________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अर्जुन
१६३
प्रथम वाग्भट महोदय ने इस ओर हमारा ध्यान कृष्ट किया। वे लिखते हैं
“क्वाथे रौहोत काश्वत्थ खदिरोदुम्बराजु ने * ** * ।" ( चि० श्र० ६ )
www.kobatirth.org
इस पाठ में वे कफन हृद्रोगी को द्रव्यांतर सहित अर्जुन के उपयोग का आदेश करते हैं । इनके बाद के पश्चात्कालीन लेखकों में चक्रदत्त ने इसे कपाय एवं वल्य लिखा और हृद्रोग में इसके प्रयोग का उल्लेख किया ।
इसकी छाल एवं तन्निर्मित औषध अपने प्रत्यक्ष हृदयोत्तोजक प्रभाव के लिए इस देश में श्राजतक विख्यात है । श्रायुर्वेदीय चिकित्सक नैर्बल्य तथा जलोदर की सभी दशाओं में इसका उपयोग करते हैं । कतिपय पाश्चात्य चिकित्सकों की भी इसके हृदांशेजक प्रभाव में श्रास्था है और वे इस का हृद्य ( हृदय बल्य ) रूप से व्यवहार करते हैं। अस्तु इसकी छाल द्वारा निर्मित एक तरल सत्व डाक्टरी औषध विक्रेताओं द्वारा उपलब्ध होता है।
परन्तु कोमन Koman ( १६१६-२० ) महोदय ने हृदय - कपाट जन्य व्याधि विषयक २० रोगियों पर इसके त्वग्द्वारा निर्मित क्वाथका उपयोग किया, पर परिणाम लाभ के विपक्ष में रहा I उष्णकटिबन्धीयोपधि परीक्षणालय (School of Tropical Medicine) में जलोदर वा तद्रहित हरौर्बल्य ( Failu re of cardiac compensation) पीड़ित बहुश: रोगियों में इसके त्वक् द्वारा निर्मित ऐलकोहलिक एक्सट्रैक्ट की भली भाँति परीक्षा की गई । किन्तु डिजिटलस वा कैफ़ीन समूह की औषधों के समान किसी रोगी पर इसका प्रगट प्रभाव न हुआ । रक्तभार एवं हृदय स्पन्दन की शक्ति पूर्ववत् ही रही। उक्क रोगियां के मूत्रोद्रेक पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं हुआ। जो प्रभाव इस औषध का बतलाया जाता है वह इसमें अधिक परिमाण में पाए जाने वाले खटिक यौगिकों का हो सकता है जिसका संकेत प्रथम किया जा चुका
है
1
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अजुन
केइयस ( Caius ), म्हेसकर ( Mhaskar ) तथा श्राइजक ( Isaac ) १६३० टर्मिनेलिया जाति के भारतीय भेदों के बहुशः • भिन्न भिन्न स्वरूपाकार के होने का उल्लेख किया हैं । इसके भिन्न भिन्न १५ भेद हैं । इस प्रकार के टर्मिनेलिया की छालों की रूपाकृति में परस्पर इतनी सादृश्यता है कि इनके भेद निर्णय करने में : भूल हो जाने की बहुत सम्भावना है। भारतवर्षीय औषध विक्रेता ( वणिक् ) क्रियात्मक रूप से इनमें कोई भेद नहीं करते और वे सदा अर्जुन की श्रभेद संज्ञा द्वारा इन सब का विक्रय करते हैं । उक्त विद्वानों ने इनकी शुष्क निर्मल छालों को उष्ण फांट, क्वाथ एवं ऐल्कोहालिक एक्सट्रैक्ट रूप में प्रयोग कर इनके प्रभावका पृथक् पृथक् अध्ययन किया और परिणाम निम्न रहा
टर्मिनिलिया ( हरीतकी) की सामान्य भारतीय जातियों की छालों को स्वास्थ्यावस्था में प्रयुक्त करने पर वे या तो ( १ ) मृदु मूत्रल, यथा अर्जुन ( Terminalia Arjuna ), विभीतकी ( 'T'. belerica ), ( T. palli(da ) वा (२) उत्तम सबल हृदोत्तेजक यथा टर्मिलिया बाइलेटा ( T. bialata ), टर्मिनेलिया कोरिएसिया ( 'I'. coriacea ), टर्मिनेलिया पाइरिफोलिया ( T. pyrifolia) वा (३) उभय मूत्रल तथा हृदयोत्तेजक होते हैं, यथा श्ररख्य वाताद ( T. catappa ), हरीतकी ( T. chebula ), हरीतकी भेद ( T. citrina ), टर्मिनेलिया मायरियो कार्पा ( 'T. myriocarpa ), ट० श्रलिवेराई ( 'T. oliveri ), किञ्जल दा किण्डल ( T. paniculata ) और श्रासन ( 'T'. tomentosa ).
( School of Tropical Medicine Calcutta ) द्वारा घोषित परिणामां से भिन्न हैं । परन्तु चूँकि अभीतक कोई प्रभावात्मक दृष्य पृथक नहीं किया गया और केइस ( Cains ) तथा उनके सहकारियों ने क्रियात्मक रूप से विभिन्न प्रकार की छालों की - रासायनिक - संगठन में कोई परिवर्तन न पाया |
For Private and Personal Use Only