरफ़्त फा) लेना, थामना, (लताविशेष)! पकड़ना, ग्रासोब चरण (अग्नि अाना ), गिरफ्तार अवसान akhbasana अ.) (१) मलमूत्र होना। __ अर्थात् गृहमूत्र में संकेत है। (२) मुख दुर्गन्धि, अरुजअ akhznao--संकुचित ग्रैब, लघुग्रैव, एक्सक्रीमेण्टस् ( Excrements)-३० । बौना, गिना-हिं० । ड्वार्फ ( Dwarf ) अरुम ॥hma अ) ललाट और भौं ( 5 ) की पिग्मी( IPigmy)-इ)। ____ शिकन (बलखान ) ( From )। अख़्ज़र : khzal::-अ० फा०। हरा, हरी हिं0, अख्माद akhmala-अ) ताप बुझाना, गर्मी द)। हरित सं०। हरा, मबुज-बं० । ग्रीन- मारना, श्राग की लौ दबाना, कमजोर करना, ( Green)-इं० । इतिब्बा ( हकीम लोगों ) ताप शमन करना । ने इसकी चार कक्षाएं स्थिर को हैं, यथा-(१) अखबakhaba-अ) वीरान मुक़ाम-उ)| निर्जन फुस्तकी या पिस्ती अर्थात पीताभयुक्त हरितवर्ण, स्थान, रजाइ-हि.) ! तिब्ब की परिभापा में (२) नीलजी अर्थात् नीलगू, नीलवर्ण, (३) कर्णफटा को कहते हैं अर्थात् वह व्यक्ति जिसका जारी या अंगारी या मटियाला सब्जीमायल कान फटा हो । अर्थात हरिताभयुक्त मटियाला और (४) गन्दने ' अखमkhrama- अ0 जाइज़ाइदहे अरमियह के सदृश हरित वर्ण । नकुटा । छेदन शाल की परिभाषा में नकुटा अख़्ज़र ak hama- अ. कनखियोंसे देखने वाला ! उभार, स्कन्धास्थि का वह उभार जो कन्धे की अग्य जल बई kuzu]-bad-अ) शीत ऊंचाई बनाता है, अंसकृट । एक्रोमिनॉन प्रॉसेस् (Acromion Process )-इं०। लगना, शीतल वायु लगना, वायु लगना, प्रतिश्याय । कोल्ड ( Cold ), केचकोल्ड । अखस akhias- अ) मूक, गुङ्ग, गूंगा | डम्ब (Dumb )-ई। (Catchcold )-01 अखास akhrasa-यु नाशपाती, अमतफल श्रस्व जल शम्सakhzulshamsa-अ0 सिक्नह (Pyrus Communis, Lin.) शसियह , ल लगना, प्रातपाघात-हिं0 । सन अलीज़ हब्बुल असफ़र akhiliz-habb-illम्ट्रोक (Sunsti.oke ), इन्सोलेशन asfara- कुसुम्भः, कुसुम ( मभ) (Insolation)-ई०। (Carthamus Tinctorius, Linn.) 1 अख्तावर akhtirara-हिं0 संज्ञा पुं॰ [फा०] अखीत akhrita-अ) जंगली गन्दना । . For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखातृस ३८ अगइयत्ता अखोनूस akhiritus -यु) जंगलो करनव; करम- अगः agah-सं. पु. (3) पहाड़, पर्वत-हिं० कल्ला, गोभी भेद ( wild cabbare.)। (Mountain) (२) एक वृक्ष । (३) असतह akhlah एक कंटकयुक बूटी हैं जो पत्थल ( ४ ) रूप (५) सूर्य । पहाड़ अाग्नेय बालिश्त के बराबर होती है। पुप्प नीले एवं व सौम्य गुण भेद से दो प्रकार के होते हैं । स्वेत और पत्ते कोर होते हैं। इनमें विन्ध्य पर्वत श्राग्नेय गुण युक्र और हिमालय सौम्य गुण यक्क है। अाग्नेय गण अरुलात akhlat -अ (व.) व.)खिल्त (ए) विशिष्ट पहाड़ों में होने वाली औषधियाँ अग्नि व०) यूनानी वैद्यक के मतानुसार खिल्त ( दोप) गुण विशिष्ट होती हैं, और सोमगुण विशिष्ट चार हैं, यथा-सौदा (वात ) सफ़रा (पित्त) पर्बतों में होने वाली प्रौषधियाँ मोमगुण विशिष्ट बाम (करू, श्लेन्मा) और जन (रक) होती हैं। भा००। शारीरिक--द्रव (तरी) अर्थात् शरीर की वह चारों रतूबतें ( तरी, स्निग्धता) जो भोजन के अगई agai-हि. संज्ञा प० ( ? ) चलता की प्रथान परिवर्तन द्वारा उत्पन्न होती है । ह्यनर्स जाति का एक पेड़ जो अवध, बंगाल, मध्यदेश (Humours) इ01 और जदास में बहुतायत से होता है। इसकी लकड़ी भीतर सफेदी लिए हए लाल होती है। अख्लीलल मलिक akhillul-malika-4) जहाज़ों और मकानों में लगती है। इसका अपभ्र० इकलीलुल्मलिक, ताज बादशाही। कोयला भी बहुत अच्छा होता है। इसके पत्ते श्ररुशम akhsham - अ। खश्म रोगी, घ्राणज दो दो फुट लम्बे होते हैं और पत्तल का काम संगी। वह रोगी जिसकी घ्राण राक्रि नाश हो गई भी देते हैं। इसकी कली और कच्चे फलों की हो अर्था 1.जो वस्तुओं के गन्ध को न मालूम तरकारी बनती है। कर सके । अनासटिक (Anosmatic.) अगज agaja-हि० संज्ञा पु. पवन से उत्पन्न -इं)। होने वाला | शिलाजीत । अख स. akhsi-० गोबर, गृ । ड( Duns) अगजः aga jah-सं० ए० ( 1 ) पाई धनियाँ, फीसेज ( Feeces) इं०। नैपाली धयियाँ, तुम्बुरु-हिं) । तुम्बुरुः, आर्द्र अलसामुलऐ.न kasamulain- अ) पलकों धान्यकम्-सं० । काँचधनम्-वं० । Execarin के किनारों के मिलने का स्थान | aga]]ocha ( २ ) बन्दकः-सं० बन्दा अख सीनह kbsinah-जङ्गली राई(Brassic : बाँदा-हिं० । बाँदड़ा । बरगाछा--बं० A paraJunct, lilld.)। sitoplant ( Epidendrum Tesseअगaga-हिं० संज्ञा पु० [सं० अङ्ग ] मूढ़ अन । Intum)। जान । अंग, शरीर,-हिं. सं. पु० [सं० अगजन aga jana--पं० झवानी बूटी । मे० मो। ग्रगारी ] ऊख के सिरे पर का पतला भाग जिसमें गा बहुत पास २ होती हैं, और रस अगजम् aga jam-सं• क्ली. शिलाजतुः, शिलाफीका होता है । अगौरा | अगौरी । वि० [. ।जीत ( Bitiamen ) र० मा० । अज्ञ] मूढ़, अनजान, अनाड़ी। वि० सं० (१) अगट agata-हिं. संज्ञा पु० [देश] चिक वा न चलने वाला । अचर । स्थावर । (२) टेढ़ा मांस बेचने वाले की दुकान | चलने वाला। अगड़धत्ता agaya.rlhattā--हिं. प. (१)द्रोण अगंड ganda-हि० सं० पु० (सं०) धड़ से। पुष्पी, गूमा । (२)हिं० वि० [अग्रोद्धत, बढ़ा जिसके हाथ पैर कट गए हों। नदा ] लम्बा तईगा । ऊँचा (श्रेष्ठ) बढ़ा चढ़ा For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रगडा श्रगड़ा agadá-हिं० संज्ञा पु ं० (देश) ज्वार बाजरे श्रादि अनाजों की बाल जिसमें से दाना झाड़ लिया गया हो । खुखड़ी, अखरा । अगण agana - हिं० वि० जिसकी गिनती न हो । श्रगति agati - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] ( १ ) गति का उलटा ( २ ) स्थिर व अचल पदार्थ | श्रगतिक agatika - हिं० वि० [सं०] निराश्रय जिसकी कहीं गति वा पैठ न हो । श्रगतो agati-हिं० संज्ञा स्त्री० ( १ ) चक्रमर्दक, चकौड़ | दद्रुघ्न | दादमर्दन | Cassia tora ( २ ) | अगस्तिया, अगस्त, ( Agati Grandiflora.)। ३६ कोलॉजी (Toxicology. ) - इ० यह शल्य आदि अष्टविध तन्त्रार्न्तगत वैद्यक का एक अंग विशेष है। जिसमें सर्प बिच्छू आदि के त्रिप से पीड़ित मनुष्य की चिकित्सा का विधान हो । सु० सू० १ ० । वह शास्त्र जिसमें विषों के वर्गीकरण, उनके मनुष्य शरीरावयवों पर होने बाले प्रभाव एवं लक्षण तथा उपचार और चिकित्सा व गढ़ प्रभृति का पूर्ण विवेचन किया जाय । अगद्नध्यम् agada-nasyamn-सं० क्लो०, सर्पदं प्रभृति विषयक नस्य विशेष, विष के नस्य(Sternutatoly used in snake poisoning ) सु० कल्प० । श्रगदाञ्जनम् agadanjanam - संo, क्लीo, विष द्वारा मूच्छित हुए प्रभृति का अंजन, विषधन. अंजन ( Collyrium used as antidote to poison. ) सु० करप० । andiflora श्रगनिया, अगस्त का पेड़, अगस्त्य वृर । अगद agada - हिं० संज्ञा पुं० ) ( १ ) रोग रहित अगदः agadah-सं० पु० J Healthy ( २ ) औषध । ( Medicine ) रा० नि० Agati Gr- अगदेश्वरः agadeshvarah -सं० पु० योगशुद्ध गंधक १ भाग, पारद १ भाग, मैनशिल १ भा०, वर्क चांदी १ भाग, हरताल १ भाग, शुद्ध अभ्रक भस्म गंधक का चौथाई भाग, चूर्ण कर इसमें हंसराज, घिकुँआर और नीबू के रस की सौ भावना दें फिर श्रातशी शीशी में रख बालुका यंत्र द्वारा ३२ पहर की च दें। मात्रा - चना प्रमाण । व० २० । अगन्ति agatti-ता० गु०, मला० हिं० श्रगस्तिया श्रगस्त्य वृक्ष | Agati Grandiflora. श्रगतीहून agatihúna सं० पु० एक दवा है जो मय जड़ और पत्तों के ज्वर में दी जाती है । मु० श्र० श्रगथिया agathiya-हिं० श्रगथियो agathiyo-गु० श्रगदम् agadam सं० क्ली० ( १ ) आरोग्य, स्वस्थ, निरोग ( Healthy ) रा० नि० ० २० वा० उ० ३५ श्र० ( २ ) प्रति - विष, विषघ्न श्रौषध - हिं० फ़ांदे ज़हर - फा० । तिर्याक - अ० । Antidote- इ० । श्रगदङ्करः agadnkarah अगदङ्कारः agadņkárah अगदतंत्र agada tantra अगदतन्त्रम्agada-tantram J - सं०, पुं० वैद्य चिकित्सक ({A physician. ) |रा० नि० ब० २० । सं० क्ली० विप चिकित्सा विषयक तन्त्र, निखिल स्थावर व जङ्गम विष चिकित्सा; विष तन्त्र ( शास्त्र ) । इल्मुस्सम्मियात् इल्मुस्सुम्म प्र० । टॉक्सि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रगना गुण - यह उचित अनुपान से प्रत्येक रोगों को नष्ट करता है | २० यो० सा० । अगन aghana o मिनमिना वह व्यक्ति जो नकिया कर बात करे । श्रनazana - हिं० संज्ञा स्त्री ( १ ) दे० अग्नि । ( २, ३० श्रगण | 0 अगन चश्मानोका agana-chashmánokáहिं० पु० तशी शीशा, सूर्य- कान्त-मणि, अग्नि-गर्भ ( The sun-stone ) - इं अग़नश aghanasha-थम०, हजार, नौसादर, For Private and Personal Use Only नृसार । ( Ammonii chloridum ) श्रगना agana-उ० प०सु० धामन । मे मो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अगनाद अगनाद agauáda-बं० वन तिक्लिका, श्राकनादि सं० वं० | Stephania Hernandif olia | फॉo इ० १ भा० । श्रमनी agani - दि० संज्ञा खा० दे० श्रग्नि । संज्ञा ० [सं० श्रग्र ] घोड़े के माथे पर की भौरी वा घूमे हुए बा | अगनीन aganina- इo जलीय ऊर्ण वसा (Adeps lanhydrosus) ! इ० मे) मे ग़नस aghaniyúsa- सिरिo किर्मिङ्ग दाना, मसूर के बराबर रक वर्ण का एक कीट हैं (Cochineal ) देखो कोचनोल | ग़नी aganisa यु० निर्गुडी सम्हाल हिंο| ( Vitex negunde, Linn.) श्रगन् aganú अगनेऊ agnaeú ( - हिं० संज्ञा स्त्री [सं० श्रगनेत agnata आग्नेय ] अग्नि कोण । श्राग्नेय दिशा | श्रन्धखर्पर पदोagandhakharparparpati-सं० त्रो० योग- शुद्ध पारद १२ मासे, लौह भस्म १२ मासे, दोनोंकी कजली करें पुनः थोड़े से घी में मन्दी भाग पर पिघला कर विधि वत् गोबर के ऊपर केले के पत्र रख उस पिचली हुई कजली को डालकर ऊपर से दूसरे केले के पत्र से दाब दें । फिर भारंगी, सोंठ, अगस्तिया, त्रिफला, जयन्ती, निर्गुण्डी, त्रिकुटा, वासा, कुमारी इनके रसकी ७-७ आवना देकर एक लघु पुट दें । गुण- उचित अनुपानोंसे समस्त रोगों को नष्ट करती है । पान, तुलसीके रस तथा गो मूत्र के साथ सेवन करने से श्वास और खाँसी का नाश होता है । मात्रा - १ सामा से २ रती । श्रगन्धिकम् agandhikam-संo क्लो० संचल लवण - बं | Sochal-salt भा० मध्य० । देखो --सौवच्चलम् । श्रगम agama-हिं० वि० [सं० अगम्य ] (1) थाह । (२) अलभ्य । श्रगमकी agamaki - हिं० स्त्रो० विलारी । म्युकिया स्कैल्ला Mukia scabrella, '४० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रगम की drit ), आयो निया स्कैल्ला ( Bryonia Scabrella, Lin ) - ले | अहिल्यकम्, घण्टाली, - सं० । चिराती, बेल्लारी - सिं० चिराती - मह० | बाल ककड़ी-उ० प० सू० । मोरी, मुसु मुसुक्काइ- ना ! पुटेन - पुदिङ्ग, पोट्टी बुभु, नृधोस कुलतरू बुदम--ते) | मुक्कपिरी, मुक्कल - पीरम् - मल० । विस्टली बायोनी ( Bristly Bryony ) - इ । कुष्माण्ड वर्ग. (N. O. Cucurbitacea.) उत्पत्ति स्थान — समग्र भारतवर्ष । वानस्पतिक विवरण- पौवा लोमश, खुरदरा, ( विषम तलीय ), श्राधारकतन्तु ( tendril ) सामान्य, पत्र- हृदाकार, खण्डयुक्त या कोणयुक पुष्प-लव्वद युक्र, जिसमें असंख्य नर पुष्प होते हैं । और प गुच्छाकार होता है । नारि पुष्प १ से ४, लघु, वण्टाकार और पीतवर्णका, बोज ( berry ) वर्त्तुलाकार, पावस्था में गम्भीर रक्त वर्णका जिसपर लम्बाई की रुख़ श्वेत धारियाँ पड़ी रहती हैं, चिकना ( समतल ) अथवा कतिपय प्रहृष्ट रोमों से व्याप्त होता है | फल एवं पौधा स्वाद कटु होते हैं । फल अक्टूबर से दिसम्बर मास तक परिपक्क होते हैं । इतिहास व गुणधर्म श्रादि- डाइमांक ऐन्सली के वर्णनानुसार इसका दाक्षिणात्य संस्कृत नाम ग्रहिल्यकम्हें जो स्पष्टतया हिलेखनका अपभ्रंश है । इसके फल पर सर्पाकार श्वेत धारियाँ पड़ी रहती हैं इस कारण इसका उत नाम भी उचित ही है । में इसका तथा शिवलिङ्गी ( Bryonia. Lacinios ) का दूसरा संस्कृत नाम दो प्रयोग में श्राता हुआ दीख पड़ता है । वह घरवाली -- है जिसका अर्थ "सूत्र में एक पंक्ति में पिरोई हुई घण्टियां" हैं जैसाकि नर्तक कुमारी गण नृत्य काल में पहनती हैं । यह नामभी उपयुक्त सादृश्यता के कारण ही रखा गया है। 1 For Private and Personal Use Only यह पौधा साधारण भेदक एवं श्रामाशय बलप्रद है । इसका शीत कपाय ग्रह प्याली की मात्रा में Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगमकी अगर दिन में दो बार दिया जाता है । यह अब उन्हीं हो । जैसे--राजपत्नी, गुरुपत्नी, मित्रपत्नी, माता, श्राशयों के लिए व्यवहार में आती है तथा यह बहिन इत्यादि । उन मिश्रणों में जो बालकों को दी जाती है, अगम्या गामी agamyagami-हि० संज्ञा प्रविष्ट होती है। ऐसलो । पुं० [सं० अगम्यागामिन ] (Practisingयह मूत्रल है-हीडी। . illicit intercourse) अगम्या स्त्री से बीज का क्वाथ तीव्र स्वेदक है । इसकी जड़ द्वारा संभोग करने वाला। निर्मित क्वाथ प्राध्मान में हितकर है तथा जड़ गया ayaya. हिरोहिपका दंत से चर्वण करने से यह दंतशूल को लाभ अगयाघासagaya-ghāsus तृण, गंधतृण, पहुँचाती है। वट। भूतृण । Andropogon Schoeranthus, कोमल अंकुर एवं तिक पत्र सामान्य सारक प्रभाव Linn. फा0 ई०३ भा० । ई0 मे0 मे। देखो करते हैं। और डाक्टर पीटर -(Watts' अगिया। (१) जल धनियाँ, देवकाँडर-हिं० । dictionary ] शिरोऽर्ति या शिर चकराने स्वरूप-हरा । स्वाद-कडुआ और तीखा । और पित्त विकार में प्रयोग करने की शिफारिश पहिचान-प्रसिद्ध बूटी है। रासायनी लोग करते हैं। इसको ढूढ़ने में बहुत रहते हैं। प्रकृति-तीसरी यह दवा कुछ मिश्रित योगों का एक अवयव है। कक्षा में गरम और दूसरी कक्षा में रूक्ष है। जो कफयुक्र (मुख्य लक्षण) पुरातन रोगों में हानिकर्ता-त्वचा को और खुजली उत्पन्न करती व्यवहृत है। सम्भवतः इसके श्लेष्म निस्सारक है। दर्पनाशक-मुर्दासंग और गाय का घी। प्रभाव के कारण ही ऐसा किया जाता है। मात्रा-२ रत्ती। गुणकर्म-प्रयोग-(१) यदि इ0 मे0 मे 1 इसके स्वरस में चालीस दिन गंधक भिगोकर अगमन agamana-हिं० क्रि० वि० [सं) धूप में रक्खें फिर उस गंधक को २ रत्ती पान में रखकर खाएं तो अत्यन्त क्षुधा लगती है, (२) अग्रवान ] अागे । पहिले । प्रथम | आगे से, ! पहिले से। अति कामोद्दीपन कर्ता, (३) यदि वंग को इसके स्वरस में भस्म करें तो श्वास कास को अगमनीया agamaniya-हिं० वि० स्त्री० अत्यन्त गुण करती है और किसी प्रकार का [सं०] न गमन करने योग्य (स्त्री), जिस । (स्त्री) के साथ संभोग करने का निषेध हो। अवगुण नहीं करती (निर्विषैल) बु० मु०। अगम्य agamya-हिं० वि० [सं०] ( Un अगर agara-हिं० संज्ञा पु० काली अगर, अगर approachable) न पहुँचने योग्य । सत | अगरु, अगुरु, बंशिक, राजाहम्, लोह, कृमिजं, क्रिमिजं, जोङ्गकं, [40], श्रानाय॑जं, अगम्या agamya-हिं. वि) स्त्री० [सं०] [हे. ], बंशकं, [ हा० ], लघु, पिच्छिल [के0] न गमनकरने योग्य(स्त्री)मैथुन के अयोग्य स्त्री । भृङ्गज, कृष्णं, लोहाख्यं अर्थात् लोहे के सम्पूर्ण संज्ञा स्त्री० न गमन करने योग्य स्त्री। वह स्त्री नाम [र०] रातकं, वर्णप्रसादनं, अनार्यकं, जिसके साथ सम्भोग करना निषिद्ध है। जैसे असार, अग्निका, क्रिमिजग्धं और काष्ठक. गुरुपत्नी, राजपत्नी, इत्यादि [A women लोह, प्रवर, योगजं, पातकम्, क्रिमिजम्, सं० । not deserving to be approached, अगरु, अगुरचन्दन, प्राग्रु-बं० । ऊ.द, ऊदुल्(for cohabitation ) बख्नुर, ऊदे ग़ी, अगरे हिन्दी-अ०, फ़.0 | एक्विअगम्यागमन agamyagamana--हिं० संज्ञा लेरिया एगेलोका(Aquilaria agallocha, पुं० [सं०]अगम्या स्त्री से सहवास । उस स्त्री Porb.) ए० मलाकेन्सिस (A. Malace के साथ मैथुन जिसके साथ संभोग का निषेध | ensis, Lemb) ए0 ओ बेटा [A. Ovata] For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर गर -ले० । एलोबुड Aloe wood, ईग़ल बुड Eagle wood-10 बायस डी कैलम्बक ( Boisde Calambite)-फ्रां)। अगर, अगलीचन्दन-ता। हल्गुहचेटु--ते । कृष्नागरु, अगरु--ता० ते0, कना)। कृष्णागर शिशवाचे झाड़-म० । अगरू-गु० । अवयन-बर) । श्राकिल-मलाबा० । हागलगंध-तु० । चिन--हिअंगचीन । गरू, क्यागहरू--मल० । सासी -श्रासा। थाईमलेसोई वर्ग [ N. O. thymelaceae] उत्पत्ति स्थान--प्रासाम, पूर्वी हिमालय पश्चिमीमलय पर्वत, खसिया पर्वत, भूटानसिलहर, टिपेरा पहाड़ी, मर्तबान पहाड़ी, पूर्वी बंगाल प्रांत, दक्षिण प्रायद्वीप, मलका और मलायाद्वीप; नाट-अासाम प्रदेश प्राचीन काल से अगुरु वृक्ष की जन्मभूमि होने के लिए विख्यात है। रखु दिग्वजय वर्णन काल में कालिदास लिखते अनार्यजं या अनाय्यक है। अस्तु विलियम डाइमाक नहोदय का निश्चय है कि भारतीयों से प्रथम कदाचित् पूर्वी एशिया के मूल निवासियों को इसके उपयोग का ज्ञान हुआ। प्राचीन समय में खुश्की के रास्ते यह मध्य एशिया और फारस में लाया गया और वहां से अरब और यूरूप में पहुँचा | राजनिघण्टुकार ने कृष्णागुरु ( काला अगर), काप्टागुरु ( पीली अगर), दाह काम्, दाहाग (गु)रू (गुर्जर देश प्रसिद्ध अगरु विशेष) तथा स्वाद्वगुरु (मङ्गल्यागुरु, मधुर रसागुरु, कंदार देश प्रसिद्ध अगर ) नाम से इसे पांच प्रकार का लिखा है। नघण्ट्रकार के मतसे मङ्गल्यागरुक है। विस्तृत विवरण के लिए उन उन नामों के अन्तर्गत देखिए । भावप्रकाशकार-इसके चार प्रकार के भेदों को स्वीकार नहीं करते । ऐसा विदित होता है कि अरब यात्रियों ने इसके व्यापार एवं उत्पत्ति स्थान के सम्बन्ध में काफी समाचार संग्रह किए हैं। चकम्पे तीर्ण जौहित्ये तस्मिन् प्राग् ज्योतिषेश्वरः ।। तद्गजालानतां प्राप्तः सह कालागुरु द्र मैः ॥ [रधु०, ४ र्थ सर्ग] इतिहास-अगर का सुगन्धि तथा औषध । तुल्य उपयोग आज का नहीं वरन् अत्यन्त प्राचीन है। इसकी प्रचीनता का पता तो केवल एक इसी बात से लग सकता है कि इसका वर्णन । सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रथों-सुश्रत, चरक श्रादि में पाया है। इतना ही नहीं प्रत्युत लोबान और तेजपात प्रभति के साथ अहलोट तथा अहलीम नाम से इसका ज़िकर यहूदी धर्म ग्रन्थों । में भी पाया जाता है ।(साम ४५ ८, कहा) ७ . १७)। डीसकरीदूस (Dioscovides) के कथनानुसार यह भारत वर्ष एवं अरब से यूरूप में लाया गया । ईटियस (Etius) से पश्चात्कालीन लेखकों ने एलोबुड (Aloe fool ) नाम से इस औषध का उल्लेख किया है, और इसी नाम से यह अब तक युरूप में प्रसिद्ध है। अगर का संस्कृत नाम | यातना विन-सेरापियन-ने हिन्दी, मंडली, सिन्फी और कमारी नाम से इसके चार भेदों का वर्णन किया है। दशवीं शताब्दि में इब्नसीनाइसके सम्बन्ध में निम्न बिवरण देते हैंमंडली हिंदी या (पहाड़ी) सनंदूरी,कमारी, सम्फी और काकुली,किस्मूरी ये दोनों मदुल मधुर होती हैं इनमें से सबसे खराब प्रकार हलाई, कम्ताई, ममताई, लबथी या रस्ताथी है। मंडली सर्वोत्तम है, इसके बाद सनंदूरी धूसर वर्ण युक, वसामय एवंलीय भारी श्वेत धारियों से रहित और धीरे धीरे जलने वाली होती है । कोई कोई भूरीसे काली अगर को उत्तन ख़्याल करते और सबसे अधिकतर काली,श्वेत धारी रहित वसामय तैलीय और धीरे धीरे उ.लने वाली “कमारी" होती है। संक्षेप में सर्वोत्तम अगर वह है जो काली, भारी, जल में डूबने वाली, चूर्ण करने पर रेशा रहित हो, तथा जो जल में न डूबे वह अच्छी नहीं । अरब यात्री भी अगर को लगभग उन्हीं नामों से पुकारते हैं। For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर ४३ अगर यह निश्चय किया कि यह माई प्रार्चिपलेगो द्वीपों में उत्पन्न होने वाले एक वृक्ष की लकड़ी है। गैम्बल (Gamble) के कथनानुसार इसका बी नाम "अक्यायु"है और यह टेनासरम तथा मगु ई ग्रार्चिपलेगो में उत्पन्न होता है। मोर मुहम्मद हुसेन-[ १७७० ] लिखते हैं"ऊद जिसे हिन्दी में अगर कहते हैं,यह एक लकड़ी है जो कि सिलहट के निकट जन्तिया की पहाड़ियों में उत्पन्न होती है। ये वृक्ष बंगाल से दक्षिणस्थ टापुओं में भी जो कि बिषवत् रेखा के उत्तर में स्थित हैं, पाए जाते हैं। इसके वृक्ष बहुत 'चे होते हैं । श्रोर प्रकाएड एवं शाखार बक्र होती हैं और काष्ट म होता है। इसकी लकड़ी से घड़ी, | प्याले तथा अन्य बर्तन बनाते थे । यह सड़ता ग. लता भी है और इस दशामें विकृत भाग सुगंधयुक्त द्रव्य से व्याप्त हो जाता है। अतः उक परिवर्तन लाने के लिए इसे नप पृथ्वी गर्त में गाढ़ देते हैं। अगर के जिस भाग में उक्त परिवर्तन श्रा जाता है वह तेलयुक भारी एवं काला होजाता है। पुनः इसे काटकर पृथक कर जल में डाल देते हैं । इनमें जो जल में डूब जाता है उसे ग़की (डबने वाला), जो अांशिक जल मग्न होता है उसे नीम ग़ी (श्राधा डूबने बाला) या समालहे श्राला और जो तैरता रहता है उसे समालह कहते हैं । इनमें से अन्तिम सर्व सामान्य होता है। ग़ी काला होता है तथा अन्य काले और हल्के धूसर वर्ण के होते हैं। अगर ( alos wood ) धूप देने के लिए अथवा सुगन्ध हेतु समस्त पूर्वीय देशों में व्यवहृत है और पूर्वकालमें यह युरूप में उन्हीं व्याधियों के लिए व्यवहार में श्राता था जिनके लिए श्राज भी यह भारतवर्ष में प्रयुक्त होता है । एक पेड़ जिसकी लकड़ी सुगन्धित होती है, इसकी ऊचाई ६० से १०० फुट और घेरा से - फुट तक होता है। जब यह बीस वर्ष का होता है तब इसकी लकड़ी अगर के लिए काटी जाती है। पर कोई कोई कहते हैं कि ५० या ६० वर्ष के पहिले इसकी लकड़ी नहीं पकती । पहिले तो इसकी लकड़ी वहुत साधारण पीले रंग की ओर गंध रहित होती है पर कुछ दिनों में धड़ और शाखाओं में जगह जगह एक प्रकार का रस अा जाता है जिसके कारण उन स्थानों की लकड़ियाँ भारी हो जाती हैं । इन स्थानों से लकड़ियाँ काट ली जाती हैं और अगर के नाम से बिकती हैं। यह रस जितना अधिक होता है उतनी ही लकड़ी उत्तम और भारी होती है। पर ऊपर से देखने से यह नहीं जाना जा सकता कि किस पेड़ में अच्छी लकड़ी निकलेगी। विना सारा पेड़ काटे इसका पता नहीं लग सकता। एक अच्छे पेड़ में ३००) तक का अगर निकल सकता है। पेड़ का हलका भाग, जिसमें यह रस चा गोंद कम होता है, 'धूप' कहलाता है और सस्ता अर्थात् १), २) रुपए सेर बिकता है। पर असली काली लकड़ी जो गेंद अधिक होने के कारण भारी होती है ग़रकी कहलाती है। और १६) या २०) सेर बिकती है । यह पानी में डूब जाती है । लकड़ी का बुरादा धूप, दशांग आदि में पड़ता है । बम्बई में जलाने के लिए श्रौषध कार्य के लिए ऊदे ग़ौ, जो सिलहट से प्राप्त होता है, सर्वोत्तम होता है। इसे तिक सुगंध मय तैलीय तथा किञ्चित् कषैला होना चाहिए, इससे भिन्न निम्न कोटि के ख़्याल किए जाते हैं। चूंकि ऊद की लकड़ी को कुचल कर जल में भिगोकर अथवा इसे बादाम के साथ मिलाकर पुनः कुचल दबाकर इसका तेल निकाल लेते हैं, इसलिए योगों में प्रायः ऊ दे खाम (कच्चा ऊद) ही लिखा जाता है । और क्योंकि "चूरा अगर" नाम से अगर के टुकड़े भारतीय व्यापारिक द्रव्य है, अस्तु इसमें चन्दन, तगर अथवा एक सुगन्धित काऽ के टुकड़े मिला दिए जाते हैं। . ग्ज़िवर्ग तथा अन्य वनस्पति शास्त्रियों ने सिलहट में अक्विलेरिया (aquilaria) अर्थात् अगर को परीक्षा की और हाल ही में । For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अगर www.kobatirth.org I इसकी अगर बत्ती बहुत बनती है । सिलहट में अगर का इत्र बहुत बनता है । चोत्रा नामक सुगंध इसी से बनता है वानस्पतिक वर्णन - अगर के बेडौल टुकड़े होते हैं जो उनमें राल के परिमाणानुसार धूसर या गहरे धूसर वर्ण आदि विभिन्न रंगों के होते हैं । हलके तथा गहरे दोनों रंगों के टुकड़े लम्बाई की रुख़ गहरे रंग के नसों से चित्रित होते हैं, ये जल में डालने से जलमग्न हो जाते हैं । इसे चबाने से ये दाँतों में चिपट जाते तथा मृदु प्रतीत होते हैं । स्वाद-तिक तथा सुगन्ध युक्त | जलाने से इसमें से ग्राह्य गंध आती है। 1 प्रयोगांश-काष्ट | रसायनिक संगठन - एक उड़न शील तैल, जो ईथर में विलेय होता है, दूसरा राल जो मद्यसार (अल्कुहाल ) में घुलनशील तथा ईथर में धुल होता है । श्रौषध निर्माण - काथ ( १० में १ ); मात्रा - ४ से १२ ड्राम चूर्ण तथा कल्क अनेक औषधियों से युक्त पाक आदि; मात्रा - १० से ३० रती । तैल- ३० से ६० बूंद | गुणधर्म तथा उपयोग. आयुर्वेदीयमतानुसार - अगर शीत, प्रशमन और कासन है । च० । ४४ अगर वात-कफहर, वर्णप्रसादक, देह का रंग सुधारने वाला) खुजली नाशक और कुष्टनाशक है । अगर की लकड़ी को जल में प्रौटाकर उस पानी को पीने से ज्वर में लगने वाली वृषा न्यून होती है और यह मृगी एवं उन्माद आदि रोगों में परमोपयोगी है । सु० । अगर तिक्क, उष्ण, चरपरा, लेप करने से रूक्षता उत्पन्न करने वाला, त्वचा को हितकर, तीक्ष्णपित्तकारक और हलका है तथा व्रण, कफवात, वमन, मुख रोग एवं चक्षु श्रौर कर्ण रोग नाश करने वाला है । रा० नि० ० १२ । वा० चि० ४ श्र० । | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर जो अगर काले रंग का होता है उसे कृष्णा गुरु कहते हैं । यह अधिक गुण वाला और लोहे के स पानी में डूब जाता है। अगर से बनाए हुए तैल में भी काले श्रगर के सदृश ही गुण हैं । भा० क० ० । अगर गन्ध - गरम, तिक्र, कटु, स्निग्ध, मंगलदायक, रुचिकारी धूपके योग्य पित्तजनक, तीक्ष्ण हैं तथा वात, कफ, कर्णरोग और कोड़ का नाश करता है । लेप में और लगाने में श्रेष्ठ है । नि० ० 1 1 वक्तव्य इस देश में अति प्राचीन काल से अनुलेपन व श्रौषध रूप से अगर व्यवहार में रहा है । श्रतः चरक सूत्रस्थान ३४ अध्याय में शिरोवेदनाहर एवं शीतहर प्रलेप में अगरू का उल्लेख दिखाई पड़ता है | चरको शीत ऋतुचर्या में अगर के अनुलेपन का उपदेश किया गया है | सुश्रुत में ब्रणधूपन द्रव्यां के मध्य अगर का पाठ दिया है । (सु० ६ श्र० ) । अगर का तेल पीत वर्ण का एवं अगर के समान गंध वाला होता है । भाव प्रकाशकार लिखते हैं - अगर के तेल का गुण कृष्णागुरु अर्थात् काले अगर के समान हैं, यथा "गुरु प्रभवः स्नेहः कृष्णागुरु समोमतः ।” उत्तम श्रगर की लकड़ी को जल से घिस कर शरीर में लगाने से उसका वर्ण उज्ज्वल होजाता है इसी लिए इसका एक नाम " वर्ण प्रसादन " है । For Private and Personal Use Only यूनानी मत के अनुसार — प्रकृति दूसरी कक्षा में गरम और तीसरी कक्षा में रूत्र है । किसी किसी के मतानुसार दूसरी कक्षा में गरम व रूक्ष है । हानिकर्त्ता - उष्ण प्रकृति को इसका पीना और धूनी देना । दर्पन - गुलाब, कपूर, सिकंजबीन | प्रतिनिधि - दालचीनी, लौंग, केशर, चंदन बालछड़, रूमी मस्तंगी । गुण कर्म-प्रयोग(१) हलकी अपनी सुगन्धि एवं प्रकृताष्मासे प्राण वायु को बलप्रद होने के कारण श्रामाशय यकृत, हृदय तथा इंद्रियों को बल देता है और इसी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर अगर-अगर कारण मस्तिष्क के लिए अत्यम्त लाभदायक है, (२) अपनी सूचनता एवम् ऊम्मा से रोधे वाटक है, (३) इसका चबाना मुख को सुगंधि प्रदान करता है। और वायु लयकारक है । त० नो० (५) हृदय को प्रसन्न करता है । (६) वात तन्तुओं को बलप्रद (७) पक्वाशय और श्रांत्र को बलप्रद, (3) गर्भाशय की शीतता, को लाभ कर्ता, (१) प्रोजप्रद और हृदय की व्याकुलता का नाशक है। अगर के सम्बन्ध में नव्यमत-सुगंध हेतु चूर्ण रूप में तथा उत्तेजक पित्त निस्सारक एवम् रोधोद्घाटक प्रभाव के लिए इसका श्राभ्यभरिक उपयोग होता है। अनेक नाड़ी बलदायक वायुनिःसारक तथा उत्तेजक औपधियों का यह एक अवयव है । निकरस ( Gout) तथा संधिवात में एवं वमन निग्रह हेतु भी इसका उपयोग होता है। अस्त्र चिकित्सा सम्बन्धी ब्रण एवं क्षतों को वेदना शमनार्थ इसको अंगम प्रशमन धूनी रूप से उपयोग में लाते हैं । बालकों की खांसी में अगर तथा ईश्वरी ( Indian birth wort ) के कल्क को ब्राण्डी के साथ वक्षस्थल पर लगाते । हैं। शिरःशूल में इसे शिर में लगाते हैं। धूप बत्तियों के बनाने में भी यह प्रयुक्त होता है। इसे अगर की बत्ती कहते हैं। ___ जवारश ऊद में भी यह पड़ता है ( अस्तु, देखो-जवारस ) इसकी मात्रा ५० से ३० रत्ती तक है। गुण-शुक्र सम्बन्धी निर्बलता, शिर में : चक्कर आना तथा श्वेतप्रदर में यह नाड़ी को बल दायक औपध है। ई० मे० मे०। अगर agar-फा० सुरीन, चूतइ-उ० । नितम्ब -हि । (Hip) अगर-अगर agar-agar'-लङ्का (१) चीनी घास-भा०बा०, बम्ब० । दरिया की घास. पाची-मोस-द० । समुदुपु-गाची, समुद्रपु-पाचि -ते। अगर-अगर-सिं० । सीलोन मास (Ceylon moss ), एडिब्ल नॉस । (Edible moss ), सी वीड्स (Sea- weads)-इं० । ग्रेसिलेरिया लाडकेनाइडीज़ (Gracilaria lichenoides, Grrer.) कडल पाञ्चि-ता० । कियाव वाएङ्-वर० । ग्रेसिलेरिस कॉनफर्वाइडीज़ ( Gracila.is confervoides, Grev.)-ले० । शैवाल जाति. (Alge or sea weed.) उत्पत्ति स्थान-लंका का स्थिर समुदी भाग तथा हिंद महासागर । वानस्पतिक वर्णन-अगर-अगर श्वेताभायुक्त या पीताभायुक श्वेत शाखी तन्तुमय जलीय पौधा है जो कई इञ्च लम्बा ( अश्वेतकृत बैंगनी )होता है। आधार पर बृहत्तन्तु कुक्कुट पक्ष से अधिक मोटे नहीं होते; लधु तन्तु सीने के सूत्र के लग भग मोटे होते हैं। मंगी अांखों से वे तन्तु करीब करीब बेलनाकार प्रतीत होते हैं। परन्तु सूक्ष्म दर्शकयंत्र से देखने पर वे लहरदार या झरी युक दीख पड़ते हैं। शाखाक्रम कभी कभी युग्म | Dichotomous. ) होता है । और कभी अयुग्म । शुष्कावस्था में सूक्ष्म वृत्ताकार कोष (Coccidia) अप्रत्यक्ष रहते हैं किन्तु श्राई होने पर स्पष्ट रूप से तत्क्षण दीख पड़ते हैं। वे करीब २ खाखस बीजाकार यो अर्द्धवृत्ताकार होते हैं और उनमें सूक्ष्म श्रायताकार ( स्तम्भाकार ) गंभीर रक्रवर्णीय दानी (Spore ) का एक समूह होता है। अगर-अगर (Caylon moss) कार्टिलेजीय पदार्थ है। स्वाद-निईल लवणयुक्र शैवालीय होता है। रसायनिक संगठन-वेजिटेबल जेली(वानस्पतीय सरेश)४० से ८० प्रतिशत, अल्ब्युमेन नैलिन ( Iodine), निशास्ता (True star ch), लिजिस पदार्थ ( Ligneous matter), लश्राव, लवण यथा सैंधगन्धेत् (Sodium sulphate) तथा सैंध हरिद (Sodium chloride ), gaysia ( Calcium phosphate), चून्गन्धेत् (Calcium sulphate), मोम, लौह तथा शैलिका । इतिहास तथा उपयोग-अगर-अगर For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अगर- अगर www.kobatirth.org ४६ Ceylon moss ) दक्षिण भारत तथा लंका में प्राचीन काल से पोषण मृदुता जनक, स्निग्धता कारक तथा परिवर्तक रूप से और मुख्यतः वक्ष रोगों में उपयोग में लाया जाता है । पुतलन और कालपेस्टिर के मध्यस्थित महाझील वा प्रशान्त जल में यह अधिकता के साथ उत्पन्न होता है । प्रधानतः दक्षिणी पश्चिमी मानसून काल में जलस्थ क्षोभ के कारण जब यह पृथक् होजाता है तो देहाती लोग इसे एकत्रित कर लेते हैं । तदनन्तर उसको ( सिवार को ) चटाइयों पर विछा कर दो तीन दिवस पर्यन्त धूप में शुष्क करते हैं । पुनः ताजे जल से कई बार धोकर धूप में खुला रखते हैं जिससे वह श्वेत हो जाता f --: बँगाल फार्माकोपिया ( पृष्ठ २७६ ) में उसके उपयोग का निम्त क्रम वर्णित है काथ - शुष्क अगर अगर चूर्ण २ डान, जल १ कार्ड० इनको २० मिनट तक उबालकर जलमल से छान लें। इसमें अर्द्ध थाउंस के अनुपात से विचूर्णित शैवाल की मात्रा अधिक करने से ( या १०० भाग जल तथा शुष्क शैवाल चूर्ण १ भाग इं० मे० मे० ) - शीतल होने पर छना हुग्रा ate सरेश में परिणत हो जाता है और जब इसको दालचीनी वा निम्बूफल स्वक् या ( तेजपत्र ) शर्करा तथा किञ्चित् मद्य द्वारा स्वादिष्ट बना दिया जाता है तो यह रोगी बालकों तथा रोगानन्तर होने वाली निर्बलता के लिए उत्तम एवं हलका ( पोषक) पथ्य होजाता है । (डाइमॉक) रगर का शुष्क पौधा श्रौषध रूप से व्यवहार में श्राता है । इसमें पेक्टिन् तथा वानस्पतीय सरेश अधिक परिमाण में वर्तमान होते हैं । इसका क्वाथ ( ४० में १ ) मृदुताजनक एवम् स्नेहकारक रूप से वक्ष रोगों, प्रवाहिका तथा अतिसार में लाभदायक होता है । इसके द्वारा निर्मित सरेश (Jelly ) श्वेतप्रदर असृग्दर तथा मूत्रपथस्थ क्षोभ में व्यवहृत होता है । इसमें नैलिका ( Iodine ) होती है अस्तु यह घेघा ( Goitre ) तथा कंमाला आदि में लाभ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर- अगर प्रद होता है । यह सिरेशम माही ( [singlass) का उत्तम प्रतिनिधि है । इं० मे० मे० । हिन्दू जनता इसे अगर अगर ( Japan ess isinglass ) की अपेक्षा अधिक पसन्द करती है क्योंकि उसको इसके प्राणिवर्ग से निर्मित होने का सन्देह है, जो सर्वथा भ्रममूलक एवं ग्रज्ञानता पूर्ण है । ( डाइम(क) ( २ ) अगर- अगर agar agar - जापानीज़ आइसिन् ग्लास (Japanese Isinglass), जेलोसीन Gelosin ) - इं० जेलोडियम् कॉर्नियम् ( Gelidium Cornóum, Laon. ) जी० कार्टिलेजीनियम् ( ( Cartilagineum, Gill ) - ले० । माउसी डी चाइनी ( Mousso do chine ) - फ्रां० । श्री ( 'Thao ) - जापा० । याङ्ग दूद्वै चा० । चीनी घास- भा० वा० । शैवाल जाति । ( N. C. Alge ) ( नॉट ऑफिशल Not official. ) उत्पत्ति स्थान - हिन्द महासागर | विवरण- अगर- अगर उपरोक्त दोनों प्रकार के सिवारोंसे निर्मित झिल्लीमय फीता को शकल का शुष्क सरेश है। सम्भवतः यह स्फीरोकॉक्कस कॉम्प्रेसस (Sphosrococcus com pressus, dg.) तथा ग्लॉइऑॉपेल्टिस टिनेक्स ( gloiopeltis tenax, Ag.) से भी प्रस्तुत किया जाता है । For Private and Personal Use Only हैन्यरो - इसके विषय में निम्न वर्णन उद्धत करते हैं: - जापानीज़ श्राइसिन् ग्लास के शुद्ध नाम से अभी हाल में ही जापान से इङ्गलैण्ड ● में एक वस्तु भेजी गई है जो दबी हुई, असमान चतुर्भुजीय छड़ होती और प्रत्यक्ष रूप से लहरदार, पीताभयुक्र श्वेत एवं स्वच्छ झिल्लियों की बनी होती है। ये छड़ ११ इंच लम्बे तथा १ से डेढ़ इंच चौड़े, श्राशयों से पूर्ण अत्यन्तं हलके ( प्रत्येक लगभग ३ ड्राम ) अधिक लचीले परंतु मरलता पूर्वक टूट जानेवाले Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अगर- अगर www.kobatirth.org तथा स्वाद एवं गंध रहित होते हैं । शीतल जल से स्पर्श होने पर इनका द्रव्यमान बढ़ जाता है। तथा वे चतुष्कोणी स्पञ्जवत् होजाते हैं और उनकी भुजाएँ नतोदर तथा चौड़ाई में १॥ इंच होती हैं। यद्यपि जल में यह किसी परिणाम में विलेय होता है तथापि कुछ काल पर्यन्त उबालने पर इसका अधिक भाग लय हो जाता है और घोल, जब कि अभी यह जल निति ( या पतला ) है, शीतल होने पर सरेश में परिणत हो जाता है । चीन देशीय यूरूप निवासी इसे वास्तविक सिरेशम माही ( Isinglass ) की प्रतिनिधि स्वरुप व्यवहार में लाते हैं जो कि बहुराः उससे भी गुणदायक है | यह बहुत जल में मिलकर भी उसे सरेश में परिवर्तित कर देता है । उसका यह गुण एम० पेन (M. payon) द्वारा श्रभि हित जेलोज़ ( Gelose ) नामक पदार्थ के कारण है जो जापानीय शैवाल में विशेष रूप से पाया जाता है । यह सिरेराम माही की अपेक्षा अधिक उत्ताप पर पिघलता है । यह अपने से ३०० गुने जल में भी घुल कर शीतल होने पर सरेश में परिणत हो जाता है। I (४) एक ही वजन में इससे सिरेराम माही से १० गुना अधिक सरेश तैयार होता है । श्राहार हेतु ar सरेश ( अगर अगर ) प्राणिज सरेश से अधिक प्रिय नहीं होता, क्योंकि यह ( चेश्रो ) मुख में नघुल होता है और उसमें नत्रजन भी प्रभाव होता हैं । उसमें सर्वोपरि गुण यह है कि वह अति न्यून परिवर्तनशील होता है, अस्तु, उपयोग हेतु प्रस्तुत, स्वादिष्ट एवं मधुरीकृत 'सी वीड जेली' ( समुद्र शैवाल सरेश ) नाम से कभी कभी सिंगापूर से आया हुआ सरेरा विना विकृत हुए उसी रूप में वर्षो रक्खा रह सकता है । ४७ अधुना विशेषतया उष्ण जल वायु में जीवाणु शास्त्रान्वेषणार्थ व जीवाणु उत्पादन वर्द्धन हेतु यह अधिक उपयोग में लाया जाता है । (डाइमांक) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसायनिक संगठन — उक्त सिवार से प्राप्त सरेश में जेलोज ( gelose ) जो सरेशी सत्व है प्राप्त होता है। इसमें कोई नत्रजन वायव्य नहीं होता तथा शर्करा पदार्थ ( mannite ), निशास्ता तथा लव्युमेन वर्तमान होते हैं । अगरता प्रभाव तथा उपयोग-उन छिद्र श्रादिकों को, जिनसे कभी श्रान्त्र वृषण में उतर आती है, संकुचित (छोटा) करने के विचार से अगरअगर के कीट रहित घोल का तत्स्थानीय तन्तुओं में अन्तः क्षेप करते हैं । मृदुभेदक रूप से इसका प्रायः सफलता पूर्ण उपयोग किया गया 1 अगर अगर द्वारा निर्मित रिग्यूलीन ( Regulin ) नामक एक शुष्क एवं स्वाद रहित श्रौषध जिसमें २० प्रतिशत कैस्करा सत्व ( Extract of cascara ) होता है प्रचार पर चुकी है । १ से ३ ड्राम की मात्रा में पुरातन मलावरोध में यह मृदु भेदक प्रभाव करता तथा मल परिमाण की वृद्धि करता है | कुचले हुए आलू व उबाले हुए फलों के साथ मिलाकर इसका उपयोग करना चाहिए | अगर अगर के शुष्क बारीक पत्र चाय की चम्मच भर की मात्रा में कैस्करा के विना मरोड़ एवं रेचन के उत्तम परिणाम उत्पन्न करते हैं | अगर के प्रभाव को श्रान्त्रीय पृष्टों तक ही निर्मित रखने की दृष्टि से इसके साथ बहुत सी अन्य औषधियां जैसे फिनोल - थैलीन ( Phenol-phathalein ) रूब ( रेवन्द), टैनीन (कपायीन), कैटेच्यू ( कत्था ) तथा कैलम्बा इत्यादि सम्मिलित करदी गई हैं । हिट० मे० भे० । For Private and Personal Use Only : श्राता यह पोषक तथा स्नेहकारक है और सीलोन मॉस ( चीनी घास नं० १ ) के समान व्यवहार में है | यह उत्तम आहार है। इं० मे० मे० । श्रगरई agarai - हिं० वि० [सं० अगरु ] श्यामता लिए हुए सुनहला संदली रंगका अगर | अग़रता gharatá-वर ब० छोटी मांई का फ़राशवृक्ष ) Tamarix gallica, वृत्त Linn. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अगर तेलियह, अगरेतुर्की अगर तेलियह, agar-teliyah-हिं० ऊद ग़र्की (cal-rot) (२)देवदाली, बिन्दाल (Luffa अर्थात् पानी में डूब जाने वाली 'अगर' या जो Echinata, Ro.rb.) अगर तैलीय एवं श्यामवर्ण की तथा ऊपरोक गुण । अगरी agari- सं० स्त्री० देवताड़ वृत्त, देवदालो वाली अर्थात् डूब जाने वाली हो-(Aquilaria ( Deotar) वै० श० । 'अपामार्ग'-हिं०, Malaccensis, Lanh. द०। ( Achyranthes Aspera, अगरधत्ता asardhatta-सं०प्र० ) ... Lim.) ई० मे० मे० । अगरधाक agardhak " अगरु agaru-सं० की. -अगर द्रोणपुष्पो ( Leueas Cephalotes, Spreng. फा० ई० ३ भा० अगरू agar हिं० संज्ञा०पु. लकड़ी। ऊद, अगरबत्तो agarbatti-हिं० संज्ञा स्त्री काली अगर, अगरु चन्दन, कुष्णागुरु-हि. । [सं० अगरुवर्तिका सुगन्ध के निमित्त जलाने अगराइ-चन्दन-बं० | Aloe wood (Agकी पतली सींक वा बत्ती जिसमें अगर तथा कुछ allochum, the black variety) श्रीर सुगन्धित वस्तु पीसकर लपेटते हैं। इसका वा० उ० २७०। देखो-अगर। व्यवहार मद्रास तथा बम्बई में बहुत होता है। अगरु गंध काष्ठ agaru-gandha.kash tha-सं० क्लो० रक्तचन्दन। Pteroअग़रलयूस aghar-layusa-यू० इन्द्रायन का । carpus santalinus, Linn. ( wood फल-हिं० (Citrulluscolocynthis, Schrad. Fruit of-Colorynth.)। of-Red sandal wood)स० फा० इं०। अग़ग्स agharas-यु. वृक्ष विशेष, इसके अगरू गोलीत स aghari-ghouli tusa-यु० बोल-हिं० फा०, बं०, द० । गंध रसः बोलम् गोंद को कहरुवा कहते हैं। (Succinum Amber [ tree of-]| __ -सं० । मुर-अ० Mirrh, (Balsamod. endron Mirrh.) अगरसत agar-sata-हिं० पु. अगर अग़रूस agharisa-यू० खरहा, खरगोश । हेयर aquilaria agallocha, Roxb.) अगरसार agārasaira-हिं० सं० ए० (Halre ), रैबिट ( Rabbit )-इं० अगरूसारः agari-sarah-सं० देखो-अगर। पु०, कालीअगर, कृष्णागुरु। काला अगुरु-बं० । अगर सामिनह ugara sominah-बर० ब० । Aloe wood ( the black variety) ग़ाफ़िस के नाम से प्रसिद्ध है। एक घास है। देखो-अगर प्रारत agharastasa-यू० वेद गयाह। अगरेतुर्की agare-turki-फा० बच०-हिं० एक गाँउदार वृक्ष अथवा घास । वज, बज-अ०iacorus calamus,Linn. अगरा,-री agari,-ii-सं० स्त्री० A kind. ( Root of-sweetflas ) of grass Deotar | एक प्रकार की घास। नोट-बहुधा समस्त वर्नाक्यूलर अंगरेजी कोषों देवदालो । देयाताड़ा-बं० । अ० टी० भ०। में बच ( Sweet flag ) को पुष्करमूल (२) पीत-देवदाली | भा०, रा० नि० (Oris root ) के साथ मिलाकर भ्रम व०३। कारक बना दिया गया है । अतिरिक्र इसके अरबी अगरिया aghariya-यू. मिट्टी का नाम है।। वज या वज रिचार्ड सन ( Richardson ) ( A knid of clay ) शेक्सपीअर (Shakespear) और फार्बीज अगरियूस aghariyāsa-यू० (१) गर्जरम्, ( Forbes ) प्रभृति कोषों में प्रमादवश TAT Daucus carota, Linn. लिज ( Gallangal) के लिए प्रयोग For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगल अगस्तिया किया गया है। अनीस प्रकरणान्तर्गत फारसी first seven days after calving.) नाम "वजे तुकी” के सम्बन्ध के नोट को | अगवोसी agavose-इं० यह एक प्रकार की देखिए । स० फा० इं०। निष्क्रिय शर्करा है जो राकसपत्ता ( Agare नोट-हाजिजैनुल अत्तार (१३६८ ) इसे अतुल | americana,Lin.) नामक वृक्ष के डंठल जज कहते हैं और इसका फारसी नाम वलजज के रस से पृथक की जाती है। इं० मे० मे० । बताने हैं। अगशि ayashi-कना० अगस्त वृक्ष, अगस्तिया अगलagalia-ता। चिकरस्सी-बं०। बीगापामा- (Agati grandiflora, Desc.) 910 श्रासा० । मे० मा०। इं०१ भा०। अग़ल्सोलीस aghal-solist-यू. एक वृक्ष है अगसतामरेरय agasa-tanire-ayu-ता० जिससे उशक नामक गोंद निकलता है। ___ जलकुम्भी-हिं० । कुम्भिका०-सं० | Pistial अगलहिया ngalahiya-हिं० संज्ञा स्त्री० t ratiotes, Liun. ई० मे० मे० । फा० [देश॰] एक चिड़िया, ( चन्नु का) इं०१ भा०। अगला agala-हिं० वि० [सं० अग्र] [स्त्री० अगसाक़ aghasaga-अ० (Black erow.) अगली](1) श्रागे का । अग्र भागका । सामने कुलाग़ स्याह (खेत का कौश्रा)। का। अगाड़ी का। पिछला शब्द का उलटा । अगसीगिदा agasi.gida-कना० चकबंड-हिं० (२) पूर्ववर्ती । पहिले का | प्रथम । (३) चक्रमर्द, बद्न -सं० । दादमर्दन-बं० । आगामी । पाने वालः । भविष्य । (४) अपर । Ringworm shrub ( Cassia दुसरा । एक के बाद का। alata.) Lim.इं० मे० मे०। अगम्लाकोष्ठ agala-koshtha-हिं० । अगसेयमरनु agastya-naranu-का० (Anterior chambel.) अग्रकोष्ठ। अगस्त, अगस्तिया (agati grandiflord, अगलागल agalagala-हिं० कचैटा, किंगलो। : Desc.) अगलानअशी aghalan-ashi-तु० जुन्दवे अगस्त gasta-हिं० पु., 1-अगस्तिया अगस्तिः agastih-सं० पु०, 5-Sesbania दस्तर, गंधमार्जार ( Castoreum.) Grandiflora, Pers.) अगलाय agaliya-ता० चिकरस्सी-बं० । बीगा : अगस्तिकुसुमः agasti-kusumah-सं० पु०, पोमा-आसा० मे० मो०। अगस्तिद्रः-मः agasti-drub,-drumah अग़लोकन aghaliqana-यू० मैफ़ख़तज (दोशाब : अगस्तिया के नाम से प्रसिद्ध है) Agati grandi flora, Desv. अगलाकश ghalilasha-यू० दासर .एक 'अगस्तिपत्र नस्य agastipatra-nasya-सं. बूटी है जिसके पत्ते गेहूं के पत्तों के सदृश होते हैं । पुं०, अगस्ति (अगस्तिया) के पत्तों के रस की और उसके फल पर दो तीन पर्ने होते हैं और नस्य लेने से चौथिया ज्वर का नाश होता है। उस पर बाल के समान रांश्रा होता है।) . (वृ०नि०र०) अग़लोकी aghaliqi-यू० (१) मूली का अगस्तिया agastiya-हिं० पु. तेल (२) मफलतज । श्रगथिया, अगस्त, वस्न, वासना, अगलीत स xhali tusa-यू. फाशरा, शिव. : हथिया हतिया, हृदया-हिं० । पर्याय-प्रथालिंगी-हिं० ( Bryonia Alba) गस्त्योवंगसेनोमुनिपुष्पोमुनिद्रुमः । अगस्त्यः, अगवन्त agavanta-सं० अरनी [Premma बङ्गसेनः, मुनिपुष्पः, मुनिद्रुमः, शिववली, पाशुIntegrifolia, Linn.) अग़बर ap huvara-तु० खीस, प्यूसी, पीयूप, पतः, एकाप्ठीलः, वृकः, वसु, वसुकः, वसूहद्दः, ( The milk of a cow dwing the वसूकः, वकपुष्पः, शिवप्रियः, शिवमल्ली, काक For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्तिया अगस्तिया नामा, काकशीर्ष , स्थूलपुष्पः, सुपूरकः, रकपुष्पः, मुनितरुः, अगस्तिः, वङ्कसेनः, शीघ्रपुष्पः,ब्रणारिः, व्रणापहः, दीर्घफलकः, वक्रपुष्पः, सुरप्रियः, शिवापीडः, सुव्रतः, शिवाङ्कः, शिवेष्टः, शिवाहादः, शाम्भवः, क्रमपूरकः, रविसन्निभः, शुक्र पुप्पः, कनली, खरध्वंसी, और पवित्र-सं० । बकंपुष्पः बक (श्री) बकफुलेर- गाछ बास्कोना फुलेर गाछ -बं० । अगस्त- अ०, फा०, उ० । सिस्बेनियां giftar Sesbania Grandiflora, Pers.) yaft gtis atragati Gralldiflora, Dest. ) इस्कीनामेनी ग्रां. (Eschynomen, G., Linn.)-ले०। लार्ज फ्लावर्ड एगेटी (Large floweled nyati)-६० । कत्ति, गती, अगात्ति, श्रगति-ता० । आनिसे, अविसि, लल्लयबिसेचेह-ते। अकत्ति-मल०। अगशी (सी)-कना० हदगा, अगस्ता-मह० । अगथियो- गु० । अगसेयमनु-का० । अगासल-बाव. । गफलसुन्द० ब० । कतुरु-मुरङ्गा-सिंहली । लीग्यूमिनासी (शिम्बी वा वब्बुर वर्ग) (N. 0. Leguminoste. ) उत्पत्ति स्थान-दक्षिणी तथा पश्चिमी भारत वर्ष । गंगा की घाटी और बंगदेश । वानस्पतिक वर्णन- अगस्तिएका वृक्ष समस्त भारतवर्ष में विशेषकर पुष्पांद्यानों में अधिक होता है । इसकी अवस्था बहुत थोड़ी होती है। यह थोड़े वर्षों में ही लगभग ३० फीट की ऊँचाई तक पहुँचकर पुनः सतप्राय हो जाता है। काराड-सरल, ६ । है हाथ दीर्घ शास्त्रा-घन सन्निविष्ट नहीं-फाँक फोंक होती हैं। पत्ते-बबूल के समान किंतु इससे बड़े दीर्घ वृन्त के जोड़ेजोड़े दोनों ओर २१ । २१ अथवा इससे न्यूनाधिक संख्या में लगे होते हैं। ये . 1-10 इं. लम्बे और अंडाकार स्वाद में कुछ । अम्ल और कसैले होते हैं। . पुष्प-बड़ा, शुभ्र वा रकवर्ण का एवं कोरकितावस्था में चन्द्रकला के समान वक्र होता है। श्रीहर्ष कवि ने यथार्थ कहा है "मुनिद्रुमः कोरकितः सितयुति बनेह मुना मन्यत सिंहिका सुतः । तमिस्र पक्ष कटिकृत भक्षितः कलाकलापं किल वैधवं वमन् -पधचरित बाह्य कोष-( Calyx ) घंटाकार, द्विश्रोप्टीय और हरितवर्ण का होता है । पुष्प-तितली स्वरूप, श्वेत या रक्तवर्णीय( आयुर्वेद में नील वा श्याम दो अधिक लिखे हैं ) ॥-२ इंच लम्बा वक्र तथा गूदादार होता है। पुष्पाभ्यन्तरकोष - ( Corolla ) में विषमाकृति की चार पंखड़ियाँ ( दल ) होती हैं। जिनमें से ऊपर ध्वजा (Standard) और दोनों बगल में :-१ पक्ष (wing ) तथा नीचे तारणी (kool) होती है । तारणी( kecl) के भीतर परागकेशर (१०) तथा रति वा गर्भ केशर (1) ढके होते हैं। प्रत्येक गुच्छे में २ या ४ पुष्प कक्षस्थ डंठल में लगे होते हैं। इसका स्वाम-लुभाबी तथा तिक होता है। फलो-लटकनदार, १-१॥ फीट के लगभग लम्बी कुछ चिपटी तथा बीजों के मध्य में दबी होती है। प्रत्येक फलीम लगभग ४०-४१ बीज होते हैं । ___ वृक्ष त्वचा-लम्बाई के रुव चिड़चिड़ाई और बाहर से देखने में धूसर वर्ण की प्रतीत होती है । शुष्क काप्ठ मांटाई में ताजे काष्ट के बराबर होता है। ताजी दशा में दरारों के मध्य असंख्य सूक्ष्म अनुवन् ताम्रवर्ण के निर्यास दीख पड़ते हैं, किंतु वायु में खुले रहने से ये पुनः शीघ्र श्यामवर्ण के हो जाने हैं। नवीन स्वचा का वाह्य तल रक्रवर्ण का और इसी प्रकार के नर्म गोंद से लदा रहता है। इतिहास तथा नाम विरण- अगस्त्य मुनि के नाम पर इस वृक्ष के नाम श्रगस्ति और अगस्त्य प्रभति रक्खे गए हैं। कहते हैं जब अगस्त्य मुनि का उदय होता है तब ही अगस्तिया के फूल बिलने हैं । इसका श्रीषधीय उपयोग ग्राज का नहीं वरन् अति प्राचीन है। प्रयोगांश-त्वच:, पत्र, पुष्प, मृल, शिरिब और निर्यास। For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रगम्तिया www.kobatirth.org रसायनिक संगठन -- त्वचा में कषायीन ( Tammin ) और निर्यास होता है । श्रीषधि निर्माण त्वक क्वाथ (२० भाग में १ भाग ), मात्रा - १ तोला में २॥ तोला । मूल (स्वरस ) २ || मा० से ५ || मा० | इसकी जड़ की लुगदी और पत्र का पुलटिस स्थानीय रूप से उपयोग में लाया जाता है। शर्वन की मात्रा २ मा० । हानिकर्ता - उदर में वायु उत्पन्न करता है । दर्पनाशक - मोठ और मिर्च | ५१ गुण धर्म ( प्रभाव ) तथा प्रयोग - श्रायुवैदिक मतानुसार - ग्रन्तिया पित्त कफ नाशक, गर्मी को शांत करनेवाला, शीतल, योनि शूल, तृष्णा, कोढ़ तथा शोध नाशक हैं। वक अर्थात् अगस्त अत्यन्त शीतल, निक्र, मधुर और मदगंध युक्त ( कहीं कहीं "मधु गंधकः " पाउ आया है जिससे अभिप्राय 'मधु गंध युक' है ) तथा पित्तदाह, कफ, श्वास एवं श्रम नाशक और दीपन है । रा० नि० ब० १० । सफेद, पीले, नीले और लोहित पुष्प भेद से स्तिया चार प्रकार का होता है । यह मधुर, शीतल, स्त्रीदोष, श्रम, कास और भूतवाधा का नाश करने वाला है। रा० नि० । गथिया - शीतल, रुक्ष, वातकारक, कड़वा है, और पित्त कफ चातुर्थिक ज्वर ( चौथिया ) तथा प्रतिश्याय को नष्ट करता है । अगस्त पुष्प के गुण - अगस्तिया पुष्पशीतल ( मधुर ) है, तथा त्रिदोष, श्रम, वलास, कास, विवर्णता, भूतवाधा और बल को नष्ट करता है । रा० नि० च० १० । अगस्तिया के फूल - शीतल, चातुर्थिक ज्वर निवारक, रतौंधे को दूर करने वाले, कडुवे कसैले पचने में चरपरे रूक्ष और वातकारक हैं तथा पीनसरोग कफ एवं पित्त को दूर करते हैं । भा० पू० १ भा० शा० व० । वृ० नि० र० । अगस्ति के पत्ते के गुण- श्रगस्तिया के पत्ते चरपरे, कड़वे, भारी, मधुर, किञ्चित गरम और स्वच्छ हैं तथा कृमि, कफ, कण्डू (खुजली), विष और रक पित्त को हरते हैं। वे० निघ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • अगस्तिया अस्ति की फली के गुण अगस्तिया की फली सारक ( कुछेक दस्तावर ) बुद्धिदायक रुचिकारक, हलकी, पचने में मधुर, कड़वी, स्मरण शक्तिवर्धक है तथा त्रिदोष, शूल, कफ, पांडुरोग, विष, शोष, ( कहीं कहीं शोक पाठ है) और गुल्म को दूर करती है । इसकी पकाई हुई भांजी रूक्ष एवं पित्तकारक है । स्तिकीय व्यवहार सुश्रुत - अगस्तिया अधिक शीतल एवं उपसा नहीं है और नांध रोगी के लिए हित कारक है। सू० ४६ ० ० । वाग्भट - कांध्य में अगस्तिया के पत्र अगस्तिया के पत्र को सिल पर पीस कर इसको गोघृत में पकाकर घृत सिद्ध करें इस घी को नांध रोगी को पिलाएँ । ( उ० १३ श्र० ) पाक करने की विधि-गोघृत १ सेर, अगस्तिया के पत्ते शिल पर पिसे हुए 51 एक पाव, इसे मंद अग्नि पर यहां तक पकाएँ कि रस शेष न रहे | पुनः कपड़े से छानकर रखें । वक्तव्य चरक के पुष्पवर्ग में इसका उल्लेख नहीं है । धन्वन्तरीय निघंटुकार ने अगस्तिया का गुण वर्णन नहीं किया । राजवल्लभ में अगस्तिया के फूल का गुण वर्णित है । पत्र तथा शिम्बी फली का गुण नहीं लिखा है । भाव प्रकाशकार - लिखते हैं कि अगस्तिया का पत्र प्रतिश्याय अर्थात् तरुण प्रतिश्याय (सर्दी) निधारक है । वृहनिटुकार के मत से अगस्तिया की की शिम्बी (फली) 'सर' अर्थात रेचक है । चक्रदत्त चातुर्थिक ज्वर में अगस्तिया के पत्र- जब दो दिन के अन्तर से ज्वर श्राए तब अगस्तिया के पत्र का नस्य है । ( ज्वर वि० ) ज्वर आने के दिन ज्वर से पूर्व नस्य लें | यह प्लीहा यकृद्विवर्जित चातुर्थिक ज्वरमें प्रयोज्य है । भाव प्रकाश-वात रक्त में अगस्तिया का फूल - अगस्तिया के फूल को चूस कर इसको भैंस के दूध में मिलाकर उसकी दधि जमाएँ । For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगास्तया अगस्तिया उस दधि से निकाले हुए नवनीत से वातरक्रजन्य शरीरस्थ स्फोट (कांटे) अच्छे होते हैं । (म. खं०२ य.भा.)। हागेत-(.) अपस्मार पर अगस्तिया के पत्र-अगस्तिया पत्र बहुत मरिच थोड़ी इनको गोमूत्र में भली प्रकार बारीक पीसकर अपस्मार रोगी को नस्य कराएँ । (चि. १६ श्र०) (२) वालापस्मार-में अगस्तिया के पत्ते के रस के साथ मरिच योजित कर नस्य देने से लाभ होता है। उक्त रस में रुई का फाया भिगोकर उसे बालक के नासारंध्र के पास स्थापित करना अच्छा है। (चि.४३) अगस्तक सम्बन्धम युनानो व डाक्टरी मतयुनानी ग्रन्धकार अगस्तिया को दूसरी कक्षा में शीतल और रूक्ष नानते हैं। फारमीदव्य गुण. शास्त्र के प्रसिद्ध लेखक मोर मुहम्मद हुसेन लिखते हैं कि सरकमाँ अथवा मस्तक दुन्वना हो तो इसके पत्तों का रस निकाल नाकमै ३ बुद टपकाएं तो छींक पाकर नासिका द्वारा जलस्ताव होकर मस्तक का भारीपन दूर हो जाएगा। बम्बई के निवासी इसके पत्ते और पुप्प के निचोड़े हा रस का प्रतिश्याय एवं मस्तक शुल में नस्य रूप से उपयोग करते हैं। इससे नासिका द्वारा अत्यन्त जलस्राव होता है तथा शिर की वेदना एवं भारीपन सर्वथा दूर होता है। वि०, डाइमॉक। फल का साग करके खाते हैं। छाल पाचन शकि बढ़ाने में दी जाती है। पत्तों को गरम जल में भिगोकर उस जल को पीने से जल्लाय लगता है। आँख में जाला पड़ गया हो तो अगस्तिया के फल का रस आँख में डालने से फायदा होना है। म० अ०। यह उष्ण तथा पित्त हारक है। इसका पुष्प पित्तनाशक घ्राणशक्रिकी बलप्रद और नक्रांध्य अर्थात् रतौंधे को दूर करता है। अगस्तिया का मूल कफ निःसारक, त्वक् कपाय, तित्र, बलकारक, पत्र तथा पुष्प के रस की नस्य, देने से पीनस, प्रनिश्याय और शिरोवेदना कम होती है। मूल रस मधु के साथ तरुण कफ रोगमें प्रयोजनीय है । अगस्तिया तथा धतूरा को जड़ समान भाग लेकर पीस कर वेदना युक्र शोथ स्थल पर प्रलेप करे। (मे० मे०ई० श्रार० एन० ग्वारी कृत २ या खंड २२६-ई. पृ०)। लाल फल वाले अगस्तिए की जड़ को जल के साथ पीसकर बनाई हुई लुगदी का संधिवात में उपयोग होता है। इसे २ तो० तक इसकी जड़का रस प्रतिश्याय में मधुके साथ उपयोग में लानेसे श्लेप्ना निम्मारक प्रभाव करता है। एक भाग अगम्किए की जड़ तथा इतनी ही धतूरं की जड़, इन दोनों में तैयार की हुई लुगदी को वेदना युद्ध शोथ में वर्तते हैं। इसके पत्ते को माभेदक बत लाते हैं। वि. डाइमॉक । चेचक की प्रथमावस्था नथा अन्य म्फोटकीय ज्वरों में इसकी बचा के शीत कपाय का लाभदायक उपयोग होता है। टो० गन मुकर्जी. डॉक्टर बोनेविया ( Dr. Bonavia) के कथनानुसार इसकी छाल अत्यन्त संकोचक है। और ब इसका बलकारक रूप से उपयोग में लाने की शिफारिश करते हैं। डॉक्टर गम्फिस (Dr. RImphius) के वर्णनानुसार इसके पत्ते की पुलटिश चोट लगने अथवा कुचल जाने के लिए एक प्रसिद्ध ग्रीषधि है। पहज काम अथवा बच्चों की मर्दी में दो बूद अगस्त के पत्ते के रस को - या १० बूद शहद में मिलाकर इसे अंगुली के सिर पर लगा शिशु के ब्रह्मरंध्र पर दाई लोग चतरना पूर्वक लगाती हैं। (इं. मे० मे.) इसके पुष्य को निचोड़ कर निकाले हुए रम को चक्षुश्री में डालने से दृष्टिमांद्य अथवा धुध को लाभ होता है। ___ अगस्त की ताजी छाल को कूटकर इसका रस निचोड़ कपड़े की वर्तिका इसमें नर कर योनि में रग्बने से श्वेतप्रदर तथा योनि कण्डु का नाश होता है । ( लेग्वक) For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रगस्ति रस अगस्ति ररू agasti ras सं० पु० देखी श्रगस्यरसः । ५३ snita gaua: agasti sútarájah-o पुं० पारा, तांचा, जमालगोटा, लोहा, नैनशिल हल्दी और गंधक इन्हें तुल्यभाग ले कज्जली प्रस्तुत करें पुनः त्रिकुटा, चित्रक, भांगरा, अदरख, निम्बू, सम्हालु श्रमलतास और मूली इनके रमों से पृथक् पृथक् भावना में, गुड़ के साथ सेवन करने से सर्व प्रकार क। उदर रोग दूर होना | मात्रा - १-३ रत्ती । ÷ श्रगनिया (र० ० ० चि० मो० नं० ) उदराधिकार श्रगम्य agastya - हिं० मं० पू० अगस्त्य : agastyah नं० पु० श्रध्याय agastya-jaya (Sesbania grandiflora, Pers.) त्रिका० । ( २ ) एक ऋषि का नाम जिनके पिता मित्र वरुण थे । इनको मैत्रावरुणि और शेय, कुंभ संभव, घटोद्भव और कुम्भज भी कहते हैं । विन्ध्यकूट, समुद्र चुलुक और पीतादि इनके अन्य नाम हैं । कहीं कहीं पुराणों में इन्हें पुलस्त्य का पुत्र भी लिखा है । अगस्त्यतामस्य agastya-tamaraya - ना० जलकुम्भी । कुम्भिका - सं० (pistia stratiotes, Linn.) । अगस्त्य मोदकः agastya modakah सं० पुं० अधिकार में वर्णित यांग विशेष-हड़ ३. पल, त्रिकुटा ३ पल, तेजपत्र श्राधापल, गुड़ पल से मोदक प्रस्तुत करें। इसे सेवन करने से शोध, अर्श, ग्रहणीदोष, उदावर्त तथा कास का नाश होता है बंग० सं० श्रर्श० यो०ली० ४७ अगस्त्यरसः agastyarasah-सं० पुं० उदर रोगघ्न रस विशेष-पारा, गंधक, जयपाल वीज, लौह, शिलाजतु, ताम्र भस्म, हल्दी समभाग लेकर त्रिकुटा, भांगरा, अदरख, नीम की छाल, सम्भाल, स्वर्णवल्ली के एकत्र क्वाथ में एकबार मर्दनकर रक्वें । मात्रा - १ रत्ती प्रमाण गुड़, हरड़ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त्य सूतराज सः कबीला के साथ देने से उदर रोग का नाश होता (र०१० सं० २० से०च० ) श्रगत्यरसायम् agastyarasáyanamत्रिप.ला, त्रिकुटा, दिगन्ध (दाल चीनी, इलायची, तेजपात, ) निशोथ, वायविडंग, चव्य, चित्रक, धत्त बीज, विष्णुकान्त, सुगन्धवाला, चोरक, लवंग, नागकेशर, कुलिञ्जन, सफेद नुसली, काकड़ासिंगी, भांग और अरान् वृक्षकी छाल प्रत्येक १-१ तो० ले चूर्ण कर इसमें = तो० अभ्रक भस्म मिलाएँ पुनः शुद्ध शिलाजीत तो ० और १०० वर्ष का पुराना मरडर सबके बराबर मिलाएँ; सतावर का रस १ सेर, गोमूत्र ग्राधा सेर बकरी का दूध 1 मेर और १॥ मेर शंकर मिलाकर पाक विधि से पकाएँ । जब वह गुड़ पाक की तरह सिद्ध होजाए तो चिकने पात्र में रक्खें | मात्रा-१-४ मा । गुगु- संग्रहणी, शूल, सूजन, गुदभ्रंश, प्रमेह, विषमज्वर, जीर्णज्वर, क्षय, श्वास, हिचकी, भगन्दर, हृदयशूल, पार्श्वशूल, पत्रिशूल, ग्ररुचि अम्लपित्त, पांडुरोग, कामला, आनाह, उदररोग, और aarat को यह रसायन नष्ट करता है । इस परम मध्य वातातविक नाम वाले रसायन का अगस्य ऋषि ने बताया है । यह बुड्ढे को कान शक्ति देता है । त्रियों को पुष्टि देता हैं। और वृद्वास्त्रियों को भी गर्भ धारण कराना और मर को दूर करता है । ना० वि० । अगस्त्य वटी agastyavati ) सं० स्त्री० अगस्ति बटो agasti vati ) वच १० पल कुचिला १० पल, दोनों को तुषों के काड़े में पका कर चूर्ण करें तथा इसमें त्रिकुटा, सज्जी खार, अजमोद, जवाग्वार, अजवाइन, खुरासानी अजवाइन, विडंग, हींग, सैन्धघ, बिड, सौचर नमक, प्रत्येक का चूर्ण ३ पल मिलाकर नीबू के रम में घोट कर बेर प्रमाण गोलियां बनाएँ । गुण- शूल, मन्दाग्नि, गुल्म, कृमि, तिल्ली ग्रामवातको नष्ट करती है । वृ० नि० ० शूल० चि० अगस्त्य सूतराज रसः agastya-sútarája rasah - सं० पुं० पारा, गंधक, सिंगरफ, For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त्यहा ५४ अगाडा प्रत्येक १-१ नो० धत्त र का वीज २ तो०, अफीम ज्वर, हिचकी, अर्श पीनस, अरुचि और संग्रहणी २ तोला इनका चूर्णकर भांगरे के रस की भावना का नाश हो, यह अगम्त्यमुनि की कही हरीतकी मात्रा-१ रत्ती से 5॥ रत्ती पर्यन्त । अनुपान प्रत्येक रोगों का नाश करती है। श्रा० सं० म० सों,मिर्च, पीपर और शहद के साथ देने से वमन ख० अ० २। शूल, कफ, वातविकार, मन्दाग्नि तथा घार । (३) दशमूल, गजपीपल, कौंच के बीज, निद्रा की तथा वृत और मिर्च के चूर्ण के साथ । भारंगी, कचर; पुष्करमल, मोठ, पाढ़, गिलोय, प्रवाहिका नया छः प्रकार के अतिसार में पीपलमूल, शंग्वाहुली, राम्ना, चित्रक, छापामार्ग, जीरा और जायफल के चर्ण के साथ देने में बला, जवाया ये प्रत्येक २-२ पल लें। इनका नाश करता है तथा यव (जो 1 बाढक लें, बड़ी हई १०० सौ लं, प्रथम १ द्रोण (१६ सेर) अथवा एक अगस्त्यहरgasty:-hari1-0 संज्ञा अगस्य हातको agastya-haritaki अादक (गर) जल लेके उसमें हड़ों को गरम्यावलेहः agastya-valshahसं०पू० श्रीटाएँ जब चौथा हिम्पा जल शेप रह जाए तो संस्त्रो० (१) यह काम में हित है। निर्माण : उतार फिर 1 7 ला (५ मेर ) गड़ लेकर जलम कमः-दशमूल, काँच, शंखपुष्पी, कचूर बरियारा, श्रीटाकर रेल, शहद, घृत, ४-४ पल डालें और गजपीपल, चिर्चिटा, पीपलामूल, चित्रक, भारंगी पीपल का चूर्ण ४ पल डालें, फिर पूर्वोत्र हड़ पुष्करमूल ये सब याः श्राः तो० ले और जय डालें, इस प्रकार पाक कर शोतल कर उसमें ४ (यव) २५६ तो०, हड़ १०० अदद, इन्हें पल शहद और डालें तो सुन्दर हरीतकी पाक १२७० तो. जल में पकाएँ जब सीज जाएँ तो तैयार होता है। यह रसायन है, नित्य दोहड़ों उस क्वाथ को बस्त्र से छान के सौ हड़ों में ४०० को करक यु. क्षए नो राजयरमा, संग्रहणी, तो० गुड़ और १६ तो० गोवृत मिला पकाएँ। सूजन, मंदाग्नि, म्वरभेद, पांडू श्वास, शिरीरांग और तेल, पीपल का चूर्ण भी १६-१६ सी. हृदयरांग, हिचकी और विपमज्वर को नष्ट मिला जब सिद्ध हो के शीतल हो जाए तो करता है। ग्रौर बुद्धि, बल तथा उत्साह गनि, को इसमें १६ तो. शहद मिलाकर यत्न सं रक्खें। बढ़ाता है। यह हरीतकीराक मब में प्ट है। दो दो हद रसायन विधि से खाने से वली व यो० चि० लू० सं० उ०० श्लो ४५ पलित पाँची खाँसी, क्षय, श्वास, हिचकी, विषन श्रागस्थिीashio-ग्रो० अगस्तिया. a Sasbania ज्वर, अर्श, संग्रहणी, हृदरोग, अरुचि और पीनस (pandiflora, Pers.)। फा० इं०१ शा०। को नाश करता है । यह अगस्त्यमुनि का रचा | अगहन ghayal-हिं० संज्ञा पु० [सं० हुया रसायन है। बंग० च० द० सं० कास० ग्रहायण, ] [ वि. अगहनिया, अगहन ] अ० यो० ते० वा० भ० चि० अ० ३ । मार्गशीर्ष नगसिर । (२) बड़ी हड़ १००, अजवाइन । अाढक, । श्रगहनिया ngathahiyi-हिं० वि० [सं० अग्रदशमूल २० पल, चित्रक, पीपलामूल, चिचिरा, हार] ऋगहन में होने वाला धान। कचूर, केबाँच, शंखपुष्पी, भारंगी, गजपीपर, अगहनोgathani-हिं० वि० [सं. अग्रहायणी बरियारा, पुष्करमूल प्रत्येक २-२ पल, ५ ग्राहक अगहन मेंयार होने वाला । संज्ञा स्त्री. बह जल में पकाय छान लें तिस में १०० हह, मेल, फसल जो अगहन में काटी जाती है। जैसे जहन घत ग्राउ पल, गुड़ १ तो० देकर पकाएं। जब धाल, उरद, इत्यादि। डा हो जाए तो इसमें शहद, पीपल का चूर्ण अगाडा agida-हिं०, संज्ञा पु० [हिं० अगाड़ ] १-१ कुड़व डालें, इस तरह इस सिद्ध अवलेह TATTI ( Achyranthes Aspera, के मंग २ हड़ निन्य ग्वा नो क्षय, कास, श्वास, Linn.)। (२) कछार तरी । For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रगात्ति श्रगाति agatti-ताo श्रगस्तिया. अगस्त्य (Sesbania Grandiflora.) अगाथियोस agáthiyos - सिग्● इसका शाब्दिक अर्थ अत्यन्त पवित्र है, पर शामी हकीम गण इसे मदार के लिए प्रयोग करते थे। इसी का अपभ्रंश हजाकियूस अरबी शब्द है । अगाधम् agadham-सं० ली० ( : ) जल ( Water, aqua) हे० च० ४ का० (२) छि, स्रोत (a-hole, a forforation) गाव त्व agadha tvak - सं० पु०, (Dr. mis,) श्रगावावर तिरश्वीना agadhadharatirashchiná )-सं० स्त्री०, ( Transversus parinai profundus) | श्रगानो agani - उ० प० सू०, त्रिधारा, बेत्तिः, गुग्गुल मै० म० । श्रगार azara-हिं० सं० पु० [सं० श्रगार घर, निवास स्थान | धाम, गृह, (२) ढेर | क्रि० वि० अगाड़ी, प्रथम । अग़ारह, agharah नीबू वृक्ष | ( Common lemon tree) श्रगाधूमः agārdhumah सं० त्रि० गृहधूम, ( Soot ), भुल बं० ३८ बा० उ० प्र० । श्रगारधूमाद्यतैलम् agáradhumadya-tag Jai-घरका का बसा ( घरऊ ) : भा० हल्दी २ भा०, सुरकिट ३ भा०, इन्हें डालकर तैल पाक करें, यह खुजली शोध को दूर करता, तथा उपदेश के व्रण का शोधन व रोपण कर उसे नष्ट करता है । ० र० । चक्र० द० । भा० प्र० । श्रगा (गे) रिक agáric श्रगारीकन, गारीकून० । साँप की छत्री, खुम्बी, कुकुरमुत्ता - हिं० । Bolotos ( Fungus ) Agniarius. यह एक परायी ( Parasitic ) पौधा है, जिसमें रक्तस्थापक गुण विद्यमान है। इ० हैं ० ५.५ गा० । गा (गं) कि ऑफ श्रक aganic of oak - ३० ग्रांक नामक इ० वृक्ष से उत्पन्न गारीतून | 0 अगा (गं) रिस् एल्बस् अगा (गे) रिक एसिड agaric acid-इ खुम्बीन छत्री सत्व ( Agaricin. Dr. Stewart ) देखा - श्रगारिकस ऐल्वस | अगा (गे) रिक आक औरसर्जन्स agaric oak or surgeon's. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमेनिटा अगा (गे) रिक फ्लाई agaric fly--इं श्रगारिकस श्रमेनिया | अगा (गे) रिक्स मेनिया agaricus amanita-ले० फ्लाई अगारिक ( fly agaric ) - इ० । मस्केरिया ( Amanita muscaria ) श्रगारिकस् मस्केरिया (agaricus muscaria ) -- फ्लाई अगारिक ( Fly agaric ) - इ० । माक्षीय छत्रांकुर - हिं० | ग़ारीकन जुबाब, ग़ारीकून मगस -faro (Not official) अगा (गे) रिकल पेल्वस् agaricus albus (Dr. Stercar()--ले० | पॉलिपोरस अफिसि नैलिस (Polyporus officinalis, Eries.) aise raiरिक ( White agaric ), पर्जिङ्ग श्रगारिक ( Purging agaric ), लार्च गरिक ( Larch agaric ) -- इं० | गारिक ब्लैक (Agaric blanch ), पालिपोरी मलेज़ी ( Polypore duneleze ) - फ्रा० । ग़ारीक़ न इण्डि० बा० । छत्रिका, गोमय छत्रिका, दिलीरं, शिलीन्ध्रकं, बसारोह, गोलासं, उध्यंगं, ( हा० ), उच्छि लीन्ध्रम्, शि (लि ) लीन्ध्रः ( कः ), भृच्छनाक, संस्वेदजशार्क, भूमिच्छन्नं, भूछत्र, पृथ्वी कन्दं कवचं, भूमिच्छत्रं, भूमिस्फोटः, धरांकुर, भूसुता, छत्र, छत्राक, स्वेदज--सं० । पाताल फोड़, भूई फोड़, कोक छाता, पोयालछातु, छातकुड़, छाता, भूई छाति, खुम्बा-ब छत्री, कुकुरमुत्ता, सांप की छत्री, छत्रांकुर छाना छतांना, हिं० | लम्बी, भूँई फोड़-मह० । किऐन--पं । जंगली , I बलगर- काश० | श्रगारीकून- यू० । कामिल - कोo | कुम्य मीद डॉनीबली - गु० । गारीतून बेज़, गारीकूनतिब्बी - श्र० । ग़ारीकून सफेद, गारीतून मुस्लि, ग़ारीकून सनोबर, माह शमाँ-फा० । For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगा अगा -- . (नॉट ऑफिशल Not official) छत्रिका वर्ग (N. 0. Polyporacert "FungiMushroom.") उत्पत्तिस्थान-दक्षिण तथा मध्य युरूप, साइवेरिया; एशिया माइनर, पञ्जाब, संयुक्र प्रान्त प्राचीन (सनोबर वृक्ष )। नामविवरण-युनानी हकीम दीसतरीदूस ( Dioscorides ) के मतानुसार जिसने सर्व प्रथम उक्त श्रीपध का वर्णन किया है इसका युनानी नाम अगारीकून (Agarikon ) अगारिया से, जो सर्माशिया में एक देश है, व्युत्पन्न शब्द है । चूकि उक्र औषध उस प्रदेश में अधिकता के साथ उत्पन्न होती है; अस्तु वह उस नाम से अभिहित हुई । औषधविनिश्चय-गारीकन [त्रिका ] के विषय में प्राचीन तथा अर्वाचीन चिकित्सकों में बहुत कुछ मतभेद है। अस्तु, किसी के मत से यह किसी प्राचीन वा सड़े हुए वृक्ष यथा अंजोर व गूलर की सड़ी गली हुई जड़ है जो उसके खोखलों में से निकलती है; तथा किसी किसी के कथनानुसार यह ग़ार वृक्ष की जड़ है, इत्यादि-: परन्तु किसी ने-उदाहरण स्वरूप हकीम महम्मद बिन अहमद ने इसका यथार्थ वर्णन किया है । कि ग़ारीन छत्रिका के प्रकार की एक बूटी है और इनमासूया ने जो लिखा है कि ग़ारीकन नर व मादा होता है तथा विभिन्न वर्ण का (श्वेत, पीत, रक तथा श्यान) होता है यह भी सत्य है। अस्तु, श्वेत छत्रिका जो युरूप के कतिपय प्रदेशों में औषध-तुल्य व्यवहृत होती है वास्तव में माना ग़ारीक़न ही है। नोट-मशरूम (Lushroom) जिसको संस्कृत में छत्रिका या वर्षाजा, अरबी में फ्रित र, फारसी में समारोग़ और हिन्दी उद में खुम्बी कहते हैं. सैकड़ों प्रकार के होते हैं। इनमें से कोई खाद्य कार्य में आते हैं और कोई श्रीषध में तथा कोई कोई अत्यन्त विषैले होते हैं मुख्यतः वे जो । कृष्ण वर्ण के होते हैं । अस्तु साक्षिक छत्रिका (Flvagatic) इसी अन्तिम प्रकार में से है। यह चमकीले वर्ष की ग्बुम्बी है जिसमें मस्करीन (घातकीन ) नामक पदार्थ वर्तमान होता है । इससे धर्म ग्रन्थियों में अन्त होनेवाली नाड़ियाँ (बोधतन्तु) वातग्रस्त होजाती हैं। छत्रिकाएँ वहुधा भूमिपर उत्पन्न होती हैं। अस्तु, वर्षा ऋतु में ये इतनी अधिकता के साथ उत्पन्न होती हैं कि इनके उत्पत्याधिक्य का उदाहरण दिया जाता है। परन्तु किसी किसी प्रकार की छत्रिकाएँ प्राचीन वृक्ष की जड़ प्रभृति पर उत्पन्न होती हैं । अस्तु श्वेत छत्रिका (गारीकन नि बी) भी उसी प्रकार की छत्रिकाओं में से है। श्राज से अर्द्ध शताब्दि पूर्व युरूप में तीन प्रकार की छत्रि. काएँ (ग़ारीक़न ) व्यवहार में पाती थीं, जैसे(3)-श्वेा छत्रिका, (२)--मानिक छत्रिका तथा (३)--शाल्य छत्रिका । परन्तु अधुना इनमें से केवल प्रथम प्रकार की छत्रिका ही युरूप के किसी किसी प्रदेश में प्रयोग की जाती है। इतिहास-कुत्रिका का औषधीय उपयोग अति प्राचीन है। हकीम दीसकरीदृस Dioscorides ने इसके नर मादा दो भेदों का वर्णन किया है । इनमें से नर बिलकुल सीधा लपेटदार गोल होता है और इसके भीतर पृष्ठ पर परत नहीं होते, परन्तु यह एक समान होता है। मादाकी अन्तः रचना कंघी के समान परतदार होती है और यही सर्वोत्तम है । स्वाद में दोनों समान अर्थात् श्रारंभ में मधुर तथा पश्चात को कटु होते हैं। इनके अतिरिक्त लाइनी, प्रीरा आदि युनानी, इब्नसीना आदि मुसलमान तथा राजनिघंटु, भावप्रकाश श्रादि श्रायुर्वेदिक चिकित्सा ग्रन्थकारों ने अपने अपने तौर पर इसके उपयोग का पर्याप्त वर्णन किया है। वानस्पतिक विवरण - यह वृतों तथा भूमिपर उत्पन्न होने वाला एक परायी छोटा पौधा है जो वर्षा ऋतु में अधिकता से उत्पन्न होता है। इसका गर्भान्वित भाग बाहर वायु में होता है। यह सीधा ऊपर को बढ़ता है । इसके तने के ऊपर छु त्रेक कार एक टोरोला रहता है। भीता For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra : www.kobatirth.org अगा (i) रिक्स ऐल्बस से इसमें स्पवत् कोठरियां होती हैं। इसका रस दुग्धवत् तथा तीव्र व अग्राह्य, स्वाद में चरपरा कसैला और किंचित् लावण्ययुक्त होता है । काट कर वायु में खुला रखने पर यह धूसर वर्ण का होजाता है । ५७ रसायनिक संगठन - इसमें राल, तिक पदार्थ, निर्यास, वानस्पतिक श्रलब्युमेन तथा मोम श्रादि होते हैं, इसका वास्तविक प्रभावात्मक सत्य श्रगारिक एसिड या फजिक एसिड या लार्किक एसिड ( छत्रिकाल ) है । इसमें स्फुरिकाम्ल, पोटाश, चून, एमोनिया और गन्धक प्रभृति होते हैं । अगासीन निर्यास में ६७ प्रतिशत ग्रगारिकाम्ल (Agaric : cid ) तथा ३, श्रगारिकोल ( Agaricol ) होता है । श्रगारिक एसिड [ छत्रिकाल ) के प्रति सूक्ष्म श्वेत चमकीले रवे होते हैं जो मद्यसार, क्लोरोफॉर्म तथा ईथर में ( शीतल जल में न्यून परन्तु उष्ण जल में सरलतापूर्वक) विलेय होते हैं । जल में उबालने पर यह सरेशो घोल बनाता है। औषध निर्माण तथा मात्रा - ( १ ) छत्रिका तरल सत्य Fl. eat. ( ३ में १ ) मात्रा:३ से २० बुन्द या अधिक, ( २ ) एक्सट्रोकटम् श्रगारीसाई ( छत्रिका सत्य ) मात्रा - २० से ६० बुन्द | ( ३ ) टिङ्क चर (१० में 9 ) मात्राः - २० से ६० बुन्द (४) छत्र (agaricus powder.) मात्रा:-२ से ग्रेन (२॥ - १५ रत्ती), श्रगारी सीन ( शिलीन्ध्रीन मात्राः -4 से 1 ग्रेन (-से से १ ग्रेन ) 1 ३० १२ नोट - छत्रिका चूर्ण को किसी मुरब्बा में मिला कर देते हैं तथा इसके सत्व ( श्रगारीसीन ) को डोवर्स पाउडर के साथ वटिका रूप में वर्तते हैं । कार्य - बलवान रेचक, रकस्थापक, सङ्कोचक, वामक, स्तन्यनाशक । छत्रिका (ग़ाकून) के गुणधर्म - आयुर्वेद मतानुसारः शीतल, कसैला, मधुर, पिच्छिल, भारी तथा छर्दि, अतिसार, ज्वर, कफ रोग कारक, पाक में भारी, रूक्ष तथा रेगुज, गोष्टज, शुचिस्थानज ८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रगा (गे) रिकस ऐल्बर्स वा का श्वेत, छत्रिका ( ग़ारीकून सफेद ) दोषों को करने वाली एवं निन्दित है । राज० । सांप की छत्री शीतल, बलकारक, भारी, भेदक, मधुर, त्रिदोषजनक, वीर्य वद्धक और कफकारक है । यह कृष्ण, रक और पाण्डु भेद से तीन प्रकार की होती है । कालेरंग की मधुर, गरम 1 और भारी है। श्वेत-पाक में भारी और लाल अल्पदोष जनक है । नि० र० । सर्व प्रकार के संस्वेदज शाक शीतल, दोष जनक, पिच्छिल, भारी तथा वमन, अतिसार, ज्वर और कफ रोगों को उत्पन्न करते हैं । सफेद शुभ्रस्थान में उत्पन्न होने वाले तथा काष्ठ, बांस और गायें। के स्थानों में उत्पन्न होने वाले अत्यन्त दोषकारक नहीं हैं और शेष सर्व त्यागने योग्य हैं । भा० प्र. १ खं० व तिब्बी खं० शा० ब० । यूनानी ग्रन्थों के मतानुसारःयह संकोचक, उष्ण, तथा विरेचक है और इसे ज्वर, पांडु, त्रृक्कशोथ, गर्भाशयिक रोध, यक्ष्मा, अजीर्ण, रक्तक्षरण, संधिशूल में देते हैं । यह विषघ्न है । दीस कुरीदूस नर after अधिक दृढ़ एवं तिल है तथा यह शिरःशूल को भी उत्पन्न करती है । ( लाइनी ) इब्नसीना ग़ारीतून या छत्रिका (agaric ) के विघ्न गुण के लाभदायकत्व पर बहुत जोर देते हैं । यह तथा अन्य मुसलमान चिकित्सकों ने छत्रिका के गुणधर्म वर्णन में यूनानी ग्रन्थकारों का बहुत कुछ अनुसरण किया है। उनके विचारानुसार यह सम्पूर्ण शयिकावरोधों को नष्ट करती तथा विकृत दोषों को निकालती है । यक्ष्मा में छत्रिका का उपयोग नवीन नहीं प्रत्युत श्रति प्राचीन है । इसे बालों की चलनी में छानकर व्यवहार में लाएँ क्योंकि इसमें नखवत् जो वस्तु होती है वह विषैली होती है । (डाइमॉक) प्रकृति - प्रथम कक्षा में उष्ण तथा द्वितीय कक्षा में रूक्ष है । जब इसको चखा जाता है तो आरंभ में मधुर पुनः फीका प्रतीत होता है । तदन्तर इसमें तिलता पुनः तीक्ष्णता एवं किञ्चित् कषेलापन प्रतीत होता है। फोकापन जल के कारण For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमा- (गं) रिकस एल्बस और तिकता जले हुए पर्थिवांश के कारण होती है । 'चरपरापन - (हिरात) श्राग्नेयांशके कारण श्रीर संकोच ( कषाय, क़ब्ज ) पार्थिवांश के कारण होता है | चूँकि यह हलकी होती है, अस्तु इसमें वायव्यका अधिकता के साथ होना आवश्यक है । इसी कारण इसकी उष्णता कम और रूक्षता अधिक होती है । हानिकर्ता-व्याकुलता और गले में रोध उत्पन्न करती है । दर्पनाशक - जुन्दबेदस्तर, ताजादुग्ध, वमन कराना । प्रतिनिधि - निशोथ, इन्द्रायण का गूदा, शुण्ठीं, बसफ़ाइज । गुण कर्म प्रयोग - अपनी उष्णता के कारण यह लय कर्त्ता और सान्द्र (गाढ़े) दोषों की छेदक एवं उनको रेचन करने वाली है, क्योंकि दोष त्रय ( बलगम, सफ़रा, सौदा ) को छेदन करती एवं उनको स्वच्छ करती है और कटुता तथा छेदकत्व के अतिरिक्त तारल्य लताफ़त ) उत्पन्न करती है । अपनी उष्णता के कारण सम्पूर्ण अवरोधों को उद्घाटित करती तथा मवाद में तारल्योत्पादन करती है । पार्थिवांश के कारण सङ्कोचक है । अपने विशेष गुण ( ख़ासियत ) से वात तात्विक मलों को शुद्ध करती हैं इस कार्य में रोगोद्घाटक, छेदक, निर्मल कारिणी एवं लयकारिणी शक्ति इसकी ख़ासियत की सहायता करती है । यह सम्पूर्ण संधिशोथों, गृध्रसी, अपस्मार, श्वास तथा रोधयुक्त रक्ताल्पता ( यक़ीन सुद्दी) में लाभ प्रदान करती है । ये समग्र लाभ इसकी तारल्य जनक ( तल्तीफ ), लयकारिणी तथा रोघोद्घाटनी शक्ति के कारण होते हैं । सिकञ्जबीन के साथ यह प्लीहा शोथ के लिए हिरा है, क्योंकि सिकंजबीन इसकी छेदक व रोधोद्घाटक शक्ति को बढ़ा देता है । इसकी पूरी मात्रा - ७ मा० है । यह अपनी रोगोद्घाटक तथा तारल्यकारी शक्ति के कारण मूत्र एवं आर्तव का प्रवर्तन करती है । त० नफी० । विशेष प्रभाव - श्लेष्मा तथा वायु की रेचक, सूत्र तथा प्रवत्त के और रोटोद्घाटक है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगा (गे) रिक्स ऐल्बस 1 कफज शिरः शूल तथा श्रर्द्धशीशी को लाभप्रद विशेष कर हरीतकी तथा मस्तगी के साथ, फ़ावा. निया के साथ अपस्मार को लाभदायक इसका गंडूप शोथ लयकर्त्ता तथा रक निवन को हित और रुस्सूस (सत्व मुलहठी) के साथ उरोव्यथा की नाशक तथा श्वास काठिन्य को हित है । रेवन्दचीनी के साथ श्रामाशय तथा यकृद्रोगों को गुण दायक तथा पांडु वा प्लीहा को हित, वृक्क व वस्त्यश्मरी निस्सारक तथा जलोदर को गुण प्रद हैं । इसका प्रस्तर शोथ लयकर्ता है। मद्य के साथ इसे उपयोग करने से सर्प विषघ्न है । बु० मु० । वायुशीथ और गुल्ज लयकर्त्ता, नाड़ी, हृदय और मस्तिष्क को बलवान करता, प्रायः विष का दर्पनाशक है । कफ ज्वर को लाभ करता है 1 इसका पान करना उचित नहीं है ( निर्विषैल है परन्तु इसमें एक वस्तु नख के समान होती है, वह विष और घातक है ) डाक्टरी मतानुसार छत्रिका चूर्ण १५ ग्रेन ( ७ ॥ रत्ती ) की मात्रा में या अगासीन या अगारिक एसिड, छत्रिका सत्य, छत्रिकाम्ल यह श्वेत स्फटिकवत् चूर्ण हैं | - ग्रेन की मात्रा में यक्ष्मा रोगियोंके रात्रि स्वेदको ५ रोकने में अपना निश्चित प्रभाव रखता है । पहिले यह विरेचक रूप से उपयोग में श्राता था । श्र धिक मात्रा में यह जलवत् मल प्रवर्त्तन करता है, थोड़ी मात्रा में अतिसार तथा प्रवाहिका को रोकता है तथा रक निष्ठीवन में गुण दायक होता है । यह वायु प्रणालियों तथा स्तन विषयक स्रात्रों ( Secrations ) को ( अर्थात् कास तथा स्वन्यस्राव को ) कम करता है । साधारण स्वेदस्राव में ग्रेन की मात्रा का एक ही बार उपयोग पर्याप्त होता है। परन्तु धर्माधिक्य में उतनी ही मात्रा में करने से ५ घंटा पश्चात् स्वेदावरोध अथवा उसे बढ़ा बढ़ा कर बारम्बार उपयोग होता है । पर इच्छित प्रभाव हेतु इसके उपयोग की सर्वोत्तम विधि यह है कि इसे ( इसके सहभेदक प्रभाव को रोकने के लिए ) For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगः (गे) रिकम त्वम् अगा (गे) रिकस् ऑस्टोएटस १ ग्रेन (अर्द्ध रत्ती) डोवर्स पाउडर के साथ (Pilocarpine) के समान होता है । अस्तु वटिका रूप में प्रयोग किया जाय। इससे अत्यन्त लालास्त्राव, स्वेदस्राव तथा श्रण श्रोक अगारिक या सर्जन्म अगारिक जिसको स्राव होता है, तथा इससे बल पूर्ण एवं वेदना श्रनेडो (Amadol) या फङ्गस इग्निएरियस्। पूर्ण मूत्रस्राव और कभी कभी उरलेश (मतली) ( Fimgius agniarius ) भी कहते हैं तथा अतिसार उत्पन्न हो जाते हैं। इसका घोल श्रोक अगारिक, नाइटर तथा अल्केली का एक (१० ) जब चतु में डाला जाता है तो मिण है जो स्थानिक रत थापक रूप से उप- इससे नेत्र कनीनिका विस्तृत हो जाती है और योग में आता है । हिट० मे० मे०। इसका अन्तः प्रयोग करने से : निगलन से ) विस्फोट जन्य ज्वरों में विस्फोटकोत्पत्ति विवर्द्धन वह संकुचित होती है। हेतु इसे अधिक मात्रा में मधु के साथ वर्तते हैं। स्थानिक कनीनिका विस्तारक तथा स्वेदन प्रभाव जलाका रक्षरण में यह रकम्थापक प्रभाव करता के मस्करोन धत्तरीन Atropine के प्रत्येक है। इं० मे० मे। प्रभावकी निर्णित प्रतिद्वंद्वी (Antagonist) थोड़ी मात्रा में यह संकोचक और बड़ी मात्रा में है । अस्तु धत्त रीन (Atropine ) छत्रिका वामक तथा विरेचक प्रभाव करता है। पी०वी० ( Fungi) द्वारा विपाक दशाओं की प्रतिविष एम० । है । एक समय जब पाठशाला के बहु संख्यक श्रगद तन्त्र बालक (Fungi) के खानेसे विपाक हुए उस Fungi (or muscariu ) अवसर पर लेखक धत्त रीन (Atropine) विषैले छत्रांकुर ( Poisonous Fungi ) के स्वगन्तः क्षेप द्वारा कतिपय प्राणियों की में सम्भवतः दो विभिन्न विषैली वस्तुएं वर्तमान जीवन रक्षा करने में अपने को सन्तुष्ट कर सका । होती हैं, यथा मस्केरीन (Muscarin) जिसका ह्विट० मे. मे० । प्रभाव बिलाडोना तथा धुस्तर के सर्वथा विपरीत माक्षोय छत्राङ्करागद होता है; और द्वितीय जिसका प्रभाव धत्त रीन Muscarin or Poisonous mushroo (Atropine) और डैटरिया (धत्त रोन ms फङ्गाइ (Fungi ) द्वारा विषाक्रोपबा धुस्तुर सत्व) के समान होता है। चारवत्यत्न करें (देखो-अगारिकस् ऐल्बस्) अगद-वामक ( जिंक सल्फेट १५ ग्रेन वा यथा स्टमक पम्प अथवा वामक औषध उपयोगाअधिक जल के साथ ) वा स्टमक पम्प का व्यव- नन्तर ऐट्रोपीन ( धत्त रीन ) का स्वगन्तः रूप से हार करना चाहिए। तदनन्तर अहिफेन सत्वो ! व्यौहार करें। ल्लिखित टैनिक एसिड के साथ कॉफी फाण्ट देना इस प्रकार के विषैले गारीक़न में से एक प्रभाचाहिए । कनीनिका विस्तार काल तक बारम्बार वात्मक सत्व निकलता है जिसे मस्करीन ऐट्रोपीन' ग्रेन का 'स्वगन्तः क्षप' करना अथवा Muscarine (घातकी) कहते हैं । इस प्रकार के गारीक़न को कहीं कहीं अफीम तथा भंग के डिजिटेलिस् या मार्फीन ( अहिफेन सत्व) देना सदृश उपयोग में लाते हैं। ... चाहिए । स्वतन्त्र उत्तेजना, राई के प्रस्तर अगा (गे) रिकस ऑफिसिनेलिस A.officiतथा घर्षण की आवश्यकता होती है। __nalis-ले० गारोकन । इस प्रकार का ग़ारीकून फिरंग के बनों में उत्पन्न अगा (गे) रिकस ऑस्ट्रोएटस् agaricus होता है । यदि इसको दुग्ध में उबाल दिया ___ostreatus, Facq.-ले० फणस पालोम्वे, जाय तो वह मक्खियों के लिए घातक होता है। फनसाम्बा, पनसलम्बे--मह०, को0 Agaric इसको संयोगात्मक विधि से भी प्रस्तुत किया जा of the oak, Touch wood; Oystej सकता है। प्रभावमें यह बहुत कुछ पाइलोकापीन | mushroom. For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अगा (गे) रिकस कैम्पेस्ट्रिस् उत्पत्ति स्थान -- फणस ( कटहल ) वृक्ष | प्रयोगांश-- छत्रिका | रसायनिक संगठन - राल, ऐन्द्रिकाम्ल तथा सरेश | प्रभाव तथा उपयोग - संकोचक । मुखपाक ( Apthe ) में मसूढ़ों पर इसका प्रस्तर लगाया जाता है । यह लालास्राव की अधिकता को रोकती है प्रवाहिका तथा अतिसार में इसका श्रन्तः प्रयोग होता है और मुख पाक से पीड़ित बालकों के मुख में इसे लगाते हैं । इं० मे० मे० । ६० अगा (गे) रिकस् कैम्पेस्टिस् agaricus campestris, Linn. -ले० शिलीन्ध्रः छत्रक - सं० खम्बूर बम्ब०, मोक्षा- चम्बा० खुम्बह खाम्बर, चत्री अफ०, बाज़ा० । मांस खेल--काश० । खुम्बह समारोग ( stewart )बाजा० । हरार ( विषैला ) रूप । प्रयोगांश-छत्रिका (Mushroom ) । श्राहार तथा औषध कार्य में श्राती हैं। मे० मो० अगा (गे) रिस्त्रिरगौरम् agaricus chirurgorum-ले० गारोकून बलुती । श्रगारिकस् मस्केरिया agaricus Muscaria फ्लाइ श्रगारिक Fly agaric-इं० । अगा ( गे ) रिकसूशिरर्जिश्रन् agaricus | chirurgeon-ले० शाल्य छत्रांकुर ( Su. rgeon's agarics ग़ारीकून जर्राही । ग़ारीकून बलूती, ग्रस्सौफान - अ० । फा० ई० ३ भा० इस प्रकार का ग़ारीकन, फिरंग के बनों में प्राचीन बलूत वृक्ष के तनों पर पाया जाता है । प्राचीन समय में इसे विशेष विधि द्वारा शुद्ध कर दनों में रक्तस्राव को रोकने के लिए उपयोग करते थे परन्तु अधुना इसका प्रयोग सर्वथा अव्यवहारिक हो गया है । अगा (गे) रिस् पामेलस agaricus palmalus-ले० पनसलम्बे – मह०, को०] । agaric of the oak, Touchwood, Oyster - mushroom | ३० मे० मे० । श्रगारिकस् मस्करिया agaricus Musca | Jia-ले० श्रगारिकस श्रमेनिटा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमिकेसु - सी श्रगारिक हाइट और पर्जिंग araricwhite or purging-इ'० श्रगारिकस ऐल्बस् | श्रगारोकून agárikon यु० । गारीकन - ० अगारीकन agariqún - अ० । खुम्बी साँप की छत्री, कुकुरमुत्ता - हिं० purgingAgar ics,Large agaric, Boletia (Agaricus Albus) नोट -- बोसीदह ( सड़ी गली ) जड़ के सदृश एक वस्तु है । जो किसी वृक्ष की जड़ों के भीतर से निकलती है यह वास्तव में एक प्रकार की खुम्बी होती है। देखो - प्रगारिकस्ऐल्बस | अगा (गे) रोसीन agaricin- इं० यह गारी - क्रून (agaricus ) का एक प्रभावात्मक सत्व है । वह शक्तिमान स्वेदन श्रौषध है जो यक्ष्मा रोगो के रात्रि स्वेद स्राव को रोकता है | सात्रा - ग्रेन | इसके मृदु भेदकी प्रभाव को रोकने के लिए "डोवर्स पाउडर" के साथ मिलाकर उपयोग में लाते हैं । इं० मे० मे० देखो - श्रगारिकस् ऐल्बस् श्रगारूस श्रमरसी agárose amarase यु० ग्रास विस्तानी ग्रसबाग़ी - उ० । आाल, श्राछी --हिं० Morinda citrifolia, Linn. देखो—श्राच्छुकः । श्रगालजी agaloge यु० अगर-हिं० | aloewood (Aquillaria agallocha) श्रगाव agáva - हिं० मंज्ञा पुं० [सं० श्रग्र ] ऊँख के ऊपर का पतला और नीरस भाग जिसमें गां बहुत पास पास होती हैं । गौरा अघोरी । अँगोरी । 1 अगास agása - हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रग्र ] प्रा० अग्ग - हिं० श्रास ( प्रत्य० ) द्वार के श्रागे का चबूतरा | संज्ञा पु ं० [सं० श्राकारा] श्राकाश | अगास्त agasta-मह० श्रगस्त, श्रगस्तिया - हिं० Sesbania Grandiflora, Pers | फा० इ० १ भा० । श्रगिagi- ले० लाल मिर्च से बनी हुई चटनी | फा० इ०२ भा० । श्रमिकेसु,-सी agikesu-si बर० बड़ी अरंडी का तेल वृहदेरड तैल ( Oleum ricini For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगिन, ना अगिरेटम्-कार्डिफोलियम् obtained from the seeds of एक और पौधा है जो धान के खेतों में उत्पन्न jargee soiled custor oil plant) होता है । देखो अगया। रू.फा० इ०। .. (३) एक हद ६ से १० फुट लम्बा पौधा जो अगिन, ना agina, nā हिं० सझा त्रो० हिमालय अासाम 'ब्रह्मा में मिलता है। इसके [सं०अग्नि ] [क्रि०अगियाना ] (1) श्राग ।। पत्ते और ::लों में जहरीले रोएँ होते हैं जिनके (२) गौरैया ना यया के श्राकार की एक छोटी शरीर में धंसने से पीड़ा होती है। इसी से इसे चिड़िया जिसका रंग नटला होता है। इसकी चौपाए नहीं छूने । नेपाल श्रादि देशों में पहाड़ी बोलो बहुत प्यारी होती है । लोग इसे काड़े से लोग इसकी छाल से शे निकाल कर गरा ढके हुए पिंजरे में रखते हैं। यह हर जगह पाई नानक मोटा कपड़ा बनाते हैं। जाती है। (A binda sort of Jark ) (४) जल धनियां । । . (३) एक प्रकार को बाप जिसमें नीबू की सी (५) पक्षी विशेष । A bird (alala मीठी हक रहती है। इसका तेल बनता है। ____aggiya) अगिया घास । नीली चाय । यज्ञ कुश। . (६) घोड़ों और बैलों का एक रोग । संज्ञा स्त्री० [सं० अंगारिका ] ईख के ऊपर (७.) एक रोग जिसमें पैर में पीले पीले छाले. का पतला नीरस भाग ! अगोरी। . .. पड़ जाते हैं । .. अगिन-चास ngina-ghasa-अगिया घास अगिया बैताल ngiyi.bnitāla-हिं० संज्ञा रोहिप । भूदण (Andropogon Schee- पु. ( स०, अग्नि, प्रा० अग्नि+बैताल ):. manthus, E.in.) (Ignis fatuus,Will-o'-the-wisp) अगिन याव agina-bivu हिं० पु०, (१) . दलदल में या तराई में इधर उधर घूमते हुए अश्व (the farey in horse ) रोग फ.स्फरस (स्फर ) के श जो दर से जलते विशेष (२) मनुप्य में फोड़ा कुन्सी निकलने लुक के समान जान पड़ते हैं। ये कभी कभी की बीमारी (An eruptive discussin कबरिस्तानों में भी *धेरी रातमें दिखाई देते हैं। mon.)। सहाबा । अगिन-बूटा ngin-boti द०, वम्ब. दाद अगियाना agiyana-हिं० वि० अ० [सं० मारी,जंगली मेंहदी-हिं० । ( Amm.hin अग्नि ] जल उठना । गरमाना | जलन वा दाह , baccifera, Linu.) ई० मे० मे०1 . युक्त होना ।। अगिनालागडी agini-ligadi-चन्दा० फला- : अगिरः agirah-सं० पु. चित्रक का पेड़ गिनी इरिनपली-हिं० । ( Manisuis (Plumbago Zlanicum, Ling. ). Uranularis, Lin.) इं०म०म०। जटा०। ... अगिया agiya- हिंशा० स्त्री० [स. अग्नि : अगिम् अक्वेटिकम् ageratum aquati प्रा० अग्गि ] (1) क ! कारकी घास जिसमें cum, Rorb.-ले० बड़ी किश्ती । इं० हैं. नीबूकी सी सुगन्धि निकलती है और जिससे तेल , गा० । बनता है। यह दवाओं में भी पड़ती है। अगिया : अगिरेटम्-कॉनिज़ाइडोज़ agoratun conyघाम । रोहिप टूण | नौली चाय । यज्ञ कुश । zoides, Linr. देखो-अगिरेटम्-कॉर्डिफोलियम् (Andropogon Scha-nanthus, अगिरेटम्-कॉर्डिफोलियम् agentum carLim.). . . ... • difolium, R०.८.)-ले) उचण्टी-बं० । (२) एक खर वा घास जिसमें पीले फूल लगते : प्रोसड़ी-बम्ब० । सहदेवी भेट । फो० इ०२ हैं और जो खेतों में उत्पन्न होकर कोदों और मा० । ई मेला | पश्चिम भारत में होने ज्वार के पौधों को जला देती है। इसी नोम का वाली एक वनौषधि है । गुग्ग-कृमि नाशक है। For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रगिला इसमें एक प्रकार का उड़नशील तैल पाया जाता है । अगिला agila-हिं० वि० दे० अगला | अगिहाना agihána - ० संज्ञा पुं० [सं० श्रग्निधान ] श्राग रखने का स्थान | जहाँ श्राग जलाई जाती हो । अगीकर agikara-ते० । धार करेला - हिं० । किरार. पं० Momordica dioica, Roab. श्रगोरस agirasa- यु० एक प्रकार का वृक्ष है जिसका its area के नाम से प्रसिद्ध है । Succnum. ( tree of - ) श्रग़ोरातून agdirátüna-यु० पटेर - हिं० एक प्रकार की बूटी है जो प्रायः मोथे की शक्ल की होती है। इसे गुजेना भी कहते हैं । यह जलाशयों में होती है, जिससे बोरिया इत्यादि बुने जाते हैं । अग़ारिया aghiriyá - यु० पृथ्वी, भूमि, धरणी, ज़मीन ( The Earth.) श्रगुण aguna-हिं० वि० [सं०] ( Desti tute of attributes) गुण रहित, निर्गुण, धर्म वा व्यापार शून्य, रज, तम श्रादि गुण रहित । संज्ञा पुं० श्रवगुण, दोष । अगुरु aguru-सं० क्ली०अगर (Sce-Agara) वा० त्रि० ४ श्र० । अगुरु: aguruh-सं० पुं० (१) अगुरु वृक्ष, अगर - हिं० | Aloe wood ( agallocha ) यथा - “ श्रगुरुः श्री वासकं कुकुमम्" वा० सू० १५ ४० एलादिवर्ग । ( २ ) कपिल वर्ण शीसम, सीसम, सीसो - हिं० । कपिल शिंशपा- सं० | Dalbergia latifolia भा० पू० १ भा० वटादि वर्ग । ( ३ ) सीसम, सीसो शिशा वृक्ष - हिं० । शिशुगाछ बं० । -हिं०वि० हलका (Light ) ( ) जिसके गुरु ( Teacher ) न हो । अगुरु गन्धम् agnru-gandham-सं० क्ली० हिंगु, हींग हिं० । हिङ - बं० । ( Assa foetida) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रगेट अगुरुसारः aguru-sarah - सं० पु०कृष्णागुरु वृक्ष, काली पर हिं० । काल श्रगस्-बं० । aloe wood (the black variety.) ( २ ) लौह Iron ( Ferrum ) रत्ना०, एकार्थः । श्रीगुरुसारा agurisárá सं० स्त्री०, शिंशपा वृक्ष | सीसीसीसम - हिं० | Dalbergia Sissoo, liorh.t भा० । अगुरु शिरापा agun shinşhapa - स० स्त्री० शीशम (ब) सीसो - हिंο| Dalbergiasissoo, Rab. श्र० टी० स्वामी । शिशपासं० | शिशु-बं० | अगुर्वादिधूप agurvadidhópa-सं० क्लां० अगर, कपूर, लोबान, राखी, नगर, सुगन्धवाला, चन्दन और राल इनके धूप से दाह शान्त होती है | वृ० नि० र० । अगूढ़ agürha हिं० वि० [सं०] जो छिपा न हो । स्पष्ट । प्रगट | | श्रगूढ़ गन्धम् agúrha gandham सं०क्ल 10 श्रगूढ़ - गन्धा agurha gandha-हिं० संज्ञास्त्री० ( हींग ) गाँधी हिंगु - हिंο| Perula assa foetida ग० नि० ० ६ । ( २ ) पलांडु Alliumeepa, Linn. ( ३ ) मगनाभि ( musk ) लशुन, लहसुन ( Allium Sativum,Linn.) श्रगूढ़ः agürhah- सं० पु० श्वेतैरण्ड (सफेद) एरण्ड या अरण्ड - हिं० | श्वेत भेरेन्द्रा-बं० । The castor-oil plant ( Ricinuscommunis ) वै० निघ० । श्रगृद्धि: agriddhih - सं० स्त्रो० अभिलाष, इच्छा ( wish, desire ) । वा०वि० श्र० ७ अगेथ agetha, अगेथ agetha - संज्ञा | tho - हिं० पु०, अरनी, का पेड़, श्रग्निमन्थ ( Premna Integrifolia, Lin.) | श्रगेट agate-ले० (१) श्रार्तगल, नील झिएटी- सं० 1 कट करैया - हिं० | Barleria coernlea ( २ ) इं०, अकोक एक मूल्यवान पत्थर विशेष । For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रगटि अमेदि ग्राण्डिफ्लोरा agati grandiflora Jan. -ले० श्रगस्तिया, अगस्त ( Great - flowered agati ) फा० इं० । ई० मे० मे० । श्रगेनोमा कैर्योफाइट लेटा aganosma. caryophyllata, G. Do". - ले० इसके पत्र औषधि कार्य में आते हैं। मेमो० | देखो मालती । अगेनोमा कैलसिना aganosma Calycina, 4. De.-ले० मालती-हिं०, बं०, सिं० गंधोमालती-यं० । इसके पत्र श्रौषधि कार्य में आते हैं। मेमो० । अमेरिकagaric-to | श्रग़ारीकून अरिsa agaricus - लेo j श्रगारिक स अमेरिकब्लैक agaric-blanc - फा० गारीक्रून | देखो श्रगारिक ऐबस । श्रगेला agela - हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रम ] हलका अन्न जो श्रीसाते समय भूसे के साथ श्रागे जा पड़ता है, और जिसे हलवाहे श्रादि ले जाते हैं । દ श्रगेवि अमेरिकेना agave americana, Linn. Locb.-ले० राकसपत्ता, बड़ा कँवार, कंटला, बांस केवड़ा, (मेमो०, इ० मे० प्रा० ) जंगली कॅबार, हाथी सेंगाड़ (रु० फा० इ० ) हाथी चिंघाड़ - हिं० रावकस पत्ता - ६० । श्रनैककटड़ाज़ (स० फा० इ० ई० मे० प्रा० ) पिकल बुन्थ - ता० (मे० मी० ई० मे० प्रा० ) राकाशि- मट्टलु-ते० । पनम् कटड़ाज़- मला० । भुत्ताले, बुडुकट्टले नारु-कना० । जंगली या विलायती ननाश ( स ), बिलाति पात, कोयन मुर्गा, ( श्रनारस अपभ्रंश ) - वं० । जंगली कामारी - गु० । जंगली कुँवार, पारकन्द- चम्ब० विलायती कैटलू-पं० 1 अमेरिकन एलो ( American aloe ), कैरेटा Carataइं० । नोट - (१) हैदराबाद के किसी किसी जिले में श्रवि अमेरिकेनाके लिए केतकी शब्द प्रयोग में लाया जाता है, किन्तु यही नाम भारतवर्ष के अन्य भागों में केवड़ा अर्थात् केतकी ( Pand Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रवि अमेरिकना ·anus odoratissimus, Willd.) के लिए व्यवहृत होता है। किसी किसी प्रन्थ में ऊपरोक पौधे के लिए पर्याय कोयाज निश्चित किया जाता है, किंतु ये नाम बड़े कबार विषमरडल अर्थात् सुख दर्शन ( Crinum Asiaticum, Linn.) के हैं । अमेरिलिडीई श्रर्थात् (सुख - दर्शन वर्ग ) ( N. O. amaryllidece ) उत्पत्तिस्थान — इस पौधे का मूल निवास स्थान अमेरिका है, पर अब यह भारतवर्ष के अधिक भागों में था इसा है । प्रयोगांश-मूल, पत्र और निर्यास तन्तु, पुष्प, दरडी तथा मध्य, आहार औषध तथा डोर हेतु । रसायनिक संगठन- इसके डंटल के रस में एक शर्करा जनक ऐलकोहल ( मद्यसार होता है जिससे एक संधानित मादक पेयपदार्थ प्राप्त होता है जिसको मेक्सिको ( Mexico ) में पक्की (Pulque ) कहते हैं । अगेवोसी ( Agavose ) एक निष्क्रिय शर्करा है । प्रभाव - मूल-मूत्रल और उपदंशध्न है । रसभृदुभेदनीय, मूत्रल रजः प्रवर्तक और स्कर्थी नाशक ( Antiscorbutic ) है | औषध निर्माण - क्वाथ, पत्र स्वरस, मूली का रस एवं निर्यास | प्रयोग — इसका मूल सारसापरिला के साथ क्वाथ रूप से उपदंश रोग में प्रयुक्त होता है, ( लिण्डले ) अमेरिकन डॉक्टर इसके पत्ते से निचोड़े हुए रस को शोथधन और परिवर्तक प्रभाव के लिए विशेष कर उपदंश रोग में उपयोग करते हैं । इसका रस को मृदुकर, मूत्र विरेचनीय और रजः प्रवर्तक, २ फ्लुइड श्राउंस की मात्रा में स्कर्वी नाशक है । (यु० एस० डिस्पेन्सरी ) जरनल शरीदन ( Genl - Sheridan ) का वर्णन है कि उन्होंने अपने श्रादमियों पर जो स्कर्वी से व्यथित थे इसका उपयोग किया और इसे बहुत लाभ दायक पाया | ( इयर बुकफार्मे० १८७५, २३२ ) For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगविप्लेनीफोलिया अगदीदूस .. तर और गूदादार पत्तों का पुल्टिस रूप से तक का दुग्ध जो अग्नि पर रखने से थका थक्का उपयोग अत्यन्त गुणदायी है। इसका ताजा रस जम जाता है। फटा। कुचले हुए स्थान पर लगाया जाता है। अगोही agohi-हिं० संज्ञा पुं० [ल० अप्र] वह पतों तथा प्रकाण्ड के निम्न भाग से निकलता बैल जिसके सींग आगे की ओर निकले हों । हुआ निर्यास मैक्सिको में दांत के दर्द के लिए अगौड़ो agouri-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अग्र] वर्ता जाता है । इसके पत्ते का गूदा मलमल के । • ईख के ऊपर का पतला भाग, अगाव । - तह में रख आँख पाने में चतुओं पर बांधा | अगीका agoukih-सं० पु. (१) (A fadu. जाता है । और शर्करा के साथ दिन में दो बार lous animal with cight legs. ) मजाक में प्रथा होता है (एच० एस० पी० शरभ ( २ ) पक्षी (a bird ).। (३) “किन्सने मदरास) : सिंह । मे० देशी लोग इसे पुरातन सूजाक में वर्तते हैं । | अगौरा agoura-हिं० संज्ञा पं० [सं० अग्र+हिं० ( सर्ज० मेज० आई० एम० बोरह० वाला० और ] ऊख के ऊपर का पतला नीरस भाग शोर०)। जिसमें गाँ नज़दीक नज़दीक होती हैं। अगेविलेनोफोलिया agave Planifolia-- | अगौली agouli-हिं० संज्ञा स्त्री० [देश॰] ईख - की एक छोटी और कड़ी जाति है। .. श्रगेवि कैरट्य ता agaveCantula, Roard.)| अगंड aganda - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] धड़ . . . ले०विलायती अनन्नास । से जिसका हाथ पैर कट गया हो। अगेवि विविपेग agave vivipatra Lin.. अग्गई aggai अव० कोट्ट-बं०, द० अगई । ' ले० कंटल-सं० । काल ई-ना० । पे.कलबठ अजब aghzaba-अ० (ए० ब०) उग़ाज़िब ते। मे० मो० । इसके रेशे काम में पाते हैं । (व० व०)। लिंग और जांघ या रानके मध्य अगरिक ऑफ दी श्रोक agaic: of the oak की दूरी, वरण, जंघासी, निम्नकच्छ । ग्रोइन ...म्बी गार्गकन बलती गा रकस ऑप्टि ( Groin )--ई। . ___ एटस् Agricus ostreatus, € acil.| अगज़ल aghzala-ऋ० तपेनौबत-फा० । नौवती इं०.मे० से। बुखार, बारी का बुखार-उ । पर्याय ज्वर, पारी अगेरिसीन agaricin-० अगारोसीन । का ज्वर-हिं० | Intermittant fever. अंगेह agoha-हिं० वि० [सं०] गृह रहित । अरिजय्यह aghziyyah-अ- (व० व० ) जिसके घर द्वार न हो। बेटिकाने का। गिजा (पं० व० )। अश्याय खुर्दनी-फा० । अगैरा agaira-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अग्र] भक्ष्य पदार्थ, भोज्य पदार्थ, खाद्य आहार, खाने नई फसल की पहली प्राँटी जो प्रायः जमीदार की वस्तु-हिं० । डाइटस ( Diets)-इं०। ... को भेंट की जाती है। श्ररतम aghtama-अ० वह व्यकि जो शुद्ध बात । अगोचर agochala-हिं० वि० [सं०] जिसका न कर सके। - अनुभव इंद्रियों को न हो । बोधागम्य, इंद्रिया अतश aghtash-अ० अज्हर रोज़कोर-का०। तीत,अप्रत्यक्ष | अप्रगट । अव्यक्त । ( Imper दिवसांध, दिन अंधा, दिनौंधी का रोगी, वह ceptible by the senses, Not obi- व्यकि जो दिन में भली भांति न देख सके । ous) हेमीरीलोप (पिया) Hemeralape,-pia'अगोर aghora-तु० प्यूसी खीस,-हिं० । पीयूष- | इं०। सं० दुग्ध देने वाले पशुओं यथा गो, भैंस प्रभृतिके अगदीदूस aghdidisa-अ० खुस् यह फ़ौक़ानी । ब्याने के प्रथम दिवस से लेकर चार छः रोज बाद| उपांड-हिं० । (Epilidymus) For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नायी ६५ .. अग्नि अनायो agnayi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्पन्न करती है । लक्षण-समाग्नि वाले का The wife of agni and goddess किया हुआ यथोचित भोजन सम्यग् रूप से पच of fire अग्नि की स्त्री स्वाहा । त्रेतायुग । जाता है। मन्दाग्नि बाले मनुष्य का किया हश्रा अग्नाशयः agnāshayah-सं० अग्न्याशयः थोड़ा सा भी भोजन अच्छे प्रकार नहीं पचता .. ( Pancreas) और विषमाग्नि वाले मनुष्यका किया हुआभोजन अग्नाशयद्रव agnashaya drava-हिं० पु. कभी भली प्रकार पचता और कभी नहीं पचता; अग्नाशय रस (pancreatic juice) तथा जिस मनुष्य को अत्यन्त किया हुआ भोजन अग्नाशय प्रदाह agnashaya-pradāha हिं० भी सुख पूर्वक पच जाए उसको तीक्ष्ण अम्नि कोम ग्रन्थि प्रदाह, अग्न्याशय प्रदाह, अग्नाशय कहते हैं। इन चारों प्रकार की अग्नियों में का शोथ, (Pancreatitis), इल्तिहाब सामाग्नि उत्तम है । मा० नि० अग्नि० मा० बन्कर्यास, वर्म बन्करास-अ० । सोज़िश (२) पाचक, रञ्जक प्रभृति पञ्चपित्त [ देखोलबलबह, लबलबह की सूजन-उ०।। पित्त ] । (३) तेज पदार्थ विशेष, तेजका गोचर अग्नाशय रस agnashaya rasa-हिं० पु. रूप,उष्णता,अाग-हिं० | फायर- (Fire)-६० क्नोम रस । अग्नि रस | Pancreatic नार,यरह, भातश-अ०,फा० । प्रागुनि-बं०। यह juice ) पृथ्वी, जल, वायु, आकाश अादि पंच भूतों वा अग्नाशयिक प्रणालो agnashayika pran- पंच तत्वों में से एक है । इसके संस्कृत पर्याय ali-हिं० स्त्री० (Pancreatic duet) वैश्वानर, वह्नि, वीतिहोत्र, धनञ्जय, कृषीटयोनि, लोम ग्रन् यस्थ प्रणाली । मजीयुल बान्तरास् । ज्वलन, जातवेदस्, तनूनपात, तनूनपा, -अ० । बान्क्ररास या लबलबह की नाली वर्हि, शुष्मा, कृष्णवर्त मा, शोचिष्केशा, -उ० । इस नाली द्वारा अग्नाशय रस उपबुध, श्राश्रयाश, श्राशयाश, वृहद्भानु, द्वादशांगुलांत्र में गिरता है। कृशानु, पावक, अनल, रोहिताश्व, वायुसखा, अग्नाशयक क्षय agnāshayika-kshaya- शिखावान्, शिखी, अाशुशुक्षणि, हिरण्यरेता, हिं० पु. ( Pancreatic phthisis) हुतभुक् , हव्यभुक्, दहन, हव्यवाहन, सप्तार्चि, अग्न्याशय जन्य क्षय रोग । सिल्ल इन्क्ररासी-श्र०। दमुना, शुक्र, चित्रभानु, विभावसु, सुचि, अप्पित्ती लबलबह की सिल-उ० । इस प्रकार का क्षय (अटी) वृषाकपि, जुवान्, कपिल, पिंगल, अग्नाशय के विकृत होकर संकुचित होजाने से अरणि, अगिर, पाचन, विश्वप्सा, छागवाहन, उत्पन्न होता है । इसमें भी रोगी दिन दिन निर्बल कृष्णार्चि, भास्कर, जुवार, उदर्चि, वसु, शुष्म, होता जाता है। हिमराति, तमोनुत्, सुशिख; सप्तजिल, अपपरिक, सर्वदेवमुख (ज)। अग्निः aenih-सं० प. The fire अग्नि agni हिं० संज्ञा स्त्री० । of the अग्निताप के गुण-वात, कफ, स्तब्धता, stomach,digestive faculty.जठराग्नि, शीत तथा कम्प नाशक, आमाशयकर और रक पाचनशक्ति । यह मन्द, तोचण विषम और सम पित्त को कुपित करने वाला है। राज० भा० । भेद से चार प्रकार की होती है। यथा मनुष्य के श्राग्नेय द्रव्य-आग्नेय द्रव्य रूक्ष, तीचण, कफ की अधिकता से मन्दाग्नि, पित्त की अधि- उष्ण, विशद (सूक्ष्म स्रोतोंमें जाने वाले) और कता से तीक्षणाग्नि, वात की अधिकता से बिष. रूप गुण बहुल होते हैं। ये दाह, कान्ति, वर्ण माग्नि तथा तीनों दोषों की समता से समाग्नि और पाक कारक होते हैं । बा० स०अ०६। होती है। बिषमाग्नि वातज रोगों को, तीक्ष्णाग्नि (४) द्रव्यों का तीसरा रूप जिसे वायवीय अर्थात पित्तज रोगों को और मन्दाग्नि कफज रोगों को गेसियस (Gaseous) कहते हैं इसे वाष्पीय For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि अभिकरी रसः (भापकासा) कहते हैं। यह हमारा प्राचीन अग्नि-(१५) वैद्यकके मससे अग्नि तीन प्रकार तेजस् तत्व है । हवा, पानी की भाप, इत्यादि । की मानी गई है-यथा-(क) भौम, जो गृह इसके उदाहरण हैं। किसी पदार्थ को जब बहुत काष्ठ आदि के जलनेसे उत्पन्न होती है । (ख) गर्मी दी जाती है तो वह अंत में इस रूप को दिव्य-जो आकाश में बिजली से उत्पन होती है, धारण करता है। तेजस द्रव्यों में कुछ तो दृश्य (ग) उदर व जठर, जो पित्त रूप से नाभि के हैं अर्थात् देख पड़ते हैं और कुछ अदृश्य, इनमें उपर हृदयके नीचे रहकर भोजन भस्म करती है। दो विशेष गुण है, एक तो अपना इसका कोई इसी प्रकार कर्मकांड में अग्नि छः प्रकार की प्राकार नहीं होता, जैसे वर्तन में भर दीजिए मानी गई है। गार्हपत्य, अाहवनीय, दक्षिणाग्नि, उसी प्रकार का हो जायगा । गीले, चौखट्टे, सभ्याग्नि, आवसथ्य, प्रौपासनाग्नि । इनमें तिकोने आकार के धारण करने में इसे कोई कलि- पहिली तीन प्रधान हैं । (१६) वेद के तीन नाई नहीं होती । दूसरी बात जो इसमें पाई जाती प्रधान देवताओं (अग्नि, वायु और सूर्य ) में से है वह यह है कि इसका कोई अपना परिमाण नहीं । एक। होता । एक इत्र की शीशी लीजिए । अभी उसमें अग्नि-पार agni-ara-पा० अयार, यज्ञ छाल। गंध के परिमाण वाष्प रूप से हैं, किंतु उनका- मेमो। परिमाण उतना ही है जितनी कि शीशी में खाली | अनिउ agniu-कुमा० बसोटा, बक्राच । मे० जगह है। यदि आप शीशी की डाट खोल दीजिए मो०। तो अभी गंध सारी कोठरी में फैल जायगी । अर्थात् अग्निउम् agnium-हिं० पु. बसौटा, बक्राच । अब वही परमाणु बढ़कर कोठरी के बराबर हो __ अग्निरुहा, मांसरोहिणी-सं०। गया | अतः वाप्पीय द्रव्य वे हैं जो अपना स्वयं अग्निक agnika-हिं० संज्ञा पु. ()इन्द्रकोई परिमाण या प्राकार नहीं रखने प्रत्युत अग्निकः agnikah-स. पु. गोप, वीरजिस पात्र में रक्खे जाते हैं उसी के प्राकार और बहूटी । अषाढ़े पोका-बं० । an insect of परिमाण को ग्रहण कर लेते हैं । भौ० वि०। a bright scarlet colour (Mutella (१)चित्रका चीता (Plumbago Ze. occiden talis) सु. मि. अाहे. ylanica, Linn.) सियो० ग्रहणी चि०। च. ४ का । (२) चित्रक वृक्ष ( Plumविस्वाच घृत | बा० सू० १५ १० प्रारग्वध bago zeylanica, Linn.) वा. चि. व. । (६) अमिजार वृक्ष (agnijara) ७०। (३) भिलावाँ, भवातक वृक्ष (Se. रा०नि०३० २३ । (७) पीतबालक । mecarpus anacardium, Linn. ) () केशर, Saffron (Crocuss ativus: भा०प्र० १ भा० ह. व.। Linm.) (8) पित्त ( Bile), (१०) अग्निकर चूर्ण agnikara-churna-हिं. अम (११) निम्बुक वा नीबू (Citrus me. पु. शरा, अनार दाना, हड़, सोचर नोन, कुड़े dica, (Gold.)। रा०नि० ब०२१ । (१२)। की छाल, इनका चूर्ण अग्नि संदीपक और अतिस्वर्ण, सुवण (Aurun )। रा०नि०व० सार नाशक है । व्यास. यो.स। १३ । (१३) भल्लातक, भिलावों (Seme· अग्निकरो रसः agnikalo rasah-सं०प० carpus anacardium, Linn.) TTO शिंगरफको काले बैंगन के रस से वार भावित निव०११। (१४) रक चित्रक, लाल- करें । पुनः वन भाँटा, चित्रक, पीपल की छाल, far ( Plumbago Rosea, Linn.) अमली और केले की जड़ इनके रसों अथवा रा०नि.व.६। च० द० ग्रहणी चि०। कायों की क्रम से भावना दें । फिर उसमें मेष. कपित्थाष्टक । नगद (चौलाई वारदार ) श्राक, थूहर, चिर्चिटा, For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि की अग्नि-कुमार-रसः और ढाक इनके क्षार, सजी, यवक्षार, सेंधा जलदाग्नि तृणोल्का, विद्युत । जलंत-नही-०। नमक, इन्हें शिंगरफ के बराबर मिलाएँ, फिर (Lightning ) जलता हुआ तृण वा पुवाल सर्वतुल्य काली मिर्च तथा मिचों से प्राधी लवंग । का पला । लुक । लुकारी । मिलाकर नीबू के रस से खूब भावना दें। इसे अग्नि-कुण्ड-रस:agni-kunda rasahअदरख या पानके रसके अनुपान से अावश्यकता पु. गन्धक, पारद ४-४ मा०, ताम्रभरम २ नुसार वतना चाहिए। मा०, मिला कजलीकर ४ तह मलमल या खादी मात्रा-१-३ मा० पर्यन्त । गुण-यह जठ में बाँध अमलतास और सागवन के क्वाथ में राग्नि को प्रदीप्त करता है। डालकर १ दिन और एक रात रहने दें। दूसरे अनि कर्णी agni-karni-सं० स्त्री० दिन निकाल कर १ अहोरात्र खिरनी के दूध में (A tree) वृक्ष विशेष । वै० निघ० २ डालकर रक्खें । पुनः सम्पुट में बांध लघु पुट से भा० अभिन्यास ज्वर चि०।। पकाएँ जिससे कि पारद उड़न जाण । पश्चात् अग्नि-कर्म agni-karma-सं० क्ली०, हिं० उपयुक द्रव्यों की पुट दें। इस प्रकार संज्ञा पु. ग्रन्थ्यादि रोगों में अग्नि में लाल किए ५ पुट। पुनः उसके समान शुद्ध जमावगोटा हुए शलाका श्रादि से किए जाने वाले दाह क्रिया मिला मर्दन कर २ या ३ रत्ती प्रमाण की गोली को 'अग्निकर्म' कहते हैं। चार से दाह कार्य श्रेष्ट बनाएँ। गुण-जल के साथ सेवन करने में है गुण के विचार से न कि क्रिया के विचार से। रेचन होकर प्राध्मान, शूल, उदरामय और मलेकाल-इसके लिए शरद और ग्रीष्मऋतु को छोड़- रिया ज्वर का नाश होता है। र० यो० सा०। का अन्य समस्त ऋतु में श्रेष्ट है। इसके लिए अग्निकमार-मोदकः agni-kumāra-moda. पात्र अर्थात् योग्य रोगी दुर्बल, वालक, वृद्ध kah-खस, नेत्रवाला, नागरमोथा, दालचीनी, और डरपोक प्रभृति के अतिरिक्त अन्य समस्त । तमालपत्र, नागकेशर, जीरा सफेद, जीरा स्वाह, सु० स०१२ अ० बा. चि० १५१०। काकड़ाशिंगी, कायफल, पुष्करमूल, कचूर, मोंठ, अग्निका agnika-सं०स्त्री० (Gossypium मिर्च, पीपल, वेलगिरी, धनियां, जायफल, लौंग __Indeium) कपास, कपीस । कपूर, कान्तलौहभस्म, शिलाजतु, वंशलोचन, अग्नि-काश agni-kāsha-हिं० (oxygen)/ छोटी इलायची बीज, जटामांसी, रास्ना, तगर, ऊष्मजन, श्रोषजन। चित्रक, लाजवन्ती.गुलशकरी.अभ्रक भस्म.बंग अग्नि काष्ट agnikāshtha-हिं० संज्ञा पुं० ।। भस्म, मुरामांसी इन्हें समभाग लें, इन्हीं के अग्नि काष्ठम् agnikashtham-सं० क्लो० ॥ समान मेथी तथा इस चूर्ण से प्राधी शुद्ध पिसी (.) अगर, अगरु (agalochum) भंग लें, इसमें शहद तथा मिश्री उचित मात्रा "अग्निकाष्ठ करीरेस्यात्" रा०नि० २०२३ में मिलाकर मोदक प्रस्तुत करें । मात्रा-१ तो। (२) शमी काष्ट acacia suma) रा० अनुपान-जल, बकरी का दूध । नि०व०१२। करील । यह सेवन से उग्र संग्रहणी, कास, श्वास, श्रामअग्नि कीट agni-kita-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] वात, मन्दाग्नि, जीर्णज्वर, विषम ज्वर, विबन्ध, समंदर नाम का कीड़ा जिसका निवास अग्नि में माना जाता है। अफरा, शूल, यकृत, नीहा, १८ प्रकार का कुष्ट उदावर्त, गुल्म तथा उदररोग को नारा करे। अनि-कीलः agni-kilah-स. ० अग्निशिखा। अग्नि ज्वाला-बं० (gloriosa | भै० र० ग्रहण्याधिः । अग्नि-कुमार-रसः agni.kumāra-lasahsuperba) लागली, कलिहारी। अग्नि कुक्कुट agni kukkuta-हिं० संज्ञा पु०।। सं. पु. पारद, गन्धक, बच्छनाग, त्रिकुटा, अग्नि-कुकटः agni-kukkutah-सं० पु.5/ सुहागा भुना, बौह भस्म, अजवाइन, अहिफेन, For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि-कुमार-लोह अग्निगर्भा . . . प्रत्येक समान भाग सर्व तुल्य अभ्रक भस्म लें। __ यथा--तृतिया, हींग, सुहागा, सैंधव, धनियां पुनः चित्रक के रस में १ प्रहर मर्दन कर चना । जीरा, अजवाइन, मिर्च, सों, लौंग, इलायची, प्रमाण गोलियां बनाएँ। विडंग प्रत्येक १-१ तो. इन सबों के समान गुण-अजीर्ण, संग्रहणी, ज.राग्नि की मन्दता, लौह नधा पारद ४ तो० व गंधक ४ तो०, पक्कातिसार को दूर करता और बाजीकरण करता निर्माणविधि--सर्व प्रथम पारद व गंधक की - है। र० स०। कजली कर पश्चात् शेष औषधियों को मिलाकर (२) मिर्च, वच, कूट, नागरमोथा, इन्हें भली भांति घोटें पुनः इसको शीशी प्रभति में सरक्षित रक्खें। मात्रा-अवस्थानुसार | अनुपानसम भाग लें, इनके तुल्य मीठा विष लें, उत्तम घृत और मधु । वृ० र० रा. सु. ३३४ योग । चूर्ण कर अदरख के रस से खरल कर एक एक | रसी की गोलियां बनाएँ । मात्रा-१ रत्ती । । अग्निकेतुः agniketiuh-स. (Smoke ) धूम | अनुपाम-श्राम ज्वर में शहद, सोंड से, कफ | अग्नि कोण agnikona-हिं. संज्ञा पु [स] ज्वर में सम्हालू के रसमें, प्रतिश्याय और पीनस | (The south-dast corner) पूर्व और में अदरख के रस में, अग्निमांद्यमें लवंगसे, शोथ दक्षिण का कोना, अग्निदिक। (सजन ) में दशमूल क्वाथ के साथ, संग्रहणी में अग्निक्रिया unikriva-हि. संज्ञा स्त्रो० सोंठसे, अतिसारमें मोथासे, प्रामातिसारमें सौ से, [सं.] (Emeral ceremoni.s) धनियांके छ.थसे, शहद, अदरखके साथ, पक्कानि ___ शव का अग्निदाह । मुर्दा जलाना । सार में पीपर, अदरख के रस के साथ, सन्निपात अग्नि-गवः agni-gar bah-सं० प० । ज्वरमें कटेरी के रस के साथ, श्वास, खांसी में तेल दादमारी इ०० मे० (Amunaunia और गुड़ के साथ, यह चित्त स्वस्थ कारक, प्राम Barcifera, Linn.) दोष नाशक और जठराग्नि को बढ़ाने वाला प्र- अग्नि-गर्म agni-gar bhaहिं० संज्ञा प. सिद्ध अग्निकुमार नामक रस है । भै० र० अग्नि-गर्भः agni-arbhah-स. पं. । ज्वराधिकारः। . (१) अग्निजार वृत (A plant used in (३) पारा, गंधक, सुहागा ये समभाग ले', ! medicine of stimulant proper: मीठा विष ३ भा०, कौड़ी भस्म २ भा०, शंख tics) ग० नि० ० ६। (२) प्रातिशी भस्म २ भा०, मिर्च , भा०, पारा गंधक की शीशा, सूर्य कान्त मणि (The sun stone कजली कर सब औषधियों को चूर्ण कर मिलाएँ (३) शमी वृक्ष (Acacia summl) पुनः पके जम्भीरी रस से अच्छी तरह मर्दन कर अग्नि-गर्भ-पर्वत apni gaubha par rata दो दो रत्ती प्रमाण की गोलियां प्रस्तुत करें। हिं० संज्ञा पु० [स] ज्वाला मुग्वी पहाड़ इसके सेवन से विशूचिका (हैजा ) अजीर्ण और (Volcano) वातरोग का नाश होता है। इसमें किसी किसी अग्नि गर्भाapni garbhā-स. स्त्री० (१) प्राचार्यों के मत से १ भाग वच का भी मिलाना शमो वृक्ष (acacia Suma) चाहिए । रस० रा.सु.। भै० र० अग्निमा. गुण-तिक, कटु, कषाय, शीत वीर्य, लघु, अधिः । यो० त० अजी० अ०। रेचनी, कफ, कास, श्वास, कुष्ट, अर्श तथा नोट-इस नाम के भिन्न भिन्न योग अनेक कृमि नाशक है । भा० पू० १ भा० (२) पुस्तकों में वर्णित हैं। महा ज्योतिष्मती लता स० बड़ी माल अग्नि-कुमार-लौह agni-kumāra louha कागुनी-हिं० । वड़ा लता फटकी-२० । -हि. पु. प्लीहाधिकार में वर्णित रस । योग | ( Cardisspermum Halicacaइस ! कार है: bium, Lin.) ग. नि. | करील । For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि गर्भा वटी अग्निजः अग्नि गई वटो ॥gni-garbhavati-सं० अग्नि घृतम् ॥gni-ghritam-स• क्ली० स्त्री० र० र०, र० चं०, उदराधिकारे । शुद्ध पीपल, पीपलामूल, चित्रक, गजपिप्पली, हींग, पारा ४ तो० शुद्ध गन्धक ८ ता०, लोह, सुहागा। अजमोद, चव्य, पञ्च लवण, जवाखार, सज्जीबच, कुट, हींग, त्रिकुटा, और हल्दी ये सय पारे। खार, हाऊबेर, प्रत्येक = = तो० अदरख का से अर्ध प्रमाण में लें, सपका चर्थ कर पश्चात . रस ६४ तो०, धृत ६४ तो०, दही. कांजी. शुक्र मानकन्द, जिमीकन्द, व्याघ्रनग्बी (हिं०-वघ- घृत के बराबर लें, पुनः विधिवत् पकाएँ । नहा, म०-वाघांटी) और त्रिफला के रस अथवा गुण-अर्ग, गुल्म, उदर, ग्रन्थि, अर्बुद, क्वाथ से अलग अलग भावित करें। फिर ६-६ अपत्री, खांसी, कफ, मेद, वायुरोग, संग्रहणी, रत्ती को गोलियां प्रस्तुत करें। शोथ, भगन्दर, वस्तिगत रोग और कुनिगत रोग गुगा-सीहा, गुल्म, उदर रोग, शूल, यकृत, में हितकर है । च. द. । वंग से स. श्रीला, कामला, हलीमक, प्रांड, कृमिरोग, अजीर्ण श्र० । श्ररी श्र. .. और कष्ट को नष्ट करती हैं। अग्निचक्र nghi-chakra-हिं० संज्ञा पु. अग्नि गो रसः (१म ) agni-garbhoot [स० ] योग में शरीर के भीतर माने हुए छः rasah-स. प. शुद्ध पारा, ताम्र, लोह, चक्रो में से एक । इसका स्थान भौहों का मध्य, अभ्रक, सीसा, बंग प्रत्येक की भस्म, वच्छनाग, रंग विजली का सा और देवता परमात्मा माने योनानाखी शुद्ध, मुर्दासंग शुद्ध, सुहागा भुना, गए हैं। इस चक्र में जिस कमल की भावना को शिलाजीत, मैनसिल शुद्ध, कमीला और गन्धक गई है उसके दलों ( पखुड़ियों) की संख्या दो शुद्ध प्रत्येक तुल्यभाग और सर्वतुल्य श्वेत श्राक और उनके अक्षर ह और क्ष हैं। . . . को जड़ की छाल लेकर घी कुवार, चित्रक, अग्नि चार: ngni-chairah--सं. पु. एक त्रिफला, अम्लवेत, कवर, ब्राह्मी और अली के श्रीवधि है, जो पश्चिमी समुद्र के किनारे होती रस ( जिसका रस न मिले उसके स्थान में उसका है । ( Phasoolas gallus) ... क्वाथ ) से सात बार अलग अलग भा बेत करें, अग्नि-चूड़: 2gni-chudah-सं० पु. (A पुनः निलावे के क्वाथ से २६, गोभी के रस से cock ) ताम्र चूड़ पक्षी। कोमड़ा-दा. हिं० । -६, त्रिकटुके क्वाथ से १०, जिमीकन्द क्वाथसे २० __कुक्कुट, मुर्ग-हिं० । कूकड़ा-बं० | ग्राम्य व वन्य और ताड़ीपे ३ भावना दें तो यह सिद्ध होता है। भेद से ये दो प्रकार के होते हैं। इनमें (१) मात्रा . १ माशा । ग्राम्य बृंहण, वृष्य, बल्य, गुरु, शुक्र एवं कफ अनुपान-तुलसी, पीपल और शहद, दड़ और कर्ना, स्निग्ध, उष्ण वीर्य और रस में कषैला शहद, काला नमक और चित्रक, त्रिकुटा, जिमी- होता है । (२) पारण्य ( जंगली ) स्निग्ध, कन्द, चित्रक अजवाइन, गुइ, पीपल, ताड़ी, बृहण , श्ले'मा कारक तथा गुरु है और वात, और शतावरी का चूर्ण अथवा अामले का चूर्ण पित्त, क्षत वमन तथा विषम ज्वर नाशक है। और शहद अथवा घी और मिला है। यह सा० । हृद्य,श्लेष्मा नाशक तथा लघु है. । रा०नि० सभी प्रकार के अर्स, मन्दाग्नि, प्रमेह कान और . व० ११ । रुक्ष, स्वाद, ( मधुर ) कषैला. और नेत्र पीड़ा शूल, गुल्म, उदररोग, अंधेरी, दमा, शीतल है । गज० उदावर्त, कृमिरोग, पीनस, पेट फूलना, तूनी, अग्निज agni.ja-हिं. संज्ञा पु० | A plant प्रत्यलीला, प्रानो, शोथ और पांडु रोग को अग्निजः agnijah-सं० प Jused in नष्ट करता है । इसे सेवन करने वालों को medicine of stimulant prop. वैगन, तैल, शाक, स्त्री सङ्ग, दिन का सोना, erties. और घोड़े की सवारी मना है। रसावतारे- (१) समुद्र फल का पेड़, अग्निजार वृक्ष । अर्श० अधि० (२) ज्वराधिकार रमावतारे।। (२) (Somacarpus a nacardium, For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अग्निजननी Linn.) भिलावाँ, भल्लातक ( ३ ) ( Gold ) सोना, सुवर्ण ( Aurum ), मांस धातु ( Muscle ) वै० श० । श्रग्नि-जननी agnijanani - सं० स्त्री० [हिं० वि० (१) अग्नि से उत्पन्न । (२) श्रग्नि को उत्पन्न करने वाला ( ३ ) अग्नि संदीपक | पाचक | भग्नि-जननी-बडी aghi-jaani vati-सं० ख:० पारद, गंधक, सोंठ, सुहागा, वच्छनाग, काली मरिच समान भाग लें । पुनः बड़हल के रस में मर्दन कर चना प्रमाण गोलियां बनाएँ । गुण-यह श्रग्नि प्रदीपक है। भै० २० श्रग्नि मा० प्र० । अग्नि-जातः agni jatah - सं० श्रग्नि जार वृक्ष । ( See-agnijára. ) रा० नि० व० ६ । अग्न जार agnijara - हिं० संज्ञा पुं० अग्नि जारः agnijarah - सं० पू० 1 Aplant used in medicine of stimulaut properties. ) पश्चिम समुद्र में उन नामकी प्रसिद्ध सागर सम्भूत औषध विशेष, समुद्र फलका पेड़, इसके पर्याय निम्न हैं:-यथाअग्नि निर्थ्यासः, श्रग्निगर्भः, श्रग्निजः, बड़वाग्निमलः, जरायुः, श्रर्णवोद्भवः, श्रग्निजातः श्रर सिंधुफल | लक्षण-यह चार प्रकार के वर्ण वाले होते हैं, इनमें लीहित वर्ण का श्रेष्ट होता है जैसे - जाराभो दहमस्पर्शी पिच्छिलः सागरोद्भवः । जरायस्तच्चतुर्वण : तेषु श्रेष्ः स लोहितः ॥ गुण-कटु रस युक्र, उष्ण वीर्य; लघुपाकी तथा कफ, वायु, सन्निपात, शूल रोग नाशक और पित्त कारक है, यथा--- स्यादग्नि जारः कटु रुप्मा वीर्यः गुदामय वात कफामयध्नः । पित्त प्रदः सोऽधिक सन्निपातशूलाति शीतामय नाशकश्च ॥ रा० नि० व० ६। (amber ) अम्बर अरब । अग्नि- जाल: agnijalah सं० पुं० श्रग्निजार, समुद्रफल का वृक्ष । अग्नि-जिह्व agnijihva - हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] देवता, श्रमर । अग्निजिह्वा agnijihva - हिं० संज्ञा स्त्री० अग्नि-जिह्निका agnijihvika. सं० खो० ७० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नितुराडी वढी (Gloriosa Superba, Linn.) inaî वृक्ष | रत्ना०| कलिहारी-हिं० । कललाघी-म० । ईष लांगुलिया - बं० । गुण- दस्तावर, तिक्र, कड़वी, चरपरी, कथैली, तीक्ष्ण, उष्ण, हलकी, पित्तकारक और खारी, गर्भ को गिराने वाली है । कुष्ट, शोफ (सूजन), अर्श (बवासीर) ब्रण, शूल, श्लेष्म तथा कृमि को नष्ट करने वाली, कफ बात नाशक और अन्तः शल्य निस्सारक है । भा० पू० १ भ० गु० व० (A tongus or flame of fire ) श्राम को लपट | श्रग्निज्वाला agnijvala-सं०स्त्री० (१) गजपीपल - हिं० | गज पिपुल - बं० । पाँथोस आफिसिनैलिस् ( Pothos officinalis ) - ले० विद्वान् लोग चव्य के फल को ही गजपीपल कहते हैं । यथा - " चविकायाः फलम् प्राज्ञैः कथिता गजपिप्पली" । भा० पू० १ भ० । गुण-गजपीपल, चरपरी, वात, कफ नाशक, श्रग्नि को दोपन करने वाली और गरम है, और प्रतिसार, श्वांस, कंद्र के रोग और कृमि रोग को नष्ट करने वाली है । ( २ ) लांगली वृत्त ( Gloriosa superba ) ( ३ ) श्रग्निजार, ( Agnijára ) ( ४ ) जलपिप्पली - हिं० । कांचड़ा-बं० । जलपिप्पली - म० । ( ५ ) धातकी वृक्ष | रा०नि० ० २३ । ( ६ ) श्राग की लौ, (Flame) ( ७ ) आंवले का पेड़, श्रामला । ( Phyllanthus Emblica ) ( = ) अग्निबाड़ा | ( Agnibada ) श्रग्नि-झाल agnijhala - हिं० संज्ञा पुं० [स ं०] safe ज्वाला । जरायु । सुफेद चित्रक ( white lead-wort ) - ० । ( २ ) जल पिप्पली का पेड़ । श्रग्नि- तप्त agni-tapta - हिं० वि० आग पर गरम किया हुआ । अग्नि- तुण्डा-बटी agni-tundá-vati - fro संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि-तुराडी बढ़ी:अग्नि- तुराडी-वटी agnitundi-vatiसं० बी० शुद्ध पारद, वच्छनाग, गंधक, अजमोद, त्रिफला, सज्जी-खार, जबा-खार, चित्रक, सेंधा नमक, जीरा For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रग्नितुण्डी रसः काला नमक, वायविडंग, समुद्रलवण, त्रिकुटा, प्रत्येक समान भाग, सबके समान कुचला ले चूर्ण करें । पुनः जम्भीरी नीबू के रस में घोट कर मिर्च प्रमाण गोलियां बनाएँ । मात्रा - १-३ गोली । रसेन्द्र कल्पद्रुम में इसकी मात्रा छः रत्ती लिखी है । परन्तु जब कुचले के स्थान में बकायन के बीज लिए जाएँ तो इसकी मात्रा दो गोली काफी होती है। गुण- इसके सेवन से सम्पूर्ण श्रजीर्ण और मन्दाग्नि दूर होती है । भै० र० । र० यो० सा० । अग्नि- तुराडी-रस: agnitundi-rasah - स ० पु० पारद शुद्ध, गंधक शुद्ध, विष शुद्ध, श्रजमोदा | ( यमानी ), त्रिफला, सजी, सोडा, जवाखार, चित्रक, जीरा, सेंधा लवण, काला लवण, (सौवर्चल, ) वायविडंग, समुद्रलवण, त्रिकुटा, इन्हें समान भाग लें । सर्व तुल्य विषमुष्टी ( कुचिला) लें, चूर्णकर जम्भीरी के रस में घोट मिर्च प्रमाण गोलियां बनाएँ । श्रग्निद agnida - हिं० वि० श्रग्नि दीपन । ( Tonic,Stomachic ) श्रग्निदग्ध agni-dagdha हिं० वि० । श्राग से जला हुआ ! अग्नि-दमनकः agni-damanakahसं०पु० ) श्रग्नि-इमनी agni-damani - सं० स्त्री० ܪܙ गुण-इस सेवन से मन्दाग्नि दूर होती है। अग्निदीपनः agni-dipanah - स ० पु० शार्क० सं० मध्य ख० अ० १२ । (१) वरुण वृक्ष, बरना - हिं० । वरुण गाछ -बं० । ( Crateva religiosa Fort) भा० पू० १ भा० । ( २ ) अग्नि वर्द्धक (Stomachic, Tonic ) श्रग्निदीपन रसः agni-dipanarasah सं० पुं० पारद, मीठा तेलिया, लवंग, गंधक प्रत्येक १ भाग, मरिच २ भाग, जायफल प्राधा भाग । सबको महोन करके अम्ली के रस की भावना देकर रक्खें । मात्रा -- १ मासा | गुण- इसे अदरख के रसके साथ सेवन करने से शीघ्र ही अग्नि प्रदीप्त होती है । र० प्र० सु० श्र० ८ । Medicinal Plant stimulant and stomachic considered asa small species of Cantacarica. शुद्र कंटक वृक्ष विशेष | गणिकारी हिं० । गणिरी - बं० । दुरालभा भेद - हिं०, बं० । धमासा भेद, श्रदिवणा - म० । वै० निघ० । कोई कोई शोला को कहते हैं । इसके पर्याय निम्न हैं:यथा - वह्निदमनी, बहुकंटका, वह्नि कंटकाड़िका, गुच्छफला, शुद्रफला, क्षुद्रकंटकारी, उद्रदुःस्पर्शा, चुद्रकंटकारिका मर्चेन्द्रमाता, दमनी । गुणकटु, उष्ण, रूक्ष, रुचिकारक, अग्निदीपक है । अग्नि-दपनीवटी रा० नि० ० ४ । तात, गुल्म तथा कफ नाशक और प्लीहा विकार नष्ट करती है। वै० निघ० । अग्नि दशह agnidáha हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (१) श्राग में जलाने का कार्य । भस्म करना, जलाना ( २ ) शवदाह, मुर्दा जलाना ( Funeral ceremonies. ) अग्मिक agni-dipaka-हिं०वि० [सं०] को उत्तेजित करने वाला, पाचक शक्रि को बढ़ाने वाला । श्रग्निवर्द्धक, दीपक ( Stomachic ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रग्निदीपन agni-dipana हिं० वि० अग्निदीपक बढ़ती । श्रग्निदीपन agni dipana हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अग्निदीपक ] ( 1 ) अग्निवर्द्धन । जठराग्नि की वृद्धि । पाचन शक्ति की ( २ ) अग्नि बद्धक औषध । पाचन शक्ति को बढ़ाने वाली दवा | वह दवा जिसके खाने से भूख लगे । अनि दीपनी, नीय agnidipani, niya-सौं० त्रि० दीपन, अग्नि व के, अग्नि वृद्धि करी - हिं० (A medicine which stimulates the digestive fire or increases the appetite, Stomachic. ) अग्नि-दीपनी वटी agni-dipani-vati-स'० खो० गन्धक, काली मिर्च सोंठ, सेंधा नमक, 2 For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'अग्नि-दीप्ता अग्नि-प्रस्तरः जवाखार समभाग ले मर्दन कर चने प्रमाण गोली सेंधा नमक, हर्ड, पीपल, चित्रक इन का चूण वैमाएँ । मात्रा-१ गोली। बनाय उण जल के साथ खाने से नष्टाग्नि उत्ते'गुण - यह जठराग्नि को प्रदीप्त करती है। जित होती है तथा नवीन अन्न, मांस, घृत भक्षण अग्नि-दीप्ता agni-dipta-स. स्त्री० महाज्यो- ।। किया हुआ शीघ्र भस्म हो जाता है।। तिष्मती लता, मालकांगनी, ज्योतिष्मती-हि०। सेंधा लवण, हींग, हर्ड, बहेड़ा, श्रामला, लताफटकी-० । थोर माल कांगनी-म० । अजवाइन, सोंठ, मिर्च, पीपल इन्हें बरावर ले ( Calastrus paniculatii, IVilld.) और सबके बराबर गुड़ मिला गोलियां बनाएँ, रा०नि०व०२ भा० पू०१ भा० । इसके सेवन से मन्दाग्नि वाला तृप्त होता है और अग्नि-दीप्ति agmi-dipti .हि. संज्ञा स्त्री० अधिक भोजन करता है। [ ] Iniproved digestion, । वायविडंग, भिलावाँ, चित्रक, गिलोय, सोंठ good appetite ) क्षुधा वृद्धि, पाचन शक्ति । बराबर ले इनके समान गुड़ और घृत मिला गोका बड़ जाना। लियां बनाएँ इसके सेवन से मन्दाग्नि दूर अग्नि-धमनः agni-lhamanah-स० पु. होती है । गुड़ के साथ सांड अथवा पीपल, या Melia azadirachta, him.) कटु । हई अथवा अनार को श्राम रोग में, अजीण में, निम्ब-हि०, म० | कटु निम, घोड़ा निम-बं०। गुदा के रोगों में, मल के विबन्ध में नित्य प्रति देखो-महानिम्ब, बकाइन । सेवन करें। अग्नि-निर्यासः agni-miryasah-स. पु. ___ भोजन के प्रथम नमक और अदरख का खाना अंग्निजार वृक्ष । ग. नि. व. ६ । See ! हृदय को हितकारक तथा दीपन है ! चक. द. -agni-jara..... अग्नि० मा० प्रा० . अग्नि-पत्रो agni-patri स० स्त्रा० अग्नि वती, , अग्निप्रदोरसः agni-pralo-asah संपु० श्रगिया प्रसिद्ध-हिं० ( Andropogon पारद, गंधक, सीसा, वच्छनाग, प्रत्येक १-१ Sehoeranthus, Linn.) तो. कजली कर प्रातिशी शीशी में रख वालुका अग्नि पर्णी agni-palni--स० स्त्रो० वानरी, ! यन्त्र द्वारा = प्रहर की अग्नि से पकाएँ । इसमें २ कौंच, केवाँच । ( Mucuna pruriens, तो. त्रिकुटा मिलाकर बारीक पीस ईख के रस में D. C.) मर्दन कर १-१ रत्ती प्रमाणकी गोलियां बनाएँ । अग्नि-परिताप agni-paritapu-हिं० पु. गुण-इसके सेवन से मन्दाग्नि, क्षय, सन्निपात भाग की जलन ( Scorching heat और वात रोग दूर होते हैं। र० प्र० सु० (-of fire) अग्नि०मा० अ० र० प्र० स०अ०८। अग्नि-परीक्षा apnipariksha-हिं० संज्ञा स्त्री०. अग्नि प्रभा वटी agmiprabha-vati-स. [स' ] सोना चाँदी अादि धातुओं की भाग श्री० सेंधा नमक, नौसादर, जवाम्बार, विड़ में तपाकर परख । नमक, सिंदूर, प्रत्येक समान भाग ले । पुनः अग्नि पा (मा) लो ugni-pa (m) ii सं. पटोल की जड़ के रस से भावना देकर उड़द ato (The white lead-wort) 1978, प्रमाण गोलियां बनाएँ । इसे तालमखाने के सुफेद चीता-हि। चिते-बं० । मद० २ व०।। पंचांग के क्वाथ से दें तो घोर यकृत, दारुणअग्नि प्रदोपकानि agni-pradipakani प्लीहा, वातीला, मन्दाग्नि और गुल्म का नाश स. क्ली० सोंड अथवा गुड़ के साथ भक्षण | होता है । २० यो० सा. ......... को हुई अथवा सेंधालवण के संग भक्षण की अग्नि प्रस्तर agnipastaraहिं० संज्ञा पु.) हई हरीतकी निरंतर अग्नि को प्रकाशित करती। अग्नि प्रस्तर: twiprastarah-सा. ४०) For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निफला अग्निमुखः -- ( Fire-Stone, a glint) अग्नि उत्पन्न (१) ( Premma Integrifolia ) करनेवाला पत्थर । वह पत्थर जिससे भाग निकले। अरनी-इरनी, अगेथ, टेकार । (२) अग्निवधू अग्निजनक पाषाण, चकमक पत्थर । पूर्व देशमें-उ०। सु०स० ३६ अ०। (३) अग्नि-फला agni-phala-सं० स्त्री० (Cola. संशोधन । वा० उ० २० अ०। (४) शाल, strus paniculata, TVilld.) HET सर्जवृक्ष (५) अरणी नामक मन्त्र जिससे यज्ञ ज्योतिष्मतीलता, ज्योतिष्मती लता, मालकांगनी के लिए भाग निकाली जाती है। -हिं० । बड़लता फटकी-बं० । थोर मालकांगनी अग्नि-मन्थादि-क्षार तैल agnimanthādi-म०। रा०नि०व०३। ___kshara tail-सं० अरणी, सोनापाठा, अग्नि-बाव agni-bava-हिं० संशा० पु. ढाक, तिलनाल, बला, केला और अपामार्ग । [स० अग्नि+वायु ] घोड़ों और दूसरे चौपायों इनके क्षारों के पानी से सिद्ध किया हुश्रा तैल का एक रोग, जिसमें उनके शरीर पर छोटे छोटे | उदररोग और वातज हृद्रोगों का नाश करता है। श्रावले निकलते हैं और फूट कर फैलते हैं। अग्नि-मयः agni mayah-सं० पुं० सुफेद यह रोग अधिकतर घोड़ों को होता है। (२)! विधारा, श्वेत वृद्धदारक । श्वेत विचताड़क-बं०। मनुष्यों का चर्मरोग जिस में शरीर पर बड़े बड़े । श्वेत वरधारा-म० । वै० नि । श्वेत बुला । लाल चकत्ते वा ददोरे निकल पाते हैं और साथ See-Vidhára. जो कभी कभी ज्वर भी श्रा जाता है। पित्ती। अग्निमा aenima-(Anona squamosa) ददरा । जुड़पित्ती । सीताफल, शरीफा । फा. इं०। अग्निवाहुः agni-bahuh-सं. पुं० अग्नि-मात agni-mata-ते. चित्रक, चीता (smoke) धूम्र। (Plumbago Rosea, Linn.) फा० अग्निभ agnibha-सं० क्लो०) इं. भा० २। Afan: agnibhah-Fogo ( Gold ) अग्नि-मांद्य agni-nāndya-हिं० संज्ञा००) सुवर्ण, सोना । (aurum ) रा० नि० अग्नि-मांद्यम् agni-mandyam-सं० क्लो." व०१३। ( Indigestion ) अजीर्ण, मन्दाग्नि । अग्निभा agnibhā-सं० स्त्री० celastius | (Anorexia) जठराग्नि की कमी । पाचन. paniculata.-माल काँगनी। शक्ति की कमी । भूख न लगने का रोग । अग्नि-भु agnibhuसं० क्ली० Gold, (Au• अग्नि-मारुति agni-māruti-हिं. संज्ञा पु. Tum) सुवर्ण । सोना । रा०नि० व. १३ । [सं०] अगस्त्य मुनिका एक नाम । (२) जल ,water (Aqua) अग्नि-मुखम् agni-mākhain-सं० क्ली० (१) अग्नि मणि agni-imani-हिं० संज्ञा पु० ।। (Safflower carthamus Tincto. अग्नि मणिः agni-manih-सं० पु. । rius ) कुसुम्भ पुष्प, कड़ का फूल । (२) The sun stone, a glint सूर्यकान्त Saffron (Crocus) कुकुम, केशर । मणि । श्रातिशी शीशा-फा० । एक वहुमूल्य | अग्नि-मुख agni-mukha-हिं० संज्ञा पु०) पत्थर । (२)सूर्य-मुखी शीशा । अग्नि-मुखः agni-mukhah-संपु. अग्नि मथनः agni-mathanth-सं० पु. (Plumbago Zeylanica, Linn. ) (Premna Integrifolia, Linn.) (१)चित्रक, चीता | चितंगाछ-बं०। (२) अरनी-हिं० अग्नि मन्थ, गणिकारिका-सं०। भिलांवा, भल्लातक । भेलागाछ-बं०। (Seगणिरी वा धारगन्त-बं० । रा०नि० वा० ।। mecarpus anacardium, Linn. ) अग्नि-मन्थ agni-mantha-हिं० सं० पु.) अग्नि-मुखः agni-mukhah-सं.पु. पारा, अग्नि-मन्थः agni-manthah-सं० पु. गन्धक, अभ्रकभस्म, ताम्रभस्म, अमलवेत, For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रग्निमुखचर्णः सिंगिया, त्रिफला प्रत्येक समान भाग लें । सब को कूट-पीस, धतूरा, पान, कटेरी, अरनी, कमल, नेत्रवाला, अडूसा, कुचिला, थूहर और बिजौरा नीबू के रसकी पृथक् २ भावना दें तथा सब के बराबर अदरख के रस की भावना दे | मात्रा- ३ रत्ती | T يف गुण- इसके सेवन से प्रबल शूल दूर होता है । वृ० र० रा० सु० | शूल चि० | अग्नि-मुख-चूर्णः agni-mukha-chürnahसं० पु० हींग : मा०, ६२ मा०, पीपल ३. मा०, अदरख ४ मा०, अजवाइन १ २०, हड़ ६ मा०, चित्रक ७ मा०, कूट ८ मा० इन सब का चूर्ण कर सेवन करने से उदावर्त, अजीर्ण, प्लीहा, उदर व्याधि, अंगों का टूटना, बिपभक्षविकार, बवासीर, कफ, और गुल्म दूर होता है । इसे वातव्याधि में गर्म जल, मद्य, दही, दही के पानी इसमें किसी एक के साथ दें । बं० से० सं० यो० त० श्रजी० श्र० (२) जवाखार, सज्जी, चित्रक, पञ्चलवण, इलायची, पत्रज, भारती, भूनी हींग, पुष्कर मूल, कचूर, निसोथ, नागरमोथा, इन्द्रयव, डांसरा ( तन्तरीक ) अमलवेत, जीरा, ग्रासला, अजवाइन, हड़ की छाल, पीपर, तिलचार, सहिजन क्षार, प्लासदार, सार इन्हें सम भाग ले महीन पीस कपड़ छान कर रस बिजौरेकी २ पुट दें । सिद्ध कर प्रति दिन २ ८ क जल के साथ लें तो भूख लगे, तथा अजीर्ण, गोला, उदर व्याधि, अण्डवृद्धि, और " वातरक्त दूर होता है । श्रमृ० स० अग्निमुख-चूर्णम् (वृहत्) agvi-mukha Chúrnam-( Brihat ) सं० ५० सज्जीखार, यवतार, चित्रक, पाठा, करञ्ज, पांचों नमक, छोटी इलायची, तमालपत्र, भारङ्गी, वीर्य बिडंग, हींग, पुष्करमूल, सोंड, दारूहल्दी, निसोथ, नागरमोथा, बच, इन्द्रजौ, कोकम्, जीरा, ग्रामला, गजपीपल, कलौंजी, श्रमलवेत, अन्ली, श्रजवाहून, देवदार, हड़, प्रतीस, काली निसोथ, हाऊबेर, अमलतास, तिल, मोखा, सहिजन, तालमखाना, और पलाश इनके चार, गोमूत्र में पाकर बुझाया हुआ मरडूर, प्रत्येक तुल्य भाग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रग्नि-मुख- रसः लेकर वारीक चूर्ण कर लें । पुनः तीन २ दिन तक बिजौरे का रस, सिरका, और अदरख के रस की भावना दे | मात्रा १- ३ मा० । गुण- इसके सेवन से श्रजीर्ण, सम्पूर्ण गुल्म, प्लीहा, ववासीर, उदर रोग, श्रन्त्रवृद्धि, लीला, वातरक्त, और मन्दाग्नि दूर होती है । २०० सा० । श्रग्निमुख ताम्रम् agni mukha-támram - सं० पु० । पारा १ तो०, गन्धक १ तो० मिला कर कज्जली बनाएँ, पुनः अर्जुन वृक्ष की छाल के रस अथवा क्वाथ से वोट कर २ तो० ताम्र के पत्र पर लेपकर पके हुए गूलर के पत्ते लपेट कर कच्चे सूत से लपेट के मिट्टी के बर्तन में पांचों नमक और चूने के बीच में क्रम से रखकर अन्धा में रखकर भाथी से धोकें जब सिद्ध हो जाय तो निकाल कर रक्खें । मात्रा - १ रत्ती से प्रारम्भ करें और रोजाना १ रती बढ़ाकर १ सा० तक पहुँचाएँ । यह रस अम्ल पित्त, क्षय, शूल, और दारुण पनि शूल को नष्ट करता है । सात रात्रि तक इसका प्रयोग करने से शरीर निर्मल होजाता है | अम्लपित्ताधिकारे - र०र०, २० च० । अग्नि-मुख-मंडूरम् agni-mukha-mandi· ram-सं० पु ं० | लौह किट ४८ तो० लेकर ठगुने गोमूत्र में पकाएँ पुनः चित्रक, चव्य, सोंठ, पीपर, पीपरामूल, देवदारु, नागरमोथा, त्रिकुटा, त्रिफला, बायबिडंग इनका चूर्ण १ पल लेकर उक्त मण्डूर में मिलाकर उपयोग करने से साध्य शोथ तथा पुराने पांदु रोग का नाश होता है । भै०र० शोधाधिकारे । अग्नि मुख - रसः agni-mukha-rasah-सं० पु० । पारा, गन्धक, विप, सम भागलें, इसे अदरख के रस से खरल करें, पुनः पीपलवार, थलीहार, अपामार्गक्षार, सज्जीखार, जवाखार, - सोहागा, जायफल, लौंग, त्रिकुटा, थे समान भाग लें, शंख भस्न, लवणत्रय, हींग, और जीरा दो दो भाग लें सब को चूर्ण कर नीनू के रस से खरल कर एक २ रत्ती प्रमाण गोलियाँ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनि-मुख-लवणम् अग्नियूम बनाए, इसके सेवन से अजोण, शूल, विशू- ईशलाङ्गलीया-बं० । (Gloriosa Superचिका, हिचकी, गोला, मोह नष्ट होता तथा ba, Linn.) । तत्काल पाचन दीपन होता है। | अग्निमुखो agni-mukhi-सत्री० भल्लातकी यो० त०- रसेन्द्र । भिलावाँ भेला-बं० । ( Somecarpus अग्नि-मुख-लवणम् agni-mukha-lava- ____anacardium, Linn. ) मे० खचतुष्क । nam-संपु० चित्रक, त्रिफला, जमालगोटा रत्ना० । च० सू०४ ० भेदनीय । (२) मूल, निसोथ, पुष्करमूल इन्हें सन्नान भाग लें, लांगलिका । ईशलाङ्गलीया-बं० । मे० खचऔर सर्वतुल्य सेंधालवण लेकर चूर्ण बना थूहर तुक । भा० पू० २ भा० अने० बं० । (३) के दुग्ध में भावना देकर थूहर के कांड में भरकर कञ्चट-स। जलचौलाई-हिं० । कलिहारी-हिं० साधारण कारौटी कर सुखाएँ पश्चात अग्नि दे ( Gloriosa superba, Linn.) #8 सुन्दर पाक करें, पुनः चूर्ण कर उपण जल से चड़ा-बं० । रा०नि० व०४। भा० पू० ह. सेवन करने से अग्नि को दीप्त करता तथा यकृत, व० । गुडची, गुरुच, गिलोय ( Tinospora तिल्ली, उदर रोग, ग्रानाह, गुल्म, बवासीर, Cordifolia, Jliers.) पसली के शूल को दूर करता है। अग्नि-मुखो-रसः agni-mukho-rasa.h-सं० भैष०र० अग्नि मान्द्याविकारे । बं०से०सं०। पु । पारा, गन्धक, बच्छनाग तुल्य भाग लें अग्नि-मुख-लौहम् agni-imukha-lonham- चण कर अदरख के रस की भावना दे । पुनः स . पु. । निसोथ, चित्रक, निगुण्डी, थूहर, पीपल (वृक्ष) इमली, और चिरचिरा इनके मुरुढी, भू-श्रामला प्रत्येक बाउ २ पल लें, एक क्षार, यवक्षार, सज्जी और सोहागा, जायफल, द्रोण (१६ सेर ) जल में एकाएँ जब चतुर्थांश लवंग, त्रिकुटा, त्रिफला ये सब समान भाग, रहे तो इसमें वायबिडंग १२ तो०, त्रिकुटा । और शंख भस्म, पांचो नरक, हींग, जीरा प्रत्येक तो०, त्रिफला २० तो०, शिलाजतु ४ तो०, पारे से द्विगुण डाल कर अम्ल योग से खूब मैनशिल व सोनामाखी से मारा हुअा रुका लौह घोटकर २ रत्ती प्रभाणकी गोलियां प्रस्तुत करें। भस्म का चण ४८ तो०, घृत, शहद, मिटी गुण-पाचन, दीपन, अजीण, शूल, हैजा, प्रत्येक ६६-६६ तो० इन्हें मिलाकर यह लौह हिचकी, गुल्म और उदर रोग को नष्ट करता है। प्रस्तुत करें, पुनः उचित प्रमाण से इसे सेवन रसेन्द्रसंहिता में इसे अग्निमुखरस कहा है। करने से अर्श, पांडु, शोध, कुष्ठ, प्लीहा, उदरा र० यो० सा०॥ मय, समय केशों का श्वेत होना, ग्रामवात, अग्नियम agniyuma-हिं० यकार, बकर्च, बसौटा । गुदा रोग, इन्हें सहज ही नाश करता है, इसके प्रेम्ना लैटिफोलिया ( Premna Latifoसिवाय मन्दाग्नि को दूर करते हुए समस्त रोगों lia, Roxb.)-ले। अग्निऊ-कुमा० । इन, को उचित विधान से वर्सने से दूर करता है। खार, गिान- पं०। इसके सेवन करने वालों को ककार वाले पदार्थ निगण्डी वर्ग वर्जित हैं । मात्रा-१-४ मा0 | भैष०र० (N. O. Verdenacee)' अर्घाधिकारे । वृ० रस० स० सु० बं० उत्पत्तिस्थान-उत्तरी भारतवर्ष कमायूसे से० सं०। भूटान तक और खसिया पर्वत तथा सामान्यतः slagar agni-mukhá-cio ato The बंगप्रदेश के मैदान । marking.nut tree(Semecarpus- प्रयोग-उपयुक्र पौधे के बक्कल' का दुग्ध anacardiuin, Linn.') भल्लातको सूजन पर लगाया जाता है, और पशुओं के भिलावाँ (अ)। भेला-० । (२) लाङ्ग- उदर शूल में इसका रस प्रयुक्र होता है (ऐट्. लिका ( वि. )--स० । कलिहारी-हिं० । किन्सन); पञ्जाब देशमें इसका रस औषधितुल्य For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि-रचस् अग्नि-बद्धकः प्रयोग में लाया जाता है । स्ट्यु वर्ट । ई० होता है। लक्षण-पित्ताधिक वातादि दोषों के मे० प्लां। कारण बगल में, ज्वर पैदा करने वाली, मांस अग्निरचस् agnirachas) स. प. को विदीर्ण करने वाली, अग्नि के समान तीक्ष्ण अग्निरजः agnirajah, (१) बीरबहूटी, जो फुन्सियां हो जाती हैं उन्हें अग्नि-रोहिणी अग्निरजाः agni-1ajah (इन्द्रवधू, इन्द्रगोप- कहते हैं । ये पांच वा सात या पन्द्रह दिन में अग्निरजुः agni-la.jjuh | कीट-हिं० । प्रा. रोगी का प्राण नाश कर देती हैं । वा० उ० पाड़े पोका-बं० । हे० च०४1 An insect ३२ अ०। of bright-scarlet colour. (Mu Mn. अग्नि-लोहः agni-louhah-सं० पु.। निशोथ, tella occidentalis. ) । (२) सुवर्ण चित्रक, निर्गुण्डी, सेहुड, मुण्डी, भू-ग्रामला gold (Aurum) प्रत्येक --- पल, १ द्रोण [१६ सेर ] पानी में अग्नि रसः (प्रथमः) र० र० यक्ष्माधिकारे। पकाएँ। पुनः विडङ्ग ३ पल, त्रिकुटा ३ कर्ष, हीरा भस्म २ भा०, सुवर्ण भस्म ३ भा०, पारद त्रिफला ५ पल, शिलाजीत १ पल, रुक्म लौह भस्म ६ भा०, इन्हें ग्रहण कर दिन भर गोखरु चूर्ण १२ पल, दिव्योपधि १२ पल, शुवावृक्ष के रस में भावना दें। शाम को उसका चूर्ण छाल १२ पल ले। इनका उत्तम चूर्ण, घृत २४ कर लें । मात्रा-१ रत्ती० । अनुपान थूहर की पल, मधु २४ पल्ल, शर्करा २४ पल मिलाकर जड़ और जम्भीरी का रस । जिस राजयक्ष्मा के विधिवत् पकाएँ । जब सिद्ध होकर शीतल होजाए साथ ज्वर भी हो उसमें इसका प्रयोग करना तो उतार कर रख ले। गुण-अर्श मात्र को नष्ट उचित है । इस नाम के चार योग इन ग्रंथों में करता है। श्राए हैं । जैसे-(२) र० का०, र० क० ल०, नोटः-दिव्यौषधि-स्वर्णमाक्षिक, मैनशिल । र० र० स०, नि० २०,र० को०,कासाधि कारे। रुक्मलौह-वज्र-पाण्डु-लोह । वै० श० सि.। अग्नि-रसः agni-rasah-स० पु. मिर्च, अग्निवत्रः agni-vaktirah-सं० पु. (Se मोथा, वच, कूट, समान भाग लें, सर्व तुल्य mecarpus anacardium, Linn.) विष लें, पुनः अदरख के रस से मर्दन कर मुद्ग भल्लातक वृक्ष, भिलावां का पेड़-हि । भेला प्रमाण की गोलियां बनाएँ। यह हर प्रकार के गाछ-बं० । ले. मद० व. १ (२) चित्रक अजीर्ण को नष्ट करता है। (चीता ) चुप-हिं० । चिते गाछ-बं० ( Pluभै०२० प्रा० अधिक। mbago zeylanica, Linn.) अग्निरसः agni-ra:ah-स० ० (१) अग्निवण्डा agni-vanda-स. स्त्री० अग्नि (Pancreatic juice ) क्रोम रस, अग्ना- ज्याला (एक गरम दवा है)। See-agni. शय रस । असीरुल इन्किरास-१०। (२) jválá 1 अग्निमान्द्याधिकारोक रस विशेष । अग्निवती agni-vati-स. स्त्री० ( Andrअग्निरुहा agni-ruhā-स. स्त्रो. मांस- opogon Scheeranthus, Linn. ) रोहिणी । The Indian red wood __ अगिया घास एक प्रसिद्ध औषध है। tree (Soymida Febrifuga, Juss.) faTy agni.vadhú-o afiaafu: रा०नि०व० १२ अरनी ( Premna Integrifolia, अग्निरोहिणी agni-rohini-स. स्त्री०, हिं० Linn.) संज्ञा स्त्री० ( Soynmida Febrifuga, अग्निवर्द्धकः, नः agni-vardhakah,-nah Jiss.) (१) मांसरोहिणी-स० हिं०, स. त्रि० ( Stomachic tonic ) बं० । वा० उ० ३१ अ०। (२) Plague अग्नि उद्दीपक मरिच प्रभृति आग्नेय द्रग्यमात्र, उक नाम का शुद्र रोग विशेष । यह त्रिदोष जन्य । अग्निवृद्धि कर । देखो दीपक [न] राज। For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অলি- বন। अग्निवृद्धिः अग्निवर्द्धन agni-vardhana-अग्नि उद्दीपक । अरनो ( Premna. Integrifolia, अग्निवल वृद्धिः agni.vala-vriddhih Linn.) सं० स्त्रो० जठराग्नि वृद्धि । च० द० अर्श अग्निवीय॑म् agni-virryyam -60 ली. चि०। स्वर्ण, सुवर्ण । gold (aurum ) रा०नि० अग्निवल्लभ agni-vallabha हिं० संज्ञा पुं० व०३ (१) शालवृक्ष । साखू का पेड़ । ( Shorea अग्निवोसर्पः agnivisarpan सं० पु. Robusta, Gertu. ) ( २) शाल से ( Pain from a boil) द्वंद्वज विसों का निकली हुई गोंद | Shorca Robusta, एक भेद है। देखो विसर्पः। Erysipalas. the guim of-) । मद० व०३। See- अग्निविसर्प के लक्षण-वात, पित्त, विसर्प sarjah. राल, धूर, सर्ज, योनिशाल विशेष । में ज्वर वमन, मूळ, अतिसार, तृषा, भ्रम, धूना-बं०। रेजिन (Resin )-इं० । हे० अस्थिभेद, अग्निमांद्य, तमकश्वांस और अरुचि च०रा०नि०व०।६, १२ ये सब लक्षण होते हैं । इसमें सम्पूर्ण शरीर अग्निवल्लभः agni-vallabhah-स० पु. जलते हुए अंगारों की भांति प्रतीत होता है। दे० अग्नि वल्लभ । शरीर के जिस जिस अवयव में विसर्प पलता है अग्निवल्ली agni-valli-स. स्त्री० ( A वहीं ही अंग बुझे हुए अंगार के समान काला, creeper,turving or climbing नीना, अथवा लाल हो जाता है। अग्नि से जले plant) लता विशेष । र०सा०स०अभि. हुए स्थान की तरह वह फुन्सियों से व्याप्त हो न्यास ज्वर० स्वच्छन्दनायक रस । जाता है और शीघ्रगामी होने के कारण हृदय अग्निवासः agnivasah-स० अग्निका स्थान । प्रभति मर्म स्थानों पर शीघ्र ही श्राक्रमण करता अग्निवाहः, हु: agni vāhah-huh सं० पु. है। इसमें वायु अत्यन्त प्रवल होकर शरीर में धूम । स्मोक (Smoke)-इं० । हे० च०४ पीड़ा, संज्ञानाश, निद्रानाश, श्वास और हिचकी का०। (२)agoat अज, बकरा । उत्पन्न करता है । विसर्प रोगी की ऐसी दशा हो अग्निविकारः agni-vikārah-सं० पुं० पुन, जाती है कि वेदना से ग्रस्त होने के कारण भूमि उज नाम के रोग का एक भेद । यह चार प्रकार शय्या या प्रासन पर कहीं इधर उधर का होता है। शा० पू० ७ अ० । देखो लेटने से सुख प्राप्त नहीं होता और देह मन और अग्निः । म जनित वेदना से ऐसा दुःखित हो जाता है अग्निविवर्द्धनः agni-vivarddhanah-सं. कि दुष्प्रबोध अर्थात् चिरस्थायी निद्रा में लीन त्रि० यमानी, अजवाइन, Carum copti- हो जाता है । इन लक्षणोंसे युक्र विसर्प को अग्नि cum, Benth.) विसर्प कहते हैं । वा०नि० १३ १०। । अग्निवर्द्धक agnivarddhaka-हि० (१) चिकित्सा-अग्नि विसर्प में सौ बार धुला दीपन ( stomachic ) ( २ ) यमानी हा घी वा केवल घतमंड अथवा मुलहटी का (अजवाईन) प्रभृति (Carum copticum, शीतल क्वाथ, कमलका जल, दूध वा ईखका रस Benth.) इनका परिसेक करें और महातिक घृत को पानअग्निविसपः agnivisarpah-सं०० अग्नि- लेपन और परिसेक के काम में लाएँ । वा०च० विसर्प, विसर्पभेद ( Pain from a 1०। boil) अग्निवृद्धिः agni-vriddhih-सं० सी० अग्निवीजम् agni-vijam-स. क्ली. स्वर्ण, अग्निदीप्ति, बुधावृद्धि ( Increase of सुवर्ण, gold (Aurum)-त्रिका digestive fire or appetite, Im. अग्निवोजः agni-vijah-सं० पु० अग्निमन्थ, proveddigestion,Good appetite.) For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निवृद्धिकर. अग्नि प्वात्ता अग्निवृद्धिकर agni-vriddhikara-सं० पु. करञ्ज-स० । कट करञ्ज-हिं० । नाटा-बं०। अग्निवर्धक (Stomachic.) (Ciesalpinia Bonducella, Fleअग्निवेण्डु पाकु agnj-vendupāku-ते० दाद- ming. )(५) सूरणः (न)-स0 । जमीकन्द मारी, चॅकवड़, चक्रमर्द ( Cassia tora, -हिं । श्रोल गांछ-बं०। (Amorphoph___Linn.) allus campanulat:is, Blume. ) अग्निवेन्द्र पाकु agni.vendra-pāku-हिं० प० मु०। ( Ammania Baccifera, Linn.) अग्निशिष , gni-shisha-ते. नाट का वच्छ अग्निगर्भ-सं० । दादमरी हिं० । फा० इं०३ ___ नाग, कलिहारी, लांगली । (Gloriosa - भा०, ५० मे० मे०। Superba, Linm.)। ई० मे० मे अग्निवेश agni vasha-हिं० संज्ञा पु० [सं०] | अग्निशिषा agni-shis hā-स. स्त्री० (१) अायुर्वेद के प्राचार्य एक प्राचीन ऋषि का नाम (Amaranthus spinosus,Willd.) जो अग्नि के पुत्र कहे जाते हैं। तण्डुलीय, चौलाई । (२) (Gloriosi अग्निशिख agnishikha-हि० संज्ञा प्र० super ba ) कलिहारी, (३) चित्रक अग्निशिखम् agnishikham स . क्लो० ॥ (Plumbago zeylanica.) Gold (airum) (१) स्वर्ण, सुवर्ण, अग्नि शुद्धि agnishuddhi-हिं० संज्ञा स्त्री० सोना। रा०नि० ब० १३ । (२) कुम्भ [सं.] (१) अग्नि से पवित्र करने की पुष्प-सं० । कुसुम वा बरे का फूल । कुसुम क्रिया । प्राग छुाकर किसी वस्तुको शुद्ध करना । फूल-बं0 safflowel (Carthamus (२) अग्नि-परीक्षा। tinctorius; iinn. ) ( ३ ) कुकुम, | अग्निशे वरम् agni-shekharam-स. सो केशर । (Saffron Crocus Sativis, Linn.) Saffron (Crocus Sativus, Lit.) कुकुम, केशः। रा०नि० व० १२ । कुसुम्भ भा० पू०२ भा० । मद० व० ३। (४) पुष्प, Safflower (Carthamls दीपक । (.) (An arrow) वाण, तीर । tinctorials, Linm.)। (३) लांगलीवृक्ष अग्निशिखा agni-shik hi-सस्त्री०६० संश • सं० । कलिहारी-हिं । ( Gloriosa खो०। (१) लांगलिका औषधि-सं० । करि Superba, linn.) (४) विशल्या [-लि ] हारी-हिं० (Gloriosa superba नामक शाक भेद। Linn.) भा० पू० १ भा० गु० व०1 अग्नि टुत् agni-sh tut-हि० स० पु. कलियारी व करियारी नामक पौधा जिसकी । [२०] एक प्रकार का यज्ञ जो एक दिन में पूरा जद में विष होता है । (२) अग्नि की ज्वाला, | होता है । यह अग्नि प्टोम यज्ञ का ही संक्षेपहै। आग की लपट । | अग्निष्टोमः agni-shromah-स० पु. अग्निशिखः agnishikhah-स० ० ( The moon plant) सोमलता, सोमः (१)कुकुम, केशर । (Crocus sativus, सु० चि० २६ अ०। (२) स्वर्ग की कामना Linn.) (Shrub of saffron.) 11. __ से किया जाने वाला एक यज्ञ विशेष । रा०नि० व. १२। (२) लांगलिका वृक्ष अग्निष्ठः agni-shthah-सं० पु. तावा, स। कलिहारी-हिं० । विषलाँगलिका गाछ तंडुल आदि अथवा कोई भी शाक श्रादि भूजने -चं० । ( Gloriosa superba, का लोह पात्र। Linn.)। रत्ना० (३) कुसुम्भ वृक्ष-स० | अग्निष्वात्ता agni-shvatta-हिं० संज्ञा पु. (Safflower Cartbamus Tinc- [सं०] अग्नि-विद्युत प्रादि विद्याओं का torius, Linn.) श० २०। (४) पूति For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निसखा अग्निसाध्य अग्निसखा agnisakhā-हिं० संज्ञा पुं० . पकाएँ । सिद्ध होने पर इसकी मात्रा २ रत्ती देने [स] वायु, हवा । से जराग्नि अत्यन्त प्रदीप्त होती है। अग्निसंस्कारः agni-sanskārah-स०प० वृ० रस. रा० सु० अजीर्ण चि०, भैष । (१) अग्निदाह कर्म (Funeral cerem- अग्नि सन्निभा वटी agnisanmibhavati onies)। नृतक के शव को भस्म करने के सं० स्त्रो०, टो०, र०रा०शि०, २०(मा०) लिए उस पर अागी रखने की क्रिया । ना०वि०, अजीर्णाधिकारे । । (१) श्राग का व्यवहार । तपाना । जलाना। ४० तोले कुचले के बीज और तुषाम्ल (हरे (३) शुद्धि के लिए अग्नि स्पर्श कराने का जौ दल कर उनकी जो कांजी बनाई जाती है विधान । उसको तुपाम्बु या तुपाम्ल कहते हैं ) में उतनी अग्निसंस्पर्शा agni-sansparsha-स० | ही हरड़े, उबाले हुए बिडंग, हींग, त्रिकुटा, स्त्रो० पर्पटी नामक सुगन्ध द्रव्य, पद्मावती, - त्रिदीप्य (अजवाइन, अजमोद, खुरासानी अजयह उत्तर में प्रसिद्ध है। भा०पु०पू०१ भा०क० वाइन') पारा, गंधक, ये सब ४ तो० मिलाकर व० । पपड़ी (-रो) पनरी (-ड़ी)-हिं० । घोटकर बारीक कज्जली के माफिक चूर्ण बनाएँ अग्निसंदीपनः agtisandipanah-सं० और सब चीजें कुचिले और हड़ वाले करक में त्रि० अग्निवर्धक, धावद्धक (Increasing, मिला के जंगली बेरकी गु.ली के सदृश गोलियां appetite) बनाएँ । गुण-कफ स्राव, मन्दाग्नि, तन्द्रा, अग्निसंदीपनोरस:agni-sandipano-lasah स्वरभेद, अफारा, शूल, उदर रोग, खांसी, स० पु०। पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, | हिचकी, वमन, और कृमिरोग को नष्ट करती है। सोंठ, मिर्च, पञ्चलवण, जवाखार, सजीखार, इसे अगस्त्य, हारित और पाराशरजी ने कहा है। सोहागा, सफेद जीरा, स्याह जीरा, अजवाइन, | अग्निसम्भवः agni-shin bhavah-स०५० वच, सौंफ, हींग, चित्रकको छाल, जायफल, कूट, (Wild Saffron) जंगली कुसुम, अरंड जावित्री, दारचीनी, तेजपात, छोटी इलायची, कुसुम वृक्ष । वन कुसुम-बं० । रा० नि० २० अम्लीक्षार, अपामार्ग ज्ञार, विष, पारा, गंधक, | ४ । (१) अग्निजार वृक्ष (Agnijara) लौह भस्म, अभ्रक भस्म, बंग भस्न, लौह. हड़ - रानि०प०६। ये प्रत्येक एक २ भाग, अम्लवेत २ भा०, शंखग्निसहाय:agnisahayah ) भस्म ४ भा० सबका चर्ण कर पञ्चकोल, चित्रक, अग्निसखः agni sakhah , स. पुं. (१) (Wild pigeon) जंगली कबूतर अपामार्ग के क्वाथ की भावना दें, इसी तरह क्यों कि उसके मांस से जलराग्नि तीव्र होती खट्टी नोनिया के रस की ३ तीन, तथा नीबू के है । वन्यपारावतः-सं० । घुगु-बं० । होगलापक्षी रस की २१ इक्कीस भावना देकर बेर तुल्य गोलियां बनाएँ, सायंकाल व प्रातःकाल इसके ..म० । रा०नि० २०१६ । (२) वायु, हवा (air, wind )। (३) smoke धूम । सेवन से तथा दोपानुसार अनुपान से यह रस | अग्निसात् agnisat- वि० [सं०] भाग में मंदाग्नि को प्रज्वलित करता तथा अजीर्ण, अम्ल जलाया हुअा, भस्म किया हुअा।। पित्त, शूल और गुल्म को नष्ट करता है। faiz: agni-sádah-'og'o (Indi(२) शुद्ध पारा और गन्धक बराबर लेकर | gestion) अग्निमांद्य, अपच, पृ.जीणता, कज्जली कर के गाड़े वस्त्र में उसको बांध दें। कफ द्वारा जठराग्नि का निस्तेज होना, मन्दाग्नि, पुनः १ घड़े में नीचे वालू भरकर उस पोटली को सा० को० ज्व० चि०। इसमें रख दें और ऊपर से घड़े को बालू से अग्निसाध्य agnisādhyah-स त्रि० अग्नि भर दें। उसके ऊपर से दो दिन तक तृणाग्नि दाहसाध्य, अग्नि से जलने से जो लीक हो । जलाए अथवा उसको गजपुट में 1 दिन तक च० द० अर्श० चि०। For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निसारम् अरबरं अग्निसारम् agnisarram-तक्लो० रसाञ्जन, अग्निहोत्रः agni-hotrah-स. प. (१) रसवत ( A sort of collyrium) (Ghee, clarified butter )घृत, घी। रा०नि० व०१३। (२) ( Fire ] अग्नि । मे। (३) एक अग्निसारा agnisāra-स. बी० (१) यज्ञ, वेदोक मंत्रों से अग्नि में प्राहुति देने की ( The fruitless branches) फल क्रिया । यह दो प्रकार की कही गई है-(१) शून्य शाखा, फल रहित डालियाँ | रा० नि० नित्य और (1) नैमित्तिक या काम्य । व०२।(२) मारी, बौर, मुकुल (A अग्नीका agnita-सं. स्त्री० कर्पास, कपास blossom) (Gossypiuin Indicum) अग्नि सुन्दर रसः agni-sundara-rasah अग्न्या agnya-स. स्त्री० (१) तीतर सं०० अजीर्णाधिकार में वर्णित रस, यथा | चिड़िया, तित्तर पक्षी anartridge ( Peसुहागा १ भाग, मरिच २ भाग, इनके चूर्ण rdix Francolinus) (२) (a cow) में अदरक के रस की भावना दें। अनु० गाय, गोहला। लवंग । प्रयोगा। अग्नि-सूनुरसेन्द्रः agni-sānurasendra.h अग्न्याशयः agnyāshayah हिं० पु. स०पु० । पीली कौड़ी भस्म १ मा०, शंख भस्म अग्नाशयः agna-shayah-स पुअग्नाशय, २ मा०, शुद्ध पारद १ मा०, शुद्ध गंधक १ मा०, जठराग्निका स्थान, पैङ्क्रियस( Pancreas)काली मिर्च ३ मा० सब को एकत्र कर नीबू के इं० । क्रोमग्रंथि-हिं० । बन्कर्यास, बकरास, इन्क्रि. रस से खरल करें । मात्रा-१ रत्ती इसके सेवन रास बामकरास, उनुकुत्तिहाल, लवलबह्य अ०। से मन्दाग्नि शीघ्र दर होती है। नूर मिअदह --फ़ा० । यह एक ग्रंथि है जो पतली, नोट-किसी के मत में कौड़ी और शङ्ख की | लम्बी, चिपटी और श्वान जिह्वोपम होती है। भस्में २-२ मा० मिलानी चाहिएँ । यह नाभि से ३.-४ इंच ऊपर श्रामाशय के पीछे कटि के पहिले दूसरे कशेरुका के सामने प्राड़ी अनुपान-वृत, मिश्री के साथ क्षीणता में, पीपर घृत के साथ संग्रहणी में, तक्र के साथ पड़ी रहती है। इसका बायाँ तंग सिरा पीहा खाने से संग्रहणी, ज्वर, अरुचि, शूल, गुल्म, से मिला हुअा रहता है । इसकी लम्बाई ६ से पांड, उदर रोग, बवासीर, शोप, प्रमेह दूर ८ इंच, चौड़ाई १॥ इंच तथा मुटाई १ या । इंच के लगभग और भार १ छटांक से ३ छटांक होते हैं। तक होता है । इस ग्रंथि में एक प्रणाली होती वृ० रस० रा० सु० स'ग्रहण्याधिकारे । है जो इसके वामपार्श्व से प्रारम्भ होकर दक्षिण अग्निसेवन agni-sevana हिं. संज्ञा पु.।। अग्निसेवनम् agni-sevanam सिरे की ओर पाकर पुनः पित्त प्रणाली से मिल अग्निसेवा, अग्निप्रयोग, प्राग तापना | इसके कर द्वादशांगुलान्त्र में जा खुलती है । इसके द्वारा गुण-शीत, वात, स्तम्भ, कफ कम्पन, प्रभति को बने हुए पाचक रस को अग्न्याशय रस वा क्लोम नाश करने वाला और रक, पित्तकर्ता तथा श्राम रस ( Panereatic juice) कहते हैं। और अभिष्यन्द का पाचक है। मद०१३व०। इस रस का प्रधान काय यह है कि यह श्राहाअग्निस्थापनीय agni-sthāpaniya-अग्नि रस्थ वसा ( fats) अंडे की सुफेदी के सदृश वर्दक, दीपन ( stomachic.) पदार्थ ( albumen) और सरेशीय पदार्थ को अग्निहानिः agni-hanih-स० पु० ( Ind पाचनयोग्य बनाता है। igestion, loss of appetite )अग्नि अगबर aghbara-अ० अरशर । गुब्बार भालूद, मान्ध, अजीर्णता, अपच, मन्दाग्नि । वा०नि० गदंबालूद, गुब्बारी, खाकीरंग, मटियाला-उ० । १३० धूलिपूर्ण, धूसरवण) मटमैला-हिं० । डर्टी For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगमस अग्र-पत्रिका ( Dirty )-इ० (२)वतु वा सर्प के लिए (Preceding, going before) एक यौगिक औषध है। अग्र-गायी agra-gāyi-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] अगमस aghmasa-अ०। चेपड़ो उ. जिसके अगुवा | अग्रसर । नेत्र में ग़म्स अर्थात् चेपड़ (कीचड़ ) ग्राती हो। अग्र-गोदम् agra.gorlum-सं० ली. अग्यारो agyari-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अग्नि ( Fore-brain) अन मस्तिष्क । भेजे प्रा० अग्नि + सं० कार्य ] अग्नि में धूप गुड़ का अगला हिस्सा। ग्रादि सुगन्ध द्रव्य देने की क्रिया, धूप देना । अग्र- चण agra-charvana-हिं. पु. अग्र-चर्वणक:agra-chaivanakah(1) अग्निकुण्ड । -सं० पु. अग्र ugra-हिं० सं० पु.। (१) पल परिमाण अंग्रम् agram -सं०क्लो० । यथा-'परिमाणेपलस्य (Premolar teeth ) ARRA gia च'। एक पल - तो० के बराबर होता है। से० जिससे चबाया जाता है। रद्विकं । (२) वृक्ष आदि का अग्र भाग । अग्रजः agra jah-सं०० (१) काक विशेष (३) हिं० कि० वि० पहिले, आगे, आदि । बायस, कौआ ( a crow) (२) भासपक्षी, अागा, सिरा, नोक,अगला हिस्सा (The fore कौवे के समान एक पक्षी है। (३) जो भाई part of a thing, adjanterior, पहले जन्मा हो। बड़ा भाई । श्रेष्ट भ्राता । prior, first.) मुक़द्दम, कुदामी-ऋ० । अनुज का उलटा । हिं० वि० श्रगला । प्रथम । श्रेष्ट । उत्तम । अग्र-जन्मा agra-janma-हिं० संज्ञा पुं० प्रधान । अथ० स० ७ । ३ । का: - [सं०] (१) बड़ा भाई (२) ब्रह्मा । अग्र-काण्ड agra kāndah-स. पु०( The श्रम-जङ्घा agra-jangha स. स्त्री० जंघानfore part of the stem ) #ITS, __ भाग, टाँग का अगला हिस्सा । The fore तने का अग्र भाग। part-of the leg ) श्रम कास्थि agra kāsthi-सं० स्त्री० ( Fro- अग्र-जिह्वा aagra-jihvā-हिं० संज्ञा स्त्री० [स] .. ntal bone ) ललाटास्थि, ललाद की The tip of the tongue farger &T हड़ी। अगला भाग। श्रन-कुम्भः agra-kumbhah-सं० पु अग्रणी agrani-हिं० वि० [सं०] अगुश्रा श्रेष्ठ । (Frontal ominence ) संज्ञा पु प्रधान पुरुष। मुखिया । अगुश्रा, अग्र-कोटरम् agra-kotaram-स० क्ली० ( The head) (Frontal air sinas. ) | अग्र-धान्यम् agra-dhānyam-सं० क्ली. अग्र-कोटिः agra-kotih-स० पु. (Oph धान्य विशेष, ज्वार, बाजरा । ryon) अग्र-नाडी-मस्तक agra-nadi-mastakaअग्र-कोणः -konah-स0पु0 (Ant- हिं० प० ललाट की नाड़ी। __erior forenix.) योनि का अगला कोण । अग्र-पणों agra-parni-सं० स्त्री.(१)शूक अग्र-खण्ड agra-khanda--हिं० पु. उरोस्थि शिम्बी; कोंच, किर्वांच-हिं० । श्रालाकुशी-बं० । के तीनों टुकड़ों में से तीसरा नीचे का पतला ( Mucuna pruriens.) a plant टुकड़ा जो कौड़ी देश में दबाने से स्पर्श किया cowhage-य० मु० । देखो-प्रात्मगुप्ता, जा सकता है । (Xiphoid process.) अजलोमा (र०) अग्र-पत्रिका agra-parvika-सं० स्त्री० । अग्र-गामी agra-gami-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] | (Anterior phalanx) पोर्वाग्र, अअगुश्रा, आगे चलने वाला, अग्रसर, नेता गला पोर्वा | ११ For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्रपाणिः अग्रहस्तः अन-पाणिः agra-panih-सं० प. The अग्र-लम्बिका agra-lambika-स. बी० - fore part of the hand. हस्तान, (Frontal lobe.) ललाट-खण्ड । हाथ का अग्र भाग। अग्र-लोडयः agra-lodyah-सं० ० (Ma. अग्र-पादः agra-pādah-स०ए० ( The, rselia dentata.) चेबुना, चिनोटक-पुप fore part of the foot, toos. ) -हिं० । चेचको, चिञ्चोड़-मुल-बं० । गुण-यह अंगुलियाँ। ।. पाक में गुरु, शीतल तथा अजीर्ण कारक है। अग्र-पुप्पः agra-pushpah-सं० पु. Cal- राज। amus rotang, Linn. ( Common अग्र-लोहिता agra-lohita-सं० स्त्री० चिल्लीcane) बेंत-हिं० । वेतस वृक्ष-सं० । बेत शाक, चेलारी-हिं० । रा०नि० व०७।। गाछ बं० । प० म०। अग्र-वक्त्र agra-raktra-हिं• संज्ञा पु. अन बाहुः agra-bahuh-सं० पु. ( Fore [सं०] सुश्रुत में वर्णित चीर फाड़ का एक arm.) कोहनी के नीचे अथवा कोहनी से यंत्र । कलाई तकका भाग, अग्रवाहु या प्रकोष्ठ कहलाता अग्र-वर्ती agra-vartti-हिं० वि० [सं०] है। अग्रवाहु कोहनी के स्थान पर वाहु के ऊपर श्रागे रहने वाला । अगुवा। मुड़ जाती है । साइद, मिअसम्, कलाई-अ०। अग्र-वीजः agra.vijah-सं० पु. A vivi. अग्र-बाहुमूलगा-पेशो agra bāhumulaga- parous plant as the gemphree peshi-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Pronator na globosa, etc. atanu T ATT Tredii teres.) कोहनी से नीचे की पेशी । यथा कुण्टादि । हे. च० । देखो अग्रबोज । अग्र-बोज agra-bija-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] अग्रतोहिः agra-vrihih-सस्त्री० प्रसाधिका, (१) वह वृक्ष निसको डाल काट कर लगाने से नीवार । र० मा०। लग जाए। पेड़ जिसकी कलम लगे। अप्रभंग agra-shringa-हिं. पु. (Ante. (२) कलम। ____rior horn.) योनि का अगला शृङ्ग । अग्र-भाग agra-bhāga-हिं० संज्ञा पु० अप्रशोचो agrashochi-हिं०सज्ञा पुं॰ [सं॰] अगला हिस्सा । पहिला हिस्सा । श्रागे का भाग आगे से विचार करने वाला । दूरदर्शी । दूरंदेश । ( The preceding part.) (२) अप्रसन्ध्या agra-sandhya-हिं. सज्ञा स्त्री० सिरा । नोक । छोर । ( Tip,point.) [सं.] प्रभात । प्रातः काल | अग्र-भूमि agra-bhāmi-हिं० संज्ञा स्त्री० अग्रसर agrasara- हिं० संज्ञा पुं० [स] [स. ] घर की छत । पाटन । (१) आगे जाने वाला व्यकि, अग्रगामी पुरुष । अग्र-मस्तिष्क agra-mastishka-स० पु. अगा । (२) प्रारम्भ करने वाला | पहिले ( Fore-brain) भेजे का अगला भाग। पहिल करने वाला व्यक्रि । (३) मुखिया अग्र-मांसम् agra-mansam-सं० क्ली० प्रधान व्यक्ति । वि० (१) जो आगे जाए । ( Flesh in the heart ) हृदय के अगुश्रा ( २ ) जो प्रारम्भ करे। (३) प्रधान, भीतर होने वाला मांस वृद्धि रूप रोग विशेष । मुख्य। स० शाहृदय, बुक्का | ( The heart.) अग्रह agraha-हिं. सज्ञा प. [स ] अग्रया agraya-सं० स्त्री० ( The three गार्हस्थ को न धारण करने वाला पुरुष । myrobalans. ) त्रिफला । वानप्रस्थ । अप्रयून agrayāna-फ़ा. ख़ारिश, खुजली, अग्रहस्तः agra-hastah-सं०पु. ( The कण्डु, खाज-हिं० । पुराइगो ( Prurigo) fore part of the hand. ) हाथ का पुराइटीज (Pruritis.) देखो-करडुः। अगला भाग । For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३ भग्लुकमा अग्रहण agrahana-हिं० पु. | अग्रेटम् वाटर agra tum-water-ई. बड़ी अग्रहायण agrahāyanam-स. प किश्ती । ई है. गा० । अग्रहायण: agrahāyanah-सं० पु. अग्रेदिधिषु agredidhishu-हिं. संज्ञा पु. अग्रहायन: agrahāyanah-स. पं. वर्ष का पहिला महिना । मार्गशीर्ष मास अर्थात् | [सं०] ऐसी स्त्री से विवाह करने वाला पुरुष जो अगहन का महिना । प्राचीन वैदिक क्रमानुसार पहिले किसी और को व्याही रही हो। वर्षका श्रारम्भ गहनसे माना जाता था यह प्रथा संज्ञा स्त्रो० वह कन्या जिसका विवाह उसकी अब तक गुजरात आदि देशों में है। पर उत्तरी बड़ी बहिन के पहिले हो जाय । भारत में वर्ष का प्रारम्भ चैत्र मास से लेने के | अष्टो agresto-रु० अपक्क द्राक्षारस, कच्चे दाख कारण यह महीना नवाँ पड़ता है। का स्वरस (Juice of unripe. grapes) अाँश agrinsha-हिं० संज्ञा पुं० [सं० फा० इं. १ भा०। देखो-अंगूर । अग्रांश ] अागे का भाग। अग्रोपाइरम् ngropyrum-ले० श्वेतदुर्वा प्रन्थि, भग्राशन agrashana-हिं० सज्ञा पुं० [स] सफेद दूब | Couch grass, ( Tritiभोजन का वह अंश जो देवता के लिए पहिले | ___cum) निकाल दिया जाता है। यह अप्राशन पशनों | अग्रोपाइरम् रिपेस agropyrium depens, और सन्यासियों को दिया जाता है। ____Beauv.-ले० सफेद दूब । श्वेत दूर्वा । ( Coअग्रास aghrāsa-१० सुहरुजुल्अम्मा । अंत्रां- ___uch grass.) तरीय श्लेष्मा-हि । (Mucus)-ई। अग्रोस्टिस एल्बा agrostis alba, Linn. अग्राह्य agrāhya-हिं० वि० [सं.] ग्रहण | --ले० सफेद दूब | श्वेत दूर्वा (Cymodon करनेके अयोग्य, न धारण करने योग्य । अप्रिय। _alba) अग्रहणीय । तुच्छ, निस्सार । ( Unagreea.| अनोस्टिस डाइपराड़ा agrostis diandra, ble.) (२) न लेने लायक (३) त्याज्य । | Rorb -ले० बेनाजोनी-बं० Diandrous छोड़ने लायक। ____bent grass -ई० हैं। गा०। अग्रिम agrima-हि. वि० [सं०] अग्रोस्टिस लिनीएरिस agrostis linea (1) आगे आने वाला। आगामी। (२) _ris, Rowb.- ले० जनेवा, दूर्बाभेद । (Thre. प्रधान । श्रेष्ठ । उत्तम | संज्ञा पु० बड़ा भाई । _ad like bont grass.)इं० हैं। गा० । अग्रिमा agrima-स. स्त्री० लवली वृक्ष, हर | , अनोस्टिस साइनास्युरि आइडीस agrostis. फरी-हिं० । लोणागाछ- बंश. च०। Cynasureoides-ले. दूब, हरी दूब । अग्रिमोनियम् (-या )युपेटोरियम् agrimo अध्य agrya-हिं० वि० [स] ( Best, nium Eupatorium, Lin.-ले० शब _foremost.) प्रधान । श्रेष्ट । संज्ञा पु. बड़ा भाई। तुल बराग़ीस, गाफ़िस-अ०। (Agrimony ) फा०. भा०। अग्लफ़ aghla fa-अ० बेख़तना, खतना न किया अग्रिमोनी .grimony-० गाफ़िस.-अ० । हुआ, जिसका ख़तना न हुश्रा हो। अनसर्कम(See-Ghafis) | साइज़्ड ( Uncircumcised )-इं०। अग्लुकमा aghlukāma-अ० नुजूलुलमाउल अमः agruh-सखो० । अगुला, अगुस्त अहज़र, स्वजरतुलऐन सब्ज़ मोतिया, नेत्र में -फा० | फिगर ( Finger )-०। प्रांगुल हरित जल उतर पाना, हरित मोतिया। यह -०। ( Bone of finger, ortoa.) सब से बुरे प्रकार का मोतिया विन्द है जिसमें नेत्र अप्रेटम् एकेटिकम् agratum-aquaticum ! पिंड कठिन हो जाता है और दृष्टि शक्ति नष्ट हो -ले० बड़ी किश्ती है० गा०। जाती है। यदि प्रारम्भ में इसकी चिकित्सा न अप्रः agruh-सं० सी० । अंगली, अंगुश्त For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ग्लेयापड्यूलिस की जाय तो यह असाध्य होता है और क़ह ( Couching ) के अयोग्य होता है । ग्ल कृमा ( Glaucoma ) - इं० । श्रग्लक्रूना इसी का वीकृत है । श्रग्याएड्यूलिसaglain edulis, 4. gry -ले० । लतेमहवा - नेपा० । सिनकदंग-लेप० । गुमी गारो की पहाड़ी तथा सिलहर में बोलते हैं। इसका फल खाने के कानमें थाता है । मे०मो० । अग्लेयाकुमायं aglaia kumayun -ले० गिरथन, गिदड़ाक, कानक- पं० । 1 या पॉलिटेकियाaglaia polystachya -ले | ग्लेया पॉलिटेकीन aglaia polystachi1- इं० बन्दूरपाला-बं० ई० है० गा० । अग्लेया रॉग्ज़ बयना aglaia Roxburghiana,mug. Dr. 20/- ले० थिंगु। अभ्र aghshara-० श्रवर | श्रग्शियह aghshiyah - ० ( ० च० ) निशा ( ए० च० ) कलाएँ, मिल्लियाँ, परदे - हिं० | मेम्ब्रेन्स ( Membranes ) - इं० । देखो शिशा ( कला ) । श्रशिहू जनीन aghshiyah janina--ऋo ८४ भ्रूणावरण ( Foetal membranes ) श्रग्शिय हू. जुलालियह aghshiyah zulali yah-ऋ० अग्शियह् बल्गमियह ( Mucous membranes ) श्रग्शियह, नुखाईग्रह aghshiyah mukhaaiyah - अ० सौषुम्नावरण ( Spinal membranes ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रग्शयतुल जमीन श्रग्शियह माइयह aghshiyah-maiyah - अ० श्रावी झिल्लियाँ- उ० | जलीयावरण | देखो'गिशाय् माई' | सीरस मेम्ब्रेन्स ( Sorous membranes )-इं० । अशियह मुख तियह aghshiyah-muk• hàtiyah [अ० बलामी किस्तियाँ, लुझाबदार झिल्लियाँ-उ० । श्लैष्मिक कलाएँ हिं० । म्युकस मेम्ब्रेन्स (Mucous membranes)-इं० देखो - गिशा मुखाती । श्रग्यितुद्दिमाग़ aghshiya tuddimagha. - अ० सहायाया - अ० । परदादाय दिमा- का० दिमाग का मिल्लियाँ, दिमास के परड़े-उ० । मस्तिष्कीय कलाएं, मस्तिष्कावरण- हिं०। मेनिन्जीज्ञ (Meninges )-I'U नोट - ( १ ) यह दो मिल्लियाँ हैं जो मस्तिष्क पर लिपटी हुई हैं। इनमें प्रथम अंतरावरण, जो एक पतली झिल्ली है मस्तिष्क के चारों ओर लिपटी है, को उम्मरकीकु ( Piameter ) कहते हैं, और दूसरी वाह्यावरण, जो स्थूल होती और अस्थियों से चिपकी रहती है, उम्मग़लीज़ ( Durameter ) कहलाती हैं । ( २ ) यह उपयुक्त वर्णन यूनानी हकीमों का है, परन्तु अर्वाचीन छेड़नशाश्ध विदों के अन्वे के अनुसार उपर्युक्त दो झिल्लियों के अतिरिक्त एक मिलती और मालूम हुई है जो उन दोनोंके मध्य में स्थित है जिसे हिंदी में मध्यावरण और अरबी में अबूवी तथा अंगरेजी में थरकनॉइड ( Archanoid ) कहते हैं । विशेष विवरण यथा स्थान देखिए | श्रग्शियतुन्नुखाच aghshiyatunmukhaa ० अशियह नुखाइयह । परदाहाय नुखाश्रू, हराम भाज़ के ग़िलाक़ - उ० । सौषुम्नावरण -दि । मस्तिष्क के सहरा सुषुम्नां पर भी तीन झिल्लियाँ हैं । इनके नाम वही हैं जो मस्तिष्क की झिल्लियों के हैं ( Spinal membra nes )। श्रग्शियह वल्गमिय्यह aghshiyah-balgha miyyah अ० श्ररिशयह, जुजालिय ह्, बलामी झिल्लियां, लुनावी झिल्लियां उ० । श्लेघर कला, स्नैहिक कला, एक पतली चमकदार झिल्ली जिसकी सेलें एक चिकनाईदार तरल ( स्नेह ) बनाती हैं जिससे संधियां चिकनी और मुलायम रहती हैं । इससे उनकी गतिमें सरलता होती है। साइनोबियल मेम्ब्रेन्स ( Synovial mem- 'श्रशियतुल् जनीन aghshiyataljanina branes ze ! -- अ० शशियह, जनीन, जनीनके परदे, जनीनपर For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८५ अहसान की तीन झिल्लियाँ - उ० । गर्भ कला, भ्रूणावरण - हिं० । फीटल मेम्ब्रेन्स (Foetal membranes.) डेसिडस ( Decidus. ) - इं० । ये तीन कलाएँ हैं जो जरायुस्थ भ्रूण के चारों थोर लिपटी रहती हैं। इन में से प्रथम को हिंदी में भ्रूण वाह्यावरण, अरबी में प्रत्फ़स चौर कोरिया ( Chorion ) और द्वितीय को क्रमशः भ्रूणान्तरात्ररण, नशीमह तथा एमनियांन ( Amnion ) और तृतीय को क्रमशः भ्रूण मध्या वरण, लफ़ाफ़ी और ऐलनटाइस ( Allantois. ) कहते हैं । अवसान aghsána - अ० ( ० ० ) गुहन ( ए० ० ) शाखाएँ, टहनियाँ । प्राञ्चेज ( Branches- ) - इं० श्रव agha-संज्ञा पुं० [सं० ] (1) दुःख । (२) व्यसन | श्रघनम् aghanam- सं०ली० दधि, दही-हिं० दर्द- वं० । ( कर्ड ( Curd ) - इं० | हला० । अत्रम् agham-स० ली० ( Distross ) कष्ट | अथ० सू० ६, २६, का० ८ । अघडांडे aghadodo-ते० श्रसा, अरूस हिं० (Adhatoda vasica, Ners.) धर्म aghrmit हि० वि० (not hot,cold) शीतल । अविषः aghavishah - सं० पु० सर्प, साँप (A serpent, A snake)। श्रबाटः aghátah--सं॰ पु॰ अपामार्ग ( Achyranthes aspera Linn.) अघाडा, डा aghada, ra-हिं० अपामार्ग, काँचवाली ( Achyranthes aspera, Linn.) i अरन agherana - हिं० संज्ञा प० [ देश ] औ का मोटा थाटा । घोड़ी-ड़ो arhori, o- गु० मार्ग | अघोर aghora-सं० पु० रस शाख के पूर्व श्राचार्य 'शिव' | नृसिंह ( हो ) रसः aghoranrisimh a, ho, rasah सं० पु० सान्निपातिक ज्वर में प्रयुक्त होने वाला रस | देखो - धारनृसिंहरसः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रेश गुटिका ताम्र भस्म ง भा० लौह भस्म २ भा० बङ्ग भस्म ३ भा० श्रभ्रक भस्त ४ भा० तथा स्वर्णमाक्षिक भस्म १ भा०, पारद १ भा० गन्धक १ भा० शु० जैनशिल १ भा० शु० विष २ भा० त्रिकुटा २ भा० अथवा समस्त वस्तु समान भाग ले और विन सब से द्विगुण ले इन्हें चूर्ण कर मछली, भैंसा, और मोर के पित्त तथा चित्रक के रस में पृथक् २ एक २ पहर घोटे, पुनः सरसों बराबर गोलियां बनाए, धूप . में सुखा कर रक्खे, इसको जल के साथ खाने से तेरह प्रकार के निपात, विसूचिका, श्रतिसार त्रिदोष जन्य खांसी, त्रिदोष ज्वर इत्यादि दूर होते हैं । इस पर दी और शीतल जल का पथ्य देना योग्य है । अत्रोर-मंत्रः aghora-mantrah-सं० पुं० ॐ यावोरेभ्यश्च घोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्यश्च । सर्वतः सर्वसर्वेभ्यो नमोऽस्तु रुद्र रूपेभ्यः ॥ 'इस तंत्र-से रस क्रिया की सिद्धि होती है । भै० र० श्रोत्रो रसः aghorastrorasah सं० पुं० शुद्ध पारा, शु० गंधक, शु० बच्छनाग, शु० हरताल, शु० संखिया, सोहागा, तांबा ( भस्म ) और शु० नीलाथोथा इन्हें समान भाग लें खरल में बारीक घोट रक्खें । मात्रा - १ रत्ती । गुण-यह सम्पूर्ण सन्निपातों को दूर करता है । घोरे गुटिका aghoreshagutiká-स ं० स्त्री० मुरड लोह ( बीड़ लोह ) की कड़ाही में ऊपर और नीचे धान की भूसी रख कर बीच में पारा रक्खें। फिर जामुन के रस से उस कड़ाही को पूर्ण कर १ रात तक रहने दें। प्रातःकाल जामुन रस अलग करके दिन में कड़ाही को सुखाकर फिर सायंकाल पूर्वोक्त विधि से पारे को रख दें। फिर इसी तरह ३ रात तक उक्त नियम से पारे में भावना दें। फिर समान भाग वङ्ग मिलाकर कजली बनाएँ । फिर इसका १ गोला बनाकर धतूर के फल के भीतर रख पुटपाक करें, इसी तरह ७ पुटपाक करें। फिर उस गोले पर धतूर के गाढ़े रसका लेप चढ़ा कर भङ्ग के लुगदी में बन्द करके भङ्ग के रसमें दोला यंत्र में पकाएँ ! For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অর্থ इसी तरह अफीम का लेप चढ़ा कर पोस्ता के प्रतिः ankatih-स० पु०, (१)(wind) पानी में दोला यंत्र में पकाएँ, फिर तीसरी बार वायु। त्रि०(२) Fire अग्नि । वि०। मच में पकाएँ तो यह गुटिका सिद्ध होती है। अङ्कन: ankanah-स० पु० अंकोल, अंकोटवृक्ष, इसे केले के फल, गुड़ अथवा किसी मीठी वस्तु डेरा। प्राङ्कोड गाछ-बं०। (Alangium के भीतर रख कर मुह में रक्खें, जब तक यह decapetalim, Lam.) वै० श०। मुंह के अन्दर रहेगी वीर्य स्खलित न होगा। प्रङ्कनम् ankanam-स. क्ली० (Mark) इसके प्रभाव से १०० स्त्रियों से भोग किया जा सकता है । र० यो० सा०।। भङ्कना ankana-हिं० लिखना, बापना, मोलभाव अघोष aghosha-हिं० वि० [सं०] (1) शब्द करना, चिह्न करना । रहित । नीरव । (२) अल्पध्वनियुक। अङ्कपादम् ankapādam-स. क्लो०, (१) अनाaghnā सं० खा० गाय,गऊ गो, गह-बं०।। __ पादचिह्न, पैर का निशान ( Footprint.)। अघ्या aghnya-स. स्त्रो. गवि, गाय । (२) छागैणायवयव विशेष | वा० सू० १६ (Cow )-10। गाभी-40। श्र०॥ अघ्रान aghrana-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० माघ्राण] अङ्कपाली ankapali ) स० स्रो०(१) पाघ्राण करना । गंध ग्रहण । महंक लेने की Erfa: ankapálih ( Midwife, a क्रिया। सूधने का कार्य। nurse ) धाय, भातृ, दाई । (२ ) वेदिकाख्य अत्रानना aghrānana हिं० क्रि० स० [सं० गन्ध द्रव्य विशेष, यथा-'धात्री वेदिकयोरपि । पाघ्राणे ] साघ्राण करना । महंक लेना । मेलं चतुष्क । ( ३ ) Embracing, an embracty आलिङ्गन । मे। सूचना । प्रय aghreya-हिं० वि० [सं०] न सूधने । अङ्कपालिका anka-pālikā ) हि. स्त्री० अङ्कपाली anka pali संज्ञा [सं०] योग्य। Midwife धातृ । देखो-अंकपाली। of anka-fogo 1 () (Limb of अङ्क: ankah-स. पु. the body ) अङ्कय aanaka ba-अ० ('A kind of शरीरावयव, अंग। कोल-वं. ग.नि. ___fish) मछली भेद । एक प्रकारकी मछली है। व. १ वा. चि. ७ ० (२)चित, अङ्कबूत् aankabita-० (A spider) मकड़ी, नाभि । शेर मगस-फा । निशान, छाप आँक, रेखा (Mark, Spot, अङ्कवृतिय्यह, aanka butiyyah-अ० मकड़ी a line.) (३) Sin पाप । Pain दुःख । मे• कद्वि के जाले का सा परदा । नेत्र का चतुर्थ पटल | देखो-तबकहे अकबूतिय्यह । कम् । (.) number आँकड़ा, अदद, संकेत, | अङ्कमाल ankamala-हिं० पु. संशा [सं०] संख्या का चिह, जैसे-1, २, ३, ४, ५ आदि।। प्रालिंगन, भेंट, परिरभण, गले लगना । (५)शरीर, देह, अंग। अङ्कमालिका ankamālika हि० स्त्री० संज्ञा भडास Ankadasa-ते. ( Leea sty. [सं.] phylea) ( L. Sambucina, willd. (.) छोटा हार, छोटी माला । Staphylea Indica ) कुकुर जिला, (२) आलिंगन, भेंट । __ कुकुर जिला । मे० मे। अङ्करा ankara-हिं० प.. संज्ञा [ सं. माड़ो ankaxi-हिं० स्त्री० संज्ञा [सं० अंकुर] () एक खर वा कुधान्य जो गेहूं अंकुर बाँखुमा, टेढ़ी नोक] (1) कैंटिया, के पौधों के बीच जमता है। इसे काट कर बैलों हुक । (२) बेल, लता। को खिजाते हैं और इसका साग भी खाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्करास इसका दाना वा बीज काला, चिपटा, छोटी मूग | काडिश-वित्त लु । मीठा इन्द्रयब, इन्द्रजौ । के बराबर होता है, और प्रायः गेहूं के साथ मिल Wrightia tinctoria, R.Br. (seed जाता है । इसे गरीब लोग खाते भी हैं । खेसारी of-)। स० फा० इ०। इसी का एक रूपान्तर है। अँकरा। अङ्कुडु-चेट्ट amkudu-chettu-ते०ए०५. अङ्करास ( ankarāsa )-हिं० प संज्ञा । अङ्गडु-चेलु-amkudu-chetlu-ते०व०व० देखो-प्रकरास । अंकरास । अकुडु-मासु-amkudu-manu-ते०ए०व० अँकरी (ankari ) हिं० स्रो० संज्ञा [अंकरा अङ्कडु-माबुलु-ankudu-manulu-तेय.व. ) का प्रसार्थक प्रयोग ] A kind of vetch कुड़ावृष, कुटजवृक्ष, कुरैया । स० फा०ई० । ( Vicia Sativa) अकरी, रवाड़ी, राड़ी। Holarrhena anti-dysenterica, अङ्गलिगे (ankaliga )-कना० अंकोल, ढेरा R. BR. ( Tree of-) (Alangium decape talum, Lam.)| अङ्क-वित्तु amkudu-vittu-ते. ए.व. फ.१०२ भा०। | अडु-वित्तनमुलु-amkdu-vittanamulu अङ्कलेख्य ankalekhyah ) स., पु, ते ५०व०। अङ्कलोड्य ankalodya चिञ्चोड़ (चिञ्चो | अङ्कड वित्त -amkudu-vittult:-ते. टक) वृक्ष-हिं० चेंचकोमूल-बं० । (Marsilea कडुमा इन्द्रजौ, इन्द्रयव तिक-हिं । Holarrdentala.) वै० श० । देखो-अनलोड्यः ।। hena anti-dysenterica, R. BR. अङ्कशः (ankshah )-स. पु., क्रोस्थ | __seeds of-)। सः फा०६०। बालक । कोलेर छेले-बं०।। अङ्करः ankurah सं० पु. । (A plaअङ्का,-की (anki, nki)-स० स्त्री. मृदङ्ग अङ्कुरम् ankuram सं. क्ली० ntlet, a विशेष । शब्द । २० seed-bud) अङ्काना (ankānā )-हिं०, परखना, अँचवाना, अंकुर, अँखुत्रा, गुसा, गाभ, नवोद्भिद, प्ररोह, दाम कुतवाना ( To cause to value, फुनगी। वा० उ० ३६ अ०। पोंक-4। to examine 'as cloth, to app. संस्कृत पर्या-अभिनवोद्भिद् (अमे) उनिदः, rove of ) पुरोमः, अकुरः (रा) रोहः (हे)। (२) प्रकारक तैलम् ankāraka-tailam) स० A shoot or sprout, a germ, a, अङ्करा तैलम् ankāra-tailam blade. डाभ, कला, कनखा, कोपल, प्रांत । देखो प्रकार तैलम् । (३) मुकुल, कली ( Bud) । (५) अङ्काय ankava-हिं. पु., निरख, दर, माल (sharp) नोक 1 swelling अर्बुद, शोथ । का ठहराव ( Valuation) (५) villi अंकुर (अपरा के) (६) अङ्कित ankita चिह्न किया हुआ, मुद्रित, चिह्नित Blood रुधिर, रक, खून । (.) hair (Marked, examined, valued, रोनाँ, लोम । (८) water (Aqua) _paged.)। जल, पानी । मॉसके बहुत छोटे लाल लाल दाने अडु ankudu-ते. कुडा, कुटज, कुरैया जो घाव भरते समय उत्पन्न होते हैं । मांस के Holarrhena anti-dysenterica, छोटे दाने । अंगूर | भराव । (6) फल Fruit R.Br.)स० फा०ई०।। सर्वत्र मे० रत्रिक । (१०) Tumour. अङ्कड़ कर ankudu-karra-. गम्बीर | अङ्कुरमाना ankuraana-उगन जमना रह मला. ( Uncaria gambier, Road. (germinate, sprout) . wood of-) सफा००। अङ्करकः ankurakah-स० पु. पक्षिवास अङ्कड कोडिश ankudu-kodisha-ते० स्थान, घोंसला, खाना (a nest) वैश। For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E श्रङ्ख मात्रकम् अकोट गुटिका अङ्कर मात्रकम् ankura-mātrakam श्रङ्कशिन् ankushin-स० त्रि० ( Having o Falo (rudimentary) a hook or goad. ) अङ्कुरना an karana ) हिं० कि० अ० अङ्कुश्त ankushta-फा० कोयला । असा ऑफ़िसिनेलिस anchusa officinअकराना ankurānā ) [सं० अर] अकराना ankurala )[स.० श्रअर alis ले. गावजुवान । ___Germinate, sprout उगना, जमना, रुह । अङ्कसा टिकटोरिया anehusa tinctoria, अङ्कर-विशिष्ट-आवरण ankura-vishista. - Desv.-ले० एक पौधा है जिसका तैल औषधि áv. raņa कार्य में पाता है । मेम। अङ्करित ankuriti-हिं० वि०, अंकुर सहित | अङ्गा,- ankura--kum-सं० पु. अङ्क र फुनगी वाला ( Having sprouts ) ___asprout, a germin हे०च०४ का० । अँखुवाया हुना। उगा हुअा। जन्दा हुआ | अङ्क लंग ankulang-ता० अश्वगंध, असगंध, निकलाहुअा। जिसमें अंकुर होगया हो । (२) ( Withania somnifera, Dunul .) . उत्पन्न, उगा हुश्रा ( arisen) अङ्कलिया :nkuliya ). अङ्करित यौवना ankurita-youvana अङ्क लो ankuli -गु० ढेरा वृक्ष । . हिं० वि० [सं०] वह स्त्री जिसके यौवनावस्था अषः ankushah-सं० पु० अङ्कुश । के कुच आदि चिह निकल श्राए हों। उभड़ती gitar Tat Unraria Gambier, हई युवती । स्त्री जिसकी उभइती जवानी हो। Roub.- ले० खदिर कत्था वृक्ष, खैर वृक्ष, चीनी अङ्करी ankuri हिं० स्त्री० सज्ञा [हिं० कथा Gambier-इं० मे० मे । अंकुर+ई ] चने की भिगोई हुई धुधनी। श्रङ्करिया गैम्बार ( Uncarian Gambir, अङ्कुल ankula ) हिं० पु० सज्ञा [सं० ___Roxb. ( Wood of-) अंकुडुकर्र-ते० । अङ्कले ankule ) अकोल ] alangium | अकोएड ankaed ) सं० डेरा, अंकोल dscape talum, Lam. अकोल, ढेरा! | अङ्कोएल ankoe) ) गम्भीरी-मल० । स. अशः ankushah-स० ० (१) फा० ई० alangium decape talum IHamular process | पं० शा० ह० इ० मे० मे। श० र० १ भ० 1 (२) ऋणि सं। डाइश वं० अङ्कोटः, ठ: ankotah, thah-सं० पु. हला० श० स०, अांकुश, अंकुश, A hook अंकोल, अंकोटक वृक्ष, ढेरा (Alangiuin ongoad आकड़ी, लोहे का एक छोटा शन्न । _decapetalum, Linu. ) रा०मा० (सु० वादा काँटा जिससे हाथी चलाया जाता है । मि० अ० ३६) भा० पू०१ भा०, गजबार्ग। गु०व०। अशकास्थि aikushasthi-स. स्त्री० श्रङ्कोटकः ankotakah-स० पु. ढेरा, (Hamate ) अकोल । प्रांकोड़गाछ, धला आँकोंड़-बं० । प्रशदन्ता ankusha-danta-हिं० वि० (alangium Decape talum) भा० । [सं० अंकुरा दन्त ] हाथी का एक भेद । रा०व०६ । मद० व०१. क. च० द. इसका एक दाँत सीधा और दूसरा पृथ्वी की अोर अन्सा-चि०। भुका रहता है। यह और हाथियों से बलवान | अङ्कोट गुटिका ankota-gutika-सं० स्त्री० और क्रोधी होता है तथा झुण्ड में नहीं रहता। ढेरे की जड़ ४ तो०, पाठा की जड़ ४ इसे गुण्डा भी कहते हैं। तो० दारुहल्दी ४ तो इन्हें चूर्ण कर अकशदुर्धर ankusha-durdhara-हिं० चावल के जल से घोटकर १-१ तो० की गोलियाँ पं० संज्ञा [सं०] मतवाला हाथी । मत्तहाथी । वनाकर छाया में शक कर रक्खे । इसे चावल के For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोट वटकः श्रीलं धोवन से डपयोग करे तो वात पित्त कफ और द्वन्द्वज सन्निपात तथा प्रत्येक प्रकार के अतिसारों को दूर करता है। अकोट वटक: ankota-vatakah-सं० पु. दारु हल्दी, रे की जड़, पारा की जड़ (निर्विषी मूल ), कूड़ा की छाल, स्मल का गोंद ( मोचरस ) धातकी [धौ पुष्प ] लोध, अनार का छिलका प्रत्येक १-५ तो० लें, इन्हें चावलों के पानी में पीस कल्क कर शहद के साथ बड़े बनाएँ पुनः इसे प्रभात में सेवन करें तो हर प्रकार के अतिसार दूर हों। चक्र० द. अतिसार० चि०, बङ्ग. से. स. अति. सा. चि०। अङ्कोढ़ ankodha-हिं०, ढेरा, अंकोल ( Ala ngium Decapetalum, Lom.) श्रङ्कोरना ankorana-अकोरना, घूस लेना, भूजना। अकोल ankola-हिं० पु. प्रकोला, अङ्कल, अकोलः ankolah-सं० पु. काला अकोला टेरा, ढेरा, थैल, अङ्कल-हिं०, द० । संस्कृत पर्याय-"अङ्कोटो दीर्घकीलः स्यादकोलश्च निकोचकः" । अकोटः, दीर्घकीलः, अकोलः निकोचकः [अ०] निकोटकः, [भ], अकोटकः [ भा०, रा०नि० व०६ ] अकोलकः बोधः, नेदिष्टः दीर्घकीलकः (ज) अकोठः, रामठः (र) कटोरः, रेची, गूढपत्रः, गुप्तस्नेहः,पीतसारः, मदनः, गूढ़वल्लिका, पीतः, ताम्रफलः, गणाढ्यकः. को लकः, लम्बकर्णः, गन्धपुप्पः, रोचनः,विशालतैल, गर्भः,वषघ्नः,घलन्तः, कोरः, वामकः और लम्बकर्णकः, लम्बपर्णः। आँकोण, धलाँकोण, धला कुरा, आँकोड़ गाछ, अकरकाटा, बाधाङ्कर, बाघअङ्करा-बं०। एलेजियम डेकापेटेलम् Alangium (licape talum,Lam,एले०लेमाकिमाई A. Lamarck ii, Thouites. एले० टोमेन्टोसम् A.Tomsntosum-ले० सेज लोह इ एलेजियम Saga-leaved alangium इं० । अजिभि मरम्, अलङ्गी ता० । उडुग, ( उडुगु) चेडु, अकोलम् चेछु उडीके-ते। अयङ्गोलम. अजिजि-मरम. चेम्मरम्, अकोलम्-मल० । अङ्कोले, कोपोटा, अनीसरूलीमरा-कना० । अङ्गोल, अगोल-सिं० | ता० शो०-विड्या, तो शौविङ्-बर० । अकोलीवृक्ष, अाकुल-म० । अकोल्या, आँक्रा-गु० । डेला-सन्ता० । अकोल-कोल | अंकुला-डोलूक -उडि० । रुक अङ्गुला-सिंहली। कॉर्नेसीई या अङ्कोट वर्ग N. O. Cornacee. उत्पत्ति स्थान-इसका पेड़ हिमालय की घाटी से गंगा तक, संयुक्त प्रान्त, दक्षिण अवध व विहार, बंगाल प्रभृति प्रान्तों के बड़े और छोटे जंगलों में पहाड़ी जमीन पर बहुतायत से पैदा होता है । राजपूताने में भी पाया जाता है । उष्णकटिवन्ध में स्थित दक्षिण भारतवर्ष और बर्मा के वनों और कभी कभी बगीचों में पाया जाता है। माघ से चैत्र तक अर्थात् प्रारम्भिक ग्रीष्मकाल में यह पेड़ फूलता फलता है । पुष्पितावस्था में वृक्ष पत्रशून्य रहता है । वैशाख से सावन तक फल लगते और पकते रहते हैं। . इतिहास-चूंकि यह भारतीय पैदावार है इसलिए इसका वर्णन सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रंथों में पाया जाता है। यूनानी चिकित्सा ग्रंथों के लेखकों में पीछे के लोगों ने अपनी पुस्तकों में इसका वर्णन किया है। वानस्पतिकवर्णन-यह एक जंगली वृक्ष है जो वनों में तथा शुष्क व उच्च भूमि पर अधिकतया उत्पन्न होता है। ऊंचाई भिन्न २ साधारणतः लघु, प्रारम्भ में कंटक रहित, पुराने अथवा युवा वृत के प्रकाण्ड से निकलती हुई आरम्भिक शाखाएँ भी कांटा रहित होती हैं। उद्भिद विद्यानुसार अकोट कंटक को कंटक नहीं कहते किन्तु तयुक्र शाखाओं को तीक्ष्णान शाखा कहते हैं । पत्र-एकान्तरीय अर्थात् विषमवर्ती, अण्डाकार व नुमा अथवा तंग अण्डाकार ३-५ इंच लम्बा और १-१॥ इंच चौड़ा, चिकना डंठल युक्त होता है । डंठल-लघु, अत्यन्त सूक्ष्म रोम, युक्त, लगभग चौथाई इंच लम्बा होता है । पुष्प For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोल मध्यवर्ती, सूक्ष्म, सुगन्ध युक, पीताभायुक, श्वेत साधारणतः कदीय, बृन्त युक्र । पुष्पवृन्त-लघु, सामान्य । पुष्प-वाह-कोष (Calys) ऊर्ध्वगामेय, दंष्ट्राकार, लघु, स्थायी । पुष्पाभ्यन्तर-कोष ( Corolla ) वहुदलीय । पुष्पदल-अर्थात् पंखड़ियां ६ से १०, अण्डाकार, न्यूनाधिक उलटी हुई। परागकेशर-पुष्पदल से द्विगुण । परागतन्तु का निम्न भाग लोमरा । पराग कोष-अण्डाकार । गर्भकेशर-सामान्यतः परागतन्तु से अधिक लम्बा होता है। फल-जगभग छोटे रीडा अथवा जंगली बेर के बराबर, गोलाकार चिकना, झुका हुआ, अपक्क दशा में नीलाहट लिए और कडु वा तथा पकने पर रक वर्णयुक्त (इन पर स्याही झलकती है) जिसके शिरे पर -पुष्प-वाह्य कोष लगा होता है, एक बीज युक्त सूक्ष्मतः ग्राह्य तथा मधुर स्वाद युक्र, गदराहट की हालत में स्वादुम्ल होता है। बोज-गोलाकार ऊपर नीचे कुछ चपटा कोर और धूसर वर्ण मय होता है । इसकी जड़ वजनी, लकड़ो मजबूत हलकी पीलापन लिए हुए, बीच का हिस्सा वादामी रंग का होता है । जिससे सुगन्धि श्राती है। परीक्षा-इसे तथा छाल को परलोराइड आन श्रायन घोल का स्पर्श कराने से ये मटमैले हरितवर्ण में परिवर्तित होजाते हैं । इसकी छाल आध इंच तक मोटी, खाकी रंग की जिसके ऊपर छोटे २ कांटे से मालूम होते हैं । स्वादतिक और गन्ध अधिकतर मतली कारक ( उस्नेश जनक ) होती है। नोट-देशी वैद्य तथा औषध विक्रेता सफेद तथा काले नाम से इसके दो भेद बतलाते हैं। इनमें श्वेत प्रकार वही है जिसका ऊपर वर्णन किया गया है। परन्तु डाक्टर मादनशरीफ महोदय के कथनानुसार काला उसका भेद नहीं, जैसा कि सर्व साधारण का विचार है, वरन् यह उसी की एक निकटस्थ जाति अर्थात् एलेञ्जियम हेक्सापेटेलम् Alangium Hexape talum of Lanlarek है । वे इसे अकोल का काला भेद इस कारण बतलाते हैं कि यह उससे रंग रूप में बहुत कुछ समानता रखता है। उसके फूल का रंग बैगनी और छाल गम्भीर धूसर वर्ण की होती है। इसकी छाल परिवर्तक तथा विषघ्न प्रभाव में किसी-किसी स्थान में उत्तम ख़याल की जाती है और इसमें कभी कभी वान्ति कारक गुण होने का निश्चय किया जाता है। खो--कालाअकोला । प्रयोगांश-मूल, मूलत्वचा, बीज, फल, पत्र, पुष्प और तैल । रसायनिक संगठन-इस की जड़ में एक अत्यन्त तिक, रवा रहित अङ्कोटीन या एलेन्जीन (Alangin ) नामक क्षारीय सत्व वर्तमान होता है जो हलाहल (Alcohol ), ईथर क्रौरोफ़ार्म और एसेटिक ईथर में तो विलेय होता है परन्तु जल में अविलेय । गुणधर्म व प्रयोग-आयुर्वेदिक मतानुसारअकोल चरपरा, तीक्ष्ण, स्निग्ध, उष्ण, कषैला, हलका तथा रेचक है और कृमि, शूल, श्राम, सूजन श्लेष्मा (कहीं कहीं 'ग्रह' पाउ है) और विष नाशक है । भा० मद. २०१। विसर्प, कफ, पित्त, रक्र, मूसा तथा सर्पविष को दूर करता है । भा० ढेरा-कसैला, कडुवा, पारे को शुद्ध करने वाला, हलका, चरपरा, किञ्चित् सर (दस्तावर), स्निग्ध, तीक्ष्ण, गरम और रूक्ष है। (नि. रा.) विसर्प, कफ, पित्त, रुधिर-विकार, तथा सांप और चूहे का विष दूर करता है। अकोल का फल-शीतल,स्वादिष्ट, कफनाशक, पुष्टि कारक, भारी, बलकारक, रेचक है और वात, पित्त, दाह, क्षय और रुधिर विकार को नाश करता है मद० व. १ भा०। विप, लूना (मकड़ो) श्रादि दोष नाशक और वात कफ नाशक तथा शुद्धि करने वाला है। रा०नि०व० है । च० द०० सा० चि०। अङ्कोल का रस -वान्ति जनक है तथा विष. विकार, कफ, वात-शूल, कृमि, सूजन, ग्रहपीड़ा, श्रामपित्त, रुधिर विकार, विसर्प, कुत्ते का विष मूसे का विष, विलाव का विष, कटिशूल, अतिसार और पिशाच पोड़ा को दूर करने काला है। (वृ०नि० २०) For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोल अकोल अकोल के बीज--शीतल, धातुवर्द्धक, स्वादिष्ट मन्दाग्नि कारक, भारी, रस और पाक में मधुर, बलकारक, कफ कारी, सारक, स्निग्ध, वृष्य ( वीर्य बर्द्धक) तथा दाह, वात, पित्त, क्षय, रक विकार, कफ, पित्त और विसर्प को नाश करने वाले हैं । नि. रा०) अङ्कोल का अर्क-गूल, प्राम, सूजन, अङ्गग्रह और विष को नष्ट करता है। अङ्काल तैल-इसको पूर्व वैद्य एवं महर्पियों ने वात कफ नाशक और मालिश करने से चर्मरोग नाश करने वाला कहा है (वै० निघ०) अङ्कोट के वैद्यकीय प्रयोग-(१) दन्तकाष्टगत-विष में अकोटमूल-दन्तकाष्ट विषयुक्त होने पर जिह्वा एवं दांत पर भैल जम जाता है और श्रोष्ट सूज जाता है । इसके प्रतीकारार्थ अङ्कोट की जड़ की छाल का चूर्ण प्रस्तुत कर शहद के साथ शोथ स्थल पर धीरे धीरे रगड़ें वा प्रलेप करें । ( कल्प० । अ०) (२) विषैले अञ्जन से नेत्रों में अन्धता उत्पन्न होने पर अकोल के फूलों का अञ्जन नेत्रों में लगाने से अन्धता दूर होती है। (कल्प० १० सुश्रु०) अकोल की जड़ की छाल बकरी के मूत्रमें पीस कर पीने व लेप करने से चूहे का विष नष्ट होता है । ( वा० उ० ३८ ० )। इसकी जड़ की छाल गो दुग्ध के साथ पीस कर पीने से कुत्ते का विष दूर होता है। (भाव० म० खं०४ भा०) (१) अकोट की जड़ की छाल का क्वाथ प्रस्तुत कर, इसका धन सत्व तैयार कर गो घृत के साथ सेवन करें। इसके सेवन से पूर्व रोगी के शरीरको तिल तैल मर्दित कर स्वेदित करलें, यह गरदोष नाशक है (विष. चि.) नोट-उपविष सेवन जन्य उपद्रव को गरविष | कहते हैं। इसकी मूल त्वचा का चूर्ण १ तो. चावलों | के साथ पीस कर सेवन करने से अतिसार और | संग्रहणी में लाभ होता है। (च. द० अतिसा.चि.)। नोट--यह मात्रा अधुना प्रयोजनीय नहीं। यतव्य चरक में अंकोटके फलका गुण इस प्रकार लिखा है- "श्लेष्मलं गुरु विटंभि चाङ्कोटाफलमग्निजित्" ( स० २१ अ०) । चरकोक्त विष चिकित्सा के अमृत घृत करुक “पाठाकोटाश्वगन्धा" पा3 में अङ्कोट का व्यवहार दिखाई देता है। इससे भिन्न और समस्त विष चिकित्सा में अङ्कोट शब्द नहीं पाया है। सुत ने कल्प स्थान के छठवें अध्याय में चूहे तथा कुक्कुर आदि के विष की चिकित्सा लिखी है। सुअत के श्वविष चिकित्सा में अकोट ब्यवहृत नहीं हुआ है, किन्तु मूषिक विष चिकित्सा में चूहा काटे हुए रोगी को वमन कराने के लिए अङ्कोट का प्रयोग किया गया है-'छद्दनं जालिनी काथैः शुकाख्याङ्कोट योरपि" क०६० अकोट का एक नाम वामक है । चरक के विमान स्थान के ८ वें अध्याय एवं सुश्रु त के सूत्र स्थान के ३९ वें अध्याय में विरेचक तथा बामक द्रव्यों की तालिका है। उस तालिका में अकोट का नाम नहीं है। चरक और सुश्रुतोक्त कुष्ठ, अतिसार एवं ग्रहणी की चिकित्सा में अंकोट का नामोल्लेख नहीं है। सुश्रुत के अश्मरी चिकित्साध्याय में अंकोट के फल का उल्लेख है । "पिचुकाङ्कोल कतक शाकैन्दीवरजैः फलैः । चूर्णितैः सगुई तोयं शर्करानाशनं पिवेत्" (चि०१ अ०)। निघंटुकार अङ्कोट को फलको "गुप्तस्नेह" बोलते हैं। .. चरक के सूत्रस्थान के १३ वें अध्याय एवं सुश्रु त चिकित्सा स्थान के ३१ वें अध्याय में उक्त स्थावर स्नेह योनि फलों में अकोट का उल्लेख नहीं है । निघंटुकार अकोटका एक नाम "रेची" लिखते हैं, किन्तु उत्वण अक्कोटको “संग्राही" कहते हैं । चक्रदत्त व वंगसेन दोनों ने ही अतिसार की चिकित्सा में अंकोट को संग्राही रूप से व्यवहार किया है । वास्तव में अकोट रेची है या संग्राही इसकी परीक्षा करनी आवश्यक है। ... अङ्कोलके सम्बन्धमें यूनानी मतप्रकृति-यूनानी ग्रन्थकार इसे पहिली कक्षा में For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रद्धाल ६२ अदाल [किसी किसी के मत से दूसरी कक्षा में ] गरम तर मानते हैं। हानिकर्ता-श्लेष्मा अधिक उत्पन्न करता है। दर्पघ्न-काली मिर्च और शीतल व रूक्ष वस्तुएँ प्रतिनिधि-किसी किसी रोग में कुकरौंधा है। मात्रा-४ या ६ मा० तक । विशेष प्रभावविषघ्न व शोथलय कर्ता, हृदय को बलप्रद, करता, कफ और वायु के विकारों को हरण करता, उदर की पीड़ा को हरण कृमिघ्न, और इसकी जड़ के छाल का चूर्ण । मा० काली मिर्च के साथ बवासीर को बहुत गुण कारक है। __ इसके अत्यधिक उपयोग से श्रामाशय निर्वल होजाता है, और सिर में झनझनाहट के साथ मीठा दर्द शुरू हो जाया करता है । गुदा स्थान में जलन मालूम होती है । नेत्र पीले पड़ जाते हैं निद्रा कम पाती है। एवं मस्तिष्क कार्य करने की इच्छा अधिक बढ़ जाती है। ऐसी अवस्था होने पर शंखपुष्पी चूर्ण ४ मा० दुग्ध पावभर में उबालकर ठंडा करके स्वाद के अनुसार मिश्री मिलाकर पिलाने से तत्काल समस्त विकार नष्ट होते हैं। जड़ उष्ण और चरपरी होती है । फल ठंडा पौष्टिक शरीर को मोटा करने वाला होता है। यह श्राहार कार्य में श्राता है। किन्तु अधिक खाने से गरमी मालम होती है। अङ्कोल के विविध अंगों के अनेक उत्तम उपयोग:अकोल को जड़ तथा छाल-देशी चिकित्सा में इसकी जड़ की छाल रेचक तथा कृमिघ्न प्रभाव के लिए उपयोग में पाती है। वम्बई में संधिवात की पीड़ा को शमन करने के लिए इसके | पत्तियों का पुलटिस व्यवहार में प्राता है। (डाक्टर सखाराम अर्जुन) मि. मोहीदीन शरीफ़ के वर्णनानुसार उक्त श्रीषधि कुछ एक गुप्त योगों का, जो वीर्य रोग स्वचारोग तथा कुष्टरोग की चिकित्सा में अर्काट तथा वैलौर प्रभृति स्थानों में अत्यधिक प्रचार | पा चुके हैं, एक प्रधान अवयव है। और वह | स्वानुभव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मैंने | उक्त छाल को कुछ कुष्ट रोगियों को प्रयोग कराया और अनेक दशानों में मैंने इसे २॥ रत्ती की इतनी कम मात्रा में भी वामक प्रभाव युक्त पाया। अधिक मात्रा (अर्थात् २५ रत्ती) में उपयोग में लाने पर यह योग्य और वेज़रर ( अहानिकर ) वामक तथा थोड़ी मात्रा में उस्लेश कारक और ज्वरघ्न औषध सिद्ध हुआ। इससे भी न्यून मात्रा में यह भारतवर्ष की सर्वोत्तम परिवर्तक, बलप्रद औषधियों में से है। इसकी त्वचा अत्यन्त तित है. अतः त्वचा रोगों में इसकी प्रसिद्धि बिना श्राधार के नहीं । यदि इसको पर्याप्त काल तक लगातार उपयोग में लाया जाय तो मदार की अपेवा उन पर इसका प्रभाव अधिक होता है । वे पुनः वर्णन करते हैं कि यह इपिकेकाना ( Ipecacuanha) की एक उत्तम प्रति. निधि है और प्रवाहिका के अतिरिक्त उन समस्त रोगों में लाभदायक सिद्ध होता है, जिनमें कि इपिकेक्काना व्यवहृत है। ज्वरधन तथा स्वेद जनक होने के कारण ज्यर . नष्ट करने में यह उपयोगी पाया गया है। उपक्रश वारक, मूत्र जनक और ज्वरध्न प्रभाव हेतु इसकी जड़ की छाल की मात्रा ३ से ५ रत्ती तक और परिवर्तक रूप से १ से २॥ रत्ती तक है । यह कुष्ट एवं उपदंश में प्रयुद्ध होती है। देशी लोग इसे विशेषतः विषैले जानवरों के काटने में विषघ्न खयाल करते हैं। श्रीषधि-निर्माण-अङ्कोलचूर्ण-जड़ की छाल साए में सुखाकर चूण कर बारीक छान लें और बोतल में सुरक्षित रक्खें। मात्रा-वमनहेतु २५ रत्ती, (५० ग्रेन)। ( मो० श०) इसकी जड़ की छाल चावल के पानी में घोट कर धोड़ी से शहद के साथ अतिसार में बरती जाती है । प्रामातिसार और रक्रातिसार में मूल स्वचा का चूर्ण ५ रत्ती दिन में २-३ बार सेवन कराना चाहिए। यह नित्य ज्वरों में भी उपयोगी है। ज्वर की अवस्था में २॥से ५ रत्ती देने से स्वेद पाकर For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अझोल ६३ प्रहाल ज्वर वेग कम हो जाता है तथा तृपा, दाह आदि ज्वर के उपद्रव शमन होते हैं। इसकी जड़ का शीत कपाय तथा क्वाथ धी के साथ श्वान विप नाशक है। यह उदर शूल, कृमि, प्रदाह और सर्पदंश (२॥ मा० छिलके । का चूर्ण) प्रभृति विषों को शमन करने वाला है। इसकी मूल स्वचा द्वारा निर्मित तेल का संधिवात में वाह्योपयोग होता है। कम मात्रा में ! यह रसायनिक गुणों को करता है। __ मसूहे और अोठ सूजने पर मधु के साथ प्रलेप करने अथवा इसके काढ़े से कुल्ली करने से लाभ होता है एवं मसूदों से खून बहना बन्द : होता है। यह विसूचिका नाशक है तथा कूकर ! खाँसी की प्रथमावस्था में प्रयोग करने से लाभ करता है। जलोदर में जड़ के चूर्ण की १॥ से ३ मा० की मात्रा देने से दस्त होकर रोग दूर होता है। अजीण नष्ट होता है। ___ दई और शोथ पर जड़ को पीसकर लेप करने से फायदा होता है। जड़ के छिलके का चूर्ण सेवन करने से दस्त होकर पेट के कीड़े दूर हो जाते हैं। छिलके का चूर्ण १ माशा, काली मिर्च का चूर्ण १ मा० दोनों को मिलाकर सेवन हरने से बवापीर में लाभ होता है । इसके छिलके को पीस ! कर लेप करने में त्वचा के रोग दूर होते हैं। जड़ के छिलके का चूर्ण जायफल, जावित्री लोंग, सम भाग के चूर्ण को ५ माशे की मात्रा में उपयोग कराने से कोढ़ का बढ़ना रुक जाता है। ___ जड़ के छिलके के चूर्ण को असे के कादे के साथ सेवन करने से राजयक्ष्मा के लिए गुणदायी है। - यदि छिलका और वीज समभाग लेकर कूट पीस कर गोली चना प्रमाण बना कर एक मा० से दो मा० तक सेवन कराएँ तो वमन व रेचन सरलतापूर्वक लाता है और भामाशय की सूजन तथा बदन के नीचे के भागों के दर्द और जलोदर में बहुत मुफीद है। अंतर्जाल का चूर्ण बनाकर शहद के साथ खाकर ऊपर से मिश्री मिला हुश्रा दुग्धपान करने से प्रमेह दूर हो जाता है और कटिशूल, शिरशूल एवं शारीरिक पीड़ा दूर होती है-तथा पौष्टिक है। अंकोल की जड़ १ तो०, कूट ३ मा० पीपल ३ माशा, बहेड़ा ६माशा मिलाकर इसका काढ़ा बनाएँ, इसे ढा होने पर मिश्री मिला कर पिलाने से इन्फ्ल्युएआ[सक्रामक प्रतिश्याय] में अधिक लाभ होता है। प्रत्येक भांति के विष से जड़ का काढ़ा बनाकर खूब पिलाना चाहिए। इससे वे और दस्त होकर विष दूर हो जाएगा। __इसकी ताजी छाल १ मा० से ४ मा० तक गोदुग्ध में पीसकर पिलाने से बिना कष्ट के वमन और रेचन होते हैं तथा बच्चों की मृगी (अपस्मार) को बहुत फायदा पहुँचता है। अकोल मूल द्वारा भस्म निर्माण विधि अंकोल वृक्ष की छाल लाकर सुखा लें । पुनः उसी वृक्ष की मोटी जड़ पृथ्वी के भीतर से खोद लाएँ और उसमें गढ़ा बनाएँ । तत्पश्चात् उक्र गड़े में थोड़ी छाल रखकर उसमें कलई पत्र लपेटा हुअा शुद्ध ताम्र चूर्ण [या ताम्र का पैसा] रक्चें और ऊपर से उक छाल भर में। अब इसे कपरौटी कर सुखा लें । और गजपुट की अग्नि मात्र दें। शीतल होने पर निकालें । कागज के रंग की श्वेतभस्म प्रस्तुत होगी। मात्रा-१-२ चावल यथोचित अनुपान के साथ उपयोग में लाएँ। . गुण-सम्पूर्ण शारीरिक व्याधियों के लिए अक्सीर है। (कु० फ़ो०) अकोल के पन चोट लगने से यदि दर्द होता हो तो अंकोल के पत्ते लाकर उसको जल में उबाल कर उसकी भाप उस जगह देना, पुनः उक पत्तों को गरम २ बांध देने से फौरन दर्द दूर हो जाएगा। (३० सखाराम अर्जुन) अतिसार रोगी को पत्तों का ६ मा० रस दूध के साथ मिलाकर पिलाना चाहिए। इससे For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोला अकोल प्रथम दस्त होकर कोट शुद्धि होती है फिर मिलाकर चावल के धोधन के साथ उपयोग में वे एकदम बन्द हो जाते हैं। लाने से लाभ होता है। - अंकोल के पत्ते पीस कर पुल्टिस बांधने से ___ फलों के गूदे और तिलों के क्षार को शहद में गया का दर्द दूर हो जाता है। मिलाकर देने से सूजाक दूर होता है। __पत्तों को पीस कर टिकिया बना लें और . वर्षा ऋतु में जो फुड़ियां बगल के नीचे तथा सरसों के तेल के साथ कड़ाही में डालकर भाग गले में प्रायः हो जाया करती हैं, जिनसे अक्सर पर रख जला लें। जब जज जाए तो थोड़ी रोगी मर जाते हैं, प्रारम्भ ही में सबेरे के समय स्याह मिर्च का चूर्ण डाल कर मरहम तयार यदि इसका एक फल खिलाया जाए और एक करें। इसको उपयोग में लाने से प्रत्येक भांति फल का पानी निकाल कर गिल्टियों पर मल के व्रण, खुजली खरवा प्रभति अच्छे होजाते हैं ।। दिया जाए तो दर्द को तुरन्त लाभ होगा और पत्तों को जलाकर उसकी राख १ तो. लें। रोगी बच जाएगा। फिर इसमें काली मिर्च २५ नग, सूतिया भुनी अंकोल-तैल निकालने की विधि-एक प्याले ३ मा०, हरताल । मा० मिलाकर खूब स्वरल के मुहको कासे बांध दें और अंकोल के बीज करें । बाद को तिल का तेल जिसमें मोम की गिरी को कूट कर इस पर बिछा दें और एक मिलाया गया हो इसमें खरल करके मरहम टुकड़ा अभ्रक का इस पर रखकर कोयलो की तैयार कर लें। इसके लगाने से बवासीर के प्राग करें,इसकी गरती से तैल टपककर प्याले मस्से सूख कर निकल जाते हैं। में श्राएगा इसी को व्यवहार में लें। श्रराजवृद्धि-ग्रंकोल पत्र उबालकर बाँधने यदि किसी धारदार शस्त्र से क्षत हो जाय तो से जल निकलता है। अंकोल तैल में रुई भिगोकर पट्टी बांध दें तो ___ अंकोलकी लकड़ी-नासूर में इसकी लकड़ी बहता हुया रक भी रुक जाता है और घाव भी की राख भरनी चाहिए। इससे नासूर अग्छ। हो शीघ्र सूख जाता है। जाता है। ___ अंकोल तैल १ पाव, मोन १ छटांक अग्नि . इसकी लकड़ी का चूर्ण बनाकर इसे पिया पर जलाकर रख दो, २ मा० भुनी तूतिया मिला राँगा, काराजी नीबू के बीज तथा दरियाई नारि दो, और डा होने पर भली प्रकार जिलाकर यल आदि उपयु' औषधियों के साथ मिलाकर किसी वर्तन में रख दो। यह मल हम दाह, विशूचिका रोगी को खिलाने से लाभ होता है। खुजली, भगन्दर, नासूर, क्षत, फोड़ा, फुन्सी अंकोल की लकड़ी का फर्श बनाकर यदि इस प्रभृति समस्त स्वचा सम्बन्धी रोगों को नष्ट पर सोया जाए तो कोई कीड़ा मकोड़ा पास न करता है। श्राएगा। ५ बूद तैल मिश्री में मिलाकर विभूचिका अंकाल पुष्प-इसके पुष्प मधुर, शीतल, कफ रोगी को उपयोग कराने से उसे लाभ होता है। नाक, वीर्यवर्धक, वलकारक, दस्ताघर एवं वात, पित्त, दाह रुधिर विकारों को दूर करते हैं। ५ से १५ बूद तक तैल उष्ण दुग्ध में मिला . अंकालके फल-इसका फल शारीरिक दाह, कर मिश्री डालकर प्रति दिन पीना शरीर को राजयक्ष्मा और रक्रपित को लाभ पहुचाता है। बलवान बनाता है । और प्रमेह, निर्वलता, शरीर शारीरिक दाह में फलों को पीस कर लेप करने में चक्कर आना तथा प्रांखों में अंधेरा पाना श्रादि से लाभ होता है। रक्रपित्त में फल को मिकी को दूर करता है। के साथ पीस कर पीने से मुंह आदि द्वारा ३॥ मा० तैल उष्ण जन्ल से पीना खूब दस्त रक्तस्राव बन्द होजाता है। खाता है और पेट के दर्द व बदहज़मी को दूर अतिसार में इसके फल के गूदे को शहद में । करता है। For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोल अटोहर सिर में दर्द हो और किसी तरह अच्छा न | मिलाकर गोला बनालें, फिर तत्काल मारे हुए होता हो तो उक तैल को २० बूंद की मात्रा में , बकरे के मौसका पिं जैसा बना कर गोले को बकरी के दधमें थोड़ा सा राहद डालकर पिलाना उसके भीतर रक्खें। फिर लाल चित्रक के रस लाभदायी है। इससे मस्तिष्क पुष्ट होता है। और तोल मूली की जड़ का रस इनमें उसको इसके तैल को तिल के तेल में मिलाकर दुबाकर फिर बाहर से चारों तरफ बकरे का मांस लगाना बालों को बढ़ाता है और सिर के जुत्रों लपेट दें फिर अग्नि के समान गरम तेल में उसको को दूर करता है। . डालकर भूनलें । और जब वह मांस पिंड भूनकर गरम पानी में तेल डाल कर कुल्ली करना। सिंदूर का सा रंग धारण करले तो निकाल कर मसूड़ों की सूजन, दर्द, खून बहने को प्राराम । रखलें। करता है। मात्रा- रत्ती शहद और घी के साथ खाएँ। चेचक के दाग पर गेहूं के आटे में हल्दी और गुण-इसके सेवन से मनुष्य वीर्यवान होजाता अकोल का तेल मिलाकर पानी से गीला करके है । नपुसकता जाती रहती है । इस पर कसैला उबटना रंगको ठीक करता है और कुछ सुन्दर पदार्थ सेवन करमा निषेध है । करता है। अकोलन् ankolam-मल ढेरा अंकोल नोट-प्रायः निघण्टुकार अकोल को रेचक । Alangium decap? talum, Lam.) मानते हैं पर कई प्राचीन इसे संग्राही कहते हैं। इं० मे० मे०। . चरक सुश्रुतने विषन माना है पर संग्राही विरेची अकोलमनचर ankolama-machar-अज्ञात | गुण का उल्लेख देखने में नहीं पाया। अकोलम् चे? ankolam-chettu-ते. अकोलकः ankolakah-सं० पुं० अकोल अकोला, अकोल. ढेरा [Alangium deca ( Alangium Deca peptalum, patalum,Lem.] स० फा० ई०। Lam.)र० सा-सं०। अङ्कालमु ankolamu ते०, ढेरा, अकोल (A. अङ्कोल कल्क: Ankola kalkah स.पु. ____d.capatalum, Lun) ई० मे० मे० । ढेरे की जड़ की छाल चावल के धोबन में पीस | अकोला ankola-म०, । ढेरा, अकोल, शहद डाल कर पीने से अतिसार और विष के अकोली ankoli-कना । अकोला (Ala विकार दूर होते हैं । अकोले apkole-कना u gium deca भा० म० ख०२ अति० चि. शाक्र० स०प्रहालयnkolya-T | pe taluum, म. ख० प्र०५ अङ्कालुम् ankolum-ता० । फाई। Lam. -स० अङ्काल तैलम् ankola tailam स. क्ली० अकोल बोज तेल । Alangium decap- अकोल्लः ankollah-सं० पु. (Cedrus etalum, Lun. ( Oil of-)। बैं० deodara ) देवदारु। रा०नि० २० निघ० २३ । वा०३०३८ ०।। अङ्कोलक: ankollakah सं० ० (Alanअकोल फल सङ्काशः ankola-phala-sankashah-स० पु०, फल विशेष | संसार में gium Decapetalum, Lum.) अकोल मद०व०१। पित्ता नाम से प्रसिद्ध है । वै० श०। श्रङ्कोलसार: ankollasarah-सं० पु मालव प्रकोल बद्धवटो ankola-baddhahvati प्रसिद्ध स्थावर विष भेद (A kind of pois-सं०स्त्री० यो० म० शुद्ध पारे को श्वेत श्रङ्कोल ___ on ) हे.च. ४ का । अकीम, संखिया, के रस में तीन दिन तक भावित करें, फिर पारे के प्रभृति । औ० श०।। समान भाग गन्धक मिलाएं और खरलमें बारीक अाहर ankohara-हिं०संशपुरा,अकोल कजली बनालें। फिर श्रङ्कोल ही के रस को (Alaigium decapetalum, lam.) For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजरा-विरह श्रङ्गन्द अलग-विरइ ankhura-virai-ता० पुनीर | जड़ता, देह जाड्य, शरीर का जड़ हो जाना। के बीज । तुरुमे काकनजे-हिन्दी-फा०। (Witi (Langour)। वा० चि०२२ १०॥ hania puneeria Coagulans Dun- | अङ्गघातः anga.ghā tah-सं० प्र० देह में inा.) सं० फा० ई०। चोट का लगना, अङ्गाघात ( Bodily pain) अङ्गम् augam--सं० ली. Myrrh (1) वै० श०। ( Balsa modendron Myrrh. ) अङ्गचयः anga-chayah-सं० प. पेरीनियम घोल । सुगन्ध बोल-बं० । रा०नि०व०६।। Perineum-इ० गुदा और वृषण का मध्य (२) शरीर, बदन, देह, तन, गात्र, जिस्म, भाग, मूलाधार । इजान-अ०। वै०नि०। (The body)। (३) शरीरावयव, अवयव अङ्गचेष्टा anga-cheshta-सं० स्त्री० अङ्गा(An organ, a limb or member चालन, शरीर को गतिदेना । चा० नि० १५ of the body. ) उजव-अ०। रा०नि० व०१८ अङ्गजम् ang-jam-सं० क्लो० १-लड शरीर के छोटे छोटे भागों को अंग कहते हैं, (Blood-) रक्क २ - फीसिज़ foeces) मल । जैसे-हाथ, पांव, जंघा, हृदय, अन्त्र, चक्षु मे० जत्रिक। इत्यादि । कुछ अङ्ग पोले होते हैं और कुछ थैली अङ्गज: anga-jah सं० पु०, १-हेयर(Hair) के समान, जैसे-मूत्राशय, शुक्राशय, प्रामाशय केश। २-डिजीज (A disease ) रोग । और गर्भाशय । कुछ अङ्ग नली के सदृश होते ३-बाल, रोम, मांस। (Muscle) मसल हैं, जैसे-रक की नलियाँ, शुक्रकी नलियां, धातु | ४-इन्टॉक्सिकेशन Intoxication-20 पाचक रसों की नलियां, और मूत्र की मद । वि०। ५. देखो -श्रङ्ग । ६-(A son, नलियां । (३) उपसर्जनभूत । हे० च० नानार्थ Love, cupid, intoxicating paपु० (४) Earth, भूमि । (५) भाग, ssion. काम । हिस्सा (A part or portion)। (६) अङ्गज्वरः anga-jvarah-सं० प. क्षयरोग, A constituent, part. राज्यमा, यक्ष्मा, ( Consumption ) अङ्गक angakam-सं० क्लो०१-( Body.) श्रङ्गज्वरम् anga-jvaram-संक क्लो० शरीर शरीर २-अगर (Aloe wood)। ३ - के भागों में लगा हुआ ज्वर । अथ० सू० ३०, A limb शरीरावयव । का०५। शरीर के अङ्गो में संताप उत्पन्न अहकर angakara-ते. धारकरेला, किरार । करने वाला। अथ० सू० ८, ५, का० । (Momordica dioica,Troub.) फा०६० अङ्गणं anganaim--सं) क्लो. आँगन सहन, २ भा०। । चौक, अजिर, घर के बीच का खुला हुश्रा अङ्गगौरवम् a.luga-gouravam-सं० क्लो० भाग । अँगना, (ई) अङ्गन भूमि ( A ya( Heariness of the body.) शरीर | rd) वै० श०। का भारीपन,शरीरका गुरुत्व । गाभार-बं० । वा० अङ्गतिः angatih-सं. पु. ( Air,windi) नि० १३ अ०। वायु । २-( Fire ) अग्नि (श०)३-- ब्रह्मा अङ्गग्रहः anga-grahal-सं० पु०, गठिया, ७. विष्णु। अङ्गवेदना । वा०नि० १६ अ० । शरीर का दर्द अङ्गतापः angu-tāpah-सं० पु०, शरीरोप्मा शारीरिक व्यथा, शरीर की पीड़ा, अकड़बाई, शरीरोष्णता, देहकी गरमी (Body heat) बात रोग, देह का जकड़ना । वह रोग जिससे देह । वै० श० । में पीड़ा हो | Spasim, (Bodily pain) अगदं angadadam-सं० ली. बाजुबंद अङ्गग्लानिः anga-glanih-सं० क्ली० देह की। (An armlet ) For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गदरणम् अङ्गबीने खुश्के अङ्गदरणम् anga-daranam-सं० क्लो० | भा० । ३-हिं० पु. ( A yard ) आँगन, ( Bilious pain) पित्त जन्य पीड़ा, पैत्तिक अङ्गना । व्यथा | वे० श० । अङ्गनाप्रियः angana-priysh-१० पु. १ . अगदान anga dāna-फा. अञ्जदान, ( Saraca Indica, Linn.) अशोक हिंगु वृक्ष, हींगका पेड़ ( Ferula Foetida, वृत । र० मा० । २-द्रुमोस्पल, कर्णिकार | Bigel .) हिं० पु. संज्ञा [सं०] तनुदान, श्रोलट्-कम्बल-बम्ब०, बं० । Davil's तनसमर्पण । सुरति । रति । नोट--यह स्त्री के Cotton ( Abroma Augutsta, लिए प्रयुक्र होता है। क्रि० प्र०-रति करना । Linn.) ई० मे० मे) । प० मु० । सम्भोग करना। अङ्गनापिया angana-priya-सं० खो० ARTIT: anga-dáhab-eo go ( Bur- प्रियंगु, फूल प्रियंगु, गन्ध प्रियंगु, नारिवल्लभा, ning of the body ) गात्रदाह, देहको (prunus mahaleb,Lin.) . भा. ज्वाला। वै० श०। पू० १, भा० क० व०। अङ्गद्वार anga-dvāra-हिं० पु० संज्ञा [सं०] | अङ्गनेर anga-ner-राज. पु. खाजा-हिं०। शरीर के मुख, नासिका आदि दस छेद । अङ्गन्यास anga-nyasa-हिं० संज्ञा पु० मंत्रों अङ्गधारी anga-dhāri-हिं० पु. संशा [सं०] द्वारा अङ्गों का स्पर्श । शरीरी । प्राणी | शरीर धारण करने वाला। अङ्गपाक anga-pāka-हिं० पुं० अङ्गन angana-हि. पु. संज्ञा [सं० अङ्गण] अङ्गपाकता anga-pākata-सं० स्त्री० । A yard (1) आँगन । सहन । चौक - पित्तजन्य रोग. पके फोड़े के सदृश शरीरमें वेदना पं० । (२) चरवा, कुसा-उ०प० स० । मेमो० ____ होना । वै० श०। अगेनोस्मा केर्योफाइल्लेटा aganosma.| अङ्गपालिः anga-pālih-स. स्त्री० ( An Caryophyllata-ले०दखुरी,अंगु फैक्सिनस ____embrace ) गोद, आलिंगन । फ्लोरिबण्डा Fraxinus Floribunda. | अङ्गपीडा anga-pira-स. स्त्री. (Bodily Wall. वनरिश-अरू० । सूम,सुनु, शुन-पं। pain) वायु जन्य रोग, शरीर व्यथा, गात्रकङ्गु, तुहसी नैपा। वेदना। जैतूनवर्ग अङ्गपूजितः anga-pujitah सं० अश्वतर, (N. 0. Oleace:p ) अश्वखरज, खञ्चर घोड़ा । डंकी ( Donkey, उ.पत्तिस्थाम-शीतोष्ण और अधः पाल्पीय mule)-ई० । मद०व०१२ । हिमालय-काश्मीर से भूटान पर्यन्त-तथा | अङ्गप्रसारणम् anga-prasāranam-स. खसिया पर्वत । क्ली० कायविस्तार, शरीर का प्रस्तार, शिथिलता । उपयोग-इसके प्रकाण्ड (तने ) को काटनेसे वा०नि० ४ ०। इसमें से एक भांति का ठोस, मधुर स्राव | अङ्गबली anga-bali-सं० स्त्री० त्रिवलि, जठरा(शीरख्रिस्त) प्राप्त होता है जो सम्मत शीरख्रिस्त वयव विशेष । (Officinal manna) का प्रतिनिधि है। अङ्गबार anga bāra-फा० अक्षबार ( Poly इसे इसके मधुर एवं किञ्चित् कोल्ड मृदुकारी gonum bistorta, Linn.) प्रभाव हेतु उपयोग में लाते हैं। (वैट) प्रणबी Angabin-फा० शहद, मधु । honey अङ्गना angana-सं० स्त्री० १-(a woman (Mel) । स० फा० २०। or female in general, a wife) अङ्गबीने खुश्क angabine khushka-फा० नारि, स्त्री, पत्नी, कामिनी । मे० नत्रिकं । २- | | खुश्काबीं । एक प्रकार का शहद है जो अत्यन्त (Prunus mahaleb, Linn.) प्रियंगु, I शुष्क होता है । गन्ध तीव्र होती है। For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गमईप्रशमनम् अङ्गभङ्गः anga-bhangah-सं० पु. (Ya. wning ) -अङ्गड़ाई, हड़फूटन, शरीर भङ्ग वा० उ० २ अ० स० ४ अ० २-( Perin. .. eum) गुदा और वृषण अथवा भग के मध्य · का भाग, मूलाधार । ३-(Adisease) रोग। ४-( Nervous disease ) वायुरोग । ५-( Palsy or paralysis of limbs.) पक्षाघात । प्राभ: angabhih-स० पु. (A son ) पुत्र । (२) Cupid-काम । अङ्गभेदः anga-bhedah-सं० पु. ( Ner vous pain) वायुरोग, वायुजन्य गात्रभङ्ग ; , शरीर में होने वाली पीड़ा । अथ० सू० ३० 40 -४०५। अङ्गमई: anga-marddah-सं० पुं० (१) • गात्रवेदना, देह की पीड़ा, अंगडाई । वा० सू० '४श्रा अंगमर्दक: angamardakah-स'. पु० । ( Rheumatism ) अंगमर्दित । अंगमर्प, हड्डियोका फूटना । हड्डियों में दर्द । हड़फूटन रोग । (२) संवाहक । 'अंग मलने वाला । हाथ पैर दबाने वाला । नौकर। सेवक ( One who shampoos his master's body ) अङ्गमईनम् anga-marddanam-संक्ली० गानफोटन, शरीर का फूटना, वेदना, व्यथा। अङ्गमई प्रशमनम् anga.mardda-prasha manam-संक्ली वेदना शमन (शा..क), वेदना हर,व्यथा ( व्यथ, रुक, भेद ) प्रशंमन-हिं० मुखदिरुलअलम् (ए० व०), मुखहिरातेश्रलम्, (व.व.), मुसकिनुल अलम् ( ए० व०) मुसकिन्नाते अलम् (वहु०व०), मुक्तक्तिदातुल इह सास-अ०। दाफ़ादर्द-फा० । एनोडाइन्स (Anodynas) एनलगे ( जे ) सिक्स (Analgesics )-इं०। उक्न प्रकार की औषधियां नाड़ी अथवा वात केन्द्रस्थ उत्तेजना एवं क्षोभ को दवाकर या धीमा ... करके वेदना शामक प्रभाव करती हैं। ऐसी औषधियां सम्बेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुँचने से रोकती हैं । अस्तु वे संज्ञा को या तो उसके | उद्भव स्थान पर अथवा वाहन पथ में, या उस स्थान पर, जहां कि वे मस्तिष्क पर प्रभाव डालती हैं, अवरुद्ध कर देती हैं। । उक्र प्रकारकी औषधियों की सूची निम्न है यथा-(1) डाक्टरोऔषधियाँ-श्रोपिश्रम . (अफीम ), माक्रीन (अफीम सर: ), बेला डोना, धत्त रीन या धतूरीन (ऐट्रोपीन), व्युटिल कोरल, कोनाइम (शौकरान ), हायोसाइमस (अजवाइन खुरासानी ), स्ट्रेसोनियम (धतूरा), केशाविस इण्डिका ( भंग ), जेलसीमियम् ( पीली च पेली की जड़ ), नोरल, जेनरल अनस्थेटिक्स (व्यापक अवसन्नता जनक औषधियां ), फीनेज़ न, फेनेसीटीन, एसेटऐनिलाइड (ऐरिटफ्रेग्रीन ), रोशन कायापुटी, लौंग तेल, इकोनाइटीन (विष--सत्व, विपीन ), कोरोफॉर्म ( सम्मोहनी), कोनाइन ( सस्य शौकरान) केनीन (कह्वाला सत्व ), कैम्फर ( कपूर), fenfica fum ( Spiritus Ætheris ) - (२) आयुर्वेदीय ओषधियां-शालपर्णी, वृहती, कण्टकारी, एरण्खमूल, काकोली, रक्त चन्दन, उशीर (खश ), बड़ी इलायची, मुलेठी चाकुल । (३) आयुर्वेदीय व यूनानी औषधियाँअगर, दारुहरिद्रा ( रसौत ), रक्रसेमल, पुन्नाग वृक्ष (सुल्तान चम्पा, सुर्पन), एरक (नागर मोथा ), साल (साखू ), पोहकरमूल (कुष्ट), अशोक, नीलोफर ( नीलोत्पल ), कमल ( पद्म), धारकदम्ब ( हल्दी), कायफल, यष्ठिमधु (मुलेी) मेथी, कैथ, हल्दी, देवदार, तून, बड़ी इलायची, ई० मे० मे० । शेष यूनानी औषधियों तथा परिभाषाओं के लिए देखो-मुखदिर और मुसकिन । " नोट-उपयुक्र औषधियों में से अफीम का प्रभाव प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट होता है। यह संवेदना को उपरोल्लिखित सम्पूर्ण स्थलों पर अवरुद्ध कर व्यथा को नष्ट कर देती है । बेलाडोना संज्ञावहा वात नाड़ियों के क्षोभ को दबाकर उक प्रभाव करता है। तथा जेलसीमियम, क्लोरल हाइड्रेट और ब्युटल क्लोरल प्रभति मस्तिष्क For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गमेजयत्वम् ६६ अङ्गविकल सम्मान्धी केन्द्रों की उत्तेजना को कम करके ऐसा (२) (Act. of anointing ) अनुलेप प्रभाव उत्पन्न करते हैं। करना। अंगमर्द प्रशमन औषयों का उपयोग-जब । अङ्गार-हिन्दी anghare-hindi-अ०, वां० वेदनाधिक्य के कारण व्यग्रता एवं अनिद्रा जन्य | फा० अढ़उल, गुदहल, जवा, जासून-हिं० । कन्ट हो तो ऐसी दशा में डायरेक्ट जेनरल ऐनो जासूत, गुदेल, कुढ़ल-द० । जपा-पष्पम्-सं० डाइन्स (प्रत्यक्ष व्यापक वेदना शानक ] को | Hibiscus rosa-sinensis, Linn. उपयोग में लाना चाहिए। ( Flowers of-)-स० फा० ई०। अस्तु, अफीम अथवा उसके सत्व मार्फीन | अङ्गरापान angari-pāna-हिं० ताम्बूल भेद (A sort of betel) (Morphine) का येन-केन-प्रकारेण प्रयोग अत्यन्त लाभदायी सिद्ध होता है। विशेषतः श्रङ्गरुहम् anga-ruham-सं० क्ली० (Hain) मार्फीन के स्वस्थ सूचि प्रवेश (अन्तः क्षेप) रोम, बाल, लोम। करने से वेदना तत्काल शांत हो जाती है।। अङ्गहा anga-ruha-सं० स्त्री० (Hair ) युरिनस कॉलिक अर्थात् वृक्क घेदना में वेला लोम, केश। डोना के बड़ी मात्रा में उपयोग में लाने से बहुत अङ्गलाघवम् anga-laghavam-सं० को लाभ होता है । किन्तु जब यह अभीष्ट हो कि ( Lightness of the body.) कायवेदना तरक्षण शान्त होजाय तो उक्र अवस्था में लघुत्व, शरीर का हल्कापन । वा० उ० १६ ( General anesthetic) व्यापक श्र०। अवसादक औषध उपयोग में लाना चाहिए। अङ्गनीह्न anga-lihna -हिं० पुसुम्बुलखताई, यथा प्रसवकाल व यकृत वेदना तथा वृक वेदना बालछड़ भेद ( Garden angelica) प्रभृति में फेनेज न जेजसीमियम और न्यूटिल क्रोरल प्रभति वात वेदनाओं में अधिक लाभ अङ्गलेपः anga-lepah-सं० पु. चन्दनादि दायी होते हैं। द्रव्य, अनुलेपन, लेप ( Limiment.)। अङ्गमेजयत्वम् angamejayatvam-सं० | अगलेपन anga-lepana-सं० पु. (१) उबटन की० श्रङ्गकम्पन, देहकम्प, शरीर का कॉपना। ( A paste for scouring the (Shivering) ____skin) (२) The hair wash | फा० अगरतः anga-raktah-सं० पु. (Mon. इं० २ भा०। key face tree ) कम्पिल्ल, कमीला। अङ्गलोड्यः anga-lodyah सं० पु. कमला गुड़ि-बं० श्रम। आर्द्रक, श्रादी-हि। प्रादा-बं०। Ginger अगरक्षिणी anga-rakshini-सं० स्त्री० (Amomum Zinziber.) (२) अङ्गत्राण । साँजोया-बं। वैश०। Marsilea Dentata-चिचोटक तृण । अङ्गरा anghari-यु. Hibiscus Rosa- अङ्गवः agnavah-सं० पु. ( Dryfruit) sinensis, Linn. ( Flowers of-) शुष्क फल, सूखा हुश्रा फल । श० च०। गुडहल, जपापुष्प-सं०। उड़उल-हिं०। श्रङ्गवस्त्रोत्था anga-vastrottha-सं० स्त्री० (White Ajowan-fruit ) श्वेत भङ्गरागः anga-rāgah-सं० पु. अन लेपन द्रव्य । यथा-कुकुमादि अनुलेपन द्रव्य, लेप, यमानी, सुफेद अजवाइन । जोयान-बं० । वै. श । गात्र रञ्जन द्रव्य । (Scented cosmetic | application of perfumed ungu- अङ्गविकल anga.vikala -हिं० वि० ( Ma. ents to the body, Fragrant imed, paralysed ) विकलांग ( Fainunguent, Liniment.) मालिश-अ०। ting ) मूर्छा : For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रङ्गविकारः अङ्गस्तूरा बार्क अङ्गविकारः angavikárah - सं० ( A bo- श्रङ्गसुप्तिः anga-suptih - सं० त्रो० ( an æsthesia ) स्पर्शी ज्ञता, शरीर स्वाप, अंग का सुन्न अथवा जड़ हो जाना, अवसन्नता । गर साड़ता बं० । dily defect. ) शारीरिक दोष । विकृतिः anga- vikritih - सं० पु० (1) अपस्मार रोग, मृगी वा मिरगी रोग, मूर्च्छारोग (apoplexy, an apoplectic fit.) रा०नि० ० २० ( २ ) Change of bodily appearance; collapse. गात्र-संकोच | श्रविभ्रंशः anga-vibhranshah-सं० पु० काय शैथिल्यरूप- वायुज रोग | भा० । अङ्गविक्षेषः anga-vikshepah - सं० पु० अङ्गहार, अङ्गचालन, अंग ( हाथ पाँव ) फेंकना, Spasm ) । बा० उ० २ श्र० । ( २ ) Gesticulation. हाव भाव | अङ्गशूलम् angaşhulam - सं० क्ली० (Bodily pain ) गात्रतोद, गात्रशूल, शारीरिक वेदना | वै० श० । अङ्गशोथः angaşhothah सं० पु० ( Sw elling of the body ) कायशोथ, शरीर की सूजन । अङ्गशोषणम् anga-shoshanam-सं० क्लो० अंग की शुष्कता ( रूक्षता ), शरीर का सूखना । वा० उ० ३ ० ! अङ्गशोषः १०० anga-shoshaha - सं० पुं० वायुज रोग विशेष, गात्रक्षीणता, देह का सूखना, चय (Consumption ) । अङ्गस angasa-सं० पुं० पक्षी ( A bird ) अङ्गसङ्गम-anga-sangama-सं०ली० रति संयोग, संभोग, मैथुन, स्त्रीप्रसङ्ग (Coition, Copulation ) श्रङ्गसदनन् anga-sadanam - सं. लो० ( Depression ) शरीरावसाद, अंग की शिथिलता, अवसन्नता, जड़ता । वा० नि० १२ श्र० । श्रृङ्गसादः anga-sádah - सं० पु० ( Depr ession ) अवसाद, श्रवसन्नता । हारा० । अङ्गसुन्दरः anga-sundarah सं० पुं० $-(Cassia Tora) चक्रमर्द, ददुघ्न वृक्ष चकवड़ - हिं० | दादमर्दन - बं० । श्रम० (२) ( Aloe wood ) अगर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गसेनः anga-senah-सं० पुं० श्रगस्तिद्रुम अगस्तिया । बाकस गाछ - बं० । रत्ना० । (agti grandiflora, Desv.) श्रङ्गसंहतिः anga-sanhatih सं० बी० १ ) Compactness, symmetry. शारीर का गठाव । ( २ ) Body शरीर ( ३ ) Strength of the body शरीर बल । अङ्गस्तूरा छाल angastúrá chhala-fão अङ्गस्तुरा त्वक् _angastura tvak - हिंο अङ्गस्तूरा बार्क angustura-bark-ğo कस्सेरीई कॉर्टेक्स ( Cuspari cortex) -ले० क्रश्र श्रञ्जस्तूरा, पोस्त अंगस्तूरा-ति० । कस्पेरिया बार्क ( Cusparia bark ) - ई० टेलीई अर्थात् नागरङ्ग वर्ग । ( N. O. Rntacete ) ( ऑफ़ीशल - official ) उत्पत्ति स्थान --- दक्षिणी अमेरिका के उष्णप्रदेश | लक्षण - उपयुक्त औषधि कस्पेरिया फ्रेब्रिफ़्यूजा ( Cusparia Febrifuga ) वृक्ष की सूखी हुई छाल है जो औषधि तुल्य प्रयोग में आती है । ये सपाट, वक्राकार या एक दूसरे पर लिपटे हुए टुकड़े हैं जो ६ इ ं० या इससे अधिक लम्बे, १ इञ्च चौड़े, इञ्च मोटे होते हैं । ง १२ त्वचा का वाह्यतल चिह्नयुक्र एवं पीताभायुक्र धूसरवर्ण का होता है, यह ऊपरी त्वचा सरलता पूर्वक भिन्न की जा सकती है और इसके अन्तः तलसे श्याम धूसरवर्ण की रेज़िन ( राल ) जैसी तह निकल श्राती है । भीतरी तल सूक्ष्म धूसर वर्ण का होता है । यह छाल बहुधा परतदार और कोर होती है और इसको जहां से तोड़े वहीं से टूट जाती है। टूटा हुआ तल रालयुक दृष्टिगोचर होता है । गन्ध- श्रप्रिय । स्वादतिक्त वा उष्ण । For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गस्तूगबार्क श्रङ्गार परोक्षा - कुचिला वृक्ष की छाल स्वरूप निर्माण-विधि-कस्पेरिया बार्क का ४० नं. श्राकृति में इस उपयुन छाल के समान होती है। का चूर्ण १० औंस, अल्कुहॉल (२०) २५ इस कारण इसमें प्रायः उसका मिण किया फ्लुइड औंस या आवश्यकतानुसार, कस्पेरिया जाता है। इसकी एक साधारण परीक्षा यह है कि को ५ फ्लुइड श्रौंस अलकोहाल से तर कर के कुचिला वृक्ष की छाल के भीतरी तलपर शोराम्ल पर्कोलेटर में जमा दें और तीन दन तक पृथक् (Nitric acid) के लगानेसे उसमें ब सीन रख दें । पुनः अवशिष्ट अलकुहाल को १० होने के कारण रक्रधर्ण उत्पन्न हो जाता है । बराबर भागों में विभाजित कर के १२-१२ घंटे जिससे इसकी ठीक परीक्षा हो सकती है। के अन्तर से एक-एक भाग अलकुहाल डालकर रसायनिक सङ्गठन-इसमें ये निम्न चार इसे पोलेट कर लें, यहां तक कि एक पाइंट अल्कलाइड्स [क्षारीय सत्व ] होते हैं: • यथा - द्रव प्राप्त हो जाए। (१) एक तिक सत्व कस्पेरीन, (२) गैलेपीन मात्रा-श्राधे से १ फ्लुइड डाम ( १८ से (३) गैलेपीडीन, (४) कस्पेरोडीन और एक ३.३६ क्यु० से०) सुगन्धित तैल । परीक्षित-प्रयोग संयागविरुद्ध (सम्मिलन)-खनिजाम्ल (१) टिकचूरा कस्पेरीई / फ्लु० डा०, टिकपोर धातु लवण | चूरा कैप्सिसाई ५ बूद (मिनिम), सोडियाई प्रभाव-सुगन्धित एवं तिक, बलप्रद और वाइकाई १५ ग्रेन, इन्फ्युजम रीहाई औंस ज्वरघ्न । अधिक परिमाण में उपयोग में लानेसे पर्यन्त ऐसी एक-एक मात्रा औषध दिन में ३ यह आमाशय एवं प्रांतों में प्रदाह उत्पन्न करता बार दें। गण-एटोनिक डिस्पेप्सिया ( प्रामाहै । यरुपमें इसको कैलम्बा के सदरा क्षुधावर्द्धन शयिक निर्वलता जन्य अजीर्ण में लाभजनक है। हेतु अजीर्ण तथा निर्बलता में बरतते हैं। परन्तु (२ ) टिकच्युरा आरन्शियाई ३० मिनिम, इसमें ज्वरम प्रभाव होने के कारण अमेरिका में स्पिरिट एमोनिया ऐरोमैटिक १५ मिनिम, सिरुइसे विषम ज्वर और प्रवाहिका में उपयोग में पस जिजिबेरिस ३० मिनिम, इन्फ्युजम् कस्पेरीई लाते हैं। १ ओस पर्यन्त, ऐसी १-१ मात्रा औषधि दिन ऑफिशल योग [Official prepara में तीन बार दें । बल्य ( टानिक ) है। tions. (१) इन्फ़्यूज़म् कस्पेरी [Infusum | अङ्गहर्षः anga-harshah.-सं० पु. (HoCusparin. ], इन्फ्यूज़न प्रॉफ कस्पेरिया | rripilation.) रोमाञ्च, रोमहर्ष, रोंगटे खड़े [Infusion of Cuspatia]-डॉ० ना० । होना । बा० नि० ३ अ०। अंगस्तूरा फांट-हिं० । खिसाँदहे अंगस्तूरा ती. ना०। अङ्गहारः anga-hārah.-सं० पु. अंगचालन, निर्माण-विधि-कस्पेरिया बार्क का चूर्ण एक अंग विक्षेप । (spasm.)। (२) gesti औंस, खौलता हुश्रा परिसुत जल एक पाइंट, culation, a dance. नृत्य । अंगहीनः anga-hinah.-सं० त्रि० (Hav. १५ मिनट तक भिगोकर छान लें। ing some defective limb. ) मात्रा-१ से २ फ्लुइड औंस (२८.४ से अंगरहित, विकलांग, जैसे काणादि (काना ५६८ क्यु० से.) (२) लाइकार कस्सेरी कन्सेण्ट्र टस ( Liq प्रभृति)। (२)erippled लुग। uor Cuspariie Concentratus) श्रङ्गाकर angakara.-ते० धारकरेला, किरार -ले०कन्सेण्ट्रेटेड सोल्युशन पॉफ़ कस्सेरिया (Momordica Dioica, Roxb.) Concentrated Solution of Cus- फा० इं०२ भा० । paria.-ई० । अंगस्तूरा धन द्रव-हिं० । अङ्गारः angarah-सं० पु. १-( Fireसाइल अंगस्तूरा ग़लीज़-ति० ना०। । brand or embers)अँगार,अँगरा, निधूम For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गारं प्रकाधानिका अग्निपिंड (बिना धुएँ की प्राग), प्राग का दह- नोट:-द्राक्षामा हरिद्रे द्वे मंजिष्ठा चेन्द्रकता हुश्रा कोयला, जलता हुश्रा टुकड़ा यथा- वारुणी, वृहती सैधवं कुष्ठ रास्नामांसी शतावरी । "बृहतः काष्टसम्भूतोऽङ्गारः ।" वा० सू० ६ ० यो० त० । अर्थात् इसमें दाख और दोनों हल्दी अरुणः । २-अंगारपूर्ण पात्र, वह वर्तन जिसमें | अंगार रखा हुआ हो । ३ Yellow ama- | अङ्गारक मणिः angaraka-manih सं० पु. ranth) कुरुएटक वृक्ष । झांटी विशेष, पीली प्रवाल, मूगा-हिं० । कोरल ( Coral ) कटसरैया, पीतवर्ण, अम्लान वृत्त । रत्ना०।। -इ०र०नि० व०१३। ४ (Musk melon)-ई. हैं० गा० । अङ्गारकर्कटी angara-karkati-सं० बी० ५-चिनगारी।६-Charcoal,(whether ( Balls or thick cakes of bread heated or not) baked on coal) अंगार की रोटी अङ्गारं angaram-संक्ली ० (Red colour) अर्थात् लिट्टी, बाटी-हिं० । रोटिका-सं० । रक्रवर्ण । रुटी-बं०। अङ्गारक: angarakah-6.पु. १-कोयला। (Aspark, ember's ) अंगारा, प्रस्तुतविधि-गेहूँ अथवा चना प्रभृति के घाटे को जल के साथ मर्दन कर कोर अंगार । २- कुरुर टक, कटसरैया का पेड़, पियाबाँसा-हि। झांटी जाति-बं०। (Yellow कर लें। पश्वात् उसमें से थोड़ा २ लेकर चपटी or white amaranth) मे० कचतुष्क । २ अथवा गोल वटी के आकार के वाटी बनाएँ, ३-(wedelia calendulacea, Less.) पुनः उन्हें धूम्र रहिन अग्नि पर शनैः भृङ्गराज, भांगरा, मैंगरा, भैंगरैथा । रा०नि० शनैः एकाएँ । बस यही अंगार कर्कटी है। वा०४। भा० पू०१भा. ग०व०४.. गुण-यह वृहणी, शुक्रल, लधु, दोपनी, कफ (Barleria prionitis, Linn.) कट- कारक, बलकारक तथा पीनस श्वास और कास सरैया ( पात)। ५-कोयला (Charcoal.) को जीतने वाली है। वेय०नि०मा०। अङ्गारक तैलम् | angaraka-tailam-सं० अङ्गारकित angarakita-हिं० वि० (Chal अकारतैल क्लो० कुहारा ५०० तो० भर red, roastol) भष्ट, भुना हुश्रा, अंगार पर लेकर १०२४ तोले पानी में पकाएँ, जब चतुर्थांश | पकाया हुअा। शेष रहे तो इसमें ६४ तो० तिल तेल डाल कर अङ्गार को बटो angara ki bati-हिं० ) पकाएँ, तथा इसमें कुठारा, अपामार्ग, प्रोस्टिका अङ्गारकी लिट्टा angara ki littiनामक मक्खी इनका कल्क बनाकर उक्रतेलमें डाल . देखो-अहार कर्कटी । कर सिद्ध करें तो यह तेल घावों को शीघ्र शोवन अहार. angarah-उ० सांसर्गिक कृमि । देखो कर अंकुर लाताहै और इसकी मालिशसे नाड़ियां अंधाक्स (Anthrax)-इं०। सबल होती हैं। चत. द० ब्रा० शा० चि.। श्रङ्गारह का ट का angarah-ka-tika-उ० (२) मरोड़फली, लाख, हल्दी, मजीठ, सांसर्गिक कृमिन सीरम | देखो-बरिट अन्ध्रा इन्द्रायन, बड़ी कटली, सेंधानमक, कूट, रास्ना, क्ल सीरम स्वास (Anti Anthrax जटामांसी, शताबर, इनका कल्क बनाएँ, २५६ Serum Sclavos )-30 तो प्रारनाल नामक कांजी और ६४ तो० तिल अनार काठका angara-kushchaka-सं० तैल मिला तैल सिद्ध करें । इसकी मालिशसे हर स्त्री० हितावली। हिंगोट, हियावली-हिं० । प्रकार के ज्वर नष्ट होते हैं। ( Ingua ) चक्र० द० । | अङ्गारधानिका angara-dhanika-सं० स्त्रो० भैष० र० ज्वर० चि. (A portable fire -pan, braziar ) बं० से० सं० अंगेडी, अंगार धारण पात्र, श्रृंगार (प्राग)रखने For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गार धूपः १०३ अङ्गारिणी का बरतन, बोरसी-हिं० । साजाल व। श्राति- करा विशेष (Ovieda verticulata.) शदान-फा०। भाषा में नाटा करा कहते हैं। प्रकार धूपः angāra-dhupah-सं० पु० अङ्गारबल्ली angara-valli-सं० रो० १-- ( Incense, aromatic va pour) ( Cæsalpinia Bonducella, अंगार पर किसी औषधि को डालने से जो धूम्र Rord) महाकरज, रक्तकरञ्ज । २-(Clerनिकलता है उसे अङ्गारधूप कहते हैं, वा० चि० cdendron serratum, Spreng.) अ०। भार्गी | वा० सू० १५ श्र० । सुरसादि । ३अङ्गार परिपाचितम् angāra-paripach (Ocimum album, Linm.) सुरसादि itam-सं० क्ली० (१) शूलादि पक्कमांस, तुलसी । भा० पू०१ भा० । ४-(abrus prलौह शलाका आदि पर पकाया हुआ मांस | ecatorius, Linn.) गुजा लता, पत्री ( Roasted food ) ( २) त्रि० अंगार की बेल । चिरमटी की बेल हिं| बं० । पक्व, अंगरा पर पकाया हुअा।। भा० पू० अने०व०। (५) कटुकरम्ज, करज अङ्गारपर्णी angala-parni-सं०स्त्रो०, (CJ बल्ली । (६) रक्रगुञ्जा (लालधुघची)। erodendron Serratum, Spreng.) भ० पू० १ भा० गु०व०। भार्गी, भारंगी । बामण हाटी-बं०। 10 सा० सं०। | गारवृक्षः angara-vrikshah-स.. अङ्गार ( क ) पुष्पः angara-k-pushpah १-( Balanites Roxburghii, Pla-सं० . Balanites Roxburghii, | nch.) इंगुदोवृक्ष । हिंगोट-हिं० । भा० पू० . Planch. जीवपुत्रम । जियापोता-हिं० । इंगुदी १ भा० बटा० । रत्ना । (२) पूतिकरञ्ज । -बं०। (Ingua)श०र० । हिंगुश्रा, गोंदी। अङ्गारवेण: angar :-venuh-सं० पु. इंगुदी वृक्ष जिसके फल अंगार के समान लाल ( Bambusaarundinacea, Retz. होते हैं, हिंगोट का पेड़ । __The red variety ) रक्तवर्ण वंश विशेष, प्रकारपात्रो angarapatri-सं. स्रो०। लालबाँस । ____portable fire-pan ) बोरसी । अङ्गारशकटी angarashakati-स. स्त्री० अङ्गारपूरिका angara-pārika-सं० नो० | ( A portable fire pan) चुल्लि, (Bread) रोटक; रोटी । रूटी-बं०। चुल्ली, चूल्हा (-ल्ही)-हिं० । चुलो-बं० । अङ्गारमअरी angara-manjari | -सं० अङ्गारा angara-स. स्त्री० (Ingua.) प्रकार मञ्जा angara-man ji -स्त्री० हितावली । इंगुदी वृक्ष, हिंगोट । प० मु० । करा विशेप (a species of Bonduc जियापुला -बं० । or Bonducella)श०र० । महा करा अङ्गारिका angarikā सं० स्त्री० १ इतुकाण्ड, -हिं० । डहर करज-बं० । रा० नि० व० ईख का तना ( The stalk of the ६ अ० । sugar-can ) २-( Butea frondअङ्गारमणिः angāra-manih-सं० पु. osa, Rob.) किंशुककीरक, पलाश की कली ( Coral) प्रवाल, मूगा । मे० कचतुष्क (३) The bud of the अङ्गारवर्णी angara-valni-सं० स्त्री०, ( Cl-| tree किंशुक-कली । (४) चूल्हा (A por erodendron Serratum, Spreng. )| table 'fire-pan) भार्गी, भारंगी । बामन हाटी-बं०। | अङ्गारिणी angarini-स० स्त्री० ( A अङ्गारवल्लरो angara-vallari-सं० श्रो० small fire-pan) छोटी कड़ाही, अंगारि । For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उि०। अङ्गारित १०४ अङ्गएण्टम् ऑलियो रेज़ाइनी केप्सिसाई (२) अंगेठी, बोरसी, श्रातिशदान (३) (A या मृदु यौगिक है, जो केवल वाह्यरूप से उपcreeper in general) लता । योग में लाया जाता है । मलहम प्रस्तुती करण kita angárita-e'o fato (Roasted, में निम्नांकित वसामय तैलीय पदार्थ बेसिस half-burnt) भूना, अधभूना, । प्रा० सं० (मुख्य अवयव ) रूप से अकेले अथवा एक दो इं० डि०। मिलाकर उपयोग में आते हैं, यथा-(१) अङ्गारितम् angaritam-स. क्लो० (The विशुद्ध भेड़ की वसा, (२) शूकर वसा, (३) early bud of Butea frondosa.) शूकर की लोबान युक्क बसा, (४) ह्वेल मत्स्य पलाश (किंशुक ) की प्रारम्भकालिक कलियाँ, के शिर की वसा, (५) मेर ऊर्णवसा, (६) किंशुक-कोरक, पलाश कलिकोद्गम, हारा। मोम, (७) जैतून तैल, (८) बादाम तैल, अङ्गारिता angarita-सं० स्त्री० १-( A और (6) पैराफ़ीन | सचना-उष्ण देशों में creeper in general) 1917– जहां ऊष्माधिक्य के कारण मलहम अत्यन्त अंगारधानी, चुल्लि, चूल्हा मे० चतुष्क । ३- मृदु हो जाती है, वहां पर साधारण बेसिस के (A bud in general ) कली। स्थान में इण्ड्योर्ड लार्ड) दबाकर कठोर की अङ्गारी angari-सं० स्त्री० (A portable हुई ) शूकर वसा, विशुद्ध भेड़ की वसा और fire-pan) छोटी कड़ाही । आ० सं० ई० श्वेत वा पीत मोम उपयोग में ला सकते हैं। अङ्ग एण्टम् प्रायोडाई Unguentum iodiअङ्गारोय angariya-सं० त्रि०, कोयला बनाने ले० प्रायोडीनानुलेपन, नैलिक प्रलेप (Iodineमें प्रयुक्त होना, ( To be used in pre ointment) । संयोगी अवयव-श्रायोparing coal) डीन ( नैलिका ), पोटाशियम् (पांशुजम् ), अङ्गार्कित angarkita-स. ( Fried ) भूना श्रायोडाइड (नैलिद), मधुरीन (ग्लीसरीन ) हुआ | प्रा० सं० इं० डि०। लार्ड (शूकर वसा) । शक्ति ४ । देखोअङ्गिका angika-स. स्त्री० कञ्चक, सर्पका श्रायोडम् । नि० फा०। काँचुल, ( The skin of a serpent, | अङ्ग एएटम् अायोडा-पैराफ़ोनी Unguentum slough.) ___ Iodoparaffini-ले० नैल-पैरानीन प्रलेप । अङ्गिरः angirah-सं० पु. ( Partr देखो-आयोडोफ़ॉर्म । ____idge) तित्तर पक्षी, तीतर। . अङ्गएण्टम् श्रायोडोफामाई Unguentum अङ्गिरसीः angirasih- सत्रि० (१) अंग या Iodoformi-ले० प्रायोडोफॉर्म प्रलेप । शरीर में रस उत्पन्न करने वाली औषध । (२) (Iodoform ointment ) i EROTITÀ शरीर शास्त्र बेत्ता । (अथ० सू० ७, १७, अवयव-प्रायोडोफॉर्म तथा शूकर वसा ( लार्ड का०८)। या पैरामीन अॉइण्टमेण्ट ) शक्ति-१० % अङ्गएण्टम् unguentum-ले० (ए० व०)। देखो-आयोडोफॉर्म । बी० पी०। अंग्वेण्टा Unguenta (व० व०) ऑइण्टमेण्ट Ointment ( ए० व०) ऑइंट अङ्गुएण्टम् श्रायोडोफामाई कम एट्रोपीना unमेण्ट्स Ointments (व. ब.)-इं० । guentum [odoformi cum atro pina-ले० धत्तूरीन व प्रायोडोफार्म प्रलेप । मलहम, अनुलेप-हिं० । मर्हम् (ए० व०), देखो-प्रायोडोकॉर्म। मराहम (व.ब.)-अ०, फ़ा। __ अंग्वेण्टम् अर्थात् मलहम एक या अनेक अङ्ग एण्टम् आलियो रेज़ाइनी केप्सिसाई औषधों को किसी प्रकार की वसा या तैल प्रभृति | unguentum oleo-resine capमें मिलाकर निर्मित किया हुश्रा एक अर्ध तरल sici-ले० रक्त मिर्च प्रलेप । For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रङ्गुएण्टम्-इक्थिश्रॉल अङ्गुषण्टम् इक्थिनॉल unguentum ichthyol - ले० इक्थिनॉल प्रलेप | गुटम् इकोनाइर्शनी unguentum aconitine-ले० विषीन वा वत्सनाभीनानु लेपन (aconite ointment) संयोगी अययव एकोनाइटीन ( वत्सनाभीन ), शुकर वसा (लार्ड) ऑलीइक एसिड । शक्ति२ % देखो - वत्सनाभ । बी० पी० । अङ्गुरण्टम्एक्कीरोज़ी unguentum aque rose - ले० गुलाब जलानुलेपन ( Rose water ointment ) संयोगी श्रवयवगुलाब जल ( रोज बाटर ), ह्वाइट बीज़वैक्स ( श्वेत मधूच्छिष्ट ), बोरैक्स (टङ्कण), श्रामण्ड ऑइल (बादाम तेल ) तथा गुलाप तैल ( ऑइल ऑफ़ रोज़ ) शक्ति - २० (१३ में ७ रोज वाटर ) देखो - एक्का रोज़ी । अङ्गुषण्टम् एमोलिएन्स unguentum Em olliens ले० श्रङ्ग्वे एटम् एका रोज़ी ( गुलापार्क प्रलेप | देखो गुलाप वा एक रोज़ी | अङ्गुण्टम् एलिमाई unguentum clemi -ले० एलीमाई प्रलेप | देखो - श्ररण्य बातादि ( नं० ३ ) 0 गुण्टम् एसिडाई कार्बोलिसाई unguentum acidi carbolici--ले० कार्बो लिकाम्ल प्रलेप | ( Carbolic ointm ent) संयोगो श्रवयव - फेनोल, हाइट पैराफ़ीन इस्टमेट | शक्ति ३ । देखो - एसि डम् कार्बोलिकम् । अगुण्टम् एसिडाई बोरिसाई unguentum acidi borici-ले०, टङ्कणाम्ल प्रलेप (Boric ointment ) । संयोगी श्रवयव बोरिक एसिड ( ट कणाम्ल ), ह्वाइट पैराफ्रीन श्राइण्टमेण्ट | शक्ति - १०% | देखो - एसिडम बोरिकम् | बी० पी० । अङगुटम् एसिडाई सैलिसिलिसाई ungu entum acidi salicylici-ले० सैलि | सिलिकाम्ल प्रलेप ( Salicylic Acid ointment) संयोगी श्रवयम- सैलिसिलिक एसिड, ह्वाइट पैराफ्रीन ग्राइण्टमेण्ट | १४ १०५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगुएरटम् कॉक्युलाई शक्ति- २ | देखो - एसिडम् सैलिसिलिकम् । बी० पी० । अगुण्टम् पेट्र पीनो unguentum atropine. ले. धचूरीन प्रलेप ( Atropine ointment ) संयोगी अवयव - ऐट्रोपीन ( धतूरोन ), श्रीलीइक एसिड, लार्ड ( शूकर वसा ) । शक्ति - २ % | देखो - बिलाडोना | बी० पी० । श्रगुरण्टम् पेट्रोपीनी कम एसिडो बोरिकां unguentum atropinæ cum aci do borico - ले० धत्तूरीन व टोकयामा प्रलेप । संयोगी श्रवयव-ऐट्रोपीन, बोरिक एसिड तथा सॉफ्ट पैरालीन । देखो-विलाडोना । श्रृङ्गुएण्टम् षट्रोपीनी कम कोकीन ungu entum atropine cum cocainæ - ले० धतरीन व कोकीन प्रलेप । संयोगी श्रवयव - ऐट्रोपीन, कोकीन तथा सॉफ्टपेशफीन देखो - बिलाडोना । गुटम् ऐट्रोपीनी डाइल्यूटम् ungue entum atropince dilutum-ले०. जल मिश्रित ( हलका किया हुआ) धत्त रीन प्रलेप । संयोगी भवयव - ऐट्रोपीन तथा पीत मृदु पैराफ़ीन | देखो - बिलाडोना । श्रृगु एण्टम् ऐण्टिमोनियाई टार्टरेटो ungu entum antimonii tartaratæ -ले० टार्ट रेटीय अञ्जन प्रलेप, वामकनमक प्रलेप ( ointment of tartarated antimony ) । संयोगी श्रवयव-टार्टरेटेड ऐस्टिमनी, सिम्प्ल श्रइण्टमेण्ट | देखोश्रञ्जन । श्रङ्गुएण्डम् श्रोपियाई unguentum Opi -ले० अहिफेनानुलेपन, अफीम प्रलेप ( opium Ointment)। संघोगी श्रवयव - एक्सट्रैक्ट ओफ श्रपिश्रम् ( अहिफेन सत्य, स्पर्सेसेटाई श्रइण्टमेण्ट । देखो-पोस्तागत ( अफीम ) अङ्गुषण्टम् कॉक्युलाई unguentum cocculi-ले० काकमारी प्रलेप ( Kakmari ointment )। संयोगी अवयव- काकमारी बीज, प्रीपेयर्ड लार्ड | देखो - कोकमारी । For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रङ्गुएण्टम्-केश्रोलीनी www.kobatirth.org १०६ अङगुण्टम् केओलीनी unguentum kao lini - ले० केश्रोलीन ( चीन मृत्तिका ) प्रलेप । संयोगो श्रवयव-वैज़ेलीन, हार्ड पैराफ्रीन, केप्रोलीन | देखो - केनोलीनम् | अगुण्टम् कैन्थेरीडाइनाई unguentum cantheri dini-लं० तेलनी मक्खी प्रलेप ( Cantheridies ointment ) । संयोगी श्रवयव - कैन्थेरीडीन, बेओएटेड लार्ड, क्लोरोफार्म । शक्ति - ०.०३३ । बी० पी० । देखो - कैन्थेरिस | अङगुपदम् कैप्सिसाइ unguentum cap sici-ले० कुभिरच ( रक्त मिरचा ) प्रलेप | ( capsicum ointment, chilly paint ) । संयोगी अवयव - कैप्सिकम् फ्रंट ( रक्त मिरच ), हार्ड एण्ड सॉफ्ट पैराफ़ीन ( कठिन व मृदु पैराफ़ोन ) और लार्ड ( शूकर बा) । शक्ति २५% । देखो रक्त मिरच बी० पी० । । गुटम् कोकीat unguentum cocaiin ) - ले० कोकीन प्रलेप ( cocain ointment ) संयोगी अवयव - कोकीन ऑलीइक एसिड तथा लार्ड । शक्ति ४ देखो - कोका। बी० पी० । अंगु एण्टम् कोनियाई unguentum conii - ले० शूकरान लेप | ( conium ointm ent ) । संयोगी अवयव-जूस श्रॉफ कोनाइम ( शुकरान स्वरस ) हाइड्स वूल फैट । शक्ति १ में २ | देखो - को नाइम् । वी० पी० । अङ्गु एण्टम् क्युपाई ऑलिएटिस unguentum cupri oleatis-ले० ताम्र श्रलिएट प्रलेप | संयोगो श्रवयव कॉपर श्रालि, एट सॉफ्ट पैरीीन । देखो -ताम्र । अङगुण्टम् क्राईसारो बाईनाई unguentum Chrysarobini - ले० काईसारोबीन प्रलेप (Chrysarobin ointment) संयोगों अवयव - क्राइसारोत्रीन और सॉफ्ट पैराफीन ( या बेज्ज़ोएटेड लार्ड ) । शक्ति४/०। देखो - श्ररारोबा । बी० पी० । 1 श्रृंगुएएटम् जिन्साई प्रालिएटिस श्रङ..! एण्टम् क्रियोज़टाई unguentum creosoti किमोट प्रलेप ( Creosote ointment ) संयोगो अवयव क्रियोजूट, हार्ड एण्ड सॉफ्ट ( ह्वाइट ) पैरालीन । शक्ति - १०% देखो - क्रियोजूट | बी० पी० । गुटम् गाइनोकार्डोई unguentum gynocardiå- ले० मूग प्रलेप (Ointment of chaulmogra oil) संयोगी श्रवयव - चालमूगरा तैल, हार्ड और सॉफ्ट पैराफीन देखो - बालमूगरा । शक्ति१० । ० पी० । अगुएरटम् गॉली unguentum galle - ले० माई ( माजू) प्रलेप ( gall ointment ) संयोगी अवयव - गारज ( माई ) तथा बेन्जोएटेड लार्ड । शक्ति-२० । देखोमाई। बी० पी० । श्रङ गुएरुटम् गॉली कम् ओपियां unguentum galle cum opio - ले० माई व अहिफेन प्रलेप ( Gall and opuim ointment ) संयोगी अवयव-गाँव श्रीइण्टमेन्ट तथा श्रोपिथम् ( अफीम) । शक्ति७। देखो - माई | बी० पी० । श्रङ्गुपण्टम् चॉलमूम्रो unguentum chaulmoogræ-ले० ० अङ गएण्टम् गाइनोका| चांगले । बी० पी० । अङ्ग, गुएण्टम् ग्लीसराइनाई लम्बाई सव रसिदै टिस unguentum glyceriri plumbi subace ta tis-ले० मधुर सीसक सबएसीटेट प्रलेप ( glycerin of lead Suba.c etate ointment) संयोगी अवयव - सबएसीटेट, हाइट पैराफ्रीन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इटमेण्ट | देखो सीसक । गुटम् ज़िन्साई unguentum zinci ० यशद प्रलेप ( Zinc ointment )। संयोगो श्रवयव - जिङ्क अॅक्साइड (जद भस्म ) बेओएटेड लार्ड । शक्ति - १२ । देखो यशदम् । बी० पी० । अङ्ग एटम् ज़िन्साई श्रलिएटिल unguentum zinci oleatis. ० यशद For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अङ्ग एण्टम् ज़िन्साई १०७ . श्रङ्ग एण्टम् प्लम्बाईसबएसिटैटिस ऑलिएट प्रलेप (zinc oleate oint-| अङगएण्टम् पाइसिस माली unguentum ment) संयोगी अवयव ज़िल प्रालिएट । picis molle-ले. मदुकान्तरान (चदैव जिंक सल्फेट, हाई सोप, जल, हाइट सॉफ्ट तैल ) प्रलेप । संयोगी अवयव-टार,बेम्ज़ वैक्स पैरामीन शक्कि १००% । बो० पो० देखो-यशद । श्रामण्ड प्राइल (वाताद तेल)। देखो-पिक्स प्रङ गुएण्टम् ज़िन्साई कम एसिडो सैलि- लिक्विडा (या देवदारु) सिलिको unguentum zinci cum प्रङ गएण्टम् पैराफ़ाइनी unguenturm acidosalicylico-ले. यशद व सैलिसि- paraffini-ले० पैराफ़ीन प्रलेप (Para. लिकाम्ल प्रलेप । संयोगी-अवयव सैलिसिलिक ffin ointment) संयोगी अवयव--हार्ड एसिड, जिंक श्राइण्टमेण्ट, सौफ्ट पैराफीन ।। और सॉफ्ट पेराफीन श्वेत या श्वेत व पीत देखो-यशदम् । मधूच्छिष्ट ( हायट या हाइट एण्ड एलो बीज भङ गुएण्टम् डायाकिलाई unguentum | वैक्स )। शनि १७ 0/0 | बो० पी० । देखोDiachyli-ले० हेब्रास प्रलेप (He bras पैराफीनम् । .. ointment) संयोगो अवयव ले प्लाष्टर, | अङगुएण्टम् पोटेसियाई आयोडाइडाइ ungu श्राइल प्राफ लेवेदर । देखो-सीसकम् । entum potasii iolidi-ले० पाशनैलिद भक गुपएटम् थाइमोल unguentum प्रलेप (Potassium - Iodide oint thymol-ले. थाइमोल (बन पुदीना ) ment ) संयोगों अवयत्र-पोटासियम प्रलेप । संयोगो अवयव वैजेलीन व थाइमोल । प्रायोडाइड, पोटाशियम कार्बोनेट, जल और देखो-थाइमोल, पुदीना। बेम्जोएटेड लाई। शक्ति-100/01 बी० पी० अडगुपएटम् नेफ्थोलिस · unguentum देखो-पोटेशियम । naphtholis-ले. नैक्रयोल ( कपूर अङगुएएटम् पोटेशी सल्फ्युरेटो ungueकोलटार) प्रलेप (Kaposis ointment)। Intum potasse sulphurate-तो. " संयोगी अवयव-बीटा नैफ्थोल तथा लार्ड। पांशु गन्धेत प्रलेप । संयोगी वयव-सम्पयु. देखो-नेफ्थोल । रेटेड पोटास, हॉर्ड पैराफ़ीन, सॉफ्ट पैराफीन । मगुएण्टम् नैपथोलाई कम्पोज़िटस ungu- देखो-गंधकम् ( या पोटाशा सल्फ्युरेटा)।' entum naphtholi compositus- मङ गुपएटम् प्लम्बाई आयोडाइडाई ungueले. मिश्र नैफ्योल प्रलेप । संयोगी अवयव ntum plumbi iodidi-ले० सीसनैलिद नैफ्थोल, बार्ट, ग्रीन सोप, प्रीपेयर्ड चौक । । प्रलेप ( Iodid of lead ointment) देखो-नक्थोल संयोगी अवयव-लेड आयोडाइ (सीस मगुएण्टम् पाइलोकार्पानी unguentum नैजिद ), और बेन्ज़ोएटेड लार्ड। शनि-१००/ pilocarpine-ले. पाइलोकार्पोन प्रलेप । वी० पी० । देखो-सीसकम् . संयोगी अवयव पाइलोकार्पन, वैज़े लीन,लेनो. अजएण्टम् प्लम्वाई कार्बोनेटिस unguen देखो-पाइलोकापीनों नाइट्रास tum plumbi carbonatis-ले० साँस अगुएएटम् पाइसिस लिकिटी unguen. कजलेत् प्रलेप ( Lead-carbonate'. tum picis liquidæ-àogia da ointment') संयोगी अवयव-जेड कार्योप्रलेप ( Tar. ointment )। संयागी - नेट (सीसभस्म )और पैराफीम । शक्ति-100/0 अवयव-टार, बार्ड, पीत मधूनिट (एलो -देखो-सीसकम्। वीज बैक्स)। शक्ति ७०० बी० पी० मन गुपएटम् लम्बाई सवपसीटटिस ungueदेखो-पिक्स लिकिडा (या देवदारु) ntum plumbi suhacetatis-ले० वाल For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्ग एएटम् विम्युथाई प्रॉएएटम् वेरेट्राइनी सीससबएसीटेट प्रलेप (Lead subace ungnentum myrobalani cum tate onitment ) संयोगोअवयव- opio-ले० हरीतकी व अहिफेन प्रलेप स्ट्राँग जाइकर (तीषण), वूल फैट (उावसा)। (ointment of myrobalan with हाई व साफ्ट पैराफीन । शक्ति-१२ 0/01 opium) संयोगो अवयव-हरीतकी प्रलेप बो०पी०। देखो-सीसकम् । तथा अहिफेन । देखो-हरोत की । बी० पी० । मगुएण्टम् बिडम्युथाई unguentum | अङ गुएस्टम् माइलेब्रिडिस unguentum bismuthi-ले० स्वर्णमाक्षिक प्रलेप ( Bis. myla bridis स्निग्धमाक्षी प्रलेप ( Myli. muth ointment)। संयोगी अवयव- bris ointment) देखो- केन्थेरिस । विस्मय सबनाइट्रेट, लार्ड । देखो-बिमथम् अङ गएण्टम मेटेलोरम unguentum meअगुपएटम् विम्युशाई आक्साइडम् ungu- ___tallorum ले. खनिज प्रलेप । संयोगी entum bismuthi oxidum-ले० स्वर्ण- अवयव-मक्युरिक नाइट्रेट प्राइण्टमेरेट, लेडमाशिक भन्न प्रले। संयोगा अवयव- एसीटेड प्राइस्टमेण्ट और जिङ्क प्राइस्टमेरट । विमथ आक्साइड, पालीइक एसिड, श्वेत देखो-पारद। मग्विष्ट। मोम । (साफ्ट) पैराफ़ीन | देखो- | अङ गुएरटम मेन्थोलाई ॥mguentum mer.. विम्यथम् । tholi-ले० मेन्योल प्रलेप (Menthol मगुपएटम् बिलाडोना unguentum be- _ointment) संयोगी अवयव-मेन्योलाई iladonnie-ले० बिलाढोना प्रक्षेप (Be- २१, बालसम अॉफ पेरू ५ तथा लेनोलिनाई lladonna ointment ) HOT १००। पी० वी० एम० । देखो-मेन्धील । अवयव-शिकिड एक्सट्रैक्ट चौफ बिलाढोना अङगु एण्टम् युकलिप्टाई unguen tum (बिलाडोना तरल सत्व 'वाप्पीभूत'), बेजो- __eucalypti-ले० युकेलिप्टस प्रलेप ( Eu. एटेड बाई और वन फैट ( उर्ण वसा) calyptus ointment) संयोगी अव. शक्ति-०६०0/0 अनकनाइड (क्षारीय सत्व) यव-प्राइल आफ युकेलिप्टस, हार्ड पैराफीन, बो० पी० । देखो-बिलाडाना। साफ्ट (साइट ) पैराफीन । शक्ति-१०0/0। मक गुपण्टम् बेजोईनी unguentum be देखो-युकेनिष्टाइ.। बी० पी०। nzoine से बोमनानुलेपन, कुन्दुरु प्रलेप । अङ गुएटम रेज़ाइनी umguentum desinae संयोगी अवयव-बेज़ोईन, एडेप्स (शूकर -ले. राल प्रलेप ( Resir ointme t) वसा)। देखो-कुन्दुरु या वेडाईनम् । संयोगो अवयव-रेजिन ( राल ), एलो बीज मागुएण्टम् बोरेसिस unguentum bo वैक्स (पीत मधूच्छिष्ट )। लिङ्क प्राइल racis-ले० टकण प्रलेप ( Boric oint ( जैतून तेल) तथा लार्ड (शूकर वसा)। ment) संयोगी अवयव-बोरेक्स (टकण) शक्ति:-२६९/0 (३१ में 1)। बी० पी० । स्पमेंसीटी आइएटमेरट (मत्स्य वसा प्रलेप) देखोराल। . देखो-रडणं । प्रङ गुएरटम् लेनी का unguentum lane भङ गएएटम् मारोवेलेनाई unguentum co-ले० संयोगी अवयव-लार्ड, वृत्त myrobalani-ले० हरीत की प्रलेप . फैट तथा पैराफीन बाइस्टमेण्ट । शक्ति( Ointment of myrobalan ) ४०0/01 बो० पी०। संयोगी अवयव-हरीतकी चूर्ण तथा बेओए- | अगुपएटम् वेरेट्राइनो unguentum va. रेड लाई। देखो हरोतंकी। बी० पी०। retrine-ले० अमरीका विडिका सत्व मागुएण्टम् माइरोबेलेनाई कम भोपियो । प्रलेप (Varetrni ointment) संयोगी For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगुएण्टम् सल्फ्युरिस १० अङगुएरटम् हाईडार्जिराई श्रावसाईहाई पलेवाई अवयव बेरेट्रीन प्रालीहक एसिड तथा लाई ।। chloritis-ले० संयोगी अवयवशक्ति-४५ में १ । देखो-बेरेट्राना सब्लाइड सल्फर (कर्व पातित गंधक), अगुपएटम् सल्फ्युरिक unguen tam एसेन्शल प्राइल श्राफ भामर ड्ज (स्थिर वाताद sulphuris-ले. गंधकानुलेपन (Sul. तेल ), प्रिपेयर्ड लार्ड, सरफर क्लोराइड (गंधक phur ointment) संयोगो अवयव- हरिद)। देखो-धन्गकम् । सबलाइम्ड सल्फर (ऊर्ध्वपातित गंधक) तथा | अङ गुपएटम् सिटेस्बिाई unguentum बेन्जोएटेड नार्ड । शक्ति-१००/0 । बी०पी० । cetaceir-ले. ह्वेल मत्स्य शिरो वसा प्रलेप देखो-गंधकम् । ( Spermacute ointment ) अगुएराटम् सल्फ्युरिस आयोडाइडाई un- संयोगी अवरच-स्पसेटाई, हाइट बीज guentum sulphuris iodidi-ले० वैक्स (श्वेत मधूच्छिष्ट) लिहिड पैरोफ़ीन । गंबक नैलिद प्रलेप (Sulphur iolide शक्ति-२०0/) । देखे- बी० पी० । ointment) संयोगी श्रव-व-सल्फर अङ गुपएटम् सौलोल कम को न ungu. थायोडाइड, ग्लीसरीन तथा बेन्जोएटेड लोर्ड। entum salol cum cocain-mo शक्ति-२५ में १ । देखो-गन्धकम् । सैलोल कोकीन प्रलेप। संयोगी अवयव-सैश्रङ गुपएटम् सल्फ्युरिस एट रिसासनिा लोल, कोकीन हाइड्रोलोराइड, पेट्रोलियम् साइ. ungue: tum sulphuris et reso- ट्रेट। देखोसेलोल । rciti-ले० गधक व रिसासन प्रलेप । अङ गुएराटम् स्टैफिसैनिई unguentum संयोगो अवयव-प्रेसिपिटेटेड सल्फर, रिसा- staphisagrin-ले० अरण्यद्राक्षा वा सन, सॉफ्ट पैराफ़ोन पीत । बो. पो० सी० । स्टैफिसैग्री प्रलेप (staphisagrie oint. देखा-गंधकम् । ment) संयोगी अवयव स्टेवी सैक्री सीअह गुपण्टम् सल्फ्युरिस कम्पोज़िटम् ungu. | ड्स । येलो बोजवैक्स (पीत मधूच्छिष्ट ) तथा entum sulphuris compositum बेन्जोए टेड लार्ड । शक्ति २० % बी० पी० । ---'ले. मित्र गंधक प्रल्नेप, विल्किन्सन प्रलेप | देखो-स्टैफीसग्री। (wilkinso:'s oirtment) संयोगी | अङ गुएण्टम् हाइडार्जिराइ unguentum अवयव-साफ्ट सोप, सब्लाइन्ड सल्फर hydrargyri-ले० पारद प्रलेप (Mere(ऊर्वपातित गंधक)। प्रेसिपिटेटेड चौक, टार, ury ointment) संयोगी अवयव-म. लाई (शूकर वसा ) बा० पी० सी० । देखो- करी (पारद ) वेजोएटेड लार्ड । प्रिपेयर्ड गन्धकम्। स्वेट (शुद्ध मेप वसा ) शक्ति -३० % । बी० अङ गुएण्टम् सल्फ्युरिस कम हाइडार्जिरो पो० । देखो पारद। ungue:ntum sulphuris cum hy- अङ्गपण्टम् हाइडार्जिराइ प्रायोडाईडाई रुबाई drargyro-ले. गंधक व पारद प्रलेप । ungnentum hydrargyri lodidi संयोगी अवयव-सब्लाइमड सल्फर (ऊर्ध्व Tubri-ले० संयोगो अवयव-रेड प्रायोडापातित गंधक ) मक्युरिक-सल्फाइड (पारद इड । वेज़ोएटेड लार्ड । शक्ति-४%। बो० गन्धिद), एमोनिएटेड मर्करी, पालिव प्राइल पी०। देखो-पारद। (जैतून तैल,) लाई (शूकर वसा) देखो ( शूकर वसा ) दखा- | अङ गुररुटम् हाइडार्जिराई श्रॉक्साईडाई फ्लेवाई गन्धकम् । unguentum oxidi flavi-ले. पीत भङ गुएण्टम् सल्फ्युरिस हाइपोक्लोराइटिस पारद भस्म प्रलेप ( yellow mercuric unguentum sulphuris hypo- oxide ointment ) संयोगी अवयव For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रङ्गुएरटम् हाइड्रार्जिराई श्रॉक्साईडाई रुबाई. बो० एलो मक्युरिक ऑक्साइड ( पीत पारद भस्म ) सॉफ्ट पैराफ़ीन (एलो) शक्ति - २ % । पो० | देखो - पारद । अङगुपरटन् हाइडार्जिराई ऑक्साईडाई रुबाई uguentum hydrargyri oxidi rubri-ले० र पारद प्रलेप redmercuric oxide ointment) संयोगी श्रवयव-रेड मक्युरिक श्रीक्साइड ( रक पारद भस्म ) पराफ़ीन ऑइस्टमेण्ट (पीत) शक्ति - १० % । बी० पी० | देखो पारद । श्रङ गुबण्टम् हाइड्रार्जिराई मोनिएटी unguentum hydrg- ammonia ti-o पारदेमोनी प्रलेप ( ammoniated _m3rcury oi tment ) संयांगो श्रवयव एमोनिएटेड मर्करी, बेन्जोएटेड बार्ड । शक्ति५% । बो० पी० | देखो - पारद । अङगुटम् हाइड्राजिराई श्रलिपटी ) unguentum hydrarg oleatiमक्युरिक श्रीजिएट ग्राइण्टमेण्ट ( Mercaric oleate ointment ) संयोगो श्रवयव मक्युरिक श्रलिएट, बेन्ज़ोएटेड लाई शक्ति - २५ % । बी० पी० । देखो - पारद । अगुएरटम् हाइड्रार्जिराई कम्पोज़िटम् ungu entum hydrarg compositum ) ले० मिश्र पारद प्रलेप ( Compound me rcury ointment ) स योगी श्रवयव मर्करी श्रइण्टमेण्ट, थालि घइल ( जैतून तैल एलो बीजचैवस ( पीत मधूच्छिष्ट ), कर्पूर । शक्ति - १२ % पारद । बी० पी० । देखो - पारद | अङ्ग एण्टम् हाइड्रार्जिराई डाइल्युटम् ungu entum hydrarg Dilutum-ले० जल ११० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गुणः ric nitrate ointment, citron Pointment) संयोगी श्रवयव-मर्करी ( पारद ) नाइट्रिक एसिड ( शोरकाम्ल ), बार्ड ( शूकर वसा ) तथा श्रलिव बॉइल (जैतून तैल ) शक्ति १३ % । पारद । बी० पी० । देखो-पारद । श्रङ्ग एण्टम् हाइड्राजिंराई नाइट्रेटिस डाइल्युटस unguentum hydrg nitratis dil. -ले० जलमिश्रित शोरकपारद प्रलेप (Diluted mercuric nitrate ointment ) संयोगी अवयव मयुरिक नाइट्रेट इस्टमेट, सॉफ्ट पैराफ्रीन ( पीत ) शक्ति २०% । उक्त प्रलेर बी० पी० । देखोपारद । अङगु, एण्टम् हाइड्रार्जिराह मीटिअस unga entum hydrg. mitius - ले• अगुवराटम् हाइड्र: जिंगर डाल्युटम् देखो - पारद । श्रङ्ग एण्टम् हाइड्राजिराई सबक्लोराइडाई unguentum hydrarg subchloridi-बे० रसकपूर प्रलेप ( Mercurous chloride ointment, calomel ointment) संयोगी अवयव मर्क्युरेस क्रोराइड तथा वेन्जोएटेड लाई । शक्ति २० % । बी० पी० । देखो पारद । अङग ुइण्टभ् हेमेमेलिडिस unguentum hamamelidis--ले० हेमेनेलिस प्रलेप ( Hamamelis ointment ) संयोगो श्रवयव लिक्विड एक्सट्रैक्ट श्रीफ हेमा मेल्लेडिस, सॉफ्ट पैराफ़ीन तथा वूलफैट (ऊसा ) | शक्ति – १०% । बी० पी० | देखो हैमेमेलिडिस ( मेमेसि वर्जिएना ) मिश्रित पारद प्रलेप ( Ung. hydrg | अङ्ग, angul -उ० प० सू० २-Fraxinusf]mitiusor blue unctio ) संयोगी श्रवयव-मर्करी श्रइण्टमेण्ट ( पारद प्रलेप ) तथा लार्ड (शूकर वसा) देखो - पारद । श्रङ्गु एस्टम् हाइड्रार्जिंराई नाइट्रेटिस unguentum hydrarg ritratis ले० नागरंग प्रलेप पारद नाइट्रेट प्रलेप, ( mercu oribunda, Wall. अङ्गन । मे० मो० । अङ्गुः anguh- सं० पु० 1 - ( A hand ) हाथ आ० सं० ई० डि० । श्रङ्ग ुणः angunah - सं० पु० ( Solanum melongena,Linn. ) वार्ताकी, वैगन, भांटा। बेगुन- बं० श० र० । For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गु रि:--,री अङ्गुलिमानम् अारि:-री angurih, ii-सं० स्त्रो० ( A । यन्त्र विशेष । अङ गुश्ताना अङ गुष्टाना । वा० ___finger ) अंगुनी, हाथ पैर को अँगुली। सू० २५ अ० । (A finger-protector) अ० टी० । देखो-अंगुलिः। । अङ गुलिनलकम् anguli-nalakam-सं० अङ्ग रीयः anguriyah-सं० , क्ली०, अंगु- क्ली० ( Phalange) अङ गुल्यस्थि । रीयक | श्राड-टि बं० । अंगी। अङ गुलिपञ्चकम् anguli-panchakamअङ्ग रु anguru सिं० Carbon लकड़ीका सं०क्लां (The five fi.gers) कराङ्गुलि कोयला ( Charcoal) ई० मे० मे । स० पञ्चक-हाथकी पांच उंगलियाँ जिनके नाम ये हैंफा० ई०। श्रङ गुप्ता, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और अङ्गलः angulah-सं० पु. (1) A finger: कनिष्ठिका । अङ्गुली । ( २ ) Thumb अङ्गा । अङ गलिपर्व anguli-parvva-सं० क्ली० (३ ) A finger's bre dth (n.i अङ गुल्यस्थि, पर्व, पोर्वे, पोर, श्रङ गुलिग्रन्थि । also ), equal to 8 barley corns | उँगलियों की पोर, उँगली का गाठ वा जोड़ लम्बाई की एक नाप । देखो-अंगुल । ( Phalanx,phalan xes ) फैलेजी अङ्गलः angulah ) सं० ० स्त्री०, १ Phalange (ए. ३०), फैलेझीज़ Pha अलिः angulih ( figer) अंगुली | langes (व. व०) इं०। मैंगुरी, करपाद शाखा | अगुश्तका | पाँचों अंगु. बुजुमा, (ए०व०), बराजिम् (व०व०)। लियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं । यथा- सुलामा (ए० व०), सलामय्यात् (व०व०) अगुष्ठ, प्रदेशिनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा, --अ०। रा०नि० व० १८ । प्राङ्गुल-बं० [२] ___ अङ गुट में दो और शेष अउ गुलियों में तीन गजकर्णिका वृत्त । (३) हातिशुड़े बं० । तीन पर्व अर्थात् अस्थियाँ होती हैं। पहिली पंक्रि करिशुडान भाग, हाथोशण्डो ( Heliotro- के पोर्वे सब से लम्बे और मोटे होते हैं। दूसरी pium Indicum, Lim) हे० च० पंति के इनसे छोटे और तीसरी पंक्रि के सब से (४) वृद्धांगुष्ठ, अंगून ( Great-tac) छोटे होते हैं । अगुष्ट में केवल दो ही पक्रिया (५) लम्बाई का एक नाप । अङगल The हैं, अङगुम का दूसरा पोवों शेष अङ, गुलियों के measure. तीसरे पोर्वे के सदृश होता है। तीसरे पोर्वे पर नख लगे रहते हैं, इन तीसरे पोवों को शकल प्रङ लिकरटकः anguli-kantakah-सं० go a A finger nail ( Helix घोड़े के खुर जैसी होती है । अङ्गुष्ठ के पोर्वे शेष ashera ) अगुलियों के पोत्र से मोटे होते हैं। प्रङ गलिका angulika-सं० स्रो० दे० अंगुली। अङ्ग लिप्रसारणी पेशी anguliprasaraniप्रहग लितोरणं anguli-toranam-सं० ___poshi-,हिं० स्त्री० (Extensor of the क्लो० ललाट में चन्दन प्रति द्वारा श्रङ कित finger उंगलियां फैलाने वाली पेशी । अर्द्ध चन्द्राकार चिह्न विशेष, तिलक विशेष । अङ गुलिफला anguli-phala-सं० स्त्री० देखो अंगुलितोरण। A sort of pulse ( Paseolus प्रङ गुलि angulitram-सं० हाथ की पांच | radiatus.) श्वेतनिष्पावः,सफेद सेम । श्वेत अंगलियां जिनके नाम ये हैं :-अंगुष्ठ, तर्जनी शिम्-बं० । रा०नि०। मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा। अङग लिमानम् anguli-manam-सं० क्ली० प्रङ गलिताणकम् anguli-tranakama- श्रङ गुलि से योजन पर्यन्तमान यथा । - यव सं. क्ली० प्रङ गुलित्राणक यन्त्र, उक्न नाम का १ अङ्गुल । २४ अगुल-१ हाथ । ४ हाथ For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुलिमुखम् १ दंड | २००० दंड १ क्रोश | ४ क्रोश== १ योजन | अङगुलिमुखम् angali-mukham-सं०ली० (The forepart of thefinger) श्रङ्गल्यग्रभाग श्रीका का हिस्सा | अङगुलिलसन्धि anguli-mūla-sandhi सं० [स्त्री० करभास्थि तथा अङ्गुल्यस्थिको मिलाने वाली सन्धि | मेटाकापों फैलेजियल् या मेटाटास फेलेजिअल् जाइस्ट ( Metacarpo phalangeal or Metatarso phalang | cal joints )-इं० । असिलुल् अस लुल् स्त्री- अ० । श्रङ्गुलिमोटनम् anguli-motanam अङ्गुलि-स्फोटनम् anguli-sphotauam सं०ली० ( snapping or cracking of the fingr ) अंगुलि तोड़ने का शब्द, अंगुलिमन शब्द अर्थात् जो शब्द अंगुली मन द्वारा उत्पन्न हो । त्रिका० । अङगुलिया थूहर auguliva thahar हिं० पु० छीनियां हुड़ । अङगुनियापोपर anguliyá pipara-हिंο पु० बड़ी पीपर । श्रङ्गुलिसंकोचनी पेशियाँ angulisankochani peshiyan-हिं०स्त्री० उंगली सिकोड़ने वाले पट्टे | श्रङ्गुलिसंकोचनी पेशी anguli-sankochanipeshi-foto (Flexor of finger ) उंगलियों को अन्दर मोड़ने वाली पेशी । गुलि संघ anguli sandhi- सं० स्त्री० ङ्गुलियों की सन्धि या जोड़ । डिजिटल थार्टीक्युलेशन ( Digital articulation ) इं० । मफ़िसलुल असायी अ-अ० । गुलिसम्भूतः anguli-sambhútah सं० पु० nail (Helix ashera ) नख रा० नि० व० १८ । अङग लि संज्ञा anguli-sanjyá--सं० स्त्री० यवागू (yavági) अंग ुलि संधि | ११२ गुल्यास्थ अङगुलित्राणकयन्त्रम् angulitranakayantram सं०ली०यह हाथी दाँत या काल का बनाया जाता है । इसका प्रभाग ४ अंगुल होता है, यह यंत्र के सह गौ के स्तन के आकार वाला छिद्रों से युक्र होता है, इससे मुख सहज में खुल जाता है । इस यंत्र से अंगुलियों की रक्षा दाँतों से हो जाती है । इसी से इसका नाम अंगुली प्राण यंत्र है । वा० सू० अ० । देखो - अंगुलित्राणकम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गुली anguli-स० स्त्री० १ - गजकर्णिका ( gajakarniká ) मे० लत्रिकं २ - ( A finger) अंगुली | अंगुलियों की अस्थियाँ | गुली माप । श्रङ गुलीय anguliya-सं० अंगूठी | गुली प्रसारिणी ( Anguli prasarini सं० स्त्री० अङ्गुली को फैलाने वाली पेशी । अजलद वासि तुल असावी - अ० । एक्सटेन्सर डिजिटोरम् कम्युनिस ( Extensor Digi torum communis ) - इं० । अङ्गुलीया धमनी anguliya-dhamaniसं० त्रो० शिरियान असावियद्द् अङ्गुली की पोप करने वाली धमनी ( Digital artery) श्रङगुल्याकुञ्चनी angulyákunchaniसं० त्रो० अङ्गुली को सिकोड़ने वाली पेशी । अजलह तारीजुल् असावी - अ० । फ्लेक्सर डिजिटोरम् सब्लिमिस ( Flexor Digitorum sublimis)-इं०। श्रृङगुत्युदर्या angulyudaryá - सं० स्त्री० याधरा पेशी । प्रॉपर वूलर डिजिटल ( Proper volardigital ) - इं० । श्रङ गुरुयस्थि angulyasthi स • स्त्री० ङ गुरुस्थानि angulyasthini-सं० स्त्री० गुलपर्व, पो ( Phalanx. ) ( व० व० ) श्रङ्गुल्यास्थियाँ angulyásthiyan - हिं० स्त्री० व० व० पंचे की हड्डियाँ ; ( Bone fingers )। For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रङ्गश्त ११३ अङ्गुष्ठ बहिर्नायनो nga angusht:1 - FOO 3-( A finger) Tari Mongoose ( Viveri mun अङ्गुली, अङ्गुरी--हिं० । २--एक माप जो लगभग : go )। २-( An arrow) वाण, तीर | ६ इंच के बराबर होता है। ३-( The अङ्गठः augushthah-सं० पु वृद्धांगुलि, thumb ) अङगुष्ठ । __ अगुष्ठांगुलि, अंगूा ( The thumb or श्रङ्गश्त--कोचक ungushta-kochak--फा० great tov )| अगुश्त बुजुर्ग-फा० पाँचों कनिष्ठा-सं० । कानी अगुली, छोटी अगुलियों में से सब से मोटी अंगुली । बुडो अङ्गुली, छंगुली--हिं० । लिट्ल फिंगर याङ्गुल-बं० । रा०नि०व०१८ | ३ | (Little finger)--ई। अङ्गष्ट अन्तरनायनो angushtha-antala. अङ्गश्त गन्दह angushta-gandah-फ़.. nayani- सं० स्त्रो० अंगुष्ठ को अन्दर की (Assafatida) हींग-हिं० । अङ्गोजह. ओर ले आने वाली पेशी । एड्डक्टर पॉलिसिस फा० । हिल्तीत-अ० । हिंगः, रामम्-सं०।। ( Adductor pollicis )-इ० । अजलह, हिंग-बं० । मो० श० । मुकर्रिबह, अस बइयह --अ० । अङ्गश्त दराज़ ngushta-lariza-फा० अङ्गुष्ठ पृष्ठ्या angushthin prishthya बृहदांगुलि, मध्यमा, बीचकी अंगुली, लम्बी -सं० स्त्रो० एरिएरिया डार्सेलिस हैल्युसिस अंगुली-हिं० । मिडल फिंगर (Middle (Aiiariat dal'salis Hallucis ) finger')-इं०। --इं०। अङ्गश्त दुश्नाम augushta-dashilāma- अङ्गुष्ठ प्रताननी पेशी angushtha prata अंगुश्त शहादत--फा० । तजनो,प्रदेशिनी, अंगू mani peshi-हिं० स्त्री० (Extensor के पास वाली अंगुली । नोर फिंगर ( Fore Primi ents nodii pollicis) अंगूठा finger )-इं०। खींचनेवाली पेशी। अङ्गश्त नर augushta mara-फा० ( The अङ्गष्ठ प्रत्याकुञ्चनो angushtha pratyakthimb) अङ्ग प्ठ। unchani--सं०स्रो० अंगुष्ठ सम्मुख कारिणी श्राश्त बर्ग angushta-balga-शो० छुछुन्दर, पेशी । पोनिअस पालिसिस (Opponcus FETHT | Molo,musk rat ( Sorex pollicis)-इं०। caerulescens) अङ्गष्ट प्रसारणी दीर्घा angus htha prasāअङ्गश्त वुजुर्ग angushti-birzarga-अङ्ग श्त- rani dirghā--सं० स्त्री० अङ्गप्ऽ को फैलाने. नर-फा० । अङ्ग प्ठः, अंगूठा--हिं० । थम्ब वाली दीर्घ पेशी । एक्सटेन्सर पालिसिस लोङ्गस (Thumb)-इं० । (Extensor pollicis longus)--इं० । श्रङ्गश्त मियानह mgushtia-miyanah-- अज़लह, बासितह असाबिअ यह कबीरह अ० । फा० (Middle finger) मध्यमा, बिजली अङ्गुष्ठ प्रसारणो ह्रस्वा angushtha-prasaअँगुली। rani-hrasva-- सं० स्त्री० अङ्गुष्ठ को अङ्गश्तरी angushtari-हिं० संज्ञा स्त्रो० फैलाने वाली ह्रस्वा (छोटी) पेशी । एक्स[फा०] अँगूठी । मुंदरी । मुद्रिका । टेन्सर पालिसिस ब्रेविस ( Extensor श्रङ्गश्त हरकह augushta-halqah-फा० pollicis bre vis )--इं० । अजलह बासि अनामिका, अंगूठी की अगुली, छंगुली तह असबइ यह, सगीरह-अ० । ( कनिष्ठा ) के पास की अगुली-हिं० । रिंग | श्रङ्ग प्ठ बहिर्नायनो angushthu-bahinaफिंगर ( Ring finger')-इं०। yani--सं० स्त्री० अङ्गष्ठ को बाहर (शरीर अङ्गषः aligushah-सं० पु. (1) नकुल, की मध्य रेखा से दूर ) ले जाने वाली पेशी । For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्ग ८४ बहिर्नायनी दीर्घा ऐडक्टर पालिसिस ( Abductor poll- अङ्ग ष्ठावर्तनीपेशी augushthavarttani. icis )-ई। अज़लह, मुबइ. इदह अस. .peshi-हिं० २. (Abductor polliबइयह-अ०। cis) अंगूठे को लपेटने वाली पेशी । अङ्ग प्ठबाहिर्नायनी दीर्घा augushtha-bahir- अङ्ग ष्टयः angushthyah-सं० ० (The nāyani-dirghā--सं० स्त्री० अङ्गुष्ठ को thumbnail) अंगूठा का नाखून । बाहर अर्थात् शरीर की मध्य रेखा से दूर ले जाने अङ्ग angi--उ०प० सू०अंगन । (Fraxinus वाली दीर्घ पेशी। एब्डक्टर पॉलिसिस लॉगस floribunda, Wall.) मेम। (Abductor pollicis longus ).to अङ्ग र angira-हिं० संज्ञा पुं०,फा०,०। (१) अजलह मुबइ इदह, असबइ यह तवील-अ०। दाक, दाख-हि। अगर, डाक-द०। संस्कृत अ. बहिर्नायनो ह्रस्वा angushtha पर्याय-कृष्णा, चारपला (ज), रसा (शब्दर०), babirnayaní-hrasvá-lo ao मृद्वीका, गोस्तनी, स्वाद्वी, मधुरसा (अ०), अगष्ठ को बाहर ( शरीर की मध्य रेखा से यक्ष्मनी (शब्दमा०), प्रियाला, तापसप्रिया, दूर) लेजाने वाली हस्त्र पेशी | ऐडक्टर पॉलिसिस ब्रेविस (Abductor pollicis गुच्छफला, रसाला, अमृतफला, स्वादुफला, हार हूरा, द्राक्षा, फलोत्तमा और सुफला सं० । brevis)-०। अजलह मुबइ इदहे अङ्गश्त सग़ीरह-०। द्राख्या, प्रांगुर-बं० । इनत्र, अनब-अ० । प्रष्ठ सङ्कोचनी angushtha-sanko प्रोज़म-तुर० । वाइटिस वाइनिफेरा Vitis chani-स. स्त्री. गुष्ठ को सिकोड़ने vinifera,linm. (Fruits of grapes) वाली (मोड़ने या भुकानेवाली) पेशी। फ्लेक्सर -ले० । प्रेप वाइन Grape-vine, पॉलिसिस ( Flexor pollicis)-ई। प्रेप Grapu, वाइन Vine (tree of-) अङ्ग प्ठ सङ्कोचनी दीर्घा angushtha-san -इं० । विग्नी कल्टिवी Vigne, Cultivee kochini dirghā-सं० स्त्री० अंगुष्ठ को -फ्रां० । एडलीवीनरीबी Edleweii.rebe , मोड़ने वाली दीर्घ पेशी। फ्लेक्सर पालिसिस रोजीनेन Rosine::-जर० । दिराक्ष - पज़म, लॉगस (Flexor pollicis longus) कोडि-मुन्दिरिप-पज़म,दिरा - परम (मो० श०); कोडि महि-ता० । द्राक्ष-पंदु, गोस्तिनिपण्डु, अङ्ग प्ठ सङ्कोचनो लम्बो angushtha- द्राक्षा-ते० । मुन्तिरिकप-पजम, मुन्तरि-परम, sankochani lambi-foto ESTO पच मुन्तिरिङप-पजम (मो0 श.)-मल। ( Flexor longus pollicis ) लम्बी द्रादी-हराणु (मा. श०), द्राक्षे-कना । श्रगूठा सिकोड़ने वाली पेशी। द्राक्ष, द्वादो-मह० । द्राख (मो० श०), द्राक्ष, अङ्ग ष्ठ सङ्कोचनी ह्रस्वा augushtha-san- ध्राख, मुद्रक-गु० । मुद्र-पलम्, मुद्रका (मा० kochani-hrasva-सं० स्त्री० अंगुष्ठ श०)-सिं० । सबीसी, सध्या-सी, या तीति को मोड़ने वाली हस्व पेशी । फ्लेक्सर पालिसिस -वर० । दादा-को। ब्रेविस (Flexor pollicis brevis ) सूर्यताप या कृत्रिम ताप द्वारा शुष्क किए हुए पक्व अंगूर - मुनक्का, सूखे अंगूर (कालीदाख ) AK TATTÎT angushțhákarshaại- -हिं० । मुनक्का,-द० । गोस्तनी, कपिलद्राक्षा, सं० स्त्री० अंगुष्ट अन्तरनायनी । एड्डक्टर मृद्वीका, कपिलफला, अमृतरसा, दीर्घफला, पालिसिस (Adductor pollicis)-'. । मधुवली, मधुफला, मधूलि, हरिता, हारहरा, अजलह मुकरिबहे अंगुश्त- अ० । सुफला, मबी, हिमोत्तरा, पथिका, हैमवती, शतअङ्ग छाना angushthānā-सं० स्रो० (१) वीर्या,तथा काश्मीरी (-रिका)-सं० । मोनक्ख, अगुष्ठ । (२) अंगुलित्राणक, अंगुरताना || मनेका, सस्का-द्राख्या-बं० । बीब, मवेज़, For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रङ्गर अङ्गर मुनका,-अ० । अंगूरे खु.एक-फा० । यूवी । Uvie, यूवी पैसी Uvie passe-ले० । रेजिन्स Raisins-इं०,फ्रां०। रोजिनेन Rosinen -जर० | Monaqqa मोनक्का-हि०,३०,फा०। उलन्दंदिराक्षप्-पज़म्, उलन्दद्राच-परम्-ता० । दोपद्राक्ष-पण्डु,सन्न-दान-पंडु,पंदु,द्राक्ष पंडु-ते। मुन्तिरिङ्प-पज म्, उणङ्यि -मुन्तिरिङ्ङप. पज़म् (-परम् )-मल०। दीप दाक्षि-कना। वेल्लिचे मुद्र-पलम्, वेलिश-मुद्रका-सिं० । सबीसी, सब्यासी या तबी-ति-- सर० । बीजरहित लघु द्राक्षा-किशमिश, बेदाना-हि०, द०, फा० । काकली द्राक्षा, जाम्बुका, फलोत्तमा, लघुद्राक्षा, शुद्र द्राक्षा, निर्धा, सुवृत्ता, रुचिकारिणी, ( रसाधिका, लघुद्राक्षा)-सं। किसमिस-बं०, गु०, म० किसमिस-द्राकसुल्तानस Sultanas, रेजिन्स Raisins -इं। किशमिश, अगुल द्राख (मा० श०)फ़ा०। चिकुद्राक्षे-कना। किसमिस पंडु-ते। नोट-पके सूखे हुए लाल अंगूर को मुनक्का और छोटे एवं बीज रहित को किसमिस तथा बड़े और काले वर्ण वाले को गोस्तनी (काली दाख ) कहते हैं । काले अंगूरोंकी काली दाखें और भूरे अंगूरों की भूरी दाखें होती हैं। चरक में केवल मीका और सुश्रत में केवल द्राक्षा के गुण का निश किया गया है। पर्वती तथा करोंदी नाम से इसके और दो अन्य भेद हैं। भाव। एम्पेलिडोई अर्थात् द्राक्षावर्ग (N. 0. Ampelidece ) उत्पत्ति स्थान-यह उत्तरी पश्चिमी हिमालय ( या भारतवर्ष ) अर्थात् पंजाब, काश्मीर, काबुल, बलुचिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, कन्दहार तथा फारस और यूरूप प्रभृति प्रदेशों में बहुत लगाया जाता है । हिमालय के पश्चिमी भागों में यह पाप से आप भी होता है। और और जगह भी लगाया जाता है। संयुक्र प्रदेश के कमाऊँ, कनावर और देहरादून तथा बम्बई प्रांत के अहमदनगर और औरंगाबाद, पूना और नासिक अादि स्थानों में भी इसकी उपज होती है। बंगाल में पानी अधिक बरसने के कारण इसकी बेल वैसी नहीं बढ़ सकती। वहाँ केवल तिरहुत और दानानगर में थोड़ी बहुत टट्टियाँ हैं। इतिहास-द्राक्षा और मदीका नाम से अंगूर का वर्णन सुश्रुत और चरक आदि सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में मिलता है। यही दशा यूनानी तथा अरबी ग्रन्थों की है। इसकी कृषि एवं उपयोग का ज्ञान उन्हें बहुत प्राचीन काल से रहा है, और निज ग्रन्थों में अपने अपने दृष्टि कोण के अनुसार इसके उपयोग एवम् गुणधर्म के सबन्ध में उन्होंने काफी प्रकाश डाला है। जैसा कि प्रागेके वर्णन से विदित होगा। इसके द्वारा प्रस्तुत हुए मद्य के मादक प्रभाव से वे भली भाँति परिचित थे । प्रस्तु आर्यों का सोम तथा यूनानी पुराणों का प्रारम्भिक मद्य निःसन्देह स्वर्गीय अमृत था। __ भारतवर्ष में इसकी खेती कम होती थी । फल प्रायः बाहर ही से मॅगाए जाते थे । मुसलमान बादशाहों के समय में अंगूर की ओर अधिक ध्यान दिया गया। आज कल हिन्दुस्तानमें सबसे अधिक अंगूर काश्मीर में होते हैं। जहाँ ये क्वार महीने में पकते हैं । वहाँ इनकी शराब बनती है और सिरका भी पड़ता है। महाराष्ट्र देश में जो अगर लगाए जाते हैं उनके कई भेद हैं, जैसे-पाबी, फकीरो, हबशी, गोलकली और साहेबी इत्यादि। ___ अफगानिस्तान, बिलूचिस्तान और सिंध में अंगूर बहुत अधिक और कई प्रकार के होते हैं, जैसे-हेटा, किशमिशी, कलमक, हुसैनी इत्यादि । किशमिशी में बीज नहीं होता। कंधारवाले हेटा अंग को चूना और सजीखार के साथ गरम पानी में डुबाकर आवजोश और किशमिशी को धूप में सुखा कर किसमिस बनाते हैं। वानस्पतिक वर्णन-अंगूर की बेले काठ की रट्टियों पर चलखी हैं। इसके पत्र हाथ की श्राकृति के कुम्हदे वा नेनुए की पत्तियों से मिलते मुलते होते हैं, मानो हथेली में पाँच अंगुलियाँ लगादी गई हों । फल गुच्छों में लगते हैं। For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्ग र ग्रङ्गर अगर पुष्प में दो कोपीय डिम्बाशय होता है। अस्फटिकवत् शर्करा, अॉक्ज़ेलेट प्रॉफ लाइम तथा और प्रति डिम्बाशय में दो-दो डिम्ब होते हैं। एमोनिया और फॉस्फेट व सल्फेट श्रॉफ़ लाइम ये डंठल युक्त, स्थूल, गृदादार, गोल था अण्डा विद्यमान होते हैं। कार ( झड़बेरी के सदृश ) फल रूप में विकास प्रयोगांश-फल (पक्व या अपक), कुछ पाते हैं । कोष भिन्न हो जाता है तथा उनमें से शुष्क फल [ किशमिश मोगका प्रभार) तथा कुछ बीज साधारणतया नष्ट हो जाते हैं। चूँ कि पत्र। फल डंठल से और डंठल शाखा से नहीं जुड़े ___ मात्रा-शर्बत, प्राधे से एक फ्लुइड श्राउन्स रहते, इस कारण परिपक्वावस्था में थे झड़ते नहीं, . (२४ घण्टे में ५-६ बार)। किशमिश या किन्तु उन पौदे में ही लगे रहते हैं ( पर यह मुनक्का | तो० से २॥ तो० तक (दिन रातमें शर्त है कि सूर्यताप काफी हो) और धीरे धीरे ३-४ बार )। . सूख जाते हैं । उक्त शुष्क फल को सूर्यताप द्वारा . औषध-निर्माण-द्राक्षा सुरा (Vinum), पका हुआ किशमिश कहते हैं। फल इसके छोटे, । द्राक्षारिष्ट, द्राक्षासव, द्राक्षाचुक्र या अगरी ब, गोल और लम्बे कई श्राकार के होते हैं। सिर्का ( vinegar of grapis) प्रभति। कोई नीम के फल की तरह लम्बे और कई मकोय प्रतिनिधि-यूरोपीय औषध, इमली और की तरह गोल होते हैं। नीबू की तेज़ाब ( अगर के लिए ), पालूबुखारा __ रासायनिक संगटन-फल के ग्दे में अंग्ररी और शीरखित (किशमिश के लिए) मो०२०। शकर (द्राक्षीज) तथा क्रीम श्रॉफ रा र गम्भारी फल | .. सि. यो. स्व. चि० ( Cream of tartal') वर्तमान विप्पल्यादि, वा० सू० १५ श्र० परूषकादि, होता है । इसमें निर्यास तथा सेव की च० द० चा० ज्व० चि) पिप्पयादि, वा० तेजाब भी विद्यमान होती है । बीज में एक ज्य. चि. द्राक्षादि। प्रकार का स्थायी तेल होता है । (एट-)। . द्राक्षा के गुणधर्म व उपयोग बीज तथा फलत्वक में ५-६ प्रतिशत कपायाम्ल श्रायुर्वेद को दृष्टि सेः(टैनिक एसिट ) पाया जाता है। फार्माको । पका अंगर-दस्तावर, शीतल, नेत्रों को डॉ जे० कोनिक तथा सीक्रञ्च के विचार से | हितकारी, पुष्टिकारक, भारी, पाक तथा रसमें काली दाख में जल २३. १८, अल्ब्युमिनस पदार्थ | . मधुर, स्वर को उजन करने वाला, कपैला, मल २. ७१, बसा ०.६६, दादोज (ग्रेप शूगर) तथा मूत्र की प्रवृत्ति करने वाला, को में वायु१५.६२,अन्य अनत्रजनीय पदार्थ १४.१२,काष्टोज | कारक, वृष्य ( वीर्य को बढ़ानेवाला), कफ १.१४, तथा भरून १.३६ प्रतिशत विद्यमान होती तथा रुचि को उत्पन्न करता है और पा, हैं। शुष्कद्रव्य में उन्होंने नत्रजन ०.५६ और ज्वर, श्वास, कास, वातरक, कामना शर्करा ७२.४३ प्रतिशत पाया। डॉक्टर इ०मैक मूत्रकृच्छ, रक्तपित्त, मोह, दाह, शोप तथा मदाऔर के० पोटलो के परीक्षणानुसार किशमिश त्यय रोग को नष्ट करता है। गोस्तनी ( गाय में जल २०.४, द्राक्षशरा ३०.२ लिब्युलोज़ के स्तन के सदृश) अर्थात् कालीदाख वीर्यवर्धक ३६.४, पेक्टिन १८६, फ्री एसिड्स १.७६,सेब (वृष्य ) भारी और कफ तथा पित्त को नष्ट की तेजाब ०.३८, अखि ३.२८, अनघुल पदार्थ करने वाली है। कच्चा अंगर हीन गुण वाला ५.० तथा भस्म २.०३ होती है। डॉक्टर एम. तथा भारो है । खट्टा अंगूर रक्रपित्त को करने सी. न्युयार के परीक्षानुसार अगर पत्र में चाला है। बीज रहित अथवा छोटे बीजों वाली इमली की तेज़ाब (टार्टरिक एसिड ) वाइटार्टेट | (किशमिश) गोस्तनी दाख के सदृश गुणों वाली ऑफ पोटाश, वर्सेटीन, क्वर्सिट्रीन, कपायिन, है । पर्वतमें उत्पन्न हुई (पर्वतीय) दाख हलकी, श्वेतसार, सेव की तेजाब, निर्यास, इनोसीट, | अम्ल और कफ तथा रक्रपित्त को करने वाली है। For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रङ्गर अङ्गर करमद्दिका (करौंदे के सदृश ) दाख में भी और स्वर्थ है तथा रक्तपित्त, घर, श्वास, तृष्णा पर्वतोत्पन्न दाख के सहरा गुण हैं। और दाह का नाश करने वाली है । मा० द्राक्षा व०। मृद्धोका मधुर, स्निग्ध, शीतल, वृष्य और दाख मधुर, खट्टी, कपैली है और किसी क्षार अनुलोमक है तथा रक, त, श्वास, कास, के साथ पित्त, वात और कफ का नाश करती है, भ्रम, तृष्णा और ज्वर का नाश करने वाली है। उत्तम है तथा रुधिर रोग, दाह, शोष, मूर्छा, धन्वन्तरीय निघण्टु । ज्वर, श्वास (श्वसन) और खाँसी को दूर __ गोस्तनो-मधुर,शीतल, हृद्य और मदहर्षिणी करती है। जो दाख विपाक में कषैली व अम्ल है तथा दाह, मूच्छो, ज्यर, श्वास, तृषा और (कपायाम्ल ) होती है वह कफ में हित है। हल्लास को नाश करने वाली तथा शीतल और श्रत्रि० १७०। मनुष्यों को प्रिय है। द्राक्षा के विशेष गुणदाख मधुर, स्निग्ध, वीर्यवर्द्धक, शीतल, | दाना 'वालफल' कट, उष्ण, विषदोषजनक मलभेदक, बलकारक एवं वृष्य है तथा क्षतक्षीण, । और रऋपित्त को करने वाली है। 'मध्य' और वात और पित्त का नाश करती है। रसान्तर को प्राप्त अम्लरस युक्त रुचिकारक और रा०नि०।। अग्निजनक है । 'पक' और मधुर तथा श्रम्लरस दाख मधुर, खट्टी, शीतल, पित्तनिवारक, सहित तृष्णा और रऋपित्त को दूर करने वाली है। दाहनाशक, भृत्रदोषहारक रुचिकारक, वृष्य और "पक्क" अत्यन्त सूखी हुई श्रमजनित पीड़ा को तृप्तिकारक है। रा०नि० । शमन करने वाली, संतर्पण और पुष्टिदायक __ कच्ची दाख कटु, उष्ण, विशद, रक्तपित्तकारक शीतल तथा पित्त और रत के दोषों को शमन है। मध्यम अवस्था की दाख खट्टी, रुचिकारक • करती है। एवं मधुर, स्निग्धपाकी और अत्यन्त और अग्निवर्द्धक है। पक्की दाख, मधुर, खट्टी, | । रुचिकारक है । चतुप्य, श्वास, कास, श्रम तथा तृषानाशक और रवपित नाशक है। पक कर | वमन को शमन करने वाली, सूजन, तृष्णा और सूख गई हुई दाख मनाशक तृप्तिकारक और | ज्वर का नाश करने वाली है एवं श्राध्मान, दाह पुष्टिजनक है। तथा श्रम आदि को हरण करती और परम दाग्व धातुबद्धक, शोपनाशक,प्यास को हरने- तर्पण है। द्वाक्षा क्षीण वीर्य वाले को भी मदनवाली, बात को दूर करने वाली, वमन रोग- कला केलि में दत्त बनाती है। रा०नि०। नाशक, पचने में अम्ल, सुरस, मधुर, शीतवीर्य, __तृष्णा, दाह, जार, श्वास, रक्तपित्त, क्षत वा ज्वर और कफ को हरने वाली, मत्र और मल क्षय, वात, पित्त, उदावर्त, स्वरभेद, मदात्यय, को शोधने वाली है। मुँह का कड़वापन, मुखशोप और कास को दूर गोस्तनी दाख शीतल, हृदय को हितकारी, करती है । मदीका व्रहण, वृष्य, मधुर, स्निग्ध, वीर्यवर्द्धक, वातानुलोमक, स्निग्ध, और हर्पजनक और शीतल है। चरक फ० व० । है तथा श्रम, दाह, मुर्छा, श्वास, खाँसी, कफ, पित्त, घर, रुधिरविकार, तृषा, वात और हृदय द्राक्षा दस्तावर, स्वर्य, मधुर, स्निग्ध और शी. • की व्यथा को हरने वाली है। तल तथा रक्रपित्त, ज्वर, श्वास, तृष्णा, दाह और क्षय का नाश करने वाली है। सुश्रत । .. 'किशमिश मधुर, शीतल, वीर्यवर्द्धक, रुचिप्रद, ... द्राक्षा के वैद्यकीय व्यवहार खट्टा, रसाल है तथा श्वास, खाँसी, ज्वर, हृदय की पीड़ा, रक्रपित्त, क्षत क्षय, स्वरभेद, तृपा, ‘सुश्रुत-मूत्रावगंधज उदावत अर्थात् वात, पित्त और मुख के कड़वेपन को दूर मूत्रवेग के धारण से उदावर्त रोग होने पर द्राक्षा करता है। का क्वाथ प्रस्तुत कर पिलाना चाहिये। (उ० दाता रस में मधुर, स्निग्ध, शीतल, हृय । ५५ अ० ) For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रृङ्गर www.kobatirth.org ११ = वाग्भट्ट (१) मदात्यय रोग में होनेवाली पिपासा में वात, पित्त की अधिकता वाले महात्ययी को, शीतल किया हुग्रा द्वादा का काथ पिलाना चाहिए | औषध के पच जाने पर बकरे के मांस से बनाए हुए यूप के साथ मधुराम्ल वस्तु का भोजन करने का प्रादेश कर देना चाहिए | ( चि० ७ ० ) । (२) मूत्रकृच्छ में द्वादा को बासी जल के साथ पीसकर जल के साथ सेवन करने से मूत्रकृच्छ प्रशमित होता है । ( चि० ११ श्र० ) नकदत्त दश वर्ष का पुराना घी १४ सेर, द्राक्षा कल्क ९९ सेर एवं जल १६ सेर ६. का मृदु अग्नि से यथा विधि पाक करें। यह घृत र पित्त, कामला, गुल्म, पांडु रोग, ज्वर प्रमेह और उदर रोगों को नष्ट करता है । ( रकपित्तत्रि० ) यूनानी ग्रंथकार अंगूर को — दूसरी कक्षा में गरम तर मानते हैं । कच्चा प्रथम कक्षा में डा और दूसरी कक्षा में रूक्ष | हानिकर्त्ता - स्निग्ध आमाशय और प्लीहा को तथा वायुजनक है । दर्पन सौंफ और गुलकन्द । प्रतिनिधिकिसी किसी गुण में श्रञ्जीर व मवेज़ मुनक़्क़ा | गुण, कर्म, प्रयोग - यह प्रत्याहार है; क्योंकि इससे शुद्ध रुधिर उत्पन्न होता है जो अपनी मधुरता के कारण हृदय को अत्यन्त प्रिय है; यतिरिक इसके अपनी तारल्यता के कारण यह शीघ्र शोषित हो जाता है और इसी कारण वल्य पूर्णतया पका हुआ अंगूर उत्तम होता है; क्योंकि यह अत्यन्त मधुर होता है तथा इसमें अपक द्रव बहुत कम होता है । लटका कर रखा हुआ अंगूर इससे उत्तम होता है; क्योंकि इस दशा में वायु का, जो श्रवशिष्ट द्रव को लयकरता है, चारों ओर से श्राधिपत्य रहता है । इसके विपरीत जो किसी स्थान में रखे हुए हों विशेषतः जब अत्यधिक तह पर तह रक्खे हुए हों तब वे इससे कनिछतर होते हैं । इसी प्रकार विलम्ब का तोड़ा हुआ। अंगूर भी उत्तम होता है, क्योंकि रस I श्रृङ्कर् गूर के श्राहार में व्यय होता है उसकी शीघ्र शीघ्र पहुँचता है । इसका कारण यह कि गूर का वृक्ष अपनी उत्ताप शक्ति के कारण जल शोपस में अधिक शक्तिशाली है। इसके अतिरिक्र इसका वृक्ष पूणरूप से सीधा खड़ा हुथा नहीं होता । इस कारण जल भी इसकी थोर सरलतापूर्वक शोषित होता है। इसके सिवा यह अत्यन्त पिलपिला होता है, और इसमें ग्राहार नजिकायें अत्यन्त विस्तृत होती हैं। और चूंकि अंगूर की थोर चाहार प्रवेश तीबू गति से होता है, इसलिये वह थपक रहता है तथा उक्त अवस्था में शेष होता है, जिससे वायु एवं उदध्वान उद्धृत होते हैं । किन्तु तोड़ने के पश्चात् जब कुछ समय तक रखा रहता है तब इसके अवशिष्ट रत्बतों का प्रायः भाग लय हो जाता है । 'गूर वस्ति को हानिकर्ता है; क्योंकि यह शिथिलता, तीच्णता और शोषण उत्पन्नकर्त्ता है । शैथिल्यजनन का कारण यह है कि उन रतूत के कारण वन अधिक स्नेह युक हो जाती है, क्योंकि इसकी और थगूर की रत्बत अधिकता के साथ प्रवेशित होती है। और क्योंकि इसकी बत मात्रा में अधिक ग्राशुकारी तथा मूत्रजनक होती है। तीक्ष्णता का कारण इसका माधुर्याधिक्य है । (नफो० ) जो श्री Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गूर शीघ्रकी, पकाशय की थैली में शीघ्र उतरनेवाला और प्रत्याहार है; उत्तम रुधिर उत्पन्न करता और शरीरको बृंहण करता है । यह रक शोधक वातजमल को हरणकर्ता, स्वच्छ करता, मल को पक्क करता है । यदि इसको जिमी के साथ पक करके शोध पर लगाएँ तो यह शोथ को शीघ्र ही लय करे । यह छिद्रोद्घाटक है और मन को प्रसन्न करता है I गूर के छिलका और बीज शीतल तथा रुच हैं। गुठली वायुकारक, विबंधकारी, मूत्र एवं वीर्यस्तम्भ कारी है । श्रपक्क थंगूर शीतल तथा संकोचक है । इसके बीज तथा स्वचा को नहीं खाना चाहिए । इसकी लकड़ी की राख वस्तिस्थ अश्मरीध्वंसक, शीतल, अण्डशोथ तथा अर्श For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंङ्गर नाशक है । अन्तिम दो रोगों में इसका वाह्य तथा श्राभ्यन्तर उपयोग होता है। मुना-प्वरूप-काला और लाल | स्वाद- | मधुर । प्रकृति--१ कक्षा में गरम और तर। हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति वालों को और रधिर, वृक्क को स्वच्छताप्रद है । दर्पनाशकसिकाबीन, खशस्त्राश और अम्ल फल स्वरस । प्रतिनिधि-किशमिश तथा इसका अभ्य भेद श्रावजोरा । मात्रा--10 दाने से २० दाने तक। गण, कर्म, प्रयोग-विशेष कर यह अत्याहार, वृंहण, कामवर्धक तथा हृय है । पित्त की तीक्ष्णता और उष्णता को शमनकर्ता, कफशोधक, । दोषों को पक्क और समपक्क करता, प्रकृति को मदकर्ता, वायु को लयकर्ता, आमाशय और अांत्रियों को स्वच्छकर्ता, शरीर को बृहणकर्ता, यकृत और शीत प्रकृति वालों के प्रोज को बलप्रद तथा फुप्फुस प्रान्त के अनुकूल है। पशों की चरबीके साथ इसका लेप शोथको लय करता है । यह भुना हुअा गरमागरम खाँसी को गुणकारक है। __ मुनक्का रेचक औषधियों का सहायक एवं वस्ति व वृक के रोगों को लाभप्रद है । गावजुबान तथा ताजे छुहारे के साथ मूर्छा को लाभप्रद और लोबान के संग विस्मति तथा सिरके के साथ पांडु को लाभप्रद है । कालीमिर्च के साथ मूत्रकृच्छ, तथा वृक्काश्मरी एवं वस्त्यश्मरी को लाभप्रद है । इसका क्वाथ प्रकृति को मृदुकर्ता तथा शीत कपाय सिरके के साथ प्लीहा शोथ को लयकरता है। मुनका के बीज-प्रकृति-१ कक्षा में ठंडे और २-कक्षा में रूक्ष । हानिकर्ता-वृक्क को । दर्पनाशक-उन्नाव व अमलतास । स्वादफीका, दुःस्वाद । गुण, कर्म, प्रयोग-बद्धक, प्राध्मानकर्ता, स्निग्ध-आमाशय तथा श्रांत्र को बलप्रद तथा स्निग्धता शोषणकर्ता है। किसी किसीने स्तम्भक भी लिखा है। किशमिश। स्वाद-मधुर और चाशनीयुक । प्रकृति-गरम अङ्गर और तर तथा बीज डे और रून हैं । हानिकर्ता. वृक्क एवं उष्ण प्रकृति को । दर्पनाशकसिकंजबीन व खसख़ास तथा उमाब । प्रतिनिधिमवेज मुनक्का उचित मात्रा में । गण,कर्म,प्रयोगइसका विशिष्ट गुण यकृत, हृदय तथा मस्तिष्क को बलप्रदान करना और कामशक्रि को बढ़ाना है, एवं गाड़े दोषोंको पक करना, प्रकृतिको मृा करना, रोध उद्घाटन तथा श्रामा गयको स्वच्छ करना है। यह कठोरता को मकर्ता, कफ प्रकृति को कोमल करता, श्वास को लाभद, प्रोजको बलवान करता, शरीर को वृहण करता, रेचक होते हुए भी मस्तिष्क को लाभप्रद है। मुर्छनाराक, वस्ति तथा वृक्करोग को लाभप्रद, अंगूरी सिरके के साथ प्लीहाशोथलयकारक तथा हृदय व वात संतुओं को बलप्रद और प्रत्याहार, एवं विस्पृति रोग नाराक भी है। अंगरक्षार-इसके पञ्चांग से निकाला हुआ क्षार अश्मरीभेदक है । मात्रा-२-४ रत्ती । अंगूर आदि के गुणधर्म व प्रयोग डॉक्टरों के मतानुसार । डॉक्टर मोहीदीन शरीफ़-स्वलिखित मेटे. रिया मेडिका में स्वानुभव को निम्न प्रकार से पेश करते हैं। यथा प्रभाव-अगूर, उत्तापशामक, मूत्रजनक, तथा ज्वरनाशक है | किशमिश (अधिक मात्रा में ) स्निग्धताकारक श्लेष्मानिस्सारक तथा उदरमका (Lixativ. ) है । (थोड़ी मात्रा में) संकोचक है। प्रयोग-अंगूर का शर्बत अतिग्राह्य तथा शीतजनक पेया है और अनेक ज्वरों में ज्वर सम्बन्धी लक्षणों तथा तृषा को शमन करने में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होता है । उक डॉक्टर महोदय कहते हैं कि मैंने मूत्रदाह, मूग्रावरोध तथा मूत्रकृच्छ, और पैत्तिकाझीर्ण की कतिपय दशाओं में इसका उपयोग किया और इसे लाभप्रद पाया। यह अन्य श्रीपधियों के लिए विशेषतः उनके लिए जो अजीर्ण, प्रवाहिका, अतिसार तथा जलोदर For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गरी.शराब प्रभृति विकारों में व्यवहत होती है, सर्वोत्तम एवं किशमिश - विविध खंडमोदकादि में व्यवअतिग्राह्य अनुपान है। हृत होता है। शवंत निर्माण-विधि-पक द्वाझा स्वरस (मे० मे० इं० २ य भा० १३७ पृ०) १ सेर, जल १॥ सेर, शुद्ध स्वच्छ शकरा २ सेर । मुकर्जी-किशमिश शीतल तथा मृदुभेदक सर्व प्रथम शर्करा को जल में डाल कर अग्नि पर | ख्याल किया जाता है और खाँसी, प्रतिश्याय रखकर घोलें, पुनः अंगुर स्वरस मिलाएँ । तथा पांडुरांग में व्यवहृत होता है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण द्रव को मधुर अग्नि द्वारा यहाँ हिं. संज्ञा पुं० [सं० अंकुर ] (२) मांस तक पकाए कि वह रह जाए। मात्रा-प्राधा से के छोटे छोटे लाल दाने जो घाव भरते समय १ फ़्लुइड श्राउंस (२४ घंटे में ५-६ बार )। दिग्वाई पड़ते हैं । (३) अंकुर, अंखुपा । डाइमॉक-श्रया अगर स्वरस को अरबी में अगर का मड़वा angüra-ki-marava-हिं० हसरम, कारसा म गरह, अग्रज़ा म वरजूस संज्ञा पु. अंगूर की बेल को चढ़ने और फैलने (Verjuics) तथा रूमी में अग्रेस्टो के लिए बाँस की धज्जियों का बना हुया मण्डप । (agristo ) कहते हैं। यह इटली में अब श्रङ्गर की टट्टी higura-ki-tatti-हिं० तक कंउरोगों में व्यवहृत होता है । वसंत ऋतु में संज्ञा स्त्रो० अंगूर का मड़वा। अंगूर की शाखायों को काटने से उनमें से अधि- अगर की शर्करा angāra-ki-sharkala कता के साथ रस निकलता है। यह त्वचा रोगों हिं० संज्ञा स्त्री० दादीज, द्राक्षा खंड, दाख में व्यवहृत होता है। अब भी यूरुप में चतु प्र- की शर्करा | Grap, sugar (Dextrose, दाह के लिए यह एक प्रसिद्ध औषध है। glucosu. ) इसका पत्ता संकोचक है, तथा अतिसार में अगर शेका angura shefa-हिं० संज्ञा प. उपयोग किया जाता है। [फा०] ( Dulenmara) एक जड़ी जो आर० एन० खरो-औषधार्थ प्रयोग करने । हिमालय पर शिमले से लेकर काश्मीर तक होती से पूर्व अंगूर के बीज एवं छिलका दूर कर देने है । इस स ग अंगूर, सूची, जवराज तथा गिर बूटी भी कहते हैं। इसकी जड़ और पत्तियां दमे चाहिए। मुनक्का महर, स्निग्ध, शीत तथा मदुरेचक है। इसको प्रायः औषध को मधुर और वायु के दर्द को दूर करती हैं। देखोकरने के लिए प्रयोग में लाते हैं। यह ज्वर की अंगरे शिफ़ा। पिपासा, प्रदाहमूलक पीड़ा एवं कोटबद्ध रोग में अङ्गरी anguri-हिं० वि० [फा० अंगूर+ई ] सेवनीय है । पत्र-कपेला है और अतिसार रोग (१) अंगूर से बना हुा । (२) अंगूरी रंग में व्यवहृत होता हैं। का। काष्ठ की भस्म-अश्मरी रोग के पूर्वरूप में । संज्ञा पु. कपड़ा रंगने का हलका हरा रंग एवं भावीरोगोत्पादनानुकुल अवस्था में शरीर में । जो नील और टेसू के फूल को मिलाकर बनाया युरिक एसिड सञ्चय हेतु अनागतव्याधि प्रतिषेधक जाता है रूप से अर्थात् भावी व्याधि उत्पन्न न हो; इस अङ्गरी शकर anguri-shakara-फा०--हिं लिए इसका उपयोग करते हैं। एतद्देशीय लोग संज्ञा प. द्राक्षीज, द्राक्षखंड, अंगूर की शर्करा कोष्ठवृद्धि रोग एवं अर्श में इसका प्रलेप (Dextrose) करते हैं। | अङ्गग शराब anguri-sharaba-हिं०, द० कपिलद्राक्षा ( भूरीदाख ) साधारणतः द्राक्षासव, मद्य । खम्र, शराब-अ० । मै, बादह, रेचक मिश्रणों में उपादान रूप से व्यवहृत होती मुल-फा० । शाडयाम-ता० । द्राक्षसारायि, द्राक्ष रसम्-ते० । मुन्तिरिङ ङप पज़म-चारायम For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगरी सिर्का २२१ अति जिति -मल० । दाख-नु-दारु-गु० । मूदिर-का-अरकु, अङ्ग रे सग angure-sing-फा० (Jacquins मूदिरक-पान-सिं० । वाइनम Villum __mightshade) इ० हे० गा० । ( Formented juice of vrapes- अङ्गपः angushah-सं० पु. (All ichinc. Wine or Port wine )-ले० । स० ___umon) एक चारपाया जानवर । फा० इ०। अङ्गज़ ungeza-अफ० अफगानी भाषा में इस अङ्ग रो सिर्का anguri-sir ka-हिं०, द. अंगू. ___ का नाम नूरेआलम है। यह एक घास है जो र सिर्का-बं०। खल्लुल ख़मर, खल्लुल अमब गीलान के पहाड़ों में उगता है। नर व मादा -अ० । सिर्कहे अंगूरी-फ़ा० । दिराक्ष-काडी भेद से दो प्रकार का होता है। -ता० । द्राक्ष-पुल्लनील्लु-ते०। मुन्तिरिङ ङ • अवरतस angeza-avara tasaकाटि-मल. | द्राक्षी-काडी-कना० । द्राख्नु जफारुतीब,नख (Helix ashera) सिळ-गु०। विनेगर श्राफ ग्रेप्स (Vinegar | अहोकर angokara-ते. (Momordica of grapes or wine vinegar)| " dioica, Rord.) धारकरेला-हिं०। फा० - ई० । स० फा००। इ. भा०। अगरे काबुली angure kabali-फ. अङ्गोज़ह, angozah-फ़ा० (Assafaetida) किशमिरा, काबुली किशमिश | Raisin __ हींग-हिं० | हिंगुः, रामठम्-सं० । (Uvw, Uvix passiv.) अङ्गोज़हे इलरी angozahe-ilari-फा० अरे कोली anguru-kauli ) -फा० । (Assafoetida) हींग, हिङ्ग -हिं० । अङ्गरे खिरस angure-khiras , रीछदाख । यूवी अर्साई फोलिया ( Uvan Ursi folia) अङ्गोदवर्तन angoda-vartana-सं० अंग. लेपन, अनुलेपन, लेप | The hair-Wash -ले०। ए. मे० मे०। (Liniment) फा० इं०२ भा० । अङ्गरे खुश्क angre-khushk-फा० मुनक्का, सूखे अंगूर, किशमिश | Raisins ( Uvie, अझोरम् angoram-कोंपल,नवपल्लव (Bud). Uvæ passie ) अङ्गोल angola-सिं० अङ्कोल (Alangium अङ्गरेर सिर्का anguth-sirka-बं० अंगूरी ____decape talum, Lam.) स० फाइ। सिर्का ( Vinegar of grapes) स० अङ्गीन । ngouna-बर० (ए० व०) मुकुल, कलो ( Bud.) फा००। gta hai angoun-miyá á-ato (ao अगरे रूवाह angure-rābāh-फा० मको, व.) कलियाँ ( Buds ). काला मको, ऊदा मको-हि.। (Solanum अङ्ग वेण्टा unguenta-ले० (ब० व. ) Nigrum, Hi. not Linm.) स० फा० अङ्ग एण्टम् (ए० व०) अङ्ग रे रूवाहे सुख nguits-Jubihe surr-| अङ्घालजी anghralaji-सं० स्त्री० अन्ध्रालजी kha-का0 मका, रक ( लाल ) मको-बं०, रोग (Anthrila ji). faol ( Solanun Rubrum, Jill.) Dic: anghrih jo go 9-( The अङ्गरे रूबाहे सियाह angures-rābāho- | अंह्निः anhrih Root of a tree) siyah-फा० काला मको-हिं०। (Sola द्रुम मूल, वृक्ष की जड़ । रा०नि० २०२ । mum nightm, Bl. not .inn.) श्रम० । २-( Foot) पाद, चरण, पाँव । अङ्गरे शिगाल angure-shighāla-फा० (Lower limb ) ग०नि०२० १८ । मको Bitter Sweet (Duicamara). अङ्घि ग्रन्थिकम् anghri-granthikam-सं० अङ्ग रे शिफ़ा angurt shifa-फा० (Dul. | लो० पिप्पलीमूल (Piper root). canmara) मको-हि। | अखि जिहिक: 2nghii-jihvikah-सं० पु० For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिनामकः,-नामन् अचलेश्वरः - दमनक वृक्ष ( Artemisia indica, 1. mountain पर्वत । (२).A.bolt or Vild.). ... pin शंकु । संज्ञा पुं० न चलने वाला। अति नामकः,-नामन् anghri.namakah, -अचलकीला achalakila-सं० स्त्रो० ( Dal naman-सं० पु. १-( Artemisia th) पृथ्वी। indica) दमनक तन । २-( The Root | अचल त्विट (-) chala tvit,shaof a tree) वृक्ष मूल, जड। ग० नि० । सं० पुं० कोकिल, कोइल (A Cuckoo) २०२। अम०। ... अचल सन्धि :nchalan sindhi-सं०, हिं० अकिप: anghripah-सं० ० (A Tree) स्त्री० अचेष्ट संधि, स्थिर संधि, सन्धियों जिनमें . अंहि,प, पेड़, दस्त, वृक्ष । ग० नि० घ० २। गति असम्भव है। जैसे दोनों पाश्विकास्थियों हला० । के बीच की संधि । इम्मूवेबल जाइरट Im. अविपर्णिका anghri-parnika) -सं० स्त्री० movable joint, f ifaa Synar: afe anfanghri-parní i j (Doodia throsis-toi lagopolioides) पृश्निपर्णी । चाकुलिया | मक्सिल्स.ाधित, मासिल मुवस स क .-बं० । भा० पू०१ भा० गु० व० । -अ०। अचिब ना anghri-balā-सं. स्त्रो० पृश्निपणी | नोट-(१) अधाहन्वास्थि और शंखास्थि की (Hemionites cordifolia ) संधि को छोड़कर कर्पर की शेप सन्धियाँ स्थिर अघिल्लिा , का anghrivallih,-kā | -सं० | अड़ियल्ली aughrivallf स्त्रोक (२) अचल संधियाँ तीन प्रकारकी होती हैं:i (Uraria Lagopoides, De. ) १-दरज़वाला जाड़ ( मामिल नद्ज़, पृश्निपी। चाकुलिया-बं० । अ० टी० र०।। मसिल तद्री जी ) जैसे कपान की अस्थियाँ । अबिषः aughrishah-सं० पु. उन नाम का २-कील नुमा, गड़ा हुअा जोड़ (मसिल मज़, ... तालु रोग । देखो-अध्रुषः (Adhrusho h) मसिल सिस्मारी) जैसे दन्त और हनु की rafet: anghrisabihih - संधि । ३-नलिकाकार सन्धि (मसिल शक्की, अजिस्कन्धः anghri-skandhah |सं० पं. मसिल मीज़ायी) जैसे जतूकास्थि और नासाश्रयः anghrvah-सं०प०. गल्फ. . वंशास्थि की सन्धि । इनके अंगरेजी नाम क्रमशः पादगुल्फ, गट्टा-हि० । हे० च० । The | इस प्रकार हैं:-(१) स्युचर (Suture.), linkle (Malleolus), पायेर गोड़ालि | (२) कम्फोसिस (Comphosis), (३) -व । Filtzain ( Schendylosis ) प्रचण्ड Achanda -सं०. सुसुम । . |श्रचला acchala ). सं. रो० अचता achata-पा० लाल कोईपुरा--सिलहट । अचला कोला achala-kila j पृथ्वी (The मे० मो०। varth.) चर achara-हिं० वि० [सं०] (Im- | अचलोrachalij-हिं. संज्ञा प'. इटिया म. movable) न चलने वाला । जड़ । स्थावर । क्रोफाइला Itea macrophylla... संज्ञा पं. न चलने वाला पदार्थ । जड़ पदार्थ । अचलेश्वरः achaleshvarah-सं० पु. स्थावर द्रव्य । एक योग जिससे वृद्धता नष्ट होता है। अचरणा acharani-सं0 स्त्री० वह योनि जो पाराभस्म, शुद्ध गन्धक, त्रिफला और गुग्गुल मैथुनकं समय पुरुषसे प्रथम स्खलित हो जाती है। इन सबको समान भाग लेकर बारीक चूर्ण करके अचल achala-हि० वि० ( Immovable)| एरण्ड के तेल के साथ राज चाट । इस प्रकार ___ स्थिर ।- (पु०, लः-सं० पुं० (१)A ६ महीने सेवन करने से वृद्धता दूर होती For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवजु अचियंशु और श्रायु की वृद्धि होती है । इसके सेवन करने अचिन्ता achinta-हिं. संज्ञा स्त्री० बे फ़िकरी, वाले को बकरे के अण्डकोप की कीमा को गाय | fãfraal ( Absence of thought ). के दूध में उबाल कर मिश्री मिलाकर खाना अचिन्त्य achin tya-हिं० वि० [सं०] (१) उचित है। रस यो० सा० - बोधागम्य । अजेय। कल्पनातीत । (२) श्र. अचक्षु achakshu-हिं० वि० .. . बिना सुल । (३) आशा से अधिक ।। नचतुल achakshus-सं० त्रि० ) , आँख अचिन्त्यजः achin tyajah सं० पु० पारद, का। अंधा । नेत्र रहित । (Eyeless, पारा (Mercury) रा०नि० व० १३ । blind). अचिन्त्यशक्तिरसः achintya-shaktiraअचापल,-त्य - achāpala,-lya. सं० वि० .. sah-सं० पु. पारा, गन्धक प्रत्येक . -- ( Stainly :) स्थिर, अचंचल । २. मा०, भाँगरा, के राराज (काला भाँगरा ), अवापलं,-:यं achāpalam,-lyam-सं० सम्भालू , ब्राह्मी, पत्रसुन्दर (गृमा), सफेद अपरा.: ली० (Stealiness ) स्थिरता । जिता की जड़, शालिञ्चशाक और कालमरिष प्रचार achāra-हं०. संज्ञा पु० (१) खटाई इनको ४-४ मा० ले उपयुक सभी ग्रीवधियों भेद । (२) चाल चलन, अचार, व्यवहार । के रस में बारीक पीस, फिर सोनामाखी १ मा०, (३) चिरौंजी का पेड़ । प्रियाल वृत (Buch. कालीमिर्च १ मा० मिलाकर नेपाली ताम्बे के anania latifolia, Borb.) डण्डे से खरल कर मूंग प्रमाण गोलियाँ बना अचार बागडो chaira-bondi-म० पोकर- । सायामें शुष्ककर रक्खें । इस प्रयोग को सन्निपात .: मूल, उकरा-हि० । अकलकर-सं० । बन मु. में बरतें । देखो-भै० २० सन्निपाताधिकारः। गलो-कमा। ParaTOSS (Spilan- अचित्त्यात्मा achintyātmā-सं० प० [सं०] thes Oleracea, Jrcq.) परमात्मा ( The Supreme Soul ) अचारी achari-E वि० [सं०] अचार करने- अचिरं achiram ) सं०, हिं० क्रि० वि० ११ वाला । याचरण शील | .. अचिर achira (soon, quickly) शीव्र । तुरन्त । जल्दी । चिकिम्य achikitsya-१० वि० प्रतिा द्यति achira-dvati-हिं. संज्ञा स्त्रो. अचिकितपः achikitsya.h-सं० त्रि० । । [सं०] बिजली । क्षणप्रभा । विद्युत । ......बे उपाय । बे इलाज । ला दवा। जिसकी दवा । न हो सके। चिकित्सा के अयोग्य । असाध्य (Lightning) अचिर-पल्लव: achira-pallavah-सं० पु. (Incurable.). (Alstonia scholaris, R. Br.) 99अचिकुरः achikurah-सं० पु. कपाल रोग, खालित्य, इन्द्रलुप्त । ( Alopecia Bald पर्णवृक्ष । छातिम । छत्तीऊन । छतिवन । सतवन । अचिर प्रभा achira-prabhā )-सं० स्त्री० (हिं अचिकन achikkana-f०वि० [सं०] खुर- अचिर भास् achira.bhas ., खुरा, खादरा, (Rough, unpolished.) अचिर रोचिस् achira-rochis ) संज्ञा स्त्री०) अचित्: achit-हि० संज्ञा पुं० [सं०] (१) बिजली, चपला । विद्युत । ( The lightning.) ... Devoil of understanding अचेतन | अचिरात् achirat-f० कि० वि० [सं०] • जड़ः प्रकृति । “चित्' का उलटा । (२) शीघ्र । तुरन्त । जल्दी । Material :प्राकृतिक ! अधिराभा achiribha 1 -सं० स्त्री० विद्युत । अंचिन्तchinta-हिं० वि० [सं०] चिन्ता- अन्त्रिगंशु achiranshu | बिजली । ( Lightरहित, निश्चित, वे फ्रिक ing ) - i ness ) For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचीता १२४ अच्छिन्न अचीता achita-हिं० वि० स्त्री० [सं०] अनि- विन्मुच्छदा ( Euphorbia pilulifera, च्छित । अचिंतित । ( Unwished.) Linn.) अचुका achuki सं० स्त्रो० श्राच्छुक । पाल | अच्छ achchha-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) श्राछी (Morinda citrifolia, Linn.) (A crystal) स्फटिक । (२) (A bear) अचुवागन्दी achuvāganddi-ता० असगन्ध ।।। रीछ, भालू । भल्लक, भल्ल | (३) स्वच्छ जल । 9717771 (Withania Somuifera, - हिं० वि० (elear, plucial transDunal. ) parent) स्वच्छ ।-सज्ञा प० [सं० अत] अचूक achuka -हिं० वि० [सं०] अच्युत । (1) आँख, नेत्र । (२) रुद्राक्ष । जो न चूके । ठीक । जो अवश्य फल दिखाए। अच्छः achchhah-२० ए० (१) गुन्द्र । अवश्य निर्दिष्ट कार्य करने वाला । भ्रम रहित । (२) रीछ, भल्लक । (३) स्फटिक । मे० छद्विक। पक्का | ज़रूर । ( Sure, unfailing) (४) पटेरे । अचेत acheta-हिं० वि० [सं०] अज्ञान | अच्छकीकसम achchhau-kikasam-सं० मूञ्छित । सुन्न होना । चेतना रहित । संज्ञा शून्य । क्ला० सूत्रविहीन कारटिलेज ( Hyaline बे होश । (Out of mind or senses ) cartilage ) अचेतन ache tauna-हिं० संज्ञा पुं० । अच्छटा achchhati-सं० स्त्रो० भुई अचेतनः achatanah-सं०त्रिक अामला, भूम्यामलकी ( Phyllanthus niruri, Linn.) (Imanimate object)जद्रव्य |अचैतन्य : अच्छत achchhatu-हिं०मज्ञाप[सं० अक्षत] पदार्थ ।- हिं० वि० [सं०] Insensible, बिना ट्टा हुआ चावल ( Whole rice ). sansaless बेहोश। संज्ञा होन। मूर्छिन । वि० अखंडित । चेतना रहित । अात्मविहीन । अवेलः ach.la.h-लं. पु. व बहीन । नंगा । अच्छ-भल्लः, ग्लुकः achchha-bhallah,-llu. kah-सं०५० १--सोनापाठा (Oroxylum otrat (Naked, clothless. ) indicum, Tent.)। देवी-भल्लुकः । अवेल परिसह chela-parisah-हिं० संज्ञा ग०नि०व०१६ । रत्ना० । २-( A b.war) पुं० [सं० अचैलपरिसह ] अागम में कहे हुए भाल , रीछ । वस्त्रादि धारण करने और उनके फटे एवं पुर.ने | अच्छर्दिका ichchhadika-सं० स्त्रो० होने पर भी चित्तमें ग्लानि न लाने का नियम । (Vomiting, an emotic) वमन । प्रवेष्ट संधि acheshta-sandhi-सं० त्रि० छर्दि। उकाई । वमी । वान्ति । ग. नि. अचल सन्धि (Symarthrosis) व०२० । अचेष्टा acheshta- सं० स्त्री० अटल । स्थिर अच्छलः achchhulah-सं० प. तिल की ( Immovable ). लुगदी। तिलकल्क (Paste ot sesamum अचैतन्य achuitanyah-हिं०संज्ञा पु, निश्चे- indicum) अचैतन्यः achaitanyah-सं० त्रि०, ता, अच्छा achchha -हिं० वि० [सं० अच्छ-स्वच्छ, चेतना का अभाव, अज्ञान ।-हिं० वि० [सं०] निर्मल] [स्त्रो. अच्छी ] मनोहर । सुन्दर । आत्माविहीन, अज्ञानता, जड़, चेतनारहित । श्रच्छा-विच्छा achchhā-vichchha-हिं० अचैन achaina-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अ वि० [हिं० अच्छा ] (१) दुरुस्त । खासा । नहीं+शयन पोना ] अाराम न करना, विकलता, चुना हुआ । ( २ ) नीरोग । भला चंगा । दुःख, कष्ट । ( Uncomfortable ). | अच्छिन्न achchhinna-हि. वि० [सं०] अच्चेगिडा achchegida-कना० दुद्धि, रक- छिद्र रहित, जो कटा न हो । अम्वण्डित । For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अच्छिन्नपत्रः श्रजकम् अच्छिन्न-पत्रः achchhinnapatrah-सं० अछूता achhi ta-हिं० वि० [ सं० अ-नहीं ५० (१) शान्वोट वृत, मिजोर( Streblus + छुप्त छुपा हुआ ] अनछुआ, नवीन, पवित्र । aspal, Lim.)। (२) युकात्र वृज मात्र । [स्त्रो० अछूती ] अच्छुकः acbchhukah-सं० पु. उक नाम । अछेद achheda-हिं० वि० [सं० अच्छेद्य ] का रञ्जन पुष्प वृक्ष । तिनिश वृ । पाल । जिसका छेदन न हो सके । जो कट न सके। पाल फुलेर गाछ-० । (Lagersticemian अछेद्य । श्रखंड्य । flossregince, Petr.) प० मु०। ___ संज्ञा पु. अभेद, अभिन्नता । अच्छोदन achchho lunu-f६० संज्ञा पु० अछेद्य achhedya-हिं० वि० [सं०] जिसका शिकार । श्राखेट | अहेर । ( Th chaso, | छेदन न हो सके, जो कट न सके, अभेद्य । hunting ). अछे? achhe ha-हिं० वि० [सं० अछेद्य ] अच्छोदन achchho lan-सं० त्रि. ( Ha. बहुत अधिक । अनंत । अत्यन्त । (२) अखंड्य । ving clear water ) निरन्तर । अच्युत achyuta-हिं. वि० [सं०] (१) अछोप achhopa हिं० वि० [सं० अ+छुप ] स्थिर, अटल, दृढ़, नित्य, अविनाशी । (२) अाच्छादन रहित । नंगा ! नीच । तुच्छ । जो गिरा न हो । (३) जो न चूके, जो त्रुटि न प्रलोभ achhobha-हिं० वि० [सं० अक्षोभ] (1) करे, जो विचलित न हो। क्षोभरहित, उद्वेग शून्य, चंचलता रहित, स्थिर, अच्युता ashyuta-सं० स्त्री लाल गम्भीर, शांत। ___ कोईपुस-सिलहट । | अछोह achhoha-हिं० संक्षा पु० [सं० अक्षोभ, अच्युतावास: achyutā-vasah) प्रा. अच्छोह ] क्षोभ का प्रभाव, शांति, अच्युतवास: achyuta-vasah स० पु. स्थिरता। (Ficus religiosa, Linn.) अश्वत्थ | | अज aja-हिं० वि० वृक्ष, पीपलवृत । रा०नि० व. ११ । (२) मजः ajah-सं० लि. ) स०} ( Unborn) उदुम्बरवृत, गृलर का पेड़ | The sacred जिसका जन्म न हो । अजन्मा । fig tree (Ficus glomerata, ___सज्ञा पं० (१) Cupil कामदेव । (२) Rorld.) Moon चन्द्रमा । ( ३ ) A ram, he अलवानो achhavani-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० goat बकरा । (४)A sort of corn or यवनिका वा यमानी] कॉइल (Candle)-ई। grain अनाज । बती, बाती, प्रसूता त्रियों की श्रीषध । अजअर azaar-अ० कम बालों वाला । जिसके अजवाइन. साठ तथा मेवों को पीस कर घृत में बाल कम हों। पकाया हुया मसाला जी प्रसूता स्त्रियों को अज़क aaza.g-अ० फलदार खजूर का वृक्ष । पिलाया जाता है। Fruitful date tree ( Phenix अछाम achhāma-हिं० वि० [सं० अक्षाम् ] | sylvestris) (१) जो पतला न हो । मोटा | बड़ा | भारी। अज़क इन ज़ैद aa.zaq.ibna-zaid-अ० (२) जो क्षीण वा दुबला न हो । हृष्ट पुष्ट । | खजूर भेद । ( A kind of date). मोटा ताजा । बलवान् । अज़क इन्न ताब āazaq-ibna-tab-अ० अछिद्र achhidra-हिं० वि० छिद्र रहित ___ खजूर भेद । (A kind of date ). ( Impervious ) I अजकम् ajakam-सं० क्ली. साखू , साल | अछी achhi-हिं० संज्ञा स्त्री० [देश॰] श्राल का The sal tree (Shorea robusta, पेड़ ( Morinda citrifolia, Linn.) Garin.) इं० मे. मे० । For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज कः अजगल्लीश्रेजक: ajakarnah !. है, इससे इसमें पेदा की वृद्धि होती है। मा० 17 :a jakarnakah .नि. नेत्रदृष्टिगत रो० निदा० । टेरीजियम् श्राजकर्णक ajaka.lnuka-हिं० संज्ञा पु. Pterygium-इं० । नाखुनह, नारवूनह. बकरा के कर्ण के समान पत्र-वाला शालवृक्ष -का0 ज़ फ्रह , जफरह-०। विशे , असन । २० मा० । बालसर्ज । रत्रा० ।। अजक अज़का aizaquh-य० वामनी । बभनी । aqu इसका प्रसिद्ध नाम पीतशाल है। ( Indian (Ared tailed lizard) kino tiac ) प्रासन, विजयसार, साल का अतिकशा aikles अकशी ajakeshi-सं० रो० नीलीवृक्ष, नील पेड़-हिं । पारसना, पियासाल-बं०। ( Indigofera tinctoria, Linn.) गुण-कटु, तिक, कपाय, उष्णवीर्य, कफ, . ० निधः। पागडु, कर्णरोग, प्रमेह, कुट, विप विकार तथा अजखीरू aajakhisa-अ० कछवा (A calf) अण-नारांक है। भा० पू०मा० वटा०प०। श्रागajaga-स. राई, सरसों, सर्पप, (in(Sal tree ) सर्ज वृक्ष, साग्य । ग. निp is dichotoma) ... व० महा तरु, शाल का एक भेद है। अजगर jugni-हि..संज्ञा प० [सं०] महासाले वृक्ष। पु०स०३८, गणः डा . gaspint, th: bot cons. अजकाशालnjakalinashala-f: संज्ञा i ctor अकरी निगलने वाला; कोच, बहुत ५ .Thenal tipo (Shora robu- मोटी जाति का साँप जो अपने सरीर के भारीपन sta, Gartn.) साल, साव। ..... के कारण फुरती से इधर उधर डोल न. सकता श्रजको ajaka-सं०स्त्री०१-(Scr ofulous और बकी तथा हिरन ऐसेब पशुयोंको निगल dishase of the goat ) अजागलस्तन । . ... जाता है । और स ग के समान इसमें विष नहीं (बकरे का गलगण्डरोग)। देखा-गल स्तन । " होता । यह जनु अपनी स्थूलता और गिरुयमता ...२ छाग पुरीष, लेंडी (Goats duny)। के लिए प्रसिद्ध है। ३-(A young she-gout)| ४-जो । अजगर: jugaarth-सं० पु. । सर्प विशेष, | अजगर ajayari-ह. सज्ञा पुं०) बहुत मोटा शुक्र कुछ ताँबे के से रंग का, पिच्छिल, रावी, . साँप । Alargeserpit (Bon co. कुछ ताँबे के से रंग की फुसियों से युक्त, nstrictor) who is sail to SW 1- अत्यन्त वेदना सहित बकरी की मैंगनी के सहरा | ! llow goats | मद०१२। १०६. विले. ' ऊँचा और कृष्ण वर्ण का होता है, उसे श्राजका । शय(अर्थात् विल में रहने वाला) मग विशेष । कहते हैं। ग्रह रन से उत्पन्न होता है । और असाध्य भी है । वा० उ० १० अ०। (५) पा-शंयुः, वाहनः, । (१०)। यह अर्श शुक्र तुलसी (Ocimum album,lint.)।। ( बवासीर) में हितकारी है । सु० ० ४६ इं० मे० मे० । अजगल ajagala-दे० अजागल ।..: अजका जान jakājāta-fio सज्ञा प० । अजगलिका a.jagalika-हिं० संज्ञा स्त्रो० ) अजकाजातम् a.jakajatan :सं०बी०....) अजगलिका ajagalliki .सं. स्त्री० . . प्राग्व में होने वाली लाल फूली जो पुतली को अजगली ajagalli-सं० स्त्री० ) . ढक लेती है। टेंटड़ वा ढड़। नाखना । चक्षु । बर्बरी वृक्ष, वनतुलसी । बाबुद्द तुलसी-बं० । तारा में होने वाला रोग विशेष । काले भाग में । ( Ocimum album, Tinn. ) भा० बकरी की सूखी लेंडी के समान पीडायुक लालपू०१ भा० पु० । क्षुद्ररोगान्तर्गत बालरोंग तां गाढ़े आँसुओं को बहाने वाली शुक्र (फूली) विशेष । यह कफ वात जन्य होता है । वो० उ. की वृद्धि होती है उसको अजकाजात नानक शुक्र ३१ अ० । बालकों के चिकनी, शरीर के समान जानना चाहिए। यह तृतीय त्वचा में प्राप्त होती वर्ण की, गठीली, पीड़ा रहित, मूंग के दाने के For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजगव . अजद राबर छोटी पिडिका ( फुसी) जो कफ और अजघोषः ajaghoshah-सं० पु. सबिपात - वात के प्रकोप से शरीर पर निकलती है, उसको ज्वर भेद । लक्षण---शरीर में बकरे के समान अजगल्लिका कहते हैं । मा० नि० सुद्ररो। गन्ध आए, कन्धों में पीड़ा हो, गले का छिद्र अजगव ajagara-हिं० संज्ञा पुं० दे० अजकका रुक जाय, और नेत्र लाल होजाए, ये सब लक्षण अजकवः,-वं.vjakavah,-van-सं० पु०, क्ली । जिस ज्वर वाले को ही उसका "अजघोष" सन्निशिव का धनुष (The bor of Shiva.). पात से पीड़ित जानना। भा०म०मा०। अजगुत ajaguta-हि० वि० अद्भुत, अचरज। श्रज़ज aza.j-अ० जूह, चतुर्थ कोपट (Fourth अजगुर ajagura-हिं० सज्ञा पु. एक बूटी है . ventricle) जो एक से १॥ बालिश्त ऊँची होती है। इसमें अजजीवः jajivah.. सं. पु. (A तुलसी सदृश पत्र एवं मरी लगती है। स्वाद- अजजीविक: a.jajivikah jgoat:herd) अत्यन्त तितः । गड़रिया । गुण-विषमज्वर में इसके पञ्चाङ्ग का येन केन श्रजटा ajara-सं० स्त्री० मँई श्रामला, भूग्यामप्रकारेण उपयोग लाभदायक होता है । 71 (Flacourtia Cataphracta, अजगंधा ajagandhi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] ...JPor.l.)। रसे.मि० अर्श: अग्निमुख लौह अजनदा (Apium involucatum, अजड़ ajara-हिं० वि० [सं०] जो जड़ म हो । Roarh.)। .. . चेतन । (Not stupid) अऊगंधा ajagandha . सं० स्त्रा०,ह. संज्ञा पचेतन । चेतन पदार्थ ।.... अजगंधिका ajagandhikā ) संज्ञा स्त्री० अजड़ा a.jala-सं० स्त्री० भूम्यामल की; भुई ' (१) वनयमानी, जंगली अजवाइन, क्षेत्रयमानी hal Phyllanthus niruri, Linn.) (Seseli Indicum, 11. & A.) THO (२) कौंच, केवाँच, कपिकरछु-हिं० । श्राला रत्ना० । (२) पर्या-वस्तगंधा, खरपुप्पा, अविगंधिका, उग्रगन्धा, ब्रह्मगर्भा, ब्राह्मी, पूति .. कुशी, शुया शुम्बा-बं० । Corpopogon pruriens | भा० पू० गु० व०। (३) मयूरिका-सं०। रामतुलसी-हिं०। (Ocimum . लाल मिर्च, कुमरिच-हिं० । लहा मरिच-बं० । gratissiinum, Linu. ) गुग:-कदु, तीरण, रूक्ष, हृद्य, अग्निवर्द्धनी,दृष्टिहासकारिणी, ( Capsicum anyuum, Lirn.) अत्रि० । लघु, शुक्र, वात एवं कफ नाशनी है । मद० ५० १। (३) (Ocimum albumn, Linn.)| अजड़ाफलम् a.jara-phalam-सं० क्ली० शुकबनतुलसी का पौधा, ममरी, बर्बरी, बबई-हिं० । शिम्बी फल, कौंच, केवाँच-हिं । Corpopoतिलौणि । मद० । रानतुलस, तिलवण-म० । 'gon pruriens ( Pod of) 1 of To रा०नि०व०४। गुरा-प्रभाव- लघु, रूक्ष, २० वृष्य दीर। हृद्य, वात एवं कफ नाशक | मद०व० १ । वन अजध्या ajathya-संकल ज्ञा स्त्री० यमानी। च० द० वि० ज्व० । “नीलिनीमज पीलीजूही, स्वर्ण यूथिका, पीले रंग की जूही का गन्धाञ्च" । नील पुनर्नवा । फोफान्त्री, बनयमानी । पेड़ और फूल । A plant (Trilow च० सू०४ श्र०। च० सू० २ शिरी वि०। · jasmin) । (२) पीली चमेली, जई वा चि० १५ १० उ०२२ श्र० । चमेली (Jelsimium)। (३)छाग समूह अजगंधिनी ajagandhini-सं० स्त्री०, हिं० . (Flock of goats ) वै० श० । ... संज्ञा स्त्री. मेंढासिंगी। मेपशृङ्गी (Helicte- अजद aajada-अ० (A crow ) कोया। . ris isora, Linn. ). गाडल-शि-बं० । काग । (२) मवेज़ (मुनक्का) । (३) तुरूम र०मा० । (२) काकड़ासींगी ( Rhus su- (बीज ) अंगूर | (४) मुनक्का सदृश खजूर ccedanea, Linu) का एक भेद (A kind of date) For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजदग्धी अज़फा-रुत्ताब अजदग्धी ajin-dagdhi-सं० स्रो० बड़ी रास्ना। अजन्तुजग्धः jantu-jagdha h-60 त्रि० अज दरडी ajadandi-सं० स्त्रो० ब्रह्मदण्डा अकीट भक्षित । च० द०प्र० स० चि० कुटज (Echinops echina tits, D. C.)इं० पुट पाक। मे० मे० । फा० इं० २ भा० । अजन्म janma ! हिं०वि० [सं० (Ulअज़दर्द zuddada-वर. हिन्दक़्की । 'अजन्मा ajanmā ) ९ विषखपरा। born, unbegotten) जन्सरहित । अजदहा azada ha-फ़ा. अजगर, बड़ा मोटा अजप ajapa-हिं. सज्ञा पु० [स०] (1) और भारी सॉप( Pon co. strictor) A shepherd बकरी भेड़ पालने वाला। अजदहा ajadaha-हिर गड़ेरिया । (२) A butcher कसाई। अजगर। अजपत्रो ajapatii-सं० स्त्री० रङ्गा। अज़दाद izadada-एक प्रकार का कपूर जो अजपा ajapa-हि. संज्ञा पु. [सं०] A sh गदला, और नीला-भैला होता है । ( A kind epherd बकरियों का पालक । गड़ेरिया। of camphor ) अजपादः ajapādah-सं. प. पोरी । अज़द azadu-फा० निर्यास, गोंद ( Gum). Anisochilus carnosus ( Thick अजब ajadub-बर० अज्ञात । leaved lavender ) इं० मे० मे० । अज़दूय azaduya-बरब० कायफल । अज़री। अजपालः a.japalah-सं० पु (A bute(Myrica nagi, Thunb.) ___her ) कसाई। i al azadúye-taxi-Fi (Gum 9 TET: a japá-varuņih-cio go a.cacia ) बबूर गोंद। अश्मरीन, पाशुङ्गद, वरूण | Cratarva अजन ajana-हिं० वि० [सं०] जन्म रहित । DuVala or C. religiosa, Forsk. अजन्मा । अनादि ।-वि० [सं०] निर्जन, सुन- (Three leaved caper) इं० मे० मे। सान। अजप्रिया a.japriyi--सं० स्त्री० बदरी या बेर अजनस aajanas-अ० मोटा बलवान ऊँट : ( Zizyphus jujuba, Lambi. DATO ( Fat camel) पू०१ भा० फ० व०। अजनह a janah-अ० गालों का उभार । जल अज़फaazafa-अ० व स खजूर नारियल श्रादि का वर्ण व गंध बदल जाना । वृत्तों के पत्तों को कहते हैं। जिसके पत्ते लम्बे व अजनाय azanab-अ० जनब का बहु व. बारीक हों। अर्थ पुच्छ (दुम ) है । टेल (Tail )-ई। अज: aajafa-अ० ( Thinness) हज़ाल । अजनावुल स्त्रील azanābul-khila-० लाग़री । दुबलापन । दौर्बल्य । कार्य । लिह यितुत्तीस । यह एक पौधा है जो विदेशों : अज़फारुजन ava-faujjana-अ० कर्नपात | में उत्पन्न होता है । इसके लक्षण में मतभेद है। ____एक बूटी है जिस में फूल और पत्ते नहीं होते। श्रजनामकम् ajanamakam-सं० क्ली० ___ वर्ग-श्यामाभायुक्र धूसर । यह बृटी नख सं चुना RIGT (Ferri Sulphuratum) हुई वस्तु के सदृश होती है। है. च० । अज़फा-रुत्तीव zala-uttiba-'अ० नख-हिं०। अजनुल्फ़ील-azamul-fila-अ० राकस गड्ड नाखून परियाँ, नाव न देव, । नाव न खिरस, द०। (Bryonia epigua, Roll.) नाखून सद्फ़-फा० । सीपी के किस्म का एक इसकी जड़ का मलहम गटिया को दूर करता है । । कोर वस्तु है जो समुद्र तट के निकट पाई जाती इं० है. गा०। है। यह नख सदृश गोलाकार एवं सुगंधियुक्र अजन्ता ajanti-हि. संज्ञा स्त्री. कुम्बी-पं०। होती और सुगंधियों में प्रयुक्त होती है। For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़फ़त १२६ अज़ पूत रुमाल किया जाता कि यह भी घोंघे सीपी चाव से खाती हैं । बाबुई, बाबर-बं० । ग० श्रादि के सहरा किसी समुद्री जीव का कोप है। नि० ब०४। अज़त azafuta-बामनी, बभनी । (A red | अजमक्षा a.jabhaksha--सं. स्त्री० छटा ध. tailel lizard). मासा । तुद दुरालभा ( Nut of ) रा०नि० अजब anjaba-अ० (१) कालादाना, व.४। हुन्बुज्नील । तुह्मे-नील-फ़ा | फार्षिटिज़-निल | अजम ajama-अ० १-( Fruit-stone) Pharbitis nil, Choisy. (seeds फलों की गुठली । २-(Young-one of of-káládáná). camol) ऊँट का बच्चा । (२) पाश्चर्यजनक बात, अनोखी बात, अनोखा- अज़म āazama-अ० पुश्त पञ्जह । क़ज़ा । पन-हिं० । अज़म āazana-हड़। हरीतका ( Termi. अजब ३azaba,-अ० (१) मीठा पानो, मीठो nalia chebula, Roz. ) वस्तु । (२) एक वृक्ष का नाम । (३) एक वस्तु | अजमह, ajamah -अ० खजूर का वृत जो श्रीज जो बना उत्पन्न होने के पश्चात् जरायु से निक- से निकलता है। खर का नाभा(Shoot of खती है। Date tree). अज़ा aza ba-अ० स्त्री रहित पुरुष अथवा अजमद ajamada-सं. यवानिका, अग्निवईन, पुरुष रहित बी। दीयक । अजवाइन-हिं० । (Ptychotis प्रजनन ajababhra-सं० वह वृक्ष जिस पर बक Ajowan, D. C.)। वोमम (सीड्स) रियां चराई जाती हैं। जैसे- बरगद, बेर, पीपर Omum ( seeds ), बिशप्स बीड आदि। अथ० । (Bishop's wad)-ई । ई० मे० मे । अजमनः ajamalah-सं० पु. ( Commअज़बह aazabah-अ० बेवा, रॉड, वह स्त्री on wheat) गोधूम | गेहूं। गम्-वं। जिसका पति मर गया हो । विडो Widow प. मु.। -इं.। अज़वह iaziaba th-अ० (१) छोटो माई, अजमसी aajamasi-अ. (A kind of ___small data) छोटा खजूर भेद । माई खुर्द, छोटे झाऊका फल । (Tamarix orientalis, Tihl.)। (२) मीज पानी । अजमा ajama-गु० अजवाइन, Carum (Ptychotis ) Ajowani, D), C. (३) काई । ( Moss ) फा० ई०। अज़बर azabarn फा० छोटी माई का वृक्ष । अजमाय aajamaya-अ० (1) क्वापेड ( Tamarix orientalis, tree of--). (Quadrupad)--ई० । चारपाए,चतुप्पदजीव । (२) सतरान्यून। अजवला ajabali-सं० स्रो. कृष्ण तुलसी अजमारः ajamārah-सं० पु. (A (Ocimun sanctiu, Linn. ) ___ butcher) कसाई । वे० श०। अज़मालुस azamālāsa सिर० अजवाइन मजबू ajabu-सं० सुगन्धवाला । (Pavonia | खुरासानो ( Hyoseyamus nigrum, odorata, Willd.) ___Linn.) अजबूतह, aaz.abutah- अ० यरबून मादह, अजमांसम् ajamansain-सं० क्ली (Go घूस मादा, चुहिया, सूस (Bat, mouse)| at's flesh ) छाग मांस । देख्नोअजमक्ष ajabhakshu-हि० संज्ञा पु. । छागमांसम् । वा० स० [अ० । अजमतः ajabhakshah-सं० पु. अज़त azamuta-यरम० रोठा, अरिष्टक, 1--( Acacia arabica, Linn.) Asr 1 Soapnut tree ( Sapind 119 बबुरी वृक्ष, बबूल का पेड़ जिसे बकरियाँ अधिक trifoliatus, Linn. ). For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजमेई १३० अज़मेई azamsi-द्रा० ई० चाय | Tea pl ant (Gamellia theifera ). अजमां ajamo - ० ( 1 ) अजमोदा ( Apium involucratum. ) . (२) अजवाइन ( Carun ptychotis Roxburghianum, neath.) अजमोदः ajamodah सं० पु० ) Carअजमोद ajamoda - हिं० संज्ञा पु ं० ) um Ajowan D. C ) दोष्यक | वा० सू० ३५ अ० वत्सकादि० ० | देखाअजमोदा ( Apium involucratum.) अजमोदा, दिका ajamodá, diká-सं०, हिं० स्त्री०बोड़ी अज्भोद, ग्राजूमूद, आजू मृदा, श्रज्मद् । श्राजमूदह, श्राजूमूदह श्रज्वान-द० । संस्कृत पर्याय- अजमोदा, खराश्वा, मयूर, दीप्यक, ब्रह्मकुशा, कारवी, समस्तका, खराह्ना, वस्तमोदा, मर्कटी, मोदा, गंधदला, हस्ती, गंधपत्रिका, मायूरी, शिखिनोदा, मोदाढया, वह्निदीपिका, ब्रह्मकांशी, विशाली, हृद्यगंधा, उग्रगंधिका, मोदिनी, फलमुख्या, मयूरका, दीप्यका, वल्ली, लौमकर्कटी, रोमकर्कट, यवान, कृमिरोगजित् दीप्यवल्ली, मर्कटा, कराह्ना, कर्कटा, लोचमस्तका, यवानिका, मेध्यदा, विशल्या, हस्तिकावरी, हयगंधा, उग्रगंधा, वनयमानी, हस्तिकारी 1 राँधनी, प्राजूमूद, वनयमानी, चन्, वनयोयान - बं० । करसे - खुखुरी, करफ़ सुल-जिबली, कर सुलू-मनी, ब. जुल - करस- अ० । करफ़ से कोही, करफ़ से मनी, करसे - हिन्दी, गुरुमे-करफ़्स-फा० 1 बित रासालियून, (फि. रासालियून ० ६० ) - यू० । केरम ( टाइकोटिस ) राक्सवनम् Carum (Ptychotis ) Roxburghiammm. Benth, एपिश्रम इन्वाल्युकेटस Apium Involucratum, Roab. (Friut of--), एपिश्रम पेट्रोसेलिनम Apium Petroseli 101, पेट्रासेलिनम Petroselinum, ro अवियलेन्स A Graveolens, Linn. पिस्किने इन्वाल्युक्रेटा Pimpinella involucrata, लिग्युस्टिकम् प्रज्वान Li अजमोदा gusticum ajwacna-ले० । सेलेरी ( सीड ) Celery ( sood ); वाइल्ड सेलेरी (Wild celery), पार्स्'ले (Parsley) - इं० 1 सेलेरी Celeri-फ्रां० । अशम-नागम्, अशम्ता श्रोमन् - ता० । अमोद - वोमम् श्रशु मदागवोमम् श्राजमोदा, वामम् ते० । श्राजमोदावोमा, अजमोदा - कना० | अजमोदा - मह०, कर्णा० । अजमोदा बोवा मह० । बोडी अजमो, बौडी - श्रजमोदा, अजमो-गु० । श्रजमुद, बोडी श्रजमोदा - चं०, प० । श्रजवान के पत्ते, बुडी-ग्रजिवाइए-कन्छ । भूतघाट पं० । अम्बेलिफेरी अर्थात् छत्री वर्ग (N. O. Umbelliferue.) उत्पत्तिस्थान- उत्तरी पश्चिमी हिमवती पत मूल, पञ्जाब की बाह्य पहाड़ी, पश्चिमी भारतवर्ष और फ़ारस | इतिहास - अजमोदा का वर्णन लगभग सभी प्राचीन एवं अर्वाचीन श्रायुर्वेदीय ग्रन्थों में पाया जाता है । अरब लोगों ने इसका ज्ञान सम्भवतः यूनानियों से प्राप्त किया । हकीम दीसकुरीदूस ( Dioscorides ) ने पाँच प्रकार के करप्रस का वर्णन किया है । थश्रोस्टस ( 'Theo phrastus) ने सीलिनॉन ( करक्र्स ) नाम से इसका वर्णन किया है । मीर मुहम्मद हुसैन लिखते हैं कि करस ( अजमोदा ) को श्रङ्गरेज़ी मैं सेलरी ( Celery. ) तथा यूनानी में ऊ सालियन कहते हैं । वह इसके तीन अन्य भेदों का भी वर्णन करते हैं, जिनमें (१) सुखरी जिसको यूनानी में फ़ितरसालियून, (२) नवती जिसको यूनानी में असालियून और ( ३ ) तरी जिसको यूनानी में शमरीनियून कहते हैं । वास्तव में ये क्या है ? इसका निश्चय करना प्रति दुःसाध्य है । बम्बई में "कितरासालियून" नाम से जो श्रोषधि विकती है वह पहाड़ी सौंफ है जिसको हिन्दी में कोमल कहते हैं । परन्तु वह बीज जो ईरान से बम्बई में श्राकर करफ़स नाम से त्रिकता है उसको वहाँ "बड़ा अजमोद” कहते हैं | वानस्पतिक विवरण - श्रजमोदा श्रजवाइन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजमोदा ही का एक भेद है। इसके सुप अजवाइन के ही समान होते हैं । इनकी शाखाओं पर बड़े बड़े छत्ते से लगते है; उनपर श्वेत रंग के पुष्प हैं और जब वे छते एक और फूट जाते हैं त उनमें से जो दाने उत्पन्न होते हैं वे छत्तों से अलग होते हैं, उनको अजमोद कहते हैं। करफ़्स या बड़ी अजमोदा जो फ़ारस से बम्बई में आती है, वह एक प्रति सूक्ष्म फल होता है । गोलाकार और चिकना होता है । स्वाद - प्रथम सौंफ के समान पुनः कथा | मंत्र-सौंफ के समान, किन्तु उससे निर्बल । यह १३१ प्रयोगांश- बीज तथा मूल । रासायनिक संगठन - (१) गंधक, (२) एक उड़नशील तैल, ( ३ ) अल्ब्युमीन, (४) लुद्यात्र तथा ( ५ ) लवण । इसमें से एक प्र कार का कपूर निकलता है जिसे एपिश्रोल ( Apiol ) कहते हैं । औषध - निर्माण - चूर्ण, काथ, परिश्रुत, औषधीय जल ( थर्क ) यादि । अजमोद के गुणधर्म तथा प्रयोग । आयुर्वेद की दृष्टि से - अजमोद शूलप्रशमन और दीपन हैं । (०) वातकफनाशक, प्ररुचिनाशक, दीपन, गुल्म शूलनाशक और ग्रामपाचक है । सु० । अजमोद, चरपरा, गरम, सूखा, कफवातनाशक और रुचिकारक हैं तथा शूल, अफरा, अरोऔर उदररोग का नाश करनेवाला है । ( रा० नि० ० ६ ) अजमोद चरपरा, सीक्ष्ण, अग्निदीपक, कफ, तथा यात को नष्ट करने वाला, गरम, दाहकारक हृदय को प्रिय, वीर्यवर्द्धक, बलकारक ( कहीं कहीं "मला" अर्थात् विधकारी पाउ है) और हलका है तथा नेत्ररोग, कफ ( कहीं कहीं कृमि पाठ है), वमन, हिचकी, तथा वस्तिशूल नष्ट करने वाला है । मद० ० २, भा० पू० १ भा० ६० व०, सि० यो० अग्निमांद्य चि० । अजमोद रुचिकारक, दीपन, चरपरा, रूखा, गरम, विदाही, हृदय को प्रिय, वीर्यवर्द्धक, बलकारक, हलका, कड़वा, मल स्तम्भक, ग्राही और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमोदा पाचन है तथा अफरा, शूल, कफ बात, श्रारोचक, उदर के रोग, कृमि, वमन, नेत्र रोग, वस्तिशूल, दन्तरोग, गुल्म और वीर्य के विकार को दूर करता है । (नि० ० ) अजमोदशर्क के गुण अजमोद का अर्क वात कफनाशक और वस्तिशोधक है । यूनान ग्रन्थकारों की दृष्टि से अजमोद के गुणधर्म व प्रयोग । स्वरूप- काला | स्वाद- तीखा और चरपरा । प्रकृति - १ कक्षा में उष्ण और २ कक्षा में रूक्ष हैं । हानिकर्ता - गर्भवती तथा दुग्ध पिलाने वाली जियों और उष्ण प्रकृति व सुगी के रोगियों को । दर्पनाशक - अनीसून और मस्तगी । प्रतिनिधि- खुरासानी अजवायन । मात्रा-६ मा० से मा० तक । गुण, कर्म व प्रयोग - समस्त श्लेमज एवं शीतजन्य रोगों के लिए विशेषकर लाभदायक है 1 यह तीक्ष्ण तथा कड़वा है, इसलिए उष्ण, मुक्त ( काटने छाँटने वाला ) और तीव्र रोधउद्घाटक हैं । यह श्राध्मान लयकर्ता, रोधउद्घाटक और स्वेदजनक है तथा श्लेष्मा एवं वायुजन्य वेदनाशामक हैं । मुखकी गंधको | न्त सुगन्धि युक्त बनाता है। क्योंकि यह मसूदों, तालु, कब्जे तथा श्रामाशय की दुर्गन्धि युक्र एवं सड़ी गली तूबतोंको लयकर्ता तथा काटता छाँटता है । अपस्मार के लिए हानिकारक हैं और पस्मार रोगियों के दोषों को कुपित करता है । क्योंकि आमाशय को गरम करता है और उसमें वाष्पोद्भूत करनेवाला उत्ताप उत्पन्न कर देता है; जिससे तीव्र धूम्रमय वाप थित होता है । जिस समय यह मस्तिष्क तक पहुँचता है उस समय घनीभूत होकर वायु बन जाता है । इसी से अपस्मार पैदा होता 1 इसके तिरिक्र यह शिर की ओर मलों को भी चढ़ाता है । किसी किसी के मतानुसार मल नलिकाओं को खोलने के कारण यह आमाशय, शिर तथा जरायु की ओर तीव्र मलीय रतुतों को शोषण करता है । इस हेतु श्रपस्मार को For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमोदा अजमोदा हानि करता तथा कास को लाभ पहुंचाता है। पकृत, प्लीहा, वृक्क तथा वस्तिके लिए लाभदायक है, जलोदर और मूत्रावरोध को दूर करता है।। अश्मरी को टुकड़े टुकड़े कर डालता है, क्योंकि इसमें तनतीन (मवाद के छाँटने ), राध उद्घाटक तथा रेचक शकि पाई जाती है। रजः प्रवर्तक होने के कारण गर्भवती को हानिकर्ता है और इसी कारण ती मवाद एवं तीन रत्बतों से गर्भाशय को पूरित कर देता है। जिस समय यह भ्रूण की आहारमें सम्मिलित हो जाता है उस समय उसके शरीर में खराव फुन्सियाँ तथा दुष्टतम उत्पन्न हो जाते हैं चाहे ये जन्म के बाद ही क्यों न प्रगट हों। अपनी रोध उदबाटमी शनि के कारण यह गरम मवाद को शुक्राशय की भोर गति देता है, अस्तु यह कामोडीपनकर्ता है जिससे कामेच्छा को उत्तेजना मिलती है। ( नफ़) अजमोद श्वास, रु शकास और भांतरिक अवयव के शीत को गुणकर्ता, यकृत और प्लीहा के रोध को संबन कर्ता, शत्यन्त मूत्रप्रवर्तक, पुधा और भोज को 'चालनकर्ता है। इसकी अड़ सम्पूर्ण कफज रोगों को लाभ करती तथा श्राहारको पञ्चाती और जलोदर को गुमा करती है। यह प्रभाव में अपने बीज से बनवान है। जौ के आटे के साथ इसका लेप शोथ को लयकर्ता है तथा पार्श्वशूल और चान्तिनाशक है। डॉक्टरो एव अन्य मत अजमोद के पलों को कुचल कर स्तन में लगाने से दुग्धस्त्राव अवस्ट हो जाता है। (तकिन ). यह सभी नेत्रों में पुलटिश रूप से उपयोग में पाना है। अजमोद की जड़ का वृक पर लाभदायक प्रभाव होता है। इं. मे मे० अजमोद बदहजमी और दस्त की बीमारी में। अत्यन्त उपयोगी है तथा खराब स्वाद वाली दवा अजमोद के पानी के साथ देने से उलटी भाने की सी शंका नहीं होती। इससे ये सब दवाएँ पेट में शूल होने की सी शंका होने को बन्द करती है। यह अत्यधिक लालावावक है । इससे पाचक रस श्रधिक उस्पन्न होते हैं, उदरशूल नष्ट होता है तथा पाचन शक्रि बढ़ती है। गले के भीतर की सूजन पर भी प्रजमोद को अन्य ग्राही पदार्थ के साथ मिलाकर उपयोग करना हित है। (डॉ० वोडा)। अजमोद तैल अर्थात् एपिभील (Apiol ). नॅट मॅकिरात (Not official ). लक्षण-यह एक पीतवर्ण का लीय द्रव है जिससे विशेष प्रकार की गन्ध थाती है। स्वाद-तीरण एवं अमाझ। घुलनशोलता-यह जल में तो नहीं घुलता किन्तु हलाहल (Alcohol) और ईथर में सरलतापूर्वक घुल जाता है। मात्रा-३ से ५ मिनिम् (बुन्द)। उपयो-विधि-इसको साधारणतः कैसला में डाबकर देते हैं। नोट-फटिक गत् एपिभोल (कपूर भज मोदा), इसकी भी कभी उकल के स्थान में उपयोग करते हैं। प्रभाव व प्रयाग-एशिमोक्ष को रजःप्रवर्तक तथा मूयजनक रूप से रज:रोध तथा बाधक वेदना और एक शादि रोगों में (२-३ बुन्द की मात्रा में कैशूजज या शर्करा के साथ ) वर्तते हैं। कहते हैं कि विषम ( मलेरिया ) ज्वरों में भी यह लाभदायक होता है, पर डॉक्टर डाइमाक महोदय के अनुसार इसकी परीक्षा करने पर निम्न इन्द्रियन्यापारिक क्रिय.ए. संपादित होती हैं, यथा शिरोवेदन, मदकारी, बाद को बारम्बार स्थाने की इच्छ', पचन विकार, पुषा का नष्ट हो जाना और ज्वर धादि । सूक्ष्म मात्रा में एपिमोल प्रापस्मारिक मूर्छा के लिए गुणदायक बतलाया जाता है। इं. मे० मे। ___ नोट-यूनानी हकीम भी फ़ितरासालियून को मूत्रविरेचक, रजःप्रवर्तक तथा वृक्त, वस्ति एवं गर्भाशय के लिए लाभदायी जानते हैं तथा उसे इन्हीं गुणों के लिए उपयोग में लाते हैं । योग-निर्माण-(.) किनीन सल्फेट १ रत्ती, एपिग्रोल ग्रेन ( रक्ती ) और पमैंगनेट ऑफ पोटाश ? रत्ती ( ' ग्रेन ) इनको मिक्षा For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमोदाख्या अजमोदावरका का यटिका प्रा । य र एक मात्रा है। शुगर सहित जिरोध था मलेरिया ज्वर में लाभ होता है । ई० मे० मे०।। ( २ ) ए पट्रैक्टम् अगोटी, रती ( १ ग्रेन), एपिोज ३ मिनिम् ( बुद). उपयोग-विधि-इन दोनों श्रीपयों को एक बालो केरल में डालकर ग्विना दं और ऐसा प एक कैर गृल दिन में ३ बार दें। गुण-र संघ नया बाधक वेदना में लाना दायक है। अजमोझरुया jimodikhyi-सं० स्रो० (१) यनयमानी, यन वाइन । अयमानी, या पापा । रत्ना०, बृहन् लवंगादि चूर्ण । (२) यमानी । अजगइन । Crim ( Ptye. . hotis ) Ajowil!), DC. I Tro fool अक्षयादि गुटेका jimooli li-gutiki -रू. आ. अजमोद, मिर्च, पीपल,चित्रक, यायविदंग,देवदारु, गोमाके बोस, सेंधा लवण, पीपलामूल, इन्हें । पल और संग; १० पल, विधारा १० पल, दनी (जलालगोटा की जड़) ५ पल इनका चूर्ण कर चई के बराबर गुह जिला गोलियाँ बना। भाषा-२-६ मा० । इसे गर्म जल से उपयोग ! करने से सनस्त वात रोग दूर होते हैं। (योगचिन्तामणि) अजमंदादि कर्णः ajitmalli-churna h -सं० पु. अजमोद,वायविधानोंन,देवदारु, चित्रक, पीपरामल, मोफ, पापर, मिर्च, इन्हें कप कप भर लें । ह५ ५ कप, विधारा १० कपं, मों: १. कर इन्हें चर्ण कर गुड़ पुराना मिति कर 'उध्या अल से स.ने से शोथ, श्रामदान, सन्धिपीडा, (गठिया) गृध्रसा, कटिपीदा, पी, जाँध को पाड़ा. तृणी, प्रतितणी वाय. विश्वाची, कफरोग तथा वायु के रोग दर होते - हैं। शाङ्ग सं० मध्य० ख० अ०६।ग. - चि०म०। #HATGT TIF: ajamoládlya-vațakah . - पु० अजमादादि गुटिका । (1) अंजमोद, १ सेर, हाइ, बहेड़ा, अमला, सोंठ मुल्तानी, विदारी कन्द, धनियाँ, मोथा, मोचरस, गजीपल, लौंग, जायफल, पीपर, चित्रक, अनारदाना, भारंगी, कहलगा, मिर्च, दोनों जीरा, कुटकी, नाबादन, पीपरामूल, रेणुका, वायविडंग, वच, कायफल, पिसमापदा तिधारा, दन्ती की जड़, कुरदानासार इन्हें एक एक तोता ले, चुग व काइदान कर इसमें २० वर्ष का पुराना गुद एक सेर मिलाकर पाक विधि से एक एक तो प्रयाग गाजियाँ बनाएँ । इरो उपय अज से उपयोग करने से पेट का भारीपन, कछुई तथा उदर विक र वर होते हैं। (२) अजनाद, मिला, विदारीकन्द, मीठ, धनियाँ, नोचरम, शोथा, गपीपल, लौंग, जाय. फल, पीपल, विजयामुलगानी, अनारदाना, दोनों जीरा, चित्रक, भारंगा, कतलगा, कोचीज, गुलदी, शिलाअन्तु, काकालिंगी, केसर, नाग. के तर, पुष्करनूल, शतावर, इन्ई ६-६ मासे ले, पुनः चूर्ण कर कालान को । पश्चात् ५५ सेर गोदुग्ध श्रौटाएं जब एक सेर शेष रहे एक सेर निमी की च.सनी कर, उन वर्ण मिला तो. प्रमाण गालियां बनाएं । इसके सेवन से वीर्य वृद्धि होकर बल बढ़ता है । (अमृ० सा०) (३) अजमोद १२ भाग, चित्रक १ भाग, हड़ 10 भाग, कृट ह भाग, पीपर - भाग, मिर्च ७ भाग, सोंठ ६ भाग, जीरा ५ भाग, सेंधालवण ४ भाग, वायविडंग ३ भाग, बच २ भाग, हींग १ भाग । इन्हें चूर्ण कर चूर्ण से द्विगुण पुराना गुड़ मिलाकर ७॥ टं० प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। इसके सेवन से अनेक प्रकार के वानरोग, १४ प्रकार के दर्य रोग, १८ प्रकार के गुल्म, २० प्रकार के प्रमेह दूर होते हैं। तथा, यह हृद्रोग, शूल, कु, वायु, गुल्म, गलग्रह, श्वास, संग्रहरणा, पांडु, अग्निमान्य, अरुचि, इत्यादि को दूर करती है। (४) अजमोद, मिर्च, पीपर, वायविडंग, देय.. दारु, चित्रक, शतावरी, संघालवण, पीपरामूज, इन्हें चार चार तोला लें। सौंठ ४० तोला,विधारा For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रजमोदिका १३४ अजरियून ४० तोला, हड़ २० तोला इन सब का बारीक अज़रफ़न inzarfuta ] बामनी, बभनी । चूर्ण बनाएँ और सर्व तुल्य पुराना गुड़ मिलाकर MF? āazafúta 1 (A red tailed १ तोला प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। इसको उध्या lizard). जल से सेवन करने से श्रामवात, विश्वाची.तूणी. अज़रब ३azaraba-. छोटा अजदहा (अजप्रतिणी, हृद्रोग, गृध्रसी, कटि, बस्ति, गुदा गर) Boa constrictor (Small ). स्फुटन, शोथ, सन्धिपीड़ा इत्यादि रोग दर | अक्षरम् ajaram-सं० ली. स्वर्ण Gold होते हैं। चक० द० उरुस्तम चि० (Arum ). रा०नि० २० १३। -त्रि. वङ्ग से० सं० । भैष० २० । जरारहित । डिवाइड ऑफ घोल एज (Devoid of old ag)-ई। अजमोदिका ajamodika-सं० श्री. अज- अजरह azurah-अ० पायखाना (Latrine). मोदा (A jamodā ). .. अजाह Anjarah-अ. वृक्ष प्रभति की गिरहें। अनमः ajambhah-सं० पु० (१) भेक वृक्ष ग्रन्थि (Nody ). (कृष्णान, मंटक)। शु० र Sex.bhaka. | अजगaja-०जी० (१) (A lizard) (२) बे दाँतका बञ्च । दन्त रहित । बिना दाँत का । गृहगाधिकः-सं० । छिपकी, छिपकली-हिं० । अजय ajaya-हि. वि० [सं०] (Not टिकटिकि-बं० । ( २ ) जीर्णफजीलता । (३) (Gmelinit asiatica, Linn.) 12. victorious,unsuccessful, Sub दारक, विधारा । रा० नि० व. ७ । (४) dued ) जयरहित, अकृतार्थ । -हिं० संज्ञा (Alot indica, Roy.) गृहकन्या, घृतप पराजय, हार । कुमारी, घीकुशार । ग० नि० २०५। (५) अजयपाल ajaya-pāla-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] (Corpopogon pruriens ) HJÆT, Jararitzri (Croton tiglium, Linn.). कवाँच,कोंच-नई। पालाकुशी-बं० । भा) पू० अजया ajaya सं० स्त्री० ( Cannabis In. १ भा० गु० व० । -यु० अर्तकान ( हलके पीत dica, Linn.)विजया, भंग, भाँग । भाषा में वर्ण के संगरेजे होते हैं।) इसको सिद्धि कहते हैं । रा०नि० । (२)--हि. अज़राक azurikn छोटे भालुबुखारा की एक सा स्त्री० [सं० प्रजा ] ८करी (A she- PRAIA sort of small varisty goat ). of Prunus communis. अजर ajara--सं० त्रि०, हिं० वि० [सं०] अज़गर azarāra-नौशादर, नसा(द )र । (Amrajara--स० त्रि, हि० वि० [सं०] onii chloridum.) 1) ( Not Subject to old age | जालाल असोज zarisul iaiouzaor decay, ever young ) जरारहित, अ. (Tribulus terrestris, Linn.) जो बूढ़ा न हो । (२) सं० अनहीं+ज़ पचना] गोखरू, गोक्षुर ( इ.)। जो न पचे, न हज़म हो । | अजरातुल्काब azurāsul-kalba-० वं. अजरकम ajarakam-सं० को० अग्निमांद्य, शास्त्री जो यसफ़ाइज के नाम से प्रसिद्ध है। अजीर्ण ( Indigestion ). सि० यो ( Polypodium vulgare, Linn.) कास० चि. वृन्दः । च. द. पांद-चि० अजराशी ajarashou-तु. वाशी-फ़ा० । योगराज । सुबकलॉ-हिं० । । Sisymbrium Iris, Linn.) अजरद azarad-समुद्रफेन की एक किस्म है। जरियन ajarivina-अ० सूरजमुखी (सूब-) (A kind of cuttle-fish). The Sunflower ( Helianthus अज़रन aazarana-बारहे श्ररमना । annuus, Linn. ) For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अजरूफ़ www.kobatirth.org अजरूफ़ aajarúfa to एक कीड़ा अथवा चिटी जिसके पाँव बम्बे होते हैं । अजरूम āajarúma अ० अल का एक पक्षी है । अजल ajala- अ० काल, अन्त, अवस्था, मृत्यु ( ए० ० ), आजाक ( ० ० ) । डेभ ( Death ), मॉर्टिफिकेशन ( Mortifica tion )-इं०। अजल āajala-ऋ० १ – बछड़ा, गाय का वचा, वया - हिं० | गो-सालह - का० । ( A calf.) २- काली मिट्टी (Black clay ). अज़ल ãazala- अ० पृथक करना, भिन्न करना । मैथुन में पृथक वीर्यपात करना । अज़लम ãazalama-अ० नील वृक्ष, नीली ( Indigofera Tinctoria, Linn. ) अजलम्बनम् ajalambanam-सं० की ० यामुन स्रोतोञ्जन, सुर्मा ( काला ) । Antimony । श० च० । देखा-श्रञ्जनम् । अजलह, ãazalah - अ० अलह मछली-उ० । मांस पेशी, मांस, पेशी - हि० । इसका बहुवचन अजलात है । मस्सल ( Muscle ) ( ए० ० ), मस्सल्ज़ ( Muscles ) ( ब० ० ) - इं० | १३५ अजलह, जा तुरुन अजनह आसिरतुल् बल āazalahāasiram tul boula - अ० मूत्रमार्ग सङ्कोचनी पेशी - हिं० । कम्प्रेसर युरैथी ( Compressor Urethra ) - इं० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजनह आसिरतुल् महबिल्ãazalahãâşiratul-mahbil- श्र० योनिरुङ्कोचन पेश - हिं० । स्फ़िक्कूटर बेजाइनी (Sphincter vagina)-इं० । अजनह इजानिय्यह मुख्तय रिजह āazalah --āijániyyah-mustaārizah - अ० सेवन स्थल की चौड़ी पेशी जो पेड़ के श्रवय को सहारा देती है । सबस पेरिनियाई (Transversus perinri ) इं० । अजलह इल्वियह कबीरह āazalah-ilviyah-kabirah [अ० नैतम्बिका महती पेशी - हिं० | ग्लूटिस मैग्नस ( Gluteus mag mus )-इं०। अज़ मह उस उसियह, āazalahāusāusiyab - अ० पुच्छिका हिं० । कॉक्सीजीअस ( Cocygeous ) - (० । अज़लह काह āazalah kabah-o हस्त को श्रधा या पट करने वाली पेशी । प्रोनेटर मस्सल ( Pronator muscle ) - इं० । अजलह श्रखमय्यह मुकद्दमह āazalah akhamaĀiyyah-muqaddamah-श्र० अज़लः काविज़ह āazalah-qábizah-o मध्य ग्रीवा के कशेरुका पावों से प्रथम पशुका तक एक मांस पेशी है । स्कॅलेनस एण्टाइकस ( Scalenus anticus ) - इं० । अजलह अजह वत् नित्र्यह āazalah āarizah-batniyyah ) - ० अन्तःउदरच्छदा पेशा -हिं० । ट्रान्सवर्सेलिस एण्डोमिनिस ( Transversalis abdominis ) - इं० । अजलह आसिरह ãazalahāásirah - o संकोचनी पेशी - हिं० | स्फिक्टर (Sphincter ), फ्लेक्सर ( Flexor ) - ई० । अज़लह आसिग्गुल इस ãazalahaasiratul-ista-अ० मलद्वार कोनी पेशी-०ि । स्क्रिफ्टर एमाई ( Sphircter ani ) - इं० । अज़लह उक़्लह । सङ्कोचनी पेशी - हिं० । ( Sphincter ). जलह, जहरियह अजह aazalah zahriyyah-āarizah - अ० पृष्ठच्छा पेशी | वह पेशी ओ कटि एवं कूरुहेसे लेकर बाज़ू तक फैली हुई है। लैटिस्सिमस डॉर्साई ( Latissimus dorsi )– इं०। अजलह जाते सु.. लासि तुरंऊस āazalah záte--sulásiyaturraúsa-. ff. रस्का पेशी - हिं० | ट्राइसेप्स ( Triceps ) - इं० । जलह जातुरसेन aazalah zaturrásain - अ० द्विशिरस्का पेशी - हिं० । बाइसेप्स (Biceps)-5'01 For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजलह तह तुल कतफिय्यह. प्रजवली. अज़लह. त तुल्कतफ़िथ्यह, aazalah-tah-अज़लह, राफिअतुल ज झ aa.zalah-rafiaa tul-ka tafiyyah-अ० अधः स्कंधिका- tul-jafna-० ऊपरी पलक को ऊपर उठाने पेशी-हि०। सबस्केप्युलेरिस (Subscap- वाली पेशी । लीवेटर पैल्पएनोलिस (Levator ularis )-इं०। Palpebralis', लीवर (Lever)-ई। अज़ह, तह तलत बह. aaza lah-tantul. अजलह सरिथ्यह कबीरह aazalah tarqurah-अ० अधः अक्षिका पेशी sadriyya h-kabirah-अ० उरश्छादनी -हिं० । सबने विश्रास ( Subclaveus) वृहती पेशी-हिं० । ऐक्टोरेलिस मेजर (Pecto ralis ma.jor)-इं० । अज़लह, दालियह. azalah-daliyahi ah | अज़लह, सरियह, सगीरह, aazalah. - अंसाच्छादनी पेशी-हिं० । डेलटॉइड | sadriyyah-saghirrah-अ० उपछा(Deltoid )-To दनी लघवी पेशी-हिं० । पेक्टोरैलिस माइनर अज़लह बातिह.ह. aazalah-batihah-अं० ( Pectoralis Minor ) sol करीत्ताननी पेशी-हिं० । सुपाइनेटर( Supi अजलह सुङ्गिय्यह ३azalah-sudghiyyah nator)-toi - शांखिकी पेशी-हिं० 1 टेम्पोलिस Pat, Treas, āazalah-básitah-• ! (Temporalis )-501 अजलह शादह । प्रसारणी पेशी-हिं० । एक्स- अजलह. सुलबिय्य ह. कबीरह- iazalab रेन्सर ( Extensor )-इं०। । sulabiyyah kabirah- अ. कदील. अजलह, मुकत्तिबह, azalah-muqatti- म्बिनी वृहती पेशी-हिं० । सांस मैग्नस bah-अ० संकोचनी (मुरी बालने वाली) (Psoas Magnus )-इ..। . . पेशो-हिं । करूगेटर ( Corrugator) अजल हरकफियह aazalah-har qafiyyah-अ० श्रोणि पक्षिणी पेशी-हिं.। अज़लह मुकरियह azalah-muqarr- इलायकस ( Iliacus )-६०। . ibah-अ० अन्तरनायनी, अन्तरवाहिनी-हि । | अजलोमा, मो ajaloma,-mi-सं० पु०, हिं.. ___ एक्टर ( Adductor )-ई। संज्ञा स्त्री० (१) कौंच, केवाँचकी वेल, शूक अज़लह, मुब. इ.