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अश्वत्थ
नील मेहीको श्रश्वत्थ की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ पान कराएँ । यथा --
"नील मेहिनमश्वत्थ कषायं वा पाययेत्" ( चि०११ ० ) (२) बाजीकरणार्थं अश्वत्थ फलादि -- अश्वत्थ फल, मूल स्वक् एवं शुंग ( पत्रमुकुल ) इनका का प्रस्तुत कर मधु एवं शर्करा का प्रक्षेप देकर पिलाने से चकवत् मैथुन शक्ति की वृद्धि होती है। यथा
"अश्वत्थ फल मूलत्वक् च्छुङ्गासिद्ध पयोनरः । पीत्वा स शर्करा क्षौद्र कुलिङ्गइव हृष्यति ॥ (नि० २६ श्र० )
"
चक्रदत्त - (१) वमनमें अश्वत्थ त्वक्- अश्वत्थ वृत्त की सुखी हुई छाल को जलाकर उक्त अंगार को जल में डाल रखें। इस जल के पीने से वमन की निवृत्ति होती है । यथा - "अश्वत्थ वल्कलं शुष्कं दग्ध्वा floaपितं जले । तत्तोयपानमात्रेण छर्दिञ्जयति दुस्तराम् ।” (छर्दि चि०)
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( २ ) अग्निदग्धरण में श्रश्वस्थ वल्कल - अश्वत्थ वृक्ष की सुखी छाल के बारीक चूर्ण के अग्नि से जल जाने के कारण उत्पन्न हुए व्रण पर छिड़कने से क्षत अच्छा हो जाता है । यथा“प्रश्वत्थस्य विशुष्कवस्कल कृतं चूर्ण तथा गुण्डनात् ।” ( ब्रण शांथ - चि० )
(३) कर्णशूल में प्रश्वत्थपत्र- अश्वत्थपत्र द्वारा प्रस्तुत चोंगाको तैलाकर उसे न श्रंगारोंसे पूर्ण कर कर्ण के ऊपर ( कुछ दूरी पर ) रक्खें । अंगारों द्वारा होकर जो तैल चांगे से चुए, उससे कर्णपूरण करने से तत्काल कर्ण शूल की शांति होती है । यथा
"अश्वत्थ पत्र खल्लस्वा विधाय बहुपत्रकम् । तैलाकमंगार पूर्ण विदध्याच्छ वणोपरि । यत्तैलं च्यवते तस्मात् खल्लादंगारत. पितात् । तत्प्राप्तं श्रवणस्रोतः सद्यो गृह्णाति वेदनाम् । ( कर्ण रांग - त्रि. )
( ४ ) शिशु के मुख पाक में अश्वत्थ त्वक् एवं पत्र बालक के मुख पकने पर ग्रश्वस्थ की
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छाल तथा पत्र को मधु के साथ भली प्रकार पीस कर उस पर प्रलेप करें। यथा
"अश्वत्थत्वग्दल चौद्रैर्मुखपा के ( बालरोग - चि०)
अश्वत्थ
प्रलेपनम् ।”
वक्तव्य
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अश्वत्थ त्वक् "पञ्चवल्कल " के अवयवों में से एकहै । योनि रोग में पञ्चवल्कल का क्वाथएवं विसर्प में उसके प्रलेप का बहुशः प्रयोग करने से ये लाभप्रद सिद्ध हुए । चरक में अश्वत्थ को "मूत्रसंग्रहण वर्ग" में पाठ आया है । इसके अतिरिक्त श्रश्वत्थ त्वक् का सोम रोग में प्रयोग किया जा सकता है । सपिातज्वर में अश्वस्थपत्र - स्त्ररस को विशेष औषधों के अनुपान रूप से व्यवहार किया जाता। सुश्रुत के न्यग्रोधादिगण में अश्वत्थ का पाठ छाया है (सू० ३८ श्र० ) । चरक सिद्धिस्थान में अतिसार में प्रयुक्त यवागू पाकार्थ द्रव्यान्तर के साथ अश्वत्थ शुरंग व्यवहृत हुआ है - "मसूराश्वत्थशुगैश्व यवागूः स्याज्जले शृता ।" अविकसित पत्रमुकुल को शुग कहते हैं (“शुंग इत्यविकसित पत्र मुकुलम् ' -- चक्रसंग्रह टीकायां शिवदासः ) |
यूनानी मतानुसार - प्रकृति - पत्र तथा स्व २ कक्षा में शीतल व रूक्ष किसी किसी के मत से उष्ण हैं ।
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श्रान्त्र को ।
हानिकर्त्ता - श्रामाशय तथा दर्पन -- लवण तथा घी | प्रतिनिधि - विलायक रूप से वट पत्र | मात्रा -- छाल, १ मिस्काल तक ( ४ ॥ मा० ) । प्रधान-कर्म-- वृण एवं शोथ लयकर्त्ता । गुण, कर्म, प्रयोग -- देखो -- पञ्चाङ्गवर्णनांतर्गत ।
अश्वत्थपत्र तथा पत्र-मुकुल पीपल के पत्र और कोंपल विरेचन रूप से प्रयोग हैं (एन्सली व बाइट) । स्वयोगों में भी इनका उपयोग होता है ( ई० मे० मे० ) ।
पीपल के कोमल पल्लव को दुग्ध में क्वथित