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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नायी ६५ .. अग्नि अनायो agnayi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्पन्न करती है । लक्षण-समाग्नि वाले का The wife of agni and goddess किया हुआ यथोचित भोजन सम्यग् रूप से पच of fire अग्नि की स्त्री स्वाहा । त्रेतायुग । जाता है। मन्दाग्नि बाले मनुष्य का किया हश्रा अग्नाशयः agnāshayah-सं० अग्न्याशयः थोड़ा सा भी भोजन अच्छे प्रकार नहीं पचता .. ( Pancreas) और विषमाग्नि वाले मनुष्यका किया हुआभोजन अग्नाशयद्रव agnashaya drava-हिं० पु. कभी भली प्रकार पचता और कभी नहीं पचता; अग्नाशय रस (pancreatic juice) तथा जिस मनुष्य को अत्यन्त किया हुआ भोजन अग्नाशय प्रदाह agnashaya-pradāha हिं० भी सुख पूर्वक पच जाए उसको तीक्ष्ण अम्नि कोम ग्रन्थि प्रदाह, अग्न्याशय प्रदाह, अग्नाशय कहते हैं। इन चारों प्रकार की अग्नियों में का शोथ, (Pancreatitis), इल्तिहाब सामाग्नि उत्तम है । मा० नि० अग्नि० मा० बन्कर्यास, वर्म बन्करास-अ० । सोज़िश (२) पाचक, रञ्जक प्रभृति पञ्चपित्त [ देखोलबलबह, लबलबह की सूजन-उ०।। पित्त ] । (३) तेज पदार्थ विशेष, तेजका गोचर अग्नाशय रस agnashaya rasa-हिं० पु. रूप,उष्णता,अाग-हिं० | फायर- (Fire)-६० क्नोम रस । अग्नि रस | Pancreatic नार,यरह, भातश-अ०,फा० । प्रागुनि-बं०। यह juice ) पृथ्वी, जल, वायु, आकाश अादि पंच भूतों वा अग्नाशयिक प्रणालो agnashayika pran- पंच तत्वों में से एक है । इसके संस्कृत पर्याय ali-हिं० स्त्री० (Pancreatic duet) वैश्वानर, वह्नि, वीतिहोत्र, धनञ्जय, कृषीटयोनि, लोम ग्रन् यस्थ प्रणाली । मजीयुल बान्तरास् । ज्वलन, जातवेदस्, तनूनपात, तनूनपा, -अ० । बान्क्ररास या लबलबह की नाली वर्हि, शुष्मा, कृष्णवर्त मा, शोचिष्केशा, -उ० । इस नाली द्वारा अग्नाशय रस उपबुध, श्राश्रयाश, श्राशयाश, वृहद्भानु, द्वादशांगुलांत्र में गिरता है। कृशानु, पावक, अनल, रोहिताश्व, वायुसखा, अग्नाशयक क्षय agnāshayika-kshaya- शिखावान्, शिखी, अाशुशुक्षणि, हिरण्यरेता, हिं० पु. ( Pancreatic phthisis) हुतभुक् , हव्यभुक्, दहन, हव्यवाहन, सप्तार्चि, अग्न्याशय जन्य क्षय रोग । सिल्ल इन्क्ररासी-श्र०। दमुना, शुक्र, चित्रभानु, विभावसु, सुचि, अप्पित्ती लबलबह की सिल-उ० । इस प्रकार का क्षय (अटी) वृषाकपि, जुवान्, कपिल, पिंगल, अग्नाशय के विकृत होकर संकुचित होजाने से अरणि, अगिर, पाचन, विश्वप्सा, छागवाहन, उत्पन्न होता है । इसमें भी रोगी दिन दिन निर्बल कृष्णार्चि, भास्कर, जुवार, उदर्चि, वसु, शुष्म, होता जाता है। हिमराति, तमोनुत्, सुशिख; सप्तजिल, अपपरिक, सर्वदेवमुख (ज)। अग्निः aenih-सं० प. The fire अग्नि agni हिं० संज्ञा स्त्री० । of the अग्निताप के गुण-वात, कफ, स्तब्धता, stomach,digestive faculty.जठराग्नि, शीत तथा कम्प नाशक, आमाशयकर और रक पाचनशक्ति । यह मन्द, तोचण विषम और सम पित्त को कुपित करने वाला है। राज० भा० । भेद से चार प्रकार की होती है। यथा मनुष्य के श्राग्नेय द्रव्य-आग्नेय द्रव्य रूक्ष, तीचण, कफ की अधिकता से मन्दाग्नि, पित्त की अधि- उष्ण, विशद (सूक्ष्म स्रोतोंमें जाने वाले) और कता से तीक्षणाग्नि, वात की अधिकता से बिष. रूप गुण बहुल होते हैं। ये दाह, कान्ति, वर्ण माग्नि तथा तीनों दोषों की समता से समाग्नि और पाक कारक होते हैं । बा० स०अ०६। होती है। बिषमाग्नि वातज रोगों को, तीक्ष्णाग्नि (४) द्रव्यों का तीसरा रूप जिसे वायवीय अर्थात पित्तज रोगों को और मन्दाग्नि कफज रोगों को गेसियस (Gaseous) कहते हैं इसे वाष्पीय For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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