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अञ्जलिनी
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अञ्जलिनी anjalini-सं० स्त्रो० लजालुका,
छुईमुई-हिं० । देखो-लजालु । वै० श० । दी सेन्सिटिव प्लाण्ट (The sensitive
plant)-इं०। अञ्जलिपुटः,-पुटं anjaliputah,-putam
-सं०पू०,क्ली०( The Cavity formed by joining the hands together')
कर सम्पुट । अञ्जलि । अक्षस,-सी anjas,-si-सं० त्रि०, स्त्री० ( Not
_crooked, straight) सरल, सीधा ।। अञ्जस anjas-अ० अशुद्धतर, अत्यन्त अपवित्र
(नजिस ), बहुत पलीदा । म० ज० । अञ्जायना पेक्टोरिस angina pectoris-इं०
हृच्छूल । अचिवम् anjivam-सं० क्लो० प्रकट कामी।
अथः । सू०६।६ । का० । अञ्जिष्ठः, छुः anjishthah,-shthuh-सं०
पु. ( The sun ) सूर्य । अञ्जोरः alljirah-सं० पु०, फा०, हिं०, संज्ञा
पु. बं०, द०, अंजीर का०, म०, गु० । मजुलं (-लः),काकोदुम्बरिकाफलं, अंजीर (वृक्ष) -सं० । अंजीरी, गुलनार, ख़बार, बेरू, बेडू, अजीर । ई० मे० प्लां०, मेमो०। (काक)डुमुर, अजीर, बड़ पेयारा गाछ,आँजीर-बं० । भगवार, काक, कोक, फेड़, इञ्जर, फाग, किम्रि, फगोरू, फागू, फोग, खबारी, फेग्रा, थपुर, जमीर, धूरू, दूधी, दहोलिया, फगूरी, फगारी (मेमो०)-पं० । फगवार-पश्तो०। अंजीर, इज़र-अफगा०। फेम्बी-राज० । धौरा-म० प्र० । पेपरी, अजीर -गु० । फगवार, थपुर-उ० भा० के मैदान। (इं०० प्लां०)। अञ्जीर-बम्ब० । शीमइ-अत्ति, तेन अत्ति ता० । शीम-अत्ति, तेने-अत्ति, अंजूस, मोदी पातू-ते० । शीम-अत्ति-मला० । बैण्डनेडकरना०। शीमे-अति-कना० । रट-अत्ति-का -सिं० । स-फान्-सी, तिम्बो-थान-दि, सिम्बो. सफान-सी-वर्मी । तीन, बल्स-अ०। सीडियम पॉमिनरम् ( Psidium Pomiferum, |
Jinn.)-ले० काला उम्बर-मं । फिगू Figueफ्र० । फाइक्रस केरिका( Ficus carica, Linn.)-ले० । फिग ( Fig) ०।
अश्वत्थ वा वटवर्ग (अर्टिकेशिई) __(N.O. Urticacea) उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवास स्थान फारस वा एशिया माइनर है । अब यह भारतवर्ष में भी बहुत होता है । अरबिस्तान, अफगानिस्तान तुर्किस्तान और अफरीका तथा बिलोचिस्तान और काश्मीर इसके मुख्य स्थान हैं।
वानस्पतिक विवरण-अंजीर गूलर की ही जाति का एक वृक्ष है। इसमें स्थूल, गूदादार, खोखला, नासपाती की शकल का एक श्रावरण (receptacle ) होता है जिसकी भीतरी रुख पर सूक्ष्म फल समूह उत्पन्न होता है उक्त प्रावरण के सिरे पर एक छिन होता है। वह प्रथम ( अपरिपक्कावस्था में ) हरा, कठोर और चर्म सदृश होता है। कोई अस्त्र चुभामे पर उसमें से दुग्ध स्राव होता है। परिपक्कावस्था में वह मदु एवं रसपूर्ण हो जाता तथा दुग्धीय रस शर्करा रस में परिणत हो जाता है । छिद्र घिरा हुआ एवं अनेक छिलकों से आवरित होता है। उसके निकट तथा अंजीर के भीतर नरपुष्प स्थित होते हैं, किन्तु, प्रायः उनका अभाव होता है अथवा उनका पूर्णविकास नहीं हुआ होता । न पुष्प प्रावरण के भीतर कुछ दूरी पर स्थित होते हैं जहाँ वे परस्पर गुथे हुए और डंठलयुक्र होते हैं, इनमें पंच पंखड़ी युक पुष्पकोष और द्वयांशीय खुकल (Stigma) होता है। डिम्बाशय, जो साधारणतः एक कोषीय होता है, परिपक्क होने पर एक सूक्ष्म, शुष्क कठोर गिरी में परिवर्तित हो जाता है जिसे ही बीज ख़याल किया जाता है। (फार्माकोग्राफिया )।
इसके लगाने के लिए कुछ चूना मिली हुई मिट्टी चाहिए । लकड़ी इसकी पोलो होती है। इस के कलम फागुन में काटकर दूर दूर क्यारियों में लगाए जाते हैं । क्यारियाँ पानी से खूब तर
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