दह aaz.alah-inmbaaai शिम्श्री, प्रात्मगुप्ता । पालाकुशी-यं० । Cowach dah-अ० बहिर्नायनी पेशो- हिं० । ऐन्डक्टर ( Corpopogon pruriens ) र०मा० । ( Abductor )-इं० । . (२) मऔषधि विशेष । देखो-पोषधिः। अजलह मुबन्विाह ia.zalah-mubavvi. अज़ल azalla-अ० (१०व०); जब (ब. gah-अ० मुखप्रसारणी, कपोलच्छदा पेशी व०.), अंगुली का भोतरी अर्थात् हनी को जो मुग्ख को फैलाती है । बक्सिनेटर ( Bucci-| श्रोर वाला भाग। na tor)-01 अजवला ajavala-म० वनतुलसी-सं० । रामअजलह मसन्निन कबीरह. azalah- तुलसी-वं०. द०। बनजड़ी-हिला शबी बेजिल musanninahe.kabirah-अ० दंष्ट्राकार (Shrubby Basil)-ço (Ocimum ऊर्ध्वपार्टीकीयवृहती, वृहत् दन्दानादार पेशी जी Gratissimum, Linn.) मे० मे । ऊपरी भाउ पेशियों के सामने से प्रारम्भ होकर अजवला ajavalla-म०। रामतुलसी (Ociस्कंधास्थि के पिछले किनारे तक जाती है। सरेटस | आजवल्ल ijavalla-सं० mum Grati मैगनस (Serratus Magnus)- simum, Linn.) फा० ई०। अज़लह राफिअतुल इस्त aaza lah-rāflia- अजवल्ली ajavalli-सं०स्त्री० (Helicterist tul-ista-अ० गुदोत्थापिका पेशो-हि। isora, Lin.) मेदासिंगी, मेषी । मेड़ालीवेटर एनाइ ( Levator ani )-इं०। . शिडे-बं० । For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़वा अजवाइन अज़वा azavā-तु० (Aloes) एलुवा, कुमारी. सारोगवा, मुसब्बर । अजवाइन ajavāina-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] | यवानिका, अजवायन, ( अ ) जवान, (अ) जमान, जवाइन-हिं० । अजवान-द०। संस्कृत पर्याय-अजमोदा (-दिका ), ब्रह्मदर्भा, क्षेत्र यमानिका, भूतिकः, यवनिका, यवनी, यवानी, दीप्यः, दीया, दीपकः, दीप्यका, दीपनी, दीपनीयः, यवजः, यवसाहः, यवसाया, यवाग्रजः, उपगन्धा, वातारिः, भूकदम्बकः, शूलहन्त्री, उग्रा, तीवगन्धा, कारवी, भूमिकः, अग्नि गन्धा, अग्निवर्धनी, यवान, हृद्या, ब्रह्मदर्भाह्वय, यवाह्न। अजोवान, जोवान, योयान, यमानी, अजवाइन, अजवान-बं० । केरम कॉप्टिकम् (Calum copticum, Bonth.),लिग्युस्टिश्राम अजवान ( Ligustiasmi-ajowan, Board.), केरम (टाइकोटिस) अजोवान Carum (Ptychotis ) A jowan, D. C. ( Fruit of--A jowan-fruit. ), अम्मी कॉप्टिकम (Ammi copticum)-ले० किंगज़ क्युमिन King's cumin, लोवेज Lovaga, बिशप्सवीड Bishop's weed, श्रोमम् Omuin ( seeds )-ई० । अम्मी डी इण्डी A mmi de I'Inde-फ्रां० । इण्डिस्कीज फ्राल्टीनोर Indisches faltemohr-जर० । नानखाह, कमुने- मलूकी, जिन्यान-१०, फ़ा। प्रोमम, अमन-ता० । श्रोममु (-मी), वाममु, वामु-ते० । अयमोदकम, होमम मल० । वोम, पोमु, प्रोण्डु, अोम,उंडु-कना० । वोवसादा, वोवाअजमा,उवा-मह । श्रोडी अज्वान, अजमो, जवाइन-गु०। अस्समोदगुङ, अस्समो. दगम, प्रोमम-सिं० । सम्हूम-बं० । श्रीमा-तु०। अम्मी, बासलीक़न कमूनी ( मलु की)-यु०। चोहरा-कछ० । पोण्ड, श्रोम्-करना। प्रोम -माला० । अजवाइन--पं०। जाविन्द-काश। वोवा-बम्ब० । बोबो--को० । लाविअ लार्मिसी । -मला। अभ्बेलिफेरी अर्थात् क्षत्री वर्ग (V.0. Umblliterie) उत्पत्तिस्थान-एक पौधा जो सारे भारतवर्ष । में विशेषकर बंगाल में लगाया जाता है। यह पौधा अफरीका, दकन तथा पंजाब, मिश्र और ईरान (फारस ), अफगानिस्तान आदि देशों में भी होता है। नाम विवरण तथा इतिहास-यूनानीहकीम डायोसकोराइडोज़ ( Dioscorides ) ने अम्मी (अनीलूस ) नामक जिस अफरीकीय ओषधि का वर्णन किया है वास्तव में वह यही दवा है । अस्तु, हकीम जालोनूस अम्मी. और कमूने मलूकी या किंगज़ क्युमिन (King's cumin ) को एक ही दवा मानते हैं। फारस में भी एक इसी प्रकार का बीज ज़िन्यान तथा नान्ताह के नाम से बहुत प्राचीन काल से प्रयोग में माता था। नान्वाह (नान-रोटी+ नाह% चाहने वाला ) का अर्थ "रोटी का चाहने वाला" है। चूंकि यह क्षुधावर्द्धक है इसलिए इसका उक्त नाम पड़ा । प्राचीन काल में ईरानी लोग जिन्यान को, वास्तव में जो नान्वाह ही था, तनूरी रोटियों पर लगाया करते थे। इनसीना ने नान्नाह नामसे इसका वर्णन किया है। प्लाइनी अम्मी और किंगज़ क्युमिन (कमूने मलूकी) को एक ख्याल करते हैं। हाजी जेनुलअत्तार डायोसकोराइडीस द्वारा वर्णित अम्मी को नामवाह बतलाते हैं तथा उसके औषधीय गुणधर्म के सम्बन्ध में उन्हीं चिकित्सकों की सम्मतियों को उद्भत करते हैं। वे और भी बतलाते हैं कि उक श्रोषधि शोधक रूप से प्रसिद्ध है और दुष्ट व्रणों को अच्छा करने तथा उनसे दुर्गन्धि युक्र स्रावों को रोकने के लिए उपयोग में पाती है। तुह.फतुल मोमनीन के लेखक तथा अन्य इसलामी चिकित्सक डायोसकोराइडीज़ के अम्मी या बैसिलिकॉन क्युमिनॉन ( Basilikon kuminon) तथा फारसीयों के नान्वाहव जिन्यान को अजवायन ही मानते और इसका . अरबी नाम कमूनुलमलकी (King's cumin) बतलाते हैं। पश्चात् कालीन यूरूपीय लेखकों का यह टिकोटिस भजोवान (Ptye. ho tis a jowa For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजवाइन १३ अजवाइन प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रंथकारों ने इसी प्रकार के | एक ओषधि का यवोनी तथा यवानिका नाम से वर्णन किया है, जिससे इसका विदेशी होना साफ सिद्ध होता है । उनके वर्णनानुसार यह अजमोदा | के भेदों में से एक है। वानस्पतिक विवरण-अजवायन क्षुप जाति की वनस्पति के बीज है। ये तुप लगभग चार फीट ऊँचे होते हैं। पत्ते छोटे छोटे हालों के पत्तोंके समान एवं कटीले होते हैं और इनकी डालियों पर छत्ते से आते हैं जिनपर सफेद फूल लगते हैं । जब वे छत्ते पक जाते हैं तब उनमें अजवाइन उत्पन्न होती है । उनको कूटने से छोटे छोटे दाने से निकलते हैं, इन्हीं को अजवाइन कहते हैं। अजवायन (फल) रूपाकृति' में अजमोदा समान तथा धूसर वर्ण की होती है, जिसका ऊपरी धरातल प्रबुदाकार पञ्च उभार युक्र होता है। इनकी मध्यस्थ नालियाँ श्याम धूसरित होती हैं, जिनमें एक तेल नलिका होती है। संधिस्थल में दो तैल नलिकाएँ होती हैं। गंध हाशा अर्थात् जंगली पुदीना के सदृश होती है। भारतीय कृषक प्रायः धनिए के साथ इसे खेतों में बोते हैं। बोने का समय अक्टूबर से नवम्बर तक (कातिक, अगहन) और काटने का समय फरी है। इसके लिए खेत खाददार होना चाहिए। नोट- श्रायुर्वेद में यमानी, बनयमानी, पारसीक तथा खोरासानी आदि नामों से अजवायन को चार प्रकार का बतलाया गया है । इनमें से प्रथन दो में कोई भेद नहीं (दूसरी केवल जंगली है ) और अंतिम की दो अजवायन खुरा. सानी ही के पर्याय हैं: किन्तु यह अजवायन से सर्वथा भिन्न वर्ग की प्रोपधियाँ हैं। इनका वर्णन यथास्थान किया जाएगा। प्रयोगांश-फल, पत्र । रासायनिक संगठन-स्टेनहाउस (१८५५) महाशय के मतानुसार अजवाइन के फल में एक प्रकार का ग्राहा सुगंधियुक्र उड़नशील तेल (५-६ प्रतिशत) होता है जिसका विशिष्ट गुरुत्व ०६६ है। परिश्रुत जल के ऊपरी धरातल पर एक प्रकार का स्फटिकवत् द्रव्य ( Ste: aroptin ) इकट्ठा होता है। उसे अजवाइन का फूल या सत कहते हैं। स्टॉक ( stock ) महाशय ने सर्वप्रथम इसका बयान किया तथा स्टेनहाउस (Stenhouse ) और हेन्स ( Haines) ने परीक्षा करके इसकी थाइमोल ( Thymol) से, जो जङ्गली पुदीना ( Thymus Vulgaris) से प्राप्त होता है, समानता दिखलाई। देखो-थाइमोल । इसमें क्युमीन (Cumene), टीन ( Terpene ) तथा श्राइसीन (Thy. mene) भी पाए जाते हैं। औषध-निर्माण-अजवायन गुटिका (शाङ्ग०), चूर्ण, काथ, अर्क ( अमूम का पानी) और तैल । अजवायन के गुणधर्म व प्रयोग। श्रायवेंदीय मत के अजसार अजवायन लेखन ( देहस्थ धातु तथा मलों को शोषण करने वाली), पाचक, रुचिकारक, तीक्ष्ण, गरम, चरपरी, हलकी, अग्नि को दीपन करने वाली, कड़वी और पित्तकारक है तथा वीर्य, शूल, वात, कफ, उदर, पानाह, गुल्म, प्लीहा तथा कृमि को नष्ट करने वाली है। (भा० पू०१ भा०) ___ इसके शाक के गुण-अजवायन का शाक श्राग्नेय, रुचिकारक, वात-कफ-नाशक, चरपरा, कड़वा, गरम, पित्तकारक, हलका तथा शूलकारक है। (भा० पू० शा०व०) अजवायन चरपरी, कड़वो और गरम है तथा वात की बवासीर, कफ, शूल, श्राध्मान, कृमि और वमन को दूर करने वाली तथा परन दीपन (ग० नि० २०६) अजवायन कोढ़ और शूल को नष्ट करने वाली है, हृदय को हितकारक, पित्तवद्धक तथा अग्निबद्धक है। अजवायन चरपरी, कड़वी, रुचिकारी, गरम, अग्निप्रदीपक, पाचक, पित्तजनक, तीक्ष्ण, हलकी हृदय को हितकारी, सारक और बीर्यजनक है तथा वाी की बवासीर, कफ, शूल, अफरा, वमन, कृमि, शुक्रदोष, उदररोग, प्रामाह, हृदय For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन अजवाइन रोग, प्लीहा, गुल्म, द्वन्द्वज रोग और आमवात को नाश करती है। (रा०नि० .. अकं अजवान-अजवायन का अर्क-हिं. द० ।। अजोवान Ajowan, एक्का राइकोटिस Agua 'Ptychotis-ले०। प्रोमम् वाटर Omum water-इं०। ओमत्ति-नीर-ता० । श्रीमद्राव. कम् ते०। अजवायन के अर्क के गुण-अजवायन का । अर्क पाचक, रुचिकारक, दीपन तथा शुक्रनाशक एवं शूलनाशक है। यूनानो मतानुसार अजवायनके गुण धर्म व प्रयाग-स्वरूप-अनीतूं के समान कालापन लिए भूरी । स्वाद-कडुवास लिए तीखी और तीक्ष्ण गंधयुक्र है। प्रकृति-३ कक्षा में गरम और रून है। हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को, शिरः पीडाप्रद और स्तनों के दुग्ध की हासकर्ता । दर्पनाशक-उन्नार , धनियाँ, खाँड तथा स्निग्ध व शीतल द्रव्य । प्रतिनिधिकलौंजी और काला जीरा । मात्रा-६ मा० से १ तोला तक। गुण, कर्म, प्रयोग-अजवायन विशेष कर समस्त अवयों की वेदना को शमन करने वाली शोथों के लय करने वाली तथा कामोद्दीपक है। .. यह आर्द्रता शोषक, कोष्ट मृदुकारी, वायु लय कर्ता तथा अगद शक्ति से संयुक्त होती है, अजवायन को शर्बत लकवा, कम्पनवायु तथा शैथिल्य को लाभदायक है। इसके काथ द्वारा आँख धोने से नेत्र स्वच्छ होते हैं। इसे कान में डालने से वधिरता को लाभ होता है, यह वक्षः स्थवेदना तथा रतूबतों को नष्ट करने के लिए उत्तम है और रोधउद्धाटक, कोष्ट मृदुकारक, यकृत एवं प्लीहा की कोरता को लयकर्ता, हिचकी, वमन, मतली, दुर्गन्धियुक्र डकार, बदहज़मी, उदर में शब्द होना, मूत्रावरोध तथा अश्मरी प्रभृति के लिए गुणदायक है। कामोहीपक है तथा यकृत, श्रामाशय, वृक तथा वस्ति को उष्णता प्रदान करती एवं शक्ति देती है। यह सूत्र, प्रावि, दुग्ध तथा स्वेद की प्रवर्तक है। जलोदर के लिए गुणदायक है और हर प्रकार के केचुओं को निकालती है। लेमू (नीबू) के रसमें यदि इसे सातबार दुबोकर शुष्क कर लें तो यह नपुसकता के लिए अत्यन्त गुणदायक हो । इसका शर्बत श्लैष्मिक ज्वरों में विशेषकर चातुर्थिक ज्वर के लिए अत्यन्त लाभदायक है तथा ज़हरों को नष्ट करने में अगद है । अण्डशोथ के लिये इसका लेप उत्तम है । शहद के साथ मिलाकर उपयोग में लाने से यह सम्पूर्ण श्रावयविक वेदना तथा शोथ के लिए लाभदायक है । म० अ०। (निर्विषैल, परन्तु अधिक मात्रा में विषैल है।) एलोपैथिक मेटोरिया मेडिका तथा अजवाइन । यमानो तेल-अजोवान प्रालियम् (Ajo. wan Oleum )-ले० । अजोवान आइल ( A jowan oil ), टिकोटिस' प्राइल (Ptychotis oil )-101 रोगने नाम्खाह -फ़ा। अजवाय (इ) न का तैल-हिं०, उ०। यवानीर तैल-बं०। आँ फिशल (Official.) लक्षण-यह एक वर्णरहित तथा उड़नशील तैल है जो अजवायन के फल द्वारा परिश्रुत करके प्रस्तुत किया जाता है। इसका स्वाद तथा गंध अजवायन के समान होती है। इसका प्रापेक्षिक गुरुत्व ११७ से १३.. तक होती है। ३२० फारनहाइट पर इसे शीतल करने से इसमें से ४० प्रतिशत थाइमोल पाया जाता है। नोट - थाइमोल को भारतवर्ष में अजवायन का फूल और पञ्जाब में अजवायन का सत कहने हैं और मध्य भारत के किसी किसी स्थान में इसको बनाते हैं। - पहाड़ी पुदीना जिसे अरबी में हाशा और सातर तथा यूनानी में थाइमस ( Thymus) कहते हैं और प्राचीन अरबों ने जिसका उच्चारण सोमस किया है। वस्तुतः उसके जौहर या सत को: अंगरेजी में थाइमोल ( Thymol ) कहते हैं । परन्तु उपरोक्त वर्णनानुसार यह जौहर For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन अजवाइन अजवायन प्रादि से भी प्राप्त होता है । देखो- opium) मिलित कर व्यवहार करना उत्तम है थाइमोल। तथा २॥ ता० अर्क अजवायन और उतने ही प्रभाव-वायुनिस्सारक (Calminative) चिरायते के शीत कषाय में 1 ग्रेन (आधी रत्ती) तथा कृमिघ्न (Anthelmintic). लोहगन्धेत् [ सल्फेट ऑफ प्रायन ] मिति कर ___ मात्रा-1 से ३ मिनिम (३ से १८ सें. दिन में २ बार व्यवहार करना उत्तम व्यापक मि० ग्रा० ). बलदायक औषध यमानो तैल के प्रभाव तथा प्रयोग-थाइ. __इसे अन्य सुगन्धित प्रोषधियों यथा यूकेमोल तथा अन्य प्रातिशल तैलः के तदृश ३ बुद लिप्टस, पेपरमिरट तथा गालथेरिया आदि के की मात्रा में यह प्रवल वायुनिस्सारक है । थाइ | साथ मिलाने से यह लाभजनक वायुनिस्सारक मोल के समान द्वादशांगलीयांत्रस्थ (द्वादशा औषध होजाती है । यमानी तेल तथा अजवायन गुल नामक अंग्रमें पाए जाने वाले ) केचुनों पर का फूल इन दोनों को सांडा के साथ देने से यह सशक कृमिघ्न प्रभाव करता है । परन्तु अम्लपित्त, अजीर्ण तथा उदराध्नान में लाभ उक्त अभिप्राय हेतु एक फ्लुइड डाम से अधिक ) होता है। मात्रा को आवश्यकता होती है जो थाइमोल के - अजवायन का बीज, कालीमिर्च, सौं: प्रत्येक तरल रूप में प्रात्मीकृत होजाने के कारण सम्भ- प्राधा डाम और इलायचो १ डान इन सबको वतः विषैला होगा। आभ्यन्तरिक रूप से अज- चूर्ण का ड्राम की मात्रा में उदरशूल में दिन वायन का अके उदराध्मान ( Flatulence) में दो बार यवहार करने के लिए में यह बढ़िया तथा उदरशूल में लाभदायक है। वायुनिस्सारक दवा है। अजवायन के गुणधर्म के सम्बध में चक्रदत्त-अजवायन, सेंधानमक, साँचलडॉक्टर एवं अन्यं मत-अजवायन के बीज लवण, यवचार, हींग तथा हर्रा इनको समभाग तथा उड़नशील तैल उदराध्मान, उदरशूल, अति- ले चूर्ण करें। मात्रा-५ रत्ती से १० रत्ती मद्य सार, विशूचिका, योपापस्मार, ओर अात्राक्षेप में के साथ । गुण-अंतड़ियों की वेदना व शल को लाभदायक हैं। इससे उप्मा एवं प्राहाद की दूर करता है। वृद्धि होती है और श्रांत्रविकार के साथ होनेवाली अजवायन के बीजों को मुंह से चबाकर उदासीनता तथा निर्बलता दूर होती है। उक निगल जाये और ऊपर से उष्ण जल पान करें। तल को १ से ३ बुद की मात्रा में किचित् शर्करा इससे प्रामाशय शूल, कास तथा अजीर्ण नष्ट पर डालकर अथवा गोंद के लाब और जलके माध इसका इमलशन बनाकर उपयोग में लाना । अजवायन का तेल प्रस्तुत करने के लिए. ३ चाहिए । वात व प्रामवान सम्बन्धी वेदनाओं को मेर दुचली हुई अजवायन में १५ सेर पानी दूर करने के लिए इसका वाय प्रयोग होता है। डाल के मद्य संधान की विधि से १० सेर पानी विशूचिका की प्रथमावस्था में वमन व रेचन को काढ़ना चाहिए। (मिलिंसडेल). रोकने तथा शरीर को उत्तेजित करने के लिए, पैत्तिक वमन एवं शीत लगना प्रभृति में अजयमानी तेल एवं इसके बीजों द्वारा परिशुत जल वायन के बीज तथा गुड़ मिलाकर भक्षण किया (अजवान के अर्क ) को १ से २ पाउंस ( २॥ जाता है। तो० से 1 . तक) की मात्रा में उपयोग जुकाम, प्राधाशीशी तथा उन्माद इत्यादि में करना गुणदायक होता है। इसके बीज के चूर्ण को बारीक कपड़े में बाँध कर अतिसार में एक बाउंस (२॥ तो.) अज- थोड़ी थोड़ी देर में सुँघाना चाहिए अथवा उक वायन का अर्क तथा उतने ही चूने के पानी में । चूर्ण का सिगरेट बनाकर पिलाना चाहिए। । ५ बुद अहि फेनासव ( Tincture of उदरशूल निवारण हेतु इसके बीजों का उपानह For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन अजवाइ ( 2 ) न सुरासानी (पुल टिस ) या प्रस्तर उपयोग में आता है। अजवायन के पत्ते का स्वरस, इस्पन्द (हेना) इसके बीजों को गरम कर दना में सीने को तथा और मालकाँगनी इनको समान भाग लेकर इससे विशूचिका, मूर्छा व बेहोशी में हाथ पाँव को तिगुना मीठा तेल मिलाकर पकाएँ । तैयार होने शुष्क सेक करते हैं। पर उतार लें और नासिका व क रोगों में इसका ___ अजवायन के बीज, पिप्पली, प्रड्स पत्र और व्यवहार करें। . (इलाजु० गु०) पोस्ते के ढोंढ़ इनका काथ कर श्राधे से । श्राउंस अजवाइनकाफूल ajavai a-ka-phula | की मात्रा में ग्राभ्यन्तर रूप से वर्तते हैं। अजगइन-का-प्लत ajavaina-ka-sataj __ श्लेष्मा के शुष्क हो जाने या चिपचिया हो हि० संज्ञा पु, थाइमोल ( Flowers of जाने के कारण जब कफस्त्राव कठिन हो जाता है, Ajoram Camphor ) । देखो-थाइउस समय इसके बीजों के चूर्ण में मक्खन माल व अजवाइन । फा० इ०। ई० मे० मे०। रू. फा० इं०। मिलाकर खिलाने से लान होता है। बनय नानी भी उत्तम है श्रोर अनेक कृषिः । अजवाइन-के-बू-का-पत्ता ajaraina-ke-bu. नाराक योगों का एक मुख्य अवयव है। ___ka-patti-द. सीता की पञ्जओगे। शिथिल-कंडक्षत में इसका श्रीन संकोचक , अजवाइ (य) न खुरासानो ajarai (ya) naग्रोवधियों के साथ उपयोग में श्राता है। ग्रोप- । ____khurasini-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० यवाधियों विशेषकर एरर ड तेल के अग्राह्य स्वाद : निका ] .खुरासानी अजवा (मा) यन। .खुराको छिपाने के लिए एवं उनकी वामक प्रवृत्ति व सानी अज्वान-द० । नदकारिणी, तुरुष्का, तिब्रा, ऐंठन युक्र वेदना को रोकने के लिए इसका उप यवानी, यावनी, मादक, मदकारक, दीन्य, श्याम, योग किया जाता है। कुबेराख्य, पारसीक यवा (मा) नी, खोरासानी __ आभ्यासिक माइकता तथा पागलपन में यह यमानी-सं० । खुराशानी योयान, खुरासानी अजोवान-पं० । हाइयो साइमस नाइनम् लाभदायक है। अपने चरपरे तथापि मनोहर स्वाद और Hyoscyamus Nigrum, Linn. (Seeds of-), हाइयो साइमस (Hyo. पानाशयिक उत्ताप बिवद्धन के कारण मादक seyamus ), हा० रेटिक्युलेरिस (H. Re. द्वव पान की इच्छा से व्यथित व्यक्रियों का इसे ticularis), हा० रेटिक्युलेटस (H. Re. व्यवहार में लाने की अाधुनिक काल में बहुत ticulatus, Lin".)-ले. । हेन्बेन (सीड्स) शिफारिश की जाती है । यद्यपि इससे नशा नहीं Henbane ( Seeds)-ई । जस्कीएमिन्पैदा होती, तो भी निर्यलता दूर करने के लिए वायर Jusquiame-lioire-फ्रां० । अफ़ियह सामान्य उनक औषधों की एक उत्तम यूम Aliyum - जर० । खराशानि-योमम् प्रतिनिधि है- बुड): श्रापका कथन है कि यह -ता० । खुरासानि-वामम्, खुरिञ्जिवामम् । बहुत से बुद्धिमान व्यकियों को मद्यपान के खुरासानी-यमनी, खुरसान वालो-ते०, तै०। अभ्यास की किकरता से मुकि दिलाने के लिए खुरासानि बोमा, खुरासानि-वादक्कि-कना। उत्तम कारण सिद्ध हुई है। किरमाणि श्रीवा, खोरासाणी-नि-पोवा, सुरअजवायन ( बीज लगने से प्रथम ) के पौधे वंदाचे-फूल -मह० । खुरासानि-प्राजमो, खुराके कोमल पत्त कृमिघ्न प्रभाव हेतु व्यवहार में सानि-अज़वान, खुरसाणा-अज़मा, करमाणीपाते हैं । कृमि में इसके पत्र का स्वरस दिया छहारी-गु० । बजरभंग, इस्किरास-काश० । जाता है। काटफिट-० । ब.लबञ्ज, बञ्ज, सीकरान, विषैले कीटाणुओं के काटने पर दंश स्थान पर खदाउरंजाल-अ०। बंक, बंग, बंगदीवाना-फान इसके पत्तों को कुचल कर लगाते हैं। अज़मालूस-सिरि० । वानवात-तु. । अफ्रीकन, For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (स ) न ख रासानी अजवाइ (य) न व रासानी अनियून-यु० । अक्तफीत, इस्कीरास बरव० । व्यापारिक आयात निर्यात हो रहा है। विदेशों कीर्धक-देल्मी०। की उत्तम चीजों का अपनाना और अपनी चीजें सोलेनेसाई अर्थात् धुस्तु (तू) र वा विदेश में भेजना भारतीय अपना ध्येय बनाते रहे धत्तर वर्ग हैं। इसी प्रकार बहुत सी श्रोषधियाँ जिनको (3.0. Solunacea. ) हमारे पूर्वाचार्यों ने रोगियों पर लाभदायक पाया उत्पत्ति-स्थान-उत्तरी भारतवर्ष, ( काश्मीर, उनको मँगाते थे। खुरासानी अजवायन भी उन्हीं गढ़वाल) पश्चिमी हिमालय के शीतोष्ण प्रदेश । ओषधियों में से एक है। समस्त हिमवती पर्वत-श्रेणियों में ८००० से . प्राचीन यूनानी चिकित्सकों ने तीनों प्रकार के ११००० फीट की ऊँचाई पर यह वन की तरह बञ्ज (पारसीक यमानी) का वर्णन किया है। उपजता है। बलूचिस्तान, (ईरान) खुरासान, परन्तु उनमें श्वेत प्रकार को ही औषध तुल्य उपमिश्र, एशिया कूचक और साइबेरिया के अतिरिक य.ग में लाते थे । डायोसकोराइडीस सहारनपुर के सरकारी वनस्पत्योद्यान में भी बोया ( Dioscorides) ने भी इसकी प्रशंसा की जाता है। यूरुष, (पुर्तगाल और यूनान से ! है, एवं वह इसीके उपयोग करने की शिफ़ारिश चारधे और फिनलैण्ड तक ) अमेरिका आदि। करते हैं। इस सम्बन्ध में इस्लामी चिकित्सक नाम विवरण-इसका लेटिन नाम हायो- भी अबतक उन्हीं के अनुयायी हैं।। साइमस यूनानी श्रॉस कुप्रामास ( Huos. लेटिन लेखक हायोसाइमस को अल्तम kuaimos ) से लातानीकृत शब्द है जो एक (Altercum ) तथा हर्वासिम्फोनिएका यौगिक है (हुआस-शूक +कुनामासम्बाकला, (Herba Symphonica.) बोलते हैं। लोबिया)। अस्तु उन शब्द का अर्थ शूकर । प्लाइनी के कथनानुसार अल्तकर्म अरबी शब्द है। लोबिया हुआ | चूँ कि इसके पत्त लोबिया पत्रके सम्भवतः यह अत्तिर्याक का अपभ्रंश है जो मूल . सदृश होते हैं एवं इसे सूअर बहुत रुचिपूर्वक में फारसी शब्द है और जिसका अर्थ विपध्न है। खाता है इसलिए यूनानियों ने इसका यह नाम . मुसलमान लेखक इसे बन कहते हैं जो फारसी रक्खा । बंग का प्रारबीय अपभ्रंश है। इनके कथनानुसार नाट-महजनुल्अद्विया तथा मुहीताज़म यह यूनानियों का अनियून, सिरियन लोगों का में जो इसका यूनानी नाम अफ़ोकून लिखा है वह अजमालुस, मूर लोगों का कत्नीत या इस्कीरास शुद्ध अफ़्यून है । कोई-कोई प्राचीन इस्लामी है। वे पुनः कहते हैं कि देल्मी भाषा में इसे हकीम इसको यूनानियों का अफ़्यून न्याल करते कीर्चक कहते हैं। रहे। अस्तु, इसीके वर्णन में लिखा है कि कभी टिप्पणी- त्रुल बञ्ज अवैज़ ( तुरुमबङ्क इसके पत्तों तथा शाखाओं का उसारह. अफ्रोम सफ़ेद ) जो खुरासान से भारतवर्ष में अधिक की प्रतिनिधि स्वरूप उपयोग में प्राता है। माता है, भारतीय चिकित्सकों ने अजवायन के अनयून यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ | समान समझ उसका नाम खुरासानी या पारसीक निद्राजनक है। यमानी रख दिया जो अब उद' भाषा एवं तिब इतिहास-यद्यपि उक्र बूटी हिमालय परत में अजवायन खुरासानी के नाम से प्रसिद्ध है । तथा उत्तरी भारतवर्ष व इसके अन्य भागों में भी परन्तु इस बात को भली भाँति स्मरण रखना अधिकता से उत्पन्न होती है, तथापि सम्भवतः चाहिए कि ब अल बञ्ज (अजवायन खोरासानी) प्राचीन श्रायुर्वेदिक चिकित्सकों को इसका ज्ञान और नानखाह (अजवायन ) गुण धर्म के विचार न था। पारसीक तथा खोरासानी यमानी आदि से सर्वथा दो भिन्न ओषधियाँ हैं। श्रस्तु, पारनाम इसका विदेशी होना सिद्ध करते हैं। सीक यमानी को कदापि यमानी ( अजवायन) अाज ही नहीं प्राचीन काल से ही भारत में का भेद न ख्याल करना चाहिए । For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जवाह (य) न खुरासानी १४३ वानस्पतिक विवरण -- खुरासानी या किरमानी श्रजवायन वास्तव में अजवायन के वर्ग की श्रोपधि नहीं । श्रपितु यह बादञ्जन अर्थात् सोलेने सीई वर्ग की ओषधि है जिसमें बिलाडोना वधर आदि विषैली दवाएँ सम्मिलित हैं । इसका पजवायन के क्षुपसे ऊँचाई में कुछ बड़ा होता है । पत्ते कटे हुए करेदार करीब करीब • गुलदाउदी के समान होते हैं। पुष्प श्वेत, अनार की कलियों के समान, परन्तु पड़ियों के कङ्करे व मध्य व मूल भाग सुख मायल होते हैं जिनके पकने पर मूल भाग में छला सा लगता है जिसमें अजवायन खुरासानी के बीज लगते हैं; ये अजवायन के बीज से दूमे बड़े एवं वृक्काकार ( जिनका पार्श्व भाग दबा हुआ तथा धूसर वर्ण के होते हैं । वाह्य त्वचा भली प्रकार चिपकी हुई होती है । अल्ब्युमीन तैलीय होता है। वृक्ष गर्भ इस प्रकार ( 9 ) वक होता है, जिसका पुच्छ अङ्कुर बनता है । होता है । ) स्वाद - तैलीय, तिक एवं चरपरा होता है । भेद - मजनके लेखक मीर मुहम्मद हुसैन ब के नाम से उन श्रोषधि का वर्णन करते हैं । वे इसके तीन भेद यथा श्वेत, श्याम तथा रक्त का ज़िकर करते हैं ( किसी ने पीत पुष्पवाले का वर्णन किया है) और इनमें श्वेत प्रकारको उत्तम ख्याल करते हैं । प्राचीन ग्रन्थों में यही अर्थात् श्वेत प्रकार ( Hyoseyamus Albus, Linn. ) श्रीफ़िशल थी । मुफ़र्दात नासुरी में इसके बीजको बजुल बज बैज ( श्वेत पारसीक (यमानी बीज ) लिखा है। लाइन ( Pliny ) ने उक्त पौधे अर्थात् हा० रेटिक्युलेटस के चार भेदों का वर्णन किया है। उनमें से प्रथम (H. reticulatus ) काले बीज वाली जिसमें नीले रंग के पुष्प श्राते हैं, तथा जिसका तना काँटेदार होता है और जो गलेशिया में उत्पन्न होती है; द्वितीय या साधारण प्रकार हायोसाइमस नागर ( श्यामपारसीक यमानी ); तृतीय भेद - जिसका बीज मूली के सदृश होता है अर्थात हायोसाइमस श्रीरियस (H. aureus Linn.) और चतुर्थी हा० एल्बस (H.albus) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य) न खुरासानी अर्थात् श्वेत बीजयुक्त है को समस्त चिकित्सकों द्वारा स्वीकृत है । उनके कथनानुसार इन सभी में चक्कर तथा पागलपन पैदा करने का गुण } पारसीक यमानी बीज जो खोरासान से लाया जाता है वह उन चारों में से प्रथम का ही बीज है । यह क्वेटा में बहुतायत से होती है। इसके अतिरिक्त इसका एक और भेद है जिसे कोही भंग (H. muticus, Linn., or H. Insanus, Stocks ) कहते हैं । यह अत्यन्त विषैला होता है । देखो - कोही भंग | प्रयोगांश — वैद्यगण बहुधा इसके बीजों को व्यवहार में लाते हैं और तिब्बी हकीम भी प्रायः उन्हीं का अनुकरण करते हैं। प्राचीन यूनानी लोग तो इसके पत्तों, शास्त्रों तथा मूल व बीज अर्थात् पञ्चाङ्ग को व्यवहार में लाते थे । परन्तु, मध्यकालीन यूरुप में इसके बोज, मूल अधिक उपयोग में श्राते रहे । श्राजकल यूरुप व श्रमेरिका में अधिकतर इसके पत्ते और जड़ न्यूनतर व्यवहृत हैं। प्राचीन यूनानी व इस्लामी चिकिसक तो श्वेत पुष्पीय बञ्ज को श्रौषध रूप मे उपयोग करना उत्तम ख्याल करते थे । यद्यपि बञ्ज स्याह के उसारह का भी उन्होंने ज़िकर किया है, पर अधुना यूरुप में पारसीक यमानी श्याम औषध रूप से व्यवहृत है । अस्तु, डॉक्टर लोग इसकी ( शुल्क या नवीन ) पत्तियों से तरह तरह के योग निर्माण करते हैं। वे पत्तियों को मय शाखा व फूल सावधानी से संग्रह करते हैं । यह उस समय किया जाता है जब खुशसानी अजवायन का पेड़ फूलने फलने लगता है। तथा अपनी पाकावस्था में दिखाई देने लगता है । रासायनिक संगठन -- हेनबेन ( पारसीक यवानी ) में एक हायोसायमीन ( Hyoscyamine ) नामक सत्व जिसकी रासायनिक रचना धतूरीन ( एट्रोपीन) के समान होती है, पाया जाता है। यह विभिन्न प्रकार के हायोसायमस ( नञ्ज ) के बीज तथा पत्र स्वरस में हायोसीन या विकृताकार हायोसायमीन के साथ पाया जाता है । इसके सूचिकाकार या त्रिपाश्र्वकार रखे होते हैं और यह धतूरीन की अपेक्षा जल एवं For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य ) न खुरासाको अजवाइ य) न खुरासानो डायलूट अलकुहॉल में अधिकतर लयशील होता है। यह धतूरीनके समान नेत्र कनीनिका विस्ता हायोसायमीन अनेक सोलेनेसी ई पौधों यथाधतूर,विलाडोना और सम्भवतः इसके कुछ अन्य भेदों में धतूरीन के साथ मिला हुआ पाया जाता है । हामोसायमीन उन्हीं द्रव्यों में विश्लेषित किया जा सकता है जिनमें ऐट्रोपीन वियोजित होता है, यथा-ट्रोपीन और ट्रॉपिक एसिड। हायोसीन (स्कोपोलेमीन) या विकृताकार हायोसायमीन-अपने कनीनिका प्रसारक नथा अन्य गुणों में निकट की समानता रखते हैं। जल में उबालने से यह ट्रॅॉपिक एसिड तथा स्युडोट्रोचीम में वियोजित हो जाते हैं। (वैटस डि० श्रॉफ केमिस्टो, द्वि० संस्क० ११, ७४४)। उनके अतिरिक पत्ते में हायोस्क्रीपीन ( Hyoscripin , कोलीन ( cholin), फैटी इल, लुभाब, अब्युमीन-(अंडे की सुफेदी) और पांशुनत्रेत (पोटेसियम नाइट्रेट ) २ प्रतिशत तक होते हैं। बीज में एक स्थिर या वसामय तैल २६ प्रतिशत, एक एम्पाइर युमैटिक तेल ( Empyreumatic oil ) जो विनाशक परिति विधिद्वारा प्राप्त होता है, और वार्नीक (Wa1neke ) के मतानुसार ४.५१ प्रतिशत भस्म वर्तमान होती है। - प्रभाव-बोज-मादक, निद्राजनक (मदकारी), वेदनामाराक, पाचक, संकोचक तथा कृमिघ्न है । ०५ तथा हायोसाइमीन-अवसादक, वेदना-शामक, आक्षेप निवारक, उत्तेजक और नेत्र कनीनिका प्रसारक है। इनका उन्मत्तकारी प्रभाव बिलाडोना की अपेक्षा मातर तथा निद्राजनक अधिकतर एवम् अधिक विश्वसनीय व शीघ्र और अफीम सस्व ( मार्फिया) व मोरल से उत्तम होता है। औषध निर्माण-पत्र चूर्ण, मात्रा २॥ से ५ रसी (५ से १० ग्रेन); ताजा स्वरस ' ( दवा कर निकला हुआ एवं सुरक्षित रक्खा हुधा), मात्रा-प्राधा से १ लाम; शुष्क पौधे द्वारा निर्मित टिचर, · मात्रा-चौथाई से १ ड्राम; ताजे पौधे का एक्सट्रैक्ट ( सत्व ), मात्रा-पाधी से १॥ रसी ( १ से ३ ग्रेन)। इनके द्वारा प्रस्तुत प्रस्तर (प्लास्टर ) एवम् तेल का वाह्य उपयोग होता है । अत्यधिक मात्रा में यह मदकारी विष है तथा इससे उन्मशता, मूर्छा एवं मृत्यु उपस्थित होती है । और इसकी क्रिया अति शीघ्र होती है। .. ___ सत्व निर्माण-विधि-खुरासानी अजवायन का पौधा जब फूलने फलने लगे, तब मय पत्तियों के उसकी छोटी छोटी शाखाचों को लेकर पानी से भली भाँति धोकर स्वरस निकाल लें। शुद्धता आदिका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है । स्वरस को छानकर अग्नि पर पकाएँ, जब खोलने लगे और खौलते हुए १० मिनट हो जाएँ तथा स्वरस के ऊपर मैल के मांग से, जैसे कि खाँड की चाशनी करते समय प्रायः हुश्रा करते हैं, उठने लगें, तब स्वरसको उतार कर छामलें, और निथारने के लिए स्वरस को चीनी के प्यालों में भर कर १२ घंटे रक्खा रहने । तदनन्तर सावधानी से निथार कर फिल्टर करलें अर्थात् (फिल्टर पेपर ) में छान लें और फिर पकाएँ। जब गाढ़ा होजाय अर्थात् अवलेह समान गोली बनाने लायक होजाय तो उतार लें। मात्रा३-३ या ४-४ रत्ती। पारर्स कयवानी तरल सत्व-पूर्वोक विधि से स्वरस को फिल्टर करके १० प्रतिशत के हिसाब से हली [ रेक्टीफाइड स्पिरिट ] मिला कर सद्यः निर्गत स्वरस का गर्म पानी मिलाकर वजन पूरा कर शीशी में भरकर उपयोग करें । मात्रा-३० बुंद से ६० खुद तक २॥२॥ तो० जल में मिलाकर सेवन कराएं। पारसीक यमानी के गुण धर्म व प्रयोग आयुर्वेदिक मतानुसारखुरासानी अजवायन के गुण अजवायन के समान ही हैं, परन्तु विशेष करके यह पाचक, रुचिकारक, ग्राहक, मादक तथा भारी है । भा०॥ For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अजवाइ (य) न खुरासानो १४५ अजवाइ (य) न खुरासानी पारसीक यमानो तिक्र, गर्न, कटु, तीखी, यवों में शैथिल्पोत्पादन कर्ता, निद्रापद, अवयवों अग्निदीपन करने वाली, वृष्य तथा हल्की होती के विशेषतः प्रार्तब इत्यादिका रुद्वक व बद्धक है। त्रिदोष ( समिपात ), अजीर्ण, उदरज कृमि है। कफज कास को गुण कर्ता, खखार में रुधिर रोग,दर्द,प्रामशूल (पेचिश की ऐंजन ) तथा कफ पानेकी नाशक तथा अधिक रूक्षताकत है। प्रत्येक रोग आदि को नष्ट करती है। वै० निघ०। भाँति की वेदनाशमनार्थ इसका वाह्य उपयोग __ खुरासानी अजवायन चरपरी, रूखी, पाचक, होता है । अस्तु, तिल तेल में अकेले इसे अथवा ग्राही, गरम, नशा करनेवाली, भारी, वातकारक अन्य औषधियों के साथ पकाकर सन्धिवात, और कफनाशक है, शेष गुण अजवायन के गृध्रसी या कटि वेदना (अर्ज निसा ) तथा निक्. समान हैं। वै. निघ०। रिस (Gout) प्रभुति में इसकी मालिश . यह बुद्धि और नेत्रको मन्द करती है, कानों में की जाती है। उक्त तैल के अधोष्ण भारीपन, कंग्रह, चित्त के चलायमान होने, कर्ण में टपकाने से कर्ण पीड़ा नष्ट होती तथा रुधिरस्राव और सर्व प्रकार की पीड़ा को है। अग्नि पर डालकर धूनी देने से अथवा नष्ट करती है । विशेषकर पाचन, प्राही, इसके क्वाथ द्वारा कुल्ली करने से दाँतों का दर्द मादक और भारी है। अभि० १ भा०।। दूर होता है । मुखहिर अर्थात् श्रवसन्नताजनक खुरासानी अजवायन का अर्क-यह व निद्राप्रद होने के कारण यह उन्माद, पागलपन मलरोधक, पाचक और मदकारक है। तथा अनिद्रा रोगमें प्रयुक्र है । अफीम व अजवायूनानो मतानुसार अजवायन खुरासानो यन खुरासानी दोनोंको समभाग लेकर माष समान के गुण-धर्म व प्रयोग । वटिका निर्मित कर उपयोग करने से बहुत नींद स्वाद-तीखी और कड़वी । प्रकृति (श्वेत) पाती है और इसका लेप पुरातन यकृत वेदना, २ कक्षामें डी और रूक्ष;(काली) ३ कक्षामें डी जरायुस्थ व्रण तथा वंक्षण वेदना को बहुत लाभ और रूक्ष है। हानिकर्ता-(सफेद) चक्कर, क. पहुँचाता है । वस्ति-शोथ, प्रोस्टेट ग्रंथि प्रदाह, माला एवम् उन्मत्तकारी है; (कालो जाति की) वस्त्यश्मरी में वेदनाशमनार्थ तथा हृदय विकारघातक है । दर्षनाशक-शहद या अनी सम- जन्य दमा और खाँसी, विशेषकर काली खाँसी भाग या न्यूनाधिक; किसी किसी ने अफीम और में इसे वर्तते हैं। नफ़ो० २ भा०, बु० मु०, पोस्त लिखा है । प्रतिनिधि - अफीम, अजवायन म० अ०। देशी, और ख़शखाश स्याह । मात्रा-(श्वेत) अजवाइन खोरासानी के सम्बन्ध में २ मासे से ३ मासे तक, (सुर्ख) २ से २॥ मासा डॉक्टरी तथा अन्य मत तक । आधुनिक मात्रा-आधा माशासे १ मा० प्रादाहिक शोथों की वेदना शमनार्थ इसके तक। स्वरस तथा यव के आँटे द्वारा प्रस्तुत प्रस्तर गुण, कर्म, प्रयोग-मोरमुहम्मद हुसेन इसके (पुल्टिस ) व्यवहार में आता है। इसके बीजों ताजे पत्ते के स्वरस के सूर्यतापी सत्व निर्माण का को मद्य अर्थात् ब्रांडी में पीसकर इसकी पुलटिस वर्णन करते हैं और कहते हैं कि इसके पत्तों को का संधिशोथ, शोथ युक्र छातियों एवं अण्ड में कूटकर आँटे के साथ कल्क प्रस्तुत कर उपयोग करते हैं । अर्ध ड्राम के लगभग इसके इसकी छोटी छोटी बाटियाँ बनाकर सुखा लें। बीज तथा १ ड्राम खसखास को जल एवं शहद इससे कुछ काल पर्यन्त इसमें औषधीय गुणधर्म के साथ पीसकर खाँसी तथा संधिवात प्रादि में विद्यमान रहेगा। वेदनाशमनार्थ वर्तते हैं। जरायुस्थ वेदना में यह सब नजलानी को लाभ कर्ता, स्निग्धता इसकी वर्ति व्यवहृत है। इसके बीजों का स्वरस युक्त स्राव (भाँख की ओर ) को हरण कर्ता, अथवा तीक्ष्ण हिम चक्षुपीड़ा हरणार्थ नेत्रों में डाला सम्पूर्ण प्रकारको कण पीड़ा को शान्तिप्रद, प्रव. जाता है। घोड़ी के दुग्ध में इसके बीजों को For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाह (य) न खुरासानी अजवाइ (य)म खुरासानी पीसकर कल्क प्रस्तुत कर पुनः जंगली साँड़ के चमड़े में बाँध कर स्त्रियाँ गर्भ निरोध हेतु इसे पहनती है। इसके बीजों के चूर्ण तथा राल दोनों को मिश्रित कर वेदना नाशन हेतु खोखले दाँतों में भरते हैं। मालकाँगनी, वच, अजवायन खुरासानी के बीज, कुलअन और पीपल इनको समभाग लेकर जल के साथ पीसकर कल्क प्रस्तुत करें। पुनः इसमें शहद मिलाकर स्वरयंत्र प्रदाह में ३||| मा. की मात्रा में दिन में दो बार व्यवहार में लाएँ। (इलाजुलगुर्बा) खोरासानी अजवायन और सेंधानमक को | खाली भेदा बहुत सवेरे सेवन करने से एकिलोस्टोमा ( Ankylostoma) नामक कृमि में लाभ होता है। (डॉ. रॉय) एलोपैथिक मेटीरिया मेडिका ' और . हायोसाइमस ( पारसीक यमानी ) पारसीक यमानी पत्र ERIFICARE Fillerat ( HyoscyamiFolia)-ले० । हाणेसाइमस लीभ्ज़ ( Hy. •oscyamus Leaves ), हेनबेन लीज़ ( Henbane Leaves )-३० । अौरानुलबञ्ज, प्रौराकुस्सीकरान-अ० । बर्ग बङ्क-फ़ा०। सोलेनेसीई अर्थात् धुस्तुर वर्ग (N. 0. Solanacec ) ऑफिशल ( Official) - उत्पत्तिस्थान-ब्रिटेन । वानस्पतिक नाम व प्रयोगांश-इसका वानस्पतिक नाम हायोलाइमस नाइगर ( Hyoseyamus Niger.) अर्थात् कालो खुरासानी अजवावन है। इसके नवीन पत्र व पुष्प को शाखा सहित अथवा केवल पत्र तथा पुष्प को तोड़कर शुष्क करके औषध कार्य में वर्तते है। __लक्षण-पत्ती की लम्बाई विभिन्न होती हैं। ये दस इंच तक लम्बी और कई अंशो में विभाजित होती हैं । कोई डंठल युक्र एवं कोई डंठल रहित होती हैं । इनका रूप अंडाकार और किसी कदर त्रिकोणाकार होता है। इनके किनारे अनिय मित रूप से दंष्ट्राकार होते हैं। वर्ण सूक्ष्म हरा तथा निम्न भाग एवं शाखा विशेषकर रोमयुक्र होती है। नवीन पत्ती एवं शाखाओं की गंध तीव्र व बुरी होती है। स्वाद-कड़वा तथा किञ्चित् चरपरा । समानता - बिलाडोना और धतूरे के पत्ते इन पत्तों से मिलते जुलते हेाते हैं। किन्तु, वे रोमरहित होते हैं। रासायनिक संगठन-इसमें (१) हायोसायमीन और ( २) हायासीन ये दो प्रभाव कारी अलकलाइज़ अर्थात् क्षारीय सत्व तथा एक विष ला तैल होता है। - असम्मिलन (संयोग विरुद्ध)-लाइकर पुटासी, लेड एसीटेट, सिल्वर नाइट्रेट और वानस्पतिक एसिडस । प्रभाव-निद्राजनक (Narcotic ), वेदनाशामक ( Anodyne ) और अवसादक ( Sebative). ऑफिशल योग (Official preparation's ). (१)ऐक्सट्रैक्टम हायोसा इमाई (Ex. tractum hyoscyami)-ले०। एक्सट्रैक्ट ऑफ हेनबेन या हायोसाइमस ( Extract of Henbane or Hyoscyamus )ई। पारसीक यमानी सत्व, खुरासानी अजवायन का सत-हि । ख्नुलासहे बञ्ज, रुब्ब बङ्क -फा०, अ०। निर्माण विधि-हायोसाइमस नाइगर (काली खुरासानी अजवायन) के नवीन पत्तों, फले तथा कोपलेोको कवन कर दबाने से जो स्वरस प्राप्त हो उसे क्रराः १३०°ारनहाइट का ताप दें तथा कॉलीकी फिल्टर द्वारा छानकर रंगीन धेश भिन्न करलें.पुनः छने हए रस को २००० फारनहाइट की ताप दें और उसे छानने के पश्चात् शीरा के समान गाढ़ा कर लें; पुनः उस रंगीन पृथक किए हुए द्रव्य को बालोंकी चलनी में छानकर इसमें सम्मिलित कर दें, और लगभग १४०० के ताप पर इतना शुल्क करें कि वह मृदु अवलेह के सदृश हो जाए। For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाह (य) न खुगसानो १४७ अजवाइ (य) न खुरासानी मात्रा-२ से = ग्रेन अर्थात् १ से ४ रत्ती . मात्रा-आधा से १ फ्लुइड ड्राम (२ से ४ (१२ से १० से० प्रा०). मिलिग्राम) (२) पिल्युला कालोसिन्थिडिस एट- । .. नाट आफिशल योग हायोसाइमाई (Pilula colocynthidis (Not official preparations.) et Hyoseyami. )-ले० । पिल श्राफ़ | (१) क्लोरोफार्मम् हायोसाइमाइ (Chloकालोसिन्थ एण्ड हायोसाईमस (Pill of roformum Hyoscyami ) arata colocynth and Hyoscyamus ) :: यवानी मूल ( Hyoseyamus root) चूर्ण -ई०। इन्द्रायन व पारसीक यमानी वटिका किया हुश्रा ३० भाग, क्रोरोफॉर्म २० भाग । -हिं० । ह.ब्ब हन्ज़ल व बञ्ज (बङ्क )-अ०, यह क्रोरोफार्म एकोनाइटीनी के समान प्रस्तुत फा० किया जाता है। निर्माण-विधि-कम्हाउण्ड पिल ऑफ़ (२) टिंकचूरा हायोसाइमाइ रेडिसिस कालोसिन्थ २ अाउंस (१ छ०), एक्सट्रैक्ट ( Tinctura Hyoscyami Raआन हायोसाइमस । आउंस दोनों को मिलालें । dicis )-चूर्णित पारसीक यमानी मूल पाँच मात्रा-४ से ८ ग्रेन अर्थात् २ से ४ रत्ती भाग, हली ( ६० प्रतिशत ) ४० भाग में (२६ से १२ ग्राम). एक सप्ताह तक भिगोकर पॉलेट कर लें। . (३) सकस हायोसाइमाई ( Succus मात्रा-२० से ६० मिनिम (बुद)। Hyoscyami)-ले० । जूस ऑन हायो- हायोसाइमस के गुणधर्म व प्रयोग ATERA ( Juice of Hyoscyamus ) पारसीकयमानीपत्र अर्थात् हायोसाइमाइ -इं० । पारसीक यमानी स्वरस-हिं० । असार- फोलिया ( Hyoscyami Folia). बञ्ज, अफ़्रशुहे बङ्क-अ०, फ़ा। प्रभाव-हायोसाइमीन ( पारसीक यमानी निर्माण-विधि-नवीन पत्रों, पुष्पों तथा शा- का स्फटिकाकार सत्व)जो हायोसाइमस अर्थात् खात्रों को कुचलने से जो रस प्राप्त हो उसके खुरासानी अजवायन का प्रभावात्मक सत्व है. प्रति तीन भाग (प्रायतन के विचार से ) में , अपनी रचना में धतूरीन ( एट्रोपीन) के समान भाग हली ( १० प्रतिशत ) सम्मिलित करें होता है। प्रस्तु,स्थायी क्षार (फिक्स्ड अल केलीज़) और एक सप्ताह तक पड़ा रहने दें, पुनः फिल्टर की उपस्थिति में सामान्य उत्ताप पर वह धतीन कर लें। (एटोपीन ) में परिणत हो जाता है। इसलिए मात्रा-प्राधा से १ फ्लु० डा०-(१ से यद्यपि पारसीक यमानी के बहुशः गुणधर्म स्व३.६ क्यु० सें.)।. भावतः विलाडोना और स्ट्रेमोनियम् (धुस्तुर, (५) टिंकचूरा हायोसाइमाई (Tinct- धत्तूर ) के गुणधर्म के समान होने चाहिए ura Hyoscyami)-ले. । टिचर ऑफ (देखो-बिलाडोना), तथापि उनके प्रभाव में ERTATEAA ( Tincture of Hyoscy निम्नोल्लिखित पारस्परिक भेद प्रभेद पोए जाते हैं:amus)-इं० । पारसीक यमान्यासव-हिं० । (१)विलाडोना की अपेक्षा हायोसाइमस से सबग़ह, बञ्ज, तफ्रीन बङ्क-फा०, अ०। उन्मत्तता तो कम उत्पन्न होती है। किन्तु मस्तिष्क निर्माण-विधि-हायोसाइमस के पत्तों और पर इसका अवसादक (Sedative ) तथा पुष्प युक्त शास्वानों का २० नं. का चूर्ण२ श्रा. निद्राजनक (Soporific) प्रभाव शीघ्रतर उस, हली (Alcohol ) ४५ % यथो. एवं बलवानतर होता है । (२) सुषुम्ना कांड - चित । चूर्ण को २ फ्लुइड पाउंस हलाहल से तर पर भी इसका अवसादक प्रभाव अधिक स्पष्ट करके पकॉलेशन (टपकाना ) द्वारा , पाइण्ट होता है। (३) यह प्रांत्र के कृमिवत् श्राकुञ्चन टिकवर तयार कर लें। को तीन करता तथा प्रवाहिका या मरोड़ा को For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अजवाइ (य) न खुरासानी अपेक्षाकृत बहुत कम करता है। (४) विलाडोना के सदृश यह हृदय पर सबलोत्तेजक प्रभाव नहीं करता, अपितु हृदय पर हायोसीन का अत्यन्त निर्बल प्रभाव पड़ता है। (५) मूनेन्द्रिय विशेषतः वस्ति पर विलाडोना की अपेक्षा इसका अधिक तर अवसादक प्रभाव पड़ता है। क्योंकि वस्तिस्थ श्लैष्मिक कला की नाड़ियों के अन्तिम भाग पर अवसादक तथा निर्बलताजनक प्रभाव करके यह उसके मांस तन्तुओं की ऐंठन को दर करता है। (६ ) हायोसीन से इण्टाक्युलर टेन्शन ( नेत्रपिंड का तनाव ) कम हो जाता है। अस्तु, हायोसायमस का यह प्रभाव उतना नहीं होता जितना कि बिलाडोना का । उपयोग-हायोसायमस का उपयोग शाप विकार की अवस्थाओं के अतिरिक्त जिनमें बिलाडोना व्यवहत है, निम्नांकित दशानों में भी होता है। (1) विविध रोगों की तीव्र पीड़ा में मस्तिकोत्त जना को कम करके नींद लाने के लिए, यथा उन्माद (मेनिया) अनिद्रा या निद्रानाश (इन्साम्निया), खियों की हिस्टीरिया (योषापस्मार के दौरे में ), उच्चा की उन्मादस्था में तथा वात वेदनाओं में इसे देना चाहिए | उन्मत्त शराबी को भी नींद लाने के लिए दे सकते हैं। श्रतः खुरासानी अजवायन के तरल सत्व को १-१ घंटे के अन्तर से ३०-३० बुद दवा और २॥-२॥ तोला पानी एकत्र कर पिलाते रहें। जब नींद श्राजाय तब बन्द करदें। इस प्रकार ५-६ मात्रा सेवन कराने से ही रोगी सो जाता है। नींदके लिए हायोसायमीन (खुरासानी अज्मायन का सत्व ) १ ग्रेन ( श्राधी रत्ती ) को साफ्न गरम जल ३ मा० ६ रत्ती में मिलाकर हायपोडर्मिक सिरिञ्ज में भरकर १ से १ बुद तक स्वचा के नीचे पहुचाएँ । इसी को हाइपोडर्मिक इलेक्शन हाइयोसाइमीन कहते हैं । (२) रेचक ओषधियाँ जो मरोड़ पैदा करने | वाली हैं उनके उक गुण को कम करने के लिए अजवाइ (य)न खुरासानी तथा पेचिस की ऐंठन को दूर करने के लिए इसे व्यवहार में लाते हैं। (३) मूत्रपथ सम्बन्धी चीस चबक अर्थात् वृक्क, वस्ति तथा मूत्र प्रणाली के रोगी यथावस्ति प्रदाह, प्रोस्टेट ग्रन्थि प्रदाह, तथा अश्मरी प्रभृति में वस्तिस्थ प्रारूप निवारण हेतु इसका प्रभावकारी सर, हायोसायमीन, मृदु मुत्रविरेचनीय है, और शरीर से विसर्जित होते समय प्रदाह युक्र झिल्लियों में अंत होने वाली बाततंतनों पर अवसादक प्रभाव करता है । प्रस्तु. जब अनावश्यक रूप से थोड़ा थोड़ा मूत्र निकालने के लिए वस्ति में बार बार ऐंठन होती है, तब विशेष रूपसे इसका उपयोग होता है। उक्र दशा में इसे तारों के साथ संयुक्र कर सेवन करना गुणदायक होता है। ऐसी दशा में इसको साधारणतः अन्य युरिनरी सिडेटिभूज़ (मूत्रावसादक) या मूरल श्रीषधियों यथा-व्युक्यु या युवा र्साई अथवा बेमी. इक एसिड प्रभृति तथा एल्केलीज़ (क्षारों) के साथ मिलाकर सेवन कराते हैं। (४) ब्रांकाइटिज़ (कास या श्वास नलिका प्रदाह ) में खाँसी को कम करने के लिए। (५) व्रण शोथ की नीस चदक को दूर करने के लिए इसका पुस्टिस व्यवहार में पारा है । (६) पुतली फैलाने के उद्देश्य से आँखों में डालने के लिए। (७) यह बिलाडोना के समान उन्माद, मुखशोथ, नेकनीदिका विस्तार तथा निद्रा उत्पन्न करता है । सूक्ष्म मात्रा में यह अवसादक और हृदयरलदायक है। अधिक मात्रा उरोजक एवं अत्यधिक मात्रा निलसाजनक है। प्रस्तु, हृदय सम्बन्धी दमा तथा हृदय कपाट सम्बन्धी विकार एवं तजन्य हृदयोत्तेजना में इसका उपयोग किया जाता है। बच्चों में इसकी बड़ी मात्रा के सहन की क्षमता होती है। किन्न, वृद्ध एवं निर्बल ब्यक्रियों में इसकी छोटी मात्रा का भी गहरा प्रभाव होता है। एक चाय के चमचा भर इसका रस सर्वोत्तम औषध है, परन्तु यह ऑफिशल नहीं। For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य)न खरासानी अजवाइ (य) न खुरासानी हायोसीन( Hyoscine) यह हायोसाइमसका एक क्षारीय सत्व (Alkaloid) है जो उसके द्वितीय रवा रहित सत्व हायोसायमीन में भी पाया जाता है। यह एक उड़नशील तैलीय द्रव होता है जो अपने प्रभाव में हायोसायमीन से पाँच गुणा अधिक प्रभावशाली होता है। यह स्वयं औषध रूप से व्यवहार में नहीं आता । इसके हाइड्रोक्लोरेट, हाइडिअोडेट तथा हाइडोब्रोमेट प्रादि लवणों में से अंतिम का लवण ही अधिक उपयोग में आता है। हायोसीनी हाइड्रोब्रोमाइडम् ( IIyoscine hydro bromidum)-ले०। हायोसीन हाइडोलोमाइड ( hyoscine hyd. robromide ', स्कोपोलेमीन हाइड्रोलोमाइड (Scopolamine Hydrobromide), हाइड्रोयोमैट प्रॉफ हायोसीन ( hydrobyomate of hyoscine )-इं० । पारसीक यमानी सत्व-हिं । जौहर बञ्ज, जौहर सीकरान -ति०। गसायनिक संकेत (CHINO HBr, 1190) ऑफिशल (official ). उत्पत्ति-यह हायोसाइमस (पारसीक यमानी )के पत्तों तथा विविध भाँति के स्कोपोला के वृक्षों एवं सोलेनेसीई पौधों में पाए जाने वाले एक एल्कलाइड (तारीय सत्व) का हाइड्रोब्रोमाइड है। लक्षण-इसके वर्ण रहित रवे होते हैं जो वायु में स्थिर तथा स्वाद में तिक्र और जल में अत्यन्त लयशील होते हैं। एक भाग ग्रह, ४ भाग जल में घुल जाता है। प्रभाव-निदाजनक ( hypnotic). मात्रा- से - ग्रेन( ३ से.६ मि. ग्राम) मुख या स्वगस्थ अन्तःक्षेप द्वारा । नॉट ऑफिशल योग (Not official preparations ). (1) इलेक्शित्रो हायोसीनी हाइपो डमिका ( Injecti) hyoscine hypodermica )-राति १००० मिनिम परिणत जल में १ ग्रेन ( श्राधी रत्ती)। मात्रा-५ से १० मिनिम (बुद). (२) हाइपोडर्मिक लेमीली ( llypodermic lamele )-हरएक लेमोली में, ग्रेन हायोसीनी हाइड्रोब्रोमाइड होता है। (३) गटो हायासीनो (Gutte hyoscine) एक ग्राउंस परित जल में २ ग्रेन हायोसीन हाइड्रोब्रोमाइड होता है। (४) आपथमिक डिस्क्स (Ophthalmic Discs)-प्रत्येक डिस्क में, ..से२०० ग्रेन हायोसीन हाइडाब्रोमाइड होता है। हायोसीनो हाइडोनमाइड के प्रभाव तथा प्रयोग यह अधिक विषैला है और प्रभाव में धतूरीन (ऐट्रोपीन ) से जिससे रसायनवाद के अनुसार यह इतना निकट का सम्बन्ध रखता है, किसी किसी बात में भिन्न होता है । यह सशक्त अबसादक तथा निद्राजनक है और इसमें धतूरीन (ऐट्रोपीन ) के समान हृदयोरोज.क प्रभाव नहीं पाया जाता, एवं इससे मस्तिष्क के बरकलस्थ गत्युत्पादक सेल मिर्बल हो जाते हैं। इसे ३० ग्रेन की मात्रा में उपयोग करने से ऊँघ, सुस्ती, स्तब्धता तथा प्रकट रूप से स्वाभाविक निद्रा शीघ्र श्रा जाती है और जागने पर रोगी अपने को भला चङ्गा मालूम करता है । कुछ समय के लिए कंठ में केवल कुछ शुष्कता शेष रह जाती है । पागलपन ( मेनिया) तथा अनेक प्रकार के मानसिक विकारों के लिए यह सर्वोत्तम निद्राजनक औषध है। उक्त औषध को स्वचा के नीचे अन्तःक्षेप करने से सर्वोत्तम प्रभाव होता है। परन्तु किसी किसी रोगी में इसके प्रभाव के ग्रहण की क्षमता अधिक होती है; अस्तु, इसे - ग्रेन से अधिक की मात्रा से प्रारम्भ न कराना ही उसम है । इससे तीपण उन्माद, जैसा २०० For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य) न खुरासानी १५० अजवाइ (2)न खुपसानी कि धत्तूरीन (Atropine) द्वारा विषाक रोगी में देखा जाता है, विरला ही उत्पन्न होता है। ऐट्रोपीन के समान यह तत्काल ब बलपूर्वक नेत्र-कनी नका को प्रसरित कर देता है और इसका यह प्रभाव एट्रोपीन से ४-५ गुणा अधिक होता है। इससे इस्ट्रााक्युलर टेन्शन ( नेत्र पिण्ड का तनाव ) स्पष्टरूप से नहीं बढ़ता। डॉक्टर क्रॉस (Crauss) के वर्णनानुसार इसके उपयोग करने के पश्चात् उन्मत्तता विद्युताघात के समान तत्क्षण स्थिरता को प्राप्त होती है और रोगी की व्यग्रता शीघ्र शान्तिमय निद्रा में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु यह व्यापक वातग्रस्तता रूपी स्थिरता धीरे धीरे होती है।। मद्योन्माद ( डेलीरियम ट्रीमेन्स ), प्रसूतिकोन्माद (प्योरल मेनिया) एव विविध भाँति के अनिद्रा विकारों में यह गुणदायक सिद्ध हुआ है। उस अनिद्रा रोग में जिसमें पागलपन का छिपा | हुधा माद्दा हो, यह सर्वोत्कृष्ट निद्राजनक औषध प्रमाणित हुया है। डाक्टर ब्रस (Bruce ) के | अनुभव के अनुसार यह वृक्त रोगों में अच्छा | प्रभाव करता है। हृच्छूल (अञ्जाइना पेक्टोरिस) में इसका उपयोग कर सकते हैं। दमा, वीर्यस्त्राव तथा राजयरमा रोगी में स्वेदस्राव को रोकने के लिए और अफीम सत्व (Morphia ) तथा कोकोन के अभ्यासियों की चिकित्सा में यह उपयोगी सिद्ध हुआ है। जर्मनी के प्रसिद्ध डॉक्टर शनोडरलोन (Schneiderlein) जेनरल अनस्थेसिया ( व्यापकायसन्नता) उत्पन्न करने के लिए स्कोपोलेमीन तथा मान को मिलाकर प्रयोग करना लाभदायक ख़्याल करते हैं। अस्तु, वे ऑपरेशन की पूर्व संध्या को लगभग १ से १. प्रेन स्कोपोलेमीन तथा चौथाई ग्रेन मॉर्फीनको परस्पर संयुक्त कर इसका स्वचा के भीतर अन्तः क्षेप करते हैं। आवश्यकतानुसार ऑपरेशन की सुबह को इसे अधिक मात्रा में दोहराया जाता है। इससे रोगी को गम्भीर निद्रा पाजाती है और | वह ऑपरेशन के पश्चात् कई घण्टों तक सोता रहता है। इस प्रकार वह दुःख व वेदना काल । निद्रा में व्यतीत हो जाता है। शिशुजनन काल में इससे "गोधूली निद्रा" उत्पन्न होगी। (ए० मे० मे०) निद्वाजनक रूप से ज्वर सहित तीवोन्माद सम्म.न्धी रोगियों में यह गुणदायक पाया गया है। इससे किसी प्रकार की हामि की सम्भावना नहीं । वृक्षविकार में जहाँ अफीमसत्व (माफिया) सर्वथा वर्जनीय है और जब सम्पूर्ण अवसादक पोषधियाँ निष्फल सिद्ध होती हैं, उस समय इसका उपयोग निर्भयतापूर्वक किया जाता है। ___ हायोसीन के हाइड्रोनोमेट, हाइड्रोकोरेट तथा हाइडिप्रोडेट शुक्रमेह में लाभदायक पाए गए। (4० वी० एम०). EDIFICATA ( Hyoscyamine ). _यह रचनामें धत्त रीन (ऐट्रोपीन ) के समान होता है तथा हायोसीन व हायोसिनिक एसिड में विश्लेषित किया जा सकता है। यह स्फटिकवत् एवं विकृताकार दोनों रूपों में पाया जाता है । इसके सूक्ष्म श्वेत रवे होते हैं या यह श्यामधूसर वर्ण का सत्व सदृश पदार्थ होता है। ____ हायोसायमीनी सरफ़ास Hyoscyaminæ sulphas. पर्याय-हायोसायमीन सल्फेट (Hyoscyamine sulphate )-इं०।। रासायनिक संकेत (C17 H23 NO3)2, H, SO4 2H2 0. FRITT ( Official). यह पारसीकयमानी पन तथा अन्य सोलेनेसीई पौधों में पाए जाने वाले एक ऐलकलाइड (क्षारीय सत्व) का गन्धेत् ( सस्फेट) है। लक्षण- यह एक पीत या पीत श्वेतवर्ण का स्फटिकवत् व गन्धरहित चूर्ण है जो वायु में से नमी को अभिशोषित करता है। स्वाद-तिक एवं चरपरा । नोट-इसको घायु विशेषकर तर वायु से सुरक्षित गहरे अम्बरी रङ्ग के मज़बूत डाट वाले बोतलों में रखना चाहिए। लयशीलता-यह २ भाग, एक भाग जल में और ! भाग ४॥ भाग हली (१० प्रतिशत) For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जवार (य) न खुरासानी १५१ में और अत्यन्त ख़फ़ीफ़ क्रोरोफॉर्म और ईथर में बुल जाता है। प्रभाव - व्याप्तावसादक ( General sedative ) और निर्बल निद्राजनक ( Weak hypnotic ) | सामुद्र रोगों ( Sea sick ness) में लाभदायी है। मात्रा - प्रा० ) मुख से या स्वगस्थ अन्तःक्षेप द्वारा । नॉट ऑफिशल योग १ से १ ग्रेन ( '३ से ६ मि० २०० १०० ( Not official preparations ). ( १ ) हायोसाय मोनो हाइड्रोब्रोमाइडम् (Hyoscyamine hydrobromidum) -इसके छोटे छोटे श्वेत दानेदार रवे होते हैं, जो ३ भाग १ भाग जल में लय होजाते हैं। मात्रा १ से १ प्रेन | २०० १०० ( २ ) इओशिनो हायोसायमीनी हाइपोडर्मिका ( Injectio hyoscyamina hypodermica )- हायोसायमीन सल्फेट १ ग्रेन ( श्राधी रती ), परिस्रुत जल २ ड्राम | मात्रा-१ से २ बुद | (३) हाइपोडर्मिक लेमेल्ज़ ( Hypodermic lamels ) - प्रत्येक लेमीली में १ प्रेन उक्त श्रौषध होती है ।. १ से १०० ५०० ( ४ ) श्रथैल्मिक डिस्कस ( Ophthalmic discs )-प्रत्येक डिस्क में ग्रेन दवा होती है। ५०० (५) हायोसायमीनी न्यूज़ ( Hyoseyamine granules ) - प्रत्येक में १ ग्रेन । १०० यह सी - सिक्स ( सामुद्र रोग ) में लाभदायक है 1 हायसायमीनो सल्फास के गुणधर्म व प्रयोग प्रभाव — हायोसायमीन या हायोसाइनस का द्वितीय क्षारीय सत्य नेत्रकनीनिका प्रसारक है, और थोड़ी मात्रा में यह नाड़ी की गति को मंद Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जवाई (य) न खुरासानी करता है तथा धामनिक तनाव की वृद्धि करता एवं शारीमा की कमी को रोकता है और भूल चूक ( Hallucination ) व विभ्रम पैदा करता है। अधिक मात्रा में यह तत्क्षण नाड़ी स्पन्दन को कम कर देता है तथा प्राकट्य वातप्रस्तता या चालन की अशकता तथा निद्रा उत्पन्न करता है । उपयोग-हायोसीन की अपेक्षा हायोसायमीन प्रभाव में धत्तूरीन ( Atropine ) से अधिक समानता रखता है। अधिकांश रोगियों में यह बिना पूर्व विभ्रम के निद्रा उत्पन्न करता है । हायोसायमीन ( Hyoscyamine ) ऐट्रोपीन के समान ही, किन्तु उससे अधिक नेत्रकनीनिका प्रसारक है । इसमें एट्रोपीन से विभ्रमकारी प्रभाव कम तथा निद्राजनक प्रभाव अधिक है । इसमें अधिक विश्वसनीय तथा शीघ्र मदकारी ( नारकोटिक ) गुण है । और यह सब अफीम (मॉफिया) तथा क्रोरल हाइड्रेट से पूर्ण तथा कम वर्जनीय है । यह वातमंडलावसादक है । डॉक्टर रिङ्गर ( Ringer ) के कथनानुसार जिन्होंने सम्भवतः श्रशुद्ध लवण का नवीनोन्माद में उपयोग किया इसके प्रभाव का एट्रोपीनसे तुलना करनेपर कोई भेद नहीं ज्ञात हुआ । यह बलवान नेत्रकनीनिकाप्रसारक है तथा नेत्र रोग में इसका उपयोग होता है । परंतु ऐट्रोपीन की अपेक्षा यह विशेष लाभदायी नहीं है । डॉक्टर ए० आर० कुश्नो ( Cushny ) के वर्णनानुसार विशुद्ध हायोसायमीन शुद्ध ऐटोपीन की अपेक्षा नेत्रकनीनिका प्रसारण तथा लालास्राव प्रतिबंधन में द्विगुण शक्तिशाली है । किश्ती पर सवार होने से प्रथम यदि इसे कुछ १ प्रेन की मात्रा में प्रयोग करें तथा दिवस तक १०० इसे कुछ समय तक प्रति घंटा २-२ घंटा पर दोहराते रहें तो यह सामुद्र रोग ( Sea sick - ness ) को रोकने के लिए सर्वोत्कृष्ट श्रौषध है । यह कनीनिकाप्रसारक रूप से भी व्यवहार में आता है। फ़ालिज ( श्रद्धांगवात या पक्षाघात) For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइ (य) न खुरासाना अजवाइ (य.) न खुरासानो सहित कम्पन में कपकपी को रोकने तथा पारदीय पक्षाघात के लिए औषध रूप से उपयोग में प्राता है । परन्तु उन प्रयोजन के लिए यह हायोसीन से निम्न कोटि का है । अनिद्रा ( इसोनिया), पागलपन (मेनिया), मद्योन्माद ( हिले रियम ट्रीमेस ), साद्वांग कम्पन (पैरालिसिस ऐजिटेस), दमा (ऐज़्मा), बातवेदना (न्युरैल्जिया) तथा कम्पन (कोरिया) में इसका उपयोग किया गयो; किन्तु यह हायोसीन की अपेक्षा कम उपयोगी प्रतीत हुआ। ( एलो. मे० मे० हिटला) मानसिक विकार-व्योन्माद, असीम व्यग्रता, भ्रम, शंका, सोत्तेज्य स्मृति ग्रंश तथा अवयवस्थितता, अपस्मारोन्माद तथा पुरातन विस्मति रोगमें इसका व्यवहार होता है । पागलपन एवं तत्सम्बन्धी दशायों में विना किसी कुप्रभावके क्लोरल की अपेक्षा निश्चित निद्रा उत्पन्न करता है । तावोन्माद में इसके उपयोगकी उत्तम विधि त्वगन्तर अन्तः क्षेप है। वात विकार-साङ्ग कम्पन में यह वह | काम करता है जो किसी और औषध ने कभी नहीं किया अर्थात् अचेतना उत्पन्न किये बिना ही यह अंगचालन को चार घंटे तक रोक देता है। जब सम्पृण ओषधियाँ असफल होजाती हैं उस समय यह वायु कम्पन को ीक करता है एवं उसी प्रकार यह पारदीय कम्पन. वृद्धावस्था अथवा निर्वल ता जन्य कम्पन, रेशा (कोरिया) तथा योषापस्मारीय आक्षेप को शमन करता है। युवा या बाल दोनों के तरान्नुज ( श्राक्षेप) की अवस्था में यह वेदना तथा प्रदाह को शमन करता है। वातवेदना में इसका उपयोग किया गया और सम्भवतः ज्ञान तन्तुओं की उत्तेजना कम होकर वेदना शान्त होगई। श्राप शमन-यह प्राक्षेपशामक है और | इस लिए आक्षेप युक्त कास, श्वास, हिकफ ( हिचकी ) आदि में इसका लाभदायी उपयोग होता है। - मूत्रविकार-यह मूत्रविरेचक है तथा वृक गविन्यु (युरेटर ) तथा बस्तिस्थ वेदमा एवम् खराश को शमन करता है। ., निद्राजनक-यह सार्वाङ्गिक वेदनाशामक तथा निद्राउ.नक औषध है और जब अफीम का उपयोग अनुचित होता है उस समय इसे देनेसे मीद श्राजाकी है । इससे विवन्ध नहीं पैदा होता। औषध-निर्माण तथा मात्रो-हायोसायमीन (स्फटिकवत् )... से . न । हायोसायमीन (विकृतःकार) से ग्रेन। नवीनोम्माद में से १ ग्रेन की मात्रा में भली प्रकार हलका कर ( diluted ) तथा चतुरतापूर्वक उपयोग करना चाहिए। क्योंकि कुछ रोगियों में इसके बरदाश्त की शक्रि नहीं होती। हायोसायमोनी सरुफ-१. से .. प्रेन स्वगन्तरीय-सामान्य मात्रा- या ग्रेन, अधिकसे अधिक और कम से कम १३, (१० वी० एम०) परीक्षित योग (१) एक्सट्रैक्टम् हायोसायमाई ३ ग्रेन, पल्विस कैम्फोरी २ ग्रेन, दोनों की गोली बना कर रात्रि में सोते समय ३ । कार्डी (सुज़ाक सम्बन्धी शिश्नोत्त जना) में लाभदाक है। (२) एक्सट्रैक्टम् हायोसायमाई २ ग्रेन, ज़िन्साई वेलेरीए नेट्स २ ग्रेन, , गाली बनाएँ और ऐसी १-१ गोली दिन में २ बार दें । नर्व सिडेटिव ( वातावसादक) है। (३) हायोसीनी हाइड्रोप्रोमाइड) ग्रेन, पल्विस सैक्रिलैक्टस ( मिल्क शूगर) २ ग्रेन । गोली बनाकर सोते समय दें। पैरेलिसिस एजिटैन्स ( पक्षाघातीय कम्पन) में गुणदायक है। (४) सोडियाइ ब्रोमाइडाई १५ ग्रेन, सक्काई हायोसाइमाई प्राधा ड्राम, सीरूपाई पेमे. वरस १ ड्राम, एक्का डिस्टिलेटा १ श्राउंस तक, For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन मुदब्बर १५३ श्रजङ्गी ऐसी एक मात्रा औषध रात्रि में सोते समय दें। वाइन को सोडा के साथ मिलाकर देने से प्रामाअनिद्रा (इन्साम्निया) में लाभदायक है। शयस्थ अम्लरोग, अजीर्ण तथा प्राध्मान दूर (१) टिचुरा हायोसाइमाई ३० मिनिम, होते हैं। ई० मे० मे०। देखो-अजवाइन सोडियाई बेजोएट्स १० ग्रेन, एलिक्सर सक्कि- तथा थाइमोल । राइनी ५ मिनिम, इन्फ्युजम् न्यु क्यू १ श्राउंस | अजवायण ajavāyana-जय० सक | ऐसी एक एक मात्रा प्रति चार चार घंटा | अजवायन ajavayana-हिं० संज्ञा स्त्री० । पश्चात् दें। वस्ति पदाह (सिस्टाइटिस) और [सं० यवानिका ] अजवाइन ( Carum वृक प्रदाह ( पाइलाइटिस ) में फलदायक है। Ajowan, D. C.) अजवाइन मुदब्बर ajavain-mudabbar अजवायन गुटिका ajavāyana-gutika -ति० शुद्ध अजवाइन । विधि-अजवाइनको तीन -सं० स्त्रो० अजवाइन, जीरा, धनियाँ, मिर्च, दिन रात इतने सिर्काम तर रखें कि वह अजवाइन विष्णुकान्ता, अजमोद, मँगरैल प्रत्येक ४ शा०, से चार अङ्गुल ऊपर रहे । फिर उसे सिर्कासे बाहर हींग भुनी ६ शा० तथा सज्जीखार, जवाखार, पञ्चमिकाल कर शुष्क कर लें । जीरा को भी इसी लवण, निशोथ प्रत्येक ८ शा० और जमालगोटा, प्रकार शुद्ध करते हैं। प्योरिफाइड अजोवान कचूर, पुष्करमूल, बायविडंग, अनारदाना, बड़ी ( Purified Ajowan)-इं०। हड़, चित्रक, अम्लवेद और सोंठ प्रत्येक १६ अजवाण ajavāna-जय० ।अजवाइन . शा० लें, पुनः बिजौरे ( नीबू ) के रस से मईन प्रजघान ajavāna-हिं०, द०, गु० (Cal- कर चने प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । सेवन____um A jowan, D. C.) विधि तथा गुण-घृत, दूध, मद्य, अजवान का अर्क ajavana-ka-arka-द० नीबू के रस और उष्ण जल के साथ देने अर्क अजवाइन-हिं० । श्रोमम् वाटर (Om. से गुल्म का नाश होता है। मद्य से वात गुल्म. um water )-इं। गोदुग्ध से पैतिक गुल्म, गोमूत्र से कफज गुल्म, प्रजवान का पत्ता ajavana-ka-pattā-द० दशमूल क्वाथ से त्रिदोषज गुल्म एवं स्त्री का रक पनीरी का पत्ता | पञ्जीरी का पात, सीता की गुल्म तथा ऊँटनी के दूध के साथ देने से हृद्रोग पञ्जीरो-हिं० । ऐनीसाकिलस कानोसस (Ani- संग्रहणी, शूल, कृमिरोग और अर्श का नाश sochilus Carnosus, Wall. )-moi होता है । शाङ्ग० सं० मध्य० ख० अ०७ । थिक-लीड लेवेण्डर ( Thick-leaved अजङ्गिका ajashringika-सं० स्त्रो० । lavender )-इं० । इं०मे०मे० । फा००। अजशृङ्गी ajashringi-सं०स्त्री० अजवान का फूल ajavāna-ka-phula-द०, -हिं० संज्ञा स्त्री०, एक वृक्ष जो भारतवर्ष में हिं० अजवाइनका सत | स्टियरॉटिन (Stea- प्रायः समुद्र के किनारे होता है। इसकी छाल roptin), फ्लावर्स ऑफ अजवान कैम्फर संकोचक है और ग्रहणी आदि रोगों में दी जाती (Flowers of a jowan camphor ) है। इसका लेप घाव और नासूर को भी -इं०। देखो-अजवाइन । भरता है। मेदासिं (शिं) गी, मेषशृङ्गी । ऐस्त्रीनोट-यह अगरेजी थाइमोल (सत पुदीना) पिपास गेमिनेटा (Asclepias Gemiके समान होता है। mata, Rowb.)-ले०। भा० पू० १ भा० प्रभाव-व्याप्तोत्तेजक, आमाशय बल्य, वायु- गु० व० ३७१ । रा०नि० व० ; सु० सू० निःसारक, प्राक्षेपशामक, शोधनीय । यह पुरा- ३८ १०; रा०; मद०व०१। (२) कर्कटङ्गी, तम स्रावों, यथा-कास में अधिक श्लेप्मास्राव काकड़ासिङ्गी । ( इसका वृक्ष पुत्रजीव वृक्ष के को रोकता है। समान होता है)। (Rhus succedanea; - प्रयोग-अजवाइन का तेल और सत-अज- Acuminata)-ले। सु० सू० ३७ ड । For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रजश्री १५४ ( अ ), आ० ४ भा० रेवतीग्रह - चि० । मेषशृङ्गी वा कर्कटशृङ्गी । सु० सू० ३८ श्र० वल्लीपञ्चके । वा० चि०८ श्र० । “श्रजशृङ्गी जटाकल्कम् ।” भा० पू० २ भा० अ० व० । श्रजश्री ajashri-सं० स्त्री० फिटकिरी, फटिकारिका, फटिकारी, स्फटिकारि । मा० नि० । Alum (Alumen). अजस āajasa-० श्रज्ञात । अजखर ajakhara - ऋ० रोहिषतृण । इज़ख़िर (Andropogon schoeranthes ) अज़हāazah - हरिण, मृग । ग़ज़ालह, आहू - फ़ा० । ( A deer or antelope ) . अज़हल ãazahala-० नर कबूतर, कपोत, पारावत । ( A pigeon ). " अज़हह āazahah - अ० मादा लोमड़ी | फॉक्स ( A fox ) - इं० । अजहा ajahá-सं० स्त्री० कौंच, केवाँच, शुक शिम्बी । श्रालाकुशी - बं० । ( Carpopo gon Pruriens ) । श्र० टी० । अज़हार azahala - अ० ( ब० ( ए० व० ), कलियाँ, द० | गुञ्चहा-फ़ा० | बड्स ( Buds ) - इं० । देखो - कलो (-ल ). अज़हारुर्रह, azhárurreh अज़हारूल्फ़स ह azhárulfash 1 व० ), ज़हर कलिकाएँ - हिं०, - फा० अनामून ( Pulsatilla ). अजहून āazahúna - अ० ऊँट ( A Camel). स० [फा० ई० । श्रजक्षीरम् ajakshiram - सं० क्ली० छागीदुग्ध, अजादुग्ध, बकरी का दूध । वा० उ० १६ अ० । ( Goat's milk ). श्रजक्षोरनाशः ajakshira náshah - सं० पु० शाखोट वृक्ष, सहोरा (सि-), रुसा, सिप्रोड़ - हिं० । शेश्रोड़ा-गाछ - बं० । ( Streblus asper, Linn.) रा० नि० ० ३ । श्रजा aja - संo स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० ( १ ) A she-goat छागो, बकरी । (२) उक्र नामकी महौषधि विशेष | इसका स्वरूप - श्रजा (बकरी) के स्तन जैसी आकार वाली, दूध युक्त, सुप Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजाजी, जि: 1 ( पौधे ) के रूप की, शंख, कुन्द, तथा चन्द्रमा जैसी उज्वल और पांडुर रंगवाली महौषधि है। सु० चि० ३० अ० | देखो - ओषधिः । (२) प्रकृति या माया । सां० द० ।-हिं० वि० जिसका जन्म न हुआ हो । जो उत्पन्न न की गई हो । जन्म रहित । अज़ा ãazá - अ० सीपी का एक भेद है । ( A kind of common oyster shell.) अजाकर्ण ajákarna-सं० मदी ( एक बड़ा हिंदी वृक्ष है )। ( A huge indigenous tree). अह्नागरः ajágarah - सं० पुं० ( १ ) भाँगरा, भँगरैया, भृङ्गराजवृक्ष | भीमराज-बं० | एकलिप्टा ऐल्बा ( Eclipta alba, Hasskc.) श० र० । ( २ ) महासर्प, दकर सर्प ( फणदार या गेहुँअन साँप ) | ( The cobra ). श्रजागरी ajagari - सं०वि० Name of a plant. एक पौधा है । or अजागलस्तनः ajagalastanah - सं० ५०० The fleshy protuberance nipple hanging down from the neck of goats. ललरी । अजाघृतम् ajághritam-सं० क्ली० छागीवृत, बकरी का घी | गुण — बकरी का घी चतु के लिए हितकारी, दीपन, बलवर्द्धक, वृष्य, पाक में कटु, कास, श्वास और क्षय को नष्ट करता है एवं कफ, अर्श (बवासीर) तथा राजयक्ष्मा के लिए परन हित है । वै० नित्र० । अजाज aajaja - अ० ( 1 ) Dust गुब्बार, धूल; Smoke. धूम्र । ( २ ) A fat camel बहुत मोटा ऊँट । अजाज़ Āazaza - अ० बड़ा ऊँट ( A huge camel ). " जाजिक, का aja jikah, ka - सं० पु० पीला जीरा, पीतजीरक Yellow cumin seed ) रा० नि० व० ६ । श्रजाजी, जि: aja ji, - jih - सं० स्त्री० ) ( 1 ) हिं० संज्ञा स्त्री० ) जीरा, For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अजाजीव अजान्ती सफेद और काला जीरा । जोरक, स्थूलजीरक अज़ाद aazada-अ० पस्तकामत-फा० । बौना, -सं० । Cumin seed (Cuminu. ठिंगना, छोटे कद का-हि। पिग्मी Pigmy m cyminum ) रा०नि० व० ६ । -ई० । च. द. संग्रहणी चि० वृहच्चुक्र । (२) अजात दन्तः a jatadantah-सं० त्रि. छः Ficus oppositifolia काकोदुम्बरिका, मास व्यतीत होने पर भी जिस बालक के दन्त अञ्जोर । जीरा, सफेदजीरा । भा० पू०१ भ० न उगे, अर्थात् दन्तो द् न हो उसे 'अजातदन्त' ह० व०.। च० द० संग्रहणी चि० अायाम- कहते हैं। क.डिजक । र० सा. सं० माणिक्य रस | अजादनी ajadani-सं० क्ली० क्षुद्र दुरालभा । (३) Nigella sativa or Indical छोटा धमासा, जवासा । ( A small speकृष्णजीरक, कालाजीरा | सि० यो० दिवारात्रि cies of prickly night-shade.) ज्वर वृन्द | "गुड़ संयुक्र जीरा विषमज्वर । रा०नि०५०४। नाशक है।" । अजादुग्धम् ajadugdham-सं० क्ली० छागी अजाजीवः ajajivah ).. (-ग) दुग्ध, करी का दुग्ध (Goat's अजापालकाajapalakah ) milk. ) वै० श०। goat-herd ) गड़ेरिया, भेड़ बकरी पालने 'अजान ajana-हिं० वि० (१) अज्ञान, मूर्ख, . वाला। निर्वाध, ( Ignorant,simple,innoc. अजाज्यादि चूर्णम् ajajyādi-churnam-- ent.)। (२) अजायन । एक पेड़ जिसके नीचे सं० स्त्री० जीरा श्वेत ८ तो०, जवाखार ४ तो०, जाने से लोग समझते हैं कि बुद्धि भ्रष्ट होजाती नागरमोथा ८ तो, अहिफेन शुद्ध ४ तो०, मंदार है। यह पेड़ पीपल के बराबर ऊँचा होता है मूल १६ तो०, ले चूर्ण कर सेवन करने से उग्र और इसके पत्ते महुए केसे होते हैं। इसमें लम्बे संग्रहणी, ज्वरातिसार, रक्रातिसार, निरकातिसार, लम्बे मौर लगते हैं । तथा घोर विशूचिका दूर होती है । भैष० र० अजानयः ajanayah-सं०पू० । उत्तम अश्व, ग्रहण्याधिकारे। अजात ajita - हिं० वि० [सं०] (Unborn) अजानेयः ajaneyah-सं० ० । कुलीन घो ___टक, अच्छी जाति का घोड़ा । (A horse जो पैदा न हुआ हो । अनुत्पन्न | जन्म रहित । of good breed.) जयदत्तः। अजन्मा। अजानस aajanasa-हजानस, जुन लान | गोचप्रजातकम् ajatakram- सं० क्ली० छागी रोंदा, गुबरौंता, गोबरीला (एक प्रकार का कीड़ा सक्र, बकरी का तक्र । गुण-बकरी का तक लघु, जो गोबर में पैदा होता है) । A beetle स्निग्ध तथा दाह, गुल्म और अर्शनाशक है एवं found in dunghill or old cowत्रिदोष, शोथ ( सूजन), ग्रहणी और पांडुरीगमें dung (Scarabeus or ster conarपरम हितकारी है । वै० निघ । ius copris.) अजात ककुत्, ajata-kakut-d-सं० पु० अजान्तो ajantri-सं० स्त्री० (१) नील वुह्वा । (A young bull whose hump is नीलबॉना, छागल बेटे-बं० । A pot-herb not yet fully developed ) ar gar convolvulus argenteus.) रत्ना० । साँड़ जिसका डील पूर्ण विकास को प्राप्त नं पर्याय-नीलवुह्ला, नीलपुष्पी (नील अपराहुआ हो। जिता ), अतिलोमशा, नीलिनी, छगलान्त्री, प्रजातान् ajatan-सं० क्ली. वह स्थान जहाँ अन्तः कोटरपुष्पी (र), वस्तान्त्री, वृद्धदारकः, केश न उगें । अथ०। सू० १३६ । २।का०६। (रा)। गुण-रस में कटु, कासनाशक, वीर्य For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजानिः भजाम् वर्द्धक तथा गर्भजनक है। रा० नि० व०३। -फा. । (Citrullus colorynthis, (२) ( Gmelina Asiatica or Schrad. ) Rourea santaloides. ) वृद्धदारक, । अजाम aajama-अ० बड़ा चमगादड, चामविधारा।रा०नि०व०३। चिढ़िया, चमगीदड़, चमगुदड़ी (A bat). अजानिः ajanih-सं० पू० ( Without a श्रजामांसम् ajamansam-सं० क्ली० (Go. wife,a widower. ) at flesh) छाग मांस, बकरे का मांस । अजानिकः ajanikah-60पु0 (A goat- गुण-लघु, स्निग्ध, किञ्चित् शीतल, रुचिकारक, _head.) गड़ेरिया, भेड़ बकरी पालने वाला । मधुर, पुष्टिकारक, बलकारक तथा वातपिश नाशक अजापक्वम् ajapa.kvam-60 क्ली० पक्कघृत है। वै० निघ०। विशेष । अजावूत्रम् ajamitram-सं० क्ला० (Sheअजापञ्चकम् ajapanchakam-60 की goat's urine) छागीमूत्र, बकरीका मूत्र । यक्ष्मा रोग में प्रयुक्र होने वाला घृत । निर्माण- गुण-रस में कटु, उष्ण वीर्य, रूक्ष, नाड़ीविधि-छागीवृत ४ श०, छागविष्कारस श०, विषघ्न,एवं प्लीहोदर, कफ, श्वास, गुल्म तथा छागीदुग्ध ४ श०, छागीदधि ४ श०, छाग मूत्र शोथ (सूजन) नाशक और लघु है । ग० न० ४ श०, इनको एकत्रित कर उसमें : पल यवक्षार ब० १५. । व० उ० २४ अ.। डालकर यथा विधि पाचन करें । बस इसी को | अजामेद: ajamedah-सं० क्ली० ( Goat's "अजापञ्चक" कहते हैं। च० द० यक्ष्मा- fat) छागवसा, बकरे की चर्बी। वा०वि०. चि० । औष०। अजापञ्चक घृतम् ajapanchaka-ghi- | अजायन ajayana) -60 सबा पु. नाम के tam-सं० क्ली० छाग । पुरीष रस, छाग मुत्र, | अजान ajana ब राबर होने वाले एक भार• छाग दुग्ध, छागदाधि, इनमें धृत सिद्ध कर सेवन तीय वृक्ष का नाम है। इसके पत्ते श्राम के पत्तों करने से राजयक्ष्मा, श्वास तथा खाँसी दर होती के समान किन्तु इससे बारीक और लम्बे होते हैं । इसमें फलियाँ लगती हैं जो अंगुली के अजापयः ajapaya h-सं० क्ली० (Goat. बराबर मोटी श्रीराध गज तक लम्बी होती है। milk.) छाग दुग्ध, बकरी का दूध | वा० उ० इसकी छाल रक्रशोधक है। | अज़ायह, aazayah-अ० माररा (छिपकली के अजापाद ajapada-सं० पजीरी, सिटकी। क्रिस्म का एक जानवर है)। A kind of इन्दुपर्णी, उल्पलभेद-सं०। ऐनिसाकिलस का?- ]izard. सस ( Anisochilus carnosus ) अजार ajara-हिं० संज्ञा पुं० [फा० श्राज़ार ] -ले। इं० मे० में। देखो-सीता की रोग । बीमारी । (A disease). पोरी। अज़ार aazara-अ० अज़ बह , माईखुर्द, अजाप्रिया ajapriya-संस्त्री० झाड़बेरी-पं० । (छोटी या बड़ी माई), भाऊ । ( Tamarix वदरी वृक्ष, बेर-हिं० । बालक प्रिया, भू-कर्टक, Gallica, l.in.) सूक्ष्म-फल-सं० । मल्ल, बेर, झाड़ी-यू. पां०। अजारम् aajarama-१० मज़बूत सूई अथवा ज़िज़िफस नुम्मुलेरिया( Zizyphns num. · पुरुष शिश्न । ( Strong-needle or mularia, ), जि० माइक्रोफाइला (Z.. human penis ). Microphylla)-ले । भा० फ० व.। ० व.|| अजारह anjarah अ० खजूरभेद । (A kind . अजाफ aajafa-अ० इन्द्रायनका फल | ह जल of Date). For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अज़ाराको azáraqi - अ० कुचिला | नक्स निका ( Nux vomica ), वाजिट नट ( Vomit-unt ) - ले० । मु० अ० । म० श्र० । अज़ाराको सिरिया azaraqi Syria - इं० कु. चिला। ( Nux vomica) फार इं० । अङ्गालत āazálata - ० पिस्सू ( केक ) -० । ए फ्ली ( A flea ) - इं० । अजाल हेवकारत azálahe-bakárata श्र० कुमारिच्छद को नष्ट करना । रचर श्री दी हाइमीन ( Rupture of the Hymen ) - ३० । अजावयः ajá-vayah- स० पु० वह श्रोषधियाँ जिन्हें बकरियाँ खाती हैं । श्रय० । सू० ७ । १५ का० ८ । श्रजाविकं ajávikam - सं०ली० ( Small cattle ) वृद्र पशु | अजाविद् ajávit-सं०ली० छाग विधा, बकरे की लंड़ी | Goat's Feces ( excrements ) | बा० उ० १० श्र० । जावी सीड्स ajáve seeds, Percival. - इं० अजवाइन । फा० ई० २ भा० । अजाशृङ्गी ajashringi - सं० स्त्री० मेदासिंगी, मेषशृङ्गा । ( Asclepias Geminata, Road.) अजाश्वम् ajáshvam-सं० क्लो० ( Goats and horses ) बकरे और घोड़े । अजाहन äajáhana-o साही - हि० खारपुश्त - फ़ा । पाक्यु पाईन ( A Porcu pine ), हेज हाँग ( Hedgehog ) - इं० । अजाह्वा ajihvá सं० क्ली० ( Carpopogon pruriens.) केवच श्रात्मगुप्ता । श्रालाकुशी- बं० । श्र० टी० भ० । देखो-अजहा । अज्ञाह āazah - अ० कण्टकयुक्र बड़ा वृत, जैसेबेरी अथवा बबूर वृक्ष । ( Any spinous tree ). १५७ अजाक्षी ajákshi - सं० स्त्रो० श्रओर A fig ( Ficus oppositifolia, Roxb.) गु० नि० ६० ११ । अजित प्रसारणी तैल श्राक्षोरम् ajákshiram-सं० क्लो० बागी दुग्ध, बकरीका दूध ( She-goat milk ). वै० श० । अजिका ajiká सं० स्त्री० (१) रामतुलसी, बन तुलसी (Ocimum gratissimum, Linn.) ई० मे० मे० । ( २ ) ( A young she-goat ) जवान बकरी । अजज़ aajia - अ० विवश होना, निर्बलता, कता हि० । 'डेविलिटी ( Debility ) - इं० | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रजित ajita हिं० वि० [सं०] अपराजित | जो जीता न गया हो । श्रजित तेलम् ajita- tailam-सं॰ लो० मुलेही का कल्क ४० श्रामले का रस ६४ तो०, गो दुग्ध ६४ तो०, तिच तेल मिलाकर तैल सिद्ध करें । गुण - इसके सेवन करने से दृष्टि विमल होती है । प० २० नेत्र० रो० चि० । बङ्ग० से० सं० नेत्र रोग० वि० । अजित प्रसारणी तैलम् ajita-prasarani-tailam सं० क्ली० शरत्कालके सुपक प्रसारणी मूल ४०० ते ०, दशमूल, बरियारा (बला ), अश्वगंध, शतावर, पियाबाँसा, गोखरू, रास्ना, कौंचबीज, गुरुच, पुनर्नवा प्रत्येक पृथक् पृथक् ४०० aro | कुलथी, बदरीमूल, यव प्रत्येक २५६ तो० कूटकर छः द्रोण (६६ सेर) जल में क्वाथ करें, जब १ द्रोण शेष रहे तब उसमें तिल तैल ४ सेर, मांसरस ४ सेर, दही ४ सेर, गोदुग्ध १६ सेर, शुक्र ४ सेर, दही का पानी ४ सेर, मूलीका रस ४ सेर, काँजी ४ सेर, तथा रास्ना, सौंफ, अगर, देवदारु, मजी5 मुलहठी, महुधा पुर ( मधुक पुष्प ), नख, नेत्रवाला, बालछड़, बच, सेंधानोंन, चित्रक, जवाखार, सरल, दारुहल्दी, वायविडंग, भिलावाँ, पुष्करमूल, कूट, पीपलामूल, चव्य, मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर का कोली, निर्च, दालचीनी इलायची, काकड़ासिङ्गी, कन्नूर, नखो, गजपीपल, स्पृक्का, मैनफल, सोंठ, केशर, चन्दन, तेजपात, गोखरू, अदरख, कंकोल, ऋद्धि वृद्धि, हल्दी, कमल, अजवायन, जीरा, श्रजमोद, For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजिनागदः अजिर नागरमोथा, सिंघाड़ा; तज, पीपर, इन्हें २-२ अज़िन azina-अ० जिस मनुष्य के कर्ण द्वारा तोला लेकर, कूट बारीक चूर्ण कर उक तैल में | सर्वदा तरल स्त्राव होता हो। मिलाकर पकाएँ । सेवन विधि तथा गुण- | अजिनम् ajinam-सं० क्लो० । (१)मगचर्म, इसके सेवन से पंगुरोग वाले, विसर्प, स्नायु, अजिन ajina-हिं० संज्ञा पु. मृगछाला । संकोच, खंज, शिरा संकोच, गात्र भग्नता, (The hairy skin of any an telope.) गति की नष्ट ना, नन्य स्तम्भ, भुजा, कंट- श्रम०। (२) चम्म, खाल, छाल । (३) स्तम्भ, एकांगवात, सांगवात, लकवा, सोजा, ब्रह्मचारी आदि के धारण करने के लिए कृष्णखुजली, हनुग्रह, महावात तथा जिनके अंग मग और व्यान आदिका चर्म । श्रथा सु०६८। जर्जस्ति हो गए हों, कटि, काल, जानुस्थित ५ हा, कोट, काल, जानस्थित ३ का० । वायु, संधियों का मारजाना, शिरास्तब्ध, स्नायु, अजिनपत्रा ajina-patra-सं. स्त्री० ( A अस्थि, सन्धि, उरु, इनमें स्थित वायु, शूल, bat.) चमगादड़-हिं० । जतु (तू) का, शिरोशूल, गात्रशूल, एकांग तथा सर्वांग वात, चर्नचटका ( टी )-सं० । बाटुहा, चाम्चिकी त्रियों का योनिशूल जो वातरक्त के प्रकोप से -वं० । रा०नि० व० १६। हुआ हो, पुरुषों का शुक्र हय, मेढ़ राल, विकलता, अजिन पत्रिका ajina-patrika-सं० स्त्री० इन्द्री क्षीणता, D गापन, स्तुतिविभ्रम, तुतलाना, गू गायन, स्नातविभ्रम, तुतलाना, (१)( A bat) चर्मचटी, चमगादड़ निरुद्ध वाणी, रियों की सन्तान होनता, आर्तव, -हिं० । हे. च० । (२) (An owl) पेचक शुक्र का दूषित होजाना, इन समस्त विकारों को दर करते हुए मनुक्य को स्पति प्रदान होता है। अजिनपत्री ajina-patri- सं०स्त्री० (A bat) - इसके सिवाय, प्राध्मान, प्रत्याध्यान, अधिक जतु (-तू-) का, चमगादड़, चामचिड़िया-हिं० । डकार का पाना, जम्भा, कर्णनाद, क्षत, वातो चामचिकी-बं०र०नि०प०१६। न्माद, अपस्मति, शाखावात, गृध्रसी, अस्सी अजिन योनिः ajina-yonih-सं० पु. । प्रकार के वातरोग, मिति वात, कफ के रोग, अजिन यो नि ajina-yoni -हसंज्ञा पुं." इसके अभ्यंग, पान और नस्य से दूर होते हैं हरिण, मृग (A. deer, An Antelope). तथा जिनके अंग सिकुड़ गए हों उन्हें प्रसारित प. मु०। करता है। उर्ध्वगत, अधोगत समस्त वात रोगों अजिनह ajinnah-अ० (ए. व०), जनीन को यह अजितप्रसारणी नामक सेल शीघ्र दूर (ब०व०) गर्म, भ्रूण, जरायुस्थ शिशु, वह करता है । वं० से० सं० वातन्या० चि०। शिशु जो माताकी उदर में हो । फीटस Fetus, अजितागदः ajitāgadah-सं० क्लो० वाय एम्बयो Embryo-इं०। विडंग, पाा (निर्विषी हरिद्वारे ), ग्रामला, हड़, __ नोट-अंगरेज़ी में ३ मास से न्यूनावस्था वाले भ्रण को एम्बयो और इससे अधिक वाले बहेड़ा, अजमोद, हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, चित्रक, लवणों का सूचम वर्ग चूर्णकर शहद मिला को फ्रीटस कहते हैं। कर गाय के सींग में भर कर १५ दिन तक बंद अजिप्टिशो इण्डिगोप फ्लेख agyptische रक्खें । प्रयोग-इसके सेवन से स्थावर तथा ___Indigop flange जर० श्वेतनील, नी. जंगम विष दर होते हैं । भै० र० विषाधिकारे। लिनी-सं० । नोल बं०। ( Indigofera Argenta) ई० मे० मे० । अजितात्मन् ajitātman -6.पु.(Oneश्रजितेन्द्रिय ajitendriya) who has अजिबaaziba-अ० वह जल जिस पर काई जमी हो। not subdued his mind or his senses. ) वह मनुष्य जिसकी प्रास्मा एवं अजिरः ajirah-सं० ० क्लो. (१) मण्डक, इंद्रियाँ वश में न हो। अजिर ajira-हिं० संज्ञा० पु. मेंढक,ददुर । For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़िरत २५६ अजीणि: A Frog (Rana tigrina ). (?) मैथुन काल में वीर्यपात समय मल निस्सरित हो Wind, dir. वात । (३) Any object | जाता है। of sense विषय ( इन्द्रिय)। (2) The अजीन aajina-अ० खमीर, खमीरी श्राटा। body तन, शरीर । (१)A court-yard. गुँधा हुअा अाटा । डो ( Dough)-ई। आँगन, सहन । सर्वत्र मे० रत्रिक । अज़ीमा azimā-अ. कृ० तहब्बुज, वर्म रिख्व अज़िरत āazirata-अ० (ए० व०), अङ्गिरात | -अ०। शिथिल सूजन, ढीली सूजन-हिं० । (ब०व०) मल, विट , गृह, पाखाना ( मनुष्य अडीमा (Edema)-ई। *) Fæces, Excrement. अज़ोमाटेद्राकैन्था azima te tracantha, अज़िरत āazirata-अ० मूलाधार, गुदा और वृ- Lam. -ले० कुण्डलो-सं० । कण्ट-गूरकामाई षण के मध्यकी रेखा (चुरट),वह रेखा जो वृषणोंके -हि० । विकण्ट जटी-व०। अज़ीमा टेवा केन्था• निम्नभाग से लेकर गदा तक है: सेवनी, सीवन । ले०. 10 मे० मे० । फा००२ भा०। इसका उच्चारण इ..ज़ रित और सही है । पेरीनिश्रम् अज़ीमा टेब्राकैन्था zima tebracantha, Perineum, रैनी Rhaphe-इं०। Lum. )-ले. कुण्डली-सं०। करटागूरafhla a jihma-dio isto ( Straight ) कामाई-हिं० । विकण्ट-जति-बं०। सुक-पातसरल, सीधा । द० । सुङ्गेली-ता० । तेलउपी -ते.। मेमो०। अजिह्मगः ajihmagah-सं० पु.० (An| इं० मे० मे० । फा० इ०२ भा० । arrow) तीर, वाण। अज़ोर aazira - अजिह्वः a jihvah ) -सं० पु. मण्डूक, अज़ोरन āaziranay -अ० का तूरियून ( Di. अजिह्मः ajihmah) मेंढक,भेक । A Frog ___anthus anatolicus, Boiss.) (Rana tigrina ) fs Filo अजीरन ajirana-हि. संज्ञा पु० दे० अजोग । अजो aaji-अ० सूखे छिल्के जिनको पकाकर अजोरु ajaru-कां० हत्ता जुड़ी-हिं० । सूर्यावर्त, खाते हैं। श्री हस्तिनी-सं० । हीलिश्रोट्रापिअम् इण्डिकम् अजीगतः ajigarttah-सं०० ( A ser (Heliotropium indicum), ही. ___pent) सर्प, साँप । कार्डिफोलिश्रम् (IL. cordifolium)-ले०। अजोज़ aajiza-अ० श्रीब, नपुसक, नामर्द, __हीलिश्रो ट्रॉप ( lelio-trope )-इं० । जो मैथुन न कर सके ( Impotent ). इं० मे० मे०। अज़ीज़ azi za-अ० देग के उबलने की आवाज़ । अजीर्ण ajina-सं० त्रि., हिं० वि० ( Undबादल गरजने की अावाज़, मेघराब्द । वर्तमान ____igested ) अपक्क । वैद्यकीय परिभाषा में हाँप कर श्वास लेने तथा खर्राटे का शध्द । ((Sncring). अजीणम् ajirnam सं० क्ली. ) (1) अपाक अजीर्ण ajirna-हिं० संज्ञा पु० रोग विशेष, अजीजा āazizi-अ० यौगिक सुर्मा (Comp- अजीणिः ajirnih-सं० स्रो० ) अपच, अध्यound antimony). सन, बदहज़मी-हिं० । ज अफ हजम, अज़ीडेरक कॉमून azedarak commun- फसादुल हज़म, सूह जम-अ० । हज़म कं. बकायन, महानिम्ब (Melia azeda- का जई.फ़ या कमजोर होना, हाजमा की rach) इं० मे० मे०। कमज़ोरी, खाना अच्छी तरह हजम न होना, अज़ीडेरक मीलिया azedarach, melia, बदहजमी, खराबिये हजम-उ० । इण्डाइजस्चन Linn.-ले० बकायन । ( Common ( Indigestion ), डिस्पेप्सिया (Dyspebead three) ई० मे० मे०।। psia-01 अजोतह, azitah-अ० रोग विशेष जिसमें ____ अजीर्ण की निरुक्ति-जिस रोग में प्रश्न For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजीर्णम् १६० अजीणम् पचे नहीं, अपितु जल जाय उसको अजीर्ण कहते हैं । भा० म० ख०१ भा० अ० अ० मा०।। प्रायः पेट में पित्त के बिगड़ने से यह रोग होता है जिससे भोजन नहीं पचता और वमन, दस्त और शूल अादि उपद्रव होते हैं। आयुर्वेद में इसके छः भेद बतलाए हैं: १-श्रामाजीर्ण जिसमें खाया हुआ अन्न कच्चा गिरे। २-विदग्याजाणे जिसमें अन्न जल जाता है । ३-विष्टब्याजोरी-जिसमें अन्न के गांटे वा कंडे धकर पेट में पीड़ा उत्पत करते हैं। - ४-रसशेषाजीर्ण जिसमें अन्न पतला पानी की तरह होकर गिरता है। ५-दिनपाकी अजीर्ण जिसमें खाया हुश्रा अन्न दिन भर पेट में बना रहता है और भूख नहीं लगती है। ६-प्रकृत्याजाणं वा सामान्याजीर्ण जो सदैव स्वाभाविक रहे। _डॉक्टरों में इसके दो भेद मानते हैं-(1) उग्र अजीर्ण (Acute dyspepsia) और (२) पुरातनाजीर्ण (Chronic dyspepsia). पुरातनाजीर्ण के पुनः तीन भेद होते हैं-(1) श्रामाशयविकार जन्य अजीर्ण (A tonic dyspepsia ), क्षोभमन्याजीर्ण ( Irritative dyspepsia) और वाताजीर्ण (Nervous dyspepsia). अजाण निदान । ईर्षा (पराए धनधान्यादिको देखकर जलना), डरना, क्रोध करना इन कारणों से व्याप्त तथा लोभ, शोक, दीनता इन कारणों से पीड़ित और दूसरों के शुभ कामों को बुरा समझने वाले मनुथ्यों का किया हुआ भोजन भली भाँति नहीं | पचता है । ये अजीर्ण के मानसिक कारण हैं। . शारीरिक कारण ये हैं अत्यन्त जल पीने से, विषम ( असमय वा न्यूनाधिक ) भोजन करने से, मल-मूत्रादि के वेग रोकने से, दिन में सोने से, रात्रि में जागने से, इन कारणों से भोजन के समय यदि प्रकृति अनुकूल, लघु तथा शीतल पदार्थ सेवन करें तो | भी अन भली प्रकार नहीं पचे उसको अजीर्ण कहते हैं। जो लोभी मनुष्य जिह्वा के वश होकर पशु के समान बेप्रमाण भोजन करते हैं उनको सब रोगों का कारण अजीण रोग शीघ्र उत्पन्न होता है। माधवः। अजीण के लक्षण (१) प्रामाजीर्ण-यह कफ के प्रकोप से होता है। इसमें देह का भारीपन, जी मचलाना, कपोल व नेत्रगोलक में सूजन, मी खट्टा जो ही रस खाया गया हो उसी की डकार आना प्रभृति लक्षण होते हैं। (२) विदग्धाजोण-यह पित्त के प्रकोप से होता है । इसमें भ्रांति, तृष्णा, बेहोशी, अनेक प्रकार की पित्तज पीड़ा, धुएँ के साथ खट्टी डकार पाए, पसीना पाए तथा दाह हो, ये लक्षण होते हैं। (३) विष्टब्धाजीर्ण-यह वायु के प्रकोप से होता है। इसमें रोगी को शूल, पेट फूलना, . नाना प्रकार की वातज पीड़ा, मल तथा अधो वायु का न निकल ना, पेट का जकड़ना, इन्द्रियों में मोह और शरीर में पीड़ा, ये सब लक्षण होते हैं। (४) रसशेष जीर्ण-इसमें अन्न में अरुचि हृदय में जड़ता और देह में भारीपन होता है । माधवः । वा०नि० १२ १०। नाट-दिनपाकी तथा प्रकृत्याजीण के लक्षण अजीण के भेदों के अन्तर्गत वर्णित हैं। अजीर्ण के उपद्रव अजीण रोगी के बेहोशी, प्रलाप, वमन, मुख से पानी का पाना, देह शिथिल होना, भ्रांति होना, ये सब उपद्रव होते हैं। अत्यन्त बढ़ा हुधा अजीण मनुष्य को मार भी डालता है। नोट - अग्नि मन्द होने ही से अजीण और ग्रहणी पैदा होती है अर्थात् अधिक समय तक अग्निमान्द्य और अजीर्ण रोग रहने से पीछे इसी की गणना ग्रहणी में होने लगती है। __उपरोक्त प्राम, विष्टब्ध तथा विदग्धाजीण से विसूची ( हैजा), अलसक और निलम्बिका ... For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजीर्ण करटकरसः ;qܪ अजीर्ण बलकालानलो रसः रोग की भी उत्पत्ति होती है। मा०नि०। तो०, लोहा, ताँबा, हरताल, वच्छनाग चिकित्सा-मन्दाग्निवत् । तूतिया, बंग, लवङ्ग, सुहागा, दन्तीमूल और अजीर्णकण्टकरस: ajirna-kntaka-lasah निसोथ का चूर्ण प्रत्येक ४ तो०, अजमोद, - सं० पु. अजीर्ण नाशक योग विशेष । अजवाइन, सज्जी, जवाखार, और पाँचो नमक, शुद्ध पारा, बच्छनाग, गन्धक प्रत्येक तुल्यांश. प्रत्येक २ तो० इनका चण करके २० बार सब के समान काली मिर्च लें, फिर कंटकारी के अदरख के रस की और पीपल, पीपलारस अथवा क्वाथ से भावना देते हए २१ बार मूल, चब्य, चित्रक तथा सोंठ के क्वाथ की १० मर्डन करें। मात्रा-२ रत्ती। गुए-यह सभी और गिलोय के रस की १० भावना दें। पुनः प्रकार के अजीर्णों को नष्ट करता है। यो. सब के श्राधा भाग काली मिर्च मिला मर्दन र०, चि० सा०, वै० क०, २० सं०, कर चना प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । गुण-यह भै० सा, र० सि०, र० स० सं०, र० प्रत्येक अजीण के विकार को शीघ्र दूर करता है। क० ल०, र० चि०, र० ख०, २० मं०, र० सु०, व० रा०, अजीर्णाधिकारे । र० र०, नि० २०, चि० र०, २० सु०, वै० अजाण गजाङ्कशः ajirna-ga jankushah चि०, भै० र०, र० (मा० ), र० को०, २० • सं० पु० शुद्ध पारा, गन्धक, विडङ्ग, अजमोद, क० यो०, वै० वि०, र० का०, रसायन बच्छनाग, सूरन, पुनर्नवा, पाँचो नमक, पञ्चकोल, सं०, ना०वि०, चि०क०, र० क०, भा० प्र०, अम्लवेत, तीनों क्षार, अम्ली, हस्तिकर्णी, (एरंड अजीर्णाधिकारे० व० रा० (अग्निकुमारः)। को जड़ की छाल), कालीमिर्च और हींग प्रत्येक अजाणंकण्टक घटी ajirna-' antaka-vati समान भाग लें, इसमें समुद्र लोन को भूनकर -सं० स्त्री० शुद्ध पारा, घच्छनाग, गन्धक मिलाएँ । सब का बारीक चूर्ण करके चित्रक, प्रत्येक समान भाग, सबके बराबर सुहागा पाठा और शरपुङ्ख के रस अथवा क्वाथ से पृथक भूना, सब को मिश्रित कर २१ बार नीबू के रस पृथक भावना दें। मात्रा- तो० । अनुपानकी भावना दें, फिर चने प्रमाण गोलियाँ अदरखका रस है । गुण-यह सम्पूर्ण अजीर्ण के बनाएँ। गुण-यह अजीण तथा अलसक विकारोंको शीघ्र दूर करता है । र० क० यो । आदि को दूर करती है। यो० म०। अजीर्णजरणः ajirna-jaranah-सं० पु. अजीर्ण कराटकोरसः ajirna-kantako-rasab कचूर | See Karchura | वै० श. । -सं० पु. सोहागा भूना, पीपल, वच्छनाग, अजीर्ण नाशनः ajirna nashanah-सं०क्ली० शिंगरफ प्रत्येक समान भाग लें, और काली पारे को भोजपत्र में बाँध के कॉजी में लवण मिर्च सोहागे से द्विगुण लें, पुनः नीबू के रस डाल के तीन रात्रितक स्वेदन करें तो यह पारद से घोटकर मटर प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। सुवर्ण अादि धातुओं के अजीण को दूर करे । गुण-यह रस अजीणं की शान्ति, जठराग्नि जब तक अजीण दूर न होजाय तब तक पाराप्रसन की वृद्धि करता और कफ के रोगों का नाश करता का अधिकारी नहीं है। योगतरङ्गिणी पारद. है । मात्रा-१-२ गोली । यो० म०, भा० प्र०, विधान। र० क० ल०, रसायन० सं०, वै० २०, अजीर्ण बलकाला नलो रसः ajirna-balaअजीर्णाधिकारे । नि० र०, र० रा० सु०, kāla-nalo-rasah-सं० पु. शुद्ध . निघण्ट रत्नाकरे, रसराजसुन्दरे चास्य शुद्धो. पारा २ पल, शुद्ध गन्धक २ पल, लौह धकेति नाम । भस्म, हरिताल, विष, नीलाथोथा, बङ्गभरूलेवर अजीर्णकालानलारस: ajina-kālānalo-ra- लौंग, सोहागा, दन्ती की जड़, निशोथ sah-स० पु. शुद्ध पारा, गन्धक, प्रत्येक पृथक पृथक एक-एक पल लें; अजमोद, For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हर महोदधि वटीः रस वाइन, जवाखार, सज्जीखार, पञ्चलवण प्रत्येक चार चार तो० इन्हें एकत्र कूट पीस कपड़छान कर अदरख के रसकी २१ - २१ भावना दें । इसी तरह पञ्चकोल, तथा गुरुच की १०.१० भाबना दें। पुनः सब के श्रर्द्धभाग कालीमिर्च का चूर्ण मिलाएँ । सब को खरल कर चने प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । जब सूख जाय शीशी में बन्द कर रखें । गुण- इसके सेवन से पुरातन अजीर्ण, आमवात, पारड, प्लीहा, प्रमेह, विष्टम्भ, प्रसूत, संग्रहणी, खाँसी, श्वास, पीनस, हय, अम्लपित्त, शूल, भगन्दर अर्श, आठ प्रकार के उदर रोग, यकृत रोग तथा मन्दाग्नि को दूर करते हुए खाए हुए श्रन्न को प्रहर मात्र में भस्म करता है । यह गहनानन्द सिद्ध का कहा हुआ है । वृ० ररू० रा० सु० जी०चि० । श्रजीर्णहर महोदधि वटो: ajirnahara-mahodadhi-vatih सं० स्त्री० शुद्ध जमालगोटा बीज, चित्रक, सोंठ, लौंग, गन्धक, पारा, सोहागा, मिर्च, विधारा, विप इन्हें सम भाग ले | चूर्ण कर दन्ती के रस की पन्द्रह भावना दें । इसी तरह नीबू के रस की तीन, चीते के रस की तीन तथा अदरख के रस की सात भावना देकर शुष्क कर जब गोलियाँ बनाने योग्य हो जाए तब मटर प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । गुण- इसके सेवन से शूल, अजीर्ण, ज्वर, खाँसी, अरुचि, पारडु, उदर रोग, श्रम रोग, पेट का गुड़गुड़ाहट, हलीमक, मन्दाग्नि तथा सब रोगोका नाश होता है । वृ० रस० रा० सु० श्र जीण चि०। つ (१) (सेन्द्र भं० । ( २ ) यां० २०, अजीर्णाधिकारे (३) । ०र०, अजीर्णाधिकारे | राऊजी क्षार, जवारवार सुहागा, पारा, लवङ्ग, (लवणचय (कासा सौंधा और विड़ नमक ), पीपल, गंधक, सौर, कालीमिर्च प्रत्येक ४ तो०, धन्च्छनाग, ताठमीसार्क बारीक चूर्ण कर लें । आक के दूध से ७ दिन तक भावना देते १६२ श्रजुगा बैक्टोसा रहें फिर गजपुट में उसे इस प्रकार पकाएँ कि उसका घूँ श्रा (वाष्प ) बाहर बिल्कुल न निकले । ठंडा होनेपर निकालें । फिर उसमें लवङ्ग, कालीमिर्च, फिटकिरी प्रत्येक ४ तो० मिलाकर बारीक चूर्ण करें और शीशी में रख लें । मात्रा - २ रत्ती सायंकाल खाने से खाया हुआ क्षण भर में पच जाता है। इसको सेवन करने वाला भोजन करने के एक पहर बाद पुनः भोजन करने की इच्छा करता है । यह मांसको भी जीर्ण कर देता है । अजीर्णारि रसः ajirnári-rasah - सं० पु० शुद्ध पारा, गंधक प्रत्येक ४ तो०, हड़ तो०, सोंड, पीपल, मिर्च, सेंधानमक प्रत्येक १२ ती०, भाङ्ग १६ तो सब को मिलाकर चूर्ण करें, फिर नीबू के रस से घाटें । इसी तरह धूप में सुखा सुखा सात भावना दें। मात्रा - १-३ मा० । गुण- शूल, प्लीहा, उदरशूल, श्रजीर्ण और गुल्म रोग को नष्ट करता है । र० क० ल०, रसायन सं०, चि० क० टी०, श्रजीर्णाधिकारे । अजीर्णो ajirni सं०त्रि० हिं० श्रजीर्ण रोगी, मन्दाfia in arar (Indigestive-person, Dyspeptic. ) वै०० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजीलह, यत् स āajilah-yatúsa--गिरगिट | ह - -फ़ा। (A lizard, a chameleon) अजीव ajiva - हिं० संज्ञा पु ं० [सं० ] ( Lifeless) चेतन |जीव तत्त्वसे भिन्न । जड़ पदार्थ वि० विना प्राण का । मृत | जीवनिः ajivanih - सं० स्त्री० (Death, Non-existense ). अर्जीणहररत्र- ajirna-hara-rasah - सं० श्रजांविज: ajivijah - ० ० नैन्द्रिक । ० के तीन योग हैं ( Inorganic. ) अजुगा केमी - पाइटिस ajuga champitys - ले० कमाफ़ीतूस - यु० । कुकरोंधा - हि० । अजुगा डिस्टाइका ajuga distica-ले० गोवरा | मृत्यु । For Private and Personal Use Only ? ककू, श्रजुगा बैक्टीनोसा ajuga bracteosa, Wall. ) - ले० कौड़ी बूटी भे० । नीलकण्टी-सत० | खुर-बनरी ट्रां० इं० । इसके Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६३ अज़ोमूत बाजारू नाम निम्न प्रकार हैं, यथा-जने अादम, | अजूrajāra-बर4. अतात | मुकाम बावरी, नीलकी। अजूलāajala-अबछड़ा । गोसालइ-फा० । नोट-मि. बैडेन पावेत "अजुगा रेपटन्स" अजूद aa juh-अ. खजूर भेद । यह महीना (एक यूरोपीय भेद) को वर्नाक्युलर में जने- मुनविरा में होता है । (A kind of dati). श्राम नाम से प्रतिपानित करते हैं, पर नि. अय: ajay11-तं. पु. ) अतुन वृक्ष । स्टयवर्ट ( St) wart ) सैल्विा ऐनलेटा श्रय ajiya ( l'armin. (Salvin anlati) को उ ना ! प्रदान | alia arjuna W.&. A.) वै० नित्र। करते हैं । मेमः । ई० मे० प्लां। वि० न जीते जाने योग्य | जिसे कोई जीत न सके। अजुज़ aa.juz-१० (ए० व०) अजाज़ (ब०१०) सुरीन, चुनड़-30। नितंब, अजेय घृतम् ajaya.ghritam-मुलहठी, तगर, चूतड़-हिं० । अर्वाचीन वैद्यकीय परिभापामें यह कर, देवदारु, पित्तपापड़ा, केशर, एलु प्रा, नागशब्द नितंबास्थि (अज मुलअजुन) के लिए प्रयोगमें | केशर, करल, निश्री, वायविडंग, श्वेत चंइन, लाया जाता है ।बटक्स ( Buttocks ), नेट्स तेजपत्र, प्रियंगू, रोहिपतृण, हल्दी, दारुहल्दी, (Nitis) अोर सेक्रन (Sucruin)-इं०।। छोटी करेलो, बड़ी कटे लो, शारिख, शालपों, अनुटा ajati-तं. मैं ई-ग्रामला, भम्यामल को।। वला, इनके करकों से सिद्ध घृत प्रत्येक विषों (Phyllanthus niruri.) को दूर करता है । वङ्ग से० सं० विव० चि०। अर.) ज़द āa(ii)zad-भ० भुजा, बाजु, डण्ड, अरोन azarona-( Artemisia sibarsiकुहनो और स्कंर का मध्य । श्रार्म Arm-इं०। ana,Wall.) माज़रोना । फा० इ०२ अजुमोद वोमम् ajumoda-vomam-ते. भा० । अजमोद । स० फा० इ० । Catum | अ डिरो डी' इण्डो azadirke D' Inde-में (Ptychotis ) Roxburghianum, नोम | The Neem tree | ई० मे मे०। Benth. अजैडिरैक्टा इण्डिका azadirachta Indiअजुलीनी ajulini-अज्ञात | ca, Kuss.-ले० नोम-हिं०, द०, पं०, अजू (जौ) aajuz-अ० (१) शराब, (२), बं० । रावी प्रिय, व्रण सोधकरी-सं। मीलिया लोमड़ो, (३) शेर, (४) गाय, (५) भे. अडिौक्या ( Melia azadirachta) दिया, (६) चवं, (.) विच्छू, (८) घोड़ा, -ले। दी नीम ( Tha Ny3m ), मागोसाट्री (६) कुता, (१०) उँटनो, (११) हथिनो, ( Margosa tree), इण्डियन लिलैक (१२) एक वृक्ष का नाम है, (१३) निश्क । ( Indian lilac)-ई। श्रोर ( १५ ) एक प्रकार का खाना भी है। अजैड ajaidakam-सं० की. (Goats and (११ ) पोर जाल-का० । बुद्ध हो स्त्री, बुढ़िया | __rams) बकरे और भेड़ें। ई० मे मे । स० फॅॉ०६०। अजूजा ajuja-हिं० संज्ञा पु० [देश॰] बिजू अजै पाल ajaipāla -हिं० संज्ञा पु. जमालगोटा को तरह का एक जानवर जा मुर्दा खाता है। (Croton seeds). अज़त azut-अ० यह यूनानी शब्द अजट का अरबी- अ6 ajairi-नेपा० बण्डा-प्र०, सं० सी० कृत शब्द है (जिसका अर्थ प्राण-नाशक है)। यह पी० । नाइट्रोजन का पर्याय है। नाइट्रोजन ( नत्रजन ) अजोत azomita) -गोश्रा० प्लेस्मो मम् मागोएक सूक्ष्म वायव्य है जो वायु में ७७ प्रतिशत उजोमेन uzome ta) र्टिफ़ॉर्म (Plos momuपाश्री जाता है। नाइट्रोजन Nitrogen- ई०। m Margortiform, Schott.), एरम अजूम āajum-अ. ऊँट का बच्चा । ___ मार्गो र्टिफॉर्म ( Arum Margortiform, For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजोवान १६५ प्रजभः . Rob.) मा. ई०। ई० मे. मे०। ( डाइ- तर तानो । अधोगा महाशित, निम्न महाशिरा । मॉक) प्राचीन छेदन मात्र की परिभाषा में उपरोविखित ___ मदनमस्त या सूरण वर्ग शिरा का वह भाग जो यकृत से निम्नावयवों (V.0. Artidese or Aruceue) को ओर जाका शाखाओं में विभाजित होता है। उत्पत्तिस्थान-बंगाल (राज.), सिरामपूर इन्फोरिअर वेना केवा (Inferior vena (बेन्थ०), अस्नोरा “गोमा देस्य" (डॉइ०), ___Civil :-ई । हिन्दुस्तान । ajo.ifa-fo.gani-अ० देखोउपयोग-गोवा में देशो लोग इसके बीज को __ अजौफ़ स.इ.द ( Superior vena कुचल का दंतरोग में वतने हैं। थोड़ी मात्रा में cava. ). इसे ही में रख का खोखले दाँतों में भर देते हैं। अजीक लाइ: ajo.ifa-sāail अजोक को कानी, इससे नः यःय होन तक ल श न होजाता है। अनौफ़ अना और अजीम तालअ-अ। इसो अमादक गुण के कारण चाट लगने प्रथा ऊ(-ग.)महाशा -है । प्राचीन छे इन शान कुचन जाने प्रनति में इसकः बाघ अयोग होता को परिमाया में उपरोल्लिखित शिरा का वह है। ( डाइमाक) भाग जो यकस सेऊर हृदय को और तथा नोट-देखो-सूरन अर्थात् एल सितोटिकम् उससे आर जाकर असंख्य शाखा में विभाजित ( Attim sylvaticum,Birb. ) या होता है। सुरिश्रर वेना केवा ( Supal. . सिनैन्धेरिअस सित्तैटिका ( Synanther- | rior- vena cava) इं। ias sylvatica, Schol. ). टिप्पणी-प्राचीन हकीमलोग यूँ कि शिराओं अजोवान ajowan-बम्ब० अजवाइन । Car का उद्गम यका से मानते थे । अस्तु, वे शिरा um (ptychotis) Ajowan, D. C. | के उस भाग को जो यकृत के उन्नतोदर भाग से अजोवान अॅइल ajowan oil निकल कर व उदरमध्यस्थ पेशी को छेदन कर अजोवान आलियम ajowan oleum-ले ऊपर हृदय की ओर जाता है ऊचंगामहाशिरा यानी तेल । देखो-अजवाइन । अर्थात् "अजौफ़ साइद या अजौफ़ फौकानी" श्रजौफ़ ajoifa-अ०(बहु० व०), जौफ़ (ए०. कहते हैं। इसके प्रतिकूल शिरा के उस भाग व) ) शाब्दिक अर्थ जौकदार या खोर जी को जो यकृत् से निम्नभाग की ओर उदर में वस्तु; किन्तु छेदन सास्त्र को परिभाषा में उस बड़ी पृष्ठकशेरुका के समान्तर पे तक जाता है नलीदार शिरा को करते हैं जो यकृत के उन्नतोदर अधोग.महाशिरा अर्थात् “अजौफ़ नाज़िल या भाग से निकलकर अजौफ़ साइद वा नाज़िल अजौफ़ तह तानी" कहते है। परन्तु अर्वाचीन दो भागों में विभाजित होती है । महाशिप योरोपीय डाक्टरगण चूँ कि शरीरस्थ समस्त -हिं । ( Vena cava) शिरात्रों का अन्त हृदय के दाहिने ग्राहक कोड नोट-पाहब कुस्तासुलइ तिब्बा अजौफ़ को में मानते हैं । अतः उनके वर्णनानुसार उपयुक्र उदर तथा योनि के लिए भी प्रयोग में लाते हैं दोनों शिराओं, यथा-"अजौफ़ साइद और अजीफ़ ला ajoufa-aala अ. देखो अनोक नाज़िल" का समावे। निम्नमहाशिरा अजीफ़ स इद। ( Superior vena (Inferior vena cava) ही में होता cava). है। शिरा सम्बन्धी अर्वाचीन डाक्टरी मत तथा अजीफ़ तह तानो ajoufa-tahtāni-अ० प्राचीन वैद्यक मत के लिए देखिए "शिरा' । देखो-अजौफ़ नाज़िल ( Inferior vena| अजंभ ajambha-सं० त्रि०,ह.वि. (Poo. cava). thless ) दंतहीन । अजौफ़ नाज़िल ajoifa-nāzil-अ. अजौफ़ | अजंभ: ajambhah-सं० पु. ( A frog) For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजः अदिलाम - मण्डूक, मेंढक । (२) The sun सूर्य । दवाखानह -उ० । औषधालय-हिं । डिस्पेन्सरी (३) Toothless state (of a Dispansary-इ०। child ) वह बालक जिसके अभी दाँत न अज़ाजा ajzaji-अ० अज्ज़ाई, सदली। दयासाज़, निकले हों। अत्तार-उ० । औषध-निर्माता, औषध-विक्रेता अज:ajah-सं० पु. (१)छाग, बकरा (A -हि । अपाथेकरी Apothecary, केमिस्ट he-goat)। भा० पू० । (२) स्वर्णमाक्षिक Chemist, sfire Druggist-o! ( Ferri sulphurretum) सोनामक्खी। अजित्फुल्यगन्दीazziftul-barghandi-अ. हे० च०। (३) उक्र नाम को ओषधि विशेष, । वगुण्डो पिच ( Buugundipitch ) अजशृङ्गी ( Asclepias geminata, -:01 Road.) च० चि०१० । अम्जाए-सगोह a.jza-3-sighirah-० अव. अजाफ़ azaafa-अ. (१) (Double) यवों के सूबमातिसूक्ष्म अंश,अतु-हिं० । मॉली दूना करना, देश । (२)( Weaken) क्युलज़ (Molecules )-ई। निर्बल करना, अशक्र करना। अज्जमा ajzemi-० अग्जेमा से अरबीअज़गास. श्रह लाम azghāsa-ahlāma-अ० कृत शब्द है । नार फारली, आतशक, जल नदार वैकल्य कारक स्पन्न | असत्य वा मिथ्या स्वप्न। फुन्सिया--उ० । एक्ज़ेजा (Eczema).. कन्फ्युजिश ड्रीम ( Confusing dream) श्राबकुल का लियाई azzaibaqul-qim-ई० । üliyai-अधूनर चूर्ण, खाकी सान। ग्रे अझ aazza-अ० दंशन,ाँतसे काटमा । अज ज, पाउडर (Grey powder )-10। रजज, कदम, नक, कस्व. लस्म, मह श और नक्ज अज्झटाः ajjhatāh-संत्रो०(Phyllanthप्रभति के अर्थ भेद विवरण प्रत्येक पशु के काटने ns niruri, Linn.) मुँई प्रामला, भूम्याको अज ज और प्रत्येक विषधर जीवों के काटने मलको, पाम्बरा । भा० पू०१ भा० गु० प० । अज्मलं ajjhalam-सं०क्लो. १-(A shield) को रज और कम, पक्षियों के काटने को नक्र, वृश्चिक के डक मारने को कस्त्र और सर्पदंशन को ढाल | २ (A live coal) हड्डी का कोयला। लस्त्र, नह श और नक्त कहते हैं। अझ नः ajjhalah-सं० प. कोकिल, कोईल अज्जम ajzama-०(ब० ब०), जज़म (ए० -हिं० । The black or Indian व०) जुज़ामी, कोढ़ी-उ०। कुष्ठ रोगी, कुष्ी, cuckoo (Cuculus). मिसकी अंगुलियों के पोर्वे झड़ गए हों। लेप्रस अज{ aazda-१० (An arm ) भुजा, बाहु। (Leprous)-ई० । सहायक, सहायता करना (llelpar). अजजम ajzama-० अदभू । नक्टा, प्रज्वaidaa अ० नक्टा, बूचा, वह व्यकि जिसकी नासिका कटी हो । नोजक्रिप्ट (Nose जिसकी नासिका कटी हुई हो । नोज़क्लिष्ट clipt)-ई। ( Nose clipt) gol अजज़ा ajza-अ० (ब० व०), जुज़ (ए० व०) अजदरान azdarāna-१० शंखस्थल पर दो रगें ह.स्सस,हि स.स, टुकड़े-उ०। भाग, अंश. टुकड़ा हैं जो कर्ण और वाह्य चतुकोणके मध्य स्थित है। -हि० । पार्ट स ( Parts)-ई । (२) अद्- अज्दार ajdara-अ० (ब० व०), जद(५० ३०) वियह् । औषधियाँ । ड.गज़( Drugs)-३० । दाग, धब्बे, चियू । स्कार्ज़ (Scars) अज्ज़ा अवलिय्यह ajzaa-avvaliyyah | -अ० अर्कान । नत्व-हिं० । (Elements) अदिलाम azdilama-० नासिका को मूलसे अज्ज़ाइयह. a.jzaiyah-अ० अज्जाखानह, । काट डालना । For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदिवाजिल्नज़ शज म अदिवाजिल्नब्ज़ azdivajil nabza-अ. नब्ज ___ होता है, यथा-मुश्क श्रार अर्थात् उग्र सुगंधिनितरकी । नाड़ीमें एक ही बार दो गतियों (धमक, युक कस्तूरी और यदि बुरे और दुर्गन्धि युक थपक) की प्रतीति होनी । डाइक्रोटिज़म ( Dic- वस्तु से हो तो उससे अभिप्राय तीव्र दुर्गन्धि lotism )-ई। होती है। अदिवाजिल्बस्न azdivajil-basna. - अ. एक अफान ajfana (०व०), जन (ए०व०) वस्तु का दो दिखाई देमा । डिप्लोपिया ( Dip. -अ० पपोटे, पलक। आई लिड्ज़ (Eya lopia)-ई । lids)-ई। अजदियाजिल हब azdivajil-hadaba- श्रज फार azfara-अ० (ब० व०), ज़ फ़र अ० पलक के रोमों का दोहरा अर्थात् दो पंक्रियों (ए. व. ) नख चाहे मनुष्य का हो या में होना । नेत्र में रोमाधिक्य । परबाल) का पशु कः । नेल्ज़ (,Nails )-इं०। होजाना । अब aajba-अ० हृदयतुलवर्क । कुकुन्दर पिराड, अज्न aajna-अ० संधातिन करना, खमीर करना, नितंबास्थि का वह भाग जो बैठने में पृथ्वी पर सौंदना, सानना, गूंधना-हि. । निर्बलेता के लगता है। इस्कियल टयुबरॉसिटी ( Ischial कारण पृथ्वी पर हाथ टेक कर उना । फर्नेस्ट । tuberosity )-ई०। ( Ferment ), लीवेन ( Leaven) अज़ बन azbata-अ० खेबड़ा, बाँया हाथ, वाम -ई । (बाएँ ) हस्त से खाने पीने और काम काज अज्नास ajnasa-अ०(ब० व०), जिन्स (ए. करने वाला। व०) जाति-हि। Genuses । देखो- अजबह aazbah-१० (ए० व०) अज़ब जिन्स। (ब०व०), अज़ बात । जिह्वाग्र, जिह्वा की नोक अग्निहह ajnihah-अ० (ब० व०), जनाह वा तीव्रता। (ए०व०) शाब्दिक अर्थ पंख,पक्ष,पक्षियोंके पंख। अबतह. aazbutah-अ० स मादा, मूस छेदन शास्त्र की परिभाषा में पृष्ठ के मुहरों के (A she rat). उस उभार या प्रबर्द्धन को कहते हैं जो उनके प्रयाazbada-श्र० झाग निकालना । दोनों बग़लों पर स्थित होते हैं और जिन पर श्रम ajma-अ० एक ही प्रकार का भोजन करते पशुकानों के शिर जुड़ते हैं । पाश्चात्यकूट, करते उकता जाना | इतना अधिक भोजन करना पश्चिम प्रबर्द्धन-। लेटरल प्रोसेस ( Lat- कि करीब अजीर्ण के हो । सनक और अज्म के eral process )-ई० । भेद को "सनक" में देखें। अज्निह ह .सगीरह ajnihah-saghirah- अज़ा azma-अ० निराहार रहना, उपवास करना अ० अनिह ह, कबीरह, वतदी,अस्तीनी । जतू. -हिं० । फास्ट ( Fast)-इं० । कास्थि, तितली स्वरूपास्थि-हिं० । स्फीनॉइड अजम aazma-० (ए० व०), इजाम् (ब० ( Sphenoid )-इ। व०)। उस्तखाँ-फा० । अस्थि, हड्डी-हि० । अक azfa-अ० व्रण पूरित होना, घाव भर बोन Bone, प्रॉसिस osis (ए० व०), जाना, क्षत का अंगूर ले अाना । ग्रेन्युलेशन Bones बोन्ज, प्रॉसा ossa (ब० व.) (Granulation)-ई'। -ई । अज़फ़र azfara-अ० साधारणतः उग्रगंध चाहे बुरी ___ नोट-यह मूल धातुओं अर्थात् अवयवों में हो या अच्छी । विशेषण या संबन्ध द्वारा इसमें | से एक कोर व श्वेत अवयव है जो अपनी कठो. भेद किया जाता है अर्थात् इस शब्द का सम्बन्ध रता के कारण दोहरी नहीं हो सकती। यूनानी यदि किसी अच्छे या सुगन्धित द्रव्य से हो तो | वैद्यक के अनुसार यह वीर्य से उत्पन्न इससे कोई उग्र सुगन्धित द्रव्य अभिप्रेत । होती और शरीरका अाधार बनती है । For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज म अरीज १६७ जम मुबखरी (आयुर्वेद में अस्थि की उत्पत्ति मेद धातु से अज़म कासिमुल अन्फ़ aazma-qasimulमाना है नकि वीर्य से ) विस्तार हेतु देखिए- anfa-अ० उस्तखाँ परदहे-बीनी-फा० । नासा. इज़ाम। । फलकास्थि-हिं० । वोमर ( Vomer' ), अज़म अरोज़ aazma-aariza-अ० । चौड़ी स योमर ( os vomer) इं०।। अस्थि, कुकुन्दरास्थि, नितंबास्थि, निकास्थि, चूतड़ अज़ म कुर्सना aazma-kursani-अलवली को हड्डी। सैक्रम (Sacruin )-ई। -१० । वत्तु लक, मटराकार, गोलाकार-हिं० । देखो-त्रिकास्थि । पिसीफॉर्म ( Pisiform)-इं। अज़ म अस्फो aazma-asfanji-अ० अज म अज़म खञ्जरी aazma-khanjari-१० वतदी (स्क्रोनाइड) का वह पतला परत जससे ग़ज़रूफ़ ख़ञ्जरी, ग़जरूफ सैफी उस्तखाँ, खारी प्रारम्भावस्था में इसके दोनों रन्ध्र बन्द रहते हैं। -फा० । खारनुमा हड्डी-उ०वकास्थि, दात्रझझरास्थि चूड़ा। एथ्मॉइडल क्रेस्ट ( Eth- वत्, फणधर-हिं० । प्रन्सिफॉर्म(Unciform), moidal crest)-ई । हैमेट बोन ( Hamate bone)-इं०। । अज म अस्फो अला -aazima-asfanji- अज़ मनी aazma-nardi-अ० अनर्दी । नर्द. aala-अ० ऊध्वशुक्तिका, उर्वसीपाकृति । नुमा हड्डी-उ०। घनास्थि-हिं० । क्युबाइड सुपीरिअर कोञ्चा ( Supeior concha ), (Cuboid )-ई० । सुपीरिअर टबिनेटेड बोन (Superior Tur- अज़ म मशाशी aazma-mashashi-अ०. binated bone)-ई । अज़ म अस्ती । झझरास्थि चूणा हिं० । अज़ म अस्फञ्जो अत्फल aazma-asfan ji- - एथाइडल क्रेस्ट ( Ethmoidal crest) asfal-अ. अज़ म मशाशी अस्फल, अज़ मु. -ई। देखो-हजाम मशाशियह तथा अजम स्सद्ह अज़म-मुल्तवी । उस्तखाँ सदफ़्री, सीप- अस्त जी अस्फल इत्यादि । नुमा हड्डी फ़ा० । अधः सीपाकृति, अधः अज़म मइयनी aazma-muaiyni अल्मुरब्बशुक्तिका-हिं० । इन्फ्रीरिअर कोञ्चा ( Inferi अउल मुन्हरित-अ० । विषमकोण चतुर्भुजास्थि or concha ), इन्फीरियर दर्बिनेटेड बोन -हिं । यह उक्र स्वरूप की अस्थि पहुँचे की , ( Inferior Turbinated bone ) संधि की दूसरी पंक्ति की अस्थि और संधि की -इं०। वाह्य पोर स्थित है। ट्रेपीज़ियम् ( Trapeअजम अस्फ़जी मुत्यस्सित-aazma-asfa zium)-इं० । nji mutvassit-१० मध्य सीपाकृति, अज़ म मुकद्दम रास aazma-muqaddamमध्यशुक्तिका-हिं० । मिडिल कोञ्चा, middle las-अ० ललाटास्थि-हिं० । फ्रॉण्टल बोन - concha ), मिडिल टर्मिनेटेड बोन (Midd (Frontal bane )-इं० । देखो-अज़ मुल __le Turbinated bone)-इं०। जव्हह। अजमकमह..दुवह azma-qamah-duvah अज.म मुवख्खर रारू-aazma-muvakhkh. १० (Occipital bone ) अल्मुवहिवरी, al-lasa-अ० पश्चात् कपालम् पश्चात् अजममुवख्खर रास। उस्तखाने कता--फ. । कपालास्थि, गुद्दी की हड्डी-हिं० । अक्सिीपीटल गुद्दी की हड्डी, शिर की पिछली हड्डी, पश्चात् बोन (Occipital bone)-इं० । देखोकपालास्थि-हिं० । ... अज़म कमह दुवह ।। अज म काइदतुद्दिमाग़ aazma-qaaidatu-. अज़म मुबरूखरी aazma-muvak hkhari ddimagh-१० मस्तिष्क तलास्थि, जतूकास्थि -अ० पश्चात् कपालास्थि, गुद्दी : की हड्डी -हिं० । देखो-अज़ म वतदो । (Sphenoid -हिं०। प्राक्सीपीटल बोन (Occipital bone )। bone )-ई० । देखो. अज म कमह दुवह । For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंज़ म रिकाबी अज़.मुरुभन्फ अज म रिकाबी aazma-rikābi-१० परिकाव ।। ... बोला जाता है जहाँ एक समान दो अस्थियाँ पाई रकावास्थि-हिं । सेक्स (Stapes )-ई. जाती हैं। उदाहरणार्थ-अज माउल्अन् अर्थात् अज़म ला-इस्म लह aazma-laism-lah नासिका की दो अस्थियों और माउल्हनक अ० उस्तखॉ बेनाम । बेनाम, हड्डी-फा० । अर्थात् तालू की दो अस्थियाँ इत्यादि। अ (-बे-) नामास्थि-हि. । अजमिदह, azmidah-अ० (ब०व०), जमाद श्रॉस इन्नोमिनेटम् ( Os innominat- (१०व०) लेप, अनुलेप-हिं० । पेस्ट Pasum)-इं०। te-ई । नं.ट-क अस्थि में यह तीन भाग होते हैं - अज़ मुजारी aazmuzzouragi--१० अर्थात् (5) जर सार २४, (२) अज़मुल. अज जौरकी। नौकाकृति-हिं०। स्केफाइड चरिक, (३) ज.मुल कामह जि.नको यथा- (Sca phoid )--इ । स्थान देखिए। अज मुज़ीज azinuzzouja-अज़ मुस सु.द्ग़-१० अजमलमीaarma-immit० ज मुरलसान। उस्तखाँ बिनागोश-फा०। शंखास्थि-हिं । टेम्पोरल उसरहाने गुदान फा० । जुबान की हड्डी, यह | बोन ( Temporal bcne)-इं० । देखो. हड्डी युनानी अक्षर लामकी सी होती है और कंडान अज़ मुससु.द्ग। जिह्वामूल में स्थित है। कण्टिक स्थि-हिं० । अज म त्तक वह-aazmuttarquvah-अत्तप्रास हाइड (Os hyoid )-इं०। कुर्वह-अ० उस्तखाँ चम्बरहे गर्दन- फा० । अजमतदीaazma-vatadi-० अज.मुल अक्षकास्थि, हैंसली की हड्डी। यह संख्यामें दो वतद । उस्तखाने क्र.इदतुदिमाग़-फा०। करोटि होती हैं जो वक्ष के ऊपर प्रीवामूल में स्थित हैं। तलास्थि । जतूकारिथ-हिं० । रफीनाइड विकल (Clavicle)-ई। बोन (Spber oid bone)-ई० । | अज़ मुद्दम् aazmuddama-० अज मु. अज़म शबियह बिल्मइय्नीaazma-shabiyha; लमान, अजम ज़ फ्री । उस्तखाँ गोशहे-चश्म, bilmaaiyni-अ० अलशबियह बिल मुन्ह रिफ़। उस्तखाने मरश्क-फ़ा० । अवस्थि, आँसू की ट्रैपीजाइड (Trapezoid)-५०। हड्डी, जो अन्तरीय चक्षुकोण में नख के बराबर अज़ मसिन्दानी aazma-sindani-१० अस्सि होती है। लैक्रिमल (Lacrimal )-इं०। दान । नेहाई, कर्णान्तरस्थ शूमिकास्थि-हिं० । अजमरज फह, aazmurrazfah ०जमुरु इङ्कस ( Incus) ई०। ___ कबह । उस्तखाने जानू-फ्रा० । पाली, जान्वस्थि अज्मह ajmah-१० नैज़ार, नेस्ताँ-फा० । दल- -हिं० । पैटला ( Patella) ई०। दल, फँसाव-हिं० । मार्श (Marsh)-इ. अज़.मुल अकूब aaz mul-aaqba-अलअन्न य-०। अजमा aazma-० मापभेद। यह सात श्रौनि. उस्तखाने पाश्नह-फ० । पारयस्थि, पाणि, यह या उनतीस तोला ८ मा० २ रत्ती २६ तो० एड़ी, कूर्च-हिं । कैलकेनियम ( Calca८ मा० २ र०) के बराबर होता है । A meas- meum), श्रास कैहिरूस (Os calcis), urement equal to 29 tolas,8ma हील ( Heel)- ई० । shas & 2ratis. अज़ मुल अजुज़ aazmul aajuz-० अज मुल अज्मा aajmaa-अ० बहीमह, चौपायह-उ०।। अज्ब, अज मुल् अरीज, अल अजुज | उस्तखाने वह ली जो शुद्ध बात न कर सके, गूंगी या | सुरीन फा० । त्रिकास्थि-हिं० । सैक्रम हकली स्त्री-हि। (Sacrum )-इं०।। अजमान aazmāna-अ० (अज़ म का द्विवचन) अज़ मलअन्फ़ aazmul-arfa-अ० उस्तखाने दो अस्थियाँ, किसी स्थानकी दो अस्थियाँ । श्वच्छेद- बीनी-फा० । मासास्थि-हिं० । नेज़ल बोन शास्त्र की परिभाषा में यह शब्द ऐसे स्थान पर | (Nasal bone) -ई०। For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्ज मुल अर्जद अज़ मुल हजबह अज मल अज़द aazmu]-aazuda-अ० अज़ मुल फ़ाइक़ aazmul-faiqa-१० देखो उस्तरवाने बाज़ फा० । प्रगण्डास्थि,बाहु-हिं० । ___ अज़म लामी । कंठिकास्थि-हि01 (0sआर्म ( Arm ), ह्युमरम्म ( Humerus) _hyoid.) | अज़ मुल मशाशियुल अस्फन āazinul-maअजमल श्रानह. aazmul-aanah-अ० shashiyul-asfal-अ० अल करीनुल अभगास्थि, पेड़ की हड्डी-हिं० । श्रास 'युबिस स्फल,अज म अस्फ़जी अस्कल । सीपीनुमा हड्डी (Os pubis )-इं। -उ० | अधः शुक्तिका, अधः सीपाकृति-हि० । अज़ मुल उस उस aazmulausāus-अ० इन्फ्रीरिअर टर्बिनेटेड बोन ( Inferior अल् उस उस । उस्तखाने दुम-फो। दुम्ची की | Turbinated bone )-ई. हड्डी-30 | गुदाम्थि, पुच्छास्थि, चञ्चवस्थि अज़ मुल माक aazmul-maqa-अ० उस्तत्वाने -हिं० । कॉक्सिक्स. (Coccyx )-इं०। गोशहे चश्म -फा० । देखो-अज मुहम्म। अज मुलक अब aazmul-kaaba-अ० अलनु अवस्थि-हिं. ! (Lacrimal.) अ.ई । उस्तखाने बुजूल-फा० । टखनेकी हड्डी अज़ मुल मि.त्रको aazmul-mitraqi-१० -हिं० । अस्ट्रागेलस (astragalus)-इं० । । अमित रकह । मुद्रास्थि-हिं० । मालिस अज मुल कति] aazmul-katif-अ० अल्लौह । | (Malleus)-इं० । उस्तखाने शानह -फ० । स्कंधास्थि, अंसफलक-हिं० । स्केपुला (Scapula)-इं०। अज़. मुल मिस फात āazimul-misfata-३० अज मुल कमह. दुवह aazmul-qamah ___ अज़म मशाशी । छलनीनुमा हड्डी-उ० । duvvuh-अलमुवनखरी, अज म मुवखवर रास ___ झझरास्थि, बहुछिद्रास्थि-हिं० । इमॉइड बोन -श्र० । उस्तख़ाने क्रफा-फा० । पश्चात् कपा (Ethmoid bone )-ई० । लास्थि, पश्चात् कगलम्-हिं० । ऑक्सीपीटल | अज़ मुल याफ़ख aazmul-yaf ukha-अ० बोन (Occipita] bone)-इं०। ताल्वस्थि, पाश्चिकास्थि-हिं० । देखोअज मुल कस स aazmul-qassa-अ० उस्तखाने । अज मुल किह.फ । (Parietal bone.) सीनह.-फा० । वक्षोऽस्थि, उरोऽस्थि, उरः | अज़ मुलवजनह aazmul-vajnah-१० फल कम्-हिं० । स्टनम ( Sternum )-इं० । | उस्तखाने रुहसार-फा० । कपोलास्थि-हिं० । अज़ मुल किह फ़ aazmul-qihfa-१० ( Cheek bone). अज मुल्याफोन, अल्जिदारी । उस्तख़ाने अज मुल वतीरह aazmul-vatirah-१० कासहे सर-फा० । पाश्चिकास्थि,पाश्विक कपा अज म क़ासिमुल् अन्फ, अलमेकमह । नासालम्-हिं०। पेराइटल बोन ( Parietal-bo फलकास्थि, नासावंश-हिं०। प्रॉस वमर ne )-इं०। (Os vomer' ', वूमर ( Vomer) अज़ मुल जन्य aazmul-janba-अ० शंखा स्थि-हिं० । देखो-अज़ मु.सु.द्ग। (Yem. poral bone ). अज मुल वरिक aazmul varika-१० उस्तअज़ मुल जब्हह aazmul-ja.bhah-अ० खाने निशिस्तगाह-फा० । कुकुन्दरास्थि अल्जव्ही,अज़म मुकद्दम रास | उस्तखाने पेशानी -हिं० अॉस इस्कियम (Os ischium), -फा० । ललाटास्थि-० । फ्रॉण्टल बोन इस्किप्रल बोन ( Ischial bono)-इं०। (Frontal bone )-इं। अज मुल हजबह aazmul-haja bah-१० अज़ मुल् फ़खिज़ aazmul-fakhiz-अ० सर उस्तखाने निशिस्तगाह-फा० । कुकुन्दर अल्फखज़ । उस्तखाने रान-फा० । उर्वस्थि पिण्ड-हिं० । इस्किअल ट्युबरॉसिटी ( Isc. -हिं० । नीमर ( Femur)-इं० । hial tuberosity)-ई। २२ . For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़ मुल हनी अज रास सु..लासि यह अज़ मुल ही aazmul-hajri-अ० उस्तखाने देखो-अज़ मुश्शसी । वक्रास्थि--हिं० । (Unc सङ्गी-फा० । अश्मास्थि, अश्मकट-हिं०। । iform). पेट्रोसल बोन ( Petrosal bone ), पेटूस अज़ मुस स ग aazmussudgha-१० प्रोसेस ( Petrous process )-ई०। । अससुद्गी, अज़ मुरुजन्ब | उस्तखाने-बिना-गोश अज़ मुल हनक aazmul-hanaka-अ. -फा०। शंखास्थि-हिं०। ( Temporal उस्तखाने काम-फा० । ताल्वस्थि-हि० । bone) पैलेट बोन( Palate bone )-इं० । श्रज मे कबीर aazme-kabit--१० पहुँचे अज़ मुल हर्कफ़ह aazmul-harqafah-१० (कलाई),की बड़ी हड्डी। अज मुल खासिरह । उस्तखाने तिह्यगाह-फा० ।। श्रीस मैग्नम (Os magnum )--इं०। जघनास्थि, नितम्बास्थि-हिं० । ईलिश्रम् ' अज़ य azya-१० अजय्यत । दुःख, क्लेश-हिं० । ( Ilium ), ईलिक दोन (Iliac इअरी ( Injury )-ई०।। bone ), अास काक्सी (Os coxa)-ई० अजक azraqa-श्० जुक्रम, ज़रका (स्त्री०)। बिअज़ मुश्शसी aazmushshasi-१० अल्क- लाव जैसी चतुओं वाली-हिं० । गुबह चश्म-फ़ा० । लाबी, असि सनारी । फणधर, वक्रास्थि, दात्र- अजद a.jrada-अ० जिसके सिर पर बाल न हों, वत् हिं० । अन्सिफ़ॉर्म ( Unciform ), गजा, चन्दला, खालित्थी-हिं० । बैल्ड (Bald) हैमेटबोन ( Hamate bone )-इं० । अज़ मुस सफ़ह, aazmussadfah.अ.अधः | अजब ajraba-१० जर्ब अर्थात् तर खाज ( कण्ड) शुक्तिका-हि०। देखो-अज़म अस्फजी अस्कल _का रोगी । स्केबी ( Sea by )-ई। ( Inferior turbinated bone.). अजम aa.jrama-अ. बीख ज़कर-फा०1 शिश्नश्रज मुम्सफोनी aazmussafini-० अल्ह मूल-हिं० । रूट अफ दी पेनिस ( Root of रमी । कलाई की नौकाकृति अस्थि । क्युनि- the Penis)-इं० । श्राई फ़ॉर्म (Cuneifolm )-ई। अजा āazia-अ० बिक्र,दोशीज़ह , कुंवारी लड़कीअज़ मुस्सफ़ोनियुलइन्सी aazmussafiniyl- --उ० । कुमारी, कुंवारी, अक्षतयोनि, अविवाहितो i-insi-ऋ. अल्प्रस्सनीनियुल्अव्वल । अन्तः __-हिं० । वर्जिन ( Virgin),मेडन (Maidत्रिपाश्विक-हिं०। en )-इं। इण्टर्नल क्युनिअाईफ़ार्म ( Internal अज़ार लहा. मिय्यह arāra-lahmiyyahcuneiform)-mo! अ० जख्मके अङ्गुर--उ० । ग्रेन्युलेशन (Granश्रज मुस्सफ़ोनिय्युल्वस्ती aazmussafiniy- ulation)-इं० । लाङ्कुर ।। yul-vasti-अल्अस्फीनियुल सानी-१० । मध्य- अजास azrasa-अ० (ब० व०), जिर्स (ए. त्रिपाश्चिक-हिं० । भिड्ल क्युनियाईफ़ार्म व०) हन्वस्थि-हिं । मोलज़ (Molars) ( Middle cuneiform )-01 --इं०। अज मुस्तफ़ीनियुत्वह शो aazmussafini- अजास खुमासियह azrasa-khumais yyul-vahshi-अ० अल्पस फ़ीनियुल सा- ___iyah-अ० पञ्च उभार युक्र सिरे की दाढ़ें। ल स । बहिः त्रिपाश्चिक-हिं०। अजास रुबाइयह. azrasa-tubaaiyahएक्सटर्नल क्युनिआईफ़ार्म ( External | अ० चार उभार युक्र सिरे की दाढ़ें। cumeiform)-इ० ।। अज गस स नाइयह aziasa-sunaiyah अज़ मुस्स बक़ aazmussa baqa-१० अरन, -अ० द्वि उभार युक्र सिरे की दाढ़ें। पर जो घोड़े व गदहे के खुरों से ऊपर होते हैं। | अज रास सु..लासि यह, azrasa- sulasiअज़ मुसि.सनारो ā azmussinari--अ० yah-१० तीन उभार युक्र सिरे की दा For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज रासुल हुल्म अभिओमरम् अर्थात् वे जिनके वाह्य सिरे पर जरा जरा सी लियाँ, आज़ाद पसलियाँ-उ० । फाल्स रिब्ज तीन उभारें होती हैं। ( False Ribs), फ्लोटिङ्ग रिब्ज ( Floaअज रासुलहुल्म arāsulhulma-१० ting Ribs ), bestfra PO: (Abdo. अक्कल दन्त,बुद्धि, दन्त-हि। अक्कल दाढ़ें अर्थात् minal Ribs) और वर्टियोकॉण्डल रिब्ज अंतिम की चार दाढ़ें जो युवावस्था (बालिग़ा (Vertebrochondral Ribs)-ई। वस्था ) पश्चात से पचीस वर्ष तक के काल अज़लात aazlat-अ० (ब०व०), अजलह. में निकलती हैं। (ए.व०) देखो-अजलह । अज्ल ajla-अ० (ए. व०), श्राजाल (ब० अज्वाफ़ ajvaf-अ० (ब० व०), जौफ़ व०) मुहत, उम्र, मौत-उ०। काल, श्रवस्था, (ए०व०) गढ़े, पोल-उ० | नालियाँ, कोष्ठ मृत्यु-हिं० । डेथ ( Death ), मॉर्टिफिकेशन -हिं । बेलीज़ ( Bellies)-ई । (Mortification) ई०। अवाज azvaj-० (ब० व.), जौज (एक अज्ल अवल ajla-atvala-अ० लम्बी मौत, व०) जोड़े, नाड़ियोंके जोड़े,युगल, युग्म-हिं० । वह मत्यु जो सब से बड़ी अवस्था अर्थात् . १२० अज्सम ajsam-० जसीम, बदीन, समीन, वर्ष की अवस्था में पाए। मोटा, चाक-उ० | स्थूल, मेदावी, वृंहित-हिं । अज्ल अार्जी ajla-aarzi-अ० अज्ल इतरामी । कापु लेण्ट ( Corpulent)-ई। अस्वाभाविक मृत्यु, अप्राकृतिक मृत्यु, अचानक असाद ajsad-१० (ब० व०), जस्द या मृत्यु--हिं० । सडन डेथ (Sudden death) जसद (ए० व०) १-बदन-उ० | शरीर, --इं०। वस्तु-हिं० । बाडीज़ (Bodies)-इं० । २ धातु (Metals) अज्ल इख़्तरामी ajla-ikhtarāmi--अ० देखोअजल अार्जी । अचानक मृत्यु, पाकस्मिक असाम तुवामिय्यह प्रबंह, ajsam-tuvāमृत्यु-हि । ( Sudden death) miyyah-arbaaah)-१० असाम अब अज्लज ajlaj--१० जिसके शिर के दोनों बग़ल के अह । चार जुड़े हुए छोटे छोटे उभार जो वृहत् मस्तिष्क में पाए जाते हैं। कॉर्पोरा क्वाडिजेमिना रोम गिर गए हों। (Corpora Quadrigemina.)-ई०। अज्ल तबोई. ajla-tabiai--अ० तबई. मौत, असाम दसिमह ajsama dasimah--अ० बुढ़ापे की मौत-उ० । प्राकृतिक या स्वाभाविक | ___ वसा वा तैलीय पदार्थ, यथा-तैल, वसा (चर्बी) मृत्यु अर्थात् वृद्धावस्था के कारण होने वाली वा मल्हम प्रभृति । फैट्स ( Fats ), प्रॉइली मृत्यु । नेचरल डेथ ( Natural death) सब्सटैन्सेज़ ( Oily substances)-ई। असाम मुजल्लअह. ajsāma-muzallaaअजलाअ azlāā-अ० (ब० व०), जिला ah-- श्रज्साम मुखत्त तह. । रेखांकित प्रव. (ए० व०) पसलियाँ-उ० । पशुकाएँ-हिं० । ईन. धारीदार उभार--हिं० । कार्पस स्ट्राइटम रिब्ज़ ( Ribs )-इं०। (Corpus striatum )--TOI अजलाअ हकीकिय्यह् azlaa haqiqiyyah अन्साम शअरिय्यह. ajsama-shaariyyah -अ० अजला खालसह, अज़ला सादिक, अलोमश या रोमयुक्र सेलें । सिलिएटेड सेल्ज़ अजलाउ.स.सद्र, अजला मकफ़लह । सञ्ची ( Ciliated cells)--इं० । पसलियाँ-हिं० । रिब्ज़ा ( True ribs), अज़हान azhāna--अ० (ब० व०), ज़िहन स्टर्नल रिब्ज़ (Sternal Ribs )-इं०। (ए०व०) बुद्धि, समझ, स्मरणशक्ति । अजलाउल खुल्फ azlaaul-khulf -- अ० अभिजो ajhinji-ता० अजलाउज़ोर, अजला काज़िब। झूठी पस- अभिजोमरम् ajhinji-maram-ता० ) For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्चकम् ढेरा, श्रङ्कोल ( Alangium Deapetalum, Lam.) हैं० ह० गा० । १७२ अश्ञ्चकम् anchakam - सं० क्लो० नेत्र, चक्षु, आँख । ऐन- अ० । चश्म - फा० । श्रई (Eye) - इं० । रा० नि० व० १८ । अञ्चञ्चक anchanchak- श्रञ्जकक | Pyrus communis ( seeds of - ) फा० इं० १ भा० । अश्चित anchita हिं० वि० ( Bent; curved ) झुका हुआ, तिछ, देहा । श्रञ्चसा anchusá-यु०, रू० श्रज्जुसा । दम्मुल्खूनखराबा, विजयसार निर्यास । फा इ० २ भा० । श्रञ्च, anchü--नैपा०, हिमा०, प्रसिद्ध । कलहेर, कल हिसरा ( - ) -- गढ़० हिं० । फ्यु फ्लावर्ड रैस्पबेरी (Few flowered raspberry) --इ० । रत्रुबस पासीफ्लोरस ( Rubus pauciflorus ), र० वैलिकियाई ( R. wallichii )- do đo đo đo đo गुलाव वर्ग ( N. O. Rosacee ) उत्पत्ति स्थान - नैपाल हिमवती- पर्वतश्रेणी तथा उत्तरी पश्चिमी भारत । ब्रिटेन में यह जंगली पौधों की तरह बहुतायत से होता है। 1 वानस्पतिक विवरण यह एक झाड़ी है जिसका तना सीधा होता है और जिसमें सख्य सूक्ष्म मह करटक लगे होते हैं । पत्र गुलाब के समान और कोंपल बदामी रंग के मखमली जो देखने में अत्यन्त मनोहर प्रतीत होते हैं । पुष्प अत्यन्त सूक्ष्म श्वेत और गुच्छे में आते हैं । फल गोल और रक, पीत एवं श्वेत वर्ण के तथा रस से परिपूर्ण होते हैं । फलका ऊपरी धरातल सूक्ष्म मृदु गोलाकार दानों से युक्त होता है। फूल गुच्छों में अथवा अकेले होते हैं । रस मधुराम्ल और सुस्वादु होता है । बीज अत्यन्त सूक्ष्म और गोल होते हैं । चैत में यह पुष्पित होता है तथा श्राषाढ़, श्रावण मैं इसमें पक फल प्राप्त होते हैं। पीले फलवाले को गढ़वाल में पांडा कहते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्जदान रासायनिक संगठन एक उड़नशील तेल, शर्करा, पैक्टिन ( Pectin ) नीबू और सेव के तेज़ाब (Citric and malic acids), खनिज तथा रञ्जक पदार्थ, कुछ खनिज लवण और जल | गुणधर्म - यह ज्वरतापशामक हैं। ताज़े होने पर यह केसरी ( Strawberry ) के प्रतिरिक किसी भी अन्य फलकी अपेक्षा तृष्णा शमन हेतु श्रष्टतर है। इसको अकेले खाने से श्रामाशय में अम्लीय संधानोद्भूत होने की आशंका नहीं रहती । इसका अचार अथवा मुरब्बा सर्वोत्तम पदार्थ है । चू के पत्ते का शीत कषाय तीव्र शैथिल्य प्रवाहिका, विसूचिका, शिशुव्याधि तथा उत्तापव्यथा र आमाशय द्वारा रक्तस्त्राव में उत्तम श्रौषध है। इं० मे० मे० । अञ्जु ãanza - श्र० बकरी - हिं०। (She-goat) श्रञ्जश्र anzuā- श्र० जिसके ललाट के दोनों बगल से रोम जाते रहे हों । अञ्जक anjakak अकक anjukek - फा० कु. तुम हिन्दी | (ये जङ्गली श्रमरूद के बीज हैं जिनका छिलका श्यामवर्ण का होता है । ये विहीदाना से किसी भाँति बड़े और उसके सदृश त्रिकोणाकार होते हैं । इनके भीतर से श्वेत गूदा निकलता है ) । फा० ई० १ भा० | Anjukak, Pyrus communis (seeds of-) अञ्जद āanjad--अ० मुनक्का के बीज ( तुख्म भवेज़ ) अथवा फलों के दाने । अञ्जान anjadan - श्र०कु० यह श्रङ्गदान से अरबी बनाया हुआ शब्द है जिसका अर्थ अङ्ग का दाना अर्थात् बीज । इस वृक्ष के गोंद को हींग कहते हैं । इसी कारण हींग का फारसी नाम श्रङ्गजुद अर्थात् अङ्गका गोंद है। इसके मूल ( श्रीख़ अदान ) को अरबी में मजूरूस. और दुद्द कहते हैं । इसका बीज किसी किसी के विचार से काम है । नोट- श्रञ्जदान का वृक्ष काशम वृक्ष के समान होता है तथा यह खुरासान, श्रमनिया और भारतवर्ष के पर्वतों में उत्पन्न होता है ! For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रादान रूमी १७३ अञ्जनगुटिका फेरथुला फीटीडा ( Ferula Foetida, गृहगाधिका, छिपकलो-हिं० । टिक्टिकी-बं० । Regel.)-ले०। दी गम रेजिन ( The वै००। देखो-ज्येपी। gum resin)--इं० । फा. इं० २ भा० । अञ्जनक anjanaka--हि. पु. अञ्जनम्, सुर्मा देखो-हींग या हिङ्गः। (Antimony). अञ्जदान रूमो anjadāna-rāmi-१०० अञ्जनक-कल्ल' anjanak-kallu-ता० सुर्मा सोसालियूस (भापङ्गी); कोई कोई काशम -हिं० । (Antimony sulphide). को कहते हैं । (See--Sisaliyās) देखो-अञ्जनम् । स० फा० इं०। श्रमजदान विलायता anjadana-vilayatiचन करम anjana-karmma-सं० क्ली. -अ०० अङ्गदान--फा० । हिङ्ग, हींग का वृक्ष । ( Ferula Feetida, Regel.) (१) नेत्रप्रसादन ( Anointing or प्रदान स्याहanjadana-siyah-१० कमात । __making clear ) सुर्मा, काजल, आँजन हींग वृत, हि । फेरथुला फेटिडा ( Ferula - -हिं० । देखो अञ्जनविधि । fetida, Regel. )--ले०। अञ्जन का पत्थर anjana-ka-patthar द. अञ्जन anjana-हिं० संज्ञा पु० (१) वह औषध सुर्मा-हिं० । अञ्जनम्-सं० । ऐरिटमोनिभाई जो आँख में डाली जाती है। (२) स्रोताञ्जन ___सल्फ्युरेटम Antimonii sulphure tum सौवीर-सं० । अञ्जन, सुर्माका पत्थर-हिं० । ऐस्टि ले० । सल्फ्युरेट अाफ़ ऐरिटमनी sulphu. मनी सल्फाइड (Antimony sulphide) ret of Antimony-इं० । रु०फा०६० । -ले० । किर्मीज़ मिनरल (Kermes mine अञ्जन कंशिका anjana.keshika-सं०त्रो०। अञ्जनकेशी anjan-keshi- , al), ब्लैक ऐण्टिमनी ( Black anti (१)हनु-हटविलासिनी, नी, नख -60 । नाखून mony) इं० ।। ई० मे मे० । देखो- अञ्जनम् देव, छोटे नख को कहते हैं-हिं० । नाख न पर्या ( ३ ) धोधुधेरा ( गोण्डा )। मेमा । --फ़ा० । अज़ फारुत्तीव-अ०। Helix ashe(४)--वर्ना० अमान, याल्की, कुर्प, लोखण्डी ra हेलिक्स श्राशरा-ले० । शेल Shell-इं०। -म० | काशमरम्--ता० । अल्लिचेड्डु --ते० ।सुर्मा (२) नलिका नामक गंध द्रव्य । यह उत्तरी देशों -कना०। वरीकह, सेरुकाय--सिं० । अनो -स० । मेनीसीलोन एडयु ली ( Memecy में प्रसिद्ध हैं । ए वेजिटेब्ल पफ्यूम A vege table perfume-इं० । भा० पू० १ भ. lon Edule, lord. )--ले० । प्रायवुड क०व० । देखो-नख । ट्री ( Iron-wood tree )--इं०। मेमी. सीलोन कमेस्टिवल (Memeeylon com. : अञ्जन गुटिका anjana-gutika-सं० स्त्रो० estible) फ्र० । फा० ई० । देखो--अञ्जनी । (१) सोंठ, मिर्च, पीपर, करंजफल, हल्दी, विजौरे की जड़, इनकी गोली बना छाया में शुष्क (५) कहुश्रा, अजुन, अर्जुना-हिं० । अर्जुना-बं० । हाल-उडि० । अर्जुना मं० । कर नेत्रांजन करने से विशूचिका (हैजा) दूर वेल्लमरड वेलमट्टी-ता० । मही, विल्लीमट्टी-मैः ।। होती है। एरमही, टेल्लामडु-तै०। तौक्यान-ब० । टर्मि (२) महुआ पुष्प, श्वेत अपराजिता, अपा. नेलिया अर्जुना (Terminalia Arjuna, मार्ग मूल और त्रिकुटा इनकी गोली बना नेत्रांजन Bedd.)-ले० । मेमो०। -पं० चरवा, कुसा करने से विशूचिका दर होती है। -उ०प० प्रा० । मेमा० । पं-पेनिसेटम् सिंको (भैष० र० अग्निमांचि०) ऑइडिस । (३) मैनसिल, देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, अञ्जन anjan-देखो-अञ्जनम् (सुर्मा)। अथ० । अामला, हड़, बहेड़ा, सोंठ, मिर्च, पीपल, लाख, सू०६ । ३ । का०४। लहसुन, मंजीठ, सेंधालवण, इलायची, सोनाअञ्जन anjanah-सं० पु. (A lizard ) माखी, सावर लोध, लौहचूर्ण, ताम्रचूर्ण, काला. For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनगुड़िका अञ्जनम् नुसारिवा, मुर्ग के अंडे का छिलका, इन्हें समान अञ्जन दृष्टि प्रसादनो शलाका anjana-drisभाग लेकर स्त्री के दूध में घोटकर गोली बनाएँ । hți.prasádaní-shaláká-toalioya इसका अञ्जन खाज, तिभिर, शुक्रार्म तथा नेत्र की | सीसे को बारम्बार तपाकर हड़, बहेड़े, अामला, रक्र रेखा को दूर करता है। के रस में, घी में, गोमूत्र में, शहद में, तथा बकरी (४) काँसे के पान के रगड़ने से उत्पन्न के दूध में बुझाएँ, पश्चात् उक्र सीसे की सलाई स्याही, मुलेटी, सेंधालवण, तगर, एरंड की जड़ बनाकर नेत्रों में फेरें तो नेत्र सम्बन्धी समस्त इन्हें बराबर लें, तथा इनमें से एक से द्विगुण रोग नष्ट हों। बड़ी कटेली मिलाएँ, इनको बकरी के दूध से (भा० प्र० ख० ने रो० चि०) पीसकर ताम्र पात्र पर लेप करें। इसी तरह सात अञ्जन नामिका anjana-namika-सं० स्त्रो० बार बकरी के दूध में पीस पीस कर उक्र पात्र (Stye ) नेत्रपचम में होनेवाले नेत्ररोग का एक पर लेप करें और छायामें शुष्क कर वटी बनाएँ । भेद । यह रोग रकसे उत्पन्न होता है । यह बरौंयह अञ्जन नेत्र रोग को दूर करता है। हियों ( नेत्रपचमों) के मध्य में अथवा किनारे की (सु० सं० अध्या० १२, नेत्र. रो० चि.) तरफ खुजली, दाह और वेदना से युक्र, ताम्र वर्ण (५) गेरू १ माशा, सेंधा लवण २ मा० की, कोर, मुंग प्रमाण की पुन्सियाँ होती हैं। पीपर ३ मा०, तर ४ मा०, इस प्रकार ले इनसे इन्हें अञ्जन रोग अथवा प्रजननामिका कहते द्विगुण जल से खरल करें, पुनः गोली बनाकर हैं। वा० उ० प्र० । जो फुन्सी दाह, सुई नेत्रांजन करने से नेत्र रोग दूर होता है । चुभाने की सी पीड़ा वाली, लाल, कोमल छोटी (भैष० र० नेत्र रो० चि.) और मन्द पीड़ा वाली ने बके कोये में उत्पन्न होती अञ्जनगुड़िका anjana.gurikā-सं० स्त्री० है उसको अञ्जना (अज्जनहारी) या अजन विसूचिका में प्रयुज्य औषध विशेष, यथा-महुश्रा नामिका कहते हैं । यह रक्त से उत्पन्न होती है। के पुष्प का रस, चिर्चिा बीज, अपराजिता मूल, मा०नि०। हरिद्वा और त्रिकटु । इनका अञ्जन करना । (च० अमन पत्रो an jana-patri-सं०स्त्रो० (१) द० अग्निमांद्य चि०) भंग के पत्ते Cannabis Indica, Linn. अञ्जन ताडनाद्युपाय: anjana-taranādyni ( Leaves of-)। (२) गाँजा । pavah-सं० पू० शुद्ध मनुष्य के प्राचार धन भैरवः anjana-bhairavah-सं० के नष्ट होजाने पर तीक्ष्ण नस्य, तीक्ष्ण अञ्जन, पु. पारा, लोहभस्म, पीपर, गंधक इन्हें एक एक ताडन तथा मन, बुद्धि, स्मति इनका संवेदन, ये भाग लें, जमालगोटा के बीज ३ भाग, इन्हें हित हैं । उन्माद से विस्मति होजाने पर तर्जन जम्भीरी के रस से अच्छी तरह पीस नेत्रांजन दुःखदेना, सांस्वना, हर्ष, अानन्द, भय दिलाना, करने से सन्निपातज्वर दूर होता है । भैप० र० । विस्मय ( पाश्चर्यान्वित) मन को प्रकृति में स्थिर करें । काम, शोक, भय, क्रोध प्रानन्द, ईर्षा अजन माई an jana-mai--ता० सुर्मा । ऐरिट. मोनिआई सल्फ्युरेटम् ( Antimonii Sulp. तथा लोभ से उत्पन्न उन्माद में परस्पर प्रतिद्वन्द्र ___hure tum.)-ले० । देखो-अञ्जनम् । क्रिया से शाँत करें। वांछित द्रव्य के नष्ट होने से उत्पन्न उन्माद में तत्तुल्य द्रव्य प्राप्ति, शांति अञ्जन मूलक anjana-milaka-सं० अठारह प्रकार के मणियों में से एक | यह नीला और तथा प्राश्वासन से उसकी शांति करे। (चक्र० द० उन्माद चि०) ____ काला मिश्रित वर्णका होता है । कौटि० अर्थ० । अञ्जनत्रयम्,-त्रित्रयम् anjana-trayam,- अञ्जनम् anjanam--सं० क्लो० ।। ' tritrayam-सं० क्ली० कालाञ्जन, स्रोताञ्जन अञ्जन anjana--हि. संज्ञा पुं० । और रसाअन । रा०नि०व०२२"यथा-काला. ( anointing, smearing with, अन समायुक' स्रोतोऽञ्जन रसाञ्जने ।" mixing) लगाना । For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अञ्जनम् www.kobatirth.org १७५ ( २ ) Collyrium or black pigment used to paint the eyelashes श्राँजन, कज्जल, काजल । हे०च० लि० यो० कामला चि०, रकपित्त चि० । श्रञ्जन - हल्दी, गेरू, श्रामलेका चूर्ण इन्हें द्रोणपुष्पी ( गूमा के रस में मिलाकर श्रञ्जन करने से कामलां दूर होता है । यो० त० पाण्डु० चि० । शिरिस बीज, पीपल, कालीमिर्च, सेंधा नमक, मैनसिल, लहसुन, बच इन्हें गोमूत्र में पीसकर अन करने से सन्निपात रोगी चैतन्य होता है । यो० त० ज्वर० चि० । भै०र० ज्वर० चि० । करंज की मींगी, सोंठ, मिर्च, पीपर, बेल की जड़, हल्दी, दारूहल्दी, तुलसी की मंजरी इनको गोमूत्र में पीसकर श्रञ्जन करने से विषाक रोगी जी उठता है । यो० त० विष० चि० । जमालगोटे का बीज शुद्ध ४० मासे, सोंठ, मिर्च, पीपर चार चार मासे इन्हें गम्भारी के रस में घोट अञ्जन करने से सन्निपात दूर होता है । शार्ङ्ग ० सं० म० ख० १२ ० ० २१ । पीपर, मिर्च, सेंधालवण, शहद, गाय का पित्त, इनका श्रञ्जन बनाकर नेत्र में श्राँजने से प्रत्येक भूत दोषों से उत्पन्न उन्माद और महानुन्माद का नाश होता है। भै० र० उन्माद० चि० । > त्रिकुटा, हींग, सौंधालवण वच, कुटकी, सिरस के बीज, करंज के बीज, सफेद सरसों, इनकी बत्ती वनाकर नेत्राञ्जन करने से अपस्मार, चातुर्थिक ज्वर, और उन्माद दूर होता है। च० द० उन्माद० चि० । तगर, मिर्च, जटामांसी, शिलारस इन्हें समान भाग ले, सर्वतुल्य मैनशिल पत्रज ४ भाग ( तगरकादि से चौगुने ) तथा सबसे द्विगुण शुद्ध सुर्मा, और उतनी ही मुलही लेकर बारीक पीस न बनाएँ । सु० सं० उ० श्र० १२ । हल्दी, दारूहल्दी, मुलेठी, दाख, देवदारु, इन्हें समान भाग ले बकरी के दूध से श्रञ्जन करने से श्रभिष्यन्द दूर होता है । भै० र० । 3 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रञ्जनम् ( ३ ) Acosmetic ointment कांति जनक प्रलेप, वर्ण्यलेपन | ( ४ ) Ink रोशनाई । ( १ ) Night रात्रि, रात । ( ६ ) Fire अग्नि, आग । (७) स्रोतोञ्जन । भा० । सु० चि०२५ श्र० । ( ८ ) रसाञ्जन । च० द० श्र० स० चि० प्रियङ्गवादि । रक्त पित्त-चि० । ० ३ ० प्रदे हषट्के । स्वम्भन योगेच । भा० बाल चि० । ( ६ ) सौवीराजन वा० सू० १५ अ० अनादि । सु० सू० ३८ श्र० । देखो - श्रञ्जनविधि । विशेष | यह आभा यह कठोर (१०) सुर्मा धातु प्रभायुक्त एक श्वेत धातुतत्व है । होता तथा तोड़ने से जाता है, और सरलतापूर्वक चूर्ण किया जा सकता है। इसका रासायनिक सङ्क ेत अञ्ज० ( Sb. ) तथा परमाणुभार १२० है और श्रापेक्षिक गुरुत ६७ है । यह ६३०० शतांश की उत्ताप पर गल जाता और चमकीले रकताप पर वाष्पीभूत हो जाता है । सामान्य तापक्रम पर वायु तथा श्रार्द्रता का अन पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता । वायु में उत्ताप पहुँचाने पर यह हरिताभायुक्त नीले रंग के लौ में जलने लगता है । प्रकृति में अंजन स्वतन्त्र या शुद्ध रूप में नहीं मिलता; श्रपितु गन्धक के साथ मिला हुआ स्त्रोताञ्जन या सुर्मा रूप में पाया जाता है । यह : प्राय: सोमलिका, निकिलम् और रजतम् धातु के साथ मिला हुआ यौगिक रूप में भी पाया जाता है । विशेष रासायनिक विधि द्वारा इसे अन्य धातुओं से भिन्न कर लेते हैं ! इसके पर्याय -अञ्जनम् (अनक) - सं०, हिं० । इस्मद, हल् कोहल, श्रन्नीमूनुल् मादनी -- अ० । अन्तीमून, संगेसुर्मह - फा० । ऐरिटमोनियम् ( Antimonium ), स्टीबिनम् ( Stibium ) -- ले० । ऐण्टिमनी ( Antimony)--इं० नाम विवरण - ऐटिमोनियम् यौगिक शब्द For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् अञ्जनम् है (ऐण्टि = विपरीत + मोनाक्स = उपदेष्टा, सन्यासी) जिसका अर्थ सन्यासी या साधु के विपरीत अर्थात् नष्ट करनेवाला है । कहा जाता है कि सन् १७६० ई० में वालरटेन नामी एक रासायनिक ने, जिसने कि सर्व प्रथम उन शुद्ध धातु के असली गुण-धर्म का वर्णन किया, इसके औषधीय गुणधर्म दर्याप्त करने के लिए इसे कुछ सन्यासियों को खिलाया । फलतः वे सब के सब इस विष द्वारा मरणासन्न हो गए। इसी कारण इसका नाम ऐरिटमोनियम पड़ गया। इतिहास-उपयुक वर्णनानुसार स्रोताजन अर्थात् सुर्मा रूप से यह औषध प्राचीन वैदिक काल से, यूनानी व रूमी चिकित्सकों को मालूम थी । अस्तु . हकीम दीस्करीदूस (Dioscori. des) यूनानीने स्टीमी नाम से तथा हकीम बलीनास रूमी ने स्टीबियम् नामसे इसका वर्णन किया है। इन दोनों ने इसको शोधक (एवेक्वेण्ट) अर्थात् वामक तथा रेचक लिखा है और अबतक प्रायः चिकित्सक इनके अनुयायी हैं। परन्तु, हकीम बुकरात व हकीम जालीनूस ने इसमें संग्राही तथा मुक़त्ता ( काटने छाँटने वाले ) गुण की विद्यमानता का भी वर्णन किया, पर उन्होंने इसका वाह्यरूप से ही उपयोग किया था । प्राचीन चिकित्सक इस धातु को प्रकृति में पाया जाने वाला यौगिक सौ रूप से उपयोग में लाते थे। उनका यह विचार था कि सुर्मा (अंजन गन्धिद) गन्धक और पारद का यौगिक है और किसी किसी का यह विचार था कि यह गन्धक और सीसा का यौगिक है। इससे स्पष्ट है कि उनको अंजनम् धातु के मौलिक रूप का ज्ञान न था । शेखुर्रईस ने इसे मृत सीसा का जौहर लिखा है । जिसका कारण आगे वर्णित होगा । प्रायः प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं रसशास्त्रों में सभी जगह सुर्मा के विविध प्रयोगों का वर्णन पाया है। वे इसके गुण धर्म एवं वाह्य व प्राभ्यन्तर उपयोग से भली भाँति परिचित थे। इतना ही नहीं अपितु, संसार के सब से प्राचीनतम ग्रन्थ वेद (श्रथ० ) में तो इसका पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है। नोट-शुद्ध प्रअनम् धातु (Antimony), औषध रूप से व्यवहार में नहीं पाता, किन्तु इसके निम्न लिखित प्रकृति में पाए जाने वाले या रसायनशालामें बनने वाले यौगिक ही औषध रूप से उपयोग में पाते हैं। आयुर्वेद शास्त्र में अञ्जनम् धातु (Antimony ) अर्थात् इसके यौगिकों के अतिरिक श्रअन शब्द उन समस्त अर्थों के लिए व्यवहार में आता है जिनका आँजने से सम्बन्ध है। फिर चाहे वे खनिज या वानस्पतिक द्रव्य हों, अथवा प्राणिज । कहा भी है :अञ्जनं क्रियते येन तव्यं चालनं स्मृतम् । अर्थात् जिस द्रव्य से आँजन किया जाय वह अञ्जन कहलाता है। अस्तु, जहाँ इसके भेदों का वर्णन होता है। वहाँ से भी यह बात स्पष्ट होती है । यथासौवीरमअनं प्रोक्तं रसाअन मतः परम् । स्रोतोऽअन तदन्यश्च पुष्पाअनकमेव च । नीलाअनञ्चति ॥ (रस० दर्प०, वा०) अर्थात्-सौवीरांजन, रसांजन, स्रोतांजन पुष्पांजन और नीलाञ्जन प्रभति पंचविध अंजनों में से रसांजन किसी किसी के मत से पीले चन्दन का गोंद है अथवा पीले चन्दन के काढ़े से बनता है और पीत होता है । यथापीत चन्दन निर्यास रसांजनमितीरितम् । तत्क्वाथजं वा भवति पीताभं वक्त्र रोगनुत् ॥ और किसी किसी के मत से दारुहल्दी के काढ़े को बकरी के दूध में मिलाकर प्रौटाकर गाढ़ा करलें । यही रसांजन अर्थात् रसवत् है । यथादार्ची क्वाथ समं क्षीरं पादपक्का यदा धनम् । तदा रसांजनाख्यं तन्नेत्रयोः परमं हितम । (भा०) और किसी किसी के विचारानुसार यह कृष्ण. पाषाणाकृति का एक द्रव्य या नीलांजन है । इसे अंग्रेजी में गैलेना (Galena) या सल्फेट ऑफ लेड (Sulphate of Lead)कहते हैं। यह गन्धक और सीसा का एक यौगिक है। For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org मानम् प्रअनम् और भी कहा है :सौवीरं जाम्बलं तुत्थं मयूरं श्रीकर तथा।। दचिका मेघनीलश्च प्रअनानि भवन्ति षट् ॥ ( कालिका पुराण) अर्थात् सौवीर, जाम्बल, मयूरतुत्थ ( तूतिया भेद), श्रीकर, दविका ( काजल ) और मेषनील ( नीलांजन ) ये छः प्रकार के प्रजन कालिका पुराण के रचयिता ने लिखे हैं। इनमें तुस्थ तथा कजल अंजनम् ( Antimony) से सर्वथा भिन्न वस्तु हैं। इन सब बातों से साफ विदित होता है कि अंजन से उनका अभिप्राय उन समस्त वस्तुओं से था जो नेत्रचिकित्सा में म्यवहृत होती थीं । इनके विभिन्न भेदों का पूर्ण विवेचन यथाक्रम किया जाएगा । यहाँ पर जो कुछ वर्णन होगा वह अंजन (सुरमा) अथवा इसके यौगिकों का ही होगा। ___ स्रोतोऽअन अर्थात् सुरमा सौवीरं, कापोताञ्जनं, यामुन, नदीजं, पीतसारि, वारिभव, स्रोतोनदीभवं, स्रोतोभवं, सौवीरसारं,( का-) कपोतसारं, वल्मीकशीर्षम् । र० मा०, सु० चि० । १० प्र० । वाल्मीक, जयामलं, स्रोत, सौवीरसार, कपोतांजन,-सं० । सुरमा, सुरमे का पत्थर, अंजन-हि. । अंजन, अंजन का पत्थर -६० । सुर्मा, शुर्मा, जलांजन, काल शुर्मा-यं० । इ.स.मद, कुहल-अ०। सुर्मह, संगेसुमह, , स्याह सुर्मह, सुर्महे अस्फहानी-फा० । ऐण्टिमोनियाई सल्फ्युरेटम् ( Antimonii Sulphuretnm), एण्टिमोनियम सल्फ्युरेटम् ( Antimonium Sulphuratum)-ले० । ऐष्टिमनी सल्फाइड ( Antimony Sulphi. de), सल्फ्युरेट ऑर टर्सल्फ्युरेट ग्राफ ऐण्टिमनी ( Sulphuret or Tersulphuret of Antimony ), ब्लैक ऐ० ( Black Antimony), किर्मीज़ मिनरल ( Kermes mineral)-५० । अंजनक-कल्लु, अंजनमाइ-ता० । अंजन रायि, नीलांजनम्, कटुक -ते० । अंजनक-कल्ल-मल० । अम्जेना | -कना० । सुमों, सुमो-नु-फत्रो, कुह ल-अंजन- । गु०। शुर्म-खियित्र, सुमें-खियो, तय लकयोपर० । सुर्मा-मह०, को० । काला-सुरमा -मह० । रासायनिक संकेत __ (अम्ज, गं. ) (Sb 2 S3). (ऑफिशल) काला सुरमा जो प्राकृतिक रूप में खानों से निकलता है उसे पिघला कर शुद्ध कर लेते हैं। नोट-आयुर्वेदिक शुद्धि का वर्णन आगे होगा। उद्भवस्थान : चीन, जापान, (ब्रह्मदेश) वर्मा, थोड़ी मात्रा में मायसूर में भी पाया जाता है । विजयानगरम तथा पम्जाब ( झेलम श्रादि स्थानों से खानों से निकलता है। चीन में यह सब से अधिक मिलता है। लक्षण-किञ्चित् धूसर श्यामवर्ण का दानेदार चूर्ण होता है । यह भंगुर द्रव्य है। घुलनशीलता-यह जलमें अनघुल होता है, किन्त कॉस्टिक सोडा के सोल्युशन ( दाहक सोडा घोल ) और गरम हाइड्रोक्लोरिक एसिड (लवणाम्ल ) में घुल जाता हैं तथा उदजन वायग्य उत्पन्न करता है। परीक्षा-कोइले पर सोडियम् कार्बनित स हित दग्ध करने से श्वेत चूर्ण सा प्राप्त होता है । अञ्जनम् धातु के कण प्राप्त नहीं होते । मात्रा-श्राधी से १ रत्ती (१ से २ ग्रेन). मिश्रण-सोमलिका तथा अन्य गन्धिद । प्रभाव-स्वेदक, परिवर्तक और वामक । नोट-स्रोताञ्जन जैसा कि वर्णन हुआ अञ्जनम् धातु तस्व (Antimony) तथा गंधिका (Sulphur) अधातु तत्व का एक यौगिक है । परन्तु, भारतवर्ष तथा पंजाब में जो कंधारी सुर्मा अधिकता के साथ बिकता है, वह वस्तुतः गंधक और सीसा का एक यौगिक है जिसको अंग्रेजी में गैलेना (Galena) या सल्फ्यु रेट ऑफ लेड ( Sulphuret of Lead ) कहते हैं । यह कृष्ण वर्ण युक्त एक गुरु कठोर पदार्थ है। यही कृष्णाजन वा काला २३ For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् १७८ अञ्जनम् सुरमा है । यह सीसक और गन्धक को मूषा में | वसा इनकी बहुत वार भावना देने से सुरमा शुद्ध उपण करने से भी प्राप्त हो सकता है । यही सी- होता है। सक की कृष्ण भस्म है। कदाचित् इसी भाँति के (५) स्रोताजन और सौवीराजन की सुरमाके लक्षण को जनाब शेख़र्रईस बूअलीसीना त्रिफला के काढ़े वा भाँगरे के रस में श्रौटाने से ने मालूम करके इ..समद अर्थात् सुरमा को मृत शुद्धि होती है। सीसा का जौहर लिखा है । . (६) नीलाअन के चूर्ण को १दिन जंभीरी सरमो-यह भी काले सरमे का एक भेद है के रस में खरल कर धूप में सुखा दें तो यह जिसमें गंधक जस्ता (यशद) के साथ मिला हश्रा शद्ध और समस्त रोगों में प्रयोज्य हो जाता है। होता है । यह अधिक कठोर होता है। इसी प्रकार गेरू, कसीस, सुहागा, कौड़ी, मैन___ सुरमहे अस्फ़हानी-सम्भव है शुद्ध होता सिल एवं मुरदासंग की शुद्धि होती है। हो । परन्तु, डॉक्टर पावल महाराय अपनी पुस्तक (७) सर्व प्रथम केले के तनेमें गढ़ा बनाएँ। "एकोनोमिकल प्रोडक्ट्स अॉफ पाब" के पृष्ट ११ पुनः अञ्जन का एक टुकड़ा उसमें रखकर ऊपर पर लिखते हैं कि सुरमहे अस्फ़हानी के से वही केले का छिलका भर दें और इसे २१ नमूने की परीक्षा करने पर इसमें लौह का मि- दिन तक इसी प्रकार रहने दें। इसके बाद निश्रण पाया गया। वह पेशावर के निकटस्थ काल कर इसी प्रकार नीम के वृक्ष में उतने ही बाजौर नामक स्थान के खनिज सुरमा को शुद्ध दिन तक रक्ख । इससे अजन की विशेष शुद्धि सुरमा बतलाते हैं और पर्वतीय सुरमा तथा प. होती है। नेत्र के लिए तो यह अमृत समान आब के किसी किसी अन्य स्थान के सुरमा को गुणदायी है। अशुद्ध बतलाते हैं। सलायह सुरमह सफेद सुरमा-वास्तवमें खटिक धातु का (1) रक सुरमा १ तो०, काली हड़ जो एक योग विशेष अर्थात् काबोनेट अफ लाइम बहुत छोटी हों ४ तो०, पृथक् बारीक करके ( संगमरमर ) है। श्रायुर्वेद के अनुसार इसको मिलाएँ और एक दिन तक खूब रगड़ कर सौवीराम्जन कहते हैं। इसको लोग भूल से रख दें। सुरमा समझ कर उपयोग में लाते हैं, किन्तु यह गुण-अर्श भेद और नासूर के लिए परीबिलकुल सुरमा नहीं | तोड़ने पर भीतर से यह 'क्षित है। . सुरमा के सदृश चमकदार होता है। प्रस्तु, इसी मात्रा-१ रत्ती से ४ रत्ती तक सवेरे, शाम सादृश्य के कारण यह सुरमा खयाल किया को किञ्चित् गुड़ के साथ मिलाकर खिलाएँ । जाता है। इसके पश्चात् रोज सुबह को गोघृत और पानी । अञ्जन शुद्धि पिलाएँ। ५० दिन तक लगातार सेवन करते (१) सब अञ्जनों की शुद्धि भाँगरे के रहें। पथ्य-दो प्याज या चौलाई का साग स्वरस में खरल करने से होती है । और घी चुपड़ी हुई गेहूँ की रोटी खिलानी चा(२) सूर्यावर्त ( काला भौगरा अथवा हुल हिए। इससे मस्से गिर जाएँगे। हुल ) के रस में खरल करने से अञ्जन शुद्ध (मख्जन) होता है। (२) र सुर्मा ५ तो० को निम्नलिखित (३) सब अज्जनों का चूर्ण कर एक दिन प्रोपधियों के रसमें खरल करें । यथा-त्रिफला जंभीरी के रस में भावना देकर धूप में सुखा लेने की छाल, माजू, माई, कत्था, रसवत, गूगल से उनकी शुद्धि होती है तथा वे समस्त कार्यों में प्रत्येक ५ तो०, काली हड़ बहत छोटी ६ तो०, योजनीय हो जाते हैं। कूट कर मूली के चार सेर पानी में एक दिन रात (४) गोबर के रस, गोमूत्र, घृत, शहद तथा | तर करके एक दो जोश देकर साफ कर लें और For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानम् अञ्जनम् सुरमा को इससे खरल कर के चने बराबर गोली बनाएँ। गुण-अर्श तथा असाध्य नासूर के लिए रामबाण है। १ गोली से ४ गोली तक ५० दिन मक्खन में खाते रहें। और उन ओषधियों को जो रस निकालने के पश्चात् बच रहें, बारीक करके जंगली बेर के बराबर वटिका बनाएँ और सुबह शाम १-२ गोलियाँ खाते रहें। ३ सप्ताह में ही रोग को जड़-मूल से नष्ट कर देगा । (मनह.) (३) काला सुरमा, जलाए हुए नील के बीज, प्रत्येक १ तो०, फिटकरी (भुनी हुई) अनविध मोती प्रत्येक १ मा०, यशद भस्म २ मा०, चाँदीके वर्क ५ इनको ५ दिन मेंहदी और गुलाब के रस में खरल करके रख दें। गुण-उक औषध अञ्जन रूप से नेत्र रोगों विशेषकर मोतियाबिन्द की प्रारम्भिक अवस्था, जाला और रक्रबिन्दु के लिए परीक्षित है। (मनह.) (५) सुहागा शुद्ध, नौसादर, समुद्र झाग, कलमो शोरा, संगबसरी, फिटकरी का लावा, । पलाश की जड़ की गुद्दी, राई की गिरी, प्रत्येक | अर्ध तोला और काला सुरमा १० तोला को | खरल में नीबू का रस डालकर ३ घंटे तक भली भाँति घोटकर मिलाएँ। शीशी में रखने से पूर्व इसे साया में सुखा कर खूब बारीक कर लें। - गुण-इसको अञ्जन रूप से उपयोग में लाने से यह गत दृष्टिशकि, आँख पाने, नेकण्डु, नेत्ररक्रता, खराश और नेत्र द्वारा जलस्राव प्रभृति के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। संक्षेप में यह अनेक मेत्र रोगों की अचूक औषध है। (पं० जे० एल० दुबे जो) (५) सुरमा श्वेत को ताजी इन्द्रायन में अष्ठ प्रहर डालकर रख दें। पुनः उक्न शुद्ध सुरमा को कुकुटाण्डत्वक् भस्म तथा मोती की सीपी की भस्म प्रत्येक १-१ तो० के साथ मिलाकर एक दो दिन खरल करके रख दें। - 'गुण-यह सुरमा पड़वाल के लिए एजाज़ मसीही के समान और सदैव का परीक्षित है। (मनह ) (६) सुरमहे अस्फ़हानी २ तो०, मोती ६ मा०, प्रवाल ॥ मा०, शादनह, अदसी मरसूल (धोया हुआ) ४ मा० पृथक पृथक बारीक करके मिला लें और गुलाब में हल करके संगबसरी ६ मा० बढ़ाएँ तथा बारीक करके रख लें। गुण-यह सुरमा दृष्टि की निर्बलता तथा जाले को लाभदायक और आँख पाने में जो जलस्राव होता है उसका शोषणकर्ता है। (शरीफ़) - (७) काला सुरमा, यशद भस्म प्रत्येक २०मा०,समुद्र झाग,जङ्गार.केरार, प्रत्येक १ तो०, सफेदा और अफीम प्रत्येक ३ मा० बारीक कर लें। __गुण-दृष्टि की निर्बलता अर्थात् दृष्टिमांद्य के लिए सर्वोत्तम औषध है। इसे चतुओं में लगाया करें। (इ० सद०) (८ , सफेद सुरमे को अग्निमें तपा तपा कर सातबार हरड़, बहेड़े तथा श्रामले अर्थात् त्रिफला के रस में डालकर बुझाएँ, फिर तपा तपा कर सात बार स्त्रीके दूध बुझाएँ । पुनः उक्त सुरमे का चूर्ण करके नित्य नेत्रों में आँजें तो नेत्रों को हितकारी होता है और नेत्र सम्बन्धी सम्पूर्ण विकारों का निःसन्देह नाश होता है। सा० । . सुरमे की भस्म. (१.) तबकदार श्वेत सुरमे को १० दिवस पेठा के रस में खरल करके टिकिया बना लें और एक पेडा में डालकर भली भाँति कपरौटी करें । गण-ज्वर की उन्मत्तावस्था में इसे १ रत्ती की मात्रा में अर्क सौंफ तथा अर्क केवड़ा के साथ तीन बार खिलाने से लाभ होता है। तपेमुह रिकासफ़रावी (शांत्रिक ज्वर)मूत्रदाह, यकृ दोप्मा, नवीन सूजाक के लिए उपयुक्र शर्बतों के साथ व्यवहार में लानेसे लाभ होता हैं । चक्षुषों में लगाने से दृष्टिवद्धक और नेत्र स्वक्षकारक है। (कु. रही.) (२) श्वेत सुर्मा को हरे लम्बे कद्दू की गर्दन में रखकर कपरौटी करें और बहुत सी अग्नि दें, भस्म होगी। इसमें सम भाग नीले बंशलोचन मिलाकर अर्क बेदमुश्क व केवड़ा में १ सप्ताह खरल करके रख दें। For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् १८० प्रअनम् गुण-मुख, नासिका तथा शिश्न प्रभृति से रत्राव होने और शुक्रप्रमेह, रजःस्राव सथा सम्पूर्ण ऊष्मा सम्बन्धी रोगों के लिए लाभदायी है । राजयक्ष्मा के लिए सुर्मा की भस्म । तोला, चाँदी का वर्क, अनविध मोती प्रत्येक ३ मा०, स्वर्ण वर्क (पत्र) १ माशा, केशर ४ रत्ती सबको अर्क बेदमुश्क में खरल करके २ रत्ती की मात्रा सवेरे व शाम खिलाएँ । परोक्षित है। (मनह) (३) काले सुरमे की भस्म-मिलावे की | स्याही, भांगरा, ग्वारपाठे का लुभाब प्रत्येक प्राधपाव कूटकर नुरज़ा (कल्क ) बनाएँ । शुष्क होने पर इसमें १ तो० सुरमेको डली डालकर बंद करें और सकोरे में बन्द कर गिलेहिकमत ( कारौटी) कर सुखा कर २५ सेर कण्डेकी अग्नि दें। भस्म प्रस्तुत होगी। मात्रा-१ से २ रत्ती तक मवखनमें। ऊपरसे दुग्ध दें । गुण-पुरातन सुजाक तथा शुक्रमेह में | लाभप्रद है । सम्पूर्ण त्वम् रोगों, नासिका तथा | मुख द्वारा रकस्राव, स्त्रियों में अनियमित एवं अधिक रक्रमाव और अर्श में मुफीद एवं प्रभाव- | कारी है। (कुश्ता० फ़ो०) (४) सुरमा श्वेत, सङ्गजराहत समान भाग, सुरमा को एक दिन दही के जल में और एक रोज़ घृतकुमारी में खरल करके टिकिया बनाएँ और अग्नि दें। संगजराहत को मदार के दूध में घोटकर अग्नि दें । पश्चात् दोनों को मिला लें। गुण-पुरातन सुजाक और नवीन क्षत प्रति के लिए परीक्षित है। मात्रा-२ रत्ती तक मक्खन में। (इससद०) ब्रिटिश फार्माकोपिया द्वारा स्वीकृत (ऑफिशल ) अञ्जन के यौगिक (१) अनामिद अर्थात् ऐण्टिमोनियाई प्रॉक्साइडम् (Antimonii Oxidum). ऐण्टिमोनिअस ऑक्साइड (Antimonius Oxide )-इं० । किर्मि जुलमऋदनी, किर्मिस मदनी-फा० । प्रॉक्सीदुल अन्तीमून-अ०।। रासायनिक संकेत (Sb 203) निर्माण विधि-ऐण्टिमोनियस क्रोराइड घोल को जल में मिलाने से ऑक्सी क्रोराइड ऑफ ऐण्टिमनी घनीभूत होकर अधःक्षेपित हो जाता है। इसे पृथक करके काबोनेट श्रीफ सोडियम के साथ मिश्रित करने से ऐण्टिमोनियस प्राक्साइड प्राप्त होता है। लक्षण-किञ्चित् धूसर श्वेत रंग का चूण । घुलनशीलता - जल में तो यह बिलकुल नहीं घुलता, किन्तु लवणाम्ल (हाइडोक्रोरिक एसिड ) में सरलतापूर्वक घुल जाता है। मिश्रण-अम्जन के अन्य उम्मिद (अॉक्सा. इडम् )। प्रभाव-स्वेदक और वामक । मात्रा-१ से २ ग्रेन (६ से १२ सें० ग्राम), १ वर्ष के बालक को 1 से 1 ग्रेन तक। यह ऐण्टिमनोनियम् टार्टरेटम के बनाने में काम पाता है और यह उसका एक यौगिक भी है। ऑफिशल योग (Official preparations ). पल्विस ऐण्टिमोनिएलिस (Pulvis Antimonialis)-ले०। ऐण्टिमोनियल पाउडर ( Antimonial Powder ), जेम्सेना पाउडर ( James's Powder )-६० । अञ्जन चूर्ण, जेम्स का चूर्ण-हिं० । मरहूक या सफ फ अन्तीमून, सफ फ जेम्स ति०। निर्माण-विधि-ऐरिटमोनियस ऑक्साइड (अजनोष्मिद ) १ श्राउंस, कैल्सियम फॉस्फेट (चूनस्फुरत् ) २ पाउंस दोनों को परस्पर संयोजित करलें। मात्रा-३ से ६ ग्रेन अर्थात् १॥ से ३ रत्ती (२ से ४ डेकाग्राम); १ वर्ष के शिशु को ! से ग्रेन। प्रभाव-टारि एमेटिक के समान, किन्तु उससे निर्बल । मृदुस्वेदक प्रभाव के कारण यह ५ ग्रेन (२॥ रत्ती) की मात्रा में ज्वरावस्था में उपयोग में आता है। (ए. मेमो०) अलकुहाल ( मद्यसार ) तथा डोवर्स पाउडर के समान यह यच्मा के रात्रि स्वेदस्राव को रोकता है। For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अञ्जनम् ऐण्टिमोनियम् टार्टरेटम् (Antimonium Tartaratum )-- टार्टरेटेड एण्टिमनी ( Tartarated Antimony), टार इमेटिक ( Tartar Emetic ), पोटासियो टार्टरेट श्रॉफ ऐस्टिमनी (Potassio Tartarate of Antimony ) - इं० 1 टार्टाराञ्जन, वामक लवण, पांशु टाराज्ञ्जन, वामक टार - हिं० । गसायनिक संकेत ( K SbO04H4H4 06 2, H20. निर्माण - विधि - ऐस्टिमोनियस श्राक्साइड और एसिड पोटेसियम् टार्टरेट को कुछ जल के साथ परस्पर मिश्रित कर इसकी लेई सी बना लें और इसे २५ घंटे तक पड़ा रहने दें जिससे इनका पारस्परिक संयोग हो जाए । पुनः श्रच देकर जल को जला डालें । शीतल होने पर इसके रवे बन जाएँगे । लक्षण - वर्ण रहित, स्वच्छ रवे जो त्रिकोणाकार होते हैं । स्वाद - कुछ कुछ कसेला तथा मधुर । www.kobatirth.org घुलनशीलता - यह एक भाग १७ भाग शीतल जल में श्रौर १ भाग ३ भाग उबलते हुए जल में घुल जाता है। घोल की प्रतिक्रिया अम्ल होती है । मिश्रण - एसिड टार्टरेट ऑफ पोटेसियम् । सम्मिलन ( संयोग विरुद्ध ) - क्षारीय द्रव्य, सीसा के लवण, माजूसत्व ( गैलिक एसिड) और कषायाभ्ल (दैनिक एसिड ) तथा श्रनेक अन्य सोचक द्रव्य । प्रभाव - स्वेदक, श्लेष्मानिःसारक, हृदयाव सादक तथा वासक मात्रा - स्वेदन हेतु १ २५ 9 १८१ प्रेन (२५ से मि० ग्राम ); श्लेष्मानिःसारण हेतु है से 1⁄2 ग्रेन वमन हेतु, 1⁄2 से १ ग्रेन (३ से ६ सें० ग्राम), एक साल के बालक के लिए चौथाई मेन । इन विभिन्न मात्राओं को ध्यानपूर्वक स्मरण रखें | योग-निर्माण-विधि - इसको घोल रूप Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् में या इसका मद्य उपयोग में लाना चाहिए । यदि इसको टिका रूप में देना हो तो इसे दुग्ध की शर्करा ( मिल्क शूगर ) के साथ भली प्रकार मिश्रित कर और द्राक्षाके शीरा (ग्ल्युकोज़) द्वारा afटिका प्रस्तुत कर उपयोग में लाएँ । ऑफिशल योग ( Official preparations ). श्रजनासव अंजनीय मद्य - हिं० | वाइनम् ऐस्टिमोनिएली ( Vinum Antimoniale ), ऐस्टिमोनियल वाइन ( Antimonial Wine ), डा० ना० । निर्माण - विकिटार्टरेटेड ऐण्टिमनी २० रती ( ४० ग्रेन ), खौलता हुआ परिस्रुत जल (डिस्टिल्ड वाटर ) १ फ़्ल्युइड ग्राउन्स और शेरी वाइन १३ फ़्ल्युइड ग्राउन्स । टार्टरेटेड ऐस्टिमनी को पहिले खौलते हुए परिश्रुत जल में डालकर घोल ले पुनः इसे शीतल कर शेरी मच में मिश्रित कर लें । शक्ति - इसके एक फ़्लुइड २ ग्रेन अर्थात् एक रत्ती ऐण्टिमोनियम् टार्टरेटम् होता है । श्राउन्स For Private and Personal Use Only में मात्रा स्वेदक रूप से १० से ३० बुद (मिनिम) और वामक रूपसे २ से ४ फ़्लुइड ड्राम | एक वर्षीय बालक के लिए श्लेष्मा निःसारक रूप . से ३ बुद और वामक रूप से १५ बुँद ( मिनिम ) तक । नोट - इनके अतिरिक्त ऐण्टिमोनियम् नाइप्रम् प्योरीफिकेटम ( शुद्ध स्रोतोंजन ) और ऐण्टिमनी सल्फाइड ( काला सुरमा ) दो और अंजन के यौगिक ब्रिटिश फार्माकोपिया में ऑफिशल हैं । इनका वर्णन प्रथम स्रोतोंजन में कर दिया गया है । श्रतः वहाँ देखिए । नॉटि श्रॉफ़िशल योग (Not official Preparations ). एटम ऐस्टिोनियाई टार्टरेटी Unguentum Antimonii Tartrate-ले० । श्रीइण्टमेंट ऑफ टार्टरेटेड ऐस्टिमनी ( Ointment of Tartrated antimony > Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् भानम् -इं०। मरहम वामक टारि ( लवण), टाछुराअनानुलेपन-हिं० । मरहम तीरुल मुक़ई, मरहम नमक -ति०। निर्माण-विधि-टार्टरेटेम् ऐण्टीमनी का बारीक चूण १ भाग सिम्पल अाइरटमेण्ट ( सादा मरहम) ४ भाग भली भाँति मिश्रित करलें । (ब्रिटिश फार्माकोपिया के परिशिष्टांकस्थ योगानुसार) अंजन के विभिन्न यौगिकोंके विस्तृत गुण धर्म व प्रयोग (१) आयुर्वेदिक मतानुसारअजन सम्पूर्ण चक्षुदोषनाशक, आयुष्यदीर्घ करता, सर्व रोगनाशक, ज्ञान प्रकाशक, शान्ति दायक, प्लीहा रोग नाशक, रियों से प्राप्त होने वाले तपेदिक, अङ्गभेद, यवमा आदि रोग नाशक है ।त्रिककुत् नामक पर्वतसे उत्पन्न अजन सर्वश्रेष्ठ है । अथ० । सू०४४। ६ । का०१६ । स्रोतोऽजन काला सुरमा और सौवीर श्वेत सुरमा को कहते हैं । जो बांबी के शिखर के सदृश होता है वह स्रोतोऽजन कहलाता है। सफेद सुरमा भी स्रोतांजन के सदृश होता है । किन्तु कुछ पीले रंग का होता है। भा। . काला सुरमा शीतल, कटु, कषैला, कृमिघ्न, रसायन, रस योग्य और स्तन्य वृद्धिकारक है। (रा. नि०व०१३) स्रोतोऽऽजन ( काला सुरमा ) मधुर, नेत्रों को हितकारी, कषैला, लेखन, ग्राही तथा शीतल है और कफ, पित्त, वमन, विष, श्वित्र ( सफेद कोढ़), क्षय तथा रक्रविकार को नष्ट करता है । यह सदा बुद्धिमानों को सेवनीय है। जो स्रोतोऽजन में गुण हैं वे सौवीर में भी हैं; ऐसा विद्वानों ने कहा है। किन्तु, दोनों अंजनों में स्रोतोऽजन ही श्रेष्ठ है । भा० । सफेद सुरमा नेत्रों को परम हितकारी है। अतएव इसे नित्य लगाना चाहिए। इसको लगाने से नेव मनोहर और सूक्ष्म वस्तु के देखनेवाले होते हैं । सिन्धु नामक पर्वत में उत्पन्न हुश्रा काला सुरमा ( शुद्ध किया हुआ. न होने पर भी) उत्तम होता है । इसको लगाने से यह नेत्रोंकी खुज़ली मैल, तथा दाह को नष्ट करता है, और वेद । ( नेत्रों से पानी का बहना) तथा पीडा को दूर करता है । नेव स्वरुपवान होते हैं, और बात तथा नायु और धूप को सहन करने में समर्थ होते हैं । काला सुरमा लगाने से नेत्रों में रोग नहीं होते, इस कारण इसको भी लगाना चाहिए । रात में जागो हुश्रा, थका हुश्रा, वमन करने वाला, जो भोजन कर चुका हो, ज्वर रोगी और जिसने शिर से स्नान किया हो उनको सुरमा नहीं लगाना चाहिए। (भा० प्र० ख०१) (२)यून नो मतानुसारस्वरूप-श्याम, श्वेत तथा रक वर्ण । स्वाद-बेस्वाद । प्रकृति-प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूक्ष (किसी किसीके विचार से २ कक्षा में डंडा और रूद)। हानिकर्ता-वक्षस्थलस्थ अवयवों को । दर्पनाशक-कतीरा तथा शर्करा । प्रतिनिधि-अनार । गुण, कर्म व प्रयोग-सुरमा पारद तथा गंधक दो वस्तुओं का यौगिक है जिनमें गंधक प्रधान है। इसी कारण यह विबन्धकारी या बद्धक व रूक्षता प्रद है । रूक्षता की अधिकता के कारण यह ग्रणपूरक है तथा उनके बढ़े हुए मांस को नष्ट कर देता है। अपनी कटज़ तथा रूक्षता एवं नेत्र की भोर मलों को रोकने के कारण दृष्टि को बलप्रद तथा नेत्र की स्वस्थता का रक्षक है । उस नकसीर को बन्द करता है जो मस्तिष्क के परदों से फूटा करती है । नेत्र की सरदी गरमी और कीचड़का हरणकर्ता है । इसका हुमूल (वर्ती ) जरायु द्वारा रक्तस्राव होने को रोकता है । (नफो०। । इसकी पिचुक्रिया अर्थात् भिगोया हुश्रा कपड़ा रखना गुदभ्रंश (काँच निकलने ) को गुण करता है और गर्भाशय की कठोरता को मृदु करता है । सुरमा शुक्रमेह और प्रार्तव का रुद्धक है तथा रकस्राव (मुख. द्वारा रकलाव), पुरातन सूजाक, व्रण, अर्श, तथा नासूरों ( नाडीव्रण) को लाभप्रद है और राजयक्ष्मा को दूर करता एवं अन्य भाँति के ज्वरों के लिए गुणदारी है। For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानम् १८३ अञ्जनम् (३) डाक्टरी मतानुसार अञ्जन के वाह प्रभाव अजन के यौगिकों का स्वचा पर सशक्त उग्रतासाधक वा क्षोभक (इरिटेण्ट) प्रभाव होता है । अस्तु, टार्टरेटेड ऐण्टिमनी को मलहम रूप में त्वचा पर लगाने से शीतला सहश दाने उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे क्षत होकर सर्वदा के लिए चिह्न रह जाते हैं। श्राभ्यंतरिक प्रभाव श्रामाशय तथा श्रांत्र-जन के यौगिकों के प्राभ्यंतरिक उपयोग से भी वैसा ही उग्रता साधक (क्षोभक) प्रभाव होता है जैसा कि उसके वाह्य उपयोग से । अस्तु, यदि टार्टरेटेड ऐण्टिमनी को अधिक मात्रा में खाया जाए अथवा अधिक समय तक औषध रूप से उपयोग में लाया जाए तो मुख, कर, अन्नप्रणाली, श्रआमाशय और प्रांत पर इसका वैसा ही उग्रता साधक प्रभाव होता है जैसा कि त्वचा पर । इसे सूचम मात्रा में व्यवहार करने से प्रामाशय में उष्मा एवं वेदना का भान होता है और किश्चित् मात्रा में देने से क्षुधा प्रायः नष्ट होजाती है. जी मचलाता है और प्रामाशय व आंत्र की श्लैष्मिक कला से अधिक द्रवस्त्राव होता है। इससे भी अधिक मात्रा अर्थात २ या ३ ग्रेन की मात्रा में देने से यह वामक प्रभाव करता है और इसका यह ( वामक ) प्रभाव भामाशयपर इसके प्रत्यक्ष (सरल) वामक (डायरेक्ट एमेटिक) प्रभाव का प्रतिफल स्वरूप होता है। किन्तु,तत्काल अभिशोषित होकर मास्तिष्कीय वमन केन्द्र पर भी यह किसी भाँति अप्रत्यक्ष ( असरल ) वामक (इरडायरेक्ट एमेटिक) प्रभाव करता है। यदि इसको त्वक्स्थ अन्तःक्षेप द्वारा रकमें प्रविष्ट किया जाए तो भी इससे वमन आने लगता है जिसका कारण यह होता है कि कुछ तो इसका प्रभाव वमन केन्द्र पर होता है और कुछ इस प्रकार कि यह शोणित में अभिशोषित होकर किसी भाँति प्रांत्र तथा आमाशय में खारिज होता है जिससे कुछ समय तक वमन श्राता रहता है। और यदि इसको बहुत से पानी में घोल कर दिया जाए तो वमन | तो कम पाता है। किन्तु, दस्त अधिक पाते हैं। अत्यधिक मात्रा अर्थात् विषैली मात्रा में इसे देने से प्राना राय तथा प्रांत्र में खराश होकर बिशूचिका के समान लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और दर में रोड़ होकर दस्त ग्राने लगते हैं। अति सूरन मात्रा में यदि इसे मुख द्वारा प्रामाशय में प्रवेशित किया जाय तो यह बड़ी मात्रा में शिरामें अन्तःप द्वारा पहुँचाए जानेकी अपेक्षा शीघ्र प्रभाव करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि वमन लाने में वानक केन्द्र की अपेक्षा इसका स्थानीय प्रभाव ही मुख्य है। हृदय तथा शाणित परिचालन-अम्जन के विलेय गुण युक्त लवण शीघ्र रक में शोषित होजाते हैं । परन्तु, ये रकवारि (प्राज़्मा) की अल्ब्युमिन में मिलित नहीं होते । उपयोग के प्रारम्भ से ही चाहे इसको सूक्ष्म ( ग्रेनसे ग्रेन) मात्रा में ही दिया जाए तो भी यह हृदय की शक्रि तथा गति दोनों को कम कर देता है। परंतु, मतली को उत्तेजना मिलती है। उसकी गति रुक-रुक कर (कै )होने लगती है। इसे अधिक मात्रा में व्यवहार करने से हृदय अत्यन्त निर्बल होजाता है। और द्वितीय यह कि वैसोमोटर सिस्टम के किसी स्थल पर निर्बलताजनक प्रभाव पड़ने से धामनिक मांस पेशियाँ शिथिल होजाती हैं । इस कारण अंजन (ऐण्टिमनी) रक्रभ्रमण तथा हृदय को सशक्त निर्बलकारी या हृदयावसादक औषध है। (अंजन का उक निर्बलकारो प्रभाव बहुतांश में विष अर्थात् सींगिया के समान ही होता है।) फुप्फुस तथा श्वासोच्छ्वास-अंजन के प्रभाव से प्रथम तो श्वासोच्छ वास में सूक्ष्म सी उत्तेजना होती है, तत्पश्चात् वह अत्यन्त शिथिल होजाता है । अस्तु, श्वासकाल घट जाता है और श्वास छोड़ने का समय बढ़ जाता है। अन्ततः श्वासोच्छवास का मध्य काल बहुत बढ़ जाता है और उसकी गति अनियमित होजाती है। अंजन वायुप्रणाली की श्लैष्मिक कला के मार्ग . से विसर्जित होता है। इस हेतु यह शोफन श्लेष्मानिस्सारक ( ऐण्टिफ्लोजिस्टिक एक्सपेक्टोरेण्ट) प्रभाव करता है। For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजनम् अञ्जनम् शारीरोष्मा-स्वस्थ दशा में अजन की थोड़ी मात्रा से शारीरिक ताप पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता | किन्त, ज्वरावस्था में उपयोग करने अथवा बड़ी मात्रा में देने से शारीरिक ताप कम होजाता है। जिसका कारण अधिकतर तो (१) हृदय का निर्बल होजाना तथा शोणित के दबाव (रक भार ) का कम होजाना है, (२) स्वेद स्राव और (३) तापोत्पादन (थमोजेनेसिस) अर्थात् मास्तिष्कीय तापोत्पादक केन्द्र पर इस का किसी भाँति निर्बल ताजनक प्रमाव पड़ता है, जिससे शरीरोप्मोत्पत्ति न्यून होजाती है । ___ यकृत्-टार्टार एमेटिक तथा विशेषकर ऐण्टिमोनियम सल्फ्युरेटम् प्रत्यक्षतया पित्तस्राव की वृद्धि करते हैं। अस्तु, ये पित्तनिःसारक (कोलेगॅॉग) हैं। ये यूरिया तथा कजलि काम्ल (कार्बोलिक एसिड ) की पैदायश की वृद्धि करते और यकृत् को ग्लाईकोजिनिक (शर्कराजनन) क्रिया को निर्बल करते हैं । यदि इसका अधिक समय तक उपयोग किया जाय तो मल्ल तथा स्फुर के समान ये यकृत की क्रिया को खराब करते और इसमें फैटीडीजेनरेशन ( यकृत का वसा में परिणत होजाना) उत्पन्न करते हैं । त्वचा-त्वचा पर अंजन का सशक्क स्वेदजनक प्रभाव पड़ता है, जिसका प्रधान कारण रक्रभ्रमण का शिथिल होजाना हैं । किसी भाँति रवेदजनक ग्रन्थ्यिों पर इसका दूरस्थ स्थानीय प्रभाव पड़ना भी हेतु होता है। यदि मंदूक की त्वचा पर अंजन को लगाया जाए तो यह उसे मल्ल की भाँति सरेश जैसा मदु कर देता है जिसे सरलतापूर्वक खुरचा जासकता है। वृक्क- टार्टारएमेटिक गुर्दो में से गुजरते समय सूचम मूत्रजनक प्रभाव करता है, जिसका बहुत कुछ आधार त्वचाकी क्रिया पर होता है। अस्तु, यदि अत्यधिक स्वेदस्राव हो तो मूत्र कम आता है और यदि स्वेदस्राव कम हो तो मूत्रनाव अधिक होता है। घात संस्थान-मस्तिम्क तथा विशेषतः सुषुम्ना कांड पर अंजन का अत्यन्त निर्बलकारी प्रभाव पड़ता है । यही कारण है कि इसके उप- | योग के पश्चात् तबीयत सुस्त हो जाती है और ऊँघ सी प्रतीत होती है तथा काम करने को जी नहीं चलता । प्राणियों पर परीक्षा करने से ज्ञात हुआ है कि अंजन के प्रभाव से परावर्तित क्रिया नष्ट हो जाती है और सौषुम्नीय चेतनास्थल शिथिल एवं निर्बल हो जाता है। __ मांस संस्थान-ऐच्छिक तथा अनैच्छिक दोनों प्रकार की विशेषकर ऐच्छिक मांस पेशियाँ निर्बल एवं शिथिल हो जाती हैं। विशेषतः उस अवस्था में जब कि इसे वामक मात्रा में उपयोग किया जाए । अस्तु, अंजन मांसाक्षेपनिवारक ( मस्क्युलर ऐरिटस्पैज़्मोडिक ) है । मेटाबोलिजम (अपवर्तन )-शारीरिक परिवर्तन पर अंजन का प्रभाव बिलकुल मल्ल तथा स्फुर के सदृश ही होता है ( अस्तु, उक्क वर्णनों का अवलोकन करें)। अति न्यून मात्रामें देने से यह सूक्ष्म परिवर्तक प्रभाव करता है। किन्तु, यदि इसको अधिक समय तक व्यवहार में लाया जाए तो यह धातु या तन्तुओं (टिश्यूज़ ) के साथ कुछ मास तक मज़बूती से चिपटा रहता है। जिससे प्राभ्यन्तरिक अवयवों विशेषतः यकृत् में फ़ैटीडीजेनरेशन (धातु की वसा में परिणति ) हो जाता है। डॉक्टर रिंगर महोदयके कथनानुसार अंजन जीवनमूलीय विष है तथा यह मल्ल, सींगिया और हाइड्रोस्यानिक एसिड के सदृश नत्रजनीय ( नाइट्रोजीनस) धातु या तन्तुओं की क्रिया या व्यौपार को निर्बल करता है। विसर्जन-अंजन के लवण मूत्र, पित्त, स्वेद वायु प्रणालीस्थ श्लेष्मा, दुग्ध, तथा विशेषकर मल द्वारा शरीर से विसर्जित होते हैं। इनका कुछ भाग शरीर में अवशेष रह जाता है। हृदय-औषधीय मात्रा में प्रयुक्त मात्रा के अनुसार इसके प्रभाव में भेद उपस्थित होता है। ग्रेन की मात्रामें इसके हृदय पर प्रत्यक्ष प्रभाव ' पड़ने के कारण यह नाड़ी की गति को कुछ धीमा कर देता एवं स्वेदक प्रभाव करता है,जिससे खुलकर स्वेदस्राव होता है। इसका यह प्रभाव सम्भवतः क्युटेनियस मसलज़ (स्वगीय मांस तन्तु) के प्रसार For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजनम् अञ्जनम् के कारण होता है । यह वायु प्रणालीस्थ श्लेष्मा स्राव को अधिक करता है। उक्र औषध का यह | प्रमुख प्रभाव है जो इसे श्लेष्मानिःसारक औषधी की श्रेणी में प्रथम स्थान प्रदान करता है। अञ्जन के प्रयोग वाध प्रयोग यद्यपि अब से कुछ काल पूर्व एमेटिक द्वारा प्रस्तुत मलहम काउण्टर इरिटेण्ट (स्थानीय उग्रता साधक ) रूप से फुफ्फुस, मस्तिष्क तथा सन्धिवात प्रभात रोगों में व्यवहार किया जाता था, किन्तु इसके लगाने से कठिन वेदना होती एवं इससे सदाके लिए चिह्न पड़ जाते हैं, इसलिए आजकल इसका उपयोग सर्वथा • त्याज्य है। श्राभ्यन्तर प्रयोग श्रामाशय तथा प्रांत्र-विषाक प्राणी को वमन कराने के लिए टाटार एमेटिक का उपयोग उचित नहीं; क्योंकि प्रथम तो इसका प्रभाव बिलम्ब से होता है, और द्वितीय इससे अत्यधिक निर्बलता उत्पन्न होती है । किन्तु, वाक्षीय प्रादा. हिक रोगों, यथा कठिन कास अर्थात् वायनलिका प्रदाह, स्वरयन्त्र प्रदाह (लेरिजाइटिस) तथा खुनाक ( क्रूप) प्रभृति में जहाँ कि वमन एवं रक संचालन की निर्बलता दोनों प्रभावों की आवश्यकता होती है, वहाँ पर उन औषध अत्यन्त गुण प्रदर्शित करती है। विषम ज्वरमें जब किनाइन से लाभ नहीं होता तब टाीरएमेटिक से वमन करा के पुनः किनाइन खिलाने से लाभ होता है। रक्त भ्रमण तथा श्वासोच्छवास-शोथन (ऐण्टिफ्लोजिस्टिक) प्रभाव के लिए टार्टार एमेटिक को - ग्रेन की मात्रा में सींगिया (एकोनाइट) के समान बहुत से कठिन प्रादाहिक रोगों की प्रारम्भावस्था,यथा-गलग्रह (टॉन्सिलाइटिस), स्वर यन्त्रप्रदाह ( लेरिजाइटिस ), कठिन कास (वायुप्रणाली प्रदाह ), फुफ्फुस प्रदाह ( न्युमोनिया ), फुफ्फुसावरक कला प्रदाह (प्ल्युरिसी), हृदयावरक प्रदाह (पेरिकार्डाइटिस), उदरच्छदा कला प्रदाह (पेरिटोनाइटिस) और डिम्बाशय प्रदाह (ोवेराइटिस ) प्रभृति में उपयोग करते हैं। बच्चों के कठिन कास या ऋप (.खुनाक ) श्रादि में जब कि इसे अकेले अथवा इपीकाकाना के साथ मिलाकर दिया जाता है तब यह और अधिक लाभ करता है। नोट-नवीन तीब्र कास के आदि में इसको सामान्यतः व्यवहार में लाते हैं। परन्तु, यदि रोगी बलवान अर्थात् रक्त प्रकृति का हो तो इसके प्रयोग से अधिक लाभ होता है। और जब इसके उपयोग से पतला होकर श्लेष्मास्त्राव प्रारम्भ हो जाए तब फिर इसका उपयोग स्थगति कर देना चाहिए । डिफ्थोरिया में इसका उपयोग न करना चाहिए। टार्टार एमेटिक प्रतिश्याय ज्वर के आक्रमण को शोघ्र कम कर देता है। हृदय दौर्बल्यकारी होने के कारण अञ्जन को अब स्वेदक प्रभाव हेतु बहुत कम उपयोग में लाते हैं। पर यदि रोगी सशक हो तो कभी कभी इसे उक्त प्रभाव हेतु उपयोग में लाते हैं। पल्विस ऐण्टिमोमिएलिस एक सूक्ष्म स्वेदजनक (डायफोरेटिक ) औषध है, तो भी प्रतिश्याय ज्वर तथा कासीय फुफ्फुस प्रदाह में इसको देने से कभी लाभ होता है। डॉक्टर ग्रेविस महोदय ऐसे ज्वर में जिसमें कठिन उन्माद की अवस्था हो, (चौथाई) ग्रेनकी मात्रामें टार्टार एमेटिक को उतनी ही अफीम के साथ योजितकर एक एक या २-२ घंटा पश्चात् कुछ बार उपयोग करना लाभप्रद बताते हैं। सर वि० हिटला के कथनानुसार मदात्यय ( डेलीरियम ट्रीमेन्स ) में जब अफीम निद्रा उत्पन्न करने में असफल हो जाता है उस समय उसके साथ 1 से ग्रेन उन श्रौषध को मिलाकर व्यवहार करने से शीघ्र प्रभाव होता है। वात संस्थान तथा मास संस्थानमेनिया (उन्माद ) रोग में पागलपन को दूर ६० For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् अञ्जनम् करने के लिए तथा हली द्वारा तीव्र विषाक्तता अर्थात् उग्र मदात्यय (एक्यूट अलकुहलिज़म ) में निद्रा हेतु टार्टरेटेड ऐण्टिमनी उपयोग में ला सकते हैं। व्यापक अवसन्नताजनक औषधों यथा क्रोरोफॉर्म आदि के प्रचार पाने से प्रथम टार्टरेटेड ऐण्टिमनीको अन्त्रवृद्धि (हर्निया) रोग तथा संधिच्युति (डिस्लोकेशन) में पेशियों को ढीला करने के लिए अधिकता के साथ व्यवहार में लाते थे, किन्तु कोरोफॉर्म के दर्याप्तके बाद उक अमिप्राय हेतु अब यह बिलकुल व्यवहार में नहीं पाती । परिवर्तक तथा पित्तनिःसारक रूप से ऐण्टिमनी सल्फ्युरेटम् को प्रायः गठिया रोग (गाउट) और (हेपैटिक फुलनेस) में देते हैं । कैलोमेल के साथ पलमर्र वटी रूप से इसे उपदंश रोग में वर्तते हैं। नोट-डाक्टरी चिकित्सा में काला बाज़ार के लिए तो केवल एक टार्टार एमेटिक ही एक ऐसी औषध सिद्ध हुई है जो कि उक्त रोग को समूल नष्ट कर सकती है । पूर्ण विवेचन के लिए देखो-काला । श्राज़ार | श्लीपद रोग में सोडियम् ऐण्टिमनीटार्ट का अन्तःक्षेप कराना गुणदायी है । प्रावश्यकतानुसार १, २ या ३ सप्ताहके अन्तर से दें। __टार्टरेटेड ऐण्टिमनी अब बहुत कम उपयोग में श्राती है। चूं कि यह घुलनशील एवं स्वादरहित औषध है; अतएव इसको घोल रूप में व्यवहार करना उत्तम है। इसको सदा अतिन्यून मात्रा ( से . ग्रेन) से प्रारम्भ करना चाहिए; क्योंकि यह देखा गया है कि इसको १ ग्रेन की मात्रा में बारम्बार देनेसे वमन आने लगता है। ___ इसको रेचक प्रभाव के लिए कदापि उपयोग | में न लाना चाहिए। इसके उक्त प्रभाव को रोकने के लिए प्रायः इसको अफीम के साथ मिलाकर दिया करते हैं। जब इसको नैलिद (श्रायो डाइड्ज़ ) या इपिकेक्वाना के साथ मिलाकर दिया जाता है तब वायुप्रणालीस्थ श्लैष्मिक कला पर इसका अति तीन प्रभाव होता है। एक वर्षीय शिशु को आक्षेपयुक्त खुनाक ( Croup) मेंऐण्टिमनीटार्ट १ ग्रेन वाइनाइ इपीकाक ४ डा० सिरुपाई सिम्प० १ श्राउं० एक्का ३ ग्राउं० इनको मिश्रित कर १५-१५ मिनट पर एक एक चाय के चमचा भर जब तक वमन न हो देते रहें । पश्चात् आवश्यकतानुसार एक दो, या तीन घंटे बाद दें। सल्फ्युरेटेड ऐण्टिमनी ( काला सुरमा) न्यून मात्रा में टार्टार एमेटिक के संपूर्ण गुणधर्म रखता है। यह परिवर्तक होने के कारण उपदंश (सिफिलिस) चिकित्सा में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है । किन्तु, माण्डेिल्स सोल्युशन श्रॉफ ऐण्टिमनी अॅक्साइड (मार्टिर डेल का अञ्जनोप्मिद घोल ) तथा केस्टेलेनीज़ इण्ट्रावेनस (शिरान्तरीय) या इण्ट्रामस्क्यूलर (मांसान्तरोय) इंजेक्शन श्राफ टाटार एमेटिक के श्राविकार के साथ उसका उपयोग कम होगया । इसे स्वगन्तर, शिरान्तर या मांसान्तर अन्तःक्षेप द्वारा उपयोग में लाना चाहिए। अञ्जन विषतन्त्र ( अगद तन्त्रम् ) . तीषण विष के लक्षण-इसके विष के लक्षण संखिया विष के सदृश ही होते हैं। अस्तु, पौन घंटेसे एक घंटेके भीतर निम्नोल्लिखित लक्षण उपस्थित होजाते हैं। यथा कंठ में गरमी तथा दाह प्रतीत होता है और गला घुटकर गिलन कठिन होजाता है। जी मचजाता है। बारम्बार दस्त व वमन पाते हैं। वमन किया हुआ द्रव्य कभी हरा वा काला और कभी श्राकारावत् नीला होता है। उदरमें पीड़ा होती है, और पिंडली की मांस पेशियाँ श्राकुचित होजाती हैं । मुत्रावरोध होता है। विषाक्त को कभी उन्माद या शिथिलता भी हो जाती है और अंतिम कक्षा की निर्बलता होती है। नाड़ी For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनयुग्मम् १८७ अञ्जनविधिः संकुचित तीब और अनियमित तथा अप्रकट रूप से सन्निपात ज्वर दूर होता है । से चलती है । स्वचा शीतल तथा पिचपिची हो (र० सा० सं) ज्वर० चि०।) जाती है । कभी शरीर पर दाने निकल पाते हैं। अञ्जन रायि anjana-rayi-ते. काला सुरमा अगद-यदि स्वयं खुलकर वमन न श्राता -हिं० । देखो-अञ्जनम् । ऐरिटमोनिश्राइ सलहो तो बामक प्रयोग करें, यथा-१५ रत्ती (३० फ्युरेटम् (Antimonii Sulphure tum) ग्रेन )सल्फेट अाफ़ ज़िक को ४ प्राउंस उष्ण जल -ले० । के साथ घोलकर दें या एपोमार्फीन १ अअनक्टो anjana-vati सं. स्त्री० पारा रङ्क, गंधक २ टङ्क, मिर्च १ टङ्क सब को पीस ग्रेनका स्वस्थ अन्तःक्षेप करें अथवा स्टमक पम्प कजली करें, पुनः करेले के रस की २१ भावना या टयूब से आमाशय को भली भाँति धोएँ । देकर मर्दन कर एक रत्ती प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। पुनः माजू सत्व (टैनिक एसिड ) को जो कि इसको जल से घिस अञ्जन करने से हर प्रकार इसका मुख्य अगद है किसी न किसी रूप से के ज्वर दूर होते हैं । (किसी किसी जगह केले के व्यवहार में लाएँ। पत्र के रस से ३१ पुट देने को कहा है।) अस्तु, टैनिक एसिडको ११ रत्ती (३० ग्रेन) की (वृ० रस० रा० सु० ज्वर चि०।) मायामें एक पाव गरम पानी में मिलाकर पिलादें अञ्जन विधिः anjana-vidhih-सं० पु. और यदि आवश्यकता हो तो ऐसी एक एक ( Method of using collyrium ). माना औषध और २-३ बार पिलादें, या (२) नेत्रप्रसाधन भेद,अञ्जनकर्म यथा-दोष पकने के पश्चात् माजू चूर्ण १ तो० पावभर पानी में जोश देकर योग्य अञ्जन आँजना चाहिए। जो पदार्थ नेत्रों या (३) कीकर की छाल १ छ० अर्द्ध सेर जल में अाँजा जाता है,वह अञ्जन कहलाता है । गोली, में कथित कर पिलाद या तेज़ चाय अथवा रस, और चूर्ण रूप से अञ्जन तीन प्रकार का काफी पिलादे और जब वमन बन्द होजाय तब होता है। इनमें चूण से वटी बलवान है, और पुनः अण्डों की सुफेदी जल वा दुग्धमें फेंटकर या वटी से रस बलवान् है । केवल दुग्ध ही पिलादें। वेदना शमन हेतु अफ्रीम .' अञ्जन को सलाई अथवा अँगुली से आँजना सत्व ( मारनीन का) स्वस्थ अन्तःक्षेप करें । चाहिए। गोली रूप अञ्जन से रसरूप अञ्जन निर्बलता हरण हेतु उत्तेजक औषध उपयोग में और रसरूप अञ्जन से चूर्ण रूप अञ्जन लाएँ या कुचला सत्व (स्ट्रिक्नीन) अथवा निर्बल है। प्रागुक्र प्रत्येक अञ्जन के स्नेहम डिजिटेलिस का स्वस्थ अन्तःक्षेप करें । रान रोपण और लेखन आदि तीन भेद होते हैं । क्षार, और बगल में उप्ण जल की बोतलें लगाएँ।। कड़वे (तीचण भा० प्र० ख० १) और खट्टे नोट-बटर श्राफ ऐण्टिमनी के वे ही अगद रस वाले अञ्जन को लेखन कहते हैं। (यह हैं जो खनिजाम्लों के। इस लिए देखिए-खनि अञ्जन नेत्रों में, पलकों में, नसों के समूह में, कान में और कपाल की हड़ी में रहने वाले दोषों FITFT ( Mineral acids ) को स्थान से गिराकर मुख से, नाक से तथा नेत्रों अञ्जनयुग्मम् anjana-yugmam-सं० स्त्री० से निकाल देता है । ) कषैले तथा कडुए रस साताजन और रसाञ्जन । वा. सू० प्रियंगु वाले और स्नेह युक अञ्जन को रोपण अञ्जन श्रादि । देखो-अञ्जनम् । कहते हैं । स्नेह तथा शीतल होने से रोपण अञ्जन अञ्जन रस: anjana-rasah-सं० पु..(१) वर्ण को उत्तम करता है और दृष्टि के बल को पारा, मिर्च, इन्हें बराबर ले पीसकर नस्य दे तो भी बढ़ाता है। (भा० प्र० ख०१.) । सग्निपात ज्वर दूर हो । ___ मधुर रस युक्र और स्नेह युक्र अञ्जन स्नेहन (२) हींग, फिटकरी इन्हें पीसकर नस्य देने कहलाता है ( स्नेहन अञ्जन रष्टि के दोष को For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रअनविधिः অনাৰিা शुद्ध करने के लिए और दृष्टि को स्निग्ध करने थका हुअा, बहुत रोया हुत्रा, भयभीत, मद्यपान के लिए उपयोगी है। भा०प्र० ख०१। अंजन किया हुआ, नवीन ज्वर वाला, अजीर्ण रोगी और तीक्ष्ण (लेखन ) हो तो उसकी मटर (एक जिसके मल मूत्रादि के वेग का अवरोध हो गया अंडी के बीज की बराबर ) के समान गोली हो उनको प्रअन नहीं लगाना चाहिए। (भा० बनानी चाहिए और मध्यम ( दृष्टि का बल म.२)। जिनको अञ्जन आँजने का निषेध बढ़ाने के लिए ) अर्थात् तीक्ष्ण न हो, किया है। उनके अञ्जन प्रांजे तो नेत्रों में लाली और कोमल भी न हो तो उसको १॥ (मटर के होती है, नेत्र सूजे से होते हैं, तिमिर, शूल, बराबर गोली बनानी चाहिए और कोमलं ( दृष्टि तथा दोषों का कोप होता है, और निद्रा का नाश को स्निग्ध करने वाला) हो तो उसकी २ मटर होता है। (भा० प्र० ख०१ श्लो०५८) के बराबर गोली बनानी चाहिए । आँख में यदि अन शलाका anjana-shalasa-सं० रसांजन अर्थात् रसरूप अंजन डालना हो तो ETO (A stick or pencil for the तीन वायविडंग के बराबर डालना उत्तम है application of collyrium । सलाई, (एक वायविडंग के बराबर-भा० प्र० ख०१), सुरमा लगाने की सलाई। दो वायविडंग के बराबर डालना मध्यम है और अञ्जना anjana-सं० स्त्री० मादा हाथी, हथिनी। एक वायविडंग के बराबर डालना कनिष्ट है ! (A female-elephant) चूर्णरूप अंजन जो स्नेहन हो तो उसकी चार सलाई आँख में लगानी चाहिए, रोपण हो तो अञ्जनादिः anjanādi-सं० स्त्रो० मैनशिल और उसकी तीन सलाई और जो लेखन हो तो उसकी पारावत ( कबूतर ) की बीट का अञ्जन करें तो दो सलाई नेत्रों में लगानी चाहिए। आँजने की अपस्मार विशेषकर उन्माद का नाश हो । सलाई दोनों ओरके मुखों से सकुची हुई, चिकनी, मुलही, हींग, वच, तगर, सिरस बीज, कूट, पाठ अंगुल लम्बी और उनके दोनों मुख मटर लहसुन, इन्हें बकरों के मूत्र में पीस नेत्रानन के समान गोल और वह पत्थर अथवा धातु करने से तथा नस्य देने से अपस्मार और उन्माद की होनी चाहिए । स्नेहनांजन आँजना हो तो दूर होता है । पुष्य नक्षत्र में कुस' का पित्त लेकर सोने अथवा चाँदी की, लेखन अंजन ऑजना हो अन्जन करें तो अपस्मार दूर हो या उसी पित्त तो ताँवे, लोहे, अथवा पत्थर की सलाई होनी में घृत डालकर धूप दे तो अपस्मार ( मृगी) चाहिए और रोपण अंजन आँजना हो तो दूर हो ! चक्र०६० अपस्मार-चि० । कोमल होने के कारण उसके आँजने के लिए निर्मली, शंख, तेन्दू, रुपा, इन्हें स्त्री के दूध अंगुली हीदीक है। में काँसे के पात्र में घिस अञ्जन करें तो व्रणसहित काले भाग के नीचे श्राख के कोये तक अञ्जन नेत्र की फूली दूर हो । रत्न, शंख, दन्त ( हाथी आँजे । हेमन्त ऋतु में और शिशिर ऋतु में मध्याह्न दाँत), धातु (रूपा), त्रिफला, छोटी इलायची, के समय अञ्जन आँजना चाहिए। ग्रीष्म और करा के बीज, लहसुन, इनका अञ्जन फूली के शरद ऋतु में पूर्वाल के समय अथवा अपराल के व्रण को दूर करता है तथा श्रवणशुक्र, गम्भीर समय अञ्जन आँजना चाहिए । वर्षा ऋतु व्रण शुक्र, त्वग्गत शुक्र इन्हें भी दूर करता है। में बादलों के न होने पर तथा जब बहुत (पं० से. नेत्र रो० चि०।) गरमी न हो उस समय अञ्जन आँजना अञ्जनादिगणः an janādi-ganah-सं० पु. चाहिए और वसन्त ऋतु में सदैव अंजन सौवीराजन, रसाञ्जन, नागकेशरपुष्प, प्रियंगु, करना चाहिए, अथवा प्रातः और सन्ध्या दोनों नीलोत्पल, उशीरतृण (खस), नलिन, मधुक समय अजन आँजना उचित है, किन्तु निरन्तर और पुमाग । सु० सू०३० अ०। स्रोताअन, न आँजे । सौवीराजन, प्रियंगु, जटामांसी, पद्म, उत्पल, For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनाधिका १८६ प्रजनी रसौत, इलायची, मुलहठी प्रभृति द्रव्य विष | और अन्तर्दाह तथा पित्तनाशक हैं । वासू० १५ १० । सुर्मा, फूल प्रियंगु, जटामांसी, सफेद कमल, नीलकमल, रसांजन, इलायची, मुलहठी, नागकेसर'। यह गण विष अन्तर्दाह तथा पित्त- | शामक है। बं० सं० द्रव्यगणाधिकारे । अञ्जनाधिका anjanādhika-सं० स्त्री० (1) ___ काली कपास का सुप। देखो-कालाअनो। (२) अञ्जनी, लेपकारिणी । अाजनाइ-बं०। हारा० । हे० च० ४ का। क्षुद्रमूषिका। अञ्जनाम्भः anjanambhah-सं० लो० अञ्जन जल, लोशन, चक्षु प्रसाधनार्थ औषधीय द्रव । . लिक्विड कॉलीरिश्रम् ( Liquid colly rium ), ug TICT ( Eye water ) -ई० । वै० श.। अञ्जनिकः anjanikah-6. पु. गंधरास्ना। वै० श० । अनिका anjanika-सं० स्त्री० देखो-अञ्ज नाधिका। डाँगरी । लु० क.। अजनी anjani-सं०स्त्री० (१) कटुका (-की)-60 कुटकी-हिं । पिक्रोहाइजा करॊश्रा ( PicTorrhiza kuroa)-ले०। (२) काली कपास । देखो-कालाअनी । रा०नि०व०४।। (३ )-हि. संज्ञा स्त्री० अञ्जननामिका । अञ्जन, याहिक, कुर्प, लोखण्डी ( फा० ई० २ भा०), लिम्ब (ई० मे० प्लां.)- मह । काशमरम (फा० इ०२ भा० ', कायमपूवूचेड्डि, केसरी-चेड्डि (इं० मे० प्लां.)-ता० । अल्लिचेड्डु-(चेटु) ते० । सुर्प (फा० इं० २ भा०), लिम्ब-तोलि-कना० । वारी-काह, सेरू काय । -सिं० । काशवा-मल | अंजन, याल्कि, लोखण्डी -बम्ब०। कालो कुडो-कों० । मेटिङ्कटोरियम् ' M. Tinctorium, मेमीसीलोन ईडशुली . (Memecylon Edule, Road.)-ले०। प्रायन वुड ट्री (lion wood tree)-इं०। मे० कमेस्टिवल ( Memecylon Comestible)- फ्रां० । मेलास्टोमेसोई वर्ग (.1.0. Melastomaceue.) उत्पत्ति स्थान-पूर्वी व पश्चिमी प्रायद्वीप और लङ्का। वानस्पतिक विवरण-अञ्जनी के लघु वृक्ष अथना झाड़ियाँ होती हैं, जो पर्वती भूमि में उत्पन्न होती हैं । "फ्लोरा अॉफ ब्रिटिश इण्डिया" में इसके द्वादश भेदों का वर्णन किया गया है। यह एक बृहत् झाड़ी है जिसमें चमकीली हरित वर्ण की पत्रावली और निम्न शाखाओं में नीला. भायुक्त बैंगनी रंग के पुष्प-गुच्छ लगते हैं। चौथाई इंच व्यास के फल लगते हैं। इसके सिरे पर चार पंखड़ी युक्र पुष्प-वाह-कोष ( Calyx ) लगा होता है। फल खाद्य है । किन्तु कषेला होता है । पत्ते १॥ से ३॥ इं० लम्बे, १ से ११ ई० चौड़े, सम्पूर्ण (अखण्ड), दृढ़, चमोपम, पत्र-डंडी लयु, अत्यन्त अस्पष्ट पार्श्विक शिरायुक्र होते हैं। ये सूखने पर पीताभायुक्र हरितवर्ण के हो जाते हैं । स्वाद-अम्ल, तिक्त और कसैला। रसायनिक संगठन-पत्रमें लोरोफिल (हरिन्मूरि) के अतिरिक पीत ग्ल्यकोसाइड, राल (Resin), रञ्जक पदार्थ, निर्यास,श्येतसार, सेब का तेज़ाब, बेडौल रेशे (Crude fibre) और शैलिका ( silica)युक अनैन्द्रियक द्रव्य विद्यमान होते हैं। प्रयोगांश-मूल और पत्र ।। प्रभाव व प्रयोग-भारतवर्ष और लङ्का में इसके पत्र रङ्ग के लिए प्रयुक्त होते हैं। इसका विशेष प्रभाव रंग को पक्का करना है। इसलिए मदरास में चटाई बनाने वाले हड़, पता और मजीठ के साथ इसे विशेष रूप से उपयोग में लाते हैं । गम्भीर रकवर्ण उत्पन्न करने में वे इसे फिटकिरी से उत्तम ख़याल करते हैं। अञ्जनी शीतल और संकोचक है । इसके पत्ते का शीत कषाय (२० भाग में १ भाग ) आँख पाने में संकोचक लोशन रूप से व्यवहार में आते हैं और सूज़ाक एवं श्वेत प्रदर में इसका For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजबार ११० अजबार प्राभ्यन्तरिक उपयोग होता है । इसकी जड़ का काथ (१० में १) १। तो० से ३॥ तो की मात्रा में अत्यधिक रजःस्राव के लिए लाभदायी खयाल किया जाता है, (रो०)। अञ्जनी की छाल का चूर्ण सुगन्धित द्रव्यों, यथा-अजवायन, ( काली मिर्च और जदवार प्रभृति के चूर्ण के साथ मिलाकर इसे कपड़े में बाँधकर मोच पाने अथवा कुचल जाने में इसका सेक करें अथवा इसे लेप के काम में लाएँ। (वि० आइमाक)। डक्टर पीटर के दर्णनानुसार अञ्जनी पत्र बेलगाँव ( दकन ) में सूजाक के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इस हेतु इसको खरल में कुचलकर उबलते हुए जल में डाल इसका इन्फ्यूजन ( शीत कपाय ) तय्यार करना चाहिए । प्रजबार) anjabara-अ० किसी २ ग्रंथ में अजुबार अम्जुबार और अञ्जिबार भी पाया है। अङ्गबार होज़र, बंदक-फ़ा० । बु० म० । मिरोमती --सं० । ई० मे० मे०। मचूटी, इन्द्राणी, केसर, कुवर,निसोमली, बीजबन्द-हिं । मस्लून, बिलौरी अञ्जबार-६० । द्रोब-काश० । इन्द्रारू-सिंध । पॉलीगोनम् अविक्युलरी Polygonum Aviculare, पॉ० बिस्टोर्टा P. Bistotta Lin., पा० विविपरम P. viviparum-ले० । नॉटग्रास knot grass-इं० । फॉ० इं०। इं० मे० मे० । ई० मे० प्लां० । मेमो० । रिनोवी अोइसी Renonee oiseaux-फ्रां। पोलिगोनेशिई ( अखबार) वर्ग (V.O. Polygonaceae) उत्पत्ति स्थान-उत्तरी एशिया और यूरोप । वहीं से यह भारतवर्ष में लाया गया । फा० इं०३ भा० । पश्चिमी हिमालय, काश्मीर से कुमायूँ तक, रावलपिण्डी और डेकन | इं० मे० प्लां० । इतिहास-सर्व प्रथम यूनानी ग्रन्थों में अंजुबार का वर्णन किया गया है। अस्तु, दारूकरीदूस ( Dioscovides ) और लाइनो (Pliny) के ज़माने में यह रक्काघरोधक मदभेदनीय तथा मूत्रल प्रभाव हेतु उपयोग में श्राता था | जलनयुक्र प्रामाशयिक वेदना में इसके पत्र को स्थानीय रूप से प्रयोग में लाते थे और मूत्राशय एवं विसर्प संबन्धी व्यथा में इसका लेप करते थे। इसका रस तिजारी और चौथिया प्रभृति ज्वरों में, ज्वर चढ़ने से थोड़ी देर पहिले विशेषरूप से उपयोग में प्राता था। स्क्रियोनिअस (Scribonius ) का कथन है, कि चूँ कि यह प्रत्येक स्थान में पाया जाता है इस लिए इसको पालिगोनोस (Polygonos) कहते हैं । इब्नसीना तथा अन्य अरबी हकीम इसको असाउर्राई तथा बर बात नाम से पुकारते हैं । इनके विचार से अजुबार शीतल एवं रूह है तथा वर्णन क्रम में वे इसके उन्हीं गुणों का उल्लेख करते हैं जिसका वर्णन यूनानियों ने सर्व प्रथम अपने ग्रंथों में किया । फ़ारसी लेखक इसको हज़ार बन्दक कहते हैं । आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका कहीं भी वर्णन नहीं मिलता। हाँ! भारतवर्ष में हकीम लोग अबभी इसको उन्हीं रोगों में वर्तते हैं जिनका ज़िकर दीसकरीदूस ने किया है। वानस्पतिक विवरण-इसका वृक्ष प्रादमी के कद के समान होता है । मूल तन्तुमय, लम्बा अत्यन्त कठोर, कुछ कुछ कालीय; निम्न भाग शाखी एवं सिरा साधारण, श्यामाभायुक्र रक एवं विषम होती है । प्रकाण्ड अनेक, प्रत्येक दिशा में फैला हुआ,साधारणतः दण्डवत पड़ा हुआ,(नत) बहुशाखा युक्र, गोल, धारीदार अनेक प्रन्थियों पर पर्णसंयुक्र होता है। पत्र-एकांतरीय अर्थात् विषमवर्ती, डंल युक्र, मुश्किलसे एक इंच लम्बा, श्रण्डाकार या बछीके श्राकारका सम्पूर्ण (अखंड) अधिक कोणीय, एक नस से युक्र, किनारेके सिवा चिक , विभिन्न चौड़ाई वाला, पदार्थ अधिक चर्मोपम, पण कुछ कुछ धूसर अथवा नीला और डंठल की ओर गावदुमी होता है । पुष्प श्वेत गंभीर रन तथा हरित वर्ण से चित्रित होता है। बीज-त्रिकोणाकार चमकीले और काले रंग के होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजरह अज़रुत प्रयोगांश जड़ ( अधिकतर जड़ की छाल, अक्षरा anjara-फा० सिरियारी, सिरवाली-हिं० । अथवा जड़के रेशे ) उपयोगमें पानी है । स्वाद- अज़रान aanzalāna. अ. आज़रबू। लु०क०। फीका । प्रकृति-३ कता में ठंडी और रूक्ष है। अञ्जरूत anzaruta-अ. सिर०,अजरूत । गूजर हानिकर्ता-शीत प्रकृति को । दपनाशक-सोंठ, -बम्ब०। यह गूज़द (फ़ा०) शब्द का अपभ्रंश शहद । प्रतिनिधि-ज़रिश्क और गिले अरमनी । है । "मरज नुल् अद्वियह.के लेखक जीर मात्रा-४ से ६ मा० तक । मुहम्मदहुसैन महाशय के विचार से इसके पर्याय रासायनिक संगठन-अजुबार सत्व अर्थात निम्न प्रकार हैं, यथा-कुह ल फारसी (फारसी पॉलिगोनिक एसिड ( Polygonic acid ), अञ्जन ), कुह ल किर्नानी ( किर्नानी अजन) कषायाम्ल ( Tamic acid), माज्वाम्ल -अ० । अञ्जदक, कुञ्जद, अगरधक, कुन्दरू (Gallic acid), श्वेतसार और कैल्सियम् -फा० लाई,लाही-हिं० ऐस्ट्रागैलस सकोकोला rafidz ( Calcium oxalate ) ( Astragalus sarcocolla, Dy. गुण, कर्म, प्रयोग-(१) सम्पूर्ण अवयवोंके mock.) रुधिरका रुद्धक, फुप्फुस और विशेष करके वक्षः लिग्युमिनोसी अर्थात् शिस्बो वर्ग स्थल के रुधिर का रुद्धक है। (२) पित्त और (N. O.leguminosce.) रुधिर के दाह का शमनकर्ता । ( ३) बवासीर उत्पत्तिस्थान-कारस । सम्बन्धी रुधिर, प्रवाहिका, वमन और जीर्णातिसार (पुराने दस्त) का बद्धक और नज़लाओं इतिहास-यद्यपि पूर्वी देशों में आज भी अज़रूत अधिकता के साथ उपयोग में प्राता का रुद्धक है। (४) इसका चूण क्षता पर बुरकने से रतस्राव रुककर वे भरने लगते हैं। है, तो भी वर्तमान कालमें लोग युरूपमें मुश्किल (निर्विषैल). से इसे जानते हैं । दोसकरीदूस ( Diosco. rides ) हमें बतलाता है कि यह एक फारसी अजुबार श्लेष्मानिस्सारक, मूत्रविरजनीय, वृक्ष का गोंद है जो चू: किए हुए लोबान के बल्य, सङ्कोचनीय और परियायज्वरनिवारक है। सरश और सुर्तीमायल तथा कुछ कुछ तिक इसकी जड़ का काथ (१० भाग में १ भाग) स्वाद यक्त होता है। इसमें जख़्मों के बन्द करने २॥ तो० से ५ तो० की मात्रा में जनशन और चक्षुश्रावावरोधक गुण है । यह प्रस्तरों(पला(Gentian ) के साथ विषम ज्वर ( Mal स्टरों ) का एक अवयव है इसमें गोंदों का alia ), पुरातन अतिसार और अश्मरी रोग मिश्रण करते हैं। में तथा रक्रकेशिका सम्बन्धी कास, कुकुरखाँसी और अन्य फुप्फुसीय रोगों में भी व्यवहृत होता प्लाइनो ( Plimy) उन्हीं गुणों का वर्णन है । इसका रस भी लाभदायक है। श्वेतप्रदर करता है और इतना विशेष बतलाता है कि चित्रकार इसकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं । तथा व्रणों में इसका क्वाथ पिचकारी द्वारा (पाव इटनलोना करते हैं कि यह बिना ख़राशके व्रणों धोने में) व्यवहृत होता है तथा मसूड़ो की सूजन को पूति करता एवं अंकुर लाता है। प्रस्तर और कव्वा लटक आने पर इसकी कुल्ली करना (प्लास्टर) रूप से उपयोग करने पर यह सर्वोत्तम है | इं० मे० मे। समस्त प्रकार के शोथों को लयकता है। नासिका प्रभृति से रक्तस्राव को रोकने के लिए मसीह इतना विशेष बतलाते हैं कि यह तीक्ष्ण अजुबार उपयोग में आता है । वि० डाइमॅाक रेचक है और कफ एवं विकृत दोषों को निकाइसकी सूखी जड़ का वेदनाशमन हेतु वाह्य लने के लिए उत्तम है। हाजी जैनुल अत्तार प्रयोग होता है । (स्टुवर्ट ). कहते हैं कि इसका फारसी नाम गूज.५ है और अक्षरह anjarah-फा०, अ० देखा-अञ्जरह । । जिस वृक्ष से यह निकलता है वह शीराज़ के For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रजरूतं निकट शबानका रह की पहाड़ियों में पाया जाता हैं । उक्त निर्यास का अन्य नाम जवुदानह है। जब यह पहिले निकलता है तब श्वेत होता है, किन्तु वायु में खुले रहने पर लाल होजाता है । अर्वाचीन लेखकों में “मख़्ज़नुल् अद्वियह” के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन हमें बतलाते हैं कि इस्फ़हान में श्रञ्ज रूत को कुज्जुद और अगरधक कहते हैं (शेषके लिए देखो-पर्याय सूची ) । आप के कथनानुसार यह शाइकह नामक काँटेदार वृक्ष का गोंद है जो ६ फीट ऊँचा होता है श्रीर जिसके पत्र लोबान पत्र सदरा होते हैं । इसका मूल निवास स्थान फारस और तुर्किस्तान पुनः वे उन श्रौषध का ठीक विवरण देते हैं । आयुर्वेदीय ग्रन्थों में इसका कहीं भी जिकर नहीं पाया शाता । वानस्पतिक विवरण - साकोला के न्यूनाधिक सामूहिक एवं अत्यन्त विचूर्णित दाने होते हैं । यह अपारदर्शक अथवा अर्धस्वच्छ होता है और गम्भीर रक्त से पीताभायुक्त श्वेत अथवा धूसर वर्ण में रूपान्तरित होता रहता है । इसमें मुश्किल से कोई गन्ध पाई जाती है । इसका स्वाद अत्यन्त कडुश्रा और मधुर होता है । उत्तप्त करने पर यह फूलता है और जलते समय इसमें से जले हुए शर्करा की सी गन्ध आती है। सार्ककोला ( श्रञ्ज रूत ) निर्यास फ़ारसी बन्दरगाह शायर से थैलों में बम्बई आता है । इसके अन्य भागों का विवरण निम्न प्रकार है- . फल – डंठल छोटा, पतला, पुष्प वाह्य-कोष अण्डाकार, घरट्याकार, भूसी संयुक्र, इच लम्बा, ५ तंग विभाग युक्र ( पञ्च सूक्ष्म खण्ड• युक्त ) और खुला हुआ होता है । इसके भीतर पुष्पदल ( Petals ) और एक अण्डाकार, सख़्त, तुण्डाकार, फली जो धान के इतनी बड़ी और जिसका वाह्य धरातल एक घने सुफेद वर्ण के रोवों से श्रावरित होता है । यद्यपि फली पक जाती है तो भी पंखड़ियाँ लगी रहती हैं । उनमें से सबसे ऊपर वाली फणाकार होती और फली Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज़रू के तुण्ड भाग को ढाके रहती है । फली द्विकपटीय होती है, उभारकी सीवनसे लगा हुआ एक थोर धूसरवर्ण का उड़द सदृश बीज होता है, जिसका व्यास इच होता और जो जल में भिगोने से फूलता और फट जाता है एवं अंजुरूत समूह में निकल पड़ता है । कुछ छीमियाँ पतनय तथा निर्यासपूर्ण होती हैं । प्रकाण्ड श्रर्थात् तना- काष्टीय, जिसमें असंख्य प्रकाश मय गट्ठे होते हैं, कण्टकमय; काँटे से १ इंच लम्बे जो लघु शाखा सहित रोंगटों से आवरित होते हैं और जिन पर अज़रूत की पपड़ी जमी होती है 1 पत्र - कहते हैं कि इसके पत्र लोबान पत्र सहरा होते हैं । ( सर विलियम डाइमॉक ) प्रयोगांश-निर्यास | रासायनिक संगठन - पाकोकोलीन ६५.३०, निर्यास ४.६०, सरेशी पदार्थ --- ३:३०, काष्ठीय द्रव्य प्रभृति २६८० | सार्केौकोलीन ४० भाग, शीतल जल तथा २५ भाग उबलते हुए जल में घुलनीय है । (गिर्ट ) मात्रा - २ | मा० से ४ ॥ मा० ( ४ रती से १ मा० ) | प्रकृति - दूसरी कक्षा के अन्त में उष्ण और उसी कक्षा के आरम्भ में रूक्ष । हानिकर्ता श्रांत्र को । ५ दिरम पिसा हुआ विशेषकर अभ्रक के साथ विप है । दर्पनाशक कतीरा, बबूल का गोंद और रोशन बादाम प्रभुति । प्रतिनिधि - इसके समभाग एलुश्रा और कुछ श्र धिक निशास्ता । मुख्य प्रभाव - व्रणववशोषक और नेत्ररोग को लाभ पहुँचाता है । गुण, कर्म, प्रयोग - यद्यपि इसमें एक प्रकार की रतूत भी होती है। जो इसकी खुश्की के साथ दृढ़ता पूर्वक मिली हुई हैं, किन्तु, तो भी खुश्की ग़ालिब रहती है । इसी कारण बिना कांतिकारी गुण एवं तीच्णता के यह आर्द्र · ताशोषक है और इससे यह व्रणो को पूरित करता है, क्योंकि यह उस राध और उन पीत द्रवों को जो व्रणों को भरने नहीं देते नष्ट कर देता है । अपने ल्हेश के कारण व्रणों के किनारों को जोड़ देता है । For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org भारत অঞ্জলিঙ্কাঙ্কিা आँख पाने को अन्त में लाभप्रद है, क्योंकि है। इसका पीना गर्भपातक और कृमिघ्न है। बिना कांतिकारिणी गुण एवं कष्ट के दोषों को तरबूज के पानी में तर किया हुआ शरीर को लयकरता है और नेत्र की ओर बहकर आनेवाले धृहण कर्ता है । यह वायु लयकर्ता, रोधउद्घाटक द्रवों को रोकता है। संधियों से गाढ़े दोषों को और श्लेष्मानिस्सारक है । दस्त द्वारा विसर्जित करता है। क्योंकि इसमें एक तिक अंश है जिसकी क्रिया में तस्वीन अञ्जरूत लेपन औषधियों का एक प्रधान अवयव (खुरदरा कारिख ), नु जुज ( परिपाक ), है । पारसी लोग इसके साथ रुई मिलाकर टूटी तफ्तीह. ( स्रोतावरोधन ) और तह लील हुई अथवा मोच श्राई हुई अस्थियों तथा निर्बल ( विलायन ) समावेशित हैं। परन्तु किसी सन्धियों में भी उनको सहारा देने के लिए किसी के विचारानुसार उसकी यह क्रिया ( गाढ़े इसका उपयोग करते हैं । साधारण लेपन योग दोषों को दस्त द्वारा निकालना) केवल इसकी निम्न है - खासियत की वजह से है। अज्ज़रूत ३ भाग, जदवार १ भाग, एलुमा ( नफ़ो०) सकोतरी १६ भाग, फिटकरी ८ भाग, मैदालकड़ी अज़रूत रेचक और विकृत एवं श्लैष्मिक ४ भाग, गूगल ४ भाग, लोबान ७ भाग और दोर्षों को लयकर्ता है। निशोथ तथा हड़ उसारह रेवन्द १२ भाग । इन समस्त औषधों • प्रभृति के साथ मिलाकर उपयोग में लाने से का बारीक चूर्ण कर पुनः जल मिलाकर सिल यह सर्वोत्तम प्रभाव करता है। अपस्मार में एरंड बट्टा द्वारा इसकी लुगदी प्रस्तुत कर उपयोग में तेल के साथ मिलाकर भीतरी रूप से और नेत्र । लाएँ । ( वि० डाइमॉक) द्वारा जलस्राव होने पर इसका स्थानीय उपयोग अञ्जल anjala-खित्मी, खैरू । ( See-Khiहोता है। संधिवातनाशन और कृमिघ्न प्रभाव | _tmi ) लु० क०। हेतु इसका प्राभ्यन्तरिक प्रयोग होता है। __हण प्रभाव हेतु मित्रदेशीय स्त्रियाँ इसे अञ्जलिः anjalih-सं० पु० (१) प्रसूति द्वय भक्षण करती हैं। मात्रा प्राधा से २ मिस्काल है। (=१६ तो०); ३२ तो० (प० प्र०१ख०)। अधिक मात्रा में प्रांत्रीय ग्रंथ्यवरोध के कारण (२) कुडपः (वः) मान (=३२ तो०, ८ यह घातक सिद्ध होता है। अंजन रूप से उपयोग वा ४ पल )। रत्ना० नानार्थः। भा० उ० करने के लिए इसे गधी के दूधमें रगड़ना चाहिए। वाजी० । (३) अझलिपुट, करसम्पुट, अँजुरी । तत्पश्चात् इसको चूल्हे में यहाँ तक शुष्क करें मेलत्रिकम् । कि यह हलका भुन जाय, पुनः घोट कर अंजन अञ्जलिका anjalika-सं० स्त्री० (१) लजा. प्रस्तुत करें । इसका प्लास्टर (प्रलेप) सम्पूर्ण प्रकार लुका । (२) तुद्रमूषिका । जटा०। के शोधों को लयकरता है। प्याज के भीतर अञ्जलिकार anjalikāra-प्रोषधि विशेष । भरकर अग्नि पर भूनकर इसका रस कान में कौटि० अर्थ। टपकाने से कर्णवेदना शमन होती है। अञ्जलिकारिका anjalikārika-सं० स्त्री० (मीर मु० हुसेन ) लज्जालुका, लज्जालु, छुईमुई । माइमोसाप्युडिका अज़रूत, श्वेत सीसा प्रत्येक २ भाग, (Mimosa Pudica )-ले० । सेन्सिटिव निशास्ता ६ भाग इनको खूब घोटकर बारीक चाल प्लाण्ट (Sensitive plant) इं०। रा० लें । यह उत्तम अंजन प्रस्तुत होगा । नि० व० ५। भा० पू० गु० व०। (२) (तिब्बे अकबरी) वराहक्रान्ता, वाराहीकन्द-हिं० । लाइको. मोती, मूंगा जलाया हुश्रा और मिश्री पोडिअम् इम्बिकेटम् ( Lycopodium समभाग के साथ आँख की सफेदी को लाभदायक imbricatum )-ले०। २५ For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जलिनी १६४ अञ्जलिनी anjalini-सं० स्त्रो० लजालुका, छुईमुई-हिं० । देखो-लजालु । वै० श० । दी सेन्सिटिव प्लाण्ट (The sensitive plant)-इं०। अञ्जलिपुटः,-पुटं anjaliputah,-putam -सं०पू०,क्ली०( The Cavity formed by joining the hands together') कर सम्पुट । अञ्जलि । अक्षस,-सी anjas,-si-सं० त्रि०, स्त्री० ( Not _crooked, straight) सरल, सीधा ।। अञ्जस anjas-अ० अशुद्धतर, अत्यन्त अपवित्र (नजिस ), बहुत पलीदा । म० ज० । अञ्जायना पेक्टोरिस angina pectoris-इं० हृच्छूल । अचिवम् anjivam-सं० क्लो० प्रकट कामी। अथः । सू०६।६ । का० । अञ्जिष्ठः, छुः anjishthah,-shthuh-सं० पु. ( The sun ) सूर्य । अञ्जोरः alljirah-सं० पु०, फा०, हिं०, संज्ञा पु. बं०, द०, अंजीर का०, म०, गु० । मजुलं (-लः),काकोदुम्बरिकाफलं, अंजीर (वृक्ष) -सं० । अंजीरी, गुलनार, ख़बार, बेरू, बेडू, अजीर । ई० मे० प्लां०, मेमो०। (काक)डुमुर, अजीर, बड़ पेयारा गाछ,आँजीर-बं० । भगवार, काक, कोक, फेड़, इञ्जर, फाग, किम्रि, फगोरू, फागू, फोग, खबारी, फेग्रा, थपुर, जमीर, धूरू, दूधी, दहोलिया, फगूरी, फगारी (मेमो०)-पं० । फगवार-पश्तो०। अंजीर, इज़र-अफगा०। फेम्बी-राज० । धौरा-म० प्र० । पेपरी, अजीर -गु० । फगवार, थपुर-उ० भा० के मैदान। (इं०० प्लां०)। अञ्जीर-बम्ब० । शीमइ-अत्ति, तेन अत्ति ता० । शीम-अत्ति, तेने-अत्ति, अंजूस, मोदी पातू-ते० । शीम-अत्ति-मला० । बैण्डनेडकरना०। शीमे-अति-कना० । रट-अत्ति-का -सिं० । स-फान्-सी, तिम्बो-थान-दि, सिम्बो. सफान-सी-वर्मी । तीन, बल्स-अ०। सीडियम पॉमिनरम् ( Psidium Pomiferum, | Jinn.)-ले० काला उम्बर-मं । फिगू Figueफ्र० । फाइक्रस केरिका( Ficus carica, Linn.)-ले० । फिग ( Fig) ०। अश्वत्थ वा वटवर्ग (अर्टिकेशिई) __(N.O. Urticacea) उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवास स्थान फारस वा एशिया माइनर है । अब यह भारतवर्ष में भी बहुत होता है । अरबिस्तान, अफगानिस्तान तुर्किस्तान और अफरीका तथा बिलोचिस्तान और काश्मीर इसके मुख्य स्थान हैं। वानस्पतिक विवरण-अंजीर गूलर की ही जाति का एक वृक्ष है। इसमें स्थूल, गूदादार, खोखला, नासपाती की शकल का एक श्रावरण (receptacle ) होता है जिसकी भीतरी रुख पर सूक्ष्म फल समूह उत्पन्न होता है उक्त प्रावरण के सिरे पर एक छिन होता है। वह प्रथम ( अपरिपक्कावस्था में ) हरा, कठोर और चर्म सदृश होता है। कोई अस्त्र चुभामे पर उसमें से दुग्ध स्राव होता है। परिपक्कावस्था में वह मदु एवं रसपूर्ण हो जाता तथा दुग्धीय रस शर्करा रस में परिणत हो जाता है । छिद्र घिरा हुआ एवं अनेक छिलकों से आवरित होता है। उसके निकट तथा अंजीर के भीतर नरपुष्प स्थित होते हैं, किन्तु, प्रायः उनका अभाव होता है अथवा उनका पूर्णविकास नहीं हुआ होता । न पुष्प प्रावरण के भीतर कुछ दूरी पर स्थित होते हैं जहाँ वे परस्पर गुथे हुए और डंठलयुक्र होते हैं, इनमें पंच पंखड़ी युक पुष्पकोष और द्वयांशीय खुकल (Stigma) होता है। डिम्बाशय, जो साधारणतः एक कोषीय होता है, परिपक्क होने पर एक सूक्ष्म, शुष्क कठोर गिरी में परिवर्तित हो जाता है जिसे ही बीज ख़याल किया जाता है। (फार्माकोग्राफिया )। इसके लगाने के लिए कुछ चूना मिली हुई मिट्टी चाहिए । लकड़ी इसकी पोलो होती है। इस के कलम फागुन में काटकर दूर दूर क्यारियों में लगाए जाते हैं । क्यारियाँ पानी से खूब तर For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और श्रीर रहनी चाहिएँ । लगाने के दो ही तीन वर्ष बाद इसका पेड़ फलने लगता है और १४ या १५ वष तक रहता और बराबर फल देता है। यह वर्ष में दो बार फलता है। एक जे5 प्रसाद में | और फिर फागुन में । माला में गुथे हुए इसके | सुखाए हुए फल अफ़ग़ातिस्तान प्रादि से हिन्दुस्तान में बहुत आते हैं । सुखाते समय रंग चढ़ाने और छिलके को नरम करने के लिए या तो गंधक की धूनी देते हैं अथवा नमक और शोरा मिले हुए गरम पानी में फलों को दुबा देते हैं । भारतवर्ष में पूना के पास खेड शिवपुर नामक गाँव के अंजीर सबसे अच्छे होते हैं। पर अफगानिस्तान और फारसके अजीर हिन्दुस्तानी अंजीरों से उत्तम होते हैं । यह दो तरह का होता है, एक जो पकने पर लाल होता है, और दूसरा काला। प्रयोगांश-शुष्क प्रावरण अर्थात् ( अंजीर ) लक्षण-यह मृदु होता है इसके भीतर बहुत से कोष एवं बीज होते हैं। दबने से फल चपटे और बेकायदा हो जाते हैं। वर्ण--पीताभायुक धूसर, पर कोई कोई श्वेतामायक्र रक व श्याम । स्वाद--मधुर । वर्ण भेद से यह तीन प्रकार का होता है। यथा (१) पीत, (२) श्वेत और (३) श्याम । ब्रिटिश फार्माकोपिया के अनुसार स्मरना का अञ्चीर दवा के काम में आता है जो पीला होता है। रासायनिक संगठन -फल-इसमें द्राक्ष शर्करा (Grape sugar) ६२ प्रतिशत, निर्यास, वसा और लवण होता है। शुष्क अजीर में शर्करा, वसा, पेक्टोज, निर्यास, अल्ब्युमीन (अण्डे की सुफेदी) और लवण होता है। दुग्ध-में पेप्टोनकारी अभिषव (Peptonising ferment) होता है । गुण धर्म कप्रयोग प्रायुर्वेद में इसे शीतल, स्वादु, गुरु, रक्रपित्त, वात, क्रिमी, शूल, हरपीड़ा, कफ | और मुख की विरसता नाश करने वाला कहा है । मद० व०६। अजीर अत्यन्त शीतल, तत्काल रक्रपित्त नाशक, पित्त और शिरोरोग में विशेष करके पथ्य है तथा नाक से रुधिर गिरने को बन्न करता है । अजीर भारी, शीतल, मधुर, वातनाशक, रक्रपित्त हारी, रुचिकारो, स्वादु, पचने में मधुर तथा श्लेष्मा और श्रामवातकारक है एवं रुधिर विकार को दूर करता है । वृ०नि० र० । यूनानो ग्रन्थकार इसे ( ताजा अजीर) १ कक्षा में उष्ण और दूसरी में तर मानते हैं। हानिकर्तायक्रत, श्रामाशय और अधिकता से खाना दाँतों को । दपनाशक-वादाम और सातिर । प्रतिनिधि-चिलगोज़ा और दाख । ताजा अञ्जीर मुटुका , पोषक और शीघ्रपाकी है। कच्चा अजोर अत्यन्त जाली ( कांतिकारी ) है; क्योंकि इसमें दुग्ध बहुत ज्यादा होता है और पार्थिवांश की अधिकता के कारण यह सर्दी की ओर मायल है। शुष्क अजीर शीतोत्पादक है । जलांश की न्यूनता के कारण यह १ कक्षाके अन्तमें उष्ण और सूक्ष्म है । इससे पतला ख न उत्पन्न होता है जो बाहर की ओर गति करता है । अजीर सम्पूर्ण मेवों से अधिक शरीर का पोपण करता है। क्योंकि पूर्व कथनानुसार जलांशाधिक्य के अतिरिक्र पार्थिवांश की अधिकता भी है। भली प्रकार पका हुआ अजीर तकरीबन निरापद, होता है; क्योंकि इससे वह तीषण दुग्ध जो इसमें होता है, नष्ट हो जाता है और इसके पार्थिवांश में समता स्थापित हो जाती है। अधिक गूदादार अजीर शारीरिक दोषों का अधिक परिपाक करता है । क्योंकि गरम व तर होने के कारण दोष परिपाककारी ( मुजिज्) है। इसके गूदे में स्नेहोप्मा विशेषकर होती है। इसी कारण अधिक गूदे वाला अजीर अधिक . परिपाक करता है। इसमें अन्तिम कक्षा की कुव्वते तलय्यन (दोष मृदुकारी शक्ति ) है; क्योंकि इसकी उमा रतूबतों For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रऔर अधीर के बहाने पर अधिकार रखती है। परन्तु, शुष्कता उत्पन्न करने पर इसका कोई अधिकार नहीं होता अर्थात् यह शोषक गुण रहित है । यह स्वेदजनक एवं उत्तापशामक है। अजीर कान्तिदायक है; क्योंकि यह सूक्ष्म शोणित उत्पन्न करता है और उसको बहिर्भाग की और गति देता है। अपनी रतूबत, उष्मा और सूक्ष्मता के कारण इसका लेप फोड़ों को पकाता है। अपनी तीक्ष्णता ओर मधुरता द्वारा प्रामाशय को उत्तप्त करने के कारण यह उष्ण प्रकृति वालों को तृषान्वित करता है और उस पिपासा को जो खारी श्लेष्मा ( बल्ग़मशोर ) के कारण उत्पन्न हुई होती है उसको शमन करता है; क्योंकि यह बलराम ( श्लेष्मा) को विघलाता एवं पतला करता और काटता छाँटता है। अजीर पुरानी खाँसी को ला क्योंकि यह खाँसी केवल बलग़म से उत्पन्न होती है और अभीर बलराम को पिघलाता या न जुज (पका) देता एवं तह लील ( लय ) करता और दोषों से शुद्ध करता है। अपनी रोधउद्घाटक तथा कान्तिकारिणी शनि के कारण यह मूत्रविरजनीय है तथा यकृत एवं पीहा के रोध का उद्घाटक है। क्योंकि यह तीक्ष्ण मलों को त्वचा की ओर ... प्रक्षेपित करता है; अस्तु मूत्र उनसे रहित होता है, जिससे वस्ति में मूत्र सम्बन्धी कोई कष्ट नहीं होता । इससे सम्भव है कि मूत्र चिरकाल तक वस्ति में बिना किसी कष्ट के बन्द रहे। 'यह वस्ति और वृक्क प्रत्येक के लिए उपयुक्त है, क्योंकि यह कान्तिप्रदायक है एवं दोनों के मलों को मूत्र द्वारा विसर्जित करता तथा उनको त्वचा की ओर मायल कर देता है। निहार मुंह खाने से यह अन प्रणाली को खोलने में श्राश्चर्यजनक लाभ दिखलाता है। जब इसे अखरोर अथवा बादाम के साथ खाया जाता है तब यह अाहार से मिशित नहीं होता, जिससे इसकी वैयक्रिक शक्कि टूटने नहीं . पाती, क्योंकि उनकी चिकनाई अमीर के प्रवाह को जो तीषण दुग्ध के कारण होता है, तोड़ देती है। अखरोट के साथ इसका खाना अधिक पुष्टिकारक है। अंजीर ग़लीज़ (स्थूल ) आहार के साथ अत्यन्त रही होता है। क्योंकि वह इसको शरीर के वाह्य भाग की ओर गति देगा। अतः इससे वाह्य चेहरे में रोध एवं अन्य रोग होजाएँगे। __ इसका दुग्ध तीक्ष्णता के कारण रेचक है और रक एवम् दुग्ध को जमः देता है। क्योंकि इनके द्रवत्व को लय एवम् शुष्क कर देता है । यदि रक्त व दुग्ध जमे हुए हों तो उनको पिघला देता है क्योंकि यह अपनी तीक्ष्णता एवम् उत्ताप से दोनों के वनांश को पिघला देता है । (नफो०) यह वायु को लयकर्ता, अपस्मार (जगी), पक्षबद्ध पोर बहुधा कफ के रोगों को लाभकर्ता, प्रकृति को न कर्ता, ब्रम क्रम से रेचनकर्ता, रोध, प्लीह, शोथ, बहु मूत्रता और वृक्की कृशता को हरण करता है। इसका शर्बत कास को गुण कर्ता है। शुष्क सर्व कर्मों में हीन है। इसका मुख्य प्रभाव शरीर को स्थूल करना और क सीरुलिा जा ( जिसका अधिक भाग शरीर का भाग बने, जिससे अधिक रन बने ) है, विशेषकर उस अवस्था में जब इसे सोंफ के साथ ४० दिवस पर्यन्त सुबह को खाएँ । बादाम और पिस्तेके साथ भक्षण करनेसे बुद्धिवद्धक है । सुदाब के साथ विषघ्न, कुतुम बीज (कुसुम्भ) और बोरहे अरमनी के साथ विरेचन और अखरोट के साथ विशेष कर कामोद्दीपक है। इसका लेप खना ज़ीर को लाभप्रद है । इसका दुग्ध चतुत्रों में लगाना मोतियाबिन्द के लिए लाभदायक है। (बु० मु०, मु. १०) अजीर पथ्य सहज में पच जाने वाला और औषध रूप से उपयोग करने पर वृक्क एवं वस्ति संबन्धी अश्मरियों का नाश करने वाला और यकृत तथा प्लीहा के अवरोधों को दूर करने वाला है । यह गठिया एवं अर्श चिकित्सा में For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जोरी २९७ अजुकक व्यवहृत है । मुख व्रण में इसका दूध लगाया पूर्वीय सिन्धु नदी से लेकर अवध पर्यन्त, हिमाजाता है। बच्चों के यकृत रोग में इसका उपयोग : लय पर्वत ( ३००० फीट की ऊँचाई पर ) और लाभदायक है । शुष्क अजीर, बादाम की गुद्दी, श्राबू पर्वत । पिस्ता, इलायची छोटी, चिरोंजी, बेदाना, शकर ___उपयोग-इसके फलमे मुख्यतः शर्करा तथा इन सबको समभाग लेकर चूर्ण बनाएं और लुभाव वर्तमान होते हैं, तदनुसार यह स्नेहउसमें किञ्चित् केसर मिलाकर पुनः उसे पाठ जनक एवम् कोष्ठ मदुकर प्रभाव करते हैं । कोऽरोज तक गोघृत में डुबो रक्लें । मात्रा-२ तो० वद्धता (विवन्ध ), फुफ्फुस एवम् वस्ति रोगों में प्रति सुबह । गुगा-अत्यन्त पुष्टिकारक एवं यह मुख्यकर पथ्य वा आहार रूप से व्यवहार में कामोद्दीपक । पाते हैं। इनका पुल्टिस रूप में भी प्रयोग होता __२ या ४ त जे अजोर और थोड़ा सा शर्करा है। ( Punjab Products.) चर्ण इन दोनों को मिलाकर रात्रि में प्रोस में । अक्षरेह मक anjire-ahmaqa फ़ा. गुल्लर, खुला हुअा रक्खें और सबेरे इसे खाएँ। इसी गलर-हिं० । फाइकस ग्लोमरेटा Ficus प्रकार पक्षभर करें । गुण-सारीरोजाशामक, glomerata, Ro:).(Fruit of-)-oto निर्बल मनुष्य जिनके पोष्ठ, ज़बान और मुख अञ्जारे आदम anjire-adama-का० गुल्लर, चिड़चिड़ाते हों उनके लिए ताजा अंजीर उत्तम गूलर-हिं० । किसी किसी ने अन्य फल का नाम बल बदक श्रीपर है । ई० मे० मे० । लिखा हैं जिसको हिन्दी में "कलह" कहते हैं । विष्टब्धता, वस्ति तथा फुफ्फुस व्याधि में यह काबुल के पर्वतों पर उत्पन्न होता है । हकीम पथ्य रूप से इसका विशेष उपयोग होता है । अली गोलानी के कथनानुसार एक भारतीय वृक्ष (इं० मे० प्लां०) का फल है जो इन्द्रायन के समान गोल और डॉक्टर। मत ' रक वर्ण का होता है । लु० क. । प्रिटिश फार्माकोपिया में अजीर अंफिशल है। अञ्जोरे दश्ती anjire-dashti-फा. काकोप्रभाव-मभेदक या कोष्टमृदुकारी । यह दुम्बरिका सं० । कटूमर, कटूम्बरी, कठगूलर, कन्फेक्शियो सेना में पड़ता है । प्रयोग यह जंगली अञ्जीर-हिं० । देखो-कटुम्बर । Ficus सुस्वार और पोषक मेवा है । साधारण विष्टब्ध ___ oppositifolia, Rorb. ( Fruitof-) रोग में इसके कुछ दाने निहार मुंह खाने से -ले० । लु० क० । स० फा० इं० । कब्ज दूर हो जाता है । किन्तु, इसके बीज प्रांत्र में किंचिद्घर्षण करके कुछ मरोड़ उत्पस करते हैं। अओरेनेपाल anjire-naipāla-यज्ञछाल पा० । अञ्जीरो anjiri-हिं० संज्ञा स्त्रो० खबार, गुलनार, बेड, बेडू । फाइकस पामेटा ( Ficus Pal- अजारे वगदादी anjire-baghdadi फ० अखरोट वृक्ष के बराबर लम्बा एक वृक्ष है जिसके mata, For's... )-ले० । भगवाड़, काक, कोक, हेडू, इंजर, फाग, किर्मी, फगोरू, फागू, पत्ते चिनार पत्र सदृश और फल अञ्जीरके समान फोग, खबारी, फेना, थपुर, जमीर धूइ, धूडी, होते हैं । रुक अयमाना (देखो ) का फल । दहूलिया-पं० । फगवार-पश्तु० । अंजीर, इंजर लु० क०। -अफ़० । केब्री-राजपु. धौरा-म० प्र०। | अञ्जीरे यमन anjire-ya mana-फा० अंजीरे मेंपरी-गुजः । भगवार, थपुर-(ऊर्ध्व भारतीय बगदादी । लु० क. । मैदान) । ई० मे० प्लां० । | अोलक anjilaka-माज़न्दरानी खुब्बाज़ो का वटादि वर्ग पौधा । लु० क० ।। (N. 0. Urticacea.) अञ्जीश anjisha-सिराजुल कुत रब । लु० क० । उत्पत्तिस्थान-उत्तर पश्चिम भारतवर्ष, अजुकक anjukak-फ़ा० Pyrus comm For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ unis, Linn. )-ले० । अक्षकक, अतुम प्रक्षेलिका श्रालिका angelica-archanहिंदी। gelica-ले० । सुबुल खताई । बालछडभेद । अञ्ज दान anjulan काश. हींग, हिंगु-हि० ० हैं. गा० । Assafoetida-फा०६०। | अञ्जलिका गार्डेन angelica-garden-ई. अञ्ज बार anjubar-अ० मीरोमती-सं० । देखो - सुबुल् ख़ताई । बालछड़भेद । इहै. गा० । ATUIT Polygonuin aviculare. taip ir angelica-glauca, अञ्जवारे रूमो anjubare-lumi-अ० Edge.-ले । चोरा या चना-पं० । मेमो०। यह औषध तथा भोजन के काम में आती है। प्रसिद्ध । यह फारस से भारतवर्ष में लाया प्रयोगांश- जड़ या पौधा । जाता है । यह एक वृक्ष की जड़ की छाल है जो मोटी, सङ्कोचक और ललोई लिप अञ्जालका रूट angelica-root-. बीख धूसर वर्ण की होती है । फा० ई०। सुबुल् ख़ताई । अंगलीनह । न्यालछड़ मूल । अजेलिका सीड angelica-seed-इ. अञ्ज रक anjurrak- मज़ ओश। लु० क० । तुम सुबुल् खताई । बालछड़ बीज । अञ्ज रतुदा anjulatussoudaa-अ० अञ्ज लिम् angelim-ई. जोंकमारी । जैंगनी । स्याह (काली) उङ्गन या एक घास है जो नाग फा० ई। शुद्धि तथा उसके हल करने में काम आता है। | अञ्जलिम् श्रमरगोसो angelim-amargoso अञ्ज रह, anjurah-फ़ा० करीज़, करीजुल कल्ब, -इ. अरारोबा। (Araroba) फा० मुजरीबुल्कलाब अ०। कुर्नह-शीराज़ | कजीत- इ० १ भा०। तु० ! उटजन, उटङ्गन-हिं० । फा० इं. ३ | अञ्जलिम् श्रासिस angelim-al ven sis भा० । मु० अ० । म० अ० । अटिका पिल्यु- -ले० । जोंकमारी । जैंगनी । फा० । लिफरा Urtica pliulifera, Linn.) एक अन्जेली वुड anjelly-wood-ई. यह एण्टिबूटी के बीज है जो अलसी या तालमखानाके सदृश एरिस हिस्युटा ( Antiaris hirsuta) होते हैं। किसी किसी के मतसे अमजुरह और नामक वृक्ष से प्राप्त होता है । इसको दक्षिण उटङ्गन भिन्न भिन्न बीजे हैं। भारतवर्ष में अञ्जली वुड और मालाबार में अअञ्ज लो anjuli-1 -हि. संज्ञा स्त्री० [सं०] यानी कहते हैं । वहाँ यह अधिकता के साथ अञ्जरा anjuri-J अंजलि । दे०-श्रअली, होता है। फा० इं०३ भा० । अँजली। अञ्जोह. anjoh-अ० ऊद, अगर । ( Aloe अञ्ज सा an jusā यु० रतनजोत । Alkanet wood.) लु० क०। लु० क० । फा० इं० । अजनक कल्ल anjanak-kalla-मल० सुर्मा । अञ्जरक anjārak-फा० (१) रुतीला हिं० । 87537A ( Antimonii Sulphuretमकड़ी का बड़ा भेद । लु० क० । (२) um-)ले० । स० फा० इ० । मर्ज़जोश। अज्म-ज़बोत्र aajma-zabiba-अ० मुनला । अञ्ज रू anjur -ते. अीर (Ficus cari. अजमार āzmora-बरब० मकोय (Sola___ ca, Linn.) रू. फा० इ०। num nigrum). अअ सा anjusa-यु० रतनजोत । ( Alka अटकुड़ा atakura-सन्ताल. तिक्क इन्द्रजी । ___net) लु० क०। देखो-इन्द्रजौतिक्त | Wrightia अञ्जना anjenā-कना० सुर्मा, अजन । An. Tomentosa, Ræm. & schult. ) timonii Sulphure tum. -ले० । ई० मे० प्लां। For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रक REE अटवी जम्बि (म्बी, म्भी)रः अटक atakka-मल० सुपारी-हिं०] Areca Catechu, Linn. (Nut of--Be. tel nut.)-ले० । स० फ० ई.। अटका-मणि atakka-mani-मल. मुण्डो । (Spheranthus hirtis, JVilla. ) स. फा०६०। अष्टवी atadi-० पीतल, पित्तल ( Brass ). ! ० मेमे०। अश्भूषण atabhushana-सं० क्लीक हड़ताल Orpiment ( Trisulphuret of Arsenic) लु० क०। अटरू ataru-सं० अड़सा ( Justicia. adhatoda). अटरूषः atarushah | -सं. पु. अड़सा, अधरुषः atarushah | वासक वृक्ष (A. dhatoda Vesica, Vers. ) र० सा. सं. सूतिकारि रस और कन्दर्पसार सैल | या. चि०२० । देखो-वासकः। अटरूषः atarushah ) -सं० पु. अटरूषक: ataushakah) (१) वासक वृक्ष, अडूसा। र० मा०।च०६०, रक्तपित्त चि०। (२) श्राड़ । (३) अरलू । (४) महानिम्ब | शा० श० । ई० मे० मे० । अठवि: atavih ) -सं०स्त्रो० (A forest, अटवो atavi Word.) अरण्य, वन । अट (द)वी-अत्ति atavi-atti-कना० जंगली गूलर-हिं० । Ficus oppositifolia, Roxb. (Fruit of. ) अटवी अम्बि (म्बा, म्भो)र: atavi jambi, mbi,-mbhirah-सं० पु. जंगली निम्बू . -हिं०, २० । ऐट्लेण्टिया मोनोफाइला (Atlantia Monophylla, Surr. ); : do falfagt ( A. floribunda, Rheede.); लाइमोनिया मानोफाइला ( Li monia monophylla, Linn.)-ले०। वाइल्ड लाइम ( wild lime )-३० । मलङ्गनार (इ. मे० मे०)-द०। मतङ्गनार, मखुर, माकड़-लिम्बु-मह० । अडवी-निम-ते। कटइ लुमिच्चई, को-इलुमिञ्चम-परम, कट-इलि मिचम्, कटचालु-ता० । कनिम्बे-गिडा,कनिम्बे, अहवी-निम्ब-कना० । नरगुनी-उड०। मलनारङ्गा, मले-नारकम-मल०। मातङ्गनर-द०, को। चोर-निम्बु, ईद-निम्बु-को० । अोदी-निम्वु -गु०। नागरङ्ग वर्ग (A.O. durintiaceae.) उत्पत्ति स्थान-पूर्वीय बङ्गदेश, दक्षिणभारत, लङ्का, सिलहट, खसिया पर्वतमूल, सम्पूर्ण पश्चिमी प्रायद्वीप, कारोमण्डल तथा कोंकन से दक्षिणात्य । __ वानस्पतिक वर्णन-अटवी जम्बीर एक विशाल, कण्टकमय, आरोही झाड़ी है जो पश्चिमी प्रायद्वीप तथा सिलहट की पहाड़ियों पर सामान्य रूपसे पाई जाती है । इसके पत्र नारङ्गी पग्रवत् सुगन्धित होते हैं । फल गोलाकार, पीले लगभग १ इञ्च मोटे ( व्यासमें ) और झिल्लीदार परदे द्वारा चार कोपों में विभाजित होते हैं। एक कोष साधारणतः पतनशील होता है। मजा ( गूदा ) नीबूवत्, परन्तु अति न्यून होता है । प्रत्येक कोष में इञ्च लम्बा और १ इञ्च चौड़ा एक बीज होता है उसके एक उन्नतोदर (उभरा हुआ) और दो चिपटे पृष्ठ (नारंगी के फाँक की तरह ) होते हैं । फलत्वक् में नागरङ्ग त्वक्वत् अल्प (निर्बल गंध एवं असंख्य तैल की । ग्रंथियाँ होती हैं। देहाती लोग इसके बीज को जो ताजा होने पर अत्यन्त सुगन्धियुक्त होता है, चूर्ण कर इसे मी तेल (तिल तेल ) में छोड़ कर निचोड़ लेते हैं । फलतः इसरो एक गम्भीर हरितवर्ण का प्रिय गंधयुक्त तैल प्रस्तुत होता है । इसका त्वचा पर अभ्यङ्ग करने से यह उसे अावश्यक उष्णता प्रदान करता है। बीजों को दबाने से इसमें से किसी प्रकार का वसामय तैल नहीं प्राप्त होता; प्रत्युत वह वस्त्र जिसमें बीज दबाए जाते हैं, स्थिर तेल द्वारा तर होजाता है। मीलगिरि पर्वत पर पाए जाने वाले कुरुन्थु (सा०) नामक ( Limonia alata, W. and A.) नीबू से भी इसी प्रकार की For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रटवा जारकः एक औषध निर्मित होती है तथा इसके पत्र का काथ कडून है एवं अन्य त्वग्दोषों को हितप्रद है । २०० प्रयोगांश-तेल, मूल, फल ( Berries ) और पत्र | श्रौषध-निर्माण-काथ, तैल व प्रलेप | प्रभाव तथा प्रयोग - र्‌हीडी (Rheede) का वर्णन है कि पत्र द्वारा निर्मित तैल शिर के लिए हित; जड़ आक्षेपशामक; और फल स्वरस पिरान हैं। लंरी ( Loureiro ) के मतानुसार इसकी जड़ उष्णताजनक, लयकर्ता और उतेजक है 1 एन्सली ( Ainslie ) कहते हैं कि इसके फल ( Berries ) से एक उष्ण, प्रिय गंधियुक्त तैल निर्मित किया जाता है जिसे दक्षिण भारत में पुरातन श्रमवात (गठिया) एवं पक्षाघात में एक मूल्यवान वाह्य औषध ख्याल किया जाता है । कोंकण में इसके पत्ते का स्वरस श्रद्धांग रोग में प्रयुक्त एक मिश्रित प्रस्तर का एक श्रवयव है । वनौषधि प्रकाश, १,४०४ । डाइमांक | इसके फल का उत्तम अचार ( Pickle) बनाया जाता है जो ज्वर एवं स्वाद वा दुधा ह्रासयुक्त अन्य रोगों में लाभदायक पथ्य है । इ० मे० मे० । अटवी जीरकः atavi jirakah - सं० पु० जङ्गली जीरा - हिं० | श्री मधुकम् atavi-madhukam-सं० की० जङ्गली महुआ- हिं० । अटवीलता atavi-latá सं० स्त्री० कुम्भाटवृक्ष, कुम्भाडुया । रत्ना० । देखो -- कुम्हड़ा, कोहड़ा । बूटी, ठिक्री-का- झाड़- ६० । गहपुर्ना, पुनर्नवा - हिं०, बं० | Boerhaavia diffusa, Dim- ले० । स० [फा० ई० । श्रद्धि ( ति ) सीन arisine इं० श्रतीस सत्व | देखो - श्रतीस | फा० ई० । टी ati हिं० संज्ञा स्त्री० (सं० डी ) एक चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है। चाहा । अप्प करी atuppa-kari--मल० । लकड़ी का कोयला | Carbon - ले० | Charcoal ( wood ) - इं० | स० [फा० ई० । श्रट्ट atta - सिं० बीज । (Seed) स० [फा० ई० । - मल० जोंक Leech ( Hirudo ). स० [फा० ई० । श्रट्ट atta - हिं०संज्ञा पुं०) (१) वस्त्र । ( २ ) दोतला अट्टः attah - सं० पु० ) कोठा घर, द्विमंजिला मकान, कोठा-हिं० | (An apartment on the roof or upper storey) देखोक्षौमम् । वै० श० । ( ३ ) - मल० । जोक | (Leech) इं० मे० मे०|- हि ०संज्ञा पुं० [सं० हद्द | बाजार ] हाट | बाजार - हिं० ।-डिं० । अटलरिया atalariya - ता० लरबोरन, विह लाङ्गनी, पथरुश्रा· आसा० । पॉलिंगेनम् | श्रई attai - ता० जोंक | Hirudo ) स० ग्लैम ( Polyganum glabrum )ले० । इं० मे० मे० । फा० इं० । श्रटलरी atalari- ता० बीख़ अज्जुवार (Polyganum barlatum) - इं० । मे० मे० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रहनम् लेण्टिया मोनोफाइला atlantia monophylla, Corr. ले० | माकर लम्बू--म० | अरवी नीम- ते० | माखुर- ता० । मे० मो० । वीजम्बीर, जङ्गली नीबू । ( Wild lime ) - इं० मे० मे० । 1 अटलोएटकम् ataloetakam - मल० असा (Adhatoda vasika ) इं० मे० मे० । श्रटाइलोसिया बारवेद - atylosia barba ata, Bake :- मात्रपर्णी । इं० डू ई० । अटापू atápú- शोरा ( Nitra ) लु० क० । श्रटिः atih सं० पुं० शरारिः, शरालिः, शरारिपक्षि ( Turdus gingivianus ) हला० । अटिक मामिडि atika-mámidi-ते० टीकरी अट्टकः attakah-सं० पु० कोडा, अटारी । ( An upper storey ). अट्टनम् attanam पं० लीο० त्रिका० । For Private and Personal Use Only श्रत्र भेद | Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहम् २०१ अड़द अहम् attam--सं० क्ली० (१) अन्न । (२) शुष्क । बूटी है जिसका स्वाद क्षारीय होताहै। यह कंकरीली मे० कट्ठकं । ( Food, boiled rice ) भूमि में अधिक होती है। इसका पकाया हुश्रा श्राहार; भक। शाक अत्यन्त सुस्वादु होता है। इसमें क्षार अंश अल artalu-० जांक, जलायुका। Leech / की अधिकता के कारण लवण 'कम डालना (Hirudo) सफा०ई० । ई० मे० मे। चाहिए। अट्टहासः,-क: attahāsah, kah-सं. 1-स० पु.] अठपहला athapahala-हिं० वि० [सं० अष्ट महासक artahasaka-हिं० संज्ञा पु. पहल, पा० अटपटल ) पाठ कोने वाला । (1) कुन्द पुष्प वृत्त, कुन्द का फूल और पेड़ जिसमें पाठ पार्श्व हो। -हिं० । .द फुलेरगाछ-बं०। (Jasminum multiflorum-ले०। रा०नि०व०१०। अठमासा athamasa-हिं० संज्ञा पुं० [सं० (२) Very loud laughter' कहकहा अष्ट, प्रा० अट्ठ + सं० मास] वह खेत जो मार के हैंसना । बहुत जोर से हँसना | प्राषाढ़ से माघ तक समय समय पर जोता जाता रहे और जिसमें ईख बोई जाए। अश्वाँसा ।। Pera: ațțálah- to go (Au अट्टालक: attālakahjapartment अठमासी athamasi-हि. संज्ञा स्त्री० [सं० on the roof, an upper storey) अष्टमाश ] आठ मासे का सोने का सिक्का । उपरितलगृह, दोतलाघर, अटारी। वै०००। सावरिन । गिनी। अट्टालिका artaliki-सं० स्रो० ( A pal अठवाँस athavansa-हिं० संज्ञा पुं० [सं० a.ce, lofty mansion) राजोचित गृह, अष्टपार्श्व ] अपहली वस्तु । अठ-पहले पत्थर महल । वे० श०। का टुकड़ा। अट्रफि atraphy-इं० सुखड़ी या कृशता, शोपरोग, वि० घड-पहला। अठ-कोना । कायें। भठवाँसा athavansa-हिं० वि० [सं० अष्टअट्रिप्लेक्समांनेटा atriplex moneta, मास, पा. अट्टमास ] वह गर्भ जो पाठ ही Bunge.-ले० सरमक, सुरका, कोरके, पोई महीने में उत्पन्न होजाए। -पं० । मे० मो०। -संज्ञा पुं० (१) सीमन्त संस्कार । अट्रिप्लेक्स लेसिनिएटा atriplex lacini. (२) वह खेत जो अषाढ़ से माघ तक समय ata, L-ले० तफ, भतुप्रा-40। मे० समय पर जोता जाता रहे और जिसमें ईख मो०। बोई जाए। अट्रिप्लेक्स हान्सिस atriplex horten- | अठान अठाना athāna-हिं० क्रि० स० [सं० अट्ट __sis, L.-ले० कृतफ, भतुश्रा-पं० । मे० बध करना ] (1) सताना । पीड़ित करना । मो० । अड ada-उड़ि. लिसोढ़ा-हिं० । श्लेष्मांतक अट्रोपा-अक्युमिनेटा atropa acuminata, -सं० । Se besten plum (Cordia Boyle.-ले० एक प्रकार का बेलाडोना है। myxa) ई० इ०६०। अडकुमणियम adakumaniyam-मल. अद्रोपा बेलाडोना atropa belladona, . गोरख मुण्डी-हिं०। मुमुरिया-बं० । Linn.-ले० देखो-बेलाडोना। कमाज़रियूस-अ०। ( Spheranthus अठखटा athakhata-सं० अस्थिसंहार, ___hirtus) ई० मे० मे० । हड़जोड़ । लु० क०। | अडण्ड adanda-ते. करवील-पं० । भठगठिया athagathiya-हिं० संज्ञा स्त्री० एक अडद arada-गु० उर्द, उड़द-हि० । माष-सं० । For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंडद-वेल २०२ भडवी-इरुल्ली ( Phaseolus rox burghii ) इ० अडम्बेदी adambedi-ता. वासुक-सं० । मे० मे०। ___Indigofera Enneaphylla-ले० । अडद-वेल adada-vela-गु० माषपर्णी, मष- इ० मे० मे०। वन । ( Glysine debilis, Roxb.) अडर्सा adarsa-हिं०, द० अरूष, अरूसा, अडद वेल्य adadi-velya-गु० वन उड़द, असा, वासक-हिं० । Adhatoda करियासेम | माषपर्णी। Vasica, Nees.-ले० । स० फा० इं०। अडदवेल्य काडोगलिया adada-velya | अडल्सा adalsa हिं०; द. अरूष, अरूसा, -kado-galiya-गु० बन उड़द, बन उर्दी अडसा, वासक-हि. | Adhatoda -हिं०। Vasica, Nees.-ले०। स० फा० इ० । अडन्सोनिया adan-sonia-इं. गोरख इमली। अडवाऊ गाजर adavau-gajar--गु० जङ्गली अन्डसोनिया डिजिटेटा adansonia digi. | गाजर-हिं० । (wild carrot.) tata, Linu.-ले० गोरख इम्ली--हिं० । अडवाड़ adavāra--गु० बन उर्दी, वन उड़द बोयाबाब या मङ्की-ब्रेड ट्री ऑफ़ अफरीका ___-हिं० । माषपर्णी-सं० । (Grangea Ma. Boabab or monkey-bread tree dras patana.) of Africa-ई० । ई० मे. मे०। फा० | अडवाड मगवेल adavada maga-vela इं० मे. मो० । स० फा. इं० --गु० मुद्गपर्णी | वन-उर्दी, माषपर्णी । अडन्सोनीन adansonin-इं० गोरख-अम्लीन, | अडवो adavi--ते. कना० नन्य, जंगली-हिं० । गोरख इमली सत्व-हिं० । ई० मे० मे०। wild--इं० स० फा००। अडपु-कोडी adapu-kodi-ता० दोपातीलता अडवो अत्ति adavi-atti- कना० जंगली -हिं०। चाङ्गलाङ्घ,, छागल खुरी-बं० । प्राइ- अंजीर-हिं| Ficus opposi tifolia, पोमिश्रा बाइलोबा Ipomaea biloba, Road. (Fruit of-)--ले० । स०फा०ई० । Forsk.--ले० । गोट्स-फूट कॉनवालव्युलस अडवा-अलवा adavi-a.lavā--सं० चाकसू । Goat's foot Convolvulus-इं०। वृद्ध- S. m. ( Cassia absus, Linni.) दारक, विधाग-सं० । फा० इं० २ भा० । ई० अडवो-आमूदमु adaviramidamu -ते. मे० मे०। जंगलीएरंड, जंगली रेड--हिं0 1 Jatropha अडबन पोरियो adaban-vuporiyo- Curcas--ले० | Angular-leaved कच्छ० पोरबन्दर० १-(Gram) चणकः,चना । physic-nut --इं० । ई. मे० मे० । (२) १-( Lady's fingel') भिण्डो -हिं०। जंगली जमालगोटा--हिं०, गु० । Croton अडमरम् adamaram-मल० जंगली बादाम __Polyandrum, Road, Syn. C. -हिं० । ( Terminalia ca tappa, T. Roxburghii,-Wall..ले०। स० फा०ई० । myrobalans ), The Indian अडवो-इप्पे-चे adavi-ippe-chetgu--ते. almond | ई० मे० मे०। जंगली महुआ--हिं०, द०। Bassia La. अडमोरिनिका adamorinika-ते० असल, - tifolia, Roxb..--ले० । स० फा०६०। सरह-अ.| Indian cadaba (Cad. अडवी-इल्ली adavi-irulli-कना० जङ्गली aba Indica) ई० मे० मे०। प्याज, काँदा-हिं०, बं० | Urginea Ind. अडम्पाकु adampāku-ते. अरूप, अडसा, ica, kunth syn. Scilla Indica, ___ वासक-हिं० | Adhatoda Vasika-ले. Roxb. ( Bulb ef Indian Squill.) Malabar nut-इ० । ई० मे० मे०। । -ले० । स० फा० । फा०ई०३ भा०। For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०३ अडवी-ऐलकाय अडवी मन्दारमु अडवो-रेल काय adavi-elakāya-ते. जंगली छोटा जंगली प्याज-हिं०, द० गु०। Scilla इलायची, बड़ो इलायची-हिं० । Amo- Indica-ले०। ई० मे. मे।। mam subulatum, Roxb.-ले० । स) अडवा-नाभी adavi-nabbi-ते. नाट का फाइ।.. मे० मे०। बच्छ नाग-द० । अग्निशिखा-ते| Aconiअडयो-कछोला adavi-kachhola-मल. tum ferox, Wall. ( Root of-) कचूर-हि। Curcuma Zedoaria, -ले। स० फा० इ०।। Rosc.-ले०। Round Zedoary-ई। अडवांनिस्म · davi-nimma ते. जंगली ई. मे० मे०। नीबू-हिं० । अटवो जम्बोर-सं० । A talaअडवो-कन्द adavi-kanda-सं० जंगली | ntia monophylla,Corr -ले। Wild सूरन, जिमीकन्द-हिं०। S. M.. liime-ई । इ मे० मे०। अडवो-कन्द-गडु adavi-kanda-gadda- | अडवी-नीम adavi.rnima-ते. जंगलो ते० सेवाला-बं० । जङ्गली सूरन-हिं। नोबू-हिं० | Atalanti a monophylla, Amorphophallus Paniculatus. -ले। Wild lime-इं० । फा० ई० । Blume. अडवो-पसुपु adavi-pasupu-ते. जंगली अडवो-गन्नेरू adavi.ganneru-ते. गुल हल्दी, वनहरिदा-हिं० । Curcuma aromatica, Ealisb.--ले० । Wild zia-fico i Plumeria Acuminataले०। turmuric-इं। इं० मे० मे०। ० मे० मे० । अडवो-गारण्टा adavi.gorantā--ते. देव अडवी-पुच्च adavi puchcha-ते. जंगली दारु-ता० । Erythroxylon monogy इन्द्रायन-हिं० 1 Cucumis trigonus, num, Roxb.-ले०ई० मे० प्लां Roxb.-Sy.. Cucumis pseudocolअडची-गोररटो adavi.goranti-कना० ocynthis, Roy. (Fruit of-.)-ले। Erythroxylon monogynum, or Bitter gourd-ई । ई० मे० मे०। E. Indicum, Ro.nb.-ले०। नाट का देव मो० श०। दार-द। अडवी गोरण्डा -ते । देवदारु-ता। अडवी-पोगाकु adavi-pogāku-ते० धवल इमे० प्लां0 फा०६०।। -म० | जंगली तम्बाकू-हिं० । Lobelia अडवी-गोरण्डा adavi.gornda-ते. नाट nicotianefolia, Heyne.-ले। कादेवदार-द० । Erythroxylon mono- ! Wild tobacco-इं० । फा० इं० २ भा० । gynum, Roxb..-ले० । ई० मे० प्लां० । अडवी-पोटगल adavi-potagal-ते० । अडवा-पोटला adavi-potala-ते० अडवी-जाजो-काय adavi-jaji-kaya-ते. जंगली चिचिण्टा, जं० चिचोण्डा-हिं०, द०। जंगली जायफल-हिं| Pyrrhosi Hor Trichosanthes cucumerina, sfieldii, Blume. ( Nut of--Wild Linn.-ले०। सफा. इं०। । nutmeg )-ले० । स० फा०६० अडवी प्रत्तो adavi-pratti- ते. वन अडवो जिलकर adavi-jilakara-ते० सोम कपास-प्राशा०, बं०। रान-भिण्डी-मह० । राज-सं०, बं०। बकुची-हिं० । अटवी-जीरक - Hibiscus lampas.-ले। ई० मे. -सं0 Vernonia anthelmintica, मे०। Willd. ( seeds of-)-ले० । स० फा० अडवी मन्दारमु adavi-mandaramu ते. कचनार-हिं० । ( Bauhinia अडवा तेल्ल गड adavi-tella gadda-ते. | . variegata. Linn. ) For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडवी मल्ली २०४ গর अडवी मल्ली ndavi-malli-ते. मधुमाधवी कासनी-द०। कमाफीत स-या।( Blumea --सं० । चमेली, चम्बेली-हिं० । नत्रमालिका eriantha, D. C.)-ले०। फा० इं० १ -बं०। (Jasminum arborescens, HTI ( Blumea auritá, D. C.) Roxb.)-ले०। इं. मे० मे०। -ले० । स० फा० ई० । अडवी मल्ले adavi-malle-ते. मालती | अडवी येलकाय adavi-yela-kāya-ते. --सं०, हिं०। ( Jasminum angusti. बड़ी इलायची--हि०, ६० | Amomum. folium, Vahi.)-ले० । ई० मे० मे०।। sp. of. ( Capsules of )--ले० । स० अडवो मामडी adavi-mamadi-ते० प्राम्रा तक-सं० । मड़ा, अम्बाड़ा-हिं० । Hog. अडवो-लवङ्ग-पट्टे adavi-lavanga-patte plum- ई० । (Spondias elliptica.) -क.ना. जंगलीदारचीनीपत्र, तेजपात-हिं । -ले०। ई० मे० मे०। Civnamomum Iners; C. Tamaअडवी मुनगा adavi-munaga la; ले० ।। ० मे० मे। अडवी मनग adavi-munaga - | अडवो-लवङ्गम-पट्ट adevi-lavangamuजंगलो कासनो--: । प्रॉोकार्पम् सेना patta-ते. तेजपात-हि. | Cinnamइडीस ( Ormocarpum sennoides, omum Iner's- ले । मेमो०। D. C.)-ले० । काट मोङ्गि-ता। कुडु. अडवा-बुद्दलु adavi-vuddulu--ते. माषसुग्गे-मा०। शिम्बो या बवूर वर्ग पर्णी, जंगली उड़द, वनउड़द-हिं० । रान (.1.0. Leguminosoe ) उड़िद-मह० । माषानि बं० । Teramnus उत्पत्ति स्थान--पश्चिम प्रायद्वीप और labialis, Spreng wight, Ic. t. 118 --ले० । फा००१ भा०। लङ्का। अडवी-सुदाप adavi-sudapa--सं. सुदान, वानस्पतिक वर्णन-एक छोटी झाड़ी है जंगली तितली. हिं० । ( Ruta graveo. जिसकी शाखाएँ पतली होती हैं। नृतन अंकुर __ lens, Linn.) तथा पुष्पवान भाग एक प्रकार के चिपचिपे लोम से श्राच्छादित होते हैं । चिपचिपा व सुवर्ण अडसी adasi-महानिम्त्र । पीत रंग का होता है। पत्र-पक्षाकारः लघु पत्र अडस्पुडूस . adaspud usa- मल. सोवा, (या पत्रक) ३ से १७, एकान्तरीय, प्रायताधिक सोया--हिं| Pencedanum Graveoकोणीय और झिल्लीदार । पुष्प-कक्षीय, एक डंठल lens -ले० । ई० मे० मे। में ३ से ६ और पीत वर्ण के होते हैं । फली अड़हुल arahula-हि. संभा पु० [सं० (छीमी) २ से ५ जुड़ी हुई, पेण्डुलमवत्, संधि प्रोण+फुल्ला, हिं. प्रोणहुल ] श्रोड़ (क), स्थल पर अधिक सिकुड़ी हुई और चेपदार देवीफूल, जपा या जवापुष्प, इसका पेड़ होती है। ६-७ फुट ऊँचा होता है और पत्तियाँ उपयोग-इसकी जड़ का क्वाथ ज्वरावस्था हरसिंगार से मिलती जुलती होती हैं । फूल में वल्य एवं उत्तेजक रूप से व्यवहृत है । इसका इसका बहुत बड़ा और खूब लाल होता है। प्रस्तर ( या तैल ) पक्षाघात और करिशूल में इसके फूल में महक ( गंध ) नहीं होती। वरता जाता है । ( डाइमाक ) फा० ई० (Hibiscus Rosa=sinensis, Linn.) १भा०। अडासग adāsari- ते. अडूसा, वासक, अरूष अडची मुलगी adavi-mullangi-ते० कुक- | हिं० | Adhatoda Vasica-Nees ले। रोदा-हिं० । जंगली था दीवारी मूली, जंगली | मेमो० । For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडिएराटम् कॉडेटम् २०५ अडूनिस अडिएराटम् काँडेटम् adiantum cauda-| कना० । हेडू-मह० । हलधवान-गु० । Nanctum, Linn.- ले. मोरपंखी, मयूर-शिषा lea cordifolia, वैज्ञा० ना। ई० मे० -हिं. : मेमा० । अधसारित की जड़ी- प्लां० । फा० इ०२ भा० । थरली, बला, गुञ्जा पं। डू. ई.। -बम्ब० । अडिएण्टम् कैपिलस वेनेरिस adiantum | अडिनेन्थेरा पेवोनीना Adenanthera pav. capillus veneris, Linn. onina,Lin.-इंरक्त-कम्बाल-बं०। इं. 5. .. बिस्फ़ाइज--अकृ. देखो-मुबारक--कुमा०, --हिं । हंसराज-हिं० । मेमो०। अडई adui-पं० श्राड । See-adu. अडिरण्टम् दैपोज़िफ़ मो adiantum Tra अडुप्पुकरो aduppukari-ता. लकड़ी का कोpiziforme, Lin.--ले. हंसराज । यला-हि. | Wood charcoal-इ० । see-Hansarája. __ इं० मे० मे० । स० फा० इ.। अडिरण्टम् पेडेटम् adiantuin peda tum, अडरास्पो adurāspi- ] --ग. अइसा,अरुस _Linn.--ले० हंसराज | sea-Tansarāja अदुःसा adulsa अडिएण्टम् फ्लेवेल्ल्युलेटम् adiantum fla- अडुल्सो adulso हिं० | Adha bellulatum, Linn.- ले० मयरशिषा ___toda vasica, Linn--ले० । इ० मे० मे० --हिं० । इसको जड़ श्रौषध कार्य में बरती अडू adi-हिं० पु अरु-म० । शफ़ताल-फ़ा। जाती है । मेमो०। असांगए adusogae-को० असा, अरुप-हिं। अडिएण्टम् ल्युन्युलेटम् adiantum lunu- (Adhatoda vasica, Nees.)--ले । latum, Linn.--ले. हंसराज या राजहंस ई. मे० मे। --हिं० । कालीझाँट(प) --बं० । मुबारक- कुमा०। अइनाइडीन adonidin-इं. अडनी सत्व । मेमो०। देखो-अडनिस । म० अ० डा० १ भा० । अडिएण्टम् वेनस्टम् adiantum venu- अनिस adonis-इं० अडूनी, अडूनी बूटी-हिं । -stum, Don.--ले. हंसराज--हिं० । अडूनिसवर्नेलिस ( Adonis vernalis.) बाजार परसियावशान --फ़ा० । कालीझाँट--हिं० । --ले० । . मुबारक- बम्ब० । म० अ० । मेमो०। वत्सनाभ वा रैनन्क्युलेसाई वर्ग अडिके adike-कना० सुपारी--हिं० | Areca. Catchu, Linn..-ले०। स. फा...। (N.O. Ranunculaceae) अडिन adin-ले० अज्ञात । नोट-यह बूटी तीन प्रकार की होती है और algai tri fifası adina Cordifolia, यरोप व एशिया के भिन्न भिन्न प्रदेशों में उत्पन्न Hook- f--ले० धारा कदम्ब-सं० । होती है। पर कदाचित् यह भारतवर्ष में नहीं - हल्दु, हदु, कमी, करम-हिं० । बङ्गका, केलि होशी क्योंकि डॉक्टर वाट महाशय और डॉक्टर कदम, पेट पुढ़िया-बं० । हा , हर्दु-म० प्र०। डी नाक महाशय के भारतवर्षीय श्रोषधि सम्बन्धी करम-नै० । कुरम्बा, कोम्बासंकु-कोल । कराम विस्तृत ग्रन्थों में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं पाया सन्ता० । बड़ा कुरम-मल० । तिक्का-भड़ौ० व जाता है। गों० । हदु, पस्पु, कुर्मी ( गो० ), होलोंदा __वानस्पतिक विवरण-यह झाड़ी १० इंच --उड़िा सा डोंग-गारो । रोघु, केलो-कदम-श्रा। के लगभग ऊँची होती है। इसकी पत्तियाँ चममज्जाकदम्बे-ता०। वाडङ्ग,वेत्तर्गणप,बनदारु,दुडागु, कीली हरितवर्ण की और बारीक बारीक पुस्पुकन्दी ,पुष्पुकदिमी-ते.। अर्सिन्तेग-मैस् । सूत्रों में विभाजित होती हैं । इसके पुष्प सुवर्ण....... हेडे, येत्तेग-पेत्तेग, असन्तेग, येत्तद, अहुन- मय रक वर्ण के होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिस ईस्टीवैलिस प्रसा रासायनिक संगठन-इसमें ग्ल्युकोसाइड | और कुछ, पिपासा, उन्माद तथा बहुश: स्राव की तरह का एक सत्व "अडूनाइडीन" और एक (Secretion ) संबन्धी रोगों के योग में अन्य सत्व "अडूनैट" नाम का होता है । अड- वरता जाता है । यह कृमिघ्न भी ख्याल किया नाइडीन जल और मद्यसार ( अल्कुहाल) में । जाता है। (बेडेन पावेल ) विलेय होता है । इसका फल अत्यन्त मधुर एवं यि होता है। मात्रा- इसका चूर्ण १ से ३ रत्ती तक और वृक्षस्थ दुग्ध कर्णशोथ तथा नेत्रशोथ (आँख इसी अनुपात से इसके हिम अथवा टिंकचर या श्राने ) में व्यवहृत है। (डॉ० इमर्सन ) स्वरस को भी प्रयोगमें ला सकते हैं । इसके सत्व ___ जड़ एवं स्वक् संकोचक यकीन किए जाते हैं अडनाइडीन की मात्रा ' से 'ग्रेन तक है और और शिश्वतिसार में इसे जल के साथ पीसकर इसको वटिका रूप में वर्तते हैं। तथा शहत योजित कर प्रयोग में लाते हैं। नोट-यूरोप के इटली, रूस व स्पेन प्रभ. ते इसके पत्र को तिल तेल में उबाल कर विचूदेशों में यह औषध फिशल है। मित स्वचा में योजित कर व्यवहार में लाना प्रभाव-हृदय बलकारक (हृद्य), हृदय रोगके बेरो बेरो रोग के लिए उत्तम प्रौपध ख्याल लिए लाभदायक है । म० अ० डॉ० १ भा० । किया जाता है। त्वचा सकोचक होता है तथा अडनिस ईस्टीवैलिस adonis xstivalis, इसमें से एक प्रकार का निर्यासवत् तरल निकLin.-ले० वत्सनाभ वर्ग की एक ओषधि है।। लता है। इसके पत्र को पीसकर इसमें हलदी इं० 5० ई०। और सोंड मिला ग्रंथियों पर प्रस्तर रूप से लगाते अडनिस वर्नेलिस adonis ver|]is-ले० ।। हैं। (डी)। ई० मे० प्लां० । अनिस का वानस्पतिक नाम । देखो-अड अडूलसा adulasa--म देखो-अइसा । निस । म० अ० डॉ० १ भा०। अडूसक adisak--हि. | Adhatoda अडुनी adini-हिं०, उड़ि. अडुनिस--ई० ।। ___Vasica Nees.--ले. । श्र०नि० १ भा० । See--Adonis. श्रड ला adāsa हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० अटरूप, अडोमा adoma--गोश्रा० माइम्युसॉप्स कौकी प्रा० अडरूस] अडलसा (-सो), अरूशा (-सा), (Mimusops kauki, Linn.), मा० बाँसा, रूसा, वसौंटा, वामा, बिसोंटा-हिं०, डाइसेक्टा (M. disecta, Br.)--ले. । बम्ब० । अदलसा, अडर्सा, अरूसा, बसौंटा, बुधा--सोव्--मल० । (मेमो०)। क्षीरिनी-० । अइसा--द०, हिं। खीरी घिरुह (खिरनी भेद )--हिं० । कौकी.. संस्कृत पर्यायमह । क्षीरिका-सं० । ई० मे० प्लां० ।। तारिका वा मधुक वर्ग वासको वाशिका वासा भिषङ्माता च सिंहिका । ( N. 0. Sapotaceæ ) सिंहास्यो वाजिदन्ता स्यावाटरूषोऽटरूषकः ॥ उत्पत्ति स्थान-ब्रह्मा तथा मलाका; कभी श्राटरूषो वृषस्ताम्रः सिंहपर्णश्च सः स्मृतः ॥ कभी होशियारपुर, मुल्तान, लाहौर और गुजरान भाषा-वासक, वाशिका, वासा भिषङ्माता वाला के निकट अमीनाबाद में लगाया जा सिंहिका, सिंहास्यः, घाजिदम्ता, पाटरूषः, अटचुका है। रूषकः, वृषः, ताम्रः, सिंहपर्ण ये असे के उपयोग-इसके बीजका चूर्ण नेत्राभिष्यन्द संस्कृत नाम हैं (रामरूपक, मातृसिंही, वैधमाता, रोग में व्यवहृत होता है और ज्वरघ्न एवं बल्य वृषः, कसनोत्पाटन, कमलोपाटल, सिंही, वाजिरूप से इसका अन्तः प्रयोग भी होता है। इसकी दन्तकः, प्रामलक, वाशा, अटरूपः, वासः, जड़ लाहौर में ग्राफ़िशल है । (स्टयुवर्ट) बाजी, वैद्यसिंही, सिंहपर्णी, रसादनी, सिंहमुखी, बीज उष्ण एवं तर ख़्याल किया जाता है। कंठीरवी, सितकर्णी, वाजिदन्ती, नासा, पंचमुखी, For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असा २०७ अडूसा सिंहपत्री, मगेन्द्राणी और सिंहानन ये अड़से के | ( Brackts) से ढका होता है । पुष्प संस्कृत नाम अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं.) सम्मुखवत्ती, बड़े, श्वेत रंग के होते हैं जिनके बाकस, श्रारूसा, बासक, छोटावासक, वासन्ती | भीतरी भाग पर रवाभायुक्र लोहित वर्ण के धब्बे फुलेर गाछ--य० । हशीशतुस्सुआल-अ० । बाँसह, होते हैं, पुष्प के दो श्रोत सिंह-मुखाकृति के होते बॉसा, हवाजह --फा० । ऐढाटोडा वैसिका हैं जिनकी भीतरी पृष्ठों पर बैंगनी रंगको धारियाँ (Adhatoda vasica, Nces.), अडे- पड़ी होती हैं; बन्धनियाँ तीन, सम्मुखवती और नैन्थेरा वैसिका (Adenanthera vas- एक पुष्पीय, तीनों में से वाह्य बन्धनी ( Braica ), जरटीशिया ऐढाटोडा ( Justicia. ckt बड़ी, अण्डाकार, अस्पष्टतया पञ्चशिरायुक adhatod?, Roxb; Linn.), श्रोरोकीलम और भीतरी दो अत्यन्त छोटी होती हैं। ये सब इण्डिकम् ( Orocylum indicum .) स्थायी होती हैं। पुष्प-वाह-कोष (Calyx) -ले० । ऐढाटोडा (Adhatoda ), मलावार पाँच समान भागों में विभाजित होता है; पुष्पनट ट्री ( Malabar nut tree)-इं० । श्राभ्यन्तर-कोष ( Corolla) विस्तीर्ण प्राडाटोडई, अधडोडे-ता० । अडसरम्, अडम्पाकु, प्रोष्ठीय, लवुनालिकेय, विशाल प्रैव, ऊर्ध्व श्रोष्ठ नौकाकार, जिसका मध्य भाग परिखा युक्त होता पेद्दामानु, अडसरा, अडसर-ते, ते० । पाटलोटकम्-मल० | प्राडसोगे-सप्पु, पाडूसाल, श्राडू. है जिसमें रति केशर स्थान पाता है, निम्न प्रोप्ड सोगे-कना० । शोणा, शोडीलमर-करना० । चौड़ा, जिसमें तीन भाग होते है। पुरुष-केशर श्राडाटोड, पावट्ट-सि । मेस न--बिक--बर्मी। तन्तु लम्बा और ऊर्ध्व पोष्ठीय खात के सहारे रहता है और ये संख्या में दो होते हैं। बसूटी, तोरबंजा, वाशङ्ग-अरूप, भिक्कर-हिं० । प्रयोगांश-पञ्चांग, क्षार । प्रयोगाभिवायअडलसा-मह० । अडुलसो, बाँस, अडूरसा औषध, रङ्ग, खाद्य । (-सो), अरडूसी( शी)-गु० । बाइकण्टर-- अफगा-। श्राडसोगे-का० । भीकड़--पं० । रासायनिक-सङ्गठन-एक सुगन्धित उदनअकेन्थेसीई (पाटरुष) वर्ग शील सत्व, वसा, राल ( Resin), एक (A.C. Acunthureus.) तिक्षारीय सस्व जिसे वासीसीन (Vasicine) उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के अधिकतर जिसे संस्कृतमें बासीन वा वासकीन कह सकते हैं. भाग, पंजाब और प्रासाम से लेकर लङ्का एवं एक सेन्द्रियक अम्ल (वासाम्ल) ऐढाटोडिक एसिड सिङ्गापूर पर्यन्त | राजपूताना, शाहजहाँपूर, (Adhatodic Acid), शर्करा, निर्यास, रनबीरसिंह (ज, कशमीर) प्रभृति स्थान | रंजक पदार्थ, और लवण । वासीन का अधिक वानस्पतिक विवरण-यह क्षुप जाति की परिमाण अडूसे की मूल त्वचा और पत्र से प्राप्त वनस्पति है; परन्तु किसी किसी स्थान में इसके होता है। वासीन के स्वच्छ श्वेत रवे होते हैं बहुत बड़े रहे वृत्त पाए जाते हैं। शरद ऋतु में जो अलकुहॉल ( मद्यसार) में सरलतापूर्वक इसमें पुष्प पाते हैं। प्रकाण्ड सीधा; त्वचा सम, घुल जाते हैं। ये जल में भी विलेय होते हैं। धूसर वीय; शाखाएँ अर्द्ध सरल, स्वचा प्रकांड इनकी प्रतिक्रिया क्षारीय होती है। खनिजाम्लों के सदृश किन्तु समतर; पत्र सम्मुखवर्ती, ५ के साथ यह स्फटिकवत् लवण बनाता है। से ६ इंच लम्बे और १॥ इंच चौड़े, नुकीले, अमोनिया भी किसी अंश में विद्यमान होती है। जिनके दोनों पृष्ठ चिकने होते हैं, पीटिश्रोल औषध- निर्माण-शीत कपाय (१० भाग ( Petiole ) अर्थात् पत्रवृन्त सूक्ष्म, नल में भाग); मात्रा-११ तो० से ५ तो०; पुष्प प्रधानाक्ष लम्बा, शाखा रहित, बालियाँ तरल सत्व; मात्रा-२ से १ रत्ती | पत्र स्वररू; बास कक्षीय और अकेली; पुष्पडंठल ७॥ मा० से १ तो० ३ मा० । टिचर(१० (पुष्पवृन्त) छोटा और बड़े बड़े बन्धनियों ।। में १), मात्रा-२ मा० से ४ मा० । संयुक्त क.थ, For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडूसा २०E अडूसा घृत, अवलेह, चूर्ण और वटिका (साधारण मात्रा | ६ मा०)। डॉक्टर लोग डसेको द्रवसत्व, स्वरस और टिचर रूप से उपयोग में लाते हैं। प्रतिनिधि-इसके समान गुणधर्म की | यूरोपीय श्रोपधि सिनीगा (Senega) है। स्वाद-फीका और कुछ मीठा । प्रकृतिगरम और रूक्ष तथा फूल १ कक्षा में डा है । हानिकर्ता-मैथुन शक्ति को | दर्पन-शहद शुद्ध और कालीमिर्च। गुणधर्म व प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतके अनुसारवासा तिना कटुः शीता कासनी रऋपित्त जित् । कामला कफ दैकल्य ज्वर श्वास यापहा ॥ । (रा०नि०व०.४) भाषा-अडूसा तिक, कटु, शीतल है, तथा खाँसी, रकपित्त, क.मला, कफ, विकलता, ज्वर, श्वास और इ.य रोग को नष्ट करता है। पाटरूपः शीतवीर्यो लघुईद्यः कटु स्मतः। तिक्रः स्वर्यः कासहन्ता काम ला रक्रपित्त हा॥ विवर्णता-ज्वर-पवास-कफ-मेह-क्षयापहः । कुष्ठरुचि दृपा शान्तिनाशकः परिकोर्तितः ॥ (वैद्यक) वासकस्य न पुष्पाणि बङ्गसेनस्य चैवाह ! कटुपाकानि तिक्रानि कास क्षय हराणिच ॥ राज० ३ चिकित्सासार संग्रहकार । वृषं तु वमि कासघ्नं रक्रपित्त हरं परम् । (वा० सू० अ०६) वासको वात कृत्स्वर्यः क.फ पित्तास्र नाशनः । तिकस्तुवरको हृद्यो लघुशीतस्तृ डर्तिहत् ॥ कास श्वास ज्वर छदि मेह कुष्ठ क्षयापहः । (वृ.नि. र.) भाषा-अडूसा शीत वीर्य, लधु, हृदय को हितकारी, तिक, स्वर के लिए उत्तम, कासघ्न, कामला तथा रक्तपित्तनाशक है। विवर्णता,ज्वर,श्वास, कफ, प्रमेह तथा क्षय, कोद, अरुचि, प्यास और वमन को नष्ट करता है। वैद्यक । असा और अगस्तिया के फूल तिक, पाक में कटु एवं खाँसी और क्षय को हरण करने वाले हैं। राज ३ व० । असा वमन, खाँसी और · रपित्त को दूर करता है । वा० सू० प्र. ६ । अडूसा वातकारक स्वर के लिए उत्तम, तिक, कषैला, हृदय को हितकारी, लवु, शीतल, कफपित्त, रविकार तृपा की पीड़ा का हरण करने वाला तथा श्वास कास, ज्वर, वजन, प्रमेह और क्षय को नाश करता है। वृ०नि० र0 युनानी मत के अनुसार अडूसे के गुणधर्म व प्रयोग भारतीय द्रव्यगुणशास्त्र के नरसी लेखक हिन्दुस्तानी नाम अडसा के नाम से उक्र ोपधि का वर्णन करते हैं। अतः जीरमुहम्मदहुसेन महोदय ने स्वरचित "मरज़नुल अद्वियह" नामक वृहद् ग्रंथमें इस पौधेका वर्णन किया है। उनके कथनानुसार अडसे का फूल यक्ष्मा, रक्रपित्त अर्थात् रक्कोमा और प्रमेह में लाभदायी और पित्तनाशक है। अडसे की जद खाँसी, श्वास, ज्वर और प्रमेह, बलग़मी और सफ़्रान्धी (पित्त को )मतली, वमन, पाण्डु, मूत्रदाह, सूजाक और राजयक्ष्मा को नाश करती है। बच्चों को शीत लगने या खाँसी से बचाने के लिए कभी कभी अडसे के बीज को उनके गले में लटकाते हैं। अडु के विभिन्न अवयवों के परीक्षित प्रयोग मूल-अडसा पत्र और मूल दोनों सोत्तेज्य श्लेष्मानिस्सारक ( Stimalant expecrant) और आक्षेप शामक (antispas. modic )हैं। इसीलिए अधिकतर इसकी जड़का सीनीगा ( Senega) के स्थान में पुरातन कास, श्वास में उपयोग करते हैं। __ अडूसा की जड़ का क्वाथ बच्चोंकी कूकर खांसी तथा साधारण ज्वर में लाभ करता है। __ अडूसा की जड़ पुरातन खाँसी, सफेद दाग, कोढ़ और सूजाक के लिए लाभदायी है । यदि अडूसा मूल स्वचा को चोचीनी के क्वाथ में एक सप्ताह तक भिगो रक्खें । पुनःनिकाल शुष्क कर चूर्ण करलें । इसमें से १ माशा प्रति दिवस खाएँ तो पुरातन उपदंश से मुक्ति प्राप्त हो। For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडूसा इसकी जड़ और मुण्डी बूटी दोनों को घोट छानकर शहद मिलाका नित्य पीने से कोढ़ से छुटकारा मिलता है। इसकी मूल-स्वचा को जौकुट कर तथा जल में भिगोकर और उस जल को चूट बूंट पिलाने से वमन तथा मतली को अवश्य लाभ होता है । यदि पावभर जड़का नियमपूर्वक एक बोतल शर्बत बनाकर उचित मात्राम प्रति दिवस उपयोग किया जाय तो श्वास और पुरातन कास जड़ से उखड़ जाता है। जड़ द्वारा धातु मारना इसकी जड़ के छिलके के पानी में एक तोला सुवर्ण को लाल करके सौ बार खुमाएँ । पुनः सत्यानासी के कल्क (लुगदी) में रखकर अग्नि द्वारा भस्म करें। गुण-इस भस्म को उचित मात्रा में उपयुक्र अनुपान द्वारा सेवन करने से महत की गर्मी और पुरातन शुक्र प्रमेह नष्ट होता है। अडसे के पत्र असे के समान रक्रपित्तनाशक कोई अन्य | श्रोषधि नहीं है। कहा है:वृषपत्राणि संपीड्य रसः समधु शर्करः । अनेनैवशमं याति रक्तपित्तं सुदारुणम् ॥ अर्थात् अडसा-पत्र-स्वरस (अथवा क्वाथ ) में शर्करा तथा मधु मिलाकर सेवन करने से दारुण रक्रपित्त शांत होता है । अडूसे के स्वरस का नस्य देने से नाक, कान, नेत्र से रुधिर का बहना बन्द होता है। अडूसे के पत्तों में कीटाणुनाशक ( Inse. cticide)गुण विद्यमान है और इस कारण जब धान या अन्य फसलों पर कीड़े लग जाते है तो उनको मारने के लिए इसके पत्तों का उपयोग अत्यन्त लाभदायी खयाल किया जाता है। (डॉ० वैट०) चूँ कि इसके पत्तों में किसी कदर अमोनिया भी होती है इसलिए इसके चुरट बनाकर पिलाने से दमा के दौरा में कमी हो जाती है । डॉ. वैट महोदय अपने अनुभव के आधार पर इसकी । असा बड़ी प्रशंसा करते हैं । देखो-"डिक्शनरी ऑफ़ दी एकानामिक प्रोडक्ट श्राफ इण्डिया ।" __ यदि इस वृक्ष के ताजे पत्ते अथवा पुष्प को कूट कर टिकिया बनालें और इसे लाल तथा दुखती हुई आँखों पर बाँध दें तो तीन चार रात ऐसा करनेसे बिलकुल पाराम हो जाता है। इसके पत्तों के चूर्ण को दाँतों पर मलने से दाँत मजबूत होते हैं और दर्द दूर होता है एवं दाँत के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके परो को कूटकर रस निचोड़ लें और उसमें शहद मिलाकर चाटें तो खाँसी दूर हो और कंठ साफ होकर वाणी की शुद्धि हो। १ तो० अडूसे के पत्त, ६ मा० मूली के बीज और ६ मा० गाजर के बीज इनका क्वाथ कर कुछ दिन पिलाने से रजःरोध दूर होता है। अडूसे के पत्ते और सफेद चन्दन इनके सम. भाग बारीक चूर्ण में से ४ माशा प्रति दिवस खाने से खूनी बवासीर को बहुत लाभ होता और खून का दौरा बन्द हो जाता है। ___ यदि किसी अवयव में शोथ हो तो इसके पत्ते के काथ का वाष्प देने से लाभ होता है। . इसके पत्तों को रोशन बाबूना में घोटकर लेप करें तो फुफ्फुस प्रदाह दूर हो। अडूसा-पत्र-स्वरस को तिल तेल में मिलाकर पकाएं जब केवल तेल मात्र रह जाए तब उतार कर ठंडा होने पर शीशी में रख लें । इस तैल से आक्षेप, वातव्यथा उदरस्थ वायुवेदना और हाथ पाँव की ऐंठन दूर होती है। ___ इसके पत्ते समभाग खबूज़ा बीज के साथ घोट छानकर पीने से पेशाब खूब खुलकर पाने लगता है और मूत्र सम्बन्धी बीमारियों में बहुत कुछ न्यूनता अाजाती है। यदि अडूसा पत्र १ तोला, शोरा कलमी ६ माशा और कासनी ६ माशा इनको घोट छान कर पिलाएँ तो मूत्र अधिकता के साथ आता है जिससे कामला रोग दूर होजाता है । इसके पत्तों के जुलाल को पीने से ज्वर, तृषा और घबराहट प्रभृति दूर होते हैं । अडसा के पत्तों को पानी से पीसकर श्रारम्भ For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंडूसा अंड्सा २१० ही में यदि इसे फोड़े पर लेप करें तो उसे बिठा | देता है और कोई कष्ट भी नहीं होता। अडूसे के पत्ते को कूट कर गोला सा बनालें । और उस गोले पर एरण्ड के हरे पत्ते लपेट कर ऊपर से मास ( उड़द ) के आटे का लेपन कर भूदल में दबाद जब अाटा पक जाय तब उसे हटाकर अरण्ड पत्र को पृथक करके अडूसा का रस निकाल कर रखलें । अब उस निकाले हुए रस में से प्राधसेर वह रस, १ पाव खाँड़ देशी, ४ तोला पीपल का चूर्ण और चार तोला गोघृत मिलाकर पकाएँ । जब चाशनी गाढ़ी हो जाए तब उतार कर उसमें एक पाव शुद्ध शहद मिलाकर माजून बनाकर रख लें। मात्रा-४-४ माशा शाम व सुबह । इसे क्रमशः बढ़ाते जाएँ। गुण-राजयमा, खांसी, दमा, प्रतिश्याय, अजीर्ण और वक्षःस्थलस्थ वेदना को अत्यन्त लाभप्रद है। भस्मीकरण __ यदि शुन्द्र ताम्रपत्र को अडसे के पत्ते के रस में सौ बार बुझाएँ । पश्चात् राई की गन्दलों की लुगदी में एक सन उपलों की अग्नि दें। इसी प्रकार तीन बार करें, भस्म तैयार होगी। गुण-इसमें से १ रत्ती उचित रूप में उपयोग करने से सः पूर्ण वातव्याधि, कफ, खाँसी, . दमा, निर्बलता एवम् बुढ़ापा प्रमृति दूर होता "हिन्दू मेटीरिया मेडिका' के लेखक यू० सी दत्त महोदय के कथनानुसार यह कहावत प्रसिद्ध है कि वह व्यकि जो राजयक्ष्मा से पीड़ित हो उसे उस समय तक उदास न होना चाहिए जब तक वासक वृक्ष यहाँ स्थित है। __ यह पुरातन कास, दमा और अन्य फुफ्फुसीय एवं कफ सम्बन्धी रोगों में अत्यन्त लाभदायक है । (डॉ० जैक्सन और दत्त) ___ इसका पुष्प राजयमा नाश करने वाला, पित्तघ्न और रुधिर की उष्णता का शामक है। यदि पुष्प को रात्रि में जल में भिगो दें और सवेरे मल छानकर पान करें तो मूत्र की जलन एवम् अरुणता दूर हो। इसके शुष्क किए हुए पप्पा को कूट छान कर उससे द्विगुण बङ्गभस्म मिलाकर शीरा काह, .खुर्फा और खीरा के साथ व्यवहार में लाने से शुक्रप्रमेह नष्ट होता है। शुष्क पुष्प चूर्ण के साथ इससे चौथाई जौहर नौसादर योजित करके २ रत्ती बताशा में रखकर खिलाने से तर खाँसी दूर होती है। इसके एक पाव पके फूल का एक बोतल शर्बत तय्यार करें। चार मा० यह शर्बत ६ मा० रूह केवड़ा और उचित मात्रा में कुएँ का जल मिला कर सवेरे पिलाने से हृदय की धड़कन, श्वास फूलना, घबराहट और पुरातन गर्मी दूर होती है। अडूसेका फूल १ सेर,इससे द्विगुण शर्करा डालकर गुलकन्द तैयार करें । यह कास, श्वास और यक्ष्मा में लाभप्रद है। असा पुष्प द्वारा भस्म प्रस्तुत करना अड़ से के फूल को कूटकर रस निचोड़ें और उस रस में गोदन्ती हड़ताल को खरल कर नियमानुसार अग्नि दें। इसी प्रकार सात बार करें तो गोदन्ती भरन प्रस्तुत होगी। गुण-यह जीर्ण ज्वरके लिए अत्यन्त लाभदायी सिद्ध होगी। खून थूकने में ५ मा० कहरवा में एक रत्ती यह भस्म रखकर शर्बत प्रजबार के साथ खिलाने से कुछ ही खुराकों में लाभ अडसे के पुष्प अडूसे के पुष्प, पत्र और मूल, परन्तु विशेषकर पुष्प में श्राप शामक गुण होने का निश्चय किया जाता है और दमा की कई अवस्थाओं तथा विषमज्वरों की तीव्रता के पुनरावर्तन में योजित किए जाते हैं। ये किञ्चित् तिक एवं अर्ध सुगन्धियुक्त होते तथा शीत कषाय एवं अवलेह रूप से उपयोग में आते हैं। अवलेह की मात्रा लगभग चाय के चम्मच भर दिन में दो बार प्रयोग में पाती है। (डॉ० एन्सली )। For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडोमा पहुँचाएगी। पुरातन कासके लिए २-२५त्ती यह ___ दमा और ना सुहम (खून थूकने ) के लिए भस्म शर्बत एजाज़ के साथ खिलाने से राम- अमत समान है। १ रत्ती से तीन रत्ती तक वाण सिद्ध होगी। पान के साथ उपयोग में लाने से यह प्रत्येक अडसा द्वारा प्रस्तुत विविध योग भाँति की खाँसी और दमा को लाभ पहुँ(१)वासक क्वाथ, वासा घृत तथा वासा चाता है वलेह प्रभृति तथा अनेक अन्य योग "शाङ्गधर" अडूसा काला adusa-kāla-हिं० । अडूसा भेद एवं "भावप्रकाश" श्रादि ग्रंथों में वर्णित हैं। (Black adha toda)-इं०। इस कोष में भी वे यथाक्रम पाए हैं। अतः अडसा क्वाथः adusa-kvathah-सं० पु. वहाँ वहाँ देखिए। अडूसे के पत्र या मूल १ तो०, जल १६ तोला (२) अडसा पत्र १ सेर, अडसा पुष्प में वाथ करें; जब चतुर्थांश शेष रहे तब उसमें १०तो०, जल ४ सेर डालकर रातको भिगो दें। शहद डालकर पीने से रक्रपित्त तथा क्षय का सवेरे एक जोश देकर गोदुम्भ चार सेर मिलाएँ नाश होता है। और भपका (नाड़ीयंत्र) द्वारा ५ सेर अर्क खीचें । (यो० त०; ला० सं०) १० तो यह अर्क शर्बत एजाज़ ५ तोमें मिलाकर सवेरे और शामको पिलाएँ और उष्ण वस्तुओं अड़सा पुटपाक: adasi-puti pikah -सं० से परहेज कराएँ । राजयक्ष्माकी प्रथम एवं द्वितीय पु. अडूसे के पुटपाक का रस निचोड़ कर शहद मिला पीने से रक्तपित्त, छर्दि, कास कक्षा में लाभदायी है। दो सप्ताह पश्चात् रोगी तथा ज्वर का नाश होता है। के वजन में आश्चर्यजनक वृद्धि दीख पड़ती है तथा शरीर लाल और प्राभायुक्त हो जाता है। (शाईं० सं०म० ख०१०) मूत्र की अरुणता, जलन और रकोष्मा को दूर अड़सा सुफेद adusa-sufeda-हिं० संज्ञा पु. करने में अनुपमेय सिद्ध होता है। अडूसा भेद । देखो-अडसा । White (३) अडसा पत्र, अडसे की जड़ की छाल udhatoda-इं०। अडेका मजेन adaca manjen-ले. मुण्डी, और अडूसा का फूल प्रत्येक २ सेर, २० सेर जल डालकर जोश दें। श्राधा रह जाने पर मल कर गोरखमुण्डो-हिं० । देखो-मुण्डो । (Sphछान लें । उक्र जल में उपयुक्र तीनों eeranthus Indicus, Linn.)-ले० वस्तुएँ १-१ सेर डालकर पुनः जोश दें। श्राधा फा०६०२ भा०। रह जानेपर उपयुक नियमानुसार मल कर छान | अडेनऐन्थेरा पेवोनीया ade nanthera ले' श्रीर उपयुक्र वस्तुएँ प्रत्येक श्राधा सेर डाल pavonia, Linn. )-ले० लाल चन्दन, कर जोश दें। आधा रह जाने पर छान कर रतनन्दन-हि० । देखा-रत चन्दन । बोतलों में भर कर रख दें। दिन में तीन बार ई० मे० प्लां० । ई० मे० मे० । मे० मो०। २॥ तोला की मात्रा में रोगी को पिलाएँ। (Pterocarpus santalinus, Linn.) स्वाद के लिए शहद १ तो० मिला लिया जाए । -ले० । का० इं०। गण-खाँसी, ज्वर, मेंह द्वारा रक्ताच. रक- शडेन्सोनिया डिजिटेटा adansonia digiवमन, रतार्श तथा पाचनशक्ति को लाभ tata, Linn.)-ले० गोरख इम्ली । मे० पहुँचाता है। मो० । अडूसा क्षार | अडोमा adoma-गोवा बुधा-सोव, मलय। . अडसा के पञ्चांग को लेकर जलाएँ और नोट-इस शब्द का वर्णन भूलसे पृष्ठ २०६ इसकी भस्म द्वारा नियमानुसार क्षार प्रस्तुत पर अडूनी शब्द के आगे कम्पोज हो गया है। करें। यह क्षार २ रत्ती की मात्रामें खाँसी, | अस्तु, वहाँ देखें । For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रड्डूः श्रडुः addah - ता० www.kobatirth.org अणु-तैलम् अणिमरम् animaram मल० तून वृक्ष । ( Cedrela toona, roxh ) अड्डुल य addalayu-ता० निकुम्भ-सं० । अशियाली aniyali-f० संज्ञा स्त्री० [सं० (See-Nikumbha.) णि धार ] करी । -डिं० । अडसरम् addasarm ते० श्रड़सा, वासका -हिं । ( Adhatoda vasica, Nees. ) -ले० 1 स० [फा० इं० । श्रेणी ani - ० संज्ञा स्त्री० दे० - श्रणि । अणीय aniya - हिंοवि० [सं०] श्रति सूक्ष्म ! बारीक | झींना | मालजन-हरद्वा० (See-Málajan ). २१२ श्रड्डुतिन पल्लो addntina-palli-ता०कीड़ामार-०ि । अड्डुनम् addunam - सं०ली० ( A shield) ढाल । अडुगजः aragajah सं० पु० चक्रम । चाकु-दे- बं० । चैं० श० । ( Cassia tora, Linn. ) - ले० । फा० ई० १ ० । अडुङ्गः arangah -६० पु० गोधूम, गेहूंCommon Wheat इं० । वै० श० । Triticum valgare-ले० ।। अड़हुः anahuh-सं० पु० लकुच वृक्ष | बड़हल - हिं० | Artocarpus Lakoocha, Foxb. - ले० । वै० श० । श्रढ़ उल adhaula - हिं० जपा पुण्य, श्रडु -सं० | देखी-श्रोड़: (:) | Shocflower ( {Hibiscus Rosa-sinensis, Linn. ) अढ़ के सरनु adhakeyasaram-ro सुपारी - हिं० | Areca catechu -ले० । श्र० नि० १ भा० । अढ़हर adhahara हिं० संज्ञा पु ं० अरहर, रहर, तुबर, आढ़की | See-arhaki. श्रढैया arhaiyá-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० श्रढ़ाई, ढाई ] ( १ ) एक तौल जो २ ॥ सेर की होती | है। पंसेरो का आधा । ( 22 Seers. ) ढ़ईका बेल arhui-ka bela - रूतलज०, पं० ( Acacia Intsia, Willd ) कोरिण्टा - ते० । कटार- कुमायूँ । मेमो० । श्रणि ani - हिं० संज्ञा स्त्रो० ) ( 1 ) The point श्रणि: anih - सं० पु० f of a needle. नोक, मुनुई । (२) धार | बाढ़ | (३) धुरी की कील । ( ४ ) सीमा । हद्द । सिवान । मेड़ । ( ५ ) किनारा । ( ६ ) अत्यन्त छोटा | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणुः anuh-सं० पु० an - हिं० संज्ञा पुं० | श्रणु, रवी वि० ० ] ( १ ) जब एक परमाणु दूसरे परमाणु से मिल जाता है तब उस जिले हुए रूप को श्रणु कहते हैं । श्रणु केवल तत्वोंके ही नहीं होते, प्रत्युत यौगिक पदार्थों के सूनतम भाग भी अणु कहलाते हैं | लीक्यूज़ (Molecule.) - ३० । जुह रेजह.. खुर्दतरीं जुज्द-उ०। (२) सेल (Coll ) । ( ३ ) सूक्ष्म धान्य । ( ४ ) व्रीहि विशेष | मे० साहिक । (२) चीन धान्य ( ६ क से सूक्ष्म, परमाणु से बड़ का । (७) ६० परमागुनों का संधान याचना हुग्रा कण | ( 5 ) परमाणु । ( 8 ) सूक्ष्म कण । (१०) रज, रजकरण | ( ११ ) अत्यन्त सूचन मात्रा | त्रि० (१) अति सूक्ष्मद्र । (२) अत्यन्त छोटा । ( ३ ) जो दिखाई न दे वा कठिनाई से दिखाई पड़े | श्रृणुक anuka-सं०(संज्ञा) त्रि०ग्रतिलघु (Very small, atomic ) | ( Subtle, too fine ) अत्यन्त सूक्ष्म । ম , कोप: anu-koshah-सं० हिं० पु० जीवकोप वा सेल ( Coll ) । देखो - सेल | श्रणु-ज्योतिः anu-jyotih सं० लो०] स्तोक दृष्टि, ज्योति अथवा तेज को अल्पता, दृष्टिमांय ! वा० शा ० ५ श्र०, ६२ श्लो० । श्रणता, त्वं anutá - tvam ( १ ) Minute ness सूक्ष्मता, अणुरूप होना । (२) Atomic Nature परमाणु स्वभाव | 1 अणु-तैलम् anu- tailam - सं० क्ली० शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भागों में प्रवेश करने वाला तैल केश में होने वाले रोग के लिए प्रयुक्त होने वाला तैल विशेष | वा० सू० २० अ० । For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणुदर्शक २१३ अणुब्रोही (१) जिस किसी कार के कोल्हू की लाठ | मुबराबर दिमाग़, दलीग़, सगीर दिमाग़-१०। के नीच तिल सरमा श्रादि पदार्थ घानी में पेरकर सेरीबेलम् Cerebellum इं०। तेल निकाला जाता है, उस उस लकड़ी के खरड अगमांगी : nulmi ngi-हिं० स्त्री० नुविय्यह, खण्ड करके एक बड़ी कड़ाही में जल भर कर - अ० । न्युकीयोलस Nucleolus-इं० । अग्नि में पकाएँ। उक्त रीति से पकाने पर उन सेल (Cell) को बड़े यंत्र की सहायता से लकड़ियों से जो तेल का अंश पानी पर आ जाए ध्यानपूर्वक देखने पर मींगी के भीतर जो एक उसको काछ कर अलग कर लें। उस तैल में छोटा सा विन्दु दिखाई देता है, उसको अणुमींगी वातनाशक श्रौषधों को मिलाकर स्नेह पाक की कहते हैं । ह० श० र० । देखो सेल । विधि से पका लें, इसे अणु तेल कहते हैं। अणुमुष्टिः animashtih-सं० पु० विषमुष्टि, गण-यह विशेष कर वात रोगों को दूर करता महानिस्त्र । रा०नि०व०४S.}-vishaहै और भगन्दर में भी इसका प्रयोग होता है। mishtih. . ( स० सं० चि० अ०, चं० का प० ।) अणमुष्टिकाः animus' tikāh-२० स्त्री० २) जीवन्ती, नेत्रवाला, देवदारु, नागर- डाड़ी, मुष्टिका | Sa-Dori. मोथा, दालचीनी, कालाबाला, अनन्तमल, र. अणपन्ध्रम् Taran-सं०डी० ( Foचन्दन, दारुहल्दी, तज, मुलही, कदम्ब, अगर, vesalii) सूक्म छिद्र । निफना, पौर डरीक, वेलगिरी, कमल, छोटी अगरेवती anurerati-सं० श्री० ( Crotol कटेरी, बड़ी कटेरी, सल्ल की, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, Polyandrim, Roxb-) दन्ती वृक्षः। ५० वायविडंग, तेजपात, छोटी इलाचयी, रेणुकबीज, मु० । रा०नि० २६। नागकेशर, पद्मरेणु इन्हें समान भाग लेकर र प्रणव क्षण anuvikshana-हि. संक्षा प. सौगुने प्रांतरिक्ष जल में क्वाथ करें, और ऊपर अणुदर्शक, सूक्ष्मदर्शक यंत्र । नकारह मकबरह. कथित द्रव्यों के तुल्य तिल नैल लें । ज तैल से -अ० । माइक्रोस्कोप ficroscope-इं० । दस गुना क्वाथ रह जाए तब उतार कर तैल पाक सूक्ष्म वस्तुओं को बड़ा करके दिखाने वाला यंत्र करें और जब तैलमात्र शेष रहे नब पुनः उस तैल वह यंत्र जिसके द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म से सूरम के बराबर क्वाथ मिलाकर पकाएँ इस प्रकार दस वस्तु भी देखी जा सकती है । इसी के द्वारा विचार पकाएँ अन्त में जब तैलमात्र शेष रह जाए तो ज्ञान ने से अनेक सूरम कोटा ग.त्रों का पता उसमें तेल के बराबर हो बकरी का दूध मिलाकर लगाया है जिनकी विद्यमानता का मनुष्य को पुनः पकाएँ । फिर तैल शेष रहने पर उतार लें। स्वप्न में भी ख्याल न था'। देखो-सूक्ष्मदर्शक । इसे अणु तैल कहते हैं । यह नस्य. द्वारा अणुवीदय anuvikshya-हिं० वि० सूक्ष्मदर्शक प्रयोग करने में महा गुणकारी है । चूंकि यह यंत्र से दिखाई देने योग्य । नकारह मक्बरियह सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश करता है इसलिये इसे अण: अ० । माइक्रोस्कोपिक Microscopic-० । नैल कहते हैं। (वाग्भट्ट० अ० २०) अणब्रोहिः anu-brihih-सं० पु..... ) अणुदर्शक anudarshaka-हिं० संज्ञा पु० अणुव्रीहि antrihi-हिं० संज्ञा पु. (Microscope ) सक्ष्मदर्शक । । अणब्रोही antu-brihi-हिं० संज्ञा प.." ) अणभा anubhi-हिं. संगा स्त्री० [सं०] श्यामक, साँवाँ, साँी, छोटे धान । लक्ष्मधान्य, Lightning बिजुली। विद्युत् । अनि। . एक प्रकार का दिया धान, जि.रूका चावल बहुत. तांइत् । छोटा होता है और पकाने से बढ़ जाता है. और. अणमस्तिष्क anumastishka-हिं०संज्ञा पु०॥ महँगा भी दिकता है। मोतीचूर-हिं० । रा०नि० अणुमस्तिष्कम् animastishkam-सं.क्ला० ): व. १६ । पर्श-प्र लघुमस्तिष्क, अनुमस्तिष्क ddy. .. For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भएटगलु २१४ বাঘ प्रण्टगलु anta-galu कना० (ब. २०) गांद, (३) डिम्बः (मे०), स्त्री अण्ड-हि० । बै जह, लासा-हिं० । गम्ज़ gums, रेज़िन्स Resins बैजतुल्मनी-अ०। ओवम् OvIIm-ई। डिम्, -ई० । स० फा०९० । देखो-निर्यास । श्राएडा-बं०। इसके पाय--पेशी, कोषः. अपिट anti--मल० (Nut) गुठली-हिं० । स० (अ) पेशः, कोशः, पेसीकोषः, (१० टो०)। फा०६०। पेशी (के)। गुण-पाकमें कटु, मधुर (रस, में) अण्टिकल anti-kala--मल० ( ब० व.), रुचिकारक, शुक्रजनक, वात तथा कफनाशक । अण्टि (ए० व०) गुठलियाँ--हिं० । नट्स | (४) गंधमाजोगराड । व० निघ०२ Nuts--इं०। स० फा०ई०। भा० वा. व्या. विषगर्भ तैल । ( ५ ) अगिटचेट्ट anti-chetu -ते. केला, कदली Musk bag कस्तुरिका, नाना, कस्तूरी प्रण्टिपण्डु antipanduj-हिं० । म्युसा सेपि का नाफा, मृगनाभि । ( ६ ) Semen एण्टम (Musa sapientum, Linn.) स० virile वीर्य, शुक्र-सं० । वि०। (७) एरण्ड फा० इ०। ..हिं० । पामा क्रीस्टाई Palma christi अण्टिमलरो anti-malaria ( Ricinus Vulgaris)--ले० । (5) ) --मल. अरिष्टमन्तारम anti-mantaram) गुलाबास अण्डा ( An Egg.) हिं० ई० डि०। (6) -हिं०। गुलेअब्बास-फा० । ( Mirabil. पंच आवरण । दे० कोश । ( १०) कामदेव । is jalapa, Linn.)-ले० । स० फा००। ( Cupid ). देखो-गुलेअब्बास । इ.एड उपांड खात anda-upānda-khata अण्टिश antisha-ते. चिरचिटा, चिचिनी, अपा- __-हिं• संज्ञा पुं० ( Digital fossa ). मार्ग--हिं० | (Achyranthes aspera, अण्डक: andakah-सं० पु (Scrotum) Lian.) स० फा० इं०। अण्डकोष । हे० च.।। प्रण्टु antu- कना० (ए० व०) गोंद, लासा --हिं० । गम, Gum, रेजिन Resin-६० । अण्डकं andakam-सं० क्लो. क्षुद्र डिम्ब, छोटा अंडा (An small egg ). देखो-निर्यास । स० फा०६०।। अण्ड anda--हिं० संज्ञा पु. अण्डककडी anda.kakari ) अण्डः andah-सं०. अण्डककटी anda-karkatir हिं० संज्ञा अण्डम् andam--स० की. स्त्री० अण्डखवू ज़ा, पपेया, पपीता Carica (१) अंडकोष को टटोलने पर उसके भीतर Papaya, Linn. ( Fruit of ). गुठली के समान जो दो सख़्त चीजें मालूम होती अण्डकोटर पुष्पा andakotāra-pushpa ] हैं, उनको अंड कहते हैं । इसकी सम्बाई अण्डकोटरपुष्पो anda.kotara pushpi ) ११ से १ ३ इञ्च, चौड़ाई । इञ्ज और मोटाई सं० स्त्री० नीलवुहा । देखो-प्रजान्ता। A pot१ इञ्चसे कुछ कम होती है। उसका भार एक तोले herb (Convolvulus argenteus ). के लगभग होता है । टेस्टिकल Testicle, टे. रत्ना०। स्टिस, Testis-इं० । पाण्ड, मुष्क, पुरुषअण्ड, अण्डकोश: andakoshah . शुक्रग्रंथि-हिं० । बैजतुल्मनी; नुस यह, मवसा, | अण्डकोषः anda-kosha सं० पु. दौमह-अ०। रा. नि. व. १ अण्डकोषक: andakoshakah (२) अण्डकोष, वृषण--हिं० । सफ्न, (१) कुट्मल । वृषण (Serotum, फ्रोतह, कीसहे नुस यह-अ० । स्क्रोटम् Serot- Tunica albuginea testes) ! um-ई० । हिं०६० डि. ! रा० नि० व०१८ For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूजी अण्डखरबूजी संस्कृत पर्याय-मुष्कः, वृषणः, (अ)। अंड, पेलं, अण्डकः ( हे )। सीमा (ज)। फलकोशकः (त्रि)। फलं (के)। बीजपेषिका (रा) । सफन (अस् फान, सिफ़न-ब० व०), कीसुल उन्स यैन, कीसह, खु.स्यह, (खुसिया) फ्रोतह (फोता)-०। पोस्त खायह--फा० । खु स्यों की थैली उ०। लिंगेन्द्रिय के नीचे और पीछे वह चमड़े की दोहरी थैली जिसमें वीर्यवाहिनी नर्स और दोनों गुठलियाँ रहती हैं । दूध पीकर पलने वाले उन समस्त जीवों को यह कोश वा थैली होती है जिनके दोनों अंड वा गुठलियाँ पेडू से बाहर होती हैं। (२) फल का छिलका । फल के ऊपर का बोकला । भण्डखरबूज़ा anda-kharabuza-हिं. संज्ञा पु० अरण्डखरबूजा, अरण्डककड़ी, एरण्डकर्कटी, अरण्ड पपैया, पपैया, पीपैयह , विलायतीरेंड, पपीता, पपैता-अम्बा, पपैयह । अरण्डखरबूजा ---40 । पोपाई-द० । एरण्डचिर्मिट, वातकुम्भ, मधुकर्कटी, नलिकादलः-सं० । पपैया, पौपुयिअश्रा, पाई, पप्पिया, पेपिया, पपया-पं०। अम्बहे-हिन्दी-अ०, फा०। शजतुल बतीख -अ० । दरख्त खुरपज़ह., दरख़्तखर्बुजह, -फा० । खुरपज़ह, का दरख़्त-उ०। पपाय (Papay), पपावपेपा ट्री (Papaw tree), मेल नट्री, (Melon tree,), मेलन मेमेयो ( Melon- Mamao), कुकुरबिटा पेपा (Cucurbita. papa )-इं० । पपाया (Papaya), पपाव (pa paw,) केरिका पqrar Carica Papaya Linn. (Fruit of-)-ले० । पपायेरकम्यून Papayer commun-फ्रां० । मेलोनेनबॉम Melo. men baum-जर० । पप्पायि, पप्पायिप जम, पप्पालि- पज़म, पप्पालिमरम्-ता० । बोप्यायि पण्डु, मदन-अनपकाय, मधुरनकम्, बपैय-पण्डु -ते०। पप्पाय-पज़म, आपपाय-पज़म, पप्पा. यम्, कप्पालम्-मल० । बोप्यायि-हण्णु, फरङ्गि -हएणु परङ्गी, पेरङ्गी, पेरिस्जि-पल्लसु । पप्पा. गाये-कना० । पोपया, पपाई, पपया-मह । पपई, पपया-मह०, कच्छ०, बम्ब०। पप्यो, पपायि, पपिया, पयाई, पयाईकाट, पपाउन, चिद्धा, एरण्डककड़ी, झाड़-चिडी-गु०। पपोल्का-सिं० । सिम्बो-स, तिम्बो-सि-बर० । पप्पागाई-तु० । पोप्पाए-फल-को०। पप्ता, कचिण्डो-सिंध। मुमकोलता या पपीता वर्ग (N. 0. Papayocea, or Passifloracee.) नॉट ऑफिशल ( Not Official ). उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवासस्थान अमेरिका है, परन्तु अब यह सम्पूर्ण भारतवर्ष (विशेषकर पश्चिम भारतवर्ष ) में तथा पुरानी दुनियाँ के उष्ण प्रधान प्रदेशों में लगाया जाता है। नोट-किसी किसी ग्रन्थ में इसका अरबी फारसी नाम अनबहे हिन्दी लिखा है। परन्तु प्रामाणिक चिकित्सा ग्रन्थों में यह नाम नहीं मिलता । मुहीत श्राज़म में पपय्यह, तथा महज़नुल अद्वियह, में पपीहा श्रादि नामों से इसका वर्णन किया गया है । गीलानी ने शरह मुफदात्कानून में बतीख़ के अन्तर्गत् इसका वर्णन किया है । इग्नेशिया अमारा (Ignatia Amara) को भी जो कि कुचिला वर्ग की श्रोषधि है उसके हस्पानी नाम पपीता से ही अभिहित करते हैं, परन्तु वह विषैली तथा अण्डखरबूजा से सर्वथा भिन्न वस्तु है; अस्तु, उसके लिए देखो-पपीता। वानस्पतिक वर्णन इसके वृक्ष २० से ३० फीट ऊँचे, प्रारम्भ में अशाखी (अर्थात् खजूर व तालवत् एक ही तनेपर ); किन्तु प्राचीन होने पर शाखायुक (पृथक् पृथक् शिरोमय ) हो जाते हैं । पत्र लम्बे डंठल युक्र (१-१ गज लम्थे ), एकांतरीय (विषमवर्ती ) पञ्जाकार, सप्त खंडयुक्र, एरण्डपत्रवत्, किन्तु उससे मदु एवं लघु For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अण्डखरबूजा होते हैं 1 खण्ड - श्रायताकार, न्यूनकोणीय, शिरायों से व्याप्त होता है जिसके सिरे पर पत्तों की छत्री बनी होती है । www.kobatirth.org I मध्य खण्ड - पुनः त्रिखण्डयुक्त होता है पुष्पभ्यन्तरकोष नरपुष्प में नलिकाकार और मादा में पञ्च खरडयुक्त होते हैं। नरपुष्प कक्षीय किञ्चित् मिश्रित गुच्छों में एवं श्वेत होते हैं । मादा (रि) पुप साधारणतः भिन्नवृक्ष में कक्षान्तरीय, वृहत् एवं गृदादार और पीताभायुक होते हैं । फल रसपूर्ण श्राथतःकार, धारीदार, लघु खबूजा के थाकार के परिपक्वावस्था में पीताभायुक्त हरित या सुखमायल वर्ण के और श्रपक्क दशा में हरे रंग के होते हैं। इनमें बहुसंख्यक गोलाकार धूसर वर्ण के चिपचिपे मरिचवत् बीज होते हैं इनमें से चुनसरवत् गंध श्राती हैं। अपरिपक्वावस्था में फल गाड़े दूध से भरा रहता है । पत्र एवं कांड में भी दुग्ध होता है । इसमें पेपीन ( अण्डखरबूजा सत्व प्रभावशाली पाचक सत्य होता है । 1 नामक एक -- 7 नोट- फल के विचार से ये चार प्रकर के होते हैं . २१६ १ - नर - जिसमें फल नहीं लगते, ये केवल पुष्प श्राचुकने पर शुष्क हो जाते हैं। शेष तीन फलदार होते हैं । २ - इनमें से एक बेल पपय्या है । इस प्रकार का फल तने से लगा हुआ नहीं होता, अपितु डलयुक्त होता है। शेष दो प्रकार (तीन व चार ) के फल तने से लगे होते हैं केवल फल के छोटे बड़े होने का भेद होता है । : अंडखरबूजा बम्बई, कराँची और मदरास में अधिकता से होता है । प्रयोगांश - दुग्धमय रस, बीज तथा फलमज्जा और पत्र, दुग्धमय रस द्वारा प्रस्तुत सत्व "पेपीन" आदि । रासायनिक संगठन - इसके दुग्धमय - रस में एक प्रकार का अल्ब्युमिनीय पाचक संधानीत्पादक ( श्रभिषत्रकारी ) पदार्थ होता Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूजा है, जो दुग्ध को जमा देता है, उसको पेन ( Papain ) या पयोन (Papavotin) कहते हैं। ताजे फल - स्वरवत् एक पदार्थ, एक लहु पीतवर्ण का राल, वसा, अल्ब्युमीनाईड्स, शर्करा पेक्टीन, निम्बुकाम्ल ( Citric Acid ), अम्लीकाम्ल ( Tartaric Acid ), सेव की तेजाब ( Malic Acid ) और ब्रॉक्षौज ( अंगूर की शर्करा ) प्रभुति पदार्थ पाए जाते हैं। शुष्क फल में अधिक परिमाण में भस्म ( ८.४ % ) होती है जिसमें सोडा, पोटाश और स्फुरिकाम्ल ( Pho sphoric Acid ) पाए जाते हैं। इसके बीजों में एक प्रकार का तैल होता है जिससे श्रग्राह्य गंध श्राती है । (स्वाद - श्राह्म) इसको अण्डखरबूजा तैल या पपैया तैल ( Papa - ya Oil or caricin) कहते हैं । इनके अतिरिक्त इसमें पामिटिक एसिड, कैरिका फैटएसिड, एक स्फटिक अम्ल जिलको पपीताम्ल (Papayic Acid ) कहते हैं और रेजिन ऐसिड तथा एक मृदुराल श्रादि पदार्थ पाए जाते हैं । इसके पत्र में कार्पोन ( Carpaine) नामक एक क्षारीय सत्व होता है जिससे कार्पोन हाइड्रोक्लोराइड ( Carpaine hydrochloride ) बनता है । यह जल में विलेय होता है और हृदय बलप्रद रूप से डिजिटेलिस के स्थान में से लेकर ง ग्रेन तक के मात्रा ३० १५ गन्तःक्षेप रूप से उपयोग किया जाता है । कापन एक विषैला पदार्थ है । औषध निर्माण - १ - पपीता सरस, मात्रा२० से ६० बुदे । २-शुष्क पपीता स्वरस, मात्रा-१ से २ ग्रेन या अधिक । इससे भाग पेपीन ( पपीता सत्व) प्राप्त होता है । ३ - पपीता सत्व अर्थात् पेपीन या पेपेयोटीन, मात्रा - 1 से ८ ग्रेन । ४——फल मज्जा । ५---शत, चटनी श्रादि । ६ - कल्क व पुल्टिस । सेवन विधि - इसको कीचट में डालकर या मिश्रण ( मिक्सचर ) या गुटिका रूप में तथा एलिक्सर और ग्लीसरोल की शकल में देते For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूजा है। डिस्पेन्सि सिरप से इसकी उत्तम वटिकाएं प्रस्तुत होती है। ___ नॉट ऑफ़िसल योग (Not official preparations ). और पेटेन्ट औषध(1) एलिक्सिर पेपीन ( Elixir papain ) अक्सीर जौहर पपय्यत । । पेपीन " भाग, मचसार (ऐल्कोहल) भाग, परितुत वारि ( डिस्टिल्ड वॉटर ) ४५ भाग, ऐरोमैटिक एबिक्सिर आवश्यकतानुसार वा इतना जिससे पूरा सौ होजाए । (बी०पी० . सी.). मात्रा-पापा से। ड्राम भोजन के साथ । (२) ग्लीसराइनम् पेपीन (Glycerinum papain) ग्लीसरीन जोहर पपाह, माधुरिणीब पपीतासत्व । सीन भाग, साइड्रोक्रोरिक एसिड इस्पट - भाग. सिम्पल एसिक्सिर ५ भाग, ग्लीसरीन (मरीन) १०० भाग पर्यन्त । मात्रा-१ डाम भोजन के साथ । (३) किस्काई पेपीम ( Trochisci papain) पीन की टिकिया शक्ति-प्रत्येक टिकिया में प्राधा प्रेन पेपीन होता है । टेम्लेट्स पेपीन, प्रत्येक में २ ग्रेन पेपीन होता है। इतिहास तथा गुण-धर्म- ब्राजील निवासी इसको प्राचीन काल से जानते थे। प्रस्तु, अण्डखज़ा की नरमादा जासिको वहाँ मेमेत्री मेको Mamao macho( नर मेमेश्रो या पपीता) तथा फलान्वित होने वाली सी जाति को मेमेग्रो फेमिया mamao famea (मावा पपीता) और अम्तिम की बोई जाने वाली जाति को मेमेनो मेलेनो (फीमेल मेमेत्री) कहते थे। परन्तु, उसके दूधिया रस का कृमिघ्न प्रभाव १० वीं शताब्दि मसीही में शात हुमा । पश्चिम भारतीय द्वीपों में इसका मांसपाचक प्रभाव सम्भवतः प्राचीन काल से शात था । ऐसा प्रतीत होता है कि पुर्तगाल निवासी जब इसको भारतवर्ष में लाए तब उनसे भारतीयों को भी इसके मांसपाचक प्रभाव का ज्ञान होगया; क्योंकि भारतवर्ष में भी यह बहुत काल से ग्यवहार में आ रहा है। प्रस्तु, मांसको कोमल करने के लिए कच्चे अंडखवूजा का रस उस पर मलते हैं अथवा उसको इसके (पपस्या) पत्र में लपेट देते हैं। (पत्र साबूनवत् है-६० मे० मे० ।) मस्जनुल 'अद्विग्रह, तथा मुहीत माजम प्रभृति ग्रन्थों में भी पपथ्यह के दुग्ध के इस गुण का वर्णन है कि वह गौरत की गुज़ार करता ( कोमल करता या गला देता) और दुग्ध को जमा देता है ।। मजनुल अद्वियह के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन (१७७० ई.) ने पपस्यह, वृक्ष का सष्ट वर्णन किया है। वे इसके रस में पाईक को मिश्रित कर मांस के मृदु करने के उपयोग का वर्णन करते हैं। उनके वर्णनानुसार यह रकनिष्ठीवन, रकातथा भूत्रप्रणालीस्थती की भीषध है और अजीर्य में भी हितकारी है। दद्या विचर्चिका (जिसमें अस्थत साज उठती हो एवम् जिससे अधिक स्नेह बाप होता हो) में इसके दुग्ध को ३-४ बार लगाने से लाभ .. ता प्रकृति-पक-गर्म सर; अपक-उष्ण, रूप वृक्ष-वा-उप्ण रूस, किसी किसी के मत से सर्दतर २ कक्षा में। . .. ...... हानिकर्ता-यकृत् को वा शीत प्रकृति और कफ प्रकृति वालों को । दर्पनाशक-सिकंजबीन बरी (खाँद, बना तथा सिर्का प्रभृति) । माहार मध्य में इसका साना उत्तम है। स्वादअपक कडुत्रा और पक्व मिठास लिए कुछ स्वाद होता है। प्रतिनिधि-हिन्दी अजीर ।। मात्रा-४.मासे । - गुणा, कर्म, प्रयोग कोच्छमृदुकर, तृषाहर, प्रवाहिका, अर्श, नीहादि, कंठ मुखकी रूपता तथा नरब और पम्मा को लाभप्रद है। अशुद्ध मौंको त्वचा, हस्त व पाद द्वारा विसर्जित For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org काडखरबूजा करता है; मृतिहर, रुक्षता, रक्तनिष्ठीवन, रकचरण, रक्कार्श, मूत्रप्रणालीस्थ क्षत, · हृत् व आसाशय व यकृद दाहहर, शीघ्रपाकी, कफ तथा रक्तवर्द्धक, कफज व वातज श्रान्त्रकूजनप्रद है । मु० आ० | इसका परिपक्व फल उपदेश . को गुणप्रद | इसके पके हुए और कच्चे फल का अचार प्लीहा के रोग में गुणकारक है । यह पाचक, दुधावर्धक, वायु•-लयकर्ता, बुक व वस्त्यस्मरी निःसारक और मूत्रल । मांस विशेषतः कबाबों के मांस को अतिशीघ्र गलाता एवम् उसका दर्पन है । भारतवर्ष में प्रायः यह इसी काम में आता है । म० मु० । बु० मु० । J : २१८ भारतवर्ष में डॉ० फ्लेमिङ्ग (१८१० ई० ) -ने इसके दुग्ध के कृमिघ्न रूप से उपयोग की ओर ध्यान दिलाया। इसके कथित गुणधर्म के प्रमाण के लिए वे मि० कार्पेण्टीर कोसिनी (Mr, Carpentier Cossigni) के लेखों से एक मनोरञ्जक भाग उद्धृत करते हैं । अभी हाल ही में मिए बटन ( Mr. Bouton ) ने इसका प्रबल प्रमाण पेश किया है; जिससे यह निश्चिततया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसके कृमिघ्न प्रभाव विषयक वर्णन वास्त विक घटना पर स्थापित किये गये हैं । वे डॉ० लेमारचन्द ( Dr. Lemarchand ) द्वारा व्यवहृत निम्न सेवन विधि का उल्लेख करते हैं- ताजे खरबूजे का दुग्ध, और शहद, मत्येक की भर इनको भली भाँति मिति *कर उसमें उबलता हुआ जल ३ या ४ चम्मच भर धीरे धीरे योजित करें। और जब यह काफी शीतल होजाय तो इसे एक घूट में पी जाएँ । इसके दो घंटे पश्चात् सिर्का या नीबू के रस मिले · हुए एरडतैल की एक मात्रा सेवन करें । ...वश्यकतानुसार इसको दो दिन तक बाबर सेवन करें। ग्रहपूर्ण वयस्क मात्रा है। ७ से १० वर्ष के भीतर के बालक को इसकी आधी मात्रा देनी चाहिए और तीन वर्ष से भीतर के शिशु 1 ; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रडखरबूज को इसका तिहाई अथवा एक चाय की चम्मच भर देना चाहिए । यदि ऐं न प्रतीत हो जैसा इससे कभी कभी होता है तो शर्करा योजित एनिमा ( वस्ति ) करने से वह दूर हो जाता है । मुख्यतः यह केचुश्रा निस्सारक है । कहूदाना ( Tenia) पर इसका कम प्रभाव होता है 1 बीज में भी कृमिघ्न प्रभाव होने का वर्णन किया गया है, परन्तु इसके गुण विषयक प्रभावों से भलीभाँति यह परिणाम नहीं निकलता । ''दक्षिण तथा पश्चिम भारतवर्ष और बङ्गप्रदेश की सभी जाति की स्त्रियों में इसके बीज के श्रार्त्तवप्रवर्तक गुलमें प्रबल विश्वास है । उनकी यहाँ तक है कि यदि गर्भवती श्री इसे मध्यम मात्रा में भी खाए तो गर्भपात अवश्यम्भावी परिणाम होगा । यही पूर्वाग्रह इसके फल खाने के खिलाफ़ है । तो भी पपीता के प्राकथित प्रवर्तक गुणों के प्रमाणभूत घटनाओं की बहुत कमी हैं। ( बीज सशक प्रवर्तक है - इं० मे० मे०) गर्भपात हेतु इसके दूधिया रस का गर्भाशयिकद्वार में पेसरी रूप से स्थानिक उपयोग होता है । यह जमे हुए अल्ब्युम का लयकर्ता है । १ इसके पत्र, ६० प्रेन ( ३० रती ) अहिफेन तथा ६० ग्रेन ( ३० रती ) सैंधव - लवण इनको रगड़ कर करक प्रस्तुत करें। इसके स्थानिक उपयोग से गिनी कृमि ( Guineaworm ) नष्ट होती है । 'ले० कर० कॉक्स' । एक चाय की चम्मच भर अंडखरबूजे के दुग्ध तथा उतनी ही शर्करा का परस्पर मिलाकर इसकी तीन मात्राएँ बनाकर दैनिक सेवन करने से प्लीहा एवम् यकृत वृद्धि चिकित्सा में उत्तम परिणाम प्राप्त हुए | एबर्स (३० मे० ग० फर० १८७५ ई० ) । A फल पुरातन अतिसार में गुणदायक होता है । •. इसका अपक्क फल कोष्ठमृदु कारक तथा मूत्रल है । इसका ताजा दूधिया रस वएर्यलेपन ( Rubifacient ) तथा दद्रु हेतु उत्तम For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरवजाः अण्डखरबूज़ा प्रलेप है । यह वृश्चिक देश की निश्चित औषध । है। बीज भी इस हेतु उतने ही लाभप्रद हैं। पक्क फल परिवर्तक है और इसका निरन्तर सेवन आदती मलावरोध को नष्ट करता है। यह अजीण तथा रकाश में हित है। उबालने के पश्चात् इसमें निम्बु स्वरस तथा शर्करा सम्मिलित करने से इसकी उत्तम चटनी प्रस्तुत होती है। इसका शुष्क किया हया एवं लवण-योजित फल प्लीहा शोथ तथा यकृत शोथ को कम करता :-है। इसके अपक्व फलसी कड़ी प्रस्तुत कर. स्तन्यजनन प्रभाव हेतु नियाँ सेवन करती हैं। वातवेदनायों में इसके पत्र को उष्ण जल में अथवा अग्नि पर गरम करके वे नास्थल पर बाँधते हैं। पनियों को कुचलकर इसको पुल्टिस बाँधने से कहा जाता है कि श्लैपदिक शोथ कम होता है। इस हेतु इसके फल द्वारा निष्कासित प्रगाढ़ दुग्ध का ३ से ४ 'प्रेन (१ से २ रत्ती) की मात्रा में वटी रूप में प्रान्तरिक उपयोग होता है । ई० मे० मे .. अण्डस्वरबूज़ा का दूधिया रस और तनिर्मित सत्व (पेपोन) दूधिया रस ___ प्राप्ति व निर्माण-विधि-अपक्व ( वा अर्द्धपक) फल में लम्बाई की रुख बारम्बार चीरा दें। इस प्रकार जब पर्याप्त दुग्ध निकल पाए तब उसे एकत्रितकर सैण्डवाथ (बालुकाकुण्ड)पर रख मन्द अग्नि द्वारा शुष्क करें। इस प्रकार एक मन्द श्वेत व का चूण प्राप्त होगा। प्रान्तरिक रूप से प्रयुज्य यह एक उत्तम औषध है। पूर्ण वयस्क मनुष्यको इसकी १ या २ ग्रेन की मात्रा शर्करा वा दुग्ध के साथ देनी चाहिए । इसी प्रकार की एक औषध "फिलर्स पेपीन" के नाम से | बिकता है । स्वाद अप्रिय होने के कारण इसका टिंक्चर उत्तम नहीं होता । आवश्यकता होने पर बालकों अथवा स्त्रियों के लिए इसके चूर्ण का शर्बत बनाया जा सकता है। अजीण में यह अत्यन्त गुणदायक है।" लक्षण तथा पेपोन से इसकी तुलना क्षारीय, अग्लीय, तथा न्युट्रल (उदासीन) घोल में विलायक रूपसे यह पेप्सीनके समान एक एन्जाइम है। यह मांसीय एल्ब्युमेन का प्रबल पाचक एवं वास्तविक पेप्टोज का निर्माण करता है और पेप्सीन के समान दुग्ध को जमा देता है । पेन्सीन से यह इस बात में भिन्न है कि बिना अम्ल योग के तथा अधिक उत्ताप पर एवं थोड़े काल में यह प्रभाव करता है। फाइबिन तथा अन्य मत्रजनीध पक्षों का विलाब होने के कारण वह मांस को गलाता है। बना हुधा रस पेप्सीन से रासायनतः इस बातमें मित्र है कि उबालने पर वह सलस्थाया (अधःपातित) नहीं होता | और मन्यु रिक बोराइड (पारदहरिद), प्रायोडीन ( नैलिका ) एवं सम्पूर्ण खनिजाम्लों द्वारा तलस्थायी हो जाता है। इस बात में वह पेप्सीन के समान है कि न्युट्रल एसी. टेट ऑफ लेड द्वारा वह, तलस्थायी हो जाता है तथा कॉपर सल्फेट ( ताम्रगन्धेत ) और भावन • मोराइड (लौह हरिद ) के साथ. तलस्थायी नहीं होता। पेपोन या पेपेयोटीन (Papain or papayotin) प्राप्त व लक्षण - यह एक एल्ल्युमीनीय वा पाचक खंभीर वा अभिषव (प्रभावात्मक सत्व) है जो अपक्व अण्डखळूजा के दूधिया रसको मद्यसार (ऐलकुहॉल) के साथ तलस्थायी करने से प्राप्त होता है । यह एक श्वेत वर्ण का विकृताकार ( अमूर्त ) श्राभूत चूर्ण है। जो ७५% शुद्ध मद्यसार, जल एवं ग्लीसरीन (मधुरीन) में विलेय होता है । इसमें प्राबिज द्रव्यों के पचाने की शक्रि है। एक ने पीन २.. प्रेन ताजे दबाए हुए रक फाइमिन को पचा देगा। नोट-यद्यपि अण्ड सबूजा के अपक्क रस से निकाल कर शुष्क किए हुए दूधिया रस को अंग्रेजी में पेपेयोटीन कहते हैं तथापि पेपीन और पेपेयोटीन अधुना पर्याय रूप से व्यबहत होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ir www.kobatirth.org २२० खरबूजा पेपीन ( Papain ) को पेपाइन (papine ) के साथ मिलाकर भ्रमकारक न बनाना चाहिए । पेपाइन एक द्रव पदार्थ है जिसमें अफीम के वर्जनीय वारीय सत्वों से भिन्न उसमें श्रङ्गमप्रशमन गुणों के होने की प्रतिज्ञा की जाती है । इन्द्रियव्यापारिक कार्य या प्रभाव - इसकी प्रभाव विषयक बातों में सिवा इसके और कोई स्मरणीय बात नहीं कि इसका नत्रजनीय पदार्थों पर प्रबल प्रभाव होता है; और जब पेपेोटीन को सीधा रक्रमें पहुँचाया जाता है तब यह प्रबल विषैला प्रभाव उत्पन्न करता है; जिस से हृदय तथा वातकेन्द्र वातग्रस्त हो जाते हैं । अन्यथा श्रान्तरिक रूप से औषधीय मात्रा में यह सर्वथा निरापद है । उपयोग - डिफ्थीरिया (खुनाऊ, कंडरो हिली ), ग्रहसरेटेड थ्रोट कण्ठचत ), कूप ( स्वरनीकास), एक्ज्ञेमा ( कन्द) और फिशर श्रीफ दी टङ्ग ( जिह्वा की कर्कशता) आदि में इसका स्थानिक उपयोग और अग्निमांद्य, श्रजीर्ण वृकशूल, कद्दूदाना ( टीनिया सोलियम् ), आध्मान, अतिसार तथा वृक्काश्मरी एवं दन्तोदुर्भेदजन्य संग्रहणी ( Lienteric Diar rhoea ) प्रभृति में इसका ग्रान्तरिक उपयोग लाभदायक होता है। (3) पेपीन- तथा ऐसी वा पेनकि एटीन ( क्रोमीन) के पाचक प्रभाव की तुलनात्मक व्याख्या- - ( क ) अम्लीय पारीय तथा म्युट्रल - घोलों ( वा माध्यम) में भी इसका प्रभाव होता है जिससे उस अवस्था में भी इसके प्रभाव करने की आशा की जा सकती है जब कि अस्वस्थता के कारण अथवा कृत्रिम रूप से जैसा श्रौषधकाल में होता है, आमाशयस्थ पदार्थों की प्रतिक्रिया क्षारीय या म्बुट्रल (उदासीन) होजाती है। उन दुर्शाओं में पेपीन सत्यत्तः व्यर्थं प्रमाणित होगा । ( ख ) क्षारीय एवं न्युट्रल घोलों में प्रभावजनक होने के कारण आहारीय पदार्थों के श्रामा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मण्डखरबूजा शय से आंत्र में जिसकी प्रतिक्रिया चारीब होती है, श्रा जाने पर भी इसका प्रभाव होता रहेगा जो पैङ्कीएटीन ( क्रोमीन ) के प्रभाव के तुल्य है । सम्पूर्ण आंत्र पर इसका प्रभाव होता रहेगा । (ग) इसमें कुछ अङ्गमप्रशमन वा शूलहर प्रभाव भी है । (घ) पचनीय सान्द्राहार के अनुपात से द्रवाहार की मात्रा औसत वा अत्यधिक होनेपर भी यह पेप्सीन की अपेक्षा प्रवलतर प्रभाव प्रद र्शित करता है । ( * ) Proteolytic प्रभाव के लिवा पेपीन का तेल पर स्पष्ट इमल्शनीकारक प्रभाव होता है। (च) पेपसीन तथा पेडिपुटीन ( ओओसीम ) की उपस्थिति में पेपीन का प्रभाव बढ़ जाना है। मांस को कोमल करने के लिए पेपीन घोट में हुबा रखने पर वह अधिक काल तक विना सड़े गले सुरक्षित रहता है जो इसके बिना कदापि सम्भव न होता । इससे अनुमान किया जा सकता है कि इसमें ऐण्टिसेप्टिक ( पचननिवारक ) तथा पाचक प्रभाव भी हैं । ( ज ) गांवों में इसका विलक्षण प्रभाव होता है । (२) आमाशय व अन्य विकार- अजीर्णाबस्था तथा अन्य आमाशयान्त्रविकार जन्य दवाओं में मांस पचाने में सहायक होने के -लिए-फ्रांस देश में पेपेपोटीन का उपयोग किया गया। बालकों के कतिपय आमाशय व प्रांत्र विकारों में इसका सफलतापूर्ण प्रयोग किया सस्था | कहा जाता है कि थोड़ी मात्रा में इससे निर्मा एवम् छर्दि में अतिशीघ्र लाभ प्रगट · हुआ । स्वाभाविक प्रामाशयिक रस के कम बनने की अवस्था में पेपेयोटीन को मुख द्वारा अथवा पोषकवस्ति रूप में प्रयोग करने से विशेष लाभ होता है । पेपीन बालकों के पुरातन श्रामाशयिक प्रतिश्याय, चम्ला जीर्ण, तीव्र आमाशयशूल ( ग्रामशूल जो भोजनके थोड़ी देर पश्चात् आरम्भ होता For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डम्बरबूजा अरसुवरबूजा है) में विशेष रूप से लाभदायक होता है। "पी० बी० एम०"। २ से ५ ग्रेन की मात्रा में अजीर्ण, पुरातन प्रामाशयिक प्रदाह तथा प्रामायिक व्रण ( अल्सर ) वा सान या मांसावुद (कैन्सर) में शुद्ध पेपीन द्वारा उत्पन्न मूल्यवान प्रभाव से लेखक को अत्यन्त सन्तुष्टि हई । वे निम्नलिखित पेपीन मिश्रित यांग के विषय में लिखते हैं कि बहुत से प्रामाशयिक विकारों में इससे उत्तम प्रभावकारी कोई अन्य योग नहीं। योग-पेपीन ३ ग्रेन, सोडाबाईकार्य ३० ग्रेन मैग कम् पॉण्ड (विर्णित मैग्नेशिया कार्ब) २० ग्रेन, विम्युथाई कार्य १० ग्रेन, मॉर्फीई हाइडोक्रार -प्रेन, यह वटी रूप में सोडा के साथ अथवा बिना सोडा के और किसी शक्ति के ग्लीसराइनम् पेपीन रूप में दिया जा सकता है। इसके प्रामायिक प्रभाव में क्रियोजूट से कोई साधा उपस्थिन नहीं होती है। "हिट० मे० मे."। (क) बालकों का पुरातन आमाशयिक प्रतिश्याय-वालकों के उस पैतिक विकारमें जिसमें सुधा का नष्ट हो जाना, पालस्य, चेहरे के रंग का पीला हो जाना, रात्रि में निद्रा का न ग्राना, दिन में शीघ्र क्रोधित होना, प्रायः शिरः शूल का होना, चूना जैसा मूत्र श्राना इत्यादि लक्षण होते हैं । (जब यह दशा कुछकाल लगातार रहती है तब इससे बालक दुर्बल हो जाता है एवम् विकृतश्लेष्मा आमाशय तथा प्रांत्र की भीतरी पृष्ठ को आच्छादित करलेती है जिससे पाहार रस उचित मात्रा में अभिशोषित नहीं होता। ) ऐसी निर्बलता की दशानी में जो साधारणतः कॉडलिवर ऑइल (कोड मत्स्य यकृतैल) तथा सिरप फॉस्फॉस कम्पाउण्ड आदि औषधे व्यवहार में जाई जाती हैं, उनका श्रत्मीकरण नहीं होता। किसी किसी समय कास विकास पाता है जिससे बालक को प्रारम्भिक यस्मा से ग्रस्त कहा जाता है । डा. हर्शेल ( Dr. Herschell) ने उन दशानों में निम्न योग से बहुत लाम होते हुए पाया योग-पेपीन (फिकलर) प्राधा से एक ग्रेन, सैकरम् लैक्टेट १ ग्रेन, सोडा बाईकार्ब इनकी एक गोली बनाएँ। इसे प्रत्येक खाने के बाद सेवन करना चाहिए। थोड़े जल के साथ १ या दो बुद टिं० नक्स वॉमिका भोजन केक पहिले देने से भी लाभ होता है । बालकों को जब हरे रंग के दस्त और दूध के वमन होते हैं जैसा कि दन्तोद्भद काल में प्रा: होता है तब उन अयस्था में निम्नलिखित योग लाभदायक सिद्ध होते हैं। पेपीन १ ग्रेन, पल्व, डोवराई (डोवर्स पाउ. डर) ४ ग्रेन, सोडा बाईकार्ब १० ग्रेन, इसकी १२ मात्रा बनाकर १-१ मात्रा प्रातः सायं सेवन कराएँ। पपीता स्वरस के किचित् कोठमृदु कर प्रभाव के कारण अतिसार की अवस्था में डॉ. हशिसन ( Dr. Hutchison ) पीन को उससे उत्तम खयाल करते हैं। (ख) अम्लाजीणं-(Acid Dyspepsia) इस प्रकार के अजीर्ण में पंपीन अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होता है। चूं कि यह क्षारकी विद्यमानता में भी उतना ही उत्तमतापूर्वक प्रभाव प्रगट करता है, प्रामाशयस्थ अम्लाधिक्यता को न्युट्रलाइज ( उदासीन )करने के लिए पर्याप्त परिमाणमें बाइकाबॉनेट प्रोफ़ सोढा देना चाहिए । यह अपने ऐण्टिसेप्टिक (पचननिवारक ) प्रभाव द्वारा प्राध्मानजन्य अस्वाभाविक संधान (अभिपत्र ) को रोकता है । उक्त अवस्था में निम्न योग उत्तम प्रमाणित होते हैं। 1-पीन २ ग्रेन, सैकरम् लैक्टेट (दुग्धोज) ५ प्रेम । इसकी एक मात्रा बनाकर भानन के एक घंटा पश्चात् निम्न मिश्रण के साथ सेवन करें। मिश्रण-सोडाबाईकार्ब १५ ग्रेन, ग्लीसरीन, एसिड कार्बोलिक मिक्सचर ८, स्पिरिट एमोनिया ऐरोम्युटिक मिक्सचर २० जल , ग्राउंस For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भण्डखरबूजा २२२ श्रण्डस्तरबूज़ा इसको भोजन करने के एक घंटा पश्चात् सेवन ! , के अन्तर से टपकाना चाहिए। इसके उपयोग करें। इसको भोजन के साथ सेवन करने से पे- से डिप्थीरीयाजन्य भिथ्याकला धुलजाती है। उग्र पीन की उससे न्यूनतर मात्रा भी वही प्रभाव अवस्थाओं में इससे पहिले ही दिन लाभ अनुभव प्रगट करेगी। होता है, जिससे ज्वर लुप्तप्राय होजाता तथा डॉक्टर हशिसन (Dr. Hutchison) नाड़ी स्वास्थ्यावस्थापर आजाती है। सदा इसका अजीर्णावस्था में अण्डख़बूजा के शुष्क रस को ताजा घोल प्रस्तुत करना चाहिए। श्रथवा पेपोअधिक उत्तम ख़्याल करते हैं। जैसे योटीन १ भाग, जल ४ भाग तथा ग्लीसरीन अण्डखरबूज़ा का शुष्क रस १२ ग्रेन, पल्य ४ भाग, अावश्यकतानुसार इसे घंटा दो दो घंटा इपीकाक ( इपीकेक्वाना चूर्ण ) १२ ग्रेन, पश्चात् लगाएँ। पल्व र हीाई ( रेवन्दचीनी का चूर्ण) ३ ग्रन, (४) वृक्कशूल (Nepthritic colic). ग्लसरीन (मधुरीन) श्रावश्यकतानुसार इसे वृक्काश्मरी में १ से ३ ग्रेन पेपीन को वटी रूप में चाहे चूर्ण रूप में रखें अथवा इसकी १२ वटि- सेवन करने से लाभ प्रतीत होता है ! डॉ० ई० काएँ प्रस्तुत करें। एच० फेन्विक। इसको वे भोजनोपरांत सेवन करने का आदेश (५) कृमिघ्न (Anthelmintic)-केचुत्रा करते हैं। शुष्क पपीता स्वरस को पसन्द करने और कद्दाने के लिए भी इसका (पेपीन) का कारण यह है कि उसका औपयोगिक प्रभाव औषधीय उपयोग किया गया। इसके पाचक किंचित् कोष्टम दुकर है और यह अधिकतर प्रभाव के कारण इससे कभी कभी लाभ प्रदर्शित संतोषप्रद है । जैसा कि प्रागुन मात्रा (प्रत्येक हुअा। ह्विट० मे० मे०।.. वटी में १ ग्रेन) में सेवन करने से यह अत्यन्त अण्डखरबंजा के दृधिया रस को शहद के साथ मभेदक प्रभाव करता है और किसी भी भॉति रोगी मिलाकर देने और उसके पश्चात् एक मात्रा को विरेक नहीं कराता । उक्त डॉक्टर महोदयके एरण्ड तैल का व्यवहार करानेसे केचुत्रा में अत्यन्त वर्णनानुसार पपीता वृक्ष से चतुरतापूर्वक निकाल लाभ होताहै । एक षोडशवर्षीया कन्या जो कहदान कर शुष्क किया रस या पपीतादुग्ध पेपीन के (Thenia Solium) के कारण अत्यंत पीड़ित सहित अपने संयोगी अवयवों की उपस्थिति में थी एवं उसके उदर में तीव्र शूल हो रहा था, अनेक दशाओं में स्वयं प्रभावात्मतक सत्व पेपीन उसको डॉक्टर हशिसन (Hutchison) ने शुष्क की अपेक्षा श्रेष्ठतर प्रमाणित होता है। भोजनो- पपीता स्वरस ३ ग्रेन में शूलशमनार्थ ४ ग्रेन परन्त होने वाली बेचैनी को वास्तविक उदरशूल डोवर्स पाउडर सम्मिलित कर सेवन कराया । में परिणत होजाने पर धापने पपीता को अफीम इससे कहृदाना टुकड़ा टुकड़ा होकर मल के साथ के साथ निम्न प्रकार योजित किया : निकल पाया तथा रोगिणी के सम्पूर्ण विकार पपीता स्वरस १२ ग्रेन, अहिफेन चूर्ण ३ ग्रेन जाते रहे एवम् उसको अत्यन्त लाभ प्रतीत ग्लीसरीन अावश्यकतानुसार । इसको चूर्ण रूप हुग्रा। में रक्खें अथवा इसकी बटिकाएँ प्रस्तुत करें । प्रति (६) स्तन्यजनक तथा गर्भशातकभोजनोपरान्त १ वटी सेवन करें। प्रांतरिक रूप से उपयोग करने अथवा स्थानिक (३) कण्ठरोहिणी तथा स्वरनोकास । रूप से लगाने से यह सशक्त स्तन्यजनक प्रभाव ( Diphtheria and Croup) करता है। हिट० मे०-मे०। पी०वी० एम०। उत रोगके निवारणार्थ पेपीनका स्थानिक प्रयोग गर्भवती स्त्री को उपयोग कराने से इसका गर्भलाभदायक होताहै । इस हेतु उसका तीक्ष्ण घोल शातक प्रभाव होता है। तैयार करना चाहिए। इसको उक्र स्थल पर . जिह्वा तथा कंठरोग-श्वीमर Schwiलगाना तथा नासिका एवं मुख में ५-५ मिनट | mmer महोदय ने जिह्वा की कर्कशता (जिह्वा For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डखरबूजा २२३ अण्डधारक रज्जुः के फटने ) में इसके घोल (१० में ) का ग्रन्थि विषयक शोथे प्रभति के लय करने के सफलतापूर्ण उपयोग किया ! ह्विट० मे० मे० । लिए पेपीन का स्थानिक उपयोग होता है। जिह्वा की कर्कराता तथा जिह्वा और कंड की क्षतज भण्डगः andagah-सं० पु. Wheat 'अवस्था में चाहे वह श्रौपदंशिक हो या अन्य, (Triticum sativum, tim. ) tl १ श्रीस ग्लीसरीन में १० से २० ग्रेन पेपीन धूम, गेहूँ । वै० श०। का घोल बनाकर उसमें वेदना हरणार्थ किञ्चित् अराडगजः anda gajah-सं० पु. (Cassia कोकीन सम्मिलित कर इसको प्ररा से लगाने से ___ Tora, Linn.) बॅकवड़, चक्रमई तुप अत्यन्त लाभदायक प्रभाव होता है। श्रौपदंशिक ___ -हिं० । रा०नि० व०४ तथा क्षतज मुग्व वा कण्ठ में मि. ई० एच० अण्डगा धनियाँ andaga-dhamaniyan फ्रेन्धिक उन प्रयोग के स्थान में पपीन ग्रेन हिंसंज्ञा स्त्रो० (ब० व०) Spermatic Arteries अण्डकोष को रक ले जाने वाली तथा कोकीनन इनके द्वारा निर्मित टिकिया नलियाँ। के उपयोग की असीम प्रशंसा करते हैं। पेपीन ण्डजः andajah-सं० पु. १ (१) अण्डे के द्वारा प्रौपदंशीय धब्बे तत्काल लुप्त होते हैं | अण्डज andaja-हिं० संज्ञा पु. से उत्पन्न और कोकीन के प्रभाव से निगलन में वेदना का होने वाले जीव, अण्डे से जिसकी उत्पत्ति हो, बोध नहीं होता एवं प्रदाहित श्लैष्मिक कला को यथा-पर्प, मत्स्य, पक्षी और छिपकली शान्ति मिलती है। प्रभति । ये चार प्रकार के जीवों में से एक हैं। चिकित्सक लोग जब ऐसे रोगी की परीक्षा श्रीवीपेरस बींग Oviparous being-इं० । करने जाते हैं जिसमें कंर की श्लैष्मिक कला के हिं० ई० डि० । (२) मत्स्य (A Fish)। --संक्रमण का भय होता है तब वे उन टिकिया को (३) पक्षी (A bird)। भा० पू०२ भा० । रक्षक रूप से अपने साथ ले जाते हैं । (४) A snake सर्प, साँप । (E) त्वक रोग-पुरातन कंद ( Ecze• अण्डजा anda-ja-सं० स्ना० । (.) ma), विशेषतः हसपादस्थ, विचचिका (Pso अण्डजा anda ja-हिं० संज्ञा स्त्री० । गिरगिट, riasis ), हाथ की हथेली की प्रघर्द्धित अवस्था, शरट-..। शेमेलिअन (A chemeleon) कदर या घटा ( corn), मशक ( Wart) -इं० । वि०। (२) सर्प-हिं० । सर्पेट (A तथा त्वकाठिन्य में उसको प्रथम जल व साबुन serpent)-इं० । (३) मत्स्य-हिं० । से प्रक्षालित कर दिन में दो बार निम्नोल्लिखित फिश (A fish)-इं० । (४) पक्षी-हिं० । घोल के लगाने से लाभ होता है। जैसे-पेषीन बर्ड (A bird )-३० । मेजत्रिकं । (५) १२ ग्रेन, टऋण ( सुहाग) ग्रेन तथा जल ५ ( fusk ) मृगनाभि, कस्तुरिका । हाम, यथा विधि घोल प्रस्तुत करें। वा० हेमा। इसके ताजे दुग्ध को दिन में दो तीन बार अण्डधारक रज्जुः anda-dhāraka-lajjuh दद्रु पर लगाने से लाभ होता है। -सं० पु. Spermatic cord ) (६) कर्ण स्राव-मध्यकर्ण के पुरातन मालीकुल नुस यह, हटल मन्त्री, हब्लुल् पूयस्राव में पेपीन अभी हाल ही में लाभदायक मनी-अ० । अण्डकोष के ऊपर के भाग को पाया गया । प्राधे आउंस पेपीन घोल (५०) टटोलने पर उसमें एक रस्सी या डोरी जैसी में ५ ग्रेन सोडा बाद कार्य मिला लेने से यह और | चीज़ मालूम होगी। इस-डोरी को अण्डधारक उत्तम होता है। रज्नु कहते हैं। यह वस्तुतः धमनो, शिरा, वात(१०) अवेयी ग्रन्थि, दुग्ध प्रन्थि और कक्षीय | तन्तु और शुक्र प्रणाली का एक संघात है जिस For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डधारक रज्जु २२४ प्रण्डसवं in), prefeta (Orchidin), futa (Sperinin), डिडीमीन (Didymin)-इं०। नुत फ्रीन या जौहर मन्नी, न स्यीन या जौहर, नु स्यह,, जौहर खुस यह फ्रोक्रानी-०, पर श्लैष्मिक कला का एक वेष्टन चढ़ा रहता है। इसीसे अण्डकोषके भीतर अंड लटका रहता है। अण्डधारक रज्जु anda-dharaka-1.jju -हिं० संज्ञा स्त्री० देखो-अण्डधारक रज्जुः । अण्डपर्णः anda-parnah-सं० पु. मलाण्ड तरु । See-malanda h. अत्रि० अण्डपेशी anda-peshi-सं० स्त्री० कोष (Sac, cyst)। (२) (Testicle) मुष्क, अण्ड, शुक्रग्रन्थि । हे० च०। अण्ड प्रदाह andapradaha-हिं० संज्ञा पुं० अंड की सूजन ( Orchitis). अण्डर सोनिया रोहितका andersonia, rohituka, Roxb.-ले०(Amoora rohituka,V. &. A.) रोहिना, रोहेड़ा, रोहि. तक, तिकराज-हिं० । देखो-रोहितक। भण्ड-लाल anda-lāla-हि. संज्ञा पुं० अण्डे की सुफेदी, अण्डोदक । The white of . the egg ( Albumen ). अण्डवर्धनं anda-vardhanam-सं० क्लो० ॥ अण्डवृद्धि anda-vriddhi-हि० संज्ञा स्त्रो०) (Swelling of the scrotum ) एक रोग जिसमें अंडकोश वा फ्रोता फूलकर बहुत बढ़ जाता है। तोते का बढ़ना । देखो-अन्त्रवृद्धि । अण्ड वहा नाली anda-vahānāli-हि. संज्ञा स्त्री० (Fallopian tube) रजः कोष (डिम्ब ) लाने वाली, जो मासिकधर्म के बाद अण्ड (डिम्ब ) गर्भाशय को लाती है। अण्डवेष्टः anda-veshrah-सं० पु (Sci otum, Tunica albuginea testes) अण्डकोष । अण्ड. श्वेतक anda-shvetaka हिं. पु. अल्ब्युमेन ( Albumen )। अण्डलाल | जुलाल-अ०। अण्ड सत्व anda satva-हिं० संज्ञा पु०, मुष्कीन, मुष्कसत्व, मुष्क रस, शुक्रीन, शुक्रकीट सत्व,उपाण्ड सत्व । टेस्टिक्युलर एक्सट्रैक्ट (Te sticular extract); टेस्टीससिका ('Testes sicca ), tfergata ( Testicul नोट-जैसा कि उपयुक्र नामों से प्रगट है, यह सम्पूर्ण औषधियाँ पुरुष के उत्पादक अवयवों द्वारा बनाई जाती हैं। रासायनिक लक्षण तथा परीक्षा-पाहल ( Pochl ) का निर्माण, विभिन्न जीवधारियों विशेषकर साँड़ ( bull ) की शुक्रग्रन्थि द्वारा निर्मित रासायनिक पदार्थ का, जो प्राउन सीक्वार्ड के इमल्शन का प्रभावात्मक तत्व है, दो प्रतिशत का कीटरहित घोल है। यह रासायनिक दृष्टिसे पायपेराज़ीन (Piperazine) का सहधर्मी है । शुक्रीन (Spermin) के हायड्रोशोराइड ( उज्जहरिद ) और फास्फेट (स्फुरत् ) भी उपयोग में प्राचुके हैं। परन्तु, पाहल ( Poehl) का दो प्रतिशत का विलेय घोल सम्पूर्ण कार्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। प्रन्थियों द्वारा निर्मित शुष्क प्राण्डीय पदार्थ वा सस्व ५.५ ग्रेन (२॥ रत्ती) की टिकियात्रों (Tabloids) के रूप में मुष्कीन (प्रा डीन, टेस्टिक्युलीन, प्राम्टीन) और उपाण्डीन (Didymin) प्रभृति नामों से उपयोग में लाए गए हैं । एक द्रव भी प्राप्य है, जो एक प्रकार का ग्लीसरीन एक्सट्रैक्ट है और जिसे १५ से ३० मिनिम् (बुन्द ) की मात्रा में मुख अथवा स्वस्थ अन्तःशेप द्वारा देते हैं। शुक्रीन की मुख्य मुख्य प्रतिक्रियाएँ :शुक्रीन (Spermin) में स्वयं विशेष शक्रीय गंध नहीं होती, तथापि उसे धास्विक मग्न (Metallic magnesium) के साथ मिलाने पर उससे शुक्रवत् गंधका बोध होता है। मिश्रण को उत्ताप पहुँचाने पर शुक्रीय गंध अमोनिया में परिवर्तित हो जाती है। शुक्रीन (spermin) घोल में न तो प्रायोडाइड श्राफ पोटाशियम (पांशु नैलिद) और न एसीटेट ऑफ़ लेड (शीप भस्म) ही से तलस्थायीत्व For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ण्डसंव उत्पन्न हो सकता है । हाइपोब्रोमाइड श्रीफ़ सोडियम् शुक्रीन से नत्रजन भिन्न नहीं कर सकता । गोल्ड क्लोराइड ( स्वर्ण हरिद) और लैटिनिक कोराइड शुक्रीन के साथ तलस्थायी हो जाते हैं । उत्ताप पहुँचाने पर शुल्क शुक्रीन से श्वेत बाप उद्भूत होता है । २२५ I इतिहास - श्रण्ड सत्व का उपयोग नया नहीं, प्रत्युत प्रति प्राचीन है । हाँ ! निर्माण क्रम में चाहे भले ही कुछ भेद हो । वाग्भट्ट महोदय स्वलिखित "टांगहृदय संहिता" में सर्व प्रथम हमारा ध्यान इस ओर श्रकृष्ट करते हैं, यथावस्ताण्ड सिद्ध पयसि भावितान सकृत्तिलान् । यः खादेत्ससितान् गच्छेत्सस्त्री शतमपूर्ववत् ॥ ( वा० उ० ४० अ० ) अर्थ- - बकरे के लण्ड को दुग्ध में पकाकर उस दुग्ध की काले तिलों में बार-बार भावना दें । इन तिलों को जो मनुष्य शर्करा के साथ सेवन करता है उसमें शत स्त्री सम्भोग की शक्ति बढ़ जाती है, और वह प्रथम समागम का सा सुख अनुभव करता है 1 पाश्चात्य अमरीकन डॉक्टर ब्राउन सीक्वार्ड ( Brown Sequard ) महोदय का बहुत काल तक यह विश्वास रहा कि वृद्ध मनुष्यों की निर्बलता के मुख्य दो कारण हैं: - ( १ ) श्रावयविक परिवर्तन का प्राकृतिक क्रम । ( २ ) शुक्र ग्रन्थियों की शक्ति का क्रमिक हास | उन्होंने विचार किया कि यदि वृद्ध मनुष्य के रक्त में शुक्र का निर्भय श्रन्तःक्षेप किया जा सके तो सम्भवतः विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों की वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शित होने लगेगी । उक्त विचार को ध्यान में रखकर आपने सन् १८७५ ई० में जीवधारियों पर अनेकों प्रयोग किए । परिणामतः प्रयोग क्रम के अनपकारकत्व एवं उन जीवधारियों पर होने वाले उत्तम प्रभाव विषयक उनके सन्देह की निवृत्ति हो गई । उस का निश्चय हो जाने पर उन्होंने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करने का निश्चय किया । अस्तु, २६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डसत्वे थोड़े परिमाण में जल, श्राण्डीय शिरा का रक्र, शुक्र, कुक्कुर वा गिनी पिग ( guinea pig ) के प्रण्ड को कुचल कर निकाला हुआ ताजा रस इन चार वस्तुओं को एकत्रित कर आपने इसका स्वगन्तः श्रन्तः क्षेप लिया । अधिक से अधिक प्रभाव प्राप्त करने के अभिप्राय से श्रापने श्रन्तः क्षेप भर में अत्यल्प जल का उपयोग किया । प्रागुक्क न्तिम के तीनों पदार्थों में श्रापने उनके द्रव्यमान से तिगुने या चौगुने से अधिक परिसुत जल का उपयोग नहीं किया; तदनन्तर उनको कुचल कर फिल्टर पेपर ( पोतनपत्र ) द्वारा छान लिया। प्रत्येक अन्तःक्षेप में उन्होंने १ घन शतांशमीटर छाने हुए द्रव का उपयोग किया । पास्चर्स फिल्टर द्वारा छाने हुए द्रव का १५ मई से ४ जून तक अपने १० श्रन्तःक्ष ेप लिए; जिनमें से २ बाहु में और शेष समग्र अधो शाखा में । परिणाम निम्न प्रकार हुएप्रथम त्वगन्तः अन्तःक्ष ेप तथा दो और क्रमानुगत अन्तःक्षेपों के पश्चात् आप में एक स्वाभाविक परिवर्तन उपस्थित हुआ और उनमें वह सम्पूर्ण जो बहुत वर्षो पहिले थी श्रागई । विस्तीर्ण प्रयोगशाला विषयक कार्य कठिनता से उन्हें श्रान्त कर सकते थे । वे कई घण्टे तक खड़े होकर प्रयोग कर सकते थे और उन्हें बैठने की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती थी । संक्षेप यह कि उन्होंने इतनी उन्नति की कि वे इतना अधिक लिखने तथा कार्य करने के योग्य हो गए जो आज २० वर्ष से भी अधिक काल तक में वे कभी न हुए थे । उन्हें मालूम हुआ कि प्रथम अन्तःक्षेप से १० दिवस पूर्व मूत्र-धार की जो औसत लम्बाई थी वह पश्चात् के २० दिवस की मूत्र - धार की लम्बाई से कम से कम 4 न्यून थी । अन्य क्रियाओं की अपेक्षा मल विसर्जन क्रिया में उन्होंने अत्यधिक उन्नति को । इन्द्रियव्यापारिक क्रिया- उपर्युक्त प्र योगों से यह बात सिद्ध होती है कि ग्राण्डीय द्रव के अन्तःक्षेप का हृदय एवं रक्त परिभ्रमण पर उत्तेजक प्रभाव होता है, सर्व शरीर की पुष्टि For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भण्डसत्व अण्डहानिकर - करता, वातकेन्द्रीय क्रिया शक्ति पर आधारभूत पाह लस स्टेरिलाइज्ड सोलूशन का १५ मि. सम्पूर्ण कार्यों का विशेष रूप से सुधार करता, निम (बुद) की मात्रा में रकाल्पता, वातनैवस्ति पर सुषुम्णाकाण्ड की शक्ति की विशेष बल्य, उन्माद (पागलपन), शीघ्रपतन, यच्मा, वृद्धि करता और प्रान्न पर शैथिल्यजनक प्रभाव चाल का लड़खड़ाना (A taxy), विचचिंका उत्पन्न करता है। (Psoriasis), बहुमूत्र रोग और बहुसंख्यक, रोगों में अन्तः क्षेप करते हैं । दैनिक अन्तः क्षेप औषधीय उपयोग-अण्ड द्वारा स्रावित के हिसाब से १२ वा १४ दिवस के चिकित्सा (secreted ) शुक्र में ऐसे पदार्थ होते हैं क्रम में प्रागुक्र सम्पूर्ण रोगों के लाभ के प्रज्वलित जो शोषण क्रिया द्वारा रत में प्रवेशित होकर वर्णन प्रकाशित हुए हैं और यह हृच्छल तथा वातसंस्थान तथा अन्य भागों को शक्ति प्रदान अन्य हार्दिक वात विकारों (Cardiac metकरने में अपना सब से श्रावश्यक उपयोग रखते 1oses) की मूल्यवान औषध कही गई है। हैं। इस पदार्थ ( वा पदार्थों) में महान गतिजनक इसका शरीर परिवर्तन क्रम अर्थात अपवर्तन 'शक्रि है जिसके लिए रक मुष्क का ऋणी है । यह (Metabolism) पर प्रगट प्रभाव होता है। बात इस घटने से प्रमाणित होती है कि सावा (हिट्ला) गिक निर्वलता तथा मानसिक वा शारीरिक स्फूर्ति के अभाव ही नपुन्सक के स्वभाव कहलाते हैं। इन्हें कामोद्दीपक रूप से व्यवहार करते हैं और इस बात से भी कि अप्राकृतिक वा हस्त तथा वातनैवल्य, लड़खड़ानी चाल और एक्समैथुन द्वारा मनुष्य के शरीर वा मन (विशेष कर आफथैल्मिक गाइटर में वर्तते हैं । शुक्र ग्रन्थियों के अपनी पूर्ण शक्रि प्राप्ति करने अण्डसित anda-sita-हिं० वि० ( Albumसे पूर्व या अधिक अवस्था के कारण जय शक्ति का aneous ) अंडश्वेतकीय, अंडलाल सम्बन्धी । ह्रास हो रहा हो उस समय ) कितने विकृत हो अण्डसित पदार्थ anda-sita padartha जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह भली भाँति ज्ञात है -हिं० संज्ञा पु० ( Albumaneous कि शुक्रक्षय चाहे वह किसी कारणसे उत्पन्न हुश्रा हो शारीरिक वा मानसिक निर्बलता उत्पन्न क matter ) अण्डश्वेतकीय वस्तु । रता है । (डॉ० ब्राउन सीकार्ड) अण्डस् andasu-सं० त्रि०, हिं० वि० (Ovi parous ) अण्डज। . अण्ड सत्व के उपर्युक इन्द्रियव्यापारिक कार्य अरड स्कन्दः andaskandah-सं०प० घोड़े एवं गुण से यह सिद्ध है कि यह रोगीकी सामान्य के अण्ड में स्कन्द सदृश एक रोग होता है । दशा को स्पष्ट रूपसे सुधारता है । इसके सिवा जयदत्त ५०अ०। वात संस्थान पर इसका उत्तेजक और बल्य प्रभाव श्रण्डहस्ती andu-hasti-सं० पु. चकवड़, अन्य सब प्रभावों की अपेक्षा अधिकतर होता है। चक्रमद्दक्षुप ( Cassia Tora, Lin.) यह विबंध को दूर करता तथा मूत्रविरेचक है। ग०नि० व०५। इन अन्तःक्षेपों से सिवा स्थानिक किञ्चित् सूक्ष्म अल्प समयक वेदना के कोई और अप्रिय सहा- अण्डहानिकर anda hānikar हिं० वि०, यक सार्वानिक या स्थानिक दृश्य उपस्थित नहीं मुज़िर्रात् उन्फ.यैन-श्र० । अरड को हानि होता । इनसे स्थानिक प्रदाह वा पूय उत्पन्न नहीं पहुँचाने वाले संज्ञा पु. वे द्रव्य जो अंड को होता । पेपर फिल्टर के स्थान में पास्चर्स फिल्टर हानि पहुँचाएँ । वे निम्न हैंसे उत तरल को छानकर व्यवहार में लाने से इकलीलुल-मलिक, शेज़ीदान, तुम ख़यार यह वेदानाएँ एवं अन्य कुप्रभाव भी किसी भाँति | (खीरा के बीज ), अतसी, जावशीर, हुल्यह कम प्रतीत होते हैं। (डा० पाटोड़की) ( मेथी ) और फफ्यून ।' For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अण्डा अण्डारा इनर्मिस एडा aindi-हिं० संज्ञा पु० पक्षी श्रादि के उत्पन्न (Seeds of Castor oil plant).() होने का स्थान | एग ( Egg)-इं०। गुण-धर्म गंधमार्जारी। आदि के लिए देखा-कुक्कुट । अगडोका तेल andi.kā tela-हिं. संज्ञा पु. अण्डाकर्षणम andakarshanam-सं० की. एरंडतेल । (Oleum ricini) देखो-एरण्डः । (Castration ) बधिया करना । अण्डो माल्लेयं andi-malleryya-मल. सन्ध्या राग--सं० । गुलशब्बो, गुलचेरी-हिं० । अण्डाकार andākāra-हिं० संज्ञा पुं० ।। अण्डाकृनि andakriti-हिं० संज्ञा स्त्री० व रजनी गंधा-बं० । गुलसबो-को०, हिं० । पॉलि[सं०] ( Egg-shaped,oval,Ovoid, एन्थस ट्युबरोसा ( Polyanthus tube rosa, Linn.)-ले. । ई० मे० मे० । elliptical )ऐसा वृत्त जिसका एक अत दूसरे की अपेक्षा लम्बा हो, अण्डा की शकल अराडोरः andirah-सं० पु० पुरुष, युवा मनुष्य (A full.grown man ) मे० रत्रिकं । का, अण्डा की तरह। उस परिधि के प्राकार का जो अंडे की लम्बाई के चारों ओर खींचने अण्डोरा इनर्मिस andira inermis-ले० से बने । लम्बाई लिए हए गोल, अण्डे के fantasmatar gafia (Geoffroya Ine. rmis)। कैवेज ट्री ऑफ़ ट्रॉपिकल अफरीका श्राकार का । बजावी। ( Cabbage tree of Tropical अण्डाकार खात andakāra-khata-हि०संज्ञा Africa)-इं०। पु. ( Fossn ovalis ) अण्डे की शकल वर्ग बब्बरः उपवर्ग-पैपिलोनेसीई का गढ़ा | हुक र बैज़ावियह-अ०। अण्डाकृति andākriti-हिं० संज्ञा स्त्रो० [सं०] | N.O. Leguminosue. Sub-Order Papilionaceae अण्डे का आकार, अण्डे की शकल । वि० अंडे के आकार का । अण्डइव । अण्डाकार | उत्पत्ति स्थान-वेष्ट इंडीज़ (विशेषकर अण्डाजी !undali-सं० स्रो० भुइँ अामला, जमेइका)। भूम्यामल को ( Phyllanthus niruri, प्रयोगांश-स्वक् । _Linn.). औषध-निर्माण-(.)-चूर्ण की हुई स्वचा अण्डालुः and iluh-सं० ० ( A fish) २०-३० ग्रेन (१०-१५ रत्ती) कृमिघ्न रूप से, मत्स्य, मछली | श० च० । ३०-४० ग्रेन (१५-२० रसी) विरेचक रूप से। (२) टिंक्चर (३० से ६० मिनिम (ढुंद)। अण्डिका andikā संस्त्री० चार जौ के बराबर का | (३) सरल सत्व १० से ४० मिनिम (बुंद)। एक माप विशेष, यवचतुष्टय परिमाण | च० । (४) धन सत्व ३ ग्रेन (१॥ रत्ती)। अण्डिनी andini-सं० स्त्री० सान्निपातिक योनि प्रभाव तथा उपयोग-कैबेज वृक्ष स्वक् रोग विशेष | लक्षण--स्थूल मेदू वाले पुरुष से (Cabbage tree bark ) नामक स्वचा ग्रहण की हुई तरुणी ( छोटी अवस्था वाली स्त्री) में जिसका व्यापारिक नाम कृमिस्वक की योनि अरिडनी अर्थात् अंडाकृति ( कहीं (Worm bark) भी है, कृमिघ्न, ज्वरघ्न कहीं फलिनी पाठ पाया है) हो जाती है। और मेदनाशक गुण है और निम्बु. मु० चि० । त्रियों का एक योनि रोग जिसमें काम्ल (Citric Acid) के साथ यह कुछ मांस बढ़कर बाहर निकल जाता है। इससे | स्थौल्य रोग में अधिक उपयोग की जाती है। योनिकन्द रोग भी कहते हैं । अधिक मात्रा में यह वामक, विरेचक और मादक अण्डी andi--हिं०संज्ञा स्त्रो० (१) रेडी;एरण्ड बीज है तथा इसकी इससे भी अधिक मात्रा विषैल --हिं । Ricinus communis, Linn. | है। (पी०वी० एम०)। For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अराडेल अण्डेल andola ] - हिο वि० अण्डैल andaila J [ अण्डा ] | जिसके पेटमें अंडे हों, ग्रण्डा युक्र, अण्डे वाली । संज्ञा स्त्रो० वह मछली जिसके पेट में अंडे हों । अण्डोदकः andodakah - सं० पुं० थंडलाल, अंड श्वेतक | the white of an egg (Albumen ). restrथापिका प्रतिक्रिया andotthápiká - pratikriya-हिं० संज्ञा स्त्रो० ( Cremastric reflex ) जाँव के अंतरीय भाग को खुजाने से यह उत्पन्न की जाती हैं । इससे अंड ऊपर को उठता है। 1 अण्डोली andoli हिं० संज्ञा स्त्री० रैंडी, एरण्ड बीज | Ricinus communis, Linn. ( Seeds of - ) । देखो - एरण्डः | श्रण्डौश्रा andouá - हिं० संज्ञा पुं० श्रररड, एरण्ड | (Ricinus communis, Linn.). श्राशुप्पू anná shuppu - ता० अनासफल - हिं० । वादियाने खताई - फा० अ० । (Illicium anisatuin, Linn. स० [फा० ई० । अवस्थि anvasthi सं० क्लो० मणि बन्ध श्रादिमें स्थित एक सूक्ष्मास्थि विशेष । सु०शा०| वीanvi - सं०] त्रो० अङ्गुलि, अङ्गुर्ला, अँगुरी (A Finger.) amomum 'तत' atakata दारचीनी, दालचीनी | Cinna Zeylanicum, Nees. (Bark of—cinnamon ). अतकुमंड, atakmmah - o चिर्चिटा, अपामार्ग - हिं०। (Achyranthes aspera, Linn.) स० [फा० ई० । श्रतगोकुंडो àtagokudo कौ० काला इन्द्रजौ (Nerium Tomentosum, Roxb.) २२८ ०० श्रतची atachi 8० श्राल । श्राच् श्राछू - बै० । (Morinda Tinctoria, Roxb. ) - ले० । फा० ई०२ मा० । देखो—श्रच्छुक । अतर atata-हिं संज्ञा पुं० [सं० तटः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतफ़ ( Aprecipice, A steep crag ) पर्वतका शिखर | चोटी | ढीला | अतड़ो atadi-हिंοस्त्री० यन्त्र (Intestine). श्रतण्डक्स abandaks) - ता० अरण्ड, एरण्ड श्रतण्ड्य atandya ( Cadaba Ha - rrida, Linn. ) अतदिम्यत atadimmatta-सिं० गम्भार, खुमेर - हिं० । ( Gmelina Arborea, Linn. ) - ले० । अतनामोस atanámis-यु० बाबूना, बाबूनह -हिं० 1 ( Matricaria Chamomilla, Linn. ) - ले० । लु० क० । तनु atani-हिंοवि० [सं० ] ( १ ) शरीर रहित | बिना देह का । ( २ ) मोटा । स्थूल । संज्ञा पुं० अनंग | कामदेव | तन्द्र, द्वित, न, ल atandre,-drita-in-ila -सं० वि० चैतन्य, जाग्रत (careful, visil. ant). अतन्द्रा atandrá-सं० श्र० काफी, कहवा, -हिं० । coffea Arabica, Linn. -ले० । श्रत्रि० । अतन्द्रिक atandrika - हिं० वि० [सं० ] (१) आलस्य रहिन । निरालस्य । चुस्त । चंचल | (२) व्याकुल । विकल । बेचैन । श्रतन्द्रित atandrita - हिं० वि० [सं० ] आलस्य रहित । निद्रा रहित । निरालम्य । चञ्चल | चपल | अतन्द्रिय: atandriyah - हिं० स० पु० तन्द्राहर सत, कहवा का सत हिं० | caffeina, caffeine ले० | देखो कहवा, तन्द्राहर सत । म० छ० डा० १ भा० 1 तन्द्री atandri - सं० स्त्री० काफी, तन्द्रा (coffea Arabica, Linn.) अन्शुमत्फला atanshumat-phala-सं० स्त्रो० केला, कदली ( Musa sapientum, Linn.) श्रुतत atapta - हिं० वि० [सं०] जो तपा न हो । ठंडा । ( २ ) जो पका न हो । अत्फ़ ãataf अ० चित्रक, चीता (Plumbago Zeylanica, Linn.) For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२६ अतफल अनुकृत aatafal - ( १ ) वैदमुश्क - फा० । ( calix caprea, Linn. ) - ले० । ( २ ) सऊमर - अ० । लु० क० । अतफ़ाल ratafála- फा० ( ब० व० ), तिल ( ० ० ) Children बच्चे हिं० । अतव āatab-० मध्यमा तथा तन्निकटस्थअङ्ग ुल्य खात । म० ज० । अत्ब ãatab-o ( Cotton) रुई, तूल | लु० क० । दह अहं āatabah - अ० ( १ ) प्रास्तान लीज़, चौखट । (२) श्रवोभुजखात । दोनों खातों को अरबी में अतदान या तवैन कहते हैं । म० ज० । श्रनमल । tuma]-श्रन्तमल ( Tylophora asthmatica, W. &. 1) ई० है ० गा० । अत्म्स ãatamúsa - गोरसृ ( पहाड़ी या जङ्गली गधा ) लु० क० । (इ)तर a-i-tar-हिं० संज्ञा पुं० [अ० इत्र ] निर्यास, पुष्पसार, भभके द्वारा खिंचा हुआ फूलों की सुगंधि का सार । स्थिर तैल (Essential oil ) | देखो - इ. तूर । अंतर atara-हिं० संज्ञा पुं० [अ० इत्र ] | Essential oil पुष्पसार । भभके द्वारा खिंचा हुथा फूलों की सुगन्धि का सार । निर्यास | देखो - (इतर) इत्र | अवरदान ataradana - हिं० संज्ञा पुं० [फा० इदान ] सोने चाँदी या गिलट के फूलदान के आकार का एक पात्र जिसमें इतरसे तर किया हुआ रुई का फाहा रक्खा जाता है। श्रतरल atarala - हिं० वि० [सं० ] गाढ़ा | जो तरल वा पतला न हो । अतरानृस ataranúsa अ० एक मान है जो ४ तो ० ४ मा० के बराबर होता है । अतरार atarára - अ० ज़रिश्क ( Berberis Asiatica, D. C., Berries of-; अतरुणदारुः atarunadaruhअरुणदारः ( कः) atarupadárah, kah सं० पु० विधारा - हिं० । वृद्धदारक “ श्रतरुण दारुरास्नापुरा: । ” भा०म० १ खं० सन्धिक ज्व० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ कान चि०। ( Gmelina Asiatica, Linn.) श्रुतरुन ataruna-बम्ब० लाल तालमखाना । See-Talamakháná । मेमो० । श्रतुर्यह ataryah-अ॰ ( ' ' रिश्ता, नाता, संबन्ध | म० ज० । ( २ ) मैदा की सोय्यान, प्रसिद्ध भोजन है । लु० क० । म० ज० । अतुलब āatalaba बदक, बदशाँ । अतलब āatalúbaf लु० क० । अतलसनी काली atalasani-kali-गु० श्रतोस भेद ( Aconitum heterophyllum, Wall ) । अतलस्पर्श atalasparsha श्रतलस्पर्शी atalasparshi अतलस्पृक् atala-sprik अनलस्पृश् atala sprish ( Aqua ) हे० च० ४ का हिं० वि० [सं० ] अतल को छूने वाला । श्रत्यन्त गहिरा, अथाह ( Bottomless, very deep, unfathomable ). अतली atali - गु० हरिताल, हड़ताल (Yell. ow orpiment..) For Private and Personal Use Only सं०ली० जल, पानी । Water श्रुतवस् atavas - गु० अतोस (Aconitum heterophyllum, Wall.) इं० मे० मे० । अतवान atavana - अ० एक घास है । ( A sort of grass. ) अतविष atavisha मह० प्रतीस (Aconitum heterophyllum, Wall. ) go मे० प्रा० । (ब) कली atavi(ba)shanikali-गु० श्रतोस | इं० मे० प्रा० | फा० ई० । अतशान āatashana अ० मश्तुर्राई ( एक प्रकार का काँटा है ) । लु० क० । अतश् ãatash - अ० तृष्णा, प्यास लगना, प्यासा होना । थर्स्ट Thirst- ई० । म० ज० । अतश् काज़िब् āatash-kázib - अ० मिथ्या तृष्णा, झूटी प्यास, वह प्यास जिसमें जितना जल पान किया जाय, उसी भाँति तृष्णा की वृद्धि होती है । किन्तु उसको दमन कर यदि संतोष रक्खाजाय तो वह बुझ जाती है तथा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . अतश मुकरित २३० अतसी मनुष्य शान्ति लाभ करता है। म० ज०। अतश मुफरित aatash-mufrit-) शिद्दतुल अतश् shidda tul aatash-१० तृष्णाधिक्य बहुत प्यास लगना, घड़ी घड़ी प्यास लगना । पालीडिप्सिया Polydipsia-इं० । म० ज०। अतल atala-हिं० वि० [सं०] ( Bottom less ) निस्ता , तल राहेत, चिकनी जगह पर न ठहरने वाला अर्थात् झट लुढ़क जाने वाला | अतसरून atasarina-यू० सुमाक Rhus coriaria (Dry seed of Sumach Or suumac ). श्रतसः a tasah-सं० पु. (१) ( Wind, ail )वायु, हवा । (२) A garment male of the fibre of flax अतसी वन, अलसी के रेशे का बना हुश्रा कपड़ा । wafs-7e atasi-núne-ão Linum Usitatissimum, Linn. ( oil of Linseed-Oil.) स० फा० इ०। अतसी. atusi-सं० (हिं० संज्ञा ) स्त्री० एक पौधा और उसका फल वा बीज । लाइनम् युसि । टेटिस्सिमम् Linum Usitatissimum, | · Limn. (Seeds of), atga (Linum) -ले० । कॉमन फ्लक्स ( Common Flax ), या फ्लैक्स ( Fla.x.) लिनसीट ( Linseed )-इं० । लिन कल्टि (Lincultive.), लिन् युस्वेल ( Liyusvel ) -फ्रां। जेमीनर लीन और फ्लैक्स (Gemeiner Lein or Flachs )-जर० । अलसी के बोज-इ० । तीसी, अलसी-हिं० । संस्कृतपर्याय-चणका, उमा, होमी, रुद्रपत्री, सुवचर्चला, (. र०.); पिच्छिला, देवी, मदगन्धा, मदोत्कटा, तुमा, हैमवती, सुनीला, नीलपुम्पिका और पार्वती । तैल फला । पूर्वाचार्य कृत वर्णन--'अतसी मशिना इति लोके प्रसिद्धा" इल्वण (सु० टी० स०३६ अ०.)। "अतसी तिसीति विख्याता' चक्रपाणि-(सु० टी० स० । ३६ अ०)। तीसी, मोसिना बं० । कत्तान, ब ल । कत्ता (ता) न-अ० । कताँ, तुमे कताँ, बज्र कताँ, तुहमे ज़गीर, बज्रक-फ। अलिशि विरै -ता० । अतसी, मदन गिजलु, नल्लयगसि चेटु-ते० । चेडु, चाणत्तिन्ते-वित्त-मला। अलसी -कना० । अल शी, जोशी, जवस-मह०, को०, गु० । पेसु-उड़ि। अतसीतेलम् आलियम् लाइनाई (Oleum Lini) -ले० । लिनसीड प्राइल ( Linseed oil ) -इं०। अलसी का तेल, तीसी का तेल-हिं। अलसी का तेल-द० । मोसिनार तैल, तीसि तैल-य० । दोहनुल कत्तान, दोहनुल कता, जैतुल कता-अ० । रोग़ने ज़ग़ोर, रोशने कता-फा० । अलिशिविरै-थेरणे--ता० । मदन-गिञ्जलु-नूने, अतसि-नने-ते। चेरुचाण वित्तिन्ते-एण्णा-मल। अलशी-यरणे-फना० । नोट-यह एक गादे पीले रंग का तैल है जो अतशी के बीजों से दबाकर निकाला जाता है। इसका प्रापेक्षिक गुरुत्व '३ से १४ तक होता है । वायु में खुला रहने पर यह रालवत् शक हो जाता है। . अतसी वर्ग (N. 0. Linaceae or lincse) उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवासस्थान मिध देश है। परन्तु अब समग्र भारतवर्ष विशेषतः बंग देश, विहार व श्रोड़ीसा एवं संयुक्रप्रांत में तथा रूस, हॉलैंड और ब्रिटेन में इसकी कृषि की जाती है। वानस्पतिक वर्णन-अतसी एक फलपाकांत पौधा है। यह पौधा प्रायः दो ढाई फुट ऊँचा होता है । इसमें डालियाँ बहुत कम होती हैं, केवल दोवा तीन लम्बी कोमल और सीधी टहनियाँ छोटी छोटी पत्तियोंसे गुथी हई निकलती हैं। पत्र विपमवर्ती और सूक्ष्म तथा लम्बे होते हैं । इसमें नीले और बहुत सुन्दर फूल निकलते हैं जिनके झड़ने पर छोटी घुडियाँ बँधती हैं। ( इन्हीं धुड़ियों में बीज रहते हैं । ) ये घुडियाँ गोलाकार होती और परदों द्वारा पाँच फलकोपों में विभक्त होती हैं। प्रत्येक कोप में दो For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी अतसी - श्रीज होते हैं। बीज चिपटे, प्रलंबमान, अंडाकार होते हैं जिनका एक सिरा न्यूनकोणीय और | किञ्चित् वक्र एवं प्रवकुठित नोक युक्र होता है ।। इनका वर्ण बाहर से श्यामाभायुक्त धूसर । चनकदार एवं सचिक्कण होता है किन्तु भीतर से गूदा का वर्ण पीताभायुक्र श्वेत होता है। नोक के जीकनीचे एक सूचन छिद्र (Hilum) होता है । बीज बहिर्वक् के भीतर अल्युमोन की एकपतली | तह होती है जिसके भीतर बड़े, युग्म वैदल होते | हैं । और उनके नोकीले सिरेपर गभाकुर होता है। विभिन्न देशों के बीज प्राकार में 1-1 इं. लम्बे होते हैं ।( उष्ण प्रदेशों में होने वाले अपेक्षाकृत बड़े होते हैं ) । यह गंधरहित तैलमय लुभाबी स्वाद युक्र होता है । जल में भिगोने से बीज एक पतले, फिसल नदार व रहित श्लैष्मिकावरण से श्रावृत्तहो जाते हैं। यह शीघ्र न्युट्रल ( उदासीन) जेली रूप में घुल जाते हैं अंर वीज किञ्चित् फूल जाते हैं और उनका पालिश जाता रहता है। नोट-(१) कलकत्ता श्रादि स्थानों में | धूसर, श्वेत और रक श्रादि तीन प्रकार की अलसी पाई जाती है। इनके अतिरिक्र एक | प्रकार की और अलसी होती है, जिसको लेटिन भाषा में लाइनम् कैयार्टिकम् ( Linum Catharticum ) अर्थात् विरेचक अतसी कहते हैं । यह यरूप में होती है। (२) किसी किसी ग्रन्थ में अतीस भूज़ से तीसी के लिए प्रयोग किया गया है । कभी कभी अल सी, अलिशि, अलशी, तिसी, अतसी या तीसी इत्यादि उपयुक संज्ञाएँ अविसि, अगशि, अगत्ति अग्ती इत्यादि संज्ञाओं के साथ मिलाकर भ्रनकारक बना दी जाती हैं जो वस्तुतः अगस्तिया के पर्याय हैं। रासायनिक संगठन-बीज की मींगीमें स्थिर तैल ३० से ३५ प्रतिशत (यह श्राफिराल है) होता है । बीज त्वक् में म्युसिलेंज (लुप्राय) १५ प्रतिशतः, प्रोटीड २५ प्रतिशत, एनिग्डलीन, राल. मोम, शकरा तथा भस्न ३ से ५ प्रतिशत ओर भम्म में फास्फेट्स, सल्फेट्स और क्लोराइड्स श्राफ पोटासियम, कैल्शियम् और मग्नेसियम् | (पांशु नैलि चूर्णनैलिद, और मग्न नैलिद ) श्रादि पदार्थ होते हैं । ( मेटिरिया मेडिका श्राफ इंडिया प्रार० एन० खोरी, खंड २, पृ० १५०) बीज में एक स्थिर तैल होता है जिसमें ३० से . ४० प्रतिशत लाइनोलिक, एसिड ( Linolic Acid ) तथा उपरोल्लिखित पदार्थों के साथ मिला हुआ ग्लीसरील (Glyceryl) होता है । तैल उबलते हुए जल में विलेय होता है। _प्रयोगांश-अतसी बीज, तैल, पंत्र और पुष्प एवं तन्तु । औपव-निर्माण-(बोज ) क्वाथ तथा शीत कषाय Infusion (३० में १), पाक वा मोदक, पुलटिस, धूम | (तैल )-इमल्शन, लिनिमेंट और साबुन (मदु साबुन )। मात्रा-शीत कपाय ( Infusion ) २ से ४ फ्लुइड ग्राउंस । युरूपीय प्रतिनिधि द्रव्य-भारतवर्ष में होने वाली अतसी सर्वथा युरूपीय अतसी के समान होती है। अतः इनमें से प्रत्येक एक दूसरे की उत्तम प्रतिनिधि है। इतिहास-आयुर्वेद में अतसी का औषधीय उपयोग अाज का नहीं, प्रत्युत अति प्राचीन है जैसा कि आगे के. वर्णनों से ज्ञात होगा। चरक, सश्रुत आदि प्राचीनतम ग्रंथों में इसके उपयोग का पर्याप्त वर्णन अाया है। तिसपर भी वि० डिमक महोदय लिखते हैं- . "Linseed, called in sanskrit Atasí, appears to have been but little used as a medicine by the Hindus." अर्थात् हिन्द लोग अतसी का बहुत कम व्यवहार करते थे। यह बात कहाँ तक सत्य है-उसकी निर्णय स्वयं पाठकगण ही कर सकते हैं। इसलामी चिकित्सकों ने इस ओर काफी ध्यान दिया है। For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी २३२ अतसी फल्कोजर तथा हेनबरो अपने फार्माकोपिया (पृ.८६)में पाश्चात्य अतसी तुप के इतिहास का सारोल्लेख करते हैं और २३ वीं शताब्दि बो० सी० (मसीहसे पूर्व ) में इसके उपयोगका पता देते हैं। दोसकरोदूस और प्लाइनीने लिनम् नाम से इसका वर्णन किया है । गैलेस्की (१७६७) ने चित्रकारों के उदरशूल ( Painter's colic) तथा अन्य प्रान्त्रीय प्रारूप विकारों में इसके तेल के उपयोग की बड़ी प्रशंसा की है। अतसी के प्रभाव तथा प्रयोग आयुर्वेद अतसी मधुर, बलकारक, कफवातवद्धक, कुछ कुछ पित्त की नाश करमे वाली और कुछ तथा वात की जीतने वाली है। रा०नि० व. १६ । धन्व०नि०। अतसी मधुर, तिक, स्निग्ध तथा भारी और पाक में कटु है, उष्ण, दृष्टि को हानिकर एवं शुक्र, वात, कफ तथा पित्त की नाशक है। धन्व०नि०। अतसी दृष्टि के लिए हानिकारक, शुक्र को नष्ट करने वाली, स्निग्ध तथा भारी और बातरक्र को जीतने वाली है। मद०व०१०।। अतसी उष्ण, तिक, वातघ्नी, कफ पित्तजनक और स्वादुम्ल ( मधुराम्ल) है। राजवल्लभः । । अतसी मधुर, तिक, स्निग्ध, भारी, पाक में कट, उष्ण, दृष्टि को हानिकारक, शुक्र तथा वातनाशक और कफ एवं पित्त को नष्ट करने वाली है । भाव० । पाक में कटु, तिक तथा कफ वात और व्रण को नाश करने वाली है । पृष्ठशूल, सूजन, पित्त, शुक्र ओर दृष्टि का नाश करने वाली है । वृ० नि०र०। अतसी तैल मधुर, पिच्छूिल, वातनाशक, मदगंधि तथा कपाय है और कफ एवं कास को हरण करती है । रा०नि० व०१५ । प्राग्नेय, स्निग्ध, उष्ण तथा कफपित्तनाशक पाक में कट, चक्षु को अहितकर, बल्य, वात नाशक तथा गुरु है, मलकारक, रस में मधुर, ग्राही, त्वग्दोष एवं हृद्रोग को नष्ट करने वाली और वात प्रशमनार्थ वस्ति, पान, अभ्यङ्ग, नस्य और कण पूरण रूप से तथा अनुपान रूप से भी प्रयोजनीय है। भा० पू० तेल० व०। अतसी तैल उष्णवीर्य और कटुपाकी है। (राजवल्लभः)। अतसी पत्र तीसी का पत्ता खाँसी तथा कफ वात और श्वास तथा हृद्रोग नाश करने वाला है | वृ० नि०र०। वैद्यक में अतसी का उपयोग चरक-(१) फोड़ा पकाने के लिए, अलसी को जल में पीसकर उसमें किञ्चित जव का सत्तू योजित करें और अम्लदधि के साथ इसका फोड़ा पर प्रलेप करें। इससे फोड़ा पक जाएगा । (चि० १३ १०)। ( २ ) वातप्रधान व्रण में जो दाह और वेदनान्वित हो तिल और अलसी को भूनकर गोदुग्ध के साथ निर्वापित करें। शीतल होनेपर इसको उसी दुग्ध के साथ पीस कर फोड़ा पर प्रलेप करें। (चि. १३ १०) (३) पक्क शोथ प्रभेदन हेतु अतसी"x x उमाथ गुग्गुल: xx" अलसी का प्रलेप करने से फोड़ा फट जाता है। (चि०१३ अ०)। सुश्रुत-(.) वाताधिक वातरक्त में वेदना प्रशमनार्थ अलसी को दुग्ध में पीस कर प्रलेप करें। (चि० २६१०)। (२) प्रमेह में अतसी तैल प्रमेह रोगी को सेवन कराना चाहिए, जैसे"कुसुम्भ सर्षपातसी x x स्नेहाः प्रमेहषु" (चि० ३१ अ०) मात्रा-आधा से १ तो० । वक्तव्य चरक और सुश्रुत में उपनाह स्वेद (जिसे अंगरेजी में पुल्टिस कहते हैं। ) के उपादान स्वरूप अतसी व्यवहृत हुई है- "उमया For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतसा २३३ अतसा कुष्ठतैलाभ्यां युक्तयाचोपनाहयेत्” (चरक .. सू० १४ प्र०) "तिलातसी सर्षप कल्केस्तनु वस्त्रावनद्धः स्वेदयेत्” (सुश्रुत चि० ३२ अ०) निघण्टु ग्रंथों में अतसी तैल के गुण इस प्रकार लिखे हैं-अलसी का सैल वात नाशक, मधुर और बलासकारक है। (धन्वन्तरीय निघण्टु) नोट-शेष देखो-अतसी तैल। अतस्यादि क्वाथ-अलसी के फूल, मजीठ बड़ के अंकुर, कुश आदि पंच तृण । सबको समान भाग लेकर यथाविधि क्वाथ बनाकर पीने और पथ्य में मूंग का यूप (और भात) खाने से रक्रपित्त का नाश होता है। वृ०नि० पीसकर अनुलेप करने से शोथजन्य शिरोशूल एवं मास्तिष्कीय क्रूबा (दद्रु) तथा शिरोबण के लिए उपयोगी हैं । इसबगोल के साथ सन्धिशूल को लाभ करते हैं । इसका लुआब, नेत्र में टपकाने से अभिष्यन्द तथा नेत्र की लालिमा को दूर करता है । इसका लऊक (अवलेह) श्लेष्मज कास को गुणदायक है और तीन दिरम (३॥ मा० ) पीना वक्षःस्थल को शुद्ध करता है तथा यकृत शोथ और प्रान्तरावयवों के शोथ का लयकर्ता है। भूनी हुई अलसी सङ्कोचक (काबिज़) है और २१ मा० दैनिक सेवन करने से प्रान्त्रवेदना को लाभप्रद है तथा मूत्र, स्वेद, दुग्ध एवं आर्तव की प्रवर्तक है। प्रकृति को मुदुकर्ता और वृक्त एवं वस्तीस्थ क्षत को लाभप्रद है । १ तो० पानी में क्वथित कर पीना वृक्काश्मरी के निकालने में शतशोऽनुभूत है। मधु के साथ पीहा शोथ के लिए लाभप्रद और काली मरिच • और मधु के साथ कामोद्दीपक और शुक्र को गाढ़ा करता है। यूनानी मतानुसार प्रकृति-२ कक्षा में शीतल व रूक्ष । किसी किसी ने २ कक्षा में उष्ण और ३ कक्षा में रुक्ष लिखा है। हानिकर्ता-दृष्टि शकि, पाचन तथा मुष्क को। दर्पघ्न-धनियाँ, सिकाबीन और मधु । प्रतिनिधि-मेथी । शर्बत की मात्रा-१०॥ मा०। प्रधान कर्म-कास, वृक्क एवं वस्त्यश्मरी को लाभदायक है तथा मूत्रकारक एवं स्तन्यजनक है। गुण, कर्म, प्रयोग-इसका कपड़ा पहिनना । उत्ताप को दूर करता तथा स्वेद को शुष्क करता और कंडू एवं कठिन शोथ को लाभप्रद है।। परन्तु, उष्ण प्रकृति वालों को एवं ग्रीष्म ऋतु में पहिनना चाहिए। इसमें जूएँ कम पड़ती हैं। इसके पत्र एवं छाल मस्तिष्क के अवरोधों की उद्घाटक और जुकाम को बहाने वाली है । इसकी छाल को जलाकर छिड़कना रुधिरस्थापक है तथा क्षतों को भर लाता है। इसके पुष्प हृद्य एवं हृदय वलदायक है । बीज लयकर्ता, प्रण को स्वच्छकर्ता ( जाली) और प्रकृति को मदु करने वाले ( मुलरियन तब्य ) हैं । ठंडे पानी में नव्य मतानुसारएलोपैथिक मेटिरिया मेडिका ऑफिशल प्रिपेयरेशा ( Official preparatious ) लाइनाइ सेमिना-(Lihi Semina) -ले० । लिन्डीस (Linseed)-इं० । अतसी बीज, तीसी का बीज । प्रभाव-अरेबिन (Arabin) के समान लुभाबी पदार्थ की विद्यमानता के कारण यह स्निग्धता एवं मृदुताजनक है। ___ लाइनाइ सेमिना कंट्य ज़ा-( Lini semina contusa). लाइनम् कण्ट्युज़म् ( Linum contusum )-ले०। क्रश्ड लिन्सीड (Crushed linseed )-इं० । कुट्टित ( कण्डित ) अतसी, कूटी हुई अलसी । अल सी--को कूट कर उसका मोटा चूर्ण तैयार करलें। यह ताज़ा तैयार किया हुश्रा होना चाहिए। यह कैटाप्लाज्मा लाइनाई (अतसी की पुल्टिस) बनाने में काम आता है । For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतसी मतसी २३४ ऑलियम् लाइनाई-(Oleum Lini) -ले० । लिन्सीड ऑइल ( Linseed oil) -०। अत्तसी तेल । मृदुताजनक रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है। प्रभाव तथा उपयोग-लाइनम् कंट्यु ज़म् अर्थात् कुट्टित अतसी उत्कारिका (पुल्टिस ) रूप में स्थानिक प्रदाहों पर अवांतर आर्द्र उष्मा के उपयोग की सर्वोत्तम माध्यम है। जब अलसी की उष्ण पुल्टिस किसी भाग पर लगाई जाती है तब उप्मा के प्रभाव से तुद्र स्रोतस् ( Small vessels ) अबाध्य रूप से विस्तार को प्राप्त होते हैं और स्वगीय मांस तत्व, लोमकोष तथा ग्रन्थिक नलिकाएँ शिथिल हो जाती हैं । अतएव धातुएँ कोमल हो जाती हैं और कठोरता की अनुभूति एवं प्रादाहिक तनाव का सर्वथा लोप हो जाता है अथवा उसमें कमी आती है। रुधिर के धरातल की ओर आकृष्ट हो जाने के कारण बोध तन्तुओं के अन्तिम भागों को दबाव की कम अनुभूति होती है । कूल्हे की सन्धि के प्रदाह में उष्ण उत्कारिका के प्रयोग से कभी कभी मांसपेशीय प्राकुञ्चन शिथिल हो जाता है और स्थानान्तरित जानु वेदना घट जाती है। ___ पुल्टिस को फलालैन पर फैलाना चाहिए और उसे इतना गरम रखना चाहिए जितना सुखपूर्वक सहन होसके । स्थानिक उत्तेजक प्रभाव के कारण अत्यधिक उष्ण पुल्टिस से प्रायः तनाव एवं वेदना की वृद्धि होगी। प्रायः यह प्रश्न होता है कि स्थानिक प्रदाह यथा हिटलो (नाखन खोरा) में पुल्टिस का व्यवहार किस समय किया जाना चाहिए ? यदि बहुत पहिले पुल्टिस का उपयोग किया जाता है तो फलतः धातु ( Tissue) का सार्वागिक शैथिल्य उपस्थित होता है और तनाव जो जीवन के लिए घातक है दूर होजाता है तथा उसके | सय की अधिकतर संभावना होती है ।। परन्तु, यदि प्रदाह यहाँ तक विवर्धित होगया हो। कि श्वेताण तत्व स्रोत के परदे से बाहर भागए हों अथवा पूय एकत्रित होगया हो तो पुल्टिस उसको धरातल तक पहुँचाने में सहायक होती है । अतः पुल्टिसें (उत्कारिकाएँ) प्रदाह की समग्र दशाओं में उपयोगी होती हैं। यदि उनका उपयोग बहुत पहिले किया जाए तो वे पूय निर्माण को रोक देती हैं और उन्नत अवस्था में उसके निर्माण में शीघ्रता उपस्थित करतीं एवं उसे साहस प्रदान करती हैं। यदि उनमें पचननिवारक गुण वर्तमान होता तो उनसे प्रत्येक अभीष्ट की सिद्धि होती। तलाक रेशम में श्रावृत्त करमे पर यही का हम स्पिरिट लोशन या बोरिक लोशन में पाते हैं। बन्स या स्केल्ड्स अर्थात् अग्निदग्ध या आग से जले हुए स्थान पर अतसी तैल में सम भाग चूने का पानी मिलाकर, जिसको कैरन आइल ( Carron oil) कहते हैं लगाना उपयोगी होता है। वृहदान्य के अधोभाग में जब अवरोध के कारण मलावरोध हो तब कभी कभी आधा पौंड ( पाव ) अतसी तैल की वस्ति करने से विष्टम्भ दूर होकर एक दो दस्त श्रा जाते हैं । वि० हिटला० ।। कूटी हुई अलसी की पुलटिस को प्रादाहिक रोगों और फोड़े फुन्सियों पर लगाते हैं। इसके लगाने से न केवल वेदना कम हो जाती है, प्रत्युत शोथ भी कम हो जाता है, और यदि सूजन में पीव पड़ गई हो तो उसके विसर्जन में सहायता मिलती है। गंभीर शोधों जैसे फुफ्फुसौप; फुफ्फुसावरण प्रदाह, कास, परिविस्मृत कला प्रदाह, सन्धि प्रदाह (Arthritis) इत्यादि रोगों में अलसी की पुल्टिस प्रत्युत्तम अल्प स्थानिक उग्रतासाधक (काउंटर इरिटेट) है। इसके उक्त प्रभाव को किञ्चित् प्रभावशाली बनाने के लिए पुल्टिस के धरातल ( सतह ) पर विचूर्णित राई छिद्रक देते अथवा कैम्फोरेटेड श्रॉइल ( कपूर मिलित तेल ) चुपड़ देते हैं या पुल्सि बनाते समय १६ भाग अलसी में १ भाग राई मिला देते हैं। For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनसी २३५ बहुशः अन्य वस्ति, वृक तथा मूत्रप्रणाली सम्बन्धी विकारों में मूत्र को प्रदाहक अनुभूति के निवारणार्थ अलसी के बीज का श्रान्तरिक प्रयोग अत्यन्त उपयोगी होता है । ( मेटिरिया मेडिका अॉफ़ मैडरास ) पार० एन० खोरो-अलसी स्निग्धतासम्पादक, कफनिःसारक और मूत्रकारक है। अधिक मात्रा में मृदुरेचक है। अल्प मात्रामें सेवन करने से वृक्कद्वय अर्थात् मूत्रोत्पादक अवयव की क्रिया वृद्धि होती है। पिच्छिल वा स्नेहान्वित रूप से अलसी को कफ कास में प्रयुक्त करते हैं। स्निग्ध एवं मूत्रल होने के कारण यह मूत्रकृच्छ, अश्मरी, शर्करा एवम् शूलरोग में हितकर है। नोट-पुल्टिस बहुत मोटी नहीं होनी चाहिए और लगाते समय उसके निम्न धरातल पर किञ्चित् तैल प्रभति चुपड़ देना चाहिए जिसमें वह शरीर से चिपक न जाय । __अलसी की पुल्टिस इस प्रकार बनाई जाती है-४ भाग कटी हुई अलसी को १० भाग खौलते हुए पानी में धीरे धीरे डालकर मिलाते जाएँ। परन्तु, जिस बर्तन में पुल्टिस बनानी हो उसको पहले से गरम कर लेना चाहिए और पुल्टिस को श्राग के सामने तैयार करना चाहिए। अलसी को खली ( Liusdel meal ) से भी पुल्टिस बनाई जाती है । अलसी के बीज में एक प्रकार का लाबदार सत्व होता है जो उबलते हुए पानी में प्राजाता है। जव प्रामाशय-प्रान्त्रीय श्लैष्मिक कलाओं से इसका सम्बन्ध होता है, तब यह शांतिप्रद स्निग्धताजनक प्रभाव करता है और क्षोभक स्रावों से उनकी रक्षा करता है। इसमें प्रख्यात कण्ठ्य अर्थात् श्लेष्मानिस्सारक गुण है जो सम्भवतः श्रामाशय की ओर जाते समय कण्ठ पर प्रभाव करने पर पूर्णतः आधारित है । अधिक मात्रा में इसका फांट ( Infusion) वृक्क को मन्दोत्तेजन देकर मूत्रकारक प्रभाव करता है। अतएव वस्तिप्रदाही प्रायः इससे लाभ अनुभव करता है। फांट वा अतसी की चाय-(Infusion or linseed tea)-१५० ग्रेन अलसी और ६० मेन मुलेठी, इनके चूर्ण को १० फ्लुइड ग्राउंस खौलते हुए पानी में दो घंटे भिगोकर शीतल होने पर छान लें। अलसी के तेल के धूम ग्रहण करने से शिरः स्थित श्लेष्मा तथा योषापस्मार (Hysteria) में लाभ होता है। अलसी के क्वाथ का उसमें तैल की विद्यमानता के कारण, अनुवासनवस्ति रूप से लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इसका तेल मृदुरेचक है; अतएव अर्श रोगी गाढ़ विटकता की दशा में इसका उपयोग होता (मेटोरिया मेडिका श्रीफ इंडिया २ खं- पृ० १५) . पूयमेह तथा जनन-मूत्रावयवस्थ चोभ में इसके बीज का अान्तरिक प्रयोग होता है। पुष्प हृदय बलदायक माने जाते हैं । (इमर्सन) । यह भारतीय तथा ब्रिटिस फार्माकोपिया में श्राफ़िशल है । उत्कारिका अर्थात् पुल्टिस रूप से इसका औषधीय उपयोग होता है । (९० मे. प्लां०-कर्नल बो० डी० वसुकृत) १ प्राउंस पिसे हुए अलसी के बीज को रात्रि भर शीतल जल में भिगो रक्खें । प्रातः काल ही इसे हिला कर ठंडा ही अथवा गरम करके और नीबू का रस मिलाकर प्रयोग करें। यक्ष्मा रोगी के लिए यह एक उत्तम पेया है। इस प्रकार घोला हुमा ताज़ा तैन अत्यन्त रोग मोहीदीन शरीफ-अलसी के बीज स्निग्धतासम्पादक ( Demulcent ), मृदुताकारक ( Emollient), मूत्रल और तर्पक (वृंहण वा पोषक ) हैं। मूत्ररोध वा कष्टमूत्र (Dysuria), मूत्रकृच्छ,, वस्तिप्रदाह और वृकप्रदाह में एवं | For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतस्यादिक्वाथ: भति प्रशामक है। भोजन से पूर्व इस अलसी की चाय Cloth)। (३) पांशुशय्या । (४) भंग । को १ पाइंट की मात्रा में दिन में तीन बार सेवन ( IIemp) ... कराना चाहिए । अर्श रोग में १ से २ पाउस की | | अतसी तैलम् a tasi tailam-सं०क्लो० अलसी . मात्रा में इसका तैल प्रातः सायं प्रयोग में का नेल, नीमी का नेल-हि. | Linum श्राता है। (इं० मे० मे. नदकारणी कृत) Usitatissimum, Linn. (Oil of.. एक श्राउंस अलसी के बीज को १ पाइंट जल | Linsel oil.) ग. नि. व. १५ । में १०मिनट तक उबाल कर छान लें। इसे अ भा० पू० तैल व० । देखो-अतसी । लसीकी चाय कहते हैं। यह अतीसार, प्रवाहिका अतह aatah-१० ( Unconsciousness) ..