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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपच्छी ३७४ श्रपतानकः (४) काला सर्प वा अपने पाप मरा हुश्रा तथा वमन का सेवन न कराएँ; परन्तु कफ तथा कौवा इनकी राख को इंगदी के तेल में मिलाकर वायुसे घिरी हई उन श्वास को चलाने वाली नोलेप करनेसे विशेष लाभ होता है। वा० उ०। ड़ियों को तीक्ष्ण प्रधमन (तीक्ष्ण चूर्ण का नस्य) अ. ३० । देकर खोल दें। नाड़ियों के खुल जाने से रोगी अपच्छो apachchhi हिं० संज्ञा प० [सं० संज्ञा को प्राप्त होता है। नहीं+पक्षी पक्ष वाला] विरोधी, विपक्षी, शत्रु | अपतर्पण apatalpana--हिं० पु. भूखा रहना, वि. बिना पंख का, पन रहित । ___ लंघन ! ( Fasting ). अपजात apa.jata--सं० पु. वह संतान जो अपत apata--हिं० वि० [ सं० अ-नहीं+पत्र, पिताके अधम गुण रखती हो । अथर्व० । सू० प्रा० पत्त, हिं० पत्ता ] (१) पत्र हीन । बिना ६ । का० । पत्तों का । (२) अाच्छादनरहित, नग्न । अपञ्चीकृत apanchikrita-हिं० वि० पुं० अपतिः apatih--सं० स्त्रो० पतिहीन । अथवः । सूचम भूत । अपतर्पणम् apatarpan am-सं० क्लो० (१) अपटक apataka-हिं०वि० पु० हस्तपाद पक्षाघात अपतर्पण, लङ्घन, तृत्यभाव, भूखा रहना, उपग्रस्त (वातग्रस्त) । ( Paralytic) वास करना । (२) कार्य, कृशीकरण, स्थौल्यअपटन apatana-हिं० संज्ञा पु. देखो-उब- हरण, स्थूलता को दूर करना, दुर्बल करना। टन। यह दो प्रकार की चिकित्सानों में से एक अपटुः apatuh-सं० त्रि० अपटु-हिं० वि० है । इसका उलटा संतर्पण ( वृहण ) (१) रोगी, बीमार ( Diseased ) । रा० है। अग्नि, वायु और प्राकाशात्मक पदार्थ अ. नि०व० २० । (२) निर्बुद्धि, अनाड़ी। र्थात् उन महाभूतों से उत्पन्न हुई औषध अपअपडा apada--सं० स्त्री० अश्मन्तक वृक्ष । See- तर्पण होती है । इसके दो भेद होते हैं-(१) Asbman taka,-kah शोधनापर्तण। वह जो शरीरस्थ वातादिक दोषों अपण्य apanya--हिं० वि० [सं०] न बेचने को बाहर निकाल देता है। ये पाँच प्रकार के योग्य । होते हैं, यथा--निरूह (गुदा में पिचकारी अपतन्त्रः apa.tantrah लगाना ), २-वमन, ३-विरेचन, ४-शिरो विरे. श्रपतन्त्रक: apatan trakah | चन और ५ रसुति (फस्द खोलना)। स्वनामाख्यात वातव्याधि विशेष । एक रोग (२) शमनापतर्पण-वह औषध जो शरीजिससे शरीर टेढ़ा हो जाता है। लक्षण-अपने रस्थ वातादिक दोषों को बाहर नहीं निकालती कारणों (रूक्षादि) से प्रकुपित हुई वायु यदि अपने और अपने प्रमाण से स्थित वातादिक दोषों को निज स्थान को छोड़ ऊपर जाकर हृदय को पी- उत्क्लेषित भी नहीं करती, प्रत्युत विषम दोनों ड़ित करे, फिर मस्तक और कनपुटियों में पीड़ा को समान भाव में ले पाती है। उसको संशमन करे, शरीर को धनुष के समान टेढ़ा कर दे तथा औषध कहते हैं । यह सात प्रकार की होती है, कम्पित करे और चित्त को मोह युक्त करदे, रोगी यथा-पाचन, दीपन, सुधानिग्रह, तृष्णानिग्रह, बड़े कष्ट से श्वास ले, आँखें चढ़ी रहे अथवा व्यायाम, पातप और वायु । वा० सू०प्र० उपर को लगी रहें, कबूतर के समान शब्द करे १४ । हारा० । च० द० रक्रपित्त-चि०। और बेसुध हो जाए. तो उसको अपतन्त्रक रोग (३) व्रण के उपशमनार्थ प्रारम्भिक उपक्रम | कहते हैं । मा०नि० वा० व्या। . सु० चि० १ ० । चिकित्सा-अपतन्त्रसे पीड़ित मनुष्यकी तृप्ति | श्रपतान: apatanah) विरुद्ध क्रिया न करें और कभी भी निरूहवस्ति | अपतानकःapatana kahS संज्ञा पु१ For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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