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अपमार्जन
अपराजिता अपमार्जन apamārjana-हिं० संज्ञा० पु० (४) सिन्दूर ६ माशा को भेड़ के घी में घोट
[सं०] शुद्धि । सफाई । संस्कार | संशोधन । कर रखें। इसके उपयोग से अपरस दूर होता अपमुख apamukha-हिं० वि० [सं०] [स्त्री० अपमुखी ] जिसका मुंह टेढ़ा हो । विकृ- अपरा apara-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री०(१) तानन, टेढ़मुहाँ।
( Placenta) खेड़ी, आँवल । भा० म०४ अपमृत्यु apamrityu-हिं० संज्ञा पुं० [सं०]
भा० प्रसूतोपद्रव-चि०। अमरा-सं०। (२) पदार्थ अकालमृत्यु कुमत्यु, कुसमय मृत्यु, अल्पायु, जैसे !
विद्या । (३) पश्चिम दिशा । (४) पञ्चतन्मात्र, बिजली के गिरने, विष खाने, साँप श्रादि के
मन, बुद्धि और अहंकार इनको अपरा कहते हैं। काटने से मरना।
वि० [सं०] दूसरी । अपयोग apavoca- संज्ञा . [सं०1 अपराजित aparajita-सं० लहसुनिया । (1) कुयोग, बुरायोग । (२) नियमित मात्रा
हिं० वि० [स्त्री० अपराजिता ] ( Incoसे अधिक वा न्यून औषध पदार्थों का योग । nqurable) जो जीता न जाए । जो पराजित (३) कुशकुन, असगुन । (४) कुसमय, न हुश्रा हो। कुबेला।
संज्ञा पु० विष्णु। अपरकाय aparakāya-हिं० संज्ञा पु. शरीर | अपराजित धूपः aparājita-dhupa h•-सं० का पिछला भाग।
पु० यह धूप सब प्रकार के ज्वरों का नाश करने अपरना aparanā-हिं० स्त्री० अपामार्ग। वाला है । गुग्गुल, गंधतृण, बच, सर्ज, निम्ब, वि०बिना पत्ते वाली। (Leafless).
पाक, अगर और देवदारु। च० द. ज्व. अपरम् aparam-सं० क्ली. हाथी के पीछे का चि०। . अर्दू भाग, गजपश्चादर्ध । हाथी का पिछला अपराजिता aparajita-हिं० संज्ञा स्त्री० सं० भाग, जंघा, पैर इत्यादि।
स्त्री० ] (१) यह कोयलकी बेल का साधारण अपरस aparasa-हिं. संभा पु०, उ० चम्बल | |
माम है। सम्किय्यह, सफ़िय्यह, कश्जिल्द-अ०।
farzifiar zäffar ( Clitorea Tern. सोरायसिस ( Psoriasis)-ई०। चर्मरोग atea, Linn.)-ले० । बटर फ्लाई पी भेद । एक चर्मरोग जो हथेली और तलवे में Butterfly pea, विंग्ड-लीढ्ड प्रिटोरिया होता है । इसमें खुजलाहट होती है। और चमड़ा ( Winged -leaved Clitoria ), सूख सूख कर गिरा करता है । विचर्चिका । इण्डियन मेज़रीन ( Indian Mezerचिकित्सा
eon )-0 i fazifiar st zet Clitoria (१) गोधूम (गेहूँ)s४ सेर लेकर पाताल de Ternate-फ्रां० । फियुला-क्रिक्का यन्त्र द्वारा तैल निकालें । इस तेल के लगाने से Feula-criqua-पुतं । अपरस नष्ट होता है।
__ संस्कृत पर्याय-प्रास्फोता, गिरिकर्णी, (२) पाक का दूध १ छटाँक, बकुची का तेल विष्णुकांता (अ०), गिरिशालिनी (के०), १ पाव, सेंहुड के दूध १ छटाँक को एक पाव दुर्गा (श०), अस्फोटा (अ० टी०), गवाक्षी, तिल तैल मिलाकर सिद्ध करें इसके लगाने से अश्वखुरी, श्वेता, श्वेतभण्टा, गवादनी (र०), अपरस दूर होता है।
अद्रिकर्णी, कटभी, दधि पुष्पिका, गईभी, सित (३) प्राठिल की जड़ की छाल लेकर स्वरस पुष्पी, श्वेतस्पन्दा, भद्रा, सुपुत्री, विषहन्त्री, निकालें और उसे भेड़ (मेष) के १ छटाँक घी में | नगपर्याय कर्णी, अश्वालादखुरी । अपराजिता, पकाएँ, फिर काम में लाएँ।
कवाउँठी, कोयल, विष्णुक्रांति, कालीज़ीर-हिं० ।
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