और मूत्र विकारों के लिए एक उत्तम पेया है। मूर्छा, अचेतता, अचेत होजाना, विसं जता, ( ई० इ० ई०-आर० एन० चोपरा कृत) बेहोश हो जाना। म० ज०। (२) विरेचक प्रतसो अता ata-हि. पत्थर फोड़ी (Putthara- लाइनम् कैथार्टिकम् Linum Catha- fori ) फा० ई० ! भा० । लु० २.० । • ticum)-ले । पर्जिङ्ग फ्लैक्स ( Purgi अतात्तीर anta-quttil-अ. शिकारी पक्षी ng flax)-इं० । कत्तान मुस्हिल-अ०। - ( The birds of piey.) नॉट ऑफिशल अनान पत्रिका atana-patrika-सं० स्त्री० (Not Official.) अरण्ड, एररड । ( Ricinus Commuउत्पत्ति स्थान-युरोप । ris, Linn.) वानस्पतिक वर्णन-यह एकवर्षीय पौधा अतापी atāpi-हिं० वि० [सं०] ताप रहित । है। कांड सरल, कोमल ६ से १ इं० तक ऊँचा दुःख रहित । शांत। होता है । पत्र-सम्मुखवर्ती, संपूर्ण (अखंड) अतार atar 'अंडाकार, नोकीले, होते है। पुष्प लघु, श्वेत ०(१) वृत्त, जुतालहशफ़ह tajulhashfah jघेरा, किनारा । रंग के दल अंडाकार होते हैं। (२) शिश्न-मुण्ड, मणि। कोरोना ग्लैण्डिम स्वाद-तिक व चरपरा । (Corona Glandis )-ई० । रासायनिक संगठन-इसमें लाइनीन (३) चक्षुतारा-मंडल । म० ज० । (अतसीन.) एक न्युट्रल (उदासीन), वर्ण अतारद aatiral | नब्त० सुम्बुल रूमी । . रहित, रवादार अत्यन्त तिक सत्व होता है जिसमें ICE, āatárah j See-sumbul-rúmí विरेचक गुण का अभाव होता है । wartz Watárac-TIETO Mercury मात्रा-६० ग्रेन चण रूप में। यह पौधा (Hydrargyrum ) पारा, पारद-हि । "विरेचक रूप से व्यवहार में पाता है । म० अ० डॉ०२ भा०। अतस्यादिक्वाथः a tasyādi-kvāthah-सं० अतारा aatāri-न्दना-फा० । गोनी-हिं० । हिं० पु. अलसी के फूल, मजीठ, बड़के अंकुर, See-gandaná. कुश आदि पञ्च तृण | सब को समान भाग लेकर 'यथा विधि क्वाथ बनाकर पीने और पथ्य में | अतालीतून atalitāna-यु. अज्ञात । स" मूग का यूष ( और भात ) खाने से रक्त पित्त अति ati-हिं० वि० [सं०] बहुन । अधिक । ;:' का नाश होता है । वृ० नि० र० । ज़्यादा । अतसी-कुसुम atasi-kusuma-सं० पु संज्ञा स्त्री० अधिकता । ज़्यादती । सीमा (२) तीसी का फूल । (२) रेशमी वस्त्र (Silk का उल्लन ! For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अति अतिगण्डः अति ati-ना० कचनार ( Bauhinia race. अनिकृत नाशिनो atikritu-nashini-सं० mosa, Lam.) El Mercury (Ilydrargyrum ). -बर्मी० फल | अतिमियात्रा ( व. व.) पारा, पारद । साथ० । सू० ६ । ४४ । ३ । स० फा० ई० | अतिकशः atilkrishah-सं० वि० अति दुर्बल, आत अति अक: ativarkah-i. . श्वेतमदार. बहुत दुधला । २०७०। सफेद धाक (Calotropis gigante:a, अतिकश(स): atikeshasarah-सं० पु. R. Br.)। देखो-पाक । कुब्जक पुप्प वृक्ष । कूजा-हि. | कोंकन देशीय प्रतिश्रा atia-खसि० पखानभेद, पाषाण भेद । ___पुष्प विशेष । रा०नि० व० १० । भा० पू० प्र० Saxifraga ligulata, Voll.co व० । करटक सेवती। फा० ई० १ भा० । अति कोषवन atikoevam-11. अकोल, अतिकुटः ati.kutah-सं० त्रि. निम्बादि द्रव्य ।। ढेरा ( Alangium (decapitalum, ० श०। Lam.) ई. मेमे । अनिकराटः, कः ati-kantah, kah-संप अतिकम a tikrama-हिं० संज्ञा पु० [सं०] (१) छोटा गोखरू। (२) दुगलमा।। (Act of overstepping; Broach मद०व०१। of decorum or duty ) नियम वा मर्यादा का उल्लंघन। विपरीत व्यवहार । अतिकन्दः-क: atikandah,-kah-सं० पु ! हस्तिकन्द. यह प्रसिद्ध महाकन्दशाक है। अतिक्रमण atikramana-हि० संज्ञा प. देखो-हस्निकन्दः । रा०नि० व०७। [सं०] उल्लङ्घन । पार करना । हद्द के बाहर अतिक-मामिडि atika-māmidi-ते. पुनर्नवा जाना । बढ़ जाना। ( Berha via diffusa, Lint.)। अतिक्रांत atikrānta-हि. वि० [सं०] अतिकर्षणं atikalshanam-संक्ली • अत्यन्त (१) (Gone beyond) सीमा का कृशीकरण, बहुत दुर्बल करना । अतिकायकर, । उल्लंघन किए हुए। हह के बाहर गया हुश्रा । बहुत निर्बलताजनक ( कृशताकारक ) द्रव्यों वा बढ़ा हुश्रा । (२) (Past,gone by ) बीता उपायों का सेवन करना । हुश्रा | व्यतीत । गया हुश्रा। अतिकायः atikāyah-सं०.त्रि०) १ . Gi अतिक्रांता वेक्षणम् atikranti.veksh. ' anam-सं० की० जो वात पहिले कही प्रतिकार atikāya-हिं० वि० gantic) गई । जैसे-चिकित्सा स्थान में कहा कि दीर्वकाय । बहुत लम्बा चौड़ा। बड़े डील डौल श्लोक स्थान में हम यह बात कह चुके है। का। स्थूल । “अतिकाय-गृहीतायास्तरुण्या सु० उ०६५ अ० श्लोक २८ । “यत्पूर्वमुत्र' स्त्वण्डिनी भवेत् ।" मा० नि०। २-स्थूल तदति क्रांतावेक्षणम् । यथा चिकित्सितेषु अयामेढ़ वाला। सु० सं० उ० ३८ । च्छ्लोकस्थाने यदीरितमिति ।" अतिकाल atikāla-हिं० संज्ञा पु. [सं०] अनिखिरेटी atikhireti-सं० स्त्री० पीली यूटी । (१) विलम्ब । देर। (२) कुसमय । कंधी-हिं । अतिबला-सं०। (Abutilon अतिकृच्छ, atikrichchhra हिं० संज्ञा पुं० Indicum, G. Don or A. Asia. [सं.] (१) बहुत । कष्ट । (An t icum, G. Don.) इं० मे. मे० । extraordinary hardship)। -वि० अतिगण्डः atigandah-सं० त्रि वृहद्ण्ड । अति कठिन ( Very difficult). मे० डचतुष्कं । For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिगुप्ता प्रतिछत्रका अतिगुप्ता atigilptā-सं० स्त्री पियन-हिं । अतिचर atichara-सं० त्रि. ( Trans ( Uraria lagopoides, D. C.) int) क्षणिक, अस्थायी । -ले० । ई० मे० मे० । देखो-पृश्निपर्णी। | अतिचरः articharah-सं-पु. (१) एक प्रकार अतिगुहा atiguhā-सं० स्त्री० (१)पि वन-हिं०।। पृश्निपर्णी-सं०। (Uraria lagopoides, ! । | की पनी (A sort of bird) (२) वृक्ष विशेष (a tree)। वैः श० । D.C. । र० मा०। (२) ( Hedysarum gangeticum,Lin.) शालपर्णा । मद. अतिचरणा aticharana-सं० (हिं०संज्ञा) स्त्री० व०१ । वा० सू० २६ अ०। “लक्ष्मी गुहा.. (१) अत्यन्त मैथुन करने के कारण जिस योनि में मतिगुहाम् ।" सूजन हो जाती है उसे अति चरणा कहते हैं। अतिगो atigo-सं० स्त्री० (An excellenti कफज योनिरोग विशेष, यथा-"सैवातिचरणा cow) उत्तम गाय । शोफ संयुक्कातिव्यवायतः" । वा० उ० ३३ प्रतिगन्धः atisandhah-सं०पू० अ० । देखो-अचरणा । (२) स्त्रियोंका एक रोग अतिगंध atigandha ह. संज्ञा प जिसमें कई बार मैथुन करने पर तृप्ति होती है । भूतृण, गन्धतृण-बं० । ( See-Bhut. (३) वैद्यक मतानुसार वह योनि जो अत्यंत rinam ) रा०नि०व००। (२) गंधराज, मैथुन से तृप्त न हो। मोगरा-वृत, मुद्गगर पुष्प वृक्ष-बं०, ०, सं०। । अतिचरा,-ला a tichara,-la-सं० स्त्रो० (१) A sort of Jasmine (Jasminuin z(s)ambac, Ant.) रा०नि०व०१०।। म पद्मचारिणी-सं० । गैंदेका फूल, गेंदा। ('Tage. (३) गंधक-हिं०। (Sulphur) रा०नि० । tes Erecta, Linn.) । मद० २०३। व० १३ । (४) चम्पक वृक्ष, चम्पा , चम्पा का । अभि०नि० १ भा० । (२) स्थल कमल-हिं० । स्थल पन्न, थल पद्म-बं० | Hibiscus muपेड़ वा फूल-हिं०। (Michelia chaln. tabilis मेमो० गुले प्रजाइब-फा०रा०नि० paca, Linn. ) रा० नि० व. १०। fato (Having an excessive or व०५। भा० पू० १ भा० । देखो-स्थलपन्न । (३) भूत तृण । (४) A lotus plant overpowering smell) अत्यन्त गन्ध कमल । पद्म। पूर्ण । अतिगंधकः atigandhakah-सं० प्र०(१) अतिच्छत्रः atichchhatrah सं० ० हस्तिकर्ण (पलाश) वृक्ष । (२) चम्पक वृक्ष, (१) लाल तालमखाना-हिं० । रक्त कोकिलान चम्पा । रा०नि० व० १०। -सं०, बं० । प० मु० । रत्ना । (२) छत्रा, साप की छतरी, कुकुर-मुत्ता, भूमिछत्रा,काटछातु, अतिगंधा,-लः atigandha, luh-सं० स्त्रोक पुत्रदात्रीलता, पुत्रदा-सं०। बाँझ खेखसा, पोयालछातु-बं०। (A mushroom) लक्ष्मणा-हिं०। रा०नि० व. १०। (३) स्थूल तृण विशेष । (४) anise | सौंफ । अतिगंधिका atipandhika-सं० स्त्रा० पुत्र प्रतिच्छत्रक: a tichchhatrakah-सं०५० दात्रीलता, पुत्रदा-सं० । देखो-पुत्रदात्रो । रा० (१) भूततृण । प० मु. । (२) भूतृण, नि०व०४। ( See-Putradatri ). गंधराज । रा०नि०व० ८। (३) साधारण अतिपूर्णता atighārnata-सं. स्त्री० अति तृण । (४) एक वृक्ष जिसके मूल एवं पत्र निद्रा, निद्राधिक्य, अत्यन्त निद्रा। भा० म. बच की प्राकृति के होते हैं तथा जो रस में कटु ४ भा० श्लो० २४ मसूरिका । “तृष्णा-दाहो. होता है । ग०नि० । (५) शरबान, छतरिया । तिघूण ता" । शा० श्री० श० सा०। For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिच्छत्रका अतिदेश प्रतिच्छत्रका atichchhatraka अतितपनम् atitalpanam-सं० लो० wassa a tichchhatra अति तृप्ति, अति तर्पण । वा० सू० - ० । अतिच्छत्रिका atichchhatiika ) अतितार्या atitārya-तं. स्त्री० पार करने योग्य । सं० स्त्री० (,) सौंफ, · जंगली सौंफ-हिं। अथ० । स०२ । २७ का० । रा०नि० व०४ । मद. व०२ । वा० उ० प्रति तोबा atitibra-सं० स्त्री. गांडर दूब ६० महापैशा० ० । 'अतिछत्रा पलकषा'। -हिं० । गंड दूर्वा-सं०। रा०नि०प० । सि० यो उन्माद चि. महापैशाच पते ।। (Se-Ganda-durvvā. ) (२) मधुरिका । मोरी-वं० । च०चि० अ०।। अति तीदण: ati-tikshnah-सं० त्रि. (३) छपवृक्ष । वह वृक्ष जिसके मूल व पत्र बचकी (1) मरिच प्रभृति ( Black pepper ). प्राकृति के और रस कटु हो । (४) भूत तृण । -पु. (२) सहिजन, शोभाअन वृक्ष (Moरा०नि०। (५) अजरंगी, मेढ़ालिंगो-हिं० । ringa pterygosperma, Gartn.) 1 विषाणिका-सं० । वा० सू०२६ १० । (६) उक्त -क्ली०(३) अजमोदा ( Apium involनाम की महौषध । देखा-श्रोरधिः । (७) ucratum). ( A mushroom ) साँपकी छनी । अगारि अतितृप्तिः a titriptih-सं० पु. पित्तजन्य रोग कस ऐल्बस । विशेष ( Biliary disease. ) । अतिजव atija.va-हिं० वि० [सं०] जो बहुत वै० निघ तेज़ चले । अत्यन्त वेगगामी । अतितेजिनी atitajini-संत्रो० तेजबल-हिं०, अतिजागरः atijāgarna h-सं० पु. । बं०, मह०, गु० । विपर्णी सं०।मद०व०।। अतिजागर atijagara-हिं. संज्ञा पु. अतिदग्धम् atidagdham- सं० क्ली० अग्निनील वर्ण का बगुला पक्षी | A kind of | ____दग्ध रोग ( Burn) सु० सू० १२ १०। heron (Ardea jaculator ). | अतिदाहः atidahah-सं० पु. अतिसन्ताप, देखो-नील क्रौञ्च । रा०नि० व०१६। दाहाधिक्य, तापबाहुल्य | वै० निघ० । श्रतिदीप्तिः a tidiptih-सं० स्त्री० श्वेत तुलसी श्रति जागरणः ati-jagaraah-सं० पु. ) -हिं० । श्वेत सुरसा-सं० । श्वेत बाबुई. तुलसी अतिजागरण ati-jagarana-हिं० पु. । -बं० । (Ocimum Basilicum, Linm.) अधिक जागना । वा० सू० २ ०। । वै० नि । अतिजात atijāta वह संतान जो पिता के | अतिदीप्यः,-कः atidipya h,-kah-सं० अधिक गुण रखती हो। अथ० । सू०६। पु. लाल चीता, रक् चियक ( Plumका० । bago Rosea, Linn. )रा०नि० व० ६ । अतिजीवः atijivah सं० पु. अन्य सामान्य | अतिदुष्टः atidushtah-सं० प. गोखरू जीवों की दशा को अपने ज्ञान बल से पार ! -हिं० । गोचर-सं०। (zygophyllee. करना । अथ० । सू०.२ । कां० % । Tribulus terrestris, Linn. ) वे. निघ०। अतिज़म्भः atijrimbhah-सं० पु. अति जॅभाई का आना, वायु रोग विशेष । वै० निघ० अतिदेशः atideshah-सं० पु. ) अतितपस्विनी atitapasvini-सं. स्त्री अतिदेश atidesha-हिं० संज्ञा पु. मुण्डो, गोरखमुण्डी (Sphoeranthus (१) प्रकृतस्यानागतेन साधनम् अर्थात् प्रकृत Indicus, Linn.) भा०पू० १ भा०गु०व० का अनागत (भविष्यत् ) से साधन किया जाना For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिनिद्रः प्रतिपीड़का 'प्रतिदेश' कहलाता है । जैसे, अमुक कारण से दुग्ध अतिशृत घन दुग्ध । यह अत्यंत भारी होता इसका वायु ऊर्द्धगामी होता है इसलिए इसे है । “भवेगरीयोऽतिशृतम्" वा० टी० हेमाद्रौ उदावर्त होगा। यहाँ वायु का अर्द्धगमन प्रकृत झारपाणिः। है इसका साधन अगाड़ी होने वाले उदावर्त अतिपज़म atipazam-ता. गूलर-हिं० । उदुम्बर से होता है । सु० उ० ६५ अ ... __ फलम्-सं०] Ficus Glomerata,Road. (२) एक स्थान के धम्नं वा नियम का दूसरे | (Fruit of) स. फा० ई.। स्थान पर प्रारोपण । (३) वह नियम जो अतिपश्चा atipancha-सं० स्त्री० (A girl अपने निर्दिष्ट विषय के अतिरिक और विषयों ___past five ) पांच वर्ष से ऊपर की कन्या | में भी काम पाए। अतिपत्रः, कः atipatrah, kah-सं० पु० (१) अतिनिद्रः atinidrah सं०त्रि०(१) (Given ( The teak-tree ) सागवन to excessive sleep ) निद्रालु, वह -हिं० । शाकतरु-सं० । सेगुन गाछ जिसको अत्यन्त नोंद श्रारही हो। -बं०। रा० नि० व०६, उन्माद-चि०, (२)( Without sleep, sleep- महापैशाच घृते । (२)हस्तिकन्द नामक महाकन्द । . less ) अनिद्रा। रा०नि० व० ७। अतिनिद्रता atinidrata सं० स्त्री. ] अतिपत्रा atipatra-सं० स्रो० (Sida corअतिनिद्रा ati-nidra-हि० संज्ञा स्त्री० difolia, Linn.) बलाभेद, खिरेटी, बरियारा, (Excessive sleeping ) निद्राधिक्य, | बीजबन्द । वेडेला-बंग। देखो-बला | नींद की अधिकता । कफवृद्धि जन्य रोग विशेष । अतिपरिचम् atiparichcham-ता० ) सु० स १५ अ०। अतिपर्या atiparya-सं० स्त्री० अतिनिद्राना(शि)नी गुटिका atinidrinash मालकांगुनो-हिं० । कटुम्भी-सं०। ( Celainf gutikā-सं० स्त्रो० काली मिर्च को strus paniculatus, Willd.)ito शहद में घोट कर गोलियाँ बनाएँ। इसे घोड़े के मे० मे. | फा० इं० १ भा०।। लार से घिस कर नेत्रों में लगाने से घोर निद्रा भी दूर हो जाती है । यो चि०। | श्रतिपातितम् atipatitam-सं० क्ली० (F1aअतिनिद्रा रोग atinidra aroga-हि. संज्ञा cture ) अस्थिभंग, कांडभग्न, अस्थि का बीच से टूट जाना, जिससे अस्थि पूर्णतः पृथक् हो जाती पु. वह रोग जिसमें बहुत नींद आती है। है। सु० नि० १५ १० । (Sleeping sickness. ) अतिनेरश्चि atineranchi-सिं० अड़ा गोखरू अतिपिच्छ: atipichchhah-सं० पु. श्वेत ( Pedalium Murex, Linn. ) स० रकालु ( Diosco reau sativa, Linm.) - फा० इं०। वै०नि० । अतिपकमांसम् atipakvamansam-सं० अतिपिच्छला atipichchhala-सं० स्त्री० पु. खर पाक युक्त मांस, अधिक पकाया हुश्रा कुमारी, घृतकुमारी, घीकुवार-हिं०। ( Aloe सिद्ध मांस, पाकाधिक सिद्ध मर्मास । गुण- ___Bar badeusis.) वै० निघ०। . अधिक पकाया हुआ मांस विरस (स्वाद रहित), अतिपिजर: atipinjarah ) . . वातकारक और भारी होता है । वै० निघः।। अतिपकक्षीरम् atipakva-hshiram-सं० पु. अतिपीड़कः atipirakan-सं० पु०(Foul अग्नि पर पकाकर अत्यंत गाड़ा किया हुश्रा | | ulcer ) दुष्ट व्रण, दृषित क्षत । च० । For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रतिपित्ता प्रतिपित्ता atipittá सं० स्त्री० लजालू, लजालु, बुईमुई ( Sensitive plant ). अति atiprage - ( Very early in the morning ) प्रातः काल । प्रतिप्रभंजनवात atiprabhanjana-váta - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] श्रत्यन्त प्रचंड और ती वायु जिसकी गति एक घंटे में ४० वा ५० कौस होती है । अतिप्रवाहण atipravahana - सं० त्रि० (To | grunt) किनछन, कखना । सु० नि १३ अ० । अतिप्रस्रुतम् ati-prasrutem - सं० क० अधिक रत्रमोक्षण, अधिक रक्त स्रावण | सु० शा० ८ श्र० श्लो० १७ । अतिप्रौदा atiprourhá सं० स्त्री० ( A grown-up girl ) विवाह योग कन्या । अतिबरसण atibarasana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिवर्षण ] मेघमाला । घटा । - डि० । अतिबल atibala-हिं० वि० [सं० ] ( Very strong or powerful ) प्रबल, प्रखंड, बली । प्रतिबला ati-bala-सं० श्री० ( 1 ) (Abutilon Indicum C. Don . ) एक श्रोषधि, कंधी, कंधही ककही, ककहिया - हिं० । देखोकंघी वा वला | रा० नि०व०४ । मद०० १ । भा० पू० १ भ० गु० य० । सु०सू० ३६ संशमने | च०सू० ४ श्र० । सु०सू० कृमिचि० । वि० क्र० क० वल्ली स्त्रीरोगचि० । वा० उ० ४० श्र० । (२) श्वेत वाट्यालक | (३) गोरक्षतण्डुला । विष्णुनारायण तैले । शतावरीयो -सा० कौ० । चि० क्र० वली केतक्यादि तैले । क० प्रतिबलिका atibaliká) - सं० स्त्री० वाट्या. अतिबली atibali लक 1 बरियारा -हिं०। ( Sida cordifolia, Linn.) रा० नि० व० ४। अतिबाला atibala - स० स्त्री० ( A cow two years old ) दो वर्ष की गऊ । २४१ श्रतिमदुरम् - पाल श्रतिभक्का atibhakta-सं० स्त्री० गुलाब (The (rose) श्रतिभ (भा) र atibha,-bhá,-rah-ia पुं० ( Excessive burden ) भारी बोझ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रतिभारगः ati-bháragah - सं० पु० अश्वतर । खच्चर, श्रश्वभेद - हिं० । ( Donkey, mule ) वै० श० । प्रतिभीः atibhih - सं० त्री० स प्रभा, विद्युत्, बिजली (Lightning, flash of Ind ra's thuderbolt.) प्रतिभोजनम् ati-bhojanam - सं० क्ली० अधिक मात्रा में भोजन करना, अधिक भोजन, प्रत्याहार । गुण- इससे श्रालस्य, भारीपन, पेट की वेदनासहित गुड़गुड़ाहट तथा शरीर के शिथिल होजाने प्रभृतिकी अधिकता होती है । सु० सू० ४६ श्र० कृतान्नच० । अतिमङ्गल्यः ati-mangal-yah-सं० पु० विल्व वृक्ष । बेल का पेड़ - हिं० । ( Agle or_cratoæva_marmelos, Corr. ) -ले० । रा० नि० व० ११ । श्रतिमञ्जुला ati-manjulá-सं० स्त्री० सेवती गुलाव - हिं० । करटक सेवती वृक्ष:-सं० । गोलाप्, रक्क गोलाप- बं० । ( Rosa damascena, Mill.) भा० पू० १ भा० पु० ० । मद० व० ३ | देखो - सेवती । श्रतिमण्डलः ati-mandalah- सं० पु० भूधामन वृक्ष । वै० निघ० । श्रतिमदुरम् ati-maduram-ता०, सिं० मुलहठी, यष्टिमधु, जेटीमध - हिं० | Glycyrrhizae ( Radix ) glabra, Linn. (Liquorice root or Liquorice) स० [फा० ई० । ३१ प्रतिमदुरम् - पाल् ati-maduram-pál-ता० मुलेठी का सत- हिं० । रुब्बुरसूस ० | Glycyrrhiza. (Extract of-E.of liquorice ) स० [फा० ई० । For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिमधुरम् २४२ प्रतियवः अतिमधुरम् ati-madhuram-मल० मुलेडी mosa) प० मु० । “अतिमुद्र कमिच्छन्ति (Glycyrrhizae 'Radix' glabra, वासन्ती माधवीलताम् ।" हला० ५४ । Liun. ) स० फा० ई०। वासन्ती । तिनिश । मे० तचतुष्क । वा० उ० अतिमधुरम्-पालु ati-madhuram pālu | १३ अ०। गाव, तेंद । भा० पू० १ भा० । -ते. मुलेठी का सत-हिं० । Glycyrrhi- गुण-कसेली, शीतल, ४ मध्न, पित्त, दाह, za ( Extract of-)। स० फा० इं० । ज्वर, उन्माद, हिक्का, तथा छर्दिनाशक है । रा० अति-मधुरमु a ti-nmadhuramu-ते. नि० व० १० । देखो -तिनिशः । माधवी मधुर, प्रतिमधुरा ati-madhuri-कना० शीतल, लधु तीनों दोषोंको नाश करने वाली है। मुलेठी (Liquorice root) स० फा० भा० पू० १ भ .पु०व० । -(कः) हरिमन्थ । हारा०। (५) मरुया का पौधा । प्रतिमन्थः,-कः ati-manthah,-kah-सं० अतिमुक्त तैलम् ati-mukta-ta.ilam- सं.. क्ली० प्रतिमुक्का के बीज का तेल, अतिमुकंक पु० अरनी, अरणी, अग्निमन्थ ( Premna बीज तेल । serratifolia). गुण-वातपित्तनाशक, केशवद्धक अथवा अतिमात्रम् a ti-matram-सं० क्ली. अधिक केश के लिए हित, श्लेष्माकारक, भारी और मात्रा (परिमाण), मात्राधिक्य । मात्रा से शीतल है । वा० टी० हेमा०। ज़ियादा । वा० स०८ श्र० अतिमात्र ati-mātra-हिं० वि० [सं०] अतिमुक्ता ati-mukta-सं० स्त्री० अति मुक्तका। रा०नि० व..१०। (Excessive) अतिशय | बहुत । ज्यादा। अतिमूत्र ati-mitra-हिं० संज्ञा पु० [सं०]. प्रतिमानुष ati-mānusha-हिं० वि० [सं०] ( Diabetes) वैरक में प्रात्रेय मत के (Superhuman) मनुष्य की शकि के अनुसार छः प्रकार के प्रमेहों में से एक । इसमें बाहर का । अमानुषी । अधिक मूत्र उतरता है और रोगी क्षीण होता प्रतिमित ati-mita-हिं० वि० [सं०] अप- जाता है। बहुमत्र । रिमित । अतुल | बे अन्दाज़ | बहुत अधिक | प्रतिमैथुनati-maithuna-हिं०संज्ञा पु०अतिसङ्ग, बे ठिकाना । बे हिसाब । स्त्री सहवासाधिक्य, अधिक स्त्री संग करना । अतिमुक्तः,-कः ati-muktah, kahसं.पु.)। अतिमोदा ati-moda-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा अतिमुक्त ati-mukta-हिं० संज्ञा पुं० स्त्रो० (१) गुल सेवती-हिं। नवमल्लिका-सं०। afay. 1 ati-inuktak á सेउति-बं० । (Jasminum arbor-सं००(१)तिनिश वृक्ष । तिनसुना । तिरिच्छ । esum, Road.) रा०नि० २०१०। (Mountain ebony )। अम०। (२) (२) गणिकारी वृक्ष-को। गणिरि-बं०। तिन्दुक वृक्ष (See-Tinduka) । तेंद, रा०नि०व० १०। गाव-बं०,हिं० । तत्पर्य्याय-पुर.ड़कः, मल्लिनी, (३) नेवारी का पौधा या फूल । भ्रमरानन्दा, कामुककान्ता-सं० । (३) नव. | अतिमोक्षा ati-moksha-सं० स्त्रो० नेवाड़ी . मल्लिका भेद । वासन्ती, नेवारी-हिं० । पुष्पवृक्ष ( Jasminum zambae flor. रायबेल-बं० | रायविर-म०, ते०। (J. za- ibus multiplicatus. ) mbac floribus multiplicatus ) अतियवः ati-yavah-सं० ० निःशूकयव । देखो-नवमल्लिका । (४) माधवीलता, काली यव । मद० व०१०। "निःशूकोऽतियकः कुसरी, कस्तुरमोगरा (Goertnera trace- स्मृतः" अर्थात् जो जो शूक (सुई.) रहित हों For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतियुक्तः अतिलेशा उन्हें अतियव कहते हैं। जौ से अतियव में अल्प अतिरुच् atiruch-सं० ० ( The knee) गुण हैं । भा० पू० १ भा० धान्य व०। । जानु, घुटना । अतियुक्तः ati-yukta.h-सं० वि० बारम्बार अतिरुहा ati-ruha-स. स्त्री० मांसरोहिणी उपयोगमें लाया हुश्रा । स्नेह ग्रादि पञ्चकमों का -सं० । रोहिणी-हिं० । रा०नि० व. १२ । प्रतियोग अर्थात अत्यंत प्रयोग करना । मा०म० । भा० पू० । भा० । मद० व०। (See-- ख. १ भा० अ०सा० । “स्नेहाचैरतियुक्कैः ।" mansarohini) श्रतियोगः ati-yogah-सं० पु. ) प्रतिरुक्षः ati-rukshah-स. त्रि. अत्यन्त अतियोग ati-yoga-हिं० संज्ञा पु० ॥ रूक्ष, स्नेह रहित, यथा-कंगु और कोदो प्रभृति । अति प्रयोग, अतिशयित प्रयोग, अधिक उपयोग ( Very dry.) में नाना । वा० सू०१७ श्र०। (२) अधिक अतिरेचकः ati-rechakah-सं०० काकोली मिलाव । (३) किसी मिश्रित प्रोपधि में दम्य ___ कॉकला-बं० । (Tizyphus napeca.) का नियत मात्रा से अधिक मिलाव । वै०निघ० । अतिर aatir-अ० सुगंधित, सुगंधित होना । प्रतिरोगः ati-rogah-सं० पु. क्षयरोग । म० ज०। क्षयीरोग। राजयदमा । (Pthisis, cons. अतिरक्त atirakta-हिं० पु. (१) हिंगुल, umption.) रा०नि० व० २० । अतिरक्तः ati-raktah-सं० प.. सिंगरफ । अतिरो (लो) मश a tiro,-lo-masha-सं० अतिरक्ता 6 ti-rakta-सं० स्त्री० | Cinna- त्रि० ( Very hairy, shaggy) बहुत bai ( Hydrargyri Bisulphur-| etun.)। (२) मोदहुल,अदउलका फूल-हिं० प्रतिरोमशः ati-romashah-सं०पु०(१) बम जवा पुष्प-वृक्ष-सं०। (Hibiscus Rosa= बकरी, वन्य छाग (A wild goat.)। (२) sinensis, Lim.) वै० निघ०। (A sheep) भेड़, मेष । हारा० । (३) अतिरजःस्राव atirajah--srava-हिं० पु. (A large monkey ) बड़ा बन्दर (Menorrhagia) मासिकधर्म का अधिक (वानर)। होना । देखो-प्रदर। . अतिरोमशा ati-romashi-सं० स्त्री० वृद्धअतिरसः ati-rasah-सं० पु. पौण्डूक-सं०। दारकलता, विधारा, नीलवुर । प० मु.। श० मा० | See-Pundrakah. See-Vidhara. अतिरसा ati-rasā-सं० स्त्री० (१) मा अतिरोहण ati-rohana-हिं• संज्ञा पु. -सं०। चूरनहार, मुरहरी-हिं । ( Sanse- [सं०] जीवन वा ज़िन्दगी । ( Life.) vieria, zeylanica, Wild.)। मुर्गा अतिलङ्घन ati-langhan-हिं० संज्ञा पु० । -बं० । वै० निघ० २ भा० अप० चि. पल- अतिलचनम् ati-langhanam-सं० क्ली. इषा तैले । (२) रास्ना (Vanda Roxb- (Excessive fasting) अधिक उपवास, urghii )। मद० व० । ( ३) मुलेटी अधिक निराहार रहना । ( Liquorice ) रा०नि० व० ६ । (४) अतिलचितम् ati-langhitam-सं० की. शतावरी-हि । शतमूली-सं०। च०स०४। | वह पुरुष जिसने अतिलंघन ( उपवास ) किया अतिराष्ट atirashtra-हिं. संज्ञा पुं॰ [सं०] हो, अत्यन्त उपवास किया हुश्रा। . पुराण के अनुसार एक नाग वा सर्प का नाम । अतिलम्बी ati-lambi-सं० स्त्री० सौफ । अतिरुक् a tiruk-सं० स्त्री० ( A very Anise ( Pimpinella Anisum, __ beautiful woman) अत्यन्त सुन्दर Linn.) भा० पू०१ भा०। स्त्री। | अतिलेशा ati-lesha-सं० स्त्रो० ग्रीवा की पहिलो For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिलेशा पृष्टकीयः अतिविषादिक्याथः कशेरुका (Atlas=First cervical ver- अतिविकट ati-vikata-सं० त्रि. ( Very tebra.)। फह कह -ऋ० । ___fierce ) अतिभयावह ।। अतिलेशा पृटकीयः ati-lesha prishta- | अतिविकटः ati-vikatah-सं० पु. ( A kiyah-सं० त्रि. ( Atlanto occi- - vicious elephant ) दुष्ट, दिगड़ा हुभा pital.) वा पागल हाथी । अतिलेशापृष्टकीय-सन्धिः ati-leshiprishta. अतिविरेचक ati virechaka-हि. वि. अधिक kiya-sandhih सं० पु. ( Atlanto मात्रा में मल (दस्त) निकालने वाला । ( Draoccipital joint ). stic purgative) अतिलेशाक्षसमोयः ati-leshaksha-sami-प्रतिविदाही ati.vidahi-सं० त्रि• बड़ी सरसों, - yah-सं० ए० ( Atlanto axial lig. राज सपंप। वै. श.। · ament ) भतिविद्ध ati-viddha-सं० पु० जाँघ में तीन अतिलोमशः ati-lomashah-सं० प्र० (१) वेदना चलनेका रोग । साथ । स. १०६ ।। भेड़ । (२ ) वन बकरी ( A wild goat) का०६। (३) बन्दर, वानर (A large monkey ) प्रतिविर भेषजी ati-viddha-bheshaji-स० अतिलोहितगंध: ati-lohita-gandhah । स्त्री० अत्यन्त पीडाको दूर करने वाली प्रोपधि । -सं० पु० दौना, दमनक वृक्ष ( worm अथ । स० १०६ । १। का० ६। -wood )। पं० मु०। अतिवडयम् ati-vadayam-ता. अतीस अतिविशा ati-viddhā सं. मी. जो नस Root of-(Aconitum Heteroph. __प्रमाण से अधिक वेदित होजाए और खान भीतर .yllum, Wall.) स० फा०६०। को प्रविष्ट हो जाए या बहुत अधिक खून निकले अंतित्रयस् ati-rayas-स०सी० (Very old, ! वह भतिविदा है। सु० शा०८। aged) अधिक उम्र वाला, वृद्ध । प्रतिधिश्वा ati-vishva-सं० स्त्री. अत्यन्त अतिवत्त ल: ati-varttulah-सं० पु. मटर, __व्याप्त होने वाली। ___ केराव-हिं० । कलाय विशेष-सं०। मटर प्रतिविष ativisha-मह०, गु० (Aconitum बाटुना, कड़ाइ-चं० । ( Sida rhombifo- __Heterophyllum Wall.) श्रीसाई. lin, Linn.)। र० मा० । मे• प्लां । फा० ई. । वृ. नि. र० । अतिवल ati-vala सं० लघु चोंच, चोंच खर्द। अतिविषः, या ati-vishab,-sha-सं० स्रो.। ___यह एक बूटी है। अतिविष,-षा ati-visha,sha-हि. संझा स्त्रो०) अतिवला ati-vala-सं० स्त्री० नागवला, गंगे wale ( Aconitum Heteroph___ रन, गुलसकरी । (Sida Spinosa, Linn.) yllum, Wall. ) रा०नि० व० ६ । वः . अति-वला-चेट ati-vala-chettu- ता. महा स० ३१ अ० वचाद्रि० । च० द. य. चि. बला, सहदेवी । See-Mahabala. पिपल्यादिघृते । मद.. १ । सा० को । अति-वष ati-vasha-गु० अतीस । (Aco- अतिविषनी ati-vishani-ग० (Aconitum अति-यस ati-vasa-ते. nitum He- Heterophyllum, Wal.) अतीस । ई० अति-वसु ati-vasu-ते. ) terophy- मे० प्लां। _llum, Full.) रु. फा० इं०। अतिविषादिक्वाथ:ati-vishadi--kvathahअतिवासा at-vasa-ते. अतीस (Acon- | स०पुतीस, मोथा,नेत्रवाला, धवपुष्प, कुहाको itum Heterophyllum, Wall.) लु० छाल (इन्द्रजौ), अनारदाना, लोध,वरियारा, तुल्ग क० । वृ०नि० र०। भागले यथा विधि क्वाथ प्रस्तुत कर पीने से प्रवल For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिविषादिचूर्ण २४५ अतिसान्द्रः संग्रहणी, ज्वर, अरुचि और मन्दाग्नि का नाश श्रम की अधिकता । अधिक व्यायाम पथ्य नहीं होता है तथा यह धातुवर्द्धक है । वृ. नि. र०। है। इससे कास, अर, छर्दि, क्रान्ति ( थकान ), प्रतिविषादिचूर्णम् ti-visha li-churnam-सं. प्यास, क्षय, प्रतमक श्वास तथा रक्रपित्त प्रभृति क्लो० प्रतीस,त्रिकुटा, सैंधव, यवक्षार और हींगका रोग हो जाते हैं। भा० पू० १ मा० । वा. क्वाथ या चूर्ण गरम पानी के साथ लेने से प्राम- स० अ० १। युक्र संग्रहणी नष्ट होती है। अथवा पीपल, अतिशकुलो atishashkuli-सं० स्त्री. सोंड, पाडा, शारिवों, दोनों कटेली, चित्रक, इन्द्र- तिलकृत रोटिका । यव, पॉचो नमक और यवक्षार का चूर्ण बनाकर गुण-यह रू है और श्लेष्म, पित्त तथा रक दही, गरम पानी और सुरा प्राति के साथ सेवन की नाराकरने वाली भारी, विष्टम्भ( मलावरोध ) करने से अग्नि प्रदीप्त होती और कोगत करने वाली और चलु के लिए हितकाही नहीं है। वायु मिट जाती है । च० सं० चि० अ० १५। भा० पू० कृतान्नव०। अतिवीज: ativijah-सं० पु. बवू र (बबूल) अतिशारिवा atishariva-सं० स्त्री० अनन्तवृक्ष । ( Acacia Arabica, Wild.) मूल-हिं०, बं० । अनन्ता-सं० । (H:milवै० निघ । esmus indicus, R. Br)। र० मा० । अतिवृष्टिati-vrishti-हि. संज्ञा स्त्री० [सं०] देखा-शारिवा। पानी का बहुत बरसना जिससे खेती को हानि प्रतिशोत ati-shita-सं० (हिं०)श्री. अधिक पहुँचे। अत्यन्त वर्षा । डा, अत्यन्त जाड़ा। अतिवृहत्फलः ati-vrihat-phalah-सं० पु. अतिशुपर्णा atishuparni-सं० स्त्री. वन पनस । कटहल (Artocarpus integrifo. मूंग, मुद्गपर्णी । (Phaseolus triloblia, Lin) भा० पू० १ भा० ।। us, Ait.) अतिबृंहगा a ti-vrinhana-सं० त्रि. अत्यंत दूध, अतिशूकः ati-shikah सं० पु. यव-सं० । घी तथा सांसादि भतण द्वारा प्राप्त स्थूलता। जौ-हिं० । ( Barley)। प० मु०। अतिवृहित ati-vrithita-हिं० वि० [सं०] अतिशकजः ati-shuka jah-सं० पु. गेहूँ दृढ़ । पुष्ट । मज़बूत । न । गोधूम-सं०। (Wheat. ). अतियथा ativyathā-सं० . अतिवेदना, अतिशृतक्षारम् a ti-shrita.kshiram-सं० प्रतिपीड़ा, अतिशयित यन्त्रणा | की० अत्यन्त प्रौटाया हुश्रा दृध । यह अतिव्याप्ति ati-vyāpti-हिं. स्त्री० [सं०] | बहुत भारी होता है वा० सू०५ अ० । न्याय में एक लक्षण दोष। किसी लक्षण वा अतिशीषः ati-shoshah-सं. प. क्षयरोग कथन के अन्तर्गत लक्ष्य के अतिरिक्र अन्य (Pthisis.)। देखो-क्षयः। वस्तु के अाजाने का दोष । जहाँ लक्षण वा लिंग अतिसय्या ati-sayyā-सं० स्त्रो० अप्टिमधु लक्ष्य वालिंगी के सिवाय अन्य पदार्थों पर ___ लता, मुलेठो की वल्ली (Glycyrrhiza भी घट सके वहाँ अतिव्याप्ति दोष होता है। ___gla bra) वै० श०। अतिश्यात्ताननम् ati-vyattānanam-सं० अतिसर्जनमati-sarijanam-सं० ली. वेध, क्ली. मुंह फाड़ कर, मुँह खोलकर | सु० शा० । वेधना, छेदन | मे० नपञ्चकं। ८० श्लो० ८ । अतिसान्द्रः ati-sandrah-सं० पु. अतिव्यायामः ati vayamah-सं० पु.. लोबिया, बोड़ा-हिं० । राजमाष-सं० । (A व्यायामाधिक्य, अधिक व्यायाम करना अर्थात् kind of bean ( Dclichos Sine. कुश्ती व कसरत करना, किसी प्रकार के शारीरिक nsis. '. For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रतिसांस्या २४६ अतिसाम्या ati-sámya - सं० त्रो० मुलेठो की काली मुख वाली गुजाकी बेल | (Abrus precatorius )। बैं० श० । लता, अतिसारः ati-sárah- सं० पु० ) ( १ ) पर्पटक अतिसार atisára-हिं० संज्ञा पुं० -सं० | पित्तपाड़ा, पापा - हिं० । ( Olden landia_corymbosa ) ( २ ) स्वनामख्यात उदरामय रोग । बहुद्रवमलनिःसरण रोग । एकरोग जिसमें मल बढ़कर उदराग्निको मंद करता हुआ और शरीर के रसों को लेता हुआ बार बार निकलता है। इसमें श्रामाशय की भीतरी झिट्टियों में शोथ हो जाने के कारण खाया हुआ पदार्थ नहीं ठहरता और अंतड़ियों में से दस्त के रूप में निकल जाता है । पर्याय- इस हाल - अ० । शिकम रवी, पारवी - फा० । zafar Diarrhoea, डीफ्लक्सियो Defluxio, एल्वी फ्लक्सस Alvi fluxus, कैथार्सिस Catharsis, पर्गेशन Purgation -इं० 1 दस्त, दस्त धाना, दस्त लाना, पेट चलना-हिं०, उ० | कोर्स डी वेण्ट्री Cours de ventre, state Devoyement--फ्रांο। डेर डफाल Der Durchfall, बॉखफलस Bauchfluss, डुर्खलाफ Durchlauf - जर० । परिभाषा - प्रकृतिका अतिक्रमण कर गुदा मार्ग द्वारा अत्यन्त प्रवाहित होना अति (ती) सार कहलाता है । नोट- जिस श्रवयव के विकार द्वारा यह रोग होता है उसीके नाम से इसे अभिहित करते हैं । जैसेश्रामाशयातीसार, श्रांत्रातिसार तथा यकृदातीसार प्रभृति | इसी भाँति मल में जिस क्षेष की उल्यता होती है उसी दोष के नाम से इसे प्रभिधानित करते हैं। जैसे पित्तज अतिसार, कफज प्रतिसार तथा वासज अतिसार आदि । डॉक्टरी नोटजब रोग के कारण दस्त • श्राएँ तब डायरिया और जब विरेचन द्वारा श्राएँ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार तब उसे कैथार्सिस तथा पर्गेशन कहते हैं । कोई कोई डॉक्टर इसकी रोगों में गणना न कर केवल इसको उपसर्ग मानते हैं । निशन भारी ( मात्रा गुरु, स्वभाव गुरु ) गुण और पाक में भारी, अत्यन्त चिकनी, अत्यन्त रूखी, श्रत्यन्त गर्म, अत्यन्त पतली चीजों के खाने से, अतिस्थूल (अति कठिन), अति शीतल, विरुद्ध ( संयोग विरुद्ध देश विरुद्ध, समय त्रिरुद्ध और मात्रा विरुद्ध ), श्रध्यशन अर्थात् एक भोजन के बिना पचे फिर भोजन करने तथा श्रजीर्ण और विषय भोजन करने श्रादि कारणां तथा स्नेह, स्वेद, वमन विरेचनादि के प्रतियोग, श्रयोग और मिथ्यायोग से, विष भक्षण, भय, शोक दूषित जलपान, अतिशय मद्यपान, स्वभाव तथा ऋतु विपरीत और जल क्रीड़ा करने से, मल मूत्रादि के वेग को रोकने से तथा कृमि. दोष श्रादि कारणों से यह रोग उत्पन्न होता है । सु० उ० ४० श्र० । मा० नि । सम्प्राप्ति शरीर के दूषित रस, रक्त, जल, स्वेद, मेद, और मूत्र आदि सम्पूर्ण जलीय धातु बढ़कर मन्दाग्नि को पैदा कर मल के साथ मिल जाते और वायु द्वारा नीचे की ओर प्रेरित होकर अधिक मात्रा में निःसृत होते हैं, इसी को प्रतिसार कहते हैं । वैद्यक के अनुसार इसके ६ भेद हैं । (१) वायुजन्य, ( २ ) पित्तजन्य, ( ३ ) कफजन्य, ( ४ ) सन्निपात जन्य, ( २ ) शोकजन्य और ( ६ ) ग्रामजन्य । नोट- उपयुक्त भेदों के अतिरिक्त शार्ङ्गधर में भयजन्य प्रतिसार भी लिखा है । अस्तु, उनके मत से अतिसार सात प्रकार का हुआ 1 वाग्भट्ट महोदय उम्र छः प्रकार के अतिसारों में श्रामजन्य की गणना न कर उसके स्थान भयज अतिसार के वर्णन द्वारा उम्र छः भेदों की गाना की पूर्ति करते हैं । वे पुनः कुल प्रतिसारों को दो भागों में बाँटते हैं। जैसे ( १ ) साम और (२) निराम तथा एक सरक्क और दूसरा निरख । For Private and Personal Use Only में Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २५७ अतिसार कोई कोई श्राम, पक्क तथा रक नामक अतिसारों को अतिसार की अवस्थाएँ मानते हैं नकि स्वतन्त्र व्याधियाँ। लक्षणों का अनुशीलन करने से भयजन्य और शोकमन्य अतिसारों के लक्षण एक समान पाए जाते हैं । अतएव किसी किसी प्राचार्य ने इनका पृथक् वर्णन नहीं किया और यही प्रशस्त भी जान पड़ता है। श्राम और पक अतिसार की दो अवस्थाएँ हैं तथा रक पित्तातिसार का परिणाम । इस प्रकार कुल अतिसार पाँच ही प्रकार के हुए। पाठकों की ज्ञानवृद्धि हेतु अब डॉक्टरी मत से अतिसार के भेदों का, मय उनके आयुर्वेदिक एवं यूनानी पर्यायोंके, यहाँ सतिप्त वर्णन कर देना उचित जान पड़ता है। डॉक्टरी मतसे अतीसार के मुख्य मुख्य भेद निम्न हैं (१) श्वेतातिसार--सफेद दस्त। इसहाल श्रब्य ज-०। डायरिया एल्बा Diarrhea Alba. हाइट डायरिया White Dia. Trhoea-इं० उष्ण प्रधान देशों में साधारणतः बालकों को इस प्रकार के दस्त आया करते हैं। इसके | कारण विशेष प्रकार के कीटाण माने जाते हैं। (२) हरितातिसार-हरे दस्त | इस्हाल अहजर-अ। ग्रीन डायरिया Green Diarrhoea-इं०। इस प्रकार के दस्त शिशुओं को ग्रीष्म ऋतु वा दन्तोछेद काल में पाया करते हैं। (३) शिश्वतिसार वा बालातीसारबच्चों के दस्त । इन्फस्टाइल डायरिया Infan. tile Diarrhoea-इं। ( ४ ) इस्हाल बुहानो-अ० । क्रिटिकल डायरिया Critical Diarrhoea-ई०।। जब प्रकृति किसी रोग में विकृत दोष को रेचन द्वारा विसर्जित करती है तब उक्र प्रकार के दस्त को इस नाम से अभिहित करते हैं। (५) श्लेष्मातिसार-कफजन्य अतिसार । इस हाल बलगमी-अ०। म्युकस डायरिया Mucous Diarrhea-इं० । इस प्रकार के दस्त शरीर में श्लेष्माधिक्य एवं उनके प्रकुपित होने से पाया करते हैं और उनमें श्लेष्मा मिली हुई होती है।। (६) क्षोभजन्य अतीसार-खराशदार दस्त। इस हाल तहय्युजी-०। डायरिया क्रप्युलोसा Diarrhoea Crapulosa, इरिटेटिव डायरिया Irritative Diarrrhea-इं० । इस प्रकार के दस्त किसी क्षोभक पाहार था औषध के सेवन द्वारा अंत्र में खराश होने के कारण पाया करते हैं। क्षोभजन्य अतिसार वस्तुतः प्रादाहिक, प्रावाहिकीय तथा वैशूचिकीय आदि अतिसारों की प्रारम्भिक अवस्था है। (७) वातातिसार मास्तिष्कीयातिसार)मस्तिष्क के योग या विकार द्वारा उत्पन्न हुभा प्रतीसार । इस हाल दिमाग़ी-अ० । नर्वस डायरिया Nervous Diarrhoea,-कटारल डायरिया Catarrhal Diarrhoea-इं.। यूनानी मतके अनुसार वह अतीसार जो मस्तिष्क से कण्ठ एवं अन्न प्रणाली के रास्ते प्रामाशय में नजलह तथा रतूबतों के गिरने से हुधा करता है। इसी कारण उसको इसहाल नजली ( प्रातिश्यायिक अतिसार) भी कहते हैं। डॉक्टरी मत से इस प्रकार का अतिसार प्रायः मनोविकार एवं प्रान्तीय कृमिवत् श्राकुअन और तद्रस्थानीय ग्रंथियों की क्रिया की वृद्धि के कारण हुअा करता है। इस प्रकार के दस्त बहुधा स्त्रियों एवं बालकों को प्राया करते हैं । (E) प्रादाहिकातिसार-प्रदाह जनित अतिसार । इस हाल वर्मी-अ० इन्फ्लामेटरी डायfear Inflammatory Diarrbæa, डायरिया सिरोसा Diarrhoea Serosa, कैटारल एरटेराइटिस Caturrhal Enteritis ई०। इस प्रकारके दस्त सामान्यतः यात्रीय श्लैष्मिक कलाओं के शोथ से लौर कभी यकृस्प्रदाह के कारण प्राया करते हैं। (६) वैशूचिकीयातिसारइस्हाल मानिंद हैजा-अ । कॉलरीफॉर्म For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २४ अतिसार डायरिया Cholariform Diarrhoea, कॉलरिक डायरिया Choleric Diarrhoea, थर्मिक डायरिया Thermic DiaTrhoea-ई। उध्या प्रधान देशों एवं ग्रीष्म ऋतु में आहार विहार श्रादि दोष के कारण प्रायः इस प्रकार के दस्त अाया करते हैं। इसमें पित्तातिसार एवं विचिका के बहुत से लक्षण मिलते जुलते हैं। (१०) प्रातिनिधिक अतिसारइस्हाल बज़ो-अ० । विकेरियस डायरिया Vicarious Diarrhoea-इं० । वर्षा ऋतु में शीतल वायु के कारण स्वेदावरोध हो जाने से अथवा किसी प्रवृत्त हुए रतूबत के बन्द हो जाने से इस प्रकार के प्रातिनिधिक दस्त श्राने लगते हैं। (११) पित्तातोसारपित्त के दस्त । इसहाल सतरावी-अ० । बिलियरी या बिलियस डायरिया Biliary or Bilious Diarrhoea-इं। उष्ण प्रधान देश तथा ग्रीष्म ऋतु में श्राहार श्रादिदोष के कारण प्रायः इस प्रकार के दस्त पाया करते हैं। ऐसे दस्तों की प्रादि में पित्त के वमन भी आते हैं। (१२) गिर्यातिसार - पर्वती अतीसार | हिल डायरिया Hill Diarrhoe1-इं० अतिसार का वह भेद जिसमें दस्त बिलकुल सफेद खड़िया मिट्टी और जल के मिश्रण जैसा पतला होता है। (१३) चिरकारी व परातन अतिसार पुराने दस्त । इसहाल मुमिन-अ० । जानिक डायरिया-Chronic Diarrhoea | -ई०। नोट-प्रसंगवश यहाँ डॉक्टरी मत से सामान्य परिचययुक अतिसार के कतिपय भेदों का उल्लेख कर अब आयुर्वेदीय मत से इसके अलग अलग भेदों श्रादि का पूर्णतया वर्णन होगा। अन्त में इसकी सामान्य चिकित्सा व पथ्य प्रादि । देकर इस वर्णन को समाप्त किया जाएगा। इसके पृथक पृथक भेदों की चिकित्सा क्रम में उन उन नामों के सामने दी जाएगी। यूनानी वर्णन एवं भेद के लिए देखिए-इस्हाल । अतिसार के पूर्वरूप जिस मनुप्य को अतिसार होने वाला होता है, उसके हृदय,गुदा और कोष्ठ में सुई चुभाने की सी पीड़ा होती है। शरीर शिथिल पड़ जाता है, मल का विवंध अर्थात् मलावरोध, प्राध्मान, और अन्न का अपरिपाक होता है। वा. नि० अ० । माधव निदान में नाभि तथा कुक्षि (कोख) में सुई छिदने की सी पीड़ा और अधेविायु का रुक जाना, इतना अधिक लिखा है । अतिसार के लक्षण (१) वातातीसार-इसमें जलवत् थोड़ा थोड़ा शब्द (गुड़गुड़ाहट) और शूल से युक बँधा हुअा झागदार पतला, छोटे छोटे गांठों से युक्र, बराबर जले हुए गुड़ के समान, पिच्छिल, (चिकना), कतरने की सी पीड़ा से संयुक्र मल निकलता है । इसमें रोगी का मुख सूख जाता है । गुदा विदीर्ण हो जाती ( गुदभ्रंश ) और रोमांच होता है। रोगी कुपितसा मालूम होता है। वा०नि० अ०- माधव निदान में ललाई लिए हए रूखा मल उतरना. कटि. जाँघ और पिंडलियों का जकड़ना ये लक्षण अधिक लिखे हैं। (२) पित्तातिसार -- इसमें दस्त पीले व लाल रंग के होते है, गुदा में जलन तथा पाक हो जाता और रोगी प्यास और मूर्छा से पीड़ित होता है । मा०नि० । वाग्भट्ट महोदय ने काला हरा, हरी दृषके समान, रुधिरयुक्र, अत्यन्त दुर्गन्धि युक्र दस्त होना, दस्तों से रोगी की गुदा में दर्द होना, शरीर में दाह और स्वेद होना ये लक्षण अधिक लिखे हैं। (३) कफातिसार-इसमें मल सफेद, गादा, चिकना, कफ मिति, श्रामगन्धियुक्त प्राता तथा रोमहर्ष होता है। मा०नि० | कफातिसार में गाढ़ा, पिच्छिल तन्तुओं से युक्र, सफेद स्निग्ध, मांस और कफ युक्र, बारबार भारी For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २४६ अतिसार ( जल में डूब जाने वाला), दुर्गन्धि युक्र, विबद्ध, निरन्तर वेदना युक्र, प्रवाहिका से युक्र थोड़ा थंडा | दस्त होता है। इसमें रोगी को निद्रा, आलस्य, अन्न में अरुचि, रोमहर्ष और उलश होता है। वस्ति, गुदा, और उदर में भारीपन होता और दस्त होने के पीछे भी ऐसा मालूम होता रहता है कि दस्त नहीं हुआ है। वा०नि० = श्र०। (४) त्रिदोषज वा सानिपातिकातिसार शूकर की चरबी के समान व मांस के धोए पानी के सदृश तथा वातादि तीनों दोषोंके लक्षण जिसमें हो अर्थात् जो दोपत्रय से उत्पन्न हो उसे साग्निपातिकातिसार कहते हैं। यह कष्टसाध्य होता है । मा०नि० | वा. नि० = १०। (५) शोकातिसार के लक्षण जो प्राणी पुत्र, स्त्री, धन, बांधवादि के नाश होने से अति शोक युक्र होकर अल्प भोजन करते हैं, उनकी वाप्पोप्मा नेत्र, नासिका, कण्ठ श्रादिका पानी वायुसे को में प्राप्त हो अग्नि को मन्द कर रुधिर को दूषित कर देती है जिससे धुंघची के समान लाल रुधिर गुदाके मार्ग होकर विष्ठा मिला हुआ या विष्ठा रहित, निर्गन्ध वा गन्धयुक्र निकलता है। शोक जनित अतिसार प्रायः अति कठिन होता है। कारण यह शोकशांति हुए विना केवल औषधों से शांत नहीं होता, इस लिए इसे कष्टसाध्य मानागया है । मा० नि० । नोट-एक भयज अतिसार भी होता है जो भय द्वारा चित्त के क्षोभित होने पर पित्त से संयुक्र वायु मल को पतला कर देता है, तदनन्तर वात पित्त के लक्षणों से युक्र परन, पतला, प्लवतायुक जल्दी जल्दी मल निकलता है। इसमें प्रायः शोकातिसार के लक्षण घटित होते हैं। वा०नि०-०। (६) प्रामातिसार जब अन्ना के न पचने के कारण प्रकुपित हुए दोष (वात, पित्त और कफ) अपने मार्ग को छोड़कर कोड, रसादि धातु तथा मल को दूपित कर बारबार गुदा मार्ग से अनेक प्रकार के मल बाहर निकालते हैं, तब उसको आमातिसार कहते हैं । इससे रोगी के पेट में अत्यन्त पीड़ा होती है। (७) रक्तातिसार पित्तातीसार रोगी यदि अत्यन्त पित्तकारक द्रव्यों का भोजन करे तो उसको निश्चय रूप से रकातीसर रोग हो । रातिसार के वातजादि विशेष लक्षण उपयुक्र अतीसार के लक्षण के समान होते हैं। अतीसार रोग में अंतड़ी श्रादि में घाव होने से भी मल के साथ रक्त गिरता है। रोग विनिश्चय कुछ व्याधियाँ ऐसी हैं जो अतीसार से बहुत समानता रखती हैं। अतएव इसके ठीक निश्चीकरण में बहुधा भ्रम हो जाया करता है। वे निम्न हैं १-विशूचिका वा वैशूचिकातिसार, २-ग्रहणी, ३-प्रवाहिका और ४-मलावरोध जन्य ग्रामाशयस्थ श्लैष्मिक कलाओं का क्षोभ । यहाँ पर अतीसार के साथ इनकी तुलनात्मक व्याख्या कर दी जाती है जिससे अतीसार एवं उक व्याधियोंके ठीक निदान करने में सुविधा रहे । (१) अतीसार के प्रारम्भ में मल संयुक्त किन्तु पश्चात् को मल संयुक्र एवं पतले दस्त पाते हैं और उनका रंग प्रारम्भ से अंत तक पीला अथवा दोषानुसार विविध वर्ण मय होता है। परन्तु विशूचिका में मल संयुक्त न रहकर केवल सड़े कोहड़े के जल की भाँति पतले दस्त पाते हैं। अतिसार अपने उत्पादक विशेष कारणों से उत्पन्न होता है। पर विशूचिका में स्पष्टतया कोई विशेष कारण लक्षित नहीं होता | इसमें वमन और पेशाब बन्द हो जाते हैं और रोगी शीघ्र असीम निर्बलता का अनुभव करता है। अतीसार में प्रायः ऐसा नहीं होता। मल में पित्त का पाया जाना सदा अतीसार का सूचक है। विशूचिका में वमन बहुत पाते हैं और वे एक वर्ण रहित द्व होते हैं । अतीसार में वमन बहुत कम आते हैं और जब कभी पाते भी हैं तो उनमें पित्त अथवा अजीर्ण श्राहार को कुछ अंश विद्यमान रहता है। For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २५० अतिसार (२) ग्रहणी-पाहार के पचने पर व्याधि द्वारा अतिशय साम वा निराम मल निकलना अतीसार कहलाता है। अत्यन्त मल निकलने के कारण इसको अतीसार कहते हैं. यह स्वाभाविक ही शीघ्रकारी है। परन्तु, ग्रहणी रोग में भुक्त अन्न के अजीर्ण होने पर कभी प्रामसहित और कभी सान्न (भुक्क अन्न ) मल निकलता है। अन्न के जीर्ण होने पर कभी पक्व मल और निकलता है और कभी कुछ भी नहीं निकलता । कभी बिना कारण ही बारबार बँधा हुश्रा और कभी ढीला दस्त होता है । यह रोग चिरकारी होता है और मल इकट्ठा हो होकर निकलता है। अतीसार और ग्रहणी में यही अन्तर है। ग्रहणी चिरकारी है और अतीसार श्राशुकारी है। (३) प्रवाहिका ( Dysentery). नाना विध द्रव धातु का प्रचुर परिमाण में निकलना अतीसार और केवल कफ का निकलना प्रवाहिका कहलाती है। ज्वरांश, मरोड़, गुदा में एक अवर्णनीय वेदना की अनुभूति होना, प्रायः अल्प मात्रा में ग्राम व रक्तमिश्रित मल का निकलना प्रवाहिकाके सामान्य लक्षण हैं। यद्यपि प्रारम्भिक अवस्था में कभी कभी अतीसारवत् प्रचुर मात्रा में जलीय वा मल मिश्रित दस्त पाते हैं, पर मरोड़ आदि प्रवाहिका के पूर्वोक लक्षण तथा अन्नपुट एवं सरलांत्राधः भागका मदु स्पर्श रोग के प्रावाहिकीय स्वभाव को प्रगट करते हैं। रोग के पूर्व इतिहास में उग्र प्रवाहिका का अभाव अथवा श्लेष्मा एवं गुदस्थ धेदनानुभूति का न होना और मल के साथ रक्त का कम पाना धादि लक्षण अतीसार सूचक हैं। (४) मलावरोध के कारण बिल कुल अतीसार के समान ही अवस्था उपस्थित हो सकती है -प्रायः पतली श्लेप्मा व मल मिति दस्त श्राने लगते हैं । परन्तु, अन्वेपण करने पर वे मात्रा में कुछ कम पाए जाते हैं। श्रतोसार के पक अथवा अपक्क होने के लक्षण अर्थात् (सामत्व वा निरामत्व ) वह मल जो पूर्वोक वातादि लक्षणों से युक हो तथा जल में डालने से डब जाए और अति दुर्गन्धित या पिच्छिल ( लसदार ) हो उसको श्राम वा अपक्क कहते हैं । साम तथा निराम भेद से अतीसार को दो वर्गों में बाँटते हुए वाग्भट्ट महोदय साम अर्थात् प्रामातीसार के मल को इसी प्रकार का होना बतलाते हैं । वे और भी कहते हैं कि इसमें रोगी के पेट में पीड़ा, गुड़गुड़ शब्द होना, विष्टंभ या खट्टा पाखाना होना, लार से मुंह भरा रहना एवं मल बदबूदार होना आदि लक्षण होते हैं। ___ इसके विपरीत जब देह हलका हो, मल जल में न डबे और दुर्गन्धि एवं लुबाब रहित हो तब उस मलको पक्व मल कहते हैं । वाग्भट्ट महोदय ने इसे निराम लिखा है और वे लिखते हैं कि निराम के लक्षण साम से विपरीत होते हैं, कफजन्य होने के कारण पक्क होने पर भी यह जल में इब जाता है। इसे निरासातीसार वा पकातीसार कहते हैं। अतिसार की असाध्यता जिस अतीसार रोगी का मल पके जामुन के समान काला, यकृत् पिण्ड के समान कृष्णलोहित वर्ण का, साफ तथा वृत, तैल, वसा, मज्जा, वेशवार (पक्क मांस विशेष) के रंग का, दूध, दही तथा धुले हुए मांस के जल के समान वर्ण का, चित्र विचित्र रंग का, चिकना, मोरकी पूंछ को चन्द्रिकाके सदृश वर्णका, घन (भारी), मुर्दा की सी दुर्गन्धियुध, मस्तक की नजा के समान गंधयुक्र ( मस्तकस्थित स्नेह तुल्य अाभायुक्र), उत्तम गंध वा दुर्गन्धियु अत्यधिक मल निकले और जिसको प्यास, दाह, अंधेरा याना, श्वास, हिचकी, पार्श्वशूल, अस्थिशूल, इंद्रियों मे मोह, अनिच्छा, मन में मोह थे लक्षा हों तथा जिसकी गुदा की वलियाँ (ओंटें) पक गई हों और जो अनर्थ भापण करें ऐसे अतीसारी को वैद्य' छोड़ दे। अपरञ्च जो मलद्वार धोने में असमर्थ हो जिसके बल व मांस क्षीण हो गए हों, For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिकार अतिसार अत्यन्त अफरा हो, सूजन हो, अतिसार के उपद्रवयुक जिसकी गुदा पक गई हो और शरीर शीतल हो उसको वैद्य त्याग दे। और भी जो मनुष्य श्वाल, शूल तथा प्यास से पीड़ित हो, बल मांस हीन हो तथा ज्वर से पीड़ित हो उसका और विशेष कर वृद्ध रोगी का अतीसार नाश कर अतिसार निवृत्ति के लक्षण जिस मनुष्य के मलसे भिन्न मूत्र उतरे अर्थात् दोनों की क्रियाएँ पृथक पृथक हों, मल अलग उतरे और मूत्र अलग, शुद्ध अपानवायु खुले, अग्नि दीप्त और कोठा हलका हो उसको अतीसार से मुक्त जानना चाहिए। अतोसारको सामान्य चिकित्सा अतीसारी को सुखपूर्वक शय्या पर लिटाए रखें और उसके शरीर को गरम रखें। रोगारम्भ काल से २४ घंटे पश्चात् तक उसे किसी प्रकारका श्राहार न दें, प्रत्युत उपवास रूप लंधन कराएँ । यथा वाग्मट्टः अतीसारोहि भूयिष्ठं भवत्यामाशयान्वयः हत्वाग्नि वातजेऽप्यस्मात्प्राक तस्मिन्लंघन हितम् । वा० चि० अ०६ । अर्थात्-अग्नि को मन्द करके अतिसार रोग प्रामाशय में उत्पन्न होता है, इसलिए वातज अतिसार में भी प्रथम उपवास रूप लंघन देना हित है। अपि शब्द से कफादि जन्य अतिसार में भी लंघन हित है । प्राक् शब्द के प्रयोग से यह समझना चाहिए कि उत्तर काल में लंघन कराना हित नहीं है । - अपरञ्च यदि रोगी बलवान हो तभी लंघन भी कराना चाहिए । अन्यथा दुर्बलता की दशा में लघु पथ्य (पाचक तथा अग्निसंदीपक ) की व्यवस्था करनी चाहिए। अस्तु, केवल क्वथित कर शीतल किया हुश्रा जल, फाड़े हुए दूध का पानी तथा वच, अतीस, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, नेग्रवाला, और सोंठ, इनमें से किसी एक के साथ पकाया हुश्रा पानी १ छं. की मात्रा में ३-३ घंटा पश्चात् रोगी को तृषा उत्पन्न होने पर देते रहें। २४ घंटे पश्चात् उपमहान परदतरह। २४ घट पश्चात् सुधा लगने पर उपयुक्त भोजन काल में उसको अधावण तरल आहार २-२ छ० की मात्रा में ३-३ घंटा के अन्तर से दें। हलके अन्न से रोगी की शीघ्र हो अन्न में रुचि बढ़ जाती है और उसकी जठराग्नि प्रदीप्त तथा देह बलिष्ट होता चला जाता है। अतः पका कर शीतल किया हुअा दूध उत्तम श्राहार है। उक दूध में ३ ग्रेन सोडियम् साइट्रेट प्रति १ छ. दूध में मिलाकर देना उपयोगी होता है। अथवा पावभर दूध में ३० बुंद मधुर चूर्णोदक (मीठा चूने का पानी ) मिलाकर देना लाभदायक है। यदि दूध से उदराध्मान हो तो दूध के स्थान में अरारोट या सागू (साबूदाना ) पका कर दें। पुनः मूंग के दाल का पानी, दाल भात, शोरबा चावल, खिचड़ी और दूध तथा पाव रोटी प्रभति भी दे सकते हैं। अतिसार रोगी को जल के स्थान में तक्र. पेया, तर्पण, सुरा और मधु यथा सात्म्य अर्थात् प्रकृति के अनुकूल व्यवहार कराएँ । पके केले को जल में भली भाँति मल छान कर पुनः किञ्चित् मिश्री मिला कर श्राहार के स्थान में व्यवहार कराते रहना अत्युपयोगी है। उसके आहार में ग्राही, अग्निसंदीपक और पाचन श्रोषधियों का समावेश होना अत्यावश्यक है । । उक्त प्रतीकारों द्वारा जव रोग शमन हो जाए तब रोगी को क्रमशः उसके पूर्व आहार पर ले आएँ । परन्तु, अधिक जल वा दुग्ध से परहेज रखें। मीठे अनार का स्वरस थोड़ी मिश्री मिलाकर देना रोगी के बल का रक्षक एवं प्रामाशय की क्षोभ का नाशक है। और किसी वस्तु को न देकर केवल इसको ही देते रहना पर्याप्त है। उपचार चिकित्सक को रोगी तथा रोग की दशा की भली प्रकार परीक्षा करने के पश्चात् खव सोच समझ कर ही किसी औषध की व्यवस्था करना उचित है। प्रारम्भ में ही किसी संग्राही औषध को देकर तत्क्षण दस्त बन्द कर देना उचित नही। यथा For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार अतिसार २५२ प्रयोज्यं नतु संग्राहि पूर्वमामातिसारिणि । __ वा० चि० ६अ। क्योंकि पहली दशा में धारक औषध द्वारा मलनिरोध करने पर पेट फूलना, ग्रहणो, बवासीर और शोथ प्रति उत्पन्न हो सकते हैं। परंतु दस्त होजानेपर भी यदि दोषोंकी प्रबलता रहे वा रोगी शिशु, वृद्ध अथवा दुर्बल हो तो पहिले ही से धारक औषध का प्रयोग करना चाहिए । ___ यदि रोगी शूल श्रानाह और प्रसेक से पीड़ित हो तो उसे वमन कराना हित है। और यदि दोष अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होगए हों तथा विदग्ध अर्थात् पक्कापक श्राहारने मिलकर अतिसार उत्पन्न करते हों तो उन सब उत्श जनक अर्थात् अतिसार को उत्पन्न करने में समुद्यत और बिना यत्न ही चलने में प्रवृत्त हुए दोषों में पाचनादि किसी प्रोपध का प्रयोग न करके केवल पथ्य अर्थात हितकारी प्राहार का ही सेवन कराना उपयोगी पर यदि मलावरोध के कारण छोड़ा थोड़ा मल निकलने से उदर में अफरा, भारीपन, शूल तथा स्तिमिता उत्पन्न हो अथवा उदर में कोई क्षोभक द्रव्य या अजीर्ण या सड़ा गला श्राहार हो तो सर्व प्रथम किसी सामान्य मदभेदक औषध को देकर पेट को साफ़ करना चाहिए। फिर दस्तों को रोकने के लिए धारक औषध का व्यवहार करना उचित है। पकातिसार श्राम के पके हुए होने को दशा में प्रथम बार बार मृदु धारक और बाद को बलवान धारक श्रौषध व्यवहार करनी त्ताहिए। अत्यन्त निर्बलता की हालत में उत्तेजक औषध यथा सुरा (ब्रांडी) जल में मिलाकर देना लाभदायक होता है। अब स्वानुभूत बहुशः योगों में से यहाँ कतिपय ऐसे योगों का उल्लेख किया जाता है जो अतिसार की प्रत्येक अवस्था की चिकित्सा में अत्युपयोगी सिद्ध हो चुके हैं और सहस्रों बार परीक्षा की कसौटी पर आ चुके हैं। मात्रा रोगी, रोग तथा अवस्था आदि के अनुसार न्यूनाधिक हो सकती है। इनको कोः शुद्धि पश्चात् ही देना चाहिए, योग निम्न हैं : (१) अवयय-सफेद राल, अतीस, मोचरस, दालचीनी, छोटी इलायची के बीज, कपूर, अजवायन और सफेद जीरा | निर्माण-विधिइन सबको समभाग लेकर चर्ण करें फिर खट्टे अनार के रस में भली भाँति १२ घंटे तक खरल करके चना प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। श्रनुपान-जल, पकं सौंफ और अर्क पुदीना। (२ ) अवयव-वटांकुर, अहिफेन शुद्ध, हींग घी में भुनी हुई, जीरा भुना, शंख भस्म, सुहागा भस्म और पोदीना । निर्माण-विधिइन सबका चूर्ण समान भाग लेकर कड़ा की छाल के रस की सात भावना देकर एक रत्ती प्रमाण की गोलियाँ प्रस्तुत करें। सेवन-विधि-खष्टे अनार के रस के साथ श्रावश्यकतानुसार १ या २ वटिका दिन में २-३ बार दें। (३) अवयव-भङ्ग, छोटी इलायची, सफेद जीरा, जायफल, कपर, अनारदाना तुशं और कौड़ी की भस्म । निर्माण-विधि-इनको समान भाग लेकर बारीक चूर्ण कर रखें। सेवन-विधि व मात्रा-३ रत्ती से १ माशा तक उक चूर्ण को अर्क पुदीना के साथ सेवन कराएँ। (४) मेथी भुनी, जीरा भुना, रूमी मस्तगी, कपूर, इन्द्रयव, जामुनकी गुटली और ग्राम की गाली । इन सबको समभाग लेकर बारीक चण करें श्रीर जितना यह चूर्ण हो उतनी ही मात्रा में शद्ध भाँग का चूण मिलाकर कागदार बोतल में सुरक्षित रखें। मात्रा-बच्चों को ग्राधी रत्ती से १ रत्ती। पूर्ण बयस्क मात्रा-२ रत्ती से १ माराा तक । श्रनुपान-अकं पुदीना और अर्क सौंफ । शूलयुक्त अतिसार मेंसत अजवायन, सत पोदीना, जौहर नौसादर, For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार अतिसार १ ग्रेन जीरा सफेद भुना हुमा और सौ. प्रत्येक २-२ तो०, छोटी इलायची दाना ६ मा०, शंख भस्म १ तो०, कौड़ी भस्म १ तो. और मूली का क्षार १ तो। निर्माण-विधि-इन सबको पुदीना के रस से यारह प्रहर घोट कर सुखा लें । पुनः चूर्ण कर शीशे के कागदार बोतल में वायु से सुरक्षित रखें । मात्रा-१ रत्ती से ६ रत्ती तक । अनुपान-शुद्ध जल । गुण---उक्न प्रकार के शूल तथा अन्य सभी प्रकारके उदर शूल की दशा में इसकी एक मात्रा देते ही तत्काल शूलकी शांति होती है। डॉक्टरी यांग (1) सोडा बाईक - स्तिरिट थमानिया ऐरोमेटिक २०निनिम (बुद) स्पिरिट क्रोरोफॉर्म ५ मिनिम टिंचर कार्ड को २० मि. टिंकचर केनाबिस इण्डिका ५ मिनिम एका एनिस १ श्राउंस यह एक मात्रा है। ऐसी ही एक एक मात्रा दिनमें तीन बार देनी चाहिए। उपयोग-यह अतिसार के लिए सदोत्कृष्ट वायुनिःसारक औषध है। (२) स्पिरिट कोरोफॉर्न १ ड्राम स्पिरिट अमोनिया ऐरोमैटिक टिंक्चर भोपियाई १ ड्राम " कैनाबिस इण्डिका ” कार्ड को. " कर्चियाई १ ड्राम " कैटेक्यू १ ड्राम रैक्टीफाइड स्पिरिट ८ अाउंस शुगर प्योर ( शुद्ध शर्करा ) ६ ग्राउंस इनको भली प्रकार मिलाकर स्टॉपई ( शीशे के कागदार ) बोतल में रखें । मात्रा-पूर्ण वयस्क मात्रा, १० से ३० वुद तक । बालक को, २ से १० वुद तक ( अवस्थानुसार )। | अनपान-इसकी एक मात्रा द्विगुण शुद्ध जल में मिलाकर रोगानुसार दिन में तीन बार अथवा तीव्रता की हालत में २-२, ३-३, घंटे के अंन्तर से दें। ___उपयोग-इसे अतिसार की प्रत्येक अवस्था में दे सकते हैं । यह उक्त रोग की रामबाण श्रौपध है और शतशोऽनुभूत है। नोट-अतिसार के अन्य भेदों की चिकित्सा श्रादि तथा योगों को क्रम में उनके पर्यायों के सामने देखिए। अतोसारमें प्रयुक्त होनेवाली श्रोषधियाँ ( आयुर्वेदीय तथा यूनानी ) अमिश्रित सुगंध वाला, लवंग, नीलोत्पल, (निलोफ़र), उशीर (खस), लोध, पाता, बच, चिरायता, धयपुप्प (धातकी), दाडिम्ब अर्थात् अनार की छाल (रस, पत्र, फलत्वक् और बीज), सप्तला; (चिरकारो वा पुगतन) अगारी कून, विल्ब, सप्तपर्ण, भंग, अंडखरबूजा, काफी (मले क्षफल ), दुर्वा, जामुन (जम्बु ) सरपुखा, निर्मली ( कतक ), हरीतकी, अंगूर वा लाल मुनक्का, चौलाई ( तण्डुलीय ), सीताप.ल ( शरीफ़ा ), सुपारी, समुद्रफल, समुद्रशोप, कचनार, पलास निर्यास ( कमरकस, ढाक का गोंद ), पतंग, देवदारु, दालचीनी, जावित्री, नागरमोथा, कसेरू, तिन्दुक, गाजिह्वा, अामला, कपित्य और भूम्यामलकी; ( उग्र व पुरातन) ईसबगोल का छिलका, कुड़ा की छाल, इन्द्रजी. राजन, कानन, एरण्ड, ज़हम हयात (घाव पत्ता), चन्द्रसूर, श्राम्र ( बीज व छाल तथा निर्यास ), कायापुटी और केला; (वैशूचिक तथा ग्रीष्म ) जायफल, नीबू का रस, सन्तरा का रस, मेंहदी, कृष्ण जीरक, कमल, कपूर, दरियाई नारियल, ज़हर मुहरा खताई, अर्क सौंफ, प्रकं पुदीना (अर्क नाना ) अहिफेन, पत्थर का फूल, करन, पीतशाल साल बीज, रुद्राक्ष, अजवाइन, माजूफल और कतक, (दन्तोद्भज्जन्य) रेवन्दचीनी, और चूणोदक; (व लातीसार) काकड़ासिंगी, और एरण्ड तैन, १ डाम १ डाम २ दाम For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २५४ अतिसार अती स; (प्रवनयरातीसार ) अगस्तिया को ... रक्कमोण, रबाटनि, लाइकर फेरि पर नाइट्रिस, जाति के वृक्ष, साल, रोहिना और सञ्ज; (एटो- लाहकर फेरि पर जोराइड, लाइकर हाइडार्ज, निक अर्थात् प्रामाशयनैल्य जन्य) कुचिला, श्रा- विरिट्राम विरिडि, सैलिसिलेट, सिमा रियुबा, सन प्रभृति, पिरडतगर भेद, अर्जुन, बहेड़ा, तिर्याक | सल्फ्युरिक एसिड, सयमाइडि, सोडियाई क्लोरा. फारूक, जंगली काली मरिच आदि और ऋगाटक | इडम् (संपव), सल्फर (गंधक), सैलोल, हाइड्र्ज (सिंघाड़ा प्रभृति); (पालतिक) सम्भालू प्रभति, । को.सव सब्लिमेट और हिमेटिक सिल्लाइ । धातको (ध वपुष ), मेथी, अन्तमल ( जंगली पिकवन ), मूत्र ( श्रुप का ), पाईक अोर बदरी (वालातीसार में )-अर्जेरटाई नाइट्रास प्रमति । इपिकाक्वाना, एसिड सल्फ्युरिक डिल, अोपिअतिसार में प्रयुक्त डॉक्टरों यम् (अहिफेन ), कलम्बा, काफी, केम्फर श्रौषध ( कपूर ), कुप्राई सल्फास, कस्पेरिया, करोंसिव अगल, (वृपपित्त) अर्जेरटाइ नाइट्रास, अर्जेण्टाइ सब्लिमेट, जिन्साइ प्रॉक्साइडम्, नाइट्रिकएसिड डाइल्युटेड, पेप्सीन, लम्बाई एसिटास, माप्टिक, नोराइडम्, पार्सेनिक (सखिया), ग्रॉइल टेरे.! बिस्नथाई कार्ब, टिंकचर केनाबिस इण्डिका, बिन्थीनी (निशाथ तेल ), एरिका (सुपारी), स्युबार्ब, लाइकर हाइड्रार्ज, लाइकर कैल्सिस, श्राल्सटोनिया ( सप्तप), युवी अर्साई ( रीछ लाइकर फेरि पर नाइट्रिस, सैलोल, हाइड्रार्ज कम दाख ), इयेप्ट ( सुरावीज ), इपिकेकाना, ईसब क्रीटा, हाइड्रार्ज करोंसिव सडिलमेट । गोल, एसिड नाइट्रिक ( शोरकाम्न ), इन्फ्युजन लाइनाई ( अतसी फांट ); | नोट-अतिसारो योगों का वर्णन क्रमागत इसके भेदों की चिकित्सा लिखते समय किया एकोरस ( बच ), एलम ( फिटकरी ), अकेशिया ( क्रीकर ), श्रोपियम् (अफीम ), | जाएगा। एसिड सल्फ्युरिक डिल (जल भितिगंधकाम्ल ), अतिसार नाशक शास्त्रीय योग अकेशिया कैटेचू ( खदिर ), क्युप्राई अमोनिया नेत्रवाला, अदरख, नागरमोथा, पित्तपापड़ा सल्फास, कलम्बा, कादोनिक एसिड (कज और खस इन्हें पकाकर वस्त्र से छानकर पिलाएं, लाम्ल ), कारोफॉर्म (संमोहिनी ), केम्फर आधा लगने पर नियत समय पर लाजामण्ड ( कपूर ), केनाबिस इरिङका ( भंग ), कैल्सिस कार्बनास, कैल्सिस हाइपोफॉस्फॉस, कैलाट्रापिस, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, काफी, कैप्सिकम् ( लाल मिर्च ), कैटाक्यु खिरेटी, गोखरू, पाा, सों, धनिया इन्हें भोजन (खदिर ), कैसकेरिल्ला, कुर्चि (कुटज त्वक् ), के साथ काथ कर देने से अतिसार शांत होता है। क्रियोज़ोट, क्युप्राई सल्फ.स ( ताम्र गंधिद) शालपर्णी, खिरेटी, वेलगिरी, पृष्टपी इनसे कस्पेरिया, कैस्टर प्राइल ( एरण्ड तैल ), सिद्ध की हुई पेया नीबू तथा अनार का रस डाल काइनो (विज (सारनिर्यास), वासिया, कोपर्कस, कर पीने से कफ और पित्तातिसार दर होता है। गाब, गैलिक एसिड (माज्वाम्ल ), डिकक्ट ग्रेनेटा, | श्रामातिसार से पीड़ित रोगी को प्रथल संग्राही ज़िन्साइ सल्फास, ज़िन्साई आक्साइडम्, तथा कब्ज़ करने वाली कोई भी श्रीपब कदापि टैनिक एसिड ( कपायिनान्ल), नाइट्रो हाइड्रो न दें, क्योंकि ऐसा करने से श्रादि में ही दोष कोरिक एसिड, नक्सवामिका ( कुचिला), पोटास वध्य हो जाने से शोथ, पांडु; प्लोहविवद्धन, कुष्ट, सहफ्युरेटा, प्लम्बाई एसिटास, पलास गोंद, गुल्म, उदरशूल,ज्वर, दण्डक,अलसक, प्राध्मान, माइरिप्टिस, मैटिको, फेरम ( लौह ), विस्मथम अर्श, संग्रहणी इत्यादि रोग पैदा हो जाते ऐल्बम, विस्मथाई दैनास, बाबुई तुलसी, वेल, हैं। जिनका दोष वृद्धि होकर बल, धातु अधिक For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SarI अतिसारकी २५५ अतिसारविदारणम् - क्षीण हो गए हों तथा ग्राम भी जाता हो तो उसे (२) तूतिया, पारा, वच्छनाग,गंधक, शंखभस्न, क्रमशः स्तम्भित कर देना उचित है। जिस रोगी अम्रकभस्म, अफीम और धतूरबीज प्रत्येक समान को थोड़ा थोड़ा बँधा हुअा शूल सहित दस्त पाते भाग ले । फिर भाँग के रस और समुद्रशोष हों ऐसे रोगी को हड़ और पिप्पली की चटनी से पृथक पृथक सात सात भावना दें। मात्राद्वारा लघु विरेचन देना चाहिए। चक्र द० १ रत्ती । गुण--सम्पूर्ण अतिसारों को दूर अते. चि० । करता है। रसायन सं० अतिसाराधिकारे । अतिसार की ati-sāraki-सं० त्रि.)-हि चि० अतिसारणसिंह रलः a tisāra- nrisinhagaatit ati-sári अतिसार _asah-- शुद्ध अहिफेन २ तो०, शुद्ध रोगी ( Dysenteric, afflicted with पारद १ तो०, शुद्ध गंधक १ तो०, प्रथम पारद, dysentery; Cathartic)व० श० ।। गंधक की कजली कर पुनः अहिफेन मिति कर भंग के रस से मर्दन करें। इसी तरह धत्तूर के अतिसारकुठारः atisārakutharah-सं० पु. रस से मर्दन कर १ रत्ती अनाण गालियाँ बनाएँ। बड़ी इलायची, वच्छनाग, धतूर के बीज, सुहागा, इसे जायफल के साथ देने से घोर अतिसार दूर इन्द्रजी, जीरा, सोंठ, अहिफेन, नागभस्म, धव- | होता है। वृ० रसरा० सु०। पुष्प, अतीस, करअ के बीज प्रत्येक समान भाग | अतिसार भेषजम् atisāra-bhesha.ja m चूण कर धतूर के पत्र के रस में घोटकर सुखाकर --सं० क्लो० (१) लोध--हिं० । ल ध्र--सं० । चूर्ण कर ले । मात्रा-१-३ रत्ती। अनुपान ( Symplocos racemosa ) । (२) शहद । यह शिवजी का कह। योग है। वा०। तोगनिवारक औषध । अतिसारघ्न, अतिसार अतिसारघ्नः a ti-sāraghnah-सं० पु. क्षेत्र ATZTE TU I ( Antilysenteric ). पापड़ा, खेतपापड़ा, दवन पापड़ा-हिं० । क्षेत्र- अतिसार भैरवोवटो atisāra.bhairaviपर्पटक-सं०। (Oldenlandia biflora, ___vati-सं० स्त्रो० जावित्री, लवंग, सोंठ, Rord.) वै० श० । शीतलचीनी, चन्दन, केशर, पीपल, अकरकरा अतिसारघ्नो ati-sāraghni-सं० स्त्री० अति- ग्रत्येक समान भाग, ले. फिर चग कर सार नाराक औषध, अतोस (Aconitum पनः पारा भस्म, अहिफेन जावित्री के बराबर hotorophyllum, Wall.)वै निघः । जिला कर १ प्रहर तक खरल कर ३ रत्ती ग्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। अनपान-- अतिसार दलनोरसः atisaladalano-1aSah--सं० पु. चावल का पानी । गुण--यह सम्पूर्ण अतिसारों को नष्ट करती है। र० प्र० सु० अतिसारे । (१) पारा,गंधक, बच्छनाग प्रत्येक समान भाग EITTIMT6: ati-sara-várana-rasah ले चित्रक के क्वाथ के साथ पीसें, फिर इसे -सं० पु. अतिसार में प्रयुकहोने वाला रस । कौड़ियों के भीतर भरें। उन कौड़ियों के मुखों को सिंगरफ, पक रस कपूर, नागरमोथा, इंद्रयव पिमो हुए भिलावों की लुगदी से बन्द करके इनको तुल्य भाग लेकर कञ्ची अफीम के पानी हाँडी में रख उसका मुख बन्द कर और की ७ भावनादें । इसको यथायोग्य अनुपान दस बारह जंगली कंडों में पकाएं। इसी तरह और उचित मात्रानुसार सेवन करने से हर तीन पुट देने से सिद्ध होता है । मात्रा--३ रत्ती । प्रकार के अतिसार नष्ट होते हैं। र०ला० सं० गुण- अतिसार, संग्रहणी, शूल और मन्दाग्नि को अति. चि० । भेष०। नष्ट करता है। अनपान--भांग और जारा। अतिसार विदारणम् atisala-vidāranam र०या० सा० । __ -सं० पु० जायफल, धत्तूर बीज, सोंठ, अतीस, For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अतिसार सेतुः वच्छुनाग, श्रम की गुठली, धत्र पुष्प, अफीम, भाँग प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण कर गिलोय के स्वरस में घोटकर १ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । गुण- इसके सेवन से सम्पूर्ण अतिसार क्षणमात्र में दूर होजाते हैं । र० यो० सा० । अतिसार सेतुः atisara setuh - सं० सिंगरफ, लवङ्ग, राल, मिश्री, ताम्र भस्म, श्रहि . फेन प्रत्येक समभाग लेकर चूर्ण करें। इसे चावल के धोवन से सेवन करने से सभी प्रकार के साध्या अतिसार दूर होते हैं । मात्रा१-२ रत्ती | रस० यो० स० । पू० २५६ - सं० पु० (१) पारा, गंधक, अभ्रक भस्म, हरताल, सुहागा, सिंगरफ और बच्छनाग प्रत्येकको तुल्य भाग लेकर चूर्ण करें । पुनः धत्तर के पत्र के रस | से सात दिन तक अच्छी तरह घंटें । फिर रशी प्रमाण की गोलियाँ प्रस्तुत कर रख लें । मात्रा - १ रती, भाँग के चूर्ण और शहद के साथ खाने से ज्वर और अतिसार नष्ट होते हैं । रस० यो० सा० । * राल, मोचरस, अफीम, मी तेलिया, ग्रतीस, सोंड इनको समान भाग लेकर चूर्ण बनाएँ । इसको उचित मात्रा के साथ खाने से श्रतिसार नष्ट होता है । र० प्र० सु० श्र० ८ । श्रतिसारान्तको रसः atisarántakorasah - सं० पुं० स्वर्ण घटित रससिंदूर, रसकपूर से निकाला पारा और स्वर्ण भस्म घटित पेटी इन सब को बारीक घोट कर रक्खें । मात्रा१ रची | गुण - यह मृत्यु जैसे भयानक अतिसार को दूर करता है । रस० यो० सा० । श्रतिसारेभ सिंहो रसः atisárebha-sinborasah-सं० पु० शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, ग्रहित प्रत्येक समान भाग और पारेका } भा० जायफल मिलाकर भाँग और धतूरे के रस की पृथक पृथक भावना दे | मात्रा - १ रती । यह अतिसार रूपी हाथी के लिए सिंह है । रस० यो० सा० । श्रतिवेदः अतिसारया ati- sarasyá सं० स्त्री० रास्ना ( Vanda Roxburghii) चै० निघ० । श्रतिलक्ष्मः ati-súkshmah - सं० त्रि० श्रव्यन्त सूक्ष्म, श्रतिशय सूक्ष्म, बहुत छोटा ( very subtle ). अतिसार हरो ररूः atisára-haro-rasah | अतिसौरभः ati.sourabhah-सं०पु० आम्रवृक्ष श्रम का पेड़ | ( Mangifera Indica ). भा० पू० फ० ब० । अतिस्कंधा ati-skandha- स० स्त्री० रक्त कुलत्थी, लाल कुल्थी-हिं० । रक्त कुलत्थक-सं० । ( Dolichos biflorus. ) वै० निघ० । श्रुतिस्तम्भित् ati-stambhit-fo प्रत्यन्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिसेवनम् ati-sevanam - सं० क्लो० किसी वस्तु का अधिक मात्रा में सेवन, अधिक उपयोग में लाना । अतिसौम्या ati-soumya - सं० स्त्री० यजिमधुलता, मुलेठी की बेल ( ( Glycyrrhiza glabra ) रा० नि० ० ६ । रुका हुआ । अतिस्थूल atisthúla - हिं० वि० [सं०] बहुत मोटा संज्ञा पुं० [सं०] मेद रोग का एक भेद जिस में चरबी के बढ़ने से शरीर अत्यन्त मोटा हो जाता है। अतिस्थूल वर्मा ati-sthüla.vartiná-सं० पुं० ( Foul ulcer ) दुष्टव्रण - विशेष, दूषित चत । च० । अतिस्निग्धः ati-snigdhah-सं० त्रि॰ ग्रत्यंत स्निग्ध, बहुत चिकना । लक्षण - मुख द्वारा श्लेष्म प्रत्राव का होना, शिर का भारीपन और इन्द्रियविभ्रम ये श्रति स्निग्धता के लक्षण हैं। इसके निवारण हेतु रूक्ष प्रक्रिया ग्रहण करनी चाहिए । वै० निघ० नस्य चि० । अतिस्रवा atisravá सं० श्री० मयूरवल्ली । मुग्वा वं० । वै० निघ० । श्रतिस्वेदः ati- svedah - सं० पु० ( १ ) श्रुति पसीना देना, श्रति स्वेदस्राव कराना | वा० स० श्र० १७ । ( २ ) बहुत पसीना थाना | For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिक्षिप्त संधिः अतीस वख (विष) नी-कली, अतिवस, अतिवख, अतिविष-गु० । प्रांगे-सफेद, मोहन्देगज सफेद -काश० । प्राइस-भोटि. । सूखी हरी, चिति जड़ी, पत्रीस, पीस, बोंगा-पं० । अतीविषा wafaa Hift: ati-kshipta-sandhih - सं० पु० (Complete dislocation) संधि का सर्वथा भिन्न हो जाना, अत्यन्त संधिच्युति, जिसमें संधि और अस्थि दोनों हट जाएँ। इसमें दोनों संधियों और अस्थियों में अन्तराय हो जाता है और पीड़ा होती है। सु. नि० १५ प्र० । "प्रतिक्षिप्ते द्वयोः संध्यस्थनोरतिक्रांतता वेदना च" । ८ । देखो- भग्नः । अतीक aatiq-अ. (१) पुरातन, प्राचीन, पुराना-हिं० । देरीनह , कुह नह , पुराना-फ़ा० (२) पुरातन वसा । (३) छोहारा भेद । (४) जल । (५) सुवर्ण । (६) मद्य । (७) दुग्ध । अतीत atit-अ० (१) बुधा । (२) आटोप, गुड़गुड़ाहट ( कराकर ) । गलिम Gurgling-इं० । म० ज०। अतीन्द्रिय atindriya-हिं० वि० [सं०] जो इंद्रिय ज्ञान के बाहर हो। जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा न हो। अगोचर । अप्रत्यक्ष । अव्यक। अतीस atisa-हिं. संज्ञा पुं० [सं०] अति विषा, अतिवूक, श्रातइष । एकोनाइटम् हेटरो. फाइलम् Aconitum Heterophyllum, Woll.- ( Root of-); ए. कॉडेंटम् ( A. Cordatum )-ले० । इंडियन अतीस ( Indian Atees )-10। __ संस्कृत पाय-घुणवल्लभा ( भा० ), ऋङ्गिका (शब्दर०), विश्वा, विषा, प्रतिविषा, उपविषा, अरुणा, शङ्गी, महौषधं (श्र०), काश्मीरा, श्वेता (र०), प्रविषा (के), श्वेतकन्दा, भुजा, भङ्गुरा, विरूपा, श्यामकन्दा, विषरूपा, वीरा, माद्री, श्वेतवचा, अमृता, अतिविषा, अतिविषः, शुक्रकन्दा, शृङ्गीका, भृङ्गी, मृद्री, शिशु भैषज्य, अतिसारनी, घुणप्रिया, शोकापहा, अस्वीका । (विलायती) वज्जे-तुर्की-द० ।। मातइच्-बं० । वज्जे-तुर्की फा०। (शीम) अतिवडयम्-ता० । (सीम ) अतिवस (चेडु), अतिवासा-ते०, ०। अतिविष-मह । अति __ वत्सनाभ वर्ग ( N. 0. Ranunculaces.) उत्पत्ति-स्थान-एक पौधा जो हिमालय के किनारे सिंध से लेकर कुमाऊँ तक समुद्र-तट से ६,००० से लेकर १५,००० फ्रीट की ऊँचाई पर पाया जाता है। नाम विवरण-"श्वेतकन्दा", "भंगुरा"; "घुणवल्लभा" आदि परिचय ज्ञापिका संज्ञाएँ और "अतिसारनी" और "शिशुभैषज्यम्" प्रभृति गुणप्रकाशिका संज्ञाएँ हैं।.. वानस्पतिक वर्णन-तीस के सुप हिमालय के ऊँचे भागों पर उत्पन्न होते हैं । इसके पत्ते नागदौन पत्र के समान किन्तु चौड़ाई में उससे किञ्चित् छोटे होते हैं । शाखाएँ चिपटी होती हैं और पत्रवृन्त मूल से पुष्पदण्ड निकलते हैं पापदण्ड ( पुष्पदण्ड की व्याख्या के लिए देखो-"पारग्वध") पत्रवृन्तसे दीर्घतर होते हैं प्रस्फुटित पुष्प देखने में टोपी की तरह दीख पड़ते हैं। ईषद्दीर्घ कंद के गात्र से मूल निकलता है। यह मूल अतीस (अतिविषा) नाम से विख्यात है। यह प्रोषधि धूसर और श्वेत दो भागों में विभक्त होती है। धूसर लहरदार कंद जो श्वेत की अपेक्षा बड़े और लम्बे होते हैं, प्रधान मूल हैं और प्रायः पृथक कर कम दाम पर बेचे जाते हैं। तजन्य लघु कंद बाहर से धूसर वर्ण के और शाखकों के सूक्ष्म चिह्नों से व्याप्त होते हैं। ये से २ इंच लम्बे, शंक्वाकार या लगभग अण्डाकार, पतले मूसलावत छोरयुक्र, जो कभी कभी दो वा दो में विभक होने की प्रवृत्तियुक्त होते हैं। सिरे पर छिलकायुक्र पत्राङ्कर होता है। तोड़ने पर भीतर श्वेतसार के सफेद कण दिखाई देते हैं। यह स्वाद में अतितिक्र और गंधरहित होता है। For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org प्रतीस २५८ प्रतीस राजनिघण्टकार के मत से अतीस (अतिविषा) तीन प्रकार का है। जैसे, "त्रिविधातिविषा शेया शुञ्जकृष्णारुणातथा ।" अर्थात् अतीस शुक्र, कृष्ण तथा अरुण भेद से तीन प्रकार का होता है। तीनों रस, वीर्य और विपाकमें समान होते हैं। परन्तु इनमें श्वेत जाति का उत्तम होता है। मदनपाल के मत से यह चार प्रकार का है । जैसे, "श्यामकंदाचातिविषा सा विशेया चतुर्विधा । रका श्वेता भशंकृष्णा पीतवर्णा तथैव । च ॥” अर्थात् रक, श्वेत, अत्यन्त कृष्ण और | पीतवर्ण भेद से यह चार प्रकार का है। इनमें यथापूर्व अर्थात क्रमशः पीत से कृष्ण और कृष्ण से श्वेत श्रादि गुणमें उत्तम और श्रेष्ठ होता है । मख्जनुल अवियह में इसके तीन भेदों का वर्णन है अर्थात् अतीस, प्रतिभिका और और श्यामकंद । मुहीताज़म में केवल इसके दो ही भेद माने हैं । यथा-श्याम और श्वेत । रासायनिक संगठन-तीसीन (Atis. ine ) नामक रवारहित एक अत्यन्त तित क्षारीय सत्व ( यह निर्विषैल है), वत्सनाभाम्ल (Aconitic acid ), कपायीन या कषायिनाम्ल( Tannic acid), पेक्टस सब्सस ( Pectous substance ), बहुसंख्यक श्वेतसार, वसा तथा अॉलीइक,पामिटिक, स्टियरिक, ग्लिसराइड्स, वानस्पतिक लुभाब, इक्षु शर्करा और (भस्मके मिश्रण २ प्रतिशत तक होते हैं। मेटीरिया मेडिका प्रॉफ़ इण्डिया-पार० एन० । खोरी भाग २, पृष्ट ३)। प्रयोगांश-कन्द । औषध-निर्माण-(१) चूर्ण; मात्रा-५ रत्ती से ३॥ मा० तक। ज्वर प्रतिषेधक रूप से-१ से २ ड्राम (२॥ डाम पर्यन्त यह निरापद होना है)। वल्य रूप से-१० से ३० ग्रेन (५ से १५ रत्ती) इस मात्रा में इसका ज्वरघ्न प्रभाव अत्यन्त निर्बल होता है ! ज्वरनरूप से-४० ग्रेन से १॥ डाम तक । कृमिघ्न रूप से(२) टिंक्चर-(= में १ भाग); मात्रा-१० से ३० बुद। (३) द का क्वाथ। वे शुरूपीय औषध जिनका यह प्रतिनिधि हो सकता है। ज्वर प्रतिषेषक रूपसे-सिंकोना के क्षारीय सत्व (क्षारोद) यथा क्वीनीन प्रभति । ज्वग्न रूप से-पल्विस जेकोबाइ वेरा, पल्विस एण्टिमोनियम् ( अंजन चूर्ण), लाइकर एमोनियाई एसोटास । वल्य रूप से-जेंशन और कैलंबा । इतिहास--अतिविषा नाम से प्रतीस का ज्ञान प्राज का नहीं, प्रत्युत अति प्राचीन है। अतः अायुर्वेद के प्राचीन से प्राचीन ग्रंथ यथा चरक, सुश्रुत तथा वाग्भट्टादि में इसका पर्याप्त वर्णन पाया है। यही नहीं बल्कि विभिन्न रोगों पर इसके लाभदायक उपयोग की उन्होंने भूरि भूरि प्रशंसा की है जैसा कि धागे के वणनों से विदित होगा। फिर डिमक महोदय तथा उनके पादानुसरणशील एवं आयुर्वेद शास्त्र से सम्यक् अपरिचित चोपरा महोदय के ये वचन "I'he earliest notices of Ativisha are to be found in Hindu works on • Materia Medica, Sarangad. hara, and Chakradatta." जिसका यह अर्थ होता है कि शाङ्गधर तथा चक्रदत्त से पूर्व के अायुर्वेदिक ग्रन्थों में अतिविषा का उल्लेख नहीं है; कहाँ तक सत्य है, इसका पाटक स्वयं निर्णय कर सकते हैं। आयुर्वेद के अति प्राचीनतम ग्रन्थों में तो इसका उल्लेख है ही जिसके लिए हमें किसी प्रकार के प्रमाण की अावश्यकता नहीं; यह तो सूर्य प्रकाशवत् देदीप्यमान एवं स्वयं सिद्ध है। हाँ ! अरबी तथा फारसी ग्रन्थों में इसका बहुत संक्षिप्त वर्णन पाया है और यह स्पष्ट रूप से For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस २५६ प्रतीस ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके वणन में अायुर्वेद कर्ताओं का ही अनुकरण किया है। इन सबके पश्चात् पाश्चात्य लेखकों ने अपने ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया । प्रभाव तथा उपयोग आयुर्वेदीय मतानुसार अतीस, दीपन, पाचन, संग्राहक और सर्वदोष नाशक है । च० स० २५ ०। प्रतीस कट, उष्ण, तिक तथा कफ, पित्त श्रीर ज्वर नाशक, प्रामातिसार, कास, विप, एवं छर्दिनाशक है । रा०नि० २०६ । वा० स० ३५ श्र. वच दि० धन्वं०नि०। श्रीस, सर्व दापना शक, शोथन (लेपात् ), श्लैष्मिक रोगनाशक (२० प्रकार के श्लेष्म रोग का नाशक) और रसायन है। मद०व०१। __ अतीस गरम, कटु, तिक, पाचन और दीपन कर्ता है । जीर्णज्वर, अतिसार, आमवात, विष, खाँसी वमन और कृमि रोग को दूर करता है। भा० । अतीस, पाचन, तिक, ग्राही और दोषनाशक है। राजवल्लभः । अतिविषा तथा कटुकी प्रभृति को उष्ण गोमय । जल द्वारा शुद्धि होती है । सा० को० । शिशु के कास, ज्वर तथा वमन प्रतीकारार्थ उपयुक्र मात्रा में अतीस का चूर्ण मधु के साथ सेवन कराना चाहिए। वंग० जी० सं०१६ कुदयामय-अंकोट की जड़ की छाल ३ भाग और अतीस १ भाग इसको तंडुलोदक (चावल के धोवन) में पीस कर पान करें। इससे ग्रहणी रोग शमन होता है। . बंग० जीः सं० १२१ पृष्ठः । (३) “नागराति विषाभयाः" । च० द० ज्वर० चि० पिप्पल्याद्यघृत । वक्तव्य-चरक चिकित्सास्थान २५ अ० एवं सुश्रुत कल्पस्थान २य अध्याय में स्थावर विष का वर्णन पाया है। चरकोक्त मूल विष एवम् सुश्रुत के मूल विष वा कन्द विष को नामावली में अतिविषा (अतीस ) का उल्लेख दीख नहीं पड़ता । उपविष के मध्य इसका पाठ नहीं। सुत और चरक में जहाँ सम्पूर्ण विषों का उल्लेख पाया है वहाँ वे इसके गुणों से सम्पूर्ण अपरिचित हैं । सुत के प्राचीन टीकाकार डल्लण मिश्र लिखते हैं"मूलादि विषानां यत्नपरैरपि ज्ञातुमशक्य त्वात् । तत्र तानि हिमवत् प्रदेशे किरात शवरादिभ्यो झेयानि।" क. स्था० २ य० अ० टी० । मदनपाल वर्ण भेद से इसका गुणांतर स्वीकार करते हैं । परन्तु, राजनिघंटुकार ऐसा नहीं करते। सुश्रुत अतिसार निकित्सा में और चक्रदत्त अतिसार, ज्वररातिसार, और ग्रहणी चिकित्सा में भिन्न भिन्न औषध के साथ अतीस का पुनः पुनः प्रयोग दिखाई पड़ता है। चरक और सुश्रुत के केवल जीर्णज्वर की चिकित्सा में अतीस का प्रयोग नही पाया है । चरक के "कालिंगक त्वामलकी सारिवातिविषा स्थिरा।" (चि. ३ अ.) पाठ में तथा सुश्रुतोक "पिप्पल्यतिविषा द्राक्षा।” ( उ० २६ अ०) पाठांतर्गत विषम ज्वरहर धृत में अन्यान्य बहुशः वस्तुओं के साथ अतीस व्यवहृत हुआ है । सुश्रत एवं वाग्भट्ट में केवल ग्रहणी तथा कास चिकित्सा वा रसायनाधिकार में अतीस का व्यवहार नहीं दिखाई देता। . वैद्यकीय व्यवहार (१) प्रामातोसार "दद्यात् सातिविषां पेयां सामे साम्लां सनागराम् (च. सू० २१.)।" अतीस १ तोला, सोंठ १ तो०, इनको ७२ जल में सिद्ध करें । जब 51 जल शेष रहे तब इसे लवण से छौंक कर इसमें अभीष्ट वस्तु की पेया प्रस्तुत करें। इसमें किञ्चित् खट्टे अनार का. रस योजित कर प्रामातीसारी को ज्वयहार कराएँ For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतास २६० अतुल्जन यूनानीमतानुसार मात्रा में उपयोग करना चाहिए जो स्वयं मेरे प्रकृति-२ कक्षामें उष्ण और १ कक्षामें रूक्ष । अनुभव के अनुसार १ से २ डाम तक है : स्वाद-किञ्चित् बिका | हानिकारक-श्रामा- २॥ ड्राम तक यह सर्वथा निरापद सिद्ध होता शय के लिए । काबिज़ है । दर्पघ्न-सर्द व तर है । लघुतर मात्रा (२० से ४० ग्रेन) में यह वस्तुएँ । मात्रा शर्बत-प्राधा से १ माशा उत्तम वल्य है । परन्तु, इससे इसका परियायतक । मुख्य प्रभाव- श्लेप्मध्न और वायु. निवारक प्रभाव अत्यन्त न्यून होता है । ( मेटिलयकर्ता। रिया मेडिका अाफ़ मैडरास न खंड पृ० ४) गुण, कर्म, प्रयोग-अतीस कामोद्दीपक, आर. एन. चोपरा एम० ए० एम० ड' क्षुधावर्द्धक, ज्वर प्रतिरोधक, कफ तथा पित्तजन्य __पहाड़ो लोग इसको प्रभावशून्य रूपसे भली विकारों को नाश करनेवाला, अर्श, जलोदर प्रकार जानो हैं एवं इसे शाक रूप से खाने के तथा कफ वा पित्तजन्य वमन एवं अतीसार को काम में लाते हैं । देशी औषध में यह मा एवं दूर करता है। वायुको लय करता और श्लैहिमक तिक बल्य रूप से व्यवहृत है। इस देश में रोगों को लाभप्रद है । म० अ०। (निर्विषैल ) इसको परियायनिवारक, कामोद्दीपक, कपाय नव्यमत-अतीस, तिक, पाचक, वृष्य, बल- ___एवं बल्य रूप से व्यवहार में लाते हैं । कारक एवं ज्वरप्रनिषेवक है और घर तथा उग्र ( इंडिजिनस डग्स ऑफ इण्डिया ) प्रादाहिक-विकारादि-जन्य रोगावसान की द में कावकारााद-जन्य रागावसान का दाम अनीसार: atisarah-सं० ० संज्ञा दौर्बल्य दूर करने के लिए इसका व्यवहार होता पु०) देखो-अतिसार ( Diarrhoea ). है। कास, अजीर्ण और अग्निमांद्य में अतीस का | अतुकार्णी atukarni-सं० स्त्री. जमालगोटा उपयोग किया जाता है। इन सब रोगों के उप- | ( Croton polyandrum, Rorb. ). सर्ग रूपसे हुए अतिसार में इसे सुगन्ध, तिक एवं देखो-दन्ती। कषाय द्रव्यों यथा गुरुच, करंज और कुटज प्रादि के साथ एवं ज्वर प्रतिषेधक रूपसे मलेरिया ज्वरों | अतुतिन्लप atutinlap-मल. गृध्रणी, धूम्रपत्र, (विषम ज्वरों) में इसका योग किया गया पत्रबङ्ग-सं० । गुघाटी, किरमरा-हिं०, गु०, और इससे कुछ सफलता भी हुई; परन्तु क्वीनीन द०, बं० | Aristolochia Bractea ta की अपेक्षा यह अत्यन्त निम्नणीका सिद्ध हुना ले० । Birth-wort, worm-killer विडंग के साथ इसको सेवन करने से प्रांत्रस्थ -ई० । ई० मे० मे०। कृमियाँ निर्गत होती हैं। ( मेटीरिया मेडीका | अतुनेटी atuneti ता० सोल-बं० । Aschश्रॉफ इंडिया-२ य० खंड ३ पृ०) ___ynomene Aspara). पौकान,-पौक ब्यु मोहीदीन शरीफ़ -बर। प्रभाव-ज्वर प्रतिषेधक ( परियाय ज्वर | अतुलः atulah-सं० पु. ) (१ ) कफ नाशक ), ज्वरघ्न और बल्य । उपयोग--सवि अतुल atula हि संज्ञा पुं० । श्लेष्म। राम ज्वर तथा सामान्य स्वल्पविराम वा निरंतर (phlegm)। (२)तिल का वृक्ष; तिलीका पेड़ ज्वर, कई तरह के अजीण एवं नैर्बल्य में लाभ- ! -हिं० । तिलः (कः)न-सं० । ( Sesamum दायक है। ___orientale ) श.च. श्वेत अथवा साधारण प्रकारका प्रतीस अत्यंत प्रतजम atul jan-प० बेबल, कखुम, कोखूरी, लाभप्रद परियायनिवारक (Antiperiodic) गुगुल, बन्दारू-पं० । मर्सिनी अफ्ररिकेना एवं ज्वरघ्न है; किन्तु इसके सर्वोत्तम एवं ( Myrsine Africana, Linn.), निश्चित प्रभाव के लिए इसको पूर्ण औषधीय म० बाइफेरिया (M. Bifaria, Full) For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतहिनरश्मि श्रत्त -ले० । बेबग; बाइ बङ्ग-4०, काश०, हिं० । रितोप, तृप्त न होना । संतोष, मन न भरने गुवाइनी--स० ० । पहाड़ी चा, चूपा-उ० की अवस्था | वै. श०। प. स.। । अतेइच ateich-० अनोस ( Aconitum बिडङ्ग वर्ग Heterophyllum) ई० मे० मे० । (N. 0. Dyrsinaceae ) उत्पत्ति स्थान-यह एक छोठा तुप है । अतेज ateja-हि० वि० [सं०] (1) तेजरहित हिमालय, काश्मीर और साल्लरेन (लवण श्रेणी) से अंधकार युक, मंद, धुंधला । नेपाल तक। श्रतेजाः atejāh--सं० स्त्री० ( Shade, प्रभाव तथा उपयोग-इसका फल सराक Shadow ) छाया । रा०नि० २०२१। रेचक तथा विशेष कर कद्दाना निःसारक अतीय उदर atoya-udara-हि. संज्ञा पुं. माना जाता है । यह बेबङ्ग नाम से बिकता है “सर्वस्वतोयमरुण मशीफकम् नाति भारिकम् ।" और (Samara Ribes ) की प्रतिनिधि वा०नि० अ०१२ श्लो०११ । स्वरूप उपयोग में प्राता है । स्टयुबर्ट : लक्षण जलोदर को छोड़कर सब प्रकार के ___ इस क्षुप से एक प्रकार का निर्यास प्राप्त होता | उदर रोगों में उदर का वर्ण लाल, सूजन रहित है जो कप्टरज की एक उत्तम औषध है ( वैन- और गुरुता रहित होता है । नसों के जाल के फोर)। जलोदर एवं उदरशूल में यह को:-- समूह से झरोग्वे की तरह हो जाता है और मकारी प्रभाव करता है । ई० मे० मे०। सदा गुड़गुड़ गुड़गुड़ करता रहता है। वाय इसका लगातार प्रयोग मूत्र को अत्यन्त नाभि और अंत्र में विष्टब्धता उत्पन्न करके हृदय रजित करता है। ई० मे. प्लां। कटि, नाभि, गुदा और वंक्षण में वेदना करता अतुहिनरश्मि atuhina-lashmi-हिं० संज्ञा हुश्रा अपने रूप को दिखाकर नष्ट हो जाता है पुं० [सं०] the Sun सूर्य । तथा शब्द करता हुश्रा बाहर निकलता है। अतaatita-अ० तब्तू य ( एक पक्षी है)। इससे मल बद्धता और मुत्र की अल्पता हो __(A sort of bird.) लु० क० । जाती है। इसमें जठराग्नि अत्यन्त मन्द नहीं अतून atuna-घात । होती है, भोजन में इच्छा नहीं होती और मुख में अ.तृस aatasa विरसता उत्पन्न हो जाती है। उत्तास, मुअत्तिस् uttasa,-im laattis | अइमह, ataimah--अ०- (२०व०) तमाम -अ० सुत्कारक औषध, वह औषध जो छींक (ए०व०), आहार, भोजन, खाना । डाइट्स लाए । इसका (40 व.) अतसात है । इहा Diets.ई. । म० ज० । इन Irrbine-0। म० ज०।। असा atus a-हि. भोजपत्र । ( Betula | अत्कः atkab-सं० पु. अङ्ग, अवयव ( An Bhojapatra)ई.हैं. गा। __ organ) उणा० । अतृष्ण atrishna-हिं० वि० [सं०] तृष्णारहित। अन्कुमः atkumah-अ० अरामार्ग । (Achनिःस्पृह । कामना हीन, निलोभ । ___yranthes aspara, Linn.) अतृप्त atripta -हि. वि० [सं०] [ संज्ञा | अत्डी atdi-० पित्तल, पीतल ( Brass )। अतप्ति (1) जो तृप्त वा संतुष्ट न हो, जिसका अत्तः attah-मल. जलोका, जोंक, जलायुका । ___ मन न भरा हो। (२) भूखा । (Hirudo m3dicinalis). इं. मे०मे० । अतृप्तिः atriptih-सं० स्ना० । तृप्ति शू-प्रत atta-मल०, सिं० सीताफल, पात, शरोका ! अतृप्ति atripti-हिं० संज्ञा स्त्रो० न्यत्व, अप- Custard apple ( Anona squ. For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्तका अत्तिग्लि-पाल amosa )।-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अति] अत्तिरर attier-कां. शरीफ़ा, सीताफल । अति । अधिकता। ज्यादती ।। ___Custard apple (Anon Sqlt. अत्तका attaka-मल० मुरडी, गोरखमुण्डी, most)इं० मे० मे । (Sphalanthus In«licus ). अत्तिएवयर attierayr-ता० गृलर की जड़ । अत्ततामामिडो attata-mamig फा० ०। साँः (Borhuavin diffusa) । ई० मे० मे। अत्तर-वयर नन्निर attis.vayri-tamie -ता० कूल्यान । गूलर का नीर-हिं० । फा०३० । अत्तन,-ना attan,-na-सिं० धुस्तुर, श्वेत धतूरा, अत्तिक्क लु attik-kall!!-गा० ) कनक, धतूरा । (Dutra alba, Lint.) गुलीर अत्तिक लु atti.kallu-10 का नीरा, (White flow.yre l Dhatura )स० गुल्तर का नीर-हिं० । Toly of Ficus फा० ई० । ई० मे० मे० । Glomerati-ले० । .. फा० ई० । अत्तवालेहदी attabaghul-hindi-... अत्तिका atti-ka-सं० गूलर-हिं० । उदुम्बर पाताल बन तामाल-स। अमरीका का जंगली तम्बाकू-हिं । लोबीलिया Lobelia-ले० । -70! (Ficus Glomerata, l'oxls) म० अ० डा० २ ० अत्ति-तिप्पिलि atti-tippili-ना०, मल० बड़ीअत्तबड़ atta bara-बं० प्रासा०, बड़, कगारी पिपली, गज-पिप्पलो-हि० । गज-पिपली-सं० । -खा० । ( Ficus Elastica) Scindapsus (Pothos ) Officina lis, Schott. ( Berrics of ) स०फा० अत्तमामी attamimi-अज्ञात । इं० । फा० इं०। अत्तीरुज्ज़ाजो attartiyur.z.aji-अ० कृ. पांशु गंधेत्-सं० । पोटेसियम सल्फेट ( Pota. अत्ति-पजम् atti-pazham-ता० गूलर-हि । ssium sulphate )-इं० । म० अ० डॉ० उदुम्बर फलम्-म । Ficus glome. २भा०। Tata, Linn. (Fruit of-) I FO फाइं० अत्तलु atta] 1-ते. जलायका, जलौका, जोक। ( Ilirutto medicinalis )। इं० मे. अत्ति-पण्ड atti-pandu-ते. गूलर-हिं० । मे०। । अत्ति-माणु atti-mānu-ते० (Ficus gl ____ omerata, Roxb. ) रू. फा० ई० । ई० अत्तार attara-अ० युनानी दवा बनाने __मे० मे० और बेचने वाला, औषध विक्रेता, पनसारी । (A druggist)। -हिं० संज्ञा पु०(२) अत्तिमोर-अलोन attimir-alon--मल. गंधी, सुगन्धि वा इत्र बेचने वाला | (Ficus excelsa, Vuhl.) इसकी जड़ उपयोग में पाती है। मेमो० । अत्तास āattāsa-अ० नाक छिकनी-हिं० । क्षवः (क) ( कृत् )-सं० | Dregea अत्ति-यालुम् atti-yālum-मल० गूलर volubilis. I -हिं० । (Ficus glomerata, Rosb.) स० फा० इं०। अत्ति atti-ता०, मल०, कना. गूलर-हिं० ।। उदुम्बरफलम्-सं० | Ficus Glomerata, अत्ति-रा atti-la-सिं० गूलर का नीर (Toddy Roxb. ( Fruit of- )-ले० । -हि. ___of Ficus Glomerata) सफा०ई० । संज्ञा पुं० [सं०] देखो-अत्त। अत्तिरिल्ल-पाल attirilla-pila-सिं० बालू For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रन्तियाक का साग, बालू की भाजी - ० । ( Gise kia Pharnacioides, Linn.) स०फा०ई० । अत्तिर्या attiryaq-ऋ० विषघ्न, विपहर, प्रतिविष | (Antidote ) । फा०३० २ भा० श्रत्ति-हरणु atti-hannn कना० गूलर ( Ficus glomerata, Roxb.) रु०फा०ई० । अत्तर attic1-० सीताफल, शरीफ़ा (Anona squamosa )। इं० मे० मे० । २६३ अत्तु तुम्मट्टी attutummatti-ता० इन्द्रायन ( Citrulus colocynthis ) । इं० मे० मे० । श्रत्तेई attei - ता० जलायुका, जोंक, जलीका - हिं० | ( Hirudo medicinalis ) इं० मे मे० । श्रत्तोर attora-लिं० दाद मर्दन, चकवेंड़, चक्रमर्द । ( Cassia alata, Lim.) स० [फा० ई० । अत्नः atuah-स० पु० सूर्य ( The sun ) व० निघ० । श्रतु atun - हिं० पु० [ स ० ] The sun सूर्य | श्रत्वात्न atbátuna यु० एक प्रकार का मद्य जो द्राक्षारस, मधु तथा गरम श्रोषधियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। लु० क० । अमूत atmúta - बर० foliatus, Linn.) अत्मोरह् atmorah--चं० श्रत्मारा atmora--so अन्वान atbána- अ० (२०१०), तिच्न् (ए००) घास, तृण (Grass) । स० [फा० ई० | अवान् āatban ऋ० कक्ष, कक्षतल, बगल - हिं० । एग्ज़िल्ली Axill- ले० । श्रार्मपिट्स ( Armpits ) - इ० । म० ज० । श्रस्तूत atbúta--बर० रीठा, श्ररिष्ट । अम āatma--अ० धुना हुआ ऊन । लु० क० । श्रमात atmáta-- बर० रीठा (Sapi ndus tri मरोड़ फली, श्रावर्तनी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रत्यस्ल (Helicteres Isora) फा० ई० । इ० मे० मे० । अत्यः atyah - सं० पु० अश्व, घोड़ा ( A horSe ) । ० श० । श्रत्यग्निः atyagnih - सं० पु० (१) क्षुधाधिक्य, भूख की अधिकता । च०६० श्रग्निमा० चि० । (२) भस्मक रोग विशेष। ऐसे रोगी को अत्यधिक दुधा प्रतीत होती हैं। देखो - भस्मकाग्निः । विज० २० । अत्यन्त कुसुमाकरः atyanta-kusumák ajah -स ं० पु० कङ्गुनी वृत्त, मालकांगुनी । (Celastrus paniculata, Wild.) श्रत्यन्तपद्मः atyantá-padmá--सं० स्त्री० कमलिनी । (Nymphæa edulis, D. C. ) ao fo अत्यन्त शोणितः atyanta-shonitah--संo त्रि० (१) अतिर, रक्राधिक्य । -क्ली० ( २ ) सुगैरिक । बै० निघ० । अत्यन्त सुकुमारः atyanta-sukumárh--सं० पु० ( १ ) कंदली वृक्ष (Panicum italicum )। ( २ ) कङ्गणी मालकांगुनी ( Celastrus paniculatns, Willd. ) रा० नि० ० १६ । अत्यम्बुपानम् atyambu-panam--सं०ली० अधिक जल पीना, परिमाण से ज़्यादा पानी पीना, इससे निम्न दोष होजाते हैं, यथा-अधिक जल पीने से तथा बिल्कुल जल न पीने से अन का विपाक नहीं होता। इस लिए मनुष्य को पाचकाग्नि वर्द्धन हेतु थोड़ी थोड़ी देर में जल पीते रहना चाहिए । इति जलपान लक्षण | रा० नि० व० १४ । अत्यम्लः atyamlah सं० पु० श्रत्थम्ल atyamla - हिं० संज्ञा १० (१) श्रम्ली, इमली का पेड़ ( Tamarindus Indicus) तेंतुल- बं० । रा० नि० For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्यम्लदधिः श्रत्युष्णः व०६ । (२)मातुलुग । (३)वन मातुलुग । (४) R. Br. ( the white var. of-) अाम्रातक (Spondias mangifera) रा० नि० व० १० ।देखो-पाक । -त्रि०अत्यन्तान्ल रसयुक्र । अत्याग atyaga-हिं० संज्ञा पु० [सं० ] अत्यम्लदधिः atyamla-dadhib--संक्लो . ग्रहण | स्वीकार । अत्यन्त खट्टा दही। अत्यानन्दा atyananda-सं० स्त्री० कफजन्य योनिरोग विशेष । वैद्यक के अनुसार योनियों का लक्षण-जिस दही से दांत हर्षित होजाए, एक भेद। वह योनि जो अत्यन्त मैथुन से भी रोम हर्ष हो और कं आदि में दाह हो सन्तुष्ट न हो। यह एक रोग है जिससे स्त्रियाँ जाए उसे अत्यम्ल दधि कहते हैं। वंध्या होजाती हैं। इसका दूसरा नाम रतिप्रीता भी है । भा० म० ख०४ भा०, योनिरोग। गण-यह अग्नि प्रदीपक, रविकार, वात तथा 'अत्यानन्दा न सन्तोष ग्राम्यधर्मेण विंदति' पित्त को अत्यन्त उत्पन्न करता और रोगकारक है । वृ०नि० र० । अन्यारता atyanrakta-सं० स्त्री. जया पुष्पवृक्ष -सं० । अदउल का पेड़-हिं०। (Hibiscus अत्यम्लपर्णी atyamla parni--सं० स्त्री० Rosa-Sinensis) (१) लताशूरण, सूरन । वलिशूरण लताविशेष । कड़वड़वेनि । हेग्गोलि । रा० नि० व. प्रत्यार्त्तवः atyartavah-सं० पु. मात्रा से ३ । इसके पर्याय निम्न हैं, यथा अधिक रजोस्राव । मेनोरेजिया Menorrha gia-इं। ब क०। तीक्ष्णा, कर डूरा, वल्लिशूरणः, करवड़वल्ली, वयस्था;अरण्यवासिनी । (२) अम्ललोणी । गण- अत्यालः atyalah-सं० पु. रक्र चित्रक वृक्ष, अत्यम्लपर्णी रस में अम्ल, तीक्ष्ण, प्लीहा लाल चीता का पेड़ । ( Plumbago रोग व शूलको नाश करने वाली, वात एवं हृदय Rosea.)। रा० । के लिए लाभदायी, दीपक, रुचिकारक तथा शत्युग्रम् atyugram-सं० क्ली. हींग-हिं० । गुल्म व श्लेष्म रोग को लाभदायी है। मात्रा हिंगु-सं० । (Assafoetida) मद०व०२ । ३ मा० । रा० नि० व०३। (३) रामचना वा खटुश्रा नाम की बेल अत्युग्रगंधा atyugra-gandha-सं० स्त्री० हिं० संज्ञा स्त्री० १ - कृष्ण गोकर्णी (Sanseअत्यम्ला atyamla--स. स्त्री० जंगली विजौरा vieria zeylanica)| २-कृष्णापराजिता। नीबू-हिं० । मातुलुङ्गा वृक्ष, वन बीजपूरः-सं० । Clitorea Ternatoa, (the रा०नि० व० ११। रत्ना० तिन्तिडी । श० black var. ef-) । ३-अजमोदा (Apium involucratum.)। मद० व० २। प्रत्ययः atyayah-सप । १-नाश, अत्तय atyaya-हिं० संज्ञा प ध्वं स, मृत्यु अत्युदणों atyudirna-सं० नी. दुष्ट व्यधन २-अतिक्रमण । हद से बाहर जाना । ३-दोप । विशेष । बहुत तीक्ष्ण, बड़े मुंह के शस्त्र से जो ४-कृच्छ., कष्ट । रत्ना० अ० व० । मे. बहुत विस्तृत छेद हो जाए उसे "प्रत्युवर्णा" यत्रिकं । कहते हैं । सु० शा० अ०! प्रत्यक: atyarkah-स. प. श्वेत मदारका वृक्ष - अत्युष्णः atyushnah-स०ए० ( Very -हिं० । शुक्रार्क वृक्षः -स। श्वेत प्राकन्द | hot ) अति गर्म, अत्यन्त उपण । सु० शा० गाछ-बं। Calotropis gigantea, | ० श्लो० ४। For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्यूहः २६५ श्रसूफिया प्रत्यूहः atyāhah-सं० पु. कालकण्ठपक्षी । तीत । सत, रज, तम नामक तीनों गुणों से दात्यूह । मे० त्रिकं । See-Kalakant पृथक् । hah,-kah. अत्रिज a tiija-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] अत्रि के प्रत्यूहा atyuhā-सं०स्त्री०नीलशेफालिका-सं०। पुत्र-(१) चंद्रमा, (२) दत्तात्रेय और (३) नील निगुण्डी-हिं० । नीलिका | मे०-हत्रिक । दुर्वासा । ( Vitex negundo ). अत्रिग्मातः atrigjatah-सं० पु. चन्द्र । अत्र atra-हिं० संज्ञा पुं० अत्र का अपभ्रंश । अत्रफतूस atrakatāsa-यु. कड़, कुसुमबीज | ( Carthamus tinctorius, Linn.)| अ(इ)तीफल atrifala-अ०० हिन्दी 'त्रिफला' फा०६०। से उन अरबी शब्द व्युत्पन्न है। त्रिफला प्रमज atraja-फा० निम्बुः। नीबू । (Citron) से अभिप्राय हरड़, बहेड़ा और अामला श्रादि ९० हैं. गा०। तीन फलों से है । अतः जिस मअजून में उपयुक्र श्रोषधित्रय पड़ती हैं उसे "अ(इ)त रीफ़ल" प्रला कुल्बत न atraqul.batn-अ० पेट का | कहते हैं। मोड़ । म० ज०। प्रधागलीस atrighulidisa-यु० शीरह, अलीफ़ल की तैयारी में यद्यपि उन समस्त जैसे-शीरह, नबात, शीरह, क्रन्द। See बातोंको ध्यान रखना चाहिए जिनका आगे मshirah| म० ज०। जून के प्रकरण में वर्णन होगा, तो भी इसकी प्रताफ़ atrafa-अ० हस्त व पाद। यह तर्फ निर्माण विधि में उससे केवल इतना भेद है कि का बहुवचन है जिसका अर्थ "पोर" या 'दिशा' इसमें हरड़ बहेड़ा और प्रामला को बारीक कूट है। इसका शब्दार्थ "किनारे" है। पर | छोनकर बादाम तेल अथवा गोघृत में मलकर व्यवच्छेद शास्त्र की परिभाषा में इससे हस्त व चाशनी में मिलाते हैं। इससे इसकी शक्ति चिरपाद अभिप्रेत हैं । इसको हिन्दी में "शाखा" स्थायी रहती है एवं चाशनी मदु बनी रहती है। म० ज० । ब्या०३ भा० । कहते हैं। एक्सट्रीमिटीज़ Extremitiesइं० । म० ज०। अलीलाल atrilal-बाजा०-ना० राजिले गुराब, अलाफ़ उल्या atrafa-aulya-अ० उर्ध्व राजिले-ताइर-अ० खिलाले-खलील-फ़ा० । फा. शाखाएँ; दोनों हाथों से अभिप्राय है। स्कन्धों से इं० भा० २ । देखो-पात रीलाल । लेकर अङ्गलियों पर्यन्त । अपर एक्सट्रीभिटीज़ | अन atruna-बम्ब० (१) शेरवानी बूटी, Upper Extremeties इं०म० ज०। खटाई, किङ्गरू -५० । को उई-हिं० । ई० मे. अलाफ सुपला atrafa-sufla-अ० अधः मे० । Flacourtia sepiaria-ले० । शाखाएँ, निम्न शाखाएँ। लोअर एक्सट्रीमीटीज मे० मो०। (२) सगवानी, अरस्तू Swa: Lower Extremities-इं। llow wort, Prickly ( Asclepias अत्रिः atrih-सं०पु० ऋषि विशेष (A Rishi)। echina ta).1 ई० है० गा० । सप्तर्षियों में से एक । ये ब्रह्मा के पुत्र माने जाते अगिया atrāghiya ) ये शब्द "अटो इनका स्वा अनसूया था। दत्तात्रेय, दुर्वासा, श्रवृफिया atrufiya फिया" से अरबी और सोम इनके पुत्र थे । इनका नाम दस प्रजा- बनाए गए हैं। प्राहार न मिलने के कारण शरीर पतियों में भी है। का दुबला हो जाना, क्षय, क्षीणता, कृशता । भत्रिगुण atriguna-हि. वि [सं ] त्रिगुणा- अट्रोफी A trophy-इं० । म० ज०। For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवश श्रदन् अलश atrusha अ० ( ए० व. ), अहिंसक । (२) विद्वान । अथर्व० । सू०३७ । अलश atrasha अंतारशह ( ब० ५०) १ । का०४। बधिर, बधिरता का रोगी, जो ऊँचा सुने । डेफ अथानीकन authānikāna यु. उशक्क, काँदरDeaf-इं० । म० ज० । फ०, अ०, हिं० ! कांदल-अफ़० । (Dorema श्रलशाउखमरम् atrushaukhu-maram ammoniacum, Dor. & Fr.) फा. -ता. शावक, थाणुक-सं० । झाऊ( Tam- इं. २ भा०। arix gallica, or Indica, Linn.) अथारियून athariyān यु० दुरालभा-सं० । ई० मे० प्लां। खारे-शुतुर-का० । (Alhagi cameloअत्रेय atreya-हिं० संज्ञा पु० दे० श्रात्रेय। run, Fasch.) फा० इं० १ भा० । अत्रांगा atrogha-फा. नीबू, तुरञ्च । ( Cit. अधिवला चेटु athi-bala-chettu-ता० 101) ई. हैं. गा० । महावला-सं० । सहदेवी हिं० । अ क्लियह, atliyah-अ० (ब० व. ), तिला अदकर adakar-पं०) (ए. ३०) मर्दन, मालिश, अभ्यङ्ग । म० अदका adaka अदरख, श्रादी-हिं० । Fresh root of Groen ginger ज०। (Zingiber officinalis, Roxb.) अत्यस atvas-मह० ) अतोस ( Aco फा० इं० । देखो-आद्रक । TFT atvíká-To S nitum heter: अदकुमणियम् adakuinaniyaim-मल. ophyllum,) लु० क० । स० फा० इं०। गोरखमुण्डी, मुण्डिका । ( Spharanthus अत्वीन atvin-पं० गिदड़ तम्बाकु, विथुप्रा । hirtus ). इं० मे० मे०। ( Heliotropium Europeun ) इं० श्रदखन adakhana-यु० लूता, मकड़ी-हिं० । • मे० मे०। ____ स्पाइडर Spider-इं० । लु. क०। अत्सी atsi-हिं० स्त्री० [सं० अतसी तीसी- अदगी adagi-ता० अरहर, रहर-हि. । ( Pigहिं०, उ० । लाइनम् Limum-ले० । म० अ० __eon Pea; Dal ). ई० मे० मे० । डॉ०२भा०। अदना datta-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रतह ल athali-अ० धूसर वर्ण, धूसर वर्ण की afargar fett (Unmarried girl ). चीज़ । डस्टी Dusty-इं०म० ज०। श्राइनम् adamam-सं० क्ला० भक्षण, खाना | अदन adala-f० संज्ञा पु०मरण, खाना अत्ह.लक athalaga-अ. (To eat.). ( Vitex ngnus costus ) ई० मे० अदनागलो adanagali-हिं० संज्ञा स्त्रो० गुलेमे०। अहानिकन athāniquna यु० उशक-अ०, . सुख, लाल गुलाब । (Dumask rose) इं० है० गा०। - फा०, इ. बाजा० । ( Dorema ammo । अदनातील adlanatisa यु० अनार की कली । __niacum, Don.)-ले० । फा० ३०२ भा० । ( see-Anaia) लु० क. । अत्हा(था) रयून athariyān-यु० दुरालभा अदनोय adaniya-हिं० वि० [सं० ] भक्ष्य । - सं० । खारेबुज़, खारे शुतर-फा0। (Alhagil ___खाने योग्य । ( Ea table) caimelorum, Fisch.) फा० इं० १ भा०। अदनूस adalisa--यु०पहाड़ी सरो । लु० क० । अथर्वा atharvā-सं० पु. एक ऋषि का नाम । अदन adan-अ० औकिया । आउस(An oz.) अथर्ववेद के रचयिता। यह लगभग २॥ अथवा रातो. के वजन का अथर्वाणः atharvānah-सं० पु. (1) होता है । म० ज० । For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदन्त श्रदर्शन श्रदन्त adanta- वि० अदन्तःndantah--सं . (१) दन्त | अदरका adalaki-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० __ श्राद्रंक ] सोंऽ और गुड़ मिलाकर बनाई हुई हीन, दन्त रहित ( Toothless ), बे टिकिया। सोंठौरा । दाँत का । जिसे दाँत न हो। (२) जिसके दाँत न निकला हो । बहुत थोड़ी अवस्थाका, दुधमुहाँ । अदरख अवलेह adarakha-avaleh-हि. (३) जिसने दाँत न तोड़ा हो । ( चौपाया ) । पु. देखो-आद्रक अवलेह । श्रदमनिः adamanih-संस्त्री० अग्नि । (Fire) पुराना गुड़ । एक पाव, श्रदरख का रख ७१ 'अदमसलो dama-sali--श्रासा. बिल्ला-- एक सेर लेकर गुड़ मिलाकर पतली चाशनी करें, सिलह। मेमो०। पुनः तज, पत्रज, नागकेशर, छोटी इलायची, लवङ्ग, सोंठ, कालीमिर्च, पीपर इन्हें टके टके भर अदमिलो adamili--अ० पुरातन स्थूल वस्तु । लेकर महीन कूट कपड़ छानकर उक्त चाशनी में लु. क०। मिला रक्खें । मात्रा-१ माशा से १ तो० । अदमुत्तहम्मुल andamutta hammul. अ. गुगा-इसके सेवन से श्वास, कास, मन्दाग्नि तथा असहनशीलता, असांवेदनिकता। Intoler अरुचि दूर होती है । अमृ० सायदमा०चि० । allce -ई० । म० ज०। अदरना adalana-सीरि० कुन्दरा । लु०००। अदमुलतअ जीन adamul-taaazoun--अ० । अदरा adara-हिं० संज्ञा पुं॰ देखो-आर्द्रा । नई सारत का उत्पन्न न होना। ऐप्लैप्सिया श्रदराफ़स adarafas-यु०सूरजमुखी,सूर्यमुखी। Apla pcia-इं. | म० ज०। (Helianthus Annuses. )i अदमूल aadamula-अ० मण्डूक, मढक । Prog n darini) माज़रियूनका एक भेद है (Rana Tigrina) लु० क०। | श्रदरारु adalaru) जिसके परो चौड़े होते हैं । अदम् aadam-अ० अस्ति, ऋण, अभाव, न होना । ऐठसेन्स Absence-इं० । म० ज० । लु० क. | See-Mazariyān अदम्बेदो adambedi ता. भुइ-गुलि-मह० । | अदरूमाला addarāmāli-यु. वह मद्य जो वृष्टिकेन्ने गिलु-कन ०। (Indigofera enme जल तथा शहद से बनता है । ( Asort of aphylla, Linn.) फा० इं०१ मा० । wine prepared from lain-waऐन्सली के मतानुसार उक्त पौधे का रस परि- ter & honey ) । लु० क०। वर्तक, मूत्रल तथा ऐण्टिस्कॉब्युटिक है। अदरूलीस adaru-lisa-रू० स्वेद,धर्म,पसीना । अदम्बु-वल्ली adambu-valli-कना० दोपाती- ( Perspiration ' लु० क० । लता, उतरन की बेल-हिं० । देखो-उतरन । अदमन adarmuna-अ० सूर्यमुखी, सूरजछागल-खुरी-बं० । ( Ipomama Bilobal, मखी (Halianthns annuus, Linn.) Fors..) फा० ई.२भा०। श्रदर्शक adarshaka-हिं० संज्ञा पु. पदार्थस्थित अदरक adarak-अ० अालूचह । See- गुण विशेष । यह पदार्थ का वह गुण है जिससे alucha h. | लु० क० । उनमें से कुछभी नही दीखता । इसे "अपारदर्शक अदरक adarak हिं0 संज्ञा पु. वा अस्वच्छ भी" कहते हैं । अोपेक Opaque अदरख adarakh-हिं०, उ० -इं० । अबैज़ हकीकी-अ० । [सं०पाक, फ़ा० अदरक ] श्राईक । The श्रदर्शन adarshana-हिं. संज्ञा पुं० [सं०] green ginger ( Zingiber offici- (१) अविद्यमानता । असाक्षात् । (२) लोप malis, Roxb.) विनाश । For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनलः श्रदल: adalah - सं० पु० अदल adala-हिं० संज्ञा पुं० www.kobatirth.org }(१) समुद्रफल हिं० । हिजलवृक्षः सं० । ( Barringtonia acutangula, Gurtn. ) श० च० । (२) घृत | Ghee (Clarified butter)। - हिं० वि० [सं०] ( १ ) बिनादल या प पत्र विहीन । ( २ ) पंखड़ी रहित | का । दल शून्य । श्रदलसा adalasá इ०, हिं० वासा, अडूसा । (Adhatoda vasica.) । श्रदला adalá-सं स्त्री० घृत कुमारी, घीकुवार ( Aloes Barbedensis ) । रा० नि० । अली adali - हिं० वि० [सं० अदल (1) बिना पत्ते का । ( २ ) पंखड़ी रहित | अदयो āadavi - अ० बकरी का बच्चा । ( A. kid ) लु० क० । अवोका adaviká यु० भूतांकुश । ( An Indian plant ). अदस āadas- अ० मसूर । नश्क फा० 1 (Ervam lens, Linn.) अदस āadas- ० मसूर हिं० । नश्क- फा० । A sort of pulse or lentil ( Ervum hirsutum) लु० क० । ई० मे० मे० । दस जबली āadasa-jabalií- अ० श्वेत पुष्पीय वनशा ( Viola odorata ). लु० क० । अदसनवतो āadasanabati - श्र० ( A plant like lentil ) मसूर के सदृश एक पौधा है | लु०क० । अदसबर्रो āadasa-barrio जंगली वा बन मसूर | Wild lentil ). लु० क० अदसिथ्यह āadasiyyahअदसह āadasah - अ० ( १ ) मसूरिका । लेग के प्रकार का मसूर सहरा एक दाना है जो मनुष्य शरीर पर निकल # Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदार श्राता है और प्रायः घातक होता है । ( २ ) आँख का पथरा जाना । ( ३ ) लालाढ़ीय सुखबादह रोग विशेष । ( ४ ) अर्वाचीन मिश्री हकीम चतु के स्फटिकवत् द्रव को भी अदसिय्यह ( मासूरिकीय ) कहते हैं, जो चांग्ल शब्द लेन्स का श्रीक पर्याय है । म० अ० । सुल्माadasul-maa- अ० हंसराज अथवा काई भेद | ( Adiantum venustum, Dow. or a sort of moss ). अदसुल्मुरं Tadasulmurr-o श्रप्रसिद्ध श्रौषध। (An unimportant drug ). अदहन adahana - हिं० संज्ञा पुं० [सं० थाहन=खूब जलाना ] खौलता हुआ पानी । याग पर चढ़ा हुआ वह गरम पानी जिसमें दाल चावल आदि पकाते हैं । श्रदश्य adahya-हिं० संज्ञा पुं० पदार्थस्थित गुण विशेष | यह पदार्थ का वह गुण है जिससे वे अल नहीं सकते अर्थात् " प्रज्वलनशील" पदार्थ । ( Incombustible ). अदक्षिण adakshina - हिं० वि० [सं० ] अकुशल, अनाड़ी । अदात adáta - शस्त्र, श्रस्त्र, कारीगरी । उद्घात ( ब० ० ) । म० ज० । अदादा adálá-बर० माङ्गरियून भेद । श्वीस | लु० क० । } अरण्यतस्बाकू, बन तम्बाकू ( Wild Tobacco, Mullein ) - इं० | Verbascum Thapsus - ले० । श्रदालुद्दुब्य adánuddubba-o अदानु दुब्बञ्ज adánul-dubbaāa-अ० अदाम āadáma - ० ( A kind of Date palm.) तरखजूर भेद । यह मदीना में होता है। लु० क० । अदामिल āadámila - ० पुरातन स्थूल वस्तु । लु० क० । अदार āadara-० पृथ्वीपर चलने वाला प्राणी, For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मारिका अद्ह नुन्ना नउल प्रखजर थलचर । ( Moving on land,tere- ! -FoO ( Unmenstruating strial ). लु० क०। woman ) वह सी जि.से प्रार्तव न पाता हो। अदारिका adarika-सं० स्त्रो० वृक्ष कमल, वह जिसका मासिकधर्म रुक गया हो। नष्टार्तवा। वृक्षोत्पल-सं० । उलट कम्बल-बं०। (Pete. रजः शून्या । rospermum aserifolium ). वै० अदृष्टम् adrishtam सं.क्ली. जो नेत्रसे श्रोझल निघ०। हो । अथव० । सू० ३१ । का०२ । प्रदाहत adahata-हि. वि० [सं० ] न अष्टहा adrishtahi वह कीट जो आँख से न जलाने वाला, जिसमें जलाने वा भस्म करने का दीखें, अणुवीक्ष्य । अथ। सू० २३ । गुण न हो जैसे, जल में। ६। का । अदिके adike-कना० सोंठ, शु। ( Dry अदृष्टिः adrishtih-सं० पु. (.) ____ginger )- देखो-आर्द्रक। | अदृष्ट adrishti-f. या पु. jअंधा,अंध अदित adita-हिं० संज्ञा पुं० दे० श्रादित्य । | (Blind )। (२) शिष्यों के तीन भेदों में अदितिः aditih-संस्त्री० Acowगवि, गाय । के० से एक । मध्यम अधिकारी शिष्य । अदील iadila-अ० पुरातन स्थूल वस्तु । लु० अदेह adaha हिं० वि० [सं०] बिना शरीर का | ___ संज्ञा पु. कामदेव । अदुतिन पालई adutin-pālai-ता. कीड़ामार, प्रदौरी adouri-हिं० संत्रा स्त्री० [सं० शुद्ध, गंधानी-हि. | फा०ई०३ भा०। (Aristol- पा० उई, हि. उद०+सं० बटी, हिं० बरी] ochia bracteata, Retz.) ___ केवल उर्द को सुखाई हुई बरी । अदुमतदा aduinattada-.ना. जंगली प्रदेशः adanshah-सं० पु. महामूलक । बड़ पिकवन, अन्तमूल-हिं० । देखो-अन्तमूल । | मूला-बं० । See-mahāmulakah. ( Tylophora Asthamatica ). अदाँत adanta-हिं० वि० [सं० अवन्त ] बिना फा०ई०२मा०। दाँत का । जिसे दॉत न पाए हों। (प्रायः पशुओं अदल adul-हिं. प्रोदुल, पुवान, पुवेज। मेमो के सम्बन्ध में)। अदनाः adinah-सं० विना जले ही सूख जाना। अ ज adaaj-अ. श्यामचक्षु, काले नेवाला। अथवं० । सू० ३१ । ३ । का०२। ब्लैक श्राईड ( Black eyed )-ई० । अक् adrik-सं०त्रि. अंधा, अंध । (Blind).. म० ज०। वै० श०। अह add-अ० (.) गिनना, गणना करना ATT adrig-ho go pa ghee (Clari ( Count )। (२) उद्यत करना, तैयार fied butter ). उ० । करना ( To make ready)। मज०। अदृढ़ः adridhah -सं० त्रि० (१) अस्थिर । ( Restless, Unsteady ) । (२) | अहन्दु.स्सीनी addandussini-अ० जमाल riizr ( Croton seeds ) I HO HO • क्ली० तृणविशेष । ( A kind of grass). डा०२भा०। वै० निघ० । अदृढ़ adrinha-हिं० वि० [सं०] (१) जो अहोजतालुल-फर्फरी addijatālul-farfiri दृढ़ न हो । कमजोर । (२) अस्थिर । चंचल । -अ० (Digitalis Folia) डिजिटेलिस। अदृश्र adrishra-सं० अन्धा, अंध । (Blind) ___ म० अ० डा० २ भा० । अदृष्ट पुष्पवती adrrishta-pushpa-vatil | अद्दुह नुन्न अनलअखज़र adduhnunHerraadrishțártavá _naanaaul-akhzal-अ. रौशन नअनन् For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहदत अद्विजः सब्ज़ फ..। ताजा हरे पुदीना का उद्दनशील अयम् adyam-सं० क्लो. धान्य । (Oryzan तैल (Oleum month viridlis ). ___sativa) देखो-धान्यम् । म० अ० डॉ०२ भा० । अधश्विना advastuvina) अद्ददन addidat-अ० रक कृमी सं०। कृमी- अद्यश्वाना adyashviniya -सं० श्री. श्रासन दाना । (Cochineal-.म०प्र० डा०२ भा. प्रसवा गवि, हाल की ब्याई गाय । ( Receदेखो-कोचीनील ntly born cow). अह दस्ति ब्ग addidatussibgh-अ० अदक: adrakah-सं० पु. महा नम्व वृक्ष, कृमीदाना । देखो-होचोनील । (Cochineal बकाइन (Melia azedarnch, Linn.) म० अ० डॉ० २ मा वै० निघ० । अदुनाफ़ ndnaf-अ. कृश होना या कृ. करना, अश्व adiava-हिं० वि० [सं०] जो द्रव जतप्राय होना । म० ज० । वा पतला न हो | गाढ़ा, घना, ठोस । अद्भुत बालक Adbhuta balakta-ह. श्रदव्य alravya-हि. संज्ञा पुं० [सं०] संज्ञा पु० विलक्षण बालक । (Monster). सत्ताहीन पदार्थ । श्रवस्तु । असत् । शून्य । कभी कभी जब दो शुक्राणुओं का एक डिम्ब से । श्रभाव। संयोग हो जाता है; तब ऐसे गर्भ से जो बच्चा अदूराम् ndrim-अ० दुग्ध दन्त का हिलना, उत्पन्न होता है उसके दो शरीर होते हैं जो अापस जिससे वह गिर कर उनके स्थान में नवीन दंत मेंजुड़े रहते हैं । इनको अद्भुत बालक कहते हैं। उगें। म० ज०। ये बालक बहुधा अधिक काज तक नहीं जिया अद्रिः adrih-सं० पु. (१) पर्वत ( Mouकरते । ___ntain.)। २) शैलवृत( Hilly tree). अद्भुतसारः adbhutasarah- पु. मे० रद्विकं । ( ३) परिमाण विशेष (A खदिरसार, खैरसार । ग०नि० २०८ । देखो weight.) खदिर। अद्रिकर्णी adri-karni-सं० स्त्री० (१) अपश्रद्मह, admah--अ० अधोचर्म, निम्न वा Tfal (Clitorea ternatea, Linn.) अधः त्वचा । कोरित्रम (Corium), उर्मा | (२) श्वेतापराजिता, विष्णुकान्ता | रा०नि० ( Derma)-इं.। व० २३ । नोट-त्वचा के स्थूल निमा भागको 'अद्मह' अद्रिका adrikā-सं० स्त्री० (१) महानिम्ब और पतले ऊर्ध्व परत को ' वह' कहते हैं। (Melia azedarach)। (२) धान्यक, म० ज०। धनियाँ । ( Coriandrum sativum, श्रमिय्यह admiyyah--अ० स्वगन्तर, त्वगधः।। Linn.) भा० पू० १ गु० व०। म० ज०। अद्रिकी adviki-कना० सोंड, शुलि। ( Dry अद्य adya-सं० भोजन। ( Food ). ginger'). देखो-श्राद्रक । ___-हिं० क्रि० वि० [सं०] अब । अभी । श्राज। अद्रिछिद् adrichhid-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अद्यतन: adyatanah-सं० वि० । बज्र । बिजली । ( Lightning). अद्यतन adyatana-हिं० वि० । अद्यभव ।। | अद्रिजः adrijah-सं० त्रि० (१) गिरिजात । अद्यतनीय । आज के दिन का । वर्तमान । पर्वत से उत्पन्न ।-की. (२)शिलाजतु, शिलाजीत। अद्यनिः adyanih-सं० पु. अग्नि । ( Fire) ( Bituinen) र० मा० रत्ना० । (३) उ०। तुम्वुरुवृत (Xanthoxylon alatum). For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रद्रिजतु रा० नि० ब० ११ । ( ४ ) गैरिक ( SeeGairika). २७१ अद्रिजतु adrijati - ६० को० शिलाजतु, शिलाजीत । ( Bitumen ) हेमा० । भा० । adrija-सं०स्त्री० सिंहली पीपल - हिं० । सैंहल पिप्पली उप-सं० । रा०नि०व० ६ । See-Sainhalí. श्रद्विभूः adribhūh - नं० लो० श्राखुकर्णीलता -सं० | मूपाकानी, सूषाकर्णी - ६ि० | (Salvi• nia cuculata )। रा० नि० व०३ | पार्श्वतीय लता ( Hilly creepers ) । श्रमिष adrimásha - सं० श्री० वनमाष, नउड़द, माषपर्णी । (Teramnus labialis) वै० निघ० । श्रद्विसानुजा adri-sánujá सं० स्त्री० त्राथ माणा । वै० निघ० । See Tráyamána. श्रद्विसारः adrisárah-सं० पु० ( १ ) लौह, श्रद्विसार adrisüra-fर्हि。संज्ञा पु० ) लोहा Iron ( Ferrum ) । रत्ना० । ( २ ) शिलाजीत ( Bituen ). श्रद्रेकः, -का adreshkah, shká सं० पु०, स्त्री० बकाइन - हिं० | निम्व भेद । पाहाडे निम् - वं० । भै० कुष्ठचि० । ( Melia Azed. arach.) अोक adrok - बं० श्रादी, शृंगवेर | Zingiber officinalis, Roxb. ( Fresh root of—Green ginger ) | देखो - आईक | अद्ल adla - अ० व्रण के खुरण्ड का सूखकर गिर जाना । म० ज० । अल āadla - अ० न्याय, न्याय करना; समान करना, सादृश्य करना । म० ज० । अह्वह् āadvah ) - ० ( १ ) संक्रमण, छूत तअदियह् taāadiyah ) लगना, किसी छूतदार रोग का एक दूसरे को लगना । ( २ ) वह छूत अथवा विशेष कीटाणु ( रोग सम्बन्धी ) विष जिससे उक्त रोग उद्भूत हो । (Contagion, Infection) म० ज० । श्रद्वियह् मुरकबह् अद्वा āadvà - अ० अस्ल मिश्रदी । ( १ ) श्रीमारी की छूत या लाग जो एक से दूसरे को लग जाए । (२) रोग का वह विष या व्याधि बीज अर्थात् छूत या लाग जो रोगाक्रांत प्राणि द्वारा स्वस्थ व्यक्ति को लगकर उसी रोग का प्रादुर्भाव करती है । ( ३ ) एक व्यक्ति की व्याधि का धन्य को लग जाना । ( ४ वह रोग जो एक से अन्य को लग जाए । कन्टेजियन् ( conta gion ), इन्फेक्शन ( Infection ) -- इं० । देखो - संक्रामक रोग वा वकटेरिया | श्रद्वार advár-अ० ( ० ० ), दौरह (ए०व०) पर्याय, पारी, बारी, रोगों की पारी, वेग, दौरा | पैक्स Paroxysm, फिट्ज Fits - इं० । म० ज० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रद्वितीय advitiya - हिं० वि० [स ं०] प्रधान | मुख्य । द्वियह adviyah श्र० (६००), दवा ( ए० व० ) श्रौषधें, श्रोषधियाँ | ड्रग्ज़ Drugs - इं० । म० ज० । वियह खुश्क adviyah khushka - फ़ro . खुश्क औषध, सूखी दवा | ( Dried drugs )। श्रद्वियह खुश्बू adviyah-khushbu -फा ( Aromatic drugs) सुगंधित श्रौषध, सुगंधित वस्तुएँ जो भोजन में प्रयुक्त होती हैं, यथा- लौंग प्रभृति | मसाला | श्रद्वियह, तर adviyah.tar - फा० गोली ओषधि ( Fresh drugs ). श्रद्वियह बसीह, adviyah-basitah श्रद्वियह मुफ़रदह adviyah-mufradah - अ० साधारण श्रौषधियाँ। श्रमिश्रित (अकेली ) धियाँ। सिम्प्ल ड्रग्ज़ ( Simple drugs ) इं० । अद्वियह मुरक्कबर adviyah-murakkabah - अ० मित्रित व यौगिक श्रौषधें । वह श्रीपधें जो अन्य औषधियों से मिश्रित की गई हों, यथा पाक, शर्बत, खमीरा प्रभृति । कम्पाउण्ड ड्रग्ज़ Compound drugs इं० । म० ज० । For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद्वियह, हारह अर्धमः अवियह हारह adviyah-hārrah १. अधगोहुआँ adbagohuain- हिं. संज्ञा पु. .. (भबाज़ीर ) गरम मसाले को कहते हैं। [सं० श्रद्ध+गोधूम ] जो मिला हुमा गेहूँ। अद्हान adhān-० (ब. २०), दुहन अधङ्ग adhanga-हिं० पु० अर्वाङ्गधात, पक्षा. (ए. व.)। तैलम्-सं० । तेल, तैल-हि। घात । ( Palsy, Hemiplegia.). रोग़न--फा० | 0il (Oleum ). अधङ्गी adhangi-हि० वि० पक्षाघात रोगी, अध adha-अव्य० दे० प्रयः । वह रोगी जिसे पक्षाघात हुआ हो। (Affec. वि० [सं० अद्ध, प्रा० अदा] प्राधा शरद ted with hemiplegia ) . का संकुचित रूप । प्राधा । ( Half). अधजर adhaijara-हिं० वि० पु०. [सं० अधकचरा adhakachara हिं०वि० [सं० अ +हिं. जलम ] अधजला । अधमरा । अद्ध अद्ध प्राध+हिं०=कचा] (1) अपरिपक्व ।। विदग्ध । ( Half-burnt.) अधूरा | अपूर्ण । (Unripe;Imperfect). अधड़ी adhari-हिं० वि० सी० [सं० अधर] (२) अकुशल । अदक्ष । (.)न ऊपर न नीचे की, प्राधार रहित । निरावि० [सं० अद्ध प्राधा+हिं. कचरना] धार | (Suspending; In the midd. श्राधा कटा वा पीसा हुआ । दरदरा । अधपिसा le ) अधकुटा । अरदावा किया हुा । ( Coarse अधपई adhapai-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अy powder) प्राधा+पाद-चौथाई ] तौलने का एक बाट । एक अधकच्चा adha-kachcha-हिं० वि० सेर के श्राठवें हिस्सेकी तौल । प्राधा पाव तौलने (Half-ripe ) अधपक्का । का बाट वा मान । दो छटंकी। दसभरी । प्रधअधकपारी adhakapāri-हिं० स्त्री० ) पैया । अधपौया । (A measurement अधकपाली adhakapali-हिं. स्त्री० =4 oz.) [सं० अर्द्ध-प्राधा कपाल=सिर ] प्राधे सिर का दर्द जो सूर्योदय से प्रारम्भ होकर दोपहर | अधवर्नी adha barni ! - बं० जलनीम तक बढ़ता जाता है और फिर दोपहर के बाद से अधबिर्नी adhabirni अधाबना aanabin1 (Herpestघटने लगता है और सूर्यास्त होते ही बंद होजाता is monvieria, Ibime leaved है । प्राधासीसी, सूर्यावर्त । (Hemicrania) herpes tes) ई० हैं. गा० । मे• मो० अविभेदक। अधमरा adhamara -हिं० वि० [सं० अधखिला adhakhila-हिं० वि० [सं० श्रद्ध अधमुश्रा adhamua अद्ध, प्रा० श्रद्ध +हिं० खिलाना] [स्त्री० अधखिली ] (HaIf-blown ) प्राधा खिला हुआ। श्रद्ध +हिं. मरा ] प्राधा मरा हुआ । अर्द्ध मत । मृत विकसित | प्राय । (Half-dead ) अधवुला adhakhula-हि. वि. पु० [सं० मधमाङ्गम् adhamāngam-सं० क्ली० । अर्द्ध-अाधा=हिं० खुलना] [स्त्री० अधखुली ] अधमांग adhamanga-हिं० संज्ञा पु० ( Half-open ) आधा खुला हुश्रा । पाद, चरण, पैर, पौव। देखो-चरण । श. अधगति adhagati-हिं० संज्ञा स्त्री० दे० च०। अधोगति। अवमुख adhamukha-हिं. संज्ञा . अधगो adhago-हिं० संज्ञा पु० [सं० अधः | [सं. अधोमुख ] नीचे+गो-इंद्रिय ] नीचे की इंद्रियाँ । शिश्न वा अधमः adhamah-सं० पु. (१) अम्लवेत, गुदा । ( Lower crgans; Penis | अम्लवेतस ।( Rumex vesicarius ). or anus). (२) पाद ( Foot)। For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंधर २७३ अधर नासाश्रुतिका अधर adhara-हिं०संज्ञा पु० [सं०] (1) मोठ, | अधर ग्रहणी adhara-grahani-सं० नो. प्रोष्ठ। (Lip, Labium)। शत-अ०। ( Colic valve or lleo-cuecal ). लब-फा० । (२) नीचे का श्रोड ( Lower- | अवर चतुष्पिराड adhara.chatushpindalip) | -संज्ञा पुं० [सं० अ-नहीं+-धरना ] हिं०संज्ञा पु०( Inferior colliculus). (१) पाताल । (२) बिना प्राधार का स्थान । | अधर चतुपिण्ड बाहु adhara-chatushpअन्तरिक्ष । आकाश । शून्य स्थान । inda-bāhu-हिं० संज्ञा स्त्रो० (Inferior वि० नीच, बुरा। brachium ). अधरकण्टकः adhara-kantakah-सं० अथर-चालनी-श्रोष्ठ-नाड़ी adhara-chalani पु० जवासा, धमासा, दुरालभा । (Alhagi oshtha-nari-हिंस्त्रो० अोठ चलाने वाली maurorum ). वै० नि० । नाड़ी। अधरकण्टिका adhara-kantika-सं० स्त्री० अधरज adhara ja-हिं० संज्ञा पु० [सं० छोटी शतावरी, तुद्र शतावरी। (Asparag अधर+रज ] अोठों की ललाई । भोंठों की सुर्जी । us racemosus ( The small var- | (२) ओंठों की धड़ी, पान वा मिस्सी से रंग of-) बै० निघ। की लकीर जो ओंठों पर दिखाई देती है। अधरकण्ठ्या adhara-kanthya-सं० स्त्री० । अधर जंघासन्धिः 6dhara-janghāsa (Inferior or Inferior--laryng- ____ndhih-सं०स्त्री० ( Distal Tibio-fibeal Artery) कराठाधोगा धमनी । ular ). अधरकाकलकीया adhara-kākala-kiya | अधर जामवी adharra-janavi-सं० स्त्री० -सं० स्त्री० ( Inferior Thyroid ( Inferior genicular ). artery) अधः चुनिका धमनी । अधर-तिरश्चीन स्थाविर विबलः adharaअधरकाण्डसिरा adhara-kānda-sira ) tirashchina-sthavira-vibalahश्रधरकायसिरा adhara-kayasira सं०प. Inferior-transverse tibio-सं० स्त्री. ( Inferior Vena cava)| fibulal ligament). प्रयोगा महाशिरा । अजौफ़ नाज़िल, अजौफ़ | अधरदन्त्या adhara-dantyā-सं० स्त्रो० तहतानी-अ०। (Inferior alveolar ). अधरकेदारः adhara-kedarah-सं० पु. अधर दार्शन केन्द्रम् adhara-darshana. (Cerebellar Fossa ) ag aftal | kendram-सं० पु०, क्ली० (Lower खात । हु.प्रह, मख्मखिय्यह.-१०। visual centre ). अधर कौनेय (यी) adhara-kouksheva, अधर धमनी adhara dhamani-सं० स्त्रो. -yi-सं० स्त्री० ( Hypogastric ) (Inferior labial) अधः श्रोष्ठीया धमनी। कोक्षोया, पेडू सम्बन्धी । खस. ली-अ.। अधर धारा adhara-dhāra-हि. संज्ञा स्त्री० अधर गल-सङ्कोचनी adhara-gala-sanko | अधोधारा, निम्न किनारा ( Inferior chaní-pio ato ( Constricter border ). - Phary.) कंठ संकोचनी । | अधर नामनी adhara-nāmani-सं० स्त्री० अधर गदः adhara-gudah-सं० प (Quadratus labii inferioris). (Anal canal). गुद नलिका। अधर नासाशुक्तिका adhara-nāsashuk For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधर पश्चिमसरदा अधरा tika-सं० स्त्री० ( Inferior nasal -सं० क्ली० (Cere bellum) अणु मस्तिष्क, concha) अधोशुक्तिका । लघु मस्तिष्क । अधर पश्चिमसरदा adhara-pashchima- अधर यमला adhara-yainala-सं० स्त्री० sarada-संस्त्री० (Inferior post- (Gem: llus Inferior) निम्न यमला । erior serratus ). अयर ललाट सीता adhali-lalāta-sita श्राधरपान adhara-para-हिं. संशा प. __-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Inferiol' frontal [सं० अधरोड+पानपीना, चूसना ] सात sulcus.) प्रकार की बाह्य रतियों में से एक रति । अाठी : अधर-वमिका dhart-val timika -सं० का चुम्बन । ETTO ( Inferior Palpibral.) अधर-पायवी adhara-pāyavi-सं० स्त्री० अधर-वस्तीया adhara-vastiya-सं०स्त्री० ( Inferior Hæmorrhoidal. ) (Inferior vesical.) अधरपाणि नौकीयः adhara-parshni-no- | अधर-व्रणः adhara-vranah-सं० पु० ओठ ukiyah-सं०त्रि० (Inferior Calca- का घाव, ओड में होने वाला व्रण। neo-navicular.) अधर व्रणका यल-घृत, फाणित अधर-पृष्ट-कीया बनता adhara-prishta ( गुडभेद ), तिल तैल, धतूरा, गेरू, kiya-vanata-सं० स्त्री० (Obliqus राल, लवण, मै नफल इन्हें एकत्र पीसकर Capitis Inferior.) लेप करने से पोठ (अधर) का महात्रण (घाव) अधर-पेश्या adhara-peshya-सं० स्त्री० तथा श्रोंठों का फटना दूर होता है। (Sural muscular- A.) अधर शाखा क्षेत्र adhara-shak ha-ksheअधर-प्रकोण-गो-जिह्वकीया adhara. prako- tra-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Lower extre na-go-jihvakiya-सं० स्त्री० ( Infe- inity area ) rior Aryepiglottideus. ) अधर गृङ्ग adhara-shringa-हिं०संज्ञा पु. अधरप्रकोष्ठ-सन्धिः adhara-prakoshtha- (भगास्थिका) Inferior horm (Cornu). ___ sandhih-सं० स्त्री०( Distal Radio अधर-साय की adhara-sāyaki-सं० स्त्री० ulnar joint) (Inferior Longitudinal.) अधर प्रास्तर-सरित्का adhara-prastara-, salitka-सं० स्त्री० ( Inferior Petr- अधर-हानवी adhala-hānavi-सं० स्त्री० osal Sulcus. ) (Mandibular ) अधर प्रास्तरी adhara-plastari-सं०स्त्री० अधर-हार्दी adhala-hardi सं० स्त्री० ( Inferior Patrosal Sinus. ) (Inferior Cardiac. ) अधर प्रेणिकी adhara-prainiki-सं० स्त्री अधर क्षुद्रांत्र adhara-kshudrāntra (Inferior Phrenic. ) -हिं० संशा जी० (Ileum ). देखो-खुद्रांत्र । tätst (si) adbar-proudhí (--thí ) yarargar adhara-kshudra-sakhí -सं० स्त्री० ( Inferior Gluteal.) -सं० स्त्री० ( Vena, Hemi-azygos). अधर बिम्ब adhara-bimba-हिं० संज्ञा पु० अधरा adhara-सं. स्त्री०निम्न, निम्न दिशा, [सं०] कुन्दरू के पके फल जैसे लाल श्रोठ । नीचे की तरफ। ( Downirards) ० अधर मस्तिष्कम् adhara-nmastishkam निघ० For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधराग्नथा शयोय-पौरोतती २७५ अधमारी अधरामया शयाय पारीतती adharagnya अधराक्षि-कुण्डीय विशरणम् atharakshi-k.. shayiya-pouritati-सं० स्रो०( Inf- | | undiya-visharanam-सं० क्ली०( In...erior Pancreatic duodenal art- ! ferior Orbital fissure ). - ery ). अ० श०। अवरेयुः adhaledyuh-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] अवराच्यम् adharichyam-सं० क्लो० नीचे __ गत दिन के पहिले का दिन । परसो । भूमिमें सरकने वाले कीट । अथर्व० । स०७। अवरोत्तर adharottara-हिं० वि. पु. ३। का० ४। [सं०] (१) ऊँचा नीचा । खडबीहड़ । श्रघाजिः adharājih-सं. स्त्री० (Unst- अधरोत्तरकोक्षयीadharottara-kouksheyi ripad musele).धारी विहीन मांस पेशी । -सं० स्त्रो०( Inferior Epigastric) अधराजिह्मा adhara-jihma-सं० प्रा० अधरोथा adharontha-हिं० वि० [सं० ( Rectus Inferior). अधरासरला । श्राद्ध = अाधा+रोमंथ = जुगाली ] प्राधा जुगाली कियाहुया । प्राधा पागुर गिया । बाधा चबाया श्रधराश्चम् adharanchain-स. क्लो० नीचे हुआ । दबाना । अथव०। सू० १२७ । ३ । का० ६। धवौयो adharordhva-koukshTraia 5 Traa adhará-tánika-l'á- eyi-सं० स्त्रो० (Deeper Inferior Suni-सं० स्त्रा० (Longitudinalis Epigastric ). Linguin Inferior). अधरोष्ठया adharoshthya-सं० खो०( In. अधरातानिकी adharitāniki-सं० स्त्री० ___ferior Labial ). (Inferior Longitudinals.), अधरोदूखल-स्रोत: adharoudakhala-sro ____tah-सं० पु. ( Mandibular caअवराधर adharādhara-हिं० पु० [सं० ___nal). अधः+अधर ] नीचे का ओठ ( Lowerlip) अधरौदखलो adharoudakhali-सं० स्त्री० अवरान्तर कीपरो adharāntarra-kour. (Inferior Alveoler ). pari-सं० स्त्रो० (Inferior Uinar ). | अधरोपमस्तिष्क पदकम्udharoupamasti. अपरान्त्राय लक्षकम् adharāntriyav-plak shka-padakam- g' (Inferior shakam-सं० क्ली० (Inferior mes- Cerebellar Pedum or Peduenteric Plexus ). nele ). अधरान्त्राया adharantriyi-सं० स्त्रो अधरंगा adharanga-हि. संज्ञा पुं० [हिं० ( Inferior mesenteric ). श्राधा+रंग] एक प्रकार का फूल | | अधर: adharah-सं० प. (१) श्रोष्ठ, श्रोठ अधरामहाशिरा adhara-mahashira-हिं० -हिं० । टोट-बं० । लेबियम् Labium,-iaस्त्री० अधोगामहाशिरा( Inferior-vena ले। लिप (Lip)-इं० । रा०नि०व०१८। cava). -क्लो० (२) स्त्री योनि ( Vagina ). अधरावनता adharaivanatā-सं० स्त्री० अधवा adhavā-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अ+धव ( Obliquus Inferior ). =पति) जिसका पति जीवित न हो । विधवा । अपरांसथरा adhalinsa-dhara-सं• स्रो बिना पति की स्त्री । राँड़ । सधवा का (Lower subscapular ). अंसाधरा उलटा। अ. श०। अधवारो adhavari-हिं० संज्ञा स्रो० [ देश०] PULUI. For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधश्चर अधिजिलिका एक पेड़ का नाम जिसको लकड़ी मकान और अधिकरणम् adhi karanam--संकी. जिस श्रसयाब बनाने के काम पाती है। अर्थका अधिकार करके और अर्थोका वर्णन किया जाए उसे अधिकरण कहते हैं। जैसे रस अथवा श्रयश्चर adhashchara-हिं० वि० [सं०] जो नीचे नीचे चले। दोष अर्थात् रस का अधिकार करके और बातें कही गई या दोष को अधिकार करके या यों अधसेरा adhasera हिं० संज्ञा पु० [सं० कहो कि रस के ग्रहणार्थ रस शब्द कहा गया अद्ध प्राधा+सेटक-सेर ] एक बाँट वा तौल जो (कई जगह बिना कहे भी उसका ग्रहण किया एक सेर की प्राधी होती है । दो पाव का मान । जाता है। ये सब अधिकरण ही होते हैं)। अधस्तल adhastala-हिं० संज्ञा पु[सं०] सु० उ० ६५ अ.। यमर्थमधिकृत्योच्यते (१) नीचे की कोठरी। (२) नीचे की तह । तदधिकरणम् । यथा-रसं दोषं वा । ६ । (Inferior Surface ) जहाँ कोई काम किया जाता है। अधिष्ठान । अधस्तल कारिणीadhastala-karini-सं० श्राधार । सु०सू०४१० । सु० उ०६५० fro ENTO ( Pronator tures ). | अधिकार adhikara--हिं० संज्ञा पं० [सं०] श्रधातु adhā tu--हिं० संज्ञा पु० ( Non me (१) कार्यभार । प्रभुत्व । प्राधिपत्य । प्रधाtal) जिनमें धातु के लक्षण न पाए जाएँ। नता । (२) प्रकरण । शीर्षक । (३)तमना । देखो-धातु। सामर्थ्य । शति । अधिकारी adhikari--सं० पु. पुरुष । (A श्रधामार्गः adhamārgah-- ____man) वै० निघ०। 11asia: adhá-márgavah अधिकारी adhikari-हिं० संज्ञा पु[सं०अधि-सं००(१) अपामार्ग। (Achyran- कारिन् ] [स्त्रो० अधिकारिणो ] (२)योग्यता thes aspera) धामार्गव वृक्ष । See - वा क्षमता रखने वाला । उपयुक्र पात्र । (१) Dhamargavah | प्र०टी०। स्वत्वधारी । हकदार । (३) प्रभु । स्वामी। अधावट addhāvata-हिं० वि० प्र० [सं० अधिकृत adhikrita-हिं० वि० [सं०] (१) अर्द्धप्राधा+प्रावत:चक्कर ] अाधा श्रौंटा हुआ। अधिकार में पाया हश्रा। हाथ में पाया हुश्रा। जो पोटाते बा गरम करते करते गाढ़ा होकर उपलब्ध | जिस पर अधिकार किया गया हो। नाप में प्राधा हो गया हो। संज्ञा प. अधिकारी। अध्यन । अधि adhi-(A Sanskrita Prefix) एक अधिकांग adhikanga-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] संस्कृत उपसर्ग जो शब्दों के पहिले लगाया जाता अधिक अङ्ग । नियत संख्या से विशेष अवयव । है और जिसके ये अर्थ होते हैं-(1) ऊपर । वि० जिसे कोई अवयव अधिक हो । उ० ऊँचा । पर । (२) प्रधान । मुख्य । (३) छांगुर । अधिक । ज्यादा । ( ४ ) संम्पन्ध में । उ० अधिकम adhikrama--हिं० संज्ञा पुं० [सं०] श्राध्यात्मिक । श्राधिदैविक । प्राधिभौतिक । प्रारोहण | चढ़ाव । चढ़ाई। अधिकण्टक: adhi-kantakah--सं० पं. श्रधिजिह्वक: adhi-jihvakah-सं०प०निह्वा यास सुप, दुरालभा विशेष | (Alhagi ma. गत रोग विशेष । देखो-अधिजिह्वा । See urorum) रा०नि० व०४। । Adhi jihvá अधिकप्रियम् adhika-priyam--सं० क्ली अधिजिह्वा adhi-jihva ) सं० स्त्री० त्वचा, दारचीनी । Cinnamomum अधिजिबिका adhi-jihvika) (1) श्ले. zeylanicum, Nees. (Bark of- म शोणित जन्य जिह्वा रोग विशेष, इसमें जिह्वा cinnamon) । बै? निघ। के ऊपर जिह्वा के अन्य भाग के समान सूजन For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिजिहा अधिमन्या होती है। देखो-अधिजिह्वः । सु० नि० अधिपतिः adhi-patith-सं०५० सद्यः प्राणहर अ०१६ । (२) घोड़े की जिह्वा के ऊपरी भाग मर्मस्थान विशेष । मस्तक के भीतर ऊपर को में शोफरूप से होने वाला जिह्वा रोग विशेष । जहाँ बालों का प्रावर्त (भँवर ) होता है वहाँ ज० द० २६ ०। शिरा और संधि का सन्निपात ( मिलाप ) है । अधिजिह्वः adhi-jihvah--सं० पु० । यह "अधिपति" नामक मर्मस्थान है। यहाँ पर अधिजिह्व adhijihva--हिं० संज्ञा स्त्री० चोट लगने से तत्काल मृत्यु होती है। सु० शा० ए व्युमरॉन दी टङ्ग (A tumour on the ६ अ०। tongue)-ई। हिं. पु. [ स्रो० अधिपत्नी ] सरकएटगत मुखरोग | एक बीमारी जिसमें रक्त से दार, मालिक | मुखिया। स्वामी । नायक । मिले हुए कफ के कारण जीभ के ऊपर सूजन हो अधिपति रन्नम् adhipati.randhram. ) जाती है। इसको द्विजिह्वा भी कहते हैं। इसके अधिपति विवरम् adhi-pati-vivaram ) लक्षण निम्न हैं; यथा-इसमें जिह्वाग्र में कफ -सं०को० (Posterior Fontanelle) से शोथ होता है तथा जिह्वा के प्रबन्ध (मूल) पश्चात् विवर। दो मास से कम आयु वाले बापर रुधिरसे मिला हया रतवर्ण का शोथ होजाता लक के शिर में जहाँ पाश्विकास्थियों के ऊपर के है। सूजन पक जाने पर यह त्यागने योग्य पिछले कोने पश्चादस्थि से मिलते हैं वहाँ पर अर्थात् असाध्य हो जाती है । सु० नि० अ०१६। एक गढ़ा रहता है उसको अधिपतिरन्ध्र कहते अधितुण्डो रसः adhitundi-rasah-सं०५. हैं। यहाँ भी मस्तिष्कको फड़क मालूम होती है। शुद्ध पारद, शुद्ध विष, शुद्ध गन्धक, अजमोद, अधिपयङ्कदेशः adhiparyunka deshahत्रिफला, सजीखार, जवाखार, चित्रक, जीरा, सं० पु. ( Epithalamus ) कौड़ी प्र. सेंधा नमक, काला नमक, वायविडंग, गंगलव', देश । श्रोर त्रिकुटा प्रत्येक तुल्य भाग लें तथा सर्व तुल्य अधिबिना adhibinna-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] शुद्ध कुचिला चूर्णकर मिलाएँ, पुनः जम्भीरी के रससे घोटकर मिचं प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । इसके । अध्यूदा । प्रथम स्त्री । प्रथम विवाह की स्त्री । वह सेवन से मन्दाग्नि दूर होती है। अमृ० सा०।। स्त्री जिसके रहते उसका पति दूसरा विवाह अधित्वचः adhitvachah-सं० ए० श्रावरण । कर ले। भाग । अथव० । सू० २१.१ का०६। अधिभूतः adhi-bhutah-सं. प. जिस अधिदन्तः,-क: adhidantah,-kah-सं० पू० इन्द्रिय का जो कार्य है वह कार्य ही उस इन्द्रिय दन्तमूल रोग विशेष, गजदन्त । (A tooth का अधिभूत विषय है। परन्तु किसी किसी ने growing over another) ज.द. उनके विषय को ही अधिभूत माना है। सु० शा० अ० । अधिदेव adhi-daiva-हिं० वि० [सं०] दैविक, अधिभौतिक adhi-bhoutika-हिं० वि० दे० - दैवयोग से होने वाली, अाकस्मिक । प्राधिभौतिक। अधिदेवतम् adhidaivatam सं. क्ली० । अधिमन्थ adhimantha-हिं. संज्ञा पु. ) अधिदेवतadhidaivata-हि. संज्ञा पुं० ) अधिमन्थः adhimanthah-सं० पु. (.) पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान, विषय वा प्रक- (Acute Pains in the balls of रण । (२) अधिदेवता । प्राधिदैविक रोग । the eyes with pain and swelling देवताधिकृत । सु० शा०१० । of one side of the head.) अभिष्यन्द वि० देवता सम्बन्धी । (पानी पाना ) द्वारा उत्पन्न नेत्र रोग विशेष । For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रधिमुक्तकः श्रमिष्यन्द रोग का एक अंश कफज और रक्तज भेद से चार www.kobatirth.org २७८ यह बातज, पित्तज प्रकार का होता । इन सम्पूर्ण रोगों में तीव्र वेदना होती है । यही इनका मुख्य लक्षण हैं । श्रभिष्यन्द ( चोक उठना, नेत्रशूल ) रोग की उपेक्षा करने से फलतः श्रधिमन्थ नामक रोग उत्पन्न होता है । लक्षण - अभिष्यन्द रोगों के बढ़ने पर उपाय श्रीर पथ्य नहीं करने वाले मनुष्यों के नेत्र में पीड़ा करने वाले उतने ही प्रकार के अधिमन्थ रोग उत्पन्न हो जाते हैं । जिस रोग में ऐसी • पीड़ा होती हुई प्रतीत हो मानो नेत्र ग्रत्यन्त उखाड़े या बींधे जाते हों और यात्रा शिर मथा सा जाता हो तो उसे अधिमन्थ जानना चाहिए। श्रधिमन्थ वातादि दोषों के लक्षण से युक्त चार ही प्रकारका होता है । श्लैष्मिक श्रधिमन्थ सप्त रात्रि में तथा रकज, वातज क्रमशः ५ व ६ रात्रियों में और मिथ्या आचार से पैत्तिक तत्काल दृष्टि का नाश कर देता है । चिकित्सा - सभी प्रकार के अधिन्थ रोग में सर्वधा ललाटस्थ शिराका वेधन करें अर्थात् सद करें । इसकी शांति की दशा में भौंहों को प्रदाहित करे। सु० उ० ६ श्र० । अधिमुक्तक: adhi-muktakah-सं० पु ं० माधवी लता । वै० निघः । See-madhavílatá. श्रधिमुक्तिका adhi-muktiká-सं० स्त्री० सीपी, मोती की सीपी - हिं० मुक्रागृहम्, शुक्ति -सं० | Oyster shell ( Ostrea Edulis ) बैं० निघ० । अधिमासक: adhimánsakah सं० पु० ( Inflammation of the tonsils ) कफ जन्य दन्तवेष्टज रोग विशेष । एक रोग जिसमें कफ के विकार से नीचे की दाद में विशेष पीड़ा और सूजन होकर मुँह से लार गिरती है । लक्षण - यदि हनु ( डाढ़ ) की पिछली तरफ के दन्त ( मूल ) में घोर पीड़ायुक्क भारी सूजन हो और मुँह से लालास्राव हो तो उसे “अधिमां अधिश्रयणी सक" कहते हैं । यह कफ के प्रकोप से होता | भा० म० ख० ४ भा० मु० रो० चि० । मा०नि० । सु० नि० १६ श्र० । अधिमासम् adhi-mansam - सं० की ० पु० नेत्र रोग विशेष । मा० ने० से० । देखो - नेत्र (वि) मांसामं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धमांसा adhi-mánsármma-सं०पु० (Fleshy excrescence on the eye, cancer of the eye ) । दृष्टि शुक्रगत रोग विशेष। यह "मांसवृद्धि " नाम से प्रसिद्ध है । इसके लक्षण - नेत्र के श्वेत भाग जो फैला हुआ यकृत सदृश अर्थात् ईपन् नीललोहित वर्ण का मोटा मांस दिखाई देता है उसे "धमांसा" कहते हैं । मा० नि० । अधिरूढ़ा adhi-rúrha - सं० स्त्री० प्रौढ़ा, दृष्टा र्त्तवा, ३० वर्ष से ( ऊपर ) १५ वर्ष पर्यन्त की अवस्था वाली स्त्री | See - Proudha. अधिराहण adhirohana - हिं० संत्रा पु० [ सं० ] चढ़ना । सवार होना | ऊपर उठना । श्रधिरोहिणी adhi-rohini-सं० ( हिं० संज्ञा ) स्त्री० ( Stair case, a ladder) सीढ़ी । निसेनी | जीना । बाँस का बनाया हुग्रा चढ़नेका मार्ग। इसके पर्याय - निःश्रेणी । श्र० टी० । fa:fa: (). अधिवास adhivasa - हिं० संज्ञा पु० [सं० ] [वि० अधिवासित ] ( १ ) निवास स्थल । रहने की जगह । ( २ ) महासुगन्ध । खुशबू | ( ३ ) उबटन | अधिवासन adhivasana - हिं० संज्ञा पुं० ( १ ) सुगंधित करना । ( २ ) रहना | अधिवृक्क adhivrikka - हिं० पु० ( Supra renals ) उपवृक । अधिवेत्ता adhivetta - हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] पहिली स्त्री के रहते दूसरा विवाह करना । अधिवेदन adhivedana - हिं० संज्ञा पु ं० : [सं०] एक स्त्री के रहते दूसरा विवाह करना । अधिश्रयणी adhishrayaní-सं० स्त्री० चुलि | - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] सीढ़ी | निसेनी । निःश्रेणी | ज़ीना ! For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अधिश्रवण अधिश्रवण adhi-shravana - हिं० सं०ज्ञा पुं० : [सं० ] ( १ ) चूल्हा, भोजन पकाने की अँगीठी, www.kobatirth.org तंदूर । भाइ के लिए श्रग्नि स्थान । चुल्लि सं० । ( Ove", A fireplace ) ( २ ) श्राग पर चढ़ाना । श्राग पर रखना । अधिष्ठाता adhishthata - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अधिष्ठात्री ] ( १ ) करने बाला | नियंता | प्रधान | ( २ ) किसी कार्य की देख भाल करने वाला । वह जिसके हाथ में किसी कार्य का भार हो । २७६ अधिष्ठान adhishthana सं० पुं० कलाई । टखने की हड्डियाँ | ० | कूर्च | सु० । श्रधिष्ठानम् adhishthauam - सं० क्ली० अधिष्ठान adhishthana हिं० संज्ञा पु ं० (१) वास स्थान (Place ) । ( २ ) मान (Village) । ( ३ ) नगर | शहर | जनपद | ( ४ ) स्थिति । पड़ाव, मुकाम, ठहरने की जगह । -टिकान | रहने का स्थान । ( ५ ) आधार, सहारा । ० । अधिष्ठानकला adhishthánakalá-सं० स्त्री० ( Basement membrane ). safarna adhiskanda अपने क्षेत्र में । श्रधिक्षेप adhikshepa - हिं० संज्ञा पु ं० [सं० ] फेकना । अधोऽन्वायाम शिरा कुल्या adho-anva yáma-shirá-kulyá-foto ( Inf. erior sagital sinus). श्रधोऽस्रपित्तम् adho-asrapittam--सं० क्लो० अधोगत रक्त पित्त रोग | देखो - रक्तपित्तम् । अयोगतः adho-gatah - सं० पु० अस्थिभंग रोग । ( Fracture ) चै० निघ० । अघिक्षिप्त adhikshipta - हिं० वि० [सं०] अध/गमन adho-gamana--हिं० संज्ञा पुं० फेका हुन । [सं० ] ( १ ) नीचे जाना । ( २ ) पतन | अधोगा महाशिरा adhoga-maháshirá अधोगामी महाशिरा adhogámi-maháshira --सं० स्त्री० निम्न महाशिरा । ( Inferior vena cava ) जौफ़ नाज़िल - अ० । दाहिनी ओर बाई संयुक्ता श्रोणिगा शिराओं के मेल से महाशिरा बनती है। यह उदर में वृहत् धमनी की दाहिनी ओर रहती है। देखो - श्रधोगा महाशिरा । श्रधोगामहाशिराadhogá-mahá-shirá -हिं० संज्ञा स्त्री० नीचे सब शरीरसे अशुद्ध रुधिर लाने अधीरः adhirah--सं० पु० ) ( १ ) अधीर्य, अधीर adhira fहं०वि०, पु ं० धीरता हीन, अधो adho- श्रव्य० दे० श्रधः | धैर्य रहित, जिसको धीरज न हो । उद्विग्न, व्यग्र, व्याकुल विह्वल, बेचैन, घबड़ाया हुआ । (२) अयोग्य वैद्य । चै० निघ० । (३) चंचल, स्थिर, उतावाला, तेज़, आतुरा । ( ४ ) संतोषी । अधोगा महाशिरा अधोश्रोष्ठ adho-oshtha - हिं० संज्ञा पुं० निम्न श्रोष्ठ । (Lower-lip ). श्रधी श्रोष्ठोया धमनी adho oshthiya-dha maní Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रधःश्रोष्ठ्या धमनी--adhah oshthyà-dhamani--हिं० संज्ञा स्त्री० ( Inferior labial artery) निम्न श्रोष्ठकी पोषक धमनी । त्रोऽङ्गम् adho-angam सं० क्ली० ( १ ) मलद्वार | चूति ( Anus) । ( २ ) योनि (Vagina ). sts शुन adho anshukam सं० क्ली० शुक adhonshuka - हिं० संज्ञा पुं० परिधेयवस्त्र, एक नीचे का वस्त्र | जैसे पायजामा, धोती इत्यादि । श्रम० । (२) श्रस्तर । अधोऽन्वायाम रसनिका adho-anváyámarasaniká-foto (Longitudinalis ) For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रोगामहाशिरा खात 1 वाली | नीचे की महाशिरा । ( 1nferior vena cava ). अधोगा महाशिरा खात adhoga-maha-shirá-kháta--हिं० संज्ञा स्त्री० ( Groove for inferior vena cava) २८० अधोगा वृहद्धमनी adhogá-vrihad.dhamani--सं० त्रो०( Descending aorta ) निम्न महा धमनी । अधोगामी adho-gámi--हिं० वि० [सं० अधोगामिन् ] [स्त्री० अधोगामिनी ] atarà atat ( Descending). श्रोगाम महायमनी adho-gamimahadhamani - सं० स्त्री० अधोगावृहद्धमनी । श्रयोगामोवृहद् श्रन्त्र adhogámi-vrihadantra - हिं० संज्ञा पुं० ( Descending colon ) बृहत् श्रन्त्र का तीसरा भाग जो प्लीहा से नीचे की ओर जाकर वामपार्श्व से वस्तिगहर में पहुँचता है। कोलून नाजिल, कोलून हाबित - अ० । योगामीवृहत् धमनी adhogámi-vrihat - dhamani - सं० स्त्रो० ( Descending aorta ) निम्न महाधमनी । अघोघण्टा adho ghanta - सं० स्त्री० (Achyranthes aspera ) अपामार्ग, चिचड़ा | रत्ना० । श्रधोजिह्वा adhojihvá - सं० स्त्री० श्रधोजिह्विका adho-jihviká ) ( Uvula ) अलिजिह्वा, उपजिह्वा, तालुमूलस्थ क्षुद्रजिह्वा । हारा० । (२) जिह्वाधः शोथरोग, श्रधोजिह्वा, की सूजन ( Uvulitis ) । च० । अधोमुख - इं० । ( २ ) योनि - हिं० । मबिल, अनुक्रूरं - हिम् - अ० वेजाइना ( Vagina ) - ई० । हे० च० । श्रधोधारा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir adho-dhárá--हिं० संज्ञा स्त्री० निम्नधारा, नीचे का किनारा | ( 1nferior border.) श्रधोनेत्रच्छद adho-netracbchdada-fro संज्ञा पु ं० (Lower eyelid ) निम्न पलक, नीचे की पलक | श्रधोपार्श्विक चक्राङ्ग adho-párshvika-chakránga--हि० संज्ञा पु ं० ( inferior lateral gyrus) श्रीपुष्पी adho-pushpi - सं० स्त्री० अंधाहुली । देखो - श्रधः पुष्पी ( Adhahpushpi ). अधोपृष्ट adhoprishtha - हिं० पु० भीतरीपृष्ठ ( Inferior surface ) अधोभाग adhobhága - हिं० संज्ञा पु ं० ( Base ) अस्थि की तली का चौड़ा भाग | अधोभार adhobhara --( Downward pressure ) गैसों के तीन प्रकार के दबावों में से एक । वायु का नीचे को दबाव डालना । अधोभागहरः adho-bhága-harah — सं० त्रि० नीचे के भाग की शुद्धि करने वाला । विरेचन कर्म में हित कारक । विरेचन | च० । श्रधोभुवन adho-bhuvana--हिं० संज्ञा पुं० [सं०] पाताल | नीचे का लोक । अधोलोक । adhomarmma - सं० क्ली० (१) गुदा ( Anus) । ( २ ) गुह्यद्वार ( Pude • ndum ) । हे० च० । धोम अधोदेश adhodeşha-हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] | अधोमार्ग adhomárga -- हि० संज्ञा पुं० ( १ ) नीचे का स्थान । नीचे की जगह । ( २ नीचे का भाग । अधोद्वारम् adho-dvaram सं० क्ली० मलद्वार, चूति, गुदा, हिं० । इस्त, दुख, शरज, मक़अद्, मब्रज, रोवए-मुस्तकीम अ० । एनस anus [सं०] गुदा (Anus ) । अधोमुख adho-mukha - हिं० वि० [सं० ] ( १ ) नीचे मुख किए हुए । मुँह लटकाए हुए । (२) । श्रधा उलटा | मुँह के बल । क्रि० वि० श्रधा । उलटा | For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधोमुखा,-खी २८ अधःकाय अधोमुखा,खी adho mukhā,-khi-सं० नीचे की शाखा । इसमें नितंबास्थि, ऊर्वस्थि, सत्रो० गोजिह्वा । गोभी--हिं० । रा०नि० जंघास्थि, अनुजंघा, पाली, कूर्च, प्रपाद तथा घ० ।। ( Elephantopus scaber). अँगुल्यस्थियों का समावेश होता है। प्रत्येक अधोयन्त्रम् adho yantram--सं० क्लो. शाखा में ३१ अस्थियाँ हैं, दोनों में ६२ । वकयन्त्र । ( see-vakayantra). अयोशिरा कुल्या adhoshira kulya-सं० अधोरेचनः adho rechanah--सं० पु. . स्त्रां. देखो-शिराकुल्या। पारग्वध वृक्ष । अमलतास का पेड़-हिं० ।। अयोशुक्तिका adho-shuktika . -सं०हिं. Cassia fistula ( Tree of-). get ritgefa adhosí pákriti अधोर्ट adhorddha--हिं० क्रि० वि० [सं०] anto (Inferor turtbinate ) argent ऊपर नीचे । तले ऊपर । की बाहरी दीवार पर की तीन मुड़ी हुई अस्थियों में से नीचे वाली अस्थि । यह तीनों में सब से भधाललाट चक्राadholalata-chakranga बड़ी है और एक पृथक् अस्थि है। इस अस्थि -हि. संज्ञा पु. ( Inferior temporal की शकल सीपी जैसी होती है। gyrus). | अधोहनुः adhoha nuh-सं० पु. नीचे का अयोलामः adholomah--सं० (हिं०) प० गुण स्थान के ऊर्ध्व भाग के केश को कहते है । झाँट, जाबड़ा । (Lower jaw ) देखो अधो हन्यस्थि । कामाद्रि केश-हि. । ( The hair on the groin ). अधोहन्वस्थि adho-hanvasthi-हिं० संज्ञा स्त्री० नीचे के जबड़ेकी अस्थि । इज़ामुल-फक्कुलअधोलंय adho-lamba-हिं. संज्ञा पुं॰ [सं०] अरुफल-अ० | उस्तस्वानुल-वारहे-जेरी फा० । (१) लय । (२) साहुल । मैरिडबल ( Mandible ). इन्फीरियर अधेावर्ती क्षत्रीय धमनी adho-vartti मैरिज़लरी बोन (Inferior maxillary kshudrántriya-dhamani-fco ETTO bone)-इं.। (Lower mesenteric artery ) sizi यह चेहरे की अस्थियों में सबसे बड़ी और भानों के नीचे की धमनी । मज़बूत अस्थि है और सब से नीचे के भाग में अयोधातावरोधोदावर्त adho-vātāvaro. रहती है, छुड्डी (ठोड़ी) इससे बनती है। यह dhodavartta-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] __ अस्थि देशी जूते की नाल की भाँति मुड़ी हुई रोग विशेष | अधोमयुके वेग को रोकने से उत्पन्न होती है। उदावर्त रोग । इस रोग के लक्षण ये हैं-मल मूत्र अधंतरी adhantari-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० का रुक जाना, अफरा चढ़ना, गुदा-म्बाशय-लिङ्गेन्द्रिय में पीड़ा तथा बादी से पेट में अन्य रोगों अधः+अंतरी ] मालखंभ की एक कसरत । का होना । अधः adhah-सं० त्रि० (अव्यय) निम्न | नीचे । अयोवायुः adho-vāyuh--सं० पु. ) तले । ( Down, below. )।-संज्ञा पुं० अधोवायु adhovayu--हि० संज्ञा पु. ) (१) अधोभाग, निम्न भाग । (२) योनि । (१) अपानवायु । गुदा की वायु । (२) पाद । वै० निघ०। गोज़ । पईन । नीचेकी हवा । See-Apāna- अधःकर्षणम् adhah-karshanam-संक्ली० váyu. नीचे खींचना ( Drawing Downw. अधोशाखा adho-shikha-सं० स्त्री० ( Lo- ards. ) wer extremity ) निम्न शाखा, धड़ के | अधः काय adhan-kāya-हिं० संज्ञा पु. ३६ For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधःकुन्तलः २८२ अधःपुष्पी [ अधः नीचे+काय शरीर ] कमर के नीचे के श्रीधा कर रख दें। दोनों पात्रों के मुख को अंग | नाभि के नीचे के अवयव । मिलाकर मदु मृत्तिका द्वारा उनकी संधियों को अधः कुन्तलः adhah-kuntalah-सं० भली प्रकार बन्द कर दें। ऊपर के पात्र को अन्तलाम। उत्ताप देने पर पारद पृथक् होकर जल में गिरेगा । अधः कुक्षि देशः adhali-kukshideshah यह पारद शुद्ध होगा। पारद शोधन की इस -सं० पु. (Hypogastric region. ) क्रिया को अधःपातन और जिस यंत्र कुक्षि निम्नभाग। पेड़ के नीचे का हिस्सा । इक्लीम् | द्वारा यह क्रिया सम्पन्न होती है उसको श्रायुर्वेद खस ली, क्रिस्म खस... ली-अ० । में भूधरयंत्र कहते हैं । देखो-पारद । अधःकौक्षय-सक्षम् adhah-kouksheya- “नवनीताह्वयं सूतमित्यादि ।" र० सा० सं०। plaksham-लं०पु० कुक्ष्यधः भाग स्थित (२) अर्वाचीन रसायनशास्त्र की परिभाषा में नाड़ी जाल । जफीरह-खस लिय्यह-अ०। इसने अभिप्राय विलयन में से किसी द्रव्य का (Hypogastric Plexus. ) पात्र तल पर शनैः शनै बैठना अथवा तलस्थायी अधः पतन adha.h-patana-हिं. संज्ञा पु. होना है। [सं०] (१)। ( Precipitation.) अधः कुछ द्रव्य ऐसे होते हैं, कि यदि उन के विलक्षेपित वा तलस्थायी होना । (२) नोचे गिरना । यन पृथक पृथक् शुद्ध जल में बनाए जाएँ, तो (३)विनाश, क्षय, पतन । देखो-अधः पातन । वह विलयन सर्वथा स्वच्छ और पारदर्शक होते अधः पात adhah-pata-हिं० संज्ञा प. हैं। पर यदि उनको मिला दिया जाए, तो उनमें [सं०] (१) अधः क्षेपित (प), तलस्थित, नीचे कोई ऐसा परस्पर रासायनिक विकार होता है, गिराहुा । (Precipitate)। (२) नीचे कि एक अविलेय वस्तु बन जाती है, जो पहले गिरना। देखो-अधः पातन । (२)तलछट, गाद । विलयन को कलुपित कर देती है, और पुनः अधः पातनम् adha h-patana m-संक्ली। पात्र तल पर शनैः शनैः बैठ जाती है। इस अधः पातन adhah-patana-हिं०सज्ञा प० । प्रकार दो विलेय द्रव्यों के मेल से एक भिन्न अधःपातनम् -- इसका शाब्दिक अर्थ नीचे | अविलेय वस्तु का बनना और पात्र तल पर गिराना है । अधःक्षेपण तलस्थिरीकरण । शनैः शनैः बैना अधःपातन (अधः क्षेपण) (१) किन्तु, प्राचीन भारतीय रसायनशास्त्र कहलाता है, और जो द्रव्य पात्र तल पर बैरता की परिभाषा में इसका अभिप्राय "पारद है, उसे अधः पात (अधः क्षेप ) कहते हैं। शोधन के तीन विधानों में से एक" है । पाय-अधःपातनविधि-नवनीत (मैनुश्रा ) नाम का गंधक | प्रेसिपिटेशन Precipitation इं०। तीब और पारद इनको सम भाग लेकर जम्बीर के रस -अ०। तह नशीं करना-उ० । से मईन करें। फिर केवाँच की जड़, शोभाजन की जड़, श्वेत श्रपामार्ग, सर्पप और सेंधा नमक अधःपात(किसी किसी जगह पारद को त्रिफला काथ, प्रेसिपिटेट Precipitate-३० । रूसोब, शोभान्जन बीज, चित्रक मूल, रक सर्षप और उकार, इकर अ० । दुर्द,तलछट,तहनशीं-उ० । सेंधा लवण में मन करने का विधान है।) अधः पाश्चात्य चक्राr adhah-pashchatya के समान भाग कल्क को मिश्रित कर यंत्र के । -chakringa-हिं. संज्ञा पु. ( Posऊपरी पात्र के भीतरी पेंदे में उक्त मिश्रित कल्क tero inferior gyras ) के साथ पारद का प्रलेप कर दें। यंत्र के जल- | अधः पुटः adhah-putah-सं० पु. चारोली पूर्ण निम्न पात्र को पृथ्वी में गढ़ा बनाकर उसमें वृक्ष | वै० निघः । रखें और उसके ऊपर से पारद लिप्त पात्र को | अधः पुष्पी adhah-pushpi-सं० क्ली० (१) For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रधः प्रस्तरः २८३ अध्युषितः गोजिह्वा क्षुप सं० । गोभी--हिं०। (Hicra- (२) भम्यामलकी, भूमि श्रामला, मूंई cinum ) रा० नि० व० ४ । (२) चोर आँवला । ( Phyllanthus niruri पुष्पी तृण विशेष । नीले फूल को एक बेटी जिसे रत्ना०। (३) कोकिलाक्ष-सं०। तालमअंधाहोली भी कहते हैं। खाना ( Hygrophila spinosa)मद. संस्कृत पर्याय-अवाक्पुष्पी, मङ्गल्या, व० १ । भा० पू० । प० मु०। श्रमर पुष्पिका रा०। -हिं. स्त्री० अनंतमूल अध्यधं adhyardha-हिं० सज्ञा पुं० [सं०] नामक श्रोषधि । चोर काँटकी, चोर खड़िका, (१) डेढ़ । ( २ ) वायु जो सबको धारण भाँटुइ, उकड़े, बटिया, लेङरा-बं०। हेटाहुली करने वाली और बढ़ाने वाली है और सारे -गौड़ । वै० निघ० सततज्वर, ब्रह्मदण्डी।। संसार में व्याप्त है श्रधः प्रस्तरः adhah-pras tarah-सं० पु. अध्यक्षुदम् adhyarvudam-सं० क्ली० । तृणासन । वै० निघ०। अध्यर्बुद adhyarbuda-हिं० संज्ञा पु० ॥ अधःशङ्ख चक्राङ्ग adhah-shankha-chakr- रोग विशेष । जिस स्थानपर एक बार अबद रोग anga हि. संज्ञा पु. ( Tempero-in हुआहो उसी स्थान पर यदि फिर अर्बुद हो तो ferior gyrus ). उसे अध्यर्बुद कहते हैं। अधः शयन adhan-shayana-हिं० संज्ञा पु.। यथा-नु०नि०११ श्र० । “यजायतेऽन्यत् [ सं०] पृथ्वी पर सोना । खलु पूर्वजाते शेयं तदध्यर्बुदमन्दः " अधः शल्यः adhah-shalyah-सं० पु. अध्यशनम् adhyashanam-सं० क्लो० । (१)अपामार्ग क्षुप । ( Achyran thes अध्यशन adhyashana-हिं० संज्ञा पु० । aspera) रा०नि० व. ४ | भा० पू० (१)अजीर्ण पर भोजन करना । यथा-वै० निघ० १ मा० । (२)श्वेत अपामार्ग | Achyran. दिनचर्या० । “अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनthes Indica, Roxb. (The white मुच्यते ।" पहिला भोजन विना पचे अर्थात् variety of-) वै० श०। अजीर्ण रहते हुए और भोजन कर लेना अध्यशन अधः शाखः adhah-shakhah-सं० पु. कहलाता है। भा० म० ख०१ भा० अतीसा. संसाराश्वत्थ वृक्ष । वे० श० । चि० । वा० सू० ८ ० । (२) अजीर्ण । अधः शेखरः adhah shekharah-सं०३० अनपच । (Indigestion ). श्वेत अपामार्ग| Achyranthes aspera अध्यक्षः adhyakshah-सं०प०(१) सीरिका (the white variety of ). वृक्ष, राजादनी-सं० । खिरनी-हिं० । ( Mimअध्मान adhmāna--हिं. संज्ञा पुं० [सं०] usops hexandra ) श० र०। (२) महावृक्ष अर्थात् बड़े मदार का पेड़ । (Flatulent)रोग विशेष । पेटका अफरना । त्रि० (३) एक मानहै जो श्राधा कर्ष (१ तो०) प्राध्मान। के बराबर होता है। सि० य० र० पि० चि० इस रोगमें पेठ अधिक फूल जाता है, दर्द होता एलादिगुटिका वृन्द। और अधोवायु का छूटना बन्द हो जाता है। __-हिं० पु. (१) स्वामी । मालिक । अध्यण्डा adhyanda ) -सं० स्रो० (१) कपि. (२) नायक । सरदार । मुखिया। प्रधान । व्यण्डा vyanda कच्छु लता। (३) अधिकारी | अधिष्ठाता | केवाँच, कौंच, वानरी-हिं० । पालकुशी--बं० । अध्यषितः adhyushitah-सं० ० (Mucuna pruriens,carpopogon समस्त चक्षु रोग। pruriens)-ले० । देखो-प्रात्मगुप्ता या केवाच ।। त्रि. उपविष्ट । श्रासीन | For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मध्युष्ट २८४ भनऋतु अध्युष्ट adhyushti-हिं० वि) पु. [सं०] अध्वरा adhvara-सं० स्त्री० मेदा । (Seeबसा हुआ | श्राबाद । Meda) भा० पू० १ ह० व० । अध्यूढ़ा adhyārha-सं० सी० (Married | अध्वशल्यः dhva-shalyah-सं० पु. woman ) प्रथम विवाहिता स्त्री। वह स्त्री अपामार्ग। चिचड़ी | ( Achyranthes जिसका पति दूसरा विवाह करले । ज्येष्ठा पत्नी। aspera) रा० । अध्रियामणी adhriyāmani-हि० सज्ञा स्त्री० अवशोषः adhvia-shoshah-सं०(हिं०)पु.) [?] कटार । कटारी । -डिं० । अवशोषि adhva-shoshi-हिं० संज्ञा पु.) अध्रुव adhruva-हि. वि. पु. [ सं० ] | रोग विशेष । रास्ता चलनेसे उत्पन्न शोप (यचमा) (१) चल । चंचल | चलायमान । अस्थिर । रोग । नि०। (२) अनिश्चित अनित्य । अध्वसिद्धक: adhva-siddhakalh-सं० १. अधूषः dhrushah-सं० प. उन नाम का सिन्धुवार वृन, सिन्दुवार । See Sindhu तालुगत मुख रोग विशेष । इस रोग में Varah. I रा०नि० व० । कड़ी सूजन, तालू प्रदेश में अधिक रकता, वेदना अध्वाण्डशाप्रयः adhvanda-shatravah और ज्वर होता एवं यह रकविकार से उत्पन्न सं० पु. श्योणाक वृक्ष-सं०। अलु, सोनाहोता है। सु०नि० १६ श्र० । यह रक दोषसे । पाला-हिं० । ( Calosanthes Indica, उत्पन्न होता है। इसमें तालु देश में लोहित or Oroxylum Indicum. Syn.: वर्ण की अति स्थूल सूजन होती है जिससे सांप Bignonia Indica.) । श. च० । वेदना और ज्वर होता है । मा० नि० । श्रध्वान्तं adhvāntam-सं० की० सायंकाल श्रध्वगभोज्यः,-ग्यः adhvaga-bhojyah, (Evening, Eventide ). gyan-सं० पु. भाम्रातक वृक्ष । अध्वः adhvah-सं० पु (1) नेत्र वर्म, नेत्र अध्वगवृक्षः adhvaga-vrikshah-सं०पू० पचम ( Eye-lid)। (२) पथ, मार्ग, रास्ता । (Spondias mangifera ) A1917 अन ana-हिं० कि० वि० [सं० अन् ] बिना । वृक्ष, अम्बाड़ा। अगर । वि० [सं० अन्य दूसरा ] अध्वगतमी adhvaga-kshami-सं० पु. संज्ञा पुं॰ [सं०] (१) अन्न । धनाज । (१) (See-Khecharah) खेचरः (२)दमुल भरवैन-०। हीरादोखी, खूनाखराबा -सं० । (२) पक्षी-सं०, हिं० । ( A bird) -हिं० । Dragon's blood ( Drace. वै० निघ०। na Cinnabar, Balf.f-) फा० ई० अध्वगः adhva.gah-सं० पु. (१) ( Ca- ३भा०। mel ) उष्ट्र-सं० । ऊँट-हि। (२) श्रन अक्का सोडियम क्लोराइड Unaqua ( Donkey ) अश्वतर-सं० । खच्चर-हिं० Sodium chloride-ले० कालानमक | (३) बटोही, पथिक, यात्री, मुसाफ़िर । ( Black Salt)-इं० । श्रध्वजा adhva.ja-सं० पु स्वण लीचुप । अनसी ana-asi-मेदा। Ses-Meda. See-Svarnuli रा०नि० २०४। अन-इक-कट्ट ana-ik-katta-ता० बड़ा कार । श्रध्वनिषेवरणम् adhva-nishevanam स० अगेविअमेरिकेना (Agave Americana). क्ली० श्रध्वचलन, भ्रमण । चै० निघ० | See-. शनऋतु ana-ritu-हिं. संज्ञा पु० [सं० अन् चंक्रमण (Chankramana ). +ऋतु] (1) विरुद्ध ऋतु । अनुपयुक्र ऋतु । बे For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ ( उ ) नक मौसिम | काल | समय । (२) ऋतु - विप. य। ऋतु के विरुद्ध कार्य । बहार अ (उ) नक़ ãa-āu naq-० ( ५० व० ) श्र नाक ( ब० ० ) ग्रीवा । नेक ( Neck ), सर्विक्स ( Cervix ) - इं० । अनकब āanakab - अ० मत्स्यभेद, एक प्रकार की मछली । ( A sort of fish ). अनक़र āanagar - ऋ० मर्ज़आंश | See - Marzanjosh. अनकुलो āangali-यु० सलजम | अनकलीमन anaqalimâna-यु。 जिसको हिन्दी में पाथा कहते हैं । यह बाबूना गाव का एक छोटा भेद है । लु० क० । अनकवानकूल ana-qavánaqúsa-यु० मरीहृह् या दोन । गाजर का बीज अथवा करस कोहीका बीज । लु० क० । अनसि anaqilasa-यु० मसूर सदृश एक बूटी है जो उष्ण प्रदेशों में उगती है। लु० क० । कोली āana-qili - यु० सलजम | अर्रिहम aanaqurrihm-o मह बिल Mah-bil - श्र० gina ) यद्यपि [श्चनक़= ग्रीवा + रहिम =गर्भाशय ] का शाब्दिक अर्थ गर्भाशय की ग्रीवा है, तो भी प्राचीन तिब्बी परिभाषा में यह योनि के लिए प्रयुक्त होता था । जरायु के साथ इस नाली (योनि) का सम्बन्ध वैसा ही है जैसा कि सुराही का उसकी ग्रीवा के साथ। इसीलिए प्राचीन यूनानी चिकित्सकोंने इसको अनक, र्रिहम नाम से अभिहित किया । उक्त नाली के वहिर्द्वार ( छिद्र ) या दरार को फ़र्ज और उन नाली कोमल या अन्दाम निहानो कहते हैं । अनक रिह ्मम और रबतुर्रिहमा भेद ( Va | उपयुक्र दोनों शब्दों का अर्थ 'गर्भाशय की ग्रीवा' है । परन्तु, अनकुर्रिहम तो योनि के लिए प्रयोग में श्राता है, पर रक्बतुर्रिहम वास्तविक अर्थों में गर्भाशय की ग्रीवा के लिए प्रयुक्त होता है प I REX Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनमः याधुनिक मित्रदेशीय चिकित्सक रकचतुर्रिहम के स्थान में अपने वास्तविक अर्थों में गर्भाशय की ग्रीवा के लिए अनकुहिम शब्द का प्रयोग करते हैं और अनक़र्रिह ्मम के स्थान में मलि शब्द का, जो अधिक उपयुक्त एवं यथार्थ है । नोट- डॉक्टरी में अनकुहिम या गर्भाशयको ग्रीवा के प्रथम रक्तवतुरिहम को सर्विक्स युटराइ ( Cervix Uteri ) और मह्विल या श्रन्दाम निहानी अर्थात् योनि के अर्थ में अनरिह न को वेजाइना ( Vagina ) कहते हैं । देखो - योनि । अनकुद ana-qúda - फ़ा०, तु० काली तुलसी । नमाम । लु० क० । अनकूद āana-qúda अ० ख़ुशो | एक पौधा है०क० । अनकुन ana-qúna-यु० सदा गुलाब । लु० क० । अनकूल ana-qúsa - यु० नाशपाती लु० क० । ( Pyrus communis ). अनकंप ana-kampa - हिं० संज्ञा पुं० देखाअकंप | छानक् कालिक anak-kálika-वृश्चिपत्री । अनगना anagana - हिं० संज्ञा पुं० गर्भ का आठवाँ महीना | अनग्ना anagná-सं० स्त्री० afrost anágniká सं० प्र० -६० । कार्पासी-सं० । ( Gossypinm herbaceum, Linn.) ई० मे० मे० । अनघः anaghah -सं० पु० } सफेद सरसों अनघ anagha - हिं० संज्ञा पुं० - हिं० | गौर सर्षप सं० । ( Brassica juncea ) रा० नि० व० १६ । हि० वि० पवित्र, शुद्ध । अनघुल anaghula - हिं० वि० विलेय ( Insoluhble ). For Private and Personal Use Only कपास अनघ्नः anaghnah - सं० पु० श्वेतसरसों - हिं० । गौर सर्षप - सं० । ( Brassica juncea ) वै० निघ० । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भंनङ्गम्, कम् अनडुजिह्वा अनङ्गम, कम् anngam,-kam-संक्लो० मन। -सं०पू० (१) पारा २ पल,गंधक ३ पल, सुवर्ण ( Mind) श. र०। भस्भ १ कर्ष, ताम्रभस्म १ पल, चाँदी भस्म ४ अनङ्गनिगडोरस: ananganigaro rasah निष्क । सबको एकदिन तक पंचामृत अर्थात् गिलोय -सं० पु ताम्बा, हीरा, मोती, हरताल, वैकांत गोखरू, मूसली, मुण्डी और शतावरीके रसमें घोट (तुरमली), सूर्यकांत,माणिक्य इनकी भस्म.सोना. कर बेर प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । गुण--यह चाँदी, सोनामाखी और अभ्रक सत्य प्रत्येक अत्यन्त पौष्टिक है । रस० मं०। समानभाग और सबके बराबर पारा और पारा (२) शुद्ध पारा, मुद्ध गंधक समान मिलाकर सबके बराबर गंधक मिश्रित कर कपास भाग लेकर तीन दिन तक कुमुदिनी के के फलों के रस से तीन भावना देकर सुखा ले। रस से भावना दें। पुनः सम्पुट के भीतर रखकर फिर पातशी शीशी में बन्द कर वालुका यंत्र में वालुका यंत्र में पकाएँ, फिर निकाल कर लाल क्रम से मन्द, मध्य और तीब्र अग्नि से तीन दिन रंग के अगस्त और सफेद कमल के रस से पृथक पकाएँ। फिर शीतल होने पर निकाले और पृथक् भावना देकर रखें। सोलहवाँ भाग विष, काली मिर्च, कपूर, बंश मात्रा-३ रत्ती । इसके सेवन से मनुष्य १०० लोचन, जावित्री, लवङ्ग और कस्तूरी की भावना स्त्रियों से रमण करने की शक्ति प्राप्त कर सकता दें तो यह सिद्ध होता है । मात्रा-१ रत्ती । गुण है । रस० यो० सा० । इस नाम का दूसरा दूध मिश्री के साथ खाने से नपुंसकता योग र० मं०, रसायन सं० वाजीकरण प्रकरण दूर होती है। रस० यो० सा० । में लिखा है। अनङ्ग मेखला गुटिका ananga mekhalal अनरananguan सं० पु. विना अंगुली gutika-सं० स्त्री० देखो-परिशिष्ट भाग। । वाला । अथर्व । सू० ६ । २२ । का० ८ । अनङ्गमेखलामोदकः anangamekhala अनचण्डई ana-chandai-ता० मोलक काय __modakah-सं०० देखो-परिशिष्ट भाग। -ते. (Solanum Ferox)-इं० मे०मे० । अनङ्ग व कोरसः nangavarddhako अनचन्द्र ana-chanda. ते० अनसंड़ । rasah-सं० पु. पारा और धत्तूर बीजको सम ( Acacia Ferruginea, D. C.) भाग ले, धत्त रके बीजको तेल डाल कर खरल में -ले०। स. फा० इ०। घोटें, पुनः गंधक द्विगुण भाग मिला बारीक घोट कर रख लें । इसमें पारे की भस्म (चन्द्रोदय) अनज़aanaz-अ० बकरी, छागी। (A she- . मिलानी चाहिए। मात्रा-१-३ रत्ती। गुण ____goo.t). लु० क०। इसके सेवन से मनुष्य कामान्ध हो जाता है। अनजल्ली ana-jalli-ता० रानफनस-मह० । रस० यो० सा। बन्य पनस, जंगली कटहल । Artocarpus Hirsuta, Lam. । फा० इं०३ भा० । अनङ्ग सुन्दर रसः ananga-sundara-1 अनजान anajāna-हिं० संज्ञा पु० (१) एक asah-सं० पु. वाजीकरणाधिकारोक रस प्रकार की लम्बी घास जिसे प्रायः भैंसे ही खाती विशेष । यथा-एक पल पारा और एकपल गंधक हैं और जिससे उनके दूध में कुछ नशा पा जाता को तीन दिन तक लाल कमल के रस की भावना है। (२)अजान नाम का पेड़ । दें। तत्पश्चात् इसको प्रहर भर बालुकायंत्र में पकाएँ। पुनः उतार कर एक दिन रक्क अगस्त अनटोपण्डु anati-pandu-ते० केला, कदली । पुष्प रस तथा श्वेत कमल के रस में भावना (Musa paradisiaca, Linn.) फा० दे। र० सा० सं०। इं०३ भा० । अगङ्गसुन्दरो रसः anangasundarorasah | अनडुजिह्वा anadu-jjihva-सं० स्त्री० गोजिह्ना, For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रनडुह गोभी - हिं० | गोजिया शाक - बं० रा० निं० ब० ४। ( Elephantopus, Scaber. ) अनडुह anaduha - हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] बैल । वृप । ( An ox ). अनडुही anaduhi-सं० ( हिं० संज्ञा ) स्त्री० स्त्री गवि । गाय । ( A cow ) देखो - गाय | अनड्वान् anadván - सं० पु०, हिं० संज्ञा पु (A bull, an ox ) वृष- सं० 1 बैल साँड़ - हिं० | इसके पर्याय-बलीवर्द, वृषभ, वृष, अनड्वान्, सौरभेय, गौ, उक्षा और भद्र बैल के संस्कृत नाम हैं । भा० पू० । रना० । ( २ ) the Sun सूर्यं । ( उपनि० ) | अनड्वाही anadváhi - सं० स्त्री० ( A cow), स्त्री गवि-सं० | गाय - हिं० | इसके पर्याय- सुरभि, सौरभेयी, माहेयी और गौ ये गायके संस्कृत नाम हैं | हला० श्रनणुः ananuh-सं० पु०, क्ली० सूक्ष्म धान्य । सहधान - बं० । वै० निय० । अनत anata-हिं० वि० [सं०] न झुका हुआ । सीधा | अनत्रजनोय २८७ anatra-janiya हिं० वि० ( Non-nitrogenous ) नत्रजन विहीन | वे पदार्थ जिनमें नत्रजन नहीं होती जैसे - वसा ( चरबी ), शर्करा ( शकर ), श्वेतसार ( मांड़ ), अनद्यः anadyah - सं० पु० गौरसर्षप - सं० । श्वेत सरसों - हिं० । (Brassica juncea ). रा० । अनद्यतन anadyatana - हिं० वि० [सं० ] अद्यतन के पहिले वा पीछे का । अननस ananas -म० | देखो अनन्नास । अननाश ananásha - बं० छोटा घीकुवार, छोटी ग्वार - हिं० | | Aloe litoralis ) इं० मे० मे० । अननास ananása - हिं०, मल०, मह०, गु० अनन्नास, अनरस - हिंο| (Ananas sativus ) इं० मे० मे० । श्रनन्तकः anantakah सं० पु० ( १ ) मूलक, मूली | ( Raphanous sativus ). Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्तः ( २ ) नलतुण - सं० । नरकट - हिं० । Phragmites karka | मद० ० १ । अनन्त गुण मण्डूरम् anantaguna mandüram-स ं० क्ली० (नवायस मण्डूर) गन्धक, सुहागा, पारा, त्रिकुटा, त्रिफला पृथक् पृथक् समभाग और सर्व तुल्य लौह किट्ट शुद्ध मिलाएँ । पुनः सब से दूने गोमूत्र में पकाएँ और फिर सर्व तुल्य पुरातन गुड़ मिलाकर घोटें । मात्रा - माशे पथ्य छाँछ और चावल खाना चाहिए | गुण- इसके सेवन से क्षय और पांडुरोग का नारा होता है । ररू० पी० सा० । अनन्त मूलम् anantamūlam-स० क्ली० ( १ ) करालाख्य श्रौषध | देखो - कराल | (२) सुगंधा । ( ३ ) बच्चा भेद । श० चि० । ( ४ ) अनन्ता | देखो - शा (सा - ) रिवा । अनन्त नूलो ananta.muli - सं० क्लो० । (१) दुरालभा ! (Alhagi Maurorum) । (२) र दुरालभा Alhagi maurorum (the red variety of ) व० निघ० । अनन्तरन्ध्रका ananta-randhraká- सं० स्त्रो० खर्पर पोलिका । श्राके पिटे-बं० । ० निघ० । अनन्तवातः ananta-vatahसं० पुं० उक्त नाम का शिरोरोग विशेष । लक्षण जिसमें तीनों दोष कुपित होकर मन्या ( गर्दन ) की नाड़ी को तीव्र पीड़ा समेत श्रति पीड़ित कर, चक्षु, भौंह कनपटी में शीघ्र जाकर विशेष स्थिति करते हैं, और गण्ड स्थल की बगल में कंप, कड़ी की जकड़न और नेत्र रोगों को करते हैं । इन तीनों दोषों से उत्पन्न हुए शिर रोग को "अनन्तवात" कहते हैं । मा० नि० । अनन्तः anantah - सं० पु०, ( १ ) दुरालभा । ( Alhagi maurorum ) वै० निघ० २ भा०, श्रनन्तादि चूर्णे, सर्व्वज्वर प्रकरणो । ( २ ) सिन्धुवार वृक्ष अर्थात् सम्हालू ( Vitex negundo ) । ( ३ ) अभ्रक धातु । Talc ( Mica ) रा० नि० व० १३ । ( ४ ) श्राकाश । For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्ती श्रनन्नास अनन्ता ananta-सं० (हि. संज्ञा) स्त्री० (१) अनन्तोमूल ananto-mula-बं० उश्या । देखो उक्र नाम की प्रसिद्ध लता विशेष | अनन्तमूल शारिवा। (Crountry Sarsaparilla). -हि०, बं० । सु० मिन० अ० | उत्तर में यह स. फा०ई०। शारिवा नाम से प्रसिद्ध है । रा० नि० व० | अनन्नास anannās--हिं० सज्ञा पु. [ब्रैजि१२ । देखो-(शा-)सारिवा तथा श्यामलता लियन (अमेरिकन ) नानस, पतं० अनानास] (Sarivā)। च० द. पि. ज्व. चि० अनानास । अननस, अनानास-द० । अनन्नास, शिरोलेप । “कालेय चन्दनानन्ता।" भा० म० पारवती, कौतुक-सज्ञक--सं० । अनानाश (स), ख०४ भा० गर्भ-चि० | "अनन्ता शारिवा अनारस, अनानस--बं० । ऐनुग्नास--अ०, फा० । रास्ना।" भा० म० ख०१ भा. ज्वर० शारी. अनानास सेटिवस ( Ananas Sativus, वादि । “अनन्ता बालकं मुस्तम् ।" च० सू०४ mill, Linn.)--ले० । पाइन एप्ल ( Pine ३१ दश । (२) दूर्वा, दूध । ( Cynodon apple)-इं० । अनानास ( Ananas) Dactylon). हे० च०४ । (३) स्वर्ण -फ्रां, पतं०, अमे० । अनाशप-पजम्,प रङ्गिक्षीरी । भंभाँड़ । सत्यानाशी । (Agremone Mexicana)| प. मु.। लागली, करि थलाई-ता० । अनासु-पण्डु, अननाश-पण्डु-ते। कैत-चक, परङ्गि-चक-मल० । अनानसु हएणु , यारी का पौधा । विषलागली-वं०। (Glor अनासु, परङ्गि-काई-कना० । अग्निनस, अनाiosa. Superba)। ५० मु०। भा० पू० रस, अनमास-गु० । अननस, प्रसास, श्रीनास १गु०व० । (५) दुरालभा, जवासा (Alh -मह० | अन्नासि--सि । नन्न-सी, नन्ना-सी agi Maurorum)| प० मु० । भा० म० --वर.। ख० ४ भा० मु. रो० चि० । "कल्कैरनन्ता खदिरारिमेद्... ....।" वा० १५ अ०, प्रिय अनन्नास वर्ग। ग्वादि-ब० । प्रियवादि-दूर्वादि-व हेमा तथा ( N.o. Bromcliucea. ) अरुण । “दूर्वानन्त निम्नवासात्मगुप्ता पद्माद्र- उत्पत्ति स्थान-समस्त भारतवर्ष, प्रधानतः जो योजन वल्ल्यनन्ता।” ( ६ ) नीलदूर्वा । समप्र पूर्वी देशों में इसको खेती होती है। भा.. १॥ रा०नि० व० २३ । (७) गोलोमी अमरीका। श्वेत दूर्वा | रा०नि० व००। (८) यवासा । नामविवरण-इसकी बहुशः वर्नाक्युलर (Alhagi Maurorum) भा० म०४ संज्ञाएँ अमेरिकन अनासी तथा नानस सज्ञा से भा० काकोल्यादि०व०। व्युत्पन्न हुई हैं। "अनन्तां कुक्कुटी बिम्बोम् ।" दुरालभा के | इसकी मालाबारी सशा परुङ्गि-चक्क का अर्थ प्रभाव में यवासा ग्रहण करना चाहिए । (६) युरूपीय फणस ( European jack अग्निमन्थ | अरणी (Premina Serratif. fruit ) है। olia)। (१०) गुडूची, गुरुच । ( Tinos वानस्पतिक वर्णन-राम बाँस की तरह pora Cordifolia ) । (११) पीपर । का एक पौधा जो दो फुट तक ऊँचा होता है। अनन्तामल an.en tamala-सं० हरताल | यह पौधा घृतकुमारी के समान द्विवर्षीय होता (Yellow orpiment). है। किन्तु, इसके पत्र अत्यन्त पतले होते हैं अनन्तो ananto-बं० उश्वा ।-हिं० सालसा, जिनकी रचना कठोर तन्तुओं से हुई होती है। कपूरी । Hemidesmus Indicus, पौधे के मध्य भाग से निकले हुए लघु प्रकांड R. BP. (Country Sarsaparilla). पर छिल केदार गावदुमी शकल की बालियाँ स० फा० इं०। लगती हैं। जिस पर फल उत्पन्न होते हैं । For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्नास २८६ अनन्नास इनके ऊपर बहुत से छोटे छोटे कंटकमय पन होते हैं जिनको ताज कहते हैं । उन गावदुमी बालियों में बहुसंख्यक क्षुद्र नीले रंग के पुष्प पाते हैं । पुष्पाभ्यंतर कोष त्रिपटल । तीन पंखही युक्र) एवं पुष्पवाह्य कोष त्रिभाग युक्त होता है। पुष्पित होने के बाद ये क्रमशः मोटे और लम्बे होते जाते हैं और रस से भरे होते हैं। यह अंकुर पिंड नागरंग पीत वर्ण का एवम् खटमीठा स्वाद युक्र होता है। रासायनिक संगठन-व्युटिरेट ऑफ़ इथिल ( Butyrate of ethyl ) #1 garso भाग स्पिरिट ऑफ वाइन के साथ योजित करने से अनकास का एसस प्रस्तुत होता है। अनन्नास स्वरस में प्रोटीड-पाचक सन्धान (अभिषय) होता है । तीन फ्लुइड पाउंस यह स्वरस १० से १५ प्रेन धनीभूत ऐल्ब्युमीन को पचा देता है। क्षार तथा अम्लीय घोलों (विलयन ) में इसका समान और न्युट्रल ( उदासीन ) द्रवों में सर्वोत्तम प्रभाव होता है । स्वरस में एक भाँति का दधिप्रवर्तक सधान ( अभिषव ) होता है। भस्म में स्फुरिकाम्ल तथा गंधकाम्ल, चून मग्न, शैलिका, लौह और पांशु हरिद् एवं सैंधहरिद् श्रादि होते हैं। प्रयोगांश-पक वा अपक फल और पत्र । औषध-निर्माण-तैल, स्वरस का एसेंस और पत्र का ताजा रस । इतिहास, प्रभाव तथा उपयोग अमेरिका के दर्याप्त होने से पूर्व भारतीयों को अनन्नास का ज्ञान न था । सर्व प्रथम युरूप निवासियों को हर्नेडीज़ (१५१३ ) द्वारा इसका ज्ञान हुआ और सन् १५६४ ई० में पुर्तगाल निवासी ग्रैज़ील से इसको भारतवर्ष में लाए। अबुफ़ज़ल ने आईने अकबरी में इसका उल्लेख किया है । दार शकोह के लेखक ने भी इसका वर्णन किया है। रहीडी ( Rheede ) के कथनानुसार मालाबार में इसके पत्र को चावल के धोवन में उबाल कर इसमें ( Pulvis Baleari)| योजित कर जलोदरी को जल से मुक्रि प्राप्त करने के लिए व्यवहार कराते हैं। अपफ फल सिरका के साथ गर्भपात कराने तथा उदरस्थ श्राध्मान को दूर करने के लिए व्यवहार किया जाता है। मजनुल अद्वियह के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन लिखते हैं-अनसास दो प्रकार का होता है-(१) साधारण और (२) क्षुद्र जो अत्यंत मधुर एवं सुस्वादु होता है। प्रकृति-सर्द व तर द्वितीय कक्षा में (किसी किसी के मत से १ कक्षा में उष्ण और २ कक्षा में तर है)। हानिकर्तासर्व व तर प्रकृति को, स्वर यंन तथा श्वासोच्छवास सम्बन्धी अवयवों को। दपं घन-लवण तथा आर्द्रक का मुरब्बा (किसी किसी ने शर्करा वा सोंठ का मुरब्बा लिखा है)। प्रतिनिधि-सेब या बिही प्रभृति । मुख्य कार्य-पित्त ( उष्ण) प्रकृतिको लाभप्रद है ( कफज प्रकृति को नहीं)। शर्बत की मात्रा-२ तो० से ५ तो० तक। गुण, कर्म, प्रयोग-अनन्नास पित्त की तीवणता का शामक और यकृत्, उष्ण प्रामाशय को शक्किप्रद एवं विलम्ब पाकी है। श्राहादकर्ता (हृद्य) और हृदय को बल प्रदान करता एवं मूर्छा को दूर करता है। उष्ण व रूक्ष प्रकृति वालों के लिए वल्य एवं हृध है। इसके शर्बत, मुरब्बा, मिठाई और चटनी आदि पदार्थ बनाए जाते हैं। इसके मीठे चावल भी पकते हैं और यह अत्युत्तम आहार है। इसकी शीतलता को कम करने के लिए इसके बारीक बारीक परत काट कर प्रथम उसको नमक के पानी से धोकर पुनः स्वच्छ जल से धोना चाहिए। फिर उस पर शर्करा एवं गुलाब जल छिड़क कर व्यवहार करना चाहिए। कहते हैं कि किंचित् साँठ का चूर्ण मिलाने से भी वह उत्तम हो जाता है। अनन्नास मस्तिष्क एवं प्रामाशय को बलप्रद और निर्बल तथा शीत प्रकृति को बल प्रदान करता है। म० अ० । तु०। नोट-मजन में अपक्क फल एवं उसके पत्र For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्यज २६० अनबुल्हि यह के औषधीय उपयोग के सम्बन्ध में कोई वर्णन | अनपकाय anapakaya-ते. कडुई तुम्बी, नहीं पाया है। लौकी। (Lagenaria Vulgaris). अनन्नास पत्र का ताजा रस सराव कृमिघ्न इं० मे० मे०। और शर्करा के साथ विरेचक है। पक फल का अनपच anapacha-हिं० संज्ञा पुं० [सं० रस स्कर्वीहर ( Anti-scor butic ). मुत्रल, अन्नहीं+पचरचना] अजीर्ण । बदहज़मी । स्वेदक, मृदुभेदक और शैत्यकारक है तथा ऐल्ल्यु- | ( Indigestion ). मिनीय पदार्थों के पचाने में सहायता पहुँचाता अनपत्य anapatya-हिं० वि० [सं० ] है । अपक्क फल का रस अम्ल, रकाबरोधक, [स्रो० अनपत्या ] निःसन्तान । लावल्द । सशक्त मूत्रल और कृमिनाशक तथा रजः प्रवर्तक | अ(इ.)नव aanaba-अ० द्रात फलम्-सं० । है। अधिक परिमाण में यह गर्भपातक है। अंगूर, दाख-हिं० । Vitis Vinifera, हिका प्रशमनार्थ इसके पत्तों का ताजा रस Linn. ( Fruits of-Grapes ) स. शर्करा के साथ व्यवहार में आता है। यह विरे- फा०ई०। चक भी है। अनव anaba-अ. बैंगन, भाँटा । (Solaपक्व फल का रस ज्वरजन्य श्रामाशथिक शोभ num Melongana ) को शांत करता है। कामला ( Jaundice) में भी यह उपयोगी है। अनबहे-हिन्दी aana bahe hindi-अ०, फा० अधिक परिमाण में अपक्व फल का रस गर्भा पोपैया, पपोता-हिं० । अरंड खळूजा-सं० । शयिक आकुञ्चन उत्पन्न करता है । अस्तु, गर्भवती देखो- अण्डखरबूज़ा । Carica Papaya, स्त्रियों को इससे सख़्त परहेज करना चाहिए। Linn. (Fruit of) स० फा०-६०। __ अनन्नास का तेल या एसेन्स मिठाई बनाने में अनवा anaba-एक हिन्दी पौधा है जिसका उसे सुस्वाद करने के लिए व्यवहृत होता है । यह . फल गूगल सदृश होता है । जमेइक मद्य (Jamaica lum ) को स्वाद अनविधा anabidhi-हिं० वि० [सं० श्र+ प्रदान करने में भी व्यवहृत होता है। अनन्नास बिद्ध ] बिमा बेधा हुश्रा | बिना छेद किया जैम बनाने में प्रयुक्र होता है । इं० मे० मे०।। हुश्रा। इसके पत्र कृमिघ्न और फल गर्भशातक हैं । अनबुझा चूना ana,bujha-china-3०, हिक (इं० डू. ई. पृ० ४६१ ) चूर्णम् सं० । कलीका चूना, प्रशांत चूर्ण-हिं० । भारतीय मेडिकल अफसरों की मुख्य सम्म अनस्लैका लाइम् Unslaked-lime-इं० । तियों से, जिसका डिक्शनरी ऑफ़ एकॉनॉमिक प्रॉडक्ट ड्रोन इरिडया (१०, २३८ ) में वर्णन अनबुल्जन aanabul jan-अ० फ़ाशरा । श्रा चुका है, यह प्रगट होता है कि समग्र भारत अनवृत्थालिब aala butthalib-यु० मकोय । वर्ष के दिहातियों में इसके पत्र एवं अपक्व फल (Solanum Dulcamara, Linn. ) के गर्भशातक प्रभाव में सामान्यतः विश्वास फा०-इं०२ भा०। है। फा० इं० ३ भा० पृ० ५०६ । अनबुददुबaanabuddub-अ० एक छोटे पौधे अनन्यज analtyaija-हिं० संज्ञा पु० [सं०] का फल है जो बेर के बराबर, गोल एवं रकवर्ण . कामदेव । ( Cupid). का होता है और गुच्छों में लगता है। पत्ते अनन्यपूर्वा ananya pulva-हिं० स्त्री० [सं०] अनार के पत्ते के सदृश होते हैं। (१) जो पहले किसी की न रही हो। (२) अनबुल्हियह ānabul-hiyah-अ० हज़ारकुमारी । कारी । बिन ब्याही । ( Virgin ). . जशान या कबर का फल । For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ(इ)नबु..स्स अलब २६१. । अनरुचि अ(इ)नवु. स्स अ लव aanabus-saalab-अ० अनम् aanam-अ० गुलनार । शकरदारी । मको (काला वा लाल )। (Solanum अनमद anamada-हिं० वि० [सं० अन्+मद] nigrum, Bl. or solanum rub- मद रहित । अहंकार रहित । गर्वशून्य । Tum, lil.) स० फा. इं०। Night. अनमना anamanā-हिं० वि० [सं० अन्यshade-इं.। ___ मनस्क ] [स्त्री० अनमनी ] बीमार । अस्वस्थ । (इ)नवु..स्स.अलबे-अस्वद aanabus-saa- | अनमल anemal-बाकला । labe-asvad-अ० मको, काला मको । अनमिल anamila-हिं०वि० [सं० अन-नहीं+ (Solanum nigrum, Bl. not मिल=मिलना] (१) बे मेल । (२) पृथक् । भिन्न Linn.) स० फा० इ०। अलग । निर्लिप्त । अ(इ)नवु..स्स.अलबे-अह मर iana bus-saa- | अनमिलत amamilata-हिं. जो मिलती न हो। laborahinar-अ० मको, लाल गको || अनमीलना anamilana-हिं. कि० स० [सं० (Solanum rubrum, ill. ) स० | उन्मीलन-शाँख खोलना ] अाँख खेलिना ।। फा० इं०। . अनमीवः anamivah-सं० पु. अमीव, अनब स्स अलबे-कवार aanabus-saala be रोगरहित,रोगोत्पादक कीड़ोंसे रहित । अथर्व०। kabita-अ० बेलाडोना । सूची पं०- पं० सू० २६ । ६ । का०२ । प्लां० । Cirreat Morel-इं० । म० अ० अनमेल anamela हिं० वि० [सं० अन्+हिं० डॉ०१भा०। मेल ] बिना मिलावट का । विशुद्ध | ख़ालिश । अनबु..स्स.अलबे-मुखांदर aana bussaalabe: अनयन anayana-हिं०वि० [सं०] नेत्रहीन । mukhaddit-अम्बेलाडोना । (Bellad. दृष्टिहीन । अंधा। ona ). अनरनिया anaraniyā-यु० विलायती काअनबु..स्स.अलबे मुजन्निन āana bus-saala. सनी। be-mujannina-अ० बेलाडोना । डेड्ली | अनरब aanarab-सुमाक़। ( Sumach.) नाइटशेड (Deadly nightshade)-ई। अनरस anaras -बं०, हिं० (१) अनमास । अनबु. स्स.अ लवे-मुनध्विम् aana bus-sa ___Ananas Sativus, Mill. ( Pine ala bemunavvim-अ० बेलाडोना। apple)1 (२) जो रस रसनेन्द्रिय द्वारा स्पष्ट अनबु स्स अलबे-मुहलिक ana bus-saalabe- रूप से मालूम नहीं होता उसे अनरस या 'अनु muhlika-अ० बेलाडोना । डेडली नाइटशेड | रस कहते हैं। देखो-अनुरसः। ( Deadly Nightshade) इं०। अनरस anarasa-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अन्= अनबेधा anabedhā-हिं० वि० दे० अन- नहीं+रस] (1) रसहीनता । विरसता । शुष्कता। बिधा। (२) रूखाई । कोप । मान । अनब्याह anabyāhā-हिं० वि० [सं० अन अनरसा anarasā-हिं० वि० [सं० अन्+रस] नहीं+हि. व्याहा ] ( Unmarried ) बिना | अनमना। माँदा । बीमार । -संज्ञा पु० दे० व्याहा । क्वाँरा । अविवाहित । अँदरसा। अनभिलाषः anabhi-lashah-सं० ० | अनराफेनूस anarafenāsa-यु० एक बूटी है अनिच्छा,रोचक,अन्नविद्वेष, अरुचि । ( Ave. | जिसके पत्ते गन्दना के समान होते हैं। . rsion, dislike, want of appetite) अनरूचि inaruchi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० रा०नि० व० २० । अन्+रुचि ] (१) अरुचि । घृणा । अनिच्छा । For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनरूप २६२ अनल्जीन (२) भोजन अच्छा न लगने को बीमारी। अनलमुख anala-mukha-हिं० वि० [सं। मन्दाग्नि । जिसका मुख अग्नि हो । जो अग्नि द्वारा पदार्थों अनरूप anarupa-हिं० वि० [सं० अन्चुरा+ को ग्रहण करें। -संज्ञा पु. (१) चित्रक,चीता। रूप ] (१) कुरूप । बदसूरत । (२) अस (Plumbago Z:ylanica) (२)भिलावाँ मान । अतुल्य । असदृश | ( Semocarpus Anacardium ). अनर्जल analjala-काश० श्राइरिस सोसन । अनलरसः analalasah-सं प. पारे को ___Iris sosan ( Iris Ensata). तामेकी सफेद भस्मके साथ घोटकर पिष्टी बनाएँ। अनलः analah-सं० पु. (१) चि. पुनः उस पिष्टी के बराबर गंधक मिलाकर घोटें | अनल anala-हिं० संज्ञा पु. क सुप, फिर पात, बच, कलिहारी, चित्रक, धत्तूर, थूहर चीता । ( plumbago zeylanica ). और पाक के रस से पृथक् पृथक् पुट दे तो यह रा०नि० व०६ । भा० पू० १ भा० ह० व०। श्रनल नामक रस सिद्ध हो। मात्रा-३ रसी। च० द० संग्रहणी चि. पाटादि चूर्ण । (२) गुण-इसे पीपल तथा गुढ़ के साथ देने से लाल चीता, रक चित्रक( Plumbago गुल्म का नाश होता है। र० यो० सा०। Rosea ) र० सा० सं०। (३) भिलावाँ, अनलविवर्द्धनो alhala-vivarddhani-सं. भल्लातक वृत । (Semecarpus anaca स्त्री० कर्कटिका-:. | ककड़ी-हिं० । (A kind rdium.) रा०नि० व०११। (४) पित्त। of cucumber) वै० श० । (Bile) रा०नि० २०२१। (५) देव अनलसूतेन्द्रो रसः analasutendrorasah धान्य । मद० व० १० । (५) अग्नि, अाग -सं० पु. शुद्ध पारा । भाग, गंधक २ भाग, ( Fire ). इनकी कजली करें। फिर विष्णक्रान्ता, वच, पाटा, अनलम् analam-सं. क्ला० भिलावाँ का बीज । कलिहारी, मालकांगनी अथवा शाकाशबेल और se mecarpus Anacardium (seeds of-) “श्रनल मरिच दूर्वा" भैप० कुष्ठ तितली (पीत वेणी ) इनके रसों से पृथक् पृथक एक एक दिन भावना दें। पुनः सबके रसों को मिलाकर १५ दिन तक बारीक घोटें | फिर रत्ती अनलचूर्ण analachurna-हिं० संज्ञा पु० प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। [सं०] वारूद । दारू। सेवन विधि तथा गुण-धी, अदरख, या अनलनामा analanāma-सं० पं० चित्रक वृक्ष, चीता । (Plumbago Zeylanica) सम्हालू के रसके साथ खाने से घोर गुल्मका नाश वै० श०। होता है । र० यो० सा०। अनलपंख anala pankhar - मंझा अनला लिन् (लिः) an]i,-linni-lih-सं०५० अनलपक्ष analapaksha प० [सं०] वक वृक्ष-सं० । अगस्त वृष, अगस्तिया-हिं। एक चिड़िया । इसके विषय में कहा जाता है कि (Agati grandiflora ) त्रिका० । यह सदा श्राकाश में उड़ा करती है और वहीं अन गे(जे)सिक analgesic-इं० श्रङ्गमईप्रशअंडा देती है। इसका अंहा पृथ्वी पर गिरने से मनम्, वेदना शामक, पीबाहर । ( Anod. पहिले ही पक कर फूट जाता है और बच्चा अंडे yne ). से निकल कर उड़ता हुअा अपने माँ बाप से जा अन गेसिया analgesia-इं० अवसन्नता, स्पामिलता है। gari ( Anæsthesia ). अनलप्रभा anala-prabhā-सं० स्त्री० ज्योति- अनल्जोन analge:'-इं०वेङ्ग, अनलजीन Benz धमती लता । मालकांगुणी (Cardiosperm- analgen, किन अनलजीन । (Quin-ana. um halicapabum )। रा०नि०व० ३। lgin) अवसभी :-हिं० । मुखहिरीन तिः । चि०। For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनवगाह २६३ श्र(ए)नाकार्डिअम् लैटिफोलिया नॉट प्राफिशल (२) चित्तचांचल्य, उद्विग्नमन, चित्त की (Not official.) चञ्चलता ( अस्थिरता) । (Restlessnes). लक्षग-यह एक श्वेत रबादार, गंध रहित । अनशनम् auashanam-सं० क्लो० ) एवं स्वाद रहित चूर्ण हैं, जिसका रासायनिक अनशन ॥mashana-हिं० संज्ञा पु. संगठन और गुणधर्म एवं प्रभाव फेनेसी ___ लछन, उपवास । ( A fast, fasting) टीन के समान होता है। पर इसमें फेनोल के मा०नि० । श्रन्नत्याग । निराहार । सिवाय क्विनोमीन का शॉकड़ा होता है। अनसखरो awasakhari--हिं० संज्ञा स्त्रो० घुलनशीलता-यह जल में नहीं घुलता तथा [सं० अन्नहीं+हिं० सम्वरी] निखरी । पक्की ईथरमें भी करीब करीब नहीं घुलता और शीतल रसोई। घी में पका हुआ भोजन । या उष्ण अलकुहाल ( मद्यसार) में भी प्रति अनस्थेटिक aesthetic-ई० अवसन्नतान्यून घुलता है। परन्तु, मोरोफॉर्म में किसी प्रकार जनक, कायस्पर्शाज्ञताजनक | सुन्न करने वाला। अधिक घुलता है। अनस्थेशिया anesthesia-इं० प्रवसन्नता । प्रभाव-यथाशामक (वेदना नाशक)। अनस्थेसीन anesthesine-इं. इसको अजीर्ण मात्रा-॥से १५ ग्रेन पर्यन्त (५ से १ रोग में ५ से १० प्रेन की मात्रा में कीचट्स में ग्राम तक)। डालकर देते हैं। अनवगाह anavagāha-हिं० वि० [ सं०] | | अनस्लैक्ड-लाइम unslaked-lime-इं० चूना। [संज्ञा अनवगाहिता ] अथाह । गम्भीर । अनबुझा चूना । कली का चूना । अशांत चूर्ण । बहुत गहरा। अनवगाहिता anavagāhita-हिं. संज्ञा स्त्री० (Quicklime ). [सं० ] गंभीरता | गहराव । अनहद नाद anahada-nāda-हिं. संज्ञा पु अनवगा unavagāhya--हिं० वि० दे० [सं० अनाहतनाद ] योग का एक साधन | अनवगाह। अनहाइड्रस वल-फैट anhydrous-woolअनवच्छिन्न anavachchhinna--हिं० वि० __fat-इं.) सरेस ( Gluten). [सं०] (1) अखंडित । अटूट । (२) पृथक् अनक्षः anak shah-सं० त्रि. अंध, अंधा । न किया हुश्रा । जुड़ा हुश्रा । संयुक। I (Blind ). अनक्षि anakshi-सं० क्लो० कुचतु, कृत्सित अनवद्यरागः anavadyaragah-सं० माणिक्य भेद । केशर के रंग का एक प्रकार का मणि विशेष | कौटि० अर्थ० । अनाक aanāq-अ० बकरीका बच्चा । (A Kid). अनाकर anākar-कुस्तु० भनाग़ालुस । अनवम बीजी alavani-biji-० मुनक्का । See-Anaghalus. ( Driod grapes ) अनाकार्डिअम् anacardium-ले. भल्लातक i . अनवय anavaya-हि. संज्ञा पुं॰ [सं० श्र()नाकार्डिअम् प्राक्सिडेर टेली anacardअन्वय ] वंश । कुल । खानदान । ium occidentale, Linn. (Nut of अनवस्थानः anavasthānah-सं० पु. Cashew nut)-ले. काजू । स. फॉ० वायु । (Airरा०। ई० । फा. ई० १ भा० । मेमो० । Seeअनवस्थित चित्तत्वम् anavasthita-chi- | Kaju. ttatvam--सं० क्ली० (.) वायु रोग । (ए)नाकार्डिग्रम् लैटिफोलिया anacard. ( Nervous disease ) वै० निघ०। ____ium latifolia-ले० भिलावाँ, भल्लातक । For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ए)नाकार्डिरसाई २६४ अनाचारः Making nut-tree. ( Semecar- इसे अनागतावेक्षग कहते हैं । नु० उ० श्रा० pus anacardium). (ए)नाकार्डिएसीई anacardiacen-ले० । अनागलुस anāghalus यु० ) इसे नती भल्लातककी अथवा काजूवर्ग। (Anacards, अनागालुस naghālus " भाषामें अनाTerebinths or Sumacs ). किर और फिरङ्गी में अन्कालन कहते हैं। कोई नाकार्डिक एसिड anacardic acid-ले० कोई इसका युनानी नाम फरियून और अरबी भल्लातक्याम्ल, भिलावे का तेजाय । फा० ई. नाम हशी रातुल अलक लिखते हैं। यह एक बूटी १ मा०। है । इसके स्वरूपके सम्बन्ध में बहुत मतभेद है । अनाकार्टापर anacardier-. (१) काजू । यह श्रराक और शाम श्रादि प्रदेशों में उत्पन्न Cashew-nut-tree (Anacarliam होती है। occidentale, Linu. ) फा० इं० अनाग़ालिस nighalis यु०, अ० श्रनाकिर १ भा० । (२) भल्लातक, निलायाँ। The -कुस्तु०। मरिजानह -अ० । जोकमारो, अँधनी marking nut tree ( Semeca. ___-हिं० । ( Anagallis arvensis, rpus Anacardiuni ) ई० मे० मे०। __Lin.) -ले० । फा० इं० २ भा० । अनाक्रांत anākranta-हि० वि० [सं०] अनागीलस amāghilas-यु० मोश । see[स्त्रो० अनाक्रांता] जो अाक्रांत न हो। अपी marzanjosha ड़ित । रक्षित । अनागैल्लिस श्रान्सिस anagallis arven. अनाक्रांतता anākrantata-हिं० संज्ञा पु. sis, Linn. -ले० अँधनी, जोखमारी। उ० [सं०] अाक्रांतता का अभाव । रक्षा । अपीड़ा । प० सू० । मे० मो०। अनाक्रान्ता anakrānta-सं० स्ना० कण्टकारी, अनागोरस anāghoras-रु० सल्वान्-यु० । कटेरी, भटकटैया-हिं० । सोलेनम् जेन्योकार्पम् खबुल नजीर-मिश्र० । इसके फल को हब्बु( Solanum Xantho-carpum ) लकुल्या कहते हैं । गुलेकर्नब के समान एक बूटी - ले० । र० मा० । है जो शामादि देशों में उत्पन्न होती है। किसी अनाका सांडिश्राई क्लोराइडम् anaqua-sodii किसी के विचारानुसार एक अन्य बूटी है जिसके chloridum-ले० सोचर नोन | sochal पत्ते एवं शाखाएँ सँभालूके समान होती हैं। इसका salt. वृक्ष बड़ा हो जाता है। अनागत anāgata-हिं० वि० [सं०] (1) अनाचारिता anachāritā--हिं० संज्ञा स्त्री० न पाया हुश्रा । अनुपस्थित । अविद्यमान | [सं०] निंदित अाचरण । दुराचारिता । अप्राप्त । (२) पागे पाने वाला। भावी । अनाचारी anachari-हिं० वि० [सं० श्रनाहोनहार । चारिन्] [स्त्री०अनाचारिणी । संज्ञा अनाचारिता] अनागतातंवा anaga tārttavā-सं० स्त्रोक प्राचारहीन, भ्रष्ट, बुरे प्राचरण का, पतित' कन्या, अजात रजस्का, अरजस्का, गौरी, नग्निका, दुराचारी। कुमारी, बालिका । जो स्त्री रजोधर्मिणी न हुई हो। अनाचार: anachārah-सं०ए० (१) असत्कर्म, (A little girl, a girl nine years अनिष्टकर्म, दुराचार, कुव्यवहार, निंदित पाचरण । old, a virgin.)। रा०नि०व०१८१० । (Undesired or evil or Impro. अनागतावेक्षणम् anagata-vekshanam per conduct) वै० निध०। (२.) कुरीति, -सं० क्ली. आगे इसे कहेंगे (या ऐसा कहेंगे) कुप्रथा, कुचाल । For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाज २६५ अनामकम् अनाज anaja--हिं० संज्ञा पुं० [सं० अन्नाद] अनान a nān-वर० (Fagla a fragrams, अन्न, धान्य, नाज, दाना, गल्ला । ____Roxb. ) मेमो०। अनाडेण्डम् पेनिक्युलेटम् anadendrum अनानसु हराणु avānasu hannu-कना० Paniculatum-ले० योल्या--अण्ड० अनन्नास, अनानास-हिं० । टा०। मेमो०। अनानास anānās-हिं० अनन्नास । ( Pine अनातकः anātankah-सं० वि० अरोगी, नीरोग, रोग रहित, स्वस्थ । ( IIealthy). अनानास सेटाइवस ananas sativus:- ले० वै० श०। अनन्नास । (Pine apple)-३०। मो०० ! अनातपः anātapah-सं०प० ) ... फा० इ०३ भा०। श्रातपाधनातप anātapa-हिं० संज्ञा पु. श्री अनाप्तः anaptah-3 भाव, छाया । ( Shade) वै० श० । धूप का (१) अविश्रभाव । वि० (१) प्रातप रहित । जहाँ धूप न । अनाप्त anāpta-हिं० वि० ___ हो। (२) तर, उंडा, शीतल । श्वस्त, अविश्वसनीय, अश्रेष्ठ । (२) अकुशल, अनिपुण, अनाड़ी। अनातीतस anatitasa-यु० करख। A pl ant ((raledupa arborea ). अनाफेलिस नोलगिरिएना ana phalis neeअनातुरः anaturah-सं० _igeriana, 11. C.-ले० यह पौधा तथा अनातुर anatura-हिं० वि० स्त्री० अनातुरा इसके अन्य भेदके पौधे नीलगिरि पर्वत पर क्षतम श्ररोगी, निरोग, रोगरहित, स्वस्थ । (Free fr. प्रयुक्त हैं। इसके पत्र ऊर्णवत् लोमसे आच्छादित om sickness or pain, healthy) रहते हैं और यहाँ के दिहाती लोग उसे काट. वे० श०। प्लास्टर या देशोय प्रस्तर ( Coun tiry plas. अनात्मन् anaiman-स० पु० वि प्रात्मा । ter ) कहते हैं | ताजे पत्र को कुचल कर चिथड़े अनात्म anātma-हिं० संज्ञा पु.54 के भीतर रख कर वे इसको क्षत पर बाँधते हैं। का विरोधी पदार्थ, अचित्, पंचभूत । डाइमांक। वि० श्राता रहित, जड़। अनायस स्कैण्डिअस anabus scandeous अनात्मक दुःख anātmaka-dukha-हिं० -ले० । कबई मछली । (Climbing perch) संज्ञा पु० [सं०] सांसारिक प्राधि व्याधि, ई० मे० मे। भव बाधा। । अनाबिद्ध aliabiddha--हिं० वि० [ सं०] अनात्मधर्म anātma-dharma-हिं० संज्ञा (१) अनविधा । अनछेदा | बिना छेद का। पु० [सं०] शारीरिक धर्म । देह का धर्म । (२) चोट न खाया हुश्रा । अनात्मीकृत nātmikrital-वि०बिना पचा या नावेबुर्रियह anābe burriya h-अ० ) अपक्क अंश । ( Unabsorbed ). 3FEyat āurúqa kḥaşlınah j अनादिल aanadila-अ० (ब०व०) अन्दलीब फुफ्फस प्रणालियाँ, वाय वा श्वास प्रणालियाँ। (ए०व०) बुलबुल (एक पक्षी विशेष)। बाँङ्किोल्ज़ Bronchioles--इं० । मज०। ( Nightingale.) अनावेसिस मल्टिफ्लोरा anabasis multifअनादील aanadila-१० बुलबुल का गोश्त । lotra, Mig.-ले० बूहुचोटि,मेवलाने,गोरलाने, (Flesh of Nightingale ). शोरलान, लान, घालमे-वर्ना० । मे० मो० । अनावृषः anādh rishah--निर्बल । अथव० अनामकम् anāmakam-सं०क्ली० ( Pile) सू० २१ । ३ । का०६ अर्श रोग, बवासीर, । श० र०। For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनामक अनार अनामक(स्त्री-मिका) anamak (-mika) Indicus | फा० इं०१ भा० । देखो -सं० स्त्री० (१) Innominate बे नाम | काकफल । का । (२) अंगुली विशेष । अनामा । अनामिीन anamirtin-हे. काकफलीन, अनामयम् anāmayam सं० ली । काकफलसत्व । फा. ई०१ भा० देखो-काकअनामय anāmaya-हिं० संज्ञा पुं० । फल । (१) Health रोगाभाव प्रारोग्य, निरोगता. अनामिष anamisha--हिं० वि० [सं०] निरोस्वास्थ्य, तंदुरुस्ती, रोग हीनता । रा०नि०व० मिष । मांस रहित । २० । (२) कुशलक्षेम । अनार anāra-हि० संज्ञा पु० [फा०] एक पेड़ हि०वि० (१) निरामय, । रोगरहित । नीरोग और उसके फल का नाम दाडिम है। चंगा । स्वस्थ । तन्दुरुस्त । (२) निर्दोष । दोष cyfawr daza ( Punica Granatum, रहित। Linn.)-ले० । पॉमेग्रेनेट ( Pomegra. अनामय anāmaya-सं० त्रि० रोग रहित । nate)-ई० । ग्रेनेडियर कम्म्यून ( Grenश्रथव । सू०१३ । ७ adier Commun)-फ्रां0 | पानार, अनार का ४। का पेड़-हिं०। अनार का माह-द० । संस्कृतअनामयाः anāmayāh-सं० त्रि० (ब० व०) पर्याय-दादिम वृक्षः, करकः (१०), पिण्ड. रोग रहित । अथव० । स० ।। १५ ।का०६। पुष्पः, दाडिम्बः, पवस्ट स्वादुम्लः, पिण्डीरः, अनामल anāmala-अ० (बहु० व०), अन फल साड़वः, शूकवल्लभः (त्रि०), मुखवल्लभः, मिलह, ( ए० व० ) अंगुल्याग्र भाग या (शब्दमा० ), रतपुष्पः ( र०), डालिमा अंतिम (श्रग्र ) पोरवे । ( अ० टी० भ० ), शूकादनः (२०), दाअनामा anāmā-सं० पु, हिं० संज्ञा स्त्री० डिमीसारः, कुहिमः, फलसाड़बः, फलषाड़वः, अनामिका । श० र० । See-Anamika. रक्रबीजः, सुफलः, दन्तवीजकः, मधुवीजः, कुच. हिं० वि० स्त्री० (१) बिना नाम की । (२) फलः, मणिवीजः, कल्कफलः, वृत्तफलः, सुनील : अप्रसिद्ध । नीलपत्रः, नीलपत्रकः, लोहित पुष्पकः, रवीजः, श्रनामिका anamika.सं० स्रो०, हिं० संज्ञा स्त्री० दन्तवीजः । दाडिम गाछ, दालिम गाछ-बं० । कनिष्ठा और मध्यमा के बीच की अंगुली । सबसे शत्रूतुरुंम्मान-अ० । दरख्ते नार-फा० । रुम्मानछोटी उँगली के बगल की उँगली । अनामा । सिरि० । कूतीनूस-यू० । मादलै-च-चेडि-ता० । अंगुश्ते हल्कह , बिन्सर-अ० । रिङ्ग फिगर दानिम्म-चेटु, दाडिम चेदु, दालिम्ब चेटु--ते। ( Ring finger )-६० । रा०नि० व मातलम्--चेटि-मल० . दालिम्बे--गिडा-कना। दालिम्ब--झाड़--मह० । दाडम-नु-भाइ-गु० । १८ । ह० श०र०१भा०। अनामिका धमनो anamika-dhamani-हिं० देलुङ्गहा-सिं० । सले-बिङ्, तली-विङ्-बर्मी। संज्ञा पु. ( Innomitrate artery) दाडिम्ब-क० । दालिम्ब-उत्० । डालम--गज०। एक धमनी विशेष । दादम नु-झाड दालिम, दालिम्ब-उड़ि० । दालिम असा० ! मादल, मोची-उ०प० स० । दाइ, अनामिका धमनी परिखा anamikā-dham ani-prika-हिं० संज्ञा स्त्री० (Groove दाडुनी, दाड़ियूम, दान, दोश्राब, जामन, दादन, for innominate artery ). अनार--पं० । अनार, नरगोश, घरंगोई पश्तु । जम्बू वर्ग। अनामिर्टा कोक्युलस anamirta Coccul (.V.O. Lythracea or myrtacea ) us, W&A.-ले० ककामरि-हिं०, कना०, ते०, उत्पत्ति स्थान-दक्षिण युरोप, अफरीका, मध्यबं० । काक्फल-गु०, सं0 Cocculus For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनार २६७ अनार एशिया ( अरब ईरान, अफगानिस्तान, बलूचि- स्तान, भारतवर्ष तथा जापान )। पश्चिम हिमालय और सुलेमान की पहाड़ियों पर यह वृक्ष श्राप से पाप उगता है। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष में लगाया जाता है । काबुल कंधार के अनार प्रसिद्ध है। भारतीय अनार वैसे नहीं होते । _वानस्पतिक वर्णन-यह पेड़ १५-२० फुट ऊँचा और कुछ छतनार होता है । इसके तने की गोलाई ३--४ फुट होती है। माघ या फागुन में इसके नए पत्ते लगते हैं। इसके पत्ते टहनियों के आमने सामने लगे रहते हैं । यह कुछ लम्बे | नोकदार और सिरे पर गोलाई लिए होते हैं। इनके फूल की पंखड़ियाँ रक्रवर्ण की होती हैं। और फूल अधिक तर एकं एक स्थान पर लगते हैं । इसके फल की मध्य रेखा २ से ३॥ इञ्च | लम्बी होती है। इसके फूल हर मौसम में लगते' लेकिन चैत, वैशाख में बहुत लगते हैं। अषाढ़ से भादों तक फल पकते हैं। . रासायनिक संगठन वृक्ष एवं फलत्वक में २२ से २५ प्रतिशत कपायीन ( Tannin) होता है। वृक्ष मूल स्वक् में २० से २५ प्रतिशत प्युनिको टैनिक एसिड (दादिम-कषायि नाम्ज) मैनिट (Maunit), शर्करा, निर्यास, पेक्टीन, भस्म १५ प्रतिशत, एक प्रभावात्मक पैलीटिएरीन या प्युनीसीम ( अनारीन) नामक तरल धारीय सत्व होता है और तैलीय द्रव आइसो पैलीटिएरीन या प्राइसोप्युनीसीन (अनारीनवत् ) तथा मीथल पैलीटिएरीन व स्युडोपेलीटिएरीन (मिथ्या अनारीन ) नामक दो प्रभाव शून्य क्षारीय सत्व होते हैं । दाड़िम कपायाम्ल ( Punicotannic acid) को जब जलमिश्रित गंधकाम्ल (सल्फ्युरिक एसिड) में उबाला जाता है तब वह इलैजिक एसिड ( Ellagic acid ) और शर्करा में विलेय होता है। नोट-जड़ की छाल में यह सत्व अपेक्षाकृत अधिकतर होते हैं। विशेषतः क तथा श्वेतपुष्प वाले अनार में। प्रयोगांश-मूल त्वक, वृक्षस्वक, अपक्कफल, ३८ पवफल, बीज स्वरस, फलत्वक्, पुष्प, कलिकाएँ और पत्र। . . इतिहास-चरक के छर्दिनिग्रहण एवं श्रमहर वर्ग में दाडिमका पाठ पाया है और वहां इसे वमन नाशक एवं हृद्य लिखा है। सुश्रुत में भी अन र का वर्णन पाया है। तो भी इसकी जड़ की छाल के उपयोग का वर्णन किसी भी प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टु ग्रंथ में नहीं दिखाई देता । भावप्रकाश में इसकी जड़ को कृमिहर लिखा है। . : .... ... बकरात ( Hippocrates ) ने पोत्रासाइड नाम से अनार का वर्णन किया है। दीसकरीदूस (Dioscorides ) ने पराइपोप्रास के नाम से अनार की जड़ की छाल का "वर्णन किया है। इसको वे कृमियों को मारने एवं उनके निकालने के लिए सर्वोत्तम ख्याल करते थे। अस्तु आज भी इस औषध को उसी गुण के लिए व्यवहार में लाते हैं। इसलामा हकीम सङ्कोचक होने के कारण इसके पुष्प एवं फल स्वक् को विभिन्न प्रकार से उपयोग में लाने के अतिरिक वे इसके मूल स्वक् को जो इसका सर्वाधिक धारक भाग है, कद्दूदाना के लिए अमोघ भौषध होने की शिनारिस करते हैं। अनार का बीज प्रामाशय बलप्रद और गूदा हृदय एवं आमाशय बलप्रद ख्याल किया जाता है। दोसकरीदूस ( Dioscorides ) एवं प्राइनी ( Pliny ) के ग्रंथों में भी इसी प्रकार के वर्णन मिलते हैं । अत: ऐसा प्रतीत होता है कि अरब लोगों ने अनार के औषधीय गुण. धर्म का ज्ञान अपने पूर्वजों से प्राप्त किए । अनार की जड़ की छाल एवं फल का छिलका ये दोनों फार्माकोपिया ऑफ इंडिया में ऑफिशल अनार (फल) दाहिम फलम्, दादिमः सं० । अनार, दाइम, दामु-हिं० । प्युनिकाग्रेनेटम् Punica Gra. natum, Linn. (Fruit of Pomegr. For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनारी २१. अनार anate.)-लेका पाँमेग्रेनेट Pomegranate.. -ई। अनार-द०। ग्रेनेडियर कल्टिव Gre- | nadier Cultive.-फ्रांक | ग्रेनेट बॉम Granat baum.-जर० । अनार, डलिम्, दाडिम, दाड़मी, दाड़म-बं० । रुम्मान्, राना - । अनार, नार-फा० | रुम्माना-सिरि० । कूतीनूस-यु० । दालिम्ब-तु० । मादलैप-पज़म्, माडले-ता। दानिम्म पण्डु, दाडिम-पण्डु, दालिम्ब-पगड-ते। मातलम--पजम-मल। दालिम्बे-कायि-कना० । दालिम्ब, डालिम्ब -मह । डारम, दाम-गु० । देलुङ् या देख्नुस् -सिं । सले-सि या तली-सी-बर० । दालिम्, दामिमा-उड़ि। दाखिम्-मासा । अनार, दादिम-उ०प० सू०। पं० तथा परतु-देखोमनार वृक्ष । अनार, धालिम, धारिम्ब, डाढ- | सिंध। धौम-काश० । वालिम्ब-को। दाडम -मारवादी । मादल-द्राविडी । दालम्बि-कर्मा। उत्पत्तिस्थान-अनार । वानस्पतिक वर्णन-अनार का फल गोलाकार किचित् चपटा, अस्पष्टतः षटपार्श्व, सामान्य । मागरंग के आकार का प्रायः वृहत्तर होता है | जिसके सिरे पर स्थल, नलिकाकार, ५-६ दंष्ट्राकार सपलयुक पुष्प वाह्य कोष लगा होता है। फल त्वक् सचिकण, कठोर एवं चर्मवत् होता है जो फल के परिपक्व होने पर धूसर पीतवर्ण का प्रायः सूक्ष्म रकरञ्जित होता है । फल की लम्बाई की रुख छः झिल्लीदार परदे होते हैं जो अक्षपर मिलते और फल के ऊर्ध्व एव यहत्तर भाग को बराबर कोषों में विभाजित करते हैं। उनके नीचे भग्यवस्थित गावदुमो चौड़ाई की एव पड़ा हुआ एक परदा होताहै जो नीचे के लघुर र प्राधे भागको उससे (ऊर्ध्व भाग से ) भिन्न करता है। यह ४ या ५ असमान कोषों में विभक्त होता है। प्रत्येक कोष स्थूल, स्पावत् अमरा से संलग्न बहुसंख्यक दानों से पूर्ण होता है जो ऊवं कोषों में पाय, किन्तु अधः कोषों में केन्द्रीय प्रतीत होते हैं। दाने लगभग प्राध इंच लम्बे प्रायताकार मा गावदुमी, बहुपार्श्व तथा एक पतले पारदर्शक | कोष से श्रावृत्त और अम्ल, मधुर तथा स्वाद्वम्ल रक्र रसमय गूदे से प्रावरित लम्बे कोणाकार बीजयुक्त होते हैं। मोट--(१) धन्वन्तरीय निघण्टुकार और सुश्रुताचार्य ने रस के विचार से इसे दो प्रकार का लिखा है अर्थात् (१) मधुर और (२) अम्ल | "द्विविधं तच्च विज्ञेयं मधुरम्चाम्लमेव च ।" (ध नि०, सु० ४६ अ०) ‘परन्तु, यूनानी निघण्टुकार तथा भावमिश्र इसे तीन प्रकार का लिखते हैं, यथा-"तत्फलं त्रिविधं स्वादु स्वाद्वम्ल केवलाम्लकम् ।" अर्थात् (क) स्वादु, मधुर-हिं० । अनार शीरी-फा०। रूम्मान हुलुम्व (हलो)-अ.। स्वीट sweet -९०। (ख) अम्त, खट्टा-हिं० । अनार तुर्श-फा०। सम्मान हामिज -०। सावर sour-इं.। (ग) स्वाद्वान्ल, मधुराम्ल, खटमीठा-हिं०। अनार मैनोश-फा० । हम्मान मुज-अ०। (२) खट्टे अनार के वृक्ष में खट्टे ही अनार लगते हैं और मी में मोहे लगते हैं। अषाद से .... भादों तक फल पकते हैं, परन्तु देश के हर भाग में ऋतु के अनुसार अलग अलग मौसम में फल पकते हैं। खट्टा अनार गुण में मीठे से बलवानतर होता है । यद्यपि इसकी प्रत्येक चीज़ अपने गुण में दूसरी चीज़ के बराबर होती है, तो भी कुछ कमी-बेशी ज़रूर है, जैसे, गूदा में पत्तों की अपेक्षा अधिक प्रभाव है और इससे अधिकतर पभाव निसपाल में है । फूल में कली से कम असर होता है। इसकी जड़ की छाल में सबसे अधिक प्रभाव है। __ इसके अतिरिक्त अनार के दो और भेद हैं. यथा (१) गुलनार का पेड़ (नर अनार )। Punica Granatum, Linn. ( Male variety of.)। इसका पुष्प जिसको गुलनार कहते हैं, औषध के काम आता है। देखो-गुलनार । इसमें फल नहीं लगते ।। (२) अनार जंगली-यह अनारका जंगली भेद है। For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार अनार प्रयोगांरा-दाडिम (फल ) स्वक्, दाडिम्ब के फल का रस । औषध-निर्माण-( 1 ) दाडिमाष्टक (च००) (२) रुब्छे अनार-ताजे अनारदाना का पानी लेकर प्राग पर पकाएँ । पाद शेष रहने पर उतार कर शीतल करके रक्खें। (३) रुब्ने अनार कन्दी-ताजे अमारदाना के पानी में समान भाग खाँड मिलाकर पाग पर शहद की चाशनी करें। मात्रा२ तो० से ३ तो० तक। (५) शतमनार-१ सेर मिश्री पा खाँड़ की चाशनी में , पाव रुम्बे अनार सादा या प्राधसेर अनार क्रन्दी मिला दें। मात्रासे ३ तो० तक । (५) शर्यत अनार तुर्श-जिस अनार का छिलका पतला और रंग सुत्र हो, दाने उम्दा और मोटे हों, उसका छिलका उतार कर दानों से | पानी निचोद लें और छान कर १ सेर पानी में सवापाव मिश्री मिलाकर शर्यत बनाएँ । आवश्यकतानुसार पानी में मिलाकर पिलाएँ। गुणतृषाशामक होने के सिवा मतली वमन और पित्तील्वण्य के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। (६) शबंत अनार शीरी-प्रत्युत्तम मीठे अनार लेकर पानी निचोड़ लें। पावभर उक रस में प्राधसेर श्वेत शर्करा मिलाकर मुलायम आँच पर पकाएँ और शर्बत की चाशनी लें। मात्रा-२ तो० से ५ तो० तक । सेवन विधि-अवश्यकतानुसार शीतल जल में मिलाकर सेवन कराएँ । गुगा-तृषाशामक एवं हथ । (.) शीतकषाय (नक.)-५ तो० शुष्क अनारदाना को प्राध सेर पानी में तीन घंटा तक भिगाएँ । बाद को मल छान लें और काम में लाएँ । मात्रा-२ तो० से ५ तो० तक। फलत्वक्, मात्रा--१० से ३० ग्रेन (५ से | १५ रत्ती)। अनार के गुण-धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीयमतानुसार अम्ल, कषेला, मधुर, वातनाशक, प्राही, दीपन, स्निग्ध, उष्ण तथा हृय है और कफ एवं पित्त का विरोधी नहीं है। खट्टामनार का है तथा पित्त एवं वात प्रकोपक है। मधुर अनार पित्त नाशक होने से उत्तम है। (च. फ. व० स० २७५०) अनार कषेला एवं फीका ( अनुरस ), अति पित्त कारक नहीं है सभा, दीपन, वचिकारक, हृद्य एवं मलविवन्धकारक है। यह अम्ल तथा मधुर दो प्रकारका होता है। इनमें से मधुर त्रिदोष नाशक और अम्ल वात एवं कफ नाशक है । सुश्रुत स०४६०।। अनार स्निग्ध, उष्ण, जय और कफ पित विरोधी है। धन्वन्तरीय निघण्टु ।। अमार मधुर अम्ल करेला, वातनाशक, कफमाशक, पित्तनाशक, माही, दीपन, लघु, उच्च शीतल, श्रमनाशक तथा रुचिकारक और कास का नाश करने वाला है। अनार अम्बा, मधुर भेद से दो प्रकार का है जिनमें से प्रथम बासकफ, नाशक और द्वितीय तापशामक, लघु एवं पथ्य है। अन्य ग्रंथों में इसको अम्ल, करेला, मधुर, वातनाशक, प्राही और दीपन लिखा है। रा०नि० व." अनार का फल तीन प्रकार का होता। मीठा, मीठाखट्टा और केवल सहा । इसमें मीठा अनार त्रिदोषहर, प्यास, दाह, ज्वर, हृदयरोग, कंठरोग, मुख की गंध को नष्ट करता तृप्त करता, शुक्रकर तथा हलका, पाय रस, ग्राही, स्निग्ध, स्मरणशक्रिवईक और बसकारक है। खट्टा और मीठा अनार अग्निदीतिकर, रोचक, किंचिस्पित्तजनक, सप और केवल सहा अनार पित्तकारी और वात कफ नाशक है। भा०। हृय, अम्ल, श्वास, रुचि तथा तृष्णा का नाश करने वाला है और कंठशोधक एवं पित कफ का बोध करानेवाला है। राजा। For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०० अनार अनार श्रेष्ठ तथा वातादिक रोग नाशक है। अत्रि. १७ १०। . . . . ... दाहिम हृय, अम्ल, वातनाशक, दीपन, । कषाय तथा कफ पित्त विरोधी है। मधुर अनार त्रिदोषनाशक और खट्टा एवं वात व कफ नाशक है। वरनाशक, दीपम, पथ्य, लघुपाकी तथा अग्निप्रदीपक है। राजवल्लम। अनार के वैद्यकीय व्यवहार हारीत मुख द्वारा रक्तस्राव में दादिम फल । त्वक् च को चीनी के साथ चाटने से मुख द्वारा । • रजपात प्रशमित होता है। (चि० ११ श्र०)। चक्रदत्त-अरोचक . रोग में अनार के फल का रस विट-लवण-चूर्ण एवं मधु के साथ मुख में धारण करने से.असाध्य अरुचि भी प्रशमित होती है। (अरोचक-चि०) बंगसेन-(..) ज्वरकृत मुख वैरस्य में चीनी के साथ पिसा हुअा अनार. दाना किंवा . शर्करा मिश्रित, अनार का रस, किसमिस तथा अनार के रस.से ढीला कर मुख में धारण करने वा गण्डुप. करने से ज्वर रोगीके मुख की विरसता नष्ट होती है । (ज्वर-त्रि०) ( २ ) रत्नातिसार में अनार का रस (दाडिम बीज स्वरस),-कूटा हुना ताजे कुटज • स्वक् ८ तो० को ६४ तो. जल में पकाएँ। पाद (१६ तो०) शेष रहने पर उतार कर यन्त्र से छान लें। इसमें १६ सो. अनार का रस मिला ... कर पुनः पाक करें । जब यन्न सिकावत होजाए ..(अर्थात् राब की चाशनी लें।) तब उतार कर रक्खें । इस फाड़िताकार वस्तु में से १ तो० लेकर तक के साथ सेवन करने से मृत्युनमुख अतीसार रोगी भी जीवन लाभ करता है। यूनानी मतानुसार प्रकृति-मीठा अनार प्रथम कक्षा में सर्द तर है । शीतल होने का कारण यह है कि इसमें अत्यधिक माता होती है। और तर स्निग्ध होने का कारण यह है कि इसमें उफाण नहीं पैदा होता जो तरी को कम करने का कारण हो सकता है । अन्यथा यह मधुर न रहता प्रत्युत भम्ल हो जाता । किसी किसी के मत से यह शीतोष्ण (सम प्रकृति) है। खट्टा अनार द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूक्ष है । शीतल होने का कारण यह है कि इसकी प्राकृतिकोमा उफाण के कारण लय हो जाती है तथा रूप होने का कारण यह है कि इसमें आर्द्रता की कमी होती है। खटमिट्टा अनार प्रथम कक्षा में सर्द व सर है । अभार के वीज-प्रथम कदा में शीतल एवं रूद हैं। हानिकर्ता-(मधुर ) भामाशय तथा ज्वरी को । ( अम्ल ) शीत प्रकृति को, कुव्वत जाज़िबह (अभिशोषक शकि) को, यकृत् तथा बाह को। (स्वाद्वम्ल) शीत प्रकृति को। (दाडिमयीज) शीत प्रकृति को। दर्पनाशक-( मधुर ) खट्टे अनार तथा शीत प्रकृति वालों को साका मुरब्या: (दाडिम बीज) जीरा । प्रतिनिधि-मी अनार की प्रतिनिधि खट्टा अनार, खट्टे थनार का मीठा अनार । खटमिट्टा का कच्चा चंगर और अनार वीज का सुमान है । मात्रा अनार श्रीज की मात्रा माशे से ६ माशे तक। गुण, कर्म, प्रयोग- अनार अपनी शीतलता एवं अम्लता के कारण पित्त का नाश करता है। और अपने कब्ज तथा रूपता के कारण इह शा ( कोठों) की ओर मल वहन को रोकता है। विशेष कर इसका शर्बत, क्योंकि इसमें तारल्यता कम होती है। इसके सम्पूर्ण भेदों में यहाँ तक कि अम्ल में भी कठज़ (संकोच ) के साथ कांतिकारिणी शक्ति वा वयशोधकशनि(कम्बतजिल्ला) होती है खहे अनारमें उफाण तथा अम्लताके कारण कांतिकारिता (जिला ) होती है। परन्तु, मधुर अनार में उन गुण होने का कारण यह है कि भावप्रकाश-प्रामाजीर्ण में दाडिम फल को | भली प्रकार पीसकर पुराने गृह के साथ खाने से प्रामाकीर्ण प्रशमित होता है। यह अर्श प्रभति गुद रोगो एवं कोप्ठ्य में प्रशस्त है । ( अजीर्ण -चि। For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनार www.kobatirth.org ३०१ उसमें सूक्ष्म ऊष्मा होती हैं जो कि मधुरता के लिए श्रत्यावश्यक है। कब्ज़ का कारण यह है कि सम्पूर्ण अनारों की प्रकृति में क़ब्ज़ अन्तर्नि हित है जैसा कि जालीनूस ने इसकी व्याख्या की है। इनके दानों को पका कर उसमें मधु मिलाकर प्रलेप करने से का शूल, दाखिस (अंगुल बेड़ा) कुलातू मुँह आना ), श्रामाशयस्थ क्षत और दुष्ट व्रण के लिए उपयोगी है। क्योंकि उसमें • ( संकोच ) ौर कांतिकारिता होती है। शहद के साथ मिश्रित करने से जिला अधिक हो जाता घोर कब्ज़ बढ़ जाता है। क्योंकि मधु श्रपनी उदाता के कारण संकोचकारिणी एवं संग्राहकीय शक्रि को शरीर के गम्भीर: भागों में प्रविष्ट करा देता है । खट्टे श्रनार में मीठे थनार की अपेक्षा अधिकतर रेचनी शक्ति है । यद्यपि दोनों रेचक हैं; क्योंकि दानों में कांतिकारिण शक्ति ( कुव्वत जिला ) पाई जाती है; तथापि खट्टे में रेचनी शक्ति के अधिक होने का कारण यह है कि इससे श्राँतों में न हो जाता है जो इद्दार ( प्रवर्तन) पर मुझरियन होता है । इसके अतिरिक्त इसमें लज् (सोम) भी है। मीठे श्रनार में रेचन के कम होने का कारण यह है कि इसकी रसूबत सूक्ष्म उष्मा के साथ होती है जो कोण्डमृदुकारिणी तथा रेचनी शक्ति से खाली नहीं होती । खरमिट्ठा श्रनार श्रामासायिक प्रदाह को लाभ करता है। क्योंकि यह उसको सरदी पहुँचाता एवं पत्तोमा को शांति प्रदान करता है । क्योंकि खड्डे अनार के समान इसमें क्षोभ एवं तीता नहीं होती और न मीठे अनार के समान इससे आमाशय में उफान पैदा होता है और न पित्त की थोर इसकी प्रवृत्ति ही होती है । श्रतएव यह वातावयवों को हानि नहीं पहुँचाता | खट्टा अनार अपनी स्तम्भिनीशक्ति तथा कषायपन के कारण केंद्र एवं वक्ष में कर्कशता उत्पन्न करता है और मीठा अनार इन दोनों अवयवों को कोमल करता है। चूँकि इसमें सूक्ष्म उष्मा अनार के साथ रतूत होती है। इस हेतु से और अपने स्तम्भनसे यह वक्ष को शक्ति प्रदान करता है और अपनी कांतिकारणी ( जिला ) एवं मृदुकारिता के कारण कास को लाभ करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलसी ( श्रनार बेाना ) जिसकी गुठली मृदु होती है, सर्वश्रेष्ठ है । श्रमलस वह जंगल है जिसमें कोई वृक्ष न उगा हो । सब तरह के अनार मूर्च्छा को लाभ करते हैं । क्योंकि यह रूह तथा हृदयकी प्रकृतिकी समानता सम्पादित करते हैं और इसलिए भी कि ये हृदय को मलों से स्वच्छ करते हैं । नफ़ो० । मोठा अनर रुधिर उत्पन्नकर्ता, शुद्ध श्राहाररसं उत्पन्नकर्त्ता, लघुश्राहार, प्राध्मानकर्त्ता, मलों को स्वच्छ कर्ता, उदर को मृदु करता तथा मूत्रकारक है और यकृत को शांति प्रदान करता, प्यास को शांत करता तथा कामोद्दीपन करता एवं उशमांगों को बल प्रदान करता है । स्वग युक्त इसका अर्क दस्तों को बन्द करता है। सम्पूर्ण कर्मों में विलायती अनार उशम है 1 अनार फल स्वक् भस्म कास को लाभ पहुँचाती है । 节 खट्टे अनार व प्रदाह, थामाशय की गर्मी एवं यकृतोष्मा को प्रशमन करता है तथा रक प्रकोप एवं वाप्प को दूर करता । ज्वरजन्य अतिसार एवं वमन को लाभप्रद है । यवन और शुकखर्जी को लाभ करता तथा खुमार एवं गर्मी की मूर्छा को लाभप्रद है । मिट्ठा श्रनार - इसके गुण मीठे अनार के समान हैं। बल्कि यह उससे अधिकतर प्रभाव शाली है। छिलका सहित इसके फल को कुचल कर निकाले हुए रस में शर्करा मिलाकर पीने से पैशिक वमन तथा अतिसार, खुजली और यकांन में लाभ होता है और यह आमाशय को बल प्रदान करता और हिक्का को नष्ट करता है। For Private and Personal Use Only अनार का बीज - संकोचक, पाचक तथा सुधाजनक है और श्रामाशय को बल प्रदान करता, पैशिक मवाद को श्रामाशय प्रभृति पर Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनार www.kobatirth.org नहीं गिरने देता और पैतिक वमन, अतिसार तथा दोनों प्रकार की खुजली को लाभप्रद है । ३०२ अनार फल स्त्र अनार दामि व दाड़िमफल वल्कल, के फल का खिलका, नि ( ना ) सपाल | पोस्त श्रनार - फु | क्ररुरु म्मान - श्र० । पॉमेग्रेनेट पील Pomegranate peel, पा० रिंड Pomegranate rind-इं० । वर्णन - अनार के फलकी छाल के विपम, न्यूनाचिक नतोदर टुकड़े होते हैं जिनमें कतिपय दंष्ट्राकार नलिकामय पुष्पवाह्य कोष लगे होते हैं जिसके भीतर अब तक परागकेशर तथा गर्भकेशर प्रावृध १ १ होते हैं । यह से ई० मोटा सरलतापूर्वक टूट २० जाने वाला ( टूटते समय जिससे कॉर्कवत् धीमा शब्द हो ) होता है। इसका बाह्य पृष्ठ अधिक खरदरा एवं पीत धूसर वा किंचित् रक्रवर्णं का होता है। भीतर से यह न्यूनाधिक धूसर वा पीत वर्ण का, मधुमक्षिका गृहवत् और वीजखातयुक्र होता है। इसमें कोई गंध नहीं होती; अपितु यह तीव्र कषाय स्वादयुक्त होता है । लक्षण - क्राभायुक्त पीतवर्ण । स्वाद विका प्रकृति - मीठे की सर्द तर और खट्टे की प्रथम कक्षा में शीतल तथा रुक्ष । हानिकर्ता शीत प्रकृति को । दर्पन - श्रार्द्रक । प्रतिनिधि- जरेवर्द ( गुलाब का केशर ) । शर्बत की मात्रा -१ से २ तोला । प्रधान गुण- अर्श के लिए उपयोगी है गुण, कर्म, प्रयोग - (१) गरमी की सूजन को लाभ करता और मसूदों को शक्ति प्रदान करता है । ( २ ) अनार के सूखे छिलकों को पीसकर छिड़कने से काँचका निकलना बन्द हो जाता है । ( ३ ) अनार के फल को पीसकर गोला बना पुटपाक की विधि से पकाकर रस निचोड़ कर मधु मिला पीने से सब तरह के दस्त बन्द होते हैं । ( ४ ) अनार के फल का छिलका पुराने अतिसार तथा श्रामातीसारको मिटाता है । ( ५ ) पाँच तोले अनार के छिलके को सवार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार दूध में श्रौटा १५ छटाँक र छान दिन भर में ३-४ बार पिलाने से श्रामातिसार मिटता है । (६) खट्टे अनार के २ तोले छिलके और दो तोले शहतूत को थौटा छान के पिलाने से पेट के कीड़े मरते हैं । ( ७ ) इसके छिलके की योनि में धूनी देने से मरा हुआ बच्चा बाहर निकल आता है । (८) इसके छिलके को छुहारे के पानी के साथ पीस कर लेप करने से सूजन बिखरती है । ( ३ ) अनार के छिलके और लौंगका काढ़ा पिलानेसे पुराना ग्रामातिसार मिटता है। इस काम के लिए अनार के छिलके और इसकी जड़ की ताजी छाल लेनी चाहिए । नव्यमत पक अनार का रस प्रिय तथा उवर जन्य उत्ताप एवं तृष्णा आदि को शमन करने वाला है। ज्वर रोगी के सिवा यह हर एक रोगी और नीरोगी को लाभदायक है। मस्तिष्क, हृदय और यकृत को अत्यन्त यखवान बनाता एवं शुद्ध रुधिर उत्पन्न करता है। अनार के दाने निकाल कर मज़बूत और भरभरे कपड़े में से निचोड़ कर केवल उसका रस पिलाएँ । अत्यन्त मद्यपान जन्य यकृदोष में तीन तीन घंटे बाद अनार का रस निकाल कर पिलाते रहें । कामला रोगी को प्रातः सायं ६-७ तोला अनार का रस और ६ माशे ज़रिश्क मिलाकर सेवन कराएँ । वमन एवं उफ्रेश विकार में खट्टे अनार का रस गुणदायक है । विसूचिका रोगी के लिए खट्टे अनार का रस एक उत्तम औषध है। रस न प्राप्त होने पर ब या शर्बत का सेवन कराना चाहिए । छोटे बच्चों को प्रति दिन प्रातः सायं एक-दो तोले एक समय अनार का पानी पिलाते रहें । ४० दिन तक ऐसा करने से जिस्म की रंगत सुर्ख निकल आती है । अनार दाने का ताजा रस उदर शूल प्रशामक है । For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनार www.kobatirth.org जिसकी चमड़ी से तुरन्त रुधिर निकल थाए ऐसे बच्चों की जुबान का खून बन्द करने के लिए अनार खिलाना चाहिए। बवासीर वालों को श्रनार खिलाना हितकारी हैं । इसके रस में शकर मिलाकर कुछ गर्मकर पिलाने से वमन रुक जाता है । अनार के रस में जीरा और शर्करा मिलाकर पिलाने से अरुचि मिटती है । अनार के दाने खाने से रुचि बढ़ती है । खट्टे अनार के रस में कुछ मधु मिलाकर कान में टपकाने से कान का दर्द दूर होता है । मीठे अनार का रस निकाल बोतल में भर कर धूप में रख दें। जब वह चाशनी जैसा होजाए तब उसका अंजन करने से सब तरह की आँखों की खुजली मिटती है और प्राँख की रोशनी बढ़ती है । रुब्ब जिस ज्वर रोगी को प्यास बेचैनी, मतली, वमन एवं रेचन होता हो उसको अनार या शर्बत अनार का उपयोग लाभदायक सिद्ध होता है । अनार का फूल ( दाड़िमपुष्प ) दाड़िमपुष्प:- सं० । गुले श्रनार - फा० । बरु 'म्मान अ० | ग्रेनेटाइ फ्लॉरीस Granati Flores - ले० | पॉमेमेनेट फ्लावर्स Pomeg ranate Flowers-f⚫ | वह अनार जिसमें फल लगते हैं उसको कली को अरबी में अनुमाउरु म्मान या जु बज़ुरु म्मान कहते हैं । पर वह अनार जिसमें फल नहीं लगते उसके फूल को गुलनार कहते हैं । गुण तथा उपयोग - " घ्राणात् प्रवृत्ते रुधिरे दाड़िम पुष्परस :- तथा दादिम पुष्प तोयम् ।" अनार के फूल के रस का नस्य लेने से नासिका द्वारा रकस्राव अर्थात् नासार्स वा मक्सीर को लाभ होता है । च० चि०५ श्र० । नार की वह कलियाँ जो निकलते ही हवा के कोलों से वृक्ष से गिर पड़ती हैं, क्षतों के लिए हितकर हैं। क्योंकि ये श्रतिशय सङ्कोचक ३०३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार एवं क्रेदन (मुजफ़्फ़फ़ ) होती हैं, विशेष कर जलाई हुई | क्योंकि जलानेसे उनका शुष्कका रिश्व अधिक हो जाता हैं। नफ़ी० । खट्टे अनार के शब्क फूल को बारीक पीसकर श्रवचूर्णन करने से मसूड़ों से रक्तस्राव का होना रुक जाता है एवं यह व्रणपूरक है । म० श्र० । ( १ ) इसके पुष्प में सङ्कोचक गुण है । श्र नार की कली को चूर्णकर ४ से ५ ग्रेन की मात्रा में देने से कास को लाभ होता है । ( २ ) अनार की अविकसित ताजी कलियों को पीसकर चूर्ण किए हुए वुद्र एला बीज, पोस्त बीज तथा मस्तगी में मिश्रित कर शर्बत के साथ इसका अवलेह प्रस्तुत करें। बालकोंके पुरातन अतिसार एवं प्रवाहिका की चिकित्सा के लिए यह अमोघ श्रौषध है। (Tukina). अनार के फूल का रस और दुर्ष्या का रस इनको समान भाग सेवन करने से अथवा इसके लाल फूलों का रस नाक में टपकाने से या सुधाने से नकसीर बन्द होती है । अनार के सूखे फूलों को दस्त को बन्द करनेवाले योगों में डालने से इनका गुण बद बाता है । नार और गुलाव के सूखे फूल लेकर पीस कर मंजन करने से मसूदों का पानी बन्द हो जाता है । इसकी कलियों का दो ढाई रत्ती चूर्ण खाँसी के लिए बहुत गुणदायक है । अनारके ताजे फूल ४ तो०, मेथी सब्ज़ १० तो० इनको बारीक रगड़ कर ३ सेर पानी में पकाएँ । जब पककर लेई की तरह गाढ़ा गाढ़ा लुनाब सा हो जाए तब शिर के बालों पर लेप करें । इसके दो घंटे बाद स्नान करें तो बाल घूँ घरवाले और बारीक हो जाते हैं । For Private and Personal Use Only अनार की कली जो खिली न हो ताजी लेकर खूब कूटकर निचोड़ कर धूप या पानी की भाप पर शुष्क कर लें । मात्रा - ३ माशे से ६ माशे तक | Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार . ३०४ अनार दाडिम मूल त्वक् . अनार को जड़ की छाल, अनार को छाल -हिं० । ग्रेनेटाई कॉर्टेक्स ( Granati Cortex)-ले. । पॉमेग्रेनेट पार्क (Pomegranate bark) । शुरुम्मान अ. पोस्त अनार-का०। नोट-इसकी तिब्बी, वैचक संज्ञाओं से यहाँ दाडिम फलत्यक् (जिसे हिन्दी में नस. पाली कहते हैं ) नहीं समझना चाहिए; प्रत्युत यह दादिम वृत के कांड तथा दादिम की जद की छाले हैं। यानस्पतिक वर्णन-इसके छोटे छोटे धनुपाकार अर्थात् मुड़े हुए या नलीदार टुकड़े होते हैं जिनको लम्बाई २ से ४ इंच तक सौर चौड़ाई /- प्राध इंच से १ इंच तक होती है। छाल का बाहरी पठ खुरदरा धूसराभ पीतवर्ण का और भीतरी पृष्ठ सचिक्कण पीतवर्ण का होता है । यह सरलतापूर्वक टूट जाता है। यह गंधरहित तथा स्वाद में कषाय किंचित तिक होता है। रासायनिक संगठन-इसमें पैलीटिएरीन या प्युनीसीन (अनारीन ) नाम का एक द्रव क्षारीय सत्व होता है। देखो-अनारवृक्ष वणेनान्तरगत रासायनिक संगठन । संयोग-विरुद्ध-ऐलकेलोज़ (क्षारीय औषधे ), मेटैलिक साल्टस ( धातुज लवणे), लाइम वाटर ( चूने का पानी, चूर्णोदक ) और जेलेटीन ( सरेश)। प्रभाव-संकोचक तथा प्राकृमिहर । औषध-निर्माण-(१) दाडिम त्वक् क्वाथ, अनार की छाल का काढ़ा-हि: । हिकॉक्टम् ग्रेनेटाई कॉर्टेक्स (Decoctum Gra nati Cortex)-ले०। डिकांक्शन श्रॉफ पामेग्रेनेट बार्क (Decoction of Pomepremate Bark)-इं० । मत बूख क्रश स्मान-अ०। जोशाँदहे पोस्त अनार-फा०। निर्माण-विधि-पामीग्रेनेट बार्क (अनार की छाल )का १० नं. का चूण ४ाउंस, परिश्रत वारि के साथ १० मिनट तक क्यथित कर छान ले और इसमें इतना और परिश्रुत जल मिलाएँ कि प्रस्तुत क्वाथ पूरा एक पाउंट हो जाए। मात्रा- श्राधा से २ फ्लुइड ग्राउंस(१४२ से ५६८ क्युबिक सेंटीमीटर )। (२) चूर्ण किया हुअा मूलत्वक् २ से ३ दाम कृमिघ्न रूप से। (३) इसी का क्वाथ ( २० में १ )। मात्रा--३ से ६ फ्लु० पाउंस । (४) मूल त्वक् का तरल सस्व, मात्रा--- चोथाई से २ फ्लु० डाम । प्रभाव तथा उपयोग ' आयुर्वेदीय मत से-(चरक रक्रार्श में दाडिम त्वक् ) अनार वृक्ष की छाल के काढ़ा में सोंठ का चूर्ण मिलाकर पिलाने से अर्श रोगी का ' रकस्राव विनष्ट होता है। (चि०६०)। चक्रदन-(१) सरक्त अतिसार में दाडिम त्वक्-कुटज और अनार वृक्ष की छाल इन दोनों का क्वाथ प्रस्तुत कर मधु के साथ सेवन करने से दुर्निवार्य रक्रातिसार में भी शीघ्र विजय प्राप्त होता है। ( अतिसार चि०)। (२) उपदंश में दादिम वृक्ष त्वक् (अनार वृक्ष की छाल) के चूर्ण द्वारा उपदंश के क्षत को अव. चूर्णन करने से व्रणरोपण होता है । ( उपदंशचि०)। भावप्रकाश-इसकी जड़ कृमिहर है। यूनानी एवं नव्यमत - अनार वृक्षकी छाल विशेषतः उसकी जड़ की छाल कद्दाना ( Tapeworm) के लिए अत्युत्तम कृमिघ्न श्रौषध है। इसको अधिक मात्रा में देने से वमन एवं रेचन पाने लगते हैं। इसके उपयोग की सर्वोत्तम विधि निम्न है__ इसकी जड़ की छाल ५ तो०, जल २ सेर । इसका क्वाथ करें, जब एक सेर पानी शेष रहे उतार कर छान लें। इसमें से ५ तो० प्रातः काल खाली पेट सेवन करें (बालक को १ से २ फ़्लु० डा० ) ऐसी ऐसी ४ मात्राएँ प्रतिश्राध श्राध घण्टा पश्चात् देनेके बाद एक मात्रा एरंड तेल का देकर प्रांतों को साफ कर दें। For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०५ अनार इससे कद्दाना मर कर निकल जाता है । म० अ०। डिमक । ई० मे० मे० | आर० एन. चोपरा । पो० वी० एम०। पुरातन अतिसार एवं प्रवाहिका में अनार की छाल तथा फल स्वक के स्तम्भक गुण का उपयोग किया जा चुका है। भार० एन० चोपरा । पैलोटिएरोन( Pelletierine ). (CH 13 NO ) ( ऑफिशल Official ) लक्षण एवं परीक्षा-यह एक क्षारीय सत्व है जो दाडिम की जड़ की छाल द्वारा प्राप्त होता है । इसके वर्ण रहित सूचम रवे होते हैं जो खुली वायु में या ऐसी शीशी में जो पूरी भरी न हो बहुत शीघ्र वर्णयुक्त हो जाते हैं । यह जल में विलेय होते हैं । मात्रा-५-१० ग्रेन । पलोटिएरीन सल्फास Pelletierine Sulphas प्युनिसीन सल्फेट Punicine Sulphate-इं० । अनारीन गंधेत् । लक्षण एवं परोक्षा- यह एक भूरे रंग का शर्बती द्रव है जो जल में सरलतापूर्वक विलेय होता है। कभी कभी इसकी रवायुक डलियाँ होती हैं । इसको टेपवर्म ( कदाना) को निकालने के लिए ५ से ८ ग्रेन की मात्रा में देते हैं । अस्तु, इसको बासी मुँह खिलाकर उसके दो घंटा पश्चात् कम्पाउंड टिंकचर ऑफ़ जैलप की एक पूरी मात्रा पिला देते हैं। (फ्रेंचकोडेक्स ) मात्रा-पूर्ण वयस्क को ५ से = ग्रेन तक; तेरह वर्ष के नवयुवक को २॥ से ४ श्रेन तक और दो वर्ष के बच्चे के लिए 2 से बेन लक्षण एवं परीक्षा-यह एक हलका विकृताकार पीत वा धूसर वर्ण का चूर्ण है जो अनार Punica granatum (JMyrtacece) की जड़ एवं कांड की छाल द्वारा प्राप्त क्षारीय सत्व का टैनेट मिश्रण होता है। प्रभाव-कढ्दाने (Tape worm)के लिए कृमिघ्न है। मात्रा२ से - ग्रेन (१३ से ५० सेंटीग्राम)। यह अनार की जड़ एवं कांड की छाल की प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहारमें श्राता है। यह छाल. द्वारा प्राप्त चार क्षारीय सत्वों के टैनेट का मिश्रण है। यह जल में कम परन्तु ऐलकोहल (60°/) के ८० भाग में १ भाग विलेय होता है। प्रभाव तथा उपयोग-कद्दाना ( Ta. peworm ) पर इसका विशेष मारक प्रभाव होता है। पेलोटिएरीन नामक क्षारीय सत्व के विलयन (१०, ००० में 1) में थोड़ी देर तक डुबो रखने से वह मृतप्राय हो जाता है। इनमें टैनेट अधिक पसंद किया जाता है । क्योंकि अल्प विलेय होने के कारण इसका अधिकांश अपरिवर्तित दशा में ही प्रामाशय से गुजर कर क्षुद्रांत्र में पहुँच जाता है, जहाँ कि इसका कृमि के साथ सम्पर्क होता है । इसका शुद्ध क्षारीय सत्व अथवा विलेय सल्फेट (गंधेत्) सम्भवतः श्रामाशय द्वारा अभिशोपित होकर कतिपय प्रकृति सम्बन्धी लक्षणों को उत्पन्न करता है, यथा-सिर चकराना, दृष्टिमांद्य, मांसपेशीस्थ ग्राक्षेप और कायविस्तार। परन्तु टैनेट के सेवन के बाद ये लक्षण बहुत कम दीख पड़ते हैं। इसको उपवास के बाद ८ ग्रेन (४ रसी) की मात्रा में देना चाहिए और उसके एक या दो घंटे पश्चात् मृत कृमि को निकालने के लिए तीव्र रेचन जैसे जैलप (७॥ रती) अथवा एक अाउस (२॥ तो०) एरंड तेल व्यवहार कराएँ (इससे कृमि भी निर्गत हो जाता जाता है और उदर एवम् सिर में दर्द भी नहीं होता )। थोड़ी मात्रा में टिटनस (धनुस्तम्भ) और पक्षाघात के कतिपय भेदों में पैलीटिएरीन सल्फेट का स्वगन्तःअंतःक्षेप किया जा चुका है । ( Sir W. Whitla.). २५ तक। पैलीटिएरीनी टैनास (Pelletierina Tannus) पेलीटिएरीन टैनेट Pelletierine Tannate-इं० । अनारीन कषायेत् । For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार अनार नोट-इसके नूतन लवण तो विश्वास के योग्य होते हैं, परन्तु पुरातन होने पर ये ख़राब हो जाते हैं। अनार फल त्वक् अथवा मूल त्वक् के क्वाथ से कभी कभी शिथिल कराउक्षत यादि रोगों में गण्डुप कराते हैं । इस हेतु इसकी जड़ की छाल के कल्क का कंठ में प्रलेप करते हैं। गुदा एवं जरायु सम्बन्धी क्षतों में इसका स्थानिक प्रयोग उपयोगी होता है। इसकी जड़ की छाल श्वेत प्रदर तथा रकक्षरण के लिए अत्यन्त गुणदायक है। इसको आधसेर जौ कुट करके ३-४ सेर पानी में धीमी आँच पर पकाएँ जब पाव भर पानी रह जाए तब उतार कर छान लें। इससे स्त्री अपनी योनि धोया करे। और मलमल का कपड़ा तर करके योनि में रक्खे । अनार के पत्ते हारीत-चलित गर्भ में दाडिम पत्र, अस्थिरगर्भा अर्थात् जिसका प्रायः गर्भस्राव हो जाता हो उस स्त्री के गर्भलाव की आशंका के निवारणार्थ गर्भ से पाँचवें मास में अनार के पत्र, श्वेत चन्दन को दधि और मधु के साथ पालो. ड़ित कर सेवन कराएँ । (चि० ४६ श्र०)। रिसाला अमृत के कतिपय चुने हुए प्रयोग इन योगों में मीठे अनार के पत्ते लेने चाहिए। अनार के ताजे पत्तों को पत्थर पर पीस कर रात को सोते समय हाथ को हथेलियों पर और पाँव के तलवों पर लेप करने से यह हाथ और पाँवकी - जलन को दूर करता है। अनार के 10 तोले ताजे पत्तों को 52 पानी में श्रौटाएँ, ॥ पानी शेष रहने पर छान कर दिन में दो तीन बार इसी पानी से गदा धोने से गुदभ्रंश रोग दूर होता है । गर्भाशय के बाहर निकल पाने पर भी इसका प्रयोग गुणदायक होता है। ___ गर्भाशय के बाहर निकल पाने और गुदर्भश में अनार के हरे पत्तों को साया में सुखा कर बारीक पीस कपड़ छान कर ६-६ मा० प्रातः सायं ताजे जल से सेवन कराएँ। अतीसार में इसकी छाल के क्वाथ में थोड़ी सी अफीम भिलाकर प्रयोग करने से बहुत लाभ होता है। इसकी छाल के काढ़े में सोंठ और चन्दन का बुरादा छिड़क कर पिलाने से रुधिर युक्र संग्रहणी मिटती है। अनार की जड़ को पानी में घिस कर लेप करने से शिर का दर्द दूर होता है। इसकी छाल का चूर्ण बुरकाने ने उपदंश की टांकी मिटती है। इसकी छाल के काढ़े में तिलों का तेल डाल कर तीन दिन तक पिलाने से पेट के कीड़े बाहर निकल जाते हैं। अनार के ताजे पत्ते दो तोले, स्याह मिर्च १ माशा, दोनों को 5- पानी में पीस और छान प्रातः एवं इसी प्रकार सायंकाल में पिलाने से यह स्त्रियों के प्रदर रोग को दूर करता है । अनार के दो तोले ताजे पत्तों को श्राधपाव पानी में रगड़ और छान कर पिलाना और अनार के पत्तों को पीस कर पेड़ पर लेप करना गिरते हुए गर्भ को रोकता है। आँख श्राने में अनार का क्वाथ एक दो बुद आँख में टपकाएँ। कुकरे में आँख के पपोटों को उलट कर उक्र काढ़े से आँख को धोने से अत्यन्त लाभ होता है । कर्णशूल तथा कान के भीतर की सूजन में अनार के काढ़े को कान में डालना चाहिए। अनार के पत्तों को साया में सुखा पीसकर कपड़ छान करके ६-६ मा० सुबह गौ की छाछ और शाम को ताजे पानी के साथ खिलाने से पांडु रोग दूर हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०७ अनार अनार के पत्तों को बारीक पीसकर थोड़ा सरसों का तेल मिलाकर उबटन के तौर पर दिन में एक बार प्रयोग करना खुजली को दर करता है। उपयुक्त विधि के अनुसार सेवन करने अथवा पाव भर अनार के पत्तों को पाँच सेर पानी में औटाकर ४ सेर शेष रहने पर इससे नहाने से गरनियों में . पित्ती निकलने को लाभ होता है। अनार के दो तोले हरे पत्तों को श्राध पाव पानी में रगड़ और छान कर प्रातः सायं और रोग की अधिकता में दो पहर को भी सेवन करने से सिल ( उर:क्षत) को लाभ होता है। गंड को दूर करता है। इसी भाँति सेवन करना भगन्दर में भी लाभप्रद है। छाया में सुखाए हुए अनार के पत्ते ५ भाग और नवसादर १ भाग, दोनों को बारीक पीसकर कपड़छान करें, और ३-३ मा० प्रातः सायं ताजे पानी के साथ खिलाएँ। यह प्लीहा के लिए गुण दायक है। अनारके पत्तोंको कुचल कर निकाला हुश्रा रस १ सेर और मिश्री ग्राधसेरका शर्बत तय्यार करें। २-२ तोला यह शर्बत दिन में दो तीन बार चटाना अावाज के भारीपन, खाँसी, नजला तथा जुकाम (प्रतिश्याय ) को दूर करता है। अनार के पत्तों को छाए में सुखाकर बारीक पीसकर कपड़ छन करें और शहद के साथ जंगली बेर के समान गोलियाँ बना कर छाए में सुखाकर रक्खें। यदि शुद्ध शहद न उपलब्ध हो तो गुड़ के साथ गोलियाँ बनालें । इन गोलियों को मुंह में रख कर चूसनेसे भी यह आवाज के भारीपन, खाँसी और नजला व जुकामको दूर करता है। अनार के हरे पत्तों को अाध पाव पानीमें पीस श्रीर छानकर प्रात: सायं पिलाने तथा अनार के हरे पत्तों को पत्थर पर बारीक पीसकर मस्तक पर लेप करने से नकसीर को लाभ होता है। अनार के हरे पत्तों को कुचल कर निकाला हुधा रस १० ती०, गोमूत्र १० तो०, तिल तैल १० तो०, तीनों को नरम श्राग पर पकाएँ । जब तेल मात्र शेष रह जाए तब भाग पर से उतार कर और छानकर ठंडा होने पर शीशी में डाल रखें। इसको दो तीन बुद थोड़ा गरम करके प्रातः और सायं कान में डालने से बहरापन, कान का दर्द और कानों की खुश्की और साँ साँ शब्द होना बन्द होता है। अनार के पत्तों को कुचल कर निकाला हुआ | रस १ सेर, बेल के पत्तों को कुचल कर निकाला | हुअा रस १ सेर, गाय का घी १ सेर, तीनों को नरम आँच पर पकाएँ। केवल घी मात्र शेष रहने पर छान कर रखें। दो दो तोला यह घी गौ के पाव भर गरम दूध में मिलाकर प्रातः सायं पिलाना बधिरता को दूर करता है । दूध में आवश्यकतानुसार मिश्री या खाँड मिला लें। अनार के दो तोले ताजे पत्तों को प्राध सेर पानी में पकाकर प्राधपाव रहनेपर छानकर प्रातः सायं पिलाना और अनार के पत्तों को पानी में पीस टिकिया बनाकर बाँधना कंठमाला और गल २तो. अनार के पत्तों को श्राध सेर पानी में प्रोटाएँ । जब प्राधपाव जल शेष रहे तब छान कर १ तो० खाँड़ मिलाकर प्रातः सायं सेवन करें। इससे आवाज का भारीपन खाँसी, नजला व जुकाम और दर्द सीना इत्यादि दूर होते हैं । अनार के पत्तों को छाया में सुखा बारीक पीस कर कपड़छान करें और ६-६ मा० सुबह गो की छाछ और शाम को ताजे पानी के साथ खिलाएँ । इससे पेटक कीड़े दूर होते हैं । अनार के ताजे पत्तोंको कुचल कर रस निकालें और इससे कुल्ले कराएँ । इससे मुख, हलक और जबान का पकना, मसूढोंसे खून और पीव का श्राना, जुबान और मुंह के छाले तथा ज़रूम दूर हो जाते हैं। रस निकालने के लिए यदि काफी पत्त न मिल सकें तो पत्तों को दगुने पानी में पीस और छान कर रस निकालें। अनार के दो तोले पत्तों को १०तो. पानी में For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनार ३०८ रगड़ और छान कर सुबह इसी तरह शाम को पिलाना बवासीर के खून को इन्द करता है। अनार के पत्तों को पीस कर टिकिया बनाकर जरा गरम करके घी में भून कर बाँधना बवासीर के मस्सों की जलन, दर्द और शोथ को दूर करता है और मस्सों को ख श्क करता है। - २ तोले अनार के पत्तों को १० तोले पानी में रगड़ और छान कर सुबह और शाम को पिलाना खून के चमन को रोकता है। इसी प्रकार सेवन करने से खून के दस्त भी बन्द होजाते हैं। अनार के पत्तों को पानी में पीस कर लेप करने से पित्त का सिर दर्द दूर होजाता है । वात और कफ के सिर दर्द में अनार के पत्रों को पानी में पीस कर किञ्जित् गरम करके लेप करना चाहिए। छाया में शुष्क किए हुए अनार के पते ॥, धनियाँ शुष्क ॥ इनको बारीक पीस कर कपड़ छान करें, गेहूँ का आटा 5१ तीनों को मिला कर गाय के ऽ२ घी में भून कर ठंडा होने पर ७४ खाँड़ मिलाकर रखें। इसमें से १-१ छं० या पाचन शनि के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में प्रातः सायं गरम दूध के साथ खिलाना सिर के दर्द तथा सिर चकराने को दूर करता है। अनार के दो तोले ताजे पत्तों को 5- पानी में रगड़ और छान कर प्रातः सायं पिलाना खुनी पेचिश को दूर करता है। अनार के पत्तों को छाया सुखा बारीक पीस कर कपड़ छान करें। ६ ना. प्रातः गौ की छाछ और सायं उसी छाछ के पनीर के साथ खिलाएँ। कामला में लाभप्रद है। शनार के पत्तों को छाया में सुखा बारीक पीस कर कपड़ छान करके सुबह और शाम ६-६ जा. ताजे पानी के साथ खिलाना दाद, चंबल शौर खुन की खराबी को दूर करता है। अनार के पत्तों को पानी में पीस कर दिन में दो बार १-१ घंटे के लिए लेप करना गंज को. दूर करता है। अनार के ताजे पत्तों को कचल कर निकाला हा रस १ सेर, अनार से ताजे पांकी चटनीsसरसों का तेल श्राधसेर, तीनो को मिलाकर नरम आँच पर पकाएँ। तैल मात्र शेष रहने पर श्राग पर से उतार और छान कर ठंडा होने पर शीशी में भरकर इस तेल को दिन में दो बार लगाना गंज और बाल झड़ को दूर करता है । इस तेल की मालिश करने से चेहरे की कील झीप और काले धब्बे भी दूर हो जाते हैं।। अनार के पत्रों की छाए में सुखा कर बारीक पीस कपड़ छान करें और १-१ तो. प्रातः सायं पानी के साथ खिलाने से पातशक ( उपदंश) दूर होता है। प्राधपाव अनार के ताजे पत्तों को कुचल कर १ सेर पानी में श्रौटाएँ, श्राधसेर पानी शेष रहने पर छान कर इस पानी से दिन में दो तीन बार पातशक के जरूमों को धोना चाहिए। अनार के पत्तों को छाए में सुखा बारीक पीस कपड़ छान करें और अनार के पत्रों को कुचल कर निकाले हुए रस में २१ दिन खरल करके शुष्क होने पर कपड़ छान करें। प्रातशक के जख्मों को शुष्क करने के लिए यह एक अजीब अनार के २ तोले हरे पत्तों को प्राधपाद पानी में रगड़ और छान कर सुबह इसी प्रकार शाम के वक्र पिलाना पेशाब के रास्ते खून थाने में गुणदायक है। . अनार के ताजे पचों को पत्थर पर बारीक पीस कर दिन में दो बार लेप करना दाद और चंबल को दूर करता है। अनार के दो तोले ताजे पत्रों को प्राधसेर पानी में जोश देकर श्राधधाव पानी शेष रहने पर छान कर पाव भर गरम दूध में मिलाकर पिलाने से शारीरिक एवम् मानसिक शांति प्रशमित होती है। प्रातः एवम् रात्रि को सोते समय इसी भाँति सेवन करना अनिद्रा या स्वल्प निद्रा के लिए लाभदायक है । नींद आने के लिए भंस का दूध सेवन करना अत्युत्तम है। For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनार www.kobatirth.org ३०६ अनार के हरे पते २ तोले को ग्राथ मेर पानी में पकाकर पात्र शेष रहने पर छानकर १ तो गोत और 9 तो० खाँड़ मिलाकर सुबह और शाम पिलाने से भृगी दूर हो जाती है I २ तोले अनार के हरे पत्तों को श्राधसेर पानी में रगड़ और छानकर सुबहशाम पिलाना सूजाक को दूर करता है । अनार के पत्तों को कुचलकर निकाला हुआ रस एकसेर सत्यानासी कटेरी को कुचल कर निकाला हुआ रस १ सेर, गोमूत्र १ सेर, काले तिलों का तेल २ सेर, अनार के पत्तों का कल्क श्राधसेर सबको मिलाकर श्राग पर चढ़ाएँ । केवल तेल मात्र शेष रहने पर आग पर से उतार और छान कर रखें | इस तेल को दिन में दो तीन बार फुलवरी ( श्वित्र ) के दागों पर लगाना गुणदायक है । इस तेल के लगाने से काले धब्बे, झीप, दाद, चंबल, भगंदर और कंठमाला इत्यादि रोग दूर हो जाते हैं। इसे कोढ़ के ज़ख्मों पर लगाने से भी लाभ होता है। | में इसको दिन में तीनबार लगाने से श्लीपद को लाभ होता है। अनार के पत्तों के छाए सुखाकर बारीक पीसकर कपड़छान करें । ६-६ मा० सुबह और शाम ताजे पानी के साथ खिलाने से श्वित्र ( सफ़ेद कोढ़ ) दूर हो जाता 1 अनार के २ तोले हरे पत्तों को आधपाव पानी में रगड़ और कपड़छान कर सुबह इसी प्रकार शाम क े वक्त पिलाने से यह सोम रोग को दूर करता है । अनार के ६ माशे हरे पत्तों को २ तो० पानी में और छानकर २ तो० शर्बत मिलाकर रगड़ लाभ होने तक एक-एक घण्टा बाद पिलाना हैजे के लिए अत्यन्त लाभप्रद है । यह वमन को भी बन्द करता है । मा० एक तो० अनार के हरे पत्ते और १ कालीमिर्च, दोनों को = पानी में रगड़ और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शनार छानकर सुबह और शाम विजाना, रकपित्त को दूर करता है । अनार के पत्तों को छाया में सुखा बारीक पीसकर कपड़छान करें और १-१ तो० सुबह और शाम ताजा पानी के साथ खिलाएँ । इससे को दूर हो जाता है । साया में शुष्क कर बारीक पीस कर कड़ छान किए हुए अनार के पत्त े ६-६ माशा सुबह और ताजा पानी के साथ खिलाना, प्रमेह और कुरह ( चत) को दूर करता 1 साए में शुल्क किए हुए अनार के पत्ते ४ भाग, सेंधानमक १ भाग, दोनोंको बारीक पीस कर कपड़छान करें और ४-४ मा० दोनों समय भोजन से पहिले पानी के साथ खिलाएँ । यह भूख की कमी एवं बदहजमी को लाभप्रद I अनार के पते २ तो०, 5 = पानी में रगड़ और छान कर पिलाना, सूच्छी को दूर करता है | यदि रोग चिरकालीन हो तो सुबह शाम दोने व पिलाएँ । * अनार के पसे १ तो०, गुलाब के ताजे फूल १ तो० ( यदि ताजे फूल न मिलें तो शुष्क पुष्प ६ मा० ले लें ), दोनों को ॥ पानी में श्रीटाएँ । S = पानी शेष रहने पर छानकर एक तो० गोघृत मिला कर गरम गरम सुबह और शाम पिलाने से योषापस्मार ( Hysteria ) दूर होजाता है | इससे उन्माद को भी लाभ होता है। 1 अनार के हरे पत्ते १ तो०, गोखरू हरा १ तो० दोनों को पानी में रगड़ और छानकर सुबह और शाम पिलाना पेशाब की रुकावट और जलन को दूर करता है । २ तो० हरे पत्तों को 5 = पानी में रगड़ और छान कर सुबह और शाम पिलाना लू लगने में लाभप्रद 1 For Private and Personal Use Only अनार के पत्तों को छाए में सुखा बारीक कर कपड़छान करें और एक-एक तो० सुबह और शाम ताजा पानी के साथ खिलाने से श्लीपद दूर होता है 1 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनार अनार के पक्षों को पानी में करना श्लीपद को लाभप्रद है । कनफेड के बरम को दूर करता है। www.kobatirth.org पीस कर लेप | इसका प्रलेप ३१० अनार के २ तो० पत्तों को ॥ पानी में क्व थित कर = पानी शेष रहने पर छान कर ४ रती सेंधानमक मिला सुबह और शाम पिलाने से भी यह कनफेड़ के बरम को दूर करता है । अनार के २ तो० हरे पत्तों को ॥ पानी में करें जब । पानी शेष रहे तब छानकर ठंडा होने पर इससे गण्डूप कराने से यह खुनाक ( Sore throat ) को दूर करता है । थातशक में पारद सेवन से मुँह आने पर भी इसका उपयोग लाभदायक होता है। 1 अनार के २ तो० हरे पत्तों को ॥ पानी में जोश देकर = रहने पर छानकर ठण्डा करके सुबह इसीतरह शाम के वक्त पिलानेसे वह खुनान ( Sore throat) और मुँह थाने में मुफ़ीद है । अनार के पतों को छाए में सुखा बारीक पीस और कपड़छान करके सुबह और शाम दाँत और मसूढ़ों पर मञ्जन रूप से लगाने से दाँतों के हिलने, मसूड़ों से खून या पीव श्राने और मसूड़ों के फूलने इत्यादि में लाभप्रद 1 S = अनार के पत्तों को ९१ पानी में जोश देकर | | पानी शेष रहने पर छान कर इससे जख्मों को धोने से उनसे खून आना बन्द हो जाता है और ज़ख्मोंका गन्दापन दूर हो वे शीघ्र भर जाते हैं । इस प्रकार धोने से और पूर्वोक अनार पत्र तथा सत्यानाशी द्वारा प्रस्तुत तैल के लगाने से नासूर भी दूर हो जाता है । अनार के पत्तों को छोए में सुखाकर बारीक पीस कपड़छान करके ६-६ माशा सुबह शाम ताजे पानी के साथ खिलाना भी नासूर में लाभ करता I अनार के पत्तों को पानी में पीसकर दिनमें दो बार लेप करना या अनार के पत्तों को पानी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रनार में भिगोकर बतौर पोटली आँखों पर फेरना दुखती आँखो को लाभ पहुँचाता है । अनार की पत्तों को कुचल कर निकाले रस को कपड़े में छान कर दिन में दो बार चन्द्र क़तरे में टपकाना आँखों की सुर्खी, बरस, खुजली और गंदपन को दूर करता है । अनार के सेर ताजे पत्तों को सेर पानी में भिगोएँ । २४ घंटे बाद आग पर पकाएँ जब २ सेर पानी शेष रह जाए छान कर इस पानी को दुबारा याग पर चढ़ाएँ । जब शहद की तरह गाढ़ा हो जाए तब भाग पर से उतार कर डा होने पर शीशी में डाल रक्खें । इसे सलाई से सुबह और रात्रि में सोते समय आँखों में लगाना दुखती आँखों को लाभ करता है और श्रोंखों की खुजली, ललाई, गंदापन, पलकों की खराबी, पानी जाना और कुकरों को दूर करता है | अधिक काल तक सेवन करते रहने से परवाल भी दूर हो जाते हैं । पत्ती को पानी में भिगोने से पहिले पानी से अच्छी तरह साफ कर लें जिसमें मिट्टी आदि अलग हो जाएँ । यथासम्भव इसको ताम्र पात्र में तय्यार करें । अनारकी हरी पत्तीको कुचलफर निकाला हुना रस ४०-४० त०, सुरमा स्याह २ तो०, दोनों को खरल करें। शुष्क होने पर कपड़छान कर रखें | इसको दोनों समय आँखों में थांखों के उपर्युक्त रोगों को दूर करता है । लगाना अनार के हरे पत्तों को कुचल कर निकाला हुआ रस खरल में डाल कर खरल करे । जब शुष्क हो जाए तब कपड़े में छान कर रखें । प्रातः सायं सलाई द्वारा आंखों में लगाना पूर्वोक्क नेत्र रोगों में यह प्रयोग अधिकतर लाभप्रद है For Private and Personal Use Only सिंगरफ़ रूमी १ तो०, अनार के हरे पत्त े २ तो० दोनों को खरल करके ७ टिकियाँ बना कर छाया में शुष्क करें। तामे के टुकड़ों को श्राग पर गरम करके उस पर एक टिकिया रखकर जलाएँ और शक के रोगी को नंगा करके Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनार ३११ उसके बदन पर एक कपड़ा लपेट कर कपड़े के भीतर वह तामे का गरम टुकड़ा रखडे, जिस पर टिकिया पड़ी हो । जब धुआँ निकलना बन्द हो जाए और बदन पर खूब पसीना थाचुके तो तेज हवा से बचा कर रोगी के ऊपर से कपड़ा हटा कर दूसरे कपड़े से पसीना साफ करदे | सात दिन तक यह प्रयोग करने से प्रातशक दूर हो जाता है। औषध सेवन काल में गेहूं और चने की रोटी at के साथ खिलाएँ । अनार के हरे पत्तों को पत्थर पर बारीक पीसकर आग से जली हुई जगह पर दिन में दो तीन बार लेप करना लाभदायक है । १० तोला अनार की पत्ती को कुचल कर २० तोला तिलों के तेल में जला कर काला होनेपर आग से उतार लें और छान कर रक्खें । प्रावश्वकता होने पर इस तेल को ७ बार पानी से धोकर मलहम सा तय्यार कर, श्राग से जली हुई जगह पर लगाने से लाभ होता है । भिड़, ततैया, मधु मक्खी, मकड़ी और बिच्छू प्रभति से दंशित स्थान पर अनार के हरे पत्तोंको रगड़ कर लेप करना चाहिए। तेजाब और भिलावेंके तैल प्रभृति, तेज चीजों से जली हुई जगह पर उपर्युक्त प्रयोग उत्तम है । मकड़ी के विष में दर्द सर बुखार और दाह आदि कई रोग पैदा हो जाते हैं। इन सब में अनार के दो तोले ताजे पत्तों और दो माशे arat after at arora पानी में रगड़ और छन कर सुबह और तकलीफ की अधिकता की दशा में इसी तरह शाम को भी पिलाएँ । अनार के पत्तों को छाया में सुखाकर बारीक पीसकर कपड़छान करें । पित्त ज्वर में सुबह व शाम को ताजा पानी के साथ ६-६ माशा खिलाएँ, बात कफ ज्वर में गर्म पानी के साथ खिलाएँ । टाइफाइड ( श्रांत्रिक सन्निपात ज्वर ) में २ तो० श्रनार के पत्तों को श्राध सेर पानी में जोश Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रनार दें, आव पाव पानी शेष रहने पर छानकर श्रौर ४ रत्ती सेंधा नमक मिलाकर सुबह और इसी प्रकार शाम को पिलाया करें । . अनार के पत्तों को छाया में सुखाकर बारीक पीसें और कपड़छान कर के ६-६ माशा सुबह व शाम ताजे पानी के साथ पिलाएँ या १ तो० अनार के ताजे पत्र को 5 = पानी में रगड़ और छान कर सुबह और शाम पिलाने से दिल के धड़कन को लाभ होता है । छाए में सुखाए हुए अनार में दही, नीम के पत्र १-१ तो०, छोटी इलायची और गेरू १-१ तो० सत्र को बारीक कपड़छान कर और ४-४ मा० सु और शाम ताजे पानी के साथ सेवन कराने से दिल की धड़कन, धूप या उष्णताधिक्य के कारण शरीर से चिनगारियों के निकलने में बहुत लाभ होता है । इससे प्यास भी कम हो जाती है । बढ़ी हुई प्यास में अनार के पत्तों को कुचल कर मुँह में रखकर चूसते रहना या १ तो० नार के पत्रों को 5 = पानी में रगड़ और छान कर सुबह शाम पिलाने से बहुत लाभ प्रतीत होता है । अनार के पत्तों को पीस कर लेप करना स्तनों को दृढ़ करता है । अनार के पत्तों को कुचल कर निकाला हुग्रा रस ११, तिल तैल २० तो० दोनोंको गरम श्राँच पर पकाएँ, तैलमात्र शेष रहने पर उतार कर छान कर रखें। इसकी दिन में दो तीन बार मालिश करने से भी स्त्रियों के कुच कठोर हो जाते हैं, परंतु शीघ्र नहीं । For Private and Personal Use Only अनार के ताजे पत्तों को कुचल कर निकाला हुआ रस २, गाय का घी १, अनार के ताजे पत्तों का कल्क =, तीनों को मिलाकर नरम आग पर पकाएँ । जब पानी जल कर घी शेष रह जाए तब उतारकर कपड़े से छानकर ठण्डा होने पर मिट्टी के चिकने बर्तन में रख छोड़ें यह घृत मेदाजनक, वीर्य एवं बुद्धिवर्द्धक है । 5। उष्ण गोदुग्ध में आवश्यकतानुसार मिश्री Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तापू. अनारकली अनारवृक्ष मिला कर उक्त औषध २ तो० सुबह व शाम | अनारतुशं anāra-tursh-फ़ा० खट्टा अनार पिलानी चाहिए। (Sour Pomegranate ). अनार कली anana-kali-हिं० स्त्री. दाडिम- | अनारदश्ती anāra-dashti-फ़ा० जंगली अनार । कलिका, अनार की कली | Punica Gra- ( Wild l'omegranate ). matum, Linn. ( Buds of-pomeg. रुम्मानबरी, मज-अ०।तुह ता महोदयके वचनाTanate) देखो-अनार । नुसार हब्बुल कलकल इसी का फल है और अानारका झाड़ nara-ka-juāra-द० दाडिम महशी तुह फाने लिखा है कि अनारदश्ती गोरखवृक्ष, अनार का पेड़ । Punica Grana- पुर (संयुक्रमांत) के पास पास बहुतायत से tum, :Linn. I स. फा० ई० । देखो- पैदा होता है । इसके तीन चार पत्त भूमि से अनार । उत्पन्न होने के बाद ही पुष्प श्राजाते हैं जो गुलअनारकी कली anāra-ki-kal1-हिं० संक्षा स्त्री० अनार के समान होते हैं और पत्ते कासनी के दाडिम कलिका । ( Buds of pomegr पतों के सदृश होते हैं। anate) देखो-अनार । अनारदारणा anara-dānā-राज० पु० दाडिमअनार की छाल anāra-ki-chhai-हिं० संज्ञा बीज, अनार का बीज । ( Seed of pome स्त्री० दाडिम त्वचा-सं०। कश्रुरु म्मान-अ० । granate) देखो-अनार । पोस्त अनार-फा०। ग्रेनेटाइ कॉर्टेक्स (Gra- अनारदानह anāra-danahPati cortex )-ले० । पामेग्रेनेट बार्क अनारदाना anara-dana- हिंस pomegranate bark-इं० । देखो- अनारका बीज । खट्ट अनारका सुखाया हुश्रा दाना। अनार। हब्बुरुम्मान-अ०(Punica Grana tum, अनारकेवा anāra-keva-फा० खसखास, Linn. (Seeds of-Pomegranate ). पोस्ता । ( Poppy seeds). स. फा० इं० । देखो-अनार । (२) रामदाना । अनारकोटीन anarcotine-इं० नारकोटीना Narcotina, नारकोटीन Narcotine | अनारदानहे-तुर्श anāra-danahetursh-फा० अवसन्नीन-हिं० । मुकिरीन, मुखदिरीन-अ०। खट्टा अनारदाना । (Seeds of sour pome इसके वर्ण रहित, चमकीले तथा बड़े बड़े रवे grante. ) होते हैं जो जल में तो अविलेय पर ईथर वा अनारदानहे-दश्तो anāra-dānahe daashtiउबलते हुए मद्यसार अथवा अम्लीय (विलयन) में फा० हब्बुल कुल्नुल (ग्वार चिकना )। विलेय होते हैं। इसमें सुन्नताकारक गुण न होने लु० का। के कारण इसे "अनारकोटीन" अर्थात् अनव अनारदानहे शोनी allāra-danahe-shirinसन्नीन कहते हैं। यह परियाय निवारक ( एण्टिपीरिॉडिक ) है और इस विचार से यह फा० मीठा अनारदाना । क्वीनीन के समान है। अस्तु, जूड़ी तापों (एग्यू) अनारपुष्प anāra-pushpa-हिं० पु० अनारका में इसे कीनीन के स्थान में वर्तते हैं। मात्रा फल । Punica granatum, Linn. १ से ३ ग्रेन तक । ( Flowers of-Pomegranate.) अनारकोही anāra-kohi-फा० पहाड़ी अनारजो अनारवृत anāra-vriksha-हिं० पु. अनार अधिक अम्ल होता है। का पेड़ । ( Punica Granatum, अनारगुली anara-guli-फा० गुलनार । Linn. ). For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनारमुश्क अनाविल अनारमुश्क anāra-mushka-फा० नारमुश्क, | अनार्तव जलम् anārttava-jalam-सं० नागकेशर । ( Mesua ferrea). की जो जल बिना ऋतु अर्थात चौमासे (वर्षाअनार मैखोश anāra-maikhosha-फा० ऋतु) के सिवा पौष श्रादि महीनों में बादलों खटमिट्ठा अनार, स्वादुम्लद डिम । ( Pome- द्वारा वर्षता है उसे "अनार्त्तवजल" कहते हैं। granate of a mixed taste of sour यह प्राणियों में वातादि तीनों दोषों को कुपित and sweet). देखो अनार । करता है । "अनार्तवं प्रमुञ्चन्ति वारि वारिधराअनार वित्रतोस anāra-vitra-tisa-60 स्तु यत् । तस्त्रिदोषाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्तिफ्राशरस्तीन | See-Fasharastina. तम् ॥" भा० पू० वारि०व०। वर्षा ऋतु के अनारगीरी anara-shirin-फा. मीठा अनार । सिवा अन्य ऋतु का जल अथवा वर्षा ऋतु के भी (Sweet Pomegranate ). देखो-श्र- प्रथम वृष्टि का जल । यह जल पीने योग्य नहीं नार। होता । वा० सू० ४ अ० श्लो० ७। अनारस anarasa-गु० अनन्नास | Ananas , अनातंवा anārttavā-सं० स्त्री०, हिं० वि० sativus, Mill. ( Pine apple ). स० स्त्री० (Unmenstruating woman) फा० इ०। जो ऋतुमती न हो। रजः शून्या, वह स्त्री जिसे अनारहिन्दी anatra-hindi-फ़ा० श्री फल, मासिकधर्म न होता हो यथा-"अनार्तवस्तनापंडी" विल्व, बेल (Egle marmelos). "बेल- स० सं०३०३८। "अनात वास्तनी षण्डी गिरी इसी का गूदा है।" खरस्पर्शा च मैथुने ।" मा०नि० । अनारिक्ष anāriksha-सं० श्राकाश (Sky ). | | अनार्य anārya-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] [स्त्री० अनारिक्ष जलम् anāriksha.jalam -सं० अनार्या । संज्ञा अनार्यत्व, अनार्यता] (१) वह क्ली अन्तरीक्ष जल, वर्षा का जल | जो आर्य न हो । अश्रेष्ठ। (२) म्लेच्छ । अनारी anari-हिं० वि० [हिं० अनार ] अनार | अनार्यकम् anāryyakam-सं० क्ली० (१) के रंग का लाल | अगर, अगुरुकाष्ठ । Aloe wood-इं० । हला० । (२) काष्ठागुरु । रा०नि० व०१२। संज्ञा पु० (१) लाल रंग की आँख वाला भा० पू०१ भा० क० व० । देखो-अगर । कबूतर । (२) एक पकवान | यह एक प्रकार अनाय॑जम् anāryya jam-सं० क्ली० अगर । का समोसा है जिसके भीतर मीठा या नमकीन अगुरु । Aloe wood-इं० । रा०नि०.। पूर भरा जाता है। नाय्यतिक्तः,-कः anāryyatiktab,-kah अनारीचह anarichah-फ़ा. एक अप्रसिद्ध बूटी | -सं० पु. चिरायता, भूनिम्ब । ( Gentia. है (जफरा भेद की). na Cheray ta, Rob.) अम० । अनार्जव: anārjavah-सं० पु. 1. अनार्ष anarsha हिं० वि० [सं०] जो ऋषि अनार्जव anarjava-हिं० संज्ञा पु० । प्रणीत न हो। जो ऋषिकाल का बना हुआ रोग । ( Disease) रा. नि. व. २० । न हो। (२) सिधाईका अभाव । टेढ़ापन | असरलता । अनालगोलम् anala-golam-सं०० (Du. अनार्तव anartva-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० | ctless gland ) प्रणालीविहीन प्रन्थि । अनार्तवा ] बिना ऋतुका | बेमौसिम । अनवसर । अनालीकी analiqi-रू० अञ्जरह, उतञ्जन । संज्ञा पुं० स्त्रियों के ऋतुधर्म का अवरोध । ___Blepharis Edulis, Pers.) रजोधर्म की रुकावट । अनाविलः anavilah-सं० त्रि० अनार्त: anārttah-सं० त्रि० अकालज, बेसमय, अनाविल anavila-हिं० वि० बिना ऋतु । ( Untimely ). निर्मल, स्वच्छ, साफ, ( Clean,pure ). ४० For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनावृत्त ३१४ अनासुप्पा अनावृत्त an avritta-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० प्रभाव-इसका फल सुगन्धितयुक्र तथा अनावृत्ता] जो ढंका न हो । अनावेष्ठित | वाथुनिस्सारक है। परिस्त करने पर इसमें से प्रावरण रहित । खुला। (२) जो घिरा सौंफ़ ( Anise) के सदृश एक प्रकार का न हो। तैल प्राप्त होता है। इसी कारण यह सौंफ के अनावंशः anavanshah-सं० पु. मम्मविशेष ।। स्थान में व्यवहृत होता है । मद्य को सुस्वादु के०। (A marmma.) See-Mal- बनाने के लिए इसे उपयोग में लाते हैं। mma अनासफूल anāsa-phula-हिं० देखो-अनासअनाशप-पज़म anashap-pazham-ता. अनन्नास । ( Pine apple). स. फा. अनासाइकलस पाइरीश्रम anacyclus pyr. अनाशवादी anāshavadi-ता० गोभी । ____ethrum, D.C.)-ले. अकरकरा । (Pel(Elephantopus sca ber ).-इं० मे. litory) फा० इं०१ भा० । मेमो०। मे०। अनासिकः anasikah-सं० त्रि० नासिकाहीन, अनाशोवदी anāsho-vadi-ता. गोभी । नाक रहित, बिना नाक का, नकटा । (Nose( Elephantopus scaber ). Filo o clipt) २ भा०। अनासिक anāsika-हिं० वि० [सं० अ-नहीं अनासपण्डु anāsa-pandu-ते. अनन्नास । ए alasarpanau-त० अनन्नास ।। मासिका ] अनासिकः । (Pine apple ) स. फा० इं० । अनासिर āanāsira-अ० (ब०व०), उन् सुर अनासपुवु anāsa-puvvu-ते. अनासफल (ए० व०) तत्व । देखो-एलीमेंट्स ( Ele-हिं० । बादियाने खताई-अ०, फा० । Illic ments)-इं० । ium anisatum, Linn. ( Fruit अनासिर अर्बअह aanāsira-arbaaah-अ० of-star anise )-ले० । स० फा० इं० । तत्व चतुष्टय । युनानी लोगों के निकट केवल अनासफल anāsa-phala-हिं. सौंफ । अनसफज-द० । बादियान-बम्ब० । अण्णाशुप्-पू चार मूल तत्व हैं । वे पार्यों के माने हुए पाँच तत्वों में से श्राकाश तत्व को तत्व नहीं स्वीकार -ता० । बादियाने-खताई-अ. | राज़ियानहे करते, प्रत्युत वे इसे खला अर्थात् शून्य मानते खताई, बादियाने-ख़ताई-फा० । अनास पुवु हैं, पर नवीन अनुसन्धानों द्वारा यह बात भली -ते० । ननत-पोएन-बर्मी० । Illicium anisa tum,Linn. ( Fruit of-Star भाँति सिद्ध हो चुकी है कि प्राकाश शून्य नहीं, anise )-ले० । स० फा० इं० । मेमो० । प्रत्युत द्रव्यों की एक ऐसी दशा है जिसमें द्रव्य एक-रूप होते हैं । इसको अंग्रेजी में देखो-सौंफ। नोट-उपयुक फलका एक प्रकारके पुष्प के साथ ईथरिक ( Etheric) कहते हैं । देखो-- सादृश्यता होने के कारण किसी किसी ग्रंथ में तत्व वा श्राकाश । भ्रमवश इसका नाम "अनासफल" के स्थान में अनासु an asu-कना० अनरस, अनन्नास । (Ana. "अनासफूल" लिखा गया है। इसके अतिरिक्त nas sativus). किसी किसी फ़ारसी ग्रंथमें शब्द "अनास" तथा अनासुप्पा anāsuppā-ता० बादियान ख़ताई । 'अनानास' अभेद रूप से उपयोग में लाए गए 19( I!licium anisatum, Linn. ), हैं; तदनुसार स्टार-एनीसी (अनासफल ) का अनासुप्पान anāsuppān-त. बादियान नाम ग़लतीसे गुले अनानास अर्थात् अनन्नासपुष्प ख़ताई । सौंफ । (Illicium anisa tum, लिखा गया है। Linn.)-इं. मे० मे०। For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रनास्टेटिका हीरोकंटीना ३१५ अनास्टेटिका होरोकंटांना anastatica hie - rochuntina,Linn. -ले० कफ़ेमरियम. कफ़ेआयशा - फा० | गर्भफूल - हिं०, गु० । फा० ई० १ भा० | देखो - कफ़ेमरियम् ( Kafemariyam ). श्रनाह anáha - हिं० संज्ञा पुं० देखो नाहः । अनाहतम् anáhatam-सं० क्ली० अनाहत anáhata दि० संज्ञा पुं० } (0) नूतन वस्त्र, नया वस्त्र ( New cloth )। अ० । ( २ ) शब्द योग में वह शब्द वा नाद जो दोनों हाथों के अंगूठों से दोनों कानों की लवें बन्द करके ध्यान करने से सुनाई देता है । देखो - शब्दयोग । ( ३ ) हठ योग के अनुसार शरीर के भीतर के छः चक्रों में से एक। इसका स्थान हृदय, रंग लालपीला-मिश्रित और देवता रुद्र माने गए हैं। इसके दलोंकी संख्या १२ और अक्षर 'क' से 'ठ' तक हैं । वि० (१) जिस पर श्राघात न हुआ हो । श्रक्षुब्ध । (२) गुणित | जिसका गुणन न किया गया हो । अनाहत चक्रम् anáhata-chakram-सं० क्ली० हृदयचक्र, द्वादश-दल-कमल । ज़फ़ीरह, कल्बिय्ह - अ० : कार्डिएक प्लेक्सस ( Cardiac plexus ) - इं० | देखो - हृदयचक्र अनाहत शब्दःanahata shabdah सं० पुं० अनाहत चक्र में होने वाला शब्द | अनाहद वाणी anáhada-vání - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० श्रनाहत + वाणी ] (१) घट में होने वाला आवाज़ । ( २ ) श्राकाश वाणी । देववाणी | गगनगिरा । श्रनिद्राजनक अनाहारी anáhari - हिं० पु० भूखा रहने वाला । भूखा | (Fasting). अनाहूत anáhūta - हि० वि० अनिमंत्रित, बिनाबुलाया हुआ, बिना न्योता दिए । श्रनाहः anáhah-सं० पु० रोग विशेष, श्रा (अ) नाह रोग, मलमूत्र रोधक व्याधि, अफरा, पेट फूलना, श्राध्मान | ( Flatulence ). अनिकर्रा anikarrá ता० जिङ्गिनी, श्रजशृङ्गी, नेत्रशुद्धी - सं० । ( Odina wodier ) इं० मे० मे० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिकेत aniketa - हिं० वि० अनिकेता aniketá सं० त्रो० बिना घर का, स्थान रहित । श्रनिगीर्ण anigirna - हिं० वि० [सं०] जो निगला न गया हो । रक्र afagafu anigunḍumani-ato कम्बल | ( Adenanthera Pavonina). श्रनितून anitún - यु० श्रनिधूम anithum - यु० अनिग्रह anigraha-f६० वि० [सं०] पीड़ा रहित । नीरोग | श्रनिच्छ: anichchhah-सं० त्रि० तृप्त इच्छा न होना । वै० निघ० । ( Indifference.) अनिच्छा anichchha - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अनिच्छित, अनिच्छुक ] ( १ ) इच्छा का प्रभाव | अरुचि । ( २ ) प्रवृत्ति । गृहहीन, } ( Dill ) - इं० | फा० ई० २ भा० । सोश्रा - हिं० । शूद-फ़ा० । डिल For Private and Personal Use Only श्रनाहशूलम् anáha-shúlam - सं० की ० दर्द श्रनिद्र anidra - हिं० वि० [सं०] निद्रारहित । के साथ पेटका फूलना । ( Flatulent with pain ). बिना नींद का | जिसे नींद न आए । संज्ञा पु 0 प्रजागर । नींद न आने का रोग | अनाहारः anáhárah - सं० पुं० (१) भोजन nence, starvation ) । हिं० वि० ( १ ) भूखा, निराहार | जिसने कुछ न हो । ( २ ) जिसमें कुछ न खाया जाए । का अभाव वा त्याग । श्राहाराभाव Absti | अनिद्रा anidra - हि० स्त्री० निद्रानाश, नींद न श्राना। (Insomnia, sleeplessness). श्रनिद्राजनक anidra janaka - निद्राहर, निद्रानाशक, निद्रा न्यूनकर | खाया Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिद्रान्तक अनिलरसः अनिद्रान्तक anidran taka-हिं० वि० निद्रा- अनिर्माल्या anirmalya-सं० स्त्री० पिण्डिका, जनक । ( llypnotic). पृक्का-सं० । पिडिङ्ग शाक-बं० । पुरी-हिं० । अनिपोपुल anipipul-द० पीपल वृक्ष, अश्वत्थ Medicago esculental, Roxb | वृक्ष । ( Ficus Religiosa). ई० मे० रत्ना० ! मे । अनिर्वाणः anirvanah-सं०० कफ। (Ph. अनिफ anif-अ० नासिका रोगी । (Ncse legm ) वै० निघ० । diseased.)। अनिलः anilah-सं० पु. । (१) वायु, अनिमा enema-हिं० संज्ञा स्त्री० देखो- अनिल anila-हिं० संज्ञा पु० । पवन, हवा । एनिमा । ( Air or wind )। (२) शेगुन गाछ अनिमिषः animishah-सं० पु. -ब०| शाकतरु। रा०नि० ब०२३। श्रनिमेषः aninmesha.h-सं. त्रि० अनिल anila-सिं० टेफ्रोसिया टिंक्टोरिया (Te(१) मत्स्य । मछली । ( Afish) त्रिका० phrosia tinctoria, Pe18.)-ले०। मे० पचतुष्कं । (२) क्षण रहित, निमेषशून्य । इसके पत्र रंग के काम में आते हैं। मेमो० । अनिमिष animisha-हिं० वि० [सं०] निमेष | अनिलकपित्थकः anila-ka pitthakah-सं० रहित । स्थिर दृष्टि । टकटकी के साथ देखनेवाला। पु० स्थूल अाम्रातक । (Spondias man क्रि० वि० (१) बिना पलक गिराए । एक gifera) वै० निघः।। टक । (२) निरन्तर । । अनिलकारकः anila-kārakah-सं०प'. संज्ञा पु० मछली । ( A fish) काँजी भेद । वै० निघ० : See-Kanji. अनिमेष animesha-हिं० वि०, क्रि० वि० दे० अनिलघ्नः, कः anil aghnah-kah-सं० . अनिमिष । बहेरेका पेड़, विभीतक वृक्ष । टर्मिनेलिया बेले. रिका ( Terminalia belerica)-ले। अनियारा aniyāra-हिं० वि० [सं० अणि= रा०नि०व०११।। नोक+हिं०-पार ( प्रत्य०)] [स्त्रो० अनि यारी ] नुकीला ! कटीला । पैना | धारदार । | अनिलज्वरः anila-jvarah-सं० ए० वातिक तीक्ष्ण । तीखा | ज्वर, वातज्वर । यह साम और निराम भेद से अनिरुद्धम् aniruddham-सं० ली दो प्रकार का होता है। च० द०। See Vatajvara. . अनिरुद्ध aniruddha-हिं० संज्ञा पु. ( १ ) पशु प्रादि बाँधने की रज्जु विशेष । अनिलनिर्यासः anila-niryasah -सं० प ( Rope,string )।-हिं० वि० पियाल वृक्षः-सं० । नियवेरू, चिरौंजी का वृक्ष अनिवारित, जो रोका हुश्रा न हो, अबाध । -हि। Buchanania latifolia ले। (Unobstructed) i विवला-मह । वै० निघ० अनिरुद्धपथम् aniruddha-patham-सं० अनिलपर्ययः anilaparyyayah-सं० पु. क्ली० आकाश ! (Sky) श०। वायु रोग ( Nervous disease.)। अनिर्दशा anirdasha-हिं० वि० स्त्री० [सं०] अनिलभूक anila-bhuk-सं० प. सर्प, जिसको बच्चा दिए दस दिन न बीते हों। साँप, कीरा । स्नेक (Snake), सर्प एट (Ser. नोट-इस शब्द का व्यवहार प्रायः गाय के ___pent)-इं.। वै० निघ० । सम्बन्ध में देखा जाता है। ऐसी गाय का दूध अनिलरसः anila-rasah-सं० पु. (१) यह पीना निषिद्ध है। ____ रस पांडु रोग में हित है । रस. २० । For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org • निलरिपुः ( २ ) ताम्र भस्म, पारद भस्म, गन्धक, वच्छनाग प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण कर चित्रक के काथ से भावना दें और चौथाई पहर तक मन्द अग्नि (लघु पुट) में पकाएँ । मात्रा - २ रती । ३१७ गुण - इसके सेवन से शोध और पांडु दूर होते हैं । रस० यो० सा० । श्रनिलरिपु: anila-ripuh सं०पु० एरंड वृक्ष, श्ररण्ड। ( Ricinus communis ) वै० निघ० २ भा० सन्धि० ज्व० चि० रास्नादि । श्रनिलरूखः anila-sakhah - सं० पुं० श्रग्नि, ग्राग | फ़ायर ( Fire ) - इं० । अनिलहरम् anila haram सं० क्लो० कृष्णा गुरु, काली अगर | वै० निघ० । Eagle wood ( Aquilaria agallocha. ) I श्रनिला anilá - सं० स्त्री० (1) नदी (River) | (२) खटिका, फूल खड़ी, सेतखड़ी । ( Chalk ) र० ना० । अनिलाजोर्णम् anilájirnam-सं० क्ली० वाताजीर्ण । वा० सू० ८ श्र० । See Vátaji lna. अनिलाटिका anilátika-सं० त्रो० रक पुननवा । See - Rakta-punarnavá अनिलान्तकः anilántakah - सं० पुं० इंगुदी वृक्ष । इङ्गोट्, हिंगुश्रा ( Balanitis roxburghii ) रा० नि० ० ८ । श्रनिलामयः anilámayah - सं० पु० ( १ ) वायुरोग, वात व्याधि । ( Nervous disease )। ( २ ) श्रजीर्ण | अनिलारिरसः anilári-rasah - सं० पू० (१) पारद १ तो०, गंधक २ तो० की कज्जलीकर अरंड और निर्ग ुण्डी के रस से १-१ दिन खरल करें । पुनः ताम्र के सम्पुट में रख कपरौटी कर बालुकायन्त्र में जंगली कंडे के चूर्ण की अग्नि दें । शीतल हो तब निर्ग ुण्डी, श्ररण्ड, चित्रक इनके जब रस की भावना दे रक्खें | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिष्टकर मात्रा - १ रत्ती । गुण- सेंधानमक के साथ या मिर्च, घृत, त्रिकुटा, चित्रक के साथ खाने से वात रोग दूर होता है | ( २ ) पारा, मैनशिल, हल्दी, शुद्ध जभालगोटे के बीज, त्रिफला, त्रिकुटा और चित्रक प्रत्येक समान भाग लें और गन्धक पारेसे दूना ले एकत्र चूर्ण करें । फिर दन्ती, थूहर और भांगरा इनके रस, दूध और कथ से भावना दें । मात्रा - १-२ रत्ती । गुण- इसके प्रयोगसे रेचन होगा । जब रेचन हो चुके तब हलका पथ्य मे के साथ दें । कोई डंडी वस्तु न दें। फिर शरीर में शति श्राजाने पर उसी प्रकार उपर्युक्त रस को तब तक दें जब तक कि रोग शान्त न हो जाए । यह ८० प्रकार के वातव्याधियों को दूर करता है । रस० यो० सा० । अनिलाशिन् aniláshin - सं० go अनिलाशी anilashi - हिं० संज्ञा पुं० अनिलापी: aniláshih - सं० पु० सर्प, साँप ( A serpent ) | हिं० वि० हवा पीकर रहने वाला | ( Air eater ) श्रनिलासः anilásah - सं० पु० कृष्णकान्ता ( Clitorea ternatea ) | देखो अपराजिता । अनिलेकायी anile-kayi - कना० हड़, हरीतकी । ( Terminalia chebula) इं० मे० मे० । अनिलोचितः anilochitah - सं० पुं० नीलमाप, राजमाप, काली उड़द । ( Dolichos sinensis) • निघ० । For Private and Personal Use Only श्रनिष्टanishta हिं० वि० [सं] जो इष्ट न हो | इच्छाके प्रतिकूल । श्रनभिलषित । श्रवांछित । संज्ञा पु ं० श्रहित | हानि । अनिष्टकर anishtakara - हिं० वि० [सं] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनिष्टा,-ठा अनीमून ग्रावा [ स्त्री० अनिष्टकरी ] अपकारक, अहितकारी, फा० इं० । गावजुबान-हिं० । मोगबिरकु, अनिष्ट करनेवाला, हानिकारक, अशुभकारक । मभेरी, चीना, रणभेरी-ते। पेमैरुत्ति-ता० । अनिष्टा,-'ठा anishta, shthā-सं० स्त्री० मेमो०। नागबला, गुलसकरी । (Sida. spinosa) अनितुः anikshuh-सं० पु. इतु विशेष रा०नि०। (Saccharum spontaneus)। खागड़ा श्रनिस anis-फ्रें० राज़ियानह -फा० । राज़िया -बं०। र०मा० | पानाखुः । रत्ना०। नज-अ० । Anise ( Pimpinella अनी ani-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अणि=अग्रभाग, anisum, Linn. )-ले० । फॉ० इं० २ . नोक ] नोक, सिरा, कोर ( The point or भा० । edge of any sharp instrument.). श्र(प्रा)निसबाईबेरैल anis-biberrell-जर० वि० तीखा, पैना, नोंक । सौंफ । ( Pimpinella anisum ) अनी ani-बर० (Redd) रक, लाल-: । सुर्ख, इं० मे० मे० । श्रह मर-अ०। अनिःसारा anih-sāra-सं० स्त्री० कदली वृक्ष, अनीक aaniq-० ( Neck, cervix ). केले का पेड़ ( Musa. sapientum. ग्रीवा । धड़ और शिरका मध्यस्थ कशेरुका । Linn.) | कला गाछ-० | ग०नि० व० ११। अनीकरूस anigarus-यु० किर्मिज़ । वै० निघ। अनोकस anikas-रु० शिगूफ़ा, कली । (Bud). अनिसैक्री anisacre-फ्रें० सुफेद जीरा, श्वेत | | अनीकस्थः anikasthah-सं० त्रि० हस्तिजीरक ।(Cuminum cyminum.) ई० शिक्षाविचक्षण, कोचवान । मे० थचतुष्क । मे० मे। ( An elephant driver ). अनिसो-किलस-कारोसस् anisochilus अनीकाही anikāhi-सं० स्त्री० एक वृक्ष है। carnosus, Wall.-ले० पञ्जोरी का | (A tree ) पात, सीता की पोरी-हिं। पञ्जीरी का पत्ता-द० । स० फा० इं० । फॉ०ई० ३ भा०। अनोकिनी ani-kini-हिं० स्त्री० सेना, भीड़, मेमो०। ई० मे० मे०। इसके पत्र एवं पौधे ___कटक, सैन्य । ( An army, a force ). औषध कार्य में पाते हैं। अनोकिनी anikini-हिं. संज्ञा स्त्री० अनिसोमेलिस प्रोवेटा anisomelis ovata, | [सं०] कमलिनी । पद्मिनी । नलिनी । R. Br. -ले. गोबुर । मेमो० । (Mala- अनीची anichi-तु० मोती ( pearl )। bar catmint )-इं० । मोगबीर- द०। अनीतरून anitarin-रू. गंदना के समान ई० मे० मे०। एक बूटी है जो कठोर भूमि पर उगती है। A अनिसोमेलीस डाइस्टिका anisomeles | plant like Gandana. _disticha-ले० मोगबीर । ई० मे० मे०। अनीदोतूस anidotus-यु० माजूनात ( Conअनिसोमेलीस फ्रटिश्रोसा anisomelesfectiones) । देखो-मअजून | ___frutiosa-ले० मोगबीर । ई० मे० मे० । अनीनशन् aninashan-खं० विनाश कर देते अनिसोमेलीस मालावेरिका anisomeles | _हैं । अथर्व। malabarica, R.Br.-ले० भूताङ्कुशम्-सं०। अनीमून anemone-इं० शकायि मुभमान, मोग्गीरे का पत्ता-द० । मालाबार कैट मिण्ट | शक़ीक़-अ० । वायुपुष्प-सं० । पल्साटिल्ला ( Malabar catmint )-इं० । स. (pulsatilla)-ले० । फा० इं० भा। For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीमून अाब्ट्युज़ीलोबा अनीसन अनीमून ओबट्यज़ीलोबा anemone obtu- | siloba, Don., Royle -ले० शनीक-अ०। वायुपुष्प-सं० । रत्तनजोग, पाइर-पं० । फा० इं० १ भा० । इं० मे० प्लां० । मेमो०। अनीमून डिसकलर anemone discolor -ले० रत्तनजोग, पाडर-पं० । काकरूज -कुमा० । ई० मे० मे०। अनीमून पल्सेटिल्ला anemone pulsatilla -ले० शनायिकुन्न अमान-अ० । वायुपुष्प-सं० । (pulsatilla.) अनोमून हार्टेन्सिस anemone hartensis -ले० । बिस्तान अफ़रोज़-फा० । महूरा, कलगा। अनीमून हेपेटिका anemone hepetica -ले० लीवर वर्ट ( Liver wort)-इं० । अनोमोनिक एसिड anemonic acid -इं० तेज़ाबे--शक़ायिनुमान--१० । वायु पुष्पाम्ल--सं० । फा० इं० १ भा० । अनोमोनीन anemonin-इं० जौहर शकीक -अ० । वायुपुष्प सत्व-सं० । फा० इं०१ भा०। अनीमोनाल anemonol--इ० पीत वायुपुष्प तैल ( Yellow anemone oil ) । इं० फ़ा० १ भा०। अनीली anili-सं० स्त्री० काशतृण | A speci es of grass ( Saccharum spont___aneum) र० मा० । देखो-काशः ।। अनीलेमाट्यबेरोसा aneilema tuberosa, Ham.-ले० स्याह मुसली । मेमो०। अनीलेमा स्कैपीफ्लोरम् ancilema. scapi florum, Wight.-ले० स्याह मुसली । कुरेली -बं० । सीसमुलिया-गु० । ई० मे० प्लां । देखो -मुस ली। अनीसून anistina हिं० संज्ञा पु० [ यु.] अनीV anisun jविलायती रन्दनी । सौंफ़ रूमी-उ० । अनीसून (anison )--यु०। एनिस फ्रट ( Anise Fruit ), एनिस (Anise ), एनिसीड (Ani-seed)-इं० । एनिसाई फ्रकटस (Anisi Fructus ), fafaqaat gfaza ( pimpinella anis. um, Linn.)-ले० । एनिस( Anis )- । राज़ियानजुरू मी, राज़ियानजुश्शामी; (बीज) बर्राज़ियानजुरू मी, बर्राज़ियानजुश्शामी, हब्बुल हलो, कानुल हलो-अ० । बादियान रूमी--फा० । विलायती रधूनी-बम्ब० । छत्रक वा शतपुष्पा वर्ग (N.O. Unbellifere.) उत्पत्ति स्थान-यह एक वार्षिक पौधा है जिसका मूल उत्पत्तिस्थान मिश्र और लीवांट है; परन्तु, अब यूरुप में विशेषकर रूस और स्पेन, हॉलैंड, बलगेरिया, फ्रांस, टर्की, साइप्रस तथा अन्य प्रदेशों में इसकी कृषि होती है। फ़ारस और भारतवर्ष में यह संयुक्तप्रांत और पंजाब के विभिन्न भागों तथा श्रोड़ीसा के थोड़े भाग में पाया जाता है । अनीतूं अब उत्तरी भारतवर्ष में बोया जाता है । यद्यपि अब भारतवर्ष की भूमि इसकी प्रकृति के अनुकूल हो गई है तो भी वह इसका वास्तविक जन्मस्थल नहीं है। संज्ञा निर्णायक नोट-इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स, इंडियन मेटीरिया मेडिका और इंडिजिनस ड्रग्स ऑफ इण्डिया इत्यादि ग्रन्थों में से किसीमें इसका संस्कृत नाम मधुरिका लिखा है तो किसी में शतपुष्प वा शताबा तथा किसी में उभय नामोंका उल्लेख अाया है जो सर्वथा भ्रमकारक है । अनीसून उनसे भिन्न प्रोषधि है। मधुरिका वा मिश्रेया अर्थात् सौंफ (बादियान) Fennel ( Foeniculum Capillaceum or Vulgare ), शतपुष्प अर्थात् सोश्रा ( शिबित्त ) Dill ( Peucedanum Graveolens ), arfezia saarg staranise( Illicium Verum ) आदि और कतिपय अन्य पोषधियों में बहुत कुछ पारस्परिक सादृश्यता के कारण प्रायः ग्रन्थोमें संज्ञा निर्णय में भूल किया गया है । इनकी विस्तृत व्याख्या के लिए यथा स्थान देखो। इसको बादियान रूमी इसलिए कहा जाता है कि इसकी शकल बादियान ( सौंफ)एवं जीरा के सर्वथा समान होती है । For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनोसन अनीसन ३२० इतिहास-अनीसून अति प्राचीन ओषधियों में से है । अतएव सावकरिस्तुस ('Theophastus ) और दीसकरादूस ( Dioscorides )आदि यूनानी तथा प्लाइनी (Pliny) प्रभुति रूमी चिकित्सकों ने भी इसका उल्लेख किया है । पर, ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीन हिन्दुओं को इस ओषधि का ज्ञान नहीं था; क्योंकि आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं पाया जाता है। अनुमान किया जाता है कि मुसलमान अाक्रमणकारी इसे फारस से अपने साथ लाए जहाँ से कि अब भी यह बम्बई के बाज़ारों में लाया जाता है। वानस्पतिक वर्णन-इसका पौधा लगभग १ गज़ ऊँचा होता है। शाखाएँ घनाकार पतली होती हैं । पत्र एला-पत्रवत् किंतु छोटे एवं सुगं. धियुक्त होते हैं। प्रत्येक शाखाके सिरे पर श्वेताभ पुष्प होते हैं, जिनके भीतर कोपावृत्त जीरा के समान छोटे छोटे बीज होते हैं। अनीसू के फल का प्राकार एक सा नहीं होता । उत्तम भूमि में होने वाला २ से . इं० लंबा होता है । सामान्यतः ये 1 ई० लंबे और । ई० चौड़े होते हैं । ये किसी प्रकार गोल, अंडाकार, किनारों पर से दबे हुए, लोमश, खाकी या भूरे रंग के और दो भागों में विभक्त होते हैं। इनके संधिस्थल पर एक छोटी सी दंडी होती है । प्रत्येक फल पर दस उभरी हुई रेखाएँ होती हैं । ये सौंफ से छोटे और रंग में उनकी अपेक्षा हरित एवम् श्यामाभायुक्र पीतवर्ण के होते हैं । इनकी गंध अत्यन्त प्रिय होती है। शुष्क बीजों को कूटने और फटकने पर इनके कोष भूसीकी तरह पृथक् हो जाते हैं। इनमें सर्वोत्तम प्रकार वह हैं जो प्राकारमें अपेक्षाकृत बृहत् एवं तीव सुगंधिमय हो और जिनके ऊपर से भूसी के समान छिलका न उतरे। क्योंकि इनका प्रभाव अधिकतया इनके कोष में ही है। स्वाद-सुगंधियुक्र, अत्यन्त प्रिय एवं मधुर ।। परीक्षा-यद्यपि अनीसून के बीज, शतपुष्प ( Dill ), विलायती जीरा ( कराविया), सौंफ ( Fennel) और शूकरान (Conium) के समान होते हैं। तोभी, अपने विशेष वानस्पतिक लक्षणों द्वारा पहिचाने जा सकते हैं। रासायनिक संगठन-फल में २ से ३ प्रतिशत उड़नशील तैल होता है जिसको अनीसून का तेल कहते हैं । इसमें एनीथोल (अनीसून सत्व) या एनिस कैम्फर (Anise camphor ) ८० प्रतिशत, एनिस एल्डीहाइड (Anise aldehyde ) तथा मीथिल-केविकोल (Methyl chavicol ) होते हैं । प्रयोगांश-औषध तुल्य इसके बीज (फल) ही अधिकतर व्यवहार में पाते हैं। प्रकृति-तीसरी कक्षा में रूक्ष और जालीनूस के दो भिन्न उद्धरणों के आधार पर इसकी उष्णता दूसरी या तीसरी कक्षा में है । परन्तु, म ख्जनुल. अद्वियह, के लेखक के मतानुसार यह दूसरी कक्षा में उष्ण और तीसरी कक्षा में रूक्ष है। । प्रतिनिधि-सोश्रा, श्रामाशय के लिए सौंफ और कामोद्दीपन हेतु तुहमजुरह । हानिकर्तातथा दर्पन्न-वस्ति को हानिकर है और रुब्बुस्सूस ( मुलेी के सत) से उसका सुधार होता है। उष्ण प्रकृति वालों में शिरःशूल उत्पन्न करता है और सिकञ्जबीन से वह दूर होता है। मात्रा--१॥ सा० से मा० तक। शर्बत की मात्रा ७ मा० से मा० है।। औषध- निर्माण-युनानी चिकित्सा में इसके हर प्रकार के मिश्रण, यथा क्वाथ, अर्क, तैल, घनसत्व ( रुब्ब ), लअजून, शर्बत, चूर्ण, अनुलेपन, .हुमूल (पिचुक्रिया) और धूनी (धूपन ) प्रभृति व्यहार में श्राती हैं। इनमें से कतिपय मिश्रण निम्न प्रकार हैं (1) अनोसन को मिश्रित क्वाथ-अनीसून, हुल्बह ( मेथिका ), लोबिया सुख प्रत्येक १४ मा०, सुदाब १०॥ मा० । निर्माण-विधिसबको तीनपाव पानी में क्वाथ करें। जब एक पाव रह जाए तब उतार कर साफ करें। सेवनविधि-थोड़ा गुड़ मिलाकर सेवन करें। गुणश्रात्तवप्रवर्तक और अवरोध उद्धाटक है । For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीसून अनीसून ३२५ (२) अर्क अनीसून-२० तो. अनीसून को जौकुट करके १ सेर जलमें भिगो दें। चौबीस घंटे पश्चात् यथाविधि अर्क खीचें । मात्रा व सेवन-विधि-२ से ४ तो० तक दिनमें २ या तीन बार सेवन करें । गुण-बालकों के लिए विशेष कर लाभप्रद है। भामाशय, यकृत तथा श्रांत्र के वायुजन्य रोगों के लिए अत्यन्त लाभदायक है। (३) अनीसून का मिश्रित तैल- अनीसून १ तो०, अकरकरा , तो०, शिगूफा इजू खिर १ तो०, दारचीनी १ तो०, उद सलीब ६ मा० और कुचिला ३ मा०। निर्माण-विधि-सम्पर्ण द्रव्यों को १० तो० तिल तैलमें जला कर साफ़ करने और यथाविधि मालिश करें। गुण-पक्षाघात, शैथिल्य, अवसन्नता एवं श्रावयविक विकार के लिए लाभदायक है। (४) अनीसून का मिश्रित चूर्ण-अनीसून ५ तो०, अजवायन ५ तो०, सोपा २ तो०, । काला नमक २ तो०, और नौसादर ४ मा०।। निर्माण-विधि-सब औषधियों को कूट छानकर चूर्ण बनाएँ। मात्रा व सेवन-विधि-इसमें से ३ मा० चूर्ण दिन में २ बार सेवन करें। गुण-प्रामाशय, यकृत, प्रांत्र और जरायु के वायुजन्य वेदनाओं में लाभप्रद है। मूत्र लाता एवं प्रार्तव की प्रवृत्ति करता है। (५) शर्बत अनीसून (मिश्रित)-अनीसून ३५ मा०, असन्तीन १७॥ मा०, तुम करप्स १०॥ मा०, तज ७ मा०, गुलाब ३५ मा० और बालछड़ २४॥ मा० । निर्माण-विधि-सबको अधकुट करके १ सेर पानी में कथित करें। जब आधा रह जाए, मल छानकर तीनपाव मिश्री मिलाकर शर्बत की चाशनी करें । शीतल होने पर ७ मा० मस्तगी, रूमी बारीक पीस कर ऊपर छिड़क कर सेवन करें। मात्रा-१॥ तो० से २ तो० तक । गुण-आमाशय नैवल्य में लाभप्रद है। प्रामाशय, आध्मान एवं शूल को दूर करता है। प्लीहा एवं यकृत के रोध का उद्घाटक है तथा पेशाब जारी कराता है। ___ एलोपैथिक चिकित्सा में यह निम्न रूपों में ' प्रयुक्त होता है। ऑफिशल योग (Official preparations.) (१) एनिसाई फ्रकटस (Anisi Fructus) -ले०। एनिस फ्रट ( Anise Fruit) -इं० । अनीसून के बीज । (२) एक्का एनिसाई ( Aqua anisi) -ले । एनिस वाटर ( Anise water) -ई० । अर्क अनीसून, अर्क बादियान रूमी । निर्माण-विधि-एनिसयूट ( अनीसून के वीज ) १ पौंड, पानी २ गेलन, अनीसून को कुचल कर और पानी में भिगोकर एक गैलन (८ पाइंट ) अर्क खीचें । मात्रा-श्राधा से २ इड पाउस =(१४.२ से १६.८ सी० सी०) एक बर्ष के बालक को १ से २ ड्राम। (३) ऑलियम् एनिसाई (Oleum anisi)-ले । आइल ऑफ़ एनिस (Oil of anise )-इं०। अनीसून तैल-हिं। जैत अनीसून-अ० । रोग़न अनीसून-फा०। यह एक उड़नशील तैल है जो एनिस फूट (अनीसून) से अथवा स्टार एनिस (अनीसून नज्मी, बादियान खताई ) से प्रस्तुत किया जाता है। (यह दोनों प्रॉफिशल हैं)। लक्षण -यह एक वर्ण रहित वा किञ्चित् पील वर्ण का तैल है जिसका स्वाद एवम् गंध अनी. सून के समान होती है। श्रापेक्षिक गुरुत्व ६७७ से १E३तक | १००० से १५०० शतांशके ताप पर इसके रवे बँध जाते रासायनिक संगठन -इसमें (1) ७५ प्रतिशत एमीथोल ( अनीसून सत्व ), (२) एनिसिक एल्डिहाइड और ( ३ ) मीथिल केविकोल होता है। For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नीसून www.kobatirth.org ३२२ प्रभावक्षेपहर और वायुनिस्सारक | मात्रा - आधा से ३ बुंद ( ०३ से २ घन शशिमीटर ) । वह टिंकचूरा कैम्फोरी कम्पोजिटा, टिंकचूरा श्रोपियाई एमोनिएटा और निम्नोल्लिखित मिश्रणों में पड़ता है । ( ४ ) स्पिरिटस एनिसाई ( Spiritus anisi ) - ले० । स्पिरिट ऑफ एनिस ( Spirit of anise ) - ६० । रुह अनीसूं, रूह बादियान रूमी | निर्माण - विधि -- श्रइल ऑफ ऐनिस १ भाग, ऐलकोहल ( १० % ) ६ भाग दोनों को मिला लें । यदि निर्मल न हो तो विचूर्णित ree मिलाकर हिलाने के बाद छान लें । प्रभाव - श्राक्षेपहर और वायुनिस्मारक | मात्रा -५ से २० बुद= ( ३ से १-२ घन शतांश मीटर )। एक वर्ष के बालक को ५ बुद | नॉट ऑफिशल योग ( Not Official Preparaticns. ) ( १ ) एलिक्सिर एनिसाई ( Elixir Anisi ) - ले० । एनिसीड कॉर्डियल ( Aniseed Cordial ) - इं० । अक्सीर अनीसून, हि नसून | निर्माण विधि - एनिथोल ३५ भाग, श्री इल ऑफ़ फेनेल ०५ भाग, स्पिरिट ऑफ़ बिटर श्रमंड १२५ भाग, ऐलकोहल ( १०) २४ भाग, सिरप ६२५ भाग, मैग्नेशियम कार्बोनेट १५ भाग, डिस्टिल्ड वाटर श्रावश्यकतानुसार या इतना जितने में सारी औषध पूरी १०० भाग हो जाए । मात्रा - मध्यम मात्रा बालकों के लिए १५ बुंद= ( १ घन शतांश मीटर ) । (२) एसेंशिया एनिसाई ( Essentia Anisi ) - ले० । एसेन्स श्रॉफ एनिस (Essence of Anise)-इं० । रूह अनीसून, रूह बादियान रूमी | निर्माण-विधि - ऑइल ऑफ़ एनिस १ ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असून भाग, रेक्टिफाइड स्पिरिट ४ भाग दोनों को मिला लें । (मि० फा० सन् १८८५ ई० के अनुसार) । नोट - उपयुक स्पिरिटस एनिसाई की अपेक्षा इस एसेंस की शक्ति लगभग द्विगुण है । (३) एनिसिक एसिड ( Anisic Acid ) - श्रनीसूनाम्ल, अनीसून की तेज़ाब । हम्ज़ल अनीसून, तेज़ाब बादियान रूमी | श्रीसून के तैल वा सत्व को ऑक्साइड ( उष्मद) करने से यह अम्ल प्राप्त होता है । . इसके चमकदार, वर्णरहित एवं सूचिकाकार पतले रवे होते हैं | ( ४ ) सोडियम् पनिसेट ( Sodium Anesate ) - यह एक रवादार एवं सूक्ष्म सुगन्धिमय चूर्ण होता है जो सोडियम् को एनिसिक एसिड में मिलाने से बनता हैं । घुलनशीलता -‍ में और एक भाग २४ भाग ऐलकोहल (१०%) में विलेय होता है। -यह एक भाग १ भाग जल 1 नोट- कहते हैं कि एनिसिक एसिड ( श्रनीसूनाम्ल ) और सोडियम एनिसेट सैलिसिलिक एसिड के समान पचननिवारक और ज्वरघ्न प्रभाव रखते हैं । एनीथोल (Anethol.) श्रर्थात् नसून का सत्व (Anethol ) - ले० । एनिस कैम्फर ( Anise Camphor ) - इंο| नसून सत्व, अनीसून कर्पूर - हिं० । जौहर अनीसून, कार अनीसून | यह स्टियरौष्टीन अर्थात् वालेटाइल या उड़नशील तैल का सांद्रांश है । यह श्रभीसून तैल तथा बादियान खुताई हर दो तेलों से प्राप्त होता है । नोट- वॉलेटाइल ऑइल अर्थात् अस्थिर तैल में जो जम जाने वाली वस्तु होती है उसको डॉक्टरी परिभाषा में स्टियराप्टीन कहते हैं जिसका सामान्य उदाहरण कपूर है । श्रतएव श्रनीसून सत्व को भी अंगरेजी में एनिसाई कैम्फर अर्थात् श्रनीसून का कपूर कहते हैं । For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मोसून ० लक्षण - एनीथोल की श्वेत रवेदार डलियाँ होती हैं जिनसे अनीसून की तीव्र सुगन्धि श्राती । स्वाद - किञ्चिन्मधुर । यह ६८ फारनहाइट के उत्ताप पर पिघल जाता है । द्रव रूप में यह वर्णरहित होता है और इसमें से सूर्यरश्मि astभूत होकर गुज़रती है । ३२३ विलेयता -- यह एक भाग लगभग ३ भाग ऐलकोहल (१०% ) में विलेय होता है । मात्रा-१ से २ बुंद= (०६ से १२ घन शतांश मीटर ) । अनसून के प्रभाव तथा उपयोग यूनानी मतानुसार - ( १ ) यह वृक्क, वस्ति, जरायु एवं प्लीहा व यकृत् के अवरोधों का उद्घाटक है । क्योंकि यह चरपरा और तेज है और इनका कर्म रोधोद्घाटन है । ( २ ) अपने संशोधक, विज्ञायक और उत्तापजनक प्रभाव के कारण यह वायुनिस्सारक है, विशेषकर जब यह भुना हुआ हो । क्योंकि भूनने से इसकी श्रार्द्रता कम हो जाती है एवं इसकी तीक्ष्णता बढ़ जाती है । ( ३ ) मुख तथा हस्तपाद के मंदशोथ के लिए लाभदायक है। क्योंकि यह प्रवर्त्तनकर्त्ता है और अवरोधउद्घाटन एवं किञ्चित् संकोच द्वारा यकृत को शक्ति प्रदान करता है । ( ४ ) नेत्र में लगाने से पुरातन सबल रोग को लाभदायक है । क्योंकि यह उसके माछाको लय करता है । (५) शिरः शूल होता तथा सिर चकराता हो, ऐसी दशा में इसका नस्य एवं धूपन ( धूनी) अत्यन्त गुणदायक है । क्योंकि यह उनके माहों को लय करता है । (६) यदि इसको गुल रोगन में खरल करके कान में डालें तो अपने थोड़े संकोच के कारण ठोकर या चोट के द्वारा उत्पन्न हुए कर्ण क्षतको अच्छा करता है और विलायक शक्ति से कर्णशूल को दूर करता है । (७) रोध उद्घाटन तथा उष्मा बाहुल्य से मूत्र, श्राव और जरायुस्थ आर्द्रता को रेचक है । (८) श्लेष्म तृषा को प्रशमन करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीसुभ क्योंकि यह श्लेष्मा को पिघलाता एवं लय करता है । ( 8 ) स्तन्यजनक एवं शुक्रवर्द्धक है। क्योंकि श्राहारीय पथों को मुष्क तथा स्तन की ओर उद्घाटित कर देता है । (१०) विषदोषघ्न है । क्योंकि मूत्र तथा श्रार्त्तव के प्रवर्तन द्वारा स्रोतों को विष से शुद्ध कर देता है । ११ ) प्रायः यह उदरीय विष्टंभ उत्पन्न कर देता है । क्योंकि यह रुचताजनक एवं प्रवर्तक है और हार को श्रवयवों की ओर प्रविष्ट करा देता है जिससे प्रांत्र में रूक्षता उत्पन्न हो जाती एवं ब् हो जाता है । (नफो० ) नव्यमत:---- - एलोपैथिक मेडिरिया मेडिका( एनियम तथा एनिसम), डिल ( सोभा, शतपुष्प ), एनिस ( अनीसून ), कोरिएण्डर (धान्यक ), फेनेल ( सौंफ मधुरिका ) और कारवी अर्थात् करावे ( Caraway ) प्रभाव में समान हैं । ये सशक्र पचननिचारक हैं । अधिक मात्रा में से सर्वाङ्गीय उत्तेजक हैं तथा विरेचक औषधों के ऐंठन के निवारणार्थ, वायुनिस्सारक रूप से और बालकों के उदरशूल एवं आध्मानजन्य पीड़ा के लिए इनका व्यवहार किया जाता है । इस हेतु श्रनीसून अधिकतर उपयोग में आता है। सम्भवतः इन अन्तिम दशानों में ये परावत्तित क्रिया द्वारा प्रक्षेपहर प्रभाव करते हैं । थोड़ी मात्रा में इनसे श्रामाशयिक रस का और सम्भवतः अग्न्याशयिक रस का भी स्राव बढ़ जाता है । श्वास द्वारा निःसरित होते समय श्वासोच्छवास सम्बन्धी कलाओं को उतेजित कर इन सबका निर्बल कण्ठ्य ( श्लेष्मा निस्सारक ) प्रभाव होता है । पूर्ण ( वयस्क ) मात्रा में इनमें मन्द निद्राजनक शक्ति है । किन्तु, यदि इनको अन्तःक्षेप द्वारा सीधे रुधिराभिसरण में पहुँचाया जाए तो इनका सशक्त हृदयावसादक प्रभाव होता है । ( सर वि० हिटला ) For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२४ डॉ० के० एम० नदकारणो-फल जिनसे अनुकदली anukadali-सं० पु. कदली वि. अनीसून के बीज तैयार किए जाते हैं, अजीर्ण शेष, केला। लोखण्डीकेल मह| A Planरोग की एक विश्वस्त औषध है। अनीसून के tain tree. फल व तैल की सुगंधि, दीपन पाचन और वायु- अनुकम्पा anukampa-हिं० वि० ( Tend..निस्सारक प्रभाव का बड़ा प्रादर किया जाता __erness ) दया, कृपा । है । सब उड़नशील तैलों के सदृश इसका तैल अनकणंम् anukarnam-सं०क्ली० कर्ण समीप, उत्तेजक एवं कण्ठ्य है। आध्मान जनित उदर. ____ कान के पास । वा० शा० ४ ० । शूल में उदर तथा शिरोशूल की अवस्था में सिर अनुकर्ष anukarsha-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] में इसके तेल का स्थानिक प्रयोग होता है। __अाकर्षण । खिंचाव । इसके बीज सुपारी के साथ चबाए जाते हैं और अनकर्षरणम् anukarshanam-सं० क्लो०) इसकी चटनी आहार में काम आती है । प्रान्त्र अनुकर्षण anukarsha.na-हिं० संज्ञा पुं० ) विकार एवं वायुप्राणालीय प्रतिश्याय में भी, (१) पानपात्र । (aglass, a drinking विशेषकर बालकों में, जब कि उग्रावस्था व्यतीत vessel ) हाग०। (२) अनुकम, अनुकर्षण । हो चुकी हो, उस समय यह उपयोगी होता है। खिंचाव। अनीसून के बीज ड्राम, शर्करा तथा हरीतकी प्रत्येक १-१ ड्राम । इनका चूर्ण उशम कोष्ऽमृदु अनुकल्पः anukalpah-सं० पु. किसी धौ पध के अभाव में उक्र औषध के गुण के समान कर ( Laxative) है। श्रनीसन के बीज . और कराविया (Caraway ) को समभाग अन्य औषध का ग्रहण । प्रतिनिधि या बदल । ( an alternative )-इं०। .ले भूनकर चाय की चम्मच भर की मात्रा में . भोजनोपरांत सेवन करें। यह उत्तम पाचक है। अनुकूट प्रवर्द्धन anukuta-pravarddha. चूर्ण किए हुए बीज की मात्रा-१० से ३० ग्रेन ua-हिं. संक्षा पु० (Jugular pro. (५-१६ रत्ती) है । शीतकषाय एवं परिस्रुत जल cess). (८० में १ ) की मात्रा-१ से २ श्राउंस ( अनुकूल anukāla-हिं०वि० सात्म्य, मुआफ्रिक । से १ छ.)। तेल की मात्रा-४ से २० बुद ( Favourable). शर्करा पर डालकर दें । (इं० मे० मे०) अनकल का anukulakā-सं० स्त्री० लघुदन्ती, अनु anu-उप० [सं०] जिस शब्द के पहिले यह चुद्रदन्ती, जमालगोटा भेद । वै० निघ० । उपसर्ग लगता है उसमें इन अर्थों का संयोग ... Croton Tiglium, Lin. ( the होता है । (१) पीछे । जैसे, अनुगामी, अनु small var.) करण । (२) सदृश । जैसे, अनुकाल, अनुकूल, | अनुकुलन anukulana-हिं० अनुरूप, अनुगुण । (३) साथ । जैसे, अनुकंपा, अनुकुलना anukulana-हिं० क्रि० स० । अनुग्रह, अनुपान । (४) प्रत्येक । जैसे, अनु (१) (Accomodation) अप्रतिकूल होना। मुश्राफ़िक होना । (२) पक्ष में होना । हितकर .. क्षण, अनुदिन । (१) बारंबार : जैसे, अनुगुणन, होना। अनुशीलन | संज्ञा पु० दे० अणु । इसके विप. रीत "अभि" प्राता है। अनुकृल सन्धिः anukāla sandhih-सं०पू० अनुक: anukah-सं० पु० अल्पसन्धिः । (Cupid ( Amphiarthrosis, yielअनुक anuka-हिं० संज्ञा पुं० ) inous, ding joint.) Lustful ) कामुक, कामातुर, कामी, वि- अनुकूला anukālā-सं0 स्त्री० ह्रस्व (लघु) षयी। ०। दन्ती वृक्ष, क्षुद्र दन्ती । रा०नि० व०६ । For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुकूलिनी ३२५ अनुकूलिनी anukulini - सं० स्त्री० ददन्ती | Croton Tiglium, Linn. (A small var. of-). श्रनुतक्रम् अनुच्छ वासः anuchchhvasal-सं० पु० श्वासरोध, साँस बन्द होना, दम बन्द होना, दम घुटना | इख़्तिनाक़-अ०। (Asphyxia) अनुकंपा anukampa - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] अनुज anuja - हिं० वि० [सं०] जो पीछे [वि० [अनुकंपित ] सहानुभूति । हुआ हो । संज्ञा पुं० [स्त्री० अनुजा ] ( १ ) छोटा भाई । ( २ ) एक पौधा । उत्पन्न स्थलपद्म । अनुक anukta-सं०, हिं० वि० जिसका वर्णन न किया गया हो । जो न कहा गया हो । ( Not 1 Spoken, not told ). अनुक द्रव anukt-adrava - हिं० वि० निद्रव, जहाँ स्वसादि पतले पदार्थोंका वर्णन नचाया हो । अनुक्त परिमाण anukta-parimána - सं० त्रि०, हिं० वि० जहाँ द्रव्यों का परिमाण (मान) न दिया गया हो | अनुक्रम anukrama-सं० प ० विधान, कायदा | (method, order). अनुखाल anukhála - हिं० पु० खाई, खाड़ी, नाला । ( A creek ). अन्गः anugah-सं० पु० परिचारक, सेअनुगanuga - हिं० संज्ञा पु ं० | वक । ( An attendant.) रत्ना० । - हिं०वि० (fol!owing. )पश्वाद्गाभी, पीछे चलने वाला, धनुगामी, अनुयायी, पैरोकार । अनुगत anugata-सं० पु०, -हिं०वि० [संज्ञा श्रनुगति ] ( १ ) पीछे पीछे चलने वाला, श्राश्रित, श्रनुगामी, अनुयायी (Dependant on ) । (२) अनुकूल । मुग्राफ़िक । - हिं० संज्ञा पुं० सेवक, अनुचर | अनुगमन anugamana-हिं० संज्ञा पुं० [सं० ] पीछे चलना | अनुसरण । (२) .. समान श्राचरण । ( ३ ) सहवास । संभोग | अनुगामी anugami हिं० वि० [सं० ] [स्त्री० अनुगामिनी ] ( १ ) पीछे चलने वाला, पंश्चाद्वर्त्ती ( Followrig) । (२) समान आचरण करने वाला । (३) सहवास वा सम्भोग करने वाला | अनुघात anugháta - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] नाश | संहार | अनुचिबुक anuchibuka - हिं० संज्ञा पु ं० ठोड़ी या ठुड्डी के नीचे का भाग । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुजम् anujam - सं० स्त्री० ( Root stock of Nymphaea lotus ) प्रपौण्डरीक ( कमल नाल) नामक गंध द्रव्य विशेष । पुण्डरिया - बं० | रा० नि० ० १२ । श्रनुजस् anujas सं० पु० पुराडरिया, कमलनाल | ( The root stalk of Nymphapa lotus. ) अनुजा anuja-सं० स्त्री० त्रायमाणलता । गीश्रीयालियालता - बं० | रा० नि० ० ५ । बलाडुमुर - बं० | भा० पू० १ भा० गु० व० ! Thaliclrum Fliosam | देखो -- त्रायमाणा ।. अनुजात anujata-सं०पु० वह सन्तान जो पिता के गुण रखती हो । अथवं ० | सू०६ । का०८ | अनुजिघ्रम् anujighram - सं० गंध लेकर । अथव० । अनुजंघास्थि anujanghasthi - हिं० संचा स्त्री टाँग या जंघा की दोनों लम्बी अस्थियों में से वह जो अंगुष्ठ (शरीर की मध्यरेखा के निकट ) की ओर रहती है । फिब्युला Fibula इं० । श्रनुज्ज्वल मण्डल anujjvala-mandala (Non-Luminous Zone ) ज्वाला के मण्डलों में से वह जो उसके उज्वल मण्डल के सर्वतः बाहर स्थित है । इसमें श्रोषजन के श्रा धिक्य के कारण कज्जल कणों का ज्वलन सम्यक् रीतिसे होता रहता है । एतदर्थ इसमें उज्ज्वलता की न्यूनता होती है, परन्तु ताप सब से अधिक होता है । देखो -- ज्वाला । श्रनुतक्रम् anutakram- सं०ली० तक्रानुपान । “जग्ध्वा तक्रं पिवेदनु ।” सि० यो० पाण्डुचि० वृन्दः । For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१६ अनुत्रो anutantri-सं०बी० पिंगला नाड़ी । (Sympathetic nerve ) अनुतन्त्रां पद्धतिः anutantri-paddhatih - सं०स्त्री० पिंगल नाड़ी मंडल | (Sympa thetic system) अनुतर्षः anutarshah-सं० अनुतप्त anutapta - हिं० वि० [सं०] ( १ ) तपा हुआ | गर्म | पु ं० ( १ ) तृष्णा ( 'Thirst ) । ( २ ) मद्य पीनेका पात्र, सुरापान पात्र । भैष० । मे० ष चतुष्कं । अनुताप auntápa-हिं० संज्ञा पु ं० [ [वि० अनुतप्त ] तपन | दाह । जलन | अनुतापि काण्ड anutápikánda - सं० पुं० पिंगल कांड | (Sympathetic trunk ) अनुतापिनी पद्धतिः anutápini-paddhatih [सं०] -सं० स्त्री० पिंगल मंडल | (sympathetic system ). अनुत्क्लेशः anut-kleshah-सं० पु० उल्क्लेशाभाव, वसनावरोध | च० सं० विसूची० | अनुत्थित विद्धा “शिरा” anutthita-vi ddhá “shirá”–सं० स्त्री० ठीक पट्टी न बाँधने के कारण जिसकी शिरा न उठी हुई हो वह वेधित की हुई । इससे रुधिर नहीं निकलता । अनुन्मदिनम् अनुद्भुत ताप anudbhuta tapa - हिं० पु० लेटेस्ट ही श्रीफ़ वेपराइज़ेशन ( Latentheat of vaponrisation ) वह ताप जो किसी तरल द्रव्य को वाष्पीय रूप में परिणत करने व्यय हो; किन्तु, जिसका कोई प्रत्यक्ष फल विदित न हो, उस द्रव्यको वापीय " श्रनुद्भूत ताप" कहते हैं । उदाहरण - यदि श्राप एक बर्तन में जल लेकर उसे गर्म करना आरम्भ करें तो जैसा श्राप जानते हैं, उसका तापक्रम बढ़ने लगेगा और बढ़ते बढ़ते वह १००° सें० तक पहुँचेगा । उस समय जल उबलने लगेगा । परन्तु उस समय एक बड़ी विलक्षण बात देखने में श्राती है। जल के तापक्रम का बढ़ना बन्द हो जाता है, आप चाहे श्राँच दुगुनी या तिगुनी कर दें परन्तु तापक्रम वही १००° पर ठहरा रहेगा और जब तक सारा अक्ष भाप में परिणत न हो जाएगा वहीं ठहरा रहेगा परन्तु आप जो ताप देते जा रहे हैं वह कहाँ चला गया ? इसका यही उत्तर हो सकता है कि वह किसी अप्रगट रीति से जल को तरल से भाप बनाने में व्यय हो रहा है। इसे 'अनुत ताप" कहते हैं। भौ० बि० । श्रनुद्वाह auudvaha-हिं०पु० अविवाह, कुमारपन । (Virginity)। अनुधावन_auudhávana - हिं० संज्ञा पु० [सं०] [वि० अनुधावक, अनुधावित, धनुधावी ] ( १ ) पीछे चलना, अनुसरण, ( २ ) अनुसन्धान | खोज | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैं सु० शा ० ८ श्र० । अनुत्रिकास्थि anutrikásthi - हिं० स्त्री० पुच्छा स्थि, गुदास्थि, चन्चु अस्थि । उस उस अल्उस उस अज़ मुलउस उ स ० दुमगज़हू, उस्तनाने दुम-फा० । दुसूची की हड्डी-उ० । त्रिकास्थि के नीचे रहने वाली एक छोटी सी अस्थि है जो वस्तुतः चार छोटी छोटी अस्थियों के जुड़ने से बनी है । इस अस्थि में न कोई छिद्र होता है न कोई नली । इसका स्वरूप कोकिल चवत होता है । इसलिए अँगरेजी में इसको कॉक्सक्स ( Coccyx ) कहते हैं । अनुदर anudara-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० धनुन्मदिन: anumaditah-सं० पु० अनुन्मदितम् anunmaditam - संo क्ली •• उन्माद रहित । अथर्व ० सू०१११ । २ । का ६ | अथर्व ० सू० १११ | १ | का० ६ अनुदरा ] कृशोदर | दुबला पतला ! अनुद्धत anuddhata - हिंοवि० [सं० ] जो उद्धत न हो । अनुग्र | सौम्य | शांत | For Private and Personal Use Only अनुनाद anunada-हिं० सज्ञा प० [सं०] [ वि० अनुनादितं ] प्रतिध्वनि, गूँज, गु ंजार | अनुनादित anumadita हिंo वि० [सं०] प्रतिध्वनित । जिसका अनुनाद या गूँज हुई हो । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অলঙ্কা ३२७ अनुपान प्रबुपकार anupakāra-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० गई हुई औषध को पथप्रदर्शक का काम [ चि० अमुपकारक, अनुपकारी] अपकार, देता है। हानि । वह वस्तु जिसके साथ औषध खाई जाए। वह अनुषकारी anupakāri-हिं० वि० [सं०] ! वस्तु जो औषध के साथ या ऊपर से खाई जाए। (१) उपकार न करने वाला | अपकार करने औषधांगपेय विशेष । वाला । हानि करने वाला । ( २ ) फजूल, बद्रिकह, मुबद्रिक-अ० । पेशदारू-फ० । - निकम्मा विहिक्ल Vehicle-इं०।। अनपजः anupa.jah-सं० वि० अनुप देश में नोट--यह बात सिद्ध है कि यदि किसी तरल उत्पन्न हुआ | देखो-अनूपवर्गः (Anupa- वस्तुके साथ औषध सेवनकी जाए तो इसका शीघ्र vargah )i प्रभाव होगा और वह औषध को शरीर में उसके अनुपदीना anupadinā-सं० स्त्री० उपानह, । अभीष्ट प्रदेश तक प्रविष्ट कराने में सहायक होगी। जूता, खड़ाऊँ इत्यादि । हला० । यही कारण है कि प्रायः सभी औषधे किसी न अनुपल anupal-हिं० पु० सेकेण्ड काल-मान किसी तरलके साथ सेवनकी जाती हैं। वह वस्तु *विशेष । ( A second of time). जो अनुपान रूपसे व्यवहारमें लाई जाए, रोग पर अनपशयः anupashayah सं० पुं० । उसका भी प्रभाव औषध तुल्यही होना चाहिए । अनपशय anupashaya-हिं. संज्ञा पुं० । कतिपय रोगों के प्रशस्त अनुपान निम्न हैं:-- ( What increases the disease ) वात रोग-स्निग्ध तथा उष्ण द्रव्य | (१) उपशय के विपरीत, व्याध्यसात्म्य औषधान्न श्लेष्म व्याधि-रूक्ष तथा उष्ण पदार्थ | विहार आदि अर्थात् वह औपध, अन्न तथा पित्त रोग-स्निग्ध वस्तु । विहार जो रोगी के रोग के खिलाफ़, हानिकारक स्नेहपान में-उष्ण जल इत्यादि । मद० अथवा असात्म्य (अर्थात् जो उसके अनुकूल न व० १३ । हो)हो उसे अनुपशय कहते हैं। चूण, अवलेह, गुड़िका और कल्क के अनुपान (२) रोग-ज्ञान के पाँच विधानों में से एक जिसमें | की मात्रा वात, पित्त तथा कफ के प्रकोपमें क्रमश: आहार विहार के बुरे फल को देख यह निश्चय ३, २ तथा १ पल है। किया जाता है कि रोगी को अमुक रोग है। (शाङ्ग० म० ख० ६ १०) मा०नि० । दे० उपशय ।। श्लेष्म ज्वर-मधु, पान (पत्र) का रस, अनुपात anupāta-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] आर्द्रक स्वरस और तुलसी के पत्र का रस वा ( Ratio) सम, बराबर का सम्बन्ध, गणित क्वाथ । की त्रैराशिक क्रिया | तीन दी हुई संख्याओं के पित्तज्वर-पटोल फल स्वरस, क्षेत्रपर्पटक द्वारा चौथी को जानना । स्वरस वा क्वाथ, गिलोय का स्वरस, निम्बस्वक् श्रमपानम् anupanam- सं. क्ली. ) .. क्वाथ वा स्वरस । अनुपान anupāna-हिं० संज्ञा पु. ) वातज्वर- शहद, गिलोय का रस, पटसन नि. व०२० । अनुपान का प्राथमिक अर्थ वह ( लाल पटुश्रा ) तथा चिरायता का शीत कषाय तरल था जो औषध सेवनोपरांत व्यवहार में और तुलसीपत्र स्वरस वा क्वाथ । . लाया जाता है । परन्तु, बहुत काल से अब यह उस द्रव पदार्थ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, विषम-ज्वर-मधु, पीपल (पिप्पली) जिसके साथ औषध सेवन की जाती है। दूसरे का चूण, शेफालिका (हरसिंगार ) के पत्ते का . शब्दों में इससे वह द्रव अभिप्रेत है जो सेवन की रस, विल्वपत्र स्वरस, बिल्व (मूल ) चूर्ण', For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२८ अनुपान नागरमोथा, कुटज बीज ( इन्द्रयव ), पाठा ( अम्बा ) मूल, श्राम्र बीज, दाड़िम्ब ( अनार ) मूल वा फल त्वक्, धत्रपुष्प और कुटज ( वृक्ष ) त्वक् । यक्ष्मा, कफज श्वास, प्रतिश्याय और तत्सम अन्य रोग- वासक अर्थात् श्रड्से के पत्तेका रस, तुलसी पत्र स्वरस, पान का रस, आर्द्रक स्वरस, अड़ से की छाल का क्वाथ, बामुनहाटी, मुलेठी, कण्टकारी, कट्फल और कुष्ठ इनमें से किसी का क्वाथ; वचावीज चूर्ण, तालीसपत्र, पिप्पली (पीपल ), काकड़ासिंगी और वंशलोचन इनमें से किसी एक का चूर्ण । वातप्राधान्य श्वास- बहेड़े का काथ श्रथवा चूर्ण मधु के साथ | रक्तातीसार तथा रक्तपित्त - श्रसे के पत्तों का रस, अयापान- पत्र स्वरस, दाड़िम्ब ( श्रनार ) पत्र स्वरस और कुलहला पत्र स्वरस; गूलर का फल, कुटज वृक्ष की छाल और दूर्वा का रस, बकरी का दूध और मोचरस का चूर्ण । शोथ रोग - विल्व पत्र स्वरस, श्वेतापामार्ग का क्वाथ अथवा स्वरस, शुष्क मूली का क्वाथ और कालीमरिच का चूर्ण तथा श्रर्क मको वा मको स्वरस | पाण्डु वा रक्ताल्पता और स्त्रियोंके हारिद्र रोग- क्षेत्रपर्पटक स्वरस और गिलोय का रस । J विरेचन योगों में-- निशोथ का चूर्ण, दन्ती की जड़ का चूर्ण, सनाय ( सोनामुखी के पत्तों का काथ वा चूर्ण, कटुकी का क्वाथ, हरीतकीका शीतकषाय उष्ण जल और उष्ण दुग्ध | सूत्रोद्घाटन अर्थात् मूत्रप्रवर्त्तक योगों के अनुपान स्थल पद्म के पत्तों का रस, पाथरकुची के पत्तों का रस, कलमीशोरा का विलयन, कबाचीनी का चूर्ण और गोखरु, कुरामूल, कास मूल, खस की जड़ तथा इक्षुमूल इनका क्राथ । बहुत्र ( मूत्रातीसार ) - गूलर के बीज का चूर्ण, जम्बु के बीज का चूर्ण और मोचरस का चू, तोरई के भूने हुए फल का रस और कदूरी (कुन्दरू ) की जड़ का रस । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपान पूयमेह ( सूज़ाक ) — गिलोय का रस, कच्ची हल्दी का रस, श्रामला का रस, लघु शाल्मलीवृत स्वरस, दारुहरिद्रा का चूर्ण', मँजीठ और अश्वगंध का काढ़ा, सफेद चन्दन का कल्क, बबूल के गोंदका हिम, कदम्ब की छाल का रस और कसेरू का रस । श्वेतप्रदर - - गिलोय का रस, अशोक की छाल का क्वाथ और रक्तस्थापक श्रौषधें । रजःप्रवर्त्तक योगों के साथ -- घृतकुमारी के पत्तों का रस या मुसब्बर ( एलुआ ), बाँस की छाल का शीत कषाय, कर्णिकार ( उलट कम्बल) के पत्रका रस, कलिहारी ( लाङ्गलिका ) के पत्र का रस और जवापुष्प का रस | अजीर्ण व अग्निमांद्य -- अजवाइन, बनयमानी और सौंफ का फाण्ट, पीपल, पीपलामूल कालीमरिच, चग्य, सोंठ और हींग इनका चूर्ण । त्रीय कृमिनाशक योगों के साथवायविडंग का चूर्ण, अनार की जड़ का काढ़ा, अनन्नासके पत्तों का रस तथा खजूर, भिण्डी और चम्पाके पत्तियों का रस, वेंटू और निर्गुण्डी का रस | छर्दिन योगों में अनुपान -- बड़ी इलायचीका चूर्ण वा क्वाथ | वायु रोग -- त्रिफला का हिम, शतमूली का रस, बरियर (बला ) का काढ़ा, भूमिकुष्माण्ड का रस और श्रमला या त्रिफला का फांट । शुक्रवर्द्धक तथा वृष्य अनुपान --नवनीत (मक्खन), मांसरस, दुग्ध, केवच के बीज, विदारीकन्द, अश्वगन्ध, सेमल के मूसला का रस और अनन्तमूल का रस । रोगी और रोग दोनों की दशा का भली प्रकार विचार कर अनुपान चुनना चाहिए, काथ और फांट की मात्रा १ छं० ( २ श्राउंस ), श्रोषधियों के निचोड़े हुए रस की मात्रा १ या २ तो० श्रर चूर्ण की मात्रा १ या श्राध श्राना भर लेनी चाहिए । जब चूर्ण अनुपान रूप से व्यवहार में लाए जाएँ तब उनको मधु में मिला कर बरतें । पित्तोल्वणता की दशा को छोड़कर शेष सभी For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपान ३२४ अनुबन्धः दशाओं में शहद को अनुपान रूप से प्रयोग पश्चात् अधिक बोलना, मार्ग चलना, नींद लेना धूप में जाना, अग्नि तापना, सवारी पर चढ़ना उपयुक्र अनुपानों को केवल उस दशा में काम पानी में तैरना और घोड़े आदि पर चढ़ना में लाएँ, जब कि औषध वटिका अथवा चूर्ण रूप में बरती जाए। किन्तु जब मोदक, गुग्गुल इत्यादि प्रत्वेक काम त्याग देना चाहिए। वा० और श्रोषधीय पाक प्रभृति का उपयोग किया सू० अ०६ जाए नब शीतल व उष्ण जल अथवा उष्ण अनुपार्श्व सरितका anuparshvasaritkaदुग्ध को अनुपान रूप से व्यवहार में लाया सं० स्त्री० ( Collateral Fissure ). जाए । सभी औषधीय वृतों में चवन्नी भर शर्करा भनुपालुः anupāluh-सं० पु. अनपदेशज बोलू योजित कर लगभग एक छटांक अोष्ण दुग्ध पानीयालुक, अन भालू । रा० नि० व० ७। के साथ सेवन करें। बहुत से घी बिना शर्करा See-Pániyáluh. के भी उपयोग में आते हैं। (२) प्राष्टांग हदय से अनुपान कामनपुष्पः anupushpah-सं० पु. ( . ) संक्षिप्त वर्णन । शरतण-सं० । सरपत--हिं० । Penreed. "विपरीतं यदनस्य गुणैः स्याद विरोधि च"। grass ( Saccharum sara.) श० वा० सू० अ०६ । श्लो०५१ । च० । (२) खङ्गतृण । (३) बेतसः। Com. mon cane ( Calamus rotong.) खाश पदार्थों के विपरीत गुण वाले अविकारी द्रव्यों का अनुपान सदा ही हितकारी है। अनुप्त anupta-हिं० वि० [सं०] जो बोया न ___गया हो। बिना बोया हुश्रा। जैसे रूक्ष का स्निग्ध, स्निग्ध का रूक्ष, गरम को उंडा, डे का गरम, खट्टे का मीठा, मीठे का अनुप्रस्थ anuprastha-सं० पु. (Horizo. खट्टा इत्यादि ! परन्तु ऐसा विपरीत सम्बन्ध ntal, transverse) समस्थ, ब्यत्यस्थ, न होना चाहिए। जैसा दूध और खटाई का | श्राड़ा, चौड़ाई की रुख । मुस्तनरिज़, अरीज़ होता है। - ०। अनुपान का कर्म-अपान से उत्साह, | अनुप्रस्थ वृहदन्त्रम् anuprastha-vrihad तृप्ति शरीर में अन्न रस का संचार, दृढ़ता, अन्न. antram-सं० क्ली संघात, शिथिलता, निता और अन्न का परि. अनुपस्थ वृहत् अन्त्र anuprastha-vrihat) पाक होता है। antra-contato ( Trans. verse-colon ) वृहद् अन्त्र का समस्थ या अनुपान के अयोग्य रोग-जत्र (ग्रीवा पाड़ा भाग । वृहद् अन्त्र का वह भाग जो यकृत् और वक्षःस्थल) के ऊपर वाले अंगों में होने घाले रोगों में अनुपान अहित होता है । जैसे सक पहुँच कर बांई ओर को मोड़ खाता है और नाभि प्रदेशमें होता हुश्रा पीहा तक पहुँचता है। श्वास, खांसी, उरःक्षत, पीनस, अत्यन्त गाने वा बोलने के सम्बन्ध में वा स्वरभेद में अनुपान वृहद् अन्त्रका दूसरा भाग जो व्यत्यस्त या भाड़ा (चौड़ाई की रुरत ) यकृत् से प्लीहा की ओर हितकारी नहीं है। जाता है । कोलन मुस्तरिज़-अ०। अनुपान के अयोग्य रोगी-जिनका शरीर विसर्पादि रोगों से किन्न हो गया हो अथवा अनुप्राशन anuprashana-हि० संज्ञा पु. जो नेत्र और क्षत रोगों से पीड़ित हों उन्हें पीने ना | भक्षण । के पदार्थ स्याग देने चाहिए । स्वस्थ और अनुबन्धः anubandhah-सं० पु. (.) अस्वस्थ सभी लोगों को पान और भोजन के वात, पित्त और कफ में से जो अाधान हो। For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुबन्धी (२) बंधन । लगाव । (३) अनुसरण ( ४ ) आरम्भ | अनुबन्धी anubandhi-सं० स्त्री० १) तृष्णा, प्यास ( Thirst ) । ( २ ) हिक्का, हिचकी । ( Hiccup ) मे० हिं० वि० [ अनुबंधिन् ] [ खा० अनुबंधिनी ] ( १ ) लगाव रखने वाला, संबन्धी । ( २ ) फलस्वरूप परिणाम स्वरूप | अनुबोध anubodha f० संज्ञा पुं० गंधोद्दीपन अनुभासः anubhasah सं० पु० काक विशेष । ( A kind of crow ) ० निघ० । अनुभूत anubhūta - हिं० वि० (Experien• ced ) परीक्षित | सिद्ध । तजरवा किया हुआ । श्राजमुदा । ( २ ) जिसका अनुभव हुआ हो । agya fafter anubhúta chikitsá हिं० वि० परीक्षित इलाज | अनुभूत योग anubhūta-yoga-हिं० वि० परीक्षित योग । अनुभूत लक्षादि तैल anubhūta.lakshádi• taila - सं० पु० एक सेर लाख को चार सेर पानी में श्रौटाएँ । जब एक सेर जल शेष रहे तब उतार कर छान लें। पुनः इसमें १ सेर शुद्ध तिल तैल डालें, और चार सेर दही का जल डालें। फिर सौंफ, श्रसगन्ध, हल्दी, देवदारु, रेणुका, कुटकी, मुर्खा, कूठ, मुलहटी, मोथा, चन्दन, रास्ना प्रत्येक एक एक तोला लें, इन सबका कल्क करके उक्त तैल में डाल मन्द मन्द अग्नि से पचाएँ, फिर सिद्ध कर रक्खें। इसके मर्दन से विषमज्वर, खुजली, देह का दर्द दुर्गन्धि तथागों का स्फोटक इत्यादि दूर होते हैं । (यां० त० ज्वर० नि० ) अनुभूतिः anubhutih सं० स्त्री० त्रिवृता, त्रिबृत् - सं० । निशोत, निसोथ - हिं० । तेउड़ी बं० । 1 pomoea turpethum | दे० त्रिवृत् (ता, ह्रया ) । ३३० अनुमतम् anumatam-सं० क्ली० जहां पराए मत का निषेध नहीं किया जाए ( स्वीकार किया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमुरुहा जाए ) उसे "अनुमत" कहते हैं; जैसे-किंसों ने कहा है कि सात रस होते हैं और दूसरे ने इसे मान लिया, यही अनुमत हुआ । सु० उ० ६५ ० । सम्मत, स्वीकृति, एक मत । अनुमति anumati - हिं० स्त्री० श्रनुज्ञा, आज्ञा, सम्मति । ( an order, advice. ) अनुमस्तिष्कम् anumastishkam - सं० क्ली० मस्तिष्कम् ( Cerebellum ). अनुमान anumána - हिं० पु० अटकल, विचार भावना, क़यास । ( Inference, guess ) श्रनुमानी anumani - यु० मद्य और शहद मिला हुआ ( Wine and honey mixed ) । अनुमाली anumáli-यु० एक प्रकार का मद्य जिसको अंगूर को निचोड़ कर बिना पकाए ( मथ ) प्रस्तुत करते हैं। अनुमेला anumosá रू० गुले लाला, वायुपुष्प | शकायनुन्नमान - ० । ( Pulsatilla ) देखा - पल्साटिल्ला | अनुयव: aniyavah सं० पु० ( १ ) जो यव से न्यून हो उसे "अनुयव' कहते हैं । म्रा० 1 ( २ ) निःशुक यव, शुक रहित यत्र हुँद रहित । हेमा० । ( ३ ) क्षुद्रयव, यह जौ की अपेक्षा गुणहीन होता है। बा० सू० श्र० ६ शूक धान्यवर्ग । ( A sort of Barley ) अनुयोजनम् anuyojanam - सं० क्ली० ( A. pposition ) अनुरस anurasa - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] गौण रस । श्रप्रधान रस । वह स्वाद जो किसी वस्तु में पूर्णरूप से न हो । वा० सू० । अनुराधा anuradha - हिं० [स्त्री० २७ नक्षत्रों में से १७ व नक्षत्र । The 17th Naksna. tra or lunar mansion, desighated dy a row of oblations (Stars in Libra. ) अनुरुद्दा anuruhá- सं० स्त्री० नागरमुस्ता-सं० । नागरमोथा - हिं० । ( Cyperus pertonuis ) For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुरेवती अनवालन बस्तिः अनुरेवती anurovati-सं० स्त्री. (Small को तोड़ फोड़ के यथा मार्ग नीचे ले जाए उसे var. of Croton Tiglium, Linn.)| "अनुलोमन" कहते हैं, जैसे-हरड़ । भा० । सुद्रदन्ती। रा०नि०व०६।। (२)कोष्ठबद्ध को दूर करने वाली रेचक वा अनुरोध anurodha-हिं. पु. अपेक्षा, वाधा, भेदक औषध । ' पक्षपात, उपरोध । (Obligingness )। मनुलास: anulasah सं० पु० । मयूर. अतुल्की anulki-सं. स्त्री० ( १ ) हिक्का, अनुनास्यः nulasyah-सं० पु. पक्षी, हिचकी ( Hiccup, Hiccougll) । (२) तृष्णा, तृषा, पिपासा ( Thirst)। मे० । मोर ! ( Apeacock ) अनुलिप्त anulipta-हिं० वि० (Smeared) अनुल्यण anulvana-सं० त्रि. फटा सा न . लिप्त, अभिषिक, पोता हुआ। दिखने वाला । यह चन्दन का एक विशेषण है। कौटि. अर्थ। अनुलेपः amulepali-सं० पु. (१) मनुलेपनम् anulepanam-सं० क्लो. लेपन,। अनबंधी anuvandhi-सं० स्त्री. प्यास तृषा । किसी तरल बस्तु को तह चढ़ाना । ( २ ) (Thirst ). To plaster लीपना, पोतना । (३) अनवास: anuvāsah- ) सं० १०, (Cosmetic)सुगन्धित द्रब्यों वा औषधोंका : anuvasanah- क्ला० (१) महन । उबटन करना बटना, लगाना, गराग, अनवासनकः anuvāsanakah ) Fragra लेप (न), चन्दन आदि वा गंधद्रव्य आदि का nt सौरभ, सुगंध, सुवास । (२) स्नेह वस्ति । लेपन । मुहस्सन, गुजह-छा० । हुस्न अफ जा, | (Oily onemata) । (३ ) स्नेहन । रूशोयह । गाजह . उष्टना-फा० । (४) धूपन । मे० । जो स्नेह अर्थात् चिकनाई __इसके गुण-अनुलेपसे तृषा, मूच्छा, दुगंधि, प्रदान करे उसे "अनुवासन” कहते हैं। इसकी श्रम और वात दूर होते हैं तथा सौभाग्य, तेज, मात्रा दो पल का प्राधा अर्थात् एक पल ( ४ स्वचा, वर्ण, प्रीति, अोज और बलकी वृद्धि होती | । तो०) है। भा० । दे. अनवासन वस्तिः । है। मद० २०१३। अनुलेपन बल्य तथा तेज | भनवासन वस्तिः auuvasant vastih-सं० एवं सौभाग्य का देने वाला है। पूर्व प्राचार्यों ने ( Oily enemata ) स्नेह वस्ति, इसे स्वध्य, प्रोनि का देने वाला, तृषा, मूच्छी मानावस्ति । पिचकारी द्वारा गुदा मागं ( रेक्टम) एवं श्रम का नाश करने वाला तथा बातनाशक से तरल पदार्थ अन्दर पहुँचाने का नाम "वस्ति" कहा है । वै० निघ०। प्रीतिकारक, अोज का | (पिचकारी डूश, एनिमा ) है देखो-वस्ति । देने वालो, शुक्रवद्धक, दुगंधिनाशक तथा श्रम, इस का एक भेद "अनुधासन वस्ति भी है। पाप और तन्द्रा का नाश करने वाला है । यह वस्ति घी तेल श्रादि स्नैहिक पदार्थों से की राज। जाती है । इसलिए इसे स्नेहवस्ति भी क. भनुलोम anuloma-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० ]| उपर से नीचे की ओर आने का क्रम । सीधा | अयुर्वेद शास्त्र में सोना प्रादि धातुओं और बांस, क्रम से, अवरोही, जाति विशेष । नन, सींग तथा जानवरों को अंतड़ी, अण्डकोष अनुलोमन anulomana-हिं० संज्ञा पु० ।। आदि से वस्ति बनाने की क्रिया लिखी हैं; परन्तु अनुलोमनम् anulomanam-सं० क्ली. आजकल अंग्रेज़ी दवा बेचने वालों के यहां जो (१) अनुजोमकरण । वह औषधि जो मलादि धा. रबर की नली वाली वस्ति मिलती है, उसी से तुओंको यथा मार्ग प्रवृत्त करे, जो मलादि धातुओं | समस्त प्रकार का वस्ति कर्म सिद्ध हो सकता है। का पाक करके और बात बारा हुए मन के वध | पलवान मनुष्यों को बस्ति देने के लिए For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहिए । अनुवासनोपयोग ३३२ भनष्णम् ६ पत्ता, मध्यम बल वाले को ३ पत्र, और निबंत | अनुवासनापवर्ग: anuvasanopa vargah मनध्य का वस्ति देने के लिग ॥ पल नेह लेना -सं० पु. षड़, विशदशक-नामकपायवर्ग । वह दस ओषधियां जो अनवायन के लिए अनुवासन दम्ति का एक भेद मात्रावस्ति भी । उपयोगी हैं । यथा-( १ ) राम्बा, (२) है, इसमें १ पन मे २ पल तक स्नेह लिया देवदार. : ३ ) बेल, ( ४ ) मैनफन, (५ ) जाता है। सौंफ, (६) श्वेन पुनर्नवा, ( ७ ) लाल पुन. अनवासन व स्त रूक्ष श्रार नात रोगी के लिए नवा, ( ८ ) अरनी, (६) गोखरू और (10) हितकारक है। परन्तु रोगी का जठराग्नि तोब मोनापाठा । १० सू०४०। हो, नभी यह वस्ति देनी चाहिए । मन्दाग्नि, वाले | मन वालाख य: nuvisakhyali-मं० पु. कुष्ठरोगी, प्रमेहो, उदर रोगी और स्थूल शरीर - अनुवासन । वै० निघ० । वाले पुरुष को स्नेहवन कदापि न देनो चा. अनव जी vrijou-सं० पु० फेफड़े, प्राशि, हिए। फुफ्फुप दम् । चम्यो-सं०। प्रश० ।मु०६। स्नेह वात वसन्त ऋतु में मायंकाल में और श्री, वां तथा शरद ऋतु में रात में देनी चा animvelani-सं० त्रा० ममवेदना, हिए । पहिलो रोगी को विरंचन दें, फिर ६ दिन । महानुभूति । (Sympathy ). बाद पूर्ववत् शनि पाने पर स्नेह वस्ति देनी चा अन वेल्लिनम् anuvellitaim-सं० क्लो० शाखा हिए। जिस रोज स्ने, वस्ति देनी हो, उस दिन प्रण बन्धन भेद । सु० म० १८ अ०। रोगी के शरीर में नैन मर्दन करके पानी की भाप अनुशयanushasa-ह. संज्ञा पु० पश्चानाप, में पसीना देना चाहिए। और चावलों को पनली अनुताप, द्वेप। पेया श्रादि शास्त्रोक्र भाजन कराके जरा देर टहलना चाहिए, इसके बाद यदि अावश्यकता हो मनशा anushayi-मं० श्री. क्षुद्ररोगान्तर्गन तो मन मूत्रादि त्याग करके यथा विधि वस्ति पादरो। विशेष । देनी चाहिए। उम रोज़ रोगी को अधिक स्निग्ध लक्षण-जो फोड़ा गहरा हा, प्रारम्भ में थोड़ा भोजन देना हानिकारक है। मा दीग्वे, ऊपरमे त्वचा के रंग ही का हो ( भीतर वस्त लेने के समय रोगी को छींकना,, जंभाई। चक्करहार हो) और भीतर होमे पकता पाए उसे लेना. खांसना प्रादि कार्य न करने चाहिए । वैद्य पैरका "अनुशी' कहते हैं। इसको कफ से ___ म्नेह वस्ति लेने के बाद रोगी को हाथ पैर उस्पन जानना चाहिए। "कफादन्तः प्रपाकीता मीधे फैलाकर लेट रहना चाहिए। यदि स्नेह विद्यादनुशयी भिषक' । सु० सं० १० १३ । वम्ति का स्नेह मल युत्र होकर २४ घंटे के अन्दर चि-श्लेष्म विद्रधिके समान इसका उपचार म्वमेव बाहर न निकले, ना रोगी को तीक्ष्ण करना चाहिए । भा०पाद० रो०चि०। निमहगा वस्ति, तीक्ष्ण फलवति ( शाफ्रा),नीक्षण जनाब गोर नोचा नम्य देनी चाहिए। अनुशस्त्रम् anushastram सं० की. स्वक मार, स्फटिक, काच, जलोका, अग्नि, सार नया वस्ति देने के बाद यदि समस्त स्नेह बाहर नख श्रादि रूप शस्त्र । यह शिशु एवं भीरु प्रभृति या गया हो और रोगी की जटगग्नि तीव्र हो के लिए होता है । सु० सू० ८ ० । तो उसे सायंकाल में पुराने चावल का आहार देना चाहिए। अमष्ठान शरीर anushthana-sharira ___हिं० संज्ञा पु. लिंगदेह, प्रायदेह, पुरुषचिन्ह । श्रनवासनोपयोग univasanopayogo-सं० ० अनुवासनोपग वर्ग। मनुष्णम् anushiam-सं. क्ली. उत्पन, For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनु www.kobatirth.org अभ्यस नीलकमल, कुमुद | रा० नि० । ( Bluelot- अनूदिया āanúdiya - वण्डा (न्दा ) ल का रस us ), धनुष्याल्लिका anishna-valliká - सं० अनुष्णवलो snushna-valli स्त्री० नील दूर्वा, नीली दूब | रा०नि०० ८ । (Seo-Nila-dúrvvá) ३३३ अनुसंधान anusandhana - हिं० पुं० खाज, नलtश | ( Search ) अनुसार्यम् anusáryyakam-सं० क्लो० सुगंध द्रव्य विशेष छहीला मह० | Nardostachys Jatamansi, D. C. 1 वै० श० । अनुद्द anuha - अ० श्वास लेना, दम बढ़ना, अनुह] anüha स्वांसना, ग्वकारना, दमा । ( Dyspnoea ). अनूक anuka - मं० ० पसली, अनूकम् anukam अनूक्यम् anükyam. पशु का ( Ribs ) । करुकराणि । शतप० ३२ ४० ४ । अनूक anuka - हिं० मंज्ञा पु ं० ( १ ) पीठ की हड्डी । (२) कुल, वंश । ( ३ ) गन जन्म, पूर्व जन्म । अनूकanuga श्र० ( A bird ) धेनुक पक्षी हरकोलहू | Seedhenuka i अनूचानः anúchanah- सं० पु० ( १ ) श्रङ्गसहित वेद का अध्ययन करने वाला उत्तम वैग्र । ( २ ) वह जो वेद वेदांग में पारंगत हो कर गुरुकुल में श्राया हो । स्नातक | अनूढ़ा anúrhá-f६० श्री० कुमारी, कुवाँरी, विवाहिता स्त्री । ( Virgin, maiden ). अनूद्रागामी anürhi gámi - हिं० पु० लम्पट व्यभिचारी, छिनरा | अनूतीलून anútilúna - यु० एक अप्रसिद्ध बूटी है जो कद्दू के समान, पर फल रहित होती है। (A plant). Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( उसार किस्त उहि मार ) | ( Sncen. s Flaterinum ). 0 अनूप anupa-हिं० संज्ञा पुं० (1) (A अनूप: anupsh - संपुं० ( buffalo ) महिष, भैंस । मे० पत्रिक । ( २ ) अम्बु (जल) प्राय देश जलप्लावित देश, सजत देश, वह स्थान जहाँ जल अधिक हो । मे० । अनूप देश के लक्षण जिस प्रदेश में जल तथा वृक्ष बहुत हों और जहाँ वात कफ के रोग होते हों उस देश को अनूप देश कहते हैं । 1 गुणगुरु, मान्द्र, पिच्छिल, मधुर, कफकारक तथा स्निग्ध है और प्रमेह, गलगण्ड, श्लीपद, ( फीलपाव ) और छर्दि श्रादि रोगों का उत्पादक रा नि० । राजवल्लभ के मत के अनुसार स्निग्ध, शीतल वान तथा कफ कारक और भारी है। वि० [सं० ]जल प्राय । जहां जन अधिक हो । अनूपजम् anupajam - सं० क्ल० ( १ ) अनूपज - हिं० पु० । श्रार्द्रक, अदरक, श्रादी | ( Zingiber officinalis, Roab. ) ग० नि० ० ६ । पु ं० (२) वृक्ष विशेष । श्रानारस गाइ-बं । वै० निघ० । त्रि० अनूप देश उत्पन्न होने वाले द्रव्य मात्र । अनूपदेशः anupadeshahi - सं० पु० अनूप लक्षण युक्र प्रदेश | वे प्रदेश जिनमें अनूप के से लक्षण हो । देखो - अनुपः। See-Anup ah. अनुपमांसम् anúp/mánsam-सं० की ० अनूपदेशस्थ जन्तुमांस । अनूप देश में होने वाले जन्तुओं का मांस । देखो-भानुपमांसम् । See-ánúpamánsam. अनूफ़ांतानस anúfotánas - यु० गोद, सूसमार (A guana) See Súsamara. अनुमाanumá-यु० रतनजात | (Alkanet). अनूय núyas - अश्रास | See - Ashrás For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमशरा अमेखिएक - अनूशग anushari-यु० जवा, अदउन । (Hi- अंशब्द न सुन सके, वाक्श्रुति रहित, यहिरा, ____biscus Rcsa Sinensis). .. बधिर । डेफ ( Deaf)-इं0 मे० । (२) मनूष्णम् anushnam-सं०० उत्पल, नील अन्धा । रत्नाइंड ( Blind)-इं०।। कमल (Blue lotus)। शुन्दिफुत्त ह्याला अनेमन Anemal-सं० क्ली० ( Enamel ). 40। रा०नि०व०१०। भनेमुई anemui-ता. असन वृक्ष-हि० । अनूम anus-यु० सरोकोही, पहादी सरो। See-Asana. अनुजुः anrijuh-सं० त्रि. शठ, असरल । पु'. अनेमोनीन anemonin-ई० काकरून सत्व, - तगर पुष्प वृक्ष। See-shatham, अनामीनान, रतन जोग सस्व-१० । औहर अनेक aneka-हिं० वि० अधिक, बहु, भूरि । शकाायक-अ०। यह उपयुक प्रोषत्र अनीमून ( many, much, abundant ). ऑस्ट्य जीनोवा ( Anemone Obtusilo. अनेकदिग्घायुः aneka-digvāsuh-सं० पु.। ba) अथवा पक्ष्साटिला । ( Pulsa tilla) (A. whirl wind ) विश्वग्वायु, घूर्णिन अर्थात् शकायिक वा रत्तनजोग के पौधे का सत्व . वायु, ववंडर, घूमती हुई है, जो १५२. के उत्ताप पर पिवल कर तुल्यचा. भनेकप: aneka pah-सं0 0 गज, हाथी | तुभुजीय वारूप में तलस्थाई हो जाता है। ( An elephant)| मद० वि०११। वाष्प के साथ उदनशील होता है और साधारण तापक्रम पर वायु में खुला रहने पर यह शनै: भने aneka-rupa 1-हि. संशा पु० शनैः अनीमानिक एसिड में परिणत हो भनेकाकार aneka-kari नाना रूप, भौति जाता है। भांति के रूप, बहुरूप | मल्टिफॉर्म Multif. , प्रभाव-चरपरा और फोरकाजनक । अनी orm-ई। मोनीन विषैला पदार्थ है। इसके प्रयोग से मध्यभनेकान्तः anekāntah -सं० त्रि०) जा स्थ वातमण्डत वातपात ( पैरालाइज्ड ) हो भनेकांन anekantaf.वि. स्थिर .. जाना है। ई० मे० मे. । फ़ इं० । न हो । चंचल । -स०पू० कोई ऐसा कहें और | अनेसाइक्लस पाइरेथ्रम anacyclus pyretकोई अन्यथा (और तरह ) वह "अनेकार्थ" | कहलाता है । जेसे कोई प्राचार्य द्रव्य को प्रधान | : hrum-ले. अकरकरा । ( Pellitory). अनेक-कट र anaik-kar-razhai-RIO मानते हैं कोई रस को प्रधान कहते हैं, कोई वीर्य को और कोई विपाक का प्रधान कहते हैं। राकसपत्ता, कराटाल। ( Agave ameri. cana). सु०.उ०प्र०६५। "कचित्तथा क्वचिदन्यथेति ।। "कचित्तथा क्वचि यः सः ।" अनैच्छिक anaichchhika-हिं० वि० स्वाधीन अनेगुन्दुमनो 'anegundumani ता. कुच गैर इरादी, मुल्हलिक विना इगदहू-अ० । इन्वॉ. न्दन, कम्बोजी-सं० । रक कम्बल, रञ्जन-बं० । लण्टरी Involuntary, भाँटोमैटिक Ant. अडेनन्धरा पैवोनीना (Adenanthera Oimatic-६०। शरीर को दो गतियों में से Paronina )-ले०।१० मे० मे० । वह जो हमारी इच्छा के प्रधान न हो। हम उनको अपनो इच्छा से रोक नहीं सकने भनेनेग्गिलु aneneggilu कना. बड़ा माखरू और जब वे न होती हो या होनी बन्द हा 'जाएँ हिं०, द०, गु०, ०। पेडेलियम म्युरेन्स तब हम अपनी इच्छा से उनको रोक नहीं सकते। ( Pedalium Murex )-ले० ९० मे० ये और ऐसी ओर गतियाँ इच्छा' के प्राधीन न होने के कारण स्वाधीन या अनैच्छिक कही अनेड़मूक: anedamikah-सं. नि. (.) जाती है। म . For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममैच्छिक पेशी १५ मनोमा खुशी अनैच्छिक पेश: anaichchhika.peshi | मनेन्द्रियक रसायन anaindriyaka- rasi. मनै च्छ कमांस anaichchhika-mansa y ana- हिं० संशा ० ( Inorganic हिं. स्त्री० हिं. पु. ( Inroluntary chemistry ) रसायनका वह विभाग जिसमें anuscle ) स्वाधीन मांस, अनैच्छिक मांस। अनैन्द्रिय पदार्थों का वर्णन हाता है। अजनह गैर इरादी-अ० । अनैच्छिक मांस से मनैपुलियतरम् anaipuliyamaraim-ता. हृदय नालियों. मार्गों और श्राशयों की दीवारें। गोरख इमला । (Adansonia Digita. बनी हुई हैं। ta, Linn.) ई. मे० मे० स० फॉ० अनैच्छिक मांससेल auaichchhika-man- ६०का० । •sasela-हि. पु. स्वाधीन मांस सेल । अनैपुलियरोंय anaipuliyaroya तागोरख (Involuntary muscular cell )! इमस्ती । ( Adansonia Digitata, यह सेल लम्बी होती है। बीच में से मोटी होती Linn )मेमा० .. हैं और सिरों पर पतली और नोकीली । उनकी / अनैक anaif-अ० जिसकी नासिका में व्यथा हो लम्बाई १ से इसकऔर मोटाई - अथवा चाट जगी हो । , ४८० १०० . ८०००से मनोकहः auokahah-सं० पु. वृक्ष, पेड़ । इच तक हाती है। प्रत्येक सेल में अंडा ट्र ( Tree)-इं० । “पाछ-ब०।... कार या सलाहाकार मींगी होती है । प्रत्येक सेल अनोजाससमक्युमिनेटा anogeissus acu. से बात मंडल का एक सूक्ष्म तार लगा रहता "minata, Wall.-ले० चकवा-बं०। पांची, पासी-उदि । नुम्मा-ता०। पाची-मांणु, पाशी, भनेनेरुजी anai-nerunji-ता० बड़ा गोखरू।। पाँसो ते ! फास मह० । यो-बर० । इसकेपत्र ( Pedalium Mures, Linn) oro ई०३ भा०। रंग के काम में आते हैं । मेमो० । अनेन्द्रिक anaindrika-frofdoनितिक अनोजीसस लेटिफीलिमा anogeissus lati• निरावयविक । ( Inorganic ). folia, Wall.-ले. धवः । ( Conocar. भन्द्रिक दोष .anaindrika dosha हिं० | ____pus Latifolia) पु. अनैन्द्रिक प्रशद्धि । Inorganic.अ (ए) नोडाइन anodyne- वेदनानाशक, Inpurities.. . म्यथाशामक, अङ्गमह प्रशमनम्। Analसनैन्द्रिक द्रव्य (naindrika-dravya-हि. ____gesic). पु० अनैन्द्रियक पदार्थ । ( Inorganic अनाना amona-हिं० वि० (.) अलोना, नोन Substances) रहित । साल्टलेस ( Saltless)- । हिं. कनेन्द्रिय पदार्थ andindriyaka-pa. को०।-सिं. । (२) अतिबला, कंघी। अब्यु." टिलन इण्डिकम् ( A butilon indicum) dartha-f६० संज्ञा पु. सृष्टि में -ले०ई० मे० मे०। .. पाए जाने वाले दो प्रकार के पदार्थों में से वह जिसको उत्पत्ति में प्राणिवर्ग का कोई अनोना ड्य मांसा anona dumosa, Roxb हाथ नहीं, जैसे जल, वायु, मही, लवण, शोरक, ___-ले० तूबाई चारह । ( Unona bushy ). गधकाम्ल, स्वर्णादि धात वा प्रवास । इनॉ६० है. गा०। मानक सन्सटैन्स • Inorganic subs: अनीना नेरम anona nirun-ले० अज्ञात । tanee-ई। जमादी-०। | मनोना खुशी anona bus hy-t.तूबाई चारण For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनाना म्युरिकेटा ३३६ मनंगा (Unona dumosa, Roxb.)-ले। भनारसमा anorasmi-अ० धामनीयाबुंद । ६० हैं. गा। । देखो-प्रबरस्मा। मनोना म्युरिकंटा aloma imuricata-ले०यह अनोशदाn anosha-dati | -अ० कृ० माजून मातृष्य वर्ग ( या सीताफल वर्ग ) अर्थात् नोशनाक mosna.dāru-J के समान एक यौ. (Anonaceae) की वनस्पति है। इसका गिक औषध है, जिसका प्रधान अवयव प्रामला मूल उत्पत्तिस्थान पश्चिमी द्वाप समूह है, परंतु है। इसकी निर्माण-विधि-पक्व प्रामला ताजा अब यह पूर्वी भारतवर्ष में भी लगाई गई है।। तौल कर जल में पकाकर भली भांति मल कर गुणधर्म-पक्कफल में प्रिय व किंचित् भम्ल इसके बीज पृथक् करें और झरझरे कपड़े में छाने गूदा होता है जिससे ज्वर में शैत्यकारक प्रपानक जिसमे रेशे को छोड़कर मामले का गूदा निकल प्रस्तुत किया जाता है। प्रपक्वफल-प्रत्यन्त पाए । तत्पश्चात् बोजतथा रेशेको तौलें और इस संकोचक होता है और पान्त्रिक असुस्थता एवं प्रकार कल मामले के भार में से इन ( रेशेके ) स्कर्वी की दशा में व्यवहार में प्राता है। स्वक् मगर को घटाकर मामले के गूदेका भार मालम करें। संकोचक होता है तथा मूल त्वचा शव अर्थात् इस गूदे के भार से दुगनी मिश्री (अथवा केई मृत शरीर जय विषाक्तता ( Plomaine अन्य शुद्ध शर्करा )मिलाकर चाशनी करें । पक्क poisoning ) में बरती जाती है, विशेषतः सड़ी होने पर अभी जब कि यह कुछ २ गर्म ही अन्य हुई मछलियो के खाने के बाद । पत्र कृमिघ्न रूप रहे, इसमें औषधों के चूर्ण मिश्रित करें। और से और पूयजनन हेतु इसका बहिः प्रथांग होता यदि मामला शुष्क हो तो उसके बीज निकासा, है। इ० मे० मे० । मापकर धो डालें, जिसमें वह धूल प्रमृत से रहित भनीना रेटिक्युलेटा amona reticulata, होकर शद्ध होजाए । इसके पश्चात् उसे इतने Linn.-ले० रामफल-द०, । नोना-बं० । गोदुग्ध भिगोए जिसमें प्रामले डूब जाए। चार मेमा० । शरीफा Bullocks heart-1 प्रहर पश्चात् अधिक जलडालकर उबालें जिससे 1. हैं. गा० । Citron-। मामले का कषैलापन एवं दुग्ध की सिकनाई दर अमोना लाँझ लीएड anova, long-leaved, हो जाए । पुनः अभ्य स्वच्छ जल में उबाल कर -ई. कलाकुरा । (umona longifolia, उपरोल्लिखित नियमानुसार "अनोशदारू" प्रस्तुत Pro., Lind.)-ले०। ई० हैं. गा०। करें। अनान लाँग फोलिमा anona, longifolia, अनौम nouna-अ० निद्रापूर्ण, जिसके नेत्रों में Pro., Lind.-ले. कलाकुरा । ( Uiona, निद्रा भरीही । निद्रालु । मितित । (Sleepy, long.lived, R. )-ले० । इ० है. sleeping) गा। अनंग unanga-हिं० वि० [सं०] [[EO अनांना रक्कामोसा allona squamosa, अनंगना] बिना शरीर का । देह रहित । _Lin-ले० शरीफा, सीताफल, श्रानृप्य । संज्ञा पु. कामदेव ( Cupid )। दे०भनानसीalomaceu-ले० पासष्य वा सीता अनङ्गम् । __ फल वर्ग। भनोफिलिज़ anopheles-'. यह रोग को एक भनंगक्रीड़ा ananga-krira-हि. संशा स्त्री० से दूसरे मनुष्य तक पहुँचाने वाला एक विशेष [सं०] (१)रसि । संभोग । ( Coition) जाति का मच्छर है। अनंगवती anangavati-हिं. वि. स्त्री० मनोप्ल्युरा लेण्टाइसी anopleura lentisel | [सं०] कामवती, कामिनी । -ले. अफिस । फा००१ भा० ३८१ । देखो- अनंगारि anangari- हिं० संशा पु० [सं.] पिस्ता। कामदेव के री। शिव । For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनंगी नगी anangi-हिं० वि० [सं० अनङ्गित ] [स्त्री० अनंगिनी ] श्रंग रहित । बिना देह का । शरीर । संज्ञा पुं० कामदेव | (Cupid ). अनंत ananta-हिं० संज्ञा पुं० दे० अनन्तः । 'मन'तनूल anantamūla - हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रनन्तमूलम् ] अनंता ananta - हिं० वि० त्री० [सं० ] जिसका अंत वा पारावार न हो । संज्ञा स्त्री० (१) पृथ्वी । ( २ ) अनन्तसूत्र देखो - अनन्ता | अनंदी anandi - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (१) एक प्रकारका धान । (२) दे० - श्रानन्दी | अनंभ anambha-हिं० वि० [सं० अन्=नहीं + श्रम्भ = जल ] बिना पानी का । 'शुमत्फल ananshumatfalá-सं० स्त्री० कदलीवृक्ष, केला का पेड़ । ( Musa sapientum, Linn. ) जटा० । अन् an - अव्य० [सं० ] संस्कृत व्याकरण में यह निषेधार्थक 'नज्' अव्यय का स्थानादेश है और प्रभाव वा निषेध सूचित करने के लिए स्वर से प्रारम्भ होने वाले शब्दों के पहिले लगाया जाता है । उ० - श्रनन्त, श्रनधिकार, अनीश्वर | पर हिन्दी में यः श्रव्यय वा उपसर्ग, कभी कभी सस्वर होता है और व्यंजन से आरम्भ होने वाले शब्दों के पहिले भी लगाया जाता है । उ०- श्रनहोनी, धनबन, अनरीति इत्यादि । अन्त anta-हिं० पु० नाश स्वरूप, शेष, समाप्ति, सीमा, निकट, अति । (End, completion, death. ) ૩૦ अन्तकः antakah - सं० पुं० (१) काञ्चनार वृक्षः-सं० | कन्चनार का पेड़ - हिं० । ( Bau hinia Variegata, Linn. ) भा० गु० ४३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तर्मूल व० । ( २ ) नाशकर्त्ता, काल ( the Supposed regent of death) । (३) सन्निपात ज्वर विशेष । इसके लक्षण - - अंगों का टूटना भ्रम, कम्प और शिरका हिलना, खाज तथा रोना, कुछ का कुछ बकना, संताप, हिचकी का थाना जिसमें ये जक्षण हों उसको असाध्य श्रन्तक सन्नि पात जानना चाहिए । इसकी अवधि १० दिन की है, जैसे- "अन्तके दश वासराः ।" मा० नि० । उक्त सन्निपात के लक्षण भावमिश्र महोदय ने निम्न प्रकार वर्णन किए हैं, यथा - जिस मनुष्य के अन्तक नामक समिपात कुपित होता है, उसके शरीर में बहुत सो गाँठें पड़ जाती हैं, उदर वायु से भर जाता है, निरन्तर श्वास से पीड़ित रहता है और अचेत रहता है । भा० म० १ भा० । अन्तकोटर पुष्पी antakotara-pushpi-सं० स्त्री० नील बोना - बं० । अन्त्र antriश्रन्तड़ी antari - हिं० स्त्री० श्राँतें, श्रन्त्र । | (Intestines, Bowels, Entrails, Gut.) अन्तरम् antaram सं० की० श्रवकाश, छिद्र, मध्य बीच; दूर, भीतर । ( Interval, hole or rent, midst ). अन्तमल antamala-सं० (१) मद्य, मदिरा (Wine ) । (२) मल, विष्ठा ( Foeres ) । अन्तमात्रिका धमनी antamátrika-dhamani - हि० स्त्री० ( Internal carotid artery) ग्रैवान्तरिक धमनी । शिर्यान सुबाती गाइर अ० । - हिं० संज्ञा पु ं० काला मदार | अम्तमल antamala अन्त मूल antamúla [सं० अन्तर्मलः ] जंगली पिक्वन ( - क्वा - ) । टाइलोफोरा अस्थमेटिका Tylophora asthmatica, W. & 1, ऐस्क्रिपिश्रस स्थमेटिका Asclepias Asthamati For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तमूल ३३८ अन्तमूल ca, Wild., Roxb.-ले० । इंडियन इपीके- अधिक होती हैं। ये अस्पष्ट वर्ण की अथवा धूसर क्वाइना Indian Ipecacuanha-कंट्री | श्वेत वर्ण की होती है। जड़ें प्रायः अशाखी होती इपिकेक्वाइना प्लांट Country Ipecacu- हैं। पर साधारणतः उनसे बहुत पतले लोमवत् anha plant-इं०। संस्कृत पर्याय-मलाण्डः, तन्तु या क्षुद्र मूल लगे रहते हैं। अण्डमलः, पूति, अम्भपण :, रोमशः ( भा०); ___ इससे २ से ३ अाकाशी धड़ ( कांड ) निकअन्तर्पाचक, मलान्तः, अन्तमलः, अण्डपणः, लते हैं। कांड, अनेक, दाएँ बाएँ लिपटे हुए लोमशः । पित्-काडी-द० । इक्ज़ज़हब हिन्दी . साधारणतः कुक्कुट-पराकार, कभी कभी हंस के पर -अ० अन्तोमुल-बं० । पितमारी,खड़की रास्ना, के समान मोटे शाखायुक्त किञ्चित् लोमश होते हैं। अन्थमुल, पितकाड़ी-बम्ब० । पितकाड़ी, खड़की पत्र सम्मुखवर्ती, पत्र-प्रांत समान अर्थात् प्रखंड रास्ना--मह० । मेण्डी -उड़ि | नच्--चुरुप्पान, (जड़ के समीप प्रायः व्यत्यस्त) २ से ३॥ वा १९० नञ्ज-मुरिश्चान, नाय--पालै, पैय्प-पालै--ता० । दीर्घ और १॥ से २॥ इं० चौड़ा, पायताण्डाकार, वेरिपाल, कुक्कपाल-ते० । वल लि-पाल-मल। डंठल(पत्रवृत)के पास कभी कभी तथा कुछ हृदयाबिन्नुग-सिं० । अदु-मुत्तद-कना० । कार,किञ्चिन् नोकीला, ऊपरका भाग(उदर)चिकना शारिवा वा मूलिनो वर्ग और नीचेका भाग(पृr)किञ्चित् लोमरा और डंठन (N. 0. Asclepiadex.) युक्त होता है। पत्रवृत (डंठल) लवु, प्राधा से उत्पत्ति स्थान-उत्तरी तथा पूर्वी बंगाल, १ इं० लम्बा, लोमरा किञ्चिन् नलिकाकार होता आसाम से वर्मा पर्यंत, दकन (वा दक्षिण भारत- है। पत्र शुष्कावस्था में अधिक पीले सख़्त और वर्ष ) और लंका। पीतामहरित वर्ण के होते हैं। उनमें पर्याय-निर्णायक नोट अन्तोमुल ( अन्त किसी प्रकार की अप्रिय गंध नहीं होती। स्वाद मल, अन्तमूल-हिं० )तथा अनन्तोमूल (अनन्त- बहुत कम होता है । पुष्प सूक्ष्म, तारा के सहरा मूल-हिं०) इन दो बंगला भाषा के शब्दों के प्रातः सायं तथा रात्रि में विकसित होते, परन्तु उच्चारण में बहुत कुछ समानता होने के कारण दिन में जब सूर्य का प्रखर उत्तार होता है तब वे ये भ्रमवश एक दूसरे के लिए प्रयोग किए जाते कुम्हला जाते हैं । ये वृन्तयुक्र, छत्रकाकार और हैं । परन्तु, इनमें से प्रथम अर्थात् अन्तोमुल पुष्पावल्यावरण युक होते हैं। पुष्पवृंत कक्षीय जंगली पिक्वन Country Ipecacua साधारण, सामान्यतः विषमवर्ती, पत्रव्रत की nha( Tylopuora Asthamatica) अपेक्षा दीर्वतर होते हैं ! छत्रक ( Umbel) और दूसरा शारिवा वा अनन्तमूल Countiy साधारणतः मित्रित, विषम, श्राधार पर पुष्पाSarsaparilla ( Hemidesmus वल्यावरण ( Involucles ) द्वारा घिरे होते Indicus, R. kr. ) के लिए प्रयोग किया हैं । पुष्पावल्यावरण ( Involucres ) जाना चाहिए। अत्यन्त लघु और स्थायो होता है । पुष्पवाह्या वरण वीजकोषाधः, स्थायी,बहुसपलीय (Polyवानस्पतिक वर्णन-यह शारिवा को जाति sepalous) होता है । सपल (Sepals) का एक बहुवर्षीय लता है । मूल एक लघु काष्ठमय ग्रंथि है जिससे बहुसंख्यक सूत्रमय ५, लघु, . से है इंच लम्बे, हरित वा पीतजड़ें निकल कर नीचेकी ओर जाती हैं । यह २ से हरित होते हैं। पुष्पाभ्यंतर-कोष, बीजकोषाधः ५ वा ६ इंच या अधिक लम्बी और या एवं बहुदलीय होता है । दल ५, त्रिकोणाकार, इं० व्यासमें और अत्यन्त कर्कश अर्थात् टूटनेवाली | १ से इंच लम्बे, कभी कभी एवं किचित् (भंगुर) होती हैं । सौनिक जड़ाकी संख्या विभिन्न पीछे को झुके हुए; पीले (सिवाय अाधार के होतीहै । ये५ से १५ या २० और कभी इससे भो सामीप्य भीतरी भाग के जहाँ वे गुलाबी रंग के १२ For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भन्तपूल ३३६ अन्तमूल अथवा गुलाबी रंग के चिड्डों से युक्र) होते हैं। पराग--केशर तथा गर्भकेशा परस्पर संग्रक्र हो- | कर एक हो जाते हैं जिसका व्यास लगभग .. हुंच होता और जो पंच पीताभ उभरी हुई रेखानों से अंकित होता है। वीजकोष (डिम्मा. शय) दो होते हैं। शिम्बो युग्म, एक दूसरी के सम्मुख और अाधार पर किञ्चित् चिपकी हुई, एक अोर गावामी, २ से ४ इंच लम्बी, मध्य में लगभग इंच मोटी, चिकनी, एक कपाटयुक और स्फुटित होने वाली होती है । वीज लोमश जिसके ऊपरके सिरे वा आधार पर रूईका एकगुच्छा होता है, लघु, अत्यन्त पतला, रत्राभायुक्त धूसर वर्ण का श्रोर किञ्चित् अंडाकार होता है। इसका पौधा वर्ष भर पुष्पमान रहता है, विशेषतः उस समय जब कि लगाया जाता है। इस पौधे के दो भेद होते हैं। यह केवल श्राकार एवं कुछ अन्य साधारण लक्षणों में एक दूसरे से भिन्न होते हैं । जब इनको एक अवस्था में रक्खा जाता है तब इनमें से एक दूसरे से सदा बड़ा होता है। बड़ी जाति में पुष्पदल वृहसर एवं न्यूनाधिक परावर्तित और कभी कभी किञ्चित् लिपटे हुए भी होते हैं। पुरातन पत्र अधिक चौड़े, पतले, गम्भीर वर्ण के और कुछ कुछ पीछे की ओर झुके होते हैं। __ इस पौधे की जड़ के सम्बंध में ऐसा प्रतीत होता है कि कतिपय ग्रंथो में यह एक दूसरी जड़ के साथ मिलाकर भ्रमकारक बना दिया गया है। उदाहरण के लिए मेटीरिया मेडिका खंड २१० ८३ पर लिखे हुए वाक्य को ही लोजिए जो इस प्रकार है__"The root of this plant, as it appears in the Indian bazars, is thick, twisted, of a pale colour,and of a bitterish and somewhat nauseous taste." __अर्थात् इस पौधे की जड़ जो बाजारों में दिखाई देती है, मोटी, बलखाई हुई, अस्पष्ट वर्ण की और किञ्चित् तिक एवं कुछ कुछ उशजनक स्वादयुक्र होती है । प्रथम तो इसकी जड़े विक्रयार्थ बाजारों में नहीं पाती और द्वितीय यह कि इसकी जड़े पूर्वोक्र वर्णनके अनुसार नहीं होती। देखो-वानस्पतिक वर्णनांतर्गत मूल वर्णन । रासायनिक संगठन-इसके पत्र का धन शीतकषाय स्वाद में किञ्चित् चरपरा होता है। पत्र एवं मूल में टाइलोफोरीन ( Tylophorine) अर्थात् अंतमलीन नामक एक क्षारीय सत्व और दूसरा एक वामकसत्व ये दो प्रकार के सत्व पाए जाते हैं। टाइलोफोरीन जलमें सो कम परन्तु मयसार एवं ईथर में अत्यन्त विलेय होता है। प्रयोगांश-शुष्क पत्र तथा मूल । औषध-निर्माण-(१) पत्र का अमिश्रित चूर्ण Simple Porder of Tylophora Leaves (Pulvis Tylophore Folice Simplex )-पत्र जड़ की अपेक्षा कठिनतापूर्वक चूर्ण किए जा सकते हैं। पहले उनको धूप में अथवा सैंडबाथ (बालुकाकुड) पर रखकर भलीप्रकार सुखा लें । फिर चूर्ण कर वस्त्रपूत करलें । इस स्थूल चूर्ण को पुनः विचूर्णित करें और पुनः बारीक चलनी वा वस्त्र से छान लें तथा बन्द मुँह की बोतल में सुरक्षित रक्खें। मात्रा-मूल चूर्ण वत् । (२) जड़ का अमिश्रित चूर्ण Simple Powder of Tylophora Root (Pul. vis Tylophore Simplex)-सामान्य विधि से तैयार कर बन्द मुख के बोतल में रक्खें। मात्रा-वामक प्रभाव के लिए १० से ५० ग्रेन (२. रत्तीसे २५ रत्ती तक); प्रचा. हिका में १५ से ३० ग्रेन (७॥ रत्ती से ११ रत्ती) या इससे अधिक । कफनिस्सारक रूप से -मेन । (३) अभ्यङ्ग वा उद्वर्तन (Liniment). (४) टाइलोफोरीन नामक सत्व । . प्रतिनिधि-यह इपिकेक्वाइना की उत्तम प्रतिनिधि है और प्रायः उन सम्पूर्ण दशाभों में For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० अन्तमूल अन्तमूल जिनमें इपिकेक्वाइना व्यवहृत होता है, इसका बहुत वर्ष पूर्व से ज्ञान है । ऐसा मालूम होता है उपयोग किया जाता है। कि इपिके क्वाइना सर्वथा समाप्त हो चुका था इतिहास, गुणधर्म तथा उपयोग–यद्यपि और डॉक्टर एण्डरसन ने देशी चिकित्सकों को चिकित्सा में अपनी अपेक्षा अधिकतर सफलता ऐसा प्रकट होता है कि भारतवर्ष के उस प्रांत के निवासी जिसमें अन्तमूल होता है, इसके औष प्रोप्त करते हुए पाकर उन्होंने सहज पक्षशतशून्य हृदय से स्वीकार किया कि उनसे शिक्षा ग्रहण धीय गुणधर्म से अति प्राचीन काल से परिचित हैं; तथापि इसके व्यापारिक द्रव्य होने का हमारे ... करने में मुझे कोई लजा नहीं। और उन्होंने उनके पास कोई प्रमाण नहीं और न किसी प्रामा. रतलाए हुए पौधे को अधिक परिमाण में एक त्रित करके उनकी जड़ का एक बड़ा गठ्ठा मदरास णिक हिन्दू अथवा इसलामी निघण्टु ग्रन्थों में इसका वर्णन पाया है। किसी किसी ग्रंथ में को भेजा। वस्तुतः यह हिन्दू मेटिरिया मेडिका भावप्रकाशोत मलाण्ड शब्द इसके पर्याय (आयुर्वेदीय निघ टु ) का वह द्रव्य है जिसकी स्वरूप लिखा है। भावप्रकाशकार मलाण्ड का ओर अत्यन्त ध्यान देने की प्रायश्यकता है। (फ्लोरा इंडिका खं० २, पृष्ट ३४, ३५) गुण इस प्रकार लिखते हैं- "वामनः स्वेदजननः कफनिहरणस्तथा ।" अर्थात् मलारड वाचक, पेन्सला लिखते हैं -इसकी जड़ श्लेष्मस्वेदजनक और श्लेष्मनिस्सारक है। ये सम्ण निस्सारक ( कर त्र्य ) तथा स्वेदक प्रभाव के गुण अन्तमूल में विद्यमान हैं । अतः मलाण्ड को लिए अत्यन्त प्रशस्त है। इसका शीतकवाय (Infusion ) आधे चाय की चम्मच की अन्तमूल मानना हमें अनुपयुक नहीं प्रतीत मात्रा में कफ पीड़ित बालकों को वमन कराने के होता। लिए प्रायः प्रयोग किया जाता है। इपिकेक्वाइना 'रॉक्सबर्ग लिखते हैं -कारोमण्डल तट पर के कुछ कुछ समान गुण रखने के कारण प्रवा'अन्तमूल की जड़ इपिकेक्वाः ना की प्रतिनिध हिका जन्य विकारों में यह लाभदायक औषध रूप से प्रायः प्रयोग में लाई जा चुकी है। मैंने ज्ञात हुई और लोअर इंडिया के युरोपीय प्रायः इसका सेवन कराया और सदा इससे वे चिकित्सकों द्वारा समय समय पर इसका अत्यंत ही प्रभाव उत्पन्न होते हुए पाया, जिनकी इपिके लाभदायक प्रयोग किया गया। ( मेनिरिया . क्वाइनाके द्वारा होनेकी धारा की जाती है। दूसरों मेडिका ऑफ़ इंडिया, २, पृ० ३) से इसके अनुसार प्रभाव होने की भी मुझे डॅक्टर मा हीदीन शरीफ़-इस देश के प्रायः सूचनाएं मिलीं । सन् १७८०-८३ ई. के कालवेलियों ( सपेरों) में यह सर्पदंश आदि के ' युद्धकाल में अभाग्यवश हैदरअली द्वारा बन्दीकृत अगद होने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। उनका युरोपियनों के लिए यह अत्यन्त उपयोगी औषध कहना है कि जब नकुल को सर्प काट लेता है तो सिद्ध हुई । अधिक मात्रा में वामक, थोड़ी मात्रा वह इसी पौधे की शरण लेता है। देशी लोग में और बारम्बार प्रयोग करने से विरेचक, उभय इसके बामक प्रभाव से परिचित है. किन्तु वे 'विध यह अत्यन्त प्रभावात्मक सिद्ध हुश्रा। इसका बहुत कम उपयोग करते हैं। इस पौधे डॉक्टर रसेल ( Dr. Russell) को का कोई अंग बाज़ार में नहीं विकता। उपयोग में मदरास के फिज़िशन जनरल (चिकित्सकों के लाने के लिए इसके एकत्रित करनेकी आवश्यकता अधिनायक) डॉक्टर जे०एण्डरसन (Dr. J. होती है। Anderson) ने सूचित की कि उनको इसके कांड एवं फली सहित उक्र पौधे का सर्वांग युरोपीय तथा देसी दोनों सेनाओं द्वारा प्रवाहिका . वामक है। परन्तु जड़ एवं पत्र केवल सर्वोत्तम में.जिसने उस समय सेनामें संक्रामक रूप धारण ही नहीं, प्रत्युत उपयोग के लिए सरलतापूर्वक की थी, सफलतापूर्ण उपयोग किए जाने का चूर्ण भी किए जा सकते हैं। For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तमूल अन्तमूह पुनः प्रवाहिका में तथा कराज्य एवं स्वेदक रूप से इसको जड़ इपिकेकाइना की कहीं सर्वोत्तम प्रतिनिधि है। चार वर्ष हुए जब मझे कतिपय देशी दवाओं की आलोचना का अवसर प्राप्त हुश्रा, तब अन्तमूल के सम्बन्ध में मेरे विचार निम्न प्रकार थे। वामक रूप से तथा अधिक मात्रा में प्रवाहिका की चिकित्सा में दोनों प्रकार से इपिकेक्वाइना का प्रतिनिधि स्वरूप में पाए जाने वाली एतद्देशीय प्रौषधों में यह सर्वोत्तम है। २० से । ४० ग्रेन (10 से २० रत्ती ) इसका चूर्ण और इतनी हो वुद की मात्रा में टिंक्रा अोपियाई २४ घंटों में दिन में तीन-चार बार सेवन कराने से यह उतना ही शीत्र एवं सफतलापूर्वक रोग का निराकरण करता है जितना शीघ्रकि इपिकेक्वाइना । श्वास रोग में वामक या कण्ठ्य रूपसे भी इसका ..... उपयोग इपिके काइना की अपेक्षा उत्तम रहता है। ... .. । सर्पदंश के अगद स्वरूप कोई अन्य औषध की अपेक्षा एमोनिया के बाद अन्तमूल पर मेरा अधिक विश्वास है। जब तक स्वतन्त्र वमन न : प्राने लगे तब तक इसका ताजा रस अधिक मात्रा में थोड़ी थोड़ी देर पर देते रहें। इसके बाद सशक एवं सांगिक उत्तेजक का व्यवहार करें। देशी औषधे के अपने अधिक विशाल अन . भव के पश्चात् मैंने अन्तमूल को सर्वोत्तम ही नहीं, प्रत्युत भारतीय ४, ५ सर्वोत्कृष्ट वामक श्रोपधियों में एक पाया। कतक (निर्मली) तथा मदनफल के पश्चात् इसका दर्जा पाता है। यद्यपि इसका सर्वाश वामक है तथापि प्रवाहिका में केवल इसकी जड़ उत्तम रोगनिवारक कार्य करती है। उक्त रोग * में इसका प्रभाव कतकवत् होता है । (स० फा० इं०पृ०३६३) डॉ. किर्क पत्रिक ( Cat. of mysore drugs) में लिखते हैं-यदि प्रबल वमन फी श्रावश्यकता हो तो २० से ३० ग्रेन की मात्रा में उक्त श्रोपधि को एक या श्राध ग्रेन टार्टार इमेटिक के साथ दें । मैं शुष्क पत्र का चूर्ण औषध रूप से व्यवहार करता हूँ। कोकड़ में १ से २ तो० तक रस वामक रूप से व्यवहार किया जाता है। शुष्क कर इसकी मूंग के बराबर वटिकाएँ प्रस्तुतकर भी प्रवाहिका में बरती जाती है। पर्याप्त मल प्रवर्तन हेत एक गोली कानी है। इंडियन फार्माकोपिया में इसका पत्र अॉफिशल है। (फा० इं० २ भा० पृ० ४३६)। डा० नदकारिणा प्रभाव में रन से जड़ श्रेष्ठ है। ये को टमकर ( Laxative) और प्रवाहिका में १५ ग्रेन की मात्रा में उर.म औषध हैं। इनको साधारणतः चर्ण रूप में किंचिद् बबूर निर्यास तथा अफीम १ ग्रेन के साथ मिलाकर व्यवहार करते हैं । शिरोरोग एवं वात वेदना में शिर में इसकी जड़ का प्रलेप करते हैं । कास तथा अन्य उन शिरोविकारों में जिनमें साधारणतः इपिकेक्वाइना व्यवहृत होता है। यह अत्यन्त लाभदायक पाया गया है । अतीसार तथा वाहिका की प्रथमावस्था में भी जब कि ज्वर विद्यमान हो इनको १० ग्रेन की मात्रा में १ श्राउंस जल के साथ तथा उसमें १ ड्राम कीकर का लुभाब और अावश्यकतानुसार । ग्रेन अफ़ीम मिलाकर दिया जा सकता है । यदि विषम अथवा मलेरिया ज्वर हो तो इसके साथ कीनीन (कुनै न) सम्मिलित कर देना चाहिए । श्वासोच्छ वास विकार तथा कुकुरखाँसी (Whooping Cough) की प्राथमिक अवस्था में इसे ५ ग्रेन की मात्रा में दिन में तीन बार अकेले अथवा प्राधा ड्राम जुलेही के शर्यत में श्राधा ग्राउंस जल मिलाकर इसके साथ दिनमें तीन बार सेवन करें । यह रकशोधक तथा परिवर्तक रूप से प्रति प्रख्यात है और आमवात में इसका उपयोग किया, जाता है । यह तिक सुगन्धित तथा उत्तेजक है। यह प्रौपदंशीय श्रामवात में भी प्रयुक्र होता है । स्थानिक रूप से यह प्रशामक है और संधिवात जन्य वेदना निवारणार्थ प्रयोग में प्राता है । ई० मे मे०। For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनमोरा अन्तरामिषीयः श्वास, कास और प्रवाहिका में अन्तमूल के | एक जाँघ को दूसरी जाँघ की ओर ले जाने पत्ते के क्वाथ (१० में) तथा इसकी जड़ के वाली)। एड्डक्टर ( Adductor musशीत-कपाय की परीक्षा की गई । उक रोगों में cle)-इं० । अज़लह, मुर्रिबह -अ० । ये अत्यन्त लाभदायक पाए गए । ( Ind. अन्तरपडत antara-padata-हिं० पु योनि Drugs Report, Madras. ) का भीतरी पर्दा। बं० कल्प। यह औपच बंगाल फार्माकोपिया ( १८४४) अन्तरपाचक antara-pachaka-सं० पु. और फार्माकोपिया ऑफ इंडिया (१८६७) में अन्त चूल ( Tylophora asthamaप्रविष्ट है । विस्तार के लिये देखो-फार्माकोग्रा tica). ई० मे० मे। फिया फरकोज महोदय रचित पृ०४७।। | अन्तरम् antaram-सं० क्लीक अवकाश । छिद्र । श्रार० एन० चापरा-यह पौधा नीची एवं मध्य । मे० रत्रिक । रेतीली भूमि में साधारण रूप से मिलता है। अन्तरमुख antaramukha-हि. पु. जहाँ यह प्रोरधि देशी चिकित्सा में विस्तत रूप से गर्भाशय की ग्रीवा तथा उसके अन्दर का भाग व्यवहार में पा चुकी है। इस लिए इसके पत्र मिलता है उसको "श्रन्तरमुख" कहते हैं। बं० एवं जड़ अत्युत्तम ख्याल की जाती हैं । कल्प। इसके सूबे पत्तों को १० से २० ग्रेन की मात्रा अन्तर लसिका antara-lasika-हिं. स्त्र में दिन में २-३ बार देने से कहा जाता है कि ( Endolymph). प्रवाहिका में उपयोगी है। पुरातन कास में कण्ठ्य रूप से भी यह लाभप्रद है । ( इं० ड्र. अन्तर वाहिनी antara-vahini-सं० स्त्री. ई० पृ० ६००)। अन्तरनायनी । (Adductor). अन्तमोरा anta-mora-ब० मरोडफली, पाव- अन्तर वाह्य कृमिनाशक antara-vahya. तकी, आवर्तनी । ( Helicteres Isora, krimí-náşbaka to gol Linu)। मगङ्ग-गु०, सं०। अन्तरा antari-हि. पु. चरण, मध्य, पद, अन्तर antara-हिं०, संज्ञा पु० (1) एक कीड़ा निकट, बीच, बिना । ( In the middle, जो बैलों को काटता है। -जय० (२) दूतर । among; near at hand; without अमृ० सा०। except)। अन्तरङ्ग antaranga-कुम्भिका | -सं. भीतरी अन्तरा ज्वर antara-jvara) अन्तरातप antarata pa "}-हिं०संज्ञा पु. अंग । अथव० । सू०७ । - । का०६। अन्तरगङ्गा,-antara-ganga,-go-कना०, (Tertian-fever) वह ज्वर जो बीच में द० जलकुम्भो । ( Pistia stratiotes, एक एक दिन का अंतर देकर चढ़े । एकतरा ज्वर, Linn.) मे० मो०। अंतरिया बुखार, तिजारी बुख़ार । देखोअन्तर तामर antara-tama.r-ते. जलकुम्भी। तृतीयकः। ( Pistia stiatiotes, Linn.) मेमो० । अन्तरात्मा antaratma-हिं० पु. जीवात्मा, ई. मे० मे। प्राण । (The internal and spiritual अन्तर नायनी antara.nāyani-सं० स्त्री० part of man, the soul). __ अन्तर वाहिनी। (Adductor). अन्तरापत्या antarapatya-सं. स्त्री अन्तर नायनी पेशी antara-layani-peshi ___ गर्भिणी, गर्भवती । हामिलह, हाबिलह, हल्ला अन्तर वाहिनीपेशी antara-vahini-peshi -अ० । प्रेग्नेण्ट (Pregnant)-इं० । . सं० स्त्री० किसी अंग को मध्य रेखा की ओर ले | अन्तरामिषीयः antrāmishiyah-सं. पु. - जाने वाली पेशी ( जैसे वाहुको वक्षकी ओर और | (Endomysium) मांसान्तरीय । For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तराय अन्तविधि नि० । अन्तराय antarāya-हिं० पु. बाधा, विघ्न, . क्ली. पृथ्वी और सूर्यादि लोकोंके बीचका स्थान। रुकावट । ( Obstruction.) कोई दो ग्रहों वा तारों के बीच का शून्यस्थान । अन्तरायामः antarāyāmah-सं० पु. | आकाश, गगन, शून्य, नभ, व्योम, अधर आक्षेपक भेद । एक रोग जिसमें वायु कोप से रोदसी । (The sky or atmosphere). मनुष्य की आँखें, ठुड्डी और पसुलो स्तब्ध हो रा०नि० व० १३। जाती है और मुँह से प्रापही श्राप कफ गिरता अन्संरी antari-हिं. स्त्रो० अन्त्र । (Intestहै तथा दृष्टिभ्रम से तरह तरह के प्राकार दिखाई ines.) पड़ते हैं। अन्तरीप antaripa-हिं० संज्ञा पु. (१) लक्षण-जब बल वान वायु अन्तरायाम को द्वीप, टापू । (२) A Promontoकरती है तथा अङ्गुली, गुल्फ (पाँवकी गाँड, गट्टा), ry, cape ) रास । पृथ्वी का वह नोकीला पेट, हृदय, वक्षःस्थल और गलेमें रहने वाली वायु भाग जो समुद्र में दूर तक चला गया हो । वेगवान होकर स्नायु समूह ( नाड़ीसमुदाय ) को अन्तरीय antariya -संहि. वि०बिचला, भी कम्पित करती है तो उस समय उस मनुष्यकी | अन्तः antah भीतर का, अन्दर का, आँखें पथरा जाती हैं, ठोड़ी जकड़ जाती है, पसलियों भीतरी, मध्य । (In ward, internal) जो में टूटने की सी पीड़ा होती है। कफ का वमन चीज़ शरीर में मध्य रेखा की ओर रहती है उसके करता और वह छाती से ( आगे की ओर ) लिए छेदन शास्त्र की परिभाषा में अंतरीय या कनान के समान नत हो जाता है। भा०मा० अंतः शब्द का प्रयोग होता है । इन्सी, अन्दरूनी -अ० । अन्नगलम् antarālam सं० पु. अन्तर्मुखम् antarimukheem-सं० क्ली. अन्तराल antarala ft. (१) व्रण विस्रावणास्त्र विशेष । अत्रि० । कुश(१) अन्दर, अन्तर (Interspace)(२) घेरा, पत्र और पाटी मुख के समान अन्तमुखनामक घिरा हुश्रा स्थान | श्रावृत्त स्थान | ( Inclu- शस्त्र स्राव के लिए उपयोग में लाया जाता है। ded space)। (३) बीच । इसका फल डेढ़ अंगुल होता है । (२) कुशाटा के अन्तरावयव antaravayava-हिं० संज्ञा पु. सहरा ही एक अद्ध चन्द्रानन शस्त्र होता है, यह स्त्री की वस्ति का प्राभ्यंतरीय भाग जिसमें गर्मा भी स्राव के निमित काम पाता है। शय तथा गर्भाशय के बंधन, स्त्री अण्ड, फलवा- अन्तर्मुखी antarmukhi-सं० स्त्री० स्त्री योनि हिनी और योनिमार्ग का समावेश होता है । बं० रोग विशेष | च०चिं०। कल्प० । अन्तलेसीका antarlasika-सं० स्त्री० (Enअन्तरिच्छ,-क्ष an tarichchha,-ksha-हिं० ____dolymph ). संज्ञा पु० श्राकाश ( The sky, atmos. अन्तवत्नी antarvatni-सं. नी० गर्भिणी, phere)। __ गर्भवती । ( Pregnant) । अम० । अन्तरित antarita--हिं० वि० भीतरी, अान्तरिक | अन्तर्वमिः antarvanih-सं० स्त्री० अपरिपाक, (Inward,internal.)। अजीर्ण । ( Dyspepsid.) त्रिका० । अन्तरिया antariya--हिं० स्त्री० तिजारी, तीसरे अन्तर्विद्रधिः antarvidradhih--सं० पु. दिन जाड़ा देकर पाने वाला ज्वर, अन्तरात जठरांतरस्थ विद्रधि रोग । (A tertian ague.) । देखो-तृतीयकः । निदान व लक्षण-भारी अन्न का भोजन करने अन्तरि(रो)क्षम् antari,ri,-ksham--सं० से, असात्म्य (जो अपने को प्रतिकूल हो), विरुद्ध For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तर्वृद्धिः । अन्तुलहे सौदा भोजन, सूखाहुआ शाक और खट्टे पदार्थों को खाने | अन्तस्त्वक antas tvak--सं० पु. (१)अन्तरसे, अत्यंत मैथुन करने से, श्रान से, मल मूत्रादि । कला ( Epithelium)। (२) अधःत्वक वेगों को रोकरे से, अत्यंत उष्ण पदार्थों से, (वृक्ष)। दाहजनक पदार्थों से, अलग अलग अथवा अन्तस्नेहफला anta-sneha-phala-सं०स्त्री० सब एकत्र मिल कर कोपको प्राप्त हुए दोष गुदाके . श्वेत कंटकारी, सफेद भटकटाई, श्वेत कंटकाभीतर, वंक्षण संधियों के भीतर, कोख में, बगल रिका (री), श्वेत कंटारिका । में, प्लीहा और यकृत् में, हृदय में अथवा तृषा अन्तपिर antassushira--सं० पु. भीतरी लगने के स्थान के भीतर साँप की बाँबी और छिद्र। (Hollow ). ऊँचे गुल्म के समान विद्रधि उत्पन्न करते हैं। अन्तामरा antamara--बं० मरोड़फली, मरोड़ी, इन विधियों के लक्षण बाहर की विद्रधियों के अहता-गों, हिं० । (Helicteres Isora, समान जानना चाहिए। सा० म०२। विद्रधिः ___Linn.) ई० मे० प्लां० । अन्तवृद्धिः antarvriddhih--सं० प. अंत्रवृद्धि रोग, गाँत उतरनेका रोग । (Hernia). अन्तावसायी (इन्) antavasayi-सं० पु. अन्तर्वेधः antar vedhah--सं० पु. मर्मभेद, (१)नापित, नाई, हजाम । (A Barbar, मन पीड़ा | (Serious Pain) a shaver ) मे०। (२) हिंसक । चांडाल । अन्तल antala--कना० रीठा । ( Sapindus | __ Trifoliatus ) फा० इं० १ मा० । अन्तिक antika -हं० पु. समीप, पास | अन्तलीस antalis--यु. एक बूटी है जो वृक्ष तथा | प्रन्तिका antika-सं. सी. (१) सातला. घास के मध्य होती है । इसके पत्ते मसूर के पत्तों | सीकाकाई ( Acacia concinna, के समान होते हैं और इसकी शाखाएँ अत्यंत | D..)। (२) चुलि । मे० कत्रिकं । खुरदरी और एक बालिश्त के बराबर होती हैं। अतिम antima-हिं० वि० [सं०]( Fins], (A plant.) ultimate ) जो अंत में हो, अाखिरी । अन्सशया antasbayyi-सं० श्रो० मरण, सबसे पिछला, सबसे पीछे का । (२) चरम । मृत्यु । ( Dying, death ). मे०। (२) सबसे बढ़के। मृत्युशय्या. मरण खाट, भूमिशय्या । (३) श्मशान, अन्तुलह antulali-अंदलुसी० एक बूटी है। मसान, नरघट । यह दो प्रकार की होती है। (१) अंतुलहे अन्तश्श्रोत्रम् antasbshrotram-सं० क्ली० | बैज़ा तथा (२) अंतुलहे सौदाश् । __ अंतःस्थकर्ण । ( Internal ear.) अन्तुलहे बैजा antulahe-baizia- अंदअन्तश्श्रोत्रमार्गः antashshrotra-mārgah -सं०५० (Internal Acoustic Mea. लुसी० साधारण इन्दुलसी (Spainish) लोग इसको भी फहीक कहते हैं। इसके पो tus ) अंतःस्थकर्ण सुरंगा । कर्णान्तरनाली । सनाय के पत्तों के समान होते हैं, गंध तीचरण, अन्तश्श्रोत्रमार्गद्वारम् antashshrotra- ma सुगंधियुक्त और स्वाद मधुर होता है। इसके परो rga-dwanam-सं० क्लो० (Porus Aco- उपयोग में आते हैं। ये समस्त विषों के अगद usticus Internus). कर्णान्तर द्वार । हैं । यह बूटी इंदुलस (Spain), चीन, अन्तस्तल antastala ) -संहिं० पु. भीतरी तिब्बत और भारतवर्ष के पर्वतों में उत्पन्न अन्तस्थल antasthala | भाग । भीतरीतल । ( Endplates, Internal Sur होती है। face ). अन्तुलह सौदा antulahe-soudaa-अंद___ लुसी० इसको जदवार, इंदुलसी (Spainish) For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्तू-कल-डुम्बो में फहीक़ और हिन्दी मे निर्विसी कहते हैं । इसके मूल शाखा में शाखा युक्र और बड़े होते हैं । पत्र मकोपत्र सदृश, किंतु रक्त श्राभायुक्त होते हैं। किसी किसी के मतानुसार हंसराज के पा के समान होते हैं। स्वाद -तिक । अन्तू-कल-डुम्बो antu-kala-dumbo ता० दोपातीलता ( Ipomwa biloba, Forsk: ) । फा० इं० २ भा० । अन्तोमूल antomula-बं० श्रन्त मूल । (Tylophora Asthamatica-) ३४५ अन्तरीय उदरच्छदा antariya-udarachchhadá-ft. (Transversalis Abdominis ) श्रन्तः उदरच्छदा | अन्तरीय जननेद्रिय antariya-jananedriya - हि० संज्ञा स्त्री० ( Internal org - an_of generation ) वह जननेन्द्रिय जो वस्ति गह्वर के भीतर रहती है और इस कारण बाहर से दिखाई नहीं देती जैसे शुक्राशय, शुक्रप्रणाली, प्रोस्टेट, शिश्नमूल ग्रंथि । अन्तरीय नाड़ी - कोप antariya nári-ko- | sha-for go (Internal capsule) अन्तरीय पटल antariya-patala - हिं० संज्ञा पुं० भीतरी परदा । ( Inner coat) अन्तरीय पटल शोथ antariyapatalashotha-हिं० संज्ञा पुं० ( Choroiditis ) नेत्र के भीतरी परदे की सूजन | अन्तरीय पृष्ठ antariya-prishtha - हिंο पुं० भीतरी पृष्ठ, श्रन्तस्तल | ( Internal surface ). अन्तरीक्ष antariksha - हिं० पु० श्राकाश | ( The sky or atmosphere ) अन्तरीक्ष जलम् antariksha-jalam अन्तरिक्ष जलम् antariksha-jalam - सं० की ० श्राकाशजल, गगनाम्बु, गगनोदक, नीहारजल, वर्षा ( वृष्ठि ) जल । ( Rain water.) धर्मा अन्तरुहा anta-ruha - सं० स्त्री० श्वेत दूर्वा, सफेद दूत्र | See-shveta-durvvá. अन्तरोत्पादक antarotpádaka-हिं०(Entoderm) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तर्गत antargata -हिं० पु० ( In the midst.) भीतरी । शामिल, अन्तभूत | अन्तर्गति antargati - हिं० स्त्री० ( Inward Sensations ) मन की तरङ्ग । ( Forgotten. ) विस्मरण । अन्तर्जङ्घास्थि antarjanghásthi - हिं०स्त्री० Shin-bone ( Tibia ) जङ्घास्थि, टाँग की दोस्थयों में से अङ्गुष्ट ( शरीर की मध्यरेखा के निकट ) की ओर की अस्थि । क़सुबहे कुब्रा, च. मुल् क्रस बत्-अ० । अन्तर्जठरम् antarjatharam सं०ली० कोष्ठ, कोठा । कुक्षिमध्य, कोख । श्रम० । अन्तर्जानु महराब antarjánu-maharaba - हिं० पुं० ( Inner condylar notch ) घुटनों के अन्तरीय हड्डी की महराब । श्रन्तर्दधनम् antar-dadhanam - सं० क्ली० सुराबीज, किण्वक । येस्ट Yeast - इं० | श० च० । ४४ अन्तर्दाहः antarāáhah - सं० (हिं०) पु ं० (१) शरीराभ्यान्तरदाह | शरीर के भीतर दाह होना, छाती की जलन, को संताप, कोठे के भीतर की जलन । रा०नि० व० २० । (२) सन्नि पात ज्वर विशेष | लक्षण - जिस सन्निपात ज्वर में मनुष्य शरीर के भीतर दाह हो, ऊपर से शीत लगे, सूजन, बेचैनी, श्वास और सम्पूर्ण शरीर जला सा हो जाए उसे " श्रन्तर्दाह" सन्निपात ज्वर से पीड़ित जानना चाहिए। भा० म० १ भा० । अन्तर्द्वार antar-dvara - हिं० पु० भीतरी दरवाजा (केवाड़ ) | ( A private door ) अन्तर्धर्मा antardharmá सं० स्त्री० ( En doderm or Hypoblast. ) श्रन्तबलिष्टा । For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्तर्धूमः अन्तः कुटिलः अन्तधूमः antardhāmah-सं० त्रि० मुख देह में पांडु वर्णता और अफरा भी हो तो उसे बँधे हुए हंडिका के भीतर अग्नि जलाने से अन्तहिता कहते हैं। यह सदा दुश्चिकित्स्य उत्पन्न हुआ धूम | च. द० ग्रहणी चि० होती है । वा० उत्तर० अ० २६ । चित्रकक्षार। | अन्तः उदरच्छदा पेशी antah-udarachअन्तर्पट antarpata-हिं० पु. प्रोट, आड़, chhada-peshi-सं० स्त्री० उदरच्छदा टट्टी, पर्दा । ( A curtain, askreen.)| अन्तःस्था । ( Transveralis A bdomiअन्तर्वलिष्टा antarbalishta-सं० स्त्री० ___nis). ( Endoderm or Hypoblast. ) अन्तः उपाङ्गीया antah-upāngiyā-सं० स्त्री० अतधर्मा । ( Internal angular artery ). अन्तर्वैल antarbela-को0 अकासवेल ( Cu धमनी विशेष । scuta Reflexa.)। अन्तः अंस नाड़ो antah-ansa-nari-हिं० अन्तर्भूत antarbhuta-हिं० वि० [सं०] स्त्री० कंधे की भीतरी नाड़ी । ( Deep मध्यगत, मध्य में स्थापित । ( In the mid- nerve cf the shoulder. st.) अन्तर्गत । शामिल | -संज्ञा पु० जीवात्मा । अन्तः कण्ठगाशिरा antah-kanthagashira जीव। हिं० स्त्री० (Internaljugular vein) अन्तमणिक antarmanika-हिं० पु. गले की अन्दर वाली अशुद्ध रक नाली । (Styloid process of ulna) अन्तः अन्तः कराठशल्यावलोकिनो antah-kanthaप्रकोष्ठास्थि के शिर के पासका एक छोटा नोकीला shalyavalokini-सं. स्त्री० नाड़ी यंत्र उभार जो अंगुली से टटोल कर मालूम किया जा विशेष । यह दश अंगुल परिमाण की होती है। सकता है। अत्रिः । अन्तमलः antarmalah-सं० पु. (१) अन्तः करणम् antah-karanam-सं० क्ली. मलांत वृक्ष, अन्तमूल । कश्चिदत्रिः । See (१) अन्तरिन्द्रिय, भीतरी अवयव, हृदय, मन, Antamulai (२) भीतर का मल । पेट अन्तरात्मा । (२) भीतरी चार इन्द्रियाँ ( बुद्धि के भीतर का मैला । अहंकार, चित्त और मन) अन्तः करण अर्थात् भीतर के ४ औज़ार कहलाती हैं। ( The अन्तमहानादः antarma ha-nādah-सं० understanding, the heart, the पु० शङ्ख । (A Conch.). will, the conscience, the soul.) अन्तर्मुखी antarmukhi-सं० स्त्रो० योनिरोग देखो-अतःकरण। विशेष । यदि स्त्री बहुत भोजन करके विषम रीतिसे बैठ कर पुरुषसेवन में प्रवृत्त हो तो वायु भुक्र अन्तः कर अन्तः करतली नाडी antah-kartali-mari अन्नसे प्रपीडित होकर योनि के स्रोत में अवस्थित -हिं० स्त्रो० ( Deeper nerve. of होकर योनि के मुख को टेढ़ा कर देता है। ऐसा hand.) हथेली की गहरी नस। होने से योनिकी हड्डी और मांसमें घोर वेदना होने अन्तः कतनक antah-karttanaka-हिं० लगती है। इस रोग का नाम अन्तर्मुखी योनि | ___संज्ञा पु. कत्त नक दंतोंमें से भीतरी दाँत, अंतः व्यापत् है। वा० उ० प्र० ३३ । छेदक दन्त । ( First molar.) अन्तर्लोहिता antarlohita-सं० स्त्री. ऐसा अन्तः कुटिलः antah-kutilah-सं० पु. रोगी जिसके भीतर रुधिर भर जाने से हाथ पाँव (The conch shell ) शंख । शांक-बा श्वास और मुख ठंडे हो गए हों, आखोंमें ललाई, Sec-shankha. For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तः कपरिका धमनी ३४७ अन्तः प्रकोष्ठ (-ष्ठिका) नाड़ी अन्तः कृपरिका धमनो antah-kārpalika of the thigh. ) जांध के अन्दर की -dhamani-सं. स्त्री. (Medial नाड़ी। cubital). तन्नामक धमनी विशेष । अन्तः जंधोया शिरा antah-janghiya. अन्तः कपरिका शिरा antah-kurparika | .. shira-हिं० स्त्री. ( Internal sapheshira-सं० स्त्रो० तन्नामक शिरा विशेष ; nous vein) जॉघ के अन्दर वाली अशुद्ध रुधिर की नली। अन्तः कोटरपुष्पो,-प्पिका antah-kotaran pushpi, shpika-सं० स्रो० नील वा, अन्तःत्रिपाश्चिका antah-triparshvikaछगलांत्री-सं० । छागलबेटे-बं० । प० मु० । fro ETT STO (Internal or first रत्ना० । देखो-छगलांत्री (Chhagalantri). cuneiform) कूर्चास्थियों में से एक (प्रथमा) त्रिपार्श्विक अस्थि विशेष । अन्तः जानु पिण्ड antah Janu-pindia -हिं० पु. ( Inner tuberosity ) धु अन्तः पटल antah-patala-हिं० पु. (Retina) नेत्र का जालदार परदा । शकिटनों पर जंघास्थि का मोटा उभार । व्यह, तबकहे शक्किय्यह-१० । अन्तः जंघासा को श्रांतरिक शाखा antah अन्तः पदवी antah-padavi-सं० स्त्रो० janghásá-ki-ántarika-șhákhá सुषुम्ना नाड़ी। ( Spinal cord ). सं० स्त्रो० ( Deep tibial nerve, व० श०। inner branch) पैरकी नाड़ी की भीतर अन्त पातो antah-pati-हिं०वि० (Medial) की शाखा। बीच वाला, मध्यवर्ती, अन्तर्गत । अन्तः जंघासा की वाह्य शाखा antah-jang. अन्तः पादतलिकी धमनी antah-pādata. hasa-ki-vahya-shakha-हिं० स्त्री० ____liki-dhamani-सं० स्त्रो० धमनी विशेष । ( Deep tibial nerve outer br anch) पैर की नाड़ी की बाहरी शाखा। अन्तः पूणुकः antah-punukah-सं० पु. मन्तः जंघासा नाड़ो antah-janghasa (Endoneurium ). nári-fco atto (Deep tibial nerve) अन्तः प्रकोष्ट चालिनी नाड़ियाँ antah-pटखने ( पैर ) की गहरी नस । rakoshța--cháliní----náriyán-fo अन्तः जंघासा पेशा antah-janghāsā-pe- स्त्री० (ब० व०)(Deep nerves of shi-हिं० स्त्री० ( Inner part of the the lower arm) अग्रवाहु (हाथ) के अन्दर soleus muscle) टखने की अन्दर की की नाड़ियाँ। पेशी । अन्तः प्रकोष्ठास्थि antah-prakoshthaअन्तः जंघास्थि antah-janghāsthi-हि. sthi-सं० स्त्री० दोनों प्रकोष्ठास्थियों में से स्रो० ( Tibia ) टखने की अन्दर की हड्डी।। कनिष्ठा की अोर की अस्थि । ( Ulna) अन्तः प्रकोष्ठिका धमनी antah-prakoshअन्तः जंघीया धमनी antah-janghiya thiká-dhamani-ejo ato (Ulnar dhamani- हिंस्त्री०( Inner artery artery ) अग्रवाहु ( हाथ ) की अन्दर वाली of the thigh) जाँघ के अंदर वाली ध- | रुधिर नाली । मनी। अन्तः प्रकोष्ठ (-ष्ठिका) नाड़ी antah-prak. अन्तः जंघीया नाड़ी antah-janghiya- oshtha-nāri-हिं० संशा स्त्री०.(Ul nāri-हिं० स्त्रो० ( Deep nerve a nar nerve ). भीतरी प्रकोष्ठ नाड़ी। For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ अन्तः प्रकोष्ठिकाशिरा अन्तःक्षेप अन्तः प्रकोष्ठिकाशिरा antah-prakoshth. -सं० स्त्रो० ( Internal Audito iká-shirá-e FTTO (Basilic vein). ry artery.) अन्तःस्थकर्ण धमनी । शिरा विशेष । | अन्तःश्रोत्रम् antahshrotram-सं0 क्ली० अन्तः प्रगण्ड चालिनो antah-praganda. अन्तःस्थकर्ण । अंतर्कर्ण । (Internal ear). -chráliní-fo ESTTO (Deep nerves. #T:TITItt anta h-şırodhiya-shof the upper arm) भुजा की अन्दर ___ira-सं० स्त्री. शिरा विशेष । की नाड़ियाँ। अन्तः श्वसनम् antah-shvasanam-सं० अन्तः प्रगण्डीया शिरा antah-pragand- क्लो० निःश्वास, श्वास लेना, उच्छ्वास, अंतiya-shira-सं० स्त्री० शिरा विशेष । मुख श्वास । ( Inspiration )। अन्तः प्रविष्ठ योनि antah-pravishtha वायु का नासिका में से होकर फुफ्फुसों के भीतर yoni-सं० स्त्री० वह योनि जो भीतरकी तरफ प्रवेश करना ( इससे छाती फैज कर पहिले से चली गई हो। बड़ी हो जाती है)। अन्तःप्राचीर antah-prachira-सं० (हिं० जवान मनुष्य एक मिनट में १६-१. श्वास संज्ञा)पुं० ( Inner wall ) भीतरी लिया करता है। दीवार । | अन्तः श्वेत antahshveta-हिं० पु हाथी, अन्तः फल antah-phala-हि. संक्षा स्त्री० गज । ( An elephant). अण्ड, पाण्ड-हिं० । श्रोवरी ( Ovary)-ई० ।। अन्तः सत्त्वा antah-sattvā-सं० स्त्री०, हिं० यह गर्भाशय के प्रत्येक बाजू ( बगल ) में एक संज्ञा पुं० (१) (Semecarpus anएक पृथुबन्ध के बीच में स्थित वादाम की प्राकृति acardium) भल्लातक वृक्ष, भिलावे का के स्त्री अंड को कहते हैं। इनकी लम्बाई श्राधइञ्च पेड़। -हिं० वि० गर्भिणी, गर्भवती । (A चौड़ाई ३ इञ्च और मुटाई प्राधा इञ्च होती है। pregnant female ) 270 7701 बं. कल्प० । देखो-डिम्बाशय । अन्तः सुषम्ना शोथ antan-sus humna-shअन्तः शरीर antah-sharira-हिं०पु०अात्मा, ___otha-हिं० संज्ञा पु०(Polio-myelites) facrati (The internal & Spiritu अन्तः स्तनोया antah-staniya-सं० स्त्री० al part of man, the conscience, स्तन की पोषण करने वाली। (Internal the soul!. mammary artery ). अन्तःशिरोधीया धमनी antah-shirodhi- अन्तः स्थकर्ण antah-sthakarna-हिं.पु. yadhamani -सं. स्त्री० (Internal (Internal ear ) गहन, अंतः कण । carotid artery ) तन्नामक धमनी विशेष । अन्तः क्षेप antah-kshepa-हिं० संज्ञा पु. अन्तःश्रोणिगाधमनो antahshroniga-dha. [सं० अन्तः+क्षिप् फेकना] (Injection) mani-सं० स्त्री० (Internal iliac इलेकशन। इसका शाब्दिक अर्थ 'भीतर फेंकना artery, Hypogastric ) içi saia. है। परन्तु अर्वाचीन वैद्यकीय परिभाषा में किसी रिक अंगो को पोषण करने वाली धमनी । तरल द्रव्य का शरीर के किसी भाग के भीतर अन्तः श्रोणिगा शिरा antah-shronigā-s सूचीवेध (इंजेक्शन सिरिञ्ज) द्वारा अथवा hira-संस्रो० वस्ति देश की शिरा । ( Int तहत् किसी अन्य यंत्र द्वारा प्रविष्ट करना ernal iliac vein, Hypogastric (सूचिकाभरण) अन्तःक्षेप कहलाता है। सूचि. vein ) वेध । सूचिकाभरण | ज़र्क-अ०। देखोअन्तःश्रोत्र धमनी antahshrotra-dhama- सूचिवेध। For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्त्य अन्त्रअन्योन्यानुप्रविष्ट अन्य antya-हिं० संक्षा पु० [सं०] शेष का, नीच, अधम जाति, जघन्य । A shudra or man of the fourth tribe ! वि० अंत का। अंतिम । प्राखिरी। सव से पिछला । अन्त्यकोष्टक: antya-koshtakah-सं०५० ( Terminal Ventircle ) sifari कोष्ठ । अन्त्यगण्डः antya-ganduh-सं०पु. (Te Timinal Ganglion ) अंतिम गण्ड । अन्त्यतन्तुः antya-tantuh-सं० ० अन्त्यपुष्पा antya-pushpa-सं० स्त्री० धातकी वृत, धर का पेड़ । ( Anogsissus lati folia) वै० निघ। अन्त्यफलकम् antya-phalakam-सं०क्ली० (Motor end-plate ) अन्त्याङ्गम्।ntyāngam-सं०पु० अंतके यंत्र ।। ( End organ). अन्त्यः antyah-सं०५० मुस्ता, मोथा । (Cy perus rotundus ), अन्त्रम् antram-सं० लो० । प्राणियों के पेट अन्त्र antra-हिं० संज्ञा पु. ) के भीतर की वह लम्बी नली जो गुदा मार्ग तक रहती है । खाया हुआ पदार्थ पेट में कुछ पच कर फिर इस नली में जाता है और मल वा रद्दी पदार्थ बाहर निकाला जाता है। मनुष्य की आँत उसके डील से पाँच व छः गुनी लम्बी होती है। पाय-पुरीतत् (रा. नि. व०१८), प्रांत्र-सं० । अँतड़ी, अंत्र, प्रांत, रोधा, अंत्री -हिं.। मिश्रा (ए० व०), अम्मा (ब० व०), मसा (१०व०), मस्सरीन (ब०व०)-अ०। इन्टेस्टाइन Intestine (ए. व०), इन्टेस्टाइज Intestines (ब० व०); बॉवेल Bowel (ए०व०), बावेल्ज़ Bowels (ब० व०)-इं० । नोट-प्राकार तथा परिमाण के अनुसार प्रातें दो प्रकार की होती हैं (१) छोटी और (२) बड़ी। पुनः इनमें से प्रत्येक के ३-३ भेद होते हैं। देखो-क्ष दांत्र व वृहदांत्र। STEFTITITATE antra-anyonyánupravishta-हिं० संज्ञा पुं० प्रांत का एक भाग से दूसरे भाग में उतर जाना। इस विकार में ऊपर के प्रांत्र का भाग, अधःस्थित प्रात्र भाग के पोले स्थान में घुस जाता है। श्रांत्र के उस भाग को जो प्रवेश करता है प्रवेशक (Intussuceptum) और जिस प्रांत्र के पोले स्थान में वह प्रविष्ट होता है उसको ग्राहक ( Intussucepiens) कहते हैं। प्रान्त्रान्त्र प्रवेश । पर्यायतों में बल पड़ना, प्रांतों में गिरह पड़ जाना। इतिवाउल्लफ़ाइफ, इंलतिवाउल् अम्मा, एलाऊस, कौलङ्ग इतिवाई, मगम रब्ब इम, इनशिसादुल अम्मा , तग़म्मदुल अम्मा-अ० । इन्टस् ससेप्शन ( Intussusception , ईलियस Ileus, वालव्युलस Volvulus, इन्वैजिनेशन In. vagination-इ०। पर्याय-निर्णायक नोट-एलाऊस वस्तुतः यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ बलखाना वा श्रावर्त्तन है। एलोपैथिक परिभाषा में इन्टस्ससप्शन तथा वाल्ब्युलस सामान्यतः स्थूल एवं क्षद्व दोनों प्रकार की आँतों के व्यावतन के लिए प्रयोग में आते हैं। परन्तु, ईलियस मुख्यतः केवल ऊच शुद्रांत के प्रावर्तन के लिए प्रयुक्र होता है। उक्र अन्त्रान्त्रप्रवेशन की क्रिया लघ्वान्त्र और स्थूलान्त्र की सन्धि स्थान में हुआ करती हैं। लध्वान्त्र का भाग स्थूलांत्र के भीतर कभी कभी इतने वेग से प्रविष्ट हो जाता है या खिंचा हुआ चला जाता है कि उसके परत एकदम गुदद्वार के मुख तक पहुँच जाते हैं। कभी कभी लघ्वांत्र का एक भाग उसी के अन्य भाग में प्रविष्ट हो जाता है, इस प्रकार को लघ्वांत्रिक ( Enteric ) कहते हैं। और कभी कभी For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्त्रअन्योन्यानुप्रविष्ट ३५० अन्त्रअन्योन्यानुप्रविष्ट स्थूलांत्र का एक भाग उसी के अन्य भाग में की दशा में प्रागुक्त लक्षणों को भली प्रकार देखने प्रविष्ट होजाता है, इसे स्थूलांत्रिक( Colica) से सरलतापूर्वक इसका निदान हो जाता है। कहते हैं। ५० प्रतिशत से भी अधिक रोगियों परंतु कतिपय अति पुरातन दशाओं में, जो प्रौढ़ामें अधर मुद्रांत्र और अंजपुट को वृहदांत्र में प्र. वस्था में होता है, इसका निदान करना सर्वथा विष्ट होते हुए देखा गया है। इस प्रकार की सरल नहीं। इसका स्वरूप चिरकारी प्रांत्रावरोध अंत्रप्रवेशन क्रिया को अधःक्षुद्रांत्रपुटिक (Ileo- जैसा ही व्यक्त होता है। उदर को चीरकर देखने Crecalis) कहते हैं। इसीप्रकार अधर तुद्रांत्र, पर ही इसका वास्तविक रूप समझ में या उत्तर चुद्रांत्र तथा द्वादशांगुलांत्र का भी व्या- सकता है। वत्त न होता है। किसी किसी में अधर शुद्रांत्र चिकित्सा अपने एक अन्य भाग में प्रविष्ट होकर अधर इस रोग में कदापि विरेचन न देना चाहिए । क्षुद्रांपुटिक कपाट से गुज़र कर वृहदांत्र में पहुँच बल्कि प्रारम्भ में जब शूल, प्राध्मान और अधिक जाती है। इसका श्रधरतुद्रबृहदांत्रिक ( Ileo. बल क्षय हो तब उष्ण जल, तेल वा तैल व पतले colica) कहते हैं। मंड को बस्ति देनी चाहिए अथवा धौंकनी द्वारा निदान श्रांतों में वायु प्रविष्ट कराना या रोगी को उलटा श्रांत्र प्रदाह, श्रांत्र क्षत तथा प्रांत्रस्थ मांसा करके बलपूर्वक हिलाना उपयोगी होता है। बुद के कारण प्रांत्रावरोध होना, प्रांत्र के ऊर्ध्व परंतु, जब वेदना व श्राधमान अत्यधिक हों और भाग का अधःभाग में उतर जाना और अंग्रवृद्धि बल वय एवं निर्बलता असीम हो उस समय में प्रांबावरोध का हो जाना प्रभृति । सिवा शल्यक्रिया अर्थात् चीर फाड़की चिकित्साके लक्षण और कोई उपाय नहीं। अस्तु, जितनाशीघ्र प्रॉपरेशन तीब्र, आशुकारी, प्रांत्रांत्रप्रवेशजन्य यात्रा किया जाए उतना ही अख्छा हो । परंतु इसे कोई वरोध विशेषकर छोटे बच्चों में पाया जाता है। दक्ष शल्यशास्त्री ही कर सकता है। इसके कारण बच्चों को कभी कभी आक्षेप होता नोट-वस्तिदान काल में सेर सवासेर उष्ण होता है। रोगी को सहत मलावरोध होता है, जल वस्तियंत्र की नली द्वारा अंत्र में दूर तक बार बार वमन पाता है, अंततः वमन में मल पहुँचाना चाहिए। जल बाहर निकल पाने पर विसर्जित होने लगता है जो इस रोग का एक उदर को नीचे से ऊपर की ओर धीरे धीरे मलना नैदानिक लक्षण है। उदरशूल होता है और चाहिए। यदि रोगी को उलटा कर हिलाना हो उदराध्मान द्वारा वह फूलकर ढोलवत् हो जाता तो पहिले उसको ईथर वा कोरोफॉर्म सुंघाकर है। रक्त और श्लेष्मा मिश्रित मल निकलता, विसंज्ञ कर लेना चाहिए। रोगी अत्यधिक काँखता रहता और बलक्षय श्रादि लक्षण होते हैं । बलक्षय से बालक २४ घंटे में __ आयुर्वेद के अनुसार उदावर्त रोगाधिकार में वगत प्राण हो जाता है। यदि उक्त अवधि के र्णित चिकित्सा,कुछ अंशमें, इसरोग के प्रतीकारार्थ भीतर गत प्राण न हो तो उदरककलाप्रदाह सफलीभूत हो सकती है। श्रस्तु, खूब सोच समझ के लक्षण (श्वास, हिक्का, तीव्र ज्वर, हृदय को कर तदनुसार कोई औषध की व्यवस्था करने से रोगी लाभ अनुभव करता है और वह चीर फाड़ स्वरित गति इत्यादि)होते हैं। विकारी स्थल एक के बखेड़े से बच जाता है। किंतु दवा का प्रबंध उभार सा मालूम होता है। रोगी अत्यंत तड़ यथासम्भव शीघ्र ही करना चाहिए। फड़ाता है और बड़े कष्ट से प्राण निकलते हैं। प्राचीन यूनानी चिकित्सकों ने चूं कि इसके रांग विनिश्चय वास्तविक रूप को समझने में धोखा खाया; बाल्यकाल एवं अत्युग्र अंत्रश्रन्योन्यानुप्रविष्ट । अतएव उन्होंने इसकी चिकित्सा अवरोध जन्य For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org न्त्रकणिका ३५१ उदरशूल के समान लिखी है । उदाहरणार्थ - विरेचन का प्रयोग और वस्तिदान या पेट पर शृङ्गी ( सींघिया ) लगाना श्रादि । परंतु जैसा कि वर्णन हुआ इस रोग में विरेचन देना अत्यंत हानिकारक है । इसलिए प्राक्कथित डॉक्टरी चिकित्सा की ही शरण लेनी चाहिए । पथ्य - रोगी को थोड़ा, स्निग्ध एवं उष्ण और पतला श्राहार दें । दूध में सोडावाटर मिला कर या दूध में अंडे फेंटकर या पतला सागू, अरारुट, यखनी ( मांसरस ) अथवा शोरबा प्रभूति थोड़ी थोड़ी मात्रा में तीन-तीन चार-चार घंटे बाद दें। यदि इतने पर भोन पचे तो पोषक वस्ति द्वारा रोगी का पोषण करें । अन्त्रकणिका antra-kaniká सं० स्त्री० गेंदा, पद्मचारिणी । (Tagetes Erecta ). श्रन्त्रकूजः antrakūjah - सं० पुरं वायुरोग विशेष | नाड़ी शब्द | ( Rumble ) सु० नि० १ श्र० १६ श्लो० । अन्त्रक्रूजनम् antra-kūjanam - सं० क्ली० (Rumble ) श्रांन्रध्वनि, श्राँतोंका शब्द, पेट में गुड़ गुड़ ( गड़गड़ ) आदि शब्द होना, श्राँतो की गुड़गुड़ाहट, अंतड़ियों की कुड़कुड़ाहट । antrachchhadá-kalá - हिं० संज्ञा स्त्री० ( Omentum ) - श्रश्छ दाकला । अन्त्रच्छदा कला श्रन्त्रताम्रा antra-tamrá सं० त्रो० गेंदा, पद्मचारिणी । ( Tagetes Erecta ). अत्रधारक कला antra-dharaka-kala- हिं० संज्ञा स्त्री० उदरच्छदा कला का वह भाग जो प्रांत को पृष्ठवंश के साथ बाँधता हैं । मेसेयटरी Mesentery- इं० । मासारीका - अ० । देखो - मासारीका | श्रन्त्र परिशिष्ट antra-prishishta-सं० हिं० पु० उपांत्र (Appendix ), बृहत् श्रंत्र के श्रारं भिक थैली जैसे भाग ( त्रपुट ) में दो तीन इञ्ज लम्बी एक पतली नली लगी रहती है, उस नली को उपांत्र या परिशिष्ट कहते हैं । उपांत्र का क्या विशेष काम है यह अभी किसी को ठीक तौर से मालूम नहीं । सब मनुष्यों में इसकी लम्बाई एक ही जैसी नहीं होती; किसी में यह इसे अधिक लम्बी नहीं होती किसी में इञ्च लम्बी भी होती है । इस नली का कभी कभी प्रदाह हो जाता है; और फोड़ा भी बन जाता है तब इसको काटकर निकाल देनेकी श्रावश्यकता होती है । देखो - उपांत्र । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्त्रपात्रम् antra-pacham i० क्लो० स्थावर विषांतर्गत वक् (छाल) और सार तथा निर्यास ( गोंद ) विष विशेष । सु० कल्प० २ श्र० लो० ७/ अन्त्रपुच्छ antra-puchchha - हिं० संज्ञा पुं० ( Appendix ) अन्त्र परिशिष्ट । अन्त्रपुट antra-puta - हिं० संज्ञा पु ं० सीकम् Caecum -इंο| ( मिश्राश्र ) श्र श्र्वर - अ० । रोहे चहारम्, रोदहे काज, कानी आँत उ० । चतुर्थ श्राँ, यह वृहद् यंत्र में की वह त है जो अधरक्षुद्रांत्र के बाद थैली की शकल में स्थित होती है । श्रीतों के विरुद्ध दो मार्गों के स्थान में इसमें केवल एक ही मार्ग होता है । इसीलिए अरबी में इसको अबर अर्थात् एक चक्षु या कानी श्रांत कहते हैं । अन्वृद्धि में प्रायः यही त अंडकोषो में उतर आती है; क्योंकि अन्य श्रतों के समान यह बंधक सूत्रों द्वारा बँधी नहीं होती । अन्त्ररुत्सेच नापः antra-rutsechauápah -सं० पु० सँड्राधावरोधक, पचननिवारक | (Antiseptic. ) श्रन्त्रवचा antravachá सं० हिं० स्त्री० चोबचीनी ( Smilax glabra, Roxb. ) लिका antra-valliká-सं० स्त्री० महिषवल्ली । रा० नि० ० ६ । श्रन्त्रवल्ली antravalli - सं० स्त्री० सोमवल्ली लता । वै० श० । श्रन्त्रविद्रधि antravidradhi- सं० हिं० स्त्री० उपांत्र प्रदाह, ( Appendicitis ) For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्त्रवृद्धि ३५२ अन्त्रवृद्धिः अन्त्रवृद्धि antra-vriddhi-हिं० संज्ञा स्त्री० अन्त्रवृद्धिः antra-vriddhih-सं० स्त्री० । अंत्रांडवृद्धि, प्रांत्रवृद्धि । (Intestinal Hernia, Hernia) फ्रक मिश्राई, नरक मित्र वी-अ० । प्रांत का फत्क-उ० । प्रात उतरना अाँत उतरने का रोग । एक रोग जिसमें आँत का कोई भाग ढीला होकर नाभि के नीचे उतर कर फोते में चला पाता है और फोता फूल जाता है, जिससे अण्डकोष में पीड़ा उत्पन्न होती है। अतएव केवल लक्षणकी ओर ध्यान रखकर प्रायुर्वेद में इसे वृषण विकारांतर्गत मान लिया गया है । परंतु अण्डवृद्धि एक अलग रोग है जिसको डॉक्टरीमें प्रॉर्काइटिस (Orchitis) अर्थात् अण्डप्रदाह कहते हैं। देखो-वृद्धि। नोट-चिकित्सा प्रणालीय के ग्रंथों के गवेषणा पूर्ण तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि आयुर्वेदीय चिकित्सा ग्रंथों में वृद्धि शब्द का प्रयोग जिन अथों में होता है प्रायः उन्हीं अथों में अँगरेज़ी शब्द हनिया ( Hernia ) और अरबी तत्क का होता है । यद्यपि ये तुल्यार्थक नहीं और न इनका सर्वाश में समान भावों के लिए उपयोग ही होता है, तोभी अल्प सामान्य भेदोंके सिवा इनमें समानता काही अधिक भाव सन्निविष्ट है। अस्तु इनका पूर्णतः समान अथों में प्रयोग करना हमें श्रेष्ठतर जान पड़ता है। पर्ण विवेचन के लिए देखिए वृद्धि। तीनों चिकित्सा प्रणाली के मत से अंत्रवृद्धि वृद्धि रोग का केवल एक भेद मात्र है। निदान लक्षण-वातप्रकोपक श्राहार करने, शीतल जल में डुबकी लगाकर नहाने, मल मूत्र के वेग रोकने अथवा मल मूत्र का वेग न होते हुए बलपूर्वक उनके प्रवर्तन करने, बलवान के साथ युद्ध करने, अधिक बोझ उठाने, अत्यंत मार्ग चलने, अङ्गों के टेढ़ा मेढ़ा चलाने इत्यादि कारणों से तथा अन्य वातप्रकोपक कारणों द्वारा प्रकुपित बात तुद्रांतीय अवयवों को विकृत (संकुचित)कर उनको जब अपने स्थान से नीचे लेजाता है तब वे वंक्षण की संधि में स्थित हो वहाँ गाँठ के समान सूजन को प्रकट करते हैं । इसे ही अन्त्रवृद्धि कहते हैं । फिर वहाँ ग्रंथि रूप से स्थित हो कुछ काल में यह फलकोषों में प्राप्त होती है । इसकी चिकित्सा न करने से प्राध्मान, पीड़ा तथा स्तम्भयुक्र मुष्कवृद्धि उत्पन्न होती है। मा०नि० बृद्धि। यूँ कि प्रांग्रवृद्धि रोग कभी तो जातज होता है और कभी सम्पादित । प्रस्तु, इसके हेतु भी दो प्रकार के होते हैं। अर्थात् एक जातज और दूसरा संपादित | अब इनमें से प्रत्येक का पृथक पृथक् सविस्तार वर्णन किया जाता है :(१)जातज या सहज अर्थात् पैदायशी कारण (क) विटप प्रदेश में अण्डमार्ग का बंद न होना, बालकों में अण्ड का वृषण में देर से अथवा कम उतरना । (ख) उदर की दीवार तथा मांस पेशियों का जन्म से कमजोर होना और वंक्षण की नाली प्रभृति के छिद्रों का कोमल होना । (ग) प्रांत्र के बंधन अथवा उस पर की वसामय झिल्ली का अस्वाभाविक रूप से लम्बा होना भी इस रोग का हेतु है। (घ ) सहज रूप से उदर की दीवार के कतिपय मांसपेशियों के सम्मुख छिद्र या दरार का रह जाना जिनके मार्ग से अंत्र (वा वसा) प्रभृति ऊपर को उभर आती है। उदरीय वृद्धि का प्रायः यही कारण हुश्रा करता है। (ङ) जन्म काल में नाभि का विकृत रह जाना, जिससे नाभ्यं वृद्धि होती है। (२) संपादित हेतु (क) उदर पर चोट का लगना । (ख ) शस्त्रक्रिया करने के पश्चात् क्षत का यथार्थ रूप से पूरित न होना। (ग) अधिफ भार वहन, अधिक भार उठाना विशेषतः उठाकर सीधे खड़ा हो जाना या चलना, क्योंकि उक्क अवस्था में उदर पर जोर पड़ता है, विषमांग प्रवर्तन, खाँसने आदि चेष्टानों से For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्त्र-वृद्धि ३५३ अन्न-वृद्धि (इन कारणों से वात प्रकुपित होने के कारण) वे छिद्र और भी बड़े हो जाते हैं, तथा उन्हीं के द्वारा काल पाकर बड़ी अंतड़ियों का (अथवा छोटी अंतदियों का भी) कुछ भाग नीचे उतर कर सरल मार्ग से वंक्षण संधि से होते हुए घृषणों में प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थिति में जब उन छिद्रों में प्राकुचन की क्रिया होती है तब उन पैंतदियों में दबाव के पड़ने से अत्यन्त वेदना होती है। चिरकारी कास, अत्यन्त श्रम और चिरकारी मलावरोध इत्यादि कारणों से भी यह रोग हो जाता है। (घ) जठरस्नायु को दुर्बल या शिथिल करने वाले कारण-मेदोवृद्धि, त्रिपतन रोग इत्यादि। (6) वस्त्यश्मरी प्रभृति के कारण अब मूत्रावरोध हो, जिससे मूत्रोत्सर्ग काल में कॉखना या या जोर लगाना पड़े, तब भी प्रायः यह शिकायत हो जाती है। (च) गर्भावस्था में उदर की दीवार पर ज़ोर पड़कर उसके तनने से भी उदरांत्रवृद्धि की उत्पत्ति होती है। (0) उसी प्रकार वृद्धावस्था में जब उदर शिथिल होकर तोंद निकल पाता है तब उग्र कास प्रभूति से इस रोग के होने का भय होता है। (ज) स्थूल या मेदावी व्यक्तियों को भी यह रोग अधिक हुआ करता है। क्योंकि उदरस्थ मेदवृद्धि के कारण उदरीय अवयवों पर भार पड़ कर पेट तना रहता है, इत्यादि । वृद्धि के भाग प्रत्येक वृद्धि सम्बन्धी प्रवुद के तीन भाग होते हैं । यथा-(1) ग्रीवा, (२) गात्र और (३) मुख । अस्तु आँत का हिस्सा जहाँ निकलता है उसको प्रीवा और जहाँ ठहरता है उसे गात्र कहते हैं। कई बार ग्रीवा के तंग होने के कारण या ग्रीवा का मुख बंद हो जाने के कारण अंत्रवृद्धि विन्यस्त नहीं हो सकती। अंत्रवृद्धि भेद स्थानानुसार एवं विविध लक्षणों से युक्त होने के कारण अंत्रवृद्धि रोग कई प्रकार का होता है। यहाँ उनमें से प्रत्येक का विस्तृत वर्णन विषा जाता है : (१) वंक्षणांत्रवृद्धि-जब अन्त्रण्या कला वंक्षण स्थान में विदीर्ण हो जाए, जिससे कोई वस्तु (अंत्र वा वसा प्रमृति) उदर में से नीचे पाकर वंक्षण अर्थात् चढे की मली में रुक जाए, किंतु अंडकोष में न उतरे, तब उसको उक्त नाम से अभिहित करते हैं। अरबी में इसे फ्रत्कुल उर्बिय्यह वा फ्रत्क फ़ज़ी तथा अंगरेजी में म्युबोनोसील ( Bubonocele) कहते हैं। नोट-ज्ञात रहे कि वंषण में दो प्राकृतिक नलियाँ होती हैं-(.) वक्षण नलिका ( Inguinal canal )-इस मार्ग से होकर अंड अपनो डोरी (अण्डधारक रज्जु) से अण्डकोष में उतरता है । और ( २ ) ऊर्व नलिका ( Femoral canal) इसके रास्ते उरु की रगे गुजरती हैं। अस्तु जब उदर में से अन्न वा घसा वंक्षण नलिका में उतर कर उभर पाए तब उसको वंक्षणात्रवृद्धि कहते हैं और यदि यह उई नलिका (जो वंक्षण के बाहर की ओर स्थित है) में उतर कर उभर आए तो उसको जात्रवृद्धि कहते हैं। अब इनमें से प्रत्येक का अलग अलग वर्णन किया जाता है। वंक्षणांत्रवृद्धि चड्डेका फत्क-उ० । तत्कुल उबिय्यह-१०। gifiaan effet ( Inguinal hernia ) -ई० । इसके मुख्य ४ भेद हैं (१) वंक्षण सरलांत्रवृद्धि, (२) वंक्षण तिर्यग् ( असरल ) अन्त्रवृद्धि, (३) सहजात्रवृद्धि और ( ४ ) कोषाकार वृद्धि | रोग की उन्नति के विचार से पुनः इनकी ये अवस्थाएँ होती हैं । अस्तु, यदि वृद्धि वंक्षण की नली के भीतर ही रहे, बाहर न निकले तो उसे अपूर्ण अन्वृद्धि, अरबी में तत्क़ नाकिस तथा अंगरेजी में इन्कम्प्लीट हर्मिया ( Incomplete For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वृद्धि hernia ) वा ब्युत्रोनोसील ( Bubonocele) कहते हैं । और जब वह बाहर निकल आए तब उसको क्रमशः पूर्ण श्रन्त्रवृद्धि, फ़तूक कामिल तथा कम्प्लीट हर्निया ( Cmpiete hernia ) कहते हैं । चूँकि पुरुषोंमें यह श्रण्डकोष में चली जाती है । अस्तु इसको अण्डकोष - वृद्धि (मुष्क वृद्धि) फ़तूक सिफ़न वा फोतुह् का प्रतक और स्क्रोटल हर्निया ( Scrotal hernia ) कहते हैं । स्त्री के शरीर में यह वंक्षण या उरुसंधि के कुछ नीचे प्रकट होती है। स्त्रियों की अपेक्षा यह पुरुषों को ही हुआ करती है । इसे आयुर्वेद में ब्रभ कहा गया है। इनमें से यहाँ प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है - ३५४ ( क ) तिर्यग् वंक्षण-अंत्रवृद्धि agar तिर्छा तक - उ० । फ्रत् कुल उर्बिय्यह् मुन्हरिफ़ - अ० । थॉब्लीक इंग्वीनल हर्निया (Oblique inguinal hernia ) - इं० । इस प्रकार की प्रांत्रवृद्धि वंक्षण प्रणाली (Inguinal canal ) में होती हैं, उससे बाहर नहीं निकलती । लक्षण- इस प्रकार की वृद्धि में रोगी के खड़े होने या खाँसने से वंक्षण की नाली के भीतर उभार प्रतीत होता है । यदि नाली के भीतर श्रगुली प्रविष्ट कर रोगी को खाँसने की आज्ञा दें तो खाँसने से गुली पर उक्त वृद्धि के श्राघात का बोध होता है । इस भाँति की तिर्यग् व ंक्षण वृद्धि में वृद्धि डाकार होती है । उस पर छः परत होते हैं । कौक्षेयी धमनियाँ और अण्डधारक रज्जु उक्र वृद्धि के पीछे तथा अण्डकोष उसके नीचे होते 1 ( ख ) सरल वंक्षण- श्रन्त्रवृद्धि चड्डेका सीधा फ़तक - उ० | फ़क ल् उर्बिय्यह् मुस्तकीम - अ० । डायरेक्ट इंग्वीनल हर्निया ( Direct inguinal hernia ) - इं० । लक्षण - इस प्रकार की वृद्धि में प्रांत्र प्रभृति क्षण नलिका में से न निकल कर उसके वहिfrea के पीछे से निकलती हैं । इस दशा में बुधि अत्यन्त स्थूल होती है । तिर्यग वृद्धि के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वृद्धि समान इस पर भी छः परदे होते हैं। इस तरह की वृद्धि में कौतीय धमनियाँ और भरडधारक रज्जुएँ वृद्धि की प्रीवा की वाह्य श्रोर और अण्ड पीछे की ओर स्थित मालूम होते हैं । वृद्धि बुदाकार गोल शकल की उपस्थमूल के समीप स्थित होती है । (ग) जातज वा पैदायशी (सहज) अंत्रवृद्धि पैदायशी फ़टन - 30 | फ़क मौलूदी - अ० । कन्जेनिटल हर्निया ( Congenital hernia ) इं० । यह भी एक प्रकार की तिर्यग अंत्रवृद्धि है जो जन्म काल प्रथवा जन्मके पश्चात् उपस्थित होती है । इस में वसा वा यंत्र का भाग फ़ोतों के साथ वेष्ट में उतर आता है और उसके को में रहता है। इसकी थैली उक्त बेष्टके परदों से बनती है और अंत्र अण्ड के पीछे रहती है। इस प्रकार की वृद्धि की रसौली ( अर्बुद ) गोल और उसकी ग्रीवा संकुचित होती है । यद्यपि श्रण्ड वृद्धि से पृथक् होते हैं। परन्तु उससे श्रावृत होते है । इसके साथ अण्डकोष में जल संचित ( कुरण्ड - हाइड्रोसील ) भी होता है। नोट- गर्भावस्था में श्रण्ड उदरमें उदरच्छदा कला (परिविस्तृत कला ) के पीछे और वृक्क के नीचे रहते हैं। पाँचवें मास में वृषण की गोलियाँ वृषणों में उतरती हैं। किसी किसी के मत से ५ या ६ मास हो जाने पर ये गुठलियाँ उदर गह्वर से वस्ति नहर में आती हैं, फिर सातवें मास में कमर के सामने और आठवें मास में अपने वृषण स्थान में उतर पड़ती हैं। जब अण्ड उदर में से उतर कर कोष में आता है, तब उस पर उदर की दीवार के मांस एवं सौत्रिक पाँच कोषों के अतिरिक्त एक कोष उदरककला ( Peritoneum ) का भी होता है । इसके दो भाग होते हैं । प्रथम वह जो श्रण्डधारक रज्जु को श्राच्छादित करता है और द्वितीय जो श्रण्ड को आवरित करता है । जन्म के बाद भरडधारक रज्जु को आच्छादित करने वाला उदरक कला का भाग नष्ट हो जाता है और अण्डवाला भाग For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अश्ववृद्धि ३५५ अण्डवेष्ट का निर्माण करता है । परन्तु जातज अंत्रवृद्धि में अण्डधारकरजु वाला उदरककला का भाग नष्ट नहीं होता | अतएव उदरक कला तथा अण्डवेष्ट के बीच रास्ता रह जाता है जिससे होकर उदर से वसा वा भून उतर पाती ३-वृद्धावस्था में होने वाली। (३) अंत्रवृद्धि-बात का फरक-उ० । फरक मिआई, फक मिअवी-अ० । इन्टेस्टाह. नल हर्निया Intestinal hernia-इं० । यह वही प्रकार है जिसका वर्णन हो रहा है। अायुर्वेद में केवल एक इसी प्रकार की अन्त्रवृद्धि का वर्णन किया गया है। देखो-वृद्धिः। (४) सक्थि वृद्धि (ऊर्वन्त्र वृद्धि) रान का फरक-उ० । फरक फरज़ी-झ० । फेमोरल हर्निया Femoral hernia-इं०। - इस प्रकार की वृद्धि में वंक्षण के बाहर (उरु या जानु के ऊपरी भाग) की अोर उरु को नाली ( Femoral Canal) में वसा का अंत्र बाहर को उभर आती है। इस प्रकार का प्रत्न प्रायः स्त्रियों को हुआ करता है। जिस स्त्री के कई बच्चे हो गए हों उसको प्रायः यह विकार होता कोषयुक्त वृद्धि-कीसह दार फत्क-उ० ।। फरक युकस्स-अ० । इन्सिस्टेड हर्निया ( Incy. sted Hernia )-01 - यह भी एक प्रकार की जातज वृद्धि ही है जिसमें अण्डधारकरज वाच्छादक उदरककला का भाग एक पदें के कारण थैली बन जाता है। 'यह थैली साधारणतः अण्डवेष्ट के पीछे रहती है इस प्रकार की वृद्धि का जातज वृद्धि से निदान करना कठिन होता है। क्योंकि दोनों के लक्षण समान होते हैं। स्थानानुसार इसके कतिपय अन्य भेद होते हैं जिनमें से प्रत्येक का यहाँ क्रमशः वर्णन किया जाता है, यथा. उदरीय वृद्धि-पेट का फरक-उ० । फरक बरनी,फक मराकुल्वर नी-अ०। ऐब्डोमिनल : हर्निया A bdominal hernia-ई० । .. इस प्रकार की वृद्धि में नाभि के गिर्द उद रक कला के फट जाने के कारण वसा वा अन्त्र . ऊपर को उभर आती है। (२) नाभ्यंत्र-वृद्धि-नान का फ्ररक-उ.। फरक सुरीं, फ्रक सुर्रती, नुतूउल्-सुर्रह -१०। अम्बिलाइकल हर्निया Umbilical hernia, '. .मॉमफैलोसील Omphalocele-इं.।। इस प्रकार की वृद्धि में नाभिस्थल पर उद- "रंक कला के फट जाने के कारण वसा वा अन्य "ऊपर को उभर आती है। इस लिए नाभि भी उभरी हुई मालूम होती है। ऐसे रोगी को भारतवर्ष में सूण्डा ( पं० में धुनल ) कहते हैं। इसके तीन प्रकार है : - जन्मतः बाल्यावस्था में होने वाली, २-प्रौढ़ावस्था में होने वाली और __ लक्षण-वंक्षणके बाहरकी ओर उरुके उर्व भाग - में एक गोल उभार वा सूजन जान पड़ती है और खाँसते समय संक्षोभ इत्यादि लक्षण होते हैं। नोट-पूर्व यूनानी चिकित्सकों ने इस प्रकार की वृद्धि (फतक ) को भी वंक्षणस्थवृद्धि (फ़त्क उबिय्यह् ) संज्ञा से ही अभिहित किया है; परन्तु इसको ऊयस्थवृद्धि (त्क फहज़ी) कहना अधिक उपयुक्त एवं उचित है। डॉक्टरी में इसको फेमरलसील ( Femoralcele) भी कहते हैं। (५) अंडकोष वृद्धि (अंत्रांडवृद्धि )नो ते का तत्क-उ० । तत्क सफ्नी, क्रीलद, उवह , कर्व-अ०। स्क्रोटल हर्निया ( Sero tal hernia-01 ... इस प्रकार की वृद्धि में अंडकोष में मंत्र उतर भाता है। __ नोट-अंडकोष में पानी उतरने को कुरण्ड Hydrocele (मूत्रज वृद्धि) और वायु उतरने को वातज वृद्धि Physocele कहते हैं। देखो-वृद्धिः । (६ ) गुह्यन्द्रिक वृद्धि-शर्मगाह की For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्त्रवृद्धि २५६ अन्त्रवृद्धि तत्क-उ० । फुत्कुल इस्तहियाई-अ०। प्युडेण्डल हर्निया Pudendal hernia इस प्रकार की वृद्धि में वसा वा अन्त्रका कोई भाग गुह्येन्द्रिय की भोर उतर पाता अर्थात् उभर श्राता है। (७) जठरस्थ वृद्धि-वेण्ट्रल हर्निया .. Ventral hernia-इं०। . यह वृद्धि नाभि के ऊपर होती है। दषने वाली वृद्धि दबने वाला फत्क-उ०। प्रत्क ग़िमाजी .-१०। रेज्युसिबल हर्निया Reducible hernia-ई। इस प्रकारकी वृद्धि चित लेटने पर आप ही या हाथ से उसको (प्रांवृद्धिको) विन्यस्त करने पर दूर हो जाती है, केवल उस समयके जब प्रीवा का मुख बंद हो या तंग । खाँसने या खड़े होनेकी दशा में वह फिर प्रकट होती है। रोगी के खाँसते . समय यदि शोधस्थल पर हाथ रक्खा जाए तो बह फैलता हुधा मालूम होता है। खाँसने से शोथ पर एक तरंग सी मालम होती है। यह शोथ उदर की दीवार से जुड़ा हुआ प्रतीत होता पाशित वृद्धि में परिणत होकर अशुभ लक्षणों को उत्पन्न कर देती है। लक्षण-उदर में शूल, चूसनवत् पीडा, प्राध्मान, मलबद्धता इत्यादि नानाप्रकार के उपद्रव खड़े हो जाते हैं। ऐसी स्थितिमें, उस अंतही को ऊपर स्वस्थान में पहुँचाने का प्रारम्भिक उपाय तो करना ही चाहिए, किन्तु साथ ही साथ उसमें शोथ न आने पाए इसका भी उपाय करते रहें। रोगी को अल्पाहार करना तथा पड़े रहना चाहिए। इधर उधर घूमना और खड़ा रहना हानिकर है। शोथयुक्त वृद्धि सूजा हुआ फ्रत्क, मुत्वर्म प्रत्क-उ० | तक वर्मी-१० । इन्फ्लेमा हनिया Infla. med herina-इं०।। इस प्रकार की वृद्धि में उत्तरी हुई वस्तु (प्रांत प्रभृति ) में शोथ हो जाता है। प्रस्तु, विकारी स्थल पर सूजन होती और उसमें पीला, उष्णता तथा रक्रवर्णता हो जाती है और उदरक कक्षा के प्रदाह के लक्षण भी प्रारम्भ हो जाते हैं। सूजन के बाद अवरोध के लक्षण उत्पा होजाते हैं। तीव्र वेदना होती और प्रायः न्यूनाधिक ज्वर, धमन, अजीर्ण मलबद्धतादि लक्षण हो जाते हैं। इसमें अन्य भाग विन्यस्त नहीं हो सकता है। अवरोधजन्य वृद्धि सुबह वाला (दार) तत्क-उ० । फतक सुची -०इन्कार्सिरेटेड हर्निया Incarcerated hernia-इं०। यह वृद्धि की एक अवस्था है जिसमें उतरी हुई वस्तु (प्राँत प्रभृति) कोष की ग्रीवा में किसी प्रकारका अवरोध होने अथवा किसी अन्य कारण से उसका विन्यास नहीं हो सकता । उस में प्रत्यंत वेदना होती है। कभी कभी तीन उदाधत्त के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की वृद्धि वृद्ध व्यक्तियों को हो जाया करती है । पाशित वा अवरुद्अंत्रवृद्धि । फंसा हुआ फत्क-उ० । मृतक इनितनाक्री -अ० । स्ट्रैनुलेटेड हर्निया Strangulated hernja-ई१ । अंत्रवृद्धि होने की दशामें शोथ गोल, कोमल, और नमनीय( लचकदार ) होता है । हर्निया को विन्यस्त करने पर यदि भाँत होगी तो गदगद शब्द करेगी और झटके के साथ उदर गहर के भीतर प्रविष्ट होगी। मेदवद्धि होने पर उभार चपटा, ढीला और विषम होता है और विन्यस्त करने पर धीरे धीरे उदर में प्रविष्ट होता है। न दबने वालो वृद्धि न दबने वाला फत्क-उ०। फतक पासी -० । हरेब्युसिबल हर्निया Irreducible " hernia-इं०। .. इस प्रकार की वृद्धि में उतरी हुई वस्तु (अंत्र ... प्रभृति) दबाने से अपनी जगह पर लौट नहीं जाती, अपितु दिन दिन बढ़कर विविध प्रकार के दुःखों का कारण होती है। इस प्रकार की वृद्धि For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्रवृद्धि ३९७ अन्नवृद्धि इस प्रकार की वृद्धि में उतरी हुई वस्तु (प्रांत्र प्रभृति ) शोथयुक्त होकर छिद्रों में पूर्ण- | तया फँस जातीहै । वह (अन्तड़ी) ऊपर तो नहीं | जाती, प्रत्युत उसका कुछ भाग, वंक्षण संधि के | माभ्यन्तरिक छिद्रों में दृढ़ताके साथ अटक जाता है तथा अत्यन्त वेदना को करता है। कोई इसी को "बघ्न या बद" कहते हैं। यह अंग्रवृद्धि की वह एक तीसरी अवस्था है जिसकी उपेक्षा करने | से मृत्यु अवश्यम्भावी होती है। __लक्षण-मलावरोध तथा उदराध्मानवत् शूल होता और बारबार दस्तकी हाजत होती है। किन्तु दस्त नहीं उतरता या बहुत की कम होता है। पुनः वमन आते हैं। पहिले प्रामाशयस्थित सय माहार मुख द्वारा बाहर निकल पड़ता है । फिर अम्ल तथा तिक्क ऐसा पित्त निकलता है, फिर कुछ श्वेत पदार्थ (कदाचित् यह रस ही निकलता हो) निकलता है। बाद में मल के समान दुगंधित पदार्थ निकलता है-अर्थात् पुरीषावरोध जन्य उदावर्त के प्रायः सब लक्षण इसमें दिखाई पड़ते हैं। यथापाटोपशूलीपरिकर्तिका च संगः पुरीषस्य तथोलवातः। पुरीष मास्यादथवा निरेति पुरीष वेगेऽभिहते नरस्य ॥ तदन्तर वृषण वा वंक्षण स्थित शोथ पत्थर के समान कठोर हो जाता है; किन्तु धीरे धीरे बढ़ता ही जाता है। रोगी का चेहरा काला पड़ जाता है । वमन बन्द नहीं होते, रोगी को किसी प्रकार चैन नहीं पड़ता, वह निराश हो जाता है । नादी की गति मंद पर रह रह के चपल होती है। हिका की भी प्रबलता होती है। ___ कुछ काल पश्चात् यह सूजन या गाँठ कुछ श्याम वर्ण की होती है, वेदना कुछ शमन हुई सी जान पढ़नी है, रोगी की जीवनाशा कुछ पलवित सी होती है कि तुरन्त ही यमराज उसका समूल नाश कर देते हैं। अन्त्रवृद्धि की असाध्यता वह अंत्रवृद्धि ( उपलक्षणात्मक अंडवृद्धि) जिसमें अफरा, पीड़ा और जदता हो; उसकी | चिकित्सा न करने पर यदि अंडकोष को दबाने पर उसमें की लायु प्रांतों समेत ऊपर को चढ़ जाए और छोड़ने पर नीचे उतर कर अण्डकोषों को फुला दे और उसमें उन सभी वात के लक्षण मिलते हो तो वह अंत्रवृद्धि असाध्य है। जैसा कि लिखा है___ उपेक्ष्यमाणस्य च मुष्कवृद्धिमाध्मान रुक स्तम्भवती स वायुः । प्रपीडितोऽन्तः स्वनघान् प्रयाति प्रध्मापयन्नेति पुनश्च मुक्तः ॥ अन्त्रवृद्धिर साध्योऽयं वातवृद्धिसमाकृति । मा०नि० । यहाँपर यह बात ध्यान रखने योग्य है कि प्रायुर्वेदीयमतानुसार अंत्रजवृद्धि और मूत्रजवृद्धि दोनों बात के ही कारण से होती हैं। केवल उत्पत्ति के हेतु पृथक् पृथक् हैं। अर्थात् मुत्र संधारणादि से कुपित हुश्रा वात मूत्रज वृद्धि करता है, और भार हरण, विषमांग प्रव. र्शनादि से कुपित वायु अंत्रज वृद्धि यो ( Intestinal Hernia) को करता है। जैसा कि लिखा हैमुत्रांत्रजावप्य निलादधेतुभेदस्तु केवलम् । अंत्रवृद्धि में वृषणांतर्गत अण्ड या ग्रंथि में किसी प्रकार शोथ या प्रदाह प्रभति नहीं होता और जो वेदना होती है, वह सदैव नहीं होती; किंतु जब होती है तब बहुत असह्य होती है। चिकित्सा आयुर्वेदीय मतानुसारबातें जब तक अंडकोष में न उतरी हो तब तक वात वृद्धि के सरश चिकित्सा करें । यथा अंबहेतु के। फलकोशम सम्प्राप्त चिकित्सा वात वृद्धिवत् । वा० चि०५०१३। यदि रोगी को कब्जियत रहती हो तो उसकी जठराग्नि दीपन करने के लिए वस्तिकर्म के द्वारा नारायण तेल का प्रयोग करें। अंत्रवृद्धिमदीप्ताग्ने यस्तिभिः समुपाचरेत् । तैलंनारायणंयोज्यं पानाभ्यंजन वस्तिभिः । अंडकोष में प्रांतों के उतर पाने की दशा में निम्नांकित उपचार करें। For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अन्त्रवृद्धि ३५ अत्रवृद्धि सुकुमार नामक रसायन वाग्भट्टोक तथा | गंधर्वहस्त तैल इस रोग में उत्तम प्रमाणित होते हैं । अस्तु इनमेंसे किसी एक का नियमपूर्वक उप. योग करने से लाभ होता है। गोमूत्रयोग-गोमूत्र १॥ से २ तो० में गूगल (१ से ३ मा० ) अथवा एररड तेल १ से १॥ तो० मिलाकर नित्य सवेरे पान करने से अंत्रवृद्धि का नाश होता है। यह योग वातज घृद्धि पर भी अच्छा काम देता है। रास्नादि क्वाथरास्ना, गिलोय, खिरेटी, मुलहटी, गोखरू, और एरण्ड की जड़, इनको समभाग लेकर, यवकुट चूर्ण करलें । नित्य प्रातः २ से ४ तो० तक चूर्ण लेकर उसमें ३२ से ६४ तो० तक जल डालकर मन्दाग्नि से श्रौटाएँ। जब ४ तो० या ८ तो० जल शेष रहे तब उतार कर छान लें। फिर उस में एरण्ड तैल १ या २ तो० डालकर पान करने से (७ या १४ दिन तक) अवश्य लाभ होता है । यथा शाङ्गधररास्नामृताव लायष्टी गोकराटे रण्डजः शृतः।। एरंडतेल संयुक्तो वृद्धिमंत्र भवांजयेत् ॥ | ___ लाख कचनार के बीज, सोंठ, देवदारु, गेरू, । कुदरू, इनको काँजी में पीस कर अण्डकोश पर गरम गरम प्रलेप करने से अंत्रवृद्धि दूर होती | है, यथालाक्षा कांचनका बीजं शुठी दारु गैरिकम् । कुन्दरू कांजिकैलेंप्यमुष्णमत्र विवर्द्धने ॥ | ( योगचिन्तामणिः) . पीपल, जीरा, कूड, बेर सुखाया हुआ, गोबर, | इनको काँजी में मिला कर लेप करने से भी उपरोक परिणाम होता है । यथापिप्पली औरक कुष्ठं बदरं शुरुक गोमयम् । कांजिकेन प्रलेपैरन्प्रवृद्धि विनाशनः ॥ _(वृ० नि०र०) बालकों की अंत्रवृद्धि पर केवल पलाश की छाल व काढ़ा पिलाने से ही लाभ होता है ।। यथाअन्त्रवृद्धिशमनाय किंशुकत्वकषायमपि । पाययेच्छिशुम् ॥ (वैद्य मनोरमा) .. करंज के बीजों को सिलपर पीसकर उसमें थोड़ा अण्डी का तेल मिलाएँ । फिर इस मिश्रण को तम्बाकू के पत्ते पर गाढ़ा गाढ़ा लेप कर वह पत्ता वृषण पर रात्रि के समय बाँध देने से भी अंत्रवृद्धि में लाभ होता है। छोटे बालकों की अंत्रवृद्धि या कुरण्टक रोग पर इन्द्रायन अच्छा काम देता है । यथाइन्द्र वारुणिका मूलं तैलं पुष्करजं तथा । संमर्थ च स गोदुग्धं पिवेजंतुः कुरण्ट के । (वृ० नि० रत्नाकर) एलोपैथी मतानुसार-- प्रायः सभी प्रकार के अंत्रवृद्धि रोग दुःसाध्य एवं अत्यंत भयावह होते हैं । अकस्मात् अवरोध उत्पन्न होने से शोथ होकर यह रोगी के प्राण नाश का कारण हो सकता है, अस्तु इसके उचित उपचार में विलम्ब व पालस्थ करना यथार्थ नहीं। यद्यपि वृषणोंमें उतर आई हुई |तडीके भाग को फिर से पूर्ववत् दाबकर ऊपर चढ़ाना अति कठिन कार्य है तथापि उष्ण जल में बैठ कर प्रथवा वृषणों पर बर्फ आदि का उपयोग कर छिद्रों के मार्ग में पाशवत फँसी हुई अँतड़ी के बंधन को ढीला किया जा सकता है तथा अंतड़ी के उस भाग को कुछ संकुचित कर, युक्तिपूर्वक ऊपर को चढ़ाया भी जा सकता है। परंतु यदि उपयु लिलखित बंधन का दबाव अधिक जोर का हो और चिकित्सा करने में बहुत देर हो गई हो तो शस्त्र क्रिया करना अधिक उपादेय है। यद्यपि इसकी वास्तविक चिकित्सा शल्य ही है, जो केवल बच्चों और युवाओं पर ही सफलीभूत होती है तो भी ऐसा न हो सकने पर इसका याप्योपचार ट्रस (Truss) अर्थात् पट्टी लगाना है । अस्तु, विविध प्रकार की अंत्रवृद्धि के लिए माना भाँतिकी पट्टियाँ डॉक्टरी औषध विक्रेताओंकी दूकानों से मिल सकती हैं। पट्टी ' चाहे किसी प्रकार अथवा किसी भी वस्त से निर्मित हो उसकी विशेषता यह है कि उसके लगाने से न तो स्वचा को किसी प्रकार की हानि पहुँचे न वृद्धि For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवृद्धि ३१६ उतरने ही पाए और न उससे शारीरिक चेष्टा में | किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो और न उसके नितर उपयोगसे छिद्रका प्रसार ही हो। ठीक मापकी पेटी यदि किसी अन्य स्थान से मँगाना हो तो , वृद्धि भेद और यथार्थ माप लिखना चाहिए। उन्वन्त्रवृद्धि में माप लेने का नियम यह हैपेड़ की अस्थि की ऊर्य धारा से लगभग १ इंच नीचे वृद्धि के छिद्र तक पेड़ की परिधि को नाप लें। इस नापके अनुसार पेटी मैंगवानी चाहिए। पेटी प्रत्येक पुरुष की मोटाई पर निर्भर है। पेटी से बद्धावस्था में स्थायी प्राराम नहीं होता जब तक ट्रस (पेटी) लगी रहे तब तक आँत का हिस्सा नहीं उतरता, जब वहाँ ये न लगाई जाएँ तो फिर आँत का हिस्सा उतर पाता है। परंतु यदि बाल्य एवं युवावस्था में प्रारम्भ से ही निरंतर १-२ वर्ष तक पेटी लगी रहे और उतने कालमें एक बार भी आँतका भाग न उतरा हो तो वह मार्ग सदैव के लिए बंद होजाता है एवं रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है। तो भी स्वस्थ होजाने के बाद भी रोगी को वर्ष दो वर्ष तक पेटी लगाते रहना चाहिए, जिसमें रोग के पुनराक्रमण की शंका न रहे। पेटी लगाने से यद्यपि प्रारम्भमें किञ्चित् कष्ट अनुभव होता है। पर दो चार दिवस में ही वह दूर हो जाता है । रात्रि में सोते समय पेटी को उतार देना चाहिए शेष सभी काल में उसको लगाए रहना चाहिए । प्रातः काल शय्या से उठने से प्रथम उसे लगा लेना चाहिए जिसमें वृद्धि के बार बार बाहर आने से उसका छिद्र बड़ा न हो जाए । अन्यथा पेटी लगाने का लाभ नष्ट होता रहेगा। पेटी की गद्दी अर्थात् पिचु भाग को स्वच्छ एवं शुष्क रखना चाहिए । उस पर कभी कभी खड़िया मिट्टी वा जिंक आक्साइड (यशद भस्म) अवचूर्णित कर दिया करें जिसमें नश तथा भार से वहाँ की स्वचा निर्बल एवं इतयुक्र न हो जाए । टिप्पणी | यह उपयुक उपाय विन्यस्त होने वाली अन्त्र- मन्त्रवृद्धि वद्धि के लिए है। अस्तु, यह स्मरण रहे कि पेटी लगाने से पूर्व रोगी को उत्सान लिटाने और टाँग सिकोड़ने से प्राँत वा परिविस्तृत कला का अाया हुआ भाग स्वयमेव यथा स्थान चली जाता है। इस प्रकार उनको विन्यस्त करके फिर पेटी लगाएँ । यदि इस प्रकार वे यथा स्थान प्रविष्ट न हों तो वृद्धि को वाम हस्त की उँगलियों से पका कर दाहिने हाथ से उनको धीरे धीरे भीतर प्रविष्ट करें। किंतु यह स्मरण रखें कि जो भाग सबसे पीछे उतरा.हो वह सबसे पहिले भीतर जाए यदि इस प्रकार भी सफलता न हो तो मोरोफॉर्म सुंघाकर यह क्रिया करें। इस भाँति पेशियों को शिथिल कर हर्निया भीतर प्रविष्ट की जा सकती है। ___ यदि वृद्धि विन्यस्त न होने योग्य (न दबने वाली अर्थात् यथास्थान न लौट जाने योग्य) हो तो पेटी का पिचुभाग वा गही ऐसी हो जो उसकी पूर्ण रक्षा कर सके और उस पर किसी प्रकार का भार न पड़े । इस प्रकार की वृद्धि में शोथ हो जाने पर रोगी को सुखपूर्वक लिटाए रखें, किसी प्रकार की गति न करने दें । . उसकी जानु के नीचे एक बड़ा सा तकिया रखें, जिसमें हनिया का छिद्र ढीला होकर वेदना कम हो जाए । वस्त्र वा रबड़ की थैली में बर्फ़ भरकर शोथ युक्र स्थान पर रखें और श्राध श्राध घंटा पश्चात् वृद्धि को धीरे धीरे नीचे और पीछे को दबाएँ । ऐसा करने से प्रायः हर्निया अपने स्थान पर चली जाती है और रोगी के प्राण बच जाते हैं । वेदना हरणार्थ मॉफीन (अहिफेनीन ) और ऐट्रोपीन ( धत्तूरीन ) का स्वस्थ अन्तःक्षेप करें, अथवा एक एक ग्रेन अहिफेन अाध प्राध घंटा के अन्तर से तीन चार बार दें। परन्तु, खाने को कुछ न दें और विरेचन किसी दशा में न दें। २४ घंटे हर्निया के फँसे रहने पर फिर उसमें शोथ होकर रोगी के प्राणांत हो जाने की आशंका होती है । अस्तु, यदि उसमें अवरोध प्रभृति हो तो तत्काल वस्तिक्रिया करनी चाहिए। तदनन्तर उस पर बर्फ लगाना चाहिए । For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्त्रबेल ३१० সয়লাব नोट-अंत्रवृद्धि रोगी को बहुत इहतियात का काटना | कत्ल स्ल.4-.। ऑमेण्टेक्टॉमी से विरेचन लेना चाहिए । यथासम्भव उसका न | Omentectomy-sol लेनाही रत्तम है । मलावरोध होने की दशा में अन्नश्छदाकला प्रदाह antrashchhada-kaउष्ण जल द्वारा वस्ति लेनी चाहिए। la-pradah-हि. संज्ञा पुं. अच्छदा श्रन्त्रवृद्धि के लिए डॉक्टरी चिकित्सा में कला ( आँतों को आच्छादित करने वाली झिल्ली) प्रयुक्त होने वाली अमिश्रित औषधे की सूजन | प्रोमेण्टाइटिस Omentitis-ई। टार्टार इमेटिक, मोरोफॉर्म, ईथर, प्रोपियम् । इतिहाब स.ब, वर्म सर्व-०। ( अहिफेन ), लम्बाई एसीटास,, टबेकम् अन्तश्छदिक वृद्धि antrashchhadika. ( तम्बाकू), उष्ण स्नान, रक्रमोक्षण और वर्क । vridhi-हि० संज्ञा स्त्री० भच्छदा कला के किसी भाग का उतर पाना । एपितोसील Epi. अन्त्रवेल antra-vela--सं० एक हिन्दी दवा है plocele-ई। फत्क सी-१०। (An indigenous drug.) भन्त्रशोधक antrashodhaka-हिं० वि० अन्नश्छदा कला antrashchhada-kala पु० आंत्र पचननिवारक । दाफ्रिाते तमने हिं० संज्ञा स्त्री० अंग्रच्छदा कला, प्रांतावरण, अम्बाश- Intestinal antiseptics जठरावरण । ओमेण्टम् Omentum, एपिप्लन -इं० । त्रिस्त दव्यों में अभिषध (खमीर) Epiploon, कॉल Caul-इं० । सब-अ० अथवा सहाँध पैदा न हो या उनमें सड़े हुए वाशीमहे पियह, चादर पियह-फा०। द्रव्यों को अभिशोषित होने से रोकें इस हेतु कभी नोट--कॉल उस झिल्ली को भी कहते हैं जो कभी पचननिवारक ( Antiseptic ) जन्ममकाल में शिशु के शिर पर लिपटी हुई निक औषधों का उपयोग होता है। अस्तु समस्त लती है । वस्तुतः यह भ्रणावरण का एक श्रामाशय-पचननिवारक ( Gastie भाग है। antiseptics) तथा दुग्धाम्ल (Lactiacid) और सैलोल (Salol) और केलोमेल इस उदर की वसामय मिली जो आँतों पर फैली प्रयोजन के लिए व्योहार किए जाते हैं। होती है । वास्तव में यह उदरच्छदा कला का ही नोट-- प्रांत्रस्थ द्रव्यों का ( जब कि वे एक भाग है जो इसके नीचे श्रामाशयिक द्वार शरीर में होते हैं) कीट रहित (Disinfectant) से कोलून तक परिस्तृत होता है। करना सम्भव है या नहीं ? यह बात अब तक ___ इसके दो भाग है संदेहपूर्ण है। यदि यह सम्भव हो तो यह लाभ (.) वृहद् अच्छदा कला ( स. कबीर) प्रद भी है या नहीं ? क्यों कि प्रांत्र के भातर जो प्रामाशय के वृहन्मुख से प्रारंभ होकर कोलून सूचमाणु विद्यमान होते हैं जो सामान्य अवस्थामें तक जाती है इसको अँगरेजी में ग्रेट प्रोमेण्टम प्रांत्र की पाचनक्रिया के सहायक होते हैं। पर तो (Great omentum ) कहते हैं। भी ऐसी औषधों के प्रयोग का यत्न किया जा (२) रुद्र अच्छदा कला (स.ब सग़ीर ) रहा है। और उसमें किसी सीमा तक सफलता जो प्रामाशय के तुद्रमुख से प्रारम्भ होकर यकृत तक जाती है । अंगरेजी में इसको लेसर अन्त्रशोषान्तकः antrashoshantakab-सं० ओमेण्टम् ( Lesser omentum) कहते पु. नीबू, सहिजन, दुग्धवल्लरी (चमार दूधी) चिरायता, गिलोय,शतावरी, अर्जुनमूल, ग्रिफला, अन्तश्छदाकला छेदन antrashchhada-kala- विदारीकंद, बला, असगंध, मुसली, वायविडंग chhedana-हिं० संज्ञा पु. मत्ररछदा कला इनके रस द्वारा कांत लोह में पृथक् पृथक् कई For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नश्छदा शिरा श्रन्थेमिक एसिड क्षुद्ररो। बार भावना देकर वाराहपुट की आँच दें। श्रन्त्राधः पेशी an tradhah-peshi-सं० स्त्री० पुनः इस भस्म के समान सीपभस्म, अभ्रक, . ( Inferior mesenteric muscle ) सुवर्ण, ताम्र तथा लोह भस्म लें और खपरिया । वह पेशी जो अन्त्रधारक कलासे नीचे स्थित है । कांतलौह से आधा भाग मिलाकर उपयुक अन्त्रान्त-अन्त्रसंधि antran ta-antra-saद्रव्यों के काथ तथा चिकुवार के रस की भावना ndhi-हिं० स्त्री० ( Ciecum ) दोनों देकर रख लें। मात्रा-३ रत्ती। आँतों का जोड़ । देखो-अन्त्रपुट । गुण-यह अंत्रशोध, फुफ्फुसप्रदाह, जीर्ण ज्वर, अन्त्रालजी antralaji (मा.) धातुक्षय, राजय चना, श्वास, गुल्म, अरुचि, अति -सं० स्त्री० अन्ध्रालजी andhralaji सार, संग्रहणी को नष्ट करता और बल की वृद्धि वात श्लेष्म जन्य क्षुद्ररोग विशेष । लक्षण-वह करता है। र. यो० सा०। फुन्सी जो कठिन, मुख रहित,ऊँची, गोल,मण्डलाअन्तश्छदा शिरा antrashchhada-shira कार तथा अल्पपीव ( राध ) युक्र हो । यह -सं० स्त्री. अंत्र से अशद्ध रक्त को ले जाने वाली कफ और वात के प्रकोप से होती है । मा० नि. शिरो। अन्त्रसंकोचक antra-sankochaka-हिं० | अन्त्री antri-सं० स्त्री० वृद्धदारक लता, वृद्धदारु, वि० पु. इन्टेस्टाइनल ऐस्ट्रिओण्ट्स (Int- विधारा । (See-Vid hara.) फॉ० ई० estinal astringents ). वे औषधे जो | २भा०। अ० टो०।-हिं० संज्ञा स्त्री० अन्त्र, प्रांत्र के कृमिवत् अाकुचन को शिथिल एवं उनके | आँत, अँतड़ी | ( Intestine.) रसों को कम करती है। अन्त्रोल धमनी antrordhva-dhamani अन्नसंधि antra-sandhi-हिं० स्त्री० दोनों | -हिं० संज्ञा स्त्री० ( Superior mesआँतों का जोड़। enteric artery.) वह धमनी जो अन्त्रअन्त्रहानिकर antra-hāni-kara-हिं० देखो- | धारक कला से ऊपर स्थित है। मुज़िरात अम्आ। अन्त्रोर्ध्व शिरा antrordhva-shira-सं० स्त्री० अन्त्रक्षय antra-kshaya-हिं० संज्ञा पुं० ( Superior mesenteric vein ) (Intestinal Tuberculosis) यह वह शिरा जो अन्नधारक कला से ऊपर रोग एक प्रकार के यक्ष्मा कीट के अन्त में स्थित है। प्रवेश करने से होता है । देखो-राजयक्ष्मा ।। अन्थकम् anthakam-स० क्ली० अङ्गार । अन्त्रांडवृद्धि antrānda-vriddhi-हिं० संज्ञा (A fire brand; embers.) रत्ना० । स्त्री० [सं०] (Serotal hernia) देखो- अन्थाइलिस anthyllis-यु० रुद्रवन्ती, रुद. अन्त्रवृद्धि । न्ती-हि. । ( Cressa cretica, Linn.) अन्त्रादः antradah-सं० पु. श्राभ्यन्तर कृमि फा० ई० २ भा० । देखो-रुदन्तिका (न्ती)। ( Internal worm) । देखो-कृमिः। अन्थोनल anthinarlu-ता. गुले-अब्गस मा० नि० । शाङ्ग ७ अ.। . -फा०, इं० बा० । (Mirabilis jalaअन्त्राधः धमनी antradhah-dhamani- ___pa, Linn.) फा० ई०३ भा० । हिं. संज्ञा स्त्री० ( Inferior mesen- अन्थेमिक एसिड anthemic Acid-इं० teric artery.). वह धमनी जो अंधारक बाबूने का सत, बाबूने का तेजाब । इसके सूचिकाकला से नीचे स्थित है। कार वर्णरहित रवे होते हैं । गंध-बाबूना के अन्त्राधः शिरा antrādhah-shira-हिं० संज्ञा समान ग्राह्य । स्वाद-अत्यन्त कड़ा । यह जल, ato ( Inferior mesenteric vein). मद्यसार, ईथर एवं क्रोरोफार्म में घुल जाता है। बह शिरा जो अन्त्रधारक कलासे नीचे स्थित है।। इसको वर्नर ( Werner ) महोदय ने सन् For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रथेमिस श्रार्वेन्सिस ३६२ १८६७ ई० में बाबूना पुष्प से विशेष प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत किया था। फा० ई० २ भ.० । देखो - बाबूना | अन्थेमिस श्रार्वेन्सिस anthemis Arvons | is, Linn. ) - ले० बाबूनह, शज्रतुल काफ़ूर | फा० ई० २ भा० | देखो - बाबूना | अन्धेमिस किया anthemis chia, Linn. -ले० बाबूनह भेद | फा० ई० २ भा० । श्रन्थेमिस मोबिलिस anthemis nobilis-o बाबून, शज्रतुल काफ़ूर । फा० इं० २० श्रन्थेमांडोन anthemidin - इंο बाबून के तेज़ाब को मद्यसार में घोलने पर जो पदार्थ तलस्थायी होजाता है उसमें एक प्रकार का स्वाद रहित, वायुक्त सत्व होता है, जिसे 'अन्थे मीडीन' कहते हैं । यह मद्यसार, ईथर और क्लोरो. फॉर्म में अविलेय होता है, किन्तु ऐसीटिक एसिड ( सिरकाम्ल ) में विलीन हो जाता है । फा० ई० २ भा० । श्रन्थेमून anthemon यु० बाबूनह् भेद | फा० इं० २ भा० । erosum, थेरिकम ट्यूबरोसम anthericum TubRoxb. - ले० खुन्सा - अ०फा०, सु० । ( Asphodel ) फा० इं० ३ भा० । (ऐ) न्थेरिमस्टिक anthelmintic इं० कृमिघ्न, कृमिहर, कृमिनाशक | ( Medicine) of use against intestinal wor15. 1 देखो - कृमिघ्न । श्र (ऐ) न्थोसिफैलस केडम्बा anthosephal us cadamba, Miq. II.K, Br. कदम्ब, कदम | इं० मे० प्रा० । (ऐ) स्विस सेरीफ़ोलिश्रम् anthriscus cerefolium, Hoffm. - ले० । अन्रीलाल - इं० बा० । फा० ई० २ भा० । देखोश्रातरोलाल । श्रन्थँक्स anthrax- इं० देखो -- ऐन्ध्रंक्स । अन्दम āandam - अ० ( १ ) पतंग (Caesa - Ipinia sappan, Linn. ) बक्रम । ( २ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्द्रनी (Kino) दम्बुल श्रख़ वैन - ०। हीरादोखी - हि० । ( ३ ) Red sandal wood. सन्दलसुख, रक्तचन्दन 1 इं० हैं० गा० । अन्दरुमाखुस andarumákhus (Andromachus) हकीम बुकरात के बाद उनके समकालीन एक प्रसिद्ध युनानी हकीम हुए हैं । यह यूनान के महाराजाधिराज के निजी चिकित्सक ( राजवैद्य ) थे । इन्हीं ने एक श्रगद निर्मित किया था जो " श्रन्दरूमाख़ी" नाम से प्रसिद्ध है । यह नव्वे ६० वर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी हुए । अन्दलीव āandaliba - अ० बुलबुल, एक पती विशेष । ( Nightingale.) । श्रन्दलुस andalus - अ० हस्पानिया | स्पेन Sp ain - इं० | अरब के लोग स्पेन ( Spain ) को अन्दलुस कहते हैं । श्रन्दलूसियह् वस्तुतः स्पेन का एक प्रान्त था, जिसकी ख़लीफ़ा बलीद के समय में ज़याद के पुत्र तारक ने सन् ७१० ई० में सर्व प्रथम विजय किया था। इसी सम्बन्ध से अरब लोग स्पेन को अन्दलुस कहते हैं । इस देश में बड़े बड़े नामवर हकीम वा चिकित्सक उत्पन्न हुए । इनमें से किसी किसी का परिचय इस कोष में दिया जाएगा। चूँकि "स्पेन" यूरोप महाद्वीप में स्थित है; श्रतः इस मुल्क के हकीमों एवं वैद्यों को पश्चिमी हकीम भी कहते हैं । अन्दाब andab - अ० व्रण चिह्न, क्षतों के दाग | श्रन्दाम andám- अ० शरीर; श्रवयव; रूप | ( Body, an organ.) श्रन्दाम दाना andam-daná- फा० तर्जनी अँगुली । फोर फिङ्गर Fore Finger- ई० । श्रन्दाम पेश andám-pesha श्रन्दाम शर्म andám-sharma - फा० स्त्री गुह्य भाग, भग । श्रन्दामनिहानी, शर्मगाहे मर्द या औरत - अ० । ( Pudendum, Vulva). अन्दिका andiká- सं० स्त्री० चुल्लि । श्र०टी० । See-Chulli. अन्दनी andrani - सम्हालू, निगुण्डी । (Vitex Negundo.) । इं० है० गा० । For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1०ह० व० । ३६३ अन्धसुदर्शक अञ्जनम् अन्य: andhah-सं० त्रि. (१) नेत्रहीन, के स्तर को नहीं पीवे ) तथा अतिसार, खाँसी, अंधा ( Biind)। -को० (२) तिमिर, हिचकी, वमन और ज्वर इनसे पीड़ित हो, वर्ण अंधकार ( Darkness.)। मे० धद्विकं । बिगड़ जाए, सोते समय नीचे को मुख करके (३)(न्धस् ) अन्न। रा०नि०प०२०। सोए, खट्टी खट्टी गंध श्राए, ऐसे बालकको अध ( ४ ) जल ( Vater )। भरतः । (५) पूतना से पीड़ित कहते हैं। भात, प्रोदन, भक्त (Boiled rice )। चिकित्सा-तिक द्रुम अर्थात् निम्बादि तिक वृ०नि० २० कृ०व०।। रसयुक्क वृक्षों के पत्र से सिद्ध किए हुए जल से श्रन्धकः andhakah-सं०पू० तुम्वुरू, धनियाँ। स्नान, सुरादि साधित तेल तथा पिप्पली श्रादि (नेपाली) । (Xanthoxylon natum) द्वारा साधित घृत के उपयोग द्वारा उपयुक्त भा० पू० १ मा० ह० व० । सम्पूर्ण विकार शमन होते हैं। सु० उ० २७ । अन्धकाकः antha-kākah-स. पु. (A | ३३ अ०। bird. ) काकाकार पक्षी । पानकौड़ि-बं० । अन्धमूषा andha-musha-सं० स्त्री० पौषध भेदाजुया-म। त्रिका० । पाकाथ यन्त्र विशेष । इसे वज्रमूषा भी अन्धकारः andha-kārah-सं० पु. अँधेरा, कहते हैं। श्रालोकाभाव ( Darkness )। इसके निम्न विधि-दो भाग तिनकों की भस्म, एक भाग पर्यायवाची शब्द हैं, जैसे-ध्वान्तं, तमिस्र, बाँबी की मिट्टी, एक भाग लोह किट्ट, एक भाग तिमिरं, तमः (१०), भूच्छायं (रा०),अंधतमासं सफ़ेद पत्थर का चूरा और कुछ मनुष्य के बाल पंधतामसं, सन्तमम, श्रवतमसं । गुण- डालें। सब को एकत्र कर बकरी के दूध में भय, दृष्टि, तेज तथा अवरोधकारक और रोग- प्रौटा दो पहर पर्यन्त अच्छी तरह घोटें, पीछे जनक | राज०। उस मिट्टी का गौ के थन के सदृश गोल और नोट-महाअंधकार को अधतमस, सर्व- लम्बी मूषा बनाएँ । पीछे इसका ढकना बनाकर व्यापी वा चारों ओर के अधकार को संतमस धूप में सुखा इसमें पारा भर ढकने से ढक दें और थोड़े अंधकार को अवतमस कहते हैं। और सन्धियों को उसी मिट्टी से बंद करें। यह (२) उदासी । कांतिहीनता । पारा मारने को वज्रमूषा कहा है। इसी को श्रधअन्धकृपः andha-kāpah-सं० पु. (१)| मूषा कहते हैं। र० सा० सं० । कश्चिदत्रिः। मोह ( Loss of consciousness or | अन्धमूषिका andha-mushika-सं० स्त्री० sense)। (२) अधा कुआँ । ( A blind (१) देवताड़ वृक्ष । (See-Devatara)। well) (२) तृण विशेष । ( A grass.) श० च० । अन्धतमस and ha-tamasa-हिं० पु. अत्य अन्धरन्ध्रम् andha-randhram-सं० क्ली० न्त अन्धकार । ( Great darkness ). अन्नपुट छिद्र । ( Foramen cecum). अन्धता andhatā-सं० स्त्री० (१) पित्तरोग अन्धला undhala-1-हिं० वि० श्रचतु, बिना ( Biliary disease ) । वै० निघः। अन्धा andhā- आँख का । ( Blind) (२) अन्धापन । ( Blindness) अन्धपुष्पी andha-pushpi-हिं० संज्ञा स्त्री० अन्धस्थानम् andha-sthānam-सं० क्ली. । अन्धस्थान and hasthāna-हिं० संज्ञा पु. ) अन्धाहुली, अर्क-पुष्पी, अर्काहुली। अँधेरा स्थान । ( Blind spot). अन्धपतना andha-putana-सं०स्त्री० बालक | अन्धसदर्शक अञ्जनम् andha-sudarshaka ग्रहपीड़ा विशेष | इसके लक्षण निम्न हैं, यथा anjanam-सं० क्ली० कृष्ण सर्प १, काले जो बालक स्तन से द्वेष रक्खे (अर्थात् माता | बिच्छु ४ लेकर एक दूधके कलश में २१ दिन पर्यंत For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्धाहिः अन्धुक के देत कर मथें । उसमें से निकाले हुए मक्खन को मुर्गे को खिलाकर पुष्ट करें। उसका बीट ले अञ्जन करने से अन्धता दूर होती है । वं० से. सं० नेत्र रो०चि०।। अन्धाहिः andhahih-सं०० कुचिया मीन । कूँचेमाछ, जल मेटे-बं० । त्रिका०। अन्धाहुलो andhāhuli-सं० स्त्रो० अाहुल्य नामक शिम्बी-फल वनस्पति विशेष । भुज्जित खड़-हिं० । तरवड़-काश०, मह । See-a hulyam. अन्धाहिक and hāhika-अन्धा साँप । एक प्र प्रकार का साँप । कौटि० अर्थ। अन्धिका and hikā-सं० स्त्रो० (१) सर्षपी, स फेद सरसों । (२) स्त्री विशेष । (A woman) मे० कत्रिकं । (३) नेत्र रोग विशेष ( An eye-disease. ). अन्धियार,-रा andhiyara,-ra-हिं. पु. अंधेरा । ( Dark, darkness). अन्धुक andhuka-हिं० पु. जंगली अंगूर-दः । श्रामोलुका-बं० । इण्डियन वाइल्ड वाइन Indian wild vine )-ई० । वाइटिस इण्डिका (Vitis Indica, Linn.)-ले०। विग्नी डी' इण्डी ( Vigne d' Inde) -फ्रां० । युवाँस डास ब्युगिॉस ( Uvas dos bugios )-पुर्तगा० । शेम्बर-वल्लि --ते. । चेम्पार- वल्लि -मल० । राण-द्राक्ष, कोले जान-मह० । साव-सम्बर-को० । द्राक्षावर्ग (N. 0. Ampelideæ ) उत्पत्तिस्थान-पश्चिम प्रायदीप, मध्य भोरतवर्षीय पठार,बङ्गाल,मालाबार तथा ट्रावनकोर । वानस्पतिक-विवरण-यह एक वृहत् श्रारोही पौधा है जिसमें चिरायु (बहुवर्षीय ) कंदमूल होता है । उक्त पौधे के पत्र पुष्प तथा समग्र भाकृति द्राक्षा का स्मरण दिलाती है । इसका मूल कन्द के वृहद् गुच्छों का समूह है जो माध्यमिक मूल-तन्तुसे लगा रहता है। कंद एक से दो फीट लम्बे, शक्काकार ( दोनो सिरों पर ), ताजे | होने पर अधिकाधिक व्यास (चौड़ाई ) २-३ इंच; बाहरसे वे धूसर वर्णीय ऊर्ध्वचर्म से श्रापछादित होते हैं जिन पर वृत्ताकार घेरों में स्थित सूचम मस्सावत् उभार होते हैं। भीतर से वे रक वर्णीय एवं सरस होते हैं । परत (पन्ना) काटने पर एक स्थूल घेरा युक्र त्वक् भाग सरलतापूर्वक पृथक किए जाने योग्य और माध्यमिक मजामय भाग चुकन्दरबत् दीख पड़ता है। सूक्ष्मदर्शक से जड़ की परीक्षा करने पर वह पतली दीवार के पैरेन्काइमा ( Parenchyma ) से बने दीख पड़ते हैं जिनके कोषों में बृहदायताकार श्वेतसारीय कण तथा सूच्याकार रवों के असंख्य गढे ( Bundles ) होते हैं । मूल तथा मूल त्वक् के बाहरी भाग में असंख्य बड़े बड़े कोष्ठ होते हैं। __ स्वाद-कुछ कुछ मधुर, लुभाबी तथा कपैला। कंद चूर्ण तथा पांशु ( Potash) लवणे से पूर्ण होते हैं । ताजी अवस्था में प्रॉग्ज़लेट अॉफ लाइम की सूचियों द्वारा उत्पन्न यांत्रिक क्षोभ के कारण वे चरपरे होते हैं। इतिहास तथा उपयोग-रहीडी के मत से इसकी जड़का रस नारियलके मजाके साथ रोधो द्घाटक ( Depurative ) तथा शर्करा के साथ रेचक रूप से व्यवहार किया जाता है। कों. कण के दिहाती लोग इसके क्वाथ को 1 से । पाउंस की मात्रा में परिवर्तक रूप से भी प्रयोग __ उनका विचार है कि यह रक शुद्धिकर्ता, मूग्रल प्रभावकर्चा और सावों (की क्रिया ) को स्वस्थता प्रदान करता है। गोवील (बं०) Vitis latifolia का कंद भी उसी हेतु उपयोग में आता है। (फा० ई. १ भा०। ई० मे० मे०) इसके मूलस्वरसको तैलके साथ मिलाकर चक्षु रोगोंके लिए एक उत्तम प्रलेप प्रस्तुत करते हैं । और नारिकेल दुग्ध के साथ मिलाकर इसको कारबंकल तथा अन्य प्रकार के दुष्ट व्रणों पर लगाते हैं। ई० मे. मे० । यह परिवर्तक तथा मूत्रल है । ई० डू० इ०। For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६५ अन्धुलः अन्धुल andhulah - सं० पु० अन्धुल andhula - हि० संज्ञा पुं० शिरीष वृक्ष, सिरिस का पेड़ ( Albizzia lebbeck.)। श० ० । अन्धेरा,-रीं andherá, ri - हिं० पु०, स्त्री० अंधियारा | ( Darkness). श्रन्नम् annam-सं० क्ली० अन्न anna - हिं• संज्ञा पु ं० ( १ ) Grain, Corn शस्य, अनाज, नाज, धान्य | दाना, ग़ल्ला । ( २ ) ( Food material ) खाद्य पदार्थ, व्रीहि एवं यत्र आदि खाद्य द्रव्य मात्र | चर्य, चोष्य, लेह्य और पेय भेद से यह चार प्रकार का होता है | किसी किसी ने निष्पेय, निः चर्व्वण, चोप्य और श्रखाद्य इन चार और भेदों को मिलाकर इसको ८ प्रकार का लिखा है। I राजनिघण्टुकार भी चयं श्रादि भेद से अन्न को ८ प्रकारका लिखते हैं । रा० नि० व० २० । ( ३ ) पकाया हुआ ( अन्न) । भक्त । भात | संस्कृत पर्याय - भक्त, अन्धः, भिस्मा (टी), श्र, कसिपुः, जीवातुः (ज), क्रूरं (रा), जीवनकं (हे ), कूरं श्रपूष्टिकं जीवंति, प्रसादनं ( शब्द र० ) । इसको पाँच गुने जल में पकाना चाहिए । अन्न पंच गुण में सिद्ध करणीय है । च० द० ज्वर० चि० । प० प्र० २ ख० । स्विन तण्डुल | पक्कचावल (Boiled rice ) । गथासतुष (भूसीयु ) अनाज को धान्य और तुषरहित पक्क को श्रन्न कहते हैं, खेत में जो है। उसको शस्य और तुषरहित को कच्चा कहा है । वशिष्ठ । जिस प्रकार जलदान ( जल की मात्रा) के अनुसार अन्न के चार भेद होते हैं । उसी प्रकार भक्त, वि. लेपी, यवागू और पेया भेद से भक्त चार प्रकार का होता है। प्रयोग रत्नाकरः । अन्न के गुण अग्निकारक, पथ्य, तर्पण, मूत्रल, और हलका | बिना धोया हुआ और बिना माँड निकाला हुश्रा श्रन्न - शीतल, भारी, वृष्य और कफजनक है । भली प्रकार धोया हुआ श्रन्न -- उष्ण, विशद और गुणकारक है । भूजिया चावल का भात - रुचिकारक, सुगंधि, कफन और हलका है । अत्यन्त गीला Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অन ग्लानिकारक और तण्डुलान्वित दुर्जर हाता | मद० ० ११ । ६ । अम्लधान्य में पकाया हुश्रा भक्त लघु, श्रग्निप्रदीपक और रुचिकारक । वै० निवः । मथित युक्त भक्त-स्वादु शीतल, रुचिकारक, अग्निदीपक, पाचक एवं पुष्टिकर है तथा ग्रहणी, अर्श और शूल नाशक है । रात्रि में खाया हुआ श्रन्न - रुचिकारक, तृप्तिजनक, दीपन और अर्श का नाश करने वाला है। मुद्द्रयूष युक्त अन्न- कफज्वर, और शर्करा मिला हुत्रा ज्वर में हित है । लाज भक्त - लघु, शीतल, श्रग्निजनक, मधुर वृष्य, निद्राकारक, रुचिजनक और व्रणशो धक 1 यवान ( यत्र ) - भारी, मधुर, वृष्य तथा स्निग्ध है और गुल्म, ज्वर, कण्ठरोग, कास और प्रमेह नाशक है । खेचरान्न ( खिचड़ी) - तर्पण, भारी, ॠष्य और धातुवर्धक है । यौगन्धरान ( यावनालान्न श्रर्थात् ज्वार का भात) - भारी, घन तथा कास और श्वास की प्रवृत्ति करने वाला है । कोद्रवान ( कोदों का भात ) - रुचिकारक, मधुर, मेहनाशक और मूत्र विकार नाशक तथा तृषनाशक है और वमन, कफ, वात एवं दाह नाशक है । श्यामाकान्न ( सावाँ का भात ) - रुचिकर, लघु, रूत्र, दीपन, बल्य एवं वातकारक है और प्रमेह, गलरोग तथा मूत्रकृच्छ नाशक है । नोवारान्न - रुचिप्रद, लघु, दीपन, गुरु तथा वातकारक है । और यकृत, प्लीहा, श्वास एवं व्रणनाशक 1 कुलत्थान ( कुलथी ) – मधुर, रुक्ष, उष्ण, लघु, पाक में कटु तथा दीपन है और कफ, वात, कृमि रोग और श्वासनाशक है । माषान्न ( उड़द ) – दुर्जर (कठिनतापूर्वक पचने वाला ), भारी, मांस वर्द्धक और वृष्य तथा वातनाशक है । For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्न अन्नजम् शिम्ब्यन्न मधुर तथा रूक्ष है और वात अन्नअनउल अज़र anmaanaanl-akhzar पिन प्रकोपक है। -अ० पुदीनारूमी, पुदीनासुम्बुली | Spearवैदिलान--भारी और रुचिकारक mint (Mentha viridis )। म० अ० श्राहक्यन्न (अरहर)-भारी है तथा कफ पेत्त । डॉ०२ भा०। नाशक है। अन्नश्शन उल मुजा अद annaanaau].muj. मत्स्यौदन ( मीन रक भक्क, मछली का aaainda-अ० पुदीना पेचीदा । (Mentha पोलाव)- कफकारक,त्रिदोषजनक और मन्दाग्नि- crispa ). कारक है। अन्नअनाउल फिलफिली . annaanaaulशाकान-लेखन, रूक्ष तथा उष्ण है और filfili-अ० पुदीना फ़ि फ़िली, पुदीना दोपद्रावक अर्थात् दोपों को पतला करने पिप्पली । Peppermint ( Mentha वाला है। piperata ). मांसोदन ( मांस सिद्धौदन, मांस का अन्नअ नाउल बर्गे annaanaaul-barriपोलाव)-धातुवद्धक , स्निा ध और भारी है। अ० पुदीना बरी, अरण्य पुदीना । Horse. पलान्न (फलान)-रुचिकारक, भारी और 1 mint (Mentha sylvestris ). फल के समान गुण वाला है अर्थात् जिस फल में अन्नअ नाउल माई annaanaaul-mai-अ० वह तय्यार किया गया है उसी के समान गुण पुदीना नहरी । ( Mentha aquatica). करता है। अन्न नाउल मुस्तदोरुल श्रीराक annaana। साधारण साठी चावल का भात-दीपन, aul-mustadirul-our aqa-अ० गोल वल्य, पाचन, त्रिदोषनाशक तथा क्षय और पत्रीय पुदीना। (Mentha rotundi. विष का नाश करनेवाला है। folia). . नवान्न(नवीन अन्न)-मधुर, स्निग्ध, गुरु तथा | 997 art annaānáāurrúmí-70 मलस्तम्भक अर्थात् मलावरोधक है और रक्क, पित्त पुदीना रूमी, पुदीना सुम्बुली । Spearmint नाशक है। (Mentha viridis ). उष्णान्न (गरम)-दीपन, लघु, मकारक अन्नकालः annakalah-सं० पु. भोजन का तथा मदात्य य, रक्तपित्त, प्रमेह और वातकारक - समय, श्राहार काल | रस,दोष तथा मलोंका परिहै एवं कास, श्वास, कृमि, प्राध्मान, गुल्म, पाक होनेपर जबही सुधा प्रतीत हो चाहे वह काल जड़ता, क्षत और कास का हरण करनेवाला है। वा अकाल हो वही अन्नकाल अर्थात् भोजन का शीतान्न (शीतल )-शीतल तथा लाला समय कहा गया है । भा० । स्रावक है और मन्दाग्नि, प्रमेह, मूर्छा श्रादि का हरण करने वाला है । वै० निघ० । अन्नकोष्ठः annakoshthah-सं०० कोटिला, क्लिन्नान्न (गीला अन्न)-दुर्जर ( कठिनता से खाता, तण्डुल धान्य श्रादि सुरक्षित रखने का पचने वाला) और ग्लानिकारक है। ___ अाधार । ( A storehouse ) गोला, बराई (४) वह जो सबको भक्षण वा ग्रहण करे। -बं । (Omnivorous ) हमा खोर--फ़ा । प्राकिलु- अन्नगंधिः annagand hih-सं० ५० अतीसोर साइरिल माकूलात- अ० । रोग, मलभेद। हगवण-मह । ( Diarr(५) सूर्य (The sun ). hea ) त्रिका०। (६) पृथ्वी ( The earth ). अन्नजम् annajam-सं० वी० दिवसिकान्नमण्ड (७) प्राण (Prana ). तीन दिन का भक्त मण्ड (भात का मॉड़)। तिन (८) जल (Water). दिव सांची शिलीपेज-मह०। For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नजल अन्नप्राशन अन्नजल anna.jala 1 --हिं० पु. अन्नपानी, | अन्ननाड़ी anna-nari-सं स्त्री. ( (Fsoअन्नपानी annapani खाना पीना । ( Vict- phagus ) अन्नपाक नाड़ी। यह कला एवं uals & drink.) पेशी द्वारा निर्मित और २० हाथ लम्बी होती भन्नजा anna jā-सं० स्त्री० हिक्का का एक भेद ।। है। इसका काम अन्न पचाना है, इसलिए इसको (A kind of hiccup ). पाक नाड़ी कहते हैं। इसके ऊपर के भाग का लक्षण- अत्यंत अन्न पानी के सेवन करने से नाम मुख और नीचे का नाम गुदा है। इसमें एक साथ प्राणवायु दबकर ऊर्ध्वगति होकर कर से प्रामाराय तक जो भाग है उसको अन्न(हिक हिक) शब्द करती है। उसको वैद्य नाडा कहते हैं। प्रायः। देखो-अन्न अन्नजा हिक्का कहते हैं। भा० म० ख०२।। प्रणाला । अन्नदोष annadosha-हिं० सज्ञा पु० [सं०] अननालो,डो ann anali-सं० स्त्रो० (१) (१) अन्न से उत्पन्न विकार । जैसे, दूषित अन्न (Alimentary canal wlth its खाने से रोग इत्यादि का होना । (२) निपिद्ध appendages) अन्नप्रणाली । (२) स्थान वा व्यक्रि का अन्न खाने से उत्पन्न दोष ( Alimentary system ) पाचक 'वा पाप । संस्थान। अन्नद्रवशूल:annadravashilai अन्नन्नस annannasa-६० अनन्नास । अन्नद्रवशूलanmadirava-shāla-हिं०संज्ञापु' । (Ananas sativus ) । मो० श० । परिणाम मूल, पेट का वह दर्द जो सदा अन्नप्रणा (ना) लो annaprana,-na, li-सं० बना रहे, चाहे अन्न पचे या न पचे और जो पथ्य स्त्रो० अन्ननाड़ी । (Esophagus, gullet, करने पर भी शांत न हो। लगातार बनी रहने Digestive tube) मरी-० । वाली पेट की पीड़ा। इसके लक्षण निम्न प्रकार | अन्नपणाली annapranali- हिंस्त्री० (Esoहैं, जैसे--भोजन के पचने पर या पचते समय phagus) गला या कंठसे प्रारम्भ होकर आमाअथवा अजीर्ण हो अर्थात् सब काल में जो शूल शय या पाकस्थली पर अत होने वाली एक नली उत्पना हो उसको "अन्नद्रवशूल" कहते हैं। विशेष। इसकी लम्बाई १०६च के लग ग यह पथ्यापथ्य से भोजन करने या नहीं भोजन होती है; ग्रीवा और वक्ष में होती हुई यह उदर करने प्रभति नियमों के द्वारा शांत नहीं होता । है और अन्नमार्ग के तीसरे भाग से इससे तब तक चैन नहीं पड़ता जब तक वमन जा मिलती है। अन्न प्रणाली में किसी प्रकार के द्वारा पित्त नि:सरित नहीं हो जाता। मा० का पाचक रस नहीं बनता । इस नली का काम नि० । देखो --पङ्क्ति शूलः। केवल भोजन को कंट से आमाशय तक पहुँचाने अन्नद्रवशूलनाशक anadiava-shulana shaka-हिं० वि० पु. पंत्रिशूलहर । अन्नप्रणाली का अधोभाग annapranali-ka अन्नद्रवाख्यः :madhavākhyah-सं० पु. -adhobhāga-हिं० पु. ( Lower अन्नद्रवशूल । मा०नि० । end of (Esophagus ) आहार के अन्नद्वेष ammadvesha-हिं० सज्ञा पु० [सं०] मार्ग का मेदे के ऊपर का हिस्सा | [वि. अन्नद्वेषी ] अन्न में रुचि न होना । अन्न अन्नप्रणालोपरिखा annapranali-parikha में अरुचि, भूख न लगना । ( Disgust) -हि० संज्ञा स्त्रो० ( Groove for @soअन्नधर कला annadharini kala-हिं० स्त्री० phagus ) वह नली जिसमें अन्नप्रणाली पड़ी (१) (Pyloric valve) प्रामाशय रहता है । दक्षिणांश कपाट । (२)(Pyloric sphi- अन्नप्राशनम् annaprashanam-सं० की.1 nctor. ) श्रामा शय दक्षिणांश संकोचक । | अन्नप्राशन annaprashana- हि० संज्ञा पु.) For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वेदि ३६८ छठवें या आठवें महीने बालक का अन्न श्राहार करना । भा० । बच्चों को पहिले पहिल अन्न चटाने का सस्कार । चटावन । पसनी । पेहनी । (Ceremony of giving Farinaceous food to a baby for the first time ). नोट-स्मृति के अनुसार छठे वा श्राउवें महीने बालक को और पाँचवें वा सातवें महीने बालिका को पहिले पहिल अन्न चटाना चाहिए । अन्नवेदि annabedi - ता० हीराकसीस | (Ferri sulphas ) स० [फा० इं० । श्रन्नभेदि anna-bhedi - मल०, ते० की, हीराकसीस | Ferri sulphas (Sulphate of iron or green vitriol) फा० ई० । अन्नमण्डः annamandah - स० पुं० ( Rice gruel ) माँड, भक्तमण्ड, मण्ड, भात का माँड़ । मातेर माड़-बं० | देखो - मण्डः ( Mandah)। गुण-क्षुद्बोधक ( सुधा पैदा करता ), वस्तिविशोधक (मूत्रल), प्राणप्रद तथा शोणितवन्द्धक है । ज्वरनाशक, कफ पित्त नाशक और वायु नाशक है | ये गुण मण्ड ( माँड़ ) में पाए जाते हैं । च० द० अग्निमां० चि० । अन्नमयः annamayah - सं० पु० ( Physi cal body) स्थूल शरीर | देखो - शरीर | अन्नमयकोशः anna-maya-koshah-सं० अन्नविकार कृनात् हज़ मिथ्यहु- अ० । ग़िज़ा या हजम की नाली-उ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एलिमेण्टरी कैनाल ( Alimentary canal ), डाइजेस्टिव ट्रैक्ट ( Digestive tract ) इं० । शरीर की नलियों में से वह जिसमें पचने तक भुक पदार्थ रहता है। यह नली बहुत लम्बी होती है । इसका प्रारम्भ मुख से होता है । और इसका अन्त नीचे जाकर मलद्वार पर होता है । प्रौढ़ावस्था में मुख से मलद्वार तक मार्ग की लम्बाई २८ - २६ फुट ( नौ दस लगभग होती 1 अन्नरसः anna-rasah—सं० पु० (१) ( Rice - gruel ) मण्ड, माँड़, भात का माँड़, भक्कमण्ड | बैं० श० । ( २ ) आहाररस । ( Chyle ). गज ) के अन्न लिप्सा anna-lipsa - सं० स्त्री० न भोजन (खाने) की इच्छा, भूख, क्षुधा । ( Appetite, Hunger) बैं० निघ० । “प्रकृति गामिमनोऽन्न लिप्सा ।" च० द० । अन्नवहा annavahá सं० त्रो० धमनी युगज, नाहि स्रोत द्वय ( इनकी जड़ श्रामाशय और अन्नवाहिनी धमनी हैं)। इनसे भोजन किया हुश्रा श्रन्न उदर में पहुँचाया जाता है। सु० शा० ६ श्र० । go ( Physical body) वेदांत के अनुसार | श्रन्नवाहि पञ्च कोषों में से अन्तिम ( पाँचवाँ ) कोश विशेष ! ( यह पञ्चतत्वमय तथा त्रिगुणात्मक होता है ) अन्न से बना हुना त्वचा से लेकर वीर्य तक का समुदाय | स्थूल शरीर | देखो - शरीर | अन्नमल annamala - हिं० संत्रा पु० अन्नमलम् annamalam - सं० क्ली० (१) पुरीष मल, विषा ( Excrement, Faces) | (२) मद्य, सुरा, यव आदि अन्नसे बनी शराब | ( Wine ) वै० श० । अन्नमार्ग anna-marga - हिं० सञ्ज्ञा पुं० श्राहार पथ, अन्नपाक नाड़ी | कनात् ग़िज़ाइय्य, स्रोतः anna-vahi-srota h - सं० क्ली० गलनाड़ी, अन्नप्रणाली, कंडनलिका । (Esophagus ) गलार नली - बं० । वै० 1 श० । अन्नविकारः anna - vikarah - सं० पु० अन्नविकार anna-vikara - हिं० संज्ञा पुं० ( १ ) विष्ठा, मल ( Excrement, Fæces ) ! ( २ ) शुक्र, वीर्य ( Seminal secretion, semen ) | ( ३ ) भक़विकृति, Rice gruel) उण्ड, मांड़ । (४ परिवर्तित रूप । श्रश्न पचनेसे क्रमशः बनेहुए रस, रक्त, मांस, मज्जा, चरबी, हड्डी और शुक्र आदि । श्रन का For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नविपाक नाड़ी अंन्मस अन्नविपाक नाडी anna-vipakanari-सं. or female attendant on a स्त्री० (Esophagus) अन्ननाड़ी, पाकनाड़ी, child ). अन्नपणालो। श्रायः ।। अन्नेटो annatto-इं० सेन्दुरिया-हिं० । अन्नशेषः anna-sheshah-सं० पु. उच्छि- लटकन-बं०। ( Bixa orellana)-ले. ष्टान, जूा, छोड़ा हुआ भोजन । एटों भात-बं० ।। इं० मे० मे० ! फॉ० इं० १ भा०। (Food left or rejected). अनेटोवुश annatto-bush-इं० सेन्दुरिमा अन्नहीन annahina-हिं० वि० अन्न रहित । ___ -हिं०। ( Bixa orellana, Lisn.) (Destitute of food ). ___ -ले० । फॉ० इं० १ भा०। अन्ना anna-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० अम्ब] अन्नेस्ली स्पाइनस anneslea, spinous(१) धात्रिपति ( The husband of | a. nurse)। (२) धात्री, धाय, दाई, दूध | -ई० मखाना । ई० हैं. गा० । पिलाने वाली स्त्री (A midrrife)। अनेस्ली स्पाइनोसा anneslea, spinosa, [सं० अग्नि] एक छोटी अँगीठी वा बोरसी Dr. Wall. Included by Prof. जिसमें सुनार सोना आदि रखकर भाथी के द्वारा Lindley in plants "imperfectly तपाते वा गलाते हैं। known"-ले० मखाना । एक अप्रसिद्ध तुप अन्नाजीर्णम् annajirnam-सं० क्ली० (१) है। ई० हैं. गा०। प्रामाजीर्ण, भुक्र अन्न का अजीर्ण । भा० म०१ | | अन्नोदवहा annodavahā-सं० स्त्री० अन्न और जल को भीतर ले जाने वाली नली। भा० प्रामातीसा० । “अन्नाजीर्णात्पद्रुता: क्षोभ- | यन्तः ।" ( २ ) तन्नामक शूलरोग | अन्पल anpal-मल० कँवल, छोटा कमल, कुइअन्नाद annada-हिं० वि० अन्न खानेवाला, बेरा, कुमुदिनी-हिं० । नीलोफ़र-अ०, फा० । अन्नाहारी। (Nymphea Edulis, D. C.) स० अन्नाद्यम् annādyam-सं० क्ली० (१) अन्न, फा. इं०। भात । रा०नि० व०२०। (२) धान्य । अन्पा ज़म ampazham-मल० श्रमड़ा, अम्बाड़ा, अन्नाभेदि annābhedi-कना० हीराकसीस, आम्रातक,पारेका पेड़-हिं० । (Spondias कसीस-हिं०। ( Ferri sulphas)-ले। mangifera, Pers.) स० फा० इं० । स० फा० इ०। अन्फ़ anf-अ० ( Nose) नासिका--हिं० । więca arg: annávrita-váyuh-ho go इसके बहुवचन निम्न हैं, यथा-पानाफ़, उनूफ वायु के अन्नसे श्रावृत्त होनेपर भोजन करनेसे कुति श्रानिफ। में शूल होता है और अन्न के पचने पर वेदना की अन्फकह anfagah-अ० दाढ़ीकी बच्ची, निम्नोष्ठ शांति होती है । "भुक्रेकुदोरुजा जीर्ण शाम्यत्यन्ना और चिबुक के मध्य के केश | वृतेऽनले।" वा०नि० अ०१६। अन्फ़ख anfakh-१० प्रदाह युक्त प्राणी, वह अन्नाशयः annashayah-सं० पु. उदर।। मनुष्य जिसके अण्डकोष में प्रदाह हश्रा हो । (Abdomen ). अन्फ़स् anfas-अ० भ्रणवाह्यावरण। (Choअन्नास annasa-द० अनन्नास। (An rion ). अन्नासि annasi-सिं० अन्फल्बर्द anfulbarda-अ० शीताधिक्य, भनिनस anninas-गु० | anas sati- ठंडककी अधिकता । ( Excessive cold ). vus, Mill.) स० फा० ई०। अन्मस anmasa-यु० वस्ति-हिं० । मसानह. अनी anni-हिं० स्त्री० दाई, धात्री । (A nurse -अ०। ( Bladder )-इं० । For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्मिल अन्योन्यलङ्घनम् अन्मिल anmila विरुद्ध, विपरीत । (He te1' होकर फिर दूसरे से ब्याही जाए। इसके दो भेद अन्मेल anmela ) हैं-पुनभू और स्वैरिणी । ogenous ). अन्यभृत् anya-bhrit-सं० पु(१) कोअन्मिलह anmilah-अ० अंगुल्यान, अंगुली । किल, कोयल (Cuckoo )। हला०। (२) का अग्र पोर्वा । इसके बहुवचन-अन्मिलात वा काक ( a crow)। हे० च०।। अनामिल हैं । (The top of the finger.) अन्यभृतः anya-bhrjtah-सं० पु. कोकिल, अन्य alya-हिं० वि० भिन्न, पृथक, पर | (An- | कोयल (A cuckoo)। रत्ना०। other, different. ) अन्यलोहम् anya-loham-सं० क्ली० (Broअन्यकारुका anya-kāruka-सं० स्त्री० शकृत् | ___nze) कांस्यधातु, काँसा । वै० निघ० । कीट, पुरीषज कृमि, पाखाने का कीड़ा । हारा। अन्या anya-सं० स्त्री० हरीतकी, हरड ( Terअन्यतः anyatah-हिं० क्रि० वि० [सं.] ____minalia Chebula.)। वै० निघ०। (१) किसी और से । (२) किसी और स्थान अन्याब anyāb-अ० (ब०व०), नाब (ए. से, कहीं और से। व०) रदनक (Canine tooth)। अन्यत्र anyatra--हिं० वि० [सं०] और कहीं अन्येधु anyedyu-हि. क्रि० वि० [सं०] ( जगह ),स्थानान्तर । दूसरी जगह । वि० अन्येद्यक ] दूसरे दिन । अन्यतोपाक anyatopaka-हिं० संज्ञा पु० अन्येद्यक anyedyuka-हिं० वि० [सं०] दू.. [सं० अन्यतोवात ] दालो, कान, भौं इत्यादि में सरे दिन होने वाला । वायु के प्रवेश होने के कारण अखिो की पड़िा। अन्येद्यष्कः anyedyushkah-सं० पु० । अन्यतावातः anyatovatah-स० पु. अक्ष- अन्येद्युःज्वर anyedyuh jvara-हि.संज्ञापु" गत रोग विशेष (An eye-disease.)। उरस्थ श्लेष्मजन्य ज्वर विशेष | वह ज्वर जो जो वायु निज स्थित स्थान से अन्यत्र वेदना दिन रात्रि में एक समय प्राता है। मा०नि०। उत्पन्न करे उसे "अन्यतोवात" कहते हैं, जैसे यह एक प्रकारका मलेरिया (विषम वा शीतपूर्व) घांटी, कान, शिर, हनु और मन्या ( गर्दनं ) की ज्वर है जिसका दौरा हर रोज़ होता है। उक्त नसों में अथवा अन्य स्थानों में स्थित वायु भौवों ज्वर में एक बारी से दूसरी बारी तक २४ घंटे अथवा नेत्रों में तोद, भेद श्रादि पीड़ा करता है। अर्थात् एक दिन का अन्तर पड़ता है। इसलिए मा०नि० नेत्रसर्वगत रो। इसको रोजाना का बुख़ार (श्राहिक ज्वर ) भी अन्यपुष्टः anyapushtah-सं० पू० कहते हैं। वर्षा ग्टतु के बाद होने के कारण इस अन्यपुष्ट anyapushta-हि. संज्ञा पु. को मौसमी या फसली बुखार भी कहते हैं। [स्त्रो० अन्य पुष्टा ] (१) वह जिसका पोपण एकाहिक तप, एकतरा, जाड़ा बुख़ार-हिं० । रोअन्य के द्वारा हुआ हो। कोइल, काकपाली, कोकिल । The black or Indian जाना नौयती बुखार-उ०। तपे हररोज़-फा०। नायब, हुम्मा मुवाज़िबह-अ० । कोटिडियन Cuckoo ( Cuculus)। नोट-ऐसा कहा जाता है कि कोयल अपने फीवर (Quotidian Fever)-इं०। अंडों को सेने के लिए कौवों के घोसलों में रख | अन्योदय anyodalya-हिं० वि० [ स० । श्राती है। [स्त्री० अन्योदर्या ] दूसरे के पेट से पैदा । (२) परपालित, दूसरों के द्वारा पालित | 'सहोदर' का उलटा । अंन्यपूर्वा anya.purva-सं. स्त्री० दो बार अन्योन्य anyonya-हिं० सव० [सं०]परस्पर, ब्याही हुई । ( Twice married.) उभयता। (Reciprocal, mutual ). वह कन्या जो एक को ब्याही जाकर वा वाग्दत्त अन्योन्यलचनम् anyonya-langhanam For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्योन्याश्रय ३७१ अन्हैलोनियम लीवीनिमाई स्तः । -सं० लो० ( Decussation ) परस्पर एक ! Indica, Roxb. ( Bulb of-Indian दूसरेको पार करना ( काटना )। Squill ) स० फा० इं० । देखो-अरण्य अन्योन्याश्रय anyonyashraya-हिं० . पलाण्डुः । सापेत, परस्परका सहारा | एक दूसरेकी अपेक्षा । । अनसण्डा ansandri-तेल० खार-नैपा०। वेलअन्वय anvaya-हिं० संज्ञा पु० [सं०] [वि० वैलम्-ता०। (Acacia-Ferruginea, अन्वयी] । (१) परस्पर सम्बन्ध, । तारतम्य । D. C.)। (२) संयोग । मेल । (३) वंश । खानदान । अन्सारिशा ansarisha-बं० हुलहुल । प्रादित्यअन्वह anvah-हिं० पु. नित्य, प्रतिदिन । भक्का । ( Cleome Pen taphylla ). ( Every day ). इं.) मे० प्लां। अन्वाम anvāma-अ० (बह० व.), नौम अन्हैलोनियम् an halonium-ले० मस्केल (ए. व०) । निद्रा । नींद। ( Sleep, बटन्स (Muscale Buttons). narcosis, stupor ). अन्हैलोनियम लीवोनिश्राई Anhalonium अन्वाशनम् anvashanam-सं० क्ली० (१) lewinii-ले० । कर्मशाला । हला० । (२) स्नेह बस्ति (N. 0. Cactacea ) ( Oily enemata)। देखो-अनुवासन उत्पत्तिस्थान-वेस्ट इण्डीज़ । वस्तिः । प्रयोगांश-पुष्प । अन्वासन anvasana इंद्रिय व्यापारिक कार्य- इसका प्रारम्भिक अन्वासनम् anvasanam-सं० क्ली० प्रभाव अवसादक होता है। इससे नाड़ी-स्पन्दन अनुवासन, स्नेहवस्ति । ( Oily ene- निर्बल एवं शिथिल होजाता है । (प्रायः ४० प्रति mata ). मिनट से न्यून) और शरीर वाह्य तल शीतल पड़ अन्याहिकः anvahikah-सं० त्रि. प्रात्यहिक, जाता है। प्रहर्षण (या शिश्नोत्थान) बिना प्रति दैनिक, रोजाना । ( Daily, quoti- वीर्य स्खलित होता है । . dian.) उपयोग-सिरिअस (Cereus grandअन्वित anvita-हिं० वि० [सं०] युक्र, मिला iflorus and cereus "cactus" हुश्रा, सहित, शामिल | bonplandii) की अपेक्षा यह कहीं उत्तम हृदोअन्शर anshara-अ० मदार, पाक । ( Ca. त्तेजक तथा उत्तम घन हृदयबलप्रद श्रोषधि है। lotropis gigantea ). उग्र हृच्छूल,फुफ्फुसौष,श्वासावरोध में कदाचित् २ अन्स aansa-अ० अर्जुन । ( Terminalia या ३ बुद इसके तरल सत्वको जब तक कि लाभ Tomentosa or Arjuna ) प्रदर्शित न हो, कभी कभी उपयोग में लाना चाहिए; तदनन्तर बढ़ाने के स्थान में थोड़ी अन्सल aansal -अ० विलायती अन्सलान aansalana jकाँदा । विला मात्रा उपयोग में ला सकते हैं। इसके उपयोग यती जंगली काँदा-हिं० | पियाजे दश्ती-फा० । से उत्थान बिना वीर्य स्खलित होने लगता है। Scilla (Squill ) स. फा० इं० । अस्तु, उक्त अवस्थाओं में इसके विरामरहित देखो-अरण्य पलागडुः । । अधिक कालीन उपयोग से बचना चाहिए। अधिक वातल प्रकृति वाले व्यकियों में इसका अन्सले-हिंदी aansale hindi-अ० काँदा, उपयोग चतुरतापूर्वक करना चाहिए । शिथिल जंगली पियाज़-हिं०। पियाजे दश्तो हिन्दी--फा० (कफ), लसीका या रक्त प्रकृति वालों में यह Urginea Indica, Kunth.: Scilla अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग में लाइ जा For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वान्त्रयम् अपगत सकती है । डिजिटेलिस की यह उत्तम सहायक | अपकता apakka ta-हिं० स्त्री० अपक्वता, कच्चाश्रोषधि है । ( पी. वी० एम०) पन । ( Immaturity ). अन्वान्प्रयम् anvantrayam-सं० क्ली० अपक्रम apakrama-हिं० संज्ञा० पु. आँतों में उत्पन्न होने वाले विशूचिका के कीड़े । [सं०] भागना, छूटना | व्यतिक्रम. क्रमभंग, अथर्व० । सू० ३१ । ५ । का०२। अनियम | अन्वीक्षण anvikshana -हिं० संज्ञा पु[सं०] | श्रपक्रोता apakrita--सं०वि० दर देश से द्रव्य के (१)ध्यान से देखना । ग़ौर । विचार । बल से प्राप्त की गई । अथर्व । सू०७ । ११ । (२) अनुसंधान । तलाश । का० । अपक्व:apakvah--सं० त्रि. अन्वीक्षा auviksha-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] | अपक्व apakva-हि.वि. (१) (Unripe) (१) ध्यानपूर्वक देखना । (२) खोज, हूँढ़, बिना पका हुआ, श्राम, अशृत, अपक्क, कच्चा, तलाश। प्रसिद्ध । ५० प्र०। (२) ( Uudigested ) अप apa -उप० [सं०] उलटा; विरुदध, बुरा, विना पचा, अनात्मीकृत । अधिक । यह उपसर्ग जिस शब्द के पहिले प्राता | अपक्व कदलो apa.kva-kadali- सं० स्त्री० है उसके अर्थ में निम्नलिखित विशेषता उत्पन्न ( Unrip3-plantain )अपक्क रम्भा, कच्ची करता है। कदली( केला । । जुण केलें-मह० । काँचा कला (१) निषेध । उ०-अपकार । अपमान । -बं० । गुण--कच्चा केला मलस्तम्भ करने वाला (२) अपकृष्ट (दूषण )। उ०-अपकर्म । अर्थात् काबिज़, तिक, कषेला, स्वादयुक्र तथा अपकीर्ति। रूक्ष एवं रक्रपित्त और तृषानाशक है। प्रमेह, (३) विकृति । उ०-अपकुक्षि । अपांग। नेत्ररोग, रक्रातिसार तथा ज्वर नाशक है। वै० (४) विशेषता। उ..-अपकलंक। अप निघ०। हरण । अपक्व मांसम् apakva-mansam--सं० क्ली. अपक apaka-हिं० संज्ञा पु[सं० अप्=जल ] | ( Raw-flesh) प्रसिद्ध मांस, कच्चा मांस | पानी, जल | --डिं। गुण--कच्चा मांस रकदोपकारक और वातादि दोष अपकर्ष apakarsha जनक है ऐसा मांसविदों का मत है। वै. अपकर्षण apakarshana j-हसंज्ञा पु० निघ० । (१)नोचेको खींचना, गिराना, टानना । (२)| अपक वस्त apakva-vastu--सं० की. बहिर नायन, शरीर की मध्य रेखा से दूर | ( Raw objects) श्रसिद्ध वा अशृत लेजाना | Abduction, Drawing वस्तु । र०मा०। away from the median line ). अपक्वक्षारम् apakva-kshiram-सं० क्लो. (३) निराकरण हटाया जाना । ( Repul- ( Non boiled-milk ) अपक्व दुग्ध, कच्चा sion). दूध । गुण-यह अभिष्यन्दी और भारी होता है । अपकर्षणो apakarshani-सं० स्त्री०( A bd- अपग apaga--अ० कली का चूना, प्रशांत चूर्ण । uctor). बहिरनायनी, शरीर की मध्य रेखा से ( Calx, Lime, quick lime ). दूर ले जाने वाली। - ई. मे० मे०। अपक्क apakka !-हि. वि. कच्चा, अपूर्ण । अपगत apaga ta--हिं० वि० [सं०] (1)दूर अपक apakar ) गया हुश्रा, दूरीभूत, हटा हुआ, गत । (२) (Raw, unripe, imperfect, imm- पलायित, भागा हुआ, पलटा हुआ । (३) ature.) मृत, नष्ट । For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपगमनम् ३७३ अपची अपगमनम् apa.gamanam) --सं० अपगम apagama हि.पु (१) वियोग, अलग होना । (२) दूर होना, भागना । ( Diverging ). अपगामितन्तु: apagami-tantuh--सं. चेष्टा बहा नाड़ी ( Efferent Fibre )। अपघन: apaghanah.-सं०प०ङ्ग, शरीरा वयव । ( All organ) श्रम | अपघातः apaghā tah--सं० पु० अस्वाभाविक मरण । हत्या, बध, मारना, हिंसा । अपघातक apaghataka). अपघाती apaghati -हिं० वि० [सं०] घातक, विनाशक, विनाश करने वाला। अपगा apaga--सं० वि० अन्यत्र जाने वाला । अथर्व । सू० ३०।२ । का०२। अपंग apanga--हिं० वि० [सं० अपांग = हीनांग] (1) अंगहीन, न्यूनांग । (२)लँगड़ा, लूला। अ (ओ) पङ्ग ao-pang-बं० अपामार्ग, चिरचिरा । ( Achyranthes Aspera, Linn.) अपच apacha- हिं० संज्ञा पु० [सं० ] न पचनेका रोग । अजीर्ण । बदहज़मी । ( Dysp epsia) अपचय apachaya-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] टोटा, घाटा, क्षति, हानि । ( Loss, de trim ent)। (२) व्यय, कमी, नाश । अपचायितः apachāyitah-सं० पु. रोग, | व्याधि ( Disease) । अपवारः apachars h-सं० पु. ) अपचार apachara-हिं० पु. । (1) अजीर्ण ( Dyspepsia. ) (२) दोष, भूल ! (३) कुपथ्य । स्वास्थ्य नाशक व्यवहार । (४) कुव्यवहार ( An error ). अपचिताम् apachitām-सं0 क्लो० अप बुरे माद्दे के संचय से उत्पन्न । अथर्व० । सू० २५ । । १ का०६। अपची apachi-स० स्त्री० ( a kind of Serofula ) गण्डमाला नाम के कंठ रोग का एक भेद । कंठमाला की वह अवस्था जब गाँ पुरानी होकर पक जाती हैं और जगह जगह पर फोड़े निकलते और बहने लगते है। इसके लक्षण-घोड़ी की अस्थि, काँख, नेत्र के कोये, भुजा की संधि, कनपुटी और गला इन स्थानों में मेद और कफ (दूपित हो) स्थिर, गोल, चौड़ी, फैली, चिकनो, अल्प पीड़ा वाली ग्रंथि उत्पन्न करते हैं । श्रामले की गुठली जैसी गाँड करके तथा मछली के अण्डों के जाल जैसी त्वचाके वर्ण की अन्य गाँठों करके उपचीय. मान (संचित ) होती है इससे चय ( संचय) की उत्कषता से इसे अपची कहते हैं। __ यह अपची रोग खाज युक्त होता है, और अल्प पीड़ा होती है । इनमें से कोई तो फूटकर बहने लग जाते हैं और कोई स्वयं नाश हो जाते हैं, यह रोग मेद और कक से होता है। यदि यह कई वर्षों का हो जाए तो नहीं जाता। सु० नि. ११ अ० । अथ । सू०८३। ३। का०६। चिकित्साइस रोग में वमन विरेचन के द्वारा ऊपर और नीचे के अंगो का शोधन करके दन्ती, द्रदन्ती, निशोथ, कोसातकी ( कड़वी तरोई ) और देवदाली इन सब द्रव्यों के साथ सिद्ध किया हुश्रा घृत पान करना चाहिए । कफ मेद नाशक धूप, गर ड्प और नस्य का प्रयोग हितकारी है। नस (शिरा ) में नस्तर लगाकर रुधिर निकालें और गोमूत्र में रसौत मिलाकर पान कराएँ । अपची नाशक तेल (१) कलिहारी की जड़ का कल्क १ मा०, तेल ४ मा०, निगुरडी का स्वरस ४ भाग । इन सबको विधिवत् पकाएँ। नस्य द्वारा इसका सेवन करने से अपची रोग छूट जाता है । (२) वच, हड़, लाख, कुटकी, चन्दन इनके कल्क के साथ सिद्ध किया हुआ तेल पान करने से अपची निर्मूल होती है। (३) गौ, मेंढ़ा और घोड़े के खुर जलाकर राख करलें। इसे कड़वे तैल में मिलाकर अपची पर लेप करें। For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपच्छी ३७४ श्रपतानकः (४) काला सर्प वा अपने पाप मरा हुश्रा तथा वमन का सेवन न कराएँ; परन्तु कफ तथा कौवा इनकी राख को इंगदी के तेल में मिलाकर वायुसे घिरी हई उन श्वास को चलाने वाली नोलेप करनेसे विशेष लाभ होता है। वा० उ०। ड़ियों को तीक्ष्ण प्रधमन (तीक्ष्ण चूर्ण का नस्य) अ. ३० । देकर खोल दें। नाड़ियों के खुल जाने से रोगी अपच्छो apachchhi हिं० संज्ञा प० [सं० संज्ञा को प्राप्त होता है। नहीं+पक्षी पक्ष वाला] विरोधी, विपक्षी, शत्रु | अपतर्पण apatalpana--हिं० पु. भूखा रहना, वि. बिना पंख का, पन रहित । ___ लंघन ! ( Fasting ). अपजात apa.jata--सं० पु. वह संतान जो अपत apata--हिं० वि० [ सं० अ-नहीं+पत्र, पिताके अधम गुण रखती हो । अथर्व० । सू० प्रा० पत्त, हिं० पत्ता ] (१) पत्र हीन । बिना ६ । का० । पत्तों का । (२) अाच्छादनरहित, नग्न । अपञ्चीकृत apanchikrita-हिं० वि० पुं० अपतिः apatih--सं० स्त्रो० पतिहीन । अथवः । सूचम भूत । अपतर्पणम् apatarpan am-सं० क्लो० (१) अपटक apataka-हिं०वि० पु० हस्तपाद पक्षाघात अपतर्पण, लङ्घन, तृत्यभाव, भूखा रहना, उपग्रस्त (वातग्रस्त) । ( Paralytic) वास करना । (२) कार्य, कृशीकरण, स्थौल्यअपटन apatana-हिं० संज्ञा पु. देखो-उब- हरण, स्थूलता को दूर करना, दुर्बल करना। टन। यह दो प्रकार की चिकित्सानों में से एक अपटुः apatuh-सं० त्रि० अपटु-हिं० वि० है । इसका उलटा संतर्पण ( वृहण ) (१) रोगी, बीमार ( Diseased ) । रा० है। अग्नि, वायु और प्राकाशात्मक पदार्थ अ. नि०व० २० । (२) निर्बुद्धि, अनाड़ी। र्थात् उन महाभूतों से उत्पन्न हुई औषध अपअपडा apada--सं० स्त्री० अश्मन्तक वृक्ष । See- तर्पण होती है । इसके दो भेद होते हैं-(१) Asbman taka,-kah शोधनापर्तण। वह जो शरीरस्थ वातादिक दोषों अपण्य apanya--हिं० वि० [सं०] न बेचने को बाहर निकाल देता है। ये पाँच प्रकार के योग्य । होते हैं, यथा--निरूह (गुदा में पिचकारी अपतन्त्रः apa.tantrah लगाना ), २-वमन, ३-विरेचन, ४-शिरो विरे. श्रपतन्त्रक: apatan trakah | चन और ५ रसुति (फस्द खोलना)। स्वनामाख्यात वातव्याधि विशेष । एक रोग (२) शमनापतर्पण-वह औषध जो शरीजिससे शरीर टेढ़ा हो जाता है। लक्षण-अपने रस्थ वातादिक दोषों को बाहर नहीं निकालती कारणों (रूक्षादि) से प्रकुपित हुई वायु यदि अपने और अपने प्रमाण से स्थित वातादिक दोषों को निज स्थान को छोड़ ऊपर जाकर हृदय को पी- उत्क्लेषित भी नहीं करती, प्रत्युत विषम दोनों ड़ित करे, फिर मस्तक और कनपुटियों में पीड़ा को समान भाव में ले पाती है। उसको संशमन करे, शरीर को धनुष के समान टेढ़ा कर दे तथा औषध कहते हैं । यह सात प्रकार की होती है, कम्पित करे और चित्त को मोह युक्त करदे, रोगी यथा-पाचन, दीपन, सुधानिग्रह, तृष्णानिग्रह, बड़े कष्ट से श्वास ले, आँखें चढ़ी रहे अथवा व्यायाम, पातप और वायु । वा० सू०प्र० उपर को लगी रहें, कबूतर के समान शब्द करे १४ । हारा० । च० द० रक्रपित्त-चि०। और बेसुध हो जाए. तो उसको अपतन्त्रक रोग (३) व्रण के उपशमनार्थ प्रारम्भिक उपक्रम | कहते हैं । मा०नि० वा० व्या। . सु० चि० १ ० । चिकित्सा-अपतन्त्रसे पीड़ित मनुष्यकी तृप्ति | श्रपतान: apatanah) विरुद्ध क्रिया न करें और कभी भी निरूहवस्ति | अपतानकःapatana kahS संज्ञा पु१ For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपत्यम् ३७५ अपथ्य ज्वरो स्वनामाख्यात वातव्याधि रोग विशेष एक रोग जो अपत्यपथ: apatya-pathah-सं० स्त्रियों को गर्भपात तथा पुरुषों को विशेष रुधिर योनि ( Vagina)। हे० च०।। निकलने वा भारी चोट लगने से हो जाता है। अपत्यशत्रुः apatya-shatruh-सं० ०, इसमें बारबार मूच्र्छा पाती है और नेत्र फटते हिं० संज्ञा पु० जिसका शत्रु अपत्य वा संतान हैं तथा कंठ में कफ एकत्रित होकर घरघराहट हो । कर्कट, केंकड़ा । ( Crab) श०च० का शद करता है। नाट-अंडा देने के बाद केकड़ी का पेट फट लक्षा-वायु कुपित होकर मनुप्य की दृष्टि- जाता है और वह मर जाती है । (२) अपत्य शनि एवं संज्ञा को नष्ट कर देती. कण में घुरघुर का शत्रु । वह जो अपने अंडे बच्चे खाजाए। शब्द करती है और जब वायु हृदयको त्याग देती साँप । है तब सुख होता है और जब पकड़ लेती है तब अपत्यसिद्धिकृत् apa tya-siddhi-krit-सं० फिर बेहोशी हो जाती है । इस दारुण रोग को पु. ( Putra.jiva_Roxburghii) अपतानक कहते हैं। मा० नि० वा० व्या० । पुत्र जीव वृक्ष । देखो-पुत्रजीवः । वै० निघ। असाध्यता-गर्भ की उत्पत्ति से एवं रुधिरके बहुत निकलने से उत्पन्न हुआ और अपन apatra-हिं० वि० पत्र रहित. बिना पत्तों का। अभिघात से उत्पन्न हुश्रा "अपतानक" नहीं आरोग्य होता। श्रपत्रवल्लिका apatra-vallika-सं. स्त्री० महिषवल्ली, सोमलता विशेष | लघु सोमवल्ली चिकित्सा-अपतानक रोगसे पीड़ित मनुष्यों -म० । रा०नि०व०३। See--Mahisha. के नेत्रों में से यदि पानी बहता हो, कम्प नहीं valli होता हो और खाटपर न पड़ा हो तो इससे पहले अपना apatra-सं० स्त्री पुष्प वृक्ष विशेष । ही तत्काल चिकित्सा करनी चाहिए। दशमूल महाराष्ट्र में यह "नेवती" नाम से प्रसिद्ध है। डालकर पकाया हुश्रा पानी अपतानक रोगी के व०निघ०। लिए हित है । तेल की मालिश,स्वेद और तीक्ष्ण अपतृष्णा apatrishna-सं० स्त्री० व्यर्थ नस्य द्वारा स्त्रोतोंके शोधन के पश्चात् घी पिलाना लालच । हितकारक है। विशेष देखो-वात व्याधि। अपथम् a pathana-सं० क्ली. अपथ-हिं. अपत्यम् apatyam--सं० क्लो० संज्ञा पु० (१) योनि । ( Vagina) अपत्य apatya--हिं० संडा पु. श० र० । (२) कुमार्ग, बुरारास्ता । (A bad सन्तान,पुत्र वा कन्या । (Offspring,male road) or female ). श्रपथ्यम् apthyam--सं० त्रि० अपत्यकामा upatyakāma--हिं० वि० स्त्री० अपथ्य apathya-हि० वि० पुत्र की इच्छा रखने वाली । जो पथ्य न हो । स्वास्थ्य नाशक । ( Indigeअपत्यजीवः apatya-jivn h--सं० पु. stible, unwholesome )। ( Putranjiva Roxburghii ) ga __ सं० क्ली०, हिं० संज्ञा पुं० (१) व्यवहार जीव वृक्ष । जियापुता गाछ: बं०। रा० नि० जो स्वास्थ्य को हानिकर हो । रोग बढ़ाने वाला व० ६ । देखो--पुत्रजी (ओ) वः। पाहार विहार । अपत्यदा apa tyada-सं० स्त्री० पुत्रदालता, (२) अहितकर वस्तु । रोग बढ़ाने वाला भोजन । लक्ष्मणा । ( sec-putrada )। रा०नि० अपथ्य ज्वरः a.pathya-jvarah-सं० पु. व. ४। कुपथ्य से होने वाला ज्वर । अपथ्य और मद्य For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपद ३७६ जन्य हेतु ज्वर के हेतु पित्त को प्रकुपित करते हैं, जिससे दाह, शैत्य, शिरःशूल और कोष्ठ की वृद्धि, तीव्र वेदना, खुजली, मल का अधिक निकलना अथवा उसका श्रत्यन्त बँध जाना श्रादि लक्षण पथ्य जन्य ज्वर में होते हैं । निघ० २ भा० ज्व० । वै० श्रपद apada-हिं० वि० श्रपद: apadah - सं० त्रि० } पादहीन, पंगु, कर्मच्युत (Lame)। - पु० बिना पैर के रेंगने वाले जंतु । जैसे, (१) सर्प, केचुश्रा, जोंक दि । ( २ ) सर्प ( Snake ) । -सं०स्त्री० श्रपदरुहा apada-ruhá पदरोहिणी apadarohini चन्दा । वांदरा - बं० । वादांगुल-म० । व० निघ० । A parasite plant (Epidendrum tessellatum. ) अपदस्थ apadastha - हिं० वि० कर्मच्युत, पदच्युत । अपदारथ apadáratha - हिं० पु० योग्य वस्तु । अपदेवता apadevata - सं० स्त्री०, हिं० सज्ञा पु० प्रेत, पिशाचादि । दुष्ट देव | दैत्य | राक्षस असुर । अपदेशः apadeshah--सं० (हिं० संज्ञा ) पु० "तेन कारणेनेत्यपदेश' अर्थात् इस कारण से यह होता है इसे "अपदेश " कहते हैं । जैसे कहते हैं कि मीठा खाने से कफ बढ़ता है अर्थात् कफ वृद्धि का हेतु मधुर रस है । सु० उ० ६५ श्र० १३ श्लो० । अपद्रव्य apadravya--हिं० संज्ञा पुं० [सं०] | निकृष्ट वस्तु | बुरी चीज़ । कुद्रव्य । कुवस्तु ! अपध्वंसक apadhvansaka - हिं० वि० ( १ ) घिनौना । ( २ ) नाश करने वाला, क्षयकारी । अपनयन apanayana - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] [वि० अपनीत ] ( १ ) दूर करना । हटाना । (२) स्थानांतरित करना । एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजाना । ( ३ ) खंडन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरतन्त्र अपनीत apanita - हिं० वि० [सं०] दूर किया हुना | हटाया हुआ | निकाला हुआ । अपश्य apabashya - हिं० वि० पु० श्रपबस-श apabasa, sha न्मुखी ( Independent )। स्वाधीन, म अपबाहुकः apabáhukah - सं० पु० अपबाहुक apabahuka - हिं० संज्ञा पु ं० एक रोग जिसमें बाहुकी नसें मारी जाती हैं और बाहु बेकाम हो जाता है । अपवाहुक, वात कफ जन्य श्रंसगत वात व्याधि, भुजस्तम्भ रोग विशेष । लक्षण - कंधे अथवा खत्रों में रहने वाली वायु खवों के बंधन को सुखा देती है। उस के बंधन के सूखने से अत्यंत वेदनावाला अपवाहुक रोग उत्पन्न होता है । मा० नि० । बाहु में रहने वाली वायु उस में रहने वाली शिराओं को संकुचित करके अपबाहुक रोग को उत्पन्न करती है । भा० प्र० २ ख० । चिकित्सा इस रोग में नस्य तथा भोजन के पश्चात् स्नेह पान हित है । वां० चि० श्र० २० । अपभ्रंश apabhransha - हिं० पु० बिगड़ा शब्द | ( Corruption, Common or vulgur talk ). श्रपमुबु apamumúrshu - सं० हिं० पु० जल में डूब कर मरणोन्मुख हुआ रोगी । अपर apara - हि० वि० [सं०] [स्त्री० ( १ ) जो पर न हो, पहिला, पूर्व का, पिछला, जिससे कोई पर न हो । ( २ ) अन्य दूसरा, भिन्न । मे० रत्रिक० । परा ] अपरपिण्डतैलम् aparapinda-tail@m--सं० क्ली० बला ( खिरेटी ) पृष्टपर्णी, गङ्गेरन, गिलोय, श्रौर शतावर । इनके कल्क तथा काथ से सिद्ध किए हुए तैल के अनुवासन ( पिच, कारी ) लेने से प्रबल वातरत्र का नाश होता है । भा० प्र० मध्य खण्ड २ वातरक्त - चि० । अपरतंत्र aparatantra - हिं० वि० [सं०] जो परतंत्र वा परवश न हो, स्वतंत्र, स्वाधीन, श्राज्ञाद । For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपमार्जन अपराजिता अपमार्जन apamārjana-हिं० संज्ञा० पु० (४) सिन्दूर ६ माशा को भेड़ के घी में घोट [सं०] शुद्धि । सफाई । संस्कार | संशोधन । कर रखें। इसके उपयोग से अपरस दूर होता अपमुख apamukha-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० अपमुखी ] जिसका मुंह टेढ़ा हो । विकृ- अपरा apara-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री०(१) तानन, टेढ़मुहाँ। ( Placenta) खेड़ी, आँवल । भा० म०४ अपमृत्यु apamrityu-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] भा० प्रसूतोपद्रव-चि०। अमरा-सं०। (२) पदार्थ अकालमृत्यु कुमत्यु, कुसमय मृत्यु, अल्पायु, जैसे ! विद्या । (३) पश्चिम दिशा । (४) पञ्चतन्मात्र, बिजली के गिरने, विष खाने, साँप श्रादि के मन, बुद्धि और अहंकार इनको अपरा कहते हैं। काटने से मरना। वि० [सं०] दूसरी । अपयोग apavoca- संज्ञा . [सं०1 अपराजित aparajita-सं० लहसुनिया । (1) कुयोग, बुरायोग । (२) नियमित मात्रा हिं० वि० [स्त्री० अपराजिता ] ( Incoसे अधिक वा न्यून औषध पदार्थों का योग । nqurable) जो जीता न जाए । जो पराजित (३) कुशकुन, असगुन । (४) कुसमय, न हुश्रा हो। कुबेला। संज्ञा पु० विष्णु। अपरकाय aparakāya-हिं० संज्ञा पु. शरीर | अपराजित धूपः aparājita-dhupa h•-सं० का पिछला भाग। पु० यह धूप सब प्रकार के ज्वरों का नाश करने अपरना aparanā-हिं० स्त्री० अपामार्ग। वाला है । गुग्गुल, गंधतृण, बच, सर्ज, निम्ब, वि०बिना पत्ते वाली। (Leafless). पाक, अगर और देवदारु। च० द. ज्व. अपरम् aparam-सं० क्ली. हाथी के पीछे का चि०। . अर्दू भाग, गजपश्चादर्ध । हाथी का पिछला अपराजिता aparajita-हिं० संज्ञा स्त्री० सं० भाग, जंघा, पैर इत्यादि। स्त्री० ] (१) यह कोयलकी बेल का साधारण अपरस aparasa-हिं. संभा पु०, उ० चम्बल | | माम है। सम्किय्यह, सफ़िय्यह, कश्जिल्द-अ०। farzifiar zäffar ( Clitorea Tern. सोरायसिस ( Psoriasis)-ई०। चर्मरोग atea, Linn.)-ले० । बटर फ्लाई पी भेद । एक चर्मरोग जो हथेली और तलवे में Butterfly pea, विंग्ड-लीढ्ड प्रिटोरिया होता है । इसमें खुजलाहट होती है। और चमड़ा ( Winged -leaved Clitoria ), सूख सूख कर गिरा करता है । विचर्चिका । इण्डियन मेज़रीन ( Indian Mezerचिकित्सा eon )-0 i fazifiar st zet Clitoria (१) गोधूम (गेहूँ)s४ सेर लेकर पाताल de Ternate-फ्रां० । फियुला-क्रिक्का यन्त्र द्वारा तैल निकालें । इस तेल के लगाने से Feula-criqua-पुतं । अपरस नष्ट होता है। __ संस्कृत पर्याय-प्रास्फोता, गिरिकर्णी, (२) पाक का दूध १ छटाँक, बकुची का तेल विष्णुकांता (अ०), गिरिशालिनी (के०), १ पाव, सेंहुड के दूध १ छटाँक को एक पाव दुर्गा (श०), अस्फोटा (अ० टी०), गवाक्षी, तिल तैल मिलाकर सिद्ध करें इसके लगाने से अश्वखुरी, श्वेता, श्वेतभण्टा, गवादनी (र०), अपरस दूर होता है। अद्रिकर्णी, कटभी, दधि पुष्पिका, गईभी, सित (३) प्राठिल की जड़ की छाल लेकर स्वरस पुष्पी, श्वेतस्पन्दा, भद्रा, सुपुत्री, विषहन्त्री, निकालें और उसे भेड़ (मेष) के १ छटाँक घी में | नगपर्याय कर्णी, अश्वालादखुरी । अपराजिता, पकाएँ, फिर काम में लाएँ। कवाउँठी, कोयल, विष्णुक्रांति, कालीज़ीर-हिं० । For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता अपराजिता अपराजिता-बं० । माज़रियूने हिन्दी-अ०। नबात बीत हयात-फा०। फीकी की जड़ का झाड़, घुट्टी की जड़ का झाड़, फीकी-द०, हिं० । काकण-कोडि, कवछी, कुरु विलइ-ता० । मल्लविष्णुक्रांत, विष्णु क्रांत, दिन्टन, नल्लनेल गुम्मिरि, तेल्ल, मेल्ल, तेल्लदिण्टन, नीलदिर टन-ते० । अरल, शङ्ग-पुष्पम् , काकरणम्-कोटि, काकवल्लि-मल। कत्तरोदु-सिं० । गोकर्ण (-र्णी ) काजलि-मह०, बम्ब० । काठी पाण्टरी-मह० । गरणी-गु०। कर्णिके, शंखपुष्प, विष्णु -कारिट-सुप्पु, कीर गुन्न, गोकर्णमूल-कना | धन्त्र--पं०। बिलीय गिरि कर्णिके, नील गिरि कर्णिके-क०। पारल -माला। अपराजिता बीज क्रिटोरिया टनेंटिया Clitorea ternatea Linn. (Seeds of.)-ले० । अपराजितो के बीज, कवाठी के बीज-हिं० । फीकी की जड़ के बीज, घुट्टी की जड़ के बीज-द० । अपराजितार बीज-बं० । ब ज ल माज़रियूनेहिंदी-अ०। तुरूमे-बीखेहयात्-फा. काकणकोडि-विरै ता० । दिण्टन-वित्तुलु-ते। शंगवित्त, काकरणम्-वित्त, काक-वित्त-मल। कतरोदु-बीज-सिं०। नोट-अपराजिता शब्द से निघण्टु में अश्वसुरक, बला मोटा, विष्णुक्रांता, शुक्लांगी, शेफालिका या शंखपुप्पी ली जाती है । अश्वचरकः गिरिकर्णिका, कटभी, श्वेता, श्रादि नाम से कही जाती है। शेफालिका-गिरिसिन्धुक या श्वेत सुरमा कहाती है । यह विषघ्न है। शिम्बी या बब्बू र वर्ग (N.O. Leguminosae ) उत्पत्तिस्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष । संशा निर्णय-अरबी संज्ञा माज़रियूने-हिंदी का अर्थ हिन्दी माज़रियन ( Indian Mezereon) है और यही सज्ञा मदरास में अपराजिता के लिए व्यवहारमें पाती है, क्योंकि उन्होंने मान लिया है कि इसकी जड़ में माज़रियून की जड़ के समान प्रभाव है। दक्खिनी सज्ञाएँ काली- ज़िर्की वा काली ज़िर्की के बीज तथा सुफेद ज़िर्की व सुफ़ेद जिर्की के बीज कभी कभी अपराजिता बीज के लिए कतिपय ग्रंथों में ही नहीं व्यवहार में लाई दोई हैं. प्रत्युत किसी किसी बाजार में भी उनका व्यवहार किया जाता है। परंतु वे असंदिग्ध रूपसे कालादाना और उसके लाल भेद की यथार्थ संज्ञाएँ हैं, अतः उन्हें उन्हीं तक सीमित रहने देना चाहिए। __ काकवलेल मलयालिम भाषा का शब्द है जिसका अर्थ काकलता होता है और यह इसलिए है कि इसके पुष्प का रंग काक वर्णवत् होता है। परंतु हॉर्टस मालाबारिकस ( Hortus malabaricus ) तथा अन्य ग्रंथों में यह नाम म्युकुना जायगेंटिया (Mucuna gigan tea) के लिए प्रयोग में लाया गया है। . तामिल शब्द काकणङ् वा काक्कटाङ् प्रायः अपराजिता तथा कालादाना दोनों के लिए समान रूप से व्यवहार में पाते हैं, परन्तु यथार्थतः वे अपराजिता के ही नाम हैं। अतः उनको इसी के लिए प्रयोग करना चाहिए, कालेदाने के बीज उस नाम के अंतर्गत श्राए हए नामों से सरलतापूर्वक पहचाने जा सकते हैं। डिमक (१ म खंड ४५६ पृ०) महोदय अपराजिता का संस्कृत नाम गोकर्ण लिखते हैं। परन्तु, किसी भी प्रचलित वैद्यक ग्रंथ में इसकी उक संज्ञा का उल्लेख नहीं मिलता । ऐसा प्रतीत होता है कि "गिरिकर्णिका वा गिरिकर्णी" को भ्रमवश "गोकर्ण" लिख दिया गया है। 'गोकर्णी' वा 'गोकर्ण' अपराजिता का महाराष्ट्री नाम है। सकल नव्य लेखकों ने एक स्वर से कालेदाने के बीज को अपराजिता बीज के सर्वथा समान होने का उल्लेख किया है । परन्तु, कालादाने का गात्र एवं वर्ण रुक्ष कृष्ण होता है। इसके विपरीत अपराजिता के बीज का गात्र चिकना एवं कृष्ण वर्ण का होता है। For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता. ३७६, अपराजिता ... वानस्पतिक-वर्णन --- अपराजिता एक प्रकार की वृताश्रित बहुवर्षीय लता है । प्रायः शोभार्थ | इसे उद्यानों में लगाते हैं। यह बहुशाखी एवं । शुपमय होती है । मूल किञ्चिद् गूदादार गावदुमी | शाखायुक्त होता है । प्रकाण्ड अनेक दाहिने से बाएँ को लिपटे हुए छोटे पौधों में मृदुलोमयुक्त Pabescent) होते हैं । पत्र छोटे प्रायः गोल वा अंडाकार, विषम पंजाकार,एक सींक की दोनों श्रोर जोड़े जोड़े होते हैं। प्रायः कुल २.-३ किसी किसी में ४ जोड़े होते हैं, किंतु उनके तिरेपर अर्थात् अग्रभाग पर एक अयुग्म पत्र होता है । पुष्प बड़े, श्वेत वा नीले ( वा रक्त), डंठलयुक्त ( सवृन्त) उलटे प्रैक्टियोलेट होते हैं। पुष्पवृन्त लघु, लगभग चौथाई इञ्च लम्बा, कक्षीय, अकेला एक पुष्पयुक्त होता है। प्रक्टिोलस किञ्चिद् गोल, पुष्प-वाह्य-कोष के अाधार से संलग्न होते हैं। पुष्प-वाह्य-कोष पुष्पाभ्यन्तर कोष का लम्बा, पंचशिखर युक, विषम, स्थाई, बीज-कोषाधः होता है। पुष्पाभ्यन्तर-कोष तितलीस्वरूप, वृहदोर्ध्व पटल ( Vexillum.) बड़ा, सिरा गोलाकार शिखरयुक्त; वहिः, नीला, (मध्यभाग पोलाभायुक्त स्वेतवर्ण का), पक्ष (Ale) अंडाकार अत्यन्त पतला और संकुचित डंउलयुक्त, तरणिका (Keel ) कुछ कुछ बूट के आकार के दो पतले सूत्रवत् डंठल से युक्र होते हैं। नरतंतु वा २. पुव पराग केशर या पराग की तीली (Stamens)५ से १० वा इससे भी अधिक, दो स्थानों में स्थित ( Diadelphous) होते हैं जिनमें एक पृथक रहता है और शेष तन्तुओं द्वारा आपस में मिले रहते एवं बीजकोषाधः होते हैं। परागकोष वा पराग की घुण्डी ( Anthers) बहुत सूक्ष्म, गोलाकार और श्वेत होती है। नारितंतु वा गर्भकेशर (Style ) साधारण, परागकेशर की अपेक्षा लंबे, किञ्चित् चक्र, सिरेपर परिविस्तृत होते हैं। शिम्बी वा छीमी (Legume)२ से ३ इंच लम्बी और चौथाई ..इंच चौड़ी, चिपटी, सीधी, कुछ कुछ लोमश, द्विकपाटीय (दो छिलके युक्त), एक कोष :युक्त (पर कोष की दीवारों से बहुत से भागों में | विभाजित होती हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक एक बीज होता है ) और बहुबीजयुक्त होता है। बोज श्रायताकार इंच लम्बे, चिकने, कृष्ण वा हरिताभायुक्त धूसर वा धूसरवर्ण के होते हैं। यह सदा पुष्पित रहती है। ___ पुष्पभेद से यह दो प्रकार की होती है-(१) वह जिसमें सफेद फूल लगते हैं श्वेतापराजिता श्वेतगिरिकर्णिका । विष्णुकान्ता । सफ़ेद कोयल और (२) वह जिसमें नीले फूल आते हैं नीला. पराजिता, नील गिरिकर्णिका, कृष्णक्रांता, नीली कोयल आदि नामों से संबोधित की जाती है । नीलापराजिता का एक और उपभेद होता है जिसमें दोहरे फूल लगते हैं। नोट-इन विभिन्न प्रकार के अपराजिता के बीजो के प्रभावमें कोई प्रकट भेद नहीं और यदि कुछ होता है तो वह इसकी सफेद जातिके बीजमें हो सकता है। किंतु इनमें वह बीज जो दूसरे की अपेक्षा अधिक गोल एवं मोटे होते हैं, प्रभाव में अधिकबलशाली सिद्ध होंगे पुनः चाहे वे किसी जातिके हों। रासायनिक संगठन-मूलत्वक्-में श्वेतसार, कषायिन और राल, बीजमें एक स्थिर तैल, एक तिक राल ( जो इसका प्रभावात्मक सत्व है। ), कषायाम्ल ( Tannic acid), द्राक्षौज (एक हलका धूसर वर्ण का राल ) और भस्म (६ प्रतिशत ) प्रभृति होते हैं। बीज वामस्वक् टूट जाने वाला (भंगुर ) होता है । इसमें एक दौल होता है जो कणदार श्वेतसार से पूर्ण होता है। प्रयोगांरा-जड़ की छाल, बीज और पन्न । औषध-निर्माण-(१) बीज का अमिश्रित चूर्ण-Simple Powder of Clitorea Seeds ( Pulvis Clitorece 8implex). निर्माण-विधि - साधारण तौर पर चूर्ण कर बारीक चलनी या कपड़े से छानकर बोतल में भरकर सुरक्षित रक्खें । मात्रा-१ से १॥ ड्राम तक ( २.४ पाना)। गुण-इतनी मात्रा से ५ या ६ दस्त खुलकर For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता ३८० अपराजिता पाएँगे और इसकी मात्रा २ ड्राम पर्यन्त करने से | दस्तों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। इतने से साधारणतः ८ या दस्त श्राएँगे। (२) अपराजिताके वोजका मिश्रित चूर्णCompound Powder of Clitorea Seeds ( Pulvis Clitoreve Compositus). निर्माण-विधि-अपराजिता के बीज, सैंधव या क्रीम ऑफ़ टार्टार इनको चूर्ण कर इनमें से प्रत्येक ७ औंस लें: सोंठ या कुलंजन क्षुद्र का चूर्ण एक बाउंस इनको एक साथ भली प्रकार रगड़कर बारीक चलनी या कपड़े से चालकर बंद बोतल में सुरक्षित रक्खें। मात्रा--१॥ ड्राम से २ ड्राम तक । (३) शीत कषाय (Infusion)-( मात्रा-१ से २ श्राउंस । (४) एलकोहलिक एक्सट्रैक्ट । (५) क्वाथ । (६) पत्र एवं मूल स्वरस | (७) सूखी हुई जड़की छालका चूर्ण । मात्रा१ से ३ ड्राम | प्रतिनिधि-काला दाना व लालदाना, • जलापा तथा कॉन्वॉल्व्युलस के बीजकी यह उतम प्रतिनिधि है । भेद केवल इतना है कि यह अधिक अग्राह्य एवं चरपरी होती है। अपराजिता के प्रभाव तथा प्रयोग कीमत से-दोनों गिरिकर्णी (श्वे. तापराजिता तथा नीलापराजिता) तित, पित्त के उपद्रव को प्रशमन करने वाली, चतुष्य, विषदोषनाशक तथा त्रिदोषशामक होती हैं। गिरि'कर्णी (अपराजिता ) शीतल, तिक पित्तोपद्रवनाशक, विष तथा नेत्र के विकारों को शमन करने वाली और कुष्ठरोग को नष्ट करने वाली है। । (धन्वन्तरीय निघंटु) गिरिकर्णी ( अपराजिता) हिम, तिक, पित्तोपद्रव नाशक, चक्षुष्य, विषदोषशामक और त्रिदोष को शमन करने वाली है। नीलाद्रिकर्णी (नीलापराजिता) शीतल,तिक है, रक्तातिसार, ज्वर तथा दाह को नष्ट करने वाली तथा विष, वमन, उन्माद, भ्रमरोग, श्वास और अतिकास रोग को हरण करनेवाली है। राज०। कटु, तिक, कफ वातनाशक्क, सूजन को दर करने वाली, खाँसी को नष्ट करने वाली और कण्ठ्य अर्थात् कण्ठ को शुद्ध करने वाली है। राज। अपराजिता कटु, मेध्य शीतल, कण्ठ्य, दृष्टि को प्रसन्नताकारक तथा कुष्ट, शूल, त्रिदोष, प्राम, शोथ, व्रण और विष को नष्ट करनेवाली है तथा कसेली, पाकमें कटुक ( चरपरी ) व तिक है तथा स्मृति और बुद्धिदायक है। भा० । अपराजिता के प्रयोग यह पृश्नि (चितकबरे, कौड़िया साँप ), वज नामक साँप और बिच्छु के विष की नाशक है। अथर्व० । सू०४।१५। का० १० । चरक--दर्वीकर सर्प के काटने पर सिन्धुवार (श्वेत निगु एडी) वृक्ष की जड़ की छाल और श्वेत अपराजिता की जड़ की छाल इनको जल के साथ पीस कर पिलाएँ। (चि २५ श्र०)। चक्रदत्त-(१) श्वतापराजिता की जड़की छाल के रस को तण्डुलोदक के साथ गोघृत के योग से पान कराएँ। इससे भूतोन्माद शमन होगा । ( उन्माद चि०) (२) सफेद कोयल की जड़ को पीसकर गो घृत मिला गलगण्ड रोगी को पिलाएँ। (गलगण्ड चि०)। शार्ङ्गधर-परिणाम शूल में चीनी, मधु और गोघृत के साथ विष्णुक्रांता की जड़ का कल्क ७ दिन तक सेवन करने से परिणामशूल नष्ट होता है । (२ खं०५०)। वंगसेन-शोथरोग में श्वेत वा नील अपराजिता की जड़ की छाल को उष्ण जल में पीसकर पान करने से सूजन जाती रहती है। (जी. स० ११ वृ०)। __ हारीत-वल्मीक श्लोपद रोगमें गिरिकर्णिका अर्थात् अपराजिता की जड़ की छाल को पीसकर लेप करें। (चि०३३ अ.) For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता ३०१ अपराजिता जलोदर एवं पलोहा व यकृत वृद्धि मेंअपराजिता की जड़, शंखिनी, दन्तीमूल और नीलिनी । इनको समभाग लेकर जल के साथ इमलशनवत् प्रस्तुत करें और गोमूत्र के साथ सेवन करें। वक्तव्य सुश्रत में दर्वीकर सर्प की चिकित्सा में अन्य द्रव्यों के साथ अपराजिता का प्रयोग दिखाई देता है, यथा-'श्वेत गिरिह वा कणिही सिताच' (क०५ अ०) । सुश्रुतोक्त शोथ एवं उन्माद की चिकित्सामें अपराजिताका उल्लेख नहीं है। सुश्रुत के सूत्र स्थान के ३६ वें अध्याय के वामक द्रव्यों की तालिकामें अपराजिता का नाम नहीं पाया है। किंतु शिरोविरेचन वर्ग की ओपधियों में अपराजिता का उल्लेख है । यथा "करवागदीनामांतानां मूलानि" वाक्य में अपराजिता के मूल को शिरोविरेचक माना गया है। चरकोक वान्तिकर द्रव्यों में अपराजिता का पाठ नहीं है (वि०८ प्र०)। चरक में सुश्रुतवत् शिरोविरेचन द्रव्यों के वर्ग में इसका पाठ पाया है। (सू० ४ अ०)। चरकोक शोथ चिकित्सा में अपराजिता का प्रयोग नहीं दिखाई देता। किंतु उन्माद चिकित्सा में व्यांतर के साथ इसका प्रयोग पाया है। चक्रदत्त के शोथ और शूल की चिकित्सा में . अपराजिता का प्रयोग नहीं है। नव्यमत डिमक महोदय के कथनानुसार विरेचक व मूत्रल गुणों के कारण इसको माज़रियूने हिंदी ( Indian mezereon ) नाम से अभिहित किया गया है। किंतु यहाँ पर यह बतला देना श्राव श्यक प्रतीत होता है कि माज़रियून उदरीय शोथको • दूर करने के लिए व्यवहार में लाया जाता है। और यह फार्माकोपिया वर्णित माज़रियन साथ पुरातन कास में कराध्य (कफनिस्सारक) रूप से व्यवहार में पाता है। इससे उक्लेश (मतली) तथा वमन जनित होता है। अर्द्धावभेदक में श्वेतापराजिता की जड़ का रस नकुत्रों द्वारा फूंका जाता है। एन्सली विवसिषाजननार्थ किंवा वामक प्रभाव के लिए धु'डिकास वा स्वरन्नी कास (Croup) में अपराजिता की जड़ के उपयोग का वर्णन करते हैं। "बेंगाल डिस्पेंसेटरी" नामक पुस्तक के रचयिता बहुत से प्रयोगों के पश्चात् अपराजिता के वांतिकरत्व गुण को अस्वीकार करते हैं । वे लिखते हैं कि अपराजिता की जड़ का " एल्कोहलिक एक्स. ट्रैक्ट" ५ से १० ग्रेन की मात्रा में शीघ्र विरेचक सिद्ध हुअा। किंतु इसके सेवन से रोगी के पेट में दर्द (ऐंठन ) एवं बारम्बार मल त्यागने की इच्छा होती है और बहुत वेदना के बाद थोड़ा मल निकलता है । सुतरां वे इसे व्यवहार करने का परामर्श नहीं देते। सर्व प्रथम इसका बीज टर्नेटी ( Ternate) द्वीप से जो मलक्काद्वीपों में से एक है, इंगलैंड में लाया गया। अस्तु, इस पौधे का यह प्रधान नाम हुश्रा । हेंस (Haines ) इसके ( नीलापराजिता पुष्प) टिंकचर को लिटमस (क्षार द्योतक) की प्रतिनिधि बतलाते हैं। (फा० इं.. खंड, ४५६--४६०)। डॉ० आर० एन० खोरी-अपराजिता की जड़, स्निग्ध, मूत्रकारक एवं मृदुरेचक है और पुरातन कास, जलोदर, शोथ एवं प्लीहा व यकृत विवृद्धि तथा ज्वर और स्वरधनी कास (Croup) में व्यवहृत होती है। अपराजिता की जह का शीत कषाय स्निग्ध (Demulcent) रूप से वस्ति तथा मूत्र प्रणालीस्थ क्षोभ और कास में व्यवहार किया जाता है। अर्द्धावभेदक अर्थात् अधकपाली रोग में इसकी ताजी जड़ के रस का नस्य देते हैं। इसका ऐक्सट्रैक्ट शीघ्र रेचक तथा कालादाना, गुलबास बीज और जलापा की उत्तम प्रतिनिधि है । (मेटिरिया मेडिका प्रॉफ इंडिया २ य खंड २०६ पृ०)। ... वे और भी लिखते हैं कि कोंकण में इसकी जड़ का रस दो तोला की मात्रा में शीतल दुग्ध के For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता ३२ अपराजिता लेहः., मि० मोहीदीन शरीफ़ स्वानुभव के आधार ख न खोरह अर्थात् नरकहिया (Whitlow) पर इसकी जड़ की छाल के १-२ डाम को मात्रा फोड़े पर बाँधने और निरन्तर जल से तर रखने के शीत कषाय की वस्ति एवं मूत्रप्रणाली जन्य से बहुत शीघ्र लाभ होता है । परीक्षित । क्षोभों में स्निग्ध प्रभाव करने की बड़ी प्रशंसा (२) पीत निगुण्डी । ( ६ ) जयन्ती वृक्ष । करते हैं। साथ ही इसका मूत्रजनक और किसी किसी में मदुरेचक प्रभाव होता है। रा०नि० २० २३, ४। (४) शालपर्णी । भा० पू० २ भा०। (५) श्वेत सिंधुवार । इसके बीज रेचक हैं । फा० ई। (६) ब्रह्मी : (७) एक प्रकार की शमी । इसके पत्र का शीत कपाय विस्फोटक (Eru रा०नि०व.। (८) शेफालिका | रा० ptions ) में व्यवहृत होता है। वैदः। नि० व०५।(१)शलिनी । (१०) एक इसके पत्ते के रस को श्रादक के साथ मिला प्रकार का वपुषा । (११) एक प्रकारका हपुषा । कर तपेदिक (Hetic fever) में स्वेद पानेकी रा०नि० व०४। हालत में व्यवहार करते हैं। टेलर । अपगजिता धपः aparijita-dhupah-सं० कर्णशूल में विशेषतया उस अवस्था में जब कि कान के पास पास की ग्रंथियाँ सूज पु० बिनौला, मोरपंख, बड़ी कटेरी, शिवनि. गई हों, तब कान के चारों ओर अपराजिता के मौल्य, तगर, तज, वंशलोचन, बिल्ली का विष्ठा, परो के रस में सेंधानमक मिलाकर गरमागरम धान के तुष (भूसी), वच, मनुष्य के बाल, लेप करें। ए० सी० मुकर्मी । काले साँप की केचुली, हाथोदाँत, गौ का सींग, हींग, मिर्च, इन्हें बराबर लेकर धूप बनाएँ। यह डॉ. नरकारिणो-अपराजिता के बीज को धूप पसीना, उन्माद, पिशाच, राक्षस, देवता का भून कर चूर्ण प्रस्तुत करें। इसको जलोदर और श्रावेश, ज्वर इन सबका नाश करता है। गृह में पीहा व यकृत विवृद्धि में २० से ६० ग्रेन इनकी धूप (धूनी) दें तो सब बालग्रहों को (१५ से ३० रत्ती) की मात्रा में प्रयुक्त करें। दूर करता है और पिश च तथा राक्षसों को साधारणतः इसको इस प्रक.र बर्तते हैं-२ भाग निकालकर सब ज्वरों को नाश करता है । क्रीम ग्रॉफ़ टार्टार, १ भाग सों और १ भाग यो० चिन्ता म०। अपराजिताके बीज, इनका चूर्ण बनाएँ । मात्रासे १ ड्राम। अपराजिनायोगः aparājitāyogah-सं. प. __ उपयोग-इनको दृष्टिनैर्बल्य, कंऽक्षत, श्लेष्म सफेद कोयल की जड़ को पीस प्रातः काल पीएँ तो विकार, अर्बुद, स्वग्दोष तथा शोथ आदि रोगों गलगण्डरोग नष्ट होता है। इसके ऊपर से शुद्ध में बर्तते हैं। गोघृत पीएँ और पथ्य से रहें। योग० त० गल. एक दो वा अधिक बीजों को भूनकर फिर ग०चि०। मानुषी दुग्ध में पीसकर वा घीमें भूनकर बालकों अपराजितालेहः aparājitālehah-सं० पु. के उदरशूल तथा मलावरोध में देते हैं। जड़ का (१) काकड़ासिंगी, कचूर, पीपल, भारंगी, गुड़, एल्कोहलिक एक्सट्रैक्ट भी एक से दो ड्राम की नागरमोथा, जवासा, तैल इनका लेह (चटनी) मात्रा में उपयोगी है। ( इंडियन मेटिरिया बना चाटने से वात की खाँसी नष्ट होती है। मेडिका पृष्ठ २२१-२२२)। . चक्र००। श्रार० एन० चोप्रा--अपराजिता की जड़ (२) मजीठ २ तो०, कुड़ा ८ तो०, भांगरा मलशोधक तथा मूत्रल है और सर्प के विष में की जड़ २ तो. इन्हें कूट कर ६४ तो० जस में प्रयुक्त होती है। पकाएँ । जब चतुर्थांश शेष रहे तो छानकर रस (इं० २० इ० पृ० ४७६)। निकालें और उसमें = तो० मिश्री, बकरी का अपराजिता की पत्ती का कल्क प्रस्तुत कर ना- दूध १६ तो०, बेल फल, अतीस इनका पूर्व For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पराधीन ३८३ १- ३ तो० मिला तथा नागरमोथा, इन्द्रजौ १–१ तो० मिलाकर पकाएँ । जब चटनी सी हो जाए तब उतार रक्खें | इसके सेवन से ग्रहणी, अतिसार दूर होते है । ( ३ ) मजीठ २ तो०, कुड़े की छाल ८ तो०, भांगमूल : तो० इन्हें कूट कर १०२४ तो० जल में पकाएँ जब चौथाई रहे तो इसमें १६ Parori का दूध मिलाकर पकाएँ । जब गाढ़ा चटनी के तुल्य हो जाए तब इसमें सों, अतीस, नागरमोथा, इन्द्रजौ, एक एक तोला मिला रक्खें । इसे खाएँ और ऊपर से काँजी, खटाई इनमें सिद्ध मांस खाएँ और बकरी का दूध पिएँ तो संग्रहणी, तथा श्रुतिसार दूर हो । वङ्गसे सं० संग्रहणी-त्रि० । कर पराधीन aparadhina - हिं० वि० स्वाधीन । ( An voluntary ). परापातन apará pátana - सं० पु० श्राँवल गिराना, खेड़ी गिराना । सु०सं० शा० अ० १० । अपरायु: aparáyuh सं०पु० भ्रणांतरावरण | (Amnion). अपराहः aparáhnah सं० पु० अपराह्न aparáhna - हिं० पुं० (Afternoon ) दिवस शेष भाग, तीसरा पहर । दिन का पिछला भाग, दोपहर के पीछे का काल यह काल प्रात्रृट् काल के समान होता है । सु० सू० ६ । अपरिक्लिन्न apriklinna - ० वि० [सं०] शुष्क । सूखा । परिगृहीता aparigrihita - सं० (हिं०) स्त्री० अविवाहिता स्त्री, रखेली स्त्री । परिचालक aparichalaka - हिं० वि० पुं० रोधक, वाहक | जो विद्युत धाराका वाहक न हो । (Nonconductors-insulator.) अपरिच्छद aparichchhada ) - हिं० वि० परिच्छन्न aparichchhanna [ सं० ] श्रच्छन्न aprachchhanna आच्छादन रहित, श्रावरण रहित । जो ढका न हो । नंगा | खुला | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिपूर्ण विलयन अपरिच्छिन्न aparichchhinna - हि० वि० [सं०] ( १ ) जिसका विभाग न हो सके । भेद्य । ( २ ) जो अलग न हुग्रा हो । मिला हुआ | (३) असीम सीमा रहित । अपरिणत aparinata - हिं० वि० [सं० ] ( १ ) अपरिपक्व । जो पका न हो । कच्चा | ( २ जिसमें विकार और परिवर्तन न हुआ हो । विकार शून्य | ज्यों का त्यों । अपरिणामी aparinami - हिं० वि० [सं० परिणामिन् ] [स्त्री० परिणामिनी ] परिणाम रहित । विकार शून्य । जिसकी दशा में परिवर्तन न हो । श्रपरिणीत aparinita - हिं० वि० [सं०] [ स्त्री० श्रपरिणीता ] अविवाहित, क्वारा | (Bachelor). परिणीता aparinita - हिं० वि० स्त्री० क्वारी, अनूदा । ( Maid, virgin, unmarried girl). श्रपरितुष्ट aparitushta - हिं० वि० [सं०] असन्तुष्ट, तृप्तिरहित । ( Dissatisfied.) परिपक्क aparipakka - हिं० वि० [सं० ] ( १ ) जो परिपक्व न हो । श्रपक्व, कच्चा । ( Unripe ) । ( २ ) जो भली भाँति पका न हो । ढेंसर | अधकच्चा । यौ० - श्रपरिपक्व कपाय । परिपूर्णयोग aparipürna-yoga-हिं० पु० ( Unsaturated_compound ). ऐन्द्रियक रसायन के अनुसार यदि कार्बन वा किसी अन्य तत्व के परमाणु के साथ अन्य तस्व के सौंयोग से उसकी कोई शक्ति वा स्थान रिक्त हो तो उसे परिपूर्ण योग कहते हैं, जैसेएसीटिलीन जो कज्जलन के एक और उदजन के दो परमाणुओं का एक यौगिक है । परिपूर्णविलयन aparipúrna vilayana -fo go (Unsaturated-solution) रसायन शास्त्रानुसार जब किसी द्रव में विलेय पदार्थ का विलयन करते समय उस पदार्थ का. घुलना बन्द न हो अर्थात् वह घुलता ही रहे, तो वह विलयन परिपूर्ण विलयन कहलाता है । For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरिमाण ३८ अपवन अपरिमाण aparimāna हिं० वि० [सं०] अपरेशन apareshana-हिं० संज्ञा पु. अपरिमित aparimmitay [अं ऑपरेशन ] (Operation ) शस्त्र परिमाणहीन, असंख्यात, अनंत । ( Unlimi- | चिकित्सा । चीरफाड़। ted ). अपरोक्ष aparoksha-हिं० पु. प्रत्यक्ष, समद । अपरिमेय aparimeya-हिं० वि० [सं०] ( Present.) जिसका परिमाण न पाया जाए। जिसकी नाप अपर्णा aparni-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] न हो सके। अपरना, पत्रशून्य । ( Leafless ). अपरिम्लानः aparimlana h-सं० पु. अपर्याप्त aparyapta-हिं० वि० [सं०] (The red val. of Barleria prio अयथेष्ट, अपूर्ण, स्वल्प, थोड़ा, काफ़ी नहीं। nites) रक अम्लान पुष्प वृक्ष । लाल ( A little, not enough.) i कट्सरैया।-हिं.वि. जो न कुम्हलाया हो, ताज़ा | - खिला हुश्रा । ( Newly opened ). अपवंदण्डः aparvva-dandab-सं. पुं. अपरिवर्तनीय aparivarttaniya-हिं०वि० ___ रामशर, सरपत । ( Sacclhalum sara) रा०नि०व०८। [सं०] (१) जो परिवर्तन के योग्य न हो । जो बदल न सके। अपर्स aparsa-हिं० संज्ञा पु० कुष्ठ, कोढ़। (२ ) जो बदले में न दिया जा सके। (leprosy )। दे० अपरस । अपरिवृत्त aparivritta-हिं० वि० [सं०] अपर्स apurs-बिलूच०, शर्बत-हिमा० । धूपी । जो ढका या घिरा न हो | अपरिच्छन्न । धूपड़ी, चन्दन-नैपा० । (Juniperus ex. अपरिष्कार aparishkāra-हिं० संज्ञा पु० celsa) मे० मो० । [सं०][वि० अपरिष्कृत ] (१) संस्कार का | अपलक्षण apalakshana-हिं० संज्ञा पु. अभाव असंशोधन । सफ़ाई वा काट छाँट का न | (१) अपशकुन । (२) (A Bad Sign) होना । (२) मैलापन (३) भद्दापन। कुलक्षण | बुरा चिन्ह । दोष । (३) दुष्टलक्षण। अपरिष्कृत aparishkrita-हिं० वि० [सं०] अपलक्षणा apalakshana-हिं० वि० स्त्री० (१) जिसका परिष्कार न हुश्रा हो | जो साफ़ न । [सं०] बुरे लक्षण वाली । दुष्ट लक्षण । किया गया हो । (२) मैला कुचैला । (३) (of a bad sign, ominous. ] बेडौल, भद्दा । अपलापः apalāpah-सं० पु० ) [वि० अपरिसर aparisara-हिं० वि० संकीर्ण, संकु- अपलाप apalapa-हिं. संज्ञा पु० अपलाचित । ( Crowded ). पित] यह पेट और छाती ( अर्थात् धड़) के मर्मों अपरीक्षित aparikshita-हिं० वि० [सं०] में से एक शिरा मर्म है जो ( अंसकूट कंधों) [स्त्री० अपरीक्षिता] जिसकी परीक्षा न हुई हो। से नीचे तथा पार्टी (पँसवाड़ा) के ऊपर एक जो परखा न गया हो । जिसकी जाँच न हई हो। एक दोनों ओर स्थित है। सु० शा० ६ ० जिसके रूप, गुण, परिमाण और वर्ण आदि का | अपलाषिका apalashika-सं० स्त्री. पिपासा, अनुसंधान न किया हो । प्यास (Thirst)। हे० च०। अपरूप aparāpa-हिं० वि० [सं०] ( Defo__rmed ) कुरूप बदशकल । भद्दा । बेडौल | | अपवनम् apavanam-सं० क्ली० ) कृत्रिम (२) [अपूर्व का अपभ्रंश ] अद्भुत । अपूर्व ।। अपवन apavana-हिं० संशपु बन, अपरेयुः aparedyuh--सं० [अव्यय ] (An artificial garden. ) gaa, पर दिन । बाग | हे० च०। For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८५ अपवरकः अपवरक: apavarakah - सं० पु० गर्भगृह । ( Inner room. ) हला० । See - Ga rbhagriha. अपवर्ग: apa-vargah - सं० पु० अपवर्ग apavarga - हिं० संज्ञा पुं० } ( १ ) अभिव्याप्य में से अपकर्षण करने को "अपवर्ग" कहते हैं, जैसे- विष-शास्त्र-विदों के सम्मुख सिवा कीट विष वालों के विषोपसृष्ट स्वेद योग्य नहीं होते । इसमें से "विषोपसृष्ट श्रस्वेद्य अर्थात् स्वेदन क्रिया के अयोग्य होते हैं" यह यह व्यापक है जिसमें से कीट विष वाले पृथक् कर दिए गए। सु० उ० ६५ श्र० श्लो० १६ । (२) मोक्ष, मुक्ति - हिंο| Liberation Deliverancc. - इं० । ( ३ ) त्याग | अपवर्तन apavartan - हिं० संज्ञा पुं० परिवर्तन, उलटफेर, पलटोव | अपवर्त्तित apavartita - हि० वि० [सं०] बदला हुआ । पलटाया हुआ । लौटाया हुआ | अपवश apavasha - हिं० वि० [हिं० अप= अपना+सं० वंश ] अपने अधीन | अपने वश का | स्वाधीन । (Voluntary) परवश का उलटा । अपविद्ध apaviddha - हिं० वि० [सं०] (१) त्यागा हुआ । त्यक्र, छोड़ा हुआ । (२) बेधा हुश्रा, विद्ध । ( ३ ) चूर्णित | अपविषr apavishá-सं० स्त्री० निर्विषतृण, निर्विषो । ( Curcuma zedoarie. ) रा० नि० । अपशोकः apa-shokah - सं०पु० अशोक वृक्ष । ( Saraca Indica ) रा० नि० व० १० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्तम्भ (ब) मर्म (2) दक्षिण, दाहिना (Right.) । ( २ ) प्रतिकूल, उलटा, विरुद्ध ( Opposite ) । सभ्य का उलटा । मे० । अपसव्यः apasavyah - सं० त्रि. अपसव्य apasavya - हिं० वि० } अपसार apasara - हिं० संज्ञा पुं० [सं० श्रप्= जल+सार ] ( १ ) अँबुक । पानी का छींटा | ( २ ) पानी की भाप । अपवाहक apavāhaka - हिं० वि० [सं० ] स्थानांतरित करने वाला । एक स्थान से किसी पदार्थ को दूसरे स्थान पर ले जाने वाला । अपवाहन apavāhana - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] स्थानांतरित करना | एक स्थानसे दूसरे स्थान पर ले जाना । अपवाहुक apaváhuka - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] देखो - अपबाहुकः । अपशकुन apashakuna - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] कुसगुन । श्रसगुन । अपशब्द apashabda-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] पाद । अपान वायु का छूटना । गोज़ । पर्छन । अपसर्पण apasarpana-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पसर्पित ] पीछे सरकना । पीछे हटना । अपसर्पित apasarpita - हिं० वि० [सं०] पीछे हटा हुआ | पीछे सरका हुआ । अपसारण apasárana - हिं० पु० ( भौ० वि० ) ( Repulsion. ) श्रपकर्षण | अपस्कम्भः apaskambhah- सं० पु० ( Symplocos racemosa ) लोध | अथर्व ० | ४ | ३ | ४ | अपसरण apasarana - हिं० पुं० प्रस्थान, अपष्ट apashta - हिं०वि० अस्पष्ट, गुह्य । ( Not अपस्कर apaskarah - सं० पं० (१) मलclear, hidden). द्वार, चूति । एनस (Anus ) - इं० । ( २ ) विष्ठा, पुरीष । ( Faåces ) धर० । श्रपस्तम्भ (ब) मर्म apastambha, mbamarmma सं० क्ली० उदर और वक्षस्थ मम में से एक शिरा मर्म विशेष । यह उर ( हृदय ) चला जाना | अपसर्जन apasarjana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] विसर्जन | त्याग | For Private and Personal Use Only अपवाहित apavahita - हिं० वि० [स० ] एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया हुआ । स्थानांतरित | Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपम्भिनी की दोनों ओर वायु को वहाने वाली दो नाड़ियाँ "अपस्तम्भ" नामक दो मर्म हैं। सु० शा० अपस्तम्भिनी apastambhini-सं० स्त्री० शिवलिङ्गिनी लता, शिवलिङ्गो । (Bryonia). वै० निघ०। अपस्मारः,-"स्मृतिः" apasmāra h,-sm ritih-सं० पु. अपस्मार-हिं० संज्ञा पु० [वि० अपस्मारी ] स्वनामाख्यात प्रसिद्ध वात व्याधि, परियाय से होने वाला एक रोग विशेष । इसमें हृदय काँपने लगता है और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है । रोगी काँप कर पृथ्वी पर मूञ्छित हो गिर पड़ता है। उसके हाथ पाँव में प्राकुचन होता और मुंह से झाग श्राता है। पर्याय-अंग विकृति, लालाध, भूत विक्रिया मृगी-सं०, हिं०,-बं० । मिरगी-हिं०, उ० । फेफ्रे-म०। सर-अ० । म ज़ काहनी, म.ज साक्रत । अबर कलसा; अब अकलसा-यु०। एपिलेप्सी Epilepsy, एपिलेप्सिया Epilepsia-इं० । मॉईस कॉमिटिएलिस Morbuscomitialis, सासर मेजर Sacer major-ई० । एपिलेप्सी Epilepsie, हॉट मैल Haut mal-फ्रां० । फालसुलट Fallsucht-जर०। पर्याय-निर्णायक नोट-इस रोग में स्मृति नष्ट हो जाती है। इसलिए इसको अपस्मार कहते हैं। सर के शाब्दिक अर्थ गिर पड़ना, गिरना गिराना श्रादि हैं । परन्तु, तिब्ब की परिभाषा में मृगी को कहते हैं । इस रोग में संज्ञा व चेष्टावहा इंद्रियाँ अव्यवस्थित हो जाती हैं, ऐच्छिक मांस पेशियों में आकुञ्चन होता है और रोगी मूञ्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है। इसी कारण इसको उन नाम से अभिहित करते हैं। फारसी में इसको नैदुलान कहते हैं। - नोट-शेष शब्दों की व्याख्या क्रमशः उन उन शब्दों के सामने की जाएगी। निदान व सम्प्राप्ति प्रायः यह रोग पैतृक होता है । परन्तु शिशुओं में दाँत निकलना, उदरीय कृमि, अकस्मात भय का होना, युवा पुरुषों में प्रति मैथुन, हस्तमैथुन, मस्तिष्क को श्राघात पहुँचना, मस्तिष्क वा मस्तिष्कावरक प्रदाह, चिंता, शोक, मानसिक म की अधिकता, मद्यपान, उपदंश, वातरक्त वा सन्धिवात और रक्तविकार इत्यादि नासिका, कंड, प्रांत्र और जननेन्द्रिय में किसो चिरकारी क्षोभक व्याधि को उपस्थिति, स्त्रियों में मासिक दोष मादि इसके कारण हैं। लिखा भी हैचिन्ता शोकादिभिः क्रुद्धा दोषा हृरस्रोतसिस्थिताः । कृत्वा स्मृतेरपध्वंसमपस्मारं प्रकुर्वते ॥ अर्थात्-चिंता,शोक और भयके कारण कुपित एवं हृदय में स्थित हुए दोष (त्रय ) स्मृति का नाश कर अपस्मार रोग को करते हैं। तथाच्च वाग्भट्टःस्मत्यपायोह्यपस्मारः संधि सत्वाभि संप्नवात् जायतेऽभिहते चित्ते चिंता शोक भयादिभिः । उन्मादवत्प्रकुपितैश्चित्तदेह गतैर्मलैः ॥ हते सत्वे हृदि व्याप्ते संज्ञावाहिषु खेयु च | (वा० उ० अ०७) अर्थात्-जिस रोग में स्मृति का नाश हो जाता है, उसे अपस्मार कहते हैं। बुद्धि और सत्वगुण में विप्लव होने के कारण चिंता, शोक और भयादि द्वारा श्राक्रमित हा चित्त तथा उन्माद के सदृश चित्त और देह में रहने वाले प्रकुपित द्रोपों से सत्व गुण नष्ट होकर, हृदय और संज्ञावाही संपूर्ण स्रोतों में व्याप्त हो जाता है। इसीसे स्मृति का नाश होकर अपस्मार उत्पन्न होता है। अपस्मार के भेदवैद्यक शास्त्रानुसार यह चार प्रकार का होता है, यथा अपस्मार इति शेयो गदो घोरश्चतुर्विधः। (मा० नि०) For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपस्मार या "सच दृष्टश्चतुर्विधः" वातपित्तकफैनांचतुर्थः सन्निपाततः । ( सु० ) अर्थात् - (१) वातज, (२) पित्तज, ( ३ ) कफज और ( ४ ) सन्निपातज (यह रोग नैमित्तिक है) डाक्टरी मत से यह दो प्रकार का होता है(१) मैण्डमाल ( Grand Mal ) या हॉट माल ( Haut Mal ) श्रर्थात् उग्र अपस्मार रशीद र ( २ ) पेटिट माल ( Petit Mal ) अर्थात् साधारण अपस्मार या सुरक्ष ख़फ़ीक़ | परंतु इस रोगका इससे भी एक साधारण प्रकार वह है जिसको अंगरेज़ी में एपिलेप्टिक वर्टिगो ( Epileptic Vertigo अर्थात् : आपस्मारिक शिरोघूर्णन या दुबार सुरई कहते हैं । इससे भिन्न अपस्मार की एक और अवस्था है जिसको गरेज़ी में स्टेटस एपिलेप्टिकस ( Status Epilepticus ) अर्थात् आपस्मारिकावस्था या सुरश्च मुत्वातिर कहते हैं । इसके अतिरिक्त बच्चों के अपरमारको बाल अपस्मार: वा शिश्वपस्मार तथा अंगरेज़ी में इन्फेण्टाइल कन्वलशन ( Infantile convulsion ) और अरबी में सुड़ल अतफ़ाल या उम्मुसि. सि. - ब्यान आदि नामों से पुकारते हैं । नोट- यूनानी भेदों के लिए देखिए सुरा ।। पूर्व रूप जो किसी किसी समय रोगाक्रमण काल के बहुत समीप उपस्थित होता है; यहाँ तक कि रोगी अपने आपको सँभाल नहीं सकता और कभी उससे एक वा दो दिवस पूर्व उपस्थित होता है । पूर्वरूप में से यह एक प्रधान लक्षण है कि रोगी को अपने शरीर के किसी मुख्य भाग साधारणतः हस्तपाद की अंगुलियों या पेट पर से सुरसुराहट मालूम होती हैं, जो वहाँ से प्रारंभ होकर ऊपर को जाती हुई शिर तक पहुँचते ही रोगी को मूर्च्छित कर देती है और रोग का दौरा हो जाता है। उक्त प्रकार की सुरसुराहट को डॉक्टरी की परिभाषा में श्र एपिलेप्टिका (Aura Epileptica) अर्थात् ३८७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार नसीम सुर ( मृगी की सुरसुराहट ) कहते हैं । इसके अतिरिक्त रोगाक्रमण से पूर्व शिरोशूल एवं शिरोघून होता है अथवा नासिका से एक प्रकार की गंध आने लगती है और आँखों के सामने चिनगारियाँ सी उड़ती प्रतीत होती हैं । कभी दौरे से पूर्व भयावह रूप दिखाई देते और कर्णनाद होता है, बुद्धि भ्रंश एवं किञ्चिन् निर्बलता होती, कभी ज्वरका वेग होता और कभी श्राक्षेप होकर शिर किञ्चित् एक कंधे की ओर झुक जाता है, जो एक : प्रधान लक्षण है । कभी कभी कोई रूप प्रगट नहीं होता । श्रायुर्वेद में भी प्रायः यही बातें लिखी हैं, यथा हृत्कम्पः शुन्यता स्वेदो ध्यानं मूर्छा प्रमूढ़ता | निद्रानाशश्च तस्मिंश्च भविष्यति भवत्यथ ॥ A मा० नि० । श्रर्थात् - [-- हृदय कां काँपना, हृदयकी शून्यता, स्वेदस्राव, विस्मित सा रहजाना, मूर्च्छा ( मनोमोह ), प्रत्यन्त श्रचेतता और अंनिंद्रा आदि लक्षण अपस्मार रोग होने से पूर्व होते हैं। रोगाक्रमणकालीन सामान्य लक्षण जब इस रोग का आक्रमण होता है तब रोगी साधारणतः एक चीख़ मारकर और मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता और तड़पने लगता है । हस्तपाद श्राकुचित होकर मुखमण्डल भयाar और नीलवर्ण का हो जाता नेत्रपिण्ड ऊपर को फिर जाते एवं निश्चेष्ट हो जाते हैं । परन्तु, कभी कभी उनमें गति भी होती है, हृदय धड़कता है, श्वास कष्ट से श्राता और मुँह से भाग आता है । कभी जिह्वा दाँतोके भीतर आकर कट जाती है। मूच्छ्रितावस्था में ही मल व मूत्र का प्रवर्त्तन और शुक्र का स्खलन हो जाता है । फिर एक ओर से हस्तपाद में एक झटका सा लगकर आक्षेप प्रशमित हो जाता है तथा रोगी एक सर्द श्राह भरकर कुछ काल तक मूर्च्छित पड़ा रहता है । तदनन्तर ज्ञान होने पर उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती । श्रपितु, क्रान्ति, शिरोशूल, शिरोभ्रमण, अजीण स्थानिक आक्षेप या पक्षाघात तथा बुद्धिभ्रंश आदि विकार शेष रह For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपस्मार जाते हैं । उन्मत्त के समान कमी कभी रोगीको क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । रोगाक्रमण काल ३ मिनट से १० मिनट पर्यन्त और कभी प्राध घंटा तक होता है। इस रोग के वेगकी न्यूनाधिकता विभिन्न व्यकि .. में एवं एक ही व्यक्तिको भिन्न भिन्न काल में विभिन्न होती है । यथापक्षाद्वाद्वादशाहाद्वा मासाद्वा कुपिता मलाः । अपस्मारायकुर्वति वेगं किञ्चिदथान्तरम् ॥ देवे वर्षत्यपियथा भूमौ वीजानि कानिचित् । शरदि प्रतिरोहन्ति यथा व्याधि समुछ यः॥ मा० नि०। - अर्थ-वात प्रादि दोषों के प्रकृपित होने से , वातज का दौरा बारहवें दिन, पित्तज का पन्द्रहवें दिन और कफज का तीसवें दिन होता है । कभी कभी उपयुक्र अवधि को छोड़कर न्यूनाधिक दिनों में भी होता है। उदाहरणार्थ-जैसे चौमासे में मेघ के बरसने पर भी भूमि में पड़े हुए गेहूं चने आदि बीज शरदऋतु में उगते हैं। उसी प्रकार सम्पूर्ण रोगोंके बीज रूप वात प्रादिक दोष कभी किसी मृगी आदि रोग विशेष के निदान आदि के संयोग होने से उस रोग को प्रकट करते हैं। . अतः एक रोगी को १७ वर्ष पयंत प्रति दिन रात्रि को एक बार इसका वेग होता रहा और एक अन्य ऐसे रोगी को हर रात्रि को १० बार रोग का वेग होता रहा तथा एक तीसरे को ६१ वर्ष की अवस्था में केवल ७ बार वेग हुश्रा । . पेटिट माल अर्थात् सामान्य प्रकार की मृगी अन्य नौबती रोगों के सदृश कभी नियत कोल पर सप्ताह में एक बार या मास में एक बार होती है। कभी मृगी का वेग स्वप्नावस्था में हो जातो है जिससे रोगी अथवा किसी अन्य व्यक्ति को उसकी सूचना तक भी नहीं होती। स्टेटस एपिलेप्टिका मगी रोग की वह अवस्था है जिसमें सण क्षण में बेग होते हैं। एक वेग का अंत भी नहीं होने पाता कि दूसरे वेग का प्रारम्भ हो जाता है। यह दशा अत्यंत शोचनीय होती है। एपिलेप्टिक वर्टिगो ( श्रापस्मारिक शिरोघूर्णन)। अर्थात् मृगी के कारण शिरोभ्रमण-इसमें रोगी को क्षण भर के लिए चक्कर पाकर किञ्चिन् मूळ श्रा जाती है। किसी किसी रोगी को इसका वेग इतना अल्प होता है कि समीपस्थ तथा ध्यान देने वाले व्यकियों को उसका पता नहीं लगता। और किसी किसी में अल्पसी विसंज्ञता होकर मुखमण्डल एवं ग्रीवा का तशज (आक्षेप) उपस्थित हो जाता है, नेत्रकनीनिका प्रसरित हो जाती है और एक गम्भीर श्वास लेकर रोगी होश में प्राकर काम में लग जाता है। दोषानुसार अपस्मार के लक्षण . वातापस्मार-वात के अपस्मार में रोगी 'काँपता, दाँत पीसता व चबाता, फेन का वमन करता अर्थात् मुख से झाग डालता, खर श्वास लेता और कोर (रूक्ष), धूसर व लाल, काले रंग के मनुष्यों को देखता है अर्थात् उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई उक वर्ण वाला मनुष्य उसके ऊपर दौड़ा आता है। मा०नि० । वातज अपस्मार में रोगी का पाँव काँपने लगता है, बार बार गिरता पड़ता है तथा ज्ञान के नष्ट हो जाने से वह विकृत स्वर से रुदन करने लगता, आँखें गोल सी हो जाती, श्वास लेता, मुख से झाग डालता, काँपने लगता, शिर को घुमाता, दाँतों को चबाता, कन्धों को ऊंचे करता और अंग को चारों ओर फेंकता है। देह में विषमता हो जाती और सम्पूर्ण अंगुलियाँ टेड़ी पड़ जाती है। बाखें स्वचा, नख और मुख रूक्ष, श्याव, अरुण वा काले पड़ जाते हैं। रोगी को चंचल, कर्कश, ' विरूप और विकृतानन सम्पूर्ण वस्तु दिखाई देने लगती है। वा० उ० प्र०७। पित्तापस्मार-पित्तापस्मारी के मुखके झाग, देह, मुख और आँखें पीली हो जाती हैं। वह समग्र वस्तुओं को पीतलोहित वर्णान्वित देखता है अथवा उसे ऐसा दीखता है मानो कोई पीले रंग का मनुष्य सामनेसे दौड़ा पाता है, यथा"पीतोमामनुधावति"-सुश्रुत, और सृषायुक्त होकर वह सम्पूर्ण जगत् को इस भाति देखता है मानो वह उष्णता एवं अग्नि से व्याप्त हो । . For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपस्मार ३८६ मा० नि० । बारबार चेत कर लेना, त्वचा का पीला पड़ जाना, भूमि को खोदने लगना, प्यास का लनना और भयानक, प्रदीप्त एवं क्रोधित रूप देखना श्रादि लक्षण वाग्भट्ट महोदय ने अधिक लिखे हैं । कफापस्मार - कफ की मृगी वाला रोगी सफेद रंग के रूप को देखकर ( मानो कोई श्वेत का मनुष्य सामनेसे उसके पास दौड़ा श्राता हैं ऐसा देखकर - सुश्रुत ) मूर्च्छित हो जाता है । रोगी का मुख, मुख का भाग, नेत्र और अंग सफ़ेद हो जाते हैं, शरीर शीतल हो जाता है, रोमहर्ष होता और देह में भारीपन होजाता है । श्लैष्मिक मृगी का रोगी श्रन्यान्य मुगी वालों की अपेक्षा देर में चैतन्य होता है । मा नि० । मुख से लार का अधिक गिरना और नख का श्वेत हो जाना वाग्भट्ट ने अधिक लिखे हैं । वा० उ० ७ अ० । त्रिदोषज वा सान्निपातिक अपस्मार और अपस्मार की श्रसाध्यताजिसमें तीनों दोषों के लक्षण मिलें उसे त्रिदोज अपस्मार कहते हैं । यह तथा क्षीण पुरुष का पुराना अपस्मार भी असाध्य है । जो बहुत कांपे, ate हो और जिसकी भौंह चलायमान हो और नेत्र टेढ़े हो जाएँ ऐसे अपस्मार रोगी असाध्य हैं। मा० नि० । पैतृक अपस्मार को कम लाभ हुआ करता है । अन्य प्रकार की वात व्याधियों की अपेक्षा मस्तिष्क विकार जन्य अपस्मार, चाहे वह चौपदंशिक हो या न हो, अधिकतर चिकित्स्य होता है । दन्तोद्भजन्य या श्रान्त्रविकारजन्य शैशव काल से प्रारम्भ होने वाला अपस्मार और जिसे बहुत काल हो गए हों, लगभग श्रसाध्य होते हैं । रोग विनिश्वय अपस्मारके लक्षण निम्न लिखित कतिपय रोगों के लक्षण के बहुत कुछ समान होते हैं । अस्तु, इसके निदान करने में उनका विचार कर लेना अत्यावश्यक है: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) अपस्मार तथा शिरोभ्रमणअपस्मार रोगी अकस्मात् पृथ्वीपर गिर पड़ता है और उसके हस्तपाद प्रक्षेपग्रस्त हो जाते हैं एवं उसके मुख से कफ जारी होता है। इसके विपरीत शिरोघूर्णन में यद्यपि रोगी चक्कर खाकर गिर पड़ता है तो भी न उसके हस्तपाद आक्षेपप्रस्त होते हैं और न तो मुख में भाग ही श्राता है। अपस्मार ( २ ) अपस्मार और योषापस्मारदेखो - योषा पस्मार । (३) अपस्मार और प्रक्षेपक - देखो—आक्षेपक । स्वास्थ्य संरक्षण रोगारम्भ से पूर्व जिस स्थान पर सुरसुराहट का बोध हो उससे ऊपर एक रूमाल या पटका कसकर बाँधना और वेग से पूर्व उन क्रिया का दोहराना या उक्र स्थल पर चुटकी लेना, सर्दी, गर्मी अथवा बिजली लगाना या ब्लिस्टर लंगाना ( फोस्का उत्पन्न करना ) या उस स्थल की नाही का छेदन करना, प्रायः लाभदायक सिद्ध होता है । दोनों हाथों को उपया जल में रखना मन्या पर बर्फ़ लगाना, ५-१० मिनट तक उछलना कूदना या जोर से पढ़ना, वस्तिदान, वमन कराना या विरेचन देना, २० ग्रेन कोरल एक घाउंस पानी में मिलाकर पिलाना या ग्रेन मॉर्फिया ( श्रहि फेन सत्व ) और ग्रेन ऐट्रोपीन ( धन्तूरीन ) का स्वगन्तरीय अन्तः क्षेप करना, श्रादि में मूर्च्छा न होने पर अवयवों को बलपूर्वक खींचना और शिर विपरीत दिशा की ओर घुमाना, श्वासावरोध में ईथर, कोलोफॉर्म या नाइट्रेट ऑफ इमाइल सुँघाना इत्यादि उपाय रोग प्रतिषेधक रूप से उपयोगी सिद्ध हुए हैं। For Private and Personal Use Only रोगी के शिर को तीव्र गतिसे सुरक्षित रखें । कठिन परिश्रम, अधिक अध्ययन, अति मैथुन श्रादि से तथा मद्यपान एवं अधिक सर्दी गर्मी से परहेज करना चाहिए | गतिशील एवं घूमती हुई Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार to अपस्मार चीज़ को देखना, ऊँचाई पर चढ़कर नीचे देखना, दौड़ना या घोड़े पर सवार होकर उसे दौड़ाना, स्नानागार के भीतर अथवा जिस ओर से गंदा वायु पाता हो उस ओर बैठना, मधुर, स्निग्ध व गुरु (दीर्वपाकी) एवं उष्ण श्राहार का सेवन करना, दिन में सेना, मेघ का गरजन सुनना, विद्युत की चमक को देखना और वर्षा में भीगना इत्यादि ये सब हानिकारक हैं । रोग के वेग से पूर्व जिस स्थल पर सुरसुराहट अनुभव हो वहाँ पर कपड़ा या रूमाल बाँधे या उक्त स्थल पर कोई भक्षक ( वा दाहक ) औषध लगाकर क्षत उत्पन्न करे । भक्षक योग अर्थात् ( काष्टिक )-रक मिर्च, राई और फफ्यू न इनको सम भाग लेकर खूब कूटकर भिलावें के तेल में मिलाकर उक्र स्थल पर रखकर बाँध दें। वेग के प्रारम्भ में रोगी के प्राक्षेपयुक्त अव. यव को खींच कर पूर्व अवस्था पर ले पाना प्रायः वेग को कम कर देता और कभी कभी रोक भी देता है। सऊन अजीब ( विलक्षण नस्य )बासमती चावल को श्रावश्यकतानुसार लेकर प्राकदग्धमें तर करके सुखालें । फिर बारीक पीस कर रखलें। . मात्रा व सेवन-विधि-एक रत्ती इस दवा | · को किसी नली (या इन्सफ्लेटर) द्वारा नासिका ऊँचा रखें, और दाँतों के बीच में बोतल का कार्क (काग ) या कपड़े की गद्दी रखदें । जिसमें जिह्वा दाँतों तले पाकर कट न जाए। फिर किसी पयुक नस्य था अञ्जन का प्रयोग कराएँ । कभी नाइट्रेट श्रॉफ इमाइल को ५ बुद की मात्रा में सुंघाने से वेग की तीव्रता कम होजाती है। रोगी के शिर पर शीतल जल अथवा बर्फ़ लगाएं। मुखमण्डल पर शीतल जल के छींटे मारें और जब रोगी सर्वथा निश्चेष्ट होजाए तब उसको उसी दशा में लेटा रहने दें । तत्क्षण मूर्छा निवारण का यत्न न करें। ज्ञान होने पर दो तीन घंटे तक उसकी रक्षा करें। क्योंकि कभी कभी वेग के पश्चात् रोगी मूढ़मति होकर उन्मत्त के समान निंदित कामों को करने लगता है । वेग की शांति के पश्चात् प्रायः शिरोशूल हुश्रा करता है । तदर्थ फिनेसेटीन को ५ ग्रेन (२॥ रत्ती) की मात्रामें देनेसे प्रायः लाभ हो जाता है। वेग काल में हकीम लोग प्रायः हींग और जुन्दबेदस्तर को सिकंजबीन असली में घिसकर इसके कुछ बुदकं में टपकाते हैं अथवा कुन्दश, श्वेत कटुकी या इन्द्रायन का गूदा या काली मरिच या कलौंजी, सोंड, मुर्मकी, फायून अथवा जुन्दबेदस्तर श्रादि में से जो उपलब्ध हो उसको घिसकर नस्य दें या सुदाब को सुँघाएँ अथवा ऊदसलोब जलाकर उसका धूम्र नासिका में सुँघाएँ । विराम कालीन चिकित्सा अपस्मार के वेग के प्रशमित होने और उसके स्वरूप एवं कारण का मान हो जाने पर तदनुकूल चिकित्सा की व्यवस्था करनी चाहिए। प्रस्तु, दोषों से प्रावृत्त बुद्धि, चित्त, हृदय और सम्पूर्ण स्रोतों के प्रबोध करानेके निमित्त तीक्ष्ण वमनादि का दोषानुसार प्रयोग करें। यथा वातिकं वस्ति भूयिष्ठैः पैर प्रायो विरेचनैः । : श्लैष्मिकं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ॥ ( वा० उ०७०) अर्थात्-वातिक अपस्मार में वस्ति प्रधान, प्रभाव व उपयोग-प्रतिश्याय, कफज शिरोवेदना, समलवायु, ( इसाबह ), अर्द्धावभेदक, अपस्मार, बालापस्मार और मूर्छा में लाभदायक है। सूचना-नियत मात्रा से अधिक कदापि सेवन न कराएँ । यदि एक बार में लाभ न हो तो दस पंद्रह मिनट बाद पुनः उतना ही प्रयोग में लाएँ। अपस्मार के वेग ( दौरे) की चिकित्सा जब मृगी का वेग हो, तब रोगीको ऐसे गृह में | जिसमें शुद्ध वायु का प्रवेश हो, सुरक्षित रूप से | कोमल स्थान पर सुखपूर्वक लिटाएँ । ग्रीवा, वक्ष तथा उदर के बंधनको ढीला कर दें, शिर को | For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपस्मार पैत्तिक अपस्मार में विरेचन और कफज में वमनप्रधान चिकित्सा द्वारा उपचार करें। वमन विरेचनादि द्वारा सब तरह से शुद्ध हुए तथा पेया पानादि द्वारा संसर्गी करके सम्यक श्राश्वासन किए हुए रोगी को अपस्मार की शांति के निमित्त उचित संशमन औषधों का उपयोग करना आवश्यक है। बालकों के प्रान्त्रस्थ कृमिविकार या दन्तोद्वेद होने की दशा में उनका उचित उपचार करें। युवाओं के प्रामाशय, प्रांत्र तथा यकृत की क्रिया को ठीक करें। किसी रोग के कारण यदि कोई दाँत खराब हो गया हो तो उसका उचित उपाय करें। मलावरोध न होने दें; क्योंकि इससे साधारणतः रोगका वेग हो जाया करता है । तम्बाकू, कहवा, चाय, मद्य एवं अन्य उत्तेजक औषधों से बिलकुल परहेज कराएँ। अधिक अध्ययन एवं कठिन म से बचें। उद्वेग तथा वासनाओं विशेषकर काम वासनाओं से एवं अन्य दुर्व्यसनों से सहत परहेज करें। चिंता, शोक, भय और क्रोध प्रभति मनोविकारों का अवलम्बन करना, अपवित्रता तथा विरुद्ध, तीरण, उष्ण यथा मांस और अंडे प्रभुति तथा भारी आहार करना अपस्मारी के लिए अहितकर है। स्त्रियों के अनियमित मासिक स्राव को स्वास्थ्यावस्था पर ले पाएँ । ताजी तरकारी और दूध प्रभृति आहार अधिकतर उसकी प्रकृति के अनुकूल, होते हैं। साफ स्वच्छ वायु में रहना, दैनिक शीतल जल से स्नान करना, प्रातः सायं वायु सेवन के लिए जाना, अधिक सोना, पथ्य लघु शीघ्रपाकी श्राहार का सेवन और स्वास्थ्य संरक्षण सम्बंधी नियमों का पालन करना अत्यंत उपयोगी है। अपरञ्च धूपन, अञ्जन, नस्य, शिराव्यधन (सद खोलना), भय दिलाना, बंधन, भय, तर्जन, ताडन, हर्ष, धूम्रपान, धैर्य देना, स्नान, मईन और विस्मय आदि भी उसके लिए हित हैं एवं लाल शालिधान्य का चावल, मूंग, गेहूँ, प्रतन, घृत, कूर्म ( कछुए)का मांस , धन्न रसा, दुग्ध, ब्रह्मी के | पत्र, वच, पटोल, श्वेत कुष्मांड, वास्तुक, दाहिम, शोभाञ्जन ( सहिजन), नारिकेल, द्राक्षा, श्रामला, परुषक ( फालसा ), तैल, गदहे और घोड़े का मूत्र, प्रकाश जल और हरीतकी ये अपस्मार रोगी के लिए पथ्य एवं अत्यंत हितकारक हैं । चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि मनोविकार,अपवित्रता और समं मत्स्य, विरुद्ध अन्न, तीक्ष्ण, उष्ण और भारी भोजन ये अपस्मारी के लिए अहित हैं। देश काल, अवस्था और प्रकृति आदि का विचार करके आवश्यकतानुसार निम्न योगों में से किसी एक के उचित मात्रा में उपयोग करने से अपस्मार में लाभ होता है : अपस्मार गजाश, अपस्मारारि, कल्याण चूर्ण, सूतभस्म प्रयोग, वातकुलान्तक, चण्ड भैरव, इन्द्र ब्रह्मवटो, कुष्माण्ड घृत, स्वल्प पञ्च गव्य घृत, वृहत् पञ्चगव्य घृत, महा चैतस घृत, ब्राह्मीघृत और पलङ्कषाद्य तैल, सिद्धार्थक तैल, कुमारी आसव तथा चतुर्मुख रस इत्यादि। नोट-योग, सेवन-विधि व अनुपान प्रभृति क्रमानुसार दिए जाएँगे। यूनानी वैद्यक की मत से रोग के मूलभूत कारण को दूर करें। भोजन से पूर्व व पश्चात् लघु म विशेषकर अधोशाखाओं का मईन लाभदायक है। म काल में शिर को गति न दें । वक्ष व उदर से दोनों पिंडलियों तक किसी मोटे वस्त्र से इतना मईन करें जिसमें अवयव राग युक्र हो जाएँ। प्राह्निक मध्यम अवगाहन करें। चिकित्सा (१) मिश्रित दवाएँनोट-अमिश्रित दवाएँ प्रागे वर्णित हैं। खमीरह, गावजुबान अम्बरी जद्वार ऊ.द सलीब वाला ५ मा०, अर्क गज़र (गर्ज.रार्क) वा अळ गावजुबान प्रत्येक ६ तो० और शर्बत अबरेशम २ तो० के साथ देना अपस्मार में लाभ अलीफ़ल उस्तोखुडूस ७ मा० को अर्क मुण्डी For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अपस्मार ५ तो० तथा अर्क गावजुबान ७ तो० के साथ देने से लाभ होता है। मअजून ज़बीब ७ मा० को अक्रं गावजुबान १२ तो० के साथ देना प्रायः लाभदायक होता मन जून फ्रैकरा ७ मा० अर्क , बादियान व प्रक्रं गावज बान प्रत्येक ६ तो० के साथ उपयोगी उस्तोन इस ५ मा० गदरजबूया पत्र (बिल्लीलोटनका पत्ता) ५ मा० बादियान ( सौंफ) मा० ऊदसलीब मा० जूता खुश्क ५ मा० अनीतूं ५ मा० सेवन-विधि--इनको रात में उष्ण जल में भिगोकर प्रातःकाल मल छानकर गुलकंद २ तो० सम्मिलित कर रोजाना प्रातः काल पिलाएँ और मुफ़रिह शेख्नुईस ३ मा0 को १ मा० शीरह, गाव बान १२ तो०, अर्क गाव बान और ४ तो० खमीरा बनफ़्सा के साथ देना लाभप्रद होता है। मन जून श्राको ३ मा० या मन जून कुनार ५ मा० अथवा मजून सूतिरा ४ मा० को अर्क मुण्डी या अळ गात्रज बान प्रभृति के साथ देना लाभदायक है। । सरअमिश दी व सरअ मराकी अर्थात् आमाशयिक वा श्रीन्मादिक अपस्मार इसमें प्रामाशय तथा यकृत् का ध्यान रखकर चिकित्सा करें । अस्तु, अयारिज करा, गुलकंद, मस्तगी, पुदीना और असन्तीन प्रभति औषधों द्वारा प्रामाशय को बल प्रदान करें तथा लघु और शीघ्रपाकी पाहार की योजना करें । यदि रोगी के रक्त प्रकृति होने अथवा रोगिणी के ऋतुस्राव के अवरुद्ध हो जाने से शरीर में शोणित का प्रकोप हुश्रा हो तो साफिन नाम्नी शिरा का वेधन करें (सद खोलें ) या पिंडलियों पर भरी सींगियाँ (शृङ्गी) लगाएँ तथा विरेचन दें। मधुर एवं उष्ण श्राहार व मादक द्रव्यों से परहेज़ कराएँ और अनारदाना ज़रिश्क या सुमाक अथवा श्रावग़ोरह, मिलाकर शीतल श्राहार दें। यदि रोगी शीतल और कफ प्रकृति हो जिसके ये लक्षण हैं, ज्ञान विभ्रम, शिर गौरव एवं वेग काल में मुख में कफ की अधिकता हो, अवयव शिथिल वा पालस्य पूर्ण हों तो निम्न लिखित मुभिजज व विरेचन देकर श्लेष्मा का शोधन सायंकाल उसके साथ यह योग दें, यथाजदवार १ मा० ऊद सलीब मा० खमीरा गावजुबान तो० मिलाकर रजत पत्र एक अदद सम्मिलित करके प्रथम पिलाएँ और ऊपर से शीरा बादियान ७मा०, अंजीर ज़र्द ३ अदद, अर्क बादियान, अर्क मको प्रत्येक ६ तो० में निकालकर खमीरा बनप्रशा २ तो० मिलाकर पिलाएँ और उन योग को कम से कम सात दिवस पर्यन्त पिलाएँ।पाठवें दिन उन मुजिज में सफ़ेद निशोथ, सनाय. मक्की, गुलेसुख प्रत्येक ७ मा०, माज़ फलूस ख़यार शंबर (अमलतासफलमजा) तो०, तुरंजबीन (यवास शर्करा), शकर सुख प्रत्येक ४ तो०, मगज़ बादाम ५ अदद या रोग़न दादाम ६ मा. मिलाकर विरेचन दें। दूसरे और तीसरे विरेचन में मुख्यतः मस्तिष्क शुद्धि हेतु उन रेचन के अतिरिक रात्रि को नियमानुसार हब्ब अयारिज मा० सेवन कराएँ । शुद्धि हेतु निम्नांकित वटिकाओं में से किसी एक को व्यवहार में लाएँ। (१) हब्ब मुनाका दिमाग ( मस्तिष्क शोधनी वटी)-सिब ज़र्द (पीत एला). गारीकून, तुर्बुद सफ़ेद (श्वेत निशोथ ) प्रत्येक ३॥ मा०, हब्बुनील १॥ मा०, सनमनिया मुशब्बी (भुलभुलाया हुआ सक्रमूनिया ) ४ रत्ती, इन्द्रायण मजा २ मा०, सबको कूट छानकर शुद्ध मधु में गूंध कर चने प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। आवश्यकतानुसार ७ मा. औषध को अर्क बादियान या उपयुक्त योग के साथ प्रयोग कराएँ। For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (२) हज्य सरन (अपस्मार वटी )गारीकून, उस्तोख दूस, अफ़्तीमून, बसाइज, सैंधव, ऊदसलीब प्रत्येक १ मा०, इन्द्रायन का गूदा, निशोथ, सामूनिया मुशग्वी, पीत हरड़ का बक्कल और कतीरा प्रत्येक २ मा०, अथारिज क्रैकरा ५ मा० सबको पीस कर गोलियाँ बनाएँ। सेवन-विधि व मात्रा-७ मा० उक्त औषध को अक्रमको वा अर्क बादियान के साथ सेवन कराएँ। जब अभीष्ट शुद्धि हो जाए तब निम्न लिखित योगों में से किसी एक का सेवन कराएँ । इनमें से प्रत्येक परीक्षित है (१) मजून ज़बीब-इसको मुहम्मद जकरिया राजी ने अत्यन्त परीक्षित बतलाया है। अफ़्तीमून, उस्तोख हस, अकरकरा, बसनाइज फ्रिस्तकी प्रत्येक ३ तो० को कट छान कर जबीब मुनक्का डेढ़ पाव में या सिकंजबीन असली डेढ़पाव में मिलाकर मग जून बनाएँ । मात्रा१ तो० से १॥ तो० तक । (२) हलेलह, ज़र्द,हलेलह, काबुली,बलेलह, (बहेड़ा), प्रामला, उस्तोख ह स प्रत्येक तीन तो०, उद सलीब १॥ तो०,ाकरकरहा १॥ मा० मवेज़ मुन का ॥ सेर सब दवाओंको कूट छानकर और मवेज़ मुनक्का को सिल पर पीस कर मिलाले और किञ्चिद् उष्ण करके रख ले।। मात्रा व सेवन-विधि-७ मा० इस औषध को जल के साथ सेवन करें। उपयोग–अपस्मार को दूर करता है। (३) सफ़फ़ सर मुरक्लब (यौगिक अपस्मार चूर्ण)काबुली हड़ का बक्कल, हरड़ की छाल, गुठली निकाला हुआ प्रामला, काली हड़ प्रत्येक ३ तो०, निशोथ, बसक्राइज मिस्तकी और उस्तोलह स प्रत्येक १॥ तो०, पोटासियम् ब्रोमाइड, सोडियम् ब्रोमाइड प्रत्येक २ तो०- मा. सबको बारीक पीस परस्पर मिलाले। मात्रा व सेवन-विधि-६ मा० प्रातः काल अन बादियान १२ तो० के साथ फाँक लिया करें। प्रभाव तथा उपयोग-सम्पूर्ण वातज (सौदावी) मस्तिष्क विकारों यथा मालीखोलिया, अपस्मार और अनिद्रा प्रभृति को लाभदायक है। इखितनाक ( कंठावरोध ) को भी लाभ प्रदान करता है। (४) अक्सीर सरअ - संखिया, मनुष्यके शिर की खोपड़ी भस्म की हुई, श्राकरकरहा, हिंगु, ऊद सलीब, जदवार ख़ताई प्रत्येक ७ मा०, शुद्ध प्रामलासार गंधक १॥1 मा०,सोंठ ३॥ मा०, शकर ४ मा०, सबको भृगराज स्वरस में ३ दिन लगातार खरल कर एक एक रत्ती की गोलियाँ बनाले । मात्रा व सेवन-विधि-एक गोली सुबह, एक शाम को अर्क मुण्डी ६ तो० के साथ खिलाएँ । गुण-अपस्मार के लिए अत्यन्त लाभदायक है। (५) दवाए जुनून - एक प्रसिद्ध औषध है जो उन्माद, मृगी और योषापस्मार के लिए विशेष रूप से लाभदायक है। स्वर्गवासी डॉक्टर जेबुर्रहमान प्रिंसिपल तिब्बिया कॉलेज लाहौर इस प्रौषध को अधिकता के साथ प्रयोग करते थे । हिन्दुस्तानी दवाखाना देहली प्राचीन औषधों को नवीन रंग रूप में पेश कर देश एवं कला की असीम सेवा कर रहा है। अतः उसने उक्त औषध की नव्य विधानानुसार खोज पड़ताल की है और उसका प्रभावात्मक सार प्राप्त किया है। यह क्रियात्मक सार ब्रोमाइड की तरह' श्वेत है; किन्तु उससे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली एवं लाभदायक होने के सिवा उसके प्रत्येक हानिकारक गुणों से रहित है। ब्रोमाइड के समान इसके अधिक उपयोग से किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं । इससे असीम शांति लाभ होता और तत्क्षण नींद आजाती है। अवयव व विधि-छोटी चन्दन ( यह एक बूटी है जो विहार और बंगाल में मिलती है) For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६४ श्रापस्मार को मय पत्र व फल को छाया में शुष्क कर और बारीक पीस कर रखलें । मात्रा व सेवन विधि - श्रावश्यकतानुसार २- २ मा० साधारण जल वा श्रक्र' गावजुबान के ..साथ प्रातः सायं सेवन कराएँ । -- प्रभाव व उपयोग--शामक व निद्राजनक | मुगी, उन्माद और योषापस्मार में अत्यन्त लाभप्रद है । 'डॉक्टरी मत से -मृगी की चिकित्सा में -अब तक जितनी श्रौषधें ज्ञात हुई हैं, उन सब में ब्रोमाइड्स ( ब्रोमाइड ऑन पोटासियम्, ब्रोमाइड ऑफ सोडियम् और ब्रोमाइड ऑफ़ अमोनियम् इत्यादि) अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक सिद्ध हुए हैं। इनके प्रयोग से कभी कभी तो रोगी को बिलकुल लाभ हो जाता है। किन्तु, प्रायः रोगियों को श्रौषध सेवन काल में रोग का • वेग रुक जाता है, पर श्रौषध का सेवन बन्द कर देने के थोड़े काल पश्चात् पुनः रोग का आक्रमण होने लगता है । सामान्य प्रकार की मृमी की अपेक्षा उम्र • प्रकार में और रात्रि की अपेक्षा दिनके वेगमें यह औषध अधिक लाभदायक होती है । किसी किसी रोगी में कुछ काल के सेवन के बाद ब्रोमाइड्स का प्रभाव अधिक काल स्थाई नहीं रहता और अल्प संज्ञक रोगियों में यह कुछ लाभ हो नहीं प्रदर्शित करता । तिस पर भी यह अन्य श्रौषधों की अपेक्षा श्रवश्यमेव अधिक गुणप्रद है । -इसकी मात्रा रोगी तथा रोगावस्था के अनुकूल होनी चाहिए | क्योंकि किसी किसी रोगी में . इस औषध के सहन की अधिक क्षमता होती है और किसी को अल्प । युवा की अपेक्षा बालक को इसकी अधिक क्षमता होती है । परन्तु पुरुष की अपेक्षा स्त्री को कम । ब्रोमाइड को थीड़ी मात्रा में प्रारम्भ करना उत्तम है । श्रस्तु एक युवा रोगी को १५ से ३० ग्रेन ( ७॥ से १५ रत्ती ) की मात्रा में दिन में तीन बार देना प्रारम्भ करें । श्रावश्यकतानुसार इस मात्रा में म्यूमाधिकता कर सकते हैं । अर्थात Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ड्रापस्सार.. -यदि रोगो के वेग में कमी आ जाए तो श्रौषध की मात्रा किञ्चित् कम कर दें और यदि वेश: बढ़ जाए तो औषध की मात्रा बढ़ा दें । पर यदि ३०-३० ग्रेन दिन में तीन बार देने से रोग का वेग न रुके तो इस औषध से लाभ की कम आशा होती है । क औषध का लाभदायक होना अधिकतर उसके शुद्ध और उत्तम होनेपर निर्भर है । .... खराब औषधसे साधारणतः लाभ नहीं होता । इसलिए इस औषध को विश्वस्त कार्यालय द्वारा निर्मित एवं विश्वसनीय दुकान से खरीदनी चाहिए । यदि रोग का वेग किसी विशेष समय होता हो, उदाहरणत: दिन के दो बजे, तो ऐसी दशा में औषध की एक बड़ी मात्रा ( १ ड्राम ) 'रोग के वेग से चार घंटे पूर्व देनी चाहिए । जेब वेग रात्रि को स्वंम में किसी समय होता हो तब उक्त श्रौषध को ५०-६० ग्रेन की मात्रा में रात 'को सोते समय है और यदि प्रातः काल निद्रा 'भंग होने पर वेग होता हो तो ३० या ४० प्रेन ब्रोमाड्स रात्रि को सोते समय दें और ऐसी ही एक मात्रा औषध प्रातः काल रोगी को जागते पिलाएँ । जब ब्रोमाइड्स को दो तीन बार दैनिक देना हो तब भोजन के १ घंटा बाद देना अधिक उत्तम है | श्रामाशय तथा श्रांत्र पर इसका क्षोभक प्र भाव न हो तथा मुख मण्डल श्रादि पर मुँहासे न निकलें, इस हेतु इसके साथ थोड़ी मात्रा में संखिया मिलाकर देना चाहिए। परन्तु जब इसका तत्कालिक एवं विश्वसनीय प्रभाव श्रभीष्ट हो तब इसे एक ही बड़ी मात्रा में खाली पेट देना अधिक उत्तम होता है जिसमें यह तत्काल रक्त में श्रभिशोषित हो जाए । अपस्मारी में ब्रोमाइड्सको इसके प्रयोग द्वारा पूर्ण प्रभाव प्राप्त होने से प्रथम ही बन्द कर देना उचित नहीं । इसके विरुद्ध इसको अधिक मात्रा में अधिक काल तक सेवन कराते जाना व्यर्थ ही नहीं, प्रत्युत हानिकारक भी है। क्योंकि शरीर •में जब इसका पूर्ण प्रभाव हो लेता है तब यदि For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अपस्मार ३६५ अपस्मार इसकी मात्रा कम न की जाए तो ब्रोमिम (ब्रोमाइड द्वारा विषाकता) के अप्रिय लक्षण · उत्पन्न हो जाते हैं। (इसके लिए देखोब्रोमाइड)। ब्रोमाइड्स को उपयोग सम्बन्धी कतिपय आवश्यकीय सूचनाएँ (१) विस्मृति वा बुद्धिभ्रश प्रभृति वस्तुतः स्वयं अपस्मार के सामूहिक वा सम्मिलित लक्षण होते हैं । अतः उनको ब्रोमाइड्स द्वारा विषाक्तता के लक्षण मानना भूल है। (२) ब्रोमिज़्म ( ब्रोमाइड्स द्वारा विषाक्ता) के विषैले प्रभावसे बचने के लिए उनके साथ संखिया वा बेलाडोना वा स्ट्रिकनीन (कारस्करीन ) इत्यादि को सम्मिलितकर उपयोग में लाना लाभदायक है। (३) जब तक ब्रोमाइड्स का पूरा पूरा प्रभाव न हो जाए अर्थात् औषध के विषैले प्रभाव प्रारम्भ • न हो जाएँ, तब तक उसके उपयोग को स्थगित कर देना महान भूल है। (४) मुखमण्डता वा पृष्ठ पर केवल मुंहासों अर्थात् रक्तवर्ण के दानों का निकल पाना इस बात का प्रमाण नहीं हो सकता कि शरीर में औषध का पूर्ण प्रभाव हो चुका है अथवा उसका विषैला प्रभाव प्रकट हो गया है। क्योंकि किसी किसी व्यक्रि में ब्रोमाइड्स को थोड़ी मात्रा में देने से भी मुंहासे निकल पाते हैं। अतएव प्राकथित अन्य लक्षणोंका ध्यान रखना भी प्रावश्यकीय है। ' (२) ब्रोमाइड्स के सेवन काल में यदि रोगी को लवण रहित श्राहार दिया जाए तो औषधका प्रभाव शीघ्र तर एवं श्रेष्ठतर होता है । क्योंकि प्राहार में लवण के न रहने से यह औषध शारीर एवं वाततन्तुओं में भली प्रकार 'अभिशोर्षित होती हैं। ऐसी दशा में इसकी थोड़ी मात्रा भी पूर्ण लाभ प्रदर्शित करती है। प्रस्तु, कतिपय डॉक्टरों के अनुभव इस बात के समर्थक हैं कि ऐसी अवस्था में प्रोमाइड्स को या केवल सोडियम् प्रोमाइड को ३० ग्रेन की मात्रा में | प्रति दिन सेवन कराने से दिनके भीतर भीतर रोग के वेग रुक गए। (६) ब्रोमाइड्स का प्रयोग कितने काल तक जारी रखना चाहिए ? रोग के वेग के रुक जाने के बाद तीन वर्ष तक ब्रोमाइड्स के प्रयोग को जारी रखना चाहिए । परन्तु तीसरे वर्ष में धीरे धीरे उसकी मात्रा घटा देनी चाहिए। अस्तु, एक वर्ष तक तो औषध को अविच्छिन्न प्रयोग में लाना चाहिए और फिर सप्ताह में एक दो दिन नागा करा देना चाहिए। डेढ़ वर्ष पश्चात् प्रति दूसरे दिन औषध देनी चाहिए और दो वर्ष पश्चात् सप्ताह में दो बार औषध देना पर्याप्त है। (७) जब पैतृक ट्युबर कलोसिस (क्षय ) के कारण या अभिघात जन्य वा गिर जाने से मस्तिष्क को भाघात पहुँचने के कारण मृगी होती है अथवा बालकों को दन्तोद् जन्य तथा युवानों में उपदंश जन्य मृगी होती है तब उक्त अवस्था में रोग के मूल कारण को तदोक उपचार द्वारा दूर करना चाहिए । उन रोगों के उचित उपचार द्वारा अपस्मार को भी लाभ हो जाता है । अस्तु, उपदंश जन्य मृगी में पुटासियम् आयोडाइड से लाभ होता है और इसी प्रकार औरों को भी। अतएव जब तक असल रोग का उचित उपाय न किया जाए तब तक ब्रोमाइड्स के उपयोग द्वारा कुछ भी लाभ नहीं होता। इसी प्रकार स्त्रियों में जब ऋतु दोष बा मानसिक विकार के कारण यह रोग हो अथवा पुरुषों में जब हस्तमैथुन इसका कारण हो तो जब तक रोग के मूलभूत कारण सर्वथा दूर न हो लें तब तक केवल ब्रोमाइडस के उपयोग से इस रोग को बिलकुल आराम नहीं होता। .. (= ) प्रोमाइड्स से अभिप्राय है-(%) प्रोमाइड ऑफ़ पुटासियम्, (ख) ब्रोमाइड ऑफ सोडियम्, (ग) ब्रोमाइड प्रॉफ अमोनियम्, ' (घ) प्रोमाइड ऑफ स्ट्रॉशियम् और (2) ब्रोमाइड ऑफ़ लीथियम् प्रभृति । कोई डॉक्टर तो इनमें किसी एक को अकेले ही देना अधिक उत्तम For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अपस्मार www.kobatirth.org ३६६ ख़्याल करते हैं; किन्तु उनमें से अधिकांश प्रथम तीन को मिलाकर देते हैं । ( 8 ) जिन अपस्मार रोगियों को ब्रोमाइड्स से किञ्चिन्मात्र भी लाभ नहीं होता, उनको बोरे - क्स ( टंकण ) के उचित उपयोग से प्रायः लाभ हो जाता है। इसलिए इस औषध की अवश्य परीक्षा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कतिपय अन्य औषध यथा ब्रोमीपीन, जिंक श्रीक्साइड ( यशद भस्म, यशदोष्मिद ), कस्तूरी, कर्पूर, भंग, हींग और बालछड़ प्रभृति इस रोग की चिकित्सा में बरती जाती हैं और कभी कभी इनसे लाभ होता है । ( १० ) अपस्मारी को यदि मलेरिया ज्वर ( विषम ज्वर ) हो तो ज्वर को रोकने के लिए उसे क्वीनीन सल्फेट नहीं देना चाहिए। क्योंकि मृगी में प्रायः उससे हानि होती है । अस्तु, उसके स्थान में क्वीनीन वेलेरिएनेट या क्वीनीन आर्सिनेट को उचित मात्रा में देना चाहिए । कतिपय अन्य औषध ( १ ) कामवासना तथा मैथुनाधिक्य वा हस्त'मैथुन आदि कारणों से हुए अपस्मार में मॉनो. ब्रोमेट ऑफ़ कैम्फर ( Monobromate of Camphor ) को ५५ ग्रेन की मात्रा में दिन में ३ बार देने से और क्रमशः इसको ५ ग्रेन के -स्थान में १०-१५ ग्रेन तक बढ़ाकर देने से प्रायः लाभ होता है । इस दवा को २-२ ग्रेनकी पलज़ ( मुक्रिकावत् वटिका ) की शकल में देना उत्तम है। ( २ ) रजः रोध जन्य मृगी में यह गोलियाँ लाभदायक हैं— १०. येत्र एक्सट्रैक्टाई न्युसिसवामिकी पिल्युली एलोज़ एट मिही दोनों को मिलाकर ३६ गोलियाँ बनाएँ । 11- सेली दिन में दो बार प्रातः सायं भोजन के २ डाम (३.) यद्वि अपस्मार रोगी अनीमिक (रक्लाउपता का मरीज ) हो तो उसको लौह के हलके .. योग देने चाहिए । Fo V3 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार उदाहरणतः - फेराई एट एमोनिया साइट्रास या रेडा या स्टील वाइन प्रभुति देना लाभदायक होता है। मत्स्य तैल भी ( यदि पच जाए ) साधारण मृगी में लाभदायक 1 ( ४ ) वेग के पश्चात् यदि रोगी अधिक काल तक मूच्छिंत पड़ा रहे तो उसके सिर पर बर्फ और गुही (मन्या) पर ब्लिष्टर लगाना लाभप्रद होता है। ( * ) स्टेटस एपिलेप्टिक्स ( Status Epilepticus ) अर्थात् श्रविच्छिन्न अपस्मार जिसमें रोगवेग मूर्च्छा में अंत होता है तथा मूर्च्छा रोगवेग में । यह दशा अत्यन्त भयावह व घातक होती है। इसमें रोगी को सुरक्षित रूप से कोरोफॉर्म या ईथर सुँघाना या मार्फीन ( अहिफेनीन ) 2 ग्रेन और ऐट्रोपीन १ १०० ४ ग्रेन वा हायोसीन हाइड्रोब्रोमेट 2 ग्रेन का १०० स्वस्थ अन्तःक्षेप करना या कोरल हाइड्रेट ४० ग्रेन को ४ श्राउंस पानी में विलीन करके इसकी वस्ति (एनिमा ) करना लाभदायक है । अपस्मार तथा सर्प-विष अपस्मार में मम दिवस के अन्तर से सर्पविष ( Cobra venom ) के ग्रेज़ की मात्रा का ३-१ स्वगन्तः प्रस्तःक्षेप करें। फिर १४- १४ दिवस के अंतर से 2 प्रेमकी मात्रा १ २०० ७५ १ २५० का दो श्रन्तःक्षेप और करें। बस यह काफ़ी है; अन्यथा १-१ मास के अंतर से इसकी ग्रेन की मात्रा का १ वा अधिक अन्तःक्षेप और करें । इतने पर भी यदि लक्षण विद्यमान हों तो इसको 2 ग्रेन की मात्रा में या रोगी की अवस्था, प्रकृति २५ वा रोग के वेग के अनुसार इसकी सम्मा कम कर अन्तःक्षेप द्वारा प्रयुक्त करें । For Private and Personal Use Only यह क्रोटेलस हॉरिडस ( Crotalus hor• ridus या रैट्ल स्नेक ( Rattle sna ke ) जाति के साँप के किप से प्रस्तुत किया Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अपस्मार www.kobatirth.org विष निकाल कर जाता है । जीवित साँप का उसको बेल - जार में रख कर धूप में शुष्क कर लेते हैं । इसके ऐम्पुल्स बनाए जाते हैं जिनमें ग्लीसरीन और जल का विलयन सम्मिलित होता है । उक्त विलयन में पचननिवारक रूप से टिकेसोल ( Tricesol ) भी योजित किया जाता 1 फुफ्फुस विकार, राजयक्ष्मा और श्वास में भी वगन्तः श्रन्तःक्षेप द्वारा प्रयुक्तकर इसकी परीक्षा की गई है । श्रभ्यन्तर रूप से इसका क्वचित ही प्रयोग होता है | ( Extra Pharmacopora of Martiudale ). ३६७ नोट- आयुर्वेदीय चिकित्सा में श्राभ्यन्तर और बहिर दोनों प्रकार से इसका प्रयोग होता | देखो - सर्प | कतिपय अन्य परीक्षित योग- (१) जुन्दवेदस्तर ६ मा० कस्तूरी ६ मा० जटामांसी १ तो० नौसादर १ तो० उष्ट्र नासिका कीट ४ मा० इन सम्पूर्ण औषधों का चूर्ण कर हस्ति विष्टा के रस से संप्ताह पर्यन्त खरल कर ३ रत्ती प्रमाण की वटिकाएँ प्रस्तुत करें । लशुन हिंगु कर धत्तूर बीज इन्द्रायन का गूदा काली मरिच अजमोद सेवन विधि - पान के रस से श्रावश्यकतानुसार १ से ३ गोली तक सेवन कराएँ । ( २ ) वच ब्राह्मी १ सो० १ तो० १ तो० ६ मा० ६ मा० ६ मा० १ तो० १ तो० १ तो० इन सबको कूट छान कर चूर्ण प्रस्तुत करें | फिर हस्तिविला के रस से सप्ताह पर्यन्त खरल - कर ६ रती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार अनुपान पान का रस मात्रा--१ रत्ती से ४ रती तक । ( ३ ) धवलबरुश्रा का येन केन प्रकारेण उपयोग अत्यंत लाभप्रद सिद्ध होता है । देखो -- धवलवश्रा । (४) डॉक्टरी योग- श्रमोनिया ब्रोमाइड अमोनिया वेलेरिएना ferte कैम्फर सोडा बाइ कार्य एक्वा प्योरा यह एक मात्रा है । ऐसी ही तीन मात्रा श्रौषध प्रातः, मध्याह्न और सायं को देनी चाहिए । अपस्मार में 'प्रयुक्त होने वाली मिश्रित और श्रमिश्रित औषधें । (मिश्रित षध) ५ ग्रेन १० ग्रेन For Private and Personal Use Only १५ बुद १० ग्रेन १ श्राउंस श्रायुर्वेदीय कर्पूरे, वच, अडूसा, पलाण्डु, श्वेत कुष्मारड, ब्राह्मी, श्वेत सर्षप, शङ्खपुष्पी, धत्तूर, छागमूत्र, काकफल ( काक नासिका ), तेजबल ( उगरू - बं० सं० ), कुसरुएट ( बुन्दर-बम्ब० ), कर्पास, गंधक और उसके योग, भल्लातक, रीठा, जल ब्राह्मी, खुरासानी अजवाइन, बेडार्ली ( Club Moss ), शोभाञ्जन, जटामांसी, केतकी (केवड़ा), अजमोदा, सोडियम और उसके लवण | यूनानी (१) टङ्कण भुना हुआ १ से २ माशे तक ६ माशे शुद्ध शहद में मिलाकर कुछ दिवस पर्यंत प्रतिदिन प्रातःकाल खिलाना इस रोग में लाभप्रद है। (२) हिंगु १ से २ माशे मधु ६ माशे या सिकञ्जबीन अन्सुली (सिकम्जबीन बनपलाण्डु ) २ तोला में मिलाकर हर प्रातःकाल को चटाना लाभदायक है। (३) बादरंजबूया ( बिल्लीलोटन ) ३ माशे ६ माशे मधु में मिलाकर प्रति दिवस प्रातःकाल चटाना गुणप्रद है । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मार ३ अपह (४) कलौंजी १ माशे पोसकर सिकंजबीन (२) अश्व अपस्मारअन्सली २ तोला या मधु ६ माशे में मिलाकर घोड़े की मृगी के लक्षण-अपस्मारी अश्व देना भी उपयोगी है। अकस्मात् पृथ्वी पर गिर पड़ता है। नेत्र स्तब्धता, . (५) सोसन को जड़ ७ माशे का काथ कर विसंज्ञता आदि लक्षण होते हैं और जो शीघ्र २ तोला शर्बत बरेशम के साथ देना गुणकारक स्वस्थ हो जाता है उसको अपस्मार से पीड़ित जानना चाहिए। . (६) जंगलो तितली १ माशे, अंगूर का रस चिकित्सा-कुशल वैद्य को इसमें सम्पूर्ण २ तो० और अर्क गाव जुबान है तो के साथ देने उन्मादोक्र क्रिया का अवलम्बन करना चाहिए। से लाभ होता है। ऐसे घोड़े को अत्यन्त पुराना धी पिलाना लाभ(७) अकरकरा १ से २ माशे पीसकर दायक है। जयदत्तः। सिकंजबीन अन्सली २ तो. के साथ देने से लाभ अपस्मार apasmára-gajánkuप्रदर्शित होता है। shah-संक्लो० हींग, काला नमक, त्रिकुटा डॉक्टरी औषध इनको सम भाग लेकर पृथक् पृथक् एक एक दिन गोमुत्र में घोटें । फिर उसमें ४ मा० शुद्ध मूछित आलियम् क्रोटनिस (जयपाल तैल ), अमो पारा मिलाकर घोटकर रक्खें । मात्रा-१ मा० । निया वेलेरियाना, श्रोलियम् महुइ, प्रालियम् इसके सेवन से अपस्मार और उन्माद का नाश टेरेबिन्थोनी, अर्जेएटाई नाइट्रास, आर्टिमिशिया, अमोनिया ब्रोमाइड, अमोनिया काबोनास, होता है । र० यो० सा०। अर्जेण्टाइ क्रोराइडम्, अर्जेंटाइ नाइट्रास, आर्से अपस्मारारिः apasmārārih-सं० पु. नीलानिक, ऐएिटपाइरीन, ईथीलीन प्रोमाइड, एपोम थोथा, पारा, गन्धक, सम भाग लेकर बहु काल आइनि, एमाइल नाइट्रास, एसाफिटिडा ( हिंगु), पर्यन्त गिलोय के रस में धोटें. फिर सावधानी के एलिटेरियम्, एलोज़ (मुसब्बर ), एलेक्ट्रिसिटि, साथ शरावों में बन्द करके कपड़मिट्टी कर २-३ (विद्युत् ), कुप्राइ अमोनिया सल्फास, कुप्राइ जंगली कण्डों की प्राग दें । फिर निकाल कर दिन केले के रस से घोटें तो यह सिद्ध होगा। सल्फास, कैम्फर ( कपूर ), कैप्टर ( एरंड), क्विनाइन, क्रोरोफॉर्म, कोनियम्, क्वीन आर्से नेट, मात्रा-२ रशी । इसे ब्राह्मी या घृत के योग केलोमेल, कालोसिन्थिस, जिन्साई ऑक्साइडम्, से देने से अपस्मार दूर होता है। इसमें ककारादि जिन्साई सल्फास, जिंक लैक्टैट, जिन्साइ वर्ग वा स्त्री सहवास से परहेज करना चाहिए । वेलेरियानम्, जिंक साइट्रेट, ड्राइकपिंग, नक्स र० यो० सा०। वॉमिका (कारस्कर ), धारा स्नान, नाइट्रो अपस्मारो apasmāri-हिं० वि० [सं०] जिसे ग्लीसिरीन, डिजिटेलिस, पोटाशियम ब्रोमाइडम, अपस्मार रोग हो ।(Epileptic.) लम्बाइ नाइट्रास, फॉस्फर्स, फेरि को०, बिस्मथम् एलबम्, बेलाडोना, बोरक्स, ब्रोमाइडम्, मस्क अपस्वरम् apasvaram-(अव्य०), अपशब्द, स्वाभाविक स्वर से नीचा स्वर, हीनस्वर । (कस्तूरी), ब्रोमीपीन (ब्रोमीनोल), मष्टर्ड (राई), ल्युमिनोल, वेलेरियन, विराट्राम एलबम्, (Low-voice ) वा० शा० ५ १०४० साम्बल, सोडिभाइब्रोमाइडम्, स्ट्रॉण्टियम ब्रोमा श०। इडम, सिरियाइ अक्जालास, स्ट्रमोनियाइ अपह apaha-हिं० वि० [सं०] नाश करने (धुस्तर), स्टानाइ कोराइडम, लीथियम ब्रोमाइडम, वाला । विनाशक । हाइड्रोनोमिक एसिड, हाइड्रोक्लोरिकम और यह शब्द समासांत पद के अन्त में प्रायः जिंक साइट्रेट, जिंक लैक्टेट,ऐण्टिपाइरीन इत्यादि । प्राता है। जैसे, वेशापह । रोगापह । उवरापह । For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ , अपात अपहा. apahā-अपहा ( प्रत्यय) हन्ता, मार | (४) ग्रीवा से ऊपर के मर्मों में से उक्र नाम के ... डालने वाला । हत्यारा, हिंसक, वधिक । ( Ki- दो मर्म विशेष । सु०. शा० ६ ० (५) ller, -cide ). . 'आँख की कोर ( या कोना.), नेत्र कोण, कटाद । अपक्ष apaksha-हिं० वि० (१) पक्ष रहित, ... (Corner of an eye)। (६) दोनों नेत्रों के निःसाहाय्य (helpless) । (२) पंख रहित । | - बाहर की ओर भौवों की पुच्छीके नीचे उन नामके अपक्षिप्त apakshipta-हिं० वि० [सं०] /... दो मर्म हैं । वा० शा० ४ ०। (७-० लट. (१) अपक्षेपण की क्रिया द्वारा पलटाया बा | ... जीरा, अपामार्ग, चिर्चिा । ( Achyran. फेका हुा । (२) फेका हुश्रा | गिराया हुश्रा || . .. . thes aspera.). .. पतित । अपाङ्गकः apangakah-सं० पु. अपामार्ग अपक्षेपण apakshepana-हिं० संज्ञा पु -तुप, चिर्चिटा-हिं० । पापा-बं० । (Achy [सं.][वि अपक्षिप्त ] फेकना । पलटाना । ranthes aspera.) ले०।२० २०। (२) गिराना, च्युत करना । ( ३) पदार्थ | अपाङ्गकबूलम् apangaka-mālam-सं०क्ली० विज्ञान के अनुसार प्रकाश ( तेज) और शब्द की | देखो-अपाङ्गमल । गति में किसी पदार्थ से टक्कर खाने से व्यावर्शन | अपाङ्गमूल apangamāla-बं० अपामार्ग की होना, प्रकाशादि का किसी पदार्थ से टकरा कर | जड़ | Achyranthes aspera (Root पलटना । ( ४ ) वैशेषिक शास्त्रानुसार पाकुचन, | |... of-). . प्रसारण प्रादि पाँच प्रकार के कर्मों में से | अपाङ्गदर्शन apanga-darshana-हि० पु. एक । तिरछी नजर से देखना । ( Aside glaअपाकः apākah-सं० पु० ) . nce, a lee1', a wink.). .. अपाक apāka-हिं० संज्ञा पु० अपाङ्गया apāngya सं० स्त्री० ( Zygoma: (Indigestion ) अजीर्ण, अपच । (२) ___tico arbital) - पाकाभाव ( कच्चापन ) । Immaturity | अपाचीनम् apāchinam-सं• क्ली० दूर करना । - (३) उदरामय । आँव, पाम | नष्टकरना । अथवं । अपाकरण apakarana-हिं० संज्ञा पुं० अपादवम् apatavam-सं० क्ली० . -- [सं०][वि० अपाकृत ] | पृथक्करण | अलग | अपाटव aparava-हिं• संज्ञा पुं... करना। (१) अपाटव, रोग, बीमारी । (A disease); अपाकशाकम् apakashakam-सं० क्ली० ।। ' (२) जाड्य, जड़ता, शीतलता | (Anestheअपाकशाक apākashāka-हिं० संज्ञा पु. | sia.) रा०नि० व० २० । (३) बादा, भूख । अदरक, आद्रक, अादी । श्रादा-बं० । पाले- ( Hunger')। (४) मद्य, शराब । (५) - मह । ( Green ginger ) रा० नि० पटुताका अभाव । अकुशलता अनाड़ीपन । (६) घ०६। अचंचलता | मंदता सुस्ती । (७) कुरूपता । . अपाङ्गः apangah-सं० वि० बदसूरती। अपाङ्ग apanga-हिं० वि० वि० (१) रोगी, बीमार । (२) जड़ । (१) अंग भंग,अङ्गहीन (Crippled)। मे०। (३) भूखा । (४) अपटु, अनाड़ी । (५) संज्ञा पु. (२) Canthus ( The .. अचंचल । ( ६ ) कुरूप। ... outer corner of the eye ) नेत्र अपात apata-सं०. वनराज ( Bauhinia. प्रान्त । रा०नि० व० १८ । (३) तिलक | तिल | .... racemosa; Lam., Hook. eler) फॉ (Sesamum Indicum) मे गत्रिकम् । ई.१ भा० ५३७ पृ०।-हि०वि० पत्रशून्य । For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपादान ४०० अपामर्ग प्रवादान apādāna-हिं. संज्ञा पुं० [सं०] (२) गुदास्थ वायु । पाद । पईन । गोज़ । (१) हटाना। अलगाव । विभाग । (२) ग्रहण । | अपां धातुः apāndhātuh-सं० पु. रस, जल, ( The taking from a thing). । मूत्र, स्वेद, मेद, कफ, पिरा और रक इत्यादि । अपानः apanah-सं० पु. (१)-क्ली० गुदा, भा० म० १ भा० अतिसा० चि० । “संशम्यामलद्वार, चूति । एनस । (Anus)-इं०। रा० पांधातुरग्निः प्रवृद्धः ।" नि०व०१८ । वा० सू० ११ १० । (२) अपान अपांपित्तम् apanpittam सं. क्ली. चित्रक देशीय पवन, गुदा में रहने वाली अपान वायु । वृत्त, चीता। (PlumbagoZeylanica). अम०। (३) अपान, अर्थात् मन्या पृष्ठ, पृष्टांत अम०। तथा पाणिं ( एणी) में जाने वाली धायु । हे० अपानोन्नमनो apanonmamani-सं० स्त्री० च० ४। (४) दस वा पाँच प्राणों में से (Levator ani). गुदोत्थापिका । एक एक। इन्हीं तीन वायुओं में से कोई किसी पेशी विशेष । को और कोई किसी को अपान कहते हैं--(क) अपा-पित्तम् apa-pittam-संक्लो० चीता वृत्त, वायु जो नासिका द्वारा बाहर से भीतर की ओर चित्रक | ( Plumbago Zeylanica). खींची जाती है। (ख) गुदास्थ वायु जो मल मूत्र को बाहर निकालती है। (ग) वह वायु अपामार्गः a pāmārgah-सं० पु० जो तालु से पीठ तक और गुदा से उपस्थ तक अपामार्ग apāmārga-हि. संज्ञा प० व्याप्त है। (५) वायु जो गुदा से निकले। चिचड़ा(-रा ), चिर्चिरा, लटजीरा, चिचड़ी, देखो-वात(वायु)। ऊँगा, ऊँगी, अमाझारा-हिं० । अकिरैन्थीस, GETTI ( Achyranthes Aspera, नम् apanam-सं० क्ली० ( Anal Linn, ), अकिरैन्थीस इंडिका AchyranDrifice) गुदा, मलद्वार, चूति । thes Indica.. Roxb., बाइडेण्टेटा Bideअपान त्वक् संकोचनी apāna-tvak-sanko nta ta, अकीरैन्थीस अॉन्ट्युज़िफ़ोलिया ___chani-सं० स्त्री० ( Corrugator Achyranthes Obtusifolia, Lamb, cutis ani ) मलद्वार सोचनी। अकीरैन्थीय स्पिकेटा Achyranthes अपाकेष्टाः apākes htāh-सं० पु० अकेला । Spicata Burm.-ले० । रफ चैफ़ ट्री अथर्व० । सू०६। १४ । का० ८ । Rough Chaff tree, प्रिक्ली चैफ़ फ्लावर अपान-देशः apāna-deshah-सं०पु० गुददेश। Prickly chaff Flower-इं० । अथर्व. (Anal region ). व० निघ०। सू० १७ । ८ | का० ४। सु० सू० ३६ अ. मपान नाली apana-nāli-सं०स्त्रो० (Anal शिरी चि.। canal ) गुदा। संस्कृत पर्याय--शैखरिकः, धामार्गवः, अपान वायु apana-vayu-हिं० संज्ञा पु. मयूरकः, प्रत्यकपर्णी, कीशपर्णी, किनिही, खर[सं०] (१) पांच प्रकार की वायु में एक । मुजरी (अ) अपाङ्गकः, किनिः, कीशपर्णः, चमत् अपान वायु के कर्म - रुक्ष और भारी अन्न कारः, (शब्दर०), शैखरेयः, अधामार्गवः, के खाने से मल मूत्रादि के वेग रोकने से, सवारी केशपर्णी (अ० टो०), स्थलमजरी, प्रत्यपुष्पी पर अधिक बैठने से, अधिक चलने से, अगम्य क्षारमध्यः, अधोघंटा, शिखरी (र), दुर्ग्रहा स्थानों में जाने से, अपानवायु कुपित होकर मूत्र (भा० ), दुर्ग्रहः, अध्वशल्यः, कान्तीरकः, दोष, शुक्र दोष, अर्श और गुदभ्रश तथा अन्य मर्कटी, दुरभिग्रहः, वासिरः, पराक्पुष्पी, कण्टी, कष्टसाध्य पक्वाशयगत रोगों को उत्पन्न करता कर्कटपिप्पली, कटु मञ्जरिका, अघाटः, तरकः, है। धा नि० अ० १६ । पाण्डूकण्टकः, नाला कण्टकः, कुब्जः, मालाकण्टः, For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ܪܲ9o अपामार्ग कहीं भी देखने में नहीं आता। उपरोल्लिखित कल्पित अर्थ के निर्देश द्वारा खोरी महोदय ने यह बुझाना चाहा है कि अपामार्गक्षार द्वारा रजक (धोबी) वस्त्र को परिष्कृत करता है । अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित कृत "अपमाजन्त्यनेन" इस अर्थ द्वारा जहाँ खोरी महोदय के उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है, वहाँ उन्होंने उक्त कल्पित अर्थ की रचना करने का क्रेश क्यों स्वीकार किया? वानस्पतिक-वर्णन-अपामार्ग एक प्रकार का फलपाकांत तुप है । यह वर्षा का प्रथम पानी पड़ते ही अंकुरित होता है, वर्षा में बढ़ता, शीत काल में पुष्प व फल से शोभित होता और ग्रीष्म ऋतु के सूर्य ताप द्वारा फल के परि. पक्व होने के साथ ही सूख जाता है। इसका क्षुप १॥ या २ फुट दीर्घ और कभी कभी इससे भी अधिक उच्च होता है। प्राघाटः, प्रत्यक पुष्पी, खरमञ्जरी, पंकिकराटकः, रक्रविन्दुः, अल्पपत्रकः, क्षवकः, किणिही, तथा व्रणहन्ता । अपाङ्, चिचिरि, ओपङ्, आपाङ् | -बं०। अत्कुमह - अ० । खारे-वाजगूनह , खारेवाज -फा० । पुष्कण्ड, फुटकण्डा, कुत्री-पं० । चिर्चिरी-विहा० । अगाड़ा, अघाड़ा-द० । नायुरिवि, शिरु-काडलाडी-ता० । उत्त-रेणि, अण्टिश, अपामार्गमु, प्रत्युक्-पुष्पि, दुच्चीणिके -ते०, तै० । कटलाटि, कडालाडि-मल०। उन्नाणि-गिडा, उत्तराणि, उत्तैरणि, उत्तरणे -कना० । उमाणिच-झाड, श्राघाड़ा, प्राधेड़ा (पांडर अघाड़ा-श्वेतापामार्ग)-मह० । अधेड़ो, झिजरवट्टो-गु० । गस्करल-हेब्बो-सिं० । किव-ला-मौ, कुने-ला-मौ-बर्मी० । सुफेद आँधीझाडो, आँधा-झाडा-मा० । अंधाहोजी -राज०। उत्तरणे--का० । उत्तरैणि--को । अघाड़ा, चिचिया--बम्ब० । ... तण्डुलीय वर्ग (V.O. Anuranlaceae) उत्पत्ति-स्थान-सर्वत्र भारतवर्ष तथा एशिया |' के वे भाग जो उष्ण कटिबन्ध पर स्थित हैं। संज्ञा-निर्णय-डिमक महोदय ( २ य खंड १३६ पृ०) "श्रध्वशल्य" शब्द का अर्थ "Roadside rice" अर्थात् पथिपार्श्वस्थ तण्डुल ( मार्ग के किनारे का चावल ) करते हैं। परन्तु शल्य शब्द का अर्थ तण्डुल नहीं, प्रत्युत शरीर में जिससे कुछ भी पीड़ा उत्पन्न हो उसको शल्य कहते हैं। डवण मिश्र लिखते हैं :'यत्किञ्चित् अवाधकरं शरोरे तत्सव मेव प्रवदन्ति शल्यम्' (सू० टी० म अ.)। अपामार्ग की मञ्जरी कर्कश होती है और उसका वस्त्र वा गात्र से स्पर्श होने से शप्रद होती है इस कारण उसको मार्ग का शल्य कहा गया है। खोरी महोदय (१म० खं०। ५०४ पृ०) अपामार्ग का यह अर्थ करते हैं,-अप या श्राब% जल+मार्ग=रजक, धोबी (Apa or ab water and márga a Washerman) 1 यह अर्थ अपूर्ण है। मार्ग शब्द का रजक अर्थ | काण्ड वा साधारण वृन्न सीधा, खड़ा, चिपटा, चौकौना (रक अपामार्ग की शाखाएँ रक वण की होती हैं ), धारीदार और लोमश होता है। पाश्विक शाखाएँ ( पार्श्व वृन्त, ) युग्म, परिविस्तृत; पत्र अति सूक्ष्म शुभ्रवण के रोम से श्रावृत्त, अण्डाकार, पत्र प्रान्त सामान्य, अधिक कोणीय, नोकीले आधार पर पतले (रकोपामार्ग के पत्र पर रनविन्दवत् दाग होते हैं ); पत्रवृन्त पत्ते की डंडी) लघु; दोनों प्रकार के अपामार्ग की मञ्जरियाँ दीर्घ, कर्कश ( इसी कारण इसका 'खरमञ्जरी' नाम पड़ा); पुष्प लघु, हरित वा लाल तथा बैंगनी मिले हुए रंग के जो मयूर कंवत् होते हैं। इसीलिए इसको मयूरक नाम से अभिहित किया गया है । बेक्ट्स कठोर तथा कण्टकाकीण होते हैं। फल के भीतर बीज होता है। यह आयताकार, धूसर वर्ण का, १ से १ इंच लंबा (बीज) होता है। तण्डुलवत् होने के कारण इसको अपामार्ग तण्डुल कहते हैं। इसका स्वाद तिक होता है। श्वेत, कृष्ण और रक्त भेद से अपामार्ग तीन For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपामार्ग प्रकार का होता है । ये सब गुण में भी भिन्न भिन्न होते है । ( रा० नि० ) अपामार्ग के प्रभाव तथा प्रयोग । आयुर्वेद की दृष्टि से - रासायनिक संगठन - बीज में अधिक परिमाण में क्षारीय भस्म होती है जिसमें पोटास वर्तमान होता है । (मेटिरिया मेडिका श्रॉफ इंडिया - श्रार० एन० खोरी, २. ५०४ ) । प्रयोगांश-तुप ( पञ्चांग ) अर्थात् शाखा, पत्र, मूल, तथा बीज | औषध निर्माण - ( १ ) पत्त े का स्वरस, मात्रा - १ तो० । ( २ ) क्वाथ तथा शीत कषाय, मात्रा - १ छ० से २ छ० । ( ३ ) मूल, मात्रा४ मा० से ६ मा० तक | ( ४ ) बीज चूर्ण, मात्रा - ४ आने से ६ थाने तक ( वजन में ) । (५) क्षार । ( ६ ) मूल चूर्ण । ( ७ ) मूल कल्क | ( ८ ) औषधीय तैल | इतिहास - शुक्र यजुर्वेद के अनुसार वृत्र एवं अन्य दैत्यों को मार डालने के बाद नमुचि द्वारा पराजित हुश्रा और उसे किसी सान्द्र वा द्रव पदार्थ से तथा न दिन में और न रात में ही कभी न मारने का वचन देकर उससे संधि कर ली । परन्तु इन्द्र ने कुछ फेन एकत्रित किए जो न द्रव है और न सांद्र और नमुचि को प्रातः सूर्योदय और रात्रिके मध्यकाल में मार डाला | उस दैत्य के सिर से अपामार्ग का छुप उत्पन्न हुआ जिसकी सहायता से इन्द्र सम्पूर्ण दैत्यों के वध करने में समर्थ हुआ । अब यह पौधा अपने प्रबल जादूमय प्रभाव के लिए प्रसिद्ध है और ऐसा माना जाता है कि बिच्छू एवं सर्प को वातग्रस्त ( स्तब्ध ) कर यह उनके विरुद्ध उनसे हमारी रक्षा करता है । नरकचतुर्दशी वा दिवाली के त्यौहार के पहिले दिन की सुबह को अत्यन्त तड़के स्नान के समय इसको शरीर के चारों ओर घुमाते हैं । श्रथर्वेद में भी अपामार्ग का विस्तृत वर्णन श्राया है । ( देखो - श्रथर्व० । सू० १७/ ८। का० ४ । ) ४०२ अपामार्ग स्वाद में तिल और कटु, उष्ण वीर्य, कफ नाशक, ग्राही तथा वामक है और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग बवासीर, खुजली, उदररोग, श्रम तथा रक्र का हरण करने वाला है । "रक्रापामार्ग शीतल, कटुक, कफ वात नाशक, वामक तथा संग्राही है और व्रण, खुजली और विष को नष्ट करने वाला है । धन्वन्तरीय निघंटु । रा० नि० ० ४ | सर अर्थात् विरेचक और तीच्ण है । वा० सू० १५० शिरोविरेचन । "पृश्निपर्णी त्वपामार्गः ।" च० द० सन्निपात ज्व० चि० । अपामार्ग दस्तावर, तीच्ण, दीपक, कड़वा, चरपरा, पाचक और रोचक है तथा वमन, कफ, मेद के रोग, वायु, हृद्रोग, अफरा, बवासीर, खुजली, शूल, उदर रोग और अपची रोग को नष्ट करता है । रक्तापामार्ग वातकारक, विष्टंभी कफवद्ध के, शीतल और रूक्ष है । यह पूर्वोक्र अपामार्ग की अपेक्षा गुण में न्यून है । अपामार्ग के फल ( चावल ) खाने से जीर्ण नहीं होते अर्थात् पचते नहीं हैं, पाक में चरपरे, मधुर विष्टंभी, वातकर्ता, रूखे श्रीर रक्तपित्त को दूर करने वाले हैं । भा० पू० १ भा० । अपामार्ग अग्नि के समान तीक्ष्ण, क्लेदन और परम स्रंसन है । राजवल्लभः । अपामार्ग के पत्र रकपित्त नाशक हैं । मद० व० १ । श्वेत अपामार्ग स्वादमें तिक्र, ग्राहक, दस्तावर, किंचित् कटु, कांतिकारक, पाचक तथा श्रग्नि प्रदीपक है और वमन में एवं नस्य के लिए श्रेष्ठ है । कफ, कडू । खुजली ), उदर रोग और अत्यन्त बुरे प्रकार के रक्त रोगों, मेद रोगों, उदर रोगों तथा वात, सिध्म, अपची, द्गु, वमन और श्राम रोगों को नष्ट करनेवाला है। रक्तापामार्ग किंचित् चरपरा तथा शीतल है और मन्यावष्टंभ ( मन्यास्तम्भ, गर्दन का जकड़ जाना ), वमन, वात एवं विष्टंभकारक और रूक्ष है तथा व्रण, विष, वात, कफ और खुजली का नाश करता है 1 अपामार्ग का बीज ( चावल ) पाकमें दुर्जर है। अर्थात् यह पचता नहीं है, रस में मधुर, शीतल, For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ४०३ अपामार्ग मलावरोधक, रूत, वान्तिकारक और रक्तपित्त को दूर करने वाला है । अपामार्ग जल तिक, शोथ और कफनाशक है तथा कास, वात और शोष ( सूखा ) का नाश करता । वै० निघ० । अपामार्ग के वैद्यकीय उपयोग चरक-शिरोविरेचक वस्तुओं में अपामार्ग तण्डुल (चिचड़ी का बीज ) है। (सू० २५ १०)। सुश्रुत-(१) अर्श में अपामार्ग मूल (चिचही की जड़ ) को चावल के धोवन में पीसकर मधु के साथ प्रति दिन सेवन करें। (चि०६०)। टीकाकार डवण-लिखते *"अपामार्ग मल योगः पित्त रक्तार्शसि । गयदास कफानबंध रक्जेषु ।” अर्थात् पित्तज रक्कार्श वा कफानुबंध रकाशं रोगी को इस औषध का सेवन करना चाहिए। (२) कृमि रोग में स्नेह वस्ति लेने के बाद शिरीष और अपामार्ग का रस मधु के साथ सेवन करें । ( उ० ५४ प्र०) । __ चक्रदत्त-(१) सद्योग्रण द्वारा रकस्राव होने की दशा में, अर्थात् शरीर के किसी भाग के कट जाने के कारण जब वहाँ रुधिर स्राव होने लगे तब अपामार्ग के पत्र का रस प्रचुर परिमाण में लेकर क्षत के मुख को सेचन करने से रकस्रुति बन्द हो जाती है। (व्रण शोथ चि०)। (२) कर्णनाद तथा बधिरता में अपामार्ग क्षार - अपामार्ग के अन्त मदग्ध क्षार के जल तथा कल्क में तिल के तेल को डालकर यथा विधि तेल प्रस्तुत करें। इस तेल को कान में भरने ( कर्णपूरण ) से कर्णनाद तथा बधिरता रोग नष्ट होते हैं । (कर्ण रोग चि०) । (३) नूतन लोचनोत्कोप अर्थात् अभिष्यंद वा आँख पाने में अपामार्ग मूल ताँबा के बरतन में किंचित् लवण मिश्रित दही के तोड़ को अपामार्ग की जड़ से घिसकर उस जल को आँख में भरने से अमिप्यंद रोग को लाभ होता है। (नेत्र रोग चि०)। भावप्रकाश-विसूचिका में अपामार्गमूल-- अपामार्ग की जड़ को जल के साथ पीस कर पान करने से विसूचिका रोग दूर होता है। (म० ख०२ भा०)। शाङ्गधर-रक्तार्श में अपामार्ग के बीज को चावल के धोवन के साथ पीसकर पीने से रक्रार्श (खूनी बवासीर ) नष्ट होता है, इसमें कोई संशय नहीं । (द्वि० ख० ५ म० अ०)। वङ्गसेन-(१) उन्माद रोग में अपामार्ग श्वेत पुष्प की बरियारा की जड़ की छाल १ तो०, अपामार्ग की जड़ २ तो० । इनको एकत्र कूटकर १॥ जल एवं ॥ गोदुग्ध के साथ क्वाथ प्रस्तुत करें। शीतल होने पर इसे प्रातःकाल सेवन करें। इससे घोर उन्माद रोग की तत्काल शांति होती है । (उन्माद चि.)। (२) श्रागन्तुक व्रण रोपणार्थ अपामार्ग मूल-बरियारा एवं अपामार्ग की जड़ के कल्क द्वारा तैल पाक करें। इसे नूल तैल कहते हैं। यह अागन्तु व्रण का रोपण करने वाला है। (आगन्तुषणाधिकार )। हारीत-(.)निद्रानाश रोगमें अपामार्ग और काकजना द्वारा प्रस्तुत क्वाथ के सेवन से शीघ्र नींद आ जाती है। (चि० १६ अ०)। (२) शोथ रोग में अपामार्ग तथा कोकिलाच के क्वाथ द्वारा वाष्प स्वेद वा वहाँ पर पिंड स्वेद करना शोथ रोगी के लिए हितकर है। (चि० ३६ अ०)। वक्तव्य चरक में सूत्रस्थान के चतुर्थ अध्याय के क्रिमिघ्न तथा वमनोपगवर्ग में अपामार्ग का पाठ दिया है । चरकोक अर्श चिकित्सा में अपामार्ग का नामोल्लेख नहीं है। शोथ चिकित्सा के "मयूरकं मागधिकां समूलां" पाठमें मयूरक नाम से अपामार्ग का प्रयोग आया है। सुश्रुतोक्त शोथ चिकित्सा में अपामार्ग का उल्लेख नहीं है। चक्रदत्त के लिङ्गार्श चिकित्सा में तथा भल्लातकलौह में अपामार्ग का व्यवहार हुआ है; परन्तु शोथमें इसका उल्लेख नहीं है। चरक के विमान स्थान के आठवें अध्यायमें वर्णित वान्तिकर इम्बों For Private and Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ४०४ अपामार्ग के अन्तर्गत अपामार्ग का पाउ आया है । विमान के प्रथम दृध्याय के कृसिहर पथ्योपदेश के वर्णन में अपामार्ग के स्वरस में शालिचावल की पिट्टी तैयार कर उसके सेवन करने की व्यवस्था दी गई है। चरकोल-उन्माद चिकित्सा में "पिष्टवा नुल्यमपामार्गम'' इत्यादि पाठ में अञ्जनार्थ अपामार्ग व्यवहृत हुआ है । पर इसके सेवनकी विधि नहीं दिखाई देता । सुश्रुतोक्त उन्माद चिकित्सा में इसका नामोल्लेख नहीं है। सुश्रु न ने शिरोविरेचन वर्ग में अपामार्ग का पाड़ दिया है। (सू० ३६ अ.)। सुश्रुत सूत्रस्थान के ११ वें अध्याय में जहाँ क्षारजनक समग्र उद्भिद औषधे का नाम आया है, वहाँ अपामार्ग का उल्लेख है । अपामार्ग व्रण के लिए उपयोगी है । अतएव इसका नाम “किणि ही" (व्रण हन्ता) हुआ। अपामार्ग के सम्बन्ध में यूनानी तथा नव्य मत । प्रकृति-१ कक्षा में शीतल तथा रूक्ष । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को और क्षुधा को मन्द एवं नष्ट करता है । दर्पघ्न-अनार का पानी सिकंजबीन, काँजी और श्राबग़ोरह । प्रतिनिधि-प्रायः गुणों में मेष मांस । मुख्य प्रभाव-कामोद्दीपक, हर्षोत्पादक और शुक्र जनक | मात्रा-शक्यानुसार।. गुण, कर्म, प्रयोग-यदि ६ मा० इसके पत्र को काली मिर्च के साथ पिएँ और उसके बाद घीप्लुत रोटी खाएँ तो रकार्श को लाभ हो । यह प्रात्तवरुद्धक और प्रायः त्वगोगों, रक्त दोष, एवं नेत्र की धुधता को लाभप्रद है। अपामार्ग संकोचक, (संग्राही) मूत्रल और परिवर्तक है । रजः स्राव, अतिसार और प्रवाहिका में इसका उपयोग किया जाता है । अपामार्ग क्षार अगंभीर शोथ, जलोदर, चर्मरोग और प्रन्थि वृद्धि तथा गलगंड प्रादि रोगो में प्रयोजनीय है । अपिच शुष्क कास में इसके सेवन से यह श्लेष्मा को तरल (द्रवीभूत)। करता है । सर्प, कुकुर किंवा अन्यान्य विष धर-प्राणि दंशन जन्य विष दोष निवारण के लिए अपामार्ग बहुत प्रख्यात है। एतदर्थ यह सेवन व लेपन उभय प्रकार से व्यवहार में श्राता है। कभी कभी अपामार्ग का स्वरस दन्तमूल में एवं इसका करक फूली रोग में अंजन रूप से प्रयुक्त होता है । ( मेटिरिया मेडिकाॉफ इंडिया २ य० खं०, ४०५ पृष्ठ) __ अपामार्ग के मूत्रल गुण से इस देश के लोग भली प्रकार परिचित हैं। यूरोपीय चिकित्सकगण शोथ रोग में अपामार्ग की उपयोगिता स्वीकार करते हैं । मूल शाखापत्र सहित प्राध छटाँक, अपामार्ग को पाँच छटाँक जल में १५ मिनट तक कथित करें । इसमें से श्राध छटाँक से लेकर एक छटाँक की मात्रा तक दिन में तीन बार सेवन करें (फा० ई० पृष्ठ १८४) अपामार्ग की जड़ एक तोला रात्रि को सोते समय सेवन करने से नक्रांधता ( रतौंधी) जाती रहती है। फा०ई०३ भा०।। इसका शुष्क पौधा बालकों के उदर शूल में दिया जाता है । पूयमेह (सूज़ाक ) में भी इसका संकोचक रूप से उपयोग होता है। (रट्युवर्ट) मेजर मैडेन ( Madden ) लिखते हैं"अपामार्ग को पुष्पमान मञ्जरियाँ वृश्चिक विष से रक्षा करने वाली ख़्याल की जाती हैं। इसकी टहनी पास रहने से वह स्तब्ध हो जाता भस्म में अधिक परिणाम में पोटास होता है। इससे यह कला सम्बन्धी कार्योंके लिए भी उतना ही उपयोगी सिद्ध होता है जितना कि औषध के लिए। हरताल के साथ मिलाकर व्रण तथा शिश्न एवं शरीर के अन्य स्थल पर होने वाले मसक के लिए इसका वाह्य उपयोग (लेप) होता है। उदय चन्द्रदत्त महोदय कर रोगों के लिए अपामार्गक्षारतैल के उपयोग का वर्णन क. For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ४०५ अपामार्ग डॉक्टर बीडी ( Bidie) कहते हैं--“कतिपय प्रांग्ल चिकित्सक गण क्वाथ रूप से इसके व्यक्त्र मूत्रल गुण को स्वीकार करते हैं।" डॉक्टर कॉर्निश (DI. Cornish) ने जलोदर में इसका उपयोग किया और इसे उप- | योगी पाया। सिंध के जंगली दिहाती लोग बबूर-कण्टक जन्य क्षतों में इसका उपयोग करते हैं । मुरे। बिहार में जब किसी व्यक्रि को कुकर काट लेता है तब उसको अपामार्ग की पुष्पमान मज. रियों में किञ्चित् शर्करा मिलाकर बनाई हुई गोलियों का मुख्य रक्षक अौषध रूप से व्यवहार करते हैं । (बैलफोर) यह चरपरा एवं मृदुरेचक है तथा जलोदर, अर्श, विस्फोट और त्वग्रोगों में उपयोगी ह्याल किया जाता है । इसके बीज और पत्र वामक ख़्याल किए जाते हैं तथा जलनास और सर्प देश में उपयोगी हैं। टी० एन० मुकर्जी । डॉ० नदकारणी-अपामार्ग का क्वाथ (अपामार्ग २ अाउंस=१ छ० तथा जल १॥ पाइंट ) उत्तम मूत्रल है और वृक्कीय जलोदर में लाभदायक पाया गया है। उदरशूल तथा आंत्र विकारों में इसके पत्ते का रस भी उपयोगी है। अधिक मात्रा में गर्भपात वा प्रसववेदना उत्पन्न करता है। इसके ताजे पत्तों को पीसकर गुड़ के साथ कल्क प्रस्तुत करें अथवा काली मरिच एवं लहसुन (रसोन) के साथ मिश्रित कर वटिकाएँ बनाएँ । इसके सेवन से विषम ज्वरों विशेष कर चातुर्थक ज्वरों में लाभ होता है। इसके पत्तों का ताजा रस सूर्यताप द्वारा शुल्क कर इसका गाढ़ा सत्व प्रस्तुत करके इसमें थोड़ा अफ़ीम मिलाकर सेवन कराएँ । प्रारम्भिक प्रौपदंशीय क्षतों के लिए यह उत्तम अनुलेपन है । बीजों के सहित इसकी मंजरियाँ प्रायः श्लेष्मानिस्सारक रूप से व्यवहार की जाती है । इसके बीज और दुग्ध द्वारा प्रस्तुत क्षीर (खीर) | मस्तिष्क रोगों के लिए उत्तम औषध है। स्नान करने के बाद रविवार के दिन एवं पुष्य नक्षत्र में लाई हुई और कोने में लटका कर रखी हुई इसकी जड़, उत्तेजना सहित प्रसव वेदना में तथा शीघ्र प्रसव कराने के लिए उपयोग की जाती है । वेदनाकाल में इसको स्त्री के केशों वा उसकी कटि में बाँधते हैं । प्रसव होजाने के पश्चात् इसे तुरंत निकाल कर धारा प्रवाह जल में फेंक देते हैं । (इं० मे० मे० पृ० १६-२०) अपामार्ग की पुष्पमान मञ्जरियों वा बीज को जल के साथ पीस एवं कल्क प्रस्तुत कर विषधर . सर्प एवं सरिसृप दंश में इसका बहिर प्रयोग किया गया है। चण किए हुए पत्र का क्वाथ मधु वा मिश्री के साथ सेवन करना अतिसार तथा प्रवाहिका की प्रथमावस्था में उपयोगी है । (इं० डू० इं० पृ० ५६२-भार० एन० चोपरा) __ अपमार्ग की जड़को पानी से खूब बारीक पीस कर पेड़ के नीचे रान तथा गुह्यो द्रिय पर प्रलेप कर दें तो शीघ्र बच्चा पैदा हो जाता है । इसको स्त्री के पाँव पर प्रलेप करने से भी यह वातहोती है। चिचडीके पत्र तथा बीज, प्रत्येक १.१ तो. को सुखा कर तमाक की तर हुक्का पर पीने से श्वास व पुरातन कास को बहुत लाभ होता है। चिचड़ी का बीज ३ माशा कूट कर समान भाग शर्करा मिलाकर जज के साथ सेवन करने से रजःस्राव का अवरोध होता है। इसकी जड़, बीज एवं पत्र को कूट कर चूर्ण बना और समान भाग शर्करा मिलाकर इसमें से ६ माशा की मात्रा में जल के साथ सेवन कराने से रक्ताश नष्ट होता है । इसके ताजे पत्ते एवं जड़ को तिल तेल में मिलाकर व्यवहार करना कण्ड रोगी को अत्यंत लाभदायक है । उभय प्रकार की पुरानी से पुरानी खुजली को प्राराम हो जाता है। ६ माशा इसकी ताजी जड़ पानी में घोंट कर पिलाने से वृक्काश्मरी को लाभ होता है। वस्ति से पथरी को टुकड़े टुकड़े कर निकाल देता है । वृक्तशूल की यह अव्यर्थ महौषध है। __ इसकी ताजी जड़ के दैनिक दन्तधावन से दाँत मोती की तरह सफेद हो जाते हैं। मुंह से For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामागे अपामार्ग शीशी में डाल कर उसमें इतना पाक का दूध डाले कि वह डब जाए । तदनन्तर २१ रोज तक भूमि के भीतर गाड़ रक्खें। फिर एक बड़ी लोहे की कड़ाही में एक सेर अपामार्ग की भस्म विछा कर हाथ से दबा दें। उसके बीच में संखिया को रखकर ऊपर से एक सेर उक्त भस्म और विछाकर चारों ओर से भली प्रकार दबा दें। फिर उसपर ४ सेर रेत (बालू ) डाकर चूल्हा पर रखकर नीचे भाग जला दें और रेत के ऊपर मकाई के कुछ दाने रख दे । ४ पहर अग्नि देने पर मकाई के दाने खिल जाएगे। बस अग्नि देना बन्द कर दें। दूसरे दिन जब वह अच्छी तरह शीतल हो जाए तब उसको धीरे-धीरे निकाल ले । श्वेत रंग की संखिया की भस्म प्रस्तुत होगी । मात्रा१ चावल का चतुर्थ भाग । गुण-श्वास के लिए अपूर्व औषध है। इसके अतिरिक्त बहुशः अन्य रोगों में भी उपयोगी है। कफ निर्गत होता है। यह दंतशूल की शर्तिया दवा है। दाँतों के हिलने और मसूढ़ों के कमजोर होने को दूर करता है । विशेषकर मुखदुगंधि के लिए अत्यंत लाभदायक है। इसकी जड़ पीसकर लगाने से स्तंभन होता है। इसके बीजों की खीर पका कर खाने से कई दिन तक आधा नहीं लगती और शक्ति भी यथावत बनी रहती है। इसकी जड़ पीस कर स्तन पर प्रलेप करने से दूध बहुत उतरता है हस्तपाद पर मल नेसे क्षय रोग को लाभ होता है। इसकी जड़ की भरम लगाने और खाने से कण्ठमाला को आराम होता है । इसके पत्तों का रस नासूर ( नाडीव्रण ) को भरता है। इसके पुरातन वृक्ष की ग्रंथि में एक कीट निकलता है। इसको घिसकर पिलाने से बच्चों का डब्बा रोग दूर होता है। भस्मक रोग में जिसमें तीषणाग्नि के कारण अत्यधिक सुधा लगती है उसमें अपामार्ग तण्डुल चूर्ण तो० फाँक लेने से वह जाती रहती है। चिचड़ी की जड़ ६ मा०, कुकरौंधा के पत्र ६ मा० इनको सफ़ेद जीरा के साथ पीसकर उसमें १मा० काले नमक का चूर्ण मिलाकर सेवन कर ने से उदरशूल, उदर जन्य वायु के लिए अत्यंत लाभप्रद और परीक्षित है।। अपामार्गके विभिन्न अंगों द्वारा कतिपय धातुओं की भस्मों के निर्माण-क्रम (१) अकीक भस्म-अपामार्ग के एक पाव करक में एक तोला अक़ीक़ रखकर कपड़मिट्टी कर सूखने पर निर्वात स्थान में ७-८ सेर श्ररने उपलों की अग्नि दें। शीतल होने पर निकाले। बस अपूर्व भस्म तैयार मिलेगी। मात्रा-२ रत्ती । सेवन-विधि-गाय के मक्खन ( गो नवनीत ) के साथ सेवन करें। गुण-हृदय की निर्बलता में उपयोगी है। (२) सोमल भस्म-२ तो० संखिया को | (३)संखिया भस्म की सरल विधिएक मिट्टी क बर्तन में १० तोला अपामार्ग की भस्म बिछाकर उसपर एक तोले समूचे संखिया की डली जो २१ दिन तक मदार के दूध में तर करके रक्खी हो, रख दें। ऊपर से १० तोले और उन भस्म को डालकर हाथ से भली प्रकार दबा दें और बर्तन का मुंह बन्द करके ऊपर से तीन कपरौटी करके सुखाएँ। सूख जाने पर उस को १० सेर घरेल उपलों में रखकर श्राग दें। शीतल होने पर धीरे से खोल कर निकाल लें। गुण-कफज रोगोंके लिए अत्यन्त लाभप्रद है। (४) हिंगुल को भत्म-शिंगरफ़ रूमी २ तो० खरल में डालकर २० तो० पाक के दूध के साथ खरल करें । जब सम्पूर्ण दुग्ध समाप्त हो जाए तब टिकिया बनाकर छाया में शुष्क करें। फिर मिट्टी के शराव में १० तो० चिरचिटा की राख बिछाकर उसपर हिंगल की टिकिया रखकर ऊपर से १० तो० उक्त राख डाल कर हाथ से दबा दें। फिर ढक्कन देकर तीनवार कपड़ मिट्टी करने के पश्चात् शुष्क करें और १० सेर घरेलू उपलों में रखकर भाग दें। शीतल For Private and Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्गजटा ४०७ अपामार्ग क्षार तैलम् होने पर निकाले । हिंगुल की सर्वोत्तम भस्म अपामार्ग बीज, सोंठ, मिर्च, पीपल, हलदी, हींग, प्राप्त होगी। क्षवक, विडंग इनका कल्क कर गोमूत्र के साथ गुण-शरद ऋतु में इसके सेवन करने से यथाविधि तेल पकाकर नस्य लेने से शिर में सर्दी कम लगती है और कामशक्रि का पुनरावर्तन उत्पन्न कृमियाँ नष्ट होती हैं . इसमें सैल ४ श. होता है । कतिपय रोगों क लिए प्रत्युत्तम है। और कल्क १ श० लेना चाहिए। प्रयागा० । (५) हड़ताल व अभ्रक की भस्म- च. द०। ब० से० सं० शिरोरो० चि० । हड़ताल वरकी ४ तो०, अभ्रक ४ तो. दोनों को नोट-क्षवक-नकछिकनी ।। खरल में डालकर अपामार्ग जल २० तो० के Hi afatla za: apámárga-bí jádi. साथ घोटकर सुखा ले। फिर मिट्टी के बर्तन में chārnah-सं० पु० चिचिंटाके बीज, चित्रक, रखकर कपड़मिट्टी करके चूल्हे के भीतर डाल सोंठ, हड़, मोथा, चिरायता, प्रत्येक सम भाग ले दें। दो घंटे के बाद निकाल कर दोबारा खरल चूर्णकर सर्व तुल्य गुड़ मिलाएँ। इसे भोजनांत में में २० तो० उक्र जल के साथ फिर खरल करें। १ कर्ष खाकर जब भोजन जीण होजाए तो ऊपर जब शुष्क होने पर हो तब बर्तन में डालकर बंद से तक पीएँ । वृ० नि० र० । करके यथाविधि पहिले दो घण्टा तक चूल्हा में अपामार्गमु a pāmārgamu--ते० अपामार्ग, दबा दें। शीतल होने पर तीसरी बार पुनः __ लटजीरा-हिं० । ( Achyranthes Aspवैसा ही करें। अत्युत्तम धूसर वर्ण की भस्म era, Linn.) स० फा० इं० । प्रस्तुत होगी। मात्रा- रत्ती से २ रत्ती तक । सेवन-विधि- अपामागक्षारः apamarga-ksharah-सं० शर्बत बजरी अथवा किसी अन्य उचित अनुपानके प०अपामार्ग द्वारा प्रस्तुत क्षार । पाठ प्रकार के क्षारों में से एक । गुण-यह गुल्म तथा शूल साथ सेवन करें। गुण-यह प्राचीन से प्राचीन ज्वर की अमोघ औषध है। श्वास काठिन्य एवं नाशक है । भा० पू० १ भा० ह० व० । कास के लिये अकसीर का काम देती है। इससे | अपामार्ग क्षार तैलम् apāmārga-kshara श्राहिक, द्वयाहिक, तृतीयक, चातुर्थक श्रादि विषम -tailam-सं० क्ली० (१) एक औषधीय ज्वर नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। तैल जो कर्ण रोग में प्रयुक्र होता है । तिल के अपामार्गजटा apāmārga-jata-सं० स्त्री० तैल में अपामार्ग (चिर्चिटा )क्षार जल और अपामार्ग मूल, चिर्चिटा की जड़ । Achyra अपामार्ग (की जड़ ) से बनाए हुए कल्क nthes Aspera (Root of. )। सि. को सिद्ध करके कान में डालने से कण नाद यो० तृतीयक ज्वर श्रीकण्ठः। "अपामार्ग जटा और बहिरापन दूर होता है। कोट्यां ।” च. ६० सन्निपातज्व० चिः। नोट-तिल तैल ४ श० । अपामार्गहार अपामार्ग की जड़ का बाँधना तृतीयक ज्वर के २ श० । जल १६ श० | २१ बार परित्रावित करके लिए हितकारक है। अपामार्ग मूल को भली क्षारवारि (तार जल) प्रस्तुत करलें । (मतान्तरप्रकार धोकर बाएँ हाथ में बाँधने से सब प्रकार क्षार परिमाण २६ प०, जल १८ श० और कल्क के ज्वरों का नाश होता है । वैद्यक। द्रय १ श.)। FTANTI anga: apámárga-tandulah च० द० कर्ण-रो० चि० । भैष० र० कर्ण --सं० पु.० अपामार्ग बीज, चिर्चिटा का बीज । रो० चि०। Achyranthes Aspera ( Seeds (२) १६ श० अपामार्ग क्षार को २४ श. of-) च० सू० ५ ०। जलमें २१ बार परिस्रावित कर और तैल १६ श० अपामार्गतैलभू apāmārga-tailam-सं० क्ली० लें। तैल जल न जाए इसलिए अपामार्ग क्षार एक औषधीय तैल जो शिरोरोगमें काम आता है। में उसका कल्क डालें और पिण्डीभूत कल्क से For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपीव अपामार्गादिकल्कम् ४० : पृथग्भूत तैल ही ग्रहण करें। उसे गारे नहीं। अपिङ्मियात्रा apin-miyaa-बर० (ब० व०) प्रयोगाः। वृक्षाः-सं० । (Trees, shrubs or Herbaअपामाथि 5 a pámárgádikalkam ceous plants.) -60 क्ली० (१) चिरचिटा की लुगदी। (२) अपिंडो apindi-हिं० वि० [सं०] पिंडरहित । चिरचिटे के बीज को चावल के धोवन से बिना शरीर का | अशरीरी। खाएँ तो रकाश दूर हो । वृ.नि. र। | अपिधान apidhāna-हिं० संज्ञा प[सं०] अपाय apāya-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आच्छादन । श्रावरण । ढक्कन । पिहान । अपायी ] (1) विश्लेष। अलगाव । (२) | अपिनद्ध apinaddha-हिं० वि० [सं०] नाश । (३) उपद्रव । -वि० [सं० श्र=नहीं [स्त्री० अपिनद्धा ] बँधा हुआ । जकड़ा हुआ। ढंका हुआ। +पाद, प्रा० पाय-पैर ] बिना पैर का । लँगड़ा । अपिहित apihita-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० . अपाहिज । . अपिहिता] अाच्छोदित । ढंका हुश्रा । प्रावृत्त । अपारदर्शक apara-daishaka-हिं० वि० ( भौ० वि० ) अदर्शक, अस्वच्छ । गैर . अपोन apina-हिं० वि० हल्का, क्षीण, कृश शफ़्फ़ाफ़-अ० | प्रोपेक । (Opaque)-इं०। (Lignt, Lean)। -संज्ञा पु. अफीम वे पदार्थ जिनमें से प्रकाश बिलकुल न जा सके ( Opium ) अर्थात् जिनमें से प्रकाश की रेखाएँ नहीं गुजर अधीनस apinasa-हिं० पु. अपीनसः apinasa सकें । जैसे लकड़ी, लोहा, चमड़ा इत्यादि । नासिका रोग विशेष । पीनसरोग भेद । अपालापमर्म apālāpama.imma-सं०क्ली. लक्षण-जिस मनुष्य की नाक रुकी हुई सी पृष्ठवंश ( कशेरुक ) और वक्ष के मध्य भाग में हो, धुवा से घुटी हुई सी, पकी हुई और ऋदित दोनों ओर कंधों के अधोभाग में "अपालाप" गीली सी हो और सुगंध एवं दुर्गन्ध को न नाम के दो मर्म हैं। इनके विद्ध होने से कोष्ठ मालूम कर सके उसे अपीनस का रोगी जानना रुधिर से भर जाता है और इसी रुधिर को राध चाहिए । यह विकार कफ वायु से होता है और (पूय, पीब) में परिणत होरेपर रोगी मर जाता प्रायः लक्षण प्रतिश्याय के से होते हैं। स० है, अन्यथा नहीं । वा) शा० ४ ०। चि०२२० । च.चि.। (Dryness of अपावर्तन apāvartana-हिं० संज्ञा पु० the nose, want of the pituitary . [सं०] (१ ) पलटाव । वापसी । (२) secretion & Loss of smell ). भागना । पीछे हटना । (३) लौटना। अपीनस में कफ बढ़कर नासिका के सम्पूण' श्रपासनम् apāsanam-सं० क्ली० मारण || स्रोतों को रोक कर घुघुर श्वास युक और पीनस श्रम । से अधिक एक प्रकार का रोग उत्पन्न कर देता अपाह(हि)ज apāha.,.hi-ja-हिं० वि० [सं० है, जिसे अपीनस कहते हैं। अपभज, प्रा० अपहज ] (१) ( Lazy, लक्षण-इसमें रोगी की नासिका भेड़ की cripple,) अंगभंग । खंज । लूला, लँगड़ा || नासिका की तरह करा करती है। तथा पिच्छिल (२) पालसी-बेकार । पीला, पका हुश्रा और गाढ़ा गाढ़ा नासिका का अपि api-श्रव्य० [सं०] (१) निश्चयार्थक । भी।। मल निरंतर निकलता रहता है । वा० उ. ही। (२) निश्चय टीक । श्र० १६ । अपिङ् apin-बर० (ए० व०) वृक्षः-सं० । अपीय apiya-हि. वि०-अपेय, पान निषिद्ध । (Tree, shrub, or Herbaceous Unfit to be drunk, forbidden .. plant.) liquor ). For Private and Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपित्तम ४०६ अपूर्वारसः अपित्तम् appittam-सं० क्लो० चित्रक, | - कर गोलाकार बेले और पीछे इसको घी में star I ( Plumbago zeylanicum ). पकाएँ । इसे ही 'अपूप' प्रभृति नामों से अभिश्रम । धानित करते हैं। इसे बलकारक, हृद्य, रुचिकारक अपुग apunga-छो० नाग०, संता० तुलतुली, भारी, वृष्य, तुष्टि देनेवाला पित्त और वायु को सिदोरी-यम्ब० । ( Holostemma शमन करने वाला तथा मधुर कहा है। वै० rheedii) ई० मे० मे०। निघ०। अपच्छ apuchchha-हि. वि० पुच्छ रहित । (२) गोधूम, गेहूँ। ( Wheat ) रा० (Tailless). नि० व० १६। (३) इंद्री । “इन्द्रियम् अपुच्छा apuchchha-सं० स्त्री. शिंशपावृक्ष अपूपः" । ऐ० २ ।२४। श्रथव० । सू०६ । -सं० । शोशव (-म-)-हिं० | A timber ५। का० १०। tree. ( Dal bergia Sist) अपूप्यः apāpyah-सं० पु० (१) गोधूम, अपुत्र aputra-हिं० वि० [सं०] जिसके पुत्र | गेहूँ (Wheat)। (२) गोधूम चूर्ण, गेहूँ न हो । निःसन्तान । पुत्रहीन । निपूता | का पाटा, मयदा । ( Wheat flour). अपुरुष apurusha-हिं० वि० . [सं.1 अपूरणी apurani-सं० स्त्री० (१) शाल्मली पुरुषत्वहीन, नपुसक । ( Impotent) वृक्ष । सेमल (-र)-हिं० । (Bombax Malaअपुष्टः apushtah-लं० त्रि. अपरिपक्व, कच्चा । ___baricum ) श० च०। (२) कार्पास वृक्ष, (Immature ). कपास । ( Gossypium Indicum). अपुष्पः apushpah-सं० पु. उदुम्बर वृक्ष, | अपूर्ण apurna-हि. वि. अधुड़ा । (Imper- गूलर I ( Ficus glomerata). ___fect). अपुष्पफलदः apushpa-phaladah-सं० पु. अपूर्ण-मण्डलम् a.purna-mandalam-सं० पनसवृक्ष, कटहल । (Artocarpus inte- | क्ली० अधुड़ा घेरा, अद्ध वृत्त । (Imperfect grifolia ) फणस-म०। रा०नि० व. circle ). १२ । बिना पुष्प के फल लगने वाले वृक्षमात्र । | अपूर्वारसः apurvorasah-सं० पु. कपूर( Flowerless tree ) रा०नि०। रसः,-उत्तम हींग १० तो० लेकर इसको २ मूषा अपुष्पित apushpita-हिं० वि० [सं०] पुष्प बनाकर उनके भीतर २ तो० शुद्ध पारद डालकर रहित, बिना फूले हुए। Without flowers दूसरी मूषा को ऊपर रखकर कपड़मिट्टी कर. (a tree or plant), not bearing दें। ऊपर वाली मूषा के तल में पहले से ही flowers, not in flowers. एक बारीक छिद्र कर लें, फिर एक हाड़ी में अपूत apāta-हिं० वि० [ सं०] अपवित्र | नीचे थोड़ा सा यवक्षार और समुद्रलवण रख अशुद्ध । -वि० [सं० अपुत्र, पा० अपुत्त ] पुत्र- कर बीच में ऊपर वाला यंत्र धरकर ऊपर वही हीन | निपूता । क्षार और लवण रखकर यंत्र को तिरोहित कर अपूपः apāpah-सं० पु. दें, उसके ऊपर साफ ठीकरे ढककर दूसरी हाँड़ी अपूप apipa-हिं० संज्ञा पु. ऊपर रखकर कपड़ मिट्टी कर दें। फिर उसको (१) पिष्टक ! पूरी, पूड़ी, पुत्रा-हिं० । पुलि सूखने पर चूल्हेपर रखकर - पहर तक साधारण पिटे-बं० । घारणे-म० | कोई कोई इसे पाव रोटी | आँच देना और ठण्डा हो जाने पर उन खपड़ों में कहते हैं। पूरब में इसे रोट अथवा सुहारी कहते लगी हुई सुवर्ण के सदृश चमकीली वजन में . हैं । हला० । बारीक पिसे हुए गेहूँ के पूरी पारद भस्म मिलेगी। उसको बारीक कपड़े आटे में गुड़ मिलाकर जल से भली भाँति मईन में रखकर पोटली बनाकर दोपहर तक दूध में For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घपृक्त अपांग. स्वेदित करें। फिर निकाल कर अच्छी तरह सुखा ___ पोय (ई) का साग | प्र०टी०Basellaलें। मात्रा-आधी रत्ती । गुण-यह क्षयादि alba & rubra (Malabar nightरोगों को समूल नष्ट करता और जठराग्नि को shade). प्रदीप्त करता है । रस० यो० सा० । अपोनोगेटन मॉनस्टिकॉन aponoge ton अपृक्त aprikta-हिं० वि० [सं०] (१) बेमेल । monastychon-ले० घेचू -हि० । ई० बिना मिलावट का | असंबद्ध । बिना लगाव हैं. गा० । का । (२) खालिस | अकेला । अपोनोगेटन मॉनोस्टेकिलम् aponogeton अपेकः ape kah-सं० पु. दुरालभा, धमासा । monos tachyum, Linn.-ले० घेचू -हिं०। काकाङ्गी-सं० । नमा-ते०। इसकी (Alhagi maurorum). जड़ श्राहार के काम आती है। मेमो० । अपेण्डिक्स appendix-ई० उपांत्र, अन्त्रपरिशिष्ट । | अपोनोगेटन, सिम्पलस्टॉक्ड uponoge ton, Simple stalked-इं. घेचू । इं० है। अपेण्डि-साइटिस appendicitis-इं० उपान्त्र | गा० । प्रदाह, अन्त्रपुच्छ प्रदाह, अन्त्रपरिशिष्ट प्रदाह । अपोरोसा वाइलोसा aporosa villosa, अपेत राक्षसी ape ta-rakshasi-सं० स्त्री० Baill. ले० या-मेइन-बर.। इसका गल (१) तुलसी तुप | (Ocimum San ___ तथा छाल प्रयोग में आती है । गोंद रंग के काम ctum). रा०नि० व०१०। (२) कृष्ण में आता है । मेमो०। तुलसी । काली तुलस-मह० । भा० पू०१ भा० गु० व० वर्वरी। (३) गबुई तुलसी। लो। अपोलाइसीन apolycin-ई. यह एक पीताभा. युक्र श्वेत स्फटिकीय चूण है जो जल में (Ocimum Basilicum )। र० मा० । विलेय होता है। यह फीनेसीटीनके समान प्रभाव अपेय apeya-हिं० वि० [सं०] न पीने योग्य, करता है। इसे अहोरात्रि में १२० ग्रेन (६० पान निषिद्ध | Unfit to be drunk, रत्ती) तक की मात्रा में भी प्रयोग करने से यह forbidden ( Liquor ). कोई हानिकारक प्रभाव नहीं करता; किन्तु इसका अपेहिवातःape hi-vatah-सं० पु. प्रसारणी। वेदनाशामक प्रभाव उसकी (फीनेसीटीन) अपेक्षा गंधाली-हिं० । ( Pederia Foetida, निर्बल होता है । यह शोधक अर्थात् पचननिवाLinn.). फा० इं०। रक भी है, पर इसको बहुधा ज्वरनाशक तथा अपोएन् apoen-बर० (ए० व०) वेदनाशामक प्रभाव के लिए ही उपयोग में लाते अपोएन्-मियाश्रा apoen-miyaa-बर०(ब.व.) हैं। कभी कभी काउ बटर (गो-नवनीत) के साथ पुष्प । फूल । ( Flowers) स० फा० इं०। इसकी वर्तिका बनाकर भी प्रयोग में लाते हैं। अपोगण्डः apogandah-सं० त्रि०। (१) मात्रा-१० से ३० ग्रेन (१ से १५ रत्ती)। अपांगंड apoganda-हिं० वि० बलिभ, अपोहन apohana-हि. पु. तर्क के द्वारा बुद्धि वृद्ध पुरुष । (२) पंगुकाय । विकलांग । को परिमार्जित करना। -40 शिशु । मे० डचतुष्कं । -वि० (१)| अपौरुष apourush-हिं० ० साहस हीन, सोलह वर्ष के ऊपर की अवस्था वाला । (२) __ नपुसक, असाहस, पुरुषार्थ हीन । ( Impoहालिग़। tent ). अपोदक apodaka-सं० पु. रेगिस्तानी साँप । अपांग apanga-हिं० संज्ञा पु० जहाँ दोनों पलक ___ अथर्व । सू. १३ । ६ । का०५। आपस में एक दूसरे से जुड़ते हैं, उस स्थान को अपोदिका apodika-सं० स्त्री. पूतिका शाक, कोया या अपांग कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुश्रा । अपनपात् ४११ अप्रतिम अपांनपात् apan-napā ta--सं० पु. विद्युत् अम० । -हि० वि० कांड (तना) रहित (Steसम्बन्धी अग्नि । अथर्व। mless ). अपः (स) apah,-s-सं० क्ली० (१) जल, पानी | अप्रकाश aprakasha-हि० संज्ञा पुं० [सं०] (water.)। (२) जल धारा । अथ० | सू० [वि. अप्रकाशित, अप्रकाश्य ]. प्रकाश का प्र. २३ । २। का०६। भाव । अंधकार । अप् ap-सं० स्त्री० जल,पानी । (Waअप् ap-हिं० संज्ञा पु० jter)। (उप०) निम्न, अप्रकृत aprakrita-हिं० वि० [सं०] (१) अस्वाभाविक । (२) बनावटी । कृत्रिम | गढ़ा अधः, नीच,बुरा, विकृत, त्याग, हर्ष । इसके वि. रुद्ध अर्थ में "अधि" प्रयुक्त होता है। अनम् (स्) apna m,-as-सं० को जल । अप्रकृष्ट: aprakrishtah सं० प० काक। Water ( Aqua). ( A crow)। श. र०। -त्रि० अधम ( Inferior, vile)। अप्पकोवय,-कलुङ्ग appakovay,-kalung -ता० कुकुम-दुण्ड ते० । रिहन्कोकार्पा फीटीडा अप्रखर aprakhara-हिं० वि० [सं०] मृदु । (Rhynchocarpa Fetida, Sch. कोमल | rad.), ट्रिकोसैन्थीस नलिफोलिया (Trichoअप्रचङ्कषा aprachankasha-सं० प्र० santhes nervifolia, Linn.), दि. लँगड़ा लला और आँखों से लाचार । अथर्व । डायोइका ( T. Dioica, Rosb.), बायो- सू०६।१६ । का निया पिल्सा ( Bryonia pilsa, Rord.) अप्रच्छन्न aprachchhanna-हिं०वि० [सं०] .. -ले०। (१) जो प्रछन्न न हो । खुला हुअा । अनावृत । कुष्माण्ड वर्ग (२) स्पष्ट । प्रगट । - (N.O. Cucurbitacee.) अप्रजाता aprajāta-हिं०वि० स्त्री० (Nulliउत्पत्ति-स्थान-गुजरात, दकन प्रायद्वीप, para) जिस स्त्री के कभी सन्तान न हुई हो और मालाबार की पहाड़ियाँ । अथवा जिसने गर्भ धारण न किया हो। उपयोग-ऐन्सली का वर्णन है कि इसकी प्रजास्त्वम् apra. जड़ का माजून में अर्श की दशा में अन्तः प्रयोग न होना । अथर्व० सू०६ । २६ का०६। होता है और दोषिक श्वास में स्नेहजनक रूप अप्रतिकार apratikāra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] से इसका चूर्ण व्यवहार में श्राता है। [वि० अप्रतिकारी ] उपाय का अभाव । तदबीर . इसकी जड़ लगभग मनुष्य की अँगुली के न होना । -वि० जिसका उपाय या तदबीर ..बराबर होती है तथा हलकी धूसर वर्ण की और न हो सके । लाइलाज। ., स्वाद में मधुर एवं लुभाबी होती है। अप्रतीकार apratikāra-हिं० संज्ञा पु'• देखोअप्पेल appel-मल. अरणी । ( Premna. अप्रतिकार। Integrifolia). ई० मे० मे०। अपतिकारी apratikari-हिं० वि० [सं०] अप्पो appo-बन्ब, अफोम । ( Opium ) ___अप्रतिकारिन् ] [अप्रतिकारिणी ] उपाय वा 'फॉ०ई०१ भा०। तदबीर न करने वाला। अप्यय apyaya-हिं० संज्ञा पु० [सं०](1) अप्रतिकार्य: apratikāryyah-सं० त्रि० अपगमन | (२) लय | नाश | __ दुश्चिकित्स्य । ( Incurable). अप्रकाण्डः aprakandah-सं०५० (१) कांड- अप्रतिम apratibha-हिं० वि० [सं०] (1) रहित वृक्ष,(प्रकांड)धड़ रहित वृक्ष,तनारहित वृक्ष । प्रतिभा शून्य । चेष्टाहीन । उदास । (२) स्फूर्ति'. (Stemless tree)। (२) झिण्टिका प्रादि। शून्य । मन्द । सुस्त । For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रत्यक्ष ४१२ अप्रेतरातसी अप्रत्यक्ष apratyaksha-हिं०वि० [सं०] (१) अप्राकृतिक संयोग aprakritika.sanyoga अलक्षित, अदृष्ट, जो देखा न जाए। ( Invis-I -हि. प. अस्वाभाविक मैथुन, गुद मैथुन, ible, Absent )। (२) छिपा। गुप्त । । पशु मैथुन श्रादि । अप्रति साराख्य अञ्जनम् apna tisārākhya- | अप्राजिता aprajitā-बं०, हिं० अपराजिता, anjanam-सं० क्लो० कालीमिर्च १० अदद, विष्णकान्ता, काटी। (Clitorea ternस्वण माक्षिक श्राधा पिचु, नीलाथोथा अाधा पल, ate, Lirn.) स० फा० इं०। मुलहठी एक पिचु इन सबको दूध में भिगोकर | अप्राजितार बीज aprajitara-bija-बं० । अग्नि में भस्म करलें । गुण- यह तिमिर रोग की अप्राजितेके वीज aprajite-ke-binja-हिं०पु.) परमोत्तम औषध है। वा० उ० अ०१३। । ___ अपराजिताका बीज । Clitored ternatea, पप्रधान apradhāna-हिं० वि० [सं०] (१) Linn. ( Seeds of-)40 फा० इं०।। कनिष्ठ, शुद्र, मुख्यनहीं, जघन्य ( Subordi अप्राजितारनूल aprajitāra-māla-बं० अपnate, secondary)। (२) जो प्रधान वा | राजिता की जड़ । The root of Clitoमुख्य न हो । गौण | साधारण । सामान्य । rea ternatea, Linn. प्रप्रभा 6prabha-हिं० स्त्री० प्रभाहीन, प्रकाश शून्य । ( Want of splendour). प्रमाण aprāna-सं० त्रि० विना प्राण का । अप्रमेय aprameya-हिं० वि० [सं०] जो | निर्जीव । मृत । अथव० । सू० ६ । । नापा न जा सके । अपरिमित । अपार । अनंत ।। का ८। अप्रयुक्त aprayukta-हिं० वि० [सं०] अमाप्तक apraptaka-सं० एक प्रकारका सोना । जिसका प्रयोग न हुआ हो । जो काम में न उत्तम जाति के सुवणों में से जो सोना कुछ पीला लाया गया हो । अव्यवहृत । सा अर्थात् भुरभुरा और सक्नेद रह गया हो वह अपरोहता aprarohata-हिं० अवाप्तक कहलाता (याने संशोधन प्रादि के अप्रसन्न aprasanna-हिं० वि० असंतुष्ट, समय यह ठीक ठीक शुद्ध नहीं होता) है। इसके दुखित, नाराज, अनन्छ, मैला । ( Disple शोधन की विधि भी कौटिल्य ने दी है। विस्तार ased). भय से उसे यहाँ नहीं दिया गया । कौटि. अप्रसवधर्मी aprasava-dhammi--सं० अर्थ०। त्रि. अप्रसव धर्मवाला पुरुष, क्योंकि प्रात्मा में | अप्रिय apriya-(सं०) हिं० वि० [सं०] [स्त्री० से कुछ उत्पन्न नहीं होता इससे यह प्रसवधर्मी अप्रिया ] अहित, ( Disagreeable, un. नहीं है। अवीजधर्मी । मध्यस्थधर्मी । सु० शा० । triendlv ) अप्यारा, अनचाहा । जो प्रिय न हो । अरुचिकर | जो न रुचे | जो पसंद न हो। 8 : aprahatah-do tao अपिया apriya-सं. स्त्री० (१) शृङ्गी मत्स्य, अपहत aprahata-हिं० वि. सिङ्गी मछली ( Singi fish)। (२) (1) मालक्षेत्र, केदार भूमि। मालभूमि-म०। वोदालि मत्स्य । (२) जो भूमि जोती न गई हो । खिल (अपहृत) त) अप्रीति apriti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) भूमि | रा०नि०व०२। भरुचि । ( Indifference; dislike). अप्राकृत aprakarita-हिं० वि० [सं०]| (२) अप्रेम । (३) वैर । विरोध । जो प्राकृत न हो । पास्वाभाविक । असामान्य । असाधारण । अधीतिकर apritikar-हिं० . अरुचिकर । भप्राकृतिक aprakritika-हिं० वि० [सं० । निपुर, कडोर । अस्वाभाविक, प्रकृति विरुद्ध । (Unnatural). अप्रेतराक्षसी apreta-rakshasoi-सं: लो For Private and Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रोटः अफ़र्गमा तुलसी वृक्ष । ( Ocimuim Sanctum) अफ़न aafana ) -अ० पचन,सडाँध, र० मा०। उफनत aufunata, सड़ना गलना, दुगंध अनोटः aprotah-सं० पु. भारद्वाज पक्षी।। नतानत natanata उत्पन्न करना, तिब वै० नि० | A bird named Bhāra- की परिभाषा में किसी तरल द्रव्य का शारीरोष्मा dvaja. के प्रभाव से सहाँध में परिणत होने की भोर रुख अप्रौढ़ apronrha-हिं० वि० [सं०] (१) करना (प्रवृत्त होना ) है, परन्तु अभी उसके जो पुष्ट न हो । कमज़ोर । (२) कच्ची उम्र का। स्वरूप एवं प्रकार में कोई अन्तर न पाया हो । नाबालिग़ । क्योंकि स्वरूर श्रादि का परिवर्तित हो जाना अप्सरसः apsarasah-सं० पु. (१) उत्तम इस्तहाल ह कहलाता है। प्युटिफ़ैक्शन ( Putस्त्रियाँ । ( २ ) जल धाराएँ । अथर्व । सू० rifaction), प्युटिसेन्स (Putriscence) १११ । ४ । का० ६ । ( ३) जल में फैलने -ई। वाले रोगोत्पादक कीट । अथव०। सू० ३७। अफ़फङ्ग जेसिक्ट affengesict-जर० बकुल, ३का०४। मौलसरी । A tree (fimusops eleअप्सरा apsari-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] ngi). इं० मे० मे०। भंवुकण । वाष्पकण । अफ़यून afayuna-हिं. संज्ञा स्त्री० देखोअफ़ई. afaai-अ० यह अरबी संज्ञा "अनउल | - अफोम । तफ्रजील" का अपभ्रश है। काला सर्प, कृष्ण अफ़यूनो a fayuni-हिं०वि० देखो-अफीमची। सर्प । यह लाल वा काला होता है और इसके अफ़यूम afium ) - जर० पारसीक अजशरीर पर सफेद एवं भूरे विन्दु होते हैं। यह अफफ्यूम affiun S वाइन.अजवाइन, खुरालगभग 15 गिरह लम्बा होता और एक हाथ सानो । ( Hyocyamus ) ई० मे० मे० । ऊँचा खड़ा हो जाता है। जिस मनुष्य को यह अफ़यूस afayusa-यु० जंगली मूली, अरण्यकाट लेता है, उसकी आँखें निकल पड़ती है। __ मूलक । ( Wild Radish.) इसका विष इतना तीब्र होता है कि इसका काटा अफर āafara-अ० मायाफल, माज़ । (Galla.) हा मनुष्य कभी कभी तो केवल १० ही श्वास अफरञ्जमिश्क afaranja-mishka-अ० रामले पाता है। इसके चार भेद होते हैं : तुलसी। ( Ocimum Gratissimum, (१) कौड़ियाली और (२) परीला। इनके ___Linn.)। देखो-तुलसी। अतिरिक्त इसके दो अन्य भेद हैं जिनमें बहुत अफ़रगञ्ज afara-ghan ja-अकासबेल, अमरथोड़ा अन्तर होता है। बेल । ( Cuscuta Reflexa.) अफ़क afakka-० निम्न हनु के दोनों भागों के अफरना aphara nā-हिं० क्रि० अ० [सं० मिलने का स्थान । निम्न हनु संधि । - स्फार=प्रचुर ] पेट का फूलना । अफ़जनोश afan janosh ) -अ० पजनोश से अफरा aphara-हिं० संज्ञा पु० [सं० स्फार= फ़जनाश fanjanosha) अरबी बनाया हुआ प्रचुर ] (१) फूलना। पेट फूलना । (२) शब्द है, जिसका अर्थ पञ्चपाचक (द्रव्य ) है । अजीर्ण वा वायुसे पेट फूलनेका रोग, प्राध्मान । एक मजून का नाम है जिसका प्रधान अवयव '( Flatulent). मण्डूर है। See-Fanjanosha. अफमा afarghamā -अ० वक्षोअफ़द aafada-अ० पारावत, कबूतर या उसके दियाफ्ररमा diyafraghma | दरमध्यस्थ समान पक्षी। (A pigeon or a bird of पेशी-हिं० । डायाफ्रम ( Diaphragm.), the same kind.) मिडिफ़ ( Midriff.) -ई० ! For Private and Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अब्यून अफ़ज्यू' afarbyúna - यु० फ्रब्यून ( - प्यू), फ़फ़्यून - ० । सेहुँड़ दुग्ध, थूहर का शुक दुग्ध - हिं० | यूफ़ॉर्बिश्रम ( Euphorbium) -ले० । अफल: aphalah - सं० पु० अफल aphala-हिं० पु० ४१४ अफ़ afarvi- तु० बेदग्याह ( एक गाँउदार वृक्ष या घास ) | ( A knotty grass. ) अफल aafala - अ० स्त्री गुह्य भागस्थ श्रन्त्रवृद्धि रोग, (ख) गुन्द्रिक वृद्धि । पुरुषके अण्डकोष में जिस प्रकार श्रांत उतर श्राती है उसी प्रकार स्त्रियों के गुह्य भाग में भी श्रात उतर श्राती है । प्युडेण्टल हर्निया (Pudendal Hernia) - इं० | देखो - श्रन्त्रवृद्धिः । अफल, फलहीन वृक्ष, बांझ वृक्ष | ( Fruitless tree,brren ) । जिसमें फल नहो । बिना फत का । हे०च० ४ का० । त्रि०, हिं०वि० (१) जो नहीं फलता, फल रहित ( श्रोषधि । श० च० श्रथर्व० सू०७ । २७ । का०८ । (२) व्यर्थ, वृथा । - हिं०पु० झाबू (-ऊ) का वृक्ष । (३) बाँझ, बन्ध्या । अफलता aphalatá-हिं० स्त्री० फलहीनता, बांझपन | ( Barrenness, sterility ) अफला aphala-सं० (हिं० संज्ञा) स्त्री० ( १ ) भूम्यामलकी, भुई श्रामला ( Phyllanthus niruri)। (२) काष्ठ धानी वृक्ष | (Emblic officinalis) भा० । रा०नि० व० ११ । (३) लघुकारवेल्लक | The small var. of ( momordica muricata )। ( ४ ) श्रामलकी वृक्ष, श्राम ( आँव - ) ला । ( Phyllanthus Emblica ) भ० पू० १ भा० । ( 2 ) घृत कुमारी, घीकुवार (Aloe Barbadensis ) श० ० । अफलित aphalita - हिं वि० [सं० जो फला न हो जिसमें फल न लगे । फल होन । (Not in fruit, A fruitless tree ) अफलिनी aphalini - सं० स्त्री० सन्तान रहित, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफिन बन्ध्या "तरुण्याः फलिनी भवेत्" । सु० सं० उ० श्र० ३८ | See - Bandhyá अफ़संतीन afasantina - हिं० संज्ञा पुं० [ यू० ] देखो - अपतन्तीन । अफ़ा āafa अकाय ãafaya के पर अफ़ाग़ियह afághiyah - अ० हिना पुष्प, मेंहदी का फूल | ( Myrtle flower. ) अफ़ातील afátisa - यु० मूली, मूलक । (A radish.) अद''नāafadarmúna यु०हुब्बुलकुल्कुल । (See-habbul-qulqul. ) i अफ़ाफ़ह aafafah - अ० गुदद्वार, चूति - हि० । एनस (Anus. ) - इं० । अफ़ायद āafáyada - सी० मग़ास 1 SeeMaghása. अफ़ार āafára - अ० क्रूतु लब । क़ातिल अव्यह । अफ़ारह āafáraho (टेंट) कपासका फल | For Private and Personal Use Only - अ० (१) गदहे का बच्चा । ( २ ) शुतुर्मुग़ Fruit of (Gossypium Indicum.) फ़रहम aafáraham-० बलिष्ट ऊँटनी । अफारांकुन afariqúna-यु० (१) चने के बराबर एकफल है जो हरित वर्णका होता है परन्तु अधिक गोल नहीं होता | इसको अरबी में "मवेज़ज अस्ली" कहते हैं । ( २ ) माज़ रियून या (३) जैतुन का फूल । अफ़ारीन afarina - यु० बुलसकी, हशीशतुलनई. (बूटी है ) | ( A plant.) वियह, afáviyah - ० ( Spice ) मसाला, वे सुगंधित द्रव्य जो खाने की वस्तुनों में प्रयुक होते हैं, जैसे- दालचीनी आदि । अफ़ासून afásúna- यु० ( १ ) मूली का तेल । ( २ ) बेद का वृक्ष । अफ़िज् āafij - अ० ( ए० व०), अफ्राज् ( ब० व० ) श्रन्त्र, श्रान्य, आँत । इन्टेस्टाइन ( Intestine ) - इं० । अफ़िन aafina - श्व० मैला, दुर्गन्ध युक्र, वह स्नेहमय द्रव्य जो शारीरोध्मा के प्रभाव से दुर्गन्ध Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रफिन युक्र हो गए तथा सड़ गल गए हों; लेकिन अभी उनके स्वरूपादि में कोई अन्तर न श्रया हो । three ( Mephitic ) - इं० । फिन aphin - बं० अफिम aphim - द०, बं० ) अफीम (Opium). फिरञ्जमुक afiranja-mushka - अ० फ्र(ब्ज़मिश्क, रामतुलसी । (Ocimum Gra- | tissimum, Linn.) ४१५ फोन aphina-मह० अफनम् aphínam-सं० क्ली • अफीम aphima - सं० ( हिं० संज्ञा ) स्त्री० अफ़ोम afima-३० अफिस āafisa - अ० बिका, कषैला । यह पद स्वाद के लिए विशेषण के तुल्य प्रयोग में श्राता है । ऐस्ट्रिओट ( Astringent ) - इं० । फोमु aphimu-कना० अफीम | (Opium). फो. कुन्स afiquts - यु० एक प्रसिद्ध | श्री नूना afimúná यु० दालचीनी | Cinnफ़ोनी. कुत्स afiniquts बूटी है । ( An amomum Zeylanicum Nees. unimportant plant. ). ( Bark of - Cinnamon ). अफ़ोलन afilan अफ़ोलून afilúna फोकून afiqúna - यु० अजवाइन खुरासानी । (Hyocyamus). अफीम afin-m-गु० अफीम (Opium) अफ़ोल्यून afilyúna स० [फा० इं० । अफोणनु-डोडवाँ aphinanu-dodaván-गु० पोस्ते का ढोंढ | ( Poppy capsules.) [ यू० ओपियन, अ०--अफ़यून ]. (Opium)। फोम पोस्ते का दूध है, खक्खस तीर | देखो - पास्ता । अफ़ोमची afimachi - हिं० संज्ञा पुं० [अ० अफ्रयून + ची 'प्रत्य०' ] अफ़ीम खाने वाला | वह पुरुष जिसे अफीम खाने की लत हो । अफ़ोमो afimi - हिं० वि० [अ० अफ़यून ] अफ़ीमची | अफीम पात्रः aphima-pakah सं० पु० प्रकर. करा, केशर, लवङ्ग, जायफल, भंग, सिंगरफ इन्हें समभाग लेकर सबकी आधी शुद्ध अफीम डालें, प्रथम अफीम को दोलायन्त्र द्वारा दुग्ध में शुद्ध करें, तदनन्तर सब औषधों से छः गुणी मिश्री की चासनी कर और औषधों को मिला Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फल कर अच्छा तरह मर्दन करें । पुनः एक एक टंक की गोलियाँ बनाएँ । रात्रि को स्त्री सहवास से दो घड़ी पूर्व इस गोलो को मुख में रक्खें या भक्षण करें। इसके सेवन से पुष्ट हो मनुष्य ऊँचे श्रंग वाला होता है और स्त्री उसमें प्रसंग की शक्ति का संचार होता । यो० त्रि० । अफ़ोमांडून afimídúna-यु० अप्रसिद्ध बूटी है | ( An unimportant plant ) यह वृत एवं घास के बीच होती है । इसकी एक बारीक डाली होती है । - यु० पहाड़ी जौहरी जवाइन, दर्मिनह कोही । अफीसूस afisúsa-०-अज्ञात । श्रफुल्ल aphulla - हिं० वि० [सं०] अविकसित, बेखिला । अफू aphú áphú प्रफेन aphena - हिं० वि० [सं०] बिना फेन, कफ रहित । ( Foamless ) - पुं० [सं० ] अफीम | (Opium). For Private and Personal Use Only -म०, हिं० संज्ञा स्त्री० अफीम । (Opium.) श्रफेनम् aphenam - सं० क्ली० प्रफोम, श्रहिफेन । ( Opium.) अफेनफलम् aphena phalam - सं० क्ली० श्रहिफेन फल, पोस्ते की ढोंद । ( Poppycapsules ) भैष० स्त्री० रोग चि० । अफेलम् aphelam सं० क्ली० आफूक, फोम अहिफेन | (Opium ) । वै० नि० । अफ़ौत afouta - अ० ( १ ) जिसका मुख बड़ा हो, चौड़े मुँह वाला, ( २ ) जिसके दन्त, श्रोष्ट तक हों अर्थात् मुँह से बाहर निकले हुए हों । अफ, आल afāála - अ० ( ब० व० ) फ़िअ. ल ( ए० व० ) क्रिया, कार्य, काम । शक्ति द्वारा जो कुछ प्रगट हो उसे क्रिया ( क्रिअल ) कहते . Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ आल तबइय्यह. अपतीमून हैं । अस्तु, मनुष्य शरीर में जितनी प्रकार की -अ० (१) औषध-कार्य-विज्ञान, द्रव्य-गुण-शास्त्र । शक्रियाँ हैं उतनी ही प्रकार की क्रियाएँ हैं। (२) प्रभाव, गुणधर्म । फॉर्माकोलॉजी ( Pha. अफ आल तबइय्यह, afaala-ta baiyyah-ऋ० । rmacology)-इं०। (१) प्राकृतिक शक्रि सबन्धी क्रियाएँ । (२) अफऊमा afauma-अ० चचक्षत । आँख का, एक शरीर के सम्पूर्ण प्राकृतिक कार्य, जैसे-अाहार, प्रकार का भयानक क्षत । पान, सोना, जागना, उठना, बैठना, चलना, अफ़्क़ afq-अ० खतनह करना ( मुसलमानों के फिरना, देखना, सुनना, सोचना, समझना, यहाँ यह एक धार्मिक रसम है जिसमें बच्चे की इत्यादि। शिश्नाग्र त्वचा काटी जाती है)। सर्कमसिज़न अफाल दिमागियह afaala-dimaghiyah (Circumcision)-इं० । -अ० मास्तिक क्रियाएँ, दिमाग़ी काम, जैसे- अफ़कल afkal-अ. मुण्ड, समाज । तिब की विवेक, विचार इत्यादि। परिभाषा में 'कम्पन, कॅप-कपी” को कहते हैं। अफूभाल नफलानिय्यह् afaal-nafsaniyy. राइगर ( Rigor)-ई । ah-अ० मानसिक क्रियाएं, वे क्रियाएँ जो | अफ़कान afkanah-अ० अपूर्ण शिशु ( भ्रूण) मानसिक शक्तियों द्वारा प्रगट होती हैं। अस्तु, जो माता की उदर से गिर पड़े। पञ्च ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाएँ, यथा-देखना, अफ़तस aftas-अ० चपटी नासिका वाला। सुनना, स्वाद लेना, सरां करना और सूचना | ( Flat nosed.) . आदि और अन्तःकरण चतुष्ट थ की कियाऐं अफतह aftan-० चौड़ी नासिका वाला। (हवास ख़ासह बातनी के अताल ), जैसे- ( Broad nosed.) .. सोचना. स्मरण रखना और विचार करना आदि अपनीऊस aftiaus )-य० नाइबह, । ति इसी के आधीन हैं। अफ़्तीक़स aftiqus } की परिभाषा में राज. अफूमाल बसोतह afaal-basita h अ० अक्तोऊस aqtiaüs यक्ष्मा (तपेदिक ) को अकाल मुफरदह, अमिश्रित क्रियाएँ, कहते हैं। हेक्टिक फीवर (Hectic Fever) सामान्य क्रियाएँ। अफूमाल मुफरिदह afaal-mufridah-अ. साधारण क्रियाएँ जो केवल एक ही शक्ति द्वारा अपतोमून afti muna-अ० [यू० एपिथिमून ] प्रगट हों, जैसे-चातुपी, जो दृष्टि शक्ति द्वारा हिं॰ संज्ञा पु० अकासबेल विलायती, अमरबेल प्रगट होती हैं और श्रावण क्रियाएँ जो श्रवण शक्ति विलायती हिं० | कस्क्युटा एपिथिमम् ( Cus. द्वारा उद्भूत होती हैं। cuta Epythymum, Linn.)-ले। दी लेसर डॉडर The Lesser Dodder-ई। अफूमाल मुरकबह afaal-murakkabah शत्रूतु जब सबउश्श ई.र--अ०। अतीमूने-अ. संयुक्त क्रियाएँ जो दो अथवा अधिक विलायती- फा० । शियून- तु० । शनियों द्वारा उद्भत हों, जैसे-ग्रास गिलन, जो (..O. Convolvulacece ) कंड को गिजन शनि तथा प्रामाराय की प्राक उत्पत्ति-स्थान-युरोप, पश्चिम एवं मध्य र्षण शक्ति द्वारा सम्पादित होती हैं। एशिया और फ़ारस । नोट-इसमें तथा भारअफशाल हैवानिय्यह afail-haivaniyyah तीय अकाशबेल में सिवाय स्थान भेद के और -अ० प्राणशक्ति सम्बन्धी क्रियाएँ जो प्राणशक्रि कोई अन्तर नहीं है। अतः इसके वानस्पतिक्र द्वारा प्रगट हों, जैसे-हार्दिक एवं धाम निक वर्णन श्रादि के लिए देखो-श्रकाशवेल, गति प्रभृति । रासायनिक संगठन-क्करसेटीन (Quercetअफ्शालुल् अद्वियह afailul-adviyah ' in ), राल, एक तरीय सत्व तथा कस्क्युटीन For Private and Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकृतीमून ( Cuscutine ) | ( फा० ई० २ भा पृ० ४५७), ४१७ इतिहास --- दोसकुरीदूस ( Dioscorides ) ने इस नाम के जिस पौधे का वर्णन किया है वह स्पष्ट है। लाइनी का वर्णन उससे बहुत कुछ स्पष्ट है । भारतवर्ष में जो श्रोषधि अत्फ़ोमून नाम से बिकती है उसका श्रायात यहाँ फ़ारस से होता है । यह सम्भवतः कस्क्यूटा यूरोपिया ( Cuscuta Europea, Linn. ) की ही एक बड़ी जाति मालूम होती है, जिसकी जन्मभूमि युरोप, पश्चिम तथा मध्य एशिया है । प्रकृति — तीसरी कक्षा में उष्ण और प्रथम में रुक्ष है। हानिकर्त्ता - उष्ण व पित्त प्रकृति वालों को एवं युवा पुरुषों को । यह मूर्च्छा और श्रस्यंत तृषाजनक है। दर्पन - रू ( धन सत्व ) सेव व अनार या शर्बत संदल और केशर । कतीरा एवं रोगन बादाम में मलने से इसके श्रव गुण दूर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्र यह रूक्षता उत्पन्न करता है | उक्त विकार के शमनार्थ इसको किसी आर्द्रताजनक द्रव्य जैसे गुलबनफ़शहू या गावजवान के साथ मिलाकर देना चाहिए। कोई कोई कहते हैं कि फुफ्फुस के लिए भी अहितकर है। उसके दूर करने के लिए इसको समग़ अरबी (बबूर निर्यास) वा कतीरा के साथ प्रयोग करना चाहिए । प्रतिनिधि - लाजवर्द, निशोथ पित्तपापड़ा, उस्तोख़हूस और बिस्फ्राइज । मात्रा - ६मा० से १ वा १॥ तो० तक । क्वाथ में साधारणतः यह ६ मा० से १ तो० तक व्यवहार में श्राता है और इसको पोटली में बाँधकर डाला जाता है। एक या दो जोश देकर पोटली को निकाल लेना चाहिए | गुण, कर्म, प्रयोग - अप्रतीमून अपनी उष्णता व रूक्षता के कारण श्राध्मान को दूर करता है । श्रधेड़ और वृद्ध मनुष्यों के अनुकूल है । क्योंकि उनकी प्रकृति को साम्यावस्था पर लाता है । सौदावी ( वातज ) व्याधियों को दूर करता और सौदा ( वात ) एवं १३ अतीमून बलगम ( श्लेष्मा ) के दस्त लाता है । अतएव मृगी ओर मालीख़ौलिया के लिए उपयोगी है तथा अपनी उष्णता व रूक्षता के कारण युवाओं और उष्ण प्रकृति वालों में तृषा उत्पन्न करता है । यह उनमें मुखशोष उत्पन्न करता है । इसलिए इसके साथ मुलहठी, बन शहू और मधुरवारवाद तैल के समान तरी पहुँचानेवाली वस्तुएँ मिलानी चाहिएँ। ( त० न० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह शोथलयकर्त्ता, रोधोद्घाटक, प्रायः मास्तिष्क रोगोंको लाभप्रद, रक्रशोधक और प्रायः स्वग रोगों को लाभप्रद है। प्लीहा वृद्धि में इसका प्रलेप लाभदायक है । इसको साधारणतः माउज्जुब्न के साथ या दूध में कथित कर उस दूधका प्रयोग कराया जाता है । इसे वायु निःसारक भी बतलाया जाता है तथा श्रङ्गमर्द्दप्रशमन रूप से इसका स्थानिक उपयोग होता है । मख़्ज़नुल् अद्वियह् में इसके गुण तथा उपयोग का सविस्तार वर्णन आया है । उसका सारांश ऊपर दे दिया गया है । विस्तार भय से उन सब को यहाँ स्थान नहीं दिया गया । चिकित्साप्रणाली में विभिन्न प्रकार के प्रतीमून में से सम्प्रति किसी का प्रयोग नहीं होता । नव्य कुशूस. अकशूस. कुशुसा कुस ( तीमून बीज ) For Private and Personal Use Only -अ० कसूस, अमरलता के बीज - हिं५, उ० । ब. ज़ुल्कुश.. तुमे कसूस, तु मे वर्श- फा० । अरबी कुशूस. से ही मध्यकालीन लेखकों का लेटिन पद कस्क्युटा ( Cuscuta ) व्युत्पन्न है । नोट - यह अकाशवेल का पर्यायवाची शब्द है; परन्तु भारतीय बाज़ारों में कसूर्स श्रनतीमून ( फ़ारसी) के बीज के लिए प्रयोग में श्राता है । वर्णन - इसके बीज में उस पौधे के चुद्र एवं श्रायताकार पत्र तथा कण्टक मिले होते हैं जिस पर कि अफ़्तीमून उत्पन्न हुआ होता है और उस पौधे के कांड के कुछ भाग एवं पुष्प भी मिले. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफूद अफ युन मुहम्मसं जुले पाए जाते हैं। बीज चार, हलके,भूरे रङ्ग के, अ.फ्रीकन afniqun-यु० एक बूटी है जो गेहूँ एक ओर उन्नतोदर और दूसरी ओर नतोदर, के तथा अन्य खेतों में उत्पन्न होती है । इसके पत्ते सगभग मूलक बीजाकार ( मूली के बीज इतने तितली (सुदाब) के पत्तों के समान होते हैं। बड़े) के गोलाकार ढोंढ से प्रावृत्त होते हैं। | अफ्रीन afnin-रू० फर्कथून-अ०। सेहुँड, थूहर । इसका स्वाद-तिक होता है। (Euphorbium ). नोट-मीरमहम्मद हुसेन इस ओषधि का | अफ्फ़िऊन affiun-मला० अफीम । भारतीय प्रकाशबेल से समानता दिखलाकर अफ्फीनी affini-कना०, को० (Opium) लिखते हैं कि यह पीत वर्ण का होता है और | अफ़्यून afyun-०क०, अ० ) ई०मे मे। कैंटीले एवं अन्य प्रकार के पौधों पर उगता है। स० फा० ई.। देखी--पोस्ता । इसमें बहुत सूक्ष्म, श्वेताभायुक्त पुष्प आते हैं। अफ़्यून आबकारी afyāna-abkari-अ० ठीका बीज मूलक बीज की अपेक्षा लघु, लगभग गोल की अफीम । इसके वर्गाकार टुकड़े होते हैं और और लालिमायुक्र पीतवर्ण के होते हैं। इसके भारतवर्ष में इसकी बिक्री होती है। गुण अफ्तीमून के सदृश वर्णन किए गए हैं। | अफ्यून ईरानी afyāna-irani- अ० ईरान की रासायनिक संगठन--क्वरसेटीन (Quer- अफीम । cetin ) के अतिरिक्र ग्ल्युकोसाइडल रेज़िन, अफ़्यून का पलस्तर afyina-ki-plastarएक क्षारीय सत्व, एक कषाय पदार्थ, मोम और अफीम का पलस्तर (Opium plaster )। तैल । अफीम का बारीक चूर्ण, अाउंस ( २॥ तो०) प्रकृति-उष्ण व रूक्ष । रेज़िन प्लास्टर है अाउस ( २२॥ तो०), रेजिन हानिकर्ता-पीहा तथा फुफ्फुस को । प्लास्टर को बाटरबाथ (जलकुण्ड) के द्वारा पिघलादर्पघ्न-सिकंजबीन, शहद तथा कासनी के कर इसमें अफीम धीरे धीरे मिलाएं। शक्रि-१० बीज। भाग में १ भाग अफीम । प्रभाव व प्रयोग वेदना शमनार्थ इसको स्थानीय रूप से उपयोग प्रतिनिधि-अक्सन्तीन व बादरूज | में लाते हैं। मात्रा-७ मा० (शर्बत)। गुण, कर्म, प्रयोग-माहा से शुद्ध करता अफ़्यून काहू afyāna-kāhu-फा० देखोऔर प्रामाशय व आंत्र को खोलता है। दोषिक लेक्टय करिश्रम् ( Lactucarium.) ज्वरों को लाभप्रद है । और खूब पेशाब लाता है अफ़्यून कुस्तुन्तुनियह afyāna-qustuntuतथा उत्तम स्वेदक व रजःप्रवर्तक है। दग्धवद्धक nivah-अ० कुस्तुन्तुनिया की अफीम । तथा प्रकृति को मदुकर्ता और मलों का प्रवर्तक अफ्यून चीनी afyāna-chini-अ० चीन देशीय है । निविषैल। अफीम (China opium. ) । देखो - औषध-निर्माण-इत रीफल, वटिकाएँ. अफीम। चूर्ण, सिकंजबीन, अर्क, मजून, क्वाथ इत्यादि अफ़्यून जखीरह् afyuna-zakhirah-अ० की शकल में इसके बहशः मिश्रण हैं। गोले की अफीम । यह भारतीय अफीम का एक अफ़द afdaa-अ० जिसका टखना या पहुंचा भेद है जो चीन देश को भेजा जाता है। देखोभीतर को मुड़ा हुआ हो। अफीम। अफ्यून तुर्की afyāna-turki- अ. अफ्यून अफ़दज़ afdaz-अ० एक अप्रसिद्ध औषध है।। स्मा । देखो-अफीम । अन. afna-अ० मास्तिष्क दौर्बल्य, बुद्धिहीनता । अफ़्यून मुहम्मस afyin muhammas अनान afnan-फा० फरासियून | See-Fa-| -फा० भुनी हुई अफीम | इसके भूनने की rásiyún. विधि "तह मीस" में देखो। For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org फयून मुदब्बर अफ़्यून मुदंब्बर afyún mudabbar - फा० अफीम को गुलाब जल में भिगोकर छानें, पुनः इतना पकाएँ कि गोली बाँधने के योग्य हो जाए । आयुर्वेदिक विधि के लिए देखो - पोस्ता । अफ़्यून स्मर्ना afyúna-smarna-फा० अफ़्यून | तुर्की, एशिया कोचक की अक्रीम, Turkey opium, Smyrna ( Levant ) opium. इसके टुकड़े चौथाई श्राउ स से लेकर अर्ध पाउण्ड तक भारी होते हैं जिनपर पोस्ते के पते लिपटे हुए और उनपर चूकाबीज छिड़के हुए होते हैं । अन हिन्दी afyúna-hindi- फा० सरकारी अफीम | यह तीन प्रकार की होती है, ( १ ) गोले की अफीम, ( २ ) अपयून श्रावकारी और ( ३ ) औषधीय श्रीम । इसकी छोटी छोटी डलियाँ अथवा चूर्ण होता है । यह पटना में बनता है । इनके अतिरिक्त अफ़्यून मिश्री, युनानी, श्रंगरेज़ी, जर्मनी और फ्रांसीसी भी होते हैं । अफ्यूर afyur - यु० बीज । ( Seed ). अफ़्यूर सफ़ साफ़न afyúr-safsáfan - यु० तुम खुब्बाजी | See-khubbázi. अफ्यूस afyús - यु० जंगली मूली । wild radish ). अफ्रज afraj - अ० जिसके निकले हुए हों । अफ.ओ afranji - अ० कृ० ( श्रङ्गी से ), मिश्र के लोग उपदंश रोग के लिए बोलते हैं । (Syphilis.) श्रप्रदन्त बाहर क्र.म afram-अ० पोपला, जिसके दाँत टूट गये हों । अ. स्थून afrasyun-यु० विषखपरा ( हिन्दक्रूक्की), पुनर्नवा । (Boerhavia Diffusa). अफ्रीक afriq-० १७ से २० श्रौक्रियह, तक का माप या वजन ( = ४७ तो० ६ मा० ) । अफ्रीकन ऐसे पॉइज़न african arrow, poison - इं० स्ट्रोफैन्थस (Strophan - thus. ), ४१६ अफला . तूम अफ्रीकी ज़हर पैक afriqi-zahra-paikán यु०, ( Strychnos Bordean ). अदिस afridas - यु० इज़खिर | SeeIzkhir. अफ्रीस्म्स afrismús - अ० सतत शिश्न प्रह पेण अर्थात् बिना कामेच्छा के भी सदा शिश्न का प्रहृष्ट (दृढ़, उत्त ेजित ) रहना । देखो - फ़र्सीमूस | प्रायापिज़ूम ( Priapism ) - इं० । श्र. दीजानafrúdi jan - यु० मिट्टी भेद । ( A kind of earth.)। सालीस afrúsális अ.क्र. साल्यूsalyus } Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -यु० चन्द्रकान्त ( हल् कुमर ) एक प्रकार का पत्थर है । (A kind of stone. ) अफ़्लज aflaj o वह मनुष्य जिसका निम्न प्रोष्ट फटा हुआ हो अर्थात् जिसके अधः श्रोष्ट में चीरा पड़ी हो । अफ़्लञ्जह ्म aflanjah - अ० फूल, फिरंगी फ़्लअह, flanjah you | ये रक्त राई के समान बीज हैं अर्थात् एक प्रकार के पीत बीज होते हैं । सर्वोत्तम वे होते हैं जिनको हाथमें मलनेसे सेब की गंध आए । इनका स्वाद तिल होता है । ये प्रायः इतरोंमें प्रयुक्त होते हैं । मअजून श्रादिमें भी डाले जाते हैं | उद्भवस्थान - भारतवर्षं । अफलातून aflátan - श्र०, यु० मुक़ूल, मुले, अर्ज़ | गूगल - हिं०, द० । गुग्गुलुः सं० । (Balsamodendron agallocha, W. &. A. (Resin of-Bdellium) स० [फा० ई० । For Private and Personal Use Only अफ़्ला.तून aflátúna - यू० फ़्ला तुन flatuna - अ० प्लेटो Plato - इं० | यूनानी भाषा में अलातून का अर्थ प्रकाण्ड विद्वान् है । यह एक प्रख्यात हकीम थे । श्रापका जन्म ईसवी सन् से ४२७ वर्ष पूर्व एथेन्ज ( यूनान की राजधानी ) नगर में हुआ । आपके पिता यूनान के प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा हकीम अस्वलीबियूस ( Ascle - pios) की संतानों में से थे । अपने कालके आप Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अफलात प्रसिद्ध दार्शनिक और चिकित्साशास्त्र के प्रमुख एवं कुशल पंडित थे । आपको गणितशास्त्र से भी बहुत प्रेम था । आप सुकरात के अनुयायी और अरस्तू के गुरु थे । ईसवी सन् से ३४७ वर्ष पूर्व एक्कासी ८१ वर्षकी अवस्था में आपका देहांत हुआ | आपने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें से कई एक आज भी उपलब्ध हैं । फ्लास aflartasa - यु० छोटी माई का वृत्त, फ़रोसवृक्ष | (Tamarix Orientalis, Vahi. (Galls of - Tamarix Galls.) अकुलासून aflásúna यु० मूली का तैल | ( Radish oil ). अपुलीकान aflikána अफ्रीका afikánua } ४२० - अ० (१) चित्रक की दोनों अस्थियों के किनारे जो मिल गए हैं । ( २ ) कंड में कच्चे के पास जो मांस के दो लोथड़े हैं । अफ्लीज़ aflija-अ० पक्षाघात का रोगी, फ्रालिज का रोगी । ( Paralytic.) अफ्लूनिया aflúniya - अ० एक मंत्र जून का नाम है जो फ़्लूनिया falúniyá अपने रूमी आविष्कर्ता हकीम अफ़्लन के नाम से प्रसिद्ध है । यह वेदनाशामक है । अफ़वात afváta - अ० अंगुलियों के बीच की दूरी । ( Distance between fingers) अफ़वा afvafa - अ० ( ब० व० ), फ़ौफ़ ( प ० ० ) नखों के किनारों के श्वेत विन्दु | अफ़वोलुन afvolúna - बरब० बरमेह ( एक प्रसिद्ध वृक्ष ) | ( An unimportant tree.) अफशर्नीकी afsharniki - यु० शुकाई ( भा० बाज़ा० )| The herb. (See shukai) अफ़रासीकी afshasiki - फा० श्रज्ञात है । अफ़ शुरज afshuraja ) - अ० अफ़ शुरूज afshurúja शुरह या शुर्दह का ० कृ० पद है । जिसका अर्थ ताजा फल अथवा वनस्पतियों का निचोड़, श्रर्थात् निचोड़ा हुआ रस, स्वरस अथवा श्रक्र होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफसन्तीन अफ़ शुरह afshurah - फा०] वस्तुतः “शुदह " है । पर प्रयोगाधिक्य के कारण "अफ़्शुरह्" हो गया है । फलों का निचोड़ा हुआ जल । juice Succus ). अफ, शुर्दह afshurdah - फा० रस, स्वरस, निचोड़ - हिंo | juice ( Succus ). अफ़ शुर्दहे बङ्क afshurdahe-banka-फा० अजवाइन खुरासानी का रस | ( Juice of Hyoseyamus ). अफ, शुर्दहे शौकगन afshurdahe-shoukarána - फा० कोनाइम अर्थात् शौकरान का रस । ( Juice of conium ). अफसaas - अ० माजूफल, माफल - हिं० | मायी, मात्रिका - सं० | Galls ( Galla ). अफ़ ्म सन्तोन afsantin- अ०, रू०, ० (हि०पु० ) आर्टिमिसिया ऐसिन्धियम् Artemisia Ab sinthium, Linn., एसिन्धियम् वल्गेरी Absinthium Vulgare, Coertn., आर्टिमिसिया ऑफ़िशिनल Artemisia officinal, Lam., आर्टिमिसिया Artemisia ( शुष्क प ) - ले० । वर्मवुड Worm Wood, मग वर्ट Mug-wort, दी एब्सिन्थ ( the absinth ) - इं० | ख़तरक़ - अ० । ऐसिन्थियून ( Apsinthion ) - यू० । मूथ बख़शह, मर्वह- फा० । विलायती अफ़सन्तीन- हिं०, द० । ( पार्वतीय श्रफ़ सन्तीन ; खल; ( बुरे प्रकार का ) वसीह - मिश्र० । मिश्र वा सेवती वर्ग (N. O. Compositæ.) उत्पत्ति स्थान - उत्तरी अफ़रीक़ा, दक्षिण अमेरिका, यूरुप के कतिपय पार्वतीय प्रदेश, एशिया में साइबेरिया, मंगोलिया, खुरासन और भारतवर्ष के कतिपय पर्व्वतीय प्रदेश, काशमीर तथा नेपाल इत्यादि । वानस्पतिक वर्णन - यह शीह वा दौना के प्रकार की एक बूटी है। कांड-तृण कांडवत् सरल एवं शाखामय होता है। शाखा- श्वेत लोगों से प्रावृत होता है। शांखा पर असंख्य For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अफसन्तीन अफ सन्तीन पत्र लगे होते हैं। पत्र-दोनों ओर रेशमवत् लोमों से युक्त होने के कारण रजत वर्ण के और लगभग २ इंच दीर्व होते हैं। पुष्प-सूचम, पीताभ श्वेत और गुले बाबूना के समान होता है, जिसके मध्य में एक प्रकार का पीलापन होता है। इसमें छोटे छोटे गोल दाने अर्थात् फल लगते हैं जिनके भीतर बारीक वीज भरे होते हैं। इसके अनेक भेद हैं जिनका वर्णन यथा स्थान होगा। गंध तीव्र एवं अग्राह्य और स्वाद अत्यन्त तिक होता है। प्रयोगांश-इसके पत्र एवं पुष्पमान शाखाएँ औषध कार्य में आती है। __ रासायनिक संगठन- इसमें १॥ प्रतिशत एक उड़नशील तैल जिसका सान्द्र भाग एब्सिन्योल ( A bsinthol ) कहलाता है। इसके अतिरिक्त इसमें एक रवादार ( स्फटिकीय ) सत्व जिसको ऐब्सिन्थीन (Absin thin ) कहते हैं और 'प्रतिशत एक तिक राल और ५ प्रतिशत एक हरित राल श्रादि पदार्थ होते हैं। घुलनशीलता-ऐब्सिन्थीन (Absinthin) अत्यन्त कटु, श्वेत वा पीताभ धूसर वर्ण का एक ग्ल्युकोसाइड है जो मद्यसार ( Alcohol) वा सम्माहनी ( Chloroform ) में अत्यन्त विलेय, किंतु ईथर तथा जल में अल्प विलेय होता है। अफ सन्तीन के शीत कषाय ( Infusion) को कषायीन द्वारा तलस्थायी करने से एब्सिन्थीन प्राप्त होता है। संयोग-विरुद्ध (Incompatibles)श्रायर्न सल्फास (हीरा कसोस ), जिंक सल्फास ( तूतिया श्वेत ), प्लम्बाई एमीटास और अर्जे. ण्टाई नाइट्रास। औषध-निर्माण-पौधा, ५० से ६० ग्रेन । __ शीतकषाय-(10 में १), मात्रा-1 से १ प्राउंस । तरल सत्व-५ से ६० वुद तक ( पूर्ण वयस्क मात्रा)। टिंक्चर-(८ में १), मात्रा से १ डाम तक । तैल-मात्रा, 1 से सुगंधित मद्य-(एक फरासीसी मद्य जिसको वाइनम ऐरोमैटिकम् एसिन्थियम् कहते हैं। इसमें माजोरम् अजेलिका, एनिस प्रभृति सम्मिलित होते हैं )। यह मस्तिष्कोत्तेजक है इसके अधिक सेवन से ऐसिन्थिम ( Absint'lism) अर्थात् अफ सन्नीन द्वारा विषाक्रता उत्पन्न हो जाया करती है जिसके लक्षण निम्न हैं रोगी को कठिन गरमी मालुम होती है हृदय धड़कता है नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है और श्वास जल्द आता है इत्यादि । ___ नोट-यनानी चिकित्सा में यह तैल, मद्य, शर्यत, अनुलेपन, अर्क, टिकिया, क्वाथ, तथा मजून प्रभृति मिश्रण रूपों में व्यवहृत होता है । अफ सन्तीन के एलोपैथिक (डॉक्टरी) चिकित्सा में व्यवहत होने वाले मिश्रण--- (डॉक्टरी में ये मिश्रण नॉट ऑफिशल हैं ) (१) पल्विस एब्सिन्थियाई, मात्रा-२० से ३० ग्रेन । (२) एका " " से १ औंस । (३) एक्सट्रैक्टम् " " ५ से १५ ग्रेन । (४) एक्सट्रैक्टम् एब्सिन्थियाई लिक्विडम् , मात्रा-१५ से ४५ बुद । (५) इन्फ्युजन एडिसन्थियाई" ५ से २ श्रौंस । (६) श्रॉलियम् " " १ से ५ बुद । (७) टिंक बूरा " " से २ डाम । () " कम्पोजिटा " १ से ४ ड्राम । नोट-यद्यपि युरोप के कतिपय प्रदेशों में इस ओषधि के उपयुक मिश्रण प्रयोग में लाए जाते हैं, तथापि अधिकतर इसका टिंक्चर ही व्यवहार में आता है। यह एक भाग वर्मवुड (असन्तीन) और १० भाग मद्यसार (६०) से निर्मित किया जाता है। अरु सन्तीन के प्रभाव तथा उपयोग । आयुर्वेद की दृष्टि से__ यद्यपि असन्तीन और इसकी कतिपय जातियाँ भारतवर्ष में उत्पन्न होती हैं और उनका वर्णन भी आयुर्वेदीय ग्रंथों में पाया है; तथापि अफ सन्तीन का वण न किसी भी श्रायुर्वेदीय ग्रंथ में नहीं मिलता। इसकी अन्य For Private and Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अफसन्तीन " www.kobatirth.org ४२२ जातियाँ निम्न हैं- ( १ ) दमनक वा दौना (Artemisia Scoparia or Indica), ( २ ) नागदमनो ( Artemisia Vul garis ), ( ३ ) शोह वा किर्माला ( Artemisia Maritima ) ( ४ ) परदेशी दौना ( Artemisia Persica ) इत्यादि । इनके लिए उन उन नामों के अन्तर्गत वा आर्टिमिसिया देखो । यूनानी मत से - प्रकृति - यह प्रथम कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूत है ! हानि कर्त्ता मस्तिष्क व श्रामाशय को निर्बल करता, शिरः शूल उत्पन्न करता तथा रूक्षता की वृद्धि करता है । दर्पन - नीसून, मस्तगी, नीलोफ़र या शर्बत श्रनार । प्रतिनिधि - ग़ाफ़िस और असारून । मात्रा - ३ मा० से ७ मा० तक । चूर्ण रूप में सामान्यतः ४-४ ॥ मा० श्रौर क्वाथ रूप में ६-७ मा० तक प्रयोग में ला सकते हैं । I गुण, कर्म, प्रयोग - ( १ ) रोधीघाटक है । क्योंकि इसमें कटुता और चरपराहट ( २ ) संकोचक है | क्योंकि इसमें कषायपन है; और कषायपन ( वा क़ब्ज़ ) पृथ्वी तत्व के कारण प्राप्त होता है और पृथ्वी तत्व रूक्ष होता है । इसके अतिरिक्त इसमें कटुता भी है और कटुता भी तीच्ण एवं तीव्र पार्थिव तत्व ही से हुआ करती है और यह स्पष्ट है कि तीक्ष्ण पार्थिव तत्व के भीतर रूक्षता का प्राधान्य होता है । इसके अतिरिक्त इसके स्वाद में चरपराहट भी है और यह अग्नि तत्व के कारण हुआ करता है । इस कारण से भी यह रूक्ष है । - एव इससे यह निष्पन्न हुथा कि अफ़सन्तीन दो प्रकार के सत्वों के योग द्वारा निर्मित हुआ है(१) उष्ण सत्व - कटु, सारक और चरपरा है और ( २ ) दूसरा सत्व पार्थिव एवं संकोचक है । ( ३ ) मूत्र एवं श्रार्त्तवप्रवर्तक है । क्योंकि इसके भीतर तल्तोफ. ( मलशोधन, द्रवजनन) और तफ़्तीह (अवरोध उद्घाटन) की शक्ति है । (४) पित्त को दस्तों के द्वारा विसर्जित करता है । क्योंकि इसमें जिला (कांतिकारिणी ) श 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ, सन्तीन विद्यमान है जो इसके भीतर कडुग्राहट के कारण पाई जाती है । स्तम्भिनी ( क़ाबिज़ ) शक्ति भी इसमें वर्तमान है जो अवयव को श्राकुञ्चित एवं बलिष्ट करती है । इससे क़ब्बत दाफ़िचह् ( प्रक्षेपक वा उत्सर्जन शक्ति ) को शक्ति मिलती है और (दस्ता जाते हैं) । ( ५ ) इसका स्वरस आमाशय के लिए हानिकर है। क्योंकि यथार्थतः स्वरस असन्तीन के श्रवयव से अधिक उष्ण एवं तीक्ष्ण होता है । इसलिए कि स्वरस में पार्थिवांश जो कि शीतल होता है, नहीं श्राता । श्रतएव इसका स्वरस अपनी तीच्णता एवं उष्णता के कारण श्रामाशयिक द्वार को शक्ति प्रदान करता है। बल्कि इसके जिर्म ( फोक ) में शेष रह जाता है और निचोड़े हुए रस में नहीं निकलता । (६) हाँ ! स्वरस में असन्तीन की अपेक्षा अधिकतर लयकारिणी ( विलायक ) तथा aircare शक्ति होती है, जिसके कारण यह कामला (यन ) के लिए लाभदायक है। इसका जिर्म और इसका शर्बत श्रामाशय एवं यकृत को बलप्रद है । जिर्म के बल्य होने का कारण यह है कि उसके भीतर स्तम्भिनी ( क़ाबिज़ह ) शक्ति काफ़ी होती है । अतएव वह प्रति दो अवयवों को शक्ति प्रदान करता है । शर्बत इसलिए बल्य है कि उसमें स्तंभक ( क़ाबिज़ ) एवं सुगन्धित श्रोषधियाँ सम्मिलित की जाती हैं । उसमें क्षोभ एवं तीच्णता भी नहीं होती । शर्बत बनाने की कई विधियाँ हैं । कोई इस प्रकार बनाता है -- अफ़सन्तीन को अंगूर के शीरा में भिगो देते हैं और तीन मास तक छोड़ रखते हैं । और कोई इस तरह बनाता है कि अफ़सन्तीन को सुगन्धित दवाओं के साथ दो मास पर्यन्त अंगूर के शीरे में भिगो रखते हैं अतः यह शर्बत अपने स्तम्भक एवं क्षोभ रहित सौरभ के कारण आमाशय और यकृत् को शक्ति प्रदान करता है । (१) अफ़सन्तीन अर्श के लिए उपयोगी है 1 क्योंकि अर्श का रोग स्थल चूँकि मुख तथा आमाशय से दूर स्थित है और वहाँ तक इसकी शक्ति निर्बल होकर पहुँचती है। इस लिए For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ.सन्तान अफ सन्तीन इसकी उष्णता वहाँ ऐसी न होगी कि रूक्षता की वृद्धि कर मस्सों को कठिन बना सके; प्रत्युत उस सूक्ष्म उष्मा के कारण तलय्यिन (मृदुता), तह लील (विलेयता) और तस्वीन ( गर्मी ) प्राप्त होगी । (८) और अपनी तल्तीन ( संशोधन वा द्रावण ), तहलील ( विलायन ) और इद्रार (प्रवर्तन, रेचन) के कारण विषमज्वरों को लाभदायक है । (१) इसके क्वाथ का वाष्प स्वेद (भफारा) करने से कर्णशूल प्रशमित होता है । क्योंकि यह वायु को लयकर्ता और श्लेष्मा को मृतु एवं लय करता है। और पैतिक दोषों को भी निकाल डालता है ।(१०) चूँकि अक्सन्तीन के भीतर कडु अाहट है । अतः यह उदर की कृमियों को मार डालता है। ( तन०) संक्षेप में यह बल्य, संकोचक, रोधोद्राटक, संकोचक, प्रवर्तक वा रेचक, ज्वरन्न, उदरकृमिनाशक, मस्तिष्कोत्तेजक और कीटाणुनाशक है। प्रामाशयावसान, प्राध्मानजन्य पाचन विकार, प्रांत्रकृमि, परियाय-ज्वर निवारण हेतु, श्लेष्म स्राव, रजःरोध, रजः स्राव, शिरोरोग यथा शिरः शूल, पक्षाघात, कम्पन, अपस्मार, सिर चकराना, मालीखोलिया इत्यादि तथा कण रोगों और यकृत् एवं लोहा आदि रोगो' में इसका व्यवहार होता है। एलोपैथिक वा डॉक्टरी मतानुसार प्रभाव-अफ़सन्तीन (पौधा)तिक बल्य, सुगन्धित, प्रामाशय बलप्रद अर्थात् अग्निप्रदीपक, ज्वरघ्न, कृमिघ्न (श्रांत्रस्थ), मस्तिष्कोजक, रजः प्रवर्तक, अवरोधोद्धाटक, स्वेदक, पचननिवारक, और किञ्चिन् निद्राजनक है । (तेल) अधिक काल तक सेवन करने से यह निद्राजनक विष (Narcotic poison.) है। उपयोग-श्रामाशय बल्य रूप से इसको श्रामाशय की निर्बलता के कारण उत्पन्न अजीर्ण एवं आध्मानजन्य अजीर्ण में देते हैं । कृमिघ्न रूप से इसको केचुओं ( Round worms) और सूती कीड़ों ( Thread worms) के निःसारण हेतु व्यवहारमें लाते हैं । ज्वरघ्न रूप से इसको विषमज्वरों ( Intermittent fevers ) में प्रयत करते हैं। रजःप्रवर्तक रूप से इसको रजःरोध तथा कष्टरज में देते हैं। मस्तिष्कोजक रूप से इसको अपस्मार और मस्तिष्क नैवल्य इत्यादि रोगों में देते हैं। नोट-आमाशय तथा प्रांत्र की प्रदाहावस्था में इसका उपयोग न करना चाहिए। अफ्सन्तीन को गरम सिरका में डुबोकर मोच श्राए हुए अथवा कुचल गए हुए स्थान की चारों ओर बाँधते हैं । श्राक्षेप निरोध के लिए भी इस पौधे के कुचल कर निकाले हुए रस को सिर में लगाते हैं । शिरोवेदना में शिर को तथा संधिवात और प्रामवात में संधियों को पूर्वोक विधि द्वारा सेंकते भी हैं । एब्सिन्थियम् तिक आमाशय बलप्रद है। यह क्षुधा की वृद्धि करता और पाचन शक्ति को बढ़ाता है । अजीर्ण रोग में इसका उपयोग करते हैं । यह योषापस्मार (Hysteria). आक्षेप विकार यथा अपस्मार, वात तान्विक क्षोभ, वात तन्तुओं की निर्बलता (वात नैर्बल्य ) में तथा मानसिक शांति में भी व्यवहृत होता है। कृमिघ्न प्रभाव के लिए इसके शीत कषाय की वस्ति देते हैं। कृमिनिस्सारक रूप से इस पौधे का तीचण क्वाथ प्रयुक होता है। बालकों की शीतला में इसका मन्द क्वाथ देते हैं । त्वम् रोगों एवं दुष्ट व्रणों में टकोर रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है । ( ई० मे० मे० पृ० ८५-डॉ० नदकारणां कृत । पी०वी० एम०). सिंकोना के दर्या फ्त से पूर्व विषमज्वरों में इसका अत्यधिक उपयोग होता था। वातसंस्थान पर इसका सशक प्रभाव होता है। शिरोशूल एवं इसके अन्य वात संबन्धी विकारों को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति से काश्मीर तथा लेदक के यात्री भली प्रकार परिचित हैं। क्योंकि जब वे देश के रस विस्तृत भाग से जो उन पौधे से श्राच्छादित है, यात्रा करते हैं, तब उनको यह महान कष्ट सहन करना पड़ता है। (वैटस डिक्शनरी १ ख० ३२४ पृ.) For Private and Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ सन्तीनुल बहर अवरककलयां अफसन्तीनुल बहर afsantinul-bahar- अबखरा aba khari-हिं० संज्ञा पुं० [अ०] अ० (Artemisia Maritima, Linn.) भाप । बाप्प । (Vapour ). शोह, शरीफ़न-अ० । दर्मनह-फा० । किर्माला अबखोरा abakhora-हिं० संज्ञा पु० दे०-हिं० । श्राबखोरा । अफ सन्तीने हिन्दी afsantine-hindi-फा० अबज़ abaz | -अ० अभ्यन्तर जानु, घुटने का ( Artemisia Indica, Wild. ) माबज़ mābaz पिछला या मध्य रेखा की ओर ग्रंथिपर्णी-सं० । का भाग या तल । पॉप्लीज़ (Poples)-इं० । अफ सीह aafsih-अ० बलूत भेद । See- अबटन abatana-हिं० संज्ञा पुं० दे०Balúta. उबटन । अफ .सुल अबैज़ iafsul-abaiza-अ० अबद āabad-अ० एक सुगंधित पौधा है। (An माजूफल । ( White galls.) aromatic plaut.) अफ..सुल श्रखज़र aafsul-akhzara-अ० अब दातक abadatak-सं० लामजकम् । ___माजूफल, मायाफल। ( Green galls.) (Andropogon laniger.) अफ.सुल अज़क aafsu)-arzaq-अ० नील अबद्ध abaddha-हिं० वि० [सं०] जो बँधा माजूफल । ( Blue galls.) न हो । मुक्र । अबनी a bani-हिं० स्त्री० धरती, पृथ्वी । (The अफ .सुल अस्वद aafsul-asvada-अ० श्याम | माजूफल (मायाफल)। (Black galls.) earth, the world ). अफ .सुल बलत aafsul baluta-अ० अबब aabab-१० काकनज भेद जिसको हब्बु माजूफल, मायाफन्न -हिं० । Galls ल्लहु कहते हैं । (२) नकम्बा Physic ( Galla. ). nut (Jatropha. glauca)। इसके बीज अबका abaka-हिं०संज्ञा पु० [सं०अबकासेवार] से एक प्रकार का उत्तेजक तैल प्राप्त होता है जो ग्रामवात तथा पक्षाघात के लिए लाभप्रद एक पौधा जिसके डंठल की छाल रेशेदार होती है और रस्सी बनाने के काम आती है । खूदड़ का है । इं. है० गा०। मैनिला पेपर बनता है। यह पौधा फिलिपाइन अबमकाजी abamakaji-तु० खब्बाज़ी। Seeदेश का है । अव इसकी खेती अण्डमन टापू और | | khubbazi. श्राराकान की पहाड़ियों में भी होती है । इसकी अययी a bayee-मह० महाशिम्बी-सं०। श्वेत खेती इस प्रकार की जाती है। इसकी जड़ से | सेम-हिं०। (Canavallia ensiformis) पेड़ के चारों ओर पौधे भूफोड़ निकलते हैं । जब अबरक abarak-हिं० संज्ञा पुं० [सं० वे पौधे तीन तीन फुट के हो जाते हैं तब उन्हें अभ्रकम् ] ( 1 ) Tale (Mica) अभ्रक, उखाड़ कर खेतों में 1 फुट की दूरी पर लगाते भोड़ल । (२) एक प्रकार का पत्थर जो हैं। तीन चार साल में इसकी फसल तैयार होती खान से निकलता है और बरतन बनाने के काम है, तब इसे एक एक फुट ऊपर से काट लेते हैं। में श्राता है। यह बहत चिकना होता है। इसकी डंठलों से इसकी छाल निकाल ली जाती है। बकनी चीजों के चमकाने के लिए पालिस वा और साफ करके रस्सी श्रादि बनाने के काम में रौग़न बनाने के काम में आती है। पाती है। हिं० श० सा० । अबरक भस्म a barak-bhasma-हिं० स्त्री० प्रबकेशी aba-keshi-हिं०वि० अफल, फलरहित, अभ्रक की भस्म । (Calcinated talc.) बाँझ । Without fruit, barren अबरकलया abar-qalaya-यु. पालक । (A tree ). (Spinace aoleracca ). For Private and Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अबरखं ४२५ অন্যা अबरख abarakha-हिं० संज्ञा पुं० अभ्रक, और ऐसी एक गोली रात को सोते समय दे । भोडल | Tale ( Mica). यह उस कब्ज़ रोग में जिसमें यकृद् विकार भी प्रबरजमिश्क abaranjamishka-०३० हो अत्यन्त लाभदायक है। फरामिश्क-अ.| रामतुलसी-हिं०1 Ocim. | अवयन abar byāna- यु० फायून-अ० । um (gratissimum). सेहुँड, थूहर । ( Euphorbium.). अबरन abaran-हिं० वि० [सं० प्रवर्ण ] | अबर्स abal'sa-यु. गुले सौसन । See-Souबिना रूप रंग का । वर्णशून्य । ___sana. अबरम् abaram-सं० क्लो० अन्तर्वस्त्र । मे० अवलख abalakha-हिं० वि० [सं० अवलत रत्रिक। =श्वेत ] कबरा । दो रंगा । सक्नेद और काला अबरस abarasa-हिं संज्ञा पु. [.फा०] | अथवा सफ़ेद और लाल रंग का । (१)घोड़े का एक रोग जो सब्जे से कुछ अवलखा abalakha-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० खुलता हुआ सफेद होता है। (२ ) घोड़ा अवलक्ष] एक पक्षी जिसका शरीर काला होता जिसका सब्जे से कुछ खुलता हुआ सफेद रंग हो । है, केवल पेट सफ़ेद होता है। इसके पैर सफ़ेदी वि. सब्जे से कुछ खुलता हुश्रा सफेद लिए हुए होते हैं। चोंच का रंग नारंगी होता है रंग का। यह संयुक्र-प्रांत, बिहार और बंगाल में होता है अबरावृत्तिः abajivrittih-सं० स्त्री० एक और पत्तियों और परों का घोंसला बनाता है। अम्ल फल है। (An aciduous fruit). ___ एक बार में चार पाँच अंडे देता है इसकी लंबाई अबरी abari-हिं० संज्ञा स्त्री० [फा०] पीले ६ इंच होती है। रंग का एक पत्थर । जैसलमेरी। अबलः abalah--सं० पु. वरुण वृत्त, बरना । अबर्क abarq-अ० अबरक या शनीन दरियाई ___A tree (Capparis Trifoliata). ( एक जानवर है ) या कोई फारसी दवा है। अबर्कल्सा abarqalsa-यु० अबलह ह abalahh अनकलसा abra-aqalasā-यु० खशिनुस्.सौत khashinussouta __ -अ० भर्राए हुए शब्द वाला, बैठे हुए शब्द भयानक मृगी। युकुलस यूनानका एक अन्यायी वाला । स्ट्रिड्युलस (Stridulous )-ई। तथा हिंसक राजा था। इस रोग का नाम अबरकल्सा उसी के नाम पर रखा गया है। क्योंकि | अबलासः abalasah-सं० पु. (१) कफयह भी एक भयंकर रोग है। एपिलेप्सिया कारी (२) बलनाशक | अथर्व०। सू० २ । ग्रेविअर ( Epilepsia Gravior). १८ । का०८। अबर्ख abarkha-अवत', अभ्रक | 'Talc| अबलासेन abalasena-हिं० संज्ञा पु. (Mica). कामदेव । (Cupid). प्रबर्दान abardana अ० सुबह और शाम का | अबाखिल abākhis-अ. पोर्वे, पर्व-सं० । समय । प्रातः सायंकाल | (Morning & the डिजिट स ( Digits)-इं० । evening ). FUIFIT a bázíra अबर्नी abarni-F० लोफ (जिसे हिंदी में मुश्त- तबाबिल tavibil | अब्ज़ार का कन्द कहते हैं, यह एक वनस्पति है)। (ब०व०) और अब्ज़ार है बहुवचन बज्र का अबर्नेथीज़ पिल्ज़ abernethy's pills-ई० जिसका अर्थ बीज है । लेकिन तिब्ब की परिभाषा मर्करी पिल ३ ग्रेन, कम्पाउण्ड एक्सट्रैक्टऑफ. में अब्ज़ार या अबाज़ीर उन बीजों या तर वा कॉलोसिन्थ २ ग्रेन, दोनों की एक गोली बनालें। शुष्क बीजों को कहते हैं जो आहार में मसाला ५४ For Private and Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रबाती ४२६ . अबाबील . रूप से उसको स्वादिष्ट एवं सुगन्धयुक्त करने के लिए डाले जाते हैं। उदाहरणतः-जीरा, कालीमिर्च, लौंग,दालदीनी, और धनियाँ प्रभृति । स्पाइसेज़ (Spices), सीज़ानिङ्गज़ (Seasonings) अबाता abāti-हिं० वि० [सं० अ-नहीं+बात - वायु] (1) बिना वायु का । (२) जिसे वायु न हिलाती हो । भवानस abānasa-यु० श्रावनूस । See ábanús. अबाबील ababila-हिं० संज्ञा स्त्री० [अ०] स्वालो ( Swallow ) ई० । काले रंग की एक चिड़िया । इसकी छाती का रंग कुछ खुलता होता है। पैर इसके बहुत छोटे छोटे होते हैं जिस कारण यह बैठ नहीं सकती और दिन भर श्राकाश में बहुत ऊपर मुड के साथ उड़ती रहती है। यह पृथ्वी के सब देशों में होती है। इनके घेसिले पुरानी दीवारों पर मिलते हैं। पर्याय-कृष्णा | कन्हैया । देव दिलाई। सयानी, सियाली, पित्त देवरी-हिं० । कन अबाबील, खुत्ताफ़ (खुतातीफ़-बहु०), अस्त -: रुज्जनह,, जनीब-अ० । परसत्वक, फरसंग्रह, बाबुवानह -फा० । शालीतून, खालीदूस-यु० । करला नफ़ ख तु० । खजला-वेल्मो०। प्रकृति-इसका मांस तीसरी कक्षा के अब्बल | मर्तबा में उष्ण व रूक्ष है । भस्म शीतल व रूक्ष होती है। विट् अत्यन्त उष्ण व रूक्ष होता है। रंग-स्वयं श्यामाभायुक्त धूसर और इसका मांस श्यामाभायुक्त होता है। स्वाद-अन्य पक्षियों के मांस के समान किंतु कुछ नमकीन । हानिकर्ता--गर्भवती तथा उष्ण अर्थात् पित्त प्रकृति को । दर्पघ्न-घृत व दुग्ध एवं सर्दतर वस्तुए । प्रतिनिधि--ग्रन्थों में इसकी प्रतिनिधि का वणन नहीं । किंतु, चक्षु रोगों में जतूका का मरज़ । मुख्य कार्य-चक्षु रोगों के लिए अत्यन्त लाभदायक है और रकाल्पतानाशक है। गुण, कर्म, प्रयोग-इसके मांस का कबाब अवरोधोद्धाटक और रक्ताल्पता एवं प्रीहा संबन्धी रोगों और वस्त्यश्मरी के लिए लाभदायक है। एक मिस काल (१॥ मा० ) को मात्रा में इसके शुष्क पिसे हुए चूर्ण को फाँकना दृष्टिशक्रिवर्द्धक है। और दो दिरम नमक सूए खुनाक के लिए लाभदायक है। इसकी भस्म का गंडुप वा शहद के साथ प्रलेप करना उपजिह्वा ( कौवा ) और कंगत सम्पूर्ण व्याधियों को नष्ट करता हैं। इसके बच्चे की भस्म को रुधिर में मिलाकर अथवा इसका मस्तिष्क मधु में . मिलाकर नेत्र में लगाना चक्षुष्य है और मोतियाविन्दु की प्रारम्भिक अवस्था में लाभप्रद है । नाव ना, फूली और सबल के लिए लाभदायक है। इसका ताज़ा रक अत्यन्त कांतिदायक एवं त्वचागत चिह्रींका नाश करने वाला है। गो पित्त के साथ बालों को सफ़ेद करता है । इसके झांझ को जलाकर उसमें से एक मिसकाल (४॥ मा०) की मात्रा में पिलाने से बन्ध्यत्व का नाश होता है और इसके पित्त का नस्य बालों को काला बनाता है; परंतु मुंह में दुग्ध रक्खें जिससे कि दाँत काले न हों। इसके नेत्र को चमेली के तेल में रगड़ कर पेडू पर लगाना बन्ध्यत्व के लिए परीक्षित है । म० अ० । ___इसके शिर को जलाकर भस्म प्रस्तुत कर मद्य में डाल दें। इससे नशा न होगी। इसकी विष्ठा को श्वेत बालों पर लगाने से बाल काले हो जाते हैं । यदि किसी के बाल असमय श्वेत हो गए हों तो इसके पित्त का नस्य देने से वे काले हो जाते अबाबीलों में मिश्री अबाबील उत्तम होता है। इनके अंडे वल्य तथा कामोद्दीपक होते हैं। घोंसलों से कने अबाबील प्राप्त होता है । इसको खानहे अबाबील और अवाबील मिश्री, मूए अबाबील और अबाबील की मस्ती कहते हैं । इसकी प्रकृति उपण त रूक्ष है । यह अत्यंत कामोद्दीपक, शुक्रमेहघ्न, हृद्य और नाडियों को बल प्रदान करने वाला है । यह मुझे के खुले हुए चोंच के समान होता है । कोई सफ़ेद रंग का और कोई For Private and Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबाबूस ४२७ अबिंधन - रक वर्ण का होता है। सफ़ेद रंग वाला शुद्ध मुचकुन्द-बं०, हिं० । (Pterospermum पंजाबी सालब मिश्री जैसा कठोर होता है। किंतु Acerifolium.)। इ० मे० मे०। शुष्क होने पर सरलता से टूट जाता है । अबॉर्शन abortion-इं० गर्भपात, गर्भस्राव । योग (Miscarriage. ). (१) अबाबील के मांस को शुष्क करके चूर्ण । अवाल abāla-हिं० वि० [सं०] (१) जो करें और ४॥ मा० जल के साथ सेवन करें। । बालक न हो । जवान । (२) पूर्ण, पूरा । मुण-दृष्टि शक्ति को अत्यन्त लाभ प्रद है । प्लीहा अबालो abali-हिं. संज्ञा स्त्रो० [देश॰] एक वृद्धि को लाभदायक और अश्मरीद्रावक है। पक्षी जो उत्तरीय भारत और बम्बई प्रान्त तथा यदि इसको ऋतुस्नाता स्त्री को खिलाया जाए प्रासाम, चीन और स्याम में मिलता है। यह तो सम्पूर्ण प्रायु भर रजः स्राव न होगा और न अपना घोंसला घास रा पर का बनाता है। गर्भाधान होगा। बेंगनकुटी । (२) अबाबील की विष्टा को शुष्क कर चूर्ण । अबालुकः apālukah-सं० पु. पानीयालुक । कर और जैतून के तेल में मिलाकर भाई तथा रा०नि० व०७। See-Paniyaluh. मुहाँसों पर लेप करने से लाभ होता है । गालों । प्रबास aabās-१० शेर, सिंह । (Lion.) पर मलने से यह उसको सुन करता है। अबासी aabasi-३० जाती, गुलेअब्बासी। (३) अवाबोल के शिर को शुद्ध मधु में (Mirabilis jalapa.) मिलाकर नेत्र में लगाने से प्रारंभिक मोतियाबिंद्ध अवित abikt-हिं० वि० गुप्त, प्रबोधनीय, प्रबोध. में लाभ होता है। गम्य । ( Hidden, unintelligible.) (४) अबाबील के हृदय को शुष्क करके चूर्ण अबिङ् abin-सिं० अफोम। ( Opium.) करें। इसमें सम भाग शर्करा योजित कर दुग्ध स० फा० इ०। के साथ सेवन करने से कामोत्तेजक प्रभाव अविचल abichal-हिं० अचल, गतिशून्य अविहोता है। वल । (Motionless, Immovable.) (५) अबाबील के रुधिर को बिना सूचित अबिरा abiranj-श्र.कृ० बिरङ्ग काबुली। किए स्त्री को खिलाने से कामावसान होता है। अबिरञ्जबीन abiranja-bina-यु० शौकतुल्थहूद अबाबूस abābās-यु० मूली, मूलक । ( Ra-| ___-१० । एक काँटादार वृक्ष है । (A spinousdish ). tree.) अवामरून abāmarun-यु० चकोर (एक पक्षी अबिरजमुश्क abiranjamushka-अ.कृ० है) ISee-chakora. फरञ्जमिश्क, रामतुलसी । ( Ocimum graश्रबार aabar-अ० ऊँट, उष्ट्र । (A camel.) tissimum.) अवॉर्टिफशेण्ट ६bortifacient-ई. । | अ(इ)बरत aa(ai)brata-० अश्रु, आँसू डबअबार्टिव abortive-ई. डबाना, आँसू बहना, रोने की हिचकी। टीयरिंग गर्भपातक, गर्भशातक । See-गर्भपातक। । ( Tearing. )-'01 अार्टिव पेपर कॉर्स abortive pepper | | अबिला abila-सं० स्त्री० मेषी । भेड़ी-हिं० । corns-इ० पोकल मिरी-हिं., मह० । (A she-sheep. ) पाइपर ट्रायोइकम् ( Pipar Trioicum.) अविशून abishun-यु० रातीनज, राल, धूप। -ले० । इ० मे० मे०। (Resin ). अयॉन ब्लैटटराइजर फजेल सेमेन aborn अबिंधन a bindhana-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] blattriger flugel samen-जर० समुद्र । (Sea) For Private and Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भबिद्ध अबोलीमिया अबिद्ध abiddha-हिं० वि० [सं० अविद्ध । | (Pure fresh blood )।-रसायनी. अनवेधा । बिना छिदा हुअा । देखो-प्रविद्ध । पारद (Hydralgyrum.) अविद्धकर्णी abiddhakarni-हिं. संज्ञा स्त्रो० अबीर aabira-अ०, हिं० (१) अभ्रक (Tale)। देखो-अविद्धकर्णी । (२) यौगिक सुगंधित चूर्ण ( An arom. अबिरल abirala-हिं० वि० देखो-अविरल । atic compound poirder ) कोई कोई अबोकमा abiquma -अ० कनी भ्रमवश केशर को कहते हैं । स० फॉ० ३० । सूफो sufi निका के अबीर abira-हिं०संज्ञा पु० [अ०] [वि०अबीरी] वाह्य पटल का व्रण जो ऐसा प्रतीत होता है कि (१) रंगीन बुकनी जिसे लोग होलीके दिनो' नेत्र के ऊपर एक छोटा सा सफ़ेद ऊन (पश्मे में अपने इष्ट मित्रों पर डालते हैं। यह प्रायः सफ़ ) का टुकड़ा रक्खा है। इसी कारण इसको लाल रंगकी होती है और सिंघाड़े के आटेमें हल्दी सूफी भी कहते हैं । अल्सर श्रॉफ कॉर्निया और चना मिलाकर बनती है। अब अरारोट और (Ulcer of cornea)-इं०। विलायती बुकनियो से तैयार की जाती है । अबीज़ एक्सेल्सा abies excelsa-ले० गुलाल । लालसिरस हिन्दी, लाहुली, लाली (मारदारी) (२) कहीं कहीं अभ्रक के चर्ण को भी जिसे -हिं० । मेमो०। इसका गोंद औषध तुल्य काम होली में लोग अपने इष्ट मित्रों के मुख पर में आता है। मलते हैं अबीर कहते हैं । बुक्का । अबीज़ कनाडेन्सिस abies cannadensis (३) श्वेत रंग की सगंध मिली बकनी जो -ले० शूकरान । हेमलॉक (Hemlock ), बल्लभ कुल के मंदिरो में होली में उड़ाई जाती स्पस (Spruce)-इं० । See- Shukrana. अयोरी abiri-हिं० वि० [अ.] अबीर के रंग AITETAAT a.bies dumosa, Loudon. का । कुछ कुछ स्याही लिए लाल रंग का । -ले० चङ्गथासी धूप-नेपा० । तंगसिंग-भूटा। __ संज्ञा पु० अबीरी रंग। सेमडंग-लेप०। प्रयागांश-राल और गोद । खोरमायहabira-mayah-अ० एक सुगंधित मेमो०। यौगिक औषध है जो चन्दन, गुलाब और अयोज़ खटगे abios khatro-ले० रातियानज ___ कस्तूरी से बनाई जाती है। राल, धूप । ( Resin. ). अबीरी abiri-अ० हब्बुल पास, विलायती मेहदी, श्रबीज द्राक्षा abija-draksha-सं० स्त्री० बर्ग मोरद । (Myrtus Communis ). किशमिश । (Raisin). मेमो०। अबीज़बालसेमी abies balsame-ले० अबोलस abilasa । -अ० बालसम । स. sarb J उदरच्छदा Falsafagrar abies webbiana, Lindl. कला। प्रोमेण्टम (Omentum ), एपिप्लून -ले० तालीसपत्र-हिं० । ( Himalayan | (Epiploon )-ई। Silver Fir ) फा० इं० ३ भा०, अबोलीमिया abilimiya-अ० बुरे प्रकार की मेमो०; ई० मे० मे० । मृगी जिसमें प्रारम्भ हो से सम्पूर्ण शरीर में अबोज़ स्मिथिभाना abies smithiana,Forr. तनाव उपस्थित होता है। विपरीत इसके अन्य bes.-ले. राव, सिरस-हिं० । रेवड़ी, बनलूदर प्रकार की मृगी रोग में तनाव मृगी के अधीन -पं०, हि । See - shirisha होता है। स्टेटस एपिलेप्टिकस ( Status अवी.त् aabit-अ0 (1) शुद्ध ताजा रक ।। epilepticus )-RO! For Private and Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अबीसह ४२६ अबुन.नुल फारावी अबोसह aabisah श्र० सत्तू या क़त शुष्क। अबुकसर abu-kasira-१० एक पक्षी है । अबुमार abuaamarah-१० एक शिकारी (A bird.) पक्षी है जो बाज से छोटा होता है, (च)। अबुक हला abu-kahla-अ० रतनजोत । (A!kaअबुरक abu-araka -यु० पोल । net.) श्रवुअराक abu-araka Salvad. अबकानस abu-qanasa-यु० एक बूटी की जड़ ora oleoides, Dine.-ले० । फा० इ० हैं जिससे वस्त्र प्रक्षालन किया जाता है । २भा०। अबुक स्तुस abu-qustus-यु. एक वनस्पति अबुश्रलस abu-aalasa-रू. गुलेखेरी, गुले है, जो मिश्र तथा शाम में फ़ासूल रूमी के नाम खैरू, गुलेखितमी। एक पुष्प है जो रात्रि में से प्रसिद्ध है। यह अर्तनीस की जड़ के समान gfoga star I (Althaea officinalis, होता है। इससे बस्त्र धोते हैं। Linn.) अबुखतार abu-kha tāra--0 तीतर । A अबुअवारस abuaavarasa-अ० जंगली partridge (Perdix Francolinus). ___ गाजर, वन्यगजर । ( wild carrot). अबुखलस a bu.khalasa | -१० रतन, अबुजअ abu-ashjaa | -अ० ऊँट अबुखलसा abu-khalasaj जोत (A1अवुहरून abu-harun उष्ट। केमल ___kanet.)। अबुसफ़र abu-safar (Camel) अबुज़न्दोक abu-zandiga--अ० गिगिट, गिरअबुकब abu-kaab -इं०। farz I ( A chameleon. ) अबुड़मर abu-aumara-१० पलंग-फां० । | अबुज़बाद abu-zabada--अ० गर्दभ, गदहा ___ -हिं० । ख़र--फा० । (An ass.) चीता, तेंदुप्रा । ('Tiger.) अबुजरादह a bu-jaladah-१० एक पक्षी है अबुमरा abu-aumar-अ० चर्ग पक्षी । (A जो अराक़ और शाम में होता है। bird). अवुजसान abu-jasān-१० अजदहा, अजगर । अबउमगन abu-aumarāna-१० दर्शन (एक (The boa constrictor. ) पक्षी है)। (A bird.) अबुजल abu-jahla - अ० चीता । (Tiger.) अबउमरान मूसा बिन मैमून albu-aumara | अबुत्तिब abuttib-१० प्रसिद्ध युनानी हकीम na-músá-bin-maimún-ho (A bu बुकरात का उपनाम है। फादर ऑफ़ मेडिसन Umran Musa Ben Maimun or ( Father of medicine.)-इ'० । Maimunedes Rabbi Moses Bin नोट-बुकरात शब्द वस्तुतः हिब्बुकात Maimun) सन् पैदाइश ११३५ ई० और (Hipperate. ) था; किन्तु "ह" के गिर सन् मृत्यु १२०४ ई० । इन्होंने कई पुस्तकें, जैसे जाने से बुकरात रह गया, पर आंग्ल भाषा में किताबुस्सम्मियात व तिर्याक्रात (अगदतन्त्र) आदि अभी तक यही नाम हैं। देखो -बुकरात । लिखी थी जिसके अनुवाद हैटिन तथा अंग्रेजी में अबुदायत abu-dayat 1 -१० गीदड़, शृगाल | किए गए हैं। अबुदाल abu-dal A jackal अबुङमारह, abu-auma.lah-१० एक शिकारी (Canis aureus. ) पक्षी है। अबुनमामह abu-namamah-अ० हुद्हुद् अबुकअब abu-kaab-१० उँट । (A camel) (कठबढ़ई )। (A bird.) अबकलमून abu-qalmun-अ० गिर्गिट । ( A अबुन खुल फ़ाराबी abu-nasrul-faribi . chameleon.)। अबुनस्त्र कन्नीत मुहम्मद बिन मुहम्मद बिन उदर For Private and Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रबुनामून । प्रारम्भ में यह माली का काम हृदय में विद्या निच, बिन तुर्खान नाम था । यह खुरासान के फ़ाराव प्रदेश के रहने वाले थे दमिश्क के एक बगीचे में करते थे । पर स्वभावतः इनके से प्रेम था । श्रतएव रात्रि में चौकीदारों के लालटेन की प्रकाश में ये पुस्तकों का अध्ययन किया करते थे । ये अपने समय के अखंड दार्शनिक और संगीत के प्रमुख विद्वान थे । श्रापने १३ पुस्तकें लिखी हैं । ४३० श्रबुनापून abu-námún-यु० क्र.लयहूद (A kind of stone. ) See-qafrul yahúda. अवनास abu-náso पोस्ता ( Papaver somniferum, Roxb.) अबुबकर इब्नबाजह् abu-bakar-ibna-bá jah -अ० इब्नबाजह | See-Ibna-bajah. अबुबकर जकरिया राज़ी abu-bakar-zak riya-rázi - श्र० ज़क्रिया राज्ञी | SeeZakriyá rází. अबुबरा abu-bara - श्र० समूल (--र ) । एक पक्षी है । ( A bird called samūla.) बुबकिया abu-balqiya - यु० सार्वांगिक या व्यापक पक्षाघात | वह पक्षाघात जो मुखमंडल के सिवाय सम्पूर्ण शरीर में हो । पक्षाघात, वातग्रस्तता । जेनरल पैरेलिसिस ( General Paralysis ) -० । अबुमन्सूर abu-mansúr o अबुमन्सूर मुत्रफ़िक बिन अली हरवी ( abu mansur muwaffik bin Haravi ) । इनकी पुस्तक इल्मुल् श्रद्वियह् अपने समय की अत्यंत विश्वसनीय एवं लाभदायी कृति हैं जिसमें बहुत सी भारतीय श्रौषधों का भी वर्णन मौजूद है । इसमें लगभग १०० औषधों का वर्णन विद्यमान है। अबुमर्दान abu-mardán--श्रु० इब्न जुहर | See--Ibn zuhr. श्रबुमल्यून abumalyún- यू० सफेदा, सुपे | White Lead (Plumbi carbonas ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवरस्मा श्रबुमालिक abu-malik--श्रु० गृद्ध, गिद्ध | ( Eagle, a vulture. ) अमिस्टार abu-mistár--श्रुo मद्य, सुरा । ( Wine ). श्रवमुकाबिल abu-mnqabil-अ गाजर 1 ( A carrot. ) बुयुहा abu-yuhá श्र० ( १ ) गिद्ध (A vulture.) । ( २ ) थ ज दहा, अजगर । ( Boa Constrictor.) अनूरस्मा abúürasmá श्र० एन्युरिस्मा Aneu - risma इं० | इनोरस्मा, इनोरज्मा, उमुद्दम । शाब्दिक अर्थ रक्त्रुति अर्थात् रक्त का बहना 1 परन्तु, प्राचीन तिब्बी परिभाषा के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें श्राघात वा क्षत प्रभृति के कारण त्वचा के नीचे किसी स्थल की धमनी फट जाती है जिससे धमनीसे रक एवं वायु निकल कर त्वचा के नीचे एकत्रित हो जाते हैं और वहाँ एक उभार बन जाता है । उम्र उभार का यह विशेष गुण है कि वह दबाने से दबा रहता है अर्थात् जब उसको दबाया जाता है तब वरीय एकत्रित वायु और रक पुनः धमनियों में लौट जाते हैं । तथा दबाव हटाने से वे पुनः उक्त स्थान में एकत्रित हो जाते हैं । अन्ताकी के वचनानुसार उक्र उभार का प्रादुर्भाव कभी तो शिरा के फटने से और कभी धमनी के फटने से होता है । अतः शिराजन्य उभार में उसका रंग श्यामाभायुक्त (स्याही मायल) और धामनिक में रकाभायुक्र होता है । और इसके साथ ही उक्त स्थल पर शिरास्थित स्पंदन का बोध होता है । अस्तु, शिरा प्रसार काल में यह उभार बढ़ जाता है और शिरा संकोच काल में यह घट जाता है। For Private and Personal Use Only डॉक्टरी नोट - एन्युरिस्मा जिसको इनोरज़्मा भी कहते हैं, वस्तुतः युनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ धामनिक अर्बुद ( रसौली) है। जिन लोगों ने इसको अबूरस्मा लिखा है वास्तव में उनको उक्त शब्द में सन्देह उपस्थित हुआ है । आधुनिक चिकित्सक ( डॉक्टर ) इस Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबुरुमाज अबुल हुक्म को धामनीयावुद मानते हैं जो धमनी की दीवाल | अबल कुत्ताफ. abul-quttaf.अ. चील के प्रसार के कारण उत्पन्न होता है । इस रोग में (प्रसिद्ध पक्षी)। (A kite.) जहाँ धामनीयाव्युद का उभार होता है वहाँ | अबुल खजीब a.bul-khazib-अ० मांस, गोश्त । हाथ लगाने से धामनिक स्पन्दन का बोध होता (Flesh, meat. ) है। उरोवीक्षणयन्त्र (stethoscope) scope | अबुल गजव abul-ghazab--अ० चीता, तेंदुप्रा। अथवा कान लगाने से वहाँ एक प्रकार का शब्द (A tiger.) सुनाई दिया करता है। अबुल जहीम abul-jahim--१० रीछ, भालू नाट-अबूरस्मा के प्राचीन चिकित्सकों द्वारा भल्लुक । (A bear.) कथित अर्थ अर्थात् त्वगधः रक्तस्रुति का समा अबुल जेब abul-jeb--अ० नमक वा नमकीन नार्थक अंगरेज़ी शब्द एक्स्ट्रावजोशन ऑफ ब्लड । ___ मछली । ( Extravasation of Blood. ) है। अवलन जारह abul-nazzirah-अ. ऐनक अबुरुमाज abu-rumāj-१० बाकला । Gar लगाने वाला। den bean (Vicia Faba. ) अबल फजील abul-fazila -अ० ममोलह (एक अबुर्रयो aburrabia--ऋ० हुदहुद (कठबढ़ई)। पक्षी है)। (A bird.) (A bird.) अबुलफर्ज बिनुत्तय्यब abul-forja-binuttअबुलअब abulaaba-अ० । गीदड, शृगाल । aiyyaba-१० इमाम ज़मानहे फ़ैल सूफ अस्र, अबुलीस abulisa-१० (A jackal) उल्लामहे अहद, अबुलफर्ज अब्दुल्लाह बिनुत्तैयब । अबुल अख़्ज़ abul-akhz--. बाशह, ये इनके नाम थे। यह धार्मिक दृष्टि से ईसाई , (जर्रह.)। और अपने काल के प्रसिद्ध एवं कुशल चिकित्सक अबुल अख्जर abulakhzal:--अ० दर्शान थे | यह शेख़ रईस बू अली सीना के समकालीन (एक पक्षी है)। (A bird.) थे । शेन स्वयं भी इनके वैद्यक सम्बन्धी लेखों अबुल अखबार abul-akhbai --अ० हुदहुद की प्रशसा एवं प्रतिष्टा करते थे। विभिन्न विषयों (कउबढ़ई )। (A bird.) पर इन्होंने लगभग ५० ग्रंथ लिखे हैं । अबुल असाद abul-a.jsad--१० (रसा० अबुलफवारुत a bul-favākhta--१० दर्शान पारि०) गंधक । ( Sulphur.) ( एक पक्षी है)। (A bird.) श्रबल अन्न abul-amra--अ० पलंग-फा० ।। अबुल्बहर abul-bahra--१० ककट, केकड़ा-हिं० । चीता, तेंदुप्रा । ( A Tiger ). सर्तान--१० । ( Crab) अबुलमलोह abul-ina.lih अ० चिड़ियों ( गौअबल अर्वाह a bul-arvāh--ऋ० (रसा०) रैयों) में से एकपक्षी है । परन्तु यह उनसे बड़ा पारद । ( Hydiargyrum.) अबल अस्फर abul-asfar--१० जायफल । और सुन्दर एवं ताजदार होता है । ममोलह, पातर जातीफल (Nutmeg.) खञ्जन । अबुल्मसीह abul-masih-१० ताजी मछली | अबल अस्वद abul-asvad-अ.. नबी ज़, एक | (Fresh fish ) प्रकार का हलका मद्य । | अबुलमुसाफ़िर abul-musafira-अo पनीर, अबुल कादिम abul-qadim--१० गिर्गिट ।। चीज़ | ( Cheese )ई० । (A chameleon.) अबुल्वस स. abul-vasasa-अ०। नेवला । अवल कासिम ज़ह रावी a bul-qasim-zah- अबल हम abul-hukma-१० |Mong ráví--50 TETIET I See--Zahráví. .oose (Vivera mungo ) For Private and Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रबुवा अबुवा abuvva-अ० श्रज्ञात । शफीक abu-shafiqa श्र० गिर्गिट । ( A chameleon.). अबुश्शिफा abu-shshifá श्र० शकर, शर्करा । Sugar ( saccharum ). अबुलत्रन् abusabaa-o मकड़ी जैसा एक जानवर हैं, जिसके अधिक पैर होते हैं। जंगली तथा दरियाई भेद से यह दो प्रकार का होता है । सक्वलोकन्दरिया | अबुल मरून abu-samarúna - रू० नाज़ नाम का एक पक्षी है । देखो - नरज़ | अबुसहल मसीही abu-sahla-masihi श्रृ सहल ईसा बिन युहा मसीही । यह जर्जान ( गोरगान ) के निवासी तथा चिकित्सा कला में प्रवीण थे। आपके ग्रन्थ उच्चकोटि के हैं । कहते हैं कि मसीही चिकित्सा कला में शेखुर्रईस बूञ्जली बिन सीना के गुरु थे और खुरासान में वहाँ के राजा के मुख्य चिकित्सक रहे हैं । चालीस वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हुई। आपकी रच नाश्रों में "किताबुलू माइनह " श्रेष्ठतर रचना 1 श्रबुहरून abu-haruna श्र० ऊँट | केमल ( Camel ) - इं० । श्रबु. हुमरा abu-humará श्रु० रतनजोत । ( Alkanet )। ४३२ श्रवेदी अबूनस abúnasa- श्र० एक नाप विशेष ( =६ रत्ती ) । अबूस abúsa - श्र० नीलाथोथा, तूतिया | ( Blue vitriol. ) अबूक abuka - श्र० पारद - सं०, हिं० । ( Hydrargyrum ) इं० मे० मे० । अबूतमरून abu tamarúna - रू० नग़ज़ पक्षी ( A bird.) अबूती abúti-सं० स्त्री० भैंस के गोबर की Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रवेलिया थ्रीफ्लावर्ड abolia, three flowered - इं० कमकी ( Abelia triflora, Dr. Wall.) अबुसि सुलत abu-ssilata - श्र० चील -हिं० । श्रवेज़ abaiza श्र० श्वेत, सफेद, उजला । इसके २ भेद हैं, ( १ ) बैज हकीकी और (२) श्रवैज़ मुशफ़्फ़फ़ । ह्वाइट White- इं० । काइट ( Kite ) - ई० । श्रबुहजाज़ब abuha.jázaba- o गिर्मिट । श्रवेज मुशफ्फ़फ abaiza-mushaffafa ( A chameleon. ) । अबूस āabúsa - श्र० शेर सिंह । ( 1 lion.) श्रवेद्यः abedyah - सं० पु० मत्स्य, मछली | Fish ( pisces.) अवेध abedha - हिं० वि० [सं० श्रविद्ध ] जो छिदा न हो । बिना बेधा । श्रनविधा । श्रबेर मुरदेय abermuradeya - फा० श्रनमुर्दह (फा० ) का अपभ्रंश है। मुश्राबादल, अस्फुञ्ज, अस्पक्ष | Spongia officinalis -ले० | दी स्पाञ्ज ( The sponge ) - इं० । बेलिश्रा ट्रिफ्लोरा abelia triflora, Dr. Wall. - ले० कमकी । ( Abelia threeflowered ) श्रबैज़ मजाज़ी abaiza-majázi - अ० स्वच्छ श्वेत, जिसमें आरपार दिखाई दे, जैसे जल या शोशा । ट्रैन्सपेरेण्ट (Transpa rent )--इं० । वेज हकीकी abaiza-haqiqi - अ० इसका श्रर्थ शुद्ध श्वेत, अस्वच्छ श्वेत, दुग्ध के समान श्वेत है । पर तित्र की परिभाषा में दुग्ध के समान श्वेत वर्ण के क़ारोरह ( मूत्र ) को कहते हैं । देखो - बौल लब्नी । ( १ ) श्रोपेक Opaque ( २ ) काइलस युरिन ( Chylous urine) - इं० । राख । अबूऩीन abútilüna - श्रु० कडू के समान एक श्रबैदी abaidi - रू० नासपाती । A pear (ly• बूटी है 1 rus communis) For Private and Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब शून अब्ज़ारुफ़ितर अवैशून abaishuna--यु० रातीनज, राल, धूप । | अब्ज abja-हिं० संज्ञा पुं० (Resin. ) अब्जः abjah-सं० पु. अबोलो aboli--म० मिण्टी, कोरण्टा, पियाबाँसा । | (1) ( Barringtonia Acutangula, ( Barlaria prionitis. ) Rob.-ले० । ई० हैं. गा० । (निचुल वृक्ष, अबोलो aboulo-१० एक माप विशेष (=६ जौ हिज्जल वृक्ष, समुद्रफल, इज्जल, ईजड़ । (२) __ =३ रत्ती)। शङ्ख । Conch-इं०। (३) धन्वन्तरि । अब ab-गलछड़ (सुम्बुलुत्तीब)। (Nardo ( The physicians of the gods.) ____stachya jatamansi, D.C.) . सर्वत्र मे० जद्विकं । (४) चन्द्रमा | मून ( The moon )-इ० । (५) कपूर । अबअब aabaab-अ.नर हिरन ( हरिण )। ( Camphor)। (६) एक संख्या । सौ अब्ब ह, aabaabah-अ० रक अर्ण । लाल करोड़ । अरब । (७)अरब के स्थान पर पाने उन । ( Red wool.) वाली संख्या । प्रादे स.लास.ह. abāde-salasah है अब्जम् abjam-सं० क्ली० अकुतारे स.लास.ह, aqtare-salasah - -अ० परिमाण त्रय अर्थात् लम्बाई, चौडाई अब्ज abja-हि० संज्ञा पु. गहराई, ( उँचाई)। डाइमेन्शा ( Dimen- (१) जल से उत्पन्न वस्तु । (२) पद्म, कमल tions,-sions)-ई० । ( The nymphaea or lotus ) प० अबक abqa-अ० गुले निलोफर या भंग | मु.। रा०नि० व०१०। अबकम abkam -अ० गुङ्गा, गँग । अब्जकर्णिका abja-karnika-सं० स्त्री कमलअख्स akhrhsa | डम्ब (Dumb)-इं०। बीज कोश । कमल का छाता ( Lotus अबकर aabqara-अ० (१) सौसन श्वेत । capsule ) वै० निघ० । (२) मज जोश । अब्जकेशरः abja-kesharah-सं० पु. पद्म केशर । कमल की तुरी । च. द०। अबकस aabgasan-यु. एक छोटा जानवर अबक़स aabqasa | है। ( A small अञ्जबाँधव abja-bāndhava-हिं० संज्ञा animal). पु० [सं०] सूर्य । ( The sun) अबकह aabkah-अ. इज़खिर भेद । See- अब्जभोगः abja-bhogah-सं० पु. कमल Izkhir ___ कन्द । श० च०। अबकार āabqara-अ0 लम्बा उन्नाव । अब्जवीजभृत् abja-vija-bhrit-सं० [. अबक्स aabqusa-यु० एक छोटा जानवर है । श्वेत करवीर वृक्ष, सफ़ेद कनेर । वै० निघ० । (A little animal.) Nerium odorum ( The white var. of-) अबखर abkhara-अ० मुख दुर्गन्धि । मुखदौगंध्य अब्जहस्त abja-hasta-हिं० संज्ञा पुं० सूर्य । रोगी। ( The sun ). अबखरह abkharah-अ० (ए० व०), बुखार अब्ज़ार abzāra-१० यह "बज्र" का बहुवचन (ब०व०)! वाष्प । भाफ । वेपर (Vap- __ है और इसका बहुवचन अबाज़ीर है। (.) our)-इं। "ब ब्र" का अर्थ बीज है। (२) एक पौधा है अबखरह, फ़ासिदह, abkharah-fasidah और (३) मसाला को भी कहते हैं। -ऋ० दुर्गन्ध वाष्प । मिश्रास्म ( Miasm ) अब्ज़ारुल्फ़ितर abzarul-fitara-० (१) सदाबहार या (२) सदाबहार के बीज । या For Private and Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजाह्वम् अंब्ब (३) कोई स्याह, तर और बारीक रेशेदार अब्धिः abd hih-सं० पु । अब्धि, सागर बेल ( लता) है। अब्धि abdhi-हि. संज्ञा पु.) सिन्धु, समुद्र, अब्जाह्वम् abjāhvam-सं० क्ली० बालक,ह्रीवेर, अर्णव । दी अोशन ( The Ocean)-इं०। सुगन्धबाला ( Pavonia odorata) रत्ना०। (२) सरोवर । ताल । बाला-बं०, मे०। वै०निघ०। अब्धि कफः abdhi-kaphah-सं० पु. । अब्जिनी abjini-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० अब्धि कफ abdhi-ka pha-हिं0 संज्ञा पु०) (१) पद्मिनी, नीलोफर-हिं० । पद्मर झाड़ __ समुद्रफेन । कट्ल फिश बोन ( Cuttle ब। Nymphea lotus । (२) पद्म- fish bone )-ई। भा० पू०१ भा० ह. ____ समूह । कमल-वन । (३) पद्मलता।। • व० । (२) समुद्रशोप ( Argyreia अन्टना abtana-हिंस्त्री० (Artimisia Ele- Speciosa, Sreest.) । gans, Roxb.) अब्धिजः abdhijah-सं० पु. अब्दः abdan-सं० पु. (१) मुस्तक, श्रब्धिज abdhija-हिं० संज्ञा पु. अब्द adda-हिं० संज्ञा . | मुस्ता, मोथा | (१) समुद्र से पैदा हुई वस्तु । (२) समुद्र -हिं० | Cyperus rotundus-ले०सि० . फेन ( Cuttle-fish bone )। रत्ना० । यो० ज्वर० किरातादि । च० द. वात ज्व. (३) (-जौ ), अश्विनीकुमार ( Ashviniचि०। (२) नागरमुस्ता (-स्तक), भद्रमुस्तक kumāra)। (४) शंख । (५) चन्द्रमा । (-स्ता )-सं० । नागरमोथा-हिं० | Cype- अधिजा abdhijā-सं० स्त्री० सुरा । (Spirirus Pertenuis-ले० । मद० १ व०। tuous liquor.) हे० च। (३) मेघ बादल । Cloud-इं० । मेदद्विकं । अब्धिडिण्डीरः abbhi-dindirah- सं० पु. -क्ली. (४) अभ्रक-हिं०,सं०। Tale-इं०। समुद्रफेन । ( Cuttle-fish bone.) वै. र० मा० । (५) वर्ष, साल, सम्वत्सर (A निघ०। year)। (६) कपूर ( Camphor) | अब्धिफलम् abd. hi phalam-सं० क्ली० . (७)श्राकाश । समुद्रफल, समुद्रजात फल । ( Barring. अब्द abdaa-रू० दम्मुल अबैन । किसी किसी | tonia acutangula). के मत से केशर । अब्धिफेनः abdhi-phenah--सं० पु० समुद्रअब्दनादः abda-nadah-सं० फेन । ( Cuttle-fish bone. ) रा० मेघनाद तुप । काँटा नटे-बं०। (See-Megha नि०। nāda)।-स्त्री०(२) शङ्खिनी । (३) भेकी । तान्दुजल-मह. | See-shankhini. | वै. अब्धिमंडुकी abdhi-Manduki-सं० स्त्री निघ०। अधिमंडकी abdhi-manduki-हिं संज्ञा स्त्री० । भन्दसारः abda-sārah-सं०५० कपूर भेद। माता को सीपी-हि० | झिनुक-ब० । मुक्का. स्फोट,शुक्रिका-सं०। मोती सीप-मह0। (Pearl ( A kind of Camphor ). रा०नि०।। अब्दहुल्ल abdahullu-कना० मोथा, मुस्तक oyster) हे. च. ४ का० । -हिं । Cyperus Rotundus-इं०।। अधिवृक्षः abdhi-vrikshah-सं० पु. शाखिमूल वृक्ष । काका तोदाली। अब्दान abdana-१० ( बहु० व० ) बदन . (ए० व० )। शरीर-हिं०, सं०। बॉडीज़ अब्धिसारः abdhi-sārah-सं० पु. रत्न । (Bodies)-इं०। (A jewel.) वै० निघ। अब्दुल जिन्न aabdul-jinna-१० काबूस अब्ब aabba-१० जल पीना, चूंट घूट जल पीना । रोग। See-kabusa. क्षण क्षण में जल पीना, या एकदम से पानी For Private and Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अब्बल पीना, पशु के समान मुँह लगाकर जल पीना | सिपिंग ( sipping ) इं० । अब्बल abbal -दु० हाऊबेर, भल | ( Juni perus communis ) इं० मे०मे ० । ४३५ अब्बास abbasa हिं० संज्ञा पु ं० [ श्र० अब्बास ] [वि० श्रव्यासी ] ( Mirabilis jalapa. ) एक पौधा जो तीन फुट तक ऊँचा होता है । इसकी पत्तियाँ कुत्ते के कान के तरह लम्बी और नुकीली होती हैं। कुछ लोग भूल से इसकी मोटी जड़ को चोबचीनी कहते हैं । इसके फूल प्रायः लाल होते हैं पर पीले और सफ़ेद भी मिलते हैं। फूलों के झड़ जाने पर उनके स्थान पर काले काले मिर्च के ऐसे बीज | पड़ते हैं । देखो - गुल अब्बास । अब्बास āabbás- अ० शेर सिंह | लायन ( Lion ) - इं० । ( २ ) गुले अब्बास (Mirabilis jalapa, Linn.) अब्बासी abbasi - हिं० संज्ञा स्त्री० [अ० अब्बासी ] ( १ ) जाती, गुले अब्बासी ( Mirabilis jalapa, Linn.) । ( २ ) मिश्र देश की एक प्रकार की कपास । श्रब्बे abbe - सिं० राई, राजसर्षप | ( Sinapis juncea ) इं० मे० मे० । श्रमक्ष abbhaksha - हिं० संज्ञा पु ं० [सं० ] पानी का साँप। डेड़हा साँप | अब्भ्रम् abbhram-सं० की ० ( १ ) अभ्र धातु, अभ्रक | Tale ( Mica.) । ( २ ) मुस्ता (−स्तक), मोथा । (Cyperus rotundus. ) रा० नि० । ब्युटिलन अविसांनी abutilon a vicenne, Garln.-ले० अबूतीलन, कद्दू फा० ई० १ भा० । इसके तन्तु काम में श्राते हैं wegfèma efuzzy abutilon Indicum, G. Don. - ले० कंघी, श्रतिबला । फा० ई० १ भा० । ई० मे० मे० । अयुटिलन एशियाटिकम् abutilon Asiaticum -ले० कंघी, अतिबला । इ० मे०मे० । अब्युटिलन ग्रेविशोलेन्स abutilon Gra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 公式 veolens, W & 4. - ले० बड़ी कंघी - हिं०, बं० । । अब्युटिलन पॉलिऐण्डम् abutilon polyandrum, Schlect. -ले० वेलाई थूथी - ता० । मेमेा० । अध्युटिलन म्युटिकम् abutilon muticum, G. Don. -ले० बला भेद । इसका रेशा काम आता है । फा० ई० १ भा० । मेमो० । श्रब्यून : byún - यु० अफ़्यून, अफोम | (Opium.) श्रत्र abra - हिं० संज्ञा पु ं० [फा० सं० श्रभ्र ] मेघ, बादल | ( Cloud. ) • अबूक abrak - फ़ा०श्रभ्रक | Tale (Mica). अब्रक abraq श्र० ( १ ) अभ्रक ( Mica ) ( २ ) शनीन दरियाई ( एक जानवर है ) । ( ३ ) कोई फ़ारसी दवा है । श्रब्रकुल्या abra-qalya - यु० पालक | ( Spinacea oleracea.) काकिया abra-kakiyá - यु० मकड़ी का जाला | ( A web, spider's web.) अम्रकुह्न abra-kuhna - फा० अस्क्रअ, मुआबादल | (sponge. ) श्रब्रगी abrugi - सिरोपिअन० अब्राँङ्ग abrong } फात - हिं० | Cardiospermum_Halicacabum, Linn. -ले० । फा० इ० १ भा० । कान For Private and Personal Use Only अब्द abrad-० अत्यन्त शीतल । ( ए० व० ) अवारिद ( ब० व० ) । श्रब्रनो abrani - रू० ( १ ) लोफ. । (२) मुश्तकन्द - हिं० । ( एक वनस्पति है ) । श्रम ãabrab-श्रु० सुमाक ( sumac.)। बियह् aabra-biyah - श्र० सुमाक्रियह । अबब्यून abrabyún - यु० फ्रफ़्यून - श्रु० । सेहुँड, थूहर । (Euphorbium.) श्रमुर्दह् abra-murdah - फा० मुश्राबादल | ( sponge. ) श्रब्रश abrash- अ० वह मनुष्य जिसकी त्वचा पर श्वेत चित्तियाँ पड़ी हों | स्पॉटेड (Spotted.) -इ ं०। अस्क्रन्ज, Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवस ४३६ श्रमस abras० श्वित्र रोगी, श्वेत कुष्ठ का रोगी, चितकन्दरा । ल्युकोडर्मिक ( Leucodermic. ) - इं०। अब्रल abias - यु० गुले सौसन | See-sou san. (c) ब्रस प्रीकेटोरिअल abrus precatorius-ले० गुज्जा-सं० । घुँघची, रत्ती, गुञ्जा - हिं० । Indian liquorice-० । इ० मे० मे० | फा० इं० १ भा० । श्रब्रह्मचय्र्यकम् abrahma-charyyakam - सं० क्ली० मैथुन । क्वाइशन Coition ), कप्युलेशन (copulation) - इं० । त्रिक ० । श्रब्राज़ abraza - शामी० सूरिञ्जान की घास । पश्चिमी भाषा में सदाबहार को कहते हैं । श्रमिक एसिड abric acid इं० गुज्जाल । डाक्टर वार्डेन ( Dr. warden ) महोदय ने गुञ्जाबीज द्वारा इसे पृथक् किया था । उनके मतानुसार इस तेजाब का फ़ॉर्म्युला ( रासायनिक सूत्र ) इस प्रकार है, यथा -- ( क उद नत्र ४) । इसमें कोई प्रभाव नहीं ( inert ) होता है। फॉ० इ० १ भा० । अमित abrin - इ० एक प्रोटीड श्रवयव जो गुजा बीज में वर्तमान रहता है । और गुज्जा के समस्त इन्द्रियव्यापारिक गुणधर्म रखता है । फाँο इं० १ भा० । यह गुञ्जा का मुख्य प्रभावात्मक २१ २४ ५ श 1 • ब्रिय्ह abriyyah - ० हृब्रिय्यह क्रश्रुर्शस, हज़ाज़ | सबसहे सर- फा० । सर की वक्राश्रू, सर की भूसी - उ० । सीबोरिश्रा ( Seborrhea, ', स्कर्फ़ ( Scarf ), डैण्ड्फ़ ( Dandruff ), फ़फ़र ( Furfur ) - इं'० । श्री aabri o बेर का वृक्ष जो नहरों के किनारे उगता 1 अबीमून abrimúna - रू० ईरसा, पुष्करमूल । ( Orris root. ) अब्ज abru ja-श्रु० ग । श्रब्रशम श्रब्रता abrútá--सिं० दर्मनह, (जौहरी जवाइन ), शीह, अफसन्तील बहुर | (Artemisia maritima, Linn. ) श्रब्रद abrúda--फा० सुम्बुल । ( Hyacin thus Orientalis.) २ श्रम न abrúa--यु० सदाबहार ( हयुल झालम) । अब नास āabrúnása- य० अब्रूस, बरवाको । ( An unimportant plant ). अब्रनी āabrúni - खुन्सी । ( Asphodelus fistulosus, Linn.) श्रब्रयून abrüyüna--युo छड़ीला (उश्नह् ) । (Nardostachys jatamansi). abrúsa- यु० बरवाकी । (An unimportant plant.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रम्र भंवर abre-ambara fo संज्ञा पुं० दे० श्रम्बर | श्रम ज़ abreza - श्रु० शुद्ध स्वर्ण, ख़ालिस सोना । (Pure gold.) अम्र शम abresham-फ़ा०, अ० श्रावरेशम, 1 क़ज़, अबरेसम । कोषकारजम्, कांषा ( रेशम ); कोपकार, कोशकृत् ( रेशमकीट ); कौशे (षे) य ( रेशमी अर्थात् कोषोत्थवस्त्र ) - सं० रेशम - हि० । पट - बं० । बॉम्बस मोराइ ( Bombys Mori ) - ले० । सिल्क पॉड ( Silk-pod ), रॉ सिल्क कोकून ( Raw silk cocoon ), सिल्क वर्म-माँथ Silk - worm moth, सिल्क Silk - इं० । सेरकोस serikos जर० | रेशम की कीडी-द० | रेशम ना पोटन बस्ब० गु० । पटलू-पुची-ता०मह० । पुहुपुरुग, नर-पुट्टिश्रो- ते० । रेशमी हुल- कना० । देशी-चि कीड-मह०, को० । श्रवरेशम वस्तुतः एक कीड़े का घर है, जिसको वह अपने मुख के लार द्वारा अपने ऊपर बनाता है । यह कीट शहतूत के वृक्षों पर उनके पत्रों को खाकर अपना जीवन निर्वाह करता हैं। वह कीटजो बदरी (बेर) वृक्ष पर लगाया जाता है उसको लेटिन में बॉम्बस माईलेटा ( Bombys myletta ) कहते हैं। रेशम का कोना ( रेशम For Private and Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब रेशम कीट गृह) वा अण्डाकार कोष एक प्रकार का श्रावरण है जिसका निर्माण कीट श्राकार परिवर्तन काल में करते हैं। लक्षण-यह कोत्रा की शकल में एवं श्वेताभायुक्र पीतवर्ण का और स्वाद रहित होता है। इसके भीतर रेशम का मृत कीट होता है । इसलिए इसको कैची ( कर्तरी ) से काट कर और इसके भीतर से मरे हुए कीड़े को निकाल कर औषध कार्य में वर्तते हैं। प्रकृति--प्रथम कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष होता है। किसी किसी ने इसको शीतोष्ण (सम प्रक्रति ) लिखा है। हानिकर्ता-इसके बरे वस्त्र का प्रयोग करने से त्वचा पतली हो जाती है । दर्पघ्न-इसके वस्त्र में रुई के सूत का मिश्रण । प्रतिनिधि-जला कर धोई हुई मुकिका (मोती)। मात्रा-३॥ मा० से १०॥ मा० तक । क्वाथ एवं शीतकपाय साधारणत: ७ मा० ज्यवहार किया जाता है। गुण, कर्म,प्रयोग-अपनी खासियत (सहकारिणी शनि) से यह श्राह्लादजनक है । इसकी तारल्यकारिता अपनी उमा के द्वारा प्रसन्नता उत्पन्न करने में ख़ासियत की सहायता करती है। फलतः रूह में प्रसार का उदय होता है | और यह अपनी उष्णता एवं रूक्षता के कारण उसकी रतूबत (संवेद)को अभिशोपित कर लेता है जिससे रूहमें कठोरता एवं शकि श्रा जाती है । इससे रूह में स्वच्छता एवं प्रकाश का उदय होना आवश्यक है । यह बात विशेषकर अबरेशम ख़ाम ( कच्चे रेशम ) में होती है। क्योंकि पकाते समय इसकी मनोल्लासकारिणी शक्ति बहुधा जल भे स्थानांतरित हो जाती है। इसलिये खरल की हुई किसी किसी औषध को उक्र जल में भिगोकर तीक्ष्ण धूप में रक्खा जाता है जिससे उक्र औषध सम्पूर्ण जल को अभिशोषित करके उससे मनोल्लासकारिणी शनि ग्रहण कर लेती है। तदनंतर शुष्क कर प्रयोग में लाई जाती है। इसका वस्त्र धारण करने से परंपरागत जूओं की उत्पत्ति रुक जाती है । क्योंकि अबरेशम স্বয়ম अंडों को खराब कर देता है जिससे जूएँ नहीं पैदा होने पातीं। चूँकि यह सरदी तथा गरमी में मतदिल (समप्रकृति ) है इसलिए इसको धारण करने से शरीर उष्ण नहीं होता और इसी कारण अंडे सेए नहीं जा सकते | इसके विपरीत रूई के वस्त्र से शरीर गरम हो जाता है (और अंडे उस गरमी में भली प्रकार सेए जाते हैं )। (त. नफा) जलाया हुआ अबरेशम प्रायः चक्षु रोगों यथा श्रा स्राव एवं नेत्रकंडू में उपयोगी है। अबरेशम मानस, प्राकृतिक एवं प्राणात्मा (रूह नफ सानी, तबीई व है.वानी)को प्रसन्नकर्ता, स्मरणशक्रि तथा मेधा को बलवानकर्ता है । चक्षु रोगी, मूर्छा, काटिन्य अर्थात् मेदा की सख़्ती और फुफ्फुस को बल प्रदान करता है, चेहरे के वर्ण को निखारता और रोधे। का उद्घाटन करता है । प्रकृति को मृदु करता, रतूबता अर्थात् द्रवें. को अभिशोषण करता तथा ( दाभिशोषक ) उत्तमांगे। को बल प्रदान करता है । यह तारल्यताजनक वा द्रावक ( मुलत्तिफ ) एवं अभिशोषणकर्ता ( मुनश्शि ) है । इसका वस्त्र धारण करने से शरीर स्थूल होता और जूएँ नहीं पड़ती। किन्तु, यह त्वचाको कोमल करता है। म० भ०। यह हृदय को बल प्रदान करताएवं भ्रम तथा मूर्छा रोग में विशेषकर लाभप्रद है। अब रेशम जलाने की विधि-रेशम को बा. रीक कतर कर मिट्टी के बरतन में भाग पर रक्खे और हिलाते रहें। जब भुनकर पिसने योग्य हो जाए तब उतार लें । देखो तह मीस अब रेशम । यह शोणितस्थापक, बल्य तथा संकोचक रुप से अतिरज (रक्तप्रदर), श्वेत प्रदर एवं पुरातन अतिसार में स्राव को रोकने के लिए व्यवहार किया जाता है । ई० मे० मे० । इ. इ. इं० । यह अन्य संकोचक औषधों के साथ सामान्यतः प्रयोग किया जाता है । और साधारणतः सरदी एवं चक्षु रोग में प्रयुक्र होने वाले मोदकों में पड़ता है। ई० मे० मे। नोट-एलोपैथिक चिकित्सा में इसका औषधीय उपयोग नहीं होता है। For Private and Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब रेशम अब्शउलम्राज़ औषध-निर्माण-ख़मीरा, चर्ण, शर्बत, मद्य एवं हृदय को बलप्रद है तथा मूर्छा और भ्रम तथा हृद्य ( मुफ़रिहात ) अर्थात् मनोल्लासकारी को दूर करता है। प्रोपध प्रभति । परन्तु अधिकतर निम्नलिखित अब्रस्टोल abrastol- इं० ( Asaprol ) यह ख मीरे और शर्बत आदि में प्रयुक्त होता है। धूसर वर्ण का एक चूर्ण है जो जल तथा मद्यसार (१) खमीरा अब रेशम सादा-योग एवं ( alcohol) में सरलतापूर्वक विलीन हो जाता निर्माण-विधि-कतरा हुआ अबरेशम २ तो०, है। विस्तार के लिए देखो - नेफथील ( Naऊद ग़र्की ४ मा०, बालछड़, पोस्त तुरंज, मस्तगी phthol.) 1 लौंग, एला, तेजपत्र प्रत्येक ५ मा०, श्वेतचन्दन | अब्रोङ्ग abrong--यु अनगी । किसी किसो के ६ मा०, अरेशम सहित सम्पूर्ण औषध को कपड़ा मतानुसार कर्णस्फोटा (सं०), कनफोड़ी (हिं.) में बाँध कर अळ गाव जुबान, गुलाब, प्राब सेब और डाइमाँक महोदय लेखक “फार्माकोप्रैफिया शीरी, प्राब बिही शिरी, श्राब अनार शीरी प्रत्येक इण्डिका" के मतानुसार "चित्र-तरडुल"--सं० १४ तो० तथा वर्षा जल २ सेर में क्वाथ करें। ( spotted grain ) अथवा लेटिन एम्बेजब पानी जल जाए तब एक पाव मधु और ३ लिया रीबीस ( Embelia Ribes) का पाव श्वेत शर्करा मिलाकर खमीरा की चाश्नी बीज है। फा०ई०१भा० । प्रस्तुत कर लें। | अब्रोमा ऑगस्टा abroma augusta-ले० मात्रा व सेवन-विधि-इसमें से ५ मा०, | श्रोलक तम्बोल-बम्ब० । उलट्कम्बल, श्रोलट अर्क गाव जुबान १२ तो० वा अन्य उचित अनु. कम्बेल-ब० । पीवरी, मोत्पल-सं० । पान के साथ सेवन करें । गुण-हृदय तथा डेविल्स काटन Devil's cotton-ई। मस्तिष्क को बलवान बनाता और दृष्टि शक्ति के फा० इ० १ भा० । ई० मे० मे०। लिए उपयोगी है । इसके प्रयोग से मूर्छा, दिल | अब्रोमा फैटयुशोज़म् abroma Fastu-. की धड़कन और भ्रम श्रादि दूर होते हैं। osum-ले० उलटकम्बल-ब| Devil's (२) खमीरा अबरेशम हकीम इर्शदवाला । cotton. I ई० मे० मे० । (३) ख़मीरा अबरेशम शीरा उन्नाबवाला । अल abla-फा० कापाल अगा, इलायची | (४) खमीरा अबरेशम ऊद म स्तगीवाला । (Cardamum.) ई० है. गा० । इनके तथा अन्य ख़मीराओं के लिए देखो- अल aabl-अ० (१) मांसल भुज, स्थूल भुजा । खमोरा । (२) वह मनुष्य जिसके डण्ड पुष्ट हो । (५) शबंत अब रेशम सादा-योग एवं श्रब्लम् ablam हिं० सं० क्ली. मक्खन सेम । निर्माण-विधि-कतरा हुआ अरेशम प्राध ( Dolichos Gladiatus. )-moto सेर, श्वेतचन्दन, बालछड़ प्रत्येक मा०, मस्तगी, है• गा० । लौंग, छोटी इलायची, तेजपत्र, ऊ द हिन्दी प्रत्येक अलह aalah-अ० मूर्ख, सीधा प्रादमी, भोला६॥ मा०, अर्क गाव जुबान, अर्क वेदमुश्क, अर्क भाला मनुष्य । ईडिअट ( Idiot)-ई। गुलाब प्रत्येक १-१ सेर, प्राब सेब, श्राब बिही, | अब्ला aabla-पथरी, श्वेत अश्मकण, सुफ़ेद प्राब अनार, श्राब अमरूद, सफेद बूरा, मधु १.१ संगरेजे। सेर । यथाविधि शर्बत प्रस्तुत करें। =915771915T abshaāul-amráz-. मात्रा व सेवन-विधि-इसमें से २ तो० अत्यन्त बुरा एवं कठिन रोग । मैलिग्नैण्ट शर्बत अर्क गाव जुबान ७ तो० और अर्क बेदमुश्क डिज़ीज़ ( Malignant Disease.) ५ तो० के साय सेवन करें। गुण-मस्तिष्क -इं०। For Private and Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब्स अभयावटका अब्स aabs-अ० (१) कुचरित्र, दुराचरण, है। योग-(१)हिंगुल, त्रिकटु विष, जीरा, सुहागा, कुव्यवहार । (२) शाबानक । पारद, गन्धक, अभ्रक भस्म, शंख भस्म समभाग और अहि फेन सर्वतुल्य मिलाकर नीबू के रस से अब्सक्यून absaqyun-रू० असन्नीन । (Absinthium. ) मईन करें। मात्रा-१ रत्ती । अनुपानअसार absar-अ. ( ब0 व. ), बसर जीरा का चूर्ण और शहद । र० यो० सा० । (२) (ए० व०)। दृष्टि, निगाह, नज़र । साइट गंधक और अभ्रक इनको समभाग लेकर इन सब (Sight), विज़न ( Vision)-इ.।। के बराबर अफीम शुद्ध लेवें। और इन सबको अब्सेसरूट abscess-root-इ० पॉलिमोनियम कागजी नीबू के रस में घोट कर गुजा प्रमाण रेप टेंस ( Polemonium Rep tans.) गोलो बनाएँ । मात्रा-१ गोली । अनुपान जीरा का चूर्ण और मधु । -ले०। अब्हर abhar-अ० अवरती । महाधमनी । (३) शिङ्गरफ, मीठातेलिया, सोंठ, मिर्च, एवोर्टा (Aorta)-ई। पीपर, जोरा, भूना सोहागा, अभ्रक भस्म इन्हें अव्हाम abhām-१० अंगुष्ट, अँगूग । इसका समान भाग ले , शुद्ध पारा १ भाग, सर्व तुल्य बहुवचन "अबाहम" है । थम ( Thumb.) ब्राह्मी (मण्ड कपर्णी) ले, पुनः चूर्ण कर नीबू के रस में खरल कर १ या २ दो रत्ती प्रमाण अमक्त abhakta-हिं०वि० [सं०] (१) भकि गोलियाँ बनाएँ, जीरा शहद के साथ देने से रहित । शऽ । (२) अरुचि ( Want of सन्निपातातिसार, ज्वरातिसार, बिना ज्वर का desrie.) . अतिसार तथा सर्व प्रकार के अतिसार, संग्रहणी, अभक्तच्छन्दःabhakta-chchhandah-सं० का नाश होता हैं। भैष० र० अतिसार. चि. ० अरोचक भेद । जिसमें अन्न में रुचि न | अभया abhayā-सं० (हिं० संज्ञा) स्त्री० (१) हो। See--Arochaka. (Terminalia chebula, Retz) - अभग्न abhagna-हिं० वि० [सं०] अखंड । तकीविशेष। एक प्रकारकी हरीतकी वा हड़ जिसमें जो खंडित न हो । समूचा । पाँच रेखाएँ होती हैं । हरड़ । प० मु०, रा०नि० अभञ्जन abhanjana-हिं० वि० [सं०] व० ११; भा० पू० १ भा०; वा० सू० ३५ अ. जिसका भंजन न हो सके । अट । अखंड | वचादिव०; च० द० कफ ज्व. चि. प्रामल संज्ञा पु. द्रव वा तरल पदार्थ जिनके टुकड़े क्यादि । (२) श्वेत निर्गुण्डी । (३) मञ्जिष्ठा । नहीं हो सकते, जैसे जल, तैल श्रादि । (४) जयन्ती । (५) जया, भंग । (६) मणाल। अभयम् abhayam-सं० क्लो० । उशीर, (७) काजिक । (-) काञ्चन वृक्ष द्वय | रा० अभय abhaya-हिं० संज्ञा पु. । खस, वी नि० २० १७ । रणमूल (Andropogon muricatus.) प्रभयावटकः abhayavatakah--सं० पु. रा०नि० व० १२, मद० व० ३, अम, भैष. हड़ ४ तो०, हड़ की छाल ४ तोला कुष्ठचि० कन्दर्पसार तैल | श्रामला ४ तोला, बहेडा ४ तो०, त्रिकुटा ४ तो०, अभयदा abhayada-सं० स्त्री० (Phyllan. अजमोद, चव्य, चित्रक, वायबिडंग, अम्लघेतस, thus Niruri, Linn.) भूम्यामलकी वच, सेंधालवण प्रत्येक दो दो तो०, तेजपात भुं ई श्रामला । भूम प्रांवली-मं० । वै० इलायची १-१ तो०, दालचीनी १ तो० ले महीन निघ० । चूर्ण बना इसमें , तो० पुराना गुड़ मिला अभयनृसिंह रसः abhayanrisinh-rasah . एक तो० की गोलियाँ बनाएँ, गुण-इसके सेवन ..