________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
far
www.kobatirth.org
वात
या नाड़ोमण्डल मस्तिष्क पर इसका अत्यल्प प्रभाव होता है। औषधीय मात्रा अथवा एक ही बड़ी मात्रा में इसका उपयोग करने से सर्वोकृष्ट वातकेन्द्र प्रभावित नहीं होते । पर यदि चिरकाल तक इसका निरंतर उपयोग किया जाए तो विशेष प्रकार के लक्षण उपस्थित हो जाते हैं, जिनको ग्राक्षेपयुक्त अर्गटजन्य विषाक्रता ( Spasmodic ergotism ) कहते हैं ।
गर्भाशय-- गर्भवती स्त्रियों तथा बुद्ध जीवों में गर्भावस्था विशेषकर प्रसवकाल में अर्गट के प्रयोग से इतनी गति से प्रांकुचित होता है कि तदाभ्यन्तरस्थित सभी वस्तुएँ वहिर निर्गत हो जाती हैं । अतएव यह एक सबल गर्भशातक . ( शुकारी ) औषध है। इसको बड़ी मात्रा में प्रयुक्त करने से टेटेनिक स्पैज़्म ( वास्तम्भीय श्राक्षेप ) होने लगता है। । यह बात अभी सन्देहपूर्ण है कि आया यह गर्भशातक भी है ? क्योंकि जब तक दरविज़ह आरंभ न हो इससे जरायु संकुचित नहीं होता । गर्भविहीन वा शून्य जरायु पर इसका बहुत साधारण प्रभाव होता है; बल्कि कुछ प्रभाव नहीं होता अर्थात् इससे गर्भाशयिक तन्तु संकुचित नहीं होते । सम्भवतः इसका यह प्रभाव गर्भाशय के धारीविहीन मांस पेशियों पर सरलोरोजक असर होने से और किसी भाँति सोचुम्न गर्भाशयिक वातकेन्द्रों को गति प्रदान करने के कारण हुआ करता है।
प्रस्राव ( रसोद्रेक ) -- अर्गट के प्रयोग से लाला, धर्म, दुग्ध तथा मूत्रोत्पत्ति व प्रस्त्राव घट जाता है। जिसका कारण यह होता है कि समग्र शरीर की रकवाहिनियों के संकुचित हो जाने से उक्त द्वों की उत्पन्न करनेवाली ग्रंथियों में रक्त यथेष्ट परिमाण में नही पहुँचता ।
- गदतन्त्र
( अट के विषाक्त प्रभाव वा लक्षण ) क्रॉनिक श्रगटिग ( अर्गट द्वारा चिरकारी विषाक्रता ) - औषधीय मात्रा में इसका उपयोग
B
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
करने से तो कदाचित विरलाही तजन्य विषाक्ता दृष्टिगोचर होती है | परन्तु ऐसे निर्धन प्राणी जो दृपिन राई के धान्य ( जिसमें अर्गट श्रोफ राई वर्तमान होती है) भक्षण करते हैं, प्रायः वे क्रॉनिक
गोटिज़्म ( पुरातन प्रकार के अर्गट विष ) से आक्रांत पाए जाते हैं । निम्नलिखित इसके दो स्वरूप होते हैं—
श्रमदा
(१) ग्रीस गोटिज़्मधमनियों के संकुचित हो जाने से चूँकि रक्क समग्र अवयवों में यथेष्ट परिमाण में नहीं पहुँच पाता; तएव पोषण विकार के कारण शरीर के विभिन्न अवयवों में विशेषकर हस्तपाद में गैंग्रीन ( Gangrene ) की दशा उपस्थित हो जाती हैं जिसका पेलैग्रा ( Pellagra ) से निर्णय करने में भ्रम न करना चाहिए |
(२) स्पैज़्मोडिक श्रगटिज़्म ( श्रापयुक्त अर्गट विप) इस प्रकार के रोगी को प्रथम कण्ड वा गुदगुदी का बोध होता है अथवा सम्पूर्ण शरीर पर चिउँटियाँ रेंगती हुई प्रतीत होती हैं। | तदनन्तर सनसनाहट और स्थानिक संज्ञाशून्यता का अनुभव होता है । अस्तु साधारणतः पहिले हस्तपाद थाक्षेपग्रस्त एवं अवसन्न हो जाते हैं। पुनः सम्पूर्ण शरीर की यह दशा हो जाती है । सुधा बढ़ जाती हैं । श्रवण व दर्शन में अन्तर या जाता है। मांसपेशियों की निर्बलता के कारण गति अस्थिर हो जाती अर्थात् चाल लड़खड़ाने लगती है । नाड़ी की गति अत्यन्त मंद हो जाती है, वमन व विरेक आरम्भ हो जाते हैं । अन्ततः सार्वांगाक्षेप होकर ऐम्फिक्रिया ( श्वासावरोध ) की दशा में मृत्यु उपस्थित होती हैं ।
ईरिस प्योर टिंक्चर श्रोपियाई
सिपाई
एक्की डिस्टिलेट
अगद
अट द्वारा विपाक होने पर निम्न मिश्रण का व्यवहार करें
For Private and Personal Use Only
३० मिनिम १० मिनिम
५ ड्राम
४ ड्राम