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द्राग्निमन्थ का वृत्त चुद्रतर होता है । इसलिए इसे गुल्म कहते हैं। गणियारी के कांड तथा शाखाओं में वृहत् दृढ़ और तीक्ष्णाग्र शाखाएँ परस्पर एक दूसरे के विपरीत दिक् विस्तृत भाव सेस्थित होती हैं । वह (अरणी ) ऐसी नहीं होती । दोनों प्रकार के अग्निमन्थ में यही भेदक चिह्न है ।
रासायनिक संगठन - एक राल ( A resin ), एक तिल क्षारीय सत्व अर्थात् चारोद ( Alkaloid ) और कषायिन (Tannin).
प्रयोगांश-पत्र, मूल, कांढत्वक् ।
औषध निर्माण - काथ, मात्रा-२ से १० तो० | यह दशमूल की दश ओषधियों में से एक है अर्थात् इसकी जड़ दशमूल में पड़ती है ।
संज्ञा - निर्णय तथा इतिहास - मन्थन वा घर्षण द्वारा जिससे श्रग्नि उत्पन्न हो उसको " श्रग्निमन्थ " वा " वह्निमन्थ" कहते हैं। श्ररणि का अग्नि है और यहाँ इससे अभिप्राय श्रग्न्युस्पादक यंत्र है । चूँकि यज्ञ के लिए पवित्राग्नि प्राप्त करने के लिए इसका काष्ठ काम में श्राता था । इसलिए इसके वृक्ष को उक्त नामों से अभिहित किया गया । गैम्ब्ल ( Gamble ) के कथनानुसार सिक्किम की पहाड़ी जातियाँ श्रग्नि प्राप्ति हेतु स्वभावतः अब भी इसके काष्ठ का उपयोग करती हैं । इसके दो भाग होते हैं - ( १ ) निम्न भाग जिसका काष्ठ कोमल होता है उसे संस्कृत में अधरारणी और ( २ ) ऊर्ध्वं भाग को जिसका काष्ठ कठोर होता है और जिससे मन्थन क्रिया सम्पन्न होती है, प्रमन्थ कहते हैं। ये योनि और उपस्थ के संकेत माने जाते हैं ।
श्ररणी के गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मतानुसार - तर्कारी (गणिकारिका ) कटु, उष्ण, तिन तथा वातकफनाशक है और सूजन, श्लेष्मा, श्रग्निमांद्य, अर्श, मल के विवन्ध तथा आध्मान को हरण करने वाली दोनों भरनी वीर्य में और रसादि में तुल्य हैं । इसलिए जहाँ जैसा प्रयोग हो उसी के अनुसार इनका उपयोग करना चाहिए। यथा-"अग्निमन्थ द्वयचैव तुल्यं वीर्य रसादिषु । तत्प्रयोगा
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श्ररणी
नुसारेण योजयेत् स्वमनीषया ॥" ( रा० नि० )
तर्कारी कटुक ( चरपरी ), तिल तथा उष्ण है। और वात, पांडु, शोध, कफ, श्रग्निमांद्य, श्रम एवं विवन्ध ( मलरोध ) को नष्ट करने वाली है । ( धन्वन्तरीय निघण्टु )
गुण- श्रग्निमन्थ, उष्णवीर्य तथा कफ, वात को मष्ट करने वाला, कटुक ( चरपरा ), तिल, तुवर ( कषेला ), मधुर और श्रग्निवर्द्धक है । प्रयोगसूजन और पांडु रोग को दूर करता है । भी० पू० १ भा० गु० व० ।
गणिकारी शोथहर और वातरोगों के लिए हितकारी है। राज० ।
लघु श्रग्निमन्थ के गुण वृद्धाग्निमन्थ के समान हैं । यथा- "लध्वग्निमन्थस्य गुणाः प्रोक्ता वृद्धाग्निमन्थवत् । विशेषाल्लेपने चोपनाहे शोफे च पूजितः ||" परन्तु लेपन, उपनाह और सूजन में इसका विशेष उपयोग होता है । ( निघण्टुरत्नाकर ).
यह विष श्राम और मेद रोग नाशक है । अरणी के वैद्यकीय व्यवहार
चरक - श्रर्श में श्रग्निमन्थ - पत्र - अर्श जन्य वेदना से पीड़ित रोगीको तैलाभ्यंग कराके श्ररणी पत्र के कोष्ण क्वाथ से श्रवगाहन कराएँ । ( चि० ६ श्र० )
सुश्रुत - इक्षुमेह में गणिकारिका मूल वा काण्डत्व - ( १ ) इतुमेही को श्ररणी मूल वा कांडत्व द्वारा प्रस्तुत क्वाथ पान कराएँ । 'इत्तुमेहिनं वैजयन्तीकषायम् ।' (चि० ११ अ० )
(२) चक्षुः कामित्व में गणिकारिका मूलत्व — (देखो -- श्रसन ) |
हारीत - वातवरण में गणिकारिका मूल -- मातुलुंग और अग्निमन्थ मूल को काँजी में पीस कर वातव्रण पर प्रलेप करना हितकारक है । ( चि० ३५ श्र० )
चक्रदत्त - वसामेह में गणिकारिका मूलत्वक्( १ ) वसामेह में अग्निमन्थ की जड़ की छाल का क्वाथ प्रयोग में लाएँ । ( प्रमेह - चि० )
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