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अशोक
अशोक
होते हैं । पत्रप्रांत अखंडित एवं किञ्चित् तरगायित होता है। पुष्प गुच्छाकार, प्रथम कुछ नारंगी रंग के, फिर क्रमशः रक वर्ण के होते जाते हैं। बसन्तकाल अर्थात् फागुन ( एप्रिल तथा मार्च ) में पुष्पित होते हैं। पुष्पित अशोक वृक्ष प्रति ही नयनानन्ददायक होता है। इसमें चौड़ी फली लगती है जिसमें बड़े बड़े बज होते हैं । वृक्ष स्वक् बाहर से शुभ्र धूसर तथा (Scabrous.) होता है। वृक्ष से सद्यः छेदित पदार्थ श्वेत, किंतु वायु में खुला रहने पर वह शीघ्र रक वर्ण में परिणत हो जाता है। स्वाद-मृदु कषाय और अम्ल ।
(२)एक वृक्ष जिसके पत्र आम की तरह खम्बे, पत्रप्रांत लहरदार होते हैं। इसमें सफेद मंजरी (मौर) बसन्त ऋतु में लगती है जिसके मड़ जाने पर छोटे छोटे गोल फन लगते हैं जो पकने पर लाल होते हैं, पर खाए नहीं जाते। इसके वृक्ष अत्यन्त सुन्दर और हरेभरे होते हैं, इससे इसे बगीचों में खगाते हैं। शुभ अवसरों पर इसके पत्र की बंदनवारें बाँधी जाती है।
रासायनिक संगठन-इसकी छालकी रसायनिक परीक्षा अभी तक यथेष्ट रूप से नहीं हो पाई। एब्बट Abbott (१८८७) के परीक्षा णानुसार इसमें हीमेटॅॉक्रजीलीन ( Hemat- | oxylin) वर्तमान पाया गया । हूपर ( Ph. arm. Indica.) ने इसमें यथेष्ट परिमाण में टैनीन (कषायीन ) की विद्यमानता का वर्णन किया। स्कूल ऑफ टॉपिकल मेडिसिन के रासायनिक विभाग में विभिन्न विलायकों से इसके विचू. र्णित शुष्क त्वक् के सत्व प्रस्तुत किए गए जिसका निष्कर्ष निम्न रहा-पेट्रोलियम ईथर एक्सट्रैक्ट 0.३०७ प्रतिशत, ईथर एक्सट्रैक्ट . २३५ प्रतिशत, और ऐब्सोलूट ऐलकाह लेक एक्सट्रैक्ट १४. २ प्रतिशत ।
ऐलकोहलिक एक्सट्रैक्ट (मद्यसारीय सत्व) में, जो बहुतांश में उपण जल विलेय था, यथेष्ट परिमाण में कषायीन (टैनीन) और सम्भवतः एक सैन्द्रियक पदार्थ, जिसमें लौह विद्यमान था,
पाए गए । ऐलकलाइड (क्षारोद ) और उड़नशील वा सुगंधित तैल ( Essential) के स्वभावका कोई क्रियाशील सत्व नहीं पाया गया । इसकी पूर्ण परीक्षा की जा रही है । (प्रार० एन० चोपरा एम० ए०, एम. डी.- इ० ड़. ई० पृ० ३७७) प्रयोगांश-वंक, बीज । मात्रा--२ तोला ।
औषध-निर्माण तथा मात्रा-अशोक घृत; अशोकारिष्ट, मात्रा-१ से १ तोला; तरल सत्व, मात्रा-१५-६० मिनिम (बूंद)। अशोक के गुणधर्म तथा उपयोग
आयुर्वेदीय मतानुसार--मधुर,हच,सन्धानीय और सुगंधित है । अशोक शीतज है तथा प्रयोग करनेसे यह अर्श, क्रिमी, अपची एवं सम्पूर्ण प्रकार के व्रणों का नाश करता है। (धन्वन्तरीय निघण्टु)
अशोक शीतल,हृध है एवं पित्त, दाह तथा म नाशक है और गुल्म,शूलोदर, श्राध्मान (अफरा ) तथा क्रिमिनाशक एवं रकस्थापक है। (रा.नि. व०१०)। अशोक शीतल, तिक ग्राही, वयं (वर्णकर्ता ) और कषेला है तथा वातादि दोष, अपची, तृषा, दाह, कृमिरोग, शोष, विष और रक्र के विकार को दूर करता है। (भा० पू० १ भा०)
अशोक के वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-अमृग्दर अर्थात् रकप्रदर में अशोक त्वक्--कुट्टित अशोक की छाल २ तो०, गो दुग्ध प्राध पाव, जल १॥ पाव । इसको दुग्धावशेष रहने तक क्वाथ प्रस्तुतकरें और शीतल होनेपर इसका सेवन करें। यथा-"प्रशोक वल्कल क्वाथ शृतं क्षीरं सुशीतलं । यथा वलं पिबेत् प्रातस्तीवा सृग्दर नाशनम् ।" (अमृग्दर-चि०)
(२) मूत्राघात में अशोक बीज-अशोक बीज एक अदद लेकर शीतल जल में पीस कर पान कराएँ । यह मूत्राघात (प्रमावरोध ) और अश्मरीनाशक है। यथा-"जलेन खदिरी वीज मूत्राधातारमरीहरम् ।" ( मूत्राघातचि. ) "खदिरी वीजमशोक वीजमित्याहुः" (शिवदासः)
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