________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नवृद्धि
३१६
उतरने ही पाए और न उससे शारीरिक चेष्टा में | किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो और न उसके नितर उपयोगसे छिद्रका प्रसार ही हो। ठीक मापकी पेटी यदि किसी अन्य स्थान से मँगाना हो तो , वृद्धि भेद और यथार्थ माप लिखना चाहिए।
उन्वन्त्रवृद्धि में माप लेने का नियम यह हैपेड़ की अस्थि की ऊर्य धारा से लगभग १ इंच नीचे वृद्धि के छिद्र तक पेड़ की परिधि को नाप लें। इस नापके अनुसार पेटी मैंगवानी चाहिए। पेटी प्रत्येक पुरुष की मोटाई पर निर्भर है। पेटी से बद्धावस्था में स्थायी प्राराम नहीं होता जब तक ट्रस (पेटी) लगी रहे तब तक आँत का हिस्सा नहीं उतरता, जब वहाँ ये न लगाई जाएँ तो फिर आँत का हिस्सा उतर पाता है। परंतु यदि बाल्य एवं युवावस्था में प्रारम्भ से ही निरंतर १-२ वर्ष तक पेटी लगी रहे और उतने कालमें एक बार भी आँतका भाग न उतरा हो तो वह मार्ग सदैव के लिए बंद होजाता है एवं रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है। तो भी स्वस्थ होजाने के बाद भी रोगी को वर्ष दो वर्ष तक पेटी लगाते रहना चाहिए, जिसमें रोग के पुनराक्रमण की शंका न रहे।
पेटी लगाने से यद्यपि प्रारम्भमें किञ्चित् कष्ट अनुभव होता है। पर दो चार दिवस में ही वह दूर हो जाता है । रात्रि में सोते समय पेटी को उतार देना चाहिए शेष सभी काल में उसको लगाए रहना चाहिए । प्रातः काल शय्या से उठने से प्रथम उसे लगा लेना चाहिए जिसमें वृद्धि के बार बार बाहर आने से उसका छिद्र बड़ा न हो जाए । अन्यथा पेटी लगाने का लाभ नष्ट होता रहेगा। पेटी की गद्दी अर्थात् पिचु भाग को स्वच्छ एवं शुष्क रखना चाहिए । उस पर कभी कभी खड़िया मिट्टी वा जिंक आक्साइड (यशद भस्म) अवचूर्णित कर दिया करें जिसमें नश तथा भार से वहाँ की स्वचा निर्बल एवं इतयुक्र न हो जाए । टिप्पणी
| यह उपयुक उपाय विन्यस्त होने वाली अन्त्र-
मन्त्रवृद्धि वद्धि के लिए है। अस्तु, यह स्मरण रहे कि पेटी लगाने से पूर्व रोगी को उत्सान लिटाने और टाँग सिकोड़ने से प्राँत वा परिविस्तृत कला का अाया हुआ भाग स्वयमेव यथा स्थान चली जाता है। इस प्रकार उनको विन्यस्त करके फिर पेटी लगाएँ ।
यदि इस प्रकार वे यथा स्थान प्रविष्ट न हों तो वृद्धि को वाम हस्त की उँगलियों से पका कर दाहिने हाथ से उनको धीरे धीरे भीतर प्रविष्ट करें। किंतु यह स्मरण रखें कि जो भाग सबसे पीछे उतरा.हो वह सबसे पहिले भीतर जाए यदि इस प्रकार भी सफलता न हो तो मोरोफॉर्म सुंघाकर यह क्रिया करें।
इस भाँति पेशियों को शिथिल कर हर्निया भीतर प्रविष्ट की जा सकती है। ___ यदि वृद्धि विन्यस्त न होने योग्य (न दबने वाली अर्थात् यथास्थान न लौट जाने योग्य) हो तो पेटी का पिचुभाग वा गही ऐसी हो जो उसकी पूर्ण रक्षा कर सके और उस पर किसी प्रकार का भार न पड़े । इस प्रकार की वृद्धि में शोथ हो जाने पर रोगी को सुखपूर्वक लिटाए रखें, किसी प्रकार की गति न करने दें । . उसकी जानु के नीचे एक बड़ा सा तकिया रखें, जिसमें हनिया का छिद्र ढीला होकर वेदना कम हो जाए । वस्त्र वा रबड़ की थैली में बर्फ़ भरकर शोथ युक्र स्थान पर रखें और श्राध श्राध घंटा पश्चात् वृद्धि को धीरे धीरे नीचे और पीछे को दबाएँ । ऐसा करने से प्रायः हर्निया अपने स्थान पर चली जाती है और रोगी के प्राण बच जाते हैं । वेदना हरणार्थ मॉफीन (अहिफेनीन ) और ऐट्रोपीन ( धत्तूरीन ) का स्वस्थ अन्तःक्षेप करें, अथवा एक एक ग्रेन अहिफेन अाध प्राध घंटा के अन्तर से तीन चार बार दें। परन्तु, खाने को कुछ न दें और विरेचन किसी दशा में न दें। २४ घंटे हर्निया के फँसे रहने पर फिर उसमें शोथ होकर रोगी के प्राणांत हो जाने की आशंका होती है । अस्तु, यदि उसमें अवरोध प्रभृति हो तो तत्काल वस्तिक्रिया करनी चाहिए। तदनन्तर उस पर बर्फ लगाना चाहिए ।
For Private and Personal Use Only