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अशोक
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अशोक
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वक्तव्य
कोष-तन्तुओं पर इसका उत्तेजक प्रभाव होता चरक के चिकित्सा स्थान के ३०वें अध्याय है। गर्भाशय विकार विशेषतः (Uterine एवं सुश्रुत शारीर स्थान के २ य अध्याय में fibroid ) तथा अन्य कारण से उत्पन्न प्रदर की चिकित्सा लिखी है। किन्तु वहाँ अशोक रक्रप्रदर में इसका बहुत प्रयोग होता है । का नामोल्लेख नहीं है। राजनिघण्टु कार को इसकी छाल का दुग्ध में प्रस्तुत काथ भाज भी अशोक का प्रदरनाशक गुण स्वीकृत नहीं है। तक कविराजी चिकित्साकी एक उत्तम औषध है। चरक ने वेदनास्थापन तथा संज्ञास्थापन वर्ग के अर्श तथा प्रवाहिका में भी इसका उपयोग किया अन्तर्गत अशोक का पाठ दिया है (सू०४ प्र०)। जा चुका है। ई० डू० इं०। वेदनास्थापन का अर्थ यन्त्रणानिवारक है
इसमें शुद्ध संग्राही गुण प्रतीत होता है। (देखो-प्रङ्गमई प्रशमन)। टीकाकार चक्र
(डीमक) पाणि लिखते हैं, "वेदनाय सम्भूताय तो निहं. त्य शरीरं प्रकृतौ स्थापयतीति वेदनास्थापनम् ।"
इसके पुष्प को जल में पीसकर रक्रामाश अर्थात् उपस्थित वेदना का निवारण कर शरीर (Hemorrhagic dysentery ) में को जो प्राकृतिक अवस्था में लाए उसको वेदना. वर्तते हैं । (वैट) स्थापन कहते हैं।
इसकी छाल का जल में प्रस्तुत काथ भी जल. कविराजगण रक्रप्रदर में अशोक को वेदना- मिति गंधकाम्त (Dilute Sulphuric स्थापन रूप से नहीं, अपितु रकरोधक कह कर acid ) के साथ व्यवहृत होता है । ई० मे० व्यवहार में लाते हैं। जिन सम्पूर्ण स्थलों में मे०। हठात् रनरोधकी आवश्यकता हो, उन उन स्थलों अभी हाल में ही इसकी छाल के तरल सस्व में प्रमादवश अशोक का व्यवहार कराने से, प्रदर
की रकप्रदर में परीक्षा की गई और यह लाभप्रद रोगी का रतनाव कम होकर वेदना की वृद्धि होते
प्रमाणित हुा । ( Indigenous Drugs हुए बहुशः रोगियों में प्रत्यक्ष देखा गया है ।
Report, madras.) सकल वैद्यक ग्रंथों की मालोचना करने पर ज्ञात
नोट-थोड़े हेरफेर के साथ अशोक के उपहोता है कि प्रदर में सर्व प्रथम अशोक का
युक्र गुणों का ही उसख प्रायः सभी प्राग्य प्रयोग वृन्दकृत सिद्धयोग नामक पुस्तक में
व पाश्चात्य ग्रंथों में हुआ है। हुभा है। अशोकघृत का व्यवहार किस समय से हो रहा है, इसे ठीक बतलाना कठिन है। चक्रदत्त,
वर्तमान अन्वेषक श्रीयुत आर० एन० भावप्रकाश, एवं शाङ्गधर में अशोकघृत का
चोगरा महोदय स्वरचित ग्रंथ में अपने अशोक उल्लख दिखाई नहीं देता । "सारकौमुदी" नामक
सम्बन्धी विचार इस प्रकार प्रकट करते हैं। संग्रह-ग्रंथ एवं वङ्गसेन सङ्कलित चिकित्सासार- पृथक किए हुए जरायु पर अशोक-रवक् द्वारा संग्रह तथा भैषज्यरत्नावली नामक ग्रंथ में अशोक
वियोजित विभिन्न अंशों की परीक्षा की गई। घृत का उल्लेख है। सुश्रतोत्र वातव्याधि में प्रत्यक किन्तु उसका कोई व्यक्त प्रभाव महीं हुआ। कल्याणकलवण के उपादानों के मध्य अशोक रक्रप्रदर एवं अन्य गर्भाशय-विकारों में यद्यपि का उल्लेख देखने में प्राता है। (चि०४०)
बहुशः शय्यागत रोगी-परीक्षक गण इसके लाभनव्यमत
दायक होने की प्रशंसा करते हैं; पर यह औषध आयुर्वेदीय चिकित्सक गण संग्राही एवं गर्भाशया.
प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट करती हुई नहीं प्रतीत होती। वसादक रूप से इसके वृक्ष स्वक् का प्रचुर प्रयोग
इं० डू००। करते हैं। कहा जाता है कि गर्भाशयान्तरिक मांस- अशोकम् ashokam-सं० क्ली० तन्तुओं ( Endometrium) तथा डिम्ब अशोक Ashoka-हिं० संज्ञा पुं.
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