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अव्याथा,-थी
अन्धगदपण्डु
भा० पू०१ भा० । रा०नि० व० ११ । (२) श्रवण शुक्रः avrana-shukrah-सं० पु. ) हरोतकी, हड़ ( Terminalia chebu. अव्रणशुक्र avrana.shukra-हिं० संज्ञा पु० ) la. ) । (३) महाश्रावणी, गोरखमुण्डी। नेत्र के काले भाग ( काली पुतली) में होने ( Spheeranthus hirtus. ) भा० वाला रोग विशेष । आँख का एक रोग जिसमें पू०१ भा० गु०व० । (४) प्रामलकी, प्रामला श्राँख की पुतली पर सफेद रंग की एक फूली सी (Phyllanthus emblica.)। (५) पड़ जाती है और उसमें सुई चुभने के समान लक्षणा, लक्ष्मणा मूल (Lakshamani)। पीड़ा होती है। (६) साठी
__ लक्षण-अभिष्यन्द के कारण यदि नेत्र अन्यथिः,-थी avyatbih,-thi-सं० पुं०
के कृष्ण भाग में श्वेत वर्ण की, चलायमान अश्व, घोड़ा । ( A horse.) वा० सू० ४
तथा प्रतिपीड़ा और अशुओं से व्याप्त न हो ५० प्रजास्था।
एवं जैसे अाकाश में बादल होते हैं इस प्रकार
की फूली हो तो उसे अव्रण (व्रण रहित ) शुक्र भव्यथिषः avyathishah-सं० प (१)
(फूली) कहते हैं और यह सरलतापूर्वक साध्य समुद्र ( A sea.)। (२) सूर्य । ( The
होती है ( झट पाराम हो जाती है) । और यदि sun.) सि० को।
यही फूली गंभीर और गाढी हो बहुत दिन का भव्यथिषो avyathishi--सं० स्त्रा० (१) पृ. हो जाए तो उसे कष्टसाध्य कहते हैं। सु० उ०
थिवी ( Earth.)। (२) अई रात्रि, मध्य ५०। निश, प्राधी रात । ( Midnight.)
जो फला अभिष्यन्दात्मक (आँखों के दुखने से अव्यथ्या avyathya-सं० स्त्री० हरीतकी, हड़ । उत्पन्न हुश्रा) कृष्ण भाग में स्थित हो और
( Terminalia chebula.) भा० पू० घोष (सिंगी, तुम्बी) आदि से चूसने के समान १भा०।
पीड़ा करे और शंख, चन्द्रमा तथा कुन्द के फूलों अव्यभिचारी avyabhichari-हिं० वि० [सं० के समान सफेद, आकाश के समान पतला और
अव्यभिचारिन् ] जो किसी प्रतिकूल कारण से वण रहित हो उस शुक्र को सुखसाध्य कहते हटे नहीं ।
हैं । जो शुक्र (फुला) गहरा तथा मोटा हो अन्यया avyaya-सं० स्त्री. गोरखमुण्डी । महा
और बहुत दिनों का हो उसको कष्टसाध्य कहते श्रावणी । गोरखमुण्डी-मह० । गोरक्ष-चाकुलि
हैं । असाध्यता-जिस फूले के बीज में बं० । (Sphaeranthus Hirtus.)
गड्ढा सा पड़ जाए या उसके चारों ओर वै० निघ०।
मांस बढ़कर उसको घेर ले, अचल न रहे
अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह में चला जाए, अव्यर्थ avyartha--हिं० वि० [सं०] (1)
सूक्ष्म शिरात्रों से व्याप्त हो, दृष्टि का नाशक, जो व्यर्थ न हो । सफल । (२) सार्थक । (३)
दूसरे पटल में उत्पन्न और चारों ओर से लाल अमोघ ।
हो तथा बहुत दिनों का हो तो ऐसे शुक्र को वैद्य अव्याध्या avyadhya-सं० स्त्री० दुष्ट शिरा
त्याग देवे । मा०नि०। वेधन । जो शिरा शस्त्रकर्म (छेदम, वेधन ) से
अवतः avratah--सं० प. वह ज्वर जो बिना वर्जित है ( उसका वेध होना ) अध्याध्या कहाती नियम के प्राता है । अथव० सू० ११ । २। है । यथा-"प्रशस्वकृत्या अव्याध्या"। सु०
का०७। शा०प्र०
अवगुड़ avvagura अध्यापन avyapanna--हिं० वि० [सं०]| अव्वगूद पण्ड avvaguda-pandu जो मरा न हो, जीवित, जिंदा ।
ते० प्राबुब्द । महाकाल, लाल इन्द्रायन ।
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