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मृताष्टकः
(२) घृत पिष्टित गुग्गुल १६ प०, काथार्थ गुडूची १०० प०, दशमूल १०० प०, पाठा, मूर्वा, बड़ियाला, श्वेत बड़ियाला-मूल, एरण्डमूल, प्रत्येक १० प०, सास्थि ( गुठली युक्त ) हरीतकी १००, बहेड़ा १००, आमला ४००, पाकार्थ जल ३ द्रोण ( ४८ सेर ) इसमें गुग्गुल को एक पोटली में
दोलायंत्र की विधि से पकाएँ । जब ४८ शराव शेष रहे तब इसी क्वाथ में त्रिफला, निसोथमूल, त्रिकुटा, दंतीमूल, गिलोय, असगन्ध, वायबिडङ्ग, तेजपत्र, दारचीनी, छोटी इलायची, नागकेशर, गुड प्रत्येक १-१ प० का चूर्ण मिला स्निग्ध पात्र में रक्खें । मात्रा - मा० । इसे उष्ण जल से सेवन करना चाहिए। रस०र० व्रण शोध चि० । अमृताष्टकः amritáshtakah सं० पु०, क्लो० पित्तज्वर में प्रयुक्त कषाय । गिलोय, इन्द्रजौ, नीम की छाल, पटोलपत्र, कुटकी, सोंठ, चन्दन और मोथा इनके द्वारा निर्मित कषाय को पिप्पली चूर्ण युक्र सेवन करने से पित्त तथा कफ
वर का नाश होता है । चक्र० द० चि० । अमृतासङ्गम् amritasangam-सं०
क्ली० खरिका तुत्थ, खपरिया, खर्पर । तत्पर्याय- कर्प रिका तुल्यं, श्रञ्जन ( है ) । मद० | अमृतासङ्गमः amritásangamah सं॰ पुं० ख तु । तूंते- बं० । तूतिया - हिं० | मोर चूत -म० । वै० निय० ।
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•अमृताह्नम् amritáhvam - सं०क्लो० (१) अमृतफल, नासपाती। (Pyrus communis) मद० व० ६ । ( २ ) खबूजा । मद० व० ६ | अमृताह्वयतैलम् amritáhvaya-tailam-सं० to arrरक में प्रयुक्त तैल । जैसे— गिलोय, मधुक, लघु पञ्चमूल, पुनर्नवा, रास्ना, एरण्डमूल, tattern की औषधें, इन्हें १-१ सौ पल लें, बला ५०० पल, कोल ( बदरी ), बेल, उड़द, जौ, कुलथी १-१ श्रादक ( ४-४ सेर ), छोटा गम्भारीमूल-छाल शुल्क १ द्रोण (१६ सेर ), १०० द्रोण जल में विधिवत पचाएँ । जब ४ द्रोण जल शेष रहे तब इसमें १ द्रोण तिल तैल और
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श्रमृतेश्वररसः
५ द्रोण गो दुग्ध मिलाएँ । पुनः त्रिफला, चंदन, केशर, खस, तेजपात, इलायची, कुष्ठ, अगर, तगर, मुलेडी, मजीठ इन्हें श्रधा श्राधा पल लेकर कल्क बना सविधि तैल पकालें । भा० म० २ भा० वातरो० चि० ।
श्रमृतिः amritih - सं० स्त्री० जलपात्र विशेष । मृतिकरणम् ariti-karanam - सं० क्लो० विधि - अभ्रक के बराबर घी लेकर दोनों को लोहे के पात्र में पकाएँ । जब घी सूख जाए तब उतार कर श्रभ्रक को सब काम में वतें । यो० चि० ।
अमृतेन्द्र रस: amritendra-rasah सं० पु० सिद्ध पारद १ पल, त्रिफला १ पल, शुद्ध गंधक १२ तो०, ताम्र भस्म ४ तो०, लोह भस्म ४ तो०, बच्छनाग ४ तो० सबको मिलाकर गुडूची, काला धतूरा, भाँग, त्रिकुटा, महाराष्ट्री ( मरेठी ), भांगरा, अदरख, ब्राह्मी, हुलहुल, जैत, काली तुलसी, धतूरा, ( दूसरीबार ), भांगर, ( दूसरी बार) और बच्छनाग इनके रस से क्रम से पृथक् पृथक् एक एक दिन भावना दें। पुनः मूँग प्रमाण गोलियाँ बना कर रक्खें ।
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गुणसन्निपात, भयानक ज्वर और मन्दाग्नि में चित्रक और अदरख के साथ दें । यह उचित अनुपानों के साथ देने से रोग मात्र को एवं afa और पति को नष्ट करता है । र० यो० सा० ।
अमृतेशरसः amritesha-rasah - सं० पुं० पारद भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलौह भस्म, बच्छनाग, सोनामाखी और शिलाजीत प्रत्येक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण करें । मात्रा१ रत्ती । गुण- इसके सेवन से वृद्धता दूर होकर श्रायु की वृद्धि होती और शरीर की पुष्टि होती है । इसके ऊपर असगंध-मूल-चूर्ण १ भा०, घी ७ भा०, गुड़ ८ भा० और पीपल १ भा० इन सबको मिलाकर मन्द मन्द अग्नि से पकाकर लड्डू बनाकर खाना उचित है । रस० यो० सा० । अमृतेश्वररसः amriteshvara-rasah-सं० पुं० (१) सोहागा १६ भा०, कालीमिर्च १२ भा०,
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