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अगाटा
अर्गेटों
इसमेंसे एक चाय के चम्मच भर औषध प्रति 'अाध अाध घंटे के अन्तर से प्रयुक्र करें। - नोट नाइट्रोग्लीसरीन को बड़ी मात्रा में देने से जो विपाकता उत्पन्न होती है उसका तथा । अधिक परिमाण में क्वीनीन के प्रयुक्र करने से हुई मास्तिष्कीय विकार का अर्गट एक उत्तम अगद है। अर्गट के थेराप्युटिक्स अर्थात् उपयोग
' (बहिर प्रयोग) कभी कभी गलगण्ड (गाँइटर ) और धामनीयावुद (एन्युरिजम ) के समीप अगोटीन का । त्वकस्थ अन्तः क्षेप करने से लाभ होता है। गुदभ्रंश ( Prolapsus of the lectum) में यदि प्रति दुसरे वा तोसरे दिवस गुदसंकोचनी पेशी वा स्वयं गुदा में ३ ग्रेन अगोटीन का त्वकस्थ अन्तःक्षेप किया जाए तो कहते हैं कि उक्त व्याधि की निवृत्ति होती है।
श्रान्तर प्रयोग .... सार्वांगिक रक्तस्थापक रूप से अर्गट अब तक
| ' विख्यात है और सम्प्रति इसको प्राभ्यन्तरिक
शोणित क्षरण यथा नासोशं द्वारा रक्तस्राव होने अर्थात् नकसीर ( Epistasis ), रक्तनिष्ठीवन (Hemoptysis ), रवमन ( lomatemesis ) और रक्कमूत्रता ( IFematurin) प्रभृति रोगों में वर्तते हैं। व्याधियोंकी ऐसी उग्रावस्था एवं भयानक रोगियों में प्रति १५ वा ३० मिनट के अन्तर से अगट का त्वस्थ वा गम्भीर अन्तःक्षेप करना उपयोगी है । अान्तरिक अवयवों की रक्क ति में रकस्थापक रूप से अगट का उपयोग बुद्ध यात्मक नहीं, प्रत्युत प्रानुभविक है । इस बात का ध्यान में
श्राना अत्यन्त दुश्तर है कि जो औषध धमनियों .... को संकुचित कर रकभार को वृद्धि करती हो वह
किस माति रक्तस्थापक ( हीमोस्टं टिक ) हो ... सकती है? .. परन्तु गर्भाशय जन्य रनम्र ति पर जो इसका
रक्रस्थापक प्रभाव होता है, वह अधिकतया जरा, यस्थ मांस पेशियों के संकोच के कारण होता है।।
अतएव प्रसवानन्तर होने वाले रकस्राव में अर्गट एक अत्यन्त चमत्कारिक औषध है । उन बहुप्रसूता नारियों को जिनमें प्रसव के पश्चात् प्रायः रक्तस्राव हुश्रा करता है, प्रसव के बाद तत्क्षण अगट का उपयोग लाभदायक होता है । और यदि इसके प्रयोग में कोई बात रोधक न हो तो प्रसवसे पूर्व भी इसे दे सकते हैं । कतिपय प्रधान रोगियों को अमोनिएटेड टिंक चर ऑफ़ अगट या लिक्विड ऐक्सस्ट्रक्ट श्राफ अगट १ से २ ड्राम की मात्रा में दिन में ३-४ बार देते हैं या हाइपोडर्मिक इजेक्शन ऑफ अगट को १०मिनिमि की मात्रामें २-३ बार प्रयुक्त करते हैं । रकप्रदर एवं कई प्रकार के गर्भाशयिक अर्बुदों की रक्तस्त्र ति में भी उन ओषधि के प्रयोग से उत्तम परिणाम प्राप्त हुए हैं। ऐसी दशा में गर्भाशयिक द्वार में अगोटीन की पिचकारी करनी चाहिए।
अर्गट चूँ कि रक्तवाहिनियों को संकुचित करता है; अस्तु कभी कभी इसको पप्युरा ( रक्त विकार जन्य विस्फोटक ), प्रवाहिका, प्लीहवृद्धि, सौषुग्न काठिन्य ( स्पाइनल स्क्लोरोसिस ) एवं सौषुम्नस्थ रक्कसंचय ( Spinal congestion ), धर्माधिक्य और मधुमेह (डायाबेटीज़ इन्सिपिडस ) प्रभूति रोगों में भी बनते हैं । अतः यक्ष्माजन्य रात्रिस्वेदके रोकने के लिए इसका प्रयोग करते हैं।
अगट को अधिकतर शिशु प्रसवानन्तर प्रयोग में लाते हैं। क्योंकि प्रसव के पश्चात् इसको देने से गर्भाशय भलीभाँति संकुचित हो जाता है, एवं अमरापातन में सहायता मिलती है और जरायु द्वारा रकस्राव नहीं होने पाता । परन्तु प्रसव से पूर्व इसका उपयोग अत्यन्त चतुरतापूर्वक करना चाहिए । अन्यथा जरायु संकोच के कारण गर्भ के नष्ट हो जाने की आशंका होती है या. गर्भाशय के विदीण हो जाने का भय होता है। क्योंकि इसके प्रयाग द्वारा जरायु न केवल क्रमशः बल . पूर्वक आकचित होने लगता है, बल्कि वह माधिक काल तक संकुचित रहता है. और यही
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