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अम्बर
५१.
अम्बर
रासायनिक संगठनइसमें अस्त्रीन ( ambiein ) ८५०/ प्रतिशत और किञ्चित् भस्म प्रभृति पदार्थ होते हैं।
औषध-निर्माण-अर्क अम्बर, अर्क गज़र, अर्क बहार, अर्क हराभरा, अर्क हाज़िम, खमी. रह गावजुबाँ अम्बरी (जवाहर वाला वा जदीद), जवारिश ज़रऊनी अम्बरी बनुसवा कला, जवाहर मुहरा अम्बरी, मअजून कला, म अजून नुक़रा, मअजून फलकसेर, मअजून हम्ल अम्बरी उल्वीखा, मुफ़रिह अम्बरी, रोशन अम्बर, हब्बे अम्बर, हब्वे कीमियाये इश्रत, हब्बे ताऊन अम्बरी । आयुर्वेदीय मत से अम्बर के गुणधर्म
तथा उपयोगअग्निजार त्रिदोषघ्न, धनुर्वातादि वातरांगनाशक और पारद का बल २ढाने वाला, दीपन एवं जारणकर्म कारक है। यथाअग्निजारस्त्रिदोषध्नो धनुर्वातादि वातनुत् । बर्धनी रसवीर्यस्य दीपनो जारणस्तथा ॥
(उ०र०स०३० ।) नोट शेष गुणधर्म के लिए देखो-अग्निजार।
यह पक्षाघात, कम्पवात श्रादि वातरोगनाशक, हृदय रोग, नपुन्सकता, फुप्फुस रोग, शिरोरोग, यकृतरोग, उदररोग, प्लीहरोग, वृक्कीय श्रादि अनेक रोगनाशक माना ग । है। कामाग्निवद्धक जितना इसे बताया गया है उतना अन्य किसी औषध को नहीं । प्रायः ऐसी कोई व्याधि नहीं, जिसके लिए श्रायुर्वेद शास्त्र में यह न कहा गया हो कि अम्बर से उत्तम अन्य औषध नहीं
धनिया, समग़ अरबी, तबाशीर और सूंघने में कपूर । कपूर अंबरकी तेजी को कम करता है। इसलिए उसे इसके साथ न रखना चाहिए।
प्रतिनिधि-कस्तूरी तथा केशर समभाग | मात्रा-२ रत्ती से ४ रत्ती तक (५ से १५ ग्रेन) इं० मे0 मे०।
श्रायुर्वेद में इसकी मात्रा १ रत्ती से ३ रत्ती तक बताई गई है।
नोट-याज कल के मनुष्यों की प्रकृति का विचार करते हुए उपयुक ये सभी मात्राएँ बहत अधिक प्रतीत होती हैं।
प्रधान गुरा-रूह शक्रि तथा वाह्य व अंत:करण को बलप्रदायक, उत्तेजक तथा याक्षेपहर है।
गुण, कर्म, प्रयोगयह हृदय को शनि प्रदान करता है तथा ज्ञानेन्द्रिय (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय) तथा पञ्चकर्मेन्द्रिय व मस्तिष्क को लाभ पहुँचाता है। क्योंकि इसमें हृद्य व हृदय को बल प्रदान करने का असीम गुण है। इस बात में तीनगन्ध इसकी सहायक होती है। इसके सिवा इसमें द्रवीकरण पिच्छिलता (ल्हेस) और मतानत पाई जाती है । अस्तु, अंबर अपने इन गुणों के समवाय के कारण सम्पूर्ण अर्वाह के जौहर को शनि देता और उनको बढ़ाता है । ( नफ़ो०)
अम्बर रूहों का रक्षक और हैवानी (प्राणि ), नफ़्सानी ( मानसिक ) और शारीरिक ( तब्ई.) तीनों शक्तियों को बल प्रदान करता है। चित्तको प्रसन्न करता, शीतल प्रकृतियों के लिए अत्यंत हृद्य और वास्तविक उष्मा तथा वाह्य व अन्तरेनियां को शनि देता है । वृद्ध पुरुष के लिए अत्युपयोगी, मास्तिष्क, हार्दिक और यकृत रोगों को अत्यन्त लाभदायक है। मूर्छा व वहा (महा मारी) को दूर करता है । रोधोद्घाटक और कोमोद्दीपक है। शिश्न पर इसका प्रलेप करने से कामोद्दीपन करता और अानन्द प्रदान करता
। यूनानी एवं नव्यमतानुसार
प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण व रूक्ष है। किसी किसी के मत से २ कक्षा में उष्ण व १कक्षा में रूक्ष अथवा १ कक्षा में उष्ण और | २कक्षा में रूक्ष है । स्वाद-किंचित् कटु । गंधअत्यंत सुगंधिमय । हानिकर्ता - आँतोंको और उदईजनक (पित्ती उछाल देता है)। दर्पन
__ प्रायः विषोंका अगद और शीत रोगोंको लाभदायक है। पक्षाघात, श्रद्धांगवात, कम्पवात, धनु
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