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अरण्यमुद्गः
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अरण्यवाताद
माछि-ब' । गैड फ़्लाई (Gad fly )-इं० ।
श. र० । अरण्य मुद्गः aranya-mudgah-सं०
वनमुद्ग, बन, ग, मुद्गपर्णी । घोड़ा मुग-ब० । ( Phaseolus Trilobus, Ait. ) iro नि० व० १६ । देखो--मकुष्ठकः । अरण्यमुद्गा aranya-mulga सं० स्त्रो.
मुद्गपर्णी,बनमूग-हिं० । मुगानि-बं० । (Pha.
seolus Trilobus .dit.)रा. नि० व ३ । अरण्य मेथो aranya-methi-सं० स्त्री० वन
मेथिका, बनमेथा, जंगली मेथी । बन मेति-बं० राणमेथि-मह० । (See- Vanamethi)
वै० निघ। अरराय रजनी a.lanya ra.jani-सं० स्त्री०
वनहरिदा, जंगली हलदी । बन हलुद-बं । राण हलद-मह. | (Cureuma Aroma.
tica.) वै० निघ० । अरण्यलक्ष्मो aranya.lakshmi-सं० स्त्री०
वन लक्ष्मी, रम्भा फल, अरण्य कदली, जंगली केला । Wild Plantain ( Musa
Paradisiaca ). अरण्य वाताद aranya-Vatad.-सं० पु.
(१) बीज-जंगली बादाम-हिं०, द० । fesatarda arfeqar (Hydnocarpus
Wightiana, Blume. ), हिं० श्राइनेविधंस ( H. inebrians, Wall.)-ले० । जंगल श्रामण्ड ( Jungle Almond ) -इं० । नीरडि मुत्तु , एट्टी-ता० । नीरडि-वित्त लु -ते. । कडु-कवथ, कौटी-मह० । तमन, मरवेत्ति -मल० । रट केकुन, मकूलू-सिं० । कोष्टो-गोग कौटी -बम्ब० । तैल-जंगली बादाम का तेल -द०। नीरडि -मुत्त -एण्णेय-ता० । नीरडिवित्त लु-नूने--ते।
कुष्ठवैरी वा चॉल मूगरा वर्ग
(N. 0. Birineoe.) उत्पत्ति-स्थान-पश्चिम प्रायद्वीप, दक्षिण कोंकणसे ट्रावनकोर पर्यन्त, मालाबार और दक्षिण भारत के कुछ अन्य भाग ।
इतिहास--उक वृक्ष के इतिहास के विषय में जो कुछ हमें ज्ञात है, वह यह है कि पश्चिम समुद्र तट पर यह कतिपय हीले स्वररोगों में गृह औषध रूप से चिरकाल से उपयोग में आ रहा है। तथा निर्धन जाति के लोग जलाने तथा औष. धीय उपयोग हेतु इसका तैल निकालते हैं। (डाइमांक)
वानस्पतिक-विवरण-इसका फल गोलाकार सेब के प्राकार का होता है। जिसके ऊपर एक खुरदरा मोटा धूसर रंग का छिलका होता है, जो बाहर की ओर कॉर्कवत् और भीतर से काष्टीय होता है, जिस पर बृहदाबुद जटित होते हैं; पर किसी किसी वृक्ष में अधुदशून्य फल भी होते हैं। इसके भीतर १० से २० अधिक कोणाकार बीज जो करीब करीब १ ई० लम्बे, इं० चौड़े और ३ से ४ इं. मोटे, सामान्यतः विषम अंडाकार कभी कभी अंडाकार या श्रायताकार होते हैं और जिनके ऊपर का सिरा नीचे की अपेक्षा अधिक नोकीला होता है।
बीज अल्प श्वेतमज्जा में रखे रहते और श्याम पतले वाह्यत्वक् से मजबूती के साथ चिपके रहते हैं । मजा को खुरच कर पृथक् करने पर बीजबहिः त्वक् का वाह्य पृष्ठ खुरदरा और लम्बाई की रुख छिछली नलिकाकार धारियों से युक्त दीख पड़ता है । उभार स्पष्ट व्यक्त नहीं होते छिलके के भीतर भरपूर तैलीय अल्युमेन हाता है, जिसमें चालमृगरा के समान दो वृहद्, स्पष्ट हृदाकार तीन नसों से युक्त पत्रीय दौल होते हैं। ताजी अवस्था में अल्ब्युमेन का वर्ण श्वेत, किन्तु शुष्क होने पर गम्भीर धूसर वर्ण का हो जाता है। इसकी गंध चालमूगरा के समान होती है। मोहीदीन शरीफ के मतानुसार यह गन्धरहित तथा कुछ कुछ वातादवत्, निर्बल मधुर स्वादयुक्त होता है। पारस्परिक दबाव के कारण प्रायः ये विषम हो जाते हैं। इसके बीज चालमूगरा के समान होते हैं। परन्तु ये आकार में छोटे तथा खुरदरे होते हैं जिनकी लम्बाई की रुख धारियाँ होती हैं। चावलमूगरा में यह बात नहीं होती।
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