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श्रीस
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प्रतीस
ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके वणन में अायुर्वेद कर्ताओं का ही अनुकरण किया है।
इन सबके पश्चात् पाश्चात्य लेखकों ने अपने ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया ।
प्रभाव तथा उपयोग
आयुर्वेदीय मतानुसार अतीस, दीपन, पाचन, संग्राहक और सर्वदोष नाशक है । च० स० २५ ०।
प्रतीस कट, उष्ण, तिक तथा कफ, पित्त श्रीर ज्वर नाशक, प्रामातिसार, कास, विप, एवं छर्दिनाशक है । रा०नि० २०६ । वा० स० ३५ श्र. वच दि० धन्वं०नि०।
श्रीस, सर्व दापना शक, शोथन (लेपात् ), श्लैष्मिक रोगनाशक (२० प्रकार के श्लेष्म रोग का नाशक) और रसायन है। मद०व०१। __ अतीस गरम, कटु, तिक, पाचन और दीपन कर्ता है । जीर्णज्वर, अतिसार, आमवात, विष, खाँसी वमन और कृमि रोग को दूर करता है। भा० ।
अतीस, पाचन, तिक, ग्राही और दोषनाशक है। राजवल्लभः ।
अतिविषा तथा कटुकी प्रभृति को उष्ण गोमय । जल द्वारा शुद्धि होती है । सा० को० ।
शिशु के कास, ज्वर तथा वमन प्रतीकारार्थ उपयुक्र मात्रा में अतीस का चूर्ण मधु के साथ सेवन कराना चाहिए। वंग० जी० सं०१६
कुदयामय-अंकोट की जड़ की छाल ३ भाग और अतीस १ भाग इसको तंडुलोदक (चावल के धोवन) में पीस कर पान करें। इससे ग्रहणी रोग शमन होता है।
. बंग० जीः सं० १२१ पृष्ठः । (३) “नागराति विषाभयाः" ।
च० द० ज्वर० चि० पिप्पल्याद्यघृत । वक्तव्य-चरक चिकित्सास्थान २५ अ० एवं सुश्रुत कल्पस्थान २य अध्याय में स्थावर विष का वर्णन पाया है। चरकोक्त मूल विष एवम् सुश्रुत के मूल विष वा कन्द विष को नामावली में अतिविषा (अतीस ) का उल्लेख दीख नहीं पड़ता । उपविष के मध्य इसका पाठ नहीं। सुत और चरक में जहाँ सम्पूर्ण विषों का उल्लेख पाया है वहाँ वे इसके गुणों से सम्पूर्ण अपरिचित हैं । सुत के प्राचीन टीकाकार डल्लण मिश्र लिखते हैं"मूलादि विषानां यत्नपरैरपि ज्ञातुमशक्य त्वात् । तत्र तानि हिमवत् प्रदेशे किरात शवरादिभ्यो झेयानि।"
क. स्था० २ य० अ० टी० । मदनपाल वर्ण भेद से इसका गुणांतर स्वीकार करते हैं । परन्तु, राजनिघंटुकार ऐसा नहीं करते।
सुश्रुत अतिसार निकित्सा में और चक्रदत्त अतिसार, ज्वररातिसार, और ग्रहणी चिकित्सा में भिन्न भिन्न औषध के साथ अतीस का पुनः पुनः प्रयोग दिखाई पड़ता है। चरक और सुश्रुत के केवल जीर्णज्वर की चिकित्सा में अतीस का प्रयोग नही पाया है । चरक के "कालिंगक त्वामलकी सारिवातिविषा स्थिरा।" (चि. ३ अ.) पाठ में तथा सुश्रुतोक "पिप्पल्यतिविषा द्राक्षा।” ( उ० २६ अ०) पाठांतर्गत विषम ज्वरहर धृत में अन्यान्य बहुशः वस्तुओं के साथ अतीस व्यवहृत हुआ है । सुश्रत एवं वाग्भट्ट में केवल ग्रहणी तथा कास चिकित्सा वा रसायनाधिकार में अतीस का व्यवहार नहीं दिखाई देता। .
वैद्यकीय व्यवहार (१) प्रामातोसार
"दद्यात् सातिविषां पेयां सामे साम्लां सनागराम् (च. सू० २१.)।"
अतीस १ तोला, सोंठ १ तो०, इनको ७२ जल में सिद्ध करें । जब 51 जल शेष रहे तब इसे लवण से छौंक कर इसमें अभीष्ट वस्तु की पेया प्रस्तुत करें। इसमें किञ्चित् खट्टे अनार का. रस योजित कर प्रामातीसारी को ज्वयहार कराएँ
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