-सं० पु. यह रस अतिसार तथा ग्रहणीमें हित से प्लीहोदर, अर्श, गुल्म, उदररोग, पाण्डु, कामला, For Private and Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभयादि गुग्गुलः मन्दाग्नि इन सबका नाश होता है । बङ्ग० से० सं० प्लीहोदर चि०। अभयादि गुग्गलः abhayadigugguluh -सं० पु. हड़, अामला, मुनक्का, शतावर, ब्रह्म दण्डी, अनन्तमूल दोनों, मजीठ, हल्दी, दारु हल्दी, वच इन्हें समान भाग ले, श्राऊ मुट्ठी गुगुल लेकर एक वस्त्र में बाँध २४ शेर पानी में पकाएँ, जब चौथाई शेष रहे उतारें, पुनः उस गुगुल को काढ़ा के जल में पकाएँ, जब सिद्ध हो ले तब उसमें मुस्ली, मुलहठी, मुरामांसी, दालचीनी, इलायची, पत्रज, केशर,वाय बिडङ्ग, लवंग, जवासा, निसोथ, त्रायमाण, सोंठ, मिर्च, पीपर, इन सब का बारीक चूर्ण चार २ तोले उक्त गुगुल में छोड़कर अच्छी तरह मेलन कर रक्खें । इसे शहद के साथ सेवन करने से स्नायविक तथा मस्तिष्क सम्बन्धी प्रत्येक बीमारियाँ दूर होती हैं। भैष० र० परिशिष्टम् । अभयादिगुटी abhayādiguta-सं० स्त्री० श्राम वात में प्रयुक्त होने वाला योग । वृ. नि. र० भा० ५ श्रामबा० चि०। अभयादि चतुस्सम वटी abhayādi-chatu asama-vati--सं० स्त्री० हड़, सोंठ, मोथा, गुड़, प्रत्येक समान भाग ले गुटिका बनाएँ । यह त्रिदोष, प्रामातिसार, अफरा. विवन्ध, हैजा. कामला, श्रोर अरुचि को नष्ट करती तथा अग्नि को शीघ्र दीप्त करती है। वृ. यो० त०। अभयादिचर्ण abhayadichārna सं० पु. हड़, अतीस, हींग, सोंचल, त्रिकुटा, इनको समान भाग ले चूर्ण बनाएँ । गुण-कफज अतिसार नाशक है । वृ०नि० र० । अभयादि क्वाथः abhayadi kvathah-सं० पु० हड़, श्रामला, चित्रक और पीपल इनका क्वाथ पाचक भेदक और कफ ज्वर नाशक है । वृ० नि० र०। अभयादिमोदक: abhayādi-modakah -सं० पु. हड़, पीपल, पीपलामूल, मिर्च, सोंठ, तज, पत्रज, मोथा, विडंग, अामला, प्रत्येक १-१ कप ले; दन्ती ३ कर्प, मिश्री ६ कर्ष, निशोथ २ पल, इनका चूण' करके शहद से अभयारिष्टः मोदक प्रस्तुत करें। मात्रा-१० मा० । गुणशीतल जल से खाने से उत्तम विरेचन होता है और इसके प्रभाव से पांडु, विष, दुर्वलता, जंघा के रोग, शिरोरोग, मूत्रकृच्छ , अर्श, भगंदर,पथरी प्रमेह, कुष्ठ, दाह, शोथ औरउदर रोग नष्ट होते हैं । यो०चि०। यो त० विरेचन० अ०। सु० सं० वि० अ०। वङ्गसेन सं० । शा० ध० सं० उ० खं० अ०४ अभयादियोग abhayādi-yogah सं० पु. गुल्म रोग में प्रयुक्त योग । वृ० नि०र० । भा० गु० चि०। अभयारिष्टः abhayārishtah-सं० पु. (१) हड १ तुला (५ सेर ) मुनक्का (दाख) आधा तुला (२॥ सेर), वायविडंग, महुआ पुष्प, चालीस चालीस तोले ले, ४ द्रोण ( ६४ सेर ) जल में पकाएँ। जब एक द्रोण शेष रहे तो पवित्र रस को ठंडा कर इसमें गुड़ १ तुला (५ सेर) छोड़ें। पुनः गोखरू, निशोथ, धनियाँ, धव पुष्प, इन्द्रायण, चब्य, सोंफ, सोंठ, जमालगोटा (दन्ती), मोचरस, प्रत्येक आठ आठ तोला ले एक बड़े मिट्टी के पात्र में चूर्ण कर छोड़ मुख बंद कर एक मास पर्यन्त रख छोड़े जब रस शुद्ध हो छान कर रक्खें। इसे बल तथा अग्नि का विचार करके सेवन करे तो बवासोर, आठ प्रकार के उदर रोग, मूत्र तथा मल की रुकावट, इन्हें दूर कर अग्नि की वृद्धि करे। (भैष० र० अर्श चि०) (२) हड़ ३२ तो०, आमला ६४ तो०, कैथ की छाल ४० तो० गंडूभाकी जड़ (इंद्रायण मूल) २० तो०, वायविडंग, पीपल, लोध, मिर्च, एलुवा इन्हें आठ पाठ तो० लेकर ४०६६ तो० जल में पकाएँ, जब १०२४ तो० जल शेष रहे तो उसे वस्त्र से छान लें और उसमें २०० तो० गुड़ डाल कर १५ दिन तक घृत के पात्र में रक्खें। मात्रा४ तो० । प्रयोग-इसे उचित मात्रा में सेवन करने से गुदा के मस्से नष्ट हो जाते हैं । और यह संग्रहणी, पांड, तिल्ली, गल्म, उदर रोग. कष्ठ. सूजन, अरुचि को दूर करता है तथा बल वर्ण' For Private and Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभया-लवणम् अभि और अग्निकी वृद्धि करता है । इसे कामला,,सुफेद का फल लें, और सेहुँड के दूध के साथ खरल कर कुष्ठ, कृमी, ग्रंथि, अर्बुद,चुद्ररोग, ज्वर, राजयक्ष्मा पकी हुई मटर प्रमाण गोलियां बनाएँ, पश्चात् में भी दें । बंगसेन सं. अशं० चि०। वा० । २ गोली और एक हड़ मिलाके चावलों के पानी अर्शचि०। से महीन पीस कल्क बना खाएँ, तो उत्तम नोट-वाग्भट्ट जी ने इसमें १ प्रस्थ प्रामले जुलाब हो, इसके ऊपर गर्म जल पीने से तब तक दस्त आते रहेंगे जब तक कि शीतल जल न पिया का रस गुड़ डालने के समय छोड़ने को कहा है। जाए। इससे जीण ज्यर, तिल्ली, आठ प्रकार के उदररोग, बातोदर और हर प्रकार के अजीण, अभयालवणम् abhaya-lavanam-सं० क्ली० कामला, पाण्डुरोग, कुम्भ कामला इन रोगों को पारिभद्र ( नीम ), पलास, सफेद मदार, नष्ट करती है। भैष० र० उदर० रो० चि० । सेहुड, चिर्चिटा, चित्रक दोनों, वरना ( वरुण ), • अरनी, लाल मदार, गोखरू, छोटी कटेली, अभयाविरेचन abhaya-virechana--सं० बड़ी कटेली, करंज, श्वेत अनन्तमूल, कई पु. हड़, पीपल, समान भाग ले चूर्ण कर गरम तरोई, पुनर्नवा, इनका जड, पत्ते, डालियाँ, पानी के साथ खाने से अल्प २ वार २ होने समेत लेकर ऊखल में कूट के पुनः तिल की नाल वाला प्रवल और शूल युक्र अतिसार नष्ट लेकर अग्नि में भस्म करें, पुनः नये पात्र में होता है । सु० सं० उ० प्र०५०। १०२४ तोले पानी डाल उसमें भस्म डालकर अभयाष्टकम् abhayashtakam-सं० क्ली० पकाएँ जब चौथाई शेष रहे तब खार के विधि अष्ट हरीतकी भक्षण | पहिले दो खाएँ फिर दो से खार तैयार करें। यही हार ६४ तो० नमक और खाएँ । इसी प्रकार दो दो हरड़ करके 5 ६४ तो हड ३२ तो० इनके बराबर पानी और हर खाकर सो रहें। इसी प्रकार ३ सप्ताह रात्रि गोमुत्र मिला के मंद मंद अग्निसे पकाएँ, जब कुछ में अभयाष्टक का प्रयोग करनेसे पुनः यौवन की गादा हो ले तब जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, प्राप्ति होती है। अभरख abharakha-म०, गु०अभ्रक, अबरख । ले चूर्ण कर उक्र घनीभूत औषध में मिलाएँ, तो (Mica.)। यह अभया लवण तैयार हो अग्नि बल को अभल abhal-अ० हूवेर, हाऊबेर | हपुशा-सं० बिचार सेवन करने से अनेक प्रकार के उदर (Juniperus.) ( कोष्टरोग), यकृत, प्लीहा, उदर रोग, अफरा, अभक्ष abhaksha-हिं० वि० देखो-अभक्ष्य । गुल्म, अष्ठीला, मन्दाग्नि, शिरोरोग, हृदरोग, अभय abhakshya हिं० वि० [सं०] शर्करा, पथरी रोग, इन्हें उचित अनुपान से दूर __ अखाद्य । अभोज्य । जो खाने के योग्य न हो। करता है । भैष० २० प्लीह. यकृत. (चकि० अभावः abhāvah-सं० (हिं०) पु. (१) असत्व ब० से० सं०। अनस्तित्व, असत्ता, अविद्यमानता ( Nonअभयादिलेहः abhayādilehah सं००, हड़, existence, non-entity. )। ( २) पोपल, दाख, मिश्री, धमासा, इनका मधु के मरण, नाश, ध्वंस ( Annihilation, साथ अवलेह बना चाटने से मूर्छा, कफ, अम्ल- death)। मे० वत्रिकं । एक उपसर्ग जो पित्त, तथा कण्ठ और हृदय की दाह नष्ट होती है। शब्दों में लगकर उनमें इन अर्थों की विशेषता यो० र. श्राग्लपि०चि.।। करता है। अभयावटी abhaya-vati--सं० स्त्री० हड़, अभि abhi-हिं० [सं०] ( उपसर्ग ) चौफेरा, आगे, मिर्च, पीपल, भूना सुहागा इन्हें समान चिह्न, घर्षण, अभिलाष "अनु" के विपरीतभाग लें, इन सब के चूर्ण के बराबर धतूरे | इसका उपयोग होता है । Before, For Private and Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभिक अभितापः - against, with respect to. | अभिघार abhi-ghaira-हिं० संज्ञा पु. (१) सामने, उ०-अभ्युत्थान | अभ्यागत । | अभिघारः a.bhi-ghārah-सं० पु. (२) बुरा, उ०-अभियुक्र । (१)(Ghee, clarified botter.) (३) इच्छा उ०-अभिलाषा | घृत, घी । तूप-म० । रा०नि० व० १५ । (२) (४) समीप, उ०-अभिसारिका । गी से छौंकना व बघारना । (१) बारंबार, अच्छी तरह, उ०-अभ्यास । (३) सींचना, छिड़कना । (६) दूर, उ०-अभिहरण | अभिचारः abhi-chairah-सं० पु. (७) ऊपर, उ०-अभ्युदय । अभिचार abhi.chāra-हिं. संज्ञा पु० । अभिक abhika-हिं० वि० [सं०] कामुक । (An incantation to destroy.) कामी। विषयी। हिंसाकर्म, मारणमन्त्र-विशेष । मन्त्र श्रादि द्वारा अभिगमन abhi-gamana-हि. संज्ञा पुं० मारण आदि प्रयोग करना । किसी शत्रु की की [सं०] सहवास, संभोग। हुई कृत्य आदि का उत्पन्न करना, किसी प्रकार अभिगामी abhi-gami-हिं० वि० [सं०] का अपघात, जादू से मूंठ चलाने का नाम अभि [स्त्री० अभिगामिनी ] सहवास वा संभोग करने चार है। भा० म० २ आगन्तुक ज्वर लक्षण बाला उ०-ऋतुकालाभिगामी । मा०नि० ज्व० । मंत्र प्रादि द्वारा उत्पन्न पीड़ा अभिघातः abhi-ghatah-सं० ० ) र० मा० । यन्त्र मन्त्र आदि अवपीड़न, “अभिअभिघात abhi-ghata-हिं० संज्ञा पु. भाराभिशापोत्थैः।" रत्ना०।। (१) (Wound or blow ) अभिघात अभिचार abhichāra-सं० पु तंत्र के प्रयोग हिं० पु । श्राघात, चोट पहुँचना, ताड़न, दाँत जो छः प्रकार के होते हैं-मारण, मोहन, स्तंभन से काटना । प्रहार, मार। शस्त्र, मुक्का, (धैं सा) विद्वेषण, उच्चाटन और घशीकरण । और लाठी प्रादि की चोट का नाम अभिघात है। अभिचारक abhcharaka-हिं० संज्ञा पु. भा०म० २ अागन्तुक ज्वर लक्षण | "अभिघाता [सं०] अंत्र मंत्र द्वारा मारण, उच्च.चन अादि भिषङ्गाभ्याम ।" (२) पुरुष की बाई पोर कर्म वि० यंत्र मंत्र द्वारा मारण उच्चाटन आदि और स्त्री की दाहिनी ओर का मसा। करने वाला | fagia sat: abbi-gháta-jvarah-eio ÇO ( Acquired or Accidental अभिचार ज्वरः abhi.chāra jvarah-सं० पु० (Fever producedy incanta fever.) प्राधात जन्य अागन्तुक ज्वर अर्थात् ____tions) विपरीत मंत्रके जपने से, लोहे के श्रुवा तलवार, छुरा, मुक्का, लाठी श्री शस्त्र श्रादि के से मारणार्थ सर्पपादिक होम वा कृत्य के प्रयोग लगने से उत्पन्न ज्वर | "अभिघाताभिचाराभ्यां करने से जो ज्वर प्रकट होता है. उसे "अभिचार अागन्तुर्जायते ।" मा० नि० ( श्राग० ) ज्वर" कहते हैं। ज्वर । श्राघात से प्रकुपित हुई वायु रक्त को दूषित | अभिचारी abhi-chari-हिं० वि० [सं० अभिकर व्यथा, शोफ वैवर्ण्य और वेदना सहित ज्वर चारिन ] [स्त्री० अभिचारिणी ] यंत्र मंत्र आदि को करती है। च०। का प्रमोग करने वाला । उन ज्वरों में दोष ज्वर के उत्पादक नहीं होते, लक्षण-इससे तथा अभिश्राप से उत्पन्न ज्वर अपितु वे पश्चात् को उनके परिणाम स्वरूप होते में मोह और प्यास होती है । मा० नि0 ज्व०। हैं । सारांश यह कि सर्व प्रथम श्राघात के कारण | अभितापः abhi-tāpah-सं० पु. (१) सज्वर उत्पन्न हो जाता है। फिर उस से दोपों का taip a19 ( General heat ) i(?) प्रकोप होता है। अश्वज्वर ( Horse fever)। गज० वै० । For Private and Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिद्रव जन ४४३ अभिन्यास हरो रसः अभिद्रव जन abhi-drava-jana-हिं० पु. अभिन्यासः, कः abhinyāsah,-kah-सं० उदजन । हाइड्रोजन ( Hyrodgen)-इं० ।। पु. सन्निपात ज्वर का एक भेद जिसमें वातादि श्रभिद्रव हरिक abhi-drava-harika-हि. | तीनों दोष कुपित होकर छाती में रस के बहने पुहाइड्रो-जोरिका अम्ल,लवणाम्ल,उदहरिकाम्ल, वाली नाड़ियों के छिद्रों में गमन करते हुए तथा नमक का तेज़ाय । Hyorochloric Acid. अपक्व रस से मिले हुए और अत्यन्त बढ़े हुए अभिधान abhidhāna--हि. संज्ञा पु० [सं०] [वि० अभिधायक, अभिधर्य] (१) आपस में विशेष गुथे हुए चतु, कर्ण, नासा, नाम, संज्ञा । (२) शब्द कोष शब्दार्थ ग्रन्थ । जिह्वा, त्वचा तथा मन में जाकर अति भयङ्कर ( A name, a vocabulary, a तथा कटिन अभिन्यास ज्वर को उत्पन्न करते हैं । dictionary.)। उक्र ज्वर में रोगी के कानों से सुनना, नेत्रों से अभिनव abhi-nava--हिं०वि० [सं०] नबीन दीखना बन्द हो जाता है और किसी प्रकार की नया, टटका, नव्य, नूतन ! रीसेण्ट( recent) चेष्टा (कर चरण प्रभृति चालन ), रूप का न्यु (new) (२) ताज़ा । ( Fresh)। दीखना, दृष्टि ज्ञान, गंध ज्ञान, शब्द ज्ञान मालूम अभिनव कामदेवो रसः abhinva-kāma- | नहीं होता तथा रोगी बार बार शिर को इधर उधर पटकता है और अन्न की इच्छा नहीं करता। devo-rasah-सं० पुपारा, गन्धक १ तो०, समानभागमें लेकर रक कमल पुष्प रसमें तीन दिन अप्रगट शब्द का बोलना, देह में सूई बिधने की तक भावित करें। फिर ४ मा० गन्धक मिलाकर सी पीड़ा होना और बार बार करवट लेना, बहुत कम बोलना, ये लक्षण होते हैं। यह अभिन्यास पूर्ववत् उक कमल और शंखिनी के रस से ज्वर विशेष कर असाध्य होता है और कोई एक पृथक् दृथक् भावना देवें, फिर शुष्क कर आतशी प्राध रोगी यथावत चिकित्सा होने पर बच भी शीशी में भरकर बालुका यंत्र द्वारा ३ प्रहर पकावे जाता है उसको अभिन्यास सन्निपात ज्वर कहते मात्रा-५ रत्ती । यह पित्त जनक प्रत्येक रोगों को | हैं। मा०नि० ज्व०। दूर करता है । र० यो० सा० । जिस समिपात ज्वर में सब दोष अत्यन्त अभिनवकामेश्वरः abhi-nava.kamehva बलवान और तीव हों, अत्यन्त बेहोशी हो, rah--सं० पु० वाजीकरण औषध विशेष । निश्चेष्टता हो, अत्यन्त विकलता तथा श्वास हो, देखो-अभिनव कामदेवो रसः । अधिकतर मूकता (गूं गापन ) हो, दाह हो, अभिनि abhini-ते. अफीम (Opium.)। मुख चिकना हो, अग्नि मन्द और बल की हानि स० फा० इं० । ई० मे० मे । हो उसे वैद्यों ने “अभिन्यास" कहा है। अभिनिवेश abhinivesh-हिं० संज्ञा पु. भा० म० खं० २ सन्निपा. ज्वर० । देखो[सं०] [वि० अभिनिवेशित, अभिनिविष्ट ] सन्निपात। (१) प्रवेश । (२) मनोयोग । लीनता । अभिन्नपुट abhinna-puat-हिं० संज्ञा पु. (३) प्रणिधान । मृत्यु शंका । गति । पैठ।। नया पत्ता। अभिनी abhini-द. अफोम (Opium.) अभिन्यास हरो रसः abhinyāsa-haroअभिन्नाशयः abhinnashayah--सं० पु० rasah-हिं. संज्ञा पु. शुद्ध पारा, शुद्ध शरीर के भीतरी कोठों का शुद्ध रूप अर्थात् जो गंधक, लौह भस्म, चांदी भस्म इन्हें सम भाग विदीर्ण न हुए हों । वा० उत्तर० अ० २६ । । लेकर, हुरहुर, सम्हालू, तुलसी, विष्णुकान्ता, For Private and Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिपोड़नम् अभिशोचनम् श्रग्निपर्णी, अदरख, चित्रक, भांग, अरनी, मकोय विद्वान । (२) रम्य, रमणीय, मनोहर, सुन्दर। इनके रसों में तीन दिन पर्यंत खरल करें', पुनः | (३) कामदेव । मे० पचतुष्कं । पञ्चपित्त (मोर, भैंसा, बकरी, सुअर और रोहू अभिरोग abhiroga-हिं० संज्ञा पु० [सं०] मछली ) की भावना देवें, तदनन्तर बालुकायंत्र चौपायों का एक रोग जिसमें जीभ में कीड़े पड़ में अन्ध मूपा में बन्द कर एक दिन तक पचाएँ, जाते हैं। जब स्वांग शीतल हो वारीक चणकर रक्खें । | अभिल कपित्थः abhila.kapitthah-सं० मात्रा-१ से रत्ती । गण-अदरख के रस के पु. अाम्रातक वृक्ष, अम्बाड़ा, अमड़ा (pon. साथ दे और निर्गुण्डी, दशमूल और त्रिकुटा dias mangifera.) का क्वाथ काली मिर्च मिलाकर पिलाएँ तो अभिलषिक रोग abhilashika-roga-हि. त्रिदोषज ज्वरों को दूर करे। संज्ञा पु० [सं०] वातव्याधि के चौरासी भेदों पथ्य-बकरी का दूध और मूगका यूप दें। में से एक। वृ० रस. रा० सु०। अभिलावः abhilāvah-सं० प. छेद, स्रोत अभिपीड़नम् abhipidanam-सं० क्लो० (Hole, pore.) । अम० । अभिचार ( An incan tation to अभिलाषः abhilashah-सं० पु. । destroy. ) अभिलाष abhilasha-हिं० संज्ञा पु० ) अभिमन्थः,-मन्युःabhimanthah,-manyuh [वि० अभिलाषिक, अभिलाषी, अभिलाषुक, -सं० पु. नेग्ररोग । प्राई डिजीज़ ( Eye अभिलाषित ] । (.) रमणेच्छा, प्रियसे मिलने disease)| त्रिका। देखो-अधिमन्थ ।। की इच्छा। वियोग । रत० र०। (२) अभिमर्दः abhimardah-सं० पु. अवमई, | प्राकाँक्षा, कामना, इच्छा, स्पृहा ( Desire.) पीड़न, पीड़ा ( Pain.)। मनोरथ, चाह। अभिमर्दन abhimardana हिं० संज्ञा पुं० अभिव्यापक abhivyapaka-हिं वि० [सं०] [सं०] (१) पीसना । चूरचूर करना । (२) [स्त्री० अभिव्यापिका ] पूर्ण रूप से फैलनेवाला घस्सा । रगड़ । युद्ध । ( Diffusible.) अभिमर्षणम् abhi marshanam-सं० क्ली० | अभिशप्त abhi-shapt-हिं० वि० [सं०] (१) यन पिशाच श्रादि भूतकृत पीड़ा । २० शापित | जिसे शाप दिया गया हो । मा० । (२) मनन, चिन्तन; ( ३) परस्त्री अभिशापित abhishāpita-हिं० वि० [सं०] गमन, परदारगामी। अभिमानतम् abhimanitan-सं. क्ल.. देखो-अभिशप्त । मैथुन, स्त्री संग । क्वाइशन ( Coition.), अभिशस्तिपाः abhishastipah--सं० निंदनीय कप्युलेशन ( Copulation.)। त्रिकाल। पाप मय रोगों से रक्षा करने वाला । अथव। अभिमुख abhimukha-हिं० क्रि० वि० [सं०] सू० ७। १४ । का० । सम्मुख, पागे, सामने, समक्ष ( Present, अभिशाप: abhishapah-सं० पु. । facing.) अभिशाप abhishapa-हिं० संहा पु. ) अभिमचि abhimukha-हि. संज्ञा स्त्री. [वि. अभिशापित, अभिशप्त ] शाप, अनिष्ट [सं०] अत्यन्त रुचि । पसन्द । प्रवृत्ति । तुष्टि, प्रार्थना, बद दुधा, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध और सिद्ध भलाई, प्रास्वाद, चाह, रसज्ञान ( Taste.) प्रादि के शाप का नाम "अभिशाप" है। भा० अभिरूपः abhirāpah-सं० पु. (१) म०२।मा० नि० ज्व० । अभिरूप abhirāpa हिं० वि० बुध,पंडित, | अभिशोचनम् abhisho-chanam--देखो-- For Private and Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অলি: अभिसारना अभिषङ्गः abhi-shangah-सं० पु० स्नान। जल से सिञ्चन । छिड़काव (Bathing, अभिपंग abhishanga-हि. संज्ञा पु० sprinkling-) (१) काम, शोक, भथ, क्रोध, और भूतादिको अभिप्यन्द abhi-shyanda-हिं. पुं० । के प्रावेरा होने का नाम अभिषंग है । भा० म. अभिष्यन्दः abhi-shyandah-सं० पु. ) २ श्रागन्तुज्व० लक्षण । (२) भूत, विष, नेत्र रोग भेद । (१) नेत्रशूल रोग । अाँख पानी । श्रादि सम्बन्ध । यत पिशाच आदि द्वारा उत्पन्न चतु पीड़ा। Ophthalmia, conjine. पीड़ा । र. मा७ । (३) दृढ़ मिलाप ग्रालिंगन tivitis ) आँख का एक रोग जिसमें सूई छेदने (४) आक्रोश, निन्दा, कोशना । (२) पराजय। के समान पीड़ा और किरकिराहट होती है । A975 JTT: abhishung-jvarah-o आँखें लाल होती हैं। और उनसे पानी और पु. ज्वर विशेष जो भृत श्रादि के श्रावेरा से कीचड़ बहता है । वात प्रादि भेद से यह चार होता है । यह काम प्रादि जन्य भेद से ६ प्रकार प्रकार का होता है। देखो-नेत्राभिष्यन्दः । का होता है । शाङ्ग । भा० म०२ श्रागन्तुक (२) अतिवृद्ध । (३) असाव; स्राव, बहाव ज्वर० ।मा० नि० ज्वर । ज्व० च० ज्व०नि०। 1. मे० दचतुष्कं । अभिषवम् abhishavam-सं० क्ली. अभिष्यन्दी abhi-shyandi-सं० त्रि० (१) अभिषव abhishava -ह. संज्ञा ५० दोष, धातु तथा मल प्रादि स्रोतों को केदयुक्र (१) काजिक, कॉजी ( See-Kinji ) रा०नि० व०१५। (२) ताड़ी ( सुराभेद) करने वाला, छिद्रों को श्राद्रं ( नम, तर ) करने वाला। सेधी-हिं० । ताड़ाची दारू-मह. । ताँडी । कुसुमा० टी० ज्वर । (३) स्रोतः स्रावि ( Toddy ).ई. । पु. (३) यज्ञ में स्नान द्रव्य । वा० टी० हेमाद्रि०। (३) कफकारक (४) मद्य सन्धान | मे० वचतुष्कं । (५) पदार्थ । लक्षण-जो द्रव्य अपने पिच्छल और सोमरस पान । मद्य खींचना । शराब चुत्राना। भारीपन से रस वाहिनी शिराओं को रोक कर (६) सोमलता को कुचल कर गारना । शरीर में भारीपन करता है। उस पदार्थ को अभिषिक्त abhi-shikt-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० "अभिष्यन्दी" कहते हैं, जैसे-दही | भा० मि० अभिपिका ] कर्म में नियुकि, कृताभिषेक (An. प्र० खं० १ । ointed to office, enthroned.) | अभिसरः abhisarah-सं० पु. (१) परिअभिषुकम् abhi-shukam-सं० जी० (१)| __ चारक । (२) (An attendant) सहकावेल आदि प्रसिद्ध फल विशेष | पेस्ता-बं । चर; अनुचर । (३) मददगार । संगी, साथ च० चि. च्यवनप्राश | पु०, (२) कावेल रहने वाला, साथी । रत्ना०। प्राणाभिसर । च. वृक्ष । सु. । द० सू०६० । अभिषतम् adhi-shutam-सं० क्ली. पण्डाकी ।। शांढाकी, काञ्जिक विशेष । अमः । देखो-कॉजी। | अभिसरण-,न abhisarana,-n-हिं० संज्ञा प.. (Kanji)| [सं० अभिशरण ] अागे जाना । (२) समीप गमन । अभिषविक्रान्तम् abhi-shuvi.krāntam ० -सं० पु. माधवी सुरा, माध्वी सरा। (A अभिसरना abhisarana-हि० क्री० _kind of wine) देखो-माधवी वैनिघ [सं० अभिसरण ] संचरण करना । जाना । (२)किसी वांछित स्थान को जाना। अभिषेक: abhi-shekah-सं० पु. ) अभिषेचनम् abhishechanam-सं० क्ली। अभिलारना abhisarana-हिं. क्रि० प्र० "०)। [सं० अभिसारणम् ] (1) गमन करना | (१) ऊपर से जल डाल कर स्नान करना । शान्ति | जाना ! घूमना । For Private and Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिसारः प्रभोज अभिसारः abhisarah-सं० पु० अभिसार हिं० (१) तिलक चुप । तिल हिं० (Sesam संज्ञा पु० (१) शकुली मत्स्य [शाल माछ um Indicum ) रा०नि०व०१० (२) बं. मद० व० १२ । (२) बल (Stren. वि० इच्छित, वाँछित । मनोरथ, मन चाही वात gth ) धर० मत्स्य, मछली ( Fish ) ( Wished for, Desired ) [वि. अभिपारिका अभिसारी] | | अभीष्टगन्धकः abhishta-gandhakah-सं० अभिसोचनम् abhisochanam-सं० क्लो० पु. माधवी लता | मद. व०३। Seeकोसना । अथव० सू०६ । ७ । का०४ Madhavilatá अभिहिता abhithita-सं० स्त्रो० जल पिप्पली अभीष्टा abhishta--सं० स्त्री० रेणुक, गन्ध, ___ जल पीपर । वै०नि० । द्रव्य, रेणुका । श० च० । See-renuka अभिज्ञः abhijnyah-सं० त्रि० अभुतः abhuktah--सं०वि० अभिज्ञ abhijnya-हिं० वि० अभुत abhukta--हिं० वि० (१) जानकार | विज्ञ । (३) निपुण कुशल न खाया हुआ । उपवास किया हुअा। (Starअभिज्ञान abhijynāna-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] ved, fasted ) अजीर्णस्य दिवा निद्रा [वि. अभिज्ञात ] (१) स्मृति । ख्याल । पाषाणामपि जीय्यति वै० निघ० । (२) (२) बह चिन्ह जिससे कोई चीज़ पहिचानी न भोग किपा हुश्रा। जाय । लक्षण । पहिचान । (३) निशानी । अभुग्णः abtugnab--सं० त्रि. नीरोग, स्वस्थ परिचायक । चिन्ह । ( Healthy) अभोकः abhikah-सं० पु . प्रभुलास abhulas--सिंध० हब्बुलाबास, विला. अभीक abhika-हिं० वि० ___ यती मेंहदी है। कामुक ( Cupidinous, lustful मे० अभेडा abheda--गु० अमडा, अम्बाड़ा (Spoकत्रिकं । (२) निर्भय, निडर, लंपट । ndias margifera) अभीरणी abhirani-सं० स्त्री० दुन्दुभ सर्प अभेद adheda--हिं संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ( A serpent named dundubha) अभेदनीय, अभेद्य ] (1) भेद का अभाव । वै०निघ०। अभिसन्नता । एकत्व । (२) एक रूपता । अभीरु abhiru-सं० स्त्री० (१) शत मूली। समानता । वि० (१) शून्यभेद । एक रूप। समान । वि० [सं० अभेद्य । सतावर-ति । ( Asparagus rac अभेदनोय abhedaniya-हि. वि० [सं०] emosus) वा० सू० १५ १० दूर्वादिव० सि. यो० यम० चि. त्रयोदशांगे। (२) दे० अभेद्य । महाशतावरी । रसे० चि. ८ श्र० । अभेद्यम् abhedyam--सं० क्ली० अभीरूपत्री-त्रिका abhirāpatri,-trika-सं० अभेद्य abhedya--हि. संज्ञा पु. । स्त्री. शतावरी, सतावर, (Asparagus (१) हीरक, हीरा। Diamond डाइमण्ड इं०रा०नि०व० १३ । देखो-वजम। हिं. racemosus) अम०। अभीशुः,-षुः abhishuh,-shuh-सं० पु. वि० (१) अभेदनीय । जिसका भेदन वा छेदन न हो सके। जिसके भीतर कोई चीज़ घुस प्रग्रह, लगाम, डोर, मे०। -न सके जिसका विभाग न हो सके। Indivis. अभीषङ्गः abhisangah-सं० पु. श्राक्रोश, ible, Inseparable (२) जो टूट न अभिषक, शाप । ( Curse )। सके । अखंडनीय । अभीष्ट abhishta-सं० पु० अभेषजम् abhesha jam-सं० क्ली० विपरीत hishta श्रीषध, उलटी दवा । बाधन तथा अनुबाधन For Private and Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभोज श्रभ्यङ्ग भेद से यह दो प्रकार का होता है। च० चि. १०। अभोज abhoja-हिं० वि० [सं० अभोज्य ] न खाने योग्य । अभाजनम् abhojanam-सं० क्ली० ( Fa | ___sting ) अभोजन-हिं० पु. । उपवास, अभोजन, भोजनाभाव, अनाहार | संग्रहः । अभोज्य abhojya-हिं० भोजन के अयोग्य ( Unfit to be eaten) अभौतिक abhoutika--हिं० वि० [सं० ] (१) जो पंचभूत का न बना हो । जो पृथ्वी । जल, अग्नि श्रादि से उत्पन्न न हो। अभ्यक्त abhyakta--हिं० वि० [सं०] (1) पोते हुए । लगाये हुए । (२) तेल वा उबटन लगाए हुए। अभ्यङ्क abliyankah-सं० पु० तिल करुक । अभ्यङ्गः abhyungah-सं० पु. अभ्यङ्ग abhyanga-हिं० संज्ञा पु. [वि. अभ्यक्त, अभ्यंजनीय ] ( १ ) लेपन चारों ओर पोतना | मल मल कर लगाना । उद्वर्तन । (२) तैल ( श्रादि) मर्दन । तेल लगाना | तैल लेपन । स्नेहनः (१) कमल पत्र, तगर, चिरौंजी दारुहल्दी, कदम्ब, बेर को मिंगी, इनकी मालिश करने से मुख कमलवत हो जाता है । (२) जौ राल, लोध, खस, रक्त चन्दन, शहद, घी, गुड़ इनको गोमूत्र में पकाएँ । जब कलछी से लगने लगे तब उतार लें। इसका मर्दन करनेसे नीलका व्यंग और मुख दूषिकादि रोग दूर होकर मुख मण्डल कमल सदृश हो जाता है और पांव कमल दल के तुल्य हो जाते हैं । वा० उ० अ० निरुहवस्ति, स्वेदकर्म, उपनाह, उत्तरवस्ति, सेके, इन्हों को तथा वातनाशक स्थिरादिगण से सिद्ध किए रसों को वात के मूत्रकृच्छ, में दें। गिलोय, सोंठ, प्रामला, असगन्ध, गोखरू, इन्हें वात रोगी तथा शूल युक मूत्रकृच्छ, वाले मनुष्य को पिलाएँ। ___ सेंक,गोता लगाना, शीतल लेप, ग्रीष्म ऋतु के योग्य विधान, वस्ति कर्म, दूध के पदार्थ, दाख. विदारीकन्द, गन्ने का रस तथा घृत इन्हें पित्त के रोगों में बरतें। कुश, काश, सर, डाभ, ईख ये तृण पञ्चमूल पित्त के मूत्रकृच्छ, को हरता तथा वस्ति का शोधन करता है। इनमें सिद्ध दूध पान करने से लिङ्ग में उपजे हुए रक्त को दूर करता है। चक्र० द० मुत्रकृच्छ, • चि० । गुण-जल सींचने से जिस प्रकार वृक्षमूल में अँखुए बढ़ते हैं उसी प्रकार स्नेहसिंचन (तैलाभ्यंग ) से धातुओं की वृद्धि होती है। शिरा, मुख, रोमकूप तथा धमनी द्वारा तर्पण होता है। सुश्रु०। मनुष्य को उचित है कि प्रति दिन अभ्यंग अर्थात् तैल मर्दन करता रहे। क्योंकि इससे बुढ़ापा, थकावट तथा वातरोग नष्ट हो जाते हैं, दृष्टि निर्मल बनी रहती है, शरीर पुष्ट रहता है, निद्रा सुखपूर्वक आती है, त्वचा सुन्दर और दृढ़ हो जाती है। वा. सू. १ अ०। परन्तु इस तैल का प्रयोग सिर, कान और पैर में विशेषता से करता रहे । र० मा० । अभ्यंग वातरोगनाशक है तथा धातुओं की समता, बल, सुख, नींद, वण मृदुता करता और दृष्टि को पुष्ट करता है । शिरोऽभ्यङ्ग अर्थात् शिर में तैल लगाने से शिर को तृप्त, केशो को दृढ़ और नेत्र को पुष्ट करता है तथा केशों को साफ करता, केशो के लिए उत्तम और धूलि प्रभृति द्वारा हुइ केश की मलिनता को दूर करता है । मद० व० ३। अभ्यङ्ग का निषेध-जो मनुष्य कफ से ग्रस्त है, अथवा वमन विरेचन देकर शुद्ध किया गया है या जो अजीण से पीड़ित है उसको तेल मर्दन न करे। वा० सू०१०। (३)शिरमें अभ्यङ्गादिः-चौगुने बकरा के मूत्र में गौ के गोबर का रस मिलाय उसमें सिद्ध किया हुश्रा तैल ( सरसों का तैल ) मालिश, पान, तथा उत्सादन में श्रेष्ठ है। चक्र० द. अपस्मार० चि०। अभ्यङ्गादि समान्योपायः-अभ्यङ्ग, स्नेह, For Private and Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यंजनीय श्रभ्युदय तेल लगाना । भा०। (1) दोपयुक्र व्रण के | अभ्यवकर्षणम् abhyava-karshanam दोषशमनार्थ तथा उनको कोमल करने के लिए -सं० क्ली० शल्य आदि उत्पाटन | शल्य उपाय विशेष । सु० चि०१०। । आदि का उखाड़ना (निकालना) अम०। अभ्यंजनीय abhyanjaniya-हिं० वि० अभ्यवहरणम् abhyava-haranam सं० [सं०] (1) पोतने योग्य, लगाने योग्य ।। क्लो० भोजन ( Eating, Food.) (२) तेल वा उबटन लगाने योग्य । अभ्यवहारः abhyavahārah-सं पु० अाहार अभ्यञ्जनम् abhyanjanam--सं० क्ली०, तैल ( Food.) रत्ना०। (Oil)। हे० ३० । तैल मर्दन, तैल लेपन, | अभ्यक्ष abhyaksha सं० तिल की खली। उबटन, रा०नि० व०१५ । अभ्यान्तः abhyān tah-सं० त्रि० रोगी, अातुर अभ्यन्तः abhyantah -सं० त्रि. अातुर रोगी ( Diseased.)। अम। ( Diseased affected, with sick- अभ्याहारः abhyāhārah-सं० पु. भक्षण, ness) अमः। भोजन, पाहार । ईटिंग ( Eating.)। यह अभ्यन्तर abhyantara-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] चयं (चर्वण योग्य), चोप्य (चूसने या चोषण (१) मध्यम बीच। (Inner, Internal) योग्य ), पेय (पान योग्य ) और लेस ( चाटने (२) हृदय ( Heart)। क्रि० वि० भीतर । योग्य ) भेद से चार प्रकार का होता है । (.) अन्दर । च्युएब्ल (Chewable,) मैस्टिकेटिब्ल अभ्यन्तरवर्ती abhyantar vartti--सं-स्त्री. ( Masticatible )। (२) Capable मध्यवासी। of being sucked. (३) To be अभ्यन्तरांयामः abhyantarayamah--सं० licked. (४) Drinka ble. | सु० । पु उक्र नाम का धनुस्तम्भ रोग बिशेष, अन्त. अभ्यु abhyu-सं० पु० मुनक्का बीज ( Seeds रायाम । यह एक प्रकार की वात व्याधि है of dried grapes. ) जिसमें बलवान वायु कुपित होकर अँगुली, वक्ष, अभ्युदय abhyudaya-हिं० संज्ञा पुं॰ [अं॰] हृदय और गलदेश आदि में प्राप्त होकर वायु [वि० अभ्युदित, श्राभ्युदयिक ] (१) प्रादु. समूह को खींचकर मनुष्य को क्रोडवत (कबड) भाव, उत्पत्ति । झुका हा कर देता है, जिससे नेत्र स्तब्ध हो अभ्युदित abhyudita-हिं० वि० [ सं० ] जाते हैं और डाढ़े बैठ जाती हैं । लक्षण- (१) उगा हुआ । निकला हुआ। उत्पन्न । अंगुली, गुल्फ ( पांव की गांड), पेट, हृदय, प्रादुभूत । (२) दिन चढ़े तक सोने वाला। वक्षः स्थल और गल में रहने वाली वायु वेगवान अभ्युषः abhyush-सं० पु० रोटी (Bread.) होकर नसों के समूह को सुखाकर बाहर निकाल श्रा० सं० इंडि .दे और जब उस मनुष्य के नेत्र स्थिर हो जावें, अभ्युक्षण abhyukshana हिं० संज्ञा पु० ठोड़ी जकड़ जाय, पसलियों में पीड़ा हो मुख से [सं०] [वि० अभ्युक्षित, अभ्युक्षय ] सेचन । कफ गिरने लगे और मनुष्य प्रागे की ओर को छिड़काव | सिंचन । झुक जाय तो वह बलवान वायु अन्तरायाम को अभ्युक्षित abhukshita-हिं० वि० [सं०] उत्पन्न करता है अर्थात् तब उसे "अन्तरायाम (१) छिड़का हुअा। अभिसिंचित। (२) घात व्याधि" के नाम से पुकारते हैं। मा०नि० जिस पर छिड़का गया हो। जिसका अभिसिंचन वा० व्या । देखो हुआ हो। अभ्यमितः abhyamitah-सं० त्रि० अातुर, अभ्युदय abhyukshya-हिं० वि० [सं०] रोगी ( Diseased.)। श्रम० । छिड़कने योग्य। For Private and Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir છદ अभ्रकम् ম : श्रभ्यूषः abhyushah-सं० पु. अभ्योष। ईषत्पक्व कलाय श्रादि । (अटी. भ०) अम०। रोटी। श्रा० सं० इं० डि. अभ्रम् abhram-संकली० । (१) मुस्ता, अभ्र abhra-हिं० संज्ञा पु. नागरमोथा (Cyprus Rotundus.) । (२) मेघ, बादल । क्राउड (Cloud )-इं० । रा० नि० व०६। (३) अभ्रक धातु । टैल्क ( Talc.)-इं०रा०नि०व० १३ । (४) आकाश । स्काइ (Sky.,) ऐट्मास्फियर (Atmosphere.)-इं० । (५) स्वर्ण । सोना । Gold ऑरम ( Aurm)-ले। अभ्रकम् abhrakam-सं० स्त्री० । (1) अभ्रक abhraka-हिं. संज्ञा पु० भद्रमुस्ता नागरमांधा ( Gyperus per tenuis.) (२) कपूर। कैम्फर ( Camphor )-इं० (३) सुवर्ण । ऑरम (Aurum) | (४) वेत्र, वेतसवृत्त (Calamus rotong.)। देखो-वेत्रसः। (५) अबरक धातु विशेष । भोडर | भोडल | भुखेल । गिरिज, अमलं (अ), गिरिजामलं, गौर्यामलं, ( स्वामी) गिरिजा बीजं, गरजध्वज, (के), निर्मलं, (मे), शुभ्रं (ज), घनं, व्योम, अब्द, (र), अभ्रं, भृङ्ग, अम्बर, अन्तरीक्ष', अाकाशं, वहुपत्रं, खं, अनन्तं, गौरीजं, गौरीजेयं, (रा) -०। अभ्भर बं० । अबक, तल्क, अफ्रीदून, इस्तराल, कबून, कौकबुल अज़, मुनक्का. मुकलिस, अल्सरूस, समश्र, गगन, जना हुल सन्त, -०। तल्क-इ० सितारहे ज़मीन-फ्रा० । उ०। अबरक-उ० माइका Mica-ले० । टैल्क. Tale, मस्कोवी ग्लास Muscovyglass, ग्लीमर Glimmsel-इं। भिंगा-ना०। को । किन-सिं० । हिंगूल-गु०, मह०।। __ यह एक प्रकार का स्फटिकवत खनिज है। जिसकी रचना पनाकार होती है और जिसके अत्यन्त पतले पतले परत या पत्र किए जासकते हैं। यह बड़े बड़े ढोंकों में तह पर तह जमा हुश्री पहाड़ों पर मिलता है। साफ करके निकालने पर | इसको तह काँचकी तरह निकलती है। यह प्राग से नहीं जलता एवं लचीला होता तथा धातुवत् अाभा प्रभा रखता है। इसके पत्र पारदर्शक एवं मृदु होते और सरलता पूर्वक पृथक् किए जा सकते हैं । एक ओर से दूसरी ओर तक फाड़ने पर टूटने की अपेक्षा फटते हुए प्रतीत होते हैं । वैद्यक ग्रंथों में इसको महारस या उपरस लिखा है। परन्तु अाधुनिक रसायन बाद के अनुसार यह न धातु है न उपधातु क्योंकि न इसमें धातु के लक्षण हैं और न उहधातु के, और न बह मौलिक तत्वों में से है। उद्भव स्थान-बहुधा यह पर्वतों पर पाया जाता है । हमारे देश में अभ्रक प्रायः श्वेत भूरा तथा काला निकलता है । सीरिया और भारतवर्ष में, बंगाल, राजपूताना, 'जैपुर' मद्रास नेलौर और मध्य प्रदेश आदि की पहाड़ियों में इसकी बड़ी बड़ी खाने हैं । अवरक के पत्तर कंदील इत्यादि में लगते हैं । तथा बिलायत आदि में भी भेजे जाते हैं। वहाँ ये काँच की टट्टी की जगह किवाड़ के पल्लों में लगाने के काम में आते हैं। अभ्रक भेद रस शास्त्रों में अभ्रक की चार जाति एवं वर्णानुसार इसके चार भेदों का उल्लेख पाया जाता है, जैसेब्रह्मक्षत्रिय विट् सूद्र भेदात्तस्या चतुर्विधम् । क्रमेणैव सितं रकं पीतं कृष्णं च वर्णतः । अर्थ- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भेद से अभ्रक चार प्रकार का है उन चारो के क्रमशः सफेद, लाल, पीत और काले वर्ण हैं। चारो वर्णों के भेदप्रशस्यते सितं तारे रक्तं तत्र रसायने । पीतं हेम निकृष्ण' तु गदे शुद्ध तथापि च ॥ अर्थ-चाँदी के काम में सफेद अभ्रक, रसायन कर्म में लाल, सुवर्ण कर्म में पीला और औषध कार्य में शुद्ध काला अभ्रक काम में लाना चाहिए। कष्णाभ्रक के भेदपिनाकं ददुरं नागं वज्रं चेति चतुर्विधम् । कृष्णाभ्रकं कथितं प्राज्ञस्तेषां लक्षण मुच्यते ॥ For Private and Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अभ्रकम् ४५० अर्थ-पिनाक, ददुर, नाग और वज्र ये चार भेद काले अभ्रक के पंडितों ने कहा है। अब इनफे लक्षण का वर्णन किया जाता है। पिनाक के लक्षणमुचत्यग्नौ विनिक्षिप्त पिनाकं दलसंचयम् । अज्ञानाद्भक्षण तस्य महाकुष्ठप्रदायकम् ॥ अर्थ-पिनाक अभ्रक अग्नि में डालने से अर्थात् धमन करने से दलसंचय अर्थात् पत्रों को छोड़ता है। अज्ञानवरा खाने से यह महाकुष्ट करता है। द१र के लक्षणददुरत्वग्नि निक्षिप्त कुरुते ददुरध्वनिम् । गोलकान् वहुशःकृत्वातत्स्यान्मृत्युप्रदायकम् ॥ __ अर्थ - ददुर अभ्रक अग्नि में डालने से मण्डूक की तरह शब्द करता है और भक्षण करने से पेट में गोले का रोग प्रगट करता एवं मृत्युकारक होता है। नाग के लक्षणनागं तु नागवतन्ही फूत्कारं परिमुचति । तद्भक्षितमवश्यन्तु विदधाति भगंदरम् ॥ अर्थ-नाग अभ्रक अग्नि में डालने से साँप के समान फुफ्कार मारता है । इसके खाने से अवश्य भगंदर रोग होता है । वजाभ्रक के लक्षणवज्रं तु वज्रवत्तिष्टे न चाग्नौविकृति ब्रजेत् । सर्वाभ्रेषुवरं वज्रं व्याधिर्वार्धक्य मृत्युजित् ॥ अर्थ-वज्राभ्रक अग्नि में डालने से वज्र के समान जैसा का तैसा रह जाता है और विकार को नहीं प्राप्त होता। यह सब में *ष्ट है और व्याधि, बुढ़ापा एवं मृत्यु को दूर करता है। यद जननिर्भ क्षिप्तं न वडी विकृति ब्रजेत् । वज्र संज्ञंहितद् योज्यमभ्रं सर्वत्रनेतरत् ॥ श्रार्थ-जो अभ्रक काला होता है तथा अग्नि में तपाने से विकार को नहीं प्राप्त होता, वह वज्राभ्रक है। यह सर्वत्र हितकारक और योग्य है। इससे भिन्न अन्य प्रकार उत्तम नहीं । इस शास्त्रोक्त वर्णन के विपरीत अाज हमें पाँच प्रकार का अभ्रक प्राप्त होता है - श्वेत, अरुण, पीत, भूरा और काला । ये सब वर्ण के कारण ही भिन्न नहीं, प्रत्युत प्रकृति में इनकी रचना ही एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। अम्रक कोई मौलिक पदार्थ नहीं, प्रत्युत अनेक मौलिकों का एक यौगिक है। इसीलिए रसायन शास्त्रियों ने इस यौगिक से कोई और यौगिक बनाने का प्रयत्न नहीं किया, न डाक्टरों ने इसे रोगों में व्यवहार किया है। एलोपैथी में अभ्रक को किसी रूप में भी खाने में नहीं वर्ता जाता | हाँ इसके पत्रों का उपयोग अवश्य रसायन विज्ञानी यन्त्री में करते हैं। परन्तु आयुर्वेदज्ञों ने इसको खाने के लिए उपयोगी बताया और इन्हें। ने ही इसको अग्नि में डाल कर इसके उक्र यौगिक तोड़कर नए यौगिक ऐसे बनाए कि जिसे प्राणियों को रोग के समय में देने पर वह बड़े लाभदायक सिद्ध हुए, तब से इसका उपयोग चल पड़ा। (१) श्वेताम्रक-(Muscovitd.) यह पत्राकार चाँदीवत् शुभ्र वर्ण का होता है। सुहागे के साथ मिलाकर तीब्र अग्नि देने से इसका आधे के लगभग भाग शैलकेत (Sili. cate.) नाम का नया यौगिक बनता है। यह कांच सा होता है, इसको हमारे यहां अभ्रक सत्व कहते हैं। (२) अरुणाभ्रक या रक्ताम्रक ( Lepidolite.) यह अभ्रक श्वेत अभ्रक की अपेक्षा कम पत्राकार होता है । इसके छोटे छोटे पत्र होते हैं और इसके साथ और यौगिक के कण मिश्रित होते हैं। बहुश यह अभ्रक एक प्रकार की अरुण खड़िया मिट्टी के साथ मिला पाया जाता है । यह समग्र अभ्रकों से मूल्यवान होता है; क्योंकि इसमें रक्तरूपम् नामक धातुका संयोग हुआ होता है। इसका संकेत सूत्र- पां रक्क [स्क ( ऊ उ प्ल ) २ ] स्फ (शै ऊ, ३) ३ । (३) पीताम्रक-( Cookeite.) इस अभ्रक में पांशुजम धातु नहीं होती न तीसरा . स्फट शैलोमिद का यौगिक होता है, बल्कि इस के स्थान पर शैलोष्मित होता है। इसका संकेत For Private and Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अभ्रकम् सूत्र रक [ स्फ (ऊ उ)२] ३ (शै ऊ३)२ है । यह पत्राक र कहरवी वर्ण का होता है। (४) भूराभ्रक-(Lepidomelane.) यह अत्रक भारतवर्ष में बहुत पाया जाता है । यह वर्ण में श्यामता लिए, भूरा होता है । प्रायः बाजार में यही अभ्रक मिलता है। इसके पांच पांच सात सात इंच तक बड़े पत्र देखे जाते हैं। इसका संकेत सूत्र--(उ पां) २ लो ३ ( लो स्फ) ४ (शै ऊ ४) (५) श्याम अभ्रक-( Biotite. ) इसके दो भेद हैं। एक बृहद् पत्र युक्र, दूसरा सूक्ष्म पत्र युक्र । सूक्ष्म पत्र युक्र श्याम अभ्रकको हमारे यहां वज्र कहते हैं। इस वृहद् पत्र युक्र अभ्रक का संकेत सूत्र( उ पां) ( कां लो ) २ स्फ २ (शै ऊ ४) ३ दूश्रा श्याम अभ्रक-जो छोटे पत्र का होता है और जिसकी रचना प्रायः डलीके आकार की होती है । इसकी और प्रथम की रासायनिक बनावट में भी अन्तर है । संकेत सूत्र - ( उपां) २ ( कां लो) २ का ३ स्फ (शै ऊ३) इममें उप्मजन की १ मात्रा कम है, किसी में दो कम होती है । जिसमें ऊष्मजन कम होता है वह अभ्रक अग्नि पर रखने से नहीं फूलता। जिसमें अधिक होता है वह फूलता है । जो अभ्रक नहीं फूलता उसको वज्र संज्ञक कहते हैं और रस शास्त्रों में इसी को श्रेष्ठ माना है । भस्म के लिए इसी को ब्यवहार में लाना चाहिए। कहा भी हैतथा_ कृष्ण वर्णाभं कोटि कोटि गुणाधिकम् । स्निग्धं पृथु दलं वर्ण संयुक्त भारतोधिकम् ॥ सुख निर्मोच पत्रंच तदभ्रं शस्तमीरितम् । । अर्थात्-कृष्णाभ्रक अर्थात् वज्र करोड़ों गुण युक्र है । ( इसके लक्षण ) जो चिकना, मोटे दल को, सुन्दर वर्ण युक्र और बहुत भारी हो और | जिसके पत्र सहज में अलग हो जाएँ, वह अभ्रक श्रेष्ठ है। टिप्पणी-- इस समय वैद्य तीन प्रकार के | अभ्रक भस्म के लिए काममें लाते हैं । श्वेत, भूरा और काला ( यूनानी हमीम इनमें से श्वेत और श्याम दो ही का उपयोग करते हैं)। तीनों अ. म्रकों में से श्वेत और भूरे ये दोनों शास्त्र परीक्षा में नहीं उतरते। काले अभ्रक में से कोई कोई ही इस परीक्षा में ठीक उतरता है। ___ ज्ञात रहे कि दर्दुर, नाग और पिनाक नामधारी अभ्रकों में प्रयोग करने पर उपयुक कोई शास्त्रीय दुर्गुण दिखाई नहीं देता | रही गुण की बात, प्रत्येक प्रकार के अभ्रक एक सा गुण नहीं कर सकते, क्योंकि ग्राप ऊपर देख चुके हैं कि सबके यौगिक भिन्न भिन्न हैं। जब सबों की रसायनिक रचना में श्रन्तर है तो जब उनकी भस्में बनेगी, उनको रसायनिक रचना भी एक दूसरे से भिन्न होगी। ऐसी दशा में गुणों में अन्तर पाना स्यभाविक वात हैं । पर इस कथन में कोई महत्व नहीं कि पिनाक, दर, नाग नामक अ. भ्रक अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। अभ्रक शोधन विधि . छोटेकण का श्याम अभ्रक प्राय: बालू रेत आदिसे मिश्रित होता है । अतएव भस्म बनाने से पूर्व इसकी शुद्धि प्रावश्यकीय है। अन्यथा इससे नाना प्रकार के रोगों के होने की अत्यधिक सम्भावना रहती है । यथासत्वार्थ सेवनाथं च योजयेच्छोधिताभ्रकम् । अन्यथात्व गुणं कृत्वाविकरोत्येव निश्चितम् ॥ अर्थ-सस्त्र के वास्ते या सेवन के वास्ते शोधित अभ्रक लेना चाहिए । अन्यथा अवगुण कर निश्चय विकारों को उत्पन्न करता है। अशोधित अभ्रक की भस्म निम्न दोषों को करती है। पीडां विधत्ते विविधांनराणां कुक्षयं पांडु गर्द चशोफम् । हृत्पार्श्व पीडांच करोत्यशुद्धमनहि तद्वद गुरुवति हृन्स्यात् ॥ अर्थ-यह (अशुद्ध अभ्रक ) मनुष्यों को ' अनेक प्रकार की हीड़ा, कोढ़, क्षय, पांडु सूजन और हृदय एवं पार्श्वशूल आदि रोगों को करता तथा मारी है और जठराधिन को मन्द करने वाला है। अतः अभूक शोधन की कतिपय सरल एवं उत्तम विधियों का यहां उल्लेख किया जाता है For Private and Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्रकम् ४५१ अभ्रकम् (१) अभूक को तपा तपा कर कॉजी या गोमूत्र या त्रिफला के क्वाथ में विशेष कर गोदुग्ध में सात सात बार अथवा तीन तीन वार बुझानेसे अभूक शुद्ध होता है। अभूक पत्रों को लेकर गाय के धारोष्ण दुग्ध में मलें और सुखाकर फिर मलकर सुखाएँ । तीन बार ऐसा करने से अभूक नवनीत के समान कोमल हो जाएगा। (२) अभक को तपातपा कर २१ कार काँजी में डुबाने से अभूक शुद्ध होता है। (३) अभूक के पृथक् पृथक् पत्र कर और तपा तपा कर कॉजी में वुझाएँ। बाद उन पत्रो सहित काँजी को तेज धूप में धर दें। १५-२० दिन या एक मांस बाद कॉजी को फेंक दूसरे शुद्ध जल से धो लें । अभूक शुद्ध हो जायगा । (४) अभूक को तपा तपा कर सात बार सम्भालू के रस में बुझाएँ तो अभूक के गिरि दोष की शांति हो। (५) अभक को तपा तपा कर बारंबार बेर के काढ़े में वुझाएँ । पीछे सुखाकर हाथों से मर्दन करें तो धान्याभूक से भी उत्तम हो । ___ इस प्रकार शुद्धि क्रिया के पश्चात् इसके सुक्ष्म चूर्ण बनाने के लिए धान्याभूक क्रिया करें। धान्याभ्रक की निरुक्ति चूर्णाभू शालि संयुक्रं बस्य बद्धं हि कांजिके | निर्यात मईनाद्यत्तद्धान्याभूमिति कथ्यते ॥ अर्थ-चूर्ण किए हुए अभूक के साथ धानो को कपड़े में बांधकर कांजी में रख दें और उसे मर्दन करें। इससे जो रेत सा अभूक चूण निकले उसे धान्याभूक कहते हैं। __ धान्याभूक करण विधि अभक को चूर्णकर धान (चौथाई भाग) मिला दें और कम्बल में ढीला बांध कर तीन रात तक कॉजी में रखे । फिर इसे जोर से मलें । इस प्रकार मलकर पानी में डुबाकर फिर मलें, फिर डुबाएँ । इस प्रकार रगड़ने से अभक मुलायम होकर शीघ्र टूटता रहता है और उसके छोटे छोटे | कण होकर कम्बल से निकल कर उस पानी में . नीचे बैठते रहते हैं। इस तरह अभक को पानी में बारीक रूप से निकाल लें। जल के स्थिर हो जाने पर नितार दें और नीचे बैठे रेत सम कोमल धान्याभूक को मारण के काम में लाएँ। अभक को कोमल करने की विधिअभूक के पत्रों को अलग अलग करके एक पात्र में रखें। इसके ऊपर से कुकरौंधे का इतना रस भरें कि वह डूब जाय और ४-५ दिन तक धरा रहने दें । तदन्तर उसके एक मोटी थैली में भर कर उसमें कौंड़ियां डालें और थैली का मुंह बांध खूब रगड़ कर धोएँ। अभूक रेशमवत् स्वच्छ एवं मुलायम हो जायगा। उपयुक्र समग्र क्रियाओं के हो जाने के बाद इसकी भस्म प्रस्तुत करें। श्याम अभ्रक भस्म विधि १-धान्याभ्रक किए हुए श्यामाभ्रक को कुकरौंधे के रस में थोड़ी सजी अथवा सुहागा मिलाकर साने, फिर टिकिया बनाकर शराब में धरें और कपरौटी कर गजपुट की अग्नि दें। एक बार में ही अभ्रक भस्म होगी। इसी प्रकार १० या १६ बार करने से निश्चद्र गेरुए रंगका अभ्रक भस्म प्रस्तुत होगा । ३० पुट या १०० पुट देने पर उत्तम प्रकार की भस्म निर्मित होगी । गुण वृद्धि के लिए १६ पुट भाक के दूध की, धत्र के पत्तों के रस की, थूहर के दूध की, भांग के काढे की, पीपल दड़ के अंतर छाल के काढ़े की, त्रिफले के काढ़े की, पीपल या बड़ के अंतर छाल के काढ़ेको, बकरे के खून की, गोखरू आदि की दें। और क्रमश: १६-१६ बार पुटित करके टिकिवा बना शराव में कपरौटी युक्त कर गज पुट में फूंकते जाएँ १००० पुट देकर सहस्र पुटी कर ले या ५०० पुटी बनाएँ। यह प्रग्येक रोग में अचूक सिद्ध होगी। २-शुद्ध अभ्रक को कसौंदी के रस में स्वरल करके संपुट में रखकर गज पुट की अग्नि दें। शीतल होने पर निकाल कर पुनः कसौदी के रस में खरल कर टिकिया बनाकर उन विधि से दस अग्नि दें तो उत्तम भस्म बन जाती। For Private and Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अभ्रम् घोट टिकिया बनाएँ और गजपुट विधि से के तो एक बार में ही भस्म निश्चन्द्र होगी। १-धान्याभ्रक में हरिताल, आँवले का रस और सुहागा मिलाकर घोटे पीछे टिकिया बना कर अग्नि दें। इस प्रकार ६० अग्नि देने से सिंदूर के समान लाल भस्म हो प्रस्तुत होगी । यह भस्म क्षयादि सकल रोगों का नाश करती ३-इसी तरह नागरमोथे के कथ में छोटेछोटे टुकड़े कर अग्नि देते रहने से दस पुट में अभ्रक | की भस्म बन जाती है। ४-इसी तरह अभ्रक को चौलाई पंचांग के रस में घोट घोट कर दस बार अग्नि देने से उत्तम भस्म बन जाती है। प्रतिवार वनस्पति रस छोड़ कर अभ्रक खूब घोटना चाहिए, जितना अधिक घुटेगा उतना ही शीघ्र चन्द्रिका रहित अभ्रक हो जायगा। ५--मिट्टी रेता रहित अभक के सूक्ष्म सूक्ष्म कण लेकर उनको अर्क दुग्ध में घोटकर सये रुपये बराबर टिकियाँ बनाएँ और धूप में सुखाकर अर्क पत्र में लपेट, सम्पुट में रखकर खूब अच्छी गजपुट की अग्नि दें। स्वांग शीतल होने पर निकाल पुनः उक्र अर्क दुग्ध में अच्छी तरह घोटकर अग्नि दें। सात पुट इसी प्रकार अर्क दुग्ध की और तीन पुट वट-जटा क्वाथ की दें। प्रत्येक बार में अग्नि की मात्रा काफी होनी चाहिए । दस पुट में चंद्रिका रहित उत्तम लाल वण की भस्म बन जाती है। यह भस्म अच्छी बनती है और काफी गुण करती है। ६-अभक को पानके रस में घोटकर टिकिया बनाकर तीन भावना अग्नि :सहित दें। फिर तीन भाबना हुलहुल के रस की दें, फिर तीन वट-जटा क्वाथ की, फिर तीन मूसली के काढ़े की, फिर तीन गोखरू के काढ़े की, फिर तीन कौंच के काढ़े की, फिर तीन सेमल की मूसली की, फिर तीन तालमखाने के काढ़े की, फिर तीन लोध पठानी की, इसके पश्चात एक भावना गोदुग्ध की, एक दधि की और एक घृत की, एक शहद की, एक खांड़ की देकर पीसकर रक्खें । यह ऊपर का उत्तम पौष्टिक अभूक तैयार होता है। ७-वट दुग्ध, स्नुही दुग्ध, अर्क दुग्ध, नागर मोथा, मनुष्य मूत्र, वटांकुर, बकरे का रन, इन सब वस्तुओं की भस्म से १५-१५ भावना दें तो उत्तम अरुण वर्ण की भस्म बनती है। ८-धान्याभूक में आधा भाग गंधक एवं प्राधा भाग सज्जी का देकर कुकरौंधे के रस में १० - सहस्र पुटी अभ्रक क्रिया सर्व प्रथम वज्राभ्रक खरल में डालकर कूटे। पीछे उसको अग्नि में तकर गोदुग्ध में वुझाएँ लोह पात्र में घृत डाल उसमें इस अभूक को डाल मन्दाग्नि से पचाएँ, तदनन्तर धान से प्राधा अभूक ले दोनों को कम्बल या गाड़ा या गजी की थैली में रख भिगोदें। फिर एक बड़े पात्र ( कठौती, परात आदि) में उस अभूक को डाल थैली को खूब मसले, दो पहर बाद जव सम्पूर्ण अभूक निकल कर पानी में श्र.जाय तब पानी को नितार अभूक को निकाल लें। इस प्रकार करने से अभूक की शुद्धि एवं धान्याभूक होता ___ सहस्र पुट देने के लिए ६० वनस्पतियों का उल्लेख है जिनमें से प्रत्येक की १७-१७ भावना देने पर सहस्र पुटी भस्म तैयार होती है। श्रोष. धियाँ निम्न है प्राक दुग्ध; वट दुग्ध, थूहर का दूध, घीकुवार का रस, अण्डी की जड़ का रस, कुटकी, मोथा, जिलोय, भाँग, गोखरू, कटेरी: शालपर्णी. पृश्निपणी, सफेद सरसों. खरमंजरी. वडकी जटा. बकरेका रुधिर, बेल, अरणी, चित्रक, तेंदू, हरड़, पाढल की जड़,, गोमूत्र, श्रामला, बहेड़ा, जलकुम्भी, तालीसपत्र, मुसली, अडसा, असगन्ध, अगस्तिया का रस, भाँगरा, केले का रस, सप्तपर्ण, धतूरा, लोध, देवदारु, तुलसी, दोनों दूब, (श्वेत बा हरित दूर्वा ) कसौंदी, मरिच, अनार, दाना का रस, काकमाची ( मकोय ), शंखपुष्पी, बालछड़, पान का रस, सोठ, मण्डूकपणी, ( ब्राह्मी '), इन्द्रायण, भारंगी, देवदाली, कैथ, शिवलिंगी, कटुवल्ली, ढाक का रस, For Private and Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् ४५४ अभ्रकम् तोरई, मूषकवर्णी, जवासा, मछेछी, कलोंजी, और तेलपर्णी । कोई कोई ये श्रोषधि विशेष कहते हैं-पंचांगुल का रस, टुटक, गुड़, सुहागा, मालती, सप्तपर्णी (सतवन ), नागवला, अतिवला, महावला, सतावर, कौंच की जड़ का रस, गाजर ( गर्जर ), प्याज, लहसुन, उटंगण, अगर बेल, हिल मोचिका, दुद्धी, पाताल गरुड़ी, जटामांसी, दूध, दही, घृत, शहत, खाड़, धाय और पालंकिका। अभक को खरल में डालकर उपयुक्त प्रोप. धियो के रस में घोटें । जब सूख जाय तय भरने उपलों की आग में फैंक दे। फिर भाग में से निकाल कर घांटे' और श्रग्नि दें। इस प्रकार प्रत्येक ग्रोषधि के १६-१६ पुट देनी चाहिए। जो प्रोपधि रस योग्य हो उसका रस डालें और क्वाथ योग्य के क्वाथ की पुट दें। यह अभूक भस्म निश्चन्द्र (चमक रहित ) लाल होगा। गुण--यह अमत के समान दिव्य रसायन है और अनेक अनुपानों के संयोग से देह को अजर अमर करता है। अतएव मनुष्य को इस श्रेष्ठ भस्म का सेवन करना चाहिए । सेवन करने वाले को हजारों गुण करे यह समस्त रोगों का शत्रु प्रसिद्ध है। नोट-(१) अभूक भस्म के रंग के लाल • करने की विधि-नागवला, नागरमोथा, वट दुग्ध, हल्दी का पानी, मजीठका पानी इन समस्त का या एक एक का या केवल वटजटा प्ररोह के काढ़े की भावना दें तो गजपुट देनेसे रक्तवण की. भस्म होगी। अभ्रक में पुट देने के गुण-- अठारह पुट का अभक वातनाशक, छत्तीस का पित्तनाशक और ५४ का कफ, प्रमेह और सूजन का नाश करता है तथा अम्ल पिच और ग्रामवातादि हस्ति रूप रोगों को मारने के लिए सिंह रूप है। सौ पुट के उपरांत अभूक बीज संज्ञा को प्राप्त होता है। सबीज अभूक वीर्य, पराक्रम तथा कांति का कारण है और देह को धारण करता है । यह चीर स्वामी फा मत है। उक्त भस्मों के रसायनिक रूपसभी श्याम अभक अग्नि संयोग में पाने पर ऊप्मिद होते रहते हैं । अग्नि देने पर कांति, लोह श्रीर स्फटिकम् धातुएँ अधिमद होती हैं । उदपांश. वत का यौगिक भी टकर ऊप्मेत हो जाता है और जैसे जैसे उप्मेत बनता जाता है वैसे वैसे अभूक का वर्ण लाल होता चला जाता है। यदि इसके उक्त यौगिक में अंतर न आए तो अभूक का वर्ण लाल नहीं होता कई बार शैलिका का यौगिक टूट जाता है और इसका ऊष्मजन कम हो जाता है और आम जन का स्थान कज ले लेता है और ऊन्मजन का स्थान कजल ले लेता है। उस अवस्था में अभक का वर्ण श्यामतायुक अरुण हो जाता है । जव शैल कजालेत बन जाय तो इस योगिक का विच्छेद नहीं होता । अन्त तक अभूक उसी बण में बना रहता है। कभी कभी उदपांश वेत ऊप्म जन का संयोग पाकर पांशुजम का यौगिक तीक्ष्ण क्षार में भी परिणत हो जाता है । यह रूप कासम रस में भस्म बनाने पर ही देखा जाता है और अर्क दुग्धादि में बनाने पर पांशुज तीक्ष्ण क्षार नहीं बनता अभक के उक्र लोहकांत स्फटिकादि के उम्मिद कई रोगों में अत्यन्त लाभ करते हैं। और जब ज्वर किसी शारीरिक अंग की विकृति शोथ के कारण स्थिर रूप से बढ़ा रहता हो उस अवस्था में यह अभूक अान्तरिक विकृत को दूर करने में शरीर की बड़ी सहायता करता है । (श्रा०वि० भा०१सं०७। _श्वेत अभक का सलायह १-हिना सुख बारह तो० को रात्रि को पानी में तर करें। प्रातः उसका जुलाल लेकर ६ तो० धान्यकाभूक को उस पानी के साथ यहां तक खरल करें कि उसकी चमक जाती रहे । फिर छोटी इलायचीका दाना, वशलोचन, मूसली. श्वेत प्रत्येक ३ तो० एक एक कर सम्मिलित करके खरल करते जाएँ । पुनः सम्पूर्ण श्रोषधि को चार पहर तक खूब घोटकर रल दें। मात्रा-१ मा० । गुण-उष्ण यकृद, निर्ब For Private and Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभ्रकम् www.kobatirth.org ४५५ प्रमेह ( शुक्र ), और पूयमेह ( सुजाक गुणकारी और परीक्षित है । लता, के लिए असी ( सुदरिग्रह || २ - नौसादर १ तो०, फिटकरी १॥ तां०, अभ्रक २॥ तो०, नौसादर और फिटकरी को १ छ० पानी में घोलकर इसमें अभूक के बारीक पत्र को तर करें और रख दें | १ घंटा बाद उसे डंडे से कूँड़े में यहाँ तक रगड़ें कि दूधकी तरह सफेद हो जाए फिर उसमें बहुत सा पानी डाल दें । जब भूक तलस्थायी हो जाए तब पानी को निकाल दें | और ताजा पानी डालें, इसी तरह बारंबार करें जिससे जल में नौसादर श्रादि का स्वाद न रहे । फिर सुखाकर रख दें । गुण - उष्ण प्रधान ज्वर यथा पैत्तिक व त्रिक में १ मा शर्बत अनार के साथ दिन में तीन बार खिलाएँ । बालक को २ रत्ती से ४ रत्ती तक दे | अनेकों बार का परीक्षित और सदा से प्रयोग में आ रहा है । (रफोक ) । . ६ - भूक को कर्त्तरी से कतर कर रात्रि में अम्ल दधि में तर करें | प्रातः काल जल में धोकर काकजंघा बूटी के स्वरस में एक प्रहर खरल करें। धूल की तर हो जायगा । गुण-मूत्र प्रणाली के रोग, सूजाक, रक्त प्रमेह, रक्त निळीवन, नासारक स्राव, पुरातन कास, श्वास कष्ट, कुकुर खांसी, विविध उष्ण प्रधान ज्वर, शोथ, जलोदर, यकृत्प्रदाह, प्लीह शोथ, शुक्र प्रमेह और सैलान के लिए अनेकों बार का परीचित | मात्रा व सेवन विधि- १ रती से २ रत्ती तक मक्खनमलाई या पान के पत्र वा कोई अन्य उपयुक्त औषध के साथ सेवन करें ( म. रूज़न ) श्वेत अभ्रक भस्म विधि १ - श्वेताभू का चूर्ण करके प्रभुक के बराबर शोरा और गुड़ मिलाकर खूब करें और कूट कूट कर टिकिया बना सम्पुट में रख कर गजपुट की अग्नि दें। एक पुट में श्रभूक की श्वेत भरा बन जाती है। यदि एक बार में कुछ कसर रह जाय तो इसी तरह दूसरी बार करने पर अच्छी भस्म बन जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् नोट- श्वेत अभ्रक में न तो लोह होता है न कांत । पांशुजम् स्फटिकम् और शैलिका के यौगिक होते हैं इसको जब शोरे के साथ फूँका जाता है तब पांशुजम् धातु कज्जलो मेत् नामक यौगिक में और स्फटिकम् ऊम्मेत् में भिन्न तथा शैलिका कज्जलोष्मेत् से मिल जाते हैं । यह भस्म इतनी उपयोगी नहीं । यह बहुत कम लाभ करती हैं । मृत भस्म की परीक्षा अभ्रक की भस्म जब चमक रहित अर्थात् निश्चन्द्र तथा काजल के समान श्रत्यन्त बारीक हो तब उसकी ठीक भस्म हुई जाननी चाहिए अन्यथा नहीं । निश्चन्द्र भस्म को ही काम में लाना चाहिए क्यों कि यदि चमकदार हो तो यह विष के समान प्राण का हरण करने वाला और अनेक रोगों का कर्ता है। कहा भी है मृतं निश्चन्द्रतां यातं मरणं चामृतोपमम् । सछद्रं विषवद शेयं मृत्युद्वहु रोगकृत् ॥ मृतीकरण त्रिफला का काढ़ा १६ पल, गोघृत म पल, मृत अभ्रक १० पल इनको एकत्र कर लोहे की कढ़ाई में मन्दाग्नि से पचाएँ । जब जल और घी जल जाएँ केवल अभ्रक मात्र शेष रह जाए तब उतार शीतल कर रख छोड़े और योगों में बरतें। कोई कोई श्राचार्य केवल घृत में ही श्रमृतीकरण करना लिखते हैं। यथा तुल्यबृतं मृताभ्रेण लोहपात्रे विपाचयेत् । घृतं जीर्णं ततश्चूर्णं सर्व कार्येषु योजयेत् ॥ अर्थ- - श्रभ्रक की भस्म समान गोघृत लेकर लोह को कढ़ाई में चढ़ा उसमें अभ्रकको पचाएँ । जब घृत जलकर प्रत्रक मात्र रह जाए तब उतार कर सब कार्यों में योजित करें । अभ्रक के गुणधर्म तथा प्रयोग क की भस्म विभिन्न विधियों द्वारा प्रस्तुत कर अथवा उचित अनुपान भेदसे प्रायः सभी प्रकार की सर्द व गर्म बीमारियों में व्यवहृत होती है । उक्त अवसर पर यह प्रश्न उठाना व्यर्थ हो नहीं, प्रत्युत अपनी अज्ञानता का सूचक है, कि विभिन्न For Private and Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभ्रकम् www.kobatirth.org अनुपान जिनके साथ ऐसी भस्में प्रयोग में लाई जाती हैं, यदि उनसे कोई लाभ होता हो तो वह उसी अनुपान का प्रभाव होता है । भस्म नाममात्र को प्रभावकारी मानी जाती है । परन्तु अनुभव इस बात का विश्वास दिलाता हैं कि उस अवस्था में जब भस्म संग में न हो तब अनुपान की इतनी अल्प मात्रा का शरीर पर किसी प्रकार का प्रगट प्रभाव नहीं होता । श्रस्तु यह भस्म का ही गुण है कि इतनी अल्प श्रौषध का प्रभाव सम्पूर्ण शरीर में पहुँचा देता है । गोया किसी वस्तु की शुद्ध भस्म एक ऐसी रसा I न है जो मुख में डालते ही सम्पूर्ण शरीर के नस व नाड़ियों में व्याप्त हो जाता है और अपने स्वाभाविक एवं मौलिक गुणधर्म के प्रतिरिक्त जो उसमें अन्तर्निहित हैं प्रत्येक उस श्रौषध के प्रभाव को जिसमें वह भस्म किया गया है या जो अनुपान रूपसे प्रयोग की जा रही है, सम्पूर्ण शरीरमें विशेष कर रोगस्थलपर अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक एवं स्थायी रूप से पहुँचा देता है । जो दवा सेरों खाने से तब कहीं जाकर शरीर में अपना प्रभाव प्रगट करती वह एक दो मा० की मात्रा में भस्म के संग योजित करने से तत्क्षण सेरभर औषध के प्रभाव से भी अधिक प्रभाव प्रगट करती है । पुन: चाहे वह प्रभाव उक्त औषध का ही क्यों न हो, पर श्रौषध की इतनी अल्प मात्रा और प्रभाव की उस तात्कालिक शक्ति को देखकर प्रत्येक न्यायग्राही व्यक्ति यह निर्णय कर सकता है कि यह प्रभाव भस्म का ही है। क्योंकि यदि उक्त प्रभाव उस श्रौषध का होता तो भस्म की अनुपस्थिति में भी इतनी अल्प मात्रा में प्रगट होता । परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं । श्रतः यह सिद्ध हो गया कि उपर्युक्त सम्पूर्ण चमत्कार उक्त भस्म के ही हैं जो उक्त औषध के साथ सम्मिलित होकर उसके प्रभाव को सौगुना कर दिया | फलतः अभूक की भस्म को उपर्युक्त अनुपान द्वारा प्रत्येक सर्द व गर्म वा परस्पर विरुद्ध (द्वंद carधियों) में तद्वत् सफलता पूर्वक वरता जासकता है । केवल योग्य एवं व्यवहार कुशल होने की 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् श्रावश्यकता है । इसके विपरीत बहुत सी अन्य भस्मों की तरह इसके द्वारा किसी प्रकार विषैले प्रभाव प्रगट होने की आशंका नहीं श्रतएव हर एक व्यक्ति में प्रत्येक ऋतु, अवस्था एवं रोग के लिए इसका निर्भय एवं निरापद उपयोग किया सकता है। आयुर्वेद के मत से अभूक भारी, शीतल, बल्य है तथा कुछ, प्रमेह और त्रिदोष नाशक है। मद० व० ४ ॥ रसायन, स्निग्ध है । और बल वर्ण एवं अग्नि वर्धक है । राज० । कषेला, मधुर, शीतल, श्रायुकर्त्ता और श्रीयु बद्र्धक है। प्रयोग - यह त्रिदोष, व्रण, प्रमेह, कोद, प्लीहोदर, गाँउ, विषविकार और कृमि रोग को दूर करता है । मृत अभ्रक गुण अभूक की भस्म रोगों को नष्ट करती, देह को दृढ़ करती, वीर्य बढ़ाती, तरुणावस्था प्राप्त कराती और शत स्त्री संभोग की शक्ति प्रदान करती है । दीर्घायु और सिंह के समान पराक्रमी पुत्रों को पैदा करती है । निरन्तर मृताभूक का सेवन मृत्यु के भय को भी दूर करता है । श्री पार्वती जी का तेज अर्थात् अभूक अत्यंत अमृत है, वात, पित्त और क्षय का नाश करता है । बुद्धि को बढ़ाता, बुढ़ापे को दूर करता, वृष्य ( वीर्य कर्त्ता ) है । श्रायु को बढ़ाता बल कर्त्ता एवं चिकना है । रुचिकर्त्ता, कफनाशक, दीपन और शीत वीर्य है । पृथक् पृथक् योगों के साथ सकल रोगों को दूर करता और पारद को बाँधता है। आयुष्य का स्तम्भन करता, मृत्यु तथा बुढ़ापे को दूर करता, वल तथा श्रारोग्य प्रदान करता और महाकुष्ठ को दूर करता है । मृत अभ्रक को सब रोगों में बर्तना चाहिए, क्योंकि इसमें सदैव पारे के समान गुण हैं। देह की दृढ़ता के लिए इसको ३ रत्ती की मात्रा में खाना चाहिए । इसके सिवाय बुढ़ापे और मृत्यु का हर्ता दूसरी दवा नहीं है । For Private and Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् ४५७ अभ्रकम् मृताभूक कामदेव और बल को बढ़ाता है, विष, वादी, श्वास, भगंदर, प्रमेह, भूम, पित्त, कफ. खाँसी और क्षय आदि रोगों में अनुपान के साथ इसका सेवन करें। औषष-निर्माण-अभूक, कल्क, अभवटिका, ज्वराशनि रसः, ज्वरारि ( अभूम ), अग्नि कुमार रस, कन्दर्पकुमाराम, लक्ष्मीविलास रस, महालक्ष्मी विलास रस, हरिशंकर रस, अर्जुना, शृङ्गाराम, बृहत् चन्द्रामृत रस, ज्वराशनिलौह, महा श्वासारिलौह, बृहत्कञ्चनाभ, मन्मथाभ रस और गलित गुष्ठारि रस इत्यादि। प्रकृति-२ कक्षा में शीतल और ३ कक्षा में | रूक्ष । हानिकर्ता--प्लीहा व वृक्क को । दर्पनाशक कतीरा, शुद्ध मधु, रोग़न और करफ्स के बीज, प्रतिनिधि-तीन कीमूलिया समान भाग या कुछ कम । मुख्य गुण-साांगिक रकस्थापक जिससे सिलिसिक एसिड और एल्युमिनियम क्लोराइड बनजाता है, और जिसमें से अन्तिम अर्थात् एल्यूमिनियम कोराइड का प्रामाशयिक श्लेमिक कला पर ठीक विस्मथ की तरह श्राबरक व रक्षक प्रभाव होता हैं। इस बात की परीक्षा करना भी अत्यंत उचित होगी कि आया औषध योजित अभ का प्रभाव भी जो कि एक सिलिकेट ही है अमाशय पर उसी प्रकार होता है। क्यों कि यह सदैव अम्लाजीर्ण और प्रामाशयिक क्षत में लाभ प्रद पाया गया है । उदाहरणतः विद्याधराभू (Jour; Ayur; july I924.) मांसपेशी यकृत, प्लीहा, लसीका, और सेल प्राभ्यन्तरिक रसों में तथा विभिन्न शारीरिक मलों यथा मूत्र विष्टा और श्वेद में भी सिलिसिलिक एसिड विभिन्न प्रतिशतों ( ८१ प्रतिशत से कुछ चिन्ह तक) में पाया जाता है। आयुर्वेद में मृताभू परिवर्ततक और साबोगिक वल्य कहा गया है। साधारणतः राह धातु सेलों की संवर्तक क्रियायों का उत्तेजक भी कहा गया है यह कामोद्दीपक रूप से भी प्रयोग किया जाता है। यह त्रिदोषघ्न और उनकी साम्यस्तिथि का स्थापक ख़याल किया जाता है। धान्याम वल्य और कामोद्दीपक माना जाता है । अमूक के योग सामान्यतः स्तंमक वल्य, कामोद्दीपक और परिवर्तक होते हैं। अमूकल्क, परिवर्तक, और स्वास्थ्य पुनरावर्तक यूनानी ग्रंथकार-इसको भस्म को सम्पूर्ण शीत जन्य मस्तिष्क रोगों. वात नैर्वल्य. उत्तमांगों को निर्बलता, कामावसान, श्वास कष्ट, कास, रक निष्ठीवन, रक्रपित्त, अधिक रज (प्रदर ) व तजन्य निर्बलता, शुक्रमेह तथा पूयमेह भेद, मूत्र प्रणालीय विकार, समग्र प्रकार के ज्वरों एवं राजयरमा व उरःक्षत में लाभदायक मानते हैं । प्रत्येक अन्तः व्रण का रोपणका; कामशक्रि बद्धक, शुक्र को सांदकर्ता है। इसकी भस्म उपयुक अनुपान के साथ हर एक रोग के लिए लाभदायक है। इसका प्रयोग शारीरिक निर्बलता और याप्य रोगी में विशेष रूप से होता है । मि० ख०। नव्यमतानुसार अभकके प्रभाव-यह किसी तरह कीटन ( संक्रमण हर माना जाता है। रोजेनहेम ( Rosenheim) और एरमन Ehrmann (Deut. Med. woch, 20. Jan. 1910 ) के मतानुसार, एलुमिनम् सिलिकेट जब इसका मुख द्वारा प्रयोग होता है, तब प्रामाशयिक रसमें लवणाम्ल की प्राधिक्यता के सहयोग से उसमें प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, ५० उपयोग-अमूक की मस्म रक्ताल्पता, कामला पुरातन अतिसार, प्रवाहिका,स्नायविक,दुर्बलता, जीर्णज्वर, प्लीह विवद्धन,नपुसकता, रनपित्त और मूत्र सम्बंधी रोगों में लाभप्रद है। इसके अति. रिक इसे शहद और पिप्पली के साथ देने से श्वास, अजीर्ण, (Hecticfe fever) यच्मा, व्रण, ( Cachexia) आदि को नष्ट करता है संकोचक रूप से इसे वातातिसार में अधिक तर दिया जाता है। परिवर्तक रूप से इसे ग्रंथि विवर्धन में उपयोग किया जाता है । साधारणतः हसे २-६ ग्रेन की मात्रा में शहद के साथ दिन में दो बार वर्ता जाता है । थाइसिस ( यक्ष्मा) For Private and Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकल्प ४५ अभ्रकहरीतकी में प्रतिदिन दो बार २-३ ग्रेन तक शहद या पाँचो खाँसी, हृदय शूल, संग्रहणी, अर्श, प्रामताजे वासक स्वरस के साथ देने से लाभ होता है वात, सूजन, भयंकर पांडु, वात, पित्त कफ से इं० मे० मे० - पैदा हुए मत्य तुल्य महा वात व्याधि, अठारह अभ्र-कल्पः abhra-kalpah--सं. क्ली० अभ्र कुष्ठ इन्हें उचित पत्थ्य से यह अमक कल्प नष्ट की निश्चन्द्र भस्म, श्रामला, त्रिकुटा, विडंग करता है ।बङ्ग० सेन० स०रसायनाधिकारे। प्रत्येक समान भाग लेकर भागरे के रस अथवा अभ्रक गटको abhraka-gutika-सं० स्त्री० जल से दो पहर तक खरल में बारीक घोट, शुद्ध पारद, शु० गंधक, शु० विष, त्रिकुटा, भूना गोलियां बना फिर साया में सुखा लेवें । मात्रा- सुहागा, कान्तिसार भस्म, अजमोद, अहि फेन, १ मा० । गुण-इसकी १ गोली १ वर्ष तक तुल्य भाग, अभ्रक भस्म सर्व तुल्य लेवे और रोजाना खावें, दूसरे वर्ष २ गोलियां रोजाना, चित्रक के हाथ में एक दिन खरल कर मिर्च इसी तरह तीसरे वर्ष ३ गोलियां रोजाना ले, प्रमाण गोलियां बनावे, इसके एक मास पर्यन्त इस प्रकार तीन वर्ष पूरे होने पर यह अम्रक का सेवन करने से संग्रहणी दर होती है। अमृ० प्रयोग पूरा हो जाता है। इस योग से ३ वर्ष में सा० । संग्र. चि०। जो मनुष्य ४०० तो० अभ्रक खा जाता है वह | | अम्रक सन्धानम् abhraka-sandhānam वज्रवत दृढ़ शरीर वाला होजाता है । इसके तीन -सं० क्ली० उत्तम शुद्ध अभ्रक लेकर मेढकपर्णी, ही महीने के प्रयोग से रक्रविकार, क्षय, असाध्य वरुण त्वक, अदरख, दरडोत्पल (डानिकुनिशाक दमा, ५ प्रकार की खांसी, हृदयशूल, संग्रहणी, -बं०) मिश्री, अपामार्ग, वच,भांगरा, अजवाइन, बवासीर, प्रामवात, शोथ, भयानक पांडु, वात, चौलाई, गिलोय, सूरण, पुनर्नवा, इनके रस से पित्त, कफ के रोग, और १८ प्रकार के कुष्ट दूर पृथक पृथक भावना दें। पुनः तीचण धूप में हो जाते हैं। रस० यो० सा०। रस० या० सा०1 शुष्क करें', पुनः इसमें गिलोय सत्व ४ तो०, अभ्रक कल्प abhraka-kalpa सं० पु. पीपल ४ तो०, और शुद्ध पारद, त्रिफला, जो अत्यन्त काला तथा अत्यन्त चिकना, सोंठ, मिर्च, पीपल, अभ्रक तुल्य लेकर पारद काले सुरमे के तुल्य, वज्राभ्र पत्थल आदि की मूर्छा शहद, घृत से कर पुनः त्रिफला, दोषों से रहित शुद्ध हो ऐसे अभ्रक को त्रिकुटा के चूर्ण से मर्दन कर उत्तम चिकने पात्र लेकर बुद्धिमान वैद्य एक दृढ़ मिट्टी के पात्र में रख में मुंह बन्द कर रक्खें। मात्रा--१ रत्ती । चार या पांच दिन तक कड़ा पुट देवे, इसी तरह गुण--इसे एक रत्ती वृद्धि क्रम से भोजन के चौलाई के रस से पीस पीस कर पांच पुट पुनः आदि, मध्य, और अन्त में जल तथा खट्टे रस देवें । इसी तरह पूर्वोक्त क्रम से श्रामला, सोंड, से ले, और शुद्ध घृत, दधि, दूध, मांस, मद्य, मिर्च, पीपल, और वायविडंग के योग से पीस शाक और प्राचीन अन्न का सेवन करें तो अम्ल पीस चन्द्रिका रहित करें। पुनः जब चन्द्रिका पित्त, संग्रहणी, पार्श,कामलाको दरक और अग्नि रहित हो जावे तो अंगूठा के अग्र भाग से पीड़ित । की वृद्धि करता है। भेष०र० संग्र० चि० । कर गोलियाँ बनाय साया में शुष्क कर रक्खें। अभ्रक हरीतकी abhi aka-hritaki-सं-स्त्री. इसमें से एक एक गोली निरन्तर वर्ष पर्यन्त अम्रक भस्म ८० तो०, शद्ध गंधक २० तो०, खावें । दूसरे वर्ष में दो गोली निरन्तर खावे, स्वर्णमाक्षिक भस्म २४० तो०, हरीतकी ४०० इसी तरह एक एक गोली बढ़ाकर ४०० तोले तो०, आमला ८०० तो० इन सबों का चूर्ण कर अभ्रक सेवन करें तो शरीर बलवान हो और एक दिन जमीरी नीबू के रस की भावना देखें, वज्रतुल्य दृढ़ हो इसमें संशय नहीं है। इसके । पश्चात् मांगरा, सोंठ, छिरहटा, सिलावों, चित्रक तीन महीने के सेवन से रक्त रोग, क्षय, भयङ्कर | कुरण्टक, हाथी शुण्डी, कलिहारी, दुद्धी, जल For Private and Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धमकादि-वटी ४५६ अभूवटिका कुम्भी, इन प्रत्येक के रस में १-१ दिन खरल गुण-आमवात, अडीला और गुल्म को नष्ट ककरें । तदनन्तर चीनी श्रादि के उत्तम पात्र में रता है । रस० यो० सा०। रक्त्रं । गुण--उचित मात्रा में प्रयोग करने से अभपुष्पः abhra-pushpah-सं० पु., (.) त्रिदोषजन्य अर्श दूर होता है। वृ० रस. रा० | वेतसलता, वेत, वेतस । केन Cane-६०। सु० अश चि०। केलेमस् Calamus-ले० । भा० पू०१ भ० अनकादि वटो abhrakādi-vati-सं० स्त्रो० गु०व०। (२) वारिवेतस, जलवेत । श्रम । पारा, गंधक, विष, त्रिकुटा, सुहागा, लोहमस्म, | क्लो०, (३) जल ( Water )। अजमोद, अफीम प्रत्येक समान भाग, अभ्रक अभमांसी abhra-mansi-सं० स्त्रो०, आकाश भस्म सर्वतुल्य । इन्हें चित्रक के क्वाथ में एक मांसीलता । सूक्ष्म जटामांसी-बं० । रा०नि० - पहर तक खरल करके मिर्च प्रमाण गोलियां See-Akashamánsí. बनाएँ । प्रति दिन १ गोली खाने से ४ अभरोहः abhr-rohah-सं० क्लो०, वैदूर्व्यमणि प्रकार की संग्रहणी का नाश होता है See-Vaidúryya-maņih. To fão नि०र०, भा०४संचि०। व० १३ । अभ्रगुग्गुलुः aabhra-gugguluh-सं० ० | अभ वटिका abhraivatika-सं. स्त्री० शुद्ध अम्रक भस्म ४ तो०, त्रिफला ४ तो०, गुग्गुल पारद १० मा०, शु० गन्धक १० मा० की कजली, शुद्ध ४ तो०, गुड़ ४२ तो० सब को मिलाकर अभ्रक भस्म १० मा०, मिर्च चर्ण १० मा०, सु. भोजन के प्रथम खाने से परिणाम शूल तथा हर हागा भस्म ५ मा० लेकर काला भांगरा, सफेद भांगरा, निगण्डी, चित्रक गृष्मवल्ली, अरणी, प्रकार के शूल दूर होते हैं । मण्डूक पर्णी, कुड़ा, विष्णुक्रान्ता प्रत्येक का रस अभङकुशः abhrankushah-सं० पु०, (१) १०-१० मासे लेकर पृथक् पृथक् मदन कर च. वायु ( Air ) । ( २ ) पाणि, हाथ णक प्रमाण गोलियां बनाएँ। ( hand.)। गुण-इसे उचित अनुपान उचित अवस्था के अभूनामकः abhra-nāmakah-सं० पु०, अनुसार सेवन करने से काँस, श्वास, सय, बाते, मुस्ता, नागरमोथा ( Cyperus rotun. कफः शूल, ज्वर अतिसार को दूर करती है तथा . dus.) श० र०। वशीकरण होते हुए बल, वर्ण और अग्नि की अभूपटलः abhrapatalah-सं. क्ली. पु०, वृद्धि करती है । भैष०र० ग्रहणी चि०।। अभक (Talc) वै०निघ०।। अभ वटिका abhra-vatika-सं० स्त्री० शुरु ती abhyaparpati-सं० स्त्री० अभ्रक पारद, गन्धक, और अभ्रक भस्म १-१ ब्रो० ले. भस्म, ताम्रभस्म, गन्धक प्रत्येक समभाग लेकर कर कजली बनावे, त्रिकुटा चूर्ण, काला भांगरा, पर्पटी बनावें। मात्रा-२ रत्ती । गुण-इसे मुली भांगरा सम्भाल, चित्रक ग्रीष्मसुन्दर, जैत, अथवा पञ्चकोल के क्वाथ के साथ उपयोग करने ब्रह्मी, भङ्ग, और श्वेत अपराजिता, पान के से जिह्वागत प्रत्येक व्याधियां दूर होती हैं। परो इनके रस प्रत्येक कजली के बराबर और पारे अभूभानुः abbrabhānuh-सं० पु. कमीला के बराबर काली मिर्च का चण और पारे से हरड़, विड़ लवण, सहिजन के बीज, अमलबेत, प्राधा सुहागा डालकर खरल में घोटें, फिर मटर जवाखार, प्रियंगु, अथवा निसोथ, बच, सलई, प्रमाण की गोलियां बनाएँ। विडंग और अजवायन इन्हें समान भाग लेकर गुण-रोगानुसार उचित अनुपान के योग से चूर्ण बनावे' । उसमें २ तो० अभ्रक, ताम्बा, और देने से खाँसी, श्वास, षय और वात कफ के रोग स्वर्ण की भस्म मिलावे । मात्रा-१-२ रत्ती। दूर होते हैं । ग्म यो सा। For Private and Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभू-वटी अभाहम् अभूवटी abhra-vati-सं० स्त्री०, अभूक भस्म दाख, गूलर, प्राक, खस, सुगन्धवाला, कूठ, लाल को २१ बार भांगरे के रस से भावित करें, फिर रुहेड़ा, चम्पा, मकोय, गोखुरू, गुलाब, अनार, गन्धक, पारद और लौहभस्म पृथक् पृथक् श्रभक केवाँच, श्रामला, पुनर्नवा, ब्राह्मी, चित्रक, गोरखके बराबर और सोना अभ्रक से आधा मिलाकर मुण्डी, सिरस और गिलोय इनके रसों से पृथक् त्रिफलाके काय में डालकर अच्छी तरह घोटें पुनः पृथक् भावना देकर पुट दें तो यह अनसिन्दूर १ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । इसके सेवन सभी रोगों को नष्ट करता है जैसे सूर्योदय अन्धकरने से औपसर्गिक मेह (सूज़ार) दूर होता है। कार को । रस० यो० सा०। अभबद्ध गुटिका abhrabaddha-gutika प्रभप्लुन्दरोरसः abhrasundrorasah-सं० -सं० स्त्री० नीलकण्ठ पक्षी ( चाषमास गृद्ध पु. यवक्षार, सोहागा, सज्जी, काला अप्रक, विशेष ), बैल, उल्ल, खंजन और चमगीदड़ के गन्धक, ताम्बा, और पारा समान भाग लेकर हृदय और दोनों आँखों को निकाल कर और शु. मिलावें, फिर हस्तिशुण्डी और अम्लोनिया के पारी तथा अग्रक सत्व प्रत्येक १-१ तोला मिला. रस से एक एक दिन उसमें भावना दें। फिर कर बारीक घोटकर २ तो० को गोली बनाकर गोला बनाकर लघु पुट से पकावे, फिर उसमें त्रिलोह में लपेट कर ( सोना, गंदी, और तांबा नेपाली ताम्र भस्म मिलावे यदि किसी दूसरे प्र. इनके लपेटने की विधि यह है कि पहिले सोना कार का ताम्बा मिलाया जायगा तो कुछ भी गुण प्राऽ भाग फिर चांदी १२ भाग और सबके ऊपर न होगा | उचित अनुपान के साथ सभी रोगों १६ भाग तांबेके पत्र को लपेट दें अथवा सबके कोदूर करता है । संग्रहणी, खांसी और मन्दाग्नि ऊपर कहे प्रमाण में लेकर गलाकर पत्र बनाएँ और में कांजी के साथ देना चाहिए। वातरोग, शूल, ऊपर से लपेटें ) गले में बांधने से अदृश्य हो पार्श्वशूल और परिणाम शूल में श्रदरख के रस कर मनुष्य १ दिन में ४०० कोस जा सकता है । से देना चाहिए । अम्लपित्त तथा सभी प्रकार के रस० यो० सा०। पित्त रोगों को यह धारोष्ण दृध के साथ देने से नष्ट करता है। प्रभूबद्ध रस: abhra-baddharasah -सं०। . पुं० देखो-रसयोगसागर । अभातरः abhrātarah-सं. वि. जिसके कोई भाई न हो। अभूवाटक: abhra-vātakah-सं० पु. भाम्रा "! अभामलक रसायनम् abhimalakaras. तक वृक्ष- श्चमड़ा, अम्बाड़ा प्रामड़ा गाछ-बं० । aya mam-सं० क्लो०, अभ्रक भस्म, गन्धक Spondias mangifera. । रा०नि० और मूर्छित पारा जो कि मक्खन के माफ्रिक व० १२ । साफ हो इनको बराबर बराबर ले । त्रिफला, अभवाटिक: abhra-vatikah-सं० पु. श्राम्रा त्रिकुटा, बच, विडङ्ग, दोनो जीरे, ढाक के बीज, तक, अम्बाहा, अमड़ा ( Spondias man एलुवा, विधारा, तज, कमल मूल, विडङ्ग, चि. . gifera)-जठा०।। त्रक, सामा, सहिजन, दन्ती, निशोथ और मेंहदी अभसारः abhra-sārah-सं० पु. भीमसेनी क- (वर्ण दूषिका ) इन सब को 1-1 तोला ले .. पूर | वै० निघ. See-Bhimaseni ka- और सबका चूर्ण कर कड़ी चाशनी में डाल rpura. रक्खें । उचित मात्रा से सेवन करने से यह रस अभूसिन्दूरम् abhrasinduram-सं० क्ली. कष्ट साध्य से साध्य वात रक्त को नष्ट करता है अभ्रक का चूर्ण कर, चोरक, हुरहुर, असगन्ध, वं० से. संभाल, रुद्रवन्ती, भांग, शतावरी, अडसा, वला, | प्रभावम् abhrāhvam-सं० क्ली० कुंकुम, अतिवला, सेमल, कुष्माण्ड, नागरमोथा, विदारी- केशर, जाफरान् । Saffron (Crocus कन्द, तुलसी, मैनफल, मिलावा, वनमाटा, कैथ, sativus ) | मद० व०३ । For Private and Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रषः प्रमदरियाम प्रभूषः abhyushah- सं० पु. तालु रोग बि- श्रमणकम् चेडी amanakkam-chedi-ता. शेष । जिसरे तालु में शोणित जन्य स्तब्ध लोहिन एरण्ड, अरंड | Castor oil plant-इं० । वण की सूजन हो और साथ ही वर और तीब्र रिसिन कम्म्यून ( Ricinn commun ) वेदना हो तो उसे 'अधूप' कहते हैं। भा० म० फ्रां० । फा० ई. ३ भा० । ४ भ० मुखरोग चि०। श्रमण्डः amandah-सं०पु० एरण्ड वृक्ष । अरंड प्रमः amah-सं० पु. अम-हिं. संज्ञा पु० (१) ( Castor oil plant ) प. मु. रोग ( Diseasc ) बीमारी । (२) आँव हारा०। (Mucus.)। (३) पक्क फल श्रादि (Ripe ATEIT #Fifa amandier communa fruits etc.)। श. र. । (४) बीमारी -फ्रां. (१) बादाम, वाताद, श्रामण्ड । का कारण। ( Almond ) (२) कडुवा बादाम. तिक अमकीरे गड़े amakire-gadde-कना०, अश्व बादाम, -हिं० । विटर प्रामण्डस ( Bitter गंध--सं०मह०, को०, बं० । पुनीर, अकरी-हिं० almonds ) -इं० Amygdalus communis, Linn.) फॅ० ई०१ भा० हब्बुल काकनज-अ० । काकनज-बम्ब० । Withania cono ले ला प्रमण्डीस-डेस-डैमीस amandes desअमगोस. amaghos- अ. टिड्डी, मलख dames. -फ्रा० । देखो-अमण्डीस सल्टेनीस । (A locust.) अमङ्गलः amangalah-सं० श्रमण्डीस सल्टेनीस amandes sultanes अमङ्गल amargala-हिं० संज्ञा पुं० ) -फ्रा० मीठा बादाम | (Sweet almon. एरण्ड वृत्त, अरण्ड (Castor oil plant) ds) यह दो प्रकार का होता है एक मोटे छिलके रेंड़ का पेड़ श० च०। का और दूसरा पतले छिलके का अर्थात् काग़जी अमचूर amachāra-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० फा०ई० १ भा०। श्राम+चूर ] सुखाऐ हुए कच्चे आम का चूर्ण । मत amata-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (१) श्राम चूर्ण । श्राम की फकिया। खटाई। पिसी | मत का अभाव | असम्मति । (२) रोग । (३) हुई प्रमहर Parrings of the mango | मृत्यु। dried in the sun इं० मे० मे। श्रमती amati-बम्ब० बायविडंग । रोहिण अमज् amaj-० अति उष्ण, अधिक तृषा, गढ़वा० । ( Embclia ribes.) अत्यंत प्यासा होना ( Very hot, | श्रमतीपण्डु amati-pandu-ता० केला, कदली excessive thirst) अमड़ा amara-हिं० पु० [सं० अाम्रात, या (A plantain ) ( Musa sapient ___um) अंबाड़ ] अमारी, आम्रातक, अम्बाड़ा, (Spondias mangifera) एक पेड़ अमत्त amatta-हिं• वि० [सं०] (१) जिसकी पत्तियाँ शरीफे की पत्तियों से छोटी और मद रहित । (२) शांत । सीकों में लगती हैं। इसमें भी प्राम की तरह अमदरियान amdariyana-यु० बकरे के सरश बौर पाता है । और छोटे छोटे खट्टे फल लगते हैं एक वृक्ष है, किन्तु इससे छोटा होता है । इसकी जो चटनी और अचार के काम में आते हैं। लकड़ी से तस्वीह (सुमिरनी, मनियाँ) बनाई अमडाई amadai-40 कालीग्वार, पवना, मोरेड़ जाती है इस कारण इसको शनतुत्तस्बीह तथा -fol Aloes Indica ( The black दमूत्र अयूब भी कहते हैं । साधारणतः यह मिश्र yap of-) और शाम देश में उत्पन्न होता है। For Private and Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ......अमदेस मोटापना अमरकालिका .. अमदेस मोटापना amdes amotapani- . [स्त्री० अमरा, अमरी] (१) लिंगानुशा मो० जंगली मदनमस्त का फूल-हिं०। (Cye- सन नामक प्रसिद्ध कोश के कर्मा श्रमरसिंह as circinalis or C. Inerines ) ( कोषकार ), (२) अमरकोश । (३) -ले० । ई० मे० मे। Amoora Cucullata, Lind Andeअमधिप्राक amdhiaka-बं. जंगली अंगूर, l'souia cucullata, Rox, Amoora, पञ्जीरी-हिं०, द०। Vitis indica-ले । Hooded. ई० है० गा० । (४) मरुद्गणो में से इं० मे० मे०। एक । उनचास पवनों में से एक । (५) पारद, अमधुर amadhura-हिं० वि० [सं०] कटु । पारा । (६) हड़जोड़ का पेड़ । अस्थि संहार | अरुचिकर । (७) देवता । (८) बज्री वृक्ष । सिजू-बं० । अमध्यस्थ धरिमणी amadhyasthadhar (6) स्वर्ण, सोना । mmini-सं० त्रि० मध्यस्थ धर्मवाली नहीं, अमर aamal' अ० मसूढे, दांतों के मध्य का वरन् अमध्यस्थ धर्मवाली अर्थात् अनुदासीन सस । अमुर (ब० ब०)। गम्ज़ (Gums.) ( सुखादिक भोग भोगने वाली ) । अात्मा -इं०। ( पुरुष ) में इसके विपरीत गुण हैं अर्थात् वह | अमरकणा amara.kana-सं० स्त्री गजपिप्पली मध्यस्थ धर्मवाला है यानी वह सुख दुःखादि में (Scindapsus officinalis.)। वै. उदासीन रूप मध्यस्थ की भांति है। सु. शा० निघ० २ भा० पांडुचि० भूनिम्बादि गुटी । १०। अमरकण्टिका amara-kantika-सं० स्त्री० 49147 ama-náfaā-o giff (A her) Tarant ( Asparagus racemosa. ) मेमो०। रा०नि० व०४। अमन् amun-ता० अजवाइन ( Carum | अमरकन्दः amar-kandal-सं० पु० कन्द Copticum.) विशेद (Asort of tuber.) वै० निघ० । श्रमन्त मूल amant-mil-हिं० पु. तरलो, वन ककड़ा-प #iFarfafst th: amara-kalá-nidhiअमन्दः amandah-सं० पु० । वृक्ष, ... rasah सं० पुं० मोती, मूंगा, पारा, गंधक अमन्द amanda-हिं. संज्ञा पुं० पेड़ समान भाग लेकर बिजौरे के रस में घोटकर (Tree.) श० । वि० । . . .. गोला बनावे फिर उस गोले को बारीक कपड़ असम amam-ता अजवाइन ( Carum मिट्टी करके सुखा लेवें, फिर दो शराबों के बीच (Ptychotis ) A jowán. में रखकर अग्नि में पका लेवें। ठण्डा होने पर अमयूलो फरास amyulo-fras-रू० रामतुलसी बारीक चूर्ण कर रख लेवें। मात्रा--३ रत्ती । (Ocimum gratissimum.) उचित अनुपान में सेवन करने से राजयक्ष्मा को नष्ट करता है । र० प्र० सु० राजयक्ष्मणि । अमयूस amyus-यु० . नानखाह, अजवाइन (Carum (Ptychotis) A jowan." 'अमरकली amarkali-हिं. स्त्री० श्रार्डिसिया अमम्रिः amamrih-अविनाशी, न मरने वाला । कोलोरेटा Ardisia Colorata-ले. A., अथर्व० सू०२७ । २६ का० । red flowered-इं। इं० है. गा०।। अमर. amara-हिं० वि० [सं० ] मरण अमरकालिकः amarikalikah-सं. पु. रहित, नित्य चिरस्थायी । जो मरे नहीं । चिर. farat ( Tragia involucrata.) जीवी । हिं० संज्ञा पुं० [सं०] - भैष० वा. व्या० सिंहना० गुग्गुल | For Private and Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमर-काष्टम् अमरकाष्टम् amarakáshtham - सं० क्ली० देवकाष्ठ, देवदारु । ( Pinus Deodara. ) श्रमरकुलुमम् amarakusumam-सं० की० लवंग, लौंग | Cloves ( caryophyllus aromaticus. ) । वे० निघ० क्षयरो० त्रैलोक्य- त्रि० रस । श्रमरख àmarakha - हिं० पु० कमरख | A fruit ( Averrhoa corimbola. ) अमरगटा amaratgatá श्रामला (Phyllanthus Emblica ). अमरगंवका amaragandhaká-सं० स्त्री० अज्ञात । श्रमरग्रोस amergris - इं० श्रंस्वर - अ०, हिं० ब०, मह०, कौ० श्रस्त्र ग्रसीया ambra grsea-ले० ई० मे० मे० । अमरजः amarajah - सं० पु० (२) दुर्गन्ध खैर, गूह बबूल | Acacia Farnesiana, Willd रा० नि० । ( २ ) देवदारु ( Pinus deodara ( ३ ) नदीवर । बै० नि० २ म० संध्यादि ज्व० । श्रमरजेल amarjel-श० प्रज्ञात श्रमरतरुः amara- taruh - सं० पु ं० देवदारु (Pinus deodara ) श्रर्कादिः “किरातामरतरूरसनाः ।" वै० निघ० सा० उ० । अमरद åamarad - करफ्रेस, अजमोदा (carun) roxburghianum ). अमरदारु amardár - सं० पु०ली०, हिं० संज्ञा पु ं० वृक्ष विशेष | देवदारु का पेड़ । तैल देवदारु रा० नि० ० १२ । चि० क्र० क० वल्ली स्त्री० रोग चि० । तैल तेवदारु वृक्ष | मलंगा देवदारु बं० । (Cedrus deodara). अमरद्रु: Amaradruh - सं० पुं० विद् दर वृक्ष, दुर्गन्ध खदिर । गृह बबूल । गुजे बाबूला बं० । ( Acaciafarnesiana, Wauld.) श्रमरन्थ amaranth - इं० चौलाई | देखोअमरेन्थस | अमरपुष्पम् amara-pushpam-सं० प ं० क्ली • पूगफल, सुपारी ( Arece semima ४६३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमर-बल्ली ( २ ) काश तृण, कास ( - सा ) ( Sacch arum_spontaneum ) ( ३ ) आम्र, श्रम ( Maugifera Indica )। (४) केतक, केवड़ा ( Padanus odoratissimus ) मे पपञ्चक । अमरपुष्पकः amara-pushpakal-सं०पुं० देखो-अमरपुष्पक | श्रमरपुष्पक amara-pushpaka-हिं० संज्ञा पुं० काश तृण, काँस का पौधा । काँसा (Saccharum spontaneum ) । प० मु० ( २ ) कास भेद | र० मा० । ( ३ ) तालमखाना | ( ४ ) गोखरू । (५) कल्पवृक्ष । श्रमरपुष्पिका amara-pushpikà अमर पुष्पी amara-pushpi -सं० स्त्री० चोर पुष्पी, शंखिनी । काचकी, चोर खड़िका - बं० । See - shankhini | रमा० । ( २ ) काशतृण, कासा ( Saccharum spontaneum 1. देखोअमरपुष्पक । अमरफलम् amara phalam सं० क्ली० अमृतफल, नाशपाती The pear ( tree Pyrus communis.) अमरबेल amara-beq-हिं० अमरबल्ली amara-balli " अमरवेली amara-beli— " अमरवेल्य amara-belya-गु०, कासवेल, श्राकाश वौरें, श्राकाशवल्ली (cassytha Filiformis, Linn. ) । फो० ई ३ भा० । संज्ञा० पु० ] " स्त्री० । 95 For Private and Personal Use Only "" श्रमर ( ल ) रत्नम् amara ( la ) ratnam सं० क्ली० । त्रिल्लौर । रा०नि० । श्रमरत्न amara tna - हिं० संज्ञा पु० । स्फटिक ( मणी ) फिटकिरी ( Alumen ) । रा० नि० । काच | देखौ – काचः ( Káchah ) 'श्रमरवली amara-valli - हिं० संज्ञा स्त्री • [सं० श्रंवरबली ] अकालबेल । श्राकाशश्वर । श्रमर बौरिया । ( cassythaiei formis, Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरतान अमरा - अमरंतानāamairtan -० जिह्वा उमैर्तान aumairtan मूल में दो छोटी छोटी अस्थियां हैं जिन्होंने ऊर्ध्व कंठ को भीतर की ओर से घेरा है। नोट-कि चुलिकास्थि (Os Hyoid.) . के अतिरिकि कोई और अस्थि नहीं इसीलिए ये उसो अस्थि के दुसरे प्रवद्धन (निकाल) हैं जिनको लघुशृङ्ग व वृहत् शृंग कहते हैं । अमरलगड़ amarala-dda-३० अज्ञात । अमरलता amara-lata-हि. स्त्रो० गुरुच, सोमलता ( Tinospora cordifolia.) अमरलता का बीज amara-lata-ka-bija -हि. पु. गुरुच बीज | Tinospora cor difolia (Seeds of-) अमरबल्लरी amala vallari ) -सं०स्त्री० अमर बलिका ama.la-vallika (अकासबेल अमरवल्ली amara-valli ) आकाशवल्ली (Cuscuta Reflexa.) भा० पू० १भ. गु० ब० मद० व०। अमरस amalasa-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० श्राम+रस ] निचोड़ कर सुखाया हुअा अाम का रस जिसकी मोटी पर्त बन जाती है । अमावट | अमर सर्षपः amara-sarshapah--सं०० देवसर्षप, राई । Sinapis juncea. I वै० निव० । See-Deva-sarshapa. अमरसालह, amra-sālah ) अ० धेनुक प्रमुऊनह amujianah पक्षी, हरकीलह (गृध्र सदृश एक मांसाहारी पक्षी है)। अमरसी amrasi-यु०, प्रास वृक्ष (Myr. tus comuinnis)। हिं० वि० [हिं० अमरस ] श्राम के रसकी तरह पीला | सुनहलायह रंग एक छटांक हलदी और ८ मा० चूना मिलाकर बनता है। अमरसुन्दरः amarasundarah-सं० १० पारद की भस्म, शिंगरफ, शुद्ध हरताल की भस्म और गन्धक इन सबको बराबर लेकर भांगरे के रस से और काकमाची के रससे भावना देकर कुक्कुट पुट में पकाएँ, इसी प्रकार ५ बार करने से यह सिद्ध होता है। उचित मात्रा से उचित अनुपान द्वारा सभी रोगों को नष्ट करता है। र० प्र० स०, र० म० मा० अतिसार ज्वरादौ अमरसुन्दरी amara-sundari-सं० स्त्री० ज्वराधिकारमें वर्णित रस, यथा-त्रिकद, त्रिफला पीपलामूल, अकरकरा, रेणुका, चित्रक, विडंग, चातुर्जात, मोथा, लौहभस्म, पारद, विष तथा गंधक इनको समान भाग लेकर चूर्ण करें। पुनः इससे द्विगुण गुड़ मिलाकर कोल लर्थात् बेरी सदृश गटिका निर्मित कर सवेरे सेवन करें। प्रयोगः । श्वास, खासी अपस्मार, सन्निपात, गुदरोग, वातव्याधि और उन्माद को नष्ट करती है। बृ०नि० २० भा. वा। अमरा amars=हिं. संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) अम्वाड़ा, अाम्रातक | The hog plum (Spondias man-gifera) --सं. स्त्री० (२) दूर्वा, दूब (Cynodon dactylon, Pers. ) । मे. रत्रिक । (३) गुडची, गुरुच, गिलोय ( Tinos. pora cordifolia ) र० मा० । (४) इग्द्रवारुणीलता, इन्द्रायन-हिं० । राखालशशा -ब। ( Citrullus Colocynthis) रा०नि०व०३ । (५) नील दूर्वा, नीली (या हरी) दूब (Cynodon Linearis) (६) गृहकन्या, घीकुवार ( Aloe BATO be bedeis)। रा०नि० ब०५। (७) नीली वृक्ष, नील (Indigofera indica) (८) मेषशृंगी। मेढ़ासिंगी (Gymn. ema. sylves tres (1) बृश्चिकाली, बिछाती ( Fragia involnerata)। रा०नि० व०। (१०) नदीवट, वटवृक्ष ( Ficus bengal ensis ) to fão व०११ । (१) चमड़े की झिल्ली जिसमें गर्भ का बच्चा लिपटा रहता है। आँवल, जरायु । (Uterus )। मे० रत्रिकं । (१२) जेर, जेरी, खेड़ी, ( Placenta) (१३) गर्भ For Private and Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरुत अमराई नाड़ी,फूल । भैष०स्त्री०रो० (१४) नाभिनाल । आसन का पेड़ ( Terminalia Tomनाभि का नाल जो नव-जात बच्चे से लगा रहता entosa. ) । सज । सग । पियासाल है। (१५) सेहुँइ, थूहर । एक पेह जिससे एक प्रकार की चमकीली गोंद (१६) नीली कोयल । बड़ा नील का पेड़ निकलती है। इस गोंद को सुगंधके लिए जलाते (१७) बरियारा । (१८) बरगद की एक छोटी हैं और संथाल लोग इसे खाते भी है। इसकी जंगली जाति । छाल से रंग बनता है। और चमड़ा सिझाया अमराई amarai-हिं० संत्रा स्रो०, [सं० जाता है और जलाने में वर्ता जाता है। इसमें आम्रराजि ] श्राम का बाग़, बगीचा, श्राम की से लाही निकलती है और इसके पतियों पर arzt (A garden of mango trees.) रेशम का कीड़ा पाला जाता है। -पं० पबना, मोरेड़। अमरीके का सुमाक amarike-ka-sumaqa अमरापातन amala-pātana-हिं० खेड़ा गि • द०, सुमाके अमरीकह् ( Cesalpinia राना । ___Coriaria, Wild.) स० फा० इं० । अमरापातन-विधिः-(1) कडुई तुम्बी, अमरूत amarāta-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० अमृत साँपकी काचली, सफेद सरसों, कडुश्रा तेल, (फल)] अमरूद (Psidium Guyava, योनि में इनकी धूनी देने से अमरा (खेड़ी) गिर Linn. ) दी ग्वावा The Guava. ई० । जाती है । जामविही ( मध्यभारत और मध्य प्रदेश में ) (२) कलिहारी की जड़ पीसकर हाथ, पाँव पेरुक, पेरूफल ( दक्षिण में )। रुन्नी ( नेपाल में लेप करने से खेड़ी गिरती है। तराई में)। सफरी, अमरूद (अवध में)। (३) पीपर श्रादि का चूर्ण मद्य के साथ लताम (तिहुँ त में )। दृढ़वीजं, पेरुक, मांसलं पीने से खेड़ी गिर जाती है। अपृथक त्वचं, अमरूद, जांबफलं, वलं, मृदुभैष० र० स्त्री रोग चि०। पीतक', अम्रूत फलम् मधुराग्लक, तुवर, अमृत अमरालकः amarālakah-सं०० अम्बाड़ा, फल-सं० । प्यारा -बं० । रक और श्वेत भेद से श्राम्रातक । (Spondias mangifera.) अमरूत दो प्रकार का होता है। (ये एक ही अमराव amarava-[ सं० अाम्रराजि, हिं० जाति के दो भेद हैं) अमराई ] श्राम की बारी। श्राम का बगीचा | मधुरियम्-प्रासा०। अमुक-नेपा० । अमअमराई। रूत-40 । पेराला-बम्व०। जाम्ब-मह०। अमराहम् amarāhvam-सं० क्लो० देवदारु सेगापु, कोश्रया-ना० । जाम-ते० । सीवी काष्ठ । Cedrus Deodara (Wood -कना०। मालकाटवेंग-बर० । अम्रद-अ०। of.-) वा० सू० १५ एलादि० अरुणः । -फा० । "शुक्रियाघ्रनखोऽमराहमगुरुः।" (१) रक्त. अमरूद, लाल अमरूत । अमरी amari-सं० स्त्री० नील दूर्वा, हरी दूब सीडियम पॉमिफर्रम् Psidium Pomife (Cynodon Linearis.)। (२) कृष्ण rum, Linn. (Fruit of- Red Guनिर्गुण्डी, नीला सँभालू ( Vitex Negu- ava)|रक्र अमरूद फलम्, रक बहुबीज ndo, Black var. of-) । (३) फलम्-सं०। लाल सफरी प्राम, लाल सफरी, qaaf (Sanseviera Roxbur. लाल जाम-द०। लाल प्यारा, लाल गो पाछि ghiana.)। वै० निघ० । -मल०, । (४) फल-बं०। अचूदे अहमर, कुम स्स रा-अ०। नील वृक्ष ( Indigofera Indica.)। अनुदे सुर्ख-फां० । ( वेल्लई ) शिवप्पु -प्रासा०,-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (१)। गोरयाप-पज़म, सेगापु, कोय्यापलम्-ता० । ५६ For Private and Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ਜਲੰਦਰ नाम्बड जाम्ब, एर्रजाम पण्डु, एर्र-गोय्या पण्डु, जाम् कोइला - ते० । चेम्-पर- चेम्-पेरक्क, चोवन्न- मलाक केप्पर, पालम - पेर मल० । केम्पु - शिवे इराणु - कना० । ताम्बड-तूप- केल - मह० लाल पियार, लालपेरु, ल ल जामरूद गु० । रत पेर, रत पेरगडि - सिं० । मालकी-नी, मलक्का बेन -बर० | मोधरियान - श्रासा० । ताम्बड-पेरु - बम्ब० । ४६६ ( २ ) श्वेत श्रमरूद, सफेद श्रमरूत, सीडियम पायरिफेरम् Psidium Pyriterum, Linn. ( Fruit of- White Guava ) - ले० । सुफ़ेद सफरी आम सुफ़ेद जाम्-द० | घोप गोत्र श्राछि फल, सादा पियारा - बं० | अमरूदे अबैज़ - अ० । अमरूदे सुपेद -- फा० । वेल्लह गोथ्या-पज़म ता० । तेल्ल जाम- पण्डु, तेल्ल-गोय्या - पण्डु - ते० । वेड़-पेश - पेरक्क, वेल्ल मला कप्पेर -मल० 1 विलि. शिबे-हरणु-कना० । पाढंर-जाम्ब, पांढर तूप केल - मह० । उज्लोपियार, उज्लो-पेरु, सफ़ेद जमरूद - गु० सुडुपेर, सुदुर - गाडि सिं० ॥ मालका-फिऊ - बर० । पाएर को० । श्रामुक - नेपा० । पाण्डर पेरू-बम्ब० । जम्बू वर्ग ( NO. Myrtaceae. ) उत्पत्ति स्थान - - अमेरिका; यह लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष साधारणतः वंग प्रदेश में लगाया जाता है । वानस्पतिक वर्णन - एक पेड़ जिसका धड़ कमजोर, टहनियाँ पतली और पत्तियाँ पाँच या छः अंगुल लम्बी होती हैं। इसका फल कच्चे पर कषैला और पकने पर मीठा होता है और उसके भीतर छोटे छोटे बीज होते हैं । इसके ताजे घड़ की छाल का वाह्य पृष्ठ चिकना और भूरे रंगका होता है, और उसपर पर के समान सूखी हुई छाल के चिह्न होते हैं । कभी कभी वे कुछ कुछ लगे होते हैं। धूसर उपचर्म के नीचे ताजी छाल हरित वर्ण की होती है, इसके भी पृष्ठ पर लम्बाई की रुख उभरी हुई रेखाएँ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरुत पड़ी होती हैं तथा यह हलके धूसर वर्ण का होता है । स्वाद - कसैला और ग्राह्य अम्ल होता है । पत्र - सुगंधि युक्र अण्डाकार या श्रायताकार, लघु उंडलयुक्त नीचे की ओर कोमल रोमों से श्रावृत और मुख्य पत्र शिराएँ अत्यन्त स्पष्ट होती हैं । रासायनिक संगठन - छाल में कषायीन ( दैनीन ) २८४ प्रतिशत राल और कैल्सियम आरजेलेट के रवे होते हैं । अधिक परिमाण में कार्बोहाइड्रेट्स (काबोज ) और लवण होते हैं । पत्र में राल, वसा काष्टोज (cellulose) कपायीन (टेनीन ) उड़नशील तैल, हरिम्मूरि (Chlorophyll ) और खनिज लवण श्रादि होते हैं । वसा क्लोरोफार्म में पूर्णरूप और ईथर या ऐलकोहल में अंशतः विलेय होता है । किंचित् हरित उड़नशील तैल में युजिनोल ( Eugenol ) नामक पदार्थ होता है । यह तैल क्लोरोफार्म ईथर या ऐलकोहल में विलेय होता है। इस पेड़ में स्फुरिक (Phosphoric) चुक्र (Oxalic ) और सेव (Malic) अम्लों ( Acids ) के साथ मिले हुए कैल्सियम तथा मैंगनीज बर्तमान होते हैं। मूल, कांड त्वक् तथा पत्र में अधिक परिणाम में दैनिक एसिड ( कषायिनाम्ल होता है | प्रयोगांश-वक् (मूल तथा कांड ) फल और पत्र व भस्म | इतिहास - वि० डिमक महोदय के मतानुसार दोनों प्रकार के श्रमरूत अमेरिका से लाए गए । सम्भवतः पुर्तगाल निवासी इसको यहां लाए । पर भारतवर्ष में कई स्थानों पर यह जंगली होता है । प्रभाव - कांड, त्वचा और मूलत्वक् संकोचक हैं । श्रपक्क फल न पचने योग्य होते और वमन तथा ज्वरोत्पादक होते हैं 1 गुणधर्म तथा उपयोग गुण- कपैला, मधुर, खट्टा है और पका श्रमरूद स्वादिष्ट होता है | यह वीर्यदायक, बात, पितघ्न, शीतल कफ का स्थान है तथा भ्रम दाह, For Private and Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरत श्रमत . और मूळ को नष्ट करता तथा भारी है। अभि० नि० १ भा० । जी मत सेप्रकृति-प्रथम कता में शीतल और दूसरी कक्षा में रूत है। किसी किसी के मत से १ कक्षा में सई व तर तथा मधुर उष्ण प्रकृति युक्त । हानिकर्ता-आध्मान कारक, शीत प्रकृति । तथा प्रामाशय नैर्बल्य को । दर्पघ्न-सोंठ का मुरब्बा और सौंफ (- मिर्च स्याह तथा लवण )। प्रतिनिधि-सेब, बिही या नाशपाती श्रावश्यकतानुसार। मुख्य कार्य-हृद्य, हृदयबलदायक तथा श्रामाशय व पाचन शक्रि को बल देने वाला है। मात्रा-मध्यम परिमाण में शकृत्यानुसार २.४ । शर्बत की मात्रा-२ से ४ तो० तक व न्यूनाधिक। गुण, कर्म, प्रयोग-अपने कषायपन तथा क़ब्ज (संकोच ) के कारण संग्राही है। मवादका अवरोधक और अपनी शीतलता तथा अम्लता के कारण तृषा तथा पित्त को प्रशांत करता है। श्र. पने संग्रहण वा संकोच (कब्ज़ ) तथा कषायपन अम्लत्व और सुगंध के कारण आमाशय को बल प्रदान करता तथा उसके परदों को स्थूल एवं सशक बना देता है । (नफो०)। __यह श्राह्लादकर्ता और शक्रि प्रदान करता है। संग्राही तथा कोष्ठमृदुकर होने पर भी जिला करता है । हृदय प्रामाशय और पाचन शकि को बलवान करता, प्रकृति को मृदु कर्ता और मूर्छा | को दूर करता है । क्षुधा को बढ़ाता और मस्तिष्क को शीतल रखता है। इसका गण्डष हृद्य तथा वल्य और रक्तपित्तघ्न है। इसके पत्र अतिसार तथा व्रण के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। फिटकिरी के साथ इसका क्वाथ दाँतों को लाभप्रद औट इसके जले हुए पत्र तूतियाकी प्रतिनिधि है। (निर्विषैल)। म मु.। इसके पुष्प हृद्य, हृदय बलदायक, रक्रनिष्ठीवन तथा अतिसार को नष्ट करने वाले है।। इसका लेप चन् शोथ लयकर्ता है। इसके बीज प्रामाशयस्थ कृमिघ्न हैं। इसके पत्र अतिसार के बद्धक और शुष्क पत्र को बारीक पीसकर छिड़कने से व्रण शोधक एवं पूरक हैं । इसका निर्यास दोष लयकर्ता और बलवान मुजिज ( मल पककर्ता) है। इसकी लकड़ी और जले हए पत्र तूतिया की प्रतिनिधि हैं । अवचूर्णन करने से ये क्षतों को शुष्क करते हैं । लेखक के अनुभव में मधुर श्रमरूद पेचिश (प्रवाहिका ) को नष्ट करता है । बु• मु०। नव्यमत इसके फल अर्थात् अमरूद देशी लोगों को बहुत प्रिय है । वे इसकी सुगंधि को बहुत पसंद करते हैं। यह संग्राही है और मलावरोध जनन की प्रवृत्ति रखता है। युरोप निवासी इसको जेखी रूप में अथवा पकाकर खाना अधिक उत्तम ख्याल करते हैं। गोत्रा के पुर्तगाली इससे एक प्रकार की पनीर प्रस्तुत करते हैं। इसकी छाल संग्राही है और बालकों के पुरातन अतिसार की औषध रूप से यह फार्माकोपिया प्रॉफ इण्डिया में प्रशंसित है। डॉक्टर वैट्ज़ (Dr. Waitz) अद्ध अाउंस मूलत्वक् को छः आउंस जल में ३ पाउंस रहने तक क्वथित कर उपयोग में लाने का श्रादेश करते हैं। इसकी मात्रा-१ वा अधिक चाय की चम्मच भर दिन में ३.या चार बार दें। वे इसको बच्चों के गदग्रंश रोग में वाद्य संकोचक रूप से उपयोग करने की शिफारिश करते हैं। अतिसार में इसके पत्रका भी सफलतापूर्वक उपयोग किया जा चुका है। डिसकोर्टिल्ज ( Discourtilz) सुगंध्यक्षेपहारक श्रीषधों में इस पौधे का वणन करते हैं। इसके कोमल पत्र एवं पल्लव का काथ वेस्ट इन्डीज़ में ज्वरघ्न तथा श्राक्षेपहर स्नानों में प्रयुक्त होता है तथा पत्र का फांट मस्तिष्क विकारों, वृक्क प्रदाह और प्रकृति दोष ( cachexia) में। श्रामवात में इसके पीसे हुए पत्र का स्थानिक उपयोग होता है। इसका सत्व अपस्मार तथा कम्पवात में प्रयुक्र होता है। बालको' के भाक्षेप For Private and Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरूद प्रमरेर ( convulsion) में इसके टिंक्चरको उसकी | | अमरुफलम् amaruphalam संली. उत्तर रीढ़ पर मालिश करते हैं। फल तथा फन का देश में प्रसिद्ध फल विशेष । गुण-अमरुफल मुरब्बा ये दोनों संग्राही हैं, और उन रोगियों के शीतल मल को पतला करने वाला, दस्तावर, लिए जो अतिसार और प्रवाहिका से पीड़ित हैं, दाहकारक, तथा रक्रपित्त, कामला, मूत्रकृच्छ, अत्यन्त उपयोगी हैं। फा० इं.२भा० । तथा मूत्राश्मरी को नाश करने वाला है। वै. कांड त्वक् तथा मूलत्वक् संग्राही हैं । अपक्य निघ। फल पचने के अयोग्य है और वमन तथा ज्वरांश अमरूल amarula ब० चूका, खटकल | चांगेरी उत्पन्न करता है। -सं०। ( Rumex Scutatus.) मनोहर फल के कारण इसके वृक्ष की बड़ी अमरेन्चतमः amarendra-taruh-सं०५० प्रतिष्ठा है, परन्तु इसके बीज हानिकारक होते हैं। देवदारू वृत (Cadrus Daodara.)। इसकी जेली हृदय बलदायक और मलावरोध के वैनिघः२भा. ज्व.निगुण्डीधूपः । लिए उत्तम है। फलत्वक् युक्त इसको खाना अमरेन्द्ररसः amarendra-rasah-सं० ० चाहिए । फलत्वक् रहित खाने पर यह मलावरोध शुद्ध गन्धक और सोहागा प्रत्येक १ मा० गोदंती करता है । अपक्व फल अतिसार में प्रयुक्त है। २ मा० इनको मिलाकर चार पहर तक भौगरे के गैरड (Garod ) ने रक्तवात में इसके फल रस में मईन करें, फिर ६ दिन तक पान के रस की बड़ी प्रशंसा की है। वह जल जिसमें इसके में घोट । मात्रा-मुद् प्रमाण । गुण-भयानक फल तर किए गए हों बहुतमूत्र जनित तृषा के ज्वर, पित्तजनित दाह, अनेक प्रकार के शूल, लिए उत्तम है। विशूचिका जन्य छर्दि तथा और गुल्म को नष्ट करता है । पश्य-दही, अतिसार के निग्रहण के लिए इसका (मूलत्वक ) क्वाथ प्रयोग में प्राता है। इसके क्वाथ का स्कर्वी भात । र० क. यो। तथा दूषित व्रण में, मुख धावन रूप से सूजे हुए अमरेश्वरोरसः amareshvaro-rasah-सं० मसूढ़ों में लाभदायक प्रयोग होता है। इसके 4. पारा और उससे द्विगण गन्धक लेकर पीसे हुए पत्र की अत्युत्तम पुल्टिस तैयार होती कजली बनाएँ, और जमीकन्द के रस से सात है । ई० मे० मे०। भावना दें, फिर शंख, थूहर, धतूरा, कौड़ी, छोटे शंख, चित्रक, भिलावाँ, हरिण का सींग, इसकी छाल संग्राही, ज्वरघ्न और आक्षेपहर; फल कोष्टमृदुकर और पत्र संग्राही है । इं० १० अंगुलिया थूहर और सेंधा नमक इनके क्षारों को प्रत्येक गन्धक के समान मिलाकर घोर्ट, फिर थूहर का क्षार, त्रिकुटा, जमीकन्द, वंशलोचन, अमरूद amaruda-हिं०,०अमरूत, अमृतफल | मिलावाँ और चित्रक प्रत्येक को गन्धक के समान (Psydium Pyriferum.). डाले और सूरण के रस की २१ भावना देखें। अमरूदे-अबैज़ amarude-abaza-अ०, सि. मात्रा-२ रत्ती भनुपान .-धी। गुण-अर्श अमरूद । See-Amarut. को २१ दिन में नष्ट करता सिद्ध योग है। र० अमरूदे-अह मर amaride-ahmar-अ० । को प्रशोधिकारे। अमरूदे-सुर्ख amaride-surkh-फा. अमरेर amarer-पं० चेम्जुल, थान, सियारू, लाल अमरुत, सुर्ख अमरूद । (The Red पिञ्चो, शकेई । -मेल. सुस्स, संसरू-चनाव । guava.) 1 See-Amarúta. मेमो० । Beehmeria Salicifolia, अमरूदे- amarude-sufeda-फ०, हिं० D. Don. एक पौधा है जिसका फल खाया श्वेत श्रमरूत ( The white guava.)| जाता है । De bregeasia Bicolor, See-Amarúta, Wedd. For Private and Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भमरैया अमलक्यादि पाक: अमरैया amaraiya-हिं० संज्ञा स्त्रो० देखो- व पशु से इच्छापूर्वक सम्पादित हो । विरुद्ध इसके श्रमराई। फ़िल में इसका बंधन नहीं। यह प्राणि एवं अमरोला amarola-हिं० चूका, चांगरी। (Ru. खनिजों में से हर एक के कार्य तथा प्रभाव के mex Scutatus.). लिए बोला जाता है। अमर्त्य amartya-सं० त्रि० जिसकी मृत्यु न हो । अमलको amalaki सं० स्त्री० मुँइ अामला अथवं । सू० ३७ । १२ । का०४। (Phyllanthus neruri. ) अमर्दित amardita. हिं० वि० [सं०] जिस अमलक्यादिखण्ड amalakyādi-khanda का मर्दन न हुआ हो । जो मला न गया हो। -सं०० श्रामला १ कुडव (१६ तो.) लेकर अमर्ष amarsh-हिं० संज्ञा पुं० [वि० अम- पकाएँ, पुनः टुकड़े टुकड़े करके ६४ तो. गोदुग्ध र्षित, श्रमर्षी ] क्रोध, कोप, रिस । में पीस ६४ तो० गोधृत में पकाएँ, पुनः उसमें अमर्षण amarshana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] ६४ तो० मिश्री अड़सा मूल १६ तो०, जीरा, क्रोध, रिस | (Anger.) । असहिष्णुता । मिर्च, पीपल, दालचीनी इलायची, तेजपत्र, नागअक्षमा । केशर प्रत्येक १-१ तो० बारीक चूर्ण कर उन अमर्षी amarshi-हिं. वि० [सं० अमर्षिन् ] अवलेह में मिश्रण कर उत्तम पात्र में स्थापित क्रोधी, रागी, कोपान्वित असहनशील । ( Pas- करें। उचित मात्रा में सेवन करने से भयानक sionate, choleric.).. दाह, मूर्छा, पुरानी छर्दि दूर होती है । वंगसे. अमलम amalam-सं० क्लो० (१) सं० दाह चि.। अमल amala-हिं० संज्ञा पुं० अभ्रक, अमलक्यादि गणः amalakyādi-ganah अबरक Tale (Mical.)| मे० लत्रिक । श्रामला, हड़- पीपल, चित्रक । (२) समुद्रफेन, समुद्र झाग । (Outtle- गुण-प्रत्येक ज्वरनाशक, कफन, भेदी, fish bone.) र०मा० । (३) कपूर, कपूर दीपन और पाचन है । वगसे. सं० गण (Cumphor.) । वै० निघ० २ भा० पाठाधिकारः। अपस्मा० चि०। (४) रौप्यमाक्षिक, अमलक्यादि पाकः amalakyadi-pākah रूपामक्खी । See-Roupya mākshika. -सं० . काकड़ासिंगी, तालीशपत्र, (५) पित्त ( Bile.)। See-.Pitta. I त्रिफला, खिरेटी, गिलोय, विदारीकन्द, कचूर, (६) कतक वृक्ष, निर्मली। (Stiychnos जीवन्ती, दशमूल, चन्दन, नागरमोथा, कमलPotatorum.)। (७) गंधद्रव्य विशेष । गट्टा, इलायची, अडूसा, दाख, अष्ट वर्ग; पुष्कर(An Aromatic Substance. ) मूल, पृथक पृथक १॥-१॥ पल ले। और अमल amala-हिं० संज्ञा पुं० [अ०] (१) १६ सेर पानी में १०० प्रामला प्रौटाएँ फिर मादक वस्तु, नशा । ( Intoxication औट जाने पर निकाल तैल घृत ६-६ पल लेकर (२) अफीम (Opium)। (३) काम श्रामलों को भूने तदनन्तर आधा तुला मिश्री की ( Cupid )। ( ४ ) प्रभाव, असर । (५) चाशनी करके अामलों का पाक करें। जब शीतल प्रयोग ( Use )। होजाए तो ६ पल शहद डाल दें। फिर बंश-वि० [सं०] निर्मल । स्वच्छ । लोचन, चातुर्जात और पिप्पली इनमें से प्रत्येक अमल aamala-० ( ए० व० ) प्रमाल २-२ पल डाले और उन शृंगचादि का चूर्ण कार्य, कार्य करना। भी डालें। अमल, फ्रिल और सिन्अ का भेद । अमल गुण-इसके सेवन से रक्तपित्त, क्षय, कास, प्रधान है तथा क्रिअल सामान्य अर्थात् अमल कुष्ठ, भ्रम, प्यास, तथा वुढ़ापा दूर होता है। उस फ्रिल का नाम है जो प्राणियों जैसे मनुष्य | यो चि० क्षय० चि०। For Private and Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलगुच. अमलतास अमलगुच amalagucha-पं० पद्मकाष्ठ पदुमकाउ। भावाची-सैङ्ग, पाहवा, वाव्याच्या, संगातिलगर, ( Prunus Sylvatica. ) थार-बाहवा, बाय, बाबा-वडिलु बाह ब्याचे झाड़ अमलच्छदा amalachchhada-सं० स्त्री० मह.. । गड़-माल, गरमालों, मोटो भोजपत्र । ( Betula Bhojputra ). गरमालो, गरमाल, सरमाल-गु० । श्राहल्ल, • अमलज āamalaj-अ० खनू ब भेद । See.. पाहिल्ल-सिं० नुसी, ग्नूग्यी, ग्नूशवाय-वर० । kiharnúba. कक्क यि, कानात्वइलड़ि, बानरलाडि-को । कटुअमलतास amalatasai-हिं० (द०) सज्ञा कोना-माला० । अलोश, अली, करङ्कल, कियार, पु० [सं० अम्ल ] अमलतास, किरवरा, घन कनियार, अलश-पं० । राजवृत्त, किटोल-कुमा०। बहेड़ा, किरवालो, किरवारों, सियार (-ह) लाठी राजवृक्ष-नैपा० । चिम्कनी-सिं० । नर्निक-संता० (-लठिया) बादर तोरई, बाँदर ककड़ी, गिर- हरी-(कोल.) सोनालु-(गारो । सनारु-श्रासा० । माला, शोणहाली, अामलटास् । बन्दौलाट-कछा० । सन्दारी, सुनारी-उड़ि० । केशिया फिस्च्युला (Cassia fistula, कितवाली, सितोली, इतोला, कितोली, भिमरी, Linn.) केथाटोकार्पस फिस्च्युला ( Cath- सीम-उ० प० प्रा०। वर्गा-अव०। जग्गर वह, artocarpus fistula, Linn. )-20 1 रैला, पिरोजह . करकच-म० प्र०। जग्गर, जगइण्डियन लेबर्नम् (ludian laburnum), रुपा, कंबार, रेरा (डा)-गों । गरमाल, बावा पुडिंग पाइप ट्री ( Pudding pipa tree), -बम्ब०। बड़िल बाहवा हेगके-क० । कानाइ. पजिंग केशिया Purging cassia (Pod लड़ी-पा० । सुनारि, संदरी-सोनरी-उ० एसव or legume of)-इं० । केशी केनीफि- (सिंहली )। ftat (Casse Careficier )-stato परिचय ज्ञापिका संज्ञाएँ-स्वर्ण पुष्प दीर्घ फल । संस्कृत पर्याय - चक्रपरिब्याधः (वै०), गुण .काशिका संज्ञाएँ - कण्डुध्न, ज्वरान्तक, जठरनुत् (शे०), राजवृक्षः, सम्पाकः, चतुरंगुल:, कुष्ठसूदन, रेचन । शम्पाक, धारेवतः, व्याधिघातः, कृतमालः, सुव शिम्बो या वर्दूर वर्ग। र्णकः, (ख०), मन्थानः, रोचनः, दीर्घफलः, (.N. C. Leguminose ) नृपद्रुमः, प्रग्रहः, हिमपुष्पः, राजतरुः, कृतघ्नः, उत्पत्ति-स्थान-प्रायः समस्त भारतवर्ष महाकर्णिकारः, ज्वरान्तकः, अरुजः, स्वर्णालुफलः, पश्चिम भारतीय द्वीप समूह और बर्मा तथा स्वर्णपुष्पः, स्वर्णद्रुः, कुष्ठसूदनः, कर्णाभरणकः, ब्राज़ील अफ्रीका के उष्ण प्रदेश । महाराजद्रुमः, कर्णिकारः, स्वर्णाङ्गः, पारग्वधः, वानस्पतिक-वर्णन-अमलतास के वृक्ष अरग्वधः, पारग्वधम् , सम्पाकः कंडूनः, रेचनः, बिना यत्न के जहाँ तहाँ उत्पन्न होते हैं। पत्र स्वर्णभूषण । सोनालु, सों (शों) दाल, होनालु, प्रायः ३-६ जोड़ेमें होते हैं, अग्र भाग में अयुग्म लड़िया शोणाल, बड़ सोन्दालि ! वानोर-लाठी, पत्र नहीं होता, पत्र का पृष्ट तथा उदर मसृण बाँदर-लाडी, सोनाली; आमलतास, राखालवानड़ी और वृन्त ह्रस्व होता है। पुष्प पीतवर्ण का -बं० । खियार शंबर, खनू बे-हिन्दी, फलूस-अ०। एवं सुदीर्घ, अवनत और अशाख पुष्प दंड पर खियार-चंबर-फ़ा० । सक्के; कायिसारा-तु०। स्थित होता है । पुष्प-बोज-कोष-एक कोष युक्र कोन हैक्-काय, शरक् कौन्डैक्-काय, इरज्विरुटम, होता है जिसमें असंख्य बीजकण होते हैं । वे कोमरे, कोने, मम्बल कोण्णइ-तारैल-कायलु, जितने ही परिपक्व होते जाते हैं, उतने ही अन्तर सुवर्ण न्, कोण्ड्र -कायि, रैल-चेटु, रैल्ला-क य, में पड़े हुए परदों की वृद्धि के साथ परस्पर पृथक् पारग्वधमु, रेल- राला, कोयल-पन्ना, रेय लु-ते., भूत होते जाते हैं। परिपक्व फल-नलाकृति, तै०। कोनक्-काय, कोन (-न)-मल| कके हस्ताधिक दीर्घ हुस्व, मज़बूत, काष्टीय डंठल युक्र कायि, हेगाके, कक्के, कक्के-मर-कना० ।। . | एवं नोकदार और लगभग १ इं० व्यास वृक्ष से For Private and Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमलेतास भ्रमलतास लटका रहता है । फल का ऊपरी भाग मसूण, पकने पर गंभीर धूसर वर्ण का हो जाता है । डंठल का फाइब्रो वैस्कुलर ( Fibro vascula.1 ) स्तम्भ दो चौड़े समांतर सीवनियों में विभक्त होता हैं, जैसे पृष्ीय और डदरीय सीमंत जो शिम्बिके समग्र लम्बाई भर होते हैं । ये (सीमंत) सचिक्कण अथवा लम्बाई की रुख किंचित् धारीदार होते हैं । इनमें से हर एक दो काष्टीय गों द्वारा निर्मित और एक संकुचित रेखा द्वारा संयुक्र होता है। एक फली में पाए जाने वाले २५ से १००बीजों में से प्रत्येक अत्यन्त पतला काष्ठीय पर्दा से निर्मित एक कोष में स्थित होता है। बीज चक्राकार रक्ताभ धूसरवर्ण का होता है, जो चारों ओर से अहिफेनवत् कृष्णवर्ण के पदार्थ से श्रावृत्त होता है । यह चिपचिपा मधुर एवं दुर्गन्धियुक्र होता है। नोट-इसका केवल यह शुद्ध गूदा ही फार्माकोपिया में प्रविष्ट हैं । पुष्पकाल:वैषाख और जोष्ठ। . औषध-निर्माण-(१) मूल स्वक् क्वाथ, मात्रा ५-१० तो० । (२) फल मजा, मात्रा २-४ श्राने भर । विरेचनार्थ आधा से १ तो० । (३) श्रारग्वध पञ्चक । हा० अत्रि०। (४) भारग्वधादि वा० सु०। (५) पारग्वधाद्य तेल । च० द. । (६) गुलकंद । (७) वटिका । (८) मद्य । (6) वर्तिका । (१०) अवलेह । (११) म अजून और (१२) फाट । अमलतास के गुण धर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार-अमलतास कंडघ्न (चरक ) और कफवात प्रशमन (सुश्रुत) है। अमलतास ( पारग्वध ) रस में तिक भारी उष्ण है तथा कृमि भोर शूल का नाश करता है और कफ, उदर रोग, प्रमेह, मूत्रकृच्छ, गुल्म और त्रिदोषनाशक है। धन्वन्तरीय निघण्टु । ___ पारग्वध अति मधुर, शीतल, शूलधन है तथा ज्वर, कण्डू ( खुजली), कुष्ठ, प्रमेह, कफ और विष्टम्भनाशक है । रा०नि० व०६। पारग्वध गुरु, मधुर, शीतल और उसम स्रंसन, कोष्ठस्थ मलादि को ढीला करने वाला है। तथा ज्वर, हृद्रोग, रक पित, वातोदावर्त ( ऊन्द गत वायु) यौर शूलनाशक है। इसकी फली स्रंसन ( कोठे के मलादिक को शिथिज करने वाली ) रुचिकारी है। तथा कुष्ठ, पित्त और कफ नाशक है । अमलतास ज्वर में सर्वदा पत्थ्य और परम कोष्ठशोधक है। भा०पू०१भा । राजवृक्ष ( अमलतास) अधिक पथ्य मदु, मधुर और शीतल है। इसका फल मधुर, वृष्य, वात पिश नाशक और सर ( दस्तावर ) है। राजवल्लभः । __ अमलतास पत्र रेचक और कफ तथा मेद नाशक है । पुष्प मधुर, शीतल, तिक और ग्राहक है । तथा कषेला... । फल मजा पाक में मधुर, स्निग्ध, अग्निवर्द्धक, रेचक और वात एवं पित का नाश करने वाली है। द्रव्य. गु० वै० निघ। अमलतास के वैद्यकीय व्यवहार चरक-ज्वर में भारग्वध फल-(१) ज्वर रोगी की कोष्ठ शुद्धि हेतु ऊष्ण गाय के रासायनिक संगठन .. फल के बारीक चूर्ण के वाष्प स्रवण विधि द्वारा अर्क खींचने से मधु गंधि युक्त एक श्याम पीत वर्ण का अस्थिर तैल प्राप्त होता । तैलीय अर्क में साधारण ब्युटिरिक एसिड होता है फल मजा में शर्करा ६० प्रतिशत लुबाब, संग्राही पदार्थ, ग्लूटीन ( सरेश ), रञ्जक पदार्थ, पेक्टीन, कैल्सियम् ाक्ज़े लेट, भस्म, निर्यास और जल सम्मिलित होता है। प्रयोगांश-मूल, मूल त्वक् , ( वृक्ष त्वक् ), पत्र, पुष्प, फल, मज्जा, वी की गिरी। अंतः परिमार्जन हेतु फल और वहिः परिमार्जन हेतु यथा कुष्ठ श्रादि में पत्र लेना चाहिए । सि० यो पित्तः) ज्व० राक्षादौ । इतिहास-अमलतास वृक्ष की प्रादि जन्मभूमि भारतवर्ष है । अतएव प्राचीन भारतियों को उक्र ओषधि का ज्ञान था। किंतु प्राचीन यूनानियों को इसका ज्ञान न था। कदाचित् पश्चातकालीन यूनानियों को अरब निवासियों द्वारा इसका ज्ञान हुआ। For Private and Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास अमलतास दूध बा किसमिस के रस (क्वाथ के साथ प्रारम् वध फल मजा सेवन करनेको दें। चि०६०। (२) रक्तपित्त में प्रारग्वध फल-अमल तास की फली की मजा को प्रचुर परिमाण में मधु और शर्करा के साथ उर्ध्वगत रक पिच रोगी को विरेचन के लिए सेमन कराएँ । (चि०४ प्र०)। (३) पित्तोदर में। पारग्वध का फल-काथ विधि से अमलतास के फल के गूदा का काढ़ा तैयार कर पित्तोदर रोगी को सेवन कराना चाहिए। (चि. १८ अ.)। (४) कामला में आरग्वध फलपारग्वध फल मजा को इत, भूमिकुष्माण्ड वा कच्चे अामले के रस के साथ कामला रोगी को सेवन कराना चाहिए। इससे कामला का नाश होता है । (चि० २० अ०)। (५) कुष्ठ में पारग्वध पत्र-अमलतास के पत्र को पीस कर कुष्ठ में प्रलेप करें। (चि० ७०)। (६) विसर्प में भारग्वध पत्र-अमलतास के पत्र को बाटकर घृत मिला कफज विसर्प में प्रलेप करें। (चि० ११ १०)। (७) उरुस्तम्भ रोग में अमलतास के पत्र का शाक-तिल तैल द्वारा अमलतास के पत्र का जल में लवण रहित शाक सिद्ध कर ऊरुस्तम्भ रोगी को सेवन कराएँ। (चि०२७ अ०)। "वेत्रारम्बध पल्लवैः" सुश्रुत-(1) उपदंश में क्षत प्रक्षालनार्थ पारग्वध पत्र -जाति (चमेली) तथा पारग्वध इन दोनों के पत्र का काढ़ा कर उससे औपदंशीय क्षत का प्रक्षालन कराएँ । (चि०१६ अ०) (२) हारिद्रयमेह में पारग्वध-अमलतास के पत्र वा मूलत्वक् का क्वाथ हरिद्रामेही को सेवन कराएँ । (चि० ११ अ०) वाग्भट-(१) कफ विद्रधि में पारग्वध पत्र-पारग्वध पत्र के क्वाथ से कफज विद्रधि के क्षत को धोएँ । (चि०१३ १०)। (२) कफज अरोचक में प्रारग्वधपारग्वध फल मज्जा तथा अजवाइन इन दोनों के द्वारा निर्मित क्वाथ को कफज अरोचक में पान कराएँ। (चि.५०)। (३) राजयक्षमा में पारग्वध-बहुदोष, बलवान यचमा रोगी को विरेचनार्थ मधु, शर्करा तथा घृत के साथ अथवा दुग्ध वा अन्य तर्पक वस्तु के साथ पारग्वध फल मजा का सेवन कराएँ। (चि ५०)। (४) कुष्ठ में पारग्वध मूल --अमलतास की जड़ के काढ़े से १०० बार घृत का पाक करें। इस घृत को कुष्ठ रोगी को पान कराएँ । औषध सेवन काल में स्नान वा पानार्थ खदिरयुक्र जल का व्यवहार कराते रहें। (चि० १६ अ.)। भावप्रकाश-प्रामवात में भारग्वध पत्रसरसों के तेल में अमलतास के पत्र को भूनकर सायंकाल भोजन के साथ इसका सेवन करें । यह प्रामदोषनाशक है । चक्रदत्त-(१) पित्तज्वर में पारग्वधपित्तज्वरी को अमलतास के गूदा तथा किसमिस द्वारा प्रस्तुत क्वाथ का पान कराएँ । ज्वर चि०। (२) गण्डमाला में पारग्वध मूलताजे अमलतास की जड़ की ताजी छाल को चावल के धोवन से पीसकर नस्य देने तथा गराहुमाला पर प्रलेप व अभ्यंग करने से इसका नाश होता है। गण्डमाला चि०। बङ्गसेन-द्रु व किटिभ कुष्ट में प्रारग्बध अमलतास के पत्र को पीस कर लेप करने से उक्र कुष्ठ और सिध्म आदि कुष्टों का भी नाश होता है। वक्तव्य राजनिघण्टुकार के मत से शुद्र अमलतास का नाम कणि कार है । यह मालूम नहीं होता कि यह किस अंश में छोटा है। धन्वन्तरि निघण्टूक्त कणि कार का एक नाम "प्रारोग्य शिम्बी" और राक्षनिघंटत दूसरा नाम "पंकि बीजक" है। For Private and Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास अमलतास ४७३ कालिदास लिखते हैं"प्राकृष्ट हेमद्युति कणि कारम्"। यूनानी वैद्यकीय मत से प्रकृति-गरमी और सरदी में मतदिल है। जिसका प्रमाण यह है कि इसमें कोई ऐसा स्वाद नहीं पाया जाता है ( इसका स्वाद मधुर और हीक अत्यन्त तीव्र होता है। अतएव इसको | कक्षा प्रथम वा द्वितीय का उष्ण होना चाहिये) जिस हेतु से इसको किसी बलवान कैफियत से संबद्ध किया जाए, और तर है नफ़ो०३। किसी किसी ने १ कक्षामें गरम तर और किसी किसी ने मतदिल (शीतोष्ण) लिखा है। हानिकर्ताप्रामाशय के लिए तथा हृल्लास, मरोड़ और पेचिश उत्पन्न करता है। दर्पघ्र-मस्तगी और अनीतूं से इसके भामाशय पर हानिकर तथा हृलासकारक प्रभावकी निवृत्ति होतीहै। मरोड़ और पेचिश के लिए इसमें रोशन बादाम मिलाकर देना चाहिए । मःज़ तुम कह और जुलाल इमली प्रतिनिधि-इससे तिगुनी द्राक्षा,, तुर्बुद (निशोथ ) और तुर अबीन । मात्रा-१ तो० से ५ या तो० तक । साधारणतः २॥ तो० से ४ तो० तक प्रयुक्त है। ___ गुण कम, प्रयोग-अमलतास उदरीय वा वाक्षीय अन्तर अवयवों के उष्ण शोथों को लाभ पहुँचाता है । क्यों कि यह मृदुकर्ता, विलायक व द्रावक है। इन्हीं प्रभावों के कारण कण्ठस्थ शोथों के लिए मको के पानी के साथ इसका गण्डूष किया जाता है, और इन्हीं कारणों से संधिवात तथा वातरक पर इसका प्रलेप किया जाता है। यह यान ( कामला ) और यकृद्वेदना को लाभ पहुँचाता और उदर ( कोष्ठ) को मृदु करता और बिना कष्ट के दग्ध पित्त और कफ के विरेक लाता है। गर्भवती स्त्री को भी इसका विरेचन दिया जा सकता है क्यों कि इसमें क्षोम (लजअ), तीचणता, कब्ज़ (धारकत्व) और कपापन जैसी कोई बुरी कैफियत नहीं है जो अन्तरवयवों को हानि पहुँचाए । नफ़ो। मीर मुहम्मद हुसेन लिखते हैं कि उराम जुलाब होने के लिए अमलतास की फलियों को थोड़ा गरम कर उसका गूदा निकाल थोड़े रोग़न वादाम के साथ मिलाकर प्रयोग करें। यह मुल. त्तिक (द्रावक ) वक्ष के अवरोधों तथा रक्कोमा को लाभप्रद है और बालक तथा स्त्री यहां तक कि गर्मिणी के लिए भी निरापद रेचक है; किंतु इसका अत्यन्त हलका प्रभाव होता है। उपयुक औषध के साथ यह सम्पूर्ण दोपों का शोधक है। उदाहरण स्वरूप एकत्र हुये पित्त को दूर करने के लिये इसको इमली के साथ पिलाना चाहिए। बलग़म तथा सौदा के लिये क्रमशः निशोथ तथा बसक्राइज (कासनी, बर्ग बेद, श्राब शाहतरा) के साथ और प्रान्त्रीयावरोधों को दूर करने के लिए इसको लुभाबदार वस्तु यथा अतसी वा रोग़न बादाम (रीशा ख़ित्मी, बिहीवाना या ईषद गोल के लुआब) के साथ अथवा कोई उपयुक औषध यथा कासनी के साथ सम्मिलित कर प्रयोग करने की सिफारिश की जाती है। संधिवात एवं वात रक्क आदि के लिए वाह्य रूप से इसका प्रलेप उत्तम होता है । पुष्प एवं पत्र में मुलत्तिफ़ (द्रावक ) गुण का होन। बतलाया जाता है। (किसी किसी ने रेचन गुण का होना भी लिखा है)। पुष्प के गुलकन्द बनाने का भी वर्णन अाया है । ५ से ७ की मात्रा में इसके बीजों के चूर्ण के प्रयोग करने से वमन आते हैं। और यदि फली के ऊपर की छाल, केशर, मिश्री और गुलाबजल के साथ पीसकर दें तो स्त्री को तुरन्त प्रसव हो । छाल और पत्तों को तेल में पीसकर फोड़ा के ऊपर लगाने से लाभ होता है। (म० अ०) धनिए के जल के साथ इसका गण्डुष खनाल को लाभप्रद है । इसके पत्र सम्पूर्ण शोथों को लय करते हैं। क्वथित करने से अमलतास के गूदे का प्रभाव नष्ट हो जाता है । म. मु०।। यह पेचिश को नष्ट करता, यकृत के रोध का उद्घाटक और यौन ( कामला) और उष्ण प्रकृति को लाभप्रद है। जिसे एक वर्ष न हुए हो For Private and Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमलतास वह रक्त प्रमेह उत्पन्न करता है । पुष्प मृदुकर्त्ता, श्याम त्वचा का प्रलेप दद्रुध्न है । बु० मु० । कासमी पत्र स्वरस, मको और कसूस तथा अन्य उपयुक्त औषधों के साथ इसका उपयोग करने से यह यद्वेदना व यकृत् के अवरोध, यन ( कामला) और उष्ण ज्वरों को लाभ है। बकरी के दूध वा श्राब अजीर के साथ इसका गण्डूष करनेसे ख़ नाक्रको लाभ होता है । दायक શબ્દ नोट- चूँकि यह प्रांत्र के भीतर चिपट जाने के कारण क्षोभ व घर्षण उत्पन्न करने का हेतु बनता । श्रत एव इसको रोग़न बादाम के साथ मलकर काम में लाना चाहिए । डॉक्टरी मत से - एलोपैथी चिकित्सा में केवल इसका गूदा अर्थात् श्राध फल मज्जा ही श्रौषधार्थ व्यवहार होती है । श्रारग्वध फल मज्जा, श्रारग्वध गूदिका, अमलतास का गूदा - हिं० । केशीई पल्पा Cassite Pulpa - ले० । केशिया पल्प Cassia Pulp. इं० । ऋरले ख़्यार शंबर- प्र० । ( श्रॉफ़िशल Official . ) निर्माण विधि - यह कोमल, मधुर, लगभग श्यामवर्ण का गूदा है जो अमलतास की फली से प्राप्त होता है । उक्त फली को जल में मल छान कर यहाँ तक पकाएँ कि वह मृदु रसक्रियावत् रह जाए । प्रभाव - महुरेचक | मात्रा - मृदुरेचक रूप से ६० से १२० ग्रेन तक और १ से २ उस • तक विरेचक रूप से । यह कन्फेक्शियो सेन्ना में पड़ता है । प्रभाव तथा प्रयोग — यद्यपि यह मृदुकर्ता व विरेचक है । परन्तु, क्योंकि इसके प्रयोग से जी मचलाता है और उदर में मरोड़ होने लगती है । इसलिए इसको अकेला उपयोग में नहीं लाते, प्रत्युत सनाय के साथ सम्मिलित कर मअजून की शकल में दिया करते हैं । ( ए० मे० मे० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमलतांस श्रन्यमत एन्सली ने भारतीय लोगों को इसके गूदे और पुष्प का उपयोग करते हुए पाया । डॉक्टर इर्विन लिखते हैं- "मैंने इसकी जड़ को सबल रेचक पाया ।" गुजरात से विरेचक रूप से इसके उपयोग करने की भी सूचना मिलती 11 कोंकण में इसके कोमल पत्तोंका स्वरस दद्रुघ्न रूप से तथा भिलावे के रस के प्रयोग द्वारा हुए ख़राश के शमनार्थं इसका उपयोग करते हैं । रफियस कहते हैं कि पुर्तगाल निवासी नव्य फलियों एवं पुष्प का मअजून बनाते हैं । इसके वृक्ष में छेवा देने से एक विशेष प्रकार का निर्यास निर्गत होता हैं जो कतीरा के समान पानी में फूल जाता है । ( डोमक ) कैशिया afafagar (Cassia Braziliana. ) तथा कैशिया मॉस्केटा ( Cassia Moschata.) भी भारतवर्ष में लगाए गए हैं । ये गुण में बिलकुल श्रमलतास के समान होते हैं । अधिक काल तक इसका प्रयोग करने से गम्भीर धूसर वर्ण का मूत्र याने लगता है। कॉफी के एसेंस में मिश्रण करने के लिए इसका गूढ़ा काम में श्राता है । श्रजीर्णं स्वभाव के व्यक्तियों के लिए इसके गूदा की प्रशंसा की जाती है। बीज वामक है। मूल तीव्रविरेचक है। फल मज्जा संग्रह ग्रहणी प्रवण व्यक्तियों के पक्ष में हितकर है। मृदुरेचक रूप से इसकी मात्रा ३० से ८० ग्रेन है । ( मेटिरिया मेडिका ऑफ़ इंडिया - श्रार० एन्० खोरि, भा० २, पृ० २०० ) For Private and Personal Use Only मज्जा, मूलत्वक्, बीज और पत्र में रेचक गुण है I मूल रेचक, वल्य और ज्वरध्न प्रभाव करता है । चूँकि अकेला प्रयोग करने पर पूर्ण प्रभाव हेतु इसको एक या दो आउंस श्रथवा इससे भी कहीं अधिक मात्रा में देना पड़ता | इस लिए इसको अन्य रेचक औषधों के साथ ( सहायक रूप से ) पाक वा अवलेह रूप में वर्तते हैं । ( इसको अकेला न वर्तने का यह भी कारण है कि इससे शूलवत् वेदना परिकर्त्तिका और उदराध्मान Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास श्रमलतास जनित होता है)। प्रारम्बध गूदिका कॉफी के एसेंस में भी प्रयुक्त होती है। इसके गूदे का म जून (पाक ) २ से ४ ड्राम की मात्रा में मृदु रेचक है। इससे १ वा २ दस्त प्राजाते हैं । इसके गूदे का पाक बहुमूत्र में प्रयुक्त है । वह गुलकन्द जिसमें कि यह पड़ता है विशेषतः कोमल प्रकृति की स्त्रियों के लिए एक शीतल कोष्ट मृदुकर श्रौषध है । इसकी मात्रा प्राधा पाउंस है । इसको सोते समय उपण दुग्ध से सेवन कराएँ। इसकी पकी फली के गूदे में इमली का गूदा मिलाकर सोते समय सेवन करने से प्रांत्र पर इसका मदु प्रमाव होकर दूसरी सुवह को १ वा २ नर्म विरेक हो जाते हैं । बालकों के प्राध्मान युक्र उदर शूल में विरेक हेतु साधारणतः इसको नाभि के चारों तरफ लगाते हैं। भामाशयिक विकारों में इसके फूल का काढ़ा दिया जाता है। इसके पत्र को पीस कर दाद पर लगाते हैं। इसके पत्र एवं छाल को पीस कर उसमें से सम्मिलित कर उसका, फुसी, दद्रु, शोत के कारण हस्तपाद की अंगुलियों का कण्ड्युक शोथ (Chilblains ) कीटदंष्ट्र, श्रद्धांगवात (Fa. cial paralysis ) और आमवात पर प्रलेप करते हैं । मूल, ज्वर, हृद्रोग, अवरुद्ध स्राव और पित्त विकार प्रभृति में लाभदायक है। (इ. मे० मे०) पारग्वध के कतिपय चुने हुए उत्तम मिश्रित योग (१) पाचकावलेह-नीब के एक लेर रस में श्राधसेर अमलतासकी फलियों को कूटकर डाल दें। दो दिन भींगने के बाद धुले हुए स्वच्छ वस्त्र में डालकर हाथ से हिला हिलाकर छानलें । पुनः उसमें निम्नांकित १० वस्तुओं के चूर्ण को कपड़ छान करके डाल दें। वे यह हैं-दालचीनी, सोंठ, काली मरिच, छोटी पीपल, हींग (भुनी हुई ), छोटी अथवा बड़ी इलायची के दाने इन छः चीजों को २-२ तो० ले और सेंधा नमक, कालानमक, कालादाना (अग्नि पर मुना हुआ) और नवीन सफेद जीरा ( भुनाहुआ) निर्माण विधि-इनमें से अन्तिम की तीन चीज़ों को शिल पर खूब पीस डाले। बाकी ऊपर लिखी हुई सात चीज़ों को लोहे की खरल में कूटकर कपड़ छानकर लें । सब चूर्ण को ऊपर कही हुई खटाई में मिलाने से बहुत स्वाद पाचकावलेह (पाचक चटपटी चटनी ) बन जाता है। मात्रा-३ मा० से १ तो० तक। सेवन विधि तथा गुण व प्रयोग-इसके चाटने से मन्दाग्नि व पालस्य दूर हो जाते हैं। रात्रि को चाटकर सोने से प्रात:काल दस्त साफ हो जाता है । चित्त खूब प्रसन्न रहता है । मोजन में अरुचि होने पर दो घंटे पहिले चाट लेने से मोजन में रुचि हो जाती है। प्रायः ज्वर. में मुख का स्वाद बिगड़ा रहता है, इसके चाटने से वह दोष दूर हो जाता है। यह अवलेह कुछ गरम होता है। इसलिए पांच तोले दाख को नीबू के रस के साथ शिल पर पीस छानकर अवलेह में डाल दें और पके हुए अनार के दानों का रस डाल दें. तो ये सब गरमी को शान्त कर स्वाद को बढ़ा देंगे । इसको धातु के पात्र में न बनाएँ। स्वादानुसार लवण को न्यूनाधिक कर सकते हैं। (रसायनसार १ भा०)। (२) गुलकंद ख़यार शंबर ( पारग्वध का गुलनन्द)-श्रमलतास के उत्तम फूल प्राधसेर लेकर एक चीनी के हावनदस्ता में डालकर थोड़ी थोड़ी सफेद चीनी फूलों में डाले और कूटते जाएँ । जब १ सेर चीनी मिल जाए और मिश्रण गुलकन्द के समान हो जाए तब तैयार जानना चाहिए। इसका रंग पीत होगा। ( अथवा गुलकन्द की विधि से इसको तैयार करें)। मात्रा-४ से ८ मा० तक । बालकों तथा स्त्रियों के लिए अत्युत्तम है। (३) लऊक खयार शंघर-यह युह या (यूहन्ना) विन मासूयह का योग है। उन्नाव ५ दाना, सपिस्ताँ (श्मेष्मान्तक) १०० दाना तुरुम ख़ित्मी ३ तो०, मवेज़ मुनक्का ७॥ तो०; वनफ्सह, अधकुट किया और चीली हुई मुलेठी प्रत्येक ४ तो०, कतीरा ४॥ तो०, अस्पग़ोल For Private and Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास . ४७६ अमलतास (ईषद्गोल ) ३ तो०, इन सम्पूर्ण औषधों को ३ सेर पानी में क्वथित करें। जब तीसरा भाग रह जाय तब उतार कर साफ करलें । फिर ३ तो० अमलतास घोलकर दुबारा साफ करें । पुनः ३॥ मा० सकबीनज और ६ तो. मिश्री मिलाकर काथ करें। गाढ़ा होने पर रोग़न बादाम या रोग़न बनासह के साथ मईन कर अावश्यकता. नुसार थोड़ी थोड़ी दिन में २-३ बार चाटें । उपयोग-क; शोथ ज्वर, तृषा, जिह्वा की कर्कशता और वक्षस्थ व्याधियों यथा-कास, प्रतिश्याय पार्श्वशूल तथा उग्रफुप्फुसौष प्रभुतिमें लाभदायक है। (४) मुरब्बाए फलस खयार चंबरकच्चा अमलतास जिसमें गंध का प्रादुर्भाव न हुआ हो लेकर उसका छिलका दूर करके फलूस (लुमाय ) निकालें और पान में खाने वाले चूने के पानी में एक दो घटे भिगो रखें। जब लाल हो जाए तब उक्र पानी से निकाल कर दो तीन बार निर्मल जल से धोएँ । फिर मिश्री को गुलाब जल में विलीन करके अग्नि पर रखें। जब चाशनी तैयार होने के निकट पाए उस स. मय उन फलूस खयार शंबर को उसमें डालकर दो तीन उबाल और दें और उतार ले । यदि सुवासित करना चाहें तो किञ्चित् कस्तूरी तथा अम्बर मी उसमें सम्मिलित कर दें। गुण-कोष्टमृदुकर है और अविच्छिन्न बद्धकोष्ट तथा बिट संज्ञक उदरशूल के लिए विशेष कर लाभदायक है। (५) मअजून खयार शंबर - गुलाबपुष्प ७ तो०, सनाय मक्की ७ तो०, सूखी धनियां, रुब्बुस्सूस (सत मुलेली) १ तो०, सैंधव १ तो. इनको बारीक करके पृथक रखलें । निम्न औषधों को २ सेर वृष्टि जल में अहोरात्रि भिगो रखें। अजीर १२ तो०, अननी है तो०, भालूबुखारा ५ तो०, माज़ फलूस खयार शंबर २० तो०, श्रमलतास के अतिरिक शेव औषधों को पादशेष रहने तक क्वथित कर चलनी से चाल लेंतदनन्तर उक्र जल में २. तो० अमलतास भिगोकर | कुछ मिनट तक मन्दाग्नि की उत्ताप देकर उतार ले, और पुनः चलनी से छानकर उपयुक्र बीज प्रभति डाल दें। उस पानी में १ सेर सफेद चीनी मिलाकर गाढ़ा होने तक पकाएँ। फिर उतार कर बारीक की हुई दवाओं को मिलाकर ४ तो. रोगन बादाम मिला दें। ध्यान रखें कि वह अग्नि पर जल न जाए। गुण-कोलञ्जहार तथा प्रान्त्र की रूक्षता के लिए अत्युत्तम कोष्टम कर है । यह मजन प्रत्येक प्रकृति के लिए विशेषकर अर्श रोगी के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। मात्रा-४ मा० से मा० तक सोते समय पानी या दूध के साथ सेवन करें। (६) पारग्वध क्वाथ-पीली हड़ का बकला ३ तो० । मा०, भालूबुखारा, उमाव विलायती प्रत्येक २०-२० दाने, मवेज़ मुनक्का, इमली प्रत्येक ५ तो० ॥ मा०, गुलाब, गुले नीलोफर प्रत्येक १ तो. १॥ मा०, बनसा ॥ तो० सबको १ सेर ६ छ० पानी में काथ करें जब १॥ पाव पानी शेष रहे उस समय उतार कर साफ करें। इसमें मरज़फल स खयार शंबर ४ तो० से ७ तो० तक विलीन करके साफ करें और मा० मधुर बाताद तेल सम्मिलित कर पिलाएँ । गण - रेचक है और पैत्तिक ( उष्ण) दोषों को निःसृत करता है। (७) आरग्वध फांट-माज़ फलूस ख़यार शंबर, इमली प्रत्येक ४॥ तो० अालू बोखारा १५ दाना, उन्नाव १० दाना, सपिस्ताँ (लिसोड़ा) २० दाना सब को गरम किए हुए अर्क कासनी श्रावश्यकतानुसार में भिगो दे । प्रातःकाल निथार कर तुरंजबीन, शीर ख्रिश्त प्रत्येक ३ तो० है मा० सम्मिलित कर विलीन करें और स्वच्छ करके रोग़न बादाम तो मिलाकर पिलाएँ। गुण-समग्र उष्ण एवं उग्र पैत्तिक तथा रक्तजन्य रोगों में लाभदायक है और कोड को मृदु कर्ता है। यदि पित्तज कामला ( यर्कान) हो और पित्त की उपवणता हो तो कासनी-पत्र स्वरस ताजा ६ तोले से १२ तो. तक इसी योग में अधिक सम्मिलित करें। For Private and Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतास अमलतास सूचना-कास रोगी को इस योग का सेवन (११) शियाफ़ ख़यार शंबर-(पारग्वध न कराएँ । फल वर्ति)-पारग्वध फल मजा, लाल शकर (5) श्रारग्वध वटिका-मरज़ फलस प्रत्येक ३ तो०, सनाय मक्की १॥ तो०, खिल्मी ख़यार शंबर ७॥ तो०, सामूनिय। मुशवी । ११ मा०, लवण ३॥ मा० । निर्माण-विधि(भुलभुलाया हुआ) ४॥ मा०, कतीरा : मा०, श्रौषधों को कूट पीस कर प्रथम दो औषधों के पीली हड़ का बकला, काबुली हड़, काबुली द्वारा वर्ति प्रस्तुत करें और यथाविधि उपयोग हड़ का बकला, सनाय मक्की, ज़रिश्क में लाएँ। ( साफ किया हुआ ), गुलबनता प्रत्येक गुण-उदरशूल को लाभप्रद है और कोष्ठ १॥ तो० । निर्माण-विधि-मग्न फलूस को मृदु करता है। तयार शंबर के सिवा शेष सब श्रौषधों को कूट छानकर १ तो० १०॥ मा० मधुर वाताद तैल में (१२) श्रारग्वध त्वक् क्वाथ-पारग्वध मईन करके चने प्रमाण वटिकाएँ प्रस्तुत करें की छाल, सौंफ, कुसुम्भ बीज प्रत्येक ५ तो०, और वर्क चाँदी में लपेट कर रखे। मात्रा- मजी ३ मा० । सब को जौकुट कर के १। सेस श्रावश्यकतानुसार इसमें से ७ मा० से १ मा० पानी में १॥ पाव जल शेष रहने तक पकाएँ। तक सेवन करें। फिर शर्बत बरी मिलाकर पिलाएँ। गुण-यह सर्वोत्कृष्ट विरेसन है और मस्तिष्क गुण-रजः रोध एवं कष्ट रज में लाभदायक रोगों में हित है। (.) मुलरियन मुबारक-गुलाब १ तो अमलतासकल्प amala tāsa-kalpa-हिं०प० गुल नीलोफर १ तो०, गुलबनशा १ तो०, अमलतास को दाह और उदार्वत से पीड़ित रोगी पालबोखारा १ तो० तुरंजबीन २ तो०। को दाख के रस के साथ दें (१)-४ वर्षकी अवस्था निर्माण-विधि-समग्र औषधों को रात्रि भर से लेकर १२ वर्ष तक की उम्र वाले के लिए श्राधसेर अर्क गुलाब में तर करके प्रातः काल इसके गूदे की मात्रा १ प्रसृत से १ अंजली तक इतना पकाएँ जिससे श्राधा शेष रह जाए। है। इसे सुरामण्ड, कोल शीधु,दधिमण्ड, अामले तदनन्तर फलस खयार शंबर १० तो० को उक्त के रस या शीत कपाय बनाकर उसे सौवीरक के तरल में डालकर थोड़ी देर तक मृदु अग्नि देकर साथ दें। (२)-अमलतास की मज्जा (गूदे) उतार ले। इसमें १० तो. हड़ के मुरब्बे का के साथ दूध को सिद्ध करके उससे घी निकालें, शीरा मिलाकर १ तो० रोग़न बादाम सम्मिलित फिर उस घी को श्रामले के रस और उसके गूदे कर लें। मात्रा-अवस्थानुसार वैद्य की राय के कल्क से सिद्ध कर सेवन करें। (३)-अथवा उसी घी को दशमूल, कुल्थी. और जौ के कपाय गुण-यह अत्युत्तम कोष्ठमृदुकर है। यह तथा निसथ आदि के कल्क से सिद्ध करके सेवन अत्यन्त सुस्वाद और प्रत्येक प्रकृति के अनुकूल करें । (४)-अथवा दन्ती क्वाथ लेकर उसमें अमलतास की मज्जा (गूदा)१ अंजली और (१०) भारग्वध गराडूष-रुब्ब ख़यार गुड़ अंजली मिलाकर यथा विधि सन्धान कर शंबर ६ तो०, वृष्टि जल २० तो०, शिब्ब यमानी ४५ दिन तक रक्खा रहने दें, जब अरिष्ट सिद्ध हो ( यमनी फिटकरी)१ मा० सबको विलीन करके जाए तो उसे सेवन करें। जिस मनुष्य को मधुर गण्डष कराएँ। कटु या लवण जिस प्रकार का खान पान प्रिय गण-टॉन्सिल के शोथ तथा खुनाक के हो उसे उसी के साथ अमलतास से विरेचन देना लिए रामवाण है। उचित है। च० सं० च० अ०। से। For Private and Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमलतासादि क्वाथ अमल रत्नम् अमलतासादि क्वाथ amala tāsādi-kvatha वाइन ( Fleshy wild wine- इं० ). -हिं० पु. अमलतास गदा, पीपलागून, माथा मेक मेकत्तवी-चेटु -ना० ( फा ई०) । कनपकुटकी, बड़ी हड़,इनका क्याय पोने से वात, कफ तिगे (फा० ई. मे० प्लां० ), मण्डल-मरीज्वरका शीघ्र ही नाश होता है तथा गोटा गिराता, तीगे, मेक-मेत्तवी-चेटु, कडु-डिन्ने, कडेप-तीगे और प्रामगू न दूर करते हुए अग्नि दीपन व ( ई० मे० पलां० )-ते० । जरीला-लरा पाचन करता है। शाङ्ग० सं०। (ई० मे० प्लां)-पहा० । खट-तुम्बो, खट-तुम्ब्रो अमल दीतिः amala-diptih-सं० पु,कपूर (फा० हं०, इं० मे० प्लां०, मे० मो०)-गु० कपूर (Camphor)। च० द०। तमन्या खटुम्बो (ई. मे० प्लां० ) बलरत श्रमलपट्टी amala-patti-हिं० स्त्रो०, (A दुग्लबू-सिं० ( इं० मे० मे० ) मै - मती ___kind of stit :hing ) | ( इं० मे० प्लां० )-प्रासा० । कारिक, अमल पतत्रो amala-patatri-(इन् ) , सं० अमटबेल, गिदइद्राक, द्विकरी, बल्लुर, द्रुकी( ई० पु०, हंस । (A gocse, a gandel', मे० लां) -40। बोडी, अम्बट बेल (इं० मे० _aswan.)। प्लां०, फा० ई.)-कडमोडी-मह० । इक्अमल बिल्य द् āamal-bilyad-अ० ब्लीरिक-लेपः। अम्लिय्य aamliyyah द्राक्षा वर्ग हस्त क्रिया, शस्त्र चिकित्सा, जर्राही, दस्तकारी, ( N. O. Ampelideue. ). चीरफाड़ । ऑपरेशन (Operation)-इं० । उत्पत्ति-स्थान-भारतवर्ष के सम्पूर्ण उष्ण अमलबेत amala beta-हिं० सं० पुं० [सं० प्रधान देश तथा हिमालय ( के उष्ण स्थान )। अम्लवेतस् ] (१) एक प्रकार की लता जो प्रयोगांश-बीज तथा मूल। , . पश्चिम के पहाड़ों में होती है और जिसकी सूखी प्रभाव तथा उपयोग-इसके पत्रकी पुल्टिस हुई टहनियाँ बाज़ार में बिकती हैं | ये खट्टी होती ( उत्कारिका ) बैलों की ग्रीवा पर जूश्रा के कारण हैं और पाचक चूरण में पड़ती हैं । (२) एक हुए क्षतो के लिए प्रलुक होती है । ( इलियट ) मध्यम आकार का पेड़ जो बागों में लगाया जाता इर्विन ( Irvine ) के मतानुसार इसके है। इसके फूल सफ़ेद और फल गोल खरबूजे बीज एवं पत्र दोनों अभ्यङ्ग रूप से प्रयोग में के समान पकने पर पीले और चिकने होते हैं। पाते हैं। इस फल की खटाई बड़ी तीचण होती है । इसमें स्टयवर्ट के कथनानुसार इसकी जड़ को काली सूई गल जाती है यह अग्नि संदीपक है। यह एक मरिचके साथ पीसकर विस्फोटक (फोड़ा फुसी) प्रकार का नीबू है। पर लगाते हैं। अमलबेद amala bed--हिं० संज्ञा पुं०, उ० .. जड़ संग्राही रूप से प्रयोग में लाई जाती हैं। अमलबेत, अम्लवेतस ( Rumex vesic इं० मे० मे० । arius)। अमलमणि: amala-manih-सं० पु. ) श्रमलबेद नींबू amala beda-nibu-हिं० तुरा अमलमणि amalamani-हि० पु. ) ली । (१) स्फटिक, फिटकरी, (Alumen) । रा० अमलबेल amala bela-हिं० गिहड़ द्राक,कस्सर। | नि० व० १३ । । (२) कर्पूरमणि, कर्पूरगंधपं०,हिं०। अम्लपर्णी-सं० । बण्डल, अम्ललता, मणि विशेष । (३) बिल्लौर, स्फटिक | सोनेकेशुर -बं० । वाइटिमा (Vitis Carno. | अमल रत्नम् amala-ratnam-सं० क्ली. sa, Wall, Vight )| सीसस कानोंसा स्फटिक, फिटकिरी । ( Alumen) रा०नि० (Cissus carnosa)-ले० फ्लेशी वाइल्ड व०१३ । For Private and Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मल लता છ૭ श्रमसूले अमल लता amala-lata-बं० अमलुल aamalula-अ० कनाबरी । अमल वेल amala-vela. श्रमलेलस amalailasa-बरब० अफरीका के देखो-अमलबेल। किसी किसी भाग में एक प्रसिद्ध वनस्पति का अमलसी amalasi-फा. अनार भेद अर्थात् | नाम है। अनार बेदाना | इसे अनार सीतानी भी कहते है। अमलोनी amaloni-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० अम्ललोणी ] नोनियाँ घास । नोनी। इसकी अमला amala-सं० स्त्रो० -हि. संज्ञा स्त्री० (१) महानीली, बड़ा नील । रा० नि० व० पत्तियाँ बहुत छोटी छोटो और मोटे दल की तथा ४। (२) सेहुन्ड भेद। रा०नि०। ( ३ ) खाने में खट्टी होती हैं । लोग इसका साग बना कर खाते हैं जो अग्नि वर्द्धक हैं। कहते हैं कि भूम्यामलकी | पताल आँवला, यूँ ई श्रामला ( Phyllanthus neruri ) अम० । (४) इसके रस से धतूरे का विष उतर जाता है । यह । (५) सातला वृक्ष-हिं. संश पु० [सं० बड़ी पत्तियों का भी होता है जिसे कुलफा कहते श्रामलक ( ६ ) नालिनाला, श्रामला आँवला ( Phyllants us Emblica)| अमलोरा amalora-पं० आमला, श्रामी, खेमिल, प्रयोग. सुदरोग० चि०। खेतिमल । मेमो०। श्रमलाल amalola-अ० रेत में रहने वाला एक अमलाज्झटा amalajjhatā-सं० स्त्री० भूधात्री har ( Phyllanthus neruri) ___ जानवर है। श्र०टी०भ० । प्रमलोलवा amalolava-हिं० त्रिपत्री, अम्ल पत्री, गोधापदी-सं०। Vitis Trifolia,Ci श्रमलो amali-हिं० वि० अमली aamali-अ. SSUs Carnosa ! देखो-गोधापदिका (१) अमल में आने वाला । व्यवहारिक । (२) (दी-) करने वाला । ( ३) चिकित्सा शारका वह अंग अमवती,-टी amavati-,ti-हि. खटकल, जो क्रिया से संबन्ध रखता है । ( ४ ) नशे चाङ्गेरी, चूका । Rumex Scutatus बाज़ । (५) अम्ली, इम्ली। अमश āamash-अ०(१) दृष्टिमांद्य, दृष्टि की . अमली amali-हि० संज्ञा स्त्री०, द. निर्बलता-हि। ज़ोफ़ बसर, नज़र की कमज़ोरी, अमली का बोट amali-ka-bot (२) चक्षु द्वारा जलस्राव, आँख से पानी [सं० अम्लिका ] (१) इमली, तितडीक बहना। ( Tamarindus Indicus)। (२) अमस: amasah-सं० पु. एक झाड़ीदार पेड़ जो हिमालय के दक्षिण अमस amasa-हिं० संज्ञा पु. गढ़वाल से अासाम तक होता है । करमई रोग ( Disease )। उ० । गौरूबटी । श्रमसानिया amasaniya-पं० बुतशुर । चीवा अमलूक amaluka-हिं० संज्ञा पु० [सं० अम्ल ] एक पेड़ जो अफ़ग़ानिस्तान, विल चिस्तान अमसुल amasula-दम्पिल० श्रोठ, श्रोष्ट । हजारा, काश्मीर, और पंजाब के उत्तर हिमालय Garciniaxantho clhymus | फा० की पहाड़ियों पर होता है । इसमें से बहुत सा ___ इं० १ भ0 । ई० मे० मे०। रस बहता है जो जम कर गोंद की तरह हो | अमसूल amasula-हिं० संज्ञा पुं० [देश०] जाता है। इसका फल ताजा और सूखा दोनों एक पतला पेड़ जिसकी डालियाँ नीचे की ओर खाया जाता है । सूखा फल काबुली लोग लाते झुकी होती हैं और जो दक्षिण में कोकण, कनारा हैं। इसे मलूक भी कहते हैं । और कुर्ग के जंगलों में होता हैं। इसका फल __मेमो०। For Private and Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमसुख ४६० अमाराइलिस ज़ीलेनिका खाया जाता है और गोवा में त्रिंदाव के नाम से अमाइलोप्सिन amylopsin-६० श्वेतसार बिकता है । पर यह वृक्ष उस तेलके कारण अधिक विश्लेषक । देखो-क्लोमरस । प्रसिद्ध है जो उसके बीज से निकाला जाता है। अमाक amaq-ऋ० ( ब०५०), मौक़ (ए. बाज़ारों में यह तेल जमी हुई सफेद लम्बी व०) आँख का भीतरी कोया। पत्तियों वा टिकियों के रूप में मिलता है जो साधारण गर्मी से पिघल जाती हैं। यह वद्धक | अमागारून amaghirun-य०, खन्ब नब्ती, और संकोचक समझा जाता है तथा सूजन श्रादि अप्रसिद्ध है। See-kharnuba-nabti. में इसकी मालिश होती है। मरहम भी इससे अमाघौत amāghouta-हिं० संज्ञा पु० (१) बनाते हैं। एक प्रकारका धान जो अगहन में तैयार होता है। अमसूख amasukh-बरब०, यू. एक अप्रसिद्ध श्रमातशो amātashi-सं. स्त्री०, सुख बूटी है। रवासन । अमसोल ) amasola-बं० कोकम, डासरा अमातीतस amātitas-यू०, शादनज या कण आमसोल -हिं० । वृक्षाम्ल, अम्लवृक्षक। जो गर्म ताम्र और लौह के कूटने के पश्चात् प्रमहर amahara-हिं० संज्ञा स्त्री० [हिं० गिरते हैं। श्राम ] अामकी सूखी कली छिले हुए कच्चे माम | अमात्र amātra-हिं० वि [सं०] मात्रा रहित की सुखाई हुई फ्रॉक यह दाल और तरकारी में | वेहद । अपरिमित । पड़ती है इसे कूट कर अमचूर भी बनाते हैं। माद aamad -अ०, श्रास की जड़। See. अमा aama-अ० अंधता, अंधापन हिं० । कारी, ! Asa. नाबीनाई, अंधा होना । Blindness. | अमान amana-ता०, अजवाइन । Carum नोट-अअ मा अर्थात् अंधा। इसका स्त्री | ("tychotis ) A jowan. हिं० वि० लिंग अम्या है। [सं०] जिसका मान वा अंदाज न हो। अपरिश्रमाप्रदा amaada-बं० कपूर हरिद्रा, अम्बा मित । परिमाण रहित । इयत्ताशून्य । हलदी। ( Curcuma amada ) ई० अमानस्यम् amānasyam-सं० क्ली०, पीड़ा, मे० मे। दुःख ( Pain)। अमाइरिस केम्फोरिक amyris campho श्रमामून amamun य०, हमामा, ric-ले. अज्ञात । अमूमन amuman अपर प्रसिद्धी अमाइरिस कामीफोरा amyris commi बूटी है। phora, Koi0. कारिमफारा मडागास्करन्सिस मायरीन amayrin-इं० गोंद । ( Commiphora madagascarens श्रमार amaraa-हिं० संक्षा पु० अमड़ा | is, Lindl. गूगुल | ई० हे० गा० । श्रमारस amāras-यु०, झालर, तुर्मुस । अमाइरिस गाइलोडेन्सिसamyris gylode अमाराइलीडीई amarylledacerensis, Roab.-ले० अज्ञात । अमाइली ब्रो माइडम् amyli-bron.idum अमाराइलिडेसीई amalyllidacert ले०, सुखदर्शन वर्ग।। देखो-एमाइल। अमाराइलिस ज़ोलेनिका amaryllis zeylaश्रमाइलोडेक्स्ट्रीन amylodextrin-ले० श्वेत सार भेद । देखो - जायफल । फा० इं० __mica, Ror.- ले० । सुखसुदर्शन-हिं० । ३भा० । ___Crinum zeylanica.-ई हैं. गा० । For Private and Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमाराइलिस लिनिऐटा ४१ अमारेण्ट(न्थ )स हाइपोकेण्डिएकस अमाराहलिस लिनिरेटा amaryllis Linea- -सं०। सिरु-किरई -ता० । सिरु कुर-ते. । ta, Lam.-ले० सुखदर्शन । ई० है. चौलाई -हिं० । गा । अमारेण्ट(न्थ)स क्रएण्टस amarant (h). Altrefae facrariş amaryllis Cinga us cruentus, Mig. ले. ताजे खरूस, _lese-ले. सुदर्शन । ई० हैं. गा० । बुस्तान अफ़रोज़ । गुल केश | Amaranth, अमारी amari-हिं० स्त्री० अम्ली, सरसोटी-हिं । various leaved । मेमो०। ई० हैं. मुत्ता-बं० । पाती मिल-नेपा० । कण्टजीर-लेप०। गा० । पेल गुमडु, मसुर, बउरो-गों । किम्प-लीन-बर। अमारेण्ट(न्थ)स गैजेटिकस amarant Antidesma Diandrum, Tulasn. (h) us gangeticus, Linn.-ले. मेमो० । पत्र व फल खाद्य कार्य में आते हैं। . बानसपाता--नटिया-बं० । मेमो.। अमारीतन amāritan-एक बूटी जो किसी किसी अमारेण्ट (न्थ) स ट्रिस्टिस amarant(h)us के मत से बाबूनह गाव तथा किसी के मत से | tristis-ले० माट की भाजी | Amaranकैसूम की भेद से है। th, round headed | ई० है. गा० । अमोफैलस कैम्पेन्युलेटस Amorphopha | अमारेएट (न्थ) स पैनिक्युलेटा amarant llus Campanulatus, Blume.-ले० (h) us paniculata-ले. ताजे खरूस, जिमीकन्द, सूरण | फा० ई० ३ भा०। बुस्तान अफ़रोज़ | मेमो०। अमॉर्कोफैलस सिल्वैटेकस amorphopha. llus sylvatacus-ले० सूरन, ज़मीकन्द अमारेण्ट (न्थ) स पोलिगेमस amarant(h) -हिं० । अोल-बं० । ई० मे० मे। us polygamous-ले० Prince's श्रमालीन amalina-रु. अंगूर का पानी। feather (Cock's comb.)-इं० । सखास, देवकटी, चौलाई, कलगा। इं०म०म० श्वेतमुर्गा अमारेण्ट(न्थ)स amarant(h)us, Sp.-ले० -बं०। चौलाई । अमारेण्ट(न्थ)स अङ्गस्टिफोलिया amaran अमारेण्ट (न्थ)स फेरिनेशिअस amarantt (h)us angus tifolia-ले० बनसपाता (b)us farinaceus, Roxb.-ले० चौलाई नटिया-बं०। मेमो०। वर्ग की एक ओषधि है। अमारेण्ट(न्थ)ल अनडैना Amarant(h). अमारेण्ट(थ)स झूमेण्टेसिस amarant(h) us anardana, Hamilt-ले० चुश्रा us frumentaceus, Buch.-ले० । -हिं० । चौलाई, गनहर, तवल, सिल (बीज) कियेरी-द. भा० । मेमो०। -पं० । साग बं० । मेमो०। अमारेण्ट(न्थ )स मैङ्गोस्टेनस amarant(b) अमारेण्ट (न्थ)स पेट्रोपप्युरिअस ama us mangostanus-ले० चौलाई, गनहर. rant (h) us atropurpureus-ले० उत्तरी भा० । साग-बं० । मेमो०। वानस्पता। ( Black amaranth )इं० अमारेण्ट(न्थ )स स्पाइनोसस amarantहै. गा० । . (b) us spinosus, Willd.emgo #rizt अमारेण्ट (न्थ) स ऑलिरेशिअस amarant नटिया । कण्टा नटे -बं० । कांटेमाठ-द०, बं०। (b) us oleraceus-ले. मरसा, माटकी मुलुक किरई-ता० । चौलाई, तण्डुलीय--सं०। भाजी, चन्दी साग । ई० हैं. गा०। काण्टालो डम्भो-गु० । फा०ई०३ भा०। अमारेण्ट (न्थ) स कैम्पेस्ट्रिस amarant(h) अमारेण्ट(न्थ )स हाइपो करिडएकस amar. us campestris, Wild.-ले० मेघनाद | ant(h)us hypochandriacus-ले० । For Private and Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमारेण्टे (न्थे) शाई ४८२ अमिय मूरि श्वेतमुरगा-बं० । कलगा,सरवारी,देवकटी-हिं० । अमाह amaha-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अमांस] सफेद मुरगा-गु० । इ० मे० मे। वि० अमाही नेत्र रोग विशेष | आँख के अमारेण्टे (न्थे) शोई amaranthiacee ढेले से निकला हुआ लाल मांस । नाख ना । --ले० चौलाई वा ताण्डुलीय (अपामार्ग) वर्ग। श्रमाही amāhi-हिं० वि० [हिं० अमाह ] देखो-अमारेन्थेशोई। अमाह रोग संबन्धी। अमारेन्थ amaranth-इं० चौलाई, तण्डुलीय । | अमिए amie-बर० (ए०व०), अमिए मियात्रा अमारेन्थ ईटेब्ल amaranth eatable--ई. (ब० व०) जड़, मूल-हिं । Root or मरसा, माट । ई० हैं ० गा० । Rhizome | स० फा इं०। अमारेन्थ गैजेटिक amarranth yang. | श्रमिका-नॉकटर्ना ऑफ रम्फियस Amica__etic--इ० लाल साग | ई० हैं. गा० । nocturna of Rumphius- ले० गुलेअमारेन्थ ब्लैक amaranth black--इ. शब्बो, गुलचेरी हिं०, बम्ब० । रजनी गंधा बानस्पता। इ है० गा०। -सं०,बं०। (Polianthus Tuberosa, अमारेन्थ राउण्डहेडेड amaranth round Linn.) फा० इं०३ भा०। headed--इ. माट की भाजी। इ० हैं. अ (ऐ) मिग्डला amigdala-ले. कडुअा बादाम गा० । ( Bitter almond ). अमारेन्थ वेरिअस लीड amaranth var- अ (ऐ) मिग्डला अमारा amygdala am ious leaved-.ई. गुलकेश । इ० हैं. ara-ले० कटु वाताद, कडुश्रा बादाम । ( Bitगा० । ter almond ). अमारेन्थ हमैफ्रोडाइट amaranth her-अमिग्डला डल्सिस amygdala dulcis-ले. ima.phrodite:-इ. चौलाई, कलगा--हिं० । मधुर वाताद, मीठा बादाम । (Sweet Alm६० हैं. गा०। ond) अमालह amālah--अ० इन्तिकाल मर्ज़ । इसका श्र (ऐ) मिग्डेलस कम्यूनिस amygdalus शाब्दिक अर्थ प्रवृत कर देना,परिवर्तन, करना फेर communis, Linn.-ले. बदाम, फार्सी देना है; किन्तु वैद्यक की परिभाषा में किसी दोष - बादाम । ( The Almond ). फा० ई. १भा०! को विकारी अवयव से दूसरे अवयव की ओर अ (ऐ) मिग्डेलस डल्सिस A mygdalus प्रवृत्त कर देनो अमालह कहलाता है। मेटास्टेसिस । dulcis-ले० मधुर वाताद, मीठा बादाम । Metastasis--gol (Sweet almond ). अमालीन amalina-रू. अंगूर का पनी । | अ (ऐ) मिग्डेलीन amygdalin-इं० वाताद अमावट amavata-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० | सत्व । ( A glucoside contained in आम्र, हिं० श्राम+सं० श्रावर्त प्रा० श्रावह ]/ bitter Almonds ) (१) रोटिका रूपमें सुखाया हुश्रा श्रामका रस ।। अाम्रावर्त्त-सं० । श्राम के सुखाए हुए रस के अमिताशन amitashana-हिं० वि० [सं०] पर्त वा तह । इसे बनाने के लिए पके ग्राम को जो सब कुछ खाए। जिसके खाने का ठिकाना निचोड़ कर उसका रस कपड़े पर फैला कर सुखाते न हो। हैं । जब रस की तह सूख जाती है । तब संज्ञा पुं० (Fire) अग्नि | श्राग। उसे लपेट कर रख लेते हैं । The inspissa. अमिय म्ररि a miya-māri-हिं० संशा स्त्री. ted juice of the mango. [सं० अमृत मूरे ] अमरमूर | अमृतबूटी । (२) पहिना जाति की एक मछली । संजीवनी जड़ी, जिलाने वाली छूटी। For Private and Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४. प्रमिया ४८३ भमुबीर अमिया amiya-हिं० श्राम का कच्चा फल । अमीवा का शरीर एक स्वच्छ गाढ़े भली प्रकार अमिरतो amirati-हिं. संज्ञा स्त्री० दे० न बहने वाले शहद जैसी वस्तु से बना है। इसका इमरती । मिठाई भेद। वास्तविक परिमाण 1 से 2 इंच तक (ग्यास अमिल amila-हिं० वि० [सं० श्र=नहीं+हिं० मिलना ] (१) न मिलने योग्य । (२) बेमेल | में ) होता है। इसमें चैतन्यता के प्रायः सभी अनमिल। लक्षण पाए जाते हैं अर्थात् यह एक ही घटक से अमिलतास amilatasa - उन सम्पूर्ण कार्यों को सम्पादित करता है जो अमलतास। किसी एक जीवधारी को जीवन व्यापार चलाने के अमिलातकम् amilatakam-सं० क्ली० बेला लिए करना आवश्यकीय होता है। देखो-सेल । __-हिं । हला० | See-Bela PRIT Traia amíra-zambúrána-ro अमिलातका amilataka-सं० स्त्री० महाराज शहद की मक्खियों का सरदार । तरुणो पुष्प वृक्ष । बेला-हिं०, बं० । रा०नि० अमीरह, amirah-ले० लिसानुल कल्ब । व०१०। See-Lisánul kalb. अमिलियापाट amiliya-pita-हिं. संज्ञा पु० अमीरुशिया amirushiya-यू० शवासर (बरि[हिं• अमिलो इमिली+पोट=रेशम ] एक प्रकार आसिफ या कैसूम भेद)। का पट वा पटसन । | अमीरेही aami-rehi-० अग्लूकूमा। वस्तुतः अमिली amili--हिं० संज्ञा स्त्री० दे० अम्लिका । यह श्याम अथवा हरित वर्ण का मोतियाबिन्दु अमिश्रण amishrana- संज्ञा पुं० [सं०]] है, जिसमें नेत्रपिण्ड प्रगट रूप से ठीक मालुम [वि. अमिश्रित ] मिलावट का प्रभाव । होता है, परन्तु वस्तुतः उसमें दृष्टि शकि नहीं अमिश्रित amishrita-हिं० वि० [सं०]| होती । ग्लॉकूमा (Glaucoma)-ई०। (१) न मिला हुआ । जो मिलाया न गया हो। अमीरोसिया amirosiya-यु० यकृत तथा (२) जिसमें कोई वस्तु न मिलाई गई हो। एक माजून विशेष । बे मिलावट । खालिस । शुद्ध । पृथक् भूत । | अमीलेली aami-laili ] -अ० नक्कान्ध्य, अमिष amisha-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] दे. अशा aasha रतौंधी । हेमीरेलोपिया, | (Hemeralopia)-ई। श्रामिष । | अमीव amiva-हिं० संज्ञा पं० [सं०1रोग। अमी ami-सं० स्त्रो० अमृत-हिं० । ( The | अमृत-ह । ( The | अमीव चातनीः amiva-chatanih-सं० ___water of life, nectar.). रोग नाशक, रोग उत्पन्न करने वाले जन्तुओं का मी aami-अ० दृष्टि शक्ति का नष्ट हो जाना, नाश करने वाला । अथर्व०। सू०७।५। देखने की शक्ति का ह्रास । अमु इङ्गुरु amu-inguru-सिं० श्राईक, मादी, अमीनोअम्ल amino-amla-हि०पु. (Am- अदरख । (Zingiber officinalis,Rocb.) ino acid ) प्रोटीन की अन्तिम अवस्था को । स० फा० इं०। कहते हैं जो शरीर द्वारा ग्रहण की जाती है। श्र()मुक (a)muk-नेपा०, अमरूद । (Gu. अमोनोफॉर्म aminoform-इ० युरोट्रॉपीन । | . ava). See-Amaruta. अमीबा ameba-ई० अाधुनिक प्राणिशास्त्र के अमुकी amuki-नेपा० मैनफल । ( Randia अनुसार एक अणुवीक्ष्य एकसेल युक्त जीवधारी। Dumetorum, Lam.) नोट-वेद (अथर्व) में अमीव शब्द रोगोत्पादक अमुकिरम amukiram-मल० । जीर। कीटाणु अथवा रोग के लिए प्रयुक्त हुआ है। अमुक्कीर amukkir-ता० .. . " For Private and Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमुकुडा विरई ४८४ प्रमूर्तिमान Withania (Puneeria) coagulans, अमूदुल फ़क़रात् aamudul-fagarat Dunal. इं० मे० मे०। अमूद फ़क़री aamuda-fagari अमुक्कुडा विरई amukkuda-virai-ता० -अ० रम्दतुल करात, सिलसिलतुज जहर । असगंध के बीज, पुनीर-हिं० । Withania मेरुदण्ड, सुषुम्नाकांड । (Vertebral colu. Coagulans, Dunal. स० फा० ई० । mn, Rachis, Back bone.) अमृदुल बत्न aamudul-batn-अ० सुषुम्नाअमुज्जनह amujjanah-अ०धेनुक पक्षी। काण्ड का वह भाग जो उदर के सम्मुख स्थित अमुत amuta-पं० बण्डा-म०प्र०( Lora है, पृष्ठ, पीठ। ___nthus Longiflorus.) अमूदुल मिबली aamudul-mihbali-अ० प्रमुत्तश्राम amuttaaam अ० गेहूँ, किसी किसी | योनि के भीतर श्लैष्मिक-कला सम्बन्धी एक के विचार से प्रामाशय का नाम हैं । सीवन है । कॉलम ऑफ़ दी वेजाइना (Colu. अमुदपु चेटु amudpu-cheetu-ते. एरण्ड, | __mn of the vagina.)। अरण्ड वृक्ष । ( Ricinus Communis.). अचूमन amuman-अ० हमामा, अमामून, फा० इं०३ भा०। हामामा,हमाम । महिलू-फा०। (Dionysia अमुम amum-ता० दुद्धी, रविन्दुच्छदा Diapensie folia, Buiss.) फा०ई० ( Euphorbia. Pilulifera.)। इं० २भा०। मे० मे। अमूरा amoora-ले. तिकराज, हारिनहारा । अमुलटी amulati-बं० श्रामला । (Phylla- nthus Imblica.) अमूरा कल्क्यु लेटा amoora-culculata । अमुलका amulka-बं० जंगली अंगूर, पनीरी अमूरा कुक्युलेटा amoora-cuculata, I -द०, हिं०। ( Vitis indica. ) ई० ___Linu.-ले० उमर । (Andersonia Cu- मे० मे। culla ta, Roxi.)। ई० हैं. गा० । अमुसा amusa-. अजवाइन । ( Carum | अमूरा रोहिटका amoora rohituka, W. "Ptychotis" A jowan.) ई० मे० ___&. d.-ले० रोहितका रोहिना, रूहेड़ा हिं० । , मे। ( Andersonia Rohituka, Roxb.) अमूक amuka-पा० अमरूत (Guava.)। फा० इ० १ भा० । मेमो०। -हिं० वि० [सं०] ( १ ) जो गूंगा न हो । | अमूरा रोटक amoora rotuk- इं० तिराज(२) बोलने वाला । वक्ता । grétar EiTi Amoora or Andersoअमूद aamuda-० इमाद, उम्दह् । स्तम्भ, ___nia Rohituka, Boxb. । ई० है० गा० । खम्भा । इसका बहुवचन "उमूद" है। कॉलम अमूरा हुडेड amoora hooded-इं० उमर । (Column. )-इं०। . इं० है.गा। अमूद कासातीर aamuda qasatir-अ० अमूर्त amurta-हिं० वि० [सं०] निराकार, मूत्र प्रवर्तक सलाईके भीतर का तार | स्टिल्लेट मूर्ति रहित, अवयव शन्य. निरवयव । (Stillet.)-ई। Formless, Shapeless; Un. अमूदन्दाँ amu-dandan-पं० रसवत भेद । (Berberis Nepalensis, Spreng.) __ embodied.। -संज्ञा पु. (१) श्राकाश । मेमो०। (२) वायु । (३) जीव । अमूदुल कल्ब āamudul-qalb-अ. मध्य | अमूर्ति amārti -हिं० वि० अमूर्तिमान amārtimāna हृदय, हृदय का बीचो बीच। [सं० ] For Private and Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमूल ४५ अमृतकल्प-वटी (१) मूर्तिहीन, प्राकृति रहित (Formless.) | (Simple poison )। (६) दुग्ध निराकार । (२) अप्रत्यक्ष । अगोचर । (Milk)। रा०नि० व० १५। (१०) अनूल amāla -हिं० वि० [सं०] अन्न । ( Corn) हे० च०। (११) औषध अमूलक amulaka मूल रहित, निमूल, ( Medicine ) | रा० नि० व०२०। जड़शून्य । ( Destitute of a root or (१२) शृ'गी विष, सींगिया, बच्छनाग (Ac. origin.) onite)। (१३) स्वण,सोना । ( Gold ) अमूलक amulak-हिं० वि० मूलशून्य, निमूल, (१४) भदय द्रव्य ( Edible thing)। अप्रामाणिक | हे० च० । (१५) यज्ञ के पीछे की बची हुई अमूला amula-सं० स्त्री. (१) अग्निशिखा सामग्री । (१६) धन | (१७) हृद्य पदार्थ । वृक्ष, लाङ्ग ली। ईपलांगुलिया-बं० । वै०निघ० । (८) सुस्वादु द्रव्य । मीठी वा मधुर (२) अर्कपत्रा । के। . वस्तु । अचूस amusa-अजवाइन, नानवाह । (Ligu प्रमृत कन्दा amrita-kanda-सं० स्त्री० कन्द sticum A jowan ). इ० हैं. गा०। । गुडची-हिं० । कन्दगुलवेल-मह० । वै० निघ०। See-kanda-guduchi. अमृणालम् amrinalam-सं० क्ली० (१) अमृतकर amrita-kal-हिं० संज्ञा प० [सं०] श्रमणाल, लामजक, श्वेत उशीर | (Andropogon laniger ) रा० नि० व० १२, चन्द्रमा, शशि, जिसकी किरणों में अमृत रहता है। निशाकर । ( The moon) भा०पू०१ भा० क०व०, मद० व०३। (२) उशीर, खस-हिं० । वेणार मूल-बं० । अमृत कला निधि amritakalanidhi-सं. ( Andropogon murricatus) रत्ना, पु. वच्छनाग २ मा०, कौड़ी भस्म ५ मा०, रा०नि० व० १२ । च० द० अर्श चि. कालीमिर्च १ मा०, बारीक चूर्णकर जल से मूंग प्राण दागुड़िका। प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। गुण-ज्वर, पित्त और अमृतः amritah सं० ) ... कफज अग्निमांद्य को नष्ट करता है। वृ• नि० अमृत amrita-हि. संज्ञा पु पारद, र. ज्वरे। पारा ( Mercury)। ग०नि०व० १३। मृतकल्प भल्लातकः amrita-kalpa-bha(२) वन मुद्ग, बन मूंग (Phaseolus llāta kah-सं० पु. पका हुश्रा भिलावाँ trilobus) । रा०नि० व० १६ । देखो-मकु तीक्ष्ण वीर्य तथा अग्निके तुल्य होता है, इसका ष्टकः । अत्रि २ स्थान २ अ. । (३) धन्वन्तरि विधि पूर्वक सेवन करना अमृत कल्प होता है । "ना धन्वन्तरिदेवयोः" । मे तत्रिक। (४) वा० उ० अ०३६। बाराहीकंद ( Tacca aspera)। रा० अमृत-कल्प रसः amrita-kalpa-rasah नि. व. ७ । -ली. (५) वह वस्तु जिसके - सं० पु. अजीर्णाधिकारोक रस । शुद्ध पारद पीने से मनुष्य अमर हो जाता है। पीयूष, सुधा, तथा गंधक के समान भाग की कजली करें पुनः निर्जर, समुद्रोत्पन्न १४ द्रव्यों में से एक द्रव्य उक्र कजली का अर्ध शुद्ध विष ( वत्सनाभ) विशेष । ( Ambrosia, nectar)। (६) तथा रतना ही सुहागा (लावा किया हुआ) सलिल, जल, ( Water )| रा०नि० लेकर इसे यत्नपूर्वक तीन दिन तक भङ्गराज स्वव० १४। (.) घृत, घी (Ghee)। मे०, . रस की भावना दे मात्रा-मुद् प्रमाण । रा०नि० ५० १५, वै० निघ० वा० व्या० अमृत कल्प वटो amrita-kalpa-vati-सं० भुजङ्गी गुटी। "अमृत यज्ञशेषे स्यात पीयुषे स्त्री० पारा, गन्धक समान भाग लेकर कज्जली सलिल घृते"। मे। (८) सामान्य विष करें, फिर विष और सोहागा प्रत्येक पारे के बरा For Private and Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृत काश: अमृत-पालो-रसः बर डालकर भाँगरे के रस में ३ दिन घोटे, और | अमृत नाम विख्यात घृत मरे हुए को भी जीवित मूंगके समान गोलियाँ बनाएँ । मात्रा-२ गोली ।। करता है। वङ्ग से० सं० विष चि० । गण-शूल, मन्दाग्नि, अजीण अादि का नाश | अमृतजटा amrita-jata-सं०स्त्री० । जटाकरती तथा धातु पुष्टि करती और अनुपान भेदसे अमृतजरा amita-jara-हिंस्त्री० । मांसी, अनेक रोगों को नारा करती है। र० सा० सं० बालछड़ | Nardostachys ja tamaअ. चि०। nsi. De. | रा०। अमृतकाशः amrita-kashah-सं०पु० (Ox- | अमृतजा amrita.ja-सं० स्त्री. (१) हरीतकी, ygen) श्रोषजन, उष्मजन । हरड़ । ( Chebulic Myrobalan. ) अमृत गर्भः amrita.garbhah-सं०ए० अात्मा वै० निघ०। (२) श्रामला ( Phyllant__ के भीतर । अथर्व । सू०४६ । १ । का० ३ । hus Emblica.)। (३) गुडूची ( Tiअमृत गर्भ रसः amrita.garbha-rasah nospora Cordifolia.)। (४) लह-सं० पु. शु० गन्धक, शु. पारद, १०-१० सुन, रसोन (Garlic.)। गद्याणक लेकर दोनोंको तीन दिनतक २० गद्याणक अमृतदान amrita-dāna-हिं० संज्ञा पु. श्राक के दूध में घोटकर फिर ३ दिन सेंहुड़ के [सं० मृद्वान् ] भोजन की अथवा अन्य चीजें वृद्ध में घोटकर सराव संपुट में रखकर भूधरयन्त्र रखने का ढकनेदार बर्तन । मिट्टी का लुकदार में पुट दें। इसी तरह ८ पुट देने के पश्चात् बर्तन । पीसकर बारीक चूर्ण करके चंदन, हड़ और मिरचों अमृतधारा amrita-dhāna-हिं० संज्ञा स्त्री० के क्वाथ और अम्बरवेल के रसकी ७-७ भावना एक पेटेन्ट श्रौषध विशेष । दें। मात्रा-२ रत्ती । १ गद्याणक मिश्री के सहित श्रमत नाभि amrita-nābhi-सं० स्त्री० पारद, ठंडे पानी से सर्व रोगों में दें। विशेषकर वात. पारा । अथर्व०।६ । ४४ । ३। शूल, पसली का दर्द, परिणाम शूल, वात ज्वर, | अमृतनाम गुटिका amrita-nāma-gutiki मन्दाग्नि, अजीण', कफ, पीनस, आमवात और -सं० स्त्री० देखो-अमृत गुड़िका । कफ के रोगों का नाशक है। र० चि०७ स्तवक। अमृत पञ्चकम् amrita-panchakam-सं० नोट-१ गद्याणक=६४ वा ४८ रत्ती।। क्ली० सोंठ, गिलोय, सफेद मूसली, शतावर, अमृत गड़िका amrita gudika-सं. स्त्री. गोखरू इन पांच चीज़ों को अमृत पञ्चक कहते हैं। इन पाँच चीजों के क्वाथ की ताम्रादि धातुओं यह औषध अजीर्णके लिए हितकारी है । योग की भस्म में तीन या सात भावना देकर गजपुट पारद, गंधक, विष (सींगिया), त्रिकटु और ग्रिफला। सर्व प्रथम पारद गंधक समान भाग की में फेंकने से धातुओं का अमृतीकरण संस्कार कजली करें । पुनः शेष औषध के समान होता है जिससे धातुओं की भस्म अमृत के भाग चूर्ण को उसमें योजित कर भृगराज स्वरस समान गुणकारी होती है। की भावना देकर मुद्ग प्रमाण मात्रा की वटिकाएँ अमृतपाणि: amrita-pānih-सं० पु. पियूष प्रस्तुत करें। यही अमृतवटी अर्थात् अमृत गुटिका पाणि, वह वैद्य जिसके हाथमें अमृत का सा असर है। रसे. चि०। हो । अथर्व० । अमृतघृतम् amrita.ghritam-सं० क्ली० अमृतपालो रस: amrita-pālo rasah-सं. अपामार्ग बीज, सिरस बीज, मेदा, महामेदा, पु. पारा, गन्धक, बच्छनाग प्रत्येक समान भाग काकमाची, इन्हें गोमूत्र में पीस गोघृत में मिला __ लेकर पानी में घोटकर गोला बनाएँ, फिर हाड़ी धृत सिद्ध कर पीने से विष शांत होता है। यह के मध्य में रखकर ऊपर से तांबे की लोटी रखकर For Private and Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतप्रभा गुटिका अमृतप्राशावलेहः सन्धि बन्द कर के हांडी के मुंह पर ढक्कन देकर तोले ) और बकरी का दुग्ध ४ प्रस्थ डाल विधिकपड़ मिट्टी कर सुखा लें। फिर एक दिन वत पकाएँ, पुन: २ कर्ष (२० मा० ) केशर दीपाग्नि से पकावें, ठण्डा होने पर तांबे के पत्र डाल मूर्छित कर पश्चात् निम्न औषधियों का और उसके भीतर के रस को बारीक पीसकर रख कल्क तैयार कर पुनः घृत में डाल पाक करें। ले। सेंधानमक और अदरक का रस मिलाकर यथा-खिरेटी को जड़, गेहूं (गोधूम), असगन्ध प्रथम जिह्वा और मुख को अच्छी तरह चुपड़ गुरुच, गोखरू, कशेरू, सोंठ, मिर्च, पीपल, लें। फिर इस रस की ३ रत्ती की मात्रा रोगी धनियाँ तालांकुर, प्रामला, हड़, बहेड़ा, कस्तूरी, को देकर गरम कपड़े प्रोढ़ा दें। एक पहर के कौंच बीज, मेदा, महामेदा, कूट, जीवक, ऋषमक, बाद खूब पसीना श्राएगा। इसी तरह तीन दिन कचूर, दारुहल्दी,प्रियंगु, मजीठ, तेजपत्र, तालीशतक करने से ज्वर बिलकुल नष्ट हो जाता है। पत्र, बड़ी इलाइची, पत्रज, दालचीनी, नागकेसर, पथ्य-छाँछ, चावलका भात | पुष्प चमेली, रेणुक, सरल, जायफल, छोटी रस० यो० सा०। इलायची, अनन्तमूल, कन्दूरी की जड़, जीवन्ती, अमृतप्रभा गुटिका amrita-prabhā ऋद्धि, वृद्धि, गूलर प्रत्येक १-१ कर्ष (१०-१० guţiká मा०)। जब घृत तैयारहो पुनःस्वच्छ वस्त्रसे छानकर अमृतप्रभा वटी amrita-prabhā-vati ) उसमें शरावक भर ( १ सेर ) उत्तम मिश्री छोड़ -सं० स्त्री० (१) मिर्च, पीपलामूल, लवंग, | विधिवत रक्खें। मात्रा-१० मा० । हड़, अजवाइन, अम्ली, अनारदाना, सेंधालवण, गुण-इसके सेवन से शिरोव्याधि, खासी, सोंचर लवण, विड़ लवण, १-१ पल: पीपल, अर्श, प्रामशूल, बद्धकोष्ठ दूर होता है। तथा जवाखार, चित्रक, सुफ़ेद जीरा, स्याह जीरा, सोंठ, उष्ण दुग्ध के साथ सेवन करने से ध्वज भंग, धनियाँ, इलायची, प्रोमला प्रत्येक २-२ पल, प्रमेह नष्ट होता है और बल वीर्य की वृद्धि होती इन्हें चूर्ण कर बिजौरे नींबू के रस में घोटकर है । भेष. र. ध्वजभङ्गाधिकार । हा०अत्र. तीन पुट देकर एक मा० की गोलियाँ बनाएँ। ३ स्था०६ अक। वृ०नि०र० | भा० अरु० । अमृत प्राश चूर्ण amrita-prasha.chārna (२) अकरकरा, सेंधा लवण, चित्रक, सोंठ --सं० पु० एलुवा, मुद्गपर्णीमूल, शतावरी, श्रामला, मिर्च, लवंग, हड़, तुल्य भाग ले, विदारीकन्द, बाराहीकन्द, मुलहठी, वंशलोचन, बिजौरा नीबू के रस की भावना दे १-१ मा० की दाख प्रत्येक २ पल | सरलधूप, चन्दन, तेजपात, गोलियाँ बनाएँ। गुण-इसके सेवन से खाँसी, निलोफर, कुमुद, दोनों काकोली, मेदा, महामेदा, गलरोग, श्वास, पीनस, अपस्मार, उन्माद तथा जीवक, ऋषभक, चीनी प्रत्येक श्रद्ध पल । इनका सन्निपात का नाश होता है। चूर्ण कर फिर एलुवा, विदारीकन्द, बाराहीकंद अमृत प्राशः amrita-prashah-सं० पु. और मुग्दपर्णी तथा शतावरी के रस की भावना उत्तम सुवर्ण का चूर्ण, ब्राह्मी, वच, कूट, हरीतकी दें। फिर ईख, पामला और शहद की सातसात इनका चूर्ण घी और शहत के साथ चाटने से भावना दे। यह दूध के साथ पीने से दाह, बालकों की श्रायु, प्रसन्नता, बल की वृद्धि और शिरोदाह, प्रवल रतपित्त, शिर और अक्षि कम्प अङ्गकी पुष्टि होती है। र यो० सा०। तथा भ्रम प्रादि रोगों का नाश होता है। र०र० अमृतप्राशघृतम् amritaprashaghritam स० अ० २१ । -सं० क्ली० बकरे का मांस और असगन्ध १-१ अमृतप्राशावलेहः amrita-prashavalehतुला (५-५ सेर), एक द्रोण (१६ सेर) जल में ah-सं० पु. (१)श्रामला, मजीठ, विदारीकन्द पकाएँ, जब चौथाई रहे, तब गोघृत १ प्रस्थ (६४ ( काकोली, क्षीरकाकोली ) ले इनका सर For Private and Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतप्राश्यावलेहः ४८ अमृतभल्लातकम् समभाग निचोड़ कर गोघृत में मिलाएँ, पुनः खासी, वमन, हिचकी, मूत्रकृच्छ, तथा ज्वर का जीवनीय गणकी समस्त औषधियाँ एक एक तो०, नाश होता है। दाख, चन्दन, लाल चन्दन, खस, मिश्री, कमल, अमतफल amritaphal-कुमा० शर्बती नीबू पद्म काष्ठ, महुए के फूल, सारिवॉ, कुम्भेरके फल, (weet lime )। सुगंधरोहिष तृण १-१ तो० ले, इनका कल्क बनाकर अमृतफन्नम् amrita phalam-सं० क्ली। घी में पकाएँ । जब पक कर शीतल हो अमृतफल amrita phala-हिं० संज्ञा पु.) जाए, तो इसमें शहद ३२ तो०, मिश्री २०० तो० (१) नासपाती-हिं० । नाक-40 Pyrus दालचीनी का चूर्ण २ तो० इलायची चूर्ण २ communis ( The paar tree)। तो०, कमल केशर चूर्ण २ तो० ले मिलादे, मद० व०६ भा०। (२) अमरूद (Guava)। इस तरह यह अवलेह सिद्ध होता है। -पु. (३) पारद (Mercury)। (४) जितेन्द्रिय होकर इसे नित्य सेवन करें। और पटोल, परवल ( Sespadula Tricho. इस पर दूध या मांस रस के साथ भोजन करें तो santhes cucumerina ), (*) उरः तत, रक्तपित्त, तृषा, अरुचि, श्वास, खाँसी, वृद्धि नामक औषध ( See viiddhi)। वमन, मूर्छा, मूत्रकृच्छ,, और ज्वर का नाश रा०नि०व०३1 (६) धात्री वृक्ष, अामला होता है। स्त्रियों में प्रीति उत्पन्न होती तथा ( Phyllanthus emblica) मद० । बल की वृद्धि होती है। अमृतफला amrita-phala-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री०(१)अंगूर, द्राक्षा, दाख । किसभा० प्र० क्षय. रो०चिः । मिस-हिं०। Raisin। (२) आमलकी। (२) दूध में अथवा अामला, विदारीकन्द, श्रामला । ( Phyllanthus emblica.) ईख, तथा दूध वाले वृक्षों के समान भाग रस रा.नि.व. ११। (३) लघु खजूरी बृक्ष, में ६४ तो० गोघृत को पकाएँ, पुनः इसमें छोटा खजूर वृक्ष ( Small date palm मुलहठी, ईख, दाख, सुफेदचन्दन, लाल चन्दन, tree)। (४) श्वेत द्राक्षा-हिं० । उत्तरा, खस, मिश्री, कमल, पद्मकाष्ट, महुए का फूल, उत्तरी-को० । (५) मुनका। गुरुच, कम्भारी, रोहिष तृण, इनका कल्क अमृतबन्धुः amrita-bandhuh-सं० पु. मिला सिद्ध करें, पुनः शीतल होने पर इसमें (१) अश्व, घोड़ा (A horse)। वै० निघः । ३२ तो० शहद, २०० तो० मिश्री, दालचीनी, (२) चन्द्रमा । और इलायची डाल सेवन करें। अमृतवान amrita-bāna-हिं० संत्रा पुं. अमृत प्राश्यावलेहः a.mrita-prashyavaleh [सं० अमृद्वान् ] अमृतदान । रोग़नी हाँडी --सं० पु. दूध, अामले का रस, विदारीकन्द मिट्टी का रोग़नी पात्र । लाह रोशन किया हुश्रा का रस, गन्ने का रस, पञ्च क्षीरी वृक्षों का रस, मिट्टी का बरतन जिसमें प्रचार, मुरब्बा, घी श्रादि और घी प्रत्येक १ प्रस्थ मिलाकर पकाएँ. फिर रखते हैं। इसमें मधुरादि गण, दाख, दोनो' चन्दन, खस, त भल्लातकम् amrita-bhallatakam चीनी, निलोफर, पद्माख, महुए का फूल, अनन्त -सं०क्ली० पवन से टूटे तथा नकुओं से रहित पके मूल, खम्भारी, कतृण का कल्क १-१ कर्ष डाल हुए भिलावें २५६ तो० ईंट के चूण से घिसकर कर अवलेह बनाएँ, शीतल होने पर अर्ध प्रस्थ पानी से प्रक्षालन कर हवा में रख शुष्क कर दो दो मधु, १ तुला चीनी और दारचीनी, इलायची, दल करके १०२४ तो० जल में उबालें जब पद्मकेशर प्रत्येक प्राधा प्राधा पल डाल कर चौथाई शेष रहे तो वस्त्र से छानकर ठण्डाकर ले। भली प्रकार मिलाएँ । यथोचित सेवन करने से पुनः २५६ तो० दुग्ध में पकाएँ जब चौथाई शेष रक्त पित्त, क्षत, क्षय, तृष्णा, अरुचि, श्वास, रह जाए तब बराबर भाग गोघृत मिलाकर पुन: For Private and Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतभल्लातकावलेहः अमृतमण्डुरः पकाएँ, पश्चात् अर्ध भाग मिश्री मिलाकर रई से | अमृत भरम सूतः amita-bhasma-sutah अरछी तरह मथें । ७ दिन तक रखने के - पु. पारा और गाधक समान लेकर पश्चात् यह अमृत तुल्य हो जाता है। प्रातः पिला के साथ ३ दिन तक लोह के खल शोचादि से शुद्ध हो मात्रा पूर्वक सेवन करने से में घोट कर ताम्बे की डिब्बी में रखकर कुष्ठ, कृमि, कान, नाक, उँगली का गलकर बाहर से कपडमिट्टी करके उसमें पुट दें। फिर गिरना तथा केशों का श्वेत होना, दाँतो का त्रिफला, भांगरा, चित्रक,सोंठ,वच, बकुची, शतागिरना इत्यादि दूर हो स्मृति की वृद्धि होती बरी, भिलावाँ, गन्धक, नीलाथोथा, और वच्छहै। भैष० र० कु.ष्ठ चि०।। नाग सबको समान भाग लेकर पीसकर चूण करें अमृतभल्लातकावलेहः amita-bhalataka और उपयुक्र पुट दिया हुआ पारा भाग मिला vale hal-२०० १२८ ता०, १द्ध मिला कर इसको कान्तलोह के बर्तन में त्रिफला का को १०२४ तो. जल में पकाएँ । एनः १२८ क्वाथ करके उसके साथ खाने से ६ महीने में कुष्ठ तो० गुरुच का करक डाल पकाएँ । जब ८क कर नष्ट होता है। नीम का पञ्चांग, शहद, घी और चौथाई शेष रह जाए तब वस्त्र से छान कर उसमें शकर के साथ ६ महीने तक इसका प्रयोग करने ३२ तो० गो घृत, २५६ तो. गो दुध, ६४ तो. से कोढ़ी की नारिका इत्यादि का गिरना बन्द मिश्री, ३२ तो. शहद डाल मन्द मन्द अग्नि से हो जाता है। भिलावाँ का तेल और हरताल पकाएँ । जब पककर गाढ़ा होजाए अग्नि से पृथक् भस्मके साथ इसका प्रयोग करने से श्वित्र कुष्ठ दर कर निम्न औषधों का उत्तम चूर्ण डालें यथा होता है। बेलगिरी,प्रतीस,गुरुच,सोमराजी, पमाड़,नीमछाल, हड़, बहेड़ा, श्रामला, मजीठ, सोंठ, मिर्च, पीपल, अमृतमञ्जरी amita-manjari-सं. स्त्री. अजवाइन, सेंधा लवण, मोथा, दालचीनी, छो. (१) गोरक्ष दुग्धी हुप । रा० नि० व०५। इलायची, नागकेशर, पित्तपापड़ा, तेजपत्र, (२) सामान्य ज्वर में प्रयुक्र रस विशेष, यथासुगन्धबाला, खस, चन्दन, गोखरु, कचूर और रक्क हिंगुल, मरिच, सुहागा, पीपल विष, जायफल चंदन प्रत्येक २.६ तो० । मात्रा-१-४ तो०। इसके इनको सम भाग ले जम्भीरीके रसकी भावना दें। सेवन से कुष्ठ, वातरक, तथा अर्श दूर होता है । मात्रा-२ वा ३ गुआ। किसी किस ग्रंथमें यह अपथ्य-मांस, अम्ल, धूप, अग्निताप, मैथुन, | रस कासाधिकार में वर्णित है । र० सा० सं०। दही, तैल तथा अधिक मार्ग चलना निषेध है। अमृतम अरीरस: amrita-manjari-rasah भा० प्र० मध्य० ख० २ कुष्ट० चि०। -सं० पु. सिंगरफ, मीठातेलिया, पीपल, अमृत भल्लातकी amrita-bha]]ataki-सं० कालीमिर्च, सुहागा, जावित्री, प्रत्येक समान भाग खी० उतम सुन्दर पके हुए मिलावें २५६ तो० लेकर जम्भीरी के रसमें खरल करके १ रत्ती प्रमाण को दो दो फाँक कर चौगुने जल में पकाएँ, जब की गोलियाँ बना सेवन करने से दारुण समिचौथाई जल शेष रहे तब उन्हें पुनः चौगुने गोदुग्ध पात, मन्दाग्नि, अजीणं और आमवात रोग नष्ट में पकाएँ । जब अच्छी तरह गाढ़ा होजाए तब ६४ होते हैं। गर्म जल के साथ सेवन करने से हर तो मिश्री मिला कर सात दिन तक रख छोड़े। प्रकार के रोग शमन होते हैं। इससे पाँच प्रकार पश्चात् अग्नि और बल का पूर्ण अनुमान कर की खाँसी, श्वास, सर्वाङ्ग पीड़ा जीर्ण ज्वर और उचित मात्रासे सेवन करनेसे गुदा के सम्पूर्ण विकार रुयज खाँसी दूर होती है । र० सा० सं० दूर होते और न भाग के केश सुन्दर कृष्ण वर्ण कासे। के हो जाते हैं। इसके लिए पथ्यापथ्य का कोई अमृत मण्डुरः amrita-mandurah-सं० नियम नहीं। पु. देखो- अमृत मगरम् । For Private and Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृत मण्डूरंम् ४६० अमृतवर्तिका अमृत मरङ्करम् amrita-manduram-सं० भाग घी मिलाकर और घी के बराबर शतावरी का क्ली. शुद्ध मर डूर ८ पल,शतावरीका रस ८ पल, रस और उससे द्विगण दृध मिलाकर लोह के दूध, घी और दही प्रत्येक ४-४ पल लेकर एकत्र अथवा मिट्टी के बर्तन में उसे होशियारीसे पकाएँ। पीस पकाकर गाढ़ा करें। इसको प्रातःकाल और फिर उपरोक्त बचा हुआ आधा लोह चूर्ण जोकि सम्ध्या समय १-१ निष्क खाने से वातज, पित्तज । दिव्य श्रोपधियों से और संपुट श्रादि से मारा और सन्निपातज परिणाम शूल का नाश होता है । हुआ है और उपरोक ही भृताम्रक, पारद भस्म र०र० शूले। और त्रिफला, दन्ती, विडंग, दोनों जीरे ( अलग अमृत मन्थः amita-manthah- सं० प्र० अलग ), ढाक के बीज, भाऊ, चित्रक, दुग्धादिपरिगोलित मन्थ । प. मु. २०व०। विधारा, हस्तिकर्ण पलाश की जड़ (अभाव में अमृत महल amrita-mahala-हिं० संज्ञा भूमिकुष्माण्ड),कसालू, तज, त्रिकुटा, पीपलामूल, स्त्री० [सं०] मैसूर प्रदेश की एक प्रकार की गिलोय, तालमूली, सहिजन के बीज अरनी, भैंस। . जवासा, नागदौन, सोनापाठा की गिरी, अमृतमूरि amrita māri-हिं० संज्ञा स्त्री० इन्द्रजी, प्रियङ्गु, नीम और अजवाइन इन सब [सं०] संजीवनी बूटी । अमरमूर । का पृथक् पृथक् चूर्ण करके अभ्रक और लोह के अमृत योगः amrita-yogah-सं०० फलित बराबर मिलाएँ। ज्योतिष में एक नक्षत्र योग विशेष । शुभ फल गुण-वात कफ प्रधान में सौंठ और त्रिफला दायक योग। अत्रि०२ स्था० ७०। के साथ दें। उचित मात्रा में सेवन करने से यह अमृत रसः amritarasah-सं० पु. तत्काल ही जठराग्नि, बल और पुष्टि को बढ़ाता शु० गन्धक २ कर्ष, शु. पारद १ कर्ष, त्रिफला, है। र० यो० सा० । त्रिकुटा, नागरमोथा, विडंग, चित्रक, प्रत्येक का अमृतलता amritalatā-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा चूर्ण १-१ पल सबको मिश्रित कर रक्खे। स्त्री. गुरुच, गिलोय । १० नि० व० ३। १ कर्ष शहद और घी के योग से चाटें और ऊपर (Tinospor'Cordifolia.) शीतल जल तथा गोदुःध या व्रम पान करें तो अमृतलतादि घृतम् amrita-latādi-ghriअम्लपित्त, मन्दाग्नि, परिणामशृल, कामला, और | tam-सं.की. गिलोयरस और उसका कल्क पाण्डु रोग का नाश होता है। र० चि० ११ तथा भैंस का घृत डालकर पकाएँ । पुनः उसमें स्तवक। चौगुना दुग्ध डालकर पकाएँ । इसके सेवन से अमृत रसतुत्यपाकः amrita-tasa tulya- | हलीमक रोग समूल नष्ट होता है । भा० प्र० pākah-सं० स्त्री० देखो-अमृतभल्लातकम् मध्य० ख०२ श्लोक ४६ । तथा वाग्भ० उत्तर स्थान० अ०३६ श्लो० अमृतवटकः amrita-vatakah-लं. पु. ७५। सान्निपातिक अतिसार में हितकारक योग विशेष | अमृतरसा amrita-iasa-सं० स्त्री० कपिल देखो-हा० अत्रि० स्था० ३। अ० पारडु. द्राक्षा, अंगूर । काले दाख-म०। (Vitis - चि०। Vinifera.) रा०नि०व० ११। अमृतवटी amrita-vati-सं० स्त्री० अग्निमांद्य में अमृत रसायनम् amrita-lasayanam-सं० प्रयुत रस विशेष । विष २ भाग, कौड़ी ५ भाग, क्ली लोह चूर्ण ३ भा०, त्रिफला ३ भा०, अभ्रक ___मिर्च ६ भाग, इनको जल में घोटकर मुद्न प्रमाण १ भा०, पारद भस्म १ भा०, इनको सोलह । गोलियाँ बनाएँ।भैष०र० । रस० राज० सु०। पानी में उपयुक चीजों में से प्राधी डालकर अमृतवर्तिका amrita-vartika-सं० स्त्री० उबालें । जब चतुर्थांश शेष रहे तो उसमें समान मत्युजयतन्त्रक रसायनवर्ती । साधन विधि For Private and Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतवल्लरी अमृतलवा यथा-त्रिफला, त्रिकुटा, ब्राह्मी, गिलोय, चित्रक, क्षुप विशेष । रा०नि०व०५। See-Go. नागके रार, सोंड, भांगरा, सम्हालू, हल्दी, दारु- rakshaduddhi. (२) मृतसञ्जावनो। हल्दी, शक्राशन (भाँग, सिद्धि ), तज, इलायची, अमृत सम्भवा amrita-sambhavā-सं० गम्मारी की छाल, वच, वायविडंग प्रत्येक का __ स्त्री० गुड़ ची, गिलोय, गुलवेल, गुलञ्च । (Tinoचूर्ण २ पल, कामरूपदेशीय गुड़ ५० पल एकत्र ... sporn Cordifolia.)। रा०नि० व०५। मर्दन कर ३६० वर्तिका प्रस्तुत करें। इसे भोजन अमृत सहोदरः amrita-sahodarah-सं-पु. के पूर्व प्रति दिवस शीतल जलसे १-१ सेवन करे। (A Horse.) घोटक, घोड़ा, अश्व । जयदः । भैष । अमृतसार amritasara-हिं०संज्ञा पु० [सं०] अमृतवल्लरी amritarallari-संस्त्रो० ( . (१) नवनीत । मक्खन । (२) घी।। अमृतसार गुटिका amrita-sāra-gutika-सं० •गुडूची, गिलोय। (Tinospora Cordifolia भा० पू० १ भा० गु• व० । (२) उपोदको, बड़ी स्त्री० त्रिफला, गिलोय, मोथा, विधारा, वायपोई। बिडंश, वैच २-२ पल, त्रिकुटा,पीपलामूल, बाला, चीता, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, इनका अमृतवल्लिका amrita-vallika चूर्ण १-१ पल । यह चूर्ण २५ पल लेकर ५० पल अमृतवल्ली amrita-valli गुड़ के द्वारा ३६० मोदक बनाएँ । गुण-अग्नि-सं० स्त्री. चित्रकूट प्रसिद्ध गुड़ ची । र०मा०।। वर्धक है । र० स० रसायने । रा०नि० व०३। अत्रि. २ स्था०२ अ०। इसे विषनाशक, किञ्चित् तिक, जरा, व्याधि, कुष्ट, अमृतसारजः amrita-sārajah-सं०पू० गुड़ कामला, शोथ, व्रणनाशक ऋषियों ने कहा है । (Jaggery.)। काकली-म० । रा०नि० वै० निघ० जोर्णज्व. हरीतकी पाक । व०१४। (२)तवराजखण्ड । नवात-बं० । रा०नि० व० १४ । गुण-यह प्यास, ज्वर, दाह अमृत षट्फल घृतम् amritil-shatphala और रक पित्त को दूर करता है। ghritam-सं० क्ली० सोंठ, चव्य, चित्रक, जवाखार, पीपल, पीपलामूल प्रत्येक ४-४ तो०, अमृत-सारजा amrita-sana.ja-सं० स्त्री० चीनी, गोवृत ६४ तो०, अदरख का स्वरस ६४ तो०, __ शर्करा । म०-खड़े साकर । (Sugar.) दही का पानी ६४ तो० उक्त ओषधियों का कल्क अमृतसार ताम्रम् amrita-sārat-amram प्रस्तु : कर यथाविधि घृत सिद्ध कर सेवन करने -सं० क्ली० रसायन अधिकारोक । से ऐकाहिक, द्वयाहिक, व्याहिक और चातुर्थिक अमृत सुन्दरो रसः amrita-sundaro-ra. ज्वर दूर होते हैं । यह खासी, श्वास तथा अर्श में sah-सं० पु मैनसिल, खोनामाखी, हरताल, भी हितकारी है । बंग० सं० ज्वर० चि०।। गन्धक, पारा, खपरिया प्रत्येक समान भाग लेकर अमृाटकः amritushtakah-सं० पु गुरुच, अदरख, वासा और तुलसी के रस में खरल करके चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, सोंठ, खस, पाठा, तांबे के पात्र में भर कर सम्पुट करके ३ दिन नेत्रवाला इन्हें अमृताष्टक कहते हैं । इसके सेवन पकाएँ, फिर ठण्डा होने पर निकाल कर रखें। करने से ज्वर दूर होता है। चक्र० द. यो. मात्रा-३ रत्ती । यह वातज और कफज रोगों त०व० से० सं०। का नाशक है। अमतसङ्गमः amrita-sangamah-सं० ० अमृतसोदरः amrita-sodarah-सं० पु. ..खपरिया, संगबसरी-हिं० । खापर-बं० । कलखापरी घोड़ा, अश्व, घोटक ( A horse.)। रा० -म०।। वै० निघ• I See-khapariya. नि०व०६। अमृत सञ्जीवनी amrita-sanjivani-सं० अमृतस्रवा amrita-grava-सं०बी० (१)चित्र. स्त्री०, हि. वि० स्त्री० (१) गोरक्षदुद्धी नामक कूट में प्रसिद्ध लता। अमृतवल्ली । रुद्रवन्ती-बं० । For Private and Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृत हरीतकी अमृताख्य तेल तत्पर्याय-वृक्षरहा, उपवल्लिका, धनवल्ली, सित दूर्बा,दूब । (१३) पिप्पलो ।मे। (१४) लिंगिनी । लता । गुण-किञ्चित् तिक, रसायन, विषघ्न, व्रण, ग०नि०व०३ । (१५) नीलदुर्वा, हरीदूब । कुष्ठ, प्राम, कामला, और शोथनाशक है। रा० रा०नि० ० । (१६) श्वेत दूर्वा, सुफ़ेद नि० व.३। दूब । (१७) नागवल्ली, पान । (१८) रास्ना (२) बायमाणा । रा०नि० ३०५ । मात्रा- (१६) गरुडवल्ली । वै० निघ० क्षय चि० । ३ मा०। (२०) सूर्यप्रभा । (२१) ख— जालता । अमन हरीतको amrita-haritaki-सं० (२२) कन्दगुड्ची, कन्द गिलोय । (२३) स्त्री० धनियाँ, जीरा, मोथा, पञ्चलवण, अजवायन, स्फटिकारिका । ( Alumen ) मद० हिंगु, तेजपत्र, लवंग, त्रिकुटा प्रत्येक समभाग व०४। प्रयोगा। गिलोय । (चित्रक गुडे) ले उत्तम चूर्ण करें। इस चूर्ण के बराबर शुद्ध वा. सू. १५ भारग्वधादिः । “निम्बामृता हड़का चूर्ण मिलाएँ । हड़ शोधन विधि-१०० मधुरसा श्रुववृक्षपाटा:" पद्म कादौ अरुण शृग्यहड़ोंको लेकर तक्रमें भिगोएँ । जब हड़ मुलायम हो मृता दरा जीवन संज्ञाः। चि०१०किरातादिः। जाएँ तब उनके बीज अलग अलग कर छिलकों किराततिक्रममृता । च० द. वात ज्वर चि०। को लेकर चूर्ण करलें । यही चूण उक्त योग में किराताब्दामृतोदीच्य-च० द० ति ज्वर. मिलाया जाता है । पुनः इसमें षडषण,पंचलवण, चि० लोध्रादिः । च० सू०४०।। भूनी हींग, जवाखार, जीरा, अजमोद ले चण (२४) मालकांगनी । (२१) अतीस । कर चुक्र की भावना दें और उन समस्त चूर्ण में | अमृताख्यगुग्गुलुः amritākhya-gugguluh मिला रक्खें । उचित मात्रा में सेवन करने से -सं०प वातरक्ररोग में प्रयुक्त योग यथा-गुरुच घोर अजीण का नाश होता है। २ श०, गुग्गुलु १ श०, त्रिफला प्रत्येक १ श० जन ६४ श० में कूट कर पकाएँ, जब चौथाई शेष रहे अमृततार: amrita-kshāraha-सं० पु. छानकर पुनः इतना पकाएँ कि गाढ़ा होजाए । इसमें नवसादर,नृ(नर)सार ।(Ammonium chlo दन्तीमूल ४ तो०, निशोथ २ तो. चूर्णकर ridum.) वै० निघ०। मिलाएँ। इसका बलाबल विचार कर मात्रा दे। अमृता amriti-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० चक्र० द० वाद. गे० चि०। (.) गुड़चो, गिलोय । ( Tinospora अमृताख्य घृतम् amritākhya-ghritam cordifolia) रा०नि० व०३ । २ मा० ।। -सं० क्लो० अपामार्ग बीज और शिरस के बीज (*)(Phyllanthus emblica. ) दोनों प्रकार की श्वेता (कटमी और महा कट श्रामला |गचि० ११ । (३) हड़ हरीतकी । भी) और काकमाची ( मकोय ) इन्हें गोमूत्र (Terminalia che bula ) प. मु. में पीसें। इनसे सिद्ध किया हुश्रा धृत विष का "स्थूलमांसामृता स्मृता।" इयं चम्पा जाता । ग. परम शमन करता कहा गया है । यह अमृत नामक नि.व. । (४) तुलसी (Ocim विख्यात घृत है । सुश्रुत० सं० कल्प० अ०७ Sanctum.)। (५) काऽधात्री वृक्ष । भा० । श्लो० ११। (६) मदिरा, मद्य ( Wine)। रा०नि० व. अमृताख्य तैलम् amritakhya-tailam-सं० १४। (७) इन्द्रायण (Citrullus colocyn. क्ली० गिलोय, मुलहठी, लघुपञ्चमूल, पुनर्नवा, thes ) रा. नि० व० ३। (८) रास्ना, एरण्डमूल, जीवनीयगण, प्रत्येक १०० पारावतपदी, लताफटकी । रा०नि० व. ३ | पल । वजा ५०० पल, बेर, बेल, जौ, कुल्थी, (१) गोरक्षदुग्धा । (१०) काली अतीस, प्रत्येक एक एक श्रादक, शुष्क गाम्भारी फल कृष्ण अतिविषा । (११) रक निशोथ,तुर्बुद सुख, १द्रोण, इनको कूट धोकर १००द्रोण जल में रक्त प्रिवृत्ता । रा०नि०व०६। (१२) दूर्वा, पकाएँ । जब ४ द्रोण जल शेष रहे तब छान लें For Private and Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमृताख्य लोह रसायनम् और इसमें ५ गुना दूध डालकर तथा चन्दन, खस, नागकेशर, तेजपात, इलायची, अगर, कूड, तगर, मुलहठी, प्रत्येक ३-३ पल और मजी पल का कल्क बनाकर उसके साथ १ द्रोण तेल का पाक सिद्ध करें। यह वातरक्त, क्षत क्षीण, वीर्य की अल्पता, थकान, योनिदोष, अपस्मार और उन्माद को दूर करता है । ४६३ ० सं० । अमृताख्य लोह रसायनम् amritakhya loharasáyanam-सं० क्लो० देखो - श्रमृताख्य लोहः । श्रमृताख्य लौहः amritákhya-louhah-सं० पु०, क्ली० र पित्त में प्रयुक रसायन यथागुरुच, निसोथ, दम्तीमूल, मुण्डी, खदिर, अडूसा, चित्रक, भाँगरा, तालमखाना, पुष्करमूल, पुनर्नवा, खिरेटी, कास, सहिजन, देवदारु, दुद्धि, नाक रस, डाभ ( कुशा ) का रस, शतावरी, इन्द्रायण, बरना, जमीकन्द, चव्य, तालमूली, गंगेरन, पीपलामूल, कूट, भारंगी प्रत्येक ४-४ तोला, जल १०२४ तो० में पकाएँ । जब पाठवाँ भाग शेष रहे काथ छानकर रक्खें; पुनः त्रिफला १ प्रस्थ ( ६४ तो० ), प्रस्थ जल में पकाएँ । जब जल श्रावाँ भाग शेष रहे क्वाथ छानकर रक्खे; पुनः शहद से पुट देकर मृत लौह चूर्ण ६४ तो०, अभ्रक १६ तो०, गन्धक १६ तो० विधिवत् शु० पारद ८ तो०, गुड़ ३२ तो०, मिश्री ३२ तो०, गुग्गुल शु० ८ तो०, घृत ३२ तो०, उक्र काथ में विधिवत् इस लौह को पकाएँ । शीतल होनेपर शहद ३२ तो० मिलाएँ । पुनः शुद्ध सोनामक्खी का चूर्ण ८ तो० शिलाजीत शु० २ तो०, सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, जमालगोटे की जड़ शुद्ध, निशोथ, दोनों जीरा, खदिरसार, तालीसपत्र, धनियाँ, मुलहठी, वंशलोचन, रसवत, काकड़ा श्रृंगी, चित्रक, चव्य, नागरमोथा, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर, कङ्कोल, लवंग, जायफल, मुनक्का, छोहारा प्रत्येक का चूर्ण २-२ तो० उक्त अवलेह में मिलाएँ। इसके सेवन से रकपित्त, अम्लपित्त, क्षय, कुष्ठ, ज्वर, अरुचि, श्रर्श, उदरशूल, संग्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृताघृतम् वातरक्त, मूत्रकृच्छ, प्रमेह, हणी, श्रामवात, शर्करा रोग दूर होता है 1 मात्रा-१ रत्ती से ८ मा० । अनुपान - शहद, घृत । अपथ्य - श्रनूपदेशज मांस और जिनके श्रादि का अक्षर 'क' हो उसे न खाना चाहिऐ । बंग० सं० रक्त पित्त चि० । श्रमृताख्य हरीतको amritákhya-haritaki - सं० स्त्रो० पाण्डु रोग में प्रयुक्त योग-सतावर, भाँगरा, पुनर्नवा, पिया बाँसा, प्रत्येक को कूटकर चौगुने जल में काढ़ा करें। जब चौथाई शेष रहे, कपड़े से छान उसमें ३६० बड़ी और स्थूल हड़ डालकर पकाएँ । पुनः सुखाकर ३० पल दुग्ध में औटाएँ । पश्चात् गुठली निकालकर ये औषध डालें - पारद, गन्धक प्रत्येक ६ पल दोनों को किसी पात्र में रख थोड़ी देर तक अग्नि से पचाएँ, पुनः उतार कर जब तक गाढ़ा न हो चलाते रहें, फिर इसमें गिलोय का सत्व मिला कर शहद से ३६० गोलियाँ बनाएँ श्रौर १-१ गोली पूर्वोक हड़ों में भर दें और ऊपर सूत लपेटें । पुनः एक पात्र में शहद भरकर उसमें हड़ों को डाल दें । इनमें से प्रति दिन एक हड़ भक्षण करें । इसके सेवन से शुल्क पांडु रोगका नाश होता है । वृ० रस० रा० सु० । पांडु० रो०धि० | श्रमृतागुग्गुलुः amrita gugguluh-सं० पु० गिलोय, परवल की जड़, त्रिफला, त्रिकुटा, वायविडंग सर्व तुल्य भाग ले चूर्ण कर समान भाग शुद्ध गुग्गुल चूर्ण' के साथ मर्दन कर १-१ तो० की गोलियाँ बनाएँ । इसके सेवन से व्रण, वातरक्र, गुल्म, उदरव्याधि, शोथ इत्यादि दूर होते हैं । बङ्ग० सं० व्रण० चि० श्लो० ५० । श्रन्य योग के लिए देखो - भात्र० प्र० मध्य० ख० २७ श्लो० । प्रारम्भ १७०, श्लो० १७८ वातरक्त० चि० ॥ भैष० २० चि० । चक्र० द० For Private and Personal Use Only वातरक्त० वात०र० चि० | श्रमृताघृतम् amritághritam-सं० क्लो • वातरक्त्राधिकारोक योग विशेष । चक्र० द० वा० २० चि० । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चि०। अमृताङ्करसः ४६४ अमृतादिचणेः अमृताङ्क रस: amritānkarasah-सं० पु. पत्ते, हल्दी, दारुहल्दी, इनको क्याथ कुष्ट, विष, पारा, गन्धक, त्रिकुटा, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, विसर्प, विस्फोटक, करडु, मसूरिका, शीतपित्त बच्छनाग, सैंधव प्रत्येक समान भाग लेकर भांगरे और ज्वर को दूर करना है। भैष० र० विसर्प के रससे भावना दें। मात्रा-२ रत्ती । गणयह पांचो प्रकार की खासी को नष्ट करता है। गिलोय, सोंड, पीयावाँसा, इलाची, बड़ी रस० यो० सा। कटेली, छोटी कटे ली, शालपर्णी, पृश्निपर्णी,गोखरू, amritánkura-louhah-o न.गरमोथा, नेत्रवाला इन्हें पीस मधुयुक्र सेवन पु०,क्लो० चित्रक मूल प्रभृति शुद्ध पारा, लौह करने से गर्भ शूल नष्ट होता है। चूण', ताम्र भस्म, भिलावा, गन्धक, गूगुल और भैष. र. गर्मिणो चि०। अभ्रक भस्म प्रत्येक ४-४ तो०, हड़, बहेड़ा १-१ अमृतादि क्वाथः a iiitalikvāthan-संपु. तो०, श्रामला ६ तो० और ८ मा०, लोहसे अष्ट- गिलोय,सो, कटसरैया, न गरमोथा, लघुपञ्चमूल, गुण घी, त्रिफला का क्वाथ १२८ तो० इन सब मोथा, सुगन्ध बाला इनके क्वाथ में शहद डाल को लोहे की कढ़ाही में पकाएँ और लोहे की पीने से प्रसूत की पीड़ा दूर होती है। यो कड़छी से चलाते रहें। मात्रा-प्रावश्यकत नुसार । तर० गर्भ० चि० । इस नाम के भिन्न भिन्न गुण-प्रत्येक कुष्ठ, पांडु, प्रमेह, आमवात, बीस योग अनेक ग्रंथों में श्राए हैं। वातरक्क, कृमि. शोथ, शयरी, शूल, वातरोग, अमृतादिगुग्गुलुः ailmritadigugguluh-सं० क्षय, दमा और बलि व पलित को नष्ट करता पु. देखो-अमृताद्यगुग्गुलः। है। रस० यो० सा। garfetar: amritádigiggulaghनोट-इसी नाम के दूसरे योग में बहेड़ा | jitah-सं० पु० गिलोय, वासा, पटोल, चंदन, ६ पल, प्रामला २८ तोले, गोघृत १८ तोले और मोथा, कुटकी, कुड़ा की छाल, इंद्रयव, हड़, १ प्रस्थ त्रिफला के क्वाथ के साथ उन विधि से | चिरायता, कलिहारी, अनन्तमूल, जौ, बहेड़ा, पकाने को कहा है। उ० द. चि. र० स० श्रामला, खम्भारी, सोट, प्रत्येफ १-१ मा०, सं० रस० । र० र० स० सं० टी० । इनके क्वाथ तथा ८ पल शु० गूगल के कल्क से अमृतार वटी amritankura-vati-सं० स्त्री० १ प्रस्थ घी का विधिवत पाक करें। यह हर प्रकार के नेत्र व्याधि प्रबुद, मोतियाबिंद, तिमिर, पाग्द, गन्धक, लौह, अभ्रक,शुद्ध शिलाजीत, इन्हें गिलोय के स्वरससे मर्दन कर गुञ्जा प्रमाण गोली पिल्ल, करडु, आँसुवों का अधिकस्राव, गठिया बनाए। इसके सेवन से क्षुद्ररोग, रक्तपित्त, जीर्ण प्रादि को दूर करता है । र० र० । ज्वर, प्रमेह, कृशता, अग्नि क्षय प्रादि अामला के | अमृतादिघृतम् amitatlighritam-संकी स्वरस के साथ सेवन करने से दूर होते हैं तथा वात रक्त में प्रयुक वृत योग-गिलोय के क्वाथ यह पुष्टि, कान्ति, मेधा और शुभ मति को उत्पन्न अथवा कल्क द्वारा सोठ युक्त सिद्ध घृत वात करती है । भैष० र० तुदरोग चि. . रक, श्रामवात, कुष्ट, व्रण, अर्श, और कृमि रोग अमृताञ्जन amritān jana-सं० पु. पारा, . को दूर करता है । वंग० सं० वात रक्त. सीसा समान भाग इनसे द्विगण श० सुर्मा और चि०। थोड़े से कपूर मिलाकर बनाया हुआ सुर्मा तिमिर अमृतादि चूर्णmmitādichui nah-सं०० को नष्ट करता है। (१) गिलोय, गोखरू, साँठ, मुण्डी, वरुणछाल अमृतादिः amritadih-सं० पु. विसर्प रोग इनका चर्ण मस्तु प्रारनाल के साथ खाने से में प्रयुक्त क्वाथ । यथा-गिलेाय, अडूसा, परवल प्रामवात नष्ट होता है। भा००म० खं. नागरमोथा, सप्तपर्णी, खैर, कालाबेंत, नीम के श्रा० वा. For Private and Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतादि तैलम् ४६५ अमृताधवलेहिका ( २ ) गिलाय, कुटकी, सोंठ. मुलेठी, इनका | गन्धमूल, पृष्टपर्णी, कुटकी, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, चूर्ण शहद के साथ चाटकर ऊपर गोमूत्र पीने से | महामेदा, गोखरू, कटेरी, बड़ी कटेरी, गिलोय, अाम वात नष्ट होता है । वृ० नि० र)। पीपल, रास्ना और असा सर्व तुल्य भाग ले अमृतादि तैलम् aantitaditailam-सं०प० कल्क बनाकर उसमें डाल मन्द मन्द अग्नि से देखो-अमृताद्यतैलम् । उक योग में देवदारु पकाएँ तो यह घृत सिद्ध हो । धन्वन्तरि जी के स्थान में तून पा रक्खा है। अमृत० सा. का कथन है कि इसके सेवन से ( पान, अभ्यंग, गलगण्ड चि०। नस्य) शोष, दाह, वात रन, क्रोष्टुशीर्ष, खजअमृतादि तैलम् amritādi-tail.a - सं०क्ली० वात, उरुस्तम्भ, दारुण वातरक्र, वातकष्ट, गृध्रसी गिलोय का रस, नीमकी छाल, हींग, हड़, कुड़े की और वातकंटक दूर होता है। उक्त नाम के छ: छाल, बला, अतिवला, देवदारु श्रोर पीपल के : प्रकार के योग भावमिधा जी ने अपने ग्रन्थ में कल्क से सिद्ध किया हुअा तेल गलगण्ड में हित वर्णन किए हैं। है । वृ०नि० र०। गिलोय, शारिवाँ, लघुपंचमूल, अड.सा, खिरेटी अमृतादि वटो amitali-vati-सं० स्त्रो० इनका पञ्चांग पृथक् पृथक् ४० चालीस तो०, को विष २ भा०, कपई भस्म ५ भा०, मिर्च १ भा० १०२४ तो० जल में पकाएँ । जब चौथाई शेष जल से मईन कर मुद्ग प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। रहे तब उसमें पीपल, चंदन, हाऊबेर, खस, पित्त. यह अग्निमान्द्य, त्रिदोष, और कफ के रोगों में | पापड़ा, सोनापाठा, मुलहठी, चिरायता, नीलहित है। मा० प्र० १ भा. ज्वर चि०। कमल, इन्द्रजौ, नागरमोथा,सोंठ, कुटकी, धमासा, अमृतादिस्वरसः ॥mitadisvalasab-सं० दालचीनी, तेजपात, अड़ सामूल, वायमाण, . पु. गिलाय हरी ले कुचल कर रस निकाल कर (अभाव में बनफ्सा प्रत्येक २-२ तो० । इनका स्वच्छ वस्त्र से छाने । यह रस २ तो० और शहद कल्क और इस कल्क के समान भाग बकरी का ६ मा० डालकर पीने सेममेह दूर होता है। दुग्ध, ६४ तो. गोवृत मिलाकर सिद्ध करें । यां० तर० स्वरसादि सा० । इसके सेवन से भयानक राजयच्मा, सन्निपात, अमृतादिहिम amitadihima-सं०क्ली० गिलोय रक्तपित्त, श्वास, कास, उरःक्षत, दाह और शोथ . का हिम बनाकर प्रातः काल पीने से पित्त ज्वर दूर होता है । वंग० से० सं० २ श्लो० ६५, : नष्ट होता है। वृ०नि०र०। ६६ प्र० | राज यक्ष्मा० चि०। अमृताद्यगुग्गुलुः amritadya-gugguluh -सं० पु० गिलोय १ भा०, इलायची २ भा०, अमृताद्यचूर्णम् amritadya-churnam-सं० वायविडंग ३ भा०, इंद्रजौ ४ भा०, बहेड़ा ५ क्ली० आमवात में प्रयुक्र योग-गिले।य, सोंठ, भा०, हड़ ६ भा०, श्रामला ७ भा० और शु. गोखरू, मुण्डी, वरुणछाल, प्रत्येक तुल्य भाग ले गुग्गुल ८ भा०। इनको शहद में मिलाकर खाने चूर्ण प्रस्तुत कर सेवन करने से श्रामवात दूर से स्थूलता भगन्दर और पिडकाएँ दूर होती हैं। होता है। भा० म०२ भा०। भा०प्र० मध्य. खं०२।। | अमृताद्य तैलम् amritadya-tailam-सं० अमृताद्यघृतम् anslitadyaghritam-सं० क्ली० गलगण्ड रोग में प्रयुक्त योग-गिलोय, क्ली० (१) आमवात में प्रयुक्रयोग-गिलोय ४०० नीम की छाल, अम्ल वेतस, पीपल, देवदारु, तो०, को १०२४ तो० जल में पकाएँ, जब चौथाई दोनों बला इनसे सिद्ध तैल गलगण्ड रोग को शेष रहे तब उस क्वाथमें ६४ तो० घृत तथा चौगुना दूर करता है । वं० सं० गलगण्ड चि०। गोदुग्ध, काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक मताधवलेहिका anmritādyavalehika सतावर, विदारीकन्द, मुलहठी, नील कमल, अस. -सं० स्त्री० हड़, कुटकी, सोंठ, मुलहठी शहद में For Private and Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमृताचीगुग्गुलुः मिलाकर ऊपर से गोमूत्र पान करने से वातरक नष्ट होता है । यो० र० वा० २० । अमृताद्यगुग्गुलुः amritadyougugguluh - सं० पु० देखो - श्रमृताद्य गुग्गुलुः । अमृता नाम गुटिका a writánáma-gutikà -सं० स्त्री० चित्रक, हड़ १-१ पल, पारद, त्रिकुटा, पीपलामूल, मोथा, जायफल, विधारा, प्रत्येक १-१ पल, इलायची, वंशलोचन, कूठ, गन्धक, हिंगुल, मैंनफल, मालकांगनी, दालचीनी अभ्रक, लोह प्रत्येक श्राधा पल, हलाहल विष २-३ रत्ती, गुड़ में पल, भांगरे के रस में मर्दन कर छोटी बेर बराबर गोलियाँ बनाएँ । गुणसम्पूर्ण' वात व्याधियोंको दूर करता है । र०र० सु० । अमृताफलः amritáphalah--सं० पु०ली० (१) पटोल, परवर ( Trichosanthes dioica. ) । ( २ ) नाशपाती । ( Pyrus Communis ) अमृतारिष्टम् amritarishtam - सं० ली० विषम ज्वर में प्रयुक अरिष्ट । योग - गिलोय १०० पल, दशमूल १०० पल, ४ द्रोण ( १६ सेर = १ द्रोण ) जल में क्वाथ करें। जब चौथाई शेष रहे तब उसमें शीतल होजाने पर ३ तुला पुराना गुड़ मिलाएँ । पुनः इसमें जीरा १६ पल, पित्तपापड़ा २ पल, सप्तपर्ण, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, नागकेशर, कुटकी श्रुतीस, इन्द्रजौ इन्हें एक एक पल मिला मिट्टी के पात्र में रख एक मास पर्यन्त रख श्ररिष्ट प्रस्तुत करें । इसके सेवन से समस्त ज्वर दूर होते हैं । भै० २० ज्व० चि० । अमृताः amritárnavah - सं० पु० मीठा विष, पारद, गंधक लौहभस्म, और अभ्रक भस्म, तुल्य भाग ले चित्रक के रस से सात भावना दें। मात्रा - १-२ री इसे दोषानुसार अनुपान के साथ खाने से श्रामाशय के सम्पूर्ण रोग और विषमज्वर का नाश होता है । भैष २० श्रामाशय रो० चि० । अमृतार्णवरस: amritárnavarasah- सं० पु० हिंगुलोत्थ पारद, लौहभस्म, गन्धक, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतावटिका सोहागा, कपूर, धनियाँ, नेत्रवाला, नागरमोथा, पाढ, जीरा और तीस प्रत्येक १-१ तो० सबका चूर्ण कर बकरी के दूध से पीस कर १-१ मा० की गोलियाँ बनाएँ । अनुपान - धनिया, जीरा, भंग, शालबीज, मधु, बकरी का दूध, मण्ड, शीतल जल, केला की जड़ का रस, मोचरस अथवा कटेरी का रस, इनमें से किसी एक के साथ खाने से घोर प्रतिसार दूर होता है । संग्रहणी, अर्श, अम्लपिरा, खाँसी, गुल्म और एक दोषज, द्विदोषज, त्रिदोषज, तथा उपद्रव युक्र प्रत्येक श्रतिसारों को यह रस नष्ट करता है । वृ० रस० रा० सु० अतिसार चि० । श्रमृनावलौहम् amritárnava-louham - स० कली० कुष्ठ रोग में प्रयुक्त योग — त्रिकुटा त्रिफला, लौहभस्म तुल्य भाग ले चूर्ण करें | सर्व तुल्य शुद्ध शिलाजीत मिला गिलोय के रस से भावना दें और सूर्य के ताप से शुष्क करें इसी तरह तीन भावना दें और सुखाएँ और पुनः घृत से मर्दन कर रखें । मात्रा - १ मा० मधु के साथ सेवन करें । रस० र० । इसे प्रमेह में भी दिया जाता है । श्रमृतार्णव लौह: amritárnava-loulah मा० । -सं० पु० त्रिकुटा, त्रिफला, लौह भस्म प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण करें, सर्व तुल्य शिलाजीत मिलाकर धूप में गिलोय के रस से ३ बार भावना दें। फिर घी में घोटें । मात्रा - १ गुण - शहद के साथ खाने से १८ कुष्ठ, कठिन वातरक्र, बवासीर, प्रत्येक प्रमेह और उदर रोग नष्ट होते हैं । रस० यो० सा० । अमृता वटिका ( गुग्गुलुः ) amrita - vatiká ( gugguluh ) - सं० स्त्री० ( १ ) सद्यः aण नाशक योग | गिलोय, पटोलमूल, त्रिफला, त्रिकुटा, और वायविडङ्ग इन्हें तुल्य भाग ले चूर्ण कर सर्व तुल्य शुद्ध गुग्गुल मिश्रित कर एक एक मासेकी गोलियाँ प्रस्तुत करें। एक एक वटी प्रतिदिन सेवन करने से व्रण विकार दूर होता है । रस०र० । For Private and Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मृताष्टकः (२) घृत पिष्टित गुग्गुल १६ प०, काथार्थ गुडूची १०० प०, दशमूल १०० प०, पाठा, मूर्वा, बड़ियाला, श्वेत बड़ियाला-मूल, एरण्डमूल, प्रत्येक १० प०, सास्थि ( गुठली युक्त ) हरीतकी १००, बहेड़ा १००, आमला ४००, पाकार्थ जल ३ द्रोण ( ४८ सेर ) इसमें गुग्गुल को एक पोटली में दोलायंत्र की विधि से पकाएँ । जब ४८ शराव शेष रहे तब इसी क्वाथ में त्रिफला, निसोथमूल, त्रिकुटा, दंतीमूल, गिलोय, असगन्ध, वायबिडङ्ग, तेजपत्र, दारचीनी, छोटी इलायची, नागकेशर, गुड प्रत्येक १-१ प० का चूर्ण मिला स्निग्ध पात्र में रक्खें । मात्रा - मा० । इसे उष्ण जल से सेवन करना चाहिए। रस०र० व्रण शोध चि० । अमृताष्टकः amritáshtakah सं० पु०, क्लो० पित्तज्वर में प्रयुक्त कषाय । गिलोय, इन्द्रजौ, नीम की छाल, पटोलपत्र, कुटकी, सोंठ, चन्दन और मोथा इनके द्वारा निर्मित कषाय को पिप्पली चूर्ण युक्र सेवन करने से पित्त तथा कफ वर का नाश होता है । चक्र० द० चि० । अमृतासङ्गम् amritasangam-सं० क्ली० खरिका तुत्थ, खपरिया, खर्पर । तत्पर्याय- कर्प रिका तुल्यं, श्रञ्जन ( है ) । मद० | अमृतासङ्गमः amritásangamah सं॰ पुं० ख तु । तूंते- बं० । तूतिया - हिं० | मोर चूत -म० । वै० निय० । ૪૨૭ ० •अमृताह्नम् amritáhvam - सं०क्लो० (१) अमृतफल, नासपाती। (Pyrus communis) मद० व० ६ । ( २ ) खबूजा । मद० व० ६ | अमृताह्वयतैलम् amritáhvaya-tailam-सं० to arrरक में प्रयुक्त तैल । जैसे— गिलोय, मधुक, लघु पञ्चमूल, पुनर्नवा, रास्ना, एरण्डमूल, tattern की औषधें, इन्हें १-१ सौ पल लें, बला ५०० पल, कोल ( बदरी ), बेल, उड़द, जौ, कुलथी १-१ श्रादक ( ४-४ सेर ), छोटा गम्भारीमूल-छाल शुल्क १ द्रोण (१६ सेर ), १०० द्रोण जल में विधिवत पचाएँ । जब ४ द्रोण जल शेष रहे तब इसमें १ द्रोण तिल तैल और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमृतेश्वररसः ५ द्रोण गो दुग्ध मिलाएँ । पुनः त्रिफला, चंदन, केशर, खस, तेजपात, इलायची, कुष्ठ, अगर, तगर, मुलेडी, मजीठ इन्हें श्रधा श्राधा पल लेकर कल्क बना सविधि तैल पकालें । भा० म० २ भा० वातरो० चि० । श्रमृतिः amritih - सं० स्त्री० जलपात्र विशेष । मृतिकरणम् ariti-karanam - सं० क्लो० विधि - अभ्रक के बराबर घी लेकर दोनों को लोहे के पात्र में पकाएँ । जब घी सूख जाए तब उतार कर श्रभ्रक को सब काम में वतें । यो० चि० । अमृतेन्द्र रस: amritendra-rasah सं० पु० सिद्ध पारद १ पल, त्रिफला १ पल, शुद्ध गंधक १२ तो०, ताम्र भस्म ४ तो०, लोह भस्म ४ तो०, बच्छनाग ४ तो० सबको मिलाकर गुडूची, काला धतूरा, भाँग, त्रिकुटा, महाराष्ट्री ( मरेठी ), भांगरा, अदरख, ब्राह्मी, हुलहुल, जैत, काली तुलसी, धतूरा, ( दूसरीबार ), भांगर, ( दूसरी बार) और बच्छनाग इनके रस से क्रम से पृथक् पृथक् एक एक दिन भावना दें। पुनः मूँग प्रमाण गोलियाँ बना कर रक्खें । ६३ गुणसन्निपात, भयानक ज्वर और मन्दाग्नि में चित्रक और अदरख के साथ दें । यह उचित अनुपानों के साथ देने से रोग मात्र को एवं afa और पति को नष्ट करता है । र० यो० सा० । अमृतेशरसः amritesha-rasah - सं० पुं० पारद भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलौह भस्म, बच्छनाग, सोनामाखी और शिलाजीत प्रत्येक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण करें । मात्रा१ रत्ती । गुण- इसके सेवन से वृद्धता दूर होकर श्रायु की वृद्धि होती और शरीर की पुष्टि होती है । इसके ऊपर असगंध-मूल-चूर्ण १ भा०, घी ७ भा०, गुड़ ८ भा० और पीपल १ भा० इन सबको मिलाकर मन्द मन्द अग्नि से पकाकर लड्डू बनाकर खाना उचित है । रस० यो० सा० । अमृतेश्वररसः amriteshvara-rasah-सं० पुं० (१) सोहागा १६ भा०, कालीमिर्च १२ भा०, For Private and Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतोत्या ४९. अमेरिकन सेण्टॉरी 'सोनामाखी, बच्छनाग, अकरकरा, प्रत्येक २ भा० अपवित्र वरतु । विष्ठा, मल, मूत्र आदि । -वि. मिलाकर चूर्ण करें । मात्रा-१-२ रत्ती । अपवित्र। गुण-कफ, अजीण', सन्निपात, शूल और अनेक अमेनिया बैक्सिफेरा amimannia bacciरोगों को नष्ट करता है । रस० यो० सा०। । fera, Linn. -ले० दादमारी, दद्रुम वृक्ष । (२) रससिन्दर, सतगिलोय, 'लौहभस्म ! फा० इ०२भा०। समान भाग लेकर शहद और घृत में मिलाकर | अमेनिया वेसिकेटरी am mania, resica.. रक्खें । मात्रा-६ रत्ती । गुण-यह राजयक्ष्मा tory -ले०' देखो-अमेनिया वेसि केटोको नष्ट करता है। रसै०चि००६ भा. रिया। : म०२भा०प्रयोगा। अमेनिया वेसिकेटोरिया ammania vesiअमृतोत्था amritotthā-सं० स्त्री. ( Or- catoria, Roxb.-ले० दादमारी | इ० हैं. ___chis laxiflora Linn.) सुधामूली, गा। ... सालब मिश्री, सालम् (ब) मिसरी । अत्रि । अग्निगर्भ-सं० । जंगली मेंहदी, दादमारी अमृतोत्पन्नम् amritotpannam-सं० क्ली० -हिं०, बं० । दादरबूटी-६० । बन मिरिच,अग्नि. (1) तुस्थ ( Vitriol.)। (२) खर्परी तुत्थ, बूटी, भूर जम्बोल-बम्ब०, द.। .. तुस्थाअन, खापर । कालखापरी-मह० । रा०नि० अमेरिकन वेलेरियन् american valerian -इं० बालछड़ अमरीका, सुम्बुल अमरीकी । अमृतोत्पन्ना amritotpanna-सं० स्त्री० (Cypripedium.) गृहमक्षिका । रा०नि० व० । अमेरिकन वर्मलीड american worm seed-go (Chenopodium Antheअमृतोद्भवः amritod bhaveth-सं० पु०(१) lminticum. ) धन्वन्तरि । रत्ना०।-क्ली० (२) तुस्थ, तूतिया अमेरिकन श्राइवो american ivy-ई." ( Blue Vitriol )। रा) नि० व० १३ । ( Vitis Quinquefolia. ) (३) खपरी तुत्थ, तुत्थाजन, खापर । रा०नि०। अमेरिकन कुटकी american kutki-ई. (४) श्रामलकी, श्रामला । (Phyllanthus - इचवीड ( Itch feed.)-इं०। Emblica ). अमेरिकन कोलम्बो american columbo अमृतोपमम् amritopamam-सं० कली. -इं० ( Frasera carolinensis.) (१) खर्परी तुस्थ । तूं ते-बं० । मोरचूत-मह० । अमेरिकन मे एपल american, may apple: वै० निघ० । (२) द्रव्य । वै० निघ०। .-इं० पाडोफिल्लाइ राइज़ोमा ( Podoअमृतोपहिता amritopa bita-सं० स्त्री० phylli Rhizoma. )-ले० हशीशतुस्सतो (चो)प(ब) चीनी । फ़रा अमरीकी-अ० । म० अ० डॉ०। अमृध्रम् amridhram-सं० क्ली. शिश्न, मेढ़, | अमेरिकन मेन्ना ainerican manna-इ. उपस्थ । इसके तीन भेद हैं। यथा-(१) शीरखिश्त-फ़ा० । आकाश मधु-सं०। यह वर्षिष्ठम्, (२) अवान्यम् और (३) अमृध्रम् । पाइनस लम्बरशियानी वृक्ष से प्राप्त होता है। अमेडी amedi-विहा० कच्चा श्राम । (Green देखो-शीरखिश्त । म० अ० डॉ०।। . mango.) अमेरिकन रोगन तारपीन american roghan अमेध्यम् amedhyam-संक्ली। (१) पुरीष tarpin-फा० देखो-रोगन तारपीन । अमेध्य amedhya-हिं०संज्ञा पु. ( Fer अमेरिकन सेए टॉरी american cen taury ... ces, excrement. )। श० र० । (२) -इं० ( Sabbatia Angularis.) For Private and Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमेरिकन सारसापैरिल्ला ४६६ . अमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ अट अमेरिकन सारसा परिल्ला american sarsa. I कस्तूरी ले। फिर सब को सम्भालू और तुलसी parilla-इ० अरेलिया न्युडिकॉलिस (Ara- के रस में बारीक घोटकर तिलोंके बराबर गोलियाँ -_lia Nudicaulis.) बना छायामें सुखाएँ । गुण-यह १३ सन्निपात, अमेरिकन सैफ्रन american saffron-इं. - प्रकार के ज्वरों को और विषम, शीत दोष ..कुसुम्भ, कड़। (Safflower.) तथा साधारणतया सभी रोगों को नष्ट करता है। अमेरिकन हेलोबार american helibore रस० यो० सा०। --ई० अमरीकी कुटकी । इच बीड (Itch अमोघौषध amoghoushadha-हिं. स्त्री० weed.)-इ०। (Specific Medicine.) ऐसी औषध अमेरिका का जङ्गली तम्बाकू america-ka- जो कभी निःसफल न हो अर्थात अवश्यमेव फल jangali tombaku-हिं० पु. ताम्रकूट देने वाली दवा,अव्यर्थ, सत्य औषध । वे औषधे विशेष । जो रक में पहुँच कर रोगाणुओं को मार अमेरिका का लोबान america-ka-lobāna. डालती हैं। यदि औषध का यथा विधि प्रयोग -हिं० पु. लोबान विशेष । किया जाए तो जन्तु मर जाते हैं और रोग घट अमेसा amesa-बर० शीफ़ा, सीताफल । जाता है या जाता रहता हैं और रोगी फिर धीरे .... (Anona Squamosa.) धीरे अपने पहले स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। अमोड़ो amodi-विहा० अमिया-हिं०।... अमैथुनो विधि amaithuni-vidhi-हिं०स्त्री० वह शृष्टि जो बिना मैथुन के उत्पन्न होती है । अमोद amoda-हिं० संज्ञा पुं. देखो श्रामोद। .: (Asexual reproduction.) अमोनम कक्यू मा amonum curcuma अमोखा amokha-सं० स्त्रो० हड़, हरीतकी । ले० हलदी, हरिद्रा, पीतरस। (Turmeric) । ( Terminalia Chebula.) .. इं० है. गा०। अमोघ amogha-हिं० वि० [सं०] निष्फल न (प)मोनिरक ammoniac-इं० होना । वृथा वा अन्यथा न होने वाला। अव्यर्थ । | श्र(ए)मोनिएकम् ammoniacum-ले. "..' सफल । सत्य । साचा । फलदाता| अचूक । . उशक, कान्दर । लक्ष्य पर पहुँचने वाला । खाली न जाने वाला।। अ(ए)मानिएकम् ऐण्ड मर्करी प्लाष्टर (Productive, Fruitful, Infallible, | ammoniacum and mercury pla. Effectual.) ster-ई० उशक व.पारद प्रस्तर वा प्रलेप । अमोघा amoghā-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० देखो-उशक । (१) पाटला वृक्ष, पाढ़ल (-र) का पेड़ और - फूल । ( Stereospermum Sua veo अ(प.)मोनिएकम् मिक्श्च र ammonia. * lens, De.) भा०। (२) श्वेत पाटला। cum mixture-इं० उशक मिश्रण । देखो उशका (३) हरीतकी, हड़ (Terminalia ' ' Chebula.)। ( ४ ) विडंग, वायबिडंग। | अमोनिएटेड आर्सिनियो साइट्रेट ऑफ मायन (Embelia Ribes.) Ħol sata rar ammoniated arsenio-citrate of (५) पद्मभेद, कमलभेद । (Lotus Var.) ___iron-इं० यह एक प्रकार का यौगिक लवण रा०नि० २०२३ । __है। देखो-लीह। अमोघास्त्रं रसः amoghāstra rasah-सं० अमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ अर्गट ammoni पु० तांबा, गंधक, बच्छनाग, संखिया प्रत्येक ated tincture of ergot-o nafaa समान भाग ले । तांबे से तीन गुना पारा और अर्गट भासव । देखो-अगट। For Private and Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिएटेड टिक्चर ऑफ इण्डियनवेलेरियन ५०० अमोनिया अमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ इण्डियन वेलेरियनः | maticum-ले० सुवासित अमोनिया । देखो ammoniated tincture of indian एला, इलायची । (Cardamum) valerian-इं. देखो जटामांसी। | अमोनियम पलम ammonium alum-ले० अमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ ओपियम् ammoni- फिटकिरी भेद । एक प्रकार की फिटकिरी । ated tincture of opium-ई० अमूनित अमोनियम कार्बनित ammonium karba. अहि फेन पासव | देखो-पोस्ता । ___nit-हिं० . देखो-प्रमानियाई कार्बोनास । अमोनिएटेड टिंक्चर श्राफ क्वीनीन ammoni-| अमोनियम कार्बोनेट ammonium carbo ated tincture of quinine-इं. अमो- nate-ले० देखो-अमोनियाई कार्वानास । नित क्वीनीन पासव । देखो -सिन्कोना । अमोनियम क्लोराइड ammonium chloअमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ वेलेरियन ammo- ride-ले० नृ(नर)सार, नौसादर । ( Sal ___niated tincture of valerian-इं० ammoniac.) अमूनित ह्रीवेर श्रासव । देखो-सुगन्धवाला। अमोनियम फोस्फेट a mo .ium phospअमोनिएटेड क्लोरोफॉर्म ammoniated ch. | ___hate-इं० नुसार स्फुरेत । देखो-अमोनियाई loroform-इं० क्लारोफे म अमोनिएटा। फॉस्फोस। अमोनिएटेड फेनाइन एसेटमाइड ammo. अमोनियम बजाएट ammonium benzo. . niated phenyl acetamide-ई. ate इं० लोबान अम्ल । देखो-एसिडम अमोनोल । देखो-एसेट एनिलाइडम । बेनोइकम । अमोनियम बोरेट ammonium borate-ई० अमोनिएटेड मर्करी ammoniated mer- | । देखो-अमोनियाई बोरास। ___cury-ई० अमूनित पारद । देखो-पारद। । अमोनियम ब्रोमाइडम् ammonium bromiश्रमोनिएटेड मकरी श्रॉइण्टमेण्ट ammoni. | ___dum-ले. अमोनियम ब्रह्मणिकम् । देखो___ated mercury oint ment-इं० अमू-! ब्रोमीन। नित पारदानुलेपन । देखो-पारद। अमोनियम सक्कीकार्बोनेट ammonium अमानिएटेड लिनिमेंट ऑफ केम्फर ammoni succi carbonate-ले० देखो-अमोनिated liniment of camphor-o __ याई कार्बोनास । . अमोनित कपूर अभ्यजन । देखो-अमोनियम् । अमोनियम सक्कीनेट ammonium sucelअमोनियम ammonium-ले० नरसार वायव्य । ___nate-ले० अमोनियम अम्बर । देखोदेखो-अमोनिया। अम्बर। अमोनियम बायर्न एलम ammonium iron अमोनियम सल्फो इक्थियोलेट ammonium - alum-ले० एल्युमीन अमोनियो । _sulphoichthyolate-ले० देखो-प्रमोअमोनियम श्रायोडाइड ammonium iodi निया। _de- ले. अमोनियम नैलिद । देखो-प्रायोडम् । अमोनियम सस्की कार्बोनेट ammonium अमोनियम इक्थियोल ammonium ich- ___sesqui carbon te-इं० देखो-अमोनियाई thyol-ले० देखो-सरेशममाही। कार्बोनास । अमोनियम इक्थियोल सल्फोनेट ammoni- अमोनियम हरिद ammonium harid um ichthyol sulphonate-ले० | -हिं० नौसादर, नृसार । देखा-अमोनियम इक्थो सल्फोल । देखो-सरेशममाही। - कोराइड। अमोनियम एरामेटिकम ammonium aro- अमोनिया ammonia-. नरसार वायटर For Private and Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमोनिया ५०१ श्रमोनियम Ammonium-ले० | ग़ाज़नौ शादर, गैस नौशादर - ति० । रासायनिक संकेत सूत्र ( न उ ३ ) N. H, 3. लक्षण - यह एक उग्रगन्धि अदृश्य वायव्य (गैस) है, ओ नवसादर ( अमोनियम हरिद ) और चूर्ण के मिश्रण से उत्पन्न होता है। 1 प्रयोग - नवसादर १ भाग और चूर्ण २ भाग लेकर खरल में डालकर चूर्ण करें। दोनों के परस्पर चूर्ण होने पर एक उग्रगंधि गैस निकलने लगता है | यही श्रमोनिया है । यदि श्रृंग, खुर, केश, त्वचा और मांस आदि अथवा खेचरों के पत्र दग्ध किए जाएँ तो जो विशेष दुर्गंध प्राप्त होती है, वह श्रमोनिया गैस के कारण ही है, क्योंकि यह उनका एक प्रधान अंग है । इस विधि से से अमोनिया बहुलता प्राप्त होता है । प्राचीन काल में मृगशृंग प्रभृति अमोनिया बनाने के काम आते थे । यह गैस कई एक वानस्पतिक रसों यथा इतु रस आदि में और किसी भाँति वायु में भी विद्यमान होता है । यद्यपि अमोनियम कोई धातु विशेष नहीं है, केवल नत्रजन और उदजन के परमाणुओं का समूह है, तथापि इसका श्रणु ( न उ३ ) धातुवत् काम करता है, और अम्लोंसे मिलकर लवण बनाता है । उसका सुप्रसिद्ध लवण नवस दर ( अमोनियम हरिद ) है । यह श्रमोनियम और लवणाम्ल के संयोग से बनता है । अमोनियम के कनित श्रादि लवण भी होते हैं, जो बहुत उपयोगी हैं। गुण - ( क ) अमोनिया एक अदृश्य, उग्र, परन्तु रोचक गंधयुक्र गैस है जो वर्णरहित, स्वच्छ तथा नमनीय होता है। स्वाद तीव्रदाहक है । (ख) यह अत्यन्त जल विलेय है ( मद्यसार में भी विलीन हो जाता है । ); परन्तु जलविलीन होकर यह स्थिर नहीं रहता । अस्तु, जलविलीन श्रमोनिया उबालने पर वा बोतल खुली रखने पर जल से निकल जाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया ( ग ) खरल, जिसमें नवसादर और चूर्ण' को मिलाया गया हो, उसके समीप यदि श्राद्र रक्त लिटमस पत्र लाएँ, तो वह नीला हो जाता है | अतः यह गैस क्षारीय है । (घ) उसी खरल के पास यदि उदहरिकाम्ल में डुबोकर एक काचदण्डी लाएँ, तो श्वेत धूम्र निकलते हैं। (ङ) इस गैस का जलविलयन चारों के समान गुण रखता है । रक लिटमस को नीला और अम्लों को उदासीन कर देता है। यह चार ऐसा तीन और दाहक नहीं है, जैसा कि दाहक सोडा या पोटास । श्रतः इसकी संज्ञा मृदुक्षार है । ( ) इसका श्रापेक्षिक गुरुत्व १८६ है 1 यदि इस गैस को बहुत सी हवा के साथ मिलाकर सुँघाया जाए तो भी यह बहुत क्षोभक प्रभाव करता हैं और यदि इसको शुद्ध रूप में सुँघा जाए तब तो तत्काल दम घुटने लगता है । संज्ञा - निर्णय - प्राचीन मिश्र, यूनान तथा रोम देशनिवासियों के एमन नामक देवता का मन्दिर, जिनका वर्णन एमोनाइकम ( उशक के संज्ञा - निर्णायक नोट शीर्षक के अन्तर्गत होगा, लेबिया ( शाम के जिस जिला में था, उस जिला का नाम उन देवता के नाम पर रखा गया था । उस जिलाका नाम श्र (ए) मोनिया था। चूँकि कृत्रिम नवसादर सर्व प्रथम उसी जगह बनाया गया था । अतएव नवसादर का नाम सल एमोनिएक ( Sal ammoniac . ) श्रमोनीयिक लवण या एमोनिया ( स्थान ) का नमक है, और चूँकि यह गैस सल एमोनिएक अर्थात् नवसादर से बनता है । अस्तु, इसी सम्बन्ध से उसका नाम भी (ए) मोनिया रखा गया । औषध निर्माण - (१) लाइकर श्रमोनी फॉर्टिस Liquor Amronice Fortis - ले० | स्टॉङ्ग सोल्युशन ऑफ अमोनिया Strong Solution of Ammonia - इं० । सबल अमोनिया द्रव, तीवू श्रमोनिया विलयन - हिं० । क़वी साइल अमोनिया - ३० For Private and Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया ५०२ अमोनिया - (ऑफिशल Official-) यह काम आता है-लिनिमेण्टम अमोनी, सङ्केत सूत्र ( न उ.) N. H33 लिनिमेर टम हाइड्रार्जिराई, टिंकचर विनीनी निर्माण-विधि-अमोनियम क्लोराइड (अमो. एमोनिएटा, टिंकचर अर्गोटी अमोनिएटा, टिंकचर नियम हरिद, नवसादर ) को शांत चूर्ण में मिला वेलेरिएनी अमोनिएटा और टिंकचर श्रोपियाई अमोनिएटा तथा निम्नांकित योग के बनाने में:कर उत्ताप देने से जो अमोनिया गैस प्रादुर्भूत हो उसको परित्रुत जल में विलीन करले।। (३) लिनिमेण्टम श्रमोनी Linimeगुण-यह एक अत्यन्त उग्रगंधि, वर्ण ntum Amimonite-ले० । लिनिमेण्ट रहित एवं प्रति क्षारीय द्रव होता है जिसका ऑफ़ अमोनिया Liniment of Ammoप्रापेक्षिक गुरुत्व ८६१ होता है । इसमें ३२.५% mia, हार्टशॉर्न लिनिमेण्ट Harts horn (भार में ) अमोनिया वायव्य पाया जाता है। Liniment -इं० । अमोनिया अम्यंग, प्रभाव-बेसिकेएट (फोस्का जनक)। इसका अमोनिया उद्वतन-हिं०। तमीख अमोनियाई, प्राभ्यन्तर प्रयोग न करना चाहिए। तमीन कल्ईल-ति । यह पड़ता है-लिनिमेण्टम कैम्फोरी अमो- नोट-प्राचीन काल में हार्टशान (मृगभंग, निएटम, लाइकर एमोनी, स्पिरिटस एमोनी बारहसिंगा) अमोनिया बनाने के काम अाता था। ऐरोमेटिकस, सिरिटस एमोनी फेटेडस और अस्तु, लिनिमेण्ट अंत अमोनिया की दूसरी टिंकचर ग्वाऐसाई एमोनिएटा में तथा अमेनियाई अंगरेजी संज्ञा हार्टानं लिनिमेण्ट अर्थात् बेजोपास, एमोनियाई ब्रोमाइडम, एमोनियाई मृगशृंगाभ्यंग भी है। फास्फॉस ओर निम्नांकित फिराल योगों के निर्माण-विधि-लाइकर ( सोल्युशन ) निर्माण में काम आता है। श्राफ अमोनिया १ पाउंस, श्रामंड बहल ऑफिशल प्रिपेयरेशन ( वाताद तैल) १ श्राउंस और प्रालिद प्राइल (Official Preparations.) (जैतून तेल ) २ भाग इनको भली प्रकार मिला (२) लाइकर एमोनो Liquor Ammo ले। प्रभाव-रूबीफेशेण्ट ( बण्यं वा प्रारुण्यnite-ले० सोल्युशन श्रीफ़ अमोनिया Sol कारक )। 'ution of Ammonia-इं० । अमोनिया लिनिमेण्टम कैम्फारी एमोनिएटम Linघोल-हिं० । सय्याल एमोनिया-उ० । imentum car phorde am ruonia__ सङ्केत सूत्र । न उ, ) N. HD tun-ले० । एमोनिएटेड लिनिमेण्ट ग्राफ निर्माण-विधि- स्ट्राँङ्ग सोल्युशन अफ अमो- कैम्फर A .moniated liniment of निया १ माग, परिस्रुत जल २ भाग, दोनों को camphor-इं० । अमोनिया कपूराभ्यंग-हिं० । मिला लें। तम्रीन कारी अमोनियाई, रोग़न मालिश गुण--स्ट्रांग सोल्युशन अफ अमोनिया के कालरी एमानियाई-ति०। सदृश, परन्तु तीक्ष्णता में यह उससे हीन होता निर्माण-विधि--स्ट्राँग सोल्युशन आफ अमोहै। इसका आपेक्षिक गुरुत्व ·६१६ होता है और निया ५क्ल इड पाउंस, कैम्फर २॥ पाउस, इसमें १०% ( भार में ) एमोनिया गैस पाया ऑइल प्रान लेवेण्डर फ्लइड डाम, ऐलकुहॉल जाता है। मात्रा-१० से २० बूद । (१०% ) आवश्यकतानुसार । कैम्फर और नोट-इसको खूब डायल्यूट करके अर्थात् | आइल ऑफ़ लेवेण्डर को १२ लइड पाउस जल मिश्रित कर देना चाहिए। एलकुहाल ( मद्यसार ) में विलीन करले। फिर प्रभाव-स्टिम्युलेएट ( उत्तेजक ) और रूबी- उसमें थोड़ा थोड़ा स्ट्राँग सोल्युशन अफ अमोनिया फेशेण्ट (वयं वा भारुण्यकर )। . मिलाते और हिलाते जाएँ। पुनः इतना एलकुहाज For Private and Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमोनियाँ ५०३ ( मद्यसार ) मिलादे जिसमें कुल द्रव्य पूरा २० ल ुइड ग्राउस होजाए । ( ५ ) लिनिमेण्टम हाइड्राजिराई Linimentum Hydrargyri-ले० | लिनिमेण्ट श्रीफ़ मर्करी Liniment of mercury - इं० । पारदाभ्यंग - हिं० । तमूरीख वा मालिश सीमाब-ति० । देखो -- पारद । (६) स्पिरिटस श्रमोनो ऐरोमैटिक्स Spiritus ammoniae aromaticus -ले० । एरोमैटिक स्पिरिट श्रीफ़ अमोनिया Aromatic spirit of ammonia - इं० । सुवासित अमोनिया सुरा | देखो - श्रमीनिया कार्बोनस के योग | (७) स्पिरिटस श्रमोनी फेटिडस Spiritus ammoniå fetidus-ले० । फेटिड स्पिरिट श्री अमोनिया Fetid spirit of ammonia-इं० । पूतिगंध अमोनिया सुरा - हिं० | रूह नवशादर मुन्तिन, रूह नवशादर बदबू - ति० | निर्माण विधि - स्ट्रॉंग सोल्युशन श्रीफ़ श्रमोनिया २ फ्ल ुइड श्रास, ऐसा फेटिडा ( हिंगु ) १ ॥ श्राउंस और ऐलकुहॉल ( ६०% ) श्रावश्यकतानुसार 1 ऐसा फेटिडा ( हिंगु ) के टुकड़े करके १५ फ्ल ुइड आउंस ऐलकुहाल में २४ घंटे तक भिगोकर इसका स्रवण करें । पुनः इसमें स्ट्रॉंग सोल्युशन श्रफ़ अमोनिया और इतना ऐलकुहाल और योजित करें, जिसमें सम्पूर्ण श्रौषध एक पाइंट हो जाए । मात्रा - २० से ४० बुंद (= १-२ से १-८ क्युबिक सेंटीमीटर ) जब एक बार देना हो और ६० से १० बुंद ( ३.६ से ४८६ घन शतांश मीटर ) जब एक ही बार देना हो । इसको अच्छी तरह जल मिश्रित कर सेवन कराएँ । प्रभाव -- उत्तेजक ( Stimulant ) और उद्वेष्टनहर ( Antispasmodic ). नॉट ऑफिशल योग (Not official preparations ). (१) लोशियो क्रिनेलिस Lotio crin Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया alis - ले । लोमजनक विलयन - हिं० । अर्क मू अफ़ज़ा-ति० । योग- श्रॉलियम एमिग्डली ( वाताद तैल ) १ भाग, लाइकर श्रमोनी फॉटिंस १ भाग, स्पिरिटस रोज़ मेराइनी ४ भाग, एक्कामैलिस २ भाग | सब औषधों को मिला लें । बालों को बढ़ाने के लिए इस अर्क का प्रयोग करते हैं । 1 _ ( २ ) टिकचूरा श्रमोनी कम्पोज़िटा Tinctura ammoniae composita, प्रोडील्स Eau-de-Luce-ro यौगिक अमोनियासव, सर्पागदार्क - हिं० । तीन अमोनिया मुरक्कब, अर्क दाफ़िा जहर मार-ति० । योग-मस्टिक ( मस्तगी ) २ ड्राम, एलकुहॉल ( ६०% ) 8 ड्राम, प्रॉलियम लेण्डली १४ बूंद, लाइकर अमोनी फॉर्टिस २० फ़्लुइड आउंस । समग्र औषध को परस्पर मिलाकर साँप के काटे पर लगाया करते हैं । अमोनिया की फार्माकॉलॉजी अर्थात् प्रभाव ( वाह्य प्रभाव ) सोल्यूशन ऑफ़ अमोनिया (अमोनिया विलयन ) को जब त्वचा पर लगाया जाता है तब यह उसमें अंत होने बाले तन्तुओं एवं रक्र वाहिनियों को उत्तेजना प्रदान करता है, जिससे उन स्थल पर ऊष्मा एवं राग का अनुभव होता है । यदि अमोनिया के तीक्ष्ण विलयन को त्वचा के किसी भाग पर लगाकर उसको वाष्पीभूत न होने दें तो वहाँ पर फोस्का उत्पन्न हो जाता है। श्रतएव अमोनिया रूबी फेशेष्ट ( श्रारुण्यकारक ) और वेसिकेण्ट ( फोस्काजनक ) है । I नासिका और वायुप्रणाली - नासिका तथा वायु प्रणाली की श्लैष्मिक कला पर अमोनिया वाष्प का सबल क्षोभक एवं उत्तेजक प्रभाव होता है, जिससे छींकें श्राने लगती हैं । कन्जङ्कटाइह्वा चक्षु के ऊपरी परत ) पर भी इसका क्षोभक प्रभाव होता है, जिससे नेत्र द्वारा स्राव होने लगता है । नासिका की संज्ञावहा नाड़ियों को For Private and Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया ५०४ अमोनिया उत्तेजित करने के कारण अमोनिया परावर्तित रूप से रुधिराभिसरण को उत्तेजना प्रदान करता और नाड़ी की गति को तीन करता है। यदि ." अमोनिया को देर तक सूघा जाए अथवा वाष्प अधिक तीव्र हों तो नासिका एवं वायु प्रणालियों में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। परावर्तित क्रिया द्वारा यह सार्वांगिक रक्तभार की वृद्धि करता और ... आघात जन्य मूर्छा के लिए हितकारक है । आन्तरिक प्रभाव आमाशय-श्रामाशयमें पहुँच कर अमोनिया तत्क्षण परावर्तित रूप से रक्राभिसरण तथा हृदय को उत्तेजित करता है अर्थात् शोणित- सञ्चालन और हृदय की गति को चपल करता है । क्योंकि उनको तीव्र करने वाले सौषुम्न वातकेन्द्रों पर इसका प्रभाव पड़ता है। रक में अभिशोषित होने के पश्चात् इसका यह प्रभाद जारी रहता है, और श्वासोच्छ वास भी तीव्र हो जाता है। अन्य क्षारीय औषधों के समान यदि श्राहार से पूर्व अमोनिया का प्रयोग किया जाए तो यह श्रामाशयिक रस के स्राव की वृद्धि करता है। और यदि पाहार पश्चात् दिया जाए तो यह । प्रामाशयिक रस की अम्लता को उदासीन कर देता है । अर्थात् उसके प्रभाव को नष्ट कर देता है। यह प्रांत्रस्थ कृमिवत् प्राकुञ्चन को भी तीव्र करता है और इससे प्रामाशय में उष्मा का बोध होता है। अतएव अमोनिया पित्तघ्न ( ऐण्टेसिड), प्रामाशयोजक और वायु निस्सारक (प्राध्मानहर) है। अधिक मात्रा में देने से यह श्रामाशयांत्र क्षोभक है। शोणित-अमोनिया रकवारि (प्लाज़्मा ) के क्षारत्व को किसी प्रकार अधिक करता है। अनुमान किया जाता है कि थॉम्बोसिस (रक्रवाहिनियों में रक्त का थका बन जाना) रोग में यह रक के थक्का बनाने की शक्ति को हीन करता है और जो क्रॉट (खून का थक्का) पूर्व से बन चुका है उसको विलीन कर देता है। हृदय-अमोनिया के प्रभाव से हृदय एवं . नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है और रक्तभार बढ़ जाता है। कदाचित् यह प्रभाव हृदय पर कुछ तो परावर्तित रूप से होता है; परन्तु अधिकतर इस हेतु कि अमोनिया रक में अभिशोषित होने के पश्चात् हृदय की गति को तीव्र करनेवाले सौषुम्न-वातकेन्द्रों को उत्त जना प्रदान करता है। फुप्फुस-रक्त में अभिशोषित होने के पश्चात् श्वासोच्छ वासकेन्द्र पर अमोनिया का सरलोत्त जक प्रभाव पड़ने से श्वासोच्छवास की गति तीव्र हो जाती है। अमोनिया किसी प्रकार वायु प्रणालीस्थ ग्रंथियों के मार्ग शरीर से विस• र्जित होता है । अस्तु, इसके उपयोग से उन ग्रन्थियों का स्राव अधिक हो जाता है। अतः रॉसबैक ( Ross bach) ने कतिपय सजीव प्राणियों की वायुप्राणालीय श्लैष्मिक कलापर अमोनिया का मन्द विलयन लगाकर इस बात की परीक्षा की है कि इसके लगाने से वहाँ पर रक्त घनीभूत होकर रक्तस्राव बढ़ जाता है। वात-मंडल-अमोनिया साांगोत्तेजक है। क्योंकि यह श्वासोच्छवासकेन्द्र और हृदयाशुकारी सौषुम्न-वातकेन्द्रों को उत्तेजित करता है। परन्तु, मस्तिष्क पर इसका कुछ प्रभाव नहीं होता और न वात तन्तओं पर कोई असर पड़ता है। जब इसको स्थानिक रूप से लगाते हैं, तब उस स्थल पर मुनझुनाहट और दाह प्रतीत होता है। जीवधारियों को जब विषैली अर्थात् अधिक मात्रा में अमोनिया दिया जाता है, तब प्रायः प्राक्षेप ( Convulsion ) होने लगता है। इसका कारण यह है कि अमोनिया सुषुम्ना की गत्युत्पादक सेलों पर उत्तेजक प्रभाव करता है। वृक्त-अमोनिया और इसके लवण शोणित तथा शारीरिक धातुओं ( तन्तुओं ) में प्रविष्ट होकर वियुक्र व पाचित होजाते ( सड़जाते ) हैं। कदाचित् यकृत् में इससे भी अधिकतर परिवर्तन उपस्थित होते हैं, जिनका अवश्यमभावी परिणाम यह होता है कि मूत्र ( कारोरा ) में यूरिया, युरिकाम्ल और शोरकाम्ल की मात्रा बढ़ जाती है। अस्तु, इस बात को भली भाँति स्मरण For Private and Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनिया अमोनिया रखनी चाहिए कि अमोनिया मूत्र की अम्लता को | बढ़ाता है। उत्सर्ग-शरीर से श्वासोच्छ्वास, वायुप्रणालीस्थ स्राव, मूत्र व स्वेद द्वारा अमोनिया उत्सर्जित होता है। अमोनिया द्वारा विषाक्तता यदि अमोनिया के तीब्र विलयन की एक बड़ी मात्रा पान करली जाए तो स्वरयंत्र (Glottis) के श्राक्षेपग्रस्त होने से श्वासावरोध होकर किंचित् काल में ही मृत्यु उपस्थित होसकती है । अन्यथा भक्षक वा दाहक क्षारीय विषों यथा दाहक सोडा (Caustic soda) या पोटास प्रभृति के समान लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। अगद-जो अन्य ऐलकेलीज़ अर्थात् क्षारीय विषों के अगद हैं, वे ही इसके भी हैं । देखोपोटासा कॉस्टिका। अमोनिया के थेराप्युटिक्स अर्थात् औषधीय उपयोग (वहिःप्रयोग) स्थानिक वाततन्तु एवं रक्रवाहिन्योत्तेजक रूप से स्टिफ जॉइण्ट्स (विकृत कठोर संधियों) पर और क्रॉनिक स्युमैटिज़्म ( पुरातन संधिवात) की विभिन्न दशाओं में लिनिमेण्ट ऑफ़ अमोनिया का अभ्यंग करते हैं। ब्रॉङ्काइटिस (कास), न्युमोनिया (फुफ्फुसौष) और प्ल्युरिसी ( पावशूल) में स्थानिक उग्रतासाधक (Counter irritant) रूप से भी इसका उद्वर्तन करें। जिन रोगों में फोस्काजनन के लिए कैन्थेरिडीज़ ( तेलिनी मक्खी) का उपयोग वर्जित एवं अनुचित है, उनमें उक्त अभिप्राय के लिए अमोनिया का प्रयोग करते हैं। अस्तु, जितना बड़ा फोला डालना हो उससे किंचित् बड़ा लिट का एक टुकड़ा काट कर और उसको स्टॉङ्ग सोल्युशन ऑफ अमोनिया में क्वेदित कर जिस स्थल पर फोस्का उठाना हो उसे वहाँ पर रख कर ऊपर से वॉच ग्लास (जेबघड़ीके शीशे ) से प्रावरित कर दें। किञ्चित् काल में वहाँ पर फोला पड़ जाएगा। अमोनिया प्रायः विषैले कीटों के विष को प्रभावशून्य कर देता है । अस्तु, वृश्चिक, भिड़, ततैया और मुहाल इत्यादि के दंश-स्थल पर (दंश अर्थात् डङ्कको निकाल कर ), कनखजूरे (गोजर) प्रभति के काटे हुए स्थान पर और रतेल ( मकड़, श्रारण्य मकड़ ) या मकड़ी मले हुए स्थान पर अमोनिया का निर्बल सोल्यशन लगाने से वेदना एवं शोथ कम हो जाता है। अल्पविष सर्प के दंशित स्थानपर कम्पाउंड टिंकचर ऑफ अमोनिया (ो-डी-लूस) का स्वस्थ अन्तःक्षेप करना लाभदायक सिद्ध होता है । लोमवद्धन हेतु लोशियो क्रिनेलिस ( रोमवद्ध नार्क ) एक अत्युत्तम औषध है। मूर्छित व्यक्ति को अमोनिया सुँघानेसे तत्क्षण होश या जाता है। क्योंकि इसके घ्राण करने से परावत्तित रूप से श्वासोच्छ वास तथा हृदय की गति तीव्र हो जाती है। अस्तु मूर्छा, प्राघात वा क्षोभ, निद्रा (जन्य विसंज्ञता) और निद्राजनक (वा अवसन्नताजनक) विषों यथा अहिफेन प्रभृति में रोगी की मूर्छा निवारणार्थ अमोनिया सुंघाया करते हैं। नोट-विभिन्न प्रकार के सूंघने के चूर्ण वा लखलख्खे ( Smelling salts ) जिनका प्रधान अवयव अमोनिया होता है, बने बनाए खुले मुख के हरित वर्ण आदि की बंद शीशियों में अँगरेज़ी औषध-विक्रेताओं की दुकानों में बिका करते हैं। श्रान्तरिक प्रयोग अन्य क्षारीय औषधों के समान अमोनिया को भी अम्लाजीर्ण (एसिड डिस्पेप्सिया) में दे सकते हैं । गैस्ट्रिक इन्टेस्टाइनल कैम्पस (प्रामाशयांत्र के प्रावाहकीय आक्षेपक वेदनाओं ) में स्पिरिट ए(अ)मोनिया ऐरोमैटिक एक अत्युत्तम औषध है । बालकके उदराध्मानमें सोडा और डिल वाटर ( सोपा के अर्क) के साथ इसके कुछ बुद देने से सामान्यतः लाभ हो जाता है । जेनरल डिफ्युज़िब्ल स्टिम्युलेण्ट (सर्वांग व्याप्तोत्तेजक) रूप से सिङ्कोपी (मूर्छा), शॉक (क्षोभ ), For Private and Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमोनिया सारुनी ५०६ फेण्टिङ्ग (विसंज्ञता) में तथा फ़ेब्रेशइल डिज़ीज़ेज़ ( ज्वरयुक व्याधियाँ ), न्युमोनिया ( फुप्फुसौष) और थाइसिस ( उरःक्षत ) इत्यादि में जब रोगी की शक्तियाँ निर्बल हो जाती हैं, उस समय अमोनिया के उपयोग से बहुत लाभ होता है । कास तथा प्रातिश्यायिक फुप्फुसौप ( कैटारल न्युमोनिया ) में अमोनिया सान्द्र एवं पिच्छिल श्लेष्मा को द्रवीभूत एवं मृदु करता है । पर इस हेतु अमोनियम कार्बोनेट का उपयोग श्रेष्ठतर होता है । नैलिका द्वारा विषाक्तता अर्थात् श्रायडिज़्म ( नैलिका या उसके यौगिकों से पुरातन विषाकता के हो जाने ) को अमोनिया रोकता है । अस्तु, जब आयोडाइड्ज़ को अधिक मात्रा में देना होता है तब इसको उनके साथ मिलाकर देते हैं । अमोनिया श्रसारुनी ammonia asáruní - हिं० पु० देखो - जटामांसी । अमोनियाई आयोडाइडम् ammonii iodidum - ले० नैलिद अमोनिया । देखोआयोडम् | अमोनियाई एम्बेलास ammonii embelas - ले० देखो वायविडङ्ग । अमोनियाई कार्य जांटास ammonii carbojotas - ले० देखो - अमोनियाई विकास । अमोनियाई कार्बोनास ammonii carbonas - ले० अमोनियम कार्बनित, कजलित नरसार - हिं० । अमोनियम कार्बोनेट Ammonium carbonate., अमोनियम सरकी कार्बोनेट Ammonium Sesqi carbonate. - इं० | कनातुन्नौसादर, श्रमोनिया मुरक्कब ( सेहचन्द ) कार्बन | ऑफिशल (Official.) निर्माण - विधि - कोराइड श्रॉफ अमोनियम ( नवसादर ) या सल्फेट श्रॉफ अमोनियम और कार्बोनेट ऑफ कैल्सियम ( चूर्ण कज्जलेत श्रर्थात् शुद्ध खटिका ) को परस्पर संयोजित कर बारबार ऊर्ध्वपातित करने से कार्बोनेट ऑफ श्रमोनियम प्राप्त होता है । इसमें अमोनियम हाइड्रोजन कार्बोनेट ( NH1N CO 3 ) और श्रमो - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कार्बोनास नियम कामेट ( NH4NH2CO ) सम्मिलित पाए जाते हैं । संकेत सूत्र NH11 +NH4 C2 05 (NH4 HCO3 NH2_C Og ). नोट- उम्दतुल् मुहताज के लेखक के मत से हार्टशार्न अर्थात् मृगंग का उड़नशील लवण भी कज्जलित नरसार ( कबूनातुन्नौशादर ) ही होता है । किन्तु उसमें गन्धमय तैल प्रभृति मिलित होते हैं । लक्षण - श्रमोनियम कार्यनित एक श्वेत पार्थिव द्रव्य है, जो वायु में खुला रखने से वा सूँघने से अमोनिया और कार्बन द्वयाम्लजिद ( कर्बन द्विषित ) गैस देता हुआ स्वयं नष्ट हो जाता है । इसके श्रद्ध' स्वच्छ स्फटिकीय उड़नशील उग्रगंध बड़े बड़े टुकड़े होते हैं । वायु में खुला रखने पर उनपर श्वेत चूर्ण जम जाता है । इस की प्रतिक्रिया क्षारीय होती है । परीक्षा - अमोनियम की परीक्षा के लिए संदिग्ध लवण को चूर्ण ( Lime. ) के साथ मिलाकर उष्ण करें और सूंघें । यदि अमोनिया की उग्रगंध निकले, तो समझें, कि यह लवण अमोनिया का कोई योग है। विलेयता - यह १ भाग जल में विलीन हो जाता है । मिश्रण - इसमें सल्फेट्स ( गंधित ) और क्लोराइड्स (हरिंद) का मिश्रण हुआ करता है ।. उदासीनजनक मात्रा -- २० ग्रेन अमोनियम कार्बनेिट, २६॥ ग्रेन साइट्रिक एसिड को और २८ ||| ग्रेन टार्टरिक एसिड तथा १३ ग्रेन श्रद्ध थाउंस निम्बुस्वरस को न्युट्रल अर्थात् उदासीन कर देता है । For Private and Personal Use Only ४ भाग शीतल संयोग-विरुद्ध(-- ग्रम्ल, अम्लीय लवण ( एसिड साल्ट्स), चूर्णोदक ( लाइस वाटर ), लौह के लवण ( श्रायन साल्ट्स ), क्षारीय मृत्तिकाएँ ( अलकलाइन अर्थ स ) और क्षारोद ( श्रलकलाइड्स ) को अमोनियम कार्बोनेट के साथ नहीं मिलाना चाहिए । औषध-निर्माण-संकेत - श्रौषध में योजित Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई काबीनास ५०७ अमोनियाई कानास करने से पूर्व अमोनिया कार्ब के टुकड़े पर जो श्वेत चूर्ण लगा होता है उसको खुरच डालना चाहिए। प्रभाव-व्याप्तोत्तेजक, श्लेष्मानिस्सारक, वामक और अम्लहर (ऐण्टेसिड)। मात्रा--३ से १० ग्रेन (२० से ·६५ ग्राम) उत्तेजक व कफनिस्मारक रूप से और ३० ग्रेन ( २ ग्राम ) वामक रूप से । यह लाइकर अमोनियाई एसिटेटिस, लाइकर अमोनियाई साइटे, टिस, स्पिरिटस अमोनी ऐरोमैटिकस और विज़्मथ कार्ब तथा निम्नांकित योगों के निर्माण में काम आता है : ऑफिशल विपयरेशन (योग) (Official preparations.) (१) लाइकर अमोनियाई एसिटेटिस Liquor ammonii acetatis-ले० सोल्युशन अॉफ अमोनियम एसिटेट Solution of ammonium acetate, feTFIT 71 मिण्डीरर Spirit of Minderer--इं०। शुक्रित अमोनियम द्रव-हिं० । सय्याल खुल्लातुनौशादर, अर्क अमोनिया सिर्कादार, शराब मिंदरीर । रासायनिक सूत्र जिसमें सम्पूर्ण द्रवका द्रव्यमान पूरा एक पाइंट हो जाए । इसमें लगभग ६% अमोनिया होता है। मात्रा-२ से ६ फ्लुइड डाम(७.१ से २१.३ घन शतांश मीटर)। प्रभाव-मूत्रल और स्वेदक । (२) लाइकर अमोनिया साइट्रेटिस Liquor ammonia citratis.-toi सोल्युशन योफ अमोनिम साइट्रेट Solution of ammonium citrate.-इं० । निम्बु. कित अमोनिया द्रव-हिं० । सय्याल सत्रातुनौ. शादर, अर्क अमोनिया लेमूनी-ति० । निर्माण-विधि-अमोनियम कार्बोनेट २॥॥ - अाउस वा आवश्यकतानुसार, साइट्रिक एसिड (निम्बुकाम्ल ) २॥ पाउस, परिस्रुत जल आवश्यकतानुसार । साइट्रिक एसिड (निम्बुकाम्ल ) को पाँच गुने परिघुत जल में विलीन करके फिर उसमें अमोनियम कार्बोनेट मिलाकर उसको उदासीन (न्युट्रल ) करले और फिर उसमें इतना और परिघुन जल मिलादे जिसमें कुल द्रव एक पाइंट होजाए। इसमें लगभग १६०/ अमोनिया होता है। रासायनिक सूत्र (NH4 ) 3 CG H , OF प्रभाव-मूत्रल । मात्रा-२ से ६ फ्ल.इड ड्राम (७१ से २१.३ घन शतांशमीटर )। नोट-इसको सदा हरित वर्ण के बोतलों में रखना चाहिए। NH, C, H, 09 नोट-सन् १६२२ ई० में सर्व प्रथम मिण्डीरर महोदय ने, जो ड्यूक ऑफ बेवारिया के सर्वोत्कृष्ट चिकित्सक थे, इस औषध का निर्माण किया था । श्रस्तु, इसे उन्हीं के नाम से अभिहित किया गया। निर्माण-विधि-प्रमोनियम कार्बोनेट १ पाउंस, एसिटिक एसिड (शुक्काम्ल) और परिस्रत वारि प्रत्येक आवश्यकतानुसार । अमोनियम कार्बोनेट को दसगुने परित्त जल में विलीन कर ! के फिर उसमें एसिटिक एसिड (शुक्राम्ल ) सम्मिलित कर उसे न्युट्रल (उदासीन) कर ले। बाद को उसमें इतना परिघुत जल और मिलाएँ (३) स्पिरिटस अमोनी ऐरोमैटिकस Spiri. tus ammonia aromaticus-ले०। ऐरोमेटिक स्पिरिट अाफ़ अमोनिया Aromatic spirit of ammonia, स्पिरिट ऑफ सैल वालेटाइल spirit of Sa! Volatile-इं। सुवासित अमोनिया सुरा-हिं० । रूहु नौशादर तय्यब, रूह नौशादर मुअत्तर,रूह मिल हु,त्तय्यार -ति। For Private and Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कानास अमोनियाई कार्वेनास ५०० रासायनिक सूत्र (न उ,) NH निर्माण-विधि-अमोनियम कार्बोनेट ४ पाउस, स्ट्राँग सोल्युशन अफ अमोनिया - पाउस, अाइल |फ़ नटमेग (जातीफल तैल ) ४॥ फ्लइड ड्राम, ग्राइल श्राफ लेमन (निम्बुक तैल ) ६॥ फ्लइड ड्राम, ऐल कुहाल वा मद्यसार (६०%) ६ पाइंट, परिघुत जल ३ पाइंट । प्रथम प्राइल फ़ नटमेग और प्राइल ग्राफ लेमन को ऐलकुहॉल और परिचुत जल के साथ योजित कर सात पाइंट द्रव सावित करके पृथक करले। फिर ६ ग्राउंस द्रव और सावित करें। तथा इसमें स्ट्राँग सोल्युशन प्रोफ़ अमोनिया और अमोनियम कार्बोनेट को योजित कर इतना उत्ताप दें जिसमें वे विलीन हो जाएँ। अब इसमें पूर्व सावित सात पाइंट अर्क मिला ले । इसका आपेक्षिक भार '८६ होना चाहिए । यह लगभग वर्या रहित होता है। मात्रा-जब बारबार देना हो तब २० से ४० बूद और जब एक ही बार देना हो तब ६० से १० बुद तक। नोट-योग में स्पिरिट अमोनी ऐरोमेटिक के साथ सिरूपस सिल्ली (वनपलाण्ड प्रपानक अर्थात् शर्बत) कदापि नहीं लिखना चाहिए। यह मिस्चूरा (मिश्रण) सेन्ना को० में पड़ता है। नॉट ऑफिशल योग ( Not official preparations ). (१) लिङ्कटस अमोनी कम्पोजिटस Li nctus ammoniæ compositus-toi यौगिक अमोनियावलेह-हिं० । लऊक अमोनिया मुरक्कब-ति० । योग- अमोनियम काबो नेट १ ग्रेन, इपिकेक्वाइना वाइन २ बुद, टिंकचर श्रॉफ स्क्वील ५ बुद, एसेंस ऑफ़ एनिसाई १ बुद, म्युसिलेज (लुआब) अकेशिया २० बुद, जल एक पाउंस पर्यन्त । यह एक मात्रा है। ( रोयल चेष्ट ) (२) अमोनियाई बाइकाबनास ammo-| nii bicarbonas-ले० । अमोनियम् काबोंनेट की अपेक्षा इसका स्वाद उत्तम होता है और यह कम दाहक (कॉस्टिक ) होता है। एफ़र्वेसिंग ड्राफ्टस ( उफाणयुक ट ) हेतु यह अधिक उपयोगी है। (३) अमोनियाई फ्लोराइडम् ammonii fluoridum-ले०। इसके ४ ग्रेन प्रति पाउंस वाले बिलयन को ५ से ३० बूद की मात्रा में विवर्द्धित लीह एवं गलगण्ड प्रभृति में दिया करते हैं। (४) अमोनियाई पिकास ammonii picras-ले । इसके पीतवर्ण के छोटे छोटे पत्र होते हैं जो जल में विलीन हो जाते है। इसको शीतज्वर और मलेरिया ज्वरों में देते हैं । मात्रा१ से ११ प्रेन तक दित रात में ४-५ बार | (५) अमोनियाई टार्दास aminonii tartras-ले०। कफनिस्सारक रूप से इसको ५ से ३० ग्रेन तक की मात्रा में देते हैं। (६) स्मेलिंग साल्ट Smelling-salt -ले० । अाघ्राण लवण, घने का चूर्ण-हिं० । मिल्हु श्शम, लखलखा-अ० । ये कई प्रकार के होते हैं । इसका एक श्रेष्टतर योग निम्न है। योग -अमोनियम क्लोराइड ( नवसादर) १॥ आउंस, पोटासियम कार्बोनेट १ श्राउंस ६ ड्राम, कैम्फर (कपूर ) १ ड्राम, अमोनियम कार्बो. नेट ३ ड्राम, आइल ऑफ कव्ज़ (लवंग तैल ) १० बूद, श्राइल अफ बर्गेमोट १०बूद, प्राइल श्राफ स्पियरमिंट ४ बूद । शुष्क औषधों का बारीक चूर्ण कर उसमें तैल मिला दें। (७) पिक-मी-अप Pick ine up-इं० । योग-स्पिरिटस अमोनी ऐरोमैटिकस प्राधा ड्राम, स्पिरिट्स क्लोरोफार्माई आधा ड्राम, टिंकचूरा जन्शियाई कम्पोज़िटस १ ड्राम, टिंकचूरा कार्डिमोमाई कम्पोजिटस २ ड्राम, सीरूपस २ ड्राम, जल २ पाउंस पर्यन्त ! सब औषधों को मिला लें। यह एक मात्रा औषध है। प्रभाव तथा उपयोग( वाह्य ) यद्यपि लाइकर अमोनिया के For Private and Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कायनास ५०६ अमोनियाई कार्य नास समान ही इसके प्रभाव होते हैं, तथापि अमोनिया कार्बोनेट का बहिर प्रयोग नहीं होता। परावर्तित क्रिया के लिए स्पिरिटस अमोनिया ऐरामैटिक सुंघाई जाती है। (अान्तरिक ) अमोनियम कार्बोनेट में वे | सभी प्रभाव वर्तमान होते हैं जो लाइकर अमोनिया में हैं। इसके अतिरिक्त यह सराक सोत्ते. ज्य कफनिस्सारक ( लगभग ८ ग्रेन की मात्रा में भली प्रकार जल मिश्रित कर देने से ) है। अतएव कास, प्रातिश्यायिक फुप्फुसौप में यह एक अत्युत्तम औषध है । अमोनियम कार्बोनेट ३० ग्रेन की मात्रा में वामक है, किन्तु इस प्रयोजन हेतु क्वचित ही उपयोगमें पाता है। अधिक मात्रा, उदाहरणतः २० से ३० ग्रेन में देने से यह रेचक प्रभाव करता है अर्थात् इससे विरेक पाने लग जाते हैं। कभी कभी छोटी मात्रा में अधिक समय तक निरमार देते रहने से भी यह पात्र में क्षोभ उत्पन्न करता है । अस्तु, ऐसे कास रोगीको जिसको विरेक भी पाते हैं, अमोनियम काबो नेट नहीं देना चाहिए। लाइकर अमोनियाई एसिटेटिस पोर लाइकर श्रमोनियाई साइट्रेटिस दोनों स्तेदक हैं (बालकोंके ज्वर की सम्पूर्ण दशाओं में यह विशेष कर लाभप्रद है)। सम्भवतः स्वेदोत्पादक ग्रंथियों की सेलों पर अथवा उन ग्रंथियों में अंत होने वाले वाततन्तुओं पर उनका प्रभाव पड़ने से स्वेद पाता है। परन्तु ज्ञात होता है कि लाइकर अमोनिया एसिटेटिस का अधिक शक्तिशाली प्रभाव होता है । यदि रागी को शीतल स्थान में रखा जाए अर्थात् उसके शरीर को शीतल रखा जाए तो फिर वृक्क पर एकत्र हो कर ( संगठित रूप से ) उनका प्रभाव होता है, जिससे अधिक मूत्र आने लगता है। अस्तु, प्रागुक्क प्रभावों के अनुसार उनको ज्वरों में ऐसे अल्पस्वेदक रूप से, जिनसे निर्बलता न हो, प्रयोग करते हैं। अधिक मद्यपान जनित प्रभावों को व्यर्थ करने के लिए भी उनको बर्तते हैं। अस्तु, सुरा की शीशी (wine glassful) की मात्रा में सेवन करने से मदात्यय के प्रभाव को नष्ट करने में यह (एसिटेट श्रॉफ अमोनिया सोल्युशन ) विलक्षण प्रभाव करता है अथवा प्रारम्भ में काबो नेट को एक चाय की चम्मच भर एक शीशी सिरके में मिलाकर देने से भी वैसा ही प्रभाव होता है। यह यरिया की शकल में मूत्र द्वारा, बिना उसके क्षारत्व को बढ़ाए, उत्सर्जित होता है। अमोनिया के प्रयोग की सर्वोत्तम विधि, उसको ऐरोमैटिक स्पिरिट ऑफ अमोनिया और लाइकर श्रमोनी की शकल विशेषतः प्रथम रूप में देना है। उनमें सदा स्वतंत्रतापूर्वक जलमिश्रित करलें । कुश्ना के विचारानुसार इन योगों का भामाशय के धरातलपर उरोजक प्रभाव होकर परावर्तित रूप से हृदय पर प्रभाव होता है। कार्बोनेट श्राफ अमोनिया स्वतंत्र गैसों (वायव्य) की तरह प्रभाव करता है। लगभग ग्रेन की मात्रा में भली प्रकार जल मिश्रित कर देने से यह साांगिक व्याप्तोत्तेजक है और समग्र ज्वरजन्य कायशैथिल्य की दशाओं में इसका प्रत्युत्तम प्रभाव होता है । मसूरिका ( मीज़िल्स) और रकज्वर ( स्कारलेटिना ) में इसका प्रयोग करने से कभी कभी अत्यन्त संतोषदायक परिणाम निष्पन्न हुए हैं। इससे तापक्रम भी कम हो जाता है। स्थानिक उपयोग से जिस प्रकार ततैया के दंश और कीट दष्ट में यह विषघ्न प्रभाव करता है। सम्भवतः उक्र दशाओं में यह दृषित विषों को नष्ट कर अपना प्रभाव करता है। अमोनिएकल ब्रेथ सहित टाइफाइड (प्रांत्रसन्निपात ज्वर ) की दशा में यह निष्प्रयोजनीय है। सर्प दष्ट में इसके अन्तःक्षेप की उपयोगिता सन्दिग्ध है। (ह्वि० मे० मे०)। नोट --- काबा नेट अाफ़ अमोनिया को दुग्ध, शर्बत (प्रपानक) या पानी में भली प्रकार विलीन करके बर्तना चाहिए। For Private and Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई कार्योनास अमोनियाई फॉस्फोस युरोप तथा अमेरिका के डॉक्टरों रहें । परन्तु जब रकभार कम और नाड़ी मृदु के परीक्षित प्रयोग हो जाए तब इसको बन्द करके सोत्तज्य कफ(१) डायफोरेटिक मिक्सचर निस्सारक औषध का उपयोग करें। इस हेतु (स्वेदक मिश्रण) : - निम्न लिखित योग लाभदायक है :- . एसिटेट ऑफ़ अमोनिया सोल्युशन २ श्राउंस (४) योगएसिटेट अफ पोटासियम २ ड्राम अमोनियाई काबो नास ३ ग्रेन स्पिरिट अॉफ नाइटर ४ ड्राम स्पिरिटस अमोनियाई ऐरोमैटिकस २० बुद कैम्फर वाटर ८ अाउंस पर्यन्त स्पिरिटस कैजे युटाई १५ बुद सिरप १ अाउंस टिंकचर सिल्ली इसमें से १ पाउस की मात्रा में प्रति ३-३ इन्फ्युज़म सिनेशी १ श्राउंस पर्यन्त घंटे पश्चात् दें। यह एक निरापद अत्यन्त ऐसी १-१ मात्रा औषध प्रति ४-४ या ६-६ संतोषदायक स्वेदक मिश्रण है, जिसका उपयोग घंटे पश्चात् दें । परन्तु, दिन रात में ४ मात्रा से प्रत्येक प्रकार के ज्वर में किया जा सकता है। अधिक न दें। साइट्रेट सोल्युशन का भी ऐसा ही प्रभाव अमोनियाई क्लोराइडम् ammonii chloriहोता है । (See-B. on p. 318 ) dum-ले० नवसादर, नरसार, नौसादर । (२) न्युमोनिया मिक्सचर ( Sal am noniac. ). ( फुफ्फुसप्रदाहहर मिश्रण ): अमोनियाई ग्लासिर हाइज़ास ammonii glycyलाइकर अमोनिया एसिटेटिस २ श्राउंस rrhizas.-ले० अमोनियाई ग्लीसिरहाइज़ेट । अमोनियाई काबो नास श्रमानियाई ग्लासिाइज़ेट ammonii gly. पोटासियम पायोडाइड १६ ग्रेन cyrrhizate-ले० अमोनिया संयुक्त मुलेठी वाइ नम ऐरिटमोनियाई ४. बूद का सुस्वादु सत्व। यह क्वीनीन की तिकता और सिरूपस १ श्राउंस अन्य हृल्लासजनक औषधों के दोपशमनार्थ प्रयुक्त एक्का ८ आउंस पर्यन्त होता है। मात्रा-चौथाई ग्रेन से १ ग्रेन तक। इसमें से १-१ पाउंस की मात्रा में दिन रात पी०वी० एम०। में तीन-चार बार दें। अमोनियाई टार्दास ammonii tartras-ले० प्रयोग--यह मिश्रण प्रातिश्या यक फुफ्फुसौष देखो-अमोनियाई कार्बनास । ( कैटारल न्युमोनिया) में सामान्य रूप से अमोनियाई पिक्रास ammonii picras-ले० प्रयुक्त होता है । देखो-अमोनियाई कानास । (३) योगः अमोनियाई फोस्फॉस ammonii phosphos सिरुपस अमोनी ऐरोमैटिकस २० बुद -ले०। अमोनियम फॉस्फेट ( ammonium वाइनम ऐण्टमोनिएलिसं phosphate)-इं० । अमोनियम स्फुरित । टिकचूरा एकोनाइटाई ऑफिशल ( Official ). इन्फ्यु ज़म डिजिटेलिस १ ड्राम रासायनिक सूत्र (NHA ). [P05 एक्वा एनिसाई पाउंस पर्यन्त ऐसी एक-एक मात्रा औषध प्रति ३-३ घंटे निर्माण-विधि-स्ट्राँग सोल्य रान अंक अमोपश्चात् दें। निया (तीक्ष्ण अमोनिया घोल ) में डायल्यूट नोट-रक्रप्रकृति के न्युमोनिया-रोगी में। फॉस्फोरिक एसिड ( जलमिश्रित स्फुराम्ल ) रोग के प्रारम्भमें जब तक नाड़ी फूल (पूर्ण, भरी मिलाने से अमोनियम फॉस्फेट (श्रमोनियम स्फुरित) हुई ) चलती हों तब तक इस औषध को देते। प्रस्तुत होता है। For Private and Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोनियाई फ्लोराइडम् अमोनी-लाइकार फॉर्टिस लक्षण-इसके स्वच्छ वर्ण रहित रवे होते हैं। खुलकर पेशाब नहीं पा जाता। पुनः १५ ग्रेन विलेयता-यह १ भाग चार भाग जल में की मात्रा में दिन में तीन बार देते हैं। विलीन हो जाता है, परन्तु ऐलकुहॉल (६०%) अमोनियाई ब्रोमाइडम् amonii bromidमें विलीन नहीं होता। ___um-ले० देखो-ब्रामीन (ब्रह्मणिका)। प्रभाव-डायरेक्ट कोलेगांग ( सरल पित्त- अमोनियाई वैलेरिएनास alimonii valeरेचक ) और डायोरेटिक (मूत्रल) है । मात्रा-५ riatvas-ले० देखो-वैलेरियन, सुगन्धसे २० ग्रेन (३२ से १.३० ग्राम)। बाला। प्रभाव तथा उपयोग | अमोनियाई सैलिसीलास anmonii salicy. चें कि अमोनियम फॉस्फेट सीधा यकृत को 118-ले. वेतस अमोनिया । देखो-एसिडम् उत्तेजना प्रदान करता है एवं मूत्रल है, और सैजिसीलिकम (वेतसाम्ल)। चूँ कि यह श्रविलेय यरेट श्रोत सोडियम को श्रमानियाकून ao moniakon-यु. (Ammयुरेट ऑफ अमोनियम और फॉस्फेट अॉफ सेोडि. ___oniacum) देखो-उशक । यम में परिणत कर देता है; अतएव इसको | अमोनियातुज्जेबक amoshiyatuzzaibaq वातरक्त (गाउट) तथा युरिक एसिड डायथेसिस -अ० नृसारेत पारद । ( llydrargyrum ( अर्थात् उन सभी दशाओं में जब युरिकाम्ल की ainmoniatum ) देखो-पारद । कंकड़ी बनने की आशंका हो) में देने से लाभ अमोनियाते जीवह alloniyate-jivah-अ. होता है। नृसारेत पारद । ( A mmoniated mereअमोनियाई फ्लोराइडम् ammonii fluori- | ury ) देखो---पारद। dum ले० देखो-अमोनियाई कार्वनास । | अमोनिया बैक्सिफेरा amonia baccifeअमोनियाई बाई कार्वेनास monii bicar. ___ra--ले० दादमारी । ई० मे० मे० । bonas-ले० नृसारद्विकज्जलेत । देखो-अमो- | अमोनिया मक्युरिक क्लोराइड amimonia नियाई कार्वेनास। meretric chloride-इं. अमोनिया अमोनियाई वेोपास aliimonii-benzoas पारद हरिद । देखो-पारद। -ले. लोबान अम्ल । देखो-एसिडस बेजा अमोनिया लोबानी amoniya lobani-अ. - देखो-एसिडम् बेजोइकम् ( लोबानाम्ल )। इकम्। अमोनियाई बोरास aminomii borns-ले. श्रमानिया वसिकटारिया ammonia vesiटङ्कण अमोनिया । अमोनिया तिनकारी ।। ___catoria-ले० दादमारी । इ० मे० मे० । नाट आफ़िशल ( Not official.) अमोनिया वैलेरियाना ammonia valeriana लक्षण-यह एक स्फटिकीय लवण है, -इं० हावेर अमोनिया । देखो-वैलेरियन । जिसको प्रतिक्रिया क्षारीय होती है । विलेयता- | अमानिया सलिसीलास amimonia salicyयह १ भाग १५ भाग जल में विलीन हो जाता las-इ० वेतस अमोनिया । देखो-एसिडम सैलिसालिकम् (वेतसाम्ल)। अमोनियो क्लोराइड श्रॉफ मकरो ammonio प्रभाव तथा उपयोग-रेनल और वेसिक्ल chloride of mercury-इं. अमोनियात केल्क्युलाई (वृक्क व वस्त्यश्मरी ) में इसका उपयोग अत्यन्त लाभदायक प्रमाणित हुआ है । सीमाब । देखो-पारद । अस्तु, रेनल कॉलिक ( वृक्कशूल ) में २० ग्रेन | अमोना-लाकार फोर्टिस ammonite liquor (१० रशी) की मात्रा में इसको २-२ घंटे | fortis-ले० सशक्त ए(अ)मोनिया द्रव । देखोपश्चात् उस समय तक देते हैं, जब तक कि खूब | अ(ए)मोनिया। For Private and Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ(ए)मोनोल प्र(र)मानोल a monol-. यह एक श्वेत अमोरई amorai-रू. जैतून तैलकिट्ट । वर्ण का वूर्ण है। देखा-एसेटअनालाइडम्। श्रमोग श्रमारी amora-amari-आसा० प्रमोमम् amo nun, Sp. of. 'capsules रोहितक, रोहिनी, रोहेड़ा-सं०। (Amoora of'-ले० (१) हमामा | फा० इ०२ भा० ।। __rohituka, V.&A.)फा० इ०१ भा० । (२)बड़ी इलायची। स० फाइ'. । | अमोरो an ori--हिं० संज्ञा स्त्री० [हि. प्राम+ अमोमम् ऐरोमैटिकम् amo num aronati. औरी (प्रत्य०)] (१) प्रामकी कच्ची फली । cuin, Rosb.-ले० बड़ी इलायची, वृहदेला । अँबिया । ( २) श्रामड़ा, अम्मारी | पानातक । इलायची, मोरंग-बं० । ई० मे. मे० । मेमो। देखो एला । अमोला amola--हिं० संज्ञा पुं० [सं० अाम्र] श्राम का नया निकलता हुश्रा पौधा । अमोमम् ग्रेना ano.tum grana-ले. अज्ञात। अमोमम् जिञ्जिबे रेना a nomum zingi. अमोलोकन anoliqon--1. सीपभस्म, सीसाकी berina-ले० बड़ा कुलिञ्जन | फा० इ.०३ भस्म । (Lead oxide) देखो-सीस(क)म् । भा०। श्र()मोलुका anolukā-बं० अन्धुक, प्रामधुक अमोमम जैन्थिाइडिस amonun zanthi-! -हिं० । (Vitis indica, Linn.) । फा० oidis-ले० छोटी इलायची, पुढैला | फा० इ०१ भा०। ई.०३ भा० । देखो-एला । अमोलूनस anolānas-यगोधूम सत्व,श्वेतसार, अमोमम् डीऐलबेटम् amomuin dealba. ___ निशास्ता । स्टार्च (Starch.)-इ। tum, Roxb.-ले० यह खाद्य कार्य में आता अमौश्रा amoua-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० प्राम+ है। मेमो०। औपा (प्रत्य०)] | श्राम के रस का सा रंग । श्रमोमम् मेलेग्वेटा amonum melegue ta, | यह कई प्रकार का होता है। जैसे पीजा, सुनहरा, Roscce.-ले० इसका फल औषध कार्यमें आता माशी, किशमिशी, मुंगिया इत्यादि । है । मेमो०। (२) अमौा रंग का कपड़ा। अमोमम् मैक्ज़िमम् amomum maximum, | वि. अाम के रस के रंग का । Rob.-ले० यह एक खाद्य है । मेमो०। अमौलिक amoulika-हिं० वि० [सं०] अमोमम् रिपेन्स amomum repens, (१) बिना जड़ का । निमूल । (२) बिना Rorb.-ले० छोटी इलायची, छुट्टैला । देखो -- आधार का । (३) अयथार्थ, मिथ्या । एला। अमांसम् amansam-सं० क्ली० मांस रहित । प्रमोमम् वाइल्ड amomum wild इं० । अम्प्रदालिया ama-daliya--यु० बादाम, हमामा । ___वाताद । (Amygdala.) अमोमम् सब्युलेटम् amomum subula. tum, Roxb.-ले. बड़ी इलायची, वृहदेला अम्बर amaar-अ० कम बालों वाला। जिसके बाल गिरते हों। -बं०, हिं० । काकिलहे कबीर-१०। मेमो० । फार ई०३भा०। देखो-एला । श्रमाsamaaa-अ० (ब० व०) मिश्रा या अमं मम् सिलवेस्टूिस ainomum sylve. मिश्रा (ए.व.)। मस् सारीन-अ०। रोदहा, stris-ले० हमामा | (Amomun wild) आँते-फ़ा०, उ० | प्रांत्र, अंतड़ी-सं०, हिं० । इं० हैं. गा०। ( Intestines, Bowels.) अमोमिस amomis-यु० हमामा । ( Anmom. नोट-आँतें सूक्ष्म व बृहत् भेद से दो प्रकार um.) फा० ०२ भा० । की होती हैं, जिनमें से प्रत्येक के पुनः तीन तीन For Private and Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बाउलअर्ज ५१३ अम्बकः भेद होते हैं। अस्तु, ये संख्या में कुल छः हुई। अम्न amna-अ० चैन, श्राराम, शांति, सुरदेखो-अम्आऽ दिकाक व गिलाज़ । क्षितता, निडर होना ( Peace)। अम्बाउलअर्ज anaaul-arza-अ० ख़रातीन, अनाs amnaa-१० (ब० व०) मनाऽ (ए. केचुए। ( Earth worm.) व०) माप विशेष । लगभग पका १ सेर का अम्श्राऽउलया amaaa.aulya-अ० अमा वज़न । दिकोक। अनान amnan-अ० (ब० व०), मन्न (ए. farsfarsi a māáa-ghilaza-ho pers व०)एक माप विशेष । लगभग २ पौंड अर्थात सुक्ला । मोटी वा बड़ी आँते, जेरी आँते-उ० । एक सेर का वज़न । वृहदांत्र, स्थूलांत्र-हि०। ( Large intes- अम्निय्यत् amniyyat-अ० शाब्दिक tines.) इअ फाs iafaa- " अर्थ स्वास्थ्य अम्माऽदिकाक amaia-diqiqa-अ. छोटी एवं सुरक्षितता प्राप्त करना, रोगनाशकता, रोग आँते,ऊपर की आँते-उ० । लघु प्रांत्र, सूक्ष्मांत्र, क्षमता ( Immunity.)। शुद्रांत्र-हिं० । (Small intestines.) अम्पफर ampfel-जर० चाङ्गरा, चूका । अम्माऽसीन amaaa-sina-अ० ग़ोरहे (अपक्क) | (Rumex Scutatus ) ई० मे० मे । अंगूर का पानी। अम्पार ampar-बाकला, बेलहर । अम्की amki-नेपा० सफ्यी-लेपचा । (Pyru- अम्पिलोप्सिस विन् कि फोलिया ampelolaria edulis ). psis quin-quefolia-ले० अमेरिकन अम कुल ऐन amqul aain-अ.मान अक्बर । प्राइवी-इं० । वाइटिस क्विक्कि फोलिया (Vitis आँख का बड़ा कोया जो नासिका की ओर स्थित quinquefolia.)-ले। है। इनर कैन्थस ( Inner canthus)-इं०। अम्पुट्टई amputtai-ता० अम्बाड़ा, अमड़ा, अम्खत amkhat-अ० वह व्यकि जिसकी नासिका आम्रातक । (Spondias Mangifera) सदा बहती रहे। नासा(परि)स्राव रोगी। इं० मे० मे। अम्गर amghar-० रन रोमों वाला। | अम्पेलोसिक्योस स्कैण्डेन्स ampelosicyos अम्ज़र amzar-अ० नर, पुरुष, मनुष्य, श्रादमी, scandens, (Thou. Bot. Mag. 268-1, मर्द । मैन (Man)--ई.। 275-1,-2.)-ले- इसका बीज कृमिहर है। बीज अम्जह amzah-अ० (१) चलते समय जिस चिपटा, करीब करीब गोलाकार लगमग १॥ इंच के दोनों पैर परस्पर मिलें । (२) गन्दह, दुहन, मोटा, वाहाच्छादन कोमल टोकरी की रचना से मुख दुर्गन्धि । जिसके मुख से दुर्गन्धि आती हो । समानता रखता है और बहुत कठोर एवं मजबूत अम्ज़िजह, am zijah-अ० मिज़ाज (प्रकृति) होता है। गिरी में मृदुतैल की कुछ मात्रा पाई का बहुवचन है। जाती है। समग्र फल २-३ इंच लम्बा और अम्तश am tash-अ० निर्बलदृष्टि वाला मनुष्य, ८-१० इंच मोटा होता है। इसपर लम्बाई की कमज़ोर नज़र का श्रादमी। रूख गहरी धारियाँ पड़ी रहती हैं। इसका भीतरी अस्तीपराड amti-pandu-ले० कॅला, कदली। (Musa paradisiaca, Linn.) भाग ३ से ६ कोषों में विभाजित होता है। इसमें अम्दश amdash-अ० निर्बल तथा अल्प बुद्धि प्रायः २५० बीज होते हैं। वाला मनुष्य । दुर्बल तथा कम अङ्गल वाला मर्द। अम्फी amphi-नैपा० सफ्यी-लेपचा। अम्देस जामोटाफाना amdes samotapanal अम्ब amba-हिं० पु. मात्र ma. -गाश्रा० बजर बट्ट, जंगली मदनमस्त-हिं। अम्बह. ambah-फा० (Cycas circinalis) ई० मे० मे। go, a mango tree). अम्धुका amdhuka-बं० देखो-अन्धुक।। अम्बकः ambakah-सं० पु० (१) य(व)कुल ६५ For Private and Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बकरा ५१४ अम्बर वृक्ष, मौलसरी । ( Mimusops Elengi) अम्बत ambata-हिं० वि० अम्ल, खट्टा, खटाई, जटा० । -क्ली. (२ ) नेत्र, चनु, आँख । चूक । (Sour.) ( Eye) हे० च० । (३) ताम्र, ताम्बा । | अम्बताना ambatāna-हिं. क्रि०, संज्ञा खट्टा (Copper ) रा० नि० व०१३ । (४) होना । (To grow sour.) पिता । अम्ब-पाली ambapoli-मह० अमावट ISeeअम्यकरज amba-karanja-बं० करञ्ज भेठ, Amávața. डहर करञ्ज। (Pongamia gla bra.) अम्बरम ambaram-सं० क्ला० । (१) कपास, इं. मे० मे०। अम्बर ambar-हिं० सज्ञा पु० कार्पास । अम्बकुड़ा amba-kuda-हिं० संज्ञा पुं० । (Gossypium Indicum.) र० मा० । अम्बकोड़ा amba-koda (२) अभ्रक । Talc. ( Mica.)। रा० प्रम्बकोल amba-kola, नि० व० १३, भैष०। वसन्त कुसुमा करे। अकोल ढेरो। ( Alangium decape- (३) तन्नामक गन्धद्रव्य, एक सुगन्धित द्रव्य, talum.) अम्बर । विश्वः । ( ४ ) वम्न विशेष ( Cloअम्बगोल ambaghoul-अ० महाकाल, लाल thes, Apparel.)। (५) वस्त्र । कपड़ा । इन्द्रायन । ( Trichosanthus palm- पट । (६) श्राकाश । आसमान | (७) एक ata.) स० फा० इं०। इन । (८) अमृत । अने० । (६) बादल । अम्बज ambaja-अ० श्राम । ( Mango मेघ । ( क्व०) tree. ) अम्बर ambar-फा० संदंश, चिमटा, चिमटी, अम्बजात ambajata-ऋ० मुरब्बा । ( Pre दस्तपनाह । फॉसेंप्स ( Forceps.)-इं० । serve.) अम्बर aambal'-अ० अम्बर-हिं०, बं०, मह०, अम्बट ambata-बम्ब० बाय विड़ग, विडंग। बम्ब०,मद०,को०, गुज० । अग्निजारः, वह्नि(Embelia ribes. ) जारः, अम्बरसुगंधः, अम्बरम्-सं० । शाहेबू अम्बट बेल ambata-bel ) -हिं०, म. -फा० । अम्बाग्रसया Ambia Gisea अम्बट वेल am bata-vel | अम्लवेल, -ले। अंबरग्रीस Am belgris-ले, इ.। गिदद्राक-पं०। अम्ललता-बं० । अम्लपर्णी अमर ग्रीस Amergris-इं० । मिनम्बर -सं०। ( Vitis trifolia.)। मेमो०। -ता० । मुसम्बर-सिं० । पयेन-अम्भट - बर० । इं० मे० मे। अम्बर एक प्रसिद्ध सुगंधिपूर्ण मूल्यवान अम्बटा ambatā-बम्ब० बायविड़'ग, विडंग । औषध है। इसके विषय में विभिन्न व परस्पर ( Embelia ribes.) विरोधी वचन प्राचीन तिब्बी ग्रंथों में विद्यमान अम्बटो मद्द ambati-maddu-ते० अज्ञात । हैं, यथासम्बटे ambate-कना० । अमड़ा, अम्बर को किसी किसी ने एक समुद्री चतुष्पद अम्बटेमरा ambae-mari कना. jाम्रातक प्राणी का गोबर ( लीद) वर्णन किया है। और अम्बाड़ा । (Spondias mangifera.) किसी किसी ने लिखा है, कि यह एक बूटी है जो अम्बटे हुल्लु ambato-hulli कना० सफ़ेद समुद्रतला में उत्पन्न होती है । इसको कोई कोई दूब, श्वेत दूळ ! (Cynodon dacty. समुद्री जीव खाते हैं। जब उनका पेट भर जाता lon.) है तब वे इसको उगल देते हैं और यह उगाल अम्बड़े ambade-गारो. प्रारी, रीस-पं० । ही अम्बर कहलाता है। मेमो०। शेख का अनुमान है कि अंबर समुद्र तल के For Private and Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बर अम्बर स्रोत का जोश (या रत बत ) है। उनके विचार से जिन लोगों ने इसको समुद्रफेण वा किसी सामुद्री चातुप्पद जन्तु का गोबर लिखा है, वह मिथ्या है। शेख के सिवा कतिपय अन्य इतिब्बा भी इसी विचार के समर्थक हैं और इसे ही सत्य एवं अधिक प्रामाणिक मानते हैं । अस्तु, उनका वर्णन है। कि अम्बर एक रतूबत है जो समुद्रतल स्थ स्रोतों । एवं समुद्र के ग्राम्यन्तरीय कान या द्वीप से कफर, मोमियाई तथा क़ीर के समान निकलता है और अम्बर कहलाता है। यह सामुद्र तरंग के थपेड़ों के कारगा उत्ताप पहुँचने से समुद्र के पानी पर तह बतह एकत्रित होकर सान्द्र (प्रगाढ़ ) होजाता है।..और शमामह के समान गोल या अन्य स्वरूप ग्रहण कर समुद्र तट पर श्रा पड़ता है। कहते हैं कि समुद्री जीवों को अम्बर अत्यन्त प्रिय है। जब यह उनको मिलता है तब वे इसको तुरंत निगल जाते हैं। किन्तु न पचने के कारण यह उन को मार डालता है अथवा उनके उदर में प्राध्मान उत्पन्न कर देता है और वे जन्तु पानी के ऊपर पा जाते हैं। जो लोग इस बात का ज्ञान रखते हैं वे तत्काल उक्र जीव के उदर को विदीर्ण करके अम्बर निकाल लेते हैं। इस प्रकार का अम्बर श्याम वर्ण का और बसाँध युक्र (पूति गंधमय)होता है । इसको अम्बर बाई. कहते हैं। यह अंबर ज़ंजी (जंगी) नामसे भी प्रसिद्ध है। यही कारण है कि किसी किसी ने इसको समुद्री गाय का गोबर माना है। अम्बर के सम्बन्ध में मुल्ला नफ़ोस के ये वचन हैं "किसी किसीके कथनानुसार यह वात सत्य है कि भारतवर्ष में यह मधु से प्राप्त होता है। इसको इस प्रकार प्राप्त किया जाता है । मधु मक्षिकाएँ सुगंधित पुष्प और पत्र से रस चूस चूस कर मारतवर्ष के पर्वतों पर मधु का निर्माण करती हैं। इसी कारण यह मधु अत्यन्त सुगंधयुक्त होता है। फिर जब वर्षाधिक्य के कारण उन मक्षिकाओं के छत्तों पर जल का सैलाब श्राता है तब मधु तो पानी में घुल जाता है और केवल मोम का भाग अत्रशिष्ट रह जाता है । यह अत्यंत सुगंधित होते और नदियों में बहते हुए समुद्र तक जा पहुँचते हैं । फिर यह समुद्र के पानी में सूर्यताप द्वारा द्रवीभूत होते हैं एवं स्वच्छ हो जाते हैं। समुद्र तरंग इनको तट पर ला डालता है। यही अम्बर होता है।" इसके ज्ञाता इसे उठा कर ले जाते और बहुमूल्य लेकर बेचते हैं। __ मुल्ला सदोद गाज़रानो ने मुफ्दात कानून की टीका में उपयुक्त कथन का समर्थन किया है और उसी वचन को सत्य माना है। क्योंकि अम्बर में मोम के लक्षण व्यक हैं । कारण यह है कि उष्ण जल में घोलने से वह घुल जाता है एवं शीतल होने पर माम के समान जम जाता है। कतिपय इतिब्बा ने लिखा है कि प्रतिष्ठित व्यकियों की ज़बानी सुना गया है कि कभी सौभाग्यवश ताजा अम्बर हस्तगत होजाता है। वह मधुर ,ख़मीरवत्, सुस्वादु, मृदु और अत्यन्त सुगंधित होता है और यमन सागर, मालदीप तथा प्रशांत महासागर और समुद्र तरंग द्वारा उनके समीपके तटो पर प्रा लगता है तथा वहाँ के निवासी उसको उहा लाते हैं। हकीम उलवीखाँ लिखते हैं कि मैंने अम्बर शमामह (सवोत्कृष्ट प्रकारका अम्बर जिसके टुकड़े गोल होते हैं ) देखा है। उसमें मधु मक्षिका के समान बहुत से जन्तु लगभग शत की संख्या में थे। मीर मुहम्मद हुसेन लेखक महजनुल्अदवियह लिखते हैं कि मैंने भी अम्बर का एक टुकड़ा देखा है जिसमें किसी रन जौज़ी वर्णके सदफ्री (शौक्तिक) जन्तुके सिर व ग्रीवा और चंचुवत् कोई वस्तु दृष्टिगोचर होती थी । परन्तु तो भी हमारे समीप वे ही वचन अधिक यथार्थ एवं विश्वस्त ज्ञात होते हैं जिन्हें शेख तथा प्रायः इतिब्बा ने वर्णन किए हैं। (अर्थात् अम्बर एक रतूबत है जो समुद्र तल के कतिपय सहायक तथा द्वीप से मोमियाई और कीर प्रभृति के समान निकलती For Private and Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु अर्वाचीन गवेषणात्मक शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि अम्बर ह्वेल मछली की एक विशेष जाति स्पर्म ह्वेल (Sperm whale.) के उदर से निकलता है। यह एक प्रकार का दूषित मल है जो उसके प्रांत्र वा अंत्रपुट में रहता है। स्पर्म ह्वेल ८० फुट तक लम्बी होती है। इसका सिर इतना बड़ा होता है कि समग्र शरीर का तिहाई भाग सिर में सम्मिलित होता है । इसके सिर में एक विशेष प्रकार का तेल भरा होता है जो हवा खाकर जम जाता है। इसके उदर से अम्बर निकलता है। इसकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण यह जान पड़ता है कि अम्बर समुद्र में बहता हुश्रा तरंगों के कारण समुद्र तट से श्रा लगता था। वहाँ से लोग इसे उठा लाते थे या नाविकों को समुद्र में ही प्राप्त हो जाता था। और इसके सम्बन्ध में विभिन्न विचार व अनुमान स्थिर कर लिए गए थे। इसमें दूसरी चीजों यथा विविध प्रकारके मत जन्तु सम्मिलित हो जाते होंगे जिनको कतिपय इतिब्बा ने अवलोकन किया होगा जैसा कि स्वर्गवासी हकीम उल्वी खाँ के वचन में इसका उल्लेख है। अधुना भी अम्बर समुद्र में बहता हुआ या समुद्र तटपर पड़ा हुआ मिल जाता है। परन्तु स्पर्म ह्वेल के उदर से प्राप्त होने पर इसकी सत्यता स्पष्ट रूप से स्थापित हो गई है। स्पर्म ह्वेल का शिकार अधिकतर उसके शिरके तैल और अम्बर के लिए ही किया जाता है। इसका शिकार बड़ी जानजोखू का काम होता है। क्योंकि इसका यह एक विशेष स्वमाव वर्णन किया जाता है कि यह दौड़ दौड़ कर जहाजों को टक्करें मारती है जिससे कभी कमी वे छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। अम्बर के सम्बन्ध में आयुर्वेदीय मतबहुत से प्राधुनिक लेखक अग्निजार को अम्बर मानकर लिखते हैं। परन्तु वास्तविक बात तो यहहै कि अष्टवर्ग की ओषधियोंके समान यह भी एक संदिग्ध एवं अन्वेषणीय औषध है । अष्ट्रवर्ग की दवाओं के सम्बन्ध में कम से कम इतना तो निश्चिततया ज्ञात है कि वे वानस्पतिक द्रव्य हैं। परन्तु अग्निजार के सम्बन्ध में यह बात भी सन्देहपूर्ण है। अस्तु, कोई तो इसको समुद्रफल लिखते हैं और कोई इसको एक समुद्री पौधा वा अब्धिक्षार बतलाते हैं। कई कोषों में भी अग्निजार के जितने भी पर्याय पाए हैं इनके सामने वृक्ष ही लिखा है। अतः उनके मत से अग्निजार एक वानस्पतिक द्रव्य है। ___ इसके विपरीत रसरत्नसमुच्चयकार के मतानुसार यह एक प्राणिज द्रव्य सिद्ध होता है, यथा वे लिखते हैं समुद्रेणाग्निनक्रस्य जरायुर्वहिरुज्झितः । संशुष्को भानुतापेन सोऽग्निजार इतिस्मृतः ॥ अथ-अग्निनक नामक जीव का जरायु (झर) बाहर आकर समुद्र के किनारे सूर्यताप द्वारा सूख जाता है उसी को अग्निजार कहते हैं। अम्बर भी एक सामुद्री प्राणिज द्रव्य है, इसी आधार पर किसी किसी ने अग्निजार को अम्बर का पर्याय मान लिया है. ऐसा प्रतीत होता है। अाज अब यह बात भली प्रकार सिद्ध होचकी है कि अम्बर स्पर्म ह्वेल नामक मत्स्य द्वारा प्राप्त होने वाला एक प्राणिजद्रव्य है। फिर भी इस बात का पता लगाना अत्यन्त कठिन है कि प्राया हमारे पूर्वाचार्य उक्र मत्स्य को अग्निनक नाम से अभिहित करते थे वा नहीं। चाहे कुछ भी हो, पर इतना तो निश्चय रूप से ज्ञात होता है कि अग्निजार के जो गुणधर्म हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित हैं, प्रायः उनसे मिलता जुलता ही वर्णन यूनानी ग्रन्थकारों का है जैसा कि आगे के वर्णन से ज्ञात होगा। अग्निजार नाम से प्राज उन औषध का प्राप्त करना उतना ही दुरूह है जितना कि बालू से तेल निकालना । अस्तु, यह उचित जान पड़ता है कि जहाँ जहाँ अग्निजार का प्रयोग पाया हो वहाँ पर अम्बर का ही उपयोग किया जाए। प्राप्ति-स्थान तथा इतिहास-स्पर्म हल For Private and Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अम्बर www.kobatirth.org ५१७ अमरीका के दक्षिण में प्रायः मिलती है । हिन्दमहासागर यहाँ तक कि बंगाल की खाड़ी में भी यह मिलती है किन्तु श्रत्यन्त छोटी होती है । अम्वर लालसागर, ब्रेजिल और अफरीका के समुद्र तट पर तैरता हुआ पाया जाता है, केवल एक मछली के उदर से ७५० पौं० तक श्रम्बर पाया जा चुका है। ह्वेल का शिकार भी इसके लिए होता है । इसका व्यवहार श्रोषधियों में होने के कारण यह नीकोबार ( कालेपानी का एक द्वीप ) तथा भारत समुद्र के और औौर टापुत्रों से श्राता है । प्राचीन काल में अरब, यूनानी लोग इसे भारतवर्ष से ले जाते थे । जहाँगीर ने इससे राजसिंहासन का सुगंधित किया जाना लिखा है । लक्षण - यह अपारदर्शक कभी कभी श्वेत प्रायः श्यामाभायुक धूसर या गुलाबी या श्याम वर्ण का होता है । नोट ( १ ) साफ पीताभ श्रम्बर को अंबर अब कहते हैं । यह सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठतर अम्बर होता है । इससे निम्न कोटि का श्रम्बर अज़ूरक ( फ़िस्ती ) और इसके बाद श्याम है । जो अम्बर श्वेताभ होता है उसपर छोटे छोटे श्वेत बिन्दु होते हैं । यह अम्बर खश्वाशी कहलाता है और जो अम्बर गोल टुकड़ोंकी शकल में होता है उसका नाम अम्बर शमामह रखते हैं । ( २ ) जो अम्बर समुद्र के तरंगों द्वारा समुद्र तट पर आ पड़ता है और उसमें धूल आदि के कण मिल जाते हैं उसको तित्र में अम्बर रमली कहते हैं । उसको बिना शोधन किए व्यवहार न करना चाहिए । मोमवत् उसकी शुद्धि करनी चा हिए । अथवा उसमें समान भाग मिश्री मिलाकर खरल कर लेने से उसकी शुद्धि होती है । परन्तु रसरत्नसमुच्चयकार ग्रग्निजार की शुद्धि न करने में निम्न कारण बतलाते हैं"तदब्धितार संशुद्ध तस्माच्छुद्धिं न हीष्यते ।” (र०र० स० ३ श्र० ) श्रर्थात् - समुद्र के चारमय जलसे शुद्ध ही रहता है ! अतः इसके शोधन की आवश्यकता नहीं | अम्बर गंध - कस्तूरीवत् विशेष सुगंधि । इसमें से मीठी मिट्टी जैसी गंध श्राती है जो अत्यन्त मनमोहक होती है । सर्व प्रथम जब स्पर्मह्वेल से यह बाहर आता है, तब भूरे रंग का नर्म और दुर्गन्धयुक होता है, पर शीघ्र ही वायु लगने पर यह कठिन और नील वर्ण का हो जाता है। ज्यों ज्यों सूखता जाता हैत्यों त्यों उत्तम गंध उत्पन्न होती जाती है । और धीरे धीरे यह गंध इतनी बढ़ जाती है, कि दूर से ही अम्बर का बोध करा देती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाद - यह लगभग स्वादरहित होता है । परीक्षा --- ( १ ) इसको एक शीशी में डालकर कोयले की आग पर रखें। यदि यह सब पिघल जाए और शीशी में तैल की भाँति बने लगे तो शुद्ध श्रन्यथा श्रशुद्ध जानना चाहिए । ( २ अम्बर को लेकर जरा सा आग में डालें यदि धूम्र सुगन्धियुक्त हो तो उत्तम श्रन्यथा नकली समझना चाहिए । ( ३ ) जरा सा अम्बर लेकर चबाएँ यदि मुख सुगंध से पूर्ण हो जाए और चबाते समय वह दाँतों में मोम सा लगे तो उत्तम अन्यथा नकली है I ( ४ ) तोड़ने से यदि अम्बर ठोस हो तो उत्तम और पोला हो तो नकली है । ( ५ ) यह लघु और कम चिकना होता है और इसकी गंध कस्तूरी की गंध पर ग़ालिब नहीं होती । यह बहुत शीघ्र जलने वाला होता है तथा श्री च दिखाते रहने से बिलकुल भाप होकर उड़ जाता है । यह उष्ण जल में द्रवीभूत हो जाता है, परन्तु शीतल जल में नहीं होता । यह ईथर, वसा, उड़नशील ( अस्थिर ) तैल और उष्ण मद्यसार में विलेय होता है । इसपर अम्लों का कुछ भी प्रभाव नहीं होता । सूखने पर श्रम्बर का विशिष्ट गुरुत्व ७८० से ३२६ तक होता है । १४५ फारनहाइट की उत्ताप पर यह पिघल कर पीले रंग के वसामय तरल में परिणत हो जाता | २१२ फारनहाइट पर श्वेत वाष्प बनकर यह जल जाता है । For Private and Personal Use Only ܘ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बर ५१. अम्बर रासायनिक संगठनइसमें अस्त्रीन ( ambiein ) ८५०/ प्रतिशत और किञ्चित् भस्म प्रभृति पदार्थ होते हैं। औषध-निर्माण-अर्क अम्बर, अर्क गज़र, अर्क बहार, अर्क हराभरा, अर्क हाज़िम, खमी. रह गावजुबाँ अम्बरी (जवाहर वाला वा जदीद), जवारिश ज़रऊनी अम्बरी बनुसवा कला, जवाहर मुहरा अम्बरी, मअजून कला, म अजून नुक़रा, मअजून फलकसेर, मअजून हम्ल अम्बरी उल्वीखा, मुफ़रिह अम्बरी, रोशन अम्बर, हब्बे अम्बर, हब्वे कीमियाये इश्रत, हब्बे ताऊन अम्बरी । आयुर्वेदीय मत से अम्बर के गुणधर्म तथा उपयोगअग्निजार त्रिदोषघ्न, धनुर्वातादि वातरांगनाशक और पारद का बल २ढाने वाला, दीपन एवं जारणकर्म कारक है। यथाअग्निजारस्त्रिदोषध्नो धनुर्वातादि वातनुत् । बर्धनी रसवीर्यस्य दीपनो जारणस्तथा ॥ (उ०र०स०३० ।) नोट शेष गुणधर्म के लिए देखो-अग्निजार। यह पक्षाघात, कम्पवात श्रादि वातरोगनाशक, हृदय रोग, नपुन्सकता, फुप्फुस रोग, शिरोरोग, यकृतरोग, उदररोग, प्लीहरोग, वृक्कीय श्रादि अनेक रोगनाशक माना ग । है। कामाग्निवद्धक जितना इसे बताया गया है उतना अन्य किसी औषध को नहीं । प्रायः ऐसी कोई व्याधि नहीं, जिसके लिए श्रायुर्वेद शास्त्र में यह न कहा गया हो कि अम्बर से उत्तम अन्य औषध नहीं धनिया, समग़ अरबी, तबाशीर और सूंघने में कपूर । कपूर अंबरकी तेजी को कम करता है। इसलिए उसे इसके साथ न रखना चाहिए। प्रतिनिधि-कस्तूरी तथा केशर समभाग | मात्रा-२ रत्ती से ४ रत्ती तक (५ से १५ ग्रेन) इं० मे0 मे०। श्रायुर्वेद में इसकी मात्रा १ रत्ती से ३ रत्ती तक बताई गई है। नोट-याज कल के मनुष्यों की प्रकृति का विचार करते हुए उपयुक ये सभी मात्राएँ बहत अधिक प्रतीत होती हैं। प्रधान गुरा-रूह शक्रि तथा वाह्य व अंत:करण को बलप्रदायक, उत्तेजक तथा याक्षेपहर है। गुण, कर्म, प्रयोगयह हृदय को शनि प्रदान करता है तथा ज्ञानेन्द्रिय (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय) तथा पञ्चकर्मेन्द्रिय व मस्तिष्क को लाभ पहुँचाता है। क्योंकि इसमें हृद्य व हृदय को बल प्रदान करने का असीम गुण है। इस बात में तीनगन्ध इसकी सहायक होती है। इसके सिवा इसमें द्रवीकरण पिच्छिलता (ल्हेस) और मतानत पाई जाती है । अस्तु, अंबर अपने इन गुणों के समवाय के कारण सम्पूर्ण अर्वाह के जौहर को शनि देता और उनको बढ़ाता है । ( नफ़ो०) अम्बर रूहों का रक्षक और हैवानी (प्राणि ), नफ़्सानी ( मानसिक ) और शारीरिक ( तब्ई.) तीनों शक्तियों को बल प्रदान करता है। चित्तको प्रसन्न करता, शीतल प्रकृतियों के लिए अत्यंत हृद्य और वास्तविक उष्मा तथा वाह्य व अन्तरेनियां को शनि देता है । वृद्ध पुरुष के लिए अत्युपयोगी, मास्तिष्क, हार्दिक और यकृत रोगों को अत्यन्त लाभदायक है। मूर्छा व वहा (महा मारी) को दूर करता है । रोधोद्घाटक और कोमोद्दीपक है। शिश्न पर इसका प्रलेप करने से कामोद्दीपन करता और अानन्द प्रदान करता । यूनानी एवं नव्यमतानुसार प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण व रूक्ष है। किसी किसी के मत से २ कक्षा में उष्ण व १कक्षा में रूक्ष अथवा १ कक्षा में उष्ण और | २कक्षा में रूक्ष है । स्वाद-किंचित् कटु । गंधअत्यंत सुगंधिमय । हानिकर्ता - आँतोंको और उदईजनक (पित्ती उछाल देता है)। दर्पन __ प्रायः विषोंका अगद और शीत रोगोंको लाभदायक है। पक्षाघात, श्रद्धांगवात, कम्पवात, धनु For Private and Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बर अम्बरबेद स्तम्भ, अबसन्नता, शिरःशूल तथा अविभेदक | अम्बरतुश्शिता aambaratushshita-अ० श्रादि वात रोगों को लाभप्रद, वेदना तथा वायु शीताधिक्य, कठिन शीत, सख़्त जाड़ा। का परिहारक और कास, फुप्फुसस्थ क्षत, हृदय अम्बरदः ambaradah-सं० पु. कपास, की निबलता, मूर्छा, आमाशय तथा यकृत् की कार्पास । (Gossypium Indicum) वै० निर्बलता एवं कामला, जलोदर, आमाशय शूल, निघ०। प्लीह वेदना और संधि शूल को लाभ पहुँचाता अम्बरबारी ambara-bari-हिं० संज्ञा पु. है । म० मु० । बु० मु०। [सं०] एक क्षुप है। दारुहरिद्रा, दारूहल्द, सार्वागिक निर्बलता, अपस्मार, श्राक्षेप चित्रा । ( Ber beris Asia tica.) और वातनैर्बल्य ( Nervous de bility.) अम्बर बारीस ambar-barisa-यु०, अ. में इसका प्रयोग किया जाता है। विसंज्ञता एवं ज़रिश्क,दारुहल्दी दारुहरिद्रा । (Barberis.) उन्माद युक्र तीब्र ज्वर, विसूचिका के कोलेप्स की अम्बर बारीसियह. ambar barisiyah-अ. अवस्था, प्लेग तथा अन्य संक्रामक व्याधियों में एक प्रकार का आहार जिसे ज़रिश्कियह भी भी इसका उपयोग किया जाता है। यह पाक व कहते हैं। मअजून रूप में व्यवहृत होता है । इं०मे०मे० । अम्बरबेद aambar-bed-फा० गुले अर्ब, जुगएलोपैथी चिकित्सा में अम्बर का विशेष व्यव दह, ( जादह )-अ० । फुलियुन ( Fuliyun) हार रोग निवारणार्थ नहीं होता ( वहाँ यह केवल -यु०। पोली जर्मेण्डर (ट्य क्रियम् पालियम ) सुगन्धियों में प्रयुक्त होता है )। हाँ ! होमियो. Poley Germander ( Teucrium पैथी में उत हेतु इसका प्रथर उपयोग होता है। अस्तु, वे स्त्री रोगों यथा योषापस्मार ( Hy Polium, Linn.)-ले० । ( फा० इं०३ भा०) steria.) या उससे मिलते जुलते रोगों में __ तुलसी वर्ग अम्बर का विशेष उपयोग करते हैं। उनका कहना है कि उक्र अवस्थानों में अम्बर शीघ्र ही प्रभाव ( v. 0. Lubiatæ. ) प्रगट करता है। खिन्नता, बुरे विचार, अनिद्रा, उत्पत्ति-स्थान-अरब ( जद्दा)। मानसिक अवस्था के कारण दर्शन तथा श्रवण- वानस्पतिक-वर्णन-(भंगरा या कोई और शक्ति का ह्रास आदि योषापस्मार या तत्सम बूटी है )। जुनदह वस्तुतः शेह ( दरमनह. उत्पन्न होने वाली व्याधियों में दृष्टिगत होने वाले जौहरी जवायन ) की एक जाति है जिसमें शाकुलक्षणों में अम्बर का बड़ा ही उत्तम प्रभाव खाएँ होती हैं। इसके पुष्प पीताभ श्वेत और प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पत्ते श्वेत पतले तथा लोमश होते हैं । यह लगविशेष वर्णन के लिए देखिए होमियोपैथिक भग एक बित्ता ऊँचा होता है । इसके शिरों पर निघण्टु प्रभुति । बालों का गुच्छा होता है जिनमें बीज भरे होते हैं अम्बर.ambel-इं० एक प्रकारका निर्यास, कहरुबा यह दो प्रकार का होता है-(१) छोटा और -फा०, हिं० । देखो-सक्सीनम ( Suc- (२) बड़ा । cinum. ) नोट- यद्यपि जुझ्दह का वर्णन मूजिज़ल अम्बर अशहब aambal-ashhab-अ० (A कानून एवं अक्स राई में विद्यमान है, तो भी kind of amber) एक प्रकार का धूसराभ वर्तमान नफीसी में इसका वर्णन न था । श्वेत अम्बर । देखो-अम्बर । कदाचित् प्रकाशकीय भूल से रह गया हो। अम्बर ग्रीस amber-gris-इं. __प्रकृति-छोटा ३ कक्षा में उष्ण और २ कक्षा अम्बरमसिया ambra grsea-ले० में रूक्ष है; बड़ा २ कक्षा में उष्ण व रूक्ष है । अस्बर। परन्तु दोनों मूत्र और प्रात्तवप्रवत्तक हैं एवं For Private and Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वेद सारक हैं । यक़ीन स्याह dice ) तथा जलोदर के परन्तु आमाशय तथा शिर (auto) धोद्घाटक तथा उदरीय कृमिघ्न व कृमिनिः ( Black jaunलिए गुणदायक हैं; के लिए हानिकर हैं । रोध उद्घाटक, मूत्रल, कृमिघ्न और बल्य है । ( Diosc. iii., 115, Pliny, 21, 60, 84) ५२० अरब निवासी इसको ज्वर-विकारों में प्रयुक्त करते हैं | २|| तो० उक्त श्रोषधि को रात्रिभर डे जल में भिगोकर प्रातः काल उसको छानकर सेवन करते हैं । बाल ज्वर में उन श्रोषधि की शरीर में धूनी देते हैं । फा० ई० ३ भा० । स्वाद - तिल | गंध-- तीव्र | हानिकर्त्ता - शिरः शूलोत्पादक तथा श्रामाशय हानिकर है । दर्पन - हमामा श्रावश्यकतानुसार और सर्द तर वस्तु । किसी किसी के मत से करनीज़ ( धान्यक ) । प्रतिनिधि-- पार्वती पुदीना, शेह, अनार मूलत्वक् और तज । शर्बत की मात्रा - ४ मा० से १०॥ मा० तक | प्रधानगुण -- बुद्धि वर्द्धक, रोधोद्घाटक और मूत्र एवं श्रार्त्तवप्रवर्त्तक । गुण, कर्म, प्रयोग—इसमें रेचन तथा तिर्यात की शक्ति है । यह सम्पूर्ण अवयव के रोध का उद्घाटक, अखुलात ( दोषों) को द्रवीभूत- कर्त्ता और मूत्र तथा आर्त्तव का प्रवर्त्तक है । इसका क्वाथ बुद्धिको तीव्र करता है और विस्मृति को दूर करता है तथा इस्तिस्क्वाश्रू बारिद ( शीत जलोदर ), यक़ीन स्याह ( Black Jaundice. ) एवं श्लेष्मा व वातजन्य ज्वरों को लाभप्रद है । उदरस्थ कृमि निःसारक वायुलयकर्त्ता, मूत्ररोध तथा संधिशूल को लाभप्रद एवं गर्भाशयशोधक और प्लीहा के शोथ का लय कर्त्ता है | इसका अवचूर्णन व्रणपूरक है | नवीन पत्तों का प्रलेप व्रण को स्वच्छकर्त्ता एवं पूरणकर्त्ता है । इसकी धूनी विषैले जानवरों को भगाती है। मधु के साथ इसका अंजन करने से दृष्टि तीव्र होती है । म० अ० । तुहफा । श्रम्बल यह रक्र शोधक और बिच्छू के विष को दूर करने वाला है । म० मु० । अम्बरबेल ambarbel - पं० श्रर्कपुष्पी, बनबेरी - हिं० | सिंगरोटा-पं०, बम्ब० । ( Pentatropis spiralis. ) मेमा० । अम्बर माइ āambar-maiā-फा० अम्बर साइल āambar sail अ० शिलारसः, सिह्नक:- सं० । मित्रहे साइलहू - फ़ा० | Liquidamber ( Styrax preparatus. ) अम्बर सुगन्धः ambar-sugandhah - सं० पुं० मश्क अम्बर, अम्बर । (Amber Grsea.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रम्बरहा ambarhá मात्र वन्ती । लु० क० । श्रम्बरा ambará - सं० स्त्री० कपास, कार्पास | ( Gossypium Indicum.) अम्बरा ambará-सं० स्त्री० श्रम । ( Mango.) श्रम्बराक्षी-चो ambarákshi,-chi-सं॰ स्त्री॰ अज्ञात । अम्बरातकः, -रीयः ambarátakah, -1iyah - सं०पु० अमड़ा, श्राम्र तक (Spondias Mangifera ) जटा० । अम्बरि,-रीषः ambri, rishah-सं०पु०ली० अम्बरीष ambarisha - हिं० संज्ञा पुं ( १ ) अमड़ा, श्रनातक (Spondias Mangifera.) । ( २ ) भर्जन पात्र । वह मिट्टी का वर्त्तन जिसमें भड़भूजा गरम बालू डालकर दाना भूनते हैं । श्रम० । ( ३ ) भाड़ । ( ४ ) सूर्य का नाम । ( ५ ) किशोर अर्थात् ग्यारह वर्ष से छोटा बालक । ( ६ ) अनुताप | पश्चात्ताप | अम्बरी ambari - गारो० श्रामला । ( Phylla - nthus Emblica.) अम्बरीसक ambarisak - हिं० संज्ञा पुं० [सं० अम्बरीष ] भाड़ | भरसायँ । - ई० । श्रम्बल ambal - हिं० स्त्री० ( १ ) मादक वस्तु ( Intoxication.) । ( २ ) खट्टा रस । For Private and Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रम्बल ५२२ अम्बहे हिन्दी - अम्बल ambal-हिं. पु. रामतुलसी । ( Oci- | ndron siphonanthus ) र० मा० । mum gratissimum.) देखो-तुलसी। (३) लक्ष(दम)णा मूल, श्वेत कण्कारो | भैष० अम्बल ambal-ता० कमल I (Nelumbium स्त्रीरोग-चि. पुण्यानुग चूर्ण । (४) अम्ल Speciostum, Tight.) फा० इं० । लोणी,प्रामरूल,चांगेरी। ( Rumex scutअम्बलह, ambalah-फा. अम्लिका, अमली, atus ) रा० नि० व० ५। भा० पू०१ इमली । ( Tamarindus Indieus.) भा० । (५) यूथिका, जूही । (Jasminum अम्बलपिष्ट ambal-pishta-सं. चाङ्गेरी, auricula tum) प. मु०। (६) मयर, fgani (Actinopteris dichotoma. चूका, खटकल । ( Rumex scutatus.) वा०सू. प्रियंग्वादि । “अम्बष्ठामधुकं नमस्कारी"। अम्बली ambali-हिं० स्त्री० अम्लिका, इमली, (७)अाम्रातक, अमड़ा । ( Spondias अमली । ( Tamarindus Indicus.) mangifera.) तुद्र क्षुप विशेष । मोइत्रा, अम्बली ambali-40 मोहुया-हिं०। माचिका और साकुरुण्ड-पश्चिम०। अस्बलीय ambaliya-अ० (Phyll अम्बाड़ा, अम्बरी-द०। पुदिना-ब०। anthus emblica.) पर्याय-बालिका, वाला, शठाम्बा, अम्बाअम्बलु ambalu-t० मोवा, बकलवा । मे० लिका, अम्बिका, अम्बा, माचिका, दृढ़वल्का, मो० । मयूरिका, गंधपत्री, चित्रपुष्पी, श्रेयसी, सुखवाअम्बलोना ambalona-हिं० स्रो० खटकल, चिका, छिन्नपन्नी, भूरिमल्ली-सं० । सु० सू० चाङ्गेरी। ( Rumex scutatus.) ३८ अ० । रस०र० पुष्यानुग चूर्ण । अम्बलोनान ambalonana-हिं० पु. एक गुण-कसेली, अम्ल, कफघ्न, रुचिकारी भारतीय वृक्ष का फल है जिसका स्वाद खट्टा तथा दीपन है और कंठ रोग एवं वात रोगनाशक होता है। है । रा०नि० व० ४ । prantaar ambalolavá-fe अम्बष्ठादिः ambashthadih-सं० पुं० द्राक-पं.। (Vitis trifolia.) पाठादि गण विशेष यथा-अम्बष्ठा, धातकी पुष्प, श्रम्बलोवान ambalovana-हिं० अज्ञात । समंगा, कट्वंग,मधुक,विल्वपेशी, रोध्र, सावररोध्र, अम्बवटी ambavati-हिं० स्त्री० खटकल, पलाश,नन्दी वृक्ष और पद्मकेशर । गुण-संधानीय, _चूका, चाङ्गेरी । ( Rumex seutatus.) पित्त में हितकारक, व्रण ( रोपण) पूरक और अम्बष्टः,-ष्टः ambashtah,-thah-सं० पु. पक्कातिसार नाशक है। सु० सू० ३८ अ०। (१) देश विशेष । पंजाब के मध्य भाग का पुराना अम्बष्ठा ambashthi-सं. स्त्री० (१) कुटकी . नाम । (२) वैश्य स्त्री व ब्राह्मण पुरुषसे उत्पन्न एक भेद, कटुकी। A kind of (Picrorrhiza जाति । इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे। kuroa)। यथा-"रकाण्डेरुहाम्बष्ठी कटुका (३) अंबष्ठ देशमें बसने बाला मनुष्य । (४) चापरा स्मृता।" द्रव्याभि० । (२) इन्द्रायण । महावत । हाथीवान । झीलवान | (Citrullus colocynthis.) अम्बष्ट(ट)का,-की ambashtaka,-ki अम्बह. ambah-फा० श्राम । (Mangifera अम्बा (प्रा),-ष्टि(ट्रि)का ambashta-sh | Indica.) tikā )| अम्बह हल्दी ambah-haldi-हिं. स्त्री० -सं० स्त्री० (१) एक लता का नाम । पादा। | अम्बाहल्दी । आम्रहरिदा। (Curcuma ब्राह्मणी लता। पाठा । ( Cissampelas ___amada.) pareira, Linn.) रा०नि०व०६। पटाण्ड अम्बहे हिन्दी ambahe hindi-फा०, अ० -हिमा०। (२) भाङ्गी,भार्गी । (Clerode. अण्डखळूजा, पपैया । (Carica papaya.) For Private and Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्वा अस्बिल अम्बा amba-हिं० संज्ञा पु० श्राम । (Mangi- अम्बालम ambalam-मल. ) श्राम्रातक, fera indica. ) अम्बालमु ambalamu-ते. अमड़ा, अम्बा (लिका ) ambi,-lika-सं० स्त्री० | अम्बाड़ा । (Spondias mangifera.) (१) अम्बष्ठा, पाठा, निर्विषी । (Stephania ई० मे० मे। hernandifolia) रा०नि० व०४। (२) अम्बालस ambālasa-यू. अंगूरलता । मोइया, माचिका (Solanum nigrum)। अम्बालस अग्रिया amibālasa-aghriyā-यू० जंगली शलगम या जंगली अंगूर का वृक्ष । (३) प्रानातक, अम्बाडा । (Spondias mangifera ). अम्बालस मालिया aim balasa-mali अम्बाड़म् ambadam-सं० क्ली० अमड़ा, Filettata I See-Fáşharastina. अम्बाड़ा, आम्रातक । (Spondias mang अम्बालस लू का ambalasa- ja-यू. फ्रा TII ( Bryonia scabrella.) ifera.) अम्बालिका ambalikā-सं० स्रो० (१) अम्बाड़ा ambada ) -हिं० पु., स्त्री० (१) देखो-अम्बा । -हिं० स्त्री० (२) मा, माता, अम्बाड़ी ambadi |अमड़ा, श्रानातक । (२) जननी । (३) पाण्डुराज की माता । -बम्ब० पटसन -द०, म०। ( Hibiscus cannabinus, Lin.) फो० ई० । -हिं. अम्बासीस ain basisa-यू• अनाग़ लुसके समान चुक्र, शतबेधी। प्रभावशाली एक ओषधि है। अम्बाड़ी की भाजी ambadi-ki-bhaji अम्बाहलद ambāhalada-को. मेष्टा-बं०। (Hibiscus sabdariffa) अम्बा(बे)हल्दी ambā(be haldi-हिं०,मह.) पालो साग-हिं० । ई० हैं. गा० । कर्पूरहरिद्रा, वनहरिद्रा। (Curcuma. अम्बानुझाड़ ambānu-jhada-गु० श्राम का aromatica, Salisb. ) पेड़ । (Mango tree) अम्बा हिन्दी amba-hindi-०, फा० अण्डअम्बापुरी amba-puri-बम्ब० श्राम का पेड़। खरबूजा, पपीता, विलायती रेंड । (Carica ( Mangifera Indica.) मे मो०। papaya.) ई० मे० मे। अम्बापोली ambipoli-मह०, हिं० संज्ञा स्त्री० अम्बिका ambikā--सं० स्त्री० (१) [सं० श्राम्र-प्राम, प्रा. अब+सं० पौलि= अंबिका ambika-हिं० संज्ञा स्त्री० । अम्बष्टा, पोतला, रोटी ] अाम्रावर्ग-सं। अमरस, अमा. TID !( Cissampelas hexandra. ) वट-हिं० । फा० इं० । See-Amavata. भा०पू०१भा०। (२) मायाफल वृक्ष-सं०। अम्बारी ambari-हिं. स्त्री० अमड़ा, श्रास्रातक। मयनफल-हि०। (Randia dumeto( Spondias Mangifera.) rum, Lam.) मद० व०४ । (३) कटुकी, अम्बारी ambari-६० (Hibiscus cann कुटकी । ( Picrorrhiza kurroa.) श० च० ।-हिं० स्त्री०(४)माता, माँ। (५) दुर्गा, abinus.) पटसन, मेष्टपात-बं० । सन-हिं०।। गोगु कुरु-ते । पलङ्गु-ता० । डोड़े कुद्र म-सन्ता। भगवती, भवानी, देवी । (A maine of कनरिया-उड़ीसा । कुद्रम-बिहार ! पिरिडूक गिडा | Bhavá jí wife of şbiva. ) -कना० । नील-सं० । ई० मे० प्लां। " अम्बिया ambiya-हि० स्त्री. अँबिया, अमिया, अम्बारीक़न ambariqan- खुन्सा । लु. क० । टिकोरा, छोटा श्राम । (A small unripe See-Khunsa. mango.) अम्बाल ambala-गु० (७) आमला। -फ़ा० अम्बिल ambila-हिं० पु एक अाहार है । यह (२) इमली | अम्लिका। धोए हुए चावल या छिलका उतारे हुए ज्वार को For Private and Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बीतून ५२३ अम्बुजन्म पीसकर उसमें खट्टा छाछ मिलाकर धूप में रखते -हि०। पान कउड़ी-बं०। पान कोंबड़ी-म० । हैं कि खट्टा हो जाए। फिर लवण योजित कर (A water-hen, diver)। देखोऔर छाछ डालकर तैयार करते हैं । यह शीतल । प्लवः। श्राहार है। अम्बुकर्मः ambu-kārmmah-सं० पु. अम्बीलून ambitāna-यू. शतपुष्पा, सोया, गोधा । (A guana.) वै० निघ। सोवा । (Peucedanium gra veolens, अम्बुकृष्णा ambu-krishna-सं० स्त्री० जलBenth.) पिप्पली, जल पीपल-हिं० । काँचड़ा दाम्-बं०। अम्बोबूटी ambi-buti-हिं, स्त्री० तिनपतिया, ho fato i See-Jala-pippali. चारो । ( Rumex scutatus.) अम्बुकेशरः ambu-kesharah-सं० पु. अम्बु ambu-सं० क्लो० ) (१) जल । वीजपूर, छोलंगवृक्ष, विजौरा नीबू-हिं, सं०। अंत्रु anbu-हिं. संज्ञा पु० (Water.) लेबू-बं० । ( Citrus limonum. )र० ग. नि० व. १४। (२) बालक, सुगन्ध- सा० सं०। वाला । (Pavonia olorata.) च० अम्बुचरः ambu-charah-सं० पु. (१) द० ज्वरातिसार-चि०। 'किराताम्बु यवास जलचर (Aquatic.)। (२) कञ्चट, गजकम् ।" भैष० शोथ-चि० पुनर्णवा तैल । पीपल, गजपिप्पली । (Scindapsus officiअम्वुक ambuka-40 मलक, बिस्पाढ़ी। (Dio ___nalis.) बै० निघ०। ___spyros lotus, Linn.) मे० मो०। अम्बुचामरम् ambu-chamaram-सं• क्ली० अम्बुक: ambukah-सं० ० (१) श्वेतार्क शैवाल-सं० । सेवार-हिं० । (Sea-weed.) __ मन्दार । (२) रनरण्ड ।। जटा० । अम्बुकण ambukana-हिं० पुं० श्रोस, तुषार, शीत । (Dew.) अम्बुचारिणी ambu-charini-सं० बी० स्थल अम्बुकणा ambu.kanā सं० स्त्री० जल पद्मिनी, थल पद्म । (See-Sthala pa. पिप्पली । (Lippia nodiflora). dmini.) वै० निघ० ।। ० अम्बुकराटक: ambu-kantakah-सं०. अम्बुजः ambujah सं० जल जन्तु विशेष, नक, ग्राह, मगर । ( An | अम्बुज ambuja-हिं० संज्ञा पु.. alligator.) त्रिका० । (१) पानी के किनारे होने वाला एक पेड़। हिजल, समुद्रफल, ईजड़, पनिहा । (Eugenia अम्बुकन्दः ambu-kandah-सं० शृङ्गाटक, acutangula.) श्रम०। (२) मत्स्य प्रादि । सिंघाड़ा। ( Thapa bispinosa.) वै. ( Piseis.) भा०। (३) जलवेतस, जलनिघ०। बेंत । ( ४ ) कञ्चट, बजपीपल, गजपिप्पलो । अम्बुकिरातः,-ट: ambu-kilata h, tah-सं० ( Scindapsus officinalis ) वै० पु. नक्र, ग्राह । ( An alligator.) निघः । -त्रि० (५ ) जलजातमात्र, सम्पूर्ण त्रिका०। जलोद्भुत पदार्थ, जल से उत्पन्न वस्तु ( Aquअम्बुकोशः ambu-kishah-सं० पुं० (१) a tic.)। -क्ली०, हिं० पु. (६) कमल, पद्म, गोधा । गोह (-ही)। (A lizard, agu- अम्भोज । 'The lotus (Nymphea ana.)। (२) शिशुमार, सेकची । त्रिका nelumbo) मे० जत्रिकं । (७) बेंत । (८) See-shishumara. वज्र । (६) शंख । (१०) ब्रह्मा । श्रावुकुक्कुटी, टिका ambu-kukkuti, tika अम्बुजन्म ambujanma-हिं० पु० पद्म, कमल, -सं० स्त्री० जल कुक्कुटी, जल मुर्शी, मुांबी | पंकज । ( The lotus.). For Private and Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ अम्बुबैया अम्बुजा ambujā-सं० स्त्री० अाम्रगंधक | अम्बपः ambupa.h-सं० पु. चक्रमर्द, . कुत्त-हिं । अम्बुली-म० । कपूर बं० । माङ्ग- अम्बुप anbupu-हिं० संज्ञा पु. चकवड़, नारी-मल० । ( Limnophila gratio- चकौंड़ का पौधा । (Cassia tora ) चाकुन्द loides. B..) फा० इं०३ भा०। ( वॉ) श. । (२) कञ्चट, गजपिप्पली। अम्बुजामलकी ambuja-malaki-सं० स्त्री. (Scindapsus officinalis)के। . पानीयामलक । (Flacourtia cataph. अम्बुपटलम् ambupataJam-सं० क्ली० racta.) (Aqueous humour.) जलीय पटल । अम्बुटः ambutah-सं० पु. अश्मन्तक वृक्ष । अम्बुधत्रा (पत्रिका), पत्रो ambupatri,श्रावुटा | अ(-)पटा-मह० । रा०नि०व०६ । patrika, patri सं० स्त्री० उच्चटा, गुञ्जा, Se3-Ashmantaka h. घुघची । (A brus precatorius.) अम्बुटी ambuti-बम्ब० चाङ्गेरी, चूका ।। र० मा। ( Oxalis corriculata, Linn.) gaforcat ambu-pippali-o alto फा० इ०१ भा०। जलपिप्पली । काँचड़ा घास-बं० । बुकन-हिं०। अम्बुताल: Limbutalah-सं० पु. शैवाल । (Lippia nodiflora.) सेवार-. । (Sea-weed.) त्रिका०। अम्बुदः ambi-dah-सं० ० मुस्ता. मस्तक | अबुप्रसादः ambuprasādah मोथा । (Cyperus rotundus, Lin.) श्राम्बुप्रसादक: ambu-prasadakah सि. यो० कामला-चि० मूर्खाद्यतं वृन्द ।। अन्बुप्रसादनः ambu-prasādanah "पटोलाम्बुददारुभिः ।" सं० पु. निर्मली-फल वृक्ष, निर्मली का पौधा । (Strychnos potatorum, Linn.) अम्बुधरः ambudharah-सं० पु. नागर रा०नि०व०११ । देखो-कतकः । मुस्ता, भद्रमुस्ता, नागरमोथा। (Cyperus अम्ब सादन फलम् ambil-prasadana. par tenuis.) वै० निघः । phalam-सं० क्ली० कतक, निर्मलीफल | अम्बधिः ambudhih-सं० पु. सागर, समुद्र, Strychuos potatorum (fruit of-) सिन्धु, जलधि । (A sea.) वै० निघ० । . अम्बधिफेनः ambudhi-phenah-सं० पु. • पु० अम्बफलम् ambu-phalam-सं० क्ली० समुद्रफेन । Os sepie ( Cuttle fish शृङ्गाटक, सिंघाड़ा । ( Thapa Bispibone.) भा० । nosa.) अम्बुधिश्रवाः ambudhishravah सं० स्त्री० अम्बबाह ambu-baha-हिं० पु. मेघ, वारिद, ग्वारपाठा, घीकुंभार, घृतकुमारी। ( Ale | बादल । (Cloud.) barbadensis. )। कोड़फल-म० । रा० अम्बबैया ambubaia-सिरि० (१) कासनी। नि० व०५। Endive seeds ( Cichorium intyअम्बुनाम ambunāma-सं० क्ली. हीवेर, bus, Linn.)प्लाइ । सुगंधवाला। ( Pavonia odorata, नोट-अम्बुबया सिरिया भाषा का शब्द है Willa.) भा० । बालक । किन्तु फारसी ग्रन्थों में इसके निम्न रूढार्थ पाए अम्बुनाली ambunali-सं० स्त्री० (Cereb- जाते हैं, यथा--अम्बुई ( Ambui) अर्थात् ral aqueduct. ) गंध व बया अर्थात् पूर्ण यानी गंधपूर्ण (Allu. अम्बनियामिका ambu-niyamika-सं० स्त्री० rements.)। देखो-कासनो। फा० ई०२ (Amnion.) गर्भकला, भ्रणमध्यावरण। भा। For Private and Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बुबोइया अम्बूका अम्बुवोइया ambu-boiya-फा० कासनो । अम्बवारिणी ambu-vārini-सं० स्त्री० ( Eudive seeds. ) ई० मे० मे०। स्थल कालिनी, स्थला पमिनी । वै० निघः । अरबत् ambu-bhrit-सं० पु० (१) मेव, अरबवासिनी ambit-vasini बादल (Cloud.)। (२) मुस्तक, मोथा। बवाली ambu-vasi (Cyperus rotundus) अ०। (३) --M० स्त्री० र पाटला, पोढ़ल । सागर, समुद्र । (Sca.) के० । श्रातुवाह: ambil-vāhah-सं० पु. मुस्तक, अम्बुमयूरकः ॥mbu-mythsakah-सं० पु. मोथा, नागरमोथा । ( Cypalus rotundजलापामग, ज चिर्चिा। व० निघः ।। us.) चि० ० क० बल्ली प्रदर-चि० । अम्बुमात्रः ambl-mātrah -सं० पु. (२) बादल | मेव । अम्बमात्रजः ambu-mitra.jah S बूक, अस्ववेजसः aubi-vetasah-सं० पु. घोंघा । A smail (Cochlen helix). जलवेनस । एक प्रकारको बेंत जो पानी में होती अम्बुमुक्,-च 1mbu-muk,--mitch- सं० है। बड़ी बेत । बहला-मह० । पर्यायपु. (१) मुस्तक, मोथा ( Csperus परिव्याधः, विदुलः, नादेयी (१०)। rotundus.) । (२) मेव, बादल । (clo अवशिशीषिका amburshirishika ud.) के। राशीपो ambil-shirishi अम्बुष्टिका ambuyashtiki-सं. स्त्री० -९० स्त्रो० जल शिरीष, ढाढोन, टिटिनी । भार्गी, भारंगी ! (Clotlandron sipho व० निध०। manthus. ) र० सा० । वामन हाटी-बं०। अस्वुशुक्तिः albil-shuktib-सं० स्त्री० अम्बुरः ambulah-सं० पु. द्वाराधः काष्ट । जलशुति, जल सीपी । जलशिंपी -मह० । __ गोवराट् ( कां)। झिनुक-५० । ( A snail.) वै० निघ० । अम्बुरु (गे) हः ai.burli,--10-hah-सं० अस्वसर्पिणी ambu-sarpini-सं० स्त्रो० पुं०, क्ली० पद्म, कमल । ( Nymphea जलायुका, जलौकस | जोक -हिं०, बं० । nelumbo. ) TO Leech ( Hirudo ). अम्बुरुहा amburuha-सं० स्त्री० पद्मिनी, स्थल पद्मिनी । वै० निघ० । (See -sthala अम्बसादनम् ambu-sadanam-सं० क्लो. निर्मली बीज, कतक । ( Strychnos padmini.) potatorum-) वै० निघ । अम्बुल an. bula-पं० श्रामला । (Phyll अम्बुसारा ambu-sāra-सं० स्त्री० कदली वृक्ष । anthus emblica.) मेमो० । (Musa sapientum-) भा० पू० १ भा० अम्बुली ambuli-मह० अम्बुजा, अाम्रगंधक । फ०व० । ( Limnophila gratioloides,Br. ) | अम्बलाह्वः ambu-salivah-सं० पु. कुन्द फा० इं०३ भा०। पुप्प चुप । (Jasminum multiflorum.) अम्बुल्लिका ambu-vallika-सं० प्रा० कार वै० निघ० । वेल्ली, करेली। ( Momordica chara अम्बसीमो ambu-siina-० अञ्चनहारी, ___ntia-) वै० निघ०। घेरी, शई रह । स्टाइ (Stye ), ब्लीफेराइटिस अम्बुवल्ली an bu-valli-सं० स्त्री० ( १ ) ( Blepharitis)-इं० । तुद्र कारवेल्ली, छोटी करेला ( Momord- | अम्बूकृत् ambu-krit-सं० त्रि० ऐसा वचन ica charantia.) । (२) जल पिप्पला। जिसमें थूक निकले । निष्ठीवन युक्त वचन | (Lippia nodiflora-) वै० निघ० । अम्बूक: ambika h-सं० पु. लकुच वृक्ष | For Private and Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बूय मक्की अम्भोजम् बड़हर-हिं० । ( Artocarpus lakoo. ___-बम्ब० (३) अाम । (Mangifera Indicha.)-के० । ___ca.) मेमो०। फा. इं०१ भा०। इं. मे० अम्बूब मकी ambuba-inakki-अ० बुस्तान मे०। अफ़रोज़। श्रस्बौटो ambouti-हिं० स्त्रो० चांगेरी, चुका । अम्बूबुर्राई. ambi buvaai-अ० सदाबहार, __ आमरूल-बं० । ( Rumex scutatus) हयुलालम। अरनो ambri-मह० नकछिकनी, छिक्किका । अम्बूबल मलिक ambu bul-malil-अ० (Dragea volubilis, Benth. ) फा० इसके लक्षण में मतभेद है। कोई कोई हयुल- इं०२ भा० । अालम को तथा कोई कलाह वा महूरा को कहते अम्भः ambhah-सं०, हिं० पु. (१) अम्बु, जल, पानी । ( Watel'. ) ग. नि० व० अम्बू रस्मा amburasma-यू० सफेद कुटकी। १४ । (२) बाल, सुगंधवाला । (Pavonia Picrorrhiza kurroa ( The ___odorata.) अम० । white var.) अम्भः पा ambhah-pā-सं.पु. चातक पक्षी। अम्बूस ambus-यू० नान्रवाह, अजवाइन । A kind of cuckoo ( cuculus (Ptychotis a jowan ) melano-leucus.) अम्बूस मारोस ambusa-mārisa-यू० अम्भः सारः ambhah-sārah-सं० पु० मुका, काली कुटकी । Ticrorrhiza kurroa. मोती । ( Pearl.) वै० निध०। ( The black variety of- ). अम्भः सूः ambhah, suh-सं० स्त्री० (१) अम्बेलिफरी umbe]]iferre-ले. छत्र या शम्बूक, घोंघा (A smail.) (२) धूम, __छत्री (-त्रिका) वर्ग। धुंआ । धुके-मह । (simoke.) हे० । (३) अम्बेलो उनिया an belo-ughriya - अ० भाप, वाप्प । (Vapour.) __ अज्ञात । अम्भसोज ambha-soja-हिं० प० (१) अम्बे हल्दी ambe haldi-द० अम्बा-हल दी, ___ कमल, पद्म, अम्बुज (A lotus.)। (२) वनहरिद्रा। (Curcuma aromatica, चन्द्र ( Moon.)। (३) सारस पक्षी ( A Sulisb.) स० फा० इं० । stork.) अम्बो ambo-गु० श्राम, अाम्र । ( Mangi- अम्भसाद ambhasoda-हिं०पु. जलद, अभ्र, fera indica.) फा० इं० १ भा० । मेघ ।( Cloud ) अम्बोलटी ambolati-बं० श्रामला । (Phyl- अम्भसाधर ambhaso-dhara-हिं० पु. lanthus emblica. ) (१) जलधर, मेघ (Cloud.)। (२) अम्ब्लोगिना पॉलिगोनॉइडीस amblogina | समुद्र । ( A sea.) । polygonoides, Rafin. )-ले० बन- अम्भसोधि ambhasodhi ) -हिं०पु. तण्डुलीय, जंगली चौलाई । मेमो०। अम्भसानिधि ambhasonidhi S समुद्र, अम्ब्लोगिना सीनीगेलेन्सिस ambloginal सागर, जलधि । ( A sea.) senegalensis, Lank. )-ले० जंगली अम्भेडो anbhedo -गु० अम्बाड़ा | अाम्रामेंहदी । दादमारी । मेमो०। तकः । ( Spondins mangifera) अम्बोसी ambosi-बम्ब० (१) आम्रपेशी, आम ! अम्भोजम् ambho jam-सं० क्ली. । (१) की गुठली । ( Phyllanthus emblika) अंभोज anbhoja-हिं० संज्ञा पु. पद्म, फा० इं० १ भा०।-बं० (२)प्रा(अ)मचूर। कमल । ( Nymphoea nelumbo.) For Private and Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्भोजनालः अम्युल अलवान (२) वारिवेतस, जल वेतस । (See-Jalave. | अम्भोरुहम् ambho-1uhan-सं० क्ली० (१) tas) -पु० (३) पुष्कराह्वय, पुष्करमूल पद्म, कमल । (Nymphoea nelumbo.) (The root of Alpotaxis auricu- च० द० २० पि. चि० । -पु० (२) सारस lata.)। (४) सारस पक्षी । (A stork.) पक्षी । ( The Crane.) अ० । के०। (५) कपूर । (६) शंख । (७) | अम्भोरुहकेशरम् ambhoruha-kesharam चन्द्रमा। -सं० क्ली० पद्मकेश । (See-Padna-keवि० जल से उत्पन्न । shar.) च० द० र० पि. चि०।। अम्भोजनालः ambhoja-nālah-सं० ५ अम्मअह ammaaah ) -अ० शिथिल पद्मनाल. कमलनाल. कमलकी रही। (Root | अस्मअ amnaa विचार, निstock of nymphea lotus. ) बुद्धि, जो प्रत्येक के श्राधीन हो जाए। वै० निघ। अम्मरस ammarasa-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अम्भोजनी ambhojani ) -सं० स्त्री० अमरसर ] अमृतसर का कबूतर । एक कबूतर अम्भोजिनी ambhojini (1) पद्म- जिसका सारा शरीर सफेद और कण्ठ काला लता, कमल का पौधा। कमलिनी। पद्मिनी । होता है। (२) कमलों का समूह । (३) वह स्थान | अम्मा amma-हिं० स्त्री० माता, माँ । ( Moजहाँ पर बहुत से कमल हों। ther.) अम्भोजा ambhoja-सं० स्त्री० यष्टिमधु वल्ली, अम्मी ammi-यू०, ई० मुलेठी । (Glycyrrhiza Glabra.) अम्मी कॉष्टिकम् ammi copticum-ले. वै० निघ। अम्मी डी' इराडी amrid' inde-फ्रांक अम्भोदः ambhodah-सं० पु० () अम्मी पप्यु सीलम ammi per pusillum, ! अंभोद anbhoda हिं०संज्ञा पु. भद्र Lobd.-ले.) मुस्ता, नागरमोथा। (Cyperus Rotu. अजवाइन । (Carum copticum, Benndus.) रा०नि० व०६। च० द. यक्ष्म th.) फा० इं० २ भा० । -चि० एलादिमन्थ । (२) प्रपौण्डरीक । अम्मुगीलाँ ammughilan ] -अ० कीकर, (Root stock of nymphoea lot मुगोलाँ mughilan बबूल, बबूर । us.) प० मु०। (३) बादल । -क्ली० Acacia Arabica, Willd. (Babool (४) कांस्य, कासा । ( Bronze.) tree) स० फा० इ०। मु० प्रा० । म० वि० जो पानी दे। श्र.। अम्भोधरः ambhodharah-सं० पु. (१) अम्मेनिया सिनेगेलेसिस ammania senमुस्तक, मोथा । (Cyperus Rotundus.) egelensis, Lamb.-ले. दादमारी वर्ग | (२) मेघ (Cloud.) । (३) समुद्र। उत्पत्ति स्थान-पञ्जाज के मैदान तथा (A sea.) शब्द० २०।। उत्तर-पश्चिम हिन्दुस्तान | अम्भोधिपल्लवः ambhodhi-pallavah उपयोग--फोस्काजनक प्रभाव हेतु | ई. अम्भोधिवल्लभः ambhodhi-vallabhah ji मे० पला । -सं० पू० प्रवाल, मूंगा । ( Coral.) रा० अम्या aamya-अ. अंधो स्त्री। यह अमा नि० व०१३। ____ का स्त्री लिंग है। अम्भोमुक ambhomuk-सं०पु. प्रवाल, गा। अम्युल अलवान iamyu)-alvan-१० रंगों (Coral.) i का अंधापन । यह एक प्रकारका विकार है जिसमें For Private and Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्यूलू फारास रोगी 'गों का, विशेष कर जब कि उनको दूरी से अम्रा amra-हिं० पु. अाम्रातक, अम्बाड़ा । देखे तो, एक दूसरे में भेद नहीं कर सकता। (Hogplum ). क्रोमैटाप्सिया ( Chroma topsia ), अम्राक amli(|-यू० मांस रस, शोरबा । ( Soकलर ब्लाइण्डनेस (Colour Blindness.) up.) । अम्यूलू फारास amyulu-faias-रू० रामतुलसी। अम्राज़ा amaz-अ० (ब० व०) मर्ज (ए० (Ocimum gratissi illum. ) व०) नाखुशी, दुःख, दर्द, बीमारियाँ । रोग, अम्यूस amyusa-घू० अजवाइन, नान्खाह । | व्याधि, विकार-हि । डिज़ीज़ (Disease ) ( Carum copticum. ) -इं० । देखो-मज । अम्रः amrah-सं० पु० (१) आम्रवृक्ष, आम । अम्राज अस्त्रिय्यह amrazaastriyyah-अ० (Mangifera indica) रा० नि०। | वे रोग जिनमें शीत के कारण मवाद बन्द होकर (२) माचिका, मोइ (हु)या। पुदिना-बं० । ठिठर जाए। ((३) अम्लकेतस। (Rumex vesicarius) अनाज़ असि.लयह amraz-asliyah- ) . रा०नि० । श्रम्राज़ जातियह amaz-zatiyah अम्रम् amram-सं० क्ली० ओम का फल । अ० असली बीमारियाँ, जाती बीमारियाँ, वे Mangifera indica (The fruit of-) रोग जो स्वतः उत्पन्न हों अर्थात् अन्य रोगों के अम्रगंव हरिद्रा amragandha haridra प्राधीन न हों या उनकी उपस्थिति के कारण -सं० स्त्री० श्राम्रहरिद्रा, अम्बा हल्दी, श्राम न उत्पन्न हों। ईडिअोपैथिक डिज़ीज़ेज़ ( Idioहल्दी । श्रामहलुद-पं० । ( Curcuma pathic diseases )-इं०। reclinata ). अम्राज आरमह, amaz-aammah-अ० अम्रत amrata-अ० वह मनुष्य जिसके भव व्यापक रोग, सार्वांगिक रोग, वे रोग जो सम्पूर्ण (5) के रोम गिर गए हों। जिसकी डाढ़ी घनी शरीर में एक समान उत्पन्न हों, जैसे-ज्वर या न हो अर्थात छतरी डाढ़ी वाला। रक्ताल्पता अादि । जेनरल डिज़ीज़ेज़ (Geneअम्रत amrat-मल० गडची, गुरुच, गिलोय । ral Diseases)-इं०। (Tinospora cordifolia ) अम्राज इन्हिलाल फर्द amraz-in hilal-fard अम्रत amrat-हि०पु. लाल सफरी श्राम, लाल - अा० देखो-अम्राज़ तफ़र्क ल इत्तसाल । अमरूद। (Psidium Clava, Vai. अम्राज़ औइयह amriz-olaiyah-१० P.) ई० मे० मे० । अम्राज तजावीत, वे रोग जिनमें शारीरिक स्रोत अम्रतवल्ली amrata-valli-ऋना० गुड़ची, संकुचित अथवा विस्तृत हो जाते हैं। वैस्क्युलर गुरुच, गिलोय, अमृतवल्ली । ( Tinosporan डिज़ीज़ेज़ ( Vascular Diseases. ) cordifolia ). अम्रद amad-अ० श्मश्रुहीन, डाढ़ी रहित, अनाज कल्ब amaz-qalb-अ. हार्दिक रोग, जिसके अभी डाढ़ी मूछ न निकले हो । बियर्डलेस हृद्रोग । हार्ट डिज़ीज़ ज़ ( Heart Dise. ( Beardless.)-इं०।। ases)-इं० अम्रदपरस्त amrad-parast-अ० लूती, अम्राज कुल्लिथ्यह, aliraz-kulliyyah-अ बच्चा बाजू | पेडीरेस्ट (Pederest.) ई०।। कष्टसाध्य,दुःसाध्य । (Difficult to cure) अम्रवेतसः amra-ve tasah-सं० पु० अम्ल- अम्राज खनाज़ीरिय्यह, amraz-khaaniziवेतस । ( Rumex vesicarius.) riyyah-अ. कण्ठमाला, गलगण्ड, गण्डअम्रसारः amra-sarah.सं०प०अम्ल वेतस। माला । स्क्रॉफ्युलस डिज़ीज़ेज़ (Serofulous (Rumes vesicarius. ) pro fato I L Digcases )-101 For Private and Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज खास सह ५२६ अम्राज़ मजारी. अम्राज़ खास्सह amraz-khassah-अ०खास साधारण बीमारियाँ जो प्रत्येक अवयव (मिश्रित खास रोग, स्थानिक रोग, वे रोग जो खास खास व अमिश्रित) में उत्पन्न हो सकें. जैसे-किसी अवयवों में ही उत्पन्न हुआ करते हैं, जैसे- अवयव में विच्छेद अर्थात् विश्लेष या पार्थक्य वधिरता कान तथा अंधता आँख में ही उत्पन्न का उपस्थित हो जाना । विस्तार के लिए देखोहोती है। लोकल डिज़ीज़ेज़ ( Local | तफ़ल्क इत्तिसाल वा मर्ज तफ़ल्क इत्ति. Diseases. )-इं० । साल। अम्राज़ खिल्कत amraz-khilqat-अ. वे अम्राज़ तर्कीब amraz-tarkib-अ० देखो रोग जिनमें विकृतावयव की रूपाकृति परिवर्तित मर्ज तीव। हो जाए। अम्राज़ तारिय्यह, amraz-tariyyah-अ० अम्राज़ गैर मुसल्लमह, amraz-ghair-mu. ये वस्तुतः छूतदार (संक्रामक ) बीमारियाँ हैं जो sallamah-१० वे रोग जिनके उचित दो प्रकार की होती हैं-(१) वह जो किसी एक तथा उपयुक्त उपाय में कोई बात रोधक हो। कुटुम्ब या स्थान में सीमित हों, उनको अम्रा ज़ नोट-यह शब्द अम्रा ज़ मुसल्लम का विप- वाफ्रिजह और अंग्रेजी में एन्डेमिक डिज़ीजोज़ रीनार्थक है। ( Endemic-diseases) कहते हैं और अम्राज़ जुज़इय्यह amraz-juziyyah-अ० (२) वह जो किसी जाति अथवा स्थान में न - सखसाध्य, वे रोग जिनकी चिकित्सा प्रासान हो।। हों, वरन् सामान्य तौर पर व्याप्त हो जाएँ, (Easy to cure.) उनको अम्रा जा तबइय्यह. तथा अंग्रेजी में एपिअम्राज़ जहरिय्यह, amraz-zuhriyyah डेमिक डिज़ीज़ेज़ (Epidemic disea-अ० अम्रा ज़ जुह रह, जुह रह की बीमारियाँ । ses) कहते हैं। इसका संकेत उपदंश व सूज़ाक की ओर है। अम्राज फसिलय्यह amraz-fasliyyah-अ. काम व्याधि, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग, गुप्तरोग। वे व्याधियाँ जो किसी विशेष ऋतु या फसल वेनरियल डिज़ीज़ज़ ( Venerial Dise में होती हैं, जैसे-मौसमी ज्वर । ases)-इं०। __ नोट-चूँ कि प्राचीन यूनानियों का यह अम्राज़ बलदिथ्यह. amraz-baladiyyah .-अ० वह बीमारियाँ जिनका सम्बन्ध किसी विश्वास था, कि जब सीतानी लोगों ने उनके विशेष स्थान या देश से हो । एन्डेमिक डिजीज़ेज़ ऊपर चढ़ाई की, तो उनकी मुहब्बतकी देवी वीनस (Endemic Diseases)-इं० । (शुक्र ) यानी जुह रह ने उन आक्रमणकारियों में दण्ड स्वरूप उपदंश व सूज़ाक की प्याधि | अम्राज़ बसीतह. amraz-basitah-१० उत्पन्न करदी । इस कारण उक्त दोनों व्याधियाँ देखो-अम्राज़ मुरिदह, । अम्रा ज़ जुह रह के नाम से अभिहित हो गई। अम्राज़ बह रानिय्यह. amraz-buhrani सूचना-विशेष विवरण हेतु देखो-उपदंश व yyah-अ० वह बीमारियाँ जो बुह रान में सूज़ाक । इन्तिकाल मजके तौर पर पैदा हों, जैसे-पांत्रिक अम्राज तजावीफ amaz-tajavif-अ० वे रोग ज्वर के पश्चात् फुप्फुस प्रदाह या वृक्तप्रदाह जिनमें तजावीत अर्थात् शारीरिक स्रोत अपनी अथवा उन्माद प्रभृति का हो जाना । क्रिटिकल प्राकृतिक अवस्था से छोटे, बड़े या अवरुद्ध हो डिज़ीज़ज़ (Critical Diseases)-इं। जाएँ, जैसे-आमाशय का सिकुड़ना या फैल अम्राज़ मजारी amraz-ma.jari-अ. शारीजाना। रिक अर्थात् शरीर की रग एवं नालियों की-बीमाअम्राज़ तफ़र्रुक इत्तिसाल amraz-tafalru- रिया, वह बीमारियाँ जिनमें शारीरिक प्रणालियाँ q-ittisāl-अ० अन्ना ज़ इन्हि लालुल फ्रर्द । वह संकुचित अथवा प्रसारित या अवरुद्ध हो जाए। For Private and Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज मादित्र्यह अम्राज मुफरिदह, अम्राज मादिय्यह. amraz.inadiyyah--अ० ___ द्वारा लगभग ६० रोग मुतऋद्दी (छूतदार ) वे रोग जो दोषाधिक्य अथवा उनके विकृत होने सिद्ध हुए हैं । इन सबके लिए देखो-संक्रामक । के कारण उत्पन्न हों। अम्राज़ मुतग़य्यरह amraz-mutaghayya. अम्राज माबिय्यह amaz-mabiyyah-अ० rah--अ० वे रोग जो क्रमानुसार उत्पन्न हो बबाई मज, महामारी | तथा धीरे धीरे बदलें। अम्राज़ मिकदार amaz-miqdai-० वह अम्राज मुतवस्रुितहamaz-mutavas. रोग जिसमें विकारी अवयव के श्रायतनमें अन्तर sitah-अ० वे रोग जो हादह तथा मुज़्मिनह, श्रा जाए अर्थात् वह स्थूल या क्षीण हो जाए। । के मध्य हों और जिनकी अवधि २० से ४० रोज अम्राज़ मिज़ाजिय्यह. amaz-mizajiyyah | के भीतर हो। -अ० प्रकृति विकार जन्य रोग । अम्राज़ मुतवारिस ह amraz-mutavariअम्राज मुख नरसह. amraz-mukhtassah -अ. वे रोग जो विशेष अवयवों से सम्बन्ध sah--अ० पैतृक व्याधियाँ, वे रोग जो पिता माता से सन्तति में हो. मौरूसी बीमारियाँ। रखते हों। इन्हेरिटेड डिज़ीज़ेज़ (Inherited Diseअम्राज मुनिमनह amraz-muzminah-अ० ases )--इं०। जीर्ण या पुरातन (चिरकारी) रोग। पुरानी बीमारियाँ, मुमिन बीमारियाँ । ऐसी व्याधियाँ जो ४० दिन नोट-कोई कोई इतिब्बा ( यूनानी चिकिअथवा इससे अधिक कालकी होगईहों । समय की सक) इनकी संख्या ८ लिखते हैं । वे निम्न हैं, कोई सीमा नहीं, चाहे रोग सम्पूर्ण श्रायु भर रहे। यथा-(१) जज म ( कुष्ठ, कोढ़ ), (२) क्रॉनिक डिज़ीज़ेज़ (Chronic Diseases) बरस (श्वित्र, श्वेत दाग़ ), (३) दिक ( जीर्ण -इं०। ज्वर ), (४) सिल ( यक्ष्मा ), (५) माली अनाज़ मुतअद्दियह amraz-mutaaad खौलिया ( Melancholin ), (६ ) diyah-०अम्राज मुस्रिय्यह अनाज़ सारिय्यह। सुअाह (गञ्ज, इन्द्रलुप्त), (७) निरिस छुतदार रोग, संक्रामक व्याधि, मतही बीमारियाँ, (छोटी संधियों की वेदना), अोर (८) मानिया वे रोग जो रोगीसे स्वस्थ व्यक्रिको लग जाएँ। इन्फे (उन्माद भेद) । किन्तु किसी किसी हकीम ने इनकी क्शस डिज़ीज़ोज़ (Infectious Diseases), संख्या १७ पर्यन्त लिखी है अर्थात् पाठ उपरोक कॉण्टेजिअस डिज़ीज़ज़ा ( Contagious एवं ( 6 ) सर (अपस्मार), (१०) उब्नह , diseases)-इं०। (११) जरब (तर खुजली), (१२) जुदरी (शीतला, नोट- प्राचीन इतिब्बा ( यूनानी चिकित्सक) चेचक), (१३) बहन ( मुख दुर्गन्धि ), (१४) छः से लेकर दस रोग तक को मुतअद्दी अर्थात् रमद ( नेत्र पाना या दुखना, नेत्राभिष्यन्द) छुतदार (संक्रामक ) जानते रहे हैं । उनका उल्लंग्य (१५) कुरूह. मुतअफ्फिनह, (जिन्नता युक्र निम्न पंकियों में किया गया है, यथा व्रण ), (१६ ) हस्त्रह. ( खसरा ) (१) जज़ाम (कुष्ठ, कोढ़), (२) जर्ब श्रीर (१७) चबा ( महामारी)। इनके अति. (तर कगडु या खुजली), (३) जुद्री (चेचक, रिक शेख ने वृक्त एवं वस्तिस्थ अश्मरियों को शीतला ), (४) ह.स्वह, (खसरा), (५) भी पैतिक रोगों में समावेशित की है। प्राधुनिक सिल व कुरूह अफिनह ( यक्ष्मा व सडाँधयुक्त चिकित्सक उपदंश व सूज़ाक को भी पैतृक रोगों व्रण) और (६) हुम्मा वबाइयह ( वबाई की सूची में अंकित करते हैं। बुखार, महामारी का ज्वर ) जो सामान्य रूप से अम्राज मफरिदह, amaz-mufridah-१० प्रसार पाते हैं एवं जिनमें प्लेग (ताऊन ) भी माधारण रोग, अमिश्रित व्याधियाँ। वे रोग सम्मिलित है। किन्तु अर्वाचीन शोधों, गवेषणों जो कतिपय रोगों के योग द्वारा न उत्पन्न हों, For Private and Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज मुरकबह. अम्राज वाफिज़ह प्रत्युत स्वयं अकेले हो । सिम्पल डिज़ीज़ेज़ | अम्राज व अअ.राज़ मुन्जिरह, amraz-va (Simple Diseases)-इं० । aaraz-munzirah-अ० वे रोग व लक्षण शाम्राज मुरझवह amraz-murakkabah जो किसी अन्य रोगका भय दिलाएँ, उदाहरणतः -अ० मुरकब बीमारियाँ। यौगिक वा मिश्रित स्थाई मूच्छो ताकालिक मत्यु का मुन्जिरह व्याधियाँ, इस प्रकार की व्याधियाँ कतिपय रोगों ( पूर्वरूप ) होती है या काब्रूस जो अपस्मार व के योग द्वारा उत्पन्न होती हैं और इनका नाम श्रद्धांग प्रभृति के उत्पन्न होने का भय दिलाता व चिकित्सा विशेष होती है। __उदाहरणत:-शोथ प्रकृति विकार, संधि अम्राज़ व ज़अ amraz-vazaa-० वे रोग जिन च्युति और म जत्तीब के पारस्परिक योग द्वारा में विकृतावयवकी स्थितिमें अन्तर उपस्थित होजाए, उत्पन्न होता और एक ही नाम (शोथ ) से इसके २ भेद हैं-(१) मौ ज़ई. ( स्थिति संबन्धी)' पुकारा जाता है। विपरीत इसके यदि समग्र देह और ( २ ) मुशारिकी (सहचारी, संबंधीय)। . या किसी विशेष अवयव में कतिपय बीमारियाँ ___ पुनः मौ ज़ई. के चार रूप हैं-(१) किसी एकत्रित हो जाएँ, पर उनके समवाय का नाम व अवयव का निज स्थान से उखड़ जाना, (२) चिकित्सा विशेष न हो तो उन्हें मर्जमुरक्य अवयव का अपनी संधि में गति करना, (३) (मिश्रित रोग) नहीं कहते, प्रत्युत अम्रा जा स्थिर अवयव का गतिशील होना, जैसे—कम्पन मुजतमत्रह, (सामूहिक) नाम से अभिहित करते वायु (रैशा ) में सिर हिलना, (४) गतिशील : हैं । जैसे-ज्वर, कास और जलोदर। अवयव का स्थिर होजाना, जैसे-तह ज्जर " कम्प्लिकेटेड डिजीज़ज़ ( Complicated मुफ़ासिल (संधि काठिन्य ) में संधियों का गति Diseases)-इं०। न कर सकना । मम्राज मुशारिकह. amraz-musharikah मुशारकी के दो रूप हैं-(१) एक अवयव : -१० वह रोग जो किसी अवयवके समीप अथया का अपने निकटस्थ अवयव से दूर हो जाना । दर होने के लिहाज से उत्पन्न हो। उदाहरण स्वरूप-एक अंगुली का टेढ़ा होकर उदाहरणत:--एक अंगुली का अपनी दूसरी अंगुली से न मिल सकना या कठिनतानिकटस्थ दूसरी अंगुली से कठिनतापूर्वक मिलना पूर्वक मिलना और ( २) एक अवयव का या न मिल सकना । देखो-अम्राज़ व ज़। दूसरे अवयव से जुड़ जाना या मिलजाना । अम्राज मुश्तर्कह. amrar-mushtarkah उदाहरणतः-दो अंगुलियों का जुड़ जाना या -प्र० अम्रा ज़ आम्मह, वह रोग जो साधारण म.ज शिनाक में नेत्र का कठिनाई से खुलना । एवं मिश्रित प्रत्येक अवयव में उत्पन्न हो । अम्राज़ वबाइय्यह, amraz-vabaiyyah अम्राज मुसल्लमह. amraz-musallamah -अ० महामारी, वबाई बीमारियाँ, वे रोग -० अम्रा जा सलीमह, वे रोग जिनके उचित जिनमें एक ही काल में बहुत से मनुष्य तथा उपयुक्त उपाय में कोई बात अवरोधक न रोगाक्रान्त हो जाएँ, जैसे—प्लेग, विसूचिका प्रभृति । एपिडेमिक डिज़ीज़ोज़ ( Epidemic सम्राज़ मुस्तासियह amraz-mustaasi. diseases ) vah-० असाध्य रोग। इन्क्योरेबल डिजी- | अम्राज वाफ़िज़ह. amaz-vafizah-अ० जेज़ ( Incurable Diseases )-इं। वे छूतदार ( संक्रामक ) रोग जो किसी विशेष अम्राज मुस्निय्यह. amraz-musriyyah स्थान या जाति से संबंध न रखते हों । देखो__ -अ० देखो अम्राज मुतअद्दियह । अम्राज तारियह । अम्राज़ मूमनह amriz-mumanah-१० एन्डेमिक डिज़ीज़ेज़ ( Endemic Disवे रोग जो अन्य रोगों से मुक्रि दिलाएँ। eases) ई०। . For Private and Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्राज़ शक्लिय्यह ५३२ अम्रातः,-का अम्राज़ शक्लिय्यह amraz-shakliyyah-अ० रूप में परिणत हो जाता है । ये रोग चार प्रकार वे व्याधियाँ जिनमें विकृतावयव का प्राकृतिक के होते हैं, यथा-(१) हाद कामिल या हाह स्वरूप परिवर्तित हो जाए, जैसे - इस्तिस्काउर्रास फ़िलगायत अर्थात् अत्यन्त उन व्याधि जिसकी (मास्तिष्कीय जलन्धर अर्थात् जल संचय वा अवधि अधिकसे अधिक चौथे दिन तक होती है। शोथ) में सिरका चिपटा हो जाना या पृष्ठ आदि (२) हा मुत्वस्सित या हाद्द दूनुलगायत, वह में कूबड़ निकल पाना । उन व्याधि जिसकी अवधि सातवें दिन तक होती अाम्राज शिर्किय्यह amaz-shirkivvah है । (३) हा मुत्लक वह तीब्र व्याधि जिसकी -अ० वे व्याधियाँ जो अन्य रोगो के सहयोग अवधि चौदहवें से बीसवें दिन तक होती है। ' द्वारा उत्पन्न हों। सहचारी रोग । (४) हाह मुन्तकिल या हाह मुजमिन, वह अम्राज़ सफायह अजाsamraz-safivah- उग्र व्याधि जिसकी अवधि इक्कीसवें दिवस से aazaa-अ० वे रोग जिनमें अवयवों के धरा. उन्तालीसवें दिवस पर्यन्त होती है। अम्रा जहाह तल की प्राकृतिक दशा बदल जाए। उदाहः ( उग्र व्याधियों ) के मुकाबिले में अम्रा ज़ रणतः-जो धरातल प्राकृतिक एवं स्वाभाविक | मुमिनह (पुरातन व्याधियाँ) हैं, जिनकी रूप से चिकना था वह खुरदरा हो जाए और जो अवधि चालीस दिवस अथवा इससे अधिक होती प्राकृतिक तौर पर खुरदरा था वह चिकना हो है। एक्यूट डिज़ीज़ेज़ ( Acute disea. "आए, जैसे-आमाशय के भीतरी धरातल का ses.)-इं०। चिकना हो जाना या फुप्फुस के चिकने धरातल नोट-(१)म.जहाद कामिल व हाद्द मुत्वस्सित • का खुरदरा हो जाना। व हाइ मुत्लक को डॉक्टरी में एक्यूट डिज़ीज़ेज़ अम्राज सलीमह amraz-salimah-अ० सुख- (Acute diseases. ) और हाद्द मुमिन साध्य रोग जिनमें कोई बात उचित उपचार की को सब एक्यूट (Sub acute.) और मज विरोधी न हो। मुमिन को क्रॉनिक डिज़ीज़ेज़ (Chronic अम्राज साज़िजह. amaz.sazijah-अ० diseases.) कहते हैं। साधारण रोग जो किसी दोषके कुपित होने से न - (२) डॉक्टरी में हाद मुषिमन रोगों के लिए हो। अवधि की कोई सीमा नहीं, प्रत्युत रोगके लक्षणों अनाज़ सारियह amaz-sāriyyah-अ. की उग्रता व सूक्षमता से ही उनको हाद्द व देखो-अम्राज़ मुतअहियह । ( Infectious मुज्मिन कहा जाता है। देखो-मर्ज हाद्द व Diseases.) मज़ मुज़िमन । 29129377*fa amráz-súuttarkib-70 वे साधारण रोग जो प्रथम मिश्रितावों में अनाज़ हाहह, जद्दन amaz-haddah. उत्पन्न हों, जैसे-संधिभ्रंश । jaddan-अ० अत्यन्त उग्र व्याधि । देखोअम्राज़ सूय मिज़ाज amraz-suya-mizaj अम्राज़ हाद्दह । -अ० वह साधारण रोग जो प्रथम साधारण अम्राज़ हाद्दतुल् मुज़िमनातamraz-haddaअववयों में उत्पन्न हों, जैसे-वाततन्तु का उष्ण tul-muzminat-अ० वे उग्र व्याधियाँ या शीतल होजाना । देखो-म.ज सूयमिज़ाज । जिनकी अवधि २१ दिन से ३६ दिन तक हुआ अम्राज़ हाइह, amraz-haddah-अ० (उप्र) करती है। देखो-अम्रज हाहह. व्याधियाँ, कठिन रोग, वे तीक्ष्ण व्याधियाँ जिन- अम्रातः,-कःamratah-,kah-सं०० अम्बाड़ा। की अवधि थोड़ी होतीहै अर्थात् ४० दिवसके भीतर Hogplum ( Spondias mangiभीतर था तो रोग दूर हो जाता है अथवा रोगी fera.) श० मा० । त्रिका० । देखोको मृत्यु हो जाती है या रोग चिरकारी (पुरातन) आन्नातकः । For Private and Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्रालकः अम्लका जि० । अम्रालक: amrālakah-सं० पु. अम्बाड़ा, इसके अधिक सेवन से भ्रान्ति, कुष्ठ, कफ, पाण्ड, अमड़ा, अाम्रातक। (Spondias mangi- कृशता और कास उत्पन्न होता है। रा०नि० fera. ) व० १२ । पाचन, रुचिकारक, पित्तजनक, कफ अम्रावतः mriviuttah-सं० पु. अमावट, उत्पन्न कर्ता, रकवर्द्धक, लघु, लेखन, उप्णवीर्य, अाम्रावत । (The inspissated juice सश में शीतल, संकोचक, दकारक, वातof the mango.) फा० इं०। नाशक, स्निग्ध, तीक्ष्ण, सारक तथा शुक्र, विवंधअम्रिय्यान amriyyat - अ. पानाह तथा दृष्टिनाशक और हर्षकारक है । इह शाउल बरन ias hinl-batt.n-अ० । अतिसेवन-पे भ, तृष्णा, दाह, तिमिर, शोथ, उदरीयावयव, जैसे- यकृत, प्रामाशय तथा प्रांत्र विस्फोटक, कुट, पारडु उत्पन्नकर्ता त्वच्य और I ( Abdominal Viscerae.) ज्वरनाशक है। भा० पू० १ म० । लघु, पाचक, अनुचह amchah-फा० अझुकक, अञ्चाञ्चक पित्त, कफ, छर्दि, द, उष्ण तथा वातनाशक ( Pyrus Communis, Linn.) । यह है। राज० । अद्र का अल्पार्थक प्रयोग है । देखो-अञ्जकक । वि० इसका शाब्दिक अर्थ खट्टा है । फा० इं० १ भा० । हामिज़, हरज, हिम्ज़-.अ. | तुर्श--फा० । अम्रत amruta-हिं०प० अमरूद । A guava अम्बल-बं०। सावर (Sum), एसिड (Acid) (Psydium Pyriforum. ) -इं०। किन्तु अर्वाचीन परिभाषा में तेजाब अनेर amrer-झेलम, पं० ( Debregeasia | अर्थात एसिड ( Acid) द्रव या अद्रव ___Bicolor.) मेमो० । के लिए व्यवहार में प्राता है। देखो-एसिड। अनोद amroda-हिं. पु. पथरचूर । पाषाण अप्लम् amlam-सं० क्लो० (१) अम्लवेतस भेदी-सं० । पथरकुची-वं० । पान-पोवा-म० । फल । (२) कांजी। (३) घोल । रा०नि०। ( Coleus Aromaticne.) (४) बदरफन्त । सि० पी० अरोचक चि०। अम्रोला amrola-हिं० चूका चा चांगेरी, श्राम (५) वर्वर चन्दन । रा० नि० व० १२। रुल । ( Rumex Ace tosa.) अम्लकः amlakah-सं० पु०, हिं० संज्ञा पु. अम्रोला का सत्त amroli-ka-satta बड़हर | लकुच वृत । ( Artocarpus La. अम्रोला सत्व amroli satva koocha) -हिं० पु. काष्टाम्ल, चूका का सत, चुक्र सत्त्व, चुक्राम्ल | Oxalic Acid ( Acidum अम्ल-कन्दः amla-kandah-सं० पु. एक Oxalicum.) देखो-चुक।। जंगली बूटी की जड़ है, जिसके पत्ते पान के समान और पुष्प सफेद तथा फल लाल मिर्च के अम्लः amlah-सं० पु., हिं० संज्ञा पु. तुल्य लम्बे और बीज नीबू के बीज के सदृश जिह्वा से अनुभूत होने वाले छः रसों में से होते हैं। एक | खटाई । जैसे-जम्बीर मातुलुङ्ग तथा निम्बुक प्रभति । अम्ल-करक्षः amla-karan jah-सं० . गुण-लघु, उष्ण, रुचिकर, दीपन, हृदय करजभेद । टक् करना-बं०। इसका फलको तर्पण करता, वातानुलोमक, रलकारी, कण्ठ तृष्णानाशक, गुरु, रुचिकारक और पित्तकारक है। में दाह उत्पन्न करता है। रा०नि० व.२० । TFO I ( A kind of karanja ) इसका विपाक अम्ल तथा गुण में पित्तकारक अम्लका amlaka-सं० स्त्री०(१) पालंकशाक और वात कफ के रोग को दूर करने वाला है। प० मु० । (२) पलाशीलता। रा० निक सु० सू०। प्रीतिकारक, पाचन, आर्द्रताकारक, । व०४। For Private and Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अम्लका www.kobatirth.org ५३४ अम्लका amlka-io ( Vitis Indica.) का। अधुक अम्ल-काञ्जिकम् amla-kánjikam-सं० क्ली० (Sour gruel.) काजिक, कांजी । च० द० ग्रहणी - चि० महाबट्पल घृत | See-Káñji अम्ल-काण्डः amla-kándah - सं० पु० सफ़ेद लहसुन, शुक्र रसोन । ( White garlic. ) वै० निघ० । क्लो० ( २ ) लोणी, लवण तृण । लोणा घास- बं० | रा० नि० ० ८ । अम्लकादि च amlakadi chürna--सं० क्ली० चतुराम्ल १ प्रस्थ, त्रिकुटा ३ पल, लवण ४ पल, चीनी ८ पल इनका चूर्ण दाल और अनादि में डालकर सेवन करने से खाँसी, श्रजीर्ण अरुचि, श्वास, हृदरोग, पांडु और गुल्म का नाश होता है । च० सं० । अम्ल-कुचाई amla-kuchai - बं०, हिं० स्त्री० ( १ ) एक भारतीय जंगली कण्टकयुक्त वृक्ष है जिसके पत्ते अमली के पत्तों के समान, किन्तु उससे छोटे होते हैं । ( २ ) चुक | अम्ल-कुचि amla-kuchi - बं० पथरचूर, पाषाणभेदी, अश्मन्तक, हिमसागर । ( Coleus Aromaticus. ) इं० मे० मे० । अम्ल - कृचि: amla-kuchih - सं० पु० वृक्ष विशेष | ( A tree. ) अम्ल-केशर: amla-kesharah - सं० पु० ( १ ) विजौरा नीबू, मातुलुङ्ग । ( Citrus medica.) प० मु० । ( २ ) दाडिम्ब वृक्ष, अनार । अम्ल केशरी amla - keshari - सं० पु० अम्लरस निम्बुक वृक्ष | गोंड़ा नीबू, गोड़ा लेबू- बं० । वै० नि० । AFAÈIA: (MF) amla-koshah, shákah - सं० पु० तिन्तिड़ी वृक्ष । श्रलिका, (इ) मली (Tamarindus Indicus.) मद० व० ६ | अम्ल गोरस: amla gorasah - सं० पु० माठा, तक्र, घोल । अम्ल तक्र, खट्टी छाछ । टक् घोल - बं० । बटरमिल्क ( Bnttermilk. ) -इं० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्ल चाङ्गेरी amla-changeri - सं० स्त्री" ( १ ) चांगेरी भेद । टक् श्रामरुत बं० । च० चि० ३ ० गु० तैल । ( २ ) - हिं० स्त्री० दक्खिन में इसे चौंगर कहते हैं । एक भारतीय वृद काफल है, जो अम्ल स्वादयुक्त तथा मकोय के दाने के बराबर होता है। लु० क० । अम्लटकः अम्ल चुक्रिका amla chukriká-सं० त्री० चिञ्चाम्ल, चिश्ञ्चासार, ग्रम्लीसार । तेंतुलेर अम्बल - बं० । रा०नि० ० ११ । See-chinchásárah. अम्ल न्यूडः amla chúnah - सं० पुं० ( १ ) शाकाम्ल, वृक्षास्त्र । (२) चिञ्चासार । तेंतुलेर श्रम्बल - बं० । अम्ली के रस से प्रस्तुत किया हुआ एक प्रसिद्ध गाढ़ा पदार्थ है । रा० नि० ० ११ । (३) श्रम्लशाक । चुक्र पालंक । रा० नि० । अम्लच्छद्दा amlachchhdá सं०पु० भोजपत्र वृक्ष । See - Bhojapatra. अम्लज amlaj - अ० ( १ ) श्रामला । ( Phyllanthus emblica.) अम्लज āamlaj - श्र० खनूबभेद | Seekharnub. अम्लजन amlajana-हिं० पुं० श्रोषजन, ऊष्मजन | (Oxygen. ) अम्लजन मिश्रण amlajana mishrana - हिं० पु० श्रोषजन मिश्रण । ( Oxygen mixture. ) अम्लजनीकरण amlajani-karana - हिंο पु ं० श्रोषजनीकरण । (Oxidation. ) अस्लजम्बीरः amla-jambirah - सं० पुं० ( Citrus inedica ) खट्टा नीबू, अम्लरस निम्बुक वृक्ष । टक्लेबू गाछ - बं० । इडनिम्बू -मह० । रा०नि०व० ११ । देखो - निम्बुकः । अम्लजिद amlajida - हिं० पुं० श्रोषिद, ऊष्मद। ( Oxide . ) For Private and Personal Use Only अम्लटकः amla-takah - सं० पु० श्रश्मन्तक वृक्ष । अम्ल कुचाई - बं० [हिं० | See-ashm antakah, Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लत ५३५ अम्लपत्री अम्लतamlat-१० वह मनुष्य जिसके शिर चूका, विषांबिल, और अम्लवेत इन्हें अम्ल तथा दादी के अतिरिक्र और कहीं बाल न हों। पञ्चक कहते हैं । गुण-गे खट्टे रुचिकारी कफ अम्लता amlata-हिं० स्त्री० अम्लत्व, खट्टापन । और खासी को उत्पन्न करने वाले, कड़वे और हुमू जत-अ० । तुर्शी-फा० । (Acidity, जड़ताकारक हैं, तथा विष्टम्भ, शूल, वात, शुक्र, Sourness). गुल्म और बवासीर को दूर करते हैं । अम्लजनक amla-janak हिं००(Antacid) (२) पलाम्लपञ्चकम्, विजौरा नी, जम्भीरी श्लेष्मजनक | नीय, नारङ्गी, अम्लवेत और इमली ये दूसरे पलाअम्लतूत amla-tāta-सं० पु. खट्टातूत । __ म्लपञ्चक हैं। गुण-गोफकारक मदजनक तथा See-túta विष्टंभ, शूल, गुल्म, बवासीर, शुक्र और वातअम्लतृणः anla-trinah-सं० पु. लवण तृण । नाशक हैं । रा० नि. ५० २१ । देखोलोणी। पञ्चाम्ल (फल)म् । अम्लत्वक् amla-tvak-सं० पु. चार वृक्ष । अम्ल पञ्च फलम् amla-pancha phalam प्रियाल । पियाल या चिरौंजी का पेड़ । चारोली --सं० क्लो० देखो--प्रम्लपञ्चकम् । -मह०। ( Buchananja la tifolia, chironjia sa pida. ) अम्लपत्रः amlapatrah--सं० पु. (१) अम्लदोलकः amla-dolakah-संपु० चुक। दण्डालु (क)। खाम अालु-बं० । वै० निघ० । चुकापालङ्-बं० । अम्बोटी(ती)-म० । वै० See-Dandaluh. (२) अश्मन्तक वृक्ष । fato I See--chukra (dea-Ashmantak ) रा० नि० व० अम्लद्रवः amla.dravah--सं० पु. बीजपूर ६। (३) क्षुद्रपत्र तुलसी वृक्ष । र० मा० । रस | भा० म०१ भा. जिह्मक ज्व.चि.। अम्ल पत्रम् amla-patra.m--सं० क्ली० चुक "अम्लद्रवः संशमयेद्रसज्ञां।" शाक, चूका । ( Rimex Scutatus) रा. अम्लदधिः a:hta-dadhin-संतो० खट्टा दही। नि०व०७| लक्षण-जिस दही में से मिठास जाता रहा हो अम्लपत्रक: amla-patrakah--सं०५० (१) और खट्टा तथा अव्यक्र रसयुक्त हा गया हो उसे भेण्डा, भिण्डी ( Hibiscus Esculentअम्ल दधि कहते हैं। गुगा-यह अग्नि प्रदीपक us)। (२) अश्मन्तक वृत्त-सं० । अम्ल कुचाई, पित्तवर्द्धक, रक्रबद्धक तथा कफबद्धक है। वृ० आबुटा-बं० । ( Coleus Aromaticus) नि०र०। रा०नि० व०है। मद० व० १। अम्लअम्ल-द्रव्यम् amla-dravyam ) --सं० लोणिका चका। ग्रामरूल-बं० । (Rumex अम्ल-नायकम् amla-nayakal | क्ली० Seutatus.) भा० पू० १ व०। अम्ल वेतस । थैकल-बं० । रा०नि० व० ६ । प्राम्लवेतस-मह । Ser-amla vetasah अम्लपत्रा amlapati a--सं० स्त्री० शुकला । श्रोकड़ा--बं० । See-shukralā । प० अम्लनिम्बूकः ॥mla-nimbukah-सं० पु. मु०। महाम्ल निम्बुक । गोड़ा लेबू-बं० । मीटें इरनिम्ब -मह० । वै० निघ०। अम्ल पत्रिका amla-patrika-सं० स्त्री० अम्लनिशा amla-nisha सं० स्त्री० शटी, चांगेरी, चूका । णुनी, अावेता-हिं० । क्षुदे णुनी. कचूर । शटी-बं०। ( Curcuma zedo. बं० । ( Ruinex Scutatus.) रा०नि० aria) रा०नि०। व०५। अम्लपञ्चकम् amla-panchakam-सं० क्ली० अम्लपत्री amla-patii--सं० स्त्री० (१) (1) मुख्य पाँच प्रकार के खट्टे फल बेर, अनार | पलाशी लता | See-Palashi । रा०नि० For Private and Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लपित्त अम्लपनसः ५३६ व० ४ । (२) चांगेरी, चूका । ( Rumex Scutatus ) रा० नि० व० ५। (३) शुद्रालिका-सं०। खुदे णुनी-बं० । अम्लपनसः amla-panasah--सं० पु. लिकुच वृत, बड़हर । डेलो, मान्दार गाछ-६० । श्रोटीचे झाड़-म० । वै. निघः । (Artocal pus Lakoocha.) अम्ल पर्णिका amla-parnikā -सं० अम्लपamlaparni. स्त्रो० वृत विशेष । सुरपर्णी । भा० । गुणअम्लपर्णी वात, कफ तथा शूल विनाशिनी है । ao fatto i See-Sura parní. अम्ल पादपः anla-pada pah-सं० पु. वृक्षाम्ल, अमली । तेतुल गाछ-बं० । कोवंवी -म० | व. निघ०। अम्लपित्तम् amla-pittam-सं० क्ली० । अम्लपित्त amla-pitta--हिं० संज्ञा पु. (Ilyper-acidity), सावर बाइल (Sourbile ).-३० । हुम् गत--१० । रोग विशेष। इसमें जो कुछ भोजन किया जाता है, सब पित्त के दोष से खट्टा हो जाता है। निदान पूर्व सञ्चित पित्त, पित्तकर श्राहार विहार से जलकर अम्लपित्त रोग पैदाकरता है। पित्त विवग्ध होने पर भोजन अच्छी तरह पचता नही हैं, जो । पचता है वह भी अम्लरस में परिणत हो जाता है. इसी से अम्ल प्रास्वाद होता है और खट्टी डकार श्रादि उपद्व उपस्थित होते हैं। अजीर्ण होने पर भोजन, गुरु पदार्थ घऔर देरसे पचने वाली वस्तुओं का भोजन, अधिक खट्टे और भुने द्रव्यों का खाना इत्यादि कारणों से अम्लपित्त रोग उत्पन्न होता है । कहा भी है विरुद्ध दुष्टाम्ल विदाहि पित्तप्रकोपि पानान्नभुजो विदग्धम् । पित्तं स्वहेतूपचितं पुरा यत्तदम्लपित्तं प्रवदन्ति सन्तः ॥ (मा०नि०) अर्थ-विरुद्ध (क्षीर, मत्स्यादि), दुष्ट(बासीअन्न), खट्टा विदाहि तथा पित्त को प्रकुपित करने वाले अन्नपान ( तक्रसुरादि ) के सेवन से विदग्ध (अम्लपाक) हुआ और पहिले बर्षाऋतुमें जल तथा औषधों में स्थित विदाह आदि कारणों से जो पित्त सञ्चित हुअा है, उसके दूषित होने को अम्लपित्त कहते हैं। लक्षण श्राहार का न पचना, क्रांति (थकावट वा अमित होना), वमन याना या जी मिचलाना, तिक तथा खट्टी डकार आना, देह भारी रहना, हृदय और कंठ में दाह होना और अरुचि आदि लक्षण अम्लपित्त के वैद्यों ने कहे हैं । ऊद्ध तथा अधः भेद से यह दो प्रकार का कहा गया है। ऊर्द्धगत अम्लपित्त के लक्षण उद्धगत अम्लपित्त में हरे, पीले, नीले काले, किंचित् लाल, अतिपिच्छिल, निर्मल, अत्यंतखट्टे, मांस के धोवन के जल के समान कफयुक्त लवण, कटु, तिक्र इत्यादि अनेक रसयुक्त पित्त वमन के द्वारा गिरते हैं। कभी भोजन के विदग्ध होनेपर अथवा भोजन के न करने पर निम्ब के समान कश्रा वमन होता है और ऐसी ही डकार आती है, गला हृदय तथा कोख में दाह और मस्तक में पीड़ा होती है। कफ पित्त से उत्पन्न अम्लपित्त में हाथ पैरों में दाह होता है शरीर में उष्णता अन्न में अरुचि, ज्वर, खुजली और देह में चकत्तों तथा सैकड़ों फुन्सियाँ और अन्न न पचने आदि अनेक रोगों के समूह से युक्र होता है। अधोगत अम्लपित्त के लक्षण प्यास, दाह मुर्छा भ्रम, मोह (विपरीत ज्ञान) इन्द्रियों कामोह)इनको करनेवाला पित्त कभी नाना प्रकार का होके गुदा के द्वारा निकलता है और हृल्लास (जी का मचलाना), कोठ होना, अग्नि का मन्द होना, हर्ष,स्वेद अंग का पीत वर्ण होना श्रादि लक्षणों से जो युक्त होता है उसको अधोगत अम्लपित्त कहते हैं। दोष संसर्ग से अम्लपित्त के लक्षण __ वात युक, वात कफ युक्र और कफ युक्र ये दोषानुसार, अम्लपित्त के लक्षण बुद्धिमान वैद्यों ने कहे हैं। कारण यह है कि उद्धगत में वमन For Private and Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्लपित्त और अधोगत में अतिसार के लक्षण से इसके भेदों का निर्णय करना कठिन है । अस्तु, वैद्य को विचारपूर्वक इस रोग की परीक्षा करनी चाहिए । नीचे इनमें से प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है— ५३७ वात प्रकोप जनित श्रम्लपित्त में कम्प, प्रलाप मूर्च्छा, चिउँटी काटने की सी चिमचिमाहट ( निमिनाहट ), शरीरकी शिथिलता और शूल, आँखों के आगे अँधेरा, भ्रान्ति, इन्द्रिय तथा मन का मोह और हर्ष ( रोमाञ्च ) ये लक्षण होते हैं। कफ युक्र अम्लपित्त में कफ का थूकना, शरीर का भारी रहना श्रौर जड़ता, अरुचि, शीतलता, साद ( अंग की ग्लानि, अवसान), वमन, मुख का कफ से लिप्त रहना, मन्दाग्नि, बल का नाश, खुजली और निद्रा ये लक्षण होते हैं । वात कफ युक्त अम्लपित्त में ऊपर कहे हुए दोनों के चिह्न होते हैं । कफ पित्त के अम्लपित्त में ये लक्षण होते -भ्रम (तम ), मूर्च्छा, श्ररुचि, वमन, श्रालस्य, शिर में पीड़ा, मुख से पानी का गिरना ( प्रसेक) और मुख का मीठा रहना । अम्लपित्त की साध्यासाध्यता अम्लपित्त रोग नया होने पर तो साध्य होता है, पर बहुत दिन का श्रर्थात् पुरातन याप्य ( चिकित्सा करने पर अच्छा हो जाता है, परन्तु जब चिकित्सा करना बन्द कर दिया जाता है तब उसका पुनरावर्तन होता है । ) और श्रहित श्राहार तथा अहित श्राचार वाले पुरुष का अम्लपित्त कष्टसाध्य होता है | इस रोग के एक बार उत्पन्न होने पर फिर इसका दूर होना बहुत कठिन है । श्रतएव रोग के उत्पन्न होते ही चिकित्सा करना उचित है । श्रन्यथा रोग पुराना होकर पुनः प्रायः छूटता नहीं । चिकित्सा अम्लपित्त में पटोल, अरिष्ट ( रीठा ), अडूसा, मैनफल, मधु तथा लवण ( सैंधव ) प्रभृति द्वारा ६८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'अम्लपित्त वमन कराएँ और निशोथ के चूर्ण को श्रामले के रस और शहद में मिलाकर विरेचन दें । ऊर्ध्वअम्लपित को वमन द्वारा और अधोगत को रेचन द्वारा शमन करें । यथा अम्लपिते तु वमनं पटोलारिष्ट वासकैः । कारयेत् मदनैः क्षौत्रैः सैन्धवैश्व तथा भिषक् ॥ विरेचनं त्रिवृच्चर्णं मधुधात्री फलद्रवैः । ऊर्ध्वगं वमनैर्विद्वानधोगं रेचनैर्हरेत् ॥ सा भा० म० खं० । अस्तु, वमन हेतु जल में सेंधानमक ( जरा डालकर एक पाव या श्राधसेर की मात्रा में गरम करके पीने के बाद गले में उंगली डालमेसे वमन होगा। इससे ऊर्ध्वगामी अम्लपित्त बहुत कुछ अच्छा होजाता है । अधोगामी अम्ल पित्त में सप्ताह में एक दिन वा दो दिन चौनी भर " श्रविपत्तिकर चूर्ण" चौअन्नी भर चीनी के साथ विरेचन के लिए सेवन करना चाहिए | अविपत्तिकर चूर्ण इस रोग की एक उशम औषध है । जिस दिन इसका सेवन करे उस दिन अन्य औषध सेवन नहीं करनी चाहिए, स्नानश्राहार भी निषिद्ध हैं । शाम को साबूदाना वा बारली का सेवन करें । तीक्ष्ण संस्कार वर्जित जौ या गेहूँ की बनी चीजें, लाजयुक्त ( लावा या धान की खील का सत्तू ) शर्करा वा मधु में मिलाकर पिलाने वा भूसी से साफ किए हुए जौ, गेहूँ तथा श्रामला द्वारा पकाया हुआ जल, दालचीनी, इलायची और तेजपत्र के चूर्ण मिलाकर पिलाने से अम्लपिश जन्य वमन तत्काल दूर होता है । अम्लपित्तहर श्रौषधें ( श्रमिश्रित औषधे ) अडूसा, पर्पटक ( पिशपापड़ा कुलत्थी, पाठा, यव, चन्दन, धान्य श्रामला ( रस ), नागकेशर, जीरा, करञ्ज, जम्बीर, पाटला, कदली ( फल ), ( Pyrosis ) पीतशाल, सोडियम के लवण और योग, गंधक और उसके योग, प्रातः काल त्रिफला या हरीतकी के शीत कषायों का रेचन तथा अन्य तिक्कं पिशहर द्रव्य जैसे गुडूची, For Private and Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · अम्लपित्तहर अम्लपित्तान्तक लौहः पटोलपत्र, किरोततिका (चिरायता), कटुकी, तथा हृदय, पार्श्व, एवं वस्तिशूलको नष्ट करता और धान्यक, द्राक्षा, मधुयष्टी के कषाय या योग, विशेष कर अम्लपित्त, मूत्रकृच्छ., ज्वर और भ्रम कूष्माण्ड, आमलकी, मण्डुर, लोह भस्म और का नाशक है । वै० क० द्र अभ्रक आदि के योग एवं भोजन के दो तीन घंटे | अम्लपित्तान्तक मोदक: amlapittāntakबाद क्षार शीतल जल से दिए जाते हैं। modakah-सं०० सोंठ, पीपर और सुपारी मिश्रित औषधे बत्तीस बत्तीस तोले लें । इन्हें चूर्ण कर एक में अविपत्तिकर चूर्ण, पञ्च निम्बादिचूर्ण, पिप्पली मिलाकर इसमें घृत ६४ तो०, गोदुग्ध ६४ तो०, खंड, वृहत् पिप्पली खंड, शुण्ठि खंड, सौभाग्य मिलाकर पकाएँ । पुनः लवंग, नागकेशर, कूट, शुण्ठि मोदक, खंड कुष्मांड अवलेह, अभयादि अजवाइन, मेथी, वच, चन्दन, मुलहठी, रास्ना, अवलेह, अम्ल पित्तान्तक मोदक वा सुधा, देवदारु, हड़, बहेड़ा, प्रामला, तेजपात, इलायची त्रिफला मण्डूर, सित मण्डर, पानीय भन वटी, दालचीनी, सेंधा नमक, हाऊबेर, कचूर, मयनसुधावती गुड़िका, वृहत् चुधावती गुड़िका, पञ्चा फल, कायफल, जटामांसी तथा अभ्रक, वंग, और नन गुड़िका, भास्करामृताभ्र, अम्ल पित्तान्तकलौह, चाँदी की भस्म तालीसपत्र, पनकाष्ठ, मूर्वा, सर्वतोभद्र लौह, लीलाविलास रस, दसांग, मजीठ, वंसलोचन, पीपलामूल, सौंफ, पिप्पली घृत, पटोल शुण्ठि घृत, शतावरि घृत, शतावर, कुरण्टा, जायफल, जावित्री, शीतल चीनी, नारायण घृत, दार्याद्य घृत, जीरका घृत, श्री पीपर, नागरमोथा, कपूर, वायविडंग, प्रजमोद, विस्व तैल, नारिकेल खंड, बृहन्मारिकेल खंड, खिरेटी, गुरुच, केवाच के बीज, तालमखाना, वृहत् अग्निकुमार रस, भास्कर लवण, शुरठी चन्दन, देवताड़, चतुर्धातु विधि से मारे हुए, खंड, और अम्ल पित्तारि चूर्ण। लोहा और काँसा की भस्में प्रत्येक एक एक तो० पथ्यादि-अम्लपित्त और शूल रोग से स्वर्ण की मस्म ६ मासे, इन सबको एकत्र पीड़ित व्यकि को जीवन भर आहार सुख से मिलाकर तैयार करें। वञ्चित रहना पड़ता है । उनको कडुए पदार्थों को गुण-यह छर्दि, मूर्छा, दाह, खाँसी, श्वास छोड़ अन्य कोई द्रव्य हितकर नहीं | दूध,अधिक भ्रम, वातज, पित्तज, कफज, और सन्निपातज भ्रम, नमक, खट्टा, भूना और पीसा हुश्रा द्रव्य और २० प्रमेह, सूतिका रोग, शूल, मन्दाग्नि, मूत्र- मद्य सर्वदा निषिद्ध है। कृच्छ, गल ग्रह और प्रत्येक रोगों को दूर करता अम्लपित्त हर anila pittar-hara-हिं. पु. है । भैष० अम्लपित्त० चि०। अम्लपित्तनाशक । देखो-अम्लपित्त । अम्लपित्तान्तक रस: amlapittāntaka. अम्लपित्तहारक पाक: amla pitta harraka- 1'a sah-संपु. पारद भम्म, लोह भस्म, pakah-सं०प० त्रिकुटा, त्रिफला, भांगरा, अभ्रक भस्म प्रत्येक समान भाग ले चूर्ण कर दोनो जीरा, धनिया, कूट, अजमोद, लोह भस्म, इसमें से १ मा० शहद के साथ खानेसे अम्लअभ्रक मम्म, काकड़ासिंगी, कायफल, मोथा, पित्तं नष्ट होता है ।रस० यो० सा० । इलायची, जायफल, जटामांसी, पत्रज, तालीशपत्र, अम्लपित्तान्तक लोहः amlapittāntaka. केशर, बन कचूर, कचूर, मुलहठी, लवंग, लाल Jouhah-सं० पु. (1) पारा, ताम्बा, चन्दन, प्रत्येक समान भाग ले । सर्व तुल्य सोंठ लोहे की भस्म और इन सब भस्मो के बराबर का चूर्ण, सब से द्विगुण मिश्री, गाय का दूध हड़ को पीस शहद मिलाकर एक मासा नित्य चार गुना मिलाकर विधिवत पाक बनाएँ। चाटने से अम्लपित्त शान्त होता है। मात्रा-१ तो०, पानी या दूध के साथ । भैष० अम्ल पित्त० चि०। गुण-अम्लपित्त, अरुचि, शूल, हृद्रोग,वमन, (२) यह रस अम्लपित्त नाशक है। रसे. कण्ठदाह, हृदय की जलन, शिरोशूल, मन्दाग्नि चि०। र० सा० सं०। For Private and Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साम्लपित्तान्तको रसः ५३६. अम्ललोणी अम्लपित्तान्तको रसः amlapittāntako- | अम्ल मूलकम् amla-mālakam-सं०. क्लो० rasah-सं० पु. रससिन्दूर, अभ्रभस्म, न्युषित अर्थात् बासी (धरी हुई ) कॉजी में लोह भस्म समान भाग लेकर सब के समान हड़ पकाई हुई मूली। प० प्र०३ खः । च० ० मिलाकर चूर्ण करें । मात्रा-१ मा०। शहदके संग्रहणी वृहचक्र । "युषितं काञ्जिकं पक्कं मूलक साथ उपयोग करने से अम्लपित्त का नाश होता त्वम्लमूलकम् ।" है। रस० रा० सु० अम्ल• पि० वि०। अम्लमेहः amla-mehah-स० पु. पित्तजन्य अम्लपिष्टा amla pishta-सं० पु. चांगेरी। मेहरोग भेद | पित्त प्रमेह । इसमें रोगी अम्लरस(Rumex Scutatus.) गंधयुक्र पेशाब करता है। सु० नि०६०। अम्लपूरम् amlapuram-सं० क्ली० (१) "अम्लरस गन्धमम्ल मेही।" अग्लिका।