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अरण्यवाताद
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अरण्यवाताद
उसके बीज चिकने और प्राकार में इससे दुगुने बड़े होते हैं।
सूक्ष्म रचना-वीज वाह्य त्वक् तथा अलब्युमेन को सूक्ष्मदर्शक द्वारा परीक्षा करने पर ये चावलमूगरा वीजवत् पाए जाते हैं।
रासायनिक संगठन-बीज में लगभग ४४% स्थिर तैल होता है, जो गंध या स्वाद में चालमूगरा तैल के समान होता है। तेल में चालमृग्रिकाम्ल तथा हिड्नोकार्पिकाम्ल और | किंचिन् मात्रा में पामिटिक एसिड होता है। उपर्युक दोनों अम्ल स्फटिकीय होते हैं। प्रयोगांश--बीज तथा तेल ।
इन्द्रियव्यापारिक कार्य--परिवर्तक, बल्य, स्थानिक उत्तेजक ( मो० श० ), पराश्रयी कीटप्न, बीज शोधक है।
औषध निर्माण--औषधीय उपयोग और इनकी प्रतिनिधि स्वरूप युरूपीय द्रव्य-चालमूगराके बीज और तैल ।
मात्रा--तैल--१५ बुद से २ ड्राम पर्यन्त ( १-२ फ्लइड ड्राम ) अथवा प्रामाशयपूर्ति पर्यन्त । बोज-क्रमशः इन्हें १५ ग्रेन (७॥ रत्ती) से २ ड्राम तक बढ़ाएँ । अन्तः रूप से बीज को चबाकर केवल रस को निगले; पर सम्पूर्ण वस्तु को नहीं। बीज की अपेक्षा तैल अधिक लाभदायक, संतोषजनक तथा उत्तम है । तैल चालमूगरा तैल की उत्तम प्रतिनिधि है। पूर्ण लाभ हेतु इसका पूर्ण औषधीय मात्रा में उपयोग करना चाहिए।
नोट--गोंकि यह बहुत स्वल्प मूल्य की वस्तु है, अस्तु अकेले ही बिना किसी अन्य तैलके | सम्मेलन के इसका वहिरप्रयोग करना चाहिए। __ उपयोग--खजू (तरखुजली) तथा विस्फोटक आदि स्वरोगों में इसके बराबर कानन एरण्ड तैल ( Jatropha curcas oil) fafara कर उसमें गंधक २ भाग, कपूर श्राधा माग, तथा नीबू का रस १० भाग योजित कर इसका अभ्यंग करते हैं । प्रलेप वा इमलशन रूप में इसका वाह्य उपयोग होता है।
शिरोदग्ध ब्रण में इस का तेल तथा चूने को पानी समान भाग में प्रलेप रूप से उपयोग में पाते हैं । (डाइमांक)
यह ग्रामवात विषयक वेदना को शमन करता है और इसे त्वरोगों में बर्तते हैं। भस्मों (क्षारीय) के साथ मिलाकर इसे विद्रधि, चक्षुक्षत तथा अन्य क्षतों पर लगाते हैं । र्हाडी
ट्रावनकोर में श्राधे चाय के चम्मच भर की मात्रा में इसे कुष्ठ रोगों में देते हैं, और एरण्ड की गिरी तथा छिल के के साथ कुचल कर खुजली में इसे औषष रूप से उपयोग में लाते हैं।
(डायमांक) यद्यपि १५ बुद से २ ड्राम की मात्रा में कुष्ठ, विभिन्न प्रकार के स्वरोग, उपदंश की द्वितीय कक्षा और पुरातन प्रामवात में इसका अन्तः प्रयोग होता है; तथापि इसके उपयोग में अत्यंत सावधानीकी श्रावश्यकता होतीहै। कहा जाता है कि यह प्रामाशय तथा प्रान्त्र क्षोभक है क्योंकि कतिपय दशाओं में इसके उपयोग से वमन व रेचन श्राने लगते हैं । (वैट)
इसका तैल कुष्ठ के लिए न्यारा तथा चालमूगरा से श्रेष्ठतर अनुमोन किया जाता है । इसकी मात्रा ५ बुन्द से क्रमशः बढ़ाकर ३० बु'द पर्यन्त है। कुष्ठ में मांसांतरीय वा शिरान्तः अन्तःक्षेप द्वारा भी इसे प्रयुक्र करते हैं। ईथिलेस्टर्स के मांसांतरीय वा इसके लवण ( चलिमूनिक तथा हाइड नोकार्पिकाम्ल ) के शिरान्तरीय अन्तःक्षेपों के सर्वोत्तम परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। इससे लेप्रा वेसिलाई ( कुष्ट के जीवाणु) और ग्रंथिकों ( Nodules) का अन्त हो जाता है।
(चक्रवर्ती) डॉक्टर एम०सी०कोमन देशी औषध विषयक मेदरास समाचारमें जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुधा है। एक पुरातन कुष्ठ रोगी का उल्लेख करते हैं, कि उसे उक्र तैल के अन्तः (मुख द्वारा ) एवं स्वस्थ ( अन्तःक्षेप ) प्रयोग से ( रोग की विभिन्न अवस्थाओं वा भेदोंस्पर्शाज्ञता, मिश्र, ग्रंथि युक्र तथा ततज इत्यादि
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