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प्रस्तावना (महामहोपाध्याय कविराज श्रीगणनाथ सेन शर्मा, सरस्वती, विद्यासागर, एम० ए० एल० एम० एस० लिखित)
सार परिवर्तनशील है । आज इसका रूप कुछ है, पहिले कुछ था, कल कुछ हो जायगा, इतिहास ऐसा बतलाता है। कल जो शासक था अाज वही शासनाधीन है, जो पद दलित था वह सिर पर उन्नत है । पूज्य आज हेय समझा जाता है और तिरस्कृत अाज अाहत हो रहा है। वही सुजला-सुफला-शस्य-श्यामला पुण्यमयी भारतभूमि है, वही भेषज-पीयूप-वर्षिणी वन्यस्थली है,वही अष्टवर्ग-सोमलतादि-प्रसविनी-हिमाद्रिमाला है, किन्तु अाज हमारे भाग्य दोष से उसीको लोग नीरसा कहते हैं। प्राचीन इतिहास की ओर जब दृष्टि उठाते हैं तो पता चलता है कि मानव-जाति मात्र के कल्याणार्थ इस भारत ने सम्पूर्ण-जगत् को क्या क्या नहीं प्रदान
किया है।
अविद्य को विद्या, असंस्कृत को संस्कृति, प्रश्रुत को श्रुति, विस्मृत को स्मृति एवं मोहान्ध को दिव्यज्ञान दृष्टि इसने अपने उदार करों से निस्संकोच वितरण किया है। इतना ही नहीं वरन् इसने संसार का वह उपकार किया है कि जिसके प्रभाव होने पर उक्र समस्त साधन काल के गाल में विलीन हो गए होते । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, सभी का आधार जीवन है; जीवन का अवलम्बन शारीरिक एवं मानसिक स्थैर्य है। अतएवं समस्त इहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों के साधनभूत 'अायुर्वेद' का पुण्योपदेश कर इस भारतवाणी ने मनुष्य-जाति का जो कल्याण किया है वह वर्णनातीत है । हन्त ! वही भारत-विश्व-शिरोमणि-भारत-पाज परमुखापेती है; भास्कर का प्रखर-प्रकाश खोकर दीपकों की मलिन - ज्योति का अपेक्षित है।
परन्तु नहीं । दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होना अवश्यम्भावी है। कालचक्र का परिक्रमण करता हुआ, सहस्रों वर्ष पश्चात्, महानिशा के अङ्क से निकज कर, 'आयुर्वेद का सूर्य' पुनः प्राची में अपनी संजीवन-किरणे प्रक्षिप्त करते दृष्टिगोचर हो रहा है । उसके स्वागत के लिए कितनी मञ्जरियाँ कलित हो गईं, कितने ही कुसुम विकसित हो गए। इन्हीं में से एक नव-प्रसून "आयुर्वेदीय-कोष" रूप में प्राज मेरे हाथों में पाया है। इसके दलों की मनोहरता, इसके पराग के सौरभ का परिचय आप लोगों की सेवा में उपस्थित करने का भार मुझे सौंपा गया है।
___यद्यपि अायुर्वेदीय-कोष लिखने का यह प्रयत्न सर्वथा नवीन नहीं है, तथापि इसमें कुछ बिलक्षणता अवश्य है । इसके बहुत पूर्व, आयुर्वेद के द्रव्यगुणांश के अर्थ परिचायक कोष, 'राज-निघण्टु', 'मदनपालनिघण्टु' श्रादि प्राचीन एवं 'शालिग्राम-निघण्टु' आदि नवीन ग्रंथ उपस्थित थे, जिनसे आज दिन भी ग्र. समाज बहुत लाभ उठा रहा है, किन्तु इनका क्षेत्र एक प्रकार से परिमित है और इन्हें हम एक सव व्यापक प्राय दीय-कोष के रूप में व्यवहृत नहीं कर सकते । श्रायुर्वेद का कलेवर अाज कितना विशाल है एवं इसके प्रकाश में आज आना क्षेत्र कितना विस्तृत दिखलाई पड़ रहा है, यह वद्य-समाज के प्रत्या अतः हम कह सकते हैं कि हमारे सन्देह मात्र को दूर करने के लिए प्रभा पर्याप्त-सामग्री नहीं प्राप्त हुई है। हमें एक ऐसे आयुर्वेदीय-कोष की आवश्यकता है, जो सर्वथा हमारी शंकाओं का समाधान करने, हमारी जिज्ञासाओं का संतोषजनक उत्तर देने एवं सन्दिग्ध स्थलों पर पथ-प्रदर्शन करने में समर्थ हो । हमारी इसी मॉग की पूर्ति करने के लिए 'कविराज श्री उमेशचंद्र विद्यारत्न' महोदय ने सन् १८१४ ई० में, विशाल "वैद्यक-शब्द-सिंधु" को प्रकाशित किया था। इसमें संदेह नहीं कि वैद्य-समुदाय ने उससे बहुत लाभ उआया है, तथापि जैसा कि हम पहिले कह चुके हैं, हमारी वर्तमान आवश्यकताओं को सम्यक्तया पूरी करने की पूर्ण क्षमता उसमें भी नहीं है । इसी उद्देश्य को लक्ष्य करके आज एक और नवीन "पायर्वेदीय-कोष" हमारे सम्मुख उपस्थित हुआ है, हम हृदय से इसका स्वागत करते हैं।
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