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प्रकाशक की विज्ञप्ति
स कालचक्र का प्रभाव आज तक किसी ने भी नहीं पाया; न कोई यह जान हो सका कि कल क्या होगा । जो श्राज या इस क्षण में है न मालूम उसका इस क्षण के बाद क्या होगा | समय के अनुसार संसार में अनेकानेक परिवर्तन हो चुके, हो रहे हैं, और आगे भी होंगे | इसी चक्र के अनुसार प्रत्येक वस्तु का नाश और विकाश होता थाया है । आज उसी कालचक्र से प्रेरित हुआ मैं आपके समक्ष श्रा रहा हूँ । कोई कुछ भी नहीं कर सकता । समय ही सब कुछ करा लेता है । इसीलिए कहा भी है
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तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिले सहाय । श्राप न श्रावे ताहि पै ताहि तहाँ ले जाय ॥
इसी के अनुसार यह कार्य भी हुआ है। जिस कोष के लिए श्राज कई वर्ष से आयुर्वेदिक - वायु-मंडल अपनी गुआर से समस्त संसार को गुञ्जायमान कर रहा था, उसी वायु-मंडल की प्रेरणा से हमारे मित्रों ( बाबू रामजीतसिंह व बाबू दलजीतसिंह ) को प्रेरणा हुई और वे उससे प्रेरित होकर इस कमी की पूर्ति के लिए तल्लीन होगए और जनता की इच्छा के अनुसार इस श्रायुर्वेदीय-कोष को रच डाला; और मेरे समक्ष, जो ऐसे ही कोष के प्रकाशन के लिए सदैव प्रयत्नशील था, उपस्थित किया । इस कोष को जो देखा तो जनता के अनुरूप ही पाया । फिर क्या था । समय की प्रेरणा से उन्मत्त होकर, अपनी शक्ति का विचार किए बिना मालूम किस आन्तरिक इच्छाशक्ति के बल इस अपार भार को अपने निर्बल कन्धों पर लेकर उद्वहन करने को तैयार होगया । उसी के फल स्वरूप उसका यह पहिला भाग जनता के समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ । अब श्राप देखें कि इस कोष में सम्पूर्ण ज्ञातव्य विषय हैं वा नहीं ? जहाँ तक अपना विचार था और समयकी प्रेरणा जैसी थी, कि बिना परिश्रम किए ही थोड़ा पढ़ा लिखा या एक, भाषाका विद्वान भी सभी श्रायुर्वेदीय संसार की बातें जो पृथक् पृथक् पैथियों (यथा- एलोपैथी डॉक्टरी यूनानी, श्रायुर्वेदीय) में भरी पड़ी हैं, जान जाएँ और जिनमें हमारे वैद्य दूसरी पैथी के मर्मज्ञ के सामने शिर नीचा कर जाते थे; वह दूर हो जाय । वह इस कोष से दूर होगई या नहीं ? विद्वान जन लिखने की दया करें ।
इस वृहत्काय कोष के प्रकाशित करने के विषय में हमारे कुछ भ्रातृगणों के प्रश्न हो ये कि श्रायुर्वेद-शास्त्र में कई निघण्टु इस समय भी वर्तमान थे, फिर इस नवीन बृहत्काय कोप के निर्माण करने की क्या आवश्यकता थी ? इसके उत्तर में ही प्रकाशक का निवेदन है कि अवश्य कई निघण्टु हैं; परन्तु आप लोगों ने कभी भी उनकी तुलना नहीं की। यदि आप तुलना कर लेते तो उपयुक्त बात कदापि न कहते । कुछ समय से हमारे यहाँ वैद्य-समाज में प्रमाद आगया और उन्होने —
" हेतुर्लिगौषध ज्ञानं स्वस्थातुर परायणम् । त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यमायुर्वेद मनु शुश्रुमः ॥
इन सूत्रों को ही भुला दिया और रोग निश्चय तथा उसमें दोष कल्पना और उस अवस्था के लिए औषध विवेचन करना ही छोड़ दिया । सिर्फ रोग का नाम और उसके लिये उस रोग की चिकित्सा में वर्णित कोई सी भी औषध बना कर दे देना ही वैद्यक व्यवसाथ समझ लिया था | यह धारणा बढ़ते २ यहाँ तक बढ़ी कि जिसका अन्त अब तक भी नहीं हुआ। इसी प्रवाह में लिखे हुए चिकित्सा - ग्रंथ तथा निघण्टु (जो केवल मात्र पांडित्य प्रकाश के लिए ही रचे गए थे) ग्रंथों पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। यह दशा जब इधर भारतवर्ष में हो रही थी तब यूनानी लोग " हेतुलिं गोपधज्ञानम्" इस सूत्र पर विचार करते हुए रोगविज्ञान और औषधनिज्ञान को पूर्ण करने में अधिक परिश्रम करने लग गए। उसका प्रतिफल यह हुआ कि आयुर्वेदीय
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