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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिष्टः अरिष्टः arishtah-सं० पु. (१)रीठा अरिष्ट arishra-हिं० संज्ञा पुं० ) (डी) का पेड़, फेनिल, निर्मली, रीठा वृक्ष, रीडा करञ्ज-हिं० । रिटे गाछ-बं० | Soapberry plant (Sapindus trifoliatus. ) रा०नि०व०६। मे० । गुण-रीठा पाक में कटुक ( चरपरा ), तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, लेखन, गर्भपातक, स्निग्ध तथा त्रिदोषघ्न है और गृहपीड़ा, दाह तथा शूल नाशक है । वै० निघ० । ( २ ) रसोन, लसुन, लहसुन | Garlic ( Allium Sativum. ) प० मु० । रा०नि० व०२३ । वा० सू० १ भा०। (३) निम्ब वृक्ष, नीम | The neemb tree (Melia azad-dirachta.)। रा०नि० व० २३ । प० मु०। वा० सू० १५ श्र० । गुडूच्यादि । “गुड़,ची पद्मकारिष्ट-" च० द० पित्तश्लेष्म ज्व० अमृताष्टक- “गुड़चो. न्द्रयवारिष्ट-" सु० सू० ४३ अ. संशोधन । ..( ४ ) काक, कौश्रा । ( A crow.) हारा। (१) कङ्क पक्षी, मांस भक्षी पक्षी, गिद्ध । ( A vulture Oi heron ( Ardea lorra and putea.) (६) सुरा विशेष | औषध को जल में कथित करके पुनः उसमें मीडा आदि छोड़ संधान करने से सिद्ध किए हुए मद्य की अरिष्ट संज्ञा है। कहा भी हैअरिष्टः क्वाथ सिद्धः स्यात् ।। (प० प्र० ३) स एव क्वथितोषधैररिष्टः । वा० टी० हेमाद्रिः। क्वाथ सिद्धो वारिष्टः । शाङ्गः । इनुविकार सहितामया-चित्रक-दन्तीपिप्पल्यादि-भूरि भेषज क्वाथादि संस्कारवारिष्टोऽभिधीयते । राज०। पक्वोषवाम्बुसिद्ध यत् मद्य तत्स्यादरिष्टकम् । भा० पू० मद्य० व० । विविध प्रकार की ओषधियों को भली प्रकार सुरा वा मद्य में डुबो कर सप्ताह बाद रस को परिस्रावितकर उसे वस्त्रसे छानले। इसको भिषक् गण अरिष्ट नाम से अभिहित करते हैं । यथा___ "प्राप्लाव्य सुरया सम्यक् द्रव्याणि विविधानि च। सप्ताहान्ते परिस्राव्य रसं वस्त्रेण गालयेत् । एषोऽरिष्टोऽभिधानेन भिषग्भिः परिकीर्तितः।" (अत्रि०) नोट-इसी विधान से एलोपैथी चिकित्सा में वर्णित सम्पूर्ण टिंक्चर प्रस्तुत किए जाते हैं। अस्तु, श्रासवारिष्ट का टिंकचर के पर्याय रूप से प्रयोग करना यथार्थ है। अरिष्ट निर्माण विधि-(प्राचीन) यह साधारणतः मिट्टी के पात्र में ही प्रस्तुत किया जाता है; यद्यपि किसी किसी स्थान पर स्वर्ण पात्र में भी संधान करने का नियम है । जिस पात्र में अरिष्ट (श्रासव ) तैयार करना हो, प्रथम उस पात्र की भीतरी दीवारों में अच्छी तरह घी लगा देना चाहिए । और साथ ही धव पुष्प तथा लोध्र के कल्क का लेप करके सुखा लेना चाहिए । एवं उपयुक विधिसे पात्र तैयार करके उसमें क्या येत या कच्चा जल में मिश्रित गुड़, मधु और औषधों का चूर्ण श्रादि डालकर उसके मुख को शरावे से अच्छी तरह बन्द करके उसके ऊपर कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिए । जिसमें किसी स्थान से वायु उसके अन्दर न जा सके अब इस बर्तन को भूमि के अन्दर गढ़े में या किसी अन्य गरम स्थान में १५ दिन या महीने या जैसी शास्त्राज्ञा हो रक्खे रहने देना चाहिए। ___ इसके बाद अरिष्ट या आसव को निकाल कर अच्छी तरह छानकर बोतलों में भर कर डाट लगादें, जिसमें उस बोतल के अन्दर वायु न जा सके, क्योंकि हवा जाने से शुक्र बन जाता है। जिस बोतल में रक्खे उसे थोड़ा खाली रक्खें; क्योंकि मुह तक भर देने से अरिष्ट जोश खाकर बोतल को तोड़ सकता है । यह जितना ही पुराना हो उतना ही अच्छा है। प्रत्येक मयों से श्रेष्ट अरिष्ट ही होता है। अरिष्ट के नव्य निर्माण-क्रम एवं आसवारिष्ट अर्थात् मद्य की विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए-आसव । For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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