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प्रेमरीहरः
अश्मरीजन्य मूत्रकृच्छ एवं शर्करा के लक्षण प्रायः एक से होते हैं, यथा
लक्षण - जिस मनुष्य को शर्करारोग होता है उसके हृदय में पीड़ा, सालोंका थकना, कूखमें शूल और शोथ, तृषा और वायु का ऊर्द्ध गमन, कृष्ण ( कालापन ) और दुबलापन तथा देह का पीला पड़ना, अरुचि, भोजन ठीक नहीं पचना आदि खचण होते हैं । और जब यह मूत्र के मार्ग में प्रवृश होकर और वहीं स्थित हो जाती है (इसे मूत्राश्मरी कहते हैं ) तब ये उपद्रव होते हैं - दुबलापन, थकावट, कृशता, कोख में शूल, अरुचि, शरीर, नेत्रादि पीले पड़ना तथा उष्णवात, तृषा हृदय में पीड़ा और वमन ( या जी मिचलाना ) इत्यादि । सु० नि० ३ .० | देखो - शर्करा । अमरोहरः ashmari harah - सं० त्रि० अश्मरीहर ashmarihar-हिं०वि०
पथरीको नष्ट करने वाला । श्रश्मरीनाशक । श्रश्मरो । ( Lithontriptic )
सं० पु० ( १ ) अश्मरी नाशक योग विशेष । यथा - शिलाजीत, बच्छनाग, दाख, दन्ती, पाषाणभेद, हल्दी, हड़ प्रत्येक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनाएँ ।
હર્ષ 2
श्रघ मा० ।
मात्रा - १ मा० । बच्चों को अनुपान - तिलदार २ तो० एवं दूधके साथ खाने से पथरी नष्ट होती है ।
(२) देवधान्य । देधान - बं० । (३) वरुणवृत्त, बरना । वायवरणा मह० । ( Crataeva Religiosa) र० मा०
सं० ( हिं० संज्ञा ) पु ं० (४) पथरी को नष्ट करने वाली श्रीषध । प्रभाव भेद से यह तीन प्रकार की होती है, यथा---
( १ ) वह औषधे जो अश्मरी बनने को रोकती हैं अथवा मूत्रस्थ स्थूल भाग को मूत्रावयव में तलस्थायी होने से बाज़ रखती हैं और यदि कोई पथरी वा कंकड़ी बन गई हो तो उसको विलीन करती हैं ।
ऐरिटलिथिक्स ( Antilithics ) - इं० । मानित तकन्ने ह सात-० ।
( २ ) पथरी को तोड़ने वाली या उसको
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अश्मरीहरः
टुकड़े टुकड़े करने वाली श्रोषधे । वह श्रीपध जो अपने प्रभाव एवं सूक्ष्म गुण के कारण वस्ति तथा वृक्कस्थ अश्मरी को टुकड़े टुकड़े करके वा उसको विलीन वा द्रावित करके मूत्र के साथ उत्सर्जित करें। श्रश्मरी भेदक अश्मरी छेदक | लिथोट्रिप्टिक्स (Lithontriptics), लिथे। ट्रिप्टिक्स ( Lithotriptics ) - इं० । मुफ़त्तित्, मुफ़त्तितुल हुसात अ० ।
(३) वह औषध जो पथरी को विलीन करती हैं।
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अश्मरी द्वावक | अश्मरी विलायक | नोट - जब पेशाब अधिक अम्लतायुक्र होती है तब उसमें से युरिक एसिड या कैल्सियम् आक्सीलेट पृथक् होकर शर्करा के रूप में तलस्थाई हो जाते हैं जिससे पथरी वा कंकड़ी बन जाती है। ऐसी दशा में ऐलकेलीज़ (चारीय औषध) के देने से या पाइपरेज़ीन के देने से बहुत लाभ होता है; क्योंकि यूरिक एसिड का बनना बन्द हो जाता है, प्रभृति । किन्तु जब मूत्र डीकम्पोज़ श्रर्थात् वियोजित या विकृत हो जाता है तब उसमें से फॉस्फेट के रवे तलस्थाई होजाते हैं । ऐसी दशा में मूत्र को अम्ल किया जाता है और उसकी विकृति वा साँधको किया जाता दूर है । अस्तु, बेअोइक एसिड या बे ओएट्स के प्रयोग से बहुत लाभ होता है ।
( Gout) में पोटासियम् और लीथियम् के लवणों के उपयोग से यूरिक एसिड (जो व्याधि का कारण होता है ।) विलेय युरेट्स में अर्थात् पोटाशियम् युरेट और लीथियम् युरेट में परित हो जाता है एवं उनसे मूत्रस्थ अम्लता क्षारीय हो जाती है 1
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उपर्युक औषधों के सेवन काल में जल का अधिक उपयोग उनके प्रभाव का सहायक होता है । इसके उपयोग विषयक पूर्ण विवेचन के लिए विभिन्न श्रश्मरियों की चिकित्सा के अन्तर्गत देखें ।
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अश्मरीहर औषधे
श्रायुर्वेदीय - शिलाजीत, कुरण्टक ( कटसरैया) पलाश (चार ), आक, वरुण वृक्ष,