________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अतिसार
२४
अतिसार
डायरिया Cholariform Diarrhoea, कॉलरिक डायरिया Choleric Diarrhoea, थर्मिक डायरिया Thermic DiaTrhoea-ई। उध्या प्रधान देशों एवं ग्रीष्म ऋतु में आहार विहार श्रादि दोष के कारण प्रायः इस प्रकार के दस्त अाया करते हैं। इसमें पित्तातिसार एवं विचिका के बहुत से लक्षण मिलते जुलते हैं।
(१०) प्रातिनिधिक अतिसारइस्हाल बज़ो-अ० । विकेरियस डायरिया Vicarious Diarrhoea-इं० ।
वर्षा ऋतु में शीतल वायु के कारण स्वेदावरोध हो जाने से अथवा किसी प्रवृत्त हुए रतूबत के बन्द हो जाने से इस प्रकार के प्रातिनिधिक दस्त श्राने लगते हैं।
(११) पित्तातोसारपित्त के दस्त । इसहाल सतरावी-अ० । बिलियरी या बिलियस डायरिया Biliary or Bilious Diarrhoea-इं।
उष्ण प्रधान देश तथा ग्रीष्म ऋतु में श्राहार श्रादिदोष के कारण प्रायः इस प्रकार के दस्त पाया करते हैं। ऐसे दस्तों की प्रादि में पित्त के वमन भी आते हैं।
(१२) गिर्यातिसार - पर्वती अतीसार | हिल डायरिया Hill Diarrhoe1-इं०
अतिसार का वह भेद जिसमें दस्त बिलकुल सफेद खड़िया मिट्टी और जल के मिश्रण जैसा पतला होता है।
(१३) चिरकारी व परातन अतिसार
पुराने दस्त । इसहाल मुमिन-अ० । जानिक डायरिया-Chronic Diarrhoea | -ई०।
नोट-प्रसंगवश यहाँ डॉक्टरी मत से सामान्य परिचययुक अतिसार के कतिपय भेदों का उल्लेख कर अब आयुर्वेदीय मत से इसके अलग अलग भेदों श्रादि का पूर्णतया वर्णन होगा। अन्त में इसकी सामान्य चिकित्सा व पथ्य प्रादि । देकर इस वर्णन को समाप्त किया जाएगा।
इसके पृथक पृथक भेदों की चिकित्सा क्रम में उन उन नामों के सामने दी जाएगी। यूनानी वर्णन एवं भेद के लिए देखिए-इस्हाल ।
अतिसार के पूर्वरूप जिस मनुप्य को अतिसार होने वाला होता है, उसके हृदय,गुदा और कोष्ठ में सुई चुभाने की सी पीड़ा होती है। शरीर शिथिल पड़ जाता है, मल का विवंध अर्थात् मलावरोध, प्राध्मान, और अन्न का अपरिपाक होता है। वा. नि० अ० ।
माधव निदान में नाभि तथा कुक्षि (कोख) में सुई छिदने की सी पीड़ा और अधेविायु का रुक जाना, इतना अधिक लिखा है ।
अतिसार के लक्षण (१) वातातीसार-इसमें जलवत् थोड़ा थोड़ा शब्द (गुड़गुड़ाहट) और शूल से युक बँधा हुअा झागदार पतला, छोटे छोटे गांठों से युक्र, बराबर जले हुए गुड़ के समान, पिच्छिल, (चिकना), कतरने की सी पीड़ा से संयुक्र मल निकलता है । इसमें रोगी का मुख सूख जाता है । गुदा विदीर्ण हो जाती ( गुदभ्रंश ) और रोमांच होता है। रोगी कुपितसा मालूम होता है। वा०नि० अ०- माधव निदान में ललाई लिए हए रूखा मल उतरना. कटि. जाँघ और पिंडलियों का जकड़ना ये लक्षण अधिक लिखे हैं।
(२) पित्तातिसार -- इसमें दस्त पीले व लाल रंग के होते है, गुदा में जलन तथा पाक हो जाता और रोगी प्यास और मूर्छा से पीड़ित होता है । मा०नि० । वाग्भट्ट महोदय ने काला हरा, हरी दृषके समान, रुधिरयुक्र, अत्यन्त दुर्गन्धि युक्र दस्त होना, दस्तों से रोगी की गुदा में दर्द होना, शरीर में दाह और स्वेद होना ये लक्षण अधिक लिखे हैं।
(३) कफातिसार-इसमें मल सफेद, गादा, चिकना, कफ मिति, श्रामगन्धियुक्त प्राता तथा रोमहर्ष होता है। मा०नि० | कफातिसार में गाढ़ा, पिच्छिल तन्तुओं से युक्र, सफेद स्निग्ध, मांस और कफ युक्र, बारबार भारी
For Private and Personal Use Only