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अजनम्
अञ्जनम्
शारीरोष्मा-स्वस्थ दशा में अजन की थोड़ी मात्रा से शारीरिक ताप पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता | किन्त, ज्वरावस्था में उपयोग करने अथवा बड़ी मात्रा में देने से शारीरिक ताप कम होजाता है। जिसका कारण अधिकतर तो (१) हृदय का निर्बल होजाना तथा शोणित के दबाव (रक भार ) का कम होजाना है, (२) स्वेद स्राव और (३) तापोत्पादन (थमोजेनेसिस) अर्थात् मास्तिष्कीय तापोत्पादक केन्द्र पर इस का किसी भाँति निर्बल ताजनक प्रमाव पड़ता है, जिससे शरीरोप्मोत्पत्ति न्यून होजाती है । ___ यकृत्-टार्टार एमेटिक तथा विशेषकर ऐण्टिमोनियम सल्फ्युरेटम् प्रत्यक्षतया पित्तस्राव की वृद्धि करते हैं। अस्तु, ये पित्तनिःसारक (कोलेगॅॉग) हैं। ये यूरिया तथा कजलि काम्ल (कार्बोलिक एसिड ) की पैदायश की वृद्धि करते और यकृत् को ग्लाईकोजिनिक (शर्कराजनन) क्रिया को निर्बल करते हैं । यदि इसका अधिक समय तक उपयोग किया जाय तो मल्ल तथा स्फुर के समान ये यकृत की क्रिया को खराब करते और इसमें फैटीडीजेनरेशन ( यकृत का वसा में परिणत होजाना) उत्पन्न करते हैं ।
त्वचा-त्वचा पर अंजन का सशक्क स्वेदजनक प्रभाव पड़ता है, जिसका प्रधान कारण रक्रभ्रमण का शिथिल होजाना हैं । किसी भाँति रवेदजनक ग्रन्थ्यिों पर इसका दूरस्थ स्थानीय प्रभाव पड़ना भी हेतु होता है। यदि मंदूक की त्वचा पर अंजन को लगाया जाए तो यह उसे मल्ल की भाँति सरेश जैसा मदु कर देता है जिसे सरलतापूर्वक खुरचा जासकता है। वृक्क- टार्टारएमेटिक गुर्दो में से गुजरते समय सूचम मूत्रजनक प्रभाव करता है, जिसका बहुत कुछ आधार त्वचाकी क्रिया पर होता है। अस्तु, यदि अत्यधिक स्वेदस्राव हो तो मूत्र कम आता है और यदि स्वेदस्राव कम हो तो मूत्रनाव अधिक होता है।
घात संस्थान-मस्तिम्क तथा विशेषतः सुषुम्ना कांड पर अंजन का अत्यन्त निर्बलकारी प्रभाव पड़ता है । यही कारण है कि इसके उप- |
योग के पश्चात् तबीयत सुस्त हो जाती है और ऊँघ सी प्रतीत होती है तथा काम करने को जी नहीं चलता । प्राणियों पर परीक्षा करने से ज्ञात हुआ है कि अंजन के प्रभाव से परावर्तित क्रिया नष्ट हो जाती है और सौषुम्नीय चेतनास्थल शिथिल एवं निर्बल हो जाता है। __ मांस संस्थान-ऐच्छिक तथा अनैच्छिक दोनों प्रकार की विशेषकर ऐच्छिक मांस पेशियाँ निर्बल एवं शिथिल हो जाती हैं। विशेषतः उस अवस्था में जब कि इसे वामक मात्रा में उपयोग किया जाए । अस्तु, अंजन मांसाक्षेपनिवारक ( मस्क्युलर ऐरिटस्पैज़्मोडिक ) है ।
मेटाबोलिजम (अपवर्तन )-शारीरिक परिवर्तन पर अंजन का प्रभाव बिलकुल मल्ल तथा स्फुर के सदृश ही होता है ( अस्तु, उक्क वर्णनों का अवलोकन करें)। अति न्यून मात्रामें देने से यह सूक्ष्म परिवर्तक प्रभाव करता है। किन्तु, यदि इसको अधिक समय तक व्यवहार में लाया जाए तो यह धातु या तन्तुओं (टिश्यूज़ ) के साथ कुछ मास तक मज़बूती से चिपटा रहता है। जिससे प्राभ्यन्तरिक अवयवों विशेषतः यकृत् में फ़ैटीडीजेनरेशन (धातु की वसा में परिणति ) हो जाता है।
डॉक्टर रिंगर महोदयके कथनानुसार अंजन जीवनमूलीय विष है तथा यह मल्ल, सींगिया और हाइड्रोस्यानिक एसिड के सदृश नत्रजनीय ( नाइट्रोजीनस) धातु या तन्तुओं की क्रिया या व्यौपार को निर्बल करता है।
विसर्जन-अंजन के लवण मूत्र, पित्त, स्वेद वायु प्रणालीस्थ श्लेष्मा, दुग्ध, तथा विशेषकर मल द्वारा शरीर से विसर्जित होते हैं। इनका कुछ भाग शरीर में अवशेष रह जाता है।
हृदय-औषधीय मात्रा में प्रयुक्त मात्रा के अनुसार इसके प्रभाव में भेद उपस्थित होता है।
ग्रेन की मात्रामें इसके हृदय पर प्रत्यक्ष प्रभाव ' पड़ने के कारण यह नाड़ी की गति को कुछ धीमा कर देता एवं स्वेदक प्रभाव करता है,जिससे खुलकर स्वेदस्राव होता है। इसका यह प्रभाव सम्भवतः क्युटेनियस मसलज़ (स्वगीय मांस तन्तु) के प्रसार
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