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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् अभ्रकम् ४५० अर्थ-पिनाक, ददुर, नाग और वज्र ये चार भेद काले अभ्रक के पंडितों ने कहा है। अब इनफे लक्षण का वर्णन किया जाता है। पिनाक के लक्षणमुचत्यग्नौ विनिक्षिप्त पिनाकं दलसंचयम् । अज्ञानाद्भक्षण तस्य महाकुष्ठप्रदायकम् ॥ अर्थ-पिनाक अभ्रक अग्नि में डालने से अर्थात् धमन करने से दलसंचय अर्थात् पत्रों को छोड़ता है। अज्ञानवरा खाने से यह महाकुष्ट करता है। द१र के लक्षणददुरत्वग्नि निक्षिप्त कुरुते ददुरध्वनिम् । गोलकान् वहुशःकृत्वातत्स्यान्मृत्युप्रदायकम् ॥ __ अर्थ - ददुर अभ्रक अग्नि में डालने से मण्डूक की तरह शब्द करता है और भक्षण करने से पेट में गोले का रोग प्रगट करता एवं मृत्युकारक होता है। नाग के लक्षणनागं तु नागवतन्ही फूत्कारं परिमुचति । तद्भक्षितमवश्यन्तु विदधाति भगंदरम् ॥ अर्थ-नाग अभ्रक अग्नि में डालने से साँप के समान फुफ्कार मारता है । इसके खाने से अवश्य भगंदर रोग होता है । वजाभ्रक के लक्षणवज्रं तु वज्रवत्तिष्टे न चाग्नौविकृति ब्रजेत् । सर्वाभ्रेषुवरं वज्रं व्याधिर्वार्धक्य मृत्युजित् ॥ अर्थ-वज्राभ्रक अग्नि में डालने से वज्र के समान जैसा का तैसा रह जाता है और विकार को नहीं प्राप्त होता। यह सब में *ष्ट है और व्याधि, बुढ़ापा एवं मृत्यु को दूर करता है। यद जननिर्भ क्षिप्तं न वडी विकृति ब्रजेत् । वज्र संज्ञंहितद् योज्यमभ्रं सर्वत्रनेतरत् ॥ श्रार्थ-जो अभ्रक काला होता है तथा अग्नि में तपाने से विकार को नहीं प्राप्त होता, वह वज्राभ्रक है। यह सर्वत्र हितकारक और योग्य है। इससे भिन्न अन्य प्रकार उत्तम नहीं । इस शास्त्रोक्त वर्णन के विपरीत अाज हमें पाँच प्रकार का अभ्रक प्राप्त होता है - श्वेत, अरुण, पीत, भूरा और काला । ये सब वर्ण के कारण ही भिन्न नहीं, प्रत्युत प्रकृति में इनकी रचना ही एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। अम्रक कोई मौलिक पदार्थ नहीं, प्रत्युत अनेक मौलिकों का एक यौगिक है। इसीलिए रसायन शास्त्रियों ने इस यौगिक से कोई और यौगिक बनाने का प्रयत्न नहीं किया, न डाक्टरों ने इसे रोगों में व्यवहार किया है। एलोपैथी में अभ्रक को किसी रूप में भी खाने में नहीं वर्ता जाता | हाँ इसके पत्रों का उपयोग अवश्य रसायन विज्ञानी यन्त्री में करते हैं। परन्तु आयुर्वेदज्ञों ने इसको खाने के लिए उपयोगी बताया और इन्हें। ने ही इसको अग्नि में डाल कर इसके उक्र यौगिक तोड़कर नए यौगिक ऐसे बनाए कि जिसे प्राणियों को रोग के समय में देने पर वह बड़े लाभदायक सिद्ध हुए, तब से इसका उपयोग चल पड़ा। (१) श्वेताम्रक-(Muscovitd.) यह पत्राकार चाँदीवत् शुभ्र वर्ण का होता है। सुहागे के साथ मिलाकर तीब्र अग्नि देने से इसका आधे के लगभग भाग शैलकेत (Sili. cate.) नाम का नया यौगिक बनता है। यह कांच सा होता है, इसको हमारे यहां अभ्रक सत्व कहते हैं। (२) अरुणाभ्रक या रक्ताम्रक ( Lepidolite.) यह अभ्रक श्वेत अभ्रक की अपेक्षा कम पत्राकार होता है । इसके छोटे छोटे पत्र होते हैं और इसके साथ और यौगिक के कण मिश्रित होते हैं। बहुश यह अभ्रक एक प्रकार की अरुण खड़िया मिट्टी के साथ मिला पाया जाता है । यह समग्र अभ्रकों से मूल्यवान होता है; क्योंकि इसमें रक्तरूपम् नामक धातुका संयोग हुआ होता है। इसका संकेत सूत्र- पां रक्क [स्क ( ऊ उ प्ल ) २ ] स्फ (शै ऊ, ३) ३ । (३) पीताम्रक-( Cookeite.) इस अभ्रक में पांशुजम धातु नहीं होती न तीसरा . स्फट शैलोमिद का यौगिक होता है, बल्कि इस के स्थान पर शैलोष्मित होता है। इसका संकेत For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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