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प्रअनविधिः
অনাৰিা शुद्ध करने के लिए और दृष्टि को स्निग्ध करने थका हुअा, बहुत रोया हुत्रा, भयभीत, मद्यपान के लिए उपयोगी है। भा०प्र० ख०१। अंजन किया हुआ, नवीन ज्वर वाला, अजीर्ण रोगी और तीक्ष्ण (लेखन ) हो तो उसकी मटर (एक जिसके मल मूत्रादि के वेग का अवरोध हो गया अंडी के बीज की बराबर ) के समान गोली हो उनको प्रअन नहीं लगाना चाहिए। (भा० बनानी चाहिए और मध्यम ( दृष्टि का बल म.२)। जिनको अञ्जन आँजने का निषेध बढ़ाने के लिए ) अर्थात् तीक्ष्ण न हो, किया है। उनके अञ्जन प्रांजे तो नेत्रों में लाली
और कोमल भी न हो तो उसको १॥ (मटर के होती है, नेत्र सूजे से होते हैं, तिमिर, शूल, बराबर गोली बनानी चाहिए और कोमलं ( दृष्टि तथा दोषों का कोप होता है, और निद्रा का नाश को स्निग्ध करने वाला) हो तो उसकी २ मटर होता है। (भा० प्र० ख०१ श्लो०५८) के बराबर गोली बनानी चाहिए । आँख में यदि अन शलाका anjana-shalasa-सं० रसांजन अर्थात् रसरूप अंजन डालना हो तो ETO (A stick or pencil for the तीन वायविडंग के बराबर डालना उत्तम है application of collyrium । सलाई, (एक वायविडंग के बराबर-भा० प्र० ख०१), सुरमा लगाने की सलाई। दो वायविडंग के बराबर डालना मध्यम है और
अञ्जना anjana-सं० स्त्री० मादा हाथी, हथिनी। एक वायविडंग के बराबर डालना कनिष्ट है !
(A female-elephant) चूर्णरूप अंजन जो स्नेहन हो तो उसकी चार सलाई आँख में लगानी चाहिए, रोपण हो तो
अञ्जनादिः anjanādi-सं० स्त्रो० मैनशिल और उसकी तीन सलाई और जो लेखन हो तो उसकी
पारावत ( कबूतर ) की बीट का अञ्जन करें तो दो सलाई नेत्रों में लगानी चाहिए। आँजने की
अपस्मार विशेषकर उन्माद का नाश हो । सलाई दोनों ओरके मुखों से सकुची हुई, चिकनी,
मुलही, हींग, वच, तगर, सिरस बीज, कूट, पाठ अंगुल लम्बी और उनके दोनों मुख मटर
लहसुन, इन्हें बकरों के मूत्र में पीस नेत्रानन के समान गोल और वह पत्थर अथवा धातु
करने से तथा नस्य देने से अपस्मार और उन्माद की होनी चाहिए । स्नेहनांजन आँजना हो तो
दूर होता है । पुष्य नक्षत्र में कुस' का पित्त लेकर सोने अथवा चाँदी की, लेखन अंजन ऑजना हो
अन्जन करें तो अपस्मार दूर हो या उसी पित्त तो ताँवे, लोहे, अथवा पत्थर की सलाई होनी
में घृत डालकर धूप दे तो अपस्मार ( मृगी) चाहिए और रोपण अंजन आँजना हो तो
दूर हो ! चक्र०६० अपस्मार-चि० । कोमल होने के कारण उसके आँजने के लिए
निर्मली, शंख, तेन्दू, रुपा, इन्हें स्त्री के दूध अंगुली हीदीक है।
में काँसे के पात्र में घिस अञ्जन करें तो व्रणसहित काले भाग के नीचे श्राख के कोये तक अञ्जन
नेत्र की फूली दूर हो । रत्न, शंख, दन्त ( हाथी आँजे । हेमन्त ऋतु में और शिशिर ऋतु में मध्याह्न
दाँत), धातु (रूपा), त्रिफला, छोटी इलायची, के समय अञ्जन आँजना चाहिए। ग्रीष्म और
करा के बीज, लहसुन, इनका अञ्जन फूली के शरद ऋतु में पूर्वाल के समय अथवा अपराल के
व्रण को दूर करता है तथा श्रवणशुक्र, गम्भीर समय अञ्जन आँजना चाहिए । वर्षा ऋतु
व्रण शुक्र, त्वग्गत शुक्र इन्हें भी दूर करता है। में बादलों के न होने पर तथा जब बहुत
(पं० से. नेत्र रो० चि०।) गरमी न हो उस समय अञ्जन आँजना अञ्जनादिगणः an janādi-ganah-सं० पु. चाहिए और वसन्त ऋतु में सदैव अंजन सौवीराजन, रसाञ्जन, नागकेशरपुष्प, प्रियंगु, करना चाहिए, अथवा प्रातः और सन्ध्या दोनों नीलोत्पल, उशीरतृण (खस), नलिन, मधुक समय अजन आँजना उचित है, किन्तु निरन्तर और पुमाग । सु० सू०३० अ०। स्रोताअन, न आँजे ।
सौवीराजन, प्रियंगु, जटामांसी, पद्म, उत्पल,
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