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अपराजिता
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अपराजिता लेहः.,
मि० मोहीदीन शरीफ़ स्वानुभव के आधार ख न खोरह अर्थात् नरकहिया (Whitlow) पर इसकी जड़ की छाल के १-२ डाम को मात्रा फोड़े पर बाँधने और निरन्तर जल से तर रखने के शीत कषाय की वस्ति एवं मूत्रप्रणाली जन्य से बहुत शीघ्र लाभ होता है । परीक्षित । क्षोभों में स्निग्ध प्रभाव करने की बड़ी प्रशंसा
(२) पीत निगुण्डी । ( ६ ) जयन्ती वृक्ष । करते हैं। साथ ही इसका मूत्रजनक और किसी किसी में मदुरेचक प्रभाव होता है।
रा०नि० २० २३, ४। (४) शालपर्णी ।
भा० पू० २ भा०। (५) श्वेत सिंधुवार । इसके बीज रेचक हैं । फा० ई।
(६) ब्रह्मी : (७) एक प्रकार की शमी । इसके पत्र का शीत कपाय विस्फोटक (Eru
रा०नि०व.। (८) शेफालिका | रा० ptions ) में व्यवहृत होता है। वैदः।
नि० व०५।(१)शलिनी । (१०) एक इसके पत्ते के रस को श्रादक के साथ मिला
प्रकार का वपुषा । (११) एक प्रकारका हपुषा । कर तपेदिक (Hetic fever) में स्वेद पानेकी
रा०नि० व०४। हालत में व्यवहार करते हैं। टेलर ।
अपगजिता धपः aparijita-dhupah-सं० कर्णशूल में विशेषतया उस अवस्था में जब कि कान के पास पास की ग्रंथियाँ सूज
पु० बिनौला, मोरपंख, बड़ी कटेरी, शिवनि. गई हों, तब कान के चारों ओर अपराजिता के
मौल्य, तगर, तज, वंशलोचन, बिल्ली का विष्ठा, परो के रस में सेंधानमक मिलाकर गरमागरम
धान के तुष (भूसी), वच, मनुष्य के बाल, लेप करें। ए० सी० मुकर्मी ।
काले साँप की केचुली, हाथोदाँत, गौ का सींग,
हींग, मिर्च, इन्हें बराबर लेकर धूप बनाएँ। यह डॉ. नरकारिणो-अपराजिता के बीज को
धूप पसीना, उन्माद, पिशाच, राक्षस, देवता का भून कर चूर्ण प्रस्तुत करें। इसको जलोदर और
श्रावेश, ज्वर इन सबका नाश करता है। गृह में पीहा व यकृत विवृद्धि में २० से ६० ग्रेन
इनकी धूप (धूनी) दें तो सब बालग्रहों को (१५ से ३० रत्ती) की मात्रा में प्रयुक्त करें।
दूर करता है और पिश च तथा राक्षसों को साधारणतः इसको इस प्रक.र बर्तते हैं-२ भाग
निकालकर सब ज्वरों को नाश करता है । क्रीम ग्रॉफ़ टार्टार, १ भाग सों और १ भाग
यो० चिन्ता म०। अपराजिताके बीज, इनका चूर्ण बनाएँ । मात्रासे १ ड्राम।
अपराजिनायोगः aparājitāyogah-सं. प. __ उपयोग-इनको दृष्टिनैर्बल्य, कंऽक्षत, श्लेष्म
सफेद कोयल की जड़ को पीस प्रातः काल पीएँ तो विकार, अर्बुद, स्वग्दोष तथा शोथ आदि रोगों
गलगण्डरोग नष्ट होता है। इसके ऊपर से शुद्ध में बर्तते हैं।
गोघृत पीएँ और पथ्य से रहें। योग० त० गल. एक दो वा अधिक बीजों को भूनकर फिर
ग०चि०। मानुषी दुग्ध में पीसकर वा घीमें भूनकर बालकों अपराजितालेहः aparājitālehah-सं० पु. के उदरशूल तथा मलावरोध में देते हैं। जड़ का (१) काकड़ासिंगी, कचूर, पीपल, भारंगी, गुड़, एल्कोहलिक एक्सट्रैक्ट भी एक से दो ड्राम की नागरमोथा, जवासा, तैल इनका लेह (चटनी) मात्रा में उपयोगी है। ( इंडियन मेटिरिया बना चाटने से वात की खाँसी नष्ट होती है। मेडिका पृष्ठ २२१-२२२)। .
चक्र००। श्रार० एन० चोप्रा--अपराजिता की जड़ (२) मजीठ २ तो०, कुड़ा ८ तो०, भांगरा मलशोधक तथा मूत्रल है और सर्प के विष में की जड़ २ तो. इन्हें कूट कर ६४ तो० जस में प्रयुक्त होती है।
पकाएँ । जब चतुर्थांश शेष रहे तो छानकर रस (इं० २० इ० पृ० ४७६)।
निकालें और उसमें = तो० मिश्री, बकरी का अपराजिता की पत्ती का कल्क प्रस्तुत कर ना- दूध १६ तो०, बेल फल, अतीस इनका पूर्व
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