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अपस्मार
या "सच दृष्टश्चतुर्विधः" वातपित्तकफैनांचतुर्थः सन्निपाततः । ( सु० ) अर्थात् - (१) वातज, (२) पित्तज, ( ३ ) कफज और ( ४ ) सन्निपातज (यह रोग नैमित्तिक है)
डाक्टरी मत से यह दो प्रकार का होता है(१) मैण्डमाल ( Grand Mal ) या हॉट माल ( Haut Mal ) श्रर्थात् उग्र अपस्मार
रशीद र ( २ ) पेटिट माल ( Petit Mal ) अर्थात् साधारण अपस्मार या सुरक्ष ख़फ़ीक़ | परंतु इस रोगका इससे भी एक साधारण प्रकार वह है जिसको अंगरेज़ी में एपिलेप्टिक वर्टिगो ( Epileptic Vertigo अर्थात् : आपस्मारिक शिरोघूर्णन या दुबार सुरई कहते हैं । इससे भिन्न अपस्मार की एक और अवस्था है जिसको गरेज़ी में स्टेटस एपिलेप्टिकस ( Status Epilepticus ) अर्थात् आपस्मारिकावस्था या सुरश्च मुत्वातिर कहते हैं । इसके अतिरिक्त बच्चों के अपरमारको बाल अपस्मार: वा शिश्वपस्मार तथा अंगरेज़ी में इन्फेण्टाइल कन्वलशन ( Infantile convulsion ) और अरबी में सुड़ल अतफ़ाल या उम्मुसि. सि. - ब्यान आदि नामों से पुकारते हैं ।
नोट- यूनानी भेदों के लिए देखिए सुरा ।। पूर्व रूप
जो किसी किसी समय रोगाक्रमण काल के बहुत समीप उपस्थित होता है; यहाँ तक कि रोगी अपने आपको सँभाल नहीं सकता और कभी उससे एक वा दो दिवस पूर्व उपस्थित होता है । पूर्वरूप में से यह एक प्रधान लक्षण है कि रोगी को अपने शरीर के किसी मुख्य भाग साधारणतः हस्तपाद की अंगुलियों या पेट पर से सुरसुराहट मालूम होती हैं, जो वहाँ से प्रारंभ होकर ऊपर को जाती हुई शिर तक पहुँचते ही रोगी को मूर्च्छित कर देती है और रोग का दौरा हो जाता है। उक्त प्रकार की सुरसुराहट को डॉक्टरी की परिभाषा में श्र एपिलेप्टिका (Aura Epileptica) अर्थात्
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अपस्मार
नसीम सुर ( मृगी की सुरसुराहट ) कहते हैं । इसके अतिरिक्त रोगाक्रमण से पूर्व शिरोशूल एवं शिरोघून होता है अथवा नासिका से एक प्रकार की गंध आने लगती है और आँखों के सामने चिनगारियाँ सी उड़ती प्रतीत होती हैं । कभी दौरे से पूर्व भयावह रूप दिखाई देते और कर्णनाद होता है, बुद्धि भ्रंश एवं किञ्चिन् निर्बलता होती, कभी ज्वरका वेग होता और कभी श्राक्षेप होकर शिर किञ्चित् एक कंधे की ओर झुक जाता है, जो एक : प्रधान लक्षण है । कभी कभी कोई रूप प्रगट नहीं होता । श्रायुर्वेद में भी प्रायः यही बातें लिखी हैं, यथा
हृत्कम्पः शुन्यता स्वेदो ध्यानं मूर्छा प्रमूढ़ता | निद्रानाशश्च तस्मिंश्च भविष्यति भवत्यथ ॥ A मा० नि० ।
श्रर्थात् - [-- हृदय कां काँपना, हृदयकी शून्यता, स्वेदस्राव, विस्मित सा रहजाना, मूर्च्छा ( मनोमोह ), प्रत्यन्त श्रचेतता और अंनिंद्रा आदि लक्षण अपस्मार रोग होने से पूर्व होते हैं।
रोगाक्रमणकालीन सामान्य लक्षण
जब इस रोग का आक्रमण होता है तब रोगी साधारणतः एक चीख़ मारकर और मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता और तड़पने लगता है । हस्तपाद श्राकुचित होकर मुखमण्डल भयाar और नीलवर्ण का हो जाता नेत्रपिण्ड ऊपर को फिर जाते एवं निश्चेष्ट हो जाते हैं । परन्तु, कभी कभी उनमें गति भी होती है, हृदय धड़कता है, श्वास कष्ट से श्राता और मुँह से भाग आता है । कभी जिह्वा दाँतोके भीतर आकर कट जाती है। मूच्छ्रितावस्था में ही मल व मूत्र का प्रवर्त्तन और शुक्र का स्खलन हो जाता है । फिर एक ओर से हस्तपाद में एक झटका सा लगकर आक्षेप प्रशमित हो जाता है तथा रोगी एक सर्द श्राह भरकर कुछ काल तक मूर्च्छित पड़ा रहता है । तदनन्तर ज्ञान होने पर उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती । श्रपितु, क्रान्ति, शिरोशूल, शिरोभ्रमण, अजीण स्थानिक आक्षेप या पक्षाघात तथा बुद्धिभ्रंश आदि विकार शेष रह
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