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प्रतीस
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प्रतीस
राजनिघण्टकार के मत से अतीस (अतिविषा) तीन प्रकार का है। जैसे, "त्रिविधातिविषा शेया शुञ्जकृष्णारुणातथा ।" अर्थात् अतीस शुक्र, कृष्ण तथा अरुण भेद से तीन प्रकार का होता है। तीनों रस, वीर्य और विपाकमें समान होते हैं। परन्तु इनमें श्वेत जाति का उत्तम होता है। मदनपाल के मत से यह चार प्रकार का है । जैसे, "श्यामकंदाचातिविषा सा विशेया चतुर्विधा । रका श्वेता भशंकृष्णा पीतवर्णा तथैव । च ॥” अर्थात् रक, श्वेत, अत्यन्त कृष्ण और | पीतवर्ण भेद से यह चार प्रकार का है। इनमें यथापूर्व अर्थात क्रमशः पीत से कृष्ण और कृष्ण से श्वेत श्रादि गुणमें उत्तम और श्रेष्ठ होता है ।
मख्जनुल अवियह में इसके तीन भेदों का वर्णन है अर्थात् अतीस, प्रतिभिका और और श्यामकंद । मुहीताज़म में केवल इसके दो ही भेद माने हैं । यथा-श्याम और श्वेत ।
रासायनिक संगठन-तीसीन (Atis. ine ) नामक रवारहित एक अत्यन्त तित क्षारीय सत्व ( यह निर्विषैल है), वत्सनाभाम्ल (Aconitic acid ), कपायीन या कषायिनाम्ल( Tannic acid), पेक्टस सब्सस ( Pectous substance ), बहुसंख्यक श्वेतसार, वसा तथा अॉलीइक,पामिटिक, स्टियरिक, ग्लिसराइड्स, वानस्पतिक लुभाब, इक्षु शर्करा और (भस्मके मिश्रण २ प्रतिशत तक होते हैं।
मेटीरिया मेडिका प्रॉफ़ इण्डिया-पार० एन० । खोरी भाग २, पृष्ट ३)। प्रयोगांश-कन्द ।
औषध-निर्माण-(१) चूर्ण; मात्रा-५ रत्ती से ३॥ मा० तक।
ज्वर प्रतिषेधक रूप से-१ से २ ड्राम (२॥ डाम पर्यन्त यह निरापद होना है)।
वल्य रूप से-१० से ३० ग्रेन (५ से १५ रत्ती) इस मात्रा में इसका ज्वरघ्न प्रभाव अत्यन्त निर्बल होता है !
ज्वरनरूप से-४० ग्रेन से १॥ डाम तक ।
कृमिघ्न रूप से(२) टिंक्चर-(= में १ भाग); मात्रा-१० से ३० बुद। (३) द का क्वाथ।
वे शुरूपीय औषध जिनका यह प्रतिनिधि हो सकता है। ज्वर प्रतिषेषक रूपसे-सिंकोना के क्षारीय सत्व (क्षारोद) यथा क्वीनीन प्रभति ।
ज्वग्न रूप से-पल्विस जेकोबाइ वेरा, पल्विस एण्टिमोनियम् ( अंजन चूर्ण), लाइकर एमोनियाई एसोटास । वल्य रूप से-जेंशन और कैलंबा । इतिहास--अतिविषा नाम से प्रतीस का ज्ञान प्राज का नहीं, प्रत्युत अति प्राचीन है। अतः अायुर्वेद के प्राचीन से प्राचीन ग्रंथ यथा चरक, सुश्रुत तथा वाग्भट्टादि में इसका पर्याप्त वर्णन पाया है। यही नहीं बल्कि विभिन्न रोगों पर इसके लाभदायक उपयोग की उन्होंने भूरि भूरि प्रशंसा की है जैसा कि धागे के वणनों से विदित होगा।
फिर डिमक महोदय तथा उनके पादानुसरणशील एवं आयुर्वेद शास्त्र से सम्यक् अपरिचित चोपरा महोदय के ये वचन "I'he earliest notices of Ativisha are to be found in Hindu works on • Materia Medica, Sarangad.
hara, and Chakradatta." जिसका यह अर्थ होता है कि शाङ्गधर तथा चक्रदत्त से पूर्व के अायुर्वेदिक ग्रन्थों में अतिविषा का उल्लेख नहीं है; कहाँ तक सत्य है, इसका पाटक स्वयं निर्णय कर सकते हैं।
आयुर्वेद के अति प्राचीनतम ग्रन्थों में तो इसका उल्लेख है ही जिसके लिए हमें किसी प्रकार के प्रमाण की अावश्यकता नहीं; यह तो सूर्य प्रकाशवत् देदीप्यमान एवं स्वयं सिद्ध है। हाँ ! अरबी तथा फारसी ग्रन्थों में इसका बहुत संक्षिप्त वर्णन पाया है और यह स्पष्ट रूप से
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