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अनोसन
अनीसन
३२० इतिहास-अनीसून अति प्राचीन ओषधियों में से है । अतएव सावकरिस्तुस ('Theophastus ) और दीसकरादूस ( Dioscorides )आदि यूनानी तथा प्लाइनी (Pliny) प्रभुति रूमी चिकित्सकों ने भी इसका उल्लेख किया है । पर, ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीन हिन्दुओं को इस ओषधि का ज्ञान नहीं था; क्योंकि आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं पाया जाता है। अनुमान किया जाता है कि मुसलमान अाक्रमणकारी इसे फारस से अपने साथ लाए जहाँ से कि अब भी यह बम्बई के बाज़ारों में लाया जाता है।
वानस्पतिक वर्णन-इसका पौधा लगभग १ गज़ ऊँचा होता है। शाखाएँ घनाकार पतली होती हैं । पत्र एला-पत्रवत् किंतु छोटे एवं सुगं. धियुक्त होते हैं। प्रत्येक शाखाके सिरे पर श्वेताभ पुष्प होते हैं, जिनके भीतर कोपावृत्त जीरा के समान छोटे छोटे बीज होते हैं। अनीसू के फल का प्राकार एक सा नहीं होता । उत्तम भूमि में होने वाला २ से . इं० लंबा होता है । सामान्यतः ये 1 ई० लंबे और । ई० चौड़े होते हैं । ये किसी प्रकार गोल, अंडाकार, किनारों पर से दबे हुए, लोमश, खाकी या भूरे रंग के और दो भागों में विभक्त होते हैं। इनके संधिस्थल पर एक छोटी सी दंडी होती है । प्रत्येक फल पर दस उभरी हुई रेखाएँ होती हैं । ये सौंफ से छोटे
और रंग में उनकी अपेक्षा हरित एवम् श्यामाभायुक्र पीतवर्ण के होते हैं । इनकी गंध अत्यन्त प्रिय होती है। शुष्क बीजों को कूटने और फटकने पर इनके कोष भूसीकी तरह पृथक् हो जाते हैं। इनमें सर्वोत्तम प्रकार वह हैं जो प्राकारमें अपेक्षाकृत बृहत् एवं तीव सुगंधिमय हो और जिनके ऊपर से भूसी के समान छिलका न उतरे। क्योंकि इनका प्रभाव अधिकतया इनके कोष में ही है। स्वाद-सुगंधियुक्र, अत्यन्त प्रिय एवं मधुर ।।
परीक्षा-यद्यपि अनीसून के बीज, शतपुष्प ( Dill ), विलायती जीरा ( कराविया), सौंफ
( Fennel) और शूकरान (Conium) के समान होते हैं। तोभी, अपने विशेष वानस्पतिक लक्षणों द्वारा पहिचाने जा सकते हैं।
रासायनिक संगठन-फल में २ से ३ प्रतिशत उड़नशील तैल होता है जिसको अनीसून का तेल कहते हैं । इसमें एनीथोल (अनीसून सत्व) या एनिस कैम्फर (Anise camphor ) ८० प्रतिशत, एनिस एल्डीहाइड (Anise aldehyde ) तथा मीथिल-केविकोल (Methyl chavicol ) होते हैं ।
प्रयोगांश-औषध तुल्य इसके बीज (फल) ही अधिकतर व्यवहार में पाते हैं।
प्रकृति-तीसरी कक्षा में रूक्ष और जालीनूस के दो भिन्न उद्धरणों के आधार पर इसकी उष्णता दूसरी या तीसरी कक्षा में है । परन्तु, म ख्जनुल. अद्वियह, के लेखक के मतानुसार यह दूसरी कक्षा में उष्ण और तीसरी कक्षा में रूक्ष है। । प्रतिनिधि-सोश्रा, श्रामाशय के लिए सौंफ और कामोद्दीपन हेतु तुहमजुरह । हानिकर्तातथा दर्पन्न-वस्ति को हानिकर है और रुब्बुस्सूस ( मुलेी के सत) से उसका सुधार होता है। उष्ण प्रकृति वालों में शिरःशूल उत्पन्न करता है और सिकञ्जबीन से वह दूर होता है। मात्रा--१॥ सा० से मा० तक। शर्बत की मात्रा ७ मा० से मा० है।। औषध-
निर्माण-युनानी चिकित्सा में इसके हर प्रकार के मिश्रण, यथा क्वाथ, अर्क, तैल, घनसत्व ( रुब्ब ), लअजून, शर्बत, चूर्ण, अनुलेपन, .हुमूल (पिचुक्रिया) और धूनी (धूपन ) प्रभृति व्यहार में श्राती हैं। इनमें से कतिपय मिश्रण निम्न प्रकार हैं
(1) अनोसन को मिश्रित क्वाथ-अनीसून, हुल्बह ( मेथिका ), लोबिया सुख प्रत्येक १४ मा०, सुदाब १०॥ मा० । निर्माण-विधिसबको तीनपाव पानी में क्वाथ करें। जब एक पाव रह जाए तब उतार कर साफ करें। सेवनविधि-थोड़ा गुड़ मिलाकर सेवन करें। गुणश्रात्तवप्रवर्तक और अवरोध उद्धाटक है ।
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