कोकमफल । तिन्तिडी । तेतुल-बं० । कोकम्बी-मं०। (२) वृक्षाम्ल रा०नि०व०६। अम्लरङ्गेच्छु श्वेताणु amla-rangechchhuअम्लपुष्पिका amla.pushpika-सं० स्त्री. shvetānu-हिं० संज्ञा पु. इअोसिनोफाइल भारण्यशण वृद्ध । जंगली सन का पेड़-हिं०। ल्युकोकाइट (Eosinophile leucocyte) वन्य शण-बं० । राणताग-म० A wild -इं० । रक में पाए जाने वाला एक प्रकार का Indian Hemp ( Crotalaria jun. | श्वेताणु । ये कण बहुरूपी मींगी वालों से कुछ cea.) वै० निघ० । बड़े होते हैं । इन कणों की मींगी या तो गोल असफलः amla-phalah-सं०प्र० श्राम्रवृत्त, होती है या नाल की भाँति मुड़ी हुई । कमी श्राम | The mango tree (Mangi कभी इसके कई टुकड़े होते हैं जो एक दूसरे से fera indica ) रा० नि० व० ११ । तारों द्वारा जुड़े रहते हैं। इनके प्रोटोनाक्रम तिन्तिडीक । नीबू भेद। (जीवोज) में बहुत मोटे मोटे दाने होते हैं अम्लफलम् amla-phalam-सं० क्ली० वृक्षा जिनमें यह गुण है कि जब कण इप्रोसीन (एक म्ल । विषांविल-हिं । तेतुल-बं०। रा०नि० प्रकार का रंग है । इसको प्रतिक्रिया अम्ल होती है।) आदि अम्ल रंगों में रँगे जाते हैं तो ये खूब व०६। गहरा रंग पकड़ते हैं। इन कणों के लिए अम्लअम्लफला amla-phala-सं० स्त्री० कत्थारिका । लघु कन्थारी-मह० । वै० निघ०।। रंगेच्छु शब्द का प्रयोग इसी कारण होता है। इन कणों की संख्या प्रति सैकड़ा २ से लक अम्ल बदरः amla-badarah-सं० पुं० अम्ल होती है। ह० श० र.। कोलिका, खट्टा बेर | टक कुल-बं० । च० सू० ४०। अम्लरुहा amla-ruhā-सं० स्त्री० मालव देश अम्लबेल amla-bela-हिं० पु. अम्ललता। प्रसिद्ध नागवल्ली भेद, ताम्बूल भेद । गुण-यह गिदड़द्राक-पं० । अमलोलवा-सं० प्र० । रुचिकारी, दाहघ्नी, गुल्महरी, मदकरी, अग्निबल( Vitis trifolia. ) बर्द्धिनी और श्राध्मान नाशिनी है । रा०नि०। अम्लभेदनः anla-bhedanah-सं० पु० (१) अम्ललता amla-lata --संत्री० अम्लवेतस । (See--Amlavetasa.) अमललता amala-lata अम्लबेल, रा०नि०। (२) चुक( Rumex Ace अमलालवा-हिं० । गिदडद्राक-पं०1( Vitis tosella.) Carnosa. Wall.) फा० ई०१ भा० । प्रमलमारोषः amla-marishah-सं०६० अम्लशाक विशेष । अम्बल नटिया-बं०। सारा | अम्ललोणिका amla-lonikan सं० खी. -हिं० । गुण-अम्लमारीष दोष कोपकारक, अम्ललोणी amla-loni (१) लोणी मधुर तथा पटु है। वै० निघ०। | विशेष । पर्याय-चाङ्गेरी, चुक्रिका, दन्तशठा, For Private and Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लराज ५४० अम्लवृक्ष, कम् अम्बष्ठा (अ)। चांगेरी । आमरूल शाक-बं० । (११) दाडिम और (१२) करमई । र० सा० चुका-म० । (Oxalis Corniculata. ) सं०। गुण-दीपन, रुचिकारी, कफवात नाशक, पित्त अम्लवल्ली,-ल्लिका amla-valli,llika-सं० कारक और खट्टी है तथा ग्रहणी, अर्श, कुष्ठ और स्त्री० त्रिपर्णीकन्द । See--Triparni-kaअतिसार का नाश करने वाली है । भा० पू० nda. १भा०। अस्लवाटकः Amla-vatakah-सं०० श्राम्रामात्रा-२-३ मा० । देखो-चाङ्गेरी।। तक, अम्बाड़ा | प्रांवाटा-मह०। (Spondias (२) चुक, पालङ्क विशेष। चुका पालङ्-बं०। __mangiferal) ० निघ०। (Rumex monadelpha ) To fol Ferlarat anla-vátá ) | अम्लवाटिका amla-Vatika-सं. स्त्री० - (३) अगलानी--हिं० । खुर्की, कुल्फा-०। अम्लवाटी amla-vati ) ( Portulaca oleracea, Linn.) अम्लरस युक नागवल्ली भेद, खट्ठा रस युक्र पान । .. देखो--लोणी। अंबोडे पर्ण-मह० । अम्ल रस विशिष्ट प्रान विशेष अम्लगज amla-rāja-हिं० पु. ( Aqual -बं । ग० नि. व. ११ । गुण-अम्ल, : rigia.) लवणाम्ल और नत्रिकाम्ल का मिश्रण, तिक, कटुरस युक्र, रूक्ष व उषण वीर्य, मुख पाक - जो अत्यन्त बलवान् धातुद्रावक है, अम्लराज ___ करने वाली, विदाहिनी, रक, पित्त कुपित करने . कहलाता है। वाली, विष्टम्भ करने वाली, और वायु नाशिनीअम्लवती amla-vati-सं० स्त्रो० (१) चाङ्गेरो! है। रा०। देखो-नागवल्ली । आमरुल-बं० । (Oxalis corniculata) अम्लवातकः-वाड़कः amla-vātakah,--va रा. नि० ५० ५। ( २ ) तुद्राम्लिका । ___dakah-सं० पु. श्रानातक, अम्बाड़ा । खुदेणुनी-बं०। (Spondias mangifera ) अम्लवर्गः amla-vargah-सं० पु. अम्लवर्ग | अम्लवाष्पः amla-vashpah-सं० पु. की ओषधियाँ निम्न हैं, यथा (1) चांगेरी, चांगेरी, चूका | Oxalis corniculatar) (२) लकुचा, (३) अम्लवेतस, ( ४ ) जम्बी वै. निघः । रक, (५) बीजपूरक ( बिजौरा नीबू ), (६) अम्लवास्तु (स्तू) कभू arla-vastu,-stu. नागरंग (नारंगी), (७) दाड़िम (अनार), | ___kam-सं० क्ली० चुक्र नामक पत्रशाक । . (८) कपित्थ ( कैथ ), (६) अम्लवीज अम्लबेतुया, टांगा बतो-बं०। रा०नि० व०७। (१०) अम्ल का, (११) अम्बष्ठा, (१२) अम्लविदुलः amla-vidulah-सं० पु० अम्लकरमर्दक, (१३ ) तिन्दुक, (१४) कोल वेतस । (Bumex vesicarius ) वै० (बेर ) और (१५) तिन्तिड़ी । देखो-रा० निघ० । नि० व० २२ । “अम्बष्ठा सहितं द्विरेतदुरितं | अम्लविवेक amla-viveka-हिं०५० (Tes. पञ्चाम्लकं तदर्य, विज्ञेयं करमईनिम्बुकयुतं ts of acids. ) अग्लपरीक्षा । देखोस्थादम्लवर्गाह्वयम् ।" रसेन्द्रसारसंग्रह के लेखक _एसिड। के मतानुसार अम्लवर्ग की अोषधियाँ निम्न हैं, | अम्लवीजम् amla-vijan-सं० क्लो० वृक्षाम्ल, यथा-(१) अम्लवेत, (२) जम्बीर, (३) तिन्तिडी । रा०नि० व०६। लुगाम्ल (मातुलुग ), (४) चणक, (५) अम्लवृक्ष,-कम् amla-vriksham,--kam अम्लका, (६) नारंगी, (७) अमली, (८) -सं० क्ली०, पु. वृक्षाम्ल, तिन्तिड़ी । भा०पू० चिञ्चाफल, (६) निम्बुक, (१०) चांगेरी, १ भा० । For Private and Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लवेतसः (क:) अम्लवेतसः अम्लवेतसः(क: ) anilavetasah,-ka h ) सं०पू०, क्लो अम्लन anlave ta-हिं० संज्ञा पु. श्रमलबेत, अम्ल बेत। यह एक प्रकार की लता है जो पश्चिम के पहाड़ों में होती है और जिसकी सूखी हई टहनिया बाजार में बिकती हैं। ये खट्टी होती हैं और चरण में पड़ती हैं। (२) चुक। चुके का शाक, चुक पालक | चुकापाल बं० । (Rumex acetosella) ए०मु०। (३) अललाणा। (Oxalis comiculata.) च० ६० काङ्काय० गु०। (४) स्वनामाख्यात लप विशेष। एक मध्यन आकारका पेड़ जो बागों में लगाया जाता है। च० द० । च०६० ज्व. चि०। “सिन्धुत्र्यूषणैः साम्ल वेतः" । च० सू०२०। संस्कृतपर्याय---अम्लः, बोधिः, रसाम्लः, श्राम्लवेतसः, वेतसारतः, अम्लसारः, शतवेधो, वेधकः,भीमः भेदनः, अल्लांकुशः, भेदी, राजाग्लः, अम्लभेदनः, रसार:, फलारलः, अम्लनायकः, सहस्त्रबेबी, वीराम्लः, गुल्मकेतुः, घराभिवः, शंख दाबी( वि), मांसदावी (रा), वरांगी (र), चुक्रः (अ), गुल्महा, रक्तस्रावि, सहस्त्रनुत् । अमलबेद, अमलवे (बे ) त ( स ), थैकल -हिं। थैकल (ड)-बं० । चूका-मह० । अम्लवेत-गु०। तुर्षक-फा०। रयुमेक्स वेसिके रियस ( Rumex vesicarius, linn.), रयुमेक्स क्रिस्पस ( Rumex crispus) -ले० । कण्ट्री या कॉमन सारेल ( Country or Common sorrel )-इं। ... अम्लवेतसवर्ग (N. 0. Polygonacec ). उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष ( कोच बिहार )। __ वानस्पतिक-वर्णन-एक मध्यम श्राकार का पेड़ जो फल के लिए बागों में लगाया जाता है। पत्र वड़ा, चौड़ा और कर्कश होता है। अषाढ़ में इसमें पुष्प लगते हैं । पुष्प स फेद होता है । शरत् काल में फल पकते हैं । फल गोल नाशपाती के आकार के, किन्तु उसकी अपेक्षा दुगुने वा तिगुने बड़े कच्चे पर हरिद्वर्ण के और पकने पर पीले और चिकने होते हैं। इसको थै कल कहते हैं। इस फल की खटाई बड़ी तीक्ष्ण होती है । इसमें सूई गल जाती है। यह अग्निसंदीपक और पाचक है, इस कारण यह चूरण में पड़ता है। यह एक प्रकार का नीबू है। कोचविहार राज्य में सर्वत्र पालवेतस के वृक्ष प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते हैं । राजनिघण्टुकार ने यथार्थ ही लिखा है, "भोट देशे प्रसिद्धम्" । हमारे देश में जिस प्रकार अाल को काट सुधाकर रखते हैं उसी प्रकार कोचविहारमें वहाँ के निवासी श्रमलथेत के पके फल (थैकल ) को काट सुखा .... कर रखते हैं। कोई कोई इस प्रकार सुखाए हुए थैकल को दीर्वकाल तक सर्पप तेल में भिगो कर रखते हैं। और इस तेल को वायु प्रशमनार्थ प्रयोगमें लाते हैं। शुष्क थैकल बहुत चिमटा होता है और सहज में चूर्ण नहीं होता। प्रयोगांश-फल । प्रभाव तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार --- अमलवेत कसेला, कटु, रूक्ष, उप्ण है तथा प्यास, कफ, वात, जन्तु, अर्श, हृद्रोग, अश्मरी और गुल्म को जीतता है । (धन्वन्तरोय निघ अम्लवेत अत्यम्ल, कषेला एवं उष्ण है और वात, कफ, अश, श्रम, गुल्म तथा अरोचक का हरण करने वाला है तथा भोट देश में प्रसिद्ध है। (रा०नि० व०६) । अत्यन्त खट्टा, भेदक, हलका, अग्निवर्द्धक, पित्तजनक, रोमांचकारक और रूक्ष है । इसके सेवन करने से हृद्रोग, शूल, गुल्म रोग, मूत्रदोष, मलदोष, प्लीहा, उदावत', हिचकी, अफरो, अरुचि, श्वास, खाँसी अजीर्ण, वमन, कफजन्य रोग और वातव्याधि दूर होती है। इससे बकरे का माँस पानी हो जाता है (अर्थात् यह छागमांस द्रावक है), और जिस प्रकार चणकाम्ल (चने के तेजाब वा क्षार ) में लोहे की सूई गल For Private and Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लधेतस ५४२ अम्लवेतन जाती है उसी प्रकार इसमें भी सूई डालने से सूई गल जाती है । (भा० पू० १ भा० ) __ अत्यन्त खट्टा, अफरा और कफ तथा वात नाशक है। यही पका हुअा (पक्वफल) दोषघ्न, श्रमध्न, ग्राही और भारी है । (राज.) अम्लवेतस के वैद्यकीय व्यवहार चरक -- भेदनीय, दीपनीय, अनुलोमक एवं वातश्लेष्मप्ररामक द्रव्यों में अम्लवेत श्रेष्ठ है। (सू० २५ अ०)। वङ्गसेन-प्लीहा में अम्लवेतस-सहिजन की जड़ की छाल का सैंधवयुक्त क्वाथ प्रस्तुत कर उसमें बहु थैकल चणं एवं अल्प पीपल व मरिच का चूर्ण मिश्ति कर लीहोदरी को सेवन कराएं । ( उदर चि.) वक्तव्य चरकमें अम्लवेतस का पाठ हृद्यवर्ग के अन्तर्गत पाया है (सू०४०)। चरक के | गुल्म चिकित्साधिकार में द्रव्यान्तर से अम्लवेतस का बहुशः प्रयोग पाया है। यथा-(१) "पुष्कर व्योष धान्याम्ल वेतस"- (२) "तिन्तिड़ीकाम्लवेतसैः” । (३) "शटी पुष्कर हिंग्वम्ल वेतस"-(चि. ५ अ०)। सुश्रु. तोक्त गुल्म चिकित्साधिकार में अम्ल वेतस का बारम्बार उल्लेख दिखाई देता है । यथा-(१) "हिंगु सौवर्चल * * अम्लवेतसैः। (२) "हिंग्वम्लवेतसाजाजी'-( उ० ३२ अ.)। अग्निमान्याधिकार के प्रसिद्ध "भास्करलवण" में अम्लवेतसका पाठ पाया है।चक्रदत्तोक्त गुल्माधिकार में "हिंग्वाद्य चूर्ण", "काङ्कायन गुड़िका" तथा "रसोनाद्य घृत' प्रादि योगों में अम्लवेतस व्यवहार में पाया है। • नोट-जिन प्रयोगों में अम्लवेतस व्यवहृत हुअा है उनमें आजकल प्रायः वैद्य उपयुक नं०१ में वर्णित लकड़ीका ही व्यवहार करते हैं। क्योंकि बाजारों में श्रमलबेत के नाम से प्रायः यही प्रोपधि उपलब्ध होतो है। यह शास्त्रोक अम्लवेतस नहीं, अपितु कोई और ही पदार्थ है। अस्तु, उपयुक्र नं. ४ में वर्णित अम्लवेतस (अर्थात् उसका शुष्क फल ) ही औषध कार्य में बाना उचित है। नव्यमत समालोचना अम्लवेतस, चांगेरी, अम्ललोणी, लोणो और चुक ये पाँची अम्ल द्रब्य हैं । अस्तु, प्राचीन अर्वाचीन दोनों प्रकार के लेखकों ने इनका परस्पर एक दूसरे के स्थान में उपयोग कर इन्हें भ्रमकारक बना दिए हैं। प्रायः सभी जगह ऐसा किया गया है। जहां अम्ललोणी का वर्णन भाया है वहीं उसके परियाय स्वरूप "चांगेरी" और "चुक्र" श्रादि संज्ञाएँ भी व्यवार में लाई गई हैं । उसी प्रकार जहाँ अम्लवेतस का वर्णन दिया है वहीं पर शेष तीन संज्ञाएं भी व्यवहृत हुई हैं। इसी प्रकार शेष भी जानना चाहिए। ऐसे अवसर पर उक्र संज्ञाओंको अपने अपने स्थानों पर मुख्य और शेष को गौण समझना चाहिए। डॉक्टर उदयचाँद एवं रॉक्सबर्ग दोनों ही ने अम्लवेतस का बंगला नाम "चुकापालङ्" लिखा है। परन्तु ध्यानपूर्वक विचारकरनेसे यह ज्ञात होता है कि उदयचाँद ने अम्लवेतस का उल्लेख ही नहीं किया है। अम्लवेतस के अर्थ में उनका किया हुआ चुक्र का प्रयोग गौण है। चुक्र का मुख्य अर्थ चुकापालङ्क है। यदि उदयनादोक्र संस्कृत नाम चुक्र एवं बंगला नाम चुकापालङ् को ठीक मान लिया जाए तो उसका लेटिन नाम अशुद्ध रह जाता है और यदि लेटिन नाम को ठीक रक्खा जाए तो संस्कृत श्रादि नाम अशुद्ध रह जाते हैं। अतः उसको अम्लवेतसही कहना उचित है; किन्तु बंगला नाम थैकल अवश्य लिखना चाहिए। यूनानी मत से-प्रकृति-सर्द व तर | हानिकर्ता-वायुवद्धक तथा कफकारक । दर्पघ्नकाली मरिच, लवण और अदरक । प्रतिनिधिखट्टा तुरा अावश्यकतानुसार । मात्रा-एक अदद। मुख्य प्रभाव-रक व पेत्तिक व्याधियों को लाभदायक है। गुण, कर्म, प्रयोग-(१) प्राय: हृद्रोगों को लाभप्रद है, (२) पित्त का छेदन करता, (३) पाचनकर्ता, (४) भामाशय को मृदुकरता, (५) शुद्धोधकर्ता, (६) रकोष्मा को For Private and Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लवेद प्रशमन करता, (७) बावगोला की वायु को | अम्लस amlas-गन्द्रोक-बं०। गंधक श्रामलालाभकरता और (८) उदरशूल को लाभप्रदान ATT I See--gandhaka, करता है, (१) यदि अजवायन खुरासानी को अम्लसरा amla-sara-सं० स्त्री० नागवल्ली सेंधानमक के साथ सात बार इसके अर्क में तर भेद, पान | (A sort of betel-leaf) करके सुखा ले तो प्रायः वातज तथा उदरीय रा०नि०व०६। व्याधियों को लाभप्रद है और इसका चूरन अम्लसारः amla-sārah-सं० पु. । सम्मिलित करना और भी गुणदायक है, (१०) अम्लसार amla-sara-हिं० संज्ञा पु. लवंग, काली मरिच, लवण, अजवायन और अम्लवेतस, अमलबेत । ( Rumex vesiअदरक को कूटकर इसमें छिद्रकर भर दें और carius) रा०नि०व०६ । (२)निम्बुक, सूर्यतापमें रखें । दो चार दिन तक उसे लकड़ी से नीबू । ( Citrus medica) रा०नि० व. चलाते रहें। सूख जाने पर इसको चूर्ण कर रखें। ११ । ( ३ ) हिन्ताल ( Hintāla) रा. इसके सेवन से ग्रह क्षुधा की वृद्धिकर्ता, आहार | नि० व० । (४) चूक, चुक्र । (५) अामलासार का पाचनकर्ता और प्लीहा को लाभ करता है ।। गंधक। म. मु०। बु० मु.। | अम्लसारं,कम्amla-sāram,-kam-संक्ल.. अमलवेद amlaveda-हिं० पु. अम्लवेत। अम्लसार amla-sāra-हिं० संज्ञा पुं० ) See--amlaveta काँजी । कालिक । चुक्र नामक काजिक भेद। वेदसः amla-vedasah-सं० पु० चुक। रा०नि०व०५See-kanjika. चुक-हिं०, ब०, द । See..chukra AFTERT: amla-skandhah-elo go अम्लशाकम् amla-shakam-सं० क्ली० () अम्लरसान्वित द्रव्य समूह अर्थात् अम्लवर्ग की वृक्षाम्ल, तिन्तिड़ी -हिं० । तेंतुल-बं० । रा० श्रोषधियाँ । वे निम्न हैं-(१) प्रामला, (२) नि० व. ६ | -५० (२) चुक नामक पत्र इमली, (३) बिजौरा, (४) अम्लवेत, (१) शाक, चका -हिं०। अम्ल कुचाइ, कट पालङ्, अनार, (६) चाँदी, (७) तक्र, (८) चूका, चुका पालङ्-बं० । (१) पारेवत, (१०) दही, (११) ग्राम, संस्कृत पाय-शाकाम्लं, शुक्राम्लः, (१२) अम्बाड़ा, (१३) भव्य, (१४) अम्ल चूक्रिका, चिञ्चाम्लं, अम्लचूड़ः, चिञ्चासारः । कैथ और (१५) करौंदा । इनके सिवा कोशाम्र, गुण-अत्यंत खट्टा, वातनाशक, दाह तथा लकुच, कुवल, झाड़ी बेर, बड़ा बेर, दही का तोड़ कफनाशक है । शर्करा के साथ मिलाकर सेवन श्रादि द्रव्य अन्य ग्रन्थकारों के मतानुसार अम्लकरने से यह दाह, पित्त, तथा कफनाशक है। वर्ग की ओषधियों के साथ वर्णित हैं । वा० सू० रा०नि० व०७। १०अ० श्लो०२६ । अम्लशाकाख्यम् amla-shākākhyam-सं० अम्ल स्तम्भनिका amla-stambbanika-सं० क्ली० चुक नामक पत्र शाक, चका । थोर चुका __ स्त्री० तिन्तिड़ी, अमली, अम्लिका। (Tamari -मह० । (Rumex Acet sella). रा० ndus Indica.) वै० निघ० । . नि० व०७। अम्लहरिद्रा amla-haridra सं० स्त्री० (१) अम्लष्टा amlashta-सं० स्त्री० चांगेरी | प्रांवोती शठी, कचर । ( Curcuma zedoaria) -मह । (Oxalis corniculata). रा०नि० व० ६ । (२) अम्बाहलदी, आँबाअम्लस amlas-अ० समधरातल, सादा, हमवार, हलदी, अाम्रहरिद्रा। (Curcuma.amada). चिकना, वह वस्तु जिसका धरातल सम तथा | अम्ला ama-सं० स्त्री० (१) चांगेरी। प्रामचिकण हो । सॉफ (Soft)-इं० रूल-बं० । (Oxalis Corniculata.) For Private and Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लाङ्कुशः अम्लारना रा० नि० व. ५ । ( २ ) वनमातुलुङ्ग | अम्लाध्युषितः anla-dhyushitah-सं० ) (Citrus medica)। (३) अम्लवेतस । प,क्ली० - ( Rumex vesicarius.) रा०नि०। | अम्लाध्युषित (रोग) amladhyushita-1 हिं० संज्ञा पु व०६। (४) श्रीवल्ली वृक्ष । वर्षा मल्लिका (१) सर्वगतानि रोग। -बं० । रा०नि०व०८। (५) तिन्तिड़ी, लक्षा-इस रोग में आँखों के बीच का अमली, अस्लिका। ( Tamarindus भाग नीला और किनारे लाल हो जाते हैं। कभी Indica.) रा०नि० व० ११ । भा० पू०१ कभी आँखें पक भी आती हैं। उनमें सूजन, दाह भा० फल व. । और पीड़ा होती है और पानी बहा करता है। अम्लाइशः am] ankushah-सं०० अम्ल. अमल अर्थात् खटाई आदि के अधिक सेवन द्वारा वेतस । ( Ramex vesicarius.) रा० होने के कारण इसको अम्लाध्युषित कहते हैं । - नि०व०६। मा०नि०। अम्लाटनः amlatanch-सं० पु. महासहा (२) करुणा निम्बुक, मीठा शरबती नीबू । वृक्ष । कटसरय्या, लालगुलमक्खन-हिं० । झाँटी Citrus decumana. ( Sweat विशेष-यं० । प्राय नाट-द० । वाण पुष्प- गौड़। life.) भाषा में प्रायना कहते हैं । (Barleria Pri- अम्लानः amlanah-सं० पु० (१) बन्धुजीवक Ponitis, Linn.). वृक्ष । बान्धुली वृत-बं०। (Gomphrena गुण-कलेला, मधुर, तिक, उघणवीर्य तथा ____globosa.) त्रिका० । (२) झिण्टिका भेद, स्निग्ध है। भा० पू० १ भा० प० व०। कटसरय्या। (Balleria prionitis, ४ ख० म० भा० योनिरो० चि। चि० क्र. . Linn.) विश्व० । (३) अम्लाटन वृक्ष । प्रायना-बं.See-amlatana । भा० म० क० वल्ली० गर्भवेदनाहर योगान्तर्गत । ४भा. योनिरो० चि.। (४) महासहा । अम्लाढयः amladhya h-सं० पु. करुण मे० नत्रिकं । (५) महाराज तरणी वृत्त । रा० निम्बुक, नारंगी। नारांगा लेबुर-गाछ-बं० । नि०व०१० । प० मु०। अम्लानम् amlana!|-सं०क्ली० पद्म, कमल । अम्लातः,-कः amla tah;--kah-सं० पु. Nymphaea nelumbo.)श०र०। अम्लाटन वृक्ष । See-amlatana h.| भा. अम्लान amlanaka , पू० १ भा० पु० २०। अम्लान्तक amlaintakaसं०पु०कटसरय्या, अम्लातकी amlataki-सं० स्त्री० पलाशीलता । arogst ( Barleria prionitis, रा०नि० । See-Palashi. Linn.) अम्लादानः amladinah-सं० प्र० करण्टक अम्लाना ainlana-सं० स्त्री० महासेवती पुष्पवृक्ष । कउसरय्या, पीयाबासा | वाणपुष्प- गौड़। वृक्ष । बड़ बन सेउती-बं०। थोर राणसेवंती ( Barleria prionitis, Linn.) ___ -मह० । वै० निघः ।। अम्लादिः amadih-सं० प'( तिन्तिडी. अम्लानिनी amlanini-सं० स्त्री० पद्म समूह । अमली, अश्लिका । ( Tamarindus पद्मिनी ।( Nymphiea lotus. ) त्रिका। Indica.) रा०नि०व० ६ । (२) चुक नामक पत्र शाक। (Country sorrel.) अम्लाम्ना amlamna-सं० स्त्री. चांगरी। रा०नि०व०७। ( Oxalis monadelpha. ) For Private and Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका अम्लायनी ५४५ अम्लायनो amlāyani-सं० स्त्री० मल्लिका भेद । नेवारी हिं०। नेवाली-मह०। वै० निघ। अम्लावल amlavala-सं० अमली, चिञ्चा, अम्लिका । (Tamarindus indica). अम्लि का amlika-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० (१) अाम्र, श्राम | (Mangifera Indica) रा०नि० व०३। (२) पलाशी लता ( Palashi )। (३) माचिका, मोइया । रा०नि० व० २३ । ( ४ ) अम्लोद्गार, खट्टा डकार । मे० । (५) अमला ( Phyllanthus emblica)। (७) श्वेताम्लिका । (८) चाङ्गरी । ( Rumex Corniculata ) रा० नि० व० २३ । (6) अर्श रोग में तिन्तिड़ी अर्थ में और सर्वत्र दीपन और पुरीषसंग्रहणादि योगों में अम्लिका श्यामरछद एवं वृद्धदारक के अर्थों में प्रयुक्त हुई है। सि० यो० अग्निमुख चूर्ण वृन्द । सि. यो० अरोच. चि०।(१०) अमली, अम्बली, इमली, कटारे-हिं० । अम्ली, अम्ली का बोट, अम्बली-द० । चिञ्चा, अम्लिका (प.), तिन्तिडीकः, तिन्तिडीका, तिम्तिड़िकं, अम्लीका, प्राम्लिका, आम्लीका, तिन्तिलीका ( अ० टी०), वृक्षाम्लं, तिन्तिड़ि: (वै० ), तिन्तिली, तिन्तिड़िका, प्राब्दिका, चुक्र, चुक्रा, चुक्र, अम्ला, अत्यम्ला, भुका, भुक्रिका, चारित्रा, गुरुपत्रा, पिच्छिला, यमदूतिका, चरित्रा ( शब्दर०), शाक चुक्रिका, सुचुक्रिका, सुतिन्तिड़ी, चुक्रिका, अम्ली, दंतशठा, चिंचिका-सं० तेतुल, तेतुल गाछ (वंश०), तितूरी, आम्ली, तेतै ( स० फा० इ० )-बं० । तम(म्)रे हिंदी, हुमर, ह मर, सबारा (स० फा. इं.), हबारा, जोश-अ० । अम्बलह, तमरोहिंदी खाये-हिन्दी-फा. | टैरिण्डस Tamarindus, टैरिण्डस इण्डिका (Ta. marindus Indica. Linn. )-moi टैरिण्ड Tamarind-ई० । टैट्रिनिएर डी' इण्डी ( Tamarinier de I' | Inde. )-फ्रा० । टैमरिण्डी ( Tama-| rindi)-जर० । पुलि, पुलियम-पज़म-ता०। चिण्ट-पण्डु, चिण्ट-चट्ट-ते०। पुलियम-पज़म ( स० फा० ई०), पुलि, पलम ( ई० मे० प्लां0)-मल । हुणिसे, हणिसिनयले, हणशेहएणु-कना० । चिंच, चिंचोक, चिञ्चा, चिण्ट्ज, इम्ली-मह । श्राम्बली, प्राम्बलीनु, चिचोर -गु० सियम्बुल-सिं०। मगि-बर्मी । श्रासामजव ( बीज )-मल०। कँाँ-उत्०, उड़ि | करङ्गी-मैसू० । इम्ली-40। टिएटज वम । तेतूलि-उड़ि। शिम्बी वर्ग (N. 0. Leguminose ) उद्भव-स्थान-एशिया के बहुत से भाग, भारतवर्ष, बर्मा तथा अफरीका (मित्र), अमेरिका और पूर्वीय भारतीय द्वीप।। ___ संज्ञा-निर्णय-इसकी अंगरेजी वा लेटिन संज्ञा टैमारिण्डस इसकी अरबी संज्ञा तमरहिंदी से, जिसका अर्थ हिन्दी खजूर है, व्युत्पन्न है। वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृक्ष से प्रायः सभी लोग परिचित हैं। इसके वृक्ष बहुवर्षीय, विशाल एवं सशाख होते हैं ।देखो-इमली । नोट-वृक्षाम्ल और तिन्तिड़ी पृथक् पृथक् वृत्त हैं । वैद्यक में इनके गुण-पर्याय पृथक् लिखे हैं । वृक्षाम्ल का पर्याय तिन्तिड़ी लिखा है, और तिन्तिड़ी के पर्यायों में वृक्षाम्ल शब्द का उल्लेख है। वृक्षाम्ल के वृक्ष उत्तर पश्चिमाञ्चल में विषाम्बिल (वृक्ष) नामसे प्रसिद्ध हैं। ये देखने में अत्यन्त शोभायमान होते हैं। पत्र दीर्घ एवं चिकण होते हैं। ये वसन्त ऋतु में फलते हैं। फल निम्बुक फलवत् होता है। वृक्षाम्ल नाम इसकी सर्वथा अन्वर्थ संज्ञा है। इस हेतु इसको "शाकाम्लं", "चूड़ाम्लं", "फलाम्लं" और "अम्लबोज" कहते हैं। यह चतुरामन तथा पञ्चाम्ल का एक अवयव है । इसका वानस्पतिक वर्ग भी यही अर्थात् वृक्षाम्ल वर्म ( Guttiferee) है। इसके पर्याय निम्न हैवृक्षाम्ल-सं० । विषा(षां)विल-हिं० । श्रमसूल, कोकम-धम्ब० । ( Garcinia For Private and Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका अम्लिका purpure:, Roxb. or Garcinia indica, Chois.)। विस्तार हेतु देखो-वृक्षाम्ल (अमसूल)। रासायनिक-संगठन-तिन्तिड़ी-फल-मज्जा में तिन्तिडिकाम्ल ( टार्टीरिक एसिड ) ५%, निम्बुकाम्ल (साइट्रिक एसिड), सेवाम्ल (मैलिक एसिड ), तथा शुक्काम्ल (एसेटिक एसिड ), पांशु तिन्तिड़ित ( टार्गेट ऑफ़ पोटासियम) ८% शर्करा २५०/० से ४०%, निर्यास और पेक्टिन प्रभृति होते हैं । बीजस्वक, (Testa) में कषायीन (टैनिकाम्ल ), एक स्थिर तेल तथा अविलेय पदार्थ होते हैं। बीज में ऐल्ब्युमिनॉइड्स, वसा, कबोज ६३.२२ °/on तन्तु और भस्म जिसमें स्फुर एवं नत्रजन प्रयोगांश-- फल (पक्क व अपक्क), मजा, बीज, पत्र, पुष्प, त्वक्, स्वभस्म क्षार। औषध-निर्माण-अम्लिकापान, अम्लिकावटक (भा०), पत्रक्वाथ-मात्रा-५ से १० तो०, स्वक्षार-मात्रा-आध पाना से एक पाना भर । इमली के गुणधर्म तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार-अमली अत्यन्त खट्टी, पित्तकारक, लघु, रक्तजनक, वात प्रशामक और परम वस्तिशोधक है। पली अमली मधुराम्ल, भेदक, विष्टम्भी और वातनाशक है। त्वक् भस्म कषेली, उष्ण, कफघ्न और वातनाशक है। (धन्वन्तरीय निघण्टु) श्राम तिन्तिड़ा ( कच्ची इमली) अत्यन्त खट्टी और पक्की इमली मधुराम्ल ( खटमिट्ठी), वातघ्न पित्त, दाह, रक्क तथा कफ प्रकोपक है। इमली की कच्ची फली अत्यन्त खटी, लघु और पित्त. कारक है । पक्व फल स्वादाम्ल, भेदक तथा विष्टम्भ और वातनाशक है । अम्ल, कटु, कघाय, उष्ण तथा कफ व अर्श का नाश करने वाली है और वात, उदररोग, तृष्णा, हृद्रोग, यच्मा, अतिसार तथा व्रण की नाशक है। रा०नि० व०६। पक्क चिश्चाफल रस (पक्क अमली का रस)-मधुराम्ल ( खटमिट्ठा), रुचिकारक, शोफ पाककर ( सूजन को पकाने वाला) और इसका प्रलेप वणदोष विनाशक है। अमली के पत्र शोफघ्न, रक्तदोष तथा वेदनानाशक हैं । इसके शुष्क त्वक् का क्षार शूल तथा मन्दाग्नि नाशक है। रा०नि० व. ११ । अपक्व अमली गुरु, वातहर, पित्त, कफ और रन, नाशक है । पक्क रेचक, रुचिकारक, अग्निप्रदीपक और वस्तिशोधक है। शुष्क हृद्य, लबु, श्रम, भ्रान्ति, और पिपासाहर है । मद० व०६। ... श्राम खट्टी, गुरु, वातनाशक, पित्तकर्ता, कफवर्द्धक और रक्कदोषनिवारक है। पकी इमली अग्निप्रदीप्त कर्ता, रूक्ष, सर ( दस्तावर ) गरम और वातश्लेष्मनाशक है । भा० पू०१ भा०। श्राम ( कच्चीइमली ) वातनाशक, उष्ण और अत्यन्त भारी है। पक्क लघु, संग्राही है तथा ग्रहणी और कफवातनाशक है । मद० २०६। अमली के पक्व फल के गुण में वृक्षाम्ल फल से थोड़ा अन्तर है । (चरक सू० २७०) इमली का फूल (चिच्चा पुष्प) कषेला, स्वाद्वम्ल और रुचिकारक, विशद, अग्निजनक, लघु तथा वातश्लेष्मनाशक और प्रमेहनाशक है। पत्र शोथहर है । नूतन इमली वात श्लेष्मकारक और वही वार्षिकी अर्थात् एक वर्ष की ( पुरानी ) वातपित्तनाशक है । ( निघंटु रत्नाकर) तिन्तड़ी के वैद्यकीय व्यवहार हारीत-शोथ पर तिन्तड़ी पत्र-तिन्तिड़ी पत्र द्वारा सिद्ध किए हुए अत्युप्ण जल में वस्त्रखंड भिगोकर किंवा पिसे हुए तिन्तिड़ी पत्र के उष्ण पिण्ड द्वारा शोथ को स्वेदन करें। यथा"संस्वेदन क्रिया कार्यासा कार्या च पुनः पुनः * अथवा तिन्सिड़ीच्छदैः" । (चि०२६ अ०) चक्रदत्त-श्ररोचक में तेतुल-(१)पकी इमली के शर्बत में गुड़ मिलाकर, मधु एवं दालचीनी, इलायची तथा मरिच चूर्ण द्वारा सुगन्धित कर मुख में इसका कवल धारण करने से अभक्त For Private and Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमिलका अम्लिका १ च्छन्द नामक अरोचक रोग प्रशान्त होता है।। यथा-"अम्लिका गुड़तोयञ्च त्वगेला मरिचा । न्वितम् । अभक्रच्छन्द रोगेषु शस्तं कवड़ | धारणम् ।" (अराचक-चि.) (२) मसूरिका में तिन्तिड़ी पत्र-हलदी और इमली के पत्र को शीतल जल में पीसकर पान करें। यह वसन्त के पक्ष में हितकर है। यथा--"निशा चिञ्चाच्छदे शीतवारिपीते तथैव तु।" ( मसूरिका-चिः (३) नव प्रतिश्याय में तिन्तिड़ी पत्रनूतन कफ रोग में इमली के पत्ते का यूपपान श्रेष्ठ है। कफ परिपक्व हो गया ऐसा जानकर इसके नस्य द्वारा शिरोविरेचन कराएँ । यथा"नवे प्रतिश्याये । शस्तो यूपश्चिञ्चादलोद्भवः । ततः पक्वं ज्ञात्वा हरेच्छीर्ष विरेचनैः ।" . (नासारोग-चि०) । भावप्रकाश-गुल्म में चिञ्चाक्षार (1) तिन्तिड़ी वृक्ष के काण्ड के स्वयं शुष्क हुए त्वक् को अन्तधूम अग्नि द्वारा दग्ध करें । पुनः उससे यथाविधि क्षार प्रस्तुत कर उचित मात्रा में सेवन कराएँ । यह गुल्म तथा अजीर्ण में प्रशस्त है। 'यथा-"पलाश वज्रिशिखरी चिञ्चार्क तिलनालजा। : यवजः स्वर्जिका चेति क्षारा अष्टौ प्रकीर्तिता:। . 'एते गुल्महराः क्षारा अजीणस्य च पाचकाः।" ...(गुल्म-चि०) . .... (२) अस्थि भग्न वा अभिघातमें अम्लिका । कच्ची इमली को पीसकर कल्क प्रस्तुत करें, फिर . उसको कॉजी और तिल तैल में पकाकर प्रलेप ... करें। किसी अंग में श्राघातजन्य वेदना होने, .. किंवा अस्थिच्युत होने पर यह प्रलेप विशेष रूप " से फलप्रद है। यथा-"अम्लिका फल कल्कैः . . सौवीर तैल मिश्रितैः स्वेदात् । भग्नाभिहत रुजाघ्नैः ।" (भग्न-चि०) वङ्गसेन--वातव्याधिमे तिन्तिड़ी पत्र-तालवृक्ष द्वारा उद्रिक तालरस में इमली के पत्र कोपीसकर सुहाता सुहाता उष्ण प्रलेप करने से वात रोगका नाश होता है । यथा-"तिन्तिड़ीक दलैः सिद्ध तालमण्डिकया सह । पिष्टवा सुखोष्णमालेपं दद्याद्वातरुजापहम् ।" ( वातव्याधि-चि०) | अम्लीकाफल-इमली के शुष्क फल संदीपक, भेदक, तृषाहर, लघु और कफ वात में पथ्य हे एवं थकावट और काति को दूर करते हैं । (वा० स० अ०६)। कच्ची इमली रक्कपित्त तथा प्रामकारक और विदाही है एवं वात व शूल रोग में प्रशस्त है । पक्क शीतगुणयुक्त है। (अत्रि० १७०) युनानी मतानुसार -- प्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल व रूत है; क्योंकि किञ्चित् संकोच के साथ इसमें अम्लत्व अत्यन्त बलिष्ठ है ( नफ़ी)। किसी किसी के मत से १ कक्षा में शीतल और २ कक्षा में रूक्ष एवं किसी के मत से तीसरे में शीतल व रूक्ष है। कोई कोई इस को मग तदिल लिखते हैं । हानिकर्ता-स्वर, कास, प्रतिश्याय और प्लीहा को एवं यह अवरोधजनक है । दर्पघ्न-खसखास, बनफ्शा, उन्नाब और कुछ मधुर द्रव्य । प्रतिनिधिबालूबोखारा(प्रारुक)। मात्रा शर्बत-४ से ५ वा ८ तो० तक । मुख्य प्रभाव-पित्त एवं रन की उल्वणता का शमन करने वाला और प्रकृति को मृदुकर्ता है। गुण,कर्म,प्रयोग-अपनी लजूजत (पिच्छिलता ) और अम्लता के कारण इमली रतूबतों (प्रक्लेद ) का छेदन करती है, पित्त के विरेक 'लाती और अपने शोधक व संग्राही गुण के कारण श्रामाशय को बल प्रदान करती है। इसमें संशोधक शक्कि विरेचक शक्ति के कारण आती है। अपनी शीतलता के कारण पिपासाहर है और अपनी संग्राही शक्ति से वमन का निरोध करती है; विशेषतः जब इसका प्रपानक वा .हिम उपयोग में लाया जाता है । परन्तु, भिगोकर बिना मले छान कर इसका पानक प्रस्तुत करना श्रेष्ठतर है या वैसे ही ज लाल लेकर शर्करा योजित कर पान करें। क्योंकि मलने पर यह ऐसा कुस्वाद हो जाता है कि वमन आने लगते हैं। (त० न०) मोर मुहम्मद हुसेन-स्वरचित मख्जनुलअद्वियह नामक ग्रंथ में लिखते हैं-इमली For Private and Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका ५४८ अम्बिका दो प्रकार की होती है-(१) लाल और (२) भूरे रंग की। इन दोनों में लाल जाति को उत्तम होती है । इसलामी हकीम इमली के गूदे को हृद्य, संग्राही, खुलासा दस्त लाने वाला, पैत्तिक वमनावरोधक, रेचन द्वारा पित्त एवं विदग्ध दोषों से शरीर को शुद्ध करने वाला मानते हैं । जुलाब लाने को जब इसका उपयोग करना हो तब इसके साथ अन्य प्रवाही बहुत थोड़े देने चाहिए। कक्षत में इमली के पानी के कुल्ल करने से लाभ होता है। बीज को उत्तम संग्राही बतलाया जाता है तथा उबाल कर विस्फोटक पर इसका उत्कारिका ( Poultice ) रूप में उपयोग किया जाता है। जल में पीस कर कास तथा काग लटक पाने में इसको शिर की चंदिया पर लगाते हैं। इसके पत्र को जल के साथ कुचल कर दबाकर रस निकालने से एक प्रकार का अम्ल द्रव प्रस्तुत होता है। इसको पैत्तिक ज्वर एवं मूत्र दाह में लाभप्रद बतलाया जाता है। प्रादाहिक : शोथों तथा वेदनाके निवारणार्थ इसकी उत्कारिका उपयोग में पाती है । नेत्राभिष्यन्द में आँख पर | इसके पुष्प की पुल्टिस बांधते हैं । पुष्पके रस का रक्तार्श में अान्तरिक उपयोग होता है। इसके वृक्ष की छाल माही और पाचक ख्याल की जाती | है। (मखूजनुल अवियह ) देशी लोग इसके वृक्ष का पवन स्वास्थ्य को हानिप्रद मानते हैं। कहते हैं कि इमली के वृक्ष के नीचे तंबू बहुत दिन रखने से उसका कपड़ा सड़ जाता है। यह भी कहा जाता है कि उसके वृक्षके नीचे अन्य पौधे भी नहीं उगते । परंतु यह सर्वव्यापक नियम नहीं। क्योंकि हम लोगों ने उसके नीचे चिरायता एवं अन्य छाया प्रेमी पौधों .' को प्रायः उत्पन्न होते हुए देखे हैं । (डीमकफा०६.१ भा०) हृदय और प्रामाशय को बल प्रदान करता, ब्रह्मास को शमन करता, मूर्छाहर, शिरोशूल को लाभप्रद और संक्रामक वायु के विष को दूर करता है। इसके बीज संग्राही और वीर्यस्तम्भक हैं। ख नाक में इसके पत्र के क्वाथ का गण्डूष कराना जाभप्रद है। शुक्रांद्रकर्ता और योनिसंकोचक है । इसकी छाल पीस कर छिड़कने से व्रणपूरण होता है । (मु० मु०, बु० मु०) एलोपेथिक मेटीरिया मेडिका तथा तिन्तिडीफलमज्जा एलोपैथी चिकित्सा में पक्क तिन्तिड़ी-फल-मजा औषधार्थ व्यवहार में पाती है। यह बिगड़े नहीं, इस हेतु, इसमें शर्करा मिलाकर रखने हैं । अम्लिका द्वारा प्राप्त अम्ल (निन्तिड़िकाम्ल ) अर्थात् टाछुरिक एसिड ( Tartaric acid) भी डॉक्टरी चिकित्सा में व्यवहृत है। प्रस्तु, देखो-एसिडम टार्टारिकम् । यह दोनों ही उन चिकित्सा प्रणाली में प्रॉफ़िशल हैं। इनमें से प्रथम अर्थात् इमली के फल के गूदे का यहाँ वर्णन किया जाता है। मिश्रण-यूरोप में कभी कभी इसमें ताम्र चूस का मिश्रण कर देते हैं। __ यह पड़ती है-कन्ने विशयो सेनी के ७५ भाग में भाग । - प्रभाव-लैकटिह ( कोष्ठमृदुकर ) तथा रेफिरजेरण्ट (शैत्यकारक ) । मात्रा-1 से १ अाउंस वा अधिक । . . प्रभाव तथा उपयोग अकेले इसका क्वचित ही उपयोग होता है। एक पाउंस की मात्रा में यह कोष्ठ मृदुकर है। इससे प्रान्त्रीय कृमिवत् प्राकुञ्चन की वृद्धि होती है। इसको शैत्यकारक बतलाया जाता है और टैमरियड ह्वे ( Tamarind whey ) या अम्लिकावारि रूप में कभी कभी ज्वरों में इसका उपयोग किया जाता है। विधि-थोड़े गरम पानी में २॥ तो० इमली का मूना मिलाकर फांट प्रस्तुत कर उसमें चौथाई दुग्ध मिलाएँ। वानस्पतिक, सेव और निम्बुक प्रभृति अम्लों की विद्यमानता के कारण इसका शैत्यकारक प्रभाव होता है। अन्य मत ज्वर में इमली का पन्ना (अम्लिकापान ) देने से तृषा कम हो जाती है और किसी प्रकार चित्त को शांति लाभ होता है । बालकों के मलावरोध में इसका मुरब्बा विशेष रूपसे लाभदायक होता है। (म० अ० डॉ० २ भा०)। • For Private and Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका अस्मिकर .... मदात्यय एवं धुस्तुरजन्य उन्मत्तता में इमली ....के फल का गूदा हितकारक है। फलस्वभस्म का उक्र प्रकार की अन्य औषधों के साथ क्षारीय दव्य रूप से औषधीय उपयोग होता है । (दत्त हिन्दु मेटीरिया मेडिका)। धतूर प्रभृति के वेग उतारने के लिए खजूर, दाख, इमली का गूदा, अनारदाना, फालसे और श्रामले सबको सम भाग ले तथा बारीक पीस और इसमें पच गुना पानी मिला अोटाकर काढ़ा प्रस्तुत कर उपयोग करना चाहिए। . मात्रा--१० ( २ अाउस ) च० द०। जिस प्रौपध के साथ यह दी जाती है उसके प्रभाव को बढ़ा देती है। परन्तु शीरा रेवन्दचीनी के साथ इसके मिलाने से उसका प्रभाव कम हो जाता है। .. कभी कभी इमली के वृक्ष से एक प्रकार का | तरल स्राव होता है, जिसको नोर कहते हैं। लगभग इसका सर्वांश काउिन खटिक (Oxal. ate of calcium) होता है। ये श्वेत स्फटिकीय पिण्ड रूप में शुष्क होजाते हैं । (फा० ई० १भा०) .. . विसीयन लोग-पेट के मरोड़ के रोग में | तथा पाचनशक्रि बढ़ाने को इमली के बीज को अन्य औषध के साथ मिला कर बर्त्तते हैं। .... सोलान (लङ्का) द्वीप में यकृत और प्लीहा की गाँठ होने में इमली के फल की एक प्रकार . की मिठाई बनाकर रोगी को देते हैं। पत्तों को . उबालकर उसको सेक करने में प्रयुक्र करते हैं।। इमली के वृक्ष के नीचे सोने से रोग होता है, ..परन्तु.नीम के पेड़ के नीचे सोने से सर्व रोग दूर | होते हैं । इमलीके गोंदका चूर्ण करके नासूर (नाड़ी व्रण)के घाव पर बुरकते हैं, इससे क्षत शीघ्रपूरित ' होजाता है । पत्तों को शीतल जल में भिगा के अभिष्यंद में खो पर तथा नासूर के घाव पर बाँधते हैं । बीज को पीस जल में मिला गाठ पर चुपड़ने से उसके भीतर तत्काल राध पड़कर वह विदीण होजाता है। के. एम० नदकारणी-प्रभाव-अपक्क फल, अत्यम्ल । पक्वफलमज्जा-शैत्यकारक, प्राध्मानहर, पाचक, कोष्ठमकर, मूल्यवान स्कर्वीहर (Antiscorbutic) और पित्तनाशक है। बाज-संग्राहक, कोमल पत्र तथा पुष्प शेत्यकारक तथा पित्तन हैं। बीज कारक वर्णीय बहिर त्वक मदु संग्राहक और वृक्षत्वक संग्राहक व बल्य है। उपयोग-एक वा दो वर्ष की पुरानी पकी इमली यकृत, श्रामाशय तथा प्रांत्रनैबत्य में हितकर है। प्रथम पक्वफल मलावरोध में लाभदायक है। भारतीय श्राहारमें इमली चटनी, कढ़ो तथा शर्बत रूप से बहुत उपयोग में प्राती है। कोष्ट मकर रूप से यह बालकों के ज्वर में भी हितकर है। इस हेतु इमली, श्रमजीर और भालुबोखारा इनका शर्बत प्रस्तुत कर १ से २ ड्राम की मात्रा में उपयोग किया जाता है। १ आउंस (२॥ तो०) इमली का फल और १ पाउंस खजूर इनको पाव सेर दुग्ध में क्वथित कर छान लें। इसमें किञ्चित् लवंग तथा इला. यची और रत्ती श्राध रत्ती कपूर सम्मिलित करने से उत्तम कोष्टमृदुकर पानक प्रस्तुत होता है। यह ज्वर अंशुघात और प्रादाहिक विकारों में लाभदायक है। __ स्कर्वी (Scurvy) के नाशन व प्रतिषेधन हेतु इमली उत्तम है। ... प्रवाहिका में इसके बीच का चूर्ण प्रयोग में श्राता है। - गुल्फ तथा संधि-शोथ पर सूजन एवं वेदना को कम करने के लिए अम्लिका पत्र को जब के साथ कुचलकर इसकी पुल्टिस बांधते हैं। तिन्तिड़ी-फल-मजा एवं पत्र को कथित कर बनाया हुआ धन शर्बत, उत्तापाधिक्य एवं दग्धजन्य शोथ के निवारणार्थ उत्तम है। मन्द क्षतों की स्वास्थ्यकर-क्रिया अभिवृद्धि के लिए इमली के पत्र का काथ धावन रूप से उपयोग में आता है। - प्रवाहिका में इसके पत्तियों के स्वरस को बाल किए हुए लोहे से चौंक कर देते हैं। पुरातन For Private and Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका ५५० अम्लिकापानम् प्रवाहिका में बीजके रक्त बाह्यस्वक् के चूर्ण को क्षत में इसका कवल हितकर है। इमली के बीज ड्राम की मात्रा में मोदक रूप से उपयोग में लाते श्राम वा रक्रातिस्गरमें व्यवहृत होते हैं। स्वयं शुष्कहैं। स्वाद हेतु इसमें तिगुना जीरा का चूर्ण भूत इमली की छाल का क्षार मूत्राम्लता तथा और पर्याप्त परिमाण में खजूर खंड डालते हैं। पूयमेह में क्षारीय औषध रूप से प्रयुक्त होता है। ___ इसकी छाल की भस्म का पाचक रूप से (भार० एन० खोरी, भा०२ प्र. २३१)। श्रान्तरिक उपयोग होता है । छाल को सैन्धव के अमिलका वृक्ष के वाह्योपरि त्वक् द्वारा साथ एक मृत्तिका पात्र में रखकर जला लें । जब वङ्गभस्म-निर्माण-क्रम श्वेत भस्म हो जाए तब चर्ण कर रखें। १ से २ सर्व प्रथम इमली वृक्ष की ऊपरी शुष्क छाल ग्रेन की मात्रा में अजीणं तथा उदरशूल की यह को एकत्रित कर उसके छोटे छोटे टुकड़े करले, एक उत्तम औषध है । मुख एवं कंठक्षत के निवा- किंतु बारीक चूर्ण न करें। फिर टाट श्रादि के रणार्थ इसकी भस्म को जल में घोल कर इसका टुकड़े की एक लम्बी थैली बनाएँ। उसमें नीचे गण्डूष कराते हैं । (इं० मे० मे०) एक अंगुल मोटा उक्त इमली के टुकडों को बिछा आर. एन. चोपरा दें और ऊपर से शुद्धवंग ( Tin ) के कण्टक इमली के बीज ( चियाँ) की बाहरी लाल वेधी पत्र के छोटे छोटे टुकड़े काटकर थोड़ी थोड़ी स्वचा प्रवाहिका एवं अतिसार की उत्तम औषध दूरी पर रख दें और ऊपर से फिर उक्र इमली के ख़याल की जाती है। अतएव १० ग्रेन (५ टुकड़ों को बिछा दें। इसी भाँति थैली को पूरी रत्तो) की मात्रा में इसके बीज का चूर्ण सम कर उसकी संधियों को भली प्रकार कस कर सी भाग जीरा व शर्करा के साथ दिन में दो तीन बार दें। पुनः कपरौटी कर सुखा ले। तदनन्तर उसे उपयोग किया जाता है । प्रादती कब्जा में इसके गजपुट में रख अग्नि दें। स्वांग शीतल होने पर पक्व फल का गूदा अत्यन्त प्रभावात्मक कोष्ट- आहिस्ते से फूल हुए वंग के टुकड़ों को एकत्रित मुदुकर गिना जाता है । नीबू के अभाव में करले। यह साराम श्वेत वंग की भस्म प्रस्तुत ऐरिस्कॉब्युटिक (Antiscorbutic) गुण होगी । के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। - उपयोग-सम्पूर्ण वीर्यरोगों यथा प्रमेह, (ई० २० ई० पृ० ५६७) शुक्रमेह, शीघ्रपतन और स्वप्नदोप प्रभ ति के हिन्दुस्तानी वैद्य-इमली को शीतल लिए रामवाण औषध है। यह सैकड़ों बार पाचक, साफ दस्त लानेवाली, दस्त की कब्ज़िायत परीक्षा में प्राचुकी है। और घर में अत्यंत उपयोगी गणना करते हैं। - मात्रा व सेवन-विधि-१ रत्ती से ४ रशी तक इमली की फली के ऊपर की छाल की राख को . उपयुक औषध वा अनुपान के साथ प्रातः सायं . खारके सदृश दवा में डालते हैं। पत्तोंको सूजन पर। सेवन करें। बाँधने से सूजन उतर जाती है। अम्लिकाकन्दः amlika-kandah-सं० पु. पक्क तिन्तिड़ी-फल-मज्जा स्कर्वी रोग प्रतिषेधक, | अम्लनालिका-म० । वै० निघ०। श्रमहर एवं मुदुरेचक है । यह ज्वर, तृष्णा, अंशु- अम्लिका(प्र)पान(क)amlikipanaka-हिं पु.) घात (सर्दी गर्मी) एवं पित्तप्रधान वान्ति रोग | अम्लिकापानम् amlika-pānam-संकी। में व्यवहृत होती है। रेचन हेतु, यह चिरकारी । तिन्तिड़ीपानक, अम्लिकाफल-प्रपानक, अमली कोष्ठबद्ध रोग में हितकर है। चोट लगने के का पन्ना । तेतुल पाना-बं०।। कारण यदि किसी अंग में सूजन हो तो कच्ची X विधि-पक्की अमली को जल में भिगोकर खूब • इमली और इमली पन को पीसकर उष्णकर ले मलले; उसमें सफ़ेद बूरा, मरिच, लौंग और और शो थयुक्त अंग पर इसका प्रलेप करें । मुख । कपूर श्रादि डालकर सुवासित करले। इसको For Private and Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका वटका ५५१ अम्लोत्पादक सेल अमली का प्रपानक (पन्ना) कहते हैं। यह | अम्लीन चिंचोर amlina-chinchor-गु० अमली का पन्ना वातविनाशक, पित्त तथा कफ- अमली,अम्लिका। Tamarind (Tama. कारक, रुचिकारक और अग्निवद्धक है । भा० पू० rindus Indica.) ई० मे० मे०। पानकवर्गः1 अम्लीयः amliyah-सं० पु. अम्लवेतस । मम्लिकावटकः amlika-vatakah-सं०। (Rumex vesicarius.) चै० निघ० । प० वटक विशेष, अमली का बड़ा (बारा)। | अम्लीय-अम्लजिद anliya-amla jida-हिं. अम्ल बड़ा-बं० पु. (Acidic Oxide.) अम्लीय भोषिद विधि-पक्की अमली को कतर कर जल में वा ऊब्मिद । यह जल में घुलकर अम्ल बनाते श्रौटाएँ और जल के साथ ही मल लें, पश्चात् हैं, और श्रोषजन तथा अधातुओं के. संयोग उस बनाए हुए पानी में बड़े छोड़ दें और नमक से बनते हैं। देखो-श्रोषिद। . मसाला श्रादि डाल दें, तो अमली के बड़े बन | अम्लुकी amluki-ब सामसुन्दर, सिरस, जाते हैं। शिरीष । (Albizziastipulata.) गुण-यह बड़े रुचिकारक और अग्निदीपक हैं। | अम्लुकी umluki- बम्ब० प्रामला । (Phylla. इनमें पूर्वोक बड़ों के भी सब गुण हैं। भा० _nthus Enblica.) मेमो० । प्र० ख०१। अम्लू anlu-पं. चोह । हक । प्रॉक्जीरिया डाइअम्लिकासार am]ika-sāra-हिं० संज्ञा पुं० Tigar ( Oxyria Digyna, Hill.), अम्ली का सस । (Acidum Tartari. ऑ० इलेटिअर (0. Elatior.), प्रॉ. cum.) रेनिफोर्मिस (O. Reniformis, IIore.) अम्लो amli-सं० स्त्री० (१) जलवेतस । वै० -ले। निघ० २ भा० मदात्यय चि. खजूरादि मन्थ । . प्रयोगांश-फल । (२) चुक्रिका-सं० । टकपालङ्-बं० । See उत्पत्त-स्थान-पाल्पीय हिमालय, सिक्किम Chukrika. । (३) तिन्तिड़ी, इमली, से काश्मीर पर्यन्त । अम्लिका । ( Tamarindus Indica.) उपयोग-चम्बामें यह कच्चा ही और चटनी रा०नि०व० ११ । भा०पू०१ भा० फल-व० । बनाकर खाया जाता है तथा शीतल ख्याल किया (४) चांगेरी। (Oxalis monadelpha.) मे० . लद्विकं । -हिं० स्त्री०, (५) अमारी जाता है । कनावार में यह औषध रूप से प्रसिद्ध (Antidesma Diandrum.)। (६) है । स्टयुवर्ट। अमलोसा । ( Bauhinia Malabarica, अम्लोटकः amlotakah-सं० पु. अश्मन्तक Rob.) मेमो०। वृक्ष । ओमरोडा-हिं० । अम्लकुचाइ-बं० । अम्लीका amlika-सं० स्त्री० (१) तिन्तिड़ी, Trato i See-Ashmantak. - अमली, अम्लिका । ( Tamarindus | अम्लाटजः amlota.jah-सं० पु. चांगेरी । Indica.) अ० टी०। (२) अम्लेोद्गार, (Oxalis corniculata.) बड़ पामरुल खट्टा डकार | सु०नि०६ अ०। पाता-बं० । च० द. चातुर्थ-ज्व० चि०। अस्लीकाफलम् amlika phalam-सं० क्ली० "अम्लोटजसहस्रेण दलेन ।" तिन्तिड़ी फल, अमली | Tamarindus | अम्लोत्तमम् amlottamam-संक्ली. दाडिम, Indica. (Fruit of-)। देखो-अम्लिका। अनार | Pomegranate (Punica अम्लीका सत amlika-sat-हिं० संज्ञा पुं० granatum.) प० मु०। अस्लि काम्ल । देखो-एसिडम् टाटीरिक अम्लोत्पादक सेल amlotpadak-sela-हिं. ( Acidum Tartaricum.). . स्त्री. ( Oxytic cell.) अम्लजनक सेल । For Private and Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्लोद्गार अम्लोद्गार amlodgara - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] खट्टा डकार । अम्लोषित amloshita-सं० पु० सर्वाक्षिगत रोग विशेष । ५५२ लक्षण - पित्त और रक्त की अधिकता वाले दोषों के कारण अन्न का सार भाग खट्टा होकर शिराओं में होता हुआ नेत्र को श्याव लोहितवर्ण का कर देता है तथा सूजन, दाह, पाक, अश्रुपूर्ण और धुंधलापन पैदा कर देता है । यथा "लेषितोऽयम् इत्युका गदाः षोडशसर्वगाः । " वा० उत्तर० श्र० १६ । अम्लोसा amlosá हि० ( १ ) अमली (Phyllanthus emblica )। (२) (Bauhinia Malabarica. Roxb.) इसका निर्यास तथा पत्र खाद्य कार्य में श्राता है। मेमो० । श्रम्ब्युलाज amlyulaj - अ० दुग्ध दन्तोद्भव । दूध के दांत निकलना । श्रम्वात् amvat - अ० ( ब० व० ), मौस, मय्यत ( ० ० ) । मृत्यु मरण । ( Death. ) अस्शाज amshaj - अ० शारीरिक धातुएँ | स्त्री तथा पुरुष वीर्य का एकत्रीभवन जो श्रमिश्रित श्रवयय का आधार बनता है । स्त्री तथा पुरुष के वीर्य का सम्मेलन । स्त्री व पुरुष वीर्य के पारस्परिक सम्मेलन से जो नुफ़ा में इख़्तिलात होता है । अम्सानिया amsániya to श्रस्मानिया ( मेमो०) बुद्शर, के (-चे) वा, बुत्थुर,, खन्ना । एफड़ा पेकिडा ( Ephedra Pachyelada, Boiss ), ए० जिरार्डिएना ( E. • Gerardiana, Wall. ) - ले० । फोक - सन० । हुम, हुमा ( फा०, बम्ब० ) । म०मोह - जापा० । खण्ड, खम-कुनवर | पफड़ा वर्ग ( N. O. Gnetaceae ) उत्पत्ति स्थान - पश्चिमी हिमालय, अफ़गानिस्तान और पूर्वी फ़ारस । नोट - इसका द्वितीय भेद, एफिड्रा वल्गेरिस ( Ephedra vulgaris, Rich. ) है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्सानिया तथा उत्पत्ति स्थान- शीतोष्ण श्रल्पीय हिमालय, युरूप, पश्चिम तथा मध्य एसिया और जापान । इतिहास - उपरोक्त दोनों पौधे मुश्किल से भिन्न है । इनमें से सानिया (E. pachyclada), एफिड्रा वल्गेरिस (E. Vulgaris) की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली एवं विषमतल ( खुरदुरा ) होता है। इनमें से प्रथम के विषय में श्री जे० डी० हूकर महोदय लिखते हैं:-- "इसके बालियों तथा पुष्प में कोई विशेष बात नहीं होती, सिवा इसके कि इसमें न्यूनाधिक हारियायुक्त बूँक्टस ( पौष्पिक पत्र ) होते हैं ।" अम्सानिया ( हुम ) की शुध्क शाखाएँ अब भी फ्रारस से भारतवर्ष में लाई जाती हैं । इसमें औषधीय गुण-धर्म होने का निश्चय किया जाता है। उक्त पौधे को प्राचीन श्रार्य (एरियन) उपयोग में लाते थे और सम्भवतः वेद वर्णित सोम यही है । ( डीमक ) वनस्पतिक वर्णन - ए० वल्गेरिस एक निम्न भूमि में उत्पन्न होने वाला, कठिन, गठा हुआ पौधा है, जिसकी जड़ें परस्पर लिपटी हुई और शाखाएँ (उत्थित, खड़ी) हरितवर्णकी होती हैं, एवं जिन पर धारियाँ पड़ी रहती हैं और जो लगभग समतल ( चिकण ) होती हैं । पौष्पिकपत्र मध्य दिक् शुण्डाकार, धारवर्जित, लोमश, क्वचित् क्षुद्र रेखाकार होता है । पुष्पाच्छादनक ( Spikelets ) 1 से 3 इंच, प्रवृन्तक, प्रायः श्रावर्त्तयुक्रः फल प्रायः मांसल, रक्तवर्ण', रसपूर्ण', पौष्पिकपत्रयुक्र और एक या दो बीजयुक्त होता है। वीज युगले अतोदर मा समोन्नतोदर होते हैं। स्वाद- (रहनी) निशोथवत् और कषाय । इनके पने वा परत काट कर दर्शक से देखने पर इनके तन्तु एक प्रकार के रक्ररस से पूर्ण लक्षित होते हैं । रासायनिक संगठन - ( या. संयोगी द्रव्य ) इसके प्रकाण्ड में एफीड्रीन ( Ephedrine ) नामक एक क्षारीय सत्व पाया जाता है जिसका संकेत १० १३ सूत्र क 'उद" नत्र, ऊ. है । श्रोषजमीकरण For Private and Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्सानिया अम्हर्टिया नोबिलिस द्वारा उक्त सत्व लोबानाम्ल ( Benzoic- समय के समीप या उससे प्रथम, जबकि तापक्रम acid ), मॉनोमीथिलअमीन ( Monome- घटने लगा हो, मूत्रस्राव होते देखा गया। इससे thylamine) और चुक्रिकाम्ल अर्थात् काष्ठाग्ल पाचन एवं प्रान्त्रिक क्रिया भी बढ़ती हुई देखी (Oxalic acid ) में विश्लेषित हो गई। पुरातन रोगियों में एफीदा का प्रभाव कम जाता है । एफीड्रीन (घुलन विन्दु वा द्रवणाङ्क प्रदर्शित होता है। श्रामवात संबन्धी गृध्रसी तथा ३०° शतांश ) को उत्ताप पहुँचाने पर प्राइसो- अस्थिसोषुम्नकांड प्रदाह के दो रोगियों में तो एफीदीन Isoephedrine (द्रवणांक ११४ ° मुश्किल से कोई प्रभाव उत्पन्न हुआ । परन्तु, यहाँ शतांश) प्राप्त होता है । डॉ० एन० नेगी । पर यह विचारणीय बात है कि उक्त दोनों ए. वल्गेरिस की टहनियों में ३ प्रतिशत अवस्थानों में ऐण्टिपाइरिन, सैलिसिलेट ऑफ कषायिन होता है। मिस्टर जे० जी० प्रेब्ल सोडा, ऐरिटफेबीन तथा सेलोल इत्यादि औषधे (1८८८). भी लाभ प्रदान करने में असफल रहीं । प्रयोगांश-जड़ और शुष्क शाखाएं। डॉ. बीक्टीन द्वारा निर्मित काथ की मात्रा यह है :-ौषध ३८५ प्राम और जल १८० औषध-निर्माण-जड़ का क्वाथ (४० में 1) ग्राम । मात्रा-प्राधा से १ पाउंस । डॉ० कोबर्ट बतलाते हैं कि एफीडीन ०.२० प्रभाव तथा उपयोग-यह परिवर्तक (रसायन), प्राम की मात्रा में कुक्कुर एवं बिल्ली की शिरा मूग्रल, प्रामाशग बलप्रद और बल्य है (इंमे० में अन्तःक्षेप द्वारा प्रविष्ट किया गया और इससे मे० ) । सर्व प्रथम डाँ० एन० नेगी (टोकियो) ने तीबू उरोजना, साांगिक आक्षेप, वाह्यचन्तु शोथ इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट की, कि ए. वल्गे- तथा नेत्रकनीनिकाप्रसार उत्पन्न होते देखा रिस में एफीडीन नामक एक क्षारीय सत्व होता गया । है, जिसमें नेत्रकनीनिका-प्रसारक गुण है, श्रम्सुल amsul-पश्चिम घाट. कोकम. भिरण्ड। तथा ऐट्रोपीन (धन्तूरीन) के स्थान में इसका Mangosteen ( Garcinia xanthउपयोग किया जा सकता है। डॉक्टर टी०वी० oxymus, Hoor.) फा० ई० १ भा० । बीटीन ने ध्यान दिलाया कि एक वल्गेरिस | देखो-दम्पिल । की जड़ तथा प्रकाण्ड द्वारा निर्मित क्वाथ रूस देशमें श्रामवात, गठिया एवं उपदंश रोग की और अम्सेल amsel-गों. कोकम, भिरण्ड-हिं० । इसके फल का स्वरस श्वासपथ सम्बन्धी रोगों की See-Kokam. प्रख्यात औषध है। अम्सेल रताम्बिसाल amsel-1ratāmbisal उग्र तथा पुरातन श्रामवात (Rheuinati- -गों० कोकम की छाल (Garcinia pursm ) के अनेक रोगियों को उन क्वाथ puria, bark of-) ई० मे० मे० । फा० का स्वयं व्यवहार कराने के पश्चात् अन्ततः वे इं०१ भा०। इस परिणाम पर पहुँचे कि उक्र पौधा पेशी एवं अम्हक am haq-अ. शुद्ध श्वेत बिना चमक संधि सम्बन्धी उग्र रोगों की प्रधान अमूल्य के जैसे चूने का रंग, गोराचिट्टा । औषध है । इससे व्यथा कम हो जाती है; नाड़ी | श्रम्हदन्दी amha-dandi-पं० श्रोड, चूची-पं०। मन्द तथा कोमल और श्वासोच्छवास सरल | मेमो०। हो जाता है।५-६ दिनमें तापक्रम स्वस्थ दशा की | ETERIÜTT 19. amherstia noble ) तरह हो जाता और संधिशोथ लुप्तप्राय हो जाता | AFERST Fifafara amherstia nobiहै। और लगभग १२ दिवस के बाद रोगी ___lis, Dr. Wall. रोग मत हो जाता है। कतिपय रोगियों में उस ई०, ले० थौका | इं० हैं. गा० । For Private and Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्हौरी अयप्प नई अम्हौरी amhouri-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० आयुर्वेद के अनुसार शिशिर, वसन्त और अस्भस जल, अर्थात् पसीना+ौरी (प्रत्य॰)] ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं का उत्तरायण काल होता बहुत छोटी छोटी फुन्सियाँ जो गरमी के दिनों में | है। यह पुरुष के बल का श्रादान काल है अर्थात् पसीने के कारण लोगों के शरीर में निकल पाती उत्तरायण में सूर्य प्रति दिन मनुष्य के बल को हैं। अँधोरी। हरण करता है। उत्तरायण में सर्यकाल में सूर्य अयः ayah-सं० पु. १... का मार्ग बदलने के कारण सूर्य और पवन अत्यन्त अय aya-हिं० संज्ञा प० (१) लोह, लोहा प्रचण्ड, गर्भ और रूक्ष हो जाते हैं और पृथ्वी के Iron ( Ferrum ) । ( २ ) अग्नि | सौम्य गुणों को नष्ट कर देते हैं। क्रम से इन ( Fire)। (३) अस्त्र शस्त्र । हथियार ।। ऋतुओं में तिक, कपाय और कटु रस उत्तरोत्तर भय aya-ता. पपड़ी-हिं० । रसबीज-कना। बलवान हो जाते हैं अर्थात् शिशिरमें तिक्र, बसन्त नविली-ते०।ववल--म०। (Holoptelea में कषाय और ग्रीष्म में कट रस बलवान हो जाते Integrifolia, Planch.) फा० इं० हैं। इस कहे हुए हेतुसे बलका पादान अग्नि रूप भा०३। है तथा इसके विपरीत वर्षा, शरद और हेमन्त प्रयङ्गौलम् ayangoulam-मल. अङ्कोल, ये तीन ऋतु दक्षिणायन कहलाती हैं। इन तीन ढेरा । (Alangium deca petalum, ऋतुओं में पुरुष के बल की वृद्धि होती है। Lam.) स० फा००। इसको विसर्ग काल कहते हैं । मेघ की वृष्टि और अयञ्चेण्डरम् ayachchenduram-ता० मण्डुर, ठंडे पवन के चलने से पृथ्वी पुष्ट और शीतल लौहकिट्ट । ( Feri peroxide.) स० हो जाती है और इस शीतलता के कारण चन्द्रमा बलवान हो जाता है और सूर्य हीनता को प्राप्त फा० इं०। होता है इस ऋतु में उत्तरोत्तर खट्टे, खारे (लवण) प्रयत्ला ayatla-पं० एइलत, एल्लाल, प्रारूड, और मधुर रस बलवान हो जाते हैं, जैसे वर्षा में अखान । खट्टा, शरद में लवण और हेमन्त में मधुर रस प्रयनम् ayanam--सं.क्ली० श्रयन ayan--हिं० संज्ञा पु. ) गात बलवान हो जाते हैं । वा० सू०३ अ.। सु० चाल । (२)A path, the half year, सू०। i.e. the sun's course north or (३) मार्ग, राह । (४) अाम । (५) south of the equator. स्थान । (६) घर । (७) काल, समय । (८) सुर्य वा चन्द्रमा की दक्षिण से अंश । (१) गाय या भैंस के थन के ऊपर का उतर वा उत्तर से दक्षिण की गति वा प्रवृत्ति वह भाग जिसमें दूध भरा रहता है । जिसको उत्तरायण और दक्षिणायन कहते हैं। अयनकाल ayana-kāla-हिं. संज्ञा प. मे० नत्रिक । [सं०] (१) वह काल जो एक अयम में नोट-बारह राशि चक्र का आधा । मकर से । लगे । (२) छः महीने का काल । मिथुन तक की ६ राशियों को उत्तरायण कहते अयनी ayani-ता० अञ्जली । पतफणस-म० । हैं; क्योंकि इसमें स्थित सूर्य वा चंद्र पूर्व से | ऐनी, अन्सजेनी-मल । हिबलसु,हेस्वा-कना०। पश्चिम को जाते हुए भी क्रम से कुछ कुछ उत्तर (Artocarpus Hirsuta, Lamk.) को मुकते जाते हैं। ऐसे ही कर्क से धन की मेमो०। संक्रांति तक जब सूर्य या चन्द्र की गति दक्षिण अयपान ayapan-हिं०,मह०, बं० ) अल्लाप-गु०॥ की ओर झुकी दिखाई देती है तब दक्षिणायन अयपानी ayapani-ता०, ते० विशल्यहोता है। अयप्पनई ayappanai-ता० कर्णी-सं०। For Private and Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुक्र प्रयम् ५५५ अयाउल्बही अयपान-हिं०, म०, बं० । ( Eupatorium अयस्कार: ayas-kārah-सं० पु. ) (1) Aya pana, Vent ) सल्फा० ई० । फा० अयस्कार ayaskāra हिं० संज्ञा पुं० । जवान इं०२ भा० । देखो-यापना । __ भाग | ( Foreleg. ) त्रिका० । (२) अयम् ayam-जा० खुम्बी, कुम्बी-हिं० । ( Ca-! लोहार । reya Arborea, Roxb. ) मेमो०। अयस्कृतिः ayaskritih-सं० स्त्री० (१) फोलाद के बारीक पत्र बनाकर लवण वर्ग से उन पर लेप अयमोदकम् aya-modakam-मल. अजवाइन-हिं० । Carum ( Ptychotis) करके जंगली कंडोंमें १६ बार खूब तपाकर त्रिफला A jowan, P. C. । स० फा० इ० | और सालसारादिगणके क्वाथ में उनको बुझाएँ । फिर इसी तरह १६ बार खैर के कोयलों में तपा अयलूरचे ayalārache-फ़ा. अगर-हिं० । कर बुझाएँ, ठण्डा होने पर उनका बहुत बारीक ( Aloe wood. ) चूर्ण कर ले, फिर गाढ़े कपड़े से छानकर भयव ayava-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] पुरीष रक्खें । बलानुसार इसकी मात्रा घी और शहद के का एक कीड़ा जो यव से छोटा होता है । (२) साथ खाएँ। इसके पच जाने पर खटाई और नमक को छोड़कर व्याधिशामक आहार करें। अयशिन्दूरमु aya-shindür imu-ता० मराडूर । इसके ४०० तो० खाने से कुष्ठ, प्रमेह, मेदवृद्धि, ( Ferri peroxide.) स० फा० ई०। शोथ, पाण्डु, उन्माद और अपस्मार नष्ट होते अयम् ayam-सं० क्ली० । (१) लौह हैं। रस. यो. सा०। (२) प्रमेह विषयक भयस ayas मात्र । लोहा। योग विशेष । वा० चि० अ० १२ प्रमेह । अयसम् ayasam " Iron (Fe- अयस्कोट: ayaskotah-सं०० मण्डूर,लौहप्रयस ayasa-हिं० संज्ञा पुं० j rum. ) किट्ट । (Ferri peroxide.) वै० निघ० । च. द० पाण्डु-चि० । रत्ना०। (२) कान्त- अयस्तम्भिनी ayastambhini-सं० स्त्री० लौह । ( Load-Stone. ) ५० मु०। शिवलिङ्गी । ( Bryonia Laciniosa.) (३) मुण्डलीह । See-mundalouhah. अयस्मयो ayasmayi-सं० त्रि० लोहे की बनी रा०नि०व०१३। देखो-लोह । __हुई । अथर्व० । सू० ३७ । ८ । का०४। अयस्कन्त ayas-kanta-हिं० पु. अयक्ष्मं ayakshmam-सं० त्रि० । अयस्कान्त ayaskānta-हिं०संज्ञा पुं. ४ श्रयदम ayakshma-हिं० वि० (१) अयस्कान्तः nyas-kāntah-सं० पु. ) ___ नीरोग, रोग रहित । (२) निरुपद्रव । बाधो (.) कान्तलौह । ग०नि०व०१२ । लौह सून्य । अथर्व । सू० २६ । १२ । का० ५। चुम्बुक, चुबक । (२) कान्त पाषाण । चुम्बक पत्थर । गुण-लेखन, शीतल,मेदकारक व विषघ्न | अया aayaa-अ० असाध्य या कष्टसाध्य रोग। है। मद० २०४ । Load stone (Ferri नोट-अया तथा दा का भेद देखो "दा " में। Oxidum magneticum.) | अयाउलयह. ayaul-bahra. -अ० अयस्कान्त शिला ayaskānta-shila-सं० मज ल बह. marzul-bahra सामुद्रिक स्त्री० कान्तलौह, लोहचुम्बक,चुम्बक । ( Ma- | ग़स् यान बह्रो ghasyān-bahri ) रोग, gnet, loadstone.) वै० निघः। समुद्रीय व्याधियाँ, दरियाई बीमारी, जहाज़ी अयस्कान्तिम् ayas.kāntim-सं० क्लो० एक बीमारी, जहाजी कै, समुद्र यात्रा करते हुए जहाज धातुतत्व विशेष । मैङ्गेनीज़ (Manganese.) में किसी किसी को मतली तथा वमन की व्याधि -इ । देखो-मैने नोज़ वा मैनेसियम्। । हो जाती है। विशेषकर वे लोग इस व्याधि से For Private and Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयाचित मायापान अधिक ग्रसित होते है जो प्रथम बार जहाज यात्रा करते हैं। सी सिक्नेस (Sea Sickness.), नॉपेथिया ( Naupathia)-इं० । अयाचित ayachita-सं क्ली. अमृत नामक श्राहार, बिना माँगी मिली वस्तु । "अमृतं स्याद याचितम्" इति मनुः । अयात अस्ल ayat-asl-अज्ञात । अयादि लेप ayādi-lepa-सं० क्ली० लोहे का | बुरादा, भांगरा, त्रिफला, और काली मिट्टी को ईख के रस में १ मास तक रख कर लेप करने से बालों का श्वेत होना बन्द होता है । वृ० नि०र०। अयातयाम ayātayāma-हिं० वि० [सं०] (१) जिसको एक पहर न बीता हो। (२) जो वासी न हो। ताजा । (३) विगत दोष । शुद्ध । (४) मनतिक्रांत काल का। दीक समय का। अयादत ayadat-अ. बीमार पुर्सी, रोगी से उसकी हालत पूछना । अयानम् ayanam-सं० क्ली० । स्वभाव, अयान ayana-हिं० संज्ञा पु. । प्रकृति, निसर्ग । नेचर ( Nature )-इं० । हारा । (२) अचंचलता। स्थिरता । -वि० [सं०] विना सवारी का | पैदल । भयान āayan-( रसा० परि०), पारद, पारा । (Mercury). अयाना ayana-मह. खाजा हिं० । कर्गनेलिया -हिं० । ( Briedelia montana ) मेमो० । प्रयापनम् ayspanam-को.] --हिं०, मह० अयापान ayapana ! बं० । अयपानि अयापना ayapana -ता०,ते। अरstrargra áyá pána | कल, तत्री-पं० अग(या)पा(प)नम्-को० । अल्लाप, एल्लिपा, अल्लापा-गु० । युपेटोरियम् प्रयापना (Eupatorium Ayapana, Vent.)-ले० । बोनसेट ( Boneset), थॉरोवर्ट (Thorough wort )-इं० । अयप्पनै-ता० । निर्विषा ।। -बं० । रामागणम्, विशल्यकरणी-सं० (वै० श० सिं.). শিল্প বা (N. 0. Compositae.) नॉट ऑफिशल ( Not official.) उत्पत्ति-स्थान-श्रमरीका वा बाजील इसका मूल निवासस्थान है; परन्तु अधिक काल से यह भारतवर्ष में भी लगाया गया है। यह पाई स्थानों, चरागाहों तथा झील एवं नदी तटों पर होता है। इतिहास-वेण्टीनाट ने इसे अमेज़न नदी (दक्षिण अमरीका की एक नदी) तट पर भी उगा हुधा पाया । इसका एक अन्य भेद युपेटोरियम् पोलिएटम् ( E. Perfoliatum ) अमरीका में ज्वरघ्न ख़याल किया जाता है। ऐन्सली इसके विषय में वर्णन करते हैं-"यह एक लघु तुप है जो सर्व प्रथम फ्रांसीय द्वीपों से भारनवर्षमें लाया गया। देशी चिकित्सकों को अब भी इसके विषय में बहुत कम ज्ञात है। यद्यपि इसके प्रिय, किञ्चित् सुगंधिमय, किन्तु विशेष गंध के कारण इसमें औषधीय गुण होने का उन्हें विश्वास है। मॉरीशियस में यह बहुत विख्यात है और वहाँ इसे परिवर्तक तथा स्कर्वीनाशक ायाल किया जाता है । इसने अन्तः रूप से औषधीय उपयोग के लिए युरूपीय चिकित्सकों को अब तक सर्वथा निराश रक्खा है। इसकी पत्तियों के शीतकषाय का स्वाद ग्राह्य एवं कुछ कुछ मसालावत् होता है और यह एक उत्तम पथ्य पेय है। ताज़ा होने पर कुचल कर मुख मण्डलके बुरे पतों के परिमार्जनार्थ प्रयुक्त करने के लिए यह सर्वोत्तम व्रणशोधक है" । डायर महोदय माननीय ऐन्सलो को सूचित करते हैं कि इसे शुष्क कर, फ्रांस जहाँ कि चीनी चाय की प्रतिनिधि स्वरूप, एक प्रकार की चाय बनाने में इसका उपयोग होता है, भोजन के लिए बोर्बन (Bourbon) द्वीप में उक्त पौधे की कृषि की जाती है। गिवर्ट ( Guibourt) के अनुसार अब यह करीब करीब विस्मृत सा होगया है। फार्माकोपिया ऑफ इण्डिया से इसके विषय में निम्न सूचना For Private and Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयापान प्रयापान मिलती है.-'यह दक्षिणी अमरीकाका एक पौधा है जो अब भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों तथा जावा लंका प्रभृति द्वीपों में उत्पन्न होता है और साधारणतः अपने ब्राज़ील संज्ञा अयापान नाम से विख्यात है। सम्पूर्ण पौधा सुगंधित किञ्चित् कटु वा कषाय स्वादयुक्त होता है। यह एक उत्तम उत्तेजक, बल्य तथा स्वेदक है । बॉटन (Bouton) के कथनानुसार मॉरीशियस (Mauritius) के औषधीय पौधों में यह सर्व श्रेष्ट प्रतीत होता है। अजीर्ण तथा ग्रान्त्र वा फुप्फुस के अन्य विकारों में शीतकषाय रूप से यह वहाँ दैनिक उपयोग की वस्तु है। उक्र द्वीप की सन् १८२४ -५६ की विशूचिका महामारी में शरीर के वाह्य भाग की उप्मा के पुनरावर्तन तथा रक्संभ्रमण शैथिल्य को दूर करने के लिए इसका अधिकता के साथ उपयोग किया गया है। सर्पदंश के प्रतिविष स्वरूप इसका अन्तः वा वहिः प्रयोग सफलता के साथ किया जा चुका है । यद्यपि सामान्य रूप से यह अज्ञात है, तथापि बोगों (बम्बई ) में प्रायः होता है और जो इसे जानते हैं वे इसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। डाइमॉक वानस्पतिक विवरण-एक लघु भूलुण्ठित सुपवत् पौधा, १ से ६ फीट ऊँचा, शाखाएँ सरल रनाभ (सुखी मायल), कतिपय साधारण बिखरे हुए (विरल ) लोमों से व्याप्त, नूतन अंकुर एक प्रकारके श्वेत वान्समीय नाव के सूचम प्रणाओंकी उपस्थिति के कारण कुछ कुछ भुर भुरे स्वरूप के होते हैं। पत्र सम्मुखवर्ती, युग्म जिनके प्राधार प्रकांड के चारों ओर संलग्न होते हैं तथा ४.५ इंच लम्बे और इंच चौड़े, मजापूर्ण, ऊर्ध्व पृष्ठ विषम (खुरदरा, अधः पृष्ठ लोमश तथा रालीय विन्दु युक्र (पी०वी० एम०), चिकने ( सम तल), भालाकार (शंकाकार क्वचित् ), प्रारीवत्, प्राधारपर पतले शिराग्याप्त होते हैं, माध्यमिक नस (शिरा) मोटी, सुती मायल, इसके मलने से अच्छी गंध पाती है। पुष्प ग्राउण्डसेलवत्, बैंगनी; गंध निर्वल तथा सुगंधिमय कुछ कुछ, इश्क्रपेचा ( Ivy ) के समान, किन्तु अधिक प्राय; स्वाद सुगंधित, कटु तथा कषाय (विशेष प्रकार का) होता है । डाइमांक । पी०वी० एम०। रासायनिक संगठन-(या संयोगी अवयव) डा० डाइमॉक महोदय के विश्लेषणानुसार इसमें दो सत्व पाए गए । इनमें से (१) एक वर्णरहित उड़नशील तैल जो ताजे पौधा को जल के साथ परिश्रुत करनेसे प्राप्त हुश्रा और (२) एक स्फटिकवत् (रवादार ) न्युट्रल ( उदासीन) सत्व जिसका नाम उन्होंने अयपानीन या प्रयापनीन (Ayapanin) रक्खा । जल में यह प्रविलेय तथा ईथर वा मधसार में विलेय होता है। इसके सूचीवत् दीर्घ रवे (स्फटिक) होते हैं। यह १५६° १६०° के उत्ताप पर सरलतापूर्वक उर्ध्वपातित हो जाता है। . प्रयोगांश-सम्पूर्ण पौधा (शुष्क पत्र, पुष्पान्वित शाखाएँ तथा कलिकाएँ वा कोंपल) औषध कार्य में प्राता है। औषध-निर्माण-पत्र-स्वरस, मात्रा-1 से १ तो। शुष्करुप-२० से ६० ग्रेन (१०-३० रत्तो) तरल सत्व-१ से २ फ्लु. डा० । घन सत्व-१० से २५ ग्रेन (५-१२॥ रत्ती ) शीत कषाय-(२० में १)-1 से २ फ्लु. पाउंस ( प्रभावावश्यकतानुसार)। युपेटोरीन (घन )-१ से ३ प्रेन ( से १॥ रत्ती)। इन्फ्युजम युपेटोरियाई ( Infusum Eupatorii)-ले०। इन्फ्यु जन अॉफ बोनसेट ( Infusion of Boneset. )-ई० । आयपान शीत कषाय-हिं० । ख्रिसाँदा प्रयापना -फा०, १०। निर्माण-विधि-एक भाग यूपेटोरियम् को १. भाग उष्ण जल में ३० मिनट तक भिगोकर छान लें। मात्रा-आधा से १ फ़्लु. पाउंस। (२) फ्लुइड एक्सट्रैक्टम् युपेटोरियम् (Fluid Extractum Eupatorium )-ले० । फ्लुइड एक्सट्रैक्ट प्रॉफ युपेटोरियम् ( Fluid Extract of Eupatorium )-50 । अयपान तरल सत्व-हिं० । For Private and Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रयापान www.kobatirth.org ५५८ खुलास हे श्रथापना सय्याल उ०। मात्रा २० से ६० मिनिम ( बूंद ) | प्रभाव तथा उपयोग प्रयापान के शुष्क पत्र तथा पुष्प कैलम्बा के समान अमूल्य तिक बल्य रूप से प्रभाव करते हैं; किन्तु इसमें स्वेदक गुण भी है । उष्ण कषाय (१ ग्राउंस से १ पाइंट पर्यन्त ) मद्यग्लास पूर्ण अर्थात् मद्य की शीशी की मात्रा में प्रति दो दो घंटे पश्चात देने से श्रत्यन्त स्वेद स्राव होता है । गुले बाबूना ( Chamomile ) के उष्ण कषाय के समान प्रायुक्त परिमाण से चतुर्गुण मात्रा में यह वामक है और विरेचक भी । वायुप्रणालीय कास, संक्रामक प्रतिश्याय तथा मांसपेशीय श्रानवात में त्वगोपरि प्रभाव हेतु इसका उपयोग किया जा चुका है और कद्दूदाना तथा केचुओं को निकालने में इसके विरेचक गुण से लाभ प्राप्त किया गया है । । ( मे० मे० हिटला ) प्रभाव में गुले बाबूना से श्रयपान की तुलना की जासकती है। सूक्ष्म मात्रा में यह उत्तेजक एवं वल्य और पूर्ण मात्रा में कोष्ठमृदुकर है । उष्ण कषाय वामक तथा स्वेदक है। शीत पूर्व ज्वर ( Ague ) की शैत्यावस्था में तथा उम्र प्रदाह जन्य विकारों से पूर्व होने वाली निर्वलता ( depression ) में इसको लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इसका शीत कषाय, उंस (पान पंचांग ) को १ पाइंट पर्यन्त जल में निर्मित किया जा सकता है तथा तीन तीन घंटे पर दो आउंस की मात्रा में इसका उपयोग किया जा सकता है। डाइमॉक । कहा जाता है कि इसमें स्कर्वीनाशक तथा परिवर्तक (रसायन) गुण भी है । अमरीका के पीत ज्वर ( yellow fever) में इसके उष्ण कषाय की बड़ी प्रशंसा की जाती है (डॉ० होज़ैक) । इसके तर सत्व की मात्रा १० से ३० मिनिम (बूंद ) है । पूर्ण मात्रा में यह कोष्ठशुद्धिकारक है | तथा इसे आमाशय वा श्रान्त्रविकार, अजीर्ण, कास तथा शीत ज्वर में देते हैं । इं० मे० मे० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यामीनून यह पौधा अमूल्य उग्रस्वेदक, बल्य, परिवर्तक, अन्तरुत्सेच नापहृ ( या पचननिवारक ) वामक, ज्वरघ्न, मूत्रल और मृदु उत्तेजक गुणों से पूर्ण है । स्वेदक प्रभाव में यह गुले बाबुना से श्रेष्ठतर है । पाचकावयवों पर यह बल्य प्रभाव प्रदर्शित करता है। इससे पित्त स्राव बढ़ जाता है । अजीर्ण त उन दशाथों में, जिनमें उत्तेजक की श्रावश्यकता होती हैं तथा सविराम, स्वल्प विराम, श्रान्त्रिक तथा श्रन्य भाँति के ज्वरों, कास, शीत, संक्रामक प्रतिश्याय, प्रतिश्याय और निर्बलता में भी यह उतेजक बल्य कहा गया है । सर्प तथा विषैले जानवरों के दंश पर इसका प्रस्तर (पुल्टिस) रूप से उपयोग होता है। पी० वी० एम० । तिक बल्य रूप से इसको आमाशय वा श्रांत्र विकार जैसे- श्रजीर्ण में बरतते हैं । श्लेष्म निस्सारक रूप से कास और संक्रामक प्रतिश्याय में इसका उपयोग करते हैं । कास में यह एक अत्युत्तम औषध है । परियायनिवारक रूप से शीत ज्वर तथा स्वेदक रूप से आमवात रोग में इसे प्रयुक्र करते हैं । म० अ० डॉ० । रपित्त, क्षय, प्रदर, अर्श, रक्तातिसार प्रभृति रक्तस्राव एवं किसी श्रंग के श्रत्र श्रादि से कट जाने पर रक्रस्राव होने में इसके पत्रस्वरस का श्राभ्यन्तर एवं वाह्य प्रयोग उपयोगी होता है । ( ० द० ) प्रतिनिधि - पाठा | अयापनाह ayápanah - हिं० ( Eupatoium Re pandum ) इं०] हैं० गा० । श्रयापनी ayápani - ता०, ते० श्ररखर पं० । रश्नेल - उ० प० सू० | (Ayapana ) मेमो० । प्रयापनीन ayapanin - इं० सत्व अथापना । देखो - श्रथापना | पान ayapan - हिं० संज्ञा पुं० अयापानी ayá páni-ता० ( Eupatorium ayapana ) अयामीनून aayáminúna — यू० अफ़ीम | (Opium)। For Private and Personal Use Only अयापना -fo Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयाया ५५६ श्रम्ला अयोयाञ् aayayaa-अ० अपाहिज, पंगु, व्यर्थ, (दवाए शरीफ) किया है। यह प्राचीन चिकि बेकाम, निर्बल, असमर्थ, शक्रिहीन, जो किसी त्सकों द्वारा योजित किया हश्रा प्रथम रेचन है। काम के योग्य न हो। तदनन्तर इसके अवयवों में समय समय पर परिअयार ayara-. पीरिस प्रोवेलिनोलिया वर्तन होता रहा है। ( Pieris Ovalifolia, D. Don.), नोट-इसका उच्चारण अयारिज या इया. ऐण्डोमेडा श्रोवेलिफोलिया ( Androm- रज दोनों होता है। eda Ovalifolia, Wall. )- ले। अयारिज फैकरा ayarij-faiqra-अ० तल्ख अयत्ला, एइलन, एल्लल, अरुर, अर्वान-पं०। अर्थात् कडू या अयारिज | यह एक तिक्र मिश्रित अञ्जिर, अंगिअर, जग्गछाल-नेपा० । पिप्राजय रेचक श्रोषध है ।म० ज० | किसी किसीने इसका -भूटि० । कंगशिश्रोर-लेए० । अर्थ 'तिकता को लाभप्रद' किया है । जब इसमें उत्पत्ति-स्थान-शीतोष्ण हिमालय, काशमीर शह म हज. ल (इंद्रायन का गूदा) सम्मिलित से भूटान पर्यन्त तथा खसिया पर्वत । किया जाता है तब इसको मुशह ह म कहते हैं। प्रयोगांश--पत्र, कलिका। यह शिरःशूल के प्रायः भेदोंके लिए लाभदायक है उपयोग-सूचमपत्र एवं कलिकाएँ बकरों के एवं भामाशय को सांद्र दोषों (अहलात गलीलिए विष हैं। कीड़ों के मारने के लिए इनका जह) से शुद्ध करता है। मेरे प्राचार्य प्रायः इसे उपयोग होता है । इनका शीत कषाय त्वग्रोगों इत रीफ़ल सगीर या इत रीफल करनीज या गुलमें उपयोग किया जाता है । ( गम्बल) कंदमें मिलाकर उपयोगमें लाते थे । योग गिम्न हैप्रयारानुतानी ayaranutāni-यू० एक अप्रसिद्ध बालका, दालचीनी, ऊदबलसाँ, हब्बबलसाँ, बूटी है । लु० क०। तज, मर तगी, तगर, केशर प्रत्येक १-१ भाग अथारुफम ayārāfas-यू० ज़र्द सोसन । तथा एलुश्रा २ भाग सबको कूट छान कर तैयार (Tris ). करें। मात्रा-७ मा० शहद तथा उष्ण जल के अयाल ayāla-हिं० पु०, स्त्री० [ तु० बाल ] साथ। घोड़े और सिंह आदि के गर्दन के बाल । केसर । नोट-कोई कोई चिकित्सक एलुश्रा को शेष [१०] लड़के वाले । बालबच्चे। औषधों के समान भाग लेकर अयारिज का प्रयाह्वम् ayāhvam-सं० क्ली. कांस्य धातु, प्रस्तुत करते हैं। इ० अ०) कासा । ( Bronze ). वै० निघ। अयारिज लुगाज़ियाayarij. lāghaziya-१० अयारिज ayarij-अ० इसका शाब्दिक अर्थ ईश्व- 'लूगाज़िया' एक हकीमका नाम है । यह अयारिज रीय प्रौपध ( दवाए-इलाही ) है, किन्तु शिरःशूल, आधाशीशी (अ॰वभेदक ), बैाह, तिब्ब की परिभाषा में रेचक श्रीपध को कहते हैं ख जाह, कर्णशूल, 'सर चकराना, (शिरोघूर्णन) और इसकी क्रिया-शक्ति (प्रभाव ) के कारण इसे बधिरता, अर्द्धा ग (फालिज), कम्पनवायु, ल. परमेश्वर (अल्लाह ) से सम्बन्धित करते हैं। क्रवा, भाई, श्वित्र तथा कुष्ठ और अन्य सर्दमाही किसी किसी के मतानुसार प्रत्येक वह औषध, जो ( श्लेष्मज ) रोगों के लिए लाभप्रद है। योग अपने ईश्वरदत्त प्रभाव के कारण रेचन लाती है, यह हैउसे 'ईश्वरीय औषध' कहते हैं। किसी किसी ग्रंथ इंद्रायनका गूदा १७॥ मा०, प्याज अन्सल भूनामें इयारज का अर्थ रेचक (वा दर्पघ्न) किया गया हुधा ( मुराब्वी), ग़ारीकून, सामूनिया,. है; क्योंकि इस योग में रेचक औषधे दर्पघ्न कुटकीश्याम, उश्शक्र, इस्क रदयून प्रत्येक १ तो. औषधों के साथ हैं। किसी किसी ने इसका | .. ३॥ मा०, अप्रतीमून, कमाजारियूस,एलुमा, गूगल अर्थ इसकी शिष्टता के कारण ठ औषध प्रत्येक १०॥ मा०, हाशा, स्य नारीक न, अनीसू, For Private and Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभयारिज हफकुरातीस अयूचा तेजपात, फरासियून, जुमदह, ( नागरमोथा), हे० च०। (२) वह वृक्ष जिसकी अयुग्म पत्तियाँ तज, सफ़ेदमिर्च, मुर्मकी, जाबशीर, जुन्दबेदस्तर, हो । जैसे बेल, अरहर इत्यादि । बालछड़, निवासालियून, .रावन्द तवील, यून | अयुक्त ayukta हिं० वि० । मिश्रित हमामा, सोंठ, उसारहे अक्सन्तीन प्रत्येक ७ मा०, | अयुत ayut-[सं०] ज़िन्तियाना, उस्तोख ह स प्रत्येक १ मा० । इने अमिलित, असंयुक्र, अलग । (२) अयोग्य, असकूट छान कर यथोचित श्वेत शहद में गधे । म्मिलन, संयोग विरुद्ध । इन्कम्पैटिबल मात्रा-१४ मा० शहद तथा उष्ण जल के ( Incompatible ). साथ | इसको प्रस्तुत करने के ६ मास पश्चात् अयुग ayuga-हिं० वि० [सं०] विषम | ताक । उपयोग में लाना चाहिए । ( इ० अ० ) | अयुत ayut-हिं० संज्ञा पुं० दस हजार की संख्या का स्थान। दस सहस्र । टेन थाउजण्ड अयारिज हफक रातीस ayarij-hufaqratis ( Ten thousand )-० । (२) उस अ. "हूफ़क्रातीस" अबकरात का नाम है । यह अयारिज शिरःशूल जो अशुद्ध वाष्पों (पाचन स्थान की संख्या | विकार सम्बन्धी दोष ) से हो, उसे नष्ट करता है अयुग्म ayugma-हिं। वि० [सं०] (1) तथा प्रामाशयिक रतूबतों को दूर करता है। योग विषम, ताक । (२) अकेला | एकाकी । इस प्रकार है अयुग्मकः ayugmakah-सं० पु. समपर्ण वृक्ष, छातिम, छतिवन । (Alstonia Schoजिन्तियाना, बालछड़, इन्द्रायन का गूदा, ज़रा- laris. R. B..) वै० निघ० । वन्द मदहर्ज, दारचीनी, तज प्रत्येक ३॥ मा०, मित्रासालियून, कमाजारियूस, उस्तो खुइस, पीप अयुग्मच्छदः ayugmachchhadah-सं० लामूल, मस्तगी प्रत्येक मा०, एलुषा ५ तो० पु. ( Alstonia scholaris, R.BR.) देखो-अयुग्मच्छद । ३॥मा० कूट छान कर तिगुने शहद में जिसके भाग उतारे गए हों, प्रस्तुत करें। अयुग्मच्छद ayugmachchhada-हिं०संचा पु. सप्तपर्ण,छातिम, छतिवन ।( Alstonia मात्रा व सेवन-विधि-६ मा० से Scholaris, R.BP.) श्र०टी०। (२) १३॥ मा० तक उष्ण जल या किसी यथोचित ___ वह वृक्ष जिसकी अयुग्म पत्तियाँ हों, जैसे बेल, काथ के साथ सेवन करें। (इ० अ० ) अरहर इत्यादि । अयास्य ayasya-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (१) अयुग्मपत्रः ayugma-patrah-सं० पुं०) प्राणवायु । (२) शत्रु । विरोधी |-वि० [सं०] अयुग्मपर्णः ayugma-parnah " । निश्चल । अटल । सप्तपण, छातिम, छतिवन । ( Alstonia प्रयिम्परत्ति ayimpa-ratti-मल. जपा पुष्प, | Scholaris, R. Br.) वै० निघ० । अढ़उल-हि । Shoeflower (Hibis. | अयुग्मबाण ayugma-bana-हिं० संज्ञा पु. cu s rojasinensis, Linn.) Ao [सं०] कामदेव । ( Cupid ). फा० ई०। . अयुग्मवाह ayugma-vāha-हि० संज्ञा पु. अयु ayu-बर० अस्थि, हड्डी। Bones [सं०] सूर्य । (Sun ). (Ossa) स. फा० ई०। । अयू ayu-तु० रीछ,भल्लूक । बीअर (Bear.)-इं० । अयुक्छदः ayuk-chhadah-सं० पु.] अयूक ayuka-तु. काक्रम जो एक मूल्यवान अयुक्छद ayukchhada-हिं०संज्ञा पु० ।। खाल है। (१) सप्तपर्ण वृक्ष, छातिम वृक्ष, छतिवन, सत-अयूचा ayucha-सं० भूताङ्कश । See-Bhu. . वन ।(Alstonia scholaris R. Br.) tankusha. . For Private and Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयुष अयोरजादियोगः भयुष ayusha-हिं० संवा स्त्री० देखो-आयुष ।। बौहकिट्ट, मण्डर । ( Ferri Peroxide.) अयूमीसुए ayumi-sue-बर० अस्थि अङ्गार, वै० निघ०। हड़ी का कोयला | Animal.charcoal | अयोनि ayoni-हिं० वि० [सं०] अनुत्पन्न । (Carbo Animalis.) स० फा०ई० । अजन्मा । 'us-यू०, रु० जङ्गार। यह खनिज तथा " अयोनिज ayonij-हिं० वि० [सं०] जो योनि कृत्रिम दोनों तरहका होता है। से उत्पन्न न हो । जीव विशेष । योनि जातभिन्न, प्रये aye -बर० (ए०व०) सुरा, मद्य, दारू, वृक्ष प्रादि। (२) अदेह। शराब | Spirit; Arrack. ( Indian | अयोभस्म योगः ayobhasma yogah-सं० Spirituous Liquor.) स० फा०१०। पु. लोह भस्म में नागरमोथे का चूर्ण मिलाकर -हिं० संज्ञा पुं० [अनु॰] स्लोथ की जाति का खैर के क्वाथ के साथ पीने से हलीमक दूर होता एक जन्तु । यह जन्तु अये अये शब्द करता है। है। नि०र०। इसीलिए इसको अये कहते हैं। प्रयोमलम् ayomalam-सं० क्ली. लोह मल, प्रयेमियात्रा aye-miyaa-बर० (ब०व०)। लौह किट, मण्डर । (Ferri Peroxide.) - मद्य, सुरा । (Spirit.) स० फा० ई०। लोहारगु वा मण्डूर-बं० । प० मु० । “अयोभयोए ayoe-बर० (ए० व०) पत्रम्-सं० ।। मलन्त सन्तप्तं ।" सि० यो० पाण्डु-चि० पत्र, पर्ण, पत्ता, पत्ती, पात-हिं० । (Leaf.) वृन्द । च० द. पाण्डु-चि०। सफा०६०। प्रयोए मियामा ayoe-miyaa-बर० (ब० व०) अयोमोदक: ayomodakah-सं० पु. लोह पत्तियाँ, पत्र, पर्ण । (Leaves.) स० भस्म, तिल, त्रिकुटा समान भाग लेकर तथा सर्व तुल्य सोनामाखी भस्म मिलाकर शहद के साथ फा०ई०। लड्डू बनाकर खाने से असाध्य पाण्डु का नाश भयोगः ayogah-सं० पु. (१) योग होता है। नि० र०, वै० चि०। प्रयोग ayoga-हिं० संज्ञा पु. का अभाव । विश्लेष | विच्छेद । अनैक्य । ( Analysis.) अयोरजः ayora.jah-सं०क्ली (1) लौहकिट, (२) कठिनोद्यम । (३) कूट (Kuta.) मण्डूर ( Ferri Peroxide.)। (२) मे० गत्रिक। लोहचूर्ण ( Iron Powder.)। च. द. पाण्डु-चि० नवायस चूर्ण । प्रयोगुड़: ayo-gudah-सं० पु. लौह गुड़िका, लोहे की गोली। (Ball of iron.) यथा अयोरजः प्रभृति चूर्णम् ayorajah prabh"वरमाशी विषविषं कथित ताम्रमेव वा । पीत riti churnam-सं० क्ली. सोंठ, मिर्च, मत्यग्नि सन्तप्तो भक्षितो वाप्ययोगुढ़ ॥" च०। पीपल, विडंग इनके चूर्ण के साथ अथवा हल्दी, त्रिफला चूर्ण के साथ समभाग लोह भस्म मिला अयोग्य ayogya-हिं० वि० [सं०] जो योग्य कर मधु के साथ खाएँ । रस० यो० सा०। न हो। अयुक्र । अनुपयुक्र । ( [ncompa-| अयोरजादि चूर्णः ayorajadi churnah-सं० tible, Incompetent.) पु. लोह चूर्ण', त्रिकुटा, विडंग, हल्दी, त्रिफला अयोग्रम् ayogram-सं० क्ली० (१) मूषल । | अथवा निसोथ और मिश्री वा इन्द्रायण की गूदी (२) वाण प्रादि (An Arrow.)। गुड़ और सोंठ मिलाकर खाने से कामला दूर (३) अस्त्र । ( A weapon.) होता है। अयोधनः ayoghanah-सं० पु. (१) एकी. अयोरजादियोगः ayorajadiyogah-सं० पु. भूत-लौहपुज, लौहकूटम्, हथौड़ी । (२) निहाई। लोह चूर्ण', हड़, हल्दी इनका चूर्ण शहद और भयोच्छिष्टम् ayochchhishtam-सं० क्ली० घी के साथ अथवा हड़ का चूर्ण गुड़ और शहद For Private and Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंयोरजादि लेपः ५६२ अंथ्यो के साथ चाटने से कामला दूर होता है । वृ० २६ वा, ३० वा, ३२ वा, ३३ वा, ३५ वाँ, नि० र०। ३६ वा, ३८ वा, तथा ३६ वा। किन्तु, शेख ने अयोरजादि लेपः ayorajādilepah-सं० प. निम्नलिखित रोगों को अय्याम गैर बा हरिथ्यह (१) लोह चूर्ण, कसीस, त्रिफला, लवंग और माना है-पहिला, दूसरा, दसवाँ, बारहवा, दारु हल्दी का लेप करने से नवीन त्वचा का रंग पन्द्रहवा, सोलहवा, तथा बीसा । पूर्ववत् हो जाता है। (२) लोहचूर्ण, काला अय्याम् बा हरिय्यह. ayyam-bāhāriyyah तिल, सुरमा, वकुची, प्रामला इनको जलाकर अय्याम् बुह रान ayyam buhran-अ. वह भांगरे के रस में पीसकर लेप करने से किलास दिवस जिनमें बुह रान ताम उपस्थित हो । वे कुष्ठ ( तांबे के समान रंग वाले कोढ़, श्वेत कष्ठ निम्नांकित ११ दिवस हैं। इनमें नवीन रोगों का भेद ) का नाश होता है। इसे जिस स्थानपर का बुह रान उपस्थित होता हैलगाना हो पहले खुजलाकर लेप करना चाहिए । अयः पान ayah-pana-सं० की द्रवीभूत | ___ चौथा, सातवा, चौदहवा, बीसा, इकोसा, तप्त लोहे का पान, अयस्पान । नर्कमें तप्त लोहे चौबीसवा, सत्ताईसवा, इक्तीसा, चौतीसा, का पान करने को कहा है। . सैतीसवा, तथा चालीसा । किसी किसी ने अयःपिण्ड ayah pinda-हिं० पु. लौह पिंड, प्रथम व द्वितीय दिवस की भी अय्याम् बह रान: लोहे का गोला। में गणना की है। पुरातन रोगों का सर्व प्रथम बुह रान चालीसवें दिन उपस्थित होता है। प्रयः शूल ayah-shula-हि.स (१) एक अस्त्र । (२) तीव्र उपताप । अय्याम् वाकुअफिवस्त ayyam-vaqaa fil: भयोवस्तिः ayo-vastih-सं० पु०, स्त्री० vast-अ० मध्यकाल जो न बा हरी (बुह रान वस्तिकर्म विशेष (A kind of enema काल) हो और न इज्ज़ारी (बुहरान सूचक दिवस) ta.)। यथा-"एरण्डमूलं निःक्वाथ्य मधुतैलं किंतु किसी घटना या प्रतिद्वन्दिता के कारण ससैन्धवम् । एष युक्त अयोवस्तिः सवचापिप्पली इनमें बुह रान गैर ताम उपस्थित हो | वे छ: फलः ॥" भा०। दिन हैं, यथा-३ रा, ५ वा, ६ घा, ११ वा, अयम ayma-ता० देखो-अयम् । १३ वा, और १७ वा, इन दिनों में कभी बुह रान उपस्थित होता है और कभी नहीं। जिन दिनों अय्याम् अन्चल ayyan.avva]--अ० रोगारम्भ काल अर्थात् प्रारम्भ रोग से तीन दिवस । में बुह रान नाक़िस (अपूर्ण ) होता तथा दुःख व चिन्ता होती है, वे निम्न ८ दिवस है, यथाअय्याम् इन्जार ayyam-inzar-अ० बुष्ह रान ६ वा, ८ वा, १० वा, १२ वा, १५ वा, १६ वा, की सूचना देने वाले दिन । इन दिनों में विशेष १८ । और १६ वा । प्रकार के परिवर्तन पाए जाते हैं जिनसे यह सूचित होता है कि उक्त रोग का अमुक दिवस | अय्यिम् ayyim-अ० - विधवा या राँड स्त्री बु.ह रान होने वाला है, यथा-नवीन रोगों में अथवा डुश्रा पुरुष, अविवाहिता स्त्री वा पुरुष । प्रथम दिवस परिपक्वता (नु माज) के प्रभाव का ___इसका बहुवचन प्रयामा हैं। नन् (Nun ) प्रगट होना चतुर्थं दिवस बुह रान उपस्थित होने की सूचना देता है। अय्यी aayyi-० रुक रुक कर बात करना, अय्याम् गैर बा हरिय्यह, ayyam-ghair- बातचीत में रुकावट होना, आजिज़ हो जाना, bāhāriyyah-१० वह दिवस जिनमें किसी वस्तु को न जानते हुए उसकी बातचीत से बुह रान उपास्थत नहीं होता | वे निम्न तेरह दिवस अवाक रहना, अय्यी तथा सिहत का भेद देखोहे-२२ वाँ, २३ वॉ, २५ वाँ, २६ वाँ, २८ वाँ, । सिहत में। For Private and Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरग अरकलेली भरंग aranga-हिं० संज्ञा पु. [ सं० ]!. स्थानिक स्वेद, आंशिकधर्म, वह स्वेद जो किसी अध्य-पूजाद्रव्य ] सुगंध । महक । विशेष अवयव में प्रादुर्भूत हो। मेरिडासिस अरंड aranda -हिं० संजा पु. रेड ( Rici- ( meridrosis )-ह० । nus Communis.) देखो-एड। शरक दम्बी aaraq-damvi-अ० रकमय स्वेदपर ara हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) कोण | स्राव होना, पसीने में शोणित श्राना, रक कोना (Corner, angle ) (२) सेवार, मिश्रित स्वेद स्त्राव होना, स्वेद में रक मिला शैवाल । (Sea-wead ) हुश्रा निकलना। हेमि डासिस ( Hemidअरह aarab-० खरगोश, खरहा, शशक । हेयर rosis)-ई। (A hare), रैबिट ( Rabbit )-इं०। अरक नाना araka-nānā-हिं० संग्रा पु. अएर aaraar-अ० ( 1 ) सरोकोही [अ० अर्क न अ न ] एक श्ररक जो पुदीना -~-का० । हाऊयेर, हपु(बु)पा--हिं० । और सिरका मिलाकर खींचने से निकाला (Juniperi fructus. ,यह दो प्रकार | ___जाता है। का होता हैं-( क ) वृहत् जिसका अरकर āraqab-अ० पर्वतीय अर्थात् पहाड़ी फल फ्रिन्नक के समान होता है और (ख ) लघु बकरा, गाय या बारहसिंगा। जिसका फल बाक़ला के बराबर गोल होता है। अरक बादियान araka-badiyan--हिं० (२) खजूर ( Date ) । (३) अभल | ___ संज्ञा पु'० [अ०] सौंफ का अरक । अरइल availa--हिं० संज्ञा पुं॰ [देश ] एक | अरक बोलो āaraq-bouli-अ० मूत्रीयधर्म, वृत्त का नाम । पेशाबमय स्वेद, वह स्वेद जिसमें मूत्रद्रव्य अरई arai-हिं० स्त्री० आलुकी, घुइयाँ, अरुई। विसर्जित हो । ऐसे स्वेद में से मूत्र की सी गंध : ( The root of Arum colocasia.) पाती है। यूरिडासिस ( Uridrosis) अरऊन araun-हि०पू० अहटणी, अहरन । भरकः arakah-सं० पु, क्ली० ।। अरक araka-हि० संज्ञा पु. (१)शवाल, अरक मुतलवन āaraq-mutalavvan- सेवाएँ । (Sea wead ) हारा० । वै. अ० वर्णयुक्र स्वेद, रंगीन पसीना, रंगीन पसीना . निघः । (२) क्षेत्रपर्पट, खेतपापड़ा । (Olde- आना । क्रोमिड्रॉसिस ( Chromidrosis) · nlandia corymbosa.) रा०। श्ररक मुन्तिन aaraq-muntin- ! - अरक़ āaraq-० अरक मन्तिन aaraq-mantin | धर्म, पसीना । पाइरेशन(Perspiration), __दुर्गन्धित स्वेद, दुर्गन्धमय पसीना । ब्रोमिडासिस स्वीट (Sweat)-इं० । (२)परिस्रुत जल, टप- (Bro nidrosis)-ई० । काया हा पानी. भभके से खींचा हा औषधीय | अरक मफरित aaraq-mufrit-अ. स्वेदाजल । किसी पदार्थ का रस जो भभके से खींचने धिक्य, पसीने की अधिकता, अधिकता के साथ से निकले । एक्का (Aqua.), वाटर ( Wa- स्वेदस्राव होना । एफि डोसिस (Ephidrosis) ter )। देखो-अर्क । (३) रस। हाइपरिड्रॉसिस ( Hyperidrosis ), अरककुद्र मी arak-kudrumi-सन्ता. लाल स्युडोरेसिस (Sudoresis )-इ। पटुश्रा, लाल अम्बाड़ी । (Hibiscus sabd- अरकला arakala-हिं० संज्ञा पुं० [सं० arffa) ई० मे० प्लां। अर्गल-अगरी वा बेंड़ा ] रोक। मर्यादा । सापक जुज़ई aaraq-juzi अरकलियान araqliyan-यू० खुशखाश जुब्दी। अरक मौजई aaraa-mouzaai y-१० | अरक लेली aaraq-laili-अ० रात्रि स्वेदस्राव, अरक araka- हिं• संवा पु. १ () स्वेद, For Private and Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरकाकिया भरघट्टक रात में पसीना पाना, जैसा कि राजयक्ष्मा में | अरकोल arakola-हिं० संज्ञा० पु. [सं० प्रायः होता है । नाइट स्वीट ( Night कौलीरा ] एक वृक्ष जो हिमालय पर्वत पर होता SWeat)-ई । है। इसका पेड़ झेलम से अासाम तक २००० अरकाकिया arakākiya-यू. मकड़ी का जाला ।। से ८००० फुट की ऊँचाई पर मिलता है। ( The Spider's web ). अरकासार arakāsāra-हिं० संज्ञा पु. [?] तालाब । बावली । -डि । अरकान araqan-यू० अरकन araqun- यु, । मेंहदी । (Myrtus | अरग araga-हिं० संशा पु० [सं० अगरू-एक M..... " " communis). चन्दन ] अरगजा । पीले रंग का एक मिश्रित अरकान arakan-बारहसिंगा | A stag | द्रव्य जो सुगंधित होता है। (Cerous elaphus ). अरगजा aragaji-हिं. संशा पुं० [हिं० अर कुहम् aaraquddam-१० रक्रमय स्वेद- अरग+जा ] एक सुगंधित द्रव्य जो शरीर में स्राव, स्वेद के स्थान में रख निक्लना, यह एक लगाया जाता है। यह केशर चन्दन कपूर आदि रोग है जिसमें स्वेद के स्थान में शुद्ध शोणित को मिलाने से बनता है। (A perfume of निकलता है। हेमेटीड्रासिस ( Hemati. a yellowish colour and compoun drosis )-501 ded of seeral sccented ingre. परकुल arakul-पं० दखमिला, दसविला-उ० dients.) प० सू० । अरगजी aragaji-हिं० संज्ञा पुं० [हिं० अरक न araqun-यू. मेंहदी । ( Myrtus | अरगजा] एक रंग जो अरगजे का सा होता है। communis. ) वि० [हिं० अरगजा] (1) अरगजी रंग का । अरकलस araqilas-य० अभल, हाऊबेर, (२) अरगजा की सुगंधि का । __ हपु(च)षा । (Juniperi fructus. ). अरगट aragata-हि० संशा पु. [ ] परस्टियम-लेप्पा arctium lappa-लेप्पा दे०-अर्गटा । (Ergota). (Burdock.)-ई० । | अरग़वाँ araghavai-फा० अर्गवाँ-फा० । अरक्टोस्टेफिलोस ग्लाका arctostaphylos | अरग़वानी araghavani-हिं० संशा पुं० glauca-ले० ( Manzanita lea. [फा०] रक्त वर्ण । लाल रंग। वि० (.) ves )-इं०। गहरे लाल रंग का । लाल । (२) बैंगनी । अरक्टोस्टेफिलोस यवा अर्साई arctosta. अरगल aragala-हिं० संशा पु. [ सं. phylos uva ursi-ले० मल्लक द्राक्षा, ऋक्ष अर्गल ] वह लकड़ी जो किवाड़ बद करने पर द्राक्षा-सं० । इनबुद्दुब, प्राबिस-१०। इस लिए बाड़ी लगाई जाती है कि वह बाहर से अरक्तः araktah-सं० पु. लाक्षा, लाख, लाही। खुले नहीं। व्योंडा । गज । ला-बं०। ( Lac ) रा०नि व० ६ । देखो- अरगामूनी araghāmuni-यू० वन पोस्ता, अलकः । मामीसा सुख ( जंगली खसखास के सरस एक अरक्रक् āarakrak-१० मांसल तथा उभरा बूटी है)। हुआ पेडू। अरगू aragu-का० लाख, लाक्षा। Lac (Co भरखर arakhar-पं० गहुम्बल, अकोरिया, ccus lacca. ) मलियून । उ०प० सू० । मेमो०। अरघट्ट araghatta भरखर arakhar-40 दखमिला, दसविला । अरघट्टक araghattakaj }-हिं० संचा पु. उ०प० सू० । मे० मो०। [सं० ] रहट । देखो-"अरहद" arahata, For Private and Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरग्वधः भरङ्गका अरग्वधः aragvad hah-सं० पु. अमल तास, श्रारम्वध, धन बहेड़ा । ( Cassia fistula.) रा० नि०व०६ । भा० पू०१। भा० । द्रव्य० गु० ३० निघ०। अरग्वधम् aragvadham-सं० क्ली. अमल तास, स्वर्णालुफल । (Cassia fistula. ) सि० यो० वृहद् अग्निमुख चूर्ण । अरघान alaghāna-हिं० संज्ञा पुं० [सं. आघ्राण=घना ] गंध । महक । आघ्राण । अरङ्गः,-गा,-गोaringah,-ga-gi-सं००, स्त्रो० (१) एरङ्गीमत्स्य, मछली भेद, मछली विशेष ( Pisces.) वै० निघ० । (२) मधु शिग्रुः, मी सहिजन । रत्ना०। ( Guilandina Moringa, Sweat var. of-) पर aranga-वरार० कुटकी, भोण्डर, गोण्डा। नार-चोटकु-ते । (Eriolwna Hookeriana, W&.1; Syn. Ereolena ipsctabilis Planch.) इसके तन्तु एवं रुई व्यवहार में प्राती है। मेमो०। भरङ्गक:arangakah-सं०पु० दिनकर्लिग, कडु खजूर, काला खजूर-हिं० । मीलिया ब्य बिया ( Melia dubia, Cav. ), मी. सुपर्बा ( Melia superba. ), st. stagr (Me. lia robusta.)-ले० । कहु खजुर-गुज०, बं०, बम्बई । निम्बर-मह० । काड-बेधु, भर-बेवु-कना०। निम्ब वर्ग ( N.O. meliaceae ) उत्पत्ति-स्थान-पूर्वी व पश्चिमी प्रायद्वीप | ब्रह्मा तथा लंका। वानस्पतिक-विवरण-दिनकलिंग वृक्ष के शुष्क फल को संस्कृत में अरङ्गक ख्याल किया जाता है। प्राकार, रूप तथा वर्ण में यह बहुत कुछ खजूर के समान होताहै, परन्तु ध्यानपूर्वक परीक्षा करने पर मज्जा एक अत्यन्त कठिन अस्थि ( गुठली ) से भली भाँति संश्लिष्ट पाई जाती है। फल डण्डी का अवशिष्ट भाग भी खजूर की डण्डी से मिन्न दीख पड़ता है। जल में भिगोने पर फल शीघ्र पानी सिकुड़न को छोड़कर थंडा. कार पीतामहरित वण' के बेर के समान हो जाता है। अब छिलका मोटा दीख पड़ता है तथा सरलतापूर्वक गूदा से भिन्न किया जा सकता है। फलशीर्ष मुड़ा हुआ होता है और उस पर सूक्ष्म अंकुर होते हैं। श्राधार पर पञ्चभाग युक्र पुष्पाभ्यंतर कोष दल तथा फलडराखी का एक छोटा भाग लगा होता है । गुठलो १ इञ्च लम्बी, अप्रशस्त रूप से पञ्च परिखायुक्त, प्रलम्बित, दोनों शिरों पर छिद्र युक्त होती है; शीर्ष, छिद्र की चारों योर पञ्च दंष्ट्रयुक्र, पञ्चकोषयक ( या पतन के कारण इससे न्यून ) होता है। बीज अकेला, भालाकार, शीर्ष से लगा रहता है; बीजावरण सूक्ष्म परिमाण में; गर्भ सरल, विलोम; दोल भालाकार; आदि मूल अंडाकार एवं ऊद्ध होता है। बीज ३ इञ्च लम्बा तथा इञ्च चौड़ा होता है। बीज त्वक् ( Testa ) गम्भीर धूसर या श्याम वर्ण का परिमार्जित गिरी अत्यन्त तैलीय एवं मधुर स्वाद युक्त होती है। उपयोगांश-फल | रासायनिक संगठन-(या संयोगी द्रव्य) फलस्थ तिव तस्व एक प्रकार के रवा में परिणतिशील ग्लूकोसाइड है जो ईथर, मदथसार तथा जलमें विलेय होता है । इसमें किञ्चित् अम्ल प्रतिक्रिया होती है । इसके अतिरिक्त इसमें सेव की तेजाब ( Malic acid ) ग्लूकोज, लुभाव, तथा पेक्टीन नामक पदार्थ पाए जाते हैं। डाइमॉक । प्रभाव तथा उपयोग-फल मजा में एक प्रकार का तिक एवं मतलीजनक स्वाद होता है। श्रमजीवियो' में उदरशूल की यह एक उत्तम औषध है। इस हेतु युवापुरुष की मात्रा अद फल है। इसमें किसी रेचक गुण की विद्यमानता मुश्किल से प्रतीत होती है। तो भी कहा जाता है कि यह कृमिघ्न प्रभाव करता है तथा व्यथाको तत्काल शमन करता है। कोंकनमें कचे फल का For Private and Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धारकरः www.kobatirth.org स्वरस १ भाग, गंधक 3 भाग, और दही १ भाग, इन तीनों को ताम्र पात्र में अग्नि पर गरम कर तरखुजली ( Scabies ) एवं ( Maggots ) द्वारा जनित चतों में लगाते हैं । डाइमा | 最後 फल कटु, संकोचक और और वायुनिस्सारक ( श्राध्मानहर ) है । इं० मे० मे० । अरङ्गरः arangarah - सं० पु० कृत्रिम विष । ( Artificial Poision. ) वै० निघ० । श्रङ्गुदी arangadi - सं० स्त्री० माधवीलता । ( Fee-mádhavilata) बै० निघ० । श्ररचरु aracharrú- सिमला० मसुरी, मकोला - ६ि० । रसेलवा, पजेरी-सिमला० । भोजिन्सी - तैपा० | ( Coriaria nepalensis. ) मेमो० । श्ररचि arachi - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० श्रर्चि ] ज्योति | दीप्ति । श्राभा । प्रकाश | तेज । घरची arachi - ता० काळनार, कचनाल, अश्ता - हिं० । ( Bauhinia variegata.) मेमो० । arachu- गढ़वाल हिन्दी रेवतचीनी | मेमो० | अरजãaraz-० ति की परि } मुज्ञ अफ muzáāafah भाषा में उस अस्वाभाविक दशा या व्याधि का नाम है जो अन्य रोगों के कारण अर्थात् उसके श्राधीन होकर उत्पन्न होती है । उदाहरणतः वह शिरःशूल जो किसी उबर के श्राधीन होकर जनित होता है अरज्ञ ( उपसर्ग, उपद्रव ) कहलाता है । कम्प्रिकेशन (Complication.), सिम्प्टम् (Symptom. ) - इं० 1 अलामत और अरज का भेदइन दोनों में मुख्य और गौय का अन्तर है. अर्थात् श्रर अलामत की अपेक्षा मुख्य वा मधान है । क्योंकि अलामत ( लक्षण ) स्वास्थ्य तथा रोग प्रत्येक दशा के लिए प्रयोग में श्राता है और फिर कभी यह स्वास्थ्य एवं रोग से पूर्व और कभी पश्चात् होता है। इसके विपरीत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरजल अज़ ( उपसर्ग ) रोगाक्रमण के पश्चात् ही पाया जाता है और उसके श्राधीन होता है । अस्तु, निम्नोष्ट - स्फुरण वमन होने की अलामत (रूप ) कहा जाता है; किन्तु उसको सूरज नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वह रोग ( वमन ) से पश्चात् नहीं, प्रत्युत पूर्व में पाया जाता है । अलामत और दलील का भेद देखो चलामत में । डॉक्टरी नोट- कम्प्रीकेशनका शाब्दिक अर्थ परस्पर संश्लिष्ट (लिपटना) या द्विगुण होना है । डॉक्टरी की परिभाषा में दो या अधिक व्याधियों का एक ही काल में उपस्थित हो जाना अर्थात् एक ही रोगके वेग पथमें अन्य रोग वा व्याधियों का उत्पन्न हो जाना है, जिनका स्थायित्व प्रथम रोग पर निर्भर होता है। दूसरे शब्दों में यह पूर्व व्याधि के श्राधीन होते हैं । अर्वाचीन मित्रदेशीय चिकित्सक उक्त शब्द की रचना तथा उसके मौलिक शब्दार्थ को दृष्टि में रखकर मुजाह् संज्ञा को उसके पर्याय रूप से प्रयोग में लाते हैं । परन्तु तिब की परिभाषा में उसका वास्तविक प्राचीन सत्य भाव अज़ शब्द से प्रकट हो जाता है । श्रस्तु इसे यहाँ ग्रहण किया गया है। 1 सिम्पटम का शाब्दिक अर्थ परस्पर घटित होना है । किन्तु डॉक्टरी परिभाषा में उस परिवर्तन को कहते हैं, जो रोगकाल में उपस्थित होता है धौर जिससे उक्त व्याधि की उपस्थिति का पता लगता है । अस्तु, इस विचार से सिम्प्टम अलामत (रूप वा लक्षण ) का पर्याय है । परन्तु अर्वा चीन मिश्र देशीय तबीब अलामत की बजाय रज़ को इसका पर्याय मानते हैं । अरज़ araja - हिं० संज्ञा पु ं० चौड़ाई | श्ररज āaraja श्र० पंगु या लुग, लंगड़ा होना, पंगुत्व, लंगड़ापन । लेमनेस (Lamene - ss. )–इ ं०। जल arajala - हि० संज्ञा पुं० [अ० ] ( १ ) वह घोड़ा जिसके दोनों पिछले पैर और अगला दाहिना पैर सफ़ेद वा एक रंग के हो | For Private and Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir স্থলা ५६७ अरणिका' . ऐसा घोड़ा ऐबी माना जाता है । (२) नीच | हयात्, हेमसागर हिं०, बं० । ( kalnchoe जाति का पुरुष । (३) वर्ण' शंकर ।। laciniata, P. C.) फा० ई० १ भा० । वि० (अ०) नीच। | अरण मरम् arana-maram-मल० तून । अरर्जा āaraja-अ. चखं, आकाश, श्रास्मान ।। (Cedrela toona, Roxb.) ई० मे० (8ky.) मे० । स० फा० ई० । ई० मे० लां०। अरजान ara jana-बरब० बरबरी बादाम का प्ररणा arana--हिं० पु, स्त्री० (१) जंगली वृत्त। भैंसा । ( A wild buffalo.)। (२) अरजालून arajālān-बरब० फाशरा, शिव कण्डा, जंगली कण्डा, अरना। (Cowdung för att i ( Bryonia laciniosa ). found dried in the forest.). अरजा araja-सं० स्त्री. धृतकुमारी, घीकुपार । अरणिः aranih-सं० ० । (१) एक ( Aloes Barbadensis. ) अरजुन arajuna हिं० संज्ञा पु० [सं०] दे० अरणि arani-हिं० संवा स्त्री० । प्रकार का वृक्ष अजुन । ( Terminalia Arjuna). गनियार । अँगेथू । क्षुद्राग्निमंथ वृक्ष । छोटी अरणी का वृक्ष, कुण्डली, अरणी-हिं०, सं० । अरटी arati-सं० स्त्री० छोट गणिर-बं० । ( Cleredendron अरटीपण्डु arati pandu-ते. ( केला, Inerme.) वा०टी० १५ १०; हेमो० अरटीचे arati-chettu-ते. कदली वीरतादि । अरणिहिमन्धेना द्वयोनि-हि० । अमटचेटु, अरिट चेह-ते. । मथ्यदारुणि । मे० णत्रिकं । (२) श्योणाक, (Musa sapien tum, Linn.) स० सोनापाठा, अरलु ( Oroxylum Indiफा० इं०। cum, Vent. ) । (३) चित्रक वृक्ष, चीता अंरटुंः aratuh-सं० पु अरलुवृक्ष, सोनापाठा, ( Plum bago Zeylanica.)। (४) श्यो(णा)नांक । श्योणा गाछ-बं० (Oroxy- सूर्य ( The sun.)। ५) अग्न्युत्पादक ]um indicum, Vent.) अ० टी०।। काष्ठयन्त्र | काs का बना हुआ एक यन्त्र जो भरटुपर्णः aratu-purnah-सं० पु. यह यज्ञों में भाग निकालने के लिए काम पाता है। चिरस्थायी वृक्ष है । अरटुपर्ण नामक वृक्ष । इसके दो भाग होते हैं-अरणि वा अधरारणि अथर्व० । सू०१३ । १५ । का० २० । और उत्तरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्थसे बनाया अरडी aradi-नेपा० कचैटा-हिं० । अग्लागल, जाता है । अधरारणी नीचे होती है और उसमें किंगली । ( Mimosa rubicaulis.) एक छेद होता है। इस छेद पर उशरारणी खेड़ी मेमो०। करके रस्सी से मथानी के समान मथी जाती अरडसी aradāsi-गु० अडूसा, वासक | है। छेद के नीचे कुश वा कपास रख देते हैं (Adhatoda vasica, Nees. ). जिसमें भाग लेग जाती है। इसके मथ ने के अरणः aranah-सं० पु. (१) चित्रक वृक्ष, समय वैदिक मंत्र पढ़ते हैं और ऋविक लोग चीता । ( Plumbago zeylanica.) ही इसके मथने आदि का काम करते हैं। यज्ञ में वैनिक । (२) गंदा, मलिन | अथर्व० सू० प्रायः अरणी से निकली हुई आग ही काम में २२ । १२ । का० ५। लाई जाती है । अग्नमंथ । औरण तन्दिग भूकस arara-tandig-bh- अरणिका aranika-सं० स्त्री० अग्निमथ वृक्ष, ikas-बम्ब० भूतफल-सं० । बकरा-यू० पी० ATTIT I(Clerodendron Inerme. ) वी० । मिरन्दुप-अध० । मेमो० । वा० सू० १५ अ० वेलन्तरादि व०। “वेल्लन्त. अरणमरण arana-marana-मह० ज़ल्म- | रारणिरुवूक वृषाश्य भेद... ... ... ।" For Private and Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भैरणी भरणी भरणी arani-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० (१) जंगली मादा मैंस, भैंस (A female wild buffalo)। ( २) तुद्राग्निमन्थ । रा० नि० व०६। (३) अरनी (णी), अगेथ ( ५ ), गणि (नि) आरि, टेकार--हिं० । संस्कृत पर्याय गणिकारिका, अग्निमन्यः, श्रीपर्ण, कर्णिका, जया, तेजोमन्था, हविर्मन्यः, ज्योतिष्कः, पावकः, अरणिः, वह्निमंथः, मथनः (र), जयः ( भा० ), गिरिकर्णिका (द्रव्याभि०), पावकारणिः (शब्द मा०), अग्निमथन:, तर्कारी, वैजयन्तिका, वैजयन्ती, अरणीकेतुः, श्रीपर्णी, नादेयी, विजया, अनन्ता, नदीजा, हरिमन्थः । अन्वर्थ-संशा-अनुत्वा", "गन्धपुष्पा" और "गन्धपत्रा'' गयिरी, अ(मा)ग्गान्त, भूतभैरवी, गणियारी-बं०। प्रेम्ना इण्टेनिफोलिया (Premna integrifolia, linn.) प्रेम्ना स्पाइनोसा ( Premna spinosa. Roxb.) __ मुनय (नी), नेलोचे --ता। घेवु-नेशि, पिन-नेल्लि, चिरिनेल्लु-चेट्ट, पिनुश्रा नेल्लि, नेलिचेह--ते, ते०। अप्पेल-मल । तकिले. तग्गी, नरुवल, ऐरणा-कना०, कर० । गयेन्दारी, गॅयदारी--को० । ऐरण, नरवेल, टांकला, चामारी, ( थोर ऐरण=तुद्राग्निमंथ )-मह० । भरणी, मोठी अरणी, ऐरणमूल-गु० अगयाबात--उड़ि। गमिधारी--प्रव। बकर्च-ग०। अगिवथ--उत्०| गिनेरी-नेपा० । गणियरी--प्रासा० । सिहिन्मिदि, कर्णिका-सिं० । अरनी, ऐरणमूल-बम्ब० टॅॉगबैंग-बी-बर। क्षद्राग्निमन्थ के पर्यायहस्वगणिकारिका, तपनः, विजया, गणिकारिका, मरणिः, लघुमन्थः, तेजोवृषः, तनुस्वचा, (रा० नि. व. )। छोट गणियारी-बं०। नरवेल, टाकली, नरयेलर-मह । तली-का० । प्रेम्ना सिरेटिफोलिया ( Premna se ilatifolia Linn.), mittetta talorsfite Clerodendron phlomoides )-०। देखोतुदाग्निमन्थ । किसी किसीने संगकुष्पी Olerodendron Inerme, Geertn. ) को पदाग्निमन्य प्रार छोटी अरणी लिखा है । देखो-संगकुप्पी, पी ( कुण्डली-सं० । बनजोई-बं० । इसम्धारीद०)। वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृहत् क्षप वा लघुवृक्ष होते हैं । वृक्षा..१२ हस्तउच्च और बहुशाख होते हैं। कांड लघु, बहुशाख, शाखाएँ प्रायः भूमिलुण्ठित ( भूमि के निकट से निकली हुई), प्रसरित होती है जिनसे मूल उत्पन्न होते हैं। कांड-त्वक् ऊपर से म्न निशुभ एवं सचिकण, भीतर से हस्तिदंतवत् प्रतिशुभ्र, मधु, अल्पाघात से टूट जाने वाले होते हैं। पत्र सम्सुखवर्ती, वृन्तयुक्र, हृदयाकार, पत्राग्र सूक्ष्म (अनीदार न्यूनकोणीय);पत्रप्रांत करपत्र-शस्त्राकार सखंड (दाँतेदार); पत्रोदर मसूण व चिकण, पत्रपृष्ठ शिरान्वित एवं चिक्कण, १.६ इंच लम्बा और १-३ इंच चौड़ा, पत्र में एक प्रकार की तीव्र गंध होती है, पत्रवृन्त पत्र की लम्बाई से चौथाई दीर्घ । पुष्प सशाख, पुष्पदण्ड पर स्थित, पुष्पदंडकी प्रत्येक शाखा ३-४ पुष्प धारण करती है, सविन्यास, सीमान्तिक वा कक्षीय, प्रारम्भिक विभाग सम्मुखवर्ती और द्विशाख, पुष्प अतिदुद, बहुसंख्यक, पीत वा हरिदाभशुभ्रवर्ण, मिलित दल, दल-अंग प्रधानतः २ भाग युक जिनमें से एकभाग तीनशमें ईषत् खंडित व दीर्घ, अपरोरा प्रखंड व हस्त्र | पुकेशर ४, जिनमें २ वृहत् तथा २ : शुद्र, श्वेताभ, पुष्पोपरि दीर्घ पुकेशर में कृष्ण वर्ष के परागकोष स्पष्टतया दृष्टिगोचर होते हैं । निर्गुण्डी वर्ग (N.O. Verbenacea) उत्पत्ति-स्थान-यह मारतवर्ष के अनेक प्रांतों विशेषतः समुद्रतट पर होती हैं। उत्तरी भारत, तिब्बत, काशमीर, बम्बई से मलका पर्यन्त, सिल्हट और लंका । मोट-बुद्र बृहद् भेद से अग्निमंथ दो | प्रकार का होता है। दोनों प्रकारके अग्निमंथ गण में समान होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री www.kobatirth.org ५६६ द्राग्निमन्थ का वृत्त चुद्रतर होता है । इसलिए इसे गुल्म कहते हैं। गणियारी के कांड तथा शाखाओं में वृहत् दृढ़ और तीक्ष्णाग्र शाखाएँ परस्पर एक दूसरे के विपरीत दिक् विस्तृत भाव सेस्थित होती हैं । वह (अरणी ) ऐसी नहीं होती । दोनों प्रकार के अग्निमन्थ में यही भेदक चिह्न है । रासायनिक संगठन - एक राल ( A resin ), एक तिल क्षारीय सत्व अर्थात् चारोद ( Alkaloid ) और कषायिन (Tannin). प्रयोगांश-पत्र, मूल, कांढत्वक् । औषध निर्माण - काथ, मात्रा-२ से १० तो० | यह दशमूल की दश ओषधियों में से एक है अर्थात् इसकी जड़ दशमूल में पड़ती है । संज्ञा - निर्णय तथा इतिहास - मन्थन वा घर्षण द्वारा जिससे श्रग्नि उत्पन्न हो उसको " श्रग्निमन्थ " वा " वह्निमन्थ" कहते हैं। श्ररणि का अग्नि है और यहाँ इससे अभिप्राय श्रग्न्युस्पादक यंत्र है । चूँकि यज्ञ के लिए पवित्राग्नि प्राप्त करने के लिए इसका काष्ठ काम में श्राता था । इसलिए इसके वृक्ष को उक्त नामों से अभिहित किया गया । गैम्ब्ल ( Gamble ) के कथनानुसार सिक्किम की पहाड़ी जातियाँ श्रग्नि प्राप्ति हेतु स्वभावतः अब भी इसके काष्ठ का उपयोग करती हैं । इसके दो भाग होते हैं - ( १ ) निम्न भाग जिसका काष्ठ कोमल होता है उसे संस्कृत में अधरारणी और ( २ ) ऊर्ध्वं भाग को जिसका काष्ठ कठोर होता है और जिससे मन्थन क्रिया सम्पन्न होती है, प्रमन्थ कहते हैं। ये योनि और उपस्थ के संकेत माने जाते हैं । श्ररणी के गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मतानुसार - तर्कारी (गणिकारिका ) कटु, उष्ण, तिन तथा वातकफनाशक है और सूजन, श्लेष्मा, श्रग्निमांद्य, अर्श, मल के विवन्ध तथा आध्मान को हरण करने वाली दोनों भरनी वीर्य में और रसादि में तुल्य हैं । इसलिए जहाँ जैसा प्रयोग हो उसी के अनुसार इनका उपयोग करना चाहिए। यथा-"अग्निमन्थ द्वयचैव तुल्यं वीर्य रसादिषु । तत्प्रयोगा 1 かつ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररणी नुसारेण योजयेत् स्वमनीषया ॥" ( रा० नि० ) तर्कारी कटुक ( चरपरी ), तिल तथा उष्ण है। और वात, पांडु, शोध, कफ, श्रग्निमांद्य, श्रम एवं विवन्ध ( मलरोध ) को नष्ट करने वाली है । ( धन्वन्तरीय निघण्टु ) गुण- श्रग्निमन्थ, उष्णवीर्य तथा कफ, वात को मष्ट करने वाला, कटुक ( चरपरा ), तिल, तुवर ( कषेला ), मधुर और श्रग्निवर्द्धक है । प्रयोगसूजन और पांडु रोग को दूर करता है । भी० पू० १ भा० गु० व० । गणिकारी शोथहर और वातरोगों के लिए हितकारी है। राज० । लघु श्रग्निमन्थ के गुण वृद्धाग्निमन्थ के समान हैं । यथा- "लध्वग्निमन्थस्य गुणाः प्रोक्ता वृद्धाग्निमन्थवत् । विशेषाल्लेपने चोपनाहे शोफे च पूजितः ||" परन्तु लेपन, उपनाह और सूजन में इसका विशेष उपयोग होता है । ( निघण्टुरत्नाकर ). यह विष श्राम और मेद रोग नाशक है । अरणी के वैद्यकीय व्यवहार चरक - श्रर्श में श्रग्निमन्थ - पत्र - अर्श जन्य वेदना से पीड़ित रोगीको तैलाभ्यंग कराके श्ररणी पत्र के कोष्ण क्वाथ से श्रवगाहन कराएँ । ( चि० ६ श्र० ) सुश्रुत - इक्षुमेह में गणिकारिका मूल वा काण्डत्व - ( १ ) इतुमेही को श्ररणी मूल वा कांडत्व द्वारा प्रस्तुत क्वाथ पान कराएँ । 'इत्तुमेहिनं वैजयन्तीकषायम् ।' (चि० ११ अ० ) (२) चक्षुः कामित्व में गणिकारिका मूलत्व — (देखो -- श्रसन ) | हारीत - वातवरण में गणिकारिका मूल -- मातुलुंग और अग्निमन्थ मूल को काँजी में पीस कर वातव्रण पर प्रलेप करना हितकारक है । ( चि० ३५ श्र० ) चक्रदत्त - वसामेह में गणिकारिका मूलत्वक्( १ ) वसामेह में अग्निमन्थ की जड़ की छाल का क्वाथ प्रयोग में लाएँ । ( प्रमेह - चि० ) For Private and Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्ररणी ( २ ) शीतपित्त में गणिकारिका मूल - अग्निमन्थ की जड़ की छाल को पीसकर ( कल्क ) गोवृत के साथ एक सप्ताह पर्यंत पीने से शीतपित्त, उदद्द और कोठ का नाश होता है । (शीतप्रित्तोद - चि० ) । ( ३ ) स्थूलता गणिकारिका मूलत्वक - श्रग्निमन्थ की जड़ की छाल द्वारा निर्मित क्वाथ में शिलाजीत का प्रक्षेप देकर पान करने से स्थूलता नष्ट होती है । ( स्थौल्य - चि०) ५७०. में वक्तव्य चरक, अनुवासनोपन, शोथहर एवं शीत• प्रशमन वर्ग में तथा सुश्रुत, वरुणादि व वीरदि गण में गणिकारिका का पाठ श्राया है । किसी किसी देश में वातरोगी को गणिकारिका के पत्र का शाक व्यवहार कराया जाता है । नःयमत प्रभाव - अरणी पाचक, श्राध्मानहर, परिवर्शक (रसायन) और बल्य है । प्रयोग - इसके पत्र का फांट ( १० में १ ) विस्फोटादि कृत ज्वर, शूल, उदराध्मान में १ से २ आउंस की मात्रा में व्यवहृत होता है श्रौर मूलत्वक् क्वाथ ( १० में १) ज्वरावसानज दुवस्था, प्रमेह, श्रामत्रात तथा वातवेदना ( Neuralgia. ) रोग में सेवनीय है । (मेटिरिया मेडिका ऑफ़ इण्डिया - श्रार० एन० खोरी, भा० २, पृ० ४७२ ) एन्स्ली (Ainslie ) लिखते हैं - गणि कारिका मूलत्वक क्वाथ हृद्य, पाचक एवं ज्वर में लाभदायक । इसकी जड़ तिक एवं प्रियगंधि है तथा क्वाथ रूप में प्रयुक्त होती है । ऐकिन्सन ( Atkinson. ) लिखते हैं - शैत्यप्रभव रोग एवं ज्वर में गणिकारिका पत्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्डी का तेल ॐ को काली मरिच के साथ पीसकर व्यवहार करते हैं। शाखा - पत्र सहित अर्थात् गणिकारिका के पञ्चांग को कूटकर क्वाथ प्रस्तुत करें । आमबात तथा वात वेदना ( Neuralgia ) ग्रस्त रोगी के अंग को उक्त क्वाथ से सेचन करें । (डिमक्, ३ य खंड ६७ पृ० ) आर० एन० चोपूरा महोदय के अनुसार यह एक साधारण चुप है जो भारतवर्ष के बहुत से भाग विशेषकर समुद्रतटों में पाया जाता है । प्राचीन चिकित्सकों ने इसके पत्र एवं मूल में . प्रभावात्मक औषधीय गुण के वर्तमान होने का उल्लेख किया है। इसकी जड़का क्वाथ ( लगभग ४ श्राउंस १ पाइंट जल में १५ मिनट उबाल कर ) २ से ४ आउंस की मात्रा में पाचक एवं तिक्तवल्य रूप से दिन में २ वार प्रयोग क्रिया जाता है । इसी हेतु पत्र भी व्यवहार में श्राता है । (इं० ड्र० ई० पृ० ५६२ ) अरणीकेतुः arani-ketuh - सं० पु० महाग्निमन्थ वृक्ष, बड़ी अरणी । बड़ गणिरि-बं० । थोर ऐरण - मह० 1 (Premna longifolia.) रा० नि० व० है । अरण्ड aranda - हिं० पू० ( १ ) रेंडी का पेड़, डीवृत्त, एरण्ड । ( Ricinus vulgaris or Palma christi. ) | ( २ ) - सं०, हिं०, सिंघ उलटा कण्टा - कुमा० । (Cadaba harrida ) इं० मे० प्रा० । हीडो ( Rheede.) इसको अप्पेल नाम से अभिहित करते हैं और इसके पत्र के क्वाथ को उदराध्मान में सेवनीय बतलाते हैं। लंका में यह महामिदि या मिदि-गस्स नाम से प्रसिद्ध है । 1 श्ररण्डककड़ी aranda kakari - हिं० स्त्री० अरण्ड वूजा aranda-kharbuja--हिं० प० अरण्डै पपथ्या aranda-papayyá-हिं० पु० पपीता, विलायती रेंड़, पपय्या - हिं० । अरुडखरबूज़ा ( Carica papaya ) | ० श्र० डॉ० । म० श्र० । मु० श्र० । अरण्ड तैल aranda-taila अरण्डी का तैलarandi-ka-taila j एरण्डतैल, रेंडी का तैल | Castor oil - हिं० पु० } ( Oleum_Ricini.) For Private and Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्डबोज श्ररण्य कार्यासी अरण्डबीज aranda-bija-सं०, हिं० पु. __-सं०पु० (२) कटफल वृक्ष,कायफल | (My...... प्रण्डी का बीज,. रेडी। ( Castor oil | rica sapida.). seed.) देखो--एण्ड । अरण्यक: aranyakah-सं० पु महानिम्ब, अरण्डी arandi-हिं स्त्री० रेंडी, अरडी । (The बकाइन । महानिम्-बं० । वकान निम्ब-मह० । fruit of Palma christa.)। देखो. (Ailantus excelsa, Roxb.) एरण्ड। . निघ०। अरण्डी का पेड़ alandi-ka-pera-हिं. पु. श्ररराय करणा aranya. kana-सं० स्त्री..(१) एरंड वृक्ष, रेड़, अण्डी का पेड़। ( Castor | कटुजीरक, जीरक, जीरा विशेष । Cumin oil palnt.,)। ( Rociius commu Seed ( Cuminum Cyminum ) ... nis, Linn.) सल्फा०ई० । देखो-एरण्ड । वै० निघः । (२) वनपिप्पली । ( Wild अरण्डो के बीज arandi-ke-bija-हिं० पु० अण्डी के बीज, रेंड के बीज, रंड़ी. | Rici piper.) अरण्य-कदली aranya-kadali-सं० स्त्री० nus co munis, Linn. ( Seeds गिरिकदली, बनकदली, जंगली केला-हिं० । ..... of-Castor oil seeds.) । स०फा०ई० | बीचेकला, बुनो कला, दयाकला-बं० । राणकेला अरण्डोली arandoli-जय. एरण्ड बीज, रेंडी, -मह| Musa Sapientum, Linn. - अरण्डी के बीज । ( Castor oil seeds.) | (Wild var. of-) रा०नि० व० ११ । . देखो-एरण्ड । श्ररण्य: aranyah सं० पु. गुण-शीतल, मधुर, बलकारक, वीर्यबद्धक अरण्य aranya-हिं० संज्ञा पु. ) रुचिकारक, दुर्जर और भारी तथा दाह, शोष,पित्त..... फल वृक्ष, कायफल । कटफलेर गाछ-बं०। .. नाशक हैं । इसका फल कषैला, मधुर तथा भारी . . (. Myrica sapida.) श० च०। (२) है। वै० निघ०। शाल भेद, साख । ( Shorea robusta.) | अरण्य-कर्कटी aranya-karkati-सं० स्त्री० .... वैनिघ०। वनजात कर्कटी, जङ्गली ककड़ी । बुनो काँकुड़ अरण्यम् aranyam-सं० क्ला० -बं० । राणतवसे-मह० । ) (१) गुण-जंगली ककड़ी, उष्ण, तिक, रसयुक्त. अरण्य aranya-हिं० संज्ञा पु. . अटवी--सं० । वन, जंगल, विपिन, कानन--हिं० । पाक में कटु और भेदक है तथा कफ, कृमी, राण--मह । अटवि--कं० । बरं, सहरा--अ० ।। पित्त, कण्डू और ज्वर का नाश करने वाली है। दश्त--फ़ा० । जंगल-हिं०, द० । काटु-ता०।। वै० निघ०। अडवि-ते। काह-मल० काड,अडवि-कना। | अरण्य-कपोसः aranya-karpasah-सं० बन बनेर, जंगलेर,जंगली-बं०। जंगली-गु०।।। पु. पीवरी । Devil's cotton (Abroवल-सिं० । तो-बर० । फॉरेस्ट (A for . ma Augusta.) देखो-प्रोलट कम्बल । .est..), विल्डरनेस (Wilderness.), | अरण्य-कलद arenya-kalad-सं० पु० चावाइलड ( Wild.)-इं०।। कसू । (Cassia absus). . उद्यान, महावन, उपवन और प्रमदवन भेद से | अरण्यकाकः aranya-kākah-सं० पु वन..वन चार प्रकारका होता है। इनमें से रागी काक,बनकौा । (A wild crow.) दाँड काक लोगों के क्रीड़ास्थल को उद्यान (फुलवारी), | -बं० । राण कावला-मह० । द्रव्य० गु. वै. भीतरी राजमहल के सामने के बाग को प्रमदवन निघ० । और नगर से बाहर स्थित बाग को उपवन कहते | अरण्य-कासी aranya-kārpasi-सं-स्त्री. हैं। से०नि० व०२। (1) वन कार्पास, जंगली कपास । बन कपासी For Private and Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अरण्यकासनी ५७२ अरण्यकासनी -बं० । राण कापासी-मह०। पत्ति-ते. । ( The wild cotton ) गण-तणनाशक, शस्त्र-क्षतघ्न और रूक्ष है। रा०नि० व०११ । (२) श्रोलट कम्बल, पीवरी । (A broma Augusta.) अरण्यकासनी aranya kāsani-हिं० स्त्री० दुधल, अरन, कानफूल, रदम,शमुकेइ, दुध बथज -पं०, हिं० । पथरी-द० । बुथुर-सिंध० । टैरेक्ज़ेकम् अॉफ़िसिनेली ( Taraxacum Officinale Wigg.),टै. डेगडेलिश्रोनिस (T. Dendelionis.)-ले० । डेण्डेलिऑन ( Dandelion.)-इं०। पिस्सेन-लिट ( Pissenlit.)-फ्रां० । उद्रचेकन-को० । मिश्र वा तुलसी वर्ग (.V. O. Composit ae. ) - उत्पत्ति स्थान-सर्वत्र हिमालय ( शीतोष्ण --ई. मे० मे.) तथा नीलगिरी पर्वतों; उत्तरी पश्चिमी सूबों में यह बोई जाती है; तिव्यत में | साधारण रूप से होती है, युरुप ( इङ्गलैण्ड) तथा उत्तरी अमरीका । नोट- डॉ. डाइमॉक महोदय के कथनानुसार सहारनपूर के सरकारी वनस्पत्योद्यान में प्रतिवर्ष इसकी कृषि की जाती है। नाम-विवरण-पुजश्कीनामा के सम्पादक नाज़िमुलइतिब्बा महोदय के कथनानुसार टैरेक्सेकम युनानी भाषा का शब्द है, जो तारास्सुवसे जिसका साङ्केतिक अर्थ तलरियन (मृदुता जनक) है, व्युत्पन्न शब्द है; परन्तु डा०डाइमॉक महोदय के कथनानुसार इस शब्दकी वास्तविकता अनिश्चित है, कदाचित् यह तर्खश्कू न (फारसी शब्द)का अपभ्रंश है। उक्न वनस्पति के गंभीर दनदाने क्योंकि दुग्धदन्त के समान होते हैं, इस कारण प्रांग्ल भाषा में इसे डेण्डिलॉन ( दुग्धदन्त ) नाम से अभिहित करते हैं। इतिहास-यद्यपि प्राचीन युनानी व रूमी चिकित्सकों ने कई भाँति की कासनी का वर्णन किया है; तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने | इस भाँति की कासनी का वर्णन नहीं किया। इब्नसीमा ने तर्खर कुन नाम से इसका वर्णन किया है तथा अन्य मुसलमान चिकित्सकों ने भी इसका वर्णन किया है । युरुप में सोलहवीं शताहिद मसीही में फूशियस Fuchsius (१५४२) ने हेडिप्नाइस ( Hedypnois) नाम से, ट्रैगस Tragus (सन् १५५२ई० में ) ने हीरे. शियम मेजस ( Hieracium ma jus), मैथिोलस Matthiolus (१९८३) ने डेन्स. लियोनिस (Densleonis ) और जीनिस Linneus (१७६२ ) ने लिॉण्टोडॉन टैरे. क्सेकम् (Leonto don Taraxacum) इत्यादि नामों से (जिसको वह इब्नसीना के ताश्कन का पर्याय समझते थे) इसका वर्णन किया है । सतरहवीं शताब्दि के अन्त में यूप में अरण्यकासनी ( Dandelion ) का उपयोग बहुतायत के साथ होने लगा। भारतीय ( श्रायुर्वेदिक ) चिकित्सकों को उन ओषधि ज्ञात न थी। .. नोट-महज़नुल अद्वियह, में हिन्दबाउब्बरी तथा मुहीताज़म में कासनीदश्ती नाम से उन श्रोषधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगांश-युनानी वा भारतीय चिकित्सक तो इसकी जड़, पत्र एवनव्य पौधा सभी औषध कार्य में लाते हैं; किंतु डॉक्टरी में केवल इसकी जड़ औषध तुल्य व्यवहार में आती है और यह ब्रि० फा० में आतिशल है। अरण्यकासनी मूल . पर्याय-टैरेक्सेसाई रैडिक्स (Taraxaci Radix.)-ले०। टैरेक्जें कम् रूट ( Taraxacum Root.), डैण्डेलियन रूट (Dandelion Root.), ह्वाइट वाइड इण्डाइव (White wild endive.) ई० । संघ दन्तीमूल-सं० । जंगली कासनी की जड़ - हिं०, उ० । अर लुल् हिन्द बाउब्बरी-अ० । बीन. तर्जश्न, बीन कासनी दश्ती-फ़ा० । ऑफिशल ( Officiul. ) वानस्पतिक-विवरण- ताजी जड़ (बहु. For Private and Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यकासनी अरण्यकासनी वर्षीय ) ६ से १२ या १६ इंच लम्बी, करीब करीब बेलनाकार, 1 से १ इंच चौड़ी ( व्यास), उर्ध्व भाग अनेक सूक्ष्म कुछ कुछ धने शिरकों से पाच्छादित रहता है तथा निम्न भाग में कम शाखाएँ होती है | ताज़ी दशा में यह हलके पीतधूसर वर्णकी एवं गूदादार और शुष्क दशामें गंभीर धूसर या श्याम धूसर वर्ण की, जिन पर लम्बाई की रुत अधिक झुर्रियाँ पड़ी रहती हैं। भीतरसे यह श्वेत वर्ण की जिसका मध्य भाग ज़रदीमायल (पीताभ) होता है। यह गंधरहित एवं कटु स्वादयुक्त होती है। यह स्रोतपूर्ण तथा प्रार्द्र ऋतु में अधिक लचीली होती है। परन्तु शुष्क होने पर सूचम चड़चड़ाहट के साथ टूट जाती है। टुटने पर बीच की लकड़ी पीतवण की, स्रोतपूर्ण जिसके चारों ओर गंभीरश्याम वर्ण की कैम्बियम रेखा तथा धनी श्वेत स्वच होती है, जिसके मध्य धूसरित वण की दुग्ध की नालियों के वृत्त होते हैं। ये पतली दीवाल की ( Parench. yma.) से भिन्न किए गए होते हैं। शीत काल से पश्चात् एवं बसन्त ऋतु के प्रारम्भ में इसकी जड़ मधुर स्वादयुक्त रहती है। बसन्त और प्रोम के बीच दुग्ध-रस गाढ़ा हो जाता है तथा कटु रस बढ़ जाता है। इस कारण इसकी जड़ को पतझड़ ( Autumn) के समय में एकत्रित करना चाहिए । बसन्त ऋतुकी • जड़ में तिक मधुरसत्व निकलता है। __समानता-अकरकरा की जड़ ( Pellitory root) इसके समान होती है। किन्तु चबाने पर उसका स्वाद चरपरा होता है। से७ प्रतिशत पाए जाते हैं। प्रभाव-मूत्रल, बल्य, निर्बल पित्तनिस्सारक, और कोष्ठ मृदुकारी । औषध निर्माण-प्रॉफिशल योग (Official preparations ; (१) अरण्य कासनी सत्व - एक्सट्रक्टम टैरेक्सेसाई ( Extractum Talaxaci) -ले०। एक्सट्रैक्ट ऑफ़ टैरेक्जे कम ( Extract of Taaxacum )-इं. खुलासहे कासनी बरीं, उसारहे तर्खश्क न । निर्माण-क्रम-टैरेक्ज़ोकम की ताजा जड़ को कुचलकर दबाने से जो रस प्राप्त हो, उसे स्थूल भाग के अन्तः क्षेपित हो जाने पर निथार लें। तदनन्तर १० मिनट तक १ से २१२० फारनहाइट के उत्ताप पर रख कर छान कर द्रव को इतने ताप पर उड़ाएँ जिसमें वह गाढ़ा होजाए। मात्रा-१ से १५ प्रेन (३ से १० डेकिग्राम)। (२) अरण्यकासनी तरल-रुत्वएक्सट्रक्टम् टैरेक्सेसाई लिक्विडम ( Extractum Taraxaci Liquidum)-ले०। लिक्विड एक्सट्रैक्ट ऑफ़ टैरेकोकम ( Liquid Extract of Taraxacum )-01 ख लासहे कासनी बर्श सय्याल, उसारहे तनश्कून सय्याल-१०, फ़ा०। निर्माण-क्रम-टेरेक्ज़ेकम् की शुष्क जड़ का २० नं. का चूर्ण २० श्राउंस मद्यसार (६००/) २ पाइंट, परिस्रुत वारि आवश्यकतानुसार । टैरेक्ज़ेकम् को ४८ घंटा पर्यन्त मद्यसार में भिगोएँ । पुनः इसमें से १० लाख पाउंस द्रव निचोड़ कर पृथक् करले । अवशिष्ट स्थूल भाग को २ पाइंट परिसुत जल में ४८ घंटा तक भिगोएँ और दबाने से जो तरल प्राप्त हो उसे छान कर अग्नि पर यहाँ तक रखें, कि उसका द्रव्यमान १० इड माउंस बच रहें। पुनः प्रति तरल द्वय को परस्पर मिला लें और पावश्यकतानुसार इतना परिसुत जल और योजित करें कि तरल सत्व का द्रव्यमान पूर्व २० लहर पाउंस होजाए। रासायनिक संगठन-दुग्ध रस में एक कटु विकृताकार (अस्फटिकीय ) सत्व-(१) टैरेक्सेसीन ( Taraxacin) अर्थात् अरण्यकासनीन वा तंत्रस्क्रूनीन, (२) एक स्फटिकवत् ( कटु ) सत्व टैरेक्सेसीरीन, ( Taraxacerin ) और (३) ऐस्पैरेगीन (खिरमी सत्व, अस्मार्गीन), पोटाशियम् | कैल्शियम के लवण, रालदार और सरेशदार पदार्थ होते हैं। इसकी जड़ में प्राइन्युलीन २५ प्रतिशत, पेक्टीन, शर्करा, लीब्युलीन, भस्म ५ . For Private and Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यकासनी भरण्यचटक: मात्रा-प्राधा से २ लइड ड्राम( १८ से पहिले बहुधा पित्तरेचक वा मूत्रल रूप से इसे ७.१ घनशतांश मीटर )। यकृद्रोगों जैसे-पांडु तथा जलोदर प्रभृति में (३) अरण्य कासनी स्वरस-सकस , अधिकतया व्यवहार में लाते थे। किन्तु, अब टैरेक्सेसाई ( Succus taraxaci)-ले। - इसका उपयोग बहुत कम हो गया है। जूस ऑफ़ टैरेक्ज़े कम् (Juice of Tarax. | प्राण्य कुकुटः lanya-kukkutab-सं० acum)-इं० । असीर कासनी बरी, असीर पु वन मुर्गा, कोम्ड़ा, वनमोर्गा-हिं० । वनकुक्कुट तख्रश्न -अ०, फ़ । -सं० । वन कुक्ड़ो-बं० । राण कोंबड़े-मह । निर्माण-कम-टैरेक्जे कम् की ताजी जड़ को (Wild Cock or hen. ) कुचल कर दबाने से जो रस प्राप्त हो उसमें तिगुना मद्यसार मिलाएँ और सात दिवस ____गुण इसका मांस हृद्य, लघु, और कफनाशक पश्चात् फिल्टर करलें (पोतन करलें)। - है। रा०नि० २० १७ । वृहण, स्निग्ध, उष्णमात्रा-1 से २ फ्लइड ड्राम=( ३.६ से | वीर्य, गुरु और वातनाशक है । मद० व. १२ । ७.१ घन शतांश मीटर )। अरण्य-कुलिस्थिका aranya-kulitthiki प्रतिनिधि-अमिराव ( Launea अरण्य-कुलित्था,-स्थी aranya-kulittha,-! Pinnatifida, Cass.) लैक्टक हेनिएना, . . tthi) ( Lactuca. Heyneana D. c.)... : -सं० स्त्री०(१)वन कुलथी, कुलत्था । वन कुर्ति 1. कलाय-बं०। रा०नि०व०५(२)(A blue हिरनखुरी ( Emilia sonchifolia, D. stone used asacollyrium.)कुलत्थाC. ) और सॉस प्रॉलिरेसिअस (Sonchus Oleraceus, Linn.) विस्तार के लिए उन ञ्चन, कृत्रिम अञ्चन विशेष । रा०नि००१३। उन नामों के अन्तर्गत अवलोकन करिए। कालशुर्मा-हिं० । देखो-कुलस्थाअनं । . प्रभाव तथा उपयोग-टैरेक्सेसाई रैडिक्स | अरण्य-कुसुम्भः aranya-kusum bhah-सं. (भरण्यकासनी-मूल ) चिरकाल से बन्य, वन कुसुम, वन कुसुम्म सुप । जंगली कड़ पित्तरेचक, मूत्रल और कोष्ठ मृदुकारी रूप से | . (बरें)। राण कड़ई, राण कुसुम्भ-मह० । वन प्रसिद्ध रहा है। ताजे स्वरस का बल्य प्रभाव, जो कुसुम-बं० | गुण-कटुपाकी, कफनाशक, तथा प्रयोग से ठीक प्रथम प्रस्तुत किया गया हो अथवा | .: दीपन । रा०नि० व० ४।। जो जड़ को एकत्रित करने के टीक पश्चात् अभी | अरण्य-कोलिः aranya-kolih-सं० स्त्री० वनजब कि वह कटु हो, निर्मित किया गया हो, ____ कोलि, बन बदरी । वन कुल-बं० । (Zizypनिश्चित रूप से उत्तम होता है। वह बहुशः |:- hus jujuba. ) प्रभावकारी बल्य औषधों का लाभदायक अनुपनि है । इसके सत्व प्रायोगिक रूपसे प्रभाव अरण्य-गवयः aranya.gavayah-सं० पु. जंगली गाय, वन गवय, वन गऊ । यह कूलचर हीन होते हैं और इसकी अड़ द्वारा निर्मित जाति की है। सु० सू० ४६ ५० । देखोऔषध व्यर्थ । त्रि० फा० हिट्ला । कृलेचर। .. ताजी जड़ का रस या इसका शीतकषाय अरण्य घोली,-लिका aranya-gholi,--lika केलम्बा के समान प्रामाशयबलप्रद प्रभाव करता है तथा यह किसी प्रकार कोष्ठ मृतुकारी भी -सं० स्त्री०(१)वनधोली नामक प्रसिद्ध पंत्रशाक है। परन्तु इसके वे प्रयोग जो अंग्रेज़ी औषध विशेष, घोली शांक | रा०नि०व० ।। (२) विक्रेतात्री से उपलब्ध होते हैं, उनका प्रभावा मन्थनदण्ड । मक होना सन्देहपूर्ण विचार किया जाता है। अरण्यचटक; aranya-chatakah-सं०पू० For Private and Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यचम्पका अररायजाईका वन चटक पक्षी | धूसरः, भूमिशयः -सं० वनचटा पाखि, गुदगुडे, नागर मड़ई, छातार-बं० । : गुण- इसका मांस लवु, हितावह, शीत ।, | शुक्रवृद्धिकारक, बलद और चटक के समान गुण वाला होता है । वै० नि० द्रव्य गु०। । अरण्यचम्पक: aranya-champakal:-सं० पु. वनचम्पक, बन चस्पा | Michelia champaca ( The wild var. of-) "बनचाँपा-बं०। गुण-शीतल, लघु, शुक्रवद्धक और बल. वर्द्धक है। रा०नि०व०१०। भरण्य छागः aranya-chhagah-सं० पु. वनछाग, जंगली बकरा । बुनो छागल-बं० । (A wild goat). अरण्यजः aranyajah-सं० पु. ( Sesam. um indicum) तिलक तुप, तिल वा तिल्ली का रुप | See--Tilakah (तिलकः) हेच.। अरण्यजयपालः aranya-jayapālah-सं० पु. जंगली जमालगोटा-हिं०। (Croton po. lyandrum, Roxb. ) हाकूइ, दन्ति-बं० । देखो-दन्ती। भरण्यजा aranya jā-सं० स्त्री० पेॐ।। अरण्यजाका aranyajardraka-सं० स्त्री० वनाकः, वनाईका, वनजाकः ( रा. नि. व०७)। वाइल्ड जिञ्जर (Wild ginger) -ई०। जिञ्जिबर कैस्सुमनार (Zingiber cassumunal, Rosh.)। फा०ई०३ भा० । ई० मे० पला । ज़ि० पप्युरियम् ( Z. Purpureum), ज़ि० शिफॉर्डियाई (Z.cliffordii)-ले। ई० मे० मे० । बन आद्रक, बन प्रादी,जंगली प्रादी--हिं० । बन श्रादा-बं० । कल्लल्लाम, करपुशुपु -ते०। राणाले, निसा, निसण, मालाबारी हलद-मह० । जजबील दश्ती-फा०,०। आईक वा हरिद्धा वर्ग .. (N.O. Scitamineæ or Zingiberacece.) .. उत्पत्ति-स्थान-भारतवर्ष (हिमालय से लंका पर्यन्त) वानस्पतिक-विवरण-इसका ताजा पाताली धड़ ( Rhizome ) १ से २ इंच मोटा ( व्यास ), जुड़ा हुआ, दबा हुआ (संकुचित), अनेक श्वेत गदादार अंकुरों से युक्त होता है, जिनमें से कुछ में श्वेत कन्द ( Tuber ) लगे होते हैं । धड़ की प्रत्येक संधि पर शुङ्ग होता है। वहिर त्वक् छिलकायुक्त तथा हलका धूसर . होता है। अन्तः भाग पूर्ण सुवर्ण-पीतवर्ण का, गंध अति तीब्र तथा बहुत प्रिय नहीं ( भाईक, , कर तथा हरिद्रा के सम्मिलित गंधवत् ) , होती है । स्वाद उष्ण और कपूरवत् होता है । वन पाक को सूक्ष्म रचना-स्वचा का ऊर्ध्व भाग पिच्चित ( संकुचित :) एवं अस्पष्ट कोषों के बहुतसे स्तरों द्वारा बनता है। पैरेनकाहमा -- में वृहत्बहुभुज कोष होते हैं । पाताली धड़ के स्वगीय भागस्थ कोष करीब करीब स्वेतसारशून्य होते हैं, परन्तु उसके मध्य भागमें पाए जानेवाले कोष वृहत, अंडाकार, श्वेतसारीय कणों से पूरित होते हैं। उन धड़ के सम्पूर्ण भाग के वृहत कोष सुवर्ण-पीत वण के स्थायी तैल से पूर्ण होते हैं । वैस्क्युलर सिष्टम (कोष्ठक्रम) हरिद्रावत् होता है। _ रासायनिक संगठन-इसमें निम्न पदार्थ पाए जाते हैं:ईथर एक्सट्रैक्ट (१) स्थायी तैल, (२) वसा; और ( ३ ) मृदुराल) ६. १६ ऐल्कुहॉलिक एक्सट्रेक्ट(४)शर्करा,राल ७.२६ वाटर एक्सट्रैक्ट(५) निर्यास, (६) अम्ल आदि (७) श्वेतसार . ११. ०८ (८) क्रूड. फाइबर ... .. . १२. ६१ (8.) भस्म (१०) भार्द्रता . ... ....७. ६६ (११) अल्ब्युमिनॉइड्स और (१२) Modifications of arabin etc..) ३०.१८ __ जड़ कपूर तथा जायफल की मिश्रित. गंध. . तद्वत् चरपरी होती है । मृदु. राल ज्वलनयुक्र स्वाद रखता है। जड़ में कपूरहरिद्रा (Cur For Private and Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरण्येजीरम्, -कम् cuma aromatica ) की अपेक्षा अधिक शर्करा वा लुनाब होते हैं । प्रयोगांश-पाताली धड़ ( Rhizome ) तथा जड़ । इतिहास - यद्यपि रॉग्ज़बर्ग ने उक्त पौधे को कमुनार ( Cassumunar) लिखा है, तथापि इस बात में अत्यंत सन्देह प्रतीत होता कि श्राया इसकी जड़ कभी युरूप भेजी गई है या यह कभी भारत वर्ष में व्यापार की वस्तु रही है। कद्दुमञ्जल वनहरिद्रा का मालाबारी नाम हैं और इसीसे श्रौषध विक्रेताओं को कस्सुमुनार (Cassumunar root) नामक जड़ की प्राप्ति होती है । गंध एवं स्वाद में दोनों जड़ें बहुत समान होती हैं । महरली नाम निसा संस्कृत भाषा का शब्द है । निशा संस्कृत में हरिद्रा को कहते हैं। इससे यह प्रगट होता है कि देहाती लोग इसकी जड़ को वनार्द्रक मूल की प्रतिनिधि रूप से व्यवहार में लाते हैं। गुणधर्म तथा उपयोग - यह कटु, अम्ल, रुचिकारक, वल्य तथा श्रग्निवद्ध के है । रा० निं० व० ६ । इसके प्रभाव तथा उपयोग आर्द्रक के समान हैं । कोंकण में इसे वायुनिःसारक, उशेजक रूप से अतिसार एवं उदरशूल में वर्तते हैं । डाइमा | इसके अन्य उपयोग हरिद्रावत् हैं । ई० मे० मे० । अरण्यजीरम् -कम् aranyajiram, kam -सं० क्ली० वनजीरक, कटुजीरक, जंगली जीरा । बनजीरा - बं० । कडुजीरें मह० । जीरकत्र ते० । ( Wild cumin Seed. ) देखो - जीरा । गुण-जंगली जीरा, उष्ण वीर्य, कसेला, कटु, ara कफ स्तंभक तथा व्यविनाशक है। वै० निघ० द्रव्य० गु० । - हि० पुं० ५७६. अरण्य-तमाल aranya-tamála अरण्य-तम्बाकू aranya-tambákü फुलं, बन तम्बाकू, गीदड़ तम्बाकू, वनतमाल, वनज Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य तम्बाकू ताम्रकूट | ग्रेट मुलीन ( Great mullein ), मुलीन ( Mullein ) - इ० । वर्षैस्कम् भैप्सल ( Verbascum Thapsus, Linn.) -ले० | बोइलॉन ब्लैक (Bouillon blanc), मोलीनी ( Molene ) - फ्रां० । वूलर फूल, भूम के धूम, बन तम्बाकू, फ्रास रुक, एकबीर, कडण्ड, फूँटर, खर्गोश, खर्खरुश्रार, स्पिनखआर, गुरगना, करथी, रात्रन्दचीनी, किस्त्री- पं० । अदानुदुब्व ( रीछ कर्ण), माहीज़ह रज ( मत्स्य विष ), सिक्रानुल हुत ( मत्स्य शूकरान ), लबीतुबैदा (श्वेत चुप ) और बुसीर क्ष० । माहीज़ह रह, बुसीर-फा० ( इनि० ) । कटुकी वर्ग ( N. O. Scrophularinee ). उत्पत्ति स्थान- शीतोष्ण हिसालय, काश्मीर से भूटान पर्यन्त यूरूप ( ब्रिटेन से पश्चिमात्य ) संयुक्र राज्य ( United states ). इतिहास - ऐसा प्रतीत होता है कि चिकित्साशास्त्र के संस्कृत लेखकों ने उन पौधे का वर्णन नहीं किया है। अरब निवासी श्रदानुदुब्ब माहीज़ह रज तथा सीकरानुल-हुत आदि नामों से उक्त पौधे का वर्णन करते हैं । अर्वाचीन अरबी ( भाषा) में इसे लबीदतुल्बैदा वा बुसीर कहते हैं । मुलीन ( Mullein ) का फ़ारसी नाम माहीज़ह रह तथा बुसीर है । इख़्तियारात में हाजी जैन ने इसका स्पष्ट वर्णन किया है । वानस्पतिक - विवरण - पत्र, मूल-पत्र ६ से १८ इंच लम्बे, प्रकाण्ड (धड़) पत्र श्रायताकार; ऊर्ध्वपत्र छोटे नुकीले, डंठल रहित (वृन्त शून्य ) न्यूनाधिक दंष्ट्राकार ( लहरदार ) तथा सफेदी मायल चमकीले ( श्वेताभ ) एवं कोमल रोमों से घनाच्छादित होते हैं । स्वाद लुनाबी कुछ कुछ तिक्र, गंध ताजा होनेपर यह बात दूर होजाती है । इसके पुष्प ६ से १० इंच लम्बी बालियों पर लगे होते हैं। केवल पुष्पाभ्यन्तर कोष ( पुष्प दल ) एकत्रित किए जाते हैं। इसकी चौड़ाई (ब्यास) 2 से 3 इंच तथा लम्बाई १ इंच होती For Private and Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यतम्बाकू ५७७ अरण्यतम्बाकू है। दल चमकीले, पीत वर्ण के ( अथवा | बाहर से सुनेदो मायल पीत और भीतरसे सफेदी मायल नीले), पञ्च खण्ड युक्त. ऊर्ध्व भाग चिकना और अधः भाग लोमश होता है। नरतन्तु गर्भकेशर की नली से लगे होते हैं । इनमें से ऊपर के तीन ऊर्णीय तथा नीचे के दो लम्बे और चिकने होते हैं। स्वाद--लुभाबी और कुछ कुछ तिक होता है । हाजी जैन इसके पुष्प को नीलगुं बतलाते हैं जो वस्कम् ब्लेटेरिया (V. Blattaria) प्रतीत होता है । पुष्करमूल (Orrisroot) के साथ इसके पुष्प की गंधकी तुलनाकी गई है बीज , इञ्च लम्बे, गावदुमी (शुडाकार ), अत्यन्त कड़े जिनका चूर्ण करना अति कठिन है, करीब करीब गंध रहित होते हैं । स्वाद कुछ कुछ चरपरा होता है। रासायनिक संगठन-पुष्प में एक प्रकार का पीत उड़नशील तैल, वसामय अम्ल, स्वतन्त्र सेव वा स्फुरिकाम्ल, चूर्ण स्फुरेत तथा चूर्ण मलेत Malate of lime ), ऐसीटेट ऑफ पोटास, रवा न बनने योग्य शर्करा, निर्यास, हरिन्मूरि ( हरियाली) और एक पीत रालीय रञ्जक श्रादि पदार्थ होते हैं । (मोरिन) पत्र में रासायनिक विश्लेषण द्वारा ०.८०% स्फटिकवत् मोम, उड़नशील तैल के कुछ चिह्न, ईथरविलेय राल ०.७८%/o, ईथर में अविलेय किन्तु विशुद्ध मद्यसार (ऐलकोहल ) में विलेय राल १.००%/, सूक्ष्म मात्रा में कषायीन, एक तिक सत्व.शर्करा, लुभाब इत्यादि, आर्द्रता.१००/- और भस्म १२. ६० प्रतिशत तक होता है । (एडॉल्फ) __ औषध ( drug) में लुआब १६. ७६/ डेक्स्ट्रीन ( अंगूरी शकर ) के समान कार्बोज ( Carbohydrate ) ११. ७६%, ग्लूकोज़ ( मध्वोज ) ५. ४८%, सैकरोज (शर्करौज): २६°/0, आर्द्रता १६. ७६०/0, भस्म ४. ११%, सेल्युलोज (काष्ठोज) ३२.७५ प्रतिशत और लिग्नीन ( काष्ठीन ) आदि पदार्थ होते हैं । प्रयोगांश-चुप (अर्थात् मूल, पत्र, पुष्प एवं | बीज) औषध- निर्माण-पत्र-१ से ४ ड्राम । तरल सत्व-(पत्र वा पुष्प द्वारा प्रस्तुत ) १ से ४ फ्ल० ड्रा०। प्रभाव-पत्र वेदनाशामक, आक्षेपहर, स्निग्धताजनक, मूत्रल, मृदुताजनक, लुभाबी और सूक्ष्म निद्राजनक है। उपयोग-मुसलमान चिकित्सक इसे त्रितीय कतामें उष्ण व रूत मानते हैं, और विरेचन के साथ इसे आमवात तथा संधिवात में देते हैं। दीसकरीदूस ने इसके कई भेदोंका वर्णन किया है। वे इसे कास तथा अतिसार में लाभदायक और वाह्य रूप से मृदुताजनक बतलाते हैं । इसकी एक जाति से लैम्प की बत्ती बनाई जाती थी । ऐसा प्रतीत होता है कि अरब तथा नारस निवासी मुलीन के निद्राजनक (मत्स्य के लिए) प्रभाव से भली भाँति परिचित थे। डॉक्टर स्टयुवर्ट के मतानुसार इसकी जड़ उत्तर भारत में ज्वरघ्न रूप से उपयोग में पाती है। युरूप में मुलीन चिरकालसे पशुओं के फुप्फुस रोगों के लिए प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। इसी हेतु इसे काऊज़ लङ्गवर्ट ( Cow's lungwort) अर्थात् गो-फुप्फुस-तृण कहते हैं। जर्मनी में चूहों को भगाने के लिए इस पौधे को अन्न की कोठियों ( खातों ) में रखते हैं। प्रारम्भ में इसके डंठल को मशाल रूप से व्यवहार में लाते थे। इस कारण उन पौधे का, फ्रांस में सिअर्जी डी नाट्री डेमी ( Cierge de not1e-Dame) तथा फ्लोर डी ग्रांड शैण्डेलिभर ( Fleur de grand chandelier) और इङ्गलैंड में हाई टेपर (High taper) नाम पड़ गया। इसके पत्र तथा पुष्प स्निग्धताजनक, मूत्रल, अहम प्रशमन और आक्षेपहर हैं तथा चिर काल से अतिसार एवं फुप्फुस रोगों में व्यवहृत होते पा रहे हैं। फ्रांस में इसके पुष्प का शीत कपाय मूत्रल रूप से तथा पत्र का प्रलेप स्नेहजनक रूप से व्यवहार में आता है। बीज को निद्राजनक बतलाया जाता है और कहा जाता है For Private and Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यतम्बाकू अरण्यतुलसी कि श्वास तथा शिश्वाक्षेप ( Infantile यह यक्ष्मा की मूल्यवान औषध है तथा यह convulsions ) में इसका उपयोग किया रात्रिस्वेद को रोकती, कास को कम करती और गया है । डॉक्टर एफ० जे० बी० क्विनलैन प्रांत्र शैथिल्य को ठीक करती है। एक बाउंस (१८८३) ने आयरलैंड में इसके पत्र को दुग्ध (२॥ तो०) इसके पत्र को एक पाइण्ट (१० में उबाल कर क्षयजन्य कास तथा अतिसार के छटांक ) दुग्ध में उबाल कर दिन में दो बार मुख्य औषधीय उपयोग की ओर ध्यान दी। उपयोग करने से यह श्वासावरोध को दूर करता उन्होंने बतलाया कि बागों में उक्त पौधे की है। (वैट) विस्तृत कृषि की जातीहै । उनका दावा है कि यह मूत्रावयवस्थ क्षोभ तथा प्रदाह, प्रतिश्याय इसमें कॉडलिवर जाइल (कोड मत्स्य यकृतैल) और अतिसार में लाभदायक है। श्वास रोग समान शरीरभारवद्धक तथा रोगनिवारक गुण में इसके शुष्क पत्र को हुक्का पर पीते हैं अथवा इसका सिगरेट उपयोग में लाते हैं। इसकी जड़ ज्वरघ्न रूप से दी जाती है । इसके डाक्टरविन लैण्ड के चिकित्सालय विषयक बीज कामोत्तेजक हैं। इसके पत्तेको रगड़कर उसमें प्रयोगों द्वारा निम्न परिणाम स्थिर किए गए हैं:तैल सम्मिलित कर तथा उसे गर्म करके शोथ (१) यक्ष्माकी प्रारम्भिक तथा उरःक्षतीय अवस्था युक्र स्थानों पर लगाते हैं । मुट्ठी भर इसके पत्र से पूर्व प्रयोग करने से मलोन में कॉड लिवर को १ पाइंट (१० छटांक ) गोदुग्ध में यहाँ तक उबालें कि अद्ध पाइंट (५ छटांक) दुग्ध शेष श्राइल (कांड मत्स्य यकृतेल) की अपेक्षा अधिक तथा रशन कौमिस (Russian koumiss) रहजाए । तदनन्तर इसे छानकर शर्करा सम्मिलित | कर सोते समय सेवन करें। इससे कास कम के तुल्य शरीरभारवर्द्धक एवं रोगनिवारक शक्ति होती है तथा वेदना और क्षोभ दूर होते हैं। है। (२) उरःक्षतावस्था में यह कास को इं० मे० मे०। बहुत कम करता है। (३) यचमीयातिसार पूर्णतः प्रतिवन्धित हो जाता है। (४) इसका डॉक्टर स्टयुवर्ट के कथनानुसार इसको यचमा के रात्रिस्वेद पर कोई सशक प्रभाव नहीं रेवन्दचीनी भी कहते हैं । यह इस कारण है कि कभी रेवन्दचीनीमें इसका मिण करते थे। होता । अस्तु उसका धन्तूरीन (ऐट्रोपीन ) से सामना करना चाहिए। पी०वी०एम०। गैराड-डिजिटेलिस में कभी कभी इसका तथा अन्य पौधोंका मिश्रण करते हैं । दत्त महोदय | अरण्य-तुलसी aranya-tulasi-सं० स्त्री० वर्णन करते हैं कि देशी लोग इसे श्वास तथा वनतुलसी, कृष्ण तुलसी । ( Ocimum फुप्फुस रोगों में वर्तते हैं और यह कि इसमे Gratissimum ) कालावावरी-हिं० । तमालवत् (ताम्रकूट अर्थात् तम्बाकूवत् ) निद्गा- राणतुलस-मह० । वैजयन्ती तुलसी। यह दो जनक गुण है। बीज कामोद्दीपक ख्याल किए प्रकार की होती है:-- (१) हस्व ( छोटी ) जाते हैं। तुलसी और (२) दीर्व (बड़ी) तुलसी । युरुप तथा अमरीका के संयुक्तराज्य में एक गुण-- जंगली तुलसी सुगंधयुक्त, उपण, कटु समय स्निग्धताजनक वा नहुताकारक रूप से है तथा वात, चर्मदोष, विसर्प और विषनाशक इसके घने ऊर्णीय पत्र का केवल गृह औषध में ही है। छोटी जंगली तुलसी कटु, उष्ण, तिक, नहीं, अपितु चिकित्सकगणों में भी बहुत रुचिकारक, दीपन, हृदय को हितकारक, लघु, मान्य था । प्रतिश्याय तथा अतिसार की विदाही, पित्तकारक एवं रूक्ष है तथा कण्डू, विप, चिकित्सा में इसका अन्तः और अर्श में वाह्य छर्दि, कुष्ट और ज्वरनाशक है एवं वात,कृमि,कफ, (प्रलेप रूप से ) उपयोग किया जाता था। दद् तथा रक्रदोष नाशक है। बीज-दाह तथा (वैट) शोषनाशक है। वै. निघ० द्र० गु०। For Private and Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य पुसकः ५७६ अरण्य पुदीना नस्य। अरण्य पुसकः aranya-trapusakah-सं० कहते हैं। उनमें ( जड़ ) से दो सत्व प्राप्त पु. वन्य त्रपुष, जंगली खीरा ( Wild. होते हैं, जिनमें से एक वह है जिसका यहाँ वर्णन cucumber )। बनशशा, बनकाकुड़-बं० । हो रहा है । गोंडशेंदनी-मह० । वै० निघः । लक्षण-यह एक प्रकार का धूसर वर्ण का अरण्य पुसो aranya-trapusi-सं० स्त्री० चूर्ण है जो जल में तो अविलेय, परन्तु मद्यसार (१) इन्द्रवारुणी, इन्द्रायन । राखाल शशा में विलेय होता है। -बं० (Citrullus Colocynthis.) ___ मात्रा-1 से ५ ग्रेन (.०६ से '३ ग्राम) (२) महाकाल लता, लाल (बड़ा) इन्द्रायन | वटिका ( या चूर्ण) रूप में बरतें। माकालफल-बं० । ( Trichosanthes __ टिंकचूरा बैप्टिसीई ( Tinctura BaPalmata.)। वै० निघ० अपस्मा० चि० ptisie.), टिंकचर |ौफ़ बैप्टिसीन ( Tin cture of Baptisin. )-सब्गृह् नीलज अरण्यदमनः aranya damana h-सं० पु. बरी-अ० । तफ़ीन नील सहाई-फा० । वन दमन वृक्ष, वनदौना, अफ़सन्तीन भेद । मात्रा-५ से ३० मिनिम=( ३ से २ घन ( Arternesia Siversiana.) के० । शतांशमीटर)। अरण्य (ज)द्राक्षा aranya,-ja-drāksha-सं० __ प्रभाव तथा उपयोग-थोड़ी मात्रा में कोष्ठ स्त्री० जंगली दाख । मवेज़ज, ज़बीबुज्जबल-०। मृदुकारी रूप से पुरातन विष्टम्भ ( मलावरोध) ( Delphinium staphesagria. )| में देते हैं। अधिक मात्रा में विरेचक और वामक -ले। स्टैफिसैनीई सेमिना (Staphesa- | है। यह यकृदोत्तेजक एवं आमाशय विकार करने griie semina.)-ले०। वाला है। अरण्य धान्यम् aranya-dhānyam-सं० अरण्य पलाण्डुः aranya-palanduh-सं० कोनीवार । उड़िधान-बं। देवभात-मह० । पु. वन जात पलांडु, जंगली प्याज, काँदा । (Wild variety of Oryza sativa.) वन पेंयाज-बं० । (Scilla Indica.) रा०नि० व. १६ । अत्रि। अरण्य धेनुः aranya-dhenuh-सं० ० ___ गुण-मूत्र विरेचक, श्लेष्मघ्न, अति उग्र, बन गाय, जंगली गाय । ( Wild cow.) अधिक मात्रा में देने पर वान्तिकारक तथा मलअरण्य नील सत्व aranya nila satva भेदक है और विष के समान मनुष्य को मार -हिं०० जंगली नील का सत। बैप्टिसीनम् डालता है। शोथ, श्वास, कास तथा मूत्रसंग ( Baptisinuim. )-ले० । बैप्टिसीन (मूत्रावरोध ) की दशा में यह प्रयुक्त होता है। ( Baptisin. )-इं० । जौहर नीले सह राई अत्रि० । देखो-वन पलाण्डुः। -फ़ा, उ.। अरण्य पिप्पली aranya-pippali-सं० स्त्री० नॉट ऑफिशल वन पिप्पली नामक सुप, वन पीपल । वन पि. ( Not Official. ) पुल-बं० । (See-Vanapippali.) रा० उत्पत्ति-स्थान-संयुक्त राज्य अमरीका में नि. व०६। एक भाँति के जंगली नील के पौधे उत्पन्न होते | अरण्य पु (पो) दीना aranyu-pudina-हिं. हैं जिनका वानस्पतिक नाम बैप्टीसिया टिंक- पु. जंगली पुदीना (रोचनी)। हाशा-अ०। टोरिया ( Baptisia Tinctoria.) है; पुदीना कोही-फ़ा० । Wild thyme उन्हें प्रांग्ल भाषा में वाइल्ड इण्डिगो ( Wi- (Thymus Vulgaris or Serpy. ld Indigo.) अर्थात् वन्य (अरण्य ) नील | llum, Linn.) For Private and Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य मदनमस्त पुष्प ५८० মন মদি। अरण्य मदनमस्त पुष्प aranya-madan. पाए जाते जो इसके प्रसिद्ध मदकारी प्रभाव के .masta-pushpa-हिं० पु. सिकास सर्सि- हेतु सिद्ध हों। इससे कतीरा के समान एक नेलिस (Cycas Circinalis, Linn. निर्यास तथा एक प्रकार का सागू या प्रकांड Syn. C. Iner mes.) । जंगली मदनमस्त तथा अस्थि द्वारा निर्मित वाटा जिसको मलाबार का फूल । बजर बह-बम्ब० । पहाड़ी मदन- में "इन्दुम पोदी" कहते हैं, पाए जाते हैं। मस्त का फल-द० । अाम्देसामोटपन-गो०। प्रभाव तथा उपयोग-नर पौष्पिकपत्र(कोष) मदन कामेशुरप्पू, मदन-कामम्पू, कामप्पू, चनंग दक्षिण भारतवर्ष में मादक रूप से उपयोग में काय-ता० । मदन मस्तु, रान गुवा, मदन- श्राते हैं। इनमें उनपर रहने वाले कीटाण, ओं कामाक्षी-ते०। मालाबारी-सपारी-मह। रिन को मदान्वित करने का गुण है। ये उत्तेजक बदम, टोड्डुपन, एन्थकाय-मलब। मुदंग-बर।। तथा कामोद्दीपक भी हैं। इसका श्रौषधीय गुण मदू-गस्स-सिं०। पाटला (पाढ़ल ) पुष्प के समान ख़याल किया (N. O. Cycadirceoe.) जाता है। इसी कारण इन दोनों ओषधियों को उत्पत्ति-स्थान-मालाबार तट, पश्चिम मद- तामिल भाषा में मदन-काम-पु अर्थात् कामपुष्प रास की शुष्क पहाड़ियाँ। शब्द से अभिहित करते हैं। अरण्य-मदन-मस्त प्रयोगांश-पौष्पिक पत्र (बैक्ट्स ), गुठली पुष्प के पौष्पिकपत्र (बैक्ट्स) को अन्य द्रव्यों के तथा काण्ड। साथ चूर्णित कर इससे कामोद्दीपक मोदक प्रस्तुत वानस्पतिक-विवरण-बाजार में बिकने किए जाते हैं । इस वृक्ष के कांड तथा गुठली द्वारा वाले पौपिकात्र भाला के शिर के शकल के, दो श्राटा प्रस्तुत किया जाता है। मालाबार में इस इञ्च लम्वे तथा प्राध इञ्च चौड़े और पृष्ट की ओर की गुठलियों को एकत्रित कर मास पर्यंत धूप में धूसरपीत वर्ण के कोमल सूक्ष्म रोमोंसे आच्छा सुखाते हैं; तदनन्तर इसे खल में कूटकर भाटा दित होते हैं। प्रत्येक छिलके के वाह्य ऊर्ध्वकोण बनाते हैं जिसको "इंदुम पोदी" कहते हैं। यह से एक सूआकार अन्तः वक्र विन्दु निकलता है। (Calyota.) के प्राटे से श्रेष्ठ, किन्तु चावल जब कि कोण प्रथम प्रथम प्रगट होता है तो वे से निम्नकोटि का होता है और इसे पहाड़ी जा. अनन्नास के अङ्कर के समान बहुत निकट निकट तियाँ तथा निर्धन लोग खाते हैं, विशेषकर जुलाई चापित रहते हैं. परन्तु ज्यों ज्यों उनकी अवस्था से सितम्बर मास तक जब कि चावल कम होता अधिक होती है त्यों त्यों वे एक दूसरे से भिन्न है और उनके नाश होने का भय रहता है । प्रायः होते जाते हैं । इनमें कोई तन्तु नहीं होता; छिलके सागू में इसका मिश्रण किया जाता है। रहीडी (Rheede) के वर्णनानुसार फलान्वित कोण का अन्तस्तल पराग-कोष (ऐन्थर) द्वारा पूर्ण रूप से पाच्छादित होता है; पराग-कोष (ऐन्थर) एक (Cone) की पुल्टिस कटि पर लगाने से वृक्कशोथ विषयक शूल दूर होता है । फा०ई०३ सेलीय द्विकपाट युक्त, शिखरके इर्द गिर्द खुला हुश्रा होता है. जिससे पराग विसर्जित हुया करता है। भा० । ई० मे० मे। मजा में पाए जाने वाले श्वेतसार की अगा. नोट-"मदनमस्त"(Artabotrys odवीक्षण द्वारा परीक्षा करने पर यह सागू के समान oratissiima, R. BP.) तथा "मदनमस्त होता है। का झाड़" नाम की दो और वनस्पतियाँ हैं जो रासायनिक-संगठन(या संयोगी अवयव)- पूर्व कथित वनस्पतियों से नाम सादृश्यता रखने पौष्पिकपत्र तथा त्वचा में अधिक परिमाण में पर भी दो सर्वथा भिन्न भिन्न ओषधि हैं। स० अल्ब्युमेनीय वा लबाबदार पदार्थ, जो जल में फा० इं० । इनके लिए यथास्थान देखो। लयशील होते हैं, शुष्क रूप में पाए जाते हैं। | अरण्य मक्षिका aranya-makshika-सं० परन्तु, इसमें कोई क्षारीय वा अन्य ऐसे सत्व नहीं स्त्री. वन मक्षिका, डंस, मच्छड़-हिं० । डॉश, For Private and Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यमुद्गः ५८१ अरण्यवाताद माछि-ब' । गैड फ़्लाई (Gad fly )-इं० । श. र० । अरण्य मुद्गः aranya-mudgah-सं० वनमुद्ग, बन, ग, मुद्गपर्णी । घोड़ा मुग-ब० । ( Phaseolus Trilobus, Ait. ) iro नि० व० १६ । देखो--मकुष्ठकः । अरण्यमुद्गा aranya-mulga सं० स्त्रो. मुद्गपर्णी,बनमूग-हिं० । मुगानि-बं० । (Pha. seolus Trilobus .dit.)रा. नि० व ३ । अरण्य मेथो aranya-methi-सं० स्त्री० वन मेथिका, बनमेथा, जंगली मेथी । बन मेति-बं० राणमेथि-मह० । (See- Vanamethi) वै० निघ। अरराय रजनी a.lanya ra.jani-सं० स्त्री० वनहरिदा, जंगली हलदी । बन हलुद-बं । राण हलद-मह. | (Cureuma Aroma. tica.) वै० निघ० । अरण्यलक्ष्मो aranya.lakshmi-सं० स्त्री० वन लक्ष्मी, रम्भा फल, अरण्य कदली, जंगली केला । Wild Plantain ( Musa Paradisiaca ). अरण्य वाताद aranya-Vatad.-सं० पु. (१) बीज-जंगली बादाम-हिं०, द० । fesatarda arfeqar (Hydnocarpus Wightiana, Blume. ), हिं० श्राइनेविधंस ( H. inebrians, Wall.)-ले० । जंगल श्रामण्ड ( Jungle Almond ) -इं० । नीरडि मुत्तु , एट्टी-ता० । नीरडि-वित्त लु -ते. । कडु-कवथ, कौटी-मह० । तमन, मरवेत्ति -मल० । रट केकुन, मकूलू-सिं० । कोष्टो-गोग कौटी -बम्ब० । तैल-जंगली बादाम का तेल -द०। नीरडि -मुत्त -एण्णेय-ता० । नीरडिवित्त लु-नूने--ते। कुष्ठवैरी वा चॉल मूगरा वर्ग (N. 0. Birineoe.) उत्पत्ति-स्थान-पश्चिम प्रायद्वीप, दक्षिण कोंकणसे ट्रावनकोर पर्यन्त, मालाबार और दक्षिण भारत के कुछ अन्य भाग । इतिहास--उक वृक्ष के इतिहास के विषय में जो कुछ हमें ज्ञात है, वह यह है कि पश्चिम समुद्र तट पर यह कतिपय हीले स्वररोगों में गृह औषध रूप से चिरकाल से उपयोग में आ रहा है। तथा निर्धन जाति के लोग जलाने तथा औष. धीय उपयोग हेतु इसका तैल निकालते हैं। (डाइमांक) वानस्पतिक-विवरण-इसका फल गोलाकार सेब के प्राकार का होता है। जिसके ऊपर एक खुरदरा मोटा धूसर रंग का छिलका होता है, जो बाहर की ओर कॉर्कवत् और भीतर से काष्टीय होता है, जिस पर बृहदाबुद जटित होते हैं; पर किसी किसी वृक्ष में अधुदशून्य फल भी होते हैं। इसके भीतर १० से २० अधिक कोणाकार बीज जो करीब करीब १ ई० लम्बे, इं० चौड़े और ३ से ४ इं. मोटे, सामान्यतः विषम अंडाकार कभी कभी अंडाकार या श्रायताकार होते हैं और जिनके ऊपर का सिरा नीचे की अपेक्षा अधिक नोकीला होता है। बीज अल्प श्वेतमज्जा में रखे रहते और श्याम पतले वाह्यत्वक् से मजबूती के साथ चिपके रहते हैं । मजा को खुरच कर पृथक् करने पर बीजबहिः त्वक् का वाह्य पृष्ठ खुरदरा और लम्बाई की रुख छिछली नलिकाकार धारियों से युक्त दीख पड़ता है । उभार स्पष्ट व्यक्त नहीं होते छिलके के भीतर भरपूर तैलीय अल्युमेन हाता है, जिसमें चालमृगरा के समान दो वृहद्, स्पष्ट हृदाकार तीन नसों से युक्त पत्रीय दौल होते हैं। ताजी अवस्था में अल्ब्युमेन का वर्ण श्वेत, किन्तु शुष्क होने पर गम्भीर धूसर वर्ण का हो जाता है। इसकी गंध चालमूगरा के समान होती है। मोहीदीन शरीफ के मतानुसार यह गन्धरहित तथा कुछ कुछ वातादवत्, निर्बल मधुर स्वादयुक्त होता है। पारस्परिक दबाव के कारण प्रायः ये विषम हो जाते हैं। इसके बीज चालमूगरा के समान होते हैं। परन्तु ये आकार में छोटे तथा खुरदरे होते हैं जिनकी लम्बाई की रुख धारियाँ होती हैं। चावलमूगरा में यह बात नहीं होती। For Private and Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद ५८२ अरण्यवाताद उसके बीज चिकने और प्राकार में इससे दुगुने बड़े होते हैं। सूक्ष्म रचना-वीज वाह्य त्वक् तथा अलब्युमेन को सूक्ष्मदर्शक द्वारा परीक्षा करने पर ये चावलमूगरा वीजवत् पाए जाते हैं। रासायनिक संगठन-बीज में लगभग ४४% स्थिर तैल होता है, जो गंध या स्वाद में चालमूगरा तैल के समान होता है। तेल में चालमृग्रिकाम्ल तथा हिड्नोकार्पिकाम्ल और | किंचिन् मात्रा में पामिटिक एसिड होता है। उपर्युक दोनों अम्ल स्फटिकीय होते हैं। प्रयोगांश--बीज तथा तेल । इन्द्रियव्यापारिक कार्य--परिवर्तक, बल्य, स्थानिक उत्तेजक ( मो० श० ), पराश्रयी कीटप्न, बीज शोधक है। औषध निर्माण--औषधीय उपयोग और इनकी प्रतिनिधि स्वरूप युरूपीय द्रव्य-चालमूगराके बीज और तैल । मात्रा--तैल--१५ बुद से २ ड्राम पर्यन्त ( १-२ फ्लइड ड्राम ) अथवा प्रामाशयपूर्ति पर्यन्त । बोज-क्रमशः इन्हें १५ ग्रेन (७॥ रत्ती) से २ ड्राम तक बढ़ाएँ । अन्तः रूप से बीज को चबाकर केवल रस को निगले; पर सम्पूर्ण वस्तु को नहीं। बीज की अपेक्षा तैल अधिक लाभदायक, संतोषजनक तथा उत्तम है । तैल चालमूगरा तैल की उत्तम प्रतिनिधि है। पूर्ण लाभ हेतु इसका पूर्ण औषधीय मात्रा में उपयोग करना चाहिए। नोट--गोंकि यह बहुत स्वल्प मूल्य की वस्तु है, अस्तु अकेले ही बिना किसी अन्य तैलके | सम्मेलन के इसका वहिरप्रयोग करना चाहिए। __ उपयोग--खजू (तरखुजली) तथा विस्फोटक आदि स्वरोगों में इसके बराबर कानन एरण्ड तैल ( Jatropha curcas oil) fafara कर उसमें गंधक २ भाग, कपूर श्राधा माग, तथा नीबू का रस १० भाग योजित कर इसका अभ्यंग करते हैं । प्रलेप वा इमलशन रूप में इसका वाह्य उपयोग होता है। शिरोदग्ध ब्रण में इस का तेल तथा चूने को पानी समान भाग में प्रलेप रूप से उपयोग में पाते हैं । (डाइमांक) यह ग्रामवात विषयक वेदना को शमन करता है और इसे त्वरोगों में बर्तते हैं। भस्मों (क्षारीय) के साथ मिलाकर इसे विद्रधि, चक्षुक्षत तथा अन्य क्षतों पर लगाते हैं । र्हाडी ट्रावनकोर में श्राधे चाय के चम्मच भर की मात्रा में इसे कुष्ठ रोगों में देते हैं, और एरण्ड की गिरी तथा छिल के के साथ कुचल कर खुजली में इसे औषष रूप से उपयोग में लाते हैं। (डायमांक) यद्यपि १५ बुद से २ ड्राम की मात्रा में कुष्ठ, विभिन्न प्रकार के स्वरोग, उपदंश की द्वितीय कक्षा और पुरातन प्रामवात में इसका अन्तः प्रयोग होता है; तथापि इसके उपयोग में अत्यंत सावधानीकी श्रावश्यकता होतीहै। कहा जाता है कि यह प्रामाशय तथा प्रान्त्र क्षोभक है क्योंकि कतिपय दशाओं में इसके उपयोग से वमन व रेचन श्राने लगते हैं । (वैट) इसका तैल कुष्ठ के लिए न्यारा तथा चालमूगरा से श्रेष्ठतर अनुमोन किया जाता है । इसकी मात्रा ५ बुन्द से क्रमशः बढ़ाकर ३० बु'द पर्यन्त है। कुष्ठ में मांसांतरीय वा शिरान्तः अन्तःक्षेप द्वारा भी इसे प्रयुक्र करते हैं। ईथिलेस्टर्स के मांसांतरीय वा इसके लवण ( चलिमूनिक तथा हाइड नोकार्पिकाम्ल ) के शिरान्तरीय अन्तःक्षेपों के सर्वोत्तम परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। इससे लेप्रा वेसिलाई ( कुष्ट के जीवाणु) और ग्रंथिकों ( Nodules) का अन्त हो जाता है। (चक्रवर्ती) डॉक्टर एम०सी०कोमन देशी औषध विषयक मेदरास समाचारमें जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुधा है। एक पुरातन कुष्ठ रोगी का उल्लेख करते हैं, कि उसे उक्र तैल के अन्तः (मुख द्वारा ) एवं स्वस्थ ( अन्तःक्षेप ) प्रयोग से ( रोग की विभिन्न अवस्थाओं वा भेदोंस्पर्शाज्ञता, मिश्र, ग्रंथि युक्र तथा ततज इत्यादि For Private and Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरण्यवाताद किसी में) अत्यन्त लाभ हुआ । ५ बुद उक्त तैल तथा उतना ही पिथांस वसा Pythons fat) इन दोनों को मिलाकर तथा एक एक बूंद दैनिक तैल की मात्रा बढ़ाते हुए उक्त मिश्रण का उस समय पर्यन्त मांसांतर अन्तःक्षेप करें, जिसमें मात्रा ३० वा ४० बूँद हो जाए। किसी रोगी को बीज की गिरी पिसी हुई, नारिकेल तैल, सोंठ तथा गुड़ (Jaggery ) द्वारा निर्मित लड्डु . भी दिया गया । इसका तेल १० बूंद की मात्रा में कलेवा से १ घंटा पूर्व तथा पाक २० ग्रेन ( १० रत्ती ) की मात्रा में संध्या काल में दिया गया । इस प्रागुक्त चिकित्सा से पूर्व विशुद्ध विचूर्णित जयपाल बीज का ८ से १० दिवस पर्यन्त रेचन दिया गया । उपर्युक चिकित्सा के अतिरिक्त किसी किसी रोगीको सप्ताह में २ बार सोडियम हाइड नोका पेट - घोल ( २ घन शतांश मीटर ) का त्वक्स्थ अन्तः क्षेप किया गया | परिणाम निम्न हुआ - "जो कुछ मैं ने देखा उसमें सन्देह नहीं कि अरण्यवाताद ( H. Inebrians कुष्ठ की घृणायुक दशाओं के सुधारने के लिए एक शक्तिमान औषध है ।" कलकत्ता के वैज्ञानिक अन्वेषक डॉक्टर सुधामय घोश अक्टूबर मास सन् १९२० के इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रीसर्च में लिखते हैं कि कुष्ठ की चिकित्सा में हाइड्नोकार्पिकाल का सोडियम साल्ट अत्यन्त गुणदायक एवं उपयुक्त पाया गया । उनका कथन है कि श्ररण्यवाताद ( Hydnocarpus Wightiana) तथा लघु कवटी ( H. Veneata) द्वारा प्राप्त तैल, चॉलमगरा तैल की अपेक्षा अधिक सुलभ है। चॉलमृगरा तैलसे तुलना करने पर ५-५ प्रतिशत के स्थान में उनमें अधिक ( १० प्रतिशत ) हाइड्नोकार्पिकाम्ल वर्तमान होता है । स्तु, मितव्ययता के विचार से कुष्ठ चिकित्सा में उनका उपयोग योग्य प्रतीत होता | यक्ष्मा, छिलका युक्र विस्फोटक, कंडमाला के ग्रंथिकों, हठीले स्वग्रोगों यथा कंडू, रक्काभायुक्त विस्फोटक ( Lichen ), रकसा ( Prurigo) ५८३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य वाताद तथा उपदंश मूलक त्वग्ररोगों पर उम्र तैल का अभ्यंग करते हैं । दुर्गन्धित ( पूतिगंध युक्त ) स्रावों में विशेषतया प्रसव के पश्चात् योनि शोधन रूप से योनि में तथा पूयमेह में इसके बीज के शीत कषाय का मूत्रमार्ग में पिचकारी करते हैं । सुश्रुत महाराज स्वरचित सुश्रुत संहिता नामक प्रामाणिक संस्कृत ग्रंथ में लिखते हैं कि कुष्ट रोग में खदिर क्वाथ के साथ चॉवलमूगरा तैलके सेवन करने से इसकी गुणदायक शक्ति अधिक हो जाती है । यदि यह सत्य है तो चालमूग्रिकाम्ल खदिरोल ( Catechol ) के साथ, जो उसका प्रभावात्मक सत्व है, सम्मिलित कर परीक्षा की जा सकती है । कहा जाता है कि डॉक्टर उन्ना ( Unna ) ने पाइरोगयलोल का, जो खदिरोल के बहुत समान है, श्रोषिद ( Oxide ) रूप में कुष्ठ रोग में सफलतापूर्ण उपयोग किया । कुष्ठरोग की आयुर्वेदिक चिकित्सा में चीलमूगरा तैल तथा गोमूत्र दोनों श्रन्तः एवं वहिर रूप से उपयोग में आते हैं। इसके विषय में आधुनिक सर्वश्रेष्ठ भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र घोश महोदय लिखते हैं कि सम्भवत: तैल के अम्लों का मूत्र के सैन्धजम् ( Sodium ) तथा अमोनियम आदि लवणों से सम्पर्क होने पर कुछ क्षारीय लवण बनजाते हैं और विलेय होने के कारण ये रोगी के रक्त द्वारा समस्त शरीर में व्याप्त हो जाते हैं तथा चीलमूगरराम्ल के विलेय लवणों की तरह प्रभाव करते हैं । (इ० मे० मे०) अश्व के वर्षाती नामक रोग में यह तैल श्रौषध रूप से प्रयुक्त होता है । (२) जंगली बादाम - हिं०, बस्ब० मह० | वाइल्ड आमण्ड ( Wild almond ), पून ट्री (Poon tree. ) - इं० । स्टरक्युलिया फीटिडा ( Sterculia Foetida, Linn. ) - ले० । पून- बम्ब० । कुड़प डुक्कु, पिनारी, कुदुरई- पुडुकी, कुछ फुक्कु, पिनारी ( - ) मरम्- ता० । गुरपू बादाम - ते० । पिनारी मर, भाटला-कना० । पोट्ट-कवलम.. For Private and Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यवाद ५६४ अरण्यवाताद मल० । हलियम पियू, लेट् कोय्-बर०। कुप्रो. मद, विरोही-गो० । नय॑ उद्गु ०, मह० । श्रावर्तनी वा मरोडफली वर्ग (N. O. Sterculiaceae). उत्पत्ति स्थान-पश्चिमी घाट (वा प्रायद्वीप), दक्षिण भारत, कोंकण, मालाबार, ब्रह्मा और लंका। वानस्पतिक-विवरण-इसके विशाल वृक्ष होते हैं । स्टक्युलिया की अनेक जातियों से वृहत् तैलीय बीज प्राप्त होते हैं, जिन्हें दिहाती लोग खाते हैं। बीज श्रद्ध अंडाकार १ इंच लंबे और आध इंच चौड़े (व्यास), एक ढीले श्यामवण की झिल्ली से आच्छादित होते हैं। आधार पर एक पीतवर्ण का अर्बुद होता है। कठिन श्यामत्वचा एक उण जटित स्तर से आच्छादित होती हैं । यह भीतर से धूसर एवं मखमली होती, और इसके भीतर बीज के प्राकार की एक तैलीय श्वेत गिरी सम्पुटित होती है । प्रत्येक बीज का भार लगभग २ ग्रामके होता है। छिलका कठिनतापूर्वक चूर्ण किया जा सकता है। ऊणवत् त्वचा जल में बैसोरीन ( Bussorin ) की तरह मदु हो जाती है। गिरी में लगभग ४० प्रतिशत स्थिर तैल और अधिक परिमाण में श्वेतसार विद्यमान होते हैं। रासायनिक संगठन-तैल गाढ़ा, फीका पीतवर्ण का, कोमल और शुष्क नहीं होने वाला है। हॉर्सफ़ील्डके कथनानुसार इसकी फली लुभाबी तथा सङ्कोचक होती है । (ऐन्स्ली ) धूपन रूप से इसका मुख्य उपयोग होता है। कंडू एवम् अन्य स्वग्रोगों में इसका अन्तर और प्रस्तर (उत्कारिका) रूप में वहिरप्रयोग होता है । इसके बीजको भूनकर खाते हैं । ( ई० मे० मे ( ३ ) जंगली बादाम-हिं०, कच्छ,-बं० । जावा श्रामण्ड (Java alimond)-ई० । एलीमाइ ट्री ( Elemi tree), केनेरियम् कम्म्यून ( Canarium comim une, Jinn.)-ले० । बाइस डी कोलोफेन (Boisde colophane )-फ्रां० । एलीमाइ-पू० भा० । कानारि-मल० । बदामी-जावा । कग्गली मर, कग्गली बीज, सम्बाणी, जावा बदामी यौनी-कना०। बादाम जावी-हिं०। मन्शिम -अ०। महारुख वर्ग नॉट ऑफिशल (Not official) ( N.O. Burserracece., or amyridaceae & simarubacea). उत्पत्ति-स्थान-मलया आर्चीपेलेगो, पूर्वी भारतीय द्वीपसमुदाय, पेनँग, मलया, ट्रावनकोर, दक्षिणी भारत में इसको कृषि की जाती है। इतिहास-रस्फियस ( Rumpheus ) के वर्णनानुसार यह सीराम और उसके आसपास के महाद्वीपों में होनेवाला एक विशाल वृक्ष है। जिससे इतनी अधिकता के साथ राल उत्पन्न होता है कि वह वृहत् टुकड़ों अथवा शंकाकार अश्रु रूप में धड़ तथा मुख्य शाखाओं से लटके रहते हैं । प्रारम्भ में यह श्वेत, तरल एवं चिपचिपा; किन्तु पश्चात् को यह पीताभायुक्त और मोमवत् गाढ़े हो जाते हैं। वह आमण्ड(बादाम)का भी वर्णन करते हैं और कहते हैं कि उसे कच्चा खाने से रेचन पाते हैं तथा अजीर्ण हो जाता है । स्प्रेङ्गल के विचारानुसार :श्रामण्ड इब्नसीना वर्णित मन्शिम है जो उनके वर्णनानुसार बतम प्रयोगांश-पत्र, पुष्प, बीज, त्वक् । प्रभाव तथा उपयोग-लोरीगे ( Loure. iro)के कथनानुसार उक्त वृक्ष की त्वचा (वा पत्र) रेचक, स्वेदक तथा मूत्रल है। चीनी लोग इसे जलोदर तथा प्रामवात में देते हैं। पुष्प विष्ठावत् गंध के लिए प्रसिद्ध है । (डाइमॉक) इसके बीज तैलीय होते हैं और जब इसे असावधानी से निगल लिया जाता है तो उलेश जनित होता तथा शिर चकराने लगता है। ई० मे० प्लां । For Private and Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद अरण्यवांताद - ( Pistacia tere binthus) के समान रासायनिक संगठन-बीन ( Brein ) त्रिकोणमय बीज होते हैं। परन्तु अरबी कोषकार ६० प्रतिशत, एमाइरीन ( राल ) २५ प्रतिशत, उसे बालसंम फल (Carpobalsamum ) Artista (Bryoidin ), asta( Breख्याल करते हैं। ऐन्सली कहते हैंकि अपनी जावा idin ) तथा एलेमिक अम्ल | लयशीलताकी औषधीय वनस्पतियों की सूची में हॉर्सफील्ड यह ईथर में तो बिलकुल लय हो जाता है, पर हमें बतलाते हैं कि उक्त निर्यासमें कोपाइबी बाल- मद्यसार (६०%) में भी इसका बहुत सा सम ( Balsam of copaiba ) के भाग लयशील होता है। समान ही गुणधर्म हैं । इसकी त्रिकोणयुक्त गिरी प्रयोगांश-गुठली अर्थात् बोज तथा तैल, को दिहाती लोग कच्चे ही एवं पका कर खाते जमा हुआ आलियो-रेजिन जो काटने से टपकने हैं और तेल ताजी दशा में खाने तथा बासी होने लगता है ( एलेमी)। पर जलाने के काम आता है। राल भी जलाने के औषध-निर्माण-प्रलेप(५ में ); गिरी काम आता है। अर्थात् बीज तथा तेलका इमल्शन | मात्रा-प्राधा जावा में वीज के लिए इसके वृक्ष लगाए श्राउंस से १ पाउंस। जाते हैं। भारतवर्ष में ट्रावनकोर के पास यह एलिमाई प्रलेप ( Unguentum ele. अत्यन्त सफलतापूर्वक उत्पन्न किया गया है। mi )। मरहम रातीनजुल मन्शिम्-अ० । शे खुरईस ने मन्शिम (हब्बुल मन्शिम ) के निर्माण-एलीमाई १ भाग, स्परमेसीटाई नाम से इस वृक्ष के फल का वर्णन किया है। प्राइंटमेंट ४ भाग दोनों को परस्पर पिघला कर हब्बुल मन्शिम के नाम से महजनुल अद्वियह, छान लें और शीतल होने तक हिलाते जाएँ। और मुहीत आज़म में भी इसका वर्णन पाया है। प्रभाव-स्निग्धताजनक. उत्तेजक और श्लेष्मयमन तथा हजाज़ निवासी इसके तैल को निस्सारक । निर्यास उत्तेजक तथा वयेलेपन इत्रेमन्शिम कहते हैं। है । तैल स्नेहकारक है। वानस्पतिक-विवरण-राल बृहत्, शुष्क, गुणधर्म तथा उपयोग-ऐन्स्ली के मताज़रदीमायल श्वेतवर्ण के समूहों में पाया जाता नुसार इसका गोंद बालसम आफ कोपाइबा के है । उत्ताप पहुँचाने पर यह शीघ्र मा हो जाता समान गुणधर्म युक्त है। शिथिल ( व्यथा रहित) है और तब उसकी गंध एलेमीवत् ( मन्शिम व्रणों में इसे प्रलेप रूप से प्रयोग में लाते हैं । वत् ) होती है। इसकी गिरी द्वारा प्राप्त तैल वाताद-तैल की प्रतिनिधि है । ई० मे० प्लां। ___ फल से इंच लम्बा, अंडाकार, त्रिकोणयुक्र, सिरे की ओर नुकीला ( तीक्ष्णान), चिकना, डॉक्टर वैट्ज़ (Waivz ) लिखते हैं कि किञ्चित् फीके बैंगनी पतले मूदादार वाह्यत्वक्युक; इसकी गिरी द्वारा निर्मित इमल्शन वाताद मिश्रण गुठली अत्यन्त कठोर, त्रिकोणीय, अस्फुटनीय (Mistura. amygdalle ) की उत्तम (Indehiscent), अन्य दो के पतन होने के प्रतिनिधि है तथा वह इसके कोष्ठमृदुकारक गुण कारण एककोषीय होती है। श्रामण्ड ( वाताद के कारण इसे बाताद मिश्रण से उत्तम ख़याल गिरी) का बहिरावरण झिल्लीमय होता है, जिसके करते हैं। भीतर तीन खण्डों में विभाजित और परस्पर लिपटे गिबर्ट ( Guibourt ) एलेमी गंधयुक तथा बल खाए हुए तैलीय दौल होते हैं। न्युगीनिया रेज़िन (Ner Guinea Resin.) गिरी से ४० प्रतिशत अर्द्ध ठोस, ग्राह्य एवं मधुर- के अन्तर्गत उन रालका वर्णन करते हैं स्वादमय वसा प्राप्त होती है जो बहुत काल ___यह राल ( Manilla elemi) जो उप.. पर्यन्त दुर्गन्धरहित बनी रहती है। (बॅट). युक्र वृक्षसे प्राप्त होता है, प्रधानतः वार्निश बनाने ७४ For Private and Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यवाताद २८६ अरण्य वास्तुका के काम आता है। यह रसोई बनाने के भी काम दो किनारे होते हैं, यह दो इक्ष लम्बा और पकने प्राता है तथा वाताद तैलवत् स्नेहकारक व सुस्वादु पर मन्द बैंगनी रंग का होता है। मजा चमकीले और अशुद्धस्रावों तथा पूयमेह प्रादिमें लाभदायक बैंगनी रंग की होती है । गुटली खुरदरी, कठिन ख्याल किया जाता है । उक्र वृक्ष की त्वचा से और मोटी होती है। गिरी बादाम के अर्द्ध अधिकता के साथ स्वच्छ तैल प्राप्त होता है जो श्राकारकी और करीब करीब बेलनाकार होती और नवनीतीय कपूरवत् समूहों में जम जाता है। बङ्ग देशीय युरूप निवासियों में "लीफ नट" नाम इं० मे० मे। से सामान्यतया व्यवहार में पाती है। (५) जंगली बादाम, हिन्दी बादाम-हिं०, द०, गसासनक संगठन-त्रैण्ट (Brant) बम्ब०। इङ्गुदी फलम्, देश-बादामित्ते-सं० । के मतानुसार इसमें २८ प्रतिशत तैल होता है बादामे हिन्दी-फ़ा० । इण्डियन प्रामण्ड जो स्वाद एवं मृदुता में वाताद तैल से बढ़कर ( Indian Almond, nut of-), होता है। यह पीताभायुक्र एवं बिलकुल गंध श्रामण्ड ट्री ( Almond tree )-इं०। रहित होता है । इसमें मुख्यतः स्टियरीन टर्मिनेलिया कैटेप्पा ( Terminalia cata. (Stearin ) तथा श्रॉलीईन (Olein) ppa, Linn.)-ले०। बडामीर डी मलाबार विद्यमान होते हैं । इस वृक्ष में बैमोरा ( Bass( Badamier d' mala bar )-फ्रां० । (ora) की तरह का एक निर्याम होता है । पत्र अखटेर कट्टा-पेन बॉम (Achter Cattap. और त्वचा में कषायीन होता है । स्वचा में एक en baum)-जर० । बंगला बदाम, बदाम प्रकार का काला रंग होता है जिसमें कोई कोई -बं० । नाटु-बादम्-मौट्ट, नाट-वादम्, श्रामण्डी दॉत रंगने का काम लेते हैं। बमम्म, पोटाम मरम्-ता० । इंगुदी, तपम नम्वु, नाटटु-वादमु, नया कपायीन होने हैं। नाटु-बादम-वित्तुलु, वा (वे) दम-ते. । ना? प्रभाव तथा उपयोग-इसकी त्वचा संकोचक बादम, कोट-कुरु, श्रादम-मर्रम, कटप्पा-मल० । (मंग्राही) है । अस्तु, पूयमेह तथा श्वेतप्रदर में क्वाथ नाट-बादामि, तरू, बादमीर-कना० । नाट रूपम इसके अन्तः प्रयोगकी प्रशंसा की जाती है। बादाम, देसी-बदाम, हात बदाम, बेंगाली इसके कोमल--पत्र-स्वरस द्वारा एक प्रकार का बदाम, जंगली-बादाम-मह०, बम्ब०। कोटम्ब प्रलेप निर्मित किया जाता है जो कराड, कुष्ठ तथा -सिं० । नाट-नि-बदाम-ग। अन्य प्रकार के त्वग्रोगों और शिरोऽति तथा हिमज वर्ग उदरशूल में अन्तः रूप से लाभदायक ख्याल (V.O. Combrelucce.) किया जाता है। उत्पत्ति-स्थान-मलाया ( अब सम्पूर्ण हसका फल प्रभाव में बादाम के समान भारतवर्ष में लगाया गया है)। होता है। . नर-जी. डी. बस तथा मोहीदीन शरीफ अरण्य वायसः aranya-vayasa सं श्रादि लेखकों ने इसका संस्कृत व तेलगु नाम अरण्य काक, बन कौश्रा, डोम कौआ, काला इंगुदी लिखा है। परन्तु श्रायुर्वेदाच-ग्रंथ-लसकों कौत्रा-हिं० । डोम काक-बं० । डोम कावला का इंगुदी , हिंगोट वा हिंगुश्रा ( jalanites ___-मह । रेवेन ( Ravell)-३० । रा०नि० Roxburghii, Planch.) इससे भिन्न ही व०१६ । वस्तु है। अरण्य वासिनो aranya-vasini-सं० स्त्री० वानस्पतिक-विवरण-यह एक वृक्ष है ।इसका अत्यम्लपर्णी लता, अमरबेल, अमलोलवा । फल अण्डाकार, पिच्चित (भिचा हुश्रा, संकुचित), रा०नि०व०३। (Vitis Trifolia.) चिकना, गउलीयुक्र, जिसके उभर हुए नाली युक्र । अरण्य वास्तूक: aranya-Vastukah-स० For Private and Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरा यशालिः ५७ अरनीयाकुश्वनी पु. कुञ्जर चुप, बन अधुश्रा । बनबेतो श्ररगयू aranyi-जय० अरणी,अरनी,अग्निमंथ । -40 । रागाचाकवन मह । (A kind of ('remna Serratifolit.) Chenopolium ) ० नि० व०५। घग्गयेन्द्रवामणिका,-णी anyendravar) अरण्य शालिः nyushalih-सं० पु. unika, ni-सं०, हि० स्त्री. १ नोवार-धान्य । उड़िधान-बं० । देवमात-मह। अग्गयेन्द्रायन aranyendrāyan-हिं० पु.) (Vild rice) ग.नि०व०२२। विशाला-सं० । विषलम्बी (म्भी), जंगली अरण्य शुनः aranya-shmah-सं. प. इन्द्रायन, विषलोम्बी-हिं०। Bitter gourd (IVild dog.)वन कुक्कर -सं० । नेकड़ेबाघ । (Cucumis trigonus, Roxb., Syn. -बं०।वै. निघ०। Pseudo colocynthis, Roy. ). नोट-इन्द्रायन का साधारण संस्कृत नाम अरण्य शूरण: aranya-shuranth-सं०पू० इन्द्रवारुणिका,-णी (Citiutlus colocyवनजशूरण, जंगली सूरन । बुना प्रोल-बं०। inthis, sch ud.) है। क्षुद्र तथा बृहत् भेद गांड़ा मूरण-मह० | (Amorphophallus से यह दो प्रकार का होता है। इसके वृहत भेद Campanulatiis.| ग. नि० व०७। को ही लाल इन्द्रायन और संस्कृत में महाकाल देखा-धनश (सू) रणः ।। अर्थात् महेन्द्रवारुणी वा विशाला ( 'Tricho. अरण्यश्वा aranya-shva-सं० पु. (1) santhes palmata, Rorb. ) कहते हैं। कपि, वानर । (A lonkey.) हे. च०। इन सब का वर्णन यथा स्थान होगा। (२) चिय(क) व्याघ्र । चोता । (A tigel) परताल aratal-गु० हड़ताल, हरिताल । अरण्यसम्भूतः aranya sambhutah-सं० (Haritala.) ई० मे० मे० । पु. A crab ( Scilla serrava. ) अरतिः aratih-सं० स्त्री. अनिच्छा, विराग, कर्कटक, केकड़ा । काँकरोल-बं० | Sec-Ka- चित्त का न लगना। (Absence of de. rkarak. sire.) "अस्वास्थ्यं चिंतयात्यर्थमरतिः कथ्यते अरण्य हल्दी कन्दः aranya-haldi बुधैः ।" भा०। (२) औदासीन्य (Sadnkandah-सं० ess.)। (३) पित्त के रोग। (Biliary अरण्य हरिद्रा aranya-haridra disease.) -सं० स्त्रो० अरनिः aratnih-सं०० ) (1) वनहरिद्रा, वनहर्दी, जंगली हल्दी-हिं० । वन अरनि aratni-हिं. संज्ञा पुं. निष्कनिष्ठहलुद-बं० । (Curcuma Aromatica.) मुष्टी, मुट्ठी-बँधा हाथ । वा० सं० २० । । गुण-कुष्टघ्न तथा वातरक नाशक है । भा० रा० नि०व०१८ । (२) कपूर (Cam. पू० १ भा० ह० व०। कटु, मधुर, रुचिकारी, phor.) । (३) कुहनी ( Elbow )। अग्निदीपक,कदुई,कुष्ठ एवं वातहर है तथा रक्रदोष, (४) बाहु, हाथ । बिष, श्वास, कास और हिला का नाश करनेवाली श्ररत्नीय प्रसारणी aratniya-prasārani है। वै० निघ०। -सं० स्त्री० मणिबन्ध प्रसारणी अन्तःस्था। अरण्या aranya-हिं० संज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक | ( Extensor Carpi Ulnaris. ) श्ररत्नीया aratniya-सं०स्त्री० अन्तःप्रकोष्ठिका श्रोषधि । ( Ulnar nerve. ) अरण्याक्षोट aranyaks bota-. संशा प्ररत्नीयाकुञ्चनी aratniyakunchani-सं० पु. ( Indian walnut) जंगली स्त्री० करसङ्कोचनी अन्तःस्था। ( Flexor अखरोट। carpi Ulnaris. ) For Private and Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरना उपला अरद aarad-अ० गर्दभ, गदहा, ख़र । (An | अरधंग aradhanga-हिं० संज्ञा पु. ( Heass.) __miplegia.) अद्धींग । दे०-पक्षाघात । अरदट aradata-कना० हील । बगैरस । अरधंगी aradhangi-हिं० संज्ञा पु० पक्षाघात (Garcinia Cambogia, Dess.) । रोगी । दे० श्रद्धांगी। (One afflicted अरदंड aradanda-हिं० संज्ञा पुं॰ [देश॰] with the hemiplegia ) एक प्रकार का करील जो गंगा के किनारे होता | अरधाँगो aradhangi-हि० संज्ञा पु. (Hemiplegic ) दे० प्रांगो। अरदन aradan-हिं० वि० [सं० श्र+रदन] अरन aaran-अ० पर जो घोड़े व गदहे के खुरों से बे दॉत का । बे दाँत वाला। ऊपर होते हैं। परदना aradana-हिं० क्रि० सं० [सं० अईन] अरन arana-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं० अरण्य ] (१) रौंदना । कुचलना । (२) वध करना । (A forest) वन । मार डालना। अरपा arapā-रोग रहित नीरोग, स्वस्थ । अथर्व० भरदल aradala-हिं० संज्ञा पु. [ देश. ] एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिमी घाट और लंका सू०२२। ३। का० १ । द्वीप में होता है। इससे पीले रंग की गोद निक- अरनब बरी aranab.bari-अ. शशक. लती है जो पानी में नहीं घलती.शराब में घलती खरगोश, खरहा । (A hare, a rabbit. ) है। इससे अच्छा पीले रंग का वार्निश बनता है। अरनव बह री aranab bahri-० दरियाई इसका फल खट्टा होता है और खटाई के काम में खरगोश । (50-1abbit.) श्राता है। इसके बीज से तेल निकलता है जो अरनवी aramabi-१० एक बूटी है जो खरगोश ओषधि के काम में आता है । इसकी लकड़ी भूरे के सदृश होती है । और खराब एवं शीतप्रधान रंग की होती है जिसमें नीली धारियाँ होती हैं। स्थलों में होती है। गोरका। प्रोट । भव्य । चालते । हिन्श०सा०। अरन मरम् aran-maram-मह० (१) भरदा arada-सिं० सुदाब, तितली । ( Ruta ज़ख़्म हयात,घावपत्ता( kalnchoo laciniGraveolens, Linn. ) ata, D. C.)। (२) तून (:Cedrela अरदार aaradar-अ० हस्ति, हाथी। ( An toona, Roxb.) ई० मे० मे० । elephant. ) अरनसुत aanasut-हिं. संज्ञा प० [सं०] अरदाल aradal- कना०,को० हरिताल, हरताल । वंश, अरण्योद्भव, बाँस । (Bainbusa all. See-Harital ndinacea Relz. ) सूर०।। भरदावल aradaval-हिमा० ब्रास, चीऊ, अरना arana-हिं० संज्ञा पु० (1) महानिम्ब, -हिं० । बकाइन ( Ailanthus excelsa. )। अरदावा aradāva-हिं० संज्ञा पुं० [सं० __ संना प० [सं० अरण्य ] ( २ ) जंगली अई । फा. पारद] (1) दला हुआ अन्न | भैंसा । ( Wild buffalo ) जंगलों में कुचला हुआ अंन्न । (२) भरता । इसके मुड के झुड मिजते हैं। यह अरदीग aradig गुवाक, सुपारी । ( Areca साधारण भैंसे से बड़ा और मज़बूत nut.) होता है । इसके सुडौल और दृढ़ अंगों अरदैवक aradaivak-एरण्ड, अरण्ड, रेड़। पर बड़े बड़े बाल होते हैं। इसका सींग लम्बा, ( Ricinus communis.) मोटा और पैना होता है। यह बड़ा बलवान भरध aradha-हिं० वि. ( Half ) अद्ध', होता और शेर तक का सामना करता है । समांश । दे० अर्ध। | अरना उपला alana-upala-हिं• संज्ञा पु. For Private and Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नी ५६१ भरमः जंगली कर: डा, गोहरा । ( Cow-dung श्रग्या अब ऐन arbāaarblain-० (१) found dried in the forest. ) । हजार पायह , सहस्रपद, कन्खजूरा, गोजर । अग्नो ॥:11-हि संज्ञा स्त्री० [सं० श्ररणी ] (Centipede)। (२) पुदीना ( men. (१) प्राणी, अग्निमंथ ( Premna thus arvensis. ) । (३) मकड़ी के serratifolia.)। ( २ ) एक छोटा समान एक जानवर है यह दो प्रकारका होता हैवृत्त जी हिमालय पर होता है। इसका फल लोग (१) दरियाई और (२) जंगली। खाते हैं । इसकी गुठली भी काम आती है । अरवायस ara bayas-यू० चना, चणक । काश्मीरी और काबुली अरनी बहुत अच्छी होती (Gram.) है लकड़ीसे चरखेकी चरख और डोई प्रादि बनती अरबिक एसिड arabic acid-इं० अरबिकाम्ल, है । यह माव, फाल्गुन में फलता फलता है और गुञ्जाबीज अथवा निर्यास में पाए जाने वाला एक बरसात में पकता है। (३) यज्ञ का अग्नि- सत्व विशेष । म० अ० डॉ०। इं. मे० __ मंथन काष्ट जो शमी के पेड़ में लगे हुए मे० । पीपल से लिया जाता है। दे० अरणि । । अरबिन्द arabind-हिं० पु. करल, उत्पल, अरनेबिया aranabia, sp. ले० इसकी जड़ | पङ्कज । The lotus ( Nymp'ies रंग के काम आती हे । मेमो० । melumbo... धान्य alinya-हिं० सं. पु. ( Forest ) श्रावियान arabiyan-बहार या बाबूना भेद । दे. अग्गय । | अरविस्तान arabistan-हिं. संज्ञा पु. अरपा aapi-तु. जौ, यव । Barley [फा०] अरबदेश । ( Arabin ). (Hordeum vulgare. ) अरबी arabi-हिं० वि० [फा० ] अरब अरफ araf-अ० वंश, बाँस, बैंस। Bamboo | देश का। (Bambusa arundinacea.) ___संज्ञा पु० (१) अरबी घोड़ा । अरब देश अरफज aarafaj-अ० एक प्रकार की तीक्ष्ण का उत्पन्न वा अरवी नस्ल का घोड़ा। ताजी, दुग्धमय बूटी है । ऐरानी । (२)अरबी ऊँट । अरब देश का ऊँट । अरफियह aarfivah-अ० फाख्ता । (३) अरब देश की भाषा । श्राव arab यु० लोज्जुब्द, लोफ़कवीर से अरबी aarabi-अ० (१) श्वेत यव ( White इसके पत्र छोटे होते हैं। ___barley.) । (२) सुजा, छिला हुआ हिं० संज्ञा० प्र० [सं० अर्बुद] (1) जौ। ( Husked barley.) सौ करोड़ । संख्या में दसवॉ स्थान । ( २ ) इस अरबी arabi-जप०, हि. आलुकी, अरुई, घुइयाँ, स्थान की संख्या । संज्ञा पुं॰ [सं० अर्वन् 1 अरबी-हिं० । कच्चु-बं० ।। species of . घोड़ा । संज्ञा पु० [अ०] (१) एक देश । Arum (Arum colocasia ). ( २ ) अरब देश का उत्पन्न घोड़ा । (३) अरबोस arabisa--यू. अच्छू, उलयक अरब का निवासी। | अरबेवु ara bevu- कना० अरङ्गक । ( Me. ___lia dubia, Cav.) फा०६०१ भा० । अरबम् arabam-हिं० पु. एक धातु तत्व अरब्बी arabbi-हिं० वि० दे० अरबी । विशेष । इर्बिश्रम् (Erbitum.)-ले। परभक arabhak-हिं वि० दे० अर्भक । श्राव हरा ३11bahari-सिरि० तुल र सँ भालू , अरमः aramah-सं० पु. नेत्ररोग विशेष । मेउड़ी के बीज । Vitux negundo (A kind of eye disease.) वै. ( Seeds of-) निघ० । देखो-अर्म। For Private and Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६०. अग्लु श्रग्म aaram-अ० एक प्रकार की मछली, मध्य प्रगयिली aayili-नेपा० कपटी। (Etlge. भेद। (A kind of fish.). ____worthi garineeri, JIrisn.) मेमो०। भरम Tamanka-सं० कुररक । (Indian पर -यु. कन्लूग्यूिन । 80-(pa ___ntiriyin. antilope.). भरमनी aramani-हिं० संत्रा का प्रार -हि. पु. (.) मैनफन, मदनप्रारमेनिया देश का निवासी । फल | Randi dumpiorum, lam. अग्मनीन aramanina-य० एक बूटी है जो (Emetic nut. )। (२) नुम्बुम-बं०, प्रतिवर्ष उगती है । बागी तथा जंगली दो प्रकार (Xanthoxylon alitum. ) की होती है। इनमें से जंगली उपयोग में ___ -हि. संज्ञा पु. [ सं० अरर ] (1) नहीं पाती। बागी के पते माऊ के समान किवाड़ । कपाट । (२) पिधान, ढक्कन । अरर ट्री Pi-trva ई० सन्दरच । अरमह, aaramah-अ० जंगली चूहा । (A अररुट किज़ marut kizhangin-ता. तव. wild rat.) क्षीर, तीखुर, निम्बुर-हिं० | Sce-Tikhur. अरमा aarama-अ. सुख' स्याह साँप, रक स. फा०६०। श्याम सर्प । ( A red black serne. प्रररुट गहलु art-gaddalu-त. तवक्षार, nt.) तीवुर, तिखुर-हिं० । Curcuma anguअरमा arma-गाराडा. बकली। stifolia,Rish. (root of.) सफाई । भरमाक aramak-कद की बेल या केवडा री arri-हि. स्त्री. अरहर, आढ़की। (Ca. वृक्ष की छाल। ___janus indicus.) अरमात aramat-यू. केवड़ा, गुले-कंवड़ा । अरलः aralah-सं० पु.श्याणक वृत्त, सोना( Pandanus odoratissimus. ) पाठा, अरलु । (Oroxylum Indicum.) परमानियाँ aramāniyan-यू० लाजवर्द ।। श्रम०। अरल arala-हिं० पु. अज्ञात | See-lá ja varda. अरला arla-सं० स्त्री० हंसपत्नी । अरमानूस aramanusa-सिरि० अजवाइन परलि arali-का० अश्वत्थ,पीपल वृक्ष । (Ficus खुरासनी पारसीक यमानी । ( Hyocya ___religiosa.) mus.) अरलु aralu--सिंगा. हरीतकी, हड़ । ( Ter. भरमाल aramala . | एक वृक्ष की छाल minalia che bula.) स० फा० इं०। घरमालकaramalak | है जो तज के समान एवं गन्धित होती है। अरलुः,-+: aralub, kah-सं० पु. । अरलु aralu-हिं० संशा पु. मरम्म् aramm-अ० मध्ये शिर, पाश्चिकास्थियों के ऊपर मिलने का स्थान । (१) श्योणाक वृक्ष । सोनापाठा, अलु । (Oroxylum Indicum.) शोनागाछ-यं। भरय अङ्कली araya-angeli मल० चान्दल, टेंटु, दिंडा-मह० । टंट्या-ब्रि० गढ़। भा० चाँदकुड सापसुण्डी- मह०। (Antiaris | म०१ भा० अतिसा० चि० गंगाधर चूर्ण । toxicaria, Lesch.)। फा० इं. ३ भा०। "नागर पाठारलु धातकी कुसुमैः"। घ० द० देखो-सापसुण्डी । गर्भ ज्वर । वे निघ. अतिसा० चि० अम्ब. परयावल arayaval-मल. अनिका ( A1- छादि । (२) वेतस वृत, बेंत ( Calamus nica.) rotong.) । (३) अलांबु । मलाबु । For Private and Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० | अरलु कडुई लौकी । (४) महानिम्ब, महारुखा, (Aila- mbium speciosum) । रक कम्बल-बं०। nthus excelsi) ई० मे० मे। ( ४ ) नीलोत्पल, नील कमल, नीलोफर । अरलु aralu-५० कचैटा, किंगली, अगलागल। (Nymphea stelata) ग०नि०व० अरलु aralu-सिं०, मल० हरीतकी पुष्प. हड़ १०1-4। (५) सारस पक्षी । ( The का फूल। crane.) अम०। अरलु पुटपाक arali-putpika-सं० पुं० अरविन्ददल प्रभम् aravinda-dala-pra. सोनापाटा की छाल द्वारा प्रस्तुत किया हुअा पुट- ___bham-सं० क्ली. ताम्र, ताम्बा । तामा-बं० । पाक । इसे कुटज पुटपाकवत् प्रस्तुत करते हैं। Copper (Cuprum) वै० निघः । देखो-कुटज। अरविन्द बंधु aravinda-banddu-हिंग संज्ञा गुण-अरलु स्वक् द्वारा निर्मित पुटपाक पुं० [सं०] सूर्य । ( The sun ). अग्निदीपक है । इसे मधु तथा मोचरस के साथ अरविन्दासवः aravindasavah सं० प. संयुक्त कर उपयोग करने से यह समस्त प्रकार के कमल, खस, गम्भारी के फल, मजीठ, अतिसार को दूर करता है। शाङ्ग० म० ख० । नीलोफर, इलायची, बला, जटामांसी, मोथा, १०। अनन्तमूल, हड़, बहेड़ा, वच, प्रामला, कचर, अरल मल aalu-mas-सिंगा. हरीतकी, हड़ । काला मारिवों, नीली,पटोल, पित्तपापड़ा, अर्जुन, ( Termi.inalin chethula. ) स० महश्रा, मुलेटी, मुरामांसी । प्रत्येक १-१ पल फा० इ०। मुनक्का २० पल, धवपुटप १६ प०, पानी अरल्यादि छायः halvali.kathah-सं० २ द्रोण, मिश्री १०० ५०, शहद ५०प०, सबको पु० अरलु, अनीम, मांधा, साट, बेलगिरी, मिलाकर या विधि मिट्टी के बर्तन में संधान अनारदाना इनका क्वाथ प्रत्येक ज्वरी और अति करके एक मास तक रक्खा रहने दें। यह बालकों सार का शमन करता है । वृ०नि० र०। के समस्त रोगों को दूर करता है। प्रा० वे. T alavad-aro __सं० भै० र०। सतनी, सुदाब। परवदा aravada" (Ruta gra- अरविन्दिनी amavindini-सं-स्त्री. पनसमूह। veolens, Linn.) र०मा०। अरवा arava-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अनहीं अरवी aravi-हिं० स्त्री०, द. पालकी, अई, +हिं० लावना=जलाना, भूनना ] वह चावल जो ___ घुइयाँ । कच्चु-बं० । A species of कच्चे अर्थात् बिना उबाले या भूने धान से Arum (Arum colocasia.) निकाला जाए। । अरवी aaravi-अ० असराश । लु० क० । See-dsráşba. अरवान alavan-पं० प्रयार, यज्ञ परवीनीम alavi-hima-ते. माकर लिम्बू परवानह. aravansh-फा० खेरी सह राई । एक -मह० (Atalantia momophylla, जंगली बूटी है जो रात की पुष्पित होता है। Corr.) मेमो०। अरविन्दम् artvindain-सं• त्रा० । अरविंद aravinda-हि. संज्ञा पु० अरवारडानाही arrorada-notte - पुर्तगा. र शेफालिका, हरसिंगार, परजाता। ( Nyeta(1) पद्म, कमल, उत्पल, पङ्कज । The ntlies arbortristis.) lotus ( Nymphoa nelumbo ) प० मु० । रा०नि० व०१०। (२) ताम्र, अरशद arashad.फा० सोनामक्खी,सुवर्ण माक्षिक, arati Copper ( Cuprum ) flo fato attrate Iron pyrites ( Ferri व०१३। (३) कोकन, रक्तपद्म ( Nelu- । sulphuretun.) For Private and Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरशैमरम् ५१२ श्ररस्त् मरशमरम् ansha-maram-ता० अश्वत्थ, | अरसीना alasina- कना० हरिद्रा, हलदी । पीपल वृक्ष । ( Ficus religiosa.) ई० (Curcuma longa). मे० मे०। अरसीना उन्मत्त arasina.ummatta-कना० परशा arasha-एक हिन्दी बूटी है जिसकी.उँचाई | पीला धतूरा, पीत धुस्तुर । ( Yellow मनुष्य के बराबर होती है। शाखाएं घास की variety of Datura.) तरह ग्रंथियुक्त होती है। पत्तियाँ भी तृण | अरसूसा arasāsā-यू० कनौचा भेद, कोई कोई समान तथा पुष्प बनक्शा के सदृश किंतु, उससे ___ जंगली गाजर को कहते हैं। भिन्न वर्ण का होता है। फल इलायची के समान अरस्तन alastan-फा० यूनानी संज्ञा आइरिस त्रिपार्वाकार होता है । लु० क०। ( Iris ) इसीसे व्युत्पन्न है । देखो-पुष्करअरस arasa-हपु(व)षा, अर्दज, अभल, हाउबेर । मूल । फा० इं०३भा० । (Juniperus chinensis.). इं०हेगा० ।। अरस्ता तालीस aasta-talis-अ० । अरस aras ता० पीपलवृक्ष, अश्वत्थ । (Ficus अरस्त् arastu-अ० religiosa.)। -हिं वि० [सं० अरस) अरिस्टॉटल(Aristotle) अरस्तूका जन्म सन् नीरस, फीका । ( Insipid ). ईस्वीसे ३८४ वर्ष पूर्व श्रेस के इलाके रस्तागीर अरस ras-काली सम्भाली, वाकस । (Justi- | नामक स्थान में हुआ था। सतरह वर्षकी अवस्था में cia gendarusssa.) इं० हैं. गा० । यह हकीम अफलातून के शिक्षालय में सम्मिभरस aalas-अ० य● अ, चूँ स, घूइस । A ba- लित हुए और पूरे २० वर्ष तक दर्शनशास्त्र का ndicote rat ( Mus giganteus ). अध्ययन किए और उनका पारंगत शिष्य बने। अरस: arasah-सं० पु. )... ४३ वर्ष की अवस्था में अरस्तू सिकन्दर आज़म (1) रस रहित। के गुरु हुए । इनमें भौतिक वस्तुओं के अन्वेअरसम् arasam--सं० क्ली पणकी प्रबल इच्छा थी । इन्होंने अलेक्जेण्डरिया - (२) विष रहित । अथर्व० । सू०६।३ । में एक महाविद्यालय की स्थापनाकी जहाँ से सुप्रका० ४ । अथर्व० । सू० २२ । २ । का०५। सिद्ध एवं प्रकांड विद्वान उत्पन्न हुए। यह दर्शनअरसमरम् arasa-maran - ता० अश्वत्थ, शास्त्र के तो प्रमुख पंडित थे, परन्तु वैद्यकशास्त्र पीपलवृक्ष । (Ficus religiosa). में इनका पद बुकात ( Hippocrate) अरसा ai asa-ता० पीपलवृक्ष, अश्वत्थ । (Ficus से अत्यन्त निम्न कोटि का है। व्यवच्छेद व . religiosa.) इन्द्रियव्यापारशास्त्र सम्बन्धी इनके कतिपय अरसाः arasāh--प्राण रहित । अथर्व० । सू० असत्य सिद्धान्तों का जालीनूस ने खंडन किया ३१ । ३। का०२। अरसास arasās-सं०निर्बल । इनके मुख्य मुख्य सिद्धांत निम्न थेका०१०। (१) यह हृदय को प्राकृतिक ऊष्मा का उद्गम भरसिवणदह विणणु arasivanadah vi- और रूह हैवानी का स्रोत मानते हैं। (२) __nanu--का० सहिजन, शोभांजन । (Mol इनके मतानुसार फुप्फुस हृदय को वायु प्रदान inga pterygosperma ) करता है। (३) धमनियाँ हृदय से रूह हैवानी अरसी arasi--हिं० संज्ञा प० [सं० अतसी को सम्पूर्ण शरीर में पहुँचाती हैं और (४) अलसी, तीसी । देखो-अतसी। शिराएँ याकृदीय शोणित से सम्पूर्ण शरीर अरसीन arasina--कना० जहरीसोनतक को श्राहार प्रदान करती हैं इत्यादि। --मह०। ( Allananda catharti. __परन्तु श्राश्चर्य तो यह है कि आज दो सहस्र ca, Linn.) फा०ई०२ भा० । वर्ष पश्चात् भी उनके ये असत्य सिद्धांत यनानी For Private and Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाजिकेसरः इतिब्बा में सत्य माने जाते हैं। शेन भी अरस्तु वह पाटा वा बेसन जो तर्कारी साग आदि पकाते के अनुयायी थे। समय उसमें मिला दिया जाता है । रेहन । मिक भिन्न विषयों में अरस्तू के बहुसंख्यक | अरहर arahala-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रंथ हैं। पर उनमें से लगभग १०० से कुछ ही आढकी, प्रा० अड्ढकी ] (१) मादकी, रहर । अधिक प्रसिद्ध हैं, जिनका वणन हकीम बतली. (Oytisus cajan. ) । (२) इसका बोज । मूस ( Ptolemy ) ने किया है । सन् ईस्वी तुवरी : तूअर । पर्या--तुवरी । वीयो । करवीर से ३२२ वर्ष पूर्व ६२ वर्ष की अवस्था में निज भुजा | वृत्तवीजा । पीतपुष्पा । काक्षीगृत्स्ना, मृता. __ जन्मभूमि में ही आपका स्वर्गवास हुआ। लका । सुराष्ट्र-जंभा। अरस्तू arastu-फ़ा. छागलपाती, कलियालता अरहवी arahavi-हिं० स्त्री० भारी, उरि, -20 i Swallow-wort (Asclepias tunicata, Roxb.) ई० हे० गा०। रहा araha--सं० श्रामला । ( Phyllan. अरस्तून arastun-यू. एक प्रकार का तीक्ष्ण thus emblica.) मद्य । अरहिरे arahire-का० नेनुश्रा, घोषालता । अरस्तूनास arastu-nasa-यू. खटिका, खरि- अरहून aarahān--अ० बर्ग नील, वस्मह । (डिया मिट्टी, सेप्तखरी । (Chalk.) (The leaf of Indigo plant. ) भरस्तूर arastura-यू० भंगबूटी, भांग ।(Cun- अरहूम aarahum--अरजून । ____nabis indica.) अरहेड़ arahera-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० भारस्तूलोखिया arastālokhiya-यू० अरावंद, हेड ] चौपायों का झुण्ड, लेहड़ी । --डिं। . . इसरमूल । (Aristolochia Indica.) | अरा ara--हिं० संज्ञा पुं० दे० प्रारा। भरस्मीन arasmina-फा० एक बूटी का फल आग ini--अ०(१) शीत की तीव्रता, जाड़े है जिसे घास के स्थान में घोड़ों को 'हित करने । का कड़ाका, शीताधिक्य । के लिए खिलाते हैं। ___..सिरि० । (२) तह, गज़, भाऊ । (Ta. अरह aarah--अ० शशक, खरगोश, खरहा । marix gallica, Linn. ) (Hare.) 'अराक arak-य. पीलू ( जालवृक्ष), मिस्वाक । अरहज़ान arahazana-अ. हिन्दनकी। झाल-राजपु० । ( Salvadora oleoiअडट arahat--हिं० संज्ञा पुं० [सं० अर des, Dene.) घह] अरघट्ट, रेंटा, रहँट । पानी का चरखा, एक यंत्र जिसमें तीन चार या पहिए होते हैं। -हिं. संज्ञा पुं० [अ०] (१) एक देश जो __ अरव में है । (२) वहाँ का घोड़ा । इन पहियों पर घड़ों की माला लगी होती है.। जिनसे कुएँ से पानी निकाला जाता है। ( An | अराक alaqu-यू० कटोला । ( A tree.) engine for raising water.) अराज़ āariza-अ० देखो-इराज़ । ( Cauभरहड arahada--जय० प्रादकी, तुवर, अरहर । tery.) 1. A kind of pulse (Cytisus अराजम् aarazami- -०सिंह, शेर, व्याघ्र । cajan.) अराज़म् aarazam अरहदाजून āarahadarjina-- खजूर वृक्ष । (A lion.) Phoenix dactylifera, Linn.( Dr. अराजिः arijih-सं० स्त्री. धारीविहीन मांस. ied fruits of-Dates.) . पेशी । ( Unstriped muscle.) अरहन arahana-हिं० संज्ञा पु[सं० रन्धन] पराजिकेसरः arāji-kesarah-सं० पु० For Private and Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org राजनी धारीविहीन मांसतन्तु । ( Unstriped muscle fibre. ) ५६४ श्रराड़ जाना arára jana - हिं० क्रि० श्र० ( १ ) गर्भपात हो जाना, बच्चा फेंक देना | गर्भ का गिर जाना | लड़ाना | जीवन को नाश नोट- इस शब्द का व्यवहार प्रायः पशुओं ही के लिए होता है, जैसे- गाय अड़गई । अराति aráti-सं० पु. ० शत्रु, दुश्मन । श्ररातिम् aratim-- सं० क्लो० करने वाले रोग । श्रथर्व ० । अरादीस ãaradisa - ० अस्थि-संधि, हड्डियों के जोड़ । मुफ़ासिल उस्तख़ाँ - अ० । बोन जॉइस्ट ( Bone joint ) - इं० । अराब ãarába-अ० सन, शण । (Crotalariajuncea.) श्रराय सुन्ना aaráyasannila ऋ० बिश्नीन, नीलोफर के समान एक बूटी है } अरार āa1ára--अ ( १ ) उक़ह वान, बाबूनह गाव ( Parthenium ) | ( २ ) जरूर See-zaarúra. अरारह, ãarárah - अ० वह स्त्री जो केवल लड़के प्रसव करे अर्थात् वह जिसके केवल लड़के उत्पन्न हो । श्ररारा arárá हिं० पु० ददोड़ा, दरदरा | अरारि - arari, - 11 - हिं० स्त्री० करंजिया । संस्कृत पर्याय - उदकीर्यः, षड्ग्रंथा, हस्तिवारुणी, मर्कटी, वायसी, करंजी और करभंजिका । थोर करंज- मह० । विवरण - यह उदकीर्य नामक करंज का ही एक भेद है। इसके बड़े बड़े वृक्ष वन में होते हैं । पत्ते पाकर पत्र के समान गोल होते और ऊपर का भाग चमकदार होता है । फल भी नीले नीले झुमकदार लगते हैं; पत्तों में दुर्गन्ध श्राती है । गुणधर्म - यह करंज वीर्यस्तम्भक, कड़वा, कसैला, पाक में चरपरा, उष्ण वीर्य और वमन, पित्त, बवासीर, कृमि, कोढ़ तथा प्रमेह को नष्ट करता है । भा० प्र० खं० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 家で海 श्ररारी arari - हिं० स्त्री० करञ्ज । (Pongamia glabra) श्ररारूट arárúta-हिं० संज्ञा पुं०, ब०, बस्ब० [ ० ऐरांरूट ] ( १ ) आरारोट । मेरण्टा ( Maranta ) - ले० | ऐरो रूट ( Arrow root ), वेस्ट इण्डियन ऐरांरूट ( West Indian arrowroot ) - इं० । विलायती तीखुर - हिं० । कुश्रमउ-ता० कुवे हित्त-कना० | कुवा - मल० । पेन बंवा बर० श्रारारूट- को० । कवा हरिद्रा वर्ग (N. O. Scitamineœ) नॉट ऑफिशल ( Not official. ) उत्पत्ति स्थान -- यह एक भाँति का श्वेतसार जो मेरा रुण्डीनेसिया ( Maranta Arundinacia ) नामक वनस्पति की जड़ से प्राप्त होता है । यह वनस्पति पूर्वी भारती द्वीप, बर्मियोडा और बाज़ी में उत्पन्न होती | अब पूर्वी बंगाल, संयुक्रप्रांत और मदरास में इसकी कृषि होती है । वानस्पतिक वर्णन च इतिहास - एक पौधा जो अमेरिका से हिंदुस्तान में श्राया है। गरमी के दिनों में दो दो फुट की दूरी पर इसके कंद गाड़े जाते हैं । इसके लिए अच्छी दोमट और बलुई ज़मीन चाहिए। यह अगस्त से फूलने लगता है और जनवरी फरवरी में तैयार हो जाता है । जब इसके पत्ते मड़ने लगते हैं, तब यह पक्का समझा जाता है और इसकी जड़ खोदली जाती है । खोदने पर भी इसकी जड़ रह जाती हैं। इससे जहाँ यह एक बार लगाया गया, वहाँ से इसका उच्छिन्न करना कठिन होजाता है। निर्माण क्रम -- इस वनस्पति की जड़को पानी में खूब धोकर और स्वच्छ करके जल में पीसते पुनः उसे मलकर छानते छोड़ते हैं । इस प्रकार जाता है। For Private and Personal Use Only और एक ओर रख अरारुट श्रर्धः क्षेपित हो लक्षण - यह एक हलका श्वेत वर्ण का चूर्ण है। जिसमें किसी प्रकार की मां गंध वा स्वाद Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरसट करकमी अरारोबा - ad). नहीं होता। यह अमेरिका का तीखुर है। इसका | बाहयो नामक स्थान में उत्पन्न होती है। रंग देशी तीखुर के रंग से सफ़ेद होता है। इतिहास-पुर्तगाली भारत ( गोपा) के टिपणो इसके अतिरिक्र कक्युमा के देशी ईमाई इसको एक प्रकार के स्वरोग में जिसे कतिपय अन्य भेदोंमे भी अरारूट प्रस्तुत होताहै। मराठी भाषा में गजकरन कहते हैं, लगाया करते जिन्हें राहत हिन्दी कहना अधिक उपयुक्र प्रतीत थे और उन पोषधि उनके गुप्त योगों में होताहै । संस्कृतमें उनको तबक्षीरम् और हिन्दीमें से थी । अस्तु, सर्व प्रथम यह बम्बई में तोखुर कहते है । विस्तार हेतु देखो-तवारम् | १२) से ३०) प्रति दिन के भाव से जिसमें एक (Curcuma Angustifolia ). पौंड (अद्ध सेर) श्रोषधि होती थी, विक्रय हेतु प्रभाव तथा उपयोग-यह पोषणकर्ता और अकस्मात पाया करती थी और दद्रुपन चूर्ण स्नेहजनक है। इसको प्रायः दुग्ध में पकाकर (Ringworm Powder), गांधा चूर्ण बालकों, निर्बल रोगियों, मुख्यतः प्रान्त्र वा मूत्र (Goa Powder), ama mo (Bra. संस्थान विषयक रोगों के पश्चात् की निर्बलता zil Powder) प्रभृति नामों से विख्यात में दिया करते हैं। थी। माननीय डी० एस० केम्प महोदय ने सर्व प्रथम सन् १८६४ ई० में इसकी ओर ध्यान दी। पाक-विधि-पहिले शीतल जल से इसकी तदनन्तर क्रमशः अन्य डॉक्टरों ने इस ओर लेई सी बना लें । तदनन्तर उसमें खौलता हुआ ध्यान दिया । दुग्ध डाल कर उसका गाढ़ा सा लुभाब बनाले । भारतवर्ष में इसके प्रथम प्रवेश की ठीक तिथि बाजार से जो अरारूट प्राप्त होता है उसमें प्रायः अज्ञात है । नई दुनियाँ के अन्य पैदावारों के श्रालू के श्वेतसार का मिश्रण किया हुआ रहता समान सम्भवतः १८ वीं शताब्दि के पश्चातकाल परीक्षा - सूक्ष्मदर्शक से इसकी भली भाँति में ईसाई यात्री इसे यहाँ ले पाए । केम्प महा शय मे इसकी परीक्षाकी और वे इस परिणाम पर परीक्षा की जा सकती है। उसमें देखने से बालू पहुँचे कि इसमें माननीय पेलेोज़ (Pelouze) के श्वेतसार के कण अरारूट श्वेतसारीय कण से तथा फ्रेमी ( Fremy) वर्णित ऑर्केला बीड बड़े दीख पड़ते हैं । ई० मे० मे० । म० अ० (Orchella weed ) में होने वाले सत्व डॉ. । - के समान ही एक प्रकार का सत्व विद्यमान है। (२) अरारूर का पाटा। ऐटफील्ड ( Attfield) ने सन् १८७५ भरारुट करकमी arārāra.karkami-हिं० . ई० में इसकी और सर्वांगपूर्ण परीक्षा की और स्रो० (Curcuma Arrowroot.) अरा. क्राइसारोबीन (Chrysarobin) नामक - रूट भेद । देखो-आरारूट । पदार्थ जो उनकी कल्पना में मुख्यकर क्राइसो. अरारूट हिन्दो alārāta-hindi-हिं० स्त्रो० फेनिक एसिड ( Chrysophanic Acid) ( Indian Arrowroot.) अरारूटभेद । - था, पाया । उसी वर्ष ब्राज़ील डॉक्टर जे०एफ० देखो-अरारुट । • डा सिल्वा लाइमा ने सूचित की भारतवर्ष में जो अरारोबा araroba-ले०, ई० गोपा पाउडर पदार्थ गोश्रापाउडर के नाम से प्रख्यात है, (Goa Powder. ) अर्थात् गोश्रा चूर्ण, वह सम्भवतः ब्राजील देश निवासियों का अराऋड क्राइसारोबीन (Crude Chrysaro रोबा या अरारीबा (धूसर वर्ण का चूण) ही - bin. ) अर्थात् अपूर्ण वा कच्चा क्राइसारोबीन | है जिसे पुर्तगाल निवासी उक्र प्रात्त में होने . ऑफिशल Official. . . । के कारण पॉडी बाहिया (Pode Bahia) (N. O. Leguminose. ) या बाहिया पाउडर कहते थे। उन डॉक्टर महो। उत्पत्ति-स्थान-यह ओषधि ब्राज़ील देश के दय ने यह भी बतलाया कि वह एक बबूर For Private and Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मसरोवा ५६३ जातीय वृक्ष से प्राप्त होता है और ब्राज़ील में चिरकाल से कतिपय स्वग्रोगों में प्रयुक्त होता रहा है। इसके कुछ ही समय पहिले कलकत्ता के डॉक्टर फेयरर ने सिरका या नीबू स्वरस संयुक्त गोश्रा पाउडर कल्क के प्राक्कथित श्रौषधीय उपयोग विषयक गुण की ओर चिकित्सकों का ध्यान आकृष्ट किया । ऐसा प्रगट होता है कि उनके लेख ने डॉ० डा० सिल्वा लाइमा महाशय का भी ध्यान उक्त विषय की ओर आकृष्ट किया । माननीय ई० एम० होम्स ने बतलाया कि वह काष्ठ जो गोधा पाउडर से प्राप्त होता है वह ( Coesalpinia echinata, Lam.) के बहुत समान है; परन्तु जे० एल० मेकमिलन मे बतलाया कि उक्त काष्ट से जल रञ्जित होजाता है और यह बात अरारोबा में नहीं है। 1 सन् १८७८ ई० में सी० लीवरमैन तथा पी० सीडलर ने प्रगट किया कि क्राइसारोबीन (=30 २५ ७) प्रभीतक एक अज्ञात क उद ऊ यौगिक है तथा ऐटफील्ड द्वारा निवेदित नाम को ही आपने स्थिर रक्खा | सन् १८७६ ई० में अरासेवा का प्रा'स स्थान एसडी अराशेबा ( Andira Araroba Aguiar. ) स्थिर किया गया । यह वाहिया के वनों में सामान्य रूप से होने वाला एक बृहत् वृक्ष है जिसे वहाँ के लोग ऐजेलीम अमरगोले ( Angelim amargoso ) कहते हैं । श्रारोबा तने के छिद्रयुक्त खोखले भागों में रहता है । ये तने में चौड़ाई ( व्यास ) की रुख चार-पार तक रहते और सम्पूर्ण तब्रे के बीच प्रसारित होते हैं । प्राशि-विधि - वृक्ष को काटकर तथा तने को चीर फाड़ कर खोखलों से सरोबा चूर्ण को खुरच लेते हैं। इसे लकड़ी के टुकड़ों या देशों आदि से स्वच्छ करके तथा शुष्क कर चूर्ण कर लेते हैं। लक्षण - यह एक खुरदरा चूर्ण' अथवा सूक्ष्म बिकम का है जो धारम्भ में हलका पीतवर्ण का, परन्तु प्रकाश एवं नमी में खुला रहने पर साधारणतः गम्भीर वर्ण से मन्द पीत, पीत-धूसर अरारोगा या अम्बरी धूसर अथवा गम्भीर - बैंगनी व का हो जाता है । स्वाद - तिक्र । ( डाइमॉक ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह क्राइसारोबीन के निर्माण में प्रयुक्त होता है । यदि इसको उष्ण कोरोफॉर्म में मिलाया जाए तो कोरोफॉर्म द्वारा वाष्प उड़ जानेके पश्चात् उक्त चूर्ण में से न्यनातिन्यून ५००/ क्राइसारोबीन प्राप्त होना चाहिए । 0 क्राइसारोबीन (Chrysarobin ) - इं० । क्राईसाबीनम् (Chrysarobinnm ले० । निर्माण विधि - धरारोबा ( गोधा पाउडर ) को उष्ण झोरोफॉर्म वा उध्याबेजीन के साथ एक्सट्रैक्ट करके शुष्क होने तक वापीभवन क्रिया कर इसे चूर्ण कर लें । उ रासायनिक संगठन ( या संयोगी श्रवयव) इसमें (१) क्राइसारोबीन ( क१५ १ २ ३ जिसका रहीईच या क्राइसोफ़ीन भी कहते हैं। (२) क्राइसोफेनिक एसिड, अवस्था और दशानुसार यह न्यूनाधिक होता है; श्रोषजनीकरण क्रिया द्वारा अधिक क्राइसोफेनिक एसिड प्राप्त होता है। एलेन ( Allen ) के मतानुसार क्राइसोफेनिक एसिड, एसिड और क्राइसारोबीन का एक निश्चित मिश्रण है। इसमें विकरिक एसिड तथा अन्य पीत रञ्जक पदार्थ का मिश्रण किया जाता I नोट - श्ररारोबा या गोश्रापाउडर से ५५ से ८० प्रतिशत और औसतत् ७१ प्रतिशन् फ्राइसारोवीन प्राप्त किया जाता है । लक्षण - क्राइसारोबीन एक स्फटिकक्स् पीत व का चूर्ण है जो गंधरहित और जल में प्रविलेय होने के कारण स्वाद रहित होता है। 1 घुलनशीलता- -यह जब में लगभग अविलेय, मद्यसार में कुछ कुछ विलेय तथा एमालिकअलकोहल, ईभर, कोलोडियन तथा क्रोरोफॉर्म में पूर्णतः विलेय होता है । ३२३.६ जाता है और For Private and Personal Use Only फ़ारनहाइट के उत्ताप पर यह पिघल कि ऊ फलित भी होता है। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir সাহাগ। धन मंधकाम्ल में यह धुल जाता है तथा घोल compositum)-ले। कमाउण्ड मॉइंट. पीतवर्ष का होता है। अधिक जलमिश्रित पोटास. मेंट ऑफ क्राईसाहोचीन ( Compound घोल में यह लगभग अविलेय होता है। इसके ointment of Chrysarobin ) विपरीत क्राइसोफेनिक एसिड घन गंधकाम्ल में -ई। मिश्रित क्राईसारोबीन प्रलेप-हिं । महम धुल जाता है तथा अधिक जलमिश्रित पोटास क्राईसारोबीन मुरणन, मुरकब महम क्राईसाझेदीन घोल में भी घुल जाता हैं तथा घोल का रंग -उ०। लाल हो जाता है। निर्माण-विधि-क्राईसारोबीन । भाग, - परीक्षा-यदि क्राइसारोबीन को २००० भाग सैलीसिलिक एसिड २ भाग, इक्थिनाल ५ भाग, जल में उबाला जाए तो यह पूर्णतः नहीं घुलता वैज़नीन यस भाग सबको परस्पर योजित कर और छामा हुमा पदार्थ सुरीमायल धूसर वर्ण मरहम बनाले । का, स्वादरहित टेस्टपेपर ( न्युठूल ) तथा लौह- उपयोम-चम्बल का विचत्रिका ( Psoriहरिद से अरञ्जित रहता है । क्राइसारोबीन १५० asis) के लिए लाभप्रद है। भाग उष्ण मद्यसार में पूर्णतः विलेय होता है । (२) पिग्मेण्टम् क्राईसारोबीमी (Pigme. व्यापार-प्रारोबा. अधिक परिमाण में n tum Chrysargbini)-ले० । तिलाए भारतवर्ष में प्राता है और क्राइसारोचीन, अरा क्राइसारोबीन-फा०। रोबीन तथा गोप्रापाउडर नाम से विक्रीत होता निर्माण-विधि-काईसारोबीन , भाग, है । मात्रा- से ग्रेन, (पा० वी० एम०)। कोरोफॉर्म १० भाग, गहापार्चा टिशू , भाग कार्य-स्वरोगों में कीटन ( Antipara दोनों औषधों को क्रोरोफार्स में हल करने (इससे sitic) है। कपड़े पर चिढ़ नहीं ऑफिशल योग : उपयोग .. बाल - Psoriasia.) पर (Official preparations.) ब्रुश के द्वारा १० दिवस पर्यन्त प्रति दिन दो औषय-निर्माण-क्राइसारोबीन प्रलेप । अङ्गुए. बार जमाते रहने, से, बशर्ते कि उस जगह पर एटम् काइसारोबीनाई ( Uuguentuim पावी न लगचे पाए, रोग निवृद्धि हो जाती है। Chrysarobini )-ले० । क्राइसारोबीन (एक्सट्रा फार्माकोपिया ) FOTĀTE ( Chrysarobin Ointm. (१) पिग्मेण्टम् इसमोबीनी पुट पाइरोगैent.)-50 । महम क्राइसारोबीन-उ०।। लोल ( Pigmentum Chrysarobini निर्माण-विधि-काईसारोबीन २० ग्रेन, et Pyrogallol)-ले० । तिलाए क्राईसारो. बेजोएटेड लाई का सॉफ्टपैराफीन ४८० ग्रेन । बीन व पाइरोगैलोल-ऋ०। लोई को पिघलाकर उसमें काईसारोबीन सम्मि- - निर्माण-विधि-काईसारोबीन , भाग, जित करलें। पाइसगैलोल , भाग, ईथर और कोरोफार्म में प्रभावका उपयोग-सम्बत वा विचत्रिका प्रत्येक १० भाग, कोडीन १२० भाग, प्रथम दो ( Psoriasis) के लिए यह पाराश्रयी कीटन औषधों को ईधर और क्लोरोफॉर्ममें घोबाकर उसमें वा उचेक प्रयोग है। क्रोडीन सम्मिलित करें। मोट ऑकिराल योग . उपयोग - सर ( Psoriasis) और और पेटेन्ट औषधे वापर उसे धोकर प्रति तीसरे दिन से बगाने (Not official preparations. ) से बहुत काम है। पासाको. (.) एक्टम् काईसारोबीनी कम्पॉज़िटम्। ( Unguentum Chrysairobinil (*) सबमिटोरिका मामालीनी (Su For Private and Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ৗকা ५६ अरारोबा ppositorium Chrysarobini)-ले०।: पीताभायुक्र धूसरवर्ण के चिह्न पड़ जाते हैं। क्राईसारोबीन वर्तिका- शियाफ़ क्राईसारो- वस्त्र पर भी इससे उसी प्रकार के चिह्न पड़ जाते बीन । निर्माण-विधि-क्राईमारोगीन 14 ग्रेन अन्तः प्रभाव-अति न्यून मात्रा (प्रेन) श्रायोडोफॉर्म ग्रेन, बिलाडोना एक्सप्टैक्ट 1 में देने से भी यह प्रामाशय वा श्रान्त्र को अत्यन्त क्षुभित करता है। जिससे नुधा कम हो ग्रेन, ग्लीसरीन अावश्यकतानुसार जिससे कि जाती है, वमन पाते हैं और पेट में ऐंठन होकर उचित वर्ति प्रस्तुत हो जाए और काकाउबटर मल पाते हैं अर्थात् प्रवाहिका के से लक्षण ३० ग्रेन पर्यन्त । उपस्थित होते हैं । अस्तु उक्ल, औषध सशक्त उपयोग-इस वर्ति के प्रयोग से अर्श में बहुत श्रामाशय का श्रान्त्र तोमक ( Powerful लाभ होता है । (एक्सट्रा फार्माकोपिया) gastro intestinal irritant ) है । (१) एन्थारोबीन ( Anthrarobin) इसका प्रलेप रूप से क्राईसारोबीन के स्थान में विसर्जने-यह किसी भाँति त्वचा द्वारा, प्रयोग करते हैं। किन्तु अधिकतर वृक्क द्वारा शरीर से विसर्जित (६) लेनीरोबीन (Lenirobin )-यह होता है और इससे मूत्र का रंग पीत व नीलD भी क्राइसारोबीन का एक यौगिक है जिसको हो जाता है । पुरातन नार फ्रास या ज्वलनदार विस्फोटक क्राइसारोबोन के उपयोग ( Chronic Eczema ) और पुरातन अर्थात् थेराप्युटिक्स चम्बल (विचर्चिका ) पर लगाते हैं। वहिः उपयोग-पराध.यी कीटन रूप से (.) यूरोबीन (Eurobin)-यह एक इसको दद्रु ( Ringworm) तथा कई अन्य धूसर वर्ण का चूर्ण है निसको क्राइसारोबीन के पुरातन रून स्वरोगों जैसे चम्बल अर्थात् स्थान में वर्तते हैं। विचर्चिका ( Psoriasis ), ज्वलनशील उपयोग-इसका २ या ३ प्रतिशत का घोल . फुन्सिया ( Eczema ) यौवनपीड़िकाओं चम्बल (Psoriasis ) और दद्रु ( Ring- (Acne ) पर लगाते हैं। यद्यपि यह बात worm) के लिए लाभदायक है। इससे न तो प्रमाणित करना कि जीवाणु ही उन रोगों के त्वचा पर ख़राश (क्षोभ ) होती है और न कपड़े उत्पादक कारण हैं, अभी शेष रह जाता है; तथापि पर चिह्न पड़ते हैं। विचचिका ( Psoriasis) रोग में इसका काईसारोबीन की फार्माकालाजी मुख्य उपयोग होता है । अस्तु १ बाउंस वैज़े. अर्थात् औषधीय प्रभाव लीन को तप्त कर से 1 वा १ ड्राम क्राईबहिः प्रभाव-त्वचा पर क्राईसारोबीन का | सारोबीन मिलाकर ऐसा प्रलेप दिन में दो समय सशक क्षोभक (Powerful irritant) लगाने से उन रोग शीघ्र दूर हो जाता है। और प्रभाव होता है । अस्तु, इसके प्रयोग से स्वचा पर | ... इसी मति उपयोग करने से यह स्वचा द्वारा ददोड़े निकल आते हैं, मुख्यतः स्वस्थ त्वचा पर; शोषित होकर विचचिका ( Psoriasis ) क्योंकि विकारी त्वचा पर इससे उतना क्षोभ नहीं के ऐसे धब्बों को भी दूर कर देता है, कि उत्पन होता । वानस्पत्य नीवाणु विषयक जिनमें इसका बहिरप्रयोग नहीं किया जाता । 'स्वरोग को उन औषध नष्ट करती है। अस्तु, यह इससे प्रायः आस पास की स्वस्थ त्वचा पर सप्तक पराश्रयी कीटप्न भी है। इसका स्थानिक वा व्यथापूर्ण विसीय प्रदाह होता वा बैंगनी धब्बे पड़ सार्वाङ्गिक दोनों प्रभाव होता है। यह स्वचा जाते हैं, जिससे किसी किसी रोग में इसका उपद्वारा सोषित होजाता है और इससे त्वचा पर | योग नहीं किया जा सकता। विस्तीर्ण अनुभव For Private and Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অবাৰা रात के पश्चात् लेखक (Sir. W. whitla) एवं दद्रु प्रभृति त्वगरोगों में शीघ्र एवं निश्चय को इस बात से सन्तुष्टि हुई, कि यदि उक्र प्रलेप प्रभावकारी जो औषध मुझे मालूम हुई है वह को केवल रोग स्थल तक ही सीमित रक्खा गोपा पाउडर तथा नीबू स्वरस घा सिरका है। जाए एवं स्वस्थ त्वचा को उसका सर्श न होने इनको दिन में २ या ३ बार निरन्तर लगाने से दिया जाए तो इसको आवश्यकता हीन हो। आपको पूर्ण लाभ होता है। प्रलेप-विधि-थोड़ी सो विश्वास है कि यह छोटी सी बात इसकी चिकि- दवा को सिरका वा नीबू के रस में घोलकर • त्सा की सफलता का गुढ़ तत्व है। जब वह मलाई की भाँति होजाए तब उसे डॉक्टर फॉक्स ने क्राइसारोबीन को जल के विस्फोटक पर कुछ दूर तक प्रलेपित कर दें। साथ पीस कर इसका कल्क प्रस्तुत कर इसे धब्बों (डाइमांक) पर लगा ऊपर कोलोडिअन से प्रावरित करने की अन्तःप्रयोग-क्राइसारोबीन के अन्तःप्रयोग सम्मति दी है। (Tramaticine ) अर्थात् से विचचिका (Psoriasis), ज्वलनशील गट्टापर्चा इससे भी श्रेष्ठतर, सिद्ध होगा । ब्रेक विस्फोटक ( Eczena) तथा यौवनपीड़िका प्रलेप वर्तिकाएँ Brookes' salve sticks अर्थात् मुंहासा प्रभृति में लाभ होता है, परंतु अति न्यून मात्रा ( ग्रेन) में भी इससे प्रायः उससे भी उत्तम होती है। परन्तु पूर्वाक सम्पूर्ण विधियों में से सर्वोत्तम विधि लेखक हिटलों की उदर में ऐंठन, रेचन व वमन होते हैं, सुधा राय में धब्बे को औषध के तीन कठिन प्रलेप वा कम हो जाती है और व्यग्रता प्रतीत होती है। अस्तु, इसका अन्तःप्रयोग न करना चाहिए। कल्क द्वारा प्रावरित कर रखना और उसके सिरे पर रबर प्रस्तर का एक बड़ा टुकड़ा स्थापित योग-निर्माण विषयक आदेश-क्राइसाकरना है। रोबीन को मुख मण्डल पर नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि इसके क्षोभ से नेग्राभिष्यन्द होने का भय विचर्चिका (IPsoriasis)रोगसे पीड़ित प्राणी रहता है । परन्तु शिर पर १५ ग्रेन प्रति पाउंस के शरीर को एक ओर के विकारी स्थल पर वाला प्रलेप लगा सकते हैं। प्रलेप के मद्देन से उसका स्थानिक प्रभाव देखा क्राईसारीबीनकी एकही समय शरीर के अधिक जा सकता है । सप्ताह अथवा दस दिवस में उन भाग पर नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि इसके ओर की त्वचा के सुधार का निश्चित चिह्न दिखाई शोपित हो जाने से बुरे लक्षण उपस्थित होने का देता है । इसकी दूसरी ओर की त्वचा पर भी यह भय रहता है। अस्तु, यदि शरीर पर बहुत इससे कम स्पष्ट नहीं होता। और उक्त औषध विस्तीर्ण दद्रु हो तो उसके थोड़े थोड़े भाग पर को यथोक विधि द्वारा उपयोग करने से विकृत दवा लगाते रहें । जब एक ओर से वह अच्छा हो धब्बे लुप्तप्राय होने लगते हैं, तब उस ओर की जाए तब दूसरी ओर दवा लगाएँ। . स्वचा भी जिस ओर श्रीपध नहीं लगाई गई है। वस्त्र पर जो काइसारोबीन प्रलेप का चिख पड़ परिणामस्वरूप सुधार के चिह्न प्रगट करने जाता है वह वानस्पतिकाम्ल, पोटाश या क्लोरिनेलगती है। लेखक ने उक औषध को निरन्तर टेड लाइम के हलके घोल से दूर हो जाता है। ..उस स्थल पर लगाने से जिसपर सर्व प्रथम श्री अथवा उस पर प्रथम बेशीन लगाकर उसकी षध लगाई गई हो शरीर के सम्पूर्ण पृष्ठतल चिकनाई को दूर करें और फिर उस पर कोरीनेको रोग मुक्त होते हुए पाया। सम्भवतः ऐसा टेड लाइम का घोल लगाएँ। कभी कभी . औषध के शरीर में शोषित होजाने और विकारी किञ्चित् कास्टिक सोडा का घोल भी लगानी क्षेत्र तक पहुँचाए जाने के कारण होता है। पड़ता है। ( मे०.मे. हिला ) ........ रालः alalah--सं० पु - "विस्फोटक, विचचिका (Psoriasis) अराल arāla-हिं० संज्ञा पुं॰ ) . १ ) भूष, For Private and Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरसएसीई परिपत्य पुना, राल, सर्जरस-हिं०। धुना--ब्र०। राल . मद्य, चावल की शराब या दारू । ( Liquor मह । ( Resin.)। (२) शाल वृक्ष of rice ) स. फाई। (A saltree)। (३) मत्तहस्ति ( An | अरिजन arijana-हिं० संज्ञा पु. एक निस्क्रिय intoxicated elepbant) 1 À 1 1. वायव्य विशेष । मारगन ( Aigon )-इं० । । वि० कुटिल । टेदा। अरिज arinja-हिं संज्ञा० पु. [ देश ] असालिएसीई araliaceoe-mo, लाप्रमारी। (Acacia leucophleea, Willd.) एक प्रकार का बबूल । यह पंजाब, राजपूताने, मध्य और दक्षिण भारत तथा बरमा में पाया जाता है। अरोह aravah-१० मादा टिड्डी । (A _____ female locust.) इसका छिलका रेशेदार होता है और इससे मछली अराह arah-मस्तगी, मस्तकी। (Masti. पकड़ने का जाल बनाया जाता है। इससे एक che.) प्रकार की गोंद भी निकलती है जो पानी में घोली जाने पर पीला रंग पैदा करती है। यह 'मरि: arih-सं० स्त्रो० अरि नामक खदिर, खदिर अमृतसरी गोंद कहलाती है। इसे बबूल की गोंद 'विशेष, करया । खदिर विशेष--बं० पारि के साथ मिलाकर भी बेचते हैं । पेड़ की छाल महः । शीगुरि-कं० । ( Catechu. ) को पीसकर गरीब लोग अकाल में बाजरे के पर्याय-सन्दानिका, दाली, खदिरपत्रिका | गुण आटे के साथ खाने के लिए मिलाते हैं। इसमें कषेला, कटुक, तिक और रक्तपित्तनाशक है ।। एक प्रकार का नशा भी होता है और यह मच रा०नि० ० = । देखो-खदिर। में भी मिलाई जाती है । इसीलिए प्रारंज को भरि ari हिं० संत्रा पु० [सं०] (B) रिपु, शराब का कीकर कहते हैं। सफेद बबूल । शत्रु ( An. enemy. )। ( २ ) विट अरिङ्ग । श्वेत बबूर वृक्ष । सरि । दुर्गन्ध खैर । भरिमे । (Acacia अरितमञ्जरी avita-manjari-सं० स्त्री० Farnesiana, Wild.)(३) चक्र ।। कुण्डली,हरितमबरी । ( Clerodendron -मल.(४) चावल । Rice-seeds Inerme.) or grains, without husk (Coryza affatto aritáram-atof (Farm sativa, Livn.)स० फा०ई० । अरिदला aridala-कना० Orpiment परिचालुarealu of theede-पीपना, अश्वस्थ । अरिन्ताल arintila-सं० ) ( Tri( Fious religiosa. .). Fiforo sulphuret of Arsenic.) भा. . . अरिपरिमः aripuriinah-सं० विट्सदिर, अरि-इकन ari-ikan.-मल. मछली का सरेस, अरिमेदः, दुर्गन्धि खैर, गूहकीकर । गुये बाबला -मिरेशने माही । Icthyocolla. ( Ising. .बं. । गंधी हिंवर-मह० । (Acacia glass ) , Farnesiana.) वै० निघः। भरिक arik प्रण का ठीक होमा, परित अरिप्र aripra-.. दुःख रहित । निष्पाप । होना । इन्दिमाल और तकर कुश के भेद के लिए अथर्व । सू०५ । १४ । का० १०॥ देखो-हम्स । परिमः arimah-सं० विटसादिर, प्रश्मेिदः, अरिङ्ग aringa--राजपु० श्वेत बबूर वृक्ष, सक्नेद | गृहकीकर । (Acacia Farnesiana. ) कीकर । (Acacia leucophlea, रमा भैष० मुखरो. चि० । Willd.) ...अरिमत्स्य arimatsya-हिन्यु मत्स्य विरोष। रिचारायम् aricharayam--मल० चावल ( Arlus arius, Ham. & Buch.) For Private and Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिमईः .. अरिमेद - गुण-इसका मांस कठिनता से पचने वाला. पिच्छिल, हृदयोत्तेजक, स्मृतिवर्धक तथा वात व कफवर्धक है । (इं० 5. ई.) अरिमहः Arimarddah-सं० पु. कासमई तुप, कसौदी। काल काशन्दा-बं० । कासविंदा -मह०। (Cassia Sophora.) रा० नि०व०४। गुण-इसका पत्र रुचिकारक, बलकारक, विष, कास तथा रक्कनाशक है और मधुर, वात कफनाशक, पाचक, कण्ठशोधक तथा विशेष रूप से कासार, विषघ्न, धारक और हलका है। भा०पू०१ भा० । अरिमाशत arimashata-सं० पु. खदिर, खैर वृक्ष । Catechu tree ( Acacia catechu, Witld.) अरिमेदः, कः arimedah,-kah-सं० पुं० ) अरिमेद arimeda-हिं० संज्ञा पु. (१) एक वृक्ष । (A kind of tree.) (२) एक बदबूदार कीड़ा । गँधिया । गंधी । (A green bug.)। (३) विट्खदिर । । गृह बबूल, गन्धावल, दुर्गन्ध खैर, विलायती बबूल ( कीकर )-हिं० । गू-कीकर-द० । विटा, हरिमेदः, श्रासमदः, दरिमेदः क्रिमिशालयः, मरुद्रुमः कालस्कंधः (रा०नि०), काम्बोजी, मरुजः, बहुसारः, गोरटः, अमराज, पत्रतरु, सारखदिरः, महासारः, शुद्र खदिरः, दुष्खदिरः ( रा० नि० ), इरिमेदः, रिमेदः, गोधास्कन्धः, अरिमेदकः, अहिमारः, पूतिमेदः, अहिमेदः, विटखदिरः-सं० । गबाबूल, गुया-बाबला, विट् खयेर, गुयेबाब्ला,दुर्गंध खदिर, काँटानागेश्वर-बं० । अकेशिया फार्नेशियाना या माइमोसा फार्नेसिएना ( Acacia farnesiana, Willd., syn. Inimosa farnesiana, Linn.)-ले० । पिय् वेलम्, हिय् वेल, वेदवला, पिकरु-विल-ता० । पियि-तुम्म, कम्यु-तुम्म, नाग-तुम्म-ते०। पी-वेलम्, करीकलम्-मल०। करी-जली, करर्यवेल, जाली -कना० । गु-बावल-१० । गन्धी-हिम्बर, गुइ बवल-मह । नन्लू-मैं-बर्मी०। कुए-बवल -सिंध० । कुसरी-झाड़-को। शिम्बो वर्ग (V.O. Leguminosae) ‘उत्पत्ति-स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष, हिमालय से लेकर लंका पर्यन्त । संशा-निर्णायक-नाट-अरिमेदकी ताजी छाल और काष्ठ की गंध मानुषी विष्ठा के तद्वत् होती है। अस्तु, उपयुक्त प्रायः इसके सभी पर्याय विट-गंधि बोधक हैं। तेलगु नाम कस्तूरि-तुम्म जो किसी किसी ग्रंथ में इसके परियाय स्वरूप लिखा गया है और जिसका अर्थ कस्तूरी-गंध बबर होता है इसके लिए प्रयुक्र नहीं किया जाना चाहिए । कारण स्पष्ट है । मेसन्स नेचरल प्रोडकशज ऑफ बर्मा नामक ग्रंथ में इसके दो पर्याय और लिखे गए हैं। यथा-(१) नान्लून्खैन् जिसका अर्थ उत्तम गंध और (२ ) जिसका श्रर्थ दुगंध है। इनमें से प्रथम शब्द का इसका पर्याय होना संदेहपूर्ण है। कारण वही है जैसा तेलगु शब्द कस्तूरी-तुम्म के लिए वर्णन किया है। इसीकारण इन संज्ञानों को उपयुक तालिका में नहीं लिखा गया। दक्खिनी संज्ञा गू-कीकर कभी कभी पार्किनसोनिया एक्युलिएटा (Parkinsonia aculeata) के लिए भी प्रत्युक्त होता है। परंतु इसको जंगली कीकर कहना अधिक उपयुक्त होगा। वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृक्ष सर्वथा (बबूल, कीकर ) वृक्ष के समान होते हैं, केवल भेद यह है कि इसके काँटे छोटे होते हैं और इसके पत्र प्रादिसे विष्ठावत् गंध आती है । ( पूर्ण विवेचन हेतु देखो-घर वा खदिर ।) __इससे एक प्रकारका निर्यास निर्गत होता है जो गोलाकार अश्रुरूप में प्राप्त होता हैं। इनमें क्रमशः पांडु, पीत तथा गंभीर रक्काभधूसरवों की श्रेणियाँ होती हैं । डेकन में बम्बई और पूना के पास पास जो गोंद एकत्रित की जाती है वह अल्प विलेय होती है। For Private and Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिमेदः अरिश शाडायाम रासायनिक-संगठन-इसके पुष्प द्वारा | की उत्तम प्रतिनिधि है; परन्तु जल में डालने से प्रस्तुत तैल में बेञ्जएल्डीहाइड,सैलिसिलिक एसिड, यह सरेशवत् हो जाती है । इसकी कोमल पमीथिल सैलीसिलेट, बेञ्जिल एलकोहल, अन त्तियों को किञ्चित् जल में पीसकर पूयमेह अर्थात् एल डीहाइड प्रभृति होते हैं। सूजाक रोगी को पिलाते हैं । इसके पुष्प को स्रवण करने पर इससे एक प्रकार का सुस्वादु प्रयोगांश-कांड तथा मूलवल्कल, पत्र, इतर प्राप्त होता है जो परिवर्तक प्रभाव के लिए निर्यास, फली और पुष्प । . औषध-निर्माण काथ, लुबाब, तैल (अरि प्रसिद्ध है । इसमें एक प्रकार का तैल होता है। शुक्रमेह में कामोद्दीपक औषधों के सहायक रूप मेदादि तैल-च० द०)। से इसका उपयोग करते हैं। मात्रा-वल्कल, काष्ठ तथा पुष्प चूर्ण १-४ | पाना भर | सार (खैर)---२ पाना भर । काष्ठ अरिमेदाद्यतैलम् arinmedadyatauilam-सं० क्ली. यह तैल मुख रोगमें हितकारक है। पाठतथा वल्कल क्वाथ-५-१० तो.। मूछित तिल तैल ८ श०, क्वाथार्थ विटखदिर गुणधर्म तथा उपयोग (गुह बबुल) १२॥ श०, जल ६४ श. में आयुर्वेदीय मतानुसार पकाएँ, जब १६ श० शेष रहे तब इसमें मजीठ का अरिमेद कषेला, उष्ण, तिक, भृतघ्न है ओर २ तो० कल्क डालकर विधिवत तैल सिद्ध कर शोफ (सूजन), अतिसार, कास तथा विसर्प का कार्य में लाएँ । च० द० मुख रो० चि० । नाश करनेवाला है। अरिय वेप ariya-veppa-मल० नीम, निम्ब। विट्खदिर कटु, उष्ण, सिक्क, रन के दोष तथा ( Azadirachta Indica, Juss. ) व्रणदोष नाशक है तथा कण्डू (खुजली), विष, स० फा० ई०। विसर्प नाशक और ज्वर, कुड़, उन्माद तथा भूत अरिया पोरियम् ariya poriyam-मला. बाधा हरण करने वाला है। रा०नि० व०। ऐण्टिडेस्मा बुनियास ( Altidesma Bu. मुख एवं दन्त के रोग नाश करनेवाला तथा करडू, (खुजली), विष, श्लेष्म, कृमि, कुष्ट और nias, Spreng.), स्टिलेगो बु० (tilago. व्रण नाशक है | मद० व ५। bunias, Linn., Rs.xb.)-ले० । कषैला, उष्ण, तिक, भूत विनाशक है तथा उत्पत्ति-स्थान-भारत के समग्र उप्णमुख रोग और दन्त रोग नाशक, रकदोष, रुधिर प्रधान प्रदेश । विकार, कण्डू ( खुजली), कृमि, कफ, शोथ, उपयोग-अम्ल एवं स्वेदक । पत्र सर्पदंश में ( सूजन ), अतिसार, कास, विसर्प, विष, कुष्ठ प्रयुक्त होते हैं। नए रहने पर इसे उबाल कर और व्रण का नाश करने वाला है । भा० पू० १ औपशिक शरीर विकार में उपयोग करते हैं। भा० वटादि । भैष० मुखरो० चि० | च० सू० (लिगडले) ४०। अरिशि arishi-ता० चावल । ( Rice )स० नव्यमत प्रभाव-संग्राही (संकोचक), स्निग्धताकारक फा० ई०। और परिवर्तक । वल्कल संकोचक अर्थात् ग्राही अरिशिना arishināकना० हरिद्रा, हलदी । और पुष्प उत्तेजक है। __Curcuma Longa, Linn. ( Root उपयोग-इसकी छाल का काढ़ा (२० में . of-) स० फा०ई०। १) संकोचक मुखधावन है। इस हेतु मसूढ़ों से अरिशि शाडायाम arishishādāyām ता० रक्त पाने प्रभृति में रह लाभदायक है। इसकी चावल की दारु, चावल की शराब । (Liquor गोंद अरबी बब्बूर-निर्यास (Gum arabic) of rice. ) स० फा० इं० । For Private and Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिष्टः अरिष्टः arishtah-सं० पु. (१)रीठा अरिष्ट arishra-हिं० संज्ञा पुं० ) (डी) का पेड़, फेनिल, निर्मली, रीठा वृक्ष, रीडा करञ्ज-हिं० । रिटे गाछ-बं० | Soapberry plant (Sapindus trifoliatus. ) रा०नि०व०६। मे० । गुण-रीठा पाक में कटुक ( चरपरा ), तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, लेखन, गर्भपातक, स्निग्ध तथा त्रिदोषघ्न है और गृहपीड़ा, दाह तथा शूल नाशक है । वै० निघ० । ( २ ) रसोन, लसुन, लहसुन | Garlic ( Allium Sativum. ) प० मु० । रा०नि० व०२३ । वा० सू० १ भा०। (३) निम्ब वृक्ष, नीम | The neemb tree (Melia azad-dirachta.)। रा०नि० व० २३ । प० मु०। वा० सू० १५ श्र० । गुडूच्यादि । “गुड़,ची पद्मकारिष्ट-" च० द० पित्तश्लेष्म ज्व० अमृताष्टक- “गुड़चो. न्द्रयवारिष्ट-" सु० सू० ४३ अ. संशोधन । ..( ४ ) काक, कौश्रा । ( A crow.) हारा। (१) कङ्क पक्षी, मांस भक्षी पक्षी, गिद्ध । ( A vulture Oi heron ( Ardea lorra and putea.) (६) सुरा विशेष | औषध को जल में कथित करके पुनः उसमें मीडा आदि छोड़ संधान करने से सिद्ध किए हुए मद्य की अरिष्ट संज्ञा है। कहा भी हैअरिष्टः क्वाथ सिद्धः स्यात् ।। (प० प्र० ३) स एव क्वथितोषधैररिष्टः । वा० टी० हेमाद्रिः। क्वाथ सिद्धो वारिष्टः । शाङ्गः । इनुविकार सहितामया-चित्रक-दन्तीपिप्पल्यादि-भूरि भेषज क्वाथादि संस्कारवारिष्टोऽभिधीयते । राज०। पक्वोषवाम्बुसिद्ध यत् मद्य तत्स्यादरिष्टकम् । भा० पू० मद्य० व० । विविध प्रकार की ओषधियों को भली प्रकार सुरा वा मद्य में डुबो कर सप्ताह बाद रस को परिस्रावितकर उसे वस्त्रसे छानले। इसको भिषक् गण अरिष्ट नाम से अभिहित करते हैं । यथा___ "प्राप्लाव्य सुरया सम्यक् द्रव्याणि विविधानि च। सप्ताहान्ते परिस्राव्य रसं वस्त्रेण गालयेत् । एषोऽरिष्टोऽभिधानेन भिषग्भिः परिकीर्तितः।" (अत्रि०) नोट-इसी विधान से एलोपैथी चिकित्सा में वर्णित सम्पूर्ण टिंक्चर प्रस्तुत किए जाते हैं। अस्तु, श्रासवारिष्ट का टिंकचर के पर्याय रूप से प्रयोग करना यथार्थ है। अरिष्ट निर्माण विधि-(प्राचीन) यह साधारणतः मिट्टी के पात्र में ही प्रस्तुत किया जाता है; यद्यपि किसी किसी स्थान पर स्वर्ण पात्र में भी संधान करने का नियम है । जिस पात्र में अरिष्ट (श्रासव ) तैयार करना हो, प्रथम उस पात्र की भीतरी दीवारों में अच्छी तरह घी लगा देना चाहिए । और साथ ही धव पुष्प तथा लोध्र के कल्क का लेप करके सुखा लेना चाहिए । एवं उपयुक विधिसे पात्र तैयार करके उसमें क्या येत या कच्चा जल में मिश्रित गुड़, मधु और औषधों का चूर्ण श्रादि डालकर उसके मुख को शरावे से अच्छी तरह बन्द करके उसके ऊपर कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिए । जिसमें किसी स्थान से वायु उसके अन्दर न जा सके अब इस बर्तन को भूमि के अन्दर गढ़े में या किसी अन्य गरम स्थान में १५ दिन या महीने या जैसी शास्त्राज्ञा हो रक्खे रहने देना चाहिए। ___ इसके बाद अरिष्ट या आसव को निकाल कर अच्छी तरह छानकर बोतलों में भर कर डाट लगादें, जिसमें उस बोतल के अन्दर वायु न जा सके, क्योंकि हवा जाने से शुक्र बन जाता है। जिस बोतल में रक्खे उसे थोड़ा खाली रक्खें; क्योंकि मुह तक भर देने से अरिष्ट जोश खाकर बोतल को तोड़ सकता है । यह जितना ही पुराना हो उतना ही अच्छा है। प्रत्येक मयों से श्रेष्ट अरिष्ट ही होता है। अरिष्ट के नव्य निर्माण-क्रम एवं आसवारिष्ट अर्थात् मद्य की विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए-आसव । For Private and Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अरिष्टः ६०४ गुण- प्रायः नवीन मद्य गुरु, और वायु कारक होते हैं और पुरान होने पर स्रोतशोधक, दीपन और रुचिव के होते हैं । www.kobatirth.org ( च० सू० श्र० २ ) जिस द्रव्य से अरिष्ट बनाया जाता है उस द्रव्यका गुण उसमें रहता है । मद्य के सम्पूर्ण गुण इसमें विशेष रूप में रहते हैं । ग्रहणी, पांडु, कुछ, अर्श, सूजन, शोप रोग, उदर रोग, ज्वर, गुल्म, कृमि और तिल्ली इन सब रोगोंको दूर करता है एवं यह कषाय, तिक तथा वातकारक है । यथा “यथाद्रव्य गुणोऽरिष्टः सर्व मद्य गुणाचिकः । ग्रहणी पांडुकुष्ठाशः शोष शोफोदर ज्वरान् । हन्ति गुल्म कृमिप्लोहान् कषाय कटुवातलश्च ।" वा० सू० ५ श्र० मद्य० व० । अर्श, शोथ, ग्रहणी तथा है । यथा - "अर्श शोथ हरत्वम् ।" राज० । श्लेष्मरोग नाशक ग्रहणी श्लेष्म मात्रा - १ तो० से २ तो पर्यन्त । सेवन काल - प्रायः सभी अरिष्टासव भोजन के पश्चात् पिए जाते हैं । परन्तु रोग और रोगी की परिस्थिति के अनुसार समय में फेर फार भी किया जा सकता है । सेवन विधि - श्ररिष्ट या श्रासव में समान भाग जल मिलाकर सेवन करना उचित है; क्योंकि पानी के साथ सेवन करने से इसका प्रभाव शीघ्र होता है एवं जल रहित सेवन करने से गले और सीने में दाह उत्पन्न होने लगती है । नोट- जो औषधों के क्वाथ और मधुर वस्तु तथा तरल पदार्थों से सिद्ध किया जाए वह अरिष्ट है और जो अपक्व श्रौषधों और जल के योग से सिद्ध किया जाए वह श्रासव कहलाता है । -क्ली० (७) सूतिकागार। सूतिकागृह । सौरी । ( Lying-in chamber ) रत्ना० । (८) आसव | ( ) मरणचिह्न, मृत्यु चिह्न, शुभचिह्न, अपशकुन ( Sign or syp tom or prognostication of death.) देखो-अरिष्ट लक्षणम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररिष्ट लक्षणम् (१०) तीन भाग दधि और एक भाग जल द्वारा प्रस्तुत तक्र, भट्ठा। घोल बं० । रा० नि० व० १५ । ( ११ मरणकारक योग | ( १२ ) काढ़ा, क्वाथ ( Decoction ) ( १३ क्लेश, दुःख, पीड़ा | ( १२ ) उपद्रव, थापत्ति । त्रि०, हिं० वि० (१ अशुभ, बुरा ! सर्वत्र मे ० । ( २ ) सामान्य मद्य | रा० नि० ० १४ । (३) शुभ । ( ४ ) हद, अविनाशी । अरिष्टकः arishtakah सं० पुं० श्ररिष्टक arishtaka - हिं० संज्ञा० पु० ( १ ) फेनिल वृक्ष, रीठे का पेड़, रीवा करअ Soapnut tree (Sapindus trifoliatus ) सि० यो० दाह ज्वर, श्रीकण्ठ । "फेनेनारिष्टकस्य च । ( २ ) निम्बवृक्ष, नीम | The neemb tree ( Melia azad-dirachta. ) । उक्र स्थान में नीम के कोमल पल्लव व्यवहार में लाने चाहिए । च० द० पित्त० ज्व० शिरोलेप । रीठाकर । रीठा । निर्मली । मद० ० १ । ( ३ ) सरल द्रुम, सरल, धूप सरल | (Pinus lon• gifolia ) रत्ना० । - क्ली० ( ४ ) मय, सुरा | Wine ( Spirituous liquor . ) भ० । अरिष्टयम् arishta-trayam - सं० की ० अश्व के अरिष्ट ( अशुभ ) लक्षण विशेष । यह तीन हैं यथा - (१) स्वस्थारिष्ट, (२) वेधारिष्ट और ( ३ ) कीटारिष्ट । इनमें से स्वास्थारिष्ट के पाँच भेद हैं, यथा-भोजनारिष्ट, छायादि अरिष्ट दर्शनेन्द्रिय श्रादि अरिष्ट, श्रवणेन्द्रिय अरिष्ट, और रसनेन्द्रिय अरिष्ट । जय० दप्त० २३-२५ श्र० । अरिष्ट फल: arishta phalah - सं० पुं० कटुनिस्व वृक्ष । रा० मि०त्र० है । अरिष्टफलम् arishta phalam सं० क्ली० फेनिल, रीठा | Soapnut tree ( Sapindus emarginatus. Vahl.) अरिष्टलक्षणम् arishta-lakshanam-संं For Private and Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिष्टा मरिस्टोलोकिया क्ली०, ( Prognostica tion of dea- Retz.-ले. शिपर-गडि-ते। थोडग-पुल्ल-ता। tb) मृत्युकारक चिह्न, मृत्युलक्षण, जिस लक्षण यह भी खाने के काम में आता है । मेमा० । (चिह्न) से रोगी की मृत्यु जानी जाए उस चिह्न को अरिस्टॉटल aristotle-इं० अरस्तू, अरस्ताअरिष्ट कहते हैं। भा०। तालीस । अरिष्टा arishta -सं० नो० । (१) कटको, अरिस्टीन aristine-इं० . देखा-अरिस्टो. -हिं० संज्ञा स्त्री० कुटकी । (Pi- लोकीन । crorrhiza kurrou. ) रा०नि० व.६। मरिस्टोकीन aristocbin-इं. यह एक स्वादच० सू०४०। प० मु०। २०मा० । वै० रहित श्वेत चूर्ण होता है जिसमें १६.१ प्रतिशत निघ०२ भा०, विषमज्व० पटोलादि । (२) क्वीनीन होता है। यह जल में लय नहीं होता । नागबला, गुलशकरी । (Sida alba.) रा. इसे विषमज्वर ( मलेरिया ), प्रांत्रिकज्वर नि० व. ४। (३) मद्य, दारु । Wine ( टाइफाइड ), संक्रामक प्रतिश्याय (इन्फ्लु(Spirituous liquor. ) ५ब्ज़ा) तथा थोड़ी मात्रा में कूकरखाँसी (पर्ट. अरिष्टादि चूर्ण . arishradi-churna-सं० स्सिस ) में बरतते हैं। मात्रा-१ से १० ग्रेन पु. नीम के पत्र १० पल, त्रिकुटा ३ प०, (1 से ५ रत्ती) विस्तार के लिए देखोत्रिफला ३ प०, सेंधा, सोंचर और साम्भर तीनों सिन्कोना। ३-३ ५०, दोनों क्षार २ ५०, अजवाइन ५ प० । अरिस्टो क्विनाइन aris to-quinine-देखोइनका चूर्ण करके प्रातःकाल खाने से दैनिक सिन्कोना। तिजारी, चौथिया भादि का नाश होता है। अरिस्टोल aristol-इं० यह डाइ थाइमोल प्रायोयो चि०। डाइड ( Di-thymol-Iodide.), पांशु अरिष्टाः arishrāhvah-सं० पु० फेनिल, नैलिद ( Potassium iodide.) सथा रीठा कर, री। री-बं०। Soapnut यमानीन ( Thymol. ) घोल को सम्मिति tree ( Sapindus trifoliatus. ) करने से बनाया जाता है। यह रक्काम धूसर वै० निघ० २ भा० उन्मा. चि०। वर्ण का चूर्ण है जो जल तथा ग्लीसरीन में अधिभरिष्टिका arishtika-हिं०संज्ञा स्त्री० [सं०] लेय होता; किन्तु कोलोडीन, ईथर और तैल (१) फेनिल, रीठा । (Soapnut tree) (Oils ) में लयशील होता है। ... (२) कुटकी । कटुकी || Picrorrhiza गुण-यह ( अल्सरेटिव ल्युपस ), दद्रु Kurroa.) (Tenea.), नारफ़ारसी (एक्मा ) और अरिसिना arisina-कना• हरिदा, हलदी । विचचिका (सोराइसिस) में लाभदायक है। ( Curcuma longa. ). इसका १० प्रतिशत का मलहम (प्रलेप) उपअरिसीना वुर्गा arisina-burgi-कना० कम्बी, योग में प्राता है अथवा इसे व्रण पर छिड़कते गलगल,कण्टपलास। गनिबार-उड़ि। गब्दी, या क्रोडीन में मिलाकर लगाते हैं। देखोगंगल-हिं। (Cochlos.permum go प्रायोडोफॉर्म। . ssypium, D. C.) ई० मे० प्लां। अरिस्टोलोकिएसीई aristolochiacem-ले० अरिस्टिडा डिप्रेसा aristida depressa, अरिस्टोलोकिई (Aristolochin.) ईश्वर Retz.-ले० सिन-खलक, स्पिन-वेगी, जन्दर- मूल वर्ग। लम्बा-40। नलि-पुटिकि-ते। यह पौधा खाद्य अरिस्टोलोकिया ristolochia-ले. जरावन्द कार्य में प्राता है । मेमो०। -फा० । ईश्वरमूल-हिं० । ..... मरिस्दिड़ा सिसिना aristida setacea, | नाम-विवरण-ज़रावन्द वस्तुतः फारसी For Private and Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिस्टोलोकिथा इण्डिका अरीकह. नाम है जिसका शाब्दिक अर्थ स्वण पात्र (ज़र्फे । वन्द दाना ज़हरमार । (Aristolochin तिला) है। यूँ कि उक्त औषध का वर्ण सुन- | Sarpentaria, L.) मेमो०, म० अ० हला होता है इसलिए उसका यह नाम पड़ा। डॉ०। इसका वर्तमान डॉक्टरी लेटिन नाम अरिस्टो अरेम्टोल किया रोटण्डा aristolochia. लोकिया वस्तुतः इसका यूनानी (Greeck.) rotunda, Linn.-ले० ज़रावन्द मदहर्ज नाम है जिसे तिब्बी ग्रंथों में अरिस्तोलोखिया -अ०। ज़रावन्द गिर्द-फ़ा। देखो-ज़रालिखा है। अरिस्टोलोकिया या अरिस्तोलोखिया वन्द । मेमो० । फा० ई० ३ भा०। दो यूनानी शब्दों अरिस्टो (लाभप्रद ) तथा लोकिया ( प्रसव पश्च.त्कालीन रकवाव, अरिस्टोलोकिया लॉङ्गा aristolochia ]o. निफ़ास ) का यौगिक है जिसका अर्थ “निकास nga, Linn.--ले. जरावन्द तवील, अरिस्तअर्थात् प्रसव पश्चातकालीन रक्त्राव के लिए लूखोया--अ०। ज़रावन्द दराज़-फ: । देखोलाभप्रद" हुआ। किन्तु इब्नबेतार ने अरिस्तो ज़गवन्द । मेमो०, फा० ३०३ भा० । (अरिस्टो) का अर्थ योग्य तथा लोखिया अरिस्टोलोकिय सर्पेण्टेरिया aristolochia (लोकिया ) का अर्थ नफ़्साऽ अर्थात् नितास- serpentaria, L.- ले रावन्द अमरीकी, वाली औरत ( वह स्त्री जिसे प्रसव के बाद रक- ___ जरावन्द दाना मार, जरावन्द मु.जाटुल अफ ई स्त्राव जारी हो) किया है और इससे उनका ! -अ० । सर्पेण्टेरीई (Serpenterias) | अभिप्राय उस औषध से है जो उक्त प्रसूता के म० अ० डॉ० । मेमो०। लिए लाभप्रद हो। अरिस्टोलोकिया सिटेसिया-aristolochia नोट-विस्तार के लिए देखो - ज़राबन्द। setacea, Ret2.-ले० शिपरगडि-ते. । अरिस्टोलाकिया इरिडका aristolochit थोडपग-पल्ल-ता० । इसका पौधा खाध है। indica, 1.2-ले० जरावन्द हिन्दी मेमो०। -अ०, फा० । रुद्रजटा, ईश्वरमूल, सुनन्दा, अरिस्टोलोकिया सैकेटा aristolochia sac. अमूलहरि, ज्वारि-सं०। इशरमूल, जोरबेल cata, Full.-ले० मतिया चीता-हिं० । -हिं० । इसर गुम-यं । सापसन-बम्ब०,गु०। ( Pouched birthwort.)। ई० है. पेरु-मरिण्डु, इधुर-मुलिबेर-ता० । सफर्स, सापूस- | गा। गोश्रा। मेमो०। इश्वरी, सापसन्द-मह। अरिष्टोलोकीन' aristolcchine-इं०। इश्वरी-गु०। इश्वर-वेरु, गोविला-ते० । इश्वरी अरिहन arihana-हिं० संत्रा प. [ सं. वेरु, नजिन-वेरु कना०। करल-वेकम, इश्वर रन्धन ] रेहन । अरहन । मुरि-मल० | मेमो०, फा० ई.३ भा०। अरी ari-जय० (१) भालुको, अरुई, घुइयाँ । A ई० मे० जां० । देखो-रुद्रजटा। species of Arun ( Arum colocअरिस्टोलोकिया प्रक्टिएटा aristolochia. ____ asia.)।-सं० स्त्री० (२.) खस, उशीर । bractea ta, Retz.-ले. कीड़ामार, गंधानी ( Andropogon muricatus.)। -हिं० । कीडामर-गु० । गन्धान-गवत, गंधानी | परीकह arikah -मह० । पत्र-बन-फा० । धूभ्रपत्रा-सं०। अरोकतल जरह arikatul-jurah देखो-धूम्रपत्रा। फा० ई० ३ भा०, मेमो०।। ज़ख़्म का अंगूर, ख मांस जो ब्रण में पूरित ई० मे० मे, ई० मे० प्लां।। हो पाए । ग्रेन्युलेशन (Granulation.) अरिस्टोलोकिया रेटिक्युलेटा aristolochia | अरीकह āarikah-अ० श्रादत, प्रकृति, स्वभाव । reticulata-ले. जरावन्द अमरीकी, जरा- नेचर ( Nature.)-इं०।. For Private and Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra काकह अरीकह āarikah - अ० कोहान शुतुर । अरीका aariqasaa अकुलान aariqasanah क़ की, विषखपरा । www.kobatirth.org ६०७ अ० हिन्द अरीकालूसिया ariqálúsiyá- यू० काऊ | ( Tamarix gallica, Linn.) अरोक़ितअह, āarigitaaah एक जानवर हैं । अरीज़ aariz-ऋ० छांग शिशु, बकरीका बच्चा । ( A kid. ) अरीजा arizá - यू० बूटीका मूल, जड़ । (Root.) श्ररीजियम - इ० कुर्सी अनहू एक बूटी है जो कांटों से युक्त होती तथा भूमिपर फैलती हैं । अरीठा arithá हिं० संज्ञा पुं० [सं० अरिष्ट, प्रा० अरिट्ठा ] रीठा, श्ररिष्ट फल । Soapnut tree ( Sapindus trifoliatus ) अरीतह āarital--अ वृश्चिक, बिच्छू । ( A scorpion. ) श्ररीतस aritasa-यू० चूर्ण, चूना । ( Calx. ) श्ररीद् arida-निर्गुण्डो, सँभालू, मेउड़ी । ( Vitex negundo. ) श्रदाल aridal - सिं०, कना०, ' को० श्ररीदारम aridáram-ताο हरिताल । ( Trisulphate of Orpiment arsenic.) अरीन āarina- अ० गोश्त, मांस । ( Flesh, meat.) अर्गफांस arifisa-यू० एक प्रकार का तैल है जो जल के समान कूत्रों से निकाला जाता है । अरीर āarira-कन्तूरियून | See-qantüriyúna. अरोरा āarirá-( १ ) नान्खाह श्रजवाइन । (२) कुशह | अरीस arisa फा० अरीसह, arisah-o लोवान, कलङ्गूरा, कमकाम-फ़ा० 1 (Styrax Benzoin, dryander ) देखो - लोबान । फा० इं० ३ भा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्ररीसीमा स्पेसिनसम् अरीसन arisan का० हलदी, हरिद्रा । (Cureuma longa.) श्ररीसारम arisárum -इ ० लोकुल् अद, एक बूटी है जो एक बालिश्त के बराबर एवं विभिन्न वर्ण' युक होती है । सीन aricine इ० सिनकोना सत्व विशेष । फा० ई० २ भा० । सीमा टॉर्टनोसम् arisoema tortnosum, Schott. श्रीसीमा कटम् arisoema curvatum, Kunhi, Roxb. --ले० बीरबङ्का नेपा० । गुरिन, डोर, किर्किचालू किरकल, जंगुश पं० । कूल उद्भव - स्थान - पंजाब तथा हिमालय । उपयोग - कहते हैं कि यह विषाक़ गुणमय षधि है और में भेड़ों के उदरशूल होने पर इसके बीज लवण के साथ मिलाकर उपयोग में आते हैं। बर्षाऋतु में मवेशियों को कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए इसकी जड़ काम में लाई जाती है। इसके उपयोग से वे मृतप्राय हो जाते हैं । (स्टवर्ट) । इ० मे० प्लां० । अरोसामा ट्रिॉलियम् arisoema ium--ले० शलजम । (Turnip ) श्ररीसीमा लेस्कीनैन्थिस arisoema leschenanthes, Blume. -ले० वातकेदारन सिं०। उत्पत्ति स्थान - हिमालय, खसिया की पहाड़ी, नीलगिरि और लंका | trifol उपयोग -- लिंगाली लोग इसकी जड़ श्रौषध तुल्य व्यवहार में लाते हैं। (वैटीज) इं० मे० लां० । भरीसीमा स्पेसिश्रोसन arisoema speci osum, lart. परम स्पेसिश्रांसम arum speciosum. For Private and Personal Use Only l'all. - ले० साँप की खुम्बी, किरिकी कुकरी, किरलु - पं० 1 उत्पत्ति स्थान - शीतोष्ण हिमालय, कुमायूँ से सिक्किम तथा भूटान पर्यन्त । उपयोग - हजारा में इसे विष ख़याल Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परीसुस्सीन किया जाता है। चम्पा में सर्पदंश स्थान पर इसे अरुकामलक arukāmalak-ता० अम्बाहल्ली, पीसकर लगाते हैं। कूलू में इसकी जड़ भेड़ों को | आम्रहरिद्रा । (Curcuma amada). उदरशूल होनेपर व्यवहार में आती है । जब बच्चे मे० मे०। . इसे खाते हैं तो उनके मुखपर इसका हानिकारक | अरुक् aruk-सं० त्रि० सुस्थ, नीरोग। प्रभाव होता है। (स्टवर्ट) ई० मे० प्लां। अरुगम-पट्ट arugam-patta-ता० अरोसुस्मीन aarisussina-अ० बिश्नीन।। नीलोफर के सहरा एक बूटी है। अरुगम-पुल्लु alugam pullu-ता० । दूर्वा, दूब । (Cynodon dactylon) अरू aru-म०, सफतालू, भाड़। मरुतुद arun tuda-हिं० वि० [सं०] (1) मेमो०। मर्मस्थान को तोड़ने वाला । मर्मस्पृक् । (२) अरुगु alugu-ते. (१) कोदो, कोदव । ( Paदुःखदायी ।-संशा पु० शत्रु, बैरी । spaluin-scrobiculatum)। अरुः,-स् aruh, s-सं० पु. (१) प्रारग्वध वृक्ष, -ता० (२) सुफेद दूर्व । अमलतास । सोन्दाल गाछ-बं० । ( Cassia | अरुग्णः arugnah- सं० त्रि. fistula.)। (२) रक खदिर ( Red Cate. अरुग्ण arugna-हिं० वि. . chu.)। (३) क्षत, व्रण । अथर्व० । (४) सुस्थ, निरोग, रोग रहित । ( Healthy ) .. मर्म । (५) संधिस्थान | उ०। अरुनिमेष: arungni-meshah-सं०. स्त्री० अरुप्रा arua-मेवा० महानीम, महानिम्ब। (Aila नेत्र रोग विशेष । ( An eye-disease) nthus Excelsa.) अरुच arucha-हिं० स्त्री० गर्भवती स्त्री की . प्रहार aruara-हि. कचनार के सदृश एक अरुचि । वृत है । पत्ते अनार के समान किन्तु उससे बड़े सम्मुखवर्ती डंठलयुक्र होते हैं ( डंठल लगभग जना अरुचिः archih-सं०स्त्रो० . १ अंगुल दीर्घ); पुष्प डंठलयुक्र, डंडल १-१॥ अरुचि aruchi-हिक संज्ञा स्त्री० . अंगुल लम्बे होते हैं। पुष्प-वाह्य-कोष ( कुण्ड ), अग्निमांद्य रोग । अरोचक रोग । भूख होनेपर भी सूचम, दंष्ट्राकार, बीजकोषोर्ष, हरिताभ पीतवर्ण भोजन करने का सामर्थ्य न होना, भोजन को के होते हैं । पुष्पाभ्यन्तर-कोष (दल) पञ्चकंगूरेयुक्र अनिच्छा, वितृष्णा, जी मचलाना । (Anoreतथा पीताभ होता है। रतन्तु ४, जिनमें २ बड़े xia ) भा० म. १ भा० श्लेष्मज्वर । तथा २ छोटे होते हैं। पराग-कोष इस प्रकार का देखो-अरोचकः। (२) रुचि का अभाव, होता है । गर्भकेशर पु'केशर से बड़ा तथा अनिच्छा । (३) घृणा । नफरत | द्वयोष्टीय होता है। फाल्गुन मास में इसमें पुष्प | अरुचिकर aruch kara-हिं० वि० [सं० श्राते हैं और उस समय यह पुष्पों से प्राच्छादित | जिससे अरुचि हो जाए, जो रुचिकारक न हो, होने के कारण अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता है ।। जो भला न लगे। इसकी छाल किञ्चित् कइ ई तथा पुष्प तिक्र व | अरुजः arujah-सं० पु. (१) पारग्वध वृत, मधुर होता है । लकड़ी भीतर से धूसर वर्ण की अमलतास। (Cassia fistula) बड़ शीशमके समान अत्यन्त चिकनी होती है । इसके सोनालु-बं० । रा०नि० व०६। वृक्ष अधिकतर कंकरीली पथरीली भूमि पर उत्पन्न ___ क्ली० (२) कुकुम, केशर । ( Saffron) होते हैं। (३) सिन्दूर । (Redlead, minum). उत्पत्ति-स्थान-संयुक्त प्रांत | अरुई arui-हिं० संज्ञा स्त्री० आलुकी, अरवी, | अरुज aruja-हिं० वि० [सं०] नीरोग । रोग घुइया । ( Arun colocasia.) रहित । ( Healthy ).. . For Private and Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०३ अरुणनागः अरुणः arunah-सं० पुं० (१) कोकि melumbo, the red var.)। (३) अरुण luna हिं० संहा पु) रक्तवृता, लाल निसोथ । ( Ipomcea turpलाक्ष भेद, तालमखाना ( Hygrophila cthum, R. Br., the red var. ) aro spinosit.)। (२) अतिविषा, अनीस टो० हेमाद्रि । (४) कुकुम, केशर | Saffron (Aconitum heterophyllum.)। (Crocus sativus.) रा०नि० व०१२ । (३) रयोणाक वृक्ष, सोनापाठा ( Oro. (५) सिन्दूर ( Red oxide of lead.) xylum Indieum. ) प. मु. । रा०नि० व०१२। (६) माणिक्यभेद। (A (४) मञ्जिष्ठा, मंजी3 ( Rubia cordi- kind of ruby.) वै० निघ० २ भा० । folia.)। (५) अर्क वृक्ष, मदार, प्राक। क्षयरोग, त्रैलोक्य चिन्तामणिरस । (Calotropis gigantea. ) मे. | अरुणकपिशः aruna-ka pishah-सं० पु. (६) पुनागवृक्ष । ( Calophyllum द्राक्षाभेद, किसमिस विशेष । फकीरी द्राक्ष inophyllum. ) ग. नि. व. १०। -मह० । वै० निघ० । (A kind of dry(७) गुड़। (Jaggery.) रा०नि० व० grape.) १४। ()चित्रक सुप, चीता।(Plumbago zeylanica. ) मद० व० २। (६) | अरुणकम् arunakam-सं० क्लो. प्लाटिनम रतापामार्ग, लालचिचिंटा ( Achyranthes | समूह का कोर श्वेत धातुतत्व विशेष । रोडियम् rubrum.) देखो-अपामार्ग। (१०) रक ( Rhodium. )-ले०। नोट-होडियम् करवीर, लाल कनेर । (Nerium odorum, युनानी शब्द गेडोन ( Rhodon.) अर्थात् Soland.) ० निघ०। (११) एक प्रकार गुलाव से व्युत्पन्न है। चूकि इस धातु के लवणों का कुष्ठ रोग, लालकोढ़ । ( A kind of के घोल गुलाबी रंग के होते हैं, अस्तु इसे उक्त leprosy.) नाम से अभिधानित किया गया। दे० रोलक्षण-जिसमें लालवर्ण की छोटी छोटी फैलने वाली फुन्सियाँ होती हैं तथा चीस, अरुणकमलम् aruna-kamalam-सं०) भेद ( भेदन की सी पीड़ा ) और स्वाप क्ली० ( स्पर्शाज्ञता) होता है उसे अरुण कुष्ठ कहते हैं। अरुणकमल aruna kamal-हिं० प्र०) यह वातज होता है अर्थात् वायु से (वायु की कोकनद, लाल कमल । रक कम्बल-बं०। प्रधानता से) उत्पन्न होता है। सु० नि०५ . ( Nelumbium speciosum.) रा० नि०व०१०। (१२) सूर्य । ( The sun ), अरुणचूड़ arunachāra-हिं० संज्ञा पु०) (१३) गहरा लालरंग । ( Deep red), अरुण चूड़ः liuna-churah-सं० पु.) (१४) कुकुम, केशर । ( Saffron ), कुक्कुट । अरुण शिखा । ताम्रचूड़ पती । कुकुड़ा । (१५) सिन्दूर | Red lead ( Plu- मुर्गा । ( Cock.) वै० निघ० । mbi Oxidum Rubrun )-त्रि०, अरुण तण्डुलीयम् aruna-tanduliyamहिं० वि० [स्त्री० अरुणा] ( Red.) सं० क्ली० रक्तण्डुलीय शाक, लाल चौलाई । रक्रवर्ण । लालरंग । लाल । रक। राङ्गा नटे-बं०Amaran tus (Thअरुणम् arunam-सं० क्ली० (१) अहिफेन, us ) Spinosus ( The red var. अफीम । ( Opium.) वै निघः । (२) oi-) च० द०। रतोत्पल, लाल कमल (Nymphiea अरुणनागः aruna-nāgah-सं० ० मुद्रा डियम् । For Private and Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरुणनेत्रः अरुणिम्म शङ्ख, पीतिका | अत्रि० । See-mudia-sh- ज्व० चि० लाक्षातैल । “लाक्षा दशाक्षा ankhah. स्वरुणा षड़क्षा । (३) प्रपौण्डरीक, पुडेरी, अरुणनेत्रः aluna-methah-सं० पु. (१) कमलनाल । (Root stock of nymph. पारावत, कपोत, कवृतर । (Pigeon.) पायरा tea lotus.) प० मु०। ( ४ ) त्रिवृता, -बं० । (२) कोकिल, कोइ(य)ल | The - निशो(सो)थ । (Ipomoea turpethu', black or Indian cuckoo(Cucu- 1. Br) मे० । (५) जवा, प्रोडूपुष्प, अढ़ उल । lus) वै. निघ०। ( Hibiscus rosa-sinensis.) मद० अरुणपुष्पी arunapushpi-सं० स्त्री० व०२। “अरुणातिविषा श्यामा मञ्जिष्ठा त्रिवृता बन्धुजीवक वृक्ष, बन्धूक, दुपहरिया, गेजुलिया। च"। (५) श्यामालता, कृष्णसारिवा, श्यामबान्धुलि फुल-बं० । रकदुपारी-म० । ( Pent- qari (Ichnocarpus frutescens.) ape tes phu.nicca, Til. ) मे० । इन्द्रवारुणीलता, इन्द्रायन, इनारुन वै० निघ० । (Citrullus colocynthes, Shrad.) 1 अरुणमक्षिका aruna-makshika-सं० स्त्री० (3) गुञ्जालता, घुघची । ( A brus prरक्रमक्षिका | लाल माचि-बं० । वै० निघः ।। ecatorius ) रा० नि० व० ३। (६) See-Rakta-makshika. पुनर्णवा, गदहपुन्ना (Berhavin diffuअरुणलोचनः aruna-lochamab-सं० पु । sa.)। (१०) मुण्डी। ( Sphieranthus (१) पारावत, कपोत, कबूतर | (Pigeon.). Indicus. ) रत्ना० । (११) कोदो । रा०नि०व०१६ । (२)कोकिन्त, कोइ(य)ल । (१२) लालरंग की गाय । ( १३) उषा । The black of Indian cuckoo अरुणाई Tunti-ft संज्ञा स्त्रा०सं० अरुण] ( Cuculus ) वै० निघ०। (३) ललाई । रक्ता। ( Redness ) लालनेत्र । ( Red eye.) अरुणात्मिका arunātmikā-सं० स्त्री० कमअरुणशिखा aruna-shikhā-हिं० संज्ञा पु. रिच, मरचा, लाल मरचा । ( Capsicum.)। [सं०] कुक्कुट, मुर्गा । ( Cock ) लङ्का मरिच -बं० । लांक-म० । वै० निघ०। अरुण सर्पः aruna-sarpah-सं० पु. तक्षक अरुणाभम् aruni bham--सं० क्ली० वज्रलौह, सर्प, सर्प विशेष । ( A Shake of a कान्त लोह । See-kantalouha. middle size and of a red colour.) अरुणार aunāra-हिं० वि० दे०-अरुना। वैनिघSee-Takshak. अरुणार्कः alunarkah-सं० पु० रकार्क, लाल अरुणसारः aruna-sārah-सं० पु. हिङ्गुल, मदार । मन्दारु-मह० । मन्दार अक्क-कं० । सिंगरफ। Cinma bal ( Hydrargyri Calotropis gigantea (The red Bisulphuretum.) वैनिघ०।। var. of-) रा० नि० व०१० । देखोअरुणा altuna-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० श्राक । (१) अतीस, अतिविषा । ( Aconitum अरुणाक्षः arunākshah-सं० पु. कबूतर, heterophyllum.) मे० । रा. नि० व० ६ । भा० ४भा० बालक ज्व० चि० कपोत | (Pigeon.) महाभल्ला० गुड़। “धन कृष्णारुणाशृङ्गी" । अरुणित artunita-हिं० वि० [सं०] लाल भैष० प्रदरारि रस । कुष्ठ० चि०। (२) मञ्जिष्ठा, मञ्जीठ । (Rubia cordifolia.) अरुणिमा arunima-हिं० संत्रा० पु० [सं० मे० । रा० नि० व०३। भा० म० १ भ० श्ररण ] ललाई, लालिमा, गुरीं । किया था। For Private and Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगी अमनी अरुणी aluni-सं० स्त्री० सुरसरनी-हिं० । अरुण्डिनेरिया हूकेरिएना arundinaria. टिक्करी-अव० । ब्रेनिया रहेमूनाइडीस ( Bre. Hookeriana, Munro.-ले० प्रोग, ynia hamnoides, Jull-.!rg.), प्राओंग-लेप० । सिंघनी-नेपा० । तना तथा बीज फाइलैन्थस रहेम्नॉइडीस (Phyllanthus | | खाद्य एवं रस्सी के काम पाते हैं। मेमो०, rhamnoides, Willd. )-ले। अरुण्डिनेसीई arundinacete-ले. वंश एरण्ड वा सेहुण्ड वर्ग वर्ग। (N.O. Euphirbiacece ). अरुण्डोकार्का arundo karka, Roub.-ले. उत्पत्ति-स्थान-समग्र उष्ण कटिबन्धस्थ कार्का, नल-बं० । नरकट, नर, नल, नदनार भारतवर्ष, पूर्वात्य अवध से लेकर ऊपरी प्रासाम -हिं० । नरी, बाग-पं० । इसका तना व रीशा तथा दक्षिण की ओर टावेनकोर पर्यन्त | रस्सी के काम आती है। मेमो०। वानस्पतिक-विवरण-तुप ( या छोटा रुण्डो बेङ्गालेन्सिल arundo Bangalensis, वृक्ष ); नव्याकुर कोणाकार, पत्र-एकान्तर Linn..-ले० गावनल, नल विशेष ।( Bengal (विषमवर्ती ), लघु डंडलयुक्त, प्रसरित, चौड़ा- reed.) इं० हैं। गा०। -अण्डाकार, बहिः पत्र सबसे बड़े, अधः भाग अहण्डो बैम्बास arundo bambos-ले० सफेदी मायल, अखण्ड (किनारा ), अर्ध से वंश बाँस बंस। ( Bambusa arundiइं. लम्बे; नरपुष्प निम्न कक्षों में गुच्छाकर, nacea.)इं. मे० मे। नारि पुष्प ऊर्ध्व कक्षों में होते हैं, अकेले, ह्रस्व अरुता arutā- मन० ) तितली, सुदाब । (Eu. पुष्पडंडी युक्त, नत; फलो मटराकार होती है। अरुद arud-सिं० p horpia la thyris, . प्रभाव तथा उपयोग-गलशुण्डी शोथ में | Linn. ) शुष्कपत्र तमाकू रूपसे (हुक्का पर)पिया जाता है। अमन aruna-हिं० वि० दे० अरण । इसकी त्वचा संकोचक है । [ डाइमॉक] अरुनई arunai-हिं० संज्ञा स्त्री० दे०-प्रमअरुणोदय altunodaya-हिं० संज्ञा पुं॰ [सं०] | णाई । प्रातः काल | प्रभात । बिहान । उषा काल । ब्राह्म- अरुनचूड़ arma-chura-हिं० संज्ञा पुं० दे० - मुहूर्त । तड़का | भोर । वह काल जब पूर्व दिशा में अरुणचूड़। ' निकले हुए सूर्य की लाली दिखाई पड़ती है। अरुनता arunata-हिं० संज्ञा स्त्री० दे० अरुयह काल सूर्योदय से दो मुहूर्त वा चार दंड गाता। पहिले होता है । अरुनोदय। अमनशिखा aruna-shikha-हिं० संज्ञा पु. अरुणोपलः aitinopalah-सं० पु. अरुणवर्ण दे०-अरुणशिखा। मणि विशेष, चुन्नि, पद्मराग मणि, लाल | (A अरुना aruna हिं० संज्ञा स्त्री० मञ्जिष्ठा, मजोठ । ruby.) हे० च०। अरुण्डिनेरिया फैल्केटा arundinaria fal (Rubia cordifolia. ) cata, Vees.-ले० निर्गल, नीगल-हि। अरुनाई arunai-हि. संज्ञा स्त्रो० दे०-अरुणाई। स्प्रग-कनावार । प्रोङ्ग-उ०प० सू० । प्रांगनोक अरुनाना arunānā-हिं० क्रि० अ० [सं० अ. -लप० । इसका तना रस्सी के काम आता है। . रुण ] लाल होना । क्रि० स० [स० अरुण ] मेमो०। लाल करना। अरुगिडनेरिया रेसीमांसा arundinaria | अरुनारा arunāra-हिं० वि० [सं० अरुण+ racemosa, Junro.-ले. पम्मून-लेप०। श्रारा (प्रत्य०)] लाल रंग का, लाल । पारथ्यू-नैपा०। इसका तना रस्सी या खाद्य अरुनी aruni-सं० स्त्री० सुरसरनी, टिक्कारी-अव०॥ कार्य में पाता है। मेमो०। देखो-अरुणि। For Private and Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनेरुल्ली अनेरुल्ली aunelli-ता० हरफा रेवड़ी, लवली। अरुषासः arus has a!!-सं० ० रोप रहित । अरुनोदय arunodaya-हिं० संज्ञा पु० दे०- अथ० । सू० ३। ३ । का० ३ । अरुणोदय । अरुष्कः arushkah-सं० पु. अरुन्धती arundhati सं० स्त्री० जिह्वान । जिह्वा अरुष्क arushka-हिं0 संज्ञा पु. - की नोक वा फोंक । ( The foretongue.) भल्लातक वृक्ष, भिलावाँ । भेला गाछ-बं० । चै० निध० । दे०-अरु धतो। विववा-म० | ( Semecarpus anac ardiuin-) भा० पू० १ भा० । रा०नि० अरुंधतो arundhati-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० व. ११ । अरुन्धती] (१) बहुत छोटा तारा जो सप्तर्षि | अरु करः arushkarah-सं० पु. (.) मंडलस्थ वशिष्ठ के पास उगता है। सुश्रुत के भल्लातक वृत, भिलावाँ । ( Semecarpus के अनुसार, जिनकी मृत्यु समीप होती है, वह anacardium.) प० मु० । रा०नि० इस तारे को नहीं देख सकते। व०११ । भा० पू० १ भा० । मद०व०१। (२)तंत्र के अनुसार जिह्वा । (२) अरुषिका । -त्रि० (३) अणकृत, (३) घाव को पूरने वाली श्रोषधि, ब्रणपूरक व्रणजनक । मे० रचनुष्का औषध, अरुष | अथर्व० । सू० २।२। अरुष्करम arushkaram-सं. क्ली० भलातक का०४। फल, भिलावाँ ( Semecarpus ana. अरुषिका arunshika-स.स्त्री०,हिं० संज्ञा स्त्री० cardium.) च० द० अर्श चि०। भैष. एक तुद्र रोग जिसमें कफ और रक के विकार या कुष्ठचि० पञ्चतिक धृत । "सनागरारुष्कर वृद्धकृमि के प्रकोप से माथे पर अनेक मुंह वाले दारकम् ।" सिम्यो० चतुः सम लौह । १० सू० फोड़े हो जाते हैं । शिरोवण । बुद्ररोगान्यतम ४ . कुष्ठनव.। कपाल रोग भेद । मा०नि० । अरुस arusa-हिं० पु. अडसा, वासक । अरुवा alluvā-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अरु ] ! (Adbatoda vasika.) (1) एक लता जिसके पत्ते पान के पत्ते के । अरुसिमन arusiman-यू० बज्र ल-खम-खुम, सदृश होते हैं । इसकी जड़ में कन्द पड़ता है, और लता की गाँठों से भी एक सूत निकलता है बल-हवह, कसीस-अ० । कदम-इस्फहान । मारदरख्त । किरमान | दरीना | तबीज । (Lepi. जो चार पाँच अंगुल' बढ़कर मोटा होने लगता है और कन्द बनता जाताहै। इसके कन्दकी तरकारी dium iberis, Linn.)-ले०। (Pepp. बनती है । यह खाने पर कनकनाहट पैदा करता el grass, pepperwort)-01Passeहै । बरई लोग इसे पान के भीटे पर बोते हैं। rage iberide-फ्रां० । देखो तोद्री । __संज्ञा पुं० [हिं० रुरुपा] (An owl.) फा० इं०१ भा०। उल्लू, उलूक पक्षी । हिं० श० सा०। प्ररुवारणम् ausranam-सं० वी०(१) व्रण या अरुषः alushah-सं० पु. (१) व्रण, क्षत दोषों को शीघ्र पकाने वाली औषध । (२)व्रण, (Vranah.)। (२) घोटक, अश्व । (Horse.) __फोड़ा। अथर्व । सू०३।४। का०३। वै. निघ० । (३) व्रणपूरक औषध, अरु- भरुहा aruha -संस्त्री०, -हिं. संशा पु. न्धी । अथव० । सू० १२ । का०४। ___ भूधात्री, मुँई प्रामला, भूम्यामलकी । (Phy. अरूषा,टा arusha-ta-सं० स्त्रो० भूम्यामलको, llanthus neruri.) मुँई प्रामला । (Phyllanthus neruri.) | अरुक āar qa-अ० स्वेदक औषध । ( Diaph. .. रा०नि० व०५: ____ oretic) For Private and Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१३ अरुक रुक ariqa-तु० जर्दालू | एक फल है जो मधुर अम्लीय होता है | ख़ुबानी इसीका भेद है। अरूकुलस arügalas- रु० उश्नान, एक घास है जिससे कपड़े धोए जाते हैं। See ushnán. श्ररूकुल arükul - फा० हरिद्रा, हलदी । (Curcuma longa, Linn. ) स० [फा० इ० अरूकु. स्म्बाग़ीन arúqussabbaghin अरू कुरू स्फ, āarúqussafra - अ० ( Healthy ) नीरोग, स्वस्थ | अरूज़ aruza-अ० चावल, धान । (Rice.) ई० हैं० गा० । अरूज़ा arza- सिरि० मुर्गाबी, जल मुर्गी । ( Water-ben. ) अरूढ़ arúdha - हिं० वि० दे० श्रारूढ़ | #57 arúdha-avapátiká-o स्त्री० देखो -"निरुद्धप्रकाश" । सु० सं० । अरूद aruda-हिं०पु० उर्द, माष । (Phaseolus radiatus.) श्ररूप arūpa - हिं० वि० [सं०] (१) रूप रहित । निराकार । ( २ ) कुरूप, कुत्सित रूप, कुत्री । ( Deformed, ugly. ) अरूपाल arópál-मह० अशोक वृक्ष | (Saraca Indica, Linn. ) अरुवा āarúbá-सिरि० गज़ंगवीन, झाऊ निर्यास, भाऊ वृक्ष से स्ववा हुआ गोंद । श्ररूमचक्रarúmachak- तु० मकड़ी, ऊर्णनाभि | ( A spider. ) अरूस arúsa - हिं० संज्ञा पुं० दे० असा । अरूस āarúsa - ० ( १ ) एक प्रकार की गुहेरी वा गुहाखनी । ( २ ) दुलहिन, दुलहा ( A bride; a bridegroom. ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरेङ्गा सैफेरिफे (३) नीलोफ़र, नीलोपल ( Nymphaea stelata ) । ( ४ ) गंधक पीत ( Sulphur ) ( २ ) शीराज़ निवासी कुसुम्भ (कड़ ) द्वारा परिस्रुत पीत जल को कहते हैं जो प्रथम निकलता है अरूसक ãarúsak - अ० ( १ ) खद्योत, जुग्नू ( a firefly. ) । (२) तुम्बूस- फा० । ( ३ ) उल्लू, उलूक ( An owl ) | ( ४ ) वीरबहूटी, इन्द्रगोप कीट | (Scarlet fly ). अरु दर पर्दह āarúsak-dar-pardah अरूसक पसे पर्दह aarúsak-pase.pardah अरुनस arúnasa–यू०मटर, कलाथ विशेष | Pea (Pisum sativum). श्ररेश्रालु areálná अश्वत्थं, पीपलदृढ | (Ficus religiosa) फॉ० ई० ३ भा० । श्ररेक गोल arela-gol-को० काम रूप - हिं०, बं० । ( Ficus benjamina) अरेकिक एसिड arachic acid - इं० अरुनिया aróniyá - फ्रत्राकह, भेद | वह मेवे जिनसे श्राहार प्राप्त होता है । वस्तुतः जंगली सेब को कहते हैं । अरुनांस arúnisa-यू० कनौचा भेद । लु० अरेकिडिक एसिड arachidic acid,Allen. मूँगफल्यम्ल, मूँगफली का तेजाब | फा० इं० १ भा० । क० । - फा० काकनज, राजपुत्रिका । ( Physalis alkekenji, Linn. ) देखो - काकनज | अरूसा arusa-हिं० पृ० अड़सा । ( Adba toda vasika.) अरूसा ग़ारस aarúsághárasa-अ० कबुक, साँप की केचुली । श्रोकिस हाइपोजिया arachis hypoga, Lam. -ले० मूँगफली, चिनिया-बदाम, विलायती - मूँग । ( Ground nut, Pea• nant, Monkey mnt ) फा० ६० १ भा० अरे arekú ता० काञ्चनार, कचनाल, प्रश्ता । ( Bauhinia racemosa, Lam.) मेमा० । कोलीनी हाहड्रोप्रोभास arecoline hydrobromas - ले० दे० मूँगफली । अरेङ्गा सैक्रेरिफेरा arenga saccharifera, Labhill. -ले० तौङ्गौङ्ग- इर० । इसका साथ, For Private and Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरेबिक एसिड ६१४ शर्करा तथा तंतु खाद्य और व्यवहार कार्य में श्राते हैं। मेमो० । अरेबिक एसिड arabic acid इं० श्ररबिकाम्ल | फा० ई० १ भा० । अरेबियन कॉस्टल arabian costus - इं० कूट, कुछ - हिं० । पाचक- वं० । ( Saussurea lappa, Clarke. ) । फा० इं० २ भा० । अरेबियन जस्मिन arabian jas niue-इंο बेला- हिं० । वार्षिकी सं० (Jasminum sambac. ) अरेबियन मिर्ह arabian myrrh इं० बो(चोल - हिं०, बं०, गु० । (Balsamode dron, Sp.) फा० ई० १ भा० । अरेबियन लेवेण्डर arabian lavender इं० धारू - हिं० । उस्तुखुद्द स ( Lavandula sloechas, Linn.) अरेबियन सेना arabian senna--इं० सनाश्रू जली, सना मक्की । ( Cassia angustifolia, Tuhl.) फा० ई० १ भा० । सनाय विशेष | अरेबींस चाइनेन्सिस् arabis chinensis -ले० एक पौधा विशेष | अरेयल areyal- मल० पीपल वृक्ष, अश्वत्थ | ' ('Ficus religiosa ) इं० मे० मे० । अरेलिया aralia - इं० तापमारी । गिन-सेङ्ग ची० | फा० ई० २ भा० । अरेलिया एकीमाइरिका aralia achemirica, Dene --ले० बनखोर, चुरियल - पं० । मेमा० | -अरेलिया ग्विल फॉय लिया aralia guilfoylia - ले० तापमारी - हिं० । गिन्-से गचो० । फा० ई० २ भा० । अरेलिया स्युडोगिन्सिङ्ग aralia pseudoginseng, Benth, Wall. Pl., As, Rar, t., 1.57 - ले० तापमारी-हिं० । गिन्सेंग चो० । फा० इ०२ भा० । अरेलिपसाई araliaceae..ले० तापमारी वर्ग । .. झरोकदन्तः aroka-dantah- सं० त्रि० कृष्ण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरोचक दन्त, काले दाँत वाला । वै० निघ० । अरोग aroga हिं० वि० [सं०] रोग रहित । नीरोग | श्ररोगी arogi - हिं० वि० [सं०] जो रोगां न हो । नीरोग । चंगा | श्ररोच arocha-fo संज्ञा पुं० [सं० रुचि ] रुचि का अभाव । अनिच्छा । त्याग | अरोचकः arochakab सं० पु० अरोचक arochaka - हिं० संत्रा पु० [वि० जो रुचे नहीं । अरुचिकर । ( Disagreea ble ) । ना मब- अ० । ] एक रोग जिसमें अन्न आदि का स्वाद मुंह में नहीं मिलता । रुचिरोग । संस्कृत पर्याय- अरुचिः, अश्रद्धा, श्रनभि लाषः । रा० । डिसलाइक श्रॉफ फोर-फूड Dislike of forefood, डिसगस्ट फॉर फूड Digust for food, डिसरेलिश Disrelish, अवर्शन avertion-इं० । निशन यह दुर्गंधयुक और घिनौनी चीजें खाने और घिनोना रूप देखने तथा त्रिदोष के प्रकोप से उत्पन्न होता है । लिखा है "वातादिभि: शोक भयाति लोभ ( भयाति लोभ -भा०) क्रोधैर्मनोध्नाशन रूपगन्धैः । श्ररोचकाः स्युः परिहृष्ट दन्तः कपाय वक्रूश्च मतोऽनिले न ॥" ( मा० नि० । भा० प्र० ) अर्थवात, कफ, शोक, भय ( भयरोग ), अत्यंत लोभ, क्रोध, श्रप्रिय भोजन तथा बुरे रूप का दर्शन और दुर्गन्ध इन सब कारणों से मनुष्यों के श्ररुचि रोग उत्पन्न होता है। वात की अरुचि में रोगी के दन्तहर्ष होता और मुख कषैला रहता है । रोचक के प्रधान पाँच भेद हैं--- (१) वातज, ( २ ) पित्तज, ( ३ ) कफज, ( ४ ) सन्निपातज और ( ५ ) शोकादि से उत्पन्न अर्थात् श्रागन्तुज | लक्षण (१) वातारोचक:- अम्ल पदार्थ के भक्षण For Private and Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरोचक अरोचकः .. से जिस प्रकार दंतहर्ष होता है उसी प्रकार दंत हर्ष होना और मुख का कषैला रहना । ये लक्षण वातजारोचक में होते हैं। (२) पैत्तिकारोचक-पित्तकी अरुचिसे रोगी का मुख तिक्र, खट्टा, बेरस (बेस्वाद) और दुर्गन्धयुक्र होता है। (३) श्लैष्मिकारोचक-कफ की अरुचि से खार, मीठा, पिच्छिल, भारी तथा शीतल (मुख) और बंधा सा रहता है जिससे खाया नहीं जाता और मुख कफ से लिपा रहता है। मा०नि०। ( दर्गन्धयुक्त और कफ से स्निग्ध रहता है-भा०) (४) शोकादिजन्य (वा श्रागन्तुज अरो. चक- शोक, भय, अत्यन्त लोभ और क्रोध, अप्रिय गंधसे उत्पन्न हुई अरुचिमें मुख स्वाभाविक अर्थात् जैसा का तैसा रहता है। (५) सान्निपातिकारांचक (त्रिदोषज)इस अरुचि में रोगी का मुख वातादि जनित तिक, अम्ल और लवण आदि अनेक रस युक्र जान पड़ता है। वातादि भेद से अरोचक के अन्य लक्षण वातज अरुचि में वक्षःस्थल में शूल के समान पीडा होती है। पित्तजन्य अरुचि में शरीर में, हृदय में चोषने की सी पीड़ा, दाह, मोह और प्यास होती है। कफज अरुचि में कफस्राव होता है। त्रिदोषज अरुच में अनेक प्रकार की पीड़ा और मन में विकलता, मोह, जड़ता तथा शोक और भयादि जन्य अागन्तुक अरुचि में सब लक्षण होते हैं। तुधा होने पर भी जब आहार का सामर्थ्य न हो तब उसको अरुचि कहते हैं । अन्न खाने की इच्छा होने पर भी जब खाया हुआ अन्न बाहर निकल पाए अर्थात् मेदा उसको स्वीकार न करे तथा अन्न फेवण, स्मरण, दर्शन, गंध एवं स्पर्शन से जिसे घृणा होजाए उसे भक्तद्वष कहते हैं। . चरक तथा सुश्रत के मत से इन तीनों प्रकार के रोगों का समावेश अरोचक शब्द के अन्तर्गत होता है, यथा प्रक्षिप्तन्तु मुखे चान्नं यत्र नास्वादते नरः। - .. अरोचकः स विशेयो भद्रुष मतः शृणु ॥ चिन्तयित्वा तु मनसा दृष्टा स्पृष्टा तु भोजनम् । ' द्वेषमायाति यो जन्तुर्भनद्वषः स उच्यते ॥ कुपितस्य भयार्तस्य तथा भक्र विरोधिनः। यत्र नामे भवेच्छद्धा स भनाच्छन्द उच्यते ॥ ॥ वृद्ध भोजः॥ अर्थ-मनुष्य को जब मुख में डाले हुए अर्थात् स्वाए हुए अन्न का स्वाद नहीं मिलता, वह मीठा नहीं लगता, तब उसको अरोचक जानना चाहिए। अब भनद्वेष के सम्बन्ध में कहते हैं; सुनो-भोजन के मनमें चिन्तन करने · से, देखने तथा छूने से, जिस मनुष्य को घृणा हो जाती है उसको "भत्रद्वेष" कहते हैं। क्रोधित भय से पीड़ित तथा जिसको अन्न से द्वेष हो वह और जिसकी अन से द्धा न हो उन्हें 'भकरछंद' कहते हैं। चिकित्सा (सामान्य) भोजन से पहिले लवण और अदरक मिलाकर भक्षण करना सदा पथ्य है। यह रुचिकारक, अग्निदीपक तथा जिह्वा एवं कंठ की शुद्धि करता है। यथा भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणार्द्रक भक्षणम् । रोचनं दीपनं वह्नर्जिह्वा कर विशोधनम् ॥ ॥ भा०म० खं० ॥ अथवा अदरक के रस को मधु के साथ मिला कर योजित करें। यह अरुचि, श्वास, कास, प्रतिश्याय और कफ नाशक है । यथा-- श्रृंगवेर रसं वापि मधुना सह योजयेत् ।। अरुचि श्वासकासघ्नं प्रतिश्याय कफापहम् ॥ ॥ भा० ॥ अथवा पक्की इमली और श्वेत शर्करा को शीतल जल में मल कर कपड़े से छान ले,फिर उसमें इलायची, लवंग, कपूर और, मरिच के बारीक चूर्ण को बुरक कर पानक प्रस्तुत करें। इसके मुख में धारण करने से यह अरुचि का नाश करता और पित्त को प्रशमित करता है।.. For Private and Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दोषानुसार चिकित्सा वातज अरोचक में मटर, पीपल, वायविडंग द्वाणा, सेंधानमक और सोंठ इनके चूर्ण के साथ प्रसन्ना नाम वाली मदिरा का पान करें अथवा इलायची भार्गी, जवाखार, हींग डालकर घृत के साथ पान करें । अथवा वच का मन कराएँ । क्वाथ पिलाकर पैत्तिक श्ररोचक में गुड़ का पानी मिलाकर वमन कराएँ अथवा खांड, घृत, सेंधानमक और मधु मिलाकर चाटें । कफज अरोचक में नीम का क्वाथ मिलाकर मन कराएँ । इसके अतिरिक्त अजवाइन और अमलतास का काढ़ा पिलाएँ अथवा मधु के साथ arer श्ररिष्ट और मधु के साथ माध्वीक नामक मद्य पिलाएं और उपर्युक्त मटर आदि के चूर्ण की गरम जल के साथ सेवन कराएं अथवा निम्न चूर्ण का प्रयोग करें । इलायची 9 भाग २ भाग ३ भाग चव्य ४ भाग पीपल ५ भाग ६ भाग सोंठ निर्माण विधि - इन सब का चूर्ण कर सबके बराबर शर्करा मिलाकर सेवन करें । दालचीनी नागकेशर गुण- इससे मुखमें थूक भरना, अरुचि, हृच्छूल, पार्श्ववेदना, खाँसी, श्वास, और कंठ के रोग नष्ट होते हैं । १६ ( २ ) अजवाइन, इमली, अम्लवेत, सोंठ, अनार और बेर इनको १-१ तो० लेकर चूर्गा कर इसमें ४ पल मिश्री मिलाएँ । धनियाँ, संचलनमक, कालाजीरा और दालचीनी प्रत्येक १-१ तो, पीपल सौ और काली मरिच दो सौ इन सब | का चूर्ण उन चूर्ण में मिलाएँ । उपयोग - अत्यंत रुचिकर, ग्राही, हृदय को हितकारी होता है तथा विबंध खाँसी और हृदय तथा पसली का दर्द, प्लीहा, अर्श और ग्रहणी रोग को नष्ट करता है । ( वा० चि० अ० ५ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरोचक अरोचक रोग में प्रयुक्त होने वाली श्रमिश्रित औषधें अनार, इमली, तालीसपत्र, श्रामला, कपित्थ ( कैथ ), तक्र, कमल फूल, ( Gentiana kurroo; Royle. ', कोशिया ( Quassia excelsa) और सोडियम के लवण तथा योग | मिश्रित औषधे या (वा) नी पा (खा ) ड़ (एड) व, कलहङ्गस, अम्लीकापान ( तिम्तिडिपानक ), रसाला, आर्द्रकमातुलुङ्गावलेह, सुधानिधिरस, सुलोचनाभ्र, दाडिमादिचूर्ण और लवंगादिचूर्ण, शिखरिणी ( भीमसेनकृत ), द्राक्षासव, कपित्थाष्टक चूर्ण, पिप्पल्यरिष्ट, वडवानल चूर्ण और तालीसपत्रादि चूर्ण | अरोचक में पथ्यापथ्य पथ्य - वातजारोचक में वस्ति, पित्तज में विरेक ( जुल्लाब तथा कफज अरोचक में वमन और सर्व दोषों से उत्पन्न अर्थात् सान्निपातिक अरोचक में सब कामों की सिद्धि के लिए हर्षण क्रिया करना हित है । भा० । For Private and Personal Use Only बलानुसार वस्ति, विरेचन, वमन, धूमपान तथा कवल धारण और तिल वा कपेले काष्ठ के दातून से दंतघर्षण करना एवं भाँति भाँतिके अन्न पान का सेवन हितकारक है । गोधूम ( गेहूँ ), मूँग, लाल शालि व साठी का चावल, शूकर, बकरा तथा खरगोश का मांस, चेंग, झषांड, मधुरालिका, इल्लिश ( हीलसा ), प्रोष्ठी ( शफ्ररी ), खलेश, कवी (सुम्भा) और रोहित आदि मछली का मांस, कुष्मांड, नाड़ी शाक, नवीन मूली का शाक । वार्त्ताकु ( भांटा ), शोभाञ्जन, (सहिजन), मोचा (कदली), अनार, भव्य ( कमरख का फल ), पटोल, रुचक ( वीजपूर ), घृत, दुग्ध, बाल ( ह्रीवेर ), ताल ( तालीशपत्र ), रसोन ( लहसुन ), सूरण, द्राक्षा, रसाल ( श्राम ), नलद ( लवंग ), निम्ब, काँजी, मद्य, शिखरिणी, दधि, तक्र, श्राईक, शीतलचीनी, खजूर, पियाल ( चिरौंजी ), तिन्दुक, विकङ्कत, कपित्थ, बेर, ताल, अस्थिमज्जा, कर्पूर, मिश्री, हरीतकी, श्रज Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क arqa -अ० अनिद्रा, निद्रानाश, नाद अरोडिस वाहन, मरिच, रामठम् ( हींग), मधुर, अम्ल, चि०। (६) यन्त्र द्वारा परिस्रुत किया हुआ द्रव्य तथा तिक पदार्थ, देहमार्जनी अरूचि रोगीके लिए सारांश । ये द्रव्य हितकारक अर्थात् पथ्य हैं। अपथ्य - देखो-अर्क या अरक । पारक-बं० । (Aq. कास, उद्गार ( डकार), क्षुधा, नेत्रवायु तथा ua)। (७) सूर्य ( The sun )। (८) वेगों का रोकना, अहृय अन्न सेवन, रक्रमोक्षण, किसी चीज का निचोड़ा हुआ रस । राँग स्वरस । क्रोध, लोभ, भय, दुर्गन्ध रूप का सेवन अरुचि Juice ( Succus ) देखो-अरक। रोगो के लिए अपथ्य हैं। वि० [सं०] पूजनीय। अरोडिस arodis-अण्ड चिकरस्पी-बं० । बोता, पोमा-प्रासा। सहर sahrat-अ० अनिद्रा, निद्रानाश, नींद प्ररोहन arohana-हिं० संज्ञा पु० दे० ___न आने का रोग-हिं० । पर्विजिलियम (Per प्रारोहण । ___vigilium ), इन्साम्निया( Insomnia) अरोहना arohana-हिं. क्रि० अ० [सं० -ई० । देखो-सहर । प्रारोहण ] चढ़ना, सवार होना । अर्कāark-श्र० प्रार्तवमती, ऋतुमती होना, स्त्री का मासिकधर्म होना, ऋतु स्नान करना । अरोही arohi-हिं० वि० [सं० प्रारोही ] सवार ( Menstruation) होने वाला। संज्ञा पु. [ सं० आरोही ] आरोही, अर्क āarq-नजद० (१)शुष्क वा अर्धपक्क छुहारा (Dried or half matured date ) सवार। -अ०(२) भपका (वारुणीयन्त्र)द्वारा परित अरघुषः- aranghushah-सं० पु. तुम्बा | ( कड़वी तुम्बी)। अथर्व० । सू० ४।४। वारि । निर्मल परिस्रुत वारि जो औषधों से स्रवण क्रिया द्वारा प्राप्त होता है। वह पानी जो का. १०। बीज, मूल, पुष्प अोर पत्र प्रादि से विशेष विधि अर्कः arkah-सं० पु० . (१) प्राक, द्वारा प्राप्त किया जाता है। अर्कः-सं०। अर्क अर्क arka हिं• संज्ञा पु.। -हिं० । डिस्टिल्ड वाटर Distilled waप्राकन्द, मन्द(द)र-हिं० । प्राकन्द गाछ-बं! ter.-ई। एक्का डिस्टिलेटा Aqua disti. रूह-मह । अक्के-क० । जिल्लेटु-चेटु-ते। llata.-ले० । अरक्र-अ.। ( Calotropis gigantea., syn. नोट-अर्क खींचने में जिस क्रिया का अवAscle pias gigantea. ) ग०नि० व. लम्बन किया जाता है उसको स्रवण (चुश्राना) ११ । भा० पू० १ भा० । मद० व०१ । (२) विधि कहते हैं। इसी विधान द्वारा शुद्धासव एवं ताम्र, तामा, तोबा । Copper (Cuprum.) मे० कद्विकं० । लोक्यडम्बर रस | वे० निघ० अतर भी प्राप्त किए जाते हैं। और जिस यन्त्र द्वारा उक्त क्रिया सम्पन्न होती है उसे नाड़ीयंत्र वा वा०व्या०चि. चिन्तामणि रस । (३) स्फटिक, फिटकिरी | Alum ( Alumen. ) वारुणी निर्माण में प्रयुक्र होने के कारण वारुणी यंत्र कहते है । पूर्ण परिचय हेतु क्रम में उन मे० कद्विकं० । (४) अरुणार्क, लालमन्दार । शब्दों के सम्मुख अवलोकन करें । (Calotropis gigantea, the red var. of:) प० मु० । भा० पू०१ भा०। अर्क खींचने का संक्षेप इतिहास(१) श्रादित्य पत्र पुष्प, आदित्यभक्ता, हुलहुल । आर्यों के उन्नति काल में सन्धान विधि द्वारा (Cleome viscosa, Linn.)। रा०नि० फलों और कतिपय वनस्पतियों के पासव प्रस्तुत व. ४ । “अर्को रकपुष्पः प्रसिद्धः" । सु० सू० किए जाते थे। परन्तु, क्रमशः बिना सन्धानके ही ३७ म० अर्कादिव० । ३६ अ शिरो० वारुणीयंत्र द्वारा बीज, पत्र एवं काष्ठ का प्रभाव For Private and Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्क ६१ 1 जल में परिणत होने लगा । श्रर्थों का यह ज्ञान अत्यन्त प्राचीन है । अस्तु, इस विषय में कईएक स्वतन्त्र ग्रंथ भी आज हमें उपलब्ध होते हैं। इसका बड़ा रस्म ईरानी हकीमों और सबसे अधिक पश्चात् कालीन वैद्यों तथा भारतीय हकीमों में पाया जाता है । हेतु ( १ ) श्रोषधियों के सूक्ष्म प्रभावकारी अंश का पृथक करना । (२) श्रोषधियों के बड़े परिमाण के प्रभाव को दोबारा तिबारा स्त्रवण करने से संक्षेप मात्रा में लाना और ( ३ ) उपयोग की सुविधा के लिए। ये ही कारण अर्क स्रवण करने के मूलाधार कहे जा सकते हैं; गोया अर्क एक प्रकारका सार है । अजवायन नोट - अर्क खैचते समय सौंफ़, आदि के उड़नशील तैल जलके उष्ण ( १०० श) वाष्पों के साथ वाष्पीभूत हो जाते हैं। यह एक अत्यन्त गवेषणात्मक विषय है कि आया जो द्रव्य अर्क चुाने में व्यवहृत होते हैं; उन सबके प्रभावात्मक अंश परिस्रुत द्रव में श्रा जाते हैं या नहीं ? आयुर्वेदीय अर्कग्रंथों एवं यूनानी क़राबादोनों में अर्क के बहुसंख्यक योग मिलेंगे, जिनमें श्रमूल्य प्रभाव का होना बतलाया गया है । परन्तु परीक्षा काल में प्रत्येक अर्क से श्रभीष्ट लाभ नहीं प्राप्त होता । बहुत से तो ऐसे हैं । जिनमें सिवा समय नष्ट करने के ओर कोई परिणाम नहीं, अस्तु, इस विषय में अभी काफ़ी अनुसंधान करने की आवश्यकता है । आवश्यकता होने एवं अवसर मिलने पर गवेषणापूर्ण तथा अपने अनुभवात्मक लेख द्वारा कभी इस विषय पर उचित प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जाएगा । श्रवयव - श्रर्क के योगों को ध्यानपूर्वक देखने से यह ज्ञात होता है कि उनमेंप्रायः निम्न लिखित श्री मिश्रित रूप में पाए जाते हैं, यथा ( १ ) बीज, ( २ ) पत्र, (३) गिरी ( मींगी ), ( ५ ) खनिज ( पाषाण आदि ), ( ६ ) कस्तूरी तथा अम्बर, (७) पुरुष (5) स्वक् ( ६ ) काष्ठ, ( १० ) जड़, ( ११ ) मांस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक रस ( यखनी ), ( १२ ) माउजुब्न ( दूध का फाड़ा हुआ पानी ), ( १३ ) फल तथा ( १४ ) निर्यासवत् पदार्थ | श्रौषध एवं जल की मात्रा -- सामान्य बाजारु अत्तार छटाँक भर औषध में दो सेर तक र्क प्रस्तुत कर लेते हैं । यह अत्यंत निर्बल होता है । अस्तु दस पंद्रह तोले से १ सेर अर्क निकालना श्रेष्ठतर है यदि पाव भर औषध हो और दो सेर अर्क निकालना हो, तो लगभग ४ सेर पानी में श्रौषध भिगोएँ, तत्र दो सेर अर्क निकलेगा । यदि में दुग्ध भी सम्मिलित हो तो. उसको प्रातःकाल अर्क निकालने के समय मिलाना चाहिए | यदि अर्क के योग में कस्तूरी, केशर तथा श्रंबर श्रादि के समान सुगंधित द्रव्य हों, तो उनको पोटली में बाँध कर ( वारुणी यन्त्र द्वारा अर्क चुत्राने की दशा में ) टोंटी के नीचे इस प्रकार लटकाएँ कि उस पर बूंद बूंद पड़े और फिर उससे टपककर वर्तन में एकत्रित हो । परन्तु, यदि भभका द्वारा अर्क चुनाना हो तो नैचे के मुख में रखना चाहिए | यदि श्र में गिरियाँ पड़ी हों तो उनका शीश निकाल कर अर्थात् उनको पानी में पीस छान कर डालना चाहिए । अर्क के समाप्त होने के लक्षण इस बात का जानना अत्यन्त कठिन है कि समाप्त हो गया या नहीं । श्रस्तु इस बात के जानने के लिए कुछ कौड़ियाँ ( कपर्दिकाएँ ) डेगमें डाल देनी चाहिएँ । जिस समय जल समाप्त होने के समीप होगा, ध्यान देकर श्रवण करने से कौड़ियों का शब्द ज्ञात होगा । उस समय तत्क्षण अग्नि देना बन्द करदें | इसकी एक परीक्षा यह भी है कि जब श्र समाप्त होने को होता है तब वह अत्यल्प और विलम्ब से प्राता और जल की ध्वनि कम हो जाती है। नोट - स्रवण विधान के लिए स्रवण For Private and Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चक और विविध यंत्र विधान अर्थात् तत्साधनोपकरण, नर्माण क्रम, इतिहास एवं उपयोग प्रभृति हेतु देखिए - बामणो (नाड़िका) यन्त्र । श्रायुर्वेदीय अर्को के लिए देखिए श्रकाश । (१) अ - उस्तोख़ इस १२ तो०, गुलाब ५ तो०, मुनक्का, गाव जुबान प्रत्येक १०तो०, हलेला स्याह पावभर, धनियाँ शष्क तीनपाव (si ) और पोस्त हलेलाज़र्द १ सेर | सम्पूर्ण श्रोषधियों को तीन दिन-रात जल में भिगोकर ७ सेर अर्क खींचें । ६१६ गुण - वातरोग तथा शिरोरोग को नष्ट करता है, हृदय तथा श्रामाशय को बल प्रदान करता और शिर की ओर बाप्पारोहण को रोकता है । इ० श्र० । (२) - उपयुक्त गुणधर्म युक्र है । योग - गुलगाव जुबान २ तोला, गावजुबान, गुलाब, कासनी बीज प्रत्येक २ तो०, शाहतरा ३ तो०, उस्तोख हस, अनतीमून ( पोटली में बाँधकर ) प्रत्येक मा०, बिल्लीलोटन, बस्फ्राइज - पिस्ती, दरूनज - अक्रूरबी, हज्रश्रर्मनी, गिलेअर्मनी, गुलसेवती प्रत्येक ७ मा०, पोस्त हलेला काबुली, धनियाँ शुक, गुल नीलोफ़र प्रत्येक १०॥ मा० | इनको दो रात-दिन जल में भिगोए रक्खें । तदनन्तर ५ सेर खींचें । (३) अ - गुलकेतकी १ तो०, गुलसेवती, गुलगाव ज़ुबान प्रत्येक २ तो०, गुलेनीलोफर, धनियाँ शुष्क प्रत्येक १० तो० ! २ रात-दिन जल में भिगोकर १० सेर खींचें । उष्ण प्रकृति वाले के लिए इसमें कपूर की वृद्धि करें, इससे बहुत लाभ होता | कभी कभी कपूर के साथ वंशलोचन सफ़ेद भी यथोचित मात्रा में सम्मिलित किया जाता है अथवा उक्त श्रृक्त का “क्रू संकार” या " क्र. संतबाशीर" के साथ उपयोग किया जाता है । गुण- हृदय एवं मस्तिष्क को बल प्रदान करता है । ( ४ ) अर्क - हकीम काज़मअलीख़ाँ सदा यह अर्क तैयार करते थे। दो बार लेखक के अनु भवमें भी चुका है और मालीख़ौलिया अ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजवाइन (Melancholia) के सम्पूर्ण भेदों में लाभप्रद है। उक कराबादीन (श्रम महूम) से उद्धत है । योग-कीकर त्वक् धोकर साफ किया हुआ १० सेर, गुड़ १ मन ( शाहजहानी ), पानी ४ मशक । इन सबको मटके में डालकर भूमि में गाड़ दे और उसके नीचे किञ्चित् घोड़े की लीद डाल दें' | जब लाहन उ श्राए श्रर्थात् सन्धानित हो जाए तब ३० सेर एकाग्नीय अर्क खींचें । पुन: लौंग ६ मा०, जायफल, जावित्री, दारचीनी नुन्द्र व शीरीं, इलायची छोटी और खस प्रत्येक १ तो०, चन्दन चूर्ण २ तो०, गुलाब तो० । इन श्रोधियों को एक रात-दिन उक्त श्रक़ में भिगो रक्खें | दूसरे दिन २० सेर द्वयाग्निकार्क खींचें । पुन: उक्क लौंग, जावित्री प्रभृति श्रोषधियों को अर्धमात्रा में लेकर द्वयाग्निकार्क में एक रात दिन भिगोएँ और दूसरे रोज १२ सेर याग्निकार्क खींचें । यदि ३ मा० गुलाब का इत्र भपके में डाल दें तो उत्तम होता है । कुछ दिन बाद उपयोग में लाएँ । गुण-- हकीभ मुहम्मद जाफ़र अकबराबादी उक्त अर्क को प्रस्तुत कर ४० दिवस पश्चात् ख़ान ( मूर्च्छा रोग ), हृदय की निर्बलना, मालीख़ौलियाए मराक़ी और शारीरिक निर्बलता की दशा में गुलाब और मिश्री के साथ श्रग्नि लगाकर शीतल होने पर पिलाते थे । इसकी विधि निम्न है - मद्य १० तो ० को चीनी के प्याले में डालकर मिश्री और गुलाब प्रत्येक ४ तो० को परस्पर मिलाएँ और शराब को आग लगा कर गुलाव में घोली हुई मिश्री उसमें डाल दें, और चमचा से चलाएं जिसमें अग्नि बुझ जाए। शीतल होने पर पीएँ और ४-५ घड़ी बाद भोजन करें । इ० श्र० । अजवाइन āarq-ajavain - अ०, फा० अजवाइन का श्रर्क, यमान्यर्क । निर्माण-विधि - तुख्म अजवाइन १॥ पौंड, जल ३ का० । अर्क की विधि से ४ घंटे तक अर्क खींचें । For Private and Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क अजवाइन मुरकब ६२० অন্ধ অনন্ধাৰ ৰাৰ मात्रा व उपयोग विधि-एक एक पाउंस निर्माण-विधि-सत अजवाइन, सतपुदीना, (२॥ तो०)की मात्रा में थोड़ी थोड़ी देर पश्चात् कपूर प्रत्येक एक तो० सम्पूर्ण औषधों को उपयोग करें। शीशी में डालकर धूप में रक्खे, अर्क तैयार हो गुणधर्म-आक्षेपयुक्र उदरशूल में लाभदायक जाएगा। तथा परीक्षित है। मात्रा व सेवन-विधि-४-५ बुद, विशू. अर्क अजवाइन मुरकब (जदीद) aarq-a. jav. चिका, उदरशल तथा ज्वर में अक़ बादियान ain murakkab 'jadia'-अ० नूतन १२ तो० के साथ या बताशा या शक़ रा में मिश्रित यमान्यर्क। मिला कर बरतें । विशचिका में एक-एक घंटा निर्माण-विधि-दारचीनी, अजवाइन देशी बाद ऐसी खुराक दी जाए। जब वमन तथा प्रत्येक २० तो०, गाव बान १ सेर । सबको २४ अतिसार बन्द हो जाएँ तब औषध देना बन्द कर घंटे तर रखकर अर्क खींचें और पुनः इस अर्क में दें। यदि एक-दो मात्रा से आराम न हो तो उपयुक औषध २४ घंटे तर करके दुबारा अर्क स्थानीय चिकित्सक को बुलाएँ । किन्तु, विशूखींचें । चिका के दिनों में स्वास्थ्यरक्षा हेतु एक मात्रा मात्रा एवं उपयोग-विधि-एक एक तो० प्रयोग में लाया जाए। शिरःशल में कनपुटी यह अर्क सिकञ्जबीन सादा १ तो० मिलाकर (शंख) पर लेप करें और चार बृद ताजे सवेरे-शाम दिन में तीनबार या यथा अावश्यक पानी के साथ पी ले। दाढ या दंष्टशल हो तो चार चार घंटे के अन्तर से पिलाते रहें। रूई का फाया इसमें तर करके वेदना स्थल पर गुणधर्म-विशूचिका में लाभदायक है। लगाएँ । वृश्चिक एवं ततैया के काटने पर भी वमन तथा अतिसार को लाभ करता है। हर्ष इसे दंश स्थान पर लगाएँ। जनक एवं हृद्य है। गणधर्म-कई सेगों पर तात्कालिक लाभ अर्क अजवाइन सादह 'जदीद' aarq-a.jav प्रदर्शित करता है । संक्रामक तथा आहार-विकार ain sadah jadid'-अ०, फ़ा. नूतन जन्य विशूचिका के लिए बहुत गुणदायक है। सामान्य यमान्यर्क। प्रत्येक माति की वेदना चाहे वह कान में हो चाहे दाद में या प्रामाशय में हो. शिर में हो निर्माण-विधि-अजवाइन 5२॥ सेर रात अथवा किसी भी स्थान में हो तुरंत नष्ट होती है। को भिगोकर सवेरे १० बोतल अर्क खीचें। पुनः प्रामाशयिक विकार या प्राहार जन्य विकार इसमें २॥ सेर अजवाइन डालकर रात को तर के कारण जो ज्वर हो जाता है उसको यह दर कर दे और सवेरे १० बोतल अक स्वींच करता है । ति० फा०१ भा०।। __ मात्रा व उपयोग-विधि प्रामाशय तथा अर्क प्रजबार aarq-anjabar-अ० अधबार श्रांत्ररोग में जवारिश बस्बासह (जावित्री)। मूल, अञ्जबार की जड़-हिं०। ( Pyrethri ५ मा० के साथ और यकृद्रोग में माजून दबीदुल्वर्द के साथ यह अर्क ॥ तो० की मात्रा में अर्क अनन्नास जदीद aarq-anannās-jaपी ले। did-अ० नृतन अनन्नासाकं । गण-धर्म-आमाशय शूल, अजीर्ण, उदरा- निर्माण-विधि-स्वधायुक्त श्रनत्राम १२ अदद, ध्मान, जलोदर तथा यकृत की शीतलता के लिए सौंफ १ सेर, प्याज श्वेत २ मेर सब को एक यह अर्क अत्यन्त लाभदायक एवं शीघ्र साथ देग में डालकर ऊपर इतना पानी डाले प्रभावकारी है। कि चार अंगुल ऊपर रहे। तदनन्तर अधोचित अर्क अजीब aarq-aajib-अ. विलक्षणार्क । विधि से अर्क खींचे । मात्रा व सेवन विधि ले । For Private and Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२१ ८ तो० अर्क में मिश्री की शर्बत बज्ररी २ तो० सम्मिलित करें | गुण-धर्म-वस्थश्मरी के लिए अत्यन्त लाभदायक है । ii aarqanisún - अ० अर्क बादियान रूमी, रूमी सौंफ का अर्क । एक्का एनिसाई ( Aqua Anisi. ) - ले० ! देखो - अनीसुँ । aarq-afím फ्यू aarq-afyún अ । एक्का ओपियाई ( Aqua Opii. ) - ले० | देखो - अफीम ( वा पोस्ता ) । - अ० अफीम का अ असन्तीन ãarq-afsantin- अ० असन्तीन रूमी आध सेर को अ गुलाब ३ सेर में रात को भिगो दें। सबेरे २ सेर पानी और डाल कर ४ बोतल खींचें । पुनः उक्त चक्र में असन्तीन रूमी अघ सेर तथा अर्क गुलाब ३ सेर और पानी दो सेर डालकर दोबारा ४ बोतल खींचें । मात्रा व सेवन विधि - डेढ़ तोला यह अर्क, सौंफ ६ तो० और शर्बत कसूस २ तो० सम्मिलित कर पिलाएँ । गुण-धर्म-यकृद्विकार ( शोध व कान्य) के कारण जो ज्वर होता है उसमें यह बहुत warns सिद्ध होता है । यकृत् का शोधनकर्ता तथा (सांद्र) स्थूल दोषों से शुद्ध कर उसे स्वभाविक दशा में ले श्राता है । सामान्य अ असन्तीन से यह कहीं अधिक लाभप्रद एवं शीघ्र प्रभावकारक है । यह अति तीव्र प्रभावकारक हैं । इस की मात्रा श्रति न्यून है । अपथ्य - घृत, तैल और अन्य तैलीय पदार्थ तथा लाल मिर्चों से परहेज करें । I अर्का अम्बर āargāambar - अ० ममुग्रा से उधृत हैं | हृदय व मस्तिष्क एवं उपमांगों को बल प्रदान करने के लिए अनुपमेय है । मूर्च्छा को नष्ट करने और शक्ति को पुनरुज्जीवित करने के लिए शीघ्र प्रभावकारक है । अस्तु, कई स्त्रियाँ आर्तवाधिक्य के कारण तथा कई पुरुष अर्श में अत्यधिक रक्तस्राव के कारण अन्तिम दशा को पहुँच चुके थे; किन्तु इस चक्र के पीते ही अपनी अ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क अम्बर जदीद 1 पूर्वावस्था पर लौट आए। इस चक्र के अत्यन्त विस्मयकारक प्रभाव अनुभव में रहे हैं योग-मिश्क ख़ालिश ४॥ मा०, अम्बर अब, मस्तगी रूमी प्रत्येक ६ मा०, वर्ग रेहा नवीन, नागरमोथा, तज, खुश्क धनियाँ, गुले गाव जुबान गीलानी, अनीसूं, दरूनज अक्रूरबी, पिस्ता वाह्यत्व प्रत्येक १ तो० १०॥ मा०, ज्ञर्नबाद, अगर, कवावह ख़न्दाँ, छड़ीला, बालछड़, बहमन सुर्ख़, बहूमन सफ़ेद, शक्क़ाक़ल मिश्री, तेजपात, दारचीनी, जाफ़रान, लौंग, बूज़ीदान, गुलाब, वंशलोचन सफ़ ेद बड़ी इलायची, छोटी इलायची, दूब, पोस्त उन्रज, अब्रू रेशम कतरा हुआ, श्वेत चंदन प्रत्येक २ तो०, ताजे विलायती सेवका पानी ॥ ( श्रात्र सेर श्रालमगीरी ), तुर्श अनार का पानी १ सेर, अक़ बेदमुश्क, अ गाव जुबान, अ बादरञ्जयह (बिल्लीलोटन ) प्रत्येक २॥ सेर, गुलाब क़िस्म अव्वल । कूटने योग्य ओषधियों को कूटें और सब को अक़ के साथ एकत्रित कर रात को सुरक्षित रखें । सवेरे सेव और अनार का पानी सम्मिलित कर देग में डालें तथा अम्बर व मिश्क को नीचे के मुँह में रखकर अन खीचें । मात्रा - कहवे की एक प्याली से ४ प्याली तक | नोट - चिकित्सक को रोगी की प्रकृति के अनुसार इस अर्क में परिवर्तन करना योग्य है । अस्तु, आमाशय पुष्टि हेतु मधुर बिही का पानी १ सेर, तथा उसे उष्णता पहुँचाने एवं बलप्रदान करने के लिए बहारनारअ १ तो० १०॥ मा० और अतिसार को रोकने के लिए गुप्त सिञ्जद या सिजद समावेशित करें । इ० अ० । अम्बर जदोद Jarg-aambar-jadid - अ० नूतन अम्बरार्क । निर्माण - चित्रि - मिश्क ५ मा०, अम्बर ६ मा०, मस्तगी १८ मा०, वर्म रहाँ ताज़ा, नागरमोधा ( सुऋद कोफ्री ), धनियाँ शुष्क, गुलेगाव, जुबान, अनीस, दरूनज अक्रूरबी, जर्मबाद, पिस्ता वाह्यत्वक्, ऊदगुर्की, कबाबचीनी, छड़ीला, For Private and Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्क श्रम्बर वारीस बालछड़, बह्मन सुर्ख़, बमन सफ़ ेद, शक़ाक़ल, दारचीनी, तेजपात, लोंग, बूज़ीदान, गुले सुख, बंसलोचन, इलायची छोटी तथा बड़ी, अल्फ हिन्दी, पोस्त उनज, श्रब्रेशन कतरा हुआ, सफेद चंदन प्रत्येक ४५ मा०, केशर १ तो० ६ मा०, सेब का पानी १ सेर, खट्ट अनार का पानी २ सेर, गाव. जुबान, अक़ बेदमिश्क, अक्र बादरबूया प्रत्येक ५ सेर, अक्र गुलाब १० सेर | जो औषध कूटने योग्य हैं उन्हें कूटकर रात को A में भिगोएँ । सवेरे सेबका जल, अम्ल अनार का जल सम्मिलित कर अम्बर व मिश्क पोटली में बाँधकर नीचे के मुँह के भीतर रखें और अ खींचें । पुनः उपर्युक्त अक़ के स्थान में उक्त चक्र में उतनी ही श्रोषधियाँ रात को भिगोकर दोबारा खींचें । मात्रा व सेवन विधि - दो तोला यह अर्क अन्य उपयुक्त श्रौषध के साथ | गुण-धर्म - उत्तमांगों को बलप्रद तथा मूर्च्छा लाभप्रद हैं । धर्श तथा मासिक स्रावाधिक्य के कारण हुई शता को दूर कर पुनः शक्ति का संचार करता है और कामोद्दीपक भी है। ति० फा० १ भा० । नोट - इसी नाम के कुछ अवयव तथा मात्रा की न्यूनाधिकता के सहित कई एक और योग भी हैं जो विस्तार भय से यहाँ नहीं दिए गए । अम्बर बारीस āarq-ambar-báris –अ॰ यह अलौं श्रामाशय एवं यकृत को पुष्टि प्रदान करता है, पित्तकी तीक्षणता को नष्ट करता तथा क्षुधा की वृद्धि करता है । मैं निर्माण विधि - रिश्क गुठली निकाला हुश्रा ६७५ तो० को २४ घण्टे पानी में भिगो रखें । पुनः उसमें ६ तो० ४ ॥ मा० लौंग पीसकर समावेशित करें और थोड़ा सिर्क अंगूरी ( अंगूरी सिर्का ) जो जरिश्क की चौथाई से अधिक न हो सम्मिलित कर विधि 'अनुसार क्र खींचें । यदि इसमें थोड़ी सी चना की भस्म मिलाले तो स्वादिष्ट हो जाएगा । ३० अ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર अर्क आशोब चश्म अर्क अस्वद वारिद āarq-asvad-bárid-o उष्ण प्रकृति वालों के लिए उपयुक्त एवं ग्राह्लाद व प्रफुल्लताकारक है | मालीख़ौलिया तथा मराक़ के रोगियों के लिए और जले हुए वायु के लिए लाभदायक है निर्माण-कम-गुड़ ६७॥ सेर, बबूल की छाल ६७५ तो० दोनों को मटके में डालकर इतने जल में भिगोएँ कि तिहाई मटका शेष रहे । तदनन्तर मटके को घोड़े की लीद में गाड़ दें और रख छोडें । यहाँ तक कि उसमें जोश (संधान) आने के बाद स्थिरता श्राजाए। इसके बाद श्र खींचें और पुनः उक श्रर्क को एक बर्तन में डालें तथा चन्दन का बुरादा, शुष्क धनियाँ प्रत्येक ७॥ तो०, गुलनीलोफ़र १५ तो०, बहेड़े की छाल, श्रामला गुठली निकाला हुआ प्रत्येक ३७॥ तो०, गुलगावजुबान, तुख़्मक प्रत्येक ४५ तो०, मरज़ तुख्म कह अधकुटा ७५ तो०, तुम कासनी श्रधकुटा, तुख्म ख़फ़ छिला हुश्रा, मरज़ तुख़म खीरा अधकुटा प्रत्येक ३० तो०, पोस्त हलेला काबुली, किनब बेद ( जंगली बेद के फल और फूल ) व बहार प्रत्येक ११२ तो० ६ मा०, गुले सुख ११ सेर | सम्पूर्ण औषधों को उक्त अर्क में २४ घंटे भिगो रखें । तदनन्तर अर्क खींचें । चक्रे खींचते समय अम्बर ग्रश्व ६ मा० नीचे के मुँह में रखें | इ० अ० | अर्क आशोर चश्म āarq-áshob-chashma - अ० चतुः शूल नाशक घोल । निर्माण क्रम- गुलाब शुद्ध २॥ तो०, सिल्वर नाइट्रेट ( रजताम्ल, चाँदी का तेजाब, रजतनत्रेत २ ग्रेन ( १ रती) दोनों को मिलाकर नोलवण की शीशी में रखें । मात्रा तथा सेवन-विधि - दो तीन बूंद दुखते हुए नेत्र में टपकाएँ । धर्म- प्रकार के श्रख श्राने (अभिष्यन्द, नेत्र दुखने) में अत्यन्त लाभदायक है । विशेषतः रोहों ( कुक्करों ) के लिए और उस ॐ दशा में जब कि नेत्र से कीचड़ अधिकता के 1 For Private and Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क क तान लें। अक आसफ़ साथ निकलता है तब यह अत्यन्त लाभ पहुँ. भिगो रखें और दूसरे सवेरे दोबारा अर्क खींचें । चाता है। मात्रा व सेवन-विधि-३ तो० अावश्यकताअर्क आसफ़ aarq-asaf-अ० बीख़ कबर । | नुसार अनुपान रूप से उपयोग में लाएँ । (The root of Capparis spinosa.) गुणधर्म-अर्क इलायची के सदृश । अर्क पासव aarqasava-अ० अर्क उश्वह aarq-aushbah-अ० उश्बा का निर्माण-कम - गुड़ १ सेर, कीकर को छाल अर्क। निर्माण-विधि-उश्वह मररबी सवा१२ सेर, मटके में डालकर अग्नि पर रखे। जब सेर और चोबचीनी सवासेर को रात्रि में उष्ण जोश आजाए तब बेलगिरी २० तो०,लोध,अतीस, जल में भिगोकर सवेरे ४० तो० अर्क खीचें । मोचरस प्रत्येक ४ तो० ८ मा०, पिस्ता वाह्य मात्रा व सेवन-विधि-७ तो० अनुपान त्वक, नागरमोथा, बाल छड़, पोस्त तुरञ्ज, जनबाद रूप से व्यवहार में लाएँ। प्रत्येक २ तो० ४ मा०, चंदन का बुरादा, गुलाब, खस प्रत्येक १० तो०, अामला श्राधसेर, माजू ___ गुणधर्म-वायुजन्य रोगों में गुणदायक है । जौकुट किया हुश्रा १ तो० २ मा० । सम्पूर्ण संधिवात, उपदंश और सूज़ाक के लिए लाभदायक औषधों को मिलाकर विधि अनुसार अर्क खींच है, रक की शुद्धि करता एवं फोड़े फुन्सी की शिकायत को दूर करता है। नोट-द्विआग्नेय बनाना हो तो उन औषधों अक उश्चह, मुरकब aarq-aushbah-mu. को २४ घंटे मद्य में भिगोकर डालें। rakkab-अ०, मिश्रित उश्वार्क । निर्माणकभी कभी कीकर की छाल ८ सेर, जामुन की विधि-उश्वह, ३० तो०, बुरादा चोबचीनी, छाल २ सेर और सेंभल की छाल २ सेर डाली शीशम का बुरादा प्रत्येक एक पाव, गुलबनफ़्सा, जाती हैं। गुल नोलोफ़र, गुलनीम, गुलसुर्ख, गावज़ बान, मात्रा और सेवन-विधि-६ तो०, शर्बत शाह तरा, चिरायता, मुंडी, सरनोका, हब्बुल श्रास २ तो० के साथ व्यवहार में लाएँ । गोखुरू, श्वेतचन्दन का बुरादा, लाल गुणधर्म-आमाशय-पुष्टिकर तथा श्राह्लाद. चन्दन का बुरादा प्रत्येक प्राध पाव, पीली हड़का जनक है एवं श्रामाशयिक अतिसार के लिए बक्कल, काबुली हड़ का बक्कल, बर्ग सना, बर्ग लाभदायक है। हिना प्रत्येक ५ तो० सबको १५ गुने जल में २४ घंटे तर करके जल का दो तिहाई भाग अर्क अकं इलायची āarg-ilayachi-अ० वृहदेल की प्रस्तुत करें। निर्माण-विधि-सवासेर बड़ी इलायची को रात को पानी में भिगोएँ और सवेरे २५ बोतल अर्क __ मात्रा व सेवन-विधि-सवेरे शाम दोनों खींचें। समय ७-७ तो० उक्त अक़ में शर्बत उश्वह' या __ मात्रा व सेवन-विधि-१०-१२ ता० उप शर्बत चोपचीनी २ तो० सम्मिलित कर पिलाएँ योग करें। गुणधर्म-इसमें आश्चर्यजनक रक्रशोधक गुणधर्म-उल्लासकारक तथा हृद्य, विशूचिका प्रभाव अन्तर्निहित है। उपदंश, रक्तविकार तथा वान्ति एवं अतिसार की दशा में लाभदायक और अन्य वात रोगों में लाभदायक है। वायुलयकर्ता है। कतरान aar-qatran-अ० Tar अर्क इलायची, जदीद āarqilayachi-,jadid Water (Aqua picis) देखो-क त्रान। -नूतनैलार्क । २॥ सेर इलायची को रात को जल अर्क कन्दी aarq-gandi-अ० उल्लास एवं में भिगो दें और सवेरे २५ सेर अर्क खींचें । पुनः । प्रफुल्लताजनक प्रभाव में इससे उत्तम तथा स्वाउतनी ही इलायची उक्त अर्क में डालकर रात्रि को दिष्ट कोई दूसरा अर्क नहीं । यह हृदय एवं For Private and Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क करावियह अक किनांत मस्तिष्क को शनि प्रदान करता है, खुमार बिलः । रात को जल में भिगोएँ तथा सवेरे २० बोतल कुल नहीं लाता और नहीं कोई गंध रखता है, अर्क खींचें। कामोहीपन करता एवं श्राहार का पाचन क मात्रा व सेवन-विधि-१२ तो० उपयुक्त रता है। औषध के साथ सेवन करें। योग व निर्माण-क्रम-गुड़ एक मन जहाँ. गणधर्म-रक तथा पित्त की तीक्ष्णता को गरी, कीकर की छाल ८ सेर जहाँगीरी, श्राव दूर करता है तथा तृष्णाशामक व पित्तज शिर:श्यकतानुसार शुद्ध स्वच्छ जल के साथ एक मटके शूल को लाभ करता है। में डाल रखे। संधारित होने पर ३० सेर एकाग्निक अर्क खींचें। अपथ्य उष्ण वस्तुएँ । अर्क करावियह, aarq.karaviyah-अ० नोट-यदि उपयुक्र अर्क में उतनी कासनी और डालकर दुबारा अक़ खींच लें, तो यह और कृष्ण जीरकार्क । ( Caraway water) भी तीव होगा तथा इसको मात्रा तीन-तीन तो० देखो-स्याहजीरा । सवेरे शाम दोनों समय सिकञ्जबीन सादा या अर्क कान्ता arka-kāntā-सं० स्त्रो. आदित्य शर्बत नीलोफर एक तो० सम्मिलित कर पिलाएँ। भना हुलहुल । (Cleonme viscosa, इसको अर्क कासनी जदीद कहते हैं। ति. Lin.)-ले० ।रा० नि०व०४ामद. फा १ व०२ भा० । व०१। अर्क काफ़र aary kafür अ. अर्क किब्रीत aarq.kibrit-अ० अर्क कपूर arka.ka.pur-हिं० संज्ञा पु.। अर्क गंधक arka.gandhak-हिं०संज्ञा पुण निर्माण-क्रम-(१) कपूर १ ड्राम, जल मिट्टी के बर्तन में एक छोटा सा लौह त्रिपाद रख कर उसकी चारों ओर अामलासार गंधकका चूर्ण एक पाइण्ट । कपूर को जल में मिश्रित कर फैलाएँ और त्रिपाद के ऊपर एक छोटा सा चीनी रक्खें। का प्याला रख दें। तदनन्तर बर्तन के मुख पर मात्रा व सेवन-विधि . आवश्यकतानुसार चीनी अथवा एलीमिनियम का एक इतना बड़ा यह अर्क एक-एक बाउंस की मात्रा में दिन में दो कटोरा रक्खें कि वह बर्तनके मुख पर भली प्रकार या तीन बार । बैठ जाए । पुनः किनारों को गूंधे हुए आँटे से गण धर्म-पाचक और वायुनिस्सारक । भली प्रकार बन्द करदें जिसमें अर्क वाष्प रूप में (२) २० ग्रेन (१० रत्ती ) शुद्ध कपूर को बाहर न निकल सके । ऊपर वाले कटोरा इतने मद्यसार (रेक्टिफाइड स्पिरिट )में घोलें कि में ठंडा पानी भर दें और नीचे मन्दी मन्दी प्राधा पाउंस (११ तोला) हो जाए। पुनः अग्नि दें । गरम होने पर ऊपर का पानी बदलते इस घोल में एक ग्रेन परिनुत जल क्रमशः रहें । इसी प्रकार घण्टा दो घण्टा तक करें । बाद मिलाएँ। को अग्नि नरम होने पर बर्तन का मुंह खोलकर मात्रा व सेवन-विधि-१ से २ औंस तक प्याली निकाले । उसमें अर्क एकत्रित होगा । इसे पिलाएँ । शीशी में सुरक्षित रखें। ___ गुण धर्म-विशूचिका एवं उदराध्मान के गुण-धर्म-उचित मात्रा एवं उपयुक्त अनुशन लिए गुणदायक है। के साथ विविध रोगों में इसका आश्चर्यजनक अर्क कासनी āarg-kāsani-अ० कासनी का व लाभदायक वाह्य तथा आन्तरिक उपयोग होता अर्क। है। जिन सब का वर्णन यहाँ विस्तारमय से नहीं निर्माण-विधि-तुरुम कासनी सवासेर ९१, किया गया। For Private and Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क केवड़ा अर्क गजर अम्बरी ब नुस्खहे कलाँ अर्क केवड़ा auq.kevari- केतक्यर्क।। गुण-धर्म-प्लीह काठिन्य व प्राध्मान, रदरनिर्माण-विधि-केवड़ा की बालें १० अदद शल, आधा की कमी तथा यकृन्नैर्बल्य के लिए जल में भिगोएँ और विधिअनुसार अक़ खींचें। लाभदायक है। मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० ऐसेही उपयोग मात्रा-२-३ तो० या अधिक प्रकृत्यनुकूल | में श्राता है। अपथ्य - उष्ण पदार्थ । (अक्सी० अ०) गुण-धर्म-हृद्य तथा प्रमोदजनक और अक खम्मान aar-khamman-१० खम्मान ऊष्माशामक है। वैकल्य एवं भ्रमनिवारक तथा का अर्क । Elder flower water उत्तमांगों को शकिप्रद है। (Agila sambuci)। देखो-खम्मान । अर्क क्रियाज़ट aarq-kriyāzut-अ०(Aqua अर्क खुश्बू aarqkhushbu अपक्षाघात, अद्धांग creosoti)। देखो-क्रियाज़ट। तथा सम्पूर्ण शीतजन्य मास्तिष्क रोगों के लिए अर्क क्लोरोफॉर्म aarq-kloroform-अ०सम्मो. लाभदायक है। हिन्यर्क | Chloroform water(Aqua __ योग व निर्माण-विधि-दालचीनी, गुलchloroformi ) | देखा-क्लोरोफॉर्म ।। सेवती प्रत्येक ४ सेर, जायफल, जावित्री प्रत्येक अर्क खब सुल हदीद aarq.kha.bsulhudid २ सेर, छालिया, अगर प्रत्येक प्राधसेर, केशर -१० मण्डार्क, मण्डूर का अर्क । ४ तो० और श्वेत तथा सुगन्धित पान के पत्र निर्माण विधि-(१) पुरातन मण्डूर १०० अदद । सबको थोड़ा कूटकर ७ सुराही बारीक किया हुआ १ छं०, पीपल, सुहागा, सोंठ, अक लौंग ( जो कि अक गुलाव में लौंगों को नौशादर कूटा हुआ प्रत्येक १॥ तो०, पुराना गुड़ भिगोकर खींचा गया हो )में भिगोकर दो रातदिन प्राधसेर, मवेज़ मुनक्का १ सेर, घृतकुमारी स्वरस रख छोड़े । तदनन्तर अक खींचें और उसका ५ सेर । सम्पूर्ण औषधों को मर्तबान में डाल कर इत्र लेकर पृथक् सुरक्षित रक्खें तथा उसके अक उसका मुँह बन्द कर दे और गेहूँ की रास को बोतल में डाल कर पृथक सुरक्षित रक्खें । अथवा भूसा में गाड़ दें । ग्रीष्म ऋतु में १२दिवस के पश्चात् तथा शरद ऋतुमें २५ दिनके मात्रा-सवेरे शाम दो दो तो० पिलाएँ। बाद निकाल कर ऊपरी जलीय घेल धीरे धीरे यदि मदकारक बनाना चाहें तो अकलौंग के छान लें और बोतल में रखें। स्थान में अक कन्दी या अक खुर्मा ( छुहारा ) गुण-यकृत नैवल्य, प्लीहावृद्धि, पाण्डु तथा में भिगोकर बनाएँ । (इ० अ०) शोथ के लिए परीक्षित है। । अर्क गज़र अम्बरी ब नुस्खहे कलाँ aarq.gaमात्रा - सवेरे-शाम १ छ• की मात्रा में : zar. aambari ba-nuskhaheपिलाएँ । (सरियह ) kalan-१० गर्जरा विशेष । (२) अजवाइन, पीले हड़ का बक्कल प्रत्येक निर्माण-विधि-गाजर ५ सेर, किशमिश, ७ छं०, मण्डर १०॥ छं०, औषध त्रय को यव मवेज़ मुनक्का प्रत्येक २॥ सेर, बिही, सेब प्रत्येक कुट करके ऐसे बर्तन में जिसमें प्रथम घृत प्रभुति श्राधसेर, मीठा अनार एक सेर, गुलेसुन, इलाचिकनी वस्तु रखी गई रही हो रक्खें और उसमें यची छोटी व बड़ी, लाल व सफेद चन्दन, अरेएक सेर गड़ १० सेर मीठे पानी में घोलकर शम ( कतरा हुअा), बर्ग रैहाँ, शुष्क धनिया, समावेशित करें । फिर घीकुवारका स्वरस प्राधसेर गावजुबान, तुम कासनी, तुम हयारेन प्रत्येक डाल कर बर्तन का मुँह बन्द करके किसी गढ़े में ५ तो०, अक गुलाब, श्रक केवड़ा, अर्क घोड़े को लीद के बीच स्थापित करें । तीन सप्ताह गावज़बाँ प्रत्येक २ सेर । केशर १ तो०, मिश्क पश्चात् निकाल शद्धकर बोतल में रक्खें। (कस्तूरी) तथा अम्बर प्रत्येक ३ मा० को पोटलीमें For Private and Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क गजर जदीद अर्क गुल संभल बाँधकर निम्न मुख पर रख कर विधि अनुसार गुणधर्म-हृदय तथा मस्तिष्क को बल प्रदान अक खींचे। पुनः उक अक में उपयुक्र अर्को के करता और मूर्छानाशक है । सिवा शेष सम्पूर्ण पोषधिया डालकर दोबारा अर्क अर्क गन्धक aar-gandhuka-देखोखींचें। अक किनीत । मात्रा व सेवन-विधि-तीन तो० उक्न अर्क अर्क गन्धिका alka.gandhika-सं० स्त्री० को १ मा० शर्बत अनार के साथ पान करें। (Ipomea digitata.) पताल कुम्हड़ा, गुण-धर्म-हृद्य, मेधाजनक, कामोद्दीपक, भूमि कुप्माण्ड । प० मु०। शुद्ध रक्त, उत्पन्न करता तथा प्रमोदकारक है और अर्क गार कर्जी aarnighār-karzi-अ० इसके उपयोग से मुख मण्डल पर रवाभा झलकने देखो-चरी लॉरेल वाटर ( Cherry लगता है। laurel water.) अर्क गजर 'जदीद' aar.gazar' 'jadid' अर्क गावज़बाँ aar-gavazuban-१० गाव-अ० नृतन गर्जरार्क। जुबा का अर्क । __ निर्माण क्रम-गाजर २ सर, गावजुबान निर्माण-क्रम-गावजुबा १। सेर रात को जल ४ तो०, गुलगावजुबान २ तो०, सफ़ेद चन्दन में भिगोकर सवेरे २० बोतल अक़ निकाले । ३ तो० ६ मा०, तोदरी सुत्र, बहमन सुर्ख, बह- मात्रा व सेवन-विधि- १२ तो० यह अर्क मन सुफ़ेद प्रत्येक २ तो०३ मा० सबको पानी में उपयुक्त औषध के साथ सेवन करें। भिगोकर २० बोतल अर्क प्रस्तुत करें। पुनः गुणधर्म-उत्तमांगों को बल प्रदायक तथा उतनी ही औषध उक्त जल में भिगोकर अर्क शारीरोप्मानाशक है और हृदय प्रफुल्लकारक, खींचे। तृष्णा शामक तथा वात रोगों में लाभप्रद है । मात्रा व सेवन-विधि- ५ तो० अनुपान अर्क गावज़बाँ "जदीद" aarj-gavazuban रूप से उपयोग करें। गण-धर्म-प्रमोदजनक, बल कारक एवं उत्ताप "jadid"-अ.0 नूतन गाव जुबाँ का अक । शामक है और मूर्छा तथा विभ्रम को दूर निर्माण-विधि-गावज़बाँ २॥ सेर रात को जल में भिगोएँ और सवेरे यथा विधि अर्क प्रस्तुत करता है। करें । फिर २॥ सेर गावजुबा उन अक में और अर्क गज़र मुरकब 'जदीद' aarq.gazar भिगोकर दूसरे दिन दोबारा अर्क परिस्र त करें। muakkab jadil'-अ० नूतन मिति मात्रा व सेवन-विधि-३ तोला । गर्जरार्क। उत्तमांगों तथा शारीरोप्मा को निर्माण-विधि-छिला हुआ गाजर १ सेर, बर्ग गावजुबान २ तो०, गुलेगावजुबान १॥ तो०, बलप्रद है । हृदय प्रमोदकारक, तृष्णा शामक सद चन्दन १।। तो०, बहमन सफेद, तोदरी तथा वात रोगों में लाभ पहुंचाता है। सुर्ख प्रत्येक १ तो०, सबको मिश्रित कर शक गुल से भल aaif-gule-seinbhal-१० शाल्मली पुष्पार्क। अत्यन्त बलवर्धक, क्षधाएक दिन-रात यथोचित जल में भिगांकर जनक, कामोद्दीपक तथा शिश्न-प्रहर्ष वृद्धिविधि अनुसार अर्क प्रस्तुत करें। तत्पश्चात् प्रति बोतल के हिसाब से टिंकचर बिलाडोना मा०, कारक है। स्पिरिट अमोनिया ऐरोमैटिक १६ मा० और स्पिरिट निर्माण-क्रम-सेमल पुष्प छाया में शुष्क श्रॉफ़ क्रोरोफॉर्म २ तो. भली प्रकार मिश्रित कर किए हुए, इनके समान भाग गुलेसुर्ख तथा रख ले। उतनी ही गुले मुण्डी और उससे अाधी गुल निर्माण-क्रम-५-५ तो० दिन में ३ बार चमेलो को परस्पर मिलित कर गलाब के समान व्यवहार करें। परिमल करें। For Private and Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक गुलाव अर्क जच अक गुलाब (1-gulal)--का गलाबजल, ! अर्क चोचचीनी aarq-choba-chini-फा० गुलावार्क। __ चोबचीनी का अर्क । इ० अ० । निर्माण-विधि .. गुलाब के फूल १। सेर का अर्क चाबचीनी जदीद āarq-chobachiniयथाविधि अर्क परिसृत करें jadid-फा० नवीन चोबचीनी का अर्क । मात्रा व सेवन-विधि-७ तो० अनुरान रूप ___ निर्माण क्रम-दालचीनी, गुलेसुत्र, तुम से उपयुक औषध के साथ सेवन करें। रैहाँ प्रत्येक ११ तो० २ मा०, लवंग, बालछड़, गुणधर्म-हृदय, मस्तिष्क तथा आमाशय को तेजपात, इलायची, जनबाद, बादराबूया, गुलेबलप्रदान कर्ता है। यकृवेदना, आमाशय तथा गावजुबा, अब्रेशम कतरा हुआ प्रत्येक ५ तो० प्लीहा के लिए गुण दायक और उष्णताजन्य ७ मा०, बहमन सुख व सफ़ेद, सफ़ेद चन्दन, मूच्र्छा एवं तृषा को लाभ और ऊद हिन्दी, छड़ीला प्रत्येक १ तो०॥ मा०, ग़शी तथा पाचन विकार का सुधार करता है। चोबचीनी १ सेर ४॥ छटांक, सेब मीठा १०० अर्क गुले नोम aarq-guly-nim-फा० निम्ब, अदद, अर्क गुलाब १ सेर ११ छटांक, मिश्री ११ पुष्पार्क। तो० २ मा० । चोबचीनी को टुकड़ा टुकड़ा करें निर्माण-क्रम-नीम पुष्प नवीन, गिलोय हरी, ! और सेब को भी टुकड़े टुकड़े करें; कूटने योग्य सरफ़ोका, मुराडी, बर्ग शाह नरा प्रत्येक ४ तो०, औपधों को अधकुट करें और सम्पूर्ण द्रव्य को खस २ तो०, तुखम काहू, तुरूम कासनी, गुल- रात्रि में अर्क गुलाब में भिगोएँ और सबेरे ८० नीलोफर प्रत्येक १ तो०। औषधों को यथा विधि बोतल जल सम्मिलित कर अर्क परिस्रत करें। रात को जल में भिगोएँ और सवेरे श्रत परिसुन । अर्क परिसुति काल में केशर १ नो. ६ मा०, करें। मम्तगी तथा कम्तूरी विशुद्ध हर एक ३॥ मा०, मात्रा व सेवन-विधि बच्चों को ३ से ५ अम्बर अश्हब ७ मा० इन सब की पोटली बना तो० पर्यन्त और युवावस्था वालों को श्राध पाव कर नैचा के मुंह पर भभके के भीतर लगाएँ । पर्यन्त यह अर्क शर्बत उन्नाब एक दो तो० मिला द्वितीय बार पुनः उतनी ही औषध लेका उन कर ख़ाकसी छिड़क कर पिलाएँ । अर्क में भिगोएँ और उपयुक विधि अनुसार गणधर्म-रक्रविकार, वात और पैत्तिक घर, पुनः अर्क परिनु त करें। चेचक, कुष्ठ और कण्डु प्रभृति के लिए अत्यन्त मात्रा व सेवन-विधि-२ तो भोजनोपरांत नाभदायक है। थोड़ा थोड़ा पान करें। सूचना-कण्डु आदि में न्यूनातिन्यून २० रोज़ गुण-धर्म-उत्तमांगों को बलप्रदान करता, तक उक्त अक को पिलाएं। आमाशय को बलवान बनाता तथा कामोद्दीपक, अर्क गागिर्द aarq.gogirda-१० गंधकाम्ल, हृदय प्रफुल्लकारी एवं आहार पाचक है। बुद्धि गन्धक का अर्क, गन्धक का तेज़ाब । देखो- एवं चेतना को तीव्रकर्ता तथा हृदय को प्रसन्न अर्क किब्रोत । इ० अ०, मि० ख०। रखता है । उच्च कक्षा में रक्तशोधक है। इसके अर्क गोलार्ड aarq.goland-गोलार्ड का अर्क। उपयोग से सम्पूर्ण रविकारों की शान्ति होती गोलार्ड स वाटर (Goulard's watel.) है । ति० फॉ० १ भा०। --इं० । देखा-नाग (सीसक)। अर्कच्छन्नम् arkachchhannam-सं० क्ली० अर्क चंदनम् arka-chandanam-सं०क्ली० अर्कमूल, मदार की जड़ । The root of अर्क चंदन arka-chandana-हिं०संज्ञा पु. ( Calotropis gigantea. ! रक्त चन्दन, लाल चन्दन ( Pterocarpus अर्क जन aarq-jazra-गाजर का अर्क। Santalum, Lin.) ग०नि०व०१२। इ० अ०। For Private and Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२. अर्क जज सादह, अर्क तम्बाक अर्क जज सादह āarg-jazra-sādah-सादह. __ मात्रा व सेवन-विधि-६ तो० की मात्रा अर्क गाजर । इ० श्रा। में उन अक को सवेरे शाम पीएँ । अक जदीद aar]- jadid-अ० नूतनार्क। ___ गुण-धर्म-जिताबे तुम (बहुमूत्र रोग ) के निर्माण-विधि-अक पुदीना, अक इला- लिए लाभदायक है। यची, अर्क बादियान प्रत्येक ३ तो०, सिकञ्जवीन अक ज़ीरहे विलायती ai.zirnhe-vilaसादा ३ तो०, स्पिरिट अमोनिया ऐरोमैटिक ३० yati-फा०, उ० अर्क करा वयह , कृष्ण जीरबूँद (मिनिम)। सब को शीशी में डालकर भली कार्क, स्याह जीरा का अर्क-हि० । (araway भाँति हिलाएँ जिसमें वे परस्पर मिश्रित होजाएँ। Water (Aqual chadhi) । देखो-कृष्ण मात्रा व सेवन-विधि-३ तो० अर्क अष्ट- जीरक वा स्याह जीरा । वर्षीय बालक को पिलाएँ । दिन में ऐसी अर्क तपेदिक खा.सुलखा स aar-tapodiq. ३ मात्राएँ उपयोग में लाएँ। khasul-khas-यमध्नार्क, राजयक्ष्मा का गण-धर्म-शिशुओं के उदराध्मान एवं मुख्य अर्क । अजीण के लिए अत्यन्त लाभदायक है। निर्माण-क्रम-बर्ग वेद सादा श्राधा सेर, छिली अर्क जावदानी iarq-javidani-अ० । हुई मुलेठी 1 सेर (१ पाच), दोनोंका भलभलाए निर्माण-कम-जायफल, लौंग, बड़ी इला हुऐ ( मुराबी ) कदू जन, भलभलाए हुए तबूज़ जल तथा भलभलाए हुए खीरा जल यची, अामला, बाल छड़, धवपुष्प प्रत्येक १० प्रत्येक २ सेर, नाजे कसरू का पानी, हरे पालक तो०, दालचीनी २८ तो०, बबूल को छाल सम्पूर्ण औषधों से द्विगुण, गुड़ सम्पूर्ण औषधों से के पत्ते का पानी प्रत्येक १ सेर में तर करके सवेरे सत मुलेडी विलायती, सत गिलो देसी चतुगुण । सब को एक मटके पानी में भिगो रखें असली प्रत्येक १ तो. नैचे के मुंह में रखकर जब लाहन उठ श्राए तो अर्क परिनु त करे' और काम में लाएँ। यथा विधि अर्क परिघुत करें। मात्रा व सेवन-विधि-६ तो० इस अर्कमें गुण-धर्म-मूर्छा तथा प्रामाशय पुष्टि के | शर्बत उन्नाब २ तां० मिश्रित कर प्रति दिवस लिए अत्यन्त गुणदायक है। पिलाएं। अर्क जियावे.तुस aar-ziyabetus-१० गणधर्म-राजयक्ष्मा तथा उरःक्षत रोग के मूत्रमेहार्क। लिए अत्यन्त लाभप्रद है । ताप चाहे अकेले तथा निर्माण-विधि-गिलोय सब्ज़, बर्गनेदमादा, उरत के साथ हो यह दोनों अत्रस्थाओं में बर्ग जामुन प्रत्येक एक पाव, गुलनार, तुसमकाहू, लाभदायक है। तुलम खुर्की, मीठे कटू के बीज की गिरी, माज़ तुम पे.., माज़ा तुम तबूज़, तुल कासनी, । अर्क तम्बाकू aur(]tambaku-अ० तमालार्क, गुल नीलोफर, सफ़ेद चंदन का बुरादा, रतचंदन ताम्रकूटार्क । यातग्रस्तता, पक्षाघात, अद्धांग, जलोका बुरादा, खस गुजराती, श्रामला शुष्क, झाऊ दर, वायुजन्य उदरशूलके वायुका लयकर्ता, यकृत प्रत्येक ५ तो० । रात्रि में सम्पूर्ण औषधोंको जल तथा मासारीका के अवरोध का उद्घाटक, जरा. में भिगोकर सवेरे इसमें मलमलाए हुए कह, का युस्थ विकृत दोषों का लयकर्ता एवं क्षुधा विवपानी, भलभलाए हुए खीरा का पानी, बकरी का द्धन के लिए उत्तम है । श्लेष्मज शिरःशूल और दोग़ प्रत्येक २ सेर, हरी कासनी के पत्तेका फाड़ा आमवात के लिए भी गुणदायक है। अर्वाचीन हा पानी १ सेर, शुद्ध जल ७ सेर अधिक डाल । चिकित्सकों के शन्वेषित पदार्थों में से है। कर तबाशीर और सफेद चंदन प्रत्येक ६ मा० योग तथा निर्माण-कम-तम्बाकू पीत एवं नैचा के मुँह में लटकाकर अर्क परिस्र त करें। शुष्क २ सेर १३ छटांक (यदि तम्बाकू हरा हो तो For Private and Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क तम्बूल अर्क तिहाल ८-७ सेर तम्बाकू ले) और अजवायन तथा सातर (२) चौकिया सुहागा, कालीमिर्च प्रत्येक प्रत्येक १ तो० १०॥ माशा, दालचीनी, लौंग, ३ तो०, खाने का नमक, (सेंधा नमक ), काला नख, हाश। प्रलोक मा० । सबको ११। सेर जल नोन, नमक तल्ख सुलेमानी नमक, अादी का में एक रात दिन भिगोएँ । तदनन्तर अर्क परिस्रुत रस, घोकुवार का रस, कागज़ी नीबू का रस, करें। शुद्ध सिरका प्रत्येक ६ तो० मिश्रित कर शीशा मात्रा व सेवन-विधि-सवेरे शाम २-२ के बर्तन में डालकर दस दिवस पर्यन्त धूप में तो० पिलाए। रखें। अर्क तम्बूल arg-tumbul-१० पानका अर्क। मात्रा व सेवन-विधि-एक तो० इस अर्क निर्माण-विधि-गुले सुख, गाव जुबान, पुदीना को १२ तो० सौंफ के अक और १ तो. सिकञ्ज. शुष्क, पका हुआ पान का पत्ता प्रत्येक १ पोव, बीन ले में मिलाकर प्रातःकाल पान करें। नानवाह (अजवाइन), सातर फारसी, दाल- गुण.धर्म-प्लीहा के लिए लाभदायक एवं चीनी, लौंग, कुलिजन, सोंड, छोटी इलायची, अाशु-प्रभावकारी है। थोड़े ही दिनों में तिल्ली प्रत्येक प्राध पाव, अक गुलाब ४ शीशा, अर्क जाती रहती है । ति० फा०२ भा०। बेदमिश्क, वर्षा जल प्रत्येक २ शीशा । सम्पूर्ण (३) साल्ट (लवण ) १५ तो०, तेज़ाब औषधों को अक तथा वर्षा जल में रात्रि को शोरा (शोरकाम्ल ), हरित काई ३ तो०, लोह भिगो दे। प्रातः यथा विधि : सेर अक़' परि- क्वीनीन ६ मा। तेज़ाब के अतिरिक्त तीनों औषसुत करें। धों को पीसकर बोतल में रक्खें और प्राधा मात्रा व सेवन-विधि-३ ता. श्रर्क अधोपण बोतल पानी डाल कर खुव हिलाएँ। तदनन्तर करके पान करें। शोरकाम्ल डालकर अच्छी तरह हिलाएँ और गुणधर्भ-उदरशूल, वायुजन्य उदर पीड़ा रक्खे। अगले दिन बोतल को जल से पूरित कर तथा अन्य वातज वेदनाओंके लिए अत्यन्त लाम- दें! बस ! अर्क तय्यार है। . . प्रद है। __ मात्रा व सेवन-विधि-सम्पूर्ण औषध को अर्क तिला मुरकब ब सम्मुल फार ब्रामीनी १४ मात्राओं में विभाजित करें और एक मात्रा Karg-tila murakkab ba sammu- प्रति दिवस प्रयोग में लाएँ। Ifár bromini-fato Liquor auri-et गुण-धर्म-यह अर्क वातज तथा श्लेष्मज Arsenii Bromidi ) देखो-संखिया। ज्वरों को दूर करता है। अर्क तिहाल aarq-tihāl-अ० प्लीहार्क, प्लीहा- विशेष-गुण-प्लीहावृद्धि के लिए यह नाशक अक । अर्क अत्यन्त लाभदायक तथा सशक्त प्रभावनिर्माण-विधि-(१)झाऊ पत्र १ सेर और कारक है। थोड़े ही दिनों में प्लीहा के शोथ का बादावई २ तो०को अधकुट करके १२ सेर जल में निवारण करता है। ति फ़ा. १ भा० । कथित कर छान ले । पुनः इसमें गुड़ १ सेर (४) नवसादर, सफ़ेद फिटकरी, सुहागा, मिति कर दोबारा क्वथित करें। जब ४ सेर जल कल्मी शोरा प्रत्येक एक तो०। इन सबको पीसकर शेष रह जाए तब इसको एक सप्ताह धूप में घृतकुमारी के पत्र का भीतरी गूदा निकाल कर रखकर छानकर बोतलों में रख ले। उक्र पत्र में उपयुके औषधों को भर दें। मात्रा व सेवन-विधि --प्रति दिन प्रातःकाल परन्तु, ध्यान रहे कि उक्त पत्र का निम्न: भाग निराहार मुख ६ तो० से १२ तो पर्यन्त उक्त मजबूत रहे । पुनः ऊपर की ओर धागा बाँधकर अर्क पान करें। धूप में लटका दे और उसके नीचे मिट्टी का गण-धर्म-प्लीहा शोथ को अति शीघ्र लया। पात्र रक्खें। उक्र पात्र में जो अर्क टपक कर कर्ता है । ति० फा०२ भा०। . . . एकत्रित हो जाए उसे सुरक्षित रक्खें। .. For Private and Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क नेज़ाब ६३० अक पत्रा-,त्री-,त्रिका मात्रा व ले वन-विधि-तीन बूद बताये में द्वयाग्नीयार्क, दो बार परित्र न किया हुश्रा अर्क । डालकर सेवन करें। इ० श्र.। गुण-धर्म-पीहा वृद्धि के लिए अत्यन्त लाभ- अर्क नअनaarq-naanaa-१० दायक है । ति० फा० १ भा० । अक नअन अ फिल्फिली aal(j-naanaa अक तेज़ाब arg-tezab-अ तेज़ाब का अर्क।। filfili -अ० (१) श्वित्र को नष्ट कर्ता, रोग स्थल से अर्क नानाrka-nana-हि०, उ० चर्म को पृथक् करता तथा देह के समान नवीन अर्क पुदीना, पुदीना का अर्क। Peppermint स्वचा को उत्पन्न करता है। water ( Aqua Menthe Pepe.यो।---ज़ाज सफ़ेद (कसीस सफ़ेद ) १२ ratin.) देखो-पुदीना (वा गंचना )। भाग, जाज ज़र्द ( कसीम पीत ) २४ भाग, शोरा अक नअ.नथ सब्ज़ āarq naanaasabran ४४ भाग । सबको परस्पर मिश्रित कर यथा विधि न सुम्वुली āarq.lmaanaa. अर्क परिस्रुत करें । श्वित्र स्थल को गाय के शुष्क sumbuli) गोबर से रगड़ने के पश्चात् उक्त तेज़ाब को __-१० Spearmint water' (Aqua लगाएँ। menthi viridis.) देखो-पुदीना । नथनोल aar-maanoi-१० एक्वा (२) हकीम अली का परीक्षित है। श्वित्र को जलाकर तथा उसमें तन संजनित कर उसको ___ मेन्योल (Aqun men thol. ) देखोअच्छा कर देता है। पुदीना। योग-मम्हू कृनिया ( कफ श्रावगीना, काँच अर्क नामा arka-nāmā-सं०ए० रकार्क, लाल मन्दार Calotropis gigantea. (The का माग ), शोरा, कसीस स्याह । इसे यथाविधि परिस्रुत करें । तीक्ष्ण नेज़ाब परिवत होता है। l'ed var. of-) मुर्गी के डैने से श्वित्र-स्थल पर लगाएँ । अक नुक ग Aart-muqrāअ० रजताकं । देखो-रजत। 'अर्क तैलम् arka-tailam-सं० क्ली० यह तेल कुलाधिकार में वर्णित है। अर्क-पल: arka-palah-सं०५० (१) अादित्ययोग-कडा तैल (सरसों का तेल) ८ पल, | पत्र क्षुप, हुलहुल । (Cleome Viseosa.) मदार के पत्ते का रस ८ पल, हल्दी एक पल रा०नि०व०४च०द०। (२) अर्क वृक्ष, और मैनसिल पल | इनका यथाविधि तैल मदार, प्राक (Calotropis gigantea.) प्रस्तुत करें ।च. द. कण्ठ-चि०। सा० प्रपत्र रस तेलम्arkapatra rasatailam --सं० क्लो. हिं० पाक के पत्तोंका रस और हल्दी अर्क दलः arka-dalah-सं०० (१) आदित्य के कल्क से सिद्ध किया हुश्रा सरसों का तेल पत्र छप, हुलहुल । (Cleome Viscosa.) पामा, कच्छु और विचर्चिका को दूर करता है। रा०नि०व०४। (२) अर्क वृक्ष, श्राक, शाङ्ग. सं.। .... मन्दार । (Calotropis gigantea.) अर्कपत्र स्वरसः arkapatrilis varasab-सं. पाक के पके हए पीले पत्तों में घी लगाकर अर्क दार(ल)चीनी aarq-dara,la,chinil . दालचीनी का अर्क | Cinnamon water । प्राग पर सेककर निकाला हुआ स्वरस गुनगुना ... . ( Aqua Cinnamomi. ) देखो- करके कान में डालने से कान का दर्द दूर होता दालचीनी। है। वृ०नि० अक दो पानशह anurq-do-atashah-फा०/ अक पत्रा,-त्री,-त्रिका arka-patra,-tri, कौ०। For Private and Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क पत्रादि योगः अर्क पुष्प यांगः . trika-सं० स्त्री० ईश्वरमूल वृक्ष, इशरमूल, (२) पान १८ तो० ४ मा०, दालचीनी ज़रावन्दे-हिन्दी, रुद्रजटा, साप्सन्द। (Aris- नं०१ पौने नौ ता०,बहमन सफेद श्तो० १०मा०, tolocbia Indica)प. मु०। र० मा०। इलायची का दाना, जायफल, तोदरी हर एक (२) एक लता जो विपकी प्रोपधि है। अर्क ३॥ तो०, वर्षा जल २० सेर । इससे यथा विधि मूल। १० सेर अर्क परिस्रुत करें। अर्क पत्रादियोगः arkapati adiyogah-सं० मात्रा-चिकित्सक की राय पर निर्भर है । पु'० पाक के पत्ते और लवण को मिट्टी के बर्तन गणधर्म-पाचनशक्ति को बढ़ाने, कपोलों के में बन्द करके मुखपर कपड़-मिट्टी करके अग्नि में वर्ण को निखारने तथा कामोद्दीपनके लिए अनुभूत फॅककर रकने । इसे मस्तु के साथ पीने से तिल्ली है। अन्य योगों की अपेक्षा कम उष्ण है । दूर होती है । च० द० उ० चि०। इ० अ०। अर्क-पर्णः arka-punah-सं० पु. ) न जदीद aar-pain-jadid-अ० . अर्क-पर्ण arkeu parna-हिं० संज्ञा पु. निर्माण-विधि-योग "अर्क पान नं. " (1) रक्कार्क, लालमदार, सूर्य मन्दार-मह । को द्विगुण मात्रा में लेकर उन विधि अनुसार भा० पू० १ भा० । Calotropis giga ७ सेर अर्क परिस्रुत करें। पुनः उतनी ही औषध ntea (the red var. of-)। (२) मदार और रात्रि भर भिगोकर दोबारा ७ सेर अर्क का वृक्ष । (३) मदार का पत्ता । परित्रुत करलें। अर्क-पर्णिका,-र्णी arka-parnika-ni-सं० ___ मात्रा व सेवन-विधि-पौने २ तो० इस स्त्री० माषपर्णी, हयपुच्छा। माषानी-बं० । (Te अर्कको उपयुक्र शर्बतके साथ मिलाकर सवेरे शाम ramnus Labialis. ) दोनों समय पिलाएँ । यथाअर्कपादः arka-pādah-सं० पु. (१) सूर्य- हृद्रोग में शर्बत सेब या गुड़हल अथवा केवड़ा कान्त मणि। (२) निम्ब वृक्ष । (Melia मिलाएँ, प्रामायिक शूल, एवं वातज वेदनाओं a zadirachta, Linn.) में सिकज्जबीन सादा या नीबू मिलाएँ। अर्क-पादपः arka-pādapah-सं० पु० (१) गुणधर्म - प्रामाशय तथा हृद्रोग को लाभ निम्ब वृक्ष (Melia Azadirachta, पहुँचाता है। उदर तथा प्रामाशयिक वेदना में Linn.)। (२) अर्क क्षुप, मदार, आक । लाभदायक है और वातज वेदनाओं को शमन (Calotropis gigantea.) करता है । हृदोल्लासकारक तथा हृदय शामक है ति० फा० २ भा०। अर्क पान aart-pān-अ० पान का अके। निर्माण-विधि--(१)गलेसुम्ब, गाव जुबान, | अक पियाराङ्गा मुरकब aarq-piyarangaपुदीना, पान पत्र प्रत्येक एक पाव, अजवाइन, __muakkab-अ० पियारांगोका मिश्रित अर्क। सातर, दालचीनी, लौंग, कुलिउजन, सोंड, इला. देखो-पियागंगा । ति फ़ा०२ भा० । यची छोटी हर एक १० तोला, अर्क गुलाब ४ | अर्क पुदीना ar-pudina बोतल, अर्क बेदमिश्क, वर्षा जल हर एक दीना जदीद aarq-pudina-jadidj २ बोतल । सब औषधों को रात्रि भर भिगोकर -ऋ० पुदीना का अर्क, नव्य पुदीनार्क । देखोप्रातः काल ७.८ सेर अर्क परिस्रुत करें। पुदीना। गणधर्म-उदर शूल तथा प्रामाशयस्थ वेदना- | अर्क पुष्प योगः arka-pusbpayogah-सं० शामक, वायु जन्य शूल तथा अन्य पीड़ाओं की पु. पाक के फूल तेल में पका कर सेवन करने . शांति हेतु परीक्षित है । ब्या ज़ अम्म म हम से | से स्त्रियों का मासिक धर्म खुलकर आता है। उत्त । इ.० अ०। यो र। For Private and Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क पुष्पा ६३२ अर्क बरिासिफ़ जदीद अर्क पुष्पा aka-pushpa सं० स्त्री. क्षीर- सेब,बिही हर एक डेढ़ (50) सेर, दाख मी 7, काकोली । क्षीर काँकल-01 देखी-क्षीर. अमरूद हरएक एक सेर, रिश्क का रस २० काकोली (Kshira kakoli) तो०, सफेद चन्दनका वुरादा प्राधासेर,इनमें यथा अर्क पुष्पिका arkn-pushpika विधि अर्क परिनु त करें । पुनः उतनी हो औषध अर्क पुष्पी arka-pushpi उक्त अर्क में डालकर दोबारा अर्क खींचें । -सं० स्त्री. (१) सूर्य वल्ली। अन्धाहुली, ___ मात्रा व सेवन-विधि--३ तोला अर्क अर्क सदृश पुष्पी लता, अर्कहुली, क्षीरवृम्, दधि- पान करें। यार-हिं० । श्वेत हुडहुड़िया-बं० । ( Gyan- : गणधर्म--उत्तमांगों को बलप्रदान करता, ndropsis Ceutahylla, Syn. Oleo- ! मालीखोलिया (Melancholia), मुर्छा. me pentaphylla. ) शिरदोड़ी-मह०। भ्रम तथा भय दूर करने के लिए अत्यन्त लाभपर्याय-पयस्या, सूर्य वल्ली, सितपर्णी, शीतपर्णी। दायक सिद्ध हुअा है। र० । भा० ४ म० वाल रो० चिः। । अर्क फौलाद aaj-foulad-अ० लोहे का अर्क, गण-यह कृमि, श्लेष्म, प्रमेह तथा पित्तनाशक ___लोहासव। देखो-लौह । है। मद०व०६। यह कृमि, कफ, प्रमेह तथा मनोविकार नाशक है । भा० पू०१ भा० । (२) अर्कबंधु arka-bandhu-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] रक्र अपराजिता | रत्ना० । (३) क्षीर काकोली। पद्म । कमल । The lotus ( See-kshira kakoli.) र० मा० । अर्क बनफ़्शह 'जदीद' aap. banafshah (४) सूर्यमुखी । 'jadid' अ० नूतन बना शार्क । अर्क पुष्पी कल्कम् arka pushpi kalam निर्माण-विधि-बनशा | सवासेर रातको -सं० क्ली० पाकड़ेके फूल गाय के दूध में पीस उष्ण जल में भिगो कर सवेरे ४० बोतल अर्क कर ३ दिन तक रोज प्रातः पीनेसे दाह युक्त प्रवृद्ध परिनत करें और उक्त अर्क में दोबारा उतना ही पथरी का नाश होता है। वृ०नि० र० भा० बनतशा तर करके पुनः दोबारा ४० बोतल अर्क ५ अर्शक! परिनु त करें। अर्क प्रभा गुटि(डि)का arka-pia bhā-guti ___ मात्रा व सेवन-विधि-३-३ तोला प्रातः (di)ka-सं० स्त्री० रसायनाधिकार में वर्णित सायं शर्बत नीलोफर या बनतशा एक तोला रस विशेष । प्रयोगा० रसायना० । मिलाकर पान करें। अर्क प्रकाश arka-prakash-सं०प० रावण गुणधर्म--प्रतिश्याय, नजला तथा शिरःशूल कृत ग्रन्थ जिसमें अर्क के अनेक उत्तम से उत्तम । में अत्यन्त लाभदायक है। ति० फा०२ भा० । योग एवं उनके चुभाने की विधियाँ दी गई हैं। अर्क बरिक्षासिफ़ 'जदाद' alq-barinjasifअर्क प्रिया arka-priya-सं. स्त्री० (१) jadid-१० नूतन बरिक्षासिफ़ार्क । आदित्यभका, हुलहुल । हुडहुड़िया-बं० । निर्माण-विधि--बरिजासिफ़, शुकाई , बादा(Cleome viscosa.)। (२) जवा | वर्द, मकोय शुष्क, सौंफ, मवेज़ मुनक्का, हर एक जपा । अड़हुल । गुड़हर । प्रोड़ पुष्प वृक्ष । अढ़ ४० तो०, गुले गावजुबान २० तो० सम्पूर्ण उल । ( Hibiscus Rosa=sinensis.) औषधों को रात्रि में उष्ण जल में तर करके रा० नि. व. १०। प्रातः काल हरी मकोय का रस ३ सेर योजित अर्क फवाकह जदीद aarq.favākah-jadid कर २० बोतल अर्क परिनु त करें । उक्त -१० निर्माण विधि-अनार अम्ल व मधुर, अर्क में पुनः उपयुक्त औषधों को उतनी For Private and Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बलभा मात्रा व सेवन विधि - ३ तो० प्रातः समयं मातलि शर्बत बजूरी या शर्बतदीनार श्रावश्यकतानुसार मिलाकर पिलाएँ । गुणधर्म -- श्रामाशय तथा यकृत् को बल प्रदान करता है। शोध लयकर्त्ता एवं श्लैष्मिक ज्वरों में लाभदायक है। अर्क बल्लभा arka-ballabha हिं० संज्ञा खो० सं० ] गुड़हर | श्री पुष्पी । ( Hibiscus Rosa sinensis.) बहार aarg bahár-o निर्माण विधि - गुलतरशावह् ५ सेर, अर्क गुलाब १ सेर, सौंफ, मवेज़ मुनक्का, किशमिश हरएक १५ तो०, ऊद, जनंब, ब्रहमन सुख, बहमन सफेद, शक़ाकुल हरएक १ तो० अम्बर पौने दो ( १ || ) तो० । सबको १४ सेर जल में रात को भिगोकर प्रातःकाल ५ सेर अर्क परिस्रुत करें। कभी पान पत्र १०० प्रदद, इलायची, दारचीनी, लौंग हरएक १४ मा० और डालते हैं । मात्रा व सेवन विधि - १० तो०, अनुपान रूप से सेवन करें | गुण-धर्म- मूर्च्छा व विभ्रम में लाभप्रद । तृषानाशक तथा उत्ताप शामक है और हृदय एवं मस्तिष्क को प्रमोद प्रदान करता है । अर्क बहार जदीद āarg-bahar-jadid- श्र० निर्माण क्रम- गुलसुरअ सादा १० सेर, अर्क गुलाब २ सेर, सौंफ, मवेज़ मुनक्का, किशमिश प्रत्येक ३० तो०, ऊद, जर्नब, बहमन सुख या सफेद, शक्राकुल हरएक २ तो०, अम्बर ३॥ मा० । सब को तीन सेर पानी में रात को भिगोकर प्रातःकाल अपरिस्रत करें । उन श्रक्रमें उतनी ही औषध और भिगोकर दूसरे दिन पुनः दोबारा अर्क परिस्रत करें। माझा व सेवन विधि - ३ - ३ तो० सायं हार में लाएँ प्रातः - धर्म -- मूर्च्छा में लाभ है। तृषा को कर्ता एवं उत्ताप को मन कर्ता है । हृदय तथा मस्तिष्क को उल्लास प्रदान करना है । 50 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क वेदसादह सूचना – कभी पान पत्र २०० अदद, इलायची, दालचीनी, लौंग हरएक २ तो० ४ मा० अधिक डालते हैं । ति० फा० १ भा० । बादियान aarq badiyán श्र० सौंफ का श्रर्क | निर्माण विधि-सौंफ २॥ सेर, रात को पानी में भिगोकर प्रातःकाल ४० बोतल श्रर्क परिस्रुत करें। मात्रा व निर्माण-विधि - १२ तो० अनुपान रूप से सेवन करें । गुण-धर्म- -- उस यकृद्वेदना व ग्रामाशय तथा बृक्क की पीड़ा में जो शीतलता के कारण हुई हो, लाभदायक है । यकृद्बोधोद्घाटक और वायु लयकर्ता है | ति० [फा० १ भा० । श्री बादियान मुरक्कब "जदीद" aarq-bádiyán murakkab,-jadid-outबरस जदीद । -वेदे मुश्क aarq-bedemushka-to माउल ख़िलाफ़ - ० । बेदेमुश्क का अर्क - द० । Salix caprea, Linn. (water of-) देखो - वेदमुश्क । अर्क बेद सादह, aarq bed sádah-श्रृ० निर्माण विधि-वर्गबेदसादा १ सेरको रात्रि भर जल में भिगोकर प्रातःकाल दस बोतल अंक परित्रत करें। पुनः उतना ही बेद सादा उसमें तर करें और दोबारा दश बोतल अर्क परिस्रुत करें | मात्रा व सेवन विधि-तीन-तीन तो० प्रातः सायं यह अर्क शर्बत उन्नाब २ तो० में मिलाकर पिलाएँ । गुण-धर्म" - हृदय की ऊष्मा, भय एवं मूर्च्छा को दूर करता है । उष्माजन्य रोगों में लाभदायक है ! राजयक्ष्मा में विशेषकर गुणदायक है । साधारण अक़ की अपेक्षा यह अर्क अधिकतर लाभदायक है । ति० फा० २ भा० । अर्क भक्ता arka-bhakta - सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० ब्राह्मी, ब्राह्मी शाक ( Hydroco For Private and Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क भूतिः अर्क माउल्लह म खास tyle asiatica.)। (२) हुडहुड़े । हुल- मूल त्वचा, चमेली पत्र, श्राबनूस का बुरादा, हुल । हुरहुर का वृक्ष-हिं० । सूर्य फुलवल्ली उन्नाब, इक्षु मूल प्रत्येक ५ तो०, मरज़ल्लूस म.। (Cleome viscosa.) रा० न० ब० श्राधसेर, माउज्जुब्न एकपाव, मजीठ एक पाव सब ४ । २० मा०। को भिगोकर प्रातः काल ४० बोतल विधि अनुअर्क भूतिः aaka bhutih-सं० स्त्रो० ताम्र सार अक परिस् त करें। भस्म । ( Copper oxide. ) वै० निघ० ___ मात्रा व सेवन--विधि - १० तो० अक २ भा० क्षीर ताम्ररस० संग्रहणोचि०।। उपयुक्र श्रीषधों के साथ उपयोग में लाएँ। अकमको aar-imako-अ. मकोय का अर्क | गुण-धर्म --- आहादजनक, शामक तथा रक्त निर्माण-विधि--मको शुष्क सवासेर को भिगो शोधक है । वातज रोगों में अत्यन्त लाभकर २० बोतल अर्क परिनु त करें। जनक सिद्ध हुअा है । ति० फा० १ भा०। । मात्रा व सेवन-विधि -१२ ता० अर्क। अर्क माउल्लह म कासनी मकावाला airq-ma. यथाविधि व्यवहार करें । ullahma, kāsani-mahovala-कासनी गण-धम-उत्तमांगों तथा प्रकृतोष्मा को तथा मकोवाला मांसरसार्क । शनि प्रदान करता है । ऊष्मा को शमन करता निर्माण-विधि-बरिञ्जासिन, शुकाई., बादातथा पिपासाको तृप्ति प्रदान करता है । वायु रोगों, वर्द, बिल्लीलोटन, सौंफ (कूटा छाना हुआ), मूर्छा तथा भ्रम में विशेषकर लाभदायी है । ति० मवेज़ मुनक्का, कबर की जड़, इज़खिर की जड़, फ़ा० १ भा०। मुलेठी, हरी गिलोय, मको हरएक १० तो०, अर्क मको जदीद aarq mako jadid-अ० गांवजुबान, गुले गावज़ बान हरएक ५ तो० । निर्माण-विधि-मको शुष्क २॥ सेर को जल सम्पूर्ण औषधों को रात्रिभर उष्ण जल में में भिगोकर बीस बोतल अक़ परिनु त करें। भिगोएँ । प्रातः हरी कासनी का पानी, मकोय पुनः उतना हो मको शक उक्त अक में भिगोकर का पानी जिनमें उक्त दोनों श्रौषधे २ सेर दुबारा अक खींचें। डाली हो, डालकर युवा बकरे के ४ सेर मांस की मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० अर्क यव नी निकाले और उपयुक औषधों को अनुपान रूप से व्यवहार में लाएं। डाल कर विधि अनुसार २० बोतल अर्क गुण-धर्म-अक़ मको के समान । खींचे। मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० उक्र अक #135316a ā arq-náujjubniनिमोगा-क्रम-पाले हड़ का बक्कल, काबुली को उपयुक्त औषध के साथ व्यवहार करें। हड़ का बक्कल, काले हड़ का बक्कल, हरी गुण-धर्म--शरीर का पुष्ट करनेवाला, शोथ. गिलाय, बकायन के पत्र, बकायन की छाल, लयकारक तथा प्रामारा। और यकृत की निम्बछाल, निम्बर्बाज, विजयसार पुष्प, गाव- दशा को सुधारने वाला है। ति. फ़ा०१ ज़बान, कासनी के बीज, कासनी की जड़, हिरन- भा०। खुरी, इमली की गिरी, प्रामला की गिरी, हड़ अर्क माउल्लह म खास āarq maullahi का बक्कल, धनियाँ शुष्क, मौलसरी वृक्ष की khās-अ० मुख्य मांसरसार्क । छाल हरएक १० तो०, शाहतरा, चिरायता, निर्माण विधि-बाल छड़, तेजपात, छोटी सरफोका, मेंहदी के पत्र, अद्रेशम, रचन्दन इलायची, बड़ी इलायची, बहमन सफ़ेद, का बुरादा, श्वेत चन्दन का बुरादा, शीशम का | लौंग, दालचीनी, ऊदखाम पोस्त तुरञ्ज, गावबुरादा, इनबुर.स.अलब खुश्क (सूखी मकोय ), जुबान, बृज़ीदान, छड़ीला, श्वेतचन्दन, बादरञ्ज, गुलेसुर्ख, झाड़ी बेरकी मूल-त्वचा, गमूल, बहेड़ा बूया, राम तुलसी के बीज, गुलगावज़ बान' For Private and Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org माउ सूखी धनियाँ, जनवाद, मौंफ़, दरूनज, मस्तगी, सुद कोफ़ी ( नागरमोथा) हरएक ४॥ तो०, शकाकुल मिश्री, सालवमिश्री, गुलेमुख, श्रब्रेशम ( कतरा हुआ ) प्रत्येक ६ तो०, बैल का शिश्न ३ तो०, गोश्त हलवान ( बकरी के एक वर्ष तक के बच्चे को हलवान कहते हैं, इसका मांस ) २४ सेर, बटेर २४ दद, शर्क वेदेमुश्क ६ सेर, गावजवान 8 सेंर । अंगूर, सेव, बिही, रेगेमाही, माही रोवियाँ ( भींगा मछलो ) हरएक तीन सेर, वा मछली शुल्क या ताजा ६ सेर, अम्बर २| तो०, मिश्क २ तो०, चोज़हे १४, साँड़ा १० मात्रा | सम्पूर्ण मांसों की यखनी प्रस्तुत करके ऊपरोल्लिखित औषधे सम्मिलित करें और ८० बोतल श्रर्क परित करें । 片 मात्रा व सेवन विधि - २ तो० क उपयुक्त औषध के साथ व्यवहार में लाएँ । ६३५ गुणधर्म - उत्तमांगों और अर्वाह की शक्ति के लिए मुख्य पदार्थ है । यह सामूहिक शारीर शनि की वृद्धि करता है । कामोद्दीपक, स्तम्भ, तथा प्रफुल्लता कारक है । हृदय को प्रफुल्ल और चित्त को प्रसन्न रखता है। शुद्ध शोणित उत्पन्न करता एवं मुख की कांति को निखारता है । ति०फा० भा० । अकु माउल्लाह म जदीद āarg-máullahmajadid- ० नूतन मांसरसा । निर्माण-विधि - बकरे का मांस १२ सेर ( या हलवान शेर मस्त मस्त सिंह के बच्चे का मांस ), नर गौरैया ( नर कुञ्ज‍क ) १०० मात्रा, कबूतर, लवा, बटेर प्रत्येक ५० मात्रा, मुर्गी का बच्चा ३० मात्रा, तीतर २० मात्रा । सम्पूर्ण मांस को शुद्ध स्वच्छ कर ख़नी पकाएँ । तदनन्तर उसमें मोमियायी, जुन्दबेदस्तर, सुअर कोफी ( नागरमोथा ), जद वार, केशर, कस्तूरी, अम्बर हरएक एक तो०, गुलगावज़ ुबान, कबाबचीनी, बालछड़, तबाशीर, बसफ़ाइज, दरूनज, सीसालियूस, ऊदसलीब, सातर फ़ारसी, फ़ितरा सालि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमाउल्लाह म यून, चीता, फ़रासियून, जावित्री, जायफल, तुम जर्जीर, मायहे शुतुर ऐराबी, रंगमाही, बुल कुल, कुल प्रत्येक २ तो०, अजवाइन, ज़ूफ़ा शुष्क, यजतुर्की हरएक ३ तो० ४ ॥ मा०, दालचीनी, तुन्द बेला, अब रेराम ( कतरा हुआ ) प्रत्येक ७ तो० १ ॥ मा०, तुख्म हलियून, मूली के बीज, इस्वस्त, तुख्म बालंगों, तुख़्म शर्बती, तुम हाँ. तुम फरञ्जमिश्क, वर्ग फ़रञ्जमिश्क, बीख़ सोसन, आसमानूजूनी, गुले बाबूना, मग़ास ( मेदा ), बूजीदान, कुर्फा, तज, मस्तगी, नागे. सर, छड़ीला, तेजपात, रक्तचन्दन, उस्तोखुद्द स ज़रावन्द मद हर्ज, माहीरोत्रियाँ ( झींगा मछली ), जर्नय, असारून, कोकनार हरएक ४। तो, बहमन सुर्ख़ व सफेद, तोदरी सुख वा सफेद, ऊदग़क़, शक़ा कुल मिश्री, सूरिञ्जान शीरीं, गाव जुबान, इन्द्रजौ मधुर, वादियान ख़ताई, गुले सुख, इलायची छोटी व बड़ी, बादरञ्जवूया, परसियावशान ( हंसराज ), पुदीना, जिन्तियाना, कुलिञ्जन, तुख्म ख़ज़ा, तुखुम गाजर, तुख्म ख़िल्मी सफेद, नुख्म खुब्बाज़ी, हब्तुखारा, हब्दुस्सम्नह, हब्बुलक्रुतम, हब्बल कुरन, सपिस्ता, माहीरोबियाँ ( झींगा मछली ) प्रत्येक ८॥ तो०, चोबचीनी, अजीर ज़र्द, मवेज़ मुनक्का, किशमिश हरएक २४ तो०, ख़ार ख़सक (मुरब्बा), सेवमधुर का पानी, बिही मधुर का पानी, मोठे अनार का रस, हर एक ६८ तो०, मिश्री २ सेर ८ छ० ४ तो०, बर्ग रेहाँ ताज़ा श्राध सेर, उन्नाब विलायती १०० मात्रा | अम्बर, कस्तूरी, केशर के सिवा जो ओषधें कूटने की हैं उनको कूटकर मांसों में डालकर एक रात दिन रहने दें दूसरे दिन थर्क गुलाब, अर्क बेमुश्क हर एक २बोतल, अर्क गाव जुबान, अर्क खुयार शम्बर तास) प्रत्येक ३ सेर, ताज़े गाजर का रस, ईतुजल हर एक २० सेर सम्मिलित करके प्रथम बार १२-१४ सेर अर्क प्राप्त करें । इसे पृथक् रखें । पुनः उतना ही और अर्क परिस्रत करें यह दूसरी कक्षा का अर्क प्रस्तुत होगा । अम्बर, कस्तूरी, केशर की पोटली बाँधकर नैचा के मुख में रखें । मात्रा व सेवन विधि-२ तो० अक्रमे २ तो० श्रमल For Private and Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क मुख्तरित्र अर्क मुली मिश्री मिला कर प्रयोग करें । कोई विशेष परहेज़ उसमें खूब जोश आजाए । तदनन्तर व्यवहार में नहीं । हाँ! अम्ल वस्तुओं से बचना अावश्यकीय लाएँ । इ० अ०। | अक मुरकब मुसफ्फो खून aarq-murakkगुण-धर्म पुरुष शत्रि को विवर्द्धित करने- ab-musaffikhun-अ० रक्कशोधक मिश्रित वाला शरीर में बल का संचार कर्ता, वृक्क को अर्क विशेष । शक्ति देता, वायु लयकर्ता, संधिवात और नज़लाके निर्माण-विधि-बर्ग शाहतरा, तुख़्म शाह. विकार को लाभ पहुंचाता है । शीतल रोगोंके नष्ट तरा, चिरायता,सरफोका. मुण्डी, नीलकण्ठी, करने में अक्सीर है । ति० फा० १ भा०।। ब्रह्माण्डी, पाबनूस का बुरादा, शीशमका बुरोदा, अर्क मुख्तरिअ āalq-mukh taria-१० एक रक्र व श्वेत चन्दन का बुरादा, अफ्तीमून (पोटली अर्क विशेष । इ० अ० । में बाँध कर ), बसफाइज, उश्वा हर. एक तो० अर्क मुण्डो aur-mundi-अ. मुण्डी का | बर्ग हिना, गुलहिना, बर्ग नीम, गुलनीम हर एक अर्क। ७ तो०, नीमकी छाल, बकाइन की छाल, शीशम निर्माण विधि मुण्डी सवा सेर को पानी में की छाल, कचनील की छाल हर एक पाव सेर, भिगोकर सवेरे २० बोतल अर्क खींचें । उन्नाब, धमासा हर एक अाध पाव, सबको तीस सेर पानी में हाँ तक कथित करें कि सात सेर मात्रा व सेवन-विधि-७ तोला यह अर्क पानी शेष रह जाए। पुनः साफ करके अर्क अनुपान रूप से व्यवहार में लाएँ। खींचे। भणधर्म-रकशोधक और उल्लासकारक है । मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० इस अर्क को दृष्टि को शनि प्रदान करता, उत्तमांगों को बलवान २ तो० शर्बत गुलाब के साथ प्रातः सायं सेवन बनाता और रोध उद्घाटक है। ति० फा० १ करें। भा०। गुणधर्म-रक्रशुद्धि के लिए अनुपम है। अर्क मुण्डी जदीदqmundi-jaldil-१० फोड़े, फुन्सी, तथा खुजली को दूर करता है और नूतन मुण्डी का अर्क। उपदंश तथा अन्य वातरोगों में लाभप्रद है। निर्माण-क्रम - मुडी २॥ सेर को पानी में | अकं मुसलिन जदीद aarq-musakkinभिगोकर प्रातः २० बोतल अर्क परिसुत करें। पुनः _jadid-अ० नवीन शामक अर्क । उतनी ही मुडी उन अर्क में भिगोकर दोबारा निर्माण-क्रम - अर्क अजीब ( कपूर, सत अर्क खींचें। अजवाइन,सत पुदीना समभाग को लेकर मिलाने) मात्रा व सेवन-विधि-३ तो० अनुपान १५ बूद में, . बँद काबोंजिक एसिड मिला रूप से सेवन करें। कर रखे। गुणधर्म-अर्क मुडी के समान । ति० फ़ा. मात्रा व सेवन-विधि-जरा सी रूह की १ भा०। फुरेरी इस अर्क में तर करके मसू दी. पर लगाएँ अर्क मुबही व मुकीaarq.mubhi-va-mu और यदि छिद्र हो तो उसमें भरडे । quvvi-अ० बल्य व कामोद्दीपक अर्क। गुणधर्म-दन्तपीड़ा को तत्काल बन्द करता निर्माण-विधि-जावित्री, लोंग, सालबमिकी है । ति० फा०१ भा० । दालचीनी हर एक १४ मा०, गुल गुड़हल, किश- अर्क मुसफ्फा aarq musaffi-अ० अर्क मिश, मिश्री प्रत्येक १० तो०, वर्षा जल २ सेर । रक्रशोधक, शोधक अर्क। औषधों को अधकुट करके बोतल में डाल कर (१) निर्माण-विधि-शाहमरा के बीज, तीन-चार दिन तक धूप में सुरक्षित रक्खें जिससे शाहतरा का पना, सरफोका, मेंहदी की हरी पत्ती, For Private and Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कमुसामी झाऊ की हरी पत्ती, मुण्डी, ब्रह्म हण्डी, नीलकण्ठी। इस अर्क में शर्बत उन्नाब या शर्बत शीशम उष्ट्रकण्टक, अप्रतीमून, चिसयता, तुख म काहू, १ तो० मिलाकर प्रातः सायं पिलाएँ। तुख म कासनी, रक व सफेद चन्दन का बुरादा, मुणधर्म-उत्तम रतशोधक है। फोड़े कुन्सी शीशम की लकड़ी का बुरादा, श्रावनूस का का विकार इसके उपयोग से जाता रहता है। बुरादा, नीम पुष्प, बील कारवी, समस्त औषधों शरीर तथा चेहरे का रंग साफ हो जाता है। को समान भाग लेकर रात को कलईदार डेगचा उपदेश तथा सूजाक में भी लाभ पहुँचाता है। में भिगो के प्रातः काल यथा विधि अर्क खींचे। प्रत्याहार तथा प्रबल प्रभावकारक है। ति. __ मात्रा व सेवन विधि-प्रकृति तथा अवस्था फा०२ भा०। नुसार ६ से १२ सो० तक उक अर्क को शर्बत । अर्क मुसफ्फो खन बनुस्खा कलाँ aarq-mil. उनाब या शर्बत शीशम प्रभृति में मिलाकर | पिलाएँ। saffi.khun-ba-nuskhā-kalan -अ. गुणधर्म-रक शुद्धि के लिए अत्युत्तम है । निर्माण-विधि-नीम पत्र, नीम की छाल, सूचम एवं निर्बल प्रकृति वालों के लिए विचित्र बकाइन की छाल, कचनाल की छाल, मौलसरी वस्तु है । अति शीघ्र लाभ करता है। की छाल, दुद्धी ज़र्द, काली भंगरैया का पराा, (२) निम्ब पुष्प, निम्ब फल, निम्ब वृक्ष की जवासा के पत्ते की शाख, गूलर की छाल, मेंहदी छाल, निम्ब पत्र, मेंहदी की हरी पत्ती, मेंहदी का का पत्ता, मुण्डी, शाहतरा, सरफोका, धमासा, फूल, शीशम वृक्ष की छाल, करनाल की छाल विजयसार की लकड़ी, गुलनीलोफ़र, गुले सुख, प्रत्येक एक पाव । सब को - सेर जल में कथित शुष्क धनियाँ, श्वेत चन्दन, तुरूमकासनी, कासनी कर शुद्ध करें। तदनन्तर अर्क परिनत करें। की जड़, मजीठ, बर्ग बेदसादा, शीशम की लकड़ी माषा बसेवन विधि-३ तो० से ५तो. का बुरादा प्रत्येक १० तो० । इन सब औषधों को पर्यन्त प्रति दिवस प्रातः सायं पिलाएँ। २४ सेर जल में रात दिन तर करें । तदनन्तर १२ सेर अर्क परिनुत करें। कभी नीम का बीज गुणधर्म-यह अत्यन्त सरल योग है; किन्तु बकाइन का बीज, तुम शाहतरा, तगर, अफ़्ती. अन्तिम कसा का रकशोधक तथा अनुभूत है। मून, तेजपात, हरी गिलोय, उन्नाब, खस, चिरातिफा भा०। यता प्रत्येक १० तो० और समावेशित करते हैं। (३) अर्क मुसफ्फो जदोद-नीम पत्र, मात्रा व सेवन विधि-१२ तोला यह अर्क नीम की छाल, बकाइन को छाल, बकाइन का शर्बत उन्नाब २ तोला के साथ पाएँ । पसा, करनाल की छाल, मौलसिरी की छाल, । छोटी दुद्धी, श्याम भजराज पत्र, जवासा के परो । गुणधर्म-इस अर्क से रक शुद्ध होता है। की शारख, गूकर की छाल, मेंहदी पत्र, मुण्डी, फोड़े फुन्सियों की शिकायत दूर होती है तथा चेहरेका रंग अरुणाभ और साफ निकल पाता है। शाहता, सरकोका, धमासा, चोच, विजयसार, यह उपदंश व सूजाक में भी लाभदायक सिद्ध हुआ, गुल मीलोफर, गुले सुख, शुष्क धनियाँ, श्वेत है । ति० फा० १ भा० । चन्दन, तुज्म कासनी, कासनी की जड़, मजीठ, कई बेद सादा, शीशम की लकड़ी का बुरादा अर्क मुहल्लल āarq-muhallil--अ० लयकारक प्रत्येक १० तो० । सब को एक दिन रात जल में अर्क। भिगोकर १२ सेर अर्क स्वींचे और इस अर्क में निर्माण-विधि-कलमी शोरा ४ तो०, गंधक दोबारा उपयुक्त औषधों को भिगोकर १२ सेर आमलासार, गोखरू हर एक तो० । सबको पानी अर्क परिसुत करें। में भिगोकर अर्क परिसुत करें और उन अर्क में मानव सेवन विधि-तीन तीन तोलामाऊ का पत्ता ८ तो० , गुले ग़ाफिस, असन्तीन For Private and Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ अर्क मनि रसः अर्क लोहाम्रकम् रूमी, बालछड़, तुहम ख़बूजा, तुहम कासनी अर्क म लम् arka-r.ulam-सं० कलो. इसी सौंफ की जड़, कासनी की जड़, करफ़्स (अज- नाम से प्रसिन्द्र है । एक वृक्ष विशेष। च० द० मोदा) को जड़, इज़खिर की जड़ प्रत्येक ८ तो.. अग्निमा० चि० क्षार गुड। मकोय की हरी पत्ती का फाड़ा हा पानी, कासनी श्रक मला arka-mula-सं-स्त्री. ईश्वर मूल, की हरी पत्ती का फाड़ा पानी प्रत्येक २ सेर शुद्ध ईशेर मूल-बं० । जरावन्दे हिन्दी-अ०, फ़ा० । सिरका १ सेर सम्मिलित कर यथाविधि अर्क (Aristolochia Indica.) Tato ! परिस्र त करें। अर्क म लादि धूम्र aikamuladi dhumra मात्रा ब सेवन-विधि-५ तोला अर्क प्रति -सं० क्ली० श्राक की जड़, मैनसिल समान दिवस प्रातः काल सेवन करें। भाग, त्रिकुटा अर्ध भाग इनका चूर्ण बना धूम्रपान गणधर्म- यह अर्क समस्त उदरीयावयवों के करके ऊपर से ताम्बूल खाने से अथवा दूध पीने शोथ का लयकर्ता है। से ५ प्रकार की खासी का नाश होता है विशिष्ट गुण-यकृद शोथ तथा प्लीहा शोथ नि०र०। के लिए विशेष कर लाभप्रद है। ति. फा०१ अर्क याबिस aryabis-अ० कल्लनिया भा०। (जङ्गबारी) अर्क मर्ति रसः arka.murti-rasah- सं० अर्क लवणम arka-lavanam-सं पु. यह रस सन्निपात ज्वर में प्रयुक्र है । मैं० अर्कक्षार, मन्दारक्षार । (An alkaline of . स्व. चि०। Calotropis gigantea.) वैनिघ०। र्ती रसः arkaimurtirasah-सं०५० अर्क लेप arka-lepa सं० क्ली० पुष्कर मूल, ताम्बे के पत्र के दोनों तरफ बराबर पारा और दालचीनी, चित्रक, गुड़, दन्तीबीज, कट और गन्धक लपेटकर हांडी में रखकर ऊपर से हांडी कसीस को पाक के दूध में पीसकर लेप करने से का मुख बन्द करके दो पहर तक तीव्र अग्नि में कर्णमूल का नाश होता है । वृ० नि० र० । पकाएँ; फिर स्वांग शीतल होने पर ताम्बे के पत्र अर्क लोकेश्वरी रसः arka-lokeshvaroraके बराबर बच्छनाग और उतना ही गन्धक मिला- sah-सं०० ४ तो० शुद्ध पारामें श्राकके दृध कर चित्रक के क्वाथ और अदाम्ब के रससे भावना की बार बार भावना दें, फिर ८ तो० शुद्ध गन्धक दें। मात्रा--१ रत्ती । और ३२ तो० शंख बड़ा इन दोनों को चीते के गुण-यह सूजन पांडु, कफ और वातरोगों को रस से तीन दिन तक कई बार भावना दें। सूखने नष्ट करता है। इसपर लघु पथ्य खाना उचित पर उपयुक पारे में मिला दें। फिर उसमें पारे है। रस. यो० सा०। से प्राधा सोहागा मिलाकर पाक के दूध से एक अर्कमूल arkamila-हिं० संज्ञा पु० [सं०] पहर भावना दें। जब वह सूख जाए तो एक इसरमूल लता । रुहिमूल । अहिगंध । हांडी में चना पातकर औषध को रखकर चूना इसकी जड़ साँप के काटने में दी जाती है । पोते हुए ढक्कन से ढक कर बारीक मिट्टी का लेप बिच्छू के डंक मारने में भी उपयोगी होता है। ढक्कन के चारों तरफ कर दें, फिर लघु पुट दें। यह पिलाई और ऊपर लगाई जाती है। स्त्रियों के __ मात्रा-४ रत्ती । अनुपान--घी, मिर्च । मासिक धर्म को खोलने के लिए भी यह दी जाती पथ्य--दही, भात । रात को इस पर भांग है । कालीमिर्च के साथ, हैजा, अतिसार श्रादि और गुड़ सेवन करना चाहिए। पेट के रोगों में पिलाई जाती है । पत्ते का रस कुछ गुण--संग्रहणी के लिए यह अनुभूत है। • भादक होता है। छिलका पेट की बीमारियों में __ रस. यो. सा.। दिया जाता है। रस की मात्रा ३० से १०० बूद अर्क लोहाभाकम् arka-loha bhrakam-सं० क्ली. विदारीकन्द, पिण्ड खजूर, जवामा, अतीस, For Private and Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क लोकेश्वर रसः अर्क शीर जदीद हड़, पीपल और दाख इनका चूर्ण समान भाग | अर्क शाहतरा aarq-shah tara लें। विदारीकन्द के बराबर प्रत्येक तांबा, लोह अक शाहतरा जदीद aarq-shah tari भस्म और अभ्रक मिलाएँ। _jadid ) नवीन शाहतरा का अर्क । मात्रा--१-२ रत्ती । घी और शहद के साथ निर्माण-क्रम--२॥ सेर शाहतरा को जल में खाने से छः लक्षणों से युक्त राजयक्ष्मा, उरक्षित, भिगोकर २० बोतल अर्क परिस्र त करें। रक्त पित्त, रकाश और अग्निमांद्य का नाश होता पुनः उक्त अर्क में उतना ही और शाहतरा है । रस० यो० सा। भिगोकर दोबारा अर्क खींचें। अर्क लोकेश्वर रसः arka-lokeshvara-ra- मात्रा व सेवन-विधि-५ तो० अर्क अनु. sah-सं० पु. शुद्ध पारद ४ तो०, आक के पान रूप से व्यवहार करें। दुग्ध में खरल करें, पुनः शुद्ध गंधक - तो० गणधर्म-रक्रशोधक है । चेहरेका वर्ण निखा. और बड़े शंख की भस्म ३२ तो०. दोनों को चित्रक रता और फोड़े फुन्सी की शिकायत को दूर करता के रस में ३ दिन खरल करें, पश्चात् उक्र पारद को इसी चूर्ण में मिला दें, और १ तो. सोहागा अर्क शोर aarq-shir-० दुग्धार्क। इसमें और मिलाएँ, सब को मिलाकर १ प्रहर निर्माण-क्रम-कासनी का बीज, गुले गावश्राक के दृध में खरल करें, पीछे उसको १ हंडी ज बान, खीरा का बीज, बंशलोचन, ज़हरमोहरा के भीतर लेप कर सुखा ले', पीछे सम्पुट में रख हर एक एक तो०, गुले सुन, मकोय शुष्क, गावकर पुट दें। जब शीतल हो जाए, तब निकाल जुबान, माज़ कह , तुखम काहू प्रत्येक २ तो०, कर रक्खें। तुहम खुर्की ३ तो०, शुष्क धनियाँ, श्वेत चन्दन मात्रा--१-१ रत्ती। रक चन्दन हर एक ४ तो०, कहू सब्ज़, कासनी अनुपान--मक्खन । की हरी पत्ती, काहू की पत्ती हर एक ४ तो० - पथ्य--दही, भात। रात में गुड़ मिश्रित ८ मा०, गुले कँवल ५ तो०, कसेरू, गुलेबेद, गुले भंग खाना चाहिए । इसके सेवन से घोर संग्रहणी नीलोफर हर एक १. तो०, अर्क बेदेमुश्क, अर्क दूर होती है। वृ० रस० रा० सु० । गृह० शाहतरा, अर्क मको हर एक १ सेर, अर्क गुलाब २ सेर, अर्क बेद सादा ४ सेर, बकरी का दूध १० सेर, बर्षा जल आवश्यकतानुसार विधि अर्क वल्लभः arka-vallabhah-सं०० बन्धु अनुसार अर्क परिनु त करें। जीव वृक्ष । बन्धूक पुष्प, दुपहरिया-हिं० । गुल दुपहरिया-पं०, हिं० । बान्धुलि वृक्ष, दुपुरे गुणधर्म-राजयक्ष्मा तथा वातज्वर के लिए लाभदायक है। इ० अ०। चण्डी-बं० दुपारी-मह । (Pentape tes अर्क शोर जदाद āarq-shir-jadid-अ० phoenicea, l.in., ROU.) रा०नि० निर्माण-क्रम-हरा गुर्च ( छिला हुआ ) व०१० । १८ तो०, गुल नीलोफर, गुल मुडी, ब्रह्मडण्डी, अर्क वल्ली arka-valli-सं० स्त्री० श्रादित्यः | गुल मासफर, ( कुसुम्भ पुष्प ), मेंहदी पुष्प, भका । हुल हुल-हिं० । हुडहुड़े-बं० । (Cle निम्ब पुष्प, गुल सेवती, गुले सुर्ख, पीली हड़ का ome Viscora.) ३० निघ०।। बकल, हलेला स्याह, अामला छिला हुआ हर अर्क वेदम्,-प्रम् arka.vedam, dham-सं० एक १० तो०, सरफोका चिरायता, बादरञ्जबूया क्ली तालीशपत्र ।(A bies webbiana.) हर एक १४ तो०, कासनी का बीज, खीरा का प० मु०। रा०नि० व०६। बीज, खुर्का का बीज, खबूजा का बीज, हर एक चि०। For Private and Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कधीर वसीत १८ तो०, शाहतस की पत्ती, झाऊकी पत्ती, नयुद सादा ४ सेर, छायदुग्ध १०.सेर । इनमें यथावश्यक बावरी, नीलकण्ठी, मेंहदी की हरी पत्तो हर एक जल मिश्रित करके ८० बोतल अर्क पहित करें। श्राधमेर, सफेद चन्दन का बुरादा, लाल चंदन का | पुनः इस अर्क में उपयुक औषधों को सम्मिबुरादा, शीशम का बुरादा, आबनूस का बुरादा, लित कर दोबारा अर्क खींचे। निम्बू की लकड़ी का बुरादा, हर एक पाव मात्रा सेवन-विधि-५ तोला यह अर्क केवड़ा की जड़ २ सेर । सम्पूर्ण औषधों को रात्रि प्रातः सायं तथा मध्याह्न तीनों काल में सेवन भर उष्ण जल में भिगोकर । प्रातः काल बकरी करें। का दूध १० सेर, कासनी की पत्ती का फाड़ा हुआ गुण-धर्म-रक्रशोधक, बल्य, उष्माशामक पानी ४ सेर, अफ़्तीमून विलायती, बसक्राइज तथा तर है । वायु रोगों तथा राजयक्ष्मामें अक्सीर पिस्ती प्रत्येक १० तो० और सम्मिलित कर सिद्ध हुआ है । ति० फा० १ भा०।। अर्क परिनु त करें और दोबारा उक अर्क में अक सम्मुलफार aarq-sammulfar-१० उपयुक औषध डालकर पुनः अर्क परिनु त | संखिया का घोल, फूलर महाशय का घोल । करें। Fowler's solution ( Liquor मात्रा व सेवन-विधि-२ तो० से ४ तो. Arsenicalis ) देखो-संखिया । पर्यन्त यह अर्क प्रति दिवस प्रातः सायं दोनों अर्क सम्मुलफार मुरकब ब ब्रोमीन aarq. काल शर्बत उनाब या कोई अन्य उपयुक्र शर्बत sammulfár murakkab ba broमिलाकर पिलाएँ। min-१० (Liquor Arsenici Broगुणधर्म-उपदंश, कुष्ठ तथा अन्य वात रोगों miatus ) देखो-संखिया। में अत्यन्त लाभप्रद है। ति० फा०२ भा०। अर्क सम्मुल्फार मुरक्कब ब सीमाव व आयोडीन अर्क शीर बसीत aarq-shir basit-अ०। ā arq-sammulfár murakkab-baयोम निर्माण-विधि-छाग दुग्ध ५ सेर, simab va ayodin-H० नोवन महाशय अर्क वेद सादा २ सेर, अक बेदे मुश्क, अर्क का घोल । Donovan's solution (Liशाहत हर एक १ सेर, मिश्री प्राध पाव यथा quor Arsenii et Hydrargyri Toविधि अर्क परिस्नु त करें। didi) देखो-संखिया । . गुणधर्म-राजयक्ष्मा और वात ज्वर के लिए अर्क सुता arka-suta--सं० स्त्री. कृष्ण अपरालाभदायक है। इ. १०। faari Clitorea Ternatea (The अर्क शोर मुरकब जदीद aarqshir murra black var. of-.) ३० निघः । kkab-jadid-अ. नूतन मिश्रित दुग्धा अर्क सुधाarka-sudha-सं० स्त्री० अर्कोत्थ सुधा निर्माण-विधि-तुम कासनी, गुल गाव -हिं० । सल अश्र, शकर मदार-१०। प्राकजुबान, खीरा के बीज, तबशीर, ज़हर मोहस न्देर चुण--बं० । गुण-गुल्मरोग नाशक है । वै. प्रत्येक १ तो० गुले सुर्ख, मकोय, गावज़ बान, निघ०। मजाकडू, तुह्म का प्रत्येक २ तो०, तुखमखुर्की | अक सूज़ाक aarq süzik--अ० पूयमेहार्क । ३ तो०, शुष्क धनियाँ, रक व श्वेत चन्दन, निर्माण-विधि-सूखी धनियाँ ५ तोला को प्रत्येक ४ तो०, हरी कासनी की पत्ती, हरा कद्द, रात्रि मर श्राधपाच जल में भिगोएँ और प्रातः काह पत्र प्रत्येक ४ तो०८ माशा, कमलपुष्प ५ काल इसका क्वाथ विधि द्वारा काढ़ा प्रस्तुत कर तोला, कसेरू, गुलबेद, गुलनीलोफर हर एक १० शीतल होने पर इसमें ३ तोब्रांडी और ६ मा." सो०, अर्क बेदमुश्क, अर्क शाहतरा, अर्क मको | रोग़न सन्दल सम्मिलित कर श्रई तैयार हर एक एक सेर, अर्क गुलाव २ सेर, अर्क बेद | कर लें। For Private and Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्क सोडा मुरकंब व सम्मुलफ़ार अर्क हाज़िमः - मात्रा व सेवन-विधि-प्रातः सायं व अर्क परिनु त करें । पुन: इस अर्क में उपयुक मध्याह्न १-१ तो.। औषध भिगोकर दूसरे दिन दोबारा अर्क गण-धर्म-सूज़ाक के लिए यह अत्यन्त लाभ- परिनु त करें। जनक सिद्ध हुआ है । इसे व्यवहार में लाने से __ मात्रा व सेवन-विधि-१॥ तो. उपयुक्त मूत्रदाह, वेदना, रक, पीव तथा क्षत सम्बन्धी औषध के साथ। सम्पूर्ण शिकायतें दूर हो जाती हैं। गणधर्म-राजयक्ष्मा में अत्यन्त लाभदायक नोट-हिन्दुस्तानी दवाखाना देहली का सिद्ध हुआ है । मूत्र दाह, सृज़ाक और मूर्छा के खास नुसना है जिसे जनाब मसीहुलमुल्क हकीम लिए भी गुणदायक है तथा उत्तमांगों को बल अज्मलखा साहब ने अपनी असीम कृपा से प्रदान करता है। प्रधान गुण-राजयक्ष्मा के लिए अपने गुत योगों में से प्रदान किया था । विशेषकर लाभप्रद है। अर्क सोडा मुरकब ब सम्मुल्फ़ार aarq-soda अपथ्य-उष्ण एवं शुष्क वस्तु । murakkab ba sammulfár नोट-यचमा के लिए जनाब मसीहुल मुल्क ( Liquor sodii arsenatis) देखो- हकीम अजमलख़ाँ साहब का मुख्य नुसता है । संखिया। | अर्क हाज़िम aarq hazim असोय aarq-soy अर्क हाज़िम जदीद aarq hazim jadid , -अ० पाचकार्क। अक़ शिब्बित aarq-shibbit ! अ० सोया अर्क शविद,-त āarq shavid,t (आ) का निर्माण-विधि-- बबूल की छाल १० सेर, किशमिश हरा, तथा मिश्री प्रत्येक ५ सेर, लहअर्क । Dill water ( Aqua anethi)। देखो-शतपुष्प । सुन, लौंग प्रत्येक १ तो०, ऊद की २ तो०, सफ़ेद चन्दन २२ मा०, बीख बनफ़्सा अर्क सौंफ aarg-sounf-उ० सौंफ का अर्क । १८ मा०, सुअदकोफ़ी ( नागरमोथा ) Anise water (Aqua anisi ) देखो १० मा०, पोस्त तुरा ४ तो०, बहमन सौंफ। सफ़ेद व लाल, शकाकुल, सालबमिश्री, तेजपात, अर्क संखिया तुर्श āarq-sankhiya tirsha दालचीनी, गुलगावज़ बान हरएक २ तो०, खस -9. (Liquor arsenici hydrochl ४ तो०, बड़ी इलायची का दाना ५ तो०, जाय_oricus ). देखो-संखिया। फल, जावित्री, हरएक २ तो०, केशर १ तो०, अक हड़ताल aarq-halatal-40 हड़ताल अम्बर ६ मा०, अम्बर व केशर के सिवा शेष का अर्क । देखो-हरिताल । सम्पूर्ण औषधों को रात्रि भर उष्णा जल में अर्क हराभरा जदीद aarq-harābhara- भिगोकर प्रातःकाल १० बोतल अर्क परिस्र त jadid-१० करें । केशर व अम्बर की पोटली अर्क खींचते योग निर्माण-कम-लाल व सफेद चन्दन, समय नीचे के मुंह में रख दें। इस अर्क में खाश, पद्माख, नागरमोथा, हरी गिलोय, शाहतरा, समग्र औषधों को पुनः तर करके फिर दस नीम की छाल, गुल नीलोफर, तुहम कासनी, बोतल अर्क खींचें । सौंफ, कह के बीज, नेत्रबाला, धनियाँ, तुलसी मात्रा व सेवन-विधि-सवा तो० यह अर्क के बीज, बहेड़े की जड़, इक्षुमूल, जवासा की जड़, किसी उपयुक्त शर्बत के साथ या वैसे ही कासनी की जड़, धमासा, मुलेठी, मुण्डी, इला- पिलाएँ। बची छोटी, कोकनार (पोस्त का डोंड़ा ) हरएक गुण-धर्म-आमाशय के सम्पूर्ण दोषों को एक तो०, रात को जल में भिगोकर यथा विधि | दूर करता है। पाचक, क्षुधावद्धक, शरीर में १ For Private and Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्क हिता चुस्ती व चालाकी लाता एवं बल तथा श्रोजको बढ़ाता है । ति० फा० १ व २ भा० अर्क हिता arka hitá सं० स्त्री० श्रादित्यभक्का, हुल, हुरहुर - हिं० । हुड़िया-बं० । ( Cleome visccsa ) सूर्य फुलवल्ली -मह० । रानि०व० ४ । अर्क हेमाम्बुदम् arka-hemámbudamसं० क्ली० खस, पतंग, कमलकेशर, चन्दन, एर्वारुक ( ककड़ी भेद ), नागकेशर, दारूहल्दी, नागरमोथा, तृणमणि ( कैरवा ) और श्वेत कमल इन सबको बराबर लेकर बहुत बारीक चूर्ण बनाएँ फिर खस के बराबर ताम्बा, लोहा, और अक भस्म पृथक् पृथक् मिलाकर शहद के साथ खाने से मुख, नेत्र, कर्ण, गुदा, और रोम कूपों से निकलता हुआ रक्क बन्द होता है । र० यो० सा० । हैजा aarq haizá - अ० वैशूचिकार्क । निर्माण-विधि - ( १ ) ज़रिश्क, अनारदाना खट्टा प्रत्येक एक पात्र, रक्त चन्दन का बुरादा, श्रलुबोखारा, सौंफ प्रत्येक अर्धसेर, पुदीना हरा, दालचीनी प्रत्येक १ सेर, तबाशीर ७ तो०, कपूर ४ मा०, बड़ी इलायची श्रधपात्र, शुद्ध जल १० सेर, औषधों को पानी में भिगोकर यथाविधि ५ सेर परित्रत करें । अर्क खींचते समय दो माशा कपूर नीचे के मुँह में रख दें । ६४५. गुण-धर्म- हैजा बाई के लिए अत्यन्त लाभदायक हैं । तीव्र तृषा को तत्काल शमन करता है और पित्त को समूल नष्ट करता है । ति० फा० २ भा० । ( २ ) दरियाई नारियल, तुरज की पीली छाल, गुलाब की कली, पपीता, काग़जी नीबू के बीज, पियारांगा, नीम वृक्ष की छाल, सौंफ हरएक ६ तो० । सबको यवकुट करके श्रर्क गुलाब में तर करें । प्रातः शुद्ध सिरका १ सेर, श्रावतुरञ्ज, काग़जी नीबू का रस, हरे कुकरोंधा का रस, हरं पुदीना का फाड़ा हुआ रस प्रत्येक १ पात्र सम्मि लित कर अर्क परिस्रत करें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीङ्कुरादि स्वरसः मात्रा व सेवन विधि - दो-दो तो० प्रात: सायं नीबू का सिकञ्जबीन मिलाकर या यूँ ही पिलाएँ। ति० [फा० २ भा० । हैजा बाई āarq haiza-vabai - अ० संक्रामक वैशूचिकाकं । निर्माण क्रम- प्याज़, लहसुन हरएक २॥ सेर, श्राकाशबेल २ सेर, जीरा स्याह श्राधसेर, इलायची श्वेत, सोंठ, पीपल प्रत्येक ८ तो०, पुदीना शुष्क १६ तो०, दालचीनी १४ तो० । सब को कूटकर रात को पानी में भिगो दें और प्रातः यथाविधि ५ सेर अर्क परिस्रुत करें तथा बोतलों में रखें । मात्रा व सेवन विधि- १ तो० से ३ तो० तक प्रातःकाल पान करें । गुण-धर्म - बाई हैजा के दिनों में स्वास्थ्य संरक्षण हेतु इसका उपयोग अत्यन्त लाभदायक | हैज़ा के रोगी के लिए भी इसका प्रयोग प्रति ही लाभदायी है । ति० [फा० २ भा० । मात्रा व सेवन विधि - २ तो० यह अर्क अर्क क्षीरम् arka kshiram-सं० क्ली० अर्क दो-दो घंटे के अन्तर से पिलाते रहें । वृक्ष निर्यास । श्राकन्दर आटा-बं० । के चारः arka kshárah-सं० पु० आक के कोमल पत्तों को तेल और पांचों नमक तथा काँजी के साथ विधिवत् भस्म करके क्षार बनाएँ । इसे उष्ण जल या मद्य के साथ सेवन करने से बादी aari का नाश होता है । वृ० नि० र० वातार्थं । गुण- कृमिहर, ब्रघ्न, कुष्ट, उदररोग तथा अर्श में हित है | राज० । तिक्क व लवण स्वादयुक्त, उष्ण वीर्य, लघु, स्निग्ध, गुल्म एवं कुपहर और उदर विकार तथा विरेचन में हित है । भा०पू०१भा० । च० ६० अर्श- चि० । अर्काकिया arkákiya - अ० मकड़ी का जाला । (Spider's web.) अङ्कुरादि स्वरसः - arkánkurádisvarasah सं० पु० श्राक के अंकुरों को कांजी या नीबू के रस में पीसकर और नमक तथा तेल मिलाकर उसे थूहर के डंडे में भरकर उसपर कपड़मिट्टी करदें । For Private and Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकादिकाय फिर पुटपाक विधि से पकाकर उसका रस निकालें, फिर उस रस को गुनगुना करके कान में डालने से कान के दर्द का नाश होता है । वृ०नि० । अर्कादि क्वाथः arkúdikvathah-सं० पु० श्राक की जड़, पीपलामूल, सहिजन की छाल, दारुहल्दी, चव्य, सम्हालू, पीपल, रास्ना, भांगरा, पुनर्नवा, चित्रक, वच, सोंड, चिरायता । इनका काथ सन्निपात, तन्द्रा, वायु, सूतिका रोग, शीत और परमार का नाशक है । वृ० नि० र० । दिगण: arkádigunah सं० पु० मन्दारके वर्ग की श्रीषधियाँ । ( १ ) आक, ( २ ) सफेद चाक, (३) नागदन्ती, ( ४ ) विशल्या ( लांगली ), ( 1 ) भारंगी ( भार्गी ), ( ६ ) रास्ना, (७) वृश्चि काली, (८) कंजा, ( ) श्रगा, (१० काकादनी, (११) श्वेता, (१२) महाश्वेता ( ये दोनों कोइल के भेद हैं ) श्रौर (१३) हिंगोट अर्थात् इंगुदी यह अर्कादिगण है । सु० सू० ३८ श्र० ! गुण - कफ, मेद दोष, विष, कृमिरोग, कुष्ठ रोग इनको नष्ट करता है और विशेष करके को शुद्ध करता है । वा० सू० १५ श्र० । श्रर्कादितैलम् arkáditailam - सं० क्ली० श्राक का रस, धतूरे का रस, सफेद थूहर का रस, सहि 'जन का रस, कांजी प्रत्येक १ प्रस्थ कूट और से धानमक प्रत्येक २-२ पल । इनके साथ एक प्रस्थ तैल का पाक सिद्ध करें । यह खल्ली, शूल, हैजा, पक्षाघात और गृध्रसी का नाशक है । वृ० नि० र० । अर्कादिलेप: arkádilepah - सं० पु० नाक का दूध, थूहर का डंठल, गोखरू, कड़वी तरोई के पचे, करंज की गिरी इन सबको बकरे के मूत्र में पीसकर लेप करने से मस्सों का नाश होता है । यां० २० 1 अर्का arkan - फ़ा० मेंहदी, हिना । ( Lawsu nia inermis ) इं० हैं० गा० । अर्कान argán अ० यन, काँवर, कामला | ६४३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकोड: देखो - कामला । जण्डिस ( Jaundice. ) इं० । अनि argan ) - यू० मेंहदी | ( Myrtle, अकून argun | Henna plant.. ) fa arkán - श्र० रुक्न का उस्तुक सातustuqussát बहुवचन है । श्रग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी प्रभृति चार भूत ( तत्र ) विशेष जिनसे सृष्टि की सम्पूर्ण वस्तुएँ उद्भूत हुई हैं । ( Elements. ) देखो तत्व | निलेश्वरः arkánaleshvarah - सं० पुं० पारा १ भाग, सुवर्ण पत्र १ भाग दोनों को मिलाएँ । जब पारे में सुवर्ण अच्छी तरह मिलजाए तब पारे के समान सोना माखी और श्राधे प्रमाण मैं गन्धक मिलाकर अग्नि पर पिघलाकर पर्पटी बनाएँ। फिर पर्पटी का चूर्ण करके एक दिन बालुकायन्त्र में पकाएँ । यदि इसकी शक्ति बढ़ानी हो तो गन्धक दे दे कर ६ लघुपुट दें । नोट - इसमें स्वर्ण के स्थान में चाँदीपत्र और सोनामाखी के स्थान में किसी किसी के मन से वेधक हरिताल डालते हैं। रस० यो० सा० । अर्कावली arkávali सं० स्त्री० गुर्जा ( एक हिन्दी दवाई ) | अर्काश्मन arkashman - हिं० पु० श्रम arkashma सं० पु० } (1) ( A crystal lens ), सूर्य कान्तमणि । ( २ ) ( A ruby. ) चुन्नी । पक्षा । एक प्रकार का छोटा नगीना । चुनि, पाना-बं० । श्ररुगोपल । हला० । हुली arkáhuli - बं० ( १ ) सूर्य कान्तमणि (The sun stone.) । ( २ ) हुरहुर, सूर्यावर्त । ( Gynandropsis Pentaphylla ) अन्धाहुली - हिं० । अर्काह्नः arkáhvah - सं०पु० ( १ ) तालीशपत्र ( Talishapatra ) | ( २ ) सूर्य्यकांतमणि ( A crystal lens; a rubby.) ( ३ ) अर्क वृक्ष | ( Calotropis giga • ntea,) Ho | For Private and Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कियात प्रकोपल: अर्कियात aaqiyat-अ० (व० व०), अर्क | बेदमुश्क का अर्क-द०। माउल खिलाफ अ० । (ए० व०) Waters (Aquae.) Salix caprea, Linn. (Water of-) देखो-अक । स० फा० ई. । अर्की arki-सं० पु. मयूर, मोर पक्षी । मयूर अर्के नमक aarqe-namak-फा० लवणाम्ल, -बं० । मोरी-मह०। ( A peacock.) उज्जहरिकाम्ल, नमक का तेजाब । (Hydro० निघ। chloric or Muriatic Acid.) स० अर्कील aarqil-अ० अण्डे की जर्दी, अण्डपीत | . फा० इ०। , भाग। ( Yolk of an egg.) अर्के शोरह aarge-shorah-फा0 शोरकाम्ल अर्क जबाल āallujjabāla-अ० मोमियाई । शोरे का तेजाब, ( Nitiic acid.) । स० - See-Momiyai. फा० इं०। अर्क जज़बीब aarzzabiba-अ. मुनक्का या दाख का पानी जो विशेष विधि द्वारा निकाला अर्केश्वररसः arkeshvara-rasah-सं० पु. गया हो । चन्द्रोदय, ताम्र भस्म, लौहभस्म, सुहागा भुना, अर्कत्तोब quttiba-अ. (१) असरार खपरैया (शुद्ध ), त्रिकुटा, हरताल इनको प्राक के दूध में खरल करें यह एक दिन में सिद्ध ... (A tree.) । (२) जर्नबाद, नरकचूर, होता है। इसे नस्य द्वारा प्रयोग करनेसे सन्निपात TI(Curcum 4 zedoaria, Roscoe.) दूर होता है। अर्कल अरूस aarqul-aarāsa-अ० अभ्रक, अर्केश्वरीरसः arkeshvarorasah-सं० पु. भोडर(ल) | Tale (mica..). हरिताल, सोनामाखी, मैनसिल, शुद्ध पारा, अर्कल कदाद arqul-qadida-१० भुना हुआ सुहागा, सेंधानमक, चित्रक और भौगरे का चूर्ण नमकीन मांस जिसे यात्रा में साथ ले जाते हैं। सबको बराबर लेकर बारीक चूर्ण करके मिलाएँ। अर्क लकाफ़र aarqulkāfüra-अ० ( १ ) मात्रा-४ रत्ती । गुण-शहद के साथ सेवन " कपूर का अकं, क'रारिष्ट। ( 'Phe spirit करने से सुप्त मण्डल वाला कुष्ठ नष्ट होता है। 0. Liquor of Camphor.)। (२) रस० यो0सा0। जनबाद, नरकचूर, कचूर । ( Curcuma ze अर्केश्वरः arkeshvarah-सं० पु. ताम्रभस्म, doaria, Puscie.) बंगभस्म, अभ्रक भस्म, सोनामाखी भस्म प्रत्येक अंकुशजaarqushshajra अ० गोंद निर्यास। समभाग लेकर गिलोय और सुगन्धवाला के रस (Gum.) की २१ पुट देकर शराव सम्पुट में रखकर क अ.क्न āarquna-अ० एक पौधा है जिसकी दें। फिर अडूसा, शहद और विदारीकंद के रस पत्तियाँ शनायान्न अमान (गुले लाला ) जैसी में चार चार रत्ती की गोलियाँ बनाएँ । इसको होती हैं। शहद के साथ खाने से रक्तपित्त तत्काल नष्ट हो अर्क गले सुख aarqegule-surkha-फा० जाता है । रस ग सु. रक्रपित। अत्तमा arkottamā-सं० स्त्री० वर्वरो, बबुई गुलाब, गुलाब जल, गुलाब का अर्क । ( Rose ___तुलसी । (Ocimum basilicum.) a water.) स० फा० ई०। अर्कोपलः arkopalah-सं० पु. अर्के गोगिर्द aarqe-goginda-फा० गंधकाम्ल, अर्क पल arkopala-हिं० संज्ञा पुं० . गंधक का तेजाब ( Sulphuric Acid.) सूर्यकान्तमर्माण, पातशी शीशा, लाल पद्मराग। स० फा० ई.०। (The sun.stone;a ruby;a crystal अर्के बेदेमुशक aarqe.bedemushka--फा० lens.) For Private and Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगवा भोल अर्कोल akol ) -पं० तत्रक, तत्री, तेत्री, कण्टक वृक्ष विशेष । नील भाण्टी-चं० । एरवणी अर्खर arkhal' | चेचर, ककरी, दूद्ल, वांश, | __-मह० । कटसरैया-हिं० । ( Barleria हुलशिङ्ग । रहस सेमि-पलेटा (Rhus Semi- coerulea ). alata, array.), हस बकियामेला ( R. गुण-शीतल, व्रणशोधक तथा रोपक है। Buckia mela, Roul. )-ले० । रश्तू मद० व०५। अर्गट कसेला, शीतल वीर्य, व्रण-सत० । दखमिल, दसविल-उ० प० सू०। विशोधक, व्रण रोपण करने वाला तथा पुष्प मधुर बक्कियामेल, भगमिली-नेगा। तुशिल-लेप० । है। यह तिक्क है एवं ज्वर, पित्त, कफ तथा रक रोग भल्लातक वर्ग नाशक है । वै० निघ० । (N. 0. Anacardiacee.) : अर्गट ergot उत्पत्ति-स्थान-शीतोष्ण हिमालय, बनहल got of rye से सिक्किम पर्यन्त तथा खसिया पर्वत । -इं० गन्दुम दीवाना, शैलम, अर्गटा । (Erg. प्रयोगांश-फल ( Berries.) । तैल ___ota.) औषध तथा प्राहार के काम आता है । अर्गनौन arghanoun-अ० अर्गन वाद्य जिसको __ उपयोग-उदरशूल में इसका फल व्यवहार हकीम अफलातून ने अन्वेषेत किया था । ऑर्गन में श्राता है । स्ट्यवर्ट। Organ-इं०। अकज़ा aarqza -अ० (१) हिन्द नोट-ऑर्गन का अर्थ अवयव, इन्द्रिय अज़ान aarqzina की, विषखपरा अथवा शस्त्र भी है। अह जान aarhzana ) (बूटी ), (२) अगल argal-हिं. संज्ञा पु० [सं०] (१) . . बरबतूरह । कोई कोई बनुरुल अकराद को कहते अरगल । अगरी । ब्योड़ो। (२) किवाड़ । (३) अवरोध । (४) कल्लोल । अक्टोस्टफिलास ग्लांका arctostaphylos अर्गलम् argalam-सं० क्लो. मांस, गोश्त । glauca-ले० मेज़ानोटा लीब्ज़ ( Man. (Muscle; Flesh.) वै० निघ०। zanita leaves.)-इं० । अंगल arghala- अ० वह मनुष्य जिसका ख़तना अक्टोस्टै फलॉस यूवा अाई arctos ta ph- न हुआ हो । ( Uncircumcised. ) ylos uva, uusi, Spreng.-ले० इनबुडुब, अर्गला argala-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) भल्लूक (रीछ ) द्राक्षा-हिं० । इसकी पत्तियाँ ___ अरगल । अगरी । (२) ब्योड़ा । (३) अवघोषध कार्य में प्राती हैं । मेमा० । देखा-युवा रोध । (४) वाधक । अवरोधक । रुकावट अर्साई । ( Uvee ursi.) डालने वाला। अर्क फ़न arkfan .यु. चणकः, चना । (gram अर्गलाधरा argaladhara-सं०स्त्री० (Infraor chick pea ). _spinatus ) कशेरु कण्टकारा । भर्खामून arkhāmāna-अ० चतु श्याम वृत्त । अर्गली argali-हिं० संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] ...नेत्र का काला भाग अर्थात् पुतली। भेड़ की एक जाति जो मिश्र शाम श्रादि देशों में अगंजा argaja -हिं० संत्रा पु० अरगजा। होती है। सुगन्धि विशेष । (A perfume of a लोनाangalottara-सं. खी ; yellowish colour and compoun (Supraspinatus ) कशेरुकण्टकोचे । ... dad of several-scented ingre. dients). ... . . . अर्गवkarghavan मा० (१)अर्जवाँ अ० । एकवृत्त अगट: argatab-सं० पु. पार्शगल नामक हैं जो फारस देश में उत्पन्न होता है । इसके For Private and Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org • you area atarभरक वर्ण के तथा सुन्दर होते हैं। स्वाद मधुर होता है । प्रकृति - १ कक्षा में उष्ण व रूच, माइल ब श्रुतिदाल | स्वाद - किञ्जित् मधुर, किसी किसी ने कटु एवं किञ्चिद् विका लिखा है । हानिकर्त्ता - इसकी जड़ चमतकारक हैं । श्रामाशय के लिए हितकर । दर्पन-बर्ग उन्नाव और नमाम । प्रतिनिधि - संदल व गुले सुखं । मात्रा - जड़ २ दिरम ( ७ मा० ) और पुष्प ३ दिरम ( १०॥ मा० ) । प्रधान कर्म - श्वासोच्छ् वासाश्रवयव का विशोधक | गुण, कर्म, प्रयोग - पिच्छिल वा सांद्र दोषों को विसर्जित करता तथा श्रामाशय एवं वृक्क की शीतलताको नष्ट करता है । श्वासोच्छ् वास सम्बन्धी श्रवयत्रीं ( फुप्फुस ) को शुद्ध करता है । जलाकर इसके प्रयोग करने से मुख द्वारा रक्क स्राव होने को लाभदायक है और इसका बीज नेत्र सम्बन्धी औषधों में चाकसू के समान उष्ण नेत्राभिष्यन्द को दूर करता है । म० मु० । अश्मरी को नष्ट करता एवं स्वर को साफ करता । इसके फूलों का काथ आमाशय एवं फुप्फुस को शुद्ध करता और अत्यन्त वमन लाता है । - जलाकर श्रवचूर्णन करने सेयह रक्ररुद्रक और उत्तम ख़िज़ाब है तथा भवों के रोज गाता है । बु० मु० । (२) बैंगनी रक वर्ग ( Red & bluish ) भवानी arghavani - अ० श्यामानायुक रक्क वर्ण । ( Blackish red colour ) श्रर्गारोल argyrol - इं० वाइटेलीन ( Vite - llin. ) देखो - रजत | बन अर्गामूनो arghámúni-० पोस्ता, सुख (वन्य पोस्त सदृश एक बूटी ) । ( Wild poppy. ) अर्गीमोन मेक्सिकेना argemone mexicana, Linn. ले० सत्यानासी, भड़भाँड़ । ( Gamboge thistle; mexican poppy ) [फा० ० १ भा० । अर्गीरिया स्पेसिनोज़ा argyreia speciosa ६४६ अगटा - ले० समुद्रशोष (Elephant creeper. ) इं० मे० मे० । श्रग़लम arghilam - इब्रा० खुफ्री | Seckhurfá. श्रर्गीस arghis- यू० ज़रिश्क मूल त्वचा | Seezarishka. श्रनिया सिडरें। किज़लॉन argania sidero xylon, Z. S. - ले० इसका बीज तथा फल प्रयोग में आता है। मेमो० । श्रर्गेमोन ergamine - इं० देखो — श्रर्गोटा | अग्राफ ergograph -इं० इटली के एक वैज्ञानिक ने इस नाम का एक यन्त्र तैयार किया था । इसके द्वारा अंगुलियों की पेशियों की शक्रि नापी जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir free ergoapiol - इं० यह अजमोदा (Apiol.) तथा टका एक मिश्रण है। इसको कैप्श्यूल रूप में रजोरोध में देते हैं । ह्नि० मे० मे० | देखो - श्रजमोदा | अर्गेटा ergota-ले० अर्गट Ergot, अर्गट श्रॉफ राई Ergot of Rye, सीकेल कॉन्युटम् Secale Carnntum, स्पर्ड राई Spr rred rye, स्मट राई Smut rye- इं० । केवस सिकेलिनस Clavus secalinus ब्ली कॉनू Ble cornu- फ्रें० । मटर कॉर्न Muttercorn-जर० । शैलम् श्रश्शैरुमुल् मुकरन, जवेदार ( मिश्र० ), अल्क्रूहिउल् wear हन्तुरसौदा श्र० । गन्दुम दीवानह -Fro! छत्रिका वा तृणवर्ग (N. O. Fungi and Gramin icæ.) संज्ञा-नर्णय - फ़रासीसी भाषा में अर्गट का अर्थ कुक्कुट कण्टक (ख़ारे मुर्ग ) है । अर्गट स्वरूप में उसके समान होता है। इसलिए इसको उक्त नाम से श्रभिहित किया गया । उत्पत्ति - यह फंगस अर्थात् छत्रिका के प्रकार की एकफफूँदी या काई हैं, जिसको परिभाषा में क्रेोवीसेप्स पप्युरिया ( Claviceps purpurea, Tulasne ) कहते हैं । जब For Private and Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगोटा अोटा यह फफ दी सीकेली सिरिएली ( Secale Cereale) नामक धान्य में जिसको आँग्ल भाषा में कॉमन राई ( Common Rye ) और अरबी में शैलम या जवेदार कहते हैं, लग जाती है ( अर्थात् उक्र फफूंदी छत्रकीय जीवाण या वानस्पतिक कीट राई के दाने के भीतर प्रविष्ट होकर उसकी रचना में परिवर्तन उपस्थित कर देते हैं।) तब उक्र विकृत राई को जो वास्तव में उक फर्फ दी से पूर्ण होती है, अर्गट वा अर्गट अॉफ राई कहते हैं। वर्णन-इसके किसी भाँति नोकीले त्रिकोणाकार साधारणतः वक्र दाने होते हैं जिनकी नोक पतली होती है। ये से वा एक इंच लम्बे और इंच चौड़े होते हैं। इनके दोनों पृष्ठ विशेष कर नतोदर पृष्ठ तीन परिखायुक्र होते हैं और दाने स्फुटित ( चिड़चिड़ाए या चटखे ) होते हैं । बाहर से ये नील लोहित । वनफशई स्याह ) और भीतर से प्याजी श्वेत वण के और भंगुर होते हैं अर्थात् इनको जहाँ से तोड़े वहीं से टूट जाते हैं । गंध विशेष प्रकार की अग्राह्य और स्वाद खराब ( कुस्वाद) तथा हृल्लासकारक होता है। रासायनिक संगठन-रासायनिक विधि अनुसार अर्गट का विश्लेषण करने पर इसमें अनेक पदार्थ पाए जाते हैं | उनमें से इसके केवल प्रभावात्मक सत्वों का ही यहाँ रल्लेख किया जाता है । वे निम्न हैं (१) स्केसालिनिक एसिड (Sphacelinic acid.) - (जिसका प्रभाव स्फेसीलोटॉक्सीन के कारण होता है ) गर्भाशयिक मांस पेशियों के संकोचनके अतिरिक्र यह रक्रवाहिनियों को भी श्राकुचित करता है । यह जल में अविलेय पर ऐलकोहल (मद्यसार ) में विलेय होता है। (२) कॉन्युटीन (Cornutine.)-यह एक ऐल्कलाइड (क्षारोद) है जिसका मुख्य कार्य जरायु सम्बन्धी मांसपेशियों का संकोचन है। यह जल में अविलेय होता है। (३) अग टिनिक एसिड (Ergotinic acid.) एक ग्लूकोसाइड । (४) अर्गेटॉक्सीन ( Ergotoxine. )-एक गैंग्रीनोत्पादक सत्व जो प्रयोग करने पर व्यर्थ सिद्ध होता है। कहते हैं कि यह इसका प्रभावात्मक अंश है । अगोंटीनीन इसका अन्हाइड्राइड है। (५) अमीन ( Ergamine. ) तथा (६) टायरमीन ( Tyramine.)। (७) एक स्थिर तैल ३०%, (८) ट्राइमीथल अमाइन जो इसकी गंध का मूल है और (1) टैनोन तथा रक्षक पदार्थ प्रभृति अवयव इसमें विद्यमान होते हैं। संयोग-विरुद्ध ( Incompatibles. )ग्राही ( Astringent.) औषध और मेटैलिक साल्ट्स (धातुज लवण )। . __ प्रतिनिधि-कार्पास मूलत्वक | नोट-स्त्री रोगों की चिकित्सा में कार्पास अर्गट से श्रेष्ठतर एवं निरापद है । देखो-कास । सूचना-अर्गट के समूचे दानों को सुरक्षिततया शुष्क करके ( अग्नि पर नहीं, प्रत्युत प्रशांत चूर्ण के उत्ताप पर शुष्क करें) सर्वथा शुष्क एयर टाइट अर्थात् वायुरोधक शीशी में डालकर और उसमें किंचित् कपूर डालकर रखें जिसमें वह विकृत न हो एवं उसमें कीड़े न लग जाएँ। इस श्रोषधि का चूर्ण बहुत शीघ्र विकृत हो जाता है। ___ संयुक्र राज्य अमेरिका की फार्माकोपिया में लिखा है कि एक वर्ष पश्चात् यह अप्रयोजनीय हो जाता है। __ प्रभाव--प्रार्त्तवप्रवर्तक, गर्भशातक और साांगीय रकस्थापक । औषध-निर्माण तथा मात्रा-- - चूर्णित अर्गट, १० से २० ग्रेन, प्रसव हेतु, ३० से ६० ग्रेन । तरल रसक्रिया (सार), १० से ६० मिनिम । घन सत्व ( रसक्रिया), १ से ग्रेन। फाण्ट (४० में १), १ से २ ल.. अाउंस। तैल, १० से २० वा ३० मिनिम प्रसवार्थ । टिंक्चर वा आसव (१ से ४ प्रूफ स्पिरिट), १० से ६० मिनिम । For Private and Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगोटी अगोंटा मात्रा--१४ से ६० ग्रेन (१ से ४ ग्राम)। - प्रायः चूर्ण रूप में प्रयुक्त होता है। ___ऑफिशल योग ( Official preparations. ) (१) एक्सट्रैक्टम अर्गोटी ( Extractum Ergotia. )-ले०। एक्सट्रैक्ट ऑन अर्गट ( Extract of Ergot.) अर्गटीन, अर्गट रसक्रिया, अर्गट सत्व वा सार -हिं० । खलासहे शैलम्, शैल्मीन-अ० । रुब्ब गन्दुम दीवानह -फा० । नोट--अगोंटीन ( Ergotin ) ब्रिटिश फार्माकोपिया (B. P.) में सॉफ्ट एक्सट्रैक्ट ऑफ अर्गट का ऑफिशल पर्याय था। पर इस नाम से भ्रम उत्पन्न होने की आशंका है, अस्तु इस नाम का परित्याग कर देना ही उत्तम है। निर्माणा-विधि-अर्गट का ४० नं० का चण २० पाउंस, ऐलकोहाल (६.0/) और परिसुत वारि अावश्यकतानुसार, डायल्युटेड हाइड्रो. कोरिक एसिड (जल मिश्रित उज्जहरिकाम्ल ) ७॥ क्लइड डाम और सोडियम काबोंनेट १७५ ग्रेन । अर्गट के चूर्ण को १० फ्लइड पाउंस ऐलकोहाल से क्लेदित कर पौलेटर (क्षरण यन्त्र ) में स्थापित करें और पर्याप्त ऐलकोहल डालकर इतना क्षरण करें कि वह एक्ज़ास्ट होजाए (हातम होजाए) | पुनः प्राप्त द्रव को जलकुण्ड ( वाटर बाथ ) पर इतना उड़ाएँ वा शुष्क करें कि उसका द्रव्यमान ५ फ्ल,इड श्राउंस शेष रह जाए । फिर उसमें ५ फ्लइड श्राउंस परिसुत वारि मिलाएँ और शीतल होने पर पोतन कर उसमें जलमिश्रित उजहरिकाम्ल सम्मिलित करदें । २४ घंडे पश्चात् पुनः उक द्रव का पोतन करें और जो मल अवशेष रह जाए उसको जल से इतना धोएँ कि उसकी अम्लता सर्वथा दूर हो जाए । फिर अवशिष्टांश को धोने से शेष रहे हुए द्रव की पूर्व प्राप्त द्रव में मिलाकर और सोडियम कार्बोनेट को उसमें विलीन करके उसे जल कुण्ड ( वाटर बाथ) पर वाष्पीभूत कर मृदु । रसक्रिया रूप में शुष्क करले। मात्रा-२ से ८ ग्रेन (१३ से ५२ ग्राम वा १२ से ५० शतांश ग्राम)। (२) एक्स्ट्रैक्टम अर्गटी लिक्विडम् Extractum Ergotze Liquidum --ले। लिक्विड एक्स्ट्रक्ट श्रॉफ अर्गट Liquid Extract of Ergot-- । अर्गट तरल सत्व, अर्गट द्रव रसक्रिया-हिं०। खुलासहे शैलम सय्याल--अ० । रुब्बे गन्दुम दीवानह. सय्याल-फा० । निर्माण-विधि-कुट्टित अर्गट २० पाउंस, परिनु त वारि ७॥ पाइंट, ऐलकोहल (६०%) ७॥ लइड ग्राउंस । अर्गट को ५ पाइंट परिस्रुत वारि में १२ घंटे तक भिगोकर निःस्रावित करले और अवशेष को अवशिष्ट परिस्रुत वारि में उतने काल तक भिगोकर पोतन करें। पुन: प्रत्येक प्राप्त द्रव को परस्पर योजित कर इतने उत्ताप पर वाप्पीभूत करें जिसमें तरल का द्रव्यमान ४ फ्ल.इड आउंस शेष रह जाए फिर उसमें सुरा सम्मिलितकर १ घंटा पश्चात् पोतन करलें । प्रस्तुत रसक्रिया का परिमाण पूरा २० क्ल.इड आउंस होना चाहिए। मात्रा-१०से ३० मिनिम ( .६ से १८ घन शतांश मीटर वा ६ से १० डेसिमिलिग्राम) जल में। (३) इन्फ्युजम अगटी Infusum Ergote--ले० । इन्फ्युजन श्रोत अर्गट Infusion of Ergot-ई । अर्गट फांट --हिं0 । ख्रिसाँदहे शैलम--अ० ! खिसाँदहे गन्दुम दीवानह --फा० । ___ निर्माण-विधि-सद्यः कुट्टित अर्गट १ भाग, खौलता हुशा परिस्रुत जल २० भाग, १ बंद पात्र में १५ मिनट तक अर्गट को जल में प्रवेदित कर पोतन करले। मात्रा-१ से २ .इड श्राउंस (२८४ से ५६'८ घन शतांश मीटर वा ३० से ६० मिलिग्राम). इलेक्शियों अगों टी हाईपोडर्मिका Injectio ergotæ hypodermica -ले०। Hypodermic injection of For Private and Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अर्गोटा अगोटा ergot or Ergotin हाइपोडर्मिक इजेक्शन ऑन अर्गट और अगोंटीन-इं। अगट स्वकधः स्थ अन्तःक्षेप-हिं० । जराकहे शैल्मीन तह तुजिल्द या जेरेजिल्द-अ०। शैल्मीन की ज़रे जिल्द पिचकारी-उ०। निर्माण-विधि-एक्सट्रक्ट ऑफ अर्गट १०० ग्रेन, फेनोल ३ प्रेन, परिस्र त वारि २२० मिनिम वा आवश्यकतानुसार । फेनोल को परिसुत वारि में मिलाकर थोड़े काल तक क्वथित करें। शीतल होने पर उसमें एक्सट्रैक्ट ऑफ अर्गट सम्मिलित करके इतना परिनु त जल और मिलाएँ कि इलेक्शन का द्रव्यमान ३३० मिनिम हो जाए। शक्ति३३ ग्रेन प्रगट ११० मिनिम में या ३ में । ( ३.३ मिनिम1 ग्रेन एक्सट्रैक्ट श्राफ अर्गट)। मात्रा-३ से १० मिनिम (.१८ से ६ घन शतांशमीटर ) गम्भीर त्वकधःस्थ अन्तःक्षेप हेतु सूचना-समय पर इसको सदा सद्यः प्रस्तुत कर प्रयोग करना चाहिए। टिंक चूरा अर्गोटी अमोनिएटा Tinctura ergotæ ammoniataले। अमोनिएटेडे टिंक्चर ऑफ अर्गट ( ammoniated tincture of ergot-इं० । अमोनित अर्गटासव-हिं० । सिबगहे शैलम अमूनी-अ० । तफ्रीन गन्दुम दीवानह, अमूनी सम्मिलित कर उसमें इतना ऐलकोहल और योजित करें कि प्रस्तुत टिंक चर का द्रव्यमान पूरा १ पाइंट हो जाए । फिर २४ घंटे पश्चात् टिंकचर का पोतन करलें। मात्रा-आधे से १ ड्राम वा ३० से ६० मिनिम ( १८ से ३.६ घन शतांशमीटर=२ से ४ मिलिग्राम)। नॉट ऑफिशल योग तथा पेटेन्ट औषधे (Not official preparations. ) (१) डिस्कस ऑफ प्रोटीन Dises of ergotin अर्थात् प्रोटीन पट्टिकाएँ । सफ़ हात रक़ीक़ह शैल्मीन-ऋ०। प्रत्येक टिकिया में 1 या 1 ग्रेन अगोंटीन होता है। स्वगीय पिचकारी द्वारा स्वगधः प्रविष्ट करने के लिए इसका निर्माण किया गया है। समय पर एक टिकिया को १० मिनिम कीटरहित ( क्वथित कर साफ व स्वच्छ किए हुए ) परित वारि में मिलाकर प्रयुक्र करें। (२) पिल्युला अर्गोटीनी Pilula ergotini अगो टीन वटिका हब्ब शैल्मीन।। अगोटीन २ ग्रेन, लिकोरिस पाउडर ( यष्टिमधु चूण) ३ ग्रेन | दोनों को परस्पर योजित कर वटी प्रस्तुत करें। (३) लाइकर अोटो अमोनिएटस Liquor ergotæ ammoniatusश्रमोनित अगोटीन द्रव । सय्याल शैल्मीन अमूनी। यह एक प्रकार का लिक्विड एक्सट्रैक्ट अाफ्न अर्गट अर्थात् अगट तरल सत्व है जो अमोनिया वाले विलीन एलकोहल से प्रस्तुत किया जाता निर्माण-विधि-अर्गट का २० नं० का चूर्ण ५ श्राउंस, सोल्युशन ऑफ अमोनिया २ ल्फुइड पाउंस, ऐलकोहल (६०%) आवश्यकतानुसार । सोल्युशन ऑफ अमोनिया में १८ फ्लुइड आउंस ऐल कोहल सम्मिलित कर उसमें से २ फ्लुइड पाउंस लेकर उससे चूर्ण को प्रवेदित कर क्षर यंत्र ( पोलेटर ) में स्थापित कर दें तथा अवशिष्ट द्रव को उस पर धीरे धीरे डाल कर उसे पकॉलेट (चरण) करलें । पुनः अवशेष को लिचोड़ने से प्राप्त अर्क को क्षरणकृत तरल में (शक्ति १ में 1 ) यह एक प्रभावात्मक और विश्वस्त योग है। मात्रा-१० से ६० मिनिम=( ६ से ३.६ घन शतांशमीटर ). (४) मिसचूरा अर्गोटी Mistura ergotee -अर्गट मिश्रण । मज़ीज शैलम् । For Private and Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्गाटा श्रगोटा १ लिक्विड एक्सट्रक्ट प्रोफ़ अर्गट ३० मिनिम, डायल्युटेड सल्फ्युरिक एसिड १७ मिनिम, क्लोरोफ़ॉर्म वाटर १ पाउस पर्यन्त । (बी० पी० सी.) (५) भिसचूरा अटी अमोनिएटाMistura ergotæ ammoniataअमोनित अर्गट मिश्रण | मज़ीज शैलम अमोनी। लिक्विड एक्सट्रक्ट ऑफ़ अर्गट २० मिनिम, अमोनियम काबो नेट ३ ग्रेन, इमल्शन ऑफ़ क्रोरोफॉर्म १५ मिनिम, कैम्फर वाटर १ अाउस पर्यन्त । (युनिवर्सिटी हास्पिटल ). (६) मिसचूग अर्गोटी एट फेराई Mistura ergotæ et ferri-triz मिश्रण । मज़ीज शैलम व आहन । लिक्विड एक्सटैक्ट श्राफ अर्गट ३० मिनिम, सोल्युशन अफ फेरिक क्लोराइड १५ मिनिम, साइटि क एसिड ५ग्रेन, क्लोरोफॉर्म वॉटर पाउंस पर्यन्त । ( गाटज़ हॉस्पिटल लण्डन ) (७) वाइनम अर्गेटो Vinum erg. othe-अर्गट सुरा । शराब शैजम । ___ फ्लु इड एक्सट क्ट ऑफ अर्गट २० भाग, | डीटन्नेटेड शेरो ८० भाग । (बी० पी० सी०) (८) एसिडम स्क्लिरोटिकम् Acidum Scleroticum-ले० । स्लिरोटिनिक एसिड Sclerotinic acid-इं० । यह अर्गट द्वारा प्राप्त एक महान प्रभावकारी सत्व है। परीक्षाएक निर्बल अम्लीय सार जो धूसर स्फटिकीय चूर्ण रूप में पाया जाता है। यह श्राद्रताशापक और जलविलेय होता है। गुण-तथा उपयोग--1 ग्रेन स्रोिटिनिक एसिड प्रभाव में ३० ग्रेन अर्गट के बराबर होता है । यह सूक्ष्म रक्तवाहिना संकोचक है । अस्तु यह रकास्थापक रूप से तथा रक्तसंचय जनित .' शिरांशूलहर रूप से लाभदायक है। मात्रा- सं । न, त्वक स्थ अन्तःनेप द्वारा ( वा ५ से १५ मिनिम मुख तथा अन्तः हेप द्वारा-ह्वि० मे० से.)। ( ) कॉन्युटीन साइट्रेट Cornutin citia te-यह अर्गट के एक ऐलकलाइड (क्षारोद ) का बिलेय लवण है जो कोबर्ट के मतानुसार अर्गट का क्रियाशील सत्व का प्रभावात्मकांश है । यह एक धूसर वर्ण का चूर्ण है, प्रसव हेतु जिसका अधिक उपयोग होता है । अस्तु से ग्रेन की मात्रा में मुख द्वारा तथा से - ग्रेन की मात्रा में त्वक्स्थ सूचीवेध द्वारा इसका प्रयोग करते हैं। (१०) अोटीन :Ergotin)-यह अर्गट का केवल एक विशुद्ध सत्व है। अगोंटीन (Ergotine ), बोलियन्स प्रोटीन ( Bonje. an's Ergotine)-इं० । उपयोग __ इसका प्रायः उन सभी दशाओं में प्रयोग होता है, जिनमें कि अगट प्रयुक्र है । परन्तु निम्न लिखित कतिपय अन्य ऐसे विकार भी हैं जिनमें इसका उपयोग होता है। (१) नपुसकत्व (जीवता )--शिश्न पृष्ठस्थ शिराओंके फल जाने के कारण जब उचित प्रहर्षणाभावसे मैथुन शक्ति कम हो जाती है, तब अगोटीन के त्वक्स्थ अन्तःक्षेपसे प्रायः पूर्ण लाभ होता है। (३) श्रोटोन और क्वानीन-यह दोनों गर्भाशय एवं प्लीहा को संकुचित करते हैं; और विशेप कर उस अवस्था में जब विषम ज्वरों में प्लीहा कोमल हो या वह बढ़ गई हो, तब इनमेंसे प्रत्येक एक दूसरे को प्रतिनिधि हो सकता है। विपम ज्वरों में इन दोनों का मिश्रण अत्यन्त उपयोगी होता है और इस प्रकार उपयोग करने से कीनीन के अधिक परिमाण की बचत होती है। क्योंकि मिश्रित रूप में व्यवहार करने से अाधा ही कोनीन प्रयुक्त होता है। (३) यदमा जन्य गत्रि स्वेद यह यमा रोगियों के रात्रिस्वेद में हितकर है। मात्रा-२ ग्रेन तीन वा चार बार दैनिक । कमी की दशा में मात्रा घटाकर देनी चाहिए। For Private and Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अगटा श्रगोटा इंजेक्शियो अर्गोटीनो हाइपाडमिका या किसी अन्य प्रकार के कुलक्षण नहीं उपम्धिन (Inj. Ergotini. llyport. ) करते । (प्रोफेसर युलेनबर्ग )। प्रोटोन स्वस्थ अन्तःक्षेप । डॉक्टर मरेल : Dr. Murre) को यक्ष्माशक्ति अगोंटीन १०० ग्रेन, कैम्फर वाटर जन्य फुप्फुसीय रकनिष्ठीयन में कई दिन तक २०० फ्लुइड ग्रे० । मात्रा-३ से १० मिनिम । रक्रस्राव अवरुद्ध रखने के लिए साधारणतः इसका (११) अर्गोटोनीन Ergotinine-यह एक अन्तःक्षेप ही पर्याप्त सिद्ध हुश्रा है। प्रसव के पश्चात् की चिकित्सा एवं रक्रति के कतिपय 'एक ऐल्कलाइड ( क्षारोद ) है जो अर्गट से प्राप्त अन्य भेदों में इसका सफलतापूर्वक त्वस्थ होता है। इसके सून श्वेत स्फटिक (रवे) अन्तःक्षेप किया जा सकता है। हाते हैं जो वायु एवं प्रकाश के प्रभाव से कृष्ण वर्ण के हो जाया करते हैं। मात्रा से ग्रेनाइसकोसाधारणतःत्वस्थ नोट-अधुना यह अर्गोटॉक्सीन का अन्हाइ- सूचीवेध द्वारा प्रयुक्त करते हैं। अतः अर्गाड्राइड माना जाता है। टोनीन १ ग्रेन, लैक्टिक एसिड २ मिनिम, क्लोरोविलेयता-यह एक भाग ( माप में) फॉर्म १००० मिनिम को मिलाकर इसमें से ५ से ३३भाग ( मापमें ) शुद्धासव (A bsolute १० मिनिम, लेकर स्वस्थ सूचीवेध द्वारा प्रयुक्त करते हैं। Alcohol.)में, तथा५० ° फ़ारनहाइटके उत्तार ! पर विलीन होजाता है । और एकभाग २२० भाग (१२) अर्गेटोनी साइट्रास ( Ergoti. शुद्ध ईथर (A bsolute ther.) में, hie Citras.) और (१३) अर्गटीनी हाइड्रोएक भाग ११ भाग ईथिल ऐसीटेट में. १ भाग क्लोराइड (Ergotinar Hydrochlo२६ भाग एसीटोन में, १ भाग ७७ भाग खौलते ride)-यह दोनों प्रोटीनीन द्वारा निर्मित हुए बेन्जीन में, १ भाग ५२ भाग खौलते हुए धूसर वर्ण के चण हैं जो जलविलेय होते हैं। इंथ्रित : ऐलकोहल में और १ भाग ५६ भाग मात्रा- से ग्रेन । इनमेंसे प्रथम का मीथिल ऐलकोहल में विलीन हो जाता है। अन्तःक्षेप किया जा सकता है। " नोट -- प्रोटीनीन और सम्पूर्ण विलायक (१४) अगोटॉक्सीन (Ergotoxine)'द्रव्यों के भाग द्रव्यमान ( प्रायतन ) के अनुसार - यह एक लघु श्वेत वर्ण का चूर्ण होता है जो नहीं, प्रत्युत माप के अनुसार हैं। शीतल ऐलकोहल तथा सोडियम हाइड्रोक्साइड * गुणधर्म तथा उपयोग--प्रभाव में यह के विलयन में विलीन हो जाता है। प्रोटीन की अपेक्षा अधिकतर शक्तिशाली है। ''धमनिका गल्युत्पादक वात-तन्तु-विकार, विशेषतः । . इससे हाइड्रोक्लोराइड ( उज्जहरिद ), ऑक्ज़शिरोऽर्ति, अर्द्धावभेदक, ( Basedow's • लेट ( काष्ठेत् ) और स्फुरत् लवणों का निर्माण ता है। disease ) और वस्तिकी वातग्रस्तताकी दशा में इसका प्रयोग करते हैं। अर्गट सत्व ( Ex. ___ मात्रा-..से.. ग्रेन । यह कॉन्युटीन, tract of ergot) के अन्तःक्षेप की अपेक्षा एकबोलीन और हाइड्रो-प्रोटीनीन नाम से भी प्रोटीनीनी कार से ग्रेन की मात्रा का प्रख्यात है । स्वगधोऽन्तःक्षेप अधिकतर लाभ प्रदर्शित करता नोट-प्रोटीन यद्यपि ब्रिटिश फार्माकोपियाके है। मॉर्फीन इंजेक्शन ( अहिफेनीन अन्तःक्षेप ) एक्सट्रैक्ट श्रॉफ अर्गट का पर्याय है, तथापि उसके 'की अपेक्षा यह अधिक वेदना नहीं उत्पन्न करते । - अतिरिक्र इसके कई एक व्यापारिक भेद हैं जिनमें (अपितु अंपेक्षाकृत वेदना रहित हैं), और क्षोभ से कतिपय निम्न हैं : For Private and Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगोटा १५२ - (क) प्रोटीनम् बोलियन् ( Ergotinum Bon jean )-यह एक जलीय रनाभधूसर एक्सट्रक्ट है जो ऐल कोहल से शुद्ध किया जाता है। इसका १ भाग ५ या ६ भाग अर्गट के बराबर होता है। मात्रा-21 से ४१ प्रेन । (ख) अगोटीनम् बॉम्बेलोन फ्लुइडम् ( Ergotinum Bombeion Fluidum )-यह एक धूसरामकृष्ण वर्णीय द्रव है जिसको ३० मिनिम की मात्रा में स्वस्थ सूचीवेध द्वारा प्रयुक्र किया करते हैं। (ग) अोटोनम् डेओल फ्लुइडम् (Ergotinum Denzel Fluidum )यह एक स्वच्छ किया हुआ रस क्रिया (खुलासा, रुब्ब ) है जिसको ३ से १० ग्रेन की मात्रा में देते हैं। (घ) अोटीनम् कोलमैन फ्लुइडम् | (Ergotinum Kohlman Fluidum )-यह भी श्यामाभधूसर द्रव है जो जल के साथ संयुक्र हो जाता है । मात्रा-६० से ७५ ग्रेन। (१५) टायरेमोन (Tyramine ), हाइड्रॉक्सीफेनिलीथिलामीन (P-Hydroxy. phenylethylamine )-यह अर्गट फांट में वर्तमान होता है और इसे सन्धानक्रिया विधि (Synthetically) द्वारा भी प्रस्तुत किया गया है । इसका प्रभाव एडीनेलीन (उप वृक्कसार ) के समान होना है। स्वगधोऽन्तःक्षेप द्वारा (१ ग्रेन की मात्रा में ) भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। यह सिस्टोजन (Systogen) और युटेरामीन ( Uteramin ) नाम से भी प्रसिद्ध है। (१६) इन्युटीन ( Ernutin ) यह एक तरल है, जिसमें टायरमीन और प्रोटॉक्सीन दोनों सम्मिलित होते हैं । त्वगधोऽन्तःक्षेप रूप से (१० मिनिम की मात्रा में और प्रान्तरिक रूप से ३० से ६० बूद 'मिनिम' की मात्रा में) इसका उपयोग होता है। भर्गोटा अर्गट की फार्माकालाजी अर्थात् अर्गट के प्रभाव (अान्तरिक प्रभाव ) डॉक्टर डिक्सन ( Daixon ) एवं डॉ० डेल ( Dale) ने अर्गट स्थित मुख्य प्रभाव. कारी सत्वों की ध्यानपूर्वक परीक्षा की जो इस कच्ची औषध (Crude drug ) के प्रभाव पर यथेष्ट प्रकाश डालती है। जैसा कि द्विजिटेलिसके सम्बन्ध में कहा जाता है, इसका यह प्रभाव इसके विभिन्न सत्वों के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम माना जा सकता है। (डिजिटेलिस के समान. अगट से भिन्न किए हए किसी भी सत्व का ऐसा विश्वस्त प्रभाव नहीं होता जैसा कि कच्ची औषधके कांट, टिंक्चर या लिक्विड एक्सट्रक्ट अर्थात् तरल सन्त्र का)। १) प्रोटॉक्सीन (Ergotoxine)वे पदार्थ जो प्रथम स्फेसीलिनिक एसिड (Spha. celinic Acid) और स्फेसीलोटॉक्सीन (Sphacelotoxin) नाम से अभिहित होते थे, उक्र ऐलकलाइड (क्षारोद ) के अशुद्ध रूप थे । डिक्सन महोदय इसका प्रभाव-स्थल प्रान्तस्थ नाडी-गंड की सेलों को मानते हैं। उनके मतानुसार यह रतवाहि. नियों को बलपूर्वक प्राकृचित करता है जिससे शरीरावयव एवं हस्तपाद में गैंग्रीन बन जाते हैं, और कुक्कुट की अरुणशिखा श्यामवर्ण में परिणत होकर पतित हो जाती है एवं यह गर्भान्वित जरायु के तन्तुनी का सबल श्राकुश्चन उत्पन करता है। शय्यागत रूप से अर्थात् रोगी पर यद्यपि इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता, तो भी यही इसका एक ऐसा प्रभावकारी सत्व है जिससे वास्तव में अर्गट को अमोघ कहा जा सकता है। (२) टायरेमीन ( Tyramine.)प्राणिज पदार्थ के पचनकाल में अमिनो-एसिड द्वारा भी यह निर्मित किया जाता है। टायरोसीन For Private and Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भर्नाटा १५३ अर्नाटा की शक्ति घट जाती है। अस्तु यह नाड़ी की गति को भी शिथिल करता है। नाड़ी की गति का उक्र शैथिल्य फुप्फुस वा आमाशय नाड़ी प्रांत के क्षोभ के कारण होता है। क्योंकि अर्गट से पूर्व यदि ऐट्रोपीन (धन्तूरीन ) दी जाए तो फिर ऐसा नहीं होता ।अतः इससे प्रथम रक भार घट जाता है अर्थात् अर्गटसे हदय निर्बल होजाता और नाड़ी शिथिल हो जाती है। (Tyrosine.) से कर्बनद्विोषित (C0,) का बिच्छेद कर भी यह प्रस्तुत किया जा सकता है और उपवृक सत्ववत् प्रभाव करता है। प्रांतस्थ सौषुम्न वात-तन्तुओं के अंतिम माग पर प्रभाव करके यह कोष्टगत दीवारों का प्राकुचन उत्पन्न करता है और गर्भित जरायु की पेशियों का भी संकोच उत्पन्न करना है। (३) अर्गेमीन (Ergamine.)उसी प्रकार पचनकारक कीटाणुओं की क्रिया द्वारा यह हिस्टिडीन (Histidine.) से भी भिन्न किया जा सकता है। यह धमनिकाओं का महत् विस्तार उत्पन्न करता है और इससे गर्भावस्था से पूर्व भी गर्भाशयिक मांसतन्तुओं का सशक्र बल्य पाकुचन उपस्थित होता है। जलविलेय न होने के कारण चूँ कि अोटॉक्सीन फांट वा तरल सत्व में विद्यमान नहीं रहता, अतएव इन औषधों की पूर्ण मात्रा द्वारा उत्पन्न प्रभाव, टायरेमीन के धमनिका-संकोचन ( Vaso. constrictor) प्रभाव के कारण होना अबश्यम्भावी है,जो कि प्रर्गेमीन की धमनिका प्रसारण ( Vaso-dilator) शक्ति की अपेक्षा अत्य रक्त वाहिनो - ( रक्क भार ) अधिकतर धामनिक मांसतंतुओं पर अर्गट का सरल प्रभाव होने से और किसी भांति इससे सौषुम्न धामनिक गत्युत्पादक केन्द्रों (Vaso-motor centre) को गति प्राप्त होने के कारण सम्पूर्ण शरीर की धमनियों के सबल रूप से प्रांकुचित होने से रक्रभार जो प्रारम्भ में कम होगया है। अब वह शीघ्र बढ़ जाती है। यही नहीं प्रत्युत शिराऐं भी किसी प्रकार संकुचित हो जाती हैं । सारांश यह कि अर्गट से सम्पूर्ण शरीर की रक्त वाहिनियों विशेषतः छोटी २ धमनियों के संकुचित होजाने और स्फेसीलिनिक एसिड के प्रभाव से उनकी दीवारों के स्थूल हो जाने के कारण यह एक सार्वागिक रकस्थापक (General Hemostatic) है । अस्तु यदि अर्गट को अधिक काल तक सेवन किया जाए तो शारीरिक धमनियों के संकुचित होजाने के कारण शरीरके विभिन्न भागमें गैंग्रीन ( Gangrene ) हो सकता है, जिससे गैंग्रीनस अगोटिज़्म (Gangrenous. ergotism ) होजाया करता है । इसको अत्यधिक मात्रा वा विषैली मात्रा में प्रयुक्त करने से वैसोमोटर सेण्टर्ज ( धामनिक गत्युत्पादक केन्द्र ) वातग्रस्त हो जाते हैं । हृदय के निर्बल होजाने और धमनियों के प्रसारित हो जाने के कारण रकभार बहुत घट जाता है। मुख-प्रामाशय तथा प्रांत्र--अर्गट का स्वाद तिक्क है। यह लालाप्रसाववर्द्धक है अर्थात् इससे अधिक लाला ( थूक) उत्पन्न होती है। मध्यम मात्रा में प्रयुक्त करने से यह प्रांतीय स्वाधीन वा अनैच्छिक मांसपेशियोंको गति प्रदान करता है । अस्तु, प्रांत्रस्थ कृमिवत् प्राकुचन तीब्र हो जाता है। कभी कभी तो यह प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि विरेक पाने प्रारम्भ हो जाते हैं। अधिक मात्रा में उपयोग करने से यह प्रामाशय तथा प्रांत्र में क्षोभ उत्पन्न कर देता है। शोणित--इसके प्रभावात्मक अंग तत्काल रक में प्रविष्ट हो जाते हैं, परन्तु रक्क पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। हृदय--अर्गट हार्दिक मांसपेशियों पर अवसादक या नैवल्योत्पादक ( Depressant) प्रभाव करता है अर्थात् इससे हार्दीय मांसपेशियों | श्वासोच्छ वास-अर्गट श्वासोरख वास को कम करता है। प्रस्तु, श्वासोच्छवास सम्बन्धी मांसपेशियों की निर्बलता तथा प्राक्षेप के कारण श्वासावरोध होकर मृत्यु उपस्थित होती है। For Private and Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra far www.kobatirth.org वात या नाड़ोमण्डल मस्तिष्क पर इसका अत्यल्प प्रभाव होता है। औषधीय मात्रा अथवा एक ही बड़ी मात्रा में इसका उपयोग करने से सर्वोकृष्ट वातकेन्द्र प्रभावित नहीं होते । पर यदि चिरकाल तक इसका निरंतर उपयोग किया जाए तो विशेष प्रकार के लक्षण उपस्थित हो जाते हैं, जिनको ग्राक्षेपयुक्त अर्गटजन्य विषाक्रता ( Spasmodic ergotism ) कहते हैं । गर्भाशय-- गर्भवती स्त्रियों तथा बुद्ध जीवों में गर्भावस्था विशेषकर प्रसवकाल में अर्गट के प्रयोग से इतनी गति से प्रांकुचित होता है कि तदाभ्यन्तरस्थित सभी वस्तुएँ वहिर निर्गत हो जाती हैं । अतएव यह एक सबल गर्भशातक . ( शुकारी ) औषध है। इसको बड़ी मात्रा में प्रयुक्त करने से टेटेनिक स्पैज़्म ( वास्तम्भीय श्राक्षेप ) होने लगता है। । यह बात अभी सन्देहपूर्ण है कि आया यह गर्भशातक भी है ? क्योंकि जब तक दरविज़ह आरंभ न हो इससे जरायु संकुचित नहीं होता । गर्भविहीन वा शून्य जरायु पर इसका बहुत साधारण प्रभाव होता है; बल्कि कुछ प्रभाव नहीं होता अर्थात् इससे गर्भाशयिक तन्तु संकुचित नहीं होते । सम्भवतः इसका यह प्रभाव गर्भाशय के धारीविहीन मांस पेशियों पर सरलोरोजक असर होने से और किसी भाँति सोचुम्न गर्भाशयिक वातकेन्द्रों को गति प्रदान करने के कारण हुआ करता है। प्रस्राव ( रसोद्रेक ) -- अर्गट के प्रयोग से लाला, धर्म, दुग्ध तथा मूत्रोत्पत्ति व प्रस्त्राव घट जाता है। जिसका कारण यह होता है कि समग्र शरीर की रकवाहिनियों के संकुचित हो जाने से उक्त द्वों की उत्पन्न करनेवाली ग्रंथियों में रक्त यथेष्ट परिमाण में नही पहुँचता । - गदतन्त्र ( अट के विषाक्त प्रभाव वा लक्षण ) क्रॉनिक श्रगटिग ( अर्गट द्वारा चिरकारी विषाक्रता ) - औषधीय मात्रा में इसका उपयोग B Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करने से तो कदाचित विरलाही तजन्य विषाक्ता दृष्टिगोचर होती है | परन्तु ऐसे निर्धन प्राणी जो दृपिन राई के धान्य ( जिसमें अर्गट श्रोफ राई वर्तमान होती है) भक्षण करते हैं, प्रायः वे क्रॉनिक गोटिज़्म ( पुरातन प्रकार के अर्गट विष ) से आक्रांत पाए जाते हैं । निम्नलिखित इसके दो स्वरूप होते हैं— श्रमदा (१) ग्रीस गोटिज़्मधमनियों के संकुचित हो जाने से चूँकि रक्क समग्र अवयवों में यथेष्ट परिमाण में नहीं पहुँच पाता; तएव पोषण विकार के कारण शरीर के विभिन्न अवयवों में विशेषकर हस्तपाद में गैंग्रीन ( Gangrene ) की दशा उपस्थित हो जाती हैं जिसका पेलैग्रा ( Pellagra ) से निर्णय करने में भ्रम न करना चाहिए | (२) स्पैज़्मोडिक श्रगटिज़्म ( श्रापयुक्त अर्गट विप) इस प्रकार के रोगी को प्रथम कण्ड वा गुदगुदी का बोध होता है अथवा सम्पूर्ण शरीर पर चिउँटियाँ रेंगती हुई प्रतीत होती हैं। | तदनन्तर सनसनाहट और स्थानिक संज्ञाशून्यता का अनुभव होता है । अस्तु साधारणतः पहिले हस्तपाद थाक्षेपग्रस्त एवं अवसन्न हो जाते हैं। पुनः सम्पूर्ण शरीर की यह दशा हो जाती है । सुधा बढ़ जाती हैं । श्रवण व दर्शन में अन्तर या जाता है। मांसपेशियों की निर्बलता के कारण गति अस्थिर हो जाती अर्थात् चाल लड़खड़ाने लगती है । नाड़ी की गति अत्यन्त मंद हो जाती है, वमन व विरेक आरम्भ हो जाते हैं । अन्ततः सार्वांगाक्षेप होकर ऐम्फिक्रिया ( श्वासावरोध ) की दशा में मृत्यु उपस्थित होती हैं । ईरिस प्योर टिंक्चर श्रोपियाई सिपाई एक्की डिस्टिलेट अगद अट द्वारा विपाक होने पर निम्न मिश्रण का व्यवहार करें For Private and Personal Use Only ३० मिनिम १० मिनिम ५ ड्राम ४ ड्राम Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगाटा अर्गेटों इसमेंसे एक चाय के चम्मच भर औषध प्रति 'अाध अाध घंटे के अन्तर से प्रयुक्र करें। - नोट नाइट्रोग्लीसरीन को बड़ी मात्रा में देने से जो विपाकता उत्पन्न होती है उसका तथा । अधिक परिमाण में क्वीनीन के प्रयुक्र करने से हुई मास्तिष्कीय विकार का अर्गट एक उत्तम अगद है। अर्गट के थेराप्युटिक्स अर्थात् उपयोग ' (बहिर प्रयोग) कभी कभी गलगण्ड (गाँइटर ) और धामनीयावुद (एन्युरिजम ) के समीप अगोटीन का । त्वकस्थ अन्तः क्षेप करने से लाभ होता है। गुदभ्रंश ( Prolapsus of the lectum) में यदि प्रति दुसरे वा तोसरे दिवस गुदसंकोचनी पेशी वा स्वयं गुदा में ३ ग्रेन अगोटीन का त्वकस्थ अन्तःक्षेप किया जाए तो कहते हैं कि उक्त व्याधि की निवृत्ति होती है। श्रान्तर प्रयोग .... सार्वांगिक रक्तस्थापक रूप से अर्गट अब तक | ' विख्यात है और सम्प्रति इसको प्राभ्यन्तरिक शोणित क्षरण यथा नासोशं द्वारा रक्तस्राव होने अर्थात् नकसीर ( Epistasis ), रक्तनिष्ठीवन (Hemoptysis ), रवमन ( lomatemesis ) और रक्कमूत्रता ( IFematurin) प्रभृति रोगों में वर्तते हैं। व्याधियोंकी ऐसी उग्रावस्था एवं भयानक रोगियों में प्रति १५ वा ३० मिनट के अन्तर से अगट का त्वस्थ वा गम्भीर अन्तःक्षेप करना उपयोगी है । अान्तरिक अवयवों की रक्क ति में रकस्थापक रूप से अगट का उपयोग बुद्ध यात्मक नहीं, प्रत्युत प्रानुभविक है । इस बात का ध्यान में श्राना अत्यन्त दुश्तर है कि जो औषध धमनियों .... को संकुचित कर रकभार को वृद्धि करती हो वह किस माति रक्तस्थापक ( हीमोस्टं टिक ) हो ... सकती है? .. परन्तु गर्भाशय जन्य रनम्र ति पर जो इसका रक्रस्थापक प्रभाव होता है, वह अधिकतया जरा, यस्थ मांस पेशियों के संकोच के कारण होता है।। अतएव प्रसवानन्तर होने वाले रकस्राव में अर्गट एक अत्यन्त चमत्कारिक औषध है । उन बहुप्रसूता नारियों को जिनमें प्रसव के पश्चात् प्रायः रक्तस्राव हुश्रा करता है, प्रसव के बाद तत्क्षण अगट का उपयोग लाभदायक होता है । और यदि इसके प्रयोग में कोई बात रोधक न हो तो प्रसवसे पूर्व भी इसे दे सकते हैं । कतिपय प्रधान रोगियों को अमोनिएटेड टिंक चर ऑफ़ अगट या लिक्विड ऐक्सस्ट्रक्ट श्राफ अगट १ से २ ड्राम की मात्रा में दिन में ३-४ बार देते हैं या हाइपोडर्मिक इजेक्शन ऑफ अगट को १०मिनिमि की मात्रामें २-३ बार प्रयुक्त करते हैं । रकप्रदर एवं कई प्रकार के गर्भाशयिक अर्बुदों की रक्तस्त्र ति में भी उन ओषधि के प्रयोग से उत्तम परिणाम प्राप्त हुए हैं। ऐसी दशा में गर्भाशयिक द्वार में अगोटीन की पिचकारी करनी चाहिए। अर्गट चूँ कि रक्तवाहिनियों को संकुचित करता है; अस्तु कभी कभी इसको पप्युरा ( रक्त विकार जन्य विस्फोटक ), प्रवाहिका, प्लीहवृद्धि, सौषुग्न काठिन्य ( स्पाइनल स्क्लोरोसिस ) एवं सौषुम्नस्थ रक्कसंचय ( Spinal congestion ), धर्माधिक्य और मधुमेह (डायाबेटीज़ इन्सिपिडस ) प्रभूति रोगों में भी बनते हैं । अतः यक्ष्माजन्य रात्रिस्वेदके रोकने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। अगट को अधिकतर शिशु प्रसवानन्तर प्रयोग में लाते हैं। क्योंकि प्रसव के पश्चात् इसको देने से गर्भाशय भलीभाँति संकुचित हो जाता है, एवं अमरापातन में सहायता मिलती है और जरायु द्वारा रकस्राव नहीं होने पाता । परन्तु प्रसव से पूर्व इसका उपयोग अत्यन्त चतुरतापूर्वक करना चाहिए । अन्यथा जरायु संकोच के कारण गर्भ के नष्ट हो जाने की आशंका होती है या. गर्भाशय के विदीण हो जाने का भय होता है। क्योंकि इसके प्रयाग द्वारा जरायु न केवल क्रमशः बल . पूर्वक आकचित होने लगता है, बल्कि वह माधिक काल तक संकुचित रहता है. और यही For Private and Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगोटा अगोटा लाइक्वार आर्सेनिकैलिस ३ मिनिम क्वीनीन सल्फ २ ग्रेन एसिडम सल्फ्युरिकम डिल मिनिम एक्वा एनिसाई १ प्राउंस ___ यह एक मात्रा है। आवश्यकतानुसार ऐसी ही एक एक मात्रा औषध दिन में दो-तीन बार ... भ्रूण के पक्ष में भयावह होता है। अपरञ्च यदि भ्रूण जरायु द्वारा विसर्जित न हो तो जराय के बलपूर्वक प्राकुञ्चित होने पर स्वयं गर्भाशय के विदीर्ण हो जाने की आशंका होती है। अस्तु । यदि वस्तिगह्वर में कोई विकार न हो और भ्रूण उदर के भीतर पाड़ा या किसी विकृत रूप में न हो एवं कोई अन्य कारण प्रसव के लिए रोधक वा अहितकर न हों तथा गर्भाशयिक द्वार भली प्रकार खुल गया हो और गर्भाशय की शिथिलता के कारण प्रसव में विलम्ब हो रहा हो तो अर्गट को प्रसव की दूसरी वा तीसरी श्रेणी में भी बर्तना उपयोगी है। रोग-निर्माण विषयक आदेश(१) अगट एक अनाशुकारी विष है । अस्तु कचित काल इसके एक प्राउंस लिक्विड एक्सट्रैक्ट को एक ही मात्रा में देने से विषाक्त लक्षण नहीं उपस्थित हुए। (२) इसके सथः निर्मित फांट और इसके अमोनित यौगिक उदाहरणतः अमोनिएटेड टिंक्चर ऑफ अगट अपेक्षाकृत अधिक विश्वस्त योग हैं। (३) नोरोफॉर्म वॉटर और टिंकचर श्रॉफ ओरेन के योजित करने से अगट के कुस्वाद का निवारण हो जाता है। (४) लिक्विड एक्सट्रैक्ट ऑफ़ अगट को परनोराइड ऑफ बायर्न के साथ मिश्रित करने से जब मिश्रण श्यामवर्ण का हो जाता है, तब उसमें किञ्चित् निम्बुकाम्ल ( Citric acid ) के मिलाने से उसका शुभ्र वर्ण होजाता है। (५) अगोटीन को वटिका रूप में वा कैपशूल में डालकर दें। इसके स्वस्थ अन्तःक्षेप करने के लिए नितम्ब स्थल को गम्भीर पेशी श्रेष्ठतर है। उदर की दीवार में इसका स्वगीय अन्तःक्षेप नहीं करना चाहिए । स्वस्थ अन्तःक्षेप . के परचात् उक्त स्थल प्रायः शोययुक्त हो : जाता और वहाँ पर फोड़ा बन जाया करता है। परीक्षित प्रयोग (.) एक्सट्रक्टम अगोटी लिक्विडम ड्राम ' लाइक्वार स्ट्रिक्नीनी २मिनिम प्रयोग-प्रसव के पश्चात् ज्वर होने की दशा में अथवा ज्वर के न रहने पर भी इसका उपयोग लाभदायक है। (२) एक्सट्रैक्टम अगोटी लिक्किडम् ३० मिनिम लाइक्कार स्टिक्नीनी ३ मिनिम एक्कापाइमेण्टी ( या मेन्थी) पाउंस पर्यन्त ऐसी एक एक मात्रा औषध प्रति तीन-तीन घंटे पश्चात् दें। प्रयोग-रुकी हुई आँवल के निकालने अर्थात् अमरापातन हेतु गुणप्रद है। (६) एक्सट्रैक्टम अगोटी लिक्विडम ४० मिनिम एसिड गौलिक १. ग्रेन एक्वासिनेमोमाई १ श्राउंस पर्यन्त ऐसी एक मात्रा औषध तत्क्षण पिलादें। श्रावश्यकता होने पर कुछ घंटे पश्चात् एक मात्रा और दें। __ प्रयोग-जरायु द्वारा रक्तस्राव होने (Uterine haemorrhage) में लाभप्रद ( ४ ) एक्सट्रैक्टम अगौटी ग्रेन एक्सट्रैक्टम गॉसीपियाईग्रेन फेराई सल्फास एक्सीकेटा १ ग्रेन एक्सट्रैक्टम एलोज सोकोट्राइनी १ ग्रेन सब की एक वटिका प्रस्तुत करें और ऐसी एक एक वटी दिन में दो बार दे। प्रयोग-- रजाप्रवत्तक है। (२) एक्सट्रैक्टम अगोंटी लिक्विडम ३० मिनिम पोटासियाई प्रायोडाइडाई ३ ग्रेन अमोनियाई कार्ब २ ग्रेन एका मेन्थी पेप०१ पाउंस पर्यंत For Private and Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रोटॉक्सिन अर्चाकामी ऐसी एक एक मात्रा औषध दिन में दो बार water in honour of a deity दें। प्रयोग-यूटराइन फाइब्रॉइड (गर्भाशय ( The sum, moon, etc. ) while तन्त्वयुद) में उपयोगी है। performing worship, पूजाकी एक (६) एक्सट्रैक्टम अगोंटी लिक्विडम १५ मिनिम विधि । जलदान, सामने जल गिराना । तर्पण टिंकचूरा बेलाडोनी ५ मिनिम करना । (२) मूल्य ।( price, value. ) सिरूपस प्रान्शियाई ड्राम अर्घटम् arghatam-सं० क्ली. भस्म । (Ox. इन्फ्युजम कस्केरी प्राउंस पर्यंत ___ide.) हारा० । see-Bhasmall. I ऐसी एक एक मात्रा औषध दिन में तीन बार अर्घा algha-हि०पू०, स्त्री०(१)अर्घ्य देनेका शंख दें। प्रयोग-ग्रह स्तन्यहासकारक (Anti की प्राकृति का एक ताम्र पात्र । जलहरी, तर्पण galactagogue.) है। का पात्र (A vessel shaped like अगोटाक्सिन ergotoxin-इं० अर्गट का एक a boat.)। (२)जिस वनमें जरत्कारु मुनि तप प्रभावकारी सत्व । देखो-अर्गोटा। करते थे, वहाँ का मधु। अौटिम ergotism-इं० अर्गट द्वारा विषाक्रता। देखो-अर्गोटा। अय॑म् arghyam-सं० क्लो० अj arghya-हिं. संज्ञा पु. अगं टीन ergotin-ई० अर्गट सस्व । यह अगोटा प्रार्घ्य मधु, मधु । A sort of क्सिन का अन्हाइदाइड है। देखो - अग टा। honey (Mel.)। वि० (१) पूजनीय अर्गेटीनीन ergotinin-ई० अर्गट से निर्मित (२) बहुमूल्य । किया हुआ एक अल्कलॉइड (क्षारीय सत्व ) विशेष । देखो-अगोटा। श्रय arghya ta-देखो-मधु।। प्रोटीनम् कोलमैन फ्ल्युइडम्-eigotinum अाटः,-लः arghyatah,-lah-सं० पु. शुक्रला, उच्चटा । प्रोकड़ा, चंचको-बं० । पर्याय kohlman fluidum-ले. अगों टीन भेद । - शुक्रला, चालुपत्रः, अर्ध्यतः, अाटलः । देखो-अर्गोटा। द्रव्याभि०। अर्गटोनम डेम्ज़ोल फ्ल्युइडम ergotinum प्रातः arghyātah-सं० पुं० अर्ध्याट, denzel fluidum-ले. अगोटीन भेद । उच्चटा, प्रोकड़ा । (A brus precatorius) देखो-अगोटा। द्रव्याभि०। भर्गोटीनम् बाम्बेलोन फ्ल्युइडम् ergotinum bombelon fluidum-ले. अगोटीन | अहिः arghyarhab-सं० पु० मुचकुन्द भेद । देखो-अर्गोटा। I( Pterospermum suberifoli _um.) रा०नि० व० १० । देखो-मुच (चु) अर्गेटीनम् बाजियन ergotinum bon jean -ले. अगों टीन भेद । देखो-अर्गोटा। कुन्दः । अर्गोटेनिक एसिड ergotannic acid-ले० अर्चा कामी archa-kāmi-सं०,हिं० स्त्री० वलि एक ग्ल्युकोसाइड विशेष । देखो-अर्गटा। कामी-सं०। अगेनीन argonin-ई. यह चाँदी का एक लक्षण-जब ग्रह अपनी पूजा कराने के निमित्त यौगिक है । देखो-रजत । आक्रमण करते हैं तब बालक दीन होकर अपने अर्गोल arghol-कातर मोती ( कपूर का एक हाथों से मुख को मलता है; उसके प्रोष्ठ, तालु __ भेद है जो गदला नीला सा होता है)। और कंठ सूख जाते हैं । शंकित चित्त होकर वह अर्घ argha-हिं. पु. (1) Mode of चारों और देखने लगता है, रोता है, ध्यान में बैठ worship, act of pouring out जाता है, दीनता प्राप्त कर लेता है, भोजन की For Private and Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचिः ६५ अर्जकादिवटिका - इच्छा होने पर भी नहीं खाता, ऐसा रोगी सुख अर्ज arja ) -अ० झुकना, सुगन्ध फैलना । साध्य होता है। अरीज arija s पफ्यूम ( Perfume.) चिकित्सा–हिंसात्मक ग्रहों को वेदोक्र मन्त्रों अ. aza-० (१) पृथ्वी, भू, एक तत्व विशेष । द्वारा । वं होमादिसे जय करें । अर्चाकामी ग्रहोंको (Earth) देखो-तत्व । (२) चौड़ाई । यथाभिलाषित वलिप्रदानादि से जय करने का अायत । अर्ज-हि०। उपाय करें। वा० उ० अ० ३। अर्जह arzah-अ० दीमक । (White ant.) अर्चि: archih-सं० स्त्री०, क्ली० अर्जकः arjakah-सं० पु. । (१) प्रचि archi-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० अजक arak-ह० पु. शुद्रतुलसी(१) अग्निशिखा, लांगलिक, करिहारी । भेद, वावरी-हि० । यात्रुइतुलसी-बं० । अज्वला (Gloriosa superba.)। (२)अग्निज्वाला, गर्गेर-कं० । तेल्लगगगेरचेट्ट-ते० । (Oci. गज पिप्पली ( Pothos officinalis)। mum Basilicum.) । पर्याय-श्वेत(३) चमक, आँच, ज्योति, दीप्ति, तेज च्छदः, गन्धपत्रः, पाता, कुरेरकः । “वर्वरिकाकारो (Light, splendour.) । (४) अग्नि लघुमञ्जरीकः सूक्ष्मपत्रः निर्गन्धः श्वेत कुठेरकः' : श्रादि की शिखा । (५) किरण । ( बाबुई )।" सु० सू० ३८ अ० सुर सादि अर्चिमान aurchimāna-हिं० वि० [सं०] | ड०। श्वेत वर्वरी। शादा बाबुई-बं० । भा० पू०१ भा०। श्वेत पर्णासः, श्वेत तुलसी, तोकअर्चिष्मान् archishmān-हिं० संज्ञा पु.। मारी । सि० यां. विसूची-चि. वमन शान्ति | .. [सं०] [ स्त्री० अर्चिप्मती ] (1) अग्नि अर्जक अर्थात् वावरी श्वेत, कृष्ण तथा रक्क भेद ( Fire ) (२) सूर्य ( The sun. ) से तीन प्रकार की और तीनों गुण में -वि० [सं०] दीप्त । प्रकाशमान । चमकता समान होती हैं। (Lighted. ) गुण-कटु, उष्ण, वात कफ रोगनाशक, नेत्र अर्ची archi-ता० काञ्चनार, कचनाल (र)। रोगहर, रुचिकारक तथा सुखप्रसवकारक है । ( Bauhinia racemosa, him. ) रा०नि० व १० । देखो-वर्वरो ( बनतुलसी, मेमो०। विश्वतुलसी) । ( २ ) श्वेतपलाश वृक्ष । अर्ज aarzan-अ०(१) पी, लु (Salvadora Butea frondosa (The white persica.)। (२) दर्शनशास्त्र (हिक्मत) var.) की परिभाषा में उस वस्तु को कहते हैं जो दूसरे अर्जकर्जः arjakarja.h-सं० पु. असन वृक्ष, के आधार से स्थित हो अर्थात् जिसका अस्तित्व प्रासन (-ना), पियाशाल ।( Terminalia दुसरे के आधार पर हो । रदाहरणतः ___tomentosa.) देखो- श्रासन । रंगीन कपड़े में जो रस्ता, श्यामता या श्वेतता अर्जकादिवटिकाarjakādi-vatika-सं० स्त्रा० प्रभति वर्ण पाए जाते हैं वे "अज़” हैं और सफेद तुलसी मूल, शंखाहुली मूल, निर्गुण्डी, स्वयं कपड़ा उनका मूलाधार है। और पदार्थत्व भांगरे की जड़, जायफल, लवंग, विडंग, अर्थात मृदु, लघु, सूक्ष्म प्रभृति गुण पदार्थ के गजपीपल, चातुर्जात, वंशलोचन, अनन्तमूल, अस्तित्व को प्रगट करते हैं अर्थात् वे पदार्थानित मूसली, शतावरी, विदारीकन्द, गोखरू सब को हैं तथा "अज" या गुण कहलाते हैं। क्रिया. कीकर की छाल के रस में खरल करके १-१ मा० स्मक लक्षण, धर्म, स्वाभाविक गुण, लक्षण की गोलियाँ बनाएँ । अनुपान-सुरामण्ड । यह प्रभति इसके पर्यायवाची शब्द हैं। क्वालिटी गोलियाँ स्तम्भक और वृष्य हैं । भै० र० . (Quality ) ई० । वी० स्तं०। For Private and Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रर्जना * www.kobatirth.org arjati मूस्यामलकी, सदाहज्र मनी । ( Phyllanthus niruri ) इं० हैं० गा० । अर्जन arjan - इब्रा मकड़ी । ( Spider.) अर्जुन 217811-फा०] कंगुनी या चीना। (Millet.) अर्ज़रा a1ará बरब० श्रास | • अर्ज़लब्नान arza-labnán अ० देवदार, चीड़ ! ( Pinus Cedrus. ) म० अ० डा० । श्रर्जया arjava रू० चाँदी, रजत | Silver (Argentum.) देखो - रजत । अर्जवाँ arjavan - अ० श्रवा । अर्जा aarja - अ० चर्च । See charkha अर्जान arjan चरब० बरबरी बादाम का वृक्ष | अजनी arzani - अ० मुहम्मद अकबर अर्जां शाह नाम था । आप फ़रुखशेर के समकालीन तथा उच्चकोटि के हकीम थे । मीज़ानुत्तिव, तिब्व अकबर, मुफ़र्रहुलकुलूब प्रभृति आपके लिखे हुए प्रसिद्ध ग्रंथों में से हैं । जब arjab अम्श्राच् amāà - अ० श्रान्त्र । नोटयह शब्द एकवचन "मैं नहीं श्राता । ( Intestines. ) अर्जालून arjáluu-बरब० फ़ाशरा, शिवलिंगी । *( Bryonia. ) arziz - फा० वङ्ग, राँगा | Pin azir ( Stannum. ) स० फा० ई० । अर्जीकुनह arjiganah-यू० इङ्गीलुल्मलिक ( नाखूना) । ( Melilotus officinalis.) अर्जीनिया uginea-ले० श्ररण्य पलाण्डु, काँदा, जंगली प्याज़ | अन्सल, इस्कील - अ० । ( Indian squill ) देखा-वन पलाण्डु | "अर्जीनिया इरिडका urginea Indica kanth. अर्जीनिया सिल्ला arginea scilla, ६५६ Steinheil. - ले० काँदा, जंगली प्याज़, श्ररण्यपलाण्डु | ( Scilla indica. ) देखो - चन पलाण्डु | अजुन arjunah - सं० ि arjuna-fe fro Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रर्जुन - स० हिं० पु० (१) श्वेत वर्ण, सफ़ेद | उज्ज्वल ( White colour ) । ( २ ) शुभ्र । स्वच्छ । ( ३ ) सफेद कनैल | ( १ ) नेत्र शुक्रगत रोग विशेष । आँख का एक रोग जिसमें आँख के सफेद भाग में लाल छींटे पड़ जाते हैं । लक्षण -- नेत्रों के सफेद भाग में खरगोश के रुधर के समान जो एकही विन्दु उत्पन्न हो उसको "अर्जुन" कहते हैं । मा० नि० । ( २ ) मयूर, मोर पक्षी ( 'The poacock.) । मे० तन्त्रिकं । (३) एक वृक्ष विशेष । पर्याय- नदीसर्ज:, वीरतरुः, इन्द्रदुः, ककुभः (थ), इन्द्रद्रुमः (शब्द० ), शम्बरः, पार्थः, चित्रयोधी, धनञ्जयः, वैरातङ्कः, किरीटी, गाण्डीवी, कर्णारिः, करवीरकः, कौन्तेयः, इन्द्रसूनुः, गंडीरी, शिवमल्लकः, सव्यसाची, वीरदुः, कृष्णसारथिः, पृथाज:, धन्वी, वीर वृक्षः सं० । कहू, फाल्गुनः, कहुआ, काह (हू ), कोह, कौह, अजुन का पेड़, अञ्जन- हिं० । श्रज्जुनः, श्रज्जुन, गाछ - बं० | टर्मिनेलिया अर्जुना ( Terminalia arjuna, Bedd., टर्मिनेलिया ग्लैब्रा Terminalia glabra, V. &. A., टेरा अजुन Pentaptera arjuna, Roxb., पेण्टाप्टेरा ग्लैब्रा Pentaptera glabra., पेण्टोप्टेरा अंगस्टिफोलिया Pentaptera angnstifolia., बोहीनीया टोमेटोसा Bauhenia tomentosa -ले० 1 जुना Arjuna दी अजुना माइरोबेलन The Arjuna myrobalan इंo | वेल्लइ - मरुद-मरम्, वेल्लमरद, वेल्ल मट्टी- ता० । तेल- महि-चे, महि (ट्टि ) चेह, येस्मद्दि - ते०, तै० । वेल्ल-मरुत, पुल्ल-मरुत-मल० । होले-महि, बिलि-महि, तोर-बिलि-महि, तोर-महि, बिलि महि-कना० । सारढोल, श्रश्मर-क० । श्रर्जुन साड़ (द) ड़ा, श्रापटा, सारढोल, अर्जुन वृक्ष, शार्दूल, पिञ्जल, सन्मदद - मह० | सादडो, अर्जुन, साजदान, आसोदरो गु० | तांरेमती - का० | हञ्जल-उड़ि० (श्वेतवर्ण वृत्त, सारढोल For Private and Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भर्द्धन १९. अर्जुन होता है । जलीय रसक्रियामें २३ प्रतिशत खटिकके लवण और १६ प्रतिशत कषायीन (Tannin) यह दो द्रव्य वर्तमान होते हैं। ऐलकोहल द्वारा रसक्रिया प्रस्तुत करने पर कषायीन के सिवाय अत्यल्प मात्रा में रक्षक प्रदार्थ प्राप्त हुआ। -को० । महिबिल्लि-मट्टि, मदि-मैसू० । नौक्क्यान-बर० । अर्जुन-बम्ब० । कुम्बुक -सिंहल.। हिमज वा हरीतकी वर्ग (.1.0. Combreticex.) उत्पत्ति-स्थान यह वृक्ष दक्खिन से अवध तक नदियों के किनारे होता है। यह बरमा और लङ्का में भी होता है। उत्तरी, पश्चिमी प्रांत, हिमवती पर्वत मूल, संयुक्त प्रांत, बंगप्रदेश तथा मध्य भारत, दक्षिण विहार और छोटा नागपुर । वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृक्ष अत्यन्त विशाल ३०-३२ हाथ अर्थात् ६० से ५० फीट उच्च तथा पतनशील (पत्र) होते हैं। इसका काण्ड अत्यन्त स्थूल होता है। बंगदेश में वीरभूम्यञ्चल में यह प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता है । यह एक प्रारण्य वृक्ष है। पत्र नरजिह्वाकार, पत्रपृष्ट में वृन्त के सन्निकट दो अर्बुदाकार ग्रंथियाँ इस प्रकार लगी होती हैं जिनको पत्र के ऊपर की ओर से देखने से वे दिखाई देती हैं, ऐसा बोध नहीं होता। बैशाख तथा ज्येष्ठ में इसमें पुष्प लगते हैं। पुष्प पात्यन्त सूक्ष्म, हरिदाभ श्वेतवण के और पुष्प दण्ड के चतुर्दिक स्थित होते हैं। केशर केशवत् सूक्ष्म एवं उच्च होते हैं । फल अगहन और पौष में परिपक्व होते हैं। फल देखने में कर्मरंग के समान लम्बाई की रुख उच्च तीरणिकाओं एवं तन्मध्य गंभीर परिखानो से युक्त फाँकदार होते, किंतु तदपेक्षा खाकार एवं तादृश मांसल नहीं होते हैं। नवीन त्वक् अामलक वल्कवत् बाहर से राम धूसर तथा भीतर से अरुणवर्ण का होता है। स्वाद ग्राह्य कषाय होता है। रासायनिक-संगठन-ग्रन्थ संकेतों से यह प्रगट होता है कि बहुशः पूर्व अन्वेषकों को उन श्रोषधि यथेट अभिरुचि प्रदान करचुकी है। हूपर ( १८६१) के अनुसार इसकी छाल में ३४ प्रतिशत भस्म प्रात होती है जिसमें लगभग सम्पूर्ण शुद्ध खटिक कार्बनित अर्थात् चूर्णोपल या खड़िया मिट्टी ( Calcium carbonate) घशाल (१९०६ ) ने इसकी छाल का विस्तृत रासायनिक एवं प्रभाव विषयक अध्ययन किया। उनके अनुसार इसमें निम्न लिखित द्रव्य पाए गए (१) शर्करा, (२ ) कषायीन, (३) रक्षक पदार्थ,(४)ग्लूकोसाइड के समान एक पदार्थ और (५) कैल्सियम तथा सोडियम के कार्योनेट्स और किश्चित् क्षारीय धातुओं के हरिद (Chlorides)। उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि सम्पूर्ण कपायीन १२ प्रतिशत और भस्म ३० प्रतिशत हुई। परन्तु, पार० एन० चोपग महोदय एवं उनके सहयोगियों ने उत्तम शुद्ध वल्कल को एकत्रित कर, इसके उस प्रभावारमक सत्व की प्राप्ति हेतु, जिसको उक्र श्रोषधि के हृदयोत्तेजक प्रभाव का मूल बतलाया जाता है, इसका अत्यन्त चतुरतापूर्वक विश्लेषण किए। कहा जाता है कि इसमें ग्लूकोसाइड्स वर्तमान होते हैं। प्रस्तु, उनकी विद्यमानता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अत्यन्त ध्यानपूर्ण शोध की गई । परन्तु इसके बल्कल में न ऐल्कलाइड ( शारोद) और न तो ग्लूकोसाइड ही प्राप्त हुए और न सुगंधित धा अस्थिर तैल के स्वभाव का ही कोई द्रव्य पाया गया। आपके अनुसार वल्कल में निम्न पदार्थ वर्तमान पाए गए (१) अल्प मात्रा में एल्युमिनियम (फटिकम) तथा मग्नेशियम (मग्नम) लवणों के सहित असाधारणतः बहुल परिमाण में स्खटिक (Calcium ) के लवण । (२) लगभग १२ प्रतिशत कषायीन जिसमें प्रधानतः पाइरोकैटेकोल टैनिन्स ( Pyroca. techol tannins ) वर्तमान होता है। For Private and Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्जुन (३) उच्च द्रवणायुक्त एक सैन्द्रियकाम्ल और फाइटॉस्टेरोल ( Phytosterol )। ( ४ ) एक सैन्द्रियक एस्टर ( Ester ) जो धात्वम्ली द्वारा सहज में ही हाइड्रोलाइज्ड (Hydrolysed ) हो जाता है । ३३१ ( ५ ) कतिपय रञ्जक द्रव्य, शर्करा प्रभुति । उपर्युक्त विश्लेषण द्वारा यह बात स्पष्ट होगई कि इसमें कोई ऐसा प्रभावात्मक सत्व, जो इसके हृदय बलकारक प्रभावका कारण सिद्ध हो, जिसमें एतद्देशीय जनता की महान श्रद्धा है, नहीं पाया जाता ! पृथक्करण काल में पेट्रोलियम, ईथर, मद्यसारीय और जलीय सारों से प्राप्त विभिन्न अंशों की ध्यानपूर्वक परीक्षा की गई; परन्तु खटिक यौगिकों के सिवा कोई अन्य द्रव्य जो हृदय वा किसी अन्य धातु पर प्रभाव उत्पन्न करें, नहीं पाए गए। रञ्जक पदार्थ को वियोजित कर | उसकी परीक्षा की गई, पर परिणाम पूर्ववत् रहा । अभी हाल में केइयस ( Caius ), म्हैसकर ( Mhaskar ) तथा श्राइजक ( Isaac ) ( १६३०) ने टर्मिनेलिया अर्थात् हरीतकी जाति के सामान्य भारतीय भेदों के द्रव्यगठन का विस्तृत अध्ययन किया, परंतु क्षारोद ( alkaloid ) वा मध्वोज ( Glucoside ) अथवा सुगन्धित या स्थिर तैल (Essential oil) के स्वभाव के किसी प्रभावात्मक द्रव्य के प्राप्त करने में वे समर्थ रहे । सम्पूर्ण १५ प्रकार की छालों को भस्म कर परीक्षा करने पर उनमें एक श्वेत, मृदु, निर्गंध और निःस्वाद भस्म वर्तमान पाई गई । ( इं० ड० इं० ) प्रयोगांश-स्वक्, पत्र ( तथा अर्जुन सुधा ) । मात्रा - स्वक् चूर्ण-२-६ आना भर | साधारण मात्रा -२ तो० । औषध निर्माण - जुनघृतम्, अजु'नाथ घृतम्, अजुन त्वक् क्वाथ, (१० में १ ) मात्रा - श्राधा से १ अाउंस; और त्वक् चूर्ण । अजुन के गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार अर्जुन कला, उष्ण वीर्य, कफघ्न तथा प्रशोधक है और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजुन पित्त, श्रम तथा तृषानाशक एवं वातरोग प्रकोपक है । धन्वन्तरीय निघण्टु । रा० नि० ६० ६ । ककुभ अर्थात् श्रर्जुन शीतल, करेला, हृदय को प्रिय ( ), क्षत, क्षय, विष और रुधिर विकार को दूर करता है तथा मेद रोग, प्रमेह, अणरोग एवं कफ पित्त को नष्ट करता है । भा० पू० १ भा० वटादि व० । वा० सू० १५ श्र० - न्यग्रोधादि । "जम्बू द्वयाजु नकपीतन सोम वल्क ।" पार्थ (अर्जुन) तत तथा भग्न में पथ्य और तथा मूत्रकृच्छ में हितकर है। ( राजवल्लभ ) । रत्र स्तम्भक अर्जुन के वैद्यकीय व्यवहार चरक - रक्तपित्त में अजुन त्वक् – (१) अर्जुन की छाल को रात्रिभर जल में भिगो रक्खें प्रातः उक्त जल ( हिम ) को या अर्जुन की छाल के रस वा छाल को जल में पीसकर किम्वा जुन की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ के पान करने से रकपित्त प्रशमित होता है । (चि० ४ श्र० ) "धनञ्जयोदुम्बर निशिस्थिता वा स्वरसीकृता वा कल्कीकृता वा मृदिता श्रुता वा । एते समस्ता गणशः पृथग्वा रक्रं सपित्तं शमयन्ति योगाः” । (२) गाच्छादनार्थ श्रज्जुनपत्र - जुन पत्र द्वारा व्रण ( चत) को श्राच्छादित करें । यथा - "कदम्बाजुन XI व्रण प्रच्छादने विद्वान् ।” ( त्रि० १३ अ० ) । सुश्रुत - शुक्रमेह में अजुनत्वक - शुक्रमेही को अर्जुन की छाल वा श्वेत चन्दन का क्वाथ पान कराएँ । यथा शुक्रमेहिनं ककुभ चन्दन कषायं वा । " ( चि० ११ अ० ) । वाग्भट - मूत्राघात में अर्जुन स्व-मूत्ररोध होने पर अर्जुन की छाल का क्वाथ पान कराएँ । यथा "कषायं ककुभस्य वा" ( चि० ११ प्र० ) (२) व्यङ्ग में अजुन त्वम्पंग ( यौवन पिड़का वा मुसा ) रोग के प्रतीकारार्थ अर्जुन स्व को पेषण कर मधु के साथ प्रलेप करें। यथा For Private and Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्जुन ...."व्यङ्गेषु चार्जुन त्वग्वा" ( उ० ३२ १०) । त्वक्-मूत्ररोध जन्य उदावत में अर्जुन की ...(२)अजुन और सिरिसकी छालके क्वाथमें रूई, छाल का काथ पान कराएँ । यथाकी बत्ती भिगोकर योनि में रखने से मूढगर्भ ... "मत्रोव अनित * कषायंककुभस्य च।" के निकलने के पश्चात् को व्यथा दूर होती है। (म० ख० तृ० भा०) चक्रदत्तरतातिलार में अर्जुन त्वक् । हागत-पूयमे : में प्रज्जुन स्वक्-प्यअजन की छाल को बकरी के दूध पीसकर सेमी को व तथा को छाल का काथ पान बकरी का दूध तथा मधु मिला कर पीने से रक्का कराएँ । यथा- पूय मेहे कपायश्च धवाजुतिसार निवृत्त होता है। यथा नस्य ।” (चि० २८ अ०) fx अजुन त्वचः । पोताः कोरेण वङ्गसेन -ग्रहणो में अर्जुन ज्ञार-केशराज मध्वादयाः पृथक् शोणित नाशनाः।" एवं अर्जुन की छाल के अन्तधूम दग्ध क्षारको (अतिसार चि०). प्रातः काल तक ( मस्तु) के साथ पान करें। यह (२) रोग में अर्जुन स्वक्-कुट्टित अर्जुन वेदना बहुल श्रामग्रहणी के लिए हितकर है। छाल २तो०, गव्य दुग्ध श्राध पाव, जल डेढ़ पाव, यथाइनको दुग्धावशेष रहने तक क्वथित करें। यह केशराजोऽज्जुनक्षारं प्रातः पोतश्चमस्तुना । क्वाथ हृद्रोग में सेवनीय है । यथा निहन्ति साममत्यर्थमचिराद् ग्रहणोरुजभू ॥ - "अर्जुनस्य त्वचा सिद्ध क्षोरं याज्यं । (ग्रहगयधिकार) हदामये।" (हृद्रोग चि०) .. .. वक्तव्य ( ३ ) वलसञ्जननार्थ अर्जुन त्वक्- चरक के उदई रामनवर्ग में अज्जुन का अर्जुन की छाल को दुग्ध.. में पीसकर दूध के ... उल्लेख है (सू० ५ ० ) तथा वित्तमेह साथ पीने से बल की वृद्धि होती है, अर्थात् यह ... "निम्बार्जु नाम्रात निशोत पलानां," : "शिरीष परं वल्य व रसायन है । रथा--... सर्जाजन केशराना" व कफमेह "विडङ्ग पाठार्जुन "ककुभस्य च वल्कलम् । धन्वनारच" एवं कफ वाताज मेह "बचापटोला रसायनं परं-वल्यं ।' (हृद्रोग चि०) जुन” विषयक पाओं के अन्तर्गत द्रव्यान्तर से (४) अस्थि मग्न में अर्जुन त्वक- प्रमेह रोगों में अर्जुन का व्यवहार दृष्टिगोचर सन्धियुक्त अस्थि भग्न में दुग्ध तथा घृत के साथ न होता है। चकदत्त की हृद्रोग चिकित्सा के हा अर्जुन स्वक् चूर्ण को पान कराएँ । यथा- अन्तर्गत इसका पाठ है और उन्होंने हृद्रोगहर "... "सतेन * अज्जनम् । सन्धियतोऽस्थि द्रव्यों में इसे श्रेष्ठ माना है। किन्तु चरक भग्ने च पिवेत् क्षीरेण मानवः।" ( भग्न सुशुतोक हृद्रोग चिकित्सामें इसका नामोल्लेख भी चिर) -- नहीं हुआ है। ........ भावप्रकाश-क्षयकास में प्रज्जुन स्वक् चरक-सुश्रुतोक क्षयकास चिकित्सान्तर्गत ..अजुन की छाल को चूर्ण कर अड़सा पत्र स्वरस । अर्जुन का प्रयोग दिखाई नहीं देता। चक्रदत्तोक की सात भावना देकर मिश्री, मध तथा गोघृत के ... ... रक्रातिसारान्तर्गत. अर्जुन का प्रयोग, सुश्रुतोकि साथ चाटें । यह सरक क्षयकास हर है | यथा- की अविकल प्रतिलिपि है । ( सु० उ० ४० 1 : "चूर्ण काकुभमिष्टं वासक रस भावित बहुवारान । मेंधु घृत सितोपलाभिर्लेग क्षय ___उपयुक वर्णन से यह ज्ञात होता है कि कासरतहरम् ।" (म० ख० द्वि भा०) . संस्कृत ग्रन्थकार अर्जुन को अति प्राचीन काल से (३) 'मुत्ररोधज उदावर्त में अर्जुन हृदय बलदायक औषध मानते आए हैं। सर्व वत' श्र.) For Private and Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अर्जुन १६३ प्रथम वाग्भट महोदय ने इस ओर हमारा ध्यान कृष्ट किया। वे लिखते हैं “क्वाथे रौहोत काश्वत्थ खदिरोदुम्बराजु ने * ** * ।" ( चि० श्र० ६ ) www.kobatirth.org इस पाठ में वे कफन हृद्रोगी को द्रव्यांतर सहित अर्जुन के उपयोग का आदेश करते हैं । इनके बाद के पश्चात्कालीन लेखकों में चक्रदत्त ने इसे कपाय एवं वल्य लिखा और हृद्रोग में इसके प्रयोग का उल्लेख किया । इसकी छाल एवं तन्निर्मित औषध अपने प्रत्यक्ष हृदयोत्तोजक प्रभाव के लिए इस देश में श्राजतक विख्यात है । श्रायुर्वेदीय चिकित्सक नैर्बल्य तथा जलोदर की सभी दशाओं में इसका उपयोग करते हैं । कतिपय पाश्चात्य चिकित्सकों की भी इसके हृदांशेजक प्रभाव में श्रास्था है और वे इस का हृद्य ( हृदय बल्य ) रूप से व्यवहार करते हैं। अस्तु इसकी छाल द्वारा निर्मित एक तरल सत्व डाक्टरी औषध विक्रेताओं द्वारा उपलब्ध होता है। परन्तु कोमन Koman ( १६१६-२० ) महोदय ने हृदय - कपाट जन्य व्याधि विषयक २० रोगियों पर इसके त्वग्द्वारा निर्मित क्वाथका उपयोग किया, पर परिणाम लाभ के विपक्ष में रहा I उष्णकटिबन्धीयोपधि परीक्षणालय (School of Tropical Medicine) में जलोदर वा तद्रहित हरौर्बल्य ( Failu re of cardiac compensation) पीड़ित बहुश: रोगियों में इसके त्वक् द्वारा निर्मित ऐलकोहलिक एक्सट्रैक्ट की भली भाँति परीक्षा की गई । किन्तु डिजिटलस वा कैफ़ीन समूह की औषधों के समान किसी रोगी पर इसका प्रगट प्रभाव न हुआ । रक्तभार एवं हृदय स्पन्दन की शक्ति पूर्ववत् ही रही। उक्क रोगियां के मूत्रोद्रेक पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं हुआ। जो प्रभाव इस औषध का बतलाया जाता है वह इसमें अधिक परिमाण में पाए जाने वाले खटिक यौगिकों का हो सकता है जिसका संकेत प्रथम किया जा चुका है 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजुन केइयस ( Caius ), म्हेसकर ( Mhaskar ) तथा श्राइजक ( Isaac ) १६३० टर्मिनेलिया जाति के भारतीय भेदों के बहुशः • भिन्न भिन्न स्वरूपाकार के होने का उल्लेख किया हैं । इसके भिन्न भिन्न १५ भेद हैं । इस प्रकार के टर्मिनेलिया की छालों की रूपाकृति में परस्पर इतनी सादृश्यता है कि इनके भेद निर्णय करने में : भूल हो जाने की बहुत सम्भावना है। भारतवर्षीय औषध विक्रेता ( वणिक् ) क्रियात्मक रूप से इनमें कोई भेद नहीं करते और वे सदा अर्जुन की श्रभेद संज्ञा द्वारा इन सब का विक्रय करते हैं । उक्त विद्वानों ने इनकी शुष्क निर्मल छालों को उष्ण फांट, क्वाथ एवं ऐल्कोहालिक एक्सट्रैक्ट रूप में प्रयोग कर इनके प्रभावका पृथक् पृथक् अध्ययन किया और परिणाम निम्न रहा टर्मिनिलिया ( हरीतकी) की सामान्य भारतीय जातियों की छालों को स्वास्थ्यावस्था में प्रयुक्त करने पर वे या तो ( १ ) मृदु मूत्रल, यथा अर्जुन ( Terminalia Arjuna ), विभीतकी ( 'T'. belerica ), ( T. palli(da ) वा (२) उत्तम सबल हृदोत्तेजक यथा टर्मिलिया बाइलेटा ( T. bialata ), टर्मिनेलिया कोरिएसिया ( 'I'. coriacea ), टर्मिनेलिया पाइरिफोलिया ( T. pyrifolia) वा (३) उभय मूत्रल तथा हृदयोत्तेजक होते हैं, यथा श्ररख्य वाताद ( T. catappa ), हरीतकी ( T. chebula ), हरीतकी भेद ( T. citrina ), टर्मिनेलिया मायरियो कार्पा ( 'T. myriocarpa ), ट० श्रलिवेराई ( 'T. oliveri ), किञ्जल दा किण्डल ( T. paniculata ) और श्रासन ( 'T'. tomentosa ). ( School of Tropical Medicine Calcutta ) द्वारा घोषित परिणामां से भिन्न हैं । परन्तु चूँकि अभीतक कोई प्रभावात्मक दृष्य पृथक नहीं किया गया और केइस ( Cains ) तथा उनके सहकारियों ने क्रियात्मक रूप से विभिन्न प्रकार की छालों की - रासायनिक - संगठन में कोई परिवर्तन न पाया | For Private and Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रर्जुन अस्तु इस बात का समझना अत्यन्त कठिन कि इसकी अलग अलग जातियों के इन्द्रयव्यापा.fer एवं श्रौफ्योगिक प्रभाव पृथक् पृथक् है । अस्तु प्रागुक्र शोधों की पुष्टि हेतु विशेष अध्ययन अपेक्षित है । ३६४. युनानी मन- प्राचीन यूनानी ग्रंथों में अर्जुन का वर्णन नहीं मिलता । हाँ ! वर्तमानकालीन लेखकों ने इसका कुछ सामान्य वर्णन किया है। उनके मतानुसार यह प्रकृति- - उध्या व रूक्ष २ कक्षा में, किसी किसी के मत से ३ कक्षा में रंग- श्वेताभधूसर । स्वाद- बिका | हानिकर्त्ता - उष्ण प्रकृति को तथा श्राध्मानजनक है | दर्पन - मधु, घृत व तैल। प्रतिनिधि - पलाश स्वक् । प्रधान कार्य-काम शक्रवद्धक तथा शुक्रमेहघ्न । मात्रा - ३ मा० से ४ मा० । गुण, कर्म, प्रयोग — कफविकारनाशक, है और पित्तदोष में लाभप्रद है । तृत में इसका पान व प्रलेप हितकर हैं। इसकी छाल कामोहीपक है एवं शुक्रमेहघ्न है । ( लगभगविषैल ) म० मु० । इसके अतिरिक्त इसकी छाल शुक्रतारल्य एवं मज्ञी व वदी के पतलेपन तथा कामशक्ति के लिए हितकर है। यह मूत्रप्रस्त्रावाधिक्यको नष्ट करता है । कामशक्ति के बढ़ाने के लिए कतिपय वत्य श्रौषध में योजित कर इसका हलुवा लाभदायक होता है | भारतीय इसका अधिकता के साथ उपयोग करते और इसको परीक्षित बतलाते हैं; परन्तु यह उतना सत्य नहीं । बु० मु० । नव्यमत जुन स्वक् कषाय तथा वल्य है । यह हृद्रोगी के लिए उपयोगी है। तृत, प्रण तथा पिष्ट अंग के प्रचालन हेतु इसकी छाल के क्वाथ का स्थानिक उपयोग होता है । अस्थिभग्न किम्वा नेत्र शुक गत रकफूली अर्थात् अर्जुन ( Ecchymosis) में अर्जुन श्वक् को पीस कर प्रलेप करें । एतद्देशीय लोग रक्तस्रुति किम्वा अन्यान्य प्रखावों Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्जुन घृतम् ( यथा प्रावाहिकीय श्लेष्मस्त्राव तथा प्रदर संबन्धी रक्त स्राव इत्यादि) में अर्जुन स्वक् का प्रयोग करते हैं । वे अश्मरी व शर्करादि प्रतिषेधक रूप से भी इसका व्यवहार करते हैं। ( मे० मे० श्रॉफ इं० आर० एन० खोरी, २ य खं०, २५८ पृ० । फा० ई० २ भा० ११ पृ० दस० ) यह पैत्तिक विकारों में लाभप्रद तथा विषों का अगद है । त्वक् कषाय और ज्वरन 1 फल वलय तथा रोधोद्घाटक एवं नवीन पत्रस्वरस कर्णशूल में हितकर है। ( बेडेन पॉवेल पंजाब प्रॉडक्ट ) काँगड़ा में स्वक् त प्रभृति में प्रयुक्त होता है । (ट्युबर्ट) श्रजुनम् arjunam - सं० की ० तृणमात्र ( Gr asses. ) । हला० । ( २ ) सुवर्ण | Gold (Aurum ) मे० नत्रिकं । ( ३ ) कास तृण । ( Saccharum spontaneum.) र मा० । ( ४ ) दर्भ भेद, कुश ( Poa cynosuroides. )। ( ५ ) श्वेत वर्ण के या कुटिल गति से जाने वाले कीट । श्रथ० सू० ३२ । ३ । का० २ । अर्जुन arjuna-हिं。संज्ञा पु ं० पुन्यन (Ehratia acuminata. ) मेमो० । (२) चुक, बड़ा गाछ-बं० | भूताङ्कुसम् ते० । घनसुरा म० । गोटे - सन्ता । ( Croton oblon• gifolius ) फा० ई० । देखो - अर्जुनः । अर्जुन गाछ arjuna gachh- बं० अर्जुन, कहू, कोह । ( Terminalia arjuna) अर्जुन घृतम् arjuna ghritam - ० ली० ( १ ) अर्जुन की छाल के रस और कल्क से सिद्ध किया घृत समस्त हृदरोग के लिए लाभदायक है। भै० ० र० । (२) अर्जुनकी छाल के दल्कसे तथा स्वरस से पकाया हुआ घी सम्पूर्ण हृदय रोगों में हितकारी योग तथा निर्माण विधि- घृत ४ श०, अर्जुन स्वरस ४ श०, कल्कार्थ 1 त्वक् १ श० । सा० कौ० । भैष० । For Private and Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्जुन व श०, भा० । रस० र० । मूच्छित घृत ४ स्वरस १६ श० ( अथवा ४४ पल अर्जुन की छाल को ६४ श० जल में यहाँ तक पकाएँ कि १६ श० जल शेष रह जाए। बस इसको छान कर घृत में सम्मिलित करें ) और अर्जुन वल्क १ श०, इनको एकत्रित कर घृत पाक विधि से पकाएँ । च० ३० हृद्रोग-चि० । अर्जु' नत्वक् arjuna tvak - सं० स्त्री० अर्जुन वल्कल, अर्जुन की छाल | Terminalia arjuna ( Bark of - ) । च० द० भ० सा०वि० शतक्यादि । ६६५ अर्जुन त्वगादिलेप: arjuna-tvagádi-lepah सं० पु० अर्जुन की छाल, मजीठ, वृष (बाँसा) को पीस शहद में मिलाकर लगाने से झाँई और यंग का नाश होता है । वृ० मि० र० । अर्जुन नामाख्यः arjuna-námakhyahसं०पु० श्रजुन वृक्ष, काहूका पेड़ | Terminalia arjuna ( Tree of - ) भा० । जुनसुधा arjuna-sudhá - सं० स्त्री० अर्जुन कrs का चूर्ण जुनाथघृतम् arjunadya ghritam अर्जुनाच तैलम् arjunádya-tailam श्रर्जुनादः arjunádah - सं० त्रि० दर्भकाश खादक | च० वि० २ श्र० । अर्जुनादि क्षीरम् arjunádi-kshiram-सं० ली० दूध को अर्जुन की छाल डालकर पकाकर पीने से पित्त जन्य हृद्रोग दूर होता है । यो० २० । अजुनी arjuni - सं०त्री०, ( हिं० संज्ञा स्त्री. ) ( १ ) सफेद रंग की गाय । श्रथर्व० सू० ३ । का० २० । ( २ ) उषा । ( बुरादा ) । गुण- श्रर्जुनोद्भुत सुधा कफ को नाश करने श्रजुनी arjuní-सं० [स्त्री० गवि, गाय, गो | वाली है । वै० निघ० । द्रव्यगुण । ( A cow. ) मे० नत्रिक । अर्जुनाख्यः arjunákhyah - सं० पु० (, ) श्रर्जुनोपमः arjunopamah सं०पु० शाक काशतृण, कासा । ( Saccharum spont- द्रुम ( A potherb in general. )। aneum.) र० मा० १ ( २ ) अर्जुन वृक्ष, शेगुन गाछ - बं० । र० मा० । ( २ ) शालवृक्ष कहू का पेड़ | Terminalia arjuna. ( Shorea robusta . ) रत्ना० । ( 'T'ree of - ). अर्जुन arjunná-श्रव० श्राछ-नैपा० । परोकपी - श्रासा० । गणसूर मह० । भूटन- कुसम - ते० । थेत्यिङ् - बर० । क्रोटन ऑब्लॉगिफॉलिस Croton oblongifolius, Roxb.) ले० । सं० की ० अर्जुन, परवल, नीम, वच, अजवाइन, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म् रास्ना, मजीठ, भिलावाँ, अगर, मोथा, कूट, चीता, चन्दन, खस, गोखरू और सफेद कत्था । इनका काथ कर, उसमें नवीन परवल, हलदी, हरद, बहेड़ा, श्रमला, पाखान भेद, श्रजुन, अजमोद, लोध, मजीठ और अतीस इनका कल्क डालकर पकाया हुआ घी 'श्रर्जुनाद्य घृत' ' कहलाता है 1 गुण- इसे सेवन करने से पित्त सम्बन्धी प्रमेह नष्ट होते हैं । नोट - इसी क्वाथ तथा कल्क से पकाया हुश्रा तैल " श्रर्जुनाद्य तैल" कहलाता है । गुण-उन तैल को व्यवहार में लाने से कफ तथा वायु सम्बन्धी प्रमेह दूर होते हैं । भा० म० ३ भा० मेह० चिए । अर्जुनाद्य क्षीरपाकम् arjunadya- kshirapaka :: सं०ली० अर्जुन (कहुआ) की छाल लेकर गोदुग्ध में पकाकर पीने से हृदय रोग का नाश होता है। वंगसे० सं० हृदरो० चि०। ८४ गुण- इसका तैल एवं छाल औषध कार्य में श्राती है । मेमो० अर्जेण्टम् argentum ले० चाँदी, रौप्य - हिं० | फ़िज़्ज़ह - अ० (Silver. ) For Private and Personal Use Only रजत, । नुक्रूरह - फा० । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजेण्टम् कोलोइडेल अर्टिका प्राइमा अर्जेण्टम् कोलोइडेल argentum Colloi. | अपस्मार तथा अन्य वातरोगों में व्यवहृत होता dale-ई० (Collalgol. )। देखो- है। मात्रा-1 से 1 प्रेन वटिका रूप में। पी. रजत। वी० एम० । अर्जेण्टम् लिक्विडर ?igentuin liquidum | अजे एटाई फ्लोराइडम्-aligenti fluoridअर्जेण्टम् वीवम argentum vivum | _um-ले० देखो-रजत, एसिडम् हाइड्रोक्लो. -लेदेखो--पारद ( Hydiargyruin.) रिकम् । प्रगटाई ऐल्ब्युमिनास argenti albumi- श्रजे एटाई लेक्टास argenti lactas-ले. nas-go ( Silver albuminate )i. ____एक्टोल (Actol.)। देखो--रजत । देखो~-लार्जीन ( Largin.) . अर्जेण्टाई साइनाइडम् argenti cyanidum अर्जेण्टाई ऑक्साइडम् argenti oxidum -ले० सिल्वर साइनाइड (Silver cya. -ले० रजदौप्मिद, रौप्यभस्म-हिं० । (silver nide )-इं०। देखो-रजत । (Itrol) oxide) देखो-रजत । भार्गीरोल । अजे एटाई प्रायोडाइडाई argenti iodidiले० रजन्नैलिद । देखो --रजत ।। अर्जेण्टाई साइट्रास argenti citras-इं० देखो- रजत । अर्जेण्टाई एसीटास argenti ace tas-ले० (Acetate of silver. ) चुक्रीय रजत । अर्जेण्टासील argentar'syl-इं. यह काको. देखो-रजत या इट्रोल । डाइलेट ऑफ़ पायर्न ( Cacodylate of श्रले एटाई क्लोराइडम्--algenti chloridum iron ) तथा कोलॉइड सिल्वर ( Colloid -ले. रौप्यहरिद । देखो-रजत। Silver) का एक संमिण है। अजेण्टाइड agentide-इं. यह सिल्वर बारकैवाविच ने मलेरिया ज्वर में ०.०५ से श्रायोडाइड (रजन नैलिद ) का एक तीक्ष्ण १० घन शतांरामीटर (c. c.) की मात्रा में घोल है जिसमें किञ्चित् जल मिश्रित कर स्थानिक अन्तःक्षेप रूप से इसका व्यक्त सफलतापूर्ण उपपचननिधारक रूप से प्रयोग करते हैं । देखो योग किया। उनका यह दावा है कि केवल एक भार्गीरोल । बिट० मे. मे०। अन्तःक्षेप मात्र से रक्त स्थाई रूप से सम्पूर्ण प्रकार अजेण्टाई नाइट्रास argenti nitras-ले० के परायी. कीटों से शून्य हो जाता है। हिट० रजन्नत्रास । (Silver mitiate, Lunar मेमे। caustic.) देखो-रजत । अर्जेण्टेमान algentamin-ले० देखोअजै राटाई नाइट्रास इण्डयोरेटस argonti रजत । mitras induratus-ले०कठिन रजन्नत्रास । अर्जेराटोल argentol-इं. यह रजत का एक देखो . रजत। यौगिक है। देखा-रजत । अजें एटाई नाइट्रास मिटिगेटस argenti nitras mitigatus-o (Mitiga अर्जावा arjova-6. चाँदी, रौप्य । Silver (Argentum. ) ted caustic.) हलका कियाहुआ कॉप्टिक । । अर्टिका पिल्युलिफेरा artica pilulifera, . देखो-रजत। अर्जेण्टाई न्युक्लीश्रास algenti mucleas Linn. -ले० नार्गोल ( Nargol. )-इं० । देखो- ऑटका प्राइमा urtica prima, Jatthio. / न्यूक्लोन या न्यूक्लीअोल । .:hus.) अर्जेण्टाई फॉस्फास argenti phosphase -ले० अञ्ज रह, उतञ्जन । ( Blepharis (Tribasic.)-ले० रजत स्फुरेत् । यह edulis, Pers.) फा० इं०३ भा०। For Private and Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अती प्रटिका मोर्चा अर्टिका मोर्चुभा urtica. mortua-इं० (The conch shell. ) रा० नि० व० ( Dend nettle, whits nettle, १३ । blind nettie, white archangel.) gai artagi-40 # TEMİ IT Figura - लेमिनम् ऐल्बम् (Laminum album.) | विशाल तथा भारतवर्ष में अधिकता के साथ - -ले० । पी० वी० एम० । होता है। किसीई urticacee-ले० वट या अश्वत्थ- नीश artanitha-य० बख्खरमरियम् । वग। (Cyclaimen Persicum, Miller.) अर्टी arti-सं० स्त्री० केला, कदली । ( Musal फा०ई०२ भा०।। "Sapientum. ) अनोसा aartanisa-आज़रबू (चोबक उश्नान) श्रण: arnah-सं० पु. शाक वृक्ष । शेगुन-बं० । एक जड़ है जिससे उन धोया जाता है। ___ (A potherb in general.) श० च० । अतंब artaba-अ० खारनसक | गोखरू । श्रण,-स् arna h,-s-सं०क्ली । जल, पानी। ( Tribulus terestris. ) arma-हिं० संज्ञा (Water: अर्नबह aartabah -०(१) नासा - रा०नि० व० १४। अजकमह, aazqamah ) मध्य, नासावंश, श्रण भवः arna-bha vah-सं० पु. शंख बासा ( Bridge of nose.) । (२) ऊर्ध्व श्रोष्ट का मध्यस्थ गढ़ा । (Conchshell. ) वै० निघ० । श्रण वः aunavah-सं० (,) अतल artala-कना० अन्तल । रीठा-हिं० । अर्णव arnava-हिं० संज्ञा पु० । समुद्र, (Sapindus trifoliatus, Linn. ) सागर, जलनिधि । ('The ocean.) रत्ना०। फा० इ०१ भा० । (२) सूर्य। ( The sun.) अर्तब artaba-० अधिक तर,ज़्यादा तर,स्निग्ध तर । अर्णवजः arnavajah .. gaffatih fazani artániyáye-hindi po y TFM: arnavaja-malah वल्लारी. वल्लारी का पत्ता-१० । थोलकरि-बं०। अर्ण वफेनः arnava-phenah (समुद्रअवमल: arnava-ma lah फेन, ब्राह्मी-सं०, हिं० । Hydrocotyle As..समुद्र कफ-हिं० । इज़ाराती-अ० । कफ़ेदरिया iatica, Linn. ( Indian Hydro. -फा०The dorsal scale or Cuttle cotyle or Penny-wort. ) स. फा० ई.। fish bone (Sepia officinalis.) pathifagi artá másiya रत्ना०। . .. . अर्तियह मासिया artiyah-masiya j या अर्णवोद्भवः ·arnarodhavah-सं० पु. सि० बरिक्षासिफ़, कैसूम । ( Artemesia .' अग्निजार वृक्ष । (See-Agnijara.) रा० - Indica.) .. नि० २०६। .... अति arti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि. अर्णा arna-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी। अतित ] पीड़ा | था। ( River.) : ... | अर्तिया artiya-यू. एक छोटी बूटी है, जिसकी अर्णोदः arnodah-सं०० मुस्तक, मोथा। पत्तिया अत्यन्त लघु और बहुसंख्यक शाखाओं (Cyprus rotundus., Syn. Hexa- ' से युक्त होती हैं। बीज खुशा के सदृश होते हैं। stachyos. Rord.) रा०नि० ० ६।। अर्ती arti-य. या रू० वृक्ष दोरक । कोई कोई अर्णोभवः arnobhavah- सं० पु० शंख । हालों व कह और बूयेमादरान को कहते हैं । For Private and Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रर्तीकह अर्थापत्ति अर्नाकह artiqah-राँगा, बँग । Tin ( Ta- कर्कट शृङ्गी, काकड़ासिङ्गी ( Rhus succe__nnum.) ___danea, Linn. 4. निघ० । अर्तीमव artimavu-ता. तीखुर, तवक्षीर । अर्थनट earth-nut-९० मगफली, भूफली । (Curcuma angustifolia, Rixb.)| (Arachis Hypoged.) ई० डू०६०। अर्तीरस artiras-नैपा० कुरटी-भूटा० । अर्थनट प्रॉइल earth-nut oil-ई. मूंगफली (Caragana crassicaulis.) इसकी ____ का तैल, रोशन मूंगफली । ( Arachis जड़ ज्वरघ्नी है । फा० ई०३ भा० । Oleum ), अग्नास artānāsa-यू० खटिका,खरिया मिट्टी । अर्थ प्रसादनी artha-prasādani-सं० श्री. ( Chalk.) धामन वृक्ष । ( See-Dhamana. ) वै. अतूंबास artubāsa-यू. मिश्र देशोद्भ त एक निघः। _ प्रकार की मृत्तिका है जो श्वेत या धूसरित वण अर्थ वर्म earth-worm-5 के चुभा । खरातीन की और उष्ण स्थलों में उत्पन्न होती है। - ०। अर्तगलः arttagalah-सं० प नील झिण्टी, अर्थ साधकः artha-sadhakah-सं० पु. कटसरैया । ( Balleria longifolia.) पुत्रजीव वृक्ष, पुत्रजीवा | Putran jiva नीलझारटी-बं० । सु० द्रव्यसं०, ०। Roxburghii.) मद० व. १ भा० । आगइ नामक फल वृत्त । रत्ना० । अर्थ साधनः arthasadhanah-सं० पु. अर्तगाँ arttagan-फ़ा० यह एक प्रकार का | (१) पुत्रजीव वृक्ष, पुत्रजीवा । (Putranjiva, प्रस्तर है । स्वाद-फीका | वण-रक एवं Roxburghii. ) मद० २० १। (२) पीत । प्रकृति-१ कक्षा में शीतल व रूक्ष रीठा करंज । ( Sapindus trifoliatus.) गुण, कर्म, प्रयोग-व्रणपूरक (क्षतों के मद०व०५ मांस को भर लाता ) और अययवों के वाह्य अर्थ सिद्धः,-क: artha-siddhah,-kah-सं० शोथों को लयकर्ता एवं क्षतों को निर्मल करता पु० (१) पुग्रजीव वृक्ष (Putranjiva (व्रणशोधक ) है । मुदिर्शत (प्रवर्शक वा रेचक) Roxburghii.)। (२) श्वेत निर्गुण्डी, के साथ प्रयोग करने से यह वृक्क एवं वस्त्यश्मरी सफेद मेउड़ी ( Vitex regundo एवं सिकता आदि को नष्ट करता है । म० मु० । album.)। (३) कृष्ण निगुण्डी । (Vitex अतिः arttih-सं० स्त्री रोग । ( Disease.) negundo nigrum.) रा० नि० व. रा०नि० व०२०। अर्थः arthah-सं० पु० । [वि. अर्थी 1 अर्थापत्तिः arthāpattih-सं० स्त्री० । अर्थ artha-हिं० संज्ञा पु. ) (1) इंद्रियों अर्थापत्ति arthāpatti-हिं० संज्ञा पु. के विषय (Object )। (२) धन, संपत्ति जो बिना ही कहा हुश्रा अर्थ से जाना जाए उसे ( Wealth, riches.)। (३) याचन "अर्थापत्ति" कहते हैं। जैसे-किसी ने कहा मैं (Begging, request. I (४) कारण, भात खाऊँगा तो इस कथन से जाना गया कि हेतु, निमित्त ( Cause, sake.)। (५) वह यवागू पीने का इच्छुक नहीं है। सु० उ० . वस्तु (Substance, goods.)। (६) ६५ भ० । “यदकीर्तितमादापद्यते ।" अभिधेय, अभिप्राय, प्रयोजन, मतलब ( Inte. मीमांसा के अनुसार एक प्रकार का प्रमाण ution, purpose.) । (७) निवृत्ति जिसमें एक बात कहने से दूसरी बात की सिद्धि ( Rest.) मे० थद्विक। आप से श्राप हो जाए। नतीजा । निगमन । जैसे अर्थ चम्पिका artba-champika-सं० स्त्री० । बादलों के होने से वृष्टि होती है । इससे यह For Private and Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थेनाइट अर्दित सिद्ध हुआ कि बिना बादल वृष्टि नहीं होती। नोट-अर्दहालिय्यडू फ़ारसी भाषा का शब्द न्यायशास्त्र में इसे पृथक प्रमाण न मानकर अनु- है। जो भाई पाटा और हाल तैल का यौगिक मान के अंतर्गत माना है। है। पर उन संयुक्त शब्द का उपयोग उस हरीरे अर्थेनाइट arthenite-फ्रां० बख्नुरमरियम-इं. के लिए होता है जो प्राटा और घी के संयोग बाजा | Sow-bread (Cyclamen द्वारा निर्मित होता है। कि इस रसौली के Persicum, iller.) फा० इ० २ माहे का वाम उक्त हरीरे के समान होता है। भा० । इसलिए इसे इस नाम से अभिहित किया अर्थ्यम् arthyam-सं० क्लो० शिलाजतु । (Bi- गया है। tumen.) मे० यद्विकं । अर ardara-अ. हाथी, हस्ति । ( An अर्थक्नीमम् Arthroone अथ कनामम् Arthrocneinum-ले० उश्नान, elephant.) सर्जि | Sola Plants (Caroxylon.) श्रल ardal ) -कना० को०, हरिताल । फा. इ०३ भा०। अली ardali S (Orpiment.) अर्थोकनीमम् इण्डिकम् arthroenemum अर्दावा ardava-हिं० पु मोटा मोटा, दलिया, सूजी । Indicum, Moq:-ले० सर्जि । फा. ई. अर्दित ardita-हिं० वि० । पीड़ित । ३भा०। अर्पितम् ardditam-सं० त्रि. दलित । अई aarda-ऋ० गदहा, गर्दभ ( An ass.) यन्त्रणायुक्र । अईह ardah फ़ा. तिलकचरी। संक्ली०, हिं० संशाप'. एक रोग जिसमें वायु अईक ardaka-फा. वत्तरन । ( A .Duck.) के प्रकोप से मुंह और गर्दन टेढ़ी हो जाती है, (२) भालूबोखारा । ( Prunum.) सिर हिलता है नेत्र प्रादि विकृत हो जाते हैं, अर्दज arda ja-फा० हाऊबेर, अर्स, अरर, अभल, बोला नहीं जाता और गर्दन तथा दाढ़ी में दर्द हपुषा । (Juniperus chinensis) होता है। पक्षाघात विशेष । लकवा । अईन ardana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] (१) - फेशल पैरालिसिस ( Facial Paraly पीपन, दलन, हिंसा । (२) जाना, गमन । sis ), पैरालिसिस ऑफ दी पोर्टियो व्योरा अर्दना ardana-हिं० कि० स० [सं० मर्दन (Paralysis of the portio dura, पीड़न ] पीड़ित करना। aan dufafan Bell's paralysis-.! अर्द निः arda nih--सं०५० अग्निरोग । म० लवह-अ०। कजी दहन-फा० । मुंह का टी० । टेदा हो जाना-उ० । अदम ardam-1० सूर्यमुखी । (Helianthus निदान संप्राप्ति तथा लक्षण Annuses. ) गर्मिणी सूतिका बालवृद्ध क्षाणेवसक्कये। अर्दमा ardamā--(१) कनौचा (२) गाव जुबान । ( Caccina glauca, Savi. ) उच्चाहरताऽत्यर्थ खादतः कठिनानि पा॥ अर्द हालिय्यह-arda.haliyyah हस्तोजृम्भतोवापि भाराद्विषमशायिनः । सल्हे मुखातियह, salaahe-mukhatiynh) ( श्वसनात्-सु०) अ० (.) गादा हरीरा जो आटे को मक्खन में शिरोनासौष्ठ चिबुक ललाटेक्षण सन्धिमः ॥ गॅथ कर पुनः घी में पकाया जाता है । (२) प्रर्दयत्यनिला वक्त मर्दित जनयत्यतः। एक प्रकार की श्याभायुक्त रसौली है जिसके माहे वक्रीभवति वक्ता श्रीवाचाप्यपवर्तते ॥ की चाशनी गादे हरीरे के सरश होती है। देखो- शिरश्चलति वाक्सङ्गो नेत्रादीनांच वैकृतम् । सल्हे मुखातियह, ( Myxoma). प्रीवाचिधुक दन्तानां तस्मिन् पाश्र्धेच वेदना॥ For Private and Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदित अर्दित यस्याग्रजो रोमहर्षो वेपथुनॆत्रमाविलम् । (लकवा ) कहते हैं। वाग्भट्ट के अनुसार कोई वायुरूवं त्वचि स्वापस्तादोमन्या हनुग्रहः॥ कोई इसको एकायान भी कहते हैं । तमर्दितमिति प्राहुाधि व्याधिविचक्षणा ॥ अन्य तन्त्रों में प्राधे मुख की तरह अर्द्ध (मा०नि० ! सु० नि०) शरीर में व्याप्त वातग्रस्तता को भी अर्दित नाम अर्थ-निदान-गर्भवती, प्रसूता स्त्री, बालक, से ही लिखा है । यथावृद्ध, दुर्बल तथा शोणित ..य वाले की ( स०) 'श्रधे तस्मिन मुखाधे वाके लेस्यात्तदर्दितम्'। और ऊँचे स्वर से बोलने से, कम्नि वस्तु खाने ... (दृढ़वलः) से, बहुत हंसने से, जम्हाई लेने से, बोझ ढोने यदि ऐसा है तो अदित और श्रद्धांगवात में से. ऊँचे नीचे स्थान में सोने (विषम भारवहन . अन्तर क्या रहा ? उत्तर में कहते हैं कि इन दोनों तथा विषम श्वास प्रश्वास के कारण -सु०) में भेद यह है कि अर्दित में कदाचित् ही वेदना श्रादि कारणों से (वाग्भट में ये कारण विशेष होती है, किंतु श्रद्धांगवात में सर्वदा ही वेदना -लिखे हैं यथा शिर पर बोझ ढोना, उना मुख बनी रहती है। अथवा पूर्वोक्र अर्दित के उन होना, बल पूर्वक छींक लेना, कठोर धनुष को सभी लक्षणों के विपरीत लक्षण श्रद्धांगवात के खींचना, ऊँचे नीचे तकिए पर शिर धरना तथा होते हैं। अन्य वान प्रकोपक हेतु ) सम्पाप्ति'-वायु परन्तु चरक, सुशुत, वाग्भट्ट तथा माधव प्रादि प्रकुपित होकर शिर, नाक, श्रोष्ठ, ठोड़ी, ललाट ग्रंथ निर्माताओं ने केवल मुखमात्र की वाततथा नेत्रों की संधियों अर्थात् शरीर के ऊर्ध्व भाग प्रस्तता को ही अर्दित नाम से अभिहित किया है में प्राप्त होकर एक ओरके मुख ( वाग्भट्टके अनु और श्रद्धांगवात को एकांगवात, पक्षवध तथा सर हँसने भौर देखने को भी)-को टेढ़ा कर पक्षाघात प्रादि नामों से । अस्तु ऐसा ही मानकर ( क्वचित् पार्श्वद्वय की पेशियों वातप्रस्त हो उक्त शब्द का व्यवहार करना शास्त्र सम्मत है। जाती हैं ) अर्दित रोग को उत्पन्न करता है ।। — डॉक्टर लोग शीत लगना, कनफेड़, उपदंश, : लक्षण-इसमें प्राधा मुख टेदा होजाता है। कतिपय मस्तिष्क रोग, कर्णास्थि क्षत, किसी गर्दन नहीं मुदती, शिर हिलने लगता है, बोला दाँतका खराब हो जाना तथा निर्बलता इत्यादि नहीं जाता, नेत्रादि बिगड़ जाते हैं और जिस | इसके उत्पादक कारण मानते हैं । इनके अनुसार धमकी और वह टेढ़ा होता है उसी पोर की। भो अर्दित के प्राय: वे ही लक्षण हैं जिनका वर्णन गर्दन, ठोड़ी और दातोंमें पीड़ा होती है । वाग्भट्ट ऊपर किया गया है। जैसे-- ने ये विशेष लिखे हैं- ............ विकृत मुखमण्डल का स्वस्थ की ओर आकृष्ट दंतचाल, स्वरभ्रंश, ४.वण शक्ति का नाश, हो जाना ( मुखमण्डल जिस भोर को छींके का बन्द हो जाना, माणाज्ञता, स्मृतिका पाकुञ्चित होता है वास्तव में वह पार्श्व सुस्थ मोह, स्वप्नावस्था में त्रास, दोनों ओर से थूक होता है), मुख के ५क कोने का नीचे की ओर निकलना, एक ख का बन्द होना, जत्रु के ऊपर . लटक पड़ना, मुख प्रसेक, जलपान करते समय के भाम में वा शरीर के प्राधे भाग में वा बीचे के उसका बाहर बह चलना, कफ निष्ठीवन की भाग में तीव्र वेदना प्रादि उपद्रव उपस्थित होते. असमर्थता. सीटी न बजा सक : असमर्थता, सीटी न बजा सकना और न फूंक मार है। पूर्वरूप-जिस - रोम के पूर्व रोमात्र हो, सकना इत्यादि लक्षण होते हैं। रोगी पवर्ग के शरीर कॉपे, नेत्रःमलयुक्र हों और घायु ऊपर को अक्षरों का उच्चारण नहीं कर सकता अर्थात् गमैन करे, त्वचा शून्य हो जाए, सूई चुमने की उसके प्रोष्ठ परस्पर नहीं मिल सकते हैं। विकृत सी पीड़ा हो, मन्या नाही तथा ठोड़ी जकड़ पार्श्व का नेत्र खुला रहता है और उससे मश्रु ....... जाएं उसको रोगों के जानने वाले अर्दित | स्राव होता रहता है। For Private and Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्दित और वह किसी चीज को मुँह से खींचने वा मिलाकर फिर अग्नि पर रक्खे । दूध के भली चूसने के अयोग्य होता है। प्रकार मिलजाने पर उतार कर शीतल . होने पर असाध्यता मथकर घी प्रस्तुत करें। फिर इसको तथा मधुर जो मनुष्य अत्यन्त क्षीण होगया हो जो स्पष्ट | औषध यथा काकोल्यादि और सहा अर्थात् माष. रूप से नहीं बोल सके, जिसकी आँखों के पलक पर्णी ( कोई कोई इनके स्थान में पूर्वोक क्वाथ्य न लगें और रोग को उत्पन्न हए तीन वर्ष व्यतीत द्रव्यों के चतुर्थांश कल्क का प्रक्षेप देते हैं ) के कल्क को चतुगुण 'दुग्ध में पकाकर तैले प्रस्तुत हो गए हों अथवा जिसकी नासिका, मुख तथा नेत्र से जल स्राव होता हो एवं काँपता हो वह अर्दित . करें। इस क्षीरतैल को अर्दित रोगी के 'पिलाने ' एवं अभ्यंग अादि में प्रयुक्र करें। बैल रहित रोगी असाध्य है। यथा-- सिद्ध कर प्रयुक करने से यह अक्षि तर्पक है। क्षणस्यानिमिषातस्य प्रसक्ताव्यक्तभाषिणः ।। । सु० चि०। म सिध्यत्यदितं गाढ़ ( बाढ़--सु०) त्रिवर्ष डॉक्टरी घेपनस्य च ॥ मा० नि० । चूँ कि यह रोग प्रायः कठिन शीत के कारण चिकित्सा से ही हो जाया करता है। प्रस्तु, विकृतपार्श्व (श्रायुर्वेदीय) के कान के पीछे ब्लिस्टर लगाएँ या चन्द जोंके अर्दित रोग में नस्य देना, शिर में तेल लगाना | लगवाएँ और फिर एक लोटे या पतेली में तथा कान और आँख का तर्पण करना हित है। खौलता हुधा पानी डाल कर उसकी टोंटी विकृत यदि अर्दित शोथ युक्र हो तो वमन करामा कर्ण के छिद्र में प्रविष्ट करदे अथवा इसके बहुत तथा दाह और राग से युक्त होने पर फस्द खोलना समीप रखे जिसमें उष्ण जलवाष्प से कान के चाहिए । यथा भीतर गर्मी पहुँचे । दस मिनट तक इस प्रकार अदिते नाथन मूर्ति तैलं श्रोत्राक्षि तर्पणम् । करें फिर गरम रुई से कान को सेकें, पश्चात् वही सशोफे वमनं दाहरागयुले सिरा व्यधः ॥ गरम रूई कान पर बाँध दें। ५ ग्रेन कैलोमेल (वा० चि० २१ अ० ) और एक ड्राम कम्पाउंड पाउडर श्रॉफ जैलप सुताचार्य के मत से अर्दित रोगी की वात- मिलाकर खिल्ला दें जिसमें दो तीन दस्त व्याधि विधानोक चिकित्सा करें और श्राजाएँ । मस्तिष्क एवं शिर की बस्ति, नस्य, धूमपान, आहार--शोरबा या यरहनी ( मांस रस) स्नेहन, स्वेदन तथा नाडी स्वेद इतना विशेष करें प्रभृति दे। इस हेतु निम्न लिखित औषध प्रयोग में लाएँ यदि रोगी निर्बल हो तो ईस्टन सिरप या सतृण (कुश, काश, नल, दर्भ और इनुकांड), श्राधे से १ ड्राम फेलोज़ सिरप को किञ्चित् जल में महापश्चमूल (वित्व, अग्निमन्थ, श्ररलु, गाम्भारी मिलाकर दिन में दो बार भोजनोपरांत दे। और और सुद्राग्निमन्थ), काकोल्यादि श्रष्ट वर्ग की यदि रोग उपदंश के कारण हो तो पोटासी आयोप्रोपधिया, विदारिगन्धा श्रादि, प्रौदकांस अर्थात् जलीय जीवों का मांस यथा कर्कट, शिशुमार, डाइड का प्रयोग करें यदि कान में क्षत प्रभृति हो " तो उसका उचित उपाय करें और यदि कोई प्रभृति, अनूपदेशीय जीवों का मांस यथा वराह दाँत बोसीदा होगया हो तो उसको निकलवा आदि और कशेरु, सिंघाड़ा प्रभृति प्रौदक कन्द | इनको समान भाग लेकर १ द्रोण ( ३२ सेर ). · दुग्ध और २ द्रोण (६४ सेर)जलमें क्वाथ करें। नोट-यदि यह रोग शीत, निर्बलता या चौथाई अथवा दग्ध मात्र अवशेष रहने पर उतार | ... उपदश क कारण हो ता उचित उपचार से एक से कर छान ले । इसमें १ प्रस्थ (३र पल) तैल . अढ़ाई मासमें अच्छा हो जाया करता है और यदि For Private and Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदित अर्दित जबान के साथ दें या (२) खमीरह गावजु बान अम्बरी ऊदसलीब वाला ५ मा० की मात्रा में अक्र गावजुयान के साथ दें या (३) दवाउलमिश्क हार जवाहरवाला ५ मा० अर्क गाव बान व अर्क सम्बर के साथ देना हितकर है। कलौंजी २ मा० पीस कर मधुमें मिलाकर खिलाएं या बीरबहूटी एक-दो पाँव पृथक कर पान के बारे में रख थोरे दिन खिलाएँ । पूर्ण शुद्धि के पश्चात् पक्षाघातोक योगों का सेवन कराएँ. और पक्षाघात के समान शुद्धि के पश्चात् माजून फ्रिलासा, माजून कुचला, माजून जोगराज गूगल या दवाउल मिश्क हार प्रभृति यहाँ भी लाभदायक है। अर्दित में प्रयुक्त होनेवाली अमिश्रित औषधे किसी मास्तिष्कीय व्याधि के कारण हो तो कठिनतापूर्वक अच्छा हुआ करता है। यूनानो वैद्यकीय अर्थात् तिब्बी चिकित्सा रोगारम्भ में पक्षाघात के अन्तर्गत वर्णित तिब्बी चिकित्सा से काम ले अर्थात् जब तक चौथा या सातवाँ दिन न व्यतीत हो जाए तब तक माउल उसूल और माउलअस्ल ( मधुवारि ) के सिवा और कोई वस्तु खाने पीने को न दे और न उन काल में वाह्य वा प्रान्तर स बल उध्माजनक एवं दोषप्रकोपक उपाय का अबलम्वन करें। तदनन्तर पांचवें या पाटवे दिन पक्षाघातोक्र मुजिन कराके विरेचन दें। श्राहार में कपोत, तीतर, बटेर प्रभृति जीवों का शोरबा दे या चने का पानी पिलाएँ। मास्तिकीय आदताके रेचन हेतु कबाबचीनी अकरकरा, लवङ्ग जायफल और दालचीनी प्रभृति चबाएँ । कलौंजी पीसकर सिरका में मिलाकर नाक में टपकाएँ और राई को जैतून तेल वा तिल तैल में पोस कर मुखमण्डलके विकृत एव' रोगाक्रांत पाश्व पर प्रजेप करें। यदि आवश्यकता हो तो चन्द जाके कानके पीछे लगवाएँ और सेंक करें तथा कुष्ठ तैल, रोग़न सर्ख वा रोग़न शोनीज का विकृत पाश्व' पर अभ्यंग करें अथवा हिंगु २ तो. पीसकर और रोग़न पान में मिलाकर उक्र स्थल पर प्रलेप करें या निम्न तेल प्रस्तुत कर प्रयोग करें। रोगन लकवा--मोम १ तो० को एरण्डतल ३ तो० में मिलाकर प्रयून, जुन्दवे दस्तर, मस्तगी, सूरिक्षान तल्ख प्रत्येक ३ मा० को बारीक पीसकर मिलादे और श्रावश्यकता होने पर इसका अभ्यंग करें । यदि ज़रूरत हो तो मर्जओश, सातर फारसी, अकरकरा, राई, करवीर मूल स्वक, अनार दाना तुर्श और सोंठ इन सबको समभाग ले कूट कर जल में क्याथ करें और सिकाबीन अंसली ४ तो० मिलाकर गण्डूष कराएँ ।। शिक्षिका को बारीक पीस कर नस्य दें जिसमें दो चार छींके प्राजाएँ और (1) जायफल २ मा० केशर १ मा० को बारीक पीसकर माजून योगराज गूगल ५ मा० सम्मिलित कर पक्र' गाव. आयुर्वेदीय तथा युनानी-वन पलाण्डु एवं सभी वातहर औषध एवं उपचार यथा तिल कल्क युक्र रसोन कल्क तथा स्नेह पान, नस्य, स्निग्ध पदार्थोंका भोजन, लेपन और स्वेदन श्रादि इस रोग में हितकर हैं । देखो-पक्षाघात । डाक्टरी-अर्जेण्टाई नाइट्रास, अर्निका, बेलाडोना, ऑलियम कंजेपुटी, केलेबार्बीन, फेरिपर ऑक्साइड, नालियम माइरिष्टिस आलियम पाइनाइ सिलेवेस्ट्रिस, फॉस्फोरस ( स्फुर), नक्सवॉमिका ( कुचिला), पोटाशियम् प्रायोडाइडम्, पोटाशियाई प्रोमाइडम्, सिकेती कान्युटम्, सल्फर, सल्फ्युरिक एसिड, इलेक्ट्रिसिटि ( विद्युत ), स्ट्रिक्निया ( कुचिला का सत्व) और उत्ताप इत्यादि । मिश्रित औषध आयुर्वेदीय-वातव्याधि में प्रयुक्त औषध | यूनानी-हब्ब फालिज व लावा, दवाए इजाराकी, रोग़ान लकवा व प्रालिज, रोशन हफ़्त बर्ग,मत्र जनइज़ाराकी, मजून इजाराक्री(जदीद) मझ जूनजोगराज गूगल, मनजून लना, इतरी. फल जमानी, हन्य लकवा, दवाए गर्गरह, दवाउल. किवीत, रोग़न सुर्ख, लहसन पाक, हब्ब राहत, और हल्ब स्याह कसी रुल वायद For Private and Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्द्धग ( २ ) घोड़े का एक रोग विशेष । लक्षण – दोनों हनुओं का विक्षेप, नासिका एवं नेत्र के मध्य भाग में भेदनवत् वेदनाका होना और नासापुट आदि विकार से बुद्धिमान् लोग इसे प्रति कहते हैं । अग ardhanga - हिं० संज्ञा पुं० देखोभांग | अर्धगी ardhangi - हिं० संज्ञा पुं० देखागी। ६७३ अर्ध arddha-fहं० वि० (, ) अर्धम् arddham - सं० क्ली० किसी वस्तु के दो समभागों में से एक, श्रद्ध, समांश, श्रद्धांश, तुल्य विभाग, श्राधा, मध्य । ( Half . ) - इं० पुं० '० खण्ड | ( Region, section.) मे० । अर्धकः arddhakah - सं० पुं० जल सर्प | (An aquatic serpent.) o निघ० । अर्धकण्टक arddha-kantaka-सं० पु० छोटा सतावर, क्षुद्र शतावरी | Asparagus racemos us ( the small var. of-). अर्धकण्डरामयी arddha-kandarámayi -सं० स्त्री० ( Semitendinosus ) अर्धकपाट सन्धिक: arddha-kapáta-sandhikah-सं० पु० अर्धकलामयी arddha-kalámayá-सं० स्त्री० (Semimembranosus.) अर्द्धं कैशिकी arddha-kaişhikí-सं० त्री० छेदनार्थ शस्त्रधारा विशेष । सु० सू० ८ ० । अर्द्धखारो arddha khári - सं० स्त्री० खारी'माना, आधा खारी | देखो -खारि: (री) | अर्धगोलम् arddha-golam-सं० क्ली० ( Hemisphere ) अर्ध वृत्त, अर्ध चन्द्र, श्रधा गोल । अर्धङ्ग arddhanga - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] पक्षाघात, अग ( Hemiplegia.. ) अर्द्धचक्रम् arddha-chakram-सं० क्ली० अर्ध वृत्त | ( An arch. ) अर्धचन्द्राकार पिण्ड अर्द्धचक्राकारनाली arddha-chakrákáranali--सं० स्त्री० मुड़ी हुई नाली, श्रर्द्धचन्द्राकार नलिका | ( Semicircular canal.) अर्धचन्द्रः arddha-chandrah--सं॰ पु ं० (१) मयूर पुच्छ, चन्द्रिका, मोर पंख पर की श्रख | हे० च० । ( २ ) आधा चन्द्र, अर्धेन्दु ( A crescent, a half moon)। (३) नख क्षत । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्धचन्द्रम् arddha-chandram-सं० क्ली० अंगुली तोरण । हारा० । अर्ध चन्द्र कघाटम् arddha-chandrakavátam--सं० की० ( Semilunar valve ) श्रर्ध गोलाकार कपाट ( किवाड़ी ) । श्रर्द्धचन्द्रगण्ड: arddha-chandra-gandah--सं॰ पु ं० ( Semilunar ganglion ) अर्ध गोलाकार वातगण्ड । अर्धचन्द्र छिद्रम् arddhachandra-chhidram -सं० की ० ( Semilunar notch ) अर्ध गोलाकार छिद्र । अर्धचन्द्र तलम् aiddha-chandra-talam सं० की ० ( Lunate surface. ) अर्ध गोलाकार पृष्ठ | अर्धचन्द्र तान्तव कीकसम् arddha-chandra--tántava- kikasam -सं० ली० ( Semilunar fibro-cartilage. ) अर्ध गोलाकार तान्तवोपास्थि । अर्धचन्द्र धमनी arddha chandra-dhamani -सं०, हिं० स्त्री० ( Semilunar artery ) अर्ध गोलाकार धमनी ! श्रद्धचन्द्राकार कपाट arddha-chandrakára-kapáta-हिं० संज्ञा पु ं० ( Semilunar valves. ) अर्ध चक्राकार कवाट । श्रद्धचन्द्राकार कारटिलेज arddha-chand rákár-kártile ja-fo संचा० पुं० ( Semilunar cartilage ) अर्ध गोलाकार कु । श्रर्द्धचन्द्राकार पिंड arddha-chandrakárapinda - हिं० ० ( Plica semilunaris.) ८५ For Private and Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्धचन्द्राकार नलिका अद्धपादा अर्द्धचन्द्राकार नलिका arddha-chandra-1 प्रत्येक तुल्य भाग लें, चूर्ण कर श्रद्ध भार्ग शुद्ध , kāra-nalika-हिं० संज्ञा स्त्री० ( Semi- नीलाथोथा मिश्रित करें। इसका नस्य लेनेसे संज्ञा iunar canal.) अर्ध गोलाकार नली । होती है और यह सन्निपात, अत्यन्त निद्रा, तन्द्रा, अर्द्ध चन्द्राननः urddha-chandiasanah मस्तक शूल, श्वास, खाँसी, प्रलाप, उन कफ इन्हें -सं० पु. अन्तमुख नामक विस्रावण अस्त्र । तत्क्षण दूर करता है । वृ० रसग० सु०।। श्रमः। अर्ध नारी नटेश्वरः arddha-nārinateअद्धचन्द्रास्थि arddha-chandrāsthi-सं०, ___shvarah--सं० पु. त्रिकुटा, त्रिफला, पारा, हि० स्त्री० ( Lunate.bone.) अर्ध गन्धक, ताम्रभस्म, लोहभस्म, कुटकी, मांगरी, - गोलाकार हड्डी। मोथा, और बच्छनाग प्रत्येक समान भाग और अद्ध चन्द्रिका arddha-chandrika-सं० पारद से द्विगुण कुचला मिलाकर बकरेके पिस से. (हि. संक्षा) स्त्री० (१) कर्णस्फोटा नाम भावित करें। इसे पुत्र बाली स्त्री के दूध में घिसा की लता । कनफोड़ा। रा० नि० व०३।। कर दाहिनी आँख में अञ्जन करें तो तत्काल ज्वर (२) कृष्ण तृवृता, काली निशोथ । मद० नष्ट होता है। यह परम आश्चर्यकारी स्स है। व०१। इस नाम के १७ योग रसयोगसागर में पाए हैं। अद्ध चोलक: addha-cholakah-सं० पु. अर्धनारीश्वर रसः arddha-nārishvara दोली, कुर्मास । काँचुली-बं० । (A bodice, _rasah-सं० पु. पारद, गन्धक, विष और a waist cout.) हारा० । सुहागा भस्म तुल्य भाग ले खरल करें, जब अद्ध ज्योतिका arddba jyotika-हिं० संज्ञा | कजल सा हो जाए तब इसको काले साँप के मुख स्त्री० [सं०] ताल का एक भेद । में रख कपरमिट्टी कर एक मिट्टी के पात्र में प्रथम अर्द्धझिल्ला कृत पेशा arddha-jhiljikrit: नमक बिछाकर उसमें पूर्वोक्त सम्पुट रख कर ऊपर peshi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (Semi पुनः नमक भर दें, पश्चात् उस पात्र का मुख . membranosus muscle.) वह पेशी सराव से दृड बन्द कर चूल्हे पर रख ४ प्रहर की जो अर्ध झिल्लीदार हो। तीब्र अग्नि दे। जब स्वांग शीतल हो जाए तब अर्धतरल arddha-tara1--हिं० वि० [सं०] निकाल कर खरल में डाल पीस लें। (demi-liquid) अर्ध द्रव । मात्रा- रत्ती। अर्ध तिक्तः arddha-tiktah-सं० प (1) प्रयोग-इसको बांर नथुने में नास देने से उस किरात तिक, चिरायता (Andrographis तरफ का ज्वर दूर होता है और पुनः दाहिने नथुने paniculata.)। (२) नेपाल देशज निम्त्र में नस्य देने से दाहिने अंग का ज्वर शोघ्र उतर विशेष, एक प्रकार की नीम जो नेपाल में होती जाता है । यह योग गुप्त रखना उचित है । वृ० है । रा० । भा० पू० १ भा०1 रसरा० सु०। अर्धधारकम arddha-dhara kam-संक्ली. farai arddha-náli-foaio (Gr. अस्त्र विशेष । यह छेदन भेदन कार्य में प्राता ___oove.) परिखा। है । सु० सू० - अ०। | श्रद्धंपलम् addha palam-सं० क्ली. अर्ध नागच addha-laracha--हिं० संज्ञा दो कर्ष, कर्षद्वय(=४ तो०)। "स्यात्कर्षाभ्यापु० [सं०] एक प्रकार का बाण । "। प० प्र०९ख० । अर्ध नारी नटेश्वर रसः arddha-nārina- अर्धपादा arddha-pada-सं० स्त्री. भूम्या teshvara Yasah--सं० पु. जमालगोटा, मलकी, भुं ई श्रामला । ( Phyllanthus तज, अकोलपत्र, पटोलपत्र, हुहुर, अजमोद, neruri.). वं. निघ०॥ " For Private and Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir স্বাদ अधींग वातारि रसः अद्धपारावरः auddha.pārāvata.h-सं० अर्धवोरच्छा arddha-virachchha-सं0 .. पु० (१) बन कुक्कुट (Wild cock. ) . स्त्री० कृष्ण दूर्वा । , (२) चित्रकण्ठ पारावत । (३). तित्तिरपक्षी, अर्धवृत्तम् arddha writtan-सं० क्ली०) । तीतर । A partridge ( Perdix fru- अर्धवृत्त arddha.vritta-हिं० संशा पु. 5 ncolinus. ) go i (Semicircle. ) अ गोल । वृत्त का अर्धपुष्पा arddha-pushpā-सं० स्त्रो० अाधा भाग । वृत्त का वह भाग जो ब्यास और महावला । ( See -Mahābala ) . वै० परिधि के प्राधे भाग से घिरा हो । निघः। (२) पूरे वृत्त को परिधि का प्राधा भाग। अंदर्धपोहल addha-pohala-fE संज्ञा | अर्ध वृत्तप्रणाली arddha-vritta-pran पु० (देश) एक पौदा जिसकी पत्तियाँ मोटी ii-सं० स्त्री० (Semicircular duहोती हैं। ct.) अर्धगोलाकार प्रणाली। अर्धसादनः arddha-prasādanah-सं० अर्धश (स ) फरः arddha-sha- ( sa) पु० सहदेवी, सहदेई । pbarah-सं. प. दण्डपाल नामक क्षुद्र अर्धभाग arddha-bhāga-हि.प. प्राधा। मत्स्य विशेष। दाँडिका वा डानकोण-माछ (Ahalf.) . -बं०। अर्धभोजनम् arddha-bhojanam-सं० श्रद्ध शरावः,-क: arddha-sharavah;कली अझैशन, आधा पेट खाना । ____kah-सं० पु. दो प्रसूति, प्रसूतिद्वय ( =३२ अर्धमात्रा arddha-mātra हिं० संज्ञा०स्त्री० तो०)। प० प्र० १ ख० । भा० । [सं०] प्राधी मात्रा । | अर्धसहः arddha-sahah-सं० प. पेचक, अर्धमात्रिकarddha-mātrikah-सं० पु. ___ उलूक पक्षी। प्याँचा-बं०। घुबड़-मह० । एक प्रकार की निरूहण वस्ति विशेष ।... (An owl.) विधि तथा योगदशमूल के क्वाथ में श्रद्ध स्वच्छ arddha-svachchha-हिं०वि० अस्फुट दर्शक,वे पदार्थ जिनमें से प्रकाश अच्छी तरह २ तो० सौंफ पीसकर उसमें २ तो० सेंधानमक, . .. न जा सके, जैसे-तेल, पतला कागज, धुंधला मधु २ पल, तैले २ पल और एक मदनफल का काँच इत्यादि । ( Translucent, semi"चूर्ण योजित करें इसको श्रद्ध मात्रिक वस्ति कहते | transparent. ) है । निरूहवत् इसका प्रयोग करें। च० द० । श्रद्धांग arddhānga-हिं. संज्ञा पु० [सं०] अर्धमासूरी arddha-masuri-सं० स्त्री० (१) आधा अंग ( Ilalf the body.) - लेखनार्थ अस्त्रधारा विशेष । सु० सू० अ०। ( २ ) एक रोग जिसमें आधा अंग चेष्टाहीन भर्धः रन्ध्रम् arddha-randhram-सं० और बेकाम हो जाता है। फ्रालिज, पक्षाघात | * क्ली० ( Notch.) भंग। पक्ष वध । एकांगवात | श्रद्धांगवात | ( Hemiभर्धरात्रः arddha-rātrah-सं० पु० रात्रि plegia.) देखो--पक्षवध (बात) वा : का अर्धमाग; आधीरात, महानिशा । मिडनाइट . एकाङ्गवात। .. is (Midnight.)-ई01.. अर्धाङ्ग वातारि रसः arddhānga-vātāriअर्धवश्या aiddhawasbya-सं०. स्त्री० rasah -सं० पु. पारा २० तो०, शुद्ध S.: (Semis pinalis.) 1 . , ताम्र चूर्ण ४ तो० लेकर जम्बीर के रस में घोटें, अर्धवलयम् arddha valayam-सं० पु. और उसमें गन्धक २० तो० पान के रस में घोट :- (Arthi)* कर मिलाएँ फिर सम्पुट में बन्द कर भूधरयन्त्र For Private and Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोंगी में ५ पहर तक हलकी जांच में पकाएँ और इसके | बराबर त्रिकटु का चूर्ण मिलाकर बारीक पीस रख ले। मात्रा-२ रत्ती। गुण- यह अद्भांग वात और एकांग वात को नष्ट करता है । रस. यो० सो०। प्रांगी arddhangi-हिं० वि० [सं० ] (१) पक्षाघाती अद्धींग-रोग-ग्रस्त । (One afflicted with the hemiplegia.) माशोनजलम् arddhanshona.jalam -सं० ली. अांश हीन पक्व जल, प्राधा भाग से कम पकाया हुआ जल । यह वात पित्त नाशक है। ग० नि० ५० १४ । मछलिगः arddhāligah-सं-पु. जल सर्प । (Aquatic serpent.) वै०निघ०।। अयिभेदक: arddhava bhedakah | -सं.प. अविभेदक ardhava-bhedaka -हिसंज्ञा पु. एक प्रकार का परियाय से होने वाला शिरःशूल जो सामान्यतः प्राधे शिर में, कभी कभी सम्पूर्ण शिर में हुआ करता है । इसमें जी मचलाता और उबकाइयाँ आती हैं और आँखों के सामने चिनगारिया सी उड़ती दृष्टिगोचर होती हैं इत्यादि। प्राधासीसी । अर्धभेदक, अधकपारी (ली)। हेमिक्रेनिया (Hemierania ), माइ. ग्रीन Migraine, सिकहेडेक Sick headache, मेग्रिम Megrim, नर्वस हेडेक Nervous headache-इं० । माइग्रीन Migraine-फ्रां० । माइग्रेन Migrane -जर । शक्की कह, सुदाञ् निस फ्री, सुदा ग़स यानी-अ०। दर्दे नीम सर, दर्दे शक्रीकह , दर्दे सर ग़स यानी-फा०, उ० । आधासीसी, सर का दर्द-उ० । प्राध् कपालेर धरा-ब। आयुर्वेद के मत से मस्तक के प्राधे भाग में होने वाले शिरोविकार को अविभेदक कहते हैं ।। उनको इसका परियाय रूप से होना. मी स्वीकार है। यथा भीष भेदक अर्धे तु मूनः सोर्धावभेदकः । पक्षात्कुप्यति मासाद्वा स्वमेव च शाम्यति । अति वृद्धस्तु नयनं श्रवणं या विनाशयेत् ॥ (वा० उ०२३५०) अर्थ-मस्तक के प्राधे भाग में जो शिरोविकार होता है, उसे अर्धावभेदक कहते हैं। यह रोग पन्द्रहवें दिन वा भास मास में कुपित होता है और औषध के बिना अपने आप शान्त हो जाता है। अङवभेदक प्रबल हो जाने पर नेत्र वा कानों को मार देता है। सुश्रुताचार्य भी ऐसा ही मानते हैं। परन्तु माधव के विरुद्ध केवल एक वा दो दोषों से ही कुपित हश्रा न मानकर तीनों दोषोंसे कुपित हुना मानते हैं । यथायस्यात्तमाङ्गार्धमतीव जन्तोः संभेद तोद भ्रम शूल जुष्टम् । पक्षाशाहादथवाप्यकस्मात्तस्याभेदं त्रितयाद् व्यवस्येत् ॥ (सु० उ० २६०) माधवाचार्य के मत सेरुक्षाशमात्यध्यशन प्राग्वातावश्याय मैथुनः । वेगसंधारणायास व्यायामैः कुपितोऽनिलः॥ केवलः सकफोबाधं गृहीत्वा शिरसोघली । मन्याभ्रश कर्णाक्षि ललाटार्धेऽतिवेदनाम्॥ शस्त्रारणिनिमांकात तीनांसोऽविभेदकः नयनंबाथवा श्रोत्रमतिवृद्धो विनाशयेत् ॥ (मा० नि०) अर्थ-अत्यन्त रूखे पदार्थ खाने से अधिक भोजन करने से, भोजन पर भोजन करने से पूर्व की वायु एवं बर्फ का सेवन करने से, अति मैथुन करने तथा मल मूत्रादिक के वेगों को रोकने से, अधिक श्रम तथा व्यायाम करने आदि कारणों से केवल वायु अथवा कफ संयुक्र वायु कुपित होकर आधे शिर को ग्रहण कर मन्या नाड़ी, भौंह, कनपटी, कान, नेत्र और ललाट एक ओर के इन सभी अवयवों में कुरुह्माकी के काटने कीसी अथवा अरणी ( जो मय कर अग्नि निकालने की लकड़ी है) के समान तीन पीड़ा उत्पन्न करता है उसको अर्धावभेवक कहते है, For Private and Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भविमेदक यह रोग जब अधिक बढ़ जाता है तब एक ओर के कान और नेत्र को नष्ट कर देता है। यूनानी वैद्यक के मत से शक्कीकह एक प्रकार का शिरोशूल है जो साधारणतः प्राधे शिर में अर्थात् शिर की वाम वा दक्षिण पार्श्व में होता है, किन्तु कभी सम्पूर्ण शिर में होता है । - जैसा मुल्ला नतीस ने इसकी व्याख्या की है। ऐसी दशा में इसको शकीकह आम कहते हैं। निम्नलिखित डॉक्टरी नोट से भी इसकी सत्यता स्थापित होती है। इस वेदना की विशेषता यह है कि यह साधारणतः परियाय रूप से अर्थात् दौरे के साथ हुआ करती है। इसके साथ सामान्यतः हल्जास एवं वमन विकार होते हैं। जिस समय यह वेदना सम्पूर्ण शिर में होती है उस समय इसको सुदा बैजह (सम्पूर्ण शिर के दर्द) से पहिचानने में भ्रम हो जाया करता है। इन दोनों में मुख्य भेद यह है-शकीकह में शाटिकी धमनियों में स्पन्दन अधिक होती है और उनको दबा लेने से वेदना शान्त हो जाती है; किन्तु सुदाबै जाम् में ऐसा नहीं होता। f2 stait ( Tic Douloureux ) अर्थात् इसाब ( भौंहों के दर्द) को भी किसी किसी डॉक्टरी उर्दू ग्रंथों में दर्दे शकीकह लिखा है। परन्तु यह ठीक नहीं। डॉक्टरी मत डॉक्टरों के मत से माइग्रीन एक प्रकार का नौयती शिरःशूल है जो सामान्यतः माधे शिर में हुप्रा करता है। निदान-उनके मतानुसार यह प्रायः पैतृक होता और अधिकतर स्त्रियों को होता है। विशेषतः अधिक रजःस्राव होने या अधिक काल तक स्तन्यदान से यह हो जाता है। कभी | कभी वायगोना भी इसका कारण होता है। विकार, थकावट व श्रम, उपवास एवं निर्वबता, अजीर्ण, अनिद्रा, तीन प्रकाश, उग्र गंध, मलेरिया द्वारा उम्र विषाकता, अति मैथुन, वृक्ष म्याधि और मुख्यकर दृष्टि दोष इत्यादि इसके प्रोत्साहक एवं उत्पादक कारण हैं। - लक्षण -साभरणतः वेदनारम्भ से पूर्व तबी प्राभेदक . यत पालस्यपूर्ण एवं शिथिल होती है, सिर घूमता है, मेत्र के सामने चिनगारियां प्रभृति उड़ती दृष्टिगोचर होती हैं। ये लक्षण पूर्वरूप में होते हैं। फिर इस प्रकार वेदना प्रारम्भ होती हैप्रथम कनपटी और भौंहों में मन्द मन्द वेदमा प्रारम्भ होकर उग्र रूप धारण करती जाती है। यहाँ तक कि कुछ काल पश्चात् अत्यन्त तीन वेदना होने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है गोया शिर विदीर्ण हुमा जाता हो। गति करने से वेदना की वृद्धि होती है। प्रायः तो शिर के एक ही पार्श्व में वेदना होती है। किन्तु -किसी किसी समय सम्पूर्ण शिर में वेदना होती है। तो भी एक ओर तीव्र होती है। रोगी के लिए शब्द तथा प्रकाश असह्य होते हैं। उसकी आँखों के सामने भुनगे वा चिनगारिया उड़ती सी प्रतीत होती हैं। कर्णनाद होता, मुखमण्डल की विव ता, शरीर का कॉपना, नाड़ी की निर्बलता, हृल्लास ( मचली), उबकाइया पाना प्रादि लक्षण होकर अन्तत: एक ओर की कनपटी या भौंह में न्यथा टिक जाती है। दो-तीन घंटे से लेकर साधारणत: २४ घंटे तक और यनि उम्र हो तो कभी २-३ दिवस पर्यन्त रहकर जब शमन होने लगती है तब रोगी को नींद या जाती है। जागृत होने पर वह सर्वथा स्वस्थ होता है और फिर कुछ दिवस परचात्, पर सामान्यतः ३ या ४ सप्ताह बाद दर्द का वेग होता है। अर्थावभेदक की चिकित्सा अर्धावभेदक में दोषों का सम्बन्ध विचार कर शिरोरागान्तर्गत चिकित्सा का भवलम्बन करे। अविभेदके प्येषा यथा दोषावयाकिया। (वा० उ० १४०) अस्तु सिरस के बीज, ओंगा की जर तथा विडनमक इनका नस्य अथवा शालपी के कारे का नस्य अथवा कॉजी के साथ पिसे हुए पवाद "के बीजों कालेप हितकारी है। यथा For Private and Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदुधात्रसेवक अविभेदक शिरीष वीजापामार्गमलं नस्यं विडान्त्रितम्। (मिठाई) श्रादि सेवन न करे। क्यों कि अधिक ..स्थिसरसो वा लेपेतु प्रपुत्राटोऽम्लकल्कितः॥ मांस तथा मिठाई के सेवन से वेग की वृद्धि होती .:(वा० उ० २४ अ०) है । जिस पदार्थ के सेवन से. वेगारम्भ होने की सुधनाचार्य के मत से नस्य कर्म आदि रूप माशंका हो उसका कदापि व्यवहार न करें' और .औषध, जांगलप्राय भोजन और दुग्ध एवं अन्न | प्रत्येक प्रकार के भारी तथा प्राध्मानकारक के बने पदार्थ तथा घृन आदि केवल सूर्यावत में पाहार से परहेज करें। रोगी को चाहिए कि ही नहीं, प्रत्युत अर्धभेदक में भी प्रयोजनीय हैं । भोजन करने से पूर्व एक घंटा तक सर्वथा श्रारामसे और स्नेह, स्वेद, शिराव्यधन ( फसद खोलना ) लेटने की आदत डाले । इस बात का सर्वथा तथा अवपीड़नस्य और कर्णशूलोक दीपिकातैल ध्यान रखें कि मलावरोध न हो। पाखाना साफ़ प्रादि में से जो उपयुक्र हो उसका व्यवहार... हो जाया करे । इसलिए किसी मृदुरेचक औषध का ब्यवहार करें और कभी कभी (महीने में ... शिरीष, मूलक ( मूली) तथा मदनफल एक बार ) ५-७ दिवस पर्यन्त निभ्नयोग का इनका अवपीड नस्य देना अर्धावभेदक । व्यवहार करें। तथा सूर्यावत्त दोनों में हितकारक है । वच और मैग्नेसियाई सल्फास २० ग्रेन, पिप्पली का अवपीड़न करना इसमें लाभदायक क्वीनीनी सल्फास २० प्रेन, है।, अथवा मुलेठी का बारीक चूर्ण कर उसमें एसिड सल्क ढिलं .१ मिनिम, मधु मिल कर इसका अवपाड़ करें। मैंसिल लाइक्वार स्ट्रिक्नीनी : २ मिनिम, अथवा चन्दन के चूर्ण में शहद योजित कर इस इन्फ़्यु जम जॉरेंशियाई (ऐड) १ पाउंस । का अवपीड़न करें। (सु० उ० २६ अ०) ऐसी एक-एक मात्रा औषध दिन में ३ वार :..::. : परीक्षित नस्य ........ काश्मीरी पत्र, करकीर-पन्न, छोटी इलायची, काय जब वेदना के वेग से पूर्व आँखों के सामने फल, नकछिकनी, -जौहर नवशादर और सफेद चिनगारियाँ सी उड़ती दिखाई दें या कनपटी पर चन्दन । सबको समान भाग लेकर खूब : बारीक सुरसुराहट बोध हो या शिरोघूर्णन वा शिर के चूर्ण कर रखें । इसका, नस्य लेने से प्राधासीसी एक पार्श्व पर सूचम सी वेदना हो तब दो तीन को लाभ होता है........ दिवस पर्यन्त १० ग्रेन अमोनियम् ग्रोमाइड को डॉक्टरी चिकित्सा ... किञ्चित् जल के साथ दिन में ३ बार व्यवहार रोग के मूल कारण का पता लगाकर उसको करें। 'अथवा ३ दिन तक १५ ग्रेन *शिल्यम दूर करने का प्रयत्न करें और यदि प्रधान कारण लैक्टेट थोड़े सोडावाटर में मिलाकर ऐसी एक ज्ञात न हो सके तो निम्न लिखित उपाय काम में एक मात्रा दिन में तीन चार बार दें। रोगी को प्रादेश कर-कि बह स्वास्थ्य बेग कालीन चिकित्सा संरक्षण सम्बन्धी नियमों का पालन करे और जब शिर में दर्द होने लगे तब रोगी को एक मध्य मार्म बन कर जीवन निर्वाह करे। .स्वच्छ अँधेरे कमरे में सुखपूर्वक लिटाए रखें। वहाँ एवं खुली हुई वायु में रहे । दैनिक वायु सेवनार्थ पर किसी प्रकार का शोर व गुल न होने दें। भ्रमण किया करे। अधिक श्रम एवं वैकल्यकारक / . . सेगी को कोई प्राहार न दें। यदि 'प्रामाशय कार्थी संधी चिंता प्रादि से अपने को दूर रक्खें।।: पार से पूर्ण हो तो कोई वामक यथा - ड्राम 'यथासम्भव अपने को प्रसन्न रखने का यत्न करें। वाहनम् इपिकेक्वानी ४ श्राउंस जल में मिला. "उष्ण व उत्तेजक आहार यथा पोलाव, वर्मा, कर पिलाएँ जिसमें १-२ वमन प्राकर कोष्ठ शराब वा कबाब, चाय तथा कहवां और मिष्ठा शुद्धि हो जाए और यदि प्रामाशय रिक हो तथ EPISOपाकर For Private and Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविभेदक पर आध घंटे पश्चात् १-२ मात्रा और दें। । वेगान्तर काल में कुछ दिन तक २-दाम की मात्रा में प्रातः सायं इसका सेवन किया करे। प्रत्येक भाँति के शिरोशूल में लाभदायक है। -'. (५) ऐस्पिरीन . ५ ग्रेन - फेनासिटीन... ३ ग्रेन डोवर्स पाउदर ३ ग्रेन ऐसी एक-एक पुडिया एक- एक घंटे परचात् तीन-चार पुड़िया तक दें। (६) भविभेदक के लिए अत्यन्त लाभ. दायक है। नोरल हाइड्रेट १० ग्रेन. : पोटासियम् प्रोमाइड .. १५ ग्रेन... लाइक्कार ट्राइ नाइट्रीन मिनिम . एक्का नोरोफॉर्म (ऐड) । पाउंस .. ऐसी एक-एक मात्रा दिन में तीन बार बार बार उबकाइयाँ पाती हों तो बर्फ चुसाएँ 'अथवा सोडावाटरमें बर्फ डालकर चूट चूंपिलाएँ : प्रामाशय द्वारपर १५-२० मिनट तक राई • का प्लास्टर लगाएँ । मलावरोध होने की दशा में ब्ल्यूपिल ५. ग्रेन खिलाकर रसके घंटे .पश्चात् सोडियाई सल्फास या मैग्नेशियाई सल्फास ४ - से ६ ड्राम ४ अाउंस ( २ छ०) पानी में मिलो कर पिलाएँ। शिरोशूल निवारणार्थ निम्न योगों में से किसी एक का व्यवहार करें । ये सब - अंत्यन्त लाभप्रद और परीक्षित हैं। . केफीन साइट्रास १० ग्रेम, फेनासिटीन १० ग्रेन यह एक मात्रा है। ऐसी एक मात्रा औषध प्रातः काल अथवा किसी भी समय वेदना काल . में जल वा दुग्ध के साथ सेवन करें। - (२) ऐण्टीपायरीन. ५ ग्रेन । - सोडियम सैलीसिलेटर ग्रेन केफीनी साइट्रेट ग्रेन सीरुपस अरेशियाइ ३० मिनिम एक्वा कोरोफार्माई (ऐड) प्राउंस ऐसी एक-एक मात्रा औषध १५-१५ मिनट - पश्चात् तीन-चार बार दे । वेदना प्रारम्भ होते ही इसका प्रयोग करने से प्रायः व्यथा रुक जाती है। (३) व्युटल क्रोरल हाइड्रेट.५ ग्रेन टिंक्चुरा जल सीमियाई ८ मिनिम टिंक्चुरा कैन्नाबिस इण्डिकी ५ मिनिम ग्लीसरीन . १ ड्राम एक्वा (एंड) १ श्राउंस . ऐसी १-१ मात्रा औषध श्राध-श्राध घंटे पश्चात् दो-तीन बार दें । इस प्रकार के शिरोशूल में यह औषध अत्यन्त लाभप्रद है। १६. (४) ऐण्टिपायरीन १० ग्रेन ... पोटासियाई ब्रोमाइडाई २४० ग्रेन • स्पिरिटस कोरोफॉर्माई . २ ड्राम। एक्वा कैम्फोरी (ऐड) ८ पाउंस इसमें से प्राध श्राउंस (४ ड्राम) औषध वेदना प्रारम्भ होते ही । आवश्यकता होने - (७) हर प्रकार के शिरःशूल के लिए गुणदायक है। . ऐस्पिरीन ५ ग्रेन क्कीनीन सल्फेट ३ ग्रेन . फेनासिटीन ३ ग्रेन . केफीन . २ प्रेन - ऐसी एक-एक पुड़िया २-२ घंटे के अन्तर से ३ पुड़िया तक दें। .. () यह अर्धावभेदक के वेग रोकने के लिए अत्युपयोगी है। दो तीन मास इसका निरन्तर उपयोग करना चाहिए। . सोडियम बोमाइड १० ग्रेन टिंक्चर जेल सीमियाई १० मिनिम लिकार ट्राइ नाइट्रीनी ... मिनिम ___ लाइक्कार स्ट्रिक नीनी . ५ मिनिम. . एका मेन्थी पेप(ऐड) १.प्राउंस . ऐसी एक-एक मात्रा दिन में २-३ बार दें। नोट-प्रत्येक सप्ताह में एक दिन का नागा *देना चाहिए । इस प्रकार के हीले शिरो वेदना में दोनों स्कंधो के बीच में और कानों के पीछे और भीचे खुश्क गिलास लगाने से तथा गुही पर For Private and Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org क्षेत्रक रुपये के बराबर ब्लिस्टर लगाने और फिर निलस्टर जनित इस पर मरहम सिथून लगाकर उसको दस दिवस पर्यन्त शुष्क न होने देने से और विकारी पार्श्व अर्थात् जिस ओर तीव्र वेदना "होती है उस ओर के कान के पीछे के प्रस्थ्यपर सई के पलस्तर लगाने से प्रायः लाभ होता है। यूनानी वैद्यकीय चिकित्सा रोगी को एक अँधेरे कमरे में सुखपूर्वक लिटाए रखें और उसके प्राकृतिक शैत्य व ऊष्मा को ध्यान में रखकर वाह्य तथा श्रान्तर उपचार काम में लाएँ तथा रोग के मूल कारण का परिहार करें । अस्तु उदर के आहार से पूर्ण होने से वाष्पोत होकर इस प्रकार का शूल हुआ हो तो ( १ ) तीन पात्र उष्ण जज में सिकअबीन सिर्का ४ तो० और सैंधव १ तो० को विलीन कर पिलाकर मन कराएँ । यदि मलावरोध की भी शिकायत हो तो किसी उपयुक्त वस्तिदान द्वारा उसको शीघ्रातिशीघ्र निवारण करें। प्रकृतोष्मा की दशा में रोगी को ( २ ) कपूर तथा श्वेत चन्दन सुँघाएँ तथा ( ३ ) २ रत्ती अफीम, ४ रत्ती कपूर को पानी वा स्त्री दुग्ध में घोलकर नस्य दे या ( ४ ) केवल रोगन बननशा वा श्री दुग्ध का उक्त विधि से सेवन कराएँ या ( ५ ) सिन्दूर ४ रती को एक काग़ज़ पर मल कर उसकी बत्ती बनाकर उसका एक सिरा वेदना होने वाली मासिका के विपरीत दूसरी ओर की नाक में रखें और दूसरे सिरे की ओर से जलाकर धूनी लें । मादा के विनाश हेतु पिण्डलियों पर मज़बूत बंधन लगाएँ और पाशोया कराएँ । ( ६ ) चन्दन और कपूर को गुलाब में घिसकर शिर और शंख स्थल पर प्रलेप करें । ( ७ ) परीक्षित प्रलेपसेठ, चन्दन श्वेत, एरण्ड मूल स्वक् सब को सम भाग लेकर साठी चावल के धोवन में पीस कर मस्तक और कनपटी पर लगाएँ। इससे हर प्रकार के अद्धविभेदक में लाभ होता है । ( ८ ) उम्र वेदना की दशा में कुर्स, मुसल्लस का व्यवहार करें। ( ३ ) वर्ग मोरिद सब्ज़, मुरमकी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेक सिम सनोतरी, रसवत मक्की, रसवत हिन्दी, समग अरबी, निशास्ता, अजरूत, कतीरा, पोस्त कुंदुर, गुलनार फारसी, श्रकाकिया, दम्मुल अवैन, शियान मामीसा प्रत्येक ३ मा०, अफीम ६ मा०, जाफरान २ मा० । समग्र औषध को कूट कर मोरिद के हरे पत्तों के पानी में गूँ ध कर टिकिया प्रस्तुत करें। श्रावश्यकता होने पर एक टिकिया को अण्डे की सदी में घोल कर गोल और छिद्रयुक्त काग़ज़पर लगाकर शांखिकी धमनी पर चिपका दें। इससे बहुत शीघ्र वेदना शान्त हो जाएगी । ( ) अनिद्रा की दशा में रोगन बनफ्शा, रोगन कह, या रोगन काहू प्रभृति का शिर पर अभ्यंग करें। इससे नींद आ जाती है। प्रकृति के शैत्य की दशा में मेंहदी के पत्तों को पीसकर इसका प्रलेप करें या बादाम ५ को सर्षप तैल में पीसकर मस्तक पर लगाएँ और रीठा को पानी में घिसकर दो तीन बूंद नाक में टपकाएँ | इससे लाभ न होनेकी दशा में यह प्रलेप लगाएँ । 90 एक जमालगोटा को पानी में घिसकर वेदना युक्र पार्श्व की दूसरी ओर की कनपटी पर रुपया के बराबर प्रलेप करें। यदि इससे अधिक जलन हो और फोस्का उत्पन्न हो जाएँ तो उसपर मक्खन लगाएँ । पुरातन श्रधासीसी पर निम्न द्रलेप का उपयोग करें। मेंहदी के पत्र इन्द्रायण का गूदा, उश्शक, इक़ीलुल मलिक, कबाबचीनी, एलुआ सबको समान भाग लेकर बारीक पीस लें और सिरका में मिलाकर प्रलेप करें या यह प्रलेप लगाएमुरमकी २ मा० को किञ्चित् सिरका में पीसकर लेप करें । नस्य यह साधारणतः उस कफज श्रद्धव भेदक में जिससे शिर में गर्मी और वेदना की शिकायत एवं टीस नहीं होता, लाभदायक है । समुद्र फल १ और नवसादर : मा० दोनो को बारीक पीसकर सूर्य की ओर मुखकर नस्य लें । इससे प्राय: छींकें श्राकर वेदना शांत हो जाती है। दिन में कई बार प्रयोग करें । For Private and Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविभेदक अद्धन्दु शकला शीरा उस्तु खुद्दस ३ मा०, काली मिर्च इसका अर्द्धावभेदकमें प्रयुक्त होनेवाली पानी में शीरा निकाल कर बिना साफ किए सूर्यो अमिश्रित औषधे दय से प्रथम पान कराएँ अथवा इस फांट का आयुर्वेदीय तथा यूनानो–जदवार, समुद्रप्रयोग करें-गुलबनक्सा ६ मा०, उन्नाव ५ दाना, फल, छिक्किका ( नकछिकनी ), अपराजिता, सपिस्ताँ १० दाना, गुलख्रिस्मी ४ मा०, शाहतरा बन खजूर ( राम गुअाक), विडङ्ग, हिंगु, दुरा६ मा०, पालूबोखारा ५ दाना, बिहीदाना ३ मा०, ल भा, तिक कोशातकी, विडग तैल, रीठा । सम्पूर्ण औषध को अर्क कासनी २० तो० में __ डॉक्टरी-प्रार्सेनिक, केफीन, कानी, फेरी भिगोएँ और प्रातः इसको थोड़ा क्वथित कर सल्फ, क्विनीन, विराट्रिया, केफ़ीनसाइटास, फिना२ तो० मिश्री मिलाकर पिलाएँ । विबंध को दूर सिटीन और एसिटेनिलाइडम् (ऐण्टिफेबिन)। करने के लिए मग़जा फलूस ४ तो. को जल में मिश्रित औषध घोलकर इसमें ४ तो० एरंड तेल मिलाकर कभी श्रायुर्वेदीय - शिरोशूल में प्रयुक्त होने वाली कभी पिलाते रहें और हन्ध बलसाँ १॥ मा० प्रायः औषध | रोजाना खिलाएँ, अथवा यूनानी मिश्रित औषधों यूनानी-इत रीफल फौलादी, हबूब अयामें से अावश्यकतानुसार किसी एक का उपयोग रिज, सऊत अजीब, सऊ त इसाबह, व शकीकरें। कह., कुस मुस लस, दवाए शनीक़ह, और यदि इन उपचारों से लाभ न हो तो फिर | शिरोशूल में प्रयुक्र होने वाली सभी दवाएँ । मुभिज और मुसहिल पिलाकर व्याधि गत दोषों। पथ्यापथ्य का पूर्णतया शोधन करें। शिरोरोग में वर्णित पथ्यापथ्य एवं आहारमुञ्जिज-गुल बनक्शा, गाव जुबान, मको विहार अनुसरणीय हैं। खुश्क, तुल्म कसूस ( पोटली में बँधा हुश्रा) शाहतरा, असन्तीन प्रत्येक ५ मा०, पालूबो- | बोअर्द्धाशनम् arddhashanam-सं० क्ली० खारा, उमाब, सपिस्ताँ प्रत्येक है दाना, तमर हिंदी - अद्ध भोजन, प्राधा पेट खाना, भूख से कम (अम्लिका ) २ तो०, तुर्बुद ६ मा० । सम्पूर्ण खाना । श०००। औषध को कथित कर और मल छानकर खमीरा | अर्द्धिक arddhika-हिं० संज्ञा प० [सं०] बनफ्शा सादा ४ तो० मिलाकर सात दिवस तक अविभेदक । आधासीसी । ( Hemiपिलाएँ । पाठवें दिन उसी नुस्खाम मग़ज़ फलूस crania.) ख़यार शंबर ५ तो०, तुरञ्जबीन ४ तो०, शीरा | अर्धीकरण arddhi-karana-हिं• संज्ञा पु. मगज़ बादाम शीरी ५ दाना मिलाकर विरेचन [सं०] अाधा करना। दें। दूसरे और तीसरे विरेचन में मुख्यतः मस्तिष्क अर्द्धन्दुः arddhenduh-सं० पु. नख की शुद्धिहेतु हब्ब अयारिज मा० रातको खिला चिह्न । मे० दत्रिक। कर प्रातः काल प्रागुक्र विरेचन दें। यदि वेदना | पूर्ण रूप से शांत न हो तो फिर कुछ दिन हब्ब अद्धन्दुपुष्पक arddhendu-pushpak स०अज्ञात । सिब्र या इतरीफल सग़ीर १ तो० या शबंत उस्तु खुद्दस २ तो. उपयोग में लाएँ। दु शकला arddhendu.shakala - हब्ब सिब-एलुमा २ तो०, हड़ काबुली १ -स. स्त्री० (१ ) नासारोग ( Nasal सो०, मस्तंगी ७ मा०, गुलसुर्ख, अनीसू प्रत्येक disease)। अम्रा ज ल अन्फ्र-अ०। (२) ४ मा० और कतीरा ६ मा०, सबको बारीक पीस कपालरोग भेद । ( A kind of the कर चने के बराबर बटिकाएँ प्रस्तुत करें। मात्रा diseases of skull.) ५ मा० रात्रि को सोते समय उष्ण जल के साथ । (३) प्रोष्ठ रोग { Labial diseases.) For Private and Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अझेदक क्षीरम् अर्फ हकफी (४) अव्वद रोग । ( Tumour ) अर्नका armica-इं० (५) गल रोग (Phalyngeal diseases) अनिका मॉण्टेना alnica montana, (६)तालु रोग (Diseases of the palate) .-ले० (७) कर्ण रोंग । ( Diseases of the | car.) व० निघ। मेमो० । देखो-पार्निका मॉरटेना। प्रदिक क्षीरम् arddhodaka-kshiram | अर्नीका फ्लोरिस arnica floris-ले. अर्नीका -स. क्ली० श्रद्धोदक शृत दुग्ध, प्राधा जल फ्लावर्स ( arnica flowers.)-ई०। मिलाकर पकाया हुश्रा दुग्ध यह ष एवं लघु अर्निया कल्दः arniya-kaldahah सं० प. होता है। __ चाकसू । ( Cassia absus.) 'अर्बोदकं पयः शिष्टमामालघुतरं शृतम्'। अर्नियाती armiyati-सं० स्त्री० थल पद्मनी | हेमाद्रिक्षारपाणि । स्थल कमल । अर्ध ardha-हिं० वि० दे०–श्रद्ध। afirma arniyúqúna.to faritari (An ____drographis paniculata.) . अर्न arma-चीड़ वृक्ष भेद । ( Chira) अर्नोसीन arnicin-इं०, अर्नाका सत्व | V. अनकी alnaqi-यू० एक विशाल वृक्ष है जो 1. JM. चीन तथा भारतवर्ष में पाया जाता है । इसकापुष्प | अनुकसान āarnuqsan-० हिन्दकृकी, विषलाल, पीला, प्रथया श्वेत होता है। खपरा। अर्नब बरीं ॥rna ba-bari-अ० खरगोश । अनेबिया arabia, p.-ले० रतनजोत, रङ्गे (A hare.) बादशाह । देखो-रतनजोत | (Alkalhet.) अर्नब बह री anaba-ba.hri-अ०दरियाई फा० इं०२भा० । मेमो०। . __ खरगोश । ( Sea-labbit.) अर्नेट alnat ) -इं० लटअर्नबी arthabi-अ० एक बूटी है जो खरगोश के | Earnatt's dye कन, बल कन| पैर के समान होती है। यह ख़राब और शीतल (Bixa orellana, Linn.) O HO स्थानों में होती है। प्लां० । qalazze arna-biyyah । अर्नाटाप्लाण्ट hotta plant-ई० सेन्दुरिया ja galarna āain-arn abiyyah लटकन, वटकन । Armatto ( Bisa ore -अ० एक रोग है शतरह ( shaiarh) | 1lana.) इं० मे० मे०। जिसमें ऊर्ध्व पलक सङ्कुचित होकर छोटे हो अह aalfa b-० हथेली का घाव । जाते हैं और मीचेको लौट जाते हैं। इस कारण haarfa-अ० (१- शाब्दिक अर्थ "उच्च स्थान" . दोनों पलके परस्पर नहीं मिल सकतीं और परन्तु परिभाषा में अस्थि की ऊभरी हुई रेखा को रोगी के नेत्र सुप्तावस्था में शशा चतु सदृश प्राधे खुले रहते हैं । लैग ऑफ्थैल्मास ( Lag क्रेस्ट ( Crest.)-इं०। (२) बास । ophthalmas.)-इं०। अर्फ पानी aalfa aani-अ० पेड़ की अस्थि की अर्ना arma-हिं० जंगली भैंस ( Wild उभरी हुई रेखा । प्युबिकक्रेस्ट(Pubic erest.) buffalo.)। अर्ना arni-हिं० महोनिम्ब ( Ailantus. अफ़ज aalfa.j-अ०तीक्ष्ण दुग्ध मय बूटी भेद । __exeelsa, Roxb.) फा० इं० १ भा०। अफ़ हर्कफ़ी āarfa.harqafi-१० चड्डे की अर्नाबः arabah-स. प. जंगली अंजीर । । अस्थिकी उभरी हुई रेस्त्रा । लिक स्ट ( Wild fig) (Iliac crest.)-ई० . . . . For Private and Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शर्दिया मन्यु दान अर्फियह arfiynh-अ० कारता । दोषों के कारण उत्पन्न होती है। इसमें दर्द नहीं अबतह. batah-अ० (ब० व.), रबात होता, इसे अर्बुद कहते हैं। जब यह वर्म के . (ए० व.) बंधनी । लिगेमेण्ट्स Ligame- वाहर होती है तब यह चलायमान और विषम nts)-ई । प्राकृति वाली होती है । जैसेअर्बहरा aarbathra-लिरि० संभालू बीज । Vi. वमान्तमा सपिगडाभः श्वयथुग्रंथितो रुजः । tax negundo (Seeds of-) सानैःस्यादर्बुदो दोषविषमोबाह्यतश्चलः ॥ वा० उ० अ०८। अतिर्रिहम arbita burrihm-अ० जरायु (७) अस्थि का उभरा हुअा भाग । ( Pro बंधनिया, गर्भाशय के बंधन जो उसको एक दूसरे से संलग्न रखते हैं । लिगेमेण्ट्स ऑफ दी tuberance.) (८) रक के प्रकोप से तालु के बीच में पद्म यूटरस ( Ligaments of the Ute के श्राकार के समान जो सूजन होती है उसे Tus.)-इं०। "अर्बुद" कहते हैं । वा० भ० सं० अ० २१ । अर्विततुल मसानह. arbitiatul masānall -अ०, वस्तिबंधन, मूत्राशय के बंधन । लिगे अर्बु दम् budam-सं० क्ली० (१) (Tuberमेण्ट्स अॉफ दो ब्लैडर ( Ligaments of ___cle ) उभार । (२) अर्बुद फोड़ा विशेष (Tumour) the bladder.)-इ० । अर्बुद फलम् arbuda.phalam-सं० क्ल अर्बियानुस arbiyanus-यू० बाबूनहे गावचश्म मलूक का फल | यह एक भारतीय वृक्ष है । -फा० । फर्तानियून-यू० । पार्थीनिअम ( Pa अर्बुदहरो रसः arbuda baro-lasah-सं० rthenium ), मैटिकरिया Matrica. पु० दे०-प्रवुद हरो रसः। -ria-ले। म अडॉ.। अर्बुदान्तर सरिका arbudantarra-sari. अर्बी aarbi-अ० सफ़ेद यव ( White barl. tká-po ato (Intertubercular.) ___ey)। (२) सुल्त । अबू तानून arbutānāna-न. एक बूटी है जो अर्बु (व)दः arbu(vu)dah-सं० पु०, क्ली। पृथ्वी पर फैलती है। यह जंगली तुलसी के अर्बुद arbnda-हिं० संज्ञा पु. समान किन्तु उससे छोटी और नर, मादा दो (१) गणित में नवे स्थान की संख्या । दश प्रकार की होती है। कोटि । दस करोड़ । अर्बोर कॉन्सिलियोरम् arbor concilior(२) कद्रु का पुत्र, एक सर्प विशेष । um, Rum.-ले० पीपल, अश्वत्थ | (Ficus (३) मेघ । बादल । religiosa.) फा० ई०३ भा०। (४) दो मास को गर्भ। अोर टॉक्सिकेरिया फेमिना arbor toxica. (५)एक रोग जिसमें शरीरमें एकप्रकारकी गाठ ria femina & Mas-ले० सापसुण्डी पड़ जाती है । इसमें पीड़ा तो नहीं होती, पर -मह । फा० इं.३ भा० । कभीकभी यह पक भी जाती है । इसके कई भेद हैं अोर वाइटी arbor vitam-ई० ( Thuya. जिनमें से मुख्य रकार्बुद और मांसावुद हैं। ____occidentalis )-ले० सन्द्रच । बतौरी । रसौली । ( Tumour ) अ टीन arbutin-इं. रीछदाख सत्व, भक सु०नि०११ श्र० । मा० नि० दे० अब्बुद । द्राक्षासार । (६) नेत्र वर्त्म गत रोग विशेष | यह मांस मात्रा-५ से ३० ग्रेन । देखो-भल्लूक " के पिंड के समान एक गांठदार सूजन है जो वर्त्म (रीछ) द्राक्षा( Arctostaphylos uvaके भीतर होती है। यह रक तथा वातादि तीनों ursi) पी०वी०एम०। For Private and Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्को अवाग्लेण्ट अर्मालक अर्जी अवाग्लेण्ट arbre aveuglant-फ्रां० अर्म aarm-अ० मत्स्य भेद । ( A kind of गेरिया, गङ्गवा, अगुरु-बं० । Blinding fish.) tree, Tiger's milk tree ( Exc- अर्मज़ āalmaz-अ० हरी काई जो जल के ऊपर æcaria agallocha, Linn.) 910 श्राजाती है ( Green moss. )। (२) इं०३ भा०। हब्बुलग़ार । (३) जंगली बेर । (४) छोटे अर्की श्र-सोई arbre a soie-फ्रां. श्राक, पीलू का वृक्ष । मदार । Gigantic swallow wort अर्मज़ान aarmazana-अ० (१) हिन्द्की । ( Calotropis gigantea, R. Br.) (२) बख़ रुल अकाद । फा० इं० २ भा० । अर्मणः armanah-सं० पु. द्रोणपरिमाण अर्जी वची ar bre vache-फ्रां० तगर । Cey. (३२ सेर )। प० प्र० १ ख०। च० द. lon jasmine ( Tabernæ mont. ० सा०चि० कुट जाव तेह । ana coronarian Ba. ) फा० इं० २ श्रमद armada-अ० रम्द अर्थात् आँख दुखने भा० । का रोगी, वह व्यकि जिसके नेत्र दुखते हों अब्रोस डी' एन्सेन्स arbres d' ence ns (अाँख प्राई हो)। अभिष्यंदी । अॉफ्थैल्मिएक . -फ्रां० लुबान, कुन्दर । Frankincense (Ophthalo:iac. )-501 tree ( Bos wellia.) फा० ई० १ भा० । | अर्मनी armani-हिं० संज्ञा पु० दं०अर्भः,-कः arbhah,-kah-सं० पु. । अरमनी। अर्भ,-क arbha,-ka-हिं० संज्ञा पुं० अर्मनीन armanina-यू. एक बूटी है जो (१) बालक, शिशु, पुत्र । ( A child, प्रतिवर्ष उगती और बागी व वन्य दो प्रकार की a pupil ) रा०नि० व०१८ । (२) कुश होती है। इसमें बाग़ी के पत्र भाऊ पत्र सदृश ( Poa cynosuroides.) मे० कत्रिकं । होते हैं तथा जंगली अप्रयुज्य है।। (३) पक्षजात शिशु, १५ दिवस का पैदा हुआ अर्मल armal-अ० बे तोशा, कुँवारा पुरुष । बच्चा। रा०नि० २०२८ ( Bachelor.) हिं०वि० (१) मलिन । धुंधली । (२) शिशिर | अर्मा aarma-रक श्याम सर्प । (A red ऋतु । (३) साग पात । ___black serpent.) अर्भः arbhah-सं० पु. बाल सर्प । सार का अर्माक armaka-कह की बेल का नाम अथवा बच्चा। अथवं० । सू०२६ । ३ । का०७। केवड़ा वृक्ष की छाल । अर्भकम् arbhakam-सं० क्ली० छोटा | अ ( . )ौज़ ia-ai-rmaza-१० काई । विषैला काटा या विष | अथर्व० । सू० ५६ । | (Moss. ) ६ । का०७। धर्मात armāta-यू० केवड़ा या गुले केबड़ा । अर्भा arbha-सं० स्त्री० गुग्गुल । ( Burser-अर्मानियाँ armaniyan-य० लाजवर्द । See acete ) "अर्भाचूर्ण सहयुतम् । "प्रयोगा० ___Lajavard. . भग्नचि०। अर्मानूस armanusa सिरि० अजवाइन, नुराअर्म arama - हिं० संज्ञा पु० [सं०] अाँख का सानी । ( Hyocyamus.) एक रोग । टेंटर । डेढर। अमह aar mah-अ० जंगली चूहा । (A wild | अर्मालक armālaka ) rat.) ___ जो तज के समान तथा सुगन्धित होता है। अर्माल armāla | एक वृक्ष की छाब For Private and Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीना १८५ मह कुजद अर्माना armina-अ०, य. नौशादर । Sal- हरीतकी फल ( Terminalia cheb ammoniac ( Ammoniae hydro- ul:, Retz. ) To Foro gol chloras.) स. फा. इ० अलू lu-पं० क चैटा, किंगली, अग लाग्न । अर्मीनाकुन . arminaqan-यू० जर्दालू, एक ( Mimosa rubicaulis, Lam. ) फल है जो पीतवर्ण का और गोल व मधुराम्लता मेमो०। फा० इ०३भा० । (२) परलू । युक्त होता है। न वानी इसका एक भेद है। यह अर्व ३arval-अ० कम्पन लगकर घर चढ़ना, शीत प्रदेशो में अधिक होता है । जाड़े से ज्वर श्राना, शीत पूर्व ज्वर, जूड़ी अनिया armāuiya-यू० अका क्रिया । See- ज्वर । Akikia. अर्वती arvati-सं० स्त्री० अज्ञात औषधि अर्मन् armman-सं० क्ली० नेत्र रोग विशेष | अथर्व । मू०४।२१ । का० १० । यह पांच प्रकार का होता है श्रवन् alvan-सं०० गतिशील, चल नेवा ना (१) प्रस्ता>र्म, (२) शुक्लार्म, (३) अथर्व । रक्रार्म, (४) मांसार्म और (५) स्नायवर्म । | अर्वाक avaka- अ इनके लक्षण यथा स्थान देखो-1 अर्वाक स्रोता alvika-srota-हिं० संज्ञा पु.. अर्यमा aryyamā-सं० पु०, हिं० संज्ञा पु० . [सं०] (1) अर्क वृक्ष, पाक (Calotropis जिसके वीर्यपात हुश्रा हो। ऊ रेता का उलटा । gigantea. 1 [o tạo ao 12 ( 7 ) सूर्य । She Sum)। अर्वाह urvāh-(ब० व०), रूह, (ए० व०) अर्र aart-अ० (3) कण्डु, खज, खुजली । अ. ये तीन हैं-(१) रूह है वानी ( प्राणी शक्रि ) जो हृदय में उद्भत होती है और धम(The-itch)। (२) जड़ से बाल नियों के द्वारा सम्पूर्ण अवयवों में विभाजित उखाड़ना। होकर उनको प्राण शक्ति प्रदान करती है, (२) अर्रक araqq-अ० रनोकतर अर्थात् बहुत पतली रूह नक्सानी (मानसिक शशि ) जो मस्तिष्क में संजनित होती है और बोध तुन्तुओं (नाड़ियों) अर्रा arra-हिं• संज्ञा पु० [?] एक जंगली द्वारा शरीर में फैलकर उनको वोध व गति पेड़ जो अर्जुन वृक्ष से मिलता जुलता होता प्रदान करती है, (३) रूह तब् ई (प्राकृतिक है। इसकी लकड़ी बहुत मज़बूत होती है शक्रि ) जो यकृत में पैदा होती है और शिरानों छत पाटने आदि के काम में आती है। द्वारा अवयवों में वितरित होकर उनको पाचन (२) अरहर। आढकी। शति एवं पोषण प्रदान करती है। रूह मर ज aruzal -अ० तण्डुल, चावल | Rice के लक्षण एवम् वास्तविक के लिए तेखोउर्ज uaza (Oryza sativa, Lin.) स० फा० स्पिरिट्स Sqirits, सोल्स Souls, न्यूमाज़ Pneumas | ये मुख्य पारिभाषिक भहीनाल arrhenal-ई प्रार्सिनिल Ars शब्द है जो अर्वाह के उपयुक्त पर्याय हैं। ypil (Disodium methyl arse- अर्वाह कुञ्जद arvāh-kun jada-अज्ञात । nate. ) यह काकोडाइल का एक नवीन | श्रवण: arvvanah) पौकिक है । देखो-संखिया। अचान् arovi-n सं० पु० अश्व घोड़ा । म(रोल ar(ra)lu-सिं० पीली हड़, हरी, | (A horse.) भा० पू०। । For Private and Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्दः श्रर्वती अब ती alvvati-सं० स्त्री० वड़वा । कुम्भ दासी । मे० तत्रिक। अर्वा,-न् alvvā,-n-सं० पु० अश्व (A ho. | ___rse.)। भा० पू० । अर्बुदः arvvulah -सं० पु. की० । अवुद: arbuda h । (१) पुरुष । (२) दशकोटि परिमाण ! मे० दत्रिकं । (३) मांसकोलकाकार रोग विशेष। देखो-अर्बुद ।। रसौली, बतौरी (डी), अबु (बु ! द-हिं । व्य मर (Turmour.)-इं० । जदरह, , सल्अह् । वर्म-अ प्रात-ब। प्रायवेद के मत से अबुद एक प्रकार की मांस की गाँ है जो वातादि दोषों के कुपित होकर मांस और रक को दषित करने से शरीर के किसी भाग में हो जाया करता है। यह गोल स्थिर, मंद, पीडायुक्त, अति स्थूल ( यह ग्रंथि से बड़ी होती है), विस्तृत मूलयुक्र, बहुत काल में बढ़ने वाली और नहीं पकने वाली होती है। वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, मांसज और मेदज भेद से ये छः प्रकार के होते हैं। इनके लक्षण सदा ग्रंथि के समान होते हैं। (किसी किसी ने . द्विरवुद और अध्यर्बुद इन दोनों को सम्मिलित कर इसके प्राउ भेद माने हैं)। . गात्र प्रदेशे क्वचिदेव दोषाः .. संमूञ्छिता मांस मभि प्रदूष्य । वृत्तं स्थिरं मन्दरुज महान्त ___ मनल्पमुलं चिरवृद्धयपाकम् ॥ कुर्वरित मांसोञ्छ, यमत्यागाचं तदर्बुद शास्त्रविदो वदन्ति । वातेन पित्तेन कफेन चापि रक्तन मांसेन च मेदसा च ॥ तजायते तस्य च लक्षणानि ग्रंथेः समानानि सदाभवन्ति ॥ मा० नि० । सु०नि० ११ १०। प्रवुद के उपयुक्र भेदों में से रवावुद और मांसावुद मुख्य हैं। इनमेंसे प्रत्येकका यहाँ पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है। रक्तार्बुद दोषः प्रदुष्टो रुधिरं शिरास्तु संपीड्य संकोच्य गतस्तु पाकम् । सोनावमुन्नति मांसपिराडं मांसाङ्कुरैराचितमाशु वृद्धिम् ॥ स्रवत्यजन विरं प्रदुष्ट मसाध्यमे तद्रुधिरात्मकं स्यात् । रक्तक्षयोपद्रव पीडितत्वात् पाण्डुभवेदर्बुद पोडितस्तु । मा०नि० । सु०नि०११०। अर्थ-द्रषित हा दोष रुधिर की शिराओं को संकुचित कर उनको इकटा कर मांस के गोला को प्रकट कर देता है। वह कछ पकनेवाला तथा कुछ बहने वाले मांस के अंकरों से व्याप्त एवं शीघ्र बढ़ने वाला होता है। उसमें से सदा रुधिर बहा करता है यह रताबद असाध्य है। यह रतावुद रोगी रकजय के उपद्रवों से पीडित होने के कारण पीला हो जाता है। ये रतावद के लक्षण हैं। मांसावुद ( Cancer) मुष्टि प्रहारादिभिरवितेऽङ्ग मांसं प्रदुष्टं प्रकराति शोफम् । अवेदनं स्निग्बममन्यवर्ण मपाकमश्मोपममप्रचाल्यम् ॥ प्रदुष्ट मांसस्य नरस्यबाढ मेतद्भवेन्मांस परायणस्य । मांसाबुदं त्वेतदसाध्यमुक्तं साध्यप्वपीमानि तु वर्जये। मा० नि० । सु०नि०.११ १०। अर्थ - मुक्का वा चूसा अादि के लगने से शरीर में जो पीड़ा होती है उस पीड़ा से मांस दूपित होकर सूजन को उत्पन्न करता है। यह सूजन पीड़ा रहित, चिकनी देह के रंग के समान होती है, इसका पाक नहीं होता और यह पत्थर के समान स्थिर होती है। जिस मनुष्य का सांस For Private and Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द Lev दूषित हो जाता है अथवा जो सदैव मांस खाते हैं उनको यह बुद रोग उत्पन्न होता है । यह मांस असाध्य है । साध्य श्रवुदों में भी निम्नलिखित दत्याज्य हैं । यथा-संत्र तं मर्मणि यच्च जातं स्रोतः सुवायच्च भवेदचात्यम् | यज्जायतेऽन्यत् खलु पूर्वजाते ज्ञेयं तदध्यर्बुदम दक्षैः ॥ यद् द्वन्द्वजातं युगपत् क्रमाद्वा द्विरदं तच्च भवेदसाध्यम् । मा० नि० । सु० नि० ११ श्र० । अर्थ - खावयुक्र, मर्मस्थान तथा नासिका आदि छिद्रों में उत्पन्न होने वाले एवं श्रचल असाध्य होते हैं ( प्रथम जिस स्थान में अर्बुद उत्पन्न हुआ हो उसी के ऊपर जो एक दूसरा अर्बुद उत्पन्न हो जाता है उसको श्रध्यबुद कहते हैं । एक साथ दो अवुदि श्रथवा जो क्रमशः एक के पश्चात् दूसरा अर्बुद उत्पन्न हो जाता है उसको द्विखुद कहते हैं, यह असाध्य है ) । दों के न पकने के कारण न पाकमायान्ति कफाधिकत्वान्मेदोऽधिकत्वाच्च विशेषतस्तु । दोष स्थिरत्वाद् ग्रथनाच्चतेषां सर्वा - दान्येव निसर्गतस्तु ॥ मा०नि० । सु०नि० ११ श्र० । अर्थ - कफ की अधिकता से वा विशेषकर मेद की अधिकता से एवं दोषों की स्थिरता से अथवा दोषों के ग्रंथि रूप होने से सब प्रकार के अर्बुद स्वभाव से से ही नहीं पकते । नोट -- यूनानी वैद्यक के मतानुसार अर्बुद के लक्षण आदि विषयक पूर्ण विवेचन के लिए अरबी शब्द सल्ऋह संज्ञा के अन्तर्गत देखें । मेदोवुदको अंगरेजी में फैटी ट्युमर (Fatty tumour ) और अरबी में सलग्रह, दुहूनिय्वह वा शहमिरयह कहते हैं । श्रायुर्वेदीय चिकित्सा के लिए इनके अपन अपने भेदों के अन्तर्गत अवलोकन करें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रशः अबुद हरो रसः arvvuda-haro-rasah - सं० पु० पारा ( रस सिंदूर ) को चौलाई, विषखपरा, पान, घीकुआर, खिरेटी और गोमूत्र की भावना देकर पान में लपेट कर उसके ऊपर मिट्टी का २ अंगुल मोटा लेप करके सुखाकर एक लघु पुट दें ं । इसके सेवन से अब्बुद नष्ट होता है । र०र० स० २४ अ० । arvvudákárah अदाकारः g'o बहुवार वृक्ष, लसोरा । चालिता गाछ - ब ं० । (Cordia myxa. or C. Latifolia.) बै० निघ० । बुद द्विजः arvvudadrijah सं० पुं० भुंगो, मेदासिंगी | मेढ़ाशिङ्गी ब० । मुरदारशिंग- मह० । (Asclepias geminata) बै० निघ० । अव्युदान्तरिक रेखा arvvudantarik - rekha-सं० त्रो० ( Intertubercular plane. ) वह पड़ी रेखा जो नितंबास्थियों के ऊपर के किनारों (जवन चूड़ा ) के उतारों में से गुजरती हैं । अयुदान्तरिका रेखा arvvudàntarikarekha-सं॰ स्त्री॰ (Intertubercular plane.) रम् arvvuram - सं० क्ली० श्रहुल्य नामक चुप । तड़वडु - काश० | तड़बड़ - मह० । वै० निघ०२ भा० संग्रहणी० चि० तालीशादिचूर्ण | श्रर्शः (स् ) arshah-s-सं० क्ली० संज्ञा पुं० अर्श arsha - हिं" स्वनामाख्यात गुदरोग विशेष, एक रोग जिसमें वातादि दोषों के दूषित होने के कारण गुदा में अनेक प्रकार के मांस के अंकुर उग श्राते हैं जिनको अर्श अथवा बवासीर कहते हैं । ये नाक एवं नेत्रादि में भी उत्पन्न होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इनके निम्न भेद हैं For Private and Personal Use Only (१) वातज, ( २ ) पिसज, (३) कफज, ( ४ ) स्मन्निपातिक, (५) रक्तज और (६) सहज । विस्तार के लिए देखिए - बवासीर । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्श अर्शपातनम्. पर्याय-दुर्नामकं (अ), दुर्नाम, गुदकीलः, ' चित्रक इनके क्वाथ से भावना दें फिर भांगरे के गुदाकुरः (रा), अनामकं (शब्द २०), रस की भावना दे सुखाकर रखले । गुदकीलकः, गुदामयः, दुर्नामम् , दुर्नामा, दुर्नाम्नी मात्रा-३ रत्ती। सं०। गुण-अर्श, मुख आँख के मस्से, प्लीहा, संग्रपायह,, बवासीर ( मअद)- उ० । हिमोरी. हणी, गुल्म, यकृत, मन्दाग्नि और कुष्ट को नष्ट दूस, अम्रूदिस, एमोरीदूस-यू०। बवासीर करता है। (ब०व०), बासूर (२० व०), अमोरीदूस अर्श कुठार रसः arsha.kuthar-rasah -अ० । पाइल ( Pile ) (ए० व०), पाइ. -सं० पु. शुद्ध पारद ४ तो०, गन्धक - पल, लज़ (Piles ) ( ब० व०); हीमोराइड ताम्रभस्म, लोहभस्म, प्रत्येक १२ तो. निकुटा, (Hemorrhoid)(ए०व०), होमोरॉ कलिहारी, दन्ती, पील, चित्रक प्रत्येक ८ तो०, इडस (Hemorrhoids) (ब०व०) जवाखार, भुना सुहोगा प्रत्येक ५-५ पल, सेंधाइ०। हीमोराइडीज (Hemorrhoides) नमक ५ पल, गोमूत्र ३२ पल, थूहर का दूध -फ्रां। हीमोरॉइडेन (Hemorrhoiden) ३२ पन्त, सब एकत्र कर पात्र में रख मन्दाग्नि -जर०। से पचाएँ । जब गाढ़ा हो जाए तो २ माशे की अर्शaarsh- अ० ललाट, छत, तहत, पैलेटवोञ्ज गोलियां बनाएँ। - ( Palate bones.)-इं०। हिं० संज्ञा पु. गुण-एक गोली नित्य सेवन करने से यह (1) आकाश (२) स्वर्ग । अर्श कुठार रस बवासीर को दूर करदेता है। अर्शकर्म arsha-karm-सं. क्ली0 भिलावां ।। वृ० रसरा० सु० अर्श० चि०। (Semicarpus Onacardium.) अर्शद aishad-अ० सोनामक्खी, तारामक्खी । I SEIT: arsha-kuțhárah-O TO Iron pyrites (Ferri Sulphure. वरनाग अर्थात् ६४ पुटित सीसा भस्म, अभ्रक tum. ) सस्त्र, ताम्र और लोह भस्म प्रत्येक समान माग अर्शन-कर्म alshan-karmm-सं० क्ली०, लेकर थोड़ी थोड़ी हरताल को चिटकी दे देकर व्रणों के खुरचने की विधि । लोह की कढ़ाई में पिघलाएं और लोहको कड़छी अर्श नाशक योग alsha-Nashakayoga से चलाते रहें। जव हरताल की हुगनी भूकी -सं० क्लो० प. जवासा, बेल की छाल, अजखप जाए तब सब अलग निकाल कर पारा मिला वाइन और सोंड इनमें से एक एक के साथ भी पिष्टी बनाएँ और उस पिष्ठी को भिलावे के वृक्ष पा के क्वाथ का पान करने से श्रर्श की पीड़ा नष्ट की जड़ के पास १ महीने तक गाढ़ रक्खें। फिर होती है । च० सं० अ० चि०१४।। निकाल कर गाय के दूध में डाले और इसमें पातालयंत्र से निकाला हुश्रा भिलावे का तैल एक अर्शपातनम् arsha patanam-सं० क्ली० चिकनी कड़ाही में डालकर उसमें पिष्ठी डाल कर कंटकरञ्च, हड़, नागरमोथा, चिरायता, काला एक सेर तेल जारित करें। फिर भिलावें के तेल कुड़ा की छाल, सूरन, चित्रक, सेंधानमक, देव दाली (वन्दाल)तुल्य भाग ले चूर्ण प्रस्तुत में गन्धक को भावित करके उस गन्धक की पुट देकर उपरोक पिष्टी के बराबर पारा लेकर कट करें। सरैया के रस में कई भावना देकर धूप में रख मात्रा-१०मा० | अनुपान-तक । भस्म कर डाले। फिर उस भस्म को उपरोक गुण-इसको एक मास पर्यन्त भक्षण करने पिष्ठी भस्म में मिलाएँ । फिर क्रम से बन सूरन, से बवासीर के मस्से गिर पड़ते हैं। बंगसे०सं० निगुण्डी, मुरेठी, गोखुरू, हड़ जोर, तिधारी और अर्श चि०। For Private and Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र में तक प्रयोग मर्श में तक प्रयोग arsha-men-takra-pra- (१) शूरण, सूरन, पोल,जमीकन्द । (Ama yoga-सं० पु. चीते की जड़ की छाल को rphophallus Campanulatus, Blu• पीसकर घड़े में लेप करके उसमें दही जमा दें, me.) रा०नि० व०७। (२) भल्लातक, उस दही को या उससे प्रस्तुत तक्र को पीने से fararrat(Semicarpus anacardium.) i पर्श का नाश होता है। च. सं. चि० अ० (३) सर्जिक्षार, स्वर्जिकाक्षार । (४) ते जबल (Zanthoxylum ala tum.) । (५) मर्शम् arsham-सं० नी० अर्श रोग, बवासीर । श्वेत सर्वप ( Brassica juncea.) (६) ( The piles or hoemorrhoids.) कटु यूरण । बै० निघ०। (७) भर्श नाशक द्रग्य मात्र । २० र०। अर्थोघ्न महाकषाय: arshoghna-mahakaवर्थ वम arshaivartma-हिं० संज्ञा प. shayah-सं० पु. कूड़े की छाल, बेल, चि. [सं०] एक प्रकार की बवासीर जिसमें गुदा के त्रक, सोंठ, प्रतीस, हड़, धमासा, दारुहरूदी, किनारे ककड़ी के बीज के समान चिकिनी और चव्य, वच, इनका कषाय बनाकर पीने से भर्श किंचित् पीडायुक फुन्सियाँ होती है। दूर होता है। च० सं० । मर्श सूदनः arsha-sudanah-सं० पु.. अर्शोन वटकः arshoghna vatakah-सं. . शूरण,सूरन । तुल-बं०1 (Amorphopha पु० पीपल, पीपलामूल, जमीकंद, मिर्च, चित्रक, llus Campanulatus, Blume.) कटेली, गुढ़ल के फूल प्रत्येक १-१ पल, इनके मशंसः arshasah-सं० त्रि० अर्शयुक्त, अर्श- कल्क को हाथी और बकरी के मूत्र में मिट्टी के रोगी । बर्तन में पकाएँ । जब मूत्र जल जाए, तब इसका मशहर arsha hara-हिं० संज्ञा पु. [सं०] | चूर्ण करके इसमें सैंधव, सोंचर, सांभर नमक (Amorphophallus Campanula- १-१ पल मिजाकर १-१ कर्ष प्रमाण के वटक tus, Blume.) सूरन । पोल | जमीकंद । बनाएँ। पथ्य-तक्र व घृत का भोजन करें । देखो-शूरण। १ मास के प्रयोग से अर्श नष्ट हो जाता है। अर्श arshi-अ० देखो-परशा । मर्शोघ्न घर्गः arshoghna. vargah-सं० मी arshi-सं० त्रि० अर्शयुक, अर्शरोगी । श० पु. कुटज, विल्व, चित्रक, नागर, अतिविषा, र.। अभया, दुरालभा, दारुहरिद्रा, वच और चव्य अर्थोऽरि रसः arshorirasah-सं० पु. पारा | ये दस वस्तु अनि प्रभाव युक्त है। च० १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, ताम्रभस्म ३ भाग, सू० ४ । विशेष देखो-बवासीर । लोहमस्म ४ भा० और गन्धक ५ भाग चमार अर्थोघ्न वल्कला arshoghna-valkali दूधी (धवल कुसुम वल्ली ) के रस में लोह की __ -सं० स्त्री० तेजवल । ( Zanthoxylun कड़ाही में , दिन पकाएँ। ठंडी होने पर | alatum.) व निघ०। । १ पहर वच्छनाग के स्वरस अथवा काथसे भावना अर्थोत्रो arshoghni-सं० स्त्री. (१) ताल. दें। फिर सफेद पुनर्नवा, पुनर्नवा, त्रिकुटा, त्रि मूली, काली मूषली ( Curculigo orchiफला इनके रस अथवा काथ से भावना दें। des.)। रत्ना० । मे० नत्रिक । (२) भल्लामात्रा-३ रसी । इसके सेवन से बवासीर के | तक, भिलाव ( Semicarpus anaca. सभी उपद्रव नष्ट होते हैं । रस. यो० सा०।। rdium.)। 4. निघः । प्रोन arshoghna-हि. संज्ञा पु० अर्थोजः arshojah-सं० प. भगन्दर रोग | *#: arşhoghnah-eto go ( See-Bhagandara ) For Private and Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोदावानलोरसः ... अली प्रों दावानलो रस: arshodavanalo- | अर्शोवत्मन् arsho-Vartman-सं० क्ली rasah-सं० पु. मगर को तेज़ अग्नि में | नेत्रवर्त्मगत रोग विशेष । तपा तपा कर त्रिफला के हाथ में कई बार बुझाएँ । लक्षण-ककड़ी खीरा के बीजों के समान फिर घीकुमार के रस में भावना देते हुए २१ । मन्द पीड़ा वाली चिकनी और कठोर फुन्सी जो पुट दें। फिर गन्धक और पारे की कजली और नेत्रवर्म ( नेत्र के पलक ) में उत्पन्न हो उसे उतनी ही लोहभस्म, त्रिकुटा, त्रिफला, भांगरा, "अशोवर्म" कहते हैं । यह ससिपातज होती है चीता और मोचरस मिलाकर गिलोय के काथ मा०नि०। . .. की भावना दें तो यह सिद्ध होता है। इसे चार अर्थीहररस: arshohar-rasab-सं० पु. यह मासे जमीकन्द के चूर्ण और हींग के साथ खाने रस अर्श के लिए हितकारक है। योग इस प्रकार से अथवा भिलावें के तेल और शहद के साथ .' है-पारद, वैक्रान्त, शुद्ध अभ्रक भस्म, कान्तलौह खाने से हर प्रकारके यवासीर नष्ट होते हैं। रस० भस्म, गंधक शुद्ध, सबके तुल्य भाग को ले अनार यो० साल स्वरस से भली प्रकार मर्दित कर रख छोड़े। मोंयन्त्रम् arshoyantram-सं० क्ली० मात्रा व गुण-इसमें से १ मासा खाने से प्रोंयन्त्र (बवासीर का यन्त्र ) गौ के स्तनों के | अर्श नष्ट होता है । रस० र०। . ... साश चार अंगुल लम्बा और पाँच अंगुल गोलाई अर्शहर रसः arshohara-1asah- सं० पु. में होता है। स्त्रियों के लिए इसी यन्त्र की गोलाई गन्धक, चाँदी, और ताम्बा एक एक भाग लेकर छः अंगुल की होती है क्योंकि उनकी गुदा बारीक पीस ले। फिर तीनों के बराबर अभ्रक स्वाभाविक ही बड़ी होती है। व्याधि के देखने के भस्म और गन्धक से , भाग लोहभस्म और है लिए दोनों ओर दो छिद्र वाला यंत्र होता है तथा शस्त्र और क्षारादि प्रयोग के निमित्त एक छिद्र भाग बच्छनाग और गन्धक से द्विगुण पारद । वाला यंत्र होता है । इस यन्त्रके बीचका भाग तीन सबको मिला जम्भीर के रस में घोटकर मिट्टी के अंगुल का और परिधि अंगूठे के समान होती है। बर्तन में रखकर त्रिफला के क्वाथ की भावना दे। इस यन्त्र के ऊपर श्राध श्राध अंगुल ऊँची एक फिर क्रम से दशमूल और शतावरी के क्वाथ में कर्णिका होती है जिससे यन्त्र बहत गहराई में नहीं पकाएँ। आ सकता है। अर्श के पीडन के निमित्त एक और मात्रा-३ रत्ती गोली रूप में । प्रकारका यन्त्र होता है । रसे शमी कहते हैं । यह गुण-यह अश, गुदा रोग और शूल को नष्ट भी ऐसा ही होता है। किंतु छिद्र रहित होता है । करता है । रस० यो० सा०। ... था. सू. २५ श्र० । अत्रि० जयद० ५३ अशहरलेप arshoharalep-सं० ली. हाथी भ०। की लीद, घी, राल, पारा, हल्दी इन्हें थूहर के अर्थोरिमण्डरम् arshorimanduram--सं. दूध में पीस कर लेप करने से अर्श नष्ट होता है । च० सं०। पु. पुराने मण्डूर को लेकर गोमूत्र में पकाएँ जिससे वह चूर्ण सा होजाए। फिर इसमें त्रिकुटा अर्थोहितः arshohitah-सं. प. मनातक त्रिफला और पाधी मिश्री मिलाकर ३ दिन तक वृक्ष, भिलावा । ( Semicarpus anacaधरा रहने दें, पश्चात् रोगी को दें तो गुदा द्वारा rdium.) त्रिका०। भाने वाला रुधिर बन्द होता है। अषणी arshani संत्री. (१) गति शीक कीट विशेष | अथर्व । का० १ । १३ । २२। (२) पथ्य-दूध, चावल, मसूर एवं स्त्री प्रसंग तीब्र पीडाजनक रोग । अथव' । सू० । निषिद्ध है। व.नि. र. मर्श चि०। १३ । का०६। For Private and Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सह हर - असह, aarsah-अ० सहन,मैदान,दूरी, अन्तर। अहम् ar ham-सं० क्ली. सुवर्ण, सोना | Gold ___ अति, अरास (ब० व०)। (Aurum.) वै निघः।। अर्स aars-अ० ( A bandicote rat. ) / अाँ arhā-सं० स्त्री० बायमाणलता । (Delphi. . य—अ (स)। ___Dium zalil, Mitch.) वै० निघ० । अर्सफ़ aarsafa-कमाफीतूस, कुकरौंधा । (Blu- अह िarhia-१० ( ब०व०), रहा (५० • mea densiflora, D.C.) व०) चक्की, तिबकी परिभाषा में डा; क्योंकि अर्सम् arsam-सं० क्ली. निर्बल | अथर्व । आहार चर्बण में यह चक्को का काम देता है। सू० ५६ । ३ । का०७। मोलज (Molars.)-इ०। अहियोल arheol--इं० देखो - सैण्टेलोख अर्सह arsah-उ० (Solanum pubesce. (Santalol.) . ns.) Night shadedowny.-101 ई० हैं। गा०। अलम् (कम् ) alam,--kam-सं० को। अल ala--हिं० संचा पु अर्सह, aarsah-० नकुल, नेवला | Mon- (१) हरिताल, हड़ताल | Yellow . . goose ( Vivera mungo.) ... orpiment ( Arsenicum tersulअर्सातून arsātāna - ० phuretum. ) रा०नि० २०१३ । सि. farisunúsa मैथुनेच्छा यो० कास. चि. मनःशिलादि धूमपानन्द । wat äáqúná ) बिना इन्द्री "मनःशिलाले मरिच" इति । (२) वृश्चिक का सदैव प्रहर्षित रहना । एक रोग है जिसमें पुच्छ कण्टक, विड्छु का डंक। हे. च०। इन्द्री (शिश्न ) हर समयः उसे जित रहती है, (३) कोल, शीतलचीनी । (Cubeb.) किन्तु काम या मैथुनेच्छा नहीं होती। देखो- । वै० निघ २ भा० वाव्या . प्रत्यंठीला फरीस्मस.। प्रायापिम (Priapism.)... चि०। (४) भंगीयुक्त केश । (५) विष । अर्सानीकम arsaniquna-१०, यू. हड़ताल, ज़हर । हरिताल | Yellow orpiment (Ars. अल ala-सं०(१) सफेद मदार ( Calotro. enicum tersulphuretum.)। सं० pis gigantea, the white var. फा०ई० । of-):--मह. (२) मादी, अदरक Zinभसेंनाइट ऑफ़ कॉपर arsenite of cop- giber officinalis, Roxb. ( Fre. _per-० ताम्र महत् । ( Cuprii arse- sh root of-Green ginger.)। ___nis.) देखो-संखिया सिं० (३) कन्द (Tuber.)।-ता. अर्सेनातेगा arsena-tega-मयसू० कदम। (४) वट, बरगद । ( Ficus Bengalen( Nauclea kadamba.) sis.) . भर्सेनियाई प्रायोडाइडम् al'senii iodidum अलक अलक: alakah--सं० पु. (.) नित कर, -ले. मल्सनैलिद । (Arsenious lodi पागल कुत्ता,--हिं० । पागल कुकुर-१०। मैड ''de.) देखो-संखिया। राग ( Mad dog )-t० । (२) मई arha-हिं० [सं०] (1) पूज्य । (२) कुन्तल । .. | भूलक ialaqah-म० (.) तरसीम या . योग्य । उपयुक्त । .. सिका (२) नु. के बाद की अवस्था, बमबी नोट-इस शल का प्रयोग अधिकतर यौगिक | फटकी, जमा हुमा शोणित । (Clotted शब्द बनाने में होता है जैसे पूजाई। blood ). For Private and Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ अलक aalak--अ० ( ए. व. ) उलूक | अलकम aalaqama-१० (१)का पौदा (ब०व०), गोंद, निर्यास । (Gum or (A bitter plant.)। (२) इन्द्रा_resin.) यन (Citrullus colocynthes, Schअलक aalaq-१० (१) जलायुका, जलौका, जोंक। rad.)। (३) कसाउन,हुम्मार, बिन्दास । . Leech ( firudo.) स० फा० ई० । (Ecbellium elatarium. ) म० ज०। (२) जमा हुआ, बँधा हुअा या | अलकम aalaqamah-अ० फरासियून । गादा रक। See-Farásiyúna. अलक alaka--हिं० संज्ञा पु० सं०1 अलका alaka-सं० सी०, हिं० संज्ञा स्त्री० मस्तक के इधर उधर लटकते हुए मरोड़दार (१) वसा, च: । ( Fat.) व निघः । बाल | बाल । केश । लटा । छल्लेदार बाल ! (२) भाउ और दस वर्ष के बीच की लड़की । धू घरे वाले बाल । यौ० अल कावलि | अलकावलि alakavali-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] केशों का समूह, बालों की लटें। अलकतरा alakatara-हिं. संचा पु. अलकाह्वयः alakāhvayah-सं० पू० कटु, [१०] पत्थर के कोयले को आग पर गलाकर निम्ब । ( The bitter nimb tree.) निकाला हुआ एक गाढ़ा पदार्थ । कोयले को व निघ। बिना पानी दिए भभके पर चढ़ाकर जब गैस अलकिय्यह, aa.lakiyyah -१० वह वस्तु निकाल लेते हैं, तब उसमें दो प्रकार के पदार्थ जिसमें चिपचिपापन के साथ किसी भांति रह जाते हैं कठोरता भी हो। एक पानी की तरह पतला, दूसरा गाढ़ा । अलकी alagi-एक प्रसिद्ध पौधा है। (An un. वही गादा काला पदार्थ प्रखकतरा है जो रंगने के known plant.) : काम में भाता है। यह कृमिनाशक है। अतः | इससे रंगी हुई लकड़ी धुन और दीमक से बहुत अलकुरूमी aalakurrāmi-R• मस्तगी । दिनों तक बची रहती है। इससे कृमिनाशक ( Mastiche. ) मोषधियाँ जैसे-नेपथलीन, कारयोस्तिक, अलकुल अम्बात aalakul ambita-. एसिड, फिनाइल प्रादि . तैय्यार होती बतम अथवा उसके समान एक वृतका गोंद । हैं। इससे कई प्रकार के रंग भी बनते हैं। अलकुल जाफ़ aalakul-jafa-१० रासीमज अलकप्रियः alaka-priyah-सं० पु० (१) जाफ। कृष्णभलातक, काला भिलावॉ-हिं० । कालभेला | लकुलब (बु)तम aalakul-butam-१० बतम -40। विवेला जटा-मह। (Semeca- का गोंद। rpus anacardium.) । (२) घीजक अलकुल याबिस aalakul-yabis-अ. राती. • वृक्ष, विजयसार । (Pterocarpus mars- नज भेद । (A sort of resin.) : upium.) मद०व०५. अलकुशी,-सी alakushi,-si-40 केवॉच,भात्म'अलक बग़दादी aala ka baghdadi-फा० | गुप्ता । (Mucuna pruriens, D.C.) मस्तगी वृक्ष (Mastich tree.)। ई० फा० ई०१ भा०। .. .गा।. .. अलकुस्सनोबर 'aalakussanobar-अ. अलकम ataqama-20 इन्द्रायन का फल । | चीर की गोंद, सरल निर्यास, सनोवर की गोंद, (Citrullus colocynthes, fruit | गंधा विरोगा। ( Pinus longifolia, of-) resin of-) सफाई। For Private and Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलकलीस मलजी भलकलीस alqulisa- यूशहद, मधु | Honey | अलगणः alaganah-सं० १० नेत्ररोग विशेष । (Mel. ) (An eye disease.) वै० निघ०। अल कंत्रा टिकटोरिया alkanna tinctoria, अल गर्द: alaguidah-सं० पु. सरिशेष, T.ausch. ) ले. रतनजोत-हिं० । अलखना ... डेहा । जल टोड़ा, जल बोड़ा-बं० । ( A ser. -अ०। ( Alkanet. ) फा० इं० २ . pent.) भा० । अलगर्दा alagardi-सं० स्त्री० सविष जलौका, पालकेयाबिस aalake-vabis-० रातीनज विषाक जोक (A poisonous Leech.)। #71( A kind of resin.) यह महापार्श्व, रोमयुक्र और कृष्णमुखी होती है। पलकेरूमी aalake-rumi-०, रूमी मस्तगी, सु. सू०१३ श्र० । देखो-जलायुका । मस्तिकी-१०, फा० । धूनराज, गन्धिनी-सं०। अलगधः alagardhah-सं० पु. अलगद । (Mastiche.)। __ जल का सॉप । (A serpent.) अम० । मलकाहाल (Alcohol)-ई. मद्यसार । अलगी alge-इं० चीनी घास, अगर-अगर । : देखो-ऐलकोहाल : (Chinigrass. ) मलतः, कः alaktah,-kah-सं० पु, क्ली। अलक्त alakta-हिं० संज्ञा पु० अलगी alagi-ते. मैदालकड़ी । ( Litsea अलक्तक alaktaka-हिं० Se bifera, Pers.) ज्ञा पु० (१) लाक्षा, लाख, लाही जो पेड़ों में लगती है। अलग राब alghurab-फा० अकाशबेल । चपड़ा, पालता,लाहा, जौ, गाला-बं० । प्रतिता अलगुसी alagusi-बं० अमरवेल, अकाशवेल -मह । अलतगे-क०। (Lac, the red | (Cuscuta Reflexa.) .. animal dye so called.) अलगौल alaghoul-१० खारेशुतुर, खारेवुन - पोय-राक्षा, यावः दुमालयः, रचा, अरक्रः, .. -फा० । (Alhagi Camelorum, जतुकं, यावकः, अलका, रक्तः (शब्द र.), ( Tisch.) फा००१ भा०। ...... - पलकषा, क्रिमिः, वरवर्णिमी।। अलकार सुवर्णम् alankar-suvarnam गुण-तिक, उष्ण, कफ वात रोगनाशक, | -सं० क्ली० श्रृंगीकनक । हारा० । : रुचिकारक और व्रणध्न | रा०नि०प० अलङ्गी alangi-ता० अंकोल | (Alangium • वय, हिम, बल्य, स्निग्ध, लघु, कषेला, उष्ण | Decapetalum.) ... .. . नहीं, कफ, रक, हिका, कास, ज्वरनाशक, व्रण, अलङ्गीन alangine-६० अंकोलीन, डेरा सत्व । उसंचत, विसर्प, कृमि, कुष्ठनाशक । मलक्कक अर्थात् फा०६० २भा० . . . साचा विशेष रूप से म्यान है। भा०पू० १ लज alaja-१० तरुलता, इरकपेचा (Ipo भा०। लाही रजोरोधक, रक पिस तथा क्षय '' नामक है और प्रदर तथा रजातिसार को शीन • mea quamoclit.)। -सं० पक्षी । (A bird.) लाभ पहुंचाती है। प्रत्रि। विस्तार हेतु देखो अल जान aalajana-१० कज़ाह | 80(२) माह का बना हुमा रंग जिसे सियाँ Qazáh. .... पैर में लगाती है । महावर। . .. . ... अलजी alaji-सं० श्री. ...) ()(Ca. ।... . . -हि संका स्त्री- rbuncle) मलखन्ना alkhanna-अ. रतनजोत । (Alka-1 प्रमेहपिरका रोग। एक प्रकार की बालवाकाली net. ).फा..। फुन्सी जो बहुत पीड़ा देती है। मलस alakhs-१० जिसका ऊपरी पक्षक मोटा .. : लक्षण-वह पिटिका जो खान रखेत बारीक ____ फोड़ों से व्याप्त एवं भयंकर होती है उसे 'मजो . . . . For Private and Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir :: कहते हैं। सु० नि० प्रमेह चि०६अ। मा० | अलना alata -हिं० पु., बं० पालता, नि01 (२) शूक दोष विशेष। लक्षण-जो अलजी पालनाalata S लाख का रंग, महावर । प्रमेह पिड़काओं में वर्णन हो चुकी है यदि उसके (Cotton strongly impregna ted: लक्षणों से युक्र फुन्सी हो तो उसे "अलजी" I with the dye of lac ready to जानना चाहिए। सु०नि० शू० दो० चि० १४ be used for dyeing etc.). प्र.1(३) नेत्र-संधि रोग विशेष । ... । Haars Fil TA alataí-ká-rasa-foto I लक्षण--नेत्रों की सफ़ेद और काली संधियों अलता को रस alata-ko-rasa-जय० , में जो पूर्वोक्र (प्रमेह पीड़का के ) लक्षणों वाली महावर, अलता का रस । See--alata. फुसी उत्पन्न हो जाती है उसे "अजजी कहते हैं। अलतून alatuna-तु० शेर का नाम, सिंह । (Aपर्वणी और अलजी में केवल इतना ही भेद है कि | lion. ) पर्वणी छोटी फुसी है और अल जी बड़ी है। मा० अलन्नता alannata )-हिं० स्त्री० नीमच्छद, निः । अथर्व० । सू० ८ । २० | का० ८। . अलन्नदा alannada | इन्द्रवल्ली-सं० । (४) वम के बाहर की ओर कनीनिका में ___ एक वृक्ष है जिसकी शाखाओं पर लघु एक कठोर और ऊँची गाँठ होती है। उसका रंग श्यामवर्ण के कण्टक लगे होते हैं । पत्र तांबे के सदृश होता और पंकने पर वह राध एवं || मोतिया पत्र सदृश किन्तु उनसे लघु तथा मृदु रुधिर बहाने वाली होती है, उसे "अलजी". और फल फालसा के बराबर होते हैं। अपक्वा. कहते हैं । यह बारबार फूल जाती है। वा० सं० वस्था में हरितवर्ण और अम्ल स्वादयुक्र किन्तु श्र० । (५) कनीन के बीच में वेदना, तोद |... पकने पर रक्राभायुक्र श्यामवर्ण के और खटमिट्ठ और दाहयुक्र जो सूजन होती है उसको "अलजी" ... हो जाते हैं। इनके भीतर त्रिकोणाकार बीज होते कहते हैं । वा० सं० १०१०।। - हैं। जड़ टेढ़ी होती है। ... ... ... ... (६) वाग्भट्ट के अनुसार इसके निम्न लक्षण | अलफ aalaf-अ० अमलान (०.व०) चारा, हैं-अलजो नाम की पिटिका उत्पन्न होते समय .. पशुओं का चारा । ( Fodder). "स्वचामें जलन पैदा करती है। ये अस्यंत कष्ट देती अलफ़क दाग aalafak-dagha-०, फा और फैलती हुई चलो जाती हैं। इनका वर्ण जुह । एक घास है । (Agrass.) काला वा लाल होता है और इनमें तृषा, स्फोट, सलफ़क हिन्दी aalafak-hindi-ऋ० बाच दाह, मोह और ज्वर ये उपद्रव होते हैं । वा० (एक सुगन्धित तृण है। इसके सम्बन्ध में और : बातें नहीं मालूम हो सकी)। अलaalanja अ०. इसके स्वरूप में मतभेव है। अलफ़ गोरखर aalafaigorkhara-०,फा० अलारः alan jarah-सं०.पु. बहु जलधर- इजनिर । रोहिष तृण । ( Andropogon मृणमयपात्र । जाला-ब० । सुराही-हिं । संस्कृत : scheeranthus.) ___पर्याय-अलिअरः, माणिकं । अ० टो० भ०। अलफजन alafajana-हिं० धारो, उस्तो खुइस अलङ्गरः alanjurah-सं० पु. मिट्टीकी सुराही। ... (Lavendula stoechas.) मे० मे। (Jar:) . | अलफ़ मुहलिक aalafa-muhlik-अ० कुटकी, मलत alat-ऋ० कालो तुलसी । ( Ocimum | कटुकी । ( Helleborus.) . gratissimum...) अलत: alat-अजिसके दाँत कीदों ने खाए हो अलफ़ शोरदार aalaf-shirdir-फा भेद. पर दन्तमूल अवशेष रह गए हों।:: . - मेष । (A sheep.). अलत माकन alat-maqun-यु० जावित्री । अलफ़ हिन्दी aalafa-hindi-यु. सकरदियन, 3 Mace Myristica fragrans, जंगली लहसन । (Wild garlic.).. Hoats. Flower of-..) अलपफ alaffa-अ. वह जो स्पष्ट मापबन करसके । For Private and Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलमुलफवाद मलयalab-अ० एक जंगली कण्टकम अलमुल फवाद alamul-fuvad ... यह विषाक्र होता है। घडल .फुवाद vajaul-fuvad मलबतूत alaba tāta-आवर्तनी, मरोडफली . -अ०(१) हृच्छूल, हृवेदना, हृदय की पीड़ा । __ या मरोड़ सींग । ( Helicteres isora.) दर्दे दिल, दिल का दर्द। (२) प्रामाशय द्वार. मलबदा alabada-अण्ड० मेलोशिया वेल्युटीना। शूल, कौड़ी का दर्द । कार्डि ऐल्जिया (Cardi. (Melochia velutina, Beddome.) .. algia)-ई । ... इसके तन्तु व्यवहार में आते हैं। मेमो०। । - नोट-वाद का शाब्दिक अर्थ “हृदय" है। अलबरून al-baruna-यु० सुमाक, प्रसिद्ध है। इस कारण वलवाद का अर्थ वडलकल्ब (Sumac.) .. या दर्देदिल अर्थात् हृच्छूल हुश्रा । फ्रम मिदह, अनबाई alabai-यु० ख्रिस्मी, प्रसिद्ध है । See-. अर्थात् श्रामाशयिक द्वार को भी हृदय के समीप Khitrmi. होने के कारण अल्पवाद कहते हैं। अलबानोस alahānisa-यु० चौलाई का साग । वजल करब तथा वल फवाद का (Amaranth.) भेद-वउलकल्ब (हृच्छूल ) में एकाएक हृदय अलबोरस alaborasa-मिश्र० कबूतर के बरा में तीब्र वेदना का उदय होता है, जिसकी टीसें बर श्वेत रंगका एक पक्षी है जो मत्स्य का श्राहार वाम वस्ति की ओर जाती हैं। रोगी का रंग प्रक करता है। हो जाता है। हाथ पाव शीतल होजाते हैं । कभी अलग्नी labni-यु. (१) नान्खाह, अजवाइन साथ ही वमन भी हो जाता है और रोगी को (Ptychotis a jowan.)। (२) जङ्गली मत्यु का भय होता है। किसी किसी अर्वाचीन गाजर । (३) एक और बूटी है जो गाजर के मिश्रदेशीय वैद्यक ग्रंथो में वउल कल्ब को समान होती है। ज़ुबहह् सन्द्रियह, तथा किसी किसी में अलम् अलब्यूमेन albumen-ई. अण्डश्वेतक, अण्डलाल । ( The white of anegg. ) वादी लिखा है। आंग्ल भाषा में वल कल्ब को अआइना अलमक alamak-तु. मजो वा भेजा (मख) पेक्टोरिस (Angina pectoris.) कहते हैं - जो अस्थि या शिर में होता है। और जुबहह, सद्रिय्यह, इसका ठीक पर्यायवाची अलमर alamar-हिं० संज्ञा पुं० [देश०] शब्द है। एक प्रकार का पौधा । वल फवाद (आमाशयद्वार-शूल)अलमरम् alamaram-ता०, कना० वट, बर्गद, तिब्बी ग्रंथों यथा-कानून व अक्सीर श्राज़म बड़ । ( Ficus bengalensis)इ० मे. प्रभृति में वउल मुबाद के सम्बन्ध में लिखा मे । है कि वह एक तीन वेदना है जो प्रामाशयिकअलमास alamās-हिं. संज्ञा पु० [फा०] द्वार . पर प्रगट होती है। इसमें रोगी को हीरा । ( Diamond.) · काटिन अस्थिरता व व्यग्रता होती है । हस्त पाद अलमिराव alamir avo-गोश्रा शीतल हो जाते हैं । चैतन्यता का सर्वथा लोप अलमिरास alamiras " होता है और बहुधा यह शीघ्र मृत्यु उपस्थित पथरी-बम्ब० । ( Laundea Pinnati. कर देती है। यह एक अत्यन्त कठोर व्याधि है। fida) ई० मे० मे। डॉक्टरी ग्रंथों में-उक रोग के निम्नोअलमीकह alamikah-फ्रां० मस्तगी। (An- लिखित लक्षण लिखे हैं, यथा-प्रामायिक _isomeles malabarica. ) ई० मे० द्वार पर रुक रुक कर शूल चला करता है। इसका दौरा प्रायः रात के समय हुआ करता है। मे. For Private and Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधारणत: खाली पेट में वेदना हुआ करती और अलम् aelam-रसा. हदसाल, हरिताल। पाहार ग्रहण करने पर वह कम हो जाती है। (Yellow orpiment) उदराध्मान, | मलम alam-मल० कुम्बी-सं०,६०, हि०। वकुम्भ पाटोप तथा दाह होता है । डकारें भाती हैं, __ -ते। ( Careya arborea.) मे० नीमचलाता है और प्रायः वमन हो जाता है। मे०। अर्वाचीन मिश्र देशीय चिकित्सक इस रोग को भलम् alam-१० (ए० ० ), क्रतुल् कल्ब लिखते हैं जिसको सही अंगरेजी मलम alama-हि. संज्ञा पं० मालाम (ब. पर्याय हार्टबर्न ( Heartburn ) है। और व.)। रंज,दुःख दर्द, कष्ट,वेदना, म्यथा, पीड़ा। जिसको उर्दू में कलेजा जलना तथा हिन्दी में पेन ( Pain), एक (Ache)-ई । हदाह कहते हैं । अंगरेज़ी ( आंग्ल भाषा) हकीम जालीनूस के वचनानुसार मनुष्य का में इसे कार्डिएरिजया (Cardialgia) भी प्रकृतावस्था से अप्रकृतावस्था की भोर चला कहते हैं जो अपने अर्थ के अनुसार वलवाद जाना "अलम" कहलाता है। फिर चाहे उसे का बिलकुल सही पर्याय है। उक्र अवस्था का बोध या ज्ञान हो अथवा न हो वउल मिअ दह (आमाशय शूल)-- यथा-व्यथित व अचेत होना । किन्तु शेख्न का इसमें प्रामोशयिक स्थल पर कठिन वेदना होती वचन है कि विरुद्ध वस्तु का बोध होना ही अलम् है जिसकी टीमें वाम स्कन्ध पर्यन्त जाती हैं। कहलाता है। यथा-किसी बुरे समाचारके सुनने वेदनाधिक्य के कारण रोगी बेचैन हो जाता है ले अथवा किसी तिक या स्वाद रहित वस्तु को और जलशून्य मत्स्यवत् लोटता है तथा प्रामा चखने से कष्ट प्रतीत होता है । अस्तु, दोनों परिशय के स्थान पर दबाता है। भाषाओं के पारस्परिक भेद का परिणाम यह है सूचना--तिब्बी ग्रंथों में वलवाद के कि जालोनूस अचेत व मूञ्छित व्यक्ति को भी जो लक्षण लिखे हैं वे वस्तुतः वल्कल्ब के दुःखान्वित "मुब्तलाए अलम्" कहता है; किन्तु शेख चूँकि "अलम्" की परिभाषा लक्षण हैं। किन्तु, वल मिझदह, (प्रामाशय में बोध व ज्ञान की सीमा निर्धारित करते शूल ) के लक्षण भी इसके बहुत समान होते हैं । अतः वे अचेत व मूछित व्यक्ति को हैं। इसलिए रोगविनिश्चय में दिक्कत होती है । दुःखान्वित नहीं कहते । वास्तव में यदि ध्यानपरन्तु वल्मिझदह, में तीक्ष्ण अचेतता नहीं होती और न तात्कालिक प्राणनाश का भय पूर्वक देखा जाए तो दुःख वही है जिसका बोध हो। अस्तु शेख की उक्त परिभाषा अधिक सही और होता है। अनुमेय प्रतीत होती है। अलमूल alamil-सं० गावज़बाँ-बम्ब०। अलमोस: alamosab--सं० पु. मत्स्यभेद नोट-प्राचीन फारसी व घरबी तिठबी ग्रंथों (A sort of fish) वै० निघ० । में व्यथा के लिए व शब्द व्यवहृत हुश्रा है। किन्तु श्रवोचीन मिश्र देशीय हकीम अब वजन अलमोसा alamosa--हिं० प्र(इ)मली । ( Ta (वेदना) के लिए प्रायः मलम् शब्द को व्यवहार marindus Indicus.) में लाते हैं । अस्तु, निम्न शब्द उन्हीं के ग्रंथों से मलम् alam-अन्य [सं०] यथेष्ट । पर्याप्त । पूर्ण । उद्धत किए गए हैं। काफ्री । ( Enough, sufficient.) अलम् और वजन का भेदअत्तम alam-फा० (,) अदरक, मादी ' (Zingiber officinalis ) देखो उल्लामह, कुर्शी के वचनानुसार जिस दई का बोध विशेष स्पर्श शक्रि द्वारा हो उसे वज्मा और आईक । (२) कंगुनी, चीना । (Panicum जिसका बोध सामान्य अर्थात् सावानिक या i verticillatum. ) सामूहिक बोध शक्ति द्वारा हो उसको अलम् नाम For Private and Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलम् अज़म अलम् जिल्द से अभिहित करते हैं। अस्तु व विशेष | अलम् क जोब alam-qaziba-अ० शिश्नशूल, है और अलम् सामान्य । लिंग की पीड़ा । फलैल्जिया ( Phallalg. मलम् अज़म alam-aazm ____ia.)-३० । वज्अ अज़म vajaa-aazm प्रलम् कज़हिय्यह, alam-qazhiyyah-१० -० अस्थि वेदना, हड़ी का दर्द । ऑस्टियो- आँख के अंगूरी पर्दा का दर्द । भाइरैल्जिया डोनिया (Osteodynia)-इं०। । ( Iralgia.)-इ। अलम् अज़द् alam-aazud-अ. बाजू की अलम्क.त्न alam-qatn-अ. कटिशूल, कमर पीड़ा, भुज वेदना । ब्रैकिऐल्जिया ( Brachi. | का दर्द । लम्बेगो ( Lumagbo.)-इं० । algia.)-इं०। अलम् कदम alam-qadam-अ० पादशून, अलम् अन्फ alan-anfa-अ. नासिका की | पाँव का दर्द । पाँटैल्जिया ( Podalgia.) वेदना, नाक का दर्द । राइनैल्जिया ( Rhin. -इं०। algia.)-ई। अलम् क.स्स. alam-qassa-अ० वक्षोऽस्थि अलम् अम्ाalam amaaa-अ० उदर __ वेदना, उरोऽस्थि शूल, सीने की हड्डी का दर्द। शल, प्रांत्र वेदना, आँतों का दर्द। एण्टरेल्जिया स्टनैल्जिया (Sternalgia.)-इं०। (Enteralgia.)-इं० । अलम् कबिद ulam-ka bida-अ० यकृद्वेदना, अलम् भवतह alam-ar batah-अ० बंधनी | कलेजे का दर्द । हिपैटैल्जिया ( Hepa talg. वेदना । डेसमोडीनिया ( Des modynia.) ia.)-इं०। अलम् कुल्यह. alam-kulyah-अ० वृकशूल, अलम् अस्नान alam-asnana-१० दन्त वृक्क वेदना, गुर्दा का दर्द । नैल्जिया (Neph पीड़ा, दन्त शूल, दात का दर्द । श्रोडोरटैल्जिया ralgia.)-ई०। (Odontalgia)-ई ।। अलम् खू स्यह alam-khusyah-अ० पाण्डमलम् अस्.बी alam-aasbi-० नाड़ी शूल, शूल, मुष्क वेदना, ऑड़ी या नुसिया का दर्द । वात वेदना, वायु का दर्द (रेही दर्द)। न्यु ___ डिडिमैल्जिया ( Dedymalgia) प्रॉर्किfenal ( Neuralgia. )-CI ऐल्जिया ( Orchialgia.), आर्कियोडीनिया मलम् उ.जन alam-uzna-अ. कण शूल, कान ( Orchiodynia.)-ई० का दर्द । श्रोटैल्जिया ( Otalgia.) ईयर अलम् गजरूफ़ alam-ghuzuf-अ० उपास्थि शूल, कुरी का दर्द । काण्डड्रल्जिया ( Chonएक (Earache.)-ई'० dralgia)-इं० । अलम् उजली alam-auzli-अ० मांस पीड़ा, दाबलम् गददी alam-ghudadi-अ० ग्रंथिमांशपेशी शूल । माइऐल्जिया (Myalgia) शूल, ग्रंथिस्थ वेदना, गुदूद का दर्द।। -ई । __एडीनैल्जिया ( Adenalgia.), एडीनोअलम् उस उस alamausaus--अ० चञ्च- डीनिया (Adenodynia.)-ई० 1 पीड़ा । काक्सियोडीनिया (Coccyo dynia.) अलम् जन्य alam-janba-अ० पावशूल, - । पसली का दर्द । युरोडीनिया ( Pleurody. अलम् ऐन alam-aain-१० चर्पीड़ा, श्राख | nia), स्टिच (Stitch.)-इं०। का दर्ट, नेत्र शूल । श्रॉफ्थैल्मैल्जिया ( Oph-मलम् ज़हर alam-zahra-अ० पृष्ठशूल, पीठ thalinalgia.), ऑपथैल्मोडीनिया (Opn- का दर्द । नूटैल्जिया ( Nutalgia.)-इं० । thalmodynia.)-इं। | अलम् जिल्द alan-jiida-० स्वक्शूल, चर्म For Private and Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लम् जौ वेदना, त्वचा का दर्द । डर्माटैल्जिया (Derm atalgia. )-इं०। अलम् जौ alam zou - अ० रश्मिशूल, प्रकाशमान् या चमकदार वस्तु के देखने का दर्द। फोटैल्जिया ( Photalgia ) - इं० । ६६८ अलम् नुखाअ alam-nukhaā अ० सुषुम्ना शूल, सौषुम्नस्थ वेदना | माइऐल्जिया ( Myalgia. )-gol अलम् फ़क़रात alam faqarata-o कशेरुका शूल, काशेरुकीय वेदना | स्पॉरिडऐल्जिया (spondialvia ) - इं० । अलम् बत्न alam-batna-ऋ० उदरशूल, पेट का दर्द । सेलिऐल्जिया ( Celialgia.) -- इं० । अलम् बल्ऊ.म alam-balāúma-अ०_कंठ | शूल, हुलक का दर्द। फेरिंगऐल्जिया ( Pha ryngalgia ) - इं० । अलम्ब मुष्ककः alamba mushkakah सं० પુ ० मुष्कक वृक्ष | मोपा - हिं० । घण्टापारुल - बं० । ( Schrebera swietenioi• des.) अलम्बा alamba - सं० स्त्री० तिकालाबु, स्थावर विषान्तर्गत पत्रत्रिष तितलौकी । तित्लाङ- बं० । सु० कल्प० २ ० | देखो - पत्रविषम् | अलम्बुजा alambujá सं० स्त्री० गोरक्ष मुण्डी, गोरख मुण्डी । ( Spheranthus Indicus, Linn. ) वै० नि० । अलम्बुदम् alambudam-सं० क्ली० बालक, हीवेर ( Pavonia odorata. ) | बाला - बं० । वै० निघ० क्षय० चि० शिवगुटी० । अलम्बुष: alambushah - सं० पु० ( १ ) वान्ति रोग, चमन, उलटी, छर्दि नै । ( Vom iting. ) मे० षचतुष्क । ( २ ) भूकदम्ब । कुकशिया गाछ - बं० । र० मा० । रत्ना० । अलम्बुषा,-सा alambushá, sá सं० स्त्री० ( १ ) लज्जालुका भेद । ( A sort of sensitive plant. )। फुल शोला - बं० । लज्जावती, छुईमुई, लजाल ू पौधा F । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलम्बुषाद्यचूर्ण... पर्याय - खरत्वक्, मेदः, गला | गुण- मधुर, लघु, कृमि तथा फफ पित्त नाश करने वाली है । भा० पू० १ भा० गु० व० । अलम्बुषा स्वरस को २ पल की मात्रा में पीने से अपची, गण्डमाला तथा कामला नष्ट होता है । ( २ ) भूकदम्ब । कुकशिमे --बं० | See-bhūkadamba. (३) महा श्रावणी, गोरक्षमुण्डी । गोरखमुण्डी, मुण्डी । बड़ धुलकुड़ि -o | (Spheranthus Indica ) रा० नि० ०५ । व० निघ०२ भा० वा० व्या० पड़शीति- गुग्गुल और त्र्यूषणादि लौह । ( ४ ) लौह मल, मण्डूर । ( Ferri peroxidum.) च० द० १ भा० श्रामवात अलदिचूर्ण | श्रलम्बुषादिचूर्णम् alambushádi-churna m-सं० क्ली० हड़ १ भा०, बहेड़ा २ भा०, श्रामला ३ भा०, गोरखमुण्डी १ भा०, वरुणमूले १ भा०, गिलोय १ भा०, सोंठ १ भा०, इनको लेकर चूर्ण करें । गुण- श्रामचातको दूरं करता है I मात्रा १ कर्ष ( २ तो० ) । भो० म० ख० श्रा० वा० चि० । श्रलम्बुषाद्यचूर्णम् alambushádyachúrnam--सं०ली०(१)अलम्बुषा ( पानीका लजालू) १ भाग, गोखरू २ भाग, त्रिफला ३ भाग, सोंठ ४ भाग, गिलोय ५ भाग, निसोथ सर्व तुल्य: ग्रहण कर उत्तम चूर्ण प्रस्तुत करें । मात्रा -४ -१० मा० । अनुपान दही का पानी, तक्र, मद्य, काँज़ी, उष्ण जल । गुण-श्रमवात, पित्त, त्रिकवेदना, जानुगत वात, उरुगत वात, सन्धिवात, ज्वर, श्ररोचक इसके सेवन से दूर होते हैं । व० से० सं० श्रमवा० चि० । For Private and Personal Use Only * (२) श्रलम्बुषा, गोखरू, गिलोय, विधारा, पीपल, निसोथ, नागरमोथा, बरना की छाल, पुनर्नवा, त्रिफला, सोंठ तुल्य भाग। इनका चूर्ण कर सेवन करने से उन व्याधियाँ दूर होती हैं । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलम्बस्ती अलक मात्रा-४-१० मा० । अनुपान-पूर्वोक्त । अलम् वजह alam-vajha-१० मुखमंडलीय गुण--पूर्वेक । वग०से०सं० श्रामवात चि० ।- वेदना, चेहरे का दर्द । प्रोसोपैल्जिया ( Proso. अलम्बोद्ध स्तनो alamborddhastani-सं० *** palgia )- 1 त्रि० जिसके स्तन न लम्बे और न ऊर्ध्वमुखी अलम् वारक alam-varik-१० नित अलम वरिक alam-varik-१० नितम्ब शूल, अर्थात् ऊँचे हों। सु० शा० १० अ०। चतड़ का दर्द। इस्किऐल्जिया (Ischialgia) अजम्बोष्ठी alamboushthi-सं० त्रि० | जिसके अोष, लम्बे न हों। सु० शा० १० अ०। अलम् शरसीफ़ alam-sharāsif-अ. प्रामा. अलम् मजरी बोल-alam-ma.ji f-boul-१० शयिक द्वार के आस पास की पीड़ा । एपिगैस्ट्रै. FEAT (Epigastralgia )-roll मूत्रप्रणालीस्थ वेदना, मूत्र नाली का दर्द ।। दर्देनाइज़ह-फा० । यूरेथैल्जिया ( Urethra- | अलम् शर्ज alam-sharja अ० गुदशूल, गुदाकी lgia)-ई०। वेदना । रेक्टैल्जिया ( Rectalgia)-ई। अलम् मफ़ साल alam-ma fsal-अ. संधि- अलम् स.दी alam-sadi-अ० चूचुक शूल । दर्दे शूल, जोड़ का दर्द । श्रार्थं लिजया ( Arth- पिस्तान, चूचीका दर्द-30 ।मस्टैरिजया (Masralgia.)-इं०। talgia )-'01 अलम मबैज alam mabaiza-अ० डिम्बा- | अलम् हालिब alam-halib-ऋ० गविन्यु शूल | शयिक शूल, डिम्बाशय सम्बन्धी पीड़ा । प्रोव- दर्दै हालिब-फा० । यूरेटरैल्जिया (Ureteraरैल्जिया (Ovaralia.)..इं० । ____lgia)-ई. । प्रलम मरी alam-mari-अ० अन्नप्रणालीस्थ | अलयाs alayaa-यू०, रू० सिब, मुसब्बर, वेदना, श्राहार पथका दर्द । ईसॉफैगैल्जिया (Es- कुमारीसारोद्भवा । (Ales.) ophagalgia.)-इं०। अलयन alayāna-यु० शेर, सिंह । (A अलम् मसानह alan-inasanah--अ. . lion.) वस्ति शल, मूत्राशयिक वेदना। सिस्टैल्जिया | अलयूह alayāh-यू. जैतून । ( Olive.) (Cystalgia. )-इं०।। अलरा alari-ता०, मल० कर्वीर, कनेर । (Ner. अलम् मिअदह alam-miadah-अ० प्रामा- ___ium odorum.) ई० मे० मे०। , शय शूल, श्रामाशयिक वेदना, मेद का दर्द। अलर्कः alarkah-सं० पु० अर्क, सफेद, मदार, - गैस्ट्रैल्जिया (Gastralgia)-इं०। मन्दार, श्वेत पाकन्द-बं०। (Calotropis अलम् रहिम,-रिह, alam-rahim, rih-१० gigantea or procera,' अर्क of जरायुस्थ पीड़ा, गर्भाशयिक वेदनाः। मेट्रैलिजया white flowers.) भा० पू०१ भा०। (Metralgia ), fefefeftar: ( Hys- मे० कत्रिक० । मन्दार । हेमा० अलर्कादि व०। teralgia )-sol मन्दारार्क | रा०नि० व० १० "मलको अलम् रास alam-ras-१० शिरःशूल, शिरो- मन्दारार्कः यस्य क्षीरं न विनश्यति"| सु० स० व्यथा, शिर का दर्द । सिफेलै ल्जया ( Cepha- ३० प्र० अर्कादि, ड०। श्वेत पुष्पीय मन्दार । : lalgia'), हेडेक (Headache)-ई। वा० सू० १५ १० अर्कादिव. अरुणः । मलम् रुकबह, alam-ruk bah-१० घटने का "अर्कालकौं नागदन्ती विशल्या ।" योगोन्मादित दर्द । गोनैल्जिना ( Gonalgia)-1।। कुक्कुर । मे० कत्रिक० । (२) कुक्कुर ज्वर । मलम् लि स्लान alam-lissan-१० जिह्वाशूल,. (Hydrophobia) हा० अत्रि. २ स्थान । ज़बान का दर्द । ग्लोसैल्जिया (Glossalgia) २ ०। (३) पागल कुत्ता। . | अल alarka-सं० सोलेनम् ट्रिलोबेटम् (Sola For Private and Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'अलनॆन्थेरा सिसीलिस ७०० .भलस num trilo batum, Linn.)-ले० । ष्मती। मालकांगुनी-हिं । लताफट्की-ब' । टूड बुल्ले-ता। मूंडल-मुस्तह अचिन्त-कुर-ते। (Cardiospermum halicrca bum). मोट -रिंगनी मूल-मह० । नाभि-प्रकुरी-उड़ि०। "वत्तुलपक्वरक्रफलापीत तैला काकमई निका" ई० मे० प्लां० । सु० सू० ३८ अर्कादिव० उ० । अलवणा वार्ताकी वर्ग अर्थात् मालकांगुनी तीब्र, कफ, मेद तथा कृमि (N.O. Solanacee.) विनाशिनी है। अत्रि०।। २) हरीतकी हड़। उत्पत्तिस्थान-पश्चिमी डेकन प्रायद्वीप, (Terminalia chebul, Retz.) मद० कोंकण से दक्षिण की ओर । प्रयोगांश-मूल, व०१। पुष्प, पत्र तथा फल ( Berries. ) और अलवाँती lavanti-हिं० वि० स्त्री० [सं० कोमल अङ्कुर । यह एक प्रकार की बेल है। बालवती] (स्त्री) जिसे बच्चा हुअाहो । प्रसूता । प्रभाव तथा उपयोग-इसके पत्र तथा मूल जच्चा। स्वाद में कटु होते हैं और क्षय रोगियों में इन्हें अलवाई alavai -हिं० वि० स्त्री० [सं० बालअवलेह क्वाथ वा चूर्ण रूप में बर्तते हैं । अवलेह वती, हिं० अलवाती ] (गाय वा भै स ) जिसको चायके चम्मचसे ॥ चम्मच भर दिन में दो बार बच्चा जने एक वा दो महीने हुए हों । बाखरी देते हैं । कासमें पुष्प तथा फल ( Berries) उपयुक्त होते हैं । ऐन्तली । का उलटा । यह हुद्रकरटकारी की प्रतिनिधि रूप से प्रयुक्त | अलविन्द Navinda-सिंध तेन, तिन्दुस, तेनसी होता है। डॉइमाक। -उ०प०सू० । (Dios pyros cordifolia) अलन्थरा सिसीलिस larpanthera sess., अलश alish-पं० अमलतास । (Cassia fistuilis-ले० मोकनु-वन्ना-सिंगा० । la.) मलल बछेड़ा alala-bachhera-हिं. संशा | अलशी यरणे alashi yonne-कना० प्रक्षसी पुं० [हिं० प्रल्हड़+बछेड़ा ] घोड़े का जवान | ___ का तेल । (Linseed oil) स० फा०१०। बच्चा । देखो-अतसी। मलले alale-मैसू० अलशी nashi-हिं०, गु० जावा, म०, को, अलले कायि alale.kayi-कना. ब, कना० अतसी । (Linseed) हन, पीली हड़, हरोतकी। ( Terminalin अलशी विरई alashi-virai-ता. अतसी, chebula, Retz., स. फा० । । अलसी, तीसी-हिं० । Linseed (Linअललेपिन्द alale-pindu-कना० बाल हड़, ___um usitin tissimum) इं. मे० मे। जंगली हड़। (The young dried fruits अलसा,क: alasah,-kah-सं०पू० of Terminalia chebulu, Reta) अलस ॥lasa-ह. संज्ञा पुं० स० फा०1०। (1) पाद रोग विशेष । पाव का एक रोग अलले हुव्वु alale-huvvu-कना० हड़ पुष्प, जिसमें पानी से भीगे रहने या गंदे कीचा में परे हड़े का फूल । हरीतको पुष्पम्-सं०। ( The रहने के कारण उँगलियों के बीच का चमडा सद gall-like excrescenses found on कर सफेद हो जाता है और उसमें खाज, दाह the leaves & young branches of और चीस युक्त पीड़ा होती है । खरवात | कंदरी। T. Chebula) खार | सु०नि० १३ । अलल्लाँ alallan हिं० संज्ञा पुं॰ [?] घोड़ा। (२) विसूचिकाकी एक अवस्था है। अजीर्य -डिं। रोग का एक भेद । विषाजीर्ण, रसाजीण और मालवणा alavana-सं० सी० (1) ज्योति- दोषाजीण भेद से यह तीन प्रकार का होता है। For Private and Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलस अलस्तीन शा । जो श्राहार ऊपर के मार्ग अर्थात् मुख अलसन्दा alasanda-ते. .. द्वारा नहीं निकलता, अधोमार्ग (गुदा द्वारा) भी बालसन्दी alasandi-कना०) नहीं निकलता और न पचता ही है। प्रत्युत केवल नाभि और स्तनों के मध्यवर्ती भामाशय lichos cati'ng, D. sinensis ) नामक स्थान में अलसीभूत अर्थात् स्तब्ध भाव इ0 मे० मे०। में रहता है उसे अल सक रोग कहते हैं। जैसे अलसफाफन alasafafan-(१) लिसानुल-प्रबल । अनुद्यमशील मनुष्य अालसी कहलाता है। । (२) राइयुलाबल । इसके लक्षण में मत. वा० सू० । __ लक्षण-जिस रोग में कूख और पेट में अलसा alasa-सं० २०, हिं. संज्ञा स्त्री. अत्यन्त अफारा हो, बेहोशी हो, पीड़ा युक्त शब्द (१) हंसपदी लता । गोधापदी (Vitis ped. करे और वायु चलने से रुक कर ऊद्ध गति हो, _ate)। गोयाले लता-बं० । मे० सत्रिक । कोख के ऊपर के श्रादि स्थानों में गमन करे, (२) लजाल | लाल फूल की लजावन्ती । मल मूत्र और गुदा की पवन रुक जाए, प्यास | | अलसा alasa-फा०(१)मरोड़फली,पावर्तकी। और डकारों से पीड़ित हो तो उसको "अलसक" (Helicteres Isora) कहते हैं। देखो-मन्दाग्नि ।-घली. (३) (२) ख़ित्मी (See-.khitimi)। शुद्र कुष्ट रोग भेद। (३) नान्नाह, अजवाइन । (Curuin pto लक्षण-जिसमें अत्यन्त खुजली चले, लाली ychotis A jowan) युक्र तथा छोटी फुन्सी अधिक हो उसको "अल-अलसी alasi-सं० (डि. संज्ञा स्त्रा० अतसी। सक" कुष्ट कहते हैं । मा०नि०। (४) व्याल तीसी-हिं० ०। जाति ज्वर । गज-वै०। (५) जिला रोग। वै० अलसी aalasi . घृतकुमारी, ग्वारपाठा, धी. निघ०। (६) वृक्ष भेद । ( A kind of कुवार । (Aloe Indica.) tree.) अलसी का तेल alasi-ka.tel-हिं०, ६०, तीसी अलस āalas-१० भेदिया (A wolf.)। - का तेल । अलसी(-त.)तैलम्-सं० । तिर्सि . -फा० (१) गन्दुम मकह (मका - का गेहूं, गेहूं के सदृश अनाज है)। (२) सुलत, । तैल, मोसिनार तैल-बं० । दुह नुल कत्तान-अ०। रोग़ने ज़गीर, रोगने कता-फा० । लिन्सी मोहन भात जौ, जौ विरहना। (Linseed oil )-इं० । लिनम युसिटेटिअलस. aalas-यु० खन्दरीली, कासनी भेद । सिमम् Linum Usitatissimum; (A kind of Kásaní) - Linn. (oil of.)-ले० । अलिशि-विरै-येण्णेय अलसकः alasakah-सं० पु. ). अजीर्य -ता। मदनगिअल-नूने ते०। चेरुचाण-विसिम्ते अलसक alasaka-हिं. संचा पु..) -एण्णा-मलया। अलशी-यण्णे-कना० स० रोग का एक भेद, अजीर्ण जन्य रोग ( Dyspe- फा० । देखो-अतसी। .. .ptic disease)। देखो-अलसः । भलसी विगईalasi.virai-ता. अलसी, तीसी, मलसन alasan-यु० एक वनस्पति है। प्रतसी। Linseed (Linum Usita. अलसनतुल शुसाफीर alasanatul-ansar tissimum ) इं० मे० मे.. fira-१० इन्द्रयव । Wrightia Tinc. अलसेलुका alaseluka-सं० खो० रकलजालुका । toria, R. Br. ( Seeds of..) फुल सोला-बं० । वै० निघ०। अलसन्दह alasandah-हि. मोठ । ( Vetc-अलस्तीन-alastill-यु० नमक, लवण | Salt hes, Lentils) | (Sodium chloride.) For Private and Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 'प्रतस्तूम ७०२ अलाबु सुहृत् अलस्तून alastún - रू० अफ़सन्तीन । ( Arte | श्रलाबटर alabaster - इं० सफेद पत्थर, गोदन्ती । mesia Indica, Willd.) अल हैरी alahairi - हिं० संज्ञा पुं० [अ० ] एक जाति का अरबी ऊँट जिसे एक ही कूबड़ होता है और जो चलने में बहुत तेज होता है । लाई alai - हिं० पु० [ १ ] घोड़े की एक जाति । अलाउठा aláuthá सं० क्षिप्त रोग | देखो - क्षिप्त । अथर्व | सू० ६ | ३ | क:०६ | अलाह, āalágah - ० ( १ ) इच्छा, लगाव | ( २ ) वह तन्तु या सूत्र जो किसी अवयव को लटकाए या निज स्थान पर स्थिर रखे । अलाक़तुल् बैज़ह Āaláqatul-baizah-श्रुo अण्डधारक रज्जु | स्पर्मेटिक कॉर्ड ( Sperma tic Cord ) - ३० । श्रृलाचारह āaláchárah-श्रसफहा० अक्रूञ्जन । See-aaqaaq. अलाग़ alágh-तु० गदहा, गधा, गर्दभ । ( An ass.) अलाकलङ्ग alákalanga तु० तेलनी मक्खी (एक प्रसिद्ध परदार पक्षी है ) । Cantheridis.) कालानम् alatam-सं० क्लो० ) अँगारा, श्रअलात aláta हिं० संज्ञा पु ं० द्वारा ( A firebrand, embers. ) । कयला बं० । रत्ना० । ( २ ) जलती हुई लकड़ी । लुश्राठी । अलातन alátan यु० जावित्री । ( Mace.) अलातरी alatari प्रेमरबेल, प्रकाशबेल | अलाटरी-alatari (Cuscuta Ref lexa. ) • अलाती alati रू० एक वृक्ष है, जिसकी गोंद चीड़ की गोंद के समान होती है। किसी किसी के मातानुसार यह चीड़ का एक भेद है । अलातीनी alátini--रू० लबलाब, इश्क पेचा, 'एक बेल है । ( Ipomoea Quamoclit.) अलाद alada - यु० जैतून तेल । ( Olive oil. ) अलांनीतून alánitún - रू० रवासन, किंसी किसी में एक दूसरी औषधि है। मत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (Calcium Sulphate.) सञ्जिराहत - सं० । ई० मे० मे० । अलाबाद alabad- अण्ड० अलाबु alábu-सं० पु० यंत्र विशेष । वा० सू० श्र० २६ । अलाबु alabu-सं० क्ली० अलाबुः, -बूः alabh, buh - सं० स्त्री० अलाबू alabü-हिं० संज्ञा स्त्री० } ( १ ) स्वनामाख्यात फल शाकलता, लौकी, मिठीतुम्बी, लौवा, कह - हिं० । लाड गाछ -ब ० | दुध्या मोपला मह० । (Cucurbita lagenaria. ) श्री० | शब्दर० । ० पू० १ भा० । द्रव्यगु० । राज० । ( २ ) कटुतुम्बी, तितलौकी, तित्लाङ ब० | Wild variety of legenaria vulgaris. श० र० । ( ३ ) तूं बा । ( ४ ) सर्प विष की थैली । ( Serpent venom sac.) थ ० सू०१० | १ | का Ti बुक: alábukah - सं० पुं० श्रश्व मुखरोग । इसमें मुख दुर्गन्धि, तालुशोफ तथा ग्रास ग्रहण में द्वेष प्रभृति लक्षण होते हैं । ( Mouth disease of the horse.) ज० ६० । अलाबुका alabuka-सं० स्त्री० कटु दुग्धयुक्र अलाबु, तितलौकी, कटुतुम्बी भा० | SeeKatu tumbi. अलाबुनी alabuni - सं० खो० ( १ ) कटु दुग्धाला बु, कटुतुम्बी तितलौकी । सिल्वाङ —'०। Wild variety of legenaria vulgaris. । (२) मिष्ठ तुम्बीलता, मोठी तुम्बी, लौकी, कहू - हिं० । मिष्टलाड गाछ -ब ० । ( Cucurbita lagenaria ) मद० ० ७ । अलाबु विधिः alabu-vidhih - सं० पु० तुम्बी लगाने की विधि | अलाबु सुहृत् alābu subhrit सं० पुं० अम्लवेतस । ( Rumex vesicarius.' ') व० नि० । 0 For Private and Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलावू यन्त्रम् । भलासा अलाबू यन्त्रम् alābā yantram-सं० क्ली० यन्त्र विशेष | तुबी। . .. लक्षण-तुम्बी यंत्र १२ अंगुल. मोटा होता है। इसका मुख गोलाकार तीन वा चार अंगुल चौड़ा होता है। इसके बीच में जलती हुई बत्ती रखकर रोग को जगह लगा देने से दूषित श्लेष्मा और रन खिंच पाता है। अत्रि० । वा०. सू० प्र०२३। अलाम aalam-अ० मेहवी (हिना)। Myrtus Communis. . अलामत aalamat-१० (हिं. संज्ञा पु०) (ए० व०), अलामात (ब० व०)। इसका शाब्दिक अर्थ लक्षण, चिह्न, लिंग आदि है (-विस्तार के लिए देखो-लक्षण)। तिब की परिभाषा में वह वस्तु जिसके द्वारा किसी शारीरिक दशा अर्थात् स्वास्थ्य वा रोगमें से किसी अवस्था पर दलील पकड़ी जाए. अर्थात् जिसके द्वारा स्वास्थ्य वा रोग लक्षित हो | सिम्प्टम् (Symptom ), साइन ( Sign ), इण्डिकेशन ( Indication )-इ। तिब्बी नोट-अलामत अर्थात् लक्षण से कभी भूतकालीन (भूतकाल में उपस्थित हुई ) दशा का पता चलता है, जैसे-नदावतुल बदन ( शरीर की तरी) तथा नाड़ी की निर्बलता एवं शिथिलता से वैद्य को इस बात का बोध होता है कि रोगी को इससे पूर्व स्वेद पा चुका है। ऐसी अलामत या लक्षण को अलामत नुज़ाकिरह अर्थात् किसी गत घटना की द्योतक अलामत कहा जाता है। इससे वैद्य को बहुत लाभ होता है अर्थात् उक्त अलामत के द्वारा रोगी के गत शारीरावस्था के बतलाने से उसकी श्रेष्ठ विद्वता एवं क्रिया कुशल ता लक्षस होती है। (२) कभी अलामत से वर्तमान कालीन अवस्था का पता चलता है, जैसे-उष्ण स्पर्श द्वारा ज्वर की उपस्थिति का पता चलता है। ऐसे लक्षण को तिबमें "दास" या 'अलामत दालह' कहते हैं । और यूँ कि स्पीष्मा रोगीको वर्तमान ज्वरावस्था ' का पता देकर उसका ध्यान चिकित्सा की ओर .माकर्षित करती है, इसलिए ऐसे लक्षण से | अधिकतर रोगी लाभ उठाता है। (३) और कभी अलामत भविष्यकालीन घटना की परिचायक होती है । उदाहरणतः-निम्न श्रोष्ठ का स्पंदित होना इस बात का सूचक है कि वमन होगा। ऐसे ल रुण को लिब में तकदुमुल्म - रह या साबि कुल इल्म अर्थात् पूर्वरूप के नाम से अभिहित करते हैं। ऐसे लक्षण से चिकित्सक व रोगी दोनों को लाम होता है। वैद्य का ऐसे लक्षण को देखकर भविष्य में आने वाली घटना से रोगी को सूचित करना उसके हृदय में वैद्य की उच्चकोटि की योग्यता व चिकित्सा-कौशल्प स्थान पाता है। और स्वयं रोगी चूँ कि वैद्य में प्रादेशानुसार उक्र रोग की चिकित्सा व उपाय से परिचित हो जाता है। इस कारण रोगी भी ऐसे लक्षण से लाभान्वित होता है। अलामत ओर अर्ज का भेद-(देखो अज़) अलामत और दलोल का भेद-अलामत अर्थात् लक्षण कभी माल हुल अलामत (जिसका वह लक्षण है ) के साथ पाया जाता है और कभी नहीं। इसके विरुद्ध दलील (लक्षण) अपने मद्ल ल (लच्य) के साथ अवश्य हुश्रा करता है । इनमें से प्रथम का उदाहरण मेघ व वृष्टि है । यह बात स्पष्ट है कि मेघ कभी बिना वृष्टि के भी होता है। और द्वितीय का उदाहरण अग्नि व धूम है। क्योंकि धूम सदा अग्निके साथ पाया जाताहै। तिब के दृष्टिकोण से दलील तथा अलामत में मुख्यभेद यह है कि दलील केवल रोग के लक्षण के लिए प्रयोग में पाता है और अलामत साधारण है जो रोग एवं स्वास्थ्य प्रति दो लक्षणों के लिए बोली जाती है। डॉक्टरों नोट-सिम्पटम् का शाब्दिक अर्थ "परस्पर घटित होना" है। डॉक्टरी परिभाषा में उस परिवर्तन के लिए बोला जाता है जो रोग क्रम . में उपस्थित होता है जिससे उक्र रोग के विध मान होने की सूचना मिलती है। इस विचार से सिम्पटम् अलामत का वर्पाय है। परन्तु भवा For Private and Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनामन अर्जिय्यह ७.४ अलामत मुगिरह . चीन मिश्र देशीय वैद्य अलामत के स्थान में स्थानीय शोथ । लोकल सिम्पटम् ( Local इसका पर्याय 'भ' निर्धारित करते हैं। Symptom)-ई। साइन उस अलामत का नाम है जो केवल अलामत मबय्यिनह, aalanata-maba. । रोग में प्रगट होता है और सिम्पटम् रोग व yyinah स्वास्थ्य दोनों बक्षणों के लिए बोला जाता है। अस्तु, जो अन्तर दलील व अलामत में वर्णित a , Tant दलालत dalilata हुआ वही भेद सिम्पटम् व साइन में है। इण्डि. अ. वह लवण जिससे वैद्य को रोग का पता केशन भी साइन और दलील का पर्याय है। लगे। उदाहरणतः नाड़ी व कारोरा (मत्र) अलामत अजिय्यह् aalamat-aarziyyahi प्रभृति । इण्डिकेशन ( Indication ), -अ. वह लक्षण जो किसी अवयव के अवारि ज़ साइन ( Sign )-11 अर्थात् उसकी सुन्दरता व कुरूपता से सम्बन्ध अलामत मुख्तलितह, aalamata-mukhta. रखता हो, उसके शरीर या जौहर या उसकी litah-अलामत मुरकबह -१० । संयुक या मिक्रिया से सम्बन्ध न रखता हो। देखो--अलामत श्रित लक्षण । वह लक्षण जो अन्य लक्षणों से . जौहरिय्य। संयुक्त या मिश्रित होकर व्यक होता है अर्थात् एक रोग के विमिन लक्षणों का परस्पर मिलकर अलामत प्रामह aalamat-aamah प्रगट होना। अलामत मिज़ाजियह arlamat-mizajiyab | उदाहरणतः-ज्वर में शिरःश ल, इन्द्रियों --अ. सामान्य लक्षण, मिज़ाजी अलामत, वह का टूटना व मतली प्रभृति का परस्पर मिलकर लक्षण जिसका सम्बन्ध समग्र शरीर से हो या जो प्रदर्शित होना । कम्प्लेक्स सिम्प्टम् ( Compसमग्र शरीर में प्रगट हो। जैसे ज्वर में सम्पूर्ण lex symptom ), सिण्ड्रोम ( Syndroदेह का गर्म होजाना। me )--इ । अलामत जौहरिय्यह. aalamat-jouhari- | अलामत मुजकिरह aalanata-muzakki. yyah-३० (१) वह लक्षण जो अवयव के rah-० स्मरण कराने वाला लक्षण, स्मारक शरीर व सत्ता से अर्थात् उनकी सृष्टि व उत्पत्ति | चिन्ह, वह लक्षण जो किसी रोग द्वारा उपस्थित से सम्बन्ध रखता है। (२) जो लक्षण अवयव | निर्बलता में व्यक्त होकर उस गत रोग को के अवारि (कुरूपता वा सौंदर्य)से संबंध रखते स्मरण कराए, परन्तु उस रोग से उसका कोई हों उन्हें "अल्लामात अजिय्यह" कहते हैं । और विशेष सम्बन्ध न हो। कन्सीक्युटिव सिम्पटम (३) उन लक्षणों को जो अवयवों के कार्य से (Consecutive symptom)-इं। सम्बन्ध रखते हों उन्हें "अलामात तमामिय्यह" अलामत मुन्अकिसह aalan at-in.unaaki. कहते हैं। sinh-१० परावर्तित लक्षण, वह लक्षण जो रोग अलामत तमामिय्यह, aalamat-tamami- से दूर किसी अवयव में प्रगट हो। yyah-१० वह लक्षण जो किसी अवयव की । उदाहरण-वृकशूल में वमन होना या क्रिया से सम्बन्ध रखता हो, उसके शरीर वा रूप कतिपय मास्तिष्क रोगों और गर्भावस्था में से उसका कोई भी सम्बन्ध न हो। देखो वाम्ति व उबकाई का माना । रिफ्लेक्स सिम्प्टम अलामत जौहरिय्यह। (Reflex symptom ) अलामत मकामिय्यह aalāmat-maqami- | अलामत मुजिरह alamat-munzirah yyah-१० स्थानीय लक्षण, वह लक्षण जिसका| अ. भयभीत करने वाला लक्षण, पूर्वरूप, वह ... सम्बन्ध शरीर के किसी विशेष भाग से हो जैसे- लक्षण जो किसी रोगसे पूर्व उसके उत्पन होने का For Private and Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलामत मुश्तकह अलि भय दिलाए । उदाहरणतः-अपस्मार के दौरा | अलामलकalamalak-(तिनकाबिन व तबरिस्तानी से प्रथम देह के किसी भाग में सुरसुराहट प्रतीत | - अंगूर वृक्ष के समान एक लता है जिसको 'फाशरा' होना मृगी होने का भय दिलाता है और वृद्धा. या "शिवलिङ्गी' कहते हैं । (Bryonia.) वस्था में सिर चकगना सिक्तह, ( Apo- अन्नामात aalāmāta-१० (ब० व०) देखो -- plexy ) के होने का भय उत्पन्न करता है। अलामत ( Symptoms )। störfazat farza ( Premonitary अलार alāra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] कपाट, symptom), प्रोड्रोम (Prodrome) किवाद। [सं० अलात ]. अल्लाव.प्राग का ____ढेर । आँवाँ । भट्ठी । अलामत मुश्तकह alāmat-mushtar- अलाव alava-हिं०संज्ञा पु[सं०. अलांत-अंगार] kah-१० सम्मिलित लक्षण, वह लक्षण जो प्राग का ढेर । धूनी । जखीरा । कौड़ा बॉनफायर कतिपय विभिन्न रोगों में सम्मिलित रूप से पाया (Bonfire ;-ई। जाए । अलावु alavu-गु० अालू । ( Potato.) ' उदाहरण-वमन एक ऐसा लक्षण है जो अलावद्दीन aalavuddina-अबुलहसन बिन आमाशय, मस्तिष्क, वृक्क तथा गर्भाशय प्रभृति __ हाज़िमुल मुल्कीयुल की। देखो-फर्शी | Seeरोगों में सम्मिलित रूप से प्रगट होता है । इकि- Qarsi. बोकल सिम्पटम ( Equivocal symp• अलास: alasah-सं० पु. जिह्वा स्फोट | जिह्वाtom)-इं०। गत मुख रोग । एक रोग जिसमें जीभ के नीचे अलामत मुस्तकीमह aalamat-mustaqi- का भाग सूजकर पक जाता है और दाढ़ तन mah-० अलामत जातियह । जातीय लक्षण, जाती है। वह लक्षण जो बिना किसी लगाव के स्वयं रोग लक्षण-जिह्वा के नीचे जो प्रगाढ शोथ हो से उत्पन्न हो । जैसे शोथ में वेदना एवं दाह । तो उसे कफ और रन की मूर्ति अलास नामक डाइरेक्ट सिम्प्टम ( Direct symptom), जिह्वा रोग कहते हैं । यह रोग बढ़कर जिह्वा को ईडिप्रोपैथिक सिम्पटम (Idiopathic sym. स्तंभित कर देता है और जड़ में से जिह्वा पाक ptom)- । को प्रात हो जाती है । यह कफ दोष के कारण अलामत शिर्किय्यह aalamat-shirkiyyah होता है । उक्त कंटक रोग से जिह्वा भारी, मोटी और सेमल के काँटों जैसे मांसांकुरों से व्याप्त -अ०अलामत अर्जिय्यह,,सानुबंधिक लक्षण,अर्जी होती है। सु० नि०१६ अ०। पलामत जो विकारी अवयव के सिवा किसी अन्य अवयव में केवल पारस्परिक सम्बन्ध के कारण | अलासफ़ास alāsafasa-यु० लिसानुल अबर, प्रगट हो । जैसे हस्तपोदस्थ सत प्रभृति में कक्ष वृक्ष और घास के एक बीच बूटी है। या चड्ढे की ग्रंथियों का शोथयुक्र हो जाना या अलासि alasi-बम्ब० अलसी, तीसी । Linवृक्क शोथ वा जरायु शोथ में वमन होना | सिम्पै- seed (Linum usitatissimum), थेटिक सिम्प्टम (Sympathetic sym- अलिः alih-सं० पु. )[खी० अलिनी] ptom)-ई। अलि ali-हिं० संज्ञा पु. (१) भ्रमर, अलामत हालिय्यह aalamat-hāliyyan भँवरा । लार्ज ब्लैक बी ( Large black -अ० वह लक्षण जो अवयव की किसी विशेष ___ bee)-ई। रत्ना०। (२) मद्य, मदिरा | अवस्था को प्रगट करे । स्टेटिक सिम्पटम् (Sta- स्पिरिचुअस लाइकर (Spirituous liqutic symptom ), पैसिव सिम्प्टम ( Pa- | ___or.)-ई। मे० लद्विक । (३) वृश्चिक, ssive symptom )-। बिच्छ् । स्कार्पियन (A scorpion)-ई। For Private and Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অতিমা। अलिजिह्री, हिका हारा । (४) काक, कौत्रा । क्रो (A erow) तन्तुओं को । दर्पघ्न-सिकञ्जबीन व शुद्ध शहद । ६०.। (१) कोकिल, कोयल । इण्डियन कुक्कु प्रतिनिधि-मस्तगी, रातीनज उचित मात्रा में। Aulandin vuckoo ( Cuculus मुख्य गुण ---श्रामाशय को वलप्रद, मूत्रल व Indicus.) श०र०। (६) सखी (A - कासघ्न | बु० मु०।... woman's female friend or com गुण, कर्म, प्रयोग-दोषीको परिपक्व करता panion.) । (७) पंक्कि (A line, एवं उनके वाम (चाशनी को ) साम्यावस्थापर a row)। (८) कुत्ता (A dog)! (६) लाता, शोथ एवं वायु का लयकर्ता तथा कफज दे०-अली। कास को लाभप्रद है । शुष्क एवं तर कंडू को अखिमार aliāra-सं० ज़हमी, बन्दरी-बम्ब० । लाभ पहुँचाता और प्रकृति को मृदु कर्ता है। मद० । (Dodonaea viseosa) मे० निविषैल । (म० मु०) . मे । _ विलायक, द्रावक, पाचन शक्ति को बल प्रदान अलिजर alinjara-हिं० संज्ञा पुं० देखो-अलि. कर्ता, मूत्र प्रवर्तक व शोधक और समग्र यूनानी - अरम्। भलिक: alikah-सं० पु., क्ली. .. हकीमों के निकट मस्तगी से श्रेष्ठतर है। इसका चबाना मस्तिष्क की श्राद्रता एवं श्लेष्मा का मलिक alika-हिं० संज्ञा पु. अभिशोषक और प्रामाशय बलप्रद है। यदि .. (१)कपोल, गण्डस्थल, गाल | चीक (Che २॥ तो० इसकी गोंद को १ छटाँक बकरी के ek )-इं० । रा. नि. व० १८ । (२) गुर्दे की चरबी के साथ पिघलाएँ और सब को ललाट | कपाल | मस्तक । पेशानी । फॉरहेड तीन दिवस में खाएँ तो श्राद्र कास तथा मूर्छा (Forehead )-इं०। रत्ना०। (३ ) दे० के लिए अनुपम है । मधु के साथ श्राभ्यंतरिक अलि । ततों और वसा में पिघलाया हुअा अवयवों की भलिक aalik-अ० प्रत्येक गोंद जी चबाई जा पीड़ा का दूर करने वाला है। सके । ( Resin) देखो-अलक । अलिकुल सङ्कला alikul.sankula-सं० स्त्री० अलिका alika-सं० स्त्री०पाटली । (Bigmoniai Suaveolens.) केक शेवती, काँटा शेवती। कुब्जका वृक्ष, कोकन देशीय पुष्प वृक्ष । ( Trapa bispinosa.) मालिक मत्स्यः alika-matsyah-सं० पु. Itsyah-स० पु रा०नि०व० १० । भ० पू०१ मा देखा (1) अंगारा ( Embers.)। (२) भिन्न कुंजकः। तिल । (३) तैल भृष्ट मांप, तेल में भूना हुआ मांस । ( ४ ) पिष्टक विशेष । ! अलिगद्दः aligarddah सं० पु. जल पम् । अलिकुल अम्बात aalikul ambat-अ. (A lmaquatic sel pelit. ) श० र० । अलिज़ान alizal'1]i-इं० नारी सुर्ख रंग का बतम या उसके समान एक वृक्ष की गांद है। एक सत्व जो मन्जिष्ठा में पाया जाता है । ( An. अलिकुल प्रिया alikul-priya-सं० स्त्री० Orange-red prm cjple found in काष्ठ शेवती, काठ गुलाब | काठ गोलाप-बं०। "Rubia cordifolia") इं० मे० म०। (Wild rose.) वै० निघ०। अलिजिह्वा,-हिका alijihvā,-hvika-सं. अलि (हल) कुल बुतम aalikul-butam-१० स्त्री० ( Uvula ) क्षुद्रजिहिका, अलि जिव, बुतमका गोंद,इलकुल अम्बात | इसकी शुष्क गोंद । गले की घौटी। गले के भीतर का कौवा । को कलान कहते हैं । प्रकृति-कक्षा द्वितीय के अन्त काक. कौव्वा,' अलि जिह्वा, शुंडिका, में उष्ण व रूक्ष । स्वरूप-सुख, स्याह रंग का कोमल तालु के पिछले भाग में एक होता है। हानिकारक-उपण प्रकृति व वात | खू टी सी दिखाई देने वाली चीज । श. र० । For Private and Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अलिञ्जरम् ..अलिञ्जरम् alinjiam-सं० क्लो० ( १ ) फल विशेष | फुटी विशेष-बं० । चिरफोटी मह० । गण - श्रलिङजर रूक्ष शीतल तथा भेदक है श्रीर कसेला मधुर, छारीय, तिक तथा पाक में कटु और स्वादिष्ट वातकारक तथा श्वास, कास और श्लेप्न विनाशक है । ० नि० (२) बहुज्ञलघर - मुख्य पात्र विशेष सुराही । पानी रखने के लिए मिट्टी का बरतन । भम्भर | घड़ा | अलिता alita-सं० स्त्री० श्रलक्तक श्रालता -बं०। ( Lac, the red animal dye so called.) 1 og गुण- लिता उष्ण, तित्र कफ वात तथा व्रण नाशक हैं। व्यंग, श्ररुत्री, की रोग और नाक है। पूर्व महर्षियों ने अन्य गुण लाक्षा के सहरा वर्णन किए हैं । वै० निघ० । इसके अतिदूर्वा alidurvvá सं० [स्त्री० माला दूर्वा, माला दृत्र । रा० नि० ब० । Soo-Málá dúrvvá pralinthah-e go (Allantois) भ्रा का वह श्रावरण जिसमें उसका मूत्र एकत्रित रहता है | कीसतुल बौल - ० । अलिन्द alinda - हिं० संज्ञा पुं० ( 1 ) (Auricle)। (२) [ सं० प्रलीन्द्र ] भौंरा । (A wasp)* सु अलिपक: alipakah सं० पु० पिक alipaka - हिं० संज्ञा पुं० PAR (१) भ्रमर, भँवरा ( A large black bee) (२) कोकिल; कोयल । An Indian -euekoo ..(Cuculus Indicus) । .२ (३०) कुक्कुर, कुत्ता ( A- dog. ) । सर्व्वत्र • मे० कचतुष्क । पत्रिका-alipatrika - सं० (हिं० संज्ञा) स्त्री० वृश्चिकाली, बिछाती, विद्युश्री घास (Fragia involucrata: ) रा०नि० ०५ । श्रलिपर्णिका - र्णी aliparniká,-rní-सं० स्त्री वृश्चिकाली | बिछाति, त्रिकुटी - वं० । (Fragia invclucrata ) रा०नि० ०३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलिम्पकः, -स्वकः अलिप्रियम् alipriyam-सं० क्ली० ( 1 ) रक्त्रोत्पल, लाल कमल । ( Nelumbium speciosum.) त्रिका० । - पुं० (२) धारा कदम्ब ( Adina cordifolia.)। (३) श्राम्र वृक्ष, श्रम | A mango tree ( Mangifera Indica.) श० १० । ( ४ ) कदम्ब वृक्ष | ( Authocephalus kadamba ) भा० पू० १ भा० । अलिप्रिया alipriya-सं० स्त्री० ( १ ) पाटला | पारुल गाछ - बं० । ( Bignonia suaveoJens. ) प० मु० । ( २ ) भूजम्बू वृक्ष, काक जम्बू ( Ardisia solanacea ) ० निघ० । श्रलिप्सा alipsa - सं० [स्त्री० अनिच्छा | (In difference ) अलिफ़ान alifan- अ० बाजू के अन्दर की दो रगें ! श्रलिवोफोर डी वेज़ोइन aliboufier de benjoin-फ्रां० लुबान, ऊद - भा० बाजा० । Gum benjamin tree. (Styrax benzoin, Dryander ) फा० ई० २ भा० । श्रमिक: alimakah सं० पु० (१) भेक ( A frog ) । (२) कोकिल, कोयल ( An Indian cuckoo )। (३) भ्रमर, भँवरा ( A large black bee )। (४) पद्म केशर ( See-padmakeshar )। ( ५ ) मधूक वृक्ष, महुश्रा । ( Bassia latifolio ) मे० चतुष्क अलिमोदा alimodá - सं० स्त्री० गणिकारिका | गणिरी - बं० । ( Premna spinosa . ) रा०नि० ० ६ | देखो - अरणी । अलिमोहिनी ailmohini - सं० स्त्री० केविका पुष्प वृक्ष, केवार । रा० नि० व० ३० | देखोकेविका ( Keviká)। श्रलिम्पकः, -म्बकः alimpakab,-mvakab - सं० पु० ( १ ) कोकिल, कोयल ( An Indian cuckoo ) | ( २ ) नमचिका, For Private and Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अलिया . ७०८ अलीबिनब्बास - मधु मक्खी,शहदकी मक्खी ( A bee)। (३) अलीक: alikah-सं० पु. काकोली पुष्प, फल ... कुक्कुर कुत्ता (A dog)। (४) पन केशर।। व पत्र । -padamkeshar) वै० निघ०। अलीक मत्स्यः alika-matsyah-सं० पू० अलिया aliya-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० श्रालय ] अङ्गार पर पकाकर तिल तेल में भूनी हुई उपद एक प्रकार की खारी। की पिट्री । बड़े नागरबेल पानको उपद की पिट्री अलिवल्लभा alivalladha-सं. स्त्री. रक पा- में लपेटकर युक्रि से कढ़ाई में पकाएँ, फिर छोटे टला । (See-patala) भा० पू० १ भा०। छोटे कतर के तेल में भून लें तो "प्रतीक मत्स्य" अलिवाहिनी :ilivahini-सं० स्रो० कोकण देश तैयार होते हैं। इनको बैंगन के भुरते के साथ प्रसिद्ध केविका वृक्ष । केवेर-हिं० । रा०नि० व. अथवा बथुए के साग से या रायते से भक्षण करें १० । See-kevikā. भा०पू०२ भा० । अलिविरई alivirmi-ता०, चन्द्रसूर, अहलीव || अलीकोचक alikochak -हि. तेलनी मक्खी अलिवेरी aliveri-बं० ( Lepidium ज़रारीह-अ०! ( Cantharidis.) sativum. ) अलीगड aligadda-द० प्याज, पलांडु । (Alliलिशalisha-काश um cepa, Lim.) अलिशि विरई alishi-virai- ता० अलीनाम् alinakam-सं० क्ली० वा । अलसी, तीसी । Linseed ( Linum ( Tin. ) ko đo usitatissimum, linn. ) फा० इं० अलीफ़ोन alifina-फ़िर० हाथी, हस्ति । ( An १ भा० । देखो..-अतसी। elephant.) अलिसमाकुलः alisamakulah-सं० पु. अलीफूल aliphila-द० नीलोफर,छोटा कमन । पुष्प वृद्ध विशेष । दवण सेवन्ती -मह० । वै. . ( Nymphea edulis, D.C.) स० निध। फा००। अली (इन् ) ali "in"-सं० पु . अली बिन अब्यास aali-bin-aabbasa-पक्षी अली ali-हि. संज्ञा पुं० [सं० अलि ] अब्बास मजूसी -१०। Ali bin alab(.) वृश्चिक, बिच्छू ( A scorpion.)। bas alma.jusi, Alli Abbas. यह (२.) भ्रमर, भँवरा । ( Alarge black .. प्रसिद्ध ईरानी हकीम गबर अर्थात् प्रातस bee ) मे० ।-हिं० संशा स्त्री० [सं० प्राली ] परस्त (अग्निपूजक) था। इसी कारण यह म(1) सखी, सहेली, सहचरी । ( A female जूसी अर्थात् भातशपरस्त (अग्निपूजक ) की friend.)। (२) श्रेणी, पंकि, कतार। .. उपाधि से विभूषित है । यह ईसवी सन की १० अली ali-40 अमलतास । (Oassia Fistu- वीं शताब्दि के उत्तरार्ध में अहवाज । ईरान देश) नामक स्थानमें उत्पन्न हुआ और इसने अबी माहर मूसा बिन सय्यार से वैद्यक विद्या की शिक्षा प्राप्त अलीकः alikb-स० पु. एक प्रकार का सर्प । . की । यह अपने समय का अत्यन्त महत्व पूर्ण .. अंथर्व01 सू० १३ । ५ । का०५। और सेट हकीम हो चुका है। यह सुल्तान अलोक aaliq-अ० लबलाव, इश्क पेचा । (pc- | अजदुद्दौला बिन बूयह देन्मी का दरबारी चिकि: moea quamoclit. ) त्सक था । प्रसिद्ध तिब्बी ग्रंथ "अलमलिकी" अलीकम् alikam-सं० क्ली० ललाट, मस्तक, या "कामिलुस्सनाबह" जिसको अंगरेजी ग्रंथों - पेशानी । ( Forehead) हे. च। में लिवर रेजिस (Liber Regis Kingly. For Private and Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलीबिन ईसा भलीः · book" ) अर्थात् राजकीय ग्रंथ लिखा है, यह हसन अली बिन रिजवान बिन अली बिन जमकर । भापही के लिखे हुए ग्रंथ रत्नों में से है। इन्होंने इनकी उत्पत्ति मिश्र देश के जीज़ स्थान में हुई यह ग्रंथ उल्लिखित राजा के लिए ही लिखा था । थी। किसी २ अँग्रेज़ी ग्रंथ में लिखा है कि यह इस कारण इसे उसी के नामसे अभिहित किया। खलीफ़हुल हाकिम के काल में सन् १०६८ ई. यह अपने काल का अनुपम ग्रंथ तिब्ब इल्मी व में मिश्र में एक उच्चकोटि के हकीम प्रसिद्ध थे। अमली दो भागों में विभाजित है और प्रत्येक इनके पिता रिजवान बिन अली तनूर बनाने वाले भाग के कतिपय खण्ड हैं । अमली अर्थात् प्रायो. थे । अली बिन रिजवान ने एक साधारण पेशावर गिक भाग में व्यवच्छेद, इद्रिय व्यापार, सामान्य की सन्तान के सदृश पालन पोषण व शिक्षा पाई विकृति विज्ञान, गुह्येन्द्रिय संबंधी रोग, त्वक् और क्योंकि स्वभावतः इनका ध्यान योग्यता व विकार, व्रण तथा क्षत प्रभृति का वर्णन है । और विद्या प्राप्ति की ओर था। इसलिए किसी पेशा में इल्मी में स्वाथ्य संरक्षण, आहार, निघण्टू तल्लीन होने की अपेक्षा उन्हें विद्या-विलास अधिक (औषधनिर्माण ), विशेष विकृति विज्ञान और प्रिय व रुचिकर था । ३२ वर्ष की अवस्था में यह चिकित्सा का सविस्तार वर्णन है । कानून शेख के एक उच्चकोटि के और नामवर तबीब प्रसिद्ध हो प्रकाशित होने से पूर्व अरब व अजम में यह वैद्यक गए और ६०, ६५ वर्ष की अवस्था तक अत्यन्त की एक अत्यन्त प्रशस्त व प्रामाणिक पुस्तक सफलतापूर्वक चिकित्सा कार्य करते रहे। मानी जाती थी। कई बार लेटिन भाषा में इसका परन्तु यह कुछ तुन्द प्रकृति के मशहूर थे। यह भनुवाद किया गया । यह पुस्तक मिश्र के अपने समकालीन और कोई कोई पूर्वकालीन - मुद्रणालय में अब भी मिलती है। चिकित्सकों, यथा-शेखरईस व जकरिया राजी प्रभृति के वचनों का खंडन किया करते थे। किसी अलीबिन ईसा aali-bin-aisa-अ० ईसा बिन किसी समय अनुचित वचन कह जाते थे। ... अली ( Ali bin Isa, Jesus Haly). यह अराक अरब के प्रसिद्ध नेत्रचिकित्सक अली बिन रिजवान चिकित्सा में यह केवल उस्ताद खिई के शिष्य थे। पुस्तकों के सिवा पाँचवीं शताब्दि हिजरी या ग्यारहवीं शताब्दि इन्होंने यह विद्या किसी से नहीं पढ़ी। इनका मसीही के पूर्वाद्ध में हुए। यह नेत्ररोगों की वचन है कि विद्या जितना अध्ययन से बढ़ती है चिकित्सा में अत्यन्त सिद्ध हस्त थे। यही नहीं, उतना पाठ पाठ पढ़ने से कदापि नहीं बढ़ सकती। .प्रत्युत यह अपने काल के इमाम माने गए हैं।' और समकालीन और पश्चात् कालीन सम्पूर्ण सन् ४५३ ई० में खलीफा मुस्तनसर बिल्ला के काल में आपका स्वर्गवास हुआ। आपमे एक चिकित्सकों ने इस विषय अर्थात् चतुरोग की चिकित्सा एवं रोग विनिश्चीकरण में अली बिन सौ से अधिक ग्रंथ लिखे हैं। . ईसा का ही अनुकरण किया है। अली(ले)मड़ी ali (le ) mari-हिं० वरुण, अली बिन ईसा के प्रन्यों में केवल एक ग्रंथ बरनावृक्ष । (Crateeva tapia.) "तकिरतुल् कु.हालीन" ( Book of | अलाल alila-हिं० वि० [अ० ] बीमार, रुग्ण । Memoranda for Eye Doctor -.) अलीवन alivan-यु० शेर । (A lion.) प्राप्त होता है । अपुरोगों के निदान व चिकित्सा अलीवह alivah-यु० जैतून । ( Olive.) पर इस ढंग का अपने समय का यह एक अनुपम अली(ले)वा ali,-le-va-10 जंगली अंजीर । ग्रंथ है । यूनानी चिकित्सा में चचुरोगों में यह - (Wild fig.) आज पर्यन्त भी एक उत्तम ग्रंथ माना आता है। भलीष्टः alishrah-सं० पं. तिलक वृक्ष,तिल, अली बिन रिजवान aali-bin-rizvan-० तिल्ली। तिल गाछ-बं०। (Sesamum (ali bin Rudhwan Rodoam). Indicum. ) so farero 1 For Private and Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सलीस . . . अलेक्लीन अज़ान ·alist--एक बड़ी मछली जिसका शिकार अल फस aaluf as खुब्बाज़ो । ( Malva १ करना बहुत दुश्तर है। .. . * Sylvestris, Linn:) अनु:-alth-सं० पु त्री० (१)गलन्तिका (Sce... gilantikā) । (२) अालु (Potato.)। | अलूयन alāy in-यु. एक बूटी है जो अराक में उत्पन्न होती है । एक गज़ के बरावर ऊँची होती ३)तुलसी व न(Ocimum sanction) है। शाखाएँ रकाभ पतली और कठिन होती -क्ली...४) सूल ( Root).मे. कद्विक। अलुई alui-बं० कालमेघ, यवतिक, किर्यात-हि। हैं । छिलका मदु और मूल चुकन्दर के समान होता है। (Andrographis paniculata, Ne. अलूरास alāyas-ले० सित्र सक्कोतरी, सक्कोतरी भेलुकम् aluka-ii-सं० क्ला० (१) अालुक .. एलुगा । (Aloe socotrine.) . . साधारण, भालू । An osciilent root अल्या alāyā-फ़ा० लोबिया । ( Dolichos (Alum empanulatum.) (२) mica atuin sinensis.), पालबोखारा ( Prunns communis.)। अलुसन alusahu -यु. अवमून ( कपास (३.) श्रामिप, मांस । ( Flesh.) अलसून a lāsāna-5 के पौधे के समान एक अतुंचा alucha-म० पाल चाहि । पालक । पौधा है)। -सं० । अलह aaluh-सिरि० एलुश्रा, सिव । (Ales.) मलुदेल alude}-रि.० देल । (Artocarpus अले alen-मह० अदरक, श्रादी। ( Zingiber nobilis.) इसका बीज खाद्य है । मेमा । officinalis.) ई. मे० मे०।अलुबिग्रूम alti- beeyum-मल .. जुन्दवेदस्तर । । अलई alei-मह० (Dalbergitn volubilis, C.Castoreum.) इं० मे० मे० । .: Rob.) फा० ई०१ मा० । अलमोनमः .. aluminaina-हिं? संज्ञा पु० अलेक्सीन ulexind-ई. - [अंक, एलुमोनिग्रम] Aluminium. - यह एक वर्ण रहित, पीताभश्वेत, स्फटिकीय अलुवह ansth-फा० (१.) उद . पुर्वर्द । क्षारोंद है "जो कॉमन गोर्य ( Common ...(२) काब । ( An eagle.) ..... gorse , या फर्जी (Furie') या तिन मलूक alika-हिं० श्राल । Potato (AI. ( Whiin') नामक वृद से ,जिसका वॉनस्पतिक um campanulatum. ). .. नाम अलेक्स युरोपियस(Ulex Europeus) अलू क aluqa- अ० पारद 1 Mercurry( Hy. है, प्राप्त होता है। यह सायटिसस लेबर्नम् ...drargyram. ) (Cykisus la burnnin) द्वारा पाए जाने अल को , aaiiqi-मुलेटी, यष्टिमधु । ( Glycy. वाले सायटीसीन (Cytisine ) नामकं सत्व ___rhizan.).. के समाच होता है। अधिक मात्रा में यह सबल अलूचा alücha-पाल चा । . श्वासोच्छ वास विषयकं विष तथा 'चेष्टावहा अलूज aluja-अ० मुखल्लसह भेद । फारसी में नाड़ियों को घातग्रस्त करने वाला है। इसमें काज़रीसक कहते हैं। निश्चित मूत्रल प्रभाव विद्यमान है तथा हृद्रोग जन्य जलोदर में इसका उपयोग होता है। अलूनी alini-घरब० लोज अद नामक एक __ - इसको १ ग्रेन से अधिक मात्रा में नहीं प्रयुक्त अप्रसिद्ध बूटी है। अल्फ़न aalifan-यु. मद्यभेद जिसको मैफ़ करना चाहिए । जल में सुविनेय हाइडोलोमाइड हतज ( खटमिट्टा ) कहते हैं । नामक लवण प्रयोजनीय है। इसको स्ट्रिकुनीन For Private and Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलथा: अल्कम् 'कुचलीन का अंगद बतलाया जाता है । हि | अलौह शस्त्र alouha-shastra -सं० पु० घन. - मे० मे०)। - शस्त्र । वह शस्त्र जो लोहे द्वारा निर्मित न हो। मलेथो alethi-40 कुकपाल कुडा--ते। * वा० सू० अ०२६ । प्रलेन alen-मह. सोंठ, शुडि। ( Dry gin प्रलं alam -अव्य० देखो--अलम् । अलबुष alambusha--हिं० संज्ञा पु० [सं० ___ger.) ..:. : अलैक: alaikah -सं० प काकोली पुष्प । अलम्बुषः] ___See-kākoli pushpa. अलबुषा alambus bā--हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अलैग्ज़रियल लॉरेल alexandrial laureli .. प्रलम्बुषा] ई० सुल्तान चम्पा-हिं० । पुन्नाग-सं० । (Calo अल्प स alāafsa- अ० अक्स असुल बलूत । ____ माजूफल, मायिका-हिं० । Galls (Gaphyllum Inophyllum, Linn.) lla.) देखो-- मायाफल । फाई.०१ भा०। अल्ब ह-al-aa bah-अ० (ब० ० ), अलोणा aloni )-हिं० वि० [सं० अल लुभाब (ए. व०) Mucilages अलोना alona ) वण] [स्त्री० अलोनी ] अरुअल,aalaal ] अलुना, बिना नमक का, जिसमें नमक न पड़ा उल्ल , aulaul -१० (१असिवत् हो । स्थादरहित । ( Not salt, fresh, अल्भाल aalaalaj saltless, insipid.) उपास्थि जो प्रामायिक द्वार या कोड़ी के स्थान अलोपा alopa-हिं० संज्ञा पु० [सं० अलोप] पर होती है। एक पेड़ जो सदा हरा रहता है। इसके हीर की | (२) शिश्न, शिथिलावस्था का शिश्न । लाल और चिकनी लकड़ी बहुत मज़बूत होती (Flaccid penis.) है, नाव और गाड़ी बनाने में काम पाती है तथा अल्मा alaa-अ० अंगुली की अस्थियाँ। घरों में लगती है। इसकी लकड़ी पानी में खराब अल इत रियून al-itriyāna-यु० किस्साउल. नहीं होती। हिमार, बिन्दाल, देवदाली । ( Ecbellium अलोमशः alomashah--सं० प. मत्स्य वि "elatèriúin. ) 'शेष, मछली । ( A kind of fish.) श्रल्ऊनह. al-aunah-अ० ग़ाज़ह, गुलाबी गुण-मत्स्य मांस बल कर, शुक्रवर्द्धक और उब्टन । पुष्टिकर है । ग०नि०व०१०। .. . अल्श्ब तुल हशियह laushbatul-habअलोमशा alomasha--सं० स्रो० वृक्ष विशेष। ___shiyah-अ० जदो०, कस्सू, कौसू-उ०,फ़ा। कांगझाड़--मह । (A kind of tree.) वै० . Casso ( Kousso). अल्कः - alkah-सं० पु. (१) वृक्षः विशेष अलोम्ब alombd:-बम्ब मांरखेल-काश० । (A tree.)। (२) शरीरावयव । (An ...मोकशा, चम्बा, खुम्बह । ___organ of the body.) वै० निघ० । - अल्कह, salah-ऋ० वा कपड़ा जो बालक अलोहितम् alohitam-सं० क्ली० (१) रक्त पद्म, लाल कमल ( Real lotus.)। (२) म . उत्पन्न होने के पश्चात् प्रारम्भ में उस पर .. ईपद्रव पद्म । - लपेटा जाता है। अल्कम् alqan.-० इन्द्रायन का फल । मलाहित alohita-हिं० संज्ञा पु. श्वत । अल्कम् aalqam-१० हजल । इन्द्रायन-हि। अलाहितसत्वम् aiohita-sarvam-सं: क्ला० (Citrullus - eolocynthes ) । (२) , ( White car pliscle.) श्वनाणु। कडुअा पौधाः। (३.) बिन्दाल ।। निघ। For Private and Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१२ अल्क. alka-अज्ञात । अल्कुसा alkusā बं ० (१) अकासबेन । अल्कसानुल मुसिहल. alkattānul-mus.. अल्कुसी alkusi (Cuscuta refl hil--अ० कत्तान मुहिल । सारक अतसी ।। exa.) । (२) केवाँच । (Mucuna pruriPurging flax (Linum cathar: 1. ens ) ticum.) मल्कुहाल alcohol अल्कन alkan-१० लुकनतवाला, वह जो अटक अल्कुहा(ही)ल मु.लpalkuhā-o-l muilaq) अटक कर बोले। लिस्पर ( Lisper )-ई० । अ० मद्यसार, ऐलकोहल । Alcohol (Alc• (२) गुंग, गुगा, गूंगा। उम्ब ( Du. ohol absolutum.) अल्केनाइट alkanite-t. , mb)..। अल्केनेट alkanet अल्कम् alqam-म० इन्द्रायण । ( Citrullus रतनजोत । ( Ratana.jota.) _colocynthes ) अल्केन्ना टिकटोरिया alkanna. tinctoria, अल्कम्बीत alqumbita-१० फूलकोबी। (Bra. Tausch.)-ले० रतनजोत । अलखना-१०। ssica botry tis ) इ० हैं. गा० । ( Alkanet)फा०ई० २ भा०।अरकाक्नज alkakanaja-अ० राजपूतिका, अलकेली alkali-ई. क्षार। . वन पूतिका-सं० । पपोटन- हिं | Alkeke ज alkekengi-..काकनज, पपोटन । ngi ( Solanum vesecareun.) (Solanum vesecareum. ) देसो-काकनज । अल्कोहॉल alcohol--ई. मद्यसार, । अल्कादुल्हिन्दो alkadul-hindi- अ. कृष्ण | देखो-ऐलकोहल । स्वनिरसार, काला कत्था । Black ca te- | अलखना alkhanna-१० रतनजात। (Alka. chu ( Catechu nigrun). net.) फा० इ०२ भा०। अल्किल्सुल माई alkilsulmai . स्वद alkharbaqul-asvada प्रस्किल्सुल मुतफ्फ़ा alkilsul-mutaffaj -अ० कटकी कटकी। ( Helle borus) -अ० शांतचूर्ण, बुझाया हुआ चूना | प्राहक आब अलखश्वल मुरी alkhashbul-murra-अ. दीदह -फा० । Slaked lime (Calcii | चोब कासिया-फा० । Quassia wood hydros.) (Quassice lignum. ) अल्की āalqi करनज;नख्नज । होय(Heath)-इं। | अल्खस्सुज्ज़हम alkhassuzzahm-१० काहू Erica-ले० । (Portugal broom.)ई. का दरहत, का वृक्ष । ( Lactuca viroहैं. गा०। sa.) अल्कीना alkini.अ. कीना कीना । ज्वरहर स्वक, अल्गुसो algusi -० अमरबेल, सिन्कोना । Cinchona Bark (Cin- | अल्गुसी लता algusi-lata) प्रकाशबेल । chone Cortex.) (Cuscuta reflexa) मेमो० । -अकीनाउल .हुम्रा alkinaul-humra-. wanng algandú सं० कीट जिनके लाल सिक्कोना-हिं० । बर्क सुख-फा० Red | अल्गराड्न् algandun J काटने Cinchona. bark Cinchone Tub पैदा हो । प्रथः । सू०३१॥ ३ । का०२। rae cortex.) अलजमार aljazzar-१० अबु जाफर अहमद अर कमि हुल अस्वद alqumihul-asvad बिन इब्राहीमुज्जज़्ज़ार रवाँ का निवासी और अ० शैलम । गन्दुम-दीवाना-फा| Ergot . हकीम इस्हाक बिन कुस्तार यहूदी के शिष्य थे । ( Ergota). देखो-अोटा। आपके लिखित ग्रंथ हिदायतुल गुर्था और एक For Private and Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्जमरह अल्पतनुः और वैद्यक ग्रंथ यूनानी व लेटिन तथा इमानी अपकः alpakah-सं० पु० . यसपा भाषाओं में अनूदित हुए हैं। मिश्र में आपने अल्पक alpaka-हिं० संज्ञा पु.) पंग के सम्बन्ध में प्रत्युत्तम अनुसंधान किए थे। जवास का पौधा । दुरालभा । ( Alhagi (.) अजिज़ज़ारह ( Algizar )| maurorum..) रा०।। (२) अल्गजिजरह । (Algazirah) । -वि० [सं०] थोड़ा, कम। ... भल जमरह aljanarral:-अ० (Anthrax) अल्पकेशिका alpakeshikā ) .. देखो-ऐन्थ क्स। -सं० स्त्री० अल्प केशी alpakeshi अल्जावी aljavi-१० जावी । देवधूप, लोबान, राजराल Benzoin (Benzoinum ) भूतकेशी, भूतकेश ( Corydalis govoni ana.)। चामर कषा-बं० । प० मु०। र० म०प्र० डॉ०। मा० । रत्ना० । अजीज़ल्मुकई aljouzul-muqai-अ० अज़ा. राक्री, क़ातिलुलकल्ब । कुचिला, विष मुष्टि-हि। अल्पगन्धम् alpa-gandham-सं० क्लो०) (Nux vomica ) अल्पगंध alpa-gandha-हिं. संचा पु.) अल्टकम् altercum-ले० अजवाइन खुरासानी, (.) रक कमल । ( The red lotus.) पारसीक यमानी । (Hyocyamus nizer) | वै० निघ। (२) रक्क कैरव, रक कुमुदनी, फा०ई०भा०। लाल.ई। अल्ट्रा वायलेटरेज़ ultra-violet-rays-इं० अल्पगोधूमः alpa-godhāmah-सं० पु. प्रकाश जिसकी लहरें हमको दृष्टिगोचर नहीं होती। । तृण गोधूम । प० मु० । मद० व० १०। इनके त्वचा पर असर पड़ने से हमारे शरीर में (Trina godhuna. ) खाद्योज ४ बनता है । देखो-खाद्योज। | अल्प घण्टिका alpa-thantika-सं०. क्ली. अल्तमान altamaqun--यु० जावित्री । ह्रस्व शण पुष्पी, लघु शण वृक्ष । सन-हिं० । (Mace) लघु शण गाछ-बं० । लघुताग-मह० । (Croअल्त altaa-१० जिसके दाँत गिर कर केवल talaria juncea.) जड़ें शेष रह गई हों। अल्पजीवी alpa-jivi-हिं० वि० [सं० अल्पअल्तुस्त altusta-मीअहे साइलह प्रसिद्ध । ___ जीविन् ] थोड़ा जीने वाला । जिसकी आयु कम सि(शि)लारस । (Styrax preparatus). | हो । अल्पायु। अल्द aalda-१० (१) ग्रीवा को नाड़ी, अव अल्प ज्वराङ्कशोरसः alpa-jvar ankusho बोध तन्तु ( Cervical nerve.)। (२) rasah-सं० पु. पारा, मीठा तेलिया, कठोरता | सख्ती । ( Hardness ) गन्धक प्रत्येक १-१ भा०, धत्तूरबीज: ३ भा०, मल्नगल alnaghla-एक बूटी जो विषखपरा के ! त्रिकुटा १२ भा. सबका महीन चूर्ण कर रक्खें। समान होती है। जम्भीरी या अदरख के रस के साथ इसके सेवन करने से हर प्रकार के ज्वरों का नाश होता है। अल्नीयून alniyun-यु० रासन । ( Inula ! _helenium) ई० है. गा। भै० र० ज्वरे। अल्प alpa-हिं०वि० [सं०] थोड़ा, किञ्चित. अल्पचेष्टावन्त alpa-cheshta-vanta-सं० कुछ कम, न्यून ( Little, few )। (२) पु. (Amphiarthrodial-) वह जिसमें छोटा । ( small, short.) थोड़ी ही गति संभव हो। अल्पम् alpam-मल० ( Bragantia wal-अस्पतनुः alpa-tanuh-सं० पि० खर्व । lichii. ) श्रम । कुब्ज क। .. .. For Private and Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्पतर पाष्टको श्रल्प मस्तक: अल्पतर पाष्टंकी alpatara-parshtaki अल्प पत्रकः alpa-patrakah-सं० पु. -सं० स्त्री० ( Smaller occipital) गिरिज मधूक वृक्ष, पर्वतीय महुश्रा का पेड़ । पृष्ट की चुद्रतर पेशी। पाहाड़े मौल गाछ-बं| Bassia latifolia अल्पदाहः alpa dahalh-सं० पु. (the wild var. of-) रत्ना० । अल्प दाहेष्ट alpa-daheshta अल्प पत्रिका alpa-patrika सं० स्त्री. रक्त अल्पदाहेष्टका पथ alpa-daheshtaka अपामार्ग तुप, लाल चिर्चिटा । ( Achyran. patha खस, उशीर । (Andropogon muri thus inspera rubrum. } रा० नि. व०४। catus.) घल्पतम प्रौथा alpa ta m-proutbi-सं० अल्प पत्रो alpr-patri-सं० स्त्री. (१) मिया, स्त्री० (Gluteus millimus.) नेत सोपा (Feniculum panmoritim.)। म्बिका लप्वी, नितम्बकी सबसे छोटी पेशी । (२) मुपली-सं०, हिं० । ताल मूली-ब। अल्प चेष्टावन्त संधिः alpa-cheshtavanta (Hypoxis orchioides.) ० निघः । sandhih-सं० प (हिं० स्त्री०) अल्प पद्मम् alpa-padmam-सं० क्ली. रक्त (Partially movable joint, amp पद्म, रकोत्पल । ( The red lotus. ) वै. hiarthrosis) वह चल या चेष्टावन्त संधियाँ निघ० द्रव्य गु०। जिनमें थोड़ी ही गति संभव है जैसे कशेरुकाओं के अलप पर्णिका alpa parnika -संस्त्री० गात्रों की संधि, विटप संधि अक्षक और स्कं- अल्प पर्णी alpa-parni मुद्गपर्णी, धास्थि की सन्धि, अक्षक और वक्षोऽस्थि की बनमूग । मुगानी-बं० । ( Phaseolus संधि श्रादि । मसिल असिर, मसिल trilobus. ) वैनिघ०। इर्तफ़ाक़ी--अ० । अल्प पीना alpa-pina-सं० स्त्री० (Small अल्पनायिक alpa-náyika-chúrnam saphenous.) पिण्डली की छोटी शिरा । -सं० क्ली० ग्रहणी में प्रयुक्त एक रस विशेष | अल्प पुष्पिका alpa-pushpika-सं० स्त्री० पञ्च लवण और त्रिकुटा प्रत्येक ३-३ शाण पीत करवीर, पीतपुष्प करवीर, पीले फूल का गंधक ८ मा०, पारद ४ मा०, भंग १ पल कनेर । Nerium odorum (The ३ शाण । निर्माण-सर्व प्रथम गंधक और पारद yellow var. of-.) वै० निघ० । की कजली कर फिर शेष अोषधियों का चूर्ण डाल अलप प्रभाव alpa-prabhava-हिं० पु. कर भली प्रकार घोट कर रखें। मामूली असर । मात्रा-१ शाण । अल्प प्रमाणक: alpa-pramanakah अनुपान-कॉजी। अल्पनिद्रता alpa nidrata-सं० स्त्रो० पित्त । अल्प प्रमाणक alpa-pramanaka --सं० पु. - जन्य निद्राल्पता रोग। (Bilialy Insom -हिं० संज्ञा पुन nia.) वै०नि० । लतापनस । र. मा०। चेलानक (१अल्पनैतवी alpa-naitavi-सं० स्त्री० ( Pso- खरबूज़ा | २-तरबूज़ )। चेला तरमुज, खर__as minor. ) कटिलम्बिनी लघवी । मुज-बं० । वै० निघ० । (Cucurbita citअल्प पत्रः alpa-patrah-सं० प्र० (१) rallus.) देखो-रम्बुजम् । क्षुद्रपत्र तुलसी क्षुप । (Ocimum sanc. | अलप मस्तकः alpa-mas takah सं० प.. tum.) र० मा० ।-क्लो० (२) रक्त पद्म, लाल चित्रक क्षुप, चीता । ( Plumbago zeyla. कमल I ( The red lotus.) र० मा० ।। nica.) वै० निघ० For Private and Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1tob:: D D.. . नडा । अ.मक्षिका अस्पायुषी अल्प मक्षिका alpa-makshikā-पं० स्त्री० पक्षी, तीतर। A partridge ( Perdix । मक्षिका विशेष, छोटी (मधु ) मक्खी । (A _francolinus. ) मद० व०.१२ । . little bee.) वै. निघ। प्रत्य-शाकुलो alpa-shashkuli-सं० स्त्री. अल्प मानक: alpa-mānakah-सं० पु. (Helicis minor.) - विल्व गंध तुलसी । (A kind of Basil.) ! अल्पपशुक्र alpa-shukya-सं० वि० अल्प र०। . वीर्य । अल्प मारिषः alpa-marrishah-सं० ० क्षुद्र मारिष । अलप मरुषा, छोटा मर्या, चौलाई अल्पशुक्रता alpa-shukratā-सं० स्त्री० पित्त -हिं० | काँटा नटिया वा चाँपा नटिया-बं०। ___ जन्य शुक्रालपता रोग, वीर्य की कमी । वै० निघ० । थोर तांडुलजा-मह0 । ( Prickly amara | nth.) अम० । इसके शाक के गुण-यह | अलपवत ला alpa-vartula-सं० स्त्री० (Te. लघु, शीतवीर्य, रूक्ष, पित्त नाशक, कफ नाशक, res minor.) बेलना लवी। मलमूत्र निस्सारक, रुचिकारक, दीपन और विष | अल्पशोफः alpa-shophah-सं. प. सर्वाति नाशक है । भा० पू० १ भा० । देखो-रडु रोग । वै. निघ०। लीय (चौलाई)। अल्पस्फैचो alpa-sphaichi-सं० स्त्री० अल्पम् alpam-मल० बॅगेण्टिया वैलिचिाई (small sciatic nerve.) THEAT GET ( Bragantia wallichii, R. Br.), -ले०। अलपहार्दी alpa-hardi-सं-स्त्री० हार्दीया हस्खा। -- रुद्र जटा या ईश्वरमल वर्ग (Small cardiac. ) (N. 0. Aristoli.chioc: p.) अल्पशुपा alpa-kshupā-सं० स्ना० हस्व, उत्पत्ति-स्थान-डेकन प्रायद्वीप, पश्चिमी लज्जालुका । वै. निघ० । बड़ी लजालू । रा० वन दक्षिण कोकणसे दक्षिणकी ओर । प्रयागांश-- नि० । वृहद्दला । पत्र। उपयोग-इस वर्ग की बहशः वनस्पतियों । अवपाल ::lpakhyah-सं०१० नेत्र रोगा. - के समान इसकी पत्तियों का स्वरस विषाक सर्प न्तर्गत एक प्रकार का पिन्छ । विशेष । वा० दंश मुख्यतः कोबरा विष का अगद है । फ्रा .. उ० प्र० १६ । बार्तोलोमियो ( यात्रा पृ० ४१६) मालाबार अल्पायुः alpāyuh-सं० पु, त्रि० । एक उक्रि का वर्णन करता है । उसका कहना अल्पायु alpāyu-हिं० संज्ञा पु. है कि ज्यों ही अलपम् शरीर में प्रविष्ट होता है (१) छाग, छागल, बकरा (Goat.)। त्योंही विष उसे छोड़कर पृथक् हो जाता है। ____-वि० [सं०] | थोड़ी श्रायु: वाला । फा० ई०। जो थोड़े दिन जिए । जो छोटी अवस्था में मरे। __पश्चिमी किनारे पर यह सर्व श्रेष्ठ सशक | अल्प जीवी, शीघ्र मृत्यु, शीघ्र मरने वाला । औषधों में से है। वैट। (Shortlived, young. of a few अल्परसा alpa-rasa-सं० स्त्री० हैमवती । रा० years.) नि० व० २३ । See-Haimavati.. | अल्पायुषो alpayushi-संस्त्री० कटकली, ताली। अल्पवयस्क alpa vayaska-हिं० वि० [सं०] | कोरिफा अम्बेक्युलिफेरा ( Corypha umb [स्त्री० अल्पवयस्का ] छोटी अवस्था का । थोड़ी raculifera, Linn. )-ले० । टाली-पॉट उम्र का । कमसिन । (Tali.pot) या फैन-पाम ( Fan-palm) अल्पवर्तकः alpa-varttakah-सं०पु० तित्तिर -इं० । बजर-बद्दू-हिं० । ताली-बं० । कोंड-पाणी, For Private and Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्पास्थि अल्बर्जीम शेदलम्-ता। श्री-तलमु-ते । बिने, श्री ताली | अल्फजन alfajan-हिं० -कना । कुट-पाम, ताली-पान-मल० । तालट- अल्फ़ाज़ेमा alfazema-पुर्तगा धारो-हिं। मडी-को । ताल-सिं० । पेबेङ्ग-बं०। उस्तु.खुद्द स-भा० बाज़ा० । Arabian or ताल वर्ग French lavender ( Lavand. (N. 0. Palmaceæ. ) ula stoechas, Linn.) फा० ई. उत्पत्ति स्थान - दक्षिण भारत । प्रयोगांश ३भा०। पत्र वा सागू। अल्फा नेफ्थोल alpha-naphthon) . उपयोग-उक्र वृक्ष के गूदे से एक भौति का सागू प्राप्त होता है । लोग इसे अोखली में कूट प्राथोनेफ्थाल artho-naphthol कर पाटा बनाते हैं और इसकी रोटी बनाकर | यह ब्रिटिश फार्माकोपिया में नार ग्राफिशल है। फसल पकनेसे प्रथम इसे अनाजके स्थान में व्यव देखो-फ्थाल (Naphthol) अर्थात् हार करते हैं। इसका स्वाद श्वेत रोटिका के विलायती कपूर । समान होता है। साधारणतः इसे निर्धन व्यति। श्रल्फियह alfiyah-फा० ज़का, भालहे तनाव्यवहार में लाते हैं। इसको काँजी भी तैयार | सुल-अ० । शिश्न, लिंग, उपस्थ । ( Peकी जाती है जो सागू, आरारूट, यव वा जई के nis. ) समान एवं लगभग उतनी ही पोषक होती है। अल्फिफ़िलुल अस्वद alfil filuliasvad ई० मे० मे०। -० श्याम मरिच, स्थाह मिर्च, काली या गोल श्रलपास्थि alpasthi-सं० क्ली. परुषक फल, मिर्च । Black pepper ( Tipes' migr. फ(फा)लसा । ( Gre wia Asiatica. )| um. ) रा०नि० व० ११ । भा० पू० १ मा०। अलफोजन alphozone-इं० यह एक सूक्ष्म अल्पाहार alpāhāra-हिं० पु. थोड़ा खाना, रवावत् ( स्फटिकीय ) चूर्म है जो सकसीनिक लघुप्राहार । ( Moderation, Abstine एसिड और हाइड्रोजन पर ऑक्साइडके पारस्परिक nce.) क्रिया व प्रतिक्रिया द्वारा प्राप्त होता है। अल्पिका alpika-स. स्त्री. (१) वन __स्वाद-सूक्ष्माम्ल और तिक जिससे पश्चात् मक्षिका जाति, डाँस । (A large mosqu. को धातुघत् स्वाद का बोध होता है। ito, a gadfly.) है. च०४। (२) मुद्ग- घुलनशीलता-यह एक भाग ६० भाग पर्णी । ( Phaseolus trilobus.) भा० जल में लय हो जाता है। पू०१भा०। प्रभाव-इसको निविषैल कीटाणुहर रूप से अलपौरसी alpourasi-सं-स्त्री० ( Pect म्यवहार करते हैं। . oralis minor.) उरश्छादनी लघवी । मात्रा- रत्ती (घोल रूप में)। अल्फ़ alfa-कटकली, ताली-सं०। बजरबट्ट देखो -हाइडोजीनियाई पर ऑक्साइडाई - - -हिं.। (Corypha umbraculif- लाइक्कार । ___era.) देखो-अल्पायुषी। .. अलब alba-अ० ज्वराधिक्य, उष्माधिक्य । तृषा । श्रल: aalfa-अ० इ(अ)स्पस्त-फा० | See-- फोड़े फुन्सी का अच्छा होने लगना । (२) · · i(a)spasta ( Trifoliuin praten. एक जंगली काँठादार वृक्ष है । यह विषेला : . sis.) . होता है। अलफक alfaq-अ० (१) बाँय हत्था, बाएँ अलबर्जीन albergin-ई० सिल्वर ग्ल्युटीन ... हाथ से काम करने वाला । (२) मूर्ख । | (Silver glutin.)। इसमें १५ प्रतिशत For Private and Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्बान अस्मिरधि चाँदी होती है। यह एक भाग २ भाग जल में करजी-हिं० । पपरी, खुलेव,अर्जन-40 । अय घुल जाता है। इसके .२ प्रतिशत का घोल -ता। नम्ली-ते। रसबीज-कना०। म्यौक सूजाक में और प्राधे से ३ प्रतिशत का घोल नेत्र सेहत-बर। रोगों में लाभदायक है। प्रयोगांश--बीज व पत्र । अलबान albāna-० (ब० व० ) लब्न उपयांग -तैल, औषध, खाद्य । मेमो० । (ए०व०), दुग्ध (Milk.)। | अलमस कैम्पेस्टिस ulmis ca mpestris, अलबूतासुल कावो albutasulkavi-अ० Linn. युम्बोक-लेद० । ब्रान, ब्राह्मी, काइ दाहक पोटाश । Crustic Potashi - ०। ( Potassa ca-usticn. ) । देखो प्रयोगांश--स्वक, पत्र । पोटाशियम्। उपयाग--ौषध, खाद्य । मेमो० । अल्बुता कुल कित्सी albutasul kilsi-अ० वाइनानुलेपन । देखो-पोटाशियम् । Viena अल्मल वालिक्याना ulmus wallichiana, puste ( Put assiu cum calce.) । Planch.-ले० कैन, ब्रेन, अमाइ, मरारी-पं० मोरेद, पबुन-हि. । प्रयोगांश-वक् तन्तु, पुष्प अलबूत. स्यूम albu tāsyāma-अ. पांशु. जम् । देखो-पोटाशियम् । ( Potassi. __ डंडी, (पुष्प वृन्त )तन्तु और पत्र । उपयोग तन्तु और खाद्य । मेमा०। um.) अ(ऐ)ल्ब्यू मेन albumen- ई० अण्डलाल, अल्मोपून alināmāna-अ० जंगली पुदीना, अण्डश्वेतक । ( White .f egg.) पहाड़ी पुदीना, हाशा । ('Thymus Vulga. ris. ) अल्मतरून lmaqtarina-यु० कहरुबा । अम्माल almasa-० हीरक, वज्रम्-सं० । Succinum (Amber: हीरा-हि.Diamond (Admas.) अनमग्नोलियाउल खोफalmaghiisiyaui-Khafifah-१० हलका अल्मिराव almirao-गो०. पथरी-बम्ब० । लॉ. मग्नेशिया, निश्रा पाइनेटिफिडा ( Launcea pinnaसूक्ष्म मग्न । ( Magnesia levis.) tifida, Cu8s.)-ले० । स्त्रीखोला, बनकाहू मैग्नेसियम्-देखो। -सिन्ध। अनमग्नीसियाज म्स.कोलह,almaghuisiya मिश्र वा तुलसी वर्ग ussaqilah-१० भारी मग्नेशिया । (Mag. (.V.O. Composite.) nesia. ponderosa. ) देखो-मैग्ने. उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के रेतीले किनारे, सियम् । बंगदेश से लका पर्यन्त, तथा मदराससे मालाबार अलमनाज़ियहु..स्स.कीलह almanaziya hus: पर्यन्त । saqilah-१० भारी मग्नेशिया (Magnesia ponderosa.)। देखो-मैग्ने प्रयोगांश-पञ्चांग (सम्पूर्ण पौधा), स्वरस । सिपम् । वानस्पतिक विवरण-काण्ड ( Filifअलमनाज़ियलमकल्ललह, almanaziyah. orm ) तथा भूलुणित होता है । . ul- kallasn.h-अ. हलका मग्नेशिया, इसमें इतस्तत: पत्र एवं मूल लगे होते हैं । पत्र सूक्ष्म मग्न । (Magnesia levis.) देखो-- एकत्रीभूत, शिखरयुक, खण्ड बहुकोणीय को मैग्नेसियम्। ... . न्यूनकोणीय; वृन्त (Peduncles ) पत्र की अलमस इण्टे प्रफोलिभा ulmus integrj. अपेक्षा ह्रस्वतर, होता है। इसके शिखर पर folia, Roxb.-ले. पपरी, धाम्ना, कुज, छिलकायुक्र पौपिक पत्र होते है जिनके किनारे For Private and Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्मिल.डुल इन्कलीज़ो अल्लि..स्या चिह्न युक्त होते हैं । मूल मांसल, ६ से ८ इञ्च .अ. स्वर्ण जाती, पीली चमेली । (Gelsemiलम्बे, नवीन होने पर पीतामश्वेत होते हैं। । um nitidum.) ' उपयोग-गोवा में अल्मिराव नाम से यह | अल्युमिनियम् aluminium-ई० फटिकम् । अरण्य-कासनी ( Tax cum) की प्रति- देखो-एल्युमिनियम। निधि रूप से अधिक बार में प्राता है। । अल्ल alla-हिं० पु. बिछुआ। ( Girardinia बम्बई में पथरी नाम से भैया ( महिषी) को दूध heterophylla ) बढ़ाने के लिए दिया जाता है । मुरै उक्र पौधे को | अल्लः allaka h-सं० पु. ( १ ) कक्कोल सिंध का बनकाहू बतलाते हैं, किन्तु उत वर्णन ( कोल ) विशेष, शीतल चीनी । ( The उचित रूप में भत्तल वा बत्थल ( Launea fruit of Cocculus Indicus. ) nudicaulis, Less.) का है । उनका और भी कनखल-बं० । ( २ ) धान्यक, धनियाँ । कहना है कि बनकाह स्वरस को खी-खोवा ( सिंध (Coriander) धने-बं० । वै० निघ० । में ) कहते हैं तथा यह बालकों के लिए श्रद्ध श्रल्लका allaki-सं० स्त्री. धान्यक, धनिया। माशा की मात्रा में निद्राजनक है और आमवात विषयक त्याधियों में करअ तेल तथा वाइटेक्स धने-बं० । (Coriandrum sativur.) लयकाफिज़लोन ( Vitex leucoxylon) वै० निघः । के स्वरस के साथ इसका बहिर प्रयोग होता बल्ल वत्सलता alla-batsa-lata-ते० पोल डाइमाक। - हिं० । कुकतो पूई-बं० । ( Basell cor difolia, Lam. ) मेमो० । अस्मिर हुल इन्कलीज़ी almilhul-inqalizi , अल्मिर हुलमुरुल मुस्हिल almilhulmu. अल्लम allam-ते. अदरख, श्यादी । ( Zingib. rulmushil), el officinalis. ) देखो-आईक । -अ० नमक मुस्हिल-फा.! मग्नेशिया-उ०। | अल्लमण्डा केथार्टिका allamanda cathar मग्नगन्धेत, विरेचक लवण । ( Magnesii | ticn-ले० पीत करवीर, पीला कनेर-हिं। sulphas.). मेमो०। अल्मीअतुस्साइलह, flmiantussailah-अ. अल्लाहलाद allahlāh-अ० सूरिजान । (Colमीअहे साइलह -फा० । सिल्हक, शिलारस । ____chicum.) अल्ला alla-सं० स्त्री० (१) मातर, कृमि । (Styrax preparatus.) . . (२) धान्यक, धनियाँ । धने-बं० । (Coriअल्यह, alyah-अ० (.) नितम्ब, चूतड़, चूतड़ , andrum sativum. ) -पं० ( ३) का मांस | तसि. नयह, अल्यतैन । (२) बड़े चू कचेटा, अगलालग, किंगली-हिं० । ( Mil:तड़ों वाली स्वी। इसका बहुवचन "अलाया" .. osa rubicaulis, Lum. ) मेमो० । है । नेट ( Nate ), बटक ( Buttock ) अल्लाई allai-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अरशब्द करना चौपायों के गले की एक बीमारी | घटिमल्याफ़ alyafa--अ० (ब० व०), लैफ (ए. यार। व०) तन्तु, रेशे, शरीर तन्तु | फाइबर्स ( Fib अल्लाप allap-गु० प्रयापना-हिं०, -40, .ers.)-इं। Hoi (Eupatorium aya pana, अल्याफ़ लियह_alyafaazliyah-अ. .. Vent.) फा० ०२ भा०।। : मांस तन्तु, मांस धानु । मस्क्युलर फाइबर्ज़ | अल्लामह, aallamah-१० महान विद्वान । (Muscular fibers.)-ई। अल्लिस..या allisya-अ० ग्रावम् । देखो-लिथिअण्यास्मीनुल अफर alyasminul-asfaral अम् ( Lithium.) .......... For Private and Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल संध अली alli-मह० मंगनवेर । बण्डी गर्जन-ते० उपयोग-इसकी जड़ बल्य एवं सङ्कोचक रंगड़ी-मल। (Dalberria volubilis.) ख्याल की जाती है। कनावार में इसकी टहनी शिम्बी या ववर वर्ग मसूरिका वा शीतला के रोगी के हाथ में रोग(N.O. Leguminose ) मुक्रि हेतु दी जाती है। स्टयुवट । उत्पत्ति-स्थान-हिमालय के निम्न भाग, अल्लीपाallipā-गु० प्रयापना । ( Eupa toriकुमायूँ से पूरब, मध्य और दक्षिण भारत । प्रभाव तथा उपयोग-इसके पत्ते का रस um aya pana) ई० मे० मे० । कंठक्षत में गंडष रूप से व्यवहार में आता है। अल्ली फूल alliphula-द. निलोफ़र । (Nym. - सूजाक में इसकी जड़ का रस जीरा और शर्करा phaea lotus.) ई० मे० मे । के साथ प्रयोग किया जाता है। इं० मे० मे०। अल्लीबोज alli bija-कना०, खान दे. चन्द्रसुर । अल्ला ali-ते०(१)अञ्जन, कर्पा-बम्ब०। कसाउ A (Lepidium sativum.)ई. मे० मे० । चेट्टी-ता०। ( Memeevlon edule. | अल्लु allu-सं० क्ली० पालूक, भालुबोखारा । Rob.)। प्रयोगांश-पुष्प, पत्र व फल । उप- (Prunus Communis)। म० द. योग-रंग, औषध और खाद्य । मेमो०। (२) व.६। -ता० नट्ट विल । म्या-शीक-बर० । झासुन्द, अल्लुपु allupu-ते. गञ्जनी--हिं० । गुच्छः-सं० । रूखा,चान्दल, चाँदकुड़ा, चार वार-माडा-बम्ब०। (Andropogon mardus ) ई० मे० एण्टि एरिस टॉक्सिकेरिया ( Antiaris toxi. मे०। caria. Leesch.) प्रयागांश-राल, तन्तु, | अल्वान alvāna-अ. (ब. व. ), लौन बीज । उपयोग-निर्यास, तन्तु और औषध । मेमा०। (ए० व०), रंग, वर्ण । (Colour ). अली मान alliana-हिं. कचूर । ( Cornus अल्शी विरइ alshi-virai-ता० अलसी, अतसी, तीसी । Liliseed (Linum usitati___macrophylla.) मेमा० । अल्लोकाड allikad-ते. निलोफ़र । (Nymph ____ssimum.) a lotus.) ई० मे. मे । अल्स aisa-अ० उन्मत्त, पागल, दीवाना, ख़ब्ती, अल्लीचे? allichettu-ते. किङ्गली--हिं० । ____ बावला, मज्नून । ( Insane, fiantic ). अञ्जनी-सं०1 Iron--wood tree (Mo. प्रल्स ग alsip -अ० तोतला, mecylon edule.) ई० मे० मे०। अल्कन alkan J तुतला कर अल्लीचेह, allicheddu-ते. अञ्जन, लोखण्डी । बोलने वाला। वह जो "श" को 'स' और "र" -मह (femeeylon edule, ROrb.) को "ल" कहे। लिस्पर ( Lisper )-इं० । फा० इं०२मा०। | अल्शीनीज़ alshiniza -१० कालाअल्लातामर a]]i-tamal'-ते० .. निलोफर। अल्शनोज़ alshuniza 'जीरा, मंगरेल । अल्लातामरई alli-tainarai-ता ।" (Nigella sativa, Sibthorp). (Nymphana lotus) इं. मे० मे०। अल्सतून alsatuna-रू० असन्तीन । (Absinअल्ली पल्ली alli-pali-पं० साउन्सपाउर, सेन्स thium ). रपाल, सतजर-प० । ऐस्पै रेगस फिलिसिनस अल्सन alsan-यु० एक वनस्पति है । (Asparagus filicinus, Ham.) ले० । शत मूली वर्ग अल्सन्दा alsanda-२० सेम-हि. । शिम्बी (N.O. Asparagacee ) -सं०। ( Dolichos lablab, Linm.) उत्पत्ति स्थान--पाय,हिमालय ३००० फो. अल्संध alsandha-हिं० मोठ । (Vetches, से ८५०० फी०की उँचाई पर । प्रयोगांश--मूल ।। lentils) For Private and Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अल्सा अरसा alsá-फा० (१) मरोड़फली, श्रावर्तनो ( Helicteres isora ) | ( २ ) ख़ित्मी { Khitmi )। (३) अजवाइन : Carum Copticum ७२० अल्सी का तेल alsi-ka-tela - हिं० पु० अलसी तैल, तीसीका तेल, श्रुतसी तैल। ( Linseed oil ). अल्हू ज ुलू जावो alhamzul-jávi-o Dulcam तेज़ाब लुबान, लोबान का फूल, लोयानिकान् । (Acidum benzoicum). अल्. हलो वल्मुर्र alhalo-valmurra--अ० काकमाची- सं० | मकोय -हिं० । ( ara ) अल्हाज alhája - फा० य (ज) वासा - ६० । दुरालभा, गिरिकर्णिका, यवाससं । ( Alha • gi maurorum, Desc. ) मेमा० । अलहब्बातुल् खिज़ाal-habbátul khizra gafar al-habbatissoudá - अ० कालाजीरा, मँगरैल-हिं०, ब० । कलौंजी --बस्त्र०। (Nigella sativa, Sibthorp.) श्रवंश avansha - हिं० वि० [सं०] वंशहीन, निपूता, पुत्र, निःसंतान । अत्र ava- उप० [सं०] एक उपसर्ग हैं। यह जिस शब्द में लगता है उसमें निम्न लिखित अर्थों की योजना करता है - - ( १ ) निश्चय; जैसे -- अवधारण । (२) श्रनादर; जैसे- श्रवज्ञा, श्रवमान । ( ३ ) ईषत् न्यूनता वा कमी; जैसे हुन । श्रवघात । ( ४ ) निचाई वा गहराई; जैसे-श्रवतार । श्रवक्षेप | ( ५ ) व्याप्ति; जैसे अवकाश । अवगाहन । श्रव्य० [सं० अपि, प्रा० श्रवि ] और । अवकरः avakarah - सं० पुं० सम्माजनादि निक्षिप्त धूल्यादि । पर्याय-सङ्करः ( श्र० ), ( अटी० ), सङ्कारः ( शब्द र० ) । अवकर्षण avakarshana - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] उद्धार, निष्कर्षण, बाहर खींचना । अवस्करः, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 红白花 बलपूर्वक किसी पदार्थ को एक स्थान से दूसरे स्थान में लेजाना । खींच ले जाना । अवकादन् avakadan-काई ( Moss ) । ( २ ) फंगस । श्रथर्व ० । सू० ३७ । १० । का० ४ । अवकाश_avakash - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( १ ) अवसर, समय, सुभीता । (opportu nity) विश्रामकाल, खाली वक्र, छुट्टी, फुर्सत । ( Leisure । ( ३ ) स्थान, जगह, ( space.) । ( ४ ) श्राकाश, अंतरिक्ष, शून्य स्थान | ( 2 ) दूरी, अंतर । फासिला । श्रत्रकिरण avakirana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० श्रवकीर्ण, अवकृष्ट ] बिखेरना । फैलाना । छितराना | अवकीर्ण avakirna - हिं० वि० [सं० ] (1) फैलाया हुआ । छितराया हुआ । बिखेरा हुआ | ( २ ) ध्वस्त । नष्ट किया हुआ । नष्ट | (३) चूर्ण, चूर चूर किया हुआ । संज्ञा पु ं० ब्रह्मचर्य का नाश | ब्रह्मचारी का स्त्री - संसर्ग द्वारा व्रतभंग । श्रवकीर्ण avakirna - हिं० वि० [सं०] वह ब्रह्मचारी जिसका ब्रह्मचर्य व्रत भंग होगया हो । नष्ट-ब्रह्मचर्य | अबकुञ्चन_avkunchan - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] समेटना | बटोरना । टेढ़ा करना । श्रवकुण्ठन avakuntha - हिं० पु० साहस परित्याग, भीरु होना । श्रवकुन्थनम् avakunthanam - सं० क्ली० श्रार्त्तनाद | श्रवकुशः avakaashah-सं० प ु० गोल|ङ गूल बानर । यह पमृग की जाति से है। सु० सू० ४६ श्र० । For Private and Personal Use Only श्रवकूलनम् avakulanam सं० क्ली० श्रग्नि द्वारा गरम करना, आग पर गरमाना । च० ३० प्रतिसा-चि० । " श्रङ्गारवकुलयेत् । " सु० प्रतिसः- वि० । अवकृष्ट avakrishta - हिं० वि० [सं०] ( १ दूर किया हुआ । निकाला हुआ । ( २ ) निगलित । नीचे उतारा हुआ । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवकेशी ७२१ अवगुठित अव केशी avakeshi.सं. त्रि० (१) अफल वृक्ष [वि. अवगाहित ] स्नान करण, नहाना, पानी ( Fruitless tres ) हे० च० । (२) बाँझ, में हलकर स्नान करना, मजनपूर्वक स्नान, बन्ध्या (Sterile )। निमजन, डुबकी लगाना । अवकृत avakrita-सं० प.. व्रण भेद । वा० __ संस्कृत पर्याय-अवगाह;, वगाहः, निमउ० प्र०२६। जनं, शिरः स्नानम्, अम्भसि मजन (के०)। अवक्रः a vakrah-सं.पु. सरल वृक्ष, चीड़, धूप । ( Bathing, ablution. )। (२) सरल । ( Pinus longifolia.) सात मथन । विलोडन । (३)प्रवेश । पैठ । गाछ-बं०। वगाह(न)स्वेदः avagāha-( na) sve. अवक्रांति avakranti-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] | dah-सं० अवगाहन द्वारा स्वेद कर्म (१) अधोगमन | उतार । गिराव। (२) करना। मुकाव । विधि-द्रव स्वेदान्तर्गत कहे हुए द्रव्यों को एक अवलिन avaklinna-हिं० वि० [सं० कुडमें अथवा एक बड़े पात्र में भरकर रोगीको उस श्राद्र, गीला, तर, भीगा हुआ। में बैठादे। यह रोगी ऐसा हो जिसके सर्वाग में अवक्वाथ avakvātha-हिं० पु. अजी कादा बात वेदना होती हो अथवा अर्श और मूत्रकृअपक्क क्वाथ । च्छादि रोगों में इस तरह किया जाता है। बर्तन अवखात a.vak bata-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] कोई हो पर इतना बड़ा होना चाहिए जिसमें गहरा गड्ढा । रोगी कंठ तक बैठ जाए। खाट के नीचे एक गढ़ा अवगएडः avagandah-सं० पु. गण्ड देशमा खोदकर उसमें वातनाशक लकड़ी उपले भरकर व्रण । वयेस फोड़ा-बं । पुटकुली-मह. श्राग लगाकर निधूम अंगार कर लिए जाएं, त्रिका फिर रोगी को उस खाट पर शयन कराया जाए। अवगथः avagathah-सं० पु. प्रातः स्नान । इसका नाम कूप स्वेद है। इसी तरह कुटी स्वेदादि ( Morning bath.) के लक्षण अन्य ग्रंथों से जानना चाहिए। वा० अवगाढ़ avagārha-हिं० वि० [सं०. सू०१७०। (१) निविड । छिपा हुआ । (२) प्रविष्ट । ६रू अवगाहना avagāhana-हिं० क्रि० अ० [सं० हुअा । निमग्न । अवगाहन ] (१) हलकर नहाना | निमज्जन अवगाढः avagārhah ) ६.सं०० विच्छिन करना । (२) डूबना । पैडना । घुसना । मग्न अवघृष्टः avaghrishtah होना । व्रण। वा०३० अ० २६ । वगाहित avagāhita-हिं० वि० [सं०] अवगाहः avagāhah-सं. त्रि०, पु. नहाया हुश्रा । अवगाह avagaha-हिं० वि० [सं० अवगाध] वगीर्णः avagirnah-सं० पु. अपान द्वारा अथाह, बहुत गहरा, अत्यन्त गम्भीर । निकला हुआ द्रव्य । संज्ञा पु. गहरा स्थान । स्नानगृह । गुसत अवगुण्ठनम् avagun thanam-सं० क्ली० । खाना । स्नानागार । अवगुठन avagunthana-हिं० संज्ञा पण संज्ञा पु० [सं०]()भीतर प्रवेश । हलना। [वि० अवगुठित ] योषित शिरः प्रावरण, स्त्री (२) जल में हल कर स्नान करना | निमज्जन ।। मुखाच्छादन, धूं घट, बुर्का( A veil.)। (२) ( Bathing, a blution) ढंकना । छिपाना । (३) पर्दा । अवगाहनम् avagāhanam-सं० लो० ) अवगुण्ठितम् avagunthitam-सं० क्ली० । अवगाहन avagāhana-हिं० संज्ञा पु. अवगुठित avagunthita-हिं० वि० ) For Private and Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवंगुण ७२२ अबच्लेदकता चूर्णित, चूर्ण किया हुआ । ( Powdered.) (१) प्राघात विशेष, अपघात, ताड़न, घन, त्रिका० । (२) ढंका हुआ । छिया हुआ। प्रहार, चोट । ( २ ) तण्डुलादि कण्डन अवगुण avaguna-हिं० संज्ञा प० [सं०] (काँड़ना, कूटना )। हे०। (३) अपमृत्यु । दोष । दूषण । ऐब । अवचारः avachārah-सं० पु० प्रयोग, सहा. अवगुठन avagunthan:--हिं. संज्ञा प० यता । देखो-अवगुण्ठनम्। प्रवचूर्णन ava-churnana-सं० क्ली० अवगुठनवतो avagunthanavati-हिं० औषध के बारीक चूर्ण को शत प्रादि पर वि० स्त्री० [सं०] धूं घटवाली। बुरकना । अवधूलन, धूड़ा(ला)करना । अवगुठिका avagunthika-हिं० संज्ञा स्त्री० अवचूणम् avachurnim-सं० कनो. स्थूल [सं०] (१) घट । (२) जवनिका । चूर्ण, मोटा चूंण ( Coarse powder)। पर्दा । (३) चिक । वह शुष्क बारीक पिसी हुई औषध जिसको क्षत अवगुठित avagunthita-हिं० वि० [सं०] श्रादि पर छिड़का जाए ( Dusting pow. .. ढंका हुश्रा । छिपा हुआ। देखो-अवगुण्ठि- der.) | जरूर, कबूम, नस र-अ० । धूड़ा तम्। -हिं०, उ०। अवगुद avaguda-ते. .. ) श्रवचूर्णितः avachāinitah-सं० वि० चूर्णिन, अवगुदे avagude-कना० चूर्ण किया हुआ । पाउडर्ड ( Powdered.) अवगुदे हरण avagude-hannu-कना रक (लाल) इन्द्रायन, महाकाल-हिं० । Tri पर्याय-अवध्वंसः, अपध्वस्तः । अ० टी० । chosanthes palma tal, Road. 1 स० | प्रवचूलकम् avachālakam-सं० क्ली० फा० ई०। चामर | (See-chamara.) त्रि० ।। अवगुफन avaguphana-हिं० संज्ञा पुं० अवच्छद vachchhada-हिं. संज्ञा पुं० [सं०] गूंथन । गुहन । ग्रंथन । [सं०] ढकना । सरपोश । भवगुफित avagumphita-हिं० वि० [सं०] | iphita-हि० वि० [स०] | अवच्छिन्न avachchhinna-हिं० वि० गूथा हुश्रा । गुहा हुआ। [सं० ] सीमावद्ध । अवधि सहित । जिसका अवगृहन avaguhana-सं० पु. प्रालिंगन, किसी अवच्छेदक पदार्थ से अवच्छेद किया गया आश्लेष, प्रेम से परस्पर अंग स्पर्श, करना । हो । अलग किया हुआ | पृथक । प्रेम से मिलना। | अवच्छेद avachchheda-हिं० संश प. अवग्रहः avagrahah-सं०० [सं०] [वि. अवच्छेद्य, अवच्छिन्न ] (१) अवग्रह avagraha-हिं० संज्ञा अलगाव | भेद । (२) सीमा । (३) परि(१) गज ललाट देश । हाथीका ललाट | हाथी का मस्तक । हस्ति मस्तक । हारा० । (२) च्छेद । विभाग। अनावृष्टि । वर्षा का अभाव । (३) रुकावट । | अवच्छेदक avachchhedaka-हिं० वि० अटकाव । बाधा । (४) प्रकृति । स्वभाव । [सं०] (1) छेदक | भेदकारी | अलग करने (५) गजसमूह । गज यूथ । वाला । (२) हद बांधने वाला। अनुग्रह का उलटा। अवच्छेदकता avachchhedakata-हिं० अवग्राहः avagrahah-सं० पु. अवहारक, संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) अवच्छेद करने का ग्राह। भाव । पृथक करने का धर्म । अलग करने का अवघातः avaghatah-सं० पु. धर्म। (२) हद वा सीमा बाँधने काभाव । अवघात avaghāta-हिं. संज्ञा पु. परिमिति। For Private and Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवच्छेद्य अवदात अवच्छेद्य avachchhedya-हि० वि० [सं०] | अल्पान्धकार । ( Slight darkness.) अलगाव के योग्य । श्रम०। अवछंग avacbhanga-हिं० संज्ञा पु० देखो प्रयतानम् avatanam-सं० क्ली. चन्द्रातप, उछंग। ___चाँदनी (Moon-light.)। (२) टखना। ( Ankle.) अवज aavaja-अ० वक्र या टेढ़ा होना । क्रूड अवतापः avatāpah-सं० पु. अजावि ज्वर । (Orooked.).ई। गज० के० । अवश्चक: avanehakah-सं०५० मत रोगी, अवतारणम् avataranam-सं० क्लो० भूतादि श्रद्धालु रोगी, वैद्यपर विश्वास रखने वाला रोगी । ग्रह । (२) वस्त्राञ्चल ( The end or वै० निघ०। hem of a garment.) मे० गपञ्चक । अवटना avutana-हिं० क्रि० स० [सं० (३) उतारना । नीचे लाना । श्रावत न, प्रा० श्रावन ] (1) मथना | पालो | अवतारणिका avataranika-सं०स्त्री० नौका। इन करना । (२) किसी द्रव पदार्थ को प्राग .. (A boat. ) पर रखकर चलाकर गाढ़ा करना। अवतोका,-दा. avatoki,-da-सं० स्त्री. वह अवटः,-टी avatah,-ti-सं० पु. (१) नाड़ी गाय जिसका गर्भस्राव ( गर्भपात) हो चुका हो । व्रण । नासूर । ( nādivrana-)। (२) . . हला० । कूर, कुत्रा ( Well.) मे० । (३) छिद्र । ( A अवताकाम avatokām-सं० क्ली. पतित गर्भ:: hole. a perforation..).. ... ... वाली । वह जिसका गर्भ गिर गया हो । अथर्व । अवट avata-हिं० संज्ञा पुं० (१) श्रौटाकर, - सू० ६ । ६ । का० .... खौलाकर । (२) गर्त, गह्वर । गड्डा । कुड । अवतंसः avatansah-सं० पु०, क्ली.. (३) गले के नीचे कंधे और काँख श्रादि का अवतंस avatansa-हिं० संज्ञा पु० । __ गड्ढ़।। [ वि० अवतंसित] कर्णभूषण कर्णालंकार, अवटारः avatitah-सं० त्रि० कर्णाभरण, कर्णफूल, कर्णपूर, कनफूल ( An अवटीट avatita-हिं० वि० ornament of the ear.)। (२) मुरकी, नतनासिक, चिपटी नाकवाला । खान्दा-बं०। बाली । (३) माला । हार । (४) भूषण । श्राम०। श्रवथोली avatholi-मल० एक प्रकार के वृक्ष पर्याय-अवनाटः, श्रवभ्रटः | अ०। की छाल जो अनिश्चित है । फा० ई०३ अवटुः avatuh--सं० स्त्रो० (१) ग्रीवा पश्चा भा०। द्भाग, ग्रीवाके पीछे भाग, गुद्दी, मन्या । (Nape of the neck. ) रत्ना० । रा०नि० व० अवदन्तः avadantah-सं० पु. बालक, १०। -पु. (२) वृक्ष विशेष ( A tree.)। सुगन्धवाला । बाला-बं० । ( Pavonia हे । (३) रन्ध्र (A hole.)। ( ४ ) कूप । odorata) वे० निघ। .. (A well.) हे. अवदलनम् avadalanana-सं० क्ली० मईन अवटका ग्रंथि avatuka-granthi-सं० स्त्री० क्रिया, गात्र मईन, देह का मलना । ( Rubb. (Thyroid gland) चुलिका ग्रन्थि ।। ing, massage.) देखो-मईन। अवडः avadah-सं० पु. मन्या पृष्ठ भाग, | अवदाघ avadāgha-सं० गर्मी, उष्णता । गर्दन के पीछे का भाग । ( Nape of the (Heat.) neck.) वै० निघ०। श्रयदातः avadatah-सं० पु. । (१)शुक्र अवतमसम् avatamasam-सं० क्ली. अवदात avadata--हिं० वि० वर्ण का, For Private and Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवदानम् ७२४ अवधि गौर ( White.)। (२) पीत वर्ण का, अवदीर्णम् avadirna n--सं० त्रि. (१) पीला (Yellow )। अ० । (३) शुभ्र, द्रवीभूत घृतादि । ( २ )फटा हुश्रा, विदारित । उज्वल । श्वेत । (४) शुद्ध । स्वच्छ । विमल । अवदोहः avadohah-सं० पु. । । निर्मल । श्रवदोह avadoha-हसंज्ञा (१ दूध । अवदानम् avadanam--सं० दुग्ध । ( Milk) त्रिक०। (२) दूध अवदान avadana--हिं० संज्ञा प. (१) | दुहना । दोहन । उशीर । खस | गॉडरे की जड़। वीरण | अदंशः avadanshah-सं० । मल । ( Andropogon muricatus.) अवदंस avadansa-हिं० संज्ञा पु. ) अ. टो० । । २) खनित्र, अस्त्र विशेष, कुदाल (१) सुरापान में रुचिजनक भच्य द्रव्य, मद्य. (A hoe or a kind of spade, a pi. पान के समय जो कबाब, बड़े आदि खाए जाते ck axe or mattock.) (४) खंडन । हैं। गज़क । चाट । चटनी श्रादि। उत्तेजक तोड़ना । (५)शकि, बल | भक्ष्य । हला०। (३) शिग्रु अर्थात् सहिंजन वृत ( Moringa pterigosperma.)। श्रवदान्तः avadantah- सं० सहिजन । (Ilyperanthera moringa.) (३) कृष्ण शिग्रु ( काला सहिजन) । काल सजिना गाछ-बं०1 Moringa pterigoवै० निघ०। sper:na ( The black var, of- ) भवदारक avadiraka. --हिं० वि० [सं०] वै० निघ० । विदारण करने वाला। विभाग करने वाला। संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी खोदने के लिए | अवद शतयः avadansha-kshayah-सं० लोहे का एक डंडा । खंता । रंभा । पु. काला सहिजन । कृष्ण शिग्रु। अवदारणम् avadaranam--सं० क्ली० ।। अवधातन् avadyotan-सं० पु. प्रकाश । अवदारण avadārana-हि. संज्ञा पु. ) (Light. ) (१) मिट्टी खोदने का औज़ार । खनित्र । कुदार अवध-धतूरा avadha-dhatura-हिं०, द. अवध में उत्पन्न होने वाला प्रसिद्ध धतूरा । (ल)। खंता | (A hoe or kind of | अवधान avadhana-हिं० संत्रा प[सं. spade) (२) विदारण करना ।। विभाग (१) मन का योग । चित्त का लगाव । मनो. करना । तोड़ना।। फोड़ना। योग । (२)चित्त की वृत्ति का निरोध करके उसे अवदारित avadarita--हिं. वि० [सं०]| एक ओर लगाना। समाधि । (३) ध्यान । विदारण किया हुआ । विदीर्ण । टूटा हुआ। सावधानी। चौकसी। अवदाहेष्टकापथम् avadaheshtaka-pa ) tham - ___ संज्ञा पु[ सं0 प्राधान् ] गर्भ । गर्माधान | अघदाहेष्टम avadaheshtam ) पेट । --सं० क्ली० बीरणमूल, खस । ( Andro.| अवधान तन्त्री avadhāna-tantri-सं० pogon muricatus.) अ० टी० भ० । EÑO ( Auditory or acoustic ne. अवदाहं.-कम् avadiham,-kam--सं० rve.) श्रावणीनाड़ी। क्ली० (1)लामजक तृण। ( Andropogon अवधारण avadharana- सं. प[वि० Janiger.)भा० पू०१ व०। (२)वीरणमूल, अवधारित, अवधारणीय ] निश्चय, निर्णय । उशीर, खस । गन्धवेना-बं०। पिंवला वाला विचार पूर्वक निर्धारण करना । --मह०। ( Andropogon murica. | प्रवधि avadhi- हिं० पु. पर्यन्त, सीमा से tus, ) वै० निघ । तक लों। For Private and Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवध्वंसः श्रवपीड़: अवध्वं तः avadhvansah--सं अवनाटः avanatah-सं. त्रि० नतनासिका, अवध्वस avadhvansa-हिं० संज्ञा पु० । मुकी नाक वाला, चद्रनासा युक्र | श्रम। [वि० अवध्वस्त ] (१) अवचूर्णन, चूर्ण करना अवनि avari ) . . (To powder, Powdering.) मे० । -हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] (२) चर्णन | चूर चूर करना । नाश । (३) अवनी avani परित्याग | छोड़ना । ( ४ ) देह को जलाकर पृथ्वी, ज़मीन, अवनितल । नष्ट करने वाला । अथर्व । सू० २२ । ३। अवना avana ) . का०५। --सं० स्त्री० (१) त्राय अवनी : vani अवध्वस्तः avadlivastah--सं० त्रि. अब. ___ माणा ( See--Trāyamānā. ) रा० नि० चूर्णित, चूर्ण किया हुआ । ( Powdered ). व०५ । अवनत कर्णीय avanata-karniya-सं० स्त्री० स० स्ना० अवनीसारा avanisāra-सं० स्त्री. ( Musa 1 Obliquus auriculae)। शकलीया ___sapientum.) कदली, केला ! वै निघ० । प्रसरला। श्रवनेजन avine jana-हिं० संज्ञा पु. [सं०] अवनत पादांगुणाकर्षणी avana.ta-pādāngu. धेना, प्रक्षालन । shthakarshani-संस्त्री० (Adductor अवन्ति(न्नी) सोमम् avanti,-nti,-somamhallucis obliquus.) पादांगुष्ट अंतर संकली. कॉजी, काञ्जिक । प० मु० । हारा०। नायिनी असरला। रा०नि० व०१५ ( See--Kanjika) प्रवनम् avanam-सं० क्ली. . अवपतन avapatana-स. की ऊपर से अवन avana-हिं० संज्ञा पु. । ' आना, गिराव, नीचे गिरना। वा० सू० १२ णन। तृप्तिकरण । प्रसन्न करना । (Satisfy. ing.) अ०। (२) प्रीति । अवपाटिका avapatika-ल. स्त्री [स अवनि ] जमीन | भूमि । न्तर्गत शूक रोग। लक्षण-लिंग के चर्म को अवनत मान्दिरः avanata-mandirah-सं० बहुत मलने अथवा दब जाने या वीर्य का वेग रुक प. (Oblique popliteal.) जाने श्रादि कारणों से यदि लिंग के ऊपर का चर्म अवनम्र avinamra-सं० झुका हुआ। ( Be- फट जाए तो उसे "अवपाटिका" कहते हैं । यथा- nt). 'यम्यावपाट्यते चर्मतांविद्यादवपाटिकाम' । प्रचनत-सूत्रम् avana ta-sutram-सं० क्ली. .सु. नि० अ० १३ । यह एक रोग है जो ( Oblique cord.)। झुका हुआ या वक्र लघुछिद्र योनिवाली और रजस्वला-धर्म रहित तन्तु। स्त्री से मैथुन करने से, हस्त-क्रिया से, लिंगेन्द्रिय अवनतात.ष्टाकर्षणी avanatangus htha के बन्द मुंह को बलात्कार खोलने से अथवा karshani-स. स्त्री० ( Adductor निकलते हुए वीर्य को रोकने से हो जाता है। pollicis obliquus. )। इस रोग में लिंग को. आच्छादित करने वाला अवनति avanati-हि० संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़ा प्रायः फट जाता है। मा० नि० । अवपात avapāta-हिं० सज्ञा, पु. [स] झुकाव, झुकाना। (१) गिराव | पतन । अधःपतन । भवनत avanate-हिं० वि० [सं०] (१) (२) गड्ढा । कुण्ड । नीचा, झुका हुआ। ( oblique.) ! (२) गिरा | अवपीड avapida-हिं० प० । हुा । पतित । अधोगत । । पाँच प्रकार अवपीडः avapidah-स.पु. ) For Private and Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवपीडन avapidana - हिं० पु० श्रपीडनम् avapidanam-सं० क्ली० नामक नस्य विशेष | अवपीडन ७२६ के नस्य कर्मों में से एक । शोधन और स्तम्भन भेद से यह दो प्रकार का होता है । निचोड़ कर अर्थात् रस निकाल कर प्रयुक्त होने के कारण अथवा रोगी के नकुओं में टपकाए जाने के कारण इसको अवपीड कहते हैं । यथा - " श्रवपीड्य दीर्यते यस्मात् श्रवपोस्ततः स्मृतः अथवः श्रवपीड्यते यस्मात् स श्रवपीड ।" तीक्ष्ण ओषधियों का कल्क कर उसे निचोड़ कर रस निकालें। इसे अवपीड कहते हैं । यह गले की बीमारियों में प्रशस्त है । प० प्र० ४ ख ०। जो छींक लाने वाली औषध कल्कादि से बनाई जाती है परन्तु उसमें स्नेह नहीं मिलाया जाता है, उसे अवपीड़ वा शिरोविरेचन कहते हैं। यथा-"क कार्य व पीडस्तु ती मूर्ध विरेचनः ।" वा० सू० १६ श्र० गले के रोग, सन्निपात, निद्रा, विषम ज्वर, मनोविकार ( मद, मूर्च्छा, अपस्मार, सन्यास, उन्माद श्रीर भूतोन्माद आदि ) और कृमि अर्थात् नाक में कीड़े पड़जाने - ( वा कृमि जन्य रोगों ) में arrer का प्रयोग किया जाता है। निघ० नस्य चि० । विशेष देखो - नस्य | अव पीड ० अत्रबाहु avabáhaka - हिं० संज्ञा पु अवन्राहुत्रः avabáhuka - सं० प एक ० रोग जिससे हाथ की गति रुक जाती हैं । भुज स्तंभ | देखो-अपबाहुक: ( Apabahukah ) अवभासिका, ती avabhasiká, - ní सं० स्त्री० सात त्वचाओं में से एक त्वचा विशेष | यह प्रथम अर्थात् सबसे ऊपर ( शरीर के बाहर ) की त्वचा है और समस्त वर्णों ( कृष्णता, गौरतादि ) को प्रकाश करती है तथा वहीं पाँच प्रकार की पाँच भौतिक छाया तथा चकार के ग्रहण से प्रभा को प्रकाश करती है । यह त्वचा व्रीहि अर्थात् जौ के ( जो बीस भाग हैं उनमें ) अठारह भाग के समान भोटी हैं यही सीप और पद्मकण्टक नामक चर्म रोगों के होने का स्थान है अर्थात् सीप, पद्मकण्टक इसी ऊपर की त्वचा में होते हैं। सु० शा० ४ श्र० । 'श्रवयवी अभ्रः avabhratah - सं० श्रि० नतनासिका वाला, चिकिन | ( Flat-nosed. ) श्रम० । श्रवम् avam--हिं० वि० [सं० ] ( १ ) नीच, निंदिन Low, vile, inferior. ) I (२) श्रधम | अंतिम । ( ३ ) रक्षक | श्रवमन्थःavamantha h--सं० पु० श्रवमन्थकः avamanthakah अवमन्य avamantha - हिं० संज्ञा पुं० एक रोग जिसमें लिंग में बड़ी बड़ी और घनी फुंसियाँ हो जाती हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षण - जिसमें बड़ी बड़ी बहुत सी फुंसियाँ बीच से फटी सी हो जाएँ उसे "श्रवमंथ" कहते हैं । यह रोग कफ और रक्त के विकार से होता श्रीर वेदना तथा रोम हर्ष करने वाला होता है । सु० नि० १४ श्र० । ( २ ) कर्णपाली रोग भेद | सु० सू० १६ श्र० । श्रवमनीय avamaniya - हिं० वि० जो वा न हो अथवा जो वमन को रोके । श्रमद्द':, -नम् avamarddah, nam--सं० पु ं०, कुली० श्रवमर्दन] avamardana - हिं० संज्ञा पुं० पांडन | वेदना | दुःख देना । दलन । श्रम० । (See Pidanam.) पीड़ा पहुँचाना । मोटनम् avamoçanam - सं० क्ली० श्रामोदन | मा० नि० वा० व्या० । अभिसोम avambhison a--सं० काजी, काञ्जिक (Fee kánjka.) श्रवयवः avayavah सं० प० अवयव avayava--f६० संज्ञा प ु० शरीरावयव, अंग, देह, शरीर, हस्तपाद श्रादि भाग, शरीर का एक देश । ( A limb, a member )। (२) अंश । भाग | हिस्सा | अवयव स्थानम् avayava- sthanam सं० क्लो० शरीर ( The body ) । ० निघ० । अवयवी avayavi- सं० प ु० पक्षी । ( A bird. ) वै० निघ० । For Private and Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवरम् अवरोधक . हिं० प.० (,) वह वस्तु जिसके बहुत से धने- । (Coriandrum sativum.) अवयव हों । (२) देह । शरीर। रा०नि०व०६। --वि० [सं०] ( १ ) जिसके और बहुत से । अवरी avari-गु० ( १ ) शिम्बी, सेम | अवयव हों। अंगी। ( The flat bean.) फा० ई० १ (२) कुल | संपूर्ण । समष्टि । समूचा।। भा०। अवरम् avaram--सं० क्ली। हाथी की जाँघ ___-मल०, सिंगा० नील-हिं० । ( Indiअवर avara-हिं० वि० का पिछला भाग, gofer Indica.) इं० मे० मे० । श्रम। अवरो की avariki-कना० तरवड़-हिं० । अवर aavar-अ० काना होना, एक नेत्र से हीन (Cassia : uriculata, Linn. ) होना । ( To be Blind.) काने मनुष्य अवरुद्ध avaruddha-हिं० वि० [सं०] को तिब (वैद्यक ) में अवर कहते हैं। रुंधा हुा । रुका हुश्रा । अटकाया गया, रुका अवर गिडा avar-gida-कना० तरवड़-हिं० (Obstructed ) । (२) आच्छादित । ( Cassia Auriculata, tin.) फा० गुप्त । छिपा ।। इ.१ भा०। अवरुद्धा avaruddha -हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] अव रज avaraja-हिं० संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० ___वह स्त्री जिसे कोई रखले । उदरी । रखुई । . अवरजा ] कनिष्ट भ्राता, अनुज, लहुरा भाई, रखनी । छोटा भाई (A younger brother.)। अवरूढ़ avarir ha-हिं० वि० [सं.] ऊपर से ( २ ) नीच कुलोत्पन्न । नीच ।। नीचे पाया हुश्रा । उतरा हुश्रा । प्रारूढ़ का अवरजा avara ja-हिं०संज्ञा स्त्री० कनिष्ठा भगिनी, उलटा । ___ छोटी बहिन । ( A youngel siste1.) अवरोध avarodha-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अवरण avarant-ह. संज्ञा पु० (१) - सुद्दा, रुकावट, रोक, अटकाव । हिण्ड्रन्स( Hin. दे० श्रवण । (२) देखो आवरण । drance ), ऑब्सट्रक्शन (Obstructअवर दारुकम avara-dalukam-सं० क्ली० ion.)-ई। (२) निरोध । बंदकरना । तन्नामक स्थावर विपान्तर्गत पत्रविष । सु०कल्प अवरोध उद्धाटक avarodha-udghatak २० । देखो-पत्रविषम् । -हिं० पु. देह के छिद्रों को खोलने वाली अवरव्रत avaya-Vrata-हिं० संज्ञा पु० [सं०] औषध । वह औषध जो अपनी उष्मा के कारण (१) सूर्य । (२) पाक । मदार ।। स्रोतावरोध को खोले, और सुद्दा (अवरोध ) अवराई avalii-ता० तरवड़-हिं० संत्रा स्त्री० प्रभृति को दूर करे । मुनत्तिह, मुफ़त्तिहुस्सुदद, (Cassia aur culata, Linn.) go मुज़रियलुस्सुदद-अ० । अभिष्यन्द रोकने वाला। मे० मे। डीअाब्स टुएण्ट ( Deobstruent.)-ई। अवगम् avra n-अ० (ब. घ.), वर्म (ए. अवरोधक avarodhak-हिं० वि० [सं०] व०) प्रामास -फ़ा०। सूजन, शोथ, श्वयथु देह के छिदों को रोकने वाली औषध, सुद्दा -हिं० । स्वेलिंग ( Swelling.)-इं०। डालने वाली औषध, वह औषध जो अपनी अवराम मगाबिन avarām-maghābin शुष्कता वा स्थूलता के कारण नालियों में रुक जाए और उनको बन्द करदे । मुसहिद ( ए० -अ० मग़ाबिन अर्थात् बगल, जंघासा और व०), मुसहि दात(ब० व०)-अ० । अाब्सट वंक्षण का शोथ जो प्लेग के अतिरिक्त होता है। एण्ट (Obstruent.)-ई। ब्युबोज ( Bubos. )-इ० । देखो-खैर्जील (२) ( Insulator.) रोधक , अपरि श्रवरिका avarikā-सं० स्त्री० धन्याक, धनिया । चालक। For Private and Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অনুঘল ७२८ अवर्षण अवरोधन avarodhana-हिं० संज्ञा पुं० 'अवरोह सायिनः avarohan sayinah-सं० पु. [सं०] [वि० अवरोधक, अवरोधित, अवरोधी, वट, वर्गद (Ficus Bengalensis.) फा० अवरोध, अवरुद्ध1 रोकना, छेकना । ___ इं०३ भा०। अवरोधना avarodhana-हिं० क्रि० स० अवरोह स्थल avaroha-sthal-हिं०संज्ञाप [ स० अवरोधन ] [ वि. अवरोधक ] (Antinode. ) रोकना । अवरोहि avarohi-सं० स्त्री० नीचे भाना अवरोधित avarodhita-हिं० वि० [सं०] उतरना । ( Descending.) रोका हुा । रुका । अवरोहिकाavarohika-सं-स्त्री० अश्वगन्धा। अवरोधी avarodhi-हि. पु० [सं० अवरोध] (Withania Somnifera. ) [स्त्री० अवरोधिनी] अवरोध करने वाला । रा० नि० । रोकने वाला। अवरोपण avaropana-हिं० संज्ञा प्रवि . अवरोहि प्रैवी avaroti.graivi-सं० स्त्री० ___ अवरोपित, अवरोपणीय ] उखाड़ना। उत्पाटन ।। (Ramus descendeus.) अवरोपणीय avaropaniya-हिं० वि० सं०] अवरोहित avarohita-हिं० वि० [ स० ] उखाड़ने योग्य । (१) गिरनेवाला । (१) अवनत, हीन । अवरोपित araropita-हिं० वि० [सं०] अवरोहितालव्या avarohitālavya-सं० - उखाड़ा हुआ । उन्मूलित । ESTTO ( Descendiug palatinic ) अवरोहः avarohah-सं० पु. अवरोहि स्थूलान्त्र avarohistbālāntra-सं. अवरोह avaroha-हिं० संज्ञा पुं० क्लो०(Descending colon) अधोगामी (१) वटादि वृक्षका अधो विलम्ब-कारडाकार अव वृहदन्त्र । ____ यव विशेष, बर्रोह, बरकी जटा | बटादिर-नामाल अवरोही,-इन् avarohi,-in-सं० प०, हिं० -बं०। (२) अश्वगन्ध | द्रव्य० र०। (३) संज्ञा पु० वट वृक्ष, बर्गद । बट गाछ-बं०। उतार । गिराव । अध: पतन । ( Ficus Bengalensis.)। रा०नि० अवरोहकः avarohakah-सं०पू० ।। व०११। अवरोहक avarohaka-f. अवरोह्यावर्ता avarohyavarta-स. स्त्री० अश्वगन्धा (Withania Somnifera.)| (Descending portion of Jorta.) मद० व०१।-वि० [सं.] गिरने वाला। अधोगा महा धमनी । अवरोहण avarohana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] | अवणे avaina-- पु. अक्षर, प्राकार, निन्दा, [वि० अवरोहक, अवरोहित, अवरोही ] नीचे परिवाद । -हिं० वि० [स'०] वर्ण रहित, बिना की ओर जाना । पतन । उतार । गिराव । रंग कः । (२) बदरंग । बुरे रंग का । अवरोहना avarohana-हिं० क्रि० प्र० श्रवत्त avartta-सं० पु०, हिं० संज्ञा पु. पानी [सं० अवरोहण } उतरना। नीचे श्राना ।। का चक्कर, भँवर, नाँद ( Whirlpool.)। क्रि० अ० [सं० श्रारोहण] चढ़ना । ऊपर जाना। (२) घुमाव । चक्कर । [स] (३) स्फूर्तिशून्य क्रि० स० [सं० अवरोधन, प्रा० अवरोहन ] | · पदार्थ । वह पदार्थ जिसके पार पार प्रकाश वा रोकना । सँधना | छेकना। . दृष्टि न जा सके । (४) देखो-श्रावत्त । अधरोह शोखी avaroha-shakhi-सं० पु. श्रवर्तिः avarttih-स.पु. बेचैनी । अथवा पक्ष वृक्ष, पाक(ख)र, पकरी (-डी०)-हिं०। अवर्षण avarshana- हिं• संज्ञा पु' [ ] (Ficus infectoria.)। पाकुड़ गाछ-बं० । वृष्टि का अभाव । वर्षा का प्रभाव वर्षा का न रा०नि०व०११ । होना । अवग्रह । अनावृष्टि । For Private and Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवलग्नः भवलम्नः avalagnah-सं० पु.. . (४) रोत्रा वा ऊन जो गँडरिया एक बार भेंड अवलग्न avalagna--हिं० संज्ञा प. पर से काटता है। मध्य प्रदेश | शरीरका मध्य भाग | धड़ । माझा। वलीकन्द avali-kanda-मालाकन्द । कन्द -हिं• वि० [सं०] लगा हुश्रा, मिला हुश्रा, लता ।रानि। सम्बन्ध रखने वाला। | अवलीढ़ avalirha-हिं० वि० [सं०] (1) अवलम्बनः,क: avalambanahi-kah-स'. भक्षित । खाया हुअा। प्राशित । (२) चाटा प' अवलंबन कफ । पाँच प्रकार के कफों में से हुप्रा। . एक । श्लेष्मा विशेष । स्थान-हृदय । कर्म-रस अवलुचनम् avalunchanam-सं० क्ली। , युक्र वीर्य से हृदय के भाग का अवलम्बन और अवलुश्चन avalunchana-हिं० संज्ञा पु.। - 'त्रिक ( मस्तक और दोनों भुजाओं की संधि) (१) मुण्डन (Shaving)(२) शैथिको धारण करता है। भा० । देखो कफ।। - ल्प( Laxity; flaccidity.)त्रुटन । सु० प्रबलस्थित avalanbita-हिं. वि० ( Sus.. 15. सू० २५ ०। (३) छेदना । काटना । (४) pended) मुअलिक ! उखाड़ना । नोचना । प्रयलक्षः avalakshah-सं० पु. (१) श्वेत अवलुचित avalunchita हिं०वि० [सं०] . 'वर्ण, सफेद (White.)। (२) स्वामी । मुण्डित । (१) दूरीकृत | हटाया हुआ । अप. (Mercury. ) .. नीत । (२) खुला या खोला हुआ । (३) भवला avala-सं० स्त्री० नारी, स्त्री | (A wo कटा हुआ । छेदित । (४) उखाड़ा हुआ | नोचा mail.) रत्ना० । (२) प्रियंगु ( Agaia हुआ । roxburghiana.)। प्रयोगा०-गलगण्ड । अवलुठन avalunthana-हिं० संज्ञा पुं. "मधुलोधावलासर्ज" ।"-मह० ( ३ ) [सं०] लोटना । श्रामला, अँवरा । (Phyllanthus embli अवलेखना avalekhana-हिं० क्रि० स० - ca, Linn.) स० फा०ई०। [सं० अवलेखन ] (१) खोदना | खुरचना | अवलाधक avala.gandhaka-मह० अवलेपः avale-pah -सं० पु० ।। मामलासार गन्धक-हिं० । आँवलासार गंधकद०। (A sort of filphur.) स. अवलेप avale pa-हिं० संज्ञा पु. ) () गर्व, घमण्ड ( Vanity, Pride.)। (२) फा० ई० । देखो-गंधक । उबटन, लेपन, लेप, मलहम ( Plaster, अबला avala-गु० (१) तरवड़-हिं० । (Cass ointment.)। (३) भूषण । ( Ornaia Auriculata, Jinn.) फा० इं०१ ment-) मे० पचतुष्क । भा०। -हिं० पु. (२) वरुण वृत्त, बरना । प्रवलेपनम् avalepanam-सं० क्ली० ( Crataeva ta pia. ) प्रवलेपन avalepana-हिं० संज्ञा पु. अवलिप्त avalipta-हिं० वि० [सं०] (१) (१) उबटन । लेपन | लेप । वह वस्तु जो लगाई लगा हुआ | पोता हुआ। (२) सना हुआ। वा छोपी जाए ( Plaster, ointment.)। प्रासक । (२) म्रक्षण, तैल घृत आदि का लेपन या भवली,-लि avali,-li-सं० स्त्रीर, हिं० संज्ञा मईन । तैलादि की मालिश । लगाना । पोतना। स्त्री० [सं० प्रावलि ] पाँती, लकीर, पति छोपना । (३) अहंकार । (४)दूषण | (A line, a row.)। (२) समूह || अवलेहः avalehah -सं० (हिं० मुड । (३) वह अन्न की डाँट जो नवान्न करने अवलेह avaleha. संज्ञा) पु, के लिए खेत से पहिले पहिले काटी जाती है। प्रवलेहिका avalehika ) स्त्री० वि० २ For Private and Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवलेह ७३० वले ] ( १ ) चटनी, चाटने वाली कोई वस्तु, भोज्य विशेष | लेई जो न अधिक गाढ़ी और न अधिक पतली हो और चाटी जाए। (२) श्रौषध जो चाटा जाए । लेह्योषध | प्राश: । जिह्वा द्वारा जिसका आस्वादन किया जाए उसे श्रवलेहिका कहते हैं । च० द० ज्व० चि० । लऊ - अ० | लॉक Loch, लिंक्स Linctus, लिंक्चर Lincture, इलेक्चुअरी Electuary- इं० । नोट- यूनानी वैद्यक एवं डॉक्टरो अवलेह निर्माण क्रमादि के विशेष विवरण के लिए क्रमशः लड़क तथा लिंकूटस शब्द के अन्तर्गत और श्रायुर्वेदीय वर्णन के लिए लेहः शब्द के श्रन्त देखें | Fare आदि अर्थात् स्वरस, फाराट एवं कल्क प्रभृति को छानकर पुनः इतना पकाएँ कि वे गाढ़े हो जाएँ । इसे रसक्रिया कहते हैं और यही अवलेह वा लेह कहलाता है । इसकी मात्रा एक पल ( ४ तोले ) की है । यथा क्वाथादीनां पुनः पाकाद्धनत्वंसा रसक्रिया । सोsवलेहश्वलेहः स्यात्तन्मात्रा स्यात्पला. न्मिताः ॥ यदि अवलेह में शकर प्रभृति डालने का परिमाण न दिया हो तो श्रौषधों के चूर्ण से चौगुनी मिश्री और गुड़ डालना हो तो चूर्ण से दूना डालें । जल या दूध आदि द्रव डालना हो तो चौगुना मिलाना चाहिए। यथा सिता चतुर्गुणाकार्या चूर्णाच्च द्विगुणीगुड़ः । द्रवं चतुर्गुणं दद्यादिति सर्वत्र निश्चयः । अवलेह सिद्ध होने की परीक्षा दव से उठाने पर यदि वह तंतु संयुक्त दिखाई दे, जल में डालने पर डूब जाए, द्रव रहित अर्थात् खर हो, दबाने पर उसमें उँगलियों के निशान पड़ जाएँ और वह सुगंध युक्र और सुरस हो तो उसे सुपक्त्र जानना चाहिए। यथासुपक्वे तन्तुमत्त्वं स्यादवले होऽप्सु मज्जति । खरत्वं पीड़ित मुद्रा गन्धवर्णं रसोद्भवः ॥ जहाँ पर अवलेह के अनुपान की व्यवस्था न दी गई हो वहाँ पर दोष और व्याधि के अनुसार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रवल्गुजः, -जा दूध, ईख का रस, पञ्चमूल के काथ द्वारा सिद्ध किया हुआ यूष और अडूसे के क्वाथ में से किसी एक का यथा योग्य अनुपान देना हितकारी है । दोषानुसार अनुपानों की मात्रा कफ व्याधि में १ पल, पित्त में २ पल और वात में ३ पल की मात्रा प्रयोग में लाएँ । मुख्य मुख्य श्रायुर्वेदोक्त श्रवलेह निम्न हैं:कण्टकार्यवलेह, च्यवनप्राशावलेह, कूष्मांडा. वलेह, खराडसूरगावलेह, अगस्त्य हरीतक्यवलेह, कुटजावलेह, कुटजाष्टकावलेह इत्यादि । अवलेहनम् avalebanam-सं० क्लो० अवलेहन avalehana - हिं० संज्ञा पुं० खाना लेहन, प्राशन, चाटना, जीभ की नोक लगाकर ( Licking, tasting with the tongue.)। ( २ ) चटनी | अवलेह्य avalehya - हिं० वि० [सं०] प्राश्य । चाटने योग्य | अवलो avalo - ते० घोर राई, काली राई, राई, असल राई, मकरा राई - हिं० । राजिका-सं० | ( Brassica nigra, मेमो० । Koch.) अवलोकन avalokana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवलोकित, अवलोकनीय ] दर्शन, ईक्षण, दृष्टि देना, देखना ( View, sight, the 1 oking at any object.) । ( २ ) निरीक्षण | अबल्कः avalkah- सं० पु ं० मेपशृङ्गी, मेढ़ासिंगी | ( Pistacia Integerrima, Stewart . ) वै० निघ० । श्रवल्गजा avalgaja - सं० स्त्री० कृष्ण सोमराजी, बाकुची | Vernonia anthelmintica ( 'The black var. of - ) । हाकुच बं० । भैष० भल्ला० गुड़ | श्रवल्गुजः, -जा avalguji h-ja - सं० पु०, स्त्री० (१) कृष्ण सोमराजी । ( The black var. of Vernonia anthelmin - tica.) सु० चि० २५ श्र० । (२) सोमराजी, For Private and Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वल्गुज. वीजम् बकुची-हिं० । हाकुच-बं० । ( Vernonia anthelmintica ) भा० पू० १ भा० । भैष० कुष्ठ० चि० । अवल्गुज वोजम् avalguja-vijam श्रवल्गुजोजम् avalguji-jam ७३१ सं०ली० सोमराजी बीज, बकुची | Vernonia anthelmintica. (The seeds of-) वल्गुजादि लेपम् avalgujádilepam-सं० क्लो० बकुची, कसौंदी, पमाड़, हल्दी, सैन्धव और मोथा इन्हें समान भाग ले काजी में पीस कर लेप करने से उम्र कण्डू (खुजली ) का नाश होता है । च० सं० । (स) कथिका avashakthiká सं० स्त्री० ( १ ) जानु देश । (२) पद बन्धन बस्त्र विशेष । अवशिष्ट avashishta - हिं० वि० [सं० ] बच्चा हुन । बच्चाखुचा । शेष । बाकी । उच्छिष्ट । aar बचाया । ( Left, remaining.)। अवशेष avashesha - सं० पु०, हिं० संज्ञा पुं० [वि० अवशेष, श्रवशिष्ट ] ( १ ) अन्त, समाप्ति | (२) बची हुई वस्तुः । तलछट । ( A residue, -- å remnant.) वि० [सं०] बचा हुआ । शेष | बानी | अवशेषित avasheshita - हिं० वि० [सं० ] बचा हुआ । शेष | बाक़ी । 1 अवश्य: avashyab अवश्या - avashyá -सं० पु०, स्त्री० तुषार, शीत, पाला, हिम, बर्फ । ( Frost, cold, ice or snow. ) | भा०म० ४ भा० शिरोरोग, श्र-विभेदक | "प्राग्यतावश्याय मैथुनैः ।" भल्ला० गुड़ । अवश्याय: avashyáyah - सं० पु० अवश्याय avashyáya - हिं० संज्ञा पुं० शिशिर ( Cold )। च० द० पि० ज्व० : मृद्वीकादि० । “श्रवश्यायस्थित पाकम् ।” (२) तुषार, हिम, पाला ( Frost, cold ) । भा० म० ४ मा० नासारो० । “श्रवश्यायकर्मैथुन. वाष्प सेकैः । ( ३ ) झींसी । - झड़ी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसन्नता श्रवश्रयण avaşhrayana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] चूल्हेपर से पके हुए खाने को उता कर नीचे रखना । अवश्याया avashyaya-सं० स्त्रो० कुज्झटिका । See-Kujjhatiká. श्रवष्टम्भः avashtambhah-सं० पु० अवष्टम्भ avashtambha हिं० संज्ञा पुं० [वि० वष्टध] स्वर्ण, सोना | Gold (Aurum.) मे० । ( २ ) श्राश्रय, सहारा | अवटुञ्ध avshtabdha - हिं० वि० [सं०] जिसे सहारा मिला हो | श्राश्रित । श्रवष्वाणम् avashvanam-सं०ली० भक्षण । (Eating. ) हे० च० । अव सक्थिका ava- sakthiká-सं० खी०, हिं० संज्ञा स्त्री० खटिया, खट्टिका, खट्टा, खाट | पर्याय- पर्य्यस्तिका, परिकरः पर्य्यङ्कः । हे० । अवस्था avastha - हिं० स्त्री० प्रकृति की हालत जैसे ठोस, तरल वा वायवीय । (State.) अवस्था परिवर्तन avasthá parivrttan - हिं० पु० (Change of state. ) पदार्थ की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिगति | इसका मुख्य कारण ताप है । अस्तु जब हिम, मोम वा जमे हुए घी को उष्ण किया जाता है, तब वे द्रवीभूत हो जाते हैं । यदि उन्हें तपाना जारी रखें, तो उनके वाष्प बन कर उड़ जाते हैं । और वाष्पों को यदि शीतल करें तो वे पुनः पूर्वावस्था को यथाक्रम प्राप्त हो सकते हैं। श्राधुनिक रसायनशास्त्र के अनुसार इसे ही “अवस्था परिवर्तन" कहते हैं । अवसन्न avasanna - हिं० वि० [सं०] शान्त, क्लान्त, थका हुआ, उदास । ( २ ) जड़ीभूत, स्वकार्य्याक्षम, सुन, स्पर्श शून्य, निःसंज्ञ । अवसन्नता avasannata - हिं० संज्ञा स्त्री० सुन्न हो जाना; निश्चेष्ट होना, काय सुप्तता, स्पर्शाज्ञता, स्वक् शून्यता, त्वक्स्वाप, संज्ञानाश, कार्याक्षमता, जाड्य । यह स्पर्शशक्ति के विकार For Private and Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवेसन्नता जनक ७३२ अवसन्नता जनक से पैदा होती है। यदि कारण बलवान हो तो स्पर्श शक्ति सदा के लिए विदा हो जाती है, अन्यथा वह विकृत वा कम हो जाती है। - अनस्थेसिया (Anaesthesia), नार्कोटिज़्म ( Narcotism), नम्बनेस (Numb. ness)-इं० । खद्र, खद्दर, फ्रादुल इह. सास, कलालुल हिस-अ० । ज़वाल हिस-फ़ा। हिस का जाते रहना-उ०। नाट-नाकोटिज्म अवसन्नता की उस कृत्रिम अवस्था को कहते हैं जो किसी अवसन्नताजनक औषध के प्रयोग से कृत्रिम रूप से उपस्थित हो जाती है। अवसन्नता जनक avasannatajanak-हि. . :सुन्न करनेवाली औषध, वह औषध जो अपने शैत्य, रूक्षता और स्तम्भक गुण के कारण शारी..रिक धातुओं तथा : श्रार्द्रता को सांद्रीभूत कर दे और श्रावयविक स्रोतो को अवरुद्ध कर प्राण वायु के श्रावागमनको रोके और इस प्रकार उन अंगको जड़ीभूत करदे । यथा-अहिफेन, कोकोन प्रभृति । संज्ञाहर, स्पर्श हारक, स्पर्शाज्ञताजनक, स्पर्शन ।। औषध शरीर के जिस अंग पर लगाई जाती हैं, वह उस स्थल की बोध शनि को नष्ट कर देती है अर्थात् उक्त भाग को अवलन कर देती है। लोकल अनस्थेटिक स (Local anesthe. tics )-ई० । मुक़ामी मुखहिर, मुक्कामी मुक्तिकदुल् इह सास-अ० । मुक़ामी हिस्स को ज़ायल करने वाली या सुन्न करने वाली दवा -उ०। वे निम्न हैं डॉक्टरी-कार्बोलिक एसिड, युकीन, कोकीन का स्वस्थ अन्तःक्षेप, ईथर ( स्प्रे ), वैराट्रीन, ईथल क्लोराइड, मीथल क्लोराइड (स्प्रे द्वारा,) वाह्य शीत (बर्फ), श्रार्थोफाम अाफार्म न्य. आय. डाफ़ॉर्म, ईथर मीथीलेटस, ईथर मैथीं लिक्स, ईथल ब्रोमाइडम्, ऐरोमैटिक प्राइज़ ( सुगन्धित तैल), ऐकोईन, एलीपीन, अनस्थेसीन (अधस. श्रीन ), अनस्थिल, थाइमोल (सत अजवाइन), टोपाकोकीन, सबक्युटीन, स्टोवेइन, फेनाल - कैम्फर (फेनोल तथा कपूर), क्रोरेटोन, क्रोराइंक . . कोकीन हाइड्रो क्रोराइडम्, कोकीनी फेमीलास, कैलीन, ग्वाएको(किल, मेथीलाज और मेन्योल (सत पुदीना ) एवं नर्वसाईडीन, नवेंनीन, नोवोकीन, हालोकोन, हाइड्रोकोराइड, युकीन 'हाइड्रोक्लोराइडम्, युग्युफार्म, युहिमबीन, स्टेनो-. कानि । • आयुर्वेदीय तथा यूनानी-.... अहिफेन, तम्बाकू, शूकरान ( कोनायम् ), धत्त र फल, अजवाइन खुरासानी, यजुस्सनम् (बिलाडोना), बीन लुनाह, उक हवान (बाबूना भेद ), पार्वतीय अजवाइन, भंग, केशर, हमामा, काकनज, बीन जर्ब, कुचिला, इस्वंद, श्वेत कटुकी, काहू, तुलसी, गुलेलाला, पित्तपापड़ा, सोना, कुन्दुर, लवंग, शाहसत रम, शक्रायक, बच्छनाग, विटखदिर, धच, कोका, हिंगु, मेषगी (गुदमार), काली कटुकी, जलबोझी, निम्ब, जटामांसी, कटुकी और अशोक । (२) सार्वागिक संज्ञाहरजेनरल अनस्थेटिक्स (General anes ... अनास्थेटिक (Anesthetic), नार्कोटिक (Narcotic.)-ई। मुखदिर, मुफनिकदुल इह सास, खदिर-अ०. .. - नोट-डॉक्टरी की परिभाषा में अनस्थेटिक्स उन औषधों को कहते हैं जो मस्तिष्क एवं सौषुम्न केन्द्रों पर प्रभाव कर अचेतता एवं निःसंज्ञता उत्पन्न करती हैं। - परन्तु यह शब्द अब साधारणतः सुगन्धित व अस्थिर पदार्थों यथा नोरोफॉर्भ, ईथर, मीथिलीन, नाइट्स ाक्साइड गैस ( हास्य जनक वायव्य.) प्रभति के लिए ही प्रत्युक्त होता है। इसमें ऐलकोहल (मद्यसार ) तथा अहिफेन जैसी मादक ( Narcotic) औषधे सम्मिलित नहीं, यद्यपि वे भी स्पर्शाज्ञताजनक हैं। इनके दो भेद हैं(1) स्थानिक संज्ञाहर- इस.प्रकार की For Private and Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . भ्रवसन्ताजनक अवलनाम .. ..... thetics )-इं: । मुखहरात कुल्ली-अ० । जाए तो फिर भयानक लक्षण प्रगट होने बेहोशी पैदा करने वाली दवा-उ० । लगते हैं । अस्तु, अनैच्छिक मांस पेशियों के वातग्रस्त हो जाने से प्रायः मल. ये औषधे इस प्रकार संज्ञाशून्यता उपस्थित ..... कर देती हैं कि फिर किसी भाँति की वेदना का मूत्रका प्रवर्तन हो जाया करता है, श्वासोच्छ वास एवं हार्दिक गतियाँ अत्यन्त निर्बल और अन्ततः बोध नहीं होता अर्थात् सार्वदेहिक स्पर्शाज्ञताजनक औषधों के उपयोग से मनुष्य पर पुण अनियमित हो जाती हैं। प्रायः श्वासोच्छ्वास वा हृदय केन्द्र के वातग्रस्त हो जाने से मत्यु अचेतता व्याप्त हो जाती है। दुख एवं वेदना का उपस्थित होती है। सर्वथा लोप हो जाता है तथा परावर्तित चेष्टाएँ विनष्ट हो जाती हैं । यह औषध "विकास मूर्छा दूर होने के पश्चात् जब चैतन्यता का सिद्धांत" ( इस नियम के अनुसार वातकेन्द्रों पर उदय होने लगता है तब जिस क्रम से मनुष्य औषध का प्रभाव उनके विकास-क्रम के विरुद्ध - की शारीरिक क्रियाएँ अवसित हुई थीं, सीक होता है ) तथा पूर्वोत्तजन एवं नैर्बल्योत्तर उसके विपरीत उत्तरोत्तर वे उपस्थित होने लगती नियम" (इस नियम के अनुसार अल्प मात्रा हैं। किन्तु औषध का प्रभाव कई घंटे तक शेष में , अथवा प्रारम्भ में औषध का उत्तेजक एवं रहता है और चैतन्यता लाभ करने के पश्चात् भी , अधिक मात्रा में अथवा पश्चात् को उसका अधिक काल तक शारीरिक पेशियों भली प्रकार नैवल्य जन क प्रभाव होता है) के उत्तम उदाहरण कार्य सम्पादन करने के अयोग्य रहती है। हैं। अस्त इनके प्रामाण कराने अर्थात संघाने पूर्ण अंचैतन्यता प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष, दोनों से भावना शक्रि प्रबल हो जाती है। पुनः मस्तिष्क | कारणों से उत्पन्न की जा सकती है। प्रस्तु अप्रमस्युत्पादक केन्द्रों में गति होती है और... रोगी त्यक्ष ( Indirect) रूप से संज्ञाशून्यता चित्त वृधि की अस्थिरता एवं विभिन्न केन्द्रों की उपस्थित करने की निम्न लिखित तीन विधियाँ असाधारण तथा अनियमित गतिके कारण अनाप शनाप मूर्खतापूर्ण बातें करने लगता है और हाथ | (1) शिरोधोया.धमनी FOurobias ) पाँव. मारता है। थोड़े काल पश्चात :मास्तिष्कीय | या गर्दन कीरग को दबाकर या उन्हें बांधकर शनियों में निर्बलता के लक्षण प्रगद हो जाते हैं, : या. दोनों पार्क के वैगस-नर्वः तथा' शिरोधीया बुद्धिभ्रंश होता तथा मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों में धमनी को दबा कर. और' इस प्रकार मस्तिष्क और अधिक गति होती है। अतएव हृदय रक्रसञ्चार को अवरूद्ध कर, जिससे वातसेलीय स्पंदित होता, श्वासोच्छू वास तीब्र हो जाता और संवर्तन क्रियाश न्य हो जाता है, पूर्णः विसंतभार बढ़ाजाता है। क्षण भर बाद. ये लक्षण भी ज्ञता उपस्थित की जा सकती है। अदृष्य हो जाते और रोगी पूर्णतः अचेत हो (..२) रन की, वेनासिटी (शिम सम्बन्धी जाता है । सम्पूर्ण शरीर की बोध शक्ति लुप्तप्राय प्रतिक्रिया ) को बढ़ाकर. और इस प्रकार, वातहो जाती, मांस पेशियाँ शिथिल हो जाती एवं सेलों की प्रोषजनीकरण क्रिया को घटा, कर भी किसी प्रकार की चेष्टा से भी ये गतिशील नहीं बेहोशी उत्पन्न की जा सकती है। होती हैं। नेत्रकनीनिका संकुचित हो जाती, नाड़ो एवं (३) मस्तिष्क से शोणित को शरीर के श्वासोच्छवासकी गति कम हो जाती है, इत्यादि। . अन्य भागों में पहुँचा कर. जैसे पृथ्वी पर उत्तान प्रायः ऐसी ही... दशा में शस्त्रकर्म सम्पादित लेटे हुए रोगी को सहसा उझाकर खड़ा कर देने होता है। से भी बेहोशी उत्पन्न की जा सकती है। .. पर यदि जेनरल. अनस्थेटिक्स ( सायंगिक अवसन्नीन avasannina-हिं० अनलजीनः संज्ञाहर ) का प्रयोग असावधानतापूर्वक किया | अवसनीन । For Private and Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अक्सानक नवसादक avasádak - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] .. वह श्रौषध जो बढ़े हुए दोषों की ऊष्मा एवं चोभ को शमन करे अथवा वह जो धात्ववयविक क्रिया - को अवसित करे । उदाहरणतः - ( १ ) त्रात. केन्द्रिक क्रिया, यथा ताम्रकूट ( तम्बाकू ), लोबेलिया अरण्य तम्बाकू ), ब्रोमाइड ऑफ पोटाशियम प्रभृति, ( २ ) रक्तसञ्चालन सांस्थानिक क्रिया, यथा वत्सनाभ, वेराट्रम्, टार्टर एमेटिक, भूसिक एसिड प्रभृति; ( ३ ) सौषुम्न - काण्ड क्रिया, यथा- कालाबार बीन, इत्यादि । पर्याय- शामक, चोभहर, संशमन, निर्बलताजनक- दि० | सिडेटिज्ञ Sedatives, डिप्रे सेण्ट्स Depressants- इं० । मुमकिन, सु. ज्ञ्इफ़ - ० । ७३४.. अवसादक श्रोषधों को निम्न लिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा (१) सार्वाधिक वा व्याप्त श्रवसादक(General sedatives) gafara उमूमी ० । ये निम्न हैं पूर्ण मादक (Narcotics ) तथा अवसन्मत्ताजनक ( Anaesthetics ) औषधे कथा ओपियम ( अहिफेन ), मॉर्फिया शेप द्वारा ), कोरल, हायोसायमस ( अजवाइन खुरासानी ), जल तथा रक्र मोक्षण । अन्तः (२) स्थानिक अवसोदक ( Sedatives) - मुनित मुक्कामी- अ० । ये निम्न हैं ओपियम् (अहिफेन ), ऐट्रोपीन, एसिड कार्बोलिक एसिडम हाइड्रोस्थानिकम् डायल्युटम्, बोरेक्स ( टंकण ), बिलाडोना, लम्बाई एसीटास, बाई कार्बोनास, क्रियोज़टम्, क्रोरल, लाईक्कार लम्बाई सब एसिटेटस डायल्युटस, मॉर्फीन (अहि(फेनीन ) और अनस्थेटिक्स श्रवसन्नताजनक औषध ) तथा ऐनोडाइन्स ( अङ्गमईप्रशमन ) । ( ३ ) मस्तिष्क अवसादक - ( Cere"bral Sedatives or depressants ) मुहात दिमाग़ अ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसादक इसके उपयोग से मास्तिष्कीय रक्तसंक्रमण शिथिल हो जाता है एवं मास्तिष्कीय शक्तियाँ निर्बल हो जाती हैं अर्थात् उनकी क्रियाओं में शिथिलता उपस्थित हो जाती है। ऐसी श्रौषधों को निम्नलिखित चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, यथा ( १ ) निद्राजनक ( Hypnotics ), ( २ ) मादक वा संज्ञाहर ( Narcotics.), (३) सार्वगिक अंगमई प्रशमन (General anodynes) और सार्वगिक श्रवसन्नताजनक ( General anesthetics )। नोट - इनके पूर्ण विवेचन के लिए यथा स्थान देखो | ( ४ ) सौषुम्न श्रवसादक ( कंसेरूकामज्जा अवसादक ) Spinal sedatives or depressants )- मु जुइफ़ात नुस्खा - अ० । ऐसी श्रीषधे सुषुम्णाकांड के एण्टेरी अर्कानुवा के व्यापार को शिथिल करती हैं अर्थात् उसकी तीव्रता ( activity ) को घटाती हैं। इनका सरल प्रभाव होता है अथवा परावर्तित रूप से और इनका यह प्रभाव सौषुम्नोत्त जक औषधों के विपरीत होता है । वह औषध जो सुषुम्णा की परावर्तित गति को शिथिल करती है । (क) क्लोरल हाइड्रेट, ब्रोमाइड्स, फाइसाष्टिग्मीन, क्लोरोफार्म*, ईथर, कैनाविस इंडिका ( भंग ) * श्रोपियम् ( अहिफेन ), एपोमॉर्फीन, वेरेट्रीन, एमेटीन, ऐलकोहल ( मद्यसार ), अर्गट, गे (जे ) लसीमियम्, सेपोनीन, एमाइल नाइट्रेट, सोडियम नाइट्रेट, कैम्फर (कपूर), मर्करी ( पारद ), ऐण्टिमनी ( अञ्जन ), सोडियम, पोटासियम्, लीथियम्, सिल्वर (रजत), श्रार्सेनिक ( सखिया )*, ज़िंक ( यशद ), कार्बोलिक एसिड, टर्पेनटाइन ( तारपीन का तेल ), कॉल विकम् ( सूरिञ्जान ) और कावारूट | नोट- जिन श्रौषधों पर ये (*) चिह्न लगे हैं उनका पूर्व प्रभाव सूक्ष्मोत्तेजक और श्रवसादकोत्तर प्रभाव होता है । For Private and Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “अवसादक ७३५ अवसादक उपयोग-क्लोरल हाइड्रेट, ब्रोमाइड स, फाइसाष्टिग्मीन,केलेबार बीन, प्रोपियम्, कैनाबिस इण्डिका और क्लोरोफार्म या ईथर (अाघ्राण द्वारा ) टेटेनस प्रभृति प्राक्षेप युक्र रोगों में सामान्यतः प्रयुक्र होते हैं। (ख) वे औषधे जो सु पुम्णा की परावर्तित गति को पेचीदा रूप से शिथिल करती हैं। ऐसी दवाएँ सौपुम्नीय रक्कसक्रमण को अवरुख कर स्वप्रभाव प्रदर्शित करती हैं। ये निम्न है एकोनाइट ( वत्सनाभ), डिजिटेलिस और कीनीन, अधिक परिमाण में इनका अत्यन्त प्रबल प्रभाव होता है। . (५) नासिकावसादक-( Nasal sedatives) मुसक्किन्नात अन्क्र-अ०। वह औषध जो नासिका की श्लैष्मिक कला के क्षोभ को निवारण कर उस पर शामक प्रभाव करें। जैसे बिस्मथ साल्टस अकेले या मीन एवं कोकीन प्रभतिके साथ और अन्य व्याप्तावसमताजनक औषध जैसे इपीकेक्वाना कम्पोजिटा तथा एकोनाइट ( वत्सनाभ ) प्रभृति । ( ६ ) हृदयावसादक-( Cardiac sedatives or depressants) मुज़. इफ्रात कल्व-अ० वह औषध जो हृदय की गति को या उसकी शनि या उन दोनों को निर्बल करती हैं। निम्न लिखित औषधे हृदय की श्राकुचन शक्ति को घटाती हैं । फलतः वह प्रसार की दशामें ही गति करने से रह जाता है। वे यह हैं डायल्यूट एसिड स, मस्केरीन, एपोमार्फीन, . पाइलोकार्पान, सेपोनीन, झोरल, सैलीसिलिक एसिड,ऐलकलाइन साल्ट्स, डब्ल कॉपर साल्ट्स और डबल जिंक साल्ट्स अधिक मात्रा में प्रयुक्त करने से। निम्नलिखित औषधे हृदय की गति एवं शक्ति दोनों को घटाती हैं एकोनाइट ( वत्सनाभ ), हाइडोस्यानिक, | एसिड डाइल्यूट, ऐण्टिमनी साल्ट्स (मञ्चन के लवण ), वेरेट्रीन, और अर्गट प्रभृति । उपयोग-प्रादाहिक रोगों में मुख्यतः नाड़ी की गति को मन्द करने के लिए एकोनाइट का प्रयोग करते हैं । ऐण्टिमनी साल्ट्स फुप्फुस एवं वायुप्रणाली के उग्र प्रदाह की दशा में हितकर होते हैं। जब अजीण के कारण पैल्पिटेशन ऑफ दी हार्ट (हृदय का धड़कना) विकार होता है। तब हाइडोस्यानिक एसिड के प्रयोग से विशेष लाभ होता है। हृदयावसादक औषध-प्रोपियम् ( अहिफेन), एपोकाहनम् ( अमरीकीय भंग ), एका लारोसेरेसाई, एमाइल नाइट्रिस, ऐण्टिमोनियम् टार्टरेटम्,बेलाडोना, डिजिटेलिस, स्पिरिटस ईभरिस नाइट्रोसाई, स्टे मोनियम (धर र ), सिल्ला (वनपलांडु), सोडियाई नाइट्रिस, कोनायम (शूकरान ), नाइटोग्लीसरीन, वेरेट् म् वरीडी, हायोसाइमस (अजवाइन खुरासानी), उशीर, गुडूची, एसिड ऐसीटिकम् ( सिरकाम्ल ), एसिडम् साइट्रिकम् ( जम्भीराम्ल ), एसिडम् श्राग्ज़ोलिकम् (चुकाम्ल), एसिडम् टार्टारिकम् (अम्लिकाम्ल ), लिमनिस सक्कस ( निम्बुक स्वरस ), ऐण्टिमोनियाई ऑक्साइडम् ( अञ्जन ऊप्मिद वा भस्म), ऐण्टिमोनियम सल्फ्युरेटम्, ऐण्टिमोनियाई क्लोरोडाई लाइक्वार, ऐरिटमोनियम् नाइग्रम्, ऐरिटमोनियम् प्योरिफिकेटम्, एकोनाइटीन ( वत्सनाभीन ), सिमिसिफ्युगा रिज़ोमा, डिजिटेलिनम्, लोवेलिया ( अरण्य तम्बाकू), स्टेफीसेग्राई सेमिना, टैबेसाई फोलिया, विरेट्राई विरिडिस रैडिक्स, विरेटम ऐल्बम् । (७) फुप्फुसीय वा श्वासोच्छवास अवसादक-(Pulmonary or respiratory sedatives)इसके निम्न लिखित कतिपय भेद हैं (क) अवसादक लखलने (Sedative ___ Inhalations )- ललनात मुसकिन, लखलख़हे मुसकिन-अ० । इन औषधों के वाष्प वायुप्रणालीस्थ श्लैष्मिक कला के For Private and Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसादक এবং .. क्षोभ को शमन करते हैं. अर्थात् उस पर!... (घ) सांवेदनिक वाततन्तुओं को शिथिल शामक प्रभाव करते हैं जैसे हाइडोस्यानिक | वा निर्बल करनेवाली औषधे। ये श्वासोच्छवासएसिड डाइल्यूट , कोनायम ( श करान ) और केन्द्र अवसादक औषध हैं । अस्तु वहाँ देखो - क्लोरोफार्म प्रभति। (ङ)अवसादकोय श्लेष्मानिस्सारक-देखो(ख) नासावसादक-यथा स्थान देखो। श्लेष्मानिस्सारक। .. (ग) सरल श्वासोच्छवास केन्द्र अवसादक- . श्वासोछवासावसादक औषधे वह औषधजो श्वासोच्छ वास केन्द्र को स्पष्टतया __आलियम् टेरीबिन्थीनी ( तारपीन का तेल), शिथिल करती हैं। यथा--..... ईथर एसीटिक्स, ईथिल श्रायोडाइडम्, एक्का लारो. #. प्रोपियम् ( अहिकेन..को हाहन ( अहि फेन सेरेसाई, एमाइल नाइट्स, ऐरिमोनियम् टार्टरेटम्, का एक सत्व ), कोनाइम ( शकरान ): बेलाडोना, पेरोमीन, टिकरानी-वर्जिनीएनी, , एकोनाइट ( वत्सनाभ ), वैरेट्रीन, गैलसीमीन, जेलसीमियम्, डायोनीन,स्ट्रमोनियम् (धुस्तुर), सेपोनीन, फाइसाष्टिग्मीन (जौहर लोबिया सिरूपस भूनी वर्जिनिएनी, क्रोरस, कोरोफॉर्मम्, कालाबार ), वर्जिनियन पून, हिरोइन, कोडाइन ( कोडीन), कोडीगी सैलीसिलेट, ..हाइडोस्यानिक एसिड डायल्यूट, क्लोरल, ऐण्टि. कोडीनी फॉस्फॉस, कोढीनी हाइड्रोकोसाइडम्, मनी साल्ट्स (अञ्जन के लवण )*, एलको- कोनायम् (शूकरान), कोनाईन (शूकरानसार), हल ( मद्यसार ), ईथर, क्लोरोफॉर्म*, कोनाइनी हाइड्रोब्रोमाइडम्, कोनाइनी हाइड्रोको. क्वोनीन*, केफीन, इपीकेक्वाना*। राइडम्, लोबेलिया (अरण्य ताम्रकूट ), लैक्ट्युइनमें से अंतिम की सात औषधं जिनपर यह । • केरियम् ( अफ्रीम काहू), मॉर्फीन और उसके चिह्न (*) लगा है, श्वासोच्छवास केन्द्र को लवण, हायोसायमस (अजवाइन खुरासानी ), शिथिल करने से पूर्व उसे श्रांशिक उतेजना हीरोईन, हीरोईन हाइड्रोक्लोराइड, कूठ, कचूर, प्रदान करती हैं। श्रामला, भू ई श्रामला, कर्कटशृङ्गी, कंटकारी, फाइसाष्टिग्मीनका अत्यन्त प्रबल प्रभाव होता है वृहती, हरीतकी, बहेड़ा, उन्नाब। अर्थात् यह श्वासोछ वास-केन्द्रको अत्यंत शिथिल (८)यकृत् अवसादक-(Hepatic de. कर देता है। किंतु इस अभिप्राय हेतु इसका pressants)-मुजइत कबिद-अ० । देखोकदापि प्रयोग नहीं होता । श्रोपियम, कोडाइन. पित्तस्त्राव अवरोधक। हाइडोस्यानिक एसिड डायल्यूट और वर्जिनियन (६) संवर्तनशक्त ८ वसादक-(Meta. पून इस हेतु विशेष रूप से प्रयुक्त होते हैं। bolic depressants)-मुजइफ्रात कुच्वत उपयोग-फुप्फुस, प्रामाशय, यकृत्, मुग़इरह--अ० । वे औषध जो संवर्तन क्रिया को प्लीहा, फुप्फुसावरककला, वायुप्रणाली एवं प्रणालिकाओं, स्वरयंत्र, नासिका, क और मंद करती हैं । ऐसी औषधे या तो शीघ्र प्राक्सि डाइज ( उम्मिद ) हो जाती हैं या ऑक्सीहीमो. अन्नमार्ग के क्षोभ के कारण परावर्तित रूप से उत्पन्न हुई कास में ऐसी औषधे उपयोग में ग्लोबीन को एक ऐसा मज़बूत यौगिक बना देती हैं जिसमें वह अपने प्रोषजन वायव्य को पृथक् पाती हैं। इस प्रकार की कास प्रायः शुष्क हुश्रा करती है अर्थात् इसमें अत्यल्प श्लेष्मस्राव | नहीं कर सकता । ये निम्न हैंहुश्रा करता है। क्वीनीन, फेनेज़न, एसिट एनीलाइड, सेलीसीन' परावर्तित-गति जन्य कास-चिकित्सा में इन ग्लीसरीन, रीसँासन इत्यादि । औषधोंके उपयोग से पूर्व रोग के मूल कारण का (१०) आमाशयावसादक-(Gastric• 'पता लगा उसके निवारण का यत्न करना sedatives-) मुसक्किनात मिश्र दह-१० । देखो-प्रामाशय अवसादक। For Private and Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसादक अवसेकिमः (११)नाडयावसादक (Nervine sedati- सियम् नाइटास. उन्नाब. बहती. कंटकारी. कर्कटves.)। मुसकिनात अअ साब-अ०। वे औषध जो | गी, भूम्यामलकी, कचूर, कूड और बिडंग । वातवहानाड़ियों के क्षोभ को घटाकर उन्हें शांति अवसादन avasadana-हि. प्रदान करें। वे निम्न हैं अवसादनम् avasādanam-सं०]ी० एसिडम् हाइड्रोनोमिकम् , एक्का लारोसेरेसाई, नीचा करना । बिठाना । वैद्यक में व्रण चिकित्सा एमाइल वेलेरिएनास, एमोनियाई ब्रोमाइडम्, । का एक भेद । मरहम पट्टी। जिनमें कोमल एमोनियाई-वेलोरिएनास, ऐण्टिस्पैमीन, ऐण्टिमी और उठा हुआ मांस हो उन व्रणों नियम् टार्टरेटम्, पररा । पेरेरा ), पोटासियाई को पूर्वोत्र कासीसादि द्रव्यों के चूर्ण ब्रोमाइडम्, टायोनाल, जेलसीमियम (पीत को शहत में मिलाकर लगाने आदि से अवसादन चमेली), ज़िन्साई ब्रोमाइडम्, सोडियाई ब्रोमा कर्म करना ( अर्थात् उनका मांस नीचा करना) इडम्, सेलिक्स नाहग्रा, फाईसाष्टिग्मा, फ्रेनेजूनम्, चाहिए । यथाफेनेसेटीन, लोरेलोज़, कैम्फर ( कपूर ), कैम्फोरा "उत्सन्न मृदु मांसानांव्रणानामवसादनम्। मानो ब्रोमेटा, गैलोब्रोमोल, लाइक्वार मैग्नीसि- ___ कुर्याद्रव्यैर्यथोद्दिष्टश्चूर्णितमधुनासह ॥" याई ब्रोमाइडम्, लीथियाई ब्रोमाइडम्, लैक्टयु - सु० चि. १ अ० । का, ल्युप्युलस, ल्युप्युलीन, मेन्थोल, वेलीरि- अवसादनी avasādani-सं० स्त्री० महाकरा । एनेट, निकोली ब्रोमाइडम्, न्युरोनाल, बाइबर्नम्, (Pongamia. glabia.) वेरोनाल, वेरेटम विरीडी। अवसान avasana-हिं० संज्ञा प० [सं०] आयुर्वेदीय तथा यूनानी अवसादक औषध (१) मरण । ( २) सायंकाल । (३) समाप्ति अपामार्ग, बड़ी इलायची, दारुहरिद्रा, अन्त । (४) सीमा । (५)विराम । ठहराव । अपराजिता, हरिद्रा, तुलसी, वनतुलसी, राम अवसितम् a vasitam सं० क्ली० । तुलसी, चन्दन श्वेत, चन्दन रक्क, उशोर, कमल, अवसित avasita-हिं० वि० । निलोफर, अनार, नीबू, शर्बती नीबू, अमरूद, (१) मर्दित धान्य । (२) परिपक्क । (३) मकोय, ग्वार की गुद्दी, सिरका, प्रामला, हरीतकी, समाप्त। गुलाबजल , बर्फ, शीतल जल, नासपाती, ककड़ी श्रवसी avasi-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं० प्रावसित, के बीज, कह के बीज, पालक के श्रीज, काहू, प्रा० श्रावसिपका धान्य ] वह धान्य वा नारियल दरियाई, शैवाल, अहिफेन, यबरूज शस्य जो कच्चा नवान्न आदि के लिए काटा (बिलाडोना ), सफेदा, बत्तख की चर्बी, कुक्कु. जाए । अवलो । अरवन | गद्दर । टाण्ड श्वेतक (मुर्गी के अंडे की सुफ़ेदी), कतीरा, निशाना, धतूरा, शूकरान, खानिकन्नम्र, अवसृष्ट avasrishta-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० अवसृष्टा] (१) त्यागा हुआ | त्यक्त। अजवाइन खुरासानी, अलमास, धनिया, कासनी, रसवत, बदरी (बेर ), ईषद्गोल, टेसू के फूल, (२) निकाला हुआ । (३) दिया हुआ। अक्राक्रिया बीत अञ्जबार, खुर्का, तम्बाकू, जबरजद, आलूबोखारा, रजत भस्म, प्रवाल भस्म वा अवसेकः avasekah-सं० पु० रक्रमोक्षण, रक कच्चा, सीष भस्म, बिहीदाना, तुम खब्बाजी, वित्रावण, शोणित निकालना व्यधन, फस्ददेकर खित्मी, पारद, श्वेत कुष्माण्ड (पेटा) काक. र निकालना। (Venesection, phle bo tomy, Bloodletting.) नज, कुन्दुर, इस्बंद, बीख जर्ब, पित्तपापड़ा, | लवङ्ग, वत्सनाभ, गुडूची, मुलेडी, गम्भारी, अवसेकिमः avase kimah-सं० पु० वटक, कपूरी (शारिवा), श्यामलता, सुगंधवाला, पोटा- बड़ा । (See-vata kah.) वै० निघ० । ६३ For Private and Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसेचनम् ७३८ चनम् avasechanam-सं० क्लो० : अनुसार छः प्रकार की अवस्थाएँ -जन्म, स्थिति, अवसेचन avasechana-हिं० संज्ञा पु. वर्धन, विपरिणमन, अपक्षय और नाश । (१) जलसेचन । सींचना । पानी देना । सु० । (२) । (१) सांख्य के अनुसार पदार्थों की तीन पसीजना । पसीना निकलना । (३) वह क्रिया अवस्थाएँ है-अनागतावस्था, व्यकाभिव्यकाजिसके द्वारा रोगी के शरीर से पसीना निकाला वस्था और तिरोभाव । जाए । (४) जोंक, सींगी, तूंबी या फस्द देकर अवस्थांतर avasthāntara-हिं० संज्ञा पु. रक्त निकालना । [सं०] ( Change of state) अवस्कन्दः avaskandan-6०० अवगाहन एक अवस्था से दूसरी अवस्था को पहुँ. स्नान, मज्जनपूर्वक स्नान करना, डुबकी लगाना । चना । हालत का बदलना | दशापरिवर्तन । ( Bathing, A blution.) अवस्थान avasthāna-हि. संज्ञा पुं० [सं०] अवस्कयनी avaskayani-सं० स्त्री० बहु (१) स्थिति | सत्ता । (२) स्थान | जगह । दिनानन्तर प्रसूता गाय, अधिक समय में वा वास। बड़ी उम्र की ब्याई गाय । अवस्थापन avasthāpana-हिं० संज्ञा पु. अवस्करः avaskarah-सं० पु [सं०] निवेशन । रखना । स्थापन करना । अवस्कर avaskara-हिं० संज्ञा प० अ वस्थात्रय avasthātrya-हिं. प. वेदांत (१) विष्ठा, मल, विट् ( Eecrement, दर्शनके अनुसार जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन Feces.)। (२) गुह्य देश । ( Privy- अवस्थाएँ हैं । parts, Pudendum. ) मे० रचतुष्क । अवस्था विचार vasthā-vichāra-सं० (३) सम्माजनादि-निक्षिप्त धूल्यादि, पावर्जना, पु. दशा विचार, अवस्था का निश्चय करना । झाड़ना पूँकना । (४) मलमूत्र ।। अवस्यंदन avasyandana-हिं० संज्ञा पु. अवस्करकः avaskula kah-सं० पु० सम्मा- सं०] टपकना । चूना । गिरना। जनी, म.जनी, झाड़। अवह avahaa-हि. संज्ञा पु० [सं०] (१) श्रवस्कवavaskavam-सं०कती त्वचाके भीतर वह वायु जो अाकाश के तृतीय स्कंध पर है । घुस जाने वाले दन्द्र श्रादि के कीड़े । अथर्व। ईथर (AEther) । (२) वह दिशा जिसमें सू० ३१ । ५ । का०२। नदी नाले न हों। अवस्था avastha-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं०1/ अवहस्तः a vahastah-सं० प. अवहस्त avahasta-हिं० संज्ञा पु. (१) दशा । हालत । (state, con. dition.) । (२) समय । काल । हस्त पृष्ठ, हाथ या गदेली का पिछला(पृष्ठ)भाग, उलटा हाथ ( Back of hand. ) ।हे. (३) प्रायु ! उम्र । (४) स्थिति । (५) वेदांत दर्शन के अनुसार मनुष्य की चार श्रवस्थाएँ होती हैं - जागृत, स्वप्न, सुषप्ति और अवहारः,- ava hairah, ka.h-सं० पु. । अवहार, कः avahāra, kah--हिं०संज्ञा पु.) तुरीय । ( ६ ) स्मृति के अनुसार मनुष्य जीवन की अाठ अवस्थाएँ हैं-कौमार, पौगंड, कैशोर, (१) ग्राहाख्य जल तन्तु, मगर । (Alligaयौवन, बाल, तरुण, वृद्ध और वर्षीयान् । (७) _tor ) मे० रचतुष्क । (२ ) जलहस्ति । कामशास्त्रानुसार १० अवस्थाएं हैं-अभिलाषा, । स। चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, संलाप ,उन्माद, | अवहालिका avahālika--सं० स्त्रो० प्राचीर, बाहरका कोट, प्राकार, चार दीवारी । (A wall, व्याधि, जड़ता और मरण । (८) निरुक्त के For Private and Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir tam अविहित अवाक् पुष्पी घृतम् अवहित ava hita--हिं० वि० सं०] सावधान । अवाको avaqi-१० (ब० व०), पौकिय्यह - एकाग्र चित्त । (ए० व०) देखो-ौकियह । वही avahi--हिं० संज्ञा प० [सं० अवह बिना अवाक् avāk-हिं० वि० [सं० अवाच् ] (1) पानी का देश ] एक प्रकार का बबूर जो कांगड़े के वाक्य रहित, चुप, मौन, चुपचाप ( Speech. जिले में होता है । इसकी लपेट पार फीट की less )| (२) स्तब्ध । जड़ । स्तंभित । होती है . यह मैदानों में पैदा होता है और चकित । विस्मित । इसकी लकड़ी खेती के अौजार बनाने तथा छतों के तहतों में काम आती है। हिं० श० सा०। अवाक पुष्पां avāk-pushpi-सं० (हिं० संश) स्त्रो० (१) हेमपुष्पी । (Hemapushpi.) अवहोरा avthira-हिं० श्रास वृत । See र०मा०। (२) सौंफ । मधुरिका । (Madhuása. rika. ) शताद्वया । रत्ना. | रा. नि. प्रवक्षिप्त a vakshipta-हिं० वि० [ सं. ] व० ४ । ( ३ ) शत पुष्पी। सोया-हि । . गिरा हुआ। शुल्फा-बं० । बड़ी शोंक-मह। (Sea-shata. अवक्षिप्त सन्धिः avakshipta-sandhih pushpah) रा० नि० व० ४। च०० -सं०५० सन्धि विश्लेष, संधि, संधि च्युति प्रशशि० सुनिषण-चांगेरी वृत । (४) चार ( Dislocation.) । “अवक्षिप्त" में संधि पुष्यो । वह पौधा जिसके फूज अधोमुख हों । दूर हट जाती है और तीव्र वेदना होती है। सु. (See-chorapushpi ) रत्ना० । नि०१५ अ०। अवक्षुत avakshuta--हिं० वि० [सं०] जिस अवाक् पुष्पो घृतम् avakpushpi-ghri. | __पर छींक पड़ गई हो। अवाक पुष्पादि घृतम् avak-pus hpādiअवक्षेपण avakshepana-हिं० संज्ञा पु. ghritam [सं०][वि. अवक्षिप्त ] (१) गिराव | अवाक पुष्पयादि घृतम् avak-pushpyādi- अधः पात । नीचे फेंकना । (२) अाधुनिक ghritam, विज्ञान के अनुसार प्रकाश, तेज वा शब्द की -सं० की. अवाक पुष्पी ( सौंफ), मधुरी, गति में उसके किसी पदार्थ में होकर जाने से | बला, दारुहल्दी, पृष्टपर्णी, गोखरू, बर्गद, गूजर वक्रता का होना । और पीपल वृत की कोंपल प्रत्येक २-२ पल, श्वक्षेपः avakshepah-सं० क्ली० (१) इनका क्वाथ, पीपर, पीपरामूल, मिर्च, देवदारु, (Asterion.)। (२) (Art of dep- कुटज, सेमल का फूल, चंदन, ब्राह्मी, केशर, ressing. ) कायफल, चित्रक, नागरमोथा, फूलप्रियंगू, अवक्षेपणो avakshepani-सं० स्त्रो० वल्गा, अतीस, शालपर्णी, कमल केशर, मजीठ, अमल- लगाम । हे. चं० ।। तास, बेल गिरी, मोचरस, सोनापाठा, प्रत्येक अवक्षेपित avakshepittu-हिं. वि. निम्नस्थित, १-१ तो० इन्हें ४ प्रस्थ जल में क्वाथ करे तलस्थित, अधःक्षेपित । तलस्थाई, तहनशीं । जब १ प्रस्थ शेष रहे तो सुनिषण्णक (कुरडू) अवाँ avin-हिं० संज्ञा पु० दे० धावा। और चांगेरी का रस २-२ प्रस्थ, गोधृत अवा ava-हिं० विछुअा घास । (Girardinia- १ प्रस्थ मिश्रित कर पकाएँ। i heterophylla. ) गुण-इसके सेवन से सन्निपातातिसार, प्रवाश्रवाइद रदिश्यह, aavaida-radiyyah हिका, गुदभ्रंश, प्रामजन्य रोग, शोथ, शूल, -० कुस्वभाव, खराब आदत । बैड हैबिट्स गुदारोग, मूत्रावरोध, मूढ़वात, मन्दाग्नि, तथा ( Bad habits-)-इं० । अरुचि का नाश होता है। For Private and Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवाक् शीराः,स् अवारिक नोट-पहले कहे हए श्राओं द्रव्यों का जण्डी, करिडयारी, अराजन, लान । बै नोटा सोलह गुने पानी में क्वाथ करें। जब १ प्रस्थ लिम्बेटा (Ballota lim bata, Benth.), शेष रहे तब उसे ग्रहण करना चाहिए । वंग से. ग्रोटोस्टेगिया लिम्बेटा (Otostegia limसं०अर्श चि० | च० सं० । bita, Benth.) ले० । ई० मे० प्लां । अवाक् शीराः,-स् avak-shirah,--S-सं.पु. __ उत्पत्तिस्थान–पञ्जाब, झेलम से पश्चिम निम्न शिरस्क । की पथरीली भूमि की निम्नस्थ पहाड़ियों से अवाक् संदेस avāk-sandesa-हिं० संशा साल्ट रेञ्ज पर्यंत । पुं० [वंग० देश०] एक प्रकार की बँगला | __ प्रयोगांश-पौधा, पत्र, ( औषध एवं मिठाई । चारा )। अवागी avāgi-हिं० वि० [सं० अवाग्विन= उपशेग-इसकी पत्तियों के स्वरस को अपटु ] मौन । चुप । बालकों के मसूढ़ों पर लगाते हैं । स्ट्यु वर्ट।। अवाग्र avagra-सं० पु वक्र । (Oblique.) अवान्यम् avānyam-सं० कली० देखो-त्रम अवाङ्मुख avang-mukha-हिं) वि० [सं०] ध्रम् । (१) अधोमुख, उलटा । नीचे मुह का । मैं ह अवाप्त avapta-हिं० वि० [सं०] प्राप्त । लटकाए हुए। नत । (२) लज्जित । लब्ध। अवाची avachi-हिं० स्त्री० दक्षिण दिशा। अवार aavat-अ० दोप, कबाहन, बुराई । (South.) श्रवारम् avāra m-सं० क्ली. श्रवाचीनः avachinh-संत्रिक श्रवार avara-हि. संज्ञा पु० अवाचीन avachina-हिं० वि० (१) नदी आदि का पूर्व पार । नदी के इस पार का विपर्यस्त, विपरीत । ( Reverse. ) मे० किनारा ! सामने का किनारा । पार का उलटा ! नचतुष्क । (२) दे० अवाङ्मुख । सवाच्यदेश: avachya-deshah-२० पु अवारण avarana-हिं० वि० [सं०] (१) ___ योनि | (Vagina) त्रिका० । जिसका निषेध न हो सके। सुनिश्चित । अवाज़िम avazim-० (ब०व० ), आजमह. (२) जिसकी रोक न हो सके । बेरोक । (१०व०) दाढ़े । अनिवार्य । अवाजिम aavajim-अ० दंष्ट, दंत, दात। अवारणीय avaraniya-हिं० वि० [सं.] टीथ ( Teeth ;-इं० । (१) जो रोका न जा सके । बे रोक । अनिवार्य । वात avata-हिं० वि० [सं०] वातशून्य । । (२) जिसका अवरोध न हो सके । जी दूर न जहाँ वायु न लगे । निर्वात । हो सके । ( ३ ) जो पाराम न हो । असाध्य । अवातिब avatiba-अ०(ब० व०), वतब (ए. ___ संज्ञा पुं॰ [सं०] सुत के अनुसार रोग व. ) दूध की शीशी । बच्चे को दूध | का वह भेद जो अच्छा न हो । असाध्य रोरा । पिलाने की शीशी । यह श्राउ प्रकार है बात, प्रमेह, कुष्ठ, अर्श, अवान āavan-०(१)वह स्त्री जिसके पती मौजूद भगंदर, अश्मरी, मूढगर्भ और उदर रोग । हों ( Mistress. ) । (२) वृद्धावस्था । अवारपारः avara pārah सं . अधेड़ उमर । | अवारपार avārapara-हिं० संज्ञा पु. ) अवानम् avanam-सं० क्ली० शुष्क फल आदि । । समुद्र । (A sea ) (Dry fruits,etc. ) श० र० । अवारिक aavariqa-अ. भेदक दन्त विशेष । श्रवानी बूटी avani.buti-पं० बूह फुटकण्डा, । केनाइन (Canine.)-ई। For Private and Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवारिका अविकृति अधारिका avarika-सं० (हिं० संज्ञा) स्त्री० लथो (Dolichos biflorus.) | "अविः कु. धनियाँ। (Coriandrum sativum.) लाली चक्षुष्या कुम्भकारी कुलस्थिका"। र०मा० । अवारिके avarik) कना० तरवड़-हिं० । (१३) मेपी I (See-- lesbi) त्रिका०। ( Cassia auriculati, Linn. ) (१४)ऋतुमती, रजःस्वला । ( A woman मेमोः । during menstruation.) श्रम० । अवारिज anvariza-अ० ब०व०), झारि ज़ (१५) लज्जा। (ए. व०) दशा व कैफ़िपन, वह दशा एवं । श्राविकम avikam-सं. क्लो० (१) हीरक, कैफियत जो कियो अन्य दशा के श्राधीन हो। हीरा । ( Diamond. ) रा. मि०। वारिज नानिय्यह. aavariz-mafsa- (२) मेष । ( A lam.) niyyah-अ० अम्रा ज़ या इन्क्रिमालात अविकमांसम avika-mausam-सं० क्ली० नफ़सानी-अ० । मानसिक दशाएँ. मनोविकार मेषनांस । ( Flesh of a ram.) वै० काय । यह छः है-(१) दुःख (ग़म), निघ० । (२) भ्रम ( हम्म ), (३) भय (लौफ़ ), अविकल avikala-हिं० वि० [सं०] १.) (४) क्रोध ( गु.स्सह), (५) प्रानन्द जो विकत न हो । बिना उलट फेर का । ज्यों (खुशी) और (६) लज्जा (शर्मिन्दगी)। का त्यों । ( २ )पूर्ण । पूरा । (३)निश्चल । पैशन (Passions.)-इं० । अव्याकुत्त । शांत । अवारी avari-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० वारण ] अविकल्प avikalpa-हिं० वि० [सं०] (१)जो बाग। लगाम । हिं० संशा स्त्री० [स० अवार ]( १ ) किनारा । विकल्प से न हो । निश्चित । (२) निःसंदेह । असंदिग्ध । मोड़। (२) मुख-विवर । मुंह का छेद। अविकाः avikāh-स. स्त्री० छोटो छोटी भेड़ें। वारिफ uvāsif-अ० पृथ्वी की मारक वायु ।। अथव। सू० १२६ । १६ । का० २० । नोट-सामुद्रीय विघातक वायु को "तबा. अविकार avikāra-हिं० वि० [सं०] जिसमें सित" कहते हैं। विकार न हो । विकार रहित | निर्दोष । अवासिल avāsil-अ० (ब० व०), वासिलह संज्ञा पुं० [सं० jविकार का प्रभाव । (ए. व.) माँगे हुए चोटी के बाल अधिकारी avikari-हिं० वि० [सं० प्रवि. लगाने वाली स्त्री। __ कारिन् ] [स्त्री० श्रविकारिणी ] (1) जिसमें प्रविः avih-सं०पू० विकार न हो । विकार शून्य । निर्विकार ।। अवि avi-हिं० संज्ञा प० । मेष, भेड़ (A (२) जो किसी का विकार न हो। ram.)। भा०पू०। (२) मूषिक । See- अविकाशी avikashi-हि. वि० [सं० प्रवि. Múshikah. I (3) #691 í See. __ काशिन् ] [स्त्री. अधिकाशिनी ] जो विकाशी न kambalah. ) मे०। (४) मत्स्य हो । निकम्मा । निष्क्रिय । भेद (A sort of fish.)। (१) प्राचीर ( An enclosure.)। (६) अविकृत avikritu-हि. वि. पु. [सं०३ वायु (Air.)। (७) सूर्य जो विकृत न हो। जो विकार को प्रास न हो। प्राक । मंदार । () छाग । बकरा । (१०) जो बिगड़ा न हो पर्वत । (१) समूर । अविकृति avikriti-हि. संज्ञा स्त्र -सं० (हिं. संचा) मो० (१२) कुलस्थिका, कु. विकार का प्रभाव । For Private and Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विक्रांत ७४२ अविद्धकर्णा प्रविक्रांत avikrantia हिं० वि० [सं.] कारक, दीपन, कटुक (चरपरा ), उष्ण, लेखन, दुर्बल, कमज़ोर । लघु तथा पित्तकारक है और रक्रदोषकारक अविक्रिय avikriya-हिं० वि० [सं० तथा कफ वात विनाशक है । द्रव्य० गु०। . स्त्रिो० अविक्रिया ] जिसमें विकार न हो । अविनत avitat-हिं० वि० [सं०] विरुद्ध । जिसमें बिगाड़ न हो । जो बिगड़ा न हो। उलटा। अविगड्डे avigadda-कन.० अरुई, आलुको । अवितत्करण avitatkaran-हि. संज्ञा पु. (Arun colocasia.) ई० मे० मे। [सं०] विरुद्धाचरण । अविगन्धनो avigandhani) अविगन्धिका avigandhikic-सं० यो अविता avita-सं० स्त्री० मेषी, भेड़ी। (An अविगन्धी avigandhi . ___ewe.) (.) अजगन्धा, बन यमानी, (२) तिलोड़ी अवितैश avitaish-अ० २ तो० ३ मा० ६ रत्ती, बब्बरी | बबुई तुलसी । (Ocimum grati- किसी किसी के मत से १ मा० १ रत्ती का माप ssimum) रा०नि० व०४।.. विशेष। अविग्नः,-घ्नः arignals,gh: ah-सं० पु० | अवित्यजः :vitya.jah-स० पु. (.) पानीयामलक जल अँवरा । ( Flaco. वित्यज avitya.ja-हि० संज्ञा पु. ) urtia cataphiacta- ) सा० सु. ! (२) करमई वृक्ष, करौंदा । ( Capparis पारद, पारा | Mercury ( Hydrecorundas.)। करमचा गाछ-बं० । कर rgyrum.) शब्द० कल्प० । रा० नि. व० १३ । राजनिघण्टु में भी "अचिन्न्यज" वंद-मह० । अम। ऐसा पाउ पाया है। .. . अविग्रह avigrah-हिं० वि० [सं०] जिसके शरीर न हो । निरवयव, निराकार । अविथोली avitholi-मल. फाला नागकेशर । प्रविघात avighāta-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] (Kálá Nágkesara. ) 550 0 ... विघात का प्रभाव । - ३ भा० । अविचल avichala-हिं० वि० [सं०] जो | अविदग्वः avidag.lhah-स. त्रि० । विचलित न हो । अचल । स्थिर । परल । अविदग्ध avidagdha-हिं० वि० अविच्छिन्न avichchhinna-हिं० वि० [सं०] (1) अनम्ल, खट्टा नहीं । विजयर० अजीर्णअभिन्न, संलग्न, भेद रहित, यत्र, अविरल । चि०। (२) जो जला या पका न हो। - (२) अविच्छेद, अटूट, लगातार । कच्चा । अविच्छेद avichhheda-हिं० वि० [सं०] अविदग्धम् avilagdham | जिसका विच्छेद न हो। अटट । लगातार । अविदग्धम avidugdhaml " ला" विच्छेद रहित । ___ मेषी दुग्ध, भेड़ का दूध । ( Sheep's miअविजन avijana-हिं. संज्ञा प[सं० 1k.) हला० । देखो-श्राविक क्षीरम् । अभिजन ] कुल । वंश। अविदु (द)व्यम् avidu,-du-shyam-सं. अवितक्रम avitakram-सं० क्ली. मेषी तक्र, क्ली० मेषी दुग्ध, भेड़ का दूध । ( Shee भेड़ का तक । ( Buttermilk, with a | p's milk.) हला०।। fourth part water prepared fro- अविद्धकर्णा aviddha-karna-स. स्त्री० .msheep's milk) .. ... (१) पाठा । ( Cissam pelos herna. गुण-भेड़ का तक, पाय, अम्ल, दुर्गन्ध | ndifolin,) पाक्नादि-ब० । अटी । साथ For Private and Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविद्धकर्णिका,-णी ७४३ प्रविप्रियः की। जातीफला वटी । (२) भृङ्गराज, सं० क्ली. सोंठ, मिर्च पीपल, हड़, बहेड़ा, भाँगरा-हि' । भीमराज-बं०। ( Eclipta श्रामला, नागरमोथा, वायबिडंग के बीज, इलाerecta. ) अटी। यची, तेजपात, तुल्य भाग, . तुल्य लवंग ले अविद्ध कर्णिका,-र्णी aviddha-karnika,- चूर्ण करें। पुनः सबके द्विगुण निशोथ का चूर्ण rni--स. (हिं. सज्ञा) स्त्री० (१) पाठा, फिर सर्व तल्य मिश्री योजित कर इसे किसी पाढ़ा नाम की लता । ( ( issam pelos.) स्निग्ध पात्र में स्थापित करें। श्राकुनादि-बं० । अटी. जातीफला वटी । मात्रा-२ से ८ मा0 तक। अविना aviddha-स. स्त्री० दुष्ट शिरा व्यधन गुण-इसे शीतल जल या नारिकेल के जल के साथ पान करने से अम्लपित्त, शून, अर्श, अर्थात् शिगों का अनुचित रूप से वेध हो जाना । जो हीन शस्त्र के कारण बहत छेद की २० प्रमेह, मूत्राघात और पथरीका नाश होता है। गई हो वह "अपविद्धा" है। सु० शा० | पथ्य-दूध भात । यह अगस्तमुनि कथित अ०। अविपत्यकर चू' है । वङ्ग से० सं० अम्लपित्त चि० । र० सा०सं०। भैष । प्रयोगा० । सा. अविद्वेष avidvesha-हिं० सज्ञा पु० [स] कौ० । नोट-त्रिकटू आदि प्रत्येक १ तो०, लवंग विद्वेष का अभाव । अनुराग । प्रेम । चूर्ण ११ तो०, निशोथ की जड़ का चूर्ण ४४ अविधवा avidhavā-हिं० वि० [स] | तो० और शर्करा ६६ तो० लें। - ___ सधवा, सौभाग्यवती, सुहागिन । अवधेया avidheya-स. स्त्रो० ( Invol अविपटः avipatah-सं० पु. उर्णामय वन ___untary muscle ) अनैच्छिक वा स्वाधीन ____ कम्बल प्रादि । ( Blanket etc.) - मांस पेशी। अविपन्न avipauna-हिं० वि० [सं०] स्वस्थ, नीरोग। अविध्यदृष्टि avidhydrishti-सं० स्त्रो० जो रोगी शिरा वेध के योग्य नहीं है। जो दृष्टि- | अविपर्यय aviparyaya-हिं० संज्ञा पु० [सं०] विपर्यय या विकार का न होना। 'रोग, पीनस और खाँसीसे पीड़ित है, जो अजीण, . भीरु, वमित तथा शिर, कान और आँख के | अविपाल avipāla -हिं० संज्ञा पु. शूल से पीड़ित है, उसके लिंगनाश को न वेधना | अविपालक avipalaks j [सं०] गैंडे. चाहिए । वा० अ०१४ । fear ( A shepherd.) अविनाश avinasha-हिं० सज्ञा पुं॰ [सं०] | अविपाकः avipākah-सं० पु अपरिपाक । विनाश का अभाव । अक्षय । अपकता । अविनाशक avinashaka-हिं० वि० पु. अविपित्तक avipittaka-हिं. सज्ञा प. (Nonlethal) अघातक, अमारक, विनाशक [सं०] एक चूर्ण जो अम्ल पिरा के रोग में मात्रा से कम। - दियाजाता है । देखो-अविपक्ति(त्ति)करचूर्णम अविन्दनः avindanah-सं० प. बड़वानल । | अविप्रियः avipriyah-सं० पु. श्यामाक तृण । See..varavánalab. शामा घास-बं०। सावॉ-हिं०। A kind अविपक्ति(त्ति)कर चूर्णम् avipakti,-tti-) of grain generally eaten by karachúrņam the Hindus (Panicum frumentअविपत्यकर चूर्णम् avipatyakarachu || aceum; P. colonum. ) to frio Tnam व०१६। For Private and Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविपिया ७४४ अविषा अविनिया avipriyā-सं० स्त्री० श्यामालता, अविरल aviral--हिं० वि० [सं०] (1) कृष्ण शारिवा । ( Ichnocarpus frute. जो विरल वा भिन्न न हो।। मिला हुआ। scens.) रा०नि०। (२) श्वेतालता चुप (Thick.) (२) घना | सघन । अव्यवच्छिन्न । (See.shveta.) । (३)कोमल-हि०, सं०। अविरि aviri-ते. नीलवृक्ष । ( Indigofera. बादियान कोही-अफ । फितर सालियून-भा० Indica.) वाजा०, यु.। ( Prangos pabularia, अविरुहा a viruha-सं० स्त्री० मसिरोहिणी | lindn.) फा० इं० २ भा० । (See-mánsarohiņi.) अविवत्तम avibattam-ता० सुगंधवाला,बालक । अविलपोरी avila-pori-मल० सरहटी-हिं० । ... (Pavonia odorata.) ई० मे० मे० ।। पताल भेदी, सर्पाक्षी । (See sarpākshi..) विभक्त avibhakta-हिं० वि० [सं०] अविलम्बित avilambita-- हिं० वि० प्रति(१) जो अलग न किया गया हो। मिला लम्बित, जो अस्त्र द्वारा काटने से अस्थि मात्र शेष हुा । (२) विभाग रहित । (३) अभि.. || रहे उसे "प्रतिलस्वित" कहते हैं। एक। अविला avila--सं० स्त्री० मेषी । (See-- अविभुक् avibhuk-सं० पु. व्याघ्र । (A eshi ) हे० च० । tiger')। लांडगा-मह० । व निघ०।। अघिलेय-avileya हिं० वि० अनघुल । जो विलीन अविमरीष(स)म् avimarisha,--sa,--- न हो । जो किसी प्रकार के तरलमें न घुले। __ सं० क्ली० आविक्षीर, भेड़ का दूध, मेषी का (Insoluble. ) दुग्ध (Sheep' s milk.)। हला० हे. अविलेयता avileyata-हिं० सज्ञा स्त्री० ( Inssolubility.)विलीन न होनेका धर्म। अविमुक्त avimukta-हिं० सज्ञा पुं॰ [सं०] अनघुलपन | कनपटी । अविवृक्षः avi vrikshah--सं० पु. मेषशृंगी, अविमुक्तक: avimuktakah-सं० पु. ___ मेढ़ा सिंगी । See-.Meshashrigi. माधवी लता। (See--Madhavi.latā.) 40 निघ०। अविशिरम् avishiram--सं० क्ली. सूर्यावर्त फल, हुलहुल का फल, हुरहुर । हुडहुड़ेर फल अविमुक्तका avimuktaka-सं० स्त्री. (१) ___-बं० । ( Cleome Viscosa ) वै० तिन्दुक वृक्ष । (Diospyros Cordifolia.) निघ०। तेंद-बं० । तेन, केंदु-हिं० । टेभुरणी-मह । (२) विश्वासा avishvasa-सं० स्त्री. चिर प्रसूता काक तिन्दुक, तिन्दुक विशेष, तेंद । (Diospy गाय, अधिक काल की व्याई हुई गाय । Tos tomentost.) 4. निघ० । श० च०। अविमोचम् ॥ vi-mocham-सं० क्ली. प्रा. अविषः a vishah-सं० पु. (१) समुद्र -विक तीर, मेषी ..दुग्ध, भेड़ का दुग्ध । दुग्ध, भेड़ का दुग्ध । (The sea) । (२) अाकाश । (Sky). - (sheep's milk.) र० मा० । अविष avish::-सं० क्ली० निविष, विषअवियोग aviyoga-हिं० सज्ञा पु० [सं०] रहित, बिनाज़हर का । ( Nonvenomous, (१) वियोग का अभाव । (२) संयोग । मि ___not poisonous ) अथव। सू० २। लाप |-वि० [सं०] (१) वियोग शून्य । १६ । का० । जिसका वियोग न हो । (३) संयुक्र । सम्मि- अविषा avisha--सं० स्त्री० अतिविषा, अतीस । लित । एकीभूत | ( Aconitum heterophyllum ) Tro For Private and Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविसी अवीर होगा बाइलिम्बाई नि० व०६ । (२) निर्विषी तृण, निर्बिसी, अत्री(वे)ना ऑरिएण्टैलिस avena orien. निर्विषी घास । वै० नि । (२) एक जड़ी। talis-ले० विलायती जौ, जई, खरताल । जद्वार । यह माथे के समान होती है और प्रायः । प्रवी(वे)ना प्युवोसेन्स avena pubescens, हिमालय के पहाड़ों पर मिलती है। इसका कंद L.-ले० यह एक प्रकार की घास है जो चारा के अतीस के समान होता है और साँप बिच्छू आदि। काम पाती है । मेमो० । के विष को दूर करता है। ( Curcuma श्रीवे)ना प्रैटेन्सिस avena pratensis, zedoaria. ) Linn-ले० एक प्रकार की घास है जो चारा के अविसी avisi--ते० अगस्त । अगस्तिया (Agati | काम आती है। grandiflora.) अविसोढ़म् avisodha'--सं० क्ली० अवि. अवी(वे)ना फैचुश्रा avena. fatua, Linn. क्षीर, भेड़ी का दूध । -ले० कुल्जुद, गन्दल, जेई-हिं० । गोजंग, कासम्म अविनम् avisram-सं० त्रि० पूति-गंधरहित, अपवा-पं० । प्रयोगांश-पौधा । उपयोग-औदुगंधि रहित । (Avoid of ill-smelling.) षध व खाध (पशु)। मेमो० । चलचि०२०। प्रवी(वे)ना सेटाइवा avena, sativa,Linn. अवी avi--सं० (हिं० संज्ञा ) स्त्री० (१) वन -ले० जौ, विलायती जौ-हिं । एक प्रकार की कुलस्थ, बन कुलथी । Dolichos biflorus घास है जो आहार व पशुओं के चारा के काम में ( The wild var. of--) र. मा०। (२) पाती है। मेमा। ऋनुमतो स्त्री, रजस्वल्ला स्त्री। ( A woman-प्रवी(धे)नीन averin-ई० श्रवीना वीज सत्व । during menstruation.) हे०च० । देखो-जई । ई० मे० मे० । अवीकम् avikam--तु० फेफड़ा, फुफ्फुस । (The अवी मूत्रम् avinātram-सं० क्लो. मेषी का lungs. ) __ मूत्र, भेड़ी का मूत्र | च० द०। प्रवीकुस aviqus--अज तारुत्तीय,नख । ( See-- ___nakha.) अवीरई avirai-ता० तरवड़-हिं०, द०। प्रवीन avighna-सं० बुक्का वृक्ष । See अधीरम् aviram-मल. (Cassia auri. Bunká. Titi avíri-aro culata, loinn.) प्रवीज धर्मी avija-dharmmi-सं०त्रि. जो __ई० मे० मे० । फा० ई० १ भा० । वीज धर्मी न हो अर्थात् वह जिसमें बीज रूप अवीरनो aviraghni-सं० जो जीवन का नाश होकर कोई पदार्थ न रहे । वह श्रात्मा है। क्योंकि ___ करे । अथर्व । बीजरूप होकर कोई पदार्थ जीवात्मा में नहीं रहतेअवीर होमा एसिडा averrhoa incida-ले. किन्तु प्रकृति में रहते हैं इससे यह पुरुष (आत्मा) हरफारेवड़ी। बीज धर्मी नहीं है । सु० शा० १ अ.। | अवार्र होश्रा करम्बोला . verrhoa caram. प्रवीजो avija-सं० (हिं० संज्ञा स्त्री० गोस्तनी bola, Linn.-ले० करमल-हिं । कामराँगा के समान गुणबाली द्राक्षा, किशमिश बे दाना । -० । कमुरुङ्ग-सं० । खमरक, करमर-बम्ब० । Raisin, currant (uve) | भा०। खमक-द० । तारिया-ता० । करोमोगा-ते। देखो-अंगूर। प्रयोगांश-अपक्क फल, पत्र और मूल । उपप्रवीदुग्धम् avidugdham-सं० क्ली० मेपी । योग-रंग, औषध और खाद्य । मेमो०। दुग्ध, भेड़ी का दूध | च० द० । प्रवीर होश्रा बाइलिम्बाई averrhoa. biliप्रवीना avina- एक बूटी का निचोड़ है (बूटी mbi, Linn.-ले० बिलिम्बी-बं०, हिं० । के सम्बन्ध में मतभेद है)। ___उपयोगांश-पुष्प व फल भक्ष्य हैं। मेमो०। For Private and Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवीवरन् ७४६ प्रवासी अवीवरन् avivaran--सं० वरण या वरुण नामक अवेद्या avedya-हिं० वि०, स्त्री० [सं०] वह वृक्ष बरना । ( Crateva tapia) स्त्री जिससे विवाह नहीं कर सकते। विवाह्य अथव० । सू० ८५ । १ । का०८ । स्त्री। अवीसम् avisam--फा० सादर, पुदीना कोही । अवेना avena-ले. देखो-अवीना । साथर, साथल-हि। अवेन्स avens-ई० वाटर अवेन्स ( Wate 1अवीसीनिया ऑफिसिनेलिस avicennia avens. ) officinlis, Lin-ले० बीना-बं० । अवेर होश्रा एसिडा averrhoa acidaमड, नल्लमड-० । तीवर-सिंध। श्रोएपटा | ले० हरफारेवड़ी । देखो-अवीर होश्रा मल० । थमे-बर। एसिडा । प्रयोगांश-स्वक, गिरी व भस्म । अवेल a vela-नारियल का तेल, नारिकेल तैल । उपयोग-रङ्ग व भक्ष्य। .. . ( Cocoanut oil. ) अवीसानिया टोमेण्टोसा avicennia. to- अवेला avela-सं० स्त्री० पुग चचित, चिकनी mentosa, Jacq.-ले० व्यना-हिं०, बं०। सुपारी। चिबन-शुपारि-बं० ।। तिम्मर-सिंध । नल-मड-ते०। (Avicen अवेश avesha-हिं० संज्ञा पु. [सं० श्रावेश] nia, Downy leaved.) (१) किसी विचार में इस प्रकार तन्मय हो प्रयोगांश-मूल व बीज । जाना कि अपनी स्थिति भूल जाय। आवेश । उपयोग-औषध । जोश । मनोवेग ।।२) भूतावेश । भूत चढ़ना। अवीसीनिया, डाउनी लीव्हड avicennia | किसी भूत का सिर श्राना । भूत लगना । downy leaved-इं० बू अली सीना, बू अवेक्षण ..vekshana-हिं० संशा ५० [सं०] अली, बीना । ( Avicenni.n toment- [वि. प्रवेक्षित, अवेक्षणीय ] (१) अवलोकन, osa.) ई० हैं. गा० । __ देखना । (२) निरीक्षण । जाँच पड़ताल । अवुकः avukah-सं० पु. छाग, बकरा । ( A| अवैद्य avaidya-हिं० वि० [सं०] जो वैद्य न .. goat.) श० र०। ____हो । जो वैद्यक शास्त्र को न जानता हो । अवरा avāra-हिं० श्रामला, बरा । ( Phy- | अवाइस avois-हिं० अरुई, घुट्टयाँ । ( Coloc• llanthus emblica.) __asia antiquorum.) मेमो०। प्रवृद्धः avriddhah-सं० पु. पुष्प वृक्ष भेद, अशेदम् avodam-60 कली. श्रादक, प्रादी, पाषाण पुष्प । पत्थर फुल-मह०। वै० अदरक । (Zingiber officinalis.) निघ०। जटा। अवेगी avegi-सं. स्त्री० विधारा । वृद्ध दारक । अवांतर Vāntara-हिं० वि० [सं० अंतर्गत । रा०नि०। मध्यवर्ती । बीच का । अवेद्यः avedyah-सं० पु. ।, . संज्ञा पु० [सं०] मध्य । भीतर। बीच | अवेद्य avedya-हिं० संज्ञा () गो यौ०-अवांतर दिशा-बीच की दिशा । धस्स, बछवा, बछड़ा । ( A calf.) शु० विदिशा। र०। (२) नादान बच्चा । । ___अवांतर भेद-अंतर्गत भेद । भाग का भाग । वि० [सं०] (1) अज्ञेय । (२) प्रवासी avansi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अवाअलभ्य । सित ] वह बोझ जो फसल में से पहिले पहल For Private and Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अव्यथा काटा जाय । यह नवान के लिए काम में श्राता गोकर्णी-मह. । Clitorer ternatea पाता है। अखान । ददरी । कवल । अवली । (The black var. of-) वै० नि । अब्दः avdah-स. पु० (१) वत्सर, वर्ष | अव्यक्तानुकरण avyaktānukarana-हिं० (A year.)। (२) मुस्तक, मोथा (Cyp. संशः प. [सं] शब्द का प्रस्फुट अनुerus rotundus.)। (३) मेष। See- करण । जैसे मनुष्य मुर्गे की बोली ज्यों की त्यों Mesha (अटो० रा०)।-क्लो० (४) अभ्र, | नहीं बोल सकता; पर उसकी नकल करके अम्रक | Tale (Mica.) कुकुहू बोलता है । अन्दसारः avdasāran-सं० प्र० कपूर भेद । अव्यग्र avyagra-हिं०वि० (१)जो व्यंग (A sort of camphor.) अव्यङ्गःa vyangah-सं०वि० वा टेढ़ा न हो। अव्यंग avyanga-हिं० वि० ) सीधा | अविअव्यक्त aryakta-हिं० वि० [सं०] (१) कलांग। (२) घबराहट रहित, अनाकुल | अदृश्य, अप्रकट, छिपा हुआ, अप्रकाशित -स्त्री० शूकशिम्बी, केत्राँच । श्रालाकुशी-बं० । अप्रत्यक्ष ( Indistinct, invisible)। 1 (Mucuna pruriens ). ( २ ) अज्ञात । ( Imperceptible) | अव्यगांi avyanganga-हिं० वि० [सं०] संज्ञा पु० [सं०] (१) कामदेव । (२) [स्त्री० अव्यंगांगी ] जिसका कोई अंग टेढ़ा न वेदांत शास्त्रानुसार प्रज्ञान । सूक्ष्म शरार श्रार हो। सडौल । सुषुप्ति अवस्था । (३) जीव । (४) परमेश्वर, | अव्यंग! avyangi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] TTAIFATI ( The Suprema B eing केवाँच । करेंच | कोंच। (Mucuna pruor Universal Spirit.)। (१)प्रकृति । riens.) स्वभाव । टेम्परामेण्ट (Temperament.) अव्यंजन avyanjana -हिं० वि० [सं०] दे० अव्यक्त ठूलप्रभव avyakta-mula-prab अव्यञ्जनः । hava-हिं० संज्ञा पुं॰ [ सं०] संसार । श्रव्यञ्जनः avyanjanah-सं० त्रि. जगत । अव्यञ्जन avyanjana-हिं वि. अव्यक्तम् avyaktam-सं० क्लो. (१) ( Hornless. ). शृंगहीन, सींग रहित, प्रकृति । मैटर ( Matter )-ई०। बिना सींग का (पशु), डूंडा । (२) चिह्न "अखिलस्य जगतः सम्भव हेतुरव्या नाम ।" शून्य । हला। सु. शा० १ ० । (२) श्रात्मा । सोल | अव्यंडा avyanda-हिं. संज्ञा स्त्री० [सं०] (Soul.)-इं० । दे० अव्यण्डा। अव्यक्तराग avyaktaraga-हि. संज्ञा प.) अव्यण्डः,-एडा avyandah, nda . अव्यक्तरागः arryakta-rāgah-सं० पु. -सं० पु०, स्त्री. ) | अध्यण्डा avyanda-हिं० संज्ञा स्त्री० . ईषत् लोहित वर्ण, हलका लाल, अरुण । | (१) भूम्यामलकी, मैं ई अामला ( Phyllaपर्याय-अरुणः (अ), ताम्रः । (२)गौरः (ज)। nthus ner uri.) । (२) कपिकच्छु, गौर, श्वेत । केवाँच । श्रालाकुशी-बं० । (Corpopogon अव्यक्तलिंग avyakta-linga-हिं० संज्ञा पु. pruriens.)। च० चि ३ श्र०। [सं०] वह रोग जो पहचाना न जाए । | भव्यथा avyatha-सं० (हिं० संज्ञा) स्त्री० अग्यका avyaktā-सं० स्त्रो० कृष्ण गोकर्णी, / (१) स्थल कमलिनी, स्थलपद्म, पद्मचारिणी । कृष्णापराजिता । काल अपराजिता-ब० । काली ( Ionidium suffruticosum ). For Private and Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्याथा,-थी अन्धगदपण्डु भा० पू०१ भा० । रा०नि० व० ११ । (२) श्रवण शुक्रः avrana-shukrah-सं० पु. ) हरोतकी, हड़ ( Terminalia chebu. अव्रणशुक्र avrana.shukra-हिं० संज्ञा पु० ) la. ) । (३) महाश्रावणी, गोरखमुण्डी। नेत्र के काले भाग ( काली पुतली) में होने ( Spheeranthus hirtus. ) भा० वाला रोग विशेष । आँख का एक रोग जिसमें पू०१ भा० गु०व० । (४) प्रामलकी, प्रामला श्राँख की पुतली पर सफेद रंग की एक फूली सी (Phyllanthus emblica.)। (५) पड़ जाती है और उसमें सुई चुभने के समान लक्षणा, लक्ष्मणा मूल (Lakshamani)। पीड़ा होती है। (६) साठी __ लक्षण-अभिष्यन्द के कारण यदि नेत्र अन्यथिः,-थी avyatbih,-thi-सं० पुं० के कृष्ण भाग में श्वेत वर्ण की, चलायमान अश्व, घोड़ा । ( A horse.) वा० सू० ४ तथा प्रतिपीड़ा और अशुओं से व्याप्त न हो ५० प्रजास्था। एवं जैसे अाकाश में बादल होते हैं इस प्रकार की फूली हो तो उसे अव्रण (व्रण रहित ) शुक्र भव्यथिषः avyathishah-सं० प (१) (फूली) कहते हैं और यह सरलतापूर्वक साध्य समुद्र ( A sea.)। (२) सूर्य । ( The होती है ( झट पाराम हो जाती है) । और यदि sun.) सि० को। यही फूली गंभीर और गाढी हो बहुत दिन का भव्यथिषो avyathishi--सं० स्त्रा० (१) पृ. हो जाए तो उसे कष्टसाध्य कहते हैं। सु० उ० थिवी ( Earth.)। (२) अई रात्रि, मध्य ५०। निश, प्राधी रात । ( Midnight.) जो फला अभिष्यन्दात्मक (आँखों के दुखने से अव्यथ्या avyathya-सं० स्त्री० हरीतकी, हड़ । उत्पन्न हुश्रा) कृष्ण भाग में स्थित हो और ( Terminalia chebula.) भा० पू० घोष (सिंगी, तुम्बी) आदि से चूसने के समान १भा०। पीड़ा करे और शंख, चन्द्रमा तथा कुन्द के फूलों अव्यभिचारी avyabhichari-हिं० वि० [सं० के समान सफेद, आकाश के समान पतला और अव्यभिचारिन् ] जो किसी प्रतिकूल कारण से वण रहित हो उस शुक्र को सुखसाध्य कहते हटे नहीं । हैं । जो शुक्र (फुला) गहरा तथा मोटा हो अन्यया avyaya-सं० स्त्री. गोरखमुण्डी । महा और बहुत दिनों का हो उसको कष्टसाध्य कहते श्रावणी । गोरखमुण्डी-मह० । गोरक्ष-चाकुलि हैं । असाध्यता-जिस फूले के बीज में बं० । (Sphaeranthus Hirtus.) गड्ढा सा पड़ जाए या उसके चारों ओर वै० निघ०। मांस बढ़कर उसको घेर ले, अचल न रहे अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह में चला जाए, अव्यर्थ avyartha--हिं० वि० [सं०] (1) सूक्ष्म शिरात्रों से व्याप्त हो, दृष्टि का नाशक, जो व्यर्थ न हो । सफल । (२) सार्थक । (३) दूसरे पटल में उत्पन्न और चारों ओर से लाल अमोघ । हो तथा बहुत दिनों का हो तो ऐसे शुक्र को वैद्य अव्याध्या avyadhya-सं० स्त्री० दुष्ट शिरा त्याग देवे । मा०नि०। वेधन । जो शिरा शस्त्रकर्म (छेदम, वेधन ) से अवतः avratah--सं० प. वह ज्वर जो बिना वर्जित है ( उसका वेध होना ) अध्याध्या कहाती नियम के प्राता है । अथव० सू० ११ । २। है । यथा-"प्रशस्वकृत्या अव्याध्या"। सु० का०७। शा०प्र० अवगुड़ avvagura अध्यापन avyapanna--हिं० वि० [सं०]| अव्वगूद पण्ड avvaguda-pandu जो मरा न हो, जीवित, जिंदा । ते० प्राबुब्द । महाकाल, लाल इन्द्रायन । For Private and Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( Trichosanthes Palmata, alata tomentosa ) च० ० Rord.) स० फा००। ४ अ० ४३ दशक । ( ४ ) चित्रक, अव्वल avvala-हिं० वि० पु. [१०] (1) चीता । ( Plumbago zeylanica.)। पहला । श्रादि का। प्रथम । ( २ ) उत्तम (५) भल्लातक वृक्ष, भिलावाँ। (Semecar श्रेष्ठ ।-संज्ञा पुं० आदि । प्रारम्भ । । pus amacardium.) वै. निघ०। अवलिय्यतुल विलादत avvaliyyatul- अश(स)नक: asha,-sa;-nakah-स पु.. viladast-- बिक्रियतुल विलादत, प्रथम असन पुष्पाकार धान्य विशेष । सु०सू०४६ यार शिशु जननेवाली स्त्री, वह स्त्री जो प्रथम श्र०। बार शिश प्रसव करे, प्रथम प्रसवा । प्राइमा पारा प्रशनपर्णो : shansparni-स०प०, स्त्री० ( Primapala)-इं० । (1) विजयसार वृक्ष, पटसन (Pterocaअवलिय्यह, avvaliyyah-अ. पहला, प्रथम । rpus marsupium. )| माराटी-पश्चिम ( First) पर्याय-वातकः शीलः, शीतलवातकः, अशकद, aashaqiah-अ० देखो --इश्क । (aishq.) प्रसनपर्णी, सनपर्णी, शोतः और शीतकः। (२) गोकर्णीलता-स । अपराजिता-बं|See-- अशकुन ashokuna-हिं० संज्ञा प० [सं०] gokarņílatá. ) #O कोई वस्तु वा व्यापार जिससे अमंगल की सूचना प्रशनप पः ashana-pushpah-सं० पु. समझी जाए। बुरा शकुन । बुरा लक्षण। प्रशन पुष्पाकोर शानिधान्य, पष्टिक धान्य अशकुम्भी asha.kumbhi-स. स्त्री० पानी. विशेष । सु० सू० ४६ ०। (A kind योपरिज वृक्ष | जल कुम्भी । ( Pistia stra of paddy) tiotes.) र० मा । प्रशन मल्लिका ashana-mallika-स. स्त्री अशत nghakta-हिं० वि० [सं०] [संशा प्रास्फोता। हापरमाली-बं०। (Clitoria प्रशक्रि] (.)निर्वल | कमज़ोर । (२) अक्षम ternatea.) च० द.।। असमर्थ । अशना,-या ashana,-ya-स० स्त्री० (.) प्रशक्ति ashakti-हिं० संशा स्त्री० [सं०] सधा, भूख । ( Ilunger.) हला०(२) [वि० अशक्त ] निर्बलता । कमज़ोरी। शुक्र निष्पाव,श्वेत शिम्बी, सफेद सेम । (Phas. शशङ्कर ashankar-कना० समाक्र, सुमाक्र-अ०, eolus radiatus.) रा०नि० व०७॥ फा० । तिमतिम, तमतम-अ०। ( Bhus | प्रशनायुक: ashanāyukah-स० पु. भूखा, coriaria.) क्षुधित । ( Hungry.) प्रशद्द ashadda-. बलवान, सशक्र, तीचण | प्रशनिः ashanih-स०पु., स्त्री हीरक, स्वभाव, १८ वर्ष की अवस्था से लेकर ३० वर्षीय . हीरा । होरे-बं० । (Diamond.)वे० निघ०। युवा । | अशान ashani-हिं० संशा पु. (१)वियुत । प्रशनम् asha nam-सं. की , (२)वज्र, इन्द्र का शस्त्र । अथव। सू०२७ । अशन ashana-हि. सहा प. [ वि. ६ । का०३। (Lightening.) अशित, अशनीय ] (1) भोजन, अन्न, आहार, अशनीय ashsniya-हिं० वि० [सं०] खाने ( Food )1(२) भोजनकी क्रिया । भक्षण । योग्य । खाना । रा०नि० व. २०। . अशम anshamah-१० वाक्य,दापन,बुड़ाई, -स. पु. (३) पीतशाल, प्रसन. वृद्धता, वृद्धाई, जरापन । सीनीलिटी(Senility.) वृक्ष । Asan tree (Terminalia -ई। For Private and Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रशम्म ashainma-१० बड़ी और ऊँची . इसका बहुवचन प्रशाइम है । ( Left नाक वाला। वह व्यकि जिसकी घ्राण शक्ति side.) ' (कुव्वत शाम्म ) अत्यन्त तीव्र हो । अशितम् ashitam-सं० फनी अशरफी asharafi-हि. संज्ञा स्त्री० [फा०] अशित ashita-हिं० वि० ) (१) एक प्रकार का पीले रंग का फूल । गुल भुक्क, खाया हुघा, खादित, तृप्त । हे० च०। अशरफी । (२) सोने का एक पुराना सिक्का जो प्रशितम्भवः ashitambhla.vab-सं० पु. सोलह रुपए से पचीस रुपए तक का होता है। अन्न | भात-बं० । मोहर । अशितलता ashita-lata-सं० स्त्री० नीलदूर्वा, अशरास ashtrāsa-१० एक जड़ी है जिसकी नीलीदूब । (See--nila-durvvā) निघ० । पत्तियाँ मज़बूत, पुष्प रनभायुक्त श्वेत वर्ण के अशिरम् ashiram-स० क्ली० तथा फल गोल होते हैं। अशिर ashira-हिं० संज्ञा पु. अशरीर usharir-हिं० पु. शरीर रहित, कन्दर्प, (१) हीरक, होरा । ( Diamond.) रा० काम, मदन | Lust, Kamdev. ( The नि० २० १३ । देखो-वजम् । (२) अग्नि ___hindu cupid.) ( Fire )। (३) राक्षस (A demon.)। अशर्फी बूटा asharfi-buti-रसा० अशरफ़ो। (४) सूर्य । ( Sun.) असम asharmma-हिं० संशा.पु. [सं०] | अशिरक ashirashki-मस्तक रहा, कपन्ध - कर, दुःख ।-वि० (१) दु:खी । (२) गृह | (A headless trunk.) अशिशिम्बो ashi-shimbi-सं० स्त्री० स्वनारहित । माख्यात शिम्बी विशेष । सफेद सेम । थोर श्वेत अशल्ल ashalla-अ० टुण्डा, अपाहिज, वह व्यक्ति श्रावै-महाश्वेत शिम्-बं० । (The whiteजिसका हाथ शुष्क हो गया हो । flat bean.) अशा aasha-० अश्वान, अमी लैली, ननाध्य, गुण-मधुर, कसेली, श्लेष्मपित्तघ्नी, प्रण___ राज्य धता, नक्रांधता, रतों धी। यह एक प्रकारका दोष नाशिनी, शीतल और रुचिकारी है। रा०नि० ___ नेत्र रोग है जिसमें रात्रि में दिखाई नहीं देता । व०७। हेमीरल भोपिया ( Bemeralopia. ) अशश्विश्व-का ashish vishva,-ka-सं. स्त्री० अनपत्या, पुत्र कन्याहीन स्त्री, सन्तान अशोऽ aasha -अ. निशा, रात्रि, निशाहार, रात | | रहित स्त्री । (A childless woman) श० का खाना । डिनर ( Dinner.)-इं। र० । प्रशाका,-खा nghākā,--kha-सं० क्ली० शूली अशीता ashita -सं० स्त्री० भूमिकुष्मांड, तृण । शाखाशून्यलता । रा० नि० घ० । प्रशुक्ला ashukla पताल कुम्हड़ा । (Ipo See--shúlí moea Digitata.) वै० निघ० । अंशान्तगन्धाढया ashanta.gandhadhya | अशीरान ashiran-यु० खायहे संग-फा० । -सं० स्त्रीश्राम्रहरिद्रा। प्रामहल दी । श्राम अशोरून ashirin-इन्दलु० हस्सितूह ।एक अप्रप्रादा-ब। प्रांवेह लद-मह। (Curcuma . सिद्ध बूटी है। amad.) वै० निघ० । अशक्लजा ashuklaja-सं० स्त्री. वोरोधान्य, प्रशान्त चूर्ण ashānta-chārna-हि. वि. बोरव धान । (See-Borod hāna) वै. अनंबुझा चूना । (Quick or unsia ked निघ.. अशुक्ला ashukla-सं० स्त्री० भूमिकुष्माण्ड । अशाम ashama-० वाम ओर, बाई ओर ।। (Ipomoea Digitata.) वै० निधर lime.) For Private and Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोक अyङ्कार अशुङ्कार ashupkār:-कना० अशोक-हिं०, बं०। (Saraca indica.) अशुचिः ashuchih-सं० त्रि० अशचि ashuchi-हिं० वि० [संज्ञा अशौच ] | (१) अशुद्ध, अपवित्र, अशौची । (१) गंदा । मैला । ( Impure, foul, unclcen )। -हिं० संज्ञा स्त्रो० अपवित्रता, अशुद्धता ( Im purity.)। अशुतायर aashutt air-अ० घोंसला, खांथा । नेस्ट ( Nest)-इं०1 अशुद्ध ashuddha--हिं० वि० [सं०] [संज्ञा अशुद्धता, अशुद्धि ] (१) बिना शोधा हुआ। बिना साफ किया हुअा । असंस्कृत । जैसे अशुद्ध पारा । (२) अपवित्र । अशूक ashuka-नेपा० ल्हाला-भोट०, लेप० ! सुर्च, सुट्स, काला-विस् , सर्दकर, धुचुक, ताचुक, चुमा-पं० । हिप्पोफी सिलिसिफोलिया ( Hippophæ silicifolia, Don. ) -ले०। (N.O. Eleagnacee.) उत्पत्ति-स्थान-शीतोष्ण हिमालय, जम्बू से सिक्किम पर्यन्त । प्रयोगांश-फल । __ उपयोग-इसका फल फुप्फुस रोगों में उपयोग किया जाता है ( पञ्जाब में)। ई० मे. प्लां । अशूकजः, कः ashuka.jab,.kah-स. प.. मुण्डयालि, निःशूक शालिधान्य । (See-mu nd ashali) रा०नि० व० १६ । अशुष्कतोयमलः ashushkatoyamalah -स० पु समुद्रफेन | Cuttle-fish bone (के. नि.)। अशृत ashrita-सं० क्ली० अपक, कच्चा । अशोकः ashokah-स. प.) अशोक ashoka-हिं सशाप: अशोक, असोक, अशोक बीरो, अशोगी-हिं० । सैरेका इण्डिका (Saraca Indica, Linn.), जोनेशिया अशोका (Jonesia asoika, Rorb.-ले. दी अशोकाटी ( The Aso ka tree )-इं.। जोनिसिया अस्जोगम (Jonesia as jogam.)-फ्रां । सस्कृत पर्याय--अङ्गनाप्रियः, वीत्तशोकः (शब्द० मा०), शोकनाशः, विशोकः, वशुनद्रुमः वजुलः, मधुपुष्पः, अपशोकः, कोलिः, वेलिक, रक्रपल्लवः, चित्रः, विचित्रः कर्णपूरः, दोहली, ताम्रपल्लवः, रोगितरुः, हेमपुष्पः,वामहिः, यातनः, पिण्डीपुष्पः, नटः, रामा, पल्लवद्र :, (रा), कान्ताचि दोहदः (त्रि), चक्रगुच्छः (श), ककेलिः, पिण्डपुष्पः, गंधपुष्पः, रक पल्लवकः, वामांघ्रिघातनः, रागपल्लवः, केलिकः, सुभगः, दोहलीक, पल्लवद्र म, राम | अशो( सो)क गाव, अशोक फुलेर गाछ-ब० । असोक-हिं०, ब, बम्ब०, उड़ि०, कना०, ०। अशोक-मह। देशी पील फुलनो, प्राशुपालो, पाशुपाल (ल.) -गु०। पासोपालव, प्रासापाल-हिं०। होगाश -सिंह । असोगम-मल०, ता० । प्रसोकला, केङ्कलिमर-कना० । जासुदी-बम्ब० । थागयो-बर० । असेक- कटक, मह. । पशुकर-गों। शिम्बो वर्ग (N. O. Leguminose,-cee.) . उत्पत्ति स्थान-अशोक हिन्दुओं का एक पवित्र वृक्ष है । यह पूर्वी बंगाल की, जो सम्भवतः इसका अादि निवासस्थान है, सड़कों के इधर उधर बाहुल्यता से पाया जाता है । दक्षिण भारत, अराकान और टेनासरिम में यह अधि. कता के साथ उत्पन्न होता है। संयुक्रप्रांत में कुमायूँ के समीप २००० फीट उच्च इसके वन होते हैं । सुन्दर पुष्पों के लिए इसको बहुत से स्थानों में लगाते हैं। वानस्पतिक वर्णन-प्रशोक प्रायः हो प्रकार का देखा जाता है । नीचे इनमें से प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है-. (1) यह एक इतस्ततः विस्तृत बहुशाखासमन्वित उत्तम छाया तरु है । साधारण वृन्त के दोनों पार्श्व में १.६ जोड़े पत्र होते हैं। पत्र रामफल के समान प्रायः १८.२० अंगुल लम्बे सामान्य चौड़े, तरुणावस्था में रअित एवं लम्बित For Private and Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोक अशोक होते हैं । पत्रप्रांत अखंडित एवं किञ्चित् तरगायित होता है। पुष्प गुच्छाकार, प्रथम कुछ नारंगी रंग के, फिर क्रमशः रक वर्ण के होते जाते हैं। बसन्तकाल अर्थात् फागुन ( एप्रिल तथा मार्च ) में पुष्पित होते हैं। पुष्पित अशोक वृक्ष प्रति ही नयनानन्ददायक होता है। इसमें चौड़ी फली लगती है जिसमें बड़े बड़े बज होते हैं । वृक्ष स्वक् बाहर से शुभ्र धूसर तथा (Scabrous.) होता है। वृक्ष से सद्यः छेदित पदार्थ श्वेत, किंतु वायु में खुला रहने पर वह शीघ्र रक वर्ण में परिणत हो जाता है। स्वाद-मृदु कषाय और अम्ल । (२)एक वृक्ष जिसके पत्र आम की तरह खम्बे, पत्रप्रांत लहरदार होते हैं। इसमें सफेद मंजरी (मौर) बसन्त ऋतु में लगती है जिसके मड़ जाने पर छोटे छोटे गोल फन लगते हैं जो पकने पर लाल होते हैं, पर खाए नहीं जाते। इसके वृक्ष अत्यन्त सुन्दर और हरेभरे होते हैं, इससे इसे बगीचों में खगाते हैं। शुभ अवसरों पर इसके पत्र की बंदनवारें बाँधी जाती है। रासायनिक संगठन-इसकी छालकी रसायनिक परीक्षा अभी तक यथेष्ट रूप से नहीं हो पाई। एब्बट Abbott (१८८७) के परीक्षा णानुसार इसमें हीमेटॅॉक्रजीलीन ( Hemat- | oxylin) वर्तमान पाया गया । हूपर ( Ph. arm. Indica.) ने इसमें यथेष्ट परिमाण में टैनीन (कषायीन ) की विद्यमानता का वर्णन किया। स्कूल ऑफ टॉपिकल मेडिसिन के रासायनिक विभाग में विभिन्न विलायकों से इसके विचू. र्णित शुष्क त्वक् के सत्व प्रस्तुत किए गए जिसका निष्कर्ष निम्न रहा-पेट्रोलियम ईथर एक्सट्रैक्ट 0.३०७ प्रतिशत, ईथर एक्सट्रैक्ट . २३५ प्रतिशत, और ऐब्सोलूट ऐलकाह लेक एक्सट्रैक्ट १४. २ प्रतिशत । ऐलकोहलिक एक्सट्रैक्ट (मद्यसारीय सत्व) में, जो बहुतांश में उपण जल विलेय था, यथेष्ट परिमाण में कषायीन (टैनीन) और सम्भवतः एक सैन्द्रियक पदार्थ, जिसमें लौह विद्यमान था, पाए गए । ऐलकलाइड (क्षारोद ) और उड़नशील वा सुगंधित तैल ( Essential) के स्वभावका कोई क्रियाशील सत्व नहीं पाया गया । इसकी पूर्ण परीक्षा की जा रही है । (प्रार० एन० चोपरा एम० ए०, एम. डी.- इ० ड़. ई० पृ० ३७७) प्रयोगांश-वंक, बीज । मात्रा--२ तोला । औषध-निर्माण तथा मात्रा-अशोक घृत; अशोकारिष्ट, मात्रा-१ से १ तोला; तरल सत्व, मात्रा-१५-६० मिनिम (बूंद)। अशोक के गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मतानुसार--मधुर,हच,सन्धानीय और सुगंधित है । अशोक शीतज है तथा प्रयोग करनेसे यह अर्श, क्रिमी, अपची एवं सम्पूर्ण प्रकार के व्रणों का नाश करता है। (धन्वन्तरीय निघण्टु) अशोक शीतल,हृध है एवं पित्त, दाह तथा म नाशक है और गुल्म,शूलोदर, श्राध्मान (अफरा ) तथा क्रिमिनाशक एवं रकस्थापक है। (रा.नि. व०१०)। अशोक शीतल, तिक ग्राही, वयं (वर्णकर्ता ) और कषेला है तथा वातादि दोष, अपची, तृषा, दाह, कृमिरोग, शोष, विष और रक्र के विकार को दूर करता है। (भा० पू० १ भा०) अशोक के वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-अमृग्दर अर्थात् रकप्रदर में अशोक त्वक्--कुट्टित अशोक की छाल २ तो०, गो दुग्ध प्राध पाव, जल १॥ पाव । इसको दुग्धावशेष रहने तक क्वाथ प्रस्तुतकरें और शीतल होनेपर इसका सेवन करें। यथा-"प्रशोक वल्कल क्वाथ शृतं क्षीरं सुशीतलं । यथा वलं पिबेत् प्रातस्तीवा सृग्दर नाशनम् ।" (अमृग्दर-चि०) (२) मूत्राघात में अशोक बीज-अशोक बीज एक अदद लेकर शीतल जल में पीस कर पान कराएँ । यह मूत्राघात (प्रमावरोध ) और अश्मरीनाशक है। यथा-"जलेन खदिरी वीज मूत्राधातारमरीहरम् ।" ( मूत्राघातचि. ) "खदिरी वीजमशोक वीजमित्याहुः" (शिवदासः) For Private and Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोक ७५३ अशोक - वक्तव्य कोष-तन्तुओं पर इसका उत्तेजक प्रभाव होता चरक के चिकित्सा स्थान के ३०वें अध्याय है। गर्भाशय विकार विशेषतः (Uterine एवं सुश्रुत शारीर स्थान के २ य अध्याय में fibroid ) तथा अन्य कारण से उत्पन्न प्रदर की चिकित्सा लिखी है। किन्तु वहाँ अशोक रक्रप्रदर में इसका बहुत प्रयोग होता है । का नामोल्लेख नहीं है। राजनिघण्टु कार को इसकी छाल का दुग्ध में प्रस्तुत काथ भाज भी अशोक का प्रदरनाशक गुण स्वीकृत नहीं है। तक कविराजी चिकित्साकी एक उत्तम औषध है। चरक ने वेदनास्थापन तथा संज्ञास्थापन वर्ग के अर्श तथा प्रवाहिका में भी इसका उपयोग किया अन्तर्गत अशोक का पाठ दिया है (सू०४ प्र०)। जा चुका है। ई० डू० इं०। वेदनास्थापन का अर्थ यन्त्रणानिवारक है इसमें शुद्ध संग्राही गुण प्रतीत होता है। (देखो-प्रङ्गमई प्रशमन)। टीकाकार चक्र (डीमक) पाणि लिखते हैं, "वेदनाय सम्भूताय तो निहं. त्य शरीरं प्रकृतौ स्थापयतीति वेदनास्थापनम् ।" इसके पुष्प को जल में पीसकर रक्रामाश अर्थात् उपस्थित वेदना का निवारण कर शरीर (Hemorrhagic dysentery ) में को जो प्राकृतिक अवस्था में लाए उसको वेदना. वर्तते हैं । (वैट) स्थापन कहते हैं। इसकी छाल का जल में प्रस्तुत काथ भी जल. कविराजगण रक्रप्रदर में अशोक को वेदना- मिति गंधकाम्त (Dilute Sulphuric स्थापन रूप से नहीं, अपितु रकरोधक कह कर acid ) के साथ व्यवहृत होता है । ई० मे० व्यवहार में लाते हैं। जिन सम्पूर्ण स्थलों में मे०। हठात् रनरोधकी आवश्यकता हो, उन उन स्थलों अभी हाल में ही इसकी छाल के तरल सस्व में प्रमादवश अशोक का व्यवहार कराने से, प्रदर की रकप्रदर में परीक्षा की गई और यह लाभप्रद रोगी का रतनाव कम होकर वेदना की वृद्धि होते प्रमाणित हुा । ( Indigenous Drugs हुए बहुशः रोगियों में प्रत्यक्ष देखा गया है । Report, madras.) सकल वैद्यक ग्रंथों की मालोचना करने पर ज्ञात नोट-थोड़े हेरफेर के साथ अशोक के उपहोता है कि प्रदर में सर्व प्रथम अशोक का युक्र गुणों का ही उसख प्रायः सभी प्राग्य प्रयोग वृन्दकृत सिद्धयोग नामक पुस्तक में व पाश्चात्य ग्रंथों में हुआ है। हुभा है। अशोकघृत का व्यवहार किस समय से हो रहा है, इसे ठीक बतलाना कठिन है। चक्रदत्त, वर्तमान अन्वेषक श्रीयुत आर० एन० भावप्रकाश, एवं शाङ्गधर में अशोकघृत का चोगरा महोदय स्वरचित ग्रंथ में अपने अशोक उल्लख दिखाई नहीं देता । "सारकौमुदी" नामक सम्बन्धी विचार इस प्रकार प्रकट करते हैं। संग्रह-ग्रंथ एवं वङ्गसेन सङ्कलित चिकित्सासार- पृथक किए हुए जरायु पर अशोक-रवक् द्वारा संग्रह तथा भैषज्यरत्नावली नामक ग्रंथ में अशोक वियोजित विभिन्न अंशों की परीक्षा की गई। घृत का उल्लेख है। सुश्रतोत्र वातव्याधि में प्रत्यक किन्तु उसका कोई व्यक्त प्रभाव महीं हुआ। कल्याणकलवण के उपादानों के मध्य अशोक रक्रप्रदर एवं अन्य गर्भाशय-विकारों में यद्यपि का उल्लेख देखने में प्राता है। (चि०४०) बहुशः शय्यागत रोगी-परीक्षक गण इसके लाभनव्यमत दायक होने की प्रशंसा करते हैं; पर यह औषध आयुर्वेदीय चिकित्सक गण संग्राही एवं गर्भाशया. प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट करती हुई नहीं प्रतीत होती। वसादक रूप से इसके वृक्ष स्वक् का प्रचुर प्रयोग इं० डू००। करते हैं। कहा जाता है कि गर्भाशयान्तरिक मांस- अशोकम् ashokam-सं० क्ली० तन्तुओं ( Endometrium) तथा डिम्ब अशोक Ashoka-हिं० संज्ञा पुं. For Private and Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशोकघृतम् ७४... "अ(इ)श्कपेचा (१) पारद, पारा । Mercury ( Hydr- | अशोकारिष्टः - ashokarishtah-सं० -पु. argyrum. ) प्रदर रोगमें व्यवहत एक अरिष्ट विशेष ।। - - -पु' (२) अासपाल, अशोक । ( Sar. . योग व निर्मामा-विधि-अशोक की छाल • aca Indica.) . १ तुला( सेर ), 'को ४ द्रोण (६४ सेर ) जल अशोकवृतम् ashoka-ghritam-सं० क्ली में पकाएँ । जेब चौथाई शेष रहे तो उसमें गुड़ प्रदर में प्रयुक्त होने वाला एक त विशेष । पुराना, धौ का फूल ६४-६४ तो०, सोंठ, जीरा, योग तथा निर्माण-विधि- अशोककी छाल नागरमोथा, दारुहल्दी, प्रामला, हड़, बहेड़ा, ६४ तो० (१ प्रस्थ ) को २५६ तो. जल में अडूसा, प्रामकी गुठली, कमल का फूल, चन्दन, 'पकाएँ । जब चौथाई जल शेष रहे तो उसमें ६४ जीरा, इन्हें ४-४ तो० चूर्ण कर उन क्वंथित तो. घृतं मिलाकर पकाएँ। पुनः चावलोंका पानी, | "रसमें मिश्रित कर उत्तम पाग्रमें रख एक मास तक बकरी का दुग्ध, घृत तुल्यभाग, जीवकका स्वरस, रख छोड़ें। अब सन्धानित होकर उत्तम रस तैयार भौगरेका स्व रस, जीवनीय गणकी ओषधिया हो तब छानकर बोतल में बन्द करें। ... चिरौंजी, फाल सा, रसवंत, मुलहठी, अशोकमूल मात्रा-१-५ तो०। त्वचा, मुनक्का, शतावर, चौलाईमूल प्रत्येक २-२ तो० ले कल्क बनाएँ । पुनः मिश्री ३२ तो० । . गुण-इसके सेवन से रक्क्रपित्त, हर प्रकार के प्रदर, ज्वर, रकाश, मन्दाग्नि, अरुचि, शोथ, मिलाकर कोमल अग्नि . से शनैः शनैः . पकाएँ । प्रमेह और सम्पूर्ण स्त्री रोगों का नाश होता है । ... गुण-इसके सेवन से हर प्रकार के प्रदर, | भैष र० प्रदर चि० । श्रा० वे० सं० । . शोथ, कुक्षिशूल, कटिशूल, योनिशूल, शरीरव्यथा, मन्दाग्नि, अरुचि,पाण्डु, कार्य, श्वास एवं कामला अशोगम् ashogaun,-ता० . . . का नाश तथा प्रायु की पुष्टि होती है। वंग से अशोगी ashogi-हिं संज्ञा स्त्री अशोक । • सं० प्रदर चि० । मष० । सा० को० । ' (-Saraca Indica, Linn.) फा०ई० अशोक रोहिणी ashoka-rohini-सं० स्त्री० प्रशाथनेत्रपाक: (१) कटुतिका, रोहिणी, तिरोहिणी, कटुकी । ashotha-netra-pākah ( Picroirhizh kurroa.) रा० नि० -सं० पु० अशोफज अर्थात् शोथ ( सूजन) । रहित नेत्रपाक रोग । .. व०६। च०सू०४० संज्ञास्थापन। देखो'कटुकी। (२ :- लताशोक । यह अशोक दल लक्षण नेत्रों में खुजली चले, चिपकैं और सदृश दल है.। रत्ना० ।...... आँसू बहे तथा पके गूलर की समान लाल, अशोकवाटिका ashoka-vatika-हिं० संज्ञा ... सूजन युा और जो पके वह शोफज नेत्ररोग है। "स्त्री० [सं०] (1) वह बगीचा.जिसमें अशोकके - इसके विपरीत जिसमें ये लक्षण न हों उसे पेड़ लगे हों । (२) शोक को दूर करने बाला "प्रशोथनेत्रपाक' रोग कहते हैं । मा० नि० । रम्य उद्यान । . . . . . . . अश्नर ashaara-अ०,सघन बालोवाला, बहुअशोका ashoka-सं० (हिं० संज्ञा ) स्त्री० लोमश, अधिक रोमों वाला, वह व्यकि जिसके कटुरोहिणी, कटुकी , कुटकी । ( Picrorr-| बाल अधिक हो । हाइपर ट्रिकोसिक ( Hyper.hiza kurroa.) मे० । भा० पू० १ भा०। trichosic.)-इं० : .... ... अशोकारिः ashokarih-सं० पु. कदम्ब अश्क ashlka-फा आँसू, अश्र (A tear:) वृक्ष । कलम्ब-मह० । कदम गाछ-बं० । अ(इ)श्क पेचा aashka-pecia-फा० काम( Anthocephalus kadamba.)/ लता, तरुलता । ( Ipomoea qua. श०च.। moclit.)इं० हैं. गा० । देखो-इश्कपेची । For Private and Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्फ़ा अश्कर ashqara-अ० रक्रवर्ण जो पीत एवं अंगुली-मूल-संधि । जौहरी का वचन है कि श्याम प्राभा लिए हुए हो । रोग विज्ञान में उस अंगुलियों की संधिया तीन हैं,-प्रथम मूत्र (कारोरा ) को कहते हैं जिसका रंग ललोई जो संधि मूल में स्थित है, इसे अश्ज कहते लिए पीला हो । रेडिश-येलो ( Radish-ye: है; द्वितीय जो मध्य में स्थित है बुर्जुमह, llow.)-इं.। ( Phalange) नाम से अभिहित होती है अश्काकुल ashqaqula.-ऋ० शकाकुल। एक : और त्रितीय जो ऊपर स्थित है अन्मिलह, प्रसिद्ध जड़ है जिसको हिन्दी में “दूधाली" | ( Tip of the finger. ) कहलाती है । कहते हैं । (Asparagus ascend-. (२)उश्शक,उश्शज । ( An moniacum.) ens, Roxb..) ... ... . . अश्जार ashjar-अ० (ब. व. ), शजर अश्कानी ashkini-तिबि० चौलाई, तण्डलीय । (ए. व०) वृक्ष, पेड़ । ( Trees.) स० . (: Amarantus. 'thus' spino फा० । लु० कि० । देखो-वृक्षः। Sus.) अश्त ashta-मह. पन वृक्ष, पाकर, पाखर, अश्कील ashkila- ऊसजें एक वृक्ष है। ( A पकरी । ( Ficus rumphii, Bl. ) : tree. :) फा० इ०३ भा० । अश्क न shqhna-तु.) रेवास। See- अश्तर ashtar-अ. फटे नेत्रवाला, दरीदा Raibasa. . .: चश्म । यह संहज या प्रकृत रोग है। .. प्रश्के मरियम ashke-mariyam-फा अश्तबून ashtabāna -मिश्र० - बस... करंज, करम्जुश्रा । ( Pongamjagla. अश्तरान as tarana फाइज, खंकाली bra.) | -fo l( Polypodium. ) अश्वार ashkhairaj ... अश्तला बूस ashtalabusa-रू. कायफल । शखार- shatharaखराला भारतीय सज्जी, ( Myirica nagi,Thunb.) . सर्जि । बैरिल्ला (Barilla.)-इं० । देखो- अश्ता ashta-हिं० काञ्चनार, कचनाल, मक्कुत्रा । सांडियाई कार्योनास या सोडा।.. (Bauhinia variegata.) ... अ(इ)श्खोस • a-ishkhisa-० अरंदुलंदन। अश्दक ashdaqa-अ० चौड़े मुंह वाला, बड़े प्रवावा बरखा। ख़ामालावन बरकरायन | मुह वाला। : -इल्दलु० । किसी किसी के मतानुसार वरवरी | अश्दाक ashdaqa-अ० ( ब. व० ), ___ भाषा में इसे "वहीद"और फ़ारसी में "मुश्तरू" शिद्क (एं० व०) गोशहे दह ने । मुख कोण, कहते हैं। किसी, किसी ने इसे माज़रियून स्याह | मुख का कोना । . . का एक भेद लिखा है, तथा किसी ने इसे किर्म- प्रश्नह. ashnah-फा० दरख्त पूजह । Moss, दाना का पेड़ लिखा है। किसी किसी के मतानु- common ( Lycopodium clavat...सार इसका हिंन्दी.नाम बङ्कम है और बंगाल में um,)ई हैंगा० । बहुत पैदा होता है । फलतः यह अनिश्चित प्रश्नान ashnāna-अ० स्वर्जिक्षार । देखोवनस्पति की जड़ है जो अफरीका और धार्मीनिया ___ उश्नान । ( Ushnāna. )।-हिं० पु. में अधिकता के साथ उत्पन होती है तथा अाज | ___ स्नान, नहाना । ( Bathing.) ... कल अप्रयुज्य है, देखोनमाज़रियून (Maze अश्फरान ashfarara-अ० स्त्री की योनि के ... ariyuna.), दोनों किनारे .... . . .. अश्ज: ash jaa-१० (५० व०), अशाजिश अश्फा ashfa -१० जिसके दोनों प्रोष्ठ परस्पर न ..(ब० व०) (१) व्यवच्छेद शास्त्रकी परिभाषा में मिलते हों । For Private and Personal Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरफार प्रश्मदार सजी। अश्फार ashfāra-० (ब० व०), शफ़र अश्मकेतुः ashma-ketuh-सं० स्त्री० एम (ए०व०) पलकों के किनारे अर्थात् पलकों के पाषाणभेद तुप । पाथर चुर-बं० । रा० नि० बाल उगने के स्थान। म०अ०। -काबु० २०५। Coleus arumaticus (Jhe small var.of-) अश्मगर्भ: ashma-garbhah-सं० पु. । अश्वह ashbah-अ० इश्क्रपेचा के समान एक अश्मगर्भ ashma-garbha-हिं० संज्ञा पुं० ) बूटी है। फूल चमेली के समान तथा सुगन्ध. हरिएमणी, पथा। पाना-बं० । जमुरंद-१०। युक्त होता है। Emerald (Smaragolus.) भा०पू० अश्वाह. ashbāh-० (ब० व०), शबह १भा०।-क्ली० (२) मरकत-मणि । हे. (ए० व०) प्रतिबिम्ब, मूर्ति, तसवीर । च०। देखो-पन्ना। (Reflection, an image, a pict प्रश्मगभंकः ashma-garbhakah-सं० पु. ure.) तिनिश वृक्ष । ( Lagerstroemia flos. अश्वील ashbila- मत्स्याण्ड, मछली के अण्डे । regine.) मद० २०५। (Eggs of fish.) अश्मगर्भजम् ashma-garbhajam-संपली. अश्वत्चेगन ashbutcheghana-०मार्जा. मरकत मणि,पमा । (Emerald.)रा०नि० राण्ड, जुन्दबेदस्तर । (Castoreum.) व०१३। ई० मे० मे०। अश्मनः ashmaghnah-सं. पुं० पाषाणअश्म ashma-सं० क्ली०,हिं० संशा पु[अश्मन्] भेद चुप । पाथरकचा-बं०। ( Coleus aro. (१)स्वर्ण माक्षिक | Iron pyrites ( Ferri maticus.) रा. नि.व. ५। भा० पू० sulphuretum) वै० निघः । (२) १भा०। पत्थर ( A stone.)। (३) पर्वत, पहाइ | अमन स्वेद ashmaghna-svedah-सं. ( A mountain.)। (४) मेघ । बादल । | पु० अश्मरी में प्रयुक्र स्वेद विशेष । (A cloud) अश्मजम ashma jam-सं० क्ली० अश्मकदली ashma-kadili-सं० स्त्री. कदली अश्मज ashma.ja-हिं• संज्ञा पु......" विशेष, केला, पर्वतीय केला। पाहादे कला (१) मुखलौह, लोहा भेद । Iron ( Feबं०। लोखंड केल-मह०। Plantain rrum. ) रा०नि० व०१३ । च० द. (Musa sapientum. ) रा० नि० पादु-चि. । (२) शिलाजीत । शिलाजतु । व० ११। (Bitumen.) मद० २०४। हेमा० । अश्मकन्दिका ashma-kandika-सं० लो. प. मु०। र० मा० । रा०नि० व. १३ । अश्वगंध । ( Withania somnif. (३) गेरू, गैरिक, हिरामिजी । ( See-Gai. era. ) - rika.)। (४) मोमिपाई। अश्मकरम् ashma-karam-सं० की. स्वर्ण, अश्मजतु,कम् ashmajatu,-kam-सं० सोमा । Gold (Aurum.) रत्ना०। क्ली. शिलाजी(जि)त, शिवाजतु । ( Bitu. अश्मकूट ashma kuta-हिं. पु. ( Petr- men.) च० ० पांड-चि० योगराज । रा. ous process.). नि०व० १३ । सि. यो. २० पि.चि. अश्मकच्छ, हा ashma-krichchhraha-सं० खण्ड चाय । "शुभारमजतुकं स्वचम् ।" खी० बेहतर वृष, वीरतरु । बेलदर-मह अश्मदारण ashmadarana-हि. पु.१ पत्थर वै० निघ। | काटने वाला पारा। For Private and Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरमरी भश्मन् अश्मन् ashman-सं० पु. प्रस्तर, पत्थर, पा. रत्ना० । देखो-कवाटच(व)कम् । (Kav. षाण । (A stone.) __ātacha, va,-kram.) अश्मन्तः,--क: ashman tah,-kah-सं० पु. अश्मभेदः, कः ashmabhedah, kah- ) पाषाण भेद, पाथर चूर । ( Coleus arom- | सं० पु. ४ aticus.) च० सू० १ ० । कोविदार वृत्त । अश्मभेद ashmabheda-हिं. संज्ञा पुं० । सत्शअम्न-पत्रीय अम्लोट. चांगेरी (A spe क्षुप विशेष | Coleus amboinicus, cies of ebony.)। भा० म०४भा० गर्भ Syn., (Coleus aromaticus. )। -चि० । “भश्मन्तकस्तिनाः कृष्णाः" | च० स० पाखानभेद नाम की जड़ी जो मूत्रकृच्छ, आदि ४४०। (३) उद्दालक वृक्ष, बहुवार-सं०। रोगों में दी जाती है। पाथरचुर-हिं० । पाथर बहुमार, सोरा-हिं० ।(Cordia latifolia) कचा, हिमसागर, हाता जो-ब।सु० सू०३८, भा० पू० १ मा०। (४) कोविदार वृद्ध, कच. ३६ ० । पर्याय-अश्मभेदः अश्मभित् (र०), मार भेद । ( Bauhinia veriegata.) । अश्मघ्नः, पाषाणभेदः, शिनाभेदः, अश्मभेदकः, भः० पू० २ भा०। (५) चुक, चांगेरी (Ru- श्वेता, उपलभेदी, उपलभित् शिलागर्भज, नग mex vesicarium.) र०मा०।(१) भित्, संशोधनः । वा० स० १५, ३६ अ० । सुण विशेष । अम्बकुचाई-ब। (A sort) "वडन्तरारंणिक वृक वृध्याऽश्मभेदः ।" -- of grass.) सु० चि० ५५ म० । (.) , गुण-शीतल,..कौला, .... वस्तिशोधक स्वनामास्यात वृत। मापटा-तृष्य । भाबुटा-हिं।। ___ दस्तावर तथा तिक है ओर प्रमेह, अर्श, मूत्रकृच्छ, अश्मर-मह० । पर्याय-इन्दुकः, कुवाली, तथा अश्मरी रोग नाशक है। मद० व०१। अम्नपत्रः, श्वा स्वक्, नीलपत्रः, यमनपत्रकः । .मधुर तिक, प्रमेह, प्यास, दाह, मूत्रकृच्छ, तथा गुणु-मधुर, कसेला, शीतल, तिनाक. और अश्मरीहर और शीतल है। रा.नि. व. ५। भूत निवारण करनेवाला है । रा० नि० व. अश्मभेदनः ashima-bhedanah-सं० पु. पा. - पाण भेद । मद० । भश्मन्त(क)म् ashmanta,-ka-m-सं० क्ली. अश्मयोनिः,-नी ashma-yonih.ni-सं००, (१) पाका अग्नि स्थान, चुलि(ली), चूल्ही । खो० () नील मणि | A gem of a मे० नत्रिक० । (२) दीपाधारच्छादन, प्रांधा- blue colour ( The sapphire. ) रिया । मे० ... . .. प्र०टी०। (२) प्रश्मन्तक वृक्ष । प्रापटा-ब.। अश्मपुष्पम् ashma-pushpam-सं० क्ली० | मद० २०१० | See-ashmantaka. शैलज, शिलारस। ( Styrax prepar-अश्मर ashmar-हिं) वि० [सं०] पध. atus.) अम०। रीला | । ... . .. . प्रश्मभाण्डम् ashma-bhāndam-स. क्ली. अश्मरी ash nari--सं. (हि. संज्ञा) स्त्री. (.) लौह भाण्ड विशेष, हावन । हामामदिस्ता . मूत्र रोग विशेष । पथरी । कैलक्युलस Calcul-बं । श. च०। (२) खत, खल्ल | Mor- us (ए० व०), कैलक्युलाई Calculi tar.) (ब०व०-ले । स्टोन Stone, ग्रेवल Gr. avel--ई। इसात अ० । संगरेजह-फा० । अश्मभित् ashmabhit-सं० पु०(१) पाषाण मिने, पाथुरी-ब। मुतखदा-मह। भेड़, पाथरपुर । (. Coleus aroma- .... परमरी संस्कृत अश्मन् शब्द से व्युत्पन्न स्त्री ticus.) प. मु. । रत्ना०। (२.) कवाठ वाचक पद है । यहाँ पर इसका अंपार्थक प्रयोग वक्र वृक्ष-सं० । कराड़िया, कवाट वेटु-ते। हुआ है अर्थात् पथरी वा ककड़ीके अर्थमें । आयुर्वेद वेण्टुना-हिं० । र० मा० । कवाटचक्र । के मतसे उस पथरीको कहते हैं जो परि . tar. . For Private and Personal Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारी अश्मरी हुई वायु के वस्तिगत शुक्र के साथ मूत्रको अथवा ' पर्याय-सिष्टोलिथ ( (ys tolith ), पित्त के साथ कफ को सुखाने से क्रमश: गाय के स्टोन इन दी ब्लैडर ( Stone in the पित्त में गोरोचन के समान रत्पन्न हो जाती है। ... bladder )-ई। हसातुल . मसानह - ० । आयुर्वेद में इसके वातज,पित्तज कफज और शुक्रज मसाना की पथरी-30 . .. . ये चार भेद माने गए हैं। ... (२) शुक्राश्मरी, (शुक्राशय स्थित अश्मरी) चरक, सुश्रुत, वाग्मट प्रभृति सभी प्राचीन (Calculus of vesiculus sémi. आयुर्वेदीय ग्रंथों में जहाँ भी अश्मरी का वर्णन nales )हुश्रा है वहाँ उन शब्द का प्रयोग केवल वस्ति | - ( ३ ) · शिश्नाग्रत्वगश्मरी-शिग्नान गत अश्मरी के लिए किया गया है । परन्तु अब स्वचा अर्थात् शिश्न की पूंघट में बनने यह शब्द उतने संकुचित अर्थों में नहीं लिया • वाली अश्मरी । ( Calculus of prepजाता । uce) . .. प्राचीन शास्त्रकारों को और स्थानों में बनने (४१) प्रोस्टेट ग्रंथि-स्थित अश्मरी, वाली अश्मरियों का ज्ञान था वा नहीं अथवा श्रीलागत अश्मरी-( Prostatic calपूर्व पुरुषों में और स्थानों में अश्मरियोंका निर्माण cali:) प्रोस्टेट ग्रंथि वा प्रणाली में बनने वाली होता था वा नहीं ? इसके संबंध में यहाँ कुछ पथरी । हसातुल गुद्दहे कदामियह-अ० । विशेष न कह कर हम केवल इतना ही कहना (५) वृकाश्मरी, वृक्त की पथरी-रेनन यथेष्ट समझते हैं कि इस शब्द का प्रयोग अब कैलक्युलाइ ( Renal calculi ), स्टोन उतने संकुचित अर्थों में नहीं होता, वरन् किसी इन दी किडनी Stone in the kidney), भी ग्रंथ्यवयव की प्रणाली वा मार्ग अथवा | नेफ्रोलिथ (Nephrolith')-इं० । हसातुल स्वयं उस ग्रंथि में बनने वाली किसी प्रकार की कुल्यह., हसात कुल्वियह अ०। गुर्दा की पथरी को अब हम अश्मरी कह सकते हैं । यद्यपि पथरी-उ०। इन सबके निदान, सम्प्राप्ति, लक्षण तथा चिकि- वृक्काश्मरी के होने पर रोगी की पीठ की ओर त्सा प्रमृति का, चिकित्सा प्रणालीत्रय के अनु- दाहिनी या घाई तरफ वेदना रहती है। हिलने सार अपने अपने स्थल पर सविस्तार वर्णन किया | पर यह वेदना और तीव्र होती है। जब यह जाएगा; तोभी उन सब भेदों का यहाँ संक्षिप्त अश्मरी वृक्क में से निकलकर मूत्र-प्रणाली परिचय करा देना अप्रासङ्गिक ना होगा (गविनियु) में पड़ जाती है अथवा उनमें नोट-डॉक्टरी शब्द . कैल्क्युलस का अर्थ | जब गति होती है तब वृक्कशूल ( Renal खदिका है। परंतु डॉक्टरीकी परिभाषा में प्रश्मरी / . colic) के उत्कट लक्षण पैदा हो जाते हैं। को कहते हैं। प्राचीन पाश्चात्य शास्त्रकारभोः इसका इनके मूत्रप्रणाली में पाकर फंस जाने ही को ... प्रयोग केवल वृक ऐवं वस्तिगत अश्मरी के लिए : _ "मूत्राश्मरी" कहते हैं। ही करते थे। परन्तु अब इससे व्यापक अर्थ | (६) मूत्राश्मरो-युरिनरी कैलक्युलाई लिया जाता है। Urinary calculi, gitaru Urolith, .: अश्मरी के मुख्य भेद निम्न हैं -. . . . स्टोन इन दी युरिनरी, पैसेज tone in . (१) वस्त्यश्मरी-आयुर्वेदिक शास्त्रों में |, the urinary passage-ई । हसात इसका वर्णन अश्मरी शब्द के अन्तर्गत हुभा है।। बौलिय्यह-अ० । पेशाब का संगरेज़ह-उ०। इसका एक भेद शुक्राश्मरी है। परन्तु यह श्रायुर्वे. इसके दो मेद हैं, यथा.दोक्त "शुक्राश्मरी" वस्ति में नहीं हो सकती, (क) मूत्रप्रणालीस्थ अश्मरी, गविनियुवान् इसका निर्माण बीजकोष में होता है। स्थित अश्मरी-( Calculus of ureter) For Private and Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरी अश्मरी छेदक - - - रखें। .. (ख) मूत्रमार्गस्थ अश्मरी-: नोट- कभी कभी शिराओं के भीतर कठोर (Calculus of urethra). . ..या अश्मवत् अवरोध पाया जाता है । यह वस्तुतः : .. (७) यकृदश्मरो-यकृत में बनने वाली . रक के दृढ़ तथा अश्मीभूत होने से उत्पन्न हो पथरी । हेपैटोलिथ Hepatolith-इं० । . जाता है। . .. . हसातुल कबिद-अ. (.१३) अश्रवश्मरी-अप्रणालीस्थ .(3) आन्त्राश्मरी-इन्टेस्टाइनल कैलक्यु- अश्मरी, अास की नालियों की पथरी। .. लाई (Intestinal calculi .-ई। डैक्रियोलिथ Dacryolith-इ । हसात् , यह मनुष्य एवं मांसाहारी जीवोंमें तो क्वचित्, दम्य्य ह-श्र०। परन्तु शाकाहारी जीवों में सामान्य रूप से होता. "k-अश्मरी कण्डनो रस: ashmali-kandano : rasab-सं० १० ढाक, केला, तिल, करता, (६) पित्ताश्मरी-पित्ताशय वा पिस . जौ, इमली, चिर्चिटा और हल्दी इनके क्षारों को प्रणाली में उत्पन्न होनेवाली अश्मरी । बिलियरी · इकट्ठा करके सबका १६ वा भाग पारा, उतना ही कैलक्युलाइ Biliary calculi., गाल : 'गन्धक और इन दोनों के समान भाग उत्तम ..'स्टोन Gallstones; कोलोलिथ: Cholo लोह भस्म मिलाकर सबका बारीक चूर्ण कर " lith, (Calculus of gall-bladder or duct.)-ई० । इसात सफराविय्यह, हसात ..मात्रा-१ तो० । इसे दही के साथ चाट कर मरारिय्यह-अ० । सफावी पथरी, पिता की ऊपर से वरुण वृक्ष की छाल का क्वाथ पीएं। पथरी-उ.। . ... ... यह रस दुःसाध्य से भी दुःसाध्य पथरी को नष्ट नोट-इसे वस्तिस्थ अश्मरी का भेद पित्तज | करता है। अश्मरी न समझना चाहिए । ... (१०) क्लोमग्रन्थिस्थ अश्मरो, अग्न्या. अश्मरी कृच्छ : ashmari-krichchhrah • शयिक अश्मरी-यह क्वचित् ही पाई जाती हैं | -सं० पु. पथरी जन्य मूत्रकृच्छ , मूत्रकृच्छ और जब उत्पन्न होती है तब अधिक संख्या में | भेद । वै० निघ०। (See-Mutra kric. मुख्य प्रणाली वा गौण प्रणाली में वर्तमान होती hchhra ) . है । पैनक्रिएटिक कैलक्युलाई Pancreatic .. नोट-आयुर्वेद के अनुसार अश्मरीकर, .. calculi-ई । . . ... मूत्रकृच्छ, का एक भेद है । परन्तु यह पथरी के (११.) लालाग्रंथिस्थ. अश्मरी लाला निर्माण की अवस्था में ही होता है। अस्तु यह • प्रधि वा लाला अर्थात्. लार में पाई जाने वाली अश्मरी रोग का केवल एक लक्षण मात्र है। अश्मरी । . अश्मरीघ्नः ashmarighnah-सं० ० । यह बाहर से खुरदरी ( कर्कश ) एवं विषमा- अश्मरान athmarighna-हिं० संज्ञा पु. ) कार होती है और साधारणतः प्रणाली के मुख के वरुण वृक्ष, बरना का पेड़ । वरुण गाद-२० । समीप पाई जाती हैं । इससे प्रणाली का मुख | वायवरण-मह०। ( Crateeva religi. अवरुद्ध हो जाता है। सैलिवरी कैलक्युलाई । osa.) त्रिका० ।-त्रि०, वि० अश्मरीहर, Salivary Calculi-toi ! अश्मरी नाशक, पथरी को दूर करने वाला। (.१२). शिरास्थित अश्मरी -शिरा में | (Lithontriptic ) . बननेवाली पथरी । अश्मरो छेदक ashmari-chhedaka-हि. फ्लेबोलिथ Phlebolith-इ। इसातुल संज्ञा पु० (१) अश्मरी छेदक यंत्र (Liअहिदह - । वरीदों की पथरी-3०। thotrjte.)। (२) अश्मरी को कोडकरपूर For Private and Personal Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरी छेदक यंत्र अश्मरी शर्करा चूर करने वाली औषध । अश्मरी भेदक || अश्मरी भेदः ashmari-bhedah-सं० पु. (Lithotriptic) देखो-अश्मरीहर। । पाषाणभेद वृक्ष,पाथरचुर। (Coleus aroma. : वि० अश्मरीको फोड़ने वाला, अश्मरी भेदक। _ticus.) मद० २०१।। अश्मरी छेदक यंत्र ashmari-chhedaka-अश्मरी भेदक: ashmari-bhedakah-सं० yantra-हिं० संज्ञा पु० वस्ति में पथरी को पु. (१) पाषाण भेद । केय० दे०नि० सं० फोड़ने का यंत्र । अश्मरी भेदक यंत्र । लिथोट्रि- (हिं. संज्ञा) पु. (२) देखो-अश्मरी छेदक । प्टर Lithotriptor, लिथोट्राइट Litho- अश्मरी भेदन ashmari-bhedanatrite-इं० । आफ्रिक्रतुल् .हुसात, मिक्रत्तितुल् अश्मरी भेदनः ashmari.bhedanah हसात-अ० । ... सं० हि. संक्षा पुं. अश्मरी द्रावक ashmari-dravak-हिं० संशा (१) अश्मरी भेदन क्रिया, पथरी तोड़ने का कर्म । पु. पथरी को विलीन करने वाली वा . (Lithotrity) तफ्तीतुल इसात्-१०। घुलाने अर्थात् द्रव करने वाली औषध । वह (२) किसी औषध वा यंत्र द्वारा वस्ति में हो औषध जो अश्मरी को घुलाकर पानी कर दे। परमरी को फोड़कर टुकड़े टुकड़े करना । (३) : अश्मरी विलायक। ( Lithodialytics - पाषाण भेद । (Coleus aromaticus.) मुहल्लिलुल इसात-१०। देखो-अश्मरीहर। व० निघ०। -वि० अश्मरी को घुलाने वा द्रव करने | अश्मरी रिपुः ashmari-ripuh-सं० पु०(१) । वाला। . (१) वृहक्षणक, बड़ा चणा । रत्ना०।२) क्षेत्रेवु -सं० । मकाई, मुद्दा, बड़ा ज्वार-हिं । अनार अश्मरी द्रावण - ashmari dravana-हिं. .:-** Maize ( Zea mays.): संज्ञा पु० वस्तिस्थ पथरी को विलीन करना, पथरीको धुलाना । लिथोडायालिसिस Litho अश्मरी विदारण ashmari vidārana-हिं० dialysis-इं० । तह लीलुल् हसात, तज दीबुल · संज्ञा पुं० शस्त्रकर्म द्वारा पथरी का निकालना । (Lithotomy ). इसात-अ०। अश्मरो शर्करा ashmari-sharkari-सं० नोट-लिथोडायालिसिस के दो अर्थ होते स्त्री० तमामक रोग विशेष । (Renal sand, हैं-(.) विनायक औषधों के द्वारा वस्ति में Urinary sand,urinary deposits.) पथरी का विलीन करना जिसके लिए उपयुक रमल कुल्यह, रम्ल बौली, रसौब बोली-१०। हिंदी एवं अरबी शब्द प्रयुक्र हुए हैं और (२) रेगे गुर्दह वा बौल-फा०।.. किसी यंत्र के द्वारा वस्ति में ही अश्मरी का छेदन शर्करा (रेता) और सिकता प्रमेह तथा भस्माख्य करना। इसके लिए अर्वाचीन आयुर्वेदीय चिकित्सक रोग (मूत्र, शुक्र रोग उत्तर तन्त्रोक) ये सब "अश्मरी भेदन" एवं मिश्र देशीय चिकित्सक पथरी ही के विकार हैं और पथरी ही घुल कर "तफ्तीतुल् हसात" शब्द का प्रयोग करते शर्करा होती है। क्योंकि इनके लक्षण और वेदना समान हैं। (यूनानी कीम भी पथरी और शर्करा अश्मरी प्रियः ashmari-priyah-सं० को एक ही क्रिस्म से बताते हैं। देखो तिब्वे महा शानिधान्य । प० मु०। (See-maha- अकबर) shalih.) . . यदि पथरी छोटी हो और वायु के अनुअश्मरी निर्माण ashmari-nirmāna-हिं. कूल हो जाए तब तो प्रायः निकल पड़ती है। संज्ञा पु० पथरी बनना । (Lithiasis) और जो वायु द्वारा टुकड़े टुकड़े ( नन्हें नन्हें तलवुनुन् हसात-१०। दाने से ) हो जाएं तो उन्हें शर्करा कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रेमरीहरः अश्मरीजन्य मूत्रकृच्छ एवं शर्करा के लक्षण प्रायः एक से होते हैं, यथा लक्षण - जिस मनुष्य को शर्करारोग होता है उसके हृदय में पीड़ा, सालोंका थकना, कूखमें शूल और शोथ, तृषा और वायु का ऊर्द्ध गमन, कृष्ण ( कालापन ) और दुबलापन तथा देह का पीला पड़ना, अरुचि, भोजन ठीक नहीं पचना आदि खचण होते हैं । और जब यह मूत्र के मार्ग में प्रवृश होकर और वहीं स्थित हो जाती है (इसे मूत्राश्मरी कहते हैं ) तब ये उपद्रव होते हैं - दुबलापन, थकावट, कृशता, कोख में शूल, अरुचि, शरीर, नेत्रादि पीले पड़ना तथा उष्णवात, तृषा हृदय में पीड़ा और वमन ( या जी मिचलाना ) इत्यादि । सु० नि० ३ .० | देखो - शर्करा । अमरोहरः ashmari harah - सं० त्रि० अश्मरीहर ashmarihar-हिं०वि० पथरीको नष्ट करने वाला । श्रश्मरीनाशक । श्रश्मरो । ( Lithontriptic ) सं० पु० ( १ ) अश्मरी नाशक योग विशेष । यथा - शिलाजीत, बच्छनाग, दाख, दन्ती, पाषाणभेद, हल्दी, हड़ प्रत्येक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनाएँ । હર્ષ 2 श्रघ मा० । मात्रा - १ मा० । बच्चों को अनुपान - तिलदार २ तो० एवं दूधके साथ खाने से पथरी नष्ट होती है । (२) देवधान्य । देधान - बं० । (३) वरुणवृत्त, बरना । वायवरणा मह० । ( Crataeva Religiosa) र० मा० सं० ( हिं० संज्ञा ) पु ं० (४) पथरी को नष्ट करने वाली श्रीषध । प्रभाव भेद से यह तीन प्रकार की होती है, यथा--- ( १ ) वह औषधे जो अश्मरी बनने को रोकती हैं अथवा मूत्रस्थ स्थूल भाग को मूत्रावयव में तलस्थायी होने से बाज़ रखती हैं और यदि कोई पथरी वा कंकड़ी बन गई हो तो उसको विलीन करती हैं । ऐरिटलिथिक्स ( Antilithics ) - इं० । मानित तकन्ने ह सात-० । ( २ ) पथरी को तोड़ने वाली या उसको Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरीहरः टुकड़े टुकड़े करने वाली श्रोषधे । वह श्रीपध जो अपने प्रभाव एवं सूक्ष्म गुण के कारण वस्ति तथा वृक्कस्थ अश्मरी को टुकड़े टुकड़े करके वा उसको विलीन वा द्रावित करके मूत्र के साथ उत्सर्जित करें। श्रश्मरी भेदक अश्मरी छेदक | लिथोट्रिप्टिक्स (Lithontriptics), लिथे। ट्रिप्टिक्स ( Lithotriptics ) - इं० । मुफ़त्तित्, मुफ़त्तितुल हुसात अ० । (३) वह औषध जो पथरी को विलीन करती हैं। " अश्मरी द्वावक | अश्मरी विलायक | नोट - जब पेशाब अधिक अम्लतायुक्र होती है तब उसमें से युरिक एसिड या कैल्सियम् आक्सीलेट पृथक् होकर शर्करा के रूप में तलस्थाई हो जाते हैं जिससे पथरी वा कंकड़ी बन जाती है। ऐसी दशा में ऐलकेलीज़ (चारीय औषध) के देने से या पाइपरेज़ीन के देने से बहुत लाभ होता है; क्योंकि यूरिक एसिड का बनना बन्द हो जाता है, प्रभृति । किन्तु जब मूत्र डीकम्पोज़ श्रर्थात् वियोजित या विकृत हो जाता है तब उसमें से फॉस्फेट के रवे तलस्थाई होजाते हैं । ऐसी दशा में मूत्र को अम्ल किया जाता है और उसकी विकृति वा साँधको किया जाता दूर है । अस्तु, बेअोइक एसिड या बे ओएट्स के प्रयोग से बहुत लाभ होता है । ( Gout) में पोटासियम् और लीथियम् के लवणों के उपयोग से यूरिक एसिड (जो व्याधि का कारण होता है ।) विलेय युरेट्स में अर्थात् पोटाशियम् युरेट और लीथियम् युरेट में परित हो जाता है एवं उनसे मूत्रस्थ अम्लता क्षारीय हो जाती है 1 " उपर्युक औषधों के सेवन काल में जल का अधिक उपयोग उनके प्रभाव का सहायक होता है । इसके उपयोग विषयक पूर्ण विवेचन के लिए विभिन्न श्रश्मरियों की चिकित्सा के अन्तर्गत देखें । For Private and Personal Use Only अश्मरीहर औषधे श्रायुर्वेदीय - शिलाजीत, कुरण्टक ( कटसरैया) पलाश (चार ), आक, वरुण वृक्ष, Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्मरूप वंग ७६२ अश्मंतक.. ताम्रगंधेत् ( तूतिया ), आमला, हरीतकी, अश्म शिरा कुल्या ashma-shira-kulya-सं० विभीतकी, स्नुही (सेहुण्ड ), लौह गंधेत् (हिं० संज्ञा) स्त्री० शिराकुल्या विशेष । ( कसीस ), हिंगु, जल ब्राह्मी, निलोफर, कुश, अश्म सम्भवम् ashma-sambhavam-सं० कास, गजपिप्पली, सैधव, अर्जुन, गंधनाकुली क्ली० शिलाजनु, शिलाजित । (Bitumen.) (रास्ना), कदलीक्षार, मूत्रशोधक द्रव्य मात्र र० सा० स०। ( गोखरू, तृणपंचमूल, कुष्माण्ड, पाषाणभेद अश्मसार: ashma-sarah-सं० पु०, क्लो० प्रादि), नागरमोथा, सुगंधवाला,अंगूरपंचांगक्षार, अश्मसार ashma-sāra-हं० संज्ञा पु... ) कण्टक तण्डुलीय क्षार,यवक्षार, कुलथी, तुलसी, - (१) लौह, लोहा । ( Iron.') अम० । ककड़ी के बीज, खरबूज़ाके बीज और तगर । (२) लोहादि धातु ( Metals.)। (३) यूनानी-बिच्छू की राख, हज्र ल यहूद, | सार लौह । इस्पात-बं०। . . संग सरमाही, बरजासिफ, असारून, समग़पाल, | अश्मसारा ashma-sāra- स्त्री. काष्ठ हंसराज, बादाम कड़ा , राज़ियानज ( सौंफ), ! कदली, पहाड़ीकेला । पाहाड़े कला-बं Wild चना ( स्याह ), सकीनज, कुण्डल और पेहटुल plantain ( Musa sapientium.) की जड़ । वै० निघ०। डॉक्टरी-एसिड फॉस्फोरिक डायल्यूट, | अश्मसुता as ma-sutā-सं० स्त्री० पाठा । एसिड नाइटिक डायल्यूट, पाइरेज़ोन, पोटेसि- प्राकनादि-बं० । पहाडमल-महः । (Cissa याइ एसाटास, पाटेसियाई बाई काबानास, mpelos hernandifolia.) वै०निघ। पोडाफीलीन, पिल्युला हाइड्रार्जिराई (पारद वटी), अश्म-ग्वेदः ishma-svedah-सं० प्रस्तर डायोरेटिक्स (मूत्रल औषध ), सिष्टेमीन, सोडि. __स्वेद विशेष । सु०। याई बाई कार्बोनास, संांडियाई बेजोपास, अश्महा, हन् ashmahā,-han-सं०प० पा. सोडियाई साइट्रो-टासिएफस, सोडियम् पोटे. _षाण भेदक । पत्थरचूर-हिं० । पाथरकुची-बं०। सियम् टाट(सोडाटा टा), सेपो ड्योरस, सेलाइन ( Coleus aromaticus.) . पर्गेटिव ज़, लाइक्वार मैग्नीसियाई कार्बोनेट्स, अश्महत् ashna-hrit-सं० पु., क्ली० (१) लीथियम्साल्ट्स, मिनरल वाटर्य ( खनिज जल) कबाट-वक्र तुप, कराड़िया। See-Kavitaयथा सेल्टर्ज, फ्रेड्रिक शाल, वालज़, विकी, ____vakra.)रत्ना०। (२) शिलाजतु, शिलाजित् । विलडञ्जन तथा हन्याडीजूञ्ज., मैग्नीसियाई ( Bitumen.) कार्बोनास, मैग्नेशिया, योरोट्रोपीन, युरोल, युरिया, अश्मीरः ashmirah-सं. प. मूत्रकृच्छ । युरिसीन, जल, बोरेक्स ( टंकण ), पोटाश, उणा० । (See-mitra-krichchhra.) फॉस्फेट अॉफ सोडा और लाइम वाटर(चूर्णोदक)। प्रश्नूसा ashmāsā-कनौचा भेद । इसमें अन्य अश्मरूप-वंग ashmarāpa-vanga-हिं० पु. भेदों की अपेक्षा कम गंध होती है। ( Tin-stone) बंग भेद । श्रश्मोत्थम् ashmottham-सं० क्ली० शिलाअश्माहरणयन्त्रम् ashmaryyaharana. जतु, शिलाजित् । ( Bitumen ) रा०नि० yan tram-सं० क्ली. अश्मरी निकालने का व०१३। यन्त्र । अश्मरी निकालने का ऐसा यन्त्र जिसका अश्मंत asha manta-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अग्र भाग सर्प फणाकार हो। कश्चिदत्रि० । (१) चूल्हा । (२) खेत । (३) मरण । अश्मलाक्ष,-क्षा ashmalaksham,--ksha (४) अमंगल । देखो-अश्मन्तः। -सं० क्ली०, स्त्रो० शिलाजतु, शिलाजीत । अशतक as mantikn-हि.. का पु'. ( Bitumen.) रा०नि० व० १३ । । [सं० अरमन्तवम् ] (1) मूंज की तरह का For Private and Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्या ":". अश्रप्रथि • एक घास जिससे प्राचीन काल में ब्राह्मण लोग | iyadiyyah-अ० दैनिक व्यवहार या स्वभावतः -..- मेखला अर्थात् करधनी बनाते थे । (२) अाच्छा- पीने की वस्तु-जैसे, पानी पोना। हैबिचुअल दन । छाजन । ढकना । (३) दीपाधार । दीवट । ___डिकस ( Habitual drinks.)-ई० । अश्याफ़ ashyaf-अ० (ब० व०) अधिबह मुम्बिहरह ashribah-munbih. नोट-शियाफ का बहुवचन प्रश्यान और hah-अ० शनिदायक तथा उत्तेजक शर्बत । शियान बहुवचन है शाह का । पिचुक्रिया, स्टिम्युलेण्ट ड्रिंक्स(Stimulant drinks) वर्तिका-हिं० । फतीले, बत्तियाँ-फा०, उ० । -इ०। (Suppositories.) अश्रिबह मुलत्ति फ़ह मुरिज़य्यह ashribah. प्रश्यामो ashyāmi-सं० स्त्री० श्वेत त्रिवृता, mulattifah-imughziyyah-१० ... सफ़ेद निशोथ । po nea turpethum पोषण और लताफ़त (प्रमोद वा हप)प्रदान करने. ( The white var, of-) वाले शर्बत या द्रव, प्रफुल्लकारक, प्रमोद या भधम् - ashram-सं० जी० ।।. श्रालादजनक पेया। रेफरीजरेण्ट ड्रिंक्स ( Reअश्रः ashra-हिं०. सज्ञा पू० (१)रुधिर, fregerant drinks.)-01 रत, शोणित । ( Blood.) अ० टी० । (२) अश्र ashru-सं० क्ली । मन के किसी नेत्रोदक, नेत्राम्बु, सासू। (A tea::.). अश्रु ashita-हिं० संज्ञा पु० प्रकारके आवेग प्रश्रashraa-० (१) एक ख़ाया (अण्ड) के कारण आँखों में आने वाला जल। नेत्र ... पुरुष अर्थात् वह मनुष्य जिसके एक खायह. | जल | नयन जल । नयनाम्बु । घासू । (अण्ड । हो या (२) जिसका एक खाया | (A teal.) चक्षेर जल-बं० । प्रश्क-फा०। .(अण्ड) छोटा और दूसरा बड़ा हो । एक अँड़िया - श्रम० । प्रादमी, एकाण्ड पुरुष । संस्कृत पर्याय-नेत्राम्बु, रोदनं, अश्र, प्रत्रं, ashraja-अ० वह मनुष्य जिसका एक श्रनु, वाष्पं (अ.), लोचं (ज०)। भरा बड़ा हो तथा दूसरा छोटा या वह मनुष्य यह अश्रुग्रंथिमें बननेवाला एक स्वच्छ जलीय रस जिसके केवल एक ही अण्डः हो। है। इसका स्वाद लवण होता है। इसका काम अश्रद्धा ashraddha-सं० स्त्री० अंरोचक, पलकों और अक्षिगोलक के सम्मुख पृष्ठों को तर " अरुचि, श्रद्धा का अभाव । ( Disgust or रखना है। अशु अधिक बननेकी दशामें ये आँखों Aversion. ) से टपकने लगते हैं। नासिकाका आँखसे सम्बन्ध प्रश्रम ashram-अ० वह व्यकि जिसका नासाग्र है इसलिए रोते समय अश्र कभी कभी नासिका में चले जाते हैं और नासारन्ध्र में सेटपकने लगते - कटा हुश्रा हो । वह जिसके दोनों श्रोष्ठों में चीरा अश्रस. ashras-अ०. अधिक पलक झपकाने अश्रु अङ्कर ashru-ankura-हिं० पुं० प्रथ...वाला मनुष्य । वह मनुष्य जो पलक अधिक ___ वांकुर( Papilla lacrimalis )। नासिका. - की ओर वाले अपांग में दोनों पलकों के सम्मुख अधि. ashri-हिं० संज्ञा स्त्री [ सं०] घर का किनारों पर दो छोटे उभार होते हैं। इनमें से कोना । अस्त्र शस्त्र की नोक । - प्रत्येक को अथ अंकुर कहते हैं। मनिबहः shribah-अ० (ब० व०), शराब, अश्रकोष ashru-kosha-हिं० पु. ( Lacri शर्बत (५०५०) पेया, पीने की वस्तु ( Dri. | mal sac.) आँसूकी थैली । कीस दम् ई-१०। nks, Syrups.) देखो-पेया, मद्य । अश्रुगोलम् ashru-golam-सं० क्ली० अनिंबह इअ तियादिश्यह, ashribah-iat- | अश्रुग्रंथि ashru-granthi-हिं० स्त्रीय For Private and Personal Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्रुप्रथि खात प्रश्वकञ्चकी रसः . (Lacrimal-gland ) यह ग्रंथि बादाम अश्लानह ashlānah-हिं० मोरशिषा, मोरपंखी । के बराबर होती है और अश्रुग्रंथि-खात में ( Actinopteris Dichotoma, Beरहती है। गुद्दहे दम्इय्यह.-अ० । dd.) अश्रन थि खात ashru-grantbi-khata अश्लाबस ashlabus-5० कायफल, वफल । -हिं० पु० ( Lacrimal gland cavi (Myrica s1 pida. ) by.) नेत्र गुहा की छत ( नेत्रच्छदि फलक) लक) अश्लियह, क्यात्त म ashliyah-kyatum | में कनपुटी की ओर एक गढ़ा होता है। अश्लियह. पातम ashliyah patam अश्रुछिद्र oshru-chhidra-हिं० पु. ( Pun फिर चूका, चाङ्गरी । ( Rimex vesi. ctum lacrimale) अंकुर की शिखर ____carius. ) पर एक छिद्र होता है जिसका नाम अशुछिद्र है। इस छिद्र में से ही होकर अशु आँखों से नासिका | अश्लिष्ट ashlishta-हिं० वि० [सं०] रखेष शून्य । असंबद्ध । अस गत । में जाया करते हैं। अश्लेष ashlesha-हिं०प० श्लेष रहित, प्र. अश्रुनलिका ashrimalika-हिं. स्त्री. ( Lacriral duct.) अश्रु-गाली। णय, असंख्य, अप्रीति, अश्लेषभिन्न, अपरिहास । अश्रुनाली ashrn-nāli-सं० स्त्री० भगन्दर अश्वः ashvah--सं० पु. रोगं । वै० निघ० See-Bhagandara. अश्व ashva-हिं० सज्ञा पु० प्रश्रपातः ashila-pātah सं.पु. घोटक, घोड़ा, हय, तुरंग, वाजि--हिं० । घोड़ा अश्रुपात ashru-pita-हिं संज्ञा पुं० ) -बं०, हिं० । अस्प-फा० । A horse (Equu. (१) घोड़े का एक अशुभ लक्षण विशेष । यह | scaballus, Linn.) चिह(भँवरी. श्रावर्त्त) घोड़े की आँख के नीचेके गुण-घोड़े का मांस उप्ण, वासनाशक, बल. स्थान में होता है। यह अत्यन्त भयावह तथा कारक हलका तथा अधिक सेवन करनेसे पित्त तथा स्वामी के कुल का घातक है । जयद० ३५० दाह जनक होता है । रा०नि०प०१७। बच (२) श्रीसू गिराना | रुदन । रोना। रस युक्र, अग्निवद्धक, कफ तथा पित्त कारक, अश्रुप्रणाली ashru-pranali-सं० पु., हिं० वातनाशक, वृहण, बन्य, चतु के लिए हितकास्त्रो० ( Naso--lacrimal Duct. ) रक, हलका और मधुर है । भा० पू० । घोड़े की आँसुओं की नाली । कनात् दम्हय्यह-अ०।। सवारी वातको प्रकुपित करता, अंगों को स्थिरता अनुवाहिनी ashru.vahini-सं० स्त्री० (La प्रदान करता, बल तथा अग्निवर्द्धक है । ___erimal cannal.) अनलिका | राज । देखो-वाजि । अश्रुश्रीत ashru-shrota-हिं० पु. ( Lacri प्रश्वक: ashrakah-सं० पु. (A spa. mal Duct.) अश्रुप्रणाली। अश्रश ashrusha-१० दरियाई खरगोश । rrow ) कुलिङ्ग पक्षी । चिड़ा । वै० निघः। (A sea rabbit.) See-kulingab. प्रश्रयस्थि ashrvasthi-सं०हिं०स्त्री० यह नाली | अश्वकञ्च की रसः ashva.kanchukira. जैसी एक अस्थि है; आँख से अश्रु इसी अस्थि में sah-सं० प घोड़ागेली रस । योग तथा रहने वाली एक थैली में होकर नासिका के भीतर निर्माण-विधि-शुद्ध पारद, विष, गन्धक, पहुँचते हैं । अशुांसे सम्बन्ध रखने के कारण इस हरताल, सोहागा, सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध अस्थि का नाम अश्वस्थि पड़ा है। यह अस्थि जमालगोटा के वीज, हा, बहेड़ा, भाममा, काग़ज़ जैसी पतली और बहुत कोमल होती है। प्रत्येक तुल्य भागलें । इमको चूर्ण कर भाग गरे लेक्रिमल बोन (Lacrimal bone)-ई। के रसमें खरल कर उदद प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। आज म दम् ई अ० । उस्तनाँने अश्की-फा०।। यह प्रत्येक रोगोंको दूर करता है । जिस जिस गोष For Private and Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवकन्दकः अश्वगंधा(धिका) में जो जो अनुपान कहा है, उसी के साथ इसको अश्वकर्णम् ashva-karnam-10 क्ली० देना चाहिए। यो० त० ज्वरचि०। काण्डभग्न ( बीच से अस्थिभंग) नामक अस्थि(२ ) हरिताल ( रसमाणिक्य ), पारा, . भंग विशेष । जो टूटो अस्थि घोड़े के कान की गन्धक, वच, त्रिकुटा, बहेड़े की छाल, सोहागा, भाँति ऊँची हो जाए उसे "अश्वकर्ण" कहते हैं। संखिया, गोखरू, बच्छनाग, जमालगोटा, हींग, सु०नि०१५ ०। देखो-भग्नम् । कुष्ठ कड़वी, नकछिकनी, गजपीपल, हड़ की छाल | अश्वकात(थ) रा,-रिहा ashra-kita ) प्रत्येक समान भागको पृथक् पृथक् चूर्ण कर कपड़ (tha lá,-riká. छन करके भांगरे के रस में ४ दिन खरल करके अश्वकाथरिवा ashvan.katharivi मंग प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। यह पृथक् पृथक् सं० स्त्री० हयकातरा । घोड़ा काथरा-हिं०, अनुपान से रोग मात्र को तथा अंजन से फूले को बं० । घोड़े काथर-मह० । और लेप से श्वित्रको नष्ट करती है। रस. यो. गुण-तिक्र, वातनाशनी तथा दीपनी है। सा.। (काथराहय पर्यायः काथरा वै प्रकीर्तिता) रा० निक। अरक्कन्द :: a hvakanda kah-सं० प.. अश्वगंधा, असगंध । (Withania somni अश्वकात्रि ashva.katri-मह० बाशिंग, तान्दर वाशिंग । कडिक पान,कडिक-पन-बम्ब०। fera.) रत्ना० । पाली पोडिअम् कर्सिफोलिअम् ( Polypod. प्रवकन्दिका ashra-kandika-सं. स्त्री (१) एक वनस्पति विशेष । (२) अश्वगंधा, ium quereifolium, Spr. )-खे । प्रसंगंध । ( Withania somnifera.) फा००३ भा० । देखो-बाशिंग। र०मा०। अश्वखुरः ashva-khurah-सं०५(1)नखी प्रश्वकर्णः, कः,-णिका ashvakarnab,--kah नामक गन्ध द्रव्य (See--nakhi.)रस्ना० । (२) घोटक खुर, घोडेका खुर, सम । ( A - rniki-सं० पु., स्त्री. (१) शाल boof.) रा०नि० । वृत । ( Shorea robusta,) शाल गाछ बं० । सु० सू० ३८ ० । च. सू० ४ ०।। अश्वखुरा,रा ashvaKhura,ri-i० स्त्रा. (२) सर्ज रस भेद, एक प्रकारका शाल-वृक्ष । श्वेतापराजिता, विष्णुकान्ता । रा०नि००३ । सर्जशास्त्र विशेष । ग० नि० व. २३ शास। (.Olitorea ternatea.) देखी--अपसंस्कृत पर्याय-जरणद्रुमः, तार्य, प्रसवः, । राजिता। शस्यसम्बरणः, धन्दः, दीर्घपर्णः, कुशिकः, | अश्वगन्द-बिची ashva.ganda-bichi-बं० कौशिकः । भा० म०४ भा. रेवती-चि० । 'धवा- | पुनीर के बीज, हिन्दी काक्नज के बीज-हिं०, २० श्वक ककुभः।' Withania ( Puneeria.) Coag. ulans, Dunal. (Seeds of-)। स० . गुण-कटु, तिक स्निग्ध, रक पित्तघ्न, उरो | रोग, विस्फोट और कण्डू (खाज ) नाशक है। फा. ई० । देखो--अश्वगंधा । रा०नि०प० । कषेला, बण, पसीना, कफ अश्वगंधा (धिका) ashvagandha,-ndतथा कृमिनाशक और विद्रधि, बधिरता, योनि hika-सं० (हिं.) स्त्री० एक सीधी मादी जो बकई रोग नाशक है। भा०१०१ भा० बटादि गर्म प्रदेशों में होती है और जिसमें मको की तरह घ.। मात्रा-२ मासा । छोटे छोटे गोल फल लगते हैं । बाराही गेठी, असगंध, पुनीर-हिं० । (३) पलाश भेद । स० सू० ३६ प्र. शरीर (४) लताशास्त्र | शियादिलता-बं०।। संस्कृत पर्याय-जिस संस्कृत शब्द के अन्त प० मु०। में "गंधा" और आदि में वाजि वाचक शब्द For Private and Personal Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगया. ७६ अश्वगंधा श्राए (अर्थात् समस्त अश्ववाचक शब्द ), उन | . नागौरी असगंध भी कहते हैं। नागौरी असगंध सब को असगंध का पर्याय समझना चाहिए, सर्वोत्तम होता है। . .. जैसे, तुरंगगन्धा वा हयाह्वया प्रभृति । अश्व वानस्पतिक-वर्णन-असगन्ध के जुष कदिका, काम्बूका, अश्वावरोहकः (र), अश्वा २-२॥ हाथ उच्च एवं शाखाबहल होते हैं। रोहा (हे), हयगंधा, वाजिगंधा, अश्वगन्धिका, पत्र युग्म (जोड़े जोड़े), अण्डाकार, प्रखंड, बल्या, तुर(ग, अ) गन्धा, कम्बुका, अशवारोहिका, २ से १ इंच दीर्घ, स्वतन्त. लोमश तथा चौडे तुरगी, बलजा, वाजिनी, अवरोहिका, वराहकर्णी, होते हैं । पुष्प शुद्र, ह्रस्वन्त, कोय ( पत्रहया, पुष्टिदा, बलदा, पुष्टिः, पीवरा, पलाशपर्णी, वृन्तमूल से होकर प्रस्फुटित होते ), शाखाग्र वातघ्नी, शयामला, कामरूपिणी, काजा, प्रिय. स्थित, दलबद्ध दल (पाभ्यंतर कोप )घण्टाकरी, गन्धपत्री, हरनिया, बाराहपत्री, वाराहकर्णी, ल्याकार, पीताभ हरिद्वण, और अत्यंत लघु होते तुरंगगन्धा, तुरगा, वाजिना. वनका. हयप्रिया, हैं 1 फल छोटे, लाल, मसूण, मटराकार, एक कम्बुकाष्ठा, अवरोहा, कुष्ठघातिनी, रसायनी और झिल्लीवत् कुण्ड (Calvx ) से प्रावरित और तिका । गुण प्रकाशिका संज्ञाएँ-"पुष्टिदा", शिखर पर खुले हुए होते हैं, बाज असंख्य "वल्या", "वातमी" "वाजीकरी" | हिन्दीकाक नज-द० । अश्वगंधा-बं० । काकनजे हिन्दी अतितुद्र, लगभग एक इंच का वाँ भागदीर्घ, -१०, फ़ा। बहमन बरी-फा। विथेनिया पीताभश्वेत, वृताकार, पार्श्वद्वय संकुचित; बीज सोम्निफेरा ( Withania somnifera, बाह्यावरण ( 'Testa) मधुमक्षिकागृहवत् होता Dunal.), फाइसेलिस फ्लक्सुअोसा ( Phy. है। समग्र तुप हस्व, सशाख, सूक्ष्मान रोमों salis fluxuosa..), फाइसेलिस सोम्निफ्रेंरा. | से पाच्छादित होता है । मूल मूलकवत् शंक्वा. ( Physalis somnifera, ! anal.) कार, किंतु क्षीण-ऊपर से हलका धूसर परंतु - ले० विण्टर चेरी( Winter cerry.) तोड़ने पर भीतर शवेत होता है। कच्ची जद से -९० । मूरेङ्कप्पेन ( Moorenkappen ) अश्व मूत्रवत् (तीक्ष्ण अग्राह्य ) गंध आती -डच० । अङ्क लाङ्ग का लंग, अश्वगराडी-ता०। है, इसी कारण इसको अश्वगंध प्रभृति नामों से पेबेरु-गड, अश्वगंधी, पिल्ली प्रांगा-ते. । पेवेट्टे, अभिहित करते हैं। शुष्कावस्था में गंध नहीं अमुकिरम्-मल | अंगबेरु, सोगडे-बेरु, हिरे-वेरू, होती एवं यह अत्यंत मृदु होती है। इसका हिरे-महिन(-वेरु )-कना०। प्रासकन्द, असन्ध, स्वाद तिक्त होता है। प्रासंध, प्रासांतु, अंगुर, श्रासन्धिका, अशव. गन्धा, तुला, कञ्च की, दोरगुञ्ज-मह० । पारव व्यापार में आनेवाली शुष्क जड़ ४ से - सन्ध, पासोंध (घ), प्रासन-गु० । फतरफोदा इञ्च लम्बी और शिखर से किञ्चित् अधःस्थ -गो० । ढोरगुज-दे० । असगन्ध-यम्ब० । बय-: स्थूलतम भाग चौथाई से पाच इंच चौड़ा मन-सिंध । अमुक्रा-सिंहली। .: : ( व्यास)होता है । यह मसूण, चिक्कण, शंकता. कार, बाहर से हलका पीताभधूसर वर्ण का और . भीतर से शवेत एवं भंगुर होता है। टुकड़े लघु (N. 0. Solanacea.) " और शवेतसार पूर्ण होते हैं। मूल विरला हो उत्पत्ति-स्थान-भारत के शुष्क एवं अधोष्ण | " संशाख होता है । शिखर से संश्लिष्टः कतिपय भाग यथा बम्बई, पश्चिम भारतवर्ष वा पश्चिमी कोमल काण्ड के अवशेष वर्तमान होते हैं। घाट और कभी कभी बंग प्रदेशमें मिल जाता है । ...अणुवीक्षण द्वारा परीक्षा करने पर जड़ में पाए असगंध नागौर, प्रदेश में बहुत होता है और | जाने वाले पदार्थ प्रधानतः कोमल, श्रण्डाकार, वहाँ से सर्वत्र भेजा जाता है। इसी हेतु. इसको कोषावृत श्वेतसार द्वारा निर्मित होते हैं। यह वृरती व For Private and Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगंधा अश्वगंधा -- -- - लुभाबी एवं किञ्चित् तिक्त स्वादयुक्त होता है। "मेटिरिया मेडिका श्रॉफ वेष्टर्न इंडिया" में यह मत प्रगट किया गया है कि व्यापारिक वस्तु उपयुक्त पौधे की जड़ नहीं हो सकती। रासायनिक संगठन-इसमें.. सोम्निफेरीन (Soinniferin) वा अश्वगंधीन नामक . एक क्षारीय सत्व (क्षारोद) पाया जाता है जो . निद्राजनक है तथा राल, वसा और रजक पदार्थ · पाए जाते हैं। . प्रयोगश-मून, बीज तथा पत्र। मात्रा-२ तो. ... . औषध निर्माण-मूल चूर्ण,मात्रा-४ श्राना .. से ८ आना पयंत । क्षार, मात्रा-२ श्राना से ४ाना तथा अशवगधाघृत और अशवगंधाऽ . रिष्ट आदि । ... अश्वगन्धा के गुणधर्म तथा उपयोग - आयुर्वेदीय मतानुसार-प्रशवगधा तिक्त, कपेली, उष्ण वीर्य तथा वातकफनाशक है और विष, वण व कफ को नष्ट करती एवं कांति, वीयं व बल प्रदान करती है। धन्वन्तरीय निघण्टु । . शुक्रवृद्धिकारक होने के कारण इसको शुक्रला कहते हैं तथा यह तिक, कटु, उष्णवीर्य एवं बलकारी है तथा कास, श्वास, व्रण और वात को नष्ट करने वाली है । (रा०नि० व०४) असगंध बलकारक, रसायन, निक, कषेला, गरम और अत्यंत शुक्रल है ए' इसके द्वारा वात श्लेष्म, श्वित्र (सफेद कोढ़ ), सूजन, क्षय, श्रामवात, व्रण, खासी और श्वास का नाश होता है । ( भा० पू० १ भा०। मद. व०१) यह रसायन है और वात कफ, सूजन तथा श्वित्र ( सफेद कोद) को नष्ट करता है । . (भा० म० ख० १ भा०) .. ... अश्वगंधा जरा ( वृद्धता ) व व्याधि नाशक . . और कषेली एवं किचित् कटुक (चरपरी) है .. तथा धातुवर्धक व बल्य है। (वृहनिघण्टु 'रलाकर)। ...अशवगंधा के पत्रका प्रलेप करनेसे ग्रंथि, गन गंड तथा अपची का नाश होता है। (शोढ़ल निघण्टु) तत्शोधनं यथा प्रयोगाः-पञ्च पल्लव तोयेन गंधानः ज्ञाननं तथा । शोषणचापि संस्कारो विशेषश्चात्र वच्यते ॥ - सलगंध के वैद्यकीय व्यवहार चरक-श्वास में अश्वगंधा मूल चारश्वास रोगी को घृत तथा मधु के साथ अश्वगन्धा के अन्तधूमदग्ध क्षार का सेवन कराएँ । यथा"क्षारञ्चाप्यश्वगन्धाया लेहयेत् क्षौद्र सर्पिषा।" (चि० २१ अ.) सुश्रुत-शोथ में अश्वगन्धा-कुट्टित अश्वगन्धा २ तो० को गव्य दुग्ध प्राध पाव तथा जल डेढ़ पाव के साथ दुग्ध मान अवशेष रहने तक क्वाथ प्रस्तुत करें और इसे वस्त्रपूत कर शोष रोगी को पिलाएँ; किम्वा क्षीर परिभाषानुसार प्रस्तुत असगन्ध के क्वाथ से मन्थन द्वारा निकाले हुए नवनीत और उससे बने हुए घृत का पान कराएँ । यथा "क्षीरं पिवेद्वाप्यथ वाजिगन्धा-1 विपक्वमेवं लभते च पुष्टिम् । तदुत्थितं क्षीर धृतं सिताढयम् । प्रातः पिवेद्वाथ पयोऽनुपानम् ।" (उ० ४१ अ०) । मात्रा-ग्राधा तो० से १ तो० तक। चक्रदत्त-धातव्याधि में अश्वगन्धा-(१) असगंधका क्वाथ तथा कल्क और इससे चतुर्गुणधृत इन सबको गोघृत के साथ यथा-विधि पाक कर सेवन करें। यह घृत वातघ्न, वृष्य एवं मांस वर्द्धक है। यथा'अश्वगन्धा कषाये च कल्के क्षीर चतुगुणम् । घृतं पक्वन्तु वातघ्नं वृष्यं मांस विवद्धनम् ॥, (वातव्याधि० चि०) (२) उदरोपद्रवभूत शोथ में अश्वगन्धा. उदर रोग में शाथ होने पर प्रसगन्ध को गोमूत्र में पीसकर पान कराएँ । यथा"गोमूत्रपिष्टामथवाश्वगन्धाम् ।" .. (उदर० चि.) (३) बन्ध्यात्व में अश्वगन्धा-पीर परि For Private and Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्वगंधा भाषानुसार प्रस्तुत असगन्ध के क्वाथ में किञ्चिद् गोमूत्र का प्रक्षेप देकर, ऋतुस्नान की हुइ बन्ध्या वाला (नारि) इसका पान करे। यह गर्भप्रद है । यथा--- ७६. "काथेन हयगन्धायाः साधितं सघृतं पयः । ऋतुस्नाता वाला पीत्वा धरो गर्भन संशयः ॥ " ( योनिव्यापश्चि० ) (४) बालकके कार्श्य गेगमें अश्वगन्धाकुश शिशु के शरीरकी पुष्टि हेतु दुग्ध, घृत, तिल तैल, किम्वा ईषदुष्ण दुग्ध के साथ असगन्ध के चूर्ण का सेवन कराएँ । यथा- "पीताऽश्वगन्धा पयसार्द्धमासम् । घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा ॥ कृशस्य पुष्टिं वपुषो विधत्ते 1 वालस्य शस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः ॥ " ( रसायनाधिकार ) मात्रा -- अवस्थानुसार । भावप्रकाश-हृदयगत वायु रोग में अश्वगन्धा--वायु को हृदयगत होने पर असगन्ध को उष्ण जल के साथ पीस कर सेवन कराएँ । यथा--". पवेदुष्णाम्भसा पिठामश्वगन्धाम् ।" ( मं० ख० २ भा० ) वंगसेन -- निद्रानाश रोग में अश्वगन्धाअश्वगन्धा चूर्ण को गोवृत तथा चीनी के साथ चाटने से नष्टनिद्रा वाले को नींद श्राजाती है । यह परीक्षा सिद्ध है । यथा- "चूर्णं हयगन्धायाः सितया सहितञ्च सर्पिषा लोढम् । विदधाति नष्टनिद्रे निद्रामश्वेव सिद्धमिदम् ॥" जल दोषादि योगाधिकार ) वक्तव्य जिन दव्यों के श्राद्ध रूप में प्रयुक्त करने की विधि है "सदैवार्द्रा प्रयोक्रव्या” उनमें से असगन्धभी एक है । असगन्ध कच्चे अर्थात् गीले रूप में ही व्यवहृत होता है । चरक की वातव्याधि की चिकित्सा के अन्तर्गत श्रश्वगन्धा के काथ में तैल पाककर व्यवहार करने का उपदेश है (“कल्पोऽयमश्वगन्धायाः " - चि०२८ श्र० ), पर दक्षीण चिकित्सा के अन्तर्गत अश्वगन्धा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र का नामोल्लेख भी नहीं । सुश्रुतोक्त वातव्याधि चिकित्सा के अन्तर्गत अश्वगंध का नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । चरक में अश्वगन्धा का वर्ग में पाठ आया है। यूनानी मतानुसार प्रकृति-उष्ण व रूक्ष २ कक्षा में (पिच्छिल आर्द्रता के साथ ) । हानिकर्त्ता- - उष्ण प्रकृति को । दर्प-कतीरा श्रवश्यकतानुसार। प्रतिनिधि- समान भाग बहमन सफ्रेद ( वा मधुर कूट तथा सूरिञ्जन ) । मात्रा -४ से ६ मा० । प्रधान कर्म -- कामशक्तिवद के तथा कटिशूल के लिए हितकारक है। T गुण, कर्म, प्रयोग-कास, श्वास तथा श्रव यत्रों के शोथ को लाभप्रद है। शरीर, काम, कटि और गर्भाशय को शक्ति प्रदान करता, रस्लेष्म विकार को शमन करता और श्रमवात (गठिया) के लिए कटु सूरिआन की प्रतिनिधि है । (निविंबैल ) म० मु० । नोट - यूनानी ग्रंथों में असगंध के गुणधर्म प्रायः श्रायुर्वेदीय ग्रंथों की नकल मात्र हैं । For Private and Personal Use Only नव्यमत श्रसगंध वल्य, रसायन एवं अवसादक है । असगंध की जड़ का चूर्ण दुग्ध किम्वा घृत के साथ बालकको सेवन करानेसे वह पुष्ट होता है । अश्वगन्धा का रसायन रूपसे खण्डमोदकादि रूप में जराकृत दौर्वल्य तथा वातरोगों में व्यवहार करते हैं । वातज दौर्बल्य एवं प्रदर में एतदेशीय रमणीगण श्रन्यान्य बहुपोषक द्रव्यों के साथ अश्वगन्धाका उपयोग करती हैं। अश्वगंधा के पत्र को एरण्डतैलमें सिक्त कर स्फोटकादि के ऊपर स्थापित करने से वह अंग सुप्त हो जाता हे अर्थात् तत्स्थानीय त्वक् स्पर्शज्ञान रहित हो जाता है । बधिरता में नारायण तैल ( जिसका अश्वगन्धा एक उपादान है ) का नस्य एव पक्षाघात, धनुस्तम्भ, वात एवं कटिशूल में इसका अभ्यंग और श्रामरक्रातिसार ( प्रवाहिका ) विशेष एवं भगंदर में इसका अनुवासनवस्ति ( Enema ) रूप से प्रयोग करते हैं। शिशु कार्य, Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धा अश्वगन्धा जराजन्य दौर्बल्य,कु, वात व्याधि एवं वातरोगों | ___-ता०। पेन्नेरु-गड-वित्तु लु-ते। अम्कीरे-गड्डे में यह १५ से ६० बूंदकी मात्रा में सेवनीय है। -कना० । मुकिरम्-मल०। काकनज-बम्ब । ( मेटेरिया मेडिका प्रॉफ इण्डिया, पार० एन० पनीर-बन्द, पनीर-जा-फोटा-सिं० । अमुक्कुर-महO खोरी २खं० पृ०४५२) खाम जड़िया, स्पिनबज, शापिङ्ग, खम-ए-जड़े, "बम्बे फ्लोरा" नामक पुस्तक के रचयिता मावजूर, पनीर, कुटिलना-१० । स्पिनबजलिखते हैं कि इसके बीज पुनीर बीजवत् दुग्ध के अफ। जमानेके काम पाते हैं। मैंने भी प्रयोगकर इसकी देशी असगंध के बीज परीक्षा की और वस्तुतः इसके बीज में किसी पुनीर के बीज-हिं० । हिंदी काकनज के बीज, प्रकार उक्र शनि को विद्यमान पाया। (फा०ई० नाट की असगंध के बीज-द० । हब्बुल-काकनजे. २ भा० पृ० ५६७) हिन्दी-अ० । तुझमे काकनजे हिंदी-फ़ा० । विथे. रॉग्ज़बर्ग लिखते हैं कि तैलिंग चिकित्सक निया ( पुनीरिया) कोग्यूलेंस Withania इसको विषघ्न मानते हैं। ( Puneeria ) Coigulans, dunऐसलो लिखते हैं कि बाजार में मिलने वाली al - (Feeds of-.)-ले। अम्मुकुड़ा-वि. जड़ पांडु वर्ण को होती और उसका वाह्य स्वरूप ता० । पेनेरु-गडु-वित्तुलु-ते। अश्वगंद विची जेन्शनकी तरह होता है;परंतु इसमें किंचित् अगाय -बं० । स्वाद एवं गंध होती है । यद्यपि तैमूल चिकित्सक वृहती वर्ग इसको अवरोधोद्घाटक और मूत्रल मानते हैं (N.O. Solanaceue) और इसका काथ चाय की प्याली भर दिन में दो बार प्रयक्र करते हैं। पत्र को किंचित् उष्ण उत्पत्ति-स्थान-भारतीय उद्यान, बन, एरंड तेल में सिक्र कर विस्फोटक पर स्थापित पर्वत तथा खेतों की बाड़ों में यह बूटी सामान्य करते हैं। रूप से होती है। पंजाब, सिन्ध, सतलज की बीज मूत्रल और निद्राजनक प्रभाव करते है घोटी, अफ़ग़ानिस्तान और बिलूचिस्तान । हैं । ( इर्विन) वानस्पतिक-वर्णन-एक लघु, दृढ़, धूसर, लगभग १ गज उच्च चुप है । पत्र श्लेष्मातक फल मूत्रल है । पत्र अत्यन्त तिक्क होते हैं पत्रवत्; किन्तु उससे किञ्चित् लम्बोतरी शकल के और ज्वर में इसका फांट व्यवहार में आता है । शाखा बहुल, प्रत्येक शाखा पर अधिकता के साथ पञ्जाब में यह कटिशूब निवारणार्थ प्रयुक्र होता है और कामोद्दीपक माना जाता है। सिंधमें गर्भ फल लगे होते हैं । समग्र फल लगभग ई. पात हेतु इसका व्यवहार होता है । राजपूत लोग त्यास में, आधार पर चिपटा, एक चर्मवत् कण्ड इसकी जड़ को प्रामवात तथा अजीर्ग में लाभ द्वारा श्रावृत्त, जिसके शिखर पर एक पञ्च विभाग दायक मानते हैं। (इं० मे. प्लां.) युक्त सूक्ष्म छिद्र होता है जिससे फल का एक दशी असगंध (प्राकसन बूटी) सचम अंश दृष्टिगोचर होता है। परिपक्व होने अश्वगन्धा सं०, बं०, मह०,को० । देशी पर यह रकवर्ण का किन्तु शुष्कावस्था में पीताभ असगंध, प्राकसन, अकरी,पुनीर-हिं । काकनजे एवं छिलकावत् हो जाता है। उसके भीतर हिन्दी-अ०, फ़ा। विथेनिया ( पुनीरिया) को- चिपटे वृक्काकार बीजों का एक समूह होता है जो ग्यूलेन्स Withania ( Puneeria ) चिपचिपे धूसर मजा से संश्लिष्ट होता और Coagulans, Dunal.-ले। वेजिटिबल जिसकी गंध हृल्लास जनक फलीय होती है। बीज रेनेट Vegetable rennet-.50 नाट की अधिकाधिक इच लम्बे होते हैं। पत्र का असगंध, हिंदी काकनज-द.। अमुक ड़ा-विरै स्वाद एवं गंध तिक्क होती है। ६७ For Private and Personal Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धा ७७० अश्वगन्धाद्यघृतम् रासायनिक संगठन-विथेनीन (Witha. शोधक रूप से प्रख्यात हैं । अधुना क्यु (Kew) nin.) नामक एक प्रभावात्मक सत्व । यह एक में किए गए हूकर (Sir. J. D, Ilooker) प्रकार का अभिषव ( Fer.nent) है जो उक के परीक्षणानुसार यह निश्चय किया गया है कि पौधे के बीज द्वारा प्राप्त होता है और प्राणिज १ पाउस पुनीर के फल ( Withania रेनेट (Animal remet) से बहुत कुछ coagulans ) का १ क्वार्ट (४० पाउस) समानता रखता है एवं उसकी एक उत्तम प्रति- खौलते हुए जल में क्वाथ कर, इसमें से एक निधि है। ( Tablespoon ful ) उन क्वाथ १ गलन क्वथित करने से यह नष्ट हो जाता है और मद्य उष्ण दुग्ध को लगभग अाध घंटे में जमा सार से अधःक्षेपित होता है एवं इसका उसके देगा (फा० ई०२ भा०)। शुष्क फल में जमाने वाले गुण पर कोई प्रभाव नहीं होता । भी यह गुण है। बीजसे ग्लीसरीन वा साधारण लवण (संधव) के ___ पक्व फल में अंगमईप्रशमन एवं अवसादक तीव्र घोल द्वारा इसका सत्व प्राप्त किया जाता गुण होने का अनुमान किया जाता है । ( ई० है। इन दोनों विधियों द्वारा प्रस्तुत सत्व अल्प मे० प्लां०)। मात्रा में भी तीव्र जमाने का प्रभाव रखता है। अश्वगन्धा घृतम् ashya-gandha-gh. प्रयोगांश-फल, मूल एवं पत्र । ritam-सं० क्ली. असगंध के कषाय या औषध-निर्माण-घृत व तैल आदि। __ कल्क में चौगुना दुग्ध मिला उसमें घृत मिला प्रभाव.-यामक, रसायन, मूत्रल और यह । कर पिकाएँ । जब घृत सिद्ध होजाए तब उतार दुग्ध को जमा देता है। एवं छान कर रक्खें। प्रयोग-सिंध तथा उत्तर पश्चिम भारत एवं ___ गुण-इसके सेवन से वातरोग का नाश अफ़ग़ानिस्तान में यह रेनेट के स्थान में दुग्ध होता है और पुष्ट करते हुए मांस की वृद्धि जमाने के काम पाता है। देशी लोग इसके फल करता है। वंग से० सं० वातरोग-चि०। को थोड़े दुग्ध के साथ रगड़ कर इसको दुग्ध में अश्वगन्धा तैलम ashvagandha-tailam उसे जमाने के लिए मिला देते हैं । डाक्टर -सं० क्ला० वात व्याधि में प्रयुक्त तेल विशेष । स्टॉक्स (१८४६ ) के वर्ण, से पूर्व ऐसा च० द०। प्रयोगाः। प्रतीत होता है कि इस अोर लोगों का कम ध्यान था। अश्वगन्धादि नस्यम् ashva-gandhadinas vam-सं०को० असगन्ध, सैंधव, वच,मधुसार, (नवीन ) फल वामक रूप से भी प्रयुक्त मरिच, पीपल, सोंठौर लहसुन को बकरे के होता है और अल्प मात्रा (शुष्क ) में यह मूत्र में पीस नस्य लेने से नेत्र स्वच्छ होते हैं। पुरातन यकृद्रोगजन्य अजीण ( तथा प्रानाहशूल ) की औषध है। यह मूत्रल एवं रसायन अश्वगन्धाद्य घृतम् ashvagandhadyagh. rjtam-सं० का० (१) अश्वगन्ध के कल्क है । बम्बई में इसको प्रायः काकनज (hysalis alkekengi, Willd.) & 9 ४ भा० को दुग्ध १० भा० में पकाकर बालकों मिलाकर भ्रमकारक बना दिया जाता है। काक को पिलाने से यह उनके बलकी वृद्धि करता है। नज का आयात फारस से होता है और अरबी में व० सं० बालरो०-चि०। उसको काकनज वा हजुल काकनज कहते हैं। (२) असगंध मूल प्रस्थ, दुग्ध २ श्रादक इब्नसीना ने इसको काकमाची(मको )वत् (५१२ तो. ), घृत १ प्रस्थ इनकोकोमल अग्निसे रसायन लिखा है और त्वगरोगों के लिए विशेष पकाएँ । पुनः सोंड, मिर्च, पीपल, दालचीनी, रूपसे लाभदायक लिखा है। उक्त दोनों पौधे रक्त- इलायची, तेजपत्र, नागकेशर, वायविडंग, For Private and Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्याय चूर्णम् अश्वगन्धा पाकः जावित्री, खिरेटी, गंगेरन, गोखरू, विधारा, | __ नोट-ब्रह्मवीज (पलाश पापड़ा वा पलाश के लोहभस्म, अभ्रक भस्म, वंगभस्म प्रत्येक ४-४ बीज ) को सब चूर्ण का प्राधा लेना चाहिए । तो०, मिनी ३२ तो०, शुद्ध शहद ३२ तो० । रस० र० । काष्ठ प्राधिों का चूर्ण कर उक्र सिद्ध घत में | अश्वगन्धाद्य तेलम् ashvagandhadyaमिश्रित कर उत्तम पात्र में रक्खें।। __thilam-सं० को० असगन्धमूल ४०० तो० गुण-इसको उचित मात्रा में सेवन करने से को १०२४ तो० जज में पकाएँ, जब चौथाई शेष श्रर्दिन वात, हनुस्तम्भ, मन्यास्तंभ कटिग्रह, शोष, रहे तब कपड़ छान कर चौगुना गोदुग्ध मिला सन्धिगत वात, अस्थिभङ्ग, गृधपी, अग्नि दोष, कर पकाए । पुनः कमल की डंडी, कमलकन्द, चर्म दोष, पाद शोप, परित्राव, असमय गर्भ कमलतन्तु, कमलके सर, ( कमल पञ्चांग), चमेली पात, ग्रामवात, पाण्डु, शुक्रदोष, नपुंसकता पुष्प, नेत्रबाला, मुलेी, अनन्तमूल, कमल केशर, श्रादि रोग नष्ट होते हैं। वं 1 से० सं० वाजा मेदा, पुनर्नवा, दाख, मनी, दोनों कटेगी, ऐलवाकर० अ०। लुक, त्रिफला, मोथा, चन्दन, इलायची, पद्म(३) शुभ दिन, शुन देराज अश्वगंधमूल का८; प्रत्येक १-१ तो० लेकर कल्क प्रस्तुत करें। ४०० तो० ग्रहण कर १०२४ तो जल में पुनः १२८ तो० तिल तेल मिलाकर विधिवत् पकाएँ । जब चौथाई शेष रहे, वस्त्रसे छानकर पुनः पकाएँ। छाग मांस ८०० तो०, गोघृत ६४ तो०, गोदुग्ध गण-इसके सेवन से रऋपित्त, वातरक, २५६ तो०, काकोली, ऋद्धि, मेदा, महामेदा, क्षीर प्रदर, कृशता, वीर्य विकार, योनि विकार, नासा काकोली, जीवक, कौंच बीज, अडूमा, कबीला, शोष, नपुसकता, व्रण तथा शोथ दूर होते हैं। मुलहठी, मुनक्का, धमाया, पोपल, जीवन्ती, इसको मालिश ( अभ्यंग) पान और अनुवासन खिरेटी, पीपर, विदारीकंद, शतावरी इनका कल्क वस्ति में भी देते हैं। बंग. से. वातव्याधि बना उक घृत में मंदाग्नि से पकाएँ । पुन: शहद चि०। मिश्री १६-१६ तो. मिश्रित कर उत्तम पात्र में अश्वगन्धा पाकः ashvagandhāpākah-लं० रक्खें। पु. ६ सेर गाय के दूध में ३२ तो० अश्वगंध गुण --- इसके सेवन से क्षत, क्षय, दुर्बलता, के चूर्ण को पकाएँ । जब पकते पकते कड़छी से बालोंका श्वेत होना, हृद्रोग, वस्तिगत रोग, विव- लिपटने लगे तो उसमें चातुर्जात, जायफल, केशर, र्णता, स्त्री, पुरुष एवं बालकों के रोग, नपुंसकता, वंशलोचन, मोचरस, जटामांसी चन्दन, अगर, खाँसी, श्वास, वातव्याधि, स्त्रियों का बन्ध्यापन जावित्री, पीपल, पीपलामूल, लवंग, शीतलचीनी, श्रादि अनेक व्याधियाँ दूर होती हैं । वंग० से. चिलगोज़ा, अखरोट की गिरी, मिलावाँ की गिरी, सं० क्षय-चि०। सिंघाड़ा और गोखुरू प्रत्येक एक एक तो० को चूर्ण अश्वगन्धाद्य चूर्णम् ashvagandhadya- कर डालें । और रससिंदूर, अभ्रक भस्म, सीसा, churnam-सं० क्ली. यह स्वरभंगका नाश बंग और लोहभस्म प्रत्येक ६ माशा डालें । फिर करता है | योग इस प्रकार है, यथा-अश्वगंध, सबको सुखाकर (घी में सेककर ) चासनी में अजमोदा, पाडा, त्रिकटु, सौंफ, पलाशपापड़ा, डालें। सेंधानमक समान माग, इनका प्राधा भाग वच, गुण-यह उचित मात्रा से सभी प्रमेहों, जीर्णइन सबको चूर्णकर मधु और घृत में भली प्रकार ज्वर, शोष, वातिक तथा पैतिक गुल्म को नष्ट मिलाकर रखें। करता है तथा वीर्य की वृद्धि और शरीर को पुष्ट मात्रा-१० माषा (दुग्ध के साथ) सेवन करके जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। रस० यो० सा । करें। For Private and Personal Use Only Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगन्धाभ्रकः प्रश्वजीवनः Qran-3187: ashvagandhábhrakah लेकर मिट्टी की कड़ाही में डालकर मंद अग्नि से -सं० पु० - सेर प्रमगंध का क्वाथ बनाकर पकाएँ। जब पकते पकते प्राधा दूध शेष रहे छाने । फिर उसमें १६ तो० घी, ३२ तो० अभ्रक तब ऊपर बनाए हुए चूर्णो को उसमें मिला दें ! और सबके बराबर हल्दीका चूर्ण मिलाएँ । और जब दूध और घी घोटते घोटते पृथक् न मालूम केवाँच के बीजोंका चूर्ण, त्रिफला, विजात, नागर- पड़े तब उतार लें । फिर जीरा, पीपलामूल, मोथा, पृथक पृथक् चार चार तो० मिलाकर तालीसपत्र, लवंग, तगर, जायफल, खस, सुगंध. पकाएँ पाक तैयार होने पर उंडा कर उसमें ३२ बाला, नलद (बारीक खस), बेलगिरी, कमल तो० शहद मिलाएँ। के फूल, धनियाँ, धोके फूल, वंशलोचन, मामला, खैरसार, घनसार (कपूर), पुनर्नवा, अजगंधा, मात्रा-बलानुसार देने से राजयक्ष्मा, उर: चित्रक और शतावरी प्रत्येक प्राधा तो. और क्षत, सय, वात रोग और कृशता को दूर करके स्त्रियों में अत्यन्त हर्ष को उत्पन्न करता है। रस० शुद्ध पारा २ तो० तथा रमसिंदूर २ तो० लेकर यो सा०। बारीक चण करके लाएँ। फिर उंडा होने पर शहद मिलाकर चिकने बर्तन में रक्खें। अश्वगन्धारिटः ashvagandharishtah-सं. पु. असगंध तुला, मुषली ८० तो०, मजो:- मात्रा-२ तो०। हड़, हल्दी, दारुहल्दी मुलहनी, रास्ना, विदागेकंद, , गुण-खाँसी, दमा, हिचकी, अजीण वातअर्जुनकी छाल, नागरमोथा, निशोथ अनन्ता (दूब) रक्र, प्लीहा, वातरोग, श्रामवात, सूजन, वादी श्यामलता प्रत्येक ८०-८० तो०, श्वेत चन्दन, बवासीर, पांडु, कामला, मंग्रहणी, गल्म रोग, वात रतचंदन, वच, चित्रक प्रत्येक ६४-६४ तो० इनको कफ के विकार तथा मंदाग्नि को दर करता और पूर्ण कर द्रोण जल में पकाएँ । जव , द्रोण बाल को, स्त्रियों तथा अल्पवीर्य वाले पुरुषों की काय शेष रहे तब शीतल हो जाने पर धवपुष्प | काम वृद्धि करता है । रस. यो० सा०।। १२८ तो०, उत्तम शहद १५ सेर, सोंठ, मिर्च, अश्वगन्धिका ashva.gandhiki-सं० स्त्री० पीपल १६-१६ तो०, दालचीनी, इलायची. तेज अश्वगंधा, असगंध । (Witharia Somnia पत्र ३२ तो०, फूल प्रियंगू ३२ तो०, नागकेशर fera.) ग.। १६ तो० चूर्ण कर उक काथ में मिश्रित कर उत्तम पात्र में रख एक मांस पयंत रखने से यह अरिष्ट | अश्वगोष्ठम् ashvagoshtham-सं० क्ली. सिद्ध होता है। वाजिशाला, अस्तबल, तबेला, घुड़साल, । (A मात्रा-१ से २ तो। stabie. ) अल-इसके विधिवत् सेवन करने से मूर्छा, अश्वघ्नः ashvaghnah-सं० पु. श्वेत करवीर अपस्मृति, शोष उन्माद, दुर्बलता, पर्श, मंदाग्नि वृक्ष, सफेद कनेर का पेड़ । श्वेतकरवी गाछ-बं०। और समस्त वात व्याधियों का नाश होता है। Nerium odorum ( The white भैष० र० मूर्छा चि.। var. of-) रा.नि. ५०१०। अश्वगन्धावलेहः ashvagandbavale hah | अश्वचक्र ashvachakra-हिं० संज्ञा पु. -सं० पु. असगंध चूण ४० तो०, सोंठ चण [सं.] (१) घोड़े के चिजों से शुभाशुभ का २० तो०, पीपल चूर्ण १० तो० और काली विचार । (२) घोड़ों का समूह । मिर्च ४ ती०, दालचीनी, छोटी इलागची, तेजपात अश्वजीवनः ashvajivanah-सं० पु. और नागकेशर चूर्ण प्रत्येक ४ तो०, गाय का चणक। चना-हि. । छोला-बं०। Gran दूध २०० तो०, शहद ५० तो०, गाय का घी or chick pea (Cicer ariatin. २१ तो०, राब १०० तो०, सबको पृथक् पृथक् um.) वै० निघ । For Private and Personal Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरवतरः ७७३ अश्वत्थ [स्त्री अश्वतर: ashvatarah-सं० पु. काही अश्वतर ashva tara- हि० संज्ञा पु.) अश्वतरी] (१)अश्वखरज, खच्चर, घोड़ी और गधे से उत्पन्न जीव । खच्चोर घोड़ा-ब० । (A mule or donkey ) सु० अ० ४६ । गुण-इसका मांस वल्य, वृंहण और कफ पित्त कारक है। मद० व०१२। (२) एक प्रकार का सर्प । नाग-राज । अश्वतृणम् ashvatrinam-सं० क्ली० पाषाण मूली । घोड़ाघास-हिं० । उश्बुलखील-अ..। (Collinsonia.) देखे-पृ० ७८३ अश्वत्थः ashvitthah-सं० पु० अश्वत्थ shrattha-हिं० २ज्ञा पु. (प० मु० । सु० सू० ३० अ० न्यग्रोधादिव.), पीपल, पि(पी)पर-हिं०, मह०, गु०, पं०, बम्ब० । फाइकस रेलिजिमोजा ( Ficus religiosa, Linn.)-ले०। दी सेक्रेड ट्री ( The sacred tree ), st organ at ( The peepul tree )-इं०। फिगोर -श्रो पात्रे डेस पैगोडेस Figu-ier ouarbre des pagodes (Ou de Dreu ou Conseils)-फ्रां०। रेलिजि भोजर फीगेनॉम(Religioser Fiegenbaum) -जर.। संस्कृत पर्याय-केशवालयः, चैत्यद्रुः(त्रि०), बोधितरु::, कृष्णावासः (हे), चैत्यवृक्षः (र), नागबन्धुः, देवात्मा, महामः (श), कपीतनः (मे), बोधिद्रुमः, चलदनः, पिप्पलः, कुञ्जराशनः (8), अच्युतावासः, चलपत्रः, पवित्रका, शुभदः, वोधिवृक्षः, याज्ञिकः, गजभक्षकः, श्रीमान्, सीरद्रुमः, विप्रः, मंगल्यः, श्यामलः, गुह्यपुष्पः, सेव्यः, सत्यः, शुचिद्र मः, धनुर्वृतः, गज भक्ष्यः, गजाशनः, क्षीरद्रुमः, बोधिनुः,धर्मवृक्षः,श्रीवृक्षः । प्राशुद् गाछ, अशोथगाछ, अश्वत्थ, अस्वतबं०। मुर्तमश-१०। दरस्त लरज़ॉ, पीपल -फा० । सुद्दी-उ० । अरस, अरश मरम्, अस्वथम्-ता० । राई (वि)चे, कुलुजुब्विचेछु, राई, रैग, रावि, कुल्लरावि, रागी-तै० । रंगी, बस्री, अरली, अरले नेसपथ, रागी, अस्वत्त, अरशेमर, अश्वत्थमर-कना । पिपल, पीपलो - मह । पिम्पल-मह०, को। परली-का। पिम्पल, पिप्लो, पिपुर, पिपुल-बस्ब० । पीपर, भोर-पं० । पिपुल-गु०। हिसार, पीपरदोल। हिसाक सन्तान जाऊ-उड़ि । बोरबर-छा० । पिप्ली-नेपा० । श्रा(अ)लीगो। पेपी-काकु । पोपल को पेडमारवा० । अरशम्मरम् द्रावि०। न.ट-इसका एक छोटा भेद है जिसको । पीपली कहते हैं । इसके पत्र छोटे होते हैं । अश्वत्थ वा वटवर्ग (... O. Urticaceae.) । उत्पत्ति-स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष और (बंग प्रदेश, मध्य प्रदेश ) हिमालय पाद । __ वानस्पतिक-वर्णन-अश्वत्थ एक रेष्टतम छाया वृक्ष है । पीपल के पक्व फल को पक्षीगण खाकर जब वीट करते हैं तब उसमें सावित बीज निकलते हैं। इनमें जननोपयोगी बीज किसी वृक्ष वा दीवार पर गिर कर मिट्टी का सहारा पाकर अंकुरित हो जाते हैं।। प्रस्तु. प्राचीन गृहों की वीवारों तथा वृक्षों पर भी पीपल के वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं । चैत्र में अश्वत्थ वृक्ष पत्रशून्य होता है और प्रायः ग्रीष्म ऋतु में नवीन पत्रों से सुशोभित होता है। इसके वृक्ष अत्यन्त वि. शाल एवं बहुशाखी होते हैं। पत्र गोल अंडाकार सिरे की ओर लहरदार हृदाकार, पत्रवृन्त दीर्घ एवं क्षीण, पत्राग्रभाग क्रमशः सूचम होता हुमा पति, पत्र का लम्बा होता है। फलकोष (कुण्ड ) कक्षीय, युग्म, वृन्त रहित, संकुचित, मटराकार (वा उससे वृहत्), ग्रीष्म ऋतु में फल लगते और प्रावृट में परिपक्व होते हैं । पक्वावस्था में बैंगनी रंग के होते हैं। पीपल के काटने और तोड़ने से उसमें से एक 'प्रकार का हहेसदार श्वेत रस निर्गत होता है जिसे पीपल का दूध कहते कहते हैं। इसी कारण इसका एक माम "क्षीर. दम" है और इसकी क्षीरी वृक्षों में गणना For Private and Personal Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्वत्थ ७७४ धाश्वत्थ होती है। उक्र दूध में रबड़ या धूप होता है। इसके वृक्ष में लाख लगता है जो श्रौषध कार्य में पाता है । इसकी शाखों और पेड़ में से वट वृक्ष की तरह हवा में जड़े फूटती हैं जिनको पीपल की दाढ़ी कहते हैं; परन्तु ये वट के वरोह इतने प्रशस्त नहीं होते और न इनसे वृक्ष ही तैयार होते हैं। उक्र दाढ़ी प्रोवधकार्य में पाती है। इसके कतिपय दरारों से एक प्रकार की श्यामवर्ण की गोंद भी निकलती है। नार जनसाधारण का यह विश्वास है कि वट, पीपल, गूलर, पाकर तथा अंजीर भति वृतों में फूल आते ही नहीं, परन्तु उनका यह विचार सर्वथा मिथ्या है और इससे उनकी उद्भिविद्या विषयक अज्ञता सूचित होती है। पीपल के फल और फूल को शकल में कोई विशेष अन्तर न रहने के कारण ऐसा हो जाना सम्भव है। शास्त्रों में इसके अस्पष्ट रहने के कारण ही इसको गृहपूष्प कहा गया है। सर्वसाधारण जिसको पीपल का कच्चा फल कहते हैं वही इसकी पुरुप है। इसका निश्चित् ज्ञान : नस्पतिशास्त्र के अध्ययन द्वारा हो सकता है। ज्ञात रहे किरायः वृद रात्रि के समय एक प्रकार का मनुष्य-स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वायव्योड़ा करते हैं; परन्तु अर्वाचीन विज्ञान के अन्वेषणानुसार उसके विपरीत अश्वस्थ में यह बात नहीं पाई जाती। यही कारण है कि हिंद लोग इसको चिरकाल से देवता तु य मानते आए हैं एवं उनके यहाँ इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। देखो-अञ्जोर । रासायनिक संगठन-त्वक में कषायीन (Tannin ), कू(कौ)चुक ( Coutch. ouc ) अर्थात् भारतीय रबर और मोम (W..x) आदि पाए जाते हैं। प्रयोगांश-पत्र, पत्रमुकुल, स्वक् , फल, बीज, पीपल की दाढ़ी, दुग्ध, काष्ठ, मूल और निर्यास, तथा लाक्षा। औषध-निर्माण-क्वाथ, मात्रा अाध पाव ।। पञवल्कन कषाय (च.द०), पञ्चवल्कलादि तैलम् प्रभृति । प्रभाव-पत्रमुकुल-रेचक; त्वक्-संग्राही; फल-कोष्ठकर दा मृदुरेचक; बोज-शीतल, मदुरेचक, शैत्य कारक और रसायन । अश्वत्थ के गुण-धर्म तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मनानुसार-पीपल का पका फल मधुर, कपेला, शीतल, कफपित्तनाशक एवं रक्रदीप व दाह का शमन करने वाला और तत्क्षण मोनिदोषहारक है । अन्यच्च अश्वत्थ वृक्ष के पा फज अत्यन्त हा एवं शीतल हैं और पित्त, रत के रोग, विष व्याधि, दाह, वमन, शोप तथा अरुचि दोष (अरोचक का) नाश करने वाला है। अश्वस्थिका (पीपली) मधुर, कषेनी है तथा रक्तपिनहर, विष एवं दाह प्रशामक और गर्भवतो के लिए हितकारी है। रा० नि० व० ११ । दुर्जर और शीतल है । मद. च०५। दुर्जर, शीतल, भारी, कषेला, रूक्ष, वर्ण प्रकाशक, योनि शोधनका, पित्त, कफ, व्रण और रुधिर के विकार को दूर करता है । भा० पू० १ ० वटादिव० । अश्वत्थ के वैद्यकीय व्यवहार चरक-(१)वातरक्त में अश्वत्थ स्वक-पीपल की छाल के क्वाथ में मधु का प्रक्षेत्र देकर सेवन करने से दारुण रक्तपित्त प्रशमित होता है। यथा "वाधिद्रुम कषायन्तु पिवेत्तं मधुना सह । वातरक्तं जयत्याशु त्रिदोषमपि दारुणम्॥" (चि० २६ अ०) (२)वणाच्छादनार्थ अश्वत्थ पम्र अश्वत्थके पत्र से व्रण प्रच्छादन करें । यथा"*विप्पलम्य च । व्रण प्रच्छादने विद्वान्।" (चि०१३ १०) (३)व्रण में अश्वत्य खक-प्रश्वत्थ त्वक चूर्ण के क्षत पर प्रवचूर्णन करनेसे वह शीघ्र पूरित होता है अर्थात् भर जाता है । यथा "ककुभोदुम्बराश्वत्थ-- त्वचमाश्वेव गृहणन्ति त्वक् चूर्णैश्चूर्णिता व्रणाः॥" (चि० १३:०) सुश्रुत-(१)नीलमेह में अश्वस्थ वक् For Private and Personal Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्वत्थ नील मेहीको श्रश्वत्थ की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ पान कराएँ । यथा -- "नील मेहिनमश्वत्थ कषायं वा पाययेत्" ( चि०११ ० ) (२) बाजीकरणार्थं अश्वत्थ फलादि -- अश्वत्थ फल, मूल स्वक् एवं शुंग ( पत्रमुकुल ) इनका का प्रस्तुत कर मधु एवं शर्करा का प्रक्षेप देकर पिलाने से चकवत् मैथुन शक्ति की वृद्धि होती है। यथा "अश्वत्थ फल मूलत्वक् च्छुङ्गासिद्ध पयोनरः । पीत्वा स शर्करा क्षौद्र कुलिङ्गइव हृष्यति ॥ (नि० २६ श्र० ) " चक्रदत्त - (१) वमनमें अश्वत्थ त्वक्- अश्वत्थ वृत्त की सुखी हुई छाल को जलाकर उक्त अंगार को जल में डाल रखें। इस जल के पीने से वमन की निवृत्ति होती है । यथा - "अश्वत्थ वल्कलं शुष्कं दग्ध्वा floaपितं जले । तत्तोयपानमात्रेण छर्दिञ्जयति दुस्तराम् ।” (छर्दि चि०) ७७५ ( २ ) अग्निदग्धरण में श्रश्वस्थ वल्कल - अश्वत्थ वृक्ष की सुखी छाल के बारीक चूर्ण के अग्नि से जल जाने के कारण उत्पन्न हुए व्रण पर छिड़कने से क्षत अच्छा हो जाता है । यथा“प्रश्वत्थस्य विशुष्कवस्कल कृतं चूर्ण तथा गुण्डनात् ।” ( ब्रण शांथ - चि० ) (३) कर्णशूल में प्रश्वत्थपत्र- अश्वत्थपत्र द्वारा प्रस्तुत चोंगाको तैलाकर उसे न श्रंगारोंसे पूर्ण कर कर्ण के ऊपर ( कुछ दूरी पर ) रक्खें । अंगारों द्वारा होकर जो तैल चांगे से चुए, उससे कर्णपूरण करने से तत्काल कर्ण शूल की शांति होती है । यथा "अश्वत्थ पत्र खल्लस्वा विधाय बहुपत्रकम् । तैलाकमंगार पूर्ण विदध्याच्छ वणोपरि । यत्तैलं च्यवते तस्मात् खल्लादंगारत. पितात् । तत्प्राप्तं श्रवणस्रोतः सद्यो गृह्णाति वेदनाम् । ( कर्ण रांग - त्रि. ) ( ४ ) शिशु के मुख पाक में अश्वत्थ त्वक् एवं पत्र बालक के मुख पकने पर ग्रश्वस्थ की Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाल तथा पत्र को मधु के साथ भली प्रकार पीस कर उस पर प्रलेप करें। यथा "अश्वत्थत्वग्दल चौद्रैर्मुखपा के ( बालरोग - चि०) अश्वत्थ प्रलेपनम् ।” वक्तव्य 1 अश्वत्थ त्वक् "पञ्चवल्कल " के अवयवों में से एकहै । योनि रोग में पञ्चवल्कल का क्वाथएवं विसर्प में उसके प्रलेप का बहुशः प्रयोग करने से ये लाभप्रद सिद्ध हुए । चरक में अश्वत्थ को "मूत्रसंग्रहण वर्ग" में पाठ आया है । इसके अतिरिक्त श्रश्वत्थ त्वक् का सोम रोग में प्रयोग किया जा सकता है । सपिातज्वर में अश्वस्थपत्र - स्त्ररस को विशेष औषधों के अनुपान रूप से व्यवहार किया जाता। सुश्रुत के न्यग्रोधादिगण में अश्वत्थ का पाठ छाया है (सू० ३८ श्र० ) । चरक सिद्धिस्थान में अतिसार में प्रयुक्त यवागू पाकार्थ द्रव्यान्तर के साथ अश्वत्थ शुरंग व्यवहृत हुआ है - "मसूराश्वत्थशुगैश्व यवागूः स्याज्जले शृता ।" अविकसित पत्रमुकुल को शुग कहते हैं (“शुंग इत्यविकसित पत्र मुकुलम् ' -- चक्रसंग्रह टीकायां शिवदासः ) | यूनानी मतानुसार - प्रकृति - पत्र तथा स्व २ कक्षा में शीतल व रूक्ष किसी किसी के मत से उष्ण हैं । For Private and Personal Use Only श्रान्त्र को । हानिकर्त्ता - श्रामाशय तथा दर्पन -- लवण तथा घी | प्रतिनिधि - विलायक रूप से वट पत्र | मात्रा -- छाल, १ मिस्काल तक ( ४ ॥ मा० ) । प्रधान-कर्म-- वृण एवं शोथ लयकर्त्ता । गुण, कर्म, प्रयोग -- देखो -- पञ्चाङ्गवर्णनांतर्गत । अश्वत्थपत्र तथा पत्र-मुकुल पीपल के पत्र और कोंपल विरेचन रूप से प्रयोग हैं (एन्सली व बाइट) । स्वयोगों में भी इनका उपयोग होता है ( ई० मे० मे० ) । पीपल के कोमल पल्लव को दुग्ध में क्वथित Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वस्थ अश्वत्थ और स्वाद हेतु उसमें यथेष्ट शर्करा योजित करें। पानी) के साथ इसके पसे खिलाकर दूध दूहें तो यह अत्यन्त पोषक एवं शीतल प्रातःकालीन वह अधिकतर लाभदायक होजाता है। पत्र वायुपेया है। विपादिका में इसका स्वरस हितकर है नाशक हैं । इसकी पत्तियों को पानी में पीसकर इसके पत्र पर रेशम के कोर रक्खे जाते हैं। इसके ललाट पर प्रलेप करने से खूब नींद आती है। पत्र का काथ चमड़ा सिझाने के काम आता है। श्रामाशय शोथ में उक्त स्थल हर पत्तियों का (ई० मे० मे०) प्रलेप वा क्वाथ का उपयोग अत्यंत लाभप्रद ___ इसके पत्र को गरम करके फोड़े पर बाँधने से यह शोथ लयकर्ता और प्रणपूरक है । स्वयं शुष्क पत्रभस्म को मधु के साथ मिलाकर चटाने से होकर गिरे हुए पत्र को जलाकर गरमागरम पानी अद्रकास नष्ट होता है। पत्र का क्वाथवृक्ष एवं में डालकर उस पानी को पीने से वमन तथा वस्त्यश्मरीनाशक है । प्रकृति तीसरी कक्षा में हृल्लास में लाभ होता है । म० मु०। ७० मु। रूक्ष एवं दूसरी में शीतल है। पतझड़के समय साधारणतः फागन चैत में जब पुराने पत्र झड़ जाते हैं और पत्रमुकुल का प्रावि छाया में शुष्क किए हुए पत्र १ तो०, बहुफली र्भाव दोता है, तब उन पत्र-कलिकाओं को | बूटी छाया में शुरुक की हुई १ तो, कतीरा ६ ४. क्वथित कर जन फेंक देते हैं, जिससे कषायपन मा०, सालबमिश्री ६ मा०, इनको कूट छान कर और अग्राम अम्लता दूर हो जाती है। फिर पीपल के दूध में गूंधकर जंगली बेर के बराबर किञ्चित् लवण छिड़क कर थोड़े समय धूप में बटिकाएँ प्रस्तुत करें। चना भिगोए हुए पानी के साथ १ से ३ गोली तक दैनिक २१ दिवस उसका जलांश सुखा लेते हैं और सर्षप तैल में पर्यन्त सेवन करें। डालकर अचार बनाते हैं। . गुण-सुस्वादु होने के सिवा यह विशूचिका | - गण-यह कामावसाय, शुक्रप्रमेह एवं पूयमेह एवं महामारी को नष्ट करता, विकृत दोषों को में असीम गुणकारी है। साम्यावस्था पर लाता और क्षधा की वृद्धि करता | इसके पत्र को तिल तैल से सिक्त कर गरम है। ज्वर जन्य अरुचि को दूर कर शीघ्र श्राहार ... कर शोथ पर बाँधे तो यह उसे लयकर्ता है और का पाचन करता और मुख का स्वाद ठीक यदि फोड़ा पकने योग्य हो तो उसे पकाकर करता है। विदीण कर देता है। किसी किसी के मत से अश्वत्थ की पुरानी पत्तियों को पानी में पीस इसकी राख में पीत हरिताल एवं मल्ल की भस्म कर क्षत पर प्रलेप करने से प्राचीन से प्राचीन प्रस्तुत होती है। परन्तु यह परीक्षा में नहीं क्षत दिनों में पूरित हो जाते हैं। पत्तियों को पाया है। जलाकर पानी में डाल दें और जब वह तल पीपल के नाम पत्र को गरम गरम पंजा से स्थायी हो जाए तब वह स्वच्छ जल विशूचिका पिण्डली तक बाँधने से बन्ध्यत्व दूर होता है। रोगी को पिलाना लाभप्रद है। कष्ठी को इसकी पत्तियों' से क्वथित कोष्ण इसके पत्ता को गर्म करके सीधी ओर बांधने से बद बैठ जाता है। जल से दैनिक अवगाहन करना लाभप्रद है और छाल को पानी में डाल कर पानी पीना इसके अोर नीम के पत्तों को पीस कर ले। तृषा एवं हृल्लास को शमन करता है। करने से अर्श मिटता है वा केवल पीपल के पते को पीपल के पत्तों का क्वाथ बकरी के दूध के घोटका बवासीर के मस्सों पररखने से लाभ साथ अधोंष्ण देने से पूय मेहो को मनुष्य बनादेता होता है। है और वर्षों की व्यथा मिनटों में जाती है।। पीपल के पत्तो का पानी निकाल कर सिगेनी बकरी को माउज ब्न (फाड़े हुए दूध के | मिश्री में शर्बत तैयार करें । प्रति दिवस २ तो० For Private and Personal Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ अश्वत्थ शर्बत अर्क गुलाब में पीने से हौलदिल में लाभ ६ मासा, इन तीनों ओषधियों को कूट छानकर होता है। चने के बराबर गोलियाँ बाँधकर रख छोड़े। पोपल के पत्तो को सुहागे में शुष्क करके, आवश्यकता होने पर १ गोली गर्म पानी या समग़ अरबी ( वर निर्यास), सत मुलहठी सौंफ के अर्क के साथ सेवन करने से यह मूत्रल है और मिश्री इनको कूट छान इसका चने के और वृक्क शूल के लिए हितकर है तथा कोष्ठबद्धता बराबर गोलियाँ बनाएँ। इसको मुख में रखकर एवं बादी को बहुत कुछ लाभ प्रदान करता है। चूसने से खांसी, गजे की सूजन प्रभृति को लाभ पीपल के पत्तों को काली मरिच के साथ पीस होता है। कर मरिच प्रमाण वटिकाएँ प्रस्तुत कर सेवन करने से भी उपयुक्र लाभ होता है। पीपल के ताजे पत्ते २ तो०, कालोमरिच ११ __पादशोथ में इसके पत्तों की लुपड़ी बाँधना अदद, दोनों को पाव भर पानी में रगड़ और छान हितकर है। कर प्रातः सायंकाल पिलानेसे कुष्ठ रोग नष्ट २॥ अदद पीपल के पत्तों को खूब घोटकर होता है। छोटी इलायची और बतासा डालकर पाव भर पीपल के पत्र एवं पत्र स्वरस का येनकेन प्रका पानी में मिलाकर प्रातः सायं पान करने से मृत्ररेण व्यवहार अतिशय लाभप्रद है। दाह दूर होता है। पीपल के पत्र का रस १ छ०, तिल तैल प्राध छटाँक इसको तैलाशेष रहने तक पकाएँ । पीपल के नव पल्लव को लेकर बारीक बारीक फिर छान कर रखें। इसके लगाने से कंठमाला चीरलें। फिर इनको उबाल लें। उबालने से जो पानी निकले उसमें शकर डालकर चाशनी बनाएँ दूर होता है। और चाशनी में उबाली हुई कोपलें डालकर पीपल के कोमल पत्तों को जल से धोकर इसे घी में भूनकर और आवश्यकतानुसार काली मुरब्बा तैयार करलें । गुण-यह अत्यंत वल्य मरिच और नमक का चूर्ण मिला सुबह शाम एवं वृहण है। सेवन करने से बन्ध्यस्व दूर होता है । लगभग पीपल के पत्तों का रस सन्निपात की औषधी एक मास पर्यंत सेवन काफ्नो है। अपथ्य-६ मास का एक अनुपान है। पर्यंत पुरुष समागम और रजोधर्म काल में हलदी पीपल के पत्तों के क्वाथ में सिद्ध किया का सेवन । हुआ कड़ा तैल हर प्रकार के कर्णशूल के पीपल के पीले पत्तों का, सत्व-निर्माण विधि लिए लाभप्रद है। उत्कट ज्वर के उतरने के द्वारा सत्व प्रस्तुत कर २-२ रत्ती की मात्रा में पश्चात् की रूक्षता जन्य वधिरतामें यह तैल और इसको जल वा गोदुग्ध के साथ सेवन करने से भी लाभदायक है कंठमाला को लाभ होता है। नोट-खरल करते छाया में शुष्क किए हुए पीपल के पत्तो को समय चिकना करने के लिए इसमें किञ्चित् गोघृत कुट छान कर गुड़ के साथ इसकी चने प्रमाण मिला लेना चाहिये। गोलिया बनाकर सेवन करने से निम्न रोगों में पीपल के पत्तों को खूब घोटकर वर्तिका बना लाभ होता है, यथा-उदरीय कृमि, उदरशूल रजोकाल में इसके योनि में रखने से प्रार्तव प्रामशूल, प्लीहा, शोथ, अजीर्ण और कोष्ठबद्धता प्रवर्तन होता है। इत्यादि । इन रोगों के होने पर १-१ गोली अश्वत्थ पत्र का अर्क दो तो० की मात्रा में प्रातः सायं अर्क सौंफ के साथ सेवन करें। पीना हौलदिल के लिए लाभदायक है। इसके हरे पत्तो के गरमागरम क्वाथ द्वारा छाया में शुष्क किए हुए पीपल के पत्ते ६ सेक करने और पत्तो को रोग स्थल पर बाँधने मासा, पहाड़ी पोदीना ६ मा०, मस्तगी रूमी | ... से ख नाक में लाभ होता है। For Private and Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ अश्वत्थ - पीपल के पत्ते ५, नीबू के पत्ते ५ और निगु. क्षत के धावनार्थ एवं लालास्राव में कवलार्थ ण्डी पत्र ७ इन तीनों में १॥ सेर पानी डाल- व्यवहार में आता है। कर खूब क्वथित करें | थोड़ा जल शेष रहने पर (मेटिरिया मेडिको श्रॉफ इण्डिया-आर. इसको उतार कर मोटे कपड़े से छानलें और एन० खोरी २ य खण्ड, ५५६ पृ०) · इससे (क्वाथ से ) दूना तिल तैल मिलाकर अश्वत्थ त्वक् का क्वाथ तथा फांट पिलाना तैलावशेष रहने तक पकाएँ। .. पूय मेह, मूत्रकृच्छ एवं श्राद्र कण्दू में हितकारक गण व प्रयोग-यह तैल कर्णशूल, कण क्षत एवं वधिरता के लिए हितकर है.। कान अश्वत्थ चूर्ण को अंकुरोत्पादन हेतु विकृत से पूयस्त्राव होताहो तो प्रथम उसको निम्ब क्वाथ | .: क्षती पर छिड़कते हैं । छाल. चमड़ा सिझाने के से प्रक्षालित कर फिर इस तैल के ४ - ५. ● द | - ... काम में आती है । ( ई० मे० मे.) . रूई के फाया पर डाल कर इसको कान में | .... - इसकी छाल संग्राही है और विकृत क्षतों रखें। इससे लाभ होगा। एवं कतिपय चर्म रोगों में इसका उपयोग होता अश्वत्थ त्वक् .. अश्वत्थ त्वक संग्राही है और पूयमेह में अश्वत्थ की शुष्क छाल के चूर्ण को अतसी इसका उपयोग होता है। इसमें पोषक गुण भी तेल के साथ प्रयुक करने से यह व्रणपूरक है। है ( ऐन्सली तथा वाइट)। श्राद्र कण्डू में | . इसकी छाल को पानी में डालकर उस पानी के पीने से हृल्लास एवं तृषा तत्काल प्रशमित इसकी छाल के फांट का अन्तः प्रयोग होता है । होती है। इसकी छाल (वा मूल स्वक् ) का ___प्रादाहिक शोथों में इसके विचूर्णित त्वक का प्रलेप नाडीव्रण ( नासूर ) के लिए हितकर और कल्क पाचोषक ( Absorbent) रूप से शोथ लयकर्ता है। व्यवहार में आता है। ( इमर्सन ) - इसकी छाल को पानी में पीस कर लिंगेन्द्रिय - इसकी छाल को जलाकर उसे गरम गरम पर प्रलेप करें। सूख जाने पर उष्ण जल से जल में डाल दें। कहा जाता है कि यह पानी धोकर स्त्री-संग में प्रवृत्त होने से यह आश्चर्यहठीले कास में लाभदायक है । (डॉ० थ्रॉण्टन) जनक वीर्य स्तम्भन करता है। और मनुष्य को इसकी शुष्क छाल का चूर्ण भगंदर में प्रयुक्त बेवश बना देता है। होता है । मैंने एक हकीम को इसका लोभपूर्ण पीपल वृक्ष की छाल को जल में घिस कर उपयोग करते हुए पाया । प्रयोग-विधि निम्न है- यदि प्रारम्भ में ही फुसियों पर प्रलेप करें तो . एक धातु ( वा किसी अन्य पदार्थ) की नली ग्रह उनको जला देता है और बढ़ने नहीं देता। . में किञ्चित् अश्वत्थ चूर्ण को रख कर भगन्दर किसी किसी समय वृद्धि की दशा में लगाने से के क्षत के भीतर फूंक द्वारा प्रविष्ट करदें। फोड़े को अपनी जगह बिठा देता है। ., नाड़ी-प्रण के क्षत के लिए इसकी छाल को . बालक के श्रोष्ठ, जिह्वा, तालु किम्वा मुख के घृतकुमारी के पीले रस में घिसकर वर्तिप्लुत भीतर दधि विन्दुवत शुभ्र क्षत होने पर वा कर न सूर में रखने और उसके चारों ओर प्रलेप ..'साधारण मुख क्षत में मधु के साथ अश्वत्थ चूर्ण करने से थोड़े ही दिवस में नासूर को अच्छा कर का प्रलेप करें। श्वास रोग में अश्वत्थं चर्ण .. देता है। मधु के साथ सेवनीय है। अश्वत्थ स्वक साधित पीपल वृक्ष की छाल को जौकुट करके एक घड़े तैल- श्वेतप्रदर तथा श्रामरक्रातीसार में अनुवा- - में भरदें और मुख बन्द करके इसको एक गढ़े में सन वरित रूप से और इसका क्वाथ विकृत . रक्खें । इस गढ़े के भीतर एक और छोटा सा (वैट) For Private and Personal Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ७७६ : अश्वत्थ... गदा खोदकर चीनी का प्याला रखदें और इसके अश्वत्थ सत्व ( एक्सट्रैक्ट ) है। मात्रा-४ रत्ती ऊपर प्रागुक घड़ा रहे, जिसके पेंदे में छिद्र कर से माषा पर्यंत प्रातः सायंकाल ताजे पानी के दिया गया हो। इसमें भाग लगादे । जब साथ । गुण-कुष्ठहर । शीतल हो जाए नीचे की कटोरी में एकत्रित हुए छाया में सुखाए हुए अश्वत्थ के ताजे छिलके तैल को नागरबेल पान के साथ प्रति दिन श्राधे ५ सेर को ३० सेर पानी में रात को भिगोएँ। बाल भर खाने से थोड़े ही दिवस के भीतर प्रातः काल इसमें से २० बोतल अर्क खींच नपुसकता दूर होती है। कर इस अर्क में २ सेर पीपल की शुष्क छालको फोड़ों को पकाने के लिए इसकी छाल की फिर भिगोएँ और दोबार १० बोतल अर्क तय्यार पुल्टिस बाधते हैं। करें। " पित्त-शोथ को मिटाने के लिए इसकी छाल ___ मात्रा-श्राध श्राध पाव भर्क दिन में तीन का उंडा लेप करना चाहिए। चार बार । गुण-कुष्ठहर । इसकी छाल के कोयलों को पानी में बुझाएँ। पीपल वृक्ष की कोमल छाल को छाया में इस पानी को पिलाने से हिक्का, वमन तथा तृषा, सुखाकर बारीक पीस कपड़छान करें। मात्रा व श्रादि प्रशमित होते हैं। सेवन-विधि-ज्वर पाने से एक दिन पूर्व तथा - पीपल की छाल का काढ़ा शहद मिलाकर बारी के दिन ६-६ मारे इस चूर्ण को प्रातः, पीने से वातरक की खराबी दर होती है। मध्याह्न और सायंकाल गर्म पानी से खिलाएँ । इसकी छाल के चूर्ण को अवचूर्ण न करने से ..गुण-ज्वर प्रतिषेधक है। . . प्रणपूरण होता है। . . अश्वत्थ त्वक् द्वारा मुख से अधिक लालास्राव होता हो जैसा भस्म-निर्माण-कम शिशुओं को प्रायः होता है तो पीपलकी छाल के इसकी छाल का चूर्ण रागा और सीसा क्वाथ का गण्डूष लाभदायक होता है। प्रभृति धातुओं की भस्म करने का उत्तम साधन पीपल की ताजी छाल २ तो० को श्राध सेर | पानी में कथित कर पाद शेष रहने पर छानकर (१) पीपलके दरमियानी पाई त्वक् २ सेरको शीतल होने पर प्रातः और इसी प्रकार शाम को लेकर उसका कल्क बनाएँ और बीच में 5पिलाएँ । गुण-कुउध्न है । शुद्ध राँगा रख कर काइमिट्टी कर मन भर उपलों - पीपल की ताजी छाल को छाया में सुखाकर की आँच दें तो अत्युत्तम भस्म प्रस्तुत होगी। बारीक पीसकर कपड़ छान करें और ६ मा० से मात्रा-१ से ४ रत्ती। अनुपान-मक्खन १ तो० तक दिन में २-३ बार सेवन कराएँ।। वा बकरी के दूध की लस्सी। गुण तथा प्रयोग-यह प्रमेह, स्वप्नदोष और सूजाक में पीपल के छिलके को पत्थर पर गोमूत्र या पानी | अत्यन्त लाभप्रद है। में घिसकर दिन में दो-तीन बार कुष्ठ के क्षतों पर . (२) २० तोले पीपल की छाल को २ सेर , लगाना चाहिए। पानी में क्वथित करें । जब ॥ सेर अर्थात् पाद१. सीपल की ताजी छाल २० सेर, छिलकेके छोटे शेष जल रह जाए तब उतार कर छान लें। बाद छूटे टुकड़े करके रात को २ मन पानी में भिगोएँ को ५ तो० सीसा को आग पर मिट्टी के बरतन में - और प्रात: अग्निपर पकाएँ जब पानी लगभग २० डालकर पिघलाएँ और पीपल के हाथ में डाल .सेर शेष रह जाए तब उतार कर छान लें और दें। इसी प्रकार कम से कम ७ बार करें। - दुबारा श्रागपर चढ़ाएँ । जब शहद के समान तदनन्तर इस शुद्ध सीसे को किसी मिट्टी के मज़ गादा हो जाए तब अग्नि से उतार रखें। यह बूत और कोरे ठीकरे पर रख कर तीव्र अग्नि पर For Private and Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ ७८० अश्वत्थ रखें और पीपल की शुष्क छाल को बारीक पीस कर सीसे पर डालकर पीपल की सूखी लकड़ी से भली प्रकार हिलाते रहें और जले हुए पीपल के छिलके को हवा देकर उड़ा दिया करें। ऐसे अवसर पर बाँसकी नली का उपयोग करना उत्तम है। दो- तीन घंटे की लगातार पाँच से सीसे की रक वर्ण की भस्म प्रस्तुत होगी । यदि कुछ चमक शेष रहे तो घंटे अाध घंटे और इसी प्रकार आँच दें। मात्रा-१ रत्ती से २ रत्ती तक २ तो० मलाई या मक्खन में प्रातः सायंकाल दोनों समय खिलाने से यह नपसक को पुसत्व शकि प्रदान करती है एवं प्रचीन से प्राचीन कुरहा और प्रमेह का मूलोच्छेदन कर देती है। राँगा की भस्म भी इसी प्रकार प्रस्तुत हो जाती है और पूर्वोक सभी रोगों में लाभदायक होती है। नोट-सीसे को काथ में डालते समय वह ज़ोर से उछलता है। अस्तु, यह कार्य अत्यंत सावधानी से करना चाहिए। (३) पीपल की सूखी छाल के २० तो. जौकुट चूर्ण में से थोड़ा चूर्ण एक बड़े उपले में गढ़ा बनाकर बिछाएँ । फिर उस पर २ तो० वंग और २ तो० पारद को रेज़ा रेज़ा करके रख कर ऊपर उसके पुनः उन अश्वत्थ त्वक् चूर्ण को और वंग को तह ब तह रख कर दूसरे उपले को ऊपर देकर हर दो उपलों की संधियों को कपड़ मिट्टी द्वारा बन्द कर एक गड्ढे में रख५ सेर उपलों की अग्नि दें। स्वांगशीतल होने पर इसको निकाल लें। उत्तम श्वेत भस्म प्रस्तुत होगी । मात्रा-१ रती। अनुशान-मक्खन में रखकर प्रात: सायंकालइसका उपयोग करें। गण-कामावसाय, शीघ्रपतन, शुक्रमेह तथा पूयमेह के लिए लाभप्रद है। अर्शके लिए इसे हरडके मुरब्बामें ४ रसी की मात्रा में प्रतिदिन सेवन करें। यह प्रत्येक प्रकार के अर्श के लिए अमोध है । श्रान्त्रस्थ कदददाने एवं केचुए के लिए एक माषा इस भस्म को प्रतिदिन दधि में मिलाकर खिलाने से दो-तीन दिन में यह सबको मृतप्राय कर उदर से विसर्जित कर देता है। अश्वत्थ फल पीपल का फल कोष्ठमृदुकर है (अस्तु इससे कोष्ठबद्धता दूर होती है) और यह पाचनशक्रि की सहायता करता है। (ऐन्सली। इं० मे० मे०) बार्थलोमियो (Bartholomeo ) के मतानुसार (पूर्वी भारत की यात्रा में) शक फल के चूण को पक्ष भर जल के साथ सेवन करनेसे श्वास रोग नष्ट होता है और इससे स्त्रियों का बन्ध्यत्व दूर होता है। पशुओं के लिए यह अत्यंत पोषक चारा है। (इं० मे० मे०) ___ इसके फल के चूर्ण को मधु के साथ हर सुबह को खिलाने से शरीर बलिष्ट होता है। पीपल के फलों को सुखाकर बारीक पीस कपड़छन कर, १६ मा० प्रातः सायं ताजे पानी के साथ कण्ठमाला के रोगी को खिलाने से लाभ होता है। पीपल के फल को लेकर छाया में सुखा में और चूर्ण बनाकर इसमें दूनी मिश्री मिजाकर रखें ओर प्रतिदिन १ तो० इस चूर्ण को दूध तथा पानी के साथ खाया करें। प्रभाव तथा प्रयोग-स्वप्नदोष, वीर्यपात, शुक्रमेह निर्वस्वता और शिरःशूल प्रभृति के लिए लाभदायक है। पीपल के पके फल को सुखाकर सत्तू बना लें। ४ तो• इस सत्तू को गुड़ के शांत के साथ सुबह को खाने से पुरुषों का प्रमेह, स्त्रियों का सोम रोग और स्वप्नदोष १०-१२ दिन सेवन से दूर हो जाते हैं। पीपल के परिपक्क फल के गूदे को छाया में सखाकर फिर कूट कर चको में पीस कर पाटा प्रस्तुत करें। इस आटे का हलुा बनाकर खाने से शरीर बलवान हो जाता है।त्रियों के गर्भाशय संबंधी रोग एवं कटिशूल में यह अत्यंत हितकर है। मह में छाले पड़ने बंद हो जाते है । यदि हलुभा न बनाना हो तो एक तोला पाटे में १ तो० शकर मिलाकर फाँकने और ऊपर से दुग्ध पान करने से भी बहत लाभ होता है। शहद के साथ चाटने से भी यह लाभप्रद है। पह For Private and Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्य ७८१ एक ऐसी निरापद वस्तु है जिसके छोटे बच्चों और गर्भवती जी को भी अन्दाज़ से स्त्रिला सकते हैं। अश्वत्थ बीज बीज को शीतल तथा रसायन बतलाते हैं। (ऐन्रूली ) पीपल के बीजों को मधु के साथ चटाने से रुधिर शुद्ध होता है। इसके बीजों को पीस कर पीने से अन्तर्दाह मिटती है। पीपल की दाढ़ी (गंश) पीपल की दादी ४ मा०, गर्जर बीज ६ मा०, और नवंग ३ मा०, इनको ॥ श्राध सेर पानी में क्वचित करें। तीन छटॉक पानी शेष रहने पर मल छान कर मिश्री २ तो० मिलाकर पिएँ। प्रार्तव प्रवर्तनार्थ ३-४ बार पान करें और निम्न पोटली योनि में रक्खें : चोक की लकड़ी १ तो०, बाकुची १ तो०, पवक्षार १ तो०, वरसनाभ १ तो०, जंगली तोरई १ तो०, कटुकी ६ मा०, कालादाना १ तो. इनको बारीक पीस वर्ति बना योनि में रखने से मासिक धर्म बिना कष्ट के जारी हो जाएगा। यह प्रार्तव प्रवन्तक है। पीपल की दादी २० तो० को कूटकर वस्त्रपूत करें और इसमें समान भाग मिश्री योजित कर ले । मासिक-धर्म प्रारम्भ होने के दिवस से प्रति दिन २-२ तो० स्त्री-पुरुष दोनों गोदुग्ध के साथ सेवन करें और मैथुन से बचे रहैं। इसके ११ वें दिन स्त्री-संग करने से स्त्री गुचिणी होगी। पीपल की दादी को जौकुट करके चिलम पर रखकर तम्बाकू की तरह पिलाने से वृक्कशूल नष्ट होता है । जिस स्त्री को गर्भधारण न होता हो उसको ऋतु-स्नान के पश्चात् २॥ तो० पीपल की दाढ़ी का क्वाथ कर उसमें प्रावश्यकतानुसार खाँड मिलाकर पिलाने से गर्भधारण होता है। पीपल की दाढ़ी ४ तो०, बुरादा हाथी दाँत २ तो० इनका बारीक पूर्ण कर रखें । ऋतुस्नान के बाद इसमें से ६ मा० चूण हर रात को दूध के साथ खाने से पक्ष के भीतर ही स्त्री अवश्य ही गर्भवती होती है। पीपल की दाढ़ी २॥ तो०, तुलसी के फूल ६ मा० इनको बारीक करके ६-६ मा०की पुड़ियों बनाएँ। श्राउ तोले गरम पानी में सवा बोले रोग़न बादाम मिलाकर पहिले पुड़िया खिलाएँ फिर ऊपर से पानी पिलादें। इससे तत्क्षण वृकशूल नष्ट होगा। पीपल की दादी को बारीक पीसकर ऋतु स्नानान्तर इसे प्रति दिन १ तो० की मात्रा में गरम दूध के साथ स्त्री को खिलाएँ । प्रति मास केवल सप्ताह पर्यन्त इसके उपयोग से ३ से ६ मास के भीतर बन्यत्व दूर हो जाता है। नोट-पीपल के सेबन के दिनों में सीको काफी धी दूध खिलाना चाहिए। अन्यथा परिणाम स्वरूप वह तपेदिक से आक्रान्त होकर काल कवलित हो जाएगी। पीपल का दूध तथा निर्यास इसके गोंद से विशेष विधि द्वारा चड़ियाँ बनाई जाती हैं जिसे शुद्रा स्त्रियाँ पहिनती हैं। इसलामी शरीअत में इसकी रचना इसको अपवित्र कर देती है जिससे मुसलमान स्त्रियों को पहिनना नाजायज़ है। परन्तु हिन्दू शास्त्रों में अश्वत्थ की बड़ी महिमा है और यह वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है, जिसका स्थल स्थल पर निर्देश किया गया है। वस्त्र के सफेद टुकड़े को सर्व प्रथम मधु में भली प्रकार भिगोएँ। तदनन्तर इसको दुग्ध में कदित कर शुष्क करलें और जलाकर राख सुरक्षित रखें । श्वित्र को प्रथम उष्ण जल से धोकर राख को सिरका में सिक कर गरम कर उस स्थल पर लगाएँ । यह वर्ण को शरीर के वर्ण की तरह कर देता है। यदि दुग्ध को दद्र, पर लगाएं तो स्वचा को संकुचित कर खुड्डी उत्पन्न कर देता है। उक्त सुट्टी के पृथक् हो जाने पर स्वच्म स्वच्छ हो जाती है और दद्र के कोई चिह्न शेष नहीं रह जाते । For Private and Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंश्वत्थ अश्वत्थ: "पीपल वृक्ष के ५ तो० दूध में कुटी एवं छानी - जिस स्त्री के बच्चे बालापस्मार से मर जाते हुई इमली की छिली हुई गिरी १० तो० मिला. हो वह यदि बच्चा पैदा होने के दिन से लेकर कर सुखाएँ । चने का श्राटा २० तो०, गोघृत दो मास पर्यन्त प्रतिदिन पीपल का दूध १ बूंद १ पाव, खाड़ प्राध सेर इनका यथा विधि हलुपा गाय या बकरी के दूध में मिलाकर पी लिया बनाकर उतारने के पश्चात् दुग्ध द्वारा विशेाधित करे तो उसके बालक स्वस्थ रहेंगे। दूध में श्रावइमली का चूण, छोटी इलायची के दामे, केशर श्यकतानुसार मिश्री मिला लेनी चाहिए। १० माशा बारीक करके मिला दें। ...... उन्माद या अपस्मार के कारण अथवा हौल: गणधर्म-कामोद्दीपक, वर्ण एवं मुखमंडल दिल या किसी विष वा मादक द्रव्य वा किसी को कांति प्रदान करता एवं सुन्दर बनाता है । भी प्रकार से हुई मूर्छा में पीपल के दूध के कुछ मात्रा-२ तो० से ३ तो० तक। बूंद रोगी के कान में टपकाने तथा दूध को समान “यह पुरुषो' के प्रमेह और स्त्रियों के सोमरोग भाग शहद में मिलाकर मस्तक पर प्रलेप करने 'की अपूर्व औषध है । प्रतिदिन प्रातः काल ६ से से रोगी होश में आ जाता है । १२ बूद तक पीपल का दूध एक छोटे बताशे में अश्वत्थ पूल डालकर मुंह में रक्खें और ऊपर से गाय का . पीपल की जड़ का मंजन दंतशूल में उपयोगी या भैसका प्राधसेर धारोष्ण दुग्ध पीलिया करें।। - है । इसकी जड़ की छाल के क्वाथ से विपर्प रोग स्वप्नदोष के लिए यह अत्यन्त लाभदायक है। . मिटता है। स बारह दिन के सेवन से रोग निमूल हो पीपल के छोटे वृक्ष जो पेड़ वा दीवारों पर जाता है। अंकुरित हो जाते हैं उनकी बारीक जड़ वा जड़ पीपल का दूध लगाने से विषादिका (बिवाई) के एक मृदु बारीक अगले भाग को पीसकर फोड़ो भर जाती है। पर प्रलेप करने से वे शीघ्र विदीण हो जाते हैं। - "जिस स्त्री के बच्चा पैदा न होता हो और जो अश्वत्थ मूल स्वक् को छाया में शक करके व्यथासे बेताब हो रही हो उसको तोला भर भैंस बारीक पीसकर कपड़ छान करें और पीपल की के गोबर को प्राध सेर पानी में पकाएँ, जब चन्द जड़ के रस में चालीम दिन खरल करके शुष्क जोश आ जाए तब छानकर ४ तो० मधु और ११ होने पर ६-६ मापा प्रातः सायं गौ के कोष्ण बू'द पीपल का दूध मिलाकर पिलाएँ । प्रसव दुग्ध के साथ सेवन कराएं। होगा। गण-पुरुष के वीर्य-दोष एवं निर्बलता में सफ़ेद संखिया को ४ सप्ताह पीपल के दूध में लाभप्रद है। खरलकर मूंग के दाने के बराबर वटिकाएँ इसको जड़ की छाले शुक्रसांद्रकर्ता, तथा प्रस्तुत करें । प्रतिदिन एक गोली प्रातः और एक कामोद्दीपक एवं कटिशूलहर है । बु० मु. । यह रात को सोते समय दूध के साथ खिलाएँ । वीर्य स्तम्भक है । म० मु०। दूध गाय या भैंस का = हो और इसमें देशी पीपल की लकड़ी खाड़ मिला लिया करें । २१ दिन के सेवन से पीपल की लकड़ी का कटोरा बनाकर उसमें हर प्रकार का रोग दूर होता है। दूध डालकर स्त्रीको प्रति दिन प्रातः काल पिलाने .. अपथ्य-मादक द्रव्य तथा खटाई। से बन्ध्यत्व दूर होकर गर्भस्थापन होता है। शुष्क पोदीने का चूर्ण या धतूर की शुष्ककली जिस घर में साँप हो वहाँ पीपल की लकड़ी "का चूण १० मा० तक लें और इसमें पीपल जलाकर धुश्रा करने से सॉप निकलकर -भागता का दूध १५-१६ बूंद सम्मिलित कर तमाकू की तरह विजन में पिलाएँ तो वृकतको तत्काल जिस दिन ज्वर पाने को हो उस दिन लाम होगा। For Private and Personal Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थकम् ७८३ अश्वतृणम् ..ज्वर पाने से पहिले पीपल की दातौन करना | अश्वत्थभित्,-भेदः ashvattha-bhit,-bh- ज्वर को और दाँतों से खून प्राने को रोकता है। । edah-सं०० नन्दी वृक्ष । वालिया पीपर, .... पीपल की लकड़ी का प्याला बनाकर उस . तून-हिं० । भा० पू० १ गा० वरादिव० । प्याले में रात्रिको पानी भर रखें और सवेरे उस . . (Cedrela toona.) ....... . पानी को पिएँ । इससे मस्तिष्क शीतल रहता है, अश्वत्थमर ashvatthamar-कना० अश्वत्थ । . वीर्य गाढ़ा होता है और स्वचा के रोग दूर हो जाते पीपल का पेड़ । ( Ficus religiosa.) हैं। उन प्याले में पानी रखने से. उसके स्वाद में अश्वत्थ वल्कलादि यांग: ashvatthi-va. अन्तर नाजाता है। पानी में पीपल की लकड़ी lkaladi-yogab-सं०पू० पीपल की सूखी - का असर एवं.. स्वाद स्पष्ट मालूम पड़ता है। छाल जला कर उससे पानी बुझा कर पीने से इसमें कुछ समय पर्यन्त दूध रख कर पीने से | प्रबल वमन का नाश होता है। वृ०नि० २० बहुत लाभ होता है। .. . छर्दि। . बहुसपे सर्प-चिकित्सक इसकी कनिष्ठा अंगुली | अश्वत्थ वल्कलादि लौह ashvattha-valk. के इतनी मोटी लकड़ीके एक सिरेको गोल बनाकर alādi-loub-सं० पु. पीपल वृक्ष की छाल, .: एवं घिसकर चिकनाकर ऐसी दो लकड़ियोंको सर्प ... सोंठ, मिर्च, पीपल और मण्डूर इनके चूर्ण को :: दष्ट रोगी के दोनों कानों में १-१ लकड़ी प्रविष्ट गुड़ के साथ सेवन करने से क्षय रोग का नाश कर उससे तरह तरह की बातें पूछ कर विष दूर होता है । वृ०नि० र० क्षय चि०।: करने का ढोंग करते हैं । परमात्मा जाने इसका अश्वत्थ सन्निमा ashrattlha-sannibhā-सं० क्या प्रभाव होता है ! (लेखक) .. स्त्री० देखो-अश्वत्थिा । ... .. पीपल की सूखी लकड़ी और पत्र को जलाकर | अश्वत्था,-थी ashvatthā,-tthi-सं० स्त्री० क्षार-निर्माण-विधि द्वारा इसका क्षार प्रस्तुत करें। (१) क्षुद्र अश्वत्थ वृक्ष। गय अश्वत्थ-बं० । . . प्रयोग-आध पाव पानी में १ मा० इस क्षार रा०नि०व०१। (२)श्रीवल्ली वृक्ष (See को मिलाकर इससे दिन में दोबार कोढ़ क जरूपों -shrivalli) रा०नि०व० (३)सीकाको धोने से वे बहुत शीघ्र अच्छे हो जाते हैं। काई। शीतला। . .. इसके निरन्तर प्रयोग से प्राचीन से प्राचीन कोद अश्वत्थादि प्रक्षालनम् ashvatthādi-prak. एवं फुलवरी (श्वित्र) श्रादि रोग दूर हो जाते हैं। shalanm-सं० क्ली.. पीपल.....पिलइससे उपदंश में भी लाभ होता है। खन, गूलर, बड़ और बेंत के क्वाथ से धोने से अश्वत्थकम् ashvatthakam-सं० क्लीक घाव, सूजन और उपदंश का नाश होता है। मल्लिका पुष्पदल | मल्लिका फुलेर पापड़ी-बं०।। अश्वस्थिका,-थी ashvatthikā,-tthi-सं० (See-Mallika-pushpa. )वै निघः। स्त्री० क्षुद्रपत्र अश्वत्थ वृक्ष । गया अश्वस्थ-बं०। अश्वत्थ पत्र योग ashvattha-patra-yo. पिप्ली-हिं० । अश्वत्थी-मह । हेनरलि-का० । ga-सं० पू० पीपल के पत्तों के अग्रभाग दा संस्कृत पाय-लघुपत्री, पवित्रा, ह्रस्व ... रस १ भाग, बोल : भाग, शहद १२ भाग मिला पत्रिका, पिप्पलीका और वनस्था । ..... कर पीने से रकस्राव और हृदयस्थ संचित रक- गुण-मधुर, कसेली, रक्तपित्तनाशक, विषघ्न विकार दूर होता है । वृ० लि. र० भा०५र० दाहनाशक तथा गर्भिणी स्त्रियों के लिए हितकारी है। रा०नि० व० ११ । . अश्वत्थफनका,-ला ashvattha-phala अश्वतृणमashyatrinain-सं.क्ली. पाषाण मूली, ka-a-सं० स्त्री० वषा हाउबेर-हि। घोड़ा घास-हिं० । कोलिनसोनिया ( Collin. -बं०। लघु शेरणी-मह०। (Juni- sonia.), कॉ० कैनेडेन्सिस (C, Canaperi fructus. ) भा० पू० । भा०। densis)-ले० । ष्टोन स्ट (Stone root) पित्त। .. . . For Private and Personal Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वपाल हॉर्सवीड ( Horse-weed ), नॉवरूट प्रदाह (Acute cystitis), वृक्षारमरी (Knobroot)-६०।। ( Renal calculi ), जलोदर ( Dr. उश्बुल, बल, खुश्बुल रेल, हब्रु ल । opsy ), श्वेत प्रदर, आमवात,अजीण, श्वास जज़ र-अ.। संगबीख, ग्याहे अस्प-फा० । और किसी किसी हृद्रोग में वर्तते हैं। पत्थरजड़ी-उ०। । यद्यपि सिवा इसके कि सूक्ष्म मात्रा में यह तुलसी वर्ग स्थानिक संकोचक तथा अधिक मात्रा (A. 0. Labiatee.) पित्तनिस्सारक विरेचन है, इसके इन्द्रिय व्यापानोट ऑफिशल ( Not oficial) रिक क्रिया के विषय में क्रियात्मक रूप से कुछ उत्पत्ति-स्थान-उत्तरी अमरीका । भी ज्ञात नहीं; तथापि अमरीका में इसका अनेक वानस्पतिक-विवरण-इस वनस्पति का रोगों में उपयोग करते हैं। काण्ड सीधा लगभग ४ इञ्च के लम्बा होता है हठीले पूयमेह, अश्मरी तथा वस्तिप्रदाह में जिसपर छोटी छोटी ग्रंथिमय विषम शाखाएँ मूत्र विषयक श्लैष्मिक कलाओं के लिए यह अवसादक है और अर्श वा गुदाक्षेप में मूल्यहोती है। कांड पर बहुत से उथले चिह्न होते है । यह अत्यन्त कठिन होता है । इसका वहिः वान सिद्ध हो चुका है। श्राक्षेपहर रूप से वर्ण' धूसर श्वेत तथा अन्तः श्वेत या सफेदी कुक्कुर कास, (Ohorea ) तथा हृदय की धड़कन में इसका उपयोग किया जाता है। मायल होता है। त्वचा बहुत पतली, जड़ असंख्य होती जो सरलतापूर्वक टूट जाती हैं। अश्वदंष्ट्रक: ashvadanshtrakah-सं० पु०(१) गोक्षर । गोखरू-हिं० । ( Tribगंध-लगभग कुछ नहीं, स्वाद-कटु तथा ulus terrestris, Linn.) वै० निघ० । मूच्र्छाजनक । (२) हिंस्र जन्तु विशेष । सु० । रासायनिक संगठन-इसमें राल ( Re- | प्रश्वदंष्ट्रा ashva-danshtra-सं० स्त्री० sin), कषायिन ( Tannin), श्वेतसार, गोक्षुर, गोखरू । (Tribulus terrestris, लुभाब और मोम होते हैं। Linn.) भा०पू०१ भा० । कार्य-अवसादक, आक्षेपशामक, संकोचक अश्वनाला ashvanāla-सं० स्त्री० ब्रह्मसर्प और बल्य । नामक सर्प विशेष | त्रि० । ( A serpentमात्रा-१५ से ६० ग्रेन (७॥ से ३० रत्ती named Brahma. ) अर्थात् १ से ४ ग्राम)। अश्वनाशः,-कः,-नः ashvanāshah, kah: औषध-निर्माण-टिकचूरा कोलिनसोनी Ti. nah-सं० पु. श्वेत करवीर | सफ़ेद कनेर nctura collinsonce ) ले० । अश्व- -हिं० । ( Nerium olorum ( The सृणासब-दि० । तभूतीन अश्बुल नल-अ.। white var. of-) रा०नि० व०१०। निर्माण-विधि-कोलिनसोनिया की जड़ कुचली | अश्वपर्णिका,--र्णी ashvaparnika, rniहुई एक भाग, मद्यसार (६०००) १० भाग सं० पु. भूतकेशीलता 1 भूतकेश-हिं० । श्वेत "मेसीरेशन की विधि से टिंकचर बना लें। - दूळ-खं० । ( Corydalis govon मात्रा-३० से १२० बूंद (मिनिम) । इसका | iana.) एक फ्ल्युइड ऐक्सट्रक्ट (तरल सस्व ) भी | अश्वपाल: ashvapālah-सं० पु. होता है जिसकी मात्रा १५ से ६० मिनिम • श्वपाल ashvapāla-हिं० संज्ञा पु अश्व रक्षक, अश्वसेवक, साईस । ( A groप्रभाव तथा उपयोग-इसको उम्र वस्ति । om.) २ For Private and Personal Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्वपुच्छ ७८५ अश्वपुच्छ ashvapuchchha - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] ( Canada equina. ) अश्वपुच्छकः ashva puchchhakah - सं० पुं० खंगलता । तरत्रोलेर खाप - बं० । श。त्र० । श्रश्वपुच्छा ashva-puchchhá-सं० स्त्री० (१) पृश्निपर्णी, पिश्वन-हिं० । चाकुलिया - बं० । ( Uraria lagopoides, D. 2.) । ( २ ) माषपर्णी । मासवर्णा - हिं० । ( Teramnus labialis ) रा० नि० व० ४ । अश्वपुच्छाच्छी ashva-puchchhiká,chchhi -सं० स्त्री० माषपर्णी लता । माषानी -बं०। (Teramnus labialis ) रा० नि० व० ४ । अश्वपुट भावना ashvaputa-bhavaná - सं० स्त्री० ३२ पन परिमाण द्रव्यकी भावना । वै० निघ० । अश्वपुत्री ashvaputri - सं० स्त्री० सल्लकी वृक्ष, सलई - हिं० । ( Boswellia serrata, Roxb.) रत्ना० । (२) द्रवन्ती । (Anth ericum tuberosum.) वै० निघ० । अश्वपुष्पः ashvapushpah - सं० पु० पत्थर का फूल, छड़ीला | Stone flower (Parmelia Perlata, Each.) अश्वबला ashvabala-सं० स्त्री० मेथिका । मेथी - हिं०, म० | Fenugreek. । ( २ ) नारी शाक- सं०, हिं०, बं० । करेमू - हिं० । गुण- श्रश्वबला शाक रूक्ष है तथा मल, मूत्र और वायु का बद्धक है। सु० | See-nári. अश्वबाल: aşhvabálah - सं० पुं० अश्वबाल aşhvabála - हिं० संज्ञा पुं० काशतृण । कासा | कास का पौधा । (Saccharum_spontaneum ) त्रिका | अश्वभा ashvabha-सं० स्त्री० सौदामन्या । विद्युत | अश्वमार ashvamara - हिं० संज्ञा पु० अश्वमारः ashvamárah - सं० पु० अश्वमारकः ashvamárakah - सं० पु० } ६६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रश्वानम् श्वेत करवीर | सफेद कनेर - हिं० । श्वेत करवी -बं०] | Nerium odorum, Soland. ( White var. of ) । ( २ ) उपोदिका -सं० । पोई - हिं० । ( Basella Rubra or lucida )। ( ३ ) पाल शाक-सं० । पालक पालकी हिं० । ( Beta bengalensis ) सु०वि० १ श्र० । ( ४ ) करवोर -सं० | कनेर-हि० । (Nerium odorum) सु० सू० ३८ श्र० । लाक्षादि बं० भा० पू० १ भा० । (१) श्वेत करवीर मूल, सफ़ेद कनेर की जड़ । यह स्थावर विषान्तर्गत मूल विष है । ( ६ ) सुगन्ध रोहिष । सु० कल्प० २ श्र० । देखो - मूलविषम् | अश्वमाराख्यः 1 ashvamárákhyah सं० ० श्वेत करवीर वृक्ष । सफेद कनेर का पेड़ । - हिं० । श्वेत करवी गाछ - ब ० । ( Nerium odorum, liton. ) रा० नि० व० १० । श्रश्वमालः ashvamaiah - सं० ० सर्प वि शेष। ( A snake. ) वै० नि६० । अश्वमुत्रा ashvamutrá सं० स्त्री० इन्दगू वृक्ष । अश्वमूत्रम् ashva-mútram सं० की ० घोटक मूत्र, घोड़े की पेशाब । घोड़ार मूत- बं० | हॉर्स युरिन ( Horse urine. )-हूं'०। गुण-तिक्र, उष्ण, तीक्ष्ण, विषघ्न, वातकोपशामक, पित्तकारक और दीपन है । रा० नि० व० १५ । मेद, कफ, दद्रु ( दाद) और कृमि नाशक । मद० व० ८ । अश्वमूत्रिका - श्री ashva-mútriká,-triसं स्त्री० शल्लकी वृक्ष । सलाई हि० । (Boswellia serrata, Roxb. ) जटा० । अश्वमोहकः ashva-mobakah - सं० पु० श्वेत करवीर । सफ्रेद कनेर - हिं० । (Nerium odorum, Aiton. ) वै० निघ० । अश्त्रयानम् ashva-yánam-सं० क्ली० श्रस वारी, घुड़सवारी, अश्वारोहण, घोड़े की सवारी, For Private and Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अश्वयुजः अश्व भ्रमण | घोड़ार चड़ा-बं० । ( Riding on horse ·back. ) गुण- घोटकारोहण ( घोड़े की सवारी ) वात, पित्त, अग्नि तथा श्रमकारक है और मेद, तथा कफ का नाश करने वाला और बलवान मनुष्यों के लिए अत्यन्त हितकारक है । दिनच० । ७८६ श्रश्वयुजः ashva-yujah - सं० पु० आश्विन मास, क्वार | The 6 th bindu month ( September-october. ) अश्वरक्षकः aşhva-rakshakah - स० पुं० अश्वपाल, अश्वसेवक, साईस । घोड़ार सहिषबंo | ( A groom. ) अश्वरिपुः ashva-ripuh - सं० पु० ( १ ) करवीर वृक्ष, कनेर ( Nerium odorum.)। ( २ ) महिष, भैंस | ( A buffalo.) भा० । अश्वरोधकः ashra rodhakah - सं० पु० अश्वरोधक aşhva-rodhaka - हिं०संज्ञा पुं० श्वेत करवीर वृक्ष | सफेद कनेर - हिं० । ( Nerium odorum, Aiton) रा० नि० व० १० । अश्वरोहकrashva-rohakà. - सं० स्त्री० अश्वरोहा ashva-rohá अश्वगंधा । असगन्ध-हिं० । ( Withania somnifera. ) अश्ववराहः अश्वलम् aşhvalam-सं० क्लो० क्षुद्र तृण विशेष | घोड़े सर बं० | "अश्वलञ्च तृण बल्यं रुच्यं पशुहितावहम् ।" वै० निघ० । अश्वलोमा ashva.loma - सं० पु० सर्प विशेष | ( A snake. ) त्रिका० । aşhva-varáhh- सं० पु० वाराहाकन्द | An esculent root or a yam ( Dioscorea ) वै० निघ० । अष्टका ( ashtaka - सं० स्त्री० वृत भेद | (A sort of tree. ) हे०च० । श्रभ्ववच्र्चः, -स्ashva-varchchah, -s - सं० क्ली० श्रश्वविष्ठा, घोड़े की लीद । घोड़ार नाद -बं०। ( The dung of horses. ) श्रश्वतुरी अश्ववहः,-वाहः ashva-vahah, vabab -सं० पु० अश्ववार aşhva-vara - हिं० संज्ञा पुं० अश्ववाहक, घुड़सवार । जटा० | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्ववारः aşhva-varah - सं०] ० ( १ ) कनेर ( Nerium odorum ) | ( २ ) घोड़े का बाल | (Hair of the horse ) अथर्व० । सू० ४ । २ । का० १० । अश्ववारणः ashva-váranah - सं० पुं० गवय । हे०च० | See-Gavaya. श्रश्ववैद्यः ashva vaidyah - सं० पुं० श्रश्वशास्त्र ( शालिहोत्र आदि ) के प्रणेता, श्रश्व चिकित्सक । श्रश्ववैद्यकम् shva-vaidyakam-सं०ली० श्व चिकित्साशास्त्र । इसके प्रणेता शालिहोत्र, नकुल, भोज और जयदत्त प्रभृति विद्वान हुए हैं । अश्वशाला ashvashálá सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० (१) मन्दुरा । हला० । ( २) वह स्थान जहां घोड़े रहें। तबेला, घुड़साल, अस्तबल | स्टेब्ल ( A stable. ) - इं० | अश्वसेन ashva-sena - हिं०संज्ञापु० तक्षक का पुत्र नाग विशेष, सनतकुमार | अश्वसेवक ashva-sevaka - हिं० संज्ञा पुं० अश्वपाल, साईस । ( A groom. ) श्रश्वहः ashva-hinah - सं० पु० करवीर वृक्ष, कनेर | ( Nerium odorum.) रत्ना० । भैष० भग्न-चि० निशाद्य तेल | अश्वहा ashvahá-सं० पु० श्वेत करवीर वृक्ष, सफेद कनेरका पेड़ । ( Nerium odorum, dilon ) मद० व० । अश्वक्षुरत्रःashva-kshuraiah - सं०पु०कनेर, करवीर । ( Nerium odorum ) अथर्व० ! श्रश्वक्षुरा ashva-kshura श्रभ्वक्षुरिका ashva-kshuriká श्रश्वतुरी ashva-kshuri अपराजिता, विष्णुकान्ता ( ternatea. ) | ( २ ) कृष्ण For Private and Personal Use Only -सं० } त्रो" श्वेत Clitorea अप Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्या “७८७ प्रश्वात राजिता । Cliturea ternatea ( The (1) करवीर या कनेर वृक्ष । ( Nerium black var. of-) वैः निघः । (३) ___ odorum.) भेष० कुष्ठ-चि० मरिचाद्य तेल । नखी मक गंध द्रव्य विशेष। See-na- (२) महिष, मैंसा । ( A buffalo: ) khi. जटा०। अश्वा ashvā-संस्त्री०(१)अजमोदा । Carum | अश्वारिपत्रः ashvari-patrah सं० पु. ( Ptychotis) Roxburghianum, | तिल कन्द । तैलकन्द स्वरूपः। Benth. 1 ( २ )अश्वगंधा, असगंध (Wi- अश्वारूढ़ ashva-1udha-हिं० पु. असवार, thania somnifera.)। (३) अपा- घुड़चढ़ा, अश्वारोही। (Mounted on a मार्ग, चिचिटा (Achyranthes asp- horse, a horseman.) era. । (४)इन्द्रवारुणी-सं०। (Cum. श्रश्वारोहः,-कः ashva-rohah,-kah-सं० is melo.)। राखाल शशा-बं० । (५). पुं० अश्वगन्धा,असगंध | (Withania so. . घोटकी, घोड़ी। (A mare.) mnifera.) रत्ना० । अश्वाकर्णा ashva karnā-सं०स्त्री० सुख मद्दी । अश्वारोहण ashva-rohana-हिं० संज्ञा पु. · अश्वागंधी ashva-gandhi-सं० स्त्री० [सं०] [वि० अश्वारोही ] घोड़े की सवारी । डमाडोल-द० । एक बूटी है। कोई कोई अश्वारोहा ashva-roha-सं० स्त्री० इन्द्रअसगंध तथा कोई किसी अन्य बूटी को | वारुणी। राखालशशा-बं० । बड़ा इनारुन, इन्द्राकहते हैं। यन( Cumis melo.)। (२)अश्वगंधा, अश्वातक्रम् ashva-takram-संक्ली. घोटकी असगंध । ( Withania somnifera.) तक्र, घोड़ी का तक्र, घोड़ी के दूध द्वारा निर्मित मे०। छाछ । घोड़ार दुधेर घोल-बं०।। अश्वारोही ashva-rohi-हिं० वि० [सं० गुण-घोड़ी का तक्र कसेला, किंचित् वात- अश्वारोहिन् ] घोड़े का सवार । - कारक, अग्निदीप्तिकर, रूत, नेत्र को हितकारक | अशाल: ashvalai-सं० पु. (१) उशीर, तथा मूर्छा और कफनाशक है। वै० निघ० । . खस-हिं० । ( Andropogon muricaप्रश्वादधि ashva-dadhi-40 क्ली० घोड़ी ___tus.)। (२) तुद् काशतृण । (Saccharum ___ का दही । वाडवं, अाश्वम्-सं० । सुश्रुत spontaneus.) रा०नि० २० । सू० ४५ अ० दधि व०।। अश्वावरोहकः,-हिका ashvava-rohakah,अश्वान् aashvan-अ० रक्रांधता, रतौंधी, नक्रां- _hika-सं. पु, स्त्री० अश्वगन्धा, अस... धता । ( Hemeralopia.) गंध । ( Withania. somnifera. ) अश्वानु ashvānu-सं० एक हिन्दी वृत का फल र. मा०। | अश्वावती ashvavati-सं० स्त्री० वाजीकरण । अश्वान्तकः ashvantakah-सं० पु. श्वेत __ "अश्वावती सोमावती मुर्जयन्ती मुदोजसम्" करवीर, सफेद कनेर । ( Nerium odor- | - वा० १२ um,Ailon.) रा०नि० व०१० । अथर्वः । प्रश्वासना ashvāsana-सं० स्त्री० (१) 'अश्वा सूत्रा ashva-mātrā-सं० स्त्रो० इन्दगू ऋद्धि । See-Riddhi । (२) घोटकी, वृक्ष । घोड़ी। ( A mare.) वै० निघः। अश्वारिः ashvanh-सं० पु. अश्वाहा ashvāhva-सं० स्त्री० अश्वगन्धा, प्रश्वारि ashvari-हि. संज्ञा पुं... असगंध । ( Withania somnifera.) For Private and Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रश्वाह्नादिखुरा, री वै० नि० वा० व्या० शतावरी तैल, नारायण तैल | USE. अश्वाह्नादिखुरा - ashvāhvadi-khurá,— 11- सं० स्त्री० श्वेत अपराजिता, विष्णुकान्ता । (Clitorea ternatea.) ao fas. च० ३ । अभ्वाक्षः aşhvákshah - सं० पुं० (१) देव सर्षप वृक्ष | ( See-Deva-sarshapa. ) श्रम० । ( २ ) वृक्ष भेद । ( A sort of tree. ) रा० नि० । श्रश्विजौ ashvijou सं० पुं० श्रश्विनीकुमार, स्वर्ग के वैद्य, देव वैद्य | ( See - Ashvini - k mára.) अश्विनी ashvini - सं० स्त्री० ( १ ) जटामांसी । ( Valeriana jatamansi ) व० निघ० । ( २ ) घोड़ी । अश्विनीकुमार ashvini-kumara - हिं० संज्ञा प '० देव वैद्य, स्वर्ग के वैद्य | पर्या० - स्ववैद्य | दस्र । नासत्य । श्रश्विनेय । नासिक्य । गदागद । पुष्करस्रज । अश्विनीकुमारो रस: ashvini-kumárorasah सं० प ं० त्रिकुटा, त्रिफला, अफ्रीम, मीठा तेलिया, पीपलामूल लवंग, जमालगोटा, हरताल, सुहागा, पारा, गंधक प्रत्येक १-१ कर्ष लेकर यथा क्रम श्राधा श्राधा प्रस्थ गाय के दूध, गोमूत्र और भांगरे के रस में घोटकर गोलियाँ बनाएँ । मात्रा - मुग प्रमाण । इसे उचित अनुपान के साथ सेवन करने से अनेक रोग दूर होते हैं । अनु० त० । अश्विनौ ashvinou -सं० प ु० दोनों अश्विनीकुमार | रत्ना० । अश्वि भेषजम् ashvi-bheshaja-सं० क्ली० लघुमेष शृङ्गी | मेढ़ा सिंगी हिं० | मेड़ा सिडे बं० । ( See-Ajashringi ) वै० निघ० । अभ्वीघृतम् ashvi-ghrita-सं० क्ली० घोड़ी के दुग्ध द्वारा मिकाले हुए नवनीत से तैयार किया हुआ घृत, घोड़ी का घी | अश्वेल गुण - कटु, मधुर, कसेला, ईषत् दीपन, भारी, मूर्च्छनाशक और बात को कम करनेवाला है । रा० नि० ० १५ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रश्वोद्धि ashvi-dadhi-सं० क्ली० घोड़ी के के दुग्ध से उत्पन्न हुआ दधि, घोड़ी का दही । घोड़ीर दई बं० | घोड़ि चे दहि-मह० । कुदिरेय सोसरु-कं० । गुण- मधुर, कपेला, रूक्ष, कफ रोग तथा मूर्च्छनाशक और ईपद्वातल (थोड़ा वातकारक ), दीपन तथा नेत्रदोषनाशक है। रा० नि० ० १५ । श्रश्वांनवनीतम् ashvi-navanitam—सं० क्ली० घोटकी दुग्ध जात नवनीत, घोड़ी के दुग्ध से निःसरित नवनीत घोड़ी का मक्खन ( नैनू ) | घोड़ार दुधेर ननी बं० । गुए कला, वातनाशक, नेत्रको हितकारक, कटु, उष्ण और ईषद् वातकारक, है । रा० नि० व० १५ । श्रश्वीयम् ashviyam - सं० क्ली० ( १ ) अश्व समूह, सम्पूर्ण श्रश्वजाति, श्रश्वमात्र । त्रि० ( १ ) अश्वहेतु अश्व के लिए मे० यत्रिक। ( २ ) अश्व सम्बंधी । घोड़े का | I श्रश्वीक्षीरम् ashvi kshiram-सं० क० घोटकी दुग्ध, घोड़ी का दूध | गुण- उष्ण, रूक्ष, बलकारक, वात कफनाशक है | एक शफ (खुर) क्षीर मात्र लवणाम्ल ( नमकीन तथा खट्टा ), लघु और स्वादिष्ट होते हैं । मद० ० ८ । श्रश्वेता ashveta-सं० त्रो० ( १ ) कृष्णा अपराजिता | Clitorea ternatea (The black var. of-) । ( २ ) कृष्ण प्रतिविषा, काली प्रतीस | Aconitum heterophyllum ( The black var.of -) वै० निघ० । (३) गम्भारी वृक्ष | ( Gmilina arboria.) (See-Gambhárí.) ग० नि० । श्रभ्वल ashvela - मत्स्याण्ड, मछली का अंडा । ( The egg of a fish. ) For Private and Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . र०। श्श्श ७८६ अश्श aashsha अ० दुबला, पतला होना, बारीक अष्टक ashtaka-हिं० संज्ञा . [सं०] - होना, निर्बल या क्षीण होना । अष्ट संख्या, पाठ की पूर्ति, पाठकी संख्या । पाठ श्रश्शउल अबैज़ ashshamaul-a baiza वस्तुओं का संग्रह । जैसे हिंग्वष्टक । .. -अ० सफ़ेद मोम, श्वेत मधूच्छिष्ट | White. अष्टकवर तैनम् ashta-katvara-tailam bees-wax (Cera alba.) -सं० क्ली. यह तैल वातरक तथा उरुस्तम्भ में प्रश्शाउल अस्कर ashshamaul-asfar हित है। योग निम्न है:-अ. मोम ज़ई-फा०। पीला मोम, पीत मधू. तैल ३२ पल (= २५६ तो०), दधि ३२ च्छिष्ट-हिं०। Yellow bees-wax पल (=२५६ तो०), तक्र २५६ पल (=२०४८ (Cera flava.) तो०), पिप्पली और सोंठ प्रत्येक २-२ पल 99" ashshúrá-(Le monia pentap. अर्थात् १६-१६ तो० ( किसी किसी के मत से hylla, Porh.) इं० हे. गा० । दोनों मिलकर २ पल या प्रत्येक १ पल ) इसको अश्शै नमुल मुकरन ashshailumul-mu- तेल-पाक विधि अनुसार पकाएँ। च० द० ऊ. qran-अ० शैलम | गन्दुम दीवाना-फ' । स्त० चि०। प्रस्नेह दधि अर्थात् स्नेह रहित देखो-अगंटा (Ergota.) . दधि या दही का तोड़ और घृत रहित अर्थात् घी अश्व ashhab-अ० श्यामाभायुक्र, श्वेत रंग निकाला हुआ तक ग्रहण करना चाहिए । रस की वस्तु, कालापन लिए हुए सफेद रंग की चीज़, | धूसर, भूरा। अष्टकमल ashtakam:ala-हिं• संज्ञा पु. प्रश्हल ashhala-अ० वह मनुष्य जिसका नेत्र [सं०] हठयोग के अनुसार मूलाधार से ललाट भेड़ का सा बड़ा और कुरूप हो, मेष चक्षु ।। तक के प्राकमज जो भिन्न भिन्न स्थानों में माने मेश चश्म-फा०। गए हैं अर्थात् मूलाधार, विशुद्ध, मणिपूरक, अश्हायून ashhāyāsa-रू. कायफन ,कट फल । स्वाधिष्ठान, अनाहत (अनहद ), प्राज्ञाचक्र, ( Myrica sa pida. ) सहस्रारचक्र और सुरतिकमल । । अश्हार as hāra-रू. तोदरी । See--To अष्टकर्म ashta-karmma-सं० क्लो० पारण dari. के पाठ संस्कार । पारद के १० कमों में से अषाढ ashadha-हिं० संज्ञा प. [सं० आषाद] स्वेदनादि से दीपन पर्यंत आठ प्रकार के संस्कार । चौथा महीना | वह महीना जिसमें पूर्णिमा पूर्वाषाढ़ वे निम्न हैं:में पड़े । असाढ़ । आषाढ़ । 'The Hindu (१) स्वेदन, (२) मईन, (३) मूखंच, third solar month ( June-July, (४) उत्थापन, (५) पातन, (६) वोधन, during which the sun is in Gemi - (७) नियामन और ( = ) दीपन । र० सा. ni, and the full moon is near - सं० । इनको विधि अपने अपने पर्यायों के ashadhā अपाढ़ा more properly सम्मुख देखें। called Poorv-ashadha पूर्वाषाढ़ा or Uttarashadha उत्तराषाढ़ा a constell अष्टका ashtaka-सं० स्त्री० वृक्ष भेद । (As. "ation Sagittarius.)। (२) व्रत .. rt of tree.) हे० च० । ( Austerity)। (३) पलाश दण्ड । अष्टकुलashta kula-हिं० संज्ञा प [सं०] अष्टंगी ashtangi-हिं० वि० दे० अष्टांगी। | पुराणानुसार सौ के पाठ कुल; यथा-शेष, 5ष्ट ashta-हिं० वि० [सं०] संख्या विशेष, वासुकि, कंबल, कर्कोटिक, पद्म, महापश्न, शंख . आठ । एट ( Eight.)-३० । |... और कुलिक । किसी किसी के मत से-तक्षक, For Private and Personal Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनकुली ७६० अष्टपादपः महापन, शंख, कुलिक, कंबल, अश्वतर, धृतराष्ट्र - (Lead ) और लौह ( Iron.)। किसी - और बलाहक हैं। किसी ने पीतल के स्थान में पारद लिखा है। अष्टकुलो ashtakuli-हिं० वि० [सं०] सापों देखो-अष्टलोहक । के आठ कुलों में से किसी में उत्पन्न । AZJISTI asbța-dhatrí) a भ्रष्टकोण ashtakona-हिं० संज्ञा पु. [सं०] | स० अष्टधाती ashta-dhati -हिं० वि० (१) वह क्षेत्र जिसमें पाठ कोण हों। [ सं० अष्टधातु ] अष्ट धानुओं से बना वि० [सं०] पाठ कोने वाला । जिसमें पाठ | __ हुआ । (A co 'pound of eight metकोने हों। als. ) अष्टगंध ashta-gandha हिं० संज्ञा पु. अष्टपद ashta-pada-हिं० संज्ञा प देखो [सं०] पाठ सुगंधित द्रव्यों का समाहार | श्रष्टपाद । दे० गंवाष्टक । अष्टपदी ashta-padi-सं ) स्त्रो० वेन नाम से भष्टगाधः ashta-gadhah सं० पु. (१) प्रसिद्ध एक पुष्प सुप विशेष । बेल फुलेर--गाछ ऊर्ण नाभि । See-urna-nābhih. । (२) -बं०। (A shrub named Vela.) शरभ । See-.sharabha. गुण -शीतल, लघु, कफ पित्त तथा विष अष्टगुण मण्डः ashta-guna-mandah- | नाशक । मद० व.३। .. -सं०प० जिस गाड़ में धनिया, सोंठ, मिर्च, शष्ट पलम् ashti-palam- सं० क्ती. शराव पीपल, सेंधानमक और छाछ डालकर भूना मान (=६४ तो० अर्थात् १ सेर १ ) | sht. जाए तथा भगी हींग और तैल पडा हो उसे | jáva (A measurement=one seअष्टगुणमण्ड कहते हैं। er.) गुण-दीपन, प्राणदाता, वस्तिशोधक, रुधिर अष्टलक घृतम् asti.palaka-ghri ] वद्धक, ज्वरनाशक और प्रत्येक रोगों को नष्ट tam--सं. कली. करता है । यो० त०। अष्टपल घृतम् ashta-pla-ghritam | - -सं० क्ली अप्टदल ashta-dala-हिं० संज्ञा प. [सं०] । अाठ पत्ते का कमल । -सं० क्लो० ग्रहणी नाशक योग विशेष । वि० [सं०] (१) पाठ दल का । (२) यथा सोंड, मिच, पीपल, हड़, बहेड़ा, श्रामला, प्रत्येक ४-४ तो० इनका कन्क बनाएँ और पाठ कोन का, पाठ पहल का। अष्टधातुः ashta-dhātuh-सं० प० ।। . बेलगिरी ४ तो०, गुड़ १ पल तथा घृत ३२ तो० को कल्क युक पकाएँ। अष्टधातु ashta-dhātu-हिं• संज्ञा स्त्री० इसे उचित मात्रा में भक्षण करने से मन्दाग्नि .. अाठ धातुएँ यथा--सुवर्ण, २-रूपा, ३-शीष १ (सीसक), ४-तानं ५-पित्तल, ६-रंग (राँगा), रोग नष्ट होता है। बंग से० सं० ग्रहणी चि० । च० द० । ७-कान्त लोह, और:-मुण्डलौह । किसीने पिसल के स्थान में तीक्ष्ण लौह लिखा है । र० सो. अष्टपात्-दः ashtapāt,.dah-सं० प० सं० टी० । अष्टपाद ashta pāda-हिं० संज्ञा पु. - नोट--किसी किसी ने इसकी गणना इस (१)कश्मीर देशीय शरभ, शरध, शार्दूल । मद० - प्रकार की है-१-सुवर्ण (Gold.), २-रूपा- व० १२ । (२) ऊण नाभि, लूता, मकड़ी। चाँदी (Silver.),३ ताँबा (Copper.) हे० च० ४ का० । ४-पीतल ( Brass.), ५-राँगा ( Tin.), | अष्टपादपः ashta-pādapah-सं० पु वृक्ष ६-जस्ता ( Bell-metal. ), ७-सीसा भेद । (A sort of tree. ) वै० निघ । For Private and Personal Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टमी अष्टपादिका ७६१ अटपादिका ashta-pādika-सं० स्त्री० (१) शरद पाठों श्रष्टमंगल कहलाते हैं। वै० निघः । मल्लिका । काष्टमल्लिका-बं० । रत्ना०। (२) किसी किसी के मत से १-सिंह, २-वृष, ३-नाग, प्रास्फोता, अपराजिता I (Clitorea terna- ४-कलश, ५-पंखा, ६-वैजयंती, ७-भेरी और tea. ) हापर माली--बं० । ५० मु० ८-दीपक ये आठ अष्टमंगल हैं। व०११ । अष्टमंगल घृतम् ashta-mangal-ghritam -सं० क्ली० बाल रोग नाशक घृत विशेष । अष्ट महर ashta-prahar-सं०प० पाठ पहर, एक घृत जो प्राट श्रोषधियों से बनाया जाता श्राउ याम । ( Incessant, the whole | 'day and night.) है। ओषधियों ये हैं-१-वच, २-कूट, ३- ब्राह्मी, अष्टबन्ध्या ashta-bandhva-सं० स्त्री० श्राउ ४-सर्षप, ५-सारिवाँ, ६-सेंधा नमक, ७-पीपल प्रकार की बन्ध्याएँ, बाँझ या अपुत्रवती लिया। १-१ तो०, और ८-घृत = तो०, रक श्रोष. Eight sorts of bandliyas ( chil. धियों का कल्क बना घृत सिद्ध कर पीने से बाdless women )। वे निम्न हैं-(१) लकों की स्मृति, स्रुति और बुद्धि की वृद्धि होतो है और पिशाच, राक्षस, दैत्य बाधा दूर होती काकबन्ध्या, (२) कन्यापत्य, (३) कमली, (४) गलगभी, (५) जन्म बन्ध्या , (६) . है। च. तथा वंग से० सं० बालरोग-चि०। त्रिपक्षी, (७) त्रिमुखी, (८) मृदगर्भा । इनके भा०। रस० र०। अतिरिक्र पाठ प्रकार की और बन्ध्याओं का वर्णन अष्टमधु जाति: ashta-madhu-jatih-स. ब. कल्पद्र.. के प्रणेता ने किया है जो स्त्री० माक्षिक, भ्रामर, चौद्र, पौत्ति(त्रि)क, छात्रक निम्न हैं .पाा , औद्दाल और दाल इत्यादि पाठ प्रकार के मधु । विस्तार के लिए उन उन शब्दों के (१) मृत्वत्स्या . (२) रजोहीना, (२) अन्तर्गत देखो। वकी (३ ) व्यक्रिनी, (५) व्याघ्रिणी, (६) अष्टम नकली पसली ashtama-nakaliशुभ्रती, (७) सजा और (८) स्रवद्गभी । . अष्टवसु ashta-basu-हिं. पु. आठ देव वि pasali-स. स्त्री० ( Eighth false शेष ( The eight deities.) । यथा rib) मांस और उपास्थि की पशुका । . श्राप, ध्रुव, सोम, धव, अनिल, अनल, प्रत्यूप अष्टमानम् ashta-mānam-सं० क्ली. भ्रष्टमान ashta-mana-हिंस और प्रभास । दो प्रसूति=४ पल (=३२ तो०) अर्थात् श्रद्ध अष्टभावः ashra-bhāvah-सं० पु. स्तम्भ, सेर ( Half a seer.)। पाठ मुट्ठी का एक स्वेद, रोमाञ्च, स्वरभंग, वैस्वयं, कम्प, वैवर्य परिमाण । प० प्र० १ ख.। और अश्रुपात ये आठ भाव हैं । वै० निघ०।। | अष्टमिका ashtamika-सं० स्त्री०, हिं. संज्ञा अष्टम ashram-हिं० वि० [सं०] पाठवा ।। स्त्री० तोल चतुष्टय परिमाण, ४ तो० का एक ( The eighth. ) परिमाण | प० । प्राधे पल वा दो कर्ष का अष्ट मंगलः ashta-mangalah-सं० पु. परिमाण । (१) श्वेत मुख, पुच्छ, वक्ष तथा खुर वाला अष्टमी ashtami सं. (हिं० संज्ञा ) श्री. अश्व । हे. च०। जिसका समग्र पाद, पुच्छ, (1) क्षीर काकोली । ( See-rkshira.ki. वक्ष तथा मुख सफ़ेद हो उसे "श्रष्टमंगल" koli.) वै० निघ०। (२) तिथि विशेष । जानना चाहिए : ज० द०३ १० ।--क्ली० पाठ शुक्र और कृष्णपक्ष के भेदसे आठवीं तिथि । पाठे। मंगल द्रव्य वा पदार्थ जैसे-१-ब्राह्मण, २-गो, (The eighth day of the moon.)। ३-अग्नि, ४-स्वर्ण, ५-घृत, ६-सूर्य, ७-अश्व, (३)श्रावणी नाड़ियाँ (Acoustic nerves.) (कहीं कहीं जल लिखा है) तथा ८-नृप ये -त्रि०, वि० आठवीं। For Private and Personal Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रारभूत्रम् ७६२ अष्टवर्ग प्रतिनिधिः अष्टमूत्रम् ashta-mitram-सं० क्ली० पाठ | अष्टवashta-vargah-सं० प. जानवरों का गूत्र ( The urine of the अष्टवर्ग ashra-varga-हिंः संज्ञा पु. eight animals.) ! उनके नाम निम्न (A class of eight principal me. प्रकार हैं : - dic :ments, Rishabhaka etc.) (१) गो, (२) बकरी, (३) भेड़, (४) + अाठ ओषधियों का समाहार । मेदा प्रभृति पाठ .. भैंस, (१) घोड़ी, (६) हस्तिनी, (७) उष्ट्री ओषधियाँ । यथा-१ मेदा, २ महामेदा, और (८) गधी । वै० निघ० | ३ जीवक, ४ ऋषभक, ५ ऋद्धि, ६ वृद्धि, अष्ट मूर्ति रसः asata-murti-rasah-सं० ७ काकोली और नक्षीर काकोली । प० मु.। : पु० सोना, चादी, ताम्बा, सीसा, सोनामाखी, "जीवकर्षभकौमेदे काकोल्या वृद्धि वृद्धिको रूपामाखी, मैनमिल प्रत्येक समान भाग ले | एकत्र मिलितैरेतैरष्टवर्गः प्रकीर्तितः” । जम्बीरी के रस से भावित कर भूधरयन्त्र में रा०नि०व० २२ । .. .पहर तक पुट दे फिर चूर्ण कर रखले। गुण-शीतल, अतिशुक्रल, वृंहण, दाह, मात्रा-१ रत्ती उचित अनुपान से क्षय, पांडु रक्तपित्त तथा शोषनाशक और स्तन्यजनक एवं विषमज्वर तथा रोग मात्र को समूल नष्ट करता गर्भदायक है। मद०व०१ । रक्रपित्त, व्रण, वायु है। रस. यो० सा० । और पिशनाशक है । राज. । हिम, स्वादु, बृंहण, अष्ट मुलम् ashta-mulam-सं० त्रि. स्वचा, गुरु, टूटे हुए स्थान को जोड़ने वाला, कामवद्धक, · मांस, शिरा, स्नायु, अस्थ, सन्धि, कोट्टा तथा बलास (कफ) प्रगट करतो एवं बलवद्धक है तथा मर्म ये पाठ मूल कहे जाते हैं सु० चि० तृष्णा, दाह, ज्वर, प्रमेह और क्षय का नाश करनेवाला है। भा० पू० १ भा० । अष्टमौक्तिक स्थानम् ashta-mouktika ATT afafafst: ashțavarga-pratini. -sthānam-सं० क्ली. मोती की उत्पत्ति के पाठ स्थान, जैसे, शंख, हाथी, सर्प, मछली, dhih--. . मेदा आदि श्रोषधियों के . अभाव में उनके समान गुण-धर्म की ओषधियों मेंढ़क, वंश ( बॉस ), सूअर तथा सीप इन पाठ प्राणियों में मोती होता है । वै० निघ० । देखो का ग्रहण करना, यथा-मेदा महामेदा के प्रभाव में शतावरी, जीवक ऋषभक के स्थान में भूमि मोतो। . प्रष्टयामिक वटी ashta-yamika. vati-सं० कुष्मांड मूल ( पताल कुम्हड़ा, विदारीकंद), स्त्री०चांगेरी चूर्ण ६ मा०, पारा, हल्दी, सेंधानमक काकोली, क्षीर काकोली के अभाव में अश्वगंधा प्रत्येक दो भाग इनको गाय के दही में मईन कर मूल (असगंध ) और ऋद्धि वृद्धि के स्थान में वाराहीकन्द । भा०पू०१ भा० । कोई कोई 'झाड़ी बेर प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । इसे ज्वर इसकी प्रतिनिधि इस प्रकार लिखते हैं, जैसे'पाने से३ रोज़ बाद गरम पानी से लेने से जीवक, ऋषभकके अभावमें गुडची वा वंशलोचन, ८ पहरके अन्दर नवीन ज्वर नष्ट होता है । रस० मेदा के अभाव में अश्वगंधा और महा मेदा के यो० सा०। प्रभाव में शारिवा और ऋद्धि के अभाव में बना अष्टलोह(क) ashta-lohi,-ka-हिं०संज्ञाप'०। और वृद्धि के स्थान में महाबला लेते हैं। कोई अष्टलोहकम् ashta-louhakam-०क्ली° | कोई ऐसा लिखते हैं• अष्ट प्रकार के धातु विशेष | स्वर्ण, रौप्य, ताम्र, रज, शीष ( सीसक), कान्त लौह, मुण्ड लौह, प्रतिनिधि-काकोली ( मूसली श्याम .), और तीचण लौह । पञ्च लौह समेत कान्त, मुण्ड हीर काकोली ( मूसली श्वेत ), मेदा (सालच तथा तीचण लौह । रा०नि० व० २२ । देखो मिश्रीं छोटे दाने की), महामेदा ( सकाकुल अष्टधातुः। मिश्री ), जीवक (लम्बे दाने के सालब), ऋष For Private and Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाङ्गवैद्यकम अष्टविधानम् भक ( बहमन श्वेत ), ऋद्धि (चिड़िया कंद) योग-गुग्गुल, निम्बपत्र, वचा, कुष्ठ, हरड़, और वृद्धि (पंजा सालअमिश्री )। यव, श्वेत सर्षप इनमें घृत मिलाकर धूप देने से अष्टविधानम् ashta-vidhānnam-सं० ज्वर नष्ट होता है । च० द. ! कलो पाठ प्रकार के प्राहार द्रव्य, जैसे (१) अष्टाङ्ग मङ्गल घृतम् ashtanga-mangal. चर्पा, (२) चोष्य, (३) ले य, (४) पेय, ghritam--लं. क्लो० वच, मण्डूकपर्णी, : (५) खाद्य, (६) भोज्य, (७) भक्ष्य तथा शंखपुष्पी, ब्राह्मी, हुरहुर, श्वेतगुजा शतावरी, (८) निष्पेय रूप भोजन द्रव्य । गिलोय प्रत्येक ४.-४ तो०, घृत ६४ तो०, दुग्ध अष्टक्षीरः ashta-kshirali-सं० पु. श्रा २५६ तो. उक ओषधियों का कल्क बना घृत दूध | आउ प्राणियों के दूध | वे निम्न हैं पकाकर सिद्ध करें। (१) गोदुग्ध, (२) बकरी का दूध, (३) टैंटनी का दूध, (४) भेड़ का दूध, (५) भैंस गण-इसके सेवन से धृति, स्मृति की वृद्धि का दूध, (६) घोड़ी का दूध, (७) स्त्री का होती है। वंग० से० सं० रसा० अ०. दूध और (८) हाथी का दूध । | अष्टाङ्गयोगः ashtanga-yogah-सं० पु. "गव्यमाज तथा चौष्ट्रमाविकं माहिषं च यत् । योग विशेष । यथा-कटफल ( कायफल ), अश्वायाश्चैव नारियश्च करेणूनां च यत्पयः ॥" पौकर, श्रृंगो, व्योष (त्रिकटु ), यास (जवासा) सु० सू० अ० ४५ । और कारची । संग्रहः । अष्टाङ्ग ashtanga-हिं० संज्ञा प. ) | अष्टाङ्ग रसः ashtanga-rasah-सं० ० अष्टाङ्गम् ashtangam-सं० क्ली । अशेाऽधिकारोक रस विशेष । लोहकिट्ट(मण्डूर ) [वि. अष्टांगी ](1) आयुर्वेद के पाउ विभाग। और फलत्रय (त्रिफला )।र० सा० सं००। (क ) शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूत देखो.-अष्टाङ्गारसः। विद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायनतंत्र और अष्टाङ्ग लवणम् ashtanga-lavanam-सं० वाजीकरण । क्ली० काला नमक १ भा०, जीरा १. भा०, (ख) काय चिकित्सा, बालचिकित्सा, ग्रह वृक्षाम्ल (अमसूल) १ भा०, अम्लवेत १ भाग, चिकित्सा, ऊवांग चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, तज प्राधा भा०, इलायची प्राधा भा०, मिर्च दंष्ट्र चिकित्सा, जरा चिकित्सा और वाजीकरण ये श्राधा भा०, मिश्री १ भा० ले चूर्ण प्रस्तुत करें। आयुर्वेद के अाठ अंग हैं । वा० सू० १ ० । गुण-यह अग्नि को दीपन करता और (ग) द्रव्याभिधान, गदनिश्चय, शल्य, काय, कफज मदात्यय रोग को दूर करता है। वंग से० भूत निग्रह, विष निग्रह, रसायन और बाल सं० मदाचि० । चर० मदात्यय-चि० । जीरा, चिकित्सा ! वैद्यकम् । काला जीरा, वृक्षाम्ल (अमसूल) और महाक (२) शरीर के प्राउ अंग, जानु पद, हाथ, (स्थूल का वन श्राद्क)। र० सा० सं० । उर, शिर, वचन दृष्टि, बुद्धि जिनसे प्रणाम करने सौवर्चल कृष्णजीरकाम्लवेतसाम्ललोणिकानां । का विधान है। प्र०चूण समं स्वगेलामरिचानां प्रत्येकमळू भागः। वि० [सं०]() पाठ अवयववाला । (२) शर्कराया भागैकं एकत्र मिश्रयेत् । च. द. अठपहल । मदा०चि०। अष्टाङ्ग घृतम् ashtangaghritam-स० अष्टाङ्ग वैद्यकम् ashtanga-vaidyakam क्ली० यह एक वाजीकरण घृत है । -सं० क्ली० शालाक्य, काय, भूत, अगद,बाल, अष्टाङ्ग धूपः ashtanga-dhupah-सं० विष, वाजीकरण और रसायन इन्हें अष्टांग वैद्यक पु यह धूप ज्वरनाशक है। १०० For Private and Personal Use Only Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाङ्ग हदयम् ७६४ अष्टादशाङ्गः अष्टाङ्गहृदयम् ashtanga-hridayam--स. शतावर, शर, इक्षु, दर्भ, कास और शालिधान्य क्ली. वाग्मट विरचित वैधक ग्रंथ । अष्टांग मूल । वै० निघ०। आयुर्वेद के प्रत्येक अंग का सार सार ग्रहण करके रचा गया। अस्तु, यह सब अंगों का सारभूत अष्टादश शतिक महाप्रसारणो तैलम् ashtaअष्टांग हृदय है । वा० सू० १ ०। dasha shatika-maha-prasārani tailam-स. क्लो० गन्धाली पञ्चांग १२० श्रष्टाङ्गावलेहः,-हिका ashtangavalehah,hika-स० पु०, स्त्रो० सन्निपात ज्वर तथा तो०, शतावरी ४०० तो०, केतकीमूल ४००तो०, हिक्का व श्वासादि में हितकर यांग विशेष । अश्वगंध ४०० ता०, दशमूल ४०० तो०, खिरेटी __ योग तथा निर्माण-कम-कायफल, पोहकर मूल ४०० तो०,कुरण्टा ४०० तो०,इनको १०२४ मूल, काकड़ासिंगी, अजवाइन, सौंफ, सांठ, तो. जलमें पकाएँ, जब १००वाँ भाग शेषरहे तब मिर्च, और पीपल ये सब औषध समान इस क्वाथसे दुगुना और क्वाथ लें । काँजी और दही भाग लेकर चूर्ण करले । इस चूर्ण को का पानी २५६ तो०, दुग्ध, शुक्र, ईख का रस, अदरख के रस तथा शहद में मिलाकर चाटें ।। बकरे के मांस का रस प्रत्येक - ४.४ सेर, तिल तैल १०२४ तो० | कल्कार्थ-भिलावाँ,तगर, सोंठ, गुण-कफ, ज्वर, खांसी, श्वास, अरुचि, चित्रक, पीपल, कचूर, वच, स्पृका, प्रसारिनी, वमन, हिचकी, कफ और वातनाशक है । भा० पीपलामूल, देवदारु,शतावर,छोटी इलायची,दालम० १ भा० । सा० कौ० । च० द० । भैषः । चीनी, नेत्रबाला, कूट, नस्वी, बाल छड़, पुष्करमूल . अष्टाङ्गी ashtāngi-हिं० वि० [स] पाठ चन्दन, सारिवा, कस्तूरी, अगर, मनी, नख, अंगवाला। शिलाजीत, केशर, कपूर, विरोजा, हल्दी, लवंग, अष्टाङ्गोरसः ashtangorasab-स. पु. रोहिपतृण, सेंधानमक, कंकोल, पालक, नागरगन्धक,पारा, लोहभस्म, मण्डूर भस्म, त्रिफला, मोथा, कमल, दारुहल्दी, तेजपत्र, कचूर, रेणकात्रिकुटा, चित्रक, भांगरा प्रत्येक समान भाग लेकर सेमल और गिलोय के क्वाथ से ३ पहर घोटकर बीज, लोबान, श्रीवास (धूप), केतकी, त्रिफला, छाया में सुखाएँ । रक्त धमासा, शतावरी, सरल, कमल केशर, मेहदी, खस, वालछड़, जीवनीयगण, पुनर्नवा, दशमूल, मात्रा-४ मा० । उचित अनुपान के साथ असगंध, नागकेशर, रसवत, कुटकी, जावित्री, सेवन करने से हर प्रकार के अर्श का नाश होता सुपारी, शलई का गोंद प्रत्येक १२-१२ तो० है । रस० यो० सा०॥ ले मन्दाग्नि से तैज पकाएँ । सिद्ध होने पर मा. अष्टादश ashradasha-प्रकारह । ( Eigt- लिश करें तो सम्पूर्ण वात व्याधियों दूर हो। teen, ) इसे नस्य, पान और वस्ति कर्म में भी प्रयुक्र अष्टादश धान्यम् ashtadasha-dhāsyam किया जाता है। विशेष गुण देखो-वंग से. -स. क्ली. १८ प्रकार के धान्य विशेष जैसे सवात व्याधिचिच.द.वा०व्या० कलाय (मटर आदि), गोधूम, श्राढ़की, यव, याव. वि० । नाल (मक्का), चणक, मसूर, अतसी, मूंग, तिल, अष्टादशाङ्गः ashtadashāngali-स' पु. कुलथी, श्यापाक ( साँवाँ), माष, राजमाष, सन्निपातज्वरोक कषाय विशेष | यह चार प्रकार वत्तल, हरिक, कंगु और तेरणा । वै० निघ० । का है--(१) दशमूल्यादि, (२) भूनिम्बादि, अष्टादश मूलम ashtadasha-mulam-स! (३) द्राक्षादि (४) और मूल कादि इनमें से क्लो०१८ प्रकारकी जड़ें यथा-विल्व, अरणो,सोना प्रथम-दशमूली, कचूर, भंगी, पोहकरमूल, पाठा, गाम्भारी, पाठा (निर्विषी),पुनर्णवा, वाट्या दुरालभा, भार्गी, इन्द्रयव, पटोल और कटुरो. , लक, माषपर्णी, जीवक, एरण्ड, ऋषभक, जीवंती, हिणी इन्हें अष्टादशांग कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अष्टादशाङ्ग गुटिका अष्टावक्र रस: गुण -सन्निपात घर नाशक । कर घृत और मधु के साथ वटिका निर्मित करें। द्वितीय-भूनिम्ब, दारुहरिदा, दशमूल, अनपान-इसको तक के साथ उपयोग में लाएँ। सोंठ, नागरमोथा, तिन इन्द्रयव, धनिया, नाग- गुण-पाए डुध्न । भा० म०२ भा०। केशर और पीपल का कपाय । गुण-तन्द्रा, प्रलाप, कास, अरुचि, दाह, मोह, श्वासादि, अष्टापद: ashtāpadah-सं० प. सम्पूर्ण रक्र विकार और ज्वर को तत्काल अष्टापद asintipada-हिं० संज्ञा पु.. शान करता है। (१) शरभ | Ses-sharabhai (२) तृतीय-द्राक्षा, गुडूची, कचूर, शृगी, नागर. मर्कट । बानर-हिं० । (Amonkey ) मोथा, लालचन्दन, सांड, कुटकी, पाठा, भूनिम्ब, देखो-मर्कटः । (३) महासिंह । See-- दुरालभा, खस, पद्मकाष्ट, धनिये।, सुगन्धबाला, Mahāsinha । ( ४ )धुस्तूर । धतूरा-हिं० । कण्टकारी, पुष्कर औरनीम । गुण-तुरन्त जीर्णज्वर ( Datura fastucsa) । रा० नि० व० को दूर करता है। १६(५) शतरञ्जकी चाल । वा० उ० प्र० २२ । चतुर्थ नागरमोथा, पित्तपापड़ा, उशीर, देव "पक्वेऽष्टापदवद्भिन्ने” । -क्लो० (६) दारु,महौषध, त्रिफला,दुरालभा और यवास, नीली सुवर्ण, सोना । ( Gold ) रा०नि० व० कम्पिल्लक, निशीथ, चिरायता, पाठा, बला, कटुकी, १३ । -( दी) स्त्रो० (७) मल्लिका भेद । रोहिणी, मुलेी, पीपलामूल आदि नागरमोथा चन्द्र मल्लिका । गण कहलाते हैं । च० द०। भैष । अष्टादशाङ्ग गुटिका ashta.dashangaguti अष्टापद ashtapada-हि० संशा प. (सं०] ka-सं० स्त्री० चिरायता, कुटकी, देवदारु, (1) लूता, मकड़ी, । (२) कृमि । देखोदारुहल्दी, नागरमोथा, गिलोय, कडुपा परवर, अष्टापदः। धमासा, पित्तपापड़ा, निम्बछाल, सोंठ, मिच, अष्टाम्लवर्ग ashtami varga-सं० प. पीपल, त्रिफला. वायविडंग प्रत्येक १-१ भा०, आठ खट्टे फल, यथा-(१) जम्बीर, (२) लौह चूर्ण सर्व तुल्य, चूर्ण कर शहद और घृत बीजपुर, (३) मातुलुग, (४) चुक्रक, --से गोलिया बनाएँ । . (५) चांगेरी, (३)तिन्तिड़ी, (७) बदरी गुण-इसे तक्र के साथ भक्षण करने से पांडु, और (B) करमई । ''शोथ, प्रमेह, हलीमक, हृद्रोग, संग्रहणी, श्वास, खाँसी, रक्तपित्त, अर्श, आमवात, व्रण, | अष्टावक्र ashrāvakra-हिं० संज्ञा प.. गुल्म, कफज विधि, श्वेत कुष्ठ, उरुस्तम्भ आदि [सं०] एक ऋषि । रोग दूर होते हैं। वंग से० सं० पांडुरो० अष्टावक्र रसः ashta-vakra-rarah-सं० चि०। प. रसायनाधिकारोक रस विशेष । यथा-पारद अष्टादशाङ्ग लौहम् ashradashanga-louh. १ भा०, गन्धक २ भा०, स्वण भस्म १ भा०, am-सं० क्ली. पांडु अधिकारोक लौह चाँदी फस्म ॥. भा०. शीषा भस्म 10 भा०, विशेष । राँगा भस्म | भा, ताम्रभस्म । भा. और योग तथ निर्माण क्रम-चिरायता, देवदारु, खपरिया शुद्ध |० भा० इसको बटाङ्कुर तथा दारुहरिद्रा, नागरमोथा, गुडची, कुटकी, पटोल, घीकुमार के रस में १ प्रहर तक मईन कर रस. दुरालभा, पित्तपापड़ा, निम्ब, त्रिकटु, चीता, सिंदूर की तरह पकाएँ । मात्रा-२ रत्ती । त्रिफला, मयनफल, वायबिडंग इन सबको समान भाग लेकर इन सब के बराबर लौह भस्म मिला- अनुपान-पान का रस । भष० । For Private and Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाधि ७६६ अष्टाश्रि ashtashri | वि० [सं.] (३) उत्तरापथ प्रसिद्ध वत्त लाकार पाषाण अष्टास्त्र ashtasra ह० वि० [सं.] खण्ड (जे ज्वरः ) वा पत्थर की गोली । लोहार __ पाठ कोने वाला, अठकोना, अकोण। की लोहे की दाँती, अस्त्र विशेष । गयदास । अष्टिः ,ष्टिः ashtih, shchih--लं. स्त्री (४) प्रोस्टेट ग्रंथि विशेष । ( Pros taअष्टि ashri--हिं० संज्ञा स्त्री० te gland. ) (1) अडी । आँटी--बं०। (२) मींगी अष्टि(ष्ठावान् ashthi,-sithi, van-सं० पु.. " (Nucleus)। नुवात--अ०। देखो-सेल । (१) शूक रोग विशेष । लक्षण-जो कड़ी और अष्टौषधिः ashtoushadhih -स. स्त्री० भीतर से विषम ऐसी वायु के कोप से पिड़िका हो ब्रह्मसुवर्चला, श्रादित्यपर्णी, नारीका , गोधा, | वह 'अष्फीलिका' है। यह विष युक शूकों से होती सर्पा, पद्मा, अज और नीली ये अाठ अष्टी- है । सु० नि० १३ अ०। देखा-अरोलिका। · षधि कहलाती हैं । च० चि० १० । (२) जानु । (knee) रा०नि० २०१८ । अष्टावान्, त् : shthiva', t--सं० प -स'. स्त्री०, अष्ठिला ashthiia घुटना, ___ जानु । ( Kuee) सु० शा० । अथव० । सू० अष्ठीला ashthili संज्ञा स्त्री० (१) ६ । २१ । क० १०॥ अष्ठीलिका ashthiliki बायु रोग विशेष । अष्ठीला दाह asthhila.dahu-f० पु. ऐक रोग जिसमें मूत्राशय में अफरा होने से प्रोस्टेट ग्रंथि प्रदाह । ( Prost.ttitis ) पेशाव नहीं होता और एक गां पड़ जाती शीला विकार : अष्ठीला विकार ashthila-vikāra--हि० प. है जिससे मलावरोध होता है और वस्ति में पीड़ा प्रोस्टेट ग्रंथि के रोग । ( Diseases of होती है । इसके निम्न भेद हैं the prostate ). लक्षण-वह ग्रंथि जो ऊपर को उठी हुई तथा | श्रष्ठाला वृद्धि ashthila-vriddhi-हि.स्त्री. अप्ठीला के सदृश कठोर और श्रानाह के लक्षणों प्रोस्टेट ग्रंथि का बढ़ जाना, वाताष्ठाला | से युक्र होती है उसे श्रष्ठाला कहते हैं। वा० ( Prostatic enlargement. ) नि० ११ ०। नाभि के नीचे उत्पन्न हुई ! अष्टोलास्थित अश्मरी Ashthilāsthitarash. इधर उधर चली हुई अथवा अचल जो एक ही mari- हिंस्त्रो० प्रोस्टेट ग्रंथि स्थित अश्मरी । स्थान में रहे ऐसी पत्थर की वटिया के समान ( Prostatic calculi ) देखो-प्रश्मरी कड़ी और ऊपर को कुछ लम्बी और पाड़ी, कुछ वा प्रोस्टेट । ऊँची हो और अधोवाय. मल. मत्र इनको रोकने असक्लिनः asanklinnah-सं० त्रि० सम्यक वाली गानों को वाताटोला कहते हैं। जो रूप से श्राई नहीं अर्थात् जो पूर्णतः क्लेदलुक अत्यन्त पीड़ा युक्त वायु, सूत्र, मल को रोकने (तर) न हो । यथा-"पिंडीकृतमसंक्रिमम् ।" वाली और जो तिरछी प्रगट हुई हो उसको भा० पू० १ मा०। : प्रत्यष्ठीला कहते हैं। मा०नि० वा० व्या०।। असंयोग asanyoga-हि०० भिन्न, अनमेल । वाग्भट्ट के अनुसार तिरछी और ऊपर को उी असंलग्न asanlagna-हिं० वि० जो मिला न हुई ग्रंथि को प्रत्यकीला कहते हैं। वा० नि. .. हो, असंयुक्र, अमिल । असकत asakata-हि० स्रो० श्रालस्य, उर्घास । ११.०। L (Drowsiness, slothfulness. ) (२) शूकरोग भेद । लक्षण-जो कड़ी और असकती asakati-हिं. पु. पालसी, ढीला। भीतर से विषम ऐसी बायु के कोप से पिडिका ( Drowsy, lazy.) हो वह श्रष्ठालिका है। यह विष युक्त शूर्को से अलकुट asakura-लेदक, फलञ्च, नंगकी-१ होती हैं । सु०नि० १४ अ० । 1 . (चनाब नदी)। मेमाः । For Private and Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : अलखी. असमर्णिका असखी asakhi-स. स्त्री० अयुग्म । (Azy-... भेद ), प्रमेह, गुल्ल कृमि, कफ तथा रक्रपित्त. gos) ई-अ०। ... | नाशक है और, स्वच्य, केश्य तथा रसायन है । असगन्द asaganda..-हिं० संज्ञा पु.. भा० पू० १ भा० वटादि व० । सि. यो असगन्ध asagandiraj अश्वगंधा ।। रा०य. चि० एलादिमन्थ । वृन्द । “निम्बास(Physalis flexuos३.) न शाल सारान् ।" वासू०१५५० असनादि TATT TITagagandha-cliách!:ri- व०। “असन तिनिश भूर्ज।" भा० म०४भा० (1) वट, बगंद, बड़। (Ficus Bengale- योनिरोग चि० । "स्वर्जिको ग्रसनं व्यहम् ।" nsis.) असान्धु-म०। (२) असगंध | | देखो-आसन । (३) जीवकद्रुम । मे० ( Witliania somrifera. ) नत्रिक । ( ४ ) वक वृक्ष, अगस्तिया (Agatiअसजद aasa jada-अ० () सुवर्ण । सोना grandiflora.)। (५) वीरुतरू प्रादि । -हिं० । Gold ( Aurum. ) । (२) -क्लो० (६) क्षेपण । मे० नत्रिक । NEE जवाहिरात ( जैसे-याक़त, ज़बरजद प्रादि )। नोट-श्रायुर्वेदीय निघंटुकार. प्रायः प्रासन ( (Gems.)। (३) स्थून वा मोटा ऊँट और विजयसार दोनों का वर्णन संस्कृत शब्द (A fit camel:) असन के ही अन्तर्गत किए हैं; परन्तु परस्पर असजर aasajura-अ० टिड्डी । (A locust). "बहुत कुछ समानता रखते हुए भी ये पृथक् असढ़िया asadhiya-हिं० संज्ञा पुं० [सं० .' पृथक् द्रव्य हैं। अस्तु, इनका वर्णन यथा स्थान अपाढ़ ] एक प्रकार का लंबा सौंप जिसकी पीड किया जाएगा। आयुर्वेद में असन उपयुक दोनों पर कई प्रकार की चित्तिया होती हैं । इसमें विष संज्ञाओं के पर्याय स्वरूप प्रयुक्र हुमा है, जिनमें • बहुत कम होता है। से (१) प्रासन, असना-हिं० । भाशान पियाअसथन asathana-हिं० संज्ञा प [?] शाल-बं० । (Terminalia tomentosa, जायफल-डिं० । W.& A.)-ले० । और (२) वि(विजय. असनः asanah-लं. प. (जे)सार, वीजक, बीजा-हिं०, पीतशा(सा)ल असन asana-हिं० संज्ञा पु.. -बं०। Pterocarpus marsupium, विजयसार, बीजकः। Pterocarpus mar. D. C. (Indian kino tree:)-ले० है। sxpium, Borb. | देखो-विजयसार भा० - इसके निर्यास को हिन्दी में विजयसार निर्यास पू०१ भा० वटादि व० (२) छाग कर्णवत् ' ' वा हीगदोखो तथा अरबी में दम्मुलअबैन पत्रशाल वृक्ष विशेष, पीतशाल, पीतशालः । हिंदी और लैटिन में Pterocarpus mar. प० मु. । असन, असना, प्रासन असन । supium, D. C. (Gum of- Indian र० मा० रत्ना० । पियाशान्त -हिं० । 'Ter i kino.) कहते हैं। minalia tomentosa, Bedd. । __काइनों के पर्याय-दम्मुल अर -३० -बं० । अइन्, असणा, वड़ि लुरिया - हिं। खूने सियाव सान-फा० । kino (The -मह. | संस्कृत पर्याय-परमायुधः (श), | drug-Draggons' blood. ), महासज्ज :, सौरिः, वधूक पुष्पः, प्रियकः, वीजवृक्षः अलन asana-. जल का स्वाद तथा गंध बदल लीनकः, प्रियसालकः, अजाण':. वनेसर्जः ।। | जाना । "असनो वीजकः कटाख्यः स्वनामाख्यातः ।" | असन, aasana-अ० पुरातन वसा । (Old सु०सू०३८ ० । गुण-कटु, उष्ण, ति, fat.) . . . वातनाशक, सारक तथा गलदोष नाशक है । रा० असनपर्णिका,-र्णी asana-parnika,-rni नि० व०६ । २३ । कुष्ठ, विसर्प, श्वित्र ( कुष्ठ | -स० स्त्री० (१) अपराजिता-सं, ब। For Private and Personal Use Only Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . .... ... - - ---- अलनपुष्पा, का ७१८ असय शिर्को (Ciitorea ternatea.) मराटी । अ० ज्ञानतन्तु-हिं० । नर्व ( Nerve. )-३० । टो० भ०। (२) पटसन, रसुनिया घास । देखो -- नाड़ी। असनपुष्पः,-कः asana-pushpah,-kah असर इश्तियाको insa ba-ishtiyaqi-१० -सं०प० षष्टिक धान्य जाति भेद । साठी भेद। असव अश्फाकी । यह मस्तिष्क की चतुर्थ नाड़ी है सु० सू०४६ १० । जो मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर नेत्र में चनु के असनमल्लिका asana.malliki- स्त्रो० वक्रोल पेशी में समाप्त होती है। पैथेटिक नर्व रामसर-हिं० । हापर माली -बं० । (Echitos ( Pathetic nerve. )-80 dichotoma.) ई० मे० मे० । देखो-भद्र- असब ज़ाजि अ aashiba-zajia-अ० अम: बुर्रियड् वल्मिन दह , असब मुहय्यरह , लौटने असना isana-गु० । असगंध, अश्वगंधा । वाला पुट्टा । आमाशय फुफ्फुसीया नाही, अस्त असन Asana " ( Withania 80- व्यस्त बोधतन्तु । ( Pneumogastric mnifera.) ई० मे मे०। nerve, : Vagus nerve. ) -हिं० संज्ञा पु. [सं० प्रशन ] एक । | असव जोको aasa ba-zouqi-अ० असब लिसानी व बलऊनी, जिह्वाकण्ठनाड़ी। (G15वृक्ष जो शाल की तरह का होता है । इसके हीर | .. ssopharyngeal nerve.) की लकड़ी हद और मकान बनाने के काम आती | असबनुखाई इज़ाफ़ा aasaba-nukhaai. हैं तथा भूरापन लिए हुए काले रंग की होती है। २. izifi-अ० सौ गुम्न सहायक नाड़ी । (Spi. इस पेड़ को पत्तियाँ माघ फाल्गुन में झड़ जाती _nal accussory nerve.)-इं० । हैं। पीतशाल वृक्ष । 'Terminalia tomen असब बस री aasaba bagri-० असबनूरी, tosa, Bedd. ) असब मुजव्वक्र, असबह, मुजव्वफह, । चाक्षुषोया। असनादिगणः asanadi ganah-सं० पु.. नाड़ी, पालोक सम्बन्धी माड़ी, देखने की नाही, .पीतशाल', ति नश, भोजपत्र, पूतिकरञ्ज, खदिर दृष्टिनाडी । (Optic nerve.) सार, कदर (खेरसारकी प्राकृतिवाला श्वेतसार), | सब मुजब्बफ aasaba-mujavvafa-अ. शिरिष, शीशम, मेष,गी, त्रिहिम ( चन्दनत्रय . असबह, मुजन्वफ्रह । (Optic nerve.) अर्थात् श्वेत, रक व.पीत चन्दन ), ताड़, ढाक, ... देखो-असब बस री। अगर, वरदारु, शाल, सुपारी, धवपुष्प, इन्द्रयव, सबवजिही aasaba-vajilhi-१० मौखिको अजकर्णी और. अश्वकर्णी । - नाड़ी । ( Facial nerve.) गुण-ये श्विन कुष्ठ,कफ, कृमिरोग पाण्डुरोग, असब वर्की कबीर aasa ba-varki-kabira प्रमेह तथा मेद सम्बन्धी दोषों को दूर करते हैं। __-अ० अ.वह परीजह, महा कटिनाड़ी (Grवा० सू०१५ १०: :. eat sciatic nerve.) असंताप asan tāpa-सं० वि० संताप या वेश असब वर्की सगीर aasabt-varki-saghरहित । अथव०। .... । ira-अ० लघु कटि नाडी । ( Small scia. tic nerve. ) असन्धानकर asandhāna-kara-हि. वि. पुसंधान निवारक। असब शम्मो ansabi.shay mi-अ० उ. स्वतु. . शम्म । प्राण नाड़ी । ( Olfactory neप्रसन्न asanna-अ. कक्ष दुर्गन्धि । वह मनुष्य rve.) . जिसके कक्ष से दुर्गन्धि पाती हो। असब शिर्को aasaba-shirki-अ० असव असब aasab-१० ( ए० घ० ) अश साब . हमदर्दी । पिंगल नाड़ी। (Sympathetic (ब०व०) पै, पुट्टा-उ० । नाड़ी, बोध तन्तु, nerve.) For Private and Personal Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असब मई ७६९. असब सम्.ई aasa ba-samai--अ. असबतु- | असबाब asu baba--अ०(ब० व०), सबब (ए. म्सम्अ । श्रावणी नाड़ियाँ । ( Auditory | व०) कारण । हेतु । मिदान। . nerve. ) | भसमदृष्टि asama-drisliti--हिं० ली. असब ..सुलासी वजही aasa ba-sulasi. (Astigmatism. ) दृष्टि दोष। ख़ल लुल vajii--अ० त्रिपाश्चिका नाड़ी | (Trifa. बसर, खललु नज़र--अ० । खराबिये नज़ र-फा०।. cial nerve.) नज़र की खराबी-उ०। असवह, aasabalh-अ० नाड़ी, बोधतन्तु । ___ यह एक प्रकार का दृष्टि विकार है जिसमें एक (. Nerve. ) श्रोर की दृष्टि तो ठीक होती है। परन्तु दूसरी ओर असबहे जाइक़ह aasa bahe.zaiqan-० की दृष्टि में निकट दृष्टि वा दूर दृष्टि के विकार स्वाद नाड़ी, जिह्वाकंठ नाड़ी । (Glossopli- होते हैं । प्राचीन हकीमों ने इसका पृथक् वर्णन aryngeal nerve. ) नहीं किया, प्रत्युत इसे एक प्रकारका रष्टिनैर्वल्प असबहे नूरियह, aasa babe-nāriyah-अ० माना है। चात्रुषोया नाड़ी, रष्टि नाड़ी । ( Optic ne-. असमंत asamanta--हिं० संज्ञा पुं० [सं. I've.) अश्मंत] चूल्हा । . असबह बासिरह, aasabalhe-basirah-अ० असम asama--हिं० वि० [सं०] जो सम या चाक्षुषीगा नाड़ी, दृष्टि नाड़ी। (Optic. तुल्य न हो । जो बराबर न हो । असदृश । nerve. ) असमनेत्र asamu netra-हिं० वि० [सं०]... असबहे मुजव्वफह, aasa.buhe-mujavva ___ जिसके नेत्र सम न हों, विषम हों। fan-अ० दृष्टिनाड़ी । ( Olfactory ner- (२) दृष्टि दोष : देखो - असमदृष्टि । ve.) असमबाण asama.vāna-हिं० संज्ञा पु.. असबहे शाम्मह, aasabahe-shāmmah अ० [सं०] पंचवाण । कामदेव । घ्राण नाड़ियाँ । ( Olfactory nerve.) असमवायोकारण asamavayi-karanaअसबहे सामि अह, aasabahesāmiaah- हिं० संज्ञा पुं० [सं०] समवायी कारण का अ० श्रावणी नाड़िया । ( Auditory ner. प्रासन्न कारण । ve.) असमर्थता asamarthata-हिं. संज्ञा स्त्री० अस बर aasa bara-० नर बीता | (Ati [सं०] सामर्थ्यहीनता, दुर्बलता, निर्बलता।' ___ger.) . अलमशर asamashara-हिं. संज्ञा पु. असब(व)रग asba(v)raga. [सं०] कामदेव । असवर्ग asa barga -हि. संज्ञा पु. [फा०] स्पृका (See-- असमानधूव asamāna-dhruva--हिं० पु. Spiikka) खुरासानकी एक लंबी घास जिसमें (Unlike Poles) पीले वा सुनहले फूल लगते हैं। सुखाए हुए अन्नम् aasam-१० हाथ पाँव धना जाना । फूलों को अफ़ग़ान व्यापारी मुलतान में लाते हैं, असम्म asamma-अ० वह नासिका जिसका" जहाँ वे अकलबेर के साथ रेशम रँगने के काम में छिद्र संकुचित हो । ....... पाते हैं। | असम्म asamma-१० (ए० व०), सुम्म (२० असबा aasa ba--अ० लबलाब भेद । व०) बधिर, बहरा । ( A deaf) असबान aasabana- अ. खजूर भेद । (A असर asara-हिं० संज्ञा पुं० [अ० असर ] kind of date) . । (१) प्रभाव । (२) दिन का चौथा पहर । For Private and Personal Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असरबका साध्य असरबक्का asara bacca-प्रसारून, तगर। असह asah-हिं० संज्ञा पु. हृदय । -डिं० । म० अ० । फा० इ०२ भा०। असा aasa-अ० बलह । कसुस । असरा asara-हिं० संज्ञा पुहि० असाढ़ / असाअस aasaasa-अ साही, सेही-हिं० । प्रासाम देश के कछारों में उत्पन्न होने वाला एक खार पुश्त--फा० । ( A poreupine ) प्रकार का चावल । असाइफिल asyphil-ई० देखो-पॉज़िलेट । असरो ansari-अ० शाक भेद । ( A sort of असाउर्राई. aas aurraai १० वीजकन्द, केसरी, _vegetable ) -हिं । बतबात ( Polygonnm auricu-' असरी asari-नैग० भूतकेश, लान्दचात-गम्ब०।। lare, Linm.)। फा० ई०.३ भा० म. बेबिना । अ०। असरु: asaruh-सं० पु. भूकरम्ब, भूई, कर असाकल aasaqala -अ० कुमात म्ब। कुकुरैशोडा-बं० । (See-.bhukadarnba) असकल aasaqala ) (खुम्बी )। श० च०। (२) कुकरौंधा | A plant (Ce- | Agaricus. sia..) ... .. असाक asaqu-रू० जर्दाल । देखो-खबानी । असरेली asareli-सिंध० फरारा-पं० । छोटो असागह, asāghah-अ० अाहार अर्थात् खाद्य माई, लालं माऊ-हिं० । ( Tamarix |' एवं पेय का कंठ से नीचे उतरना । auriculata, Falil:) इं० मे० प्लां। असाग़बह, asayharbah-प्र. ओपधि का असल asala हिं० वि० [प्र. 1 शुद्ध अनुभव तथा निर्माण क्रम। बिना मिलावट का |-सज्ञा पदे० अस्ल । मलाढ़ asarha-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] पापाद असल Asul-अस्तम्बर्दी, दख, दीस, लख, नस्न । का महीना | वर्ष का चौथा महीना। सूम, हमार, बज्रा'। Bullrush (ई. हैं. अलाढ़ी asarhi-हिं० वि० [सं० पापाद ] गा.) अषाढ़ का । -संज्ञा स्त्रो. (१)वह फसल जो अस (स.। ल asa,-s-la-अ० सरह । चेकोनदी । । अषाढ़ में बोई जाए । खरीफ़ । -1०। (Cadaba Farinosa. Forsk.) असातुनहल asatunna hal-० शहद, मधु । फा० इ० १ भा० । ई० मे० मे । देखो- Honey (Mel. ) फैरिनोसा.। सातून asatun - अ० मद्य भेद । वह सुरा जो असलम् asalam-सं० क्ली० (१) लौह । अंगूर के पानी, शहद तथा कतिपय उष्ण श्रोष Iron ( Ferrum )। (२) अस्त्र । (A धियों के योग द्वारा निर्मित होता है। weapon in general.) वै० निघ०। असात्म्यः asatinyah-स. त्रि० असला asala-हिं० संज्ञा स्त्री० सर्प भेद । असात्म्य asātmya-हिं० संज्ञा प... ) असलियत् asaliyyah-१० सलाह लरियहन । प्रकृस्यसुखावह, प्रकृति विरुद्ध पदार्थ । वह नर्म रसौली का एक भेद है जो दबाने से दब आहार विहार जो दुःस्वकारक और रोग उत्पस जाती है, किन्तु पुनः उभर पाती है। ( Soft- करने वाला हो । fibroma.)। देखो-सल्अह लरियहनह । -कला. सात्म्य विपरीत। असलिया asaliya-बम्ब०, गु० चन्द्रसूर, अह- असाध्य asādhya-हिं० वि० [स] (१) लीव । ( Lepidium sativum.) ई० प्रारोग्य होने के अयोग्य | जिसके अच्छे वा चंगे मे० मे० होने की सम्भावना न हो । जैसे-यह रोग असवः asavab-सं० पु. प्राण । जीव । असाध्य है । ( २ ) जिसका साधन न हो सके ।' न करने योग्य । दुष्कर । कठिन | For Private and Personal Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org असनि ८०१ असाम asána-मह०, बस्ब० विजयसार ( - ल ) । (Pterocarpus marsupium, Roxb.) फा० ई० १ भा० । असान asana - म ह०, कना० खरका, लम्कना, खाज- हिं०। (Briedelia Retusa, Spreng.) फा० ई० ३ भा० ॥ असानः asáno- त्रस्त्र० खाजा दि० । कर्गमेलिया । ( Briedelia montana.) असान्दु asándu-मह० असान्धु asandhu-मह अश्वगंधा, अस j] गंध (With अलाबा फर्कन asabaa farāúna-o एक प्रकार का पाषाण है जो यमन क्षमान देश में पैदा होता है । श्रसाव हुमंस asabaā hurmasa-Mo सूरिआन पुष्प । Hermodactylus, ( Flower of -) असाबद्दुर्रानी, asábaāirrasání अ० एक बूटी की जड़ है जिसका रंग हरित तथा खेत मिश्रित होता है । असाबद्दल उसूल asabaail-usúla-o डासांद तृण तथा वृक्षके बीच की एक प्रकार की बूटी है । यह एक गज ऊँची तथा पुष्प व कलिका बुक होती? है । असाबद्दल् फ़तियात asábaail fatiyáta nia Somnifera. ) सफ़्फ़ीर Āasáfir-अ० रोदे, श्रतें, अंतड़ियाँ - उ० । प्रान्त्र-हि० | ( Intestines. ) नोट- साफीर का शाब्दिक अर्थ पक्षी व fear है। चूँकि उदर की अंतड़ियों में जब क्रसकर· ( प्राटोप ) होता है तब ऐसा शब्द उत्पन होता है, जैसा कि पक्षियों का । इस कारण श्रांत्र | को उन नाम से अभिहित किया गया । असाब āasáb- अ० हरिण । (Deer ) अलाबा asábaa -ऋ० ( ब० ० ), असाबअ asabias अ. स्वा. ( ए० व १ ), गुस्तान, अंगुलियाँ (Fingers) अलावा कन्यान asábaa-qanyán o अमिरक । रामतुलसी, अम्बल-हि० | (Ocimum gratissimum) असाबअ गुदादी agabaa- ghudadi - अ० असामूसा āasámúsá-अ० लाल साग । एक लम्बे प्रकार का अंगूर | अ सारम्, asáram - सं० पु०, क्ली... असार asara - हिं० संज्ञा पुं० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ० तुम बालंग, क्ररन्क्रोडुस्तानी (प्र-हनीफ ) | Calamintha clinopodium Benth., (the wild Basil) फार इं० ३ भा० । असाबद्दल मलिक asabaail-malika-o इक्लोलुलू मलिक | Melilotus officinalis. ) सब सफर asábaāisşafara-o हंसपदी, गोधापड़ी । ( Vitis pedate. ) असावी asabia - अ० ( ब० ब० ), अस्वच् ( ५० व०), अंगुलियाँ । ( Fingers. ) अब अ asabia - अ० ( ब० व० ), उस्बूस ( ए० ० ) एक सप्ताह, सात दिवस, सांत बार । असामयिक asámayika - हिं० वि० [सं० ] जो समय पर न हो। जो नियत समय से पहिले वा पीछे हो । बिना समय का । बेवक्र का । I सामर्थ्य asamarthya - हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] ( १ ) शक्ति का अभाव । अक्षमता । (२) निबलता | ना ताक़ती । १०१ (१) काष्ठ गुरु चन्दन (A kind of Agar. ) रा० नि० व० १२ । ( २ )अगुरु, अगर ( A loe wood.)। ( ३ ) जैपाल, जमालगोदा ( Croton tiglium, Linn..) । (४) एररा वृक्ष (अरण्डी, अएडी) रेंडी का पेड़ | (Rişinus communis Lijun.) ० च० । असार asára-हिं०वि० [सं०] (1) सार रहित निःसार) (२) शून्य । खा । संज्ञा पु ं० दे० असारम् । B For Private and Personal Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अंसार असार āasára असार aasárah www.kobatirth.org ८०२ - o भेड़िया । ( 4 wolf.) असार राई asára-rai-अअ बार। (Polygonum bistorta.) असार दधि asara dadhi- सं० क्ली० नवनीत अर्थात मक्खन निकाले हुए दूध से जमाया हुआ दही । गुण- असार दधि ग्राही, शीतल, वातकारक हलका, विष्टम्भी, दीपन, रुचिकारक तथा ग्रहणी रोगनाशक है । भा० पू० दधि व० । असारक्का, कामन asarabacca-comm. on ई० असारून, तगर । असारा asára-सं० स्त्री० कदली वृक्ष, केला । Plantain (Musa sapientum. ) वै० निघ० । असारून asárún - अ०, लि० तगर भेद, पारसीक तगर | तुक्कर - हि० । ( Asarun Europeum) हीवेर वा जटामांसी (S.O. Valerianex.) उत्पत्ति स्थान - फ़ारस, अफ़गानिस्तान तथा भारतवर्ष । भारतवर्ष में इसका श्रायात फ़गानिस्तान से होता है । नोट - तगर, ह्रीवेर तथा जटामांसी प्रभृति एक ही वर्ग की ओषधियाँ हैं और परस्पर इनमें बहुत कुछ समानता है । श्रतएव कतिपय ग्रन्थों में इसके निश्चीकरण में बहुत भ्रम किया गया है। इसके पूर्ण विवेचन के लिए देखो - तगर वाहवे । वानस्पतिक वर्णन यह एक बूटी है जिसके पत्र लबलाब अर्थात् इश्क़पेचा के पत्र के समान होते हैं । भेद केवल यह है कि इसके पत्र क्षुद्रतर एवं अतिशय गोल होते हैं। इसके पुष्प नील वर्ण के पत्तों के बीच में जड़ के समीप होते हैं। इसके बीज बहुसंख्यक श्रौर कुसुम्भ बीजवत् होते हैं। इसकी जड़ें क्षीण, ग्रंथियुक्त और सुगंधियुक्त होती हैं । ( औषधों में यह जड़ ही काम में भाती है ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असारू प्रकृति - द्वितीय कक्षा के अंत में उष्ण व रूक्ष है । किसी किसी ने तीसरी कक्षा में उष्ण एवं द्वितीय कक्षा में रूक्ष और किसी ने तीसरी कक्षा में रूक्ष लिखा है। स्वरूप-पीताभ | स्वाद- तीक्ष्णतायुक्त वा बेस्वाद । हानिकर्त्ताफुप्फुस को । दर्प-मवेज्ञ मुनक्का । प्रतिनिधिकुलिअन एवं शुठि । मात्रा - ५ माशे । प्रधानकर्म-मस्तिष्क बलप्रद और शीत प्रकृति को ऊष्मा प्रदान करता है । गुण, कर्म, प्रयोग — इसमें काफी ऊष्मा होता है । पुत्र यह यकृदावरोधोटिक है । यह प्लीहा काठिन्य को दूर करता है; क्योंकि अ पनी उष्णता के कारण यह उसकी सख्ती के मद्दे को घुलाता हैं । इसी हेतु पुरातन कूल्हे के दर्द ( वज्डल वरिक ) एवं वात-तन्तुओं के शीत जन्य रोगों को लाभप्रद है। मूत्र एवं श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन करता है; क्योंकि इसमें द्वावक ( तलती ) एवं विलायन ( तहलील ) की शक्ति पाई जाती है। (नफ़ो०) यह तारल्यताजनक है एवं ऊष्माको बढ़ाता है। तथा शोध एवं वायुको लयकर्त्ता, मस्तिष्क, श्रामाशय, यकृत, वाततन्तुओं, प्लीहा एवं वृक्क को बल प्रदान करता है । पित्तज एवं श्लेष्भज माहा को मल द्वारा उत्सर्जित करता तथा जीर्ण ज्वर को दूर करता और मूत्र व श्रात्तव की प्रवृत्ति करता है । म० मु० । For Private and Personal Use Only उपयुक्त औषधों के साथ वा अकेले इसका पीना अपस्मार, श्रर्हित, पक्षाघात, इस्तरखा ( वातग्रस्तता ), श्लेष्मज आक्षेप, श्रवसन्नता, मस्तिष्क एवं बोधक तन्तुनों की उष्णता एव शक्ति के लिए हितकर है । गर्भाशय सम्बन्धी शिरःशूल एवं विस्मृति को लाभप्रद । श्रान्तरिक शल प्रशामक, जलोदर, अवरोध जन्य पांडु, यकृत् एवं प्लीहा शोथ के लिए उत्तम, गर्भाशयशोधक एवं मूत्रावयव, वृक्काश्मरी तथा वस्त्य श्मरी को लाभप्रद है । श्रात्तव एवं मूत्ररोध, संधिवात पार्श्वशूल, गृध्रसी, और निक्रूरस को लाभप्रद है। बकरी या ऊँट के दूध के साथ शीत Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८OF प्रसारून सफर अलितकम् काम शनि का उद्दीपन कर्ता है । मधुवारि (मा- प्रसास asāsa-अ० बुनियाद, जड़, नीवं उ० । उल, अस्ज) के साथ एक मिस्काल (॥ मा०) की फाउण्डेशन ( Foundation )-इं० । मात्रा में रेचक है । इसके तेलके सैं घनेसे विस्मृति असास aasasa-अ० भेड़िया । ( A wolf.) रोग नष्ट होता है। इसका अञ्जन कर्निया की | असोसनू asāsani-कहज । (Straw-berry) बीमारियों को, इसका प्रवचूर्ण न वृश्चिक दंश __-इं० । (Fagaria-Indica. ले। इं० हैं। को पोर वक्षण एवं पेड़ पर इसका प्रलेप गा० । कामशति के बढ़ाने में परीक्षित है । बु० मु०। | असि asi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० ] खंग, तनअजारून अफर asaruna-asfara-सिरि० वार, खाँडा, कटार । (A sword, a scimi. पास बरी, जंगली हब्बुल पास का वृक्ष । tar.) अलारून कैण्डेन्सो asalun candensi-ले असि asi-बर० (ए० व०), असिमियापा-या रीशए-वाला-फा० । असारून-सिरि० । संयुक्राक्षरों में ( ज़ि, "ब० व०" जिमियात्रा) असारून युरोपिअम् asarun europeum | गुठलो, अस्थि । ( Nut, stone.) स. -ले० असारुन, तगर भेद । अलारूने हिन्दो asārune hindi.फा. तगर | असिकम् asikam- क्लो.. असिक asika-हिं० संज्ञा पु (पादिका )म् । सुम्बुल जिब्ली-१०। (Va. चिबुक और चिबुक और leriane wallichii, D.C.) श्रोष्ठ का मध्यभाग । होंठ और छुट्टी के बीच का भाग | हे०च०। प्रसारूम युरोपिअम् asarum europeum, .inm-ले० तुकिर-हिं० । असारून-१० । अलिक्निः asiknih-सं० (1) गहरे कृष्ण रंग मेमो०। की गाय । (२) पृथ्वी । अथर्व० सू० १३० । २। का०२०। असालस asalasa -यू० फासरा-०शिवलिङ्गी असिक्निका,-क्नी asiknikā,-kni-सं० -foi ( Bryonia laciniosa. ) स्रो० अवृद्धान्तः पुर पेषी, अन्तःपुर में रहनेअसाला asala-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० अशा. वाली वह दासी जो वृद्धा न हो । मे० नत्रिक । लिका ] हाले, चंसुर । दासी । जटा। असालिया asaliya-गु०, बम्ब० असिगण्डः asigandah-सं० पु. सुद्रोपाधान । असालियो asaliyo-गु० जटा०। चन्द्रसूर। ( Lepedium sativum.) असितः asitah-सं० पु० । असालीज aasalija--अ० बारीक शाखाएं" या असित asita-हिं० संशा (1) धववृक्ष, बेलें जो वृक्षों पर लिपटती हैं। धातकी । धाोया गाछ-बं०। (Woodfo rdia floribunda.) र. मा. रत्ना०। असालू asalun-जयपु० चन्द्रसूर । ( Lepi -क्री० (२) काष्ठ अगुरु । (A kind dium sativum.) of Agar. ) वै० निघः । (३) असाल्यू asalyān-जय० चन्द्रसूर । (Lepedi पिंगला नाम की नाड़ी। (४) कालसर्प । um sativum. अथर्ष० । सू० ४ । १३ । का. १०। (५) असावरी asavari-हिं० संज्ञा स्त्री० कबूतर, कपोत - एक प्रकार का सर्प । अथर्व । सू० १३।५। (A kind of pigeon.) । (२) तूल का०५।-त्रि, (हि०वि०)जो सफ़ेद न हो। (रूई ) वन भेद । ( A kind of cotton कृष्ण वर्ण । काला । ( Black. ) cloth.) असितकम् asitakam-सं० जी० काष्ठागुरु । For Private and Personal Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसितोपाम् F6Ssekashthaguru,)-भा० म०२मा० असित देनम asita-ve tram-सं० क्ली. मा०या०। अयामालता, सण सारिखाँ ( Ichnocarp. त्रि० (हिं०वि०) जो संफेद न हो । कृष्ण usfrutescens..) वा० २० अमृतादि वर्ण, काला । ( Black.) कषाय । असितका asitaka-सं-स्त्री कृष्ण अपराजिता । असित सारः कः agita-sārah,.kah-सं. नील अपराजिता-40 । काली गोकर्णी-मह०।। पुतिन्दुक वृत, तेंदः। (Diospyros cor. ० नित्र। ___difolia.) ०.निघः । अक्षितकादि चूर्णम् asitakadichurns mअसिता asita-सं० नो० (1) हस्वनीली वृक्ष । -सं० क्ली. प्रामवातम्न चूर्ण विशेष । (A small var. of Indigo.plant.) Ekran TAITA: asitánga-bhairav. ग०नि०व०४। देखो-अम्लिका । (२) 0-rasan-सं० पु. पारा, गंधक, हरतान कालातिविषा, काली निशोथ। (Turpethum प्रत्येक समान भाग लेकर धतूरे के रस से भावित nigrum')-त्रि० कृष्ण वर्ण वाता, काले रंग करें। फिर पारे के बराबर बच्छनाग लेकर उसके का । अथर्व क्वाथ से ३ भावना दे'; इसी तरह त्रिकुटा के असितांग asitanga-हि. वि० [सं०] प्रवाथ और बिजौरे के रस की एक एक भावना काले रंग का। असिताजनो asitanjini सं० स्रो० कृष्ण मात्रा-, रसी। कार्पास, काली कपास । ( Gossypium ni. गुण-सन्निपात, नवज्वर, दंष्ट्रविष, और grum.)सा०नि०व० ४। देखो-कालाअनो। विशेष कर धनुर्वात में अदरख के रस के साथ असिस्तानमः asitānanah-5.पु. कपि,बानर । दें । स० यो० सा। (A monkey.) हे. च०। असितज फलः asitaja-phalrh-सं० पु. असित्ताबल मोटा .asitabala-more-सं. मारिकेत वृक्ष, मारियल I (Oocos nucif- खी कृष्ण जयन्ती, काली जयन्ती । काल erra.) वै० निघ०। जयन्ती-बं० । Ses bani's aculeatia भलित 'तिलः asrta-tilah-सं० पु. कृष्णा | ( The black var, of- ) तिल, काला तिल । ( Sesamum nig. गुण-कृष्ण जयन्ती रसागन को करने वाली rum ) च. द० अर्श-चि०। है। इसके अन्य गुण जयन्ती के गुण के समान असितद्रमः asita-drumah-सं० पु. कृष्ण हैं। व निघ। ताल, काला ताद । ( Burrassus flabe. असिताम्रशेखरः asitabhrashekharahlliformis.) व० निघः । सं० पु. नीली , नी । ( Indigofera असित पल्लवा asita-pallava-सं० स्रो० Indicni) भिका। भूमि जम्बु, भूई जामुन, नदी जम्बू वृक्ष । अख्तिालया asitālaya-सं० स्रो०(१)नीलदूर्वा, 'असितफल: sita-phalah-सं० दु. मधु atatea (Cynodon dactylon), . नारिकेल । (A kind of cocoanut (२)श्यामालता । (Ichnocarpus fru. tree. . . ___tescens.) 4. निधः। मसितम् asitam-सं० लोका.सं.१९ । ८६ असितालुः asitāluh-सं० पु मील मालु, नीले संदीदा अथर्वस २३१४ का रंग काल। रानिप.. अतितला asita-valli-सं० प्रा० नीलदूर्वा, असितोपलम् asitotpalan-सं०की नीलो atat ca 1 ( Cynodon dactylon. ) स्पन । ( Nymphiva telar,) राक . . मित्र नि० २०१०। For Private and Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसितः asitah-सं०पु०वरवेल, वेलवर, अरुणा । प्रसिप्ररोहः asiprarohah-सं० पु. (Xip प्रसिदष्टः,-क: asidansherah,-kah--सं0 hoid process ) असिप्रवदन | नुतू .पू. मसर । (See-makarah) त्रिका. खारी-१०। असिदन्तः asidantab--सं०पु. (1) मकर । असिम asima -१०। (Seo-unkar.) । (२) कुम्भीर, घड़ियाल । | असिमिना ट्रिलोबा asemina triloba-ले० ( The crocodile of the Ganges.) | पोस्ते के बीज । पापा सी-। व निधः । असिमेदः asimedsh-सं० प. खदिर तुप, प्रसिद्धः asiddhah--सं. त्रि० । बेपका, ग्राम, घिट खदिर, दुर्गन्ध खैर । गयेबाबला -बं० । प्रसिद्ध asiddha-हिं० वि० अपत्र, खैरा चे झाड़-मह० । ( Acacia Farneकच्चा । रत्ना। __siana, Willd.) श०र०। असि धेनुः, कः asidhenub,--kah--सं०स्त्री.अलिप्यु asiyyu-१० चिकिस्सित, चिकित्सा (A knife ) छुरिका । (See -chhurikā) किया हुआ, वह मनुष्य जिसकी चिकित्सा की हला० । हे० च० । ___ गई हो। असिपत्र: asipatrah--सं० पु. ) () इसिर ३asira-० कोर, कठिन होना, अंलिपत्र asipatra-हिं० संज्ञा प० ) ___ दुःसाध्य । डिफिकल्ट ( Difficult.)-इ..। सेहुण्ड वृक्ष, थूहर । ( Euphorbia ner असिरेकी asireki-त. प्रामला । ( Phyllrifolia.) म० द० ब०१। (२) इन्च, | ___anthus emblica.) ईस्व | Sugarcane ( Saccharum प्रसिशिम्बी asishim bi-सं० खीगोजिया officinarum.) ५० मु.। त्रिका०i (३.) सेम, खड्गशिम्बी | रा नि । गुण्ड तृण विशेष, कसेरू । (Scirpus ky. भसी asi-बर० सैंगरी गोंद । soor ) | See--Gundah | रा०नि० असीउराई aasiurraai-अ० लाल साग, य० । (४)"क" श्वेत दर्भ । (See-shve. | राजगिरी, रामदाना । ta-darbhah.) रा०नि०व०१४।। असोतिका asitika-सं० स्त्री. विष्याक्रान्ता । असिपत्र तृणम् asipatra-trinam-स केय दे० नि०। कनी गुण्डा तृण, तृण विशेष । गुण्डागवत असीतिका •asitika-सं. स्त्री० कुकरौधा । -मह। रा०नि० घ. ८ । (Blumea lacera. ) गुण-शीतल, मधुर, कफ वातनाशक, रक. दोष, अतिसार तथा परम दाहनाशक है । यह असीद asida-अ० धक त्रैव, टेडी गर्दनधाता। वीर्घ व लघु भेद से दो प्रकार का होता है। इसमें असीदह, iasidah-१० एक प्रकार का दीर्घ गुणे में अधिक है । . निघः । असिपत्रिका asipatrika-सं. नी. केवड़ा, असीष asinuba-फा० एक प्रसिद्ध वृक्ष है। केतकी । ( Pandamus odoratissim- (An unimportant trees us.) असीफ asifa-S० जो सनिक सी बात मैं दुखी शालिवुछ-क: asipachehhah-सं० पु.॥ हो जाए, वात प्रकृति का मर्वस (Nervous.) असिपुच्छ asipuchchha-हिं. संज्ञा पु.।। (1) जलचर बिशेष । मगर, शुक्षक-बं०। असीफरह, aasifarah 1 . एक पीत . ( A kind of aquatic animal)। असीफीमह aatifirah बस्तु है। (२) बहुची मछली जो पूष से मारती है। मसीसasi ba- सजूर भेद । ( A kind हारा। of dato). For Private and Personal Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असीम असुरा मे । असोम āasima-१० ( १ ) स्वेद, मैल कुचैन । अनुखम् asukham सं० कलो० दुःख । (Pa. (२) निशान, प्रभाव। ____in. grief.) हे० च । असोम और अर्क का भेद-स्वेद को अर्क अजुद asuda-बं० पीपल, अश्वत्थ । ( Ficus और जब वह शुष्क होजाए तो उसे असीम कहते _religios.) फा० इ० ३ मा० । अनुवारणम् asudhāranam-सं० क्ली. असार āasira-ऋ० स्वरस, निचोड़, रस-हिं० । जीवन, जीवन धारण | _Juice (Sitccus.) अनुन्धा asundhā-गु० असगंध, अश्वगधा । असोर कुप्पो aasira-kuppi-१० कुप्पो स्व. ( Withania somnifera.) ई० मे० रस । (Succus acalypha.) असीर तरञ्जोल aasira-taranjila-१० अतुपाला asupālā बम्ब०, ग. अशोक । असार बञ्ज ansira-banja-१० पारसीक (Saraca Indica. Linn.) फा०ई० यमानो स्वरस । ( Succus hyocyami.) १ भा०। असीर मिश्रदी āasira-niadi अ० रतूबत अयुग्म् asam-सं० कतो. (1) सामुद्र मिब्दी, प्रामाशयिक रस, रतूबत मेदा । Gas. लवण । ( Sear-sult.) मद० व. २-पु. tric juice.) (२) देवदारु वृक्ष । (Cedrus deodra.) असीर यबरूज aasira- ya brāja अ० वंनिघ० जीण ज्वर लवंगादि । बिलाडोना स्वरस । ( Succus Bellado. असुर asura हिं० संज्ञा प० [सं०] (.) na.) रात्रि। (२) पृथिवी । (३) सूर्य । (४) असोरले। aasira-lemun-अ० नीबू का रस, बादल । (५) वैद्यक शास्त्र के अनुसार एक fazg* FTTA I ( Succus limonis. ) प्रकार का उन्माद जिसमें पसीना नहीं होता और असीर शौकरान aasira-shukarana-१० रोगी ब्राह्मण, गुरु, देवता आदि पर दोषारोपण शौकरान या कोनाइम स्वरस । ( Succus किया करता है, उन्हें बुरा भला कहने से नहीं conii.) डरता, किसी वस्तु से उसकी तृप्ति नहीं होती असीर सिन्चल असद aasira-sinnul-asa और वह कुमार्ग में प्रवृत्त होता है। da-१० जंगली कासनी का रस । (Succus | असुर asura-काश० राई, सर्षप ।( Sina pis taraxici. ) racemosa, Roxb.) मे० प्लां० । असील aasila-१० हस्ति शिश्न, हाथीका लिंग। | असुर: asurah-सं० पु. "प्रसुप्राणां रक्षयति ( Elephant penis.) पालयनि इति भूत असुरो वैद्यः" अर्थात् जो प्राणों प्रसीली रूकान aasili-saqana-रू. पाषाण- की रक्षा करे। प्राणदाता | प्राणाचार्य । वैद्य। भेद । ( Coleus aromaticus. ) अथर्व। असीस. asisa-१० लगन, तसला, वह बर्तन | अनुग्ग्रहः asura-grahah-सं० पु. भूत जिसमें प्रण धोकर डालते हैं या जिसमें प्रण को ग्रह विशेष | मा०नि०। धोते हैं। ( Tray.) | अनुरसा asurasa-सं० स्त्री० वर्वरी, वन तुलसी। शासुः asuh-सं० पु.) वाबुइ तुलसी-बं०। (Ocimum basil. असु asu-हिं० संज्ञा (१) प्राण, प्राणवायु । icum.) र० मा । (Life, breath, the five vital bre- | अयुग asri-स. स्त्रो० (१) रजनी, रात्रि, रात aths or airs of the body.) भमः । ( Night. ) । (२) हरिद्रा । (Oureu. -क्ली० (२) चित्त । ( Mind,) उणा० । ma longa) मे० रत्रिक | For Private and Personal Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असुरादि प्रजन अस्टोल असुरादि अञ्जन asurādi-anjana-सं० पु. रक | रुधिर । शोणित । ( Blood. ) रा० काँसा के मैल का चूर्ण और कस्तूरी मधुयुक्त नि० व०१८ । कर अञ्जन करने से सन्निपात की बेहोशी और अस्करः astikkarah-सं० पु. शरीरस्थ रस तन्द्रा दूर होती है। धातु, रस । (Chyle.) हे० च०। असुराहम्,-ह्वा asurāhvam,-hva-स०कली, असकपः,-पा asrikpah, pa-सं० पु., स्त्री० स्त्री० कांस्य, काँसा। ( Bronze.) हे. जलायुका, जलोका, जोंक| Leech ( Hirudo.) प्र०टी० भ०। पता asurāhva-patangab-अमृगत्थः asrigutthah-सं०प०. जी. सं० पु० तैलपायी, तैलपायिका । तेला कंशर | saffron (Crocus sativus.) पोका, प्राशोला-बं० । "असुरात पतंगस्य विट्- | असृग्गदः assiggadah-सं० पु. कोष्ठ । चूर्ण मधु संयुतम्" वैद्यकम् । (See-koshtham) वै० निघ०। असुराविट् asurāhva-vit-सं० पु. कांस्य असृग्दरः asrigdarah-सं० पु. ( Menoभल, काँसे का मैल । 40 निघ०२ भा० ज्वर rrhagin) रक्त प्रदर । मा० नि० । सु० असुराद्यञ्जन । शा०२ १० । देखो-प्रदर। असुरी asuri--सं० स्त्री० रामिका, राई । राइ असृग्दर शैलेन्द्र रसः "सर्वाङ्ग सन्दरः" asri. सरिषा-बं० । ( Brassica. juncea.) ० ____gdara-shailendra-rasah- सं० पु० टी० भ०। रक्रप्रदरोक रस विशेष । असुरु asuru-नेपा० तगर । (Ta bernae bernae असृग्ध (ग्धा) रा assigdha"gdha",-li montana coronaria.) -सं० स्त्री. चर्म, स्वचा । ( Skin ) अ. प्रसुव asuva-अ० व्रण प्रभृति पर मलहम का टी० भ० । फाहा रखना, व्रण की चिकित्सा करना। असृणम् asrinam-सं० क्ली० स्वर्णगैरिक, असुस्थ: asusthah-सं. त्रि० __ सोनगेरु-हिं० । सुवर्ण गिरि माटी बं० । असुस्थ asustha हिं० वि० पु. Red ochre (Ferrum llaematite) रोग ग्रस्त, रोगी । ( Sick.) वं. निघ० । असूई ashi-हिं० स्त्रो० अरुई । (Aram nymphacifolium.) ई० हैं. गा। असृतम् asritam --सं० त्रि० प्रसिद्ध, अपक्व । रत्ना० । असतिका asitika-वह गंडमाला जिसमें पीप न श्रसृपाटी astipati --सं० स्त्री. रक धारा । पैदा हुई हो । प्रथ०।। असूपा कारक sāpā-kārak-सं० फीकी। अ० टी० सा० । असाई asoi-हिं० श्रो० अरुई । (Arum nym- | असेक aseka-कुट्टक, अशोक । (Saraca Indphacifolium ) ० हैं. गा। ica.) असंकोचनोय asankochaniya-सं० पु. असेन्दा asenda--हिं० तिनस, सान्दन । जो दबने के योग्य न हो । जो न दबे । ( Inco- | अ(ए)सेप्टोल aseptol-इ. कार्यो काम्ल वा mpressible.) अथवं। गंधकाम्ल (Sulpho-carbolic Acid)| असृक asrik-सं० पली०, हिं• संज्ञा पु० () देखो-कालिकाम्ल (Acidum Carboli. स्पृक्का नामक गन्ध द्रव्य | See-sprikki. | buin). (२) कुकुम, केशर । Saffron ( Crocus | असेप्रोल nseprol -ई. यह धूस वर्ण sativus.) रा०नि०व० ११ । (३)| अस्टोल abrastol jका एक चूर्ण होता है For Private and Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असरेकी tod जो कि जल और मद्यसार में सरलतापूर्वक लय | अस.कङ्कर asqanqur-अ०देखो-सक कहा। हो जाता है। देखो-नेपाल। अस्कतान askatan-अस्करयुवकर्ज-०...) असेरेकी asereki-ते. प्रामला । (Phyllan- प्रस्कसान- गर्भाशय की दोनों ओर । (२) _thus Emblica.) इस्कतान अर्थात् भग के दोनों किनारे या भय की मसेलू aselu- नेपा० गेम्बी | मेमो०। दोनों ओर। मसे asain--बर० ससि, सेजि । हरित, हरा। अम्कनह askanah-अ०मि. स कब, यम्मा, रुमानी, (Green.) स० फा० ई० । छिद्र करने का यंत्र। गिमलेट Gimlet-ई। असांक,asoka-हिं.०, बम्ब०, ते० (१) देव- अस्कूल asqanna-मय, सुरा । (Wine.) बारी । मेमा० ।-हिं० संज्ञा पु., कना० . (२) अस्कन्दरूस askendarus-रू०. (१) प्याज़ अशोक, भासापाल (.Jonesia asoca,Li. (Onion) (२)। लहसुस । ( Garlic.) nn.) । (३) शाति,शोकरहितता । ( Ease | अस्कृलिया तीक स. asqaliyatiqus-यू० tranquility.) गुलनार( Punica granatum, Linp.); असोका soka--दि० अशोक । (Saraca in- अस्कलानुर्रास aasqalanurris-4. अपdica, Linn.) लाए सर, चंदिया। असोकदा asokada- कना. अशोक । (Sara- अस्कलानूस anqalinus-०.. एक अमसिद्धा _ca Indica, Linn) ई० मे० मे। बूटी है जो. रेतीली और पर्वतीय भूमि : पर उगती असोग asoga-हिं० पु. (1). A tree ( Uvaria longifolia ) । (२.) । ( अस्कलीब्यूसasqali-byus-यू०(Asclepios)शांति, शोकरहितता । ( Ease,Tranquil- || यह चिकित्सा कलाका प्राधिकर्ता एवं सर्व प्रथम ity.) प्रसिद्ध निपुण यूनानी चिकित्सक है। असोज asoja-हि० सज्ञा. पु० [सं० अश्वयुज्] स्काम्तगम् askāmtagam-ता० अजमोद आश्विन । कार ! ( The sixth solar ( Carum Roxburghianum, Bemonth.) nth.) मेमो०। अंसोत्थापिकापेशी usotthāpikāpeshi-हिं० अस्कुट askuta-लेदक फलन, नंगकी-चनान), संज्ञा स्त्री० (Levater Scapule.) कंधे : राइबीज़ ऑरिएर टेली ( Ribes orientको उठाने वाली पेशी। असोथा asothi--ता० अशोक । (Saraca in-- ale, Pir.), रा० वाइलोसम, ( R. Vill_dica, Linn.) मेमो०। osum, Wal, Rosb.)-ले० । ग्वालदास, असौंध asoundha-हि० सज्ञा पु. [ अनहीं कधक, कपन-उ०प०स०। यंगे (स्पिटि०)। (N.O.saxifragee.) हिं० सौंध-सुगंध ] दुर्गन्धि | बदबू । । असोरा asora--बालछड़ । (Nardostachys उत्पत्ति-स्थान-कारामीर, बसिसथाना । Jatamansi.) प्रभाब..तथा उपयोम-इसका फल (Ber, rry) एक.या दो की संख्या में एक समयखाने असमस insaas 1-० भेडिया। (A से ग्रामीण लोगों के विचारानुसार, यह उत्तम e hasāás. wolf). विरेचक है। ई० मे प्लां। असास āasās अस्कुल: aasqul - कुमात, खुम्बी। असूईरा asaira-बिन्दाल, बण्डाल, देवद्वानी। असाक ल. aasagnl , j(Agaric) (Ecbellium, ela tarium.) अस्कलह, aasqulah- सफेद संगरेजा। For Private and Personal Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । अस्खार 208 अस्तलोबाम अस्खार askhar-50 तोदरी । ( Lepidiurn | अस्तम् astam-सं० क्ली० iberis, Linn.) अस्त asta-हिं० संज्ञा प. अस्जद āasjad-१० सुवर्ण, सोना | Gold मृत्यु । (Death.) हे० च०।-त्रि० वि० नष्ट । ( Aurum.) ध्वस्त । अस्टिलेगा मैडिस ustilago-maidis. Lev. अस्तन astan-हिं० संज्ञा प० दे० स्तन । eille:)-ले०। कॉर्न स्मट (Corn smut), अस्तबल astabal-हिं० संज्ञा प [अ०1 कॉर्न अर्गट (Corn Ergot)-इं० । वन्ध्या घुड़साल । तबेला । (As मकाई, भुट्टा का कण्डो ( लीढ़ )-हिं। अस्तबूब as tabub-फा. एक वृक्ष है। उत्पत्ति-स्थान-भुट्टा ( Zea mays) प्रस्तमती astamati-सं. स्त्री. शालपर्णी। का पराश्रयी कीटाणु । ( Hedysarum gangeticum..) श०र०1 प्रयोगांश-तुषरहित फङ्गस । अस्तमन बेला astaman-bela-हिं० संज्ञा रासायनिक-संगठन तथा लक्षण-ये विषम ____ स्त्री० [सं० ] सायंकाल । सन्ध्या का गोलाकार समूह रूप में जो कभी कभी छः ईच समय । मोटे होते हैं, पाए जाते हैं । इन पर एक स्याही | अस्तमित astamit- हिं० वि० [सं०] (1) मायल झिल्ली होती है, जिसके भीतर असख्य, नष्ट । मृत । (२) तिरोहित | छिपा हुआ। श्याम धूसर वर्ण के गोलाकार लघु ग्रंथिवत् दाने | अस्तर astar-हिं० संज्ञा पु० [फा० । सं० ( बीज ) होते हैं। स्तृ आच्छादन, तह ] (1) नीचे की तह वा गंध तथा स्वाद-अप्रिय । इसमें एक उड़न- पल्ला | भितल्ला । उपल्ले के नीचे का पल्ला । शील क्षार, एक स्थायी तेल और एक स्त्रीरोटि- अस्तर astar-फा० खच्चर । ( A mule..) काम्लवत् ऐन्द्रियकाम्ल इत्यादि होते हैं। अस्तरक astarak-फा० सिलाजीत I (Com औषध-निर्माण-विचूर्णित कार्न अर्गट-१० ___nmon storax )-इं० । ई० हैं. गा०। से २० ग्रेन (-५-१० रत्ती ); तरल सत्व- अस्तरखा astarkhā--लाल हड़ताल ( मैनसिल १० से २० मिनिम (बूंद)। __वा मनःशिला)। ( Realgar.). . प्रस्तरङ्ग astaranga-फा० प्रयोग - अर्गट ऑफ राई के समान औष. अस्तरज as taraj-मु० धीय गुण-धर्म में, जिसके यह बहुत समान है तथा जिसे बहुत से चिकित्सक तत्तुल्य लाभदायक यबरूज, बिलाडोना । Belladona (Man dragora officinalis) और अर्गट ऑफ़ राई की अपेक्षा अपने प्रभाव में अधिकतर अनुरूप मानते हैं, यह उत्तम गर्भ गा० । शातक एवं रकस्थापक गुणपूर्ण है । इसके द्वारा अस्तरा astara-हिं० पु. प्राप्टा । Seeउत्पन्न गर्भाशयिक प्राकुचन सदा विरामसहित apta l होता है तथा प्रर्गेट के समान लगातार वा वल्य | अस्तराई astarai-तु० गोलमिचे | (Black नहीं होता । पैसिव रक्षरण में अर्गट को अपेक्षा pepper, ) यह श्रेष्ठतर ख्याल किया जाता है और शुक्रमेह, अस्तरून astarun-० गुलाव भेद, गुलेनस्त्रीन। विचचिका ( Psoriasis ), श्राईकंड | (Rost rubiginosa) ई० हैं. गा० । ( Eczema ), तन्तुमय अर्बुद और | अस्तलस astalas-यू० कफरुल यहूद । ( A तत्तुल्य हाधियों में भी यह लाभदायक | kind of stone.) विचार किया जाता है । पो० वी० एम०। ।अस्तलोबान astalobān-हिं० संज्ञा . पु. १०२ . For Private and Personal Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० भस्ताकोस ..स्थायी दाँत . सिलारस । (Western frankincense) दूर करनेवाला, जर्राह, मलहम पट्टी करनेवाला । म० अ०। फा० इ०.१ भा०। । __सर्जन (Surgeon.)-ई। सु०।। मस्ताकीस astakis-फ्रां० एक बालिश्त के बरा- अस्त्र चिकित्सा astra-chikitsa-सं0(हि. बर (ऊँची) एक अप्रसिद्ध बूटी है। संज्ञा) स्त्रो० (१) वैद्यक शास्त्र का वह अंग अस्ताते सुर्ब state surba-क्रां० शीशक जिसमें चीर फाड़ का विधान है। सर्जरी (Su. । शर्करा, शीशक लवण-हि. खल्लातुर्रसास-अ०। rgery.)-इं० । इल्मुल् जराहत, फ्रने जर्राही (Plumbi acetas.) -अ० । प्रस्ताफ़ायस astafayas | -यु० गाजर,गजर । (२) चीर फाड़ करना। अस्त्र प्रयोग। अस्तून astina. The currot अस्त्र द्वारा व्रण क्षत श्रादि की चिकित्सा करना । (Daucus carrota.) जर्राही । इसके पाठ भेद हैं:-(क)छेदन-नश्तर अस्ताफालियूस astafaliyus-यू. जंगली लगाना । (ख) भेदन-फाड़ना । (ग)लेखन . गाज़र । (Wild carrot.) . .... खरोचना, छीलना । (घ) वेधन-सूई की नोक प्रस्ताफियूस astafiyus--यू० (१) मवेज़, से छेद करना । (च) मेषण धोना, साफ़ द्राक्षा, मुनक्का | Uve, Syn. Uvie pas करना । (छ) आहरण काट कर अलग करना। . sæ (Raisins. ) (ज) विश्रावण=फस्द खोलना । (झ) सीना= प्रस्ताफियूस अगरिया astafiyās-aghriya सीना या टाँका लगाना । सु०। . --यू. पहाड़ी मवेज़, पर्वतीय द्राक्षा | (Wild अनजित् astra.jit-सं० पु. कवाटवक वृक्ष । _raisins ). . कबाट बेटु, कराड़िया-हिं० । रत्ना० । Seeअस्ताम astām -ौलाद । ( Steel) kaváța-vakram. अस्ति asti-सं०, बं०, मल० अस्थि, हड्डी । Bo- | अत्रवेद astraveda-हिं• संज्ञा पुं॰ [सं०] - nes (Ossa) स० फा० ई..। वह वेद जिसमें प्रस्त्र बनाने और प्रयोग करने अस्तीकरि asti-kari-मल० अस्थि अंगार, हड़ी। का विधान हो । धनुर्वेद । का कोयला । (!Animal charcoal.) अस्त्र वैद्यः astra.vaidyah-सं० पु. अस्त्र स फा० इ०। चिकित्सक । (A surgeon. ) . निघ० । अस्तूम astāma-फा० नम्ज, सूम । ( Bul]. अस्त्रशालाastra-shala . rush.) इं० हैं। गा०।। अस्त्रागार astrāgāra --हि. संज्ञा पु.. अस्तूस aastusa-अ० वृक्षभेद । (A sort [सं०] वह स्थान जहाँ अस्त्र शस्त्र इकट्ठे रक्खे · of tree.) -- जाएँ। अस्त्रम् astram-सं० क्ली० । अस्त्रसम् astrasam-सं० क्लो० एक धातु तत्व अस्त्र astra हिं० संज्ञा (2) प्रायुध, 1. विशेष । (Strontium.) शस्त्र, हथियार | चाप, धनुष (A weapon अस्त्राघातः astrāghatah-सं० प० अस्त्र in general; A missile weapon.) - प्रयोग, अस्त्र चलाना, हथियारसे चोट पहुँचाना । (२) करवाल । ढाल | मे. रद्विक। (३) व निव०। . व्याघ्र नख( The tiger's nail.) । (४) अस्थायी asthāyi-हिं० वि० [सं] अस्थिर, वह हथियार जिससे चिकित्सक चीर फाड़ नाशवान । ( Temporary.) . करते हैं। अस्थायी दाँत asthāyi-danta-हिं० पु. अस्त्र चिकित्सक: astia-chikitsakan- ( Decidus or milk-teeth.) पतन सं० पु. अस्त्रवैद्य, शस्त्र वैद्य अस्त्र द्वारा रोग शील वा दुग्ध दन्त | · अस्नानुल्लम्न-अ०। For Private and Personal Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्यावर अस्थिभाक अस्थावर as thāvara-हिं० वि० चर, चल। अस्थिजः as thijah-सं० ५० मजा । ( Bo. (Moverble, moving.) _ne marrow.) रा०नि०व०१८। संज्ञा पु. जंगम । जो स्थावर न हो अर्थात् चर अस्थिजननी asthi-janani-सं० स्त्री. वसा, वा चलने फिरने वाले प्राणी यथा मनुष्य, पश, मेद धातु। (Adeps.) व निघ० । पक्षी आदि। अस्थितिस्थापक asthitisthapaka-हिं० अस्थि,-कम् asthi, kam-सं० क्ली० । वि० ( Inelastic.) जो स्थितिस्थापक न अस्थि asthi-हि. संज्ञा स्त्री हो। जो लचीला न हो। हड्डी, धातु ( तन्तु ) विशेष। Bone (Os) अस्थितुण्डः asthi-tundah-सं० पु. एक अज़ म-अ०। पूर्ण विवेचन हेतु देखो-हडो। पक्षी विशेष । ( A bird.) श० मा०। अस्थिकर्कटिका . asthi-karkkatiki-सं० अस्थितोदः asthi todah-सं० प (Ost.. स्त्री० एक वृद्ध विशेष । algia.) अस्थि पीड़ा, अस्थि में सूची भेदनअस्थिका asthika-सं. स्त्री० लघु अस्थि । बत् पीड़ा होना । हड़फूटन, हड्डी का दर्द । व निघ० । अल्मुल अजम-अ०। अस्थिकतasthi-krit-सं० प. वह जिससे | श्रमिशधरकला asthidhara-kalay अस्थि बने, अस्थिका बनाने वाला, मेद धातु, रस अस्थिधरा asthi-dhara : रक्रादि सात धातुओं में से चतुर्थ धातु विशेष । । स्त्री० अस्थ्यावरक । ( Perios teum.) (Adeps.) हे च० ।-त्रि० अस्थि का (बना) सिम्हाक, .ज़रीह, शिशान अज़मी. अ०। अस्थिकृत् अन्तःस्थ कर्ण asthi-krit-anta hs अस्थिधातः asthi-dhatuh--सं० अस्थि तन्तु tha karna-हिं० सज्ञा प ० (Osseous | Rosseous tissue. ) नस्ज अज़मी--स० । ... lebyrinth.) अस्थिमय गहनम् । देखो-हडो। . अस्थिगत ज्वरः asthi-gata-jvaran-सं० अस्थिपञ्जरः asthi-panjaraly--स. पु.. प. तदाश्रित ज्वर, हड्डी में रहने वाला ज्वर, - कङ्काल , ठठरी, ढाँचा । स्केलेटन ( Skel...अस्थि के अाश्रय से रहने वाला ज्वर ।। ____eton )-३० । र.. नि० व०१८। । .. लक्षण - अस्थिभेद, कूजन अर्थात् घुरघर | अस्थिफलः as thi-phalah--सं० प., पनस शब्द का होना, श्वास, अतिसार, वमन तथा वृक्ष, कटहल | (Artocarpus integ. शरीर का इधर उधर पटकना ये लक्षण अस्थिगत | rifolia.)--इं० । ज्वर में देख पड़ते हैं । व निघ० । अस्थिभङ्गः asthi.bhangah--सं० पु., -चिकित्सा-मननाशक औषध, वस्तिकर्म, क्ली० (१) अस्थि विश्लेष, हड्डीका टूट जाना । अभ्यंग और उद्वर्तन प्रादि द्वारा इसका प्रतीकार इन्किसारुलझाम, कस्र--१०। ( Fractu. 're.)। कांडभग्न तथा सन्धिमुक्रि (संधिच्युति, अस्थिग्रंथि: asthi-granthih-सं० प, संधि भ्रंश) भेद से यह दो प्रकार का होता है। • स्त्री० ग्रन्थिरोग |... .......... पुनः संधिमुक के ६ तथा कांडभग्न के १२ भेद अस्थिच्छलितम् asthi-chcbhalitam-सं० होते हैं । सु० चि० ३ ०। विस्तार के लिए क्लो० उतनाम का कांडभग्न ( बीच से अस्थि उन उन पर्यायों के आगे देखें। देखो-भग्नम । - भग्न) अस्थि विशेष । यदि अस्थि एक तरफ नीची (२) अस्थिसंहार, हरसंकरी । ( Vitis हो जाए और दूसरा टूटा हुअा भाग ऊँचा हो तो | quadrangularis.) • उसे “अस्थिच्छलित" कहते हैं। सु० नि०१५ अस्थिभञ्जक asthi-bhanjaka-हिं० संज्ञा ०। देखो भग्नम् । .. . प. (Osteoclast.) अस्थिस्रेसक। For Private and Personal Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१२ .अस्थिभक्षः अस्थिसाहात अस्थिभक्षः asthi-bhakshah-सं० पु. (पृष्ठ के नीचे का) भाग । यह बहुत ठोस, कठिन (१) कुक्कुर, कुत्ता (A dog.) । (२) और मजबूत होता है । इसको ही अस्थिवरक कहते STATISTICA jackal ) citro 1 अस्थि भता asthi-bhakshā-सं० रा. पर्ण- अस्थिविकाश asthi-vikasha-हिं. संज्ञा पु. वीज, ओषधि विशेष, हेमसागर । धायमारी, (Ossification.) अस्थि बनना । तथा ज. घायपात-मह०। ज़ख़्मे हयात-फा० (Kalan. --अ०। chen lacinia ta, D. C.) वै० निघ० । अस्थि विकाश केन्द्र asthi-vikasha-kenदेखो-ज़ख्मे हयात। dra- हिं० संज्ञा पु. सेण्टर श्रॉफ अस्थिभेद asthi.bheda-हि. संज्ञा पु० अस्थि ऑमिफ़िकेशन ( Centre of Ossiभंग हड्डी का टूटना ( Fracturing, brea- fication. ) ई० । मर्का तनज़मिय्यह, king or wounding a bone.) -अ० । वह स्थान जहाँ कारटिलेज । कुरी ) के अस्थिमजा asthi-majja-हिं० स्त्रो० (Bone. __ भीतर सबसे पहले अस्थि बनती है, अस्थिवि. __marrow.) अस्थिसार । देखो-म...। काश केन्द्र कहलाता है। अस्थिमय गहनम् asthimaya.gahanam अस्थिवेष्ट asthi-ves hti-हि. संज्ञा पु. -सं० क्लो० अस्थिकृत् अन्तःस्थ कर्ण । (Osse. ] अवस्थ्यावरक, अस्थियों के ऊपर सौनिक तन्तु से ous labyrinth.) निर्मित चढ़ी हुई एक झिल्ली विशेष । ( Peri. अस्थि मम्मे asthi-mammu-सं० क्ली. osteum) सिम्हाक्र-अ० । मर्म विशेष । ये संख्या में पाठ हैं। यथा-कटि | अस्थिशोथ asthishatha-हि. सज्ञा प.. में तरुण नामक २, नितम्ब में २. असफलक में अस्थि पदाह । (Ostsitis ) २ तथा दो दोनों शखा (कनपुटियों) में हैं । सु० अस्थिशोष asthis ioshi-हिं० संज्ञापु शोष . शा०५०। रोग, सूखा रोग, अस्थि नैर्बल्य । ( Dryness अस्थिर asthira-हिं० वि० इसका & decay of the bones; rickets.) सटिक अर्थ चंचल, अस्थायी (Usteady, अस्थिरला.-लिका asthi shrinkhalā,Unstable. ) है, किन्तु वैद्यक की परिभाषा lika-सं. स्त्री. अस्थिसंहार । हड़जोड़, में इससे अभिप्राय उस संधि से है जिसमें गति अस्थिशृङ्खल-हिं । हाइजोड़ा-ब० । गुण-वृष्य, हो सकती है अर्थात् चल या चेष्टावंत संधि । श्लेष्माजनक, मधुर, रक्तपित्त और वायुनाशक ( Moveable-joints. ) देखो है। मद० २०७१। संधि । अस्थिरूङ्घातः asthi-sanghatah-सं० पु. अस्थिर कठोरता asthira-kuthoratā-हिं० अस्थिमेलन स्थल, हड़ी के शृङ्गादक। ये 1: इस संज्ञा प.(Temporary hardness.) प्रकार हैं, यथा तीन-तीन एक-एक पाँव में ( एक क्षणिक कठिनता । अस्थायी कठोरता । गुल्फ, एक घुटना तथा एक जंधामूल में ) * अस्थिर, वृक्ष us thira-vrikka हिं० संज्ञा पु. और ३-३ एक एक हाथ में (1 पहुँचे, । कुहनी (Moveable kidney ) गतिमान वृक्क और १ खोदे में ) अर्थात् कुल १२ हुए। एक विशेष। निक स्थान में और एक शिर में ऐसे सब १४ अस्थिवत् asthivat-हिं० वि० अस्थि के समान, हए (किसी किसीके मत से ये अस्थिसंघात १८ हड्डी जैसा । ( Bony, Osseous. ) होते हैं अर्थात् १४ प्राक्कथित और वन में अस्थिवल्क osthi-valka-हिं०संज्ञा (Cor. जिसे कौड़ी कहते हैं तथा १ दोनो नितम्बों के tex of bone.) अस्थि का सबसे बाहर का बीच में जिसे ढूढी कहते हैं और दो दोनो अंसकटो For Private and Personal Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .अस्थि सम्धानकरः अस्थिसहाराका . पर इस प्रकार कुल १८ हुए )। स० शा• अस्थि संहतिः asthi-san hatih-सं० पु.. ५० । देखो-सन्धिः । .. अस्थिसंहार । ( Vitis quadrangula. अस्थि सन्धानकरः asthi.sandhāna-ka. | ___ris.) मद० व ७। . ralh-सं.पु.रोन लशुन, लसून । Garlic | अस्थि संहारः,-क: asthi-sanhārah, kah. .. (Allium sativum. ) वै० निघ० । -सं० पु. (१) हस्तिशुण्डि, हाथासुण्डी । ETAPITA FANI :tsthi-sandhána-ja- हाती शुंड़े-बं० । ( Heliotropium ind. nani-सं० स्त्री. अस्थिसंहार । हड़ जोड़ iucm, Linn.) --हिं० । ( Vitis quadrangularis. ) | (२)हाड़ जोड़ (डा), हड़जोड़ा, हर ()स. वै० निघ०। ङ्करी, हड़ सहारी, हड़जोड़ी, हरसङ्घारि, हड़जुरी, अथि सन्धि : asthi-sandhih-सं. नल्लेर-हिं० । नल्लेर-द० । वज्रवल्ली,ग्रन्थिमान्, अस्थि सम्मेलन स्थान, हड़ियों का जोड़ ( A1- | कुलिशं, अमरः (२०), शिरालकः ( श.), ticulation, joint.)। (२) मर्म स्थान । अस्थि सहारी, वज्राङ्गी, अस्थि शङ्कला-सं० देखा-संधिः । हड़ जोड़ा, हाड़िच, होड़जोड़ा, हाइमांगा-बं० । अस्थि समुद्भवः asthi-samudbhaviab- वाइटिस क्वाई फ्युलेरिस, ( Vitis qua. ... -सं० पु मज्जा । ( Bone.marrow.) dingularis, Tall.),सि सस वाई ग व निघ। युलेरिस Cissus quadrangularis-ले० अस्थिसंधि शोथ asthi-sandhi-shotha- विग्नी एट रेजिन्स डी गैलम Vigne et --हिं० सभा पु. ( Osteoarthritis.) Raisins de Grlam-फ्रां। कोढिए, म सन्धिस्थ अस्थिप्रदाह । ' पेरुण्डेइ-कोडिए, पिरण्डै-ता० । नल्लेरु-तीगे, अस्थि सन्धिकः asthi-sand hikah-सं० नुल्लेरुतिगट्ट, नाल्लेई-ते। वेरण्टा, पिरण्ट, पु. अस्थिसंहार, हड़ जोड़ । (Vitis qua इस्गङ्गालम परेण्ड ..मल। मगरूलि dranguliris.) भैष०। --कना० । चौधारि तरधारी,हाढसांकल, हाइसाअस्थिसम्बन्धनः asthi-sambandhana':- किला, हडसकर -ग०। शज्ञान-लेस -घर० । सं० पु राल, धूप । धुनो-बं०। ( Resiil) हिरेस्स-सिं०, सिंहली । चौधारी, निधारी, कांड व निघ०। वेल,हाड़ संधी-मह० । हाद सांखल-दे० । तिधारी, अस्थि सम्भवः asthi-sambhavan-सं० कांडवेल, हाइजोड़ा-को। हड़ संकर, हाइजोड़ा, पु., क्ली०(१) मा (Bone-marro- नल्लर, कांडवेल, चोधारी-बम्ब०। . __w.) । (२) शुक्र धातु | (Semen vir. द्राक्षावर्ग ile.) निघ०। . (.1.0. Ampelidee.) अस्थि सम्भव स्नेहः asthi-sambhava) उत्पत्तिस्थान-भारतवर्षके उष्ण प्रधान प्रदेश, अस्थिसार: asthi-sarah पश्चिम हिमवती मूल से ( जैसे कुमायू) लंका - सं० पु. मज्जा । ( Bone marrow.) और मलक्का द्वीप पर्यन्त तथा अरब । दक्षिण भारत के जंगलों में यह अधिकता के साथ अस्थि संस्थान asthi-sansthan-हिं० प.. होता है। ... हड़ियाँ, अस्थि समुच्चय,अस्थिविभाग । (Oste- वानस्पतिक-वर्णन-अस्थिसंहार वृक्षायी ology,skeletal system.) मह सुन् वा भूलुरित होता है जिसमें सूत्रवत् मूल होते इजाम-० चिकित्साशास्त्र का वह भाग जिसमें हैं । काण्ड (नवीन) गम्भीर वा पांडु हरिद्वर्ण, अस्थियों का वर्णन किया जाए। मसूण, शृङ्गाल वा मालाकार, चतुष्कोण क्वचित - •snehahe 4. निघ०। For Private and Personal Use Only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसंहार ... अस्थिसंहाग त्रिकोण, पज्ञाकार और संधियुक, होते हैं । प्रत्येक .. जोड़ विनित लम्बाईका( २४ ईव)होता है। यदि कांड से एक ग्रंथि काटकर मत्तिका से ढाँक , दो जाए तो उससे एक सुदीर्घ लता उत्पन्न हो । जाती है। इसीलिए इसका एक नाम "काण्ड.. वल्ली है। . ... .. ( Stipule ) चन्द्राकार, अखंड; पत्र अत्यंत स्थूल एवं मांसल, विषमवर्सी, साधारणतः त्रिखंडयुक्र, हृदण्डाकार, ( Serrulatid ); वृन्त हस्त्र; फूल छत्र्याकार, लघु वन्तक, श्वेत व हस्व, पराग केशर ४; दल ४, प्रशस्त; फल . मटरवत् वत्तलाकार, अत्यन्त चस्परा बा कटुक , (. यह उसमें पाए जानेवाले एक कार के अम्ल . के कारण होता है ), एक कोष युक; एक बीज.युक; वोज एकान्तिक,अधाडाकार एक कृष्णधूसर स्पावन कोष से श्रावृत्त होता है; प पहुस्त्र, श्वेत और वर्षा के त में प्रगट होते हैं। नोट- इसके कांड में भी यही स्वाद होता है। इसकी एव द्राक्षा की अन्य जाति के पौधे --की उक्र चरपराहट खटिव काष्ठेत (Calcium - Ox late.) के सूच्याकार स्फटिकों की विद्य- निता के कारण होती है। पौधे के शुष्क होने पर ये स्फटिक टूट जाते हैं एव' जल में क्वथित करने से वे दूर हो जाते हैं। ... प्रयोगांश-सर्वांग ( काण्ड, पत्र आदि)। मात्रा-शुष्क चूर्ण, १ रत्ती वा २ मा । प्रतिनिधि-पिपरमिण्ट और कृष्णजीरक । अस्थिसंहार के गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मत से.: वात कफ नाशक, टूटी हड्डी का जोड़नेवाला, . गरम, दस्तावर, कृमिनाशक, बवासीरनाशक. नेत्रों को हितकारी, रूखा, स्वादु, हलका, बल'कारी, पाचक और पित्तकर्ता है। भा० पू०१ भा०। शीतल, वृष्य, वातनाशक और हड्डी को जोड़ने । वाला है । मद०व०१। ...... .. वज्रवल्ली ( हड़जोड़) दस्तावर, रूक्ष, स्वादु ...( मधुर.), उष्णवीर्य, पाक में खट्टा, दीपन, वृष्य । एवं बल पद है तथा क्रिमि और बवासीर को नष्ट करता है। अर्श में विशेष रूप से हितकारक श्रीर अग्निदीपक है। चतुर्धारा कांडवली (चौ. धारा हड़जोड़ ) अत्यंत उष्ण और भूत बाधा तथा शूल नाशक है एवं प्राश्मान, वात तिमिर, वातरक, अपस्मार और वायु के रोगों को नष्ट करती है। (वृहन्निघरटुरत्न कर) .अस्थिसंहार के वैद्यकीय व्यवहार चकदत्त-मनगंग में अस्थिसंहार-संधि. युक अस्थिभग्न में अस्थिसंहार के कांड को पीसकर गोवृत तथा पुग्ध के साथ पान करें। यथा... "प्रवृतेनास्थिसंहार* संधियुक्रेऽस्थिभग्ने च पिवेत् क्षीरेण मानवः” । (भग्न-चि०) • भ व प्रकाश-वायु प्रशमनार्थ अस्थिसंहार मजा-अस्थिसंहार के डाटा की छालको छीलकर उस लकड़ी का चूर्ण १ मा० तथा छिलकारहित किसी कलाय की दाल ( वातहर होने के कारण माष कलाय. अर्थात् उड़द उत्तम है) प्राध मासे ले दोनों को सिल पर बारीक पीसकर तिल के तेल में इसकी मगौरो बनाकर खाएँ । ये मगौरी प्रत्यंत वात नाशक हैं। प्रथा-.... "कांडं स्वविरहितमस्थिशृङ्खलायामापाद्ध द्विदलमकुञ्चकं तदद्धम् । सम्पिद तदनु ततस्विलस्य , तैले सम्पक्व, वटकमतीव वातहारि ॥" भा० । च० द० अ० पि०, अभ्र शुद्धौ। ... वक्तव्य चरक, राजनिघण्टु तथा धन्वन्तरांयनिघण्टु में अस्थिसंहार का नामोल ख दृष्टिगोचर नहीं होता है । सुश्रुताक्त भानरोग चिकित्सा में , अस्थिसंहार, का पार नहीं है। चक्रदत्तके समान वृन्द ने भग्नाधिकार में इसका व्यवहार किया है। राजवल्लभ लिखते हैं। " . "अस्थिभग्नेऽस्थिसहारो हितो बल्योऽनिलाहः।" अर्थात् हडियों के टूट जाने में अस्थिसंहार • हितकर है एवं यह बल्य और वातोंशक है। ..' यूनानी मतानुसार प्रकृति-उपण व रूक्ष । स्वरूप-नवीन हरा " और शुष्क भूरा । स्वाद-विकला व किञ्चित तिक एवं कषाय ! For Private and Personal Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसंहारः .... ... अस्थिसंहारः नव्यमंत -: हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को । दर्पघ्न--घृत । , में उन पौधे के वर्णन देने का कारण यह है कि प्रतिनिधि जोंक की पित्ती । । ट्रिप्लिकेनमें एक श्रादमी जोकि चिरकारी एवं हठीले प्रधान कम-सबल भग्नास्थिसन्धानक । (Obstina te) अजीण से चिरकाल से पीड़ित मात्रा-२ मा० ।। था ४० दिवस तक उक मुरब्बाके सेवन के पश्चात् गुण, कर्म, प्रयोग-प्राचीन यूनानी ग्रंथों में | वह बिलकुल रोग मुक्र होगया । ( मे० मे० हड़जोड़का उल्लेख नहीं पाया जाता । अर्वाचीन लेखकों ने अपने ग्रंथों में जो इसके संक्षेप वर्णन ... डोमक-इसके ताजे पत्र एवं काण्ड का दिए हैं वे केवल आयुर्वेदीय वन की प्रति कभी कभी शाक रूप से व्यवहार होता है । पुरा. ‘लिपि मात्र हैं। वनस्पति विषयक कतिपय उदू तन होने पर ये चरपरे हो जाते हैं तब इनमें - ग्रंथों में लिखा है कि "प्रायः गुणों में यह गुडूची, औषधीय-गुण धर्म होने का निश्चय किया जाता के समान है। परन्तु यह परीक्षणीय है । इससे है, फा० इ. १ मा० .. पारद की भस्म बनती है। बु० मु० । म० मु०। ऐन्सला लिखते हैं कि तामूल चिकित्सक अग्निमांद्य जन्य कतिपय प्रान्त्र रोगों में इसके . मोहीदीन शरीफ़--इन्द्रिय व्यापारिक कार्य शुपक कारद्ध के चूर्ण का व्यवहार करते हैं। ये सशक परिवर्तक माने जाते हैं और लगभग प्रामाशय बलप्रद (पाचक ) तथा परिवर्तक ( रसायन ) । उपयोग-अजीण में इसका २स्क्रप्ल २॥ मा०)की मात्रामें इसका चूर्ण किञ्चित् लाभदायक प्रयोग होता है । तण्डुलोदक के साथ दो बार दैनिक व्यवहार में ... आ सकता है। औषध-निर्माण-मुरब्बा-नवीन तथा कोमल कांड के छोटे छोटे टुकड़े करें और प्रत्येक टुकड़े फोसकहल ( Forskahl) वणन करते को कीचनी से कांच डाले' (जिस प्रकार श्रामला हैं कि मेरुदंड विकार से पीड़ित अरब लोग इसके कांड की शय्या बनाते हैं। का मुरब्बा बनाते समय आमलोंको एक विशेषयंत्र द्वारा कोंचते अर्थात् उसकी चारों ओर गम्भीर ___ कत्राव (पति कण) में इसके कांड छिद्र कर डालते हैं ) । पुनः उन टुकड़ों को जल में स्वरस द्वारा कर्ण पूरण करते हैं तथा नासार्श वा कोमल होने तक कथित करें' । इसके बाद पानी नासारखाव में इसे नासिकामें टपकाते हैं। अनियको फेक दें और टुकड़ों को हल के हाथों से मित ऋतुदोष तथा स्कर्वी के लिए भी यह प्रख्यात निचोड़ ले। फिर उनको चूणों दक वा १ ड्राम है। प्रथन रोग में २ तो. स्वरस (पौधे को उष्ण (३॥ मा० ) से ४ पास पर्यन्त कार्बोनेट प्रॉफ करके निकाला हुआ), २ तो. घृत और १-१ 'सोडा विलीन किए हुए जल में कथित करें और तो. गोपीचन्दन ( श्वेत मृत्तिका विशेष) तथा पूर्ववत् तरल को फेंक दें। इस क्रम को दो तीन शर्करा में मिलाकर दैनिक उपयोग में आता है। बार और काम में लाए अथवा इस . क्रम., को फा० इ० १ भा० । मे० मे० प्रॉफ ई. तब तक दोहराते रहें जब तक कि वे किसी भार० एन० खोरी। ... प्रकारकी चरपराहटसे शून्य एवं कोमल न होजाएँ। बैल्फर ( Balfour ) राजयक्ष्मा में इसके तदनन्तर उनको स्वच्छ उष्ण जल से धोकर और कांड का कल्क व्यवहृत होता है । कपड़े से पोंछ कर शर्करा के साधारण शर्बत में आर. एन खं रो-अस्थिसंहार रसायन डाल कर सुरक्षित रखें। सप्ताह पश्चात् यह प्रयोग |' तथा उत्तेजक है । यह अजीर्ण, अग्निमांद्य एवं में लाने योग्य हो जाएगा। .... . स्कर्वी रोग में व्यवहृत होता है । पार्द्र अस्थि. मात्रा-२ से ४ डाम तक २४ घंटे में २ या संहार को पीसकर अस्थि विश्लेष, अस्थिभग्न ३ बार । डॉक्टर महोदय लिखते हैं कि इस ग्रंथ किम्वा क्षत पर प्रलेप करते हैं। ( Materia For Private and Personal Use Only Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्थिसहारिका,-री अस्थ्यांतरिक बंधन Medica of India- R. N. khori. | अस्थूरि asthuri-दोष रहित । अथर्व० । सू० Part 11., p. 136.) प्रार० एन० चोपरा एम० ए०, एम० अस्थ्यकार: asthyangarah-स. प. डा०-इसके पत्र एवं कांड दक्षिण भारतवर्ष में हड्डीका कोयला । ( Animal charcoal, कदी के साथ व्यवहार में पाते हैं । मदरास में ! Bone charcoal.) पौधे के नवांकुरों को अन्तधूमाग्नि द्वारा भस्म अस्थ्यन्तरोय asthyantariya-स त्रि. कर इसको अजीण एवं अग्निमांद्य में बरतते हैं। (Interozseous ) हड्डी के भीतर का । (६० डू०६० पृ) ६०२) अस्थ्यान्तरि का पेशियाँ insthyan tarika अस्थिसंहारिका,री asthi-sanharika,-11 सं० स्त्रा० अस्थिसंहार । ( Vitis quad ___peshiyan-स. स्त्रो० ( Interossei) - अस्थि के भीतरी तरफ़ की पेशी । rangularis.) भा०पू०१भा०। अस्थि संहृत् asthi.sanhrit-सं० प अस्टपावरक asthyavaraka अस्थिसंहार । ( Vitis quadrangu- | अध्यावर asthyavirana ___laris) च० द० । भैष० भग्न-चि०। -हिं. प. अस्थिवेष्ट । ( Perios teum) अस्थिसारः asthi-sāran-स. पु. मजा। सिम्हाक, ज़री-१०। अस्थियों के ऊपर सौत्रिक ( Bone-narrow ) । रा० नि० व. तन्तु से निर्मित एक झिल्ली चढ़ी रहती है इसको भस्थ्यावरक कहते हैं। अस्थिसार स्थिता asthisār-sthita-स० अस्द asda-अ० शेर, सिंह । ( A lion.) स्ना० मजा । ( Bone-marrow.) अस.दरान asdaran )-अ० वह रगें जो अस्थिस्नेहः ॥sthi-sne hah- पु मज्जा। अस्.दग़ान asdaghān दोनों कनपुटियों - मज्जन । (Bone-marrow) रा०नि० के नीचे स्थित हैं । पुइपुड़ियों की रगें। व०१। अस.दी asdi-० (ब. व.), स.दी (५० अस्थिस्नेह सनः asthisneha sanjnyali व.) स्तन, कुच स्त्री का हो अथवा पुरुष का । -स0पु0 मज्जा । मगज-हिं० । (Marrow, (Breasts.) Pitb.) • tao o s | अस्दुल अदस asdul-aadsa-१० (१) शरट, अस्थिस्तेह सञ्चार: asthi-sneha-sancha. गिर्गिट( Chemelion)। (२) माज़रियून । - rah-स. पु० मज्जा, मज्जन । ( Ma (Mazariyun.)। (३)एक अप्रसिद्ध बूटी है। rrow) जिस बूटी के समीप यह होती है उस बटो को यह अस्थिस्रस' asthisransam.-स'. क्लो. नष्ट कर देती है। हड्डियों को तोड़नेवाला. अथव०।। अस्दुलअर्ज sdul-arza-१० (१ ) गिर्गिट, अस्थिक्षय asthi-kshaya-हि० सज्ञा प. [स0 ] अस्थि तोष, अस्थिनैर्बल्य । ( Ric. शरट ( Chemelion. ) । (२) एक अप्र. सिद्ध प्रोषधि है जिसके लक्षण के सम्बन्ध में kets, ) मतभेद है। कोई कोई इस्वीस. को कहते हैं। अस्थीकरणम् as thikaranam-स. क्ली. ... अस्थि विकाश, अस्थि बनना, कुर्रा का अस्थि | अस्नः asnah-सं० पुलालरस । अथवं० । बनना । (Ossification)। ताज.ज.म-अ० अस्थ्यातारक बधन asthyantan अस्थ्यांतरिक बंधन asthyantarika-ban. अस्थीयम् asthiyam-ल. क्ली० (Oss- dhana-सं० स्त्री० (Interosseous li... ein.) अस्थि का । । gament.) अस्थि का भीतरी बंधन । For Private and Personal Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथा प्रस्नहान अस्प(र) प्रस्नहान asnahan -सं० देगी (कमल के समान देवदारु, देवदार की जाति का एक पेड़ । ( Ced एक पुष्प है)। rus Deodara.) रा०नि० ब०१२। अस्नाख asnākh-अ० (ब० व०), सन्न अस्निग्ध लक्षणम् asnigdha-lakshanam ( ए० व० ), दन्तमूल | (Root of tee- सं० लीअस्निग्ध अर्थात् रूक्ष के लक्षण । th.) अस्नान asnana-१० (ब० व०), सिन (ए. व०) (१) दन्त, दाँत ( Teeth.)। (२) __ गांठदार पाखाना का होना, रूक्षता, वायुविकार मृदुता, पका हुआ सा होना, खरत्व और शरीर श्रायु, अवस्था । (Age.) देखो-सिन्न। की रूक्षता ये अस्निग्ध के लक्षण हैं। प्रस्नानुलफ़ार asnānulfara-१० शाब्दिक अर्थ मूषा दंत, ( चूहे का दात ), पारिभाषिक "पुरीषं ग्रथितं रूहं वायुरप्रगुणो मृदुः। अर्थ नख के वे बारीक तीक्ष्ण तन्तु जो नखके सिरे पक्रा खरत्वं रौयंच गात्रस्यास्निग्ध लक्षणम्॥" के समीप फटजाने से उसमें उत्पन्न हो जाते हैं | (च० सू० १३ अ० ) या नख के मूल में होते हैं । अस्प aspa फ़ा० अश्व, घोटक । (A horse.) अस्नानुल लुब्न asnānul-lubna-१० अस्नान | अस्पगोल aspaghola ) -फा० ईसब लुन्निय्यह । दुग्ध दंत, दूध के दाँत । दन्दाने शीर | अस्पग़ल aspaghala गोल,ईषद्गोल । -फा० । ( Milk teeth) (Ispaghula.) अस्नानुलह (हि)ल्म asnānul-hu(hi)lma 'अस्पक्ष aspanja-- अस्मा । अभ्रमुर्दा, मुत्रा -१० अस्नानुल अनल । बुद्धि दन्त-हिं० । दन्दाने बादल, स्पञ्ज । (Sponge.) अकल, अनल दाढ़ें-फा०। ( Wisdom teeth) अस्पताल aspatāla-हिं० संज्ञा पुं० [ ई. अस्नाने कवाति asnāne-qavatia-१० __ हॉस्पिटल ] औषधालय । चिकित्सालय । दवाअग्रदन्त, छेदक दंत । दन्दाने पेश-फा० । (In ख़ाना । cisors.) अस्पदन्दा aspa-dandain-फ़ा० (तिबि०, अस्नाने कवासिर asnāne-kavāsira-. पारिभा० ) खुश्कजबीन ( एक प्रकार का मधु भेदकदन्त, रदनक । दन्दाने नीश-फा० । (Ca. जो अत्यन्त शुष्क होता है)। ____nines, Canine tooth.) अस्पदरियाई aspa-dariyai-फ़ा. प्रसुल अस्नाने तवा ह न asnāne-tavāhuna-१० माथ्र--१० । दरियाई घोड़ा । चर्वणक दन्त । दन्दाने आसिया, पीसने वाले नोट-कहा जाता है कि यह जानवर मिश्र __ दात-उ०। ( Molars. ) देश में नील नदी के भीतर होता है। इसके पाँव अस्नाने दाइमिह asnāne-daimih-१० गोपाद सदृश होते हैं । पुच्छ वाराह पुच्छ सदृश स्थायी दंत । दन्दाने मुस्तकिल, मुदामी दात-उ० । और स्वरूप घोड़े का सा होता है। यह घड़ियाल ( Permanent teeth.) प्रादि समुद्री जीवों का आहार करता है। अ.स्नाफ़ asnafa-१० (ब०व०), सिन्क्र (ए. व० ) भेद, प्रकार । ( Kinds.) अस्पनाज aspa-nāja-फा० पालक । (Spina. अस्निग्ध asnigdha-सं० त्रि०, हिं० वि० पु. __cea oleracea.) जो स्निग्ध नहो, रूक्ष । स्निग्धता का प्रभाव अ (इ) स्न्दि a-i-spanda-फा० राई। देखोअस्निग्धदारु-कम् A snigdhadāru, इस्पन्द । (Ispanda.) kam-सं. स्त्री० अस्परक asparaqa-फा० पीली जड़,त्रायमाणा। अस्निग्ध दारुक asnigdha.daruka (Delphinium zahl, Ailch. ) -हिं० संज्ञा पु.० अस्प(र) asparka-हिं० तिरीर (10 मे" १०३ For Private and Personal Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्पर्गम .. ८१३ अस्फटिकीय लां०),जिरीर (मेमा०)--फ़ा० । बनपिरिग-बं०।। अस्पीडो स्पर्मा aspedosperma-ले. एक . ट्रिफीलियम् अॉफिसिनेली ( Trifolium पौधा है। officinale, Wild. ), मीली लोटस अस्पीडा स्पर्मा क्युन को ब्लेको aspeclosp- . आफिसिनेलिस (Melilotus officin- erma cubieko blanco-ले. एक alis.) --ले० । इक्लोलुलमलिक-अ.। पौधा है। ववर या शिम्बी वर्ग अस्पेरगasperg-फा० अस्फ्रक-फा० । जरीर-अ०। (N. 0. leguminosa) त्रायमाण, गुले जलील-बम्ब०। गाफ़िज़-पं०। उत्पत्तिस्थान-नुबा तथा लेदक । (Delphinium Zalil, sitch, et प्रयोगांश-तुप। __Hemaley.) फा० ई० १ भा०।। उपयोग-यह तुप रकस्थापक है । क्षतों पर | अम्र ता aspergi-Eio नागदौन-हि. | (A1भी इसका उपयोग होता है । वैट । ____tennisia. vulgaris.) भस्पर्गम् aspargham-फा० रैहैं। । (Oci- | अस्फ iasfa-अ० अन्तिम श्वास, मरणावस्था, mum basilicum, Linn.) मरणासन्न, मुमूर्षु । श्र(इ)स्पर्जह. a-i-sparzah-फा० इस्पग़ोल। पाइण्ट श्राफ डेथ (Point of dea ईसबगोल,ईषद्गोल-हिं० । (Ispaghula.) th.)-इं०। अस्पतम aspartam--क्रारुल यहूद । यह एक प्रस्फअ asfaa-अ. श्याम, काला । (Bla #17 #1 91910 I See-gafrul-ya-) ck) huda. अस्फारून asfangaruna-रू. अस्पर्शा asparshā-सं० स्त्री० अकासबेल, अस्फ़न asfanja-फा० श्राकाशवल्ली। भालोकलता-बं०। ( Cuse अभ्र मुर्दा, मुश्रा बादल, स्पञ्ज | Sponge uta reflexa-) रा०नि० व..। (Spongia officinalis.) अस्पस्त aspasta -फ़ा० नस्तरन, क़त, अस्फा का जलाना अर्थात् सं ख़्तह. प्रस्फन asfataकमीज़ह, तील,दमचह । करना(Trifolium pratensis.) इ. है. मुश्मा बादल के जलाने की विधिगा।.. अस्ता अर्थातू मुमा बादल को साबुन से धोकर श्र(ऐ)स्पाइरोन aspirine-इ० देखो-ऐस्पा भली भाँति निचोड़ कर शुष्क कर ले । पुनः इरीन । इसे बारीक कतर कर मिट्टी के बर्तन में रखकर अ(ए)स्पालेन्थस इण्डिकस aspalanthus अग्नि पर इतना जलाएँ जिसमें वह पीसने योग्य indicus, dinsle.-ले० शिवनिम्ब-मह० । हो जाए । परन्तु इतना न जलाएँ कि जलकर ( Indigofera aspalanthoides, राख हो जाए । तत्पश्चात् योगों में प्रयुक्त करें। Vuht.) फो० इ०१भ..। व्या० ३.०भा०३। अस्पालोटा aspalori.-जलपीपर, तूतबूटी, अस्फ. मु.हरिक asfanja-muhriq ) बुकन । नफा०२ भा० । देखो---जलपिप्पली। अस्फञ्ज साखता asfanja sokhta अस्पियूस aspiyāsa-अ० इस्पग़ोल, ईसब. अ०, फा० जलाया हुअा मुश्रा बादल | गोल, ईषद्गोल । ( Ispaghula) अस्फटिकीय asphakikiya-हि. वि. वह अस्पोडियम् फिलिक्स मैस aspedium fil- जिसके स्फटिक अर्थात् रवे न हों । बे रवा । , ix mace-ले० मेलफर्न । अमूर्त । स्फटिक रहित | (Amorphous.) For Private and Personal Use Only Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : अस्फ़न्द ८१६ अस्फन्द asfanda - फा०] ( १ ) सफ़ ेद राई | अस्फांद asfáda ( White-mustard) । ( २ ) दोलू, अस्फाद सुफ ेद asfada-sufeda हुल | ( ३ ) स्पन्द । ( Ruta allaf Jora.) इं० हैं० गा० । अस्फन्दान asfandána } अस्फन्दा सफेद asfanda safeda फा० सफेद गई । ( White mustard seed.) अस्फ़ाना रूमी व हिन्दी astanakha rūmi• va-hindi-फ़० वास्तुक, बथुआ । अस्फ़ान asfárghina - गृ० एक बूटी है जिसकी शाखाएँ सौंफ के समान आदि में मृदु किन्तु पश्चात् को कोर एवं हरी हो जाती हैं । नागदौन | देखो - ऐसपैरेगीन ( Asparagin ) अस्फोक्लिया asphiksiya - श्र० इख़्तिनान, दम घुटना, दम बन्द होना- उ० । श्वासावरोध, श्वास का अवरुद्ध होना । ( asphyxia ) अस्फुट asfuta हिं० वि० [सं० ] ( १ ) श्रद्ध स्वच्छ । जो स्पष्ट न हो । जो साफ न हो । ( २ ) गूढ़ | जटिल | अस्फुट दर्शक asfuta-darshaka-हिं० वि० श्रर्द्ध स्वच्छ, स्पष्ट दर्शक | ( Translu cent.) अस्फ़न्दान asfandana - फ़ा० मद्य भेद (A kind of wine. ) अह फर asfara - ० ज़र्द फा० । पीत, पीला, पीली - हिं० । ( Yellow) इतिब्बा ने इसकी पाँच कक्षाएँ स्थिर की हैं - ( १ ) तम्बी, (२) उजी, ( ३ ) अश्कर, ( ४ ) नारी और ( ५ ) हमर नासि । श्रस्तु उन उन पर्यायों के सामने देखो - अस्फरक asfaraka-फा० एक श्याम वर्ण का पक्षी है जो घरों में पाला जाता है । इसकी चोंच पीली होती है। इसे पढ़ाया जाता है तथा यहमनुष्य से प्रेम करता है । फ़र फाकिअ asfar-faqia - अ० घन पीत, अत्यन्त पीला, गहरा पीला । ( Deep ye llow. ) अस्फ़राग़ोयूस asfarághoyusa यू० बिण्डाल, देवदाली | ( Ecbellium elatarium.) अस्फराज asfaraja - इन्दुलि० नागदौन | देखो - अस्फार्गोन । ( Artemisia_vulgaris.) अरुफ़रान asfarana श्र० जिह्वा तथा हृदय । ( Heart and tongue. ) अस्फरे बर्री asfare-barrí - फा० बादाबद - हिं०, बम्ब० । (Volutarella divari• cata, Benth. ) फा० ६० २ भा० । अरु फह. asfah - अ० विशाल ललाट, त्रिशाल मस्तिष्के, चौड़े माथे वाला । अस्फाक asfaka फा० त्रायमाण, वलभद्रा । श्रभि० नि० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रस्वल - फा० राई | ( Sinapis ramosa) अह्फ़ानाख़ asfánakha - अ० पालक | (Spinacea oleracea. ) श्रस्फोडेलस फिस्ट्यूलोसस asphodelus fistulosus, Linn. - ले० पियाज़ी, बोकार -पं० । प्रयोगांश - पौधा व बीज । उपयोगऔषध तथा खाद्य । मेमां० । श्रस्फोतः asphotah सं० पु० काञ्चनार वृक्ष, कचनार | (Bauhinia variegata) वै० निघ० । अस्.ब(बु)अ, asba - bu, a श्र० ( ए० व० ) असाविच असावी ( ब० व०), अंगुश्त, उंगली - उ० । अंगुली - हिं० । ( Finger.) अस्वन्द asbanda - हिं० संज्ञा पुं० [अ०] इस्बन्द । ( Peganum harmala ) अस्वर āasbara त्रा० नर चीता । ( A maletiger. ) For Private and Personal Use Only | स्वर्ग asbarga - हि० पु० ग़ाफ़िस । ( Delphinium saniculae folium.) श्रस्बल asbal - अ० लम्बी मूछोंवाला, वह मनुष्य जिसकी मूछें बड़ी बड़ी हों । Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरबाग ८२० मस्याब साविकह अहवाग asbāgha-अ० (ब० ब०) देखो-- में प्रगट करें या शारीरावस्था को सुरक्षित रक्खें, ART I ( Tinctures, ) पुनः चाहे वे प्राकृतिक हों या अप्राकृतिक । अस्बान aasbāna-अ० खजूर भेद । (A kind | अस्वाब बादिश्यह, asbaba badiyyah ० of date. ) अस्वार ख़ार्जियह अस्वाब मेनान्किय्याह । वाह्यअस्वाब asbabu-अ०(ब०व०), सबब (ए० कारण । वे हेतु जो मनुष्य शरीर के बाहर व०). वैद्यक की परिभाषा में वह वस्तु जो अाक्रमण करके अपना प्रभाव स्थापित करें, मनुष्य शरीर में रोगारोग या हालते सालस ह. जैसे शैत्योष्णता श्रादि ।(External orLo. (अवस्थात्रय ) को उत्पन्न करे अथवा उसको cal causes.) सुरक्षित रखे, चाहे वह वस्तु शारीरिक या अशारी अस्वाब मादिय्यह asbaba-madiyyah रिक तत्व हों या अर्ज । -श्र०वे हेतु जिनपर रोगारोग का श्राधार हो । ___ कारण, निदान, हेतु । (Causes.) देखो अत्वाब मु.ज़ादह, asbaba-muzaldah सबब। -० अमिति घातक कारण जो शरीरको हानि महाबइब्तिदाइय्यह asbaba-ibtidaiyyah) पहुँचाते एवं उसे नष्ट कर डालते हैं, जैसेअस्बाव अवलियह asbaba. vvaliyah a तलवार या गोली का घाव, विषपान तथा जनअस्वाब असलयह asbaba-asliyah मग्नता प्रादि। -अ० किसी रोगके प्रादि कारण । इनका समावेश अस्वाब मुतम्मिमह. asbaba-mintamini. वस्तुतः अस्वाब साबिका (प्रारम्भिक कारण ) mah-अ० वे कारण जिनके शरीर पर प्रभाव ही में होता है । ( Primary causes, करने के पश्चात् तत्काल रोग उत्पन्न हो जाएँ। Ultimate causes.) सन्निकृष्ट कारण । अस्वाब कुल्लिय्यह. asbaba-kulliyyah | अस्वाव मुर्गिज़ह asbaba-inu marrizab -अ० वे हेतु जिनके होने से नवीन चीज़ों का -अ. रोगोत्पादक कारण, रोग संजनक होना अनिवार्य हो। अस्याब ख.सूसिय्यहnsbaba-khususiyyah | अस्वाब वासि लह asbaba-vasilah -अ० वे मुख्य हेतु जो किसी प्रधान रोग को अस्वाब करीबह as baba-qari bah उत्पन्न करें। जैसे-प्लेग तथा विशूचिका विष जो अस्बाब सानोयह asbaba-sānoyah उक्र रोगोंको ही उत्पन्न करते हैं। (Speci-fic -श्र०वे कारण जो शरीर में विद्यमान हों और causes.) बिना किसी अन्य कारण की अपेक्षा करते हुए अस्वाब तमामिय्यह. asbaba-tamami. शरीर में कोई अवस्था उत्पन्न करें। जैसे-अलvyah-अ० वे कारण जिनसे शरीर अथवा नत ( स ध ) बिना किसी अन्य कारण के शरीर की किसी अवस्था विशेष की पूर्ति होती अफ नती ( पचनीय, दूषित ) ज्वर उत्पन्न कहै। ( Complimental causes.) रती है। (Immediate causes, Prox. नोट-उक्र अरबी परिभाषा सामान्यतः इल्मे imate causes.) हिकमतमें सबके ग़ाई अर्थात् किसी काम की | अस्वाब साबिक़ह asbaba-sabiqah गायन व ग़र्ज़ के लिए बोली जाती है। श्रस्वाब मुहहह. asbaba-muaiddah अस्वाय फ़इलिय्यल as baba-faailiyyah अस्वाब बई.दह, asbaba-baaidah -अ० वे कारण जो रोगारोग अथवा हालते मा. -अ० वह कारण जो मनुष्य शरीर पर सहयोग लसा (अवस्थात्रय ) में से किसी एक को शरीर द्वारा प्रमाव करें अर्थात् शरीर को किसी दशा के For Private and Personal Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्थाव सित्तह २१ अस्सा लिए तैयार करें; किन्तु स्वतः उसको उत्पन्न न | अस्मग्धफनम् asmagdha-phalam-सं० करें । जैसे-इम्ति जाऽ(शरीर का दोषपूर्ण होना) | क्लो० कटहल,पनस (Artocarpus inteशरीर को दूषित जबरों के लिए उद्यत बनाता है, grifolia; ) किंतु बिना सहयोग के दोष उसको नहीं उत्पन्न अम्मस्वेदन asma-svedan-सं० प्रस्तर स्वेद । कर सकते | प्रीहिसपोजिंग काँजक ( Predis. सु० । posing causes.): रीमोट कॉज़ेज़ (Re अस्मङ्गलगण्डा simangal.ganda-हि.पु. mote causes.)-इं। गसरगढ़ ( एक भारतीय बूटी है जो भूमि पर प्रस्बाब सित्तह. asbaba-sittah श्राच्छादित होती है। पत्ते कन्दूरी सदृश और मस्वाव सित्तह जरूरियह as baba-sittah.i मूल ककोड़े के समान तथा विषमतन्न होते हैं )। zaruriyah. लक०। PETIT graft , asbába-zaruriyah !| अस्वाब आमिय्यह, as baba-aamiyyah ji अस्मन्तम् as mantam-सं० क्ली० चुल्ली, चूल्ही -अ० वे ६ प्रसिद्ध कारण जो जीवन के लिए प्राव. (ल्हा)। उनन, अाका-बं०। चुल-महः । श्यक हैं, जैसे-(१) वायु, (२) खाना (A fire-plice.) अ० टी०म०। पीना, (३) सोना जागना, (४) शारीरिक अ-मन्तिका asmantikā-स्त्रो० प्रापटा । गति एवं विम, (५) मानसिक चेष्टाएँ अस्मर asmar-अ० गन्दुमD, गन्दुमी रंग। एवं शांति और (६) संशोधन एवं सग गेहूँ का रंग, गोधूम वर्ण, धूसर वण, भूरा. (अवरोध)। --हिं.। ( Brownish ) .... अस्वाब सूरिथ्यह, asbaba-sāriyyan-अ. | अस्मर्सा asmarsi ) नीचा भेद ।। रचनात्मक वा प्राकृतिक बातें और जो उनसे | अश्मMashmarshan सम्बन्धित हों। अस्मानिया asmāniyi-पं० बूतशूर, बूदशूर, स्वितालियबह. asbitaliyyah-० यह खन्ना, चेवा । (Ephedra gerardiana, हॉस्पिटल (अंगरेजी शब्द ) से अरबीकृत शब्द Wall.) मेमो०। है अर्थात् हस्पताल, शिफ्रानानह । अस्पताल, अस्मानी गलगोना asmani.galagota-गुरु, चिकित्सालय-हिं० । ( Hospital,infer द. जंगली बवेण्डर । mary.) अस्मालावन asmālāvan-यु० सौसन बरौं अस्त्रितालिय्यह नकाल asbitāliyyah-na. (एक सुगंधित पुष्प है जो सौलन के नाम से qallah-अ. रणभूमि से पाहत प्राणियों को | प्रसिद्ध है)। यह बागी भी होता है। ले जानेकी डोलियाँ प्रभृति । (Ambulance.) | | अस्मितः asmitah-सं० त्रि. विकसित, खिला अबूर as bur-१० स्पोर से अरबीकृत शब्द है जिसका अर्थ बीज या कीटाणु है । (Spore) हुश्रा । फुटन्त-ब० । ( Blown, upened.) व० निघ01- . अहम āasina-१० धूम्रवायु भक्षण, पाहार आदि . जिसमें धूम्रगंध श्रागई हो। अस्मोलूस asmilās-यु. लोबान का सत, लोबा. WEATST EFT: asmagdha-vrikshah-rjo निकाम्ज । ( Aciduin benzoicum.) ० अाम्रातक, अम्बाड़ा, अमड़ा। (Spo | अस्पूनियून as muniyān-यु० सफेदा, सुफेदा । __ndias inangifera) लु० क०। (Plumbi carbonas.) देखो-सीसक। अस्मग्ध कन्तू asmagdha-kanti-सं० | अस्सा asmusa-यू. जंगली गाजर, वन्य मोम । (Wax) | गजर । (Wildcarroth). For Private and Personal Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्यूस asyās -यू. श्रास्यूस, पत्थर भेद । (A. जन्नौका, जोंक, जलायुका ( Leech Hirllkind of stone.) .. do. ) । (२.) मत्कुण, कीट भेद । रा०नि० अस्रम् asram-सं० क्ली० (१) शोणित, व०२३। (See-matkunah.). अस्त्र-asia-हिं० संज्ञा.पु. रत, रुधिर । -हिं० वि० रनपीनेवाला। ब्लड ( Blood )-ई० । रा०नि० व०१८। अत्र पत्रः,-क: asrapattrah,-kah सं० पु. - (२) केशर, कुकुम । Saffron ( Croc- भेण्डा वृक्ष, भेड़ा वृत्त । रा०नि० ० ४। __us sativus.) च० द० । (३.) नयनजल , See bherai अथु, आँसू । टियर ( Team )-३० । रत्ना०। अस्रपा stapā-सं० (हिं. संज्ञा) स्त्री. -पु. (५) प्रास्त्राव । विज० र०। (५) जलायुका, जलौका, जोंक । ( Leech, Hiकोण, कोना केनर (A corner.)इ०। rudo.) मे । (६) केश, बाल । हेयर ( Hair)-इं० । मे। अम्रफला,-ली. asraphalā,-]i-सं० स्त्री) (७) एक देश ( A country )। ) शल्लकी वृक्ष, सलई, सलाईका पेड़ । शालुई गाछ -बं०। ( Boswellia serrata ) ग. प्र. asra-अ० शुद्ध तैल । (Pere oil-.). । .न. २०११ । अन aasra-अ० ठोकर खाना, मुंहके बल गिरना। अरविन्दुच्छदा asts-binduchchhada ( To trip, to stumble..) ... -सं० स्त्री लक्ष्मणा । See-lakshmana अन. aasra-१० निचोड़ना, दबाकर निचोड़ना । असमातृका asra-mātrika-सं० स्त्री. रस ( Expression.) धातु । ( (hyle ) रा०नि० व० १८ । अस्र कण्टय : asrakantakalh- सं प अस्रयष्टिका asia-yashtikā सं० स्त्री० - वाण. । हे० । ( See-vana. ) ..... मजी, मञ्जिष्ठा । ( Rubia cordifolia.) अक्षखदिरः asra-khadirth-सं० प रक अस्ररेणुः asia-renuh-सं.पु. सिन्दूर | Red खदिर वृक्ष,लाल खैर । रक खेर-मह०। (The | * lead (Plumbi oxidum rubrum:). मे । ._red Cutechu, tree.) रा०नि० २० । अस्रराधिका,-नो asra rodhikā,-ni-सं० असूनः asighnah-सं० पु.. तेज बल । स्त्री० लजालुका क्षुप, लजालू, लज्जावती । (Excæcaria agallocha, Linn.) (Mimosa pudica.) रा०नि० व ५ । वै० निघः । alaroni asra-vinbuchcihadá अस्रघ्नी nsraghni-सं. स्त्री० विशल्यकर्णी । -सं० स्त्रो० (१) लक्षणा कन्द (लक्ष्मण)। - निर्विषी । भै० र०। ...... ('ee-lakshmanā ) रा० नि० व० ५। प्रस्रजम् a rajam-सं. क्लो० मांस । ( Mu- (२) रविन्दुच्छदा। केय० दे०नि०। _scle, flesh.) रा०नि० व० १७ । अशिम्बी asia-shimbi-सं० स्त्री० रकशिम्बी, अजित् asrajit-स०प० वनस्पति विशेष । लाल सेम । राङ् शिम्-बं०। ( The red - कपाट बेटु-हिं०। ( A plant.)र० मा० । flut bean ) 4. नियः। अन..त् aasrat-अ० नाजिश । छोकर, ऐसा. अरसायकः asta.sayakah-सं० प. ठोकर जिससे मुंह के बल गिरे ( Tripping, | नाराच अस्त्र, लोहा का वाण । लोहार बाण a beat of the foot, a stumble.) -बं०। अस्रपः asrapab-सं० । असून तो asra-stuti-सं० स्त्री० रकस्राव भस्रप asrapa--हिं० संशा पु. ( (ति), शोणित स्राव, रक्षरण । वै० निघ । For Private and Personal Use Only Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्रहरारिष्टः अनाही असहरारिष्टः sha-hararishtah-सं० पु. केशर । Saffron (Procusisativus.) अस्रघ्नी (विशल्यकर्णी, निर्विषी ) और मत- मद० वे०३। .. . सञ्जीवनीसुरा हर एक एक पल ले। पुनः एक मिट्टी अस्त्रि asri-हिं० स्त्री. ( Ten millions.) के पात्र में रख उसका मुख मिट्टी से अच्छी तरह १० लाख।..... .... .... बन्द कर ७ दिन तक रक्खें। पश्चात् गाढ़े वस्त्र अनि..ब ashib.. ... ... -१० (२००.), से छानकर बोतल में यत्न से रक्खें। असारिब asarib स.रब (ए० व0), - मात्रा-५-२० बूद । श्रान्त्रीय वसामय मिल्ली, प्रान्तश्छदाकला, अनुपान--शीतल जल । प्रान्त्रावरण, जठराबरण । (Omentum.) गुण-इसके सेवनसे उरःक्षत, रक्तपित्त, कास, अनीलीasrili-हि-त्रा०श्रीसर्वाली, गिर्गिट सश. रातिसार, रक्रप्रदर और राजयक्ष्मा नष्ट होता है एक जानवर है । यह हरे रंग की होती तथा सर्प भै० र० यक्ष्मा चिः। सदृश दुम मारती है। नोट-अस्रघ्नी के अभाव में अम्बष्टा | अस्त्र asru-सं० क्ली नेत्रवारि, नयनजल, अश्र, (निर्विषी) लेना उचित है। आँस । टियर (A tear. )-इं० । अाँस के असार asrāra -अ० ललाट की रेखाएँ। रोकने से पीनस रोग उत्पन्न होता है । वा० सू० असिरह asirrah , क्रीज़ ( Crease ), .४०। फोल्ड ( Fold.)-ई। अत्र कः aslukah-सं०० अौर वृत्त । पाउच FIT a srára-afice I ( Berries of गाछ-बं० । रत्ना०।। | अ.न. ल जुदूरी ashul-judi i- ० शीतला के Berberis aristata, D. चिन्ह, दाग । ( Pit, Pock mark.). असार asrāra-मग० एकं वृक्ष है जो हजाज़ और श्र.. ल बुन.ह. aslul-busiah-१० फुन्सी जिद्दा के समुद्री किनारों पर उगता है। के चिन्ह या दाग । सिकट्रिक्स (Cicatiix.). प्रस्रार्जक: Hasrārjakah -सं० पु. अस्रार्जक asrārjaka-हिं. संज्ञा स्त्री० अन वाहिनी asru-vahini-सं० स्त्री० अश्रु(१)रक तुलसी वृक्ष, लाल तुलसी । राङा तुलसी वाहक धमनीद्वय । (Lachrymal canal.) -बं० । ( Ocimum rubrum.)। (२) सु० शा० ६अ। श्वेत तुलसी । शादा तुलसी-२० । पाइरी तुलसी -मह । ( Ocimum album, Lin.) अस्र ली asreli-सिंध० छोटी माई | Tamवै० निघ० । । arix orientalis, Vahl. (Galls of ___Tamarix galls.). अस्रावित भत्तम् asrāvita-blhi k tam-सं० अस्रणः asrainah-सं० त्रि० स्त्रियों से रहित । क्ली. मरड ( माड़) संयुक्र भात । अथर्व०।' गुण-यह भात भारी, शीतल, रुचिकारक, In " असोज़ asroza-अ० (१) एक कीट है जिसका शिर वृष्य, वीर्यवर्धक, मधुर, वातनाशक, कफनाशक, लाल और शेष शरीर श्वेत होता है। यह रेत और ग्राही, तृप्तिकारक और क्षयरोग का भी नाश घास में उत्पन्न होता है या (२) वरातीम' करने वाला है। वृ०नि०र०।। (केचुआ)। (Earthworm) .. अनाश 2.sasha-अ. एक प्रकारका ब | अस्रोरह asrorah-बालछड़े । ( Nardosta. है जो कभी अान्द्र से और कभी ख न माके बीज chys Jatamausi ) , से बनाया जाता है। HEITI asrolio- * TAFITI (Viola odo. असाह्वः asrāhvah-सं० पु.०, क्री० कुकुम, rata.) For Private and Personal Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org डोर, ल अस्.ल.asl-Ho असल asala-हिं० ( ५० व० ), उ. सूल ( ब० व०) मूल, जड़, बुनियाद । ( Root or rhizome.) स० [फा० इ० । अ.र.ल asla - अ० तु । माऊ - हिं०। (Tamarix gallica, Linn) स०फा० इ० । अस्ल aasla - अ० मधु, शहद | Honey ( Mel.) स० [फा० ० । अस्ल asla-अ०समार मिश्र० । रूह कर्तह - फा०] | ८२४ कसरानी - हिं० । एक बूटी है जो जलीय भूमि | पर उत्पन्न होती है । इससे बोरिया या चटाई बिने जाते हैं । orpiment ) अहलश्रृ aşlaã-अ० वह मनुष्य जिसके चाँदिया - पर के बाल गिर गए हों । बैड ( Bald. ) इं० । अहल अफ सन्तीन aasla afsantina श्र० वह शहद जिल्की मक्खी श्रफ संतीन पर बैठी हो । श्र.रु.लक aslaq-० फ़जंगुश्त, निर्गुण्डी, सँभालू -हिं०। ( Vitex negundo, Linn. ) स० [फा० ई० । श्र.रु.लक अस्वद aslage asvado नील निर्गुडी, काला सँभालू - हिं०-1 ( Justicia gendarussa, Linn. ) स० [फा० इ० । अ. रु.लक े आबी aslage-abio जल निर्गु - : एडी, पानी का सँभालु - हिं० 1 ( Vite x trifolia, Linn. ) स० [फा० ई० । अस्, लछु aşlakh--अ० पूर्ण वधिर मनुष्य, पूरा बहिरा 1 A Dumb अस्लज āaslaj - ० अ व नीसा की जड़ | Cyclamen persicum, Miller. ( Root of--)। देखो —त्रखुर मरियम् । अस्लञ्ज āaslanja-अ० यः खुर्मरियम् व का एक भेद, हत्थाजोड़ी । ( A kind of sow-bread.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्लल स अहलत aslat० वह मनुष्य जिसकी नासिका आधे से अधिक कट गई हो । श्रस्तु ज़रा aslatuzziráá - अ० कलाई की हड्डी या पहुँचे की व रीक सिरा जो होती से लगा हुआ है । अस्ल āasla-हड़ताल, हरिताल । ( Yellow अस्लराई asla-rai-हिं० स्त्री० घोराई, राई । ( Brasica nigra ) मेमो० । अस्लह, aslah श्र० नेजा, निश्तर, ज़बान वा कुहनी श्रस्लम aslam - अ० गोश बुरीदा फ़ा० | सहज कर्ण हीनता । वह बुचा जो जन्मसे कर्णहीन हो । जिसके कान जड़ से काट डाले गए हों। (Clipteared.) अल मुझ दी asla-muadi o माहे छूत, छूत पैदा करने वाली वस्तु, संक्रामक दोष । ( Contagium.) की नोक । अस्, लह aslah - अ० एक प्रकार का भयंकर सर्प जिसके पैर होते हैं। यह फ़ारस देश में पैदा होता है। अस्लान āaslána-श्रु० अन्सल, जंगलो पियाज़, काँदा, वनपलाण्डु । (Scilla Indica, ) अस्लियूस asliyúsa - यू० तज | (Laurus cassia.) अस्लुन्नहल āaslunnahal - अ० मधु, शहद । Honey ( Mel. ) स०फा० ई० । अस्लुन्नखाअ aşlun nukhaa रासुन्नुखाच rásun-nukháá मब्दउन्नखाअ mabdaun-nukháā - श्र० सरे हराम मरज़-फु ० | सुषुम्ना शीर्षक -f(Medulla-oblongata.) अस्लुर्रमिस āaslurramis-श्रु० ( १ ) वह श्रस जो रमि पर पड़ता है । ( २ ) शकरतेग़ाल | अ. लुल् अहमर aslul-ahmar श्र० लाल झाऊ । (Tamarix orientals, Vahl.) स० [फा० ६० । अस्लल कसब āaslul-gasab श्र० इशु रस, ईख या गन का पानी ! For Private and Personal Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - Sस्तुले क.सर्व अस्लेलुब्मी अस्लुल कल.ब aaslul-qasab-अ० एक प्रकार उ.सूलुस्सित ब्र(ब०व०), कन्द-सं०, हिं० । का मधु जो शुरुक खजूर से बनाया जाता है। ( Bulb or tuber) स. फा०६०। अ.स्लुल कलत aslul-qulta-१० कुलथी की अ.स्ल स.सीनी nslus-sini-१० चोबचीनी-हिं०, जड़ । Dolichos biflorus(Root of-) द०, फा०| Radix chinensis (Chiअस्लुल खलाफ़ aaslul-khilafa-१० बेद- na root) स० फा०० सोदा का दूध। | अ.स्लुस्सूस uslussusa-म० यष्टिमधु-स.। अस्लुल फार aaslul-fira-०अज्ञात । मुलेठी, जेठीमध-हि. | Glycyrrhizaeप्र.स्लुल बज.र aslul-bazara-१० भगांकुर radix (Liquorice root or liquमूल । (Crus clitoris) orice.) स० फा० । म.स्लु : माकोल aslul-makol-१० हलदी, अस्लेखियार चम्बर aasle-khiyara-cha. हरिद्रा । (Curcuma longa) mbara-फा० अस्ले जियार शबर-१० । पारग्वध गूदिका-स'० । अमलतासका गूदा-हिं० अ.स्लुल मुनव्वर aslul-mudavvar-१० Cussia pulpu (Cassie pulp.) देखो.. (ए. व०), उ.सूलुल् मुम्वर (ब० व०) अमलतास । ___ कन्द-हिं०, सं० । ( Bulb or tuber.) . स० फा००। अस्ले.तबज़द aasle-tabarzada-१० कन्द अ.स्लुग्लिसान aslul-lisana-१० कण मूल या मिश्री का शीरा । ग्रंथि । (Submaxillary gland) अस्लत aasle-te mra-१० दोशाब वर्मा। अस्लेदाऊद āasle-dauda-१० एक प्रकार के प्र.स्लुल्लुफाहबरों aslullufāha-barri-१० __ मधु का तैल । यब रूजुस्सनम, बिलाडोना । (Mandrake.) अस्लुल्लुब्नी aaslul-Jubni अ०(१)मेअहे साये | अस्लेन हल ansle nahala-अ० मधु, शहद । लह, सिलारस-हिं०। Liquid amber Honey (Mel) altingia,Blume.) (Resin of-Liqu-1 प्र.स्ले फ़ऊँ न asle-faraina-१० एक प्रकार id storax ) स. फा० ई. । म० अ० का पत्थर जो यमन उम्मान देश में होता है। डॉ०।२)ह.सी लुबान, लोबान । अस्लेबिलादुर aasle-biladur-अ० एक प्रकार का श्याम लसदार द्रव है जो भिल्लासे निकलता अस्लु ल्हवा aaslul-hava -३० शीर खिश्त -फा० । प्रकाश मधु-सं०, हिं० (Manna.) ..| अस्ले मा.ज़ो aasle-mazi-म० श्वेत खजूर म० अ० डॉ० । मधु । अस्लल.हाज aaslul-haji-० तुरञ्जबीन | Alhअस्लेम.स.फफा iasle-muzaffa-५० साफ agi maurorum (Manna of-) किया हुआ या शुद्ध मधु । ( Mel depura. अ.स्लुल हिन्द बाउब्बरी aslul-hinda-bau- | tum. ) bbari-अ० जंगली कासनी की जड़। (T.. | म.स्लेमेसा iasle-mesa अ० मुलेठी, यष्टिमधु । raxci radix) म० अ० डॉ०। । ( Liquorice.) अस्लुस्समावी aaslussa mavi- अ. शीर | अस्लेयाबिस aasle-yibisa-भ० खुश्काबीन निश्त-फा० । माकाशमधु-सं०। (manna)| या पतला सुगंधित पाहार । म० अ० डॉ० । अस्लेख नी aasle-lubni-१० सिलारस । अ.स्लुस्सित. aslus-sita bra-zo (ए० व०) (Styrax.) १०४ For Private and Personal Use Only Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - .. .हाशा ... अस्सालिया अस्ले .हाशा aasle hasha-१० ... वह शहद अस्वास्थ्यम् asvastlhyam-सं० ली.... जिसकी मक्खी हाशा ( जंगली पुदीना )पर बैठी | अस्वास्थ्य as Vasthya-हिं० संज्ञा पु० । पीड़ा, रोग, असुस्थता, बीमारी। . 'अस्व . asva-हिं० संज्ञा पुं॰ [स. अश्व ] अस्वेद्यरोगी asvedya-rogi-सं० पु. वह (१) घोड़ा . ( A horse)। (२)... रोगी जिसे स्वेद ( पसीना ) न दिया जा सके । , . असगंध, अश्वगंधा । (Withania so-1 वह रोगी जो स्वेद कर्म करने के अयोग्य हो। ____mnifera)। (३)निर्धनी, कंगाल, दरिद्री । वह जिसका स्वेद न किया जा सके । स्वेद के अ.स्.वह aasvah अ० बालों को लट, जुरुन अयोग्य । स्वेद निषिद्ध । स्वेदाविहित । च सू० १४ अ०। वा० सू० १७-०। देखो स्वेदः। । अस्वकर्ण asva-kirna-हिं० पु[सं०]साल, ___ साखु । Sal tree (.Shore robusta, अस्स assa-१० बुनियाद, जड़, हृदय । ( Fou. Garln.) फा०ई०.१ भा०। . ndation.) अस्वच्छ asvachchha-हिं०संज्ञा पस अ.स्स. aass 1--अकुर्मतुल् वतर । शानिक अर्थ . जड़ किन्तु अर्वाचीन परिभाषामें करित अवयव । प्रदर्शक, अपारदर्शक, ऐसी वस्तुएँ, जिनमें से कुछ (Stump.) . .." .. भी नहीं दीखता। अबै ज़ हकीक़ी, असली अस्सनतुल अ.साफ़ीर assana tul aasa. सफ़ेद-अ०। ओपेक ( Opague.)-ई० । . fira--अ० इन्द्रयव । (Wrightia tinctअस्वद asvad-ऋ० स्याह रंग, श्यामवर्ण, _oria, R. Br.) देखो-कुटज । . काला, कृष्ण । (Black.) .... अस्सफ़ाफ़न : ssafafan--अलि सानुलईल,रा ई. अस्वद सालन asvad-sālakh -अ. श्याम युल्ईल । इसके लक्षण में मत भेद है। सर्प (Abl. ck serpent.) STEFAITR ass mog m ) . अस्वन्तः asvanth पु. चुल्ली । अस्समोदगम assamod .gi mS --सिं० (A fire-place ) अस्समोदगुड़ assimoda.guda)) 'अस्वभाविक मृत्यु svābhāvikt mrityu अजवाइन | Ciruin (Ptycliotis.) A jowin. -हिं० संज्ञा स्त्रा० वह मृत्यु जो स्वाभाविक अस्सररूसुल मुज़ाकर RSSHJakhsul-muzन हो। अप्राकृतिक मृत्यु । akkar--अ० सरदश मुज़ कर, चमाज--फा०। अस्वमारक asva-mārika. -हिं० संज्ञा प.. [सं०] कनेर,करवीर । (Nerium odorum-) Male fern( Filix mass.) म० अ० डॉ०। फा० ई० २ भा० । । अस्वल asvala-अ० वह मनुष्य . जिसका पेड़ | अस्साबूनुल्लिय्यिन assābānujliyyin--१० अस्सराजत issarajata--अज्ञात । '. प्रागे को निकला हुश्रा हो। . , हरा, साबुन, नरम साबुन--हिं । (.Sapo अस्वस्थ asvastha-हिं०f _mollis.) म० प्र० डॉ०। : - रोगी, बीमार । (२) अनमना। . अस्साबूनुस्.स.लिय assābānussalib-अ. अस्वात asvata-अ० (ब. २०), सौत कठोर साबुन, जैतून तेल का साबुन--हिं० । - (ए. व०), शब्द, ध्वनि । ( Sound.) (Sipo durus.) म० अ० डॉ० । अस्वादुकंटक asvadu-kantika-हिं• संज्ञा अस्सालिया assāliya--गु० चन्द्र सूर । ( Lepपु० [सं०] गोखरू । गोक्षुर । | idium sativum)फा इ०१ भा०। For Private and Personal Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अस्तुउसम अहजक प्रस्तुउसन assu-us n--10 सुफेद राई.-हि०। राहणान्येव पञ्चतन्मात्रारायुस्पधन्ते । सु० शा." सिद्धार्थक--सं०। ( Eruca sativa ) १०। 'मेमा। .... ...... अहतम् ahatam-सं० क्ली० नूतन वस्त्र । (New अस्सुलेमानियुल, अकाल assulemaniyul _cloth. ) हला०। akkāl-अ० सुलेमानी, दाराशिकना,दार चिकना अहत्ती ahatti-सि० कुम्बी, खुम्बी । (Careya '-हिं० । ( Hydrargyri perchlori | arborea, Rod.) मेमो०।। dum;) अहन् ahan-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] दिन ।।। असहब ashab-१० श्वेताभायुक्त . रकवर्ण, पण अहन् पुष्प ahan-pushpa-हिं० संज्ञा .. प्याजी रंग, रोग-विज्ञान में श्वेताभायुक्त रक्क | [सं०] दुपहरिया का फूल । गुल दुपहरिया। प्रहर atara-हिं० सज्ञा पु० डोवा, पोखरा, सरोवर्णीय कारोरह. ( मूत्र ) को कहते हैं। ___वर । ( A reservoir for collecting अहं .a.ham-संव० [सं०] मै । (I). rain-water.) संज्ञा पु. [सं०] अहंकार, अभिमान । । अहरङ्ग aharanga-मल० काष्ठ अंगार, लकड़ो अहः a hah-सं० क्लो० [सं० अहंन् ] का कोयला । Wood charcoal(Carbor: मह aha-हि. संज्ञा पु. (१) दिवस, ligni) इ. मे०. मे०। - दिन । ( Day.)। अम० । (२) सूर्य । अहरदृक् a haridrik-सं०पु गृध्र, गिद्ध पक्षी।.. अहङ्कारः aharikārah 1 -सं० ( हिं० संज्ञा) शकुनी-बं० । वल्चर (A vulture.) । अहंकार ahankara Jपू[वि. अहंकारी] । वै. निघ०। (1) अभिमान, गवे, धमंड। (२) क्षेत्रज्ञ | अहरण aharana -जय. महपुरुष की चेतना । इन्द्रियादि सम्पूर्ण शरीर. अहरणी aharani. . J रन, अर. ध्यापी ग्रह अर्थात् मैं और मेरा के भाव की । उन । विशेष प्रवृत्ति । ममत्व । वैकारिक, लैजस, एवं | अहरनaharan-हि० संज्ञा स्त्री० भूत अर्थात् साविक राजस, तामस भेद से यह अहरनि ahirani-हिं० संज्ञा स्त्री० तीन प्रकार का होता है। सांख्य के समान भायु- [सं० प्रा+धारण रखना.] निहाई । वेद शास्त्रियों ने इसकी उत्पत्ति महत्तत्व से मानी अहरह aharah-हिं. क्रि० वि० प्रति दिन । है । इनके अनुसार यह महत्तत्व से उत्पन्न एक (Everyday.) द्रव्य अर्थात उसका एक विकार है। इसकी अहरा ahara-हिं० संज्ञा पु० [सं० प्राहरण सात्विक अवस्था और तेजस की सहायता से =इकट्ठा करना ] १-जाड़े में तापनेका स्थान | कंडे पाँच, ज्ञानेन्द्रियाँ पाच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन की । का ढेर जो जलाने के लिए इकट्ठा किया जाए । उत्पत्ति होती है और तामस अवस्था तथा तेजस (२) वह भाग जो इस प्रकार इकट्ठे किए हुए । अर्थात् राजस की सहायता से पंच तन्मात्राओं .. कंडों से तैयार की जाए। . की उत्पत्ति होती है, जिनसे क्रमशः आकाश, हराक ahraa-१० जलाना । लु०क०।। वायु, तेज, जल और पृथ्वी की उत्पति होती है। हरितः aharitah-सं०० पाण्डुरोग । हारिद्रः यथा रोग । अथर्व० । सू० २२ । ३। का० १।... "तहिकाच महतस्तषण एवाहकार उत्पद्यते, अहर्गण ahargana-हिं० संज्ञा पु० [सं०] सतु त्रिविधो वैकारिकम्तैजसो भूतादिरिति; तत्र दिनों का समूह । वैकारिकादहकारात् तैजस सहायातक्षणान्येवै | महर्जवः sharjjavah-सं० पु. सम्बत्सर, कादन्द्रियाण्युत्पचते; भूतादेरपि तैजस सहाया- वर्ष। (A year.) के० । श For Private and Personal Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महर्षयः महिगन्धामहर्पण: ahar panah-स०पु'• मांस । (Mus- अहालिम ahālim-यू. अगर । ( Aquilaria cle; Flesh.) हारा। _agallocha.) अहर्यान्धवः sharbāndhavah । अहालिवा ahaliva-मह०, बम्ब० चन्द्रसूर, अहमणि: aharmanih हालिम । ( Lepidium Sativum, -सं०प० अर्क वृत्त, माक, मदार I (Calo- Linn)।इ० मे. प्ला० । फा० ई०१ भा० । tropis gigantea.) हे. च०। अहिः abih-सं० पु. ) (१) शीषक, सीसक, अहमुखम् aharmukham-सं० ली । अहि ahi-हिं० सीसा | Lead (Plu. प्रमुख a harmukha-हिं० संज्ञा पु.. mbum.) प्रयोग, वसन्तकुसुमाकर रस । र. प्रातः काल, सवेरा, भोर (Early morning, सा०सं० । (२) सर्प, नाग, फणि, सॉप । सर्पेण्ट day-break.)। (A serpent.)-ई० । मद० व० २२ । (३) उदावर्त, नाभि । (Navel.) हारा०। (४) tarra-० अधिक उष्ण, ज्यादा गरम । वज्रीवृत्त । मनशा-शिजु-ब01 (See-vajri.) अहलद ahalad-फना० वट, वर्गद। Banian हे. च. । (१) अफीम (Opium.) । (६) (Ficus Bengalensis.) सूर्य । ( The sun.) प्रहलना a halana-हिं० क्रि० अ० [सं० पाहलनम् ] हिलना | कॉपना । दहलना । अहिंस्र ahinsra-हिं० वि० [सं०] अहिंसक । अहलात ahalata-यु० अगर । (Aloe wood) श्राहना hinsra-सं० स्त्रा० कण्टकपाली वन, अहलु ahalu-५० बम्बल, बहल । __काकादनी, हैंसा । काँटा गुह कोटली-बर ! (Oaअहल्यः ahalyah-सं० त्रि. pparis sepiaria.) रत्ना० श्रामवात प्रलेप। अहल्या ahalya-हिं०वि० गुण-विप शोथ हर | राज०। भनाकृष्ट-भूमि। जो ( धरती) जोती न जा महिका, का ahiksh,-ka-सं० पु., खो सके। |श्रहिका ahika-हिं० संज्ञा स्त्री अ(-)हल ahalla-सिं० अमलतास । (Cussial (१) शाल्मली वृक्ष, सेमन | शिमुन्न गाछ-40। fistula, Linn.) फा००१ भा०। सांवरी-मह०। ( Bombix heptiphy. अहस्करः ahaskarah-सं० १० अर्क वृक्ष, llum.) श. च०। (२) अन्धा सर्प । ( A श्राक, मदार । (Calotropis gigantea.)| blind snake.) हे० च० । महिकान्तः ahikāntih-सं० पु. वायु, पवन । अंहस्पतिः ahaspatih-स. प० । अर्क (Air, Atmosphere.) हे च०।। 'वृक्ष, मदार, आक। ( Calotropis giga.| अहिकुटी nhi-kuti--सं० पु. भारद्वाज पक्षी। - ntea.)। (२) सूर्य । ( The sun) व० निघ०। अमः। अहिखर : hi-khara-हिं०संज्ञा प तालमखाना । अहस.सु ahassu अ. वह व्यकि जिसके शिर में (Hygrophylli spinos.) कम बाल हों। | अहिगति Ahi-gati-हिं० सज्ञा स्त्रा० साँप की अहः ahah-सं० नाश करना । अथर्वः। चाल, टेढो चाल । अहार ahāra-हिं. संज्ञा प सं० प्रहार | अहिगंध फला | hi.nihi-phala..सं. (1) भोजन, खाना ( Aliment, food, खो० सबकी वृव । ( Bos wellis serravictuals. )। (२) लेई. मौडी .) रा०नि० व० ११।। ( Starch, glue, paste.)। | अहिगन्धा hi-gandha-.सं. स्त्रो०(१) सर्पः For Private and Personal Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মন্বিত महिफला,-ला गंधा | रास्ना विशेष--० । सापगंध-मह । गुण-पीडाजनकत्व । वा० सू०७ अ० । (See..Sirpa-gandha.) व निघ। अहित्थः ahitthah-सं०प. वनमेथिका, वन (२) इशरमूज, ईश्वरचून । ( Iris root.) | मेथी। Trigonella fenum griec. अहिच्छत्रः nhi.chchhatr th--सं० पु. मेष- um (Wild vir.of-.) मद० व० २ । शृगी, मेदासिंगी। See-Ajashringi. अहिद्विट ahidvit-सं० प (1) नकुल, अहिच्छत्रा .. hi-chchh tra--सं० स्रो० (१) नेवला Mungoose ( Viverra ichn. शताहा सुप, सौंफ । मौरी,शुल्फा--बं० । (Pin eumon.)। (२) मयूर, मोर । (A pea. pinelli inisum.) रा० नि० व० ४ । cock ) . (२) शर्करा, चीनी-हिं० । चिनि-बं० । Su अहिनिमें क: nhinirmokah-सं० प. सर्प gar ( Saccharine. ) रा. नि. | निर्मोक, सर्प कन्क, सॉप की केचुली । भा० व० ४। महिनी ahini-स. श्री. सर्पिणी, सॉप की अहिछार :hi-chhāra-हिं० सज्ञा पु. सॉप का __मादा, सॉपिन । ( A fenale snake.) विष, सर्प विष । ( Snake poison, | अहिपति ahipati-सं०(हिं०संज्ञा) साँपोंका venom.) राजा, वासुको । अहिजाहक: ahi-jahi kah-सं० पु. कृक अहिपत्रका hi-patr .k.h-सं० पु. निर्विष , लास (See-krik ilasa.) कॉकलास-बं०।। सर्प विशेष । (A kind of nonpoisono कनिघ। . us sn ke.) अहिजिह्वा ahi-jihva-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०]. अहिपत्रक: Thiputrakah-सं० प... तरालु, नागफनी । नौका विशेष । हाग। महिजितिका ahi-jihvikā-सं० बी० महा शतावरी । बह शतमूली-५० । ( Aspari अहिपुष्पम् ahipushpam-संकली.)नाग. | केशर पुष्प । Mesun ferrea ( Flower gus racemosa) 4. निघ० । भहित ahiti-हिं० संज्ञा पु• बुराई, अकल्याण। of-) च० द०। (२) कुम्भोका तेल । सु. चि. ३७ ५०। वि० [सं०] (1) शत्रु, वैरी, विरोधी । (२)अपथ्य अनुपकारी, हानिकारक (ndverse, inin-महिपूतनः,- नाh iputanah,--na-सं० ical, acting unkindly. ) पु.,खो. बाल रोग भेद, शिशु गुपन, पूतना । अहितकारी ahitakāri-हिं. पु. अहित यथा-मल मूत्र से सनी हुई बालक की गुदा को करने वाला, शत्रु । ( Inimical.) न धोने से या पसीना आने से अथवा स्नान न अहित द्रव्यम् ahita dravyam-सं० की. करने से रूधिर और कफ दूषित होकर खुजली अपथ्य पदार्थ, अहितकारक द्रव्य । को उत्पत करते हैं फिर खुजाने से तत्काल महितपदार्थः ahitil-padarthah-सं० पु. फुन्सिया हो जाती हैं और उनमें से चेप अहितकर अर्थात् हानिकारक पदार्थ । निकलता है। फिर वह सब फुन्सिया एकत्रित होकर छत्ता सी होजाती हैं, तब इस भयंकर रोग ये निम्न है, जैसे - वृद्ध रमणी, पूति (दुर्ग को अहिपूतना कहते हैं । मा० नि० रुद्ररो। धित ) मांस, प्रभात निद्रा, मैथुन और दधि प्रभृति । महिप्पन ahippan-अफीम। ( Opium.) भहिताहारः ahitāhārnh-सं० १.० अहितकर ई. मे० मे. .. द्रव्य भक्षण, अहित भोजन, अहितकारी पदार्थ अहिफलः,-ला ahiphalth,-la-सं. 10, स्रो० दीर्घ कर्कटिका, चिचिण्डा । जम्बा काकुर For Private and Personal Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अहिफेनम्, -कम् ८३ -बं० | टर कांकड़ी-मह० । ( 'Trichosan- | अहिफेनासवः ahiphenasavah - सं० पुं० thes anguina.) यह श्रासव प्रतिसार तथा त्रिसूचिका के लिए हितकारक है। अहिफेनम्, -कम् ali-phenam, kam - सं० पू० की ० अहिफेन ahiphena - हिं० संज्ञा पुं० (१) नागफेन, अफीम- हि० | स्वनानाख्यात सारजवर्गीयोपविष । श्राफिम् बं० । अफून, श्रफू कड़री - मह० । श्राफन-माल० । नलमुण्ड - तै० । Opium poppy (Papaver somniferum.) देखो - अफीम । ( २ ) सर्प के मुँह की लार वा फेन । ( 'T'be saliva or venom of a snake.) अहिफेन वटिका abhi- phena vatika-सं० स्त्री० अतिसारोक रस विशेष । खजूर, पिंड खजूर | र० सा० सं० । अहिफेनपाक : ahiphenapakh सं० पुं० १६तो० शुद्ध अफीमको १६ सेर दूध और श्राधसेर घी में पकाएँ । ढा होनेपर 11⁄2सेर शक्कर मिलाएँ; फिर जायफल, लवङ्ग, आवित्री, नागकेशर, अकरकरा, समुद्रशोष, कपूर, चन्दन, त्रिकुटा, धस रं के बीज, मुसली, तगर, शुद्ध सफेद गुरौंजा, चण्य, बीजेबंद, करंज, चित्रक, पीपलामूल, जीरा, अजवाइन, बला, गोखरू, बबूल की गोंद और शिलाजीत प्रत्येक एक एक तो० चूर्णकर मिलाएँ। इसमें भंग चूर्ण १६ तो०, बंग, ताम्बा, लोहा, अभ्रक, पारा की भस्म प्रत्येक १-१ तो० मिलाकर घोटे और कस्तूरी तथा अगर से सुवासित करके रखले' । इसे पाचन शक्ति के अनुसार खाए और ऊपर से भैंस का दूध पिए तो मनुष्य १०० स्त्रियों के साथ गमन कर | सकता है। इससे स्त्रियों का बन्ध्यापन, पुरुषों की नपुंसकता, खाँसी, दमा, शीत, अपस्मार, उरःक्षत, उन्माद, पाण्डु रोग, ८० प्रकार के वातरोग, कफ रोग, हिचकी, प्रमेह, आमवात, . जुकाम और अतिसार नष्ट होते हैं। अहिफेन वीजम् ahiphena-vijam-to ली० खसखस, पोस्ते का बीज । पुस्त, थाक्मि - बं० 1 Poppy seeds ( Seeds of Papaver somniferum,) | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तक योग तथा निर्माण-विधि - मधूक मद्य (महुआ की सुरा ) १०० पल, श्रकीम ४ पल, नागरमोथा, जायफल, इन्द्रयव तथा एला प्रत्येक १-१ पैल इन सबको बर्तन में बन्दकर एक मास रखेंौं । मात्रा-१० से ३० बूंद । भैष० । अहिर्बल ahibela - हिं० अहिली, प्रा० श्रहिबेली ] अभयदा ahibhayada - सं० ख० भूम्यामलकी, भूँई श्रामला । ( Phyllanthusc Aneruri ) रा० नि० व० ५। श्रहिभुक् bibhuk - सं० पु० ( १ ) मयूर ।.. ( A peacock ) रा० नि० ० १६ । ( २ )ताच्यौं । (See-tárkshyam)मे॰ । (( ३ ) क्षुद्र सापसंद नामक प्रसिद्ध । ( ४ ). नाकुली नामक महाकन्द शाक ( Vanda Roxburghii )। ( ५ ) गन्ध नकुलो । '( Ophioxylon' serpentinūm.) ० नि० ० ७ । See - Nákuli अहिमणि Đhi-mani-हिंοस्त्री० सर्पमणि । For Private and Personal Use Only संज्ञा स्त्री० [सं० नागबेलि | पान | हिमनी ahi-marddani - सं० स्त्री० गन्धनाकुली । रास्ना विशेष बं० | (Ophioxylon serpentinum . ) हिलता विशेष । सापसंद - पश्चि० रा० नि० ० ७ | देखो - नाकुली । अहिमारः, -क: ahimárah, kah-सं० पू० विट्खदिर, दुर्गंधि- खैर, अरिमेद । गुये बाबला - बं० । गन्धीहिवर - मह० (Acacia farnesina, Willd. ) रा० नि० ० ८ । अहिमेदः, -कः ahi-meda, kah - सं० पु० विखदिर, अरिमेद । ( Acacia farnesiana, Willd. )रा० नि० ० ८ । अहिय्यह: ahiyyah - श्र० ( ० ० ), हय्यु ( ए० व०) सजीव, चैतन्य, जीवधारी, जीवित, जिन्दा । एलाइव ( Alive ) - (० । J Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ...अहिरावन ...अहिल्या अहिरावन ahi-ravana -बम्ब० घया- ... को पानी में पीस कर अच्छी तरह लेप करके महिरावन ma hi-Tarana) मारी | जखमे सुखाले और एक जवान पुष्ट काला गेहुँ अन साँप - हयात-फा०। ( Bryophyllum ca- को पकड़ कर इस प्रकार मारें कि उसके बदन में lycinum, Salisb.) मेमो०।। चोट लगकर छिद्र न हो जाएँ ( नोरा फॉर्म अहिरिपुः ahi-ripuh-सं० पु. मयूर, मोरपक्षी। सुंघाने से साँप मर जाता है.)। फिर उसके पेट ( A peacock ) रत्ना०। ... में मुख द्वारा ३२ तो० पिसी हुई हरिताल हाल अहिलता ahi-latā-सं० (हिं० संज्ञा ) स्त्री. कर ४ तो० पिसा हुअा बच्छनाग डालकर फिर (१)सापस'द । (Ophicxylon serpen. ऊपर से खूब बारीक पिसी हुई ३२ तो० हड़ताल ___tinum.) गन्धनाकुली। रा०नि० व०७। डालकर उपयुक घड़े में ४ तो० पिसा हुआ बच्छ देखो-नाकुली । (२) ताम्बूल, नागवल्ली, नाग और एक सेर बकुची, भिलावा और इन्द्रजौ पानवृक्ष । पान गाछ बं) । (Piper be tle., का चूर्ण डालकर ऊपर से उस साँप की syn, chavica betle.) to fio ao | 'गोल चक्री जैसी करके रखदें । ऊपर से पाक की टहनियाँ ६४ तो०, थूहर की टहनिया १ सेर, बट अहिलेखन ahi-lekhana-हिं० सज्ञा पु. जटा की अंकुरे १ सेर और चिकुवार १ सेर डाल. [सं०] अहिल्यकम्-स' । अगमकी-हिं०।। कर घड़े के मुख को गुड़ चूने से अच्छी तरह बंद ( Mukia sea brella. .1rn:) फा० इं० करके ऊपर से कपड़मिट्टी करके सुखाले'। फिर २ भा०। . उसे चूल्हे पर रख कर नीचे चावल पकने योग्य अहिलोकिका a hilo-kika-सं० स्त्री० भूम्या हलकी प्राग दें। पुनः १६ (११२) तो. घी मलकी, yई पामला.I ( Phyilanthus- | लोहे की कड़ाही में गरम करके घड़े की सभी चीज़ neruri.) वै० निघ०। उसमें डाल कर नीचे तेज अॉच दें और बीच .. अहिल्यकम् ahilyakam-स. क्ली० अहिलेखन, में - तो० भूनी फिटकिरी ८ तो० सुहागा ले घंटाली, अगमवी-हिं० । (. Mukia senbi चूण करके थोड़ा थोड़ा चुटकी से डालते रहें । rella, Arn.) फा० इ०२ भा०। जब कड़ाही के ऊपर प्राग लगकर सब घी जल अहिवधो रसः ahivadiio-Tasth-सं० पु. जाए तब उसमें उपयुक ताम्बा और सीसा का .. मिट्टी का नया एक ऐसा घड़ा ले जिसमें ४ सेर | छाना हुआ चूर्ण मिलाकर बारीक पीस कर पका पानी प्रासके । फिर शुद्ध गन्धक ६४ तो०, रखले। ताम्बे के पत्र ३२ तो० और सीसे के पत्र ३२ तो० • इसको १ रत्ती भर से प्रारम्भ करें। चार दिन लेकर धड़े के नीचे गन्धक का चूर्ण और उस पर बाद दूना, फिर चारदिन बाद तिगुना और ४ दिन ताम्र पत्र तथा ऊपर से सीसे के पत्र, फिर उसके बाद चौगुना, इस प्रकार जब ४ रत्तीपर मात्रा प्रा ऊपर गन्धक का चूर्ण', इस प्रकार घड़े में सबों जाए तब उतने ही लेते रहें। ७ दिन तक जौ का की तह जमाकर ऊपर से १२ तो० पारे और दलिया खाएँ । नमक बिलकुल त्याग दें। यदि गन्ध्रक की कजली डालकर घड़े के मुख को कत्था, ... 'नमक न छोड़ा जासके तो किंचित् सेंधानमक गुड़ और चूना मिलाकर बन्द करके सुखाकर घड़े लिया करें। इस तरह करने से सम्पूर्ण शरीर को चूल्हे पर रक्खें और. नीचे से १२ पहर की ।' में व्याप्त कुष्ट नष्ट हो जाता है । यह त्रिदोष तेज आँच दे। जब स्वांग शीतल होजाए तो जन्य रोगों और राजयक्ष्मा को नष्ट करता है। निकाल कर बारीक पीसकर मोटे कपड़े से छान रस. यो० सा०। कर पृथक् रखले । अहिल्या ahilya- स्त्री० वन मेथिका | वन फिर एक ऐसा घड़ा लें जिसमें पक्का ४५ सेर मेथी । ( Crotalaria albida.) वै. पानी प्रासके; फिर उसके भीतर गड़ और चने निघः ।.........." For Private and Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । अहिवल्ली ८३२ Ma hanted .. अहिवल्ली ahi-valli-सं० स्त्री. नागवल्ली। pidium sntivum, Linn.) १० मे. • IR ( Piper be tle,syn, clavica ... betle:) भैष० ध्व० भ० चि० । अहेरुः aheruh-सं० स्त्री० शतमूली, शतावर । .. अहिवासन ahivāsan-हिं० सज्ञा पु० धनेश ( Asparagus racemosus, Wi. .. पक्षी I (Buceros.): ___ud.) प्रम। अहिविषापहा hivishapahā-सं० खी० अहेरो ahero-सिंध. चन्द्रसूर । ( Lepidi महिलता, सापसंद । (Ophioxylon ser- ___um sativum. Jinn.) ई० मे. -pentinum.) वै० निघ० । प्लां । अहिश्तना ahishtana-हि. संज्ञा स्त्री० [सं०] महान ब्लैदाइजेर फ्लुजेल्सेमीन ahorn. बच्चों का एक रोग जिस में उनको पानी सा दस्त ' blattriger-flugelstmen-जर०कर्णिप्राता है, गुदा से सदा मल बहा करता है, गुदा कार-सं० । छोटा सोन्दाल-हिं० । ( Peterलाल रहती है, धोने पोंछनेसे खुजली उठती है rospermum aserifolium.) . और फोड़े निकलते हैं। मे० मे। अहिसाव ahi.sava-हिं० संज्ञा पुं० [सं० अहोरात्र ahoratra-हिं० दिन रात, दिवानिशि, अहिशावक ] साँप का बच्चा । पोश्रा । सँपोला । अहर्निशि । ( Day&night.) अहि स्कंधः ahiskandhah-सं० पु गुल्फ, "महौज houja-अ० लम्बा मूख प्रादमी । गट्टा । पायेर गल-बं०।। अहोम ahoum-अ० विशाल शिरवाला । (Laअही ahi-सं० स्त्री० गवि, गाय । ( A cow.) अहीक ahiqa-अ० लम्ब प्रैव, लम्बी गर्दन ___rve-headed.) arati (Long necked. ) अहोर ahour-० .हूरियह, (जिसके नेत्र का श्वेत भाग अत्यन्त श्वेत एवं काला भाग अत्यन्त अहीन्द्रः ahindrah-सं० पु. शारिवा, अनन्त. श्याम हो। मूल । ( Hemidesmus Indicus.) अ.हौल ahoul-अ० काज, भेंगा जो एक चीज़ च० द० यक्ष्म० चि० लबङ्गादि चूर्ण । को दो देखे । (Squint. ) अहीफ़ ahifa-अ० पतले कमरवाला । ( Thinloined.) | अ.हौलिय्यत ahouliyyata-अ भेंगापन । अहीरणिः ahiranih-सं० पु. द्विमुख सर्प, दुइ निमखम स्ट्राबिज़मस (Strabismus.)-ई। मुँहा या दो मुंहवाला साप । शङ्खिनी । (Do- | अ.होस. a housa-अ० तंग चश्म-फा । जिसके uble mouthed snake, an erix.)| एक या दोनों नेत्र संकुचित (छोटे) हों। हारा०। | अह जाs ah jaa-अ० पालन पोषण करना, अहीरुहः ahiruhah-स० पु. शाक वृक्ष। खिलाना । ( Bringing up.) शगुण-हिं०। ( Tectona grandis, मह जाज़ ahjaza-अ० सोना, सुलाना । (SITeak tree. ) ___eep,cause to sleep.) महुल ahul-हिं० सज्ञा पु.श्रोदुल, पुवान, पुवेन, गह । मह तम् ahtam-१० जिसके अग्रिम देत खण्डित अहे ahe-हिं० संज्ञा पुं० [देश॰] एक पेड़ जिसकी भूरी लकढ़ी मकानों में लगती है तथा | मह ताs ahtaa-१० कुब्ज, कुबड़ा-हिं० । कूज़ हख और गाड़ी प्रादि बनानेके काममें पाती है। पुरत-फा०। ( Hunch backed.) महेर ahera-सिंध० चन्द्रसूर, अहनीव ( Le. .हर ahdab-१० पुरत-फा० । कुम्ज, For Private and Personal Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मह दव ३३ प्रह लाम् कुबड़ा-हि । हञ्च बैकड ( Hunch back- | अह मर ahmar-१० सुर्ख, सुख्ख रंग-फ़ा० । ed.)-ई । ___रक्रवर्ण, लाल-हिं० | Red (Rubrum.)। __ नोट-कुबड़ी स्त्री को अरबी में हुवा | इतिब्बा ने इसकी चार कक्षाएँ निर्धारित की है, कहते हैं। जैसे-(१) असहब अर्थात् सुन सफ़ेदी मायन अह दब और अकुअस का भेद-जिसका | ( श्वेताभरक), (२) वर्दी अर्थात् अरुण वा पृष्ठ बाहर को निकला हो और वक्ष भीतर को गुलाबी, (३) कानी अर्थात् गंभीर रक और दबा हुअा हो उसे अ.ह दब और विरुद्ध इसके (४) अक नम अर्थात् सुख स्याही मायल जिसका वक्ष बाहर को निकला हो तथा पृष्ट ' (श्यामाभ रक्रवण )। भीतर को दबा हुअाहो उसे अकस कहते हैं। नोट-ग्रह मर का प्रयोग संकेत रूप से कप्रहदब ahda b-अ. वह मनुष्य जिसकी पलकें ठिन मृत्यु, मांस, मद्य, केशर तथा एक प्रकार के विशाल हों। छुहारे के लिए भी होता है। अह.दर ahdar-अ० शोफ उदरीय, वह मनुष्य जिसका उदर शोथयुक्र हो।।। | अह मर अकूतम ahmar-aqtam-१० श्यामाभ रनवण, अधिक कालापन लिए हए अ.ह दल ahdal-अ० एकाण्ड, एक अण्डवाला, लाल रंग। वह मनुष्य जिसके एक अंड हो । अह दाs ahdaa- अ० कुबड़ा, शोथयुक्र एवं ढीले श्रह मर कानो ahmar-qani-१० गम्भीर स्कंधवाला। रनवण, लाल भभूका, अत्यन्त रकवर्ण । मह दाक ल बकर ahdaqul-baqara-अ० अह मर नासिअ ahmar-nasia-अ० हलका काला अंगूर । ( Black var. of Vitis रक्रवण, पिलोई लिए लाल रंग (पीताभ रक्त vinifera.) वर्ण)। रोग-विज्ञान में हलके लाल या पिलोई अह दाक ल् मर्जी ahdaqul-marzi-१० लिए हुए लाल रंग के कारोरह. (मूत्र) को कहते उगृह वान, बाबूना गाव | ( Parthenium हैं । यह नारी की अपेक्षा तीक्ष्ण होता है। matricaria. ) अह दाब ahdaba-०(ब० व०), हुद्व ( ए० | अह मश ahmash-अ. जिसकी पिण्डलियाँ व०) पलकें । ( Eye-lids.) पतली और बारीक हों। अह दिया व अहादिया ahdiya vaahidivi अह्याट: ahyatah-सं० पु. श्रोक्ड़ा । प० -अ० अजदहा-फा० । अजगर-हिं0 1 ( Boa constrictor.) अह युन ahyāna-यू० एक बूटी है जिसका शिर अह नफ़ahnafa-अ० कल्च, टेढ़े या छोटे पाँव अजगर के शिर के समान होता है। वाला । कब-फूटेड ( Club-footed.)-इं० । अहमक ahmaqa अ० मूर्ख, निबुद्धि, बुद्धिहीन, मह रारूल बुकूल ahrarul-buqula-० वह ___ तरकारियाँ जो कच्ची खाई जाती हैं, जैसे काहू बे समझ, सामान्य। ईडिअट ( Idiot. ) आदि। अहमदाबादी मेवा ahmadabadi.mevie | अह लब दिया ahlab-diya-सिरि० शबरम्, बम्ब० खिरनी, खीर खजूर, क्षीरी, राजादनी बाँस के समान एक बूटी है जो खेत और बगीचों -हिं० । काका दिया-गु० । राजन, केर्नी-मह । में उगती है। रायन-गु० । पल-ता०। (Mimusops hex.| अह लाम ahlam-अ०(ब. २०), हुल्म (ए. andra, Borb., Cor.)फा०ई० २भा०।। व०)(१) स्वम, निद्रा । (Sleep, dream.) १०५ For Private and Personal Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रहला ३४ प्रक्षक (२) कुस्वम । ( Bad dream.) देखो- अह सा ahsa-अ० (ब० व०), हसा, हस्वह .हुल्म। (ए० व०) हरीरा, दूधी, एक प्रकार का पतला प्रहला ahvala-सं० स्त्री० भल्लातक भिलावाँ ।। आहार है जो साधारणतः स बूस (भसी), शर्करा ( Semecarpus anacardium. ) 1 और बादाम तेल आदि के योग से निर्मित किया श० च०। जाता है । देखो-हरीरा ( harira)। अहवाल ahvala-अ० (ब० व०) दशा, अक्ष akshah-स) प.. अवस्था, लक्षण । तिब ( वैध क ) की परिभाषा में अक्ष aksha-हिं० संज्ञा प[स्त्री० अक्षा] । मनुष्य शरीर की तीन अवस्थाएँ अर्थात् स्वास्थ्य, (१) विभीतकी । बहेड़ा । (Terminalia रोग, तीसरी अवस्था (हालते सालसा) जो रोगा- _belerica) रा० नि० व०६ । भा० म० रोग के मध्य मानी जाती है, यथा-सहजाधता ४ भा० प्रअन । “जग्ध्वाक्षकामलमायसन्तु ।" आदि। यदमा• एलादि मन्थ वृन्द० । सि० यो० सिद्ध भट्ठियह, ahviyah-अ० (ब०५०), हवा (ए. मतयोग कु० काम. वृन्द० । वृन्द । (२) व० ) वायु, हवा-हिं० । ( Atmos कर्ष परिमाण | कर्ष नामक तोल जो १६ माघे phere.) की होती है । प० प्र० । देखो-कर्षः । अह शा ahsha-अ० (ब) व० ), हशा (ए. (३) रुद्राक्ष वृक्ष | भा० अने० ३०। व०), वक्षादरान्तरिकावयव, उदर एवं वक्ष के (४) इन्द्राक्ष । ऋषभक ! (५) सर्प । सॉप । भीतर स्थित अवयव । विसरा Viscera (ब० (A serpent) मे० । (६) श्वास । दमा । व०), विस्कस Viscus (ए०व०)-३०। (७) ऋषभक । () देव शिरीष । शिरीष नोट-(१) वक्षान्तरिक अवयव को प्रहशा सदूरी विशेष । रा०नि० व. है। एवं उदरान्तरिक अवयव को अहशा बत्नी और | क्ली0 (8) विषयेन्द्रिय । इंद्रिय | रा०नि० पेड़ अर्थात् वस्तिगह्वरस्थ अवयव को श्रह शाउल व० १८ । वा० शा० ३ ० । (१०) सौवर्चल भानह, कहते हैं। लवण, कालानोन । (Sochal salt)।(19) (२) डॉक्टरी में मस्तिष्क का भी श्रह शा तुस्थक । तूतिया । मे० पद्विकं । (१२) विभीतक में ही समावेश होता है। फल | (१३) पन बीज । रा०नि० व० ११ । . अह शाउल आनह ahshaul-aanah-अ० हिं० सज्ञा प० (१४ ) धुरी । किसी गोल पेडू के जोन में स्थित अवयव विशेष । जैसे वस्तु के बीचों बीच पिरोया हुश्रा वह छड़ वा दंड. जरायु, वस्ति ( मूत्राशय ) श्रादि वस्तिगह्वरान्तर जिस पर वह वस्तु घूमती है। (१५) Pivot अवयव विशेष । पेल्विक विसरा ( Pelvic पहिए की धुरी । (१६) Axis वह कल्पित स्थिर रेखा जो पृथ्वी के भीतरी केन्द्र से होती हुई viscera.)-३० । अह शाउल बत्न ahshaul-batna-० औद उसके पार पार दोनों ध्रवों पर निकली है और रीय अवयव, उदरके भीतर स्थित अवयव, उदरा जिस पर पृथ्वी घूमती हुई मानी गई है। शयस्थ अवयव । जैसे- प्रामाशय, यकृत, (१७) तराजू की डाली। (१८) सोहागा। प्लीहा तथा प्रान्त्र प्रभृति | A bdominal टंकण ( Borux) । (१६) श्रीख, नेत्र । viscera. (An eye ) । (२०) गरुड़। (२१) अहशाउस सद्र ahshaushadra-अ० वाक्षीया- FFAİYI ( Born blind) वयव, वक्ष के भीतर स्थित अवयव । जैसे-हृदय, अक्षक: akshakah-सं० प'. (१) विभीफुप्फुस आदि । थोरेसिक विसरा (Thoracic तकी, बहेड़ा । ( Terminalia beler. viscera)-इं०। ica ) भा० पू० १ भा० । (२)तिनिश वृक्ष, For Private and Personal Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. प्रेक्षकम् .. अक्षत C ... तिरिछ । ( Lagers tremia flos हँसली के नीचे की धमनी । ( Subclavian regine) र० मा०। "विश्वमक्षसम artery.) शिर्यान तह तुत्तकं वह-अ.न पिवेत् ।" च. द० ज्वरातिसा-चि० । (३): अक्षकाधोवर्ती शिरा akshakādio vartti रुद्राक्ष वृक्ष । श० र० । (४) इन्द्राक्षवृक्ष । -shira-हिं० संज्ञा स्त्री० हँसली के नीचे (५) सर्प । (६) २ तो. मान । मे० ___ की शिरा । ( Subclavian vein.) षद्विकं । अक्षकान्तरच्छिद्रम् akshakan tara-cheप्रक्षकम् akshakam-सं० क्ली० ___hhidran-सं० क्ली० ( Jugular अक्षक akshaka-हिं. सशाप ___notch.) अक्षकास्थि, हँसली । Collar bone ( Cla- अक्षकान्तरीय स्नायुः akshakāntariya vicle )। अज़ मुत्तक वह, अत्तर्क वह-अ०। snāyuh-सं०प० (Inter clavicular) अक्षक धिस्थालक. akshak-sandhi अक्षकारका akshakārakā-हिं० संज्ञा स्त्री० -sthālaka-हिं० संज्ञा पु. ( Facet घृतकुमारी । ( Ale Indica ) वै० for clavicle) . . निघ०। अनकडाल aksha-kankala-हि. संज्ञा अक्षकाष्ठम akshakashtham-सं० क्ली० पु. ( Axial skeleton.) विभीतक काष्ठ । Terminalia belerअक्षकाधर akshaladhar-हिं० वि० ।। ica ( The root of-) च० द० पाण्डु(Subclavicular ) हँसलीके नीचे का। | चि० । . अक्षकाधर शिक्यम् akshakadhara-shi- अक्षकास्थि akshakāsthi-हिं० संज्ञा स्त्री. kyam-elo fato (Ausa subcla. अक्षक । हंसली की हड्डी । (Clavicle) via. ) अक्षकट akshakāra-हिं० संशा पु० [सं०] प्रक्षकाधरा akshakadhara-हिं० सज्ञा अाँख की पुतली। स्त्री० अक्षकास्थि तथा पहिली पसली के बीच अक्षकोत्तरा akshakottira-स०(हिं०सज्ञा) में रहने वाली एक पेशी विशेष | (Subcl · Fio ( Supra, clavicular.): avius infraclavicular.) अज़ लहे | अक्षगणः aksha-ganah-सं० पु. श्रोत्रादि तह तुसकं बह-अ०। इन्द्रिय समूह । ज्ञानेन्द्रियाँ। विषयेन्द्रियाँ । अक्षकाधरा धमनीakshaka.dhara-dham (The organs of sense. ) ani-सं० (हिं० सज्ञा) स्त्री० अक्षकाधोवर्तिनी। अक्षगन्धिनी aksha-gandhini-सं० स्त्री० धमनी । (Subclavian artery.) अतिबला । कंत्री । ककही। (Sida rhom. अक्षकाधोधमनी akshakidho-dhamani bifolia.) वै० निघ० । ' -हिं० सज्ञा स्त्री० हँसली के नीचे की धमनी । | अक्षणी akshani-सं. स्त्री० चच । नेत्र ।। यह हंसली के नीचे के अंगों में शुद्ध रुधिर देती अथ०।१०।२।। है। ( Subclavian artery ). अक्षतः akshatah-सं० पु. 1 , अक्षकाधो पेशी akshakādho-peshi-हिं० अक्षत akshata-हिं० संशा पु. . संज्ञा स्त्री० हँसली के नीचे की पेशी। ( Sub- ( Barley.) यव, जौ । (२) (बहु०) * clavious muscle.) आतप तण्डुल(चावल)। रा०नि० व० १६॥ अक्षकाधोवर्तिनी धमनी akshakādho-va- (३)शस्य मात्र । धान्य आदि, ब्रीहि यवादि । rtini-dhamani-सं० (हिं०स'ज्ञा) स्त्री० अ० टो0 भानुः । सं० पी० (४) Varu. . . } (. For Private and Personal Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानतण्डुला अनमः लहाजा । धानका लावा । मे0 । यव । जौ । (Ba. | (२) धर्मशास्त्र के अनुसार वह पुनभू स्त्री rley) प० मु०। C.सने पुनर्विवाह तक पुरुष संयोग न किया हो। "लाजेषु विष्वहिंसिते । यवेऽपिक्वचित्" ।। (३) कर्कट'गी, काकड़ासींगी । (Rhus मे० तत्रिक । कोई बिना टूटे हुए चावल को ___acuminata. ) कहते हैं जो देवताओं की पूजा में चढ़ाया अक्षते-चे-खारaksha te-che-khora-प्रक्षन । जाता है। फा० । सं0 त्रि०, हिं० वि० (१) अत्रण । जिसमें अक्षतलम् aksha-tailam-सं० क्लो० बहेड़ा क्षत या घाव न किया गया हो । (२) अहिं सत । का तेल, विभीतक तैल । बयड़ा बीजेर तेल मे० । -बं०1 (Terminalia belerica (Oil (३) अखंडित | बिना टूटा हुआ । सांग __of-) वा० उ०१३ श्र० । पूर्ण । समूचा। शर० । अक्ष दण्ड ।ksha-dandaअक्षतण्डुला akshatandulā-सं० स्रो० महा , ' महा। अक्षयरः aksha-dhah-सं० पु० शाखोट समंगा क्षुप । रा०नि०व०४।। वृक्ष । शेअोड़ा गाछ-ब। भूरि प्र० । ( Troअक्षतयानि akshata-yoni-हि. वि० [सं०] वृक्ष ___phis aspera.) ( कन्या) जिसका पुरुष से सम्बंध न हुआ हो । श्रत युर aksha-dhuri-हिं. संचा पु'. कुमारी । वर्जिन (Virgin.), वो इन्टैक्या [२०] पहिए की धुरी । ( Virgo-in tacta. )-ई। बाकिरह, अज राज,दोशीज़ह नाबालिग़ह -अ०। दोशीज़ह | अक्षधूर्त:,-तिलः akshr-dhārttah,-rtti-फा० । कुँवारी, कुँवारी औरत-हिं०, उ०।। Ith-सं० प० वृषभ । बैल । पाइ-ब० । (A हिं० सज्ञा स्त्रा० (१) वह कन्या जिसका bull, an ox.) हारा०1 पुरुष से संभोग न हुआ हो । ( २ ) वह कन्या | अक्षन akshana-हिं० संत्रा पु. ( Axoजिसका विवाह हो गया हो पर पति से समागम ___m.) सेल को जो शाखा नाड़ी बन जाती है न हुभा हो। . . उसे प्रक्षन कहते हैं। अक्षतरागःakshata-logah-सं०पू० उपनख | अक्षपाकः aksha-pākah-सं० ए० सचन रोग विशेष। .. लवण । ( Sochal salt ) वै० निघः । लक्षण-वात पित्त कुपित होकर नख के मांस | अक्षपिंडः aksha-pindah-सं०पु. शंखपुष्पी । को पका देते हैं जिससे वेदना और ज्वर पैदा हो ( Andropogon aciculartum.fo जाते हैं। इसरोग को चिप्य, अक्षत वा उपनख निघ। रोग कहते हैं । यथा- "वुर्यारिपत्तानिल' प.कं नख प्रक्षपोड़ः aksha-pidah-सं० पु. (.) मांसे सरुग्ज्वरम्,चिप्यमक्षत--रोगं च विद्यादुपनखं .. श्वेत वुह्वा । श्वेतवुह्वामूल । रसेद्र चि० । च तम् ।"वा० उ०३११० । श्राडूल हाड़ा-बं० । अ०। (२) दुरालभा । ( Alhagi ma. क्षतवीर्य akshata-viryya-हिं० वि० urorum.) सु० चि० ६ ० । [सं०] जिसका वीर्य पात न हुआ हो। जिसने | | अक्षपी(डका)ड़ा akshapi(dak ),-da-सं० स्त्री संसर्ग न किया हो। । स्त्री० (१) काल मेघ । शंखिनी। यवतिक्क । अक्षता akshata-हिं० वि० [सं०] जिसका ( Andropogon paniculata, Ve. पुरुष से संयोग न हुआ हो । es.) रा०नि० व०३ । (२) श्वेत वुह्वा । संज्ञा स्त्री० (१) वह स्त्री जिसका पुरुष सु०। ५० मु०। से संयोग न हुआ हो । अक्षमः akshamah-सं० पु (1) स्थूल For Private and Personal Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रक्षिक मूलक । (२) वन चटक, जंगली गौरैया। अक्षशिरोधिजा aksha.shirodhija-सं० ( Wild.sparrow ) वे० निघ० । (-मा) स्त्री. मन्यास्थ शिरा । पै० निघः। स्त्री० (१) अक्षान्त | ईर्ष्या । ( Envy.) श० अक्षसमा aksha-sana-सं० स्त्री० (Axis र०। (२) असमर्थ । अशक । vertebra, second cervic:1 verअक्षम akshama-हिं० वि० [सं.] [संज्ञा tebra. ) अक्षमता] (१) क्षमारहित । असहिष्णु । (२) अक्षसमा पृष्ठकोया संधिः akshas ama-priअसमर्थ । अशक । लाचार । shthakiya.sandhih-सं०क्ली०(Occअक्षमता akshamata-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] ipitc-rxiil joint.) (१)क्षमा का प्रभाव । अस अक्षसस्यम् aksha-sasyam-सं० क्लो० कपित्थ असामथ्र्य। अवमाला akshamāla-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] फल, कैथ । कविठ-म० ( Feronia ele. phantun.) वै० निघ० । रुद्राक्ष की माला। अक्षसूत्र akshasutra-हिं० संज्ञा पु० [सं०] अक्षय akshayu हिं० वि० [सं०] | रुद्राक्ष की माला। अक्षय्य akshayya , जिसका क्षय न हो । अनहोन akshanina-हिं० वि० [सं०] नेत्रअविनाशी। अनश्वर । सदा रहने वाला। हीन । अंधा। अक्षरः aksharah-सं०प०. अक्षांश akshansha -हिं० संज्ञा पु. [सं०] अक्षर akshara-हि. (१)भूगोल पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवसे होतीहुई (१) अपामार्ग, चिचड़ा । ( Achyran- एक रेखा मानकर उसके ३६० भाग किए गए हैं। thes asparn.) हे० च०।-सं. क्ली० इन ३६० अंशों पर से होती हुई ३६० रेखाएँ (२) जल ( Water )।(३ ) अपामार्ग पूर्व पश्चिम भूमध्य रेखा के सामान्तर मानी जल । (४) आकाश । (१) अकारादि वर्ण। गई हैं। अक्षांश की गिनती विषवत् वा भूमध्य हर ।-हिं० वि० अव्युत । स्थिर । अविनाशी । रेखा से की जाती है। (२) वह कोण जहाँ पर नित्य । चितिज का तल पृथ्वी के प्रत से कटता है। अक्षरुन्त्रकम् aksha-ruchakam-सं. क्ली० अक्षार लवण akshari-lavana-हि. संज्ञा मृतिका लवण | स्वारी मिट्टी। सोरा-बं०। सोर 4.(१) वह लवण जिस में क्षार न हो। बह मिट-मह० । वै० निघ० । नमक जो मिट्टी से निकला हो । नोट-कोई अक्षरेखा aksha-lekha-हि. संज्ञा स्त्री० कोई सेंधे और समुद्र लवण को अचार लवण [सं०] धुरी की रेखा । वह सीधी रेखा जो मानते हैं। (२) वह हविष्य भोजन जिसमें नमक किसी गोल पदार्थ के भीतर केन्द्र से होती हुई न हो और जो प्रशौच और यज्ञ में काम पावे। दोनों पृष्ठों पर लंब रूप से गिरे। अकृत्रिम सैंधव प्रादि । जैसे दूध, घी, चावल, अतल गुड़: akshala-gndah-सं० पुं० तिक मूंग और जौ आदि । हारलता । (Axis cylinder.)। अक्षि akshi-सं0 क्ली०, हिं0 सज्ञा श्री० नेत्र, अक्षवाट aksha-vat-हिं० संज्ञा पु० [सं०] आँख, नयन । ( Eye.) रा0नि0 10 11 अनाड़ा | कुश्ती लड़ने की जगह । प्रक्षिक: akshikaln-स० पु० . । अक्षवीर्यवान ksha-virvyavan-सं. प. अक्षिक akshika-हिं० सज्ञा प० श्वेत करवीर, श्वेत कनेर | Nerium odo- (१)रञ्जन वृक्ष । आउच गाछ-बं०। (Dalbrum (White yar. of-) वै निघ०। ergia pujeiniensis.) रत्ना० । (२) For Private and Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रक्षिकुण्डः ८३८ श्रक्षिरोगः " का पेड़ । श्राच्छुक | ( Morinda cit श्रक्षिदण्ड akshidanda - हिं० सज्ञा प० rifola. ) ( Axis ) अक्ष । श्रक्षिकुडः akshi-kundah - सं० प ु० ( Or | श्रक्षिपञ्चकम् akshi-panchakam-स'0 bit) श्रक्षिखात | क्ली० श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और नासिका । श्रक्षिकु'डीय रा० नि० ० १८ । akshi-kundiya-सं० fo ( Orbital ) अक्षिखात सम्बन्धी | अक्षिक्टः,-:akshi-kútal, kah-oप ० (i) Eye ball. ईषिका, नेत्रतारा, श्रक्षिगोलक | वा० सू० २ श्र० । ( २ ) गजाक्षिपुटक, जाति गोलक । हे० च० । श्रक्षिकृणितम् akshi-kúnitam स ं0 क्ली० श्रक्षिपदम akshi pakshma-स० क्ली० नेत्र लोम, श्रक्षिव, बरौंधी ( Eyelash, Cilia ) सु० शा ० ३ | १४ | श्रक्षिपाकात्ययः अपांग दृष्टि । ० श्रति कृष्ण गत रोग विशेष । कृष्णम् akshi-krishnam-स0 क्ली० नेत्र का काला भाग । शनप० । श्रक्षिखात akshi-khata - हिं० संज्ञा पु ं० अक्षिगुहा, नेत्रगुहा, श्रख के रहने के गड्ढे की गुफा ( Orbits of eyes, orbital cavity.) 1 अक्षिगु (गू) हा akshigu-gula-स ० हिं० सशा) स्त्री० आँख के गड्ढे । श्रख के रहने के गड्ढे की गुफा । ( Orbit of eyes. ) • प्र० शा० । - अक्षिगोल : akshi.golah - स ० प ० नेत्रतारा । (The ball or globe of t'e eye) वै० श० [सं० । अक्षिगोलक akshi golaka अक्षिगोलन् akshi-golam –सं० फ्ली आँख का ढेडन । (Ball of the eye-) अक्षिचालनी akshi-chalani - स ० स्त्री० ( Oculo-motor.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० अक्षिपटल akshi-patala-हिं० संज्ञा प श्रक्षिपटलम् akshi-patalam- • क्लां० आँख का परदा । श्रख के कोए पर की झिल्ली । नेत्रपटल | पलक | ( Eye-lid, A coat of the eye-) प० akshipákátyal - स ० लक्षण - जिसकी आँखों से गरम पानी गिरने से फुन्सी हो श्राए । दोनों पटलों में शुक्ल फूला प्राप्त हो जाने से ये लक्षण होते हैं । जिसमें मूँग के समान शुक्ल हो वह असाध्य है और जो तीतर के पंख के समान ( काले रंग का ) हो उसको भी कोई कोई असाध्य कहते हैं । तीनों दोषों से जिसके नेत्रके काले भाग में चारों ओर से सफेदी छा जाती है उस नेत्रपाक को त्रिदोषज श्रक्षिपाकात्यय नामक नेत्र रोग वैद्यों को त्याग करने योग्य हैं। मा० नि० ।.. अक्षि लु: akshi pilu-सं० पु० महानिम्ब । अक्षिबुदबुदः aksh-budabudai सं० प ु० ( Melia azedarach ) बैo निघ० । ( Optic vesicle, Bulb of the eye.) श्रक्षिच्छादनम् kshichchhada numस ं०क्लो० अक्षिपचम, अतिवर्त्मन । (Eye-lashi, cilia ) रत्ता० । अक्षिणी akshini-सत्रो० चक्षु, नेत्र । अथ श्रक्षिमण्डलम् akshii-mandalam-सं० की ० नेत्रमण्डल । शतप० । akshi-blieshajamo to ( १ ) श्वेतलोध | सफेद लोध | मद० ० १ । पट्टिका रोध, पठानी लोध । रा० नि० व० ६ । ( २ ) नेत्रौषध, नेत्राञ्जन । For Private and Personal Use Only सू० २ । ३३ । का० १ | अक्षितारा akshi-tárá-foल'चा स्त्री० [स ं०] अक्षिरोग: akshi-rogah सं० प० नेत्ररोग, झाँख की पुतली । 'वक्षुरोग। ( An eye disease. ) Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिलोम.. अक्षीय अक्षिलोम akshi-loma-सं० क्ली० नेत्ररोम, | अक्षीणनामारस:akshinanāma-rasah-स' अक्षिपक्ष्म, बरौंधी । ( Eyelash, Cilia.) पु' स्वेदन तथा पातन किए हुए और सस्कार अक्षिवः akshivali-स० पु. (१) शोभा- से बीजोत्पादित पारे में षोड़शांश सुवर्ण का अन वृक्ष, सहिजन | शजना-बं०। (Guila. जारण करें। इसके पश्चात् १६ गुना गांधक, ndin a or Hyperanthera moru- जारण करें। फिर पारे का चतुर्थांश सुवर्ण और nga.)। (२) मरिच । (Pepper.) रा० १६ वा भाग गंधक डोलकर, जम्भीरी के रस नि० व०७।-क्लीo ( ३ ) समुद्र लवण । अथवा किसी भी खटाई से मर्दित करके टिकड़ी (Sea salt.) watoto बनाएँ। फिर कच्छ पयंत्र में या सोमनाल यंत्र में अक्षिवम akshi-vartma-स0 क्लीo अक्षि. नीचे ऊपर पिट्टी से टूना या तिगना ग धक देकर पचम । ( Eye lash) पिट्टी को बीच में दबाएँ। फिर चूल्हे पर चढ़ा अक्षिविचूर्णितम् akshi-vich unitam-सं0 कर ३ दिन तक मंद मंद अग्नि दें। इस तरह क्ली अपांग दृष्टि । हे० च01 करने से सुवण के साथ पारे की भस्म होगी। अक्षिवैराग्यम् akshi-vairagyam-स उपयुक्र विधि से मारा हुश्रा पारा १ भा०, क्ली० आँख का लाल होना, नेत्र विरकता । कांतपाषाण या इससे निकाला हुअा लोह भस्म "चकोरस्याक्षि वैराग्यम् ।" वा० सू० ७०। १ भाग, मारा हुअा अभ्रक सत्व, ताम्रभस्म एवं अक्षिशूल akshishila-हिं० संज्ञा पु. [स] शुद्ध गंधक दो दो भाग, इन सबको खरल में नेत्र वेदना । आँख का दर्द । ढाल कर तीन दिन तक लगातार मन करें। प्रक्षिशुक्लम akshishuklam--स'० क्ली. फिर इसकी टिकिया बना छाया में शुष्क कर नेत्रका सफेद भाग । शतप० । भूधर यंत्र में करीष की अग्नि दें। फिर इसको अक्षिशीष akshi-shosha-हिं० संज्ञा प.. निकालकर शीशी में रखें। [स. ] नेत्र शुष्कता। मात्रा-१ मा० रस गुडची सत्व तथा योग्यताअक्षिसेचनम् .kshisechanam-स. क्ली० नुसार मुलेठी और बंशलोचन व शहद मिलाकर नेत्रनिस्तोद वा पाश्चोतन अर्थात् परिषेक ।। चाटे तो ४ महीने में पथ्य सेवा के क्षय को इसकी विधि निम्न है: निमूल कर देता है। विधि-रोगी को वातरहित स्थान में बैठा __पथ्य-चावल, गोघृत, तक्र, गेहूँ और जौ । कर बाएँ हाथसे आँख खोल कर सीपी, प्रलंबा वा रस० यो० सा० । रुई के फाहे से दो अंगुल ऊँचे से आँख अक्षीवः akshivah-स० पुं० के तारे पर दस-बारह बूंद डाल दें। तत्पश्चात् शनीवkshiva-Eo सनाuo कोमल वस्त्र से पोंछ कर ग नग ने पानी चेलवर्ति (१)शोभाञ्जन, सहिजन का पेड़ । ( Mori. को भिगोकर धीरे धीरे आँखों में स्वेदन करें। nga pterygosperma) मे• पत्रिका यह श्राश्चोतन वात कफ में किया जाता है रक च० सू०४० कृमिघ्न व०, चि० ३ ० । पित्त में नहीं। वा. सू०२३ १०। (२)महानिम्ब: (Meliaazedarach) अक्षिहुण्डनम् ॥kshihundan m-सं० क्ली० भा० पू० १ भा० । (३) वचिर, वक ।-क्ली० नेत्रव्युदास । मा० नि० विज०र०। (४) सामुद्र लवण, समुद्री नमक। (Sea अक्षीकः akshikah-स० पु० वृक्ष विशेष । salt) पाडा-ब । भा० पू० १भा०। (५) अाउच-बं० । रत्ना० । ( A tree.) मरिच । Bluck pepper (Piper nigr. अक्षीण akshini-हिं० वि० [सं०] (1) जो um)।-त्रि०, हिं०वि० अमत्त । जो मतवाला म न घटे । (२) अविनाशी। हो । चैतन्य । धीर । शांत । For Private and Personal Use Only Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षण भैशातयाँ अक्षुण akshuna-हिं० वि० [सं०] (१) प्रक्षोभ akshobha--हिं० सचा पु[स] अभग्न । बिना टूटा हुआ। अच्छिन्न । समूचा।। क्षोभ का अभाव । अनुद्वेग । दृढ़ता। धीरता। .. (२) अकुराल, अनाड़ी। स्थिरता । प्रक्षेयः aksheyan-स. प रकार्क, लाल वि० क्षोभरहित । चंचलता रहित । उद्वेग मदार। वै. निघCalotropis gig n. शून्य । स्थिर । गंभीर । शति । tea ( The red var. of-) देखो-आक। अक्षोहारः aksho' arah-स'० प. मधु अक्षोटा,-कः,-को akshot th-kah,-ki खजूरी, मीठा खजूर का पेड़ । वै० निघ०।। -सपु., क्ली. अखरोट, अकरोट | The | अक्षणा aksina-स' ना० चतु, नेत्र, आँख। ...... walnut (Juglans regia.) देखो (Eye) अखरोट। अक्ष्यम् akshyam - स. क्ली. सौवर्चन लपण, अक्षोट तैलम् - kshota tailam-स. क्लो० सोंचर (ल) नमक । ( Sochal salt.) अखरोट का तेल। ( Walnut oil.) अच्यस्थिः akshyasthili--स. प. अ. गुण-मूलक ( मूली ) तैलवत् । वस्थि । ( Lacrimal bone.) अक्षोड़,-क: akshoda,.kah-स० पु. अज्ञातयचमा ajnyati-yakshmi--सं० पु.. अखरोट। Juglans regia (The अज्ञात स्वरूप संग दोष से लगनेवाले रोग। walout.) to ATO I अथ० । सू० । ११ । २। का०२। For Private and Personal Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्धिपत्र ( ERRATA ) पृष्ठ कॉलम पंक्ति ३ अशुद्ध पृष्ठ कॉलम पंक्ति जुम्मेदोरी जुम्मेदारी १५ १ १५ शातलं शीतलं संघन सघनं पूवच्छेद शवच्छेद हिंदी. हिंदी रावबदीय रायुर्वेदीय ओर और ६ १६ 44 Ga Ga Ga poy । PDF प्रकारकरभः प्रकाकरमः १ १ १ स्त्रा स्त्री शब्द २ १३ aazaa aazaa " م ه ه १३ akár-kanta ३ akar. kánţá १ GAGA १ " " २ १७ मुशाबिह तुल मुशाबिह अज तुलअज्ज़ा १८ २६ Tometosa Tomen- " tosa. " २% Egptiaca Egy- १८ ptiacal » ३४ Integrifoila Integ rifolia १४ Embroyo Embryo ३५ Laeppālai lappālai " "600" 04.444 ه २४ २ " कक्युटा Cusuta ओर वाली कस्क्युटा Cuscuta और वाला " २ ३७ अनाका अनीका २३ aqaduniya aqadu niya २० aqiqa aqiqa " २६ agarqarha aaqarq. arhá १ २२ तिब्बो तिब्बी 6 akarkántá akara kánțá कजदुम कज़ दुम aaqiq ज्योति aaqiq ज्योति रीठा री। धिः bbbbbe अधः अ(ए) अ(ए) कोरन्थीस कीरैन्थीस 64.64.4. For Private and Personal Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . : : - पु : पु : १ : सं० " " : : " श्र० पू [ ख ] पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध रोगन रोगन २५, २६ केबाँच वाँच Necca Mecca 37 Indigoplmt Indigopl. » » » Balm Balsam ant बायुगोला वायुगोला २३ पु. Hotero- Heterophyllum phyllum ३५ सं. क्ली. खानिकुत्र- खानिकुन्न बक्ष वक्ष नमिर मिर अग अगर अनस्यून ६ ब वासलीक व बासलीक aqumar aqúmár अकहाल कहाल shún shúna. अ० अ० वंच बच निककती निकलती पू ३६ १ १५ तुत्र क्षुद्र उसवर्ग उपवर्ग ३७ १ २३ पीताभयुक्त पीताभायुक्त २६ हरिताभयुक्त हरिताभायुक्त अफ़ा अ०, फा० १३ अफाक अख़्फ़ाक " २८ तेल गनाम तेलग नाम ३० agadnk- agadank२ १० बर्ना बर्मी भाषा, arah arah बाला वाला ३१ agadnka- agadankaइसका" इसकी... rah rah ११ श्राती विष आता विषघ्न २ ३४ अगोला गेला ३० गअन अगन २ ७ औषधियां प्रोषधियाँ ३२ अगन चश्मानो-अगन चश्" २७ aakki akki का मानो काँच २ २७ अदीदूस अक दीदूस ३३ हिं० पु. गु० २८ aqna aaqna ४०१ १५ agnaed aganei बाला वाला १६ agnatu aganeta. 32 aqrfa aqraf टिषेरा टिपेरा २५ अक्र.बी अक्रबी १२ गाढ़ गाड़ लाड " २८ हिं० ब० हिं० वि० लाइ " ३१ अक्रा अक्रा Knid Kind एवं एवं कुष्णागुरु कृष्णागुरु १ १४ Phormac Pharm कटिकृट क्रटिकूट opoeea acupveia श्रीर और Despens Dispensa atory अगस्तिए tory अगस्ति anb and २ १३ इसको इसको १६aklahaklah ५४ २ १६ षाक पाक .: : * ::४३:::: :: :: ३२ ___oor aur : M झरी १३ r s " " ३५ For Private and Personal Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir tai ३ १५ ३ -: चे? : अङ्कर :: पृष्ट कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम पंकि अशुद्ध शुद्ध ५५ १ १० म० मो०, ० २ ६ (१) (२) २० agharah aghara h onartridge partri. P agārdhú- agára. dge mah dhúmah लबलबह्य लबलबह » 8 tay काय कार्य " २५ घुबाँसा धुवाँसा सं० संज्ञा २ ४ आक ओक adj adj. प० २ ३५ रोगोद्घाटक रोधोद्घाटक bont bent " २ ३. secrations secretions| ८४ गिश गिशा ५६ २ २७ व्योहार व्यवहार | कोरिश्रा कोरिॉन् " " ३० (घातकी) (घातकीन) ७ dentala dentata ६० २ १५ रोगो रोगी अङ्कारा अङ्कार " २ २६ अघोरी अगौरी ६१ २ २४ Zlanicum Zeylan. उगन उगना icum खोना खोथा ६२ १ ११ Sucenum Succinum १ ६ " " १२ agdi aghi " २६ अङ्कुशकास्थि अङ्कुशास्थि ३४,३५ obious obvious ankuşh- ankus७ fadu fabu asthi hásthi २३ phthisis pthisis अङ्कशिन अङ्कशिन ६७ १ २३ क्वपीस कापास श्रङ्कसा अङ्कसा ६८ १ ३१ प्राचार्या प्राचार्य उपयोग उपयोग ६८ १ ३१ वच का भी वच भी १ २६ गर्भः, वषघ्नः गर्भविषघ्नः ३८ Cardissper- Cardios 39 Lanlarck Lamarck mum permum का ७० १ ८ jaani janani करता ३५ वातष्ठीला वाताष्ठीला हरण करता २ ५ मन्त्र यन्त्र थोड़ी थोड़े २८ makham mukham • प्रभति प्रभृति २ ६ पु क्ली० ६५ १ २० peptalum petalum २ १७ पु० क्ली० २१ अङ्कालमु अङ्कोलम २ ३२ Verden- Verben ३८ angada- angadam ace . ace e dam ७६ १ ३२ राहिणी रोहिणी ! ६८ १ २८ ब्यथ व्यध २ ३ virryyam viryyam वाहन वहन Os po vasha veşha का ७. १ १० अरंड-कुसुम अरण्य कुसुम १ १३ घेदन बेदना : - ar arr arra For Private and Personal Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir m योग पुनः भ्रंश और [ घ ] पृष्ठ क्रॉलम पंकि अशुद्ध शुद्ध | पृष्ठ कालम पनि अशुद्ध शुद्ध ६६ २ २६ Zinziber Zingiber | १४० २ १७ लिए में लिए १०० १ ३१ प्रङ्गसदनन् अङ्गारसदनम् १०१ १ १४ संयाग संयोग १४२ १ १२ वनस्पत्योद्यान वनस्पत्यु१०२ २ ३० टका टीका द्यान १०३ २ ३१ Can Cane ।" " १६ हॉस हुऑस १०५ १ ६ श्रययव अवयव " " १८ शूक शूकर १०६ २ १ अएण्टम् अङ्गुषण्टम् " " २४ नाटे नोट २ १०७ २ २७ Iodid Iodide ११ यग १०८२ २६ Ointmet Ointment | १४५ १ ३६ दवा दवा 3= Varetrni Varetrini पुनः १०६ ३५ घन्कम् गन्धकम् ३२ अजवावन अजवायन २० स्टेवीसैका स्टैफील ग्रा 85 sebative sedative २ २६ हेमेनेलिस हेमेमेलिस २ २४ धतर्गन धतूरीन १६ अंगुश्तफा अंगुश्न-फा० ३४ soporiflc soporific २३tae वाले toe वालो २ ३३ Paseolus Phaseolus दंश २१८ २ ५ पूणरूप पूर्ण रूप । २५ का और १२७ २ ५ उसका उसको १२६ २ २७ aaja maya aajanaya २५ अनामून अनीमून १३० २ १० प० पं० स्त्री० १३१ २ ३१ बाष्प वाष्प संक्षा .संचा १३४ १ ३६ बारहे अरमनी बोरहेअरमनी क्ली० " २ १,२ अज़रफ़त, अज़रफ़त, ग्रहण्याधिकारे ग्रहण्यधि कारे अज़फ़त अजफत " " पांडुरोग २१ कवाँच ३० पांडुरीग क्वाँच १३६ १ २८ mubavv mubavvi 35 Helicteris Asclepias १७ प्रकृत्याजीर्ण प्रकृत्यजीर्ण isora, Linn. geminata, नाट Roxb. kņțaka kanțaka १३७ १ ३६ Umblli. Umbelli १०-१० feræ feræ १८ लौंग लौंग १३८ १ १४ अजमोदा अजमोदा के ओर १३६ १ ४ AguaAqua लामड़ी लोमड़ी " " २३ शोथों के शोधों की भौर २६ अजवायनको अजवायन का जो " २ २६ होती होता ३४ अज़त अज़त १४० १ २२ ओर और मिपी मिश्री . २६ तल तेल | १६४ १ ३४ सहद साइद वि. ३६ १ स्त्री० नोट और भोर जा For Private and Personal Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " " " " १३ २० of पृष्ठ कॉलम पनि अशुद्ध शुद्ध १६४ २ १० जाफ़ अजीफ़ १६५ १ १४ azyhasa azghasa १६५ २ ३ अज्ज़ाजा प्रज्जाजी संधातिन संधानित निर्बलेता निर्बलता अज्निहह् अज्निहइ अज़फ़र अजफर जससे जिससे फ० फा० १ १५ कण्ठिक स्थि कण्ठिकास्थि ' २१ वित्मइयनी बिल्मइयनी '' २ २५ अज़मुरु कयह अजमुरु. कबह " २६ पायरिथ पाण्यस्थि १७१ १ ६ पश्चात् के पश्चात् १७३ १ ४० : अञ्जन प्रजनः २६ फिजौरे बिजौरे शुष्क शुष्क मुलेटी शुष्क शाँत शांत ३६ क्तेद मस्तिस्क मस्तिष्क १३ अश्वतन संयर्तन १ ११ अमिप्राय अभिप्राय जाता लाता ओहसी श्रोइसो शांता जाता ३२ युक मुलेठी पृष्ठ कॉलम पंक्ति शुद्ध १६७ २ २८ फ. फा० २० pliuliferapilulifera " " २३ बीजे बीज २०० २ २ लप्चू लिम्बू २०१ १ ४ जांक जोक atrapliyatrophy २०२ २ | ef Catchu Catecliu २ ४ करी कटारी २ १० स्त्रा स्त्री १ ११ ओर और २१५ १ ५ खु.स्यह खु.स्यह ६ फातह, फ़ोतह ७ खुस्यों खु.स्या " २६ पपावणा पाव(पेपा) २ ३६ लम्थे लम्बे ३७ विषमर्ती विषमवर्ती १५ पुष्पभ्यन्तर• पुष्पाभ्यन्तरकोष कोष की २ २८ होतो है होते हैं २२१ १ ३५ जाई लाई २७ बाइकावोंनेट बाइकार्बोनेट भीनन २२ ___ कह दान कद्द दाने सुहागा गा २२४ २ जौहर २२५ १ बिषयक विषयक २२६ २ १२ अपवर्तन संवर्तन २२८ २ २८ पुष्पसार पुष्पसार अतलस्पश अतलस्पर्श २३० २ ३५ वधता बँधती नैलि २३४ १ १२ अबाध्य अवाध्य २३५ १ १६ जव ज़ब कैद भोजन ३२ *## ! » * * सुहाग गो जौहर, युक्त की स० सं० वृंहण नारिपुष्प " ३ घंहा " २० नापुिष्प १६५ १ ३ वष । १६६ १ १० ओर " २ ६ क्योंकि १६७ १ - पुष्टिकारक " . " २० डॉक्टरा * * नैलिद और क्योंकि पष्टिकारक डॉक्टरी For Private and Personal Use Only Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ च ] nah पृष्ठ कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम पंकि अशुद्ध शुद्ध २३६ २ २१ जुताल हशफ़ड्, ताजुल २८० २ ७ ne tra, chch- netrach. हशफ़ह. dada chhada २३७ २ ६ करटक कराटक २८१ २ ६ Inferor turt-Inferior २३६ १ १८ atijagar. atijagaran binate turbinate | २८२.१ १५ होना nah होना " " २३ atijagar- atijagara | २८२ १ २० (२) (३) aah २८३ १ २४ २४२ १ ३ Liun Linn. पेठ पेट २५२ १ ३० ताहिए चाहिए २५३ २ ५ अवस्था २८५ २ अवस्था २७ Gossypinm Gossy pium " २ १५. पाा पाठा २८५ २ ३५ soluhble soluble , २ २८ कानन, कानन २८६ १ १ arngam anangam २५३ २ ३८ व लातीसार बालातीसार २८६ १४ वकांत वैक्रांत ओर और २६ २७ मुद्ध शुद्ध २५४ १ १२ अक्सगल __ ऑक्सगॉल २८७ २ ७ ओर और क्लोरोफॉर्म क्लोरोफॉर्म २८८ १ १४ लागली (४) लागली विजा विजय २८८ १ ३० अग्निकन्थ अग्निमन्थ क्तोरिक क्लोरिक २८८ २ २ crountry country सैंघव सैंधव २६० १ २१ सुस्वाद सुस्वादु १४ स्यबार्ब रयबार्ब २६३ २ २१ वल वल ग्रमाण प्रमाण २६४ र ४ भल्लोतककी भल्लातकी २५६ १ १८ शहद्द शहद २६४ १७ भल्लातक्याम्ल भल्लातक्यम्ल २५८ २ ४ वंद कंद prikhá parikhá प्रतिषेषक प्रतिषेधक पभाव प्रभाव वल्य भोर और २५६ १ १३ अस अतोस ३०१ १ २२ हाता । होar २५६ १ २३ हांती होती ३०२ २ २२ मद्ययपान मद्यपान २६३ २ १७ रक्ता धिक्य रक्ताधिक्य | ३०३ २ १५ Tukiua Tukina २६४ २ ३० atyudirna atyudirna | ३०४ १ १४ सौर और २६७ १ २३ कन० कना० ३०६ १ १० रख रस ३०७, २ २७ षीस पीस २७० १ २१ खैरसार खैरसार ३०६ १ २३ पत्तों के पत्तों को २७१ १ २६ officiulis officinalis ३१२ १ ११ संचा संक्षा हुमा हुधा ३१४ १ २६ खताई ख़ताई मैनफल मैनफल ३१४ २ १ सुगंधित सुगंधि २७७ १ २० गंगलव गंगलवण २१ तृप्त तृप्त, २७७ १ २१ भोर और ३२० २ १५ रक्त For Private and Personal Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पृष्ठ कॉलम पंक्रि ३२३ २ १० ३२४ २ १ १ २ ३२५ ३२५ 23 95 "" ३२५ २ ३२६ १ ३२६ २ ३२७ १ ३२८ १ ३३२ १ ३४६ २ ३४६ २ १८ २७ २६ ६ २६ ३७ १४ पृष्ठ कॉलम ३५० १ २० ३५० २ १४ पं० पु ं० ३५० २ ३३ Followrig Following ३५१ १ - स्त्री क्लो० १= Thalicl- Thalictrum अशुद्ध २ एवं संक्षा २७ उवल ३५२ २ rum ३५३ २ F ३५८ १ Fliosam Eoliolosum D.E ३० उज्ज्वल ३५६ २ ऋ० । ३५६ २ Vapouris ३५६ २ २७ अ ३ Vapourism tiou ation ३६० १ औषध ३६० १ ओर स्वाधीन हे औषध सोनामुखा सोनामुखी दोकर होकर भैंस श्रौर अनाना अनोन अन्य औषध अनङ्गित् श्रीर खंड www.kobatirth.org अन्तरात अनंतम २० २७ नहर [ छ ] शुद्ध एवं संज्ञा अनोना स्वाधीन है अनोना ३३३ २ ३३४ १ ३३४ २ ३३५ १ ३६३ १ १८ ३३५ २ ३६३ १ २१ ३३६ १ २५ ३६८ १ ३ ३३६ २ १५ ३६८ २ - ३३६ २ १६ ३७० १ ३३७ १ १ ३७३ २ ३३६ १ १३ ३८० २ ३३६ १ २८ ३८२ १ ३४३ १ ३५ ३८६२ ३४४ २ ३१ ४०१ १ ११ ४०१ १ गह्वर ३२ ३५४ २ ४५ ) नोट- 'अन्तरीय उदरच्छदा' से 'अन्तर्म '४०४ १ २८ ४६ हानाद' तक के शब्द पृष्ठ ३४३ द्वितीय ४०४ २ २६ १६ २ कॉलम के अन्तर्मुख शब्दसे पहिले होने चाहिए | ४०५ और 'अन्तर्मुखी' 'अन्तर्ल सिका' से पहिले तथा ४०६ 'अन्तर्लोहिता' 'अन्तर्वत्नी से पहिले होने चाहिए । ३४८ १ १६ ४०६ ३४८ १ ३४ संक्षा shronigá इंति १५ इ X अन्य औषधो खंड अनङ्गिन् और अन्तरातप अन्तिम ३६० २ ३६० २ संज्ञा shronigá इल्ति - ३६० 55 २ : " २ १ २ पंति ४०६ २ ४१६ १ 29 ४१६ ४१६ २ For Private and Personal Use Only २२ २० ३७ ३३ ३४ ३६ ४ १० २३ १८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रशुद्ध 23 होता श्रख्छा को : १६ १७ prishishta parishi shta अधिक अधिफ प्रमृति व चली रखें "" जन्ममकाल परिस्तृत श्रत्रस्त जन्मकाल ૨૪ परिविस्तृत श्रांत्रस्थ १५ २०, Gariec Lacti Gastric Lactic २३ व्योहार २८ शुद्ध X अच्छा भातर सन्तममं प्रभृति का अवतगस चला रखें "" अन्धतमस सस्कार संस्कार हाता होता ४ अंगुल्याग्र अंगुल्य १६ कक कफ ११ २२ श्वतापराजिता श्वेतापराजिता Hetic Hectic क्लोलोफॉर्म क्लरोफॉर्म खंड क्लेशद ख ंड केशप्रद व्यवहार भीतर सन्तमसं परिणाम अपमार्ग कमज़ोर डाकर क चतुष्ठथ चतुष्टय कियाएँ क्रियाएँ ३५ वानस्पतिक वानस्पतिक परिणाम अपामार्ग कमज़ोर डालकर Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir by वस्त्र भय पृष्ठ कॉलम पंक्कि अशुद्ध शुद्ध | पृष्ठ कॅलम पनि अशुद्ध शुद्ध ४२४ २ ३८ Sipnace Spinacea ४४२ , , उश्वाचन उच्चाटन aoleracca oleracea » - P& producedy produced ४२६ १ ३४ वणन वर्णन तथा ४४२ " ३३ प्रमोग प्रयोग ४२७ १ ७ मुण " २ ३४ अभिश्राप अभिशाप ४२८ १ २१ London London १ २३ प्रयागांश प्रयोगांश " , ४ क्लोरिफा क्लोरिक ४२६ २ १० बस्त्र " " ५ Hyorochl. Hydro. , , २६ Hipperate Hippoc. oric chloric rate ११ नबीन नवीन " , ३७ बुनत्र अबुनन 88 abbinya abhinava ४३२ १ ३२ tamaruna tamaruna , , १६ दृथक पृथक् ४३३ १ १६ akhrhsa akhi ras २३ kamehva kameshva ४३४ १ १३ adda abda १४४३ २ ३० puat puta ४३८ १ ३७ साय साथ ४४४ १ ३४ abhimukha abbi" २ ३० aalah a blah ruchi ४३६ १ १८ desrie desire भथ " , २५ खड खंड मा० मा० , २८ कागजी कागजी पाभिषङ्ग अभिषङ्ग ३३ अम्लघेतस अम्लवेतस adhi abhi १८ guta guți पीड़ा २१ abhayadi abhayadi (२) २२ vati vați abbi thitá abhi hita ४४१ २ ३३) एक उपसर्ग नोट-यह पृष्ट | ३५ abhisaugah abhish angah ३५) करता है। ४४२ के १ , , ३६ अभिषङ्क श्राभिषङ्ग स्तम्भ के प्रथम पंक्ति के बाद होना चाहिए। ४४२ १ १५ बाला वाला किपा किया " " २४ स्त्री हब्बुलापास हब्बुलास और adheda abheda (botter butter देखो- देखो-वात. ५ गी व्याधि। ७ भारा चारा ४४६ नागरमोधा नागरमोथा २० घशीकरण वशीकरण २१ अभिचारक अभिचारक पत्र , abhcha. abhichar उहधातु उपधातु raka aka बह यह अंत्र यंत्र " कारणाभ्रक कृष्णाभ्रक पीड़ा ४४० स्त्री " " २८ श्री घी . For Private and Personal Use Only Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पृष्ठ कॉलम पंकि " ४५० २ ४५१ १ ४ 39 "" 23 93 " ४५२ "7 39 39 39 39 ४५३ "" 99 39 39 CO ४५४ ******* ४५७ 39 39 25 99 39 33 39 २ " "" "" 39 "" १ 19 * 22 99 13 202 3 ४५५ १ 19 Kova "9 39 ४५६ १ १ २ "" 23 "" ܗ २ 33 "3 39 "9 " 29 4 x x w 2 x 20 wo 19 ४ १६ २ १४ ३४ ३६ 99 २२ २६ १० 39 ३० ३२ १ २४ ६ 2 १४ २८ ३८ ११ २६ १५ १६ ३४ २२ अशुद्ध ३ ४ अम्रक १४ १७ अम्रक दूधरा नको हीड़ा मारी जठरानि स्वभाविक स्वाभाविक शुद्धि चूण तदन्तर उसके गाड़ा जिलोय फा www.kobatirth.org कज्ज विकृत योगिक वर्ण वशलोचन श्लेष्मिक आवरक होगी श्वेद परिवर्ततक साबकि "" १८ क्रियायों २१ साम्यस्तिथि शुद्ध [झ ] तदनन्तर उसको टिकिवा टिकिया प्रग्येक प्रत्येक कथ काथ भावना भावना भस्म ही प्रस्तुत भस्मप्रस्तुत अभ्रक ४५७ अभ्रक दूसरा भ्रको पीड़ा भारी जठराग्नि शुद्धि चूर्ण गाढ़ा गिलोय खाँड़ का तर ३१ सेवन ३७, ३८ द्वंद व्याधियों द्वंद्व व. ज्जल विकृति यौगिक वर्ण | पृष्ठ कॉलम वंशलोचन 39 ४५८ 39 "" 99 39 39 ४६० 13 " ४५६ २ "" " 66 39 ४६३ " "" 39 ४६४ ४६१ २ ४६२ १ २ 39 39 99 91 39 ४७५ परिवर्तक सावगिक क्रियाओं साम्यस्थिति ४७७ 23 93 १ - 20 " २ 39 २ "" ४६७ तरह ४६८ १ सेवन ૪૭૦ १ 99 29 १ २ "" 27 39 * १ ov :: 2 :: २ 39 " "2 पंक्रि For Private and Personal Use Only ४ ३२ ११ २७ अम्रक ३२ Hecticfe ક क्ली ० ३३ पर्यन्त २३ ३५ २६ २ ५ १२ २० ३४ ३८ ३५ १७ १५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ उदरीय ४७१ १ व्याधियों ४७१ २ २५ पत्थ्य श्लैष्मिक ६ सेमन ४७२ १ २ ३८ राक्षनिघंटक आवरक होगा १ २१ कीटदंष्ट्र स्वेद ३७ ५ अशुद्ध ११ ६ ३१ पत्थ्य hritaki वैदूर्य काँ साध्य वात Embelia मो० rsouia मस विशेद beq formis -dda sáláh Maugifora Mangifera Ε पौघा पौधा bela २३ ३७ cassythaiei Cassytha filiformis ६ -gadda sálah २६ ३१ Comumnis Communis १० अर्थात् २३ इग्द्रवारुणीलता इन्द्रवारुणीलता लर्थात् २८ bededeis bedensis और और बहुत मूत्र ludian मुना स्वाद शुद्ध अभ्रक Hectic tragia fragia Semima Semina पुं० मांजन काथ सुस्वाद पर्यन्त पथ्य haritak वै कास कष्ट साध्य वातः Emblica στο rsonia मांस विशेष बहुमूत्र Indian उदरीय पथ्य सेवन राजनिघंटुक्त कीटदष्ट भुना स्वादिष्ट भांजन काथ सुस्वादु Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : [ ] * *********** w रोगी ६४० पृष्ठ कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम पनि अशुद्ध शुद्ध १७८ , १० सं० पु. संज्ञा पु. ५४६ २ २१ वीच बीज २ २२ प्रलुक्त प्रयक्त ५५१ २ १४ Enbhca Emblica ४७६ २६ वर्द्धक वद्धक ५५६ २ १७ भारनवर्ष भारतवर्ष '४८० २ २८ संक्षा संज्ञा äyumí ayumi १५ seeral several > 30 amarylled- amaryll. » sccented scented aceæ edeæ २३ सम्सुखवर्ती सम्मुखवर्ती ४८७ २ ३. सर रस E Rnciius Ricinus ४६ १ ४ शोचादि शौचादि २२ वनस्पत्योद्यान वनस्पत्यु, २ २३ किर्ना किसी धान , ३२ प्रकार प्रकार ४६१ २ २७ खोनामाखी सानामाखी २१ औषष औषध ४१२ १ १५ षडपण पडूषण ५८६ १ arbāarbaain arbaar, २६ Phyllantl Phvllan baāin hus thus ५६६ , २७ औसतत् औसतन् ४६६ २ २२ प्रत्येक प्रत्येक प्रतिशन् प्रतिशत चण Wild Willd. ४१८ २१ वरतु वस्तु हाहडो हाइड्रो ५०६ २ प्रमाव प्रभाव कचनोल कचनार रागी तबशीर तशीर ५११ १ १६ कार्बनास का नास अक अक २० अवयव वयव " , २२ हाते होते ५१३ २ २६ लगमग लगभग ता होता ५१७ २ १३ रख रखें ५२१ १ १६ स्त्री० स्त्री० " २ २ करकारी कण्टकारी प्रदार्थ पदार्थ ५२२ १ २५ अब इन्द्रय इन्द्रिय ५२५ २५ रक २२ अर्ण जजमलः अर्णव जमल: " " ३३ अञ्चनहारी अञ्जनहारी ६७४ २ १२७ २ ३१ पञ्जाज। पजाब |६७८ , ३८ तथ तथा ५२: २५ अम्राजा अम्राज़ ६८३ २३ arbnda arbud ५३१ २ ४ ताकालिक तात्कालिक Farmú uniyá armu५३२ २ ३४ अन्न ज़ अम्राज़ niya " " ३५ अम्बाड़ा अम्बाड़ा po she Sum The sun ५३४ २ १ amlka amlaká वाल बाल ५३५ २ २६ शुकला शुकला . २२ araqq arraqa ५४२ २ १४ ओर और aruza arruza ५४६ १ ३२ स्वाद्वाम्ल स्वादुम्ल uaza urza यौकिक यौगिक : उक्त अंब ८८५ २० For Private and Personal Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७६ ७७० पृष्ठ कॉलम पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ कॉलम वनि अशुद्ध शुद्ध ६८५ २ १६ ऊर्द्धरता ऊद्ध रेता कपड़े से ढंकदें। इससे . , २४ तुन्तुओं तन्तुओ | सुखपूर्वक पसीने निक,, ३० वास्तविक वास्तविकता लेंगे। इसको 'अश्मघन , तेखो देखो। स्वेद'या कीं स्वेद कहते Spirits spirits हैं। च० सू०.१४। से से से ७६३ १ २५ अभाव प्रभाव Onacardium Anacardium १ १५ अगाह्य अग्राह्म माग भाग २ १७ पिकाएँ पकाएँ २४ लोह को लोह की। ७७६ १ १४ दोता होता गाढ़ गाड़ पर ७०० Alargo A large " ३२ ओर और ३१ alikh alikah २८ दोबार दाबारा ७१५ २ अइप पशुक अल्पशुक १ १२ प्रचोन प्राचीन ७१८ २ २३ अल्लाह १ १ अष्टपादिका अष्टपादिका अगलालग अगलागल ७६५ २ २६ फस्म भस्म ७३१ २ २ उता उतार २ ३६ धूस धूसर ७३४ १ ३२ कोरल क्लोरल २ १ अस्कङ्कर अस्कङ्कर ७३७ १ १ नाड्याव सादक नाड्यवसादक ५ तअजज तअजम ७४०, १८ avachinh avachinah १५ अवस्थ्यावरक अस्थ्यावरक ७१४ २ १६ nssolubility lnsolub indiucum indicum ility १ ३५ फ़ इलिय्यल फाइलिय्यह ७५० १ १० रक्तभायुक्त रक्ताभायुक्त । , २ २६ सय सडाँध , ,, ३८ asha maasham ,, ३७ प्रमाव प्रभाव , २ ६ ashitambhl- ashitam ८२५ २ ११ शबर शंचर avah bhavah ८३० २ १२ Phyllant. Phyllan. ७५६ २ २७ अश्मन स्वेद अश्मघन स्वेदः husc thus oshmaghanasvedah गी प्रमाण एक सूचना-पृष्ठ २५ से १२७ तक की हस्तलिपि स्थूल शिला का वातनाशक साफन साफ़ न रहने के कारण उसमें कुछ अधिक अशुलकड़ियों के अंगार से तप्त द्धिया रह गई ह! आग भा जा खास खास कर उष्ण जलसे धो डाले, अशुद्धियाँ थीं उन्हें ही यहाँ दिया गया है। शेष पुनः उस पर कम्बल वा दृष्टि दोष से रहे हुए तथा संशोधन संबंधी एवं रेशमी वस्त्र बिछा कर प्राकाशकीय सामान्य भूलों के लिए हम पाठकों वातनाशक तैलों द्वारा के क्षमा प्रार्थी हैं। दो तीन स्थलों पर क्रम में अभ्यङ्ग किए हुए रोगीको | भी कुछ ब्यतिक्रम हो गया है। प्राशा है उदार सुखपूर्वक सुला कर रुरु | पाठकगण उसे सुधार कर पढ़ेंगे। मृगके चर्म या रेशमी -प्रकाशक: For Private and Personal Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org • अयुर्वेदीयानुसंधान ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प सर्प - विष विज्ञान (ले० बाबू दलजीतसिंहजी वैद्य ) रचयिता आयुर्वेदीय-कोष Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक के सम्बन्ध में काफी सूचनाएँ निकल चुकी हैं । श्रस्तु अधिक लिखना व्यर्थ है । पुस्तक क्या है ? आज तककी प्रकाशित श्रप्रकाशित आयुर्वेदीय, युनानी, तथा डाक्टरीकी प्रायः सभी श्रावश्यक पुस्तको का निचोड़ । अस्तु इस पुस्तक के लिए 'गागर में सागर भर देने' की उक्ति ठीक ठीक चरितार्थ होती है। यही नहीं, अपितु इसका प्रत्येक स्थल निज अनुभव से श्रोतप्रोत है। बीसों वर्ष की सर्प-दष्ट चिकित्सा एव तद्विषयक अनु शीलन व अनुसंधान के पश्चात् जो जो मुझे सत्य एवम् परीक्षा सिद्ध मालूम हुए उन्हीं को इस पुस्तक में स्थान दिया गया। इसमें सर्प भेद, सर्प विष सर्पदष्ट निदान व चिकित्सा, साध्यासाध्यता, प्रारम्भिक चिकित्सा, आयुर्वेदीय, यूनानी तथा डाक्टरी एवम् स्वानुभूत चिकित्सा श्रादि प्रायः सभी श्रावश्यक ज्ञातव्य विषयों पर शास्त्रीय, प्रामाणिक एवम् वैज्ञानिक ढंग से काफ़ी प्रकाश डाला गया है । अंत में विच्छू एवम् ततैया डंक की स्वानुभूत चिकित्सा एवं लघुकोष देकर पुस्तक को समाप्त किया गया है । इसमें पेटेण्ट औषधका भी खूब ही भंडा फोड़ किया गया है। पुस्तक सर्व साधारण एवं वैद्यों के दैनिक उपयोग की चीज़ है । इसके द्वारा वे अपने एवं औरों के प्राण की रक्षा कर खूब ख्याति प्राप्ति कर सकते हैं, साथ ही यश के भागी भी हो सकते हैं । इसी बात को ध्यान में रख एवं कई मित्रों के अनुरोध से इसका मूल्य भी 11 ) के स्थान में १) कर दिया गया, जो इस पुस्तक की उपादेयता को ध्यान में रखते हुए अत्यल्प है । एक बार अवश्य मंगा कर परीक्षा कीजिये । यदि पसंद न हो तो एक सप्ताह पश्चात् लौटा देने पर डाक व्यय काट कर शेष मूल्य वापिस कर दिया जाएगा । देखिए इसके संबंध में वैद्यों के आचार्य एवं प्रमुख पत्रिकाएँ क्या सम्मति देती हैं: महामहोपाध्याय श्री कविराज गणनाथसेन शर्मा सरस्वति विद्यासागर एम० ए० एल० एम० एस० "I have gone though your bookand found it an elementary treatise of excellent value" कविराज प्रतापनारायण सिंह, रसायनाचार्य श्रायुर्वेदिक कालेज हिन्दू युनिवर्सिटी - "मैंने श्री दलजीतसिंह जी लिखित "सर्पविष विज्ञान" पुस्तक पढ़ी। यह पुस्तक "सर्प विष" पर की जाने वाली सब देशी विदेशी चिकित्सा का खासा संग्रह है। इसको पढ़कर पाठक सर्पविष चिकित्सा का अभिज्ञ हो सकता है और विज्ञ हो तो चिकित्सा भी कर सकता है । विद्वान लेखक ने संग्रह करने में बहुत परिश्रम किया है । आशा है इस उपयोगी पुस्तक का विज्ञजनता लाभ उठा कर लेखक का उत्साहवर्द्धन करेगी" 1 कृष्णप्रसाद त्रिवेदी बी० ए० श्रायुर्वेदाचार्य - पुस्तक वास्तविक में परिश्रमपूर्वक खोज के साथ लिखी गई एवम् . बड़ी महत्व की है। हिन्दी में सर्प सम्बन्धी जो १-२ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं उनमें यह श्रेष्ठ है । श्री रामनारायण मिश्र हेडमास्टर हिंदू स्कूल बनारस - मैंने सर्प विष विज्ञान पढ़ी। यह पुस्तक हर एक घर में होनी चाहिए। बॉलवर लोगों के लिए यह बहुत उपयोगी है। नोट - और भी बहुसंख्यक सम्मतिय एवम् पत्र पत्रकाओं की समालोचनाएँ मौजूद हैं। विस्तार भय से उन्हें यहाँ नहीं दिया गया ! पुस्तक मिलने का पता मैनेजर - श्री हरिहर औषधालय, For Private and Personal Use Only बरालोकपुर इटावा, यू० पी० । Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jinshasan 045696 gyanmandir@kcb For Private and Personal Use Only