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अविहित
अवाक् पुष्पी घृतम् अवहित ava hita--हिं० वि० सं०] सावधान । अवाको avaqi-१० (ब० व०), पौकिय्यह - एकाग्र चित्त ।
(ए० व०) देखो-ौकियह । वही avahi--हिं० संज्ञा प० [सं० अवह बिना
अवाक् avāk-हिं० वि० [सं० अवाच् ] (1) पानी का देश ] एक प्रकार का बबूर जो कांगड़े के
वाक्य रहित, चुप, मौन, चुपचाप ( Speech. जिले में होता है । इसकी लपेट पार फीट की
less )| (२) स्तब्ध । जड़ । स्तंभित । होती है . यह मैदानों में पैदा होता है और
चकित । विस्मित । इसकी लकड़ी खेती के अौजार बनाने तथा छतों के तहतों में काम आती है। हिं० श० सा०।
अवाक पुष्पां avāk-pushpi-सं० (हिं० संश)
स्त्रो० (१) हेमपुष्पी । (Hemapushpi.) अवहोरा avthira-हिं० श्रास वृत । See
र०मा०। (२) सौंफ । मधुरिका । (Madhuása.
rika. ) शताद्वया । रत्ना. | रा. नि. प्रवक्षिप्त a vakshipta-हिं० वि० [ सं. ]
व० ४ । ( ३ ) शत पुष्पी। सोया-हि । . गिरा हुआ।
शुल्फा-बं० । बड़ी शोंक-मह। (Sea-shata. अवक्षिप्त सन्धिः avakshipta-sandhih
pushpah) रा० नि० व० ४। च०० -सं०५० सन्धि विश्लेष, संधि, संधि च्युति
प्रशशि० सुनिषण-चांगेरी वृत । (४) चार ( Dislocation.) । “अवक्षिप्त" में संधि
पुष्यो । वह पौधा जिसके फूज अधोमुख हों । दूर हट जाती है और तीव्र वेदना होती है। सु.
(See-chorapushpi ) रत्ना० । नि०१५ अ०। अवक्षुत avakshuta--हिं० वि० [सं०] जिस
अवाक् पुष्पो घृतम् avakpushpi-ghri. | __पर छींक पड़ गई हो।
अवाक पुष्पादि घृतम् avak-pus hpādiअवक्षेपण avakshepana-हिं० संज्ञा पु.
ghritam [सं०][वि. अवक्षिप्त ] (१) गिराव | अवाक पुष्पयादि घृतम् avak-pushpyādi- अधः पात । नीचे फेंकना । (२) अाधुनिक
ghritam, विज्ञान के अनुसार प्रकाश, तेज वा शब्द की -सं० की. अवाक पुष्पी ( सौंफ), मधुरी, गति में उसके किसी पदार्थ में होकर जाने से |
बला, दारुहल्दी, पृष्टपर्णी, गोखरू, बर्गद, गूजर वक्रता का होना ।
और पीपल वृत की कोंपल प्रत्येक २-२ पल, श्वक्षेपः avakshepah-सं० क्ली० (१) इनका क्वाथ, पीपर, पीपरामूल, मिर्च, देवदारु,
(Asterion.)। (२) (Art of dep- कुटज, सेमल का फूल, चंदन, ब्राह्मी, केशर, ressing. )
कायफल, चित्रक, नागरमोथा, फूलप्रियंगू, अवक्षेपणो avakshepani-सं० स्त्रो० वल्गा, अतीस, शालपर्णी, कमल केशर, मजीठ, अमल- लगाम । हे. चं० ।।
तास, बेल गिरी, मोचरस, सोनापाठा, प्रत्येक अवक्षेपित avakshepittu-हिं. वि. निम्नस्थित, १-१ तो० इन्हें ४ प्रस्थ जल में क्वाथ करे
तलस्थित, अधःक्षेपित । तलस्थाई, तहनशीं । जब १ प्रस्थ शेष रहे तो सुनिषण्णक (कुरडू) अवाँ avin-हिं० संज्ञा पु० दे० धावा।
और चांगेरी का रस २-२ प्रस्थ, गोधृत अवा ava-हिं० विछुअा घास । (Girardinia- १ प्रस्थ मिश्रित कर पकाएँ। i heterophylla. )
गुण-इसके सेवन से सन्निपातातिसार, प्रवाश्रवाइद रदिश्यह, aavaida-radiyyah हिका, गुदभ्रंश, प्रामजन्य रोग, शोथ, शूल,
-० कुस्वभाव, खराब आदत । बैड हैबिट्स गुदारोग, मूत्रावरोध, मूढ़वात, मन्दाग्नि, तथा ( Bad habits-)-इं० ।
अरुचि का नाश होता है।
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