________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
श्रजरूतं
निकट शबानका रह की पहाड़ियों में पाया जाता हैं । उक्त निर्यास का अन्य नाम जवुदानह है। जब यह पहिले निकलता है तब श्वेत होता है, किन्तु वायु में खुले रहने पर लाल होजाता है ।
अर्वाचीन लेखकों में “मख़्ज़नुल् अद्वियह” के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन हमें बतलाते हैं कि इस्फ़हान में श्रञ्ज रूत को कुज्जुद और अगरधक कहते हैं (शेषके लिए देखो-पर्याय सूची ) । आप के कथनानुसार यह शाइकह नामक काँटेदार वृक्ष का गोंद है जो ६ फीट ऊँचा होता है श्रीर जिसके पत्र लोबान पत्र सदरा होते हैं । इसका मूल निवास स्थान फारस और तुर्किस्तान पुनः वे उन श्रौषध का ठीक विवरण देते हैं ।
आयुर्वेदीय ग्रन्थों में इसका कहीं भी जिकर नहीं पाया शाता ।
वानस्पतिक विवरण - साकोला के न्यूनाधिक सामूहिक एवं अत्यन्त विचूर्णित दाने होते हैं । यह अपारदर्शक अथवा अर्धस्वच्छ होता है और गम्भीर रक्त से पीताभायुक्त श्वेत अथवा धूसर वर्ण में रूपान्तरित होता रहता है । इसमें मुश्किल से कोई गन्ध पाई जाती है । इसका स्वाद अत्यन्त कडुश्रा और मधुर होता है । उत्तप्त करने पर यह फूलता है और जलते समय इसमें से जले हुए शर्करा की सी गन्ध आती है। सार्ककोला ( श्रञ्ज रूत ) निर्यास फ़ारसी बन्दरगाह
शायर से थैलों में बम्बई आता है । इसके अन्य भागों का विवरण निम्न प्रकार है-
.
फल – डंठल छोटा, पतला, पुष्प वाह्य-कोष अण्डाकार, घरट्याकार, भूसी संयुक्र, इच लम्बा, ५ तंग विभाग युक्र ( पञ्च सूक्ष्म खण्ड• युक्त ) और खुला हुआ होता है । इसके भीतर पुष्पदल ( Petals ) और एक अण्डाकार, सख़्त, तुण्डाकार, फली जो धान के इतनी बड़ी और जिसका वाह्य धरातल एक घने सुफेद वर्ण के रोवों से श्रावरित होता है । यद्यपि फली पक जाती है तो भी पंखड़ियाँ लगी रहती हैं । उनमें से सबसे ऊपर वाली फणाकार होती और फली
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अज़रू
के तुण्ड भाग को ढाके रहती है । फली द्विकपटीय होती है, उभारकी सीवनसे लगा हुआ एक थोर धूसरवर्ण का उड़द सदृश बीज होता है, जिसका व्यास इच होता और जो जल में भिगोने से फूलता और फट जाता है एवं अंजुरूत समूह में निकल पड़ता है । कुछ छीमियाँ पतनय तथा निर्यासपूर्ण होती हैं ।
प्रकाण्ड श्रर्थात् तना- काष्टीय, जिसमें असंख्य प्रकाश मय गट्ठे होते हैं, कण्टकमय; काँटे
से १ इंच लम्बे जो लघु शाखा सहित रोंगटों से आवरित होते हैं और जिन पर अज़रूत की पपड़ी जमी होती है 1
पत्र - कहते हैं कि इसके पत्र लोबान पत्र सहरा होते हैं । ( सर विलियम डाइमॉक ) प्रयोगांश-निर्यास |
रासायनिक संगठन - पाकोकोलीन ६५.३०, निर्यास ४.६०, सरेशी पदार्थ --- ३:३०, काष्ठीय द्रव्य प्रभृति २६८० | सार्केौकोलीन ४० भाग, शीतल जल तथा २५ भाग उबलते हुए जल में घुलनीय है । (गिर्ट )
मात्रा - २ | मा० से ४ ॥ मा० ( ४ रती से १ मा० ) | प्रकृति - दूसरी कक्षा के अन्त में उष्ण और उसी कक्षा के आरम्भ में रूक्ष । हानिकर्ता श्रांत्र को । ५ दिरम पिसा हुआ विशेषकर अभ्रक के साथ विप है । दर्पनाशक कतीरा, बबूल का गोंद और रोशन बादाम प्रभुति । प्रतिनिधि - इसके समभाग एलुश्रा और कुछ श्र धिक निशास्ता । मुख्य प्रभाव - व्रणववशोषक और नेत्ररोग को लाभ पहुँचाता है ।
गुण, कर्म, प्रयोग - यद्यपि इसमें एक प्रकार की रतूत भी होती है। जो इसकी खुश्की के साथ दृढ़ता पूर्वक मिली हुई हैं, किन्तु, तो भी खुश्की ग़ालिब रहती है । इसी कारण बिना कांतिकारी गुण एवं तीच्णता के यह आर्द्र · ताशोषक है और इससे यह व्रणो को पूरित करता है, क्योंकि यह उस राध और उन पीत द्रवों को जो व्रणों को भरने नहीं देते नष्ट कर देता है । अपने ल्हेश के कारण व्रणों के किनारों को जोड़ देता है ।
For Private and Personal Use Only