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अपस्मार
अपस्मार
जाते हैं । उन्मत्त के समान कमी कभी रोगीको क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । रोगाक्रमण काल ३ मिनट से १० मिनट पर्यन्त और कभी प्राध घंटा तक होता है।
इस रोग के वेगकी न्यूनाधिकता विभिन्न व्यकि .. में एवं एक ही व्यक्तिको भिन्न भिन्न काल में विभिन्न
होती है । यथापक्षाद्वाद्वादशाहाद्वा मासाद्वा कुपिता मलाः । अपस्मारायकुर्वति वेगं किञ्चिदथान्तरम् ॥ देवे वर्षत्यपियथा भूमौ वीजानि कानिचित् । शरदि प्रतिरोहन्ति यथा व्याधि समुछ यः॥
मा० नि०। - अर्थ-वात प्रादि दोषों के प्रकृपित होने से , वातज का दौरा बारहवें दिन, पित्तज का पन्द्रहवें दिन और कफज का तीसवें दिन होता है । कभी कभी उपयुक्र अवधि को छोड़कर न्यूनाधिक दिनों में भी होता है। उदाहरणार्थ-जैसे चौमासे में मेघ के बरसने पर भी भूमि में पड़े हुए गेहूं चने आदि बीज शरदऋतु में उगते हैं। उसी प्रकार सम्पूर्ण रोगोंके बीज रूप वात प्रादिक दोष कभी किसी मृगी आदि रोग विशेष के निदान आदि
के संयोग होने से उस रोग को प्रकट करते हैं। . अतः एक रोगी को १७ वर्ष पयंत प्रति दिन
रात्रि को एक बार इसका वेग होता रहा और एक अन्य ऐसे रोगी को हर रात्रि को १० बार रोग का वेग होता रहा तथा एक तीसरे को ६१ वर्ष की अवस्था में केवल ७ बार वेग हुश्रा । . पेटिट माल अर्थात् सामान्य प्रकार की मृगी अन्य नौबती रोगों के सदृश कभी नियत कोल पर सप्ताह में एक बार या मास में एक बार होती है। कभी मृगी का वेग स्वप्नावस्था में हो जातो है जिससे रोगी अथवा किसी अन्य व्यक्ति को उसकी सूचना तक भी नहीं होती। स्टेटस एपिलेप्टिका मगी रोग की वह अवस्था है जिसमें सण क्षण में बेग होते हैं। एक वेग का अंत भी नहीं होने पाता कि दूसरे वेग का प्रारम्भ हो जाता है। यह दशा अत्यंत शोचनीय होती है। एपिलेप्टिक वर्टिगो ( श्रापस्मारिक शिरोघूर्णन)।
अर्थात् मृगी के कारण शिरोभ्रमण-इसमें रोगी को क्षण भर के लिए चक्कर पाकर किञ्चिन् मूळ श्रा जाती है। किसी किसी रोगी को इसका वेग इतना अल्प होता है कि समीपस्थ तथा ध्यान देने वाले व्यकियों को उसका पता नहीं लगता। और किसी किसी में अल्पसी विसंज्ञता होकर मुखमण्डल एवं ग्रीवा का तशज (आक्षेप) उपस्थित हो जाता है, नेत्रकनीनिका प्रसरित हो जाती है और एक गम्भीर श्वास लेकर रोगी होश में प्राकर काम में लग जाता है।
दोषानुसार अपस्मार के लक्षण . वातापस्मार-वात के अपस्मार में रोगी 'काँपता, दाँत पीसता व चबाता, फेन का वमन करता अर्थात् मुख से झाग डालता, खर श्वास लेता और कोर (रूक्ष), धूसर व लाल, काले रंग के मनुष्यों को देखता है अर्थात् उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई उक वर्ण वाला मनुष्य उसके ऊपर दौड़ा आता है। मा०नि० । वातज अपस्मार में रोगी का पाँव काँपने लगता है, बार बार गिरता पड़ता है तथा ज्ञान के नष्ट हो जाने से वह विकृत स्वर से रुदन करने लगता, आँखें गोल सी हो जाती, श्वास लेता, मुख से झाग डालता, काँपने लगता, शिर को घुमाता, दाँतों को चबाता, कन्धों को ऊंचे करता और अंग को चारों ओर फेंकता है। देह में विषमता हो जाती
और सम्पूर्ण अंगुलियाँ टेड़ी पड़ जाती है। बाखें स्वचा, नख और मुख रूक्ष, श्याव, अरुण वा
काले पड़ जाते हैं। रोगी को चंचल, कर्कश, ' विरूप और विकृतानन सम्पूर्ण वस्तु दिखाई देने लगती है। वा० उ० प्र०७।
पित्तापस्मार-पित्तापस्मारी के मुखके झाग, देह, मुख और आँखें पीली हो जाती हैं। वह समग्र वस्तुओं को पीतलोहित वर्णान्वित देखता है अथवा उसे ऐसा दीखता है मानो कोई पीले रंग का मनुष्य सामनेसे दौड़ा पाता है, यथा"पीतोमामनुधावति"-सुश्रुत, और सृषायुक्त होकर वह सम्पूर्ण जगत् को इस भाति देखता है मानो वह उष्णता एवं अग्नि से व्याप्त हो